तुम ऐसी निकलीं- भाग 3: फरेबी आशिक की मोहब्बत

मोनिका  के बिना यहां इस सर्कस में इतना टिक पाना उस के लिए  तकरीबन असंभव ही  होता. मालिक भी तो यही देख रहा  था कि वह कब तक यहां रहना सहन करता है. कभीकभी उस को यह लगता कि पूरी दुनिया में, बस,  यह एक मोनिका  ही तो  है जो उस के  अकेलेपन को पहचानती  है, उस के भीतर घुमड़ रहे उन खामोश बादलों  को सुन पाती है  जिन्हें केवल उस का उदास बिस्तर सुन पाता है या तकिया  और यह वह मोनिका से पहले शायद  अपने अकेले में सुनता रहा.

पहले जिन महिलाओं के दामन में वह भीग कर तर हुआ था वे सब इतनी मुलायम नहीं थीं, न दिल के  स्तर पर और न ही गुफ्तगू के  स्तर पर.

यों आज तक उस ने कभी भी  अपने लिए एक मनपसंद जीवन की  कामना  नहीं की थी, वह लगभग 40 वर्ष का  हो चला था. मालिक के  पास रह कर काम करतेकरते उस को 20 साल हो गए, पर उस के मन में काम को ले कर कभी खीझ  पैदा नहीं हुई. वह रांची से भोपाल, ओडिशा से  हैदराबाद, गाजियाबाद से लखीमपुर खीरी कहांकहां नहीं रहा.  कोई शहर, गांव या इंसान  उस को सब मजा ही मजा मिलता रहा. रहनसहन के मामले में  तो वह हमेशा एकजैसे ही रहा-  टीशर्ट और जींस. फैशनेबल कपड़ों  के मामले में  उस के मन  का मिजाज  कभी  भी विचलित नहीं होता.  शायद, यही उस का खास अंदाज रहा जो सब, खासकर आजकल मोनिका, को भी मोहित कर जाता है.

मोहित करना भी तो भ्रम  में  रखना ही है  और सच पूछा जाए तो हर एक इंसान को जी सकने के  लिए सांसों के  साथ भरपूर  भ्रम भी  चाहिए, वरना ज़िंदगी उसे सत्य की  पहचान करवा  कर किस अवसाद  में या किस  मुसीबत में डाल दे,  पता नहीं.

बहुत कम लोग हैं जो उस की तरह अपना सच जान कर भी उस को  सम्पूर्ण रूप से किसी भ्रम के  परदे से ढक कर जीवन का फ़ायदा उठा कर आनंद के  द्वार  पर पहुंचते हैं.

वैसे,  अधिकांश लोगों  में उस की  ही तरह ज्यादा होते होंगे. ज़िंदगी की इस रंगीन फिल्म के  आकर्षण  से अपने मन  को रोक पाना इतना आसान तो  है  भी नहीं. कुत्ते  की गरदन में जितना सुंदर पट्टा उस पर   उतनी ही नजरें  टिकी रहती हैं, पर वह तो कुत्ता नहीं है और न ही  किसी  तरह से हलका इंसान. वह मोनिका से सच्चा प्यार करता है,  बहुत सच्चा.

मोनिका को सुखी रखना उस के अलावा और किसी  के वश में है ही नहीं. वह इतने प्यार से उस से जुड़ी है,  तो रिश्ता तो उस को भी  निभाना ही होगा. हां,  यह वफादारी उस को कुछ  बेचैन भी करेगी. आगे और भी  जवान और मदमाते हुए आकर्षण  आएंगे लेकिन मोनिका से गठबंधन उस को एकदम योगी बना देगा. वह अब किसी तरफ नजर ही नहीं डालेगा.

आज उस के पास 20 साल की  पक्की  नौकरी है. मालिक का  इतना स्नेह और दुलार है. अब मोनिका भी उसी की  होगी. वह मोनिका को सम्मान से अपनाने में  कतई पीछे नहीं हटेगा. जब  कुदरत आगे बढ़ कर उस को इतनी मखमली डोरी से बांध रही  है तो वह इस संकेत का अपमान भला कैसे कर सकता है. यह सोच कर ही उस को मीठीमीठी  गुदगुदी सी  होने लगी.

आज की व्यस्त ग्राहकी जितनी होनी थी, वह भी लगभग  हो  चुकी है. अब वह जानेमन के  पास जाएगा, शायद, वह अपने बाल संवार रही होगी या तकिया  सीने पर टिकाए  कुछ सोच कर हंस  रही होगी.  आज उस के लिए कोई सुंदर सी  ना…नहीं…नहीं… यह जरा  जल्दबाजी होगी. जरा रुक जाता हूं,  कल  या परसों ही कोर्ट में विवाह कर के   एक नए दिन  में नई  शाम  होगी, तब सब ले आऊंगा. यह  जिंदगी अब मेहरबान हो गई है, तो  भला हड़बडी़ कर के काम क्यों करना.  देर शाम तक उस से बातें करूंगा और  एक बढ़िया फिल्म दिखाने  हर रविवार को ले जाऊंगा और ढाबे पर छोलेकुलचे  या पावभाजी  हो जाए, तो होने वाले सुंदर लमहे सुनहरे हो जाएंगे.

ये विचार करतेकरते उस के मन  का बोझ हलका होने लगा  और वह खुद को दुनिया का  सब से सुखी मर्द मानने लगा. जिसे इतनी औरतों ने बेहिसाब प्यार किया, उस को  अब एक सलोनी पत्नी मिलने जा रही  है. यहां तो वह बेपनाह इश्क में कोई कमी छोड़ेगा ही नहीं.  मोनिका कितनी कोमलता से 2 चपाती सेंक कर परोस देती है,  स्वाद ऐसा आता है  जैसे सादी रोटी नहीं, घी का  हलवा खा रहे हों. मोनिका ने कितनी उम्मीद से खुद को उस के इंतजार में अब तक  सजाया होगा. यह सब सोचसोच कर वह यों ही लहालोट हुआ जाता था. उसी मखमली अंदाज में वह भी अपनी पत्नी मोनिका में प्यार के   सुरों को पिरोएगा. उसी अंदाज़ में उस के होंठों पर अपने होंठ रख मधुर, मीठा, रसीला, आनंद, सुख आदि ये सब भाव  एकएक कर के उस को गुदगुदा रहे थे. वह ही जानता था कि पिछले 48 घंटे उस ने कैसे काटे थे? मालिक ने उस को 2 दिनों के  लिए यहां से सौ किलोमीटर दूर काशीपुर भेजा था. वहां पर  2 हफ्ते  बाद ही सहकारी समिति का मेला होने वाला था. उस को वहां जा कर 2 बैठकों मे शामिल हो कर सब फाइनल कर के आना था.

वह एक दिन पहले ही  काशीपुर से लौटा था और, बस, दिल में मोनिकामोनिका ही किए जा रहा था. उस पगले  का यह बचाखुचा जीवन जितना भी था, अब, बस, उस के  ही  के दामन  में बेपरवाह  भीग जाना चाहता था और उस में उस के अलावा  अब  किसी और  को बिलकुल भी राजदार, भागीदार नहीं  बनाना चाहता था. बस, यही सब सपने बुनता वह दीवाना एकएक कर  बिखरी चादरें समेट रहा  था,  उन की तहें  बना रहा  था कि मोनिका अचानक  ही आई और आ कर सामने ही  बैठ गई. वह अकबका सा गया, ‘वह तो  यहां आती नहीं थी, फिर कैसे आ गई?’ वह सोचता रहा.

दिल्लगी बन गई दिल की लगी : भाग 3

सैलरी मिलने पर मैं ने कुछ नए कपड़े खरीदे. उन्हें सिलवाने के लिए मैं साफिया खाला के घर गई. क्योंकि मैं उन्हीं से कपड़े सिलवाती थी. जब मैं उन के घर गई तो खाला पड़ोस में गई थीं.

मंसूर ने मुझे बिठा लिया और कोल्डड्रिंक पेश करते हुए बोला, ‘‘अच्छा हुआ तुम आ गई. मैं तुम्हारे इंस्टीट्यूट के चक्कर काटकाट कर परेशान हो गया. तुम से एक जरूरी बात करनी थी.’’

‘‘कैसी जरूरी बात?’’ मैं चौंकते हुए बोली, ‘‘मैं ने फराज के यहां जौब कर ली है.’’

‘‘दरअसल, बात यह है कि अम्मी मेरी शादी करना चाह रही हैं. उन्होंने मुझ से मेरी पसंद पूछी है. तुम से पूछे बगैर भला मैं उन्हें तुम्हारा नाम कैसे बता देता.’’ वह बोला, ‘‘क्या तुम मुझ से शादी करोगी? तुम कहो तो, मैं अम्मी को तुम्हारे घर भेजूं?’’

उस की यह बात सुनते ही मैं एकदम घबरा गई. मैं ने जल्दी से कहा, ‘‘ये तुम क्या कह रहे हो मंसूर? मैं ने कभी तुम्हें इस नजर से देखा ही नहीं.’’

‘‘फिर वह सब क्या था? वह लगावट और प्यार, मीठे अंदाज में बातें करना, मुझ से चूडि़यां मंगवाना, पहनना, मेरे साथ चलना?’’ वह चौंकते हुए बोला, ‘‘क्या तुम मुझे बेवकूफ बना रही थी?’’

‘‘माफ करना मंसूर, मैं ने तुम्हें बेवकूफ नहीं बनाया, मैं तुम्हें केवल अपना दोस्त समझती हूं.’’

‘‘दोस्ती का नाम ले कर तुम मुझ से आसानी से दामन नहीं छुड़ा सकतीं. तुम्हारे रवैये से साफ जाहिर था कि तुम मुझे पसंद करती हो. अगर ऐसा न था तो तुम मुझे पहले ही दिन रोक देती. बात इतनी आगे न बढ़ती?’’

‘‘हां, ये मुझ से गलती हो गई, मुझे माफ कर दो. मेरे दिल में तुम्हारे लिए ऐसा कोई जज्बा नहीं है. अब इस बात को यहीं खत्म कर दो. तुम भी कोई अच्छी सी लड़की देख कर उस से शादी कर लो. थोड़े दिनों में सब भूल जाओगे.’’ मेरी बात सुन कर उस का चेहरा धुआंधुआं हो गया.

वह मुरझाए लहजे में बोला, ‘‘यह तुम्हारे लिए एक खेल हो सकता है पर मेरे लिए जिंदगी और मौत का सवाल है. तुम्हें भूलना मेरे लिए नामुमकिन है.’’

उसी समय साफिया खाला भी आ गईं. मुझे देख कर वह बहुत खुश हुईं. उन्होंने मुझे नौकरी की मुबारकबाद दी, उन्होंने खुशीखुशी सीने के लिए मेरे कपड़े ले लिए और फिर मैं घर आ गई.

मंसूर की बातें सुन कर मैं परेशान हो गई. मैं ने सोचा भी न था कि मेरा मजाक, एक छोटी सी शरारत किसी की जिंदगी का रोग बन जाएगी. मैं ने अपने जेहन में जिस जीवन साथी की तसवीर बनाई थी, मंसूर उस में फिट नहीं बैठता था. मेरा आइडियल एक खूबसूरत, हैंडसम व अमीर शख्स था, जिस के साथ मैं ऐशभरी जिंदगी गुजार सकूं. अचानक जेहन की स्क्रीन पर एक नाम चमका फराज. हां, वह मेरा मनपसंद साथी हो सकता है.

दूसरे दिन से ही मैं ने अपने मंसूबे पर काम करना शुरू कर दिया. खूबसूरत तो मैं थी ही अब मैं ने बन संवर कर औफिस जाना शुरू कर दिया था. उस दिन मैं हलका गुलाबी सूट और मैचिंग की चूडि़यां और ज्वैलरी पहन कर औफिस गई. फराज मुझे एक लम्हा देखता रहा फिर पूछा, ‘‘क्या आज कोई खास बात है?’’

मैं ने अदा से सिर झटकते हुए कहा, ‘‘हां, मुझे अपनी सहेली की बर्थडे पार्टी में जाना है.’’

उस ने मुझे देखते हुए कहा, ‘‘अच्छी लग रही हो. ऐसे ही रहा करो.’’ फिर मुझे कुछ लेटर टाइप करने को दे दिए. उस दिन जब मैं दोबारा उस के केबिन में गई तो उस ने साथ बिठा कर चाय पिलवाई. मैं धीरे से मुसकुरा दी, किरन ने मुझे फराज के बारे में बताया था कि वह इंतहाई मजबूत कैरेक्टर का बंदा है. कई लड़कियां उस पर मरती थीं, पर उस ने किसी को लिफ्ट नहीं दी. पर मेरा प्लान कामयाबी की मंजिल तय करने लगा था.

कुछ दिनों बाद किरन खास तौर पर मुझ से मिलने घर आई. वह बहाने से मुझे फराज के घर ले गई. उस की महल जैसी कोठी देख कर मैं दंग रह गई. उस के अम्मीअब्बा बहुत प्यार से मिले.

किरन मुझे घर छोड़ने आई तो बोली, ‘‘शीना, तुम ने फराज पर क्या जादू कर दिया? जो बंदा अभी शादी नहीं करना चाहता था, अब वह जल्दी शादी करना चाहता है और पता है तुम उस की पसंद हो. क्या तुम भी उसे पसंद करती हो? बता दो मैं उस की वालिदा के साथ तुम्हारा रिश्ता मांगने तुम्हारे घर आ जाऊं.’’

मैं सिर नीचा कर के धीरे से मुसकरा दी. किरन ने खुश हो कर मुझे गले लगा लिया. 2-3 दिन बाद साफिया खाला हमारे घर आईं. बेहद परेशान थीं.

पूछने पर कहने लगीं, ‘‘क्या बताऊं बेटा मैं मंसूर की वजह से बहुत दुखी हूं. उस ने अजीब हाल बना लिया है. न ढंग से खातपीता है और न किसी से मिलताजुलता है. हंसी तो जैसे उस से रुठ गई है. चुपचाप कमरे में पड़ा रहता है. न जाने क्या रोग लग गया है, उसे तुम जरा उस से पूछो तो कि बात क्या है.’’

मैं उन्हें क्या कहती कि परेशानी की वजह मैं ही हूं. दूसरे दिन किरन और फराज के अम्मीअब्बा रिश्ता ले कर घर आए. फराज के बारे में सारी जानकारी दी. मैं सोच भी नहीं सकती थी कि मेरा ख्वाब इतनी जल्दी पूरा हो जाएगा. मेरे अब्बा फराज के वालिद को अच्छी तरह जानते थे उन्होंने रिश्ता कुबूल कर लिया. फिर सारे मामलात तेजी से तय हो गए. उन्होंने खबर दी कि अगले इतवार को वह लोग तारीख तय करने आएंगे, साथ ही अंगूठी भी पहना देंगे.

इतवार को किरन, फराज के अम्मीअब्बा आए. अम्मी ने शानदार इंतेजाम किया था. अपनी मदद के लिए साफिया खाला को उन्होंने बुला लिया था. खाने के बाद फराज की अम्मी ने हीरे की बहुत खूबसूरत अंगूठी पहनाई. उस वक्त साफिया खाला भी हौल में आ गईं.

साफिया खाला की नजर ज्यों ही फराज के वालिद पर पड़ी, वह पत्थर के बुत की तरह खड़ी रह गईं. फराज के वालिद का भी यही हाल था. हमें समझ न आया कि माजरा क्या है. जो दोनों इस तरह हैरान व परेशान हैं? साफिया खाला फौरन किचन में चली गईं. फराज के वालिद परवेज खान भी जल्दी ही उठे और वो सब निकल गए.

यहां कहानी में एक ऐसा मोड़ आया जिस ने मुझे हिला कर रख दिया. दरअसल साफिया खाला फराज के वालिद परवेज खान की पहली बीवी थीं. जब शादी हुई परवेज खान लाहौर में थे और एक फर्म में अच्छी पोस्ट पर काम करते थे. शुरू के चंद साल बड़े अच्छे गुजरे. मंसूर की पैदाइश के कुछ अरसे बाद फर्म बंद हो गई और परवेज खान की नौकरी चली गई. इस के बाद वह काफी अरसे तक रोजगार ढूंढते रहे.

