यह कैसी विडंबना- भाग 4: शर्माजी और श्रीमती के झगड़े में ममता क्यों दिलचस्पी लेती थी?

‘‘हांहां, अंकल, बताइए न.’’

‘‘बेटा, मैं बड़ा परेशान हूं. तनिक अपनी आंटी को समझाओ न. मैं कहां जाऊं…मेरा तो जीना हराम कर रखा है इस ने. तुम जरा मेरी उम्र देखो और इस का शक देखो. तुम दोनों मेरी बेटी जैसी हो. जरा सोचो, जो सब यह कहती है क्या मैं कर सकता हूं. कहती है मैं मकान नंबर 205 में जाता हूं. जरा इसे साथ ले जाओ और ढूंढ़ो वह घर जहां मैं जाता हूं.’’

80 साल के शर्मा अंकल रोने लगे थे.

‘‘वहम की बीमारी है इसे. किसी से भी बात करूं मैं तो मेरा नाम उसी के साथ जोड़ देती है. हर रिश्ता ताक पर रख छोड़ा है इस ने.’’

‘‘आप ने आंटी का इलाज नहीं कराया?’’

‘‘अरे, हजार बार कराया. डाक्टर को ही पागल बता कर भेज दिया इस ने. मेरी जान भी इतनी सख्त है कि निकलती ही नहीं. एक्सीडैंट में मेरे स्कूटर के परखच्चे उड़ गए और मुझे देखो, मैं बच गया…मैं मरता भी तो नहीं. हर सुबह उठ कर मौत की दुआएं मांगता हूं…कब वह दिन आएगा जब मैं मरूंगा.’’

सरला और मैं चुपचाप उन्हें रोते देखती रहीं. सच क्या होगा या क्या हो सकता है हम कैसे अंदाजा लगातीं. जीवन का कटु सत्य हमारे सामने था. अगर शर्माजी जवानी में चरित्रहीन थे तो उस का प्रतिकार क्या इस तरह नहीं होना चाहिए? और सब से बड़ी बात हम भी कौन हैं निर्णय लेने वाले. हजार कमी हैं हमारे अंदर. हम तो केवल मानव बन कर ही किसी दूसरे मानव की पीड़ा सुन सकती थीं. अपनी लगाई आग में सिर्फ खुदी को जलना पड़ता है, यही एक शाश्वत सचाई है.

रोधो कर चले गए अंकल. यह सच है, दुखी इनसान सदा दुख ही फैलाता है. शर्माजी की तकलीफ हमारी तकलीफ नहीं थी फिर भी हम तकलीफ में आ गई थीं. मूड खराब हो गया था सरला का.

‘‘इसीलिए मैं चाहती हूं इन दोनों से दूर रहूं,’’ सरला बोली, ‘‘अपनी मनहूसियत ये आसपास हर जगह फैलाते हैं. बच्चे हैं क्या ये दोनों? इन के बच्चे भी इसीलिए दूर रहते हैं. पिछले साल अंकल अमेरिका गए थे तो आंटी कहती थीं कि 205 नंबर वाली भी साथ चली गई है. ये खुद जैसे दूध की धुली हैं न. इन की तकलीफ भी यही है अब.

‘‘खो गई जवानी और फीकी पड़ गई खूबसूरती का दर्द इन से अब सहा नहीं जा रहा, जवानी की खूबसूरती ही इन्हें जीने नहीं देती. वह नशा आज भी आंटी को तड़पाता रहता है. बूढ़ी हो गई हैं पर अभी भी ये दिनरात अपनी खूबसूरती की तारीफ सुनना चाहती हैं. अंकल वह सब नहीं करते इसलिए नाराज हो उन की बदनामी करती हैं.

‘‘यह भी तो एक बीमारी है न कि कोई औरत दिनरात अपने ही गुणों का बखान सुनना चाहे और गुण भी वह जिस में अपना कोई भी योगदान न हो. रूप क्या खुद पैदा किया जा सकता है…जिस गुण को घटानेबढ़ाने में अपनी कोई जोर- जबरदस्ती ही न चलती हो उस पर कैसा अभिमान और कैसी अकड़…’’

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बड़बड़ाती रही सरला देर तक. 2 दिन ही बीते होंगे कि सुबहसुबह आंटी चली आईं. शिष्टाचार कैसे भूल जाती मैं. सम्मान सहित बैठाया. पति आफिस जा चुके थे. उस दिन मजदूर भी छुट्टी पर थे.

‘‘कहो, कैसी हो. घर का कितना काम शेष रह गया है?’’

‘‘आंटी, बस थोड़ा ही बचा है.’’

‘‘आज भी कोई पार्टी दे रहे हो क्या? दीवाली की रात तो तुम्हारे घर पूरी रात ताशबाजी चलती रही थी. अच्छी मौजमस्ती कर लेते हो तुम लोग भी. मैं ने पूछा तो तुम ने कह दिया था, तुम्हें तो ताश ही खेलना नहीं आता जबकि पूरी रात गाडि़यां खड़ी रही थीं. सुनो, कल तुम्हारे घर 2 आदमी कौन आए थे?’’

‘‘कल, कल तो पूरा दिन मैं नए घर में व्यस्त थी.’’

‘‘नहींनहीं, मैं ने खुद तुम्हें उन से बातें करते देखा था.’’

‘‘कैसी बातें कर रही हैं आप, मिसेज शर्मा?…और दीवाली पर भी हम यहां नहीं थे.’’

‘‘तुम्हारे घर में रोशनी तो थी.’’

‘‘हम घर में जीरो वाट का बल्ब जला कर गए थे कि त्योहार पर घर में अंधेरा न हो और ऐसा भी लगे कि घर पर कोई है.’’

‘‘नहीं, झूठ क्यों बोल रही हो?’’

‘‘मैं झूठ बोल रही हूं. क्यों बोल रही हूं मैं झूठ? मुझे क्या जरूरत है जो मैं झूठ बोल रही हूं,’’ स्तब्ध रह गई मैं.

‘‘तुम्हारे घर के मजे हैं. एक गेट मेरे घर के सामने दूसरा पिछवाड़े. इधर ताला लगा कर सब से कहो कि हम घर पर नहीं थे. उधर पिछले गेट से चाहे जिसे अंदर बुला लो. क्या पता चलता है किसी को.’’

हैरान रह गई मैं. सच में आंटी पागल हैं क्या? समझ में आ गया मुझे और पागल से मैं क्या सर फोड़ती. शर्माजी कुछ नहीं कर पाए तो मैं क्या कर लेती, सच कहा था सरला ने, कहानियां बना लेती हैं आंटी और कहानियां भी वे जिन में उन की अपनी नीयत झलकती है, अपना सारा शक झलकता है. अपना ही अवचेतन मन और अपने ही चरित्र की छाया उन्हें सभी में नजर आती है, शायद वे स्वयं ही चरित्रहीन होंगी जिस की झलक अपने पति में भी देखती होंगी. कौन जाने सच क्या है.

उसी पल निर्णय ले लिया मैं ने कि अब इन से कोई शिष्टाचार नहीं निभाऊंगी. अत: बोली, ‘‘मिसेज शर्मा, आज मुझे घर के लिए कुछ सामान लेने बाजार जाना है. किसी और दिन साथसाथ बैठेंगे हम?’’

मेरा टालना शायद वे समझ गईं इसलिए हंसने लगीं, ‘‘आजकल शर्माजी से दोस्ती कर ली है न तुम ने और सरला ने. बता रहे थे मुझे…कह रहे थे, तुम दोनों भी मुझे ही पागल कहती हो. बुलाऊं उन्हें अंदर ही बैठे हैं. आमनासामना करा दूं.’’

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कहीं यह पागल औरत अब हम दोनों का नाम ही अंकल के साथ न जोड़ दे. यह सोच कर चुप रही मैं और फिर हाथ पकड़ कर उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया था. अच्छा नहीं लगा था मुझे अपना यह व्यवहार पर मैं क्या करती. मुझे भी तो सांस लेनी थी. एक पागल का मान मैं कब तक करती.

वह दिन और आज का दिन, जब तक हम उस घर में रहे और उस के बाद जब अपने घर में चले आए, हम ने उस परिवार से नाता ही तोड़ दिया. अकसर आंटी गेट खटखटाती रही थीं जब तक हम उन के पड़ोस में रहे.

आज पता चला कि अंकल चल बसे. पता नहीं क्यों बड़ी खुशी हुई मुझे. गलत कौन था कौन सही उस का मैं क्या कहूं. एक वयोवृद्ध दंपती अपनी जवानी में क्याक्या गुल खिलाता रहा उस की चिंता भी मैं क्यों करूं. बस, शर्मा अंकल इस कष्ट भरे जीवन से छुटकारा पा गए यही आज का सब से बड़ा सच है. आंखें भर आई हैं मेरी. मौत जीवन की सब से बड़ी और कड़वी सचाई है. समझ नहीं पा रही हूं कि शर्मा अंकल की मौत पर अफसोस मनाऊं या चैन की सांस लूं.

नमस्ते जी- भाग 2: नीतिन की पत्नी क्यों परेशान थी?

Writer- डा. उर्मिला कौशिक ‘सखी’

एकदो भद्दी गाली देने के साथ दोचार थप्पड़ मार कर नितिन ने मुझे घसीटते हुए ला कर बिस्तर पर पटक दिया और दरवाजे को जोर से बंद करते हुए घर से बाहर निकल गए.

बौखलाहट में मुझ पर न जाने कहां से पागलपन सा सवार हो गया. मैं ने उठ कर अपनी व नितिन की फ्रेमजडि़त तसवीर ली और फर्श पर दे मारी तथा साथ में रखा हुआ गुलदान दीवार पर और गुस्से में शादी वाली सोने की अंगूठी उतार कर दूर फेंकते हुए बैड पर धड़ाम से गिर पड़ी. फिर न जाने कब मैं अतीत की स्मृतियों के गहरे सागर में डूबती चली गई.

