
लेखक-उषा किरण सोनी
शायद यहां भी उस रचनाकार ने मेरी व राज की जीवनी में एक सी पंक्ति लिख दी थी. हम दोनों के पति अपनेअपने परिवार की इकलौती संतान थे. मधुयामिनी के बाद मांबाबूजी के अकेले रह जाने के भय से हम मधुमास मनाने कहीं बाहर नहीं गए. मैं और मदन, मदन और मैं, दोनों आत्मसात हो गए एकदूसरे में.
एक सप्ताह बाद जब भैया मुझे लेने आए तो बाबूजी ने कहा, ‘मदन की डेढ़ महीने की छुट्टी बाकी है इसलिए बहू को यहीं रहने दो. मदन के जाने के बाद ले जाना.’ फोन पर पापा ने भी अपनी सहमति दे दी. भैया ने वापस जाते समय राज के 2 पत्र मुझे दिए जो मेरी गैर मौजूदगी में आए थे.
बिना संबोधन के राज ने लिखा था, ‘रीता, राजेंद्र आगे की पढ़ाई करने 2 साल के लिए विदेश जा रहे हैं. मैं तो 2 दिन नहीं रह सकती राजेंद्र के बिना ये 2 साल कैसे बीतेंगे? मैं राजेंद्र में इतनी खो गई थी कि तुझे पत्र लिखने की याद ही न रही. मेरा तो सारा संसार ही राजेंद्रमय हो गया है. सच, रीता, तू शादी मत करना. जानती है, आदमी शादी के बाद पागल हो जाता है, मेरी तरह.’
मैं पढ़ कर हंसी. कैसा संयोग था कि उस की शादी के दिन मेरे मदन मुझे देखने आए थे और मेरी शादी के समय उसे ससुराल में रहने के कारण सूचना न मिल पाई थी क्योंकि कार्ड मैं ने उस की मां के घर भेजा था.
मैं ने मदन को राज के पत्र दिखा कर अपनी गहरी दोस्ती की बात बताई. पतियों संबंधी कल्पनाओं और शरारतों को सुन मदन हंसे बिना न रह सके. बोले, ‘सच ही तो है कि शादी के बाद आदमी पागल हो जाता है,’ और उन्होंने मुझे अपनी बांहों में समेट लिया…मैं राज को पत्र लिखना भूल गई.
मुट्ठी में बंधी रेत की तरह मदन की छुट्टियों के दिन खिसक गए. उन के जाने का समय निकट जान मैं घबरा उठी. क्या यह इंद्रजाल सा मोहक जीवन मेरी मुट्ठी से फिसल जाएगा. नहीं, मैं तुम्हें नहीं जाने दूंगी, पर क्या सोचने से ऐसा हो पाया है. क्या सचमुच मदन मुझे यहां छोड़ कर चले जाएंगे? पता नहीं मन क्यों दुश्ंिचताओं से घिरा जा रहा है. पापा मुझे लेने और मदन से मिलने आ गए थे.
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मदन सामान बांधे खड़े थे और मेरा रोरो कर बुरा हाल था. वे भीतर आ कर बोले, ‘रीतू, बस, तुम घर जा कर अपनी मां से मिल आओ तब तक मैं क्वार्टर का इंतजाम कर लूंगा और तुम्हें ले जाऊंगा फिर हम होंगे और हमारी बसंत ऋतु.’
आखिर मदन चले गए और उसी दिन शाम को मैं पापा के साथ उत्तरकाशी चली गई. मदन से दूर मन उदास और अतृप्त था, पर मां के प्यार व भैया और पापा के दुलार से तपन को थोड़ी शांति मिली.
मां मुझे सुखी देख प्रसन्न थीं. मुझे हर रोज मदन का प्यार में भीगा एक पत्र मिलता. मैं खुश हो उठती और तुरंत उत्तर देती. 3-4 दिनों बाद मैं ने मां से कहा, ‘आज मैं राज को पत्र लिखूंगी, इधर उस का कोई समाचार नहीं मिला.’
मां उदास हो कर बोलीं, ‘बेटी, मैं ने तुम्हें पत्र में नहीं लिखा. दरअसल, राज के साथ अनहोनी हो गई. राजेंद्र जिस हवाईजहाज से विदेश जा रहे थे वह दुर्घटनाग्रस्त हो गया और राजेंद्र नहीं रहे. राजेंद्र की मौत का समाचार सुनते ही राज की हृदयगति रुक गई और उस ने भी शरीर छोड़ दिया. वह सती थी.
‘क्या?’ मेरे मुंह से निकला और मैं चेतनाशून्य हो गिर पड़ी. मां ने घबरा कर भैया को डाक्टर बुलाने भेज दिया.
आंखें खुलने पर मैं ने पाया कि मां के चेहरे पर गंभीरता की जगह मुसकान थी. वह मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं, ‘बेटी, खुद को संभालो. जीवन में ऐसे क्षण तो आते ही हैं. उस का दुख न करो, वह सती थी. अपना ध्यान रखो. अब तुम्हारा उदास रहना ठीक नहीं. तुम अब मां और मैं नानी बनने वाली हूं.’
मैं पुन: चौंक पड़ी. मैं मां बनने वाली हूं? इस एक शब्द ‘मां’ ने मुझे राज के दुख से उबार लिया. पलकें शर्म से झुक गईं और आंचल में अपना चेहरा छिपा लिया.
पिता बनने की सूचना पा मदन बौरा से गए थे. लगभग हर रोज उन का पत्र आता. इस पत्र में उन्होंने लिखा था, ‘मैं अति शीघ्र आ रहा हूं, तुम्हें यहां ला कर इस समय का हर पल तुम्हारे साथ जीना चाहता हूं.’
लेखक-उषा किरण सोनी
मैं मदन की प्रतीक्षा में थी पर आया उन का मात्र 2 पंक्तियों का पत्र, ‘रीतू, मैं युद्ध में कश्मीर जा रहा हूं, मेरी कीर्ति को संभाल कर रखना. तुम्हारा मदन.’
इस समाचार के पाते ही मेरे सास- ससुर मुझे लेने आ गए पर मेरे पिता के अनुरोध पर प्रसव तक यहीं रहने की अनुमति दे चले गए.
मेरे भीतर जीवन कुलबुलाने लगा था. मैं उस सुख को जी रही थी. आखिर वह प्रतीक्षित क्षण भी आ गया. कीर्ति का संसार में पदार्पण मांपापा और अम्मांबाबूजी के आनंद को सीमित नहीं कर पा रहा था पर मेरी खुशी तो मदन के बिना अधूरी थी. नन्हे मदन के रूप में बगल में सोई बेटी को देख मैं सुख से अभिभूत हो गई.