उन्हें कोई जौब नहीं मिली, इस बीच सारी जमापूंजी भी खत्म हो गई. पेट का दोजख भरने को एक प्राइवेट फर्म में क्लर्क की नौकरी कर ली. इतनी कम तनख्वाह में गुजारा मुश्किल था. साफिया बेगम इस गरीबी की आदी न थीं. वह दौलतमंद बाप की बेटी थीं. शौहर की गरीबी की हालत में वह अपने बाप के घर चली गईं. परवेज खां रोकते रह गए पर वह नहीं मानीं. परवेज खान को भी गुस्सा आ गया उन्होंने तय कर लिया कि जब तक अच्छा कमाएंगे नहीं बीवी को नहीं लाएंगे.

तुम ऐसी निकलीं – भाग 2: फरेबी आशिक की मोहब्बत

मोनिका जिस दोपहर को चादरें ले  गई थी, उसी दिन की शाम उस को बारबार कहीं भगा कर ले जाती. उस रात उस की रात में भी, बस, रात ही रात थी. फिर भोर हुई, दिन चढ़ा और एक फोन आया. हालांकि वह औपचारिक फोन था मगर  जब 2-3 चादरों के  गड़बड़  और उन में कुछकुछ  घिसे हुए प्रिंट को ले कर मोनिका ने शिकायतभरा फोन किया तो उस ने घर का सब अतापता पूछ कर  खुद ही सही, सुंदर, सुघड़ छपाई की नईनई  चादरें उस के घर पर जा कर  अपने हाथों से मोनिका के हाथों में दी थीं.  तब से करीबकरीब वह 4 बार तो  वहां जा ही  चुका था.

एक दिन जब वह मोनिका के  घर पर भोजन और शयन कर के चाय की  चुस्कियां ले रहा था तभी मोनिका के  दरवाजे पर एक बरतन वाला आ गया. पुराने कपड़े के  बदले बरतन बेचने वाला वह धंधेबाज  मोनिका को उस की 3 पुरानी चुन्नियों के  एवज में एक कटोरी पकड़ा गया. उस के जाने के  बाद  मोनिका को  ऐसा  लगा कि वह ठगी गई है.

तब उस ने मोनिका के  गालों को सहलाते  हुए कहा था कि मोना, जाने दो न, भूल जाओ, दूसरों को मूर्ख बना कर खुश होने वाला अंत में पछताता है. हमारी उदासी  और खुशी हमारे सोचने पर और मन की दशा पर निर्भर करती है. अपने कष्ट के  लिए औरों को दोषी कहने वाला रोज कष्ट में रहता है. सुखदुख कुछ नहीं है, हमारा चुनाव है मोना. वह मन ही मन हंस रहा था कि गोवा की डेल्मा का  कहा उस को हूबहू याद रह गया, वाह.

मोनिका ने उस के चुप होने का  इंतजार किया और  यह कीमती सलाह सुन कर उस को  प्यार से एक मधुर  चुंबन दिया. ओह, मोनिका…

वह हौलेहौले  मोनिका का  कितना आदी होता जा रहा था. मोनिका के  साथ उस को  जीवन एकदम से ही सरस और  मधुमय  लगने लगा था. कभी लगता कि इसीलिए हर  मधुरता भी  एक हद तक ही रहती है, कहीं यह समय गुजर न जाए. फिलहाल भले ही चादरों का ही बहाना होता  था मगर उस को लगता कि यह तकदीर का संकेत था. उस के इस तुच्छ से  प्रेमिल संसार में भले ही किसी महान हीरो  वाला  का पुट न हो, भले ही मोनिका को ले कर वह, बस, कोई  सपना ही देख रहा हो  पर आज तो ये सब अनुभूतियां  ही उस के जीवन को रोमांचक बना रही  हैं.

एक रात जब चांदनीरात  जैसे दूध में नहा कर भीग  रही थी और काठगोदाम के कुछ पहाड़ सफेद हो कर दूर से ही चांदी जैसे चमक रहे थे, नीचे रानीबाग की  तरफ गौला नदी का  शोर संगीत सा लग रहा था. उस ने अपना फोन लिया और मोनिका के  नंबर पर लगा दिया. मगर डरकर  दोबारा नहीं किया. तो उसी समय  मोनिका ने ही फोन कर दिया, पूछने लगी, “ओ बुद्धू सेल्समैन.”

“अ,हां,” उस ने घबरा कर कहा.

“इस समय फ़ोन कैसे किया?”

“बस, यह बताना था कि आज शाम ही चादरों की  एक नई गांठ आई है. तुम अपनी किटी की 7-8 सहेलियों के लिए कह रहीं थी न. बिलकुल रोमांटिक छपाई है.”

“कैसी रोमांटिक, यह कैसी छपाई होती है, मैं नहीं समझी?”

“अब यह तो उन को छू कर पता लगेगा.”

“अच्छा, बुद्धू सेल्समैन, जब तुम ने छुआ तो  तुम को कैसा लगा, यह तो बताओ?” मोनिका की आवाज में बहुत शरारत थी.

वह दीवाना हुआ जा रहा था. पर  अब आगे और कुछ भी  बात नहीं करना चाहता था क्योंकि वह जानता था कि मिनटदोमिनट बाद ही सही फोन तो बंद करना ही होगा. उस ने बहाना बना कर अलविदा कहा, फोन बंद कर  दिया.

पर वह साफसाफ कल्पना कर  पा रहा था कि खुले हुए बाल कभी  मोनिका के गालों से तो  कभी उस की  गरदन पर खेल रहे होंगे.  वह वहां होता तो अभी वह गरमागरम… वह फिर अपना ध्यान हटा कर कहीं कुछ और ही सोचने लगा.

सर्कस की  अपनी भोजन व्यवस्था थी. वहां सुबह चायपोहा, दोपहर में दालरोटीखिचड़ी, शाम को चायपकौड़े और रात को रस  वाले  आलू-तेल के  परांठे मिलते थे.  साथ ही, मालिक उस को एक प्लेट राजमाचावल खाने  के पैसे अलग से रोज  नकद दिया करता था. पर यहां मोनिका के  हाथों के भरवां करेले, आलूशिमलामिर्च, आलूमटरगोभी का  स्वाद ही निराला था.

कुल मिला कर जिंदगी का  हर पल यहां चादर की दुकान और टैंट में मोनिका के बगैर  एक बहुत बरबाद चीज़ ही साबित हो रही  थी. बहुत बोर. रोज़ चादरों की तह करो और  उसी तह में तहमद बनते रहो. कहीं कोई रंग नहीं, कोई रस नहीं. मशीनी हाट और मशीनी काम. यह जीना भी कोई जीना था. हां, अब दुनिया में हर कोई अपना एक जीवन तो चुन ही लेता है और बाकी बारहखडी़ भी उसी हिसाब से तय होती जाती है.

एक दिन उस के लिए कितना भावुक करने वाला पल आया था कि जब मोनिका उस से खुद को कुछ सैकंड के लिए अलग कर के शायद कहीं शून्य में खो गई और एक गीत ‘रोजरोज आंखों तले एक ही सपना चले’ बस, इतना सा टूटाफूटा गुनगुना कर वह  कुछ देर चुप रही और पलंग के  नीचे कच्चे फर्श को ताकने लगी. वहां अपनी आंखों की  कलम  से ज़मीन पर कुछ चित्र बनाती रही,  फिर अचानक   बोली, “हां, जो भी हो, उम्मीद तो बना कर रखनी चाहिए.  सब खत्म होने  तक भी अच्छे होने  की उम्मीद करते रहना, कुदरत का फरमान है.  देह भले ही कितनी  उम्र  पार कर चुकी हो, तो भी उम्मीद को जवानी का  एहसास  छू कर रखना चाहिए, अगर  कहीं यह कमजोर देह डगमगा गई और हमारा आत्मबल मुंह के बल  गिर पड़े. तो चट संभल जाए. इस तरह जीवन के कंधे पर निराशा का बोझ नहीं पड़ता.”

मोनिका से यह सब सुन कर उस को अचंभा हुआ और फिर वह भी मोनिका के  सुर मे सुर मिला कर बोल पड़ा, “हां मोनिका,  हरेक  पल को स्वीकार करना जरूरी है. स्वीकृति ही तो  हर चीज से मुक्त कर देती है. यही रास्ता है. स्वीकृति सहनशीलता से कहीं ज्यादा बेहतर है. लेकिन अगर हम जागरूक नहीं हैं, अगर स्वीकार करना आप के लिए संभव नहीं है और आप हर छोटीछोटी चीज के लिए भी  चिड़चिड़ा जाते हैं तो उस से बचने के  लिए  कम-से-कम कुछ  सहनशीलता तो विकसित कर ही लेनी चाहिए. मैं ने आज तक यही माना कि यह जीवन, बस,  एक सहनशीलता पर ही टिका  है.  मैं खुद कितनी छोटी उम्र से कैसे शहरशहर किसी का  नौकर बन कर  जूझ रहा हूं. मगर मैं हमेशा  यही देख पाता हूं कि कोई  चीज सुविधाजनक नहीं है, तो उस के बारे में शिकायत करने का क्या लाभ. सब स्वीकार कर लो,  यही  सब से अच्छा और आरामदायक  रास्ता है.”

यह सुन कर मोनिका उस से कैसे लता सी लिपटती गई थी.  तब से मोनिका के  हर स्पर्श में उस को  एक कोमलता लगती.  उसे बारबार महसूस होता कि वह एक पोखर है और उस के  समूचे उदास पानी  में वह एक लहर पैदा कर देती है. वह  अब एक ऐसी महत्त्वपूर्ण चीज थी जो परिभाषित तो नहीं हो पा रही थी पर वह कुछ ऐसी तो थी  जो  उस के मर्म पर  और आंतरिक  इच्छा पर राज करने लगी थी.

दिल्लगी बन गई दिल की लगी : भाग 2

मन मार कर मैं मंगनी में पहुंची. जब मैं अपनी कार से उतर रही थी. मैं ने मंसूर को देखा. मेरे दिमाग में बिजली सी चमकी. मैं चेहरे पर वही दिखावे का प्यार लिए मंसूर के पास जा पहुंची. मैं ने उस से कहा, ‘‘प्लीज मंसूर, मेरा एक काम कर दो.’’

‘‘तुम एक नहीं सौ काम बोलो, बंदा हाजिर है.’’ उस ने आशिकाना अंदाज में कहा.

‘‘मेरे पास अंगूरी रंग की चूडि़यां नहीं थीं. अम्मी ने मुझे बाजार जाने नहीं दिया. अभी मंगनी में वक्त है, तुम मुझे बाजार से मेरे सूट के कलर की चूडि़यां ला दो.’’ मैं ने कहा.

मैं पैसे निकालने लगी, पर उस ने मना कर दिया. मेरे सूट को गौर से देखते हुए कहा, ‘‘मैं चूडि़यां तो ला दूंगा, पर एक शर्त पर.’’

‘‘कैसी शर्त?’’ मैं ने पूछा.

‘‘वह मैं चूडि़यां लाने के बाद ही बताऊंगा.’’ इतना कह कर वह फौरन मोटरसाइकिल ले कर चला गया. मैं अंदर आ कर किरण से मिली. हमारे सभी दोस्त थे, मैं बातों में लग गई कि कानों में हल्की सी आवाज आई, ‘‘शीना.’’

मैं ने मुड़ कर देखा मंसूर था. मैं फौरन उस के पास गई. वहां से दूर हट कर उस ने चूडि़यों का पैकेट मेरे हाथों पर रख दिया. परफेक्ट मैचिंग की बेहद खूबसूरत चूडि़यां लाया था.

जैसे ही मैं चूडि़यां पहनने लगी, उस ने मेरे हाथ से चूडि़यां लेते हुए कहा, ‘‘इन्हें मैं पहनाऊंगा, यही तो मेरी शर्त थी.’’

कुछ कहने की गुंजाइश न थी. उस ने बड़े प्यार से चूडि़यां पहनाईं. मैं उस की आंखों की चमक से डर गई. मैं ने उस से मीठे लहजे में मिन्नत की, ‘‘देखो मंसूर, तुम्हारे साथ मोटरसाइकिल पर जाना या कहीं बैठना ठीक नहीं है. किसी जानने वाले ने देख लिया तो मेरी मुसीबत आ जाएगी. आइंदा मुझे मोटरसाइकिल पर बैठने को मत कहना.’’

‘‘ठीक है, पर तुम अम्मी से मिलने मेरे घर आती रहोगी.’’ उस ने कहा.

मेरे पास सिवाय वादा करने के और कोई रास्ता नहीं था. मैं ने किरण को मजे ले कर सारा किस्सा सुनाया. वह नाराज हो कर बोली, ‘‘किसी के दिल के साथ इस तरह खेलना अच्छी बात नहीं है. क्या तुम उस गरीब से शादी करोगी? नहीं न. जानती है, यह खेल उस की जान का रोग बन जाएगा. इतनी आसानी से वह तुम्हें नहीं छोड़ेगा.’’

मैं ने किरण को यकीन दिलाया कि आगे से ध्यान रखूंगी. मुझे किरण की बात सही लग रही थी, पर मैं अपनी फितरत से मजबूर थी. मुझे इस खेल में मजा आ रहा था. कोई मुझे सराहे, मुझे चाहे, मेरे लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाए. यह बात भला किसे बुरी लग सकती है.

अपना वादा निभाने के लिए मैं 2 सूट ले कर उस की अम्मी के पास सिलाने गई. मैं ने कहा, ‘‘खाला, मैं ये 2 सूट सिलवाने आई हूं.’’

उसी वक्त मंसूर कमरे से बाहर आ गया. मुझे देख कर वह खुश हो गया. कहने लगा, ‘‘अब अम्मी ने सिलाई का काम बंद कर दिया है. पर ये तुम्हारे सूट हैं, इसलिए जरूर सिलेंगी.’’

उस ने चाहतभरी नजर मुझ पर डाली. खाला ने जल्दी से कहा, ‘‘मेरी बेटी के सूट मैं खूब अच्छे से सीऊंगी, मंसूर जाओ, जल्दी से बेटी के लिए गरम समोसे और जलेबी ले आओ. तब तक मैं चाय बनाती हूं.’’

मेरे ना करने पर भी मंसूर चला गया. हम ने साथ बैठ कर मजे से समोसेजलेबी खाई और चाय पी. मंसूर मुझे देखता रहा. मेरी खातिरदारी करता रहा. जब मैं वापस आने लगी तो वह मुझे दरवाजे तक छोड़ने भी आया. उस ने धीमे से कहा, ‘‘शीना, कल इंस्टीट्यूट के बाहर मैं तुम्हारा इंतजार करूंगा, मुझे तुम से एक जरूरी बात करनी है.’’

जिस अंदाज में उस ने मुझ से यह बात कही थी मैं चौंक गई. मैं ने कहा, ‘‘मंसूर वह कौन सी जरूरी बात है जो तुम यहां नहीं कर सकते?’’

‘‘नहीं, यहां मुमकिन नहीं है, तुम परेशान न हो, मैं लंबी बात नहीं करूंगा.’’

दूसरे दिन मैं अपने वक्त पर इंस्टीट्यूट से निकली तो मंसूर इंतजार करते हुए मुझे बाहर मिला. उस ने मुझ से रेस्टोरेंट में चलने के लिए कहा तो मैं ने रेस्टोरेंट में जाने से मना कर दिया. वह मुझे एक करीबी पार्क में ले गया. वहां सन्नाटा था. वहां पहुंच कर उस ने एक पैकेट मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘कल मुझे पहली सैलरी मिली. ये गिफ्ट तुम्हारे लिए है.’’

मैं ने कहा, ‘‘मेरे तुम्हारे बीच ऐसा कोई रिश्ता नहीं है कि मैं ये गिफ्ट ले लूं.’’

‘‘रिश्ता भी बन जाएगा. फिलहाल इसे स्वीकार कर लो.’’ वह बोला.

मैं ने पैकेट रख लिया. जब मैं अपने घर की तरफ मुड़ी तो उस ने मेरी तरफ अपनेपन की तरह देखते हुए कहा, ‘‘मुझे उस दिन का इंतजार है जब तुम जिद कर के हक जताते हुए मुझ से तोहफे मांगा करोगी.’’

