यह कैसी विडंबना- भाग 3: शर्माजी और श्रीमती के झगड़े में ममता क्यों दिलचस्पी लेती थी?

पूर्व कथा

15 साल बाद परिवार समेत ममता एक बार फिर दिल्ली में बसीं. वे उसी महल्ले व उसी घर में रहने लगीं जहां पहले रह कर गई थीं. घर के सामने अभी भी शर्मा दंपती रहते हैं. दादीनानी बनने के बाद भी श्रीमती शर्मा का साजशृंगार उन की तीनों बहुओं से बढ़ कर होता है. पुरानी पड़ोसिन सरला ने ममता को बताया कि श्रीमती शर्मा के नाजनखरे तो आज भी वही हैं मगर पतिपत्नी के रोजरोज के झगड़े बहुत बुरे हैं, दिनरात कुत्तेबिल्ली की तरह लड़ते हैं. तुम्हें भी इन के झगड़ने की आवाजें विचलित करेंगी. 75 वर्षीय श्रीमती शर्मा कहती हैं कि उन के 80 वर्षीय पति शर्माजी का एक औरत से चक्कर है. एक लड़की भी है उस से…ममता यह सुन कर अवाक् रह जाती है. हालांकि उसे यहां दोबारा आए 2 दिन ही हुए और वह शर्मा आंटी से बहुत प्रभावित हुई थी, उन की साफसफाई, उन के जीने के तरीके से. 5-6 दिन बीतने के बाद भी किसी तरह के लड़नेझगड़ने की आवाज नहीं आई तो ममता सोचती है कि उसे जो बताया गया है, वह गलत होगा. इस बीच, शर्मा दंपती ममता के घर पधारे. दोनों ने हंसीखुशी ममता के साथ खूब गपशप की, दोपहर को वहीं खाना खाया. शाम को पति आए तो ममता उन के साथ शर्मा दंपती से मिलने उन के घर गई. इस तरह वे अच्छे पड़ोसी बन गए. सरला यह जान कर हैरान हो जाती है. वह ममता को समझाने लगती है कि अपना ध्यान रखना, शर्मा आंटी कहानियां गढ़ लेती हैं. इन्होंने अपनी तो उतार रखी है. कहीं ऐसा न हो, तुम्हारी भी उतार कर रख दें. इधर, दीवाली आने को होती है और ममता घर का बल्ब जला कर परिवार समेत जम्मू चली जाती है.

अब आगे…

श्रीमती शर्मा से प्रभावित ममता अपनी पड़ोसिन सरला के मशविरे की अनदेखी करती रही लेकिन एक दिन वही ममता अपने घर से श्रीमती शर्मा को बाहर करती नजर आई. वहीं जब शर्माजी का देहांत हुआ तो वह इस असमंजस में दिखी कि अफसोस करे या सुकून की सांस ले.

गतांक से आगे…

अंतिम भाग

सरला ने जम्मू से चावल मंगवाए थे. वापस आने पर सामान आदि खोला. सोचा, सरला को फोन करती हूं, आ कर अपना सामान ले जाए. तभी 2 लोगों की चीखपुकार शुरू हो गई. गंदीगंदी गालियां और जोरजोर से रोना- पीटना. मैं घबरा कर बाहर आई. शर्मा आंटी रोतीपीटती मेरे गेट के पास खड़ी थीं. लपक कर बाहर चली आई मैं.

‘‘क्या हो गया आंटी, आप ठीक तो हैं न?’’

‘‘अभीअभी यह आदमी 205 नंबर से हो कर आया है. अरे, अपनी उम्र का तो खयाल करता.’’

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अंकल चुपचाप अपने दरवाजे पर खड़े थे. क्याक्या शब्द आंटी कह गईं, मैं यहां लिख नहीं सकती. अपने पति को तो वे नंगा कर रही थीं और नजरें मेरी झुकी जा रही थीं. पता नहीं कहां से इतनी हिम्मत चली आई मुझ में जो दोनों को उन के घर के अंदर धकेल कर मैं ने उन का गेट बंद कर दिया. मन इतना भारी हो गया कि रोना आ गया. क्या कर रहे हैं ये दोनों. शरम भी नहीं आती इन्हें. जब जवानी में पति को मर्यादा का पाठ नहीं पढ़ा पाईं तो इस उम्र में उसी शौक पर चीखपुकार क्यों?

सच तो यही है कि अनैतिकता सदा ही अनैतिक है. मर्यादा भंग होने को कभी भी स्वीकार नहीं किया जा सकता. पतिपत्नी के रिश्ते में पवित्रता, शालीनता और ईमानदारी का होना अति आवश्यक है. शर्मा आंटी की खूबसूरती यदि जवानी में सब को लुभाती थी तब क्या शर्मा अंकल को अच्छा लगता होगा. हो सकता है पत्नी को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल भी किया हो.

जवानी में जोजो रंग पतिपत्नी घोलते रहे उन की चर्चा तो आंटी मुझ से कर ही चुकी थीं और बुढ़ापे में उसी टूटी पवित्रता की किरचें पलपल मनप्राण लहूलुहान न करती रहें ऐसा तो मुमकिन है ही नहीं. अनैतिकता का बीज जब बोया जाता तब कोई नहीं देखता, लेकिन जब उस का फल खाना पड़ता है तब बेहद पीड़ा होती है, क्योंकि बुढ़ापे में शरीर इतना बलवान नहीं होता जो पूरा का पूरा फल एकसाथ डकार सके.

सरला से बात हुई तो वह बोली, ‘‘मैं ने कहा था न कि इन से दूर रह. अब अपना मन भी दुखी कर लिया न.’’

उस घटना के बाद हफ्ता बीत गया. सुबह 5 बजे ही दोनों शुरू हो जाते. शालीनता और तमीज ताक पर रख कर हर रोज एक ही जहर उगलते. परेशान हो जाती मैं. आखिर कब यह घड़ा खाली होगा.

संयोग से वहीं पास ही में हमें एक अच्छा घर मिल गया. चूंकि पति का रिटायरमैंट पास था, इसलिए उसे खरीद लिया हम ने और उसी को सजानेसंवारने में व्यस्त हो गए. नया साल शुरू होने वाला था. मन में तीव्र इच्छा थी कि नए साल की पहली सुबह हम अपने ही घर में हों. महीना भर था हमारे पास, थोड़ीबहुत मरम्मत, रंगाईपुताई, कुछ लकड़ी का काम बस, इसी में व्यस्त हो गए हम दोनों. कुछ दिन को बच्चे भी आ कर मदद कर गए.

एक शाम जरा सी थकावट थी इसलिए मैं जा नहीं पाई थी. घर पर ही थी. सरला चली आई थी मेरा हालचाल पूछने. हम दोनों चाय पी रही थीं तभी द्वार पर दस्तक हुई. शर्मा अंकल थे सामने. कमीज की एक बांह लटकी हुई थी. चेहरे पर जगहजगह सूजन थी.

‘‘यह क्या हुआ आप को, अंकल?’’

‘‘एक्सीडेंट हो गया था बेटा.’’

‘‘कब और कैसे हो गया?’’

पता चला 2 दिन पहले स्कूटर बस से टकरा गया था. हर पल का क्लेश कुछ तो करता है न. तरस आ गया था हमें.

‘‘बाजू टूट गई है क्या?’’

‘‘टूटी नहीं है…कंधा उतर गया है. 3 हफ्ते तक छाती से बांध कर रखना पड़ेगा. बेटा, मुझे तुम से कुछ काम है. जरा मदद करोगी?’’

सांझ पड़े घर आना- भाग 2: नीलिमा की बौस क्यों रोने लगी

वह धीरे से अपनी सीट से उठी और मेरी साड़ी के पल्लू से मेरे आंसू पोंछने लगी. फिर सामने पड़े गिलास से मुझे पानी पिलाया और मेरी पीठ पर स्नेह भरा हाथ रख दिया. बहुत देर तक वह यों ही खड़ी रही. अचानक गमगीन होते माहौल को सामान्य करने के लिए मैं ने 2-3 लंबी सांसें लीं और फिर अपनी थर्मस से चाय ले कर 2 कपों में डाल दी.

उस ने चाय का घूंट भरते हुए धीरेधीरे कहना शुरू किया, ‘‘मैम, मैं तो आप से बहुत छोटी हूं. मैं आप के बारे में न कुछ जानती हूं और न ही जानना चाहती हूं. पर इतना जरूर कह सकती हूं कि कुछ गलतियां आप की भी रही होंगी… पर हमें अपनी गलती का एहसास नहीं होता. हमारा अहं जो सामने आ जाता है. हो सकता है आप को तलाक मिल भी जाए… आप स्वतंत्रता चाहती हैं, वह भी मिल जाएगी, पर फिर क्या करेंगी आप?’’ ‘‘सुकून तो मिलेगा न… जिंदगी अपने ढंग से जिऊंगी.’’

‘‘अपने ढंग से जिंदगी तो आज भी जी रही हैं आप… इंडिपैंडैंट हैं अपना काम करने के लिए… एक प्रतिष्ठित कंपनी की बौस हैं… फिर…’’ कह कर वह चुप हो गई. उस की भाषा तल्ख पर शिष्ट थी. मैं एकदम सकपका गई. वह बेबाक बोलती जा रही थी. मैं ने झल्ला कर तेज स्वर में पूछा, ‘‘मैं समझ नहीं पा रही हूं तुम मेरी वकालत कर रही हो, मुझ से तर्कवितर्क कर रही हो, मेरा हौंसला बढ़ा रही हो या पुन: नर्क में धकेल रही हो.’’

