नीला पत्थर : आखिर क्या था काकी का फैसला

‘‘कहीं नहीं जाएगी काकी…’’ पार्वती बूआ की कड़कती आवाज ने सब को चुप करा दिया. काकी की अटैची फिर हवेली के अंदर रख दी गई. यह तीसरी बार की बात थी. काकी के कुनबे ने फैसला किया था कि शादीशुदा लड़की का असली घर उस की ससुराल ही होती है. न चाहते हुए भी काकी मायका छोड़ कर ससुराल जा रही थी.

हालांकि ससुराल से उसे लिवाने कोई नहीं आया था. काकी को बोझ समझ कर उस के परिवार वाले उसे खुद ही उस की ससुराल फेंकने का मन बना चुके थे कि पार्वती बूआ को अपनी बरबाद हो चुकी जवानी याद आ गई. खुद उस के साथ कुनबे वालों ने कोई इंसाफ नहीं किया था और उसे कई बार उस की मरजी के खिलाफ ससुराल भेजा था, जहां उस की कोई कद्र नहीं थी.

तभी तो पार्वती बूआ बड़ेबूढ़ों की परवाह न करते हुए चीख उठी थी, ‘‘कहीं नहीं जाएगी काकी. उन कसाइयों के पास भेजने के बजाय उसे अपने खेतों के पास वाली नहर में ही धक्का क्यों न दे दिया जाए. बिना किसी बुलावे के या बिना कुछ कहेसुने, बिना कोई इकरारनामे के काकी को ससुराल भेज देंगे, तो वे ससुरे इस बार जला कर मार डालेंगे इस मासूम बेजबान लड़की को. फिर उन का एकाध आदमी तुम मार आना और सारी उम्र कोर्टकचहरी के चक्कर में अपने आधे खेतों को गिरवी रखवा देना.’’

दूसरी बार काकी के एकलौते भाई की आंखों में खून उतर आया था. उस ने हवेली के दरवाजे से ही चीख कर कहा था, ‘‘काकी ससुराल नहीं जाएगी. उन्हें आ कर हम से माफी मांगनी होगी. हर तीसरे दिन का बखेड़ा अच्छा नहीं. क्या फायदा… किसी की जान चली जाएगी और कोई दूसरा जेल में अपनी जवानी गला देगा. बेहतर है कि कुछ और ही सोचो काकी के लिए.’’

काकी के लिए बस 3 बार पूरा कुनबा जुटा था उस के आंगन में. काकी को यहीं मायके में रखने पर सहमति बना कर वे लोग अपनेअपने कामों में मसरूफ हो गए थे. उस के बाद काकी के बारे में सोचने की किसी ने जरूरत नहीं समझी और न ही कोई ऐसा मौका आया कि काकी के बारे में कोई अहम फैसला लेना पड़े.

काकी का कुसूर सिर्फ इतना था कि वह गूंगी थी और बहरी भी. मगर गूंगी तो गांव की 99 फीसदी लड़कियां होती हैं. क्या उन के बारे में भी कुनबा पंचायत या बिरादरी आंखें मींच कर फैसले करती है? कोई एकाध सिरफिरी लड़की अपने बारे में लिए गए इन एकतरफा फैसलों के खिलाफ बोल भी पड़ती है, तो उस के अपने ही भाइयों की आंखों में खून उतर आता है. ससुराल की लाठी उस पर चोट करती है या उस के जेठ के हाथ उस के बाल नोंचने लगते हैं.

ऐसी सिरफिरी मुंहफट लड़की की मां बस इतना कह कर चुप हो जाती है कि जहां एक लड़की की डोली उतरती है, वहां से ही उस की अरथी उठती है. यह एक हारे हुए परेशान आदमी का बेमेल सा तर्क ही तो है. एक अकेली छुईमुई लड़की क्या विद्रोह करे. उसे किसी फैसले में कब शामिल किया जाता है. सदियों से उस के खिलाफ फतवे ही जारी होते रहे हैं. वह कुछ बोले तो बिजली टूट कर गिरती है, आसमान फट पड़ता है.

अनगनित लोगों की शादियां टूटती हैं, मगर वे सब पागल नहीं हो जाते. बेहतर तो यही होता कि अपनी नाकाम शादी के बारे में काकी जितना जल्दी होता भूल जाती. ये शादीब्याह के मामले थानेकचहरी में चले जाएं, तो फिर रुसवाई तो तय ही है. आखिर हुआ क्या? शीशा पत्थर से टकराया और चूरचूर हो गया.

काकी का पति तो पहले भी वैसा ही था लंपट, औरतबाज और बाद में भी वैसा ही बना रहा. काकी से अलग होने के बाद भी उस की जिंदगी पर कोई खास असर नहीं पड़ा.

काकी के कुनबे का फैसला सुनने के बाद तो वह हर तरफ से आजाद हो चुका था. उस के सुख के सारे दरवाजे खुल गए, मगर काकी का मोह भंग हो गया. अब वह खुद को एक चुकी हुई बूढ़ी खूसट मानने लगी थी.

भरी जवानी में ही काकी की हर रस, रंग, साज और मौजमस्ती से दूरी हो गई थी. उस के मन में नफरत और बदले के नागफनी इतने विकराल आकार लेते गए कि फिर उन में किसी दूसरे आदमी के प्रति प्यार या चाहत के फूल खिल ही न सके.

किसी ने उसे यह नहीं समझाया, ‘लाड़ो, अपने बेवफा शौहर के फिर मुंह लगेगी, तो क्या हासिल होगा तुझे? वह सच्चा होता तो क्या यों छोड़ कर जाता तुझे? उसे वापस ले भी आएगी, तो क्या अब वह तेरे भरोसे लायक बचा है? क्या करेगी अब उस का तू? वह तो ऐसी चीज है कि जो निगले भी नहीं बनेगा और बाहर थूकेगी, तो भी कसैली हो जाएगी तू.

‘वह तो बदचलन है ही, तू भी अगर उस की तलाश में थानाकचहरी जाएगी, तो तू तो वैसी ही हो जाएगी. शरीफ लोगों का काम नहीं है यह सब.’

कोई तो एक बार उसे कहता, ‘देख काकी, तेरे पास हुस्न है, जवानी है, अरमान हैं. तू क्यों आग में झोंकती है खुद को? दफा कर ऐसे पति को. पीछा छोड़ उस का. तू दोबारा घर बसा ले. वह 20 साल बाद आ कर तुझ पर अपना दावा दायर करने से रहा. फिर किस आधार पर वह तुझ पर अपना हक जमाएगा? इतने सालों से तेरे लिए बिलकुल पराया था. तेरे तन की जमीन को बंजर ही बनाता रहा वह.

‘शादी के पहले के कुछ दिनों में ही तेरे साथ रहा, सोया वह. यह तो अच्छा हुआ कि तेरी कोख में अपना कोई गंदा बीज रोप कर नहीं गया वह दुष्ट, वरना सारी उम्र उस से जान छुड़ानी मुश्किल हो जाती तुझे.’

कुनबे ने काकी के बारे में 3 बार फतवे जारी किए थे. पहली बार काकी की मां ने ऐसे ही विद्रोही शब्द कहे थे कि कहीं नहीं जाएगी काकी. पहली बार गांव में तब हंगामा हुआ था, जब काकी दीनू काका के बेटे रमेश के बहकावे में आ गई थी और उस ने उस के साथ भाग जाने की योजना बना ली थी. वह करती भी तो क्या करती.

35 बरस की हो गई थी वह, मगर कहीं उस के रिश्ते की बात जम नहीं रही थी. ऐसे में लड़कियां कब तक खिड़कियों के बाहर ताकझांक करती रहें कि उन के सपनों का राजकुमार कब आएगा. इन दिनों राजकुमार लड़की के रंगरूप या गुण नहीं देखता, वह उस के पिता की जागीर पर नजर रखता है, जहां से उसे मोटा दहेज मिलना होता है.

गरीब की बेटी और वह भी जन्म से गूंगीबहरी. कौन हाथ धरेगा उस पर? वैसे, काकी गजब की खूबसूरत थी. घर के कामकाज में भी माहिर. गोरीचिट्टी, लंबा कद. जब किसी शादीब्याह के लिए सजधज कर निकलती, तो कइयों के दिल पर सांप लोटने लगते. मगर उस के साथ जिंदगी बिताने के बारे में सोचने मात्र की कोई कल्पना नहीं करता था.

वैसे तो किसी कुंआरी लड़की का दिल धड़कना ही नहीं चाहिए, अगर धड़के भी तो किसी को कानोंकान खबर न हो, वरना बरछे, तलवारें व गंड़ासियां लहराने लगती हैं. यह कैसा निजाम है कि जहां मर्द पचासों जगह मुंह मार सकता था, मगर औरत अपने दिल के आईने में किसी पराए मर्द की तसवीर नहीं देख सकती थी? न शादी से पहले और शादी के बाद तो कतई नहीं.

पर दीनू काका के फौजी बेटे रमेश का दिल काकी पर फिदा हो गया था. काकी भी उस से बेपनाह मुहब्बत करने लगी थी. मगर कहां दीनू काका की लंबीचौड़ी खेती और कहां काकी का गरीब कुनबा. कोई मेल नहीं था दोनों परिवारों में.

पहली ही नजर में रमेश काकी पर अपना सबकुछ लुटा बैठा, मगर काकी को क्या पता था कि ऐसा प्यार उस के भविष्य को चौपट कर देगा.

रमेश जानता था कि उस के परिवार वाले उस गूंगी लड़की से उस की शादी नहीं होने देंगे. बस, एक ही रास्ता बचा था कि कहीं भाग कर शादी कर ली जाए.

उन की इस योजना का पता अगले ही दिन चल गया था और कई परिवार, जो रमेश के साथ अपनी लड़की का रिश्ता जोड़ना चाहते थे, सब दिशाओं में फैल गए. इश्क और मुश्क कहां छिपते हैं भला. फिर जब सारी दुनिया प्रेमियों के खिलाफ हो जाए, तो उस प्यार को जमाने वालों की बुरी नजर लग जाती है.

काकी का बचपन बड़े प्यार और खुशनुमा माहौल में बीता था. उस के छोटे भाई राजा को कोई चिढ़ाताडांटता या मारता, तो काकी की आंखें छलछला आतीं. अपनी एक साल की भूरी कटिया के मरने पर 2 दिन रोती रही थी वह. जब उस का प्यारा कुत्ता मरा तो कैसे फट पड़ी थी वह. सब से ज्यादा दुख तो उसे पिता के मरने पर हुआ था. मां के गले लग कर वह इतना रोई थी कि मानो सारे दुखों का अंत ही कर डालेगी. आंसू चुक गए. आवाज तो पहले से ही गूंगी थी. बस गला भरभर करता था और दिल रेशारेशा बिखरता जाता था. सबकुछ खत्म सा हो गया था तब.

अब जिंदा बच गई थी तो जीना तो था ही न. दुखों को रोरो कर हलका कर लेने की आदत तब से ही पड़ गई थी उसे. दुख रोने से और बढ़ते जाते थे.

रमेश से बलात छीन कर काकी को दूर फेंक दिया गया था एक अधेड़ उम्र के पिलपिले गरीब किसान के झोंपड़े में, जहां उस के जवान बेटों की भूखी नजरें काकी को नोंचने पर आमादा थीं.

काकी वहां कितने दिन साबुत बची रहती. भाग आई भेडि़यों के उस जंगल से. कोई रास्ता नहीं था उस जंगल से बाहर निकलने का.

जो रास्ता काकी ने खुद चुना था, उस के दरमियान सैकड़ों लोग खड़े हो गए थे. काकी के मायके की हालत खराब तो न थी, मगर इतने सोखे दिन भी नहीं थे कि कई दिन दिल खोल कर हंस लिया जाए. कभी धरती पर पड़े बीजों के अंकुरित होने पर नजरें गड़ी रहतीं, तो कभी आसमान के बादलों से मुरादें मांगती झोलियां फैलाए बैठी रहतीं मांबेटी.

रमेश से छिटक कर और फिर ससुराल से ठुकराई जाने के बाद काकी का दिल बुरी तरह हार माने बैठा था. अब काकी ने अपने शरीर की देखभाल करनी छोड़ दी थी. उस की मां उस से अकसर कहती कि गरीब की जवानी और पौष की चांदनी रात को कौन देखता है.

फटी हुई आंखों से काकी इस बात को समझने की कोशिश करती. मां झुंझला कर कहती, ‘‘तू तो जबान से ही नहीं, दिल से भी बिलकुल गूंगी ही है. मेरे कहने का मतलब है कि जैसे पूस की कड़कती सर्दी वाली रात में चांदनी को निहारने कोई नहीं बाहर निकलता, वैसे ही गरीब की जवानी को कोई नहीं देखता.’’

मां चल बसीं. काकी के भाई की गृहस्थी बढ़ चली थी. काकी की अपनी भाभी से जरा भी नहीं बनती थी. अब काकी काफी चिड़चिड़ी सी हो गई थी. भाई से अनबन क्या हुई, काकी तो दरबदर की ठोकरें खाने लगी. कभी चाची के पास कुछ दिन रहती, तो कभी बूआ काम करकर के थकटूट जाती थी. काकी एक बार खाट से क्या लगी कि सब उसे बोझ समझने लगे थे.

आखिरकार काकी की बिरादरी ने एक बार फिर काकी के बारे में फैसला करने के लिए समय निकाला. इन लोगों ने उस के लिए ऐसा इंतजाम कर दिया, जिस के तहत दिन तय कर दिए गए कि कुलीन व खातेपीते घरों में जा कर काकी खाना खा लिया करेगी.

कुछ दिन तक यह बंदोबस्त चला, मगर काकी को यों आंखें झुका कर गैर लोगों के घर जा कर रहम की भीख खाना चुभने लगा. अपनी बिरादरी के अब तक के तमाम फैसलों का काकी ने विरोध नहीं किया था, मगर इस आखिरी फैसले का काकी ने जवाब दिया. सुबह उस की लाश नहर से बरामद हुई थी. अब काकी गूंगीबहरी ही नहीं, बल्कि अहल्या की तरह सर्द नीला पत्थर हो चुकी थी.

काकी का पति तो पहले भी वैसा ही था लंपट, औरतबाज और बाद में भी वैसा ही बना रहा. काकी से अलग होने के बाद भी उस की जिंदगी पर कोई खास असर नहीं पड़ा.

आशियाना: क्या सुजाता और सुजल का सपना हुआ सच?

बगीचे के बाहर वाली रेलिंग के सहारे पानीपुरी से ले कर बड़ापाव तक तमाम तरह के ठेले और गाडि़यां लगी रहती थीं, जो बड़ी सड़क का एक किनारा था. यहां बेशुमार गाड़ियों का आनाजाना और लालपीले सिगनल जगमगाते रहते थे.

अपार्टमैंट के भीतर कुछ दुकानें, औफिस और रिहाइशी फ्लैट थे. वर्माजी यहां एक फ्लैट में अकेले रहते थे. वे एक बैंक में मैनेजर थे. उन के लिए संतोष की बात यह थी कि उन का बैंक भी इसी कैंपस में था, इसलिए उन्हें दूसरों की तरह लोकल ट्रेन में धक्के नहीं खाने पड़ते थे.

सालभर पहले वर्माजी की पोस्टिंग यहां हुई थी. यहां की बैंकिंग थोड़ी अलग थी. गांवकसबों में लोन मांगने वालों की पूरी वंशावली का पता आसानी से लग जाता था.

यहां हालात उलट थे. कर्जदार के बारे में पता लगाना टेढ़ी खीर थी. जाली दस्तावेज का डर अलग. नौकरी को खतरा न हो, इसलिए वर्माजी कर्ज देते वक्त जांचपड़ताल कर फूंकफूंक कर कदम रखते थे.

नौकरी और नियमों की ईमानदारी के चलते अकसर उन्हें यहांवहां की खाक छाननी पड़ती थी. हफ्तेभर की थकान के बाद रविवार को अखबार, कौफी मग, और उन की बालकनी में लटका चिडि़यों का घोंसला और सामने पड़ने वाला बगीचा उन में ताजगी भर देता था.

उसी बगीचे में चकवाचकवी का एक जोड़ा था सुजल और सुजाता का. दोनों पास ही गिरगांव चौपाटी की एक कंपनी में काम करते थे. सुजल तो अपने पूरे परिवार के साथ भीमनगर की किसी चाल में रहता था. सुजाता वापी से 7-8 साल पहले यहां पढ़ाई करने आई थी. तभी से कांदिवाली के एक फ्लैट में रहती थी.

पहली बार उन दोनों का परिचय भी इसी कंपनी में इंटरव्यू के दिन ही हुआ था. दोनों सैक्शनों में 1-1 पद था. इंटरव्यू  के बाद वेटिंग रूम में सुजल ने पूछा था, ‘क्या मैं आप का नाम जान सकता हूं? कौन से ग्रुप में इंटरव्यू है?’

‘जी, मेरा नाम सुजाता है. मेरा बी गु्रप है.’

‘अच्छा. दोनों एक गु्रप में नहीं हैं. मैं टैक्निकल विंग में हूं.’

