वह बेमौत नहीं मरता: एक कठोर मां ने कैसे ले ली बेटे की जान

बड़बड़ा रही थीं 80 साल की अम्मां. सुबहसुबह उठ कर बड़बड़ करना उन की रोज की आदत है, ‘‘हमारे घर में नहीं बनती यह दाल वाली रोटी, हमारे घर में यह नहीं चलता, हमारे घर में वह नहीं किया जाता.’’ सुबह 4 बजे उठ जाती हैं अम्मां, पूजापाठ, हवनमंत्र, सब के खाने में रोकटोक, सोनेजागने पर रोकटोक, सब के जीने के स्तर पर रोकटोक. पड़ोस में रहती हूं न मैं, और मेरी खिड़की उन के आंगन में खुलती है, इसलिए न चाहते हुए भी सारी की सारी बातें मेरे कान में पड़ती रहती हैं.

अम्मां की बड़ी बेटी अकसर आती है और महीना भर रह जाती है. घूमती है अम्मां के पीछेपीछे, उन का अनुसरण करती हुई.

आंगन में बेटी की आवाज गूंजी, ‘‘अम्मां, पानी उबल गया है अब पत्ती और चीनी डाल दूं?’’

‘‘नहीं, थोड़ा सा और उबलने दे,’’ अम्मां अखबार पढ़ती हुई बोलीं.

मुझे हंसी आ गई थी कि 60 साल की बेटी मां से चाय बनाना सीख रही थी. अम्मां चाहती हैं कि सभी पूरी उम्र उन के सामने बड़े ही न हों.

‘‘हां, अब चाय डाल दे, चीनी और दूध भी. 2-3 उबाल आने दे. हां, अब ले आ.’’

अम्मां की कमजोरी हर रोज मैं महसूस करती हूं. 80 साल की अम्मां नहीं चाहतीं कि कोई अपनी इच्छा से सांस भी ले. बड़ी बहू कुछ साल साथ रही फिर अलग चली गई.

बेटे के अलग होने पर अम्मां ने जो रोनाधोना शुरू किया उसे देख कर छोटा लड़का डर गया. वह ऐसा घबराया कि उस ने अम्मां को कुछ भी कहना छोड़ दिया.

दुकान के भी एकएक काम में अम्मां का पूरा दखल था. नौकर कितनी तनख्वाह लेता है, इस का पता भी छोटे लड़के को नहीं था. अम्मां ही तनख्वाह बांटतीं.

छोटे बेटे का परिवार हुआ. बड़ी समझदार थी उस की पत्नी. जब आई थी अच्छे खातेपीते घर की लड़की थी लेकिन अब 18 साल में एकदम फूहड़गंवार बन कर रह गई है.

अम्मां बेटी के साथ बैठ कर चुहल करतीं तो मेरा मन उबलने लगता. गुस्सा आता मुझे कि कैसी औरत है यह. कभी उन के घर जा कर देखो तो, रसोई में वही टीन के डब्बे लगे हैं जिन पर तेल और धुएं की मोटी परत चढ़ चुकी है. बहू की क्या मजाल जो नए सुंदर डब्बे ला कर रसोई में सजा ले और उन में दालें, मसाले डाल ले.

मरजी अम्मां की और फूहड़ता का लेबल बहू के माथे पर. बड़ी बेटी जो दिनरात मां का अहम् संतुष्ट करती है, जिस का अपना घर हर सुखसुविधा से भरापूरा है, जो माइक्रोवेव के बिना खाना ही गरम नहीं कर सकती, वह क्या अपनी मां को समझा नहीं सकती? मगर नहीं, पता नहीं कैसा मोह है इस बेटी का कि मां का दिल न दुखे चाहे हजारों दिल दिनरात कुढ़ते रहे.

‘‘मेरे घर में 3 रोटियां खाने का रिवाज नहीं,’’ अम्मां ने बहू के आते ही घर के नियम उस के कान में डाल दिए थे. जब अम्मां ने देखा कि बहू ने चौथी रोटी पर भी हाथ डाल दिया तो बच्चों को नपातुला भोजन परोसने वाली अम्मां कहां सह लेती कि बहू हर रोज 1-1 रोटी ज्यादा खा जाती.

छोटा लड़का मां को खुश करताकरता ही बीमार रहने लगा था. सुबह से शाम तक दुकान पर काम करता और पेट में डलती गिन कर पतलीपतली 5 रोटियां जो उस के पूरे दिन का राशन थीं. बाजार से कुछ खरीद कर इस डर से नहीं खाता कि नौकरों से पता चलने के बाद अम्मां घर में महाभारत मचा देंगी.

‘‘किसी ने जादूटोना कर दिया है हमारे घर पर,’’ बेटा बीमार पड़ा तो अम्मां यह कहते हुए गंडेतावीजों में ऐसी पड़ीं कि अड़ोसीपड़ोसी सभी उन को दुश्मन नजर आने लगे, जिन में सब से ऊपर मेरा नाम आता था.

अम्मां का पूरा दिन हवनमंत्र में बीतता है और जादूटोने पर भी उन का उतना ही विश्वास था. पूरा दिन परिवार का खून जलाने वाली अम्मां को स्वर्ग चाहिए चाहे जीते जी आसपास नरक बन जाए. छोटा बेटा इलाज के चक्कर में कई बार दिल्ली गया था. सांस अधिक फूलने लगी थी इसलिए इन दिनों वह घर पर ही था. एक सुबह वह चल बसा. हम सब भाग कर उन के घर जमा हुए तो मेरी सूरत पर नजर पड़ते ही अम्मां ने चीखना- चिल्लाना शुरू किया, ‘‘हाय, तू मेरा बेटा खा गई, तूने जादूटोने किए, देख, मेरा बच्चा चला गया.’’

अवाक् रह गई मैं. सभी मेरा मुंह देखने लगे. ऐसा दर्दनाक मंजर और उस पर मुझ पर ऐसा आरोप. मुझे भला क्या चाहिए था अम्मां से जो मैं जादूटोना करती.

‘‘अरे, बड़की बहू तेरी बड़ी सगी है न. सारा छोटा न ले जाए इसलिए उस ने तेरे हाथ जादूटोने भेज दिए…’’

मैं कुछ कहती इस से पहले मेरे पति ने मुझे पीछे खींच लिया और बोले, ‘‘शांति, चलो यहां से.’’

मौका ऐसा था कि दया की पात्र अम्मां वास्तव में एक पड़ोसी की दया की हकदार भी नहीं रही थीं.

इनसान बहुत हद तक अपने हालात के लिए खुद ही जिम्मेदार होता है. उस का किया हुआ एकएक कर्म कड़ी दर कड़ी बढ़ता हुआ कितनी दूर तक चला आता है. लंबी दूरी तय कर लेने के बाद भी शुरू की गई कड़ी से वास्ता नहीं टूटता. 80 साल की अम्मां आज भी वैसी की वैसी ही हैं.

बहू दुकान पर जाती है और बड़ी पोती स्कूल के साथसाथ घर भी संभालती है. अम्मां की सारी कड़वाहट अब पोती पर निकलती है. 4 साल हो गए बेटे को गए. इन 4 सालों में अम्मां पर बस, इतना ही असर हुआ है कि उन की जबान की धार पहले से कुछ और भी तेज हो गई है.

‘‘कितनी बार कहा कि सुबहसुबह शोर मत किया करो, अम्मां, मेरे पेपर चल रहे हैं. रात देर तक पढ़ना पड़ता है और सुबह 4 बजे से ही तुम्हारी किटकिट शुरू हो जाती है,’’ एक दिन बड़ी पोती ने चीख कर कहा तो अम्मां सन्न रह गईं.

‘‘रहना है तो तुम हमारे साथ आराम से रहो वरना चली जाओ बूआ के साथ. दाल वाली रोटी पसंद नहीं तो बेशक भूखी रह जाओ, सादी रोटी बना लो मगर मेरा दिमाग मत चाटो, मेरा पेपर है.’’

‘‘हायहाय, मेरा बेटा चला गया तभी तुम्हारी इतनी हिम्मत हो गई…’’

अम्मां की बातें बीच में काटते हुए पोती बोली, ‘‘बेटा चला गया तभी तुम्हारी भी हिम्मत होती है उठतेबैठते हमें घर से निकालने की. पापा जिंदा होते तो तुम्हारी जबान भी इतनी लंबी न होती…’’

खिड़की से आवाजें अंदर आ रही थीं.

‘‘…अपने बेटे को कभी पेट भर कर खिलाया होता तो आज हम भी बाप को न तरसते. अम्मां, इज्जत लेना चाहती हो तो इज्जत करना भी सीखो. मुझे पापा मत समझना अम्मां, मैं नहीं सह पाऊंगी, समझी न तुम.’’

शायद अम्मां का हाथ पोती पर उठ गया था, जिसे पोती ने रोक लिया था.

तरस आता था मुझे बच्ची पर, लेकिन अब थोड़ी खुशी भी हो रही है कि इस बच्ची को विरोध करना भी आता है.

पेपर खत्म हुए और एक दिन फिर से घर में कोहराम मच गया. घबरा कर खिड़की में से देखा. चमचमाते 3 बड़ेछोटे टं्रक आंगन में पड़े थे. जिन पर अम्मां चीख रही थीं. दुकान से पैसे ले कर खर्च जो कर लिए थे.

‘‘घर में इतने ट्रंक हैं फिर इन की क्या जरूरत थी?’’

‘‘होंगे, मगर मेरे पास नहीं हैं और मुझे अपना सामान रखने के लिए चाहिए.’’

अम्मां कुली का हाथ रोक रही थीं तो पोती ने अम्मां का हाथ झटक दिया था और बोली, ‘‘चलो भैया, टं्रक अंदर रखो.’’

छाती पीटपीट कर रोने लगी थी अम्मां, पोती ने लगे हाथ रसोई में जा कर टीन के सभी डब्बे बाहर ला पटके जिन्हें बाद में कबाड़ी वाला ले गया. पोती ने नए सुंदर डब्बे धो कर सामने मेज पर सजा दिए थे. अम्मां ने फिर मुंह खोला तो इस बार पोती शांत स्वर में बोली, ‘‘पापा कमाकमा कर मर गए, मेरी मां भी क्या कमाकमा कर तुम्हारी झोली ही भरती रहेगी? हमें जीने कब दोगी अम्मां? जीतेजी जीने दो अम्मां, हम पर कृपा करो…’’

पोती की इस बगावत से अम्मां सन्न थीं. वे सुधरेंगी या नहीं, मैं नहीं जानती मगर इतना जरूर जानती हूं कि अम्मां के लिए यह सब किसी प्रलय से कम नहीं था. सोचती हूं इतना ही विरोध अगर छोटे बेटे ने भी कर दिखाया होता तो इस तरह का दृश्य नहीं होता जो अब इस घर का है.

कुछ और दिन बीत गए. 20 साल की पोती धीरेधीरे मुंहजोर होती जा रही है. अपने ढंग से काम करती है और अम्मां का जायज मानसम्मान भी नहीं करती. हर रोज घर में तूतू मैंमैं होती है. बच्चों के खानेपीने में अम्मां की सदा की रोकटोक भला पोती सहे भी क्यों. भाई को पेट भर खिलाती है, कई बार थाली में कुछ छूट जाए तो अम्मां चीखने लगती हैं,  ‘‘कम डालती थाली में तो इतना जाया न होता…’’

‘‘तुम मेरे भाई की रोटियां मत गिना करो अम्मां, बढ़ता बच्चा है कभी भूख ज्यादा भी लग जाती है. तुम्हारी तरह मैं पेट नापनाप कर खाना नहीं बना सकती…’’

‘‘मैं पेट नाप कर खाना बनाती हूं?’’ अम्मां चीखीं.

‘‘क्या तुम्हें नहीं पता? घर में तुम्हीं ने 2 रोटी का नियम बना रखा है न और पेट नाप कर बनाना किसे कहते हैं. तुम्हारी वजह से मेरा बाप मर गया, सांस भी नहीं लेने देती थीं तुम उन्हें. घुटघुट कर मर गया मेरा बाप, अब हमें तो जीने दो. इनसान दिनरात रोटी के लिए खटतामरता है, हमें तो भर पेट खाने दो.’’

अम्मां अब पगलाई सी हैं. सारा राजपाट अब पोती ने छीन लिया है. जरा सी बच्ची एक गृहस्वामिनी बन गई.

‘‘रोती रहती हैं अब अम्मां. सभी को दुश्मन बना चुकी हैं. कोई उन से बात करना नहीं चाहता. पोती को कोसना घटता नहीं. अपनी भूल वह आज भी नहीं मानतीं. 80 साल जी चुकने के बाद भी उन्हें बैराग नहीं सूझता. सब से बड़ा नुकसान उन पंडितों को हुआ है जो अब यज्ञ, हवन के बहाने अम्मां से पूरीहलवा उड़ाने नहीं आ पाते. जब कभी कोई भटक कर आ पहुंचे तो पोती झटक देती है, ‘‘जाओ, आगे जाओ, हमें बख्शो.

पुड़िया : राहुल और सुमन का अनचाहा गिफ्ट

लगातार बज रही मोबाइल फोन की घंटी से राहुल जाग गया था, लेकिन तब तक फोन कट चुका था. उस ने मोबाइल देखा, तो सुमन की 12 मिस्ड काल थीं.

अभी पिछली रात ही तो वे दोनों काफी देर तक फोन पर औनलाइन थे, जब सुमन ने कहा था, ‘मैं आखिरी बार पूछ रहीं हूं. अब मेरे पास कोई और रास्ता नहीं है सिवा खुदकुशी कर लेने के या घर छोड़ कर कहीं अनजान जगह जाने के…’

कम शब्दों में ही बहुतकुछ समझा और समझाया जा रहा था. फोन रखने के काफी देर बाद भी राहुल को नींद नहीं आई थी. न जाने कब उस की अभी एक घंटे पहले ही आंख लग गई थी. उस ने सुमन को कोई ऐसीवैसी हरकत न करने को कितना समझाया था, तो क्या सुमन ने सचमुच…

राहुल यह सोच कर ही घबरा उठा था. उस ने नंबर डायल कर दिया. दूसरी तरफ सुमन थी, ‘राहुल, मैं अभी तुम्हारे पास आ रही हूं, सबकुछ छोड़ कर. हम किसी नई अनजान जगह पर चले जाएंगे, जहां हमें कोई भी नहीं जानतापहचानता होगा और वहीं जा कर अपनी एक नई जिंदगी शुरू करेंगे.’

राहुल अवाक सा रह गया. उस के मुंह से बस इतना ही निकला, ‘‘नहीं सुमन, हम ऐसा नहीं कर सकते.’’

सुमन ने सुबकते हुए कहा, ‘राहुल, तो इतने साल से तुम मुझे प्यार नहीं करते थे? तुम मुझे सिर्फ अपनी जिस्मानी भूख शांत करने की खुराक समझते रहे. अपना सबकुछ तो तुम्हें दे दिया है. बस एक जान बची है, वह भी दे देती हूं.’

राहुल ने भी रोते हुए कहा, ‘‘नहीं सुमन, मैं ने तुम से सच्चा प्यार किया है, जो हमेशा ही जस का तस बना रहेगा. लेकिन, तुम इस कदर पागलों जैसी न बात करो और न ही ऐसे खयाल पालो. मैं तुम्हें थोड़ी देर में बताता हूं.’’

फोन रखने के बाद राहुल अपने बिस्तर पर निढाल हो गया. उस का सिर लग रहा था मानो फट जाएगा. उस के सामने सबकुछ किसी फिल्म की तरह चलने लगा…

इंटर की कैमिस्ट्री कोचिंग की क्लास में सुमन उस की बैचमेट थी. अल्हड़ सी सुमन एक औसत रंगरूप की लड़की थी. न जाने नोट्स के लेनदेन के बीच या किसी न्यूमैरिकल की गुत्थी सुलझाते हुए कब दोनों के दिल उलझ गए, पता ही नहीं चला.

सबकुछ नौर्मल चल रहा था कि अचानक बोर्ड के इम्तिहान की घोषणा के साथ ही कोचिंग क्लासेस बंद हो गईं और दोनों ने एकदूसरे की अहमियत अपने लिए महसूस की.