‘‘मैम,’’ वह धीरे से पुन: शिष्ट भाषा में बोली, ‘‘एक अकेली औरत के लिए, वह भी तलाकशुदा के लिए अकेले जिंदगी काटना कितना मुश्किल होता है, यह कैसे बताऊं आप को…’’ ‘‘पहले आप के पास पति से खुशियां बांटने का मकसद रहा होगा, फिर बेटी और उस की पढ़ाई का मकसद. फिर लड़ कर अलग होने का मकसद और अब जब सब झंझटों से मुक्ति मिल जाएगी तो क्या मकसद रह जाएगा? आगे एक अकेली वीरान जिंदगी रह जाएगी…’’ कह कर वह चुप हो गई और प्रश्नसूचक निगाहों से मुझे देखती रही. फिर बोली, ‘‘मैम, आप कल सुबह यह सोच कर उठना कि आप स्वतंत्र हो गई हैं पर आप के आसपास कोई नहीं है. न सुख बांटने को न दुख बांटने को. न कोई लड़ने के लिए न झगड़ने के लिए. फिर आप देखना सब सुखसुविधाओं के बाद भी आप अपनेआप को अकेला ही पाएंगी.’’

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मैं समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या कहना चाहती है. मेरे चेहरे पर कई रंग आ रहे थे, परंतु एक बात तो ठीक थी कि तलाक के बाद अगला कदम क्या होगा. यह मैं ने कभी ठीक से सोचा न था. ‘‘मैम, मैं अब चलती हूं. बाहर कई लोग मेरा इंतजार कर रहे हैं… जाने से पहले एक बार फिर से सलाह दूंगी कि इस तलाक को बचा लीजिए,’’ कह वह वहां से चली गई.

उस के जाने के बाद पुन: उस की बातों ने सोचने पर मजबूर कर दिया. मेरी सोच का दायरा अभी तक केवल तलाक तक सीमित था…उस के बाद व्हाट नैक्स्ट? उस पूरी रात मैं ठीक से सो नहीं पाई. सुबहसुबह कामवाली बालकनी में चाय रख कर चली गई. मैं ने सामने वाली कुरसी खींच कर टांगें पसारीं और फिर भूत के गर्भ में चली गई. किसी ने ठीक ही कहा था कि या तो हम भूत में जीते हैं या फिर भविष्य में. वर्तमान में जीने के लिए मैं तब घर वालों से लड़ती रही और आज उस से अलग होने के लिए. पापा को मनाने के लिए इस के बारे में झूठसच का सहारा लेती रही, उस की जौब और शिक्षा के बारे में तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश करती रही और आज उस पर उलटेसीधे लांछन लगा कर तलाक ले रही हूं.

तब उस का तेजतर्रार स्वभाव और खुल कर बोलना मुझे प्रभावित करता था और अब वही चुभने लगा है. तब उस का साधारण कपड़े पहनना और सादगी से रहना मेरे मन को भाता था और अब वही सब मेरी सोसाइटी में मुझे नीचा दिखाने की चाल नजर आता है. तब भी उस की जौब और वेतन मुझ से कम थी और आज भी है. ‘‘ऐसा भी नहीं है कि पिछले 25 साल हमने लड़तेझगड़ते गुजारे हों. कुछ सुकून और प्यारभरे पल भी साथसाथ जरूर गुजारे होंगे. पहाड़ों, नदियों और समुद्री किनारों के बीच हम ने गृहस्थ की नींव भी रखी होगी. अपनी बेटी को बड़े होते भी देखा होगा और उस के भविष्य के सपने भी संजोए होंगे. फिर आखिर गलती हुई कहां?’’ मैं सोचती रही गई.

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अपनी भूलीबिसरी यादों के अंधेरे गलियारों में मुझे इस तनाव का सिरा पकड़ में नहीं आ रहा था. जहां तक मुझे याद आता है मैं बेटी को 12वीं कक्षा के बाद यूके भेजना चाहती थी और मेरे पति यहीं भारत में पढ़ाना चाहते थे. शायद उन की यह मंशा थी कि बेटी नजरों के सामने रहेगी. मगर मैं उस का भविष्य विदेशी धरती पर खोज रही थी? और अंतत: मैं ने उसे अपने पैसों और रुतबे के दम पर बाहर भेज दिया. बेटी का मन भी बाहर जाने का नहीं था. पर मैं जो ठान लेती करती. इस से मेरे पति को कहीं भीतर तक चोट लगी और वह और भी उग्र हो गए. फिर कई दिनों तक हमारे बीच अबोला पसर गया. हमारे बीच की खाई फैलती गई. कभी वह देर से आता तो कभी नहीं भी आता. मैं ने कभी इस बात की परवाह नहीं की और अंत में वही हुआ जो नहीं होना चाहिए था. बेटी विदेश क्या गई बस वहीं की हो गई. फिर वहीं पर एक विदेशी लड़के से शादी कर ली. कोई इजाजत नहीं बस निर्णय… मेरी तरह.

सूना आसमान- भाग 4: अमिता ने क्यों कुंआरी रहने का फैसला लिया

मैं अमिता के घर कभी नहीं गया था, लेकिन बहुत सोचविचार कर एक दिन मैं उस के घर पहुंच ही गया. दरवाजे की कुंडी खटखटाते ही मेरे मन को एक अनजाने भय ने घेर लिया. इस के बावजूद मैं वहां से नहीं हटा. कुछ देर बाद दरवाजा खुला तो अमिता की मां सामने खड़ी थीं. वे मुझे देख कर हैरान रह गईं. अचानक उन के मुंह से कोई शब्द नहीं निकला. मैं ने अपने दिल की धड़कन को संभालते हुए उन्हें नमस्ते किया और कहा, ‘‘क्या मैं अंदर आ जाऊं?’’

‘‘आं… हांहां,’’ जैसे उन्हें होश आया हो, ‘‘आ जाओ, अंदर आ जाओ,’’ अंदर घुस कर मैं ने चारों तरफ नजर डाली. साधारण घर था, जैसा कि आम मध्यवर्गीय परिवार का होता है. आंगन के बीच खड़े हो कर मैं ने अमिता के घर को देखा, बड़ा खालीखाली और वीरान सा लग रहा था. मैं ने एक गहरी सांस ली और प्रश्नवाचक भाव से अमिता की मां को देखा, ‘‘सब लोग कहीं गए हुए हैं क्या,’’ मैं ने पूछा.

अमिता की मां की समझ में अभी तक नहीं आ रहा था कि वह क्या जवाब दें. मेरा प्रश्न सुन कर वे बोलीं, ‘‘हां, बस अमिता है, अपने कमरे में. अच्छा, तुम बैठो. मैं उसे बुलाती हूं,’’ उन्होंने हड़बड़ी में बरामदे में रखे तख्त की तरफ इशारा किया. तख्त पर पुराना गद्दा बिछा हुआ था, शायद रात को उस पर कोई सोता होगा. मैं ने मना करते हुए कहा, ‘‘नहीं, रहने दो. मैं उस के कमरे में ही जा कर मिल लेता हूं. कौन सा कमरा है?’’

अब तक शायद हमारी बातचीत की आवाज अमिता के कानों तक पहुंच चुकी थी. वह उलझी हुई सी अपने कमरे से बाहर निकली और फटीफटी आंखों से मुझे देखने लगी. वह इतनी हैरान थी कि नमस्कार करना तक भूल गई. मांबेटी की हैरानगी से मेरे दिल को थोड़ा सुकून पहुंचा और अब तक मैं ने अपने धड़कते दिल को संभाल लिया था. मैं मुसकराने लगा, तो अमिता ने शरमा कर अपना सिर झुका लिया, बोली कुछ नहीं. मैं ने देखा, उस के बाल उलझे हुए थे, सलवारकुरते में सिलवटें पड़ी हुई थीं. आंखें उनींदी सी थीं, जैसे उसे कई रातों से नींद न आई हो. वह अपने प्रति लापरवाह सी दिख रही थी.

‘‘बैठो, बेटा. मेरी तो समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूं? तुम पहली बार मेरे घर आए हो,’’ अमिता की मां ऐसे कह रही थीं, जैसे कोई बड़ा आदमी उन के घर पर पधारा हो.

मैं कुछ नहीं बोला और मुसकराता रहा. अमिता ने एक बार फिर अपनी नजरें उठा कर गहरी निगाह से मुझे देखा. उस की आंखों में एक प्रश्न डोल रहा था. मैं तुरंत उस का जवाब नहीं दे सकता था. उस की मां के सामने खुल कर बात भी नहीं कर सकता था. मैं चुप रहा तो शायद वह मेरे मन की बात समझ गई और धीरे से बोली, ‘‘आओ, मेरे कमरे में चलते हैं. मां, आप तब तक चाय बना लो,’’ अंतिम वाक्य उस ने अपनी मां से कुछ जोर से कहा था.

हम दोनों उस के कमरे में आ गए. उस ने मुझे अपने बिस्तर पर बैठा दिया, पर खुद खड़ी रही. मैं ने उस से बैठने के लिए कहा तो उस ने कहा, ‘‘नहीं, मैं ऐसे ही ठीक हूं,’’ मैं ने उस के कमरे में एक नजर डाली. पढ़ने की मेजकुरसी के अलावा एक साधारण बिस्तर था, एक पुरानी स्टील की अलमारी और एक तरफ हैंगर में उस के कपड़े टंगे थे. कमरा साफसुथरा था और मेज पर किताबों का ढेर लगा हुआ था, जैसे अभी भी वह किसी परीक्षा की तैयारी कर रही थी. छत पर एक पंखा हूम्हूम् करता हुआ हमारे विचारों की तरह घूम रहा था.

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मैं ने एक गहरी सांस ली और अमिता को लगभग घूर कर देखता हुआ बोला, ‘‘क्या तुम मुझ से नाराज हो?’’ मैं बहुत तेजी से बोल रहा था. मेरे पास समय कम था, क्योंकि किसी भी क्षण उस की मां कमरे में आ सकती थीं और मुझे काफी सारे सवालों के जवाब अमिता से चाहिए थे.

वह कुछ नहीं बोली, बस सिर नीचा किए खड़ी रही. मैं ने महसूस किया, उस के होंठ हिल रहे थे, जैसे कुछ कहने के लिए बेताब हों, लेकिन भावातिरेक में शब्द मुंह से बाहर नहीं निकल पा रहे थे. मैं ने उस का उत्साह बढ़ाते हुए कहा, ‘‘देखो, अमिता, मेरे पास समय कम है और तुम्हारे पास भी… मां घर पर हैं और हम खुल कर बात भी नहीं कर सकते, जो मैं पूछ रहा हूं, जल्दी से उस का जवाब दो, वरना बाद में हम दोनों ही पछताते रह जाएंगे. बताओ, क्या तुम मुझ से नाराज हो?’’

