फलक तक : कैसे चुना स्वर्णिमा ने अपना नया भविष्य -भाग 3

स्वर्णिमा ने नजरें उठा कर राघव के चेहरे  पर टिका दीं. कितना कुछ था उन निगाहों में पढ़ने के लिए, कितने भाव उतर आए थे. पर उन भावों को तब न पढ़ा, अब तो वह पढ़ना भी नहीं चाहती थी.

‘‘आती है राघव, क्यों नहीं आएगी भला, दोस्तों की याद. यादें तो इंसान की सब से बड़ी धरोहर होती हैं,’’ कह कर स्वर्णिमा उठ खड़ी हुई, ‘‘चलती हूं राघव, समय ने चाहा तो इसी तरह किसी पुस्तक मेले में फिर मुलाकात हो जाएगी.’’

‘‘स्वर्ण,’’ राघव भी उठ खड़ा हुआ, ‘‘कुछ कहना चाहता हूं तुम से,’’ उस के चेहरे पर निगाहें टिकाता हुआ वह बोला, ‘‘दोबारा ऐसी स्वर्ण से नहीं मिलना चाहता हूं मैं. कहां खो गई वह स्वर्णिमा जिस के होंठों से ही नहीं, चेहरे और आंखों के हावभावों से भी कविता बोलती थी. स्वर्ण, अगर पौधा गमले की सीमाएं तोड़ कर जड़ें जमीन की तरफ फैलाने की कोशिश नहीं करेगा, तो माली पौधे की बेचैनी कैसे समझेगा. परिंदा उड़ने के लिए पंख फैलाने की कोशिश नहीं करेगा, पंख नहीं फड़फड़ाएगा तो दूसरे तक उस की फड़फड़ाहट पहुंचेगी कैसे. कोशिश तो खुद ही करनी पड़ती है.

‘‘स्वर्ण, परिस्थितियों से हार मत मानो,’’ वह क्षणभर रुक कर फिर बोला, ‘‘मैं यह नहीं कहता कि जिंदगी को उलटपलट कर रख दो, अपनी गृहस्थी को आग लगा दो या अपने वैवाहिक जीवन को बरबाद कर दो पर अपने पंखों को विस्तार देने की कोशिश तो करो. कितनी बार रोक सकेगा कोई तुम को. अपनी जड़ों को फैलाने की कोशिश तो करो. बढ़ने दो टहनियों को, कितनी बार काटेगा माली. थक जाएगा वह भी. कोई साथ नहीं देता तो अकेले चलो स्वर्ण. तुम्हें चलते देख, साथ चलने वाला, साथ चलने लगेगा.’’

स्वर्णिमा एकटक राघव का चेहरा देख रही थी.

‘‘स्वर्ण, कवि सम्मेलनों में शिरकत करो, बाहर निकलो, अपनी कविताओं का संकलन छपवाने की दिशा में प्रयास करो. कवि सम्मेलनों में दूसरे कविकवयित्रियों से मिलनेजुलने से तुम्हारे लेखन को विस्तार मिलेगा, नया आयाम मिलेगा, तुम्हारा लेखन बढ़ेगा, विचार बढ़ेंगे, प्रेरणा मिलेगी और जानकारियां बढ़ेंगी तुम्हारी.

‘‘और मुझ से कोई मदद चाहिए तो निसंकोच कह सकती हो. मुझे बहुत खुशी होगी. मेरी किताबों के पीछे मेरा फोन नंबर व पता लिखा है, जब चाहे संपर्क कर सकती हो. मेरी बात याद रखना स्वर्ण, तुम्हारा शौक व जनून तुम्हें खुश व जिंदा रखता है, स्वस्थ रखता है…अभिनय, नृत्य, संगीत, गाना, लेखन ये सब विधाएं कला हैं, हुनर हैं, जो प्रकृतिदत्त हैं. ये हर किसी को नहीं मिलतीं. ये सब कलाएं नियमित अभ्यास से ही फलतीफूलती व निखरती हैं. यह नहीं कि जब कभी पात्र भर जाए, मन आंदोलित हो जाए तो थोड़ा सा छलक जाए. बस, उस के बाद चुप बैठ जाओ. किसी भी कला से लगातार जुड़े रहने से कला को विस्तार मिलता है, लिखते रहने से नए विचार मिलते हैं.

‘‘अपने शौक को मारना, मरने जैसा है. खुद को मत मारो स्वर्ण.’’

‘‘मैं तुम्हारी बात का ध्यान रखूंगी राघव,’’ स्वर्णिमा किसी तरह बोली. उस का कंठ अवरुद्ध हो गया था. उस ने किताबों का बैग उठाया और जाने के लिए पलट गई. थोड़ी दूर गई. राघव उसे जाते हुए देख रहा था. एकाएक कुछ सोच कर स्वर्णिमा पलट कर वापस राघव के पास आ गई.

‘‘मुझे माफ कर देना राघव. दरअसल, उम्र का वह वक्त ही ऐसा होता है जब हम अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र नहीं होते.’’

आंसू छलक आए राघव की आंखों में. स्वर्णिमा की हथेली अपने हाथों में ले कर थपक दी उस ने. ‘‘नहीं स्वर्ण, तुम माफी क्यों मांग रही हो. मैं भी तो कुछ नहीं बोल पाया था तब. बहुतों के साथ ऐसा हो जाता होगा जिन के दिल का एक कोना अनकहा, अव्यक्त और कुंआरा ही रह जाता है, सबकुछ बेमेल और गड्डमड्ड सा हो जाता है जीवन में.’’

दोनों ने एकदूसरे को एक बार भरीआंखों से निहारा. स्वर्णिमा पलटी और चली गई. राघव सजल, धुंधलाती निगाहों से उसे जाते देखता रहा. पता नहीं कहां किस मोड़ पर जिंदगी अनचाहा मोड़ ले लेती है. इंसान समझ नहीं पाता और पूरी जिंदगी उसी मोड़ पर चलते रहना पड़ता है. समान रुचि वाले 2 इंसान हमसफर क्यों नहीं बन पाते. उस ने लंबी सांस खींच कर अपनी उंगलियों से अपनी आंखों को जोर से दबा कर आंसू पोंछ डाले.

स्वर्णिमा घर पहुंची तो वीरेन औफिस से आ चुका था, ‘‘बहुत देर कर दी तुम ने, मैं ने फोन भी मिलाया था. पर तुम मोबाइल घर पर ही छोड़ गई थीं.’’

‘‘हां, भूल गई थी,’’ स्वर्णिमा व्यस्तभाव से बोली.

‘‘यह क्या उठा लाई हो?’’ उस के हाथों में बैग देख कर वीरेन बोले.

‘‘किताबें हैं, पुस्तक मेले से खरीदी हैं,’’ वह किताबें बाहर निकाल कर मेज पर रखती हुई बोली.

वीरेन ने एक उड़ती हुई नजर किताबों पर डाली. स्वर्णिमा जानती थी कि वीरेन की किताबों में कोई दिलचस्पी नहीं है. इसलिए उस की बेरुखी पर उसे कोई ताज्जुब नहीं हुआ. वह किचन में गई, 2 कप चाय बना कर ले आई और वीरेन के सामने बैठ गई.

‘‘वीरेन, मैं कल देहरादून जा रही हूं 2 दिनों के लिए.’’

‘‘देहरादून? क्या, क्यों, किसलिए, क्या मतलब, किस के साथ,’’ वीरेन उसे घूरने लगा.

‘‘इतने सारे क्या, क्यों किसलिए वीरेन,’’ वह मुसकराई, ठंडे स्वर में बोली, ‘‘वहां एक कवि सम्मेलन है, मुझे भी निमंत्रण आया है,’’ वह निमंत्रणपत्र उस के हाथ में पकड़ाते हुए बोली.

‘‘क्या जरूरत है वहां जाने की. कवि सम्मेलनों में ऐसा क्या हो जाता है?’’ वह तल्ख स्वर में बोला, ‘‘यहां भी कवि सम्मेलन होते रहते हैं, तब तो तुम नहीं गईं.’’

‘‘वही गलती हो गई वीरेन. पर कल मैं जा रही हूं. जहां तक साथ की जरूरत है, तो हमारी कुंआरी खूबसूरत जवान बेटी कानपुर से चंड़ीगढ़ अकेली आतीजाती है, तब तुम नहीं डरते. मेरे लिए इतना डरने की क्या जरूरत है. किसी एक दिन तो कोई काम पहली बार होता ही है, फिर आदत पड़ जाती है.’’

यह कह कर स्वर्णिमा उठ खड़ी हुई और कमरे में जा कर अपना बैग तैयार करने लगी. वीरेन चुप खड़ा स्वर्णिमा की कही बात को सोचता रह गया. इतनी मजबूती से स्वर्णिमा ने अपनी बात पहले कभी नहीं कही थी.

दूसरे दिन सुबह जल्दी उठ कर वीरेन के लिए सभी तैयारियां कर खुद भी तैयार हुई. अपना बैग ले कर बाहर आई तो लौबी में वीरेन खड़ा था.

‘‘तुम कहां जा रहे हो?’’ वह आश्चर्य से बोली.

‘‘तुम्हें बसस्टौप तक छोड़ देता हूं. कैसे जाओगी, पहले बताती तो मैं भी देहरादून चलता तुम्हारे साथ,’’ वीरेने की आवाज धीमी व पछतावे से भीगी हुई थी.

वीरेन की भीगी आवाज से उस का दिल भर आया. उस का हाथ सहलाते हुए बोली, ‘‘नहीं वीरेन, इस बार तो मैं अकेले ही जाऊंगी. अब तो इधरउधर आतीजाती रहूंगी. कितनी बार जाओगे तुम मेरे साथ. मैं ने आटो वाले को फोन कर दिया था, वह बाहर आ गया होगा गेट पर. मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी. मोबाइल पर बात करते रहेंगे.’’

और स्वर्णिमा निकल गई. बाहर लौन में देखा तो माली काम कर रहा था, ‘‘आज बहुत जल्दी आ गए माली, क्या कर रहे हो?’’

‘‘कुछ नहीं मेमसाहब, इस पौधे की जड़ों ने गमला तोड़ दिया है नीचे से. और जड़ें बाहर फैलने लगी हैं. अभी तक यह पौधा 4 गमले तोड़ चुका है, इसलिए मैं ने थकहार कर इसे जमीन पर लगा दिया है. लगता है, अब यह गमले में नहीं रुकेगा.’’

माली बड़बड़ा रहा था और वह खुशी से उस पौधे को देख रही थी जो जमीन पर लग कर लहरा व इठला रहा था. वह भी अपने अंदर एक नई स्वर्णिमा को जन्म लेते महसूस कर रही थी, जो अपनी जड़ों को मजबूती देगी और टहनियों को विस्तार देगी. यह सोच कर उस ने गेट खोला और एक नई उमंग व स्फूर्ति के साथ बाहर निकल गई.

मौन : जब दो जवां और अजनबी दिल मिले – भाग 2

गैस्टहाउस का वह कमरा खासा बड़ा था. डबलबैड लगा हुआ था. इसे मेरे संस्कार कह लो या अंदर का डर. मैं ने मनामी से कहा, ‘ऐसा करते हैं, बैड अलगअलग कर बीच में टेबल लगा लेते हैं.’

मनामी ने भी अपनी मौन सहमति दे दी.

हम दोनों अपनेअपने बैड पर बैठे थे. नींद न मेरी आंखों में थी न मनामी की. मनामी के अभी तक के साथ से मेरी उस से बात करने की हिम्मत बढ़ गई थी. अब रहा नहीं जा रहा था,  बोल पड़ा, ‘तुम यहां मसूरी क्या करने आई हो.’

