दो कदम तन्हा- भाग 3: अंजलि ने क्यों किया डा. दास का विश्वास

Writer- डा. पी. के. सिंह 

बालक ने नकरात्मक भाव से सिर हिलाया तो डा. दास ने पूछा, ‘‘लस्सी पीओगे?’’

‘‘नो…नथिंग,’’ बालक को नदी का दृश्य अधिक आकर्षित कर रहा था.

चाय पी कर डा. दास ने सिगरेट का पैकेट निकाला.

अंजलि ने पूछा, ‘‘सिगरेट कब से पीने लगे?’’

डा. दास ने चौंक कर अपनी उंगलियों में दबी सिगरेट की ओर देखा, मानो याद नहीं, फिर उन्होंने कहा, ‘‘इंगलैंड से लौटने के बाद.’’

अंजलि के चेहरे पर उदासी का एक साया आ कर निकल गया. उस ने निगाहें नीची कर लीं. इंगलैंड से आने के बाद तो बहुत कुछ खो गया, बहुत सी नई आदतें लग गईं.

अंजलि मुसकराई तो चेहरे पर स्वच्छ प्रकाश फैल गया. किंतु डा. दास के मन का अंधकार अतीत की गहरी परतों में छिपा था. खामोशी बोझिल हो गई तो उन्होंने पूछा, ‘‘मृणालिनी कहां है?’’

‘‘इंगलैंड में. वह तो वहीं लीवरपूल में बस गई है. अब इंडिया वापस नहीं लौटेगी. उस के पति भी डाक्टर हैं. कभीकभी 2-3 साल में कुछ दिन के लिए आती है.’’

‘‘तभी तो…’’

‘‘क्या?’’

‘‘कुछ भी नहीं, ब्रिलियंट स्टूडेंट थी. अच्छा ही हुआ.’’

मृणालिनी अंजलि की चचेरी बहन थी. उम्र में उस से बड़ी. डा. दास से वह मेडिकल कालिज में 2 साल जूनियर थी.

डा. दास फाइनल इयर में थे तो वह थर्ड इयर में थी. अंजलि उस समय बी.ए. इंगलिश आनर्स में थी.

अंजलि अकसर मृणालिनी से मिलने महिला होस्टल में आती थी और उस से मिल कर वह डा. दास के साथ घूमने निकल जाती थी. कभी कैंटीन में चाय पीने, कभी घाट पर सीढि़यों पर बैठ कर बातें करने, कभी बोटिंग करने.

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डा. दास की पहली मुलाकात अंजलि से सरस्वती पूजा के फंक्शन में ही हुई थी. वह मृणालिनी के साथ आई थी. डा. दास गंभीर छात्र थे. उन्हें किसी भी लड़की ने अपनी ओर आकर्षित नहीं किया था, लेकिन अंजलि से मिल कर उन्हें लगा था मानो सघन हरियाली के बीच ढेर सारे फूल खिल उठे हैं और उपवन में हिरनी अपनी निर्दोष आंखों से देख रही हो, जिसे देख कर आदमी सम्मोहित सा हो जाता है.

फिर दूसरी मुलाकात बैडमिंटन प्रतियोगिता के दौरान हुई और बातों की शुरुआत से मुलाकातों का सिलसिला शुरू हुआ. वह अकसर शाम को पटना कालिज में टेनिस खेलने जाते थे. वहां मित्रों के साथ कैंटीन में बैठ कर चाय पीते थे. वहां कभीकभी अंजलि से मुलाकात हो जाती थी. जाड़ों की दोपहर में जब क्रिकेट मैच होता तो दोनों मैदान के एक कोने में पेड़ के नीचे बैठ कर बातें करते.

मृणालिनी ने दोनों की नजदीकियों को देखा था. उसे कोई आपत्ति नहीं थी. डा. दास अपनी क्लास के टापर थे, आकर्षक व्यक्तित्व था और चरित्रवान थे.

बालक के लिए अब गंगा नदी का आकर्षण समाप्त हो गया था. उसे बाजार और शादी में आए रिश्तेदारों का आकर्षण खींच रहा था. उस ने अंजलि के पास आ कर कहा, ‘‘चलो, ममी.’’

‘‘चलती हूं, बेटा,’’ अंजलि ने डा. दास की ओर देखा, ‘‘चश्मा लगाना कब से शुरू किया?’’

‘‘वही इंगलैंड से लौटने के बाद. वापस आने के कुछ महीने बाद अचानक आंखें कमजोर हो गईं तो चश्मे की जरूरत पड़ गई,’’ डा. दास गंगा की लहरों की ओर देखने लगे.

अंजलि ने अपनी दोनों आंखों को हथेलियों से मला, मानो उस की आंखें भी कमजोर हो गई हैं और स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा है.

‘‘शादी कब की? वाइफ क्या करती है?’’

डा. दास ने अंजलि की ओर देखा, कुछ जवाब नहीं दिया, उठ कर बोले, ‘‘चलो.’’

मैदान की बगल वाली सड़क पर चलते हुए गेट के पास आ कर दोनों ठिठक कर रुक गए. दोनों ने एकदूसरे की ओर देखा, अंदर से एकसाथ आवाज आई, याद है?

मैदान के अंदर लाउडस्पीकर से गाने की आवाज आ रही थी. गालिब की गजल और तलत महमूद की आवाज थी :

‘‘आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक…’’

तलत महमूद पटना आए थे.

डा. घोषाल ने रवींद्र भवन में प्रोग्राम करवाया था. उस समय रवींद्र भवन पूरा नहीं बना था. उसी को पूरा करने के लिए फंड एकत्र करने के लिए चैरिटी शो करवाया गया था. बड़ी भीड़ थी. ज्यादातर लोग खड़े हो कर सुन रहे थे. तलत ने गजलों का ऐसा समा बांधा था कि समय का पता ही नहीं चला.

डा. दास और अंजलि को भी वक्त का पता नहीं चला. रात काफी बीत गई. दोनों रिकशा पकड़ कर घबराए हुए वापस लौटे थे. डा. दास अंजलि को उस के आवास तक छोड़ने गए थे. अंजलि के मातापिता बाहर गेट के पास चिंतित हो कर इंतजार कर रहे थे. डा. दास ने देर होने के कारण माफी मांगी थी. लेकिन उस रात को पहली बार अंजलि को देर से आने के लिए डांट सुननी पड़ी थी और उस के मांबाप को यह भी पता लग गया कि वह डा. दास के साथ अकेली गई थी. मृणालिनी या उस की सहेलियां साथ में नहीं थीं.

हालांकि दूसरे दिन मृणालिनी ने उन्हें समझाया था और डा. दास के चरित्र की गवाही दी थी तब जा कर अंजलि के मांबाप का गुस्सा थोड़ा कम हुआ था किंतु अनुशासन का बंधन थोड़ा कड़ा हो गया था. मृणालिनी ने यह भी कहा था कि डा. दास से अच्छा लड़का आप लोगों को कहीं नहीं मिलेगा. जाति एक नहीं है तो क्या हुआ, अंजलि के लिए उपयुक्त मैच है. लेकिन आजाद खयाल वाले अभिभावकों ने सख्ती कम नहीं की.

बालक ने अंजलि का हाथ पकड़ कर जल्दी चलने का आग्रह किया तो उस ने डा. दास से कहा, ‘‘ठीक है, चलती हूं, फिर आऊंगी. कल तो नहीं आ सकती, शादी है, परसों आऊंगी.’’

‘‘परसों रविवार है.’’

‘‘ठीक तो है, घर पर आ जाऊंगी. दोपहर का खाना तुम्हारे साथ खाऊंगी. बहुत बातें करनी हैं. अकेली आऊंगी,’’ उस ने बेटे की ओर इशारा किया, ‘‘यह तो बोर हो जाएगा. वैसे भी वहां बच्चों में इस का खूब मन लगता है. पूरी छुट्टी है, डांटने के लिए कोई नहीं है.’’

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डा. दास ने केवल सिर हिलाया. अंजलि कुछ आगे बढ़ कर रुक गई और तेजी से वापस आई. डा. दास वहीं खड़े थे. अंजलि ने कहा, ‘‘कहां रहते हो? तुम्हारे घर का पता पूछना तो भूल ही गई?’’

‘‘ओ, हां, राजेंद्र नगर में.’’

‘‘राजेंद्र नगर में कहां?’’

‘‘रोड नंबर 3, हाउस नंबर 7.’’

‘‘ओके, बाय.’’

उपहार: डिंपल ने पुष्पाजी को क्या दिया?

कैलेंडर देख कर विशाल चौंक उठा. बोला, ‘‘अरे, मुझे तो याद ही नहीं था कि कल 20 फरवरी है. कल मां का जन्मदिन है. कल हम लोग अपनी मां का बर्थडे मनाएंगे,’’ पल भर में ही उस ने शोर मचा दिया.

पुष्पाजी झेंप गईं कि क्या वे बच्ची हैं, जो उन का जन्मदिन मनाया जाए. फिर इस से पहले कभी जन्मदिन मनाया भी तो नहीं था, जो वे खुश होतीं.

अगली सुबह भी और दिनों की तरह ही थी. कुमार साहब सुबह की सैर के लिए निकल गए. पुष्पाजी आंगन में आ कर महरी और दूध वाले के इंतजार में टहलने लगीं. तभी विशाल की पत्नी डिंपल ने पुकारा, ‘‘मां, चाय.’’

आज के भौतिकवादी युग में सुबहसवेरे कमरे में बहू चाय दे जाए, इस से बड़ा सुख और कौन सा होगा? पुष्पाजी, बहू का मुसकराता चेहरा निहारती रह गईं. सुबह इतमीनान से आंगन में बैठ कर चाय पीना उन का एकमात्र शौक था. पहले स्वयं बनानी पड़ती थी, लेकिन जब से डिंपल आई है, बनीबनाई चाय मिल जाती है. अपने पति विशाल के माध्यम से उस ने पुष्पाजी की पसंदनापसंद की पूरी जानकारी प्राप्त कर ली थी.

बड़ी बहू अंजू सौफ्टवेयर इंजीनियर है. सुबह कपिल और अंजू दोनों एकसाथ दफ्तर के लिए निकलते हैं, इसलिए दोनों के लिए सुविधाएं जुटाना पुष्पाजी अपना कर्तव्य समझती थीं.

छोटे बेटे विशाल ने एम.बी.ए. कर लिया तो पुष्पाजी को पूरी उम्मीद थी कि उस ने भी कपिल की तरह अपने साथ पढ़ने वाली कोई लड़की पसंद कर ली होगी. इस जमाने का यही तो प्रचलन है. एकसाथ पढ़ने या काम करने वाले युवकयुवतियां प्रेमविवाह कर के अपने मातापिता को ‘मैच’ ढूंढ़ने की जिम्मेदारी से खुद ही मुक्त कर देते हैं.

लेकिन जब विशाल ने उन्हें वधू ढूंढ़ लाने के लिए कहा तो वे दंग रह गई थीं. कैसे कर पाएंगी यह सब? एक जमाना था जब मित्रगण या सगेसंबंधी मध्यस्थ की भूमिका निभा कर रिश्ता तय करवा देते थे. योग्य लड़का और प्रतिष्ठित घराना देख कर रिश्तों की लाइन लग जाती थी. अब तो कोई बीच में पड़ना ही नहीं चाहता. समाचारपत्र या इंटरनैट पर फोटो के साथ बायोडाटा डाल दिया जाता है. आजकल के बच्चों की विचारधारा भी तो पुरानी पीढ़ी की सोच से सर्वथा भिन्न है. कपिल, अंजू को देख कर पुष्पाजी मन ही मन खुश रहतीं कि दोनों की सोच तो आपस में मिलती ही है, उन्हें भी पूरापूरा मानसम्मान मिलता है.

अखबार में विज्ञापन के साथसाथ इंटरनैट पर भी विशाल का बायोडाटा डाल दिया था. कई प्रस्ताव आए. पुष्पाजी की नजर एक बायोडाटा को पढ़ते हुए उस पर ठहर गई. लड़की का जन्मस्थान उन्हें जानापहचाना सा लगा. शैक्षणिक योग्यता बी.ए. थी. कालेज का नाम बालिका विद्यालय, बिलासपुर देख कर वे चौंक उठी थीं. कई यादें जुड़ी हुई थीं उन की इस कालेज से. वे स्वयं भी तो इसी कालेज की छात्रा रह चुकी थीं.

