Serial Story: प्यार अपने से

वे 3 दिन: इंसान अपनी नई सोच से मौडर्न बनता है!

घुट-घुट कर क्यों जीना: भाग 3

मैं ने उस घर के बाहर जा कर दरवाजा खटखटाया. अंदर से कुछ आवाज आई, पर किसी ने दरवाजा नहीं खोला. मैं आगे वाले दरवाजे पर गई, फिर दरवाजा खटखटाया. इस बार दरवाजा खुल गया.

अंदर से वह औरत नाइटी पहने आई. उस के पति भी उस के साथ थे. मेरी जान में जान आ गई. जो मैं सोच रही थी, वह सच नहीं था.

‘क्या हुआ नमन की मम्मी, इतनी रात गए आप यहां? सब ठीक तो है न?’

‘हां, वह नमन के पापा घर पर नहीं थे. जरा उन्हें फोन कर के पूछ लीजिए, मुझे संतुष्टि हो जाएगी.’

‘जी, अभी करता हूं फोन,’ उन्होंने हिचकिचाते हुए कहा.

उन्होेंने फोन मिलाया तो मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. फोन की घंटी की आवाज पिछले कमरे से आ रही थी. वे वहीं थे.

मैं तेजी से उस कमरे की तरफ गई. पवन अधनंगे मेरे सामने खड़े थे. मेरी आंखों से आंसू फूट पड़े. मेरी दुनिया उस एक पल में रुक सी गई.

‘यह क्या धंधा लगा रखा है यहां… यह है आप का काम… यहां जा रही है आप की सारी कमाई… यह है आप की ऐयाशी…’

मेरी हालत उस पल में क्या थी, यह तो शायद ही मैं बयां कर पाऊं, लेकिन जवाब में पवन ने जो कहा, वह सुन कर मुझ में बचाखुचा जो आत्मसम्मान था, जो जान थी, सब मिट्टी में मिल गए.

‘इस में गलत क्या है? तुझ में बचा ही क्या है. तुझे जाना है तो सामान बांध कर निकल जा मेरे घर से,’ पवन कपड़े पहनते हुए बोले.

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मैं वहां से निकल गई. घर आई तो खुद पर अपने वजूद पर शर्म आई. मन तो किया कि सब छोड़छाड़ कर भाग जाऊं कहीं, मर जाऊं कहीं जा कर. पर बच्चों की शक्ल आंखों के सामने आ गई. उन्हें छोड़ कर मर गई तो वह कुलटा मेरे बच्चों को खा कर अपने बच्चों का पेट पालेगी. नहीं, मैं नहीं मरूंगी, मैं नहीं हारूंगी.

अगले दिन पवन घर आए तो न मैं ने उन से बात की और न उन्होंने. उन्हें खाना बना कर दिया जरूर, लेकिन वैसे ही जैसे घर की नौकरानी देती है.

अगले ही दिन जा कर मैं फिर से अपने काम पर लग गई. उस औरत का चक्कर तो पवन के मम्मीपापा के कानों तक पहुंचा तो उन्होंने छुड़वा दिया, लेकिन इस से मुझे क्या फर्क पड़ा,

पता नहीं.

शायद, मैं बहुत खुश थी क्योंकि पति तो आखिर पति ही है, वह चाहे कुछ भी करे. रिश्ते यों ही खत्म तो नहीं हो सकते न.

पवन ने मुझे से माफी मांगी तो मैं ने उन्हें कुछ दिनों में माफ भी कर दिया. जिंदगी पटरी पर तो आ गई थी, पर टूटी और चरमराई पटरी पर…

नमन और मीनू दोनों अब 22 साल और 24 साल के हैं. उन की मां आज भी कोठी मैं बरतन मांजती है. सिर के ऊपर अपनी छत नहीं है, क्योंकि बाप तो पहले ही उसे बेच कर खा गया. दोनों ने किसी तरह अपनी पढ़ाई पूरी की, यहांवहां से पैसे कमाकमा कर.

पवन की तो खुद की नौकरी का कोई ठिकाना तक नहीं है, कभी पी कर चले जाते हैं तो धक्के मार कर निकाल दिए जाते हैं. जिस उम्र में लोगों के बच्चे कालेज में पढ़ाई करते हैं, मेरे बच्चों को नौकरी करनी पड़ रही है. यह दुख मुझे खोखला करता है, हर दिन, हर पल.

हां, लेकिन मेरे बच्चे पढ़ेलिखे हैं. मेरा बेटा शराब या जुए का आदी नहीं है और न ही मेरी बेटी को कभी अपनी जिंदगी में किसी के घर में जूठे बरतन मांजने पड़ेंगे. वह मेरी तरह कभी रोएगी नहीं, घुटेगी नहीं उस तरह जिस तरह मैं घुटघुट कर जी हूं.

पवन एक जिम्मेदार बाप नहीं बन सके, मैं शायद जिम्मेदार मां बन गई. पवन से बैर करूं भी तो क्या, उन्होंने मुझे नमन और मीनू दिए हैं, जिस के लिए मैं उन की हमेशा एहसानमंद रहूंगी, लेकिन जिस जिंदगी के ख्वाब मैं देखा करती थी, वह हाथ तो आई, पर कभी मुंह न लगी.

‘‘सुन लिया तू ने. अब मैं सो जाऊं?’’

‘‘बस, एक सवाल और है.’’

‘‘पूछ…’’

‘‘आप ने जिंदगीभर इतना कुछ क्यों सहा? पापा को छोड़ क्यों नहीं दिया? मैं आप की जगह होती तो शायद ऐसे इनसान के साथ कभी न रहती.’’

‘‘मैं 12 साल की थी तो दुनिया से बहुत डरती थी, लेकिन ऐसे दिखाती थी कि चाहे शेर भी आ जाए तो मैं शेरनी बन कर उस से लड़ बैठूंगी. पर मैं अंदर ही अंदर बहुत डरती थी. तेरे पापा इस दुनिया के पहले इनसान थे जिन्होंने मेरे डर को जाना था.

‘‘जब मैं ने उन्हें जाना तो लगा कि इस भीड़ में कोई अपना मिल गया है. उन की आंखों में मेरे लिए जो प्यार था, वह कहीं और नहीं था.

‘‘जब मेरे सपने बिखरे, जब उन्होंने मुझे धोखा दिया, जब उन्होंने मुझे अनचाहा महसूस कराया, तो मैं फिर अकेली हो गई, डर गई थी मैं.

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‘‘कभीकभी तो लगता था घुटघुट कर जीना है तो जीया ही क्यों जाए, पर जब तुम दोनों के चेहरे देखती तो लगता था, जैसे तुम ही हो मेरी हिम्मत और अगर मैं टूट गई तो तुम्हें कैसे संभालूंगी.

‘‘तुम दोनों मुझ से छिन जाते या मेरे बिना तुम्हें कुछ हो जाता, मैं यह बरदाश्त नहीं कर सकती थी. तो बस जिंदगी जैसी थी, उसे अपना लिया मैं ने.’’

घुट-घुट कर क्यों जीना: भाग 1

मुझे यह तो पता था कि वे कभीकभार थोड़ीबहुत शराब पी लेते हैं, पर यह नहीं पता था कि उन का पीना इतना बढ़ जाएगा कि आज मेरे साथसाथ बच्चों को भी उन से नफरत होने लगेगी.

मैं ने उम्रभर जोकुछ सहा, जोकुछ किया, वह बस अपने बच्चों के लिए ही तो था, मगर मैं ने कभी यह क्यों नहीं सोचा कि बड़े होने पर मेरे बच्चे ऐसे पिता को कैसे स्वीकारेंगे जो उन के लिए कभी एक आदर्श पिता बन ही नहीं पाए.