धीरेधीरे मुझे वे दिन याद आने लगे जब मात्र डेढ़ साल के अंतराल में मैं दूसरी बार मां बनी थी और मैं ने फूल सी कोमल नन्ही गुडि़या को जन्म दिया था. मेरी ननद 10 दिन से अधिक नहीं रुक पाई थीं. वैसे भी उन से जच्चा का काम नहीं होता था. अंकुर व अंकिता, दोनों को एकसाथ संभालना मेरे वश से बाहर था.

मैं ने अपने लिए किसी काम वाली को रखने की बात नितिन से कही तो उन्होंने पड़ोसियों के यहां काम करने वाली निर्मला की 12-13 साल की बेटी प्रीति को घर में मेरी मदद करने के लिए रख लिया था. धीरेधीरे बेटी गोद को समझने लगी थी. दिन छिपने के बाद वह तब तक चुप नहीं होती थी जब तक उसे कोई उठा कर छाती से न लगा ले. प्रीति के साथ वह हिलमिल गई थी. उस का स्पर्श पाते ही अंकिता एकदम चुप हो जाती थी जैसे कि उसे उस की मां ही मिल गई हो.

एक दिन दोपहर में लगभग ढाई बजे के आसपास जब मैं अंकिता को दूध पिला रही थी तो प्रीति मेरे पास कमरे में आई. वैसे तो यह समय उस का आराम करने का होता था. उस की सांस कुछ फूली हुई सी थी और उस के सिर के बाल बेतरतीब से फैले हुए थे. मैं ने उस को नीचे से ऊपर तक निहारा तो लगा कि उस के साथ कुछ हुआ है. मैं ने पूछा था, ‘प्रीति, तुम इतनी घबराई हुई सी क्यों लग रही हो? क्या बात है?’

‘मेमसाहिब, आप कोई और काम करने वाली ढूंढ़ लो. मैं अब आप के घर काम नहीं कर सकती.’

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‘क्यों प्रीति, ऐसा क्या हुआ जो तुम अचानक इस तरह दोपहर में काम छोड़ कर जा रही हो? तुम्हारे साथ हम सब अच्छे से बरताव करते हैं. तुम्हें यहां किसी तरह की कोई रोकटोक भी नहीं है. अपनी इच्छा से काम करती हो. जब मन में आता है तब घर घूम आती हो. फिर आज अचानक ऐसा क्यों…’

प्रीति तब कुछ नहीं बोल पाई थी. बस, वापस मुड़ कर अपनी चुनरी के एक कोने को मुंह में दबाए भाग ली थी वह. मैं कुछ भी नहीं समझ पाई थी. अंकिता को सोता छोड़ कर मैं दूसरे कमरे में आ गई थी जहां नितिन सोए थे. मैं ने उन्हें जगाया तो आंख भींचते हुए बोले, ‘क्या बात है छुट्टी वाले दिन तो आराम कर लेने दिया करो?’

मैं ने सारा वृतांत उन्हें सुनाते हुए पूछा, ‘तुम्हें कुछ समझ में आ रहा है कि प्रीति ऐसे अचानक क्यों भाग गई?’

‘प्रीति अपने घर चली गई? मैं आराम करने के लिए जब कमरे में आया था तब तो वह बरामदे में लेटी हुई थी. हो सकता है सोते हुए उस ने कोई बुरा स्वप्न देख लिया हो. शायद डर गई हो, बेचारी. कहीं तुम ने या मां ने तो कुछ नहीं कह दिया? काम करते वक्त उसे कुछ कह तो नहीं दिया आज सुबह या कल शाम को?’

‘नहीं तो, इतने दिन हो गए भला आज तक कुछ कहा है, जो आज. हां, हो सकता है सोते हुए उस ने कोई बुरा स्वप्न देखा हो. खैर, चलो छोड़ो, मैं शाम को उस के घर हो आऊंगी.’

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यह कह कर मैं अपने कमरे में आ तो गई लेकिन मुझे चैन नहीं पड़ा रहा था. मैं बैड पर लेटेलेटे सोचती रही कि आखिर ऐसा क्या हुआ होगा जो वह भरी दोपहर में घर वापस जाने को मजबूर हो गई? मांजी से पूछा तो उन्होंने कह दिया कि उन की तो आज प्रीति से कोई बात ही नहीं हुई.

अपने हुए पराए- भाग 2: आखिर प्रोफेसर राजीव को उस तस्वीर से क्यों लगाव था

एक दिन प्रोफैसर राजीव अपनी डायरी ढूढ़ते करुणा के कमरे में आए. वहां उन्हें करुणा के साथ मेरी तसवीर दिख गई. वे हतप्रभ रह गए. तसवीर को अपने कमरे में ले गए. मुझे बुलाया, बोले, “बेटा, इतनी बड़ी चीज तुम ने मुझ से छिपाई?”

‘‘क्या अंकल?’’

‘‘बेटा, मैं जिसे बाहर तलाश रहा था वह मेरे घर में ही था.’’

मेरे अश्रु छलक गए, ‘‘अंकल, ऐसा कुछ नहीं है. हम मित्र हैं. आप पिता समान हैं मेरे. आप करुणा की शादी जहां करना चाहें, कर दें, मैं विरोध नहीं करूंगा, पूरा सहयोग दूंगा. हमारा करुणा का पवित्र रिश्ता है.’’

‘‘बेटा, यह बात मेरे दिमाग में पहले क्यों नहीं आई. मैं तुझे अच्छी तरह से जानता हूं, करुणा तेरे साथ बहुत खुश रहेगी. तेरे जैसा दामाद मुझे कहां मिलेगा. दामाद बेटा ही होता है. बुलाओ, करुणा को.’’

करुणा यह सब अंदर से सुन रही थी, दौड़ी हुई आई. उन के पास बैठ गई. उन्होंने उस का हाथ मुझे देते हुए कहा, ‘‘आज मैं भारमुक्त हो गया, खुश रहो.’’ एकाएक उन्हें कम्पन हुआ, सीना जोर से धड़का, और गरदन एक तरफ मुड़ गई. वे चिरनिद्रा में लीन हो गए. मेरी आंखें छलछला आईं. करुणा चीख कर रो पड़ी. उन के जीवन का अंत ऐसा होगा, सोचा भी नहीं था.

अपने हुए पराए

इंट्रो

हार न मानने वाले प्रोफैसर राजीव बेटी करुणा के मामले में थकेहारे जैसे हो गए थे, लेकिन जिंदगी के आखिरी लमहों में घर में ही ऐसी तसवीर मिली जिस ने उन्हें हारने से बचा लिया.

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जिंदगी में हार न मानने वाले प्रोफैसर राजीव आज सुबह बहुत ही थके हुए लग रहे थे. मैं उन को लौन में आरामकुरसी पर निढाल बैठे देख सन्न रह गया. उन के बंगले में सन्नाटा था. कहां संगीत की स्वरलहरियां थिरकती रहती थीं, आज ख़ामोशी पसरी थी. मुझे देखते ही वे बोले, ‘‘आओ, बैठो.’’

उन की दर्दमिश्रित आवाज से मुझे आभास हुआ कि कुछ घटित हुआ है. मैं पास पड़ी बैंच पर बैठ गया.

‘‘कैसे हो नरेंद्र?’’ आसमान की ओर निहारते उन्होंने पूछा.

‘‘ठीक हूं,” मैं ने दिया. मेरा दिल अभी भी धड़क रहा था. मैं उन की पुत्री करुणा की तबीयत को ले कर परेशान था. 5 दिनों पूर्व वह अस्पताल में भरती हुई थी. फोन पर मेरी बात नहीं हो सकी. जब भी फोन लगाया स्विचऔफ मिला. चिंताओं ने पैने नाखून गड़ा दिए थे.

मुझे खामोश देख प्रोफैसर राजीव रुंधे स्वर से बोले, “दिल्ली से कब आए?”

‘‘कल रात आया.’’

‘‘इंटरव्यू कैसा रहा?’’

‘‘ठीक रहा.’’

कुछ देर खामोशी छाई रही. उन की आंखें अभी भी आसमान के किसी शून्य पर टिकी थीं. चेहरे पर किसी भयानक अनिष्ट की परछाइयां उतरी थीं जो किसी अनहोनी का संकेत दे रही थीं. मैं चिंता से भर उठा. करुणा को कुछ हो तो नहीं गया. लेकिन जब करुणा को चाय लाते देखा तो सारी चिंताएं उड़ गईं. वह पूरी तरह स्वस्थ्य दिख रही थी.

‘‘पापा चाय लीजिए,’’ करुणा ने चाय की ट्रे गोलमेज पर रखते हुए कहा.

मेरी नजरें अभी भी करुणा के चेहरे पर जमी थीं, लेकिन उस की तरफ से कोई प्रतिक्रिया न देख हैरान रह गया, लगा नाराज है. करुणा चाय दे कर मुड़ी ही थी कि पैर डगमगा गए. मैं ने तुरंत हाथों में संभाल लिया. वह संभलती हुई बोली, ‘‘थैंक्यू.’’ मैं तुरंत अलग हो गया. प्रोफैसर राजीव बोले, “जब चलते नहीं बनता तो हाईहील की सैंडिल क्यों पहनती हो?”

‘‘फैशन है पापा.”

‘‘हूं, सभी मौडर्न हुए जा रहे हैं.’’

मैं समझ गया, उन का इशारा राहुल की बहू अपर्णा पर था. अपर्णा अकसर जींस व टोप पहने ही दिखती है.

मेरे पिताजी और प्रोफैसर राजीव की दोस्ती जगजाहिर थी. एक साथ उन्होंने पढ़ाईलिखाई की, नौकरी की. पड़ोस में मकान बनाया. किसी भी समारोह में गए, साथ गए. यहां तक कि चुनाव भी साथ लड़ा.