इस के बाद उन दोनों ने फोन पर बातें शुरू कर दी थीं, लेकिन अपने भविष्य को ले कर भी वे सजग थे. यही वजह थी कि उन्होंने इंटर का इम्तिहान अच्छे नंबरों से पास किया था.

सुमन ने वहीं अपने शहर के महिला डिगरी कालेज में दाखिला लिया और राहुल ने यूनिवर्सिटी से अपनी आगे की पढ़ाई करने का फैसला लिया. दोनों में सब्र था, एकदूसरे पर अटूट भरोसा था, फिर भी कभीकभार वे दोनों 2-4 दिन में चोरीछिपे मिल लिया करते थे.

अब तो दोनों ने एकदूसरे के घर आनाजाना शुरू कर दिया था. राहुल सुमन के मम्मीपापा से अच्छी तरह घुलमिल चुका था, तो सुमन भी राहुल की मां और बहन निकिता की अच्छी दोस्त बन चुकी थी.

निकिता की शादी के लिए वर की तलाश की जा रही थी, जिस को ले कर दोनों के बीच खूब हंसीमजाक भी चलता रहता था.

कभीकभी ऐसा भी होता था कि घर वाले कहीं बाहर गए हों तो ऐसे में सुमन और राहुल का प्रोग्राम बन जाता था. दोनों समझदार थे. कभी जिस्मानी ताल्लुक का न खयाल आया, न कोशिश की गई किसी तरफ से, मगर वह कहते हैं न कि इस उम्र में इतना उतावलापन होता है कि सबकुछ जान लेने की जल्दी रहती है.

ऐसे ही कोई दिन था, जब उखड़ीउखड़ी सांसों के साथ सुमन राहुल से मिली थी. उस के उठते उभार और सूखे होंठ देख कर राहुल को लगा कि वह प्यासी है और राहुल के होंठ उस के होंठों से जा मिले. इस के बाद तो वह सबकुछ हो गया, जिसे शादी के पहले गलत माना जाता है.

बात आईगई हो गई. जहां राहुल को इस का पछतावा था, वहीं सुमन को सबकुछ सौंपने का सुख महसूस हो रहा था.

आजकल राहुल बहुत सुकून में था, क्योंकि उस की बहन निकिता की

शादी तय हो चुकी थी और लड़का ओएनजीसी में एक अच्छे पद पर था. शादी चूंकि रिश्तेदारी में ही तय हुई थी, इसलिए दहेज का ज्यादा दबाव भी नहीं था.

तभी ‘भैया’ की पुकार सुन कर राहुल का ध्यान भंग हुआ. निकिता चाय का प्याला हाथ में लिए सामने खड़ी थी. इस उलाहने के साथ कि महाराज आजकल बहरे होते जा रहे हैं, मेरे जाने के बाद इन का न जाने क्या होगा.

आमतौर पर राहुल इस का जवाब पलट के दे ही देता था, मगर उस ने कुछ भी नहीं कहा. चाय रखी हुई थी. वह फिर से अपने खयालों में खो गया.

अभी पिछले हफ्ते की ही तो बात है, जब सुमन ने बहुत घबरा कर राहुल से तुरंत मिलने को कहा था. इस खास हिदायत के साथ कि घर के अलावा कहीं दूसरी जगह पर.

सुमन से जब राहुल मिला, तो सुमन बहुत घबराई हुई थी. उस का गला

रुंधा हुआ, मगर उस की आवाज में एक भरोसा था.

सुमन ने बताया कि उस का प्रेग्नेंसी किट से टैस्ट पौजिटिव आया है. इतना सुन कर राहुल को मानो सदमा सा लगा था, फिर भी खुद को संभालते हुए उस ने कहा था, ‘‘घबराओ मत. एक बार फिर से चैक कर लो.’’

दोबारा जांच करने पर भी वही नतीजा आने पर सुमन के सब्र का बांध टूट गया. तब उस ने कहा था, ‘‘राहुल, तुम मुझ से शादी कर लो.’’

‘‘नहीं, ऐसा अभी मैं कैसे कर सकता हूं? अगले महीने ही तो निकिता की शादी है,’’ राहुल बोला.

‘‘मगर, फिर मैं क्या करूं? कहां जाऊं?’’ कह कर सुमन फिर से सुबकने लगी.

राहुल बोला, ‘‘क्या बताऊं, मेरा दिमाग कुछ भी काम नहीं कर रहा.’’

‘‘हां, तुम्हारे दिमाग को वह सब काम तो खूब बढि़या से करने को आता है,’’ सुमन ने ताना मारा. उन दोनों के बीच की बातचीत बेनतीजा निकली.

राहुल ने सुमन का पिछले कई दिनों के बाद कल रात को फोन रिसीव किया था. उसे लगने लगा कि दिमाग की नसें फट जाएंगी, तो वह उस सोच से उबरने की सोचने लगा. जितना वह उसे भूलना चाहता था, उतना ही उस में उलझता जा रहा था.

तभी राहुल को रेलवे स्टेशन के पास वाली पुलिया के नीचे का वह तंबू याद आया, जिस का संचालक कोई चिलमबाज था और खुद को खानदानी हकीम बताता था.

राहुल को मानो किसी काली अंधेरी गुफा के भीतर से सूरज की कोई किरण दिखाई दे गई. वह दिमागी तौर पर अचानक ही बहुत हलकाफुलका महसूस करने लगा था. तुरंत ही वह वहां से समस्या बता कर एक पुडि़या लिए हुए सुमन के घर पहुंच गया.

औपचारिक बातचीत और चाय की चुसकियां लेते हुए राहुल ने वह पुडि़या सुमन के हाथों में पकड़ा दी और इशारेइशारे में उस के सेवन के लिए भी उसे समझा दिया.

पढ़ीलिखी सुमन के दिमाग में कई बार ऐसे किसी झोलाछाप से ली हुई दवा के इस्तेमाल न करने और दिल में समाज और परिवार के लोगों को ले कर ऊहापोह मचती रही, पर आखिरकार समाज का डर ही जीता और सुमन ने उस पुडि़या का चूरन पानी में घोल कर पी लिया.

रात होतेहोते सुमन को खून आना शुरू हो गया. पहलेपहल तो इस पीड़ा के बीच भी सुमन मन ही मन खुश हुई कि दवा सही काम कर गई, मगर समय बीतने के साथ खून रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था और वह अपने कमरे में ही बेहोश हो गई.

उधर राहुल मानो सारी समस्या से बाहर आ चुका था. हालांकि रहरह कर उसे सुमन का खयाल आ ही जाता था. उधर सुमन की मां ने जब बहुत देर तक सुमन की आहट महसूस नहीं की, तो उन्होंने उस के कमरे में जा कर देखा. वहां का सीन देखते ही उन के होश उड़ गए.

सुमन को अस्पताल में भरती कराया गया, जहां डाक्टरों ने सबकुछ साफ कर दिया. अगले दिन सुबह के 10 बजे राहुल का फोन सुमन के नंबर पर आया और सुमन के पिता ने बात की.

सुमन के बारे में सुनते ही राहुल को मानो चक्कर आ गया. सुमन के पिता बहुत सुलझे हुए और समझदार इनसान थे. उन्होंने कोई आक्रामक तेवर नहीं दिखाया था, न ही वे राहुल या सुमन को दोष दे रहे थे. हां, उन के स्वर में चिंता जरूर छिपी थी, जैसा कि लाजिमी भी था. उन के इस बरताव ने राहुल को पछतावा महसूस करने पर मजबूर कर दिया.

राहुल ने अपने पिता से आज औफिस न जाने के लिए कहा और उन को साथ ले कर अस्पताल चला गया. सुमन और राहुल के पिता ने हालात को भांपते हुए यह फैसला किया कि राहुल और सुमन की शादी भी निकिता के ब्याह मंडप में ही कर दी जाएगी.

हवस का नतीजा : मुग्धा का पति कैसा था

मुग्धा का बदन बुखार से तप रहा था. ऊपर से रसोई की जिम्मेदारी. किसी तरह सब्जी चलाए जा रही थी तभी उस का देवर राज वहां पानी पीने आया. उस ने मुग्धा के हावभाव देखे तो उस के माथे पर हाथ रखा और बोला, ‘‘भाभी, आप को तो तेज बुखार है.’’

‘‘हां…’’ मुग्धा ने कमजोर आवाज में कहा, ‘‘सुबह कुछ नहीं था. दोपहर से अचानक…’’

‘‘भैया को बताया?’’

‘‘नहीं, वे तो परसों आने ही वाले हैं वैसे भी… बेकार परेशान होंगे. आज तो रात हो ही गई… बस कल की बात है.’’

‘‘अरे, लेकिन…’’ राज की फिक्र कम नहीं हुई थी. मगर मुग्धा ने उसे दिलासा देते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं. मामूली बुखार ही तो है. तुम जा कर पढ़ाई करो, खाना बनते ही बुला लूंगी.’’

‘‘खाना बनते ही बुला लूंगी…’’ मुग्धा की नकल उतार कर चिढ़ाते हुए राज ने उस के हाथ से बेलन छीना और बोला, ‘‘लाइए, मैं बना देता हूं. आप जा कर आराम कीजिए.’’

‘‘न… न… लेट गई तो मैं और बीमार हो जाऊंगी,’’ मुग्धा बैठने वालियों में से नहीं थी. वह बोली, ‘‘हम दोनों मिल कर बना लेते हैं,’’ और वे दोनों मिल कर खाना बनाने लगे.

मुग्धा का पति विनय कंपनी के किसी काम से 3 दिनों के लिए बाहर गया हुआ था. वह कर्मचारी तो कोई बहुत बड़ा नहीं था, लेकिन बौस का भरोसेमंद था. सो, किसी भी काम के लिए वे उसे ही भेजते थे.

मुग्धा का 21 साल का देवर राज प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था. विनय जैसा प्यार करने वाला पति पा कर मुग्धा भी खुश रहती थी. कुछ पति की तनख्वाह और कुछ वह खुद जो निजी स्कूल में पढ़ाती, दोनों से मिला कर घर का खर्च अच्छे से निकल आता. सासससुर गांव में रहते थे. देवर राज अपनी पढ़ाई के चलते उन के साथ ही रहता था.

जिंदगी में कमी थी तो बस यही कि खुशहाल शादीशुदा जिंदगी के 10 सालों के बाद भी उन के कोई औलाद नहीं थी. अब मुग्धा 35 साल की हो चुकी थी. अपनी हमउम्र बाकी टीचरों को उन के बच्चों के साथ देखती तो न चाहते हुए भी उसे रोना आ ही जाता. वह अपनी डायरी के पन्ने इसी पीड़ा से रंगती जाती.

रोटियां बन चुकी थीं. राज ने उसे कुरसी पर बैठने को बोला और सामान समेटने लगा. मुग्धा ने सिर पीछे की ओर टिकाया और आंखें बंद कर लीं. वातावरण एकदम शांत था. तभी वहां वही तूफान फिर से गरजने लगा जिस का शोर मुग्धा आज तक नहीं भांप पाई थी.

राज की गरदन धीरे से मुग्धा की ओर घूम चुकी थी. वह कनखियों से मुग्धा की फिटिंग वाली समीज में कैद उस के उभारों को देखने लगा था. मुग्धा की सांसों के साथ जैसेजैसे वे ऊपरनीचे होते, वैसेवैसे राज के अंदर का शैतान जागता जाता.

‘‘हो गया सब काम…?’’ बरतनों की आवाज बंद जान कर मुग्धा ने अचानक पूछते हुए अपनी आंखें खोल दीं.

राज हकबका गया और बोला, ‘‘हां भाभी, बस हो ही गया…’’ कह कर राज ने जल्दीजल्दी बाकी काम निबटाया और खाने की चीजों को उठा कर मेज पर ले गया.

मुग्धा ने मुश्किल से 2 रोटियां खाईं, वह भी राज की जिद पर. वह जबरदस्ती सब्जी उस की प्लेट में डाल दे रहा था. खाने के बाद मुग्धा सोने जाने लगी तो राज बोला, ‘‘भाभी, 15 मिनट के लिए आगे वाले कमरे में बैठिए न… मैं आप के लिए दवा ले आता हूं.’’

‘‘अरे नहीं, रातभर में उतर जाएगा…’’ मुग्धा ने मना किया लेकिन राज कहां मानने वाला था.

‘‘मैं पास वाले कैमिस्ट से ही दवा ले कर आ रहा हूं भाभी… जहां से आप मंगाती हैं हमेशा… दरवाजा बंद कर लीजिए… मैं अभी आया…’’ कहता हुआ वह निकल गया.

मुग्धा ने दरवाजा बंद किया और सोफे पर पैर ऊपर कर के बैठ गई.

राज ने तय कर लिया था कि आज तो वह अपने मन की कर के ही रहेगा. इस बीच कैमिस्ट की दुकान आ गई.

‘‘क्या बात है राज बाबू?’’ कैमिस्ट ने राज को खोया सा देखा तो पूछा. राज का ध्यान वापस दुकान पर आया.

‘‘दवा चाहिए थी,’’ उस ने जवाब दिया.

‘‘अबे तो यहां क्या मिठाई मिलती है?’’ कैमिस्ट उसे छेड़ते हुए बोला. वह उस का पुराना दोस्त था.

राज मुसकरा उठा और कहा, ‘‘अरे, जल्दी दे न…’’

‘‘जल्दी दे न…’’ बड़बड़ाते हुए कैमिस्ट ने हैरत से उस की ओर देखा, ‘‘कौन सी दवा चाहिए, यह तो बता?’’

राज को याद आया कि उस ने तो सचमुच कोई दवा मांगी ही नहीं है. उस ने ऐसे ही बोल दिया, ‘‘भाभी की तबीयत ठीक नहीं है. उन्हें बुखार है. जरा नींद की गोली देना.’’

‘नींद की गोली बुखार के लिए…’ सोचते हुए कैमिस्ट ने उसे देखा. वह खुद भी मुग्धा के हुस्न का दीवाना था. हमेशा उस के बारे में चटकारे लेले कर बातें किया करता था. उस ने राज के मन की बात ताड़ ली. ऐसी बातों का उसे बहुत अनुभव जो था. उस ने नींद की गोली के साथ बुखार की भी दवा दे दी.

राज ने लिफाफा जेब में रखा और तेजी से वापस चलने को हुआ कि तभी कैमिस्ट चिल्लाया, ‘‘अरे भाई, खुराक तो सुन ले.’’

राज को अपनी गलती का अहसास हुआ. वह काउंटर पर आया. कैमिस्ट ने उसे डोज बताई और आंख मारते हुए बोला, ‘‘यह नींद वाली एक से ज्यादा मत देना… टाइट चीज है…’’

‘‘अबे, क्या बकवास कर रहा है,’’ राज के मन का डर उस की जबान से बोल पड़ा. उस की तो चोर की दाढ़ी में तिनका वाली हालत हो गई. वह जाने लगा.

कैमिस्ट पीछे से कह रहा था, ‘‘अगली बार हम को भी याद रखना दोस्त…’’

राज उस को अनसुना करता हुआ आगे बढ़ गया. घर लौटने पर डोर बैल बजाते ही मुग्धा ने दरवाजा खोल दिया और बोली, ‘‘यहीं बैठी थी लगातार…’’

‘‘जी भाभी, आइए अंदर चलिए…’’ राज ने अपने माथे से पसीना पोंछते हुए कहा.

मुग्धा अपने कमरे में आ कर लेट गई. राज ने उसे पहले बुखार की दवा दी. मुग्धा दवा ले कर सोने के लिए लेटने लगी तो राज ने उसे रोका, ‘‘भाभी, अभी एक दवा बाकी है…’’

‘‘कितनी सारी ले आए भैया?’’ मुग्धा ने थकी आवाज में बोला और बाम ले कर माथे पर लगाने लगी.

‘‘भाभी दीजिए, मैं लगा देता हूं,’’ कह कर राज ने उस से बाम की डब्बी ले ली और उस के माथे पर मलने लगा. थोड़ी देर बाद उस ने मुग्धा को नींद वाली गोली भी खिला दी और लिटा दिया.