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उसी कालेज में जब वे सितारवादन का पुरस्कार पा रही थीं तब समारोह के बाद कुमारजी ने उन का हाथ मांगा, तो उन के मातापिता ने तुरंत हामी भर दी थी. स्वयं पुष्पाजी भी बेहद खुश थीं. ऐसे संगीतप्रेमी और कला पारखी कुमार साहब के साथ उन की संगीत कला परवान चढ़ेगी, इसी विश्वास के साथ उन्होंने अपनी ससुराल की चौखट पर कदम रखा था.

हर क्षेत्र में अव्वल रहने वाली पुष्पाजी के लिए घरगृहस्थी की बागडोर संभालना सहज नहीं था. जब शादी के 4-5 माह बाद उन्होंने अपना सितार और तबला घर से मंगवाया था तो कुमारजी के पापा देखते ही फट पड़े थे, ‘‘यह तुम्हारे नाचनेगाने की उम्र है क्या?’’

उन की निगाहें चुभ सी रही थीं. भय से पुष्पाजी का शरीर कांपने लगा था. लेकिन मामला ऐसा था कि वे अपनी बात रखने से खुद को रोक न सकी थीं, ‘‘पापा, आप की बातें सही हैं, लेकिन यह भी सच है कि संगीत मेरी पहली और आखिरी ख्वाहिश है.’’

‘‘देखो बहू, इस खानदान की परंपरा और प्रतिष्ठा के समक्ष व्यक्तिगत रुचियों और इच्छाओं का कोई महत्त्व नहीं है. तुम्हें स्वयं को बदलना ही होगा,’’ कह कर पापा चले गए थे.

पुष्पाजी घंटों बैठी रही थीं. सूझ नहीं रहा था कि क्या करें, क्या नहीं. शायद कुमारजी कुछ मदद करें, मन में जब यह खयाल आया तो कुछ तसल्ली हुई थी. उस दिन वे काफी देर से घर लौटे थे.

तनिक रूठी हुई भावमुद्रा में पुष्पाजी ने कहा, ‘‘जानते हैं, आज क्या हुआ?’’

‘‘हूं, पापा बता रहे थे.’’

‘‘तो उन्हें समझाइए न.’’

‘‘पुष्पा, यहां कहां सितार बजाओगी. बाबूजी न जाने क्या कहेंगे. जब कभी मेरा तबादला इस शहर से होगा, तब मैं तुम्हें सितार खरीद दूंगा. तब खूब बजाना,’’ कह कुमारजी तेजी से कमरे से बाहर निकल गए.

आखिर उन का तबादला भोपाल हो ही गया. कुमारजी को मनचाहा कार्य मिल गया. जब घर पूरी तरह से व्यवस्थित हो गया और एक पटरी पर चलने लगा तो एक दिन पुष्पाजी ने दबी आवाज में सितार की बात छेड़ी.

कुमारजी हंस दिए, ‘‘अब तो तुम्हारे घर दूसरा ही सितार आने वाला है. पहले उसेपालोपोसो. उस का संगीत सुनो.’’

कपिल गोद में आया तो पुष्पाजी उस के संगीत में लीन हो गईं. जब वह स्कूल जाने लगा तब फिर सितार की याद आई उन्हें. पति से कहने की सोच ही रही थीं कि फिर उलटियां होने लगीं. विशाल के गोद में आ जाने के बाद तो वे और व्यस्त हो गईं. 2-2 बच्चों का काम. अवकाश के क्षण तो कभी मिलते ही नहीं थे. विशाल भी जब स्कूल जाने लगा, तो थोड़ी राहत मिली.

एक दिन रेडियो पर सितारवादन चल रहा था. पुष्पाजी तन्मय हो कर सुन रही थीं. पति चाय पी रहे थे. बोले, ‘‘अच्छा लगता है न सितारवादन?’’

‘‘हां.’’

‘‘ऐसा बजा सकती हो?’’

‘‘ऐसा कैसे बजा सकूंगी? अभ्यास ही नहीं है. अब तो थोड़ी फुरसत मिलने लगी है. सितार ला दोगे तो अभ्यास शुरू कर दूंगी. पिछला सीखा हुआ फिर से याद आ जाएगा.’’

‘‘अभी फालतू पैसे बरबाद नहीं करेंगे. मकान बनवाना है न.’’

मकान बनवाने में वर्षों लग गए. तब तक बच्चे भी सयाने हो गए. उन्हें पढ़ानेलिखाने में अच्छा समय बीत जाता था.

डिंपल का बायोडाटा और फोटो सामने आ गया तो उस ने फिर से उन्हें अपने अतीत की याद दिला दी थी.

लड़की की मां का नाम मीरा जानापहचाना सा था. डिंपल से मिलते ही उन्होंने तुरंत स्वीकृति दे दी थी. सभी आश्चर्य में पड़ गए. विशाल जैसे होनहार एम.बी.ए. के लिए डिंपल जैसी मात्र बी.ए. पास लड़की?

पुष्पाजी ने जैसा सोचा था वैसा ही हुआ. डिंपल अच्छी बहू सिद्ध हुई. घर का कामकाज निबटा कर वह उन के साथ बैठ कर कविता पाठ करती, साहित्य और संगीत से जुड़ी बारीकियों पर विचारविमर्श करती तो पुष्पाजी को अपने कालेज के दिन याद आ जाते.

आज भी पुष्पाजी रोज की तरह अपने काम में लग गईं. सभी तैयार हो कर अपनेअपने काम पर चले गए. किसी ने भी उन के जन्मदिन के विषय में कोई प्रसंग नहीं छेड़ा. पुष्पाजी के मन में आशंका जागी कि कहीं ये लोग उन का जन्मदिन मनाने की बात भूल तो नहीं गए? हो सकता है, सब ने यह बात हंसीमजाक में की हो और अब भूल गए हों. तभी तो किसी ने चर्चा तक नहीं की.

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शाम ढलने को थी. डिंपल पास ही खड़ी थी, हाथ बंटाने के लिए. दहीबड़े, मटरपनीर, गाजर का हलवा और पूरीकचौड़ी बनाए गए. दाल छौंकने भर का काम उस ने पुष्पाजी पर छोड़ दिया था. पूरी तैयारी हो गई. हाथ धो कर थोड़ा निश्चिंत हुईं कि तभी कपिल और अंजू कमरे में मुसकराते हुए दाखिल हुए. पुष्पाजी ने अपने हाथ से पकाए स्वादिष्ठ व्यंजन डोंगे में पलटे, तो डिंपल ने मेज पोंछ दी. तभी शोर मचाता हुआ विशाल कमरे में घुसा. हाथ में बड़ा सा केक का डब्बा था. आते ही उस ने म्यूजिक सिस्टम चला दिया और मां के गले में बांहें डाल कर बोला, ‘‘मां, जन्मदिन मुबारक.’’

पुष्पाजी का मन हर्ष से भर उठा कि इस का मतलब विशाल को याद था.

मेज पर केक सजा था. साथ में मोमबत्तियां भी जल रही थीं, कपिल और अंजू के हाथों में खूबसूरत गिफ्ट पैक थे. यही नहीं, एक फूलों का बुके भी था. पुष्पाजी अनमनी सी आ कर सब के बीच बैठ गईं. उन की पोती कृति ने कूदतेफांदते सारे पैकेट खोल डाले थे.

‘‘यह देखिए मां, मैं आप के लिए क्या ले कर आई हूं. यह नौनस्टिक कुकवेयर सैट है. इस में कम घीतेल में कुछ भी पका सकती हैं आप.’’

अंजू ने दूसरा पैकेट खोला, फिर बेहद विनम्र स्वर में बोली, ‘‘और यह है जूसर अटैचमैंट. मिक्सी तो हमारे पास है ही. इस अटैचमैंट से आप को बेहद सुविधा हो जाएगी.’’

कुमारजी बोले, ‘‘क्या बात है पुष्पा, बेटेबहू ने इतने महंगे उपहार दिए, तुम्हें तो खुश होना चाहिए.’’

पति की बात सुन कर पुष्पाजी की आंखें नम हो गईं. ये उपहार एक गृहिणी के लिए हो सकते हैं, मां के लिए हो सकते हैं, पर पुष्पाजी के लिए नहीं हो सकते. आंसुओं को मुश्किल से रोक कर वे वहीं बैठी रहीं. मन की गहराइयों में स्तब्धता छाती जा रही थी. सामने रखे उपहार उन्हें अपने नहीं लग रहे थे. मन में आया कि चीख कर कहें कि अपने उपहार वापस ले जाओ. नहीं चाहिए मुझे ये सब.

रात होतेहोते पुष्पाजी को अपना सिर भारी लगने लगा. हलकाहलका सिरदर्द भी महसूस होने लगा था. कुमारजी रात का खाना खाने के बाद बाहर टहलने चले गए. बच्चे अपनेअपने कमरे में टीवी देख रहे थे. आसमान में धुंधला सा चांद निकल आया था. उस की रोशनी पुष्पाजी को हौले से स्पर्श कर गई. वे उठ कर अपने कमरे में आ कर आरामकुरसी पर बैठ गईं. आंखें बंद कर के अपनेआप को एकाग्र करने का प्रयत्न कर रही थीं, तभी किसी ने माथे पर हलके से स्पर्श किया और मीठे स्वर में पुकारा, ‘‘मां.’’

चौंक कर पुष्पाजी ने आंखें खोलीं तो सामने डिंपल को खड़ा पाया.

‘‘यहां अकेली क्यों बैठी हैं?’’

‘‘बस यों ही,’’ धीमे से पुष्पाजी ने उत्तर दिया.

डिंपल थोड़ा संकोच से बोली, ‘‘मैं आप के लिए कुछ लाई हूं मां. सभी ने आप को इतने सुंदरसुंदर उपहार दिए. आप मां हैं सब की, परंतु यह उपहार मैं मां के लिए नहीं, पुष्पाजी के लिए लाई हूं, जो कभी प्रसिद्ध सितारवादक रह चुकी हैं.’’

वे कुछ बोलीं नहीं. हैरान सी डिंपल का चेहरा निहारती रह गईं.

डिंपल ने साहस बटोर कर पूछा, ‘‘मां, पसंद आया मेरा यह छोटा सा उपहार?’’

चिहुंक उठी थीं पुष्पाजी. उन के इस धीरगंभीर, अंतर्मुखी रूप को देख कर कोई यह कल्पना भी नहीं कर सकता कि कभी वे सितार भी बजाया करती थीं, सुंदर कविताएं और कहानियां लिखा करती थीं. उन की योग्यता का मानदंड तो रसोई में खाना पकाने, घरगृहस्थी को सुचारु रूप से चलाने तक ही सीमित रह गया था. फिर डिंपल को इस विषय की जानकारी कहां से मिली? इस ने उन के मन में क्या उमड़घुमड़ रहा है, कैसे जान लिया?

‘‘हां, मुझे मालूम है कि आप एक अच्छी सितारवादक हैं. लिखना, चित्रकारी करना आप का शौक है.’’

पुष्पाजी सोच में पड़ गई थीं कि जिस पुष्पाजी की बात डिंपल कर रही है, उस पुष्पा को तो वे खुद भी भूल चुकी हैं. अब तो खाना पकाना, घर को सुव्यवस्थित रखना, बच्चों के टिफिन तैयार करना, बस यही काम उन की दिनचर्या के अभिन्न अंग बन गए हैं. डिग्री धूल चाटने लगी है. फिर बोलीं, ‘‘तुम्हें कैसे मालूम ये सब?’’

‘‘मालूम कैसे नहीं होगा, बचपन से ही तो सुनती आई हूं. मेरी मां, जो आप के साथ पढ़ती थीं कभी, बहुत प्रशंसा करती थीं आप की.’’