मुझे यूं लगा जैसे किसी ने मेरे कानों में पिघला हुआ सीसा डाल दिया है. यानी वह मुझ से शादी करने के ख्वाब देख रहा था. दिल तो चाहा कि उस का गिफ्ट उस के मुंह पर मार दूं, मगर मैं चुपचाप गिफ्ट लिए घर आ गई. कमरा बंद कर के मैं बिस्तर पर लेट गई. सोचने लगी कि मैं ने मजाकजाक में एक जंजाल पीछे लगा लिया. लेकिन अब इस से छुटकारा पाना बहुत जरूरी था.

मंसूर के दिल में ये बात बैठ गई है तो वह अपनी मां को रिश्ता ले कर भी भेज सकता है. रिश्ता आने पर मेरी अम्मी और अब्बू जो भी फैसला करें पर मेरे इनकार से मंसूर और साफिया खाला के दिल जरूर टूट जाएंगे. अब मुझे महसूस हो रहा था कि मुझे मंसूर को इस तरह बढ़ावा नहीं देना चाहिए था. मेरे प्यार मेरे व्यवहार से ही वह मेरी तरफ आकर्षित हुआ, वरना पहले तो उस से केवल हायहैलो ही होती थी.

मेरा कंप्यूटर का कोर्स भी 2 दिन में पूरा होने वाला था. इसलिए मैं ने किरण को फोन किया कि वह अपने दोस्त फराज से मेरी जौब की बात करे. उस के वालिद की 2-3 कंपनियां हैं. उस में कहीं मुझे रख ले.

किरण ने कहा, ‘‘फराज मेरा दोस्त ही नहीं कजिन भी है. एक हफ्ते में मैं तुम्हें औफिस में सेट कर दूंगी.’’

उसी की बात से मुझे थोड़ी तसल्ली हुई. पता नहीं क्यों मेरे मेरे दिमाग में बारबार फराज का खयाल आने लगा. मैं अब जौब करना चाहती थी, पर घर का माहौल ऐसा था कि वह जौब नहीं करने देते. मैं ने बड़ी मुश्किल से अपनी अम्मी से जौब करने की इजाजत ली.

मेरे वालिद फराज के वालिद व उन के कारोबार को जानते थे. 3 दिन बाद मुझे कंपनी से अपाइंटमेंट लेटर मिल गया. फराज का औफिस किलीकटन पर था. मैं ने रिसेप्शन पर अपने बारे में बताया तो मुझे फौरन ही बुलाया गया. फराज बेहद स्मार्ट और खूबसूरत था. उस ने इंटरकाम के जरिए एक लड़की को बुलाया और कहा, ‘‘मिस शीना, ये मिस तबंदा हैं. ये जौब से रिजाइन कर रही हैं इन्हीं की जगह पर आप यहां मेरी प्राइवेट सेक्रेटरी का काम करेंगी. मिस तबंदा आप इन्हें काम के बारे में सब बातें अच्छे से समझा दीजिए.’’

वह मुझे ले कर बाहर आ गई. उस ने बताया कि मेरी शादी हो गई और मैं दुबई जा रही हूं. उस ने मुझे अच्छे से सारा काम समझा दिया. वह दिन भर मेरे साथ रही, मुझे गाइड करती रही. दूसरे रोज भी वह मेरे साथ रही. उस के बाद मैं ने बखूबी सारा काम संभाल लिया. मुझे एक केबिन मिला था. मेरी टेबल पर कंप्यूटर भी था, जो मुझे अच्छे से आता था और अपनी काबीलियत के बल पर मैं जल्द ही अच्छे से एडजस्ट हो गई.

इस बीच मेरी फराज से 2-3 मुलाकातें हुईं. उस के औफिस का रास्ता मेरे केबिन से हो कर गुजरता था. वह केवल काम से काम रखने वाला शख्स था. किसी से ज्यादा बात नहीं करता. काम होने पर ही केबिन में बुलाता था. अब उस ने मुझे अपने बिजनेस लेटर्स टाइप करने को दे दिए.

महीना खत्म होने पर मुझे अच्छीखासी सैलरी मिली. मैं खुश हो गई. मुझे फराज बहुत पसंद आया. वह मेरी ख्वाहिश के मुताबिक खूबसूरत होने के साथसाथ दौलतमंद भी था. धीरेधीरे मेरे हुस्न मेरी अदाओं से वह मेरी तरफ आसक्त होने लगा. फराज के वालिद कभीकभार ही औफिस आते थे, वह मुझ से बड़े प्यार से बात करते थे.

तुम ऐसी निकलीं – भाग 1: फरेबी आशिक की मोहब्बत

मन का बोधबिंदु जब  बारबार यह कहने लगता है कि अरे, यह  कहां खप रहे हो, यह कौन सी बेहया सी चीज सोख ली तुम ने, तब ऐसा होता ही है कि कोई तूफान फड़फड़ा कर आ जाता है जो न जाने क्या-क्या उड़ा ले जाता है और जाने क्याक्या थमा जाता है.

दिल्ली के सदर बाजार  से  जाती तंग सी एक छोटी गली को मटर गली कहा जाता था. मटर गली नाम किस ने रखा, यह पता नहीं, पर यहां के सब से बुजुर्ग बुद्धि काका 7-8  दिनों पहले उस को  बता रहे थे  कि उन के दादाजी भी इस जगह को  इसी नाम से पुकारते थे. तब यहां एक  विशाल मंडी हुआ करती थी. उस मंडी में किसान सब्जियां लाते थे- अदरक, हलदी,  लहसुन,  प्याज आदि. ठेठ पहाड़ी रईस अपने टटटू की  आर्मी ले कर मनचाहा माल यानी अदरक, लहसुन, प्याज लाद कर ले जाते. पहाड़ी लोग बगैर इन बेशकीमती लहसुन, प्याज के मांस वगैरह को बेस्वाद ही समझते थे. तब से ही हर  आमओखास की पसंद थी यह मटर गली.

पर, अब इस का चेहरामोहरा  बदल सा गया है. यह जगह अब सब्जी मंडी तो कम बल्कि मिलीजुली मार्केट बन गई है जहां देसी दवाओं से ले कर कपड़े, कफन, वरमाला, मोतियों के हार और जूतेचप्पल आदि सबकुछ मिल जाता है.

यहीं मटर गली से पतली सी  पगडंडी आगे राजपुरा कालोनी की तरफ  जा रही है. पहले यहां सब कैसा था, यह तो  उस को कुछ भी  मालूम नहीं मगर मोनिका ने बताया था कि  पहले भी यह  एकदम कच्ची हुआ करती थी और आज भी  कच्ची  ही रह गई है यह पगडंडी.

वह इसी पगडंडी पर कैसे संभलसंभल कर  चलते हुए पहली बार मोनिका  से मिलने गया था. मोनिका का बाप यहां मटरगली  में ही घड़ी ठीक करने का  काम करता था और कुछ दलाली वाले  वैधअवैध काम भी  करता था. उस दोपहर मोनिका  परदे से सटी  उस का इंतजार कर रही थी जब वह उस के टैंटनुमा घर पर पहुंचा  था.

मगर उस की निगाह न घर पर थी न उस की साजसजावट पर. वह अपनी दोनों आंखों से बस मोनिका पर ही टिका था. उस दिन भी और उस के बाद भी हर दिन. यों मोनिका  से उस की पहली मुलाकात अचानक सर्कस के प्रांगण में तकरीबन एक महीना  पहले ही  हुई थी  जब उस ने अपने मालिक के  साथ बैडशीट और चादरों की  स्टाल सर्कस मैदान में  ही लगा रखी थी.

यह भीड़ बनाने के लिए एक प्रयोग के तहत किया गया था और  चादरों की  यह दुकान सर्कस मालिक से इकरारनामे के अंतर्गत बुकिंग विंडो से सट कर लगाई गई थी. ऐसा प्रयोग सर्कस में पहली बार हुआ था और उस को यह लगता था कि यहां पर सस्ती व मंहगी चादर दिखाएं, फिर बेचने में कामयाब होएं. यह भी तो सर्कस की  विधा यानी  एक कलाबाजी ही थी.

वह और उस का मालिक एक दोपहर यही हिसाब कर रहे थे कि एक दिन में 4 शो हैं और लगभग 2 हजार लोग यहां आ रहे हैं. अभी सर्कस 20 दिन और है. तो क्यों न पानीपत, पिलखुवा  और जयपुर  से चादरों की  एकदो गांठें ऐसी मंगाई जाएं जो सस्ती, सुंदर और टिकाऊ हों. वह एक बात  की चर्चा  कर के मालिक के  साथ हंस  रहा था कि मोनिका अचानक ही  सामने आ गई और पूछने लगी कि, ‘10 चादरों को एकसाथ खरीदने  में कितना डिसकाउंट मिलता है?’ एक युवती को ग्राहक के तौर पर  देखा तो मालिक ने यह बातचीत और बिक्री का पूरा  तूफान उस के भरोसे छोड़ दिया और  सामने से हट गया. कुछ ही लमहों बाद वह दूसरे टैंट  की तरफ निकल गया.

अब मोनिका आराम से   बैठ  गई और एक चादर की  तरफ अपनी उंगली से  इशारा करती हुई उस की डिटेल्स  पूछने लगी. तकरीबन 20 मिनट के वार्त्तालाप में वह साफ जान गया था कि  यह आत्मनिर्भर युवती है और घर की  गाड़ी की  स्टेयरिंग  भलीभांति संभाले है. उस ने दर्जनों चादरों से मोनिका का  परिचय कराया. वह चादरों का  कपड़ा और उन के  प्रिंट देखने के लिए कभीकभी उस के बहुत करीब भी आ रही थी.  उस के बदन से किसी मोगरे  वाले साबुन की  भीनीभीनी महक आ रही थी.  मोनिका कुछ न कुछ बोले जा रही थी, मगर मोगरे की  महक से उस को कुछ याद आ रहा था. हां,  उस को  अब याद आया, 2 साल पहले वह मालिक के  साथ  ओडिशा एक  मेले में गया था, तब वे चादरें, साडी़, कुरते और रंगबिरंगी  ओढ़नी भी बेचा करते थे. वहां मेले में उन की दुकान लगी थी. पास ही के भोजनालय वाली छिम्मा से उस का काफी करीब का यानी दैहिक संबंध बन गया था.

वह जब भी उस को अपने पास बुलाया करती, ऐसे ही किसी साबुन से नहा कर  तैयार रहती थी. मगर वह छिम्मा को ज्यादा बरदाश्त नहीं कर पाया था. 10-12 दिनों  बाद जब वह उस के पास ही था  तो उस को इस महक से उलटी सी आने लगी थी.  तब छिम्मा ने राई और मिर्च से  नजर उतार कर, नींबूपानी मिला कर  उस की कितनी सेवा की  थी. उस के बाद तो जल्दी ही मेला भी उठ गया था  और  अब वह  छिम्मा को गलती से भी याद नहीं किया करता कि कैसे हैदराबाद की  रमा  और गोवा की डेल्मा की  तरह उस पर कोई  रुपया खर्च  ही नहीं करना पड़ा था.

छिम्मा तो हवा, पानी, सूरज की रोशनी की  तरह बिलकुल ही  फोकट में उस को  हासिल हो  गई थी. पर, वह आज,  बस, इसी महक के  कारण छिम्मा  को याद कर रहा था. लेकिन आज बात उलटी थी कि  उसे उलटी नहीं आ रही थी, जबकि उस का दिल बारबार  यह कह रहा था कि मोनिका पर वह महक खूब  भा  रही थी.

जैसे दोपहर की  अपेक्षा शाम को नदी का तट बहुत ही अच्छा लगता है वैसे ही वह इन दिनों जैसे किसी नदी का कोई सूना सा तट था और मोनिका एक  भीनीभीनी  शाम.  तो अब उस को नाम भी पता लग गया क्योंकि कुछ मिनट पहले ही उस का फोन बजा था और वह हौले से बोली थी,  ‘जी नहीं, गलत नंबर लग गया है,  मैं मोनिका हूं, लतिका नहीं. अभी उस का टाइम है.’ यह कह कर मोनिका ने फोन डिस्कनैक्ट किया और फिर उस ने सर्कस के ही एक सहायक लड़के को आवाज  लगा कर कड़क चाय लाने को कहा.

तब उस ने हंस कर मोनिका को  चाय का प्याला पीने का प्रस्ताव दिया  और उस ने पहले तो गरदन हिला कर जरा सा मना किया पर अगले ही पल अच्छा ,”हां चाय ले लूंगी” कह कर   पेशकश स्वीकार की. तब मोनिका ने अपने कोमल होंठों से कप को स्पर्श करते हुए  बताया था कि इस चादर की दुकान का  परिचय करवाया 2 दिनों पहले के  अखबार ने. उस में एक छोटा सा विज्ञापन था.  कलपरसों तो बारिश थी, इसलिए आज आ पाई. उस दिन मोनिका चादरें खरीद कर ले गई और उस ने पहली मुलाकात में  कितनी भारीभरकम छूट दे दी थी, लगभग आधे से कम  दाम.

दिल्लगी बन गई दिल की लगी : भाग 1

मैं बचपन से आजादखयाल, शोख व चंचल थी. हंसीमजाक, छेड़छाड़ और शरारत करना मेरा शौक था. हमारा  परिवार काफी खुशहाल था. पैसे की कोई कमी नहीं थी. घर से मुझे जेब खर्च के लिए अच्छीखासी रकम मिलती थी. मेरा अच्छा रहनसहन देख कर लोग जल्द ही मुझे तवज्जो देने लगे थे.

कालेज में मैं जल्द ही बहुत पापुलर हो गई. अच्छेअच्छे लड़के मुझ से दोस्ती करने आने लगे. मेरी ऐसी आदत थी कि मैं हर एक से दोस्ती कर लेती थी. किसी का दिल तोड़ना मुझे अच्छा नहीं लगता था. मैं सब के साथ घुलमिल कर खुश रहती थी.  सभी दोस्तों के साथ हंसतेखेलते 3 साल गुजर गए. मेरी ग्रैजुएशन की पढ़ाई पूरी हो गई.

मैं पोस्ट गै्रजुएशन करना चाहती थी, पर आगे पढ़ने की इजाजत अम्मी ने नहीं दी. उन्होंने कहा, ‘‘बेटा अब तुम घर पर रह कर घर के कामकाज सीखो. जल्द ही अच्छा लड़का देख कर तुम्हारी शादी कर देंगे.’’

एक दिन मैं दोपहर के समय शौपिंग कर के लौट रही थी, तभी रास्ते में औटो खराब हो गया. मैं दूसरे औटो के आने का इंतजार करने लगी. जब कोई औटो नहीं मिला तो सामान उठा कर मैं पैदल ही घर के लिए चल पड़ी.

मैं थोड़ी दूर चली थी कि अचानक मंसूर आ गया. मुझे देख कर वह रुक गया. मुझे पसीने से भीगा देख कर बोला, ‘‘इतनी तेज धूप में सामान लिए पैदल कहां जा रही हो?’’

मैं ने कहा, ‘‘औटोरिक्शा खराब हो गया था, इसलिए पैदल ही घर जा रही हूं.’’

‘‘लाओ सामान मुझे दो. मैं पहुंचाए देता हूं.’’ उस ने कहा.

मैं ने आवाज में मोहब्बत भर कर कहा, ‘‘आप को हमारी इतनी फिक्र कब से होने लगी.’’

उस ने मुझे हैरानी से देखा तो मैं ने रोमांटिक होते हुए कहा, ‘‘आप को देख लिया, यही काफी है. सामान रहने दो.’’

इस के बाद उस ने मुझे कुछ उलझन भरी नजरों से देखा. उस के बाद मेरे हाथ से सामान ले कर साथ चलने लगा. घर पहुंचने पर वह बरामदे में सामान रख कर जाने लगा तो मैं ने कहा, ‘‘शुक्रिया, आओ बैठो, चाय पी कर जाना.’’

‘‘नहीं, रहने दो. फिर कभी पी लूंगा.’’ कह कर वह चला गया.