कुदरत ने यहां भी मेरी व राज की जीवन जिंदगी की जीवनी एक ही लेखनी से, एक ही स्याही से लिखी थी. अस्पताल से आए अभी 15 दिन ही हुए थे कि कश्मीर में गिरे बम के टुकड़े मेरी छाती पर आ गिरे और मेरा सिंदूर पोंछ, चूडि़यां तोड़ गए. मैं हतबुद्धि हो कल्पना में मदन को देखती रही. मांपापा का कं्रदन और कीर्ति की चीखें भी मेरा ध्यान विचलित न कर सकीं.
मां ने चीखती कीर्ति को मेरी गोद में डाल दिया. बच्ची के दूध पीने के उपक्रम में दर्द मेरी छाती में रेंग उठा. जड़ता टूट चली और बांध टूट गया. पापा ने कहा, ‘इसे रो लेने दो, जितना रोएगी उतनी ही शांति पाएगी और बच्ची से जुड़ती चली जाएगी.’
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कालरात्रि मेरा सबकुछ समेट कर बीत गई. समय चलता गया. कीर्ति मुझे अपनी तोतली बोली से बांधने का प्रयास करती. मैं अपने दुख में यह भी भूल गई थी कि अम्मांबाबूजी ने भी अपना इकलौता बेटा खोया था. मूल गंवा ब्याज के रूप में वे मेरा और कीर्ति का मुख देखा करते.
मैं ने खुद को समेटना शुरू किया. ज्योंज्यों मेरा बिखरना कम होता गया, कीर्ति निखरती चली गई. मैं ने अम्मां- बाबूजी से कहा कि मैं आप को मदन की कमी नहीं खलने दूंगी. मैं अब रीता नहीं, रीतामदन हूं. बाबूजी के साथ मैं ससुराल चली आई. मदन की पेंशन और बाबूजी की बचत से घरखर्च आराम से चल रहा था पर आगे कीर्ति का पूरा जीवन पड़ा था.
मैं ने मन ही मन एक निश्चय किया और बाबूजी से आगे पढ़ने की अनुमति मांगी. वे तो जैसे तैयार ही बैठे थे, तुरंत ‘हां’ कह दिया. उन की बात पूरी होने से पहले ही अम्मांजी बोल पड़ीं, ‘घर का जरा सा तो काम है, मैं बेकार ही बैठी रहती हूं, सब कर लूंगी. तुम जरूर पढ़ो. तुम्हारा दिल भी लग जाएगा तथा कीर्ति का भविष्य भी बना सकोगी.’
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जीवन का अब एक नया दौर शुरू हुआ. मैं ने पहले एम.ए. फिर बी.एड. किया. युद्ध में मारे गए सैनिक की पत्नी होने के कारण नौकरी मिलने में सुविधा हुई. कालिज में प्राध्यापिका बनी. मुझे व्यस्त रहने का बहाना मिला. अम्मांबाबूजी के चेहरों पर संतोष झलक आया. उन्हें लगा मानो उन का मदन लौट आया हो.
हमारी आंखों की ज्योति कीर्ति कब नर्सरी से कालिज पहुंच गई, पता ही नहीं चला. अम्मांबाबूजी हमेशा यही ढूंढ़ते रहते कि कीर्ति के चेहरे पर किसी असुविधा की शिकन तो नहीं? कीर्ति के रूप में मानो वे एक बार फिर मदन को जवान कर रहे हों.
अचानक मुझे जोर का झटका लगा तो यादों का सिलसिला टूट गया. खिड़की से बाहर झांका तो गाड़ी कोटा स्टेशन पर रुक रही थी. यात्री अपना सामान ले कर उतरने की तैयारी में थे. मैं भी अपना सूटकेस ले लड़कियों को संभल कर उतरने का निर्देश देने लगी. स्टेशन पर सभी लड़कियों के मातापिता उन्हें लेने आए थे. चारों ओर शोर बरपा था. चहकती लड़कियां अपने मातापिता को इस टूर की पूरी रिपोर्ट स्टेशन पर ही दे डालना चाहती थीं.
रीता और कीर्ति रिकशा ले कर घर की ओर चल पड़ीं. रीता के विचारों में फिर राज आ बैठी. सोचने लगी, कैसा संयोग था. दोनों सहेलियों को पति सुख से वंचित होना पड़ा, पर क्या सचमुच ही नियति ने दोनों की जिंदगी का लेखा- जोखा एक सा लिखा था.
शायद नहीं. एक सा होते हुए भी एक सा नहीं.
राज को सभी ने सती की संज्ञा दी. सभी उस का नाम आदर से लेते. सभी कहते, ‘वह सती थी, उस ने पति के साथ ही देह त्याग दी.’
घर आ गया था और मैं अपनी सोच से बाहर निकल आई थी पर मन में एक अनुत्तरित प्रश्न ले कर कि राज को तो सती की संज्ञा दी गई और मुझे. क्या मैं इस संज्ञा की अधिकारी नहीं?
मैं ने जो त्यागा, यह मैं जानती थी. पति का सुख, शरीर की चाहत, हंसनाबोलना, चहचहाना जो किशोरा- वस्था में मेरा और राज का अभिन्न अंग था, सभी तो त्यागा मैं ने. राज के देह त्याग से कहीं ज्यादा. रातदिन एक कर के मैं ने घर को संभाला, कीर्ति को बड़ा किया, मदन के मातापिता की बेटे की तरह सेवा की और लोग कहते हैं, ‘राज सती थी.’ क्या यह सही है. धर्म के चक्करों में पड़े समाज से मैं यह प्रश्न पूछना चाहती हूं पर किसकिस से पूछूं.
लेखक-उषा किरण सोनी
लेकिन क्या पति की मौत के बाद भी दोनों का जिंदगी जीने का नजरिया एक रहा या अलगअलग? स्टेशन से ट्रेन के चलते ही लड़कियां अपने दुपट्टे को संभालती दोनों ओर की सीटों पर आमनेसामने बैठ कर अपनी चुहलबाजी में व्यस्त हो गईं. मैं देख रही थी कि उन के चेहरे प्रसन्नता से दमक रहे थे. सभी हमउम्र थीं और अपने ऊपर कोई बंधन नहीं महसूस कर रही थीं. मेरी अपनी बेटी कीर्ति भी उन के बीच में खिलीखिली लग रही थी. बंधन के नाम पर मैं थी और मुझे वे अपनी मार्गदर्शिका कम सहेली की मां के रूप में अधिक ले रही थीं.