बात तब की है, जब मेरा घर कोलकाता में हुआ करता था. गरीब परिवार था. एक बहन और एक भाई थे, जिन के साथ बिताया बचपन बहुत ज्यादा यादगार था.

मुझे तालाब में गोते लगाने का बहुत शौक था. मैं पेड़ से आम तोड़ कर लाया करती थी. जिंदगी कितनी अच्छी थी उस वक्त. दिनभर बस खेलते ही रहना. स्कूल तो जाना होता नहीं था.

मम्मी ने उस वक्त यह कह कर स्कूल में दाखिला नहीं कराया था कि पढ़ाईलिखाई लड़कियों का काम नहीं है.

मैं 13 साल की थी, जब मम्मीपापा का बहुत बुरा झगड़ा हुआ था. मम्मी भाई को गोद में उठा कर अपने साथ ले गईं. कहां ले गईं, पापा ने नहीं बताया.

पापा के ऊपर अब मेरी और दीदी की जिम्मेदारी थी, वह जिम्मेदारी जिसे उठाने में न उन्हें कोई दिलचस्पी थी, न फर्ज लगता था.

वे मुझे गांव की एक कोठी में ले गए और वहां झाड़ूपोंछे के काम में लगा दिया. मुझे वह काम ज्यादा अच्छे से तो नहीं आता था, पर मैं सीख गई. दीदी भी किसी दूसरी कोठी में काम करती थीं.

हम जहां काम करती थीं, वहीं रहती भी थीं इसलिए हमारा मिलना नहीं हो पाता था. मुझे घर की याद आती थी. कभीकभी मन करता था कि घर भाग जाऊं, लेकिन फिर खयाल आता कि अब वहां अपना है ही कौन.

मम्मी ने तो पहले ही अपनी छोटी औलाद के चलते या कहूं बेटा होने के चलते भाई को थाम लिया था.

मुझे उस कोठी में काम करते हुए 2 महीने ही हुए थे जब बड़े साहब की बेटी दिल्ली से आई थीं. उन्होंने मुझे काम करते देखा तो साहब से कहा कि दिल्ली में अच्छी नौकरानियां नहीं मिलती हैं. इस लड़की को मुझे दे दो, अच्छा खिलापहना तो दूंगी ही.

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बड़े साहब ने 2 मिनट नहीं लगाए और फैसला सुना दिया कि मैं अब शहर जाऊंगी.

मेरे मांबाप ने मुझे पार्वती नाम दिया था, शहर आ कर मेमसाहब ने मुझे पुष्पा नाम दे दिया. मुझे शहर में सब पुष्पा ही बुलाते थे. गांव में शहर के बारे में जैसा सुना था, यह बिलकुल वैसा ही था, बड़ीबड़ी सड़कें, मीनारों जैसी इमारतें, गाडि़यां और टीशर्ट पहनने वाली लड़कियां. सब पटरपटर इंगलिश बोलते थे वहां. कितनाकुछ था शहर में.

मेरी उम्र तब 17 साल थी. एक दिन जब मैं बरामदे में कपड़े सुखा रही थी, बगल वाले घर में काम करने वाली आंटी का बेटा मेमसाहब से पैसे मांगने आया था. वह देखने में सुंदर था, मेरी उम्र का ही था, गोराचिट्टा रंग और काले घने बाल.

मैं ने उस लड़के की तरफ देखा तो उस ने भी नजरें मेरी तरफ कर लीं. उस ने जिस तरह मुझे देखा था, उस तरह आज से पहले किसी और लड़के ने नहीं देखा था.

मेमसाहब के घर में सब बड़े मुझे बेटी की तरह मानते थे. उन के बच्चों की मैं ‘दीदी’ थी. घर में कोई मेहमान आता भी था तो मुझ जैसी नौकरानी पर किसी की नजर पड़ती भी तो क्यों? यह पहला लड़का था जिस का मुझे इस तरह देखना कुछ अलग सा लगा, अच्छा लगा.

अब वह रोज किसी न किसी बहाने यहां आया करता था. कभी आंटी को खाना देने, कभी कुछ सामान लेने या देने, कभी पैसे लौटाने और कभी तो अपने भाईबहनों की शिकायत ले कर. मैं उसे रोज देखा करती थी, कभीकभार तो मुसकरा भी दिया करती थी.

एक दिन मैं गेट के बाहर निकल कर झाड़ू लगा रही थी. तब वह लड़का मेरे पास आया और मुझ से मेरा नाम पूछा.

मैं ने उसे अपना नाम पुष्पा बताया. मैं ने उस का नाम पूछा तो उस ने अपना नाम पवन बताया.

‘हमारे नाम ‘प’ अक्षर से शुरू होते हैं,’ मुझे तो यही सोच कर मन ही मन खुशी होने लगी. उस ने मुझ से कहा कि उसे मैं पसंद हूं. मैं ने भी बताया कि मुझे भी वह अच्छा लगता है.

अब पवन अकसर मुझ से मिलने आया करता था. एक दिन जब वह आया तो साथ में एक अंगूठी भी लाया. वह सोने की अंगूठी थी. मेरी तो हवाइयां उड़ गईं. मेरे पास हर महीने मिलने वाली तनख्वाह के पैसों से खरीदी हुई एक सोने की अंगूठी थी और कान के कुंडल भी थे, लेकिन आज तक मेरे लिए इतना महंगा तोहफा कोई नहीं लाया था, कोई भी नहीं.

वैसे भी अपना कहने वाला मेरे पास था ही कौन? मेरी आंखों में आंसू थे. मैं रो पड़ी, तो उस ने मुझे गले से लगा लिया. मन हुआ कि बस इसी तरह, इसी तरह अपनी पूरी जिंदगी इन बांहों में गुजार दूं.

मैं ने पवन से शादी करने का मन बना लिया था. मेमसाहब को सब बताया तो वे भी बहुत खुश हुईं. मैं ने और पवन ने मंदिर में शादी कर ली. अब पवन मेरा सिर्फ प्यार नहीं थे, पति बन चुके थे.

हमारी शादी में उन का पूरा परिवार आया था और मेरे पास परिवार के नाम पर कोई नहीं था. मेमसाहब भी नहीं आई थीं. हां, उन्होंने कुछ तोहफे जरूर भिजवाए थे.

शादी को 2 हफ्ते ही बीते थे कि एक दिन पवन खूब शराब पी कर घर आए. उन की हालत सीधे खड़े होने की भी नहीं थी.

‘आप ने शराब पी है?’

‘हां.’

‘आप शराब कब से पीने लगे?’

‘हमेशा से.’

‘आप ने मुझे बताया क्यों नहीं?’

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‘चुप हो जा… सिर मत खा. चल, अलग हट,’ कहते हुए पवन ने मुझे इतनी तेज धक्का दिया कि मैं जमीन पर जा कर गिरी. मेरी चूडि़यां टूट कर हाथ में धंस गईं.

मैं पूरी रात नहीं सो पाई. शराब पीने के बाद इनसान इनसान नहीं रहता है, यह मैं बखूबी जानती थी.

मैं ने अगली सुबह पवन से बात नहीं की तो वे शाम को भी शराब पी कर घर आए. मैं ने पूछा नहीं, पर उन्होंने खुद ही कह दिया कि मेरी मुंह फुलाई शक्ल से मजबूर हो कर पी है.

अगले दिन वे मेरे लिए गजरा ले आए. मैं थोड़ा खुश भी हुई थी, पर वह खुशी शायद मेरी जिंदगी में ठहरने के लिए कभी आई ही नहीं.

घुट-घुट कर क्यों जीना: भाग 2

4 दिन बाद ही अचानक पवन ने काम पर जाना छोड़ दिया. कहने लगे कि मालिक ड्राइविंग के नाम पर सामान उठवाता है तो मैं काम नहीं करूंगा. एक हफ्ते अपने मांबाप के आगे गिड़गिड़ा कर पैसे मांगे और जब पैसे खत्म हो गए तो शुरू हुई हमारी लड़ाइयां.

