क्या फर्क पड़ता है- भाग 1

‘‘आज मेरे दोनों बेटे साथसाथ आ गए. बड़ी खुशी हो रही है मुझे तुम दोनों को एकसाथ देख कर. बैठो, मैं सूजी का हलवा बना कर लाती हूं. अजय, बैठो बेटा… और सोम, तुम भी बैठो,’’ सोम की मां ने उसे मित्र के साथ आया देख कर कहा. ‘‘नहीं, मां. अजय है न. तुम इसी को खिलाओ. मुझे भूख नहीं है.’’

मैं क्षण भर को चौंका. सोम की बात करने का ढंग मुझे बड़ा अजीब सा लगा. मैं सोम के घर में मेहमान हूं और जब कभी आता हूं उस की मां मेरे आगेपीछे घूमती हैं. कभी कुछ परोसती हैं मेरे सामने और कभी कुछ. यह उन का सुलभ ममत्व है, जिसे वे मुझ पर बरसाने लगती हैं. उन की ममता पर मेरा भी मन भीगभीग जाता है, यही कारण है कि मैं भी किसी न किसी बहाने उन से मिलना चाहता हूं. इस बार घर गया तो उन के लिए कुछ लाना नहीं भूला. कश्मीरी शाल पसंद आ गई थी. सोचा, उन पर खूब खिलेगी. चाहता तो सोम के हाथ भी भेज सकता था पर भेज देता तो उन के चेहरे के भाव कैसे पढ़ पाता. सो सोम के साथ ही चला आया.

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मां ने सूजी का हलवा बनाने की चाह व्यक्त की तो सोम ने इस तरह क्यों कह दिया कि अजय है न. तुम इसी को खिलाओ. मैं क्या हलवा खाने का भूखा था जो इतनी दूर यहां उस के घर पर चला आया था. कोई घर आए मेहमान से इस तरह बात करता है क्या? अनमना सा लगने लगा मुझे सोम. मुझे सहसा याद आया कि वह मुझे साथ लाना भी नहीं चाह रहा था. उस ने बहाना बनाया था कि किसी जरूरी काम से कहीं और जाना है. मैं ने तब भी साथ जाने की चाह व्यक्त की तो क्या करता वह.

‘तुम्हें जहां जाना है बेशक होते चलो, बाद में तो घर ही जाना है न. मैं बस मौसीजी से मिल कर वापस आ जाऊंगा. आज मैं ने अपना स्कूटर सर्विस के लिए दिया है इसलिए तुम से लिफ्ट मांग रहा हूं.’ ‘वापस कैसे आओगे. स्कूटर नहीं है तो रहने दो न.’ ‘मैं बस से आ जाऊंगा न यार… तुम इतनी दलीलों में क्यों पड़ रहे हो?’

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‘‘घर में सब कैसे हैं, बेटा? अपनी चाची को मेरी याद दिलाई थी कि नहीं,’’ मौसी ने रसोई से ही आवाज दे कर पूछा तो मेरी तंद्रा टूटी. सोम अपने कमरे में जा चुका था और मैं वहीं रसोई के बाहर खड़ा था. कुछ चुभने सा लगा मेरे मन में. क्या सोम नहीं चाहता कि मैं उस के घर आऊं? क्यों इस तरह का व्यवहार कर रहा है सोम?

मुझे याद है जब मैं पहली बार मौसी से मिला था तो उन का आपरेशन हुआ था और हम कुछ सहयोगी उन्हें देखने अस्पताल गए थे. मौसी का खून आम खून नहीं है. उन के ग्रुप का खून बड़ी मुश्किल से मिलता है. सहसा मेरा खून उन के काम आ गया था और संयोग से सोम की और हमारी जात भी एक ही है. ‘ऐसा लगता है, तुम मेरे खोए हुए बच्चे हो जो कभी किसी कुंभ के मेले में छूट गए थे,’

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मौसी बीमारी की हालत में भी मजाक करने से नहीं चूकी थीं. खुश रहना मौसी की आदत है. एक हाथ से उन के शरीर में मेरा दिया खून जा रहा था और दूसरे हाथ से वे अपना ममत्व मेरे मन मेें उतार रही थीं. उसी पल से सोम की मां मुझे अपनी मां जैसी लगने लगी थीं. बिन मां का हूं न मैं. चाचाचाची ने पाला है. चाची ने प्यार देने में कभी कोई कंजूसी नहीं बरती फिर भी मन के किसी कोने में यह चुभन जरूर रहती है कि अगर मेरी मां होतीं तो कैसी होतीं. अतीत में गोते लगाता मैं सोचने लगा.

चाची के बच्चों के साथ ही मेरा लालनपालन हुआ था. शायद अपनी मां भी उतना न कर पाती जितना चाची ने किया है. 2-3 महीने के बाद ही दिल्ली जा पाता हूं और जब जाता हूं चाची के हावभाव भी वैसी ही ममता और उदासी लिए होते हैं, जैसे मेरी मां के होते. गले लगा कर रो पड़ती हैं चाची. चचेरे भाईबहन मजाक करने लगते हैं. ‘अजय भैया, इस बार आप मां को अपने साथ लेते ही जाना. आप के बिना इन का दिल नहीं लगता. जोजो खाना आप को पसंद है मां पकाती ही नहीं हैं. परसों गाजर का हलवा बनाया, हमें खिला दिया और खुद नहीं खाया.’

‘क्यों?’ ‘बस, लगीं रोने. आप ने नहीं खाया था न. ये कैसे खा लेतीं. अब आप आ गए हैं तो देखना आप के साथ ही खाएंगी.’ ‘चुप कर निशा,’ विजय ने बहन को टोका, ‘मां आ रही हैं. सुन लेंगी तो उन का पारा चढ़ जाएगा.’ सचमुच ट्रे में गाजर का हलवा सजाए चाची चली आ रही थीं. चाची के मन के उद्गार पहली बार जान पाया था. कहते हैं न पासपास रह कर कभीकभी भाव सोए ही रहते हैं क्योंकि भावों को उन का खादपानी सामीप्य के रूप में मिलता जो रहता है. प्यार का एहसास दूर जा कर बड़ी गहराई से होता है.

‘आज तो राजमाचावल बना लो मां, भैया आ गए हैं. भैया, जल्दीजल्दी आया करो. हमें तो मनपसंद खाना ही नहीं मिलता.’ ‘क्या नहीं मिलता तुम्हें? बिना वजह बकबक मत किया करो… ले बेटा, हलवा ले. पूरीआलू बनाऊं, खाएगा न? वहां बाजार का खाना खातेखाते चेहरा कैसा उतर गया है. लड़की देख रही हूं मैं तेरे लिए. 1-2 पसंद भी कर ली हैं. पढ़ीलिखी हैं, खाना भी अच्छा बनाती हैं…लड़की को खाना बनाना तो आना ही चाहिए न.’ ‘2 का भैया क्या करेंगे. 1 ही काफी है न, मां,’ विजय और निशा ने चाची को चिढ़ाया था. क्याक्या संजो रही हैं चाची मेरे लिए. बिन मां का हूं ऐसा तो नहीं है न जो स्वयं के लिए बेचारगी का भाव रखूं. जब वापस आने लगा तब चाची से गले मिल कर मैं भी रो पड़ा था. ‘अपना खयाल रखना मेरे बच्चे. किसी से कुछ ले कर मत खाना.’

‘इतनी बड़ी कंपनी में भैया क्याक्या संभालते हैं मां, तो क्या अपनेआप को नहीं संभाल पाएंगे?’ ‘तू नहीं जानती, सफर में कैसेकैसे लोग मिलते हैं. आजकल किसी पर भरोसा करने लायक समय नहीं है.’ मेरे बिना चाची को घर काटने को आता है. क्या इस में वे अपने को लावारिस महसूस करने लगी हैं? कहीं चाची मुझे बिन मां का समझ कर अपने बच्चों का हिस्सा तो मुझे नहीं देती रहीं?

आज 27 साल का हो गया हूं. 4 साल का था जब एक रेल हादसे ने मेरे मांबाप को छीन लिया था. मैं पता नहीं कैसे बच गया था. चाचाचाची न पालते तो कौन जाने क्या होता. कहीं कोई कमी नहीं है मुझे. मेरे पिता द्वारा छोड़ा रुपया मेरे चाचाचाची ने मुझ पर ही खर्च किया है. जमीन- जायदाद पर भी मेरा पूरापूरा अधिकार है. मेरा अधिकार सदा मेरा ही रहा है पर कहीं ऐसा तो नहीं किसी और का अधिकार भी मैं ही समेटता जा रहा हूं.’