मेरे पिताजी कैंसर की बीमारी से पीड़ित थे, जल्दी ही उन की मृत्यु हो गई. मुझे हिदायत दे गए थे कि प्रोफैसर राजीव के घर को अपना घर समझना, पूरी इज्जत देना. तब से मेरा आनाजाना लगा रहता है. प्रोफैसर राजीव मुझे अकसर याद करते रहते हैं और मैं उन के बाहरी काम निबटाता रहता हूं. वे अपने लड़के राहुल से अधिक विश्वस्त मुझे मानते हैं.

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प्रोफैसर राजीव का संपन्न परिवार है – पत्नी, एक लड़का, बहू और एक लड़की है. धर्म में उन की आस्था है. भजन, कीर्तन, भागवत जैसे कार्यक्रम वे कराते रहते हैं. करूणा जब एकाएक बीमार हुई और उसे अस्पताल में भरती होना पड़ा तो सभी चिंतित हो गए. मुझे भी शौक लगा. उसे पीलिया हो गया था. 10 दिन वह आईसीयू में भरती रही. तीनचार दिन मैं देखता रहा.

इसी बीच, मेरा इंटरव्यूकौल आ गया. मुझे दिल्ली जाना पड़ा. आज जब दिल्ली से वापस लौटा तो करुणा की याद ही दिल में बसी थी – वह कैसी है, अस्पताल से आई कि नहीं… सोचता हुआ प्रोफैसर राजीव के घर पहुंचा. प्रोफैसर राजीव बाहर ही मिल गए. उन्हें उदास देख मन में तरहतरह की शंकाएं पल गईं.

प्रोफैसर राजीव की चिंता मुझे अभी भी हो रही थी कि वे कुछ छिपाए हुए हैं. वरना तो ऐसे गमगीन वे कभी नहीं दिखे. करुणा के जाने के बाद मैं ने उन की चिंता का कारण पूछा तो वे टालते हुए उठ गए और अंदर कमरे में चले गए. उन के हावभावों ने मुझे फिर घेर लिया. मैं तुरंत करुणा के कमरे में गया. करुणा सोफे पर बैठी डायरी के पन्ने पलट रही थी, बोली, ‘‘कुछ काम?’’

‘‘क्या बिना काम के नहीं आ सकता?’’

‘‘रोका किस ने, मैं होती कौन हूं?’’

‘‘अच्छा, समझा.’’

‘‘क्या?’’

‘‘मैं दिल्ली चला गया था, इसलिए…’’

‘‘हां, मैं अस्पताल में थी और हुजूर दिल्ली चले गए.’’

‘‘इंटरव्यू था?’’

‘‘जानती हूं, मैं मर रही थी और आप छूमंतर हो गए, बता कर जा सकते थे.’’

‘‘सौरी, करुणा. प्लीज, मेरा जाना बहुत जरूरी था. पता है, मैं सिलेक्ट हो गया.’’

‘‘सच, नौकरी लग गई तुम्हारी?’’

‘‘हां, लग जाएगी.’’

यह सुनते ही वह मेरे गले से लग गई. उस की गर्म सांसों से मेरा दिल मधुर एहसास से भर उठा, होंठ उस के कपोलों से जा लगे. वह तुरंत दूर होती बोली, ‘‘यह क्या?’’

‘‘सौरी,’’ मैं ने कान पकड़ते हुए कहा.

एक मधुर मुसकन उस के चेहरे पर पसर गई जिसे मैं मंत्रमुग्ध सा देखता रह गया. तभी प्रोफैसर राजीव की आवाज कानों में पड़ी. मैं तुरंत उन के कमरे में गया.

‘‘क्या है अंकल?’’

बिना कुछ कहे- भाग 2: स्नेहा ने पुनीत को कैसे सदमे से निकाला

Writer- शिवी गोस्वामी 

आरती और मेरे रास्ते अब अलगअलग हो चुके थे. मैं उसे कुछ समझाना नहीं चाहता था और वह भी कुछ समझना नहीं चाहती थी.

मुझे बस हमेशा यह उम्मीद रहती थी कि अब उस का फोन आएगा और एक माफी से सबकुछ पहले जैसा हो जाएगा, लेकिन शायद कुछ चीजें बनने के लिए बिगड़ती हैं और कुछ बिगड़ने के लिए बनती हैं.

हमारी कहानी तो शायद बिगड़ने के लिए ही बनी थी. 5 साल का प्यार और साथ सबकुछ खत्म सा हो गया था.

मेरे घर में अब मेरे रिश्ते की बात चलने लगी थी, लेकिन किसी और लड़की से. मां मुझे रोज नएनए रिश्तों के बारे में बताती थीं, लेकिन मैं हर बार कोई न कोई बहाना या कमी निकाल कर मना कर देता था.

मुझे भीड़ में भी अकेलापन महसूस होता था. सब से ज्यादा तकलीफ जीवन के वे पल देते हैं, जो एक समय सब से ज्यादा खूबसूरत होते हैं. वे जितने मीठे पल होते हैं, उन की यादें भी उतनी ही कड़वी होती हैं.

धीरेधीरे वक्त बीतता गया. मेरे साथ आज भी बस, आरती की यादें थीं. मुझे क्या पता था आज मैं किसी से मिलने वाला हूं. आज मैं स्नेहा से मिला. हम दोनों की मुलाकात मेरे दोस्त की शादी में हुई थी.

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स्नेहा आरती की चचेरी बहन थी. साधारण नैननक्श वाली स्नेहा शादी में बिना किसी की परवा किए, सब से ज्यादा डांस कर रही थी. 21-22 साल की वह लड़की हरकतों से एकदम 10-12 साल की बच्ची लग रही थी.

‘‘बेटा, तुम्हारी गाड़ी में जगह है?‘‘ मेरे जिस दोस्त की शादी थी, उस की मम्मी ने आ कर मुझ से पूछा.

‘‘हां आंटी, क्यों?‘‘ मैं ने पूछा.

‘‘तो ठीक है, कुछ लड़कियों को तुम अपनी गाड़ी में ले जाना. दरअसल, बस में बहुत लोग हो गए हैं. तुम घर के हो तो तुम से पूछना ठीक समझा.‘‘

सजीधजी 3 लड़कियां मेरी कार में पीछे की सीट पर आ कर बैठ गईं. एक मेरे बराबर वाली सीट पर आ कर बैठ गई.

मेरे यह कहने से पहले कि सीट बैल्ट बांध लो, उस ने बड़ी फुर्ती से बैल्ट बांध ली. वे सब अपनी बातों में मशगूल हो गईं.

मुझे ऐसा एहसास हो रहा था जैसे मैं इस कार का ड्राइवर हूं, जिस से बात करने में किसी को कोई दिलचस्पी नहीं थी.

तभी स्नेहा ने मुझ से पूछा, ‘‘आप रजत भैया के दोस्त हैं न.‘‘

‘‘जी,‘‘ मैं ने बस, इतना ही उत्तर दिया. न तो इस से ज्यादा हमारी कोई बात हुई और न ही मुझे कोई दिलचस्पी थी.

आजकल के हाईटैक युग में जिस से आप आमनेसामने बात करने से हिचकें उस के लिए टैक्नोलौजी ने एक नया नुसखा कायम किया है, जो आज के समय में काफी कारगर है, और वह है चैटिंग.

स्नेहा ने मुझे फेसबुक पर रिक्वैस्ट भेजी और मैं ने भी स्वीकार कर ली.

हम दोनों धीरेधीरे अच्छे दोस्त बन गए. बातोंबातों में उस ने मुझे बताया कि उसे अपने कालेज के सैमिनार में एक प्रोजैक्ट बनाना है. मैं ने कहा, ‘‘तो ठीक है, मैं तुम्हारी मदद कर देता हूं.‘‘

इतने सालों बाद मैं ने उस के लिए दोबारा पढ़ाई की थी उस का प्रोजैक्ट बनवाने के लिए. कभी वह मेरे घर आ जाया करती थी तो कभी मैं उस के घर चला जाता. दरअसल, वह अपने कालेज की पढ़ाई की वजह से रजत के घर ही रहती थी. जब भी वह प्रोजैक्ट बनवाने के लिए आती तो बस, बोलती ही जाती थी. मेरे से बिलकुल अलग थी, वह.

एक दिन बातोंबातों में उस ने पूछा, ‘‘आप की कोई गर्लफ्रैंड नहीं है?‘‘

मैं उस को न कह कर बात वहीं पर खत्म भी कर सकता था, लेकिन मैं ने उस को अपने और आरती के बारे में सबकुछ सचसच बता दिया.

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‘‘ओह,‘‘ स्नेहा ने दुख जताते हुए कहा, ‘‘मुझे सच में बहुत दुख हुआ यह सब सुन कर. क्या तब से आप दोनों की एक बार भी बात नहीं हुई?‘‘ स्नेहा ने पूछा.

मैं ने गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘‘नहीं, और अब करनी भी नहीं है,‘‘ यह कह कर हम दोनों प्रोजैक्ट बनाने लग गए.

आज जब स्नेहा आई तो कुछ बदलीबदली सी लग रही थी. आते ही न तो उस ने जोर से आवाज लगा कर डराया और न ही हंसी.

मैं ने पूछा, ‘‘सब ठीक तो है न?‘‘

वह बोली, ‘‘कुछ बताना था आप को, आप मुझे बताना कि सही है या गलत.‘‘

हम अच्छे दोस्त बन गए थे. मैं ने उस से कहा, ‘‘हांहां जरूर, क्यों नहीं,‘‘ बोलो.

उस ने एक गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘‘मुझे किसी से प्यार हो गया है.‘‘

मैं ने कहा, ‘‘कौन है वह और क्या वह भी तुम से प्यार करता है?‘‘

उस ने कहा, ‘‘मालूम नहीं?‘‘

‘‘ओह, तुम्हारे ही कालेज में है क्या?‘‘ मैं ने पूछा.

‘‘नहीं,‘‘ उस ने बस छोटा सा जवाब दिया.

छोटी छोटी खुशियां- भाग 1: शादी के बाद प्रताप की स्थिति क्यों बदल गई?