‘मेरे पास पैसे नहीं हैं,’ पवन ने मेरी ओर देखते हुए कहा.

‘अब तो मालकिन के दिए पैसे भी नहीं हैं मेरे पास,’ मैं ने जवाब दिया.

‘मैं खुद को बेच सकता तो बेच  देता, क्या करूं मैं…’ पवन की आंखों में आंसू थे.

‘घर खर्च के लिए पैसे नहीं हैं तो क्या हुआ, मम्मीपापा दे देंगे हमें.’

‘बात वह नहीं है,’ पवन ने थोड़ा झिझकते हुए कहा.

‘फिर क्या बात है?’ मैं ने हैरानी  से पूछा.

‘वह… वह… मैं ने जुआ खेला है.’

‘जुआ…’ मैं तकरीबन चीख पड़ी.

‘हां, 10,000 रुपए हार गया मैं… कर्जदार आते ही होंगे. मुझे माफ कर दे पुष्पा, मुझे माफ कर दे. आज के बाद न मैं शराब पीऊंगा, न जुआ खेलूंगा, तेरी कसम.’

‘मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं,’ मैं ने बेबस हो कर कहा.

‘तुम्हारे कुंडल और अंगूठी तो हैं.’

एक पल को तो मुझे समझ नहीं आया कि क्या करूं, लेकिन हैं तो वे मेरे पति ही, उन का कहा मैं कैसे झुठला सकती हूं. आखिर अब सिर पर परेशानी आई है तो बोझ भी तो दोनों को उठाना है. साथ भी तो दोनों को ही निभाना है.

मैं ने जिस खुशी से अपने कानों में वे कुंडल और उंगलियों में वे अंगूठियां पहनी थीं, उतने ही दुख से उन्हें उतार कर पवन के सामने रख दिया.

वे सुबह के घर से निकले थे, शाम को आए तो हाथ में मिठाई के 2 डब्बे थे. चाल डगमगाई हुई थी और मुंह से शराब की बू आ रही थी…

उस दिन पवन से जो मेरा विश्वास टूटा, वह शायद फिर कभी जुड़ नहीं पाया. मैं उन से कहती भी तो क्या… करती भी तो क्या… मेरी सुनने वाला था ही कौन.

शादी को 11 साल ही हुए थे और नमन और मीनू 10 और 8 साल के हो गए थे. पवन ने एक बार फिर काम करना शुरू तो कर दिया था, पर जो कमाते शराब और जुए में लुटा आते. मेरे हाथ में पैसों के नाम पर चंद रुपए आते जो बच्चों के लिए दूध लाने में निकल जाते.

मेरी सास कोठियों में बरतन मांजने का काम करती ही थीं, तो मैं ने सोचा कि मैं भी फिर यही काम करने लग जाती हूं. दोनों बच्चे स्कूल जाते और मैं काम पर. जिंदगी पवन के साथ कैसे बीत रही थी, यह तो नहीं पता, पर कैसे कट रही थी, यह अच्छी तरह पता था.

पवन के पिता ने अपनी गांव की जमीन बेच कर हमें दिल्ली में एक घर दिला दिया था. मैं ने काम करना भी छोड़ दिया. पवन ने पीना तो नहीं छोड़ा, पर कम जरूर कर दिया था. बच्चे भी नई जगह और नए माहौल में ढल गए थे.

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हमारा गली के कोने में ही एक घर था. उस घर में रहने वाले मर्द कब पवन के दोस्त बन गए, पता नहीं चला. वे पवन के दोस्त बने तो उन की पत्नी मेरी दोस्त और उन के व हमारे बच्चे आपस में दोस्त बन गए.

वे लोग कुछ समय पहले तक बड़े गरीब थे. पर हाल के 2 सालों में उन के घर अच्छा खानापीना होने लगा. झुग्गी जैसा दिखने वाला घर अब मकान बन चुका था. वहीं दूसरी ओर पता नहीं क्यों, पर मेरे घर के हालात बिगड़ने लगे थे. पवन घर के खर्च में कटौती करने लगे थे. उन के और मेरे संबंध तो सामान्य थे, पर कुछ तो था जो अटपटा था.

एक दिन मैं गली की ही अपनी एक सहेली कमल की मम्मी के साथ बैठ कर मटर छील रही थी. हम दोनों यों ही अपनी बातों में लगी हुई थीं.

‘नमन की मम्मी, एक बात थी जो मैं कई दिनों से तुम्हें बताने के बारे में सोच रही हूं,’ कमल की मम्मी ने झिझकते हुए कहा.

‘हांहां, बोलो न, क्या हुआ?’

‘वह… मैं ने नमन के पापा को …वे उन के दोस्त हैं न जो कोने वाले घर में रहते हैं, वहां एक दिन पीछे से रात में जाते हुए देखा था.’

‘हां, तो किसी काम से गए होंगे.’

‘वह तो पता नहीं, पर मुझे कुछ ठीक सा नहीं लगा. तुम अपनी हो तो सोचा बता दूं.’

मैं ने कमल की मम्मी की बातों पर विश्वास तो नहीं किया, पर वह बात मेरे दिमाग से निकल भी नहीं रही थी.

एक हफ्ता बीत गया, पर मुझे कुछ गड़बड़ नहीं लगी और पवन से सामने से कुछ भी पूछना मुझे सही नहीं लगा. आखिर पवन जैसे भी थे, बेवफा नहीं थे, धोखेबाज नहीं थे. वे मुझे इतना प्यार करते थे, मैं सपने में भी ऐसा कुछ नहीं सोच सकती थी.

अगली सुबह घर से निकलते वक्त पवन ने कहा कि वे रात को घर नहीं आएंगे, काम ज्यादा है औफिस में ही रुकेंगे.

रात के 2 बज रहे थे. बच्चे पलंग पर मेरे साथ ही सो रहे थे. मेरे मन में पता नहीं क्या आया, मैं उठी और मेरे पैर अपनेआप ही उस घर की तरफ मुड़ गए, जहां हमारे वे पड़ोसी रहते थे.

मैं घबराई, डर लग रहा था, पर मन में बारबार यही था कि जो मेरे दिमाग में है, वह बस सच न हो.

Serial Story: अंत भाग 2

यह सवाल थोडा़ गड़बडा़ने वाला था और मैं गड़बडा़या भी- अपनी स्मृति पर जोर देते हुए मैं ने बताया कि लगभग 3 महीने पहले एक साधारण होटल के पास उस से मुलाकात हुई थी और वहीं होटल की बेंच पर बैठ कर साथसाथ चाय पी थी- वह भी मुझे इस कारण याद है, क्योंकि वह दुकान वाला तो मुझे अच्छी तरह जानता था, मगर मारुति से उतरे लकदक कपडे़ पहने उस मनमोहक मंगल को देख कर अवाक था जो 4 निजी सुरक्षादस्तों से घिरा था और मुझ जैसे अदना आदमी के साथ सड़क की पटरी पर ही खडे़खडे़ कांच के साधारण गिलास में चाय पीने लगा था- मैं ने इस बात को हलके रूप में लिया था- मगर उस चाय वाले की नजर में मेरी इज्जत बढ़ गई थी-

आप की उस से क्या बातें हुईं?

कुछ खास नहीं- भला मैं उस से क्या बात करता, वह भी सड़क के फुटपाथ पर- हां, वह मेरे मध्यवर्गीय जीवन जीने पर व्यंग्य अवश्य कर रहा था- कुछ हंसीमजाक की बात हुई- बाद में चाय के पैसे चुकाने को कहा-

फ्और उस ने एक नोटों की गड्डी भी दी-

मैं अंदर से थोडा़ भयभीत तो था ही मगर अब चौंकने की बारी थी- तो इस इंस्पेक्टर को सबकुछ जानकारी है- फिर यह पूछताछ क्यों कर रहा है- मैं ने थोडा़ कडे़ लहजे में कहा, फ्दी नहीं, देना चाहता था- मगर मैं ने ली नहीं-

फ्क्यों?

