सबसे बड़ा सुख: भाग 3

कमला की आंखें नम हो गईं. उन्हें लगा, ‘जो हमसफर इतने पास आ जाते हैं, उन्हें फिर एकदूसरे को अपनी बात समझानी नहीं पड़ती. उन की आंतरिक अनुभूतियां ही वाणी समान मुखर हो उठती हैं.’ सभी वृद्धों की आंखें विजयीगर्व से चमक रही थीं.

दूसरे दिन कमला ने सभी वृद्धों से अपने पोते की भविष्यवाणी के बारे में बताया और यह भी कहा कि वे उस की पसंद की चीजें ले कर अकसर उस से मिलने जाया करेंगी.

इतवार के दिन उन्होंने राजू की पसंद की ढेर सारी चीजें खरीदीं, ताकि वह अपने दोस्तों को भी दे सके. होस्टल पहुंचते ही राजू उन से लिपट कर बोला, ‘‘दादी, मैं जानता था कि तुम जरूर मुझ से मिलने आओगी,’’ उस ने अपने दोस्तों से कहा कि यही मेरी प्यारी दादी हैं. कमला ने सभी सामान बच्चों में बांटा और कई घंटे उन के साथ व्यतीत करने के बाद यह कह कर लौट पड़ीं कि वे यहां आती रहेंगी.

राजू ने पूछा, ‘‘घर पर सब ठीक है न?’’

उन्होंने मुसकराते हुए कहा, ‘‘ मैं घर में नहीं रहती. एक वृद्ध आश्रम है, वहीं पर रहती हूं.’’

राजू चीख कर बोला, ‘‘मैं समझ गया हूं, उन्होंने आप को भी घर से निकाल दिया है.’’

हंसते हुए उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘राजू, वहां तेरे बिना मेरा मन भी तो नहीं लगता था. इस कारण भी तेरे मातापिता ने मुझे आश्रम भेज दिया.’’

‘‘मैं सब समझता हूं. वे हम दोनों को प्यार नहीं करते, इसी कारण घर से निकाल दिया है.’’

उन्होंने प्यार से राजू के माथे को चूमते हुए कहा, ‘‘बेटे, मातापिता के लिए ऐसी बातें नहीं सोचनी चाहिए. वे जो कुछ भी कर रहे हैं, तुम्हारे भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए ही कर रहे हैं. होस्टल में बच्चों के संग तुम्हारा मन लग जाएगा, इसलिए तुम्हें यहां भेजा है.’’

राजू ने अविश्वास से दादी की तरफ देख कर कहा, ‘‘आप कहती हो तो मान लेता हूं,’’ फिर मासूमियत से बोला, ‘‘दादी, अपने घर में कब ले चलोगी?’’

कमला की आंखों में आंसू तैर आए, जिन्हें उन्होंने बड़े कौशल से पी कर कहा, ‘‘बेटे, हमारे घर में सभी वृद्ध लोग हैं. वहां तुम्हारा मन नहीं लगेगा. हम हीतुम्हारे पास आते रहेंगे.’’

वृद्धाश्रम लौटने पर काफी देर उन का मन उदास रहा. फिर उन के भीतर से आवाज आई, ‘तुझे भावुकता में बह कर अपने ध्येय को नहीं भूलना. तेरा लक्ष्य तेरे सामने है. इस समय बीस हाथ तेरी सहायता के लिए तैयार हैं. ये हाथ दिनोंदिन बढ़ते ही जाएंगे. सफलता तुझे पुकारपुकार कर कह रही है, आगे बढ़ती जा, ‘यह सोचते ही अदम्य उत्साह से वे उठ खड़ी हुईं.

दूसरे दिन कमला ने आश्रम के वृद्धों से कहा, ‘‘आप लोगों के पास जो भी कोठियां हैं, अगर आप खुशीखुशी उन्हें वृद्धाश्रम बनाने के लिए दे सकें, तो जो व्यय हम इस वृद्धाश्रम पर कर रहे हैं, वही हम अपने आश्रम पर खर्च करेंगे. हम सभी मिल कर उन्हें आवश्यक सामान से सुसज्जित कर कई वृद्ध आश्रम बना सकते हैं. मेरे पास जितनी संपत्ति है, उसे मैं वृद्धाश्रमों को दे रही हूं. यह सही है कि इस उम्र में हम थक सकते हैं पर जिस उत्साह से हम कार्य करेंगे, उस से शायद किसी को भी थकावट महसूस नहीं होगी.’’