राज उस का माथा दबाता रहा. थोड़ी देर बाद उस ने पुष्टि करने के लिए मुग्धा को आवाज दी. ‘‘भाभी सो गईं क्या?’’

कोई जवाब नहीं मिला. राज ने उस के चेहरे को हिलाडुला कर भी देख लिया. कोई प्रतिक्रिया न पा कर वह समझ गया कि रास्ता साफ हो चुका है.

राज की कनपटियों में खून तेजी से दौड़ने लगा. वह बत्ती जलती ही छोड़ मुग्धा के ऊपर आ गया. मर्यादा के आवरण प्याज के छिलकों की तरह उतरते चले गए. कमरे में आए भूचाल से मेज पर रखी विनयमुग्धा की तसवीर गिर कर टूट गई.

सबकुछ शांत होने पर राज थक

कर चूरचूर हो कर मुग्धा के बगल में लेट गया.

‘‘बस अब बुखार उतर जाएगा भाभीजी… इतना पसीना जो निकलवा दिया मैं ने आप का,’’ राज बेशर्मी से बड़बड़ाया और मुग्धा की कुछ तसवीरें खींचने के बाद उसे कपड़े पहना दिए.

मुग्धा अब तक धीमेधीमे कराह रही थी. राज पलंग से उतरा और खुद भी कपड़े पहनने लगा. तभी उस की नजर आधी खुली दराज पर गई. भूल से मुग्धा अपनी डायरी उसी में छोड़ी हुई थी. राज ने उसे निकाला और कपड़े पहनतेपहनते उस के पन्ने पलटने लगा.

अचानक एक पेज पर जा कर उस की आंखें अटक गईं. वह अभी अपनी कमीज के सारे बटन भी बंद नहीं कर पाया था लेकिन उस को इस बात की परवाह नहीं रही. वह अपलक उस पन्ने में लिखे शब्दों को पढ़ने लगा. उस में मुग्धा ने लिखा था, ‘बस अब बहुत रो लिया, बहुत दुख मना लिया औलाद के लिए. मेरा बेटा मेरे पास था और मैं उसे पहचान ही नहीं पाई. जब से मैं यहां आई, उसे बच्चे के रूप में देखा तो आज अपनी कोख के बच्चे के लिए इतनी चिंता क्यों? मैं बहुत जल्दी राज को कानूनी रूप से गोद लूंगी.’

राज की आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा. वह सिर पकड़ कर वहीं बैठ गया और जोरजोर से रोने लगा, फिर भाग कर मुग्धा के पैरों को पकड़ कर अपना माथा उस से रगड़ते हुए रोने लगा, ‘‘भाभी, मु?ो माफ कर दो… यह क्या हो गया

मु?ा से.’’

अचानक राज का ध्यान मुग्धा के बिखरे बालों पर गया. उस ने जल्दी से जमीन पर गिरी उस की हेयर क्लिप उठाई और मुग्धा का सिर अपनी गोद

में रख कर बालों को संवारने लगा. वह किसी मशीन की तरह सबकुछ कर

रहा था. हेयर क्लिप अच्छे से उस के बालों में लगा कर राज उठा और घर से निकल गया.

अगली सुबह तकरीबन 8 बजे मुग्धा की आंखें खुलीं. उस का सिर अभी तक भारी था. घर में भीड़ लग चुकी थी.

एक आदमी ने आखिरकार बोल ही दिया, ‘‘देवरभाभी के रिश्ते पर भरोसा करना ही पागलपन है…’’

मुग्धा के सिर में जैसे करंट लगा. वह सवालिया नजरों से उसे देखने लगी. तभी इलाके के पुलिस इंस्पैक्टर ने प्रवेश किया और बताया, ‘‘आप के देवर राज की लाश पास वाली नदी से मिली है. उस ने रात को खुदकुशी कर ली…’’

मुग्धा का कलेजा मुंह को आने लगा. वह हड़बड़ा कर पलंग से उठी लेकिन लड़खड़ा कर गिर गई.

एक महिला सिपाही ने राज के मोबाइल फोन में कैद मुग्धा की कल रात वाली तसवीरें उसे दिखाईं और कड़क कर पूछा, ‘‘कल रंगरलियां मनातेमनाते ऐसा क्या कह दिया लड़के से तू ने जो उस ने अपनी जान दे दी?’’

तसवीरें देख कर मुग्धा हैरान रह गई. अपनी शारीरिक हालत से उसे ऐसी ही किसी घटना का शक तो हो रहा था लेकिन दिल अब तक मानने को तैयार नहीं था. वह फूटफूट कर रोने लगी.

इंस्पैक्टर ने उस महिला सिपाही को अभी कुछ न पूछने का इशारा किया और बाकी औपचारिकताएं पूरी कर वहां से चला गया. धीरेधीरे औरतों की भीड़ भी छंटती गई.

विनय का फोन आया था कि वह आ रहा?है, घबराए नहीं, लेकिन मुग्धा बस सुनती रही. उस की सूनी आंखों के सामने राज का बचपन चल रहा था. जब वह नईनई इस घर में आई थी.

दोपहर तक विनय लौट आया और भागते हुए मुग्धा के पास कमरे में पहुंचा. वह जड़वत अभी भी पलंग पर बैठी शून्य में ताक रही थी. विनय ने उस के कंधे पर हाथ रखा लेकिन मुग्धा का शरीर एक ओर लुढ़क गया.

‘‘मुग्धा… मुग्धा…’’ चीखता हुआ विनय उसे ?ाक?ोरे जा रहा था, पर मुग्धा कभी न जागने वाली नींद में सो चुकी थी.

मझली : रमुआ ने कैसे मालकिन को खुश किया

ठाकुर साहब के यहां मैं छोटी के बाद आई थी, लेकिन मझली मैं ही कहलाई. ठाकुर साहब के पास 20 गांवों की मालगुजारी थी. महलनुमा बड़ी हवेली के बीच में दालान और आगे ठाकुर साहब की बैठक थी. हवेली के दरवाजों पर चौबीसों घंटे लठैत हते थे.

हां, तो बड़ी ही ठाकुर साहब के सब से करीब थीं. जब ठाकुर साहब कहीं जाते, तब वे घोड़े पर कोड़ा लिए बराबरी से चलतीं. उन में दयाधरम नहीं था. पूरे गांवों पर उन की पकड़ थी. कहां से कितना पैसा आना है, किस के ऊपर कितना पैसा बकाया है, इस का पूरा हिसाब उन के पास था.

ठाकुर साहब 65 साल के आसपास हो चले थे और बड़ी 60 के करीब थीं. ठाकुर साहब को बस एक ही गम था कि उन के कोई औलाद नहीं थी.

इसी के चलते उन्होंने पहले छोटी से शादी की थी और 5 साल बाद अब मुझ से. छोटी को राजकाज से कोई मतलब नहीं था. दिनभर ऐशोआराम की जिंदगी गुजारना उस की आदत थी. वह 40 के आसपास हो चली थी, लेकिन उस के आने के बाद भी ठाकुर साहब का गम कम नहीं हुआ था.

कहते हैं कि उम्मीद पर दुनिया टिकी है, इसीलिए ठाकुर साहब ने मुझ से ब्याह रचाया था. मेरी उम्र यही कोई 20-22 साल के आसपास चल रही थी. मैं गरीब परिवार से थी.

एक बार धूमरी गांव में जब ठाकुर साहब आए थे, तब मैं बच्चों को इकट्ठा कर के पढ़ा रही थी. ठाकुर साहब ने मेरे इस काम की तारीफ की थी और वे मेरी खूबसूरती के दीवाने हो गए थे. और न जाने क्यों उन के दिल में आया कि शायद मेरी वजह से उन के घर में औलाद की खुशियां आ जाएंगी.

मेरी मां तो इस ब्याह के लिए तैयार नहीं थीं, लेकिन पिताजी की सोच थी कि इतने बड़े घर से रिश्ता जुड़ना इज्जत की बात है.

खैर, बहुत शानोशौकत के साथ ठाकुर साहब से मेरा ब्याह हुआ. जैसा कि दूसरी जगह होता है, सौतन आने पर पुरानी औरतें जलन करती हैं, लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं था. बड़ी ने ही मेरी नजर उतारी थी और छोटी मुझे ठाकुर साहब के कमरे तक ले गई थी.

मेरे लिए शादीब्याह की बातें एक सपने जैसी थीं, क्योंकि गरीब घर की लड़की की इज्जत से गांव में खेलने वाले तो बहुत थे, पर इज्जत देने वाले नहीं थे, इसलिए जब ठाकुर साहब के यहां से रिश्ते की बात आई, तब मैं ने भी नानुकर नहीं की.

अब बड़ी और छोटी के कोई औलाद नहीं थी, इसलिए आपसी तनातनी वाली कोई बात भी नहीं थी.

हां, तो मैं बता रही थी कि बड़ी ही ठाकुर साहब के साथ गांवगांव जाती थीं और वसूली करती थीं. ऐसे ही एक बार वे रंभाड़ी गांव गईं. वहां सब किसानों ने तो अपने कर्ज का हिस्सा ठाकुर साहब को भेंट कर दिया था, लेकिन सिर्फ रमुआ ही ऐसा था, जो खाली हाथ था.

वह हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘ठाकुरजी… ओले गिरने से फसल बरबाद हो गई. पिछले दिनों मेरे मांबाप भी गुजर गए. अब इस साल आप कर्ज माफ कर दें, तो अगले साल पूरा चुकता कर दूंगा.’’

लेकिन बड़ी कहां मानने वाली थीं. उन्होंने लठैतों से कहा, ‘‘बांध लो इसे. इस की सजा हवेली में तय होगी.’’

मैं जब ठाकुर साहब के यहां आई, तब पहलेपहल तो किसी बात पर अपनी सलाह नहीं दी थी, लेकिन ठाकुर साहब चाहते थे कि मैं भी इस हवेली से जुड़ूं और जिम्मेदारी उठाऊं.

धीरेधीरे मैं हवेली में रचबस गई और वक्तजरूरत पर सलाह देने के साथसाथ हवेली के कामकाज में हिस्सा लेने लगी.

रात हो चली थी कि तभी हवेली में हलचल हुई. पता करने पर मालूम हुआ कि ठाकुर साहब आ गए हैं. बड़ी ने अपना कोड़ा हवा में लहराया, तब मुझे एहसास हुआ कि आज भी किसी पर जुल्म ढहाया जाना है. अब मैं भी झरोखे में आ कर बैठ गई.

रमुआ को रस्सियों से बांध कर आंगन में डाल दिया गया था. अब बड़ी ठाकुर साहब के इशारे का इंतजार कर रही थी कि उस पर कोड़े बरसाना शुरू करे.

मैं ने अपनी नौकरानी से उस को मारने की वजह पूछी, तब उस ने बताया, ‘‘मझली ठकुराइन, यहां तो यह सब होता ही रहता है. अरे, कोई बकाया पैसा नहीं दिया होगा.’’ रमुआ थरथर कांप रहा था.

तभी मैं ने उस नौकरानी से ठाकुर साहब के पास खबर भिजवाई कि मैं उन से मिलना चाहती हूं और मैं झरोखे के पीछे चली गई.

तभी वहां ठाकुर साहब आए और उन्होंने मेरी तरफ देखा. मैं ने कहा, ‘‘ठाकुर साहब, यह रमुआ मुझे ईमानदार और मेहनती लगता है, इसलिए इसे यहीं पटक देते हैं. पड़ा रहेगा. हवेली, खेतखलिहान के काम तो करेगा ही, यह मजबूत लठैत भी है.’’

ठाकुर साहब को मेरी सलाह पसंद आई, लेकिन दूसरों पर अपना खौफ बनाए रखने के लिए उन्होंने रमुआ को 10 कोड़े की सजा देते हुए हवेली के पिछवाड़े की कोठरी में डलवा दिया.

एक दिन मैं ने नौकरानी से रमुआ को बुलवाया. हवेली में कोई भी मर्द औरतों से आमनेसामने बात नहीं कर सकता था, इसलिए बात करने के लिए बीच में परदा डाला जाता था. रमुआ ने परदे के दूसरी तरफ आ कर सिर झुका कर कहा, ‘‘मझली ठकुराइनजी आदेश…’’

झीने परदे में से मैं ने रमुआ को एक निगाह देखा. लंबा कद, गठा हुआ बदन. सांवले रंग पर पसीने की बूंदें एक अजीब सी कशिश पैदा कर रही थीं. उसे देखते ही मेरे तन की उमंगें और मन की तरंगें उछाल मारने लगीं.

मैं ने रमुआ पर रोब गांठते हुए कहा, ‘‘तो तू है रमुआ. अब क्या हवेली में बैठेबैठे ही खाएगा, यहां मुफ्त में कुछ नहीं मिलता है… समझा?’’

यह सुन कर रमुआ घबरा गया और बोला, ‘‘आदेश, मझली ठाकुराइन.’’

मैं ने कहा, ‘‘इधर आ… यह जो ठाकुरजी की बैठक है, उस के ऊपर मयान (पुराने मकानों में छत इन पर बनाई जाती थी) में हाथ से झलने वाला पंखा लगा है. उस की डोरी निकल गई है. जरा उसे अच्छी तरह से बांध दे.’’ मैं अब भी परदे के पीछे नौकरानी के साथ खड़ी थी.

रमुआ बंदर की तरह दीवार पर चढ़ कर मयान तक पहुंच गया और उस ने पंखे की सभी डोरियां बांध दीं. इस के बाद बैठक को साफ कर अच्छी तरह जमा दिया.

दोपहर को ठाकुर साहब ने बैठक का इंतजाम देखा, तो उन्हें बहुत अच्छा लगा. जब उन्होंने इस बारे में नौकरानी से पूछा, तब उस ने मेरा नाम बताया. ठाकुर साहब की निगाह में मेरी इमेज अच्छी बनती जा रही थी.

एक दिन मैं ने ठाकुर साहब से कहा, ‘‘इस रमुआ को हवेली की हिफाजत के लिए रख लेते हैं और कहीं जाते समय मैं भी अपनी हिफाजत के लिए नौकरानी के साथ इसे भी रख लिया करूंगी.’’

ठाकुर साहब ने मेरी बात मान ली और मेरी हिफाजत की जिम्मेदारी रमुआ के ऊपर सौंप दी.

हवेली से कुछ ही दूरी पर खेत था. खेत में मकान बना था, जिस से हवेली का कोई आदमी वहां जाए, तो उसे कोई परेशानी न हो.

एक दिन मैं ने नौकरानी को बैलगाड़ी लगाने के लिए कहा. बैलगाड़ी के चारों डंडों पर चादर बांध दी गई थी, जिस से बाहर के किसी मर्द की निगाह हवेली की औरतों पर नहीं पडे़.

चूंकि बड़ी अब 60 के पार हो चुकी थीं, इसलिए ये सब बंदिशें उन पर तो नहीं थीं, छोटी पर कम और मेरे ऊपर सब से ज्यादा थीं.

खैर, हवेली के दरवाजे से बैलगाड़ी तक दोनों तरफ परदे लगा दिए गए और मैं उन परदों के बीच से हो कर बैलगाड़ी में बैठ गई और रमुआ बैलगाड़ी पर लाठी रख कर हांकने लगा.

खेत पर जा कर मैं ने रमुआ को मेड़ बांधने और पानी की ढाल ठीक करने के लिए कहा. थोड़ी देर में काली घटाएं उमड़घुमड़ कर बरसने लगीं. रमुआ अभी भी खेत पर काम कर रहा था.

नौकरानी को मैं ने ऊपर के कमरे में भेज दिया और कहा, ‘‘जब चलेंगे, तब बुला लूंगी,’’ और बाहर से कुंडी लगा दी.

बरसात तेज हो गई थी और रमुआ छपरे में खड़ा हो कर पानी से बच रहा था. मैं ने रमुआ को अंदर आने के लिए कहा, तभी जोर से बिजली कड़की और ऐसा लगा कि वह मकान पर ही गिर रही है. मैं ने डरते हुए रमुआ को जोर से जकड़ लिया. उस समय मैं रमुआ के लिए औरत और रमुआ मेरे लिए मर्द था.