गजाला ने किसी से कुछ सुनाने को कहा तो बड़ीबड़ी आंखों वाली चंचल कणिका बोल पड़ी, ‘‘अच्छा सुनो, मैं तुम सब को एक चुटकुला सुनाती हूं.’’
मैं भी हाथ में पकड़ी पत्रिका रख चुटकुले का आनंद लेने को उन्मुख हो गई.
‘‘एक बार 3 औरतें मृत्यु के बाद यमलोक पहुंचीं. उन के कर्म के अनुसार फैसले के लिए यमराज ने चित्रगुप्त की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि डाली. वह अपनी बही संभालते हुए बोले, ‘देवाधिदेव, इन्हें कहें कि ये खुद अपने कर्मों का बखान करें. मैं बही में दर्ज कर्मों से मिलान करूंगा.’
‘‘यह सुन कर पहली महिला बोली, ‘मैं ने सारा जीवन धर्मकर्म करते, सास- ससुर व पति की सेवा में बिताया. बच्चों को पालापोसा और उन्हें उचित शिक्षा दी. मेरी क्या गति होगी, महाराज बताइए?’
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यमराज ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘हूं,’ और दृष्टि दूसरी महिला पर टिका दी.
‘‘वह थोड़ा मुसकराई फिर बोली, ‘मैं ने सासससुर को तो कुछ नहीं समझा और न ही उन की सेवा की, पर पति की खूब सेवा की. मरते दम तक उन की सेवा को अपना धर्म समझा. अब आप के हाथ में है कि मुझे स्वर्ग दें या नरक.’
‘‘यमराज ने फिर कहा, ‘हूं,’ और दृष्टि तीसरी महिला की ओर घुमा दी.’’
मैं देख रही थी कि कई जोड़ी निगाहें बिना हिले इस चुटकुले के अंतिम भाग को सुनने के लिए उत्सुक थीं. कणिका ने कहना जारी रखा :
‘‘तीसरी महिला ने लटें संवारीं, थोड़ा इठलाई, कमर को झटका दिया फिर यमराज पर बंकिम कटाक्ष किया और लिपस्टिक लगे अधर संपुट खोल अदा से बोली, ‘देखोजी, यमराजजी, मैं ने न तो सासससुर को कुछ समझा न पति को. मैं ने तो जी खूब मौजमस्ती की, क्लब गई, नाचीगाई, मैं तो जी दोस्तों की जान बनी रही.’
‘‘‘बसबस,’ उसे बीच में ही टोक कर यमराज बोले, ‘योर केस इज इंट्रेस्टिंग. चित्रगुप्त, पहली दोनों औरतों को स्वर्ग में भेज दो और (तीसरी औरत की ओर इशारा कर) तुम मेरे कक्ष में आओ.’’’
चुटकुला समाप्त होने से पहले ही डब्बे में हंसी का तूफान आ गया था. खिलखिलाहटें ही खिलखिलाहटें. लड़कियां पेट पकड़पकड़ कर हंस रही थीं. मैं भी अपनी हंसी न रोक सकी.
मुझे अपनी किशोरावस्था याद आ गई. सचमुच वे भी क्या दिन थे? जिंदगी और रंग दोनों एकदूसरे के पर्याय थे उन दिनों. वह प्यारी खूबसूरत आंखों वाली राजकंवर, लगता था नारीत्व और सौंदर्य का अनुपम उदाहरण बना कर ही कुदरत ने उसे धरती पर उतारा था. और मैं, हिरनी सी कुलांचें भरती राजकंवर की अंतरंग सखी.
मुझ में तो मानो स्वयं चपलता ही मूर्तिमान हो उठी थी. क्या एक क्षण भी मैं स्थिर रह पाती थी. सारे खेलकूद, नृत्यनाटक, शायद ही किसी प्रतियोगिता में द्वितीय स्थान प्राप्त किया हो. उधर राजकंवर के कोकिल कंठ की गूंज के बिना कालिज का कोई समारोह पूरा ही नहीं होता था. वह गाती तो लगता मानो साक्षात सरस्वती ही कंठ में आ बैठी हो.
हर शरारत की योजना बनाना और फिर उसे अंजाम देना हम दोनों का काम था. याद आ गई प्रिंसिपल मैडम की सूरत, जब हम ने होली खेलते समय साइंस ब्लाक का शीशा तोड़ा था. मैडम लाख कोशिशों के बाद भी यह पता नहीं लगा सकी थीं. सारी की सारी 13 लड़कियां सिर झुकाए एक कतार में खड़ी डांट खाने के साथसाथ एकदूसरे को कनखियों से देख खुकखुक हंसती रही थीं. हार कर बिना दंड दिए उन्होंने हमें भगा दिया था और हम पूरे एक सप्ताह तक अपनी जीत का मजा लेते रहे थे.
आज इन गिलहरियों की तरह फुदकती लड़कियों को संभालते समय लगा कि सचमुच इन्हें संभालना हवा के झोंके को आंचल में बांध लेने से भी मुश्किल है, अगर किसी तरह हवा को बांध भी लो तो आंचल के झीने आवरण से वह रिस के निकल जाती है न.
गाड़ी की रफ्तार के बीच लड़कियों की ओर नजर घूमी तो पाया कि वे मूंगफलियां खाती पटरपटर बतिया रही थीं और मुद्दा था कि शाहरुख खान ज्यादा स्मार्ट है या आमिर खान. मैं ने हंसते हुए पत्रिका फिर हाथ में उठा ली. आंखें पत्रिका के एक पन्ने पर टिकी थीं पर देख तो शायद पीछे अतीत को रही थी.
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मैं और राज अब बी.ए. फाइनल में आ गए थे और हमारी बातों का विषय भी धर्मेंद्र, जितेंद्र से शुरू हो कर अपने जीवन के हीरो की ओर मुड़ जाता कि कैसा होगा?
मैं कहती, ‘राज, क्यों न हम एक ही घर में शादी करें? मैं तुम्हारे बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकती.’
राज ने लंबी आह भर कर कहा, ‘काश, ऐसा हो सकता. मैं राजपूत और तुम ब्राह्मण. एक घर में हम दोनों की शादी हो ही नहीं सकती. ऐसी बेसिरपैर की बातें करते कब साल बीता और परीक्षाएं भी हो गईं, पता ही नहीं चला.’