‘‘कौन मीरा?’’ पुष्पाजी ने अपनी याद्दाश्त पर जोर दिया. यही नाम तो लिखा था बायोडाटा में. बचपन में दोनों एकसाथ पढ़ीं. एकसाथ ही ग्रेजुएशन भी किया. पुष्पाजी की शादी पहले हो गई थी, इसलिए मीरा के विवाह में नहीं जा पाई थीं. फिर घरगृहस्थी के दायित्वों के निर्वहन में ऐसी उलझीं कि उलझती ही चली गईं. धीरेधीरे बचपन की यादें धूमिल पड़ती चली गईं. डिंपल के बायोडाटा पर मीरा का नाम देख कर उन्होंने तो यही सोचा था कि होगी कोई दूसरी मीरा. कहां जानती थी कि डिंपल उन की घनिष्ठ मित्र मीरा की बेटी है. बरात में भी गई नहीं थीं. जातीं तो थोड़ीबहुत जानकारी जरूर मिल जाती उन्हें. बस, इतना जान पाई थीं कि पिछले माह, कैंसर रोग से मीरा की मृत्यु हो गई थी.

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डिंपल अब भी कह रही थी, ‘‘ठीक ही तो कहती थीं मां कि हमारे साथ पुष्पा नाम की एक लड़की पढ़ती थी. वह जितनी सुंदर उतनी ही होनहार और प्रतिभाशाली भी थी. मैं चाहती हूं, तुम भी बिलकुल वैसी ही बनो. मेरी सहेली पुष्पा जैसी.’’

पुष्पाजी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था. ऐसा लग रहा था, उन की नहीं, किसी दूसरी ही पुष्पा की प्रशंसा की जा रही है, लेकिन सच को झुठलाया भी तो नहीं जा सकता. कानों में डिंपल के शब्द अब भी गूंज रहे थे. तो वह पुष्पा, अभी भी खोई नहीं है. कहीं न कहीं उस का वजूद अब भी है.

पुष्पाजी का मन भर आया. शायद उन का अचेतन मन यही उपहार चाहता था. फिर भी तसल्ली के लिए पूछ लिया था उन्होंने, ‘‘और क्या कहती थीं तुम्हारी मां?’’

‘‘यही कि तुझे गर्व होना चाहिए जो तुझे पुष्पा जैसी सास मिली. तुझे बहुत अच्छी ससुराल मिली है. तू बहुत खुश रहेगी. मां, सच कहूं तो मुझे विशाल से पहले आप से मिलने की उत्सुकता थी.’’

‘‘पहले क्यों नहीं बताया?’’ डिंपल की आंखों में झांक कर पुष्पाजी ने हंस कर पूछा.

‘‘कैसे बताती? मैं तो आप के इस धीरगंभीर रूप में उस चंचल, हंसमुख पुष्पा को ही ढूंढ़ती रही इतने दिन.’’

‘‘वह पुष्पा कहां रही अब डिंपल. कब की पीछे छूट गई. सारा जीवन यों ही बीत गया, निरर्थक. न कोई चित्र बनाया, न ही कोई धुन बजाई. धुन बजाना तो दूर, सितार के तारों को छेड़ा तक नहीं मैं ने.’’

‘‘कौन कहता है आप का जीवन यों ही बीत गया मां?’’ डिंपल ने प्यार से पुष्पाजी का हाथ अपने हाथ में ले कर कहा, ‘‘आप का यह सजीव घरसंसार, किसी भी धुन से ज्यादा सुंदर है, मुखर है, जीवंत है.’’

‘‘घरर तो सभी का होता है,’’ पुष्पाजी धीरे से बोलीं, ‘‘इस में मेरा क्या योगदान है?’’

‘‘आप का ही तो योगदान है, मां. इस परिवार की बुलंद इमारत आप ही के त्याग और बलिदान की नींव पर टिकी है.’’

अभिभूत हो गईं पुष्पाजी. मंत्रमुग्ध हो गईं कि कौन कहता है भावुकता में निर्णय नहीं लेना चाहिए? उन्हें तो उन की भावुकता ने ही डिंपल जैसा दुर्लभ रत्न थमा दिया. यदि डिंपल न होती, तो क्या बरसों पहले छूट गई पुष्पा को फिर से पा सकती थीं? उस के दिए सितार को उन्होंने ममता से सहलाया जैसे बचपन के किसी संगीसाथी को सहला रही हों. उन्हें लगा कि आज सही अर्थों में उन का जन्मदिन है.

बड़े प्रेम से उन्होंने दोनों हाथों में सितार उठाया और सितार के तार एक बार फिर बरसों बाद झंकार से भर उठे. लग रहा था जैसे पुष्पाजी की उंगलियां तो कभी सितार को भूली ही नहीं थीं.

Bhaidooj Special- मायका: सुधा को मायके का प्यार क्यों नहीं मिला?

लेखिका- प्रियंका शर्मा

सुबह घर की सब खिड़कियां खोल देना सुधा को बहुत अच्छा लगता था. खुली हवा, ताजगी और आदित्य देव की रश्मियों में वह अपने मन के खालीपन को भरने की कोशिश करती. हर दिन नई उम्मीदें लाता है, सुधा इस नैसर्गिक सत्य को जी रही थी. लेकिन मांजी को यह कहां पसंद आता? शकसंदेह के चश्मे से बहू को देखने की उन की आदत थी. बिना सोचेसमझे वे कुछ भी कह डालतीं.

‘‘किस यार को देखती है जो सुबहसुबह खिड़कियां खोल कर खड़ी हो जाती है.’’

कहते हैं तीरतलवार शायद इतनी गहरी चोट न दे सकें जितने शब्द घायल कर जाते हैं. यहां तो रोज का किस्सा था. औरत जो थी, जिस की नियति सब की सुनने की होती है, इसलिए सुधा उन के कटु शब्दों को भुला देती. सच ही तो है, जब विकल्प न रहे तो सीमा पार जा कर भी समझौते करने पड़ते हैं. इस समझदारी ने ही उसे ऐसा तटस्थ बना दिया था जिसे सब ‘पत्थर’ कह देते थे. कुछ असर नहीं, जो चाहे, कहो. लेकिन यह किसे पता था कि उस का अंतर्मन आहत हो कर कब टूटबिखर गया. यह तो उसे खुद भी पता नहीं था.

उस के मायके को ले कर ससुराल में खूब बातें बनतीं. रोजरोज के ताने सुधा को अब परेशान नहीं करते. आदत जो बन गईर् थी, सुनना और पत्थर की मूरत बनी रहना जिस की न जबान थी न कान. इस मूर्ति में भी दिल धड़कता था, यह एहसास शायद अब किसी को नहीं था. सास की फब्तियां उस के दिल को छलनी करतीं, लेकिन फिर भी वह उसी मुसकराहट से जीती जैसे कुछ हुआ ही नहीं. कितनी अजीब बात है, बहू मुसकराए तो बेहया का तमगा पाती है, बोले या प्रतिकार करे तो संस्कारहीन.

ससुराल में उस की एक देवरानी भी थी, प्रिया. बड़े घर की बेटी जिस के आगे सासुमां की जबान भी तलुए से चिपकी रहती. जब प्रिया अपने मायके जाती तो सुधा को भी अपने घर की बहुत याद आती. पर जाए तो कैसे? किस के घर जाए वह? रिश्ते इतने खोखले हो चुके थे कि अब कोई एक फोन कर के उस का हालचाल पूछने वाला भी नहीं था.

आज जब प्रिया अपने मायके से वापस आई तो उस का मन भी तड़पने लगा. सासुमां उस के लाए उपहारों, कपड़ेगहनों को देख फूली नहीं समा रही थीं. रहरह कर सुधा को कोसना जारी था. प्रिया, सुधा को अपने कमरे में ले आई. उसे अपने पीहर के मजेदार किस्से बताने लगी. सुधा जैसे अतीत

में खोने लगी. अपनी भाभी के कड़वे शब्द उसे फिर याद आने लगे. महारानी, जब चाहे मुंह उठा कर चली आती है. जैसे बाप ने करोड़ों की दौलत छोड़ रखी है.

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प्रिया जा चुकी थी. दोपहर का समय था, इसलिए उदास मन के साथ सुधा बिस्तर पर सुस्ताने लेट गई. अतीत की यादें, कटु स्मृतियां चलचित्र की तरह मनमस्तिष्क में साकार होने लगीं. पापा दुनिया से विदा हुए तो पीहर का रास्ता हमेशा के लिए बंद हो गया. मां बचपन में ही गुजर गई थीं. पापा ने ही दोनों भाईबहनों को संभाला था. यह सच था कि उन्होंने कभी मां की कमी महसूस नहीं होने दी थी.

सुधा ने छोटे भाई को ऐसा ही ममताभरा प्यार दिया जैसा बच्चा अपनी मां से उम्मीद करता है. उम्र में वह 3 साल बड़ी भी तो थी. लेकिन बचपन से उसे बड़ा भी तो बना दिया था. मासूमियत छिन गई, लेकिन भाई राहुल भी उस पर जान छिड़कता था.

समय पंख लगा कर ऐसे उड़ा कि पता ही न चला कि गुड्डेगुडि़यों से खेलते वे कब बड़े हो गए. पापा जल्दी से अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाना चाहते थे. विवान का रिश्ता आया. इंजीनियर, सुंदरसौम्य स्वभाव, प्रतिष्ठित परिवार, बस पापा को और क्या चाहिए था? झट से रिश्ता पक्का कर दिया.

सुधा खुदगर्ज नहीं थी. उसे अपनी

शादी के अरमान खुशी तो दे रहे

थे लेकिन पापा और भाई का खयाल उसे बेचैन करने लगा. वह विदा हुई तो फिर? कौन संभालेगा घर को? नारी के बिना घर, घर नहीं हो सकता. भाई के प्रति असीम प्रेम और पिता के स्नेह को समझ सुधा ने जिद पकड़ ली, ‘मैं शादी करूंगी तो एक ही शर्त पर, भाई की शादी भी उस के साथ हो.’ किसे पता था कि यह प्रेम ही आगे समस्या बन जाएगा. सरल जीवन को कठिन कर देगा, रिश्तों में दूरी बढ़ती जाएगी.

सब को झुकना पड़ा और सात दिनों के अंतराल पर दोनों की शादी संपन्न हो गई. सुधा ससुराल के लिए विदा हुई तो पीहर में उस की भाभी आ गई. बहुत खुश थी सुधा. कुदरत ने बहुत दिनों बाद कुछ ऐसा सुखद दिया था जिस से उन की अधूरी जिंदगी पूर्णता की ओर कदम बढ़ाने लगी थी.

लेकिन जिंदगी इतनी सरल कहां होती है? मन का सोचा पूरा हो जाए, तो क्या कहने. नई जिंदगी में सुधा के सपने यथार्थ की कठोर धरा पर शीघ्र ही दम तोड़ने लगे. विवान बहुत अच्छे समझदार पति थे लेकिन घर की स्थिति ऐसी थी कि वे खुलेरूम में अपनी पत्नी का साथ देने की स्थिति में नहीं थे. प्रतिभाशाली हो कर भी अभी बेरोजगार थे. दोनों ही सासससुर पर निर्भर थे, इसलिए मजबूरियों से समझौता समझदारी था. पापा को शायद यह उम्मीद न रही होगी, इसलिए सुधा की शादी के बाद क्षुब्धबेचैन रहने लगे. दूसरी तरफ राहुल भी अपनी पत्नी और पिता के बीच संतुलन बैठाने में पिस रहा था. पापा को दुख न पहुंचे, इसलिए सुधा ने मुंह सिल लिया.

लेकिन पापा थे कि उस की आंखों को पढ़ जाते. जितना वह छिपाने की कोशिश करती, पापा अनकही बातों को झट से पकड़ जाते. संतान के प्रति प्रेम ऐसा ही होता है जो बच्चे की हर बात को बिना कहे समझ जाता है. जिंदगी इसी का नाम है. अकसर हम अपने घरों में वही व्यवस्था लागू करने की जिद करने लगते हैं जो बेटियां अपनी ससुराल में जीती हैं. नतीजतन, घर में लोग टूटनेबिखरने लगते हैं. सच तो यह था कि सुधा को कहीं चैन नहीं मिल रहा था.

ससुराल में व्यंग्यतानों के बीच पिस रही थी तो मायके में अपने भाई राहुल और पिता के खयाल से. उस की भाभी ने जो समझदारी दिखानी चाहिए थी, उस के विपरीत आचरण किया. सुधा न तो मां बन सकी, न ही विवान के दिल में स्थान पा सकी. दूरी, तटस्थता, यंत्रचालित, कृत्रिम जीवन उसे आहत करता चला गया.