हर वृद्ध, जिस के पास पैसा था, ने वह दिया और जिस के पास कोठी भी थी, उस ने सहर्ष कोठी तथा पैसा दोनों ही दिए. जब वृद्धों ने अपनीअपनी कोठियां खाली करवानी शुरू कीं तो रिश्तेदारों के होश उड़ गए. इस प्रकार कई कोठियां खाली हो गईं. अब उन वृद्धों ने बड़े उत्साह से उन में आवश्यक सामान तथा नौकरों का बंदोबस्त करना शुरू कर दिया.

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समाचारपत्रों में इन वृद्ध आश्रमों की प्रशंसा में कौलम भर गए. मध्यवर्गीय परिवार के वृद्धों को प्राथमिकता मिली. हर वृद्धाश्रम का ट्रस्ट बना दिया गया, ताकि जिन्होंने पैसा दिया है, उन की मृत्यु के बाद भी वे सुचारु रूप से चलते रहें.

वृद्धों के निराश चेहरों पर रौनक आने लगी. समाज के जो संभ्रांत परिवार थे, उन के यहां एक अनोखा परिवर्तन आया. परिवार की युवा पीढ़ी जहां सतर्क हुई, वहीं वृद्धों के प्रति उन के व्यवहार में भी परिवर्तन आया और उन की पूरी देखभाल होने लगी.

कमला तथा अन्य वृद्धों, जिन्होंने इन आश्रमों को बनवाने में अपना पूरा सहयोग दिया था, की देखादेखी बहुत से रईसों ने अपना पैसा तथा सहयोग देना शुरू

कर दिया क्योंकि वे स्वजनों के व्यवहारपरिवर्तन के इस छलावे को समझ चुके थे और किसी न किसी रूप में इन वृद्धाश्रमों से संपर्क बनाने की चेष्टा में लग गए थे. एक तरफ वाहवाही की चाह थी, तो दूसरी ओर परोपकार की भावना जोर मार रही थी. हृदय के किसी कोने में प्रतिकार भी था.

कमला वृद्धाश्रम के एक कक्ष में बैठी विचारों में मगन थीं. उन के चहेरे पर वेदना और शांति के भावों का अनोखा मिश्रण झलक रहा था. अब उन्होंने जाना कि कांटों की शय्या पर सोया प्राणी ही कुछ करने की क्षमता रखता है. जिस सत्कार्य को करने का उन्होंने बीड़ा उठाया था, उस को प्रेरणा देने वाला उन के बेटेबहू का व्यवहार ही तो था. कमला ने महसूस किया कि देने से बड़ा सुख और कोई नहीं है. दूसरों को सहायता तथा सुख पहुंचा कर अपने हृदय को कितनी शांति और सुकून मिलता है. उन्होंने जीवन का सब से बड़ा सुख पा लिया था.

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बदलाव: भाग 3

अवधेश सिंह के 2 बेटे थे. दोनों ही शादीशुदा थे. गांव में खेतीकिसानी करते थे. बेटों ने दूसरी शादी का विरोध किया, तो उस ने उन से रिश्ता ही तोड़ लिया. दरअसल, अवधेश सिंह औरत के बिना नहीं रह सकता था. वह वासना का भेडि़या था. भोलीभाली और गरीब लड़कियों को बहलाफुसला कर वह अपने घर लाता था, फिर तरहतरह का लोभ दिखा कर उन के साथ मनमानी करता था.

अवधेश सिंह सुबहसवेरे कभीकभी गंगा स्नान के लिए भी जाता था. उस दिन सुबह 8 बजे गए, तो उर्मिला पर उस की नजर चली गई. वह समझ गया कि उर्मिला कहीं दूर देहात की है. वह उस के चाल में जल्दी आ जाएगी.

वह उसे अपने घर ले जाने में कामयाब भी हो गया. अवधेश सिंह उर्मिला को निहायत ही भोलीभाली समझता था, पर वह उस की चालाकी समझ नहीं पाया. उसे लगा कि वह उर्मिला की बात मान लेगा, तो वह राजीखुशी उस का बिस्तर गरम कर देगी. फिर तो वह उर्मिला का दिल जीतने के लिए जीतोड़ कोशिश करने लगा. उस की हर जरूरत पर ध्यान देने लगा. महंगे से महंगा गिफ्ट भी वह उसे देने लगा.

इस तरह 10 दिन और बीत गए. इस बीच उर्मिला को राधेश्याम की कोई खबर नहीं मिली. उस के बाद एक दिन अचानक उर्मिला ने पति राधेश्याम को छोड़ अवधेश सिंह के साथ एक नई जिंदगी की शुरुआत करने का फैसला किया. हुआ यह कि एक दिन अवधेश सिंह दफ्तर से लौट कर रात में घर आया. उस समय रतन सो चुका था. आते ही उस ने उर्मिला को अपने कमरे में बुलाया. उर्मिला कमरे में आई, तो अवधेश सिंह ने झट से दरवाजा बंद कर दिया.