Writer- वीरेंद्र सिंह

 

सुधा ने प्रताप के सामने खाने की प्लेट रखी तो उस में मूंग की दाल देख कर वह फुसफुसाया, ‘बाप रे, फिर वही मूंग की दाल.’

प्रताप के यह कहने में न शिकायत थी, न ही उग्रता. उस की आवाज में लाचारी एकदम साफ झलक रही थी. अभी कल ही यानी अपने नियम के अनुसार बुधवार को सुधा ने मूंग की दाल बनाई थी. आज फिर वही दाल खाने का बिलकुल मन नहीं था, फिर भी बिना कुछ बोले प्रताप ने खा ली थी. प्रताप ने धीरे से कहा, ‘‘जानती हो कि मुझे मूंग की दाल जरा भी अच्छी नहीं लगती, फिर भी आज तुम ने वही बना दी है. तुम ने हद कर दी है.’’

प्रताप की पत्नी सुधा रसोई में चुपचाप खड़ी थी. 27 वर्षीया सुधा की गठीली देह गहरे आसमानी रंग के गाउन में कुछ अधिक ही गोरी लग रही थी. प्रताप ने जो कहा था, उसे सुन कर उस के सुंदर चेहरे पर कोई परिवर्तन नहीं आया था. अपने पतले होंठों को सटाए वह प्रताप को ही ताक रही थी. प्रताप के ये शब्द उस के कानों में पड़े, तो पलभर में ही उस की आंखों की चमक बदल गई.

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प्रताप ने चेहरा उठा कर उस की ओर देखा. सामने चूहा पड़ने पर जो चमक सांप की आंखों में होती है, कुछ वैसी ही चमक सुधा की आंखों में भी तैरने लगी थी. सुधा के बंद होंठों के पीछे जो बवंडर उठ रहा था वह तबाही मचाने के लिए बेचैन होने लगा था.

प्रताप ने आगे कहा, ‘‘आज तो इस में जलने की भी गंध आ रही है.’’

सुधा को जैसे प्रताप के इन्हीं शब्दों का इंतजार था. नाक फुला कर वह प्रताप की ओर बढ़ी, ‘‘तुम्हारे कहने का मतलब यह है कि मुझे खाना बनाना भी नहीं आता?’’ सुधा अपनी नजरें प्रताप के चेहरे पर जमा कर व्यंग्य से बोली, ‘‘तुम्हें मनपसंद खाना बनाने वाली पत्नी चाहिए थी तो क्या झक मारने के लिए मुझ से शादी की थी? रहने तक का तो ठिकाना नहीं था. भिखारियों की तरह तो रह रहे थे, चले थे विवाह करने.’’

प्रताप सिर झुकाए बैठा था. खा जाने वाली निगाहों से घूरते हुए सुधा ने कहा, ‘‘इस घर में तो मेरी ही मरजी चलेगी. मैं वही बनाऊंगी जो मेरा मन करेगा. तुम्हारी जीभ बहुत चटपटा रही हो तो स्वयं ही बना कर खा लिया करो.’’

सुधा की आवाज मारे गुस्से के तेज हो गई थी. सुधा द्वारा कहे शब्द प्रताप के कानों में गरम शीशे की तरह उतर रहे थे. लेकिन प्रताप को तो 4 साल से यही सब सुनने की आदत सी पड़ गई थी. इस तरह की बातें अब तक वह इतनी सुन चुका था कि उस पर इन बातों का कोई असर नहीं होता था.

‘‘चुप क्यों हो, बोलो न? किसी अच्छे घर की लड़की लाने की हिम्मत थी तुम्हारी?’’ अग्निबाण की तरह दनादन सुधा के होंठों से शब्द छूट रहे थे. प्रताप सिर झुका कर सोच में डूब गया था. सुधा की भी बातें अपनी जगह सच थीं. उसे अपना अतीत याद आ गया.

5 साल पहले प्रताप को बैंक में नौकरी मिली तो वह गढ़वाल का अपना गांव और मांबाप को छोड़ कर दिल्ली आ गया था. शुरू में 1 सप्ताह तो वह अपने बड़े भाई के साथ रहा. उस के बड़े भाई पत्नी और बच्चों के साथ दिल्ली में एक कच्ची कालोनी में रहते थे. वे एक प्राइवेट फैक्टरी में नौकरी करते थे. उन्होंने उस कच्ची कालोनी में 25 गज का छोटा सा प्लौट खरीद कर 1 कमरे का छोटा सा मकान बना लिया था. फैक्टरी में उन्हें बहुत ज्यादा वेतन नहीं मिलता था. किसी तरह वे 5 लोगों का परिवार पाल रहे थे.

उन के यहां रह कर बैंक में नौकरी करना प्रताप के लिए आसान न था. उस का बैंक वहां से लगभग 25 किलोमीटर दूर था. वहां से आनेजाने के लिए बसों की सुविधा भी ठीकठाक न थी. इसलिए न चाहते हुए भी उसे अपने रहने की व्यवस्था अलग करनी पड़ी. दिल तो उस का नहीं मान रहा था परंतु वहां परेशानियां अधिक थीं. प्रताप ने बैंक के पास ही एक कमरा किराए पर ले लिया. वहां से वह 10 मिनट में ही बैंक पहुंच जाता था. उसी बीच आनंद मामा उस के लिए एक रिश्ता ले आए थे.

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आनंद मामा की गिनती अपने इलाके के भले आदमियों में होती थी. वे प्रताप की मां के मौसेरे भाई थे. प्रताप के मांबाप गांव में ही रह रहे थे. गांव में जो थोड़ी खेती थी, उसे पिता संभाल रहे थे. बूढ़े मांबाप को आनंद मामा ने बड़े प्रेम से समझाया था, ‘इस तरह की सुंदर और पैसे वाले घर की लड़की प्रताप के लिए जल्दी नहीं मिलेगी. बहुत बड़े घर की बेटी है. दरअसल, लड़की की सगाई कहीं और हुई थी, लेकिन वह टूट गई है. इसीलिए लड़की के मांबाप प्रताप के साथ शादी करने को तैयार हैं. वरना उन के सामने तुम्हारी कुछ भी हैसियत नहीं है.’

दो कदम तन्हा- भाग 2: अंजलि ने क्यों किया डा. दास का विश्वास

Writer- डा. पी. के. सिंह 

डा. दास ने प्रश्न सुना लेकिन जवाब नहीं दिया. वह बगल में बाईं ओर मेडिसिन विभाग के भवन की ओर देखने लगे.

अंजलि ने थोड़ा आश्चर्य से देखा फिर पूछा, ‘‘कितने बच्चे हैं?’’

‘‘2 बच्चे हैं.’’

‘‘लड़के या लड़कियां?’’

‘‘लड़कियां.’’

‘‘कितनी उम्र है?’’

‘‘एक 10 साल की और एक 9 साल की.’’

‘‘और कैसे हो, दास?’’

‘‘मुझे दास…’’ अचानक डा. दास चुप हो गए. अंजलि मुसकराई. डा. दास को याद आ गया, वह अकसर अंजलि को कहा करते थे कि मुझे दास मत कहा करो. मेरा पूरा नाम रवि रंजन दास है. मुझे रवि कहो या रंजन. दास का मतलब स्लेव होता है.

अंजलि ऐसे ही चिढ़ाने वाली हंसी के साथ कहा करती थी, ‘नहीं, मैं हमेशा तुम्हें दास ही कहूंगी. तुम बूढ़े हो जाओगे तब भी. यू आर माई स्लेव एंड आई एम योर स्लेव…दासी. तुम मुझे दासी कह सकते हो.’

आज डा. दास कालिज के सब से पौपुलर टीचर हैं. उन की कालिज और अस्पताल में बहुत इज्जत है. लोग उन की ओर देख रहे हैं. उन्हें कुछ अजीब सा संकोच होने लगा. यहां यों खड़े रहना ठीक नहीं लगा. उन्होंने गला साफ कर के मानो किसी बंधन से छूटने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘बहुत भीड़ है. बहुत देर से खड़ा हूं. चलो, कैंटीन में बैठते हैं, चाय पीते हैं.’’

अंजलि तुरंत तैयार हो गई, ‘‘चलो.’’

बेटे को यह प्रस्ताव नहीं भाया. उसे भीड़, रोशनी और आवाजों के हुजूम में मजा आ रहा था, बोला, ‘‘ममी, यहीं घूमेंगे.’’

‘‘चाय पी कर तुरंत लौट आएंगे. चलो, गंगा नदी दिखाएंगे.’’

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गेट से निकल कर तीनों उत्तर की ओर गंगा के किनारे बने मेडिकल कालिज की कैंटीन की ओर बढ़े. डा. दास जल्दीजल्दी कदम बढ़ा रहे थे फिर अंजलि को पीछे देख कर रुक जाते थे. कैंटीन में भीड़ नहीं थी, ज्यादातर लोग प्रदर्शनी में थे. दोनों कैंटीन के हाल के बगल वाले कमरे में बैठे.

कैंटीन के पीछे थोड़ी सी जगह है जहां कुरसियां रखी रहती हैं, उस के बाद रेलिंग है. बालक की उदासी दूर हो गई. वह दौड़ कर वहां गया और रेलिंग पकड़ कर गंगा के बहाव को देखने लगा.

डा. दास और अंजलि भी कुरसी मोड़ कर उधर ही देखने लगे. गरमी नहीं आई थी, मौसम सुहावना था. मोतियों का रंग ले कर सूर्य का मंद आलोक सरिता के शांत, गंभीर जल की धारा पर फैला था. कई नावें चल रही थीं. नाविक नदी के किनारे चलते हुए रस्सी से नाव खींच रहे थे. कई लोग किनारे नहा रहे थे.

मौसम ऐसा था जो मन को सुखद बीती हुई घडि़यों की ओर ले जा रहा था. वेटर चाय का आर्डर ले गया. दोनों नदी की ओर देखते रहे.

‘‘याद है? हम लोग बोटिंग करते हुए कितनी दूर निकल जाते थे?’’

