आज मैं रिटायर हो रही हूं

कुनकुनी धूप जाड़े में तन को कितना चैन देती है यह कड़कड़ाती ठंड के बाद धूप में बैठने पर ही पता लगता है. मेरी चचिया सास ने अचार, मसाले सब धूप में रख दिए थे. खाट बिछा कर अपने सिरहाने पर तकियों का अंबार भी लगा दिया था. चादरें, कंबल और क्याक्या.

‘‘चाची, लगता है आज सारी की सारी धूप आप ही समेट ले जाएंगी. पूरा घर ही बाहर बिछा दिया है आप ने.’’

‘‘और नहीं तो क्या. हर कपड़े से कैसी गंध आ रही है. सब गीलागीला सा लग रहा है. बहू से कहा सब बाहर बिछा दे. अंदर भी अच्छे से सफाई करवा ले. दरवाजे, खिड़कियां सब खुलवा दिए हैं. एक बार तो ताजी हवा सारे घर से निकल जाए.’’

‘‘सुबह से मुग्गल धूप जलने की तेज सुगंध आ रही है. मैं सोच रही थी कि पड़ोस के गुप्ताजी के घर आज किसी का जन्मदिन होगा सो हवन करवा रहे हैं, तो आप ने ही हवन सामग्री जलाई होगी घर में.’’

‘‘कल तेरे चाचा भी कह रहे थे कि घर में हर चीज से महक आ रही है. सोचा, आज हर कोने में सामग्री जला ही दूं.’’

सलाइयां लिए स्वेटर बुनने में मस्त हो गईं चाची. उन की उंगलियां जिस तेजी से सलाइयों के साथ चलती हैं हमारा सारा खानदान हैरान रह जाता है. बड़ी फुर्ती से चाची हर काम करती हैं. रिश्तेदारी में किसी के भी घर पर बच्चा पैदा होने की खबर हो तो बच्चे का स्वेटर चाची पहले ही बुन कर रख देती हैं. दूध के पैसे देने जाती हैं तो स्वेटर साथ होता है. 60-65 के आसपास तो उन की उम्र होगी ही फिर भी लगता नहीं है कभी थक जाती होंगी. उन की बहू और मैं हमउम्र हैं और हमारे बीच में अच्छी दोस्ती भी है. हम कई बार थक जाती हैं और उन्हें देख कर अपनेआप पर शरम आ जाती है कि क्या कहेगा कोई. जवान बैठी है और बूढ़ी हड्डियां घिसट रही हैं.

‘‘चाची, आप बैठ जाओ न, हम कर तो रही हैं. हो जाएगा न… जरा चैन तो लेने दो.’’

‘‘चैन क्या होता है बेटा. आधा काम कर के भी कभी चैन होता है. बस, जरा सा ही तो रह गया है. बस, हो गया समझो.’’

‘‘मां, तुम कोई भी काम ‘मिशन’ ले कर मत किया करो. तुम तो बस, करो या मरो के सिद्धांत पर काम करती हो. कल दिन नहीं चढ़ेगा क्या? बाकी काम कल हो जाएगा न… या सारा आज ही कर के सोना है.’’

‘‘कल किस ने देखा है बेटा, कल आए न आए. कल का नाम काल…’’

‘‘कैसी मनहूस बातें करती हो मां. चलो, छोड़ो, भाभी और निशा कर लेंगी.’’

विजय भैया, चाची को खींच कर ले जाते हैं तब कहीं उन के हाथ से काम छूटता है.

आज 15-20 दिन के बाद धूप निकली है और चाची सारा का सारा घर ही बाहर ले आई हैं. निशा के माथे के बल आज कुछ गहरे लग रहे हैं. सर्दी की वजह से उस की बांह में कुछ दिन से काफी दर्द चल रहा था. घर का जरूरी काम भी वह मुश्किल से कर पा रही थी. ऊपर से बच्चों के टैस्ट भी चल रहे हैं. सारी की सारी रसोई और सारे के सारे बिस्तर बाहर ले आने की भला क्या जरूरत थी. धूप कल भी तो निकलेगी. लोहड़ी के बाद तो वैसे भी धूप ही धूप है. सुबह तो सामान महरी से बाहर रखवा लिया, शाम को समेटते समय निशा की शामत आएगी. दुखती बांह से निशा रात का खाना बनाएगी या भारी रजाइयां और गद्दे उठाएगी. कैसे होगा उस से? कुछ कह नहीं पाएगी सास को और गुस्सा निकालेंगी बच्चों पर या विजय भैया पर.

मैं जानती हूं. आज चाची के घर परेशानी होग  बिस्तर तो परसों भी सूख जाते या 4 दिन बाद भी. टैस्ट को कैसे रोका जाएगा. और वही हुआ भी.

दूसरे दिन निशा धूप में कंबल ले कर लेटी थी और चाची उखड़ीउखड़ी थीं.

‘‘क्या हुआ चाची, निशा की बांह का दर्द कम नहीं हुआ क्या?’’

‘‘कल 4 बिस्तर जो उठाने पड़े. बस, हो गई तबीयत खराब.’’

‘‘चाची, उस की बांह में तो पहले से ही दर्द था. आप ने इतना झमेला डाला ही क्यों था. आप समझती क्यों नहीं हैं. ज्यादा से ज्यादा आप अपना तकियारजाई ले आतीं. जोशजोश में आप निशा पर कितना काम लाद देती हैं. मैं ने आप से पहले भी कहा था कि अब घर के काम में ज्यादा दिलचस्पी लेना आप छोड़ दीजिए. अपनी बहू को उस के हिसाब से सब करने दीजिए पर मानती ही नहीं हैं आप.’’

मैं ने कान में धीरे से फुसफुसा कर कहा. चाची ने गौर से मुझे देखा. मैं दावा कर सकती हूं कि चाची के साथ भी मेरा मित्रवत व्यवहार चलता है. दकियानूस नहीं हैं चाची और न ही अक्खड़. समझाओ तो समझ भी जाती हैं.

‘‘अब उस की बांह तो और दुख गई न. आप ने इतना बखेड़ा कर डाला. एक बिस्तर सुखा लेतीं. आज भी तो धूप है न… कुछ आज भी हो जाता.’’

सुनती रहीं चाची फिर धीरे से उठ कर नीचे चली गईं. वापस आईं तो उन के हाथ में लहसुन जला गरमगरम तेल था.

‘‘निशा, उठ बेटा.’’

चाची ने धीरे से निशा का कंबल खींचा. उठ कर बैठ गई निशा. उन्होंने उस की बांह में कस कर मालिश कर दी.

‘‘तुम ने बताया क्यों नहीं, बांह में दर्द है. मैं बादामसौंठ का काढ़ा बना देती. अभी नीचे गैस पर चढ़ा कर आई हूं. रमिया को समझा आई हूं कि उसे कब उतारना है…अभी गरमागरम पिएगी तो रात तक दर्द गायब हो जाएगा.’’

मैं कनखियों से देखती रही. निशा के माथे के बल धीरेधीरे कम होने लगे थे.

‘‘रात को खिचड़ी बना लेंगे,’’ चाची बोलीं, ‘‘तेरे पापा को भी अच्छी लगती है.’’

सासबहू की मनुहार मुझे बड़ी प्यारी लग रही थी. निशा चुपचाप काढ़ा पी रही थी. मेरी सास नहीं हैं और इन दोनों को देख कर अकसर मुझे यह प्रश्न सताता है कि अगर मेरी सास होतीं तो क्या चाची जैसी होतीं या किसी और तरह की. मुझे याद है, मेरे बेटे के जन्म के समय मुझे खुद पता नहीं कि चाची क्याक्या पिला दिया करती थीं. मैं मना करती तो चपत सिर पर सवार रहती.

‘‘खबरदार, फालतू बात मत करना.’’

‘‘चाची, इतना क्यों खिलाती हो?’’

‘मेरी सास कहा करती थीं कि बहू  और घोड़े को खिलाना कभी व्यर्थ नहीं जाता. तू चुपचाप खा ले जो भी मैं खिलाऊं.’’

‘‘घोड़ा और बहू एक कैसे हो गए, चाची?’’

‘‘घोड़ा ताकतवर होगा तो ज्यादा बोझ उठाएगा और बहू ताकतवर होगी तो बीमार कम पड़ेगी. बीमार कम पड़ेगी तो बेटे की कमाई, दवा पर कम लगेगी और कामों में ज्यादा. सेहतमंद बहू के बच्चे सेहतमंद होंगे और घर की बुनियाद मजबूत होगी. सेहतमंद बहू ज्यादा काम करेगी तो घर के ही चार पैसे बचेंगे न. अरे, बहू को खिलाने के फायदे ही फायदे हैं.’’

‘‘आप की सास आप को बहुत खिलाती थीं क्या?’’

‘‘तेरी सास नानुकर करती रहती थी. खानेपीने में नकारी…इसीलिए तो बीमार रहती थी. मुझे देख मैं अपनी सास का कहना मानती थी इसीलिए आज भी भागभाग कर सब काम कर लेती हूं.’’ चाची अपनी सास को बहुत याद करती हैं. अकसर मैं ने इस रिश्ते को बदनाम ही पाया है. सास भी कभी प्यार कर सकती है यह सदा एक प्रश्न ही रहा है. पराए खून और पराई संतान पर किसी को प्यार कम ही आता है. मुझे याद है जब निशा इस घर में आई थी तब मेरी शादी को 2 साल हो चुके थे. चाचाचाची अपनी दोनों बेटियां ब्याह कर अकेले रह रहे थे. विजय की नौकरी तब बाहर थी. हमारी कोठी बहुत बड़ी है. आमनेसामने 2 घर हैं, बीच में बड़ा सा आंगन. पूरे घर पर एक ही बड़ी सी छत.

मेरी भी 2 ननदें ब्याही हुई हैं और पापा की छत्रछाया में मैं और मेरे पति बड़े ही स्नेह से रहते हैं. चाचीचाचा का बड़ा सहारा है. विजय भैया शादी के बाद 2 साल तो बाहर ही रहे अब इसी शहर में उन की बदली हो गई है.  निशा के आने तक चाची ही मेरी सास थीं. मेरी दोनों ननदें बड़ी हैं. इस घर में क्या माहौल है क्या नहीं मुझे क्या पता था. मन में एक डर था कि बिना औरत का घर है, पता नहीं कैसेकैसे सब संभाल पाऊंगी, ननदें ब्याही हुई थीं…उन का भी अधिकार मित्रवत न हो कर शुरू में रोबदार था. चाची कम दखल देती थीं और लड़कियों को अपनी करने देती थीं. कुछ दिन ऐसा चला था फिर एक दिन पापा ने ही मुझे समझाया था :

‘‘मुझे अपने घर में लड़कियों का ज्यादा दखल पसंद नहीं है. इसलिए तुम जराजरा बात के लिए उन का मुंह मत देखा करो. तुम्हारी चाची हैं न. कोई भी समस्या हो, कुछ भी कहनासुनना हो तो उन से पूछा करो. लड़कियां अपने घर में हैं… जो चाहें सो करें, मेरे घर में तुम हो, मेरी छोटी भाभी हैं… एक तरह से वे भी मेरी बहू जैसी ही हैं. फिर क्यों कोई बाहर वाली हमारे घर के लिए कोई भी निर्णय ले.’’

मेरा हाथ पकड़ कर पापा चाची की रसोई में ले गए थे. सिर पर पल्ला खींच चाची ने अपने हाथ का काम रोक लिया था.

‘‘बीना, आज से इसे तुम्हें सौंपता हूं. तुम्हीं इस की मां भी हो और सास भी.’’

बरसों बीत गए हैं. मुझे वे क्षण आज भी याद हैं. चाची ने गुलाबी रंग की सफेद किनारी वाली साड़ी पहन रखी थी. माथे पर बड़ी सी सिंदूरी बिंदिया. तब चाची पूरियां तल रही थीं. आटा छिटक कर परात से बाहर जा गिरा था, हमारे घरों में ऐसा मानते हैं कि आटा परात से बाहर जा छिटके तो कोई मेहमान आता है. विजय भैया और चाचा तब नाश्ता कर रहे थे.

‘‘मां, तुम्हारा आटा छिटका…देखो आज कौन आता है.’’

ये दोनों बातें साथसाथ हुई थीं. रसोई में मेरा प्रवेश करना और चाची का आटा छिटकना.

‘‘जी सदके… मेहमान क्यों आज तो मेरी बहूरानी प्रीति आई है…आजा मेरी बच्ची…’’

अकसर ऐसा होता है न कभीकभी जब हम स्वयं नहीं जानते कि हम कितने उदास हो चुके हैं. मायका दूर था…घर में करने वाली मैं अकेली औरत, पापा और मेरे पति अजय के जाने के बाद घर में अकेली घुटती रहती थी या जराजरा बात के लिए अपनी ननदों को फोन करती. शायद पापा को उस दिन पहली बार मेरी समस्या का खयाल आया था.

…और चाची ने बांहें फैला कर जो उस पल छाती से लगाया तो वह स्नेहिल स्पर्श मैं आज तक भूली नहीं हूं. रोने लगी थी मैं. शायद उस पल की मेरी उदासी इतनी प्रभावी थी कि सब भीगभीग से गए थे. पापा आंखें पोंछ चले गए थे. विजय भैया ने मेरा सिर थपक दिया था.

‘‘हम हैं न भाभी. रोइए मत. चुप हो जाइए.’’

वह दिन और आज का दिन, चाची से ऐसा प्यार मिला कि अपना मायका ही भूल गई मैं. चाची मेरी सखी भी बन गईं और मेरी मां भी.

मेरे दोनों बेटों के जन्म पर चाची ने ही मुझे संभाला. विजय भैया की शादी में चाची ने हर जिम्मेदारी मुझ पर डाल रखी थी. निशा के गहनों में, चूडि़यों में, गले के हारों में, कपड़ों में सूटसाडि़यों से शालस्वेटरों तक चाची ने मेरी ही राय को प्राथमिकता दी थी. निशा भी हिलीमिली सी लगी. आते ही मुझ से  प्यार संजो लिया उस ने भी. लगभग 8 साल हो गए हैं निशा की शादी को और 10 साल मुझे इस घर में आए. बहुत अच्छी निभ रही है हम में. एक उचित दूरी और संतुलन रख कर हमारा रिश्ता बड़ा अच्छा चल रहा है. निशा के माथे पर जरा सा बल पड़े तो समझ जाती हूं मैं.

‘‘चाची, आप थोड़ाथोड़ा अपना हाथ खींचना शुरू कर दीजिए न. उसे उसी के तरीके से करने दीजिए, अब आप की जिम्मेदारी खत्म हो चुकी है. जरा देखिए, हम कैसेकैसे सब करती हैं, कहीं कोई परेशानी आएगी तो पूछ लेंगे न.’’

‘‘मैं बेकार हो जाऊंगी तब. हाथपैर ही न चलाए तो आज ही जंग लग जाएगा.’’

‘‘जंग कैसे लगेगा. सुबह उठ कर चाचाजी के साथ सैर करने जाइए, रसोई के अंदर जरा कम जाइए. बाहर से मदद कर दीजिए, सब्जी काट दीजिए, सलाद काट दीजिए. सूखे कपड़े तह कर के अलगअलग रख दीजिए. कितने ही हलकेफुलके काम हैं…जराजरा अपने अधिकार कम करना शुरू कीजिए.’’

‘‘तुझे क्या लगता है कि मैं अनावश्यक अधिकार जमाती हूं? निशा ने कुछ कहा है क्या?’’

‘‘नहीं चाची, उस ने क्या कहना है. मैं ही समझा रही हूं आप को. अब आप चिंता मुक्त हो कर जीना शुरू कीजिए, सुबहसुबह उठ कर नहाधो कर रसोई में जाने की अब आप को क्या जरूरत है, फिर आप के जोड़ भी दुखते हैं.

‘‘ऐसा कौन बरात का खाना बनाना होता है. 10 बजे तक सारे काम निबटा देना आप की कोई जरूरत तो नहीं है न. 7 बजे उठ कर भी नाश्ता बन सकता है. दोपहर का तो 2 बजे चाहिए, इतनी हायतौबा सुबहसुबह किसलिए. अपने वक्त किया न आप ने, अब निशा का वक्त शुरू हुआ है तो करने दीजिए उसे. रिटायर हो जाइए अब आप.’’

चाची चुपचाप सुनती रहीं. मुझे डर भी लग रहा था कि कहीं यह मेरी अनावश्यक सुलह ही प्रमाणित न हो जाए. कहीं निशा यही न समझ ले कि मैं ही सासबहू में दुख पैदा कर रही हूं. सच तो यह है कि सास कभीकभी बिना वजह अपनी हड्डियां तोड़ती रहती हैं, जो बेटे की गृहस्थी में योगदान नहीं बनता बल्कि एक अनचाहा बोझ बन जाता है.

‘‘अब मां ने कर ही दिया है तो ठीक है, यों ही सही.’’