‘‘क्या सोच रहे हो, अजय?’’ मौसी ने पूछा तो मैं अतीत से वर्तमान में आ गया, ‘‘क्या अपनी चाची से कहा था मेरे बारे में. उन्हें बताना था न कि यहां तुम ने अपने लिए एक मां पसंद कर ली है.’’ ‘‘मां भी कभी पसंद की जाती है मौसीजी, यह तो प्रकृति की नेमत है जो किस्मत वालों को नसीब होती है. मां इतनी आसानी से मिल जाती है क्या जिसे कोई कहीं भी…’’ ‘‘अजय, क्या बात है बच्चे?’’ मौसी मेरे पास खड़ी थीं फिर मेरा हाथ पकड़ कर मुझे सोफे तक ले आईं और अपने पास ही बैठा लिया. बोलीं, ‘‘क्या हुआ है तुम्हें, बेटा? कब से बुलाए जा रही हूं… मेरी किसी भी बात का तू जवाब क्यों नहीं देता. परेशानी है क्या कोई.’’

‘‘जी, नहीं तो. चाची ने यह शाल आप के लिए भेजी है. बस, मैं यही देने आया था.’’ कभी मेरा चेहरा और कभी शाल को देखने लगीं सोम की मां. सोम की मां ही तो हैं ये…मैं इन का क्या चुरा ले जाता हूं, अगर कुछ पल इन से मिल लेता हूं? जिस के पास समूल होता है उस का दिल इतना छोटा तो नहीं होना चाहिए न. मां तो सोम की ही हैं, वे मेरी थोड़े न हो जाएंगी.

‘‘आज इतने दिनों बाद आया है, बात भी नहीं कर रहा. क्या हुआ है तुझे? बात तो कर बच्चे.’’ सोम सामने चला आया. उस के चेहरे पर विचित्र भाव है. ‘‘बस, मौसीजी…आप को यह शाल देने आया था. अब चलता हूं नहीं तो 7 वाली बस निकल जाएगी.’’ ‘‘बैठ, बैठ…हलवा तो खा कर जा. मां ने खास तेरे लिए बनाया है. दिनरात मां तेरे ही नाम की माला जपती हैं. अब आया है तो बैठ जा न,’’ सोम ने कहा, ‘‘इतनी ही देर हो रही है तो आए ही क्यों. मेरे हाथ ही शाल भेज देते न.’’ विचित्र सा अवसाद होने लगा मुझे. जी चाहा, कमरे की छत ही फाड़ कर बाहर निकल जाऊं. और वास्तव में ऐसा ही हुआ.

क्या फर्क पड़ता है- भाग 3

गूंगा सा हो गया मैं. क्या सच में मौसी ऐसा सोच रही हैं? ‘‘ऐसा नहीं है मां. मैं मानता हूं कि मुझ से गलती हुई है, लेकिन मैं ने ऐसा तो कभी नहीं कहा कि तुम मुझ से प्यार नहीं करती हो,’’ सोम रोंआसा हो गया था. ‘‘यही सच है सोम. जब से तुम्हें पता चला है कि मैं तुम्हारी जन्मदात्री मां नहीं हूं तभी से तुम्हारा रवैया मेरे प्रति बदल गया है. जरा सी बात पर भी तुम्हारा व्यवहार इतना पराया हो जाता है मानो कोई रिश्ता ही न हो हम में. न तुम स्वयं जीते हो न ही मुझे जीने देते होे, क्या अब मेरी बाकी की उम्र यही प्रमाणित करने में बीत जाएगी कि मेरी ममता में खोट नहीं है. मैं तो भूल ही गई थी कि तुम्हें गोद लिया था.’’

सारी की सारी कथा का सार पानी जैसा साफ हो गया मेरे सामने. रिश्तों के दांवपेच कितने मुश्किल होते हैं न जिन्हें समझने का दावा नहीं किया जा सकता. सोम रो पड़ा था अपनी मां को मनातेमनाते. किसी भी औरत के लिए ‘बांझ’ शब्द कितनी तकलीफ देने वाला है. मेरी तरफ अपनी मां का झुकाव सहा नहीं गया होगा सोम से क्योंकि रिश्ते की कमजोर नस यही है कि मौसी ने उसे जन्म नहीं दिया. ‘‘ऐसा मत सोचिए मौसी. कौन आप से आप की ममता का प्रमाण मांग सकता है. 2-2 बच्चों की मां हैं न आप. आप की गोद में तो हजारों बच्चों के लिए जगह है. हमारी तो कोई बिसात ही नहीं जो…’’

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मौसी का चेहरा अपने सामने किया मैं ने. सोम के प्यार की गहराई समझ सकता हूं मैं. बहुत प्यार करता है वह अपनी मां से, तभी तो मेरे साथ बांट नहीं पाया. पहली बार सोम का मन समझा मैं ने, क्योंकि इस से पहले मुझे यथार्थ का पता नहीं था. संतान की चाह में मौसी ने सोम को गोद लिया था, अधूरेअधूरे आपस में मिल जाएं तो संपूर्ण होने का सुख पा सकते हैं, यही समझ पा रहा हूं मैं. इन 2 अधूरों में एक अधूरा मैं भी आ मिला था जिस की वजह से जरा सी हलचल हो गई थी.

‘‘अपनापराया वास्तव में हमारे मन की ही समझ और नासमझ होती है अजय. मन जिसे अपना माने वही अपना. अपना होने के लिए खून के रिश्ते की जरूरत नहीं होती. सोम अनाथ था, मेरी गोद खाली थी… मिल कर पूरे हो गए न दोनों. मेरा जीना, मेरा मरना, मेरी विरासत… आज मेरा जो भी है सोम का ही है न. हर जगह सोम का नाम है, लेकिन इस के बावजूद मैं सोम की कैदी तो नहीं हूं न. मुझे जो प्यारा लगेगा, जो मेरे मन को छू लेगा, वह मेरा होगा. मुझे किसी सीमा में बांधना सोम को शोभा नहीं देता.’’

‘‘मां, सच तो यह है कि मैं तो यह सचाई ही नहीं सहन कर पा रहा हूं कि तुम ने मुझे जन्म नहीं दिया. तुम ने भी कभी नहीं बताया था न.’’ ‘‘उस से क्या फर्क पड़ गया, जरा सोच ठंडे दिमाग से. अजय का खून मेरे खून से मिल गया. इस की जात भी हमारी जात से मिल गई, तो तुम्हें लगा अब यह तुम्हारी जगह ले लेगा? इतनी असुरक्षा भर गई तुम्हारे मन में. ‘‘अरे, यह बच्चा क्या छीनेगा तेरा. यह भूखानंगा है क्या. इसे पालने वाले हैं इस के पास. भाईबहन हैं इस के. इसे कोई कमी नहीं है, जो यह तेरा सब छीन ले जाएगा, लावारिस नहीं है तुम्हारी तरह.’’

‘‘मैं ने ऐसा नहीं सोचा था, मां.’’ ‘‘अगर नहीं सोचा था तो भविष्य में सोचना भी मत. इतनी ही तकलीफ हो रही है तो बेशक चले जाओ अपने घर. शराबी पिता और सौतेली मां हैं वहां. अनपढ़गंवार भाईबहन हैं. तुम भी वैसे ही होते अगर मैं न उठा लाती, आज इतनी बड़ी कंपनी में अधिकारी नहीं होते. सच पता चल गया तो मेरे शुक्रगुजार नहीं हुए तुम, उलटा मुझ पर पहरे बिठाने शुरू कर दिए. बातबात पर ताना देते हो. क्या पाप कर दिया मैं ने? तुम को जमीन से उठा कर गोद में पालापोसा, क्या यही मेरा दोष है?’’

‘‘मौसी, ऐसा क्यों कह रही हैं आप? आप का बेटा है सोम.’’ ‘‘मेरा बेटा है तो मेरे मरने का इंतजार तो करे न मेरा बेटा. यह तो चाहता है कि आज ही अपना सब इस के नाम कर दूं. अगर यह मेरी कोख का जाया होता तो क्या तब भी ऐसा ही करता? जानते हो, तुम्हारे घर किस शर्त पर लाया है मुझे कि भविष्य में मैं तुम से कभी नहीं मिलूंगी. घर के कागज भी तैयार करवा रखे हैं. अगर सचमुच इस से प्यार करती हूं तो सब इस के नाम कर दूं, वरना मुझे छोड़ कर ही चला जाएगा…तुम्हारे मौसा ने समझाया भी था कि किसी रिश्तेदार का ही बच्चा गोद लेना चाहिए. तब भी अपनी गरीब बाई का नवजात बच्चा उठा लिया था मैं ने. सोचा था, गीली मिट्टी को जैसा ढालूंगी, ढल जाएगी. नहीं सोचा था, मेरी शिक्षा-दीक्षा का यह इनाम मिलेगा मुझे.’’ सोम चुप था और उस की गरदन झुकी थी. मैं भी स्तब्ध था. यह क्याक्या भेद खोलती जा रही हैं मौसी.

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‘‘अब मैं इस के साथ घर नहीं जाऊंगी, अजय. आज रात अपने घर रहने दो. सुबह 10 बजे की गाड़ी से मैं इलाहाबाद चली जाऊंगी. यह क्या छोड़ेगा मुझे, मैं ही इसे छोड़ कर जाना चाहती हूं.’’ सोम मौसी के पैर पकड़ कर रोने लगा था. ‘‘मुझे अब तुम पर भरोसा नहीं रहा. रात में गला दबा कर मार डालो तो किसे पता चलेगा कि तुम ने क्या किया. जब से अजय हम से मिलनेजुलने लगा है, तुम्हारे चरित्र का पलपल बदलता नया ही रूप मैं हर रोज देखती हूं…इस बच्चे को मुझ से क्या लालच है. जब भी मिलता है मुझे कुछ दे कर ही जाता है. कभी अपना खून देता है और कभी यह कीमती शाल. बदले में क्या ले जाता है, जरा सा प्यार.’’ नहीं मानी थीं मौसी. सोम चला गया वापस. रात भर मौसी मेरे घर पर रहीं.