थोड़ी देर में बरसात थम गई. मेरा मन सुख से भर गया था. रमुआ मुझ से आंखें नहीं मिला पा रहा था. मैं ने उसे फिर से खेत पर भेज दिया और ऊपर के कमरे में नौकरानी, जो अभी भी सो रही थी, को झिड़क कर उठाते हुए कहा, ‘‘क्या रात यहीं गुजारने का इरादा है?’’

नौकरानी हड़बड़ा कर उठी और बैलगाड़ी लगवाई.

वापस हवेली में आ कर मैं ने रमुआ को दालान में बुलवाया और बड़ी से कोड़ा ले कर रमुआ पर एक ही सांस में 10-20 कोड़े बरसा दिए.

मेरे इस बरताव की किसी को उम्मीद नहीं थी, लेकिन ठाकुर साहब और बड़ी खुश हो रहे थे कि मझली भी अब हवेली के रंगढंग में रचबस रही है. और उधर रमुआ अब भी यह नहीं समझ पाया कि आखिर मझली ठकुराइन ने उस पर कोड़े क्यों बरसाए?

पहली बात तो यह कि रमुआ को मैं ने एहसास दिलाया कि जो खेत पर हुआ है, उस के लिए उसे चुप रहना है, वरना… दूसरी, ठाकुर साहब और नौकरानी को यह एहसास दिलाना कि मुझे रमुआ से कोई लगाव नहीं है. तीसरी यह कि अगर हवेली में मेरे से वारिस आता है, तो उस के हक के लिए मैं कोडे़ भी बरसा सकती हूं.

इस के बाद मैं ने ठाकुर साहब को रात मेरे कमरे में गुजारने की गुजारिश इतनी अदाओं के साथ की कि वे मना नहीं कर सके.

मैं खुद नहीं समझ पा रही थी कि यह औरतों वाला तिरिया चरित्तर मुझ में कहां से आ गया, जिस के बल पर मैं अपने इरादे पूरे कर रही थी.

अगले दिन मैं पहले की तरह सामान्य थी. नौकरानी से रमुआ को बुला कर हवेली की साफसफाई कराई. वह अभी भी डरा और सहमा हुआ था.

समय अपनी रफ्तार से गुजर रहा था. आज ठाकुर साहब की खुशियों का पारावार नहीं था. हवेली दुलहन की तरह सजी हुई थी. दावतों, कव्वाली और नाचगानों का दौर चल रहा था. कब रात होती, कब सुबह, मालूम नहीं पड़ता. जो पैसा अब तक हवेली की तिजोरियों में पड़ा था, खुशियां मनाने में खर्च हो रहा था, जगहजगह लंगर चल रहे थे, दानधर्म चल रहा था और हो भी क्यों नहीं, ठाकुर साहब का वारिस जो आ गया था.

बड़ी और छोटी भी औरत थीं और इतने दिनों तक हवेली को वारिस नहीं देने की वजह वे जानती थीं, लेकिन इस के बावजूद वे यह समझ नहीं पा रही थीं कि मझली ने यह कारनामा कैसे कर दिया?

अपने पराए,पराए अपने : क्या थी इसकी वजह

पार्किंग में कार खड़ी कर के मैं दफ्तर की ओर बढ़ ही रहा था कि इतने में तेजी से चलते हुए वह आई और ‘भाई साहब’ कहते हुए मेरा रास्ता रोक कर खड़ी हो गई. उस की गोद में दोढ़ाई साल की एक बच्ची भी थी. एक पल को तो मैं सकपका गया कि कौन है यह? यहां तो दूरदराज के रिश्ते की भी मेरी कोई बहन नहीं रहती. मैं अपने दिमाग पर जोर डालने लगा.

मुझे उलझन में देख कर वह बोली, ‘‘क्या आप मुझे पहचान नहीं पा रहे हैं? मैं लाजवंती हूं. आप की बहन लाजो. मैं तो आप को देखते ही पहचान गई थी.’’ मैं ने खुशी के मारे उस औरत की पीठ थपथपाते हुए कहा, ‘‘अरी, तू है चुड़ैल.’’

मैं बचपन में उसे लाड़ से इसी नाम से पुकारता था. सो बोला, ‘‘भला पहचानूंगा कैसे? कहां तू बित्ती भर की थी, फ्रौक पहनती थी और अब तो तू एक बेटी की मां बन गई है.’’

मेरी बातों से उस की आंखें भर आईं. मुझे दफ्तर के लिए देर हो रही थी, इस के बावजूद मैं ने उसे घर ले चलना ही ठीक समझा. वह कार में मेरी साथ वाली सीट पर आ बैठी. रास्ते में मैं ने गौर किया कि वह साधारण थी. सूती साड़ी पहने हुए थी. मामूली से गहने भी उस के शरीर पर नहीं थे. सैंडल भी कई जगह से मरम्मत किए हुए थे.

बातचीत का सिलसिला जारी रखने के लिए मैं सब का हालचाल पूछता रहा, मगर उस के पति और ससुराल के बारे में कुछ न पूछ सका. लाजवंती को मैं बचपन से जानता था. वह मेरे पिताजी के एक खास दोस्त की सब से छोटी बेटी थी. दोनों परिवारों में बहुत मेलजोल था. 8

हम सब भाईबहन उस के पिताजी को चाचाजी कहते थे और वे सब मेरे पिताजी को ताऊजी. अम्मां व चाची में खूब बनती थी. दोनों घरों के मर्द जब दफ्तर चले जाते तब अम्मां व चाची अपनी सिलाईबुनाई ले कर बैठ जातीं और घंटों बतियाती रहतीं.

हम बच्चों के लिए कोई बंधन नहीं था. हम सब बेरोकटोक एकदूसरे के घरों में धमाचौकड़ी मचाते हुए खोतेपीते रहते. पिताजी ने हाई ब्लडप्रैशर की वजह से मांस खाना व शराब पीना बिलकुल छोड़ दिया था. वैसे भी वे इन चीजों के ज्यादा शौकीन नहीं थे, लेकिन चाचाजी खानेपीने के बेहद शौकीन थे.

अकसर उन की फरमाइश पर हमारे यहां दावत हुआ करती. इस पर अम्मां कभीकभी पिताजी पर झल्ला भी जाती थीं कि जब खुद नहीं खाते तो दूसरों के लिए क्यों इतना झंझट कराते हो. तब पिताजी उन्हें समझा देते, ‘क्या करें बेचारे पंडित हैं न. अपने घर में तो दाल गलती नहीं, हमारे यहां ही खा लेते हैं. तुम्हें भी तो वे अपनी सगी भाभी की तरह ही मानते हैं.’

मेरे पिताजी ऐक्साइज इंस्पैक्टर थे और चाचाजी ऐजूकेशन इंस्पैक्टर. चाचाजी मजाक में पिताजी से कहते, ‘यार, कैसे कायस्थ हो तुम… अगर मैं तुम्हारी जगह होता तो पानी की जगह शराब ही पीता.’ तब पिताजी हंसते हुए जवाब देते, ‘लेकिन गंजे को खुदा नाखून देता ही कहां है…’

इसी तरह दिन हंसीखुशी से बीत रहे थे कि अचानक न जाने क्या हुआ कि चाचाजी नौकरी से सस्पैंड हो गए. कई महीनों तक जांच होती रही. उन पर बेईमानी करने का आरोप लगा था. एक दिन वे बरखास्त कर दिए गए. बेचारी चाची पर तो जैसे मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा. 2 बड़ी लड़कियों की तो शादी हो चुकी थी, पर 3 बच्चे अभी भी छोटे थे. सुरेंद्र 8वीं, वीरेंद्र 5वीं व लाजो चौथी जमात में पढ़ रही थी.

चाचाजी ने जोकुछ कमाया था, वह जी खोल कर मौजमस्ती में खर्च कर दिया था. आड़े समय के लिए चाचाजी ने कुछ भी नहीं जोड़ा था. चाचाजी को बहुत मुश्किल से नगरनिगम में एक छोटी सी नौकरी मिली. जैसेतैसे पेट भरने का जुगाड़ तो हुआ, लेकिन दिन मुश्किल से बीत रहे थे. वे लोग बढि़या क्वार्टर के बजाय अब छोटे से किराए के मकान में रहने लगे. चाची को चौकाबरतन से ले कर घर का सारा काम करना पड़ता था.

लाड़प्यार में पले हुए बच्चे अब जराजरा सी चीजों के लिए तरसते थे. दोस्ती के नाते पिताजी उस परिवार की ज्यादा से ज्यादा माली मदद करते रहते थे.

समय बीतता गया. चाचाजी के दोनों लड़के पढ़ने में तेज थे. बड़े लड़के को बीए करने के बाद बैंक में नौकरी मिल गई और छोटे बेटे का मैडिकल कालेज में दाखिला हो गया. मगर लाजो का मन पढ़ाई में नहीं लगा. वह अकसर बीमार रहती थी. वह बेहद चिड़चिड़ी और जिद्दी भी हो गई थी और मुश्किल से 8वीं जमात ही पास कर पाई.

फिर पिताजी का तबादला बिलासपुर हो गया. मैं भी फोरैस्ट अफसर की ट्रेनिंग के लिए देहरादून चला गया. कुछ अरसे के लिए हमारा उन से संपर्क टूट सा गया. फिर न पिताजी रहे और न चाचाजी. हम लोग अपनीअपनी दुनिया में मशगूल हो गए. कई सालों के बाद ही इंदौर वापस आना हुआ था.

शाम को जब मैं दफ्तर से घर पहुंचा तो देखा कि लाजो सब से घुलमिल चुकी थी. मेरे दोनों बच्चे ‘बूआबूआ’ कह कर उसे घेरे बैठे थे और उस की बेटी को गोद में लेने के लिए उन में होड़

मची थी. मेरी एकलौती बहन 2 साल पहले एक हादसे में मर गई थी, इसलिए मेरी बीवी उमा भी ननद पा कर खुश हुई.

खाना खाने के बाद हम लोग उसे छोड़ने गए. नंदानगर में एक चालनुमा मकान के आगे उस ने कार रुकवाई. मैं ने चाचीजी के पैर छुए, पर वे मुझे पहचान न पाईं. तब लाजो ने मुझे ढूंढ़ निकालने की कहानी बड़े जोश से

सुनाई. चाचीजी मुझे छाती से लगा कर खुश हो गईं और रुंधे गले से बोलीं, ‘‘अच्छा हुआ बेटा, जो तुम मिल गए. मुझे तो रातदिन लाजो की फिक्र खाए जाती है. दामाद नालायक निकला वरना इस की यह हालत क्यों होती.

‘‘भूखों मरने से ले कर गालीगलौज, मारपीट सभी कुछ जब तक सहन करते बना, यह वहीं रही. फिर यहां चली आई. दोनों भाइयों को तो यह फूटी आंख नहीं सुहाती. अब मैं करूं तो क्या करूं? जवान लड़की को बेसहारा छोड़ते भी तो नहीं बनता. ‘‘बेटा, इसे कहीं नौकरी पर लगवा दो तो मुझे चैन मिले.’’

सुरेंद्र भी इसी शहर में रहता था. अब वह बैंक मैनेजर था. एक दिन मैं उस के घर गया. उस ने मेरी बहुत खातिरदारी की, लेकिन वह लाजो की मदद के नाम पर टस से मस नहीं हुआ. लाजवंती का जिक्र आते ही वह बोला, ‘‘उस का नाम मत लीजिए भाई साहब. वह बहुत तेज जबान की है. वह अपने पति को छोड़ आई है.

‘‘हम ने तो सबकुछ देख कर ही उस की शादी की थी. उस में ससुराल वालों के साथ निभाने का ढंग नहीं है. माना कि दामाद को शराब पीने की लत है, पर घर में और लोग भी तो हैं. उन के सहारे भी तो रह सकती थी वह… घर छोड़ने की क्या जरूरत थी?’’ सुरेंद्र की बातें सुन कर मैं अपना सा मुंह ले कर लौट आया.

मैं बड़ी मुश्किल से लाजो को एक गांव में ग्रामसेविका की नौकरी दिला सका था. चाचीजी कुछ दिन उस के पास रह कर वापस आ गईं और अपने बेटों के साथ रहने लगीं.

मेरा जगहजगह तबादला होता रहा और तकरीबन 15 साल बाद ही अपने शहर वापस आना हुआ. एक दिन रास्ते में लाजो के छोटे भाई वीरेंद्र ने मुझे पहचान लिया. वह जोर दे कर मुझे अपने घर ले गया. उस ने शहर में क्लिनिक खोल लिया था और उस की प्रैक्टिस भी अच्छी चल रही थी.

लाजो का जिक्र आने पर उस ने बताया कि उस की तो काफी पहले मौत हो गई. यह सुनते ही मुझे धक्का लगा. उस का बचपन और पिछली घटनाएं मेरे दिमाग में घूमने लगीं. लेकिन एक बात बड़ी अजीब लग रही थी कि मौत की खबर सुनाते हुए वीरेंद्र के चेहरे पर गम का कहीं कोई निशान नहीं था. मैं चाचीजी से मिलने के लिए बेताब हो उठा. वे एक कमरे में मैलेकुचैले बिस्तर पर पड़ी हुई थीं. अब वे बहुत कमजोर हो गई थीं और मुश्किल से ही उठ पाती थीं. आंखों की रोशनी भी तकरीबन खत्म हो चुकी थी.

मैं ने अपना नाम बताया तभी वे पहचान सकीं. मैं लाजो की मौत पर दुख जाहिर करने के लिए कुछ बोलने ही वाला था कि उन्होंने हाथ पकड़ कर मुझे अपने नजदीक बैठा लिया. वे मेरे कान में मुंह लगा कर धीरे से बोलीं, ‘‘लाजो मरी नहीं है बेटा. वह तो इसी शहर में है. ये लोग उस के मरने की झूठी खबर फैला रहे हैं. तुम ने जिस गांव में उस की नौकरी लगवा दी थी, वहीं एक ठाकुर साहब भी रहते थे. उन की बीवी 2 छोटेछोटे बच्चे छोड़ कर मर गई. गांव वालों ने लाजो की शादी उन से करा दी.

‘‘लाजो के अब 2 बेटे भी हैं. वैसे, अब वह बहुत सुखी है, लेकिन एक बार उसे अपनी आंखों से देख लेती तो चैन से मरती. ‘‘एक दिन लाजो आई थी तो वीरेंद्र की बीवी ने उसे घर में घुसने तक नहीं दिया. वह दरवाजे पर खड़ी रोती रही. जातेजाते वीरेंद्र से बोली थी कि भैया, मुझे अम्मां से तो मिल लेने दो. लेकिन ये लोग बिलकुल नहीं माने.’’

लाजो की यादों में डूब कर चाचीजी की आंखों से आंसू बहने लगे थे. वे रोतेरोते आगे बोलीं, ‘‘बताओ बेटा, उस ने क्या गलत किया? उसे भी तो कोई सहारा चाहिए था. सगे भाई हो कर इन दोनों ने उस की कोई मदद नहीं की बल्कि दरदर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया. तुम्हीं ने उस की नौकरी लगवाई थी…’’

तभी मैं ने महसूस किया कि सब की नजरें हम पर लगी हुई हैं. मैं उस जगह से फौरन हट जाना चाहता था, जहां अपने भी परायों से बदतर हो गए थे. मैं ने मन ही मन तय कर लिया था कि लाजो को ढूंढ़ निकालना है और उसे एक भाई जरूर देना है.

शापित: आखिर रश्मि अपने बेटे के साथ क्यों नहीं रहना चाहती थी

‘‘रश्मि, कहां हो तुम?

‘‘भई यह करेलों का मसाला तो कच्चा ही रह गया है.’’

फिर थोड़ी देर रुक कर भूपिंदर हंसते हुए बोला, ‘‘सतीशजी जिस दिन कुक नहीं आती हैं, ऐसा ही कच्चापक्का खाना बनता है.’’

ये सब बातें करतेकरते भूपिंदर यह भी भूल गया था कि आज रश्मि कोई नईनवेली दुलहन नहीं है, बल्कि सास बनने वाली है और आज जो खाने की मेज पर मेहमान बैठे हैं वे उस की होने वाली बहू के मातापिता हैं.