‘हम सहयोगी हो सकते हैं. मतलब, बातचीत कर के अपना तनाव कम कर सकते हैं.’

‘हां, एकदूसरे को पसीना पोंछने की सलाह तो दे ही सकते हैं.’

यह सुनते ही सुजाता के चेहरे पर एक मुसकराहट थिरक गई.

आखिरकार शाम 5 बजे लिस्ट लग गई. लिस्ट के मुताबिक सुजाता और सुजल को नौकरी मिल गई थी. सुजल ने हाथ आगे बढ़ाया तो सुजाता ने भी गरमजोशी से हाथ मिला कर इस खुशखबरी का इजहार किया.

पहले परिचय में पता चल गया था कि सुजाता गुजराती परिवार से थी और सुजल मराठी परिवार से.

सैक्शन भले ही अलग थे, पर रास्ते दोनों के एक ही थे. सुबह तो दोनों अलगअलग जगहों से औफिस पहुंचते, पर शाम को लौटते वक्त एकसाथ लोकल ट्रेन से आते.

धीरेधीरे दोनों एकदूसरे को पसंद करने लगे. हफ्तेभर की थकान दूर करने रविवार की शाम इसी बगीचे में गुजारते. फिर रात को किसी रैस्टोरैंट में साथ खाते और फिर अपनेअपने घर चले जाते.

एक दिन सुजल ने सुजाता के सामने शादी का प्रस्ताव रखा. सुजाता ने सुजल से कहा कि पहले एक फ्लैट खरीदने के बारे में सोचना चाहिए.

यह सुनते ही सुजल के मन में मरीन ड्राइव की रोशनी तैर गई. उस ने जल्दी ही हाउसिंग लोन की फाइल वर्माजी के बैंक में लगा दी.

पहली नजर में सारे कागजात सही लग रहे थे. दोनों की तनख्वाह भी अच्छी थी. अगले दिन वर्माजी उन के औफिस में जांच करने गए.

सिक्योरिटी वाले ने पूछा, ‘‘किस से मिलना है?’’

‘‘मिस्टर ऐंड मिसेज सुजल क्या यहां नौकरी करते हैं?’’

गार्ड हंसा और बोला, ‘‘अरे साहब, अभी दोनों की शादी नहीं हुई है. शायद जल्दी ही हो जाए.’’

यह सुन कर वर्माजी उलटे पैर लौट आए. तय दिन पर दोनों ही लोन के बारे में जानने पहुंचे.

वर्माजी बोले, ‘‘आप ने इनकम जोड़ कर दिखाई है, जबकि आप तो अभी पतिपत्नी नहीं हैं.’’

‘‘सर, हमारी सगाई हो चुकी है. 2 महीने बाद शादी है, तब तक फ्लैट का काम हो जाएगा,’’ सुजल ने कहा.

यह सुन कर वर्माजी बोले, ‘‘आप के पास आज की तारीख में 2 रास्ते हैं. अभी एक छोटा फ्लैट ले लो. अगर बड़ा फ्लैट चाहिए तो शादी के बाद आओ.’’

सुजल ने उन से कहा, ‘‘हम दोनों अंतर्जातीय विवाह कर रहे हैं. परिवार वाले इस विवाह के लिए सहमत तो हो गए हैं, पर शर्त यह है कि हम पारंपरिक रूप से विवाह करें. आप चाहें तो हमारे परिवारों से मिल कर जांच लें.’’

यह सुन कर वर्माजी बोले, ‘‘मिस्टर सुजल, इस सीट पर बैठ कर हम सिर्फ कागजात देखते हैं, भावुकता में फैसला नहीं ले सकते. जिस दिन सारे कागजात पूरे हो जाएं, आप आ जाएं.’’

सुजल ने पूछा, ‘‘सर, माफ करना, पर एक सवाल है. बड़ी रकम डकार कर फरार होने वाले बड़े लोगों के क्या बैंक ने कागजात देखे?’’

‘‘यह सब मेरे अधिकार क्षेत्र में नहीं है,’’ वर्माजी बोले.

वे दोनों चुपचाप बैंक से बाहर आ गए.

उस रात वर्माजी को नींद नहीं आई. पता नहीं, वे क्यों उन की बातों से परेशान थे. रविवार को भी वे बेचैन रहे. सोमवार को बैंक जाते ही उन्होंने सुजल से शाम को बैंक में मिलने को कहा.

सुजल और सुजाता के पहुंचते ही वर्माजी ने कहा, ‘‘इस समस्या का एक समाधान है.

कल ही तुम दोनों कोर्ट मैरिज कर परसों चैक ले जाओ. परंपरागत शादी बाद में करते रहना.

कोर्ट मैरिज का प्रमाणपत्र बैंक को दिखाना है.’’

यह सुनते ही उन दोनों ने वर्माजी को धन्यवाद दिया और चहचहाते हुए बाहर आ गए.

टूटा कप : सुनीता ने विनीता को क्यों दी टूटे कप में चाय

‘‘विनी, दिव्या का विवाह पास आ गया है, पहले सोच रही थी सब काम समय से निबट जाएंगे पर ऐसा नहीं हो पा रहा है. थोड़ा जल्दी आ सको तो अच्छा है. बहुत काम है, समझ नहीं पा रही हूं कहां से प्रारंभ करूं, कुछ शौपिंग कर ली है और कुछ बाकी है.’’

‘‘दीदी, आप चिंता न करें, मैं अवश्य पहुंच जाऊंगी. आखिर मेरी बेटी का भी तो विवाह है,’’ विनीता ने उत्तर दिया.

विनीता अपनी बड़ी बहन सुनीता की बात मान कर विवाह से लगभग 15 दिन पूर्व ही चली आई थी. उस की 7 वर्षीय बेटी पूर्वा भी उस के साथ आ गई थी. विशाल, विक्रांत की पढ़ाई के कारण बाद में आने वाले थे. विनीता को आया देख कर सुनीता ने चैन की सांस ली. चाय का प्याला उस के हाथ में देते हुए बोली, ‘‘पहले चाय पी ले, बाकी बातें बाद में करेंगे.’’

विनीता ने चाय का प्याला उठाया, टूटा हैंडिल देख कर वह आश्चर्य से भर उठी. ऐसे कप में किसी को चाय देना तो दूर वह उसे उठा कर फेंक दिया करती थी पर इतने शानोशौकत से रहने वाली दीदी के घर भला ऐसी क्या कमी है जो उन्होंने उसे ऐसे कप में चाय दी. मन किया वह चाय न पीए पर रिश्ते की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए खून का घूंट पी कर चाय सिप करने लगी पर उस की पुत्री पूर्वा से नहीं रहा गया. वह बोली, ‘‘मौसी, इस कप का हैंडिल टूटा हुआ है.’’

‘‘क्या, मैं ने ध्यान ही नहीं दिया. सारे कप गंदे पड़े हैं, मुनिया भी पता नहीं कहां चली गई. चाय की पत्ती लाने भेजा था, एक घंटे से ज्यादा हो गया, अभी तक नहीं आई. नौकरानियों से कप ही नहीं बचते. अभी कुछ दिन पहले ही तो खरीद कर लाई थी. दूसरा निकालूंगी तो उस का भी यही हाल होगा. वैसे भी विवाह से 3 दिन पहले होटल में शिफ्ट होना ही है. अभी तो हम लोग ही हैं, इन्हीं से काम चला लेते हैं,’’ सुनीता ने सफाई देते हुए कहा.

विनीता ने कुछ नहीं कहा. पूर्वा खेलने में लग गई. विनीता भी सुनीता के साथ विवाह के कार्यों की समीक्षा करने व उन्हें पूर्ण करने में जुट गई. कुछ दिन बाद नंदिता भी आ गई. उसे देखते ही सुनीता और विनीता की खुशी की सीमा न रही, दोनों एकसाथ बोल उठीं, ‘‘अरे, अचानक तुम कैसे, कोई सूचना भी नहीं दी.’’

‘‘मैं सरप्राइज देना चाहती थी, मुझे पता चला कि तुम दोनों अभी एकसाथ हो तो मुझ से रहा नहीं गया. मैं ने सुजय से कहा कि विक्की की परीक्षा की सारी तैयारी करा दी है, आप बाद में आ जाना. मैं जा रही हूं. कम से कम हम तीनों बहनें दिव्या के विवाह के बहाने ही कुछ दिनों साथसाथ रह लेंगी.’’

‘‘बहुत अच्छा किया, हम दोनों तुम्हें ही याद कर रहे थे. मुनिया, 3 कप चाय बना देना और हां, नए कप में लाना,’’ सुनीता ने नौकरानी को आवाज लगाते हुए कहा, फिर नंदिता की ओर मुखातिब हो कर बोली, ‘‘अगर पहले सूचना दी होती तो गाड़ी भिजवा देती.’’ सुनीता दीदी की बात सुन कर विनीता के मन में कुछ दरक गया. नन्ही पूर्वा के कान भी खड़े हो गए. नंदिता के आते ही दूसरे कप निकालने के आदेश के साथ गाड़ी भिजवाने की बात ने उस के शांत दिल में हलचल पैदा कर दी थी. जब वह आई थी तब तो दीदी को पता था, फिर भी उन्होंने किसी को नहीं भेजा. वह स्वयं ही आटो कर के घर पहुंची थी. बात साधारण थी पर विनीता को ऐसा महसूस हो रहा था कि अनचाहे ही सुनीता दीदी ने उस की हैसियत का एहसास करा दिया है. वह पिछले 8 दिनों से उसी टूटे कप में चाय पीती रही थी पर नंदिता के आते ही दूसरे कप निकालने के आदेश के साथ गाड़ी भिजवाने की बात को वह पचा नहीं पा रही थी. मन कर रहा था वह वहां से उठ कर चली जाए पर न जाने किस मजबूरी के कारण उस के शरीर ने उस के मन की बात मानने से इनकार कर दिया. विनीता तीनों बहनों में छोटी है. सुनीता और नंदिता के विवाह संपन्न परिवारों में हुए थे पर पिताजी की मृत्यु के बाद घर की स्थिति दयनीय हो गई थी.

भाई ने अपनी हैसियत के अनुसार घरवर ढूंढ़ा और विवाह कर दिया. यद्यपि विशाल की नौकरी उस के जीजाजी की तुलना में कम थी. संपत्ति भी उन के बराबर नहीं थी पर वह अत्यंत परिश्रमी, सुलझे हुए व स्वभाव के बहुत अच्छे इंसान हैं. उन्होंने उसे कभी किसी कमी का एहसास नहीं होने दिया था और उस ने भी अपने छोटे से घर को इतने सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा रखा है कि विशाल के सहकर्मी उस से ईर्ष्या करते थे. स्वयं काम करने के कारण उस के घर में कहीं भी गंदगी का नामोनिशान नहीं रहता था और न ही टूटेफूटे बरतनों का जमावड़ा. यह बात अलग है कि ऐसे ही पारिवारिक आयोजन उसे चाहेअनचाहे उस की हैसियत का एहसास करा जाते हैं पर अपनी सगी बहन को अपने साथ ऐसा व्यवहार करते देख कर वह स्तब्ध रह गई. क्या अब नया सैट खराब नहीं होगा? हमेशा की तरह इस बार भी सुनीता व नंदिता गप मारने लग जातीं और विनीता काम में लगी रहती थी. अगर वह समय निकाल कर उन के पास बैठती तो थोड़ी ही देर बाद कोई काम आने पर उसे ही उठना पड़ता था. पहले वह इन सब बातों पर इतना ध्यान नहीं दिया करती थी पर इस बार उसे काम में लगा देख कर एक दिन उस की पुत्री पूर्वा ने कहा, ‘‘ममा, दोनों मौसियां बातें करती रहती हैं और आप काम में लगी रहती हो, मुझे अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘बेटा, वे दोनों बड़ी हैं, मुझे उन का काम करने में खुशी मिलती है,’’ पूर्वा की बात सुन कर वह चौंकी पर संतुलित उत्तर दिया.

उस ने उत्तर तो दे दिया पर पूर्वा की बातें चाहेअनचाहे उस के दिमाग में गूंजने लगीं. पहले भी इस तरह की बातें उस के मन में उठा करती थीं पर यह सोच कर अपनी आवाज दबा दिया करती थी कि आखिर वे उस की बड़ी बहनें हैं, अगर वे उस से कोई काम करने के लिए कहती हैं तो इस में बुराई क्या है. पर इस बार बात कुछ और ही थी जो उसे बारबार चुभ रही थी. न चाहते हुए भी दीदी का नंदिता के आते ही नए कप में चाय लाने व गाड़ी भेजने का आग्रह उस के दिल और दिमाग में हथौड़े मारने लगता.

जबजब ऐसा होता वह यह सोच कर मन को समझाने का प्रयत्न करती कि हो सकता है वह सब दीदी से अनजाने में हुआ हो, उन का वह मंतव्य न हो जो वह सोच रही है. आखिर वह उन की छोटी बहन है, वे उस के साथ भेदभाव क्यों करेंगी. सच तो यह है कि दीदी का उस पर अत्यंत ही विश्वास है तभी तो अपनी सहायता के लिए दीदी ने उसे ही बुलाया. उन का उस के बिना कोई काम नहीं हो पाता है. चाहे वह दुलहन की ड्रैस की पैकिंग हो या बक्से को अरेंज करना हो, चाहे मिठाई के डब्बे रखने की व्यवस्था करनी हो. और तो और, विवाह के समय काम आने वाली सारी सामग्री की जिम्मेदारी भी उसी पर थी.

दिव्या भी अकसर उस से ही आ कर सलाह लेते हुए पूछती,

‘‘मौसी, इस ड्रैस के साथ कौन सी ज्वैलरी पहनूंगी या ये चूडि़यां, पर्स और सैंडिल मैच कर रही हैं या नहीं?’’

विवाह की लगभग आधी से अधिक शौपिंग तो दिव्या ने उस के साथ ही जा कर की थी. वह कहती, ‘मौसी, आप का ड्रैस सैंस बहुत अच्छा है वरना ममा और नंदिता मौसी को तो भारीभरकम कपड़े या हैवी ज्वैलरी ही पसंद आती हैं. अब भला मैं उन को पहन कर औफिस तो जा नहीं सकती, फिर लेने से क्या फायदा?’ कहते हैं मन अच्छा न हो तो छोटी से छोटी बात भी बुरी लगने लग जाती है. शायद यही कारण था कि आजकल वह हर बात का अलग ही अर्थ निकाल रही थी. यह सच है कि दिव्या का निश्छल व्यवहार उस के दिल पर लगे घावों पर मरहम का काम कर रहा था पर दीदी की टोकाटाकी असहनीय होती जा रही थी. उसे लग रहा था कि काम निकालना भी एक कला है. बस, थोड़ी सी प्रशंसा कर दो, और उस के जैसे बेवकूफ बेदाम के गुलाम बन जाते हैं. मन कह रहा था व्यर्थ ही जल्दी आ गई. काम तो सारे होते ही, कम से कम यह मानसिक यंत्रणा तो न झेलनी पड़ती.

‘‘विनीता, जरा इधर आना,’’ सुनीता ने आवाज लगाई.

‘‘देख, यह सैट, नंदिता लाई है दिव्या को देने के लिए,’’ विनीता के आते ही सुनीता ने नंदिता का लाया सैट उसे दिखाते हुए कहा.

‘‘बहुत खूबसूरत है,’’ विनीता ने उसे हाथ में ले कर देखते हुए निश्छल मन से कहा.

‘‘पूरे ढाई लाख रुपए का है,’’ नंदिता ने दर्प से सब को दिखाते हुए कहा.

‘‘मौसी, आप मेरे लिए क्या लाई हो?’’ वहीं खड़ी दिव्या ने विनीता की तरफ देख कर बच्चों सी मनुहार की.

नंदिता का यह वाक्य सुन कर विनीता का मन बुझ गया. अपना लाया गिफ्ट उस बहुमूल्य सैट की तुलना में नगण्य लगने लगा पर दिव्या के आग्रह को वह कैसे ठुकराती, उस ने सकुचाते हुए सूटकेस से अपना लाया उपहार निकाल कर दिखाया. उस का उपहार देख कर दिव्या खुशी से बोली, ‘‘वाउ, मौसी, आप का जवाब नहीं, यह पैंडेंट बहुत ही खूबसूरत है, साथ ही व्हाइट गोल्ड की चेन. ऐसा ही कुछ तो मैं चाहती थी. इसे तो मैं हमेशा पहन सकती हूं.’’ दिव्या की बात सुन कर विनीता के चेहरे पर रौनक लौट आई. लाखों के उस डायमंड सैट की जगह हजारों का उपहार दिव्या को पसंद आया. यही उस के लिए बहुत था.