‘‘नहीं, उस ने कहा, लेकिन उस की आवाज रोती हुई सी लगी.’’

‘‘तो, तुम मुझे प्यार करती हो? मैं ने स्पष्ट करना चाहा. कहते हुए मेरी आवाज लरज गई और दिल जोरों से धड़कने लग गया. लेकिन अमिता ने मेरे प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया, शायद उस के पास शब्द नहीं थे. बस, उस का बदन कांप कर रह गया. मैं समझ गया.’’

‘‘तो फिर तुम ने हठ क्यों किया? अपना मान तोड़ कर एक बार मेरे पास आ जाती, मैं कोई अमानुष तो नहीं हूं. तुम थोड़ा झुकती, तो क्या मैं पिघल नहीं जाता?’’

वह फिर एक बार कांप कर रह गई. मैं ने जल्दी से कहा, ‘‘मेरी तरफ नहीं देखोगी?’’ उस ने तड़प कर अपना चेहरा उठाया. उस की आंखें भीगी हुई थीं और उन में एक विवशता झलक रही थी. यह कैसी विवशता थी, जो वह बयान नहीं कर सकती थी? मुझे उस के ऊपर दया आई और सोचा कि उठ कर उसे अपने अंक में समेट लूं, लेकिन संकोचवश बैठा रहा.

उस की मां एक गिलास में पानी ले कर आ गई थीं. मुझे पानी नहीं पीना था, फिर भी औपचारिकतावश मैं ने गिलास हाथ में ले लिया और एक घूंट भर कर गिलास फिर से ट्रे में रख दिया. मां भी वहीं सामने बैठ गईं और इधरउधर की बातें करने लगीं. मुझे उन की बातों में कोई रुचि नहीं थी, लेकिन उन के सामने मैं अमिता से कुछ पूछ भी नहीं सकता था.

उस की मां वहां से नहीं हटीं और मैं अमिता से आगे कुछ नहीं पूछ सका. मैं कितनी देर तक वहां बैठ सकता था, आखिर मजबूरन उठना पड़ा, ‘‘अच्छा चाची, अब मैं चलता हूं.’’

‘‘अच्छा बेटा,’’ वे अभी तक नहीं समझ पाई थीं कि मैं उन के घर क्यों आया था. उन्होंने भी नहीं पूछा. इंतजार करूंगा, कह कर मैं ने एक गहरी मुसकान उस के चेहरे पर डाली. उस की आंखों में विश्वास और अविश्वास की मिलीजुली तसवीर उभर कर मिट गई. क्या उसे मेरी बात पर यकीन होगा? अगर हां, तो वह मुझ से मिलने अवश्य आएगी.

पर वह मेरे घर फिर भी नहीं आई. मेरे दिल को गहरी ठेस पहुंची. क्या मैं ने अमिता के दिल को इतनी गहरी चोट पहुंचाई थी कि वह उसे अभी तक भुला नहीं पाई थी. वह मुझ से मिलती तो मैं माफी मांग लेता, उसे अपने अंक में समेट लेता और अपने सच्चे प्यार का उसे एहसास कराता. लेकिन वह नहीं आई, तो मेरा दिल भी टूट गया. वह अगर स्वाभिमानी है, तो क्या मैं अपने आत्मसम्मान का त्याग कर देता?

हम दोनों ही अपनेअपने हठ पर अड़े रहे. समय बिना किसी अवरोध के अपनी गति से आगे बढ़ता रहा. इस बीच मेरी नौकरी एक प्राइवेट कंपनी में लग गई और मैं अमिता को मिले बिना चंडीगढ़ चला गया. निधि को भी जौब मिल  गया, अब वह नोएडा में नौकरी कर रही थी.

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इस दौरान मेरी दोनों बहनों का भी ब्याह हो गया और वे अपनीअपनी ससुराल चली गईं. जौब मिल जाने के बाद मेरे लिए भी रिश्ते आने लगे थे, लेकिन मम्मी और पापा ने सबकुछ मेरे ऊपर छोड़ दिया था.

निधि की मेरे प्रति दीवानगी दिनबदिन बढ़ती जा रही थी, मैं उस के प्रति समर्पित नहीं था और न उस से मिलनेजुलने के लिए इच्छुक, लेकिन निधि मकड़ी की तरह मुझे अपने जाल में फंसाती जा रही थी. वह छुट्टियों में अपने घर न जा कर मेरे पास चंडीगढ़ आ जाती और हम दोनों साथसाथ कई दिन गुजारते.

मैं निधि के चेहरे में अमिता की छवि को देखते हुए उसे प्यार करता रहा, पर मैं इतना हठी निकला कि एक बार भी मैं ने अमिता की खबर नहीं ली. पुरुष का अहम मेरे आड़े आ गया. जब अमिता को ही मेरे बारे में पता करने की फुरसत नहीं है, तो मैं उस के पीछे क्यों भागता फिरूं?

अंतत: निधि की दीवानगी ने मुझे जीत लिया. उधर मम्मीपापा भी शादी के लिए दबाव डाल रहे थे. इसलिए जौब मिलने के सालभर बाद हम दोनों ने शादी कर ली.

निधि के साथ मैं दक्षिण भारत के शहरों में हनीमून मनाने चला गया. लगभग 15 दिन बिता कर हम दोनों अपने घर लौटे. हमारी छुट्टी अभी 15 दिन बाकी थी, अत: हम दोनों रोज बाहर घूमनेफिरने जाते, शाम को किसी होटल में खाना खाते और देर रात गए घर लौटते. कभीकभी निधि के मायके चले जाते. इसी तरह मस्ती में दिन बीत रहे थे कि एक दिन मुझे तगड़ा झटका लगा.

सजा किसे मिली- भाग 2: आखिर अल्पना अपने माता-पिता से क्यों नफरत करती थी?

लेखिका- सुधा आदेश

इस अकेलेपन के बावजूद उस के पास कुछ खुशनुमा पल थे…गरमियों की छुट्टियों में जब वे 15 दिन किसी हिल स्टेशन पर घूमने जाते…उस के जन्मदिन पर उस की मनपसंद ड्रेस के साथ उस को उपहार भी खरीदवाया जाता…यहां तक कि होस्टल में वार्डन से इजाजत ले कर उस के जन्मदिन पर एक छोटी सी पार्टी आयोजित की जाती तथा उस के सभी दोस्तों को गिफ्ट भी दी जाती.

फिर जैसेजैसे वह बड़ी होती गई अपनों के प्यार से तरसते मन में विद्रोह का अंकुर पनपने लगा…यही कारण था कि पहले जहां वह चुप रहा करती थी, अब अपने मन की भड़ास निकालने लगी थी तथा उन की इच्छा के खिलाफ काम करने लगी थी.

ऐसा कर के वह न केवल सहज हो जाया करती थी वरन मम्मीपापा के लटके चेहरे देख कर उसे असीम आनंद मिलने लगा था. जाने क्यों उसे लगने लगा था, जब इन्हें ही मेरी परवा नहीं है तो मैं ही इन की परवा क्यों करूं.

इसी मनोस्थिति के चलते एक बार वह छुट्टियों में अपने घर न आ कर अपनी मित्र स्नेहा के घर चली गई. वहां उस की मम्मी के प्यार और अपनत्व ने उस के सूने मन में उत्साह का संचार कर दिया…वहीं उस ने जाना कि घर ऊंचीऊंची दीवारों से नहीं, उस में रहने वाले लोगों के प्यार और विश्वास से बनता है. उस का घर तो इन के घर से भी बड़ा था, सुखसुविधाएं भी ज्यादा थीं पर नहीं थे तो प्यार के दो मीठे बोल, एकदूसरे के लिए समय…प्यार और विश्वास का सुरक्षित कवच…वास्तव में प्यार से बनाए मां के हाथ के खाने का स्वाद कैसा होता है, उस ने वहीं जाना.

उन को स्नेहा की एकएक फरमाइश पूरी करते देख, एक बार उस ने पूछा था, ‘आंटी, आप ने स्नेहा को खुद से दूर क्यों किया?’

उन्होंने तब सहज उत्तर दिया था, ‘बेटा, यहां कोई अच्छा स्कूल नहीं है…स्नेहा के भविष्य के लिए हमें यह निर्णय करना पड़ा. स्नेहा इस बात को जानती है अत: इस ने इसे सहजता से लिया.’

घर न आने के लिए मां का फोन आने पर उस ने रूखे स्वर में उत्तर दिया, ‘मैं यहीं अच्छी हूं. आप और पापा ही घूम आओ…मैं नहीं जाऊंगी क्योंकि लौट कर आने के बाद तो आप और पापा फिर नौकरी पर जाने लगोगे और मुझे अकेले ही घर में रहना पडे़गा. मैं यहां स्नेहा के पास ही अच्छी हूं. कम से कम यहां मुझे घर होने का एहसास तो हो रहा है.’

अल्पना का ऐसा व्यवहार देख कर स्नेहा की मां ने अवसर पा कर उसे समझाते हुए कहा, ‘बेटा, तुम मेरी बेटी जैसी हो, मेरी बात का गलत अर्थ मत लगाना…एक बात मैं तुम से कहना चाहती हूं, अपने मातापिता को तुम कभी गलत मत समझना…शायद उन की भी कोई मजबूरी रही होगी जिसे तुम समझ नहीं पा रही हो.’

‘आंटी, अपने बच्चे की परवरिश से ज्यादा एक मातापिता के लिए और भी कुछ जरूरी है?’

‘बेटा, सब की प्राथमिकताएं अलगअलग होती हैं…कोई घरपरिवार के लिए सबकुछ त्याग देता है तो कोई अपने कैरियर को भी जीवन का ध्येय मानते हुए घरपरिवार को सहेजना चाहता है. तुम्हारी मां कैरियर वुमन हैं, उन्हें अपने कैरियर से प्यार है पर इस का यह अर्थ कदापि नहीं कि वह तुम से प्यार नहीं करतीं. मैं जानती हूं कि वह तुम्हें ज्यादा समय नहीं दे पातीं पर क्या उन्होंने तुम्हें किसी बात की कमी होने दी?’