फ्क्योंकि मैं मुपत की कमाई को हाथ नहीं लगाता-

फ्खूब फिलासफी झाड़ लेते हो-

फ्अपनीअपनी सोच है-

फ्हम आप से ज्यादा छेड़छाड़ न कर के वापस जा रहे हैं, इंस्पेक्टर उठते हुए बोला, फ्वैसे तो हमें नियमतः आप के घर की तलाशी लेनी थी, मगर फिलहाल, आप पर संदेह करने का कोई कारण नहीं बनता- तथापि आप को यह भी बता दें कि आजकल तथाकथित शरीफ और सफेदपोश लोग ही ज्यादा गड़बडि़यां करते हैं- मुझे ऐसा लग रहा है कि आप मंगल पांडे के बारे में कुछ खास बातें जानते हैं- फिर भी बताना नहीं चाहते. घ्यह आप की मरजीघ्है. घ्मगर जब भी मैं आप को तपतीश के लिए थाने बुलाऊं, आप अवश्य आएंगे-

फ्मुझे आप से सहयोग कर खुशी होगी इंस्पेक्टर साहब, मैं पिजरे से मुक्त पक्षी की तरह मुक्ति का एहसास करते हुए बोला, फ्वैसे मैं आप से फिर कहता हूं कि मंगल के बारे में मेरी जानकारी सिर्फ अखबारों और पत्रिकाओं तक ही सीमित है-

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इंस्पेक्टर मेरी बात अनसुनी करता हुआ जीप में बैठ गया- जीप के जाते ही मैं ने महल्ले में नजर दौडा़ई- उधर घरों के दरवाजों और खिड़कियों के पास से मेरे घर की ओर निगाह टिकाए उत्सुक आंखों में कुछ न देख पाने का गम महसूस किया- मुझे देख मेरे घर के लोग इस तरह से संतोष की सांस ले रहे थे मानो मैं फांसी पर चढ़तेचढ़ते बालबाल बच गया हूं-

मगर मेरे मन में पुलिस इंस्पेक्टर के आनेजाने का आतंक जैसे अभी तक कायम था- अगर वह नहीं मानता और अनापशनाप सवाल ही करता तो मैं क्या करता- भले ही घर में कुछ न मिलता, मगर तलाशी के बहाने पूरे घर की उलटपलट कर देता तो क्या होता- हथकडी़ न भी पहनाता, पर सिर्फ जीप में बैठा कर पूछताछ के लिए थाने ले जाता, तो भी महल्ले में क्या कुछ नहीं अफवाह फैलती. और यह सब किस की वजह से हुआ, उस मंगल पांडे की वजह से, जो संयोग से मेरा सहपाठी था और माफिया गिरोह का मुखिया बन गया था-

ऐसी बात न थी कि मेरा मंगल पांडे से बिलकुल ही मेलजोल और उठनाबैठना न था- एकाध माह में तो मैं उस से मिल ही लिया करता था- उस का एक खास कारण यह था कि मुझे सिर्फ उस के कारण अपने ऐसे किराएदार से मुक्ति मिली थी जो हमारे घर के आधे हिस्से पर लगभग कब्जा ही जमा चुका था- बाद में मैं ने उस के खानेपीने का इंतजाम एक होटल में किया था-

उस का मकान हमारे महल्ले में मेरे घर से थोडी़ ही दूर पर उस जगह था, जहां सड़क और गली मिलती थी- उस के पिता एक साधारण सिपाही थे- 4 भाईबहनों में वह सब से छोटा था- शुरू से ही वह सीधासादा था- फिर भी जब कभी वह कोई बात ठान लेता तो वह उस के लिए पत्थर की लकीर के समान हो जाती थी- इसलिए उस के पिताजी अकसर कहा करते, ‘ऐसी सूखी हड्डी ले कर इतना गुस्सा करेगा तो कैसे काम चलेगा-’

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कदकाठी में ही नहीं, बल्कि पढा़ईलिखाई में भी हम दोनों साधारण थे- हम दोनों के घर की माली हालत भी ठीक न थी- बस, घर किसी तरह चल रहा था और हम पढ़ रहे थे- फिर भी एक सीधासादा लड़का, जिस की पारिवारिक पृष्ठभूमि और संस्कार अच्छे रहे हों, आखिर अपराध की दुनिया में चला कैसे गया, यह आश्चर्य की बात थी- और फिर मंगल पांडे वहां गया नहीं बल्कि वहां का शहंशाह भी बन गया, यह घोर आश्चर्य की बात थी-

अपने छोटे से आपराधिक जीवनकाल में वह फटाफट सफलता की सीढि़यां चढ़ते दौलत से खेलने लगा- हत्याएं और अपहरण करनेकरवाने लगा और सत्ता की सीढि़यां चढ़ने केघ्मंसूबे बांधने लगा- यह सब सोचना काफी अजीब सा लगता है, मगर फिर भी यह सच तो था ही-

बात सिर्फ छोटी सी थी- पर उस छोटी सी घटना ने मंगल की जीवनधारा को बदल दिया था-

उस वक्त हम इंटर के छात्र थे- नई उम्र थी इसलिए जोश से सराबोर रहते थे- उन्हीं दिनों हमें गली के चाय एवं पान की दुकानों पर घूमनेबैठने और गप्पें मारने का शौक भी चर्राया हुआ था- हम अपनी आधीअधूरी जानकारियों का आदानप्रदान कर परमज्ञानी होने का दंभ भी पाले हुए थे- उसी समय की घटना थी वह-

घटना कुछ यों हुई कि मंगल पांडे की बहन के साथ महल्ले के एक दादानुमा लड़के ने छेड़छाड़ कर दी थी- मंगल उस से भिड़ गया था- उस झगडे़ में मंगल उस से पिट गया था- दूसरे दिन उस लड़के ने उस पर कुछ फब्तियां भी कसीं- पूरे दिन मंगल गुस्से में उबलता रहा-

Serial Story: घर लौट जा माधुरी

Serial Story: अंत भाग 3

शाम को उस ने उस लड़के को एक दुकान के पास घेरा और जाने कहां से जुगाड़ किया गया चाकू उस के पेट में उतार दिया- तमाशबीन भाग खडे़ हुए- मंगल ने उस लड़के को ताबड़तोड़ कई चाकू मारे और गलियों के रास्ते गुम हो गया-

घटना कुछ इस तेजी से घटी कि हम सभी ठगे से देखते रह गए- इस के बाद हम दोनों परिवारों में बढ़ते तनाव और पुलिसकर्मियों का आनाजाना देखते रहे- मंगल पांडे का कोई अतापता न था- फिर धीरेधीरे सभी कुछ सामान्य होने लगा था-

उस घटना के बाद स्थानीय अखबारों की सुर्खियों में रहने वाला मंगल पांडे एक बार फिर तब अखबारों की सुर्खियों में आया जब पडो़सी प्रदेश के एक मंत्री के मारे जाने में उस का हाथ बताया गया- उस का बडा़ भाई अब प्राइवेट फर्म की नौकरी छोड़ कर सड़क और रेलवे की ठेकेदारी लेने लगा था और इसी के साथ मंगल का वह साधारण सा घर देखतेदेखते आलीशान कोठी में बदल गया- महल्ले में यह आम चर्चा थी कि वह एक स्थानीय माफिया गिरोह से जुड़ गया है और वह अपने घर भी आताजाता है- वह अब ‘शेर सिह’ के नाम से कुख्यात हो गया था, जिस के पीछे पुलिस लगी थी- मगर वह अब राजनीतिबाजों के संरक्षण में उन का संरक्षक था-

जब मेरी प्राध्यापक की नौकरी लगी तो मैं ने खुद ही मिठाई ले कर पूरे महल्ले में घरघर जा कर बांटी थी- उसी क्रम में मैं जब उस के भी घर गया तो वहां की साजसज्जा देख कर अवाक रह गया- मंगल पांडे का मकान एक भव्य भवन के रूप में बदल गया है, यह हम सभी जानते थे- मगर वह अंदर से इतना आकर्षक और ठाटबाट वाला होगा, इस का हमें पता न था- उस के घर में गाडी़ थी और उस के भाइयों के पास दरजन भर ट्रकों का बेडा़ था- उस की बहन मुझे अंदर के एक कमरे में बैठा गई- थोडी़ देर में जो मेरे सामने खडा़ था, उसे देख कर मैं हतप्रभ था- वह मंगल पांडे था-

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उस से हाथ मिलाते वक्त मेरे हाथ कांप से गए. क्या यह वही साधारण हाथ है जिस ने हत्या की है- भड़कीली पोशाक में सजा वह मुझे देख मुसकरा रहा था.