‘‘मैं ने तो सोचा था आज कोफ्ते बनाऊंगी… मां ने सुबहसुबह उठ कर दाल चढ़ा दी.’’

‘‘हम सोच रहे थे कि इस इतवार नई पिक्चर देखने जाएंगे पर मां ने मामीजी को खाने पर बुला लिया.’’

‘‘जोड़ों का दर्द है मां को तो सुबहसुबह क्यों उठ जाती हैं. सारा दिन खाली ही तो रहते हैं हम. इतनी मारधाड़ भी किसलिए.’’

निशा का स्वर कई बार कानों मेें पड़ जाता है जिस कारण मुझे चिंता भी होने लगती है. चाची का ममत्व अनचाहा न बन जाए. वे तो सदा से इसी तरह करती आ रही हैं न. सो आज भी करती हैं. उन्हें लगता है कि वे बहू की सहायता कर रही हैं जबकि बहू को सहायता चाहिए ही नहीं. अकसर यह भी देखने में आता है कि बहू नकारा होती नहीं है बस, सास के अनुचित सेवादान से नकारी हो जाती है. जाहिर सी बात है, जिस तरह एक म्यान में 2 तलवारें नहीं समा सकतीं उसी तरह 2 मंझे हुए कलाकार, 2 बहुत समझदार लोग, 2 कमाल के रसोइए एक ही साथ काम नहीं कर सकते, क्योंकि दोनों ही ‘परफैक्ट’ हैं, दोनों ही संपूर्ण हैं.

रात भर मुझे नींद नहीं आई, पता नहीं सुबह क्या दृश्य मिलेगा, सुबह 6 बजे उठी तो देखा सामने चाची की रसोई में अंधेरा था. कहीं चाची बीमार तो नहीं हो गईं. वे तो 6 बजे तक नहाधो कर सब्जियां भी चढ़ा चुकी होती हैं. कहीं मेरी ही कोई बात उन्हें बुरी तो नहीं लग गई जो कुछ मन पर ले लिया हो.  लपक कर चाची का दरवाजा खटखटा दिया. ‘‘आ जाओ बेटी, दरवाजा खुला है,’’ चाचा का स्वर था.

भीतर जा कर देखा तो नया ही रंग नजर आया. चाची रजाई में बैठी आराम से अखबार पढ़ रही थीं. मेज पर चाय के खाली कप पड़े थे. मेरी तरफ देखा चाची ने. एक प्यारी सी हंसी आ गई उन के होंठों पर.

‘‘चाची, आप ठीक तो हैं न,’’ मैं ने पूछा.

‘‘यह तो मैं भी पूछ रहा हूं. कह रही है कि आज से मैं रिटायर हो रही हूं. रात को ही इस ने निशा को समझा दिया कि सुबह से वही रसोई में जाएगी मैं नहीं… पता नहीं इसे एकाएक क्या सूझा है… मैं समझाता रहा…मेरी तो सुनी ही नहीं… आज अचानक से इस में इतना बड़ा परिवर्तन…’’

चाचा अपनी ऐनक उतार स्नानागार में चले गए और मैं मंत्रमुग्ध सी चाची का एक और प्यारा सा रूप देखती रही.

आईना : सुरुचि सुकेश से क्यों नाराज थी

मस्ती में कंधे पर कालिज बैग लटकाए सुरुचि कान में मोबाइल का ईयरफोन लगा कर एफएम पर गाने सुनती हुई मेट्रो से उतरी. स्वचालित सीढि़यों से नीचे आ कर उस ने इधरउधर देखा पर सुकेश कहीं नजर नहीं आया. अपने बालों में हाथ फेरती सुरुचि मन ही मन सोचने लगी कि सुकेश कभी भी टाइम पर नहीं पहुंचता है. हमेशा इंतजार करवाता है. आज फिर लेट.

गुस्से से भरी सुरुचि ने फोन मिला कर अपना सारा गुस्सा सुकेश पर उतार दिया. बेचारा सुकेश जवाब भी नहीं दे सका. बस, इतना कह पाया, ‘‘टै्रफिक में फंस गया हूं.’’

सुरुचि फोन पर ही सुकेश को एक छोटा बालक समझ कर डांटती रही और बेचारा सुकेश चुपचाप डांट सुनता रहा. उस की हिम्मत नहीं हुई कि फोन काट दे. 3-4 मिनट बाद उस की कार ने सुरुचि के पास आ कर हलका सा हार्न बजाया. गरदन झटक कर सुरुचि ने कार का दरवाजा खोला और उस में बैठ गई, लेकिन उस का गुस्सा शांत नहीं हुआ.

‘‘जल्दी नहीं आ सकते थे. जानते हो, अकेली खूबसूरत जवान लड़की सड़क के किनारे किसी का इंतजार कर रही हो तो आतेजाते लोग कैसे घूर कर देखते हैं. कितना अजीब लगता है, लेकिन तुम्हें क्या, लड़के हो, रास्ते में कहीं अटक गए होगे किसी खूबसूरत कन्या को देखने के लिए.’’

‘‘अरे बाबा, शांत हो कर मेरी बात सुनो. दिल्ली शहर के टै्रफिक का हाल तो तुम्हें मालूम है, कहीं भी भीड़ में फंस सकते हैं.’’

‘‘टै्रफिक का बहाना मत बनाओ, मैं भी दिल्ली में रहती हूं.’’

‘‘तुम तो मेट्रो में आ गईं, टै्रफिक का पता ही नहीं चला, लेकिन मैं तो सड़क पर कार चला रहा था.’’

‘‘बहाने मत बनाओ, सब जानती हूं तुम लड़कों को. कहीं कोई लड़की देखी नहीं कि रुक गए, घूरने या छेड़ने के लिए.’’

‘‘तुम इतना विश्वास के साथ कैसे कह सकती हो?’’

‘‘विश्वास तो पूरा है पर फुरसत में बताऊंगी कि कैसे मुझे पक्का यकीन है…’’

‘‘तो अभी बता दो, फुरसत में…’’

‘‘इस समय तो तुम कार की रफ्तार बढ़ाओ, मैं शुरू से फिल्म देखना चाहती हूं. देर से पहुंचे तो मजा नहीं आएगा.’’

सिनेमाहाल के अंधेरे में सुरुचि फिल्म देखने में मस्त थी, तभी उसे लगा कि सुकेश के हाथ उस के बदन पर रेंग रहे हैं. उस ने फौरन उस के हाथ को झटक दिया और अंधेरे में घूर कर देखा. फिर बोली, ‘‘सुकेश, चुपचाप फिल्म देखो, याद है न मैं ने कार में क्या कहा था, एकदम सच कहा था, जीताजागता उदाहरण तुम ने खुद ही दे दिया. जब तक मैं न कहूं, अपनी सीमा में रहो वरना कराटे का एक हाथ यदि भूले से भी लग गया तो फिर मेरे से यह मत कहना कि बौयफें्रड पर ही प्रैक्टिस.’’

यह सुन कर बेचारा सुकेश अपनी सीट पर सिमट गया और सोचने लगा कि किस घड़ी में कराटे चैंपियन लड़की पर दिल दे बैठा. फिल्म समाप्त होने पर सुकेश कुछ अलगअलग सा चलने लगा तो सुरुचि ने उस का हाथ पकड़ा और बोली, ‘‘इस तरह छिटक के कहां जा रहे हो, भूख लगी है, रेस्तरां में चल कर खाना खाते हैं,’’ और दोनों पास के रेस्तरां में खाना खाने चले गए.कोने की एक सीट पर बैठे सुकेश व सुरुचि बातें करने व खाने में मस्त थे. तभी शहर के मशहूर व्यापारी सुंदर सहगल भी उसी रेस्तरां में अपने कुछ मित्रों के साथ आए और एक मेज पर बैठ कर बिजनेस की बातें करने लगे. आज के भागदौड़ के समय में घर के सदस्य भी एकदूसरे के लिए एक पल का समय नहीं निकाल पाते हैं, सुरुचि के पिता सुंदर सहगल भी इसी का एक उदाहरण हैं. आज बापबेटी आमनेसामने की मेज पर बैठे थे फिर भी एकदूसरे को नहीं देख सके.

लगभग 1 घंटे तक रेस्तरां में बैठे रहने के बाद पहले सुरुचि जाने के लिए उठी. वह सुंदर की टेबल के पास से गुजरी और उस का पर्स टेबल के कोने से अटक गया. जल्दी से पर्स छुड़ाया और ‘सौरी अंकल’ कह कर सुकेश के हाथ में हाथ डाले निकल गई. उसे इस बात का एहसास ही नहीं हुआ कि वह टेबल पर बैठे अंकल और कोई नहीं उस के पिता सुंदर सहगल थे.

लेकिन पिता ने देख लिया कि वह उस की बेटी है. अपने को नियंत्रण में रख कर वह बिजनेस डील पर बातें करते रहे. उन्होंने यह जाहिर नहीं होने दिया कि वह उन की बेटी थी. रेस्तरां से निकल कर सुंदर सीधे घर पहुंचे. उन की पत्नी सोनिया कहीं बाहर जाने की तैयारी कर रही थीं. मेकअप करते हुए सोनिया ने पति से पूछा, ‘‘क्या बात है, दोपहर में कैसे आना हुआ, तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां, ठीक है.’’

‘‘तबीयत ठीक है तो इतनी जल्दी? कुछ बात तो है…आप का घर लौटने का समय रात 11 बजे के बाद ही होता है. आज क्या बात है?’’

‘‘कहां जा रही हो?’’

‘‘किटी पार्टी में और कहां जा सकती हूं. एक सफल बिजनेसमैन की बीवी और क्या कर सकती है.’’

‘‘किटी पार्टी के चक्कर कम करो और घर की तरफ ध्यान देना शुरू करो.’’

‘‘आप तो हमेशा व्यापार में डूबे रहते हैं. यह अचानक घर की तरफ ध्यान कहां से आ गया?’’

‘‘अब समय आ गया है कि तुम सुरुचि की ओर ध्यान देना शुरू कर दो. आज उस ने वह काम किया है जिस की मैं कल्पना नहीं कर सकता था.’’

‘‘मैं समझी नहीं, उस ने कौन सा ऐसा काम कर दिया…खुल कर बताइए.’’

‘‘क्या बताऊं, कहां से बात शुरू करूं, मुझे तो बताते हुए भी शर्म आ रही है.’’

‘‘मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है कि आप क्या बताना चाहते हैं?’’ सोनिया, जो अब तक मेकअप में व्यस्त थी, पति की तरफ पलट कर उत्सुकतावश देखने लगी.

‘‘सोनिया, तुम्हारी बेटी के रंगढंग आजकल सही नहीं हैं,’’ सुंदर सहगल तमतमाते हुए बोले, ‘‘खुल्लमखुल्ला एक लड़के के हाथों में हाथ डाले शहर में घूम रही है. उसे इतना भी होश नहीं था कि उस का बाप सामने खड़ा है.’’

कुछ देर तक सोनिया सुंदर को घूरती रही फिर बोली, ‘‘देखिए, आप की यह नाराजगी और क्रोध सेहत के लिए अच्छा नहीं है. थोड़ी शांति के साथ इस विषय पर सोचें और धीमी आवाज में बात करें.’’

इस पर सुंदर सहगल का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया. चेहरा लाल हो गया और ब्लडप्रेशर ऊपर हो गया. सोनिया ने पति को दवा दी और सहारा दे कर बिस्तर पर लिटाया. खुद का किटी पार्टी में जाने का प्रोग्राम कैंसल कर दिया.

सुंदर को चैन नहीं था. उस ने फिर से सोनिया से सुरुचि की बात शुरू कर दी. अब सोनिया, जो इस विषय को टालना चाहती थी, ने कहना शुरू किया, ‘‘आप इस बात को इतना तूल क्यों दे रहे हैं. मैं सुकेश से मिल चुकी हूं. आजकल लड़कालड़की में कोई अंतर नहीं है. कालिज में एकसाथ पढ़ते हैं. एकसाथ रहने, घूमनेफिरने में कोई एतराज नहीं करते और फिर मुझे अपनी बेटी पर पूरा भरोसा है कि वह कोई गलत काम कर ही नहीं सकती है. मैं ने उसे पूरी ट्रेनिंग दे रखी है. आप को मालूम भी नहीं है, वह कराटे जानती है और 2 बार मनचलों पर कराटे का इस्तेमाल भी कर चुकी है…’’

‘‘सोनिया, तुम सुरुचि के गलत काम में उस का साथ दे रही हो,’’ सुंदर सहगल ने तमतमाते हुए बीच में बात काटी.

‘‘मैं आप से बारबार शांत होने के लिए कह रही हूं और आप हैं कि एक ही बात को रटे जा रहे हैं. आखिर वह है तो आप की ही बेटी. तो आप से अलग कैसे हो सकती है

‘‘आप अपनी जवानी के दिनों को याद कीजिए. 25 साल पहले, आप क्या थे. एक अमीर बाप की बिगड़ी औलाद जो महज मौजमस्ती के लिए कालिज जाता था. आप ने कभी कोई क्लास भी अटैंड की थी, याद कर के बता सकते हैं मुझे.’’

‘‘तुम क्या कहना चाहती हो

 

?’’

‘‘वही जो आप मुझ से सुनना चाह रहे थे…आप का ज्यादातर समय लड़कियों के कालिज के सामने गुजरता था. आप ने कितनी लड़कियों को छेड़ा था शायद गिनती भी नहीं कर सकते, मैं भी उन्हीं में से एक थी. आतेजाते लड़कियों को छेड़ना, फब्तियां कसना ही आप और आप की मित्रमंडली का प्रिय काम था. छटे हुए गुंडे थे आप सब, इसलिए हर लड़की घबराती थी और मेरा तो जीना ही हराम कर दिया था आप ने. मैं कमजोर थी क्योंकि मेरा बाप गरीब था और कोई भाई आप की हरकतों का जवाब देने वाला नहीं था. इसलिए आप की हरकतों को नजरअंदाज करती रही.

‘‘हद तो तब हो गई थी जब मेरे घर की गली में आप ने डेरा जमा लिया था. आतेजाते मेरा हाथ पकड़ लेते थे. कितना शर्मिंदा होना पड़ता था मुझे. मेरे मांबाप पर क्या बीतती थी, आप ने कभी सोचा था. मेरा हाथ पकड़ कर खीखी कर पूरी गुंडों की टोली के साथ हंसते थे. शर्म के मारे जब एक सप्ताह तक मैं घर से नहीं निकली तो आप मेरे घर में घुस आए. कभी सोचने की कोशिश भी शायद नहीं की होगी आप ने कि क्या बीती होगी मेरे मांबाप पर और आज मुझ से कह रहे हैं कि अपनी बेटी को संभालूं. खून आप का भी है, कुछ तो बाप के गुण बच्चों में जाएंगे लेकिन मैं खुद सतर्क हूं क्योंकि मैं खुद भुगत चुकी हूं कि इन हालात में लड़की और उस के मातापिता पर क्या बीतती है.

‘‘इतिहास खुद को दोहराता है. आज से 25 साल पहले जब उस दिन सब हदें पार कर के आप मेरे घर में घुसे थे कि शरीफ बाप क्या कर लेगा और अपनी मनमानी कर लेंगे तब मैं अपने कमरे में पढ़ रही थी और कमरे में आ कर आप ने मेरा हाथ पकड़ लिया था. मैं चिल्ला पड़ी थी. पड़ोस में शकुंतला आंटी ने देख लिया था. उन के शोर मचाने पर आसपास की सारी औरतें जमा हो गई थीं…जम कर आप की धुनाई की थी, शायद आप उस घटना को भूल गए होंगे, लेकिन मैं आज तक नहीं भूली हूं.

‘‘महल्ले की औरतों ने आप की चप्पलों, जूतों, झाड़ू से जम कर पिटाई की थी, सारे कपड़े फट गए थे, नाक से खून निकल रहा था और आप को पिटता देख आप के सारे चमचे दोस्त भाग गए थे और उस अधमरी हालत में घसीटते हुए सारी औरतें आप को इसी घर में लाई थीं. ससुरजी भागते हुए दुकान छोड़ कर घर आए और आप की करतूतों के लिए सिर झुका लिया था, लिखित माफी मांगी थी, कहो तो अभी वह माफीनामा दिखाऊं, अभी तक संभाल कर रखा है.’’

सुंदर सहगल कुछ नहीं बोल सके और धम से बिस्तर पर बैठ गए. सोनिया ने उन के अतीत का आईना सामने जो रख दिया था. सच कितना कड़वा होता है शायद इस बात का अंदाजा उन्हें आज हुआ.

आज इतिहास करवट बदल कर सामने खड़ा है. खुद अपना चेहरा देखने की हिम्मत नहीं हो रही है, सुधबुध खो कर वह शून्य में गुम हो चुके थे. सोनिया क्या बोल रही है, उन के कान नहीं सुन रहे थे, लेकिन सोनिया कहे जा रही थी :

‘‘आप सुन रहे हैं न, चोटग्रस्त होने की वजह से एक हफ्ते तक आप बिस्तर से नहीं उठ सके थे. जो बदनामी आप को आज याद आ रही है, वह मेरे पिता और ससुरजी को भी आई थी. बदनामी लड़के वालों की भी होती है. एक गुंडे के साथ कोई अपनी लड़की का ब्याह नहीं कर रहा था. चारों तरफ से नकारने के बाद सिर्फ 2 ही रास्ते थे आप के पास या तो किसी गुंडे की बहन से शादी करते या कुंआरे रह कर सारी उम्र गुंडागर्दी करते.