आंटी की बात मान कर अल्पना घर आई तो मां उसे अपने सीने से लगा कर रो पड़ीं. पापा का भी यही हाल था. हफ्ते भर मां छुट्टी ले कर उस के पास ही रहीं…उस से पूछपूछ कर खाना बनाती और खिलाती रहीं.

तब अचानक उस का सारा क्रोध आंखों के रास्ते बह निकला था. तब उसे एहसास हुआ था कि मां की बराबरी कोई नहीं कर सकता…पर जैसे ही उन्होंने आफिस जाना शुरू किया, घर का सूनापन उस के दिलोदिमाग पर फिर से हावी होता गया. अभी छुट्टी के 15 दिन बाकी थे पर लग रहा था जैसे उसे आए हुए वर्षों हो गए हैं.

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शाम को मम्मीपापा के आने पर उन के पास बैठ कर वह ढेरों बातें करना चाहती थी पर कभी फोन की घंटी बज उठती तो कभी कोई आ जाता…कभी मम्मीपापा ही उस की उपस्थिति से बेखबर किसी बात पर झल्ला उठते जिस से घर का माहौल तनावपूर्ण हो उठता. यह सब देख कर मन में विद्रोह फिर पनपने लगा.

वह होस्टल जाने लगी तो ममा ने उस के लिए नई डे्रस खरीदी, जरूरत का अन्य सामान खरीदवाया, यहां तक कि उस की पसंद की खाने की कई तरह की चीजें खरीद कर रखीं, फिर भी न जाने क्यों इन चीजों में उसे मां का प्यार नजर नहीं आया. उस ने सोच लिया जब उन्हें उस से प्यार ही नहीं है, तो वही उन की परवा क्यों करे.

अब फोन आने पर वह ममा से ढंग से बातें नहीं करना चाहती थी…वह कुछ पूछतीं तो बस, हां या हूं में उत्तर देती. उस का रुख देख कर एक बार उस की ममा उस से मिलने भी आईं तो भी पता नहीं क्यों उन से बात करने का मन ही नहीं किया…मानो वह अपने मन के बंद दरवाजे से बाहर निकलना ही नहीं चाह रही हो.

छुट्टियां पड़ीं तो उस ने अपनी वार्डन से वहीं रहने का आग्रह किया. पहले तो वह मानी नहीं पर जब उस ने उन्हें अपनी व्यथा बताई तो उन्होंने उस के मम्मीपापा को सूचना दे कर रहने की इजाजत दे दी.

उस का यह रुख देख कर मम्मीपापा ने आ कर उसे समझाना चाहा तो उस ने साफ शब्दों में कह दिया, ‘घर से तो मुझे यहीं अच्छा लगता है…कम से कम यहां मुझे अपनापन तो मिलता है…मैं यहीं रह कर कोचिंग करना चाहती हूं.’

बुझे मन से वह दोनों वार्डन को उस का खयाल रखने के लिए कह कर चले गए.

कुछ दिन तो वह होस्टल में रही किंतु सूना होस्टल उस के मन के सूनेपन को और बढ़ाने लगा…अब उसे न जाने क्यों किसी से मिलना भी अच्छा नहीं लगता था क्योंकि वह जिस से भी मिलती वही उस के घर के बारे में पूछता और वह अपने घर के बारे में किसी को क्या बताती? अब न उस का पढ़ने में मन लगता और न ही किसी अन्य काम में…यहां तक कि वह क्लास भी मिस करने लगी…नतीजा यह हुआ कि वह फर्स्ट टर्म में फेल हो गई.

विश्वासघात- भाग 2: आखिर क्यों वह विशाल से डरती थी?

शेफाली की आवाज ने नमिता को एक बार फिर विचारों के बवंडर से बाहर निकाला.

‘‘हां, बेटी, बस अभी आई,’’ कहते हुए पर्स में कुछ रुपए यह सोच कर रखे कि मैं बड़ी हूं, आखिर मेरे होते हुए पिक्चर के पैसे वे दें, उचित नहीं लगेगा.

जबरदस्ती पिक्चर के पैसे उन्हें पकड़ाए. पिक्चर अच्छी लग रही थी…कहानी के पात्रों में वह इतना डूब गईं कि समय का पता ही नहीं चला. इंटरवल होने पर उन की ध्यानावस्था भंग हुई. शशांक उठ कर बाहर गया तथा थोड़ी ही देर में पापकार्न तथा कोक ले कर आ गया, शेफाली और उसे पकड़ाते हुए यह कह कर चला गया कि कुछ पैसे बाकी हैं, ले कर आता हूं.

पिक्चर शुरू भी नहीं हो पाई थी कि बच्चा रोने लगा.

‘‘आंटी, मैं अभी आती हूं,’’ कह कर शेफाली भी चली गई…आधा घंटा हुआ, 1 घंटा हुआ पर दोनों में से किसी को भी न लौटते देख कर मन आशंकित होने लगा. थोड़ीथोड़ी देर बाद मुड़ कर देखतीं पर फिर यह सोच कर रह जातीं कि शायद बच्चा चुप न हो रहा हो, इसलिए वे दोनों बाहर ही होंगे.

यही सोच कर नमिता ने पिक्चर में मन लगाने का प्रयत्न किया…अनचाहे विचारों को झटक कर वह फिर पात्रों में खो गईं….अंत सुखद था पर फिर भी आंखें भर आईं….आंखें पोंछ कर इधरउधर देखने लगीं….इस समय भी शशांक और शेफाली को न पा कर वह सहम उठीं.

बहुत दिनों से नमिता अकेले घर से निकली नहीं थीं अत: और भी डर लग रहा था. समझ में नहीं आ रहा था कि वे उन्हें अकेली छोड़ कर कहां गायब हो गए, बच्चा चुप नहीं हो रहा था तो कम से कम एक को तो अब तक उस के पास आ जाना चाहिए…धीरेधीरे हाल खाली होने लगा पर उन दोनों का कोई पता नहीं था.

घबराए मन से वह अकेली ही चल पड़ीं. हाल से बाहर आ कर अपरिचित चेहरों में उन्हें ढूंढ़ने लगीं. धीरेधीरे सब जाने लगे. वह एक ओर खड़ी हो कर सोचने लगीं, अब क्या करूं, उन का इंतजार करूं या आटो कर के चली जाऊं.

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‘‘अम्मां, यहां किस का इंतजार कर रही हो?’’ उन को अकेली खड़ी देख कर वाचमैन ने उन से पूछा.

‘‘बेटा, जिन के साथ आई थी, वह नहीं मिल रहे हैं.’’

‘‘आप के बेटाबहू थे?’’

‘‘हां,’’ कुछ और कह कर वह बात का बतंगड़ नहीं बनाना चाहती थीं.

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‘‘आजकल सब ऐसे ही होते हैं, बूढे़ मातापिता की तो किसी को चिंता ही नहीं रहती,’’ वह बुदबुदा उठा था.

वह शर्म से पानीपानी हो रही थीं पर और कोई चारा न देख कर तथा उस की सहानुभूति पा कर हिम्मत बटोर कर बोलीं, ‘‘बेटा, एक एहसान करोगे?’’

‘‘कहिए, मांजी.’’

‘‘मुझे एक आटोरिकशा में बिठा दो.’’

उस ने नमिता का हाथ पकड़ कर सड़क पार करवाई और आटो में बिठा दिया. घर पहुंच कर आटो से उतर कर जैसे ही उन्होंने दरवाजे पर लगे ताले को खोलने के लिए हाथ बढ़ाया तो खुला ताला देख कर हैरानी हुई…हड़बड़ा कर अंदर घुसीं तो देखा अलमारी खुली पड़ी है तथा सारा सामान जहांतहां बिखरा पड़ा है. लाखों के गहने और कैश गायब था…मन कर रहा था कि खूब जोरजोर से रोएं पर रो कर भी क्या करतीं.

नमिता को शुरू से ही गहनों का शौक था. जब भी पैसा बचता उस से वह गहने खरीद लातीं…विशाल कभी उन के इस शौक पर हंसते तो कहतीं, ‘मैं पैसा व्यर्थ नहीं गंवा रही हूं…कुछ ठोस चीज ही खरीद रही हूं, वक्त पर काम आएगा,’ पर वक्त पर काम आने के बजाय वह तो कोई और ही ले भागा.’

किटी के मिले 20 हजार रुपए उस ने अलग से रख रखे थे. घर में कुछ काम करवाया था, कुछ होना बाकी था, उस के लिए विशाल ने 40 हजार रुपए बैंक से निकलवाए थे पर निश्चित तिथि पर लेने ठेकेदार नहीं आया सो वह पैसे भी अंदर की अलमारी में रख छोडे़ थे…सब एक झटके में चला गया.

जहां कुछ देर पहले तक वह शशांक और शेफाली को ले कर परेशान थीं वहीं अब इस नई मुसीबत के कारण समझ नहीं पा रही थीं कि क्या करें, पर फिर यह सोच कर कि शायद बच्चे के कारण शशांक और शेफाली अधूरी पिक्चर छोड़ कर घर न आ गए हों, उन्हें आवाज लगाई. कोई आवाज न पा कर  वह उस ओर गईं, वहां उन का कोई सामान न पा कर अचकचा गईं…खाली घर पड़ा था…उन का दिया पलंग, एक टेबल और 2 कुरसियां पड़ी थीं.

अब पूरी तसवीर एकदम साफ नजर आ रही थी. कितना शातिर ठग था वह…किसी को शक न हो इसलिए इतनी सफाई से पूरी योजना बनाई…उसे पिक्चर दिखाने ले जाना भी उसी योजना का हिस्सा था, उसे पता था कि विशाल घर पर नहीं हैं, इतनी गरमी में कूलर की आवाज में आसपड़ोस में किसी को कुछ सुनाई नहीं देगा और वह आराम से अपना काम कर लेंगे तथा भागने के लिए भी समय मिल जाएगा.