‘‘मेरी वजह से आप दोनों में इतनी दूरी चली आई.’’ ‘‘सोम ने अपना रंग दिखाया है, अजय. तुम नहीं आते तो कोई और वजह होती लेकिन ऐसा होता जरूर. तुम्हारे मौसाजी कहते थे, ‘मांबाप के खून का असर बच्चे में आता है. मनुष्य के चरित्र की कुछकुछ बुराइयां या अच्छाइयां पीढ़ी दर पीढ़ी सफर करती हैं. सोम के पिता ने शराब पी कर जिस तरह इस की मां को मार डाला था, ऐसा लगता है उसी चरित्र ने सोम में भी अपना अधिकार जमा लिया है. कल इस लड़के ने जिस बदतमीजी से मुझ से बात की, बरसों पुराना इस के पिता का वह रूप मुझे इस में नजर आ रहा था.’’ भर्रा गया था मौसी का स्वर.

सुबह मैं मौसी को इलाहाबाद की गाड़ी में चढ़ा आया. वहां मौसी का मायका है और मौसाजी की विरासत भी. आफिस में सोम से मिला. क्या कहतासुनता मैं उस से. वह घर की बाई का बच्चा है, इसी शर्म में वह डूबा जा रहा था. कल को सब को पता चला तो आफिस के लोग क्या कहेंगे. ‘‘शर्म ही करनी है तो उस व्यवहार पर करो जो तुम ने अपनी मां के साथ किया. इस सत्य पर कैसी शर्म कि तुम बाई के बच्चे हो.’’ मैं ने समझाना चाहा सोम को. मांबेटा मिल जाएं, ऐसा प्रयास भी किया लेकिन ममता का धागा तो सोम ने खुद ही जला डाला था. मौसी ने सोम से हमेशा के लिए अपना रिश्ता ही तोड़ लिया था.

वास्तव में नाशुक्रा है सोम, जिसे ममता का उपकार ही मानना नहीं आया. धीरेधीरे हमारी दोस्ती बस सिर हिला देने भर तक ही सीमित हो गई. बहुत कम बात होती है अब हम दोनों में. होली की छुट्टियों में घर गया तो मौसी का रंगरूप चाची में घुलामिला नजर आया मुझे. अगर मेरी भी मां होतीं तो चाची से हट कर क्या होतीं. ‘‘कैसी हो, मां? अब चाची नहीं कहूंगा तुम्हें. मां कहूं न?’’

सदा की तरह चाची मेरे बिना उदास थीं. क्याक्या बना रखा था मेरे लिए. नमकीन मठरी, गुझिया और शक्करपारे. मेरा चेहरा चूम कर रो पड़ीं चाची. ‘‘क्या फर्क पड़ता है. कुछ भी कह ले. हूं तो मैं तेरी मां ही. इतना सा था जब गोद में आया था.’’ सच कहा चाची ने. क्या फर्क पड़ता है. हम मांबेटा गले मिल कर रो रहे थे और शिखा मां की टांग खींच रही थी. ‘‘मां, कल गाजर का हलवा बनाओगी न. अब तो भैया आ गए हैं.’’

शोकसभा – भाग 2

लेखक- मनमोहन भाटिया  

सुभाष व सारिका को घबराया देख कर डौली बोली, ‘‘सारिका, इतनी दूर क्यों खड़ी हो, मेरे नजदीक आओ.’’

‘‘इन कुत्तों की वजह से थोड़ा डर…’’

डौली कुछ सकुचा कर बोली, ‘‘डरो मत, कुछ नहीं कहेंगे.’’

सारिका नजदीक गई और दोनों देवरानीजेठानी गले मिल कर रो पड़ीं.

सुभाष ने डौली के भाइयों से पूछा, ‘‘अचानक क्या हो गया, कोई खबर ही नहीं मिली. सब कैसे हुआ?’’

‘‘बस, क्या बताएं, समझ लीजिए कि समय आ गया था, हम से रुखसत लेने का. हम लोग भी कोई कारण नहीं जान पाए. जब समय आता है तो जाना ही पड़ता है.’’

यह उत्तर सुन कर सुभाष ने कुछ नहीं पूछा, लेकिन देवरानीजेठानी आपस में कुछ फुसफुसा रही थीं. तभी डौली के छोटे भाई का मोबाइल फोन बजा. वह किसी को कह रहा था, ‘‘देख, यह हमारी इज्जत का सवाल है. हर कीमत पर वह प्रौपर्टी चाहिए. जीजा मर गया उस के पीछे, मालूम है न तुझे या समझाना पड़ेगा. देख टिंडे, खोपड़ी में 6 के 6 उतार दूंगा.’’

फोन पर भाई की बातचीत सुनते ही डौली बाथरूम का बहाना बना कर दूसरे कमरे में चली गई और सुभाष, सारिका ने मौके की नजाकत समझ कर विदा ली. चुपचाप दोनों घर वापस आ गए. सुभाष ने टीवी चलाया, लेकिन मन कहीं और विचरण कर रहा था.

सुभाष ने सारिका से पूछा, ‘‘क्या बातें कर रही थीं देवरानीजेठानी?’’

‘‘बात क्या करनी थी, बस इतना ही पूछा था कि क्या हुआ था?’’

‘‘तू ने तो पूछ भी लिया, मेरी तो हिम्मत ही नहीं हुई,’’ सुभाष ने पानी का गिलास हाथ में पकड़ते हुए कहा, ‘‘सारिका, मुझे तो लगता है कि बिहारी किसी गैरकानूनी धंधे में लिप्त था तभी तो उस ने कुछ ही सालों में इतना कुछ कर लिया…और जिस तरह से फोन पर किसी को धमकाया जा रहा था उस से मेरे विश्वास को और बल मिला है…’’

पति की बात को काटते हुए सारिका ने कहा, ‘‘छोड़ो इन बातों को, पहले आप पानी पी लो. हाथोें में अभी भी गिलास थामा हुआ है.’’

पानी पी कर सुभाष ने बात आगे जारी रखते हुए कहा, ‘‘आखिर भाई था, जानने की उत्सुकता तो होती है कि आखिर उस के साथ हुआ क्या था.’’

‘‘जिस गली जाना नहीं वहां के बारे में क्या सोचना. भाई था, लेकिन 10 साल में उन्होंने एक भी दिन आप को याद किया क्या?’’ सारिका ने कुछ व्यंग्यात्मक मुद्रा में कहा, ‘‘छोड़ो इन बातों को, थोड़ा आराम कर लें. फिर दोपहर को उठावनी में भी जाना है.’’

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इतना कह कर सारिका किचन में चली गई और सुभाष का मन सोचने लगा कि क्या रिश्ते केवल रुपएपैसों तक ही सिमट कर रह गए हैं. बचपन का खेल क्या सिर्फ एक खेल ही था. शायद खेल ही था, जो अब समझ में आ रहा है. समझ में तो काफी साल पहले आ चुका था, लेकिन दिल मानता नहीं था.

‘‘खाना लग गया,’’ सारिका की आवाज सुन कर सुभाष हकीकत के धरातल पर आ गया. खाना खाते हुए उस ने कहा, ‘‘उठावनी में हमें बच्चों को भी ले चलना चाहिए.’’

‘‘क्यों?’’ सारिका ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘बच्चे अब बड़े हो गए हैं. शादियों मेें हमारे साथ जाते हैं, गमी में भी जाना उन्हें सीखना चाहिए. समाज के नियम हैं, आज नहीं तो कल कभी तो उन्हें भी गमी में शरीक होना पड़ेगा. जब परिवार में एक गमी का मौका है तो हमारे साथ चल कर कुछ नियम, कायदे सीख लेंगे.’’

‘‘हमारे जाने से पहले वे आ गए तो जरूर साथ चलेंगे.’’

दोनों बच्चे साक्षी और समीर कालेज से आ गए. सुभाष को देख कर बोले, ‘‘क्या पापा, आप घर में, तबीयत तो ठीक है न.’’

‘‘तबीयत ठीक है, तुम्हारे बिहारी ताऊ का देहांत हो गया है, आज दोपहर को उठावनी में जाना है, इसलिए आज आफिस नहीं जा सका. सुनो, खाना खा लो, फिर हम को उठावनी में जाना है.’’

‘‘क्या हमें भी?’’ दोनों बच्चे एक- साथ बोले.

‘‘हां, बेटे, आप दोनों भी चलो.’’

‘‘हम वहां क्या करेंगे?’’ साक्षी ने पूछा.

‘‘शादीविवाह में हमारे साथ चलते हो, अब बड़े हो गए हो, गमी में भी जाना सीखो.’’