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वह उर्मिला से बोला, ‘‘तुम मान जाओगी, तो जो कुछ कहोगी, वह सबकुछ करूंगा. तुम चाहोगी तो तुम से शादी भी कर सकता हूं.’’ उर्मिला उलझन में पड़ गई. बेशक, वह गांव से पति की तलाश में निकली थी, मगर शहरी चकाचौंध ने पति से उस का मोह भंग कर दिया था. अब वह गांव की नहीं, शहरी जिंदगी जीना चाहती थी.

अवधेश सिंह के प्रस्ताव पर वह यह सोचने लगी कि उस का पति मिल भी गया तो क्या वह अवधेश सिंह की तरह ऐशोआराम की जिंदगी दे पाएगा? अवधेश सिंह की उम्र भले ही उस से ज्यादा थी, मगर उस के पास दौलत की कमी नहीं थी. उस ने अवधेश सिंह का प्रस्ताव स्वीकार करने का फैसला किया.

अवधेश सिंह अपनी बात से मुकर न जाए, इसलिए उर्मिला ने लिखवा लिया कि वह उस से शादी करेगा. उस के बाद उर्मिला ने अपनेआप को उस के हवाले कर दिया. उर्मिला को पा कर अवधेश सिंह की खुशी का ठिकाना न रहा. उस ने अगले हफ्ते ही उस से शादी करने का फैसला किया.

उर्मिला भी जल्दी से जल्दी अवधेश सिंह से शादी कर लेना चाहती थी. 2 दिन बाद ही उस ने अपने भाई रतन को गांव जाने वाली ट्रेन में बिठा दिया. उस से कह दिया कि वह गांव लौट कर नहीं जाएगी. अवधेश सिंह के साथ शहर में ही रहेगी. शादी के 2 दिन बाकी थे, तो अचानक राधेश्याम के रूममेट राघव के फोन पर उर्मिला को बताया कि गणपत गांव से आ गया है.

उर्मिला हर हाल में अवधेश सिंह से शादी करना चाहती थी, इसलिए वह राधेश्याम का पता लगाने नहीं गई. तय समय पर उस ने अवधेश सिंह से शादी कर ली. एक महीने बाद अवधेश सिंह की गैरहाजिरी में राधेश्याम उर्मिला से मिला. ‘‘कहां थे इतने दिन…?’’ उर्मिला ने पूछा.

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‘‘गांव से आने के बाद मैं एक अमीर विधवा औरत के प्रेमजाल में फंस गया था. अब मैं उस के साथ नहीं रहना चाहता.

‘‘गणपत से मुझे जैसे ही पता चला कि तुम अवधेश सिंह के घर पर हो, मैं यहां चला आया. अब मैं तुम्हारे साथ गांव लौट जाना चाहता हूं.’’

‘‘आप ने आने में बहुत देर कर दी. मैं ने अवधेश सिंह से शादी कर ली है. अब मैं आप के साथ नहीं जा सकती.’’ राधेश्याम सबकुछ समझ गया. उस ने उर्मिला से फिर कुछ नहीं कहा और चुपचाप वहां से लौट गया.

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बदलाव: भाग 2

‘दरअसल, उसे किसी अमीर औरत से प्यार हो गया था. वह उसी के साथ रहने चला गया था,’ 3 दोस्तों में से एक दोस्त ने बताया. उर्मिला को लगा, जैसे उस के दिल की धड़कन बंद हो जाएगी और वह मर जाएगी. उस के हाथपैर सुन्न हो गए थे, मगर जल्दी ही उस ने अपनेआप को काबू में कर लिया.

उर्मिला ने पूछा, ‘वह औरत कहां रहती है?’

तीनों में से एक ने कहा, ‘यह हम तीनों में से किसी को पता नहीं है. सिर्फ गणपत को पता है. उस औरत के बारे में हम लोगों ने उस से बहुत पूछा था, मगर उस ने बताया नहीं था. ‘उस का कहना था कि उस ने राधेश्याम से वादा किया है कि उस की प्रेमिका के बारे में वह किसी को कुछ नहीं बताएगा.’

‘गणपत कौन…’ उर्मिला ने पूछा.

‘वह हम लोगों के साथ ही रहता है. अभी वह गांव गया हुआ है. वह एक महीने बाद आएगा. आप पूछ कर देखिएगा. शायद, वह आप को बता दे.’

‘मगर, तब तक मैं रहूंगी कहां?’