मंसूर हमारे मोहल्ले की एक गरीब औरत साफिया का एकलौता बेटा था. मोहल्ले के सभी लोग साफिया को खाला कहते थे. साफिया खाला के बारे में हम बस इतना जानते थे कि वह सिलाई कर के गुजरबसर करती हैं. आर्थिक तंगी के बावजूद उन्होंने मंसूर को अच्छी तालीम दिलवाई थी. अब वह नौकरी की तलाश में था.

खाला को उम्मीद थी कि मंसूर की नौकरी लगने के बाद उस के बुरे दिन दूर हो जाएंगे. आज मैं ने मजाक में उस के दिल में गलतफहमी डाल दी थी. मेरी दोस्त किरण यूनिवसिर्टी में पढ़ रही थी. उस का घराना लखपति था, बाप के कारखाने थे, पर उसे एक लड़के जमील से मोहब्बत हो गई थी, जबकि जमील ने उस की मोहब्बत को कबूल नहीं किया था.

उस ने कहा था, ‘‘आज जज्बात और मोहब्बत के जोश में आ कर तुम मुझ से शादी कर लोगी. तुम्हारे मांबाप हरगिज मुझे कबूल नहीं करेंगे और मेरी गरीबी से तुम जल्द ही तंग आ जाओगी, क्योंकि तुम जिस तरह ऐशोइशरत में रहती हो, वह तुम्हारी आदत बन चुकी है. इसलिए बेहतर है कि तुम मुझे भूल जाओ और मुझे मेरी मंजिल तलाश करने दो.’’

किरण अपनी नाकाम मोहब्बत की कहानी मुझे सुनाती रहती थी. इस के अलावा फराज और मीना भी. घर के कामकाज निपटाने के बाद मैं खाली हो जाती तो मेरा मन नहीं लगता था. किरण, मीना, फराज मेरे अच्छे दोस्त थे. यह सभी अमीर घरानों से ताल्लुक रखते थे. जब मुझे पता चला कि फराज के बाप की कई कंपनियां हैं तो मैं ने किरण से कहा कि वह फराज से बात कर के कहीं मेरी भी नौकरी लगवा दे.

किरण ने मुझे कंप्यूटर का कोर्स करने की सलाह दी. कोर्स पूरा होने के बाद वह फराज से बात कर लेगी. मैं ने कंप्यूटर कोर्स करने के बारे में अम्मी से बात की. वह मना कर रही थीं, पर मैं ने उन्हें मना लिया और एक अच्छे कंप्यूटर इंस्टीट्यूट में दाखिला ले लिया.

एक दिन मैं जब इंस्टीट्यूट से लौट रही थी तो मुझे मंसूर मिल गया. वह मोटरसाइकिल पर था. उस दिन वह अच्छे और महंगे कपडे़ पहने था. उस ने मोटरसाइकिल रोक कर मुझ से कहा, ‘‘आओ मोटरसाइकिल पर बैठ जाओ, मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूं.’’

‘‘इंकार कर के क्यों गरीब का दिल तोड़ती हो.’’ कह कर उस ने बेतकल्लुफी से मेरा हाथ पकड़ कर मुझे पीछे बैठने पर मजबूर कर दिया. मैं अंदर ही अंदर गुस्सा हुई. मंसूर के इस व्यवहार से मुझे लगा कि उस दिन जो मैं ने इस से मुसकरा कर बात की थी, कहीं उस का इस ने गलत मायने तो नहीं निकाल लिया.

अब मुझे अपनी शरारत और दिखावे की मोहब्बत बहुत बुरी लग रही थी. मैं ने मन ही मन सोच लिया कि अब मैं मंसूर को जरा भी लिफ्ट नहीं दूंगी, वरना यह मेरे पीछे ही पड़ जाएगा.

रास्ते में मंसूर ने मुझे बताया कि उस की एक अच्छी कंपनी में नौकरी लग गई है. यह मोटरसाइकिल उसे कंपनी से ही मिली है. मोटरसाइकिल एक स्टाल के सामने रोक कर उस ने कहा, ‘‘आओ, एकएक कोल्डड्रिंक हो जाए.’’

वहां कुछ अन्य लोग खड़े थे. मैं इंकार कर के उन सब के सामने तमाशा नहीं बनना चाहती थी, इसलिए उस के साथ चली गई. मैं ने उसे जौब की मुबारकबाद दी तो उस ने कहा, ‘‘जौब की मुझे सख्त जरूरत थी. अम्मी बीमार रहती हैं और अब वह अकेले रहतेरहते तंग आ गई हैं. उन्हें किसी के साथ की जरूरत है.’’

यह कह कर मंसूर ने प्यार से मुझे देखा. मैं परेशान हो गई. घर पहुंच कर मैं ने बहुत सोचा. पहले दिन शरारत में मैं ने मंसूर से जो प्यार जताया था, यह उसी का नतीजा था. वह मुझे अपनी मोहब्बत समझ बैठा था. मेरे जमीर ने मुझे चेताया, ‘‘अगर मोहब्बत जताई है तो उसे निभाओ. अब उस का दिल न तोडो. साथ निभाओ.’’

मैं ने सोचा कि मैं जिस तरह की ऐशोआराम की जिंदगी की आदी हूं, लगीबंधी तनख्वाह और छोटे से घर में खुश नहीं रह सकती. माना कि मंसूर एक अच्छा लड़का है, पर उस के पास इतना पैसा नहीं है कि उस के साथ मैं खुश रह सकूंगी. इसलिए मैं ने मन ही मन तय किया कि मैं मंसूर को नहीं अपनाऊंगी.

दिन गुजरते रहे. काफी दिनों तक मंसूर मुझे नजर नहीं आया. बात मेरे दिमाग से निकल गई. मेरी सहेली किरण की मंगनी थी. उस ने बडे़ प्यार से मुझे बुलाया. उस की मंगनी में ग्रुप के सभी दोस्त आने वाले थे. मैं ने अंगूरी कलर का नया सूट पहना था, जो मुझ पर खूब फब रहा था. उसी रंग की ज्वैलरी पहन कर मैं और ज्यादा खूबसूरत लग रही थी, पर मेरे पास अंगूरी रंग की चूडि़यां नहीं थीं. जिस की वजह से सारा शृंगार अधूरा लग रहा था.

हिजड़ा: क्या श्री से सिया बनने के बाद मुसीबतों का खात्मा हो गया?

लड़की जैसे हावभाव होने पर श्री ने सिया बनने का फैसला ले तो लिया, पर मुसीबतों ने यहां भी पीछा नहीं छोड़ा. ट्रांसजेंडर और हिजड़ा शब्द बारबार उस के कानों में गूंजते. श्री से सिया बनने के बाद क्या मुसीबतों का खात्मा हो गया या फिर सामाजिक व मानसिक सोच में कोई बदलाव आया.

‘छनाक’ की आवाज के साथ आईना चकनाचूर हो गया था. कई टुकड़ों में बंटा हुआ आईने का हर टुकड़ा सिया का अक्स दिखा रहा था.

मांग में भरा सिंदूर, गले का मंगलसूत्र, कानों के कुंडल ये सब मानो सिया को चिढ़ा रहे थे.

शायद समाज के दोहरेपन के आगे वह हार मान चुकी थी.

एकसाथ कई सवाल सिया के मन में उमड़घुमड़ रहे थे.

आईने के नुकीले टुकड़ों में  सिया को उस के सवालों का उत्तर नहीं मिल सका. आंखों में आंसुओं के साथ पिछली यादें किसी फिल्म की तरह सिया की आंखों के सामने से गुजरने लगी थी.

“श्री” नाम था उस का. 20 साल का होतेहोते वह और उस के मांबाप ये समझ चुके थे कि श्री का शरीर भले ही एक पुरुष का हो, पर उस के अंदर आत्मा एक महिला की ही है.

मांबाप ने श्री को कई डाक्टरों और मनोचिकित्सकों को दिखलाया, इलाज भी चला, पर कोई लाभ नहीं हुआ. डाक्टरों ने श्री को ‘जेंडर आइडेंटिटी डिसऔर्डर’ का मरीज बताया, जिस में शरीर तो स्त्री या पुरुष का हो सकता है, पर हावभाव और लक्षण विपरीत लिंग के होते हैं.

श्री के नैननक्श तीखे थे. उस के चेहरे की खूबसूरती और चमक से लड़कियों को जलन होना स्वाभाविक ही था. वह लड़कियों के कपड़े पहनता, उन की तरह हावभाव रखता, गाने गाता और लड़कियों की तरह डांस करना उसे बहुत अच्छा लगता था. किसी से बात करते समय लचकनामचकना श्री की आदत थी. अनजाने में ही श्री के अंदर की स्त्री सहज रूप में उभर कर आती थी.

श्री जीवन के 22वें वर्ष में प्रवेश कर चुका था. बाहर जाने पर भी लड़कियों जैसे कपड़े ही पहनने लगा था वह… मानो अब उसे जमाने के कहनेसुनने की कोई परवाह ही नहीं थी. उस ने अमर नाम का एक दोस्त बनाया था, जिसे वह अपना बौयफ्रैंड कहता था.

अमर को इस बात का अहसास था कि श्री की हरकतें लड़कियों जैसी हैं, पर उसे तो सिर्फ श्री के पैसे से मजे करने थे, इसलिए वह उस के नाज उठाता था. आज वे दोनों श्री का जन्मदिन मनाने के लिए किसी रेस्टोरेंट में जाने वाले थे.

इस खास दिन के लिए श्री ने अपने लंबे बालों को खुला छोड़ा हुआ था और वह सलवारसूट पहने था.

उन दोनों को वापसी में रात के साढ़े 11 बजे गए थे. अमर और श्री एकदूसरे का हाथ पकड़े गाड़ी की पार्किंग की तरफ बढ़ रहे थे.

“अरे लगता है, मैं अपना मोबाइल रेस्टोरेंट में ही भूल आया हूं,” कह कर अमर अंदर की ओर लपक गया, जबकि श्री बाहर ही उस के आने का इंतजार करने लगा था.

एक बड़ी सी गाड़ी श्री के ठीक सामने आ कर खड़ी हुई और उन में से बाहर निकले एक बलशाली लड़के ने श्री को अंदर घसीट लिया और श्री के मुंह पर टेप लगा दिया, ताकि वह शोर न मचा सके. गाड़ी को वे लोग एक निर्माणाधीन बिल्डिंग के पास ले गए और श्री को बाहर घसीटा.

“आज बहुत दिनों बाद कोई चिकना माल मिला है,” श्री के कपड़े फाड़ते हुए एक वहशी बोला, पर अगले ही पल वह बुरी तरह चौंक गया, “स्साला… ये तो लड़की के वेश में लड़का है… क्यों बे साले… लड़की बन कर घूमने में ज्यादा मजा आता है क्या?” दोचार लातघूंसे रसीद कर दिए थे उस वहशी ने श्री के गाल पर.

“अब क्या करें… सारे मूड का तो सत्यानाश हो गया…अब मूड कैसे फ्रेश करें?” दूसरा युवक बोला.

“भाई तुम लोग अपना सोच लो… मुझे तो आज इस लड़के के साथ ही मजे लेना है… कभीकभी स्वाद भी तो बदलना चाहिए न,” इतना कह कर वह युवक श्री के साथ जबरन दुराचार करने लगा और फिर कुछ देर बाद बारीबारी से तीनों दोस्तों ने  भी श्री के साथ मुंह काला किया और उसे तड़पती अवस्था में छोड़ कर वहां से चले गए.

अर्धबेहोशी की अवस्था में श्री कब तक रहा, उसे कुछ पता नहीं था. आंखें खुलीं, तो उस ने अपनेआप को एक अस्पताल में पाया. पुलिस वाले उस के सामने खड़े थे.

“तो आप का कहना है कि आप के बेटे का बलात्कार हुआ है,” पुलिस वाले ने श्री के पिता से पूछा.

“जी.”

“हमें पीड़ित का बयान लेना होगा,” इंस्पेक्टर ने कहा और श्री से कुछ अटपटे सवाल पूछने के बाद जल्द ही कार्यवाही करने की बात कह कर बाहर निकलते हुए पुलिस कांस्टेबल इंस्पेक्टर से कह रहा था, “साहब, ये सब अमीर घर के लड़कों  के चोंचले हैं… पहले लड़की बन कर घूमते हैं और फिर बलात्कार करवा कर हमारे लिए काम बढ़ा देते हैं… साले हिजड़े कहीं के…”

‘हिजड़े…’ यह शब्द गाली की तरह चुभा था श्री को. श्री का कलेजा अंदर तक छलनी हो गया था.

ये पहला मौका था, जब उसे अपने इस दोहरे जीवन जीने के ढंग पर शर्म आई थी.

करीब 5 दिन तक अस्पताल में रहने के बाद श्री अपने मांबाप के साथ घर आया और अपने बौयफ्रैंड अमर को फोन लगाया.

काफी देर बाद अमर ने उस का फोन उठाया और सीधे शब्दों में कह दिया कि श्री के साथ जो हादसा हुआ है, उस से उस की काफी बदनामी हो गई है, इसलिए  वह उस के साथ अब कोई संबंध नहीं रखना चाहता.

जिस दोस्त की अब उसे सब से ज्यादा जरूरत थी, उसी ने उस का साथ छोड़ दिया. ये सोच कर श्री काफी परेशान हो उठा.

श्री ने अपने मर्दाना पर निष्क्रिय पड़े हुए अंग को देखा और नफरत से भर गया. यह पहला मौका था, जब श्री ने अपना लिंग परिवर्तन कराने की बात गहराई से सोची, इस के लिए सब से पहले उस ने इंटरनेट खंगालना शुरू किया. उस के जैसे लक्षणों वाले और बहुत से लोग हैं इस दुनिया में. यह बात उसे पता चली, तो उस के मन को थोड़ा सुकून मिला और गहरे जाने पर श्री को बहुत सी नई बातें पता चलीं. उस में से एक यह बात भी थी कि चिकित्सा के नए स्वरूप में  लिंग परिवर्तन कराना कोई बहुत बड़ी बात नहीं रह गई है और 10 लाख से भी कम खर्चे में भारत में ही रह कर अपना लिंग परिवर्तन कराया जा सकता है.

ये सारी बातें जान कर श्री एक नई ऊर्जा से भर गया था. अपने लिंग परिवर्तन अर्थात अपनेआप को एक पुरुष से स्त्री के शरीर में ढालने की बात जब श्री ने अपने मांबाप से की, तो पहले तो वे सकते में आ गए, पर बाद में उन्होंने  हामी भर दी.

श्री ने लिंग परिवर्तन के लिए विशेषज्ञों से औनलाइन परामर्श लेना शुरू किया, जिन से उसे पता चला कि ये प्रोसेस धीमा जरूर है, पर इस में धैर्य रख कर इसे सफल बनाया जा सकता है, कुछ और जरूरी खोजबीन के बाद डाक्टर मुकेश माथुर से अपना लिंग परिवर्तन कराने के लिए वह गुजरात में उन से मिला और उन के अस्पताल में भरती हो गया.

डाक्टर माथुर ने सब से पहले उसे हार्मोंस के इंजेक्शन देने शुरू किए और थेरेपी व अन्य दवाएं भी देनी शुरू कीं, जिन के असर से कभीकभी श्री परेशान हो उठता. कभी वह मूड स्विंग्स का शिकार भी हो जाता था. स्त्री के स्वभाव के साथसाथ उस का शरीर भी एक का हो जाएगा, ये सोच कर श्री ये सारे दर्द झेलता रहा.

जब कभी श्री परेशान होता, तो वह रोने लगता. ऐसे में उस के मनोचिकित्सक की कमी डाक्टर मुकेश माथुर पूरी करते.

40 साल के डाक्टर मुकेश माथुर शहर के जानेमाने सर्जन थे और चिकित्सा में उन्होंने कई इनाम भी जीते थे. उन्हें मरीज की मनोदशा का अच्छी तरह से पता था. वह  घंटों श्री का हाथ पकड़ कर उस के सिरहाने बैठे रहते और उसे हिम्मत बंधाते. श्री को उन का आत्मिक होना बहुत अच्छा लगता था.