मम्मी के हाथों में करेले पकड़ाते हुए आदित्य बोला, ‘‘क्या जरूरत थी सोनाक्षी के मम्मीपापा को घर पर बुलाने की? ‘‘आप को पता है न वे कैसे हैं?’’

जैसे ही आदित्य बाहर आया तो भूपिंदर बोला, ‘‘भई, यह आदित्य तो अब तक मम्मा बौय है, सोनाक्षी को बहुत मेहनत करनी पड़ेगी.’’

आदित्य भी बिना लिहाज करे बोला, ‘‘मैं ही नहीं पापा, सोनाक्षी भी मम्मा गर्ल ही बनेगी.’’

तभी रश्मि खिसियाते हुए डाइनिंगटेबल पर फिर से करेलों की प्लेट ले कर आ गई. नारंगी और हरी तात कौटन की साड़ी में रश्मि बहुत ही सौम्य और सलीकेदार लग रही थी. खाना अच्छा ही बना हुआ था और डाइनिंगटेबल पर बहुत सलीके से लगा भी हुआ था, परंतु भूपिंदर फिर भी कभी नैपकिन के लिए तो कभी नमकदानी के लिए रश्मि को टोकता ही रहा.

माहौल में इतना अधिक तनाव था कि अच्छेखासे खाने का जायका खराब हो गया था. खाने के बाद भूपिंदर सतीश को ले कर ड्राइंगरूम में चला गया तो पूनम मीठे स्वर में रश्मि से बोली, ‘‘खाना बहुत अच्छा बना था और लगा भी बहुत सलीके से था.’’

‘‘परंतु लगता है भाईसाहब कुछ ज्यादा ही परफैक्शनिस्ट हैं.’’

रश्मि की बड़ीबड़ी शरबती आंखों में आंसू दरवाजे पर ही अटके हुए थे, उन्हें पीते हुए धीरे से बोली, ‘‘पूनमजी पर मेरा आदित्य अपने पापा से एकदम अलग हैं… हम आप की सोनाक्षी को कोई तकलीफ नहीं होने देंगे.’’

पूनम अच्छी तरह समझ सकती थी कि रश्मि के मन पर क्या बीत रही होगी.

आदित्य और सोनाक्षी दोनों रोहिणी के जयपुर गोल्डन हौस्पिटल में डाक्टर हैं. दोनों एकदूसरे को पसंद करते हैं और जैसेकि आजकल होता है परिवार ने उन की पसंद पर सहमति की मुहर लगा दी थी. आज विवाह की आगे की बातचीत के लिए पूनम और सतीश आदित्य के घर खाने पर आए थे. भूपिंदर का यह रूप उन्हें अंदर तक हिला गया था. आदित्य का गुस्सा भी उन से छिपा नही था.

रास्ते में पूनम से रहा न गया, तो सतीश से बोली, ‘‘सबकुछ ठीक है, पर क्या तुम्हें लगता है कि आदित्य ठीक रहेगा अपनी सोनाक्षी के लिए?’’

‘‘उस के पापा उस की मम्मी को कितना बेइज्जत करते हैं. लड़का वही देख कर बड़ा हुआ है. मुझे तो डर है कि कहीं आदित्य भी सोनाक्षी के साथ ऐसा ही व्यवहार न करे.’’

सतीश बोला, ‘‘देखो हम सोनाक्षी को सब बता देंगे, उस की जिंदगी है, फैसला भी उसी का होगा.’’

उधर रश्मि को लग रहा था कि कहीं भूपिंदर के व्यवहार के कारण सोनाक्षी और आदित्य के विवाह में रुकावट न आ जाए.

आदित्य सोनाक्षी के मम्मीपापा के जाते ही भूपिंदर पर उबल पड़ा, ‘‘क्या जरूरत थी आप को सोनाक्षी के मम्मीपापा के सामने ऐसा व्यवहार करने की?’’

भूपिंदर बोला, ‘‘घर मेरा है, मैं जो चाहूं करूं. इतनी ही दिक्कत है तो अलग रह सकते हो.’’

तभी आदित्य ने दरवाजे पर खटखट की, तो रश्मि मुसकराते हुए बोली, ‘‘अंदर आ

जा, खटखट क्यों कर रहा है.’’

आदित्य बोला, ‘‘मम्मी, पापा का यह व्यवहार और तुम्हारा चुपचाप सब सहन करना मुझे अंदर तक आहत कर जाता है. आज मैं सोनाक्षी के मम्मीपापा के सामने आंख भी नहीं उठा पाया हूं. गुलाम बना कर रखा हुआ है इन्होंने हमें.’’

रश्मि आदित्य के सिर पर हाथ फेरते हुए बोली, ‘‘आदित्य शिखा तेरी छोटी बहन तो गोवा में मैडिकल की पढ़ाई कर रही है और तू बेटा शादी के बाद अलग घर ले लेना.’’

आदित्य बोला, ‘‘मम्मी और आप? मैं क्या इतना स्वार्थी हूं कि आप को अकेला छोड़ कर चला जाऊंगा?’’

रश्मि उदासी से बोली, ‘‘मैं तो शापित हूं, इस साथ के लिए बेटा. पर मैं बिलकुल नहीं चाहती कि तुम या सोनाक्षी ऐसे डर के साथ जिंदगी व्यतीत करो.’’

आदित्य का हौस्पिटल जाने का समय हो गया था. आज उस की नाइट शिफ्ट थी. फिर रश्मि आंखें बंद कर के सोने का प्रयास करने लगी पर नींद थी कि आंखों से कोसों दूर. आदित्य की शादी की उस के मन में कितनी उमंगें थीं. मगर वो अच्छी तरह जानती थी. हर बार गहनेकपड़ों के लिए उसे भूपिंदर

के आगे हाथ फैलाना पड़ेगा. भूपिंदर कितनी लानत भेजेगा और साथ ही साथ वह यह भी जोड़ेगा कि उस ने आदित्य की मैडिकल की पढ़ाई में क्व25 लाख खर्च किए हैं.

रश्मि का कितना मन करता था कि वह अपनी पसंद के कपड़े ले, परंतु भूपिंदर ही उस के लिए कपड़े खरीदता था, क्योंकि उस के हिसाब से रश्मि को तमीज ही नहीं है अच्छे कपड़े खरीदने की.

रश्मि के वेतन की पाईपाई का हिसाब भूपिंदर ही रखता था. जब कोई भी रश्मि के कपड़ों की तारीफ करता तो भूपिंदर छूटते ही बोलता, ‘‘मैं जो खरीदता हूं अन्यथा यह तो दलिद्र ही खरीदती और पहनती है.’’

रिश्तेदारों और पड़ोसियों को लगता था कि भूपिंदर जैसा शाहखर्च कौन हो सकता है, जो अपनी बीवी का वेतन उस के गहनेकपड़ों पर ही खर्च करता है. आजकल के जमाने में ऐसे पतियों की कमी नहीं है जो अपनी पत्नी के वेतन से घर खर्च चलाते हैं. रश्मि कैसे समझाए किसी को, गहने, कपड़ों से अधिक महत्त्व सम्मान का होता है.

यह जरूर था कि भूपिंदर अपने काम का पक्का था, इसलिए दिनदूनी और रात चौगुनी तरक्की कर रहा था. इस तरक्की के साथसाथ उस का अहम भी सांप के फन की तरह फुफकारने लगा था. शादी के कुछ वर्षों के बाद ही रश्मि के कानों में भूपिंदर के अफेयर की बातें पड़ने लगी थीं. पर जब भी अलग होने की सोचती तो आदित्य और शिखा का भविष्य दिखने लगता. कैसे पढ़ा पाएगी वह दोनों बच्चों को दिल्ली जैसे शहर की इस विकराल महंगाई में. नालायक ही सही पर सिर पर बाप का साया तो रहेगा.

रश्मि के हथियार डालते ही भूपिंदर उस पर और हावी हो गया था. रातदिन वह रश्मि को कोंचता रहता था पर अब उस हिमशिला पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था.

घर 3 कोणों में बंट गया था, एक पाले में रश्मि, आदित्य और दूसरे पाले में था भूपिंदर. शिखा आज के दौर की स्मार्ट लड़की थी इसलिए वह किसी भी पाले में नहीं थी, वह अपने हिसाब से पाला बदलती रहती थी. आदित्य बेहद ही संवेदनशील युवक था. रातदिन के तनाव का प्रभाव आदित्य पर पड़ रहा है. 30 वर्ष की कम उम्र में ही उसे पाइपर टैंशन रहने लगी थी.

आदित्य जैसे ही अस्पताल पहुंचा, सोनाक्षी वहीं खड़ी थी. वह धीमे स्वर में बोली, ‘‘आदित्य, कल ड्यूटी के बाद मुझे तुम से जरूरी बात करनी है. आदित्य को पता था कि सोनाक्षी क्या कहना चाहती है.

सुबह आदित्य और सोनाक्षी जब कैंटीन में आमनेसामने थे तो सोनाक्षी बोली, ‘‘आदित्य देखो मुझे गलत मत समझना पर मैं  ऐसे माहौल में ऐडजस्ट नहीं कर सकती हूं. क्या हम विवाह के बाद अलग फ्लैट ले कर रह सकते हैं?’’

आदित्य बोला, ‘‘सोना, मुझे मालूम है तुम अपनी जगह सही हो, पर मैं अपनी मम्मी को अकेले उस घर में नहीं छोड़ सकता हूं.’’

सोनाक्षी बोली, ‘‘अगर तुम्हारी मम्मी हमारे साथ रहना चाहें, तो मुझे कोई प्रौब्लम नहीं है.’’

जब आदित्य ने यह बात घर पर बताई तो भूपिंदर गुस्से से आगबबूला हो उठा. गुस्से में बोला, ‘‘तुम्हारा तो यही होना था गोबर गणेश. जो लड़का मां का पल्लू पकड़ कर चलता है वह बीवी के इशारों पर ही नाचेगा.’’

आदित्य बोला, ‘‘पापा आप चिंता न करो. आप को मुझे से और मम्मी से बहुत प्रौब्लम है न तो मैं मम्मी को भी अपने साथ ले जाऊंगा. ऐसा लगता है, घर घर नहीं है एक जेल है और हम सब कैदी.’’

भूपिंदर दहाड़ उठा, ‘‘हां यह जेल है न तो रिहाई की भी कीमत है. अपनी मम्मी को क्या ऐसे ही ले कर चला जाएगा वह मेरी पत्नी है और सुन लड़के, तेरी पढ़ाई पर क्व25 लाख खर्च हुए हैं, पहले वे वापस दे देना और फिर अपनी मम्मी को रिहा कर ले जाना.’’

आदित्य के विवाह की तिथि निश्चित हो गई थी और भूपिंदर न चाहते हुए भी जोरशोर से तैयारी में जुटा था.

जब नवयुगल हनीमून से वापस आ जाएंगे तो वह अलग फ्लैट में शिफ्ट हो जाएंगे. आदित्य किसी भी कीमत पर अपनी मम्मी को अकेले उस यातनागृह में नहीं छोड़ना चाहता था. इसलिए आदित्य ने किसी तरह से क्व20 लाख का बंदोबस्त कर लिया था.

विवाह बहुत धूमधाम से संपन्न हो गया. 14 दिन बाद आदित्य और सोनाक्षी सिंगापुर से घूम कर लौट आए थे. आदित्य ने मां को सूचित कर दिया था कि वह अपना सारा सामान ले कर उन के पास आ जाए.

मगर रश्मि का फोन आया कि आदित्य रविवार को एक बार घर आ जाए. उस के बाद ही वह आदित्य के पास रहने आ जाएगी. आदित्य को लग रहा था कि शायद मम्मी को निर्णय लेने में मुश्किल हो रही है या फिर पापा उन्हें ताने मार रहे होंगे.

जब आदित्य और सोनाक्षी घर पहुंचे तो देखा घर पर मरघट सी शांति छाई हुई थी. आदित्य ने देखा मां बहुत थकीथकी लग रही थीं.

आदित्य बोला, ‘‘मम्मी कमाल करती हो, तुम आज भी पापा के कारण निर्णय नहीं ले पा रही हो. आप चिंता मत करो, मैं ने क्व20 लाख का बंदोबस्त कर लिया है.’’

रश्मि बोली, ‘‘बेटे तेरे पापा को 5 दिन पहले लकवा मार गया था.

‘‘रातदिन वह बिस्तर पर ही रहते हैं, अब बता उन्हें ऐसी स्थिति में छोड़ कर कैसे आ सकती हूं और तुम लोगों से बात करे बिना मैं भूपिंदर को ले कर तुम्हारे घर कैसे आ सकती थी?’’

इस से पहले आदित्य कुछ कहता सोनाक्षी बोल उठी, ‘‘मम्मी, आप यहीं रहिए, हमारा फ्लैट तो बहुत छोटा है.’’

‘‘पापा की अच्छी तरह देखभाल नहीं हो पाएगी, हम एक के बजाय 2 नर्स ड्यूटी पर लगा देंगे. फिर मम्मी मैं घर पर भी हौस्पिटल जैसा माहौल नहीं चाहती हूं.’’

आदित्य बोला, ‘‘मम्मी, नर्स का इंतजाम मैं कर दूंगा. आप चलो यहां से, बहुत कर लिया आप ने पापा के लिए.’’

रश्मि बोली, ‘‘आदित्य बेटा तू मेरी चिंता मत कर… पर मैं भूपिंदर को इस हाल

में छोड़ कर नहीं जा सकती हूं.’’

आदित्य बोला, ‘‘मम्मी कब तक तुम पापा के कारण जिंदगी से दूर रहोगी.’’

रश्मि बोली, ‘‘बेटा, तू खुश रह, मैं तो इस साथ के लिए शापित हूं, पहले मानसिक यातना भोगती थी अब अकेलापन भोगने के लिए शापित हूं.’’

आदित्य बोला, ‘‘मम्मी यह शापित जीवन आप ने खुद ही चुना है, अपने लिए. सामने खुला आकाश है पर आप को इस पिंजरे में रहना ही पसंद है,’’ कह कर आदित्य क्व20 लाख मेज पर रख कर तीर की तरह निकल गया.

दूसरी औरत : अब्बू की जिंदगी में कौन थी वो औरत

मैं मोटरसाइकिल ले कर बाहर खड़ा था. अम्मी अंदर पीर साहब के पास थीं. वहां लोगों की भीड़ लगी थी. भीतर जाने से पहले अम्मी ने मुझ से भी कहा था, ‘आदिल बेटा, अंदर चलो.’

‘मुझे ऐसी फालतू बातों पर भरोसा नहीं है,’ मैं ने तल्खी के साथ कहा था.

‘ऐसा नहीं कहते बेटा,’ कह कर अम्मी पर्स साथ ले कर अंदर चली गई थीं.

न जाने बाबाबैरागियों के पीछे ये नासमझ लोग क्यों भागते हैं? मैं देख रहा था कि कोई नारियल तो कोई मिठाई ले कर वहां आया हुआ था.

पिछले जुमे पर भी जब अम्मी यहां आई थीं, तो 5 सौ रुपए दे कर अपना नंबर लगा गई थीं. फोन से ही आज का समय मिला था, तो वे मुझे साथ ले कर आ गई थीं. मैं घर का सब से छोटा हूं, इसलिए सब के लिए आसानी से मुहैया रहता हूं. मैं ने अम्मी को कई बार समझाया भी था, लेकिन वे मानने को तैयार नहीं थीं. यह बात आईने की तरह साफ थी कि पिछले 2-3 सालों में हमारे घर की हालत बहुत खराब हो गई थी. इस के पहले सब ठीकठाक था.

मेरे अब्बा सरकारी ड्राइवर थे और न जाने कहां का शौक लगा तो एक आटोरिकशा खरीद लिया और उसे किराए पर दे दिया. कुछ आमदनी होने लगी, तो बैंक से कर्ज ले कर 2-3 आटोरिकशा और ले लिए और उसी हिसाब से आमदनी बढ़ गई थी.

अब्बा घर में मिठाई, फल लाने लगे थे. 1-2 दिन छोड़ कर चिकन बिरयानी या नौनवेज बनने लगा था. फ्रिज में तो हमेशा फल भरे ही रहते थे. अम्मी के लिए चांदी के जेवर बन गए थे और फिर हाथ के कंगन. गले में सोने की माला आ गई थी. मेरी पढ़ाई के लिए अलग से कोचिंग क्लास लगा दी गई थी.