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घड़ी ने टन्नटन्न अलार्म बजाया. सुधा जैसे चौंक पड़ी. उसे अपने जिंदा होने का एहसास हुआ. चेहरे पर पसीने की बूंदें झलक रही थीं. वह उठी, एक गिलास पानी पिया और खाली कमरे में फिर अपने खालीपन से खेलने लगी. पुरानी यादें फिर से न चाहते हुए भी उस के आगे नाचने लगीं. जब पिता का देहांत हुआ तो 12 दिन भी उस ने मायके में कैसे निकाले थे, वह कटु अनुभव उसे याद आने लगा. भाई राहुल बेचारा कितनी कोशिश करता रहा कि दीदी को कुछ महसूस न हो लेकिन सुधा कोई बच्ची नहीं थी.

वह समझ गईर् कि पापा के बाद उस का रिश्ता भी इस घर से टूट गया है. फिर एक दिन वह अनुभव भी हो गया जिस ने सुधा के सारे भ्रम तोड़ दिए. राहुल की जिद पर वह मायके चली गई. भाई के साथ बहन को देख भाभी का मुंह फूल गया. रात को सुधा ने उन के कमरे से आती तेज आवाजों को सुन लिया. राहुल अपनी पत्नी के गैरजिम्मेदाराना व्यवहार से खीझ उठा था. उस की बीवी ने साफसाफ शब्दों में अल्टीमेटम दे दिया, ‘अगर यह बेहया मुझे दोबारा यहां दिखी, तो समझ लेना उसी क्षण फांसी के फंदे से झूल जाऊंगी. मुझे क्या बेवकूफ समझते हो. मुझे पता है, यह मायके में क्यों मंडराती है? पूरी संपत्ति हड़पने के बाद तुम्हें सड़क पर न ला दे, तो कहना.’

इस के बाद शायद हाथापाई भी हुई होगी. राहुल यह बात कैसे सहन कर पाता? नफरत से सुधा तड़प उठी. छी, क्या कोई ऐसी नीच सोच भी हो सकती हैं? पूरी रात सुधा ने जागते निकाल दी. वह घर जिस में वह पलीबढ़ी थी, अचानक जहर की तरह चुभने लगा. सुबह होते ही वह बिना कुछ कहे वापस अपनी ससुराल आ गई. उसे इंतजार था कि राहुल आएगा माफी मांगने. लेकिन वह नहीं आया.

अब सुधा को अपना फैसला सही लगने लगा. भाईभाभी की जिंदगी में वह दीवार नहीं बनना चाहती थी. उस ने फैसला कर लिया. अब कभी नहीं… खून के रिश्ते पानी हो गए. राखी का त्योहार आया, भाईदूज भी, लेकिन मायके से कोई बुलावा न आया. कहना आसान होता है लेकिन भाई की सूरत देखने को सुधा भी तड़पती. अब उस ने अपना मुंह सिल लिया. किसी से कोई शिकायत नहीं.

एक साल बीत गया. विवान को

अच्छी नौकरी मिल गई. अब सुधा

की हालत भी पहले से बेहतर होने लगी. विवान उसे नौर्मल करने की बहुत कोशिश करता, लेकिन बुझेमन में अब उमंग, उम्मीदें फिर से जागना मुश्किल लगने लगा था.

आज फरवरी की 22 तारीख थी. वैसे तो खास दिन, उस का जन्मदिन था, लेकिन यहां किसे कद्र थी उस की? सुबह के 8 बजे थे. विवान अभी भी सो रहे थे. सासुमां व्यस्त थीं. तभी दरवाजे की घंटी बजी. सुधा ने खिड़की से बाहर देखा. अचानक उस का रोमरोम खिल उठा. अपनों का प्यार सैलाब बन फूट कर बाहर निकलने लगा. दरवाजे पर राहुल और भाभी खड़े थे. सुधा चहकते हुए दौड़ी, ‘‘हैप्पी बर्थडे, दीदी.’’ राहुल ने पैर छूते हुए दी को शुभकामनाएं दीं. भाभी भी उस के पैर छू रही थीं. स्नेहिल क्षणों में कटुता क्षणभर में छूमंतर हो गई.

सास और प्रिया आश्चर्यचकित थे. राहुल आज उन सब के लिए उपहार लाया था. सुधा किचन की तरफ दौड़ी. ससुराल में बहू का सब से बड़ा मेहमान भाई होता है. सुधा के मन पर जमी बर्फ बहने लगी थी. भाभी भी उस का हाथ बंटाने रसोई में आ गई. दोनों खिलखिला कर ऐसे बातें करने लगीं जैसे पहली बार मिली हों.

विवान भी उठ गए. नाश्ते की तैयारी होने लगी. मौका देख विवान ने सुधा को बांहों में भर चूम लिया. ‘‘कैसा लगा मेरा गिफ्ट?’’ सुधा कुछ पूछती, उस से पहले राहुल आ गया, बोला, ‘‘दीदी, यह लो आप का सब से कीमती गिफ्ट… मुझे जीजू ने ही सजैस्ट किया.’’

सुधा पैकेट खोलने लगी. उस की आंखों से आंसू बहने लगे. एक बड़ी सी फ्रेम की हुई पापा की तसवीर, जिस में उन की मुसकराहट सुधा को नया जीवन देती महसूस हो रही थी. फोटो के अलावा गुड्डेगुडि़या भी थे जिन से सुधा और राहुल बचपन में खेला करते थे.

उपहार तो और भी बहुत लाया था राहुल, लेकिन यह चीज उस का दिल छू गई. आज पूरा दिन सुधा के नाम था. विवान ने शाम को एक आलीशान होटल में डिनर रखा था.

रात में जब सुधा विवान के पास आई, तो देखा सामने की दीवार पर पापा की फोटो टंगी है. विवान कह रहा था, ‘‘सुधा, ससुराल में मायके की यादें न हों, तो जीवन अधूरा रह जाता है.

अब अपने बैडरूम में आधी चीजें मेरी और आधी तुम्हारे मायके की यादगार वाली होंगी.’’

‘‘ओ विवान, तुम इतना चाहते हो मुझे?’’ सुधा भावविह्वल हो विवान से लिपट गई.

‘‘सुधा, चाहने का मतलब ही यही है कि हम बिना कुछ कहे एकदूसरे को समझें, एकदूसरे की कमी को पूरा करें. तुम अंदर ही अंदर घुल रही थीं लेकिन मैं तुम्हें जीतेजी मरता नहीं देख सकता था.’’ बत्ती बुझ गई. दोनों एकदूसरे की बांहों में खो गए. आज अचानक बर्फ पूरी तरह पिघल गई.

छोटी छोटी खुशियां- भाग 2: शादी के बाद प्रताप की स्थिति क्यों बदल गई?

Writer- वीरेंद्र सिंह

आनंद मामा ने बिरादरी के न जाने कितने लड़केलड़कियों की शादियां कराई थीं. इसलिए किसी भी लड़की के लिए लड़के वालों को कैसे पटाया जाता है, यह उन्हें अच्छी तरह आता था. ‘लड़की में कोई कमी नहीं है,’ मामा ने बताया था, ‘बस, स्वभाव से थोड़ा गरम है और बोलती भी कुछ ज्यादा है. अपना प्रताप तो सीधासादा और चुप्पा है. इसलिए उस के साथ आराम से निभ जाएगी. जिंदगी गुजारने के लिए एक का थोड़ा गरम होना जरूरी है. दोनों ही एक तरह के हो जाएंगे तो सबकुछ बंटाधार हो जाएगा. जिस का मन होगा, वही बेवकूफ बना देगा.’

प्रताप के मांबाप ने हां में सिर हिलाया तो आनंद ने आगे कहा, ‘देखो न, अरविंद दिल्ली में कब से रह रहा है.’ प्रताप के बड़े भाई का उल्लेख करते हुए वे असली मुद्दे पर आ गए, ‘हाड़तोड़ मेहनत कर के 15 साल में भी वह इस तरह का एक घर नहीं बना सका, जिस में दोनों भाई साथसाथ रह लेते. यह तो 4 भाइयों की अकेली बहन है. उस से शादी होते ही प्रताप की स्थिति बदल जाएगी.

फिर सचमुच ही शादी के बाद उस की स्थिति बदल गई थी. ससुर ने सुधा को जो फ्लैट दिया था, सुधा प्रताप को उस में पालतू पिल्ले की तरह ले आई थी. ससुराल से मिले फ्लैट में पूरी तरह से व्यवस्थित हो जाने के बाद प्रताप ने मांबाप को गांव से बुला लिया था. उन के आने के 2 दिन बाद ही सुधा ने घर का माहौल भारी बना दिया था. बातबात में वह प्रताप के मांबाप का अपमान करते हुए अपना वर्चस्व कायम करने का प्रयास कर रही थी.

अगले दिन ही शाम को उस के मांबाप के सामने सुधा ने प्रताप को आड़े हाथों ले लिया था. बात कोई खास नहीं थी फिर भी वह प्रताप का अपमान करते हुए धमका रही थी. यह देख कर प्रताप की मां का खून खौल उठा था. उन्होंने सुधा को सलाह दी कि पति के साथ ऐसा व्यवहार शोभा नहीं देता.

सुधा तो जैसे इसी बात का इंतजार कर रही थी. प्रताप को छोड़ कर वह सास पर बरस पड़ी. सात पीढ़ी तक को तारतार कर दिया था. जब तक यह महाभारत चलता रहा, प्रताप की मां की आंखों से आंसू बहते रहे. पिताजी स्थितिप्रज्ञ बने माला फेरने का दिखावा करते रहे. प्रताप की धड़कन बढ़ गई थी. पूरा शरीर पसीनेपसीने हो गया था. मन कर रहा था कि वह सुधा की चोटी पकड़ कर उसे जमीन पर पटक दे. परंतु वह ऐसा नहीं कर सका क्योंकि ऐसा उस के स्वभाव में नहीं था. दोनों हाथों से सिर थामे वह चुपचाप बैठा रहा.

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पिताजी थोड़ी देर बाद उठे और पत्नी की ओर देख कर बोले, ‘प्रताप, एक गिलास पानी ला.’

उन की आवाज में नाराजगी और लाचारी का मिश्रण था. उन की उपस्थिति में बेटे की तकलीफें और बढ़ेंगी, यह समझने की सूझबूझ उन में थी. यहां रह कर बेटे की लाचारी देख कर दुखी होने के बजाय गांव में परेशानी सह कर रह लेना उन्हें उचित लगा. पैसे वाली बहू लाने के लालच में उन्होंने बेटे का जीवन दुखभरा बना दिया था. यह पीड़ा उन के चेहरे पर साफ झलक रही थी.

प्रताप एक गिलास में पानी ले आया. सुधा मुंह खोले तीनों को ताक रही थी. प्रताप के पिता ने दाहिने हाथ की अंजुरी में पानी ले कर प्रताप की ओर ताकते हुए कहा, ‘मैं देवशंकर हाथ में जल ले कर संकल्प लेता हूं कि जब तक मेरी सांस चलेगी, इस घर में कभी कदम नहीं रखूंगा. और हां, तेरे लिए मेरे घर के दरवाजे हमेशा खुले रहेंगे. जब तेरा मन यहां से ऊब जाए, आ जाना.’

रिकशे में बैठी मां भीगी आंखों से प्रताप को ताक रही थीं. प्रताप की इस कमजोरी को वह पहले से ही जानती थीं. घर के बाहर कोई लड़का उसे मार देता था तो घर में वह इस की शिकायत नहीं करता था. इस तरह की बहू के साथ प्रताप का जीवन कैसे बीतेगा? यह सोचसोच कर वे परेशान थीं. यही पीड़ा उन की आंखों से बह रही थी. रिकशा चला गया तो प्रताप घर आया और उस रात बिना कुछ खाए ही सो गया.

सुधा सुंदर थी, साथ ही पैसे वाले बाप की बेटी भी. इसी सुंदरता और बाप के पैसे के अभिमान ने उसे घमंडी बना दिया था. उस की जीभ में जो भयानक धार और कड़वाहट थी, उसे देख कर पहली नजर में कोई नहीं भांप सकता था. अड़ोसपड़ोस में रहने वालों से वह शालीनता से हंसहंस कर बातें करती थी. मगर प्रताप, उस के परिजनों व रिश्तदारों से वह ऐसा व्यवहार करती थी जैसे वे सभी उस के पुराने दुश्मन हों. उस का व्यवहार दिनोंदिन कू्रर होता जा रहा था.