विवाह खुशीखुशी संपन्न हो गया और सभी अपनेअपने घर चले गए, विनीता भी धीरेधीरे सब भूलने लगी. समय बड़े से बड़े घाव को भर देता है, वैसे भी दिव्या के विवाह के बाद मिलना भी नहीं हो पाया. न ही दीदी आईं और न ही उस ने प्रयत्न किया, बस फोन पर ही बातें हो जाया करती थीं. समय के साथ विक्की को आईआईटी कानपुर में दाखिला मिल गया और पूर्वा प्लस टू में आ गई, इस के साथ ही वह मैडिकल की तैयारी कर रही थी. समय के साथ विशाल के प्रमोशन होते गए और अब वे मैनेजर बन गए थे. एक दिन सुनीता दीदी का फोन आया कि तुम्हारे जीजाजी को वहां किसी प्रोजैक्ट के सिलसिले में आना है. मैं भी आ रही हूं, बहुत दिन हो गए तुम सब से मिले हुए.

दीदी पहली बार उस के घर आ रही हैं, सो पिछली सारी बातें भूल कर उत्सुकता से विनीता उन के आने का इंतजार करने के साथ तैयारियां भी करने लगी. सोने के कमरे को उन के अनुसार सैट कर लिया और दीदी की पसंद की खस्ता कचौड़ी बना लीं व रसगुल्ले मंगा लिए. खाने में जीजाजी की पसंद का मलाई कोफ्ता व पनीर भुर्जी भी बना ली थी. उस ने दीदी, जीजाजी की खातिरदारी का पूरा इंतजाम कर रखा था. पर न जाने क्यों पूर्वा को उस का इतना उत्साह पसंद नहीं आ रहा था. जीजाजी दीदी को ड्रौप कर यह कहते हुए चले गए, ‘‘मुझे देर हो रही है, विनीता, मैं निकलता हूं, आतेआते शाम हो जाएगी, तब तक तुम अपनी बहन से खूब बात कर लो. बहुत तरस रही थीं ये तुम से मिलने के लिए. शाम को आ कर तुम सब से मिलता हूं.’’

दीदी ने उस का घर देख कर कहा, ‘‘छोटे घर को भी तू ने बहुत ही करीने से सजा रखा है,’’ विशेषतया उन्हें पूर्वा का कमरा बहुत पसंद आया.

तब तक पूर्वा ने नाश्ता लगा दिया. नाश्ते के बाद पूर्वा चाय ले आई. चाय का कप मौसी को पकड़ाया. सुनीता उस कप को देख कर चौंकी, विनीता कुछ कहने के लिए मुंह खोलती उस से पहले ही पूर्वा ने कहा, ‘‘मौसी, इस कप को देख कर आप को आश्चर्य हो रहा होगा. पर दिव्या दीदी के विवाह में आप ने ममा को ऐसे ही कप में चाय दी थी. हफ्तेभर तक वे ऐसे ही कपों में चाय पीती रहीं जबकि नंदिता मौसी के आते ही आप ने नया टी सैट निकलवा दिया था.

‘‘तब से मेरे मन में यह बात रहरह कर टीस देती रहती थी. वैसे तो टूटे कप हम फेंक दिया करते हैं पर यह कप मैं ने बहुत सहेज कर रखा था, उस याद को जीवित रखने के लिए कि कैसे कुछ अमीर लोग अपनी करनी से लोगों को उन की हैसियत बता देते हैं, चाहे वे उन के अपने ही क्यों न हों और आज उस अपमान के साथ अपनी बात कहने का अवसर भी मिल गया.’’

सुनीता चुप रह गई. बाद में वह पूर्वा के कमरे में गई और बोली, ‘‘सौरी बेटा, आज तू ने मुझे आईना ही नहीं दिखाया, सबक भी सिखा दिया है. शायद मैं नासमझ थी, मैं यह सोच ही नहीं पाई थी कि हमारे हर क्रियाकलाप को बच्चे बहुत ध्यान से देखते हैं और हमारी हर छोटीबड़ी बात का वे अपनी बुद्धि के अनुसार अर्थ भी निकालते हैं. मुझे इस बात का एहसास ही नहीं था कि व्यक्ति चाहे छोटा हो या बड़ा, सब में आत्मसम्मान होता है. बड़े एक बार आत्मसम्मान पर लगी चोट को रिश्तों की परवा करते हुए भूलने का प्रयत्न कर भी लेते हैं किंतु बच्चे अपने या अपने घर वालों के प्रति होते अन्याय को सहन नहीं कर पाते और  अपना आक्रोश किसी न किसी रूप में निकालने की कोशिश करते हैं.

‘‘पूर्वा, तुम ने अपने मन की व्यथा को इतने दिनों तक स्वयं तक ही सीमित रखा और आज इतने वर्षों बाद अवसर मिलते ही प्रकट भी कर दिया. मुझे खुशी तो इस बात की है कि तुम ने अपनी बात इतने सहज और सरल ढंग से कह दी. आज तुम ने मुझे एहसास करा दिया बेटे कि उस समय मैं ने जो किया, गलत था. एक बार फिर से सौरी बेटा,’’ यह कह कर उन्होंने पूर्वा को गले से लगा लिया.

जहां सुनीता अपने पिछले व्यवहार पर शर्मिंदा थी वहीं विनीता पूर्वा के कटु वचनों को सुन कर उसे डांटना चाह कर भी नहीं डांट पा रही थी. संतोष था तो सिर्फ इतना कि दीदी ने अपना बड़प्पन दिखाते हुए अपनी गलती मान ली थी.

सच तो यह था कि आज उस के दिल से भी वर्षों पुराना बोझ उतर गया था, आखिर आत्मसम्मान तो हर एक में होता है. उस पर लगी चोट व्यक्ति के दिन का चैन और रात की नींद चुरा लेती है. शायद उस की पुत्री के साथ भी ऐसा ही हुआ था. आज उसे यह भी एहसास हो गया कि आज की पीढ़ी अन्याय का उत्तर देना जानती है, साथ ही बड़ों का सम्मान करना भी. अगर ऐसा न होता तो पूर्वा ‘सौरी मौसी’ कह कर उन के कदमों में न झुकती.

बोझ : अपनो का बोझ भी क्या बोझ होता है

मां ने फुसफुसाते हुए मेरे कान में कहा, ‘‘साफसाफ कह दो, मैं कोई बांदी नहीं हूं. या तो मैं रहूंगी या वे लोग. यह भी कोई जिंदगी है?’’

इस तरह की उलटीसीधी बातें मां 2 दिनों से लगतार मुझे समझा रही थी. मैं चुपचाप उस का मुख देखने लगी. मेरी दृष्टि में पता नहीं क्या था कि मां चिढ़ कर बोली, ‘‘तू मूर्ख ही रही. आजकल अपने परिवार का तो कोई करता नहीं, और तू है कि बेगानों…’’

मां का उपदेश अधूरा ही रह गया, क्योंकि अनु ने आ कर कहा, ‘‘नानीअम्मा, रिकशा आ गया.’’ अनु को देख कर मां का चेहरा कैसा रुक्ष हो गया, यह अनु से भी छिपा नहीं रहा.

मां ने क्रोध से उस पर दृष्टि डाली. उस का वश चलता तो वह अपनी दृष्टि से ही अनु, विनू और विजू को जला डालती. फिर कुछ रुक कर तनिक कठोर स्वर में बोली, ‘‘सामान रख दिया क्या?’’

‘‘हां, नानीअम्मा.’’

अनु के स्वर की मिठास मां को रिझा नहीं पाई. मां चली गई किंतु जातेजाते दृष्टि से ही मुझे जताती गई कि मैं बेवकूफ हूं.

मां विवाह में गई थी. लौटते हुए 2 दिन के लिए मेरे यहां आ गई. मां पहली बार मेरे घर आई थी. मेरी गृहस्थी देख कर वह क्षुब्ध हो गई. मां के मन में इंजीनियर की कल्पना एक धन्नासेठ के रूप में थी. मां के हिसाब से घर में दौलत का पहाड़ होना चाहिए था. हर भौतिक सुख, वैभव के साथसाथ सरकारी नौकरों की एक पूरी फौज होनी चाहिए थी. इन्हीं कल्पनाओं के कारण मां ने मेरे लिए इंजीनियर पति चुना था.

मां की इन कल्पनाओं के लिए मैं कभी मां को दोषी नहीं मानती. हमारे नानाजी साधारण क्लर्क थे, लेकिन वे तनमन दोनों से पूर्ण क्लर्क थे. वेतन से दसगुनी उन की ऊपर की आमदनी थी. पद उन का जरूर छोटा था किंतु वैभव की कोई कमी नहीं थी. हर सुविधा में पल कर बड़ी हुई मां ने उस वैभव को कभी नाजायज नहीं समझा. यही कारण था कि मेरे नितांत ईमानदार मास्टर पिता से मां का कभी तालमेल नहीं बैठा.

मुझे अब भी याद है कि मैं जब भी मायके जाती, मां खोदखोद कर इन की कमाई का हिसाब पूछती. घुमाफिरा कर नानाजी के सुखवैभव की कथा सुना कर उसी पथ पर चलने का आग्रह करती, किंतु हम सभी भाईबहनों की नसनस में पिता की शिक्षादीक्षा रचबस गई थी. विवाह भी हुआ तो पति पिता के मनोनुकूल थे.

मां के इन 2 दिनों के वास ने मेरी खुशहाल गृहस्थी में एक बड़ा कांटा चुभो दिया. आज जब सभी अपने काम पर चले गए तो रह गई हैं रचना और मां की बातों का जाल.

रचना को दूध पिला कर सुला देने के बाद मैं घर में बाकी काम निबटाने लगी. ज्यादातर काम तो अनु ही निबटा जाती है, फिर भी गृहस्थी के तो कई अनदेखे काम हैं. सब कामों से निबट कर जब मैं अकेली बैठी तो मां की बातें मुझे बींधने लगीं. ‘क्या हम ने गलत किया है? क्या मैं रचना और आशीष का हक छीन रही हूं? क्या उन की इच्छाओं को मैं पूर्ण कर पा रही हूं? मुझे अपने पति पर क्रोध आने लगा. सचमुच मैं मूढ़ हूं. कितनी लच्छेदार बातें बना कर मुझ से इतनी बड़ी जिम्मेदारी उठवा दी. मुझे अपनी स्थिति अत्यंत दयनीय नहीं, असह्य लगने लगी. मां के आने से पूर्व भी तो परिस्थितियां यही थीं. सब बच्चे अनु, विनू और विजू साथ रहे किंतु आज उन का रहना असह्य क्यों लग रहा है?’

मन बारबार अतीत में भटकने लगा है. 3 साल पहले की घटना मेरे मनमस्तिष्क पर भी स्पष्ट रूप से अंकित थी. रचना तब होने वाली थी. होली की छुट्टियां हो चुकी थीं. उसी दिन हमें अपनी बड़ी ननद  के यहां जाना था. किंतु वह जाना सुखद नहीं हुआ. उस दिन बिजली का धक्का लगने से उन्हें बचाते हुए जीजी और भाईसाहब दोनों मृत्यु के ग्रास बन गए. रह गए बिलखते, विलाप करते उन के बच्चे अनु, विनू और विजू, सबकुछ समाप्त हो गया. आज के युग में हर व्यक्ति अपने ही में इतना लिप्त है कि दूसरे की जिम्मेदारी का करुणक्रंदन मन को विचलित किए दे रहा था.

रात्रि के सूनेपन में मेरे पति ने मुझ से लगभग रोते हुए कहा, ‘आभा, क्या तुम इन बच्चों को संभाल सकोगी?’

मैं पलभर के लिए जड़ हो गई. कितनी जोड़तोड़ से तो अपनी गृहस्थी चला रही हूं और उस पर 3 बच्चों का बोझ.

मैं कुछ उत्तर नहीं दे पाई. अपना स्वार्थ बारबार मन पर हावी हो जाता. वे अतीत की गाथाएं गागा कर मेरे हृदय में सहानुभूति जगाना चाह रहे थे. अंत में उन्होंने कहा, ‘अपने लिए तो सभी जीते हैं, किंतु सार्थक जीवन उसी का है जो दूसरों के लिए जिए.’

अंततोगत्वा बच्चे हमारे साथ आ गए. घरबाहर सभी हमारी प्रशंसा करते. किंतु मेरा मन अपने स्वार्थ के लिए रहरह कर विचलित हो जाता. फिर धीरेधीरे सब कुछ सहज हो गया. इस में सर्वाधिक हाथ 17 वर्षीय अनु का था.

उन लोगों के आने के बाद हम पारिवारिक बजट बना रहे थे, तभी ‘मामी आ जाऊं?’ कहती हुई अनु आ गई थी. उस समय उस का आना अच्छा नहीं लगा था, किंतु कुछ कह नहीं पाई. ‘मामी,’ मेरी ओर देख कर उस ने कहा था, ‘आप को बजट बनाते देख कर चली आई हूं. अनावश्यक हस्तक्षेप कर रही हूं, बुरा नहीं मानिएगा.’

‘नहींनहीं बेटी, कहो, क्या कहना चाहती हो?’

‘आप रामलाल की छुट्टी कर दें. एक आदमी के खाने में कम से कम 2,000 रुपए तो खर्च हो ही जाते हैं.’

मेरे प्रतिरोध के बाद भी वह नहीं मानी और रामलाल की छुट्टी कर दी गई. अनु ने न केवल रामलाल का बल्कि मेरा भी कुछ काम संभाल लिया था.

उस के बाद रचना का जन्म हुआ. रचना के जन्म पर अनु ने मेरी जो सेवा की उस की क्या मैं कभी कीमत चुका पाऊंगी?

रचना के आने से खर्च का बोझ बढ़ गया. उसी दिन शाम को अनु ने आ कर कहा, ‘‘मम्मा, मेरी एक टीचर ने बच्चों के लिए एक कोचिंग सैंटर खोला है. प्रति घंटा 300 रुपए के हिसाब से वे अभी पढ़ाने के लिए देंगी. बहुत सी लड़कियां वहां जा रही हैं. मैं भी कल से जाऊंगी.’’

हम लोगों ने कितना समझाया पर वह नहीं मानी. अपनी बीए की पढ़ाई, घर का काम, ऊपर से यह मेहनत, किंतु वह दृढ़ रही. इन के हृदय में अनु के इस कार्य के लिए जो भाव रहा हो, पर मेरे हृदय में समाज का भय ही ज्यादा था. दुनिया मुझे क्या कहेगी? बड़े यत्न से अच्छाई का जो मुखौटा मैं ने ओढ़ रखा है, वह क्या लोगों की आलोचना सह सकेगा?

पर वह प्रतिमाह अपनी सारी कमाई मेरे हाथ पर रख देती. कितना कहने पर भी एक पैसा तक न लेती. यह देख कर मैं लज्जित हो उठती.

विनू भी पढ़ाई के साथसाथ पार्टटाइम ट्यूशन करता. इन्होंने बहुत मना किया, पर बच्चों का एक ही नारा था-  ‘मेहनत करते हैं, चोरी तो नहीं.’

3 साल देखतेदेखते बीत गए. आशीष और रचना दोनों की जिम्मेदारियों से मैं मुक्त थी. वह अपने अग्रजों के पदचिह्नों पर चल रहा था. कक्षा में वह कभी पीछे नहीं रहा. मेरी आंखों के सामने बारीबारी से अनु, विनू और विजू का चेहरा घूम जाता. उस के साथसाथ आशीष का भी. क्या इन बच्चों को घर से निकाल दूं?

मेरा बाह्य मन हां कहता. 3 का खर्च तो कम होगा. किंतु अंतर्मन मुझे धिक्कारता. कल अगर हम दोनों नहीं रहे तो आशीष और रचना भी इसी तरह फालतू हो जाएंगे. मैं फफकफफक कर रोने लगी.

‘‘क्या बात है, मामी, रो क्यों रही हैं?’’ अनु के कोमल स्वर से मेरी तंद्रा भंग हो गई. शाम हो चुकी थी.

मां ने कितना अत्याचार किया मात्र 2 दिनों में. आशीष और रचना को छिपा कर हर चीज खिलाना चाहती थी. बारबार बच्चों को उलटीसीधी बातें सिखाती.

मैं अनु की ओर देखने लगी. मुझे लगा अनु नहीं, मेरी रचना बड़ी हो गई है और हम दोनों के अभाव में मां की दी हुई मानसिक यातनाएं भोग रही है.

मैं ने अनु को हृदय से लगा लिया. ‘‘नहींनहीं, मैं तुम्हें नहीं जाने दूंगी.’’

‘‘मुझे आप से अलग कौन कर रहा है?’’ अनु ने हंस कर कहा.

‘‘किंतु इसे जाना तो होगा ही,’’ यह करुण स्वर मेरे पति का था. पता नहीं कब वे आ गए थे.

‘‘क्या?’’ मैं ने अपराधी भाव से पूछा.

‘‘अनु का विवाह पक्का हो गया है. मेरे अधीक्षक ने अपने पुत्र के लिए स्वयं आज इस का हाथ मांगा है. दहेज में कुछ नहीं देना पड़ेगा.’’

अनु सिर झुका कर रोने लगी. मेरे हृदय पर से एक बोझ हट गया. उसे हृदय से लगा कर मैं भी खुशी में रो पड़ी.