घड़ी आ गई बिछड़ने की. पूरे 3 साल हम साथ रहे थे. अब बिछड़ने की कल्पना से ही हम कांप उठे, पर जाना तो था. मेरे पिता ट्रांसफर हो कर उत्तरकाशी चले गए और परीक्षा समाप्त होते ही मुझे तुरंत बुलाया था.
‘‘आप का टिकट?’’ कानों से आवाज टकराई तो सोच की दुनिया से मैं बाहर निकल आई. सभी के टिकट चेकर को दे कर अपने चेहरे पर आए बालों को समेट कर पीछे किया तो चेहरे और बालों का रूखापन उंगलियों से टकराया. विचार उठा, कहां खो गई वह लुनाई. शायद बीता समय चुरा ले गया, साथ ही ले गया राज को जिसे मैं चाह कर भी नहीं पा सकती.
मैं फिर अतीत के पन्ने पलटने लगी.
उत्तरकाशी अपने घर पहुंची तो पापामम्मी और भैया ने प्यार से मुझे नहला दिया. उत्तरकाशी के पहाड़ी सौंदर्य ने मुझे अभिभूत कर दिया पर राज को हर रोज पत्र लिखने का क्रम मैं ने टूटने नहीं दिया. वह भी नियमित उत्तर देती. हम दोनों के पत्रों में जिंदगी के हीरो का ही जिक्र होता.
राज ने एक पत्र में लिखा था कि उस के पिता ने उस के लिए एक डाक्टर वर चुना है, जो किसी रियासत का अकेला चिराग है. भरापूरा गबरू जवान और एक बड़ी जागीर का अकेला वारिस, शिक्षित और संस्कारी पूर्ण पुरुष.
राजकंवर के फोटो को देखते ही वह लट्टू हो गया था… उसे साक्षात देखा तो अपनी सुधबुध ही खो बैठा. और राजकंवर? अनंग सा रूप ले कर घर आए डा. राजेंद्र सिंह को देखते ही दिल दे बैठी थी. उसे लगा जैसे छाती से कुछ निकल गया हो. अपने पत्र में उस ने अपनी बेचैनी निकाल कर रख दी थी.
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घर में मेरी शादी की चर्चा भी होने लगी थी. राज के पत्रों को पढ़ मैं भी उस की भांति किसी अनिरुद्ध की कल्पना से अपना मन रंगने लगी थी. राज के पत्रों से पता लगा कि उस का विवाह नवंबर में होगा. मजे की बात कि उस के विवाह के दिन ही मेरा अनिरुद्ध मुझे देखने आने वाला था.
राज की शादी के बाद उस के पत्रों की संख्या घटने लगी. उसे अपने मन की बातें बांटने को एक नया साथी जो मिल गया था.
अब मेरे मन पर भी लेफ्टिनेंट मदन शर्मा छाने लगे थे. जब वे अपने मातापिता के साथ मुझे देखने आए थे तो मैं खिड़की की झिरी से उन के पुरुषोचित सौंदर्य को देख अवाक् रह गई थी, दिल धड़क उठा और याद आ गई पत्र में लिखी राज की पंक्ति, ‘क्या सचमुच कामदेव ही धरा पर उतर आए हैं या मेरा यह दृष्टि दोष है?
मां जब मुझे उन लोगों के सामने लाईं तो मेरी आंखें ऊपर उठ ही नहीं रही थीं. कब उन्होंने अंगूठी पहनाई याद नहीं पर वह स्पर्श मेरे रोमरोम में बिजली दौड़ाता चला गया था. मुझ पर एक नशा सा छा गया था और उसी में उन के मातापिता के पैर छू कर मैं भीतर चली गई थी.
मैं ने तुरंत अपनी इस अवस्था का विस्तृत वर्णन राज को लिख डाला, पर उत्तर नहीं आया. सोचा मगन होगी. अब मेरी कल्पना के साथी थे मदन. मिलन और सान्निध्य की कल्पना से मैं सिहर उठती.
फरवरी की गुलाबी सर्दी में मेरा जीवनसाथी मुझे पल्लू से गांठ बांध कर अपने घर ले आया और मुझे अपने प्रेम सागर में आकंठ डुबो दिया. अनुशासन भरा सैनिक जीवन जीतेजीते मदन ने अब तक अपने मन को भी चाबुक मारमार कर साध रखा था. इसीलिए मेरा प्रवेश होने पर मुझे संपूर्ण पे्रम से नहला दिया उन्होंने.
मदन अपनी ओर से ढेरों उपहार ला कर देते और उन की मां और बाबूजी ने तो अपनी इकलौती बहू की प्यार और उपहारों से झोली ही भर दी थी. मदन इकलौती संतान जो थे.
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लेखक- नीरज कुमार मिश्रा
“अब जाने दो मुझे… रातभर प्यार करने के बाद भी तुम्हारा मन नहीं भरा क्या?” शुभी ने नखरे दिखाते हुए कहा, तो विजय अरोड़ा ने उस का हाथ पकड़ कर फिर से उसे बिस्तर पर गिरा दिया और उस के ऊपर लेट कर पतले और रसीले अधरों का रसपान करने लगा.
“देखो… मैं तो मांस का शौकीन हूं… फिर चाहे वह मेरी खाने की प्लेट में हो या मेरे बिस्तर पर,” विजय अरोड़ा शुभी के सीने के बीच अपने चेहरे को रगड़ने लगा, दोनों ही एकसाथ शारीरिक सुख पाने की चाह में होड़ लगाने लगे और कुछ देर बाद एकदूसरे से हांफते हुए अलग हो गए.
विजय और शुभी की 18 और 20 साल की 2 बेटियां थीं, तो दूसरी तरफ विजय के बड़े भाई अजय अरोड़ा के एक बेटा था, जिस की उम्र 22 साल की थी.
अरोड़ा बंधुओं के पिता रामचंद अरोड़ा चाहते थे कि जो बिजनैस उन्होंने इतनी मेहनत से खड़ा किया है, उस का बंटवारा न करना पड़े, इसलिए वे हमेशा दोनों भाइयों को एकसाथ रहने और काम करने की सलाह देते थे, पर छोटी बहू शुभी को हमेशा लगता रहता था कि पिताजी के दिल में बड़े भाई और भाभी के लिए अधिक स्नेह है, क्योंकि उन के एक बेटा है और उस के सिर्फ बेटियां.
शुभी को यही लगता था कि वे निश्चित रूप से अपनी वसीयत में दौलत का एक बड़ा हिस्सा उस के जेठ के नाम कर जाएंगे.