‘यह कौन सी मास्टरी की नौकरी कर ली- मुझ से कहा होता यार, तो मैं तुझे कोई अच्छी सी नौकरी दिलवाता,’ मंगल ने कहा था।

‘तुम मुझे नौकरी दिलवाते,’ मैं हंस पडा़, ‘तुम कौन सेे मंत्री बन गए हो-’

‘इन तथाकथित मंत्रियों को तो मैं अपनी जेब में रखता हूं,’ वह लापरवाही भरे अंदाज में बोला, ‘और बडे़बडे़ अधिकारियों को तो मैं चुटकी बजाते एक कोने से दूसरे कोने में स्थानांतरित करा सकता हूं-’

अचानक उस कमरे में उस के पिताजी आए और उसे देखते ही चीखे, ‘तू यहां फिर आ गया- क्यों आया यहां? मैं तेरी सूरत नहीं देखना चाहता-’

‘चला जाऊंगा,’ वह बेरुखी भरे शब्दों में बोला, ‘आप इतना चिल्लाते क्यों हैं?’

‘नहीं, जाओ यहां से- नहीं तो मैं खुद फोन कर पुलिस द्वारा तुम्हें पकड़वा दूंगा-’

‘पुलिस, और वह मुझे पकडे़गी,’ वह व्यंग्य से मुसकराया, ‘उसे मैं पैसा देता हूं- कहिए तो मैं ही उसे बुलवा दूं,’ उस ने जेब से मोबाइल फोन निकाला- तब तक उस के पिताजी जा चुके थे- उस ने फोन पर किसी को कार भेजने को कहा- फिर फोन बंद कर मुझ से बोला, ‘तुम मुझे सिविल लाइंस वाले घर पर मिलना- यहां पिताजी अब भी मुझ से चिढ़ते हैं- यह रहा मेरा पता। और तुम्हें कोई जरूरत हो तो मुझ से मिलना- अरे हां, मैं ने तुम्हारी खुशी की मिठाई तो खाई ही नहीं,’ और उस ने मिठाई का एक टुकडा़ अपने मुंह में रख लिया था-

कुछ दिन बाद ही उस का एक आदमी मुझे उस के घर ले गया, जहां वह अकेला रहता था- मगर वह वहां अकेला नहीं था- वहां उस के कुछ नौकरों, आदमियों के साथ उस की रखैल पूजा भी थी- उस के कमरे की अलमारियां विभिन्न ब्रांडों वाले शराब से सजी थीं-

‘आज तुम मेरी सफलता का स्वाद चखो,’ डाइनिग टेबल के पास मुझे ले जा कर वह बोला, ‘यहां वह सबकुछ है जिसे तुम खा सकते हो और पी भी सकते हो-’

उस ने एक उन्मुक्त ठहाका लगाया, तो मैं सहम गया- अजीबोगरीब हथियारों से लैस अपने आदमियों से घिरा और अपनी जेब में एक विदेशी रिवाल्वर रखे अपनी रखैल के साथ जो बैठा है, क्या यह वही मंगल पांडे है जिसे मैं बचपन से जानता हूं, जो कभी मेरा दोस्त था और जिसे मैं देखना चाहता था- मजबूरन मुझे उस के साथ भोजन करना ही पडा़- इस आधे घंटे के दौरान उस ने अपनी उपलब्धियों और सफलताओं का कच्चा चिट्ठा मेरे सामने रख दिया था- उस की पहुंच किनकिन राजनेताओं और उच्चाधिकारियों तक थी और कैसेकैसे वह काम करता था, यह जानना मेरे लिए किसी अजूबे से कम नहीं था- इसी बीच उस के एक आदमी ने एक अटैची उस के पास रख दी, जो रुपयों से भरी थी- उस ने लापरवाही से अटैची खोली- रुपयों के 2-3 बंडलों को देखा और अटैची को बंद कर दिया-

‘इतना कुछ पा कर भी क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि कहीं कोई चीज खो भी गई है,’ मैं शांत स्वर में बोला, ‘मंगल, सच बताना, क्या ऐसा नहीं लगता?’

‘मैं ने अपनी सामाजिकता खोई है- अपना निजत्व खोया है,’ उस के स्वर में थोडा़ रूखापन था, ‘सब से बडी़ बात, मैं ने अपने पिताजी को खो दिया- मगर तुम्हीं बताओ, जब यह समाज ही ऐसा है कि सभी मुखौटे लगाए बैठे हैं तो मैं क्या करता- अपने बचाव का रास्ता सभी अख्तियार करते हैं और मैं ने भी किया, तो क्या बुरा किया.’

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‘मगर यह कैसा रास्ता चुना तुम ने, जो अपराध की अंधेरी सुरंग से हो कर गुजरता है और आगे का तुम्हारा क्या भविष्य है?’

‘मेरा भविष्य अत्यंत उज्ज्वल है,’ वह गर्व से बोला, ‘अगले चुनाव में मैं भी एक उम्मीदवार बन कर तुम्हारे सामने आऊंगा, तब तुम देखना- मगर उस के लिए कुछ रुपयों का जुगाड़ तो कर लूं-’

‘रुपया तो तुम्हारे पास बहुत है,’ मैं उस की तिजोरी की ओर इशारा कर बोला, ‘और कितना चाहिए?’

‘करोडों़ रुपए,’ वह हंस पडा़, ‘तुम नहीं जानते, और जानने की कोशिश भी न करना- बहुत बुरा है यह रास्ता- इस रास्ते का अंत सिर्फ मौत है- चूंकि मैं इस रास्ते पर चल पडा़ हूं, पीछे हटने का मतलब सिर्फ मौत ही है-’

‘और आगे क्या है?’