सुभाष परिवार सहित समय से पहले ही शोकसभा स्थल पर पहुंच गए. सुबह की तरह सुरक्षा जांच के बाद हाल के अंदर गए, अंदर अभी कोई नहीं था, सुभाष का परिवार सब से पहले पहुंचा था. ‘कमाल है, घर वाले ही नदारद हैं, शोकसभा तो समय पर शुरू हो जाती है, कम से कम डौली और उस के भाइयों को तो यहां होना ही चाहिए था,’ सोचते हुए सुभाष अभी इधरउधर देख ही रहे थे कि तभी रमेश परिवारसहित पहुंचा. दोनों भाई गले मिले.

‘‘मेशी, तू तो बहुत मोटा हो गया है. लाला बन गया है. क्या तोंद बना रखी है,’’ सुभाष की बातें सुन कर समीर और साक्षी हैरान हो कर सारिका से पूछने लगे, ‘‘मां, ऐसे मौके पर भी मजाक चलता है क्या?’’

‘‘बस, तुम दोनों चुपचाप देखते रहो.’’

रमेश ने सुभाष को कोई उत्तर न दे कर, समीर, साक्षी को देख कर पूछा, ‘‘बच्चों से तो मिलवा यार, कितने सालों बाद मिल रहे हैं… बच्चे तो हमें पहचानते भी नहीं होंगे, बड़े स्वीट बच्चे हैं तेरे, भाषी, तू ने भी अपने को मेंटेन कर के रखा है, भाभीजी भी स्लिमट्रिम हैं, कुछ टिप्स बबीता को भी दो, इस की कमर तो नजर ही नहीं आती है,’’ पत्नी की तरफ इशारा कर के मेशी ने कहा. यह सुन कर सभी हंस पड़े तभी डौली, भाई और परिवार के दूसरे सदस्यों ने हाल में प्रवेश किया. हंसी रोक कर सभी ने हाथ जोड़ कर सांत्वना प्रकट की. डौली ने समीर व साक्षी को देख कर उन्हें गले लगा लिया.

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‘‘सारिका के बच्चे कितने स्वीट हैं. किसी की नजर न लगे मेरे इन क्यूट बच्चों को.’’

साक्षी परेशान हो कर सोचने लगी कि डौली आंटी कैसी औरत हैं, इन का पति मर गया और ये शोकसभा में क्यूटनेस देखने में लगी हैं.

तभी डौली के बड़े भाई ने कहा, ‘‘बहना, यह कुत्ते का बच्चा टिंडा कहां मर गया, गधे को पंडित लाने भेजा था, सूअर का फोन भी नहीं लग रहा है.’’

Serial Story : शोकसभा

शोकसभा – भाग 3

लेखक- मनमोहन भाटिया  

यह सुन कर सुभाष तो मुसकरा दिए. समीर व साक्षी एकदम सन्न रह गए कि मौके की नजाकत खुद मृतक की पत्नी व साले ही नहीं समझ रहे हैं. तभी डौली के छोटे भाई का मोबाइल फोन बजा. फोन उसी टिंडे नाम के आदमी का था, जिस को अभी भद्दी गालियां निकाली जा रही थीं.

‘‘अबे, कहां मर गया, टिंडे,’’ छोटे भाई ने अभी इतना ही कहा था कि बड़े भाई ने छोटे भाई के हाथ से मोबाइल खींच लिया और चीख कर कहा, ‘‘कुत्ते, यहीं से ट्रिगर दबा दूं…’’ लेकिन दूसरे ही पल वह टिंडे को बधाई देने लगा, ‘‘वेलडन टिंडा, तू जीनियस है, तेरा मुंह मोतियों से भर दूंगा, आज तू ने जीजाजी की शहादत बेकार नहीं जाने दी, वेलडन, टिंडा… अच्छा, पंडित…ठीक है, ठीक है,’’ फोन काट कर बड़ा भाई डौली के गले लग गया, ‘‘बहना, उस हवेली का काम हो गया, टिंडे ने हवेली खाली करवा ली है.’’

‘‘शाबाश भाई, टिंडे ने आज जिंदगी में पहली बार कोई अच्छा काम किया है. खोटे सिक्के ने तो कमाल कर दिया.’’

‘‘बहना,’’ छोटा भाई बोला, ‘‘अच्छा, बड़े, पंडित को कौन ला रहा है?’’

‘‘चिंता न कर, आलू पंडित ला रहा है, बस पहुंचता ही होगा.’’

तभी एक मोटा आदमी पंडित के साथ आया. समीर और साक्षी उस मोटे आदमी को देख कर सोचने लगे, यह मोटा आदमी ही ‘आलू’ होगा.

पंडित के आने पर शोकसभा शुरू हो गई, रिवाज के अनुसार सभास्थल 2 भागों में बंट गया, पुरुष एक ओर व महिलाएं दूसरी ओर बैठ गईं. जो डौली अभी तक स्वीटनेस, क्यूटनेस ढूंढ़ रही थीं, वही दहाड़ें मार कर रो रही थीं, यह क्या मात्र दिखावा. पति मर गया, पत्नी को कोई अफसोस नहीं. सिर्फ बिरादरी के आगे झूठे आंसू.

1 घंटे तक पंडित की कथा चली, लेकिन समीर, साक्षी केवल डौली आंटी और उन के भाइयों के आचरण को ही देखते रहे. पंडित ने क्या कथा की, उन को कुछ नहीं सुनाई दी. सुभाष का मन भी उचाट था. वह भी बिहारी के बारे में सोचते रहे कि उस की मृत्यु सामान्य थी या कुछ और. खैर, 1 घंटे बाद शोकसभा समाप्त हुई. बिरादरी रुखसत होने लगी. सुभाष सभास्थल के बाहर आ गए, वहां कुछ पुराने परिचित वर्षों बाद मिले तो थोड़ीबहुत जानकारी बिहारी के बारे में मिलती रही कि बिहारी कई गैरकानूनी धंधों में लिप्त था, 2 बार जेल की हवा भी खा चुका था, जहां उस की मुलाकात शातिर अपराधियों से हुई और एक पुरानी हवेली पर कब्जे के कारण विरोधियों ने खाने में जहर दे दिया, जिसे फूड पौइजनिंग का नाम दे कर बिरादरी से छिपाया गया. उसी हवेली पर कब्जे का समाचार किसी टिंडे ने दिया था, जो सुभाष ने सुना था.

इधर सुभाष पुरुषों के बीच में और उधर सारिका महिलाओं में व्यस्त थी, जहां गहनों, डिजाइनों की बातें चल रही थीं. शोक प्रकट कर दिया तो दुनियादारी की बातों का सिलसिला चल रहा था.

‘‘सारिका, तू ने तो अपने को मेंटेन कर के रखा है, उम्र का पता ही नहीं चलता है. तेरे साथ तेरी लड़की को देख कर लगता है, हमारी देवरानी हमारी उम्र की है,’’ बबीता ने साक्षी का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘शादी कब कर रही है.’’

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शादी के नाम पर साक्षी एकदम चौंक गई. ताऊजी की शोकसभा पर शादी के रिश्तों की बात कर रही है. लोग क्या कुछ पल भी चुप नहीं रह सकते, वही राग, लेकिन सारिका धीरे से मुसकरा कर बोली, ‘‘दीदी, अभी उम्र ही क्या है, फर्स्ट ईयर में पढ़ रही है, पहले पढ़ाई करे, फिर नौकरी, फिर शादी की सोचेंगे, अभी कोई जल्दी नहीं है.’’

‘‘पढ़ने से कौन रोक रहा है. अच्छा रिश्ता आए तो आंख बंद कर के हां कर देनी चाहिए, बाद में उम्र ज्यादा हो जाए तो अच्छे लड़के नहीं मिलते. मेरे भाई का लड़का एकदम तैयार है, अब तो आफिस जाना शुरू कर दिया है. हमारे से भी ज्यादा काम है उस का. कहे तो बात चलाऊं.’’

‘‘कौन से भाई का लड़का, बड़े या छोटे का?’’ सारिका पूछ बैठी.

साक्षी मन ही मन जलभुन गई पर कुछ बोली नहीं.

‘‘बड़े वाले का बड़ा लड़का. बचपन में जिसे गोलू कहते थे. याद होगा,’’ बबीता बोली.

‘‘अरे, हां, याद आया, गोलू जैसा नाम था वैसा फुटबाल की तरह गोल था…’’

सारिका की बात बीच में ही काटते हुए बबीता ने कहा, ‘‘अब तो जिम जा कर हैंडसम बन गया है, मिलेगी तो गश खा जाएगी.’’

‘‘अभी नहीं दीदी, पहले पढ़ाई पूरी कर ले फिर. अभी सुभाष को कोई जल्दी नहीं है. आजकल लड़कियां जौब भी करती हैं, पढ़ाई बहुत जरूरी है.’’

इतने में रमेश कुछ और रिश्तेदारों के साथ आया, ‘‘भाभीजी, आज हम कितने सालों बाद मिले हैं, भाषी कहां है? अरे, वहां कोने में खड़ा है, भाषी, इधर आ,’’ रमेश की आवाज सुन कर समीर और साक्षी सोचने लगे कि पापा ने एक अलग दुनिया दिखाई है, जिस की कभी कल्पना भी नहीं की थी.