धीरेधीरे दवाएं और हार्मोंस का असर श्री के शरीर पर आने लगा. उस की काया कमनीय हो चली थी. सीने पर उभार आने लगे और शरीर के बाल पतले हो कर गायब होने लगे थे.

और आखिर वह दिन भी आया, जब डाक्टर मुकेश माथुर के द्वारा श्री को स्त्री घोषित कर दिया गया.

डाक्टर माथुर ने श्री को नया नाम भी दिया, “नए शरीर के साथ तुम्हारा नया होगा… सिया.”

अपने नए नाम को बारबार दोहरा रहा था श्री और ऐसा करते समय उस की आंखों से आंसू लगातार बहे जा रहे थे.

“वैसे तो हमारे देश में अब लिंग परिवर्तन की प्रक्रिया आसान हो गई है, पर डाक्टर मुकेश माथुर ने जितने कम समय और बिना किसी साइड इफेक्ट के इस सर्जरी को अंजाम दिया है, काबिलेतारीफ है,” डाक्टरों  के एक पैनल ने सर्वसम्मति से डाक्टर माथुर को “धन्वंतरि अवार्ड” से नवाजा.

श्री से सिया बन कर उस के जीने का अंदाज ही बदल गया था. अपनेआप को घंटों आईने के सामने निहारती रहती थी सिया.

सिया के नाम से नया फेसबुक एकाउंट भी बना लिया था उस ने. सब से पहली फ्रेंड रिक्वेस्ट उस ने अमर को भेजी, एक सुंदर लड़की की फोटो देख कर अमर ने तुरंत ही फ्रेंडशिप स्वीकार कर ली. धीरेधीरे फोन नंबरों का आदानप्रदान हुआ और अमर और सिया में बातचीत होने लगी. सिया ने वीडियो काल कर अमर को अपनी खूबसूरती की एक झलक भी दिखला दी थी.

अमर सिया से मिलने के लिए बेचैन हो उठा और उस ने सिया को मिलने के लिए एक रेस्टोरेंट में बुलाया, फिर उसे बहाने से एक होटल के कमरे में ले गया. उस की मंशा सिया जैसी खूबसूरत लड़की को भोगने की थी इसलिए, पर वह सिया को बातों मे लगा कर उस के कपड़े उतारने लगा. सिया ने भी कोई विरोध नहीं किया. कुछ देर बाद सिया पूरी तरह नग्न हो कर अमर के सामने खड़ी थी.

अमर अपलक सिया को निहारे जा रहा था. सिया को बांहों में भर लिया था अमर ने… जैसे ही सिया के शरीर में अमर ने समाने की कोशिश की, सिया ने उसे जोर का धक्का दिया.

यह देख अमर थोड़ा सा चौंक उठा, “अरे सिया, अब इतना नाटक क्यों कर रही हो?”

“मैं नाटक नहीं कर रही, बल्कि मैं तुम्हें ये अहसास कराना चाहती हूं कि तुम ने क्या खोया  है… ये सिया वही श्री है, जिस को तुम ने एक दिन अपनी बदनामी के डर से ठुकरा दिया था.”

ऐसा कह कर सिया ने झट से कपड़े पहने और कमरे से बाहर निकल गई.

अमर को अपने ऊपर भरोसा नहीं हो रहा था कि ये सब हकीकत थी या कोई छलावा था.

सिया अपने मांबाप के साथ रहने लगी. महल्ले के लोगों को पता चल चुका था कि श्री ही लिंग परिवर्तन के बाद की सिया है, इसलिए  सब उसे अजीब नजरों से देखते थे, कभीकभी सिया के पीछे फुसफुसाती आवाजें सिया को अजीब लगतीं, तो कभी 15-16 साल के लड़के उस के पीठ पीछे “हिजड़ा” बोल कर हंसते हुए चले जाते थे.

पहलेपहल तो सिया ने ध्यान नहीं दिया, पर जब इन चीजों की पुनरावृत्ति होने लगी तो सिया के मन में खटास आने लगी.

“मैं कोई हिजड़ा नहीं, बल्कि मैं तो पूरी औरत हूं,” फुसफुसा उठती थी सिया.

इस दौरान उसे हार्मोन थेरेपी के लिए डाक्टर मुकेश माथुर के पास जाना पड़ता था. उस दिन 14 फरवरी अर्थात “वैलेंटाइन डे” था. डाक्टर माथुर ने हाथों में एक सुर्ख गुलाब ले कर सिया को दिया.

“क्या आप किसी लड़की को लाल गुलाब देने का मतलब जानते हैं डाक्टर?” सिया ने पूछा.

“अच्छी तरह जानता हूं…तभी तो दे रहा हूं,” डाक्टर माथुर ने कहा.

“तुम्हारी सर्जरी करने के बाद मुझे तुम से मिलतेमिलते इतना प्यार हो गया है कि अब तुम्हारे बिना मुझ से रहा नहीं जाता है, इसलिए मैं तुम से  शादी करना चाहता हूं.”

एक ट्रांसजेंडर बनने के बाद से ही सिया एक ऐसे व्यक्ति को ढूंढ़ रही थी, जो उस के साथ शादी करने का साहस जुटा सके और उसे औरत के जिस्म का अहसास करा सके.

सिया डाक्टर माथुर की ये बात सुन कर फूली नहीं समा रही थी. उसे लग रहा था कि उस का सपना साकार हो गया है.

सिया के मांबाप को भला इस फैसले से क्या आपत्ति होती… उन्होंने उस की हां में हां मिला दी.

एक सादा समारोह में डाक्टर मुकेश माथुर ने सिया से शादी कर ली. एक ट्रांसजेंडर की एक डाक्टर से शादी को लोकल समाचारपत्रों ने प्रमुखता से स्थान दिया. सोशल मीडिया पर भी डाक्टर मुकेश माथुर और सिया की शादी खूब सुर्खियों में रही.

शादी के बाद डाक्टर मुकेश और सिया जी भर कर सैक्स का सुख लेने लगे. अपने शरीर को ले कर सिया का हर प्रकार का डर खत्म हो गया था.

आज कुछ मीडिया वाले डाक्टर मुकेश का इंटरव्यू लेने आए थे, जो उन से बारबार वही जानना चाह रहे थे कि एक ट्रांसजेंडर के साथ शादी कर के उन्हें कैसा लग रहा है… पत्रकार  घुमाफिरा कर उन के सैक्स संबंधों के बारे में ही सवाल पूछ रहे थे, उन के हर सवाल का जवाब डाक्टर मुकेश माथुर बड़ी गर्मजोशी से जवाब दे रहे थे.

पत्रकारवार्ता खत्म होने के बाद डाक्टर मुकेश के मोबाइल पर एक फोन आया, जिसे सुन कर वे बहुत खुश हुए और सिया से बोले, “सुनो सिया… मैं ने एक लिंग परिवर्तन करवाए हुए एक लड़के से शादी की है. मेरे इस साहसिक निर्णय के लिए मुझे मानव कल्याण संस्था वाले एक अवार्ड दे रहे हैं,” चहक रहे थे डाक्टर मुकेश. उन को खुश देख कर सिया भी खुश हो गई.

2 दिन बाद ही डाक्टर मुकेश माथुर को जब अवार्ड मिल गया, तो उस ने अपने कुछ डाक्टर साथियों को इस खुशी में घर पर पार्टी के लिए बुलाया. सारा खाना बाहर से मंगवाया गया था और महंगी वाली शराब का दौर चल रहा था. मुकेश के सभी साथी नशे में झूमने लगे थे.

“यार मुकेश… शराब तो तू ने पिला दी, पर शबाब के लिए अपनी उस ट्रांसजेंडर बीवी को ही बुला ले,” एक साथी ने कहा.

“हां यार, बड़ा मूड हो रहा है,” दूसरे साथी ने कहा.

“नहीं यार, भले ही वह ट्रांसजेंडर हो… पर है तो उस की बीवी ही,” दूसरे दोस्त ने बचाव किया.

“इन ट्रांसजेंडर की भी क्या इज्जत और क्या बेइज्जती? ये तो ग्रुप सैक्स के लिए भी राजी हो जाते हैं.”

कमाल की बात यह थी कि डाक्टर मुकेश उन सब की बातों का कोई प्रतिरोध नहीं कर रहा था, बल्कि उन की हां में हां मिला रहा था.

दीवार के पीछे खड़ी सिया ये सब सुन रही थी. उस की आंखों से आंसू बह रहे थे. इतने में सिया ने अपनी पीठ पर किसी का मजबूत हाथ महसूस किया. ये डाक्टर मुकेश माथुर था.

मुकेश सिया को घसीटते हुए अपने साथियों के सामने ले गया और बोला,

“लो दोस्तो, शराब के बाद… शबाब… मजे ले लो इस के.”

“ये आप क्या कर रहे हैं… मैं पत्नी हूं आप की.”

बड़ी ज़ोर से हंस पड़ा था डाक्टर मुकेश माथुर.

“अरे ओ… मैं ने तुझ जैसे हिजड़े… सौरी… ट्रांसजेंडर से शादी इसलिए की है कि मुझे समाज में सम्मान मिल सके… अवार्ड मिल सके… और मैं एक हिजड़े का उद्धार करने वाले डाक्टर के रूप मे जाना जाऊं,” नशे में डाक्टर मुकेश माथुर बुरी तरह हावी हो रहा था, जबकि डाक्टर मुकेश के साथी सिया के कपड़े खींचने में लगे हुए थे और कुछ ही देर में सिया उन सब के सामने नंगी खड़ी हुई फफक रही थी. वह हाथों से कैंची बना कर अपने सीने को ढकने की असफल कोशिश कर रही थी. एक व्यक्ति ने उसे बिस्तर पर गिरा लिया. उस के बाद सभी लोगों ने बारीबारी से सिया के साथ मुंह काला किया और इस घटना का वीडियो भी बनाया, ताकि इस बलात्कार की यादें ताजा रहें.

अगली सुबह जब सिया को होश आया था, तब कमरे में  कोई नहीं था, सिर्फ शराब और सिगरेट की गंध शेष थी.

सिया ने किसी तरह से कपड़े पहने और उस की नजर आईने के टूटे हुए टुकड़ों पर पड़ी, जो उसे चिढ़ा रहे थे मानो कह रहे हो कि तू एक हिजड़ा है… तू एक ट्रांसजेंडर है और तुझे समाज वाले इज्जत की नजर से कभी नहीं देखेंगे…बड़ी चली थी शादी करने… सिया ने भरे मन से टूटे आईने का एक टुकड़ा उठाया और अपनी कलाई की नस को काट लिया. उस की कलाई से खून तेजी से टपकने लगा था. सिया के कानों में अब भी आवाजें गूंज रही थीं… ट्रांसजेंडर… हिजड़ा… हिजड़ा…

रुदाली: क्या लौटरी का सरताज बना सूरज

राजस्थान प्रदेश के इस हिस्से में लौटरी खेलने पर कोई प्रतिबंध नहीं था. यहां के युवा तो युवा, प्रौढ़ लोग भी लौटरी खेलने के जाल में उलझे हुए थे. इसी कसबे में सूरज नाम का 30 वर्षीय युवक भी रहता था. सूरज को भी लौटरी खेलने की लत लग गई थी.

सूरज के पिताजी  गांव के प्रधान हुआ करते थे और किसी समय उन के पास काफी पैसा भी था. सूरज की लौटरी की लत ने काफी पैसा फुजूल उड़ा दिया था. सूरज लौटरी में ज्यादातर हारता, कभीकभी ही जीतता. पर जीत, हारे गए पैसों की तुलना में बहुत छोटी होती. फिर भी सूरज नए उत्साह से लौटरी का टिकट खरीदता और परिणाम का बेसब्री से इंतज़ार करता.

सूरज अपने मांबाप का इकलौता लड़का था. उस की शादी की उम्र हो गई थी, फिर भी उस की शादी नहीं हो रही थी. भला एक जुआरी से शादी करता भी कौन.

सूरज को गांव के लोग  अच्छी नज़रों से नहीं देखते थे जिस का कारण उस का लौटरी खेलना तो था ही, साथ ही, सूरज के अंदर एक ऐब और भी था. दरअसल, लौटरी जीतने की खुशी मनाने और हारने का गम मिटाने के लिए वह गेरुई के पास जाता था.

गेरुई एक रुदाली थी. रुदाली, यानी, वह स्त्री जो किसी व्यक्ति की मृत्य हो जाने पर विलाप करती है. रुदाली के विलाप में ऐसा दर्द उभर कर आना चाहिए कि वहां खड़े सभी लोगों की आंखें नम हो जाएं.

सभ्रांत घरों की महिलाएं व्यक्ति की लाश पर हाथ मारमार कर विलाप नहीं कर सकती थीं क्योंकि वे तथाकथित सभ्य समाज का हिस्सा थीं  और उन्हें घर की चारदीवारी के अंदर  ही रहना होता था. ऐसे में रुदाली, पैसे वाले और कुलीन कहलाने वाले लोगों के बहुत काम आती थी.

और यह भी सच है कि आंसुओं की भी एक सीमा होती है. ऐसे में जब आंसू आंखों  का साथ छोड़ देते तो रुदाली का सहारा लिया जाता.

रुदालियां काले रंग का लबादा सा ओढ़ कर आतीं. अच्छे कामों में रुदाली को देख लेने भर से काम बिगड़ जाते हैं, ऐसी मान्यता रखता  था यह गांव.

गेरुई और उस के परिवार को गांव वालों ने गांव के कोने पर ही रहने की इज़ाज़त दी हुई थी. वह गांव में तब ही आती जब उसे किसी की मृत्यु पर विलाप करने के लिए बुलाया जाता, वरना उसे गांव के अंदर जाने की सख्त मनाही थी.

आज के समाज में भी लोकरीति के चलते उपेक्षित जीवन जीने को मजबूर गेरुई के पास जब सूरज प्यार की तलाश में पहुंचा तो अपनेपन और सम्मान की भूखी गेरुई ने अपना तन और मन दोनों ही सूरज पर लुटा दिए थे. सूरज जब भी लौटरी में हार कर आता, तो हताशा में  गेरुई से कुछ अलग डिमांड करता. तब गेरुई उसे बिस्तर पर लिटाती और उस की आंखों के सामने अपने मांसल अंगों से खुद कपड़े अलग करती. सूरज का कहना था कि गेरुई को ऐसा करते देख उसे कामसुख जैसा ही आनंद प्राप्त होता है. जब गेरुई पूरी तरह से निर्वस्त्र हो जाती और सूरज की सांसें धौकनी बन रही होतीं तो वह गेरुई को बिस्तर पर पटक देता और अपना मुंह गेरुई के विशाल वक्ष स्थल के बीच में डाल देता और गेरुई के कोमल  व गोल अंगों को जी भर प्यार करता. गेरुई और सूरज जम कर कामसुख का आनंद लेते और फिर सूरज देर तक गेरुई की आगोश में पड़ा रहता. जातेजाते सूरज कुछ पैसे भी गेरुई को दे कर जाता.

एक दिन सूरज सड़क के किनारे वाली चाय की दुकान पर बैठा हुआ लौटरी के टिकट का गणित बिठा रहा था. तभी वहां पर अपने स्कूटर पर बैठा हुआ राजू सिंह आया और सूरज से जानपहचान बढ़ाने लगा. राजू सिंह ने उसे बताया कि वह आसपास के गांव और कसबों में घूमता है  और उम्र निकल जाने के कारण जिन लड़केलड़कियों की शादी नहीं हो पाती है वह उन की शादी करवाने में मदद करता है. राजू सिंह ने 4-5 फोटो सूरज के सामने फैला दी थीं. सूरज ने उड़ती नज़र उन पर डाली. वे सभी बहुत सुंदर लड़कियां थीं. देखने से ही बड़े घर की लड़कियां लग रही थीं. उन की सुंदरता देख कर एकबारगी सूरज के मुंह में भी पानी आ गया.

“ये… इत्ती सुंदर लड़कियां मुझ से शादी करने के लिए क्यों राजी होंगी भला?” सूरज ने सवाल किया.