वह बेमौत नहीं मरता: एक कठोर मां ने कैसे ले ली बेटे की जान

बड़बड़ा रही थीं 80 साल की अम्मां. सुबहसुबह उठ कर बड़बड़ करना उन की रोज की आदत है, ‘‘हमारे घर में नहीं बनती यह दाल वाली रोटी, हमारे घर में यह नहीं चलता, हमारे घर में वह नहीं किया जाता.’’ सुबह 4 बजे उठ जाती हैं अम्मां, पूजापाठ, हवनमंत्र, सब के खाने में रोकटोक, सोनेजागने पर रोकटोक, सब के जीने के स्तर पर रोकटोक. पड़ोस में रहती हूं न मैं, और मेरी खिड़की उन के आंगन में खुलती है, इसलिए न चाहते हुए भी सारी की सारी बातें मेरे कान में पड़ती रहती हैं.

अम्मां की बड़ी बेटी अकसर आती है और महीना भर रह जाती है. घूमती है अम्मां के पीछेपीछे, उन का अनुसरण करती हुई.

आंगन में बेटी की आवाज गूंजी, ‘‘अम्मां, पानी उबल गया है अब पत्ती और चीनी डाल दूं?’’

‘‘नहीं, थोड़ा सा और उबलने दे,’’ अम्मां अखबार पढ़ती हुई बोलीं.

मुझे हंसी आ गई थी कि 60 साल की बेटी मां से चाय बनाना सीख रही थी. अम्मां चाहती हैं कि सभी पूरी उम्र उन के सामने बड़े ही न हों.

‘‘हां, अब चाय डाल दे, चीनी और दूध भी. 2-3 उबाल आने दे. हां, अब ले आ.’’

अम्मां की कमजोरी हर रोज मैं महसूस करती हूं. 80 साल की अम्मां नहीं चाहतीं कि कोई अपनी इच्छा से सांस भी ले. बड़ी बहू कुछ साल साथ रही फिर अलग चली गई.

बेटे के अलग होने पर अम्मां ने जो रोनाधोना शुरू किया उसे देख कर छोटा लड़का डर गया. वह ऐसा घबराया कि उस ने अम्मां को कुछ भी कहना छोड़ दिया.

दुकान के भी एकएक काम में अम्मां का पूरा दखल था. नौकर कितनी तनख्वाह लेता है, इस का पता भी छोटे लड़के को नहीं था. अम्मां ही तनख्वाह बांटतीं.

छोटे बेटे का परिवार हुआ. बड़ी समझदार थी उस की पत्नी. जब आई थी अच्छे खातेपीते घर की लड़की थी लेकिन अब 18 साल में एकदम फूहड़गंवार बन कर रह गई है.

अम्मां बेटी के साथ बैठ कर चुहल करतीं तो मेरा मन उबलने लगता. गुस्सा आता मुझे कि कैसी औरत है यह. कभी उन के घर जा कर देखो तो, रसोई में वही टीन के डब्बे लगे हैं जिन पर तेल और धुएं की मोटी परत चढ़ चुकी है. बहू की क्या मजाल जो नए सुंदर डब्बे ला कर रसोई में सजा ले और उन में दालें, मसाले डाल ले.

मरजी अम्मां की और फूहड़ता का लेबल बहू के माथे पर. बड़ी बेटी जो दिनरात मां का अहम् संतुष्ट करती है, जिस का अपना घर हर सुखसुविधा से भरापूरा है, जो माइक्रोवेव के बिना खाना ही गरम नहीं कर सकती, वह क्या अपनी मां को समझा नहीं सकती? मगर नहीं, पता नहीं कैसा मोह है इस बेटी का कि मां का दिल न दुखे चाहे हजारों दिल दिनरात कुढ़ते रहे.

‘‘मेरे घर में 3 रोटियां खाने का रिवाज नहीं,’’ अम्मां ने बहू के आते ही घर के नियम उस के कान में डाल दिए थे. जब अम्मां ने देखा कि बहू ने चौथी रोटी पर भी हाथ डाल दिया तो बच्चों को नपातुला भोजन परोसने वाली अम्मां कहां सह लेती कि बहू हर रोज 1-1 रोटी ज्यादा खा जाती.

छोटा लड़का मां को खुश करताकरता ही बीमार रहने लगा था. सुबह से शाम तक दुकान पर काम करता और पेट में डलती गिन कर पतलीपतली 5 रोटियां जो उस के पूरे दिन का राशन थीं. बाजार से कुछ खरीद कर इस डर से नहीं खाता कि नौकरों से पता चलने के बाद अम्मां घर में महाभारत मचा देंगी.

‘‘किसी ने जादूटोना कर दिया है हमारे घर पर,’’ बेटा बीमार पड़ा तो अम्मां यह कहते हुए गंडेतावीजों में ऐसी पड़ीं कि अड़ोसीपड़ोसी सभी उन को दुश्मन नजर आने लगे, जिन में सब से ऊपर मेरा नाम आता था.

अम्मां का पूरा दिन हवनमंत्र में बीतता है और जादूटोने पर भी उन का उतना ही विश्वास था. पूरा दिन परिवार का खून जलाने वाली अम्मां को स्वर्ग चाहिए चाहे जीते जी आसपास नरक बन जाए. छोटा बेटा इलाज के चक्कर में कई बार दिल्ली गया था. सांस अधिक फूलने लगी थी इसलिए इन दिनों वह घर पर ही था. एक सुबह वह चल बसा. हम सब भाग कर उन के घर जमा हुए तो मेरी सूरत पर नजर पड़ते ही अम्मां ने चीखना- चिल्लाना शुरू किया, ‘‘हाय, तू मेरा बेटा खा गई, तूने जादूटोने किए, देख, मेरा बच्चा चला गया.’’

अवाक् रह गई मैं. सभी मेरा मुंह देखने लगे. ऐसा दर्दनाक मंजर और उस पर मुझ पर ऐसा आरोप. मुझे भला क्या चाहिए था अम्मां से जो मैं जादूटोना करती.

‘‘अरे, बड़की बहू तेरी बड़ी सगी है न. सारा छोटा न ले जाए इसलिए उस ने तेरे हाथ जादूटोने भेज दिए…’’

मैं कुछ कहती इस से पहले मेरे पति ने मुझे पीछे खींच लिया और बोले, ‘‘शांति, चलो यहां से.’’

मौका ऐसा था कि दया की पात्र अम्मां वास्तव में एक पड़ोसी की दया की हकदार भी नहीं रही थीं.

इनसान बहुत हद तक अपने हालात के लिए खुद ही जिम्मेदार होता है. उस का किया हुआ एकएक कर्म कड़ी दर कड़ी बढ़ता हुआ कितनी दूर तक चला आता है. लंबी दूरी तय कर लेने के बाद भी शुरू की गई कड़ी से वास्ता नहीं टूटता. 80 साल की अम्मां आज भी वैसी की वैसी ही हैं.

बहू दुकान पर जाती है और बड़ी पोती स्कूल के साथसाथ घर भी संभालती है. अम्मां की सारी कड़वाहट अब पोती पर निकलती है. 4 साल हो गए बेटे को गए. इन 4 सालों में अम्मां पर बस, इतना ही असर हुआ है कि उन की जबान की धार पहले से कुछ और भी तेज हो गई है.

‘‘कितनी बार कहा कि सुबहसुबह शोर मत किया करो, अम्मां, मेरे पेपर चल रहे हैं. रात देर तक पढ़ना पड़ता है और सुबह 4 बजे से ही तुम्हारी किटकिट शुरू हो जाती है,’’ एक दिन बड़ी पोती ने चीख कर कहा तो अम्मां सन्न रह गईं.

‘‘रहना है तो तुम हमारे साथ आराम से रहो वरना चली जाओ बूआ के साथ. दाल वाली रोटी पसंद नहीं तो बेशक भूखी रह जाओ, सादी रोटी बना लो मगर मेरा दिमाग मत चाटो, मेरा पेपर है.’’

‘‘हायहाय, मेरा बेटा चला गया तभी तुम्हारी इतनी हिम्मत हो गई…’’

अम्मां की बातें बीच में काटते हुए पोती बोली, ‘‘बेटा चला गया तभी तुम्हारी भी हिम्मत होती है उठतेबैठते हमें घर से निकालने की. पापा जिंदा होते तो तुम्हारी जबान भी इतनी लंबी न होती…’’

खिड़की से आवाजें अंदर आ रही थीं.

‘‘…अपने बेटे को कभी पेट भर कर खिलाया होता तो आज हम भी बाप को न तरसते. अम्मां, इज्जत लेना चाहती हो तो इज्जत करना भी सीखो. मुझे पापा मत समझना अम्मां, मैं नहीं सह पाऊंगी, समझी न तुम.’’

शायद अम्मां का हाथ पोती पर उठ गया था, जिसे पोती ने रोक लिया था.

तरस आता था मुझे बच्ची पर, लेकिन अब थोड़ी खुशी भी हो रही है कि इस बच्ची को विरोध करना भी आता है.

पेपर खत्म हुए और एक दिन फिर से घर में कोहराम मच गया. घबरा कर खिड़की में से देखा. चमचमाते 3 बड़ेछोटे टं्रक आंगन में पड़े थे. जिन पर अम्मां चीख रही थीं. दुकान से पैसे ले कर खर्च जो कर लिए थे.

‘‘घर में इतने ट्रंक हैं फिर इन की क्या जरूरत थी?’’

‘‘होंगे, मगर मेरे पास नहीं हैं और मुझे अपना सामान रखने के लिए चाहिए.’’

अम्मां कुली का हाथ रोक रही थीं तो पोती ने अम्मां का हाथ झटक दिया था और बोली, ‘‘चलो भैया, टं्रक अंदर रखो.’’

छाती पीटपीट कर रोने लगी थी अम्मां, पोती ने लगे हाथ रसोई में जा कर टीन के सभी डब्बे बाहर ला पटके जिन्हें बाद में कबाड़ी वाला ले गया. पोती ने नए सुंदर डब्बे धो कर सामने मेज पर सजा दिए थे. अम्मां ने फिर मुंह खोला तो इस बार पोती शांत स्वर में बोली, ‘‘पापा कमाकमा कर मर गए, मेरी मां भी क्या कमाकमा कर तुम्हारी झोली ही भरती रहेगी? हमें जीने कब दोगी अम्मां? जीतेजी जीने दो अम्मां, हम पर कृपा करो…’’

पोती की इस बगावत से अम्मां सन्न थीं. वे सुधरेंगी या नहीं, मैं नहीं जानती मगर इतना जरूर जानती हूं कि अम्मां के लिए यह सब किसी प्रलय से कम नहीं था. सोचती हूं इतना ही विरोध अगर छोटे बेटे ने भी कर दिखाया होता तो इस तरह का दृश्य नहीं होता जो अब इस घर का है.

कुछ और दिन बीत गए. 20 साल की पोती धीरेधीरे मुंहजोर होती जा रही है. अपने ढंग से काम करती है और अम्मां का जायज मानसम्मान भी नहीं करती. हर रोज घर में तूतू मैंमैं होती है. बच्चों के खानेपीने में अम्मां की सदा की रोकटोक भला पोती सहे भी क्यों. भाई को पेट भर खिलाती है, कई बार थाली में कुछ छूट जाए तो अम्मां चीखने लगती हैं,  ‘‘कम डालती थाली में तो इतना जाया न होता…’’

‘‘तुम मेरे भाई की रोटियां मत गिना करो अम्मां, बढ़ता बच्चा है कभी भूख ज्यादा भी लग जाती है. तुम्हारी तरह मैं पेट नापनाप कर खाना नहीं बना सकती…’’

‘‘मैं पेट नाप कर खाना बनाती हूं?’’ अम्मां चीखीं.

‘‘क्या तुम्हें नहीं पता? घर में तुम्हीं ने 2 रोटी का नियम बना रखा है न और पेट नाप कर बनाना किसे कहते हैं. तुम्हारी वजह से मेरा बाप मर गया, सांस भी नहीं लेने देती थीं तुम उन्हें. घुटघुट कर मर गया मेरा बाप, अब हमें तो जीने दो. इनसान दिनरात रोटी के लिए खटतामरता है, हमें तो भर पेट खाने दो.’’

अम्मां अब पगलाई सी हैं. सारा राजपाट अब पोती ने छीन लिया है. जरा सी बच्ची एक गृहस्वामिनी बन गई.

‘‘रोती रहती हैं अब अम्मां. सभी को दुश्मन बना चुकी हैं. कोई उन से बात करना नहीं चाहता. पोती को कोसना घटता नहीं. अपनी भूल वह आज भी नहीं मानतीं. 80 साल जी चुकने के बाद भी उन्हें बैराग नहीं सूझता. सब से बड़ा नुकसान उन पंडितों को हुआ है जो अब यज्ञ, हवन के बहाने अम्मां से पूरीहलवा उड़ाने नहीं आ पाते. जब कभी कोई भटक कर आ पहुंचे तो पोती झटक देती है, ‘‘जाओ, आगे जाओ, हमें बख्शो.

मझली : रमुआ ने कैसे मालकिन को खुश किया

ठाकुर साहब के यहां मैं छोटी के बाद आई थी, लेकिन मझली मैं ही कहलाई. ठाकुर साहब के पास 20 गांवों की मालगुजारी थी. महलनुमा बड़ी हवेली के बीच में दालान और आगे ठाकुर साहब की बैठक थी. हवेली के दरवाजों पर चौबीसों घंटे लठैत हते थे.

हां, तो बड़ी ही ठाकुर साहब के सब से करीब थीं. जब ठाकुर साहब कहीं जाते, तब वे घोड़े पर कोड़ा लिए बराबरी से चलतीं. उन में दयाधरम नहीं था. पूरे गांवों पर उन की पकड़ थी. कहां से कितना पैसा आना है, किस के ऊपर कितना पैसा बकाया है, इस का पूरा हिसाब उन के पास था.

ठाकुर साहब 65 साल के आसपास हो चले थे और बड़ी 60 के करीब थीं. ठाकुर साहब को बस एक ही गम था कि उन के कोई औलाद नहीं थी.

इसी के चलते उन्होंने पहले छोटी से शादी की थी और 5 साल बाद अब मुझ से. छोटी को राजकाज से कोई मतलब नहीं था. दिनभर ऐशोआराम की जिंदगी गुजारना उस की आदत थी. वह 40 के आसपास हो चली थी, लेकिन उस के आने के बाद भी ठाकुर साहब का गम कम नहीं हुआ था.

कहते हैं कि उम्मीद पर दुनिया टिकी है, इसीलिए ठाकुर साहब ने मुझ से ब्याह रचाया था. मेरी उम्र यही कोई 20-22 साल के आसपास चल रही थी. मैं गरीब परिवार से थी.

एक बार धूमरी गांव में जब ठाकुर साहब आए थे, तब मैं बच्चों को इकट्ठा कर के पढ़ा रही थी. ठाकुर साहब ने मेरे इस काम की तारीफ की थी और वे मेरी खूबसूरती के दीवाने हो गए थे. और न जाने क्यों उन के दिल में आया कि शायद मेरी वजह से उन के घर में औलाद की खुशियां आ जाएंगी.

मेरी मां तो इस ब्याह के लिए तैयार नहीं थीं, लेकिन पिताजी की सोच थी कि इतने बड़े घर से रिश्ता जुड़ना इज्जत की बात है.

खैर, बहुत शानोशौकत के साथ ठाकुर साहब से मेरा ब्याह हुआ. जैसा कि दूसरी जगह होता है, सौतन आने पर पुरानी औरतें जलन करती हैं, लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं था. बड़ी ने ही मेरी नजर उतारी थी और छोटी मुझे ठाकुर साहब के कमरे तक ले गई थी.

मेरे लिए शादीब्याह की बातें एक सपने जैसी थीं, क्योंकि गरीब घर की लड़की की इज्जत से गांव में खेलने वाले तो बहुत थे, पर इज्जत देने वाले नहीं थे, इसलिए जब ठाकुर साहब के यहां से रिश्ते की बात आई, तब मैं ने भी नानुकर नहीं की.

अब बड़ी और छोटी के कोई औलाद नहीं थी, इसलिए आपसी तनातनी वाली कोई बात भी नहीं थी.

हां, तो मैं बता रही थी कि बड़ी ही ठाकुर साहब के साथ गांवगांव जाती थीं और वसूली करती थीं. ऐसे ही एक बार वे रंभाड़ी गांव गईं. वहां सब किसानों ने तो अपने कर्ज का हिस्सा ठाकुर साहब को भेंट कर दिया था, लेकिन सिर्फ रमुआ ही ऐसा था, जो खाली हाथ था.

वह हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘ठाकुरजी… ओले गिरने से फसल बरबाद हो गई. पिछले दिनों मेरे मांबाप भी गुजर गए. अब इस साल आप कर्ज माफ कर दें, तो अगले साल पूरा चुकता कर दूंगा.’’

लेकिन बड़ी कहां मानने वाली थीं. उन्होंने लठैतों से कहा, ‘‘बांध लो इसे. इस की सजा हवेली में तय होगी.’’

मैं जब ठाकुर साहब के यहां आई, तब पहलेपहल तो किसी बात पर अपनी सलाह नहीं दी थी, लेकिन ठाकुर साहब चाहते थे कि मैं भी इस हवेली से जुड़ूं और जिम्मेदारी उठाऊं.

