कितने दूर कितने पास : एक हसंता खेलते परिवार की कहानी

सरकारी सेवा से मुक्त होने में बस, 2 महीने और थे. भविष्य की चिंता अभी से खाए जा रही थी. कैसे गुजारा होगा थोड़ी सी पेंशन में. सेवा से तो मुक्त हो गए परंतु कोई संसार से तो मुक्त नहीं हो गए. बुढ़ापा आ गया था. कोई न कोई बीमारी तो लगी ही रहती है. कहीं चारपाई पकड़नी पड़ गई तो क्या होगा, यह सोच कर ही दिल कांप उठता था. यही कामना थी कि जब संसार से उठें तो चलतेफिरते ही जाएं, खटिया रगड़ते हुए नहीं.

सब ने समझाया और हम ने भी अपने अनुभव से समझ लिया था कि पैसा पास हो तो सब से प्रेमभाव और सुखद संबंध बने रहते हैं. इस भावना ने हमें इतना जकड़ लिया था कि पैसा बचाने की खातिर हम ने अपने ऊपर काफी कंजूसी करनी शुरू कर दी. पैसे का सुख चाहे न भोग सकें परंतु मरते दम तक एक मोटी थैली हाथ में अवश्य होनी चाहिए. बेटी का विवाह हो चुका था.

वह पति और बच्चों के साथ सुखी जीवन व्यतीत कर रही थी. जैसेजैसे समय निकलता गया हमारा लगाव कुछ कम होता चला गया था. हमारे रिश्तों में मोह तो था परंतु आकर्षण में कमी आ गई थी. कारण यह था कि न अब हम उन्हें अधिक बुला सकते थे और न उन की आशा के अनुसार उन पर खर्च कर सकते थे. पुत्र ने अवसर पाते ही दिल्ली में अपना मकान बना लिया था. इस मकान पर मैं ने भी काफी खर्च किया था.

आशा थी कि अवकाश प्राप्त करने के बाद इसी मकान में आ कर पतिपत्नी रहेंगे. कम से कम रहने की जगह तो हम ने सुरक्षित कर ली थी. एक दिन पत्नी के सीने में दर्द उठा. घर में जितनी दवाइयां थीं सब का इस्तेमाल कर लिया परंतु कुछ आराम न हुआ.

सस्ते डाक्टरों से भी इलाज कराया और फिर बाद में पड़ोसियों की सलाह मान कर 1 रुपए की 3 पुडि़या देने वाले होमियोपैथी के डाक्टर की दवा भी ले आए. दर्द में कितनी कमी आई यह कहना तो बड़ा कठिन था परंतु पत्नी की बेचैनी बढ़ गई. एक ही बात कहती थी, ‘‘बेटी को बुला लो. देखने को बड़ा जी चाह रहा है. कुछ दिन रहेगी तो खानेपीने का सहारा भी हो जाएगा. बहू तो नौकरी करती है, वैसे भी न आ पाएगी.’’ ‘‘प्यारी बेटी,’’ मैं ने पत्र लिखा, ‘‘तुम्हारी मां की तबीयत बड़ी खराब चल रही है. चिंता की कोई बात नहीं. पर वह तुम्हें व बच्चों को देखना चाह रही है. हो सके तो तुम सब एक बार आ जाओ.

कुछ देखभाल भी हो जाएगी. वैसे अब 2 महीने बाद तो यह घर छोड़ कर दिल्ली जाना ही है. अच्छा है कि तुम अंतिम बार इस घर में आ कर हम लोगों से मिल लो. यह वही घर है जहां तुम ने जन्म लिया, बड़ी हुईं और बाजेगाजे के साथ विदा हुईं…’’ पत्र कुछ अधिक ही भावुक हो गया था.

मेरी ऐसी कोई इच्छा नहीं थी, पर कलम ही तो है. जब चलने लगती है तो रुकती नहीं. इस पत्र का कुछ ऐसा असर हुआ कि बेटी अपने दोनों बच्चों के साथ अगले सप्ताह ही आ गई. दामाद ने 10 दिन बाद आने के लिए कहा था. न जाने क्यों मांबेटी दोनों एकदूसरे के गले मिल कर खूब रोईं. भला रोने की बात क्या थी? यह तो खुशी का अवसर था. मैं अपने नातियों से गपें लगाने लगा.

रचना ने कहा, ‘‘बोलो, मां, तुम्हारे लिए क्या बनाऊं? तुम कितनी दुबली हो गई हो,’’ फिर मुझे संबोधित कर बोली, ‘‘पिताजी, बकरे के दोचार पाए रोज ले आया कीजिए. यखनी बना दिया करूंगी. बच्चों को भी बहुत पसंद है. रोज सूप पीते हैं. आप को भी पीना चाहिए,’’ फिर मेरी छाती को देखते हुए बोली, ‘‘क्या हो गया है पिताजी आप को?

सारी हड्डियां दिखाई दे रही हैं. ठहरिए, मैं आप को खिलापिला कर खूब मोटा कर के जाऊंगी. और हां, आधा किलो कलेजी- गुर्दा भी ले आइएगा. बच्चे बहुत शौक से खाते हैं.’’ मैं मुसकराने का प्रयत्न कर रहा था, ‘‘कुछ भी तो नहीं हुआ. अरे, इनसान क्या कभी बुड्ढा नहीं होता? कब तक मोटा- ताजा सांड बना रहूंगा? तू तो अपनी मां की चिंता कर.’’ ‘‘मां को तो देख लूंगी, पर आप भी खाने के कम चोर नहीं हैं. आप को क्या चिंता है? लो, मैं तो भूल ही गई. आप तो रोज इस समय एक कप कौफी पीते हैं. बैठिए, मैं अभी कौफी बना कर लाती हूं. बच्चो, तुम भी कौफी पियोगे न?’’

मैं एक असफल विरोध करता रह गया. रचना कहां सुनने वाली थी. दरअसल, मैं ने कौफी पीना अरसे से बंद कर दिया था. यह घर के खर्चे कम करने का एक प्रयास था. कौफी, चीनी और दूध, सब की एकसाथ बचत. पत्नी को पान खाने का शौक था. अब वह बंद कर के 10 पैसे की खैनी की पुडि़या मंगा लेती थी, जो 4 दिन चलती थी. हमें तो आखिर भविष्य को देखना था न. 

‘‘अरे, कौफी कहां है, मां?’’ रचना ने आवाज लगा कर पूछा, ‘‘यहां तो दूध भी दिखाई नहीं दे रहा है? लो, फ्रिज भी बंद पड़ा है. क्या खराब हो गया?’’ मां ने दबे स्वर में कहा, ‘‘अब फ्रिज का क्या काम है? कुछ रखने को तो है नहीं. बेकार में बिजली का खर्चा.’’ ‘‘पिताजी, ऐसे नहीं चलेगा,’’ रचना ने झुंझला कर कहा, ‘‘यह कोई रहने का तरीका है? क्या इसीलिए आप ने जिंदगी भर कमाया है?

अरे ठाट से रहिए. मैं भी तो सिर उठा कर कह सकूं कि मेरे पिताजी कितनी शान से रहते हैं. ए बिट्टू, जा, नीचे वाली दुकान से दौड़ कर कौफी तो ले आ. हां, पास ही जो मिट्ठन हलवाई की दुकान है, उस से 1 किलो दूध भी ले आना. नानाजी का नाम ले देना, समझा? भाग जल्दी से, मैं पानी रख रही हूं.’’ किट्टू बोला, ‘‘मां, मैं भी जाऊं. फाइव स्टार चाकलेट खानी है.’’ ‘‘जा, तू भी जा, शांति तो हो घर में,’’ रचना ने हंस कर कहा, ‘‘चाकलेट खाने की तो ऐसी आदत पड़ गई है कि बस, पूछो मत. इन की तो नौकरी भी ऐसी है कि मुफ्त देने वालों की कमी नहीं है.’’

मैं मन ही मन गणित बिठा रहा था. 5 रुपए की चाकलेट, 6 रुपए का दूध, 15 रुपए की कौफी, 16 रुपए की आधा किलो कलेजी, ढाई रुपए के 2 पाए…’’ कौफी पी ही रहा था कि रचना का क्रुद्ध स्वर कानों में पड़ा, ‘‘मां, तुम ने घर को क्या कबाड़ बना रखा है. न दालें हैं न सब्जी है, न मसाले हैं. आप लोग खाते क्या हैं? बीमार नहीं होंगे तो क्या होंगे? छि:, मैं भाभी को लिख दूंगी. आप की खूब शिकायत करूंगी. दिल्ली में अगर आप को इस हालत में देखा तो समझ लेना कि भाभी से तो लड़ाई करूंगी ही, आप से भी कभी मिलने नहीं आऊंगी.’

रचना जल्दी से सामान की सूची बनाने लगी. मेरी पत्नी का खाना बनाने को मन नहीं करता था. उसे अपनी बीमारी की चिंता अधिक सताती थी. पासपड़ोस की औरतें भी उलटीसीधी सीख दे जाया करती थीं. मैं ने भी समझौता कर लिया था. जो एक समय बन जाता था वही दोनों समय खा लेते थे.

आखिर इनसान जिंदा रहने के लिए ही तो खाता है. अब इस उम्र में चटोरापन किस काम का. यह बात अलग थी कि हमारा खर्च आधा रह गया था. बैंक में पैसे भी बढ़ रहे थे और सूद भी. पत्नी ने धीरे से कहा, ‘‘यह तो पराया समझ कर घर लुटा रही है. सामान तुम ही लाना और मुझे यखनीवखनी कुछ नहीं चाहिए. कलेजी भी कम लाना. अगर बच्चों को खिलाना है तो सीधी तरह से कह देती.

लगता है मुझे ही रसोई में लगना पड़ेगा. हमें आगे का देखना है कि अभी का?’’ फिर सिर पर हाथ रखते हुए बोली, ‘‘अभी तो दामाद को भी आना है. उन्हें तो सारा दिन खानेपीने के सिवा कुछ सूझता ही नहीं.’’ ‘‘तुम ने ही तो कहा था बुलाने को.’’ ‘‘कहा था तो क्या तुम मना नहीं कर सकते थे. ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि जो मैं ने कहा वह पत्थर की लकीर हो गई,’’ पत्नी ने उलाहना दिया. ‘‘अब तो भुगतना ही पड़ेगा. अब देर हो गई. कल सुबह बैंक से पैसे निकालने जाना पड़ेगा,’’ मैं ने दुखी हो कर कहा. इतने में रचना आ गई, ‘‘मां, देसी घी कहां है? दाल किस में छौंकूंगी? रोटी पर क्या लगेगा?’’ मां ने ठंडे दिल से कहा, ‘‘डाक्टर ने देसी घी खाने को मना किया है न.

चरबी वाली चीजें बंद हैं. तेरे लिए आधा किलो मंगवा दूंगी.’’ मैं ने खोखली हंसी से कहा, ‘‘कोलेस्टेराल बढ़ जाता है न, और रक्तचाप भी.’’ ‘‘भाड़ में गए ऐसे डाक्टर. हड्डी- पसली निकल रही है, सूख कर कांटा हो रहे हैं और कोलेस्टेराल की बात कर रहे हैं. आप अभी 5 किलोग्राम वाले डब्बे का आर्डर कर आइए. मेरे सामने आ जाना चाहिए,’’ रचना ने धमकी दी. मेरे और पत्नी के दिमाग में एक ही बात घूम रही थी, ‘कितना खर्च हो जाएगा इन के रहते. सेवा से अवकाश लेने वाला हूं. कम खर्च में काम चलाना होगा. बेटे के ऊपर भी तो बोझ बन कर नहीं रहना है.’

सुबह ही सुबह रचना दूध वाले से झगड़ा कर रही थी, ‘‘क्यों, पहलवान, मैं क्या चली गई, तुम ने तो दूध देना ही बंद कर दिया.’’ ‘‘बिटिया, हम क्यों दूध बंद करेंगे? मांजी ने ही कहा कि बस, आधा किलो दे जाया करो. चाय के लिए बहुत है. क्या इसी घर में हम ने 4-4 किलो दूध नहीं दिया है?’’ ‘‘देखो, जब तक मैं हूं, 3 किलो दूध रोज चाहिए. बच्चे दोनों समय दूध लेते हैं. जब मैं चली जाऊं तो 2 किलो देना, मां मना करें या पिताजी.

यह मेरा हुक्म है, समझे?’’ ‘‘समझा, बिटिया, हम भी तो कहें, क्यों मांजी और बाबूजी कमजोर हो रहे हैं. यही तो खानेपीने की उम्र है. अभी दूध नहीं पिएंगे तो कब पिएंगे?’’ 18 रुपए का दूध रोज. मैं मन ही मन सोच रहा था कि पत्नी इशारे से दूध वाले को कुछ कहने का असफल प्रयत्न कर रही थी. ‘‘अंडे भी नहीं हैं. न मक्खन न डबल रोटी,’’ रचना चिल्ला रही थी, ‘‘आप लोग बीमार नहीं पड़ेंगे तो क्या होगा.

बिट्टू, जा दौड़ कर नीचे से एक दर्जन अंडे ले आ और 500 ग्राम वाली मक्खन की टिकिया, नानाजी का नाम ले देना.’’ ‘‘मां, मैं भी जाऊं,’’ किट्टू बोला, ‘‘टाफी लाऊंगा. तुम्हारे लिए भी ले आऊं न?’’ ‘‘जा बाबा, जा, सिर मत खा,’’ रचना ने हंसते हुए कहा. हाथ दबा कर खर्च करने के चक्कर में बहुत मना करने पर भी पत्नी ने रसोई का काम संभाल लिया.

जब दामाद आए तब तो किसी को फुरसत ही कहां. रोज बाजार कुछ न कुछ खरीदने जाना और नहीं तो यों ही घूमने के लिए. रिश्तेदार भी कई थे. कोई मिलने आया तो किसी के यहां मिलने गए. परिणाम यह हुआ कि पत्नी के लिए रसोई लक्ष्मण रेखा बन गई. दामाद की सारी फरमाइशें रचना मां को पहुंचा देती थी, ‘‘सास के हाथ के कबाब तो बस, लाजवाब होते हैं.

उफ, पिछली दफा जो कीमापनीर खाया था, आज तक याद है. मुर्गमुसल्लम तो जो मां के हाथ का खाया था अशोक होटल में भी क्या बनेगा.’’ जब तक रचना पति और बच्चों के साथ वापस गई, मेरी पत्नी के सीने का दर्द वापस आ गया था, लेकिन दर्द के बारे में सोचने की फुरसत कहां थी. घर छोड़ कर दिल्ली जाने में 1 महीना रह गया था. कुछ सामान बेचा तो कुछ सहेजा. एक दिन 20-25 बक्सों का कारवां ले कर जब दिल्ली पहुंचे तो चमचमाते मुंह से पुत्र ने स्वागत किया और बहू ने सिर पर औपचारिक रूप से साड़ी का पल्ला खींचते हुए सादर पैर छू कर हमारा आशीर्वाद प्राप्त किया.

पोता दादी से चिपक गया तो नन्ही पोती मेरी गोदी में चढ़ गई. सुबह जल्दी उठने की आदत थी. पुत्र का स्वर कानों में पड़ा, ‘‘सुनो, दूध 1 किलो ज्यादा लेना. मां और पिताजी सुबह नाश्ते में दूध लेते हैं.’’ बहू ने उत्तर दिया, ‘‘दूध का बिल बढ़ जाएगा. इतने पैसे कहां से आएंगे? और फिर अकेला दूध थोड़े ही है. अंडे भी आएंगे. मक्खन भी ज्यादा लगेगा…’’ पुत्र ने झुंझला कर कहा, ‘‘ओहो, वह हिसाबकिताब बाद में करना. मांबाप हमारे पास रहने आए हैं. उन्हें ठीक तरह से रखना हमारा कर्तव्य है.’’ ‘‘तो मैं कोई रोक रही हूं? यही तो कह रही हूं कि खर्च बढ़ेगा तो कुछ पैसों का बंदोबस्त भी करना पड़ेगा. बंधीबंधाई तनख्वाह के अलावा है क्या?’’ ‘‘देखो, समय से सब बंदोबस्त हो जाएगा. अभी तो तुम रोज दूध और अंडों का नाश्ता बना देना.’’ ‘‘ठीक है, बच्चों का दूध आधा कर दूंगी. एक समय ही पी लेंगे. अंडे रोज न बना कर 2-3 दिन में एक बार बना दूंगी.’’

‘‘अब जो ठीक समझो, करो,’’ बेटे ने कहा, ‘‘सेना के एक कप्तान से मैं ने दोस्ती की है. एक दिन बुला कर उसे दावत देनी है.’’ ‘‘वह किस खुशी में?’’ ‘‘अरे, जानती तो हो, आर्मी कैंटीन में सामान सस्ता मिलता है, एक दिन दावत देंगे तो साल भर सामान लाते रहेंगे.’’ ‘‘ठीक तो है, रंजना के यहां तो ढेर लगा है. जब पूछो, कहां से लिया है तो बस, इतरा कर कहती है कि मेजर साहब ने दिलवा दिया है.’’

जब नाश्ता करने बैठे तो मैं ने कहा, ‘‘अरे, यह दूध मेरे लिए क्यों रख दिया. अब कोई हमारी उम्र दूध पीने की है. लो, बेटा, तुम पी लो,’’ मैं ने अपना आधा प्याला पोते के आधे प्याले में डाल दिया. पत्नी ने कहा, ‘‘यह अंडा तो मुझे अब हजम नहीं होता. बहू, इन बच्चों को ही दे दिया करो. बाबा, डबल रोटी में इतना मक्खन लगा दिया…मैं तो बस, नाम मात्र का लेती हूं.’’ बहू ने कहा, ‘‘मांजी, ऐसे कैसे होगा? बच्चे तो रोज ही खाते हैं. आप जब तक हमारे पास हैं अच्छी तरह खाइए. लीजिए, आप ने भी दूध छोड़ दिया.’’ ‘‘मेरी सोना को दे दो. बच्चों को तो खूब दूध पीना चाहिए.’’

‘‘हां, बेटा, मैं तो भूल ही गया था. तुम्हारी मां के सीने में दर्द रहता है. काफी दवा की पर जाता ही नहीं. अच्छा होता किसी डाक्टर को दिखा देते. है कोई अच्छा डाक्टर तुम्हारी जानपहचान का?’’ बेटे ने सोच कर उत्तर दिया, ‘‘मेरी जानपहचान का तो कोई है नहीं पर दफ्तर में पता करूंगा. हो सकता है एक्सरे कराना पड़े.’’ बहू ने तुरंत कहा, ‘‘अरे, कहां डाक्टर के चक्कर में पड़ोगे, यहां कोने में सड़क के उस पार घोड़े की नाल बनाने वाला एक लोहार है. बड़ी तारीफ है उस की. उस के पास एक खास दवा है. बड़े से बड़े दर्द ठीक कर दिए हैं उस ने. अरे, तुम्हें तो मालूम है, वही, जिस ने चमनलाल का बरसों पुराना दर्द ठीक किया था.’’

‘‘हां,’’ बेटे ने याद करते हुए कहा, ‘‘ठीक तो है. वह पैसे भी नहीं लेता. बस, कबूतरों को दाना खिलाने का शौक है. सो वही कहता है कि पैसों की जगह आप आधा किलो दाना डाल दो, वही काफी है.’’ मैं ने गहरी सांस ली. पत्नी साड़ी के कोने से मेज पर पड़ा डबल रोटी का टुकड़ा साफ कर रही थी. मेरी मुट्ठी भिंच गईं. मुझे लगा मेरी मुट्ठी में इस समय अनगिनत रुपए हैं.

सोचने की बात सिर्फ यह थी कि इन्हें आज खत्म करूं या कल, परसों या कभी नहीं. बेटा दफ्तर जा रहा था. ‘‘सुनो,’’ उस ने बहू से कहा, ‘‘जरा कुछ रुपए दे दो. लौटते हुए गोश्त लेता आऊंगा, और रबड़ी भी. पिताजी को बहुत पसंद है न.’’ बहू ने झिड़क कर कहा, ‘‘अरे, पिताजी कोई भागे जा रहे हैं जो आज ही रबड़ी लानी है? रहा गोश्त, सो पाव आध पाव से तो काम चलेगा नहीं.

कम से कम 1 किलो लाना पड़ेगा. मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं. अब खाना ही है तो अगले महीने खाना.’’ ‘‘ठीक है,’’ कह कर बेटा चला गया. मुझे एक बार फिर लगा कि मेरी मुट्ठी में बहुत से पैसे हैं. मैं ने मुट्ठी कस रखी है. प्रतीक्षा है सिर्फ इस बात की कि कब अपनी मुट्ठी ढीली करूं. पत्नी ने कराहा. शायद सीने में फिर दर्द उठा था.

खोया हुआ आशिक : शालिनी के लौटने पर क्यों परेशान थी विनीता

‘‘हैलोविन्नी… कैसी हो मेरी जान… अरे, मैं शालिनी बोल रही हूं… तुम्हारी शालू’’ सुन कर विनीता को समझने में कुछ समय लगा, मगर फिर जल्दी ही जैसे दिमाग सोते से जागा.