“अरे हुज़ूर, आप के रसूख के बारे में  किसे पता नहीं  है. बस, आप यह लौटरी और रुदाली गेरुई का चक्कर छोड़ दीजिए, फिर देखिए, आप के पास लड़कियां कैसी खिंची चली आती हैं,” राजू सिंह ने चिकनीचुपड़ी बातें शुरू कर दीं और जातेजाते लड़कियों की फोटो सूरज के पास ही छोड़ गया और 2-3 दिनों बाद आने को कह गया.

संयोग की बात थी कि जब सूरज घर पहुंचा तो उस की मां ने खाना देते समय बेहद भावपूर्ण स्वर में सूरज से कहा, “क्या बेटा उम्रभर मुझ से ही खाना बनवाएगा? शादी कर ले,  तो मुझे भी बहू के हाथ की रोटी नसीब हो जाएगी. एक दिन तो मरना ही है मुझे.”

मां के मुंह से ऐसी बातें सुन कर सूरज को भी लगा कि भटकना बहुत हो गया, अब मांबाप के सुख के लिए उसे शादी कर लेनी चाहिए.

आज राजू सिंह आया तो सूरज ने अपनी परेशानी उसे बताई, “शादी तो मैं कर लूं पर मेरे पास पैसाकौड़ी तो कुछ है नहीं. फिर, सारा इंतज़ाम कैसे होगा?”

“पैसे की चिंता आप मत करो. पहले तो आप लड़की फाइनल करो. आगे का रास्ता मैं आप को बताता हूं.”

राजू सिंह को सूरज ने अपने मांबाप से मिलवा दिया ताकि शादी आदि की बात आगे बढ़ सके. लड़की की फोटो पर मांबाप और सूरज ने मोहर लगाई, तो राजू सिंह ने बताया कि यह लड़की सिंगरी गांव के एक गरीब किसान की बेटी है. इस के पास रूप है पर इस के बाप के पास पैसा नहीं है. ऐसे में आप लोगों को ही  इन का खर्चा भी उठाना पड़ेगा. आप लोगों का रिश्ता इतनी सुंदर लड़की से हो रहा है, इसलिए गांव में अभी इस रिश्ते की चर्चा किसी से मत करना वरना लोग शादी तुड़वा भी देते हैं.

“पर हमारे पास भी तो अधिक पैसे नहीं हैं,” सूरज के पिता ने कहा.

“अरे चाचा, कोई बात नहीं  है. मैं सूरज को बैंक से लोन दिलवा दूंगा.”

“लोन पर बैंक में बंधक यानी गारंटी के नाम पर हमारे पास तो सिर्फ ज़मीन के कागज़ ही हैं,” सूरज ने कहा.

“बस, उतना ही बहुत है. आप चिंता मत करो, सब इंतज़ाम हो जाएगा,” राजू सिंह ने शेखी बघारी.

राजू सिंह ने अगले दिन ही सूरज को अपने साथ ले जा कर बैंक में कागजी कार्यवाही भी शुरू कर दी और अपने स्कूटर को सिंगरी गांव के बाहर बने मंदिर की तरफ मोड़ दिया.

“यह हम सिंगरी गांव की तरफ क्यों जा रहे हैं?” सूरज ने पूछा, तो राजू सिंह ने बताया कि वह उसे अपनी होने वाली पत्नी से मिलाने ले जा रहा है.

सूरज आज मंदिर में जा कर उस फोटो वाली खूबसूरत लड़की से जा कर मिल भी लिया था. भले ही उस ने अपना चेहरा घूंघट में छिपाए रखा था पर  उस लड़की के हाथों की हलकी सी छुअन ने सूरज के जवान मन को विचलित कर दिया था.

सूरज ने अपने गले में पड़ी सोने की चेन को लड़की के गले में डाल कर यह रिश्ता पक्का कर दिया .

सूरज और उस का मन भी एक नवयौवना से मिल कर पुलकित हो रहा था. इस बीच गाहेबगाहे उस के मन में गेरुई की याद भी आ जाती थी. उसे लगता कि उस ने गेरुई के साथ धोखा किया है. पर भला वह भी क्या करे, अब एक रुदाली से शादी थोड़े ही की जा सकती है, ऐसा सोच कर गेरुई की याद को अपने ऊपर हावी नहीं  होने देता था.करीब 2 महीने बाद लोन के रुपए भी सूरज के हाथ में आ गए थे, पूरे 5 लाख थे. लड़की वाले गरीब थे, इसलिए उन की तरफ से लड़के वालों को दहेज देने के लिए सूरज ने अपने हाथों से 2 लाख रुपए लड़की के भाई को दे दिए और बाकी के पैसों से 3 तोला सोना और चांदी के गहने ले आया, जिन्हें शादी के समय दुलहन को देना था.

सूरज और उस का परिवार पूरी कोशिश कर रहा था  ताकि शादी में कहीं से भी सूरज के परिवार की बेइज़्ज़ती न हो जाए.

सूरज ने सोचा, एक बार और लौटरी का टिकट ले लिया जाए, क्या पता बाद में पत्नी लौटरी खेलने पर प्रतिबंध ही लगा दे. सूरज ने 50 लाख रुपए के  बम्पर प्राइज वाला टिकट ले लिया और शादी की तैयारियों में जुट गया.

शादी की तारीख नज़दीक आ रही थी. एक दिन राजू सिंह का फोन आया कि लड़की वाले के घर में  किसी की मौत हो गई है, इसलिए वे सब सिंगरी  गांव न जा कर एक दूसरे गांव बेकल में बरात ले कर आएंगे. बड़ी विपदा आ गई थी लड़की वालों पर. सूरज के परिवार में रिश्तेदार आ गए थे पर उन्हें भला दूसरे गांव में बरात ले जाने से क्या आपत्ति होती. शादी की तारीख आई, तो ज़ोरशोर से सूरज की बरात बेकल गांव के लिए रवाना हो गई. वहां पहुंच कर बेहद ही सादे समारोह में सूरज के ब्याह को निबटा दिया गया. उसे दहेज के नाम पर भी कोई सामान नहीं  दिखा जिस का कारण लड़की के खानदान में हुई मौत को बताया जा रहा था.

सूरज और उस के मांबाप ने समझदारी व शांति का परिचय देते हुए लड़की वालों की मनोदशा को समझा और जैसेजैसे रिश्ते की मध्यस्थता करने वाले राजू सिंह ने बताया, उन लोगों  ने वैसा ही किया और शादी कर के दुलहन विदा करा कर घर ले आए.

आज सूरज की सुहागरात  थी. बड़ी खास तैयारियां कर रखी थी सूरज ने. सुनहरे रंग का कुरता और सुनहरे  रंग की धोती पहने सूरज अपने कमरे में दाखिल हुआ. बिस्तर पर बैठी दुलहन के पास जा कर हौले से बैठ गया. सूरज ने जैसे ही दुलहन का घूंघट पलटना चाहा तो लड़की ने धीमे से कहा कि अभी वह किसी भी प्रकार का शारीरिक संबंध नहीं  बना सकती क्योंकि टीले वाले मंदिर पर उसे एक नारियल फोड़ना है. उस के बाद ही वह अपनी सुहागरात मनाएगी.

पत्नी बड़ी धार्मिक है, ऐसा सोच व जान कर सूरज को बड़ा अच्छा लगा और उस ने पत्नी की बात का पूरा सम्मान किया, उसे हाथ तक नहीं लगाया. अपने साथ मुंहदिखाई के तौर पर लाया हुआ मोबाइल सूरज ने अपनी दुलहन को बिना उस का मुंह देखे ही दे दिया.

अगला दिन निकला, तो सूरज ने सोचा कि फटाफट दुलहन को टीले वाले मंदिर ले जा कर नारियल फोड़वा लाऊं ताकि आज अपनी सुहागरात जम कर मना सकूं. मांबाप से आज्ञा ले कर  मोटरसाइकिल पर अपनी नईनवेली दुलहन को बिठा कर सूरज टीले वाले मंदिर की ओर चल दिया.

अपने हाथ में नारियल लिए दुलहन मंदिर की ओर बढ़ चली. बीचबीच में  सूरज दुलहन के चेहरे को देखने की कोशिश करता भी, तो दुलहन  बड़ी सफाई से अपना घूंघट और निकाल लेती. बेचारा मनमसोस कर रह जाता. अब तो उसे और भी बेसब्री से अपनी सुहागरात का इंतज़ार था.

मंदिर में नारियल फोड़ने के बाद सूरज को मंदिर की सीढ़ियों पर बिठा कर दुलहन मंदिर की परिक्रमा करने चली गई. सूरज काफी देर तक वहीं उस के इंतज़ार में बैठा रहा. जब करीब घंटेभर तक दुलहन नहीं  लौटी तब सूरज ने उसे ढूंढना शुरू किया. पर दुलहन का कहीं अतापता न  मिला. सूरज बहुत परेशान हो गया. आसपास पूछताछ की. पर कोई फायदा न  हुआ. सूरज बदहवास हो  लोगों से पूछता और उपहास का पात्र बनता. शाम तक भी दुलहन का कोई पता न चला, तो हार कर सूरज अपने घर चला आया और सारी बात अपने  मांबाप को बताई.

अभी वह मांबाप से बातें कर ही रहा था कि उस के मोबाइल पर फोन  आया. उधर से एक लड़की की आवाज़ थी, “सुनो, मुझे ढूंढने की कोशिश मत करो क्योंकि जो तसवीर देख कर तुम ने शादी की थी, वैसी कोई लड़की तुम्हें कभी नहीं मिलेगी क्योंकि वह लड़की मात्र तसवीरभर है. ये सब राजू सिंह और उस के गैंग की करतूत है. और मुझे भी इस काम के पैसे मिलते हैं, हज़ार रुपए रोज़. हां, तुम ने मुझे जो मोबाइल गिफ्ट किया था, इसलिए उसी मोबाइल से  फोन  कर रही हूं. वैसे भी, तुम आदमी मुझे भले लगे, पर कोई रपट मत करना क्योंकि ये सब राजू सिंह का प्लान रहता है जिस में बैंक से लोन पास कराने से ले कर लड़कियों के रिश्तेदार आदि सब के सब मिले होते हैं.”

सूरज और उस का परिवार सन्न रह गया था. मांबाप ने अंदर जा कर देखा तो उन की नईनवेली बहू के कमरे से  सारे गहने और नकदी गायब थी. उन लोगों की समझ में नहीं आ रहा था कि वे अपना दर्द किस से जा कर कहें. वे लोग एक सोचेसमझे ढंग की साज़िश का शिकार हुए थे. इस सदमे से उबरने के लिए उन्हें वक़्त चाहिए था.

सूरज और उस के मांबाप ने खुद के ठगे जाने की बात किसी से नहीं बताई. पर भला जंगल की आग और प्रपंच के फैलने को कोई रोक सकता है क्या?

पूरे गांव वालों में  यह बात फैल गई थी और लोग चुस्की व चटखारे लेले कर यह बात एकदूसरे से कहसुन रहे थे.

सूरज के बाप अपनी बदनामी सहन नहीं  कर पा रहे  थे, इसलिए वे सूरज की मां को ले कर शहर में  अपने भाई के पास रहने चले गए और गांव में सूरज अकेला रह गया.

अब तो सूरज से कोई भी बात नहीं  करता था. सूरज के पास पैसा नहीं बचा था, ऊपर से बैंक के लोन को चुकाने का तनाव अलग से उस पर हावी हो रहा था. उसे लगने लगा कि अब उस का जीना बेमानी है. उसे लालची लोगों ने ठगा, मुश्किल वक़्त में मांबाप ने भी साथ छोड़ दिया, इसलिए अब उस के जीवन में बचा ही क्या है…उसे मर जाना चाहिए… सूरज तुरंत ही रस्सी ले आया और अपना जीवन खत्म करने के लिए  एक मजबूत फंदा बनाने लगा. अचानक उस का मोबाइल बज गया. यह मेरी दुलहन का फोन तो नहीं?  उस ने जो कहानी सुनाई थी कहीं वह सब झूठ तो नहीं? यह सोच तपाक से फोन रिसीव कर लिया था सूरज ने.

पर अफसोस, उधर से किसी मर्द की आवाज़ थी. यह मर्द कोई और नहीं,  बल्कि सूरज का लौटरी बेचने वाला एजेंट था जो तेज़ आवाज़ में बोल रहा था, “बधाई हो सूरज भैया, पूरे 50 लाख रुपए की लौटरी लगी है तुम्हारी. जल्दी से टिकट ले आओ. भैया, तुम्हारी तो मौज हो गई.”

सूरज़ को अपने कानों पर विश्वास नहीं  हो रहा था जो उस ने अभी सुना. उसे भरोसा नहीं  हुआ, तो उस ने दोबारा लौटरी एजेंट को फोन लगा कर उस से इस बात की पुष्टि की.

कुछ देर बाद गांव वालों ने देखा कि हाथ में लौटरी का टिकट पकड़े सूरज तेज़ी से गांव के बाहर की ओर भागा जा रहा है. पर किधर?  यह तो रुदालियों के घर की तरफ चला गया. हां, रुदाली के पास ही तो गया था सूरज.

गेरुई को अपनी बांहों में  कस कर दबोच लिया था सूरज ने. उस के कपोलों को कस कर चूम रहा था सूरज.

गेरुई सारा माजरा समझ ही नहीं पा रही थी. उसे सूरज की शक्ल में नया ही सूरज दिखाई दे रहा था.

सूरज ने गेरुई का हाथ पकड़ा और शहर की ओर भाग पड़ा. जहां एक नया जीवन, एक नया सवेरा उन दोनों की प्रतीक्षा में था. जहां किसी की मौत पर रोने के लिए किसी रुदाली की ज़रूरत नहीं होती. गेरुई के पैरों में भी यह सोच कर पंख लग गए थे कि अब उसे किसी की मौत पर रोने जैसा अजीब कार्य नहीं करना पड़ेगा.

खुश रहो गुड़िया

9 दिसंबर मेरे जीवन का सब से बड़ा काला दिन है क्योंकि 2 साल पहले आज के ही दिन नियति के क्रूर हाथों ने मेरी उस गुडि़या को छीन लिया था जो फूल बन कर अपने साजन के आंगन को महका रही थी. एक दिन पहले गुडि़या ने फोन किया था, ‘मम्मा, जाने क्यों पिछले कुछ दिनों से आप की बहुत याद आ रही है. राजीव की 2 दिन की छुट्टी है, हम लोग आप से मिलने आ रहे हैं.’

मैं ने रात को ही दहीबडे़ और आलू की कचौडि़यों की तैयारी कर के रख दी थी. मेरी बेटी गुडि़या, दामाद राजीव और दोनों नातिनें गीतूमीतू सुबह की ट्रेन से आ रहे थे पर सुबहसुबह ही टेलीविजन पर समाचार आया कि जिस ट्रेन से वे लोग आ रहे थे वह दुर्घटनाग्रस्त हो गई.

चेतना जागृत होने पर यह क्रूर सचाई मेरे सामने थी कि मेरी गुडि़या अपनी अबोध गीतूमीतू और पति राजीव को छोड़ कर इस संसार से जा चुकी थी. समझाने वाले मुझे समझाते रहे पर मैं यह मानने को कहां तैयार थी कि मेरी गुडि़या अब हमारे बीच नहीं है और इसे स्वीकारने में मुझे वर्षों लग गए थे.

राजीव की आंखों में कैसा अजीब सा सूनापन उभर आया था और वह दोनों नन्ही कलियां इतनी नादान थीं कि उन्हें इस का अहसास तक नहीं था कि कुदरत ने उन के साथ कितना क्रूर खेल खेला है. उन की आंखें अपनी मां को ढूंढ़तेढूंढ़ते थक गईं. आखिर में उन के मन में धीरेधीरे मां की छवि धुंधली पड़तेपड़ते लुप्त सी हो गई और उन्होंने मां के बिना जीना सीख लिया.

दादी व बूआ के भरपूर लाड़प्यार के बावजूद मुझे गीतूमीतू अनाथ ही नजर आतीं. कभी दोपहर में बालकनी में खड़ी हो जाती तो देखती नन्हेमुन्ने बच्चे रंगबिरंगी यूनीफार्म में सजे अपनीअपनी मम्मी की उंगली पकड़ कर उछलतेकूदते स्कूल जा रहे हैं. उन्हें देख कर मेरे सीने में हूक सी उठती कि हाय, मेरी गीतूमीतू किस की उंगली पकड़ कर स्कूल जाएंगी. किस से मचलेंगी, किस से जिद करेंगी कि मम्मी, हमें टौफी दिला दो, हमें चिप्स दिला दो. और यही सब सोचते- सोचते मेरा मन भर उठता था.