‘सुरक्षा, सफलता और सत्ता का स्वाद है-’

वापसी के वक्त मैं यही सोचता रह गया कि अपनी इज्जत बचाने की खातिर अपनी बहन के साथ छेड़खानी करने वाले जिस गुंडे की मंगल हत्या करता है, आज वही रखैलें रखने और गुंडागर्दी करने पर उतर आया है- गाडि़यों और रखैलों को कपडों़ की तरह बदलता और शाही ठाट से रहता है- इस शहर के 3 घरों पर कब्जा जमाए हुए है और ऊंची पहुंच रखता है- मगर फिर याद आता है उस के पिता और बहन का चेहरा- चाहे वह कितनी भी सफलता की सीढि़यां तय कर ले, वह उन तक पहुंच नहीं सकता। और यहीं उस की पराजय है-

बाद में अपनी नई नौकरी और पारिवारिक परेशानियों में मैं उलझ कर रह गया- हम अपने ही एक ऐसे किराएदार से उलझे थे जो दबंग तो था ही, मुकदमेबाजी में भी उलझा कर रख दिया था- अंततः जब मुझे समझ में आ गया कि मकान का वह हिस्सा, जिस में वह रहता है, हमारे हाथ से निकल जाएगा, तो मैं ने मंगल पांडे की शरण ली और उस ने उस मकान को दूसरे ही दिन खाली करवा लिया, तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा था-

‘जो व्यक्ति ठेके पर हत्याएं करता हो, उस के लिए यह मामूली बात है,’ वह मुसकरा कर बोला था, ‘कभी जरूरत हो तो आना- यह काम तो मैं ने दोस्ती के नाते मुपत में कर दिया और यह तो मेरे बाएं हाथ का खेल है-’

मैं सिहर पडा़- उस किराएदार को निकालने के लिए मैं ने जो तरीका अपनाया था उसी से मैं अपराधबोध से ग्रस्त था- आज तो उस ने उसे भगा दिया, मगर कल मंगल पांडे नहीं रहा और वह आ जाए, तो क्या होगा- यही मैं सोचता था- वैसे अनुभव ने मुझे यह तो सिखाया ही कि अपनी सुरक्षा आप करनी चाहिए- मगर क्या मेरे लिए यह संभव है?

क्या बात है, आज कालिज नहीं जाना क्या?

मैं ने चौंक कर पीछे देखा- पीछे मां खडी़ पूछ रही थीं, अब उस की चिता क्या करना, जो मर गया- जैसी करनी, वैसी भरनी- मौत से खेलेगा तो मौत ही तो मिलेगी- इस पर इतना सोचविचार क्या करना.

Serial Story: अंत भाग 1

मेरे घर वालों को जिस बात का डर था, अंत में वही हुआ- मंगल पांडे हत्याकांड के सिलसिले में पुलिस पूछताछ करने के लिए मेरे घर भी आ धमकी थी- मंगल पांडे से मेरा कोई विशेष वास्ता न था, सिवा इस के कि वह मेरा बचपन का दोस्त और सहपाठी था- बाद में हम नदी के दो किनारों की तरह हो गए- मैं नियमित पढा़ई करता हुआ एक कालिज में प्राध्यापक हो गया और वह माफिया गिरोहों के साथ लग कर करोडों में खेलने लगा था- तथापि यह कहना गलत नहीं होगा कि मेरी उस से यदाकदा भेंट हो ही जाती थी- मगर मैं ने यह नहीं सोचा था कि यही यदाकदा की मुलाकात एक दिन मेरे गले की फांस बन जाएगी-

मैं पहले ही कहती थी कि उस मंगल से ज्यादा मेलजोल ठीक नहीं, मां बड़बडा़ रही थीं, खुद तो मर गया पर हमारी जान को सांसत में डाल गया-

अब चुप भी रहो, मैं झुंझला कर कमीज बदलते हुए मां से बोला, फ्घर में पुलिस आई है तो क्या हुआ- थोडी़बहुत पूछताछ की औपचारिकता पूरी करेगी और क्या- हमारे घर में कोई हीरेजवाहरात हैं या नोटों की गड्डियां भरी पडी़ हैं, जो डरने की जरूरत है-

घर में पुलिस आ धमकी और तू कहता है कि डरने की क्या जरूरत, मां गुर्राईं, पुलिस हमारे घर की तलाशी लेगी- हमारी महल्ले में क्या इज्जत रह जाएगी?

इस समय घर में हीलहुज्जत न करना ठीक था- पुलिस इंस्पेक्टर के पास पूछताछ करने और घर की तलाशी लेने का वारंट भी था- उस ने सब से पहले मुझ पर एक गहरी नजर डाली और फिर बैठक का सरसरी नजरों से मुआयना किया- मैं ने देखा उस की जीप बाहर खडी़ थी, जिस में ड्राइवर बैठा था- 2 सिपाही अंदर खडे़ थे, जबकि 3 अपनी राइफलों को साथ लिए बाहर खडे़ थे- पहले तो उन्हें देख कर मुझे पसीना आ गया- फिर मैं ने खुद को अंदर से संयत और मजबूत किया- यह सोच कर कि जब मैं कहीं से भी गलत नहीं, तो फिर डरने की क्या बात- फिर भी जरा सी भी ढिलाई अथवा प्रश्नोत्तरों में गड़बडी़ होते ही मैं फंस सकता हूं, इस का अंदाजा मुझे था- पुलिस इंस्पेक्टर ने छूटते ही सवाल दागा, फ्आप मंगल पांडे को कब से जानते थे?

फ्वह मेरे बचपन का दोस्त और सहपाठी था, मैं ने शांत रहने की कोशिश करते हुए कहा, फ्वह मेरे महल्ले का ही रहने वाला था- बाद में हमारे रास्ते अलगअलग हो गए थे-

उस का आप से क्या व्यावसायिक संबंध था?

फ्मुझ से, मेरा मुंह खुला का खुला रह गया, फ्उस से भला मेरा क्या व्यावसायिक संबंध हो सकता था- वह किसी भी तरीके से अमीर और प्रभावशाली आदमी बनना चाहता था, जबकि मैं थोडे़ में ही खुश रहने वाला आदमी हूं- क्या आप को ऐसा नहीं लगता?

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लगता तो है, इंस्पेक्टर व्यंग्य से बैठक के कोने में रखी खटारा मोपेड को देख कर मुसकराया, फ्आप को पता है कि हमारे पास आप के घर की तलाशी का वारंट भी है और हम आप को गिरपतार भी कर सकते हैं- लेकिन अगर आप सचसच जवाब देंगे, तो आप इन से बच सकते हैं- वैसे भी यह आप का फर्ज है कि आप भारतीय नागरिक होने के नाते हमारी खोजबीन में मदद करें-

घर की तलाशी के नाम पर मेरा माथा घूम गया- फौरन ही आंखों के सामने एक दृश्य आया, जिस में पुलिस मुझे हथकडी़ पहना कर ले जा रही है और सारा महल्ला मुझे घूरघूर कर देखते हुए कह रहा है, ‘देख लो, मंगल पांडे का एक और साथी पकडा़ गया-’ मगर यह इंस्पेक्टर दोहरी बात क्यों कर रहा है- एक तरफ धमकी भी दे रहा है, दूसरी तरफ मदद की बात भी कह रहा है- मुझे लगा कि शायद इंस्पेक्टर को भी यह अजीब लगता हो कि मंगल मेरा कैसा दोेस्त था, जिस के घर की हालत बस, औसत दरजे की है- इस से मुझ में थोडा़ साहस का संचार हुआ-

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फ्आप मुझ से जो मदद चाहेंगे, वह मैं अवश्य करूंगा- फिर भी मंगल जैसे माफिया को मैं ठीक से नहीं जानता- माफिया शब्द का सही अर्थ क्या है, आप विश्वास करें, मैं ठीक से नहीं जानता- मैं तो उसे बस, एक साधारण दोस्त के रूप में ही जानता रहा-

फ्आप उस से आखिरी बार कब मिले थे?

Serial Story: जीवनधारा भाग 1

लेखिका- मनीषा शर्मा

एक सुबह पापा अच्छेखासे आफिस गए और फिर उन का मृत शरीर ही वापस लौटा. सिर्फ 47 साल की उम्र में दिल के दौरे से हुई उन की असामयिक मौत ने हम सब को बुरी तरह से हिला दिया.

‘‘मेरी घरगृहस्थी की नाव अब कैसे पार लगेगी?’’ इस सवाल से उपजी चिंता और डर के प्रभाव में मां दिनरात आंसू बहातीं.

‘‘मैं हूं ना, मां,’’ उन के आंसू पोंछ कर मैं बारबार उन का हौसला बढ़ाती, ‘‘पापा की सारी जिम्मेदारी मैं संभालूंगी. देखना, सब ठीक हो जाएगा.’’