‘चाहें तो आप इसी कमरे में रह सकती हैं. रात में हम लोग इधरउधर सो लेंगे.’ मगर उर्मिला उन लोगों के साथ रहने को तैयार नहीं हुई. उसे पति की बात याद आ गई थी. गांव से विदा लेते समय राधेश्याम ने उस से कहा था, ‘मैं तुम्हें ले जा कर अपने साथ रख सकता था, मगर दोस्तों पर भरोसा करना ठीक नहीं है.

‘वैसे तो वे बहुत अच्छे हैं. मगर कब उन की नीयत बदल जाए और तुम्हारी इज्जत पर दाग लगा दें, इस की कोई गारंटी नहीं है.’ उर्मिला अपने भाई रतन के साथ बड़ा बाजार की एक धर्मशाला में चली गई. धर्मशाला में उसे सिर्फ 3 दिन रहने दिया गया. चौथे दिन वहां से उसे जाने के लिए कह दिया गया, तो मजबूर हो कर उसे धर्मशाला छोड़नी पड़ी.

अब उर्मिला अपने भाई रतन के साथ गंगा किनारे बैठी थी कि अचानक उस के पास एक 40 साला शख्स आया. पहले उस ने उर्मिला को ध्यान से देखा, उस के बाद कहा, ‘‘लगता है कि तुम यहां पर नई हो. कहीं और से आई हो. काफी चिंता में भी हो. कोई परेशानी हो, तो बताओ. मैं मदद करूंगा…’’

वह शख्स उर्मिला को हमदर्द लगा. उस ने बता दिया कि वह कहां से और क्यों आई है.

वह शख्स उस के पास बैठ गया. अपनापन जताते हुए उस ने कहा, ‘‘मेरा नाम अवधेश सिंह है. मेरा घर पास ही में है. जब तक तुम्हारा पति मिल नहीं जाता, तब तक तुम मेरे घर में रह सकती हो. तुम्हें कोई परेशानी नहीं होगी.

‘‘मेरी जानपहचान बहुतों से है. तुम्हारे पति को मैं बहुत जल्दी ढूंढ़ निकालूंगा. जरूरत पड़ने पर पुलिस की मदद भी लूंगा.’’ कुछ सोचते हुए उर्मिला ने कहा, ‘‘अपने घर ले जा कर मेरे साथ कुछ गलत हरकत तो नहीं करेंगे?’’

‘‘तुम पति की तलाश करना चाहती हो, तो तुम्हें मुझ पर यकीन करना ही होगा.’’

‘‘आप के घर में कौनकौन हैं?’’

‘‘यहां मैं अकेला रहता हूं. मेरा बेटा और परिवार गांव में रहता है. मेरी पत्नी नहीं है. उस की मौत हो चुकी है.’’

‘‘तब तो मैं हरगिज आप के घर नहीं रह सकती. अकेले में आप मेरे साथ कुछ भी कर सकते हैं.’’ अवधेश सिंह ने उर्मिला को हर तरह से समझाया. उसे अपनी शराफत का यकीन दिलाया. आखिरकार उर्मिला अपने भाई रतन के साथ अवधेश सिंह के घर पर इस शर्त पर आ गई कि वह उस के घर का सारा काम कर दिया करेगी. उस का खाना भी बना दिया करेगी.

अवधेश सिंह के फ्लैट में 2 कमरे थे. एक कमरा उस ने उर्मिला को दे दिया. शुरू में उर्मिला अवधेश सिंह को निहायत ही शरीफ समझती थी, मगर 10 दिन होतेहोते उस का असली रंग सामने आ गया. अवधेश सिंह अकसर किसी न किसी बहाने से उस के पास आ जाता था. यहां तक कि जब वह रसोईघर में खाना बना रही होती, तो वह उस के करीब आ कर चुपके से उस का अंग छू देता था. कभीकभी तो उस की कमर को भी छू लेता था.

उर्मिला को यह समझते देर नहीं लगी कि उस का मन बेईमान है. वह उस का जिस्म पाना चाहता है.

एक बार उर्मिला का मन हुआ कि वह उस का घर छोड़ कर कहीं और चली जाए, मगर इस विचार को उस ने यह सोच कर तुरंत दिमाग से हटा दिया कि वह जाएगी तो कहां जाएगी? क्या पता दूसरी जगह कोई उस से भी घटिया इनसान मिल जाए.

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गणपत के गांव से लौट आने तक उर्मिला को कोलकाता में रहना ही था. उस ने मीठीमीठी रोमांटिक बातों से अवधेश सिंह को उलझा कर रखने का फैसला किया. एक दिन उर्मिला रसोईघर में काम कर रही थी, अचानक वह वहां आ गया. उसी समय किसी चीज के लिए उर्मिला झुकी, तो ब्लाउज के कैद से उस के उभारों का कुछ भाग दिखाई पड़ गया.