‘‘हां,’’ डा. दास तो कभी भूले ही नहीं थे. शाम साढ़े 4 बजे क्लास खत्म होने के बाद अंजलि यहां आ जाती थी और दोनों मेडिकल कालिज के घाट से बोटिंग क्लब की नाव ले कर निकल जाते थे नदी के बीच में. फिर पश्चिम की ओर नाव खेते लहरों के विरुद्ध महेंद्रू घाट, मगध महिला कालिज तक.

सूरज जब डूबने को होता और अंजलि याद दिलाती कि अंधेरा हो जाएगा, घर पहुंचना है तो नाव घुमा कर नदी की धारा के साथ छोड़ देते. नाव वेग से लहरों पर थिरकती हुई चंद मिनटों में मेडिकल कालिज के घाट तक पहुंच जाती.

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डूबती किरणों की स्वर्णिम आभा में अंजलि का पूरा बदन कंचन सा हो जाता. वह अपनी बड़ीबड़ी आंखें बंद किए नाव में लेटी रहती. लहरों के हलके छींटे बदन पर पड़ते रहते और डा. दास सबकुछ भूल कर उसी को देखते रहते. कभी नाव बहती हुई मेडिकल कालिज घाट से आगे निकल जाती तो अंजलि चौंक कर उठ बैठती, ‘अरे, मोड़ो, आगे निकल गए.’

डा. दास चौंक कर चेतन होते हुए नाव मोड़ कर मेडिकल कालिज घाट पर लाते. कभी वह आगे जा कर पटना कालिज घाट पर ही अनिच्छा से अंजलि को उतार देते. उन्हें अच्छा लगता था मेडिकल कालिज से अंजलि के साथ उस के घर के नजदीक जा कर छोड़ने में, जितनी देर तक हो सके साथ चलें, साथ रहें. वेटर 2 कप चाय दे गया. अंजलि ने बेटे को पुकार कर पूछा, ‘‘क्या खाओगे? बे्रडआमलेट खाओगे. यहां बहुत अच्छा बनता है.’’

घर का भूला- भाग 4: कैसे बदलने लगे महेंद्र के रंग

‘‘नहीं, आभा, अभी हम किसी से कुछ नहीं कहेंगे. पहले मालती का पीछा कर उस के घर व घरवाले का पता लगाऊंगा, तब तुम मेरा खेल देखना. पापा अपने को बहुत होशियार समझते हैं.’’

‘‘मुझ को डर लग रहा है कि कहीं वह कमबख्त इस घर में धरना ही न दे दे.’’

‘‘अपना उतना बड़ा परिवार छोड़ कर क्या वह यहां पापा के साथ आ सकेगी?’’

‘‘ऐसी औरतें सब कर सकती हैं. अखबार में जबतब पढ़ते नहीं कि अपने 6 बच्चों को छोड़ कर फलां औरत अपने प्रेमी के साथ भाग गई, पति बेचारा ढूंढ़ता फिर रहा है.’’

‘‘उस औरत को भी क्या कहें? अभी मां को गए एक साल भी पूरा नहीं हुआ और पापा को औरत की जरूरत पड़ गई, धिक्कार है.’’

‘‘भैया, अगर ऐसी नौबत आई तो मैं मामा के पास चली जाऊंगी,’’ वह आंसू पोंछ कर बोली.

‘‘अपने भैया को बेसहारा छोड़ कर? तब मैं कहां जाऊंगा?’’

‘‘तब तो हम दोनों को नौकरी की तलाश करनी चाहिए. हम किराए का मकान ले कर रह लेंगे. सौतेली मां की छांह से भी दूर. तब मामा आदि के पास क्यों जाएंगे भला, इसी शहर में रहेंगे.’’

‘‘मां, तुम हम दोनों को बेसहारा छोड़ कर क्यों चली गईं. राह दिखाओ मम्मी, हम दोनों कहां जाएं, क्या करें?’’ अमित का धैर्य भी आंसू बन कर फूट पड़ा, आभा भी रो पड़ी.

दूसरे दिन अमित जल्दी घर से निकल कर मालती के इंतजार में स्कूटर लिए छिपा खड़ा था. जैसे ही वह घर से निकली वह छिपताछिपाता पीछे लग गया. उस का घर लगभग 2 किलोमीटर दूर था. अमित ने देखा उस के घर से छिपा कर लाई रोटीसब्जी मालती ने अपने बच्चों और पति में बांट दी. बच्चे खा कर यहांवहां खेलने निकल गए और जल्दी से अपने घर का काम निबटा कर मालती अपने घरवाले के जाते ही सजधज कर निकली. अमित उस के पीछेपीछे चलता रहा. वह मेन बाजार में जा कर खड़ी हो गई. थोड़ी देर बाद पापा गाड़ी ले कर आए. मालती लपक कर कार में बैठ गई. कार फिर उसी होटल की ओर बढ़ी. वे दोनों फिर उसी होटल में जा पहुंचे. अमित लौट आया.

दूसरे दिन मालती के घर से निकलते ही वह उस के पति हरिया के पीछे लग गया. घर से जब वह दूर आ गया तब स्कूटर उस के सामने कर के खड़ा हो गया, ‘‘सुनो भैया, हमारे यहां ढेरों सामान इकट्ठा है. वह हमें बेचना है.’’

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‘‘कहां है, आप का घर?’’ वह खुश हो कर बोला.

‘‘वह है दूर. अब आज नहीं कल ले चलूंगा. वह मालती तुम्हारी घरवाली है?’’

‘‘हां, तुम कैसे जानते हो?’’ वह बोला.

‘‘वह हमारे घर के पास ही काम करती है इसलिए जानता हूं. इस टाइम वह कहां जाती है?’’

‘‘वह किसी साहब के यहां जाती है, नौकर है वहां?’’

‘‘परंतु मैं ने तो उसे एक साहब के साथ बड़े होटल में जाते देखा है.’’

‘‘कब? कहां?’’ वह आंखें फाड़ कर बोला.

‘‘वह तो सजधज कर रोज जाती है. चलो, तुम्हें दिखाऊं,’’ बिना कुछ सोचे- समझे वह ठेला एक तरफ फेंक कर  उस के साथ हो लिया. रास्ते भर अमित नमकमिर्च लगा कर ढेरों बातें बताता चला गया. सुन कर वह क्रोध से पागल हो उठा.

‘‘उधर…ऊपर 22 नंबर कमरा खटखटाओ, साहब के साथ मालती जरूर मिलेगी. एक बात और, मेरा जिक्र किसी से मत करना, यही कहना कि मैं ने तुम्हें कार में बैठे देखा था, तभी से पीछा करते यहां आया हूं.’’

‘‘हां, भैया, यही कहूंगा. आज मैं उस की गति बना कर रहूंगा. कहती थी खाना बनाने जाती हूं,’’ इतना ही नहीं ढेर सारी भद्दी गालियां बकता हुआ वह कमरे की ओर बढ़ रहा था.

अमित एक कुरसी पर बैठ कर आने वाले तूफान का इंतजार करने लगा. उसे अधिक इंतजार नहीं करना पड़ा. ऊपर से घसीटते, मारते, गालियों की बौछार करते वह मालती को नीचे ले आया. चारों ओर भीड़ जुटने लगी. तभी पुलिस भी आ पहुंची. पीछेपीछे भीड़ थी. थोड़ी देर की हुज्जत के बाद अमित ने देखा कि पुलिस वाले पापा का कालर पकड़े उन्हें धकियाते नीचे घसीटते ला रहे हैं. पापा का मुंह लज्जा से लाल पड़ गया था पर उसे दया नहीं आई. पुलिस वाले गालियों की असभ्य भाषा में उन्हें झिंझोड़ रहे थे. शायद वह ऊपर से खासी मरम्मत कर के लाए थे.

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पुलिस वाले ने एक झन्नाटेदार थप्पड़ मालती के मुंह पर भी दे मारा, उस के मुंह से चीख निकल गई. मुंह से खून बह आया, उसे देख कर पापा पर घड़ों पानी पड़ गया, शर्म से सिर झुकाए वह पुलिस का हाथ झटक कर कार की ओर बढे़, तभी हरिया ने पीछे से उन का कालर पकड़ा, ‘‘ऐ साहब, मैं ऐसे ही नहीं छोड़ूंगा तुम्हें, मेरी औरत की इज्जत लूटी है तुम ने, मैं इस की डाक्टरी जांच कराऊंगा, समझा क्या है तुम ने?’’

‘‘छोड़ कालर, पहले तू अपनी औरत को संभाल फिर बात कर. जब वह राजी है तो दूसरों को दोष क्यों देता है?’’

‘‘तुम ने क्यों बहकाया मेरी घरवाली को?’’

‘‘पहले उस से पूछ, वह क्यों बहकी?’’

‘‘साहब, आप को थाने चलना पडे़गा,’’ पुलिस वाले ने बांह पकड़ कर खींचा.

भीड़ बढ़ती जा रही थी. वह किसी तरह फंदे से निकल कर कार स्टार्ट कर भाग छूटे, लोग चिल्लाते ही रह गए, इधर अमित भी स्कूटर स्टार्ट कर के घर की ओर रवाना हो गया. आते ही उस ने आभा को पूरी घटना बयान कर डाली. सुन कर आभा का मन जहां खुश था वहीं पिता के न आने से दोनों ने रात आंखों ही में काटी. वे दोनों उन के मोबाइल पर भी बात नहीं कर पाए.

दूसरे दिन न मालती आई न पापा. अमित छिप कर मालती के घर के चक्कर लगा आया. वह घर पर जैसे कैद थी. हरिया दरवाजे पर पहरा लगाए बैठा था. जब 3 दिन तक पापा का कुछ पता न लगा तो दोनों ने घबरा कर सब रिश्तेदारों को फोन कर दिए. तुरंत ही सब घबरा कर दौड़े आए. घर आ कर सब चिंता में पड़ गए. अमित ने अपनी चतुराई की रत्ती भर चर्चा नहीं की. वह पिता की व परिवार की नजरों में पाकसाफ रहना चाहता था. आभा ने भी होंठ नहीं खोले.