‘‘यार भाषी, देख, आज सभी भाई, भाभी बच्चों सहित जमा हैं, एक यादगार अकसर है, हमसब की एकसाथ फोटो हो जाए,’’ कह कर रमेश ने अपने बेटे को आवाज लगाई, ‘‘जिम्मी, निकाल अपना नया मोबाइल और खींच फोटो. मोबाइल भी क्या चीज निकाली है, छोटा सा मोबाइल और दुनिया भर के फीचर्स.’’

जिम्मी फोटो के साथ वीडियो भी बनाने लगा. सभागार के बाहर शोक का कोई माहौल नहीं था, एक पिकनिक सा माहौल था. कुछ देर बाद सब ने विदा ली.

घर आ कर सुभाष टैलीविजन पर एक न्यूज चैनल देख रहे थे. समीर ने कहा, ‘‘पापा, यह अनुभव जिंदगी भर नहीं भुला पाऊंगा.’’

‘‘बेटे, मृत्यु जीवन का कटु सत्य है. किसी के जाने से संसार का कोई काम नहीं रुकता, हर तरह के लोग दुनिया में तुम्हें मिलेंगे, आज तुम ने देखा कि पत्नी को पति की मृत्यु का कोई दुख नहीं था. शोकसभा एक पार्टी लग रही थी, कहीं ऐसा भी देखोगे कि पत्नी पति की मृत्यु पर टूट जाती है, जितने लोगों के व्यवहार का विश्लेषण करोगे, उतनी ही दुनिया की गहराई को जान पाओगे.

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‘‘हर इनसान अपनी सुविधा के अनुसार जीने का मापदंड स्थापित करता है, अपने लिए कुछ और दूसरों के लिए कुछ और. बेटे, मैं आज तक दुनियादारी नहीं पहचान सका. यह एक विस्तृत विषय है, इसे समझने के लिए पूरा जीवन भी कम है. किताबों से बाहर निकल कर कुछ व्यावहारिक ज्ञान मिले, इसी उद्देश्य से तुम्हें वहां ले कर गए थे. कालेज के बाद असली जिंदगी शुरू होती है, जो रहस्यों से भरपूर है. मुझे लगता है कि बड़े से बड़ा ज्ञानी भी इन रहस्यों को नहीं जान पाया है, हां, अपनी एक परिभाषा वह जरूर दे जाता है.’’

शोकसभा – भाग 1

लेखक- मनमोहन भाटिया  

महानगरों की जिंदगी पूरी तरह बदल गई है. हर इनसान अपने में ही व्यस्त है. कुसूर किसी का भी नहीं है, वक्त की कमी सभी को है और हर कोई दूसरे से न मिलने की शिकायत करता है. लेकिन व्यक्ति क्या खुद अपने गिरेबान में झांक कर स्वयं को देखता है कि वह खुद जो शिकायत कर रहा है, स्वयं कितना समय दूसरों के लिए निकाल पाता है.

सुबह आफिस जाने के लिए सुभाष तैयार हो कर नाश्ते की मेज पर बैठे समाचारपत्र की सुर्खियों पर नजर डाल रहे थे कि तभी फोन की घंटी बजी. फोन उठा कर उन्होंने जैसे ही हैलो कहा, दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘‘क्या भाषी है?’’

एक अरसे के बाद भाषी शब्द सुन कर उन्हें अच्छा लगा और सोचने लगे कि कौन है भाषी कहने वाला, नजदीकी रिश्तेदार ही उन्हें भाषी कहते थे. तभी दूसरी तरफ की आवाज ने उन की सोच को तोड़ा, ‘‘क्या भाषी है?’’

‘‘हां, मैं भाषी बोल रहा हूं, आप कौन, मैं आवाज पहचान नहीं सका,’’ सुभाष ने प्रश्न किया.

‘‘भाषी, तू ने मुझे नहीं पहचाना, क्या बात करता है, मैं मेशी.’’

‘‘अरे, मेशी, कितने सालों बाद तेरी आवाज सुनाई दी है, कहां है तू. तेरी तो आवाज बिलकुल बदल गई है.’’

‘‘थोड़ा सा जुकाम हो रहा है पर यह बता, तू कहां है, कभी नजर ही नहीं आता.’’

‘‘मेशी, तेरे से मिले तो एक जमाना हो गया. क्या कर रहा है?’’

‘‘तेरे से यह उम्मीद न थी, भाषी. तू तो एकदम बेगाना हो गया है. मैं ने सोचा, कहीं तू विदेश तो नहीं चला गया, लेकिन शुक्र है कि तू बदल गया पर तेरा टैलीफोन नंबर नहीं बदला है.’’

‘‘क्या बात है मेशी, सालों बाद बात हो रही है और तू जलीकटी सुना रहा है.’’

‘‘भाषी, तू हरी के अंतिम संस्कार पर भी नहीं पहुंचा, आज उस की उठावनी है, इसलिए फोन कर रहा हूं, शाम को 3 से 4 बजे का समय है.’’

‘‘क्या बात करता है, हरी का देहांत हो गया. कब, कैसे हुआ, मुझे तो किसी ने बताया ही नहीं.’’

‘‘4 दिन हो गए हैं. आज तो उस की शोकसभा है. आना जरूर.’’

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‘‘कहां आऊं, पता तो बता…आज 10 साल बाद हमारे बीच बात हो रही है. न पता बता कर राजी है, न पहले बताया. बस, गिलेशिकवे कर रहा है,’’ भाषी ने तीखे शब्दों में अपनी नाराजगी जाहिर की.

मेशी ने उठावनी कहां होनी है, उस का पता बताया.

सुभाष की पत्नी सारिका रसोई में थी, टिफिन हाथ में ला कर बोली, ‘‘यह लो अपना लंच… नाश्ता यहीं ले कर आऊं या डाइनिंग टेबल पर लगाऊं.’’

‘‘टिफिन से खाना निकाल लो, आज आफिस नहीं जा रहा हूं.’’

‘‘क्यों? तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां, मेशी का फोन आया था. अभी उसी से बात कर रहा था. हरी का देहांत हो गया है, वहां जाना है.’’

‘‘क्या?’’ सारिका ने हैरानी से पूछा.

‘‘आज शाम को हरी की उठावनी है.’’

‘‘4 दिन हो गए और हमें पता ही नहीं. किसी ने बताया ही नहीं,’’ इस से पहले सारिका कुछ और कहती सुभाष ने कहा, ‘‘रहने दे, हम क्यों अपना दिमाग और समय खराब करें. जब पता चल ही गया है तो हम अभी हरी के घर चलते हैं और शाम को उठावनी में भी चलेेंगे.’’

‘‘ठीक है, मैं भी तैयार हो जाती हूं, फिर साथ चलते हैं.’’

सारिका तैयार होने चली गई तो सुभाष अतीत में गुम हो गया. हरी, भाषी और मेशी तो उन के घर के नाम थे. तीनों ताऊ, चाचा के लड़के थे. बचपन में सब के मकान एकसाथ थे. तीनों की उम्र में 1-2 साल का ही अंतर था. एकसाथ स्कूल जाना, पढ़ना, खेलना. तीनों भाई ही नहीं दोस्त भी थे.

हरी यानी बिहारी, मेशी यानी रमेश और भाषी यानी सुभाष. तीनों बड़े हो गए लेकिन बचपन के उन के नाम नहीं गए. बाहरी दुनिया के लिए वे भले ही बिहारी, रमेश, सुभाष हों, लेकिन एकदूसरे के लिए हरी, मेशी और भाषी ही थे.

कालेज की पढ़ाई के बाद हरी ताऊजी की दुकान पर बैठ गया. रमेश चाचाजी की दुकान पर और सुभाष ने नौकरी कर ली, क्योंकि उस के पिताजी का व्यापार नुकसान की वजह से बंद हो चुका था और बहनों की शादी के खर्च के बाद मकान भी बिक गया. सुभाष मांबाप के साथ किराए के मकान में रहने लगा तो वे दूर हो गए फिर भी आपसी नजदीकियां और मेलजोल पहले जैसा ही रहा.

सुभाष की शादी सब से पहले हुई, फिर रमेश की और सब से बाद में बिहारी की. जहां सुभाष की पत्नी सारिका गरीब परिवार की थी वहीं रमेश और बिहारी की शादियां बड़े व्यापारियों की बेटियों के साथ बहुत धूमधाम से हुईं. अमीर घर की बेटियां सारिका से दूरी ही बनाए रखती थीं, लेकिन घर के बुजुर्गों के रहते कुछ बोल नहीं पाती थीं.

समय बीतता गया. घर के बुजुर्गों के गुजर जाने के बाद रमेश और बिहारी की पत्नियां सेठानी की पदवी पा गईं, उन के सामने सारिका का कोई पद नहीं था, नतीजतन, सुभाष और सारिका का बचपन के लंगोटिया मेशी, हरी का साथ छूट गया.