शादी के सालभर बाद ही प्रताप सुधा के व्यवहार से पूरी तरह परिचित हो गया था. इसी दौरान सुधा ने प्रताप के लगभग सभी संबंधियों से उस के संबंध खत्म करा दिए थे. भैयाभाभी, मामामामी, चाचाचाची, मौसामौसी, सभी इसी शहर में रहते थे, फिर भी प्रताप से अब उन का कोई संबंध नहीं रह गया था. एक बार जो भी प्रताप के घर आया, सुधा ने उस के साथ ऐसा व्यवहार किया कि दोबारा उस की आने की हिम्मत नहीं हुई.

कालेज की पढ़ाई प्रताप ने होस्टल में रह कर की थी. सुबह ब्रश करते समय उस ने एक दृश्य कई बार देखा था. नाली से निकलने वाले काकरोच के लिए गौरैया घात लगाए बैठी रहती थी. काकरोच का शिकार करने की उस की गजब की युक्ति थी. काकरोच दौड़ता तो गौरैया उछल कर उस के एक पैर पर चोंच मारती. एक पैर टूट जाने पर जान बचाने के लिए काकरोच घिसटते हुए आगे बढ़ता तो गौरैया दूसरे पैर पर चोंच मारती. फिर तीसरे, चौथे, इस तरह एक के बाद एक पैर टूटने के बाद काकरोच दौड़ नहीं सकता था. उस के बाद गौरैया आराम से उसे चोंच मारमार कर चीथती थी.

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उसी तरह सुधा ने भी चालाकी से प्रताप को लगभग सभी संबंधियों से अलग कर के उस की सभी टांगें तोड़ दी थीं. भूलचूक से प्रताप का कोई सहकर्मी कभी उस के घर आ जाता तो सुधा के व्यवहार में एकदम से परिवर्तन आ जाता. जब तक वह घर में रहता, सुधा उस की बुराई करती रहती. सुधा के इस व्यवहार से परेशान प्रताप का मन होता कि वह किसी दिन उसे पीट दे. परंतु हृदय की तीव्र इच्छा के बावजूद हाथ लाचार थे क्योंकि बचपन से ही प्रताप का व्यक्तित्व कुछ इस तरह का रहा था कि कभी वह अपनी उग्रता व्यक्त नहीं कर पाया. सहीगलत सहने की उस को आदत सी पड़ गई थी, जो छूट नहीं रही थी. स्कूलकालेज के झगड़ों में भी वह कभी जनून के साथ आगे नहीं आया था.

सजा किसे मिली- भाग 4: आखिर अल्पना अपने माता-पिता से क्यों नफरत करती थी?

लेखिका- सुधा आदेश

पूरी सावधानी बरतने के बाबजूद एक दिन अल्पना को लगा जैसे उस के शरीर में कुछ ऐसा हो रहा है जो वह पहली बार महसूस कर रही है. वह राहुल को इस बारे में बताना चाहती ही थी कि उस ने कहा, ‘अल्पना, मांपिताजी विवाह के लिए जोर डाल रहे हैं, अब मुझे दूसरा घर ढूंढ़ना होगा.’

राहुल की बात सुन कर अल्पना चौंक गई और बोली, ‘तुम ऐसा कैसे कर सकते हो. और मुझे ऐसी हालत में छोड़ कर तुम कैसे जा सकते हो?’

‘कैसी हालत?’ राहुल बोला.

‘मैं तुम्हारे बच्चे की मां बनने वाली हूं.’

‘यह तुम्हारी प्रोब्लम है, इस में मैं क्या कर सकता हूं?’

‘सहयोगी तो तुम भी रहे हो.’

‘वह तो तुम्हारी वजह से…तुम्हीं ने कहा था कि जब मुझे एतराज नहीं है तो तुम्हें क्यों है…अब तुम भुगतो?’

‘ऐसा तुम कैसे कह सकते हो…तुम तो मेरे मित्र, हमदर्द रहे हो.’

‘देखो अल्पना, पिताजी मेरा विवाह तय कर चुके हैं और उन्हें मना करना मेरे लिए संभव नहीं है. फिर मैं तुम्हारी जैसी लड़की के साथ संबंध कैसे बना सकता हूं जो विवाह जैसी संस्था में विश्वास ही न करती हो और विवाह से पहले ही अपना शरीर किसी को दे देने में उसे कुछ आपत्तिजनक नहीं लगता हो.’

‘परंपराओं की दुहाई मत दो, राहुल. तुम भी विवाह से पहले संबंध बना चुके हो. क्या तुम उस लड़की के साथ अन्याय नहीं करोगे जिस के साथ तुम विवाह कर रहे हो?’

‘मेरी बात और है, मैं पुरुष हूं… फिर तुम्हारे पास प्रमाण क्या है?’

प्रमाण की बात सुनते ही अल्पना गुस्से से थरथराती हुई राहुल को मारने के लिए झपटी. वह तेजी से हटा तो सामने रखी टेबल से अल्पना टकराई और जमीन पर गिर गई. असहनीय दर्द से पेट पकड़ कर वह वहीं बैठ गई.

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राहुल ने उसे उठाना चाहा तो उस ने चिल्ला कर कहा, ‘मुझे छूना मत…तुम ने मुझे धोखा दिया…तुम मेरी जिंदगी में न कभी थे, न हो और न ही रहोगे…चले जाओ मेरे घर से.’

राहुल अपना सामान समेट कर चला गया…पूरी रात वह रोती रही. पेट दर्द सहा नहीं गया तो उठ कर उस ने पेन किलर खा लिया. अल्पना को बारबार यही लगता रहा कि क्यों उसे किसी का प्यार और विश्वास नहीं मिलता. पहले मातापिता और अब राहुल…खैर सुबह तक पेटदर्द तो ठीक हो गया था पर मन अभी भी ठीक नहीं हुआ था.

क्या करे इस बच्चे का…माना कि यह बच्चा उस की जिंदगी में जबरदस्ती आ गया है पर है तो उस का अपना अंश ही न, वह अकेली कैसे इस बच्चे की परवरिश कर पाएगी…क्या अपने बच्चे को वह प्यारदुलार और अपनत्व दे पाएगी जिस के लिए वह अपने मातापिता को दोष देती रही थी.

मन में अजीब सी कशमकश चल रही थी. अपने कैरियर के लिए जहां वह बच्चे का बलिदान देना चाहती थी वहीं उस के प्रति स्नेह भी जागने लगा था. वह जानती थी कि बिना विवाह के मां बनना समाज सह नहीं पाएगा…उस के मातापिता सुनेंगे तो जीतेजी ही मर जाएंगे. आज न जाने क्यों मां के शब्द उस के कानों में गूंज रहे थे, जो उन्होंने उसे राहुल के साथ रहते देख कहे थे, ‘बेटा, माना कि मैं तुझे उतना प्यार, दुलार नहीं दे पाई जिस की तू आकांक्षी थी. मैं अपराधिनी हूं तेरी…पर मेरे किए की सजा तू खुद को तो न दे. आज भी हमारा समाज विवाहपूर्व संबंधों को मान्यता नहीं देता है, ऐसे संबंध अवैध ही कहलाएंगे.’

उस समय तो वह सिर्फ वही करना चाहती थी जिस से उस के मातापिता को चोट पहुंचे…राहुल, जिस पर उस ने विश्वास किया उस से ऐसी उम्मीद नहीं थी. बारबार राहुल के शब्द उस के दिलोदिमाग में गूंज कर उस के अस्तित्व को नकारने लगते कि मैं तुम्हारी जैसी लड़की के साथ संबंध कैसे बना सकता हूं जो विवाह जैसी संस्था में विश्वास ही न करती हो.

कभी मन करता कि आत्महत्या कर ले पर तभी मन उसे धिक्कारने लगता…उसे अपनी वार्डन के शब्द याद आते कि जीवन से भागना बेहद आसान है बेटा, लेकिन कुछ सार्थक करना बेहद ही कठिन, पर तुम ने तो आसान राह ढूंढ़ ली है.

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वह कोई निर्णय नहीं ले पा रही थी. आफिस में छुट्टी की अर्जी भिजवा दी थी. कशमकश इतनी ज्यादा थी कि उस का न बाहर निकलने का मन कर रहा था और न ही किसी से मिलने का. पेट में दर्द उठता पर वह डाक्टर को दिखाने के बजाय दर्दनाशक दवा खा कर दबाने की कोशिश करती रही.

एक दिन जब वह ऐसे ही दर्द से तड़प रही थी तभी बीना मिलने आ पहुंची, उस की ऐसी दशा देख कर वह अचंभित रह गई तथा उसे जबरन अपनी गाड़ी में बिठा कर डाक्टर के पास ले गई…

डाक्टर ने उसे चेकअप करवाने के लिए कहा.

सोनोग्राफी की रिपोर्ट देख कर डाक्टर उस पर बहुत गुस्सा हुई तथा बोली, ‘तुम ने पहले क्यों नहीं बताया कि तुम गर्भवती हो.’

उस को कोई उत्तर न देते देख वह फिर बोली, ‘तुम लड़कियों की यही तो समस्या है…जरा भी सावधानी नहीं बरततीं…क्या पेट में तुम्हें कोई चोट लगी थी…अपने पति को बुलवा लो, क्योंकि तुम्हारा शीघ्र आपरेशन करना पड़ेगा. लगता है किसी चोट के कारण तुम्हारा बच्चा मर गया है और उसी के इन्फेक्शन से पेट में दर्द हो रहा है.’

डाक्टर की बात सुन कर वह दोनों चौंक गईं. बीना ने बात बनाते हुए कहा, ‘डाक्टर, आपरेशन कब करना पडे़गा. दरअसल इन के पति कुछ दिनों के लिए बाहर गए हैं. उन का इतनी जल्दी आना संभव नहीं है.’

‘आपरेशन कल ही करना पड़ेगा. कोई तो रिश्तेदार होंगे…उन्हें जल्द बुलवा लो…हम इन्हें आज ही एडमिट कर लेते हैं.’

बीना ने अल्पना को देखा फिर डाक्टर की ओर मुखातिब होती हुई बोली, ‘डाक्टर, मैं ही इन की जिम्मेदारी लेती हूं क्योंकि इन का कोई भी रिश्तेदार इतनी जल्दी नहीं आ सकता.’

अल्पना के मना करने पर भी बीना ने उस के मातापिता को फोन कर दिया था. उन्होंने तुरंत आने की बात कही. उन के आने से पहले ही वह आपरेशन थिएटर में जा चुकी थी. बेहोशी की हालत में भी डाक्टर के शब्द उस के कानों में पड़ ही गए, ‘इस के यूट्रस में इन्फेक्शन इतना फैल गया है कि अगर निकाला नहीं तो जान जाने का खतरा है. बाहर जा कर इन के रिश्तेदारों से इजाजत ले लो.’

उस के बाद क्या हुआ पता नहीं. सुबह जब आंख खुली तो मम्मीपापा को अपने पास बैठा पाया. उन को देखते ही उस की नफरत फिर से भड़क उठी थी, अगर उसे उन का प्यार और अपनत्व मिलता तो उस के साथ ऐसे हादसे ही क्यों होते? अगर उस समय नर्स नहीं आती तो वह पता नहीं क्याक्या कह बैठती.

‘‘बेटा, कुछ खा ले वरना ताकत कैसे आएगी?’’ आवाज सुनते ही अल्पना अतीत से निकल कर वर्तमान में आ गई. नर्स पता नहीं कब चली गई थी. मां हाथ में फलों की प्लेट लिए खाने का इसरार कर रही थीं तथा उन के पास ही बैठे पापा आशा भरी नजरों से उसे देख रहे थे. उस ने बिना कुछ कहे ही मुंह फेर लिया क्योंकि वह जानती थी कि मां की आंखों से आंसू बह रहे होंगे पर वह अपने दिल के हाथों विवश थी.