मुकेश मामाजी ने हमें आश्वासन दिया, ‘‘मेरे होते हुए तुम लोगों को भविष्य की ज्यादा चिंता करने की कोई जरूरत नहीं. संगीता ने बी.काम. कर लिया है. उस की नौकरी लगवाने की जिम्मेदारी मेरी है.’’

मुझ से 2 साल छोटे मेरे भाई राजीव ने मेरा हाथ पकड़ कर वादा किया, ‘‘दीदी, आप खुद को कभी अकेली मत समझना. अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करते ही मैं आप का सब से मजबूत सहारा बन जाऊंगा.’’

राजीव से 3 साल छोटी शिखा के आंखों से आंसू तो ज्यादा नहीं बहे पर वह सब से ज्यादा उदास, भयभीत और असुरक्षित नजर आ रही थी.

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मोहित मेरा सहपाठी था. उस के साथ सारी जिंदगी गुजारने के सपने मैं पिछले 3 सालों से देख रही थी. इस कठिन समय में उस ने मेरा बहुत साथ दिया.

‘‘संगीता, तुम सब को ‘बेटा’ बन कर दिखा दो. हम दोनों मिल कर तुम्हारी जिम्मेदारियों का बोझ उठाएंगे. हमारा प्रेम तुम्हारी शक्ति बनेगा,’’ मोहित के ऐसे शब्दों ने इस कठिन समय का सामना करने की ताकत मेरे अंगअंग में भर दी थी.

परिवर्तन जिंदगी का नियम है और समय किसी के लिए नहीं रुकता. जिंदगी की चुनौतियों ने पापा की असामयिक मौत के सदमे से उबरने के लिए हम सभी को मजबूर कर दिया.

मामाजी ने भागदौड़ कर के मेरी नौकरी लगवा दी. मैं ने काम पर जाना शुरू कर दिया तो सब रिश्तेदारों व परिचितों ने बड़ी राहत की सांस ली. क्योंकि हमारी बिगड़ी आर्थिक स्थिति में सुधार लाने वाला यह सब से महत्त्वपूर्ण कदम था.

‘‘मेरी गुडि़या का एम.बी.ए. करने का सपना अधूरा रह गया. तेरे पापा तुझे कितनी ऊंचाइयों पर देखना चाहते थे और आज इतनी छोटी सी नौकरी करने जा रही है मेरी बेटी,’’ पहले दिन मुझे घर से विदा करते हुए मां अचानक फूटफूट कर रो पड़ी थीं.

‘‘मां, एम.बी.ए. मैं बाद में भी कर सकती हूं. अभी मुझे राजीव और शिखा के भविष्य को संभालना है. तुम यों रोरो कर मेरा मनोबल कम न करो, प्लीज,’’ उन का माथा चूम कर मैं घर से बाहर आ गई, नहीं तो वह मेरे आंसुओं को देख कर और ज्यादा परेशान होतीं.

मोहित और मैं ने साथसाथ ग्रेजुएशन किया था. उस ने एम.बी.ए. में प्रवेश लिया तो मैं बहुत खुश हुई. अपने प्रेमी की सफलता में मैं अपनी सफलता देख रही थी. मन के किसी कोने में उठी टीस को मैं ने उदास सी मुसकान होंठों पर ला कर बहुत गहरा दफन कर दिया था.

पापा के समय 20 हजार रुपए हर महीने घर में आते थे. मेरी कमाई के 8 हजार में घर खर्च पूरा पड़ ही नहीं सकता था. फ्लैट की किस्त, राजीव व शिखा की फीस, मां की हमेशा बनी रहने वाली खांसी के इलाज का खर्च आर्थिक तंगी को और ज्यादा बढ़ाता.

‘‘अगर बैंक से यों ही हर महीने पैसे निकलते रहे तो कैसे कर पाऊंगी मैं दोनों बेटियों की इज्जत से शादियां? हमें अपने खर्चों में कटौती करनी ही पडे़गी,’’ मां का रातदिन का ऐसा रोना अच्छा तो नहीं लगता पर उन की बात ठीक ही थी.

फल, दूध, कपडे़, सब से पहले खरीदने कम किए गए. मौजमस्ती के नाम पर कोई खर्चा नहीं होता. मां ने काम वाली को हटा दिया. होस्टल में रह रहे राजीव का जेबखर्च कम हो गया.

इन कटौतियों का एक असर यह हुआ कि घर का हर सदस्य अजीब से तनाव का शिकार बना रहने लगा. आपस में कड़वा, तीखा बोलने की घटनाएं बढ़ गईं. कोई बदली परिस्थितियों के खिलाफ शिकायत करता, तो मां घंटों रोतीं. मेरा मन कभीकभी बेहद उदास हो कर निराशा का शिकार बन जाता.

‘‘हिम्मत मत छोड़ो, संगीता. वक्त जरूर बदलेगा और मैं तुम्हारे पास न भी रहूं, पर साथ तो हूं ना. तुम बेकार की टेंशन लेना छोड़ दो,’’ मोहित का यों समझाना कम से कम अस्थायी तौर पर तो मेरे अंदर जीने का नया जोश जरूर भर जाता.

अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने में मैं जीजान से जुटी रही और परिवर्तन का नियम एकएक कर मेरी आशाओं को चकनाचूर करता चला गया.

बी.टेक. की डिगरी पाने के बाद राजीव को स्कालरशिप मिली और वह एम.टेक. करने के लिए विदेश चला गया.

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‘‘संगीता दीदी, थोड़ा सा इंतजार और कर लो, बस. फिर धनदौलत की कमी नहीं रहेगी और मैं आप की सब जिम्मेदारियां, अपने कंधों पर ले लूंगा. अपना कैरियर बेहतर बनाने का यह मौका मैं चूकना नहीं चाहता हूं.’’

राजीव की खुशी में खुश होते हुए मैं ने उसे अमेरिका जाने की इजाजत दे दी थी.

राजीव के इस फैसले से मां की आंखों में चिंता के भाव और ज्यादा गहरे हो उठे. वह मेरी शादी फौरन करने की इच्छुक थीं. उम्र के 25 साल पूरे कर चुकी बेटी को वह ससुराल भेजना चाहती थीं.

मोहित ने राजीव को पीठपीछे काफी भलाबुरा कहा था, ‘‘उसे यहां अच्छी नौकरी मिल रही थी. वह लगन और मेहनत से काम करता, तो आजकल अच्छी कंपनी ही उच्च शिक्षा प्राप्त करने में सहायता करती हैं. मुझे उस का स्वार्थीपन फूटी आंख नहीं भाया है.’’

मोहित के तेज गुस्से को शांत करने के लिए मुझे काफी मेहनत करनी पड़ी थी.

मां कभीकभी कहतीं कि मैं शादी कर लूं, पर यह मुझे स्वीकार नहीं था.

‘‘मां, तुम बीमार रहती हो. शिखा की कालिज की पढ़ाई अभी अधूरी है. यह सबकुछ भाग्य के भरोसे छोड़ कर मैं कैसे शादी कर सकती हूं?’’

मेरी इस दलील ने मां के मुंह पर तो ताला लगाया, पर उन की आंखों से बहने वाले आंसुओं को नहीं रोक पाई.

एम.बी.ए. करने के बाद मोहित को जल्दी ही नौकरी मिल गई थी. उस ने पहली नौकरी से 2 साल का अनुभव प्राप्त किया और इस अनुभव के बल पर उसे दूसरी नौकरी मुंबई में मिली.

अपने मातापिता का वह इकलौता बेटा था. उन्हें मैं पसंद थी, पर वह उस की शादी अब फौरन करने के इच्छुक थे.