‘‘भाई साहब देखिए… विजय तो कामधंधे में कोई सक्रियता नहीं दिखाते हैं, पर मुझे अपनी बेटियों को तो आगे बढ़ाना ही है, इसलिए मैं चाहती हूं कि आप मेरी बेटियों को भी अपने बिजनैस में हिस्सा दें और काम के गुर सिखाते रहें,‘‘ शुभी ने अपने जेठ अजय अरोड़ा से कहा.
इस पर अजय ने कहा, ‘‘पर शुभी, बेटियों को तो शादी कर के दूसरे घर जाना होता है… ऐसे में उन्हें अपने बिजनैस के बारे में बताने से क्या फायदा… आखिर इस पूरे बिजनैस को तो मेरे बेटे नरेश को ही संभालना है… हां, तुम्हें अपनी बेटियों को पढ़ानेलिखाने के लिए जितने पैसे की जरूरत हो, उतने पैसे ले सकती हो.”
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शुभी को तो अपने जेठ की नीयत पर पहले से ही शक था और आज उन से बात कर के वह यह जान चुकी थी कि इस पूरी दौलत पर उस के जेठ अजय अरोड़ा और उन के बेटे नरेश का ही वर्चस्व रहने वाला है और इस अरोड़ा ग्रुप का मालिक नरेश को ही बनाया जाना तय है.
शुभी दिनरात इसी उधेड़बुन में रहती कि किस तरह से पूरी दौलत और बिजनैस में बराबरी का हिस्सा लिया जाए, पर ये सब इतना आसान नहीं होने वाला था, बस एक तरीका था कि किसी तरह से नरेश को रास्ते से हटा दिया जाए तभी कुछ हो सकता है, पर एक औरत के लिए किसी को अपने रास्ते से हटा पाना बिलकुल भी आसान नहीं था.
‘मुझे अपनी लड़कियों के भविष्य के लिए कुछ भी करना पड़े मैं करूंगी, चाहे मुझे किसी भी हद तक जाना पड़े,‘ कुछ सोचते हुए शुभी बुदबुदा उठी.
शुभी की जेठानी निम्मी किचन में थी और अपनी नौकरानी को सही काम करने की ताकीद कर रही थी.
“क्या दीदी… सारा दिन आप ही काम करती रहती हो… कभी आराम भी किया करो… ये लो, मैं ने आप के लिए बादाम का शरबत बनाया है. इसे पीने से आप के बदन को ताकत मिल जाएगी,” शुभी ने अपनी जेठानी को बादाम का शरबत पिला दिया. शरबत पीने के कुछ देर बाद ही निम्मी को कुछ उलझन सी होने लगी.
“सुन शुभी… मेरी तबीयत कुछ ठीक सी नहीं लग रही है. जरा तू किचन संभाल ले,” ये कह कर निम्मी आराम करने चली गई.
उस रात अजय अरोड़ा जब अपने बेटे नरेश के साथ काम से लौटे और निम्मी के बारे में पूछा, तो शुभी ने बताया कि उन की तबीयत खराब है, इसलिए वे आराम कर रही हैं. ऐसा कह कर शुभी ने ही उन लोगों को खाना परोसा, जिसे खा कर वे दोनों अपनेअपने कमरों में चले गए.
निम्मी और उस का बेटा अलगअलग कमरे में सोते थे, जबकि अजय अरोड़ा दूसरे कमरे में, क्योंकि उन को देर रात तक काम करने की आदत थी.
कुछ देर बाद शुभी दूध का गिलास ले कर अपने जेठ अजय अरोड़ा के कमरे में गई और उन के हाथ में गिलास देते समय उस ने बड़ी चतुराई से अपनी साड़ी का पल्लू कुछ इस अंदाज में गिरा दिया कि उस के सीने की गोरीगोरी गोलाइयां ब्लाउज से बाहर आने को बेताब हो उठीं. सहसा ही अजय अरोड़ा की नजरें उस के सीने के अंदर ही घुसती चली गईं.
जेठ अजय अरोड़ा को अपनी ओर इस तरह घूरते देख जल्दी से शुभी अपने पल्लू को सही करने लगी और मुसकराते हुए कमरे से बाहर चली आई.
लेखक- नीरज कुमार मिश्रा
अजय अरोड़ा ने पूछा, तो प्रतिउत्तर में शुभी जोरों से रोने लगी.
“मैं तो आप को एक नेक इनसान समझती थी, पर मुझे क्या पता था कि आप भी और मर्दों की तरह ही निकलेंगे,” शुभी ने सुबकते हुए कहा.
“आखिर बात क्या है? कुछ तो बताओ,” परेशान हो उठे थे अजय अरोड़ा.
इस के जवाब में शुभी ने अपने मुंह से एक शब्द भी नहीं निकाला, बल्कि अपने मोबाइल की स्क्रीन को औन कर के अजय अरोड़ा की तरफ बढ़ा दिया.
अजय ने मोबाइल की स्क्रीन पर देखा, तो मोबाइल पर कुछ तसवीरें थीं, जिस में शुभी के जिस्म का ऊपरी हिस्सा पूरी तरह से नग्न था और अजय अरोड़ा उस के ऊपर लेटे हुए थे. एक नहीं, बल्कि कई तसवीरें थीं इन दोनों की, जो ये बताने के लिए काफी थीं कि कल रात उन दोनों के बीच जिस्मानी संबंध बने थे.
“पर, ये सब मैं ने नहीं किया…” अजय अरोड़ा ने कहा.
“आप सारे मर्दों का यही तरीका रहता है… कल जब मैं दूध का गिलास ले कर आई, तो आप नशे में लग रहे थे और आप ने मुझे बिस्तर पर गिरा दिया और मेरे साथ गलत काम किया… गलती मेरी ही है, आखिर मैं ने आप की आंखों में वासना के कीड़ों को क्यों नहीं पहचान लिया?” रोते हुए शुभी ने कहा.
“पर, भला ये तसवीरें तुम ने क्या सोच कर खींचीं?” माथा ठनक उठा था अजय अरोड़ा का.
“अगर, मैं ये तसवीरें नहीं लेती, तो भला आप क्यों मानते कि आप ने मेरे साथ गलत किया है,” शुभी का सवाल अचूक था और सारे सुबूत सामने थे, इसलिए अजय अरोड़ा का मन भी इन सब बातों को मानने के लिए मजबूर था, क्योंकि बचपन में उन्हें नींद में चलने की बीमारी थी, जो कि काफी समय बीतने के बाद ही सही हो सकी थी.