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पिक्चर देखने का आग्रह करना, बीच में उठ कर चले आना…सबकुछ नमिता के सामने चलचित्र की भांति घूम रहा था…कहीं कोई चूक नहीं, शर्मिंदगी या डर नहीं…आश्चर्य तो इस बात का था कि इतने दिन साथ रहने के बावजूद उसे कभी उन पर शक नहीं हुआ.

उन्होंने खुद को संयत कर विशाल को फोन किया और फोन पर बतातेबताते वह रोने लगी थीं. उन्हें रोता देख कर विशाल ने सांत्वना देते हुए पड़ोसी वर्मा के घर जा कर सहायता मांगने को कहा.

वह बदहवास सी बगल में रहने वाली राधा वर्मा के पास गईं. राधा को सारी स्थिति से अवगत कराया तो वह बोलीं, ‘‘कुछ आवाजें तो आ रही थीं पर मुझे लगा शायद आप के घर में कुछ काम हो रहा है, इसलिए ध्यान नहीं दिया.’’

‘‘अब जो हो गया सो हो गया,’’ वर्मा साहब बोले, ‘‘परेशान होने या चिंता करने से कोई फायदा नहीं है. वैसे तो चोरी गया सामान मिलता नहीं है पर कोशिश करने में कोई हर्ज नहीं है. चलिए, एफ.आई.आर. दर्ज करा देते हैं.’’

सत्य असत्य- भाग 4: क्या था कर्ण का असत्य

निशा सामान्य भाव से अपने बाल संवारती रही. फिर उस ने जल्दी से पर्स उठाया. मैं असमंजस में थी कि क्या उस ने पिताजी की बात नहीं सुनी? उस ने मेज पर लगा अपना नाश्ता खाया और बाहर निकल गई.

निशा के जाने के बाद पिताजी बोले, ‘‘देखो कर्ण, जिस से प्यार करते हो, जिस से दोस्ती होने का दम भरते हो, कम से कम उस के प्रति तो ईमानदार रहो. प्यार करते हो तो आगे बढ़ कर उस से कहो. दोस्त से दोस्ती निभाना चाहते हो तो अपने अहं को थोड़ा सा अलग रखना सीखो. मन में कुछ मैल आ गया है, कुछ गलत देखसुन लिया है तो झट से कह कर सचाई की तह तक जाओ. मन ही मन किसी कहानी को जन्म मत दो. अब विजय की बात ही सुन लो. मैं उस से एक बार भी नहीं मिला. तुम से झूठ ही कहता रहा और तुम उस पर क्रोध करते हुए उस से नाराज भी हो गए. अगर खुद ही बात कर ली होती तो मेरा झूठ कब का खुल गया होता. मगर नहीं, तुम तो अपनी ही अकड़ में रहे न.’’

‘‘जी,’’ भैया के साथसाथ मैं भी हैरान रह गई.

‘‘निशा से प्यार करते हो तो उसे साफसाफ सब बता दो.’’

करीब 4 बजे निशा आई. मुंहहाथ धो कर रसोई में जाने लगी, तभी पिताजी ने पूरी कहानी निशा को सुना दी, जिसे वह चुपचाप सुनती रही. हम सांस रोके उस की प्रतिक्रिया का इंतजार करते रहे. शायद सुबह उस ने सुना न हो, मैं यह खुशफहमी पाले बैठी थी.

‘‘बेटी, क्या तुम यह सब जानती थीं?’’ पिताजी उस की तटस्थता पर हैरान रह गए.

निशा ने ‘हां’ में गरदन हिला दी.

‘‘तुम्हें कैसे पता चला?’’ पिताजी उठ कर उस के पास गए तो निशा एकाएक रो पड़ी, फिर संभलते हुए बोली, ‘‘उस दिन जब मैं घर की सफाई कर के लौटी थी…’’ इतना कह कर वह रोने लगी तो पिताजी उठ कर बाहर चले गए. उस के बाद किसी ने उस से कोई बात न की.

थोड़ी देर बाद मुझे निशा की आवाज सुनाई दी, ‘‘गीता, मैं सुबह अपने घर चली जाऊं?’’

मैं ने चौंक कर उस की ओर देखा तो वह बोली, ‘‘अब नौकरी मिल गई है न. और फिर जब जीना है तो अकेले रहने की आदत तो डालनी ही होगी. यहां कब तक रहूंगी?’’

शीघ्र ही उस ने अटैची और बैग तैयार कर लिया और बोली, ‘‘मैं जाती हूं. चाचाजी से मिल कर जाने की हिम्मत नहीं है. वे आएं तो बता देना.’’

मैं ने भैया को पुकारना चाहा कि उसे वे जा कर छोड़ आएं, परंतु निशा ने मना कर दिया. शायद वह भैया की सूरत भी नहीं देखना चाहती थी. रोते हुए उस ने अटैची उठाई और भारी बैग कंधे पर लादे चुपचाप चली गई. अवरुद्ध कंठ से मैं कुछ भी न कह पाई.

निशा के जाने के बाद पिताजी उदास से रहने लगे थे. मगर जो हालात बन गए थे, उन में वे कुछ नहीं कर सकते थे. उस रात मुझे नींद नहीं आई. अलमारी सहेजने लगी तो निशा के घर की दूसरी चाबी हाथ लग गई.

मैं ने वह चाबी भैया के सामने रख दी और कहा, ‘‘अभी तक सोए नहीं?’’

वे सूनीसूनी आंखों से मुझे निहारते रहे.

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‘‘जाओ, निशा को ले आओ. अधिकार से हाथ पकड़ कर, क्षमा मांग कर. जैसे भी आप को अच्छा लगे. यह उस के घर की चाबी है.’’

‘‘क्या पागल हो गई हो?’’

‘‘मैं भी साथ चलती हूं. उस से क्षमा मांग लेना. उसे अपने प्यार का विश्वास दिलाना.’’

‘‘बस गीता, बस. अब और नहीं,’’ भैया ने डबडबाई आंखों से मेरी ओर देखा.

इसी तरह 3 हफ्ते बीत गए. एक शाम मां ने भैया से कहा, ‘‘कर्ण, कहीं तुम्हारी शादी की बात चलाएं?’’

‘‘नहीं, मैं शादी नहीं करूंगा.’’

तभी पिताजी बोल उठे, ‘‘अच्छी बात है, मत करना शादी, मगर मेरा एक काम जरूर करना. अगर मुझे कुछ हो गया तो कम से कम अपनी बहन का ब्याह जरूर कर देना.’’

रात को मां की आवाज सुनाई दी. ‘‘निशा कैसी रूखी है, जब से गई है, एक बार फोन तक भी नहीं किया.’’

‘‘तो क्या तुम उस से मिलने गईं? इन दोनों में से कोई एक भी गया उसे देखने?’’ पिताजी ऊंची आवाज में बोले, ‘‘किसी दूसरे से अपेक्षा करना बहुत आसान है, कभी अपना दायित्व भी सोचा है तुम लोगों ने?’’

सुबहसुबह पिताजी के स्वर ने मुझे चौंका दिया, ‘‘गीता, कर्ण कहां है? उस की मोटरसाइकिल भी नहीं है. कहीं गया है क्या?’’

‘‘मैं हड़बड़ा कर उठी. लपक कर देखा, अलमारी में वह चाबी भी नहीं थी. मन एक आशंका से कांप उठा कि भैया कहीं निशा का कुछ अनिष्ट न कर बैठें.’’

पिताजी ने चिंतित स्वर में पूछा, ‘‘वह कहां गया है. तुम से कुछ कहा?’’

‘‘कहा तो नहीं, पर हो सकता है, निशा के पास…,’’ मैं ने उन से पूरी बात कह दी.

औटो से हम निशा के घर पहुंचे. वहां भैया की मोटरसाइकिल भी दिखाई न दी. धड़कते दिल से द्वार की घंटी बजा दी. हम कितनी ही देर खड़े रहे, पर द्वार नहीं खुला. पड़ोसी सुरेंद्र साहब का द्वार खटखटाया तो उन्होंने जो सुनाया, वह अप्रत्याशित था, ‘‘निशा तो महीनाभर हुआ सबकुछ छोड़छाड़़ कर चली भी गई. उस के चाचा उसे लेने आए थे.’’

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हम पितापुत्री चिंतित खड़े रह गए. फौरन घर वापस चले आए. भैया लुटेपिटे से सामने ही बैठे थे.

सोच का विस्तार- भाग 3: जब रिया ने सुनाई अपनी आपबीती

Writer- वीना त्रेहन

रात भर रिया खुद को कोस सिसकती रही और मौसी उस का सिर थपथपा तसल्ली देती रहीं. सुबह नाश्ते के बाद जारेद निधि को ले उस की डाक्टर अपौइंटमैंट पर चला गया. मौसी ने रिया को समझाया कि अच्छा होगा तुम अमन को तलाक दे नई जिंदगी की शुरुआत करो. मैं तुम्हारे मम्मीपापा से पूरी बात करूंगी. जारेद तुम्हारी पूरी मदद करेंगे.

निधि ने बेटी को जन्म दिया. नाम रखा जूली. छोटी बच्ची के आने से सब व्यस्त हो गए. इसी बीच रिया ने मम्मीपापा से बात कर उन्हें पूरी बात बता दी. सब की सलाह से तलाक के पेपर फाइल करवा दिए गए. जूली के 2 हफ्ते का होते ही आज जो व्यक्ति उन्हें घर बधाई देने आया उसे जारेद का कजन विलियम बताया गया. निधि उस से बातें करती रही. जूली नानी की गोद में सो रही थी. नाश्ते का प्रबंध रिया ने ही किया. जब जारेद बाहर से लौटे तो सब बातें करने लगे पर रिया चुप. क्या बात करे अनजाने आदमी से.

उस के जाते ही निधि ने विलियम के बारे में बताया कि पिछले साल कार ऐक्सीडैंट में पत्नी का देहांत हो गया था. अब उस की ढाई साल की बेटी की दादी, जो एक नर्स हैं, देखभाल कर रही हैं. विली यानी विलियम अकेला रहता है और आंटी उस का जल्दी ब्याह करना चाहती हैं. जारेद बीच में ही बोल पड़े कि विली बहुत अच्छा इंसान है. यदि रिया तुम उस की बेटी को अपनाने को तैयार हो तो तुम्हें उस से अच्छा साथी नहीं मिलेगा.