‘‘जिस बाप की लड़की के पीछे गुंडा लग जाए, वह कर भी क्या सकता था. ससुरजी ने जब सब रास्ते बंद देख कर मेरा हाथ मेरे पिता से मांगा तो मजबूरी से दब कर एक गुंडे को न चाहते हुए भी उन्हें अपना दामाद स्वीकार करना पड़ा,’’ कहतेकहते सोनिया भी पलंग का पाया पकड़ कर सुबक कर रोने लगी.

बात तो सच है, जवानी की रवानी में जो कुछ किया जाता है, उस को भूल कर हम सभी बच्चों से एक आदर्श व्यवहार की उम्मीद करते हैं. क्या अपने और बच्चों के लिए अलग आदर्श होने चाहिए, कदापि नहीं. पर कौन इस का पालन करता है. सुंदर सहगल तो केवल एक पात्र हैं जो हर व्यक्ति चरितार्थ करता है.

अपने प्यार की तमन्ना

कालेज जाने के लिए निकल ही रही थी कि अमन ने उसे चिढ़ाते हुए कहा, ‘‘क्यों बहना, इतना सजधज कर कोई कालेज थोड़ा ही जाता है…’’ सीमा इठलाते हुए मुंह बना कर, टेढ़ी सी चाल चलते हुए बाहर निकल गई और अपनी साइकिल ले कर कालेज की ओर चल पड़ी. सीमा रास्तेभर वही जवानी वाली रवायतें, हर तरफ उड़ानों की ख्वाहिशें ले कर आगे बढ़ती गई…

कब कालेज आया, उसे पता ही नहीं चला. जैसे ही उस ने कालेज के बाहर लड़केलड़कियों की बातें करने और ठहाके लगाने की आवाजें सुनीं, तब वह अपने खयालों से बाहर आई और साइकिल स्टैंड पर अपनी साइकिल रख कर वह भी अपनी सहेलियों के साथ क्लास में दाखिल हो गई. घर में छोटे भाई अमन से मस्ती वाली लड़ाइयां और कालेज में दोस्तों की मस्ती… सीमा की जिंदगी कुछ ऐसे ही बीत रही थी. अमन के साथ की चुहलबाजी में कभी सीमा गुस्से में मां से शिकायत कर देती थी, तो मां का एक ही जवाब होता था कि जब वह ससुराल जाएगी, तो इन्हीं बातों को याद कर के रोएगी.

शायद सीमा भी यह बात जानती थी. एक ही तो भाई था उस का, लाड़ला भी तो बहुत था. फिर सीमा की जिंदगी में एक मोड़ ऐसा आया, जब उस के कालेज में रोहन आया, जो स्मार्ट और होशियार भी था. वह किसी पैसे वाले का बेटा नहीं था, लेकिन शान से जीता था, ऊपर से पढ़ाई में अव्वल भी था. वह सीमा से एक साल सीनियर था. सीमा जब भी रोहन को देखती, उस के दिल की धड़कनें बढ़ जाती थीं. उसे बारबार देखने को जी चाहता था. ये सब प्यार हो जाने की निशानियां थीं और अब वह भी समझने लगी थी कि उस की चाहत दिन ब दिन बढ़ती जा रही है. और एक दिन वह हो गया, जिस की सीमा को भी चाह थी. उसे कालेज के दफ्तर में कोई फार्म भरने के लिए बुलाया गया था.

वह दफ्तर की तरफ जा ही रही थी कि सामने से रोहन मस्ती में चलता हुआ आ रहा था. सीमा का कलेजा उछल कर गले तक आ गया. कैसे उस का सामना कर पाएगी वह… कालेज के अहाते में वे आमनेसामने आए, तो दोनों ही रुक गए. रोहन ने पहली बार उसे उसी नजर से देखा, जिस नजर से वह उसे देखती थी. वह एकदम सामने आ खड़ा हुआ, इतना पास कि सीमा उस की महकीमहकी सांसों को महसूस कर रही थी. उसे मदहोशी छाने लगी और वह कुछ बोलती, उस से पहले ही रोहन ने पूछ लिया, ‘‘कहां जा रही हो?’’ सीमा की घिग्घी बंध गई. आवाज मानो गले से निकल ही नहीं रही थी. वह इधरउधर देखने लगी, फिर एकदम से बोल पड़ी, ‘‘आप कहां से हैं?’’ एक प्यारी सी मुसकान के साथ रोहन ने बताया कि वह जयपुर से आया है.

उस के पापा एक बड़ी प्राइवेट कंपनी में काम करते हैं. यह सुन कर सीमा छोटी सी मुसकान के साथ आगे बढ़ गई. यह थी उन दोनों की पहली और छोटी सी मुलाकात, जो आगे जा कर प्यार का विराट वट वृक्ष बनने वाली थी. एक दिन जब सीमा अपनी साइकिल पर जा रही थी, तो रास्ते में रोहन मिल गया और उस से कौफी पीने के लिए बोला. सीमा भी बरबस ही हां कर के उस के पीछे चल पड़ी. वैसे, वह खुद भी शायद यही चाहती थी. वे दोनों होटल में गए और एक कोने वाली टेबल पर बैठ गए. अब सीमा शर्म छोड़ कर जी भर के रोहन को देख रही थी. रोहन भी बिना पलक झपकाए उस की आंखों में खो जाना चाहता था. जब वेटर ने उन से और्डर के बारे में पूछा,

तो हड़बड़ा कर उन दोनों ने एकसाथ मैनू कार्ड पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाए और मैनू कार्ड के बदले एकदूसरे का हाथ पकड़ लिया. इस से दोनों के जिस्म में सिहरन सी दौड़ गई. वेटर भी मुसकरा कर चला गया. थोड़ी देर बाद उन दोनों ने सैंडविच के साथ चाय मंगवाने का तय कर के वेटर को बुलाया और और्डर कर दिया. थोड़ी देर बाद चाय और सैंडविच खत्म कर उन दोनों ने फिर से मिलने का वादा किया और अपनेअपने घर की तरफ चल दिए. अब तो सीमा और रोहन की लंबीलंबी मुलाकातें शुरू हो गईं. ऐसे ही 2 साल बीत गए और दोनों को लगा कि अब घर वालों को बता कर रिश्ता तय करने की बात करनी चाहिए. एक दिन सीमा और रोहन होटल में बैठे अपनी भावी जिंदगी के बारे में सपने संजो रहे थे कि अमन अपने कुछ दोस्तों के साथ वहां आया और उन दोनों को साथ देख कर वह कुछ परेशान सा हो गया, पर दोस्तों की वजह से उन्हें अनदेखा कर वह चुप रह गया. सीमा जल्दी से होटल के बाहर निकल गई, पर उस के घर की तरफ कदम नहीं उठ रहे थे.

उस ने रोहन को नहीं बताया था कि अमन उस का भाई है. वह घर तो पहुंच गई, पर किसी से कुछ कहे बगैर ही अपने कमरे में जा कर लेट गई और बाहर की आहटें लेती रही. अमन की मोटरसाइकिल की आवाज से ही सीमा डर के मारे कांप सी गई और फिर अमन और मां की फुसफुसाहट की आवाजें आने लगीं. बस इतना समझ आया कि वे लोग पापा के घर आने का इंतजार करने की बात कर रहे थे. वह सोच रही थी कि पापा को पता चलते ही वे उसे बहुत डांटेंगे और शायद पिटाई भी कर दें. इन सब के लिए वह अपनेआप को मानसिक रूप से तैयार कर रही थी. यह सब सोचतेसोचते कब सीमा की आंख लग गई, उसे पता ही नहीं चला. जब आंखें खुलीं, तो उस के पापा पानी का गिलास ले कर सामने खड़े हुए थे. सीमा एकदम से उठ बैठी. पापा ने उसे पानी दे कर हालचाल पूछा,

लेकिन रोहन के बारे में कुछ नहीं पूछा और उस की मां से चाय बनाने की बोल कर वे सीमा का हाथ पकड़ उसे भी डाइनिंग टेबल पर ले गए. सीमा हैरान थी कि क्यों रोहन की कोई बात नहीं हुई. दूसरे दिन जब वह कालेज जाने को तैयार हुई तो उस की मां ने उसे रोका और बोलीं कि वे लोग उसी शाम को घूमने के लिए किसी हिल स्टेशन पर जा रहे हैं, तो उसे भी अपना बैग तैयार कर लेना चाहिए. सीमा हैरान थी, लेकिन वापस अपने कमरे में जा कर कुछ सोचतेसोचते अपने कुछ जोड़ी कपड़े अलमारी से निकाल कर एक अटैची में तह लगा कर रखने लगी, फिर सोचा कि रोहन को तो बताना पड़ेगा कि वह कुछ दिनों के लिए मिल नहीं पाएंगे, लेकिन बताए भी तो कैसे?

शाम को सीमा के पापा थोड़ा जल्दी ही आ गए थे. जैसे ही वे गुसलखाने से बाहर आए, मां सब के लिए चाय लाईं. चाय पी कर वे सब गाड़ी में बैठ निकल पड़े. सीमा का मन कर रहा था कि वह उड़ कर रोहन के पास चली जाए, लेकिन गाड़ी तो उसे रोहन से दूर लिए जा रही थी. कुछ ही घंटों के बाद वे लोग हिल स्टेशन पहुंच गए थे और होटल ढूंढ़ कर सामान ले कर अपने कमरों में गए. सीमा के पापा और मां एक कमरे में थे और वह अपने भाई अमन के साथ अलग कमरे में रहने वाली थी. अमन भी खुश था. उसे पापा के प्लान का पता चल चुका था. शाम की चाय पीने के बाद सब पार्क में घूम कर वापस आए, तो अमन ने ताश की गड्डी निकाली और सब खेलने लगे,

पर सीमा का मन खेलने में नहीं लग रहा था. वह बस रोहन के खयाल में ही उलझी रही थी. वह कब हार गई, पता ही नहीं चला. अगले दिन सीमा की मां ने उस से कहा कि शाम को वे लोग किसी के साथ डिनर पर जाने वाले हैं और उसे ठीक से तैयार होने के लिए भी बोला. शाम को जब सीमा उन लोगों से मिली, तो सारी बातें समझ में आ गईं. वे लड़के वाले लोग थे, जो सीमा को देखने आए थे. सीमा ने सोचा कि जब वह लड़के से अकेले में मिलेगी तो सब बता देगी, पर वह मौका भी नहीं मिला. दूसरे ही दिन उन का रोका और फिर सगाई और शादी भी हो गई. पापा ने डैस्टिनेशन वैडिंग का बहाना कर शादी निबटा दी थी. सीमा के पति का नाम तरुण था. जब वह ससुराल पहुंची, तो एकदम सामान्य सा, छोटा सा घर था और वैसा ही फर्नीचर था. पहले तो उस ने सोचा कि सुहागरात से पहले रोहन के बारे में तरुण को सबकुछ बता देगी, पर बाद में सोचा कि ये सब बातें बताने के लिए बहुत देर हो चुकी है. और आहिस्ता से कब सीमा की जिंदगी उन नई राहों पर चल पड़ी, पता ही नहीं चला.

बेटी कृति का जन्म उस के हजारों जख्मों पर मरहम लगा गया. उस की एकएक मुसकान पर वारी जाने लगी सीमा और जिंदगी कुछ संवर सी रही थी. एक दिन टैलीविजन पर किसी विचारक के इंटरव्यू को सुन कर सीमा चौंक गई. वह रोहन था. सीमा को आज शादी के इतने साल बाद भी रोहन की आवाज और बातें सुनसुन कर जो दुख हुआ, वह उस के चेहरे पर दिखने लगा था. वह रोने लगी थी, पर जल्दी ही उसे याद आया कि सास भी साथ बैठी हैं, तो वह बाथरूम में गई और मुंह धोया. इस के बाद वह जा कर बिस्तर पर लेट गई और कब सो गई, पता ही नहीं चला. अगली सुबह सीमा का थकान और दर्द से बदन टूट रहा था. वह बड़ी मुश्किल से उठ कर रसोईघर की तरफ जा रही थी,

तो चक्कर खा कर गिर पड़ी और बेहोश हो गई. जब उसे होश आया, तो वह बिस्तर पर पड़ी थी और सामने डाक्टर साहब, सास और तरुण बैठे थे. सास ने सारी बातें डाक्टर साहब को बता दी थीं. वे दवाएं दे कर चले गए और बाकी घर वाले भी अपनेअपने काम में लग गए, पर सीमा मानो बिस्तर से लग कर रह गई. उस के मन में एक टीस थी बेवफाई की. धीरेधीरे उस की सेहत और ज्यादा खराब होने लगी. दिनों के बाद हफ्ते और फिर महीने बीतने लगे, लेकिन सीमा की सेहत में कोई फर्क नहीं आया. सीमा को पहले भी कई बार रोहन की याद आती भी थी, पर वह यह सोच कर अपने मन को मना लेती थी कि वह भी शादी कर के घरगृहस्थी जमा चुका होगा, लेकिन जब से उसे यह पता चला कि वह आज भी अकेला है, तो वह भी टूट सी गई. इधर घर में सब डर रहे थे कि सीमा को कोई बड़ी बीमारी ने तो नहीं पकड़ लिया है, पर डाक्टर को भी उस की इस हालत को देख हैरानी हो रही थी,

क्योंकि उसे कोई बीमारी तो थी ही नहीं. तरुण अमन से मिला और सीमा के अतीत के बारे में जानना चाहा. पहले तो अमन ने टालमटोल की, पर जब तरुण ने जोर दे कर पूछा तो उस ने रोहन का सारा किस्सा बता दिया. तरुण को रोहन का पता ढूंढ़ने में ज्यादा तकलीफ नहीं हुई, क्योंकि वह काफी मशहूर हो चुका था. जब वह रोहन के घर पहुंचा, तो गेटकीपर और रोहन के सैक्रेटरी ने मिलवाने से मना कर दिया. तब तरुण ने कहा कि वे रोहन को बताएं कि सीमा के पति उस से मिलने आए हैं, बहुत जरूरी काम है. थोड़ी देर बाद गेटकीपर तरुण को रोहन के पास ले गया. रोहन ने तरुण का स्वागत किया और आने की वजह पूछी. जब तरुण ने पूरे हालात को बयां किया, तो रोहन के चेहरे पर चिंता की रेखाएं उभर आईं, फिर उस ने सीमा से मिलने की इच्छा जाहिर की, तो तरुण ने खुशीखुशी उसे अपने घर आने का न्योता दिया और अपने आंसू छिपाता हुआ बाहर निकल गया.

अगले दिन सुबहसुबह रोहन का फोन आया और सुबह के 10 बजने से पहले ही वह तरुण के घर जा पहुंचा. सीमा आंखें बंद किए बिस्तर पर पड़ी थी, लेकिन आहट होने पर जब उस ने अपनी आंखें खोलीं तो तरुण के साथ रोहन को खड़ा देख कर पहले तो वह सकपकाई और फिर उठ कर बैठने की कोशिश करने लगी. तरुण ने उसे लेटे रहने को कहा. पास में रखी कुरसी पर रोहन बैठ गया और सीमा की तरफ देख कर सोचने लगा कि कैसी हालत बना ली है अपनी सीमा ने. तरुण चाय लाने के बहाने वहां से बाहर चला गया. रोहन और सीमा अकेले रह गए कमरे में.

रोहन से बोलते नहीं बन रहा था. गले में से शब्द नहीं निकल रहे थे. सीमा अपने आंसुओं को रोक नहीं पाई और इतने सालों का दर्द रोहन की आंखों से भी बारिश की तरह बहने लगा, लेकिन जब तरुण चाय ले कर आया, तो उन दोनों ने अपने आंसू पोंछ लिए. रोहन ने तरुण से अगले दिन फिर आने की पूछी तो उस ने दिल खोल कर इस बात का स्वागत किया. रोहन उठा और बिना चाय पिए ही वहां से चला गया. अगले दिन सुबहसुबह ही रोहन आ गया था. तरुण की नमस्ते का जवाब दे कर वह उस के साथ सीमा के कमरे की तरफ चल पड़ा. सीमा की दुबली देह पलंग में पड़ी थी,

पर उस के चेहरे पर पहले जैसे दर्द की जगह अब शांति थी. तरुण ने सीमा के हाथ को छू कर उठाया, तो धीरे से आंखें खोल कर उस ने पहले तरुण को और फिर उस के पीछे खड़े रोहन को देखा. उस के चेहरे पर एक हलकी सी मुसकान आई, फिर धीरे से आंखें बंद हुईं और चेहरा दाईं तरफ लुढ़क गया. तरुण और रोहन दोनों अवाक से सीमा की देह से चेतना को खत्म होती देखते रहे, जो सभी दुखों से, रिश्तों से कहीं दूर चली गई थी. अपनी बेवफाई के लिए अपनी जान का बलिदान कर अनंत यात्रा पर निकल गई थी सीमा.