धीरेधीरे मैं हवेली में रचबस गई और वक्तजरूरत पर सलाह देने के साथसाथ हवेली के कामकाज में हिस्सा लेने लगी.

रात हो चली थी कि तभी हवेली में हलचल हुई. पता करने पर मालूम हुआ कि ठाकुर साहब आ गए हैं. बड़ी ने अपना कोड़ा हवा में लहराया, तब मुझे एहसास हुआ कि आज भी किसी पर जुल्म ढहाया जाना है. अब मैं भी झरोखे में आ कर बैठ गई.

रमुआ को रस्सियों से बांध कर आंगन में डाल दिया गया था. अब बड़ी ठाकुर साहब के इशारे का इंतजार कर रही थी कि उस पर कोड़े बरसाना शुरू करे.

मैं ने अपनी नौकरानी से उस को मारने की वजह पूछी, तब उस ने बताया, ‘‘मझली ठकुराइन, यहां तो यह सब होता ही रहता है. अरे, कोई बकाया पैसा नहीं दिया होगा.’’ रमुआ थरथर कांप रहा था.

तभी मैं ने उस नौकरानी से ठाकुर साहब के पास खबर भिजवाई कि मैं उन से मिलना चाहती हूं और मैं झरोखे के पीछे चली गई.

तभी वहां ठाकुर साहब आए और उन्होंने मेरी तरफ देखा. मैं ने कहा, ‘‘ठाकुर साहब, यह रमुआ मुझे ईमानदार और मेहनती लगता है, इसलिए इसे यहीं पटक देते हैं. पड़ा रहेगा. हवेली, खेतखलिहान के काम तो करेगा ही, यह मजबूत लठैत भी है.’’

ठाकुर साहब को मेरी सलाह पसंद आई, लेकिन दूसरों पर अपना खौफ बनाए रखने के लिए उन्होंने रमुआ को 10 कोड़े की सजा देते हुए हवेली के पिछवाड़े की कोठरी में डलवा दिया.

एक दिन मैं ने नौकरानी से रमुआ को बुलवाया. हवेली में कोई भी मर्द औरतों से आमनेसामने बात नहीं कर सकता था, इसलिए बात करने के लिए बीच में परदा डाला जाता था. रमुआ ने परदे के दूसरी तरफ आ कर सिर झुका कर कहा, ‘‘मझली ठकुराइनजी आदेश…’’

झीने परदे में से मैं ने रमुआ को एक निगाह देखा. लंबा कद, गठा हुआ बदन. सांवले रंग पर पसीने की बूंदें एक अजीब सी कशिश पैदा कर रही थीं. उसे देखते ही मेरे तन की उमंगें और मन की तरंगें उछाल मारने लगीं.

मैं ने रमुआ पर रोब गांठते हुए कहा, ‘‘तो तू है रमुआ. अब क्या हवेली में बैठेबैठे ही खाएगा, यहां मुफ्त में कुछ नहीं मिलता है… समझा?’’

यह सुन कर रमुआ घबरा गया और बोला, ‘‘आदेश, मझली ठाकुराइन.’’

मैं ने कहा, ‘‘इधर आ… यह जो ठाकुरजी की बैठक है, उस के ऊपर मयान (पुराने मकानों में छत इन पर बनाई जाती थी) में हाथ से झलने वाला पंखा लगा है. उस की डोरी निकल गई है. जरा उसे अच्छी तरह से बांध दे.’’ मैं अब भी परदे के पीछे नौकरानी के साथ खड़ी थी.

रमुआ बंदर की तरह दीवार पर चढ़ कर मयान तक पहुंच गया और उस ने पंखे की सभी डोरियां बांध दीं. इस के बाद बैठक को साफ कर अच्छी तरह जमा दिया.

दोपहर को ठाकुर साहब ने बैठक का इंतजाम देखा, तो उन्हें बहुत अच्छा लगा. जब उन्होंने इस बारे में नौकरानी से पूछा, तब उस ने मेरा नाम बताया. ठाकुर साहब की निगाह में मेरी इमेज अच्छी बनती जा रही थी.

एक दिन मैं ने ठाकुर साहब से कहा, ‘‘इस रमुआ को हवेली की हिफाजत के लिए रख लेते हैं और कहीं जाते समय मैं भी अपनी हिफाजत के लिए नौकरानी के साथ इसे भी रख लिया करूंगी.’’

ठाकुर साहब ने मेरी बात मान ली और मेरी हिफाजत की जिम्मेदारी रमुआ के ऊपर सौंप दी.

हवेली से कुछ ही दूरी पर खेत था. खेत में मकान बना था, जिस से हवेली का कोई आदमी वहां जाए, तो उसे कोई परेशानी न हो.

एक दिन मैं ने नौकरानी को बैलगाड़ी लगाने के लिए कहा. बैलगाड़ी के चारों डंडों पर चादर बांध दी गई थी, जिस से बाहर के किसी मर्द की निगाह हवेली की औरतों पर नहीं पडे़.

चूंकि बड़ी अब 60 के पार हो चुकी थीं, इसलिए ये सब बंदिशें उन पर तो नहीं थीं, छोटी पर कम और मेरे ऊपर सब से ज्यादा थीं.

खैर, हवेली के दरवाजे से बैलगाड़ी तक दोनों तरफ परदे लगा दिए गए और मैं उन परदों के बीच से हो कर बैलगाड़ी में बैठ गई और रमुआ बैलगाड़ी पर लाठी रख कर हांकने लगा.

खेत पर जा कर मैं ने रमुआ को मेड़ बांधने और पानी की ढाल ठीक करने के लिए कहा. थोड़ी देर में काली घटाएं उमड़घुमड़ कर बरसने लगीं. रमुआ अभी भी खेत पर काम कर रहा था.

नौकरानी को मैं ने ऊपर के कमरे में भेज दिया और कहा, ‘‘जब चलेंगे, तब बुला लूंगी,’’ और बाहर से कुंडी लगा दी.

बरसात तेज हो गई थी और रमुआ छपरे में खड़ा हो कर पानी से बच रहा था. मैं ने रमुआ को अंदर आने के लिए कहा, तभी जोर से बिजली कड़की और ऐसा लगा कि वह मकान पर ही गिर रही है. मैं ने डरते हुए रमुआ को जोर से जकड़ लिया. उस समय मैं रमुआ के लिए औरत और रमुआ मेरे लिए मर्द था.

थोड़ी देर में बरसात थम गई. मेरा मन सुख से भर गया था. रमुआ मुझ से आंखें नहीं मिला पा रहा था. मैं ने उसे फिर से खेत पर भेज दिया और ऊपर के कमरे में नौकरानी, जो अभी भी सो रही थी, को झिड़क कर उठाते हुए कहा, ‘‘क्या रात यहीं गुजारने का इरादा है?’’

नौकरानी हड़बड़ा कर उठी और बैलगाड़ी लगवाई.

वापस हवेली में आ कर मैं ने रमुआ को दालान में बुलवाया और बड़ी से कोड़ा ले कर रमुआ पर एक ही सांस में 10-20 कोड़े बरसा दिए.

मेरे इस बरताव की किसी को उम्मीद नहीं थी, लेकिन ठाकुर साहब और बड़ी खुश हो रहे थे कि मझली भी अब हवेली के रंगढंग में रचबस रही है. और उधर रमुआ अब भी यह नहीं समझ पाया कि आखिर मझली ठकुराइन ने उस पर कोड़े क्यों बरसाए?

पहली बात तो यह कि रमुआ को मैं ने एहसास दिलाया कि जो खेत पर हुआ है, उस के लिए उसे चुप रहना है, वरना… दूसरी, ठाकुर साहब और नौकरानी को यह एहसास दिलाना कि मुझे रमुआ से कोई लगाव नहीं है. तीसरी यह कि अगर हवेली में मेरे से वारिस आता है, तो उस के हक के लिए मैं कोडे़ भी बरसा सकती हूं.

इस के बाद मैं ने ठाकुर साहब को रात मेरे कमरे में गुजारने की गुजारिश इतनी अदाओं के साथ की कि वे मना नहीं कर सके.

मैं खुद नहीं समझ पा रही थी कि यह औरतों वाला तिरिया चरित्तर मुझ में कहां से आ गया, जिस के बल पर मैं अपने इरादे पूरे कर रही थी.

अगले दिन मैं पहले की तरह सामान्य थी. नौकरानी से रमुआ को बुला कर हवेली की साफसफाई कराई. वह अभी भी डरा और सहमा हुआ था.

समय अपनी रफ्तार से गुजर रहा था. आज ठाकुर साहब की खुशियों का पारावार नहीं था. हवेली दुलहन की तरह सजी हुई थी. दावतों, कव्वाली और नाचगानों का दौर चल रहा था. कब रात होती, कब सुबह, मालूम नहीं पड़ता. जो पैसा अब तक हवेली की तिजोरियों में पड़ा था, खुशियां मनाने में खर्च हो रहा था, जगहजगह लंगर चल रहे थे, दानधर्म चल रहा था और हो भी क्यों नहीं, ठाकुर साहब का वारिस जो आ गया था.

बड़ी और छोटी भी औरत थीं और इतने दिनों तक हवेली को वारिस नहीं देने की वजह वे जानती थीं, लेकिन इस के बावजूद वे यह समझ नहीं पा रही थीं कि मझली ने यह कारनामा कैसे कर दिया?

अपने पराए,पराए अपने : क्या थी इसकी वजह

पार्किंग में कार खड़ी कर के मैं दफ्तर की ओर बढ़ ही रहा था कि इतने में तेजी से चलते हुए वह आई और ‘भाई साहब’ कहते हुए मेरा रास्ता रोक कर खड़ी हो गई. उस की गोद में दोढ़ाई साल की एक बच्ची भी थी. एक पल को तो मैं सकपका गया कि कौन है यह? यहां तो दूरदराज के रिश्ते की भी मेरी कोई बहन नहीं रहती. मैं अपने दिमाग पर जोर डालने लगा.

मुझे उलझन में देख कर वह बोली, ‘‘क्या आप मुझे पहचान नहीं पा रहे हैं? मैं लाजवंती हूं. आप की बहन लाजो. मैं तो आप को देखते ही पहचान गई थी.’’ मैं ने खुशी के मारे उस औरत की पीठ थपथपाते हुए कहा, ‘‘अरी, तू है चुड़ैल.’’

मैं बचपन में उसे लाड़ से इसी नाम से पुकारता था. सो बोला, ‘‘भला पहचानूंगा कैसे? कहां तू बित्ती भर की थी, फ्रौक पहनती थी और अब तो तू एक बेटी की मां बन गई है.’’

मेरी बातों से उस की आंखें भर आईं. मुझे दफ्तर के लिए देर हो रही थी, इस के बावजूद मैं ने उसे घर ले चलना ही ठीक समझा. वह कार में मेरी साथ वाली सीट पर आ बैठी. रास्ते में मैं ने गौर किया कि वह साधारण थी. सूती साड़ी पहने हुए थी. मामूली से गहने भी उस के शरीर पर नहीं थे. सैंडल भी कई जगह से मरम्मत किए हुए थे.

बातचीत का सिलसिला जारी रखने के लिए मैं सब का हालचाल पूछता रहा, मगर उस के पति और ससुराल के बारे में कुछ न पूछ सका. लाजवंती को मैं बचपन से जानता था. वह मेरे पिताजी के एक खास दोस्त की सब से छोटी बेटी थी. दोनों परिवारों में बहुत मेलजोल था. 8

हम सब भाईबहन उस के पिताजी को चाचाजी कहते थे और वे सब मेरे पिताजी को ताऊजी. अम्मां व चाची में खूब बनती थी. दोनों घरों के मर्द जब दफ्तर चले जाते तब अम्मां व चाची अपनी सिलाईबुनाई ले कर बैठ जातीं और घंटों बतियाती रहतीं.

हम बच्चों के लिए कोई बंधन नहीं था. हम सब बेरोकटोक एकदूसरे के घरों में धमाचौकड़ी मचाते हुए खोतेपीते रहते. पिताजी ने हाई ब्लडप्रैशर की वजह से मांस खाना व शराब पीना बिलकुल छोड़ दिया था. वैसे भी वे इन चीजों के ज्यादा शौकीन नहीं थे, लेकिन चाचाजी खानेपीने के बेहद शौकीन थे.

अकसर उन की फरमाइश पर हमारे यहां दावत हुआ करती. इस पर अम्मां कभीकभी पिताजी पर झल्ला भी जाती थीं कि जब खुद नहीं खाते तो दूसरों के लिए क्यों इतना झंझट कराते हो. तब पिताजी उन्हें समझा देते, ‘क्या करें बेचारे पंडित हैं न. अपने घर में तो दाल गलती नहीं, हमारे यहां ही खा लेते हैं. तुम्हें भी तो वे अपनी सगी भाभी की तरह ही मानते हैं.’

मेरे पिताजी ऐक्साइज इंस्पैक्टर थे और चाचाजी ऐजूकेशन इंस्पैक्टर. चाचाजी मजाक में पिताजी से कहते, ‘यार, कैसे कायस्थ हो तुम… अगर मैं तुम्हारी जगह होता तो पानी की जगह शराब ही पीता.’ तब पिताजी हंसते हुए जवाब देते, ‘लेकिन गंजे को खुदा नाखून देता ही कहां है…’

इसी तरह दिन हंसीखुशी से बीत रहे थे कि अचानक न जाने क्या हुआ कि चाचाजी नौकरी से सस्पैंड हो गए. कई महीनों तक जांच होती रही. उन पर बेईमानी करने का आरोप लगा था. एक दिन वे बरखास्त कर दिए गए. बेचारी चाची पर तो जैसे मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा. 2 बड़ी लड़कियों की तो शादी हो चुकी थी, पर 3 बच्चे अभी भी छोटे थे. सुरेंद्र 8वीं, वीरेंद्र 5वीं व लाजो चौथी जमात में पढ़ रही थी.

चाचाजी ने जोकुछ कमाया था, वह जी खोल कर मौजमस्ती में खर्च कर दिया था. आड़े समय के लिए चाचाजी ने कुछ भी नहीं जोड़ा था. चाचाजी को बहुत मुश्किल से नगरनिगम में एक छोटी सी नौकरी मिली. जैसेतैसे पेट भरने का जुगाड़ तो हुआ, लेकिन दिन मुश्किल से बीत रहे थे. वे लोग बढि़या क्वार्टर के बजाय अब छोटे से किराए के मकान में रहने लगे. चाची को चौकाबरतन से ले कर घर का सारा काम करना पड़ता था.

लाड़प्यार में पले हुए बच्चे अब जराजरा सी चीजों के लिए तरसते थे. दोस्ती के नाते पिताजी उस परिवार की ज्यादा से ज्यादा माली मदद करते रहते थे.

समय बीतता गया. चाचाजी के दोनों लड़के पढ़ने में तेज थे. बड़े लड़के को बीए करने के बाद बैंक में नौकरी मिल गई और छोटे बेटे का मैडिकल कालेज में दाखिला हो गया. मगर लाजो का मन पढ़ाई में नहीं लगा. वह अकसर बीमार रहती थी. वह बेहद चिड़चिड़ी और जिद्दी भी हो गई थी और मुश्किल से 8वीं जमात ही पास कर पाई.

फिर पिताजी का तबादला बिलासपुर हो गया. मैं भी फोरैस्ट अफसर की ट्रेनिंग के लिए देहरादून चला गया. कुछ अरसे के लिए हमारा उन से संपर्क टूट सा गया. फिर न पिताजी रहे और न चाचाजी. हम लोग अपनीअपनी दुनिया में मशगूल हो गए. कई सालों के बाद ही इंदौर वापस आना हुआ था.

शाम को जब मैं दफ्तर से घर पहुंचा तो देखा कि लाजो सब से घुलमिल चुकी थी. मेरे दोनों बच्चे ‘बूआबूआ’ कह कर उसे घेरे बैठे थे और उस की बेटी को गोद में लेने के लिए उन में होड़

मची थी. मेरी एकलौती बहन 2 साल पहले एक हादसे में मर गई थी, इसलिए मेरी बीवी उमा भी ननद पा कर खुश हुई.

खाना खाने के बाद हम लोग उसे छोड़ने गए. नंदानगर में एक चालनुमा मकान के आगे उस ने कार रुकवाई. मैं ने चाचीजी के पैर छुए, पर वे मुझे पहचान न पाईं. तब लाजो ने मुझे ढूंढ़ निकालने की कहानी बड़े जोश से

सुनाई. चाचीजी मुझे छाती से लगा कर खुश हो गईं और रुंधे गले से बोलीं, ‘‘अच्छा हुआ बेटा, जो तुम मिल गए. मुझे तो रातदिन लाजो की फिक्र खाए जाती है. दामाद नालायक निकला वरना इस की यह हालत क्यों होती.

‘‘भूखों मरने से ले कर गालीगलौज, मारपीट सभी कुछ जब तक सहन करते बना, यह वहीं रही. फिर यहां चली आई. दोनों भाइयों को तो यह फूटी आंख नहीं सुहाती. अब मैं करूं तो क्या करूं? जवान लड़की को बेसहारा छोड़ते भी तो नहीं बनता. ‘‘बेटा, इसे कहीं नौकरी पर लगवा दो तो मुझे चैन मिले.’’