रिया बात पूरी सुन अपने कमरे में चली गई. क्या… 1 साल में ही शादी, तलाक, दूसरी शादी और एक बच्ची की मां. सोचतेसोचते उस का सिर घूमने लगा. चूंकि निधि भी रिया के पीछे आ गई, इसलिए उसे बेहोश होते देखा तो पकड़ कर कुरसी पर बैठा दिया. उस रात मौसी रिया के साथ सोईं.

दिखावे को रिया सो रही थी पर उस की आंखें जैसे कोई चलचित्र देख रही हों… मम्मीपापा की परेशानी, दादी की फटकार, अमन सलाखों के पीछे, विली की उस की ओर देखती आंखें, मौसी की सलाह और अचानक वह घबराहट से उठ बैठी.

मौसी ने पूछा कि क्या कोई सपना देख रही थी. सपना कहां यह तो उस की जीतीजागती कहानी है. अब रिया को स्वयं इस कहानी का अंत तलाशना है.

निधि से रिया ने 2 दिन का समय मांगा.

2 दिन बाद कठोर दिल कर उत्तर दिया कि ठीक है जैसे जारेद जीजू सोचें मुझे मंजूर है. इसी इतवार विली उस की बेटी काइरा और मां रिया से मिलने आईं. रिया किचन में नाश्ते का इंतजाम करने गई तो विली मदद करने पहुंचा. बोला कि रिया प्लीज नो प्रैशर, इफ यू ऐग्री आई प्रौमिस टू कीप यू आलवेज हैप्पी. रिया ने उस की ओर देख सिर हिलाया जैसे वह उस की कही बात से सहमत हो. उसी रात फिर फोन कर निधि के कहने पर रिया ने अपने मम्मीपापा को सहमति बताई, पर साथ ही सारी बात दादी को बताने पर जोर दिया.

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2 दिन बाद शाम को विली बेटी काइरा को ले निधि के घर पहुंचा. अकेले में रिया से मिलते हुए उस ने कहा कि वह उस के साथ इंडिया जा उस की फैमिली से मिल उन्हें पूरा विश्वास दिलाना चाहता है कि सब ठीक होगा और हां वह काइरा को भी साथ ले जाएगा.

जाने का दिन तय हुआ. जाने वाले दिन रिया को बड़ा अजीब सा लग रहा था. अभी बिना बने रिश्ते के आदमी व बच्चे के साथ यात्रा करना. प्लेन में रिया काइरा से ऐसे जुड़ गई जैसे वह उसी की बच्ची हो. उस के साथ बातें करते, खिलाते, सुलाते एक संबंध सा जुड़ गया.

एअरपोर्ट पर अकेले पापा आए. बेटी और विली को गले लगाया

और फिर बच्ची को गोद ले कर कार में बैठाया. घर पहुंच अंदर जाते ही रिया सीधी दादी के कमरे में पहुंची और उन की गोद में सिर रख सुबकसुबक कर देर तक रोती रही. दादी प्यार से सिर सहला उसे शांत रहने को कहती रहीं.

विली ने आगे बढ़ मां के चरण स्पर्श किए. वह ये सब यहां आने से पहले निधि से जान गया था. थोड़ा समय बीता तो दादी ने रिया को उसे बुलाने को कहा यानी विली से मिलना चाहा. विली ने दादी के सामने माथा टेका. यह देख रिया हैरान हुई.

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दादी ने उस के सिर पर हाथ रखते कहा कि मेरी रिया को सदा खुश रखना, सुखी रहो. दरवाजे की आड़ में काइरा को गोदी में उठाए रेखा यह देख रो पड़ीं जिस सास ने सारी उम्र छूतछात, वहमों, नियमों में अपने को बांधे रखा आज एकाएक सब भूल एक विदेशी मांसाहारी को आशीर्वाद दे रही हैं.

शायद उन की सोच का विस्तार तब हुआ था जब रिया ने फोन कर दादी को सारी बात सच बताने पर जोर दिया था. बेटे सुरेश से रिया के दुख, अमन की हरकतें, जेल जाने और अब तलाक का जान मां दुखी हो बोली थीं कि मेरी फूल सी पोती को इतनी यातना देने वाला तो राक्षस निकला. अब जेल में पड़ा सड़ता रहेगा. सुरेशजी ने मां को समझाया एक इंसान का अच्छा होना धर्मजाति पर नहीं उस के व्यवहार पर निर्भर होता है.

अब और नहीं- भाग 2: आखिर क्या करना चाहती थी दीपमाला

Writer- ममता रैना

पहले भूपेश औफिस से घर जल्दी आता था तो दोनों साथ में खाना खाते, अब देर रात तक दीपमाला उस का इंतजार करती रहती और फिर अकेली ही खा कर सो जाती. कुछ दिनों से भूपेश के रंगढंग बदल गए थे. औफिस में भी सजधज कर जाता. उधर इन सब बातों से बेखबर दीपमाला नन्हें मेहमान की कल्पना में डूबी रहती. उस की दुनिया सिमट कर छोटी हो गई थी.

एक रोज धोने के लिए कपड़े निकालते वक्त उसे भूपेश की पैंट की जेब से फिल्म के 2 टिकट मिले. उसे थोड़ी हैरानी हुई. भूपेश फिल्मों का शौकीन नहीं था. कभी कोई अच्छी फिल्म लगी होती तो दीपमाला ही जबरदस्ती उसे खींच ले जाती.

उस ने भूपेश से इस बारे में पूछा. टिकट की बात सुन कर वह कुछ सकपका गया. फिर तुरंत संभल कर उस ने बताया कि औफिस के एक सहकर्मी के कहने पर वह चला गया था. बात आईगई हो गई.

इस बात को कुछ ही दिन बीते थे कि एक दिन भूपेश के बटुए में दीपमाला को सुनार की दुकान की एक परची मिली. शंकित दीपमाला ने भूपेश के घर लौटते ही उस पर सवालों की बौछार कर दी.

उपासना को जन्मदिन में देने के लिए भूपेश ने एक गोल्ड रिंग बुक करवाई थी, लेकिन किसी शातिर अपराधी की तरह भूपेश उस दिन सफेद झूठ बोल गया. अपने होने वाले बच्चे का वास्ता दे कर.

उस ने दीपमाला को यकीन दिला दिया कि उस के दोस्त ने अपनी पत्नी को सरप्राइज देने के लिए ही परची उस के पास रखवाई है. इस घटना के बाद से भूपेश कुछ सतर्क रहने लगा. अपनी जेब में कोई सुबूत नहीं छोड़ता था.

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दीपमाला की डिलीवरी का समय नजदीक था. भूपेश ने उस के जाने का इंतजाम कर दिया. दीपमाला अपनी मां के घर चली आई. अपने मायके पहुंचने के कुछ दिन बाद ही दीपमाला ने एक बेटे को जन्म दिया. उस की खुशी का ठिकाना नहीं था. उस के दिनरात नन्हे अंशुल के साथ बीतने लगे. 4 दिन दीपमाला और बच्चे के साथ रह कर भूपेश औफिस में जरूरी काम की बात कह कर लौट आया. दीपमाला के न रहने पर वह अब बिलकुल आजाद पंछी था. उस की और उपासना की प्रेमलीला परवान चढ़ रही थी. औफिस में लोग उन के बारे में दबीछिपी बातें करने लगे थे, मगर भूपेश को अब किसी की परवाह नहीं थी. वह हर हालत में उपासना का साथ चाहता था.

कुछ महीने बीते तो दीपमाला ने भूपेश को फोन कर के बताया कि वह अब घर आना चाहती है. जवाब में भूपेश ने दीपमाला को कुछ दिन और आराम करने की बात कही. दीपमाला को भूपेश की बात कुछ जंची नहीं, मगर उस के कहने पर वह कुछ दिन और रुक गई. 3 महीने बीतने को आए, मगर भूपेश उसे लेने नहीं आया तो उस ने भूपेश को बताए बिना खुद ही आने का फैसला कर लिया.

दरवाजे की घंटी पर बड़ी देर तक हाथ रखने पर भी जब दरवाजा नहीं खुला तो दीपमाला को फिक्र होने लगी. ‘आज इतवार है. औफिस नहीं गया होगा. दरवाजे पर ताला भी नहीं है. इस का मतलब कहीं बाहर भी नहीं गया है. तो फिर इतनी देर क्यों लग रही है उसे दरवाजा खोलने में?’ वह सोचने लगी.

कंधे पर बैग उठाए और एक हाथ से बच्चे को गोद में संभाले वह अनमनी सी खड़ी थी कि खटाक से दरवाजा खुला.

एक बिलकुल अनजान लड़की को अपने घर में देख दीपमाला हैरान रह गई. वह कुछ पूछ पाती उस से पहले ही उपासना बिजली की तेजी से वापस अंदर चली गई. भूपेश ने दीपमाला को यों इस तरह अचानक देखा तो उस की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. उस के माथे पर पसीना आ गया.

उस का घबराया चेहरा और घर में एक पराई औरत को अपनी गैरमौजूदगी में देख दीपमाला का माथा ठनका. गुस्से में दीपमाला की त्योरियां चढ़ गईं. पूछा, ‘‘कौन है यह और यहां क्या कर रही है तुम्हारे साथ?’’

भूपेश अपने शातिर दिमाग के घोड़े दौड़ाने लगा. उपासना उस के मातहत काम करती है, यह बताने के साथ ही उस ने दीपमाला को एक झूठी कहानी सुना डाली कि किस तरह उपासना इस शहर में नई आई है. रहने की कोई ढंग की जगह न मिलने की वजह से वह उस की मदद इंसानियत के नाते कर रहा है.

‘‘तो तुम ने यह मुझे फोन पर क्यों नहीं बताया? तुम ने मुझ से पूछना भी जरूरी नहीं समझा कि हमारे साथ कोई रह सकता है या नहीं?’’