वे लोग अखबारों में विज्ञापन देने की सोच रहे थे कि दिल्ली से फोन आया कि वह आगरा आदि घूम कर घर लौट रहे हैं. सुन कर सब का चेहरा प्रसन्नता से खिल उठा. जब  वह वापस आए, किसी ने कुछ नहीं पूछा. अमित भी ऐसा बना रहा जैसे उसे कुछ मालूम ही नहीं है. वे दोनों अपने पापा को वापस अपने बीच पाना चाहते थे, शर्मिंदा करना नहीं चाहते थे. पापा के चेहरे पर भी पश्चात्ताप साफ नजर आ रहा था. सब को देख कर वह न हैरान हुए न परेशान, यह जरूर बतलाया कि उन्होंने अपना ट्रांसफर दूसरे शहर में करा लिया है. वह शीघ्र ही यहां से रिलीव हो कर चले जाएंगे.

तभी एक दिन बूआ ने पास बैठ कर गंभीर स्वर में कहा, ‘‘महेंद्र, अगर तू चाहे तो कहीं किसी विधवा से या तलाकशुदा किसी लड़की से बात चलाएं. पेपर में विज्ञापन देने से ढेरों आफर आ सकते हैं.’’

‘‘अरे  नहीं, दीदी, अब इस की जरूरत नहीं है. माया की याद क्या कभी दिल से निकल सकेगी? अब तो अमित और आभा के लिए सोच रहा हूं. दोनों को अच्छे मैच मिल जाएं तो घर आबाद हो जाएगा. मैं अमित को बिजनेस में डालने की सोच रहा हूं. जब तक इस का कारोबार जमेगा आभा भी एम.ए. कर लेगी. अब यहां मेरा मन नहीं लगता, न इन बच्चों का लगता है, क्यों अमित?’’

‘‘हां, पापा, अब यहां नहीं रहेंगे,’’ दोनों चहक उठे. तभी उन्होंने अकेले में अमित से पूछा, ‘‘अमित, तुम ने उस दिन की घटना किसी से बताई तो नहीं?’’ अमित को समझते देर न लगी कि पापा ने उस दिन उसे घटना वाली जगह पर देख लिया था.

बिना घबराए वह बोला, ‘‘नहीं, पापा, मेरी तो समझ में नहीं आया था कि यह क्या हो रहा है. मैं तो रोज की तरह उधर से गुजर रहा था कि झगड़ा और शोर सुन कर उधर आ गया, पता नहीं मालती किस के साथ थी, नाम आप का लग गया. जो हो गया उसे भूल जाइए, पापा. नए शहर में नया माहौल और नए लोग होंगे. आप यहां का सब भूल जाएं तो अच्छा है. इज्जतआबरू बची रहे यही सब से बड़ी बात है,’’ उसे विश्वास हो गया था कि पापा को जो ठोकर लगी है वह जिंदगी भर के लिए एक सबक है. सुबह का भूला घर आ गया था.

लौटती बहारें- भाग 6: मीनू के मायके वालों में क्या बदलाव आया

राजू भी दिन भर बाहर रहता है. खानेपीने का कोई नियम नहीं. तेरे पापा ने चाय बनानी सीख ली है. चाय तो वे ही बना लेते हैं.

ये सब सुन कर मन बेहद दुखी हुआ. मैं भी रेनू और राजू के बहकते कदमों के बारे में मम्मी को सतर्क करना चाहती थी पर उन के स्वास्थ्य को देखते हुए मैं ने इस विषय पर चुप्पी ही साध ली.

अगले दिन मैं ने अपनी सहेली चित्रा को फोन किया. वह मुझ से मिलने घर आ गई. विवाह के बाद मैं उसे मिल न पाई थी. चित्रा मेरी बचपन की एक मात्र अंतरंग सखी थी. वह एक धनी व्यवसायी की बेटी थी, परंतु घमंड से कोसों दूर थी. बेहद स्नेहमयी थी. इसीलिए वह हमेशा मेरे दिल के करीब रही. दोनों एकदूसरे के दुखसुख में भागीदार रहती थीं.

चित्रा के आने पर मेरा मन खुश हो उठा. हम दोनों पहले मम्मी के पास बैठीं.

मम्मी बोलीं, ‘‘अरे चित्रा, आज तो तू मीनू को कहीं बाहर घुमा ला. जब से आई है मेरी सेवा में लगी है. अब मैं ठीक हूं.’’

चित्रा ने चलने का अनुरोध किया तो मैं मना न कर पाई. वह अपनी कार में आई थी. दोनों एक रेस्तरां में पहुंच गईं. चित्रा ने कौफी और सैंडविच का और्डर दिया. फिर दोनों बतियाने लगीं. चित्रा मुझ से मेरे विवाह और ससुराल के अनुभव सुनने के लिए बेताब थी. फिर अचानक चित्रा गंभीर हो गई. बोली, ‘‘मीनू, हम दोनों कितने समय बाद मिले हैं. मैं तेरा दिल दुखाना नहीं चाहती हूं पर इस विषय पर चुप्पी साध कर भी मैं तेरा और तेरे परिवार का नुकसान नहीं करना चाहती.’’

मैं ने उसे सब कुछ खुल कर बताने को कहा तो चित्रा ने कहा, ‘‘मीनू तू तो जानती है

कि मेरा छोटा भाई रजत और राजू कालेज में एकसाथ ही हैं. रजत ने मुझे बताया कि राजू 3-4 महीनों से कालेज में बहुत कम दिखाई देता है. वह कुछ दादा टाइप लड़कों के साथ घूमता है. प्रोफैसर उसे कई बार चेतावनी दे चुके हैं. मुझे लगता है उसे अभी न रोका गया तो वह गलत रास्ते पर आगे बढ़ जाएगा, फिर वहां से लौटना कठिन हो जाएगा.’’

मैं ने चित्रा को शुक्रिया कहा और बोली, ‘‘तू ने सही समय पर मुझे सचेत कर दिया. राजू से आज ही बात करती हूं.’’

बात निकली तो मैं ने रेनू के बारे में भी चित्रा को सब बता दिया. मेरी बात सुन कर चित्रा कहने लगी, ‘‘वैसे तो इस उम्र में लड़कियों और लड़कों में आकर्षण आम बात है पर परेशानी तब होती है जब लड़के मासूम लड़कियों को बहलाफुसला कर उन से संबंध बना कर उन के आपत्तिजनक वीडियो बना कर ब्लैकमेल करने लगते हैं.’’

मैं ने कहा, ‘‘बस चित्रा मुझे यही चिंता खा रही है. रेनू सुनने को तैयार ही नहीं है.

क्या करूं?’’

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अभी हम बातें कर ही रही थीं कि एकाएक मेरी नजर सामने की टेबल पर पड़ी. वहां एक नवयुवक और एक नवयुवती हाथों में हाथ डाले जूस पी रहे थे. वे धीरेधीरे बातें कर रहे थे. मुझे लगा कि इस लड़के को कहीं देखा है. दिमाग पर जोर डाला और ध्यान से देखा तो याद आ गया. यह वही लड़का है, जिस के साथ रेनू बाइक पर घूमती है.

बस अब मेरा दिमाग तेजी से काम करने लगा. इस फ्लर्टी लड़के के चक्कर में रेनू मेरा इतना अपमान कर रही थी. मैं ने झटपट एक प्लान बनाया और चित्रा को समझाया. चित्रा वाशरूम जाने के बहाने उन दोनों के पास जा कर रुकेगी और मैं समय नष्ट न करते हुए मोबाइल से उन का फोटो ले लूंगी. अगर वह जोड़ा सचेत हो जाता है, तो मैं कैमरे का रुख चित्रा की ओर कर के उसे पोज देने को कहने लगूंगी. मगर दोनों प्रेमी अपने आसपास की चहलपहल से बेखबर एक ही गिलास में जूस पीने में मस्त थे. मैं ने जल्दी से फोटो लिए और हम दोनों रेस्तरां से बाहर आ गईं.

घर पर रेनू और राजू भी आ चुके थे. राजू तो चित्रा को घर आया देख सकपका सा गया

पर चित्रा को रेनू बहुत पसंद करती थी, इसलिए वह चित्रा से बहुत प्यार से मिली. एकदूसरे का हालचाल पूछ कर रेनू सब के लिए चाय बनाने चली गई.

कुछ देर रुक राजू मौका देख कर कोचिंग क्लास के बहाने बाहर जाने लगा तो चित्रा ने लपक कर उस का हाथ पकड़ लिया और बोली, ‘‘क्यों मैं इतने दिनों बाद आई हूं, मुझ से बातचीत नहीं करोगे? मीनू के ससुराल जाने के बाद अब मैं ही तुम्हारी दीदी हूं. मुझ से अपने मन की बात कह सकते हो,’’ यह कहतेकहते वह राजू को अलग कमरे में ले गई.

चित्रा ने राजू को समझाया, ‘‘तुम्हारी हरकतों से तुम्हारा कैरियर तो खराब होगा ही, पूरे घर के मानसम्मान पर भी धब्बा लगेगा. तुम्हारे मातापिता तुम से कितनी उम्मीदें लगाए बैठे हैं.’’

राजू सब सिर झुकाए सुनता रहा.

चित्रा ने आगे कहा, ‘‘तुम कल से नियमित कालेज जाओ… उन लड़कों से मिलनाजुलना बंद करो. अगर इस में कोई भी समस्या सामने आती है, तो प्रोफैसर आदित्य के पास चले जाना. वे मेरे कजिन हैं. हर तरह से तुम्हारी मदद करेंगे. हां, अब तुम्हारी सारी गतिविधियों पर ध्यान भी रखा जाएगा. याद रहे तुम्हारी मीनू दीदी उसी कालेज में टौपर रह चुकी हैं.’’