बारबार एक ही विचार उस के मन में आ रहा था कि माना मातापिता उस की उचित परवरिश न कर पाने के लिए दोषी थे पर हर सुविधा मिलने के बावजूद उस ने भी कौन सा अच्छा काम किया. दूसरों को दोष देना तो बहुत आसान है पर जिंदगी बनानाबिगाड़ना तो इनसान के अपने हाथ में है.

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अल्पना समझ नहीं पा रही थी कि कुदरत ने औरत को इतना कमजोर क्यों बनाया है कि एक छोटा सा आंधी का झोंका उस के सारे वजूद को हिला कर रख देता है. सब से ज्यादा दुख तो उसे इस बात का था कि हादसे में उस के गर्भाशय को निकाल देना पड़ा…अपूर्ण औरत बन कर वह कैसे जीएगी?

मां ने तो अपने कैरियर के लिए उस की तरफ ध्यान नहीं दिया पर उस ने तो उन्हें दुख देने के लिए ही यह सब किया…उस का तो यही हश्र होना था. पर वह अभी भी नहीं समझ पा रही थी कि सजा किसे मिली? द्य

सूना आसमान- भाग 5: अमिता ने क्यों कुंआरी रहने का फैसला लिया

अमिता की मां मेरे घर आईं और रोतेरोते बता रही थीं कि अमिता के पापा ने उस के लिए एक रिश्ता ढूंढ़ा था. बहुत अच्छा लड़का था, सरकारी नौकरी में था और घरपरिवार भी अच्छा था. सभी को यह रिश्ता बहुत पसंद था, लेकिन अमिता ने शादी करने से इनकार कर दिया था. घर वाले बहुत परेशान और दुखी थे, अमिता किसी भी तरह शादी के लिए मान नहीं रही थी.

‘‘शादी से इनकार करने का कोई कारण बताया उस ने,’’ मेरी मां अमिता की मम्मी से पूछ रही थीं.

‘‘नहीं, बस इतना कहती है कि शादी नहीं करेगी और पहाड़ों पर जा कर किसी स्कूल में पढ़ाने का काम करेगी.’’

‘‘इतनी छोटी उम्र में उसे ऐसा क्या वैराग्य हो गया,’’ मेरी मां की समझ में भी कुछ नहीं आ रहा था. पर मैं जानता था कि अमिता ने यह कदम क्यों उठाया था? उसे मेरा इंतजार था, लेकिन मैं ने हठ में आ कर निधि से शादी कर ली थी. मैं दोबारा अमिता के पास जा कर उस से माफी मांग लेता, तो संभवत: वह मान जाती और मेरा प्यार स्वीकार कर लेती. हम दोनों ही अपनी जिद्द और अहंकार के कारण एकदूसरे से दूर हो गए थे. मुझे लगा, अमिता ने किसी और के साथ नहीं बल्कि मेरे साथ अपना रिश्ता तोड़ा है.

मेरी शादी हो गई थी और मुझे अब अमिता से कोई सरोकार नहीं रखना चाहिए था, पर मेरा दिल उस के लिए बेचैन था. मैं उस से मिलना चाहता था, अत: मैं ने अपना हठ तोड़ा और एक बार फिर अमिता से मिलने उस के घर पहुंच गया. मैं ने उस की मां से निसंकोच कहा कि मैं उस से एकांत में बात करना चाहता हूं और इस बीच वे कमरे में न आएं.

मैं बैठा था और वह मेरे सामने खड़ी थी. उस का सुंदर मुखड़ा मुरझा कर सूखी, सफेद जमीन सा हो गया था. उस की आंखें सिकुड़ गई थीं और चेहरे की कांति को ग्रहण लग गया था. उस की सुंदर केशराशि उलझी हुई ऊन की तरह हो गई थी. मैं ने सीधे उस से कहा, ‘‘क्यों अपने को दुख दे रही हो?’’

‘‘मैं खुश हूं,’’ उस ने सपाट स्वर में कहा.

‘‘शादी के लिए क्यों मना कर दिया?’’

‘‘यही मेरा प्रारब्ध है,’’ उस ने बिना कुछ सोचे तुरंत जवाब दिया.

‘‘यह तुम्हारा प्रारब्ध नहीं था. मेरी बात को इतना गहरे अपने दिल में क्यों उतार लिया? मैं तो तुम्हारे पास आया था, फिर तुम मेरे पास क्यों नहीं आई? आ जाती तो आज तुम मेरी पत्नी होती.’’

‘‘शायद आ जाती,’’ उस ने निसंकोच भाव से कहा, ‘‘लेकिन रात को मैं ने इस बात पर विचार किया कि आप मेरे पास क्यों आए थे. कारण मेरी समझ में आ गया था. आप मुझ से प्यार नहीं करते थे, बस तरस खा कर मेरे पास आए थे और मेरे घावों पर मरहम लगाना चाहते थे.

‘‘मैं आप का सच्चा प्यार चाहती थी, तरस भरा प्यार नहीं. मैं इतनी कमजोर नहीं हूं कि किसी के सामने प्यार के लिए आंचल फैला कर भीख मांगती. उस प्यार की क्या कीमत, जिस की आग किसी के सीने में न जले.’’

‘‘क्या यह तुम्हारा अहंकार नहीं है?’’ उस की बात सुन कर मुझे थोड़ा गुस्सा आ गया था.

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‘‘हो सकता है, पर मुझे इसी अहंकार के साथ जीने दीजिए. मैं अब भी आप को प्यार करती हूं और जीवनभर करती रहूंगी. मैं अपने प्यार को स्वीकार करने के लिए ही उस दिन आप के पास मिठाई देने के बहाने गई थी, लेकिन आप ने बिना कुछ सोचेसमझे मुझे ठुकरा दिया. मैं जानती थी कि आप दूसरी लड़कियों के साथ घूमतेफिरते हैं, शायद उन में से किसी को प्यार भी करते हों. इस के बावजूद मैं आप को मन ही मन प्यार करने लगी थी. सोचती थी, एक दिन मैं आप को अपना बना ही लूंगी. मैं ने आप का प्यार चाहा था, लेकिन मेरी इच्छा पूरी नहीं हुई. फिर भी अगर आप का प्यार मेरा नहीं है तो क्या हुआ, मैं ने जिस को चाहा, उसे प्यार किया और करती रहूंगी. मेरे प्यार में कोई खोट नहीं है,’’ कहतेकहते वह सिसकने लगी थी.

‘‘अगर अपने हठ में आ कर मैं ने तुम्हारा प्यार कबूल नहीं किया, तो क्या दुनिया इतनी छोटी है कि तुम्हें कोई दूसरा प्यार करने वाला युवक न मिलता. मुझ से बदला लेने के लिए तुम किसी अन्य युवक से शादी कर सकती थी,’’ मैं ने उसे समझाने का प्रयास किया.

वह हंसी. बड़ी विचित्र हंसी थी उस की, जैसे किसी बावले की… जो दुनिया की नासमझी पर व्यंग्य से हंस रहा हो. वह बोली, ‘‘मैं इतनी गिरी हुई भी नहीं हूं कि अपने प्यार का बदला लेने के लिए किसी और का जीवन बरबाद करती. दुनिया में प्यार के अलावा और भी बहुत अच्छे कार्य हैं. मदर टेरेसा ने शादी नहीं की थी, फिर भी वह अनाथ बच्चों से प्यार कर के महान हो गईं. मैं भी कुंआरी रह कर किसी कौन्वैंट स्कूल में बच्चों को पढ़ाऊंगी और उन के हंसतेखिलखिलाते चेहरों के बीच अपना जीवन गुजार दूंगी. मुझे कोई पछतावा नहीं है.

‘‘आप अपनी पत्नी के साथ खुश रहें, मेरी यही कामना है. मैं जहां रहूंगी, खुश रहूंगी… अकेली ही. इतना मैं जानती हूं कि बसंत में हर पेड़ पर बहार नहीं आती. अब आप के अलावा मेरे जीवन में किसी दूसरे व्यक्ति के लिए कोई जगह नहीं है,’’ उस की आंखों में अनोखी चमक थी और उस के शब्द तीर बन कर मेरे दिल में चुभ गए.

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मुझे लगा मैं अमिता को बिलकुल भी नहीं समझ पाया था. वह मेरे बचपन की साथी अवश्य थी, पर उस के मन और स्वभाव को मैं आज तक नहीं समझ पाया था. मैं ने उसे केवल बचपन में ही जाना था. अब जवानी में जब उसे जानने का मौका मिला, तब तक सबकुछ लुट चुका था.

वह हठी ही नहीं, स्वाभिमानी भी थी. उस को उस के निर्णय से डिगा पाना इतना आसान नहीं था. मैं ने अमिता को समझने में बहुत बड़ी भूल की थी. काश, मैं उस के दिल को समझ पाता, तो उस की भावनाओं को इतनी चोट न पहुंचती.

अपनी नासमझी में मैं ने उस के दिल को ठेस पहुंचाई थी, लेकिन उस ने अपने स्वाभिमान से मेरे दिल पर इतना गहरा घाव कर दिया था, जो ताउम्र भरने वाला नहीं था.

सबकुछ मेरे हाथों से छिन गया था और मैं एक हारे हुए जुआरी की तरह अमिता के घर से चला आया.

अपने हुए पराए- भाग 3: आखिर प्रोफेसर राजीव को उस तस्वीर से क्यों लगाव था

लेखक-योगेश दीक्षित

‘‘बेटा पानी ले आ, मेरी तबीयत ठीक नहीं लग रही.’’

‘‘क्या हो गया, आप कुछ बताते भी नहीं. अच्छा रुकिए, पहले पानी पीजिए.’’ पानी का गिलास थमाते हुए मैं बोला, ‘‘आप आज इतने उदास क्यों हैं?’’

‘‘बेटा, राहुल नए घर में चला गया.’’

‘‘क्या?’’ मेरे पैरों के नीचे जमीन खिसक गई. शादी तो उस ने अपनी मरजी से कर ली थी, बहू ले आया, न कोई न्योता न कार्ड और अब घर भी अलग कर लिया. प्रोफैसर राजीव की परेशानियों का दर्द अब मुझे समझ आया.

राहुल यह कैसे कर सकता है, मैं सोच उठा?

अंकल 75 वर्ष की उम्र क्रास कर चुके हैं. अम्मा जी रुग्ण हैं. और राहुल घर से अलग हो गया. चिंताओं के बादल मेरे सिर पर उमड़ गए. वृद्धावस्था में पुत्र की कितनी आवश्यकता होती है, इसे कौन नहीं समझता. राहुल को अवश्य अपर्णा ने बहकाया होगा.

प्रोफैसर राजीव ने राहुल के लिए क्या कुछ नहीं किया, स्नातकोत्तर कराया, कालेज में नौकरी लगवाई. दिनरात उस के पीछे दौड़े. और आज उस ने यह सिला दिया अंकल को. उन्हें अपने से ज्यादा करुणा की चिंता थी. वे उस के विवाह के लिए चिंतित थे. उन्हें मेरे और करुणा के संबंधों की कोई जानकारी नहीं थी. करुणा की शादी के लिए उन्होंने कितने ही प्रयास किए थे. अच्छा घरबार चाहते थे. लड़का भी कमाऊ चाहते थे जैसे हर पिता की इच्छा रहती है. लेकिन उन्हें हर कदम पर निराशा ही मिली थी. असफलताओं ने उन्हें कमजोर कर दिया था और आज राहुल के अलग घर बसाने की बात ने उन्हें आहत कर दिया.

करुणा को मैं पसंद करता था, यह बात मैं प्रोफैसर राजीव से नहीं कह सका. मैं डर रहा था कि मेरी इस बात का अंकल कुछ गलत अभिप्राय न निकालें. मैं उन का विश्वासपात्र था. उन के विश्वास को तोड़ना नहीं चाहता था कि इस से उन्हें बहुत दर्द पहुंचेगा. प्रोफैसर राजीव कहीं लड़के को देखने जाते तो मुझे भी साथ ले जाते, मैं मना भी नहीं कर पाता.

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करुणा भी इसे जानती थी, लेकिन वह खामोश रही. उसे इस से कोई फर्क नहीं पड़ा. यह बात मुझे संतोष देती कि जितने भी रिश्ते आते करुणा के उपेक्षित उत्तर से उचट जाते, वह ऐसे तर्क रखती कि वर पक्ष निरुत्तर हो जाते और वापस लौट जाते. मन ही मन मेरी मुसकान खिल जाती.