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“चलो, अब जो भी हुआ, उसे भूल जाओ… मैं अपने किए पर बहुत शर्मिंदा हूं…पर, ये बात किसी से न कहना… मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ता हूं,” अजय अरोड़ा ने कहा.
अजय अरोड़ा रात में 2 बजे तक काम किया करते थे, पर आज पता नहीं क्या हुआ कि उन की पलकें भारी होने लगीं और उन्हें जल्दी नींद आ गई. वे अपना लैपटौप सिरहाने रख कर सो गए.
अगली सुबह जब अजय अरोड़ा की आंखें खुलीं, तो उन्होंने अपने पास बैठी हुई शुभी को देखा. उसे अपने बिस्तर पर बैठा देख अजय अरोड़ा चौंक पड़े और पूछ बैठे, “क्या बात है शुभी, तुम इतनी सुबहसुबह मेरे कमरे में… और वो भी मेरे बिस्तर पर क्या कर रही हो?”
“नहीं, आप मुझ से बड़े हैं. मेरे सामने हाथ मत जोड़िए… हां, अगर मेरे लिए कुछ करना ही चाहते हैं, तो मेरी बेटियों को अपने बेटे नरेश के साथ जायदाद में बराबर की हिस्सेदारी दिलवा दीजिए,” शुभी ने कहा.
शुभी की बात सुन कर अजय अरोड़ा को ये समझते देर नहीं लगी कि वो बुरी तरह से उस के बिछाए जाल में फंस गए हैं, पर अब उन के पास उस की बात मानने के अलावा और कोई चारा भी नहीं था, इसलिए वे शुभी की बात मानने पर राजी हो गए और उन्होंने जायदाद और अरोड़ा ग्रुप के वित्तीय मामलों मे नरेश के साथसाथ शुभी की बड़ी बेटी को भी शामिल कर लिया.
“देखो… मैं अभी सिर्फ तुम्हारी बड़ी बेटी को ही कंपनी में शामिल कर सकता हूं, क्योंकि कंपनी के और भी शेयरहोल्डर हैं, उन्हें भी मुझे जवाब देना है…
‘‘अगर चाहो तो मैं तुम्हारी छोटी बेटी को अपने दूसरे प्रोजैक्ट का इंचार्ज बना सकता हूं… पर, उस के लिए उसे कोलकाता जाना होगा,” अजय अरोड़ा ने कहा.
“बिलकुल जाएगी… कोलकाता तो क्या वह भारत के किसी भी हिस्से में जाएगी… बस, मुझे पैसा और पावर चाहिए… मैं आज ही उसे तैयारी करने को कहती हूं.”
अपनी इस कूटनीतिक जीत पर मन ही मन बहुत खुश हो रही थी शुभी और इसी जीत को सेलिब्रेट करने के लिए ‘बरिस्ता‘ कौफीहाउस में जा पहुंची, जहां उस के सामने वाली कुरसी पर बैठा हुआ शख्स उसे ऊपर से नीचे तक निहारे जा रहा था.
“अब तो तुम बहुत खुश होगी… आखिर अरोड़ा ग्रुप में बराबरी का हिस्सा मिल ही गया तुम्हें,” वो घनी दाढ़ी वाले शख्स ने कहा, जिस का नाम रौबिन था,
“मिला नहीं है, बल्कि छीना है मैं ने… पर, असली खुशी तो मुझे उस दिन मिलेगी, जब मैं उस नरेश के बच्चे को एमडी की कुरसी से हटवा दूंगी,” नफरत भरे लहजे में शुभी बोल रही थी.
“और उस के लिए अगर तुम्हें मेरी कोई भी जरूरत पड़े तो बंदा हाजिर है… पर, उस की कीमत देनी होगी,‘‘ रौबिन ने शरारती लहजे में कहा.
“बोलो, क्या कीमत लोगे?”
“बस, जिस तरह की तसवीरों में तुम अजय अरोड़ा के साथ नजर आ रही हो, वैसी ही जिस्मानी हालत में मेरे साथ एक रात गुजार लो.”
“बस… इतनी सी बात… अरे, तुम्हारे लिए मैं ने मना ही कब किया है,” शुभी की बातें सुन कर रौबिन अपने हाथ से शुभी के हाथ को सहलाने लगा.
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रौबिन और शुभी की जानपहचान कालेज के समय से थी और इतना ही नहीं, दोनों एकदूसरे से प्यार भी करते थे और शुभी की शादी हो जाने के बाद भी दोनों ने इस रिश्ते को बनाए रखा.
शुभी और रौबिन के प्यार का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता था कि आज भी अपनी खुशी को बांटने के लिए शुभी अपने पति के पास न हो कर रौबिन के पास ही आई थी.
कभी रौबिन से इश्क करने वाली शुभी को आज भी इस बात से कतई परहेज नहीं था कि आज रौबिन एक छोटामोटा ड्रग पेडलर बन चुका था, जो कि पैसा कमाने के लिए अफीम और अन्य नशीले पदार्थों की खरीदफरोख्त किया करता था और कई बार हवालात की हवा भी खा चुका था.
लेखक- नीरज कुमार मिश्रा
भले ही शुभी की लड़कियों को बिजनैस में शामिल कर लिया गया था और वे दोनों बिजनैस की बारीकियां सीख रही थीं, पर शुभी को हमेशा ही ये डर खाए जाता था कि हो न हो, नरेश को ही इस जायदाद का असली वारिस घोषित किया जाएगा और वो तो ऐसा बिलकुल नहीं चाहती थी, पर उस के पास अभी कोई और चारा नहीं था, इसलिए शुभी अपने अगले वार के लिए सही वक्त का इंतजार कर रही थी.
और वो सही वक्त कुछ महीनों बाद आ ही गया, जब नरेश की शादी तय करा दी गई और बड़ी धूमधाम से उस की शादी हो गई, विजय और अजय अरोड़ा के साथ में कितना नाची थी शुभी? उस की खुशी देख कर जान पड़ता था कि जैसे उस के सगे बेटे की शादी हो, पूरे शहर में नरेश की शादी की भव्यता की चर्चा कई दिन तक होती रही.
घर के मेहमान भी जा चुके थे और आज नरेश और उस की पत्नी बबिता अपना हनीमून मनाने के लिए स्विट्जरलैंड के लिए जाने वाले थे. सुबह से ही शुभी सारी तैयारियां करवा रही थी. मन में खुशियों का सागर हिलोरे ले रहा था नरेश और बबिता के, इसलिए फ्लाइट के समय से पहले ही नरेश एयरपोर्ट पहुंच जाना चाहता था. उस ने अपना सारा सामान एक जगह इकट्ठा कर लिया और अपनी पत्नी बबिता की प्रतीक्षा करने लगा. शुभी के साथ नरेश को अपनी पत्नी आती दिखाई दी तो नरेश ने राहत की सांस ली.