मेरा पिया घर आया: रवि के मन में नीरजा ने कैसे अपने प्रेम की अलख जगा दी?

रवि अपनी भाभी कविता और उन की सहेली निशा की सारी दलीलों को नजरअंदाज करते हुए शादी न करने की जिद पर कायम रहा, ‘‘मानवी से जुड़ी यादों के कारण अब किसी लड़की की तरफ देखने का मेरा मन नहीं करता,’’ शादी न करने का मुख्य कारण दोहराते हुए रवि का गला भर आया था.

‘‘पर मानवी अब जिंदा नहीं है,’’ निशा ने उत्तेजित लहजे में उसे याद दिलाया, ‘‘जिंदगी में हुए किसी एक हादसे के कारण इंसान को अपनी जीवनधारा को रोक नहीं देना चाहिए.’’

‘‘मैं मानवी की यादों के सहारे सारा जीवन गुजारने का फैसला कर चुका हूं, निशा भाभी.’’

कविता ने एकाएक नियंत्रण खो दिया और गुस्से से भरी आवाज में अपनी सहेली से कहा, ‘‘निशा, इन जनाब के साथ मगज मारने से कोई फायदा नहीं. अच्छा ही है कि ये शादी करने से इनकार कर रहे हैं. इन जैसे जिद्दी और नासमझ इंसान के साथ शादी कर के कोई लड़की खुश रह भी नहीं सकती.’’

अब तक खामोश बैठी निशा की छोटी बहन नीरजा एकाएक भावुक लहजे में बोल पड़ी, ‘‘ऐसा मत कहो कविता दीदी. इन जैसे संवेदनशील इंसान की जीवनसंगिनी बन कर कोई भी लड़की खुद पर गर्व करेगी.’’

निशा और कविता को उस का शरमातेलजाते अंदाज में अपनी बात कहने का यह ढंग हैरान कर गया. रवि भी उस के चेहरे को उलझन भरे अंदाज में पढ़ने की कोशिश कर रहा था.

‘‘नीरजा, तुम तो मानवी से जुड़ी सारी कहानी अच्छी तरह जानती हो. अगर तुम्हारे लिए इस का रिश्ता आए, तो क्या तुम हां कह दोगी?’’ कुछ देर की खामोशी के बाद कविता ने मजाकिया लहजे में नीरजा से यह सवाल पूछ ही लिया.

‘‘मैं तो फौरन हां कह दूंगी,’’ नीरजा ने भावुक लहजे में ऐसा जवाब दिया तो तीनों को यह बात एकदम समझ आ गई कि वह रवि को मन ही मन प्यार करने लगी है.

कविता ने इस बार संजीदा हो कर अगला सवाल पूछा, ‘‘यह तो बता कि तू ने ऐसा क्या खास गुण देख लिया रवि में जो इसे अपना दिल दे बैठी?’’

नीरजा भावुक लहजे में बोली, ‘‘कुछ दिन पहले जब दीदी के बेटे मोहित की तबीयत खराब हुई, तो इन से उस की पीड़ा नहीं देखी गई थी. सब के रोकने के बावजूद ये ही उसे फौरन अस्पताल ले गए थे.’’

‘‘भाभी, आप या दीदी वक्तबेवक्त इन्हें कुछ भी काम बताओ, ये उसे करने में बिलकुल नानुकर नहीं करते. गुस्सा तो जैसे इन के स्वभाव में है ही नहीं. सब से हंस कर मिलते हैं. मैं ने इन्हें गरीब लोगों से भी हमेशा प्यार और इज्जत के साथ पेश आते देखा है. इन की तो जितनी तारीफ की जाए कम है.’’

रवि ने माथे पर बल डाल कर कहा, ‘‘ऐसी बातें सोचने का कोई फायदा नहीं, क्योंकि मुझे तो कभी शादी ही नहीं करनी है.’’

‘‘इस मामले में मेरा अपने दिल पर कोई नियंत्रण नहीं रहा है,’’ नीरजा ने शरमाते हुए जवाब दिया.

‘‘तुम पागल हो क्या? क्यों इन सब की हंसी का पात्र न रही हो?’’

‘‘आप जैसा संवेदनशील और नेकदिल जीवनसाथी मुझे ढूंढ़ने पर नहीं मिलेगा,’’ वह अपनी धुन में बोली, मानो उस ने रवि की बात सुनी ही न हो.

रवि को बिलकुल नहीं सूझा कि वह नीरजा से आगे क्या कहे. उसे यों बेबस देख निशा और कविता खुल कर मुसकराए जा रही थीं.

‘‘निशा, मुझे तो तेरी छोटी बहन को अपनी देवरानी बनाने में कोई एतराज नहीं…’’

‘‘भाभी, प्लीज. हम अभी आए,’’ ऐसा कह कर रवि ने नीरजा का हाथ पकड़ा और उसे उन के बीच से उठा कर बाहर लौन में ले आया.

‘‘तुम सब के सामने ऐसी पागलपन वाली बातें कर के अपना और मेरा मजाक मत उड़वाओ,’’ रवि नाराज नजर आ रहा था.

‘‘आप इस दुनिया को छोड़ कर जा चुकी मानवी के अलावा किसी और लड़की से प्रेम नहीं करते हो न?’’ नीरजा एकदम संजीदा हो गई.

‘नहीं.’’

‘‘तो मुझ से शादी कर लो.’’

‘‘तुम मेरी मजबूरी समझो, प्लीज. मैं मानवी को प्यार करता था, करता हूं और करता रहूंगा.’’

‘‘मुझे बिलकुल आप के जैसा ही जीवनसाथी चाहिए. अपनी मृत प्रेमिका के प्रति आप अगर इतने वफादार हो तो यकीनन मेरे प्यार के प्रति भी पूरी तरह से ईमानदार और वफादार रहोगे.’’

‘‘मैं मानवी से कभी बेवफाई नहीं करूंगा,’’ नाराजगी भरे अंदाज में उठ कर रवि अपने घर की तरफ चल पड़ा.

‘‘और मेरा दिल कह रहा है कि हमारी शादी जरूर हो कर रहेगी,’’ नीरजा की इस घोषणा का कोई जवाब देने के लिए रवि रुका नहीं था.

रवि का दिल जीतने की कोशिशें नीरजा ने उसी दिन से बड़े उत्साह के साथ शुरू कर दीं. पड़ोस में घर होने के कारण वह सुबहशाम खूब सजधज कर रवि से मिलने पहुंच जाती.

‘‘मैं कैसी लग रही हूं?’’ रवि के सामने आते ही वह उस से यह सवाल तब तक पूछती रहती जब तक वह उस की तारीफ नहीं कर देता.

अपने फोन के कैमरे से वह रवि के हर किसी के साथ खूब फोटो खींचती. उस का हर काम भागभाग कर खुद करती. उस के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताने के लिए वह अकसर रात का खाना उसी के घर खाने लगी थी.

वह अकसर, ‘अपने पिया की मैं तो बनी रे दुलहनिया…’ और ‘मेरा पिया घर आया…’ जैसे गाने मस्त अंदाज में गाती हुई दोनों घरों में घूमती नजर आती, तो रवि के अलावा सब खूब दिल खोल कर हंसते.

परेशान रवि हर किसी से फरियाद करता, ‘‘कोई इस पगली को समझाओ, प्लीज. यह अपनी भावनाओं पर काबू रखे, नहीं तो बाद में इसे दुख होगा.’’

‘‘उसे समझाना हमारे बस की बात नहीं. वह तो तुम्हारे प्यार में पागल हो चुकी है, रवि,’’ हर किसी से कुछ ऐसा ही जवाब पा कर रवि की खीज निरंतर बढ़ती जाती थी.

आने वाले कुछ दिनों में नीरजा ने अपने उत्साहपूर्ण व्यवहार से रवि के पिता कैलाश, मां सावित्री और बड़े भाई राजीव के दिलों को भी जीत लिया. उन सब के मन में यह उम्मीद बंध  गई कि कभी शादी न करने के रवि के फैसले को शायद नीरजा बदलने में कामयाब हो जाएगी.

नीरजा की मां कांता ने विकास नाम के एक बिजनैसमैन के साथ नीरजा का रिश्ता पक्का करने का मन बना रखा था. जब नीरजा के रवि को दिल देने की खबर उन के कानों तक पहुंची, तो वे अपने पति रमेश के साथ अगले ही दिन मेरठ से दिल्ली आ गईं.

नीरजा को सामने बैठा कर उन्होंने सख्त लहजे में उसे समझाना शुरू किया, ‘‘शादी के बाद किसी भी लड़की की खुशियां सुनिश्चित करने में पैसा बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. तुझे तो इस बात से खुश होना चाहिए कि इतने अमीर घर की बहू बनने का मौका मिल रहा है.’’

‘‘पर मैं रवि को पसंद करती हूं… उसे दिल की गहराइयों से प्यार करती हूं,’’ नीरजा ने रोंआसे स्वर में उन्हें अपने दिल की बात बता दी.

‘‘पैसा सबकुछ नहीं होता, कांता. हमें इस की पसंद नापसंद का भी खयाल रखना चाहिए,’’ रमेश ने अपनी बेटी का पक्ष लिया.

‘‘तुम तो अपना मुंह बंद ही रखो जी,’’ कांता एकदम गुस्से से फट पड़ीं, ‘‘तुम्हारे साथ पिछले 30 साल से मैं अपने मन को मार कर कैसे जी रही हूं, यह मैं ही जानती हूं. कभी न मनचाहा पहना, न कहीं घूमीफिरी. बजट बना कर जीते हुए मेरी सारी जिंदगी बेकार हो गई.’’

रमेशजी ने आगे कुछ न बोलने में ही अपनी भलाई समझी. कांता ने उन से ध्यान हटाया और अपनी बेटी को गुस्से से घूरते हुए कहने लगीं, ‘‘अपने इस प्यार और पसंद के पागलपन को गोली मार और मुझे बता कि विकास के मुकाबले क्या है इस रवि के पास? 3 कमरों का फ्लैट, जिस में वह भैयाभाभी के साथ रहता है और खटारा सी पुरानी कार. अरे, रवि जितना सालभर में कमाता है, उतनी तो विकास की फैक्टरी एक महीने में उसे कमा कर देती है. तू जिंदगीभर ऐश करेगी उस के साथ.’’

नीरजा चिढ़ कर बोली, ‘‘मां, मेरी नजरों में विकास एक अहंकारी और रूखा इंसान है, जो अपनी तारीफ खुद कर के सब को बहुत बोर करता है.’’

‘‘उस काबिल लड़के में जबरदस्ती बेकार के नुक्स मत निकाल. देख, उन्हें सुंदर लड़की चाहिए और ऊपर से तेरी मौसी यह रिश्ता कराने के लिए खूब भागदौड़ कर रही है. तुझ में थोड़ी सी भी अक्ल है, तो फौरन विकास से शादी करने को हां कह दे.’’

‘‘शादी के मामले में किसी ने मेरे साथ जबरदस्ती की तो मैं आत्महत्या कर लूंगी,’’ ऐसी चेतावनी दे कर नीरजा उन के सामने से हट गई.

कुछ देर तक अपनी बेटी को कोसने के बाद कांता ने नीरजा पर दबाव बढ़ाने के लिए विकास को फौरन अगले दिन सुबह मेरठ से दिल्ली आने का हुक्म फोन कर के सुना दिया.

सफल बिजनैसमैन विकास बड़बोला इंसान था, जिसे अपनी अमीरी पर बहुत घमंड था. उसे पूरा विश्वास था कि नीरजा उस के साथ शादी करने से कभी इनकार नहीं करेगी.

‘‘नीरजा को मैं सारी दुनिया घुमाऊंगा… मेरी मां शादी में इतने जेवर चढ़ाएंगी कि देखने वालों की आंखें फटी की फटी रह जाएंगी… हनीमून मनाने के लिए मैं ने स्विट्जरलैंड जाने का मन बना रखा है…’’ हर वक्त ऐसी डींगें मार कर उस ने कांता के अलावा सब को परेशान कर रखा था.

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रवि ने अगले ही दिन नीरजा से अकेले में कहा, ‘‘इस विकास के साथ शादी करने को तुम हां मत करना. वह बोर इंसान तुम्हें अपने ढंग से कभी जीने नहीं देगा.’’

‘‘मैं तो आप की हमसफर बनना चाहती हूं, पर आप हो कि हां…’’

‘‘वह बात मत शुरू करो, प्लीज. मैं तुम से शादी नहीं कर सकता,’’ रवि ने उसे फौरन टोक दिया.

‘‘आप मेरी आंखों में देखो और बताओ कि वहां आप को अपने लिए गहरा प्यार दिखाई दे रहा है या नहीं,’’ नीरजा एकदम से रवि के बहुत करीब आ गई थी.

‘‘वह सब तो ठीक है, पर…’’

‘‘मानवी के साथ आप ने सच्चा प्यार किया, पर अब वह इस दुनिया में नहीं है. उस की यादों से जुड़े रह कर मेरे सच्चे प्रेम को अपने दिल में जगह न देने का फैसला करना कहां की समझदारी है,’’ नीरजा का गला एकदम से भर आया.

‘‘मैं मजबूर हूं.’’

‘‘तो मैं भी मजबूर हूं. अगर आप ने हां नहीं की, तो मैं परसों शाम को होने वाली अपनी जन्मदिन पार्टी में विकास के साथ शादी करने को हां जरूर कह दूंगी,’’ नीरजा ने अपना फैसला सुनाने के बाद भावुक अंदाज में उस का हाथ चूमा और अपने कमरे की तरफ चली गई.

उस शाम को विकास के वापस मेरठ लौटने से पहले नीरजा ने सब के सामने उस से कहा, ‘‘मैं शादी को ले कर अपनी पक्की हां या ना आप को 2 दिन के अंदर जरूर बता दूंगी.’’

नीरजा की इस घोषणा के बाद सभी रवि की तरफ आशा भरी नजरों से देखने लगे. उस के गुस्से से डर कर कोई कुछ कह तो नहीं रहा था, पर उन सब की खामोशी भी रवि के ऊपर नीरजा से शादी के लिए हां कहने को जबरदस्त दबाव बना रही थी.

नीरजा की आशा के विपरीत रवि ने शादी को ले कर कोई बात नहीं की. वह तो अपने घर से सुबह से देर रात तक के लिए 2 दिन ऐसा गायब रहा कि उन दोनों की अगली मुलाकात उस की जन्मदिन पार्टी में ही हुई.

पार्टी में शामिल होने के लिए जैसे ही रवि ने ड्राइंगरूम में कदम रखा, तो उस से बेहद खफा नजर आ रही नीरजा ने ऊंची आवाज में सब को संबोधित किया, ‘‘अपने मातापिता की खुशी की खातिर मैं ने विकास से शादी करने का फैसला…’’

रवि ने ऊंची आवाज में टोक कर उसे अपना वाक्य पूरा नहीं करने दिया, ‘‘नीरजा, तुम उस घमंडी इंसान के साथ कभी खुश नहीं रह सकोगी.’’

‘‘तो आप क्यों परेशान हो रहे हैं,’’ गुस्सा करना भूल कर नीरजा एकदम से रोंआसी हो उठी.

कविता ने भी चुभते लहजे में अपने देवर को डांटा, ‘‘यह बिलकुल ठीक कह रही है. तुम्हारे प्रेम में पागल इस प्यारी सी… इस भोली सी…इस सुंदर सी लड़की के सुखदुख की तुम्हें कोई चिंता करने की जरूरत नहीं है. तुम तो जिंदगीभर अपनी मृत महबूबा को नाराज न करने की फिक्र ही करते रहना.’’

‘‘अब बस भी करो, भाभी. आप सब लोगों के ताने सुनसुन कर मैं इतना तंग आ गया हूं कि मैं ने…मुझे नीरजा से शादी करना मंजूर है,’’ रवि की इस घोषणा को सुन नीरजा के अलावा वहां उपस्थित हर इंसान तालियां बजा उठा.

सब की नजरों का केंद्र बन गई नीरजा ने उदास लहजे में अपने मन की बात कही, ‘‘शादी के मामले में मुझे इन की दया या एहसान नहीं चाहिए. ऐसी शादी करने का क्या फायदा कि इन के सामने मैं रहूं, पर ये मानवी के विचारों में खोए रहें?’’

‘‘पहले तुम ही शादी करने को मेरे पीछे हाथ धो कर पड़ी हुई थी, तो अब क्यों इनकार कर रही हो?’’ रवि ने उस के पास आ कर मुसकराते हुए पूछा.

‘‘मुझे लगता है कि मेरे साथ शादी करने का फैसला आप ने खुश हो कर नहीं किया है.’’