सुरेंद्र भी इसी शहर में रहता था. अब वह बैंक मैनेजर था. एक दिन मैं उस के घर गया. उस ने मेरी बहुत खातिरदारी की, लेकिन वह लाजो की मदद के नाम पर टस से मस नहीं हुआ. लाजवंती का जिक्र आते ही वह बोला, ‘‘उस का नाम मत लीजिए भाई साहब. वह बहुत तेज जबान की है. वह अपने पति को छोड़ आई है.

‘‘हम ने तो सबकुछ देख कर ही उस की शादी की थी. उस में ससुराल वालों के साथ निभाने का ढंग नहीं है. माना कि दामाद को शराब पीने की लत है, पर घर में और लोग भी तो हैं. उन के सहारे भी तो रह सकती थी वह… घर छोड़ने की क्या जरूरत थी?’’ सुरेंद्र की बातें सुन कर मैं अपना सा मुंह ले कर लौट आया.

मैं बड़ी मुश्किल से लाजो को एक गांव में ग्रामसेविका की नौकरी दिला सका था. चाचीजी कुछ दिन उस के पास रह कर वापस आ गईं और अपने बेटों के साथ रहने लगीं.

मेरा जगहजगह तबादला होता रहा और तकरीबन 15 साल बाद ही अपने शहर वापस आना हुआ. एक दिन रास्ते में लाजो के छोटे भाई वीरेंद्र ने मुझे पहचान लिया. वह जोर दे कर मुझे अपने घर ले गया. उस ने शहर में क्लिनिक खोल लिया था और उस की प्रैक्टिस भी अच्छी चल रही थी.

लाजो का जिक्र आने पर उस ने बताया कि उस की तो काफी पहले मौत हो गई. यह सुनते ही मुझे धक्का लगा. उस का बचपन और पिछली घटनाएं मेरे दिमाग में घूमने लगीं. लेकिन एक बात बड़ी अजीब लग रही थी कि मौत की खबर सुनाते हुए वीरेंद्र के चेहरे पर गम का कहीं कोई निशान नहीं था. मैं चाचीजी से मिलने के लिए बेताब हो उठा. वे एक कमरे में मैलेकुचैले बिस्तर पर पड़ी हुई थीं. अब वे बहुत कमजोर हो गई थीं और मुश्किल से ही उठ पाती थीं. आंखों की रोशनी भी तकरीबन खत्म हो चुकी थी.

मैं ने अपना नाम बताया तभी वे पहचान सकीं. मैं लाजो की मौत पर दुख जाहिर करने के लिए कुछ बोलने ही वाला था कि उन्होंने हाथ पकड़ कर मुझे अपने नजदीक बैठा लिया. वे मेरे कान में मुंह लगा कर धीरे से बोलीं, ‘‘लाजो मरी नहीं है बेटा. वह तो इसी शहर में है. ये लोग उस के मरने की झूठी खबर फैला रहे हैं. तुम ने जिस गांव में उस की नौकरी लगवा दी थी, वहीं एक ठाकुर साहब भी रहते थे. उन की बीवी 2 छोटेछोटे बच्चे छोड़ कर मर गई. गांव वालों ने लाजो की शादी उन से करा दी.

‘‘लाजो के अब 2 बेटे भी हैं. वैसे, अब वह बहुत सुखी है, लेकिन एक बार उसे अपनी आंखों से देख लेती तो चैन से मरती. ‘‘एक दिन लाजो आई थी तो वीरेंद्र की बीवी ने उसे घर में घुसने तक नहीं दिया. वह दरवाजे पर खड़ी रोती रही. जातेजाते वीरेंद्र से बोली थी कि भैया, मुझे अम्मां से तो मिल लेने दो. लेकिन ये लोग बिलकुल नहीं माने.’’

लाजो की यादों में डूब कर चाचीजी की आंखों से आंसू बहने लगे थे. वे रोतेरोते आगे बोलीं, ‘‘बताओ बेटा, उस ने क्या गलत किया? उसे भी तो कोई सहारा चाहिए था. सगे भाई हो कर इन दोनों ने उस की कोई मदद नहीं की बल्कि दरदर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया. तुम्हीं ने उस की नौकरी लगवाई थी…’’

तभी मैं ने महसूस किया कि सब की नजरें हम पर लगी हुई हैं. मैं उस जगह से फौरन हट जाना चाहता था, जहां अपने भी परायों से बदतर हो गए थे. मैं ने मन ही मन तय कर लिया था कि लाजो को ढूंढ़ निकालना है और उसे एक भाई जरूर देना है.

कल्लो : क्या बचा पाई वो अपनी इज्जत

उस पूरे इलाके में पीली कोठी के नाम से उन का घर जाना जाता था. रायसाहब अपने परिवार के साथ बाहर रहते थे. दिल्ली, लखनऊ, जयपुर, पटना वगैरह बड़ेबड़े शहरों में उन की बड़ीबड़ी कोठियां थीं. बाहरी लोग उन्हें ‘डीआईजी साहब’ के नाम से जानते थे.

वे गरमी की छुट्टियां हमेशा गांव में ही बिताते थे. अम्मां और बाबूजी की वजह से गांव में आना उन की मजबूरी थी.

पुलिस महकमे में डीआईजी के पद पर पहुंचतेपहुंचते नामचीन साहित्यकारों में रायसाहब की एक खास पहचान बन चुकी थी.

रायसाहब के गांव आने पर कोठी की रंगत ही बदल जाती. 10-20 लोगों का जमावड़ा हमेशा ही लगा रहता. उन दिनों नौकर रामभरोसे की बात ही कुछ और होती. वह सुबहशाम का अपना कामधाम जल्दीजल्दी निबटाता और लकधक हो कर रायसाहब की खुशामद में लग जाता.

कोठी के ठीक पीछे रामभरोसे का अपना एक छोटा सा घर था. उस की 2 बेटियां थीं, जिन में वह बड़ी बेटी की शादी कर चुका था और छोटी बेटी कल्लो ने पिछले साल 12वीं जमात पास की थी.

कोठी में झाड़ूपोंछा लगाना, खाना पकाना, दूधदही के काम सुखिया और कल्लो के जिम्मे थे, जबकि खेतीबारी जैसे बाहरी काम रामभरोसे के जिम्मे था. इस की एवज में उसे बचाखुचा खाना मिल जाता था.

रायसाहब साल में 2-4 हजार रुपए की माली मदद भी उसे दे देते थे. कुछ पुराने कपड़े दे जाते, जिन्हें सुखिया, कल्लो और रामभरोसे सालभर पहनते, जो उन के लिए हमेशा नए होते थे.

रायसाहब के बाबूजी और अम्मां को कभीकभी बड़ी जलन होती और वे कल्लो, सुखिया और रामभरोसे को उलटासीधा कहने लगते.

रायसाहब अकेले में बैठ कर अम्मांबाबूजी को समझाते, ‘‘मैं यहां रहता नहीं हूं और रह भी नहीं सकता. आप की देखभाल के लिए वही तो हैं. हारीबीमारी, हाटबाजार के पचासों काम होते हैं घर के. इतना भरोसेमंद और सस्ता नौकर कहां मिलेगा.’’

हर साल की तरह इस साल भी रायसाहब गरमी की छुट्टियां बिताने गांव आए थे. अब की बार उन का बेटा कौशल और बेटी रचना भी साथ में थे. कौशल कहीं विदेश में पढ़ाई कर रहा था, जबकि रचना देशी यूनिवर्सिटी में ही पढ़ रही थी. उन की पत्नी तारिका देवी को इस उम्र में भी कोई 40 साल से ऊपर की नहीं कह सकता था.

जून का महीना था. तारिका देवी और रायसाहब दोनों बगीचे में बैठे बातचीत कर रहे थे. दोनों के बीच में एक मेज रखी थी. उन के हाथ एकदूसरे से दूर थे, लेकिन मेज के नीचे से दोनों के पैर आपस में अठखेलियां कर रहे थे. रचना और कौशल किसी बहस में मसरूफ थे.

रायसाहब की चाय का समय हो गया था. कल्लो ने धीरे से दरवाजा खोला. उस ने दहलीज पर पैर रखा ही था कि कौशल बोल उठा, ‘‘ओ हो, हाऊ आर यू कल्लो?’’

कल्लो ने मुड़ कर देखा और चुपचाप वहीं खड़ी हो गई.

कौशल रचना की ओर देख कर हंस दिया, फिर बोला, ‘‘डू यू अंडरस्टैंड, मेरा मतलब…’’

‘‘हां, समझ गई,’’ कल्लो ने बीच में ही बात काटते हुए कहा.

‘‘ह्वाट?’’

‘‘यही कि आप इंडियन हैं और मैं हिंदुस्तानी,’’ इतना कह कर कल्लो हंसते हुए रसोईघर की ओर चली गई.

इतना सादगी भरा और तीखा मजाक सुन कर रायसाहब के कान खड़े हो गए. इस ने बात करने का यह ढंग कहां से सीखा?

सुबह के 8 बजे कल्लो चाय लिए खड़ी थी.

रायसाहब ने चाय का कप हाथ में ले कर कल्लो को सामने सोफे पर बैठने का इशारा किया.

कल्लो अभी भी खड़ी थी. रायसाहब ने फिर कहा, ‘‘बैठ जाओ.’’

कल्लो बैठ गई. उन्होंने चाय पीते हुए कल्लो से पूछा, ‘‘तुम किस क्लास में पढ़ती हो?’’

‘‘अब नहीं पढ़ती.’’

‘‘क्यों?’’

कल्लो कोई जवाब न दे सकी और आंखें नीचे किए बैठी रही.

उन्होंने फिर पूछा, ‘‘क्या हाईस्कूल पास कर लिया?’’

‘‘जी सर…’’ कुछ रुक कर वह बोली, ‘‘मैं ने पिछले साल इंटर पास किया है,’’ इतना कह कर वह बिना इजाजत लिए ही कमरे से बाहर निकल गई.

शाम को रायसाहब ने रामभरोसे को अपनी बैठक में बुलाया. दरवाजे के ठीक सामने रायसाहब तकिया लगाए शाही अंदाज में बैठे थे. सामने सोफे पर रचना और कौशल बैठे थे.

रायसाहब ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘आप की लड़की बहुत चतुरचालाक है भरोसे भैया.’’

‘‘यह सब आप की मेहरबानी है साहब.’’

‘‘लड़की पढ़ने में बहुत तेज है. उसे और आगे पढ़ाना चाहिए था आप को.’’

‘‘साहब…’’

‘‘आगे सोच लो, लड़की होनहार है,’’ कहते हुए रायसाहब के चेहरे पर एक हलकी सी मुसकान आई और वे बोले, ‘‘कल्लो ही है न उस का नाम?’’

‘‘नहीं साहब, कागजों में उस का नाम कृष्ण कली है.’’

‘‘वाह, कितना अच्छा नाम है.’’

एक पल के लिए उन्हें शेक्सपीयर की कविता ‘ब्लैक रोज’ याद हो आई, फिर वे बोले, ‘‘इसे हमारे साथ भेज देना. मैं वहीं पर दाखिला दिलवा दूंगा.’’

रचना की ओर देखते हुए वे बोले, ‘‘क्यों रचना?’’

‘‘बहुत अच्छा रहेगा,’’ कौशल ने जवाब दिया, जैसे वह पहले से ही इसी इंतजार में बैठा हो.

‘‘अच्छी बात है साहब. उस की मां से पूछ लें, तब बताएंगे.’’

छप्पर के आगे रामभरोसे खटिया डाले बैठा था. उसी के आगे जमीन पर सुखिया बैठी थी. कल्लो छत पर थी.

रामभरोसे ने सुखिया से कहा, ‘‘साहब कह रहे थे कि कल्लो को उन के साथ भेज दो…’’

सुखिया ने बीच में ही बात काटते हुए कहा, ‘‘सयानी बेटी को हम किसी के साथ नहीं भेजेंगे.’’

‘‘साहब के बारे में ऐसा सोचना भी पाप है. वे हमें बहुत चाहते हैं,’’ रामभरोसे ने सुखिया को डांटते हुए कहा.

‘‘हम ने सब सुन लिया. बड़े आदमी की बातें बड़ी होती हैं. इन के चरित्र को हम खूब जानते हैं. बराबर का लड़का है घर में.’’

‘‘वह तो विदेश में पढ़ता है.’’

‘‘तो…’’

‘‘बराबर की लड़की भी तो है घर में… ऐसे कुछ नहीं होता,’’ रामभरोसे ने एक बार फिर झिड़कते हुए कहा.

सुखिया ने भी उसी तेवर में जवाब दिया, ‘‘क्या तुम नहीं जानते कि औरत और दौलत दुनिया में कोई नहीं छोड़ता?’’

‘‘सवेरे तुम ही साहब से मना कर देना. मैं तो नहीं कर सकता,’’ रामभरोसे ने खिसिया कर कहा.

सुबह रामभरोसे ने कल्लो को रायसाहब के साथ जाने के लिए कह दिया गया.

इधर कल्लो जाने की भी तैयारी करती जा रही थी, उधर उस के दिमाग में चल रहा था कि बड़े लोग हैं, इन के साथ कैसे निभेगी? बापू की हालत को देख कर वह मना भी नहीं कर सकती थी. जब वह गाड़ी में बैठने लगी, तो उस की आंखें छलक आईं.

रामभरोसे के हाथ रायसाहब के सामने जुड़ गए. उस ने भरे गले से कहा, ‘‘साहब…’’ वह इतना ही कह सका. सुखिया रामभरोसे के पीछे खड़ी सिसक रही थी.

रायसाहब ने रामभरोसे को अपने कंधे से लगा कर भरोसा दिलाया, कुछ रुपए उस के हाथ में दबा कर वे कार में बैठ गए.

कौशल ने एक नजर पीछे सीट पर बैठी कल्लो पर डाली और कार स्टार्ट कर आगे बढ़ा दी. कल्लो शीशे से अपने अम्मांबापू को देखते रही.

10-15 दिन सबकुछ ठीकठाक चलता रहा. इस दौरान कल्लो का दाखिला हो चुका था. उस की पढ़ाईलिखाई का पूरा इंतजाम कर दिया गया था. कौशल भी 2-4 दिन रुक कर विदेश जा चुका था.

तारिका देवी ने एक दिन झाड़ूपोंछा करने वाली का हिसाब कर दिया. कुछ दिनों बाद खाना बनाने वाली की भी छुट्टी कर दी.

कल्लो झाड़ूपोंछा करती और दोनों वक्त का खाना, नाश्ता वगैरह बनाती. उसे इस में कोई तकलीफ नहीं हुई. इतना सब करने के बाद भी वह पढ़ाई के लिए पूरा समय निकाल लेती थी.

एक दिन रायसाहब तारिका देवी से अचानक पूछ बैठे, ‘‘झाड़ूपोंछा वाली और महाराजिन क्यों नहीं आतीं?’’

‘‘मैं ने उन की छुट्टी कर दी.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘काम ही क्या है. बच्चियों को भी तो सीखने दो. कल के दिन पराए घर जाएंगी, पता नहीं कौन कैसा मिलेगा. किसी को पत्नी के हाथ का खाना पसंद हो तब?’’ सवाल के लहजे में तारिका देवी ने जवाब दिया.

‘‘फिर भी…’’ रायसाहब आगे कुछ कह पाते, इस से पहले ही तारिका देवी तड़प उठीं, ‘‘फिर क्या, चार रोटियां सुबह, चार शाम को बनानी हैं…’’

रायसाहब कुछ कह न पाए, इसलिए तारिका देवी ने अपनी बात को सही ठहराने के लिए बात कहना जारी रखा, ‘‘अपनी याद करो. जब मैं इस घर में आई थी, तुम्हीं कहते थे कि जब तक तुम्हारे हाथ की बनाई रोटी नहीं खा लेता, तब तक पेट नहीं भरता.’’

रचना और कल्लो उन्हीं की ओर चली आ रही थीं. रायसाहब मुसकराए और अपने स्टडीरूम की ओर चले गए.

धीरेधीरे कल्लो का बैडरूम और बाथरूम सबकुछ अलग कर दिया गया. वह अच्छी तरह समझ रही थी कि उसे उस की हैसियत का एहसास कराया जा रहा है. उसे इस में उलझन तो हुई, लेकिन इस बात की तसल्ली थी कि रात को तो वह चैन से सो सकेगी.

कल्लो घर का सारा काम करती और खूब मन लगा कर पढ़ती. धीरेधीरे उस का काम और बढ़ गया. सब के कपड़े धोना और उन पर इस्तिरी करना उस के काम में और जुड़ गए थे.

रचना ने एक बार इस का विरोध करते हुए अपनी मां से कहा था, ‘‘मम्मी उसे घरेलू नौकर समझना आप की सब से बड़ी भूल होगी.’’

‘‘काम करना बुरा नहीं होता, काम की आदत डालना अच्छी बात है.’’

‘‘जब मैं उस के साथ काम करती हूं, तो आप मुझे क्यों रोकती हैं?’’

‘‘तू अपनी तुलना उस से करेगी?’’ इतना कह कर तारिका देवी वहां से चली गईं.