जब से उड़ती- उड़ती सी यह खबर मेरे कानों में पड़ी है कि राजीव की मां अपने बेटे के पुन- र्विवाह की सोच रही हैं तो लगा किसी ने गरम शीशा मेरे कानोें में डाल दिया है. कई लड़की वाले अपनी अधेड़ बेटियों के लिए राजीव को विधुर और 2 बेटियों का बाप जान कर सहजप्राप्य समझने लगे थे.

राजीव की दूसरी शादी का मतलब था मासूम कलियों को विमाता के जुल्म व अत्याचार की आग में झोंकना. इस सोच ने मेरी बेचैनी को अपनी चरमसीमा पर पहुंचा दिया था. अब राजीव के पुनर्विवाह को रोकना मेरे लिए पहला और सब से अहम मकसद बन गया.

मैं ने अपनी चचेरी बहन, जो राजीव के घर से कुछ ही दूरी पर रहती थी, को सख्त हिदायत दे डाली कि किसी भी कीमत पर राजीव की दूसरी शादी नहीं होनी चाहिए. कोई लड़की वाला राजीव या उस के घरपरिवार के बारे में जानकारी हासिल करना चाहे तो उन की कमियां बताने में कोई कोरकसर न छोडे़.

राजीव के साथ अपनी बेटी की शादी की इच्छा ले कर जो भी मातापिता मेरे पास उन के घरपरिवार की जानकारी लेने आते, मैं उन के सामने उस परिवार के बुरे स्वभाव का कुछ ऐसा चित्र खींचती कि वह दोबारा वहां जाने का नाम नहीं लेते थे और अपनी इस सफलता पर मैं अपार संतुष्टि का अनुभव करती थी.

मेरे बहुत अनुरोध पर उस दिन राजीव गीतूमीतू को मुझ से मिलाने ले आया. इस बार वह काफी खीजा हुआ सा लग रहा था. बातबात में गीतूमीतू को झिड़क बैठता. पता नहीं, मेरे कुचक्रों से या किसी और वजह से उस का विवाह नहीं हो पा रहा था और वह एकाकी जीवन जीने को विवश था.

मेरी समधिन बारबार फोन पर मुझ से अनुरोध करतीं, ‘बहनजी, कोई अच्छी लड़की हो तो बताइएगा. मैं चाहती हूं कि मेरी आंखों के सामने राजीव का घर फिर से बस जाए. कल को बेटी सुधा भी ब्याह कर अपने घर चली जाएगी तो इन बच्चियों को संभालने वाला कोई तो चाहिए न.

प्रकट में तो मैं कुछ नहीं कहती पर मेरी गुडि़या के बच्चों को सौतेली मां मिले, यह मेरे दिल को मंजूर न था. आखिर तिनकातिनका जोड़ कर बसाए अपनी बेटी के घोंसले को मैं किसी और का होता हुआ कैसे देख सकती थी.

मेरी लाख कोशिशों के बावजूद उन्हें यह पता लग गया कि राजीव का घर बसाने के मामले में जड़ काटने का काम मैं खुद कर रही हूं तो उन्हें सतर्क होना ही था और उन के सतर्क होने का नतीजा यह निकला कि राजीव ने अपनी सहकर्मी से विवाह कर लिया.

इस मनहूस खबर ने तो मुझे तोड़ कर ही रख दिया. हाय, अब मेरी गुडि़या के बच्चों का क्या होगा. अब मैं ने लगातार राजीव और उस की मां को कोसना शुरू कर दिया.

अब दिनोदिन मेरी बेचैनी बढ़ने लगी. जाने कितनी सौतेली मांओं के क्रूरता भरे किस्से मेरे दिमाग में कौंधते रहते और एक पल भी मुझे चैन न लेने देते. मन ही मन में गीतूमीतू को सौतेली मां की झिड़कियां खाते, पिटते और कई तरह के अत्याचारों को तसवीर में ढाल कर देखती रहती और अपनी बेबसी पर खून के आंसू रोती.

उस दिन मैं घर में अकेली ही थी. अचानक दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने उठ कर दरवाजा खोला. सामने जो खड़ा था उसे देख कर मेरी त्यौरियां चढ़ गईं. मैं तो दरवाजा ही बंद कर लेती पर बगल में मुसकराती गीतूमीतू को देख कर मैं अपने गुस्से को पी गई.

राजीव ने नमस्ते की और उस के साथ जो औरत खड़ी थी उस ने भी कुछ सकुचाते हुए हाथ जोड़ कर नजरें झुका लीं.

राजीव ने कुछ अपराधी मुद्रा में कहा, ‘मांजी, मुझे माफ कीजिएगा कि आप को बिना बताए मैं ने फिर से विवाह कर लिया. मैं तो यहां आने में संकोच का अनुभव कर रहा था पर नेहा की जिद थी कि वह आप से मिल कर आप का आशीर्वाद जरूर लेगी.

मैं ने क्रोध भरी नजरों से नेहा को देखा पर उस के होंठों पर सरल मुसकान खेल रही थी. उस ने अपने सिर पर गुलाबी साड़ी का पल्लू डाला और मेरे चरण स्पर्श करने को झुकी पर उसे आशीर्वाद देना तो दूर, मैं ने अपने कदमों को पीछे खींच लिया. नेहा ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई, शायद वह इस के लिए तैयार थी.

बहुत दिनों बाद गीतूमीतू को अनायास ही अपने पास पा कर अपनी ममता लुटाने का जो अवसर आज मुझे मिला था उसे मैं किसी कीमत पर खोना नहीं चाहती थी इसलिए मजबूरीवश सब को अंदर आने के लिए कहना पड़ा.

राजीव तो बिना कहे ही सोफे पर बैठ गया और अपने माथे पर उभर आए पसीने को रूमाल से जज्ब करते हुए कहीं खो सा गया. गीतूमीतू ने खुद को टेलीविजन देखने में व्यस्त कर लिया पर नेहा थोड़ी देर ठिठकी सी खड़ी रही फिर स्वयं रसोई में जा कर सब के लिए पानी ले आई.

उस ने सब से पहले पानी के लिए मुझ से पूछा पर मैं ने बड़ी रुखाई से मना कर दिया. उस ने गीतूमीतू और राजीव को पानी पिलाया और फिर खुद पिया. इस के बाद मेरे रूखे व्यवहार की परवा न करते हुए वह मेरे पास ही बैठ गई.

पानी पी कर राजीव अचानक उठ कर बाहर चला गया. उस के चेहरे से मुझे लगा कि शायद यहां आ कर उस के मन में मेरी गुडि़या की याद ताजा हो गई थी पर अब क्या फायदा. मेरी गुडि़या से यदि वह इतना ही प्यार करता तो उस का स्थान किसी और को क्यों देता. और उस पर से मुझ से मिलाने के बहाने मेरे जख्मों पर नमक छिड़कने के लिए उसे यहां ले आया है. मेरी सोच की लकीरें मेरे चेहरे पर शायद उभर आई थीं तभी नेहा उन लकीरों को पढ़ कर अपराधबोध से पीडि़त हो उठी.

अगले ही पल नेहा ने अपने चेहरे से अपराधभाव को उतार फेंका और सहज हो कर पूछने लगी, ‘मांजी, आप की तबीयत ठीक नहीं है शायद? मैं अभी चाय बना कर लाती हूं.’

राजीव बाहर से अपने को सहज कर वापस आ गया. गीतूमीतू दौड़ती हुई राजीव की गोद में चढ़ गईं. नेहा चाय और रसोई के डब्बों में से ढूंढ़ कर बिस्कुटनमकीन भी ले आई. सब से पहले उस ने चाय मुझे ही दी, न चाहते हुए भी मुझे चाय लेनी ही पड़ी.

मीतू अचानक राजीव की गोद से उतर कर नेहा की गोद में बैठ गई. बिस्कुट कुतरती मीतू बारबार नेहा से चिपकी जा रही थी और नेहा उस के माथे पर बिखर आई लटों को पीछे करते हुए उस का माथा सहला रही थी. मीतू का इस तरह दुलार होता देख गीतू भी नेहा की गोद में जगह बनाती हुई चढ़ बैठी और नेहा ने उसे भी अपने अंक में समेट लिया तो गीतूमीतू दोनों एकसाथ खिलखिला कर हंस पड़ीं. पता नहीं उन की हंसी मेरे रोने का सबब क्यों बन गई. मैं आंखों के कोरों में छलक आए आंसुओं को कतई न छिपा सकी.

तभी नेहा ने दोनों बच्चों को गोद से उतार कर आंखों ही आंखों में राजीव को जाने क्या इशारा किया कि वह दोनों बच्चों को ले कर बाहर चला गया. नेहा खाली हो गया कप जो अभी भी मेरे हाथों में ही था, को ले कर सारे बरतन समेट रसोई में रख आई और मेरे एकदम करीब आ कर बैठ गई. फिर मेरे हाथों को अपने कोमल हाथों में ले कर जैसे मुझे आश्वस्त करती हुई बोली, ‘मांजी, मैं आप का दुख समझ सकती हूं. आप ने अपने कलेजे के टुकडे़ को खोया है और मैं यह भी जानती हूं कि मूल से ब्याज ज्यादा प्यारा होता है. आप बेहद आशंकित हैं कि कहीं सौतेली मां आ कर आप की नातिनों पर अत्याचार करना न शुरू कर दे और उन के पिता को उन से दूर न कर दे.

‘मेरा विश्वास कीजिए मांजी, जब यह बात मुझे पता चली तो मैं ने मन में यह ठान लिया कि मैं आप से मिल कर आप की आशंका जरूर दूर करूंगी. सभी ने तो मुझे रोका था कि आप पता नहीं मुझ से कैसे पेश आएंगी लेकिन मुझे यह पता था कि आप का वह व्यवहार बच्चों की असुरक्षा की आशंका से ही प्रेरित होगा.’

मेरे हाथों पर नेहा के  कोमल हाथों का हल्का सा दबाव बढ़ा और थोड़ा रुक कर उस ने फिर कहना शुरू किया, ‘मांजी, आप अपने दिल से यह डर बिलकुल निकाल दीजिए कि मैं गीतू व मीतू के साथ बुरा सुलूक करूंगी. आप निश्ंिचत हो कर रहिए ताकि आप का स्वास्थ्य सुधर सके,’ नेहा ने धीरे से अपना हाथ छुड़ा कर मेरा कंधा थपथपाया और मेरी आंखों में झांकती हुई बोली, ‘मांजी, मेरी विनती है कि मुझे भी आप अपनी बेटी जैसी ही समझें. मेरा आप से वादा है कि आप बच्चों से मिलने को नहीं तरसेंगी. हम उन्हें आप से मिलाने लाते रहेंगे.’

नेहा की बात समाप्त भी न होने पाई थी कि राजीव व बच्चे आ गए. दोनों बच्चे दौड़ कर नेहा की टांगों से लिपट गए और ‘मम्मी घर चलो,’ ‘मम्मी घर चलो’ की रट लगाने लगे.

नेहा ने उन्हें गोद में बिठाते हुए कहा, ‘चलते हैं बेटे, पहले आप नानी मां को नमस्ते करो.’

गीतूमीतू ने एकसाथ अपनी छोटीछोटी हथेलियां जोड़ कर तोतली भाषा में मुझे नमस्ते की. मेरे अंदर जमा शिलाखंड पिघलने को आतुर होता सा जान पड़ा. राजीव व नेहा ने चलने की इजाजत मांगी.

उन्हें कुछ पल रुकने को कह कर मैं अंदर गई और अलमारी से गीतूमीतू को देने के लिए 100-100 के 2 नोट निकाले तो लिफाफे के नीचे से झांकती नीली कांजीवरम् की साड़ी ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया. साड़ी देखते ही मेरी आंखें भर आईं क्योंकि यह साड़ी मैं अपनी गुडि़या को देने के लिए लाई थी. साड़ी का स्पर्श करते ही मेरे हाथ कांपने लगे पर न जाने कैसे मैं वह साड़ी उठा लाई और टीके की थाली भी लगा लाई.

टीके के बाद मेरे पैर छू कर नेहा ने मीतू को गोद में उठाया और गीतू की उंगली पकड़ कर आटो में बैठने चल दी. आटो में बैठने से पहले नेहा ने मुझे पीछे मुड़ कर देखा. पता नहीं उस की आंखों में मैं ने क्या देखा कि मेरी आंखें झरझर बरसने लगीं. आंसुओं के सैलाब ने आंखों को इतना धुंधला कर दिया कि कुछ भी दिखना संभव न रहा.

जब धुंध छंटी तो सामने से जाती नेहा में मुझे अपनी गुडि़या की छवि का कुछकुछ आभास होने लगा. अब मुझे लगने लगा कि गुडि़या के जाने के बाद मैं जिस डर व आशंका के साथ जी रही थी वह कितना बेमानी था.

एक सवाल मन को मथे जा रहा था कि मैं जो करने जा रही थी क्या वह उचित था?

आज नेहा से मिल कर ऐसा लगा कि मेरी समधिन ने मुझ से छिपा कर राजीव का पुनर्विवाह कर के बहुत ही अच्छा काम किया, वरना मैं तो अपनी नातिनों की भलाई सोच कर उन का बुरा करने ही जा रही थी. कभी अपनी हार भी इतनी सुखदाई हो सकती है यह मैं ने आज नेहा से मिलने के बाद जाना. राजीव के चेहरे पर छाई संतुष्टि और गीतूमीतू के लिए नेहा के हृदय से छलकता ममता का सागर देख कर मैं भावविभोर थी.

मैं यह सोचने पर विवश थी, कितना बड़ा दिल है नेहा का. एक तो उसे विधुर पति मिला और उस पर से 2 अबोध बच्चियों के पालनपोषण की जिम्मेदारी. फिर भी वह मुझे मनाने चली आई. मुझे नेहा अपने से बहुत बड़ी लगने लगी.

अब मुझ से और नहीं रहा गया. बहुत दिनों बाद मैं ने राजीव के यहां फोन लगाया. रुंधे कंठ से इतना ही पूछ पाई, ‘‘ठीक से पहुंच गई थीं, बेटी?’’

‘‘जी, मम्मीजी,’’ नेहा का भी गला भर आया था. मेरे गले और दिल से एकसाथ निकला, ‘‘खुश रहो, मेरी गुडि़या.’’

Valentine’s Special- समर्पण: बेमेल प्रेम संबंध की अनोखी कहानी

नौकरी से सेवानिवृत्ति के बाद मैं नियमित रूप से सुबह की सैर करने का आदी हो गया था. एक दिन जब मैं सैर कर घर लौट रहा था तो लगभग 26-27 साल की एक लड़की मेरे साथसाथ घर आ गई. वह देखने में बहुत सुंदर थी. मैं ने झट से पूछ लिया, ‘‘हां, बोलो, किस काम से मेरे पास आई हो?’’ उस ने कहा, ‘‘हम लोगों का एक आर्केस्ट्रा गु्रप है. मैं रिहर्सल के बाद रोज इधर होते हुए अपने घर जाती हूं.

आज इधर से गुजरते हुए  आप दिखाई दिए तो मैं ने सोचा, आप से मिल ही लूं.’’ मैं ने बताया नहीं कि मैं भी उसे नोटिस कर चुका हूं और मेरा मन भी था कि उस से मुलाकात हो. ‘‘थोड़ा और बताओगी अपने कार्यक्रमों और ग्रुप में अपनी भूमिका के बारे में.’’ ‘‘यहीं खडे़खडे़ बातें होंगी या आप मुझे घर के अंदर भी ले जाएंगे.’’

‘‘यू आर वेलकम. चलो, अंदर चल कर बात करते हैं.’’ ड्राइंग रूम में बैठने के बाद उस ने अपना परिचय देते हुए कहा, ‘‘मेरा नाम सुधा है, वैसे हम कलाकार लोग स्टेज पर किसी और नाम से जाने जाते हैं. मेरा स्टेज का नाम है नताशा. हमारे कार्यक्रम या तो बिजनेस हाउस करवाते हैं या हम लोग शादियों में प्रोग्राम देते हैं. मैं फिल्मी गानों पर डांस करती हूं.’’