‘‘यह आज ही तो आई है और मैं तुम्हें बताने ही वाला था कि तुम ने आ कर मुझे चौंका दिया. और देखो न मुझे तुम्हारी और मुन्ने की कितनी याद आ रही थी,’’ भूपेश ने उस की गोद से ले कर अंशुल को सीने से लगा लिया. दीपमाला का शक अभी भी दूर नहीं हुआ कि तभी उपासना बेहद मासूम चेहरा बना कर उस के पास आई.

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‘‘मुझे माफ कर दीजिए, मेरी वजह से आप लोगों को तकलीफ हो रही है. वैसे इस में इन की कोई गलती नहीं है. मेरी मजबूरी देख कर इन्होंने मुझे यहां रहने को कहा. मैं आज ही किसी होटल में चली जाती हूं.’’

‘‘इस शहर में बहुत से वूमन हौस्टल भी तो हैं, तुम ने वहां पता नहीं किया?’’ दीपमाला बोली.

‘‘जी, हैं तो सही, लेकिन सब जगह किसी जानपहचान वाले की गारंटी चाहिए और यहां मैं किसी को नहीं जानती.’’

भूपेश और उपासना अपनी मक्कारी से दीपमाला को शीशे में उतारने में कामयाब हो गए. दीपमाला उन दोनों की तरह चालाक नहीं थी. उपासना के अकेली औरत होने की बात से उस के दिल में थोड़ी सी हमदर्दी जाग उठी. उन का गैस्टरूम खाली था तो उस ने उपासना को कुछ दिन रहने की इजाजत दे दी.

भूपेश की तो जैसे बांछें खिल गईं. एक ही छत के नीचे पत्नी और प्रेमिका दोनों का साथ उसे मिल रहा था. वह अपने को दुनिया का सब से खुशनसीब मर्द समझने लगा.

दीपमाला के आने के बाद भूपेश और उपासना की प्रेमलीला में थोड़ी रुकावट तो आई पर दोनों अब होशियारी से मिलतेजुलते. कोशिश होती कि औफिस से भी अलगअलग समय पर निकलें ताकि किसी को शक न हो. दीपमाला के सामने दोनों ऐसे पेश आते जैसे उन का रिश्ता सिर्फ औफिस तक ही सीमित हो.

दीपमाला घर की मालकिन थी तो हर काम उस की मरजी से होता था. थोड़े ही अंतराल बाद उपासना उस की स्थिति की तुलना खुद से करने लगी थी. उस के तनमन पर भूपेश अपना हक जताता था, मगर उन का रिश्ता कानून और समाज की नजरों में नाजायज था. औफिस में वह सब के मनोरंजन का साधन थी, सब उस से चुहल भरे लहजे में बात करते, उन की आंखों में उपासना को अपने लिए इज्जत कम और हवस ज्यादा दिखती थी.

समाज में पत्नी का दर्जा क्या होता है, भूपेश और दीपमाला के साथ रहते हुए उसे इस बात का अंदाजा हो गया था. दीपमाला की जो जगह उस घर में थी वह जगह अब उपासना लेना चाहती थी. वह सोचने लगी आखिर कब तक वह भूपेश की खेलने की चीज बन कर रहेगी. कभी न कभी तो भूपेश इस खिलौने से ऊब जाएगा. उपासना को अब अपने भविष्य की चिंता होने लगी.

दो कदम तन्हा- भाग 3: अंजलि ने क्यों किया डा. दास का विश्वास

Writer- डा. पी. के. सिंह 

बालक ने नकरात्मक भाव से सिर हिलाया तो डा. दास ने पूछा, ‘‘लस्सी पीओगे?’’

‘‘नो…नथिंग,’’ बालक को नदी का दृश्य अधिक आकर्षित कर रहा था.

चाय पी कर डा. दास ने सिगरेट का पैकेट निकाला.

अंजलि ने पूछा, ‘‘सिगरेट कब से पीने लगे?’’

डा. दास ने चौंक कर अपनी उंगलियों में दबी सिगरेट की ओर देखा, मानो याद नहीं, फिर उन्होंने कहा, ‘‘इंगलैंड से लौटने के बाद.’’

अंजलि के चेहरे पर उदासी का एक साया आ कर निकल गया. उस ने निगाहें नीची कर लीं. इंगलैंड से आने के बाद तो बहुत कुछ खो गया, बहुत सी नई आदतें लग गईं.

अंजलि मुसकराई तो चेहरे पर स्वच्छ प्रकाश फैल गया. किंतु डा. दास के मन का अंधकार अतीत की गहरी परतों में छिपा था. खामोशी बोझिल हो गई तो उन्होंने पूछा, ‘‘मृणालिनी कहां है?’’

‘‘इंगलैंड में. वह तो वहीं लीवरपूल में बस गई है. अब इंडिया वापस नहीं लौटेगी. उस के पति भी डाक्टर हैं. कभीकभी 2-3 साल में कुछ दिन के लिए आती है.’’

‘‘तभी तो…’’

‘‘क्या?’’

‘‘कुछ भी नहीं, ब्रिलियंट स्टूडेंट थी. अच्छा ही हुआ.’’

मृणालिनी अंजलि की चचेरी बहन थी. उम्र में उस से बड़ी. डा. दास से वह मेडिकल कालिज में 2 साल जूनियर थी.

डा. दास फाइनल इयर में थे तो वह थर्ड इयर में थी. अंजलि उस समय बी.ए. इंगलिश आनर्स में थी.

अंजलि अकसर मृणालिनी से मिलने महिला होस्टल में आती थी और उस से मिल कर वह डा. दास के साथ घूमने निकल जाती थी. कभी कैंटीन में चाय पीने, कभी घाट पर सीढि़यों पर बैठ कर बातें करने, कभी बोटिंग करने.

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डा. दास की पहली मुलाकात अंजलि से सरस्वती पूजा के फंक्शन में ही हुई थी. वह मृणालिनी के साथ आई थी. डा. दास गंभीर छात्र थे. उन्हें किसी भी लड़की ने अपनी ओर आकर्षित नहीं किया था, लेकिन अंजलि से मिल कर उन्हें लगा था मानो सघन हरियाली के बीच ढेर सारे फूल खिल उठे हैं और उपवन में हिरनी अपनी निर्दोष आंखों से देख रही हो, जिसे देख कर आदमी सम्मोहित सा हो जाता है.

फिर दूसरी मुलाकात बैडमिंटन प्रतियोगिता के दौरान हुई और बातों की शुरुआत से मुलाकातों का सिलसिला शुरू हुआ. वह अकसर शाम को पटना कालिज में टेनिस खेलने जाते थे. वहां मित्रों के साथ कैंटीन में बैठ कर चाय पीते थे. वहां कभीकभी अंजलि से मुलाकात हो जाती थी. जाड़ों की दोपहर में जब क्रिकेट मैच होता तो दोनों मैदान के एक कोने में पेड़ के नीचे बैठ कर बातें करते.

मृणालिनी ने दोनों की नजदीकियों को देखा था. उसे कोई आपत्ति नहीं थी. डा. दास अपनी क्लास के टापर थे, आकर्षक व्यक्तित्व था और चरित्रवान थे.

बालक के लिए अब गंगा नदी का आकर्षण समाप्त हो गया था. उसे बाजार और शादी में आए रिश्तेदारों का आकर्षण खींच रहा था. उस ने अंजलि के पास आ कर कहा, ‘‘चलो, ममी.’’

‘‘चलती हूं, बेटा,’’ अंजलि ने डा. दास की ओर देखा, ‘‘चश्मा लगाना कब से शुरू किया?’’

‘‘वही इंगलैंड से लौटने के बाद. वापस आने के कुछ महीने बाद अचानक आंखें कमजोर हो गईं तो चश्मे की जरूरत पड़ गई,’’ डा. दास गंगा की लहरों की ओर देखने लगे.

अंजलि ने अपनी दोनों आंखों को हथेलियों से मला, मानो उस की आंखें भी कमजोर हो गई हैं और स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा है.

‘‘शादी कब की? वाइफ क्या करती है?’’

डा. दास ने अंजलि की ओर देखा, कुछ जवाब नहीं दिया, उठ कर बोले, ‘‘चलो.’’

मैदान की बगल वाली सड़क पर चलते हुए गेट के पास आ कर दोनों ठिठक कर रुक गए. दोनों ने एकदूसरे की ओर देखा, अंदर से एकसाथ आवाज आई, याद है?

मैदान के अंदर लाउडस्पीकर से गाने की आवाज आ रही थी. गालिब की गजल और तलत महमूद की आवाज थी :

‘‘आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक…’’

तलत महमूद पटना आए थे.

डा. घोषाल ने रवींद्र भवन में प्रोग्राम करवाया था. उस समय रवींद्र भवन पूरा नहीं बना था. उसी को पूरा करने के लिए फंड एकत्र करने के लिए चैरिटी शो करवाया गया था. बड़ी भीड़ थी. ज्यादातर लोग खड़े हो कर सुन रहे थे. तलत ने गजलों का ऐसा समा बांधा था कि समय का पता ही नहीं चला.

डा. दास और अंजलि को भी वक्त का पता नहीं चला. रात काफी बीत गई. दोनों रिकशा पकड़ कर घबराए हुए वापस लौटे थे. डा. दास अंजलि को उस के आवास तक छोड़ने गए थे. अंजलि के मातापिता बाहर गेट के पास चिंतित हो कर इंतजार कर रहे थे. डा. दास ने देर होने के कारण माफी मांगी थी. लेकिन उस रात को पहली बार अंजलि को देर से आने के लिए डांट सुननी पड़ी थी और उस के मांबाप को यह भी पता लग गया कि वह डा. दास के साथ अकेली गई थी. मृणालिनी या उस की सहेलियां साथ में नहीं थीं.