प्रोफैसर राजीव की हालत दिनबदिन बिगड़ती गई. शरीर दुर्बल हो गया. उन का बाहर निकलना भी बंद हो गया. मैं उन की सेवा में लगा रहा.

एक दिन प्रोफैसर राजीव अपनी डायरी ढूढ़ते करुणा के कमरे में आए. वहां उन्हें करुणा के साथ मेरी तसवीर दिख गई. वे हतप्रभ रह गए. तसवीर को अपने कमरे में ले गए. मुझे बुलाया, बोले, “बेटा, इतनी बड़ी चीज तुम ने मुझ से छिपाई?”

‘‘क्या अंकल?’’

‘‘बेटा, मैं जिसे बाहर तलाश रहा था वह मेरे घर में ही था.’’

मेरे अश्रु छलक गए, ‘‘अंकल, ऐसा कुछ नहीं है. हम मित्र हैं. आप पिता समान हैं मेरे. आप करुणा की शादी जहां करना चाहें, कर दें, मैं विरोध नहीं करूंगा, पूरा सहयोग दूंगा. हमारा करुणा का पवित्र रिश्ता है.’’

‘‘बेटा, यह बात मेरे दिमाग में पहले क्यों नहीं आई. मैं तुझे अच्छी तरह से जानता हूं, करुणा तेरे साथ बहुत खुश रहेगी. तेरे जैसा दामाद मुझे कहां मिलेगा. दामाद बेटा ही होता है. बुलाओ, करुणा को.’’

करुणा यह सब अंदर से सुन रही थी, दौड़ी हुई आई. उन के पास बैठ गई. उन्होंने उस का हाथ मुझे देते हुए कहा, ‘‘आज मैं भारमुक्त हो गया, खुश रहो.’’ एकाएक उन्हें कम्पन हुआ, सीना जोर से धड़का, और गरदन एक तरफ मुड़ गई. वे चिरनिद्रा में लीन हो गए. मेरी आंखें छलछला आईं. करुणा चीख कर रो पड़ी. उन के जीवन का अंत ऐसा होगा, सोचा भी नहीं था.

इंट्रो

हार न मानने वाले प्रोफैसर राजीव बेटी करुणा के मामले में थकेहारे जैसे हो गए थे, लेकिन जिंदगी के आखिरी लमहों में घर में ही ऐसी तसवीर मिली जिस ने उन्हें हारने से बचा लिया.

जिंदगी में हार न मानने वाले प्रोफैसर राजीव आज सुबह बहुत ही थके हुए लग रहे थे. मैं उन को लौन में आरामकुरसी पर निढाल बैठे देख सन्न रह गया. उन के बंगले में सन्नाटा था. कहां संगीत की स्वरलहरियां थिरकती रहती थीं, आज ख़ामोशी पसरी थी. मुझे देखते ही वे बोले, ‘‘आओ, बैठो.’’

उन की दर्दमिश्रित आवाज से मुझे आभास हुआ कि कुछ घटित हुआ है. मैं पास पड़ी बैंच पर बैठ गया.

‘‘कैसे हो नरेंद्र?’’ आसमान की ओर निहारते उन्होंने पूछा.

‘‘ठीक हूं,” मैं ने दिया. मेरा दिल अभी भी धड़क रहा था. मैं उन की पुत्री करुणा की तबीयत को ले कर परेशान था. 5 दिनों पूर्व वह अस्पताल में भरती हुई थी. फोन पर मेरी बात नहीं हो सकी. जब भी फोन लगाया स्विचऔफ मिला. चिंताओं ने पैने नाखून गड़ा दिए थे.

मुझे खामोश देख प्रोफैसर राजीव रुंधे स्वर से बोले, “दिल्ली से कब आए?”

‘‘कल रात आया.’’

‘‘इंटरव्यू कैसा रहा?’’

‘‘ठीक रहा.’’

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कुछ देर खामोशी छाई रही. उन की आंखें अभी भी आसमान के किसी शून्य पर टिकी थीं. चेहरे पर किसी भयानक अनिष्ट की परछाइयां उतरी थीं जो किसी अनहोनी का संकेत दे रही थीं. मैं चिंता से भर उठा. करुणा को कुछ हो तो नहीं गया. लेकिन जब करुणा को चाय लाते देखा तो सारी चिंताएं उड़ गईं. वह पूरी तरह स्वस्थ्य दिख रही थी.

‘‘पापा चाय लीजिए,’’ करुणा ने चाय की ट्रे गोलमेज पर रखते हुए कहा.

मेरी नजरें अभी भी करुणा के चेहरे पर जमी थीं, लेकिन उस की तरफ से कोई प्रतिक्रिया न देख हैरान रह गया, लगा नाराज है. करुणा चाय दे कर मुड़ी ही थी कि पैर डगमगा गए. मैं ने तुरंत हाथों में संभाल लिया. वह संभलती हुई बोली, ‘‘थैंक्यू.’’ मैं तुरंत अलग हो गया. प्रोफैसर राजीव बोले, “जब चलते नहीं बनता तो हाईहील की सैंडिल क्यों पहनती हो?”

‘‘फैशन है पापा.”

‘‘हूं, सभी मौडर्न हुए जा रहे हैं.’’

मैं समझ गया, उन का इशारा राहुल की बहू अपर्णा पर था. अपर्णा अकसर जींस व टोप पहने ही दिखती है.

मेरे पिताजी और प्रोफैसर राजीव की दोस्ती जगजाहिर थी. एक साथ उन्होंने पढ़ाईलिखाई की, नौकरी की. पड़ोस में मकान बनाया. किसी भी समारोह में गए, साथ गए. यहां तक कि चुनाव भी साथ लड़ा.

सत्य असत्य- भाग 5: क्या था कर्ण का असत्य

‘‘निशा हम से मिल कर तो जाती,’’ मां के होंठों से निकले इन शब्दों पर पिताजी चीख उठे, ‘‘वह मिल कर जाती, पर क्यों? क्या तुम्हारे बच्चों की कोई जिम्मेदारी नहीं थी. अरे, उस मासूम को रोक तो लेते. वह अकेली अपना सामान बांधे चली गई और कोई उसे घर तक छोड़ने नहीं गया. क्या वह लावारिस थी?’’

भैया बोले, ‘‘मुझे हमेशा डर सताता रहा कि कहीं सचाई जानने के बाद वह मुझ से नफरत न करने लगे.’’

‘‘अब क्या करोेगे? कहीं और शादी को तैयार हो, तो बात करूं?’’ पिताजी ने थकीहारी आवाज में कहा.

‘‘नहीं, शादी तो अब कभी नहीं होगी.’’

‘‘तो क्या तुम्हारी मां तुम्हें जीवनभर पकापका कर खिलाएगी? निशा के चाचा कहां रहते हैं. कुछ जानते हो?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘अच्छी बात है, अब जो जी में आए, वही करो.’’

एक शाम भैया बोले, ‘‘गीता, क्या ऐसा नहीं लगता कि शरीर का कोई हिस्सा ही साथ नहीं दे रहा? मैं तो अपंग सा हो गया हूं.’’

मैं मुंहबाए उन्हें निहारती रह गई, क्या जवाब दूं, सोच ही न पाई.

एक दिन शाम को पिताजी ने चौंका दिया, ‘‘आज शाम कोई आ रहा है, नाश्ते का प्रबंध कर लेना.’’

‘‘कौन आ रहा है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘कहा न कोई है,’’ पिताजी खीझ उठे.

शाम को हम सब निशा को देख कर हैरान रह गए. पिताजी ने मुसकरा कर उस का स्वागत किया, ‘‘आओ बेटी, आओ,’’ पिताजी ने निशा को सोफे पर बैठाया.

‘‘बेटी, तुम्हारा पत्र मिल गया था. तुम्हारे पिताजी की बीमे की पौलिसी संभाल कर रखी है.’’

वह निशा को उस के पिता की भविष्य निधि और दूसरे सरकारी प्रमाणपत्रों के विषय में बताते रहे और वह चुपचाप बैठी सुनती रही.

‘‘बस, तुम्हारे हस्ताक्षर ही चाहिए थे, वरना मैं तुम्हें कभी आने को न कहता. सब हो जाएगा बेटी, कम से कम यहां दिल्ली के सब काम तो मैं निबटा ही दूंगा.’’

निशा ने कुछ न कहा.

मैं ने उस के सामने नाश्ता परोसा तो पिताजी ने टोक दिया, ‘‘पहले इसे हाथमुंह तो धो लेने दो. सुबह से गाड़ी में बैठी है. उठो बेटी, जाओ.’’

एक तरफ रखे बैग में से तौलिया निकाल निशा बाथरूम में चली गई. जब वह बाहर आई तो उसी पल भैया ने घर में प्रवेश किया. उन्होंने चौंकते हुए कहा, ‘‘निशा, तुम कैसी हो?’’

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निशा ने कुछ न कहा. हम सब खामोश थे. निशा सिर झुकाए चुपचाप खड़ी थी. पिताजी ने उसे बुलाया तो भैया की तंद्रा भंग हुई.

चाय सब ने इकट्ठे पी. मगर हम औपचारिक बातें भी नहीं कर पा रहे थे.

रात को खाने के बाद वह मेरी बगल में सो गई. मेरे लिए जैसे वक्त थम गया था. आधी रात होने को आई, पर नींद मेरी आंखों में नहीं थी. सहसा ऐसा लगा, जैसे हमारे कमरे में कोई है. मैंने भैया को पहचान लिया. वह सीधा निशा की ओर बढ़ रहे थे. मैं सहम गई. फिर देखा, भैया उस के पैरों की तरफ बैठे हैं.

फिर वे हौले से बोले, ‘‘निशा, निशा, उठो. तुम से कुछ बात करनी है.’’

भैया ने कई बार पुकारा, पर उस ने कोई जवाब न दिया. तब भैया ने उसे छुआ तो एहसास हुआ कि निशा को तेज ज्वर है. भैया फौरन डाक्टर को लेने चले गए.

डाक्टर की दवा ने अपना असर दिखाया. सुबह तक निशा की तबीयत में काफी सुधार हो गया था.

मैं चाय ले कर उस के पास गई, ‘‘थोड़ी सी चाय ले लो,’’ फिर भैया से कहा, ‘‘आप भी आ जाइए.’’

‘‘मन नहीं है,’’ निशा ने मना कर दिया.

‘‘क्यों निशा, मन क्यों नहीं है? थोड़ी सी तो पी लो,’’ मैं ने आग्रह किया.

लेकिन वह रो पड़ी. भैया उठ कर पास आ गए. उन्होंने धीरे से उस का हाथ पकड़ा और फिर झुक कर उस का मस्तक चूम लिया, ‘‘सजा ही देना चाहती हो तो मुझे दो, अपनेआप को क्यों जला रही हो? अपराध तो मैं ने किया था.’’

सहसा निशा फूटफूट कर रोने लगी, ‘‘कर्ण, मैं किसकिस को सजा दूं, अपने पिता को. आप को या गीता को? किसी ने भी मेरे मन की नहीं पूछी, सब एकतरफा निर्णय लेते रहे. सच क्या है किसी ने भी तो नहीं जानना चाहा. मैं क्या करूं?’’

फिर थोड़ा रुक कर, खुद को संभाल कर वह आगे बोली, ‘‘मेरी वजह से सब को पीड़ा ही मिली, लेकिन यह सब मैं ने नहीं चाहा था.’’

‘‘जानता हूं निशा, सब जानता हूं. लेकिन अब वैसा कुछ नहीं होगा, मुझ पर यकीन करो.’’

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मां और पिताजी दरवाजे पर खड़े थे. मां ने उस का मस्तक चूमते हुए कहा, ‘‘बस बेटी, अब चुप हो जाओ.’’

सांवली, प्यारी सी निशा इस तरह लौट आएगी, यह तो मैं ने कभी सोचा भी न था. पूरी कथा में एक सत्य अवश्य सामने आया था कि सत्य वह नहीं जिसे आंखें देखें, सत्य वह भी नहीं जिसे कान सुनें, सत्य तो मात्र वह  है जिस में सोचसमझ, परख, प्रेम व विश्वास सब का योगदान हो. वास्तविक सत्य तो वही है, बाकी मिथ्या है.