मैं ने उस से पूछा, ‘‘कार्यक्रमों के अलावा और क्या करती हो?’’ ‘‘मैं एम.ए. अंगरेजी से प्राइवेट कर रही हूं,’’ सुधा ने बताया, ‘‘मेरे पापा का नाम पी.एल. सेठी है और वह पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट में काम करते हैं.’’ सुधा ने खुल कर अपने परिवार के बारे में बताया, ‘‘मेरी 3 बहनें हैं. बड़ी बहन की शादी की उम्र निकलती जा रही है. मुझ से छोटी बहनें पढ़ाई कर रही हैं.

मां एक प्राइवेट स्कूल की टीचर हैं. घर का खर्च मुश्किल से चलता है. प्रोफेसर साहब, मैं ने आप की नेमप्लेट पढ़ ली थी कि आप रिटायर्ड प्रोफेसर हैं, इसलिए आप को प्रोफेसर साहब कह कर संबोधित कर रही हूं. हां, तो मैं आप को अपने बारे में बता रही थी कि मुझे हर महीने कार्यक्रम से साढ़े 3 हजार रुपए की आमदनी हो जाती है, जो मैं बैंक में जमा करवा देती हूं.’’

मैं ने सुधा के पूरे शरीर पर नजर डाली. गोरा रंग, यौवन से भरपूर बदन और उस पर गजब की मुसकराहट. सुधा ने पूछा, ‘‘आप के घर पर कोई दिखाई नहीं दे रहा है. लोग कहीं बाहर गए हैं क्या?’’  मैं ने सुधा को बताया, ‘‘मेरे घर पर कोई नहीं है. मैं ने शादी नहीं की है. मेरा एक भाई और एक बहन है. दोनों अपने परिवार के साथ इसी शहर में रहते हैं. वैसे सुधा, मैं शाम को इंगलिश विषय की एम.ए. की छात्राओं को ट्यूशन पढ़ाता हूं. तुम आना चाहो तो ट्यूशन के लिए आ सकती हो.’’ सुधा ने हामी भर दी और बोली, ‘‘मैं शीघ्र ही आप के पास ट्यूशन के लिए आ जाया करूंगी.

आप समय बता दीजिए.’’ सुधा के निमंत्रण पर मैं ने एक दिन उस का कार्यक्रम भी देखा. निमंत्रणपत्र देते हुए उस ने कहा, ‘‘प्रोफेसर साहब, आप से एक निवेदन है कि मेरे पापा भी कार्यक्रम को देखने आएंगे. आप अपना परिचय मत दीजिएगा. मैं सामने आ जाऊं तो यह मत जाहिर कीजिएगा कि आप मुझे जानते हैं. कुछ कारण है, जिस की वजह से मैं फिलहाल यह जानपहचान गुप्त रखना चाहती हूं.’’ ट्यूशन पर आने से पहले सुधा ने पूछा, ‘‘सर, कोचिंग के लिए आप कितनी फीस लेंगे?’’

मैं ने उत्तर दिया, ‘‘तुम से फीस नहीं लेनी है. तुम जब भी मेरे घर आओ किचन में चाय या कौफी बना कर पिला दिया करना. हम दोनों साथसाथ चाय पीने का आनंद लेंगे तो समझो फीस चुकता हो गई.’’ ‘‘सर, चाय तो मुझे भी बहुत अच्छी लगती है,’’ सुधा बोली, ‘‘एक बात पूछ सकती हूं, आप ने शादी क्यों नहीं की?’’ मैं इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं था किंतु अब तक हम एकदूसरे के इतने निकट आ चुके थे कि बडे़ ही सहज भाव से मैं ने उस से कहा, ‘‘पहले तो मातापिता की जिम्मेदारी मुझ पर थी, फिर उन के देहांत के बाद मैं मन नहीं बना पाया. मातापिता के जीवन काल  में एक लड़की मुझे पसंद आई थी, लेकिन वह उन्हें नहीं अच्छी लगी. बस, इस के बाद शादी का विचार छोड़ दिया.’’

सुधा अकसर सुबह रिहर्सल के बाद सीधे मेरे घर आती और ट्यूशन का समय मैं ने उसे साढे़ 5 बजे शाम का अकेले पढ़ने के लिए दे दिया था.  उस का मेरे घर आना इतना अधिक हो गया था कि महल्ले वाले भी रुचि दिखाने लगे. कब वह मेरे घर आती है, कितनी देर रुकती है, यह बात उन की चर्चा का विषय बन गई थी. जब मैं ने उन के इस आचरण पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई तो वे खुदबखुद ठंडे पड़ गए. हां, इस चर्चा का इतना असर जरूर पड़ा कि जो छात्राएं 4-5 बजे शाम को ग्रुप में आती थीं वे एकएक कर ट्यूशन छोड़ कर चली गईं. इस बात की परवा न तो मैं ने की और न ही सुधा पर इन बातों का कोई असर था. मेरे भाई और बहन ने भी मुझे इस बारे में व्यंग्य भरे लहजे में बताया था, किंतु उन्होंने ज्यादा पूछताछ नहीं की. सुधा को साउथइंडियन डिशेज अच्छी लगती थीं.

अत: उसे साथ ले कर मैं एक रेस्तरां में भी जाने लगा था. वहां के वेटर भी हमें पहचानने लगे थे. एक दिन जब देर रात सुधा रेस्तरां पहुंची तो वेटर ने उस से कहा, ‘‘मैडम, आप के पापा का फोन आया था. वह थोड़ी देर से आएंगे. आप बैठिए, मैं आप के लिए पानी और चाय ले कर आता हूं.’’ मैं जब रेस्तरां में पहुंचा तो सुधा ने हंसते हुए बताया, ‘‘प्रोफेसर, आज बड़ा मजा आया. वेटर कह रहा था आप के पापा लेट आएंगे. यहां के वेटर्स मुझे आप की बेटी समझते हैं.’’ इस पर मैं ने भी चुटकी ले कर कहा, ‘‘मेरी उम्र ही ऐसी है, इन की कोई गलती नहीं है. यह भ्रम बना रहने दो.’’

डिनर से पहले सुधा ने कहा, ‘‘प्रोफेसर, आप का मेरे जीवन में आना एक मुबारक घटना है.’’ वह बहुत ही भावुक हो कर कह रही थी. मुझे लगा जैसे किसी बहुत ही घनिष्ठ संबंध के लिए मुझे मानसिक रूप से तैयार कर रही हो. मैं अकसर उस के डांस की तारीफ किया करता था और उसे यह बहुत अच्छा लगता था. एक दिन शाम को हम दोनों चाय पी रहे थे तो बडे़ प्यार से उस की पीठ सहलाते हुए मैं ने कहा, ‘‘सुधा, तुम्हें तो पता ही है कि रिटायरमेंट होने पर मुझे काफी अच्छी रकम मिली है. मेरी जरूरतें भी बहुत सीमित हैं. मेरा एक योगदान अपने परिवार के लिए स्वीकार करो. हर महीने तुम्हें मैं 1 हजार रुपए दिया करूंगा. वह तुम अपने एकाउंट में जमा करवाती रहना.’’

मेरी यह योजना सुधा को बेहद पसंद आई. उस की आंखों में खुशी के आंसू भर आए. वह बोली, ‘‘अब मैं पूरी तरह से आप को समर्पित हूं. आप जो भी मुझे प्यार से देंगे उसे मैं अपना हक समझ कर खुशी से स्वीकार करूंगी,’’ और फिर एकाएक आगे बढ़ कर उस ने  मेरा माथा चूमलिया. कहने लगी, ‘‘प्रोफेसर, आप से मिलने के बाद मेरी कई मुश्किलें हल होती दिखाई देती हैं.’’ मैं ने महसूस किया कि एकदूसरे का सामीप्य तनमन को प्यार के रंग में भिगो देता है. हमारे जीवन मेें वे कुछ अनमोल क्षण होते हैं जिन से हमें जीवन भर ऊर्जा और जीने का मकसद मिलता है. जवानी की दहलीज पर खड़ी सुधा पूरी उमंग और जोश में थी. उसे प्रेम के प्रथम अनुभव की तलाश थी, उसे चाहिए था जी भर कर प्यार करने वाला एक प्रौढ़ और पुरुषार्थी प्रेमी, जो शायद उस ने मुझ में ढूंढ़ लिया था.

नाजुक और व्यावहारिक क्षणों में कभीकभी नैतिकता बहुत पीछे रह जाती है. घनिष्ठता के अंतरंग क्षणों में, चाय की चुस्कियां लेते हुए साहस कर सुधा ने पूछ ही लिया, ‘‘प्रोफेसर, कौन थी वह भाग्यशाली लड़की जो आप को पसंद आई थी. उस का नाम क्या था. देखने में कैसी लगती थी?’’ उस की रुचि देख कर मैं ने अपनी अलबम के पृष्ठ पलट कर, उसे कृष्णा की फोटो दिखाते हुए कहा, ‘‘उस का नाम कृष्णा था. बहुत सुंदर और अच्छी लड़की थी.’’ फोटो देख कर उसे झटका सा लगा लेकिन स्पष्टतौर पर उस ने जाहिर नहीं होने दिया. ‘‘इस से अधिक मुझ से कुछ मत पूछना, सुधा,’’ मैं ने कहा. उस दिन मेरा मन हुआ काश, सुधा आज देर तक मेरे घर रुके और हम लोग प्यार भरी बातें करें, पर देर होने के कारण वह जल्दी ही चली गई. सुधा के निमंत्रण पर एक शाम मैं प्रोग्राम देख रहा था.

फिल्मी कलाकार की तरह सुधा नृत्य पेश कर रही थी. हाल खचाखच भरा हुआ था. ‘बीड़ी जलाइ ले’ और ‘कजरारे कजरारे’ जैसे मशहूर गानों पर सुधा अपने हर स्टेप पर दर्शकों की वाहवाही बटोर रही थी. तालियों की गड़गड़ाहट से बारबार हाल गूंज उठता था. प्रोग्राम के अंत में मेरे पास से गुजरते हुए सुधा ने मुझ से धीमे स्वर में पूछा, ‘‘प्रोफेसर, कैसा लगा मेरा डांस?’’ मैं ने धीमे स्वर में सराहना करते हुए कहा, ‘‘तुम वाकई बहुत अच्छा डांस करती हो.’’ दूसरे दिन सुधा शाम को 5 बजे मेरे घर पहुंची. घर में प्रवेश करते ही बोली, ‘‘प्रोफेसर, चाय बना कर लाती हूं, फिर ढेर सारी बातें करेंगे.’’ वह चाय ले कर आई और मेरे पास बैठ गई. ‘‘प्रोफेसर, आप ने ‘निशब्द’ फिल्म देखी है?’’

सुधा ने पूछा. ‘‘हां, देखी है, मुझे अच्छी भी लगी थी,’’ मैं ने बताया. सुधा मेरे इतने पास बैठी थी कि मन हुआ मैं उस के नरम गालों को स्पर्श कर अपने हाथों से उसे प्यार करूं. कृष्णा की याद आज ताजा हो उठी थी. उसे मैं इसी तरह प्यार किया करता था. उस दिन ट्यूशन का कोई काम नहीं हो पाया. बस, नजदीकियां बढ़ा कर, हम दोनों एकदूसरे को प्यार करते रहे.

जाते समय सुधा ने बडे़ प्यार से मेरा हाथ अपने हाथ में ले कर कहा, ‘‘‘निशब्द’ में अमिताभ बच्चन ने जिया से कितना जीजान से प्यार किया है. उम्र को भूल जाइए प्रोफेसर, मुझे आप से वैसा ही बेबाक प्यार चाहिए. अपने स्वाभिमान को भी बनाए रखिए और मुझ से प्रेम करते रहिए, मेरा दिल कभी नहीं तोडि़एगा.’’ मेरे भीतर कुछ ऐसा परिवर्तन हो चुका था कि उम्र की सीमा को लांघ कर मैं ने सुधा को अपनी बांहों में कस लिया और प्यार करने लगा, ‘‘नैतिकता की बात मत सोचना सुधा. मेरे साथ आज आनंद में डूब जाओ,’’ मैं बोलता रहा, ‘‘कुदरत ने शायद हम दोनों को इसीलिए मिलाया है कि हम प्रेम की ऐसी मिसाल कायम करें जिस का अनुभव अपनेआप में अद्भुत हो.’’ एक झटके में मुझ से अलग होते हुए सुधा बोली, ‘‘प्रोफेसर, हम ऐसा कुछ भी नहीं करेंगे. ‘निशब्द’ में भी ऐसा कुछ नहीं दिखाया गया है. अमिताभ ने जिया से कोई यौन संपर्क नहीं किया. चलो, वह तो कहानी थी.

हम वास्तव में प्यार करते रहेंगे. बस, एक यौन संपर्क को छोड़ कर,’’ एक पल रुक कर वह फिर बोली, ‘‘मैं एक बात और आप को बताना चाहती हूं कि जो फोटो कृष्णा की आप ने दिखाई थी वह मेरी मां की है. मेरी मां का नाम कृष्णा है. प्यार तो किया है आप से मैं ने और जिंदगी भर करती रहूंगी.’’ यह जान कर मेरे पैरों तले जमीन सरक गई. आश्चर्यचकित मैं सुधा के चेहरे की ओर देखता रहा. झील सी गहरी आंखों में अब भी मेरे लिए प्यार उमड़ रहा था. होंठों पर मधुर मुसकान थी. सुधा मेरी निगाहों में इतने ऊंचे  स्तर तक उठ चुकी थी, जिस महानता को मेरा निस्वार्थ प्रेम छू तक नहीं सकता था.

क्षण भर को मुझे लगा था, शायद तकदीर ने सुधा के रूप में मेरा पहला प्यार मुझे लौटा दिया है. दूसरे ही क्षण मैं अपने विचार पर मन ही मन हंस दिया कि अगर कृष्णा से विवाह भी हो गया होता तो सुधा जैसी ही सुंदर लड़की होती… मैं अपने विचारों में खोया था, इतने में सुधा ने अपना फैसला सुना दिया, ‘‘प्रोफेसर, यह मत सोचना कि मैं आप के पास आना बंद कर दूंगी. मैं एक बोल्ड लड़की हूं. आप को अपने मन की बात बता रही हूं. मां को बता चुकी हूं, अब मैं शादी नहीं करूंगी. आज के माहौल में जहां दहेज के लोभी लोग लड़कियों को तंग करते हैं, जला देते हैं या तलाक जैसे नर्क में ढकेल देते हैं, मैं शादी के चक्कर में नहीं पड़ूंगी. मैं अपनी मर्जी की मालिक हूं.

आप चाहोगे तो आप के पास आ कर रहने लगूंगी. नहीं चाहोगे तो भी आप के पास आती रहूंगी. ‘‘प्यार में चिर सुख की चाह होती है. यौन संबंध और विवाह की आवश्यकता से ऊपर उठ चुकी है आप की सुधा. आप के संरक्षण में  बहुत सुरक्षित रहूंगी,’’ मेरा हाथ अपने हाथ में ले कर शेक हैंड करते हुए उस ने कहा. मेरी आंखों में आंसू छलक उठे थे. मैं उस को जाते हुए देखता रहा, बोझिल मन लिए और निशब्द. लेकिन वह गई नहीं, वापस लौट आई. ‘‘तुम क्या सोचते थे, मैं तुम्हें आंसुओं के साथ छोड़ जाऊंगी. तुम्हें आश्चर्य हो रहा होगा. आप से तुम संबोधन पर आ गई हूं. ‘तुम’ में अपनापन लगता है. तुम रिटायर तो हो ही नहीं सकते. रिटायर काम से हुए हो जिंदगी से नहीं. हम दोनों आज से नई जिंदगी शुरू कर रहे हैं. कल सुबह सामान के साथ आ रही हूं,’’ हंसते हुए उस ने कहा, ‘‘अब तो मुसकरा दो…अब की सामान ले कर आ रही हूं. अच्छा…जाती हूं वापस आने के लिए.’’

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