“ये लो… इसे समयसमय पर खाते रहना… तुम्हें अभी ताकत की बहुत जरूरत पड़ेगी,” शुभी ने नरेश के हाथ में एक थैली पकड़ाते हुए कहा, “पर, चाची इस में है क्या?”
“अरे, इसे खोल कर यहां मत देखो… ये तुम्हारे लिए ताकत वाले लड्डू हैं… हनीमून के लिए खास बनाए हैं,” शुभी रहस्मयी ढंग से मुसकराते हुए बोली, तो फिर उस की बात को मन ही मन भांप कर उस के आगे नरेश कुछ बोल नहीं सका और चुपचाप अपने बैग में वह थैली रख ली.
नवयुगल एयरपोर्ट पर पहुंच चुका था. दोनों ने एकदूसरे का हाथ पकड़े हुए एयरपोर्ट में एंट्री ली. नरेश ने नजरें उठाईं, तो सामने ही एक कस्टम विभाग का बड़ा अधिकारी अपनी सजीली सी विभागीय यूनीफौर्म पहने हुए खड़ा था, जो कि इन दोनों की तरफ देखते हुए मुसकराते हुए आगे आया, “नमस्ते भाभीजी… आप दोनों की यात्रा शुभ हो.”
“अरे, इन से मिलो ये मेरा दोस्त है रचित. और रचित, ये हैं बबिता मेरी पत्नी,” हंसते हुए नरेश ने कहा.
नरेश और बबिता के साथ में एक बड़े कस्टम अधिकारी के होने के कारण उन दोनों को फ्लाइट तक पहुंचने में कोई परेशानी नहीं हुई और कुछ ही देर बाद उन की फ्लाइट टेक औफ कर चुकी थी.
तकरीबन 8-9 घंटे की उड़ान के बाद वे दोनों स्विट्जरलैंड के हवाईअड्डे पर थे, जहां यात्रियों का सामान चैक किया जा रहा था. नरेश और बबिता भी शांत भाव और प्रसन्न मुद्रा में सारी कार्यवाही देख रहे थे और अपने एयरपोर्ट से निकलने का इंतजार कर रहे थे, ताकि अपने हनीमून की खुशियों का मजा ले सकें.
“आप दोनों को हमारे साथ चलना होगा,” नरेश से एक कस्टम के अधिकारी ने आ कर अंगरेजी में कहा.
“क्या हुआ… क्या बात है?” नरेश ने भी अंगरेजी में ही पूछा.
“जी, दरअसल बात यह है कि हमें आप के ब्रीफकेस में ड्रग्स मिली है. बहुत अफसोस है कि हमें आप को पुलिस के हवाले करना पड़ेगा,” कस्टम अफसर ने वह थैली दिखाते हुए कहा, जिस में शुभी ने ताकत वाले लड्डू रखे थे.
नरेश और बबिता को अपने कानों पर भरोसा ही नहीं हुआ, जो उन्होंने अभीअभी सुना था.
“पर, इस में तो मेरी चाची ने ताकत के लड्डू रखे थे, जरूर आप को कोई गलतफहमी हुई है,” नरेश कह रहा था.
“यहां पर आ कर पकड़े जाने के बाद सभी यही कहते हैं मिस्टर नरेश, पर हमारे यहां कानून है कि आप अपनी गिरफ्तारी की खबर अपने घर पर इस फोन के द्वारा दे सकतें हैं… ये लीजिए अपना कंट्री कोड डायल कर के अपने घर फोन मिला लीजिए.”
इस के बाद नरेश ने फोन मिला कर अपने साथ हुए हादसे के बारे में अपने मांबाप को बताया कि किस तरह से उस थैली में ड्रग्स भेजा गया था और नरेश ने उन्हें यह भी बताया कि यहां पर ड्रग्स संबंधी कानून बहुत कड़े हैं, इसलिए उन्हें कम से कम 10-12 साल जेल में ही रहना होगा.
पुलिस ने नरेश और बबिता के हाथों में हथकड़ी पहना दी थी. उन लोगों को अब भी समझ नहीं आ रहा था कि ये सब कैसे और क्यों हुआ है? पर भारत में बैठी हुई शुभी को बखूबी समझ में आ रहा था, क्योंकि ये पूरी चाल उस ने ही तो रौबिन के साथ मिल कर रची थी, जिस से सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे.
एक ही झटके में शुभी ने नरेश और उस की पत्नी बबिता को जेल भिजवा दिया था. एकलौते बेटे की गिरफ्तारी और शुभी की नीचता की बात जान कर अजय अरोड़ा चीख पड़े थे, “मुझे तुझ से ऐसी उम्मीद नहीं थी… मैं ने तेरी हर बात मानी, फिर भी तेरी पैसे की हवस पूरी नहीं हुई… आखिरकार तू ने मेरे बेटेबहू को मुझ से छीन ही लिया.”
“जो हुआ उस में मेरी कोई गलती नहीं है… नरेश के पास से ड्रग्स निकली है, इस का साफ सा मतलब है कि वह ड्रग्स लेता था और अब बचने के लिए वह मुझ पर इलजाम लगा रहा है,” शुभी बड़े आराम से जवाब दे रही थी.
शुभी से अभी जब अजय अरोड़ा की बहस हो ही रही थी कि उन के सीने में तेज दर्द उठा. वे अपना सीना पकड़ कर वहीं बैठ गए और फिर कभी उठ न सके. उन का देहांत हो चुका था.
अब कंपनी की एमडी शुभी की बेटी थी और पूरे बिजनैस पर उन का एकाधिकार था, पर अपनी मां के द्वारा किए गए इस काम से वह जरा भी खुश नहीं थी, इसलिए वह अपने दादी और बाबा के साथ सबकुछ छोड़ कर कहीं चली गई और शुभी के नाम एक पत्र छोड़ गई, जिस में लिखा था:
“मां… आप पैसे और सत्ता के लालच में इतना गिर जाओगी, ऐसा मैं ने कभी नहीं सोचा था… आप को पैसा चाहिए था, जो आज आप को मिल गया है… कंपनी के कागज और चेकबुक्स दराज में रखी हैं. आप अपने पैसों के साथ खुश रहो… मुझे और मेरे दादीबाबा को ढूंढ़ने की कोशिश मत करना.”