मेरी बड़ी बहन यानी अप्पी भी हमारे शहर में ही ब्याही गई थीं. उन की ससुराल में अम्मी कभी भी खाली हाथ नहीं जाती थीं. बड़ी अप्पी के बच्चे तो नानानानी का मानो इंतजार ही करते रहते थे.

फिर अब्बा परेशान रहने लगे. वे किसी से कुछ बात नहीं कहते थे. मुझे कभी कपड़ों की या कोचिंग के लिए फीस की जरूरत होती, तो वे झिड़क देते थे, ‘कब तक मांगोगे? इतने बड़े हो गए हो. खुद कमाओ…’ अब्बा के मुंह से कड़वी बातें निकलने लगी थीं. नए कपड़े दिलाना बंद हो गया था. अम्मी अब बड़ी अप्पी के यहां खाली हाथ ही जाने लगी थीं.

अम्मी घरखर्च के लिए 3-4 बार कहतीं, तब अब्बा रुपए निकाल कर देते थे. आखिर ऐसा क्यों हो रहा था? अम्मी कहतीं कि घर पर किसी की नजर लग गई या किसी शैतान का बुरा साया घर में आ गया है.हद तो तब हो गई, जब अब्बा ने अम्मी से सोने के कड़े उतरवा कर बेच दिए और जो रुपए आए उस का क्या किया, पता नहीं?

अम्मी को भरोसा हो गया था कि कुछ न कुछ गलत हो रहा है. वे मौलाना से पानी फुंकवा कर ले आईं, कुछ तावीज भी बनवा लिए. अब्बा के तकिए के नीचे दबा दिए, लेकिन परेशानियां दूर नहीं हुईं.

एक दिन शाम को अम्मी ने एक पीर साहब को बुलवाया. वे पूरा घर घूम कर कहने लगे, ‘कोई बुरी शै है.’ इसे दूर करने के लिए पीर साहब ने 2 हजार रुपए मांगे. अम्मी ने जो रुपए जोड़ कर रखे थे, वे निकाल कर दे दिए और तावीज ले लिया. घर में पानी का छिड़काव कर दिया. दरवाजों के बीच में सूइयां ठुंकवा लीं, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला.

अब्बा ने अम्मी से चांदी के जेवर भी उतरवा लिए. अम्मी ने मना किया, तो बहुत झगड़ा हुआ. अब तो मुझे भी यकीन होने लगा था कि मामला गंभीर है, क्योंकि ऐसी खराब हालत हमारे परिवार की कभी नहीं हुई थी. म्मी ने यह बात अपनी बहनों से भी की और कोई बहुत पहुंचे हुए पीर बाबा के बारे में मालूम किया. अम्मी ने पिछले जुमे को पैसा दे कर अपना नंबर लगवा लिया था.

मैं अपनी यादों से लौट आया. मैं ने घड़ी में देखा. रात के 9 बज रहे थे. तभी देखा कि अम्मी बाहर बदहवास से आ रही थीं.

मैं घबरा गया और पूछा, ‘‘क्या बात है अम्मी?’’

‘‘कुछ नहीं बेटा, घर चल,’’ घबराई सी आवाज में अम्मी ने कहा और कहतेकहते उन का गला भर आया.

‘‘आखिर माजरा क्या है? पीर साहब ने कुछ कहा क्या?’’ मैं ने जोर दे कर पूछा.

‘‘तू घर चल, बस… अम्मी ने गुस्से में कहा.

बड़ी अप्पी घर पर आई हुई थीं. अम्मी तो अंदर आते ही अप्पी के गले लग कर रोने लगीं.

आखिर दिल भर रो लेने के बाद अम्मी ने आंसुओं को पोंछा और कहा, ‘‘मैं जो सोच रही थी, वह सच था.’’

‘‘क्या सोच रही थीं? कुछ साफसाफ तो बताओ,’’ बड़ी अप्पी ने पूछा.

‘‘क्या बताऊं? हम तो बरबाद हो गए. पीर साहब ने साफसाफ बताया है कि इन की जिंदगी में दूसरी औरत है, जिस की वजह से यह बरबादी हो रही है…’’ अम्मी जोर से रो रही थीं.

मैं ने सुना, तो मैं भी हैरान रह गया. अब्बा ऐसे लगते तो नहीं हैं. लेकिन फिर हम बरबाद क्यों हो गए? इतने रुपए आखिर जा कहां रहे हैं?

अम्मी को अप्पी ने रोने से मना किया और कहा, ‘‘अब्बा आज आएंगे, तो बात कर लेंगे.’’

हम सब ने आज सोच लिया था कि अब्बा को घर की बरबादी की पूरी दास्तां बताएंगे और पूछेंगे कि आखिर वे चाहते क्या हैं?

रात के तकरीबन साढ़े 10 बजे अब्बा परेशान से घर में आए. वे अपने कमरे में गए, तो अम्मी वहीं पर पहुंच गईं. अब्बा ने उन्हें देख कर पूछा, ‘‘क्या बात है बेगम, बहुत खामोश हो?’’

अम्मी चुप रहीं, तो अब्बा ने दोबारा कहा, ‘‘कोई खास बात है क्या?’’

‘‘जी हां, खास बात है. आप से कुछ बात करनी है,’’ अम्मी ने कहा.

‘‘कहो, क्या बात है?’’

‘‘हमारे घर के हालात पिछले 2 सालों से बद से बदतर होते जा रहे हैं, इस पर आप ने कभी गौर किया है?’’

‘‘मैं जानता हूं, लेकिन कुछ मजबूरी है. 1-2 महीने में स ठीक हो जाएगा,’’ अब्बा ने ठंडी सांस खींच कर कहा.

‘‘बिलकुल ठीक नहीं होगा, आप यह जान लें, बल्कि आप हमें भिखारी बना कर ही छोड़ेंगे,’’ अम्मी की आवाज बेकाबू हो रही थी.

हम दरवाजे की ओट में आ कर खड़े हो गए थे, ताकि कोई ऊंचनीच हो, तो हम अम्मी की ओर से खड़े हो सकें.

‘‘ऐसा नहीं कहते बेगम.’’

‘‘क्यों? क्या कोई कसर छोड़ रहे हैं आप? आप को एक बार भी अपने बीवीबच्चों का खयाल नहीं आया कि हम पर क्या गुजरेगी,’’ कह कर अम्मी रोने लगी थीं.

‘‘मैं पूरी कोशिश कर रहा हूं कि हम इन बुरे दिनों से पार निकल जाएं.’’

‘‘लेकिन निकल नहीं पा रहे, यही न? उस औरत ने आप को जकड़ लिया है,’’ अम्मी ने अपनी नाराजगी जाहिर कर तकरीबन चीखते हुए कहा.

‘‘खामोश रहो. तुम्हारे मुंह से ऐसी बेहूदा बातें अच्छी नहीं लगतीं.’’

‘‘क्यों… मैं सब सच कह रही हूं, इसलिए?’’

‘‘कह तो तुम सच रही हो, लेकिन बेगम मैं क्या करूं? पानी को कितना भी तलवार से काटो, वह कटता नहीं है,’’ अब्बा ने अपना नजरिया रखा.

‘‘आज आप फैसला कर लें.’’

‘‘कैसा फैसला?’’ अब्बा ने हैरत से सवाल किया.

‘‘आखिर आप चाहते क्या हैं? उस औरत के साथ रहना चाहते हैं या हमारे साथ जिंदगी बसर करना चाहते हैं?’’ अम्मी ने गुस्से में कहा.

‘‘क्या मतलब है तुम्हारा? साफसाफ कहो?’’ अब्बा भी नाराज होने लगे थे.

‘‘मैं आज बड़े पीर साहब के पास गई थी. उन्होंने मुझे सब बता दिया है,’’ अम्मी ने राज खोलते हुए कहा.

‘‘क्या सब बता दिया है?’’ अब्बा ने हैरत से सवाल किया.

‘‘आप किसी दूसरी औरत के चक्कर में सबकुछ बरबाद कर रहे हैं. लानत है…’’ अम्मी ने गुस्से में कहा.

‘‘चुप रहो. जानती हो कि वह दूसरी दूसरी औरत कौन है?’’ अब्बा ने गुस्से में कांपते हुए कहा.

‘‘कौन है?’’ अम्मी ने भी उतनी ही तेजी से ऊंची आवाज में पूछा.

‘‘तुम्हारी ननद है, मेरी बड़ी बहन. उस की मेहनत की वजह से ही मैं पढ़ाई कर पाया और अपने पैरों पर खड़ा हो सका और उस की एक छोटी सी गलती की वजह से हमारे पूरे परिवार ने उसे अपने से अलग कर दिया था, क्योंकि उस ने अपनी मरजी से शादी की थी.

‘‘मुझे पिछले एक साल पहले ही मालूम पड़ा कि उस के पति को कैंसर है, जिस की कीमोथैरैपी और इलाज के लिए उसे रुपयों की जरूरत थी. उस के बच्चे भी ऊंचे दर्जे में पढ़ रहे थे. उन्होंने तो तय किया था इलाज नहीं कराएंगी, लेकिन जैसे ही मुझे खबर लगी, तो मैं ने इलाज और पढ़ाई की जिम्मेदारी ले ली, ताकि वह परिवार बरबाद होने से बच सके.

‘‘मेरी बहन के हमारे सिर पर बहुत एहसान हैं. अगर मुझे जान दे कर भी वे एहसान चुकाने पड़ें, तो मैं ऐसा खुशीखुशी कर सकता हूं,’’ कहतेकहते अब्बा जोर से रो पड़े.

अम्मी हैरान सी सब देखतीसुनती रहीं.

‘‘मुझ से कैसा बड़ा गुनाह हो गया,’’ अम्मी बड़बड़ाईं. हम भी दरवाजे की ओट से बाहर निकले और अब्बा के गले से लिपट गए.‘‘अब्बा, हमें माफ कर दो. अगर हमें  और भी मुसीबतें झेलना पड़ीं, तो हम झेल लेंगे, लेकिन आप उन्हें बचा लें,’’ मैं ने कहा.

अब्बा ने आंसू पोंछे और कहा, ‘आदिल बेटा, उन का पूरा इलाज हो गया है. वे ठीक हो गए हैं और भांजे को नौकरी भी लग गई है. ‘‘यह सब तुम लोगों की मदद की वजह से ही सब हो पाया. तुम लोग खामोश रहे और मैं उस परिवार की मदद कर के उन्हें जिंदा रख पाया,’’ अब्बा की आवाज में हम सब के प्रति शुक्रिया का भाव नजर आ रहा था.

अम्मी ने शर्म के मारे नजरें नीची कर ली थीं.अब्बा ने कहा, ‘‘कल सुबह मेरी बहन यहां आने वाली हैं. अच्छा हुआ, जो सब बातें रात में ही साफ हो गईं.’’

‘‘हम सब कल उन का बढि़या से इस्तकबाल करेंगे, ताकि बरसों से वे हम से जो दूर रहीं, सारे गम भूल जाएं,’’ अम्मी ने कहा.

‘‘क्यों नहीं,’’ अब्बा ने कहा, तो हम सब हंस दिए. रात में हमारी हंसी से लग रहा था, मानो रात घर में बिछ गई हो और खुशियों के सितारे उस में टंग गए हों.

रिश्तों की रस्में: नंदा ने सच बताया या नहीं

नंदा ने सोचा था कि अपनी भाभी सुमीता को उस की बहू अनिता के बारे में जब वे कुछ बातें, जिन से वे अनजान हैं, बताएंगी तो भाभी के होश उड़ जाएंगे. लेकिन हुआ कुछ और ही… नंदा आंगन में स्टूल डाल कर बैठ गई, ‘‘लाओ परजाई, साग के पत्ते दे दो, काट देती हूं. शाम के लिए आप की मदद हो जाएगी.’’

‘‘अभी ससुराल से आई और मायके में भी लग पड़ी काम करने. रहने दे, मैं कर लूंगी,’’ सुमीता ने कहा. पर वाक्य समाप्त होने से पहले ही एक पुट और लग गया संग में, ‘‘क्यों, आप अकेले क्यों करोगे काम? मुझे किस दिन मौका मिलेगा आप की सेवा करने का?’’ यह स्वर अनिका का था. हंसती हुई अनिका, सुमीता की बांह थामे उसे बिठाती हुई आगे कहने लगी, ‘‘आप बैठ कर साग के पत्ते साफ करो मम्मा, बाकी सब भागदौड़ का काम मुझ पर छोड़ दो.’’

आज अनिका की पहली लोहड़ी थी. कुछ महीनों पहले ब्याह कर आई अनिका घर में ऐसे घुलमिल गई थी कि जब कोई सुमीता से पूछता कि कितना समय हुआ है बहू को घर में आए, तो वह सोच में पड़ जाती. लगता था, जैसे हमेशा से ही अनिका इस घर में समाई हुई थी.

‘‘तुम्हें यहां मोहाली का क्या पता बेटे, आज सुबह ही तो पहुंची हो दिल्ली से, कल शाम तक तो औफिस में बिजी थे तुम दोनों. उसे देखो, अमन कैसे सोया पड़ा है अब तक,’’ अपने बेटे की ओर इशारा करते हुए सुमीता हंस पड़ी.‘‘मायके में तो सभी को नींद आती है,

’’ नंदा ने भतीजे की टांगखिंचाई की.अमन का जौब काफी डिमांडिंग था. शादी के बाद वह सिर्फ त्योहारों पर ही घर आ पाया था. मगर अनिका कई बार अकेले ही वीकैंड पर बस पकड़ कर आ जाती. सुमीता मन ही मन गद्गद हो उठती. डेढ़दो दिनों के लिए बहू के आ जाने से ही उस का घरआंगन महक उठता. लगता, मानो अनिका के दिल्ली लौट जाने के बाद भी उस की गंध आंगन में मंडराती रहती. लेकिन साथ ही सुमीता के दिल को आशंका के बादल घेर लेते कि कहीं अमन के मन में शादी के तुरंत बाद अकेले वीकैंड बिताने पर यह विचार न आ जाए कि घरवाले कैसे सैल्फिश हैं, अपना सुख देखते हुए बेटेबहू को एकसाथ रहने नहीं देते.

उस के समझाने पर अनिका, उलटा, उसे ही सम झाने लगती, ‘‘मम्मा, मैं, हम दोनों की खुशी और इच्छा से यहां आती हूं. इस घर में आ कर मुझे बहुत अच्छा लगता है. आप नाहक ही परेशान हो जाती हैं.’’

सासबहू के नेहबंधन के जितने श्रेय की हकदार अनिका है, उस से अधिक सुमीता. हर मां अपने बेटे के लिए लड़की ढूंढ़ते समय अपने मन में अनेकानेक सपने बुनती है. नई बहू से हर परिवार की कितनी ही अपेक्षाएं होती हैं. उसे नए रिश्तों में ढलना होता है. परिवार की परंपरा को केवल जानना ही नहीं,

अपनाना भी होता है. हर रिश्ता उसे अपनी कसौटी पर कसने को तत्पर बैठा होता है. ऐसे में नए परिवार में आई एक लड़की को यह अनुभूति देना कि यह घर उस का अपना है, उस के आसपास सहजता से लबरेज भावना का घेरा खींचना कोई सरल कार्य नहीं. सुमीता ने कभी अनिका को अपने परिवेश के अनुकूल ढलने को  बाध्य नहीं किया. वह तो अनिका स्वयं ही ससुराल में हर वह कार्य करती, हर वह रस्म निभाती जिस की आशा एक बहू से की जा सकती है. जब भी आती, अपनी सास के लिए कुछ न कुछ उपहार लाती. सुमीता भी उस को लाड़ करने का कोई मौका न चूकती.

सुमीता के पति अशोक चुहल करते, ‘‘बहू की जगह बेटी घर ले आई हो, और वह भी ब्राइब देने में माहिर.’’