राजू चित्रा का बहुत आदर करता था. अत: ये सब सुन कर रो पड़ा. उस ने चित्रा से वादा किया कि वह उन की बातों पर अमल करेगा. चित्रा ने प्यार से उस की पीठ थपथपाई. तभी

रेनू चाय बना कर कर ले आई. उधर मैं ने भी अपना काम कर लिया. मैं ने रेस्तरां में खींचे गए फोटो वहीं रख दिए जहां टेबल पर रेनू ने चाय रखी थी. मैं वहां से उठ कर मम्मी के कमरे में चली गई.

रेनू चाय के लिए सब को बुलाने लगी. हम सब हंसतेखिलाते चाय पीने लगे. तभी रेनू की नजर फोटो पर पड़ गई, ‘‘किस के फोटो हैं ये?’’ कह कर उन्हें उठा लिया.

चित्रा बोली, ‘‘ये मेरे फोटो खींच रही थी. मेरे तो खींच नहीं पाई. यह जोड़ा रेस्तरां में बैठा था, उस की खिंच गई. मीनू तू तो मोबाइल से भी फोटो नहीं खींच पाती.’’

फोटो देखते ही रेनू के चेहरे का रंग बदल गया. हम चुपचाप अनजान बने चाय पीते रहे.

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रेनू चुपचाप वहां से चली गई. हम थोड़ी देर बाद रेनू के कमरे में जा पहुंचे. वह बिस्तर पर पड़ी रो रही थी.

चित्रा ने उस से प्यार से रोने का कारण पूछा तो उस ने पहले तो बहाना किया पर उस का बहाना मेरे और चित्रा के सामने नहीं चला. मैं ने पुचकार कर पूछा तो उस ने उस लड़के के बारे में सब बता दिया. मैं ने और चित्रा ने उसे इस उम्र में होने वाली गलतियों से आगाह किया और पढ़ाईलिखाई में ध्यान देने को कहा.

रेनू रोतेरोते मेरे गले लग गई और बोली, ‘‘दीदी, मुझे डांटो, मैं बहुत खराब हूं.’’

तब मैं ने प्यार से समझाया, ‘‘सुबह का भूला अगर शाम को घर वापस आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते. अब मम्मीपापा की देखभाल की पूरी जिम्मेदारी तुम्हारी है.’’

रेनू ने हां में सिर हिला दिया. राजू भी सिर झुकाए खड़ा था. वह भी मेरे गले लग गया.

चित्रा जाते समय मम्मीपापा से मिलने गई तो हंस कर बोली, ‘‘अंकल जिस काम के लिए मैं यहां आई थी उसे तो भूल कर जा रही थी. दरअसल, पापा ने मुझे आप के पास इसलिए भेजा था कि पापा को अपने व्यवसाय के लिए एक अनुभवी अकाउंटैंट चाहिए. यदि आप यह कार्य संभाल लें तो उन की चिंता कम हो जाएगी.’’

पापा की खुशी की सीमा न रही. बोले, ‘‘नेकी और पूछपूछ. चित्रा बेटी तुम्हारा यह उपकार कभी नहीं भूलूंगा.’’

यह सुन कर चित्रा प्यार भरे गुस्से से बोली, ‘‘अंकल आप ऐसा कहेंगे तो मैं आप से बहुत नाराज हो जाऊंगी.’’

पापा ने मुसकरा कर अपने कान पकड़ लिए तो सभी जोर से हंस पड़े. सारा माहौल खुशगवार हो गया.

मम्मी अब ठीक थीं. रेनू ने भी घर के कामकाज में ध्यान देना शुरू कर दिया था. मैं ने भी ससुराल लौटने की इच्छा जताई. इस बार राजू मुझे ससुराल छोड़ने जा रहा था. अगले दिन मैं जाने से पहले मम्मीपापा के कमरे के पास से गुजर रही थी तो मुझे उन की बातचीत सुनाई पड़ी.

मम्मी कह रही थीं, ‘‘देखो हम बेटियों को पराया धन, पराई अमानत कह कर दुखी करते हैं परंतु बेटियां पति के घर जा कर भी पिता की चिंता नहीं छोड़तीं.’’

पापा हंस कर बोले, ‘‘तुम ने वह कहावत नहीं सुनी है कि बेटे अपने तब तक रहते हैं जब तक न हो वाइफ और बेटियां तब तक साथ रहती हैं जब तक हो लाइफ.’’

यह सुन कर मैं भी मुसकरा दी. अगले दिन मैं मायके से विदा हो कर ससुराल आ गई. सभी मुझ से और राजू से बहुत प्यार से मिले. शेखर ने राजू को पूरी दिल्ली घुमाया. कई तोहफे दिए. नीलम जीजी भी राजू से मिलने आईं. राजू बहुत ही अच्छे मूड में विदा हुआ.

अम्मां के घुटनों के दर्द के लिए मैं एक तेल लाई थी. उस से मालिश कर के अम्मां और पापाजी के कमरे से निकली तो पापा की आवाज सुनाई दी, ‘‘बहुएं तो प्यार की भूखी होती हैं. जब तक उन्हें पराए घर की, पराए खून की कहते रहेंगे वे ससुराल में अपनी जगह कैसे बनाएंगी?’’

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अम्मां बोलीं, ‘‘सच कह रहे हो शेखर के पापा… वे बेचारियां अपना मायके का सब कुछ छोड़ कर हमारे आसरे आती हैं और हम उन्हें अपनाने में पीछे हटते हैं.’’

‘‘ये नादानियां तुम्हीं ने सब से ज्यादा की हैं,’’ पापा ने कहा तो अम्मां ने शर्म से सिर झुका लिया.

जीने की राह- भाग 1: उदास और हताश सोनू के जीवन की कहानी

Writer- संध्या 

उस दिन सुबह से ही मौसम खुशगवार था. निशांत के घर में फूलों की महक थी, हवा गुनगुना रही थी. उस के मम्मी और डैडी कल ही कानपुर से आ गए थे. निशांत ने उन्हें सबकुछ बता दिया था. उन्हें खुशी थी कि बेटा 5 साल बाद ही सही, ठीक रास्ते पर आ गया था वरना न जाने उसे कौन सा रोग लग गया था कि शादी के नाम से भड़क जाता था.

मम्मीपापा के सामने स्निग्धा को खड़ा कर के निशांत ने कहा, ‘‘अब आप देख लीजिए. जैसा आप चाहते थे वैसा ही मैं ने किया. आप एक सुंदर, पढ़ीलिखी और अच्छी बहू अपने बेटे के लिए चाहते थे. क्या इस से अच्छी व सुंदर बहू कोई और हो सकती है?’’

स्निग्धा निशांत की मम्मी के चरण स्पर्श करने के लिए नीचे की तरफ झुकने लगी, परंतु उन्होंने स्निग्धा को अपने कदमों पर झुकने का मौका ही नहीं दिया. उस के पहले ही उसे अपने सीने से लगा लिया.

स्निग्धा पहली नजर में ही सब को पसंद आ गई थी.

निशांत ने मम्मीडैडी को स्निग्धा के बारे में बताना उचित नहीं समझा. वह जानता था कि स्निग्धा के दुखद और कष्टमय विगत को बताने से मम्मीडैडी को मानसिक संताप पहुंच सकता था. इसलिए उस ने थोड़े से झूठ का सहारा लिया और उन्हें केवल इतना बताया कि स्निग्धा को एक रिश्तेदार ने पालापोसा और पढ़ायालिखाया था. इलाहाबाद में वह उस के साथ पढ़ती थी, तभी उन दोनों की जानपहचान हुई थी. अब वह अपने पैरों पर खड़ी थी और दिल्ली में रह कर एक प्राइवेट फर्म में नौकरी कर रही थी. निशांत के परिवार वाले समझदार थे. स्निग्धा की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए उस के परिवार के बारे में कोई बात नहीं की.

निशांत और स्निग्धा की शादी हो गई. बहुत सादगी और परंपरागत तरीके से उन दोनों की शादी का आयोजन किया गया था. निशांत तथा उस के घर वाले शादीब्याह में बहुत ज्यादा तामझाम और दिखावे के खिलाफ थे. थोड़े से खास रिश्तेदारों और मित्रों के बीच में उन की शादी संपन्न हो गई.

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शादी के पहले एक दिन एकांत में निशांत ने स्निग्धा से पूछा, ‘अगर तुम्हारा मन हो तो हम दोनों चल कर तुम्हारे मम्मीपापा को मना लाते हैं. उन का आशीर्वाद मिलेगा तो हम सब को अच्छा लगेगा.’

‘चाहती तो मैं भी हूं परंतु अभी मेरे पास इतना नैतिक साहस नहीं है. एक बार तुम्हारे साथ शादी कर के घरगृहस्थी सजा लूं तब फिर चल कर मम्मीपापा से मिलेंगे. तब वे मेरे अतीत की भूलों को माफ भी कर सकेंगे.’

‘जैसी तुम्हारी इच्छा,’ और बात वहीं समाप्त हो गई थी.

पति, सास, ससुर और एक पारिवारिक जीवन, बिलकुल नया अनुभव था स्निग्धा के लिए. कितना सुखद और स्निग्ध, वसंत के फूलों की खुशबू से भरा हुआ, वर्षा की पहली फुहारों की तरह मदहोश करता हुआ और पायल की मधुर झंकार की तरह कानों में संगीत घोलता हुआ, यह था जीवन का असली संगीत, जिस की धुनों के बीच हर व्यक्ति झूमझूम जाता है. और आज स्निग्धा जीवन के बीहड़ रास्तों के घुमावदार मोड़ों को पार करती हुई अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हुई थी.

शादी के बाद स्निग्धा ने निशांत के घरपरिवार को ही नहीं, बल्कि उस के व्यक्तित्व को भी संवार दिया था. इस में निशांत की मम्मी का बहुत बड़ा हाथ था. उन्होंने स्निग्धा को एक बेटी की तरह घरपरिवार की जिम्मेदारी से अवगत कराया. उस ने भी अपनी सास से कुछ सीखने में संकोच नहीं किया. नतीजा यह हुआ कि कुछ ही दिनों में उस ने एक समझदार पत्नी, आदर्श बहू और सुलझी हुई गृहिणी के रूप में सब के दिलों में स्थान बना लिया.