दिसंबर का महीना था. कौशल घर आया हुआ था. एक दिन कल्लो बाथरूम में नहा रही थी. बाथरूम का दरवाजा अंदर से बंद नहीं होता था. उस की सिटकनी टूट गई थी.

कौशल ने दरवाजे को धक्का दिया. कल्लो ने अंदर से दरवाजा लगाना चाहा, लेकिन तब तक कौशल ने उसे अपनी बांहों में जकड़ लिया था.

कल्लो ने पूरी ताकत से उसे बाहर धकेल कर एक जोरदार थप्पड़ उस के गाल पर जड़ दिया.

कौशल की मर्दानगी काफूर हो चुकी थी. वह गालियां बकता हुआ अपने कमरे की ओर चला गया.

तारिका देवी भी अपने बेटे का साथ देते हुए गालियां बकने लगीं, ‘‘गटर के कीड़े को वहीं पड़ा रहने देते. इस ने हमारे घर को भी गंदा कर दिया.’’

कल्लो को दौरा सा पड़ गया. वह अपने कमरे में टूटी शाख की तरह औंधे मुंह गिर पड़ी. सारा दिन वह कमरे से नहीं निकली थी.

रायसाहब आज सुबह से ही कहीं पार्टी में गए हुए थे. रात को तकरीबन 10-11 बजे लौट कर आए. कार खड़ी की और सीधा अपने बैडरूम की ओर बढ़ गए.

रायसाहब अभी कपड़े भी नहीं बदल पाए थे कि तारिका देवी और कौशल ने नमकमिर्च लगा कर सारी कहानी बयां कर दी.

रचना बैठी चुपचाप सुनती रही. उस के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था. जो कुछ हुआ, उस के लिए वह कल्लो को कुसूरवार मानने के लिए तैयार नहीं थी. उस के दिमाग में एक ही सवाल बारबार उठता था कि आखिर कौशल वहां गया ही क्यों था?

रायसाहब ने उन्हें समझाबुझा कर वापस भेज दिया.

कुछ देर बाद रायसाहब कल्लो के कमरे की ओर गए. कमरा खुला था. कल्लो अभी भी औंधे मुंह बिस्तर पर पड़ी थी. आहट सुन कर वह हड़बड़ा कर खड़ी हुई और कमरे का दरवाजा बंद करने लगी.

रायसाहब ने छड़ी से इशारा करते हुए उसे अपने साथ आने को कहा.

रायसाहब के बैडरूम की ओर जाते हुए कल्लो के पैर कांप रहे थे. कमरे में दूधिया रोशनी फैली हुई थी. रायसाहब बिस्तर पर बैठे हुए थे. कल्लो जा कर उन के सामने खड़ी हो गई.

रायसाहब ने अपनी बगल में उसे बैठा कर कहा, ‘‘क्या बात थी?’’

कल्लो चुपचाप बैठी रही. रायसाहब ने जैसे ही उस का सिर अपनी गोद में रखा, वह फफक पड़ी.

रायसाहब काफी देर तक सिर पर हाथ फेरते हुए उसे तसल्ली देते रहे. वह भी गोद में पड़ीपड़ी सिसकती रही.

धीरेधीरे रायसाहब के हाथों का दबाव उस के बदन पर बढ़ने लगा. यह देख कर अचानक कल्लो का सिसकना बंद हो गया. उस ने जैसे ही छूटने की कोशिश की, वैसे ही रायसाहब ने दबोच कर उस की छाती पर दांत गड़ा दिए.

कल्लो पूरा जोर लगा कर खड़ी हुई और उन्हें एक ओर धकेल दिया. अभी वह संभल भी न पाई थी कि रायसाहब उस पर कामुक सांड़ की तरह टूट

पड़े. जब तक रायसाहब उसे पकड़ते, रैक पर रखी उन की पिस्तौल कल्लो के हाथ में थी.

शोर सुन कर तारिका देवी, रचना और कौशल सभी अपनेअपने कमरों से निकल कर आ गए थे. सभी अपनेअपने तरीके से उसे गालियां देने लगे.

कल्लो को ले कर भी रचना के दिमाग में वही सवाल उठा, जो कौशल को ले कर उठा था. इतनी रात को यह पापा के कमरे में क्यों आई?

रचना के माथे पर बल पड़ने लगे. उस के दिमाग के तार झनझना उठे. उस ने कल्लो को डांटते हुए कहा, ‘‘जवानी के नशे में यह तो देख लिया होता

कि कौन किस उम्र का है. बदमिजाज कहीं की…’’

कल्लो चिल्ला पड़ी, ‘‘हां, मैं बदमिजाज हूं…’’ कह कर उस ने अपना कुरता फाड़ डाला और रचना का हाथ पकड़ कर अपनी छाती पर रखा और बोली, ‘‘देखो.’’

सब चुप रहे, तो कल्लो बिफर पड़ी, ‘‘अब तक मैं अच्छी तरह जान चुकी हूं कि आप लोगों की उदारता के पीछे धूर्तता और मक्कारी कूटकूट कर भरी होती है.’’

रचना ने गुस्से में आ कर रायसाहब की ओर सवालिया नजरों से देखा, फिर पलट कर कौशल और तारिका देवी की ओर देखा. सब की नजरें झुकी हुई थीं.

रचना ने कल्लो की बांह पकड़ी और मुख्य दरवाजे की ओर चल पड़ी. अभी उस ने दरवाजा खोला ही था कि रायसाहब लड़खड़ाते हुए कमरे से निकले और चिल्ला पड़े, ‘‘बेटी, कहां जा रही है इतनी रात को. गुंडेमवाली…’’

रचना गरज उठी, ‘‘खामोश जो दोबारा इस जबान से बेटी कहा. घटिया लोगों की कोई मां, बहन, बेटी नहीं होती. हो सकता है, गुंडेमवालियों में कोई प्यार करने वाला ही मिल जाए.’’

कल्लो ने पिस्तौल रायसाहब की ओर फेंक दी और वे दोनों बाहर चली गईं.

शापित: आखिर रश्मि अपने बेटे के साथ क्यों नहीं रहना चाहती थी

‘‘रश्मि, कहां हो तुम?

‘‘भई यह करेलों का मसाला तो कच्चा ही रह गया है.’’

फिर थोड़ी देर रुक कर भूपिंदर हंसते हुए बोला, ‘‘सतीशजी जिस दिन कुक नहीं आती हैं, ऐसा ही कच्चापक्का खाना बनता है.’’

ये सब बातें करतेकरते भूपिंदर यह भी भूल गया था कि आज रश्मि कोई नईनवेली दुलहन नहीं है, बल्कि सास बनने वाली है और आज जो खाने की मेज पर मेहमान बैठे हैं वे उस की होने वाली बहू के मातापिता हैं.

मम्मी के हाथों में करेले पकड़ाते हुए आदित्य बोला, ‘‘क्या जरूरत थी सोनाक्षी के मम्मीपापा को घर पर बुलाने की? ‘‘आप को पता है न वे कैसे हैं?’’

जैसे ही आदित्य बाहर आया तो भूपिंदर बोला, ‘‘भई, यह आदित्य तो अब तक मम्मा बौय है, सोनाक्षी को बहुत मेहनत करनी पड़ेगी.’’

आदित्य भी बिना लिहाज करे बोला, ‘‘मैं ही नहीं पापा, सोनाक्षी भी मम्मा गर्ल ही बनेगी.’’

तभी रश्मि खिसियाते हुए डाइनिंगटेबल पर फिर से करेलों की प्लेट ले कर आ गई. नारंगी और हरी तात कौटन की साड़ी में रश्मि बहुत ही सौम्य और सलीकेदार लग रही थी. खाना अच्छा ही बना हुआ था और डाइनिंगटेबल पर बहुत सलीके से लगा भी हुआ था, परंतु भूपिंदर फिर भी कभी नैपकिन के लिए तो कभी नमकदानी के लिए रश्मि को टोकता ही रहा.

माहौल में इतना अधिक तनाव था कि अच्छेखासे खाने का जायका खराब हो गया था. खाने के बाद भूपिंदर सतीश को ले कर ड्राइंगरूम में चला गया तो पूनम मीठे स्वर में रश्मि से बोली, ‘‘खाना बहुत अच्छा बना था और लगा भी बहुत सलीके से था.’’

‘‘परंतु लगता है भाईसाहब कुछ ज्यादा ही परफैक्शनिस्ट हैं.’’

रश्मि की बड़ीबड़ी शरबती आंखों में आंसू दरवाजे पर ही अटके हुए थे, उन्हें पीते हुए धीरे से बोली, ‘‘पूनमजी पर मेरा आदित्य अपने पापा से एकदम अलग हैं… हम आप की सोनाक्षी को कोई तकलीफ नहीं होने देंगे.’’

पूनम अच्छी तरह समझ सकती थी कि रश्मि के मन पर क्या बीत रही होगी.

आदित्य और सोनाक्षी दोनों रोहिणी के जयपुर गोल्डन हौस्पिटल में डाक्टर हैं. दोनों एकदूसरे को पसंद करते हैं और जैसेकि आजकल होता है परिवार ने उन की पसंद पर सहमति की मुहर लगा दी थी. आज विवाह की आगे की बातचीत के लिए पूनम और सतीश आदित्य के घर खाने पर आए थे. भूपिंदर का यह रूप उन्हें अंदर तक हिला गया था. आदित्य का गुस्सा भी उन से छिपा नही था.

रास्ते में पूनम से रहा न गया, तो सतीश से बोली, ‘‘सबकुछ ठीक है, पर क्या तुम्हें लगता है कि आदित्य ठीक रहेगा अपनी सोनाक्षी के लिए?’’

‘‘उस के पापा उस की मम्मी को कितना बेइज्जत करते हैं. लड़का वही देख कर बड़ा हुआ है. मुझे तो डर है कि कहीं आदित्य भी सोनाक्षी के साथ ऐसा ही व्यवहार न करे.’’

सतीश बोला, ‘‘देखो हम सोनाक्षी को सब बता देंगे, उस की जिंदगी है, फैसला भी उसी का होगा.’’

उधर रश्मि को लग रहा था कि कहीं भूपिंदर के व्यवहार के कारण सोनाक्षी और आदित्य के विवाह में रुकावट न आ जाए.

आदित्य सोनाक्षी के मम्मीपापा के जाते ही भूपिंदर पर उबल पड़ा, ‘‘क्या जरूरत थी आप को सोनाक्षी के मम्मीपापा के सामने ऐसा व्यवहार करने की?’’

भूपिंदर बोला, ‘‘घर मेरा है, मैं जो चाहूं करूं. इतनी ही दिक्कत है तो अलग रह सकते हो.’’

तभी आदित्य ने दरवाजे पर खटखट की, तो रश्मि मुसकराते हुए बोली, ‘‘अंदर आ

जा, खटखट क्यों कर रहा है.’’

आदित्य बोला, ‘‘मम्मी, पापा का यह व्यवहार और तुम्हारा चुपचाप सब सहन करना मुझे अंदर तक आहत कर जाता है. आज मैं सोनाक्षी के मम्मीपापा के सामने आंख भी नहीं उठा पाया हूं. गुलाम बना कर रखा हुआ है इन्होंने हमें.’’

रश्मि आदित्य के सिर पर हाथ फेरते हुए बोली, ‘‘आदित्य शिखा तेरी छोटी बहन तो गोवा में मैडिकल की पढ़ाई कर रही है और तू बेटा शादी के बाद अलग घर ले लेना.’’

आदित्य बोला, ‘‘मम्मी और आप? मैं क्या इतना स्वार्थी हूं कि आप को अकेला छोड़ कर चला जाऊंगा?’’

रश्मि उदासी से बोली, ‘‘मैं तो शापित हूं, इस साथ के लिए बेटा. पर मैं बिलकुल नहीं चाहती कि तुम या सोनाक्षी ऐसे डर के साथ जिंदगी व्यतीत करो.’’

आदित्य का हौस्पिटल जाने का समय हो गया था. आज उस की नाइट शिफ्ट थी. फिर रश्मि आंखें बंद कर के सोने का प्रयास करने लगी पर नींद थी कि आंखों से कोसों दूर. आदित्य की शादी की उस के मन में कितनी उमंगें थीं. मगर वो अच्छी तरह जानती थी. हर बार गहनेकपड़ों के लिए उसे भूपिंदर

के आगे हाथ फैलाना पड़ेगा. भूपिंदर कितनी लानत भेजेगा और साथ ही साथ वह यह भी जोड़ेगा कि उस ने आदित्य की मैडिकल की पढ़ाई में क्व25 लाख खर्च किए हैं.

रश्मि का कितना मन करता था कि वह अपनी पसंद के कपड़े ले, परंतु भूपिंदर ही उस के लिए कपड़े खरीदता था, क्योंकि उस के हिसाब से रश्मि को तमीज ही नहीं है अच्छे कपड़े खरीदने की.

रश्मि के वेतन की पाईपाई का हिसाब भूपिंदर ही रखता था. जब कोई भी रश्मि के कपड़ों की तारीफ करता तो भूपिंदर छूटते ही बोलता, ‘‘मैं जो खरीदता हूं अन्यथा यह तो दलिद्र ही खरीदती और पहनती है.’’

रिश्तेदारों और पड़ोसियों को लगता था कि भूपिंदर जैसा शाहखर्च कौन हो सकता है, जो अपनी बीवी का वेतन उस के गहनेकपड़ों पर ही खर्च करता है. आजकल के जमाने में ऐसे पतियों की कमी नहीं है जो अपनी पत्नी के वेतन से घर खर्च चलाते हैं. रश्मि कैसे समझाए किसी को, गहने, कपड़ों से अधिक महत्त्व सम्मान का होता है.

यह जरूर था कि भूपिंदर अपने काम का पक्का था, इसलिए दिनदूनी और रात चौगुनी तरक्की कर रहा था. इस तरक्की के साथसाथ उस का अहम भी सांप के फन की तरह फुफकारने लगा था. शादी के कुछ वर्षों के बाद ही रश्मि के कानों में भूपिंदर के अफेयर की बातें पड़ने लगी थीं. पर जब भी अलग होने की सोचती तो आदित्य और शिखा का भविष्य दिखने लगता. कैसे पढ़ा पाएगी वह दोनों बच्चों को दिल्ली जैसे शहर की इस विकराल महंगाई में. नालायक ही सही पर सिर पर बाप का साया तो रहेगा.

रश्मि के हथियार डालते ही भूपिंदर उस पर और हावी हो गया था. रातदिन वह रश्मि को कोंचता रहता था पर अब उस हिमशिला पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था.

घर 3 कोणों में बंट गया था, एक पाले में रश्मि, आदित्य और दूसरे पाले में था भूपिंदर. शिखा आज के दौर की स्मार्ट लड़की थी इसलिए वह किसी भी पाले में नहीं थी, वह अपने हिसाब से पाला बदलती रहती थी. आदित्य बेहद ही संवेदनशील युवक था. रातदिन के तनाव का प्रभाव आदित्य पर पड़ रहा है. 30 वर्ष की कम उम्र में ही उसे पाइपर टैंशन रहने लगी थी.

आदित्य जैसे ही अस्पताल पहुंचा, सोनाक्षी वहीं खड़ी थी. वह धीमे स्वर में बोली, ‘‘आदित्य, कल ड्यूटी के बाद मुझे तुम से जरूरी बात करनी है. आदित्य को पता था कि सोनाक्षी क्या कहना चाहती है.

सुबह आदित्य और सोनाक्षी जब कैंटीन में आमनेसामने थे तो सोनाक्षी बोली, ‘‘आदित्य देखो मुझे गलत मत समझना पर मैं  ऐसे माहौल में ऐडजस्ट नहीं कर सकती हूं. क्या हम विवाह के बाद अलग फ्लैट ले कर रह सकते हैं?’’

आदित्य बोला, ‘‘सोना, मुझे मालूम है तुम अपनी जगह सही हो, पर मैं अपनी मम्मी को अकेले उस घर में नहीं छोड़ सकता हूं.’’

सोनाक्षी बोली, ‘‘अगर तुम्हारी मम्मी हमारे साथ रहना चाहें, तो मुझे कोई प्रौब्लम नहीं है.’’

जब आदित्य ने यह बात घर पर बताई तो भूपिंदर गुस्से से आगबबूला हो उठा. गुस्से में बोला, ‘‘तुम्हारा तो यही होना था गोबर गणेश. जो लड़का मां का पल्लू पकड़ कर चलता है वह बीवी के इशारों पर ही नाचेगा.’’

आदित्य बोला, ‘‘पापा आप चिंता न करो. आप को मुझे से और मम्मी से बहुत प्रौब्लम है न तो मैं मम्मी को भी अपने साथ ले जाऊंगा. ऐसा लगता है, घर घर नहीं है एक जेल है और हम सब कैदी.’’

भूपिंदर दहाड़ उठा, ‘‘हां यह जेल है न तो रिहाई की भी कीमत है. अपनी मम्मी को क्या ऐसे ही ले कर चला जाएगा वह मेरी पत्नी है और सुन लड़के, तेरी पढ़ाई पर क्व25 लाख खर्च हुए हैं, पहले वे वापस दे देना और फिर अपनी मम्मी को रिहा कर ले जाना.’’