‘‘मेरे मन में क्या है, अब यह भी तुम बताओगी?’’

‘‘मुझे ही क्या, यह तो सब को पता है कि आप के दिलोदिमाग पर मानवी का कब्जा है.’’

‘‘तो तुम्हारे साथसाथ और सब भी कान खोल कर सुन लो कि मानवी ने ही मुझे तुम से शादी करने की इजाजत दी है,’’ रवि ने अपना पर्स खोल कर सब को दिखाया.

पर्स में अब तक मानवी का फोटो सभी ने लगा देखा था, पर इस वक्त वहां नीरजा की तसवीर लगी नजर आई.

एकाएक बेहद भावुक हो कर रवि नीरजा से बोला, ‘‘मानवी ने ही कल रात मुझे देर तक समझाया कि अब से तुम मेरे सुखदुख का खयाल रखोगी. कल रात के बाद से मैं आंखें बंद करता हूं, तो उस की जगह अब मुझे तुम नजर आती हो. मुझ से शादी न कर के क्या तुम मानवी को कष्ट पहुंचाना चाहोगी?’’

‘‘मैं भला ऐसा गलत काम क्यों करूंगी? हमारी शादी जरूर होगी,’’ नीरजा किसी छोटी बच्ची की तरह खुशी से तालियां बजाती उछली और फिर शरमाते हुए रवि की छाती से जा लगी.

हीरोइन : महरी की चिंता उसे क्यों थी

पहले तो सरकारी मकान की दिक्कत और दूसरे, घर पर कामकाज करने वालों की किल्लत. घर के बाकी सब काम तो जैसेतैसे हो जाते थे किंतु बरतन साफ करना, झाड़ ूपोंछा करना ऐसे काम थे जिन्हें सुन कर ही पत्नी का तापमान सामान्य से ऊपर पहुंच जाता था. पूरे घर का वातावरण तनावपूर्ण हो जाता था. दिन भर पत्नी मुझ पर, बच्चों पर और खुद पर भी झल्लाती रहती थी. बच्चों के दोचार थप्पड़ भी लग जाना स्वाभाविक ही था. इसलिए लगभग 5 वर्ष पूर्व जब मैं लखनऊ स्थानांतरित हो कर आया था तो इस आशंका से भयंकर रूप से त्रस्त था.

भागदौड़ कर के दारुलशफा (विधायक निवास) के चक्कर काट कर मुझे कालोनी में मकान मिल गया था. वह मेरे लिए कई दृष्टि से महत्त्वपूर्ण था. किराए के मकानों की दशा से कौन परिचित नहीं है. खुशामद और सामर्थ्य से परे किराया और दिनप्रतिदिन की कहासुनी. तनाव का एक छोटा हिस्सा मकान मिलने से अवश्य कम हुआ था किंतु उस का अधिकांश भाग तब तक घर पर मंडराता रहा जब तक चौकाबासन करने वाली महरी की व्यवस्था नहीं हो गई.

वास्तव में पत्नी से अधिक महरी की चिंता मुझे थी. मैं ने लखनऊ आते ही पूछताछ करनी प्रारंभ कर दी थी. आसपास के घरों में सुबहशाम आतीजाती महरीनुमा औरतों पर निगाह रखना शुरू कर दिया था. 1-2 महरियां दीख पड़ीं, लेकिन उन्होंने बात करते ही ‘खाली नहीं’ की तख्ती दिखा दी. एक सप्ताह बाद पत्नी का धैर्य तेज धूप में कच्ची दीवार सा चटखने लगा. 15 दिन बीततेबीतते उस के चेहरे पर तनाव भी परिलक्षित होना स्वाभाविक ही था.

इतनी बड़ी कालोनी में मेरे ही विभाग के अनेक अधिकारी निवास करते थे. धीरेधीरे मैं ने सभी के सामने महरी की समस्या रखी. अंतत: कमला के बारे में मुझे पता चला किंतु सहयोगी अरविंदजी ने मुझे उस की चर्चा के साथ ही सचेत करते हुए कह दिया था, ‘‘भाई, कालोनी की हीरोइन है कमला, एकदम आधुनिका. बड़ी नखरेबाज. उस की हर किसी के साथ निभ पाना संभव नहीं है.’’

मैं ने पत्नी को आ कर सब बता दिया था और कमला को बुलाने का आग्रह किया था.

कमला आई थी तो उसे देख कर मैं भी पहले दिन ही चकित रह गया था. वह देखने में 30 के आसपास थी. सांवला रंग किंतु तीखे नाकनक्श, सलीके से संवरी हुई आकृति और साफसुथरे कपड़े, अंगूठी से घिरी 2 उंगलियां, कलाई में घड़ी और साधारण एड़ी वाली चप्पलें. उसे देख कर यह विश्वास नहीं हुआ कि वह स्त्री घरों में बरतन मांजने और झाड़ ूपोंछे का काम करती थी.

प्रारंभिक वार्त्ता के बाद कमला ने कार्य प्रारंभ कर दिया था. बाद में पता चला था कि वह इत्तफाक ही था कि एक अधिकारी के स्थानांतरण के फलस्वरूप कमला अभी हाल में ही खाली हुई थी. वरना उस का नियम था कि वह एक ही समय में 5 से अधिक घरों में काम नहीं करती थी.

कमला का काम जहां एक ओर अति स्वच्छ व व्यवस्थित था वहीं दूसरी ओर उस में स्वयं एक सौम्यता व गंभीरता दीख पड़ती थी. घड़ी की सूइयों के साथ वह प्रात: सवा 8 बजे आती थी और 45 मिनट में सारे कार्यों से निवृत्त हो कर चली जाती थी. सायं ठीक सवा 5 बजे कमला घर में घुसती थी और पौने 6 बजे तक घर से निकल जाती थी. न तो वह अधिक बोलती थी और न ही उसे सुनने की कोई आदत थी.

जैसेजैसे समय बीतता गया, हम कमला के बारे में और अधिक जानते गए. उस का पति बीमा कार्यालय में चपरासी था. 3 बच्चे थे उन के. बड़ा लड़का और 2 लड़कियां. कमला को देख कर हम तो यही सोचते थे कि अभी बच्चे छोटे ही होंगे. किंतु मुझे उस दिन घोर आश्चर्य हुआ जब एक 16-17 वर्षीय लड़के ने घर आ कर पूछा था, ‘‘मां आई थीं?’’

‘‘किस की मां?’’ पत्नी ने सकपका कर पूछा था.

‘‘मेरी मां, कमलाजी.’’

‘‘कमला,’’ पत्नी हतप्रभ सी धीरे से मुसकरा दी. फिर सहजता धारण कर के बोली, ‘‘हमारे यहां तो सवा 5 बजे आती है. अभी तो देर है.’’

वह लड़का अभिवादन कर के लौट गया.

पता नहीं क्यों पत्नी के हृदय में एक कुलबुलाहट सी हुई. उस दिन कमला के आने पर पत्नी ने उस के लड़के के आने के बारे में बताते हुए बातों का सिलसिला शुरू कर दिया.

‘‘जी, बीबीजी,’’ कमला ने बताया, ‘‘घर पर अचानक कुछ मेहमान आ गए थे. जल्दी में थे. इसलिए लड़का ढूंढ़ रहा था.’’

‘‘मगर तुम्हारा लड़का और इतना बड़ा?’’ पत्नी रोक न सकी अपनी जिज्ञासा को.

कमला ने शरम से मुंह नीचे कर लिया. पहली बार उस के चेहरे पर स्मित की लहरें उभर आईं.

‘‘तुम देखने में तो इतनी बड़ी उम्र की नहीं लगती हो?’’ पत्नी ने धीरे से बात बनाई थी.

कमला हंसने लगी. फिर दबे स्वर में बोली, ‘‘बीबीजी, कुछ तो शादी ही जल्दी हो गई थी. वैसे अब 33 की तो हो ही रही हूं.’’

कमला ने आगे बताया था कि उस के पिता बरेली में एक स्कूल में अध्यापक थे. घर में पढ़नेलिखने का वातावरण भी था. कमला की 2 बहनों ने इंटर पास किया था. उन की शादी हो गई थी. छोटा भाई बी.ए. कर के कचहरी में बाबू हो गया था.

कमला जब केवल 15 वर्ष की ही थी तो पड़ोस में रह रहे नवयुवक के प्रेमजाल में फंस कर वह उस के साथ लखनऊ चली आई थी. उस समय वह 9वीं की परीक्षा दे चुकी थी. नवयुवक यानी उस के पति के मामा ने उन्हें शरण दी थी तथा कचहरी में विवाह कराया था. उस का पति हाईस्कूल पास था. मामा ने ही सिफारिश कर के उस की बीमा दफ्तर में नौकरी लगवा दी थी.

कमला के पिता और घर के अन्य सदस्य उस घटना के बाद इतने अपमानित व क्षुब्ध थे कि उन्होंने कमला से सदा के लिए अपने संबंध विच्छेद कर लिए थे. उधर पति के घर वाले भी उतने ही नाराज थे किंतु धीरेधीरे उन से संबंध सुधर गए थे.

लगभग 1 वर्ष बाद पुत्र का जन्म हुआ था और बाद में 2 लड़कियों का. अब उन में से एक 15 साल की थी और दूसरी 9 साल की.

हमें लखनऊ में आए लगभग 3 साल बीत चुके थे. अब सब व्यवस्थित हो चला था. कमला से कभीकभार खुल कर बातें भी होने लगी थीं किंतु न तो उस के नित्यक्रम में कोई अंतर आया था और न ही उस में.

कमला की कुछ और भी विशिष्टताएं थीं. वह कभी हमारे घर पर कुछ खातीपीती नहीं थी. और तो और वह कभी चाय भी नहीं लेती थी. घर से खाने का कोई सामान स्वीकार न करना और न ही तीजत्योहार पर किसी अतिरिक्त पैसे, कपड़े या वस्तु की मांग करना. प्रारंभ में हमें लगा कि संभवत: महानगर की ऐसी ही प्रथा हो, किंतु बाद में यह भ्रांति भी दूर हो गई.

उस दिन के बाद कमला का लड़का भी कभी हमारे घर नहीं आया था. पता चला था कि वह हाईस्कूल की परीक्षा में 2 बार फेल हो चुका था. अब तीसरी बार परीक्षा दी थी.

कमला की लड़कियों का हमारे घर पर आने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था.

एक दिन जब पत्नी ने कमला से उस की 2 दिन की अनुपस्थिति में किसी लड़की को काम पर भेजने को कहा था तो पहली बार कमला रोष व खीज भरे स्वर में बोली थी, ‘‘नहीं, बीबीजी, मैं अपनी लड़की को नहीं भेज सकती. जो काम मैं उन बच्चों के लिए करती हूं वह उन को करते नहीं देख सकती हूं.’’

उस वर्ष जब हाईस्कूल बोर्ड का परीक्षाफल आया और कमला का लड़का तीसरी बार अनुत्तीर्ण हुआ तो कमला क्षोभ व यंत्रणा से टूटी सी लगती थी. पत्नी के पूछने पर उस के नेत्र छलछला उठे. फिर सिसकियां ले कर रोने लगी. साथ ही भरभराए स्वर में कहने लगी, ‘‘बीबीजी, सिर्फ इन बच्चों के लिए यह काम करना शुरू किया था, जिस से वे अच्छी तरह रह सकें, अच्छा पहनेंखाएं और पढ़लिख कर लायक बन जाएं.’’

कुछ पल शांत रही कमला. फिर बताने लगी, ‘‘बाबूजी, हमारे पूरे खानदान में यह काम किसी ने नहीं किया था, लेकिन मैं ने सिर्फ बच्चों की खातिर यह धंधा अपनाया था.’’

साड़ी का पल्लू निकाल कर कमला ने आंसू पोंछे. फिर आगे बोली, ‘‘मेरा आदमी मुझ से इस धंधे के पीछे बड़ा नाराज हुआ. दुखी भी हुआ. घर के गुजारे लायक उस को पैसा मिलता था. उस के साथ के चपरासी ऐसे ही रह रहे हैं, लेकिन मैं ने जिद कर के यह काम किया. जानती थी कि उस की आमदनी में काम तो चल जाएगा. लेकिन मैं बच्चों को पढ़ालिखा नहीं सकूंगी. उन्हें ठीक तरह नहीं रख पाऊंगी.

‘‘मैं ने मुन्ना को बड़े चाव से पढ़ाना चाहा था, लेकिन वह पढ़ता ही नहीं है. उस के पापा तो पिछले साल ही पढ़ाई बंद करा रहे थे. उसे कपड़े की दुकान पर लगवा भी दिया था, लेकिन मैं ने जिद कर के वह काम छुड़वाया और पढ़ने भेजा.

‘‘आज सुबह जब नतीजा आया तो मुन्ना को तो डांटाडपटा ही मेरे आदमी ने, मुझे भी बुराभला कहा. फिर आज ही मुन्ना काम पर चला गया उस दुकान पर.’’

कहतेकहते कमला का स्वर बोझिल हो कर टूट सा गया.

‘‘कैसी दुकान है?’’ कुछ देर शांत रह कर कुछ न सूझते हुए पत्नी ने पूछ लिया.

‘‘कपड़े की, जनपथ में है.’’

‘‘कितना देंगे?’’

‘‘यही करीब 300-350 रुपए. मगर बीबीजी, मुझे पैसे का क्या करना है. मुन्ना पढ़ लेता तो जीवन की आस पूरी हो जाती. मेरा यों दरदर ठोकरें खाना सफल हो जाता,’’ कहते हुए कमला की आंखों में एक गीली परत सी जम गई.

कमला की व्यथा सुन कर मैं भी दुखित हो चला था. सचमुच एक विडंबना ही तो थी यह उस की.

उस घटना के बाद कमला दुखी व परेशान सी रहने लगी थी. ऐसा लगता था जैसे कोई दुख उस के हृदय को लगातार बरमे की तरह सालता था. मानो काले बादलों का साया उस के अंतरंग में घुटन सी पैदा कर रहा था. सब काम नियमित रूप से करते हुए भी कमला स्फूर्तिहीन व निस्पंद सी दीख पड़ती थी. कभीकभी यह आशंका होती थी कि कहीं वह काम करना ही न छोड़ दे. किंतु जब 6 माह बीत गए तो पत्नी आश्वस्त हो गई. कमला भी धीरेधीरे सामान्य हो चली थी.

एक दिन कमला ने एक सप्ताह के अवकाश के संबंध में पत्नी से कहा तो उस का आशंकित हो उठना स्वाभाविक था, ‘‘क्या कामवाम छोड़ने का विचार है?’’ अपने संदेह व आशंका को एक धीमी मुसकान से ढांपते हुए पत्नी ने पूछा था.

‘‘नहीं, बीबीजी, ऐसी कोई बात नहीं है,’’ कमला ने सहजता से उत्तर दिया, ‘‘मेरी लड़की की शादी है.’’

‘‘सचमुच?’’ पत्नी ने अचंभे से कमला को देखा.

‘‘हां, बीबीजी. 17 पूरे कर चली है. लड़का मिल गया है सो शादी पक्की कर डाली है.’’

‘‘ठीक ही तो किया तुम ने.’’

‘‘और करती भी क्या. उस को भी पढ़ाने की लाख कोशिश की, लेकिन 9वीं से आगे नहीं पढ़ सकी. मेरी ही तरह रही,’’ कह कर हंस दी वह, ‘‘मैं ने सोचा कि कुछ और न हो इस से पहले ही उस के हाथ पीले कर दूं और छुट्टी पा लूं.’’

कमला के आग्रह पर हम दोनों विवाह में सम्मिलित हुए थे. पत्नी एक बार पहले भी उस के घर जा चुकी थी. उस ने मुझे कमला के घर के रखरखाव के बारे में बताया था. टीवी, सोफा, खाने की मेजकुरसियां, ड्रेसिंग टेबल, सबकुछ उस के घर में था.

आज उस का घर देख कर मैं भी चकित रह गया था. शादी का स्तर भी मध्यवर्गीय परिवार जैसा ही था. कहीं कोई कमी नहीं दीख पड़ी. वह सब देख कर जाने क्यों मेरे हृदय में कहीं अंदर अतीव सुख व संतोष की भावना प्रवाहित हो गई थी.

लड़की के विवाह के बाद एक बार फिर हमें ऐसा लगा कि अब कमला अवश्य काम छोड़ देगी, किंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ.

एक दिन पत्नी ने मुझे बताया कि कमला मुझ से कोई बात करना चाहती थी. सुन कर मुझे आश्चर्य हुआ. अगले दिन मैं ने स्वयं कमला से पूछा था, ‘‘कमला, तुम्हें कुछ बात करनी थी?’’

‘‘जी, बाबूजी,’’ हाथ धो कर वह मेरे पास आ कर नीचे जमीन पर बैठ गई, ‘‘कुछ काम था.’’

‘‘बोलो?’’ आत्मीयता भरे स्वर में मैं ने इजाजत दी थी.

‘‘छोटी मुन्नी का किसी अच्छे स्कूल में दाखिला करा दीजिए.’’