सोच का विस्तार- भाग 4: जब रिया ने सुनाई अपनी आपबीती

Writer- वीना त्रेहन

अचानक दादी को ध्यान आया कि बच्ची कहां है. लाओ उसे, मिलूं मैं उस से. दरवाजे की आड़ से निकल बहू रेखा काइरा को लिए अंदर पहुंचीं. आज सुरेशजी मां से आज्ञा लिए बगैर उन के कमरे में आ बैठे. दादी ने बच्ची को गोद में ले माथा चूमा. इतने दिनों बाद मां को बातें करते देख सब खुश थे.

तभी दादी ने कहा कि सुरेश कल सुबह पंडितजी से रिया की शादी करवाने का कह आओ. इन के पास समय कम है. घर को भी सजा लो. हां, एक बात और पंडितजी से जो सामान चाहिए हो लाने को कह दोे. पैसे हम दे देंगे. तुम अकेले कहांकहां भागोगे… और बहू कल दोपहर बाजार जा कर दूल्हादुलहन के कपड़े खरीद लाना. छोटी बेटी को घाघराचोली अच्छा लगेगा. सब के कपड़ों के पैसे मैं दूंगी. जेवर मत खरीदना. मेरे पास हैं. बस अंगरेजी बाबू की अंगूठी खरीद लेना. दादी एक ही सांस में सब कह गईं.

बेटे ने जब पूछा कि मां बुलाना किसकिस को है, तो बोली कि अरे किसी को नहीं. हम ही बराती और हम ही घर वाले.

घर में हलचल थी. सब किसी न किसी काम में व्यस्त थे. पर सब से बड़ी खुशी इस बात की भी थी कि मां ने (दादी) कितने सालों बाद अपने कमरे की दहलीज लांघी. उन के लिए पहले जैसे ही दीवान पर गद्दा बिछा 2 बड़े तकिए लगा दिए गए. शादी का मुहूर्त 4 दिन बाद शुक्रवार का निकला. शनिवार शाम को उन की वापसी.

दुलहन के वेश में रिया और शेरवानी पहने दूल्हे विलियम को सब के बीच बैठा दादी ने अपने संदूक से निकाल अपनी शादी में मिला भारी भरकम सोने का जड़ाऊ रानी हार रिया को और बड़े मोतियों का 4 लड़ी वाला हार विलियम को पहनाया.

बहू ने कहा कि इतने सालों से समेटा ये सब उसे क्यों नहीं दिया गया? फिर अगर रिया को ही देना था तो पहली शादी में क्यों नहीं दिया?

उत्तर मिला कि तब दामाद पर मेरा दिल नहीं बैठा था पर अब ये हमारे बेटाबेटी सदा सुखी रहेंगे.

शादी का दिन. कुछ जानेपहचाने लोगों को बुलाया गया था. आवभगत चल रही थी पर अचानक एक गोरे सूटेडबूटेड को देखा तो जाना कि वह विलियम का कजन है. उन्हें देख रिया हैरानी से बोली कि हाय जीजू. जीजू ने कहा हाय रिया… सरप्राइज, रेखाजी हैरान… निधि का पति पर बहन ने तो कभी नहीं बताया कि उन का दामाद गोरा है. शादी रीतिरिवाज से हो रही थी. विदाई के समय नवदंपती ने दादी के पैर छुए तो आशीर्वाद देते दादी की आंखें भर आईं.

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विलियम ने दादी के दोनों हाथों को अपने हाथों में ले उन्हें आश्वासन दिया कि वह रिया का अच्छा पति बनेगा. भर आई आंखों से रिया ने दादी की आंखों में ममता का प्रतिबिंब देखा. उन के गले लग कहा कि धन्यवाद दादी. मगर दादी ने कहा कि वह क्यों बिटिया, अब रिया क्या बताए कि दादी ने जो अपनी सोच का विस्तार कर लिया था, अपनी सारी उम्र के धर्म, कर्म, पाबंदियां, रूढि़वादिता त्याग कर पोती की खुशी के लिए जो चुना वह इतना सहज नहीं था.

जारेद रात की फ्लाइट से यूएस लौटने वाले थे. रेखाजी ने निधि के लिए झुमके व नन्ही जूली के लिए सोने की छोटी सी चेन खरीद ली, पर अब जारेद को क्या दें. तभी सासूजी एक पुरानी डिबिया ले आईं और फिर बोलीं कि बहू दामाद पहली बार आया है. उसे दे दो. डिबिया खोली तो उस में सोने की गिन्नी थी. रेखाजी ने मुसकराते कहा कि मां आप तो सोने का खजाना हैं. उत्तर मिला कि वह तो हूं ही.

एक रात होटल में रह सुबह रिया व विलियम घर आए. नन्ही काइरा नानी के पास रही. दिन खुशी से बीता और शाम मम्मीपापा उन्हें एअरपोर्ट छोड़ने जाने लगे तो रिया ने दादी को भी चलने को कहा.

रिया दादी के चेहरे पर आए भावों को पहचानती थी. दादी का हाथ सहलाते रिया ने कहा कि दादी आप को अमेरिका में मेरे घर आना होगा.

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इस पर दादी ने कहा कि जरूर पर जब तू काइरा के भाई या बहन को जन्म देगी और मैं परदादी बनूंगी तब.

विली ने रिया की ओर देख मुसकराते हुए कहा कि वह तो आप अब हो गई हैं. काइरा की ग्रेट ग्रांड मां, अगली सीट पर बैठे सुरेशजी ने मुड़ रिया और विली को आशीर्वाद दिया.

नमस्ते जी- भाग 3: नीतिन की पत्नी क्यों परेशान थी?

Writer- डा. उर्मिला कौशिक ‘सखी’

मुझे जब असमंजस में और अधिक नहीं रहा गया तो मैं प्रीति के घर पहुंच गई थी. प्रीति एक कोने में अलग सी बैठी थी. मुझे दहलीज पर देख कर भी कुछ नहीं बोली, वैसे ही बैठी रही थी, वरना तो उठ कर मेरा स्वागत करती थी. मैं ने जब काम छोड़ने के बारे में जानना चाहा तो उस की मां ने इतना ही कहा था, ‘मेमसाहिब, अब प्रीति तुम्हारे घर काम नहीं करेगी. अब यह गांव जाएगी इस की वहां शादी तय हो गई है.’

‘ऐसे अचानक, कैसे?’

‘बस, मेमसाहिब, हम गरीब लोगों के साथ कब, कैसे, क्या गुजर जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता. आप ठहरे बड़े आदमी, हम छोटे लोग भला क्या कह सकते हैं? बाकी अब प्रीति आप के घर नहीं जाएगी.’

मेरी लाख कोशिशों के बावजूद प्रीति ने काम छोड़ने का कारण नहीं बतलाया और मैं अपना सा मुंह ले कर वापस घर आ गई थी. घर आ कर मैं कुछ देर तक सोचती रही थी.

‘आखिर ऐसा क्या हुआ होगा जो प्रीति यों काम छोड़ कर चली गई और अब उस की शादी करने की बातें हो रही हैं. जिस के लिए उसे गांव भेजा जा रहा है. अभी तो प्रीति की उम्र 13 वर्ष की ही होगी, फिर इतनी जल्दी वह भी एकाएक.’

जब समझ में कुछ नहीं आया तो मैं नितिन के पास आ गई और उन से किसी दूसरी काम वाली लड़की का इंतजाम करने को कहा.

अनमने मन से नितिन ने कहा, ‘हां, देखता हूं. इतनी जल्दी थोड़ी ही काम वाली लड़कियां मिलती हैं, वह भी तुम्हारी पसंद की.’

तब मैं ने कहा था, ‘कोई बात नहीं. कैसी भी ले आओ, चलेगी. बच्चों का ध्यान कैसे रखना है, वह सबकुछ मैं समझा दूंगी.’

अगले ही दिन नितिन ने अपनी जानकारी में कइयों को काम वाली के बारे में कह दिया था. उस के 4-5 दिन के बाद शर्माजी के यहां काम करने वाली बाई ने ‘डोर बेल’ बजाई तो सास ने उस के पास जा कर पूछा था, ‘हां रमा, क्या बात है. कैसे आई हो?’

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‘बीबीजी को एक लड़की चाहिए न बच्चों की देखभाल के लिए, सो उसी की खातिर आई थी.’

मैं ने घर के अंदर से ही कह दिया था. ‘हां रमा, चाहिए. लेकिन कौन है?’

‘मेमसाहिब, मेरी बड़ी लड़की 14-15 साल की है मगर…’

‘मगर क्या?’ सास ने पूछा था.

‘जी वह पैर से थोड़ी अपाहिज है. लेकिन घर का सारा काम कर लेती है. मेरी 4 लड़कियां उस से छोटी हैं. वही मेरे पीछे से घर का सारा काम करती है और अपनी छोटी बहनों की देखभाल भी. अब खर्चा बढ़ गया है न. शर्माजी की बीवी ने कहा था कि आप को तो सिर्फ काम वाली 2 घंटे सुबह और 2 घंटे शाम को चाहिए तो वह इतना वक्त निकाल लेगी.’

तब तक मैं भी अपनी सास के पास आ कर खड़ी हो गई थी. मैं ने उस से पूछा था कि महीने के हिसाब से कितने पैसे लोगी? हम उसे दोनों समय खाना तो देंगे ही साथ में कपड़े भी दे देंगे.

उस ने कहा था कि जो मरजी दे देना मांजी. वैसे मैं एक घर में बरतन करने का 300 रुपए लेती हूं.

मैं ने तपाक से कहा था, ‘अच्छा चल, कुल मिला कर महीने के 500 रुपए दे देंगे. अगर ठीक है तो आज शाम से ही भेज दो.’

500 रुपए सुन कर उस ने झट से हां की और हमारा अभिवादन कर के चली गई.

शाम को उस ने अपनी बड़ी लड़की को हमारे यहां काम के लिए भेज दिया था. लड़की का हुलिया दयनीय था. मोटेमोटे काले होंठ, उभरे हुए दांत जिन पर गंदगी साफ देखी जा सकती थी, मैलेकुचैले कपड़े. छाती पर इतना ही उभार था कि बस यह महसूस किया जा सके कि लड़की है. मेरे नाम पूछने पर उस ने अपना नाम आयशा बतलाया था. उसे देख कर मैं मन ही मन सोचने लगी कि ‘यह क्या काम करेगी? पहले तो मुझे ही इस के लिए कुछ करना पड़ेगा.’

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मैं ने तब नहाने का साबुन व बदलने के लिए दूसरे कपड़े देते हुए उसे ताकीद की थी कि पहले तुम अच्छे से नहा कर आओ और दांत साफ करना मत भूलना. उस ने मुझ से कपड़े और साबुन लिए और पूछा, ‘आंटीजी, बाथरूम किस तरफ है?’

मैं चौंक गई थी. ‘अरे, तुम अपने घर जा कर नहा कर आओ.’

तब उस ने कहा था कि आंटी, हमारे घर बाथरूम कहां. मैं तो अंधेरा होने पर ही घर के आंगन में नहा लेती हूं या फिर सूरज निकलने से पहले.

मैं सोच में पड़ गई थी कि क्या करूं, क्या न करूं? यह कैसी मुसीबत आ गई. मांजी को पता चल गया तो. खैर, उसे चुपचाप बाथरूम में भेज मैं आंगन में बिछी चारपाई पर अंकिता को ले कर बैठ गई थी. वह थोड़ी ही देर में नहा कर बाहर आ गई थी. मैं ने उसे उस का सारा काम समझाते हुए उस से पहले बाथरूम की जम कर सफाई करवाई थी.

आयशा मेरी सोच से अधिक समझदार निकली. जो भी कहती वह उसे आगे से आगे, बिना ज्यादा बुलवाए, पूरा कर देती थी. जब भी उस को समय मिलता तो वह अंकिता को ले मेरे पास आ बैठती और कहती थी, ‘आंटी आप कितनी सुंदर हैं. आप क्या लगाती हैं अपने मुंह पर? कौन सी क्रीम लगाती हैं? कौन सा तेल इस्तेमाल करती हैं? आप के बालों से बहुत अच्छी महक आती रहती है.’

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