फिर तो अवधेश सिंह अपनेआप को काबू में न रख सका. झट से उस ने कह दिया, ‘‘मैं तुम्हें प्यार करने लगा हूं. तुम मेरी बन जाओ.’’

सही मौका देख कर उर्मिला ने अवधेश सिंह पर अपनी बातों का जादू चलाने का निश्चय कर लिया.

उर्मिला ने भी झट से कहा, ‘‘मैं भी अपना दिल आप को दे चुकी हूं.’’

अवधेश सिंह खुशी से झूम उठा. उस का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘सच कह रही हो तुम?’’

‘‘आप तो अच्छे आदमी नहीं हैं. मैं तो आप को शरीफ समझ कर अपना दिल दे बैठी थी, मगर आप ने तो मेरा हाथ पकड़ लिया.’’

अवधेश सिंह ने तुरंत हाथ छोड़ कर कहा, ‘‘तो क्या हो गया?’’

‘‘मेरी एक मुंहबोली भाभी कहती हैं कि किसी का प्यार कबूल करने से पहले कुछ समय तक उस का इम्तिहान लेना चाहिए.

‘‘वे कहती हैं कि जो आदमी झट से हाथ लगा दे, वह मतलबी होता है. प्यार का वास्ता दे कर जिस्म हासिल कर लेता है. उस के बाद छोड़ देता है, इसलिए ऐसे आदमियों के जाल में नहीं फंसना चाहिए.’’ ‘‘तुम मुझे गलत मत समझो उर्मिला. मैं मतलबी नहीं हूं, न ही मेरी नीयत खराब है. तुम जितना चाहो इम्तिहान ले लो, मुझे हमेशा खरा प्रेमी पाओगी.’’

‘‘तो फिर हाथ क्यों पकड़ लिया?’’

‘‘बस यों ही दिल मचल गया था.’’

‘‘दिल पर काबू रखिए. जबतब मचलने मत दीजिए. एक बात साफ बता देती हूं. ध्यान से सुन लीजिए.

‘‘अगर आप मेरा प्यार पाना चाहते हैं, तो सब्र से काम लेना होगा. जिस दिन यकीन हो जाएगा कि आप मेरे प्यार के काबिल हैं, उस दिन हाथ ही नहीं, पैर भी पकड़ने की छूट दे दूंगी. तब तक आप सिर्फ बातों से प्यार जाहिर कीजिए. हाथ न लगाइए.’’

‘‘वह दिन कब आएगा?’’ अवधेश सिंह ने पूछा.

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‘‘कम से कम एक महीना तो लगेगा.’’ उर्मिला की चालाकी अवधेश सिंह समझ नहीं पाया और उस की शर्त को मान लिया. अवेधश सिंह सरकारी अफसर था. कोलकाता में वह अकेला ही रहता था. जब तक उस की पत्नी जिंदा थी, वह साल में 4-5 बार गांव जाता था. पत्नी की मौत के बाद उस ने गांव जाना ही छोड़ दिया था. बात यह थी कि पत्नी की मौत के बाद उस ने दूसरी शादी करने का निश्चय किया, जिस का उस के बेटों ने पुरजोर विरोध किया था.

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घुट-घुट कर क्यों जीना: भाग 3

मैं ने उस घर के बाहर जा कर दरवाजा खटखटाया. अंदर से कुछ आवाज आई, पर किसी ने दरवाजा नहीं खोला. मैं आगे वाले दरवाजे पर गई, फिर दरवाजा खटखटाया. इस बार दरवाजा खुल गया.

अंदर से वह औरत नाइटी पहने आई. उस के पति भी उस के साथ थे. मेरी जान में जान आ गई. जो मैं सोच रही थी, वह सच नहीं था.

‘क्या हुआ नमन की मम्मी, इतनी रात गए आप यहां? सब ठीक तो है न?’

‘हां, वह नमन के पापा घर पर नहीं थे. जरा उन्हें फोन कर के पूछ लीजिए, मुझे संतुष्टि हो जाएगी.’

‘जी, अभी करता हूं फोन,’ उन्होंने हिचकिचाते हुए कहा.

उन्होेंने फोन मिलाया तो मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. फोन की घंटी की आवाज पिछले कमरे से आ रही थी. वे वहीं थे.

मैं तेजी से उस कमरे की तरफ गई. पवन अधनंगे मेरे सामने खड़े थे. मेरी आंखों से आंसू फूट पड़े. मेरी दुनिया उस एक पल में रुक सी गई.

‘यह क्या धंधा लगा रखा है यहां… यह है आप का काम… यहां जा रही है आप की सारी कमाई… यह है आप की ऐयाशी…’

मेरी हालत उस पल में क्या थी, यह तो शायद ही मैं बयां कर पाऊं, लेकिन जवाब में पवन ने जो कहा, वह सुन कर मुझ में बचाखुचा जो आत्मसम्मान था, जो जान थी, सब मिट्टी में मिल गए.

‘इस में गलत क्या है? तुझ में बचा ही क्या है. तुझे जाना है तो सामान बांध कर निकल जा मेरे घर से,’ पवन कपड़े पहनते हुए बोले.

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मैं वहां से निकल गई. घर आई तो खुद पर अपने वजूद पर शर्म आई. मन तो किया कि सब छोड़छाड़ कर भाग जाऊं कहीं, मर जाऊं कहीं जा कर. पर बच्चों की शक्ल आंखों के सामने आ गई. उन्हें छोड़ कर मर गई तो वह कुलटा मेरे बच्चों को खा कर अपने बच्चों का पेट पालेगी. नहीं, मैं नहीं मरूंगी, मैं नहीं हारूंगी.

अगले दिन पवन घर आए तो न मैं ने उन से बात की और न उन्होंने. उन्हें खाना बना कर दिया जरूर, लेकिन वैसे ही जैसे घर की नौकरानी देती है.

अगले ही दिन जा कर मैं फिर से अपने काम पर लग गई. उस औरत का चक्कर तो पवन के मम्मीपापा के कानों तक पहुंचा तो उन्होंने छुड़वा दिया, लेकिन इस से मुझे क्या फर्क पड़ा,

पता नहीं.

शायद, मैं बहुत खुश थी क्योंकि पति तो आखिर पति ही है, वह चाहे कुछ भी करे. रिश्ते यों ही खत्म तो नहीं हो सकते न.

पवन ने मुझे से माफी मांगी तो मैं ने उन्हें कुछ दिनों में माफ भी कर दिया. जिंदगी पटरी पर तो आ गई थी, पर टूटी और चरमराई पटरी पर…

नमन और मीनू दोनों अब 22 साल और 24 साल के हैं. उन की मां आज भी कोठी मैं बरतन मांजती है. सिर के ऊपर अपनी छत नहीं है, क्योंकि बाप तो पहले ही उसे बेच कर खा गया. दोनों ने किसी तरह अपनी पढ़ाई पूरी की, यहांवहां से पैसे कमाकमा कर.

पवन की तो खुद की नौकरी का कोई ठिकाना तक नहीं है, कभी पी कर चले जाते हैं तो धक्के मार कर निकाल दिए जाते हैं. जिस उम्र में लोगों के बच्चे कालेज में पढ़ाई करते हैं, मेरे बच्चों को नौकरी करनी पड़ रही है. यह दुख मुझे खोखला करता है, हर दिन, हर पल.

हां, लेकिन मेरे बच्चे पढ़ेलिखे हैं. मेरा बेटा शराब या जुए का आदी नहीं है और न ही मेरी बेटी को कभी अपनी जिंदगी में किसी के घर में जूठे बरतन मांजने पड़ेंगे. वह मेरी तरह कभी रोएगी नहीं, घुटेगी नहीं उस तरह जिस तरह मैं घुटघुट कर जी हूं.

पवन एक जिम्मेदार बाप नहीं बन सके, मैं शायद जिम्मेदार मां बन गई. पवन से बैर करूं भी तो क्या, उन्होंने मुझे नमन और मीनू दिए हैं, जिस के लिए मैं उन की हमेशा एहसानमंद रहूंगी, लेकिन जिस जिंदगी के ख्वाब मैं देखा करती थी, वह हाथ तो आई, पर कभी मुंह न लगी.

‘‘सुन लिया तू ने. अब मैं सो जाऊं?’’

‘‘बस, एक सवाल और है.’’

‘‘पूछ…’’

‘‘आप ने जिंदगीभर इतना कुछ क्यों सहा? पापा को छोड़ क्यों नहीं दिया? मैं आप की जगह होती तो शायद ऐसे इनसान के साथ कभी न रहती.’’

‘‘मैं 12 साल की थी तो दुनिया से बहुत डरती थी, लेकिन ऐसे दिखाती थी कि चाहे शेर भी आ जाए तो मैं शेरनी बन कर उस से लड़ बैठूंगी. पर मैं अंदर ही अंदर बहुत डरती थी. तेरे पापा इस दुनिया के पहले इनसान थे जिन्होंने मेरे डर को जाना था.

‘‘जब मैं ने उन्हें जाना तो लगा कि इस भीड़ में कोई अपना मिल गया है. उन की आंखों में मेरे लिए जो प्यार था, वह कहीं और नहीं था.

‘‘जब मेरे सपने बिखरे, जब उन्होंने मुझे धोखा दिया, जब उन्होंने मुझे अनचाहा महसूस कराया, तो मैं फिर अकेली हो गई, डर गई थी मैं.

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‘‘कभीकभी तो लगता था घुटघुट कर जीना है तो जीया ही क्यों जाए, पर जब तुम दोनों के चेहरे देखती तो लगता था, जैसे तुम ही हो मेरी हिम्मत और अगर मैं टूट गई तो तुम्हें कैसे संभालूंगी.

‘‘तुम दोनों मुझ से छिन जाते या मेरे बिना तुम्हें कुछ हो जाता, मैं यह बरदाश्त नहीं कर सकती थी. तो बस जिंदगी जैसी थी, उसे अपना लिया मैं ने.’’

घुट-घुट कर क्यों जीना: भाग 1

मुझे यह तो पता था कि वे कभीकभार थोड़ीबहुत शराब पी लेते हैं, पर यह नहीं पता था कि उन का पीना इतना बढ़ जाएगा कि आज मेरे साथसाथ बच्चों को भी उन से नफरत होने लगेगी.

मैं ने उम्रभर जोकुछ सहा, जोकुछ किया, वह बस अपने बच्चों के लिए ही तो था, मगर मैं ने कभी यह क्यों नहीं सोचा कि बड़े होने पर मेरे बच्चे ऐसे पिता को कैसे स्वीकारेंगे जो उन के लिए कभी एक आदर्श पिता बन ही नहीं पाए.

बात तब की है, जब मेरा घर कोलकाता में हुआ करता था. गरीब परिवार था. एक बहन और एक भाई थे, जिन के साथ बिताया बचपन बहुत ज्यादा यादगार था.

मुझे तालाब में गोते लगाने का बहुत शौक था. मैं पेड़ से आम तोड़ कर लाया करती थी. जिंदगी कितनी अच्छी थी उस वक्त. दिनभर बस खेलते ही रहना. स्कूल तो जाना होता नहीं था.

मम्मी ने उस वक्त यह कह कर स्कूल में दाखिला नहीं कराया था कि पढ़ाईलिखाई लड़कियों का काम नहीं है.

मैं 13 साल की थी, जब मम्मीपापा का बहुत बुरा झगड़ा हुआ था. मम्मी भाई को गोद में उठा कर अपने साथ ले गईं. कहां ले गईं, पापा ने नहीं बताया.

पापा के ऊपर अब मेरी और दीदी की जिम्मेदारी थी, वह जिम्मेदारी जिसे उठाने में न उन्हें कोई दिलचस्पी थी, न फर्ज लगता था.

वे मुझे गांव की एक कोठी में ले गए और वहां झाड़ूपोंछे के काम में लगा दिया. मुझे वह काम ज्यादा अच्छे से तो नहीं आता था, पर मैं सीख गई. दीदी भी किसी दूसरी कोठी में काम करती थीं.

हम जहां काम करती थीं, वहीं रहती भी थीं इसलिए हमारा मिलना नहीं हो पाता था. मुझे घर की याद आती थी. कभीकभी मन करता था कि घर भाग जाऊं, लेकिन फिर खयाल आता कि अब वहां अपना है ही कौन.

मम्मी ने तो पहले ही अपनी छोटी औलाद के चलते या कहूं बेटा होने के चलते भाई को थाम लिया था.

मुझे उस कोठी में काम करते हुए 2 महीने ही हुए थे जब बड़े साहब की बेटी दिल्ली से आई थीं. उन्होंने मुझे काम करते देखा तो साहब से कहा कि दिल्ली में अच्छी नौकरानियां नहीं मिलती हैं. इस लड़की को मुझे दे दो, अच्छा खिलापहना तो दूंगी ही.

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बड़े साहब ने 2 मिनट नहीं लगाए और फैसला सुना दिया कि मैं अब शहर जाऊंगी.

मेरे मांबाप ने मुझे पार्वती नाम दिया था, शहर आ कर मेमसाहब ने मुझे पुष्पा नाम दे दिया. मुझे शहर में सब पुष्पा ही बुलाते थे. गांव में शहर के बारे में जैसा सुना था, यह बिलकुल वैसा ही था, बड़ीबड़ी सड़कें, मीनारों जैसी इमारतें, गाडि़यां और टीशर्ट पहनने वाली लड़कियां. सब पटरपटर इंगलिश बोलते थे वहां. कितनाकुछ था शहर में.

मेरी उम्र तब 17 साल थी. एक दिन जब मैं बरामदे में कपड़े सुखा रही थी, बगल वाले घर में काम करने वाली आंटी का बेटा मेमसाहब से पैसे मांगने आया था. वह देखने में सुंदर था, मेरी उम्र का ही था, गोराचिट्टा रंग और काले घने बाल.

मैं ने उस लड़के की तरफ देखा तो उस ने भी नजरें मेरी तरफ कर लीं. उस ने जिस तरह मुझे देखा था, उस तरह आज से पहले किसी और लड़के ने नहीं देखा था.

मेमसाहब के घर में सब बड़े मुझे बेटी की तरह मानते थे. उन के बच्चों की मैं ‘दीदी’ थी. घर में कोई मेहमान आता भी था तो मुझ जैसी नौकरानी पर किसी की नजर पड़ती भी तो क्यों? यह पहला लड़का था जिस का मुझे इस तरह देखना कुछ अलग सा लगा, अच्छा लगा.

अब वह रोज किसी न किसी बहाने यहां आया करता था. कभी आंटी को खाना देने, कभी कुछ सामान लेने या देने, कभी पैसे लौटाने और कभी तो अपने भाईबहनों की शिकायत ले कर. मैं उसे रोज देखा करती थी, कभीकभार तो मुसकरा भी दिया करती थी.

एक दिन मैं गेट के बाहर निकल कर झाड़ू लगा रही थी. तब वह लड़का मेरे पास आया और मुझ से मेरा नाम पूछा.

मैं ने उसे अपना नाम पुष्पा बताया. मैं ने उस का नाम पूछा तो उस ने अपना नाम पवन बताया.

‘हमारे नाम ‘प’ अक्षर से शुरू होते हैं,’ मुझे तो यही सोच कर मन ही मन खुशी होने लगी. उस ने मुझ से कहा कि उसे मैं पसंद हूं. मैं ने भी बताया कि मुझे भी वह अच्छा लगता है.

अब पवन अकसर मुझ से मिलने आया करता था. एक दिन जब वह आया तो साथ में एक अंगूठी भी लाया. वह सोने की अंगूठी थी. मेरी तो हवाइयां उड़ गईं. मेरे पास हर महीने मिलने वाली तनख्वाह के पैसों से खरीदी हुई एक सोने की अंगूठी थी और कान के कुंडल भी थे, लेकिन आज तक मेरे लिए इतना महंगा तोहफा कोई नहीं लाया था, कोई भी नहीं.

वैसे भी अपना कहने वाला मेरे पास था ही कौन? मेरी आंखों में आंसू थे. मैं रो पड़ी, तो उस ने मुझे गले से लगा लिया. मन हुआ कि बस इसी तरह, इसी तरह अपनी पूरी जिंदगी इन बांहों में गुजार दूं.

मैं ने पवन से शादी करने का मन बना लिया था. मेमसाहब को सब बताया तो वे भी बहुत खुश हुईं. मैं ने और पवन ने मंदिर में शादी कर ली. अब पवन मेरा सिर्फ प्यार नहीं थे, पति बन चुके थे.

हमारी शादी में उन का पूरा परिवार आया था और मेरे पास परिवार के नाम पर कोई नहीं था. मेमसाहब भी नहीं आई थीं. हां, उन्होंने कुछ तोहफे जरूर भिजवाए थे.

शादी को 2 हफ्ते ही बीते थे कि एक दिन पवन खूब शराब पी कर घर आए. उन की हालत सीधे खड़े होने की भी नहीं थी.

‘आप ने शराब पी है?’

‘हां.’

‘आप शराब कब से पीने लगे?’

‘हमेशा से.’

‘आप ने मुझे बताया क्यों नहीं?’

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‘चुप हो जा… सिर मत खा. चल, अलग हट,’ कहते हुए पवन ने मुझे इतनी तेज धक्का दिया कि मैं जमीन पर जा कर गिरी. मेरी चूडि़यां टूट कर हाथ में धंस गईं.

मैं पूरी रात नहीं सो पाई. शराब पीने के बाद इनसान इनसान नहीं रहता है, यह मैं बखूबी जानती थी.

मैं ने अगली सुबह पवन से बात नहीं की तो वे शाम को भी शराब पी कर घर आए. मैं ने पूछा नहीं, पर उन्होंने खुद ही कह दिया कि मेरी मुंह फुलाई शक्ल से मजबूर हो कर पी है.

अगले दिन वे मेरे लिए गजरा ले आए. मैं थोड़ा खुश भी हुई थी, पर वह खुशी शायद मेरी जिंदगी में ठहरने के लिए कभी आई ही नहीं.

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