निशा सामान्य भाव से अपने बाल संवारती रही. फिर उस ने जल्दी से पर्स उठाया. मैं असमंजस में थी कि क्या उस ने पिताजी की बात नहीं सुनी? उस ने मेज पर लगा अपना नाश्ता खाया और बाहर निकल गई.
निशा के जाने के बाद पिताजी बोले, ‘‘देखो कर्ण, जिस से प्यार करते हो, जिस से दोस्ती होने का दम भरते हो, कम से कम उस के प्रति तो ईमानदार रहो. प्यार करते हो तो आगे बढ़ कर उस से कहो. दोस्त से दोस्ती निभाना चाहते हो तो अपने अहं को थोड़ा सा अलग रखना सीखो. मन में कुछ मैल आ गया है, कुछ गलत देखसुन लिया है तो झट से कह कर सचाई की तह तक जाओ. मन ही मन किसी कहानी को जन्म मत दो. अब विजय की बात ही सुन लो. मैं उस से एक बार भी नहीं मिला. तुम से झूठ ही कहता रहा और तुम उस पर क्रोध करते हुए उस से नाराज भी हो गए. अगर खुद ही बात कर ली होती तो मेरा झूठ कब का खुल गया होता. मगर नहीं, तुम तो अपनी ही अकड़ में रहे न.’’
‘‘जी,’’ भैया के साथसाथ मैं भी हैरान रह गई.
‘‘निशा से प्यार करते हो तो उसे साफसाफ सब बता दो.’’
करीब 4 बजे निशा आई. मुंहहाथ धो कर रसोई में जाने लगी, तभी पिताजी ने पूरी कहानी निशा को सुना दी, जिसे वह चुपचाप सुनती रही. हम सांस रोके उस की प्रतिक्रिया का इंतजार करते रहे. शायद सुबह उस ने सुना न हो, मैं यह खुशफहमी पाले बैठी थी.
‘‘बेटी, क्या तुम यह सब जानती थीं?’’ पिताजी उस की तटस्थता पर हैरान रह गए.
निशा ने ‘हां’ में गरदन हिला दी.
‘‘तुम्हें कैसे पता चला?’’ पिताजी उठ कर उस के पास गए तो निशा एकाएक रो पड़ी, फिर संभलते हुए बोली, ‘‘उस दिन जब मैं घर की सफाई कर के लौटी थी…’’ इतना कह कर वह रोने लगी तो पिताजी उठ कर बाहर चले गए. उस के बाद किसी ने उस से कोई बात न की.
थोड़ी देर बाद मुझे निशा की आवाज सुनाई दी, ‘‘गीता, मैं सुबह अपने घर चली जाऊं?’’
मैं ने चौंक कर उस की ओर देखा तो वह बोली, ‘‘अब नौकरी मिल गई है न. और फिर जब जीना है तो अकेले रहने की आदत तो डालनी ही होगी. यहां कब तक रहूंगी?’’
शीघ्र ही उस ने अटैची और बैग तैयार कर लिया और बोली, ‘‘मैं जाती हूं. चाचाजी से मिल कर जाने की हिम्मत नहीं है. वे आएं तो बता देना.’’
मैं ने भैया को पुकारना चाहा कि उसे वे जा कर छोड़ आएं, परंतु निशा ने मना कर दिया. शायद वह भैया की सूरत भी नहीं देखना चाहती थी. रोते हुए उस ने अटैची उठाई और भारी बैग कंधे पर लादे चुपचाप चली गई. अवरुद्ध कंठ से मैं कुछ भी न कह पाई.
निशा के जाने के बाद पिताजी उदास से रहने लगे थे. मगर जो हालात बन गए थे, उन में वे कुछ नहीं कर सकते थे. उस रात मुझे नींद नहीं आई. अलमारी सहेजने लगी तो निशा के घर की दूसरी चाबी हाथ लग गई.
मैं ने वह चाबी भैया के सामने रख दी और कहा, ‘‘अभी तक सोए नहीं?’’
वे सूनीसूनी आंखों से मुझे निहारते रहे.
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‘‘जाओ, निशा को ले आओ. अधिकार से हाथ पकड़ कर, क्षमा मांग कर. जैसे भी आप को अच्छा लगे. यह उस के घर की चाबी है.’’
‘‘क्या पागल हो गई हो?’’
‘‘मैं भी साथ चलती हूं. उस से क्षमा मांग लेना. उसे अपने प्यार का विश्वास दिलाना.’’
‘‘बस गीता, बस. अब और नहीं,’’ भैया ने डबडबाई आंखों से मेरी ओर देखा.
इसी तरह 3 हफ्ते बीत गए. एक शाम मां ने भैया से कहा, ‘‘कर्ण, कहीं तुम्हारी शादी की बात चलाएं?’’
‘‘नहीं, मैं शादी नहीं करूंगा.’’
तभी पिताजी बोल उठे, ‘‘अच्छी बात है, मत करना शादी, मगर मेरा एक काम जरूर करना. अगर मुझे कुछ हो गया तो कम से कम अपनी बहन का ब्याह जरूर कर देना.’’
रात को मां की आवाज सुनाई दी. ‘‘निशा कैसी रूखी है, जब से गई है, एक बार फोन तक भी नहीं किया.’’
‘‘तो क्या तुम उस से मिलने गईं? इन दोनों में से कोई एक भी गया उसे देखने?’’ पिताजी ऊंची आवाज में बोले, ‘‘किसी दूसरे से अपेक्षा करना बहुत आसान है, कभी अपना दायित्व भी सोचा है तुम लोगों ने?’’
सुबहसुबह पिताजी के स्वर ने मुझे चौंका दिया, ‘‘गीता, कर्ण कहां है? उस की मोटरसाइकिल भी नहीं है. कहीं गया है क्या?’’
‘‘मैं हड़बड़ा कर उठी. लपक कर देखा, अलमारी में वह चाबी भी नहीं थी. मन एक आशंका से कांप उठा कि भैया कहीं निशा का कुछ अनिष्ट न कर बैठें.’’
पिताजी ने चिंतित स्वर में पूछा, ‘‘वह कहां गया है. तुम से कुछ कहा?’’
‘‘कहा तो नहीं, पर हो सकता है, निशा के पास…,’’ मैं ने उन से पूरी बात कह दी.
औटो से हम निशा के घर पहुंचे. वहां भैया की मोटरसाइकिल भी दिखाई न दी. धड़कते दिल से द्वार की घंटी बजा दी. हम कितनी ही देर खड़े रहे, पर द्वार नहीं खुला. पड़ोसी सुरेंद्र साहब का द्वार खटखटाया तो उन्होंने जो सुनाया, वह अप्रत्याशित था, ‘‘निशा तो महीनाभर हुआ सबकुछ छोड़छाड़़ कर चली भी गई. उस के चाचा उसे लेने आए थे.’’
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हम पितापुत्री चिंतित खड़े रह गए. फौरन घर वापस चले आए. भैया लुटेपिटे से सामने ही बैठे थे.