आज पहली लोहड़ी के मौके पर कई रिश्तेदार आमंत्रित थे. आसपड़ोस के सभी जानकार भी शाम को दावत में आने वाले थे. आंगन के चारों ओर लालहरा टैंट लग रहा था. जनवरी की ठंड में उधड़ी छत को ढकने हेतु लाइटों की  झालर बनाई गई थी. आंगन के बीचोंबीच सूखी लकड़ियां रखवा दी गई थीं.

आज के दिन एक ओर सुमीता, अनिका के लिए सोने का हार खरीद कर लाई थी जो उसे शाम को तैयार होते समय उपहारस्वरूप देने वाली थी, तो दूसरी ओर अनिका अपनी सास के साथसाथ सभी रिश्तेदारों के लिए तोहफे लाई थी.शाम की तैयारी में अनिका अपनी कलाइयों में सजे चूड़ों से मेल खाती गहरे लाल रंग की नई सलवारकमीज व अमृतसरी फुलकारी काम की रंगबिरंगी चुन्नी पहन कर आई तो सुमीता ने स्नेहभरा दृष्टिपात करते हुए उस के गले में सोने का हार पहना दिया. प्यार से अनिका, सुमीता के गले लग गई. फिर उस से पूछते हुए अनिका रिश्तेदारों के आने के साथ, पैरीपौना करते हुए उन्हें उपहार थमाने लगी. सभी बेहद खुश थे. हर तरफ सुमीता को इतनी अच्छी बहू मिलने की चर्चा हो रही थी.

शाम का कार्यक्रम आरंभ हुआ, आंगन के बीच आग जलाई गई, सभी लोगों  ने उस में रेवड़ी, मूंगफली, गेहूं की बालियां आदि डाल कर लोहड़ी मनाना  शुरू किया. नियत समय पर ढोली भी आ गया.

‘‘आजकल की तरह प्लास्टिक वाला ढोल तो नहीं लाया न? चमड़े का ढोल है न तेरा?’’ अशोक ने ढोली से पूछा, ‘‘भई, जो बात चमड़े की लय और थाप में आती है, वह प्लास्टिक में कहां.’’ फिर तो ढोली ने सब से चहेती धुन ‘चाल’ बजानी शुरू की और सभी थिरकने लगे.

शायद ही किसी के पैर रुक पाए थे. नाच, गाना, भंगड़ा, टप्पे होते रहे. कुछ देर पश्चात एक ओर लगा कोल्डडिं्रक्स का काउंटर भी खुल गया. घर और पड़ोस के मर्द वहां जा कर अपने लिए कोल्डड्रिंक ले कर आने लगे. घर की स्त्रियां सब को खाना परोसने में व्यस्त हो गईं. अनिका आगे बढ़चढ़ कर सब को हाथ से घुटा गरमागरम सरसों का साग और मिस्सी रोटियां परोसने लगी. किसी थाली में घी का चमचा उड़ेलती, तो कहीं गुड़ की डली रखती.

अनिका देररात तक परोसतीबटोरती  झूठी थालियां उठाती रही. मध्यरात्रि के बाद अधिकतर मेहमान अपनेअपने घर लौट चुके थे. दूसरे शहरों से आए कुछ मेहमान घर पर रुक गए थे.घर की छत पर अमन ने गद्दों और सफेद चादरों का इंतजाम करवा दिया था. चांदनी की शीतलता में नहाए सारे बिस्तरे ठंडक का एहसास दे रहे थे. मेहमानों के साथ आए बच्चे बिस्तरों पर लोटपोट कर खेलने लगे. ठंडेठंडे गद्दों पर लुढ़कने का आनंद लेते बच्चों को सरकाते हुए, बड़े भी लेटने की तैयारी करने लगे. ‘‘परजाई, मैं आप के पास सोऊंगी,’’

पर बाकी बातें कल करेंगे. अब सोऊंगी मैं, बहुत थक गई आज. तू तो कुछ दिन रुक कर जाएगी न?’’ सुमीता थकान के कारण ऊंघने लगी थी, ‘‘कल अमन और अनिका भी चले जाएंगे,’’ कहतेकहते सुमीता सो गई.अगले दिन, बाकी बचे मेहमान भी विदा हो गए. दिन की बस से अमन और अनिका भी चले गए, ‘‘मम्मा, कल से औफिस है न, शाम तक घर पहुंच जाएंगे तो कल की तैयारी करना आसान रहेगा.’’

शाम को हाथ में 3 कप लिए नंदा छत पर आई तो अशोक हंसने लगे, ‘‘तु झे अब भी शाम की चाय का टाइम याद है.’’‘‘लड़कियां भले ही मायके से विदा होती हैं वीर जी, पर मायका कभी उन के दिल से विदा नहीं होता,’’

नंदा की इस भावनात्मक टिप्पणी पर सुमीता ने उठ कर उसे गले लगा लिया. चाय पी कर अशोक वौक पर चले गए. नंदा को कुछ चुप सा देख सुमीता ने पूछा, ‘‘कोई बात सता रही है, तो बोल क्यों नहीं देती? कल से देख रही हूं, कुछ अनमनी सी है.’’

‘‘आप का दिल टूट जाएगा, परजाई, पर बिना कहे जा भी तो नहीं पाऊंगी. आप को तो पता है कि विम्मी की नौकरी लग गई है. इसी कारण वह इस फंक्शन में भी नहीं आ सकी और जवान बेटी को घर पर अकेला कैसे छोड़ें, इस वजह से उस के डैडी भी नहीं आ पाए,’’

नंदा ने अपनी बेटी विम्मी के न आने का कारण बताया तो सुमीता बोलीं, ‘‘मैं सम झती हूं, नंदा, मैं ने बिलकुल बुरा नहीं माना. कितनी बार अमन नहीं आ पाता है.

वह तो शुक्र है कि अनिका हमारा इतना खयाल रखती है कि अकसर हमारे पास आ जाया करती है.’’

‘‘मेरी पूरी बात सुन लो,’’ नंदा ने सुमीता की बात बीच में ही काट दी, ‘‘विम्मी को नौकरी लगने पर ट्रेनिंग के लिए दिल्ली भेजा गया था. कंपनी के गैस्टहाउस में रहना था, औफिस की बस लाती व ले जाती.

औफिस के पास ही के एक आईटी पार्क में था. वहां और भी कई दफ्तर थे, जिन में अनिका का भी दफ्तर है. पहली शाम गैस्टहाउस लौटते समय विम्मी ने देखा कि आप की बहू अपने अन्य सहकर्मियों के साथ सिगरेट का धुआं उड़ा रही है. उसे तो अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ. परंतु अगली हर शाम उस ने यही दृश्य देखा. यहां तक कि उस की पोशाकें भी अजीबोगरीब होतीं,

कभी शौर्ट्स, कभी स्लिट स्कर्ट, तो कभी फैशनेबल टौप्स पहनती.‘‘अब बताओ परजाई, जो लड़की यहां हम सब के बीच घर के सारे तौरतरीके मानती है, जैसे कपड़े हमें पसंद है, वैसे पहनती है, हर रीतिरिवाज निभाने में कोई संकोच नहीं करती है, बड़ों का पूरा सम्मान करती है, वह असली जिंदगी में इस से बिलकुल उलट है. माफ करना परजाई, आप की बहू को रस्म निभाना तो आता है पर रिश्ते निभाना नहीं. आप की बहू आप को बेवकूफ बना रही है.’’

अब तक धुंधलका होने लगा था. शाम के गहराने के साथ मच्छर भी सिर पर मंडराने लगे थे. सुमीता ने तीनों कप उठाए और घर के भीतर चल दी. नंदा भी चुपचाप उस के पीछे हो ली. संवाद के धागे का कोना अब भी उन के बीच लटका हुआ  झूल रहा था. लेकिन उस का आखिरी छोर सुमीता को जनवरी की ठंड में भी ऐसे आहत कर रहा था मानो वह जेठ की भरी दोपहरी में नंगेपैर पत्थर से बने आंगन में दौड़ रही हो. नंदा की इन बातों से दोनों के बीच धुआं फैल गया. लेकिन इस धुएं को छांटना भी आवश्यक था. रात का खाना बनाते समय सुमीता ने फिर बात आरंभ की.

‘‘याद है नंदा, पिछले वर्ष तुम्हारे वीरजी और मैं हौलिडे मनाने यूरोप गए थे. वह मेरे लिए एक यादगार भ्रमण रहा. इसलिए नहीं कि मैं ने यूरोप घूमा, बल्कि इसलिए कि इस ट्रिप ने मु झे जीवन जीने का नया नजरिया सिखाया. हमारे साथ कुछ परिपक्व तो कुछ नवविवाहिता जोड़े भी थे जो अपने हनीमून पर आए थे. पूरा ग्रुप एकसाथ, एक ही मर्सिडीज बस में घूमता. हम सब साथ खातेपीते, फोटो खींचते, वहां बस में दूसरे जोड़ों के आगेपीछे बैठे हुए मैं ने एक नई बात नोट की कि आजकल के दंपती हमारे जमाने से काफी विलग हैं. आजकल पतिपत्नी के बीच हमारे जमाने जैसा सम्मान का रिश्ता नहीं, बल्कि बराबरी का नाता है. हमारे जमाने में पति परमेश्वर थे जबकि आजकल के पति पार्टनर हैं. आज की पत्नी पूरे हक से पति की पीठ पर धौल भी जमा सकती है और लाड़ में आ कर उस के गाल पर चपत भी लगा सकती है. इस के लिए उसे एकांत की खोज नहीं होती. वह सारे समाज के सामने भी अपने रिश्ते में उतनी ही उन्मुक्त है जितनी अकेले में.

‘‘ झूठ नहीं कहूंगी, नंदा, पहलेपहल तो मुझे काफी अजीब लगा यह व्यवहार. अपनी मानसिकता पर इतना गहरा प्रहार मुझे डगमगा गया. पर फिर जब उन लड़कियों से बातचीत होने लगी तो मुझे एहसास हुआ कि आजकल के बच्चों का खुलापन अच्छा ही है. जो अंदर है, वही भावना बाहर भी है. कहते तो हम भी हैं कि पतिपत्नी गृहस्थी के पहिए हैं, बराबरी के स्तर पर खड़े, पर फिर भी मन के भीतर पति को अपने से श्रेष्ठ मान ही बैठते हैं.

परंतु आजकल की लड़कियां कार्यदक्षता में लड़कों से बीस ही हैं, उन्नीस नहीं. तो फिर उन्हें उन का जीवन उन के हिसाब से जीने पर पाबंदी क्यों? जब हम अपने बेटों को नहीं रोकते तो बेटीबहुओं पर लगाम क्यों कसें.

‘‘यूरोप जा कर मैं ने जाना कि सब को अपना जीवन अपनी खुशी से जीने का अधिकार मिलना चाहिए. किसी को भी दूसरे पर अंकुश लगाने का अधिकार ठीक नहीं. पारिवारिक सान्निध्य से ऊपर क्या है भला. यदि परिवार की खुशी के लिए अनिका हमारे हिसाब से ढल कर रहती है तो हमें उस का आभारी होना चाहिए. फिर अपनी निजी जिंदगी में वह जो करती है, वह उस के और अमन के बीच की बात है. हमारे परिवार की रस्में निभाने के पीछे उस का अभिप्राय रिश्ते निभाने का ही है, वरना क्यों वह वे सब काम करती है जिन में शायद उसे विश्वास भी नहीं.

‘‘जो बातें तुम ने मुझे आज बताईं, वे मैं पहले से ही जानती हूं. अनिका ने मु झे अपने फेसबुक पर फ्रैंडलिस्ट में रखा हुआ है. और आजकल की पीढ़ी चोरीछिपे कुछ नहीं करती. जो करती है, डंके की चोट पर करती है. मैं ने उस की कई फोटो देखीं जिन में उस के हाथ में सिगरेट थी तो कभी बीयर. अमन भी साथ था. मैं यह नहीं कहती कि ये आदतें अच्छी हैं, पर यदि अमन को छूट है तो अनिका को भी. हां, परिवारवृद्धि के बारे में विचार करने से पहले वे दोनों इन आदतों से तौबा कर लेंगे, इस विषय में मेरी उन से बात हो चुकी है. और दोनों ने सहर्ष सहमति भी दे दी है. ये उन के व्यसन नहीं, शायद पीयर प्रैशर में आ कर या सोशल सर्कल में जुड़ने के कारण शुरू की गई आदतें हैं.’’

सुमीता अपने बच्चों की स्थिति सुगमतापूर्वक कहे जा रही थी और नंदा सोच रही थी कि केवल आज की पीढ़ी ही नहीं, बदल तो पुरानी पीढ़ी भी रही है वह भी सहजता से.

लम्हे पराकाष्ठा के : रूपा और आदित्य की खुशी अधूरी क्यों थी?

लगातार टैलीफोन की घंटी बज रही थी. जब घर के किसी सदस्य ने फोन नहीं उठाया तो तुलसी अनमनी सी अपने कमरे से बाहर आई और फोन का रिसीवर उठाया, ‘‘रूपा की कोई गुड न्यूज?’’ तुलसी की छोटी बहन अपर्णा की आवाज सुनाई दी.

‘‘नहीं, अभी नहीं. ये तो सब जगह हो आए. कितने ही डाक्टरों को दिखा लिया. पर, कुछ नहीं हुआ,’’ तुलसी ने जवाब दिया.

थोड़ी देर के बाद फिर आवाज गूंजी, ‘‘हैलो, हैलो, रूपा ने तो बहुत देर कर दी, पहले तो बच्चा नहीं किया फिर वह व उस के पति उलटीसीधी दवा खाते रहे और अब दोनों भटक रहे हैं इधरउधर. तू अपनी पुत्री स्वीटी को ऐसा मत करने देना. इन लोगों ने जो गलती की है उस को वह गलती मत करने देना,’’ तुलसी ने अपर्णा को समझाते हुए आगे कहा, ‘‘उलटीसीधी दवाओं के सेवन से शरीर खराब हो जाता है और फिर बच्चा जनने की क्षमता प्रभावित होती है. भ्रूरण ठहर नहीं पाता. तू स्वीटी के लिए इस बात का ध्यान रखना. पहला एक बच्चा हो जाने देना चाहिए. उस के बाद भले ही गैप रख लो.’’

‘‘ठीक है, मैं ध्यान रखूंगी,’’ अपर्णा ने बड़ी बहन की सलाह को सिरआंखों पर लिया.

अपनी बड़ी बहन का अनुभव व उन के द्वारा दी गई नसीहतों को सुन कर अपर्णा ने कहा, ‘‘अब क्या होगा?’’ तो बड़ी बहन तुलसी ने कहा, ‘‘होगा क्या? टैस्टट्यूब बेबी के लिए ट्राई कर रहे हैं वे.’’

‘‘दोनों ने अपना चैकअप तो करवा लिया?’’

‘‘हां,’’ अपर्णा के सवाल के जवाब में तुलसी ने छोटा सा जवाब दिया.

अपर्णा ने फिर पूछा, ‘‘डाक्टर ने क्या कहा?’’

तुलसी ने बताया, ‘‘कमी आदित्य में है.’’

‘‘तो फिर क्या निर्णय लिया?’’

‘‘निर्णय मुझे क्या लेना था? ये लोग ही लेंगे. टैस्टट्यूब बेबी के लिए डाक्टर से डेट ले आए हैं. पहले चैकअप होगा. देखते हैं क्या होता है.’’

दोनों बहनें आपस में एकदूसरे के और उन के परिवार के सुखदुख की बातें फोन पर कर रही थीं.

कुछ दिनों के बाद अपर्णा ने फिर फोन किया, ‘‘हां, जीजी, क्या रहा? ये लोग डाक्टर के यहां गए थे? क्या कहा डाक्टर ने?’’

‘‘काम तो हो गया…अब आगे देखो क्या होता है.’’

‘‘सब ठीक ही होगा, अच्छा ही होगा,’’ छोटी ने बड़ी को उम्मीद जताई.

‘‘हैलो, हैलो, हां अब तो काफी टाइम हो गया. अब रूपा की क्या स्थिति है?’’ अपर्णा ने काफी दिनों के बाद तुलसी को फोन किया.