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पैसे और सत्ता के लालच में अंधी हो कर शुभी ने नरेश के खिलाफ इतनी कठोर साजिश को अंजाम दिया, जिस से उस के जीवन की सारी खुशियां तहसनहस हो गई थीं.
नरेश और बबिता इस घटना से स्तब्ध थे. उन्हें ये बात ही नहीं समझ में आ रही थी कि अगर ये काम चाची ने जानबूझ कर किया है, तो क्यों किया है. वजह चाहे जो भी रही हो, पर वे दोनों जेल में थे.
नरेश और बबिता को हनीमून तो छोड़ो, पर अब साथ रहना भी नसीब नहीं हो रहा था. सलाखों के पीछे बारबार नरेश यही बुदबुदा रहा था… ये कैसा हनीमून???
पलक झपकते ही मैं सड़क पर था. सोम मेरे पीछे लपका था और मौसी आवाजें देती रही थीं पर मैं पीछे पलटा ही नहीं. किसी तरह अपने कमरे में पहुंचा. न जाने कितनी बार मोबाइल पर सोम की कौल आई लेकिन बात नहीं की मैं ने. मैं क्या इतना कंगाल हूं जो किसी की भीख पर जीने लगूं. ऐसी भी क्या कमी है मुझे जो सोम की मां में अपनी ही मां की सूरत तलाशती रहें मेरी आंखें. मां का प्यार तो अथाह सागर होता है जिस में समूल संसार को समेट ले जाने की शक्ति होती है. चाची हैं न मेरे पास जो मुझे इतना प्यार करती हैं. क्यों चला गया मैं सोम के घर पर? क्या जरूरत थी मुझे? 2 दिन की छुट्टी थी. अपना घर संवारने में ही मैं व्यस्त रहा. सोमवार सुबह आफिस जाते ही सोम सामने पड़ गया. ‘‘अजय, उस दिन तुम्हें क्या हो गया था. मां कितनी परेशान हैं तुम्हें ले कर. मोबाइल भी नहीं उठा रहे हो तुम.’’
‘‘वे तुम्हारी मां हैं. उन की परेशानी तुम समझो. भला मैं उन का क्या लगता हूं जो…’’ ‘‘ऐसा मत कहो, अजय,’’ बीच में बात काटते हुए सोम बोला, ‘‘तुम्हारा ही खून तो बहता है उन के शरीर में. उस दिन तुम न होते तो क्या होता.’’ ‘‘मैं न होता तो कोई और होता. सोम, इनसानियत के नाते मैं ने खून दिया. इस से कोई रिश्ता थोड़े न बन जाता है.’’ ‘‘बन जाता है कभीकभी. खून से भी रिश्ता बनता है. अब देखोे न मेरा खून उन से नहीं मिला. रिश्ता नहीं है तभी तो खून नहीं मिला. मैं उन का अपना होता तो क्या खून न मिलता.’’
‘‘तुम्हारा खून उन से नहीं मिला उस से क्या फर्क पड़ता है. कभीकभी मांबच्चे का खून नहीं भी मिलता. मेरा खून उन से मिल गया इस से वे मेरी मां तो नहीं न हो जातीं. अरे, भाई, वे तुम्हारी मां हैं और तुम्हारी ही रहेंगी. तुम्हारा खून उन से नहीं मिला उस की खीज तुम मुझ पर तो मत उतारो. जा कर किसी डाक्टर से पूछो… वह तुम्हें बेहतर समझा पाएगा.’’ लंच बे्रक में भी मैं सोम को टाल गया और शाम को घर आते समय भी उस से किनारा कर लिया. मुझे क्या जरूरत है किसी के घर में अशांति, खलबली पैदा करने की. मैं अपने को भावनात्मक रूप से इतना अतृप्त मानूं ही क्यों कि किसी की थाली में परोसा भोजन देख मेरी भूख जाग जाए जबकि सोचूं तो मेरा मन गले तक भरा होना चाहिए.
चाची के रूप में ऐसी मां मिली हैं जो मुझे मेरी खुशी में ही अपने बच्चों की भी खुशी मानती हैं. चाची न पालतीं तो मेरा क्या होता. सोचा जाए तो बड़े होतेहोते किसे याद रहता है अपना बचपन. जिसे मां के रूप में देखता रहा वही मां हैं और अगर मां को देखा भी था तो कहां वह सूरत आज मुझे याद है. होश संभाला तो चाची को देखा और चाची ही याद हैं मुझे. तो मेरी मां कौन हुईं? चाची ही न? पागल और नाशुक्रा तो मैं हूं न, जिस ने आज तक चाची को चाची ही कह कर पुकारा. चाची कबकब मेरी मां नहीं थीं जो मैं अपने मन में उम्र भर एक शूल सा चुभोता रहा कि बिन मां का हूं.
शाम को घर पहुंचा और अभी खाने की तैयारी कर रहा था कि दरवाजे पर सोम और उस की मां को खड़े पाया. मेरी दी हुई शाल ओढ़ रखी थी उन्होंने. ‘‘क्या बात है बेटा, मां से नाराज है. सोम तो नादान है. उस की वजह से अपना मन मैला मत कर.’’ ‘‘नहीं तो, मौसी…’’ क्या कहता मैं. मौसी मुझे गले लगा कर रोने लगी थीं और अपराधी सा सोम सामने खड़ा था. ‘‘जन्म दे देने से ही कोई मां नहीं बन जाती बेटे, इस सोम को ही देख. मैं ने इसे जन्म नहीं दिया… मैं ने कभी किसी संतान को जन्म नहीं दिया, तो क्या मैं इस की मां नहीं हूं. क्या बांझ हूं मैं?’’
यह सुन कर मेरा सर्वांग कांपने लगा. यह क्या कह रही हैं मौसी. उन का चेहरा सामने किया. कितनी प्यारी कितनी पवित्र हैं मौसी. पुन: वही इच्छा सिर उठाने लगी… मेरी भी मां होतीं तो कैसी होतीं. ‘‘सोम हमारा गोद लिया बच्चा है. उसी तरह प्रकृति ने तुम्हें मुझ से मिला दिया. मेरे मन ने तुम्हें अपना बेटा माना है बेटे. मैं 2-2 बेटों की मां हूं. क्या तुम्हें लगता है मेरी गोद इतनी छोटी है जिस में तुम दोनों नहीं समा सकते. क्या सचमुच मैं बांझ ही हूं जिसे अपनी ममता पर सदा एक प्रश्नचिह्न ही सहना पड़े.’’