एक शहर में रहते हुए भी वे अनजाने हो गए. आज के भौतिकवाद में हैसियत सिर्फ रुपएपैसों से तौली जाती है. सुभाष सोचने लगा, शायद 15 साल बीत गए होंगे, मेशी और हरी से मिले हुए. शायद नातेरिश्ते भी सिर्फ पैसा ही देखते हैं. एक छोटी सी नौकरी करते हुए सुभाष बिहारी और रमेश के नजदीक न आ सका. तभी सारिका की आवाज ने सुभाष को अतीत से वर्तमान में ला दिया.

‘‘कब चलना है, मैं तैयार हूं.’’

सुभाष व सारिका बाइक पर बैठ बिहारी (हरी) के मकान की ओर चल पड़े. सुभाष ने रमेश से बिहारी के नए मकान का पता ले लिया था. सुभाष और सारिका जब बिहारी की कोठी के सामने पहुंचे तो उस की भव्यता देख कर हैरान हो गए और उस के सामने उन्हें अपने 2 कमरे के फ्लैट का कोई वजूद ही नजर नहीं आ रहा था. वे हिम्मत कर के अंदर जाने लगे तो बड़े से भव्य गेट पर गार्ड ने उन्हें रोक लिया और विजिटर रजिस्टर पर नामपता लिखवाया फिर इंटरकौम पर पूछ कर इजाजत ली, तब कहीं अंदर जाने दिया.

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अंदर कुछ लोग पहले से बैठे थे जिन्हें सुभाष नहीं जानते थे. उन्हें कोई रिश्तेदार नजर नहीं आया. काफी देर तक वे बैठे रहे. जो लोग मिलने आ रहे थे, उन के डिजिटल कैमरे से फोटो खींच कर एक लड़का अंदर जाता और फिर मिलने की इजाजत ले कर बरामदे में आता और अपने साथ अंदर छोड़ कर आता.

सुभाष ने बैठेबैठे नोट किया कि उस लड़के के पास रिवाल्वर था. अपने भाई के देहांत पर अफसोस करने आए मगर अफसोस का यह सिस्टम उन की समझ से बाहर था कि क्यों आगंतुकों को एकएक कर के अफसोस जाहिर करने के लिए अंदर भेजा जा रहा है. आखिर 1 घंटे बाद सुभाष को अंदर भेजा गया. एक आलीशान कमरे में उस की भाभी डौली सोफे पर अपने 2 भाइयों के साथ बैठी थी. सोफे के दोनों कोनों पर 2 खूंखार विदेशी नस्ल के कुत्तों को देख कर सुभाष और सारिका ठिठक गए और दूर से ही हाथ जोड़ कर सिर झुका कर अफसोस जाहिर किया.

खट्टा-मीठा : भाग 1

साढ़े 4 बजने में अभी पूरा आधा घंटा बाकी था पर रश्मि के लिए दफ्तर में बैठना दूभर हो रहा था. छटपटाता मन बारबार बेटे को याद कर रहा था. जाने क्या कर रहा होगा? स्कूल से आ कर दूध पिया या नहीं? खाना ठीक से खाया या नहीं? सास को ठीक से दिखाई नहीं देता. मोतियाबिंद के कारण कहीं बेटे स्वरूप की रोटियां जला न डाली हों? सवेरे रश्मि स्वयं बना कर आए तो रोटियां ठंडी हो जाती हैं. आखिर रहा नहीं गया तो रश्मि बैग कंधे पर डाल कुरसी छोड़ कर उठ खड़ी हुई. आज का काम रश्मि खत्म कर चुकी है, जो बाकी है वह अभी शुरू करने पर भी पूरा न होगा. इस समय एक बस आती है, भीड़ भी नहीं होती.

‘‘प्रभा, साहब पूछें तो बोलना कि…’’

‘‘कि आप विधि या व्यवसाय विभाग में हैं, बस,’’ प्रभा ने रश्मि का वाक्य पूरा कर दिया, ‘‘पर देखो, रोजरोज इस तरह जल्दी भागना ठीक नहीं.’’

रश्मि संकुचित हो उठी, पर उस के पास समय नहीं था. अत: जवाब दिए बिना आगे बढ़ी. जाने कैसा पत्थर दिल है प्रभा का. उस के भी 2 छोटेछोटे बच्चे हैं. सास के ही पास छोड़ कर आती है, पर उसे घर जाने की जल्दी कभी नहीं होती. सुबह भी रोज समय से पहले आती है. छुट्टियां भी नहीं लेती. मोटीताजी है, बच्चों की कोई फिक्र नहीं करती. उस के हावभाव से लगता है घर से अधिक उसे दफ्तर ही पसंद है. बस, यहीं पर वह रश्मि से बाजी मार ले जाती है वरना रश्मि कामकाज में उस से बीस ही है. अपना काम कभी अधूरा नहीं रखती. छुट्टियां अधिक लेती है तो क्या, आवश्यकता होने पर दोपहर की छुट्टी में भी काम करती है. प्रभा जब स्वयं दफ्तर के समय में लंबे समय तक खरीदारी करती है तब कुछ नहीं होता. रश्मि के ऊपर कटाक्ष करती रहती है. मन तो करता है दोचार खरीखरी सुनाने को, पर वक्त बे वक्त इसी का एहसान लेना पड़ता है.

रश्मि मायूस हो उठी, पर बेटे का चेहरा उसे दौड़ाए लिए जा रहा था. साहब के कमरे के सामने से निकलते समय रश्मि का दिल जोर से धड़कने लगा. कहीं देख लिया तो क्या सोचेंगे, रोज ही जल्दी चली जाती है. 5-7 लोगों से घिरे हुए साहब कागजपत्र मेज पर फैलाए किसी जरूरी विचारविमर्श में डूबे थे. रश्मि की जान में जान आई. 1 घंटे से पहले यह विचार- विमर्श समाप्त नहीं होगा.

वह तेज कदमों से सीढि़यां उतरने लगी. बसस्टैंड भी तो पास नहीं, पूरे 15 मिनट चलना पड़ता है. प्रभा तो बीमारी में भी बच्चों को छोड़ कर दफ्तर चली आती है. कहती है, ‘बच्चों के लिए अधिक दिमागखपाई नहीं करनी चाहिए. बड़े हो कर कौन सी हमारी देखभाल करेंगे.’

बड़ा हो कर स्वरूप क्या करेगा यह तो तब पता चलेगा. फिलहाल वह अपना कर्तव्य अवश्य निभाएगी. कहीं वह अपने इकलौते पुत्र के लिए आवश्यकता से अधिक तो नहीं कर रही. यदि उस के भी 2 बच्चे होते तो क्या वह भी प्रभा के ढंग से सोचती? तभी तेज हार्न की आवाज सुन कर रश्मि ने चौंक कर उस ओर देखा, ‘अरे, यह तो विभाग की गाड़ी है,’ रश्मि गाड़ी की ओर लपकी.

‘‘विनोद, किस तरफ जा रहे हो?’’ उस ने ड्राइवर को पुकारा.

‘‘लाजपत नगर,’’ विनोद ने गरदन घुमा कर जवाब दिया.

‘‘ठहर, मैं भी आती हूं,’’ रश्मि लगभग छलांग लगा कर पिछला दरवाजा खोल कर गाड़ी में जा बैठी. अब तो पलक झपकते ही घर पहुंच जाएगी. तनाव भूल कर रश्मि प्रसन्न हो उठी.

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‘‘और क्या हालचाल है, रश्मिजी?’’ होंठों के कोने पर बीड़ी दबा कर एक आंख कुछ छोटी कर पान से सने दांत निपोर कर विनोद ने रश्मि की ओर देखा.

वितृष्णा से रश्मि का मन भर गया पर इसी विनोद के सहारे जल्दी घर पहुंचना है. अत: मन मार कर हलकी हंसी लिए चुप बैठी रही.

घर में घुसने से पहले ही रश्मि को बेटे का स्वर सुनाई दिया, ‘‘दादाजी, टीवी बंद करो. मुझ से गृहकार्य नहीं हो रहा है.’’

‘‘अरे, तू न देख,’’ रश्मि के ससुर लापरवाही से बोले.

‘‘न देखूं तो क्या कान में आवाज नहीं पड़ती?’’

रश्मि ने संतुष्टि अनुभव की. सब कहते हैं उस का अत्यधिक लाड़प्यार स्वरूप को बिगाड़ देगा. पर रश्मि ने ध्यान से परखा है, स्वरूप अभी से अपनी जिम्मेदारी समझता है. अपनी बात अगर सही है तो उस पर अड़ जाता है, साथ ही दूसरों के एहसासों की कद्र भी करता है. संभवत: रश्मि के आधे दिन की अनुपस्थिति के कारण ही आत्मनिर्भर होता जा रहा है.

‘‘मां, यह सवाल नहीं हो रहा है,’’ रश्मि को देखते ही स्वरूप कापी उठा कर दौड़ आया.

बेटे को सवाल समझा व चाय- पानी पी कर रश्मि इतमीनान से रसोईघर में घुसी. दफ्तर से जल्दी लौटी है, थकावट भी कम है. आज वह कढ़ीचावल और बैगन का भरता बनाएगी. स्वरूप को बहुत पसंद है.