मनामी भी शायद अब तक मुझ से सहज हो गई थी. बोली, ‘मैं दिल्ली में रहती हूं.’

‘अच्छा, दिल्ली में कहां?’

‘सरोजनी नगर.’

‘अरे, वाट ए कोइनस्टिडैंट. मैं आईएनए में रहता हूं.’

‘मैं ने हाल ही में पढ़ाई कंप्लीट की है. 2 और छोटी बहनें हैं. पापा रहे नहीं. मम्मी के कंधों पर ही हम बहनों का भार है. सोचती थी जैसे ही पढ़ाई पूरी हो जाएगी, मम्मी का भार कम करने की कोशिश करूंगी, लेकिन लगता है अभी वह वक्त नहीं आया.

‘दिल्ली में जौब के लिए इंटरव्यू दिया था. उन्होंने सैकंड इंटरव्यू के लिए मुझे मसूरी भेजा है. वैसे तो मेरा सिलैक्शन हो गया है, लेकिन कंपनी के टर्म्स ऐंड कंडीशंस मुझे ठीक नहीं लग रहीं. समझ नहीं आ रहा क्या करूं?’

‘इस में इतना घबराने या सोचने की क्या बात है. जौब पसंद नहीं आ रही तो मत करो. तुम्हारे अंदर काबिलीयत है तो जौब दूसरी जगह मिल ही जाएगी. वैसे, मेरी कंपनी में अभी न्यू वैकैंसी निकली हैं. तुम कहो तो तुम्हारे लिए कोशिश करूं.’

‘सच, मैं अपना सीवी तुम्हें मेल कर दूंगी.’

‘शायद, वक्त ने हमें मिलाया इसलिए हो कि मैं तुम्हारे काम आ सकूं,’ श्रीनिवास के मुंह से अचानक निकल गया. मनामी ने एक नजर श्रीकांत की तरफ फेरी, फिर मुसकरा कर निगाहें झुका लीं.

श्रीनिवास का मन हुआ कि ठंड से कंपकंपाते हुए मनामी के हाथों को अपने हाथों में ले ले लेकिन मनामी कुछ गलत न समझ ले, यह सोच रुक गया. फिर कुछ सोचता हुआ कमरे से बाहर चला गया.

सर्दभरी रात. बाहर गैस्टहाउस की छत पर गिरते बर्फ से टपकते पानी की आवाज अभी भी आ रही है. मनामी ठंड से सिहर रही थी कि तभी कौफी का मग बढ़ाते हुए श्रीनिवास ने कहा, ‘यह लीजिए, थोड़ी गरम व कड़क कौफी.’

तभी दोनों के हाथों का पहला हलका सा स्पर्श हुआ तो पूरा शरीर सिहर उठा. एक बार फिर दोनों की नजरें टकरा गईं. पूरे सफर के बाद अभी पहली बार पूरी तरह से मनामी की तरफ देखा तो देखता ही रह गया. कब मैं ने मनामी के होंठों पर चुंबन रख दिया, पता ही नहीं चला. फिर मौन स्वीकृति से थोड़ी देर में ही दोनों एकदूसरे की आगोश में समा गए.

सांसों की गरमाहट से बाहर की ठंड से राहत महसूस होने लगी. इस बीच मैं और मनामी एकदूसरे को पूरी तरह कब समर्पित हो गए, पता ही नहीं चला. शरीर की कंपकपाहट अब कम हो चुकी थी. दोनों के शरीर थक चुके थे पर गरमाहट बरकरार थी.

रात कब गुजर गई, पता ही नहीं चला. सुबहसुबह जब बाहर पेड़ों, पत्तों पर जमी बर्फ छनछन कर गिरने लगी तो ऐसा लगा मानो पूरे जंगल में किसी ने तराना छेड़ दिया हो. इसी तराने की हलकी आवाज से दोनों जागे तो मन में एक अतिरिक्त आनंद और शरीर में नई ऊर्जा आ चुकी थी. मन में न कोई अपराधबोध, न कुछ जानने की चाह. बस, एक मौन के साथ फिर मैं और मनामी साथसाथ चल दिए. सर्द मौसम था, हड्डियों को कंपकंपा देने वाली ठंड. शुक्र था औफिस का काम कल ही निबट गया था. दिल्ली से उस का मसूरी आना सार्थक हो गया था. बौस निश्चित ही उस से खुश हो जाएंगे.

श्रीनिवास खुद को काफी हलका महसूस कर रहा था. मातापिता की वह इकलौती संतान थी. उस के अलावा 2 छोटी बहनें थीं. पिता नौकरी से रिटायर्ड थे. बेटा होने के नाते घर की जिम्मेदारी उसे ही निभानी थी. वह बचपन से ही महत्त्वाकांक्षी रहा है. मल्टीनैशनल कंपनी में उसे जौब पढ़ाई खत्म करते ही मिल गई थी. आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक तो वह था ही, बोलने में भी उस का जवाब नहीं था. लोग जल्दी ही उस से प्रभावित हो जाते थे. कई लड़कियों ने उस से दोस्ती करने की कोशिश की लेकिन अभी वह इन सब पचड़ों में नहीं पड़ना चाहता था.

श्रीनिवास ने सोचा था मसूरी में उसे 2 दिन लग जाएंगे, लेकिन यहां तो एक दिन में ही काम निबट गया. क्यों न कल मसूरी घूमा जाए. श्रीनिवास मजे से गरम कंबल में सो गया.

अगले दिन वह मसूरी के माल रोड पर खड़ा था. लेकिन पता चला आज वहां टैक्सी व बसों की हड़ताल है.

‘ओफ, इस हड़ताल को भी आज ही होना था,’ श्रीनिवास अभी सोच में पड़ा ही था कि एक टैक्सी वाला उस के पास आ कानों में फुसफुसाया, ‘साहब, कहां जाना है.’

‘अरे भाई, मसूरी घूमना था लेकिन इस हड़ताल को भी आज होना था.’

‘कोई दिक्कत नहीं साहब, अपनी टैक्सी है न. इस हड़ताल के चक्कर में अपनी वाट लग जाती है. सरजी, हम आप को घुमाने ले चलते हैं लेकिन आप को एक मैडम के साथ टैक्सी शेयर करनी होगी. वे भी मसूरी घूमना चाहती हैं. आप को कोई दिक्कत तो नहीं,’ ड्राइवर बोला.

‘कोई चारा भी तो नहीं. चलो, कहां है टैक्सी.’

ड्राइवर ने दूर खड़ी टैक्सी के पास खड़ी लड़की की ओर इशारा किया.

श्रीनिवास ड्राइवर के साथ चल पड़ा.

‘हैलो, मैं श्रीनिवास, दिल्ली से.’

‘हैलो, मैं मनामी, लखनऊ से.’

‘मैडम, आज मसूरी में हम 2 अनजानों को टैक्सी शेयर करना है. आप कंफर्टेबल तो रहेंगी न.’

‘अ…ह थोड़ा अनकंफर्टेबल लग तो रहा है पर इट्स ओके.’

इतने छोटे से परिचय के साथ गाड़ी में बैठते ही ड्राइवर ने बताया, ‘सर, मसूरी से लगभग 30 किलोमीटर दूर टिहरी जाने वाली रोड पर शांत और खूबसूरत जगह धनौल्टी है. आज सुबह से ही वहां बर्फबारी हो रही है. क्या आप लोग वहां जा कर बर्फ का मजा लेना चाहेंगे?’

मैं ने एक प्रश्नवाचक निगाह मनामी पर डाली तो उस की भी निगाह मेरी तरफ ही थी. दोनों की मौन स्वीकृति से ही मैं ने ड्राइवर को धनौल्टी चलने को हां कह दिया.

गूगल से ही थोड़ाबहुत मसूरी और धनौल्टी के बारे में जाना था. आज प्रत्यक्षरूप से देखने का पहली बार मौका मिला है. मन बहुत ही कुतूहल से भरा था. खूबसूरत कटावदार पहाड़ी रास्ते पर हमारी टैक्सी दौड़ रही थी. एकएक पहाड़ की चढ़ाई वाला रास्ता बहुत ही रोमांचकारी लग रहा था.

बगल में बैठी मनामी को ले कर मेरे मन में कई सवाल उठ रहे थे. मन हो रहा था कि पूछूं कि यहां किस सिलसिले में आई हो, अकेली क्यों हो. लेकिन किसी अनजान लड़की से एकदम से यह सब पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था.

चार रोटियां : ललिया के आंचल की चार रोटियां – भाग 3

राजू चीख रहा था. पुलिस  वालों की मंशा उसे समझते देर नहीं लगी. राजू अपना सामान वहीँ छोड़ कर जीप के पीछे दौड़ रहा था…बेतहाशा…पागलों की तरह. पर भला एक थके हुए आदमी के पैरों और एक जीप का क्या मुकाबला. कुछ देर बाद राजू सड़क पर ही गिर गया,  बेहोश हो गया. वह  कितनी देर बेहोश रहा, उसे नहीं पता.

पीछे से आते मजदूरों के जत्थे ने उसे उठाया और पानी आदि पिलाया. होश में आते ही राजू ललिया…ललिया कह कर चिल्लाते हुए वहां से तेज़ी से चल दिया.

राजू अब खाली  हाथ था. उसे अपने सामान की फ़िक्र नहीं थी. उसे तो अपनी ललिया की चिंता थी. उस की चिंता तब दूर हुई जब उस ने ललिया को सड़क के किनारे अपने पैरों में सिर डाल कर बैठे  देखा.

“का हुआ ललिया,” राजू ने ललिया के कंधे पकड़ कर हुए कहा.

ललिया का चेहरा आंसुओं से भीगा हुआ था. उस के बदन पर खरोंच के निशान थे.

राजू ने ललिया को अपने सीने में भींच लिया. न यहां किसी प्रश्न की गुंजाइश थी और न ही किसी उत्तर की. ललिया की सिसकियों ने ही सबकुछ बयां कर दिया था.

राजू की बेटी भी रोए जाती थी. शायद कुछ गलत हुआ है, इस का एहसास उस को भी हो गया था.

राजू और ललिया का अब सबकुछ लुट चुका  था. पीछे जाते न बनता था. और आगे जाने की शक्ति नहीं बची थी. पर फिर भी आगे बढ़ने के अलावा कोई चारा न था. किसी से कुछ कहने से कुछ होने वाला भी  न था. राजू अच्छी तरह जानता था कि किसी थाने में रिपोर्ट लिखाने से और भी परेशानी हो सकती है, इसलिए इस दुर्घटना को राजू ने भूल जाना ही उचित समझा. तभी ललिया की नज़र सड़क पर लगे एक सरकारी नल पर गई. ललिया राजू से हाथ छुड़ा कर नल पर गई और उसे चलाने लगी और जब पानी की धार बह निकली तो अपने शरीर को उस के नीचे कर दिया और रगड़रगड़ कर अपने  को धोने लगी. उस की आंखों में गुस्सा और लाचारी के भाव आजा रहे थे.

राजू ने इस समय ललिया को रोका नहीं. वह भीगी आंखों से सब देखता रहा. गरीब और बेजबान जानवर में कोई अंतर नहीं होता. जिस तरह जानवर का मन हो न हो पर मालिक के चाहने पर उसे काम में लगना ही पड़ता है वैसा ही मज़दूर होता है. उस का अपना कोई मन नहीं होता. वह तो, बस, जीता रहता है पिसने और मरने के लिए.

राजू और ललिया के सामने गांव जाने के अलावा कोई चारा नज़र न आता था, इसलिए वे बस चले जाते थे. उन के पास का खाना खत्म हो गया था. आगे कुछ मज़दूर बैठे हुए खाना खा रहे थे. उन्होंने राजू और ललिया की आंखों में लाचारी देखी तो एक कागज में 4 रोटी और नमक लपेट कर मुनिया बेटी को पकड़ाते हुए बोले, “ले लो बिटिया, गांव अभी दूर है. जब भूख लगे तब इसे खा लेना.”

बेटी ने वो रोटियां ललिया की तरफ बढ़ा दीं. ललिया ने रोटियों को आंचल में बांध लिया यह सोच कर कि आगे राह में जब बेटी को भूख लगेगी तब इसे खिला देंगे. पर  बिटिया को भूख लगना तो दूर, उसे उलटी ज़रूर हो गई. उसे बुखार चढ़ आया था. राजू के पास दवा नहीं थी. आसपास कोई दवाखाना भी नहीं दिखता था. अब पैदल चलना  भी मुहाल हो रहा था. राजू को शहर से निकले हुए पूरे 2 दिन हो गए थे और इन 2 दिनों में उसे परेशानी के अलावा कुछ नहीं मिला था. सरकार की तरफ से कई वादे किए जा रहे थे पर वे सिर्फ टीवी पर और कागजों पर ही थे. जनपलायन करने वालों के लिए तो ज़मीनी हकीकत कुछ और ही थी.  न ही इन मज़दूरों के लिए खाना था और न ही पानी. अलबत्ता, उन पर राजनीति जम कर हो रही थी.

रात हुई, तो राजू ने फिर  डेरा डाल दिया. पास में चार रोटियां थीं. पर बेटी की हालत देख कर निवाला किसी के गले से नीचे नहीं उतरा. बेटी आंख न खोलती थी. कहीं से कोई मदद नहीं थी. सुबह हुई तो बेटी का शरीर में से ताप पूरी तरह जा चुका था. उस का शरीर बर्फ हो चुका था. बिटिया की मृत्यु पर राजू और पत्नी चीख कर रो भी नहीं पा रहे थे. शरीर में थकान ने अपना डेरा बना लिया था. अभी कल ही तो उन की बेटी साथ में थी और आज नहीं है. इस कोरोना ने तो राजू से उस का सबकुछ ही छीन लिया था.

बिटिया की मृतदेह सामने थी. रोने से काम नहीं चलने वाला था. राजू ने अपने अंदर के पुरुष के साहस को जगाया. “हमें  बेटी की देह को ज़मीन में दबाना होगा,” राजू ने कहा.

सड़क के किनारे कच्ची ज़मीन थी. पर हाथ से मिट्टी न खुदती थी. राजू की जेब में कैंची और उस्तरा था. उस ने कैंची निकाली और गड्ढा करने लगा. अभी राजू काम में लगा ही था कि चारपांच लोग गले में गमछा डाले हुए आ गए, जो शायद छुटभैये नेताटाइप के थे. “ए, यह क्या कर रहा है ?”

“साहब, बिटिया के शव का संस्कार कर रहा हूं.”

“हां, पर कोरोना से मरे हुए मरीजों को दबाने से तो तुम हमारे भी गांव में कोरोना फैला दोगे. इसे दबाओ नहीं, बल्कि इसे जला दो.”

“नहीं सरकार, यह तो बुखार से मरी है, कोरोना से नहीं,” राजू लाचारी से कह रहा था

“ झूठ बोलता है, साफ़साफ़ क्यों नहीं कहता कि तेरे पास क्रिया के  पैसे नहीं हैं. पर बिना अंतिमक्रिया के तो आत्मा भटकती रहेगी. ठीक है भाई, हम इतने बुरे नहीं है. अगर तू नहीं कर पा रहा है तो हम ही इस को अग्नि दे देते हैं,” इतना कह कर एक लड़का अपने साथ लाई हुई मोटरसाइकिल से पैट्रोल निकालने लगा. पैट्रोल निकाल कर उस नन्ही जान के शव पर छिड़क
दिया.

और इससे पहले कि राजू और ललिया कुछ समझ पाते, एक लड़के ने जलती हुई माचिस की तीली बेटी के शव की तरफ उछाल दी. भक की आवाज़ के साथ शरीर जलने लगा. उधर शव जल रहा था, इधर राजू और ललिया के कलेजे में आग जल रही थी.

“ले भाई हो गया अंतिम संस्कार तेरी लड़की का. अब हमें आशीर्वाद देना कि हम ने तुम्हारी मदद की है. वैसे, कौन से गांव जाना है तुम्हें ?”

“बिजुरिया,” बड़ी मुश्किल से ही बोल पाया था राजू.

“हां, तो बिजुरिया, यहां से क्यों जा रहे हो? वह देखो, उस तरफ रेल की जो पटरी जा रही हैं न, वह सीधे तुम्हारे गांव होते हुए जाएगी. वहां से जाओ, जल्दी पहुंच जाओगे,” उन में से एक बोला.

नन्ही बेटी का शव अब भी जल रहा था. पुलिस की गाड़ियों की गश्त सड़कों पर तेज़ हो चली थी. राजू ने ललिया का हाथ पकड़ा और बेटी को अधजला छोड़ कर वहां से रेलपटरी की तरफ चल दिया.

राजू और ललिया के दिमाग पूरी तरह से शून्य थे. उन की आंखों में रेल की पटरियां ही दिख रही थीं. आगे चलने पर, कुछ मज़दूर और मिल गए. “सुनो, हम सब का मकसद अपनेअपने गांव पहुंचना है. अब रात होने वाली है. सब लोग यहीं आराम करो. भोर होते ही हम फिर चलेंगे,” एक मज़दूर बोला और सब वहीँ पटरियों पर बैठ गए.

राजू ने ललिया की तरफ देखा. अभी कुछ दिनों पहले ही तो दोनों अपनी ज़िंदगी में कितने बेफिक्र और खुश थे. सैलून खोलने की तैयारी और बेटी के भविष्य के सपनों को कोरोना संकट ने रौंद दिया था. अब कल क्या होगा, न ही राजू को समझ आ रहा था और न ही ललिया को.

दोनों ने पानी पिया और वहीँ रेल की पटरी पर सिर रख लिया और आंखें मूंद लीं. उन्हें  कब थकान से नींद आ गई और वे कब सो गए, यह कोई नहीं जानता. हां, अगली सुबह लोग इतना ही जान पाए कि मालगाड़ी ने पटरी पर सोए हुए मजदूरों को रौंद दिया. उन के कटे हुए शरीर एक ओर पड़े हुए थे.

कुछ ही दूरी पर राजू का उस्तरा और कैंची बिखरे हुए थे. पास ही पड़ी थीं ललिया के आंचल में बंधी हुई चार रोटियां.

समाधान : अंजलि की कैसी थी तानाशाही – भाग 3

वह दोनों करीब 2 घंटे बाद लौटे. डाक्टर ने अंजलि को उलटियां बंद करने का इंजेक्शन दिया था. वह कुछ बेहतर महसूस कर रही थी. इसी कारण उस की नाराजगी और शिकायतें  लौटने लगीं.

‘‘बूआ, यह सब लोग 3 घंटे से कहां गायब हैं?’’ उस ने नाराजगी भरे लहजे में अपने  भाई व भाभियों के बारे में सवाल पूछा.

‘‘वे सब सीमा की बड़ी बहन के घर चले गए हैं,’’ मैं ने उसे सही जानकारी दे दी.

‘‘क्यों?’’

‘‘मेरे खयाल से सीमा का मूड ठीक करने के इरादे से.’’

‘‘और मैं यहां मर रही हूं, इस की किसी को चिंता नहीं है,’’ वह भड़क उठी, ‘‘अपने घर वाले मस्ती मारते फिरें और एक बाहर का आदमी मुझे डाक्टर के पास ले जाए…मेरे लिए दवाइयां खरीदे… मारामारा फिरे…क्या मैं बोझ बन गई हूं उन सब पर? और आप क्यों नहीं हमारे साथ आईं?’’

मैंने विषय बदलने के लिए आक्रामक रुख अपनाते हुए जवाब दिया, ‘‘अंजलि, जो तुम्हारे सुखदुख में साथ खड़ा है, उस नेकदिल इनसान को बाहर का आदमी बता कर उस की बेइज्जती करने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है.’’

मेरा तीखा जवाब सुन कर अंजलि पहले चौंकी और फिर परेशान नजर आती राकेश से बोली, ‘‘आई एम सौरी. गुस्से में मैं गलत शब्द मुंह से निकाल गई.’’

‘‘इसे आसानी से माफ मत करना, राकेश. मेरी कोई बात नहीं सुनती है यह जिद्दी लड़की. इसे माफी तभी देना जब यह तुम्हारे कहने से कुछ खा ले. मैं तुम दोनों का खाना यहीं लाती हूं,’’ अंजलि से नजरें मिलाए बिना मैं मुड़ी और कमरे से बाहर निकल कर रसोई में आ गई.

आज सारी परिस्थितियां मेरे पक्ष में थीं. बिस्तर में लेटी बीमार अंजलि न कहीं भाग सकती थी, न जोर से झगड़ा करने की हिम्मत उस में थी. राकेश की मौजूदगी में अंजलि को अपना व्यवहार सभ्यता की सीमा के अंदर रखना ही था. मैं उस के सामने पड़ने से बच भी रही थी. राकेश ने जब भी जाने की इच्छा जाहिर की, मैं ने या तो उसे कोई काम पकड़ा दिया या प्यार से डपट कर चुप कर दिया.

वैसे अंजलि ने पहले जो नाराजगी भरी खामोशी अपनाई हुई थी, वह भी कुछ देर सोने के बाद चली गई.

जागने के बाद अंजलि ने राकेश के साथ एक लोकप्रिय हास्य धारावाहिक देखा. फिर दोनों हलकेफुलके अंदाज में बातचीत करने लगे. मैं ने नोट किया कि अंजलि मुझे देख कर गुस्सा आंखों में भर लाती थी, पर राकेश के साथ उस का व्यवहार दोस्ताना था. ऐसा शायद पहली बार हो रहा था. उन के बीच बने इस नए संबंध को फलनेफूलने का अवसर देने के इरादे से मैं अंदर के कमरे में जा कर लेट गई. मेरी आंख कब लग गई, मुझे पता ही नहीं चला.

करीब 2 घंटे बाद मेरी नींद खुली. अंजलि के कमरे में पहुंच कर मैं ने देखा कि मेरी भतीजी पलंग पर और राकेश पास पड़ी कुरसी में बैठ कर सो रहे थे.

आने की मेरी आहट सुन कर राकेश जाग गया. हम दोनों कम से कम आवाजें पैदा करते हुए ड्राइंगरूम में आ गए.

‘‘तुम्हारा बहुतबहुत धन्यवाद, राकेश बेटा. अब मैं संभाल लूंगी, तुम घर जाओ,’’ मैं ने उस की पीठ प्यार से थपथपाई.

‘‘मैं कपड़े बदल कर आता हूं,’’ उस की यह बात सुन कर मैं ने नोट किया कि उस के कपड़ों से उलटी की बदबू आ रही थी.

‘‘अब कल आ जाना. थक भी गए होगे…’’

‘‘नहीं, मैं बिलकुल थका हुआ नहीं हूं, मौसीजी. अंजलि एक उपन्यास पढ़ना चाहती है. मैं वह भी उसे आज ही उपहार में देना चाहता हूं.’’

‘‘वह स्वीकार कर लेगी तुम्हारा उपहार?’’ मेरी आंखों में शरारत के भाव उभरे.

‘‘हां, मौसीजी. उस ने मुझे आज अच्छा इनसान बताया है…अब मैं उस का अच्छा मित्र बनने का प्रयास करूंगा,’’ वह शरमाता सा बोला.

‘‘तब एक काम और करना, बीमार आदमी के कमरे में फूलों का सुंदर गुलदस्ता…’’

‘‘मैं समझ गया,’’ उस ने उत्साहित अंदाज में मुझे हाथ जोड़ कर प्रणाम किया और अपने घर चला गया.

उसे लौटने में करीब 2 घंटे लगे. इस सारे समय में अंजलि अपने भाईभाभियों के व्यवहार की लगातार आलोचना करती रही. उस ने इन सब के लिए अब तक जो भी अच्छा किया था, उन कामों का राग अलापती रही.

मैं ने जानबूझ कर कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की. सिर्फ इतना ही कहा, ‘‘कई बार अपने काम नहीं आते, अंजलि. इस समस्या का समाधान यही है कि उस दिल के अच्छे इनसान को तुम अपनों की सूची में शामिल कर लो, जो सुखदुख में तुम्हारा साथ खुशीखुशी देने को तैयार है.’’

मेरा इशारा राकेश की तरफ है, इस बात को उस ने बखूबी समझा, पर हमारे बीच राकेश को ले कर कोई चर्चा नहीं छिड़ी. मैं ने इस मामले में अपनी टांग अड़ाने की मूर्खता नहीं की.

राकेश ने बाहर से जब घंटी बजाई, तब मैं ने अंजलि का हाथ पकड़ कर भावुक स्वर में सिर्फ इतना कहा, ‘‘बेटी, अपने भाई और भाभियों के परिवारों से भावी सुख और सुरक्षा पाने की नासमझी मत कर, इन के दिमाग में तेरे बलिदान और त्याग की यादें वक्त धुंधली कर देगा. तू ने जो भी इन सब के लिए किया है, वह वक्त की जरूरत थी. अब उन बलिदानों की कीमत मत मांग. जिंदगी में सुखशांति, सुरक्षा और प्यार भरा सहारा सभी को चाहिए. अपनी घरगृहस्थी बसा ले. यह सब चीजें तुझे वहीं मिलेंगी.’’

मेरी इस सलाह को अंजलि ने गंभीरता से लिया है, इस का एहसास मुझे उस के राकेश द्वारा लाए गुलदस्ते को स्वीकार करने के अंदाज से हुआ.

राकेश के हाथों से गुलाब के फूलों का वह छोटा सा गुलदस्ता लेते हुए अंजलि शरमा उठी थी. उसे किसी आम लड़की की तरह यों शरमाते हुए मैं ने पहली बार देखा था.

उन दोनों को अकेला छोड़ कर मैं ड्राइंगरूम में चली आई. वहां से मैं ने फोन पर सीमा और प्रिया से बातें कीं.

‘‘किला फतह हो गया. अब तुम लौट आओ,’’ मेरी यह बात सुन कर वह दोनों खुशी भरी उत्तेजना का शिकार बन गई थीं.

आज जो भी घटा था वह सीमा, प्रिया और मेरी मिलीभगत का नतीजा था. अंजलि की बीमारी का फायदा उठा कर हम तीनों ने राकेश और उसे पास लाने की योजना पिछली रात ही बनाई थी. अरुण और अनुज इस योजना का हिस्सा नहीं थे. जानबूझ कर ऐसी परिस्थितियां पैदा की गईं कि वह चारों घर से बाहर चले जाएं. सीमा ने अरुण के साथ जबरदस्ती झगड़े को बढ़ाया था. प्रिया ही जोर दे कर अनुज को साथ में घर से बाहर ले गईर् थी.

अंजलि राकेश के साथ अपनी घर- गृहस्थी बसा लेगी, इस आशा की जड़ें आज काफी मजबूत हो गई थीं. घर में बढ़ते झगड़ों की समस्या को हल करने की दिशा में हम ने सही कदम उठाया है, इस का भरोसा मेरे मन में पक्का होने लगा था.

मरजाना : आखिर क्या हुआ उन के प्यार का अंजाम- भाग 3

समर गुल का बाप उसे देख कर भौचक्का रह गया. उस ने उसे उठाया और ध्यान से देखा. वह लड़की उस के बेटे के लिए अपना परिवार, अपना वतन सब कुछ छोड़ कर आ गई थी. लेकिन वह तुरंत संभल गया. उस ने सोचा कि यह उस आदमी की बेटी भी तो है, जिस ने मेरे बेटे पर बड़े उपकार किए हैं.

गुल के पिता ने उस के सिर पर हाथ रख कर कहा, ‘‘बेटी, मैं तुम्हारी इज्जत करता हूं. तुम ने मेरे बेटे से प्यार किया है, तुम जैसी लड़की लाखों में भी नहीं मिलेगी. लेकिन बेटी तुझे साथ ले जा कर मैं दुनिया को क्या मुंह दिखाऊंगा. लोग कहेंगे सरहद के पठान का क्या यही किरदार होता है कि जिस थाली में खाए उसी में छेद करे.’’

मरजाना गिड़गिड़ाई, ‘‘बाबा, मैं वापस नहीं जाऊंगी, आप के साथ ही चलूंगी. यह सब दुनियादारी की बातें हैं.’’

समर गुल के बाप ने मरजाना को गले लगा कर कहा, ‘‘बेटी, जरा सोचो तुम अपने बाप की इज्जत हो. अपने भाइयों की आन हो, जब दुनिया यह सुनेगी, नौरोज खान की बेटी घर से भाग गई है तो तुम्हारे बाप के दिल पर क्या गुजरेगी? एक बाप के लिए यह बात मरने के बराबर होगी.’’

उस ने कहा, ‘‘बाबा, रात मैं ने कसम खाई थी कि जो रास्ता मैं ने चुना है, उस से पीछे नहीं हटूंगी.’’

समर गुल ने बाप से कहा, ‘‘बाबा, मान जाइए. इस ने कसम खा ली है. अगर यह मेरी नहीं हुई तो अपनी जान दे देगी और फिर मैं भी जिंदा नहीं रहूंगा.’’

बाप चुप हो गया और समर गुल का भाई व मामा भी चुप रहे. लगता था मोहब्बत जीत गई थी.

मरजाना का कुत्ता बारीबारी से सब को सूंघ रहा था, जैसे सब को पहचानने की कोशिश कर रहा हो. समर गुल के बाप ने भीगी आंखों से मरजाना को गले लगा लिया और उस के सिर पर हाथ रख दिया.

शाम को इक्कादुक्का भेड़ें घर पहुंचीं, लेकिन उन के साथ मरजाना नहीं थी. कुत्ता भी गायब था, नौरोज का दिल बैठा जा रहा था. कुछ ही देर में पूरे गांव में यह खबर फैल गई कि नौरोज की लड़की मरजाना घर से भाग गई.

अगले दिन तक आसपास के कबीलों में यह खबर पहुंच गई. दोस्त या दुश्मन सब के लिए यह खबर दुख की थी. यह सवाल नौरोज के घर की इज्जत का ही नहीं, बल्कि पूरे कबीले की इज्जत का था.

शाम तक हर गांव से हथियारबंद लड़के पहुंचने शुरू हो गए. कबीले का जिरगा (कबीले की संसद) बुलाया गया और यह तय किया गया कि हर गांव से एक जवान चुना जाए और ये जवान चारों ओर फैल जाएं. इन्हें हर हाल में मरजाना को ले कर आना होगा. जो जवान खाली हाथ सरहद पर वापस आता दिखाई दे, उसे तुरंत गोली मार दी जाए. इसलिए 25 जवानों का दस्ता मालिक नौरोज के नेतृत्व में रवाना हो गया.

समर गुल के बाप ने अपने गांव पहुंचते ही समर गुल और मरजाना का निकाह करा दिया. अभी उन की शादी को एक सप्ताह भी नहीं बीता था कि उन के गांव को चारों ओर से घेर कर अंधाधुंध फायरिंग होने लगी.

गांव के लोग भी चुप नहीं थे. एक कबीले के सरदार की बेटी उन की बहू बनी थी, इसलिए गोली का जवाब गोली से दिया गया. 2 दिन तक फायरिंग होती रही, दोनों ओर से कई लोग घायल भी हुए लेकिन फायरिंग बंद नहीं हुई.

मरजाना के हाथों की मेहंदी का रंग अभी ताजा था, उस में अभी तक महक थी. तीसरे दिन पुलिस की भारी कुमुक पहुंच गई और बहुत मुश्किल से फायरिंग पर काबू पाया गया. लेकिन नौरोज घेरा तोड़ने को तैयार नहीं हुआ. पुलिस औफीसर ने सोचा अगर इन पर सख्ती की गई तो यह कबीला मरनेमारने पर तैयार हो जाएगा. पुलिस अधिकारी ने समझदारी से काम लेते हुए दोनों ओर के 4-4 जवानों को चुना और उन की मीटिंग बैठा दी.

समर गुल के बाप ने कहा, ‘‘जो कुछ हुआ, मुझे उस का खेद है. हम पहले से ही मरजाना के पिता के सामने आंख उठा कर नहीं देख सकते. मैं उस से माफी मांगने के लिए भी पीछे नहीं हटूंगा. यह मैं किसी दबाव में नहीं कह रहा हूं बल्कि यह मेरे दिल की आवाज है. नौरोज ने हमारे ऊपर उपकार किया है, हम नौरोज से दगा करने वाले लोग नहीं हैं. अगर वह चाहे तो मरजाना के बदले मैं अपनी बेटी उस के बेटे से ब्याह सकता हूं. और अगर खून बहाना हो तो मेरे बेटे के बदले मैं अपना खून दे सकता हूं. मैं उन के साथ सरहद पर जा सकता हूं. वे मेरी हत्या कर के अपने दिल की भड़ास निकाल लें. जहां तक मरजाना का सवाल है, मेरा बेटा उसे भगा कर नहीं लाया है. हम ऐसा कर ही नहीं सकते. अब वह मेरी बहू बन चुकी है और उसे मैं किसी भी कीमत पर वापस नहीं करूंगा. बहू परिवार की इज्जत होती है.’’

जिरगे में मौजूद नौरोज खान ने कहा, ‘‘मुझे समर गुल के बाप का खून नहीं चाहिए. उस से मेरी प्यास नहीं बुझ सकती और न ही उस की लड़की का रिश्ता चाहिए. उस से मेरी तसल्ली नहीं होगी. मुझे हीरेजवाहरात भी नहीं चाहिए, उन से मेरे घाव नहीं भर सकते. भागी हुई बेटी बाप की आत्मा में जो घाव लगा देती है, दुनिया की कोई दवा उसे ठीक नहीं कर सकती. थप्पड़ के बदले थप्पड़, हत्या के बदले हत्या की जा सकती है, लेकिन मैं दिल वालों से पूछता हूं, भागी हुई बेटी का बदला कोई किस तरह ले? मुझे समझाओ, मैं यहां क्या लेने आया हूं? समर के पिता को गोली मारूं, समर को गोली मारूं या अपनी बेटी को? कोई बतलाए कि मैं क्या करूं?’’

इतना कह कर मलिक नौरोज फूटफूट कर रोने लगा. सब ने पहली बार एक चट्टान को रोते देखा.

मरजाना ने सब कुछ सुन लिया था. अपनी खुशी के लिए उस ने जो कदम उठाया था, वह अपने बाप के दुख के सामने कितना मामूली था. यह जीवन कितना अजीब है, दूसरों के लिए जीना, दूसरों के लिए मरना, उस ने समर गुल से कहा, ‘‘मेरे प्रियतम, अब मैं बहुत दूर चली जाऊंगी.’’

समर गुल कुछ नहीं बोला. उसे हक्काबक्का देखता रहा.

‘‘समर गुल,’’ उस ने रुंधी आवाज में कहा, ‘‘मुझे जाना ही होगा, मुझे मान लेना चाहिए. मैं बाप की इज्जत से खेली हूं. जीवन दूसरों के लिए होता है, मुझे आज इस का अहसास हुआ है.’’

‘‘जो होना था, वह तो हो चुका.’’ समर गुल ने तड़प कर कहा, ‘‘गई हुई इज्जत तो गिरे हुए आंसुओं की तरह होती है, जो फिर हाथ नहीं आते.’’

‘‘हां, इज्जत वापस नहीं आ सकती, लेकिन मैं उस का प्रायश्चित करना चाहती हूं, मेरे जानम.’’

‘‘तो तुम मरना चाहती हो?’’

‘‘हां, मेरे बाप का कुछ तो बोझ हलका होगा, उस की आनबान को कुछ तो सहारा मिल जाएगा.’’ उस ने समर के सीने पर अपना सिर रख कर कहा, ‘‘यह मेरा आखिरी फैसला है, समर गुल. मेरे बाबा से कह दो, मैं उस के साथ जाने के लिए तैयार हूं.’’

जिरगे को बता दिया गया. समर गुल के बाप को बड़ी हैरत हुई. लेकिन मरजाना के बाप के चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई. उस ने राइफल की गोलियां निकाल कर फेंक दी, जंग खत्म हो गई.

वे लोग मरजाना को ले कर चल दिए. पूरा गांव उदास था. आई थी तो गई ही क्यों, हर एक की जुबान पर यही सवाल था. उस के जाने का कारण समर गुल के अलावा और कोई नहीं जानता था.

अगले दिन वे सरहद पर पहुंच गए. सब लोग सरहद पर रुक गए, लेकिन मरजाना नहीं रुकी. वह आगे बढ़ती रही. अचानक गोलियां की बौछार हुई, मरजाना तड़प कर मुड़ी और गिर पड़ी. हिचकी ली, एकदो बार मुंह खोला और शांत हो गई. उस की आंखें आसमान की ओर थीं, जैसे कह रही हों, ‘मेरा नाम मरजाना है, मुझे मर जाना आता है.’

वह काली रात : क्या थी मुन्नू भैया की करतूत-भाग 3

‘कल हम एक मनोवैज्ञानिक काउंसलर के पास चलेंगे जिस से तुम अपने मन की सारी पीड़ा को बाहर ला कर अपने और मेरे जीवन को सुखमय बना पाओगी. इतना भरोसा रखो अपने इस नाचीज जीवनसाथी पर कि जब तक तुम स्वयं को मानसिक रूप से तैयार नहीं कर लेतीं मैं कोई जल्दबाजी नहीं करूंगा. बस, इतना प्रौमिस जरूर चाहूंगा कि यदि भविष्य में हमारी कोई बेटी होगी तो उसे तुम संभाल कर रखोगी. उसे किसी भी हालत में परिचितअपरिचित की हवस का शिकार नहीं होने दोगी. बोलो, मेरा साथ देने को तैयार हो.’

‘हां, बसंत, मैं अपनी बेटी तो क्या इस संसार की किसी भी बेटी को उस तरह की मानसिक यातना से नहीं गुजरने दूंगी, जिसे मैं ने भोगा है, पर मुझे अभी कुछ वक्त और चाहिए,’ रंजना ने बसंत का हाथ अपने हाथ में ले कर कहा, तो बसंत मुसकराते हुए प्यार से बोले, ‘यह बंदा ताउम्र अपनी खूबसूरत पत्नी की सहमति का इंतजार करेगा.’

अचानक रंजना कुछ सोचते हुए बोलीं, ‘बसंत, मैं धन्य हूं जो मुझे तुम जैसा समझदार पति मिला. मुझे लगता है हर महिला बाल्यावस्था में कभी न कभी पुरुषों द्वारा इस प्रकार से शोषित होती होगी. अगर आज तुम्हारे जैसा समझदार पति नहीं होता तो मुझ पर क्या बीतती.’

‘तुम बिलकुल सही कह रही हो, कितने परिवारों में ऐसा ही दर्द अपने मन में समेटे महिलाएं जबरदस्ती पति के सम्मुख समर्पित हो जाती हैं. कितनी महिलाएं अंदर ही अंदर घुटती रहती हैं और कितनों के इसी कारण से परिवार टूट जाया करते हैं, जबकि इस प्रकार की घटनाओं में महिला पूरी तरह निर्दोष होती है, क्योंकि बाल्यावस्था में तो वह इन सब के माने भी नहीं जानती. चलो, अब कुछ खाने को दो, बहुत जोरों से भूख लगी है,’ बसंत ने कहा तो वे मानो विचारों से जागी और फटाफट चायनाश्ता ले कर आ गईं.

कुछ दिनों की कांउसलिंग सैशन के बाद वे सामान्य हो गईं और एक दिन जब वे नहा कर बाथरूम से निकली ही थीं कि बसंत ने उन्हें अपने बाहुपाश में बांध लिया और सैक्सुअल नजरों से उन की ओर देखते हुए बोले, ‘‘अब कंट्रोल नहीं होता, बोलो, हां है न.’’

बसंत की प्यारभरी मदहोश कर देने वाली नजरों में मानो वे खो सी गईं और खुद को बसंत को सौंपने से रोक ही नहीं पाईं. बसंत ने उन्हें 2 प्यारे और खूबसूरत से बच्चे दिए. बेटी रूपा और बेटा रूपेश. उन्हें अच्छी तरह याद है जैसे ही रूपा बड़ी होने लगी, वे रूपा को अपनी आंखों से ओझल नहीं होने देती थीं. दोनों बच्चों के साथ बसंत और उन्होंने ऐसा दोस्ताना रिश्ता कायम किया था कि बच्चे अपनी हर छोटीबड़ी बात मातापिता से ही शेयर करते थे.

वे चारों आपस में मातापिता कम दोस्त ज्यादा थे. बेटी रूपा जैसे ही 7-8 वर्ष की हुई, उन्होंने उसे अच्छीबुरी भावनाओं, स्पर्श और नजरों का फर्क भलीभांति समझाया. ताकि उस के जीवन में कभी कोई रात काली न हो. सोचतेसोचते कब आंख लग गई, उन्हें पता ही नहीं चला. सुबह आंख देर से खुली तो देखा कि सभी केरवा डैम जाने की तैयारी में थे. वे भी फटाफट तैयार हो कर औफिस के लिए निकल लीं. अगले दिन रश्मि की दीदी का सुबह की ट्रेन से जाने का प्रोग्राम था. 3 दिन कैसे हंसीखुशी मेें बीत गए, पता ही नहीं चला.

विदेशी दामाद : आखिर एक पिता अपने दामाद से क्या चाहता है?- भाग 3

हम लोगों के चेहरे उतर गए. तत्काल नरेश संभल गया. क्षमायाचना करते हुए बोला, ‘‘माफ कीजिएगा, आप लोगों का अपमान करने का मेरा कोई इरादा नहीं था, फिर आप लोग तो उन में से हैं भी नहीं…वह तो कुमार ने आप को मजबूर कर दिया वरना आप कब सुमनजी को सात समुंदर पार भेजने वाले थे.’’

हम सहज हो गए, परंतु शांति के अंतर्मन में कोई चोर भावना सिर उठा रही थी. शायद वह नरेश को अधिकांश मुंबइया फिल्मों का वह बेशकीमती हीरा समझ रही थी जिसे हर तस्कर चुरा कर भाग जाना चाहता था. व्यावहारिकता का तकाजा था वह, इसलिए जैसे ही नरेश जाने के लिए उठा, शांति ने फटाक से सीधासीधा प्रश्न उछाल दिया, ‘‘बेटा, सुमन पसंद आई?’’

‘‘इन्हें तो कोई मूर्ख ही नापसंद करेगा,’’ नरेश ने तत्काल उत्तर दिया.

सुमन लाज से लाल हो गई. वह सीधी अपने कमरे में गई और औंधी लेट गई.

‘‘फिर तो बेटे, मुंह मीठा करो,’’ कह कर शांति ने खाने की मेज से रसगुल्ला उठाया और नरेश के मुंह में ठूंस दिया.

घर में बासंती उत्सव सा माहौल छा गया. कुमार के चेहरे पर चमक थी. नरेश के मुख पर संतोष और हम दोनों के मुख दोपहर की तेज धूप से दमक रहे थे.

‘‘अब आगे कैसे चलना है? तुम तो शायद सिर्फ 3 सप्ताह के लिए ही आए हो?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अब जब लड़की मिल गई तो मैं 2-3 हफ्ते के लिए अपनी छुट्टी बढ़वा लूंगा. हनीमून मैं कनाडा की जगह कश्मीर में मनाना पसंद करूंगा. एक बात और पिताजी, शादी एकदम सादी. व्यर्थ का एक पैसा भी खर्च नहीं होगा. न ही आप कोई दहेज खरीदेंगे. कनाडा में अपना खुद का सुसज्जित मकान है. घरेलू उपकरण खरीदना बेकार है. एक छोटी सी पार्टी दे दें, बस.’’

‘‘पंडितजी से मुहूर्त निकलवा लें?’’

‘‘अभी नहीं, मांजी.’’

हम दोनों अभिभूत थे. नरेश ने हमें मां औैर  पिताजी कह कर पुकारना शुरू कर दिया था. किंतु उस की अंतिम बात ने हमें चौंका दिया.

‘‘क्यों बेटे?’’

‘‘मैं कल बंगलौर जा रहा हूं. जरा अपने चाचाचाची से भी पूछ लूं. बस, औपचारिकता है. बड़े हैं, उन्हीं ने पाला- पोसा है. वे तो यह सब जान कर खुश होंगे.’’

‘‘ठीक है.’’

और वे दोनों चले गए. पीछे छोड़ गए महान उपलब्धि की भीनीभीनी सुगंध.

सुमन अपने कमरे से निकली. पहली बार उस के मुंह से एक रहस्योद्घाटन हुआ. जब शांति ने सुमन से नरेश के बारे में उस की राय जाननी चाही तो उस ने अपने मन की गांठ खोल दी.

सुमन और एक नवयुवक कुसुमाकर का प्रेम चल रहा था. कुसुमाकर लेखक था. वह रेडियो के लिए नाटक तथा गीत लिखता था. इसी संबंध में वह सुमन के समीप आ गया. सुमन ने तो मन ही मन उस से विवाह करने का फैसला भी कर लिया था, पर अब नरेश को देख उस ने अपना विचार बदल दिया. उस ने शांति के सामने स्पष्ट रूप से स्वीकार कर लिया. नरेश जैसे सागर के सामने कुसुमाकर तो गांव के गंदले पानी की तलैया जैसा है.

नरेश मैसूर से लौट आया. उस ने घर आ कर यह खुशखबरी सुनाई कि उस के चाचाचाची इस संबंध  से सहमत हैं. शांति ने शानदार खाना बनाया. नरेश ने डट कर खाया, शादी की तारीख के बारे में बात चली तो नरेश बोला, ‘‘कुमार से सलाह कर के…’’

शांति ने उस की बात बीच में ही काट कर कहा, ‘‘उसे छोड़ो. बिचौलियों का रोल लड़के को लड़की पसंद आने तक होता है. उस के बाद तो दोनों पक्षों को सीधी बात करनी चाहिए. मध्यस्थता की कोई आवश्यकता नहीं.’’

नरेश हंस पड़ा. मैं शांति के विवेक का लोहा मान गया. थोड़े से विचारविमर्श के बाद 20 अक्तूबर की तिथि तय हो गई. सुबह कोर्ट  में शादी, दोपहर को एक होटल में दोनों पक्षों के चुनिंदा व्यक्तियों का भोजन, बस. हमें क्या आपत्ति होनी थी.

तीसरे दिन नरेश का फोन आया. उस ने अपने हनीमून मनाने और कनाडा वापस जाने का कार्यक्रम निश्चित कर लिया था. उस ने बड़ी दबी जबान से 50 हजार रुपए की मांग की. कश्मीर का खर्चा. कनाडा जाने के 2 टिकट और उस के चाचाचाची तथा उन के बच्चों के लिए कपड़े  और उपहार. इन 3 मदों पर इतने रुपए तो खर्च हो ही जाने थे.

मैं थोड़ा सा झिझका तो उस ने तत्काल मेरी शंका का निवारण करते हुए कहा, ‘‘पिताजी, निश्चित नहीं था कि इस ट्रिप में मामला पट जाएगा, इसलिए ज्यादा पैसा ले कर नहीं  चला. कनाडा पहुंचते ही आप को 50 हजार की विदेशी मुद्रा भेज दूंगा. उस से आप कार, स्कूटर या घर कुछ भी बुक करा देना.’’

‘‘ठीक है, बेटे,’’ मैं ने कह दिया.

फोन बंद कर के मैं ने यह समस्या शांति के सामने रखी तो वह तत्काल बोली, ‘‘तुरंत दो उसे 50 हजार रुपए. वह विदेशी मुद्रा न भी भेजे तो क्या है. किसी हिंदुस्तानी लड़के से शादी करते तो इतना तो नकद दहेज में देना पड़ता. दावत, कपड़े, जेवर और अन्य उपहारों पर अलग खर्चा होता. इस से सस्ता सौदा औैर कहां मिलेगा.’’

मैं ने दफ्तर में भविष्यनिधि से रुपए निकाले और तीसरे दिन ताजमहल होटल के उस कमरे में नरेश से मिला और उसे 50 हजार रुपए दे दिए.

उस के बाद मैं ने एक पांचसितारा होटल में 100 व्यक्तियों का दोपहर का भोजन बुक करा दिया. निमंत्रणपत्र भी छपने दे दिए.

सुमन और शांति शादी के लिए थोड़ी साडि़यां और जेवर खरीदने में जुट गईं. बेटी को कुछ तो देना ही था.

लगभग 10 अक्तूबर की बात है. नरेश का फोन आया कि वह 3 दिन के लिए किसी आवश्यक काम से दिल्ली जा रहा है. लौट कर वह भी सुमन के साथ खरीदारी करेगा.

सुमन ने नरेश को मुंबई हवाई अड्डे पर दिल्ली जाने के लिए विदा किया.

2 महीने बीत गए हैं, नरेश नहीं लौटा है. 20 अक्तूबर कभी की बीत गई है. निमंत्रणपत्र छप गए थे किंतु सौभाग्यवश मैं ने उन्हें वितरित नहीं किया था.

मैं ने ताज होटल से पता किया. नरेश नाम का कोई व्यक्ति वहां ठहरा ही नहीं था. फिर उस ने किस के कमरे में बुला कर मुझ से 50 हजार रुपए लिए? एक रहस्य ही बना रहा.

मैं ने कुमार को बुलाया. उसे सारा किस्सा सुनाया तो उस ने ठंडे स्वर में कहा,  ‘‘मैं कह नहीं सकता, मेरे मित्र ने आप के साथ यह धोखा क्यों किया? लेकिन आप लोगों ने एक ही मीटिंग के बाद मेरा पत्ता साफ कर दिया. उसे रुपए देने से पहले मुझ से पूछा तो होता. अब मैं क्या कर सकता हूं.’’

‘‘वैसे मुझे एक बात पता चली है. उस के चाचाचाची कब के मर चुके हैं. समझ में नहीं आया, यह सब कैसे हो गया?’’

मेरे सिर से विदेशी दामाद का भूत उतर चुका है. मैं यह समझ गया हूं कि आज के पढ़ेलिखे किंतु बेरोजगार नवयुवक हम लोगों की इस कमजोरी का खूब फायदा उठा रहे हैं.

आज तक तो यही सुनते थे कि विदेशी दामाद लड़की को ले जा कर कोई न कोई विश्वासघात करते हैं पर नरेश ने तो मेरी आंखें ही खोल दीं.

रही सुमन, सो प्रथम आघात को आत्मसात करने में उसे कुछ दिन लगे. बाद में शांति के माध्यम से मुझे पता चला कि वह और कुसुमाकर फिर से मिलने लगे हैं.

यदि वे दोनों विवाह करने के लिए सहमत हों तो मैं कोई हस्तक्षेप नहीं करूंगा.

बाप बड़ा न भैया : पुनदेव को मिली कौन सी राह -भाग 2

विवाहोपरांत रामयश ने एक बंगलानुमा मकान खरीद लिया था. पुनदेव अब नए मकान में सपत्नीक रहता था, एक दो और नौकरचाकरों को ले कर. छात्र जीवन का गृहस्थाश्रम के साथ इतना सुंदर समन्वय अन्यत्र कहां देखने को मिलता.

एक रोज प्रो. श्याम की पत्नी को ले कर प्रो. मनोहर की धर्मपत्नी अपने जामाता के घर गईं. बेटी का वैभव देख कर इतनी प्रसन्न हुईं कि बोल पड़ीं, ‘सारी जिंदगी प्रोफेसरी की, पर ऐसा गहनाकपड़ा, इतने नौकरचाकर हम ने सपने में भी नहीं देखे, बड़ा अच्छा रिश्ता खोजा है, नीलम के बाबूजी ने नीलम के लिए.’

छात्रावास में प्रो. श्याम की पत्नी के माध्यम से यह बात सभी लड़कों के लिए एक चुटकुला बन गई थी

परीक्षा के दिन निकट आते गए. सभी लड़के अपनेअपने कमरों में सिमटते गए, किताबों और प्रश्नोत्तरों की दुनिया में दीनदुनिया से बेखबर, पर पुनदेव की दिनचर्या में कोई परिवर्तन नहीं आया. वह  वैसे ही मस्त था, पान की गिलौरियों और  ठंडाई के गिलासों में. हां, प्रोफेसर का जामाता बनने के बाद उस में एक तबदीली हुई थी.

अब वह उपन्यासों का रसिया हो गया था. मोटरसाइकिल की डिकी हो या तकिया, दोचार उपन्यास जरूर रखे होते. इस शौक के बारे में वह कहता, ‘मेरे ससुरजी कहते हैं कि इस से लिखने की क्षमता बढ़ती है, भाषा सुधरती है और परीक्षा में कम से कम, लिखना तो मुझे ही होगा.’

परीक्षा कक्ष में पुनदेव को देख कर लगा कि शायद वह बीमार हो, इसलिए अनुपस्थित है. पर उस के एक खास चमचे ने परचा खत्म होने पर कहा, ‘यार, पहुंच हो तो पुनदेव की तरह. विभागाध्यक्ष का दामाद है, पलंग पर बैठ कर परीक्षा दे रहा है. नए व्याख्याता उस के लिए प्रश्नोत्तर ले कर बैठते हैं. वह उन्हें अपनी कापी पर केवल उतार देता है. बेशक लोगों की नजरों में बीमार है पर असल में मजे लूट रहा है.’

मैं भौचक्का था इस जानकारी से.

परीक्षा खत्म होने पर सभी इधरउधर चले गए, पर पुनदेव अपने ससुर के साथ पर्यटन करता रहा. यह तो बाद में अन्य प्रोफेसरों से पता चला कि उस की कापियां जिन लोगों के पास गई थीं, वह उन सब की चरण रज लेने और बच्चों के लिए मिठाई देने निक ला था.

परीक्षाफल निकला. मुझे अपने प्रथम श्रेणी में आने की खुशी नहीं हुई, जब मैं ने देखा कि प्रथम श्रेणी में द्वितीय स्थान पुनदेव का था.

उस समय स्नातक और आनर्स की पढ़ाई साथसाथ ही होती थी. हम ने भी स्नातक आनर्स में दाखिला ले लिया और जिंदगी की गाड़ी पहले की तरह ही अपनी रफ्तार से चलती रही. पुनदेव बी.ए में 2 जुड़वां बेटों का बाप बन कर और भी अकड़ गया था. उस ने दर्शनशास्त्र में दाखिला लिया था. अत: विभागाध्यक्ष के दामाद होने का एक लाभ यह भी मिल रहा था कि बाकी छात्रों को उपस्थिति सशरीर बनवानी पड़ती, जबकि उस का काम कक्षा में आए बिना ही चल जाता.

इसी प्रकार पुनदेव को बी.ए. आनर्स में भी जैसतैसे बड़ेबड़े पापड़ बेल कर बस, प्रथम श्रेणी मिल सकी. इस बार उसे कोई स्थान नहीं मिला था. उस की निर्लज्जता मुझे अब भी याद है, जब उस ने प्रथम, द्वितीय और तृतीय स्थान पाने वाले हम तीनों विद्यार्थियों से मुबारकबाद देते हुए कहा था, ‘तुम तीनों को मेरा शुक्रगुजार होना चाहिए कि मैं ने परीक्षकों से कहा, ‘सर, मुझे केवल प्रथम श्रेणी चाहिए, कोई विशिष्टता नहीं क्योंकि जो पढ़ाकू दोस्त हैं, उन की छात्रवृत्ति बंद हो गई तो वे मुझ से नाराज हो जाएंगे.’ और तुम लोगों की नाराजगी मुझे कतई गवारा नहीं.’

गुस्सा तो बहुत आया, पर उस से बात कौन बढ़ाता. गुस्सा पी कर हम चुप रह गए.

पुनदेव ने इधर एम.ए. में दाखिला लिया, उधर रामयश को प्रो. मनोहर की कृपा एवं रामयश के पैसों के कारण विधायक का टिकट मिल गया. चुनाव अभियान में पुनदेव और उस केखास किस्म के साथी दिनरात लगे रहते, पोस्टर छपते, परचे लिखे जाते, दूसरी पार्टी वालों के बैनर रातोंरात नोच दिए जाते, दीवारों पर लिखे चुनाव प्रचार पर कालिख पोत दी जाती. सक्रिय विरोधियों को पिटवा दिया जाता. उन की चुनाव सभाओं में पुनदेव के फेल होने वाले दोस्त हंगामा कर देते. काले झंडे लहराने लगते. ईंटरोड़े बरसाने लगते, भीड़ तितरबितर हो जाती.

मेरा खून खौल जाता. जी चाहता अकेले ही मैदान में कूद पडं़ ू और उस की सारी कलई खोल कर रख दूं, पर मेरे मांबाप ऐसे कामों के विरोधी थे. उन्होंने जबरदस्ती मुझे वापस शहर भेज दिया और कहा, ‘तुम क्या कर लोगे अकेले? वह किसी से वोट मांगता नहीं है. साफ कहता है, ‘आप लोग बूथ पर आने का कष्ट न करें, सारे वोट शांतिपूर्वक खुद ब खुद गिर जाएंगे. आप लोगों के वहां जाने से, जाने क्या हुड़दंग हो जाए. फिर आप लोग यह न कहना कि तुम ने हमें सचेत नहीं किया.’ बेटे, इस जंगलराज में राजनीति को दूर से सलाम करो और अपना काम करो.’

एम.ए. तक आतेआते मुझ में परिपक्वता आ गई थी. मैं सोचता, ‘पुनदेव क्या करेगा ऐसी नकली डिगरी हासिल कर के. वह न बोल सकता है, न तर्क कर सकता है. बात की तह तक जाने की उस की सामर्थ्य ही नहीं है. केवल हल्ला कर सकता है, मारपीट कर सकता है.’

मुझे कभीकभी उस पर दया भी आती, ‘बेचारा पुनदेव, चोरी कर के, चापलूसी कर के पास तो हो गया, पर साक्षात्कार में क्या होगा. खेतीबाड़ी या व्यवसाय ही करना था तो इतने वर्ष स्कूलकालिज में व्यर्थ ही गंवा दिए.’ फिर मन में बैठा चोर फुसफुसाता, ‘उस का बाप विधायक है. उस के लिए हजारों रास्ते हैं, तुम अपनी फिक्र करो.’

अंतिम परचा देने के बाद मैं मोती झील पर अपने दोस्तों के साथ टहल रहा था. प्रो. श्याम थोड़ी देर पूर्व मिले थे और मेरी तथा मेरे अन्य 2 मित्रों की तारीफों के पुल बांध कर अभीअभी विदा हुए थे.

जाने किधर से कार लिए हुए पुनदेव आ गया और बड़ी गर्मजोशी से मिला. इधरउधर की बातें होती रहीं. पुनदेव की परेशानी यह थी कि इस बार कुलपति आई.ए.एस. पदाधिकारी आ गए थे और उन्होंने परीक्षा में ‘जंगलराज’ नहीं चलने दिया था. पुनदेव ने उन पर हर तरह का दबाव डलवा कर देख लिया था. भय दिखा कर, लोभ दे कर भी आजमा लिया था, पर वह टस से मस नहीं हुए थे. प्रो. मनोहर क्या करते, जब कुलपति खुद ही 2-3 बार परीक्षा हाल का चक्कर लगा जाते थे.

जब अपनी सारी परेशानी पुनदेव बयान कर चुका तो जाने क्यों मेरे मन को तसल्ली सी हुई.

‘चलो, कहीं तो तुम्हारा ‘दरबे से सरबा जे चहबे से करबा’ वाला फार्मूला गलत हुआ.’ मैं ने भड़ास निकालते हुए कहा, ‘आगे क्या इरादा है, क्योंकि जैसा तुम बतला रहे हो, उस हिसाब से तुम पास नहीं हो सकोगे. पास हो भी गए तो प्राध्यापक तो बन नहीं पाओगे.’

पुनदेव ने अपनी आंखों में लाखों वाट के बल्ब की रोशनी भर कर एक हथेली से दूसरी को जकड़ते हुए पुन: वही राग अलापा, ‘दरबे से सरबा जे चहबे से करबा.’ तुम देखते रहे हो, मैं एक बार फिर साबित कर दूंगा कि बाप बड़ा न भैया, सब से बड़ा रुपय्या.’

जाने कैसे पुनदेव की खींचखांच कर दूसरी श्रेणी आ गई. मुझे अपनी नौकरी के सिलसिले में इस शहर में आना पड़ा. बरसों बाद एक सहपाठी मोहन मिला तो उस ने बतलाया, ‘मनोहरजी की सलाह पर रामयश ने शहर में एक कालिज खोल दिया है. 20-20 हजार

रुपए दान दे कर पुनदेव किस्म के व्याख्याताओं की नियुक्तियां हुई हैं. उसी में पुनदेव भी लग गया है.’

मैं ने मुंह बना कर कहा, ‘ऐसे कालिज का क्या भविष्य है, मोहन?’

पर अब उस कार्ड को देख कर पता चल रहा था कि पुनदेव के पिता के नाम पर खोला गया वह कालिज विश्व- विद्यालय का अंगीभूत कालिज है और पुनदेव की तरह विद्या का दुश्मन विद्यार्थी उस का प्राचार्य है. पता नहीं, कैसे यह सब संभव हुआ, मैं नहीं जानता. पर उस का रटारटाया वाक्य रहरह कर मेरे कमरे की दीवारों में गूंजने लगा.

मैं दांत पीसता हुआ चीख उठा, ‘नहीं, पुनदेव, नहीं. तुम्हारा दरबे यानी द्रव्य सब कुछ नहीं है, तुम भूल जाते हो कि भौतिक सुखों के अलावा भी मन का एक जगत है, जहां व्यक्ति खुद को, खुद की कसौैटी पर ही खरा या खोटा साबित करता है. तुम्हारा मन तुम्हें धिक्कारता होगा. तुम ज्ञानपिपासु छात्रों से मुंह चुराते होगे. तुम्हें खुद पता होगा कि जिस जिम्मेदारी की कुरसी पर तुम बैठे हो, उस के काबिल तुम न थे, न हो, न होगे. यह सब संयोग था या…याद रखना अवसर या संयोग प्रकृति केशाश्वत नियम नहीं होते, बल्कि अपवाद होते हैं.’

सहसा मेरे कंधे पर स्पर्श सा हुआ और मैं चेतनावस्था में आ गया.

पत्नी ने चाय की प्याली मेरे सामने मेज पर रखते हुए कहा, ‘‘क्या अपवाद होता है?’’

मैं ने कार्ड उस के हाथों में देते हुए कहा, ‘‘14 वर्ष बाद गांव के किसी व्यक्ति ने साग्रह बुलाया है. तुम भी चलना. हजारों किलोमीटर की यात्रा करनी है, तैयारी शुरू कर दो.’’

विदेशी दामाद : आखिर एक पिता अपने दामाद से क्या चाहता है?- भाग 2

‘‘साहब, लगता है आप अपनी बेटी की शादी के बारे में चिंतित हैं. अगर कहें तो…’’ कहतेकहते कुमार रुक गया.

अब कहने के लिए बचा ही क्या है? मैं मोहभंग, विषादग्रस्त सा बैठा रहा.

‘‘साहब, क्या आप अपनी बेटी का रिश्ता विदेश में कार्य कर रहे एक इंजीनियर से करना पसंद करेंगे?’’ कुमार के स्वर में संकोच था.

अंधा क्या चाहे दो आंखें. कुमार की बात सुन मैं हतप्रभ रह गया. तत्काल कोई  प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर सका.

‘‘साहब, कुछ लोग अपनी बेटियों को विदेश भेजने से कतराते हैं. पर आज के जेट युग में दूरी का क्या महत्त्व? आप कनाडा से दिल्ली, मैसूर से दिल्ली की अपेक्षा जल्दी पहुंच सकते हैं.’’

मेरे अंतर के सागर में उल्लास का ज्वार उठ रहा था, परंतु आवेग पर अंकुश रख, मैं ने शांत स्वर में पूछा, ‘‘कोई लड़का तुम्हारी नजर में  है? क्या करता है? किस परिवार का है? किस देश में है?’’

‘‘साहब, मेरे कालिज के जमाने का एक दोस्त है. हम मैसूर में साथसाथ पढ़ते थे. करीब 5 साल पहले वह कनाडा चला गया था. वहीं पढ़ा और आज अंतरिक्ष इंजीनियर है. 70 हजार रुपए मासिक वेतन पाता है. परसों वह भारत आया है. 3 सप्ताह रहेगा. इस बार वह शादी कर के ही लौटना चाहता है.’’

मेरी बांछें खिल गईं. मुझे लगा, कुमार ने खुल जा सिमसिम कहा. खजाने का द्वार  खुला और मैं अंदर प्रवेश कर गया.

‘‘साहब, उस के परिवार के बारे में सुन कर आप अवश्य निराश होंगे. उस के मातापिता बचपन में ही चल बसे थे. चाचाजी ने पालपोस कर बड़ा किया. बड़े कष्ट, अभावों तथा ममताविहीन माहौैल में पला है वह.’’

‘‘ऐसे ही बच्चे प्रगति करते हैं. सुविधाभोगी तो बस, बिगड़ जाते हैं. कष्ट की अग्नि से तप कर ही बालक उन्नति करता है. 70 हजार, अरे, मारो गोली परिवार को. इतने वेतन में परिवार का क्या महत्त्व?’’

इधर कुमार का वार्त्ताक्रम चालू था, उधर मेरे अंतर में विचारधारा प्रवाहित हो रही थी, पर्वतीय निर्झर सी.

‘‘साहब, लगता है आप तो सोच में डूब गए हैं. घर पर पत्नी से सलाह कर लीजिए न. आप नरेश को देखना चाहें तो मैं…’’

बिजली की सी गति से मैं ने निर्णय कर लिया. बोला, ‘‘कुमार, तुम आज शाम को नरेश के साथ चाय पीने घर क्यों नहीं आ जाते?’’

‘‘ठीक है साहब,’’ कुमार ने अपनी स्वीकृति दी.

‘‘क्या तुम्हारे पास ही टिका है वह?’’

‘‘अरे, नहीं साहब, मेरे घर को तो खोली कहता है. वह मुंबई में होता है तो ताज में ठहरता है.’’

मैं हीनभावना से ग्रस्त हो गया. कहीं मेरे घर को चाल या झुग्गी की संज्ञा तो नहीं देगा.

‘‘ठीक  है, कुमार. हम ठीक 6 बजे तुम लोगों का इंतजार करेंगे,’’ मैं ने कहा.

मेरा अभिवादन कर कुमार चला गया. तत्पश्चात मैं ने तुरंत शांति से फोन पर संपर्क किया. उसे यह खुशखबरी सुनाई. शाम को शानदार पार्टी के आयोजन के संबंध में आदेश दिए. हांगकांग से मंगवाए टी सेट को निकालने की सलाह दी.

शाम को वे दोनों ठीक समय पर घर पहुंच गए.

हम तीनों अर्थात मैं, शांति औैर सुमन,  नरेश को देख मंत्रमुग्ध रह गए. मूंगिया रंग का शानदार सफारी सूट पहने वह कैसा सुदर्शन लग रहा था. लंबा कद, छरहरा शरीर, रूखे किंतु कलात्मक रूप से सेट बाल. नारियल की आकृति वाला, तीखे नाकनक्श युक्त चेहरा. लंबी, सुती नाक और सब से बड़ा आकर्षक थीं उस की कोवलम बीच के हलके नीले रंग के सागर जल सी आंखें.

बातों का सैलाब उमड़ पड़ा. चायनाश्ते का दौर चल रहा था. नरेश बेहद बातूनी था. वह कनाडा के किस्से सुना रहा था. साथ ही साथ वह सुमन से कई अंतरंग प्रश्न भी पूछता जा रहा था.

मैं महसूस कर रहा था कि नरेश ने सुमन को पसंद कर लिया है. नापसंदगी का कोई आधार भी तो नहीं है. सुमन सुंदर है. कानवेंट में पढ़ी  है. आजकल के सलीके उसे आते हैं. कार्यशील है. उस का पिता एक सरकारी वैज्ञानिक संगठन में उच्च प्रशासकीय अधिकारी है. फिर और क्या चाहिए उसे?

लगभग 8 बजे शांति ने विवेक- शीलता का परिचय देते हुए कहा, ‘‘नरेश बेटे, अब तो खाने का समय हो चला है. रात के खाने के लिए रुक सको तो हमें खुशी होगी.’’

‘‘नहीं, मांजी, आज तो नहीं, फिर कभी सही. आज करीब 9 बजे एक औैर सज्जन होटल में मिलने आ रहे हैं,’’ नरेश ने शांत स्वर में कहा.

‘‘क्या इसी सिलसिले में?’’ शांति ने घबरा कर पूछा.

‘‘हां, मांजी. मेरी समझ में नहीं आता, इस देश में विदेश में बसे लड़कों की इतनी ललक क्यों है? जिसे देखो, वही भाग रहा है हमारे पीछे. जोंक की तरह चिपक जाते हैं लोग.’’

फलक तक : कैसे चुना स्वर्णिमा ने अपना नया भविष्य -भाग 2

स्वर्णिमा ने राघव की बात को लगभग अनसुना सा कर दिया. ‘‘बहुत दिनों बाद मिले हैं. चलो, चल कर थोड़ी देर कहीं बैठते हैं,’’ स्वर्णिमा चलतेचलते बोली, ‘‘और किसकिस के संपर्क में हो कालेज के समय के दोस्तों में से?’’

‘‘बस, शुरू में तो संपर्क था कुछ दोस्तों से, समय के साथ सब खत्म हो गया.’’

‘‘और अपनी सुनाओ स्वर्णिमा. तुम तो कितनी अच्छी कविताएं लिखती थीं. कहां तक पहुंचा तुम्हारा लेखन, कितने संकलन छप चुके हैं?’’

‘‘एक भी नहीं, गृहस्थी के साथ यह सब कहां हो पाता है. बस, छिटपुट कविताएं यहांवहां पत्रिकाओं में छपती रहती हैं. कुछ साहित्यिक पत्रिकाओं में भी छपी हैं,’’ वह राघव से नजरें चुराती हुई  बोली.

‘‘जब मैं नौकरी के दौरान लिख सकता हूं तो तुम गृहस्थी के साथ क्यों नहीं?’’

‘‘बस, शायद यही फर्क है स्त्रीपुरुष का. स्त्री घर के लिए खुद को पूरी तरह समर्पित कर देती है, जबकि पुरुष का समर्पण आंशिक रूप से ही रहता है.’’

‘‘यह तो तुम सरासर इलजाम लगा रही हो मुझ पर,’’ राघव हंसता हुआ बोला, ‘‘मैं भी गृहस्थी के प्रति अपनी सभी जिम्मेदारियां पूरी करता हूं…’’

‘‘पर फिर भी पत्नी के लिए पति एक सीमारेखा तो खींच ही देता है. उस का शौक पति के लिए महत्त्वपूर्ण नहीं होता. पौधे को अगर जड़ें फैलाने को ही न मिलें तो मजबूती कहां से आएगी राघव? पौधे को अगर गमले की सीमाओं में पनपने के लिए ही बाध्य किया जाए तो वह अपनी पूर्णता कैसे प्राप्त करेगा? परिंदे अगर पिंजरे के बाहर पंख न फैला पाएं तो फिर…’’

स्वर्णिमा ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी. राघव ने कोई जवाब नहीं दिया.

‘‘अच्छा छोड़ो इन बातों को, अपने परिवार के बारे में कुछ बताओ…’’ स्वर्णिमा बात टालने की गरज से बोली.

‘‘बैंक में जौब करता हूं. 2 छोटे बच्चे हैं, पत्नी है. और तुम्हारे बच्चे? ’’

‘‘मेरी बेटी ने इसी साल कानपुर मैडिकल कालेज में दाखिला लिया है.’’

‘‘इतनी बड़ी बेटी कब हो गई तुम्हारी?’’

‘‘तुम भूल रहे हो राघव कि मेरा विवाह, बीकौम फाइनल ईयर में ही हो गया था.’’

‘‘कैसे भूल सकता हूं वह सब,’’ राघव एक लंबी सांस खींच कर बोला, ‘‘अचानक गायब हो गई थी ग्रुप से,’’ राघव का स्वर संजीदा हो गया, ‘‘पीछे मुड़ कर भी न देखा.’’

‘‘शादी के बाद ऐसा ही होता है, नई जिम्मेदारियां आ जाती हैं…’’

‘‘और नए अपने भी बन जाते हैं,’’ राघव लगभग व्यंग्य करता हुआ बोला.

‘‘बहुत बोलना सीख गए हो राघव…’’

‘‘हां, तब के कालेज में बीकौम कर रहे राघव और अब के राघव में बहुत फर्क भी तो है उम्र का.’’

‘‘और रुतबे का भी,’’ स्वर्णिमा बात पूरी करती हुई बोली, ‘‘अब तो साहित्यकार भी हो, सफल इंसान भी हो जिंदगी में हर तरह से.’’

‘‘क्यों, ईर्ष्या हो रही है क्या?’’

‘‘हां, हो तो रही है थोड़ीथोड़ी,’’ दोनों हंस पड़े.

‘‘नहीं स्वर्ण, सौरी स्वर्णिमा, मैं तो वैसा ही हूं अभी भी.’’

‘‘स्वर्ण ही बोलो न राघव. कालेज में तो मुझे सभी इसी नाम से बुलाते थे. ऐसा लगता है, वापस कालेज के प्रांगण में पहुंच गई हूं मैं. थोड़े समय तुम्हारे साथ उन बीती यादों को जी लूं. जब दिल में सिर्फ भविष्य की मनभावन कल्पनाएं थीं, न कि अतीत की अच्छीबुरी यादों की सलीब.’’

‘‘कवयित्री हो, उसी भाषा में अपनी बात कहना जानती हो. मैं कहता था न तुम्हें हमेशा कि कविता में दिल की भावनाओं को जाहिर करना ज्यादा आसान होता है, बजाय कहानी के.’’

‘‘लेकिन मुझे तो हमेशा लगता है कि गद्य, पद्य से अधिक सरल होता है और पढ़ने वाले को कहने वाले की बात सीधे समझ में आ जाती है,’’ स्वर्णिमा अपनी बात पर जोर डाल कर बोली.

‘‘नहीं स्वर्ण, कविता पढ़ने वाला जब कविता पढ़ता है, तो बोली हुई बात उसे सीधे खुद के लिए बोली जैसी लगती है. और कविता का भाव सीधे उस के दिल में उतर जाता है. फिर कविता में तुम कम शब्दों में बिना किसी लागलपेट के अपनी बात जाहिर कर सकती हो, लेकिन कहानी के पात्र जो कुछ बोलते हैं, एकदूसरे के लिए बोलते हैं और बात पात्रों में उलझ कर रह जाती है. कभीकभी तो पूरी कहानी लिख कर लगता है कि जो कहना चाहते थे, ठीक से कह ही नहीं पाए.’’

‘‘चलो, यही सही. बहुत समय बाद कोई मिला राघव, जिस से इस विषय पर ऐसी बात कर पा रही हूं,’’ स्वर्णिमा मुसकराती हुई बोली, ‘‘ऐसा लगता था जैसे मैं अपनी तर्कशक्ति ही खो चुकी हूं, हर बात मान लेने की आदत सी पड़ गई है.’’

‘‘तर्कशक्ति तो तुम सचमुच खो चुकी हो स्वर्ण,’’ राघव हंसता हुआ बोला, ‘‘कालेज के जमाने में तो तर्क में तुम से जीतना मुश्किल होता था और आज तुम ने सरलता से हार मान ली.’’

‘‘अब हार मानना सीख गई हूं. तुम ने जो जीतना शुरू कर दिया है,’’ स्वर्णिमा हंस कर बात को हवा में उड़ाते हुए बोली.

‘‘जब से जिंदगी में बड़ी हार से सामना हुआ, तब से जीतने की आदत डाल ली.’’

स्वर्णिमा को लगा, बहुत बड़ा मतलब है राघव के इस वाक्य का. बात को अनसुनी सी करती हुई बोली, ‘‘कब तक हो चंडीगढ़ में, वापसी कब की है?’’

‘‘बस, कल जा रहा हूं,’’ वह उठता हुआ बोला, ‘‘तुम 5 मिनट बैठो, मैं अभी आया,’’  कह कर राघव चला गया.

स्वर्णिमा उसे जाते हुए देखती रही. सचमुच कालेज के जमाने के राघव और आज के राघव में जमीनआसमान का फर्क था. उस का निखरा व्यक्तित्व उस की सफलता की कहानी बिना कहे ही बयान कर रहा था. उस का हृदय कसक सा गया.

6 लड़केलड़कियों का ग्रुप था उन का. कालेज में खूब मस्ती भी करते थे और खूब पढ़ते भी थे. राघव और वह दोनों ही पढ़नेलिखने के शौकीन थे. वह कविताएं लिखती थी और राघव कहानियां व लेख वगैरह लिखा करता था. राघव ने ही उसे उकसाया कि वह अपनी कविताएं पत्रिकाओं में भेजे और उसी की कोशिश से ही उस की कविताएं पत्रिकाओं में छपने लगी थीं. पढ़ने के लिए भी वे एकदूसरे को किताबें दिया करते थे. एकदूसरे को किताबें लेतेदेते, अपना लिखा पढ़तेपढ़ाते कब वे एकदूसरे करीब आ गए, उन्हें पता ही नहीं चला.

समान रुचियां उन्हें एकदूसरे के करीब तो ले आईं पर दोनों के दिलों में फूटी प्यार की कोंपलें अविकसित ही रह गईं. सबकुछ अव्यक्त ही रह गया. उन्हें मौका ही नहीं मिल पाया एकदूसरे की भावनाओं को ठीक से समझने का. वह राघव की आंखों में अपने लिए बहुतकुछ महसूस करती, पर कभी राघव ने कुछ कहा नहीं. वह भी जानती थी कि राघव अभी बीकौम ही कर रहा है, वह भी इतनी दूर तक उस का साथ नहीं दे पाएगी. उस के पिता उस के विवाह की पेशकश करने लगे थे. इसलिए उस ने भी उस की आंखों की भाषा पढ़ने की कोशिश नहीं की.

और फाइनल ईयर के इम्तिहान से पहले ही उस का विवाह तय हो गया. उस ने जब अपने विवाह का कार्ड अपने गु्रप को भेजा, तो सभी चहकने लगे, उसे छेड़ने लगे. लेकिन राघव हताश, खोयाखोया सा उसे देख रहा था जैसे उस के सामने उस का सारा संसार लुट गया हो और वह कुछ नहीं कर पा रहा था.

इम्तिहान के बाद उस का विवाह हो गया और उन दोनों के दिलों में सबकुछ अव्यक्त, अनकहा ही रह गया. वीरेन से विवाह हुआ तो वीरेन एक अच्छे पिता थे, अच्छे पति थे, पर ठीक उस माली की तरह. वे उसे प्यार से सहेजते, देखभाल करते पर सीमाओं में बांधे रखते. पति से अलग जाने की, अलग सोचने की उस की क्षमता धीरेधीरे खत्म हो गई. उस का लेखन बस, थोड़ाबहुत इधरउधर पत्रिकाओं तक ही सीमित रह गया.

तभी किताबें हाथ में उठाए राघव सामने से आता दिखाई दिया.

‘‘ये सब क्या?’’

‘‘मेरी किताबें हैं और कुछ तुम्हारी पसंद के प्रसिद्ध कवि व कवयित्रियों के संकलन हैं. तुम्हारे लिए पैक करवा लाया हूं,’’ वह बैग उस की तरफ बढ़ाता हुआ बोला.

‘‘ओह, थैंक्स राघव,’’ वह राघव को देख रही थी. सोचने लगी, भूख क्या सिर्फ शरीर या पेट की होती है. मानसिक और दिमागी भूख भी तो एक भूख है, जिसे हर कोई शांत नहीं कर सकता. क्यों इतने बेमेल जोड़े बन जाते हैं. राघव और उस के बीच एक मजबूत दिमागी रिश्ता है, जो किताबों से होता हुआ एकदूसरे तक पहुंचता है.

‘‘क्या सोच रही हो,’’ राघव उस की आंखों के  आगे हथेली लहराता हुआ बोला.

‘‘कुछ नहीं,’’ वह संभल कर बैठती हुई बोली, ‘‘तुम्हारी पत्नी को तो बहुत गर्व होता होगा तुम पर. उसे भी पढ़नेलिखने का शौक है क्या?’’

‘‘उसे स्वेटर बुनने का बहुत शौक है,’’ राघव ठहाका मार कर हंसता हुआ बोला, ‘‘हम तीनों को उसी के बुने हुए स्वेटर पहनने पड़ते हैं.’’ यह सुन कर वह भी खिलखिला कर हंस पड़ी.

‘‘स्वर्ण, कभी कालेज का समय याद नहीं करतीं तुम, कभी दोस्तों की याद नहीं आती?’’ राघव की आवाज एकाएक गंभीर हो गई थी.

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