‘‘किस क्लास में?’’

‘‘जी, उस ने कानवेंट से 5वीं पास की है. क्लास में दूसरे नंबर पर आई है. अब छठी में जाएगी. उस की अध्यापिका उस की बड़ी तारीफ कर रही थीं. कह रही थीं कि मैं उसे खूब पढ़ाऊं. मैं उसे किसी अच्छे अंगरेजी स्कूल या सेंट्रल स्कूल में डालना चाहती हूं. मेरी हिम्मत नहीं पड़ती थी. इसलिए आप से ही विनती करने आई हूं.’’

मैं स्तंभित सा सुनता रहा.

‘‘क्यों नहीं. आज ही ले आओ उसे. मैं ले कर चला जाऊंगा. दाखिला भी करवा दूंगा,’’ मैं ने कमला को आश्वासन दिया.

कमला मेरे पैरों को छूने लगी, ‘‘मुझ पर बड़ा एहसान होगा आप का. यह लड़की पढ़ लेगी तो जीवनभर आप को याद करूंगी.’’

‘‘लेकिन तुम ने कभी बताया ही नहीं कि तुम्हारी लड़की कानवेंट में है और पढ़ने में इतनी अच्छी है.’’

‘‘बाबूजी, क्या बताती, मेरी तो आखिरी आशा है वह. कभी लगता है उस को दूसरों से ज्यादा मेरी ही नजर न लग जाए.’’

मैं सुन कर हंसने लगा. वातावरण की गंभीरता टूट चुकी थी. इसलिए मैं ने पूछ ही लिया, ‘‘मगर तुम ने उसे दोनों बच्चों के बीच कैसे पाला?’’

‘‘बस, बाबूजी, शुरू से छोटी मुन्नी को एकदम अलग ही रखा दोनों बच्चों से. उस के लिए अध्यापक लगाए, पढ़ाने से ज्यादा उस को अलग रखने के लिए. वह जो मांगती है, उसे देती हूं,’’ कुछ क्षण रुक कर फिर धीमे से कहने लगी कमला, ‘‘उसे आज तक यह नहीं मालूम कि मैं क्या काम करती हूं. बाबूजी, हो सकता है कि वह जान कर अच्छे बच्चों में खुल कर घुलमिल न पाए.’’

कमला की आंखें डबडबा उठी थीं. मेरे दिल के तार भी जैसे झंकृत हो उठे थे.

कमला उठ कर अपने काम में लग गई.

तब से मैं भी यह मानता हूं कि कमला वास्तव में हीरोइन है. उस रूप में नहीं जिस में लोग उसे कहतेसमझते हैं बल्कि एक नए अर्थ में, एक नए संदर्भ में. द्य

मानसून स्पेशल: एक रिश्ता ऐसा भी

मानसून स्पेशल: एक रिश्ता ऐसा भी – भाग 1

 यों यह था तो शहर का एक बौयज कालेज अर्थात लड़कों का कालेज, लेकिन पढ़ाने वाले शिक्षकों में आधे से अधिक संख्या महिलाओं की थी. लेडीज क्या थीं रंगबिरंगी, एक से बढ़ कर एक नहले पे दहला वाला मामला था. इन रंगों में मिस मृणालिनी ठाकुर का रंग बड़ा चोखा था.

लंबे कद, छरहरे बदन और पारसी स्टाइल में रंगबिरंगी साडि़यां पहनने वाली मिस मृणालिनी ठाकुर सब से योग्य टीचरों में गिनी जाती थीं. अपने विषय पर उन्हें महारत हासिल था. फिर रुआब ऐसा कि लड़के पुरुष टीचर्स का पीरियड बंक कर सकते थे, मगर मिस मृणालिनी ठाकुर के पीरियड में उपस्थिति अनिवार्य थी.

लड़का मिस मृणालिनी का शागिर्द हो और कालेज में होते हुए उन का पीरियड मिस करे, ऐसा बहुत कम ही होता था, इस लिहाज से मिस मृणालिनी ठाकुर भाग्यशाली कही जा सकती थीं कि लड़के उन से डरते ही नहीं थे, बल्कि उन का सम्मान भी करते थे.

इस तरह के भाग्यशाली होने में कुछ अपने विषय पर महारत हासिल होने का हाथ था तो कुछ मिस मृणालिनी ठाकुर की मनुष्य के मनोविज्ञान की समझ भी थी. वह अपने स्टूडेंट्स को केवल पढ़ा देना और कोर्स पूरा कराने को ही अपनी ड्यूटी नहीं समझती थीं, बल्कि वह उन के बहुत नजदीक रहने को भी अपनी ड्यूटी का एक महत्त्वपूर्ण अंग समझती थीं.

हालांकि उन के साथियों को उन का यह व्यवहार काफी हद तक मजाकिया लगता था. मिसेज अरुण तो हंसा करती थीं, उन का कहना था, ‘‘मिस मृणालिनी ठाकुर लेक्चरर के बजाय प्राइमरी स्कूल की टीचर लगती हैं.’’

मगर मिस मृणालिनी ठाकुर को इस की बिल्कुल भी फिक्र नहीं थी कि उन के व्यवहार के बारे में लोगों की क्या राय है, उन का कहना था कि जो बच्चे हम से शिक्षा लेने आते हैं हम उन के लिए पूरी तरह उत्तरदायी हैं, इसलिए हमें अपना कर्तव्य नेकनीयती और ईमानदारी से पूरा करना चाहिए.

मिस मृणालिनी ठाकुर के साथियों की सोचों से अलग स्टूडेंट्स की अधिकतर संख्या उन के जैसी थी. उन्हें सच में किसी प्राइमरी स्कूल के टीचर की तरह मालूम होता था कि लड़के का पिता क्या करता है, कौन फीस माफी का अधिकारी है? कौन पढ़ाई के साथ पार्टटाइम जौब करता है? आदि आदि.

पता नहीं यह स्टूडेंट्स से नजदीकी का परिणाम था या किसी अपराध की सजा कि एक सुबह कालेज आने वालों ने लोहे के मुख्य दरवाजे के एक बोर्ड पर चाक से बड़े अक्षरों में लिखा देखा—आई लव मिस मृणालिनी ठाकुर.

इस एक वाक्य को 3 बार कौपी करने के बाद लिखने वाले ने अपना व क्लास का नाम बड़ी ढिठाई से लिखा था: शशि कुमार सिंह, प्रथम वर्ष, विज्ञान सैक्शन बी.

किसी नारे की सूरत में लिखा यह वाक्य औरों की तरह मिस मृणालिनी ठाकुर को अपनी ओर आकर्षित किए बिना न रह सका. क्षण भर को तो वह सन्न रह गईं.

उन्होंने चोर निगाहों से इधरउधर देखा. शायद कोई न होता तो वह अपनी सिल्क की साड़ी के पल्लू से वाक्य को मिटा देतीं. मगर स्टूडेंट ग्रुप पर ग्रुप की शक्ल में आ रहे थे, बेतहाशा धड़कते दिल को संभालती मिस मृणालिनी ठाकुर स्टाफरूम तक पहुंचीं और अंदर दाखिल होने के बाद अपना सिर थामती हुई कुरसी पर गिर गई.

‘‘यकीनन आप देखती हुई आई हैं,’’ मिसेज जयराज की आवाज मिस मृणालिनी ठाकुर को कहीं दूर से आती मालूम हुई. उन्होंने सिर उठा कर मिसेज जयराज की ओर देखा और कंपकंपाती आवाज में बोलीं, ‘‘आप ने भी देखा?’’

part-2

‘‘भई हम ने क्या बहुतों ने देखा और देखते आ रहे हैं. दरअसल लिखने वाले ने लिखा ही इसलिए है कि लोग देखें.’’

‘‘मिसेज जयराज, प्लीज इसे किसी तरह…’’ मिस मृणालिनी ठाकुर गिड़गिड़ाईं.
तभी मिसेज आशीष और मिस रचना मिस मृणालिनी ठाकुर को विचित्र नजरों से देखती हुई स्टाफरूम में दाखिल हुईं.

कुछ ही देर के बाद रामलाल चपरासी झाड़न संभाले अपनी ड्यूटी निभाने आया तो मिस मृणालिनी ठाकुर फौरन उस की ओर लपकीं और कानाफूसी वाले लहजे में बोलीं, ‘‘रामलाल यह झाड़न ले कर जाओ और चाक से मेनगेट पर जो कुछ लिखा है मिटा आओ.’’

‘‘हैं जी,’’ रामलाल ने बेवकूफों की तरह उन का चेहरा तकते हुए कहा.
‘‘जाओ, जो काम मैं ने कहा वो फौरन कर के आओ,’’ मिस मृणालिनी ठाकुर की आवाज फंसीफंसी लग रही थी.

‘‘घबराइए मत मिस ठाकुर, यह बात तो लड़कों में आप की पसंदीदगी की दलील है.’’ मिस चेरियान के लहजे में व्यंग्य साफ तौर पर झलक रहा था.

‘‘अब तो यूं ही होगा भई, लड़के तो आप के दीवाने हैं,’’ मिस तरन्नुम का लहजा दोधारी तलवार की तरह काट रहा था.
मिस शमा अपना गाउन संभाले मुसकराती हुई अंदर दाखिल हुईं और मिस मृणालिनी के नजदीक आ कर राजदारी से बोलीं, ‘‘मिस मृणालिनी ठाकुर गेट पर…’’

मिस मृणालिनी ठाकुर को अत्यंत भयभीत पा कर मिसेज जयराज ने उन के करीब आ कर उन के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं मृणालिनी, टीचर और स्टूडेंट में तो आप के कथनानुसार एक आत्मीय संबंध होता है.’’

फिर उन्होंने मिस तरन्नुम की ओर देख कर आंख दबाई और बोलीं, ‘‘कुछ स्टूडेंट इजहार के मामले में बड़े फ्रैंक होते हैं और होना भी चाहिए. क्यों मृणालिनी, आप का यही विचार है न कि हमें स्टूडेंट्स को अपनी बात कहने की आजादी देनी चाहिए.’’

मिसेज जयराज की इस बात पर मिस मृणालिनी का चेहरा क्रोध से दहकने लगा.
‘‘शशि सिंह वही है न बी सैक्शन वाला. लंबा सा लड़का जो अकसर जींस पहने आता है.’’ मिस रौशन ने पूछताछ की.

मिसेज गोयल ने उन के विचार को सही बताते हुए हामी भरी.
‘‘वह तो बहुत प्यारा लड़का है.’’ मिसेज गुप्ता बोलीं.

‘‘बड़ा जीनियस है, ऐसेऐसे सवाल करता है कि आदमी चकरा कर रह जाए,’’ मिसेज कपाडि़या जो फिजिक्स पढ़ाती थीं बोलीं.

मिसेज जयराज ने मृणालिनी को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘मृणालिनी आप तो अपने स्टूडेंट्स को उन लोगों से भी अच्छी तरह जानती होंगी, आप की क्या राय है उस के बारे में?’’

‘‘वह वाकई अच्छा लड़का है, मुझे तो ऐसा लगता है कि किसी ने उस के नाम की आड़ में शरारत की है.’’
‘‘हां ऐसा संभव है.’’ मिसेज गुप्ता ने उन की बात का समर्थन किया.

‘‘सिर्फ संभव ही नहीं, यकीनन यही बात है क्योंकि लिखने वाला इस तरह ढिठाई से अपना नाम हरगिज नहीं लिख सकता था,’’ मिसेज जयराज ने फिर अपनी चोंच खोली.यह बात मिस मृणालिनी को भी सही लगी.

शशि सिंह के बारे में मिस मृणालिनी ठाकुर की राय बहुत अच्छी थी. हालांकि सेशन शुरू हुए 3 महीने ही गुजरे थे, लेकिन इस दौरान जिस बाकायदगी और तन्मयता से उस ने क्लासेज अटेंड की थीं वह शशि सिंह को मिस मृणालिनी के पसंदीदा स्टूडेंट्स में शामिल कराने के लिए काफी थीं. ‘

 

प्रतिक्रिया: असीम ने कौनसा सवाल पूछा था

उस बेढंगे से आदमी का चेहरा मुझे आज भी याद है. वह शायद मेरे भाषण की समाप्ति की प्रतीक्षा ही कर रहा था. वक्ताओं की सूची में उस का कहीं नाम न था, किंतु मेरे तुरंत बाद उस ने बिना संयोजक की अनुमति के ही माइक संभाल लिया और धाराप्रवाह बोलना शुरू कर दिया.

वह बहुत उम्दा बोल रहा था और श्रोता उस के भाषण से प्रभावित भी लग रहे थे. एकाएक ही उस ने कड़ा रुख अपना लिया. वह कह रहा था, ‘‘मेरी बात कान खोल कर सुन लो. जब तक देश में ये राक्षस मौजूद हैं, हिंदी यहां कभी फलफूल नहीं सकती. ये लोग अपने को हिंदी के सेवक और प्रचारक बताते हैं. लंबेलंबे भाषण देते हैं. दूसरों को उपदेश देते हैं और स्वयं…मैं इन लोगों से पूछना चाहूंगा कि इन में से ऐसे कितने हिंदीसेवी हैं, जिन के बच्चे अंगरेजी स्कूलों में नहीं पढ़ते.’’

उस का संकेत व्यक्तिगत रूप से मेरी ओर नहीं था. मुझे तो इस से पूर्व वह कभी मिला भी नहीं था. मगर तब लगा यही था कि उस ने यह तमाचा मेरे ही गाल पर जड़ा है.

मैं कई दिनों तक उधेड़बुन में रहा. फिर मैं ने अपना निर्णय घर में और मित्रों के बीच सुना दिया था. यह बात नहीं कि मुझे तब किसी ने टोका या समझाया नहीं था. सभी ने एक ही बात कही थी, ‘‘आप गलती कर रहे हैं. इस तरह भावुकता में आ कर बच्चे का भविष्य तबाह करना कहां की अक्लमंदी है?’’

किंतु मैं तो भावनाओं की बाढ़ में बह ही चुका था. असीम के स्कूल जा कर मैं ने उस का तबादला प्रमाणपत्र प्राप्त कर लिया. हिंदी माध्यम स्कूल में उसे आसानी से प्रवेश मिल गया. स्कूल बदलते हुए उस ने मामूली सी आपत्ति उठाई थी. वह शायद थोड़ा सा रोया भी था, किंतु मेरे आदर्शवादी भाषण और पुचकार के आगे उस ने शीघ्र ही घुटने टेक दिए और एक आज्ञाकारी बच्चे की तरह वह कंधे पर बस्ता लटका कर नए स्कूल जाने लगा.

मैं उसे बाद में भी समझाता रहा कि यह नया स्कूल मामूली नहीं है. यह सरकारी स्कूल है जहां अंगरेजी स्कूलों के अनुपात में अध्यापकों को तीनगुना वेतन मिलता है. सभी अध्यापक योग्य और प्रशिक्षित हैं. इन्हीं स्कूलों में पढ़े हुए कितने ही विद्यार्थी बाद में ऊंचे पदों पर पहुंचे हैं. तुम भी मन लगा कर मेहनत करो और बड़े आदमी बनो.

किंतु असीम बुझाबुझा सा रहने लगा था. अब वह स्कूल जाते समय न स्कूल की वरदी की परवा करता और न पहले की तरह जूते चमकाता. पहले साल वह काफी अच्छे अंक ले कर पास हुआ. किंतु अगले वर्ष न जाने क्या हुआ, वह मध्य स्तर के विद्यार्थियों में गिना जाने लगा. स्कूल में उस का कोई मित्र न था. अब वह किसी खेल या नाटक आदि में भी भाग न लेता. मैं कुछ समझाता तो वह चुपचाप बैठा जमीन की ओर देखता रहता. एक दिन सोचा कि स्कूल जा कर पता किया जाए. किंतु स्कूल की दशा देख कर दिल धक से रह गया. अनुशासन नाम की वहां कोई चीज ही न थी. अध्यापक गप्पें हांकने या अखबार पढ़ने में व्यस्त थे. अध्यापिकाएं स्वेटर बुन रही थीं और आपस में दुखसुख की बातें कर रही थीं. बच्चे शोर मचा रहे थे, मारपीट कर रहे थे या डेस्कों पर तबला बजाते हुए फिल्मी गाने गा रहे थे. असीम कक्षा में एक कोने में गुमसुम बैठा था. वह न पढ़लिख रहा था और न अन्य बच्चों की किसी गतिविधि में ही शामिल था.