खाना बनाने के बाद कपड़े बदल कर तैयार हो रश्मि बेटे को ले कर सैर करने निकली. फागुन की हवा ठंडी होते हुए भी आरामदेह लग रही थी. बच्चे चहलपहल करते हुए मैदान में खेल रहे थे. मां की उंगली पकड़े चलते हुए स्वरूप दुनिया भर की बकबक किए जा रहा था. रश्मि सोच रही थी जीवन सदा ही इतना मधुर क्यों नहीं लगता.

‘‘मां, क्या मुझे एक छोटी सी बहन नहीं मिल सकती. मैं उस के संग खेलूंगा. उसे गोद में ले कर घूमूंगा, उसे पढ़ाऊंगा. उस को…’’

रश्मि के मन का उल्लास एकाएक विषाद में बदल गया. स्वरूप के जीवन के इस पहलू की ओर रश्मि का ध्यान ही नहीं गया था. सरकार जो चाहे कहे. आधुनिकता, महंगाई और बढ़ते हुए दुनियादारी के तनावों का तकाजा कुछ भी हो, रश्मि मन से 2 बच्चे चाहती थी, मगर मनुष्य की कई चाहतें पूरी नहीं होतीं.

स्वरूप के बाद रश्मि 2 बार गर्भवती हुई थी पर दोनों ही बार गर्भपात हो गया. अब तो उस के लिए गर्भधारण करना भी खतरनाक है.

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रश्मि ने समझौता कर लिया था. आखिर वह उन लोगों से तो बेहतर है जिन के संतान होती ही नहीं. यह सही है कपड़ेलत्ते, खिलौने, पुस्तकें, टौफी, चाकलेट स्वरूप की हर छोटीबड़ी मांग रश्मि जहां तक संभव होता है, पूरी करती है. पर जो वस्तु नहीं होती उस की कमी तो रहती ही है.

‘‘देख बेटा,’’ 7 वर्षीय पुत्र को रश्मि ने समझाना आरंभ कर दिया, ‘‘अगर छोटी बहन होगी तो तेरे साथ लड़ेगी. टौफी, चाकलेट, खिलौनों में हिस्सा मांगेगी और…’’

‘‘तो क्या मां,’’ स्वरूप ने मां की बात को बीच में ही काट दिया, ‘‘मैं तो बड़ा हूं, छोटी बहन से थोड़े ही लड़ूंगा. टौफी, चाकलेट, खिलौने सब उस को दूंगा. मेरे पास तो बहुत हैं.’’

Serial Story : खट्टा-मीठा

खट्टा-मीठा : भाग 3

अम्मां का चेहरा असंतुष्ट हो उठा. रश्मि किसी तरह पैरों में चप्पल डाल कर दफ्तर के लिए रवाना हुई. तेज चले तो 9 बजे वाली बस अब भी मिल सकती है.

आज शाम रश्मि जल्दी नहीं निकल सकी. 4 बजे साहब ने बुला कर जो टारक योजना समझानी शुरू की तो 5 बजने पर भी नहीं रुके.

‘‘मेरी बस निकल जाएगी, साहब,’’ उस ने झिझकते हुए कहा.

‘‘ओह, मैं तो भूल ही गया,’’ बौस ने चौंक कर घड़ी देखी.

‘‘जी, कोई बात नहीं,’’ रश्मि ने मुसकराने का प्रयास किया.

दफ्तर से निकलते ही टारक योजना दिमाग से निकल गई और रात को क्या भोजन बनाए इस की चिंता ने आ घेरा. जाते हुए सब्जी भी खरीदनी है. बस आने पर धक्कामुक्की कर के चढ़ी पर वह बीच रास्ते में खराब हो गई. रश्मि मन ही मन गालियां देने लगी. दूसरी बस ले कर घर पहुंचतेपहुंचते 7 बज गए. दूर से ही छत के ऊपर छज्जे पर खड़ा स्वरूप दिख गया. छुपनछुपाई खेल रहा था बच्चों के संग. बहुत ही खतरनाक स्थिति में खड़ा था. गलती से भी थोड़ा और खिसक आया तो सीधे नीचे आ गिरेगा. रश्मि का तो कलेजा मुंह को आ गया.

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‘‘स्वरूप,’’ उस ने कठोर स्वर में आवाज दी, ‘‘जल्दी नीचे उतर आओ.’’

‘‘अभी आया, मां,’’ कह कर स्वरूप दीवार फांद कर छत के दूसरी ओर गायब हो गया. अभी तक स्कूल के कपड़े भी नहीं बदले थे. सफेद कमीज व निकर पर दिनभर की गर्द जमा हो गई थी. बाल अस्तव्यस्त और हाथपांव धूल में सने थे. रश्मि का खून खौलने लगा. अम्मां दिन भर क्या करती रहती हैं. लगता है सारा दिन धूप में खेलता रहा है. हजार बार कहा है उसे छत के ऊपर न जाने दिया करें.

‘‘अम्मां,’’ अभी रश्मि ने आवाज ही दी थी कि सास फूट पड़ीं, ‘‘तेरा बेटा मुझ से नहीं संभलता. कल ही किसी क्रेच में इस का बंदोबस्त कर दे. सारा दिन इस के पीछे दौड़दौड़ कर मेरे पैरों में दर्द हो गया. कोई कहना नहीं मानता. स्कूल से लौट कर न नहाया, न कपड़े बदले, न ही ठीक से खाना खाया. ऊधम मचाने में लगा है. तू अपनी आंखों से देख क्या हाल बनाया है. मैं ने छत पर जाने से रोका तो मुझे धक्का मार कर निकल गया.’’

‘‘है कहां वह? अभी तक आया नहीं नीचे,’’ क्रोध से आगबबूला होती रश्मि स्वयं ही छत पर चली.

‘‘क्या बात है? नीचे क्यों नहीं आए?’’ ऊपर पहुंच कर उस ने स्वरूप को झिंझोड़ा.

‘‘बस, अपनी पारी दे कर आ रहा था मां.’’

मां के क्रोध से बेखबर स्वरूप की मासूमियत रश्मि के क्रोध को पिघलाने लगी, ‘‘चलो नीचे. दादी का कहा क्यों नहीं माना?’’

‘‘मुझे अच्छा नहीं लगता,’’ स्वरूप ने मुंह फुलाया, ‘‘इधर मत कूदो, कागज मत फैलाओ. कमरे में बौल से मत खेलो, गंदे पांव ले कर सोफे पर मत चढ़ो.’’

रश्मि की समझ में न आया किस पर क्रोध करे. बच्चे को बचपना करने से कैसे रोका जा सकता है? सास की भी उम्र बढ़ रही है, ऐसे में सहनशीलता कम होना स्वाभाविक है.

‘‘दादी तुम से बड़ी हैं स्वरूप. तुम्हें बहुत प्यार करती हैं. उन का कहना मानना चाहिए.’’

‘‘फिर मुझे आइसक्रीम क्यों नहीं खाने देतीं?’’

रश्मि थकावट महसूस करने लगी. कब तक नासमझ रहेगा स्वरूप.

‘‘आ गए लाट साहब,’’ पोते को देखते ही दादी का गुस्सा भड़क उठा, ‘‘तुम ने अभी तक इसे कुछ भी नहीं कहा? अरे, मैं कहती हूं इतना सिर न चढ़ाओ,’’ अपने प्रति दोषारोपण होते देख रश्मि का शांत होता क्रोध फिर उबल पड़ा.

‘‘चलो, कपड़े बदल कर हाथमुंह धोओ.’’

‘‘मैं नहीं धोऊंगा,’’ स्वरूप ने अड़ कर कहा.

‘‘क्या?’’ रश्मि जोर से चिल्लाई.

‘‘बस, मैं न कहती थी तुम्हारा लाड़प्यार इसे जरूर बिगाड़ेगा. लो, अब भुगतो,’’ सास ने निसंदेह उसे उकसाने के लिए नहीं कहा था पर रश्मि ने तड़ाक से एक चांटा बेटे के कोमल गाल पर जड़ दिया.

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स्वरूप जोर से रो पड़ा, ‘‘नहीं बदलूंगा कपड़े. जाओ, कभी नहीं बदलूंगा,’’ कह कर दूर जा कर खड़ा हो गया.

‘‘हांहां, कपड़े क्यों बदलोगे, सारा दिन आवारा बच्चों के साथ मटरगश्ती के सिवा क्या करोगे? देख रश्मि, असली बात तो मैं भूल गई, जा कर देख बौल मार कर ड्रेसिंग टेबल का शीशा तोड़ डाला है.’’

रश्मि को अब अचानक सास के ऊपर क्रोध आने लगा. थकीमांदी लौटी हूं और घर में घुसते ही राग अलापना शुरू कर दिया. गुस्से में उस ने स्वरूप के गाल पर 2 चांटे और जड़ दिए.

रश्मि क्रोध से और भड़की. पुत्र को खींच कर खड़ा किया और तड़ातड़ पीटना शुरू कर दिया.