अब उसे स्वयं विश्वास नहीं होता था कि वह 5 साल पहले की एक बिगड़ैल और गैरजिम्मेदार, सामाजिक परंपराओं को तोड़ने वाली लड़की थी.

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निशांत इतना शांत और सरल स्वभाव का व्यक्ति था कि वह कभी भी स्निग्धा के अतीत की चर्चा नहीं करता था, परंतु वह स्वयं कभीकभी एकांत के क्षणों में सोचने पर मजबूर हो जाती थी कि शादी के पहले वह किस प्रकार का गंदा जीवन व्यतीत कर रही थी. उस ने तब अपने जीवन के लिए जो राह चुनी थी वह एक न एक दिन उसे पतन के गर्त में डुबो देती. बिना शादी के किसी पुरुष के साथ रहना और शादी कर के अपने पति व एक परिवार के बीच रहने में कितना अंतर था. अब उसे महसूस हो रहा था कि शादी के पहले वह एक डरासहमा, उपेक्षित और घृणास्पद जीवन व्यतीत कर रही थी.

अपने रूप और सौंदर्य पर स्निग्धा को बहुत अभिमान था. वह सुशिक्षित और संपन्न परिवार की लड़की थी, इसलिए लालनपालन बहुत प्यार व दुलार के साथ हुआ था. उस ने अपने जीवन में किसी अभाव को कभी महसूस नहीं किया था, उस के ऊपर किसी प्रकार के पारिवारिक और सामाजिक प्रतिबंध नहीं थे, वह जिद्दी और विद्रोही स्वभाव की हो गई थी.

Manohar Kahaniya: बीवी और मंगेतर को मारने वाला ‘नाइट्रोजन गैस किलर’- भाग 2

सौजन्य- मनोहर कहानियां

Writer- शाहनवाज

पिता की चिंता महसूस कर नवनिंदर हकपका गया. जवाब में उस ने कहा, ‘‘सतश्रीअकाल पापाजी. दरअसल, आज सुबह सोनू के साथ मार्किट शौपिंग के लिए जाना था लेकिन छोटी सी एक बात पर वह रूठ गई. गुस्सा हो कर वह घर से निकल गई, वह भी बिना अपना फोन लिए. मैं ने उस का फोन देखा भी नहीं था. मैं भी उसे तब से फोन मिला रहा हूं, लेकिन अभी देखा कि वह अपना फोन ले जाना भूल गई है. आप चिंता न करें. वह जल्द ही घर लौट आएगी. तब मैं आप की बात उस से करवा दूंगा.’’

अपनी बेटी और होने वाले दामाद के बीच झगड़े की इस बात को सुन कर सुखचैन सिंह के मन का सुख और चैन मानो कहीं गायब सा हो गया. उन के दिल में अपनी बेटी को ले कर बेचैनी पैदा हो गई.

वह हर पल सोनू के बारे में ही सोचे जा रहे थे कि आखिर एक बड़े से शहर में उन की बेटी बिना फोन लिए कहां भटक रही होगी या उस के साथ कुछ अनहोनी न हो जाए.

14 अक्तूबर, 2021 को जब सोनू के घर वालों को यह बात पता चली, उस के बाद से नवनिंदर को हर घंटे फोन आता. लेकिन सोनू के वापस आने की उन्हें कोई खबर नहीं मिली.

सोनू के लापता होने को 24 घंटे हो गए तो घर वालों को अपनी बेटी की चिंता होने लगी कि सोनू का भाई दविंदर सिंह और पिता सुखचैन सिंह अगले दिन 15 अक्तूबर की सुबहसुबह करीब 5 बजे बठिंडा से पटियाला नवनिंदर से मिलने के लिए पहुंच गए.

नवनिंदर ने उन्हें अपने और सोनू के बीच होने वाले झगड़े के बारे में बताया लेकिन नवनिंदर की बात सुन कर उन के मन को शांति नहीं हुई. मामले को गंभीर होता देख, दविंदर, सुखचैन सिंह और नवनिंदर, तीनों पटियाला के अर्बन एस्टेट पुलिस स्टेशन जा पहुंचे.

अर्बन एस्टेट थाने के थानाप्रभारी रौनी सिंह ने सुखचैन सिंह की शिकायत पर सोनू की गुमशुदगी की सूचना दर्ज कर जल्द ही काररवाई शुरू कर दी. ऐसे में सोनू को ढूंढने के लिए सब से पहले जिस शख्स से पूछताछ होनी थी, वह नवनिंदर ही था.

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पुलिस ने नवनिंदर से उन के बीच होने वाले झगड़े की वजह पूछी. जब नवनिंदर ने झगड़े का कारण बताया तो उसे सुन कर पुलिस के मन में पहली नजर में ही उस के ऊपर शक होने लगा. नवनिंदर ने बताया कि मार्किट में एक चीज को खरीदने के लिए उस ने सोनू को मना कर दिया था, जिस के बाद वह रूठ गई थी. होटल में उन के बीच इसी बात को ले कर हलकी नोकझोंक भी हुई थी.

नवनिंदर की ये बातें सुन कर थानाप्रभारी के मन में सवाल उठने शुरू हो गए थे. वह सोचने लगे कि जिस जोड़ी की भला कुछ दिनों के बाद शादी होने वाली हो, उन के बीच इस बात पर झगड़ा होना और घर से निकल जाना, कैसे संभव हो सकता है.

ये वजह उन्हें कुछ हजम नहीं हुई. तो ऐसे में नवनिंदर से पुलिस की पूछताछ करने वाली टीम ने कुछ और जरूरी सवालजवाब किए.

पुलिस वालों ने नोटिस किया कि नवनिंदर ने उन के जितने सवालों का जवाब दिया, उन से उन्हें नवनिंदर पर शक गहराता जा रहा था. ऐसी स्थिति में थानाप्रभारी ने सोनू के पिता और भाई को तसल्ली दी और जल्द ही सोनू के बारे में पता लगाने का आश्वासन भी दिया. और इस मामले को ले कर पुलिस ने तुरंत काररवाई करनी शुरू कर दी.

पुलिस टीमें जुटीं जांच में

पुलिस की कई टीमें इस काम में जुट गईं. एक टीम पटियाला में सोनू को ढूंढने में लगी थी तो दूसरी टैक्निकल टीम उस की लास्ट लोकेशन और उस से पहले वह कहांकहां गई, उस के बारे में पता करने में व्यस्त थी.

ऐसे में थानाप्रभारी के नेतृत्व में एक टीम ऐसी बनाई गई जोकि सोनू के मंगेतर नवनिंदर की हिस्ट्री का पता लगाने के लिए थी. इस टीम में खुद थानाप्रभारी शामिल थे.

एक तरफ पुलिस की सभी टीमें सोनू का पता लगाने का काम कर रही थीं तो दूसरी तरफ समय बीतने के साथसाथ सोनू के घर वालों के सब्र का बांध टूटता जा रहा था. घर वालों के मन में सोनू को ले कर बेचैनी और चिंता ने इस कदर घर कर लिया था कि जिसे निकाल बाहर फंकना बेहद मुश्किल था. अगले 4-5 दिनों तक पुलिस से सोनू के परिवार वालों को कोई जवाब नहीं मिला, लेकिन अंदर ही अंदर पुलिस की टीमें अपना काम कर रही थीं.

20 अक्तूबर, 2021 के दिन थानाप्रभारी ने बठिंडा से सोनू के घर वालों को पटियाला अर्बन एस्टेट पुलिस थाने में बुलाया. पुलिस ने नवनिंदर के बारे में कुछ ऐसी चीजों का पता लगा लिया था, जिस का सोनू के घर वालों को पता होना जरूरी था.

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खबर मिलते ही सुखचैन सिंह, दविंदर और साथ में कुछ और लोग अर्बन एस्टेट पुलिस थाने जल्द से जल्द पहुंच गए. उन के पहुंचते ही थानाप्रभारी ने उन्हें अपने औफिस में बुलाया और उन के होने वाले दामाद नवनिंदर के बारे में कुछ ऐसे खुलासे किए, जिसे सुन कर सोनू के घर वालों के होश उड़ गए थे. पता चला कि नवनिंदर की पहली शादी 12 फरवरी, 2018 को गांव बिशनपुरा, जिला संगरूर, पंजाब की रहने वाली सुखदीप कौर से हो चुकी थी. सुखदीप उच्चशिक्षित परिवार से ताल्लुक रखती थी और वह खुद भी ट्रिपल एमए थी. लेकिन 19 सितंबर 2021 को उस की रहस्यमयी हालत में मौत हो गई. रहस्यमयी इसलिए क्योंकि उस की मौत कैसे हुई, इस का किसी के पास कोई प्रूफ नहीं था.

पुलिस की टीम ने जब संगरूर में सुखदीप के घर पर जा कर उस की मृत्यु का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि सुखदीप की मौत हार्ट अटैक से हुई थी. जब उन से पूछा गया कि उन्हें इस बात पर कैसे यकीन है कि सुखदीप की मौत हार्ट अटैक से हुई तो उन्होंने बताया कि उस के पूरे शरीर पर किसी चीज का निशान नहीं था, जिस से उन्हें किसी और बात पर शक हो.

मंगेतर ही निकला कातिल

परिवार ने यह भी बताया कि सुखदीप 5 महीने की प्रेग्नेंट भी थी. सिर्फ यही नहीं, पुलिस टीम ने नवनिंदर के बारे में कुछ और भी पता लगाया जोकि हैरान करने वाला था. फरवरी 2018 में सुखदीप से पहली शादी के बाद उस ने पहली अक्तूबर, 2018 को भवानीगढ़ संगरूर की रहने वाली लखविंदर कौर से भी शादी की थी. इस की जानकारी सुखदीप के घर वालों को नहीं हुई.

अगले भाग में पढ़ें- नाइट्रोजन गैस को बनाया मौत का हथियार

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