‘‘कुछ नहीं, सक्सैसफुल नहीं रहा. मैं ने तो रूपा से कह दिया है अब इधरउधर, दुनियाभर के इंजैक्शन लेना बंद कर. उलटीसीधी दवाओं की भी जरूरत नहीं, इन के साइड इफैक्ट होते हैं. अभी ही तुम क्या कम भुगत रही हो. शरीर, पैसा, समय और ताकत सभी बरबाद हो रहे हैं. बाकी सब तो जाने दो, आदमी कोशिश ही करता है, इधरउधर हाथपैर मारता ही है पर शरीर का क्या करे? ज्यादा खराब हो गया तो और मुसीबत हो जाएगी.’’

‘‘फिर क्या कहा उन्होंने?’’ अपनी जीजी और उन के बेटीदामाद की दुखभरी हालत जानने के बाद अपर्णा ने सवाल किया.

‘‘कहना क्या था? सुनते कहां हैं? अभी भी डाक्टरों के चक्कर काटते फिर रहे हैं. करेंगे तो वही जो इन्हें करना है.’’

‘‘चलो, ठीक है. अब बाद में बात करते हैं. अभी कोई आया है. मैं देखती हूं, कौन है.’’

‘‘चल, ठीक है.’’

‘‘फोन करना, क्या रहा, बताना.’’

‘‘हां, मैं बताऊंगी.’’

फोन बंद हो चुका था. दोनों अपनीअपनी व्यस्तता में इतनी खो गईं कि एकदूसरे से बात करे अरसा बीत गया. कितना लंबा समय बीत गया शायद किसी को भी न तो फुरसत ही मिली और न होश ही रहा.

ट्रिन…ट्रिन…ट्रिन…फोन की घंटी खनखनाई.

‘‘हैलो,’’ अपर्णा ने फोन उठाया.

‘‘बधाई हो, तू नानी बन गई,’’ तुलसी ने खुशी का इजहार किया.

‘‘अरे वाह, यह तो बड़ी अच्छी न्यूज है. आप भी तो नानी बन गई हैं, आप को भी बधाई.’’

‘‘हां, दोनों ही नानी बन गईं.’’

‘‘क्या हुआ, कब हुआ, कहां हुआ?’’

‘‘रूपा के ट्विंस हुए हैं. मैं अस्पताल से ही बोल रही हूं. प्रीमैच्यौर डिलीवरी हुई है. अभी इंटैंसिव केयर में हैं. डाक्टर उन से किसी को मिलने नहीं दे रहीं.’’

‘‘अरे, यह तो बहुत गड़बड़ है. बड़ी मुसीबत हो गई यह तो. रूपा कैसी है, ठीक तो है?’’

‘‘हां, वह तो ठीक है. चिंता की कोई बात नहीं. डाक्टर दोनों बच्चियों को अपने साथ ले गई हैं. इन में से एक तो बहुत कमजोर है, उसे तो वैंटीलेटर पर रखा गया है. दूसरी भी डाक्टर के पास है. अच्छा चल, मैं तुझ से बाद में बात करती हूं.’’

‘‘ठीक है. जब भी मौका मिले, बात कर लेना.’’

‘‘हां, हां, मैं कर लूंगी.’’

‘‘तुम्हारा फोन नहीं आएगा तो मैं फोन कर लूंगी.’’

‘‘ठीक है.’’

दोनों बहनों के वार्त्तालाप में एक बार फिर विराम आ गया था. दोनों ही फिर व्यस्त हो गई थीं अपनेअपने काम में.

‘‘हैलो…हैलो…हैलो, हां, क्या रहा? तुम ने फोन नहीं किया,’’ अपर्णा ने अपनी जीजी से कहा.

‘‘हां, मैं अभी अस्पताल में हूं,’’ तुलसी ने अभी इतना ही कहा था कि अपर्णा ने उस से सवाल कर लिया, ‘‘बच्चियां कैसी हैं?’’

‘‘रूपा की एक बेटी, जो बहुत कमजोर थी, नहीं रही.’’

‘‘अरे, यह क्या हुआ?’’

‘‘वह कमजोर ही बहुत थी. वैंटीलेटर पर थी.’’

‘‘दूसरी कैसी है?’’ अपर्णा ने संभलते व अपने को साधते हुए सवाल किया.

‘‘दूसरी ठीक है. उस से डाक्टर ने मिलवा तो दिया पर रखा हुआ अभी अपने पास ही है. डेढ़ महीने तक वह अस्पताल में ही रहेगी. रूपा को छुट्टी मिल गई है. वह उसे दूध पिलाने आई है. मैं उस के साथ ही अस्पताल आई हूं,’’ तुलसी एक ही सांस में कह गई सबकुछ.

‘‘अरे, यह तो बड़ी परेशानी की बात है. रूपा नहीं रह सकती थी यहां?’’ अपर्णा ने पूछा.

‘‘मैं ने डाक्टर से पूछा तो था पर संभव नहीं हो पाया. वैसे घर भी तो देखना है और यों भी अस्पताल में रह कर वह करती भी क्या? दिमाग फालतू परेशान ही होता. बच्ची तो उस को मिलती नहीं.’’

डेढ़ महीने का समय गुजरा. रूपा और आदित्य नाम के मातापिता, दोनों ही बहुत खुश थे. उन की बेटी घर आ गई थी. वे दोनों उस की नानीदादी के साथ जा कर उसे अस्पताल से घर ले आए थे.

रूपा के पास फुरसत नहीं थी अपनी खोई हुई बच्ची का मातम मनाने की. वह उस का मातम मनाती या दूसरी को पालती? वह तो डरी हुई थी एक को खो कर. उसे डर था कहीं इसे पालने में, इस की परवरिश में कोई कमी न रह जाए.

बड़ी मुश्किल, बड़ी मन्नतों से और दुनियाभर के डाक्टरों के अनगिनत चक्कर लगाने के बाद ये बच्चियां मिली थीं, उन में से भी एक तो बची ही नहीं. दूसरी को भी डेढ़ महीने बाद डाक्टर ने उसे दिया था. बड़ी मुश्किल से मां बनी थी रूपा. वह भी शादी के 10 साल बाद. वह घबराती भी तो कैसे न घबराती. अपनी बच्ची को ले कर असुरक्षित महसूस करती भी तो क्यों न करती? वह एक बहुत घबराई हुई मां थी. वह व्यस्त नहीं, अतिव्यस्त थी, बच्ची के कामों में. उसे नहलानाधुलाना, पहनाना, इतने से बच्चे के ये सब काम करना भी तो कोई कम साधना नहीं है. वह भी ऐसी बच्ची के काम जिसे पैदा होते ही इंटैंसिव केयर में रखना पड़ा हो. जिसे दूध पिलाने जाने के लिए उस मां को डेढ़ महीने तक रोज 4 घंटे का आनेजाने का सफर तय करना पड़ा हो, ऐसी मां घबराई हुई और परेशान न हो तो क्यों न हो.

रूपा का पति यानी नवजात का पिता आदित्य भी कम व्यस्त नहीं था. रोज रूपा को इतनी लंबी ड्राइव कर के अस्पताल लाना, ले जाना. घर के सारे सामान की व्यवस्था करना. अपनी मां के लिए अलग, जच्चा पत्नी के लिए अलग और बच्ची के लिए अलग. ऊपर से दवाएं और इंजैक्शन लाना भी कम मुसीबत का काम है क्या. एक दुकान पर यदि कोई दवा नहीं मिली तो दूसरी पर पूछना और फिर भी न मिलने पर डाक्टर के निर्देशानुसार दूसरी दवा की व्यवस्था करना, कम सिरदर्द, कम व्यस्तता और कम थका देने वाले काम हैं क्या? अपनी बच्ची से बेइंतहा प्यार और बेशुमार व्यस्तता के बावजूद उस में अपनी बच्ची के प्रति असुरक्षा व भय की भावना नहीं थी बिलकुल भी नहीं, क्योंकि उस को कार्यों व कार्यक्षेत्रों में ऐसी गुंजाइश की स्थिति नहीं के बराबर ही थी.

रूपा और आदित्य के कार्यों व दायित्वों के अलगअलग पूरक होने के बावजूद उन की मानसिक और भावनात्मक स्थितियां भी इसी प्रकार पूरक किंतु, स्पष्ट रूप से अलगअलग हो गई थीं. जहां रूपा को अपनी एकमात्र बच्ची की व्यवस्था और रक्षा के सिवा और कुछ सूझता ही नहीं था, वहीं आदित्य को अन्य सब कामों में व्यस्त रहने के बावजूद अपनी खोई हुई बेटी के लिए सोचने का वक्त ही वक्त था.

मनुष्य का शरीर अपनी जगह व्यस्त रहता है, दिलदिमाग अपनी जगह. कई स्थितियों में शरीर और दिलदिमाग एक जगह इतने डूब जाते हैं, इतने लीन हो जाते हैं, खो जाते हैं और व्यस्त हो जाते हैं कि उसे और कुछ सोचने की तो दूर, खुद अपना तक होश नहीं रहता जैसा कि रूपा के साथ था. उस की स्थिति व उस के दायित्व ही कुछ इस प्रकार के थे कि उस का उन्हीं में खोना और खोए रहना स्वाभाविक था किंतु आदित्य? उस की स्थिति व दायित्व इस के ठीक उलट थे, इसलिए उसे अपनी खोई हुई बेटी का बहुत गम था. उस का गम तो सभी को था मां, नानी, दादी सभी को. कई बार उस की चर्चा भी होती थी पर अलग ही ढंग से.

‘‘उसे जाना ही था तो आई ही क्यों थी? उस ने फालतू ही इतने कष्ट भोगे. इस से तो अच्छा था वह आती ही नहीं. क्यों आई थी वह?’’ अपनी सासू मां की दुखभरी आह सुन कर आदित्य के भीतर का दर्द एकाएक बाहर आ कर बह पड़ा.

कहते हैं न, दर्द जब तक भीतर होता है, वश में होता है. उस को जरा सा छेड़ते ही वह बेकाबू हो जाता है. यही हुआ आदित्य के साथ भी. उस की तमाम पीड़ा, तमाम आह एकाएक एक छोटे से वाक्य में फूट ही पड़ी और अपनी सासू मां के निकले आह भरे शब्द ‘जाना ही था तो आई ही क्यों थी’ उस के जेहन से टकराए और एक उत्तर बन कर बाहर आ गए. उत्तर, हां एक उत्तर. एक मर्मात्मक उत्तर देने. अचानक ही सब चौंक कर एकसाथ बोल उठे. रूपा, नानी, दादी सब ही, ‘‘क्या दिया उस ने?’’

‘‘अपना प्यार. अपनी बहन को अपना सारा प्यार दे दिया. हम सब से अपने हिस्से का सारा प्यार उसे दिलवा दिया. अपने हिस्से का सबकुछ इसे दे कर चली गई. कुछ भी नहीं लिया उस ने किसी से. जमीनजायदाद, कुछ भी नहीं. वह तो अपने हिस्से का अपनी मां का दूध भी इसे दे कर चली गई. अपनी बहन को दे गई वह सबकुछ. यहां ताकि अपने हिस्से का अपनी मां का दूध भी.’’

सभी शांत थीं. स्तब्ध रह गई थीं आदित्य के उत्तर से. हवा में गूंज रहे थे आदित्य के कुछ स्पष्ट और कुछ अस्पष्ट से शब्द, ‘चली गई वह अपने हिस्से का सबकुछ अपनी बहन को दे कर. यहां तक कि अपनी मां का दूध भी…’

पहला पहला प्यार: मां को कैसे हुआ अपने बेटे की पसंद का आभास- भाग 3

मेरा मानना है कि लड़की कितने ही उच्च पद पर आसीन हो पर घरपरिवार को उस के मार्गदर्शन की आवश्यकता सदैव एक बच्चे की तरह होती है. वह चूल्हेचौके में अपना दिन भले ही न गुजारे पर चौके में क्या कैसे होता है, इस की जानकारी उसे अवश्य होनी चाहिए ताकि वह अच्छा बना कर खिलाने का वक्त न रखते हुए भी कम से कम अच्छा बनवाने का हुनर तो अवश्य रखती हो.

मैं शादी से पहले घरगृहस्थी में निपुण होना आवश्यक नहीं मानती पर उस का ‘क ख ग’ मालूम रहने पर ही उस जिम्मेदारी को निभा पाने की विश्वसनीयता होती है. बहुत से रिश्तों को इन्हीं बुनियादी जिम्मेदारियों के अभाव में बिखरते देखा था मैं ने, इसलिए विकी के जीवन के लिए मैं कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी.

मैं ने बरखा को अपने पास बुला कर कहा, ‘‘बेटा, सुबह से पार्टी की तैयारी में लगे होने की वजह से इस वक्त सिर बहुत दुखने लगा है. मैं ने गैस पर तुम सब के लिए चाय का पानी चढ़ा दिया है, अगर तुम्हें चाय बनानी आती हो तो प्लीज, तुम बना लो.’’

‘‘जी, आंटी, अभी बना लाती हूं,’’ कह कर वह विकी की तरफ पलटी, ‘‘किचन कहां है?’’

‘‘उस तरफ,’’ हाथ से किचन की तरफ इशारा करते हुए विकी ने कहा, ‘‘चलो, मैं तुम्हें चीनी और चायपत्ती बता देता हूं,’’ कहते हुए वह बरखा के साथ ही चल पड़ा.

‘‘बरखाजी को अदरक कूट कर दे आता हूं,’’ कहता हुआ विनी भी उन के पीछे हो लिया.

चाय चाहे सब के सहयोग से बनी हो या अकेले पर बनी ठीक थी. किचन में जा कर मैं देख आई कि चीनी और चायपत्ती के डब्बे यथास्थान रखे थे, दूध ढक कर फ्रिज में रखा था और गैस के आसपास कहीं भी चाय गिरी, फैली नहीं थी. मैं निश्चिंत हो आ कर बैठ गई. मुझे मेरी बहू मिल गई थी.

एकएक कर के दोस्तों का जाना शुरू हो गया. सब से अंत में बरखा और मालविका हमारे पास आईं और नमस्ते कर के हम से जाने की अनुमति मांगने लगीं. अब हमारी बारी थी, विकी ने अपनी मर्यादा निभाई थी. पिछले न जाने कितने दिनों से असमंजस की स्थिति गुजरने के बाद उस ने हमारे सामने अपनी पसंद जाहिर नहीं की बल्कि उसे हमारे सामने ला कर हमारी राय जाननेसमझने का प्रयत्न करता रहा. और हम दोनों को अच्छी तरह पता है कि अभी भी अपनी बात कहने से पहले वह बरखा के बारे में हमारी राय जानने की कोशिश अवश्य करेगा, चाहे इस के लिए उसे कितना ही इंतजार क्यों न करना पड़े.

मैं अपने बेटे को और असमंजस में नहीं देख सकती थी, अगर वह अपने मुंह से नहीं कह पा रहा है तो उस की बात को मैं ही कह कर उसे कशमकश से उबार लूंगी.

बरखा के दोबारा अनुमति मांगने पर मैं ने कहा, ‘‘घर की बहू क्या घर से खाली हाथ और अकेली जाएगी?’’

मेरी बात का अर्थ जैसे पहली बार किसी की समझ में नहीं आया. मैं ने विकी का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘तेरी पसंद हमें पसंद है. चल, गाड़ी निकाल, हम सब बरखा को उस के घर पहुंचाने जाएंगे. वहीं इस के मम्मीडैडी से रिश्ते की बात भी करनी है. अब अपनी बहू को घर में लाने की हमें भी बहुत जल्दी है.’’

मेरी बात का अर्थ समझ में आते ही पूरा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. मम्मीपापा को यह सब कैसे पता चला, इस सवाल में उलझाअटका विकी पहले तो जहां का तहां खड़ा रह गया फिर अपने पापा की पहल पर बढ़ कर उन के सीने से लग गया.

इन सब बातों में समय गंवाए बिना विनी गैरेज से गाड़ी निकाल कर जोरजोर से हार्न बजाने लगा. उस की बेताबी देख कर मैं दौड़ते हुए अपनी खानदानी अंगूठी लेने के लिए अंदर चली गई, जिसे मैं बरखा के मातापिता की सहमति ले कर उसे वहीं पहनाने वाली थी.

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