‘‘सारी उम्र मुझे तंग करने के लिए ही पैदा हुआ था? बाकी 2 तो मर गए, तू भी मर क्यों न गया?’’

‘‘क्या पागल हो गई है रश्मि. बच्चे ने शरारत की, 2 थप्पड़ लगा दिए बस. अब गाली क्यों दे रही है? क्या पीटपीट कर इसे मार डालेगी?’’

क्रोध, ग्लानि और अवसाद ने रश्मि को तोड़ कर रख दिया था. कमरे में आ कर वह फफकफफक कर रो पड़ी. यह क्या किया उस ने. जान से भी प्रिय एकमात्र पुत्र के लिए ऐसी अशुभ बातें उस के मुंह से कैसे निकलीं?

‘‘जोश को समय पर लगाम दिया कर. जो मुंह में आता है वही बकने लगती है,’’ इकलौता पोता रश्मि की सास को भी कम प्रिय न था, ‘‘अरे, मैं सारा दिन सहती हूं इस की शरारतें और तू ने सुन कर ही पीटना शुरू कर दिया,’’ रश्मि की सास देर तक उसे कोसती रही. रश्मि के आंसू थम ही नहीं रहे थे. रहरह कर किसी अज्ञात आशंका से हृदय डूबता जा रहा था.

तभी एक कोमल स्पर्श पा कर रश्मि ने आंखें खोलीं. जाने स्वरूप कब आंगन से उठ आया था और यत्न से उस के आंसू पोंछ रहा था, ‘‘मत रोओ, मां. कोई मां की बद्दुआ लगती थोड़ी है.’’

रश्मि ने खींच कर पुत्र को हृदय से लगा लिया. कौन सिखाता है इसे इस तरह बोलना. समय से पहले ही संवेदनशील हो गया. फिर अभीअभी जो नासमझी कर रहा था वह क्या था?

जो हो, नासमझ, समझदार या परिपक्व, रश्मि के हृदय का टुकड़ा हर स्थिति में अतुलनीय है. पुत्र को बांहों में भींच कर रश्मि सुख का अनुभव कर रही थी.

खट्टा-मीठा : भाग 2

रश्मि की बोलती बंद हो गई. समय से पहले क्यों इतना समझदार हो गया स्वरूप? रात का भोजन देख कर नन्हे स्वरूप के मस्तिष्क से छोटी बहन वाला विषय निकल गया. पर रश्मि जानती है यह भूलना और याद आना चलता ही रहेगा. हो सकता है बड़ा होने पर रश्मि स्वरूप को बहन न होने का सही कारण बता भी दे लेकिन जब तक वह इसी तरह जीने का आदी नहीं हो जाता, रश्मि को इस प्रसंग का सामना करना ही होगा.

मनपसंद व्यंजन पा कर स्वरूप चटखारे लेले कर खा रहा था, ‘‘कितना अच्छा खाना है. सलाद भी बहुत अच्छा है. मां, आप रोज जल्दी घर आ जाया करो.’’

रश्मि का मन कमजोर पड़ने लगा. मन हुआ कल ही त्यागपत्र भेज दे, नहीं चाहिए यह दो कौड़ी की नौकरी, जिस के कारण उस के लाड़ले को मनपसंद खाना भी नसीब नहीं होता.

‘‘चलो मां, लूडो खेलते हैं,’’ स्वरूप हाथमुंह धो आया था.

‘‘थोड़ी देर तक पिता के संग खेलो, मैं चौका संभाल कर आती हूं,’’ रश्मि ने बरतन समेटते हुए कहा.

ऐसा नहीं कि केवल सतीश की तनख्वाह से गृहस्थी नहीं चलेगी लेकिन घर में स्वयं उस की तनख्वाह का महत्त्व भी कम नहीं. रोज तरहतरह का खाना, स्वरूप के लिए विभिन्न शौकिया खर्चे, उस के कानवैंट स्कूल का खर्चा आदि मिला कर कोई कम रुपयों की जरूरत नहीं पड़ती. अभी तो अपना मकान भी नहीं. फिर वास्तविकता यह है कि प्रतिदिन हर समय मां घर में दिखेगी तो मां के प्रति उस का आकर्षण कम हो जाएगा. इसी तरह रोज ही अच्छा भोजन मिलेगा तो उस भोजन का महत्त्व भी उस के लिए कम हो जाएगा. जैसेजैसे स्वरूप बड़ा होगा उस की अपनी दुनिया विकसित होती जाएगी. मां के आंचल से निकल कर पढ़ाई- लिखाई, खेलकूद और दोस्तों में व्यस्त हो जाएगा. उस समय रश्मि अकेली पड़ जाएगी. इस से यही बेहतर है कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना ही पड़ेगा.

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सब काम निबटा कर रश्मि की आंखें थकावट से बोझिल होने लगीं. निद्रित पुत्र के ऊपर चादर डाल कर वह सतीश की ओर मुड़ी.

‘‘कभी मेरा भी ध्यान कर लिया करो. हमेशा बेटे में ही रमी रहती हो,’’ सतीश ने रश्मि का हाथ थामा.

‘‘जरा याद करो तुम्हारी मां ने भी कभी तुम्हारा इतना ही ध्यान रखा था,’’ रश्मि ने शरारत से कहा.

‘‘वह उम्र तो गई, अब तो हमें तुम्हारा ध्यान चाहिए.’’

‘‘अच्छा, यह लो ध्यान,’’ रश्मि पति से लिपट गई.

सुबह उठ कर, सब को चाय दे कर रश्मि ने स्वरूप के स्कूल का टिफिन तैयार किया. फिर दूध गरम कर के उसे उठाने चली.

‘‘ऊं, ऊं, अभी नहीं,’’ स्वरूप ने चादर तान ली.

‘‘नहीं बेटा, और नहीं सोते. देखो, सुबह हो गई है.’’

‘‘नहीं, बस मुझे सोना है,’’ स्वरूप ने अड़ कर कहा.

आखिर 15 मिनट तक समझाने- बुझाने के बाद उस ने बेमन से बिस्तर छोड़ा. पर ब्रश करने, कपड़े पहनने व दूध पीने के बीच वह बारबार जा कर फिर से चादर ओढ़ कर लेट जाता और मनाने के बाद ही उठता. अंत में बैग कंधे पर डाले सतीश का हाथ पकड़े वह बस स्टाप की ओर रवाना हुआ तो रश्मि ने चैन की सांस ली. बिस्तर संवारना है, खाना बनाना, नाश्ता बनाना, नहाना फिर तैयार हो कर दफ्तर जाना है. रश्मि झटपट हाथ चलाने लगी. कपड़ों का ढेर बड़ा होता जा रहा है. 2 दिन से समय ही नहीं मिल रहा. आज शाम को आ कर अवश्य धोएगी.

‘‘कभी तो आंगन में झाड़ू लगा दिया कर रश्मि,’’ सब्जी छौंकते हुए रश्मि के कान में सास की आवाज पड़ी. कमरों के सामने अहाते के भीतर लंबाचौड़ा आंगन है, पक्के फर्श वाला. झाड़ू लगाने में 15-20 मिनट लग जाना मामूली बात है.

‘‘आप ही बताओ अम्मां, किस समय लगाऊं?’’

‘‘अब यह भी कोई समस्या है? जो दफ्तर जाती हैं क्या वे झाड़ू नहीं लगातीं?’’

रश्मि चुप हो गई. बहस में कुछ नहीं रखा. सब्जी में पानी डाल कर वह कपड़े निकालने लगी.

मांजी अब भी बोले जा रही थीं, ‘‘करने वाले बहुत कुछ करते हैं. स्वेटर बनाते हैं, पापड़बड़ी अचार, डालते हैं, कशीदाकारी करते हैं…’’

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बदन पर पानी डालते हुए रश्मि सोच रही थी, ‘आज जा कर सब से पहले मार्च के महीने का ड्यूटी चार्ट बनाना है.’

‘‘अम्मां, जमादार आए तो उसे 2 रुपए दे कर आंगन में झाड़ू लगवा लेना,’’ रश्मि ने सास को आवाज दी.

‘‘सुन, मेरे लिए एक जोड़ी चप्पल ले आना.’’

‘‘ठीक है, अम्मां,’’ कंघी कर के रश्मि ने लिपस्टिक लगाई.

‘‘वह सामने अंगूठे और पीछे पट्टी वाली चप्पल.’’

रश्मि ने भौंहें सिकोड़ीं, सास किसी खास डिजाइन के बारे में कह रही थीं.

‘‘अरे, वैसी ही जैसी स्वीटी की नानी ने पहनी थी, हलके पीले से रंग की.’’

‘‘अम्मां, मैं शाम को समझ लूंगी और कल चप्पल ला दूंगी.’’

रश्मि टिफिन पैक करने लगी. परांठा भी पैक कर लिया. नाश्ता करने का समय नहीं था.

‘‘मेरे ब्लाउज के जो बटन टूटे थे, लगा दिए हैं?’’

‘‘ओह,’’ रश्मि को याद आया, ‘‘शाम को लगा दूंगी.’’खट्टा-मीठा

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