‘‘अरे, शालू तुम? अचानक इतने सालों बाद? तुम तो नितेश से शादी कर के अमेरिका चली गई थी… आज इतने सालों बाद अचानक मेरी याद कैसे आई? क्या इंडिया आई हो?’’ विनीता ने अपने मन की घबराहट छिपाते हुए पूछा.

‘‘अरे बाप रे, इतने सारे सवाल एकसाथ? बताती हूं… बताती हूं… अभी तो बातें शुरू हुई हैं…’’ शालिनी ने अपनी आदत के अनुसार ठहाका लगाते हुए कहा.

‘‘पहले तू यह बता कि मेरे खोए हुए आशिक यानी जतिन के बारे में तुझे कोई खबर है क्या? शायद मेरी तरह उस ने भी हमारे अतीत के कुछ पन्ने संभाल कर रखें हों…’’ शालिनी का सवाल सुनते ही विनीता के हाथ से मोबाइल छूटने को हुआ. वह उसे कैसे बताती कि उस का खोया हुआ आशिक ही अब उस का पाया हुआ प्यार है… जिन अतीत के पन्नों की बात ‘शालू कर रही थी वही पन्ने उस के जाने के बाद विनीता वर्तमान में पढ़ रही है… हां, वही जतिन जो कभी शालू का आशिक हुआ करता था आज विनीता का पति है.’

विनीता को एकाएक कोई जवाब नहीं सूझा तो उस ने 4-5 बार ‘‘हैलो… हैलो…’’ कह कर फोन काट दिया और फिर उसे स्विच औफ भी कर दिया. वह फिलहाल शालू के किसी भी सवाल का जवाब देने की स्थिति में नहीं थी.

विनीता बैडरूम में आ कर कटे पेड़ की तरह ढह गई. न जाने कितनी ही बातें… कितनी ही यादें थीं, जो 1-1 कर आंखों के रास्ते गुजर रही थी. कौन जाने… आंखों से यादें बह रही थीं या आंसुओं का सैलाब… कैसे भूल सकती है विनीता कालेज के आखिरी साल के वे दिन जब शालिनी ने अचानक नितेश से शादी करने के अपने पापा के फैसले को हरी झंडी दे दी थी. विनीता ने क्या कम समझाया था उसे?

‘‘शालू, तुम जतिन के साथ ऐसा कैसे कर सकती हो? उसे कितना भरोसा है तुम पर… बहुत प्यार करता है तुम से… वह टूट जाएगा शालू… मुझे तो डर है कि कहीं कुछ उलटासीधा न कर बैठे…’’ विनीता को शालू की बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था. एक वही तो थी इस रिश्ते की चश्मदीद गवाह.

‘‘बी प्रैक्टिकल यार. प्यार अलग चीज है और शादी अलग… नितेश से जो मुझे मिल सकता है वह जतिन कभी नहीं दे सकता… नीतेश एअर इंडिया में पायलट है… महानगर में शानदार फ्लैट… अच्छी नौकरी… हैंडसम पर्सनैलिटी… रोज विदेश के दौरे… क्या

ये सब जतिन दे पाएगा मुझे? उसे तो अभी

सैटल होने में ही बरसों लग जाएंगे… तब तक

तो मैं बूढ़ी हो जाऊंगी…’’ शालू ने आदतन ठहाका लगाया.

‘‘देख शालू, तुझे जो करना है वह कर,

मगर प्लीज… फाइनल ऐग्जाम तक इस बारे में जतिन को कुछ मत बताना वरना वह एग्जाम भी नहीं दे पाएगा… उस का फ्यूचर खराब हो जाएगा…’’ विन्नी उस के सामने लगभग गिड़गिड़ा उठी.

‘‘ओके डन… मगर तू क्यों इतनी मरी जा रही है उस के लिए?’’ शालू विन्नी पर कटाक्ष करते हुए क्लास से चली गई.

फाइनल परीक्षा खत्म हो गई. आखिरी पेपर के बाद तीनों कालेज कैंटीन में मिले थे. तभी शालू ने नितेश के साथ अपनी सगाई की खबर सार्वजनिक की थी. विनीता की नजर लगातार जतिन के चेहरे पर ही टिकी थी. वह संज्ञा शून्य सा बैठा था. उन दोनों को सकते में छोड़ कर शालू कब की जा चुकी थी. विनीता किसी तरह जतिन को वहां से उठा कर ला पाई थी.

नितेश से शादी कर के 2 ही महीनों में शालू अमेरिका चली गई. फाड़ कर फेंक गई थी अपने अतीत के पन्ने… पीछे छोड़ गई थी टूटा… हारा… अपना आशिक… जिसे विनीता ने न केवल संभाला, बल्कि संवार निखार भी दिया. शालू की बेवफाई के गम को भुलाने के लिए जतिन ने अपने आप को पढ़ाई में डुबो दिया. विनीता ने उस के आंसुओं को कंधा दिया. वह लगातार उस का हौसला बढ़ाती रही. आखिर जतिन की मेहनत और विनीता की तपस्या रंग लाई. प्रशासनिक अधिकारी तो नहीं, मगर जतिन एक राजपत्रित अधिकारी तो बन ही गया था. अपनी सफलता का सारा श्रेय विनीता को देते हुए एक दिन जब जतिन ने उसे शादी के लिए प्रोपोज किया तो वह भी न नहीं कह सकी और घर वालों की सहमति से दोनों विवाहसूत्र में बंध गए. बेशक यह पहली नजर वाला प्रेम नहीं था, मगर हौलेहौले हो ही गया था.

तभी लैंडलाइन की घंटी ने उसे वर्तमान में ला दिया.

‘‘अरे, क्या बात है… तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न? मोबाइल स्विच औफ क्यों आ रहा है?’’ जतिन की आवाज में खुद के लिए इतनी फिक्र महसूस कर विनीता को दिली राहत मिली.

‘‘अच्छा… मोबाइल स्विच औफ है? मैं ने देखा नहीं… शायद चार्ज करना भूल गई,’’ विनीता साफ झूठ बोल गई.

‘‘सुनो, मुझे दोपहर बाद टूअर पर निकलना है. ड्राइवर को भेज रहा हूं, मेरा बैग पैक कर के दे देना. घर नहीं आ पाऊंगा, जरूरी मीटिंग है,’’ जतिन ने जल्दबाजी में कहा.

जतिन के टूअर अकसर ऐसे ही बनते. मगर हर बार की तरह इस बार विनीता परेशान नहीं हुई, बल्कि उस ने राहत की सांस ली, क्योंकि वह इस समय सचमुच एकांत चाहती थी ताकि शालिनी से आने से बनी इस परिस्थिति पर कुछ सोचविचार कर सके.

‘क्या होगा अगर उस ने घर आने और मेरे पति से मिलने की जिद की तो? क्या कहूंगी मैं शालू से? क्या जतिन से शादी कर के मैं ने कोई अपराध किया है?’ इन्हीं सवालों के जवाब वह एकांत में अपनेआप से पाना चाहती थी. पूरा दिन वह मंथन करती रही. उस की आशंका के अनुरूप अगले ही दिन दोपहर में शालिनी का फोन आ गया. अब तक विनीता अपनेआप को इस स्थिति के लिए मानसिक रूप से तैयार कर चुकी थी.

‘‘यार विन्नी, तुम तो बड़ी छिपी रुस्तम निकली… मेरी ही थाली पर हाथ साफ कर लिया… मेरे आशिक को अपना पति बना लिया… मैं ने कल ही जतिन की फेसबुक आईडी देखी तो पता चला… क्या तुम्हारी पहले से ही प्लानिंग थी?’’ शालू का व्यंग्य सुन कर विन्नी गुस्से और अपमान से तिलमिला उठी.

‘‘नहीं शालू… थाली पर हाथ साफ नहीं किया, बल्कि जिस पौध को तुम कुचल कर खत्म होने के लिए फेंक गई थी मैं ने उसे सहेज कर फिर से गमले में लगा दिया… अब उस के फूल या फल, जो भी हों, वे मेरी ही झोली में आएंगे न… चल छोड़ ये बातें… तू बता क्या चल रहा है तेरी लाइफ में? कितने दिन के लिए इंडिया आई हो? अकेली आई हो या नितेश भी साथ है?’’ विन्नी ने संयत स्वर में पूछा.

‘‘अकेली आई हूं, हमेशा के लिए… हमारा तलाक हो गया.’’

‘‘क्यों? कैसे? वह तो तुम्हारे हिसाब से बिलकुल परफैक्ट मैच था न?’’

‘‘अरे यार, दूर के ढोल सुहावने होते हैं… नितेश भी बाहर से तो इतना मौडर्न… और भीतर से वही… टिपिकल इंडियन हस्बैंड… यहां मत जाओ… इस से मत मिलो… उस से दूर रहो… परेशान हो गई थी मैं उस से… खुद तो चाहे जिस से लिपट कर डांस करे… और कोई मेरी कमर में हाथ डाल दे तो जनाब को आग लग जाती थी… रोज हमारा झगड़ा होने लगा… बस, फिर हम आपसी सहमति से अलग हो गए. अब मैं हमेशा के लिए इंडिया आ गई हूं,’’ शालू ने बड़ी ही सहजता से अपनी कहानी बता दी जैसे यह कोई खास बात नहीं थी, मगर विनीता के मन में एक अनजाने डर ने कुंडली मार ली.

‘‘अगर यह हमेशा के लिए इंडिया आ गई है, तो जतिन से मिलने की कोशिश भी जरूर करेगी… कहीं इन दोनों का पुराना प्यार फिर से जाग उठा तो? कहते हैं कि व्यक्ति अपना पहला प्यार कभी नहीं भूलता… फिर? उस का क्या होगा?’’ विनीता ने डर के मारे फोन काट दिया.

विनीता के दिल में शक के बादलों ने डेरा जमाना शुरू कर दिया. उस का शक विश्वास में बदलने लगा जब एक दिन उस ने फेसबुक पर नोटिफिकेशन देखा, ‘‘जतिन बिकम्स फ्रैंड विद शालिनी.’’

‘‘जतिन ने मुझे बताना भी जरूरी नहीं समझा? हो सकता है शालिनी इन से मिली भी हो…’’ विनीता के दिल में शक के नाग ने फुफकार भरी. विनीता अपने दिल की बात किसी से भी शेयर नहीं कर पा रही थी. धीरेधीरे उस की मनोस्थिति उस पर हावी होने लगी. नतीजतन उस के व्यवहार में एक अजीब सा रूखापन आ गया. जतिन जब भी उसे हंसाने की कोशिश करता वह बिफर उठती.

‘‘तुम्हें पता है शालिनी वापस लौट आई है?’’ एक दिन औफिस से आते ही जतिन ने विस्फोट किया.

‘‘हां, उस ने एक दिन मुझे फोन किया था. मगर तुम्हें किस ने बताया?’’ विनीता ने उस की आंखों में आंखें डाल कर पूछा. जतिन की आंखों में उसे जरा भी चोरी नजर नहीं आई, बल्कि उन में तो विश्वास भरी चमक थी.

‘‘अरे, उसी ने आज मुझे भी फोन किया था. उसे टाइम पास करने के लिए कोई जौब चाहिए. मुझ से मदद मांग रही थी.’’

‘‘फिर तुम ने क्या कहा?’’

‘‘1-2 लोगों से कहा है… देखो, कहां बात बनती है.’’

‘‘मगर तुम्हें क्या जरूरत है किसी पचड़े में पड़ने की?’’

‘‘अरे यार, इंसानियत नाम की भी कोई चीज होती है या नहीं… चलो छोड़ो, तुम बढि़या सी चाय पिलाओ,’’ कहते हुए जतिन ने बात खत्म कर दी.

मगर यह बात इतनी आसानी से कहां खत्म होने वाली थी. विनीता के कानों में रहरह कर शालिनी की चैलेंज देती आवाज गूंज रही थी. अब उस के पास शालिनी के फोन आने बंद हो गए थे. इस बात ने भी विनीता की रातों की नींद उड़ा दी थी.

‘‘अब तो सीधे जतिन को ही कौल करती होगी… मैं तो शायद कबाब में हड्डी हो चुकी हूं,’’ विनीता अपनेआप से ही बातें करती परेशान होती रहती. इन सब के फलस्वरूप वह कुछ बीमार भी रहने लगी थी.

‘‘मेरे कहने पर एक होटल में शालिनी को एचआर की जौब मिल गई. इस खुशी में वह आज मुझे इसी होटल में ट्रीट देना चाहती है… तुम चलोगी?’’ एक शाम जतिन ने घर आते ही कहा.

‘‘पूछ रहे हो या चलने को कह रहे हो?’’ विनीता भीतर ही भीतर सुलग रही थी.

‘‘आजकल तुम्हें बाहर का खाना सूट नहीं करता न, इसलिए पूछ रहा हूं,’’ जतिन ने सहजता से कहा.

विनीता कुछ नहीं बोली. चुपचाप हारे हुए खिलाड़ी की तरह जतिन को अपने से दूर जाते देखती रही.

धीरेधीरे उस ने चुप्पी ही साथ ली. उस ने जतिन से दूरी बढ़ानी शुरू करदी. उन के रिश्ते में ठंडापन आने लगा. वह मन ही मन अपनेआप को जतिन से तलाक के लिए तैयार करने लगी. वहीं जतिन इसे उस की बीमारी के लक्षण समझ कर बहुत ही सामान्य रूप से ले रहा था. हमेशा की तरह वह उसे घर आते ही औफिस से जुड़ी मजेदार बातें बताता था. इन दिनों उस की बातों में शालिनी का जिक्र भी होने लगा था. हालांकि शालू कभी उन के घर नहीं आई, मगर जतिन के अनुसार वह कभीकभार उस से मिलने औफिस आ जाती. वह भी 1-2 बार उस के बुलावे पर होटल गया था.

जतिन की साफगोई के विपरीत विनीता इसे अपने खिलाफ शालिनी की साजिश समझ रही थी. भीतर ही भीतर घुटती विनीता आखिरकार एक दिन हौस्पिटल के बिस्तर पर पहुंच गई. जतिन घबरा गया. वह समझ नहीं पा रहा था कि हंसतीखेलती विन्नी को अचानक क्या हो गया है. ठीक है वह पिछले दिनों कुछ परेशान थी, मगर स्थिति इतनी बिगड़ जाएगी, यह उस ने कल्पना भी नहीं की थी. जतिन उस का अच्छे से अच्छा इलाज करवा रहा था. जतिन की गैरमौजूदगी में एक दिन अचानक शालिनी उस से मिलने हौस्पिटल आई. विन्नी अनजाने डर से सिहर गई.

‘‘थैंक यू विन्नी, तुम्हारी बीमारी ने मेरा रास्ता बहुत आसान कर दिया… तुम जतिन से जितनी दूर जाओगी, वह उतना ही मेरे करीब आएगा…’’ शालिनी ने बेशर्मी से कहा. उस ने जतिन के साथ अपनी कुछ सैल्फियां भी उसे दिखाईं जिन में वह उस के साथ मुसकरा रहा था, साथ ही कुछ मनगढ़ंत चटपटे किस्से भी परोस दिए. शालू की बातें देखसुन कर विनीता ने मन ही मन इस रिश्ते के सामने हथियार डाल दिए.

‘‘जतिन, तुम शालू को अपना लो… अब तो तलाक की बाध्यता भी नहीं रहेगी… मैं ज्यादा दिन तुम्हें परेशान नहीं करूंगी…’’

विनीता के मुंह से ऐसी बात सुन कर जतिन चौंक गया. बोला, ‘‘आज तुम ये कैसी पागलों सी बातें कर रही हो? और यह शालू कहां से आ गई हमारे बीच में?’’

‘‘तुम्हें मुझ से कुछ भी छिपाने की जरूरत नहीं है. मुझे शालू ने सब बता दिया,’’ विन्नी ने किसी तरह अपनी सुबकाई रोकी, मगर आंखें तो फिर भी छलक ही उठीं.

‘‘तुम उस सिरफिरी शालू की बातों पर भरोसा कर रही हो मेरी बात पर नहीं… बस, इतना ही जानती हो अपने जतिन को? अरे, लाखों शालू भी आ जाएं तब भी मेरा फैसला तुम ही रहोगी… मगर शायद गलती तुम्हारी भी नहीं है… जरूर मेरे ही प्यार में कोई कमी रही होगी… मैं ही अपना भरोसा कायम नहीं रख पाया… मुझे माफ कर दो विन्नी… मगर इस तरह मुझ से दूर जाने की बात न करो…’’ जतिन भी रोने को हो आया.

‘‘यही सब बातें मैं अपनेआप को समझाने की बहुत कोशिश करती हूं. मगर दिल में कहीं दूर से आवाज आती है कि विन्नी तुम यह कैसे भूल रही हो कि शालू ही वह पहला नाम है जो जतिन ने अपने दिल पर लिखा था और फिर मैं दो कदम पीछे हट जाती हूं.’’

‘‘मुझे इस बात से इनकार नहीं कि शालू का नाम मेरे दिल पर लिखा था… मगर तुम्हारा नाम तो खुद गया है मेरे दिल पर… और खुदी हुई इबारतें कभी मिटा नहीं करतीं पगली…’’

‘‘तुम ने मुझे न केवल जिंदगी दी है,

बल्कि जीने के मकसद भी दिए हैं. तुम्हारे बिना न मैं कुछ हूं और न ही मेरी जिंदगी. अगर इस बीमारी की वजह शालू है, तो मैं आज इसे जड़ से ही खत्म कर देता हूं… अभी होटल के मालिक को फोन कर के शालू को नौकरी से हटाने को कह देता हूं, फिर जहां उस की मरजी हो चली जाए,’’ कह जतिन ने जेब से मोबाइल निकाला.

‘‘नहीं जतिन, रहने दीजिए… शायद सारी गलती मेरी ही थी… मुझे अपने प्यार पर भरोसा रखना चाहिए था… मगर मैं नहीं रख पाई… आशंकाओं के अंधेरे में भटक गई थी… मेरी आशंकाओं के बादल अब छंट चुके हैं… हमारे रिश्ते को किसी शालू से कोई खतरा नहीं…’’ विनीता मुसकरा दी.

तभी जतिन का मोबाइल बज उठा. शालिनी कौलिंग देख कर वह मुसकरा दिया. उस ने मोबाइल को स्पीकर पर कर दिया.

‘‘हैलो जतिन, फ्री हो तो क्या हम कौफी साथ पी सकते हैं? वैसे भी विन्नी तो हौस्पिटल में है… आ जाओ,’’ शालिनी ने मचलते हुए कहा.

‘‘विन्नी कहीं भी हो, हमेशा मेरे साथ मेरे दिल में होती है. और हां, यदि तुम ने मुझे ले कर कोई गलतफहमी पाल रखी है तो प्लीज भूल जाओ… तुम मेरी विन्नी की जगह कभी नहीं ले सकती… नाऊ बाय…’’ जतिन बहुत संयत था.

‘‘बाय ऐंड थैंक्स शालू… हमारे रिश्ते को और भी ज्यादा मजबूत बनाने के लिए…,’’ विन्नी भी खिलखिला कर जोर से बोली और फिर जतिन ने फोन काट दिया. दोनों देर तक एकदूसरे का हाथ थामे अपने रिश्ते की गरमाहट महसूस करते रहे.’’

दुनिया नई पुरानी : एक परिवार ऐसा भी

एक सीधीसादी, संतुष्ट जिंदगी जी रहा था जनार्दन का परिवार. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था लेकिन एक दिन ऐसा जलजला आया जो परिवार की सारी खुशियां बहा ले गया.

पदोन्नति के साथ जनार्दन का तबादला किया गया था. अब वे सीनियर अध्यापक थे. दूरदराज के गांवों में 20 वर्षों का लंबा सेवाकाल उन्होंने बिता दिया था. उन की पत्नी शहर आने पर बहुत खुश थी. गांव की अभावभरी जिंदगी से वह ऊब चुकी थी. अपने बच्चों को पढ़ानेलिखाने में जनार्दन व उन की पत्नी ने खूब ध्यान दिया था.

उन की 2 बेटियां और एक बेटा था. बड़ी का नाम मालती, मंझली मधु और छोटे बेटे का नाम दीपू था. मालती सीधीसादी मगर गंभीर स्वभाव की, तो मधु थोड़ी जिद्दी व शरारती थी, जबकि दीपू थोड़ा नटखट था.

मालती बीए की पढ़ाई कर रही थी, मधु 11वीं में पढ़ रही थी और दीपू तीसरी कक्षा में पढ़ रहा था. समय बीत रहा था.

वहां गांव में जनार्दन पैदल ही स्कूल जातेआते थे. यहां शहर में आ कर उन्होंने बाइक ले ली थी. जिस पर छुट्टी के दिन श्रीमतीजी को बैठा कर जनार्दन शौपिंग करने या घूमने जाते थे. उन की पत्नी दुपहिया वाहन में सैर कर फूले न समाती. कभीकभी दीपू भी जिद कर मांबाप के बीच बैठ कर सवारी का आनंद ले लेता था.

मधु विज्ञान विषय ले कर पढ़ रही थी. जनार्दन ने शहर के एक ट्यूशन सैंटर में भी अब उस का दाखिला करवा दिया था. वह बस से आयाजाया करती. दीपू को जनार्दन खुद स्कूल छोड़ जाया करते और लौटते समय ले आते. एक व्यवस्थित ढर्रे पर जीवन चल रहा था.

नई कालोनी में आ कर जनार्दन की पत्नी बच्चों के लालनपालन में तल्लीन थी. दिन के बाद रात, रात के बाद दिन. समय कट रहा था. बेहद घरेलू टाइप की महिला थी वह. एक ऐसी आम भारतीय महिला जिस का सबकुछ उस का पति, बच्चे व घर होता है. मां का यह स्वभाव बड़ी बेटी को ही मिला था.

मधु ट्यूशन खत्म होते ही बस से ही लौटती. कालोनी के पास ही बस का स्टौप था. ट्यूशन सैंटर के पास एक ढाबा था. शहर के लड़के और बाबू समुदाय अपने खाने का शौक पूरा करने वहां आते थे. एक दिन यहीं पर मधु सड़क पार कर बसस्टौप के लिए जा रही थी, एक कार टर्न लेते हुए मधु के एकदम पास आ कर रुकी. मधु घबरा गई थी. वह पीछे हट गई. कारचालक ने कार किनारे पार्क की और मधु के पास आया, बोला, ‘‘मैडम, सौरी, मैं जरा जल्दी में था.’’  दोनों की आंखें चार हुईं.

‘‘दिखाई नहीं देता क्या,’’ वह गुस्से से बोली.

‘‘अब एकदम ठीक दिखाई देता है मैडम.’’ उस ने मधु की आंखों में आंखें डालते हुए कहा.

‘‘नौनसैंस,’’ मधु ने उसे गुस्से से देख कर कहा.

फिर मधु बसस्टौप की तरफ बढ़ चली. वह उसे जाता हुआ देखता रहा. उस का नाम था शैलेश. शहर के एक कपड़े के व्यापारी का बेटा. अब तो शैलेश अकसर ट्यूशन सैंटर के पास दिखता- कभी ढाबे से निकलते हुए, कभी कार खड़ी कर इंतजार करते हुए. फिर वही हुआ जो ऐसे में होता है. एक शरारत पहचान में, पहचान दोस्ती में, और फिर दोस्ती प्यार में बदल गई.

बस की जगह अब मधु कार या कभी बाइक में ट्यूशन से लौटती. मधु के मातापिता इस बात से अनजान थे. लेकिन कालोनी के एक अशोकन सर को सबकुछ पता था. इधर अशोकन सर

शाम की चहलकदमी को निकलते और कालोनी से कुछ कदम दूर मधु कार से कभी बाइक से उतरती, दबेपांव धीरेधीरे घर की ओर जाती. इन की हायबाय उन्होंने कितनी ही बार देखी.

मां तो यही सोचती कि उस की बेटी सयानी है, विज्ञान की छात्रा है, एक दिन उसे डाक्टर बनना है. वह एक मौडर्न लड़की है. दुनिया में आजकल यही तो चाहिए. पिता को घर की जिम्मेदारियों से फुरसत कहां मिलती है भला.

लेकिन मधु के प्यार की भनक मालती को लग गई थी. उस के फोनकौल्स अब ज्यादा ही आ रहे थे. जब देखो मोबाइल फोन कान से लगाए रहती. एक शाम जब वह काफी देर बातें कर चुकी, तो मालती ने पूछा, ‘‘मधु, कौन था वह जिस से तुम इतनी हंसहंस कर बातें कर रही थी? तुम कहीं ऐसेवैसे के चक्कर में तो नहीं पड़ गईं. अपनी पढ़ाई का खयाल रखना.’’

मधु ने जवाब में कहा, ‘‘नहीं दीदी, ऐसीवैसी कोई बात नहीं है.’’

आखिर एक दिन उस ने दीदी को बता ही दिया कि वह शैलेश से प्यार करने लगी है. वह अच्छा लड़का है.’’

मालती ने मन में सोचा, ‘शायद यह सब सच हो.’

एक दिन अचानक मुख्यभूमि से जनार्दन के पास फोनकौल आई.

उन्हें अपने पैतृक गांव जाना पड़ा. उन के मित्र वेंकटेश ने फौरन उन के विमान टिकट का बंदोबस्त किया. पापामम्मी दोनों को जाना था. ज्यों ही मम्मीपापा गए, मधु ने दीदी से कहा कि वह 2-3 दिनों के लिए चेन्नई जाना चाहती है. शैलेश 2-3 दिनों के लिए अपने बिजनैस के सिलसिले में चेन्नई जाएगा. वह उसे भी साथ ले जाना चाहता है.

‘‘दीदी, तू साथ दे दे. बस, 2-3 दिनों की ही तो बात है.’’

मालती अवाक रह गई. मगर वह क्या कर पाती भला. उस की ख्वाहिश और बारबार यह आश्वासन कि शैलेश बहुत अच्छा लड़का है, वह उस से शादी करने को राजी है. मालती ने उसे इजाजत दे दी. शैलेश के साथ विमान से मधु चेन्नई चली गई. मालती का जैसे दिन का चैन और रातों की नींद उड़ गई थी. पता नहीं क्या हो जाए. लेकिन चौथे दिन वह शैलेश के साथ लौट आई थी. टूरिस्ट सीजन की वजह से उन्हें किसी ने ज्यादा नोटिस नहीं किया था.

एक सप्ताह के बाद मम्मीपापा मुख्यभूमि से लौट आए थे. गांव की पुश्तैनी जमीन का उन का हिस्सा उन्हें मिलने वाला था. मम्मीपापा के लौट आने पर मालती का मन बेहद हलका हो गया था.

समय गुजरता जा रहा था. जनार्दन और उन की पत्नी बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए दिनरात एक कर रहे थे. मालती अब बीए पास कर चुकी थी. वह आगे पढ़ने की सोच रही थी. दीपू 7वीं कक्षा में पहुंच गया था और मधु अब कालेज में पढ़ रही थी.

आधुनिक खयाल की लड़की होने के कारण मधु के पहनावे भी आधुनिक थे. उस की सहेलियां अमीर घरों की थीं. उन लड़कियों के बीच एक नाम बहुत ही सुनाई देता था- बबलू. वैसे उस का सही नाम जसवंत था. बबलू कभी अकेला नहीं घूमता था, 3-4 चेले हमेशा उसे घेरे रहते. क्यों न हों, वह शहर के एक प्रभावी नेता का बेटा जो था. ऊपर से वह तबीयत का भी रंगीन था. उस ने जब मधु को देखा, तो देखता ही रह गया उस की गोरी काया और भरपूर यौवन को. पर मधु भला उस पर क्यों मोहित होती, वह तो शैलेश की दीवानी थी. जब कभी कक्षाएं औफ होतीं तो मधु अपना समय शैलेश के साथ ही बिताती, कभी किसी पार्क या किसी दूसरी जगह पर.

जर्नादन और वेंकटेश की दोस्ती अब पारिवारिक बंधन में बदलने जा रही थी. वेंकटेश के बेटे को मालती बहुत पसंद थी. पिछले बरस उस ने अपनी सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की थी और उस की सरकारी नौकरी भी लग गई थी.

एक सुबह वेंकटेश और उन की पत्नी अपने बेटे का रिश्ता मालती के लिए ले कर आ गए थे. और अगले फागुन में शादी की तिथि निकल आई थी. मालती शादी के बाद भी पढ़ाई करे, उन्हें एतराज नहीं था. मां यही तो चाहती थी कि उस की बेटी को अच्छी ससुराल मिले.

इधर, मधु कालेज में अपनी सहेलियों की मंडली में हंसतीखेलती व चहकती रहती. क्लास न होने पर कैंटीन में समय बिताती या लाइब्रेरी में पत्रिकाएं उलटतीपलटती. कभीकभार शैलेश उसे पार्क में बुला लेता. बबलू तो बस हाथ मसोस कर रह जाता. वैसे, बहुत बार उस ने मधु को आड़ेहाथों लेने की कोशिश की थी.

वह गांधी जयंती की सुबह थी. कालेज में हर वर्ष की तरह राष्ट्रपिता की जयंती मनाने का प्रबंध बहुत ही अच्छे तरीके से किया गया था. लड़कियां रंगबिरंगे कपड़ों में कालेज के कैंपस और पंडाल में आजा रही थीं. तभी, बबलू की टोली ने देखा कि मधु शैलेश की कार में बैठ रही है.

अक्तूबर का महीना. सूरज की किरणों में गरमी बढ़ रही थी. शहर से दूर समुद्र के किनारे एक पेड़ के तने से लगे मधु और शैलेश बैठे हुए थे. शैलेश का सिर मधु की गोद में था और मधु की उंगलियां उस के बालों से खेल रही थीं. जब भी दोनों को मौका मिलता तो शहर से दूर दोनों एकदूसरे की बांहों में समा जाते. तभी, शैलेश ने जमीन पर फैले पत्तों में किसी के पैरों की पदचाप सुनी और वह उठ गया, देखा कि सामने एक नौजवान खड़ा है और उस के पीछे 3 और लड़के. मधु ने देखा, वह बबलू था.

और अगले क्षण बबलू ने मधु को हाथों में जकड़ लिया. बब्लू ने मधु को उस की गिरफ्त से छुड़ाना चाहा और पूछा, ‘‘तुम लोग कौन हो और इस बदतमीजी का मतलब…’’ बात अभी पूरी भी न हो पाई थी कि बबलू के बूटों का एक प्रहार उस की कमर पर पड़ा. वह उठ कर भिड़ना ही चाहता था कि बबलू का एक सख्त घूंसा उस के गाल पर पड़ा.

बबलू के इशारे पर 2 लड़कों ने उसे पीटना शुरू कर दिया. शैलेश ने मधु को अपनी बलिष्ठ बांहों में उठा लिया और पास ही के जंगल की ओर बढ़ चला. मधु प्रतिवाद करती रही. बबलू का तीसरा सहायक भी उन के पीछे पहुंच गया था.

शाम तक मधु के न लौटने पर जनार्दन व उन के घर वाले घोर चिंता में घिर गए. उन्होंने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा दी. मालती अनजाने भय से अंदर ही अंदर घबरा रही थी.

अगले दिन यह खबर जंगली आग की तरह फैल गई थी कि शहर से दूर जंगल में एक लड़की का शव और समुद्र के किनारे एक लड़का घायल अवस्था में मिला है. पुलिस हरकत में आई. उस ने शव को अस्पताल पहुंचा दिया और घायल लड़के को अस्पताल में भरती करा दिया.

जनार्दन को पुलिस ने अस्पताल बुला लिया था शिनाख्त के लिए. जब पुलिस अधिकारी ने शव के मुंह से कपड़ा हटाया, जनार्दन के मुंह से चीख निकल गई. वे वहीं गिर पड़े.

दोपहर तक शव कालोनी में लाया गया. कालोनी के लिए वह दिन शोक का था. सभी जनार्दन परिवार के दुख में शामिल थे. मां का रो कर बुरा हाल था, छोटे दीपू को जैसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था. मालती दहाड़ें मारमार कर रो रही थी. जर्नादन के लिए सबकुछ एक अबूझ पहेली की तरह था. उन के सपनों का महल धराशायी हो गया था. रोरो कर उन का भी बुरा हाल था.

मालती के सिवा कौन जानता था कि मधु के जीवन के ऐसे अंत के लिए मालती भी तो जिम्मेदार थी. काश, शुरू से उस ने उसे बढ़ावा न दिया होता और मांपिताजी को सबकुछ बता दिया होता. दहाड़े मार कर रोती मालती को अड़ोसीपड़ोसी ढांढ़स बंधा रहे थे.

फैसला: कैसा था शादीशुदा रवि और तलाकशुदा सविता का प्यार

मैं अपने सहयोगियों के साथ औफिस की कैंटीन में बैठा था कि अचानक सविता दरवाजे पर नजर आई. खूबसूरती के साथसाथ उस में गजब की सैक्स अपील भी है. जिस की भी नजर उस पर पड़ी, उस की जबान को झटके से ताला लग गया.

‘‘रवि, लंच के बाद मुझ से मिल लेना,’’ यह मुझ से दूर से ही कह कर वह अपने रूम की तरफ चली गई.

मेरे सहयोगियों को मुझे छेड़ने का मसाला मिल गया. ‘तेरी तो लौटरी निकल आई है, रवि… भाभी तो मायके में हैं. उन्हें क्या पता कि पतिदेव किस खूबसूरत बला के चक्कर में फंसने जा रहे हैं… ऐश कर ले सविता के साथ. हम अंजू भाभी को कुछ नहीं बताएंगे…’ उन सब के ऐसे हंसीमजाक का निशाना मैं देर तक बना रहा.हमारे औफिस में तलाकशुदा सविता की रैपुटेशन बड़ी अजीब सी है. कुछ लोग उसे जबरदस्त फ्लर्ट स्त्री मानते हैं और उन की इस बात में मैं ने उस का नाम 5-6 ऐसे पुरुषों से जुड़ते देखा है, जिन्हें सीमित समय के लिए ही उस के प्रेमियों की श्रेणी में रखा  जा सकता है. उन में से 2 उस के आज भी अच्छे दोस्त हैं. बाकियों से अब उस की साधारण दुआसलाम ही है.

सविता के करीब आने की इच्छा रखने वालों की सूची तो बहुत लंबी होगी, पर वह इन दिलफेंक आशिकों को बिलकुल घास नहीं डालती. उस ने सदा अपने प्रेमियों को खुद चुना है और वे हमेशा विवाहित ही रहे हैं. मैं तो पिछले 2 महीनों से अपनी विवाहित जिंदगी में आई टैंशन व परेशानियों का शिकार बना हुआ था. अंजू 2 महीने से नाराज हो कर मायके में जमी हुई थी. अपने गुस्से के चलते मैं ने न उसे आने को कहा और न ही लेने गया. समस्या ऐसी उलझी थी कि उसे सुलझाने का कोई सिरा नजर नहीं आ रहा था. मेरा अंदाजा था कि सविता ने मुझे पिछले दिनों जरूरत से ज्यादा छुट्टियां लेने की सफाई देने को बुलाया है. तनाव के कारण ज्यादा शराब पी लेने से सुबह टाइम से