आदित्य के विवाह की तिथि निश्चित हो गई थी और भूपिंदर न चाहते हुए भी जोरशोर से तैयारी में जुटा था.

जब नवयुगल हनीमून से वापस आ जाएंगे तो वह अलग फ्लैट में शिफ्ट हो जाएंगे. आदित्य किसी भी कीमत पर अपनी मम्मी को अकेले उस यातनागृह में नहीं छोड़ना चाहता था. इसलिए आदित्य ने किसी तरह से क्व20 लाख का बंदोबस्त कर लिया था.

विवाह बहुत धूमधाम से संपन्न हो गया. 14 दिन बाद आदित्य और सोनाक्षी सिंगापुर से घूम कर लौट आए थे. आदित्य ने मां को सूचित कर दिया था कि वह अपना सारा सामान ले कर उन के पास आ जाए.

मगर रश्मि का फोन आया कि आदित्य रविवार को एक बार घर आ जाए. उस के बाद ही वह आदित्य के पास रहने आ जाएगी. आदित्य को लग रहा था कि शायद मम्मी को निर्णय लेने में मुश्किल हो रही है या फिर पापा उन्हें ताने मार रहे होंगे.

जब आदित्य और सोनाक्षी घर पहुंचे तो देखा घर पर मरघट सी शांति छाई हुई थी. आदित्य ने देखा मां बहुत थकीथकी लग रही थीं.

आदित्य बोला, ‘‘मम्मी कमाल करती हो, तुम आज भी पापा के कारण निर्णय नहीं ले पा रही हो. आप चिंता मत करो, मैं ने क्व20 लाख का बंदोबस्त कर लिया है.’’

रश्मि बोली, ‘‘बेटे तेरे पापा को 5 दिन पहले लकवा मार गया था.

‘‘रातदिन वह बिस्तर पर ही रहते हैं, अब बता उन्हें ऐसी स्थिति में छोड़ कर कैसे आ सकती हूं और तुम लोगों से बात करे बिना मैं भूपिंदर को ले कर तुम्हारे घर कैसे आ सकती थी?’’

इस से पहले आदित्य कुछ कहता सोनाक्षी बोल उठी, ‘‘मम्मी, आप यहीं रहिए, हमारा फ्लैट तो बहुत छोटा है.’’

‘‘पापा की अच्छी तरह देखभाल नहीं हो पाएगी, हम एक के बजाय 2 नर्स ड्यूटी पर लगा देंगे. फिर मम्मी मैं घर पर भी हौस्पिटल जैसा माहौल नहीं चाहती हूं.’’

आदित्य बोला, ‘‘मम्मी, नर्स का इंतजाम मैं कर दूंगा. आप चलो यहां से, बहुत कर लिया आप ने पापा के लिए.’’

रश्मि बोली, ‘‘आदित्य बेटा तू मेरी चिंता मत कर… पर मैं भूपिंदर को इस हाल

में छोड़ कर नहीं जा सकती हूं.’’

आदित्य बोला, ‘‘मम्मी कब तक तुम पापा के कारण जिंदगी से दूर रहोगी.’’

रश्मि बोली, ‘‘बेटा, तू खुश रह, मैं तो इस साथ के लिए शापित हूं, पहले मानसिक यातना भोगती थी अब अकेलापन भोगने के लिए शापित हूं.’’

आदित्य बोला, ‘‘मम्मी यह शापित जीवन आप ने खुद ही चुना है, अपने लिए. सामने खुला आकाश है पर आप को इस पिंजरे में रहना ही पसंद है,’’ कह कर आदित्य क्व20 लाख मेज पर रख कर तीर की तरह निकल गया.

दूसरी औरत : अब्बू की जिंदगी में कौन थी वो औरत

मैं मोटरसाइकिल ले कर बाहर खड़ा था. अम्मी अंदर पीर साहब के पास थीं. वहां लोगों की भीड़ लगी थी. भीतर जाने से पहले अम्मी ने मुझ से भी कहा था, ‘आदिल बेटा, अंदर चलो.’

‘मुझे ऐसी फालतू बातों पर भरोसा नहीं है,’ मैं ने तल्खी के साथ कहा था.

‘ऐसा नहीं कहते बेटा,’ कह कर अम्मी पर्स साथ ले कर अंदर चली गई थीं.

न जाने बाबाबैरागियों के पीछे ये नासमझ लोग क्यों भागते हैं? मैं देख रहा था कि कोई नारियल तो कोई मिठाई ले कर वहां आया हुआ था.

पिछले जुमे पर भी जब अम्मी यहां आई थीं, तो 5 सौ रुपए दे कर अपना नंबर लगा गई थीं. फोन से ही आज का समय मिला था, तो वे मुझे साथ ले कर आ गई थीं. मैं घर का सब से छोटा हूं, इसलिए सब के लिए आसानी से मुहैया रहता हूं. मैं ने अम्मी को कई बार समझाया भी था, लेकिन वे मानने को तैयार नहीं थीं. यह बात आईने की तरह साफ थी कि पिछले 2-3 सालों में हमारे घर की हालत बहुत खराब हो गई थी. इस के पहले सब ठीकठाक था.

मेरे अब्बा सरकारी ड्राइवर थे और न जाने कहां का शौक लगा तो एक आटोरिकशा खरीद लिया और उसे किराए पर दे दिया. कुछ आमदनी होने लगी, तो बैंक से कर्ज ले कर 2-3 आटोरिकशा और ले लिए और उसी हिसाब से आमदनी बढ़ गई थी.

अब्बा घर में मिठाई, फल लाने लगे थे. 1-2 दिन छोड़ कर चिकन बिरयानी या नौनवेज बनने लगा था. फ्रिज में तो हमेशा फल भरे ही रहते थे. अम्मी के लिए चांदी के जेवर बन गए थे और फिर हाथ के कंगन. गले में सोने की माला आ गई थी. मेरी पढ़ाई के लिए अलग से कोचिंग क्लास लगा दी गई थी.

मेरी बड़ी बहन यानी अप्पी भी हमारे शहर में ही ब्याही गई थीं. उन की ससुराल में अम्मी कभी भी खाली हाथ नहीं जाती थीं. बड़ी अप्पी के बच्चे तो नानानानी का मानो इंतजार ही करते रहते थे.

फिर अब्बा परेशान रहने लगे. वे किसी से कुछ बात नहीं कहते थे. मुझे कभी कपड़ों की या कोचिंग के लिए फीस की जरूरत होती, तो वे झिड़क देते थे, ‘कब तक मांगोगे? इतने बड़े हो गए हो. खुद कमाओ…’ अब्बा के मुंह से कड़वी बातें निकलने लगी थीं. नए कपड़े दिलाना बंद हो गया था. अम्मी अब बड़ी अप्पी के यहां खाली हाथ ही जाने लगी थीं.

अम्मी घरखर्च के लिए 3-4 बार कहतीं, तब अब्बा रुपए निकाल कर देते थे. आखिर ऐसा क्यों हो रहा था? अम्मी कहतीं कि घर पर किसी की नजर लग गई या किसी शैतान का बुरा साया घर में आ गया है.हद तो तब हो गई, जब अब्बा ने अम्मी से सोने के कड़े उतरवा कर बेच दिए और जो रुपए आए उस का क्या किया, पता नहीं?

अम्मी को भरोसा हो गया था कि कुछ न कुछ गलत हो रहा है. वे मौलाना से पानी फुंकवा कर ले आईं, कुछ तावीज भी बनवा लिए. अब्बा के तकिए के नीचे दबा दिए, लेकिन परेशानियां दूर नहीं हुईं.

एक दिन शाम को अम्मी ने एक पीर साहब को बुलवाया. वे पूरा घर घूम कर कहने लगे, ‘कोई बुरी शै है.’ इसे दूर करने के लिए पीर साहब ने 2 हजार रुपए मांगे. अम्मी ने जो रुपए जोड़ कर रखे थे, वे निकाल कर दे दिए और तावीज ले लिया. घर में पानी का छिड़काव कर दिया. दरवाजों के बीच में सूइयां ठुंकवा लीं, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला.

अब्बा ने अम्मी से चांदी के जेवर भी उतरवा लिए. अम्मी ने मना किया, तो बहुत झगड़ा हुआ. अब तो मुझे भी यकीन होने लगा था कि मामला गंभीर है, क्योंकि ऐसी खराब हालत हमारे परिवार की कभी नहीं हुई थी. म्मी ने यह बात अपनी बहनों से भी की और कोई बहुत पहुंचे हुए पीर बाबा के बारे में मालूम किया. अम्मी ने पिछले जुमे को पैसा दे कर अपना नंबर लगवा लिया था.

मैं अपनी यादों से लौट आया. मैं ने घड़ी में देखा. रात के 9 बज रहे थे. तभी देखा कि अम्मी बाहर बदहवास से आ रही थीं.

मैं घबरा गया और पूछा, ‘‘क्या बात है अम्मी?’’

‘‘कुछ नहीं बेटा, घर चल,’’ घबराई सी आवाज में अम्मी ने कहा और कहतेकहते उन का गला भर आया.

‘‘आखिर माजरा क्या है? पीर साहब ने कुछ कहा क्या?’’ मैं ने जोर दे कर पूछा.

‘‘तू घर चल, बस… अम्मी ने गुस्से में कहा.

बड़ी अप्पी घर पर आई हुई थीं. अम्मी तो अंदर आते ही अप्पी के गले लग कर रोने लगीं.

आखिर दिल भर रो लेने के बाद अम्मी ने आंसुओं को पोंछा और कहा, ‘‘मैं जो सोच रही थी, वह सच था.’’

‘‘क्या सोच रही थीं? कुछ साफसाफ तो बताओ,’’ बड़ी अप्पी ने पूछा.

‘‘क्या बताऊं? हम तो बरबाद हो गए. पीर साहब ने साफसाफ बताया है कि इन की जिंदगी में दूसरी औरत है, जिस की वजह से यह बरबादी हो रही है…’’ अम्मी जोर से रो रही थीं.

मैं ने सुना, तो मैं भी हैरान रह गया. अब्बा ऐसे लगते तो नहीं हैं. लेकिन फिर हम बरबाद क्यों हो गए? इतने रुपए आखिर जा कहां रहे हैं?

अम्मी को अप्पी ने रोने से मना किया और कहा, ‘‘अब्बा आज आएंगे, तो बात कर लेंगे.’’

हम सब ने आज सोच लिया था कि अब्बा को घर की बरबादी की पूरी दास्तां बताएंगे और पूछेंगे कि आखिर वे चाहते क्या हैं?

रात के तकरीबन साढ़े 10 बजे अब्बा परेशान से घर में आए. वे अपने कमरे में गए, तो अम्मी वहीं पर पहुंच गईं. अब्बा ने उन्हें देख कर पूछा, ‘‘क्या बात है बेगम, बहुत खामोश हो?’’

अम्मी चुप रहीं, तो अब्बा ने दोबारा कहा, ‘‘कोई खास बात है क्या?’’

‘‘जी हां, खास बात है. आप से कुछ बात करनी है,’’ अम्मी ने कहा.

‘‘कहो, क्या बात है?’’

‘‘हमारे घर के हालात पिछले 2 सालों से बद से बदतर होते जा रहे हैं, इस पर आप ने कभी गौर किया है?’’

‘‘मैं जानता हूं, लेकिन कुछ मजबूरी है. 1-2 महीने में स ठीक हो जाएगा,’’ अब्बा ने ठंडी सांस खींच कर कहा.

‘‘बिलकुल ठीक नहीं होगा, आप यह जान लें, बल्कि आप हमें भिखारी बना कर ही छोड़ेंगे,’’ अम्मी की आवाज बेकाबू हो रही थी.

हम दरवाजे की ओट में आ कर खड़े हो गए थे, ताकि कोई ऊंचनीच हो, तो हम अम्मी की ओर से खड़े हो सकें.

‘‘ऐसा नहीं कहते बेगम.’’

‘‘क्यों? क्या कोई कसर छोड़ रहे हैं आप? आप को एक बार भी अपने बीवीबच्चों का खयाल नहीं आया कि हम पर क्या गुजरेगी,’’ कह कर अम्मी रोने लगी थीं.

‘‘मैं पूरी कोशिश कर रहा हूं कि हम इन बुरे दिनों से पार निकल जाएं.’’

‘‘लेकिन निकल नहीं पा रहे, यही न? उस औरत ने आप को जकड़ लिया है,’’ अम्मी ने अपनी नाराजगी जाहिर कर तकरीबन चीखते हुए कहा.

‘‘खामोश रहो. तुम्हारे मुंह से ऐसी बेहूदा बातें अच्छी नहीं लगतीं.’’

‘‘क्यों… मैं सब सच कह रही हूं, इसलिए?’’

‘‘कह तो तुम सच रही हो, लेकिन बेगम मैं क्या करूं? पानी को कितना भी तलवार से काटो, वह कटता नहीं है,’’ अब्बा ने अपना नजरिया रखा.

‘‘आज आप फैसला कर लें.’’

‘‘कैसा फैसला?’’ अब्बा ने हैरत से सवाल किया.

‘‘आखिर आप चाहते क्या हैं? उस औरत के साथ रहना चाहते हैं या हमारे साथ जिंदगी बसर करना चाहते हैं?’’ अम्मी ने गुस्से में कहा.

‘‘क्या मतलब है तुम्हारा? साफसाफ कहो?’’ अब्बा भी नाराज होने लगे थे.

‘‘मैं आज बड़े पीर साहब के पास गई थी. उन्होंने मुझे सब बता दिया है,’’ अम्मी ने राज खोलते हुए कहा.

‘‘क्या सब बता दिया है?’’ अब्बा ने हैरत से सवाल किया.

‘‘आप किसी दूसरी औरत के चक्कर में सबकुछ बरबाद कर रहे हैं. लानत है…’’ अम्मी ने गुस्से में कहा.

‘‘चुप रहो. जानती हो कि वह दूसरी दूसरी औरत कौन है?’’ अब्बा ने गुस्से में कांपते हुए कहा.

‘‘कौन है?’’ अम्मी ने भी उतनी ही तेजी से ऊंची आवाज में पूछा.

‘‘तुम्हारी ननद है, मेरी बड़ी बहन. उस की मेहनत की वजह से ही मैं पढ़ाई कर पाया और अपने पैरों पर खड़ा हो सका और उस की एक छोटी सी गलती की वजह से हमारे पूरे परिवार ने उसे अपने से अलग कर दिया था, क्योंकि उस ने अपनी मरजी से शादी की थी.

‘‘मुझे पिछले एक साल पहले ही मालूम पड़ा कि उस के पति को कैंसर है, जिस की कीमोथैरैपी और इलाज के लिए उसे रुपयों की जरूरत थी. उस के बच्चे भी ऊंचे दर्जे में पढ़ रहे थे. उन्होंने तो तय किया था इलाज नहीं कराएंगी, लेकिन जैसे ही मुझे खबर लगी, तो मैं ने इलाज और पढ़ाई की जिम्मेदारी ले ली, ताकि वह परिवार बरबाद होने से बच सके.

‘‘मेरी बहन के हमारे सिर पर बहुत एहसान हैं. अगर मुझे जान दे कर भी वे एहसान चुकाने पड़ें, तो मैं ऐसा खुशीखुशी कर सकता हूं,’’ कहतेकहते अब्बा जोर से रो पड़े.

अम्मी हैरान सी सब देखतीसुनती रहीं.

‘‘मुझ से कैसा बड़ा गुनाह हो गया,’’ अम्मी बड़बड़ाईं. हम भी दरवाजे की ओट से बाहर निकले और अब्बा के गले से लिपट गए.‘‘अब्बा, हमें माफ कर दो. अगर हमें  और भी मुसीबतें झेलना पड़ीं, तो हम झेल लेंगे, लेकिन आप उन्हें बचा लें,’’ मैं ने कहा.

अब्बा ने आंसू पोंछे और कहा, ‘आदिल बेटा, उन का पूरा इलाज हो गया है. वे ठीक हो गए हैं और भांजे को नौकरी भी लग गई है. ‘‘यह सब तुम लोगों की मदद की वजह से ही सब हो पाया. तुम लोग खामोश रहे और मैं उस परिवार की मदद कर के उन्हें जिंदा रख पाया,’’ अब्बा की आवाज में हम सब के प्रति शुक्रिया का भाव नजर आ रहा था.

अम्मी ने शर्म के मारे नजरें नीची कर ली थीं.अब्बा ने कहा, ‘‘कल सुबह मेरी बहन यहां आने वाली हैं. अच्छा हुआ, जो सब बातें रात में ही साफ हो गईं.’’

‘‘हम सब कल उन का बढि़या से इस्तकबाल करेंगे, ताकि बरसों से वे हम से जो दूर रहीं, सारे गम भूल जाएं,’’ अम्मी ने कहा.

‘‘क्यों नहीं,’’ अब्बा ने कहा, तो हम सब हंस दिए. रात में हमारी हंसी से लग रहा था, मानो रात घर में बिछ गई हो और खुशियों के सितारे उस में टंग गए हों.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें