‘‘तू बारबार विनय के विवाह के लिए मुझ पर क्यों दबाव डालती है. अरे, अगर उस का विवाह हो गया तो क्या तू ऐसे आ कर यहां रह पाएगी या मैं घर को अपने अनुसार चला पाऊंगी. हर बात में रोकटोक मुझ से सहन नहीं होगा,’’ मां की आवाज आई. ‘‘पर मां यह तो ठीक है कि भैया तुम से बहुत प्यार करते हैं. भला तुम इतनी स्वार्थी कैसे हो सकती हो?’’ ‘‘इस दुनिया में हर इनसान स्वार्थी है, फिर मैं क्यों नहीं बन सकती? मैं ने इतने कष्ट झेले हैं अब जा कर कुछ आराम मिला है फिर कोई आ कर मेरे अधिकार छीने यह मुझ से सहन नहीं होगा.’’ ‘‘मां, अगर भैया को तुम्हारी इस भावना का पता चला तो,’’ संजना ने आक्रोश भरे स्वर में कहा. ‘‘पता कैसे चलेगा… यह मैं तुझ से कह रही हूं, अब तुझ पर इतना विश्वास तो कर ही सकती हूं कि इस राज को राज ही रहने देगी.’’ ‘‘पर मां…’’
‘‘इस संदर्भ में अब मैं एक शब्द नहीं सुनना चाहती. तू अपनी गृहस्थी संभाल और मुझे मेरे तरीके से जीने दे.’’ ‘‘अगर ऐसा था तो तुम ने मेरा विवाह क्यों किया. तुम्हारे अनुसार मैं ने भी तो किसी का बेटा छीना है.’’ ‘‘तेरी बात अलग है. तू मेरी बेटी है, तुझे मैं ने अच्छे संस्कार दिए हैं.’’ इस से आगे विनय से कुछ सुना नहीं गया वह उलटे पांव लौट गया. लगभग 1 घंटे बाद मां का फोन आया. मन तो आया बात न करे पर फोन उठा ही लिया. ‘‘कहां हो तुम, बेटे. इतनी देर हो गई. चिंता हो रही है.’’ आज स्वर की मिठास पर वितृष्णा हो आई पर फिर भी आदतन सहज स्वर में बोला, ‘‘कुछ दोस्त मिल गए हैं, नाश्ते पर इंतजार मत करना, मुझे देर हो जाएगी.’’ ‘‘तेरे दोस्त भी तो तेरा पीछा नहीं छोड़ते. अच्छा जल्दी आ जाना वरना दीप उठते ही तुम्हें ढूंढ़ेगा.’’
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मां का कई बार फोन आते देख उस ने स्विच औफ ही कर दिया. लगभग शाम को लौटा तो मां के तरहतरह के प्रश्नों के उत्तर में उस ने सिर्फ इतना कहा, ‘‘अचानक बौस ने बुला लिया, उन के साथ किसी प्रोजैक्ट पर बात करतेकरते गहमागहमी हो गई. आज प्लीज मुझे अकेला छोड़ दीजिए, बहुत थक गया हूं.’’ मां को अचंभित छोड़ वह अपने कमरे में चला गया तथा कमरा बंद कर लिया. ‘‘पता नहीं क्या हो गया है इसे, आज से पहले तो इस ने ऐसा कभी नहीं किया.’’ ‘‘भैया कह रहे थे कि बौस से कुछ गहमागहमी हो गई है. हो सकता है कुछ आफिस की परेशानी हो.’’
‘‘अगर कुछ परेशानी भी है तो ऐसे कमरा बंद कर के बैठने से थोड़े ही हल हो जाएगी, आज तक तो हर परेशानी मुझ से शेयर करता था फिर आज… कहीं उस ने वह बात…’’ ‘‘मां…तुम भी न जाने क्याक्या सोचती रहती हो…’’ उस के कानों में दीदी के वाक्य पड़े. खाने के समय मां व दीदी उस से खाने के लिए कहने आईं पर उस ने कह दिया, ‘‘भूख नहीं है, उन के साथ ही खा लिया था.’’ विनय जानता था कि उस के इस व्यवहार से मां और दीदी दोनों आहत होंगी पर वह अपने आहत मन का क्या करे? मन नहीं लगा तो वह किताब ले कर बैठ गया. वैसे भी किताबें उस की सदा से साथी रही थीं.
उस की लाइब्रेरी शरतचंद से ले कर चेतन भगत, शेक्सपियर से ले कर हैरी पौटर जैसे नएपुराने लेखकों की किताबों से भरी पड़ी थी. जब मन भटकता था तो वह किताब ले कर बैठ जाता. मन का तनाव तो दूर हो ही जाता, मन को शांति भी मिल जाती थी. फिर अचानक से उस ने उन पंक्तियों पर नजर डाली तो क्या अब मां के प्रेम में स्वार्थ आ गया है जिस से अनचाहा डर पैदा हो गया है.
परिस्थितियों पर नजर डाली तो लगा मां का डर गलत नहीं है पर उन का सोचना तो गलत है. उन्हें यह क्यों लगने लगा है कि दूसरा आ कर उन से उन का अधिकार छीन लेगा. अगर वह अपना निस्वार्थ प्रेम बनाए रखती हैं तो अधिकार छिनेगा नहीं वरन उस में वृद्धि होगी. अगर मैं उन का सम्मान करता हूं, उन की हर इच्छा का पालन करता हूं तो क्या उन का कर्तव्य नहीं है कि वे भी मेरी इच्छा का सम्मान करें, मुझे बंधक बना कर रखने के बजाय थोड़ी स्वतंत्रता दें. अगर मां नहीं चाहतीं तो मैं स्वयं प्रयास करूंगा. आखिर मेरी भी कुछ इच्छाएं हैं. मैं कर्तव्य के साथ अधिकार भी चाहता हूं. मां को मुझे मेरा अधिकार देना ही होगा. मैं संजना से बात करूंगा, अगर उस ने साथ दिया तो ठीक वरना मर्यादा लांघनी ही पड़ेगी. आखिर जब बुजुर्ग अपने ही अंश की भावना को न समझना चाहें तो बच्चों को मर्यादा लांघनी ही पड़ती है.
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इस विचार ने उस के मन में चलती उथलपुथल को शांति दी, घड़ी की ओर देखा तो 2 बज रहे थे, वह सोने की कोशिश करने लगा. साल भर बाद विनय ने संजना और विशाखा के साथ अपने अपार्टमैंट के सामने कार खड़ी की. संजना ने कार से उतर कर कहा, ‘‘भैया, आप भाभी को ले कर पहुंचो तब तक मैं आरती का थाल सजाती हूं.’’ ‘‘अरे, संजना तू, अचानक. न कोई सूचना…कहां है समीर और दीप…’’ मां ने दरवाजे पर उसे अकेला खड़ा देख कर प्रश्न किया. ‘‘वे भी आ रहे हैं पर मां अभी आरती का थाल सजाओ… भइया, भाभी ले कर घर आए हैं.’’ ‘‘भाभी…क्या कह रही है तू. वह ऐसा कैसे कर सकता है. मुझे बिना बताए इतना बड़ा फैसला…ऐसा करते हुए एक बार भी मेरा खयाल नहीं आया. क्या तू भी इस में शामिल है?’’
मां ने बौखला कर कहा. ‘‘हां, मैं भी…मां अगर अपना सम्मान बनाए रखना चाहती हो तो खुशीखुशी बहू का स्वागत करो. मैं आरती का थाल सजाती हूं और हां, तुरंत होटल ‘नटराज’ के लिए निकलना है, कोर्टमैरिज हो चुकी है पर समाज की मुहर लगाने के लिए वहां हमें रिसेप्शन के साथ विवाह की रस्में भी पूरी करनी हैं, कार्ड बंट चुके हैं, थोड़ी देर में मेहमान भी आने प्रारंभ हो जाएंगे. यहां कोई हंगामा न हो इसलिए समीर दीप को ले कर सीधे होटल चले गए हैं,’’ जितनी तेजी से संजना का मुंह चल रहा था उतनी तेजी से उस के हाथ भी.
‘‘पर लड़की कौन है, उस का परिवार कैसा है?’’ क्रोध पर काबू पाते हुए मां ने पूछा. ‘‘लड़की से तुम मिल चुकी हो. भैया के साथ ही काम करती है.’’ ‘‘क्या यह विशाखा….’’ ‘‘मां तुम्हें चपटी नाक वाली नजर आई होगी पर मुझे वह बहुत ही सुलझी और व्यावहारिक लड़की लगी और सब से बड़ी बात वह भैया की पसंद है.’’ ‘‘शादी से पहले हर लड़की सुलझी नजर आती है.’’ ‘‘मां, अगर अब भी तुम ने अपना रवैया नहीं बदला तो मेरी बात याद रखना, घाटे में तुम्हीं रहोगी. बच्चे बड़ों से सिर्फ आशीर्वाद चाहते हैं, उस के बदले में बड़ों को सम्मान देते हैं. अगर उन्हें आशीर्वाद की जगह ताने और उलाहने मिलते रहे तो बड़े भी उन से सम्मान की आशा न रखें. वैसे भी तुम्हारे रुख के कारण ही हमें अनचाहे तरीके से फैसला लेना पड़ा और तो और, विशाखा के मातापिता को बड़ी कठिनाई से इस सब के लिए तैयार कर पाए हैं. अब चलो,’’
कहते हुए संजना का स्वर कठोर हो गया था. वह आरती का थाल लिए तेजी से बाहर की ओर चल दी. कहनेसुनने के लिए कुछ रह ही नहीं गया था. पंछी के पर निकल चुके हैं और वह अब बिना किसी की सहायता से उड़ना भी सीख चुका है. बहेलिया अगर चाहे भी तो उसे बांध कर नहीं रख सकता. सोच कर मां ने संजना का अनुसरण किया. संजना बाहर आई तो देखा दरवाजे पर विनय विशाखा के साथ खड़ा है. आरती का थाल संजना मां के हाथ में पकड़ा कर बोली, ‘‘भैया, पहले मेरी मुट्ठी गरम करो तब अंदर आने दूंगी.’’ विनय से मोटा सा लिफाफा पा कर ही वह हटी तथा मां की तरफ मुखातिब हो कर बोली, ‘‘मां, अब तुम्हारी बारी.’’
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‘पूरी जादूगरनी निकली, अभी से मेरे बेटे को फांस लिया, आगे न जाने क्याक्या होगा,’ मन ही मन बुदबुदाई तभी अंतर्मन ने उसे झकझोरा. अब अपना और कितना अपमान करवाएगी सपना. आगे बढ़, खुशियां तेरे द्वार खड़ी हैं, खुशीखुशी स्वागत कर. उन्होंने संजना के हाथ से थाल लिया तथा आरती उतारते हुए बोलीं, ‘‘अच्छा सरप्राइज दिया तुम लोगों ने, मुझे हवा भी नहीं लगने दी. अगर तुझे इसी से विवाह करना था तो मुझ से कहते, क्या मैं मना कर देती? संजना इस में कुछ मीठा तो रखा ही नहीं है अब बिना मुंह मीठा करवाए कैसे बहू को गृहप्रवेश करवाऊं. आज मीठा तो कुछ भी घर में नहीं है. जा थोड़ा सा गुड़ ले आ.’’
विनय और संजना ने एकदूसरे को देखा. मां में आए परिवर्तन ने उन्हें सुखद आश्चर्य से भर दिया. ‘‘अब खड़ी ही रहेगी या लाएगी भी.’’ संजना गुड़ लाने अंदर गई, विनय और विशाखा मां के चरणों में झुक गए.