‘‘मैं कैसे अभी शादी कर सकती हूं? अभी मेरी जिम्मेदारियां पूरी नहीं हुई हैं, मोहित. मेरे ससुराल जाने पर अकेली मां घर को संभाल नहीं पाएंगी,’’ बडे़  दुखी मन से मैं ने शादी करने से इनकार कर दिया था.

‘‘संगीता, कब होंगी तुम्हारी जिम्मेदारियां पूरी? कब कहोगी तुम शादी के लिए ‘हां’?’’ मेरा फैसला सुन कर मोहित नाराज हो उठा था.

‘‘राजीव के वापस लौटने के बाद हम….’’

‘‘वह वापस नहीं लौटेगा…कोई भी इंजीनियर नहीं लौटता,’’ मोहित ने मेरी बात को काट दिया, ‘‘तुम्हारी मां विदेश में जा कर बसने को तैयार होंगी नहीं. देखो, हम शादी कर लेते हैं. राजीव पर निर्भर रह कर तुम समझदारी नहीं दिखा रही हो. हम मिल कर तुम्हारी मां व छोटी बहन की जिम्मेदारी उठा लेंगे.’’

‘‘शादी के बाद मुझे मां और छोटी बहन को छोड़ कर तुम्हारे साथ मुंबई जाना पड़ेगा और यह कदम मैं फिलहाल नहीं उठा सकती हूं. मेरा भाई मुझे धोखा नहीं देगा. मोहित, तुम थोड़ा सा इंतजार और कर लो, प्लीज.’’

मोहित ने मुझे बहुत समझाया पर मैं ने अपना फैसला नहीं बदला. मां भी उस की तरफ से बोलीं, पर मैं शादी करने को तैयार नहीं हुई.

मोहित अकेला मुंबई गया. मुझे उस वक्त एहसास नहीं हुआ पर इस कदम के साथ ही हमारे प्रेम संबंध के टूटने का बीज पड़ गया था.

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वक्त ने यह भी साबित कर दिया कि राजीव के बारे में मोहित की राय सही थी.

अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद उस ने वहीं नौकरी कर ली. वह हम से मिलने भी आया, एक बड़ी रकम भी मां को दे कर गया, पर मेरी जिम्मेदारियां अपने कंधों पर लेने को वह तैयार नहीं हुआ.

परिस्थितियों ने मुझे कठोर बना दिया था. मेरे आंसू न मोहित ने देखे न राजीव ने. इन का सहारा छिन जाने से मैं खुद को कितनी अकेली और टूटा हुआ महसूस कर रही थी, इस का एहसास मैं ने इन दोनों को जरा भी नहीं होने दिया था.

मां रातदिन शादी के लिए शोर मचातीं, पर मेरे अंदर शादी करने का सारा उत्साह मर गया था. कभी कोई रिश्ता मेरे लिए आ जाता तो मां का शोर मचाना मेरे लिए सिरदर्द बन जाता. फिर रिश्ते आने बंद हो गए और हम मांबेटी एकदूसरे से खिंचीखिंची सी खामोश रह साथसाथ समय गुजारतीं.

Serial Story: जीवनधारा भाग 3

मैं ने शोर मचाने की धमकी दी, तो वह गुस्से से बिफर कर गुर्राए, ‘‘इतने दिनोें से मेरे पैसों पर ऐश कर रही हो, तो अब सतीसावित्री बनने का नाटक क्यों करती हो? कोई मैं पागल बेवकूफ हूं जो तुम पर यों ही खर्चा कर रहा था.’’

उन से निबटना मेरे लिए कठिन नहीं था, पर अकेली घर पहुंचने तक मैं आटोरिकशा में लगातार आंसू बहाती रही.

घर पहुंच कर भी मेरा आंसू बहाना जारी रहा. मां ने बारबार मुझ से रोने का कारण पूछा, पर मैं उन्हें क्या बताती.

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रात को मुझे नींद नहीं आई. रहरह कर कपूर साहब का डायलाग कानों में गूंजता, ‘…अब सतीसावित्री बनने का नाटक क्यों करती हो? कोई मैं पागल, बेवकूफ हूं जो तुम पर यों ही खर्चा कर रहा था.’

यह सच है कि उन के साथ मेरा वक्त बड़ा अच्छा गुजरा था. अपनी जिंदगी में आए इस बदलाव से मैं बहुत खुश थी, पर अब अजीब सी शर्मिंदगी व अपमान के भाव ने मन में पैदा हो कर सारा स्वाद किरकिरा कर दिया था.

रात भर मैं तकिया अपने आंसुओं से भिगोती रही. अगले दिन रविवार होने के कारण मैं देर तक सोई.

जब आंखें खुलीं तो उम्मीद के खिलाफ मैं ने खुद को सहज व हलका पाया. मन ने इस स्थिति का विश्लेषण किया तो जल्दी ही कारण भी समझ में आ गया.

नींद आने से पहले मेरे मन ने निर्णय लिया था, ‘मैं अब खुश रह कर जीना चाहती हूं और जिऊंगी भी. यह नेक काम मैं अब अपने बलबूते पर करूंगी. किसी कपूर साहब, राजीव या मोहित पर निर्भर नहीं रहना है मुझे.’

‘परिस्थितियों के आगे घुटने टेक कर…अपनी जिम्मेदारियों के बोझ तले दब कर मेरी जीवनधारा अवरुद्ध हो गई थी, पर अब ऐसी स्थिति फिर नहीं बनेगी.’

‘मेरी जिंदगी मुझे जीने के लिए मिली है. दूसरों की जिंदगी सजानेसंवारने के चक्कर में अपनी जिंदगी को जीना भूल  जाना मेरी भूल थी. कपूर साहब मेरी जिस नासमझी के कारण गलतफहमी का शिकार हुए हैं, उसे मैं कभी नहीं दोहराऊंगी. जिंदगी का गहराई से आनंद लेने से मुझे अब न अतीत की यादें रोक पाएंगी, न भविष्य की चिंताएं.’

अपने अंतर्मन में इन्हीं विचारों को गहराई से प्रवेश दिला कर मैं नींद के आगोश में पहुंची थी.

अपनी भावदशा में आए सुखद बदलाव का कारण मैं इन्हीं सकारात्मक विचारों को मान रही थी.

कुछ दिन बाद मेरे एक दूसरे सहयोगी नीरज ने मुझ से किसी बात पर शर्त लगाने की कोशिश की. मैं जानबूझ कर वह शर्त हारी और उसे बढि़या होटल में डिनर करवाया.

इस के 2 दिन बाद मैं चोपड़ा और उस की पत्नी के साथ फिल्म देखने गई. अपने इन दोनों सहयोगियों के टिकट मैं ने ही खरीदे थे.

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पड़ोस में रहने वाले माथुर साहब मुझे मार्किट में अचानक मिले, तो उन्हें साथसाथ कुल्फी खाने की दावत मैं ने ही दी और जिद कर के पैसे भी मैं ने ही दिए.

मैं ने अपनी रुकी हुई जीवनधारा को फिर से गतिमान करने के लिए जरूरी कदम उठाने शुरू कर दिए थे.

कपूर साहब की तरह मैं किसी दूसरे पुरुष को गलतफहमी का शिकार नहीं बनने देना चाहती थी.

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इस में कोई शक नहीं कि मेरी जिंदगी में हंसीखुशी की बहार लौट आई थी. अपनों से मिले जख्मों को मैं ने भुला दिया था. उदासी और निराशा का कवच टूट चुका था.

हंसतेमुसकराते और यात्रा का आनंद लेते हुए मैं जिंदगी की राह पर आगे बढ़ चली थी. मेरा जिंदगी भर साथ निभाने को कभी कोई हमराही मिल गया, तो ठीक, नहीं तो उस के इंतजार में रुक कर अपने अंदर शिकायत या कड़वाहट पैदा करने की फुर्सत मुझे बिलकुल नहीं थी.

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