हालांकि दूसरे दिन मृणालिनी ने उन्हें समझाया था और डा. दास के चरित्र की गवाही दी थी तब जा कर अंजलि के मांबाप का गुस्सा थोड़ा कम हुआ था किंतु अनुशासन का बंधन थोड़ा कड़ा हो गया था. मृणालिनी ने यह भी कहा था कि डा. दास से अच्छा लड़का आप लोगों को कहीं नहीं मिलेगा. जाति एक नहीं है तो क्या हुआ, अंजलि के लिए उपयुक्त मैच है. लेकिन आजाद खयाल वाले अभिभावकों ने सख्ती कम नहीं की.

बालक ने अंजलि का हाथ पकड़ कर जल्दी चलने का आग्रह किया तो उस ने डा. दास से कहा, ‘‘ठीक है, चलती हूं, फिर आऊंगी. कल तो नहीं आ सकती, शादी है, परसों आऊंगी.’’

‘‘परसों रविवार है.’’

‘‘ठीक तो है, घर पर आ जाऊंगी. दोपहर का खाना तुम्हारे साथ खाऊंगी. बहुत बातें करनी हैं. अकेली आऊंगी,’’ उस ने बेटे की ओर इशारा किया, ‘‘यह तो बोर हो जाएगा. वैसे भी वहां बच्चों में इस का खूब मन लगता है. पूरी छुट्टी है, डांटने के लिए कोई नहीं है.’’

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डा. दास ने केवल सिर हिलाया. अंजलि कुछ आगे बढ़ कर रुक गई और तेजी से वापस आई. डा. दास वहीं खड़े थे. अंजलि ने कहा, ‘‘कहां रहते हो? तुम्हारे घर का पता पूछना तो भूल ही गई?’’

‘‘ओ, हां, राजेंद्र नगर में.’’

‘‘राजेंद्र नगर में कहां?’’

‘‘रोड नंबर 3, हाउस नंबर 7.’’

‘‘ओके, बाय.’’

छोटी छोटी खुशियां- भाग 2: शादी के बाद प्रताप की स्थिति क्यों बदल गई?

Writer- वीरेंद्र सिंह

आनंद मामा ने बिरादरी के न जाने कितने लड़केलड़कियों की शादियां कराई थीं. इसलिए किसी भी लड़की के लिए लड़के वालों को कैसे पटाया जाता है, यह उन्हें अच्छी तरह आता था. ‘लड़की में कोई कमी नहीं है,’ मामा ने बताया था, ‘बस, स्वभाव से थोड़ा गरम है और बोलती भी कुछ ज्यादा है. अपना प्रताप तो सीधासादा और चुप्पा है. इसलिए उस के साथ आराम से निभ जाएगी. जिंदगी गुजारने के लिए एक का थोड़ा गरम होना जरूरी है. दोनों ही एक तरह के हो जाएंगे तो सबकुछ बंटाधार हो जाएगा. जिस का मन होगा, वही बेवकूफ बना देगा.’

प्रताप के मांबाप ने हां में सिर हिलाया तो आनंद ने आगे कहा, ‘देखो न, अरविंद दिल्ली में कब से रह रहा है.’ प्रताप के बड़े भाई का उल्लेख करते हुए वे असली मुद्दे पर आ गए, ‘हाड़तोड़ मेहनत कर के 15 साल में भी वह इस तरह का एक घर नहीं बना सका, जिस में दोनों भाई साथसाथ रह लेते. यह तो 4 भाइयों की अकेली बहन है. उस से शादी होते ही प्रताप की स्थिति बदल जाएगी.

फिर सचमुच ही शादी के बाद उस की स्थिति बदल गई थी. ससुर ने सुधा को जो फ्लैट दिया था, सुधा प्रताप को उस में पालतू पिल्ले की तरह ले आई थी. ससुराल से मिले फ्लैट में पूरी तरह से व्यवस्थित हो जाने के बाद प्रताप ने मांबाप को गांव से बुला लिया था. उन के आने के 2 दिन बाद ही सुधा ने घर का माहौल भारी बना दिया था. बातबात में वह प्रताप के मांबाप का अपमान करते हुए अपना वर्चस्व कायम करने का प्रयास कर रही थी.

अगले दिन ही शाम को उस के मांबाप के सामने सुधा ने प्रताप को आड़े हाथों ले लिया था. बात कोई खास नहीं थी फिर भी वह प्रताप का अपमान करते हुए धमका रही थी. यह देख कर प्रताप की मां का खून खौल उठा था. उन्होंने सुधा को सलाह दी कि पति के साथ ऐसा व्यवहार शोभा नहीं देता.

सुधा तो जैसे इसी बात का इंतजार कर रही थी. प्रताप को छोड़ कर वह सास पर बरस पड़ी. सात पीढ़ी तक को तारतार कर दिया था. जब तक यह महाभारत चलता रहा, प्रताप की मां की आंखों से आंसू बहते रहे. पिताजी स्थितिप्रज्ञ बने माला फेरने का दिखावा करते रहे. प्रताप की धड़कन बढ़ गई थी. पूरा शरीर पसीनेपसीने हो गया था. मन कर रहा था कि वह सुधा की चोटी पकड़ कर उसे जमीन पर पटक दे. परंतु वह ऐसा नहीं कर सका क्योंकि ऐसा उस के स्वभाव में नहीं था. दोनों हाथों से सिर थामे वह चुपचाप बैठा रहा.

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पिताजी थोड़ी देर बाद उठे और पत्नी की ओर देख कर बोले, ‘प्रताप, एक गिलास पानी ला.’

उन की आवाज में नाराजगी और लाचारी का मिश्रण था. उन की उपस्थिति में बेटे की तकलीफें और बढ़ेंगी, यह समझने की सूझबूझ उन में थी. यहां रह कर बेटे की लाचारी देख कर दुखी होने के बजाय गांव में परेशानी सह कर रह लेना उन्हें उचित लगा. पैसे वाली बहू लाने के लालच में उन्होंने बेटे का जीवन दुखभरा बना दिया था. यह पीड़ा उन के चेहरे पर साफ झलक रही थी.

प्रताप एक गिलास में पानी ले आया. सुधा मुंह खोले तीनों को ताक रही थी. प्रताप के पिता ने दाहिने हाथ की अंजुरी में पानी ले कर प्रताप की ओर ताकते हुए कहा, ‘मैं देवशंकर हाथ में जल ले कर संकल्प लेता हूं कि जब तक मेरी सांस चलेगी, इस घर में कभी कदम नहीं रखूंगा. और हां, तेरे लिए मेरे घर के दरवाजे हमेशा खुले रहेंगे. जब तेरा मन यहां से ऊब जाए, आ जाना.’

रिकशे में बैठी मां भीगी आंखों से प्रताप को ताक रही थीं. प्रताप की इस कमजोरी को वह पहले से ही जानती थीं. घर के बाहर कोई लड़का उसे मार देता था तो घर में वह इस की शिकायत नहीं करता था. इस तरह की बहू के साथ प्रताप का जीवन कैसे बीतेगा? यह सोचसोच कर वे परेशान थीं. यही पीड़ा उन की आंखों से बह रही थी. रिकशा चला गया तो प्रताप घर आया और उस रात बिना कुछ खाए ही सो गया.

सुधा सुंदर थी, साथ ही पैसे वाले बाप की बेटी भी. इसी सुंदरता और बाप के पैसे के अभिमान ने उसे घमंडी बना दिया था. उस की जीभ में जो भयानक धार और कड़वाहट थी, उसे देख कर पहली नजर में कोई नहीं भांप सकता था. अड़ोसपड़ोस में रहने वालों से वह शालीनता से हंसहंस कर बातें करती थी. मगर प्रताप, उस के परिजनों व रिश्तदारों से वह ऐसा व्यवहार करती थी जैसे वे सभी उस के पुराने दुश्मन हों. उस का व्यवहार दिनोंदिन कू्रर होता जा रहा था.

शादी के सालभर बाद ही प्रताप सुधा के व्यवहार से पूरी तरह परिचित हो गया था. इसी दौरान सुधा ने प्रताप के लगभग सभी संबंधियों से उस के संबंध खत्म करा दिए थे. भैयाभाभी, मामामामी, चाचाचाची, मौसामौसी, सभी इसी शहर में रहते थे, फिर भी प्रताप से अब उन का कोई संबंध नहीं रह गया था. एक बार जो भी प्रताप के घर आया, सुधा ने उस के साथ ऐसा व्यवहार किया कि दोबारा उस की आने की हिम्मत नहीं हुई.

कालेज की पढ़ाई प्रताप ने होस्टल में रह कर की थी. सुबह ब्रश करते समय उस ने एक दृश्य कई बार देखा था. नाली से निकलने वाले काकरोच के लिए गौरैया घात लगाए बैठी रहती थी. काकरोच का शिकार करने की उस की गजब की युक्ति थी. काकरोच दौड़ता तो गौरैया उछल कर उस के एक पैर पर चोंच मारती. एक पैर टूट जाने पर जान बचाने के लिए काकरोच घिसटते हुए आगे बढ़ता तो गौरैया दूसरे पैर पर चोंच मारती. फिर तीसरे, चौथे, इस तरह एक के बाद एक पैर टूटने के बाद काकरोच दौड़ नहीं सकता था. उस के बाद गौरैया आराम से उसे चोंच मारमार कर चीथती थी.

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उसी तरह सुधा ने भी चालाकी से प्रताप को लगभग सभी संबंधियों से अलग कर के उस की सभी टांगें तोड़ दी थीं. भूलचूक से प्रताप का कोई सहकर्मी कभी उस के घर आ जाता तो सुधा के व्यवहार में एकदम से परिवर्तन आ जाता. जब तक वह घर में रहता, सुधा उस की बुराई करती रहती. सुधा के इस व्यवहार से परेशान प्रताप का मन होता कि वह किसी दिन उसे पीट दे. परंतु हृदय की तीव्र इच्छा के बावजूद हाथ लाचार थे क्योंकि बचपन से ही प्रताप का व्यक्तित्व कुछ इस तरह का रहा था कि कभी वह अपनी उग्रता व्यक्त नहीं कर पाया. सहीगलत सहने की उस को आदत सी पड़ गई थी, जो छूट नहीं रही थी. स्कूलकालेज के झगड़ों में भी वह कभी जनून के साथ आगे नहीं आया था.

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