मैं प्रिंसिपल साहब के कमरे में गया. चाहा कि उन से स्कूल की दशा के बारे में बातचीत करूं, किंतु मेरे कुछ कहने से पूर्व ही वह अखबार को एक ओर पटक कर मुझ पर झपट पड़े और बोले, ‘‘मैं पत्र लिख कर आप को बुलाने ही वाला था. आप अपने लड़के की बिलकुल परवा नहीं कर रहे हैं. मेरे स्कूल में तो ऐसा नहीं चलेगा. बहुत मुश्किल होगा इस तरह तो. घर पर इस का मार्गदर्शन कीजिए या पढ़ाने के लिए घर पर किसी अध्यापक की व्यवस्था कीजिए, वरना…’’

असीम को इस स्कूल से निकाल कर पुन: पहले वाले स्कूल में दाखिल कराना संभव नहीं था. वहां न तो उसे प्रवेश मिल सकता था और न वह अब इस योग्य ही रह गया था कि वहां के स्तर पर अपने को चला सके. मैं ने इस विषय में उस के लिए ट्यूशन का प्रबंध कर दिया. किंतु उस का तो अब सभी विषयों में बुरा हाल था.

उस ने मरखप कर हाईस्कूल पास कर लिया. इंटर में भी उस के कुछ अच्छे अंक नहीं रहे. उसी तरह उस ने बी.ए. में रेंगना शुरू कर दिया. मैं ने उस से पूछा कि यदि वह पढ़ना नहीं चाहता तो कोई हाथ का काम सीखने की कोशिश करे. मगर उस ने इस बात का कोई उत्तर नहीं दिया.

वैसे भी वह अब मुझ से कम ही बात करता था. उस का शरीर सूख सा गया था. दाढ़ी बढ़ा ली थी. हर रोज वह कंधे पर थैला लटका कर न जाने किधर चल देता और कभीकभी शाम को भी लौट कर घर न आता.

उस के पुराने साथी कामधंधे पर लग गए थे. उन में से कुछ अफसर भी चुन लिए गए थे, किंतु असीम कितनी ही प्रतियोगिताओं में भाग लेने के बावजूद किसी साधारण पद के लिए भी नहीं चुना गया था.

एक दिन वह सुबह का नाश्ता ले कर और हर रोज की तरह कंधे पर थैला लटका कर घर से निकलने ही लगा था कि मैं ने रोक कर पूछा, ‘‘ऐसा कब तक चलेगा?’’

वह चुपचाप मेरी ओर देखता रहा, तो मैं ने पूछा, ‘‘तुम क्या समझते हो, यह सब ठीक कर रहे हो?’’ इस बार उस ने नजर उठा कर मेरी ओर देखा और सधे हुए लहजे में बोला, ‘‘आप ने जो मेरे साथ किया, क्या वह ठीक था?’’

‘‘मैं ने क्या किया?’’

‘‘अपने खोखले आदर्शों की बलिवेदी पर मुझे चढ़ा दिया, यह अच्छा किया आप ने?’’

मैं उसे कोई उत्तर न दे सका. यह भी नहीं समझा सका कि ये आदर्श खोखले नहीं हैं. खोखली है यह व्यवस्था जिस की चक्की के पाट कमजोर नहीं हैं और इन पाटों के बीच कुछ लोग नहीं, युग भी पिस कर रह जाते हैं.

जब वह चला गया तो मैं ने गौर किया कि मेरे अपने बेटे का चेहरा उस दिन मंच पर भाषण देने वाले बेढंगे से आदमी के चेहरे से कितना मेल खाने लगा है.

कैसी है सीमा : गांव से किसका पत्र आया था

‘आज जरा चेक पर दस्तखत कर देना,’’ प्रभात ने शहद घुली आवाज में कहा.

सीमा ने रोटी बेलतेबेलते पलट कर देखा, चेक पर दस्तखत करवाते समय प्रभात कितने बदल जाते हैं, ‘‘आप की तनख्वाह खत्म हो गई?’’ वह बोली.

‘‘गांव से पिताजी का पत्र आया था. वहां 400 रुपए भेजने पड़े. फिर लीला मौसी भी आई हुई हैं. घर में मेहमान हों तो खर्च बढ़ेगा ही न?’’

सीमा चुप रह गई.

‘‘पैसा नहीं देना है तो मत दो. किसी से उधार ले कर काम चला लूंगा. जब भी पैसों की जरूरत होती है, तुम इसी तरह अकड़ दिखाती हो.’’

‘‘अकड़ दिखाने की बात नहीं है. प्रश्न यह है कि रुपया देने वाली की कुछ कद्र तो हो.’’

‘‘मैं बीवी का गुलाम बन कर नहीं रह सकता, समझीं.’’

बीवी के गुलाम होने वाली सदियों पुरानी उक्ति पुरुष को आज भी याद है. किंतु स्त्रीधन का उपयोग न करने की गौरवशाली परंपरा को वह कैसे भूल गया?

बहस और कटु हो जाए, इस के पहले ही सीमा ने चेक पर हस्ताक्षर कर दिए.

शाम को प्रभात दफ्तर से लौटे तो लीला मौसी को 100 का नोट दे कर बोले, ‘‘मौसी, तुम पड़ोस वाली चाची के साथ जा कर आंखों की जांच करवा आना.’’

‘‘अरे, रहने दे भैया, मैं तो यों ही कह रही थी. अभी ऐसी जल्दी नहीं है. रायपुर जा कर जांच करा लूंगी.’’

‘‘नहीं मौसी, आंखों की बात है. जल्दी दिखा देना ही ठीक है.’’

मौसी मन ही मन गद्गद हो गईं.

प्रभात मौसी का बहुत खयाल रखते हैं. मौसी का ही क्यों, रिश्ते की बहनों, बूआओं, चाचाताउओं सभी का. कोई रिश्तेदार आ जाए तो प्रभात एकदम प्रसन्न हो उठते हैं. उस समय वह इतने उदार हो जाते हैं कि खर्च करते समय आगापीछा नहीं सोचते. मेहमानों की तीमारदारी के लिए ऐसे आकुलव्याकुल हो उठते हैं कि उन के आदेशों की धमक से सीमा का सिर घूमने लगता है.

‘‘सीमा, आज क्या सब्जी बनी?है?’’ प्रभात पूछ रहे थे.

‘‘बैगन की.’’

‘‘बैगन की. मौसी की आंखों में तकलीफ है. बैगन की सब्जी खाने से तकलीफ बढ़ेगी नहीं? उन के लिए परवल की सब्जी बना लो.’’

‘‘नहीं. मैं बैगन की सब्जी खा लूंगी, बेटा. बहू को एक और सब्जी बनाने में कष्ट होगा. कालिज से थक कर आई है.’’

‘‘इस उम्र में थकना क्या है, मौसी? वह तो इन के घर वालों ने काम की आदत नहीं डाली, इसी से थक जाती हैं.’’

‘‘हां, बेटा. आजकल लड़कियों को घरगृहस्थी संभालने की आदत ही नहीं रहती. हम लोग घर के सब काम कर के 10 किलो चना दल कर फेंक देते थे,’’ मौसी बोलीं.

बस, इसी बात से सीमा चिढ़ जाती है. उस के मायके वालों ने काम की आदत नहीं डाली तो क्या प्रभात ने उस के लिए नौकरों की फौज खड़ी कर दी? एक बरतनकपड़े साफ करने वाली के अलावा दूसरा कोई नौकर तो देखा ही नहीं इस घर में.

और लीला मौसी के जमाने में घरगृहस्थी ही तो संभालती थीं लड़कियां. न पढ़ाईलिखाई में सिर खपाना था और न नौकरी के पीछे मारेमारे घूमना था.

सीमा सोचने लगी, ‘लीला मौसी तो खैर अशिक्षित महिला हैं, परंतु प्रभात की समझ में यह बात क्यों नहीं आती?’

अभी पिछले सप्ताह भी ऐसा ही हुआ था. सीमा ने करेले की सब्जी बनाई थी. प्रभात ने देखा तो बोले, ‘‘करेले बनाए हैं? क्या मौसी को दुबला करने का विचार है? उन के लिए कुछ और बना लो.’’

सीमा एकदम हतप्रभ रह गई. मौसी हंसीं, ‘‘नहीं… नहीं, कुछ मत बनाओ, बहू. बस, दाल को तड़का दे दो. तब तक मैं टमाटर की चटनी पीस लेती हूं.’’

‘‘मौसी, बहू के रहते तुम्हें काम करने की क्या जरूरत है? आओ, उस कमरे में बैठें,’’ प्रभात बोले.

सीमा अकेली रसोई में खटती रही. उधर साथ वाले कमरे में मौसी प्रभात को झूठेसच्चे किस्से बताती रहीं, ‘‘तुम्हारे बड़े नानाजी खेत में पहुंचे तो देखा, सामने गांव के धोबी का भूत खड़ा है…’’

मौसी खूब अंधविश्वासी हैं. मनगढ़ंत किस्से खूब बताती हैं. भूतप्रेतों के, प्रभात के बड़े नाना, मझले नाना और छोटे नाना के, दूध सी सफेद छोटी नानी के, प्रभात की ननिहाल के जमींदार महेंद्रप्रताप सिंह और रूपा डाकू के भी. इन किस्सों के साथसाथ मौसी लोगों की मेहमाननवाजी और बढि़या भोजन को भी खूब याद करतीं. उन की व्यंजन चर्चा सुन कर श्रोताओं के मुंह में भी पानी भर आता.

मौसी मूंग के लड्डू, खस्ता, कचौरी, मेवे की गुझिया और खोए की पूरियों को याद किया करतीं.

प्रभात उन की हर फरमाइश पूरी करवाते. सीमा को कालिज जाने तक रसोई में जुटे रहना पड़ता. थकान के कारण खाना भी न खाया जाता. उस दिन भी ऐसा ही हुआ था. कालिज से लौट कर वह कुछ खाना ही चाहती थी कि प्रभात के मित्र आ गए. उस ने किसी तरह उन्हें चायनाश्ता करवाया. दूध का बरतन उठा कर अलमारी में रखने लगी तो सहसा चक्कर खा कर गिर पड़ी. सारे कमरे में दूध ही दूध फैल गया.

मौसी और प्रभात दौड़े आए. अपने निष्प्राण से शरीर को किसी तरह खींचती हुई सीमा पलंग पर जा लेटी. आंखें बंद कर के वह न जाने कितनी देर तक लेटी रही.

अचानक प्रभात ने धीरे से उसे उठाते हुए कहा, ‘‘सुनो, अब उठ कर जरा रसोई में देख लो. तब से मौसी ही लगी हुई हैं.’’

शरीर में उठने की शक्ति ही नहीं थी. ‘हूं’ कह कर सीमा ने दूसरी ओर करवट ले ली.

‘‘तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है, यह मैं मानता हूं परंतु अपने घर का काम कोई और करे यह तो शोभा नहीं देता,’’ प्रभात धीरे से बोले.

सीमा का मन हुआ चीख कर कह दे, ‘मौसी के घर में बहूबेटी बीमार होती हैं, तब क्या वह हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती हैं? एक समय भोजन बना भी लेंगी तो ऐसी क्या प्रलय हो जाएगी?’ लेकिन कहा कुछ नहीं. आवाज कहीं गले में ही फंस कर रह गई. आंखों से आंसू बह निकले. उठ कर बचा हुआ काम निबटाया.

मौसी प्रभात की प्रशंसा करते नहीं थकतीं. उस दिन किसी से कह रही थीं, ‘‘हमारे परिवार में प्रभात हीरा है. सब के सुखदुख में साथ देता है. रुपएपैसे की परवाह नहीं करता. ऐसा आदरसम्मान करता है कि पूछो मत. बहू बड़े घर की लड़की?है, पर प्रभात का ऐसा शासन?है कि मजाल है बहू जरा भी गड़बड़ कर जाए.’’

यह प्रशंसा वह पहली बार नहीं सुन रही थी. ऐसी प्रशंसा प्रभात के परिवार के हर छोटेबड़े के मुख पर रहती है. ससुराल वालों को इतना आतिथ्यसत्कार तथा सेवा करने और बैंक के चेक फाड़फाड़ कर देने के बाद भी वह प्रभात के इस सुयश की भागीदार नहीं बन सकी. या यों कहा जाए कि प्रभात ने इस में उसे भागीदार बनाया ही नहीं बल्कि अपने लोगों के सामने उसे बौना बनाने में ही वह गर्व महसूस करते रहे. उस  की कमियों और गलतियों को वह बढ़ाचढ़ा कर सुनाया करते और सारा परिवार रस ले ले कर सुना करता.

इस संबंध में सीमा को अपनी देवरानी मंगला से ईर्ष्या होती है. देवर सुनील उस के सम्मान को बढ़ाने का एक भी अवसर हाथ से नहीं जाने देते. हैदराबाद से वह साल में एक बार घर आते हैं. छोटेबड़े सभी के लिए कुछ न कुछ लाने का उन का नियम है, लेकिन लेनदेन का दायित्व उन्होंने मंगला को ही सौंप रखा है.

जब सारा परिवार मिल कर बैठता?है तब सुनील पत्नी को गौरवान्वित करते हुए कहते हैं, ‘‘मंगला, निकालो भई, सब चीजें. दिखाओ सब को, क्याक्या लाई हो तुम उन के लिए,’’ सब की नजरें मंगला पर टिक जाती?हैं. वह कितनी ऊंची हो जाती है सब की दृष्टि में.

मंगला की अनुपस्थिति में जब परिवार के लोग मिल बैठते हैं तो उस के लाए उपहारों की चर्चा होती?है. उस की दरियादिली की प्रशंसा होती है. परंतु सीमा की मेहनत की कमाई से भेजे गए मनीआर्डरों का कभी जिक्र नहीं होता. उस का सारा श्रेय प्रभात को जाता है. कभी बात चलती?है तो अम्मां उसे सुना कर साफ कह देती हैं, ‘‘सीमा की कमाई से हमें क्या मतलब? प्रभात घर का बड़ा बेटा है, उस की कमाई पर तो हमारा पूरा हक है.’’

कभीकभी सीमा सोचती है, ‘नेकी करते हुए भी किसी के हिस्से में यश और किसी के हिस्से में अपयश क्यों आता है?’ वैसे इस विषय में ज्यादा सोच कर वह अपना मन खराब नहीं करती. फिर भी उस का स्वास्थ्य ठीक नहीं रह पाता. पिछले दिनों डाक्टर ने बताया था, ‘‘पैर भारी हैं. थोड़ा आराम करना चाहिए.’’

इधर मौसी कहती थीं, ‘‘एक रोटी बनाने का ही तो काम है घर में. न चक्की पीसनी है, न कुएं से पानी खींच कर लाना है. खूब मेहनत करो और डट कर खाओ. तभी तो सेहत बनेगी.’’

और एक दिन सेहत बनाने के चक्कर में लड्डू बांधतेबांधते कालिज जाने का समय हो गया था. सीमा जल्दीजल्दी सीढि़यां उतरने लगी तो अचानक पैर फिसल गया. 3-4 सीढि़यां लांघती हुई वह नीचे जा गिरी. चोट तो उसे विशेष नहीं आई, पर पेट में दर्द होने लगा था.

‘‘इन के लिए बिस्तर पर आराम करना बहुत जरूरी है,’’ डाक्टर ने प्रभात से कहा था.

प्रभात ने लापरवाही के लिए सीमा को जी भर कर कोसा, किंतु इस परिस्थिति में डाक्टर की सलाह मानना आवश्यक हो गया.

झाड़ूपोंछा तो महरी करने लगी पर भोजन बनाने का भार मौसी पर आ पड़ा. वह नाश्ता और खाना बनाने में परेशान हो जातीं. अब वह बिना मसाले की सादी सब्जी से काम चला लेतीं. कहतीं, ‘‘अब उम्र हो गई. काम करने की पहले जैसी ताकत थोड़े ही रह गई है.’’

सीमा का मन होता, पूछे, मौसी, सिर्फ खाना ही तो बनाना?है. और खाना बनाना भी कोई काम है? तुम तो कहती थीं, दालचावल और सब्जीरोटी तो कैदियों का खाना है. तुम ऐसा खाना क्यों बना रही हो, मौसी?

किसी तरह सप्ताह बीता था कि मौसी का मन उखड़ने लगा. एक दिन प्रभात से बोलीं, ‘‘बेटा, तुम्हारे पास बहुत दिन रह ली. सुरेखा रोज सपने में दिखाई देती है. जाने क्या बात है. बहू जैसी ही उस की भी हालत है.’’

प्रभात सन्न रह गए, ‘‘मौसी, ऐसी कोई बात होती तो सुरेखा का पत्र जरूर आता. तुम चली जाओगी तो बड़ी मुसीबत होगी. अच्छा होता जो कुछ दिन और रुकजातीं.’’

पर मौसी नहीं मानीं. वह बेटी को याद कर के रोने लगीं. प्रभात निरुपाय हो गए. उन्होंने उसी दिन गांव पत्र लिखा.

सुशीला जीजी पिछले साल 2 माह रह कर गई थीं. उन्हें भी एक पत्र विस्तार से लिखा. कई दिनों बाद गांव से पत्र आया कि 15 दिनों बाद अम्मां स्वयं आएंगी. पर 15 दिनों के लिए दूसरी क्या व्यवस्था हो सकेगी?

प्रभात को याद आया कि मंगला की बीमारी का समाचार मिलते ही गांव के लोग किस तरह हैदराबाद तक दौड़े चले जाते हैं. फिर सीमा के लिए ऐसा क्यों? शायद इस का कारण वह स्वयं ही है. जिस तरह सुनील ने अपने परिजनों के हृदय में मंगला के लिए स्नेह और सम्मान के बीज बोए थे, वैसा सीमा के लिए कभी किया था उस ने?

15 दिन बाद अम्मां गांव से आ गईं. उन के आते ही प्रभात निश्चिंत हो गए. उन्हें विश्वास था कि अम्मां अब सब संभाल लेंगी. मार्च का महीना?था. वह अपने दफ्तर के कार्यों में व्यस्त हो गए. सुबह घर से जल्द निकलते और रात को देर से घर लौटते.

पिछले वर्ष जब मंगला को आपरेशन से बच्चा हुआ था, उस समय अम्मां हैदराबाद में ही थीं. उन्होंने उस की खूब सेवा की थी. उस की सेवा का औचित्य उन की समझ में आता था, लेकिन सीमा को क्या हुआ, यह उन की समझ में ही न आता. वह दिनभर काम करें और बहू आराम करे, यह उन के लिए असहाय था.

प्रभात के सामने तो अम्मांजी चुपचाप काम किए जातीं, परंतु उन के जाते ही व्यंग्य बाण उन के तरकस में कसमसाने लगते. कभी वह इधरउधर निकल जातीं.

महल्ले की स्त्रियां मजा लेने के लिए उन्हें छेड़तीं, ‘‘अम्मां, हो गया काम?’’

‘‘हां भई, काम तो करना ही है. पुराने जमाने में बहुएं सास की सेवा करती थीं, आज के जमाने में सास को बहुओं की सेवा करनी पड़ती?है.’’

सीमा सुनती तो संकोच से गड़ जाती. किस मजबूरी में वह उन की सेवा ग्रहण कर रही थी, इसे तो वही जानती थी.

उसी समय प्रभात को दफ्तर के काम से सूरत जाना पड़ा. उन के जाने की बात सुन कर सीमा विकल हो उठी थी. जाने के 2 दिन पहले उस ने प्रभात से कहा भी, ‘‘अम्मां से कार्य करवाना मुझे अच्छा नहीं लगता. उन की यहां रहने की इच्छा भी नहीं है. उन्हें जाने दीजिए. यहां जैसा होगा, देखा जाएगा.’’

‘‘परिवार से संबंध बनाना तुम जानती ही नहीं हो,’’ प्रभात ने उपेक्षा से कहा था.

प्रभात के जाते ही अम्मां मुक्त हो गई थीं. वह कभी मंदिर निकल जातीं, कभी अड़ोसपड़ोस में जा बैठतीं. सीमा को यह सब अच्छा ही लगता. उन की उपस्थिति में जाने क्यों उस का दम घुटता था.

उस दिन अम्मां सामने के घर में बैठी बतिया रही थीं. सीमा ने टंकी में से आधी बालटी पानी निकाला और उठाने ही जा रही थी कि देखा, अम्मां सामने खड़ी हैं. उसे याद आया अम्मां पीछे वाली पड़ोसिन से कह रही थीं, ‘‘प्रभात पेट में था, तब छोटी ननद की शादी पड़ी. हमें बड़ेबड़े बरतन उठाने पड़े,  पर कहीं कुछ नहीं हुआ. हमारी बहू तो 2-2 लोटा पानी ले कर बालटी भरती है, तब नहाती?है.’’

सीमा ने झेंप कर बालटी भरी और उठा कर स्नानघर तक पहुंची ही थी कि दर्द के कारण बैठ जाना पड़ा. जिस का भय था, वही हो गया. डाक्टर निरुपाय थे. गर्भपात कराना जरूरी हो गया.

अम्मां रोरो कर सब से कह रही थीं, ‘‘हम इतना काम करते थे तो भला क्या इन्हें बालटी भर पानी नहीं दे सकते थे. हमारे रहने का क्या फायदा हुआ?’’

उसी दिन शाम को प्रभात घर लौटे. अस्पताल पहुंचे तो डाक्टर गर्भपात कर के बाहर निकल रही थीं. उन्होंने दुख व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘बच्चा निकालना जरूरी हो गया था. लड़का था.’’

प्रभात हतबुद्धि से डाक्टर को देखते रह गए. फिर अचकचा कर पूछा, ‘‘सीमा कैसी है?’’

मानसून स्पेशल: एक रिश्ता ऐसा भी – भाग 3

लेक्चर वह अत्यंत तन्मयता से सुनता और लेक्चर के मध्य ऐसे ऐसे प्रश्न करता, जिन की उम्मीद एक तेज स्टूडेंट से ही की जा सकती थी.

मिस मृणालिनी लेक्चर देना ही काफी नहीं समझती थीं बल्कि असाइनमेंट देना और उसे चैक करना भी जरूरी समझती थीं. शशि सिंह कई बार अपना काम चैक कराने मिस मृणालिनी और मिस्टर अंशुमन के कौमन रूम में आया था. वह जब भी आता, बड़े सलीके और सभ्यता के साथ. इस आनेजाने के बीच मिस मृणालिनी ने उस के बारे में यह मालूमात हासिल की थी कि उस के मातापिता दक्षिण अफ्रीका में थे, वह यहां अपनी नानी के पास रहा करता था.

शशि जैसे सभ्य स्टूडेंट से मिस मृणालिनी को इस किस्म की छिछोरी हरकत की उम्मीद भी नहीं थी. उन्हें यकीन था कि यह हरकत किसी और की थी मगर उस ने शरारतन या रंजिशन शशि सिंह का नाम लिख दिया था.

बहरहाल, रामलाल ने कोई 15 मिनट बाद आ कर यह समाचार सुनाया कि मेनगेट पर से एकएक शब्द मिटा आया है. मगर यह बताते हुए उस के चेहरे पर अजीब सी मुसकराहट थी. मिस मृणालिनी ने अपने हैंड बैग में रखा छोटा सा पर्स निकाल कर 20 रुपए का नोट रामलाल की ओर बढ़ा दिया.मगर बात तो फैल चुकी थी, न सिर्फ टीचरों, बल्कि स्टूडेंट्स के बीच भी तरहतरह की बातें हो रही थीं.

घंटी बज गई. लड़के अपनीअपनी क्लासों में चले गए. मृणालिनी भी पीरियड लेने चली गईं. मजे की बात यह हुई कि उन का पहला पीरियड फर्स्ट ईयर साइंस बी सैक्शन में ही था. मिस मृणालिनी पहली बार क्लास में जाते हुए झिझक रही थीं, उन के कदम लड़खड़ा रहे थे. लेकिन जाना तो था ही, सो गईं और लेक्चर दिया.

लेक्चर के दौरान उन की निगाह शशि सिंह पर भी पड़ी, वह रोज की तरह तन्मयता से सुन रहा था. मिस मृणालिनी लेक्चर देती रहीं, लेकिन आंखें रोज की तरह लड़कों के चेहरों पर पड़ने के बजाए झुकीझुकी थीं. पहली बार मिस मृणालिनी को क्लास के चेहरों पर दबीदबी मुसकराहटें दिखीं.

जैसेतैसे पीरियड समाप्त हुआ तो मृणालिनी ठाकुर कमरे की ओर चल दीं. वह कमरे में पहुंची तो मिस्टर अंशुमन पहले ही मौजूद थे. मिस मृणालिनी ने रोज की तरह उन का अभिवादन किया और अपनी सीट पर बैठ गईं.

जरा देर बाद मिस्टर अंशुमन खंखारे और चंद क्षणों की देरी के बाद उन की आवाज मिस मृणालिनी के कानों से टकराई.

‘‘शशि सिंह से पूछा आप ने?’’

ओह तो इन्हें भी पता चल गया. मिस मृणालिनी ने आंखों के कोने से मिस्टर अंशुमन की ओर देखते हुए सोचा और पहलू बदल कर बोलीं, ‘‘जी नहीं.’’
‘‘क्यों?’’

‘‘मेरा विचार है यह किसी और की शरारत है, शशि सिंह बहुत अच्छा लड़का है.’’
‘‘आप ने पूछा तो होता, आप के विचार के अनुसार अगर उस ने नहीं लिखा तो संभव है उस से कोई सुराग मिल सके.’’

मिस्टर अंशुमन ने घंटी बजा कर चपरासी को बुलाया.
कुछ देर बाद शशि सिंह नीची निगाहें किए फाइल हाथ में लिए अंदर दाखिल हुआ. मिस्टर अंशुमन कड़क कर बोले, ‘‘क्या तुम बता सकते हो गेट पर किस ने लिखा था?’’

‘‘यस सर.’’ बिना देरी किए जवाब आया.
मृणालिनी ठाकुर ने घबरा कर और चौंक कर शशि की ओर देखा.
‘‘किस ने लिखा था?’’ अंशुमन सर की रौबदार आवाज गूंजी.
‘‘मैं ने..’’ शशि ने कहा.

मिस मृणालिनी चौंकी. उन्होंने देखा शशि अपराध की स्वीकारोक्ति के बाद बड़े इत्मीनान से खड़ा था.
अंशुमन सर ने मृणालिनी की ओर देखा, मानो उन की आंखें कह रही थीं, ‘मिस मृणालिनी आप का तो विचार था…’मृणालिनी ने नजरें झुका लीं.

‘‘मैं मेनगेट की बात कर रहा हूं, वहां मिस मृणालिनी के बारे में तुम ने ही लिखा था?’’ अंशुमन सर ने साफतौर पर पूछा ‘‘यस सर.’’ बड़े इत्मीनान से जवाब दिया गया.

‘‘यू इडियट… तुम्हारी इतनी हिम्मत कैसे हुई?’’

अंशुमन दहाड़े, वह कुरसी से उठे और शशि के गोरेगोरे गाल ताबड़तोड़ चांटों से सुर्ख कर दिए. शशि सिर झुकाए किसी प्राइमरी कक्षा के बच्चे की तरह खड़ा पिटता रहा.

अंशुमन सर जिन का गुस्सा कालेज भर में मशहूर था, जिस कदर हंगामा कर सकते थे, उन्होंने किया. उस के 2 कारण हो सकते थे. पहला तो खुद मृणालिनी में उन की दिलचस्पी और आकर्षण और दूसरा स्टूडेंट्स और साथियों से यह कहलवाने का शौक कि अंशुमन सर बहुत सख्त इंसान हैं.

शोर सुन कर अंशुमन सर के कमरे के दरवाजे पर भीड़ सी इकट्ठी हो गई. मगर अंशुमन सर ने बाहर निकल कर घुड़की लगाई तो ज्यादातर रफूचक्कर हो गए. मगर चंद दादा किस्म के लड़के शशि की हिमायत में सीना तान कर आ गए.

मिस मृणालिनी बेहोश होने को थीं मगर इस से पहले उन्होंने भयानक नजरों से शशि की ओर देखा और पूरी ताकत से चिल्लाईं, ‘‘गेट आउट फ्राम हियर.’’
वह चुपचाप निकल गया. और फिर कभी कालेज नहीं आया.

फिर भी मिस मृणालिनी को उस का खयाल कई बार आया. इस घटना का फौरी और स्थाई परिणाम यह हुआ कि मिस मृणालिनी और उन के स्टूडेंट्स के बीच एक सीमा रेखा खिंच गई.

12 साल गुजर गए. उस घटना को समय की दीमक आहिस्ताआहिस्ता चाट गई. अंशुमन सर ने मिस मृणालिनी की ओर से मायूस हो कर शादी कर ली और कनाडा चले गए. कालेज में कई परिवर्तन आए, मिस मृणालिनी ठाकुर अपनी योग्यता और अनथक परिश्रम के सहारे वाइस प्रिंसिपल के पद पर नियुक्त हो गईं.

12 साल पहले की 28 वर्षीय मिस मृणालिनी एक अधेड़ सम्मानीय औरत की शक्ल में बदल गईं. 12 साल बाद जनवरी की एक सुबह चपरासी ने मिस मृणालिनी को एक विजिटिंग कार्ड थमाते हुए कहा, ‘‘मैडम, एक साहब आप से मिलने आए हैं.’’

मिस मृणालिनी जो चंद कागजात देखने में व्यस्त थीं, कार्ड देखे बिना बोलीं, ‘‘बुलाओ.’’
जरा देर बाद उच्च क्वालिटी का लिबास पहने लंबे कद और भरेभरे जिस्म वाला व्यक्ति अंदर दाखिल हुआ. उन्होंने बिखरे हुए कागजात इकट्ठा करते हुए कहा, ‘‘तशरीफ रखिए.’’

वह बैठ गया और जब मिस मृणालिनी ठाकुर कागजात इकट्ठा करने के बाद उस की ओर मुखातिब हुईं तो वह बहुत ही साफसुथरी अंग्रेजी में बोला, ‘‘आप ने शायद मुझे पहचाना नहीं.’’

मिस मृणालिनी ठाकुर एक लम्हा को मुसकराईं और फिर एक निगाह उस के चेहरे पर डाल कर बोलीं, ‘‘पुराने स्टूडेंट हैं आप?’’

‘जी हां.’’

‘‘दरअसल इतने बच्चे पढ़ कर जा चुके हैं कि हर एक को याद रखना मुश्किल है.’’ मिस मृणालिनी ठाकुर का चेहरा अपने स्टूडेंट्स के जिक्र के साथ दमक उठा.
‘‘माफ कीजिएगा मैडम, बड़ा निजी सा सवाल है.’’ वह खंखारा.

मिस मृणालिनी चौंकी.
‘‘आप अब तक मिस मृणालिनी ठाकुर हैं या…’’

‘‘हां, अब तक मैं मिस मृणालिनी ठाकुर ही हूं.’’ स्नेह उन के चेहरे से झलक रहा था.
‘‘आप ने वाकई में नहीं पहचाना अब तक?’’ वह मुसकराकर बोला.

मिस मृणालिनी ने बहुत गौर से देखा और घनी मूंछों के पीछे से वह मासूम चेहरे वाला सभ्य सा शशि सिंह उभर आया.

‘‘क्या तुम शशि सिंह हो?’’ मस्तिष्क के किसी कोने में दुबका नाम तुरंत उन के होठों पर आ गया.
‘‘यस मैडम.’’ वह अपने पहचान लिए जाने पर खुश नजर आया.
‘‘ओह…’’ मिस मृणालिनी की समझ में कुछ न आया क्या करें, क्या कहें.

‘‘मैं डर रहा था अंशुमन सर न टकरा जाएं कहीं.’’ वह बेतकल्लुफी से बोल रहा था. मिस मृणालिनी ठाकुर शांत व बिलकुल चुप थीं.

‘‘मैं दक्षिण अफ्रीका चला गया था. फिर वहां से डैडी ने अंकल के पास इंग्लैंड भेज दिया. अब सर्जन बन चुका हूं और अपने देश आ गया हूं. मैं आप को कभी भूल न सका. मुझे विश्वास था आप कभी न कभी, कहीं न कहीं फिर मुझे मिलेंगी. और वाकई आप मिल गईं, उसी जगह जहां मैं छोड़ कर गया था.’’
‘‘माइंड यू बौय.’’ मिस मृणालिनी ने उस की बेतकल्लुफी पर कुछ नागवारी के साथ कहा.

‘‘मेरी मम्मी भी किसी हालत में यह स्वीकार नहीं करतीं कि मैं अब बच्चा नहीं रहा.’’

मिस मृणालिनी ठाकुर ने देखा वह बड़े सलीके से मुसकरा रहा था. वह फर्स्ट ईयर का स्टूडेंट था, पता नहीं कहां जा छिपा था.

‘‘आई स्टिल लव यू मिस मृणालिनी.’’ वह 12 साल बाद एक बार फिर अपने अपराध को स्वीकार रहा था.

‘‘शट अप!’’ मिस मृणालिनी का चेहरा लाल हो गया.
‘‘नो मैडम, आई कान्ट! और क्यों मैं अपनी जुबान बंद रखूं. अगर एक बेटे को यह अधिकार है कि वह अपनी मां को चूम कर उस के गले में बांहें डाल कर उस से अपने प्रेम का इजहार कर सकता है तो इतना अधिकार हर स्टूडेंट को है वह अपने रुहानी मातापिता से प्रेम कर सके. क्या गलत कह रहा हूं मिस मृणालिनी ठाकुर? क्या गुरु से प्रेम की स्वीकारोक्ति अपराध है मैडम?’’

मिस मृणालिनी ठाकुर ने हैरानी से देखा वह कह रहा था.
‘‘अगर अंशुमन सर की तरह आप ने भी इसे अपराध मान लिया तो यह वाकई में बड़ा दुखद होगा.’’
मिस मृणालिनी अविश्वास से उस की ओर देख रही थीं.

‘‘यस मैडम आइ लव यू.’’ उस ने एक बार फिर स्वीकार किया.

‘‘ओह डियर….’’ भावनाओं के वेग से मिस मृणालिनी की जुबान गूंगी हो चली थी. बिलकुल उस मां की तरह जिस का बेटा सालों बाद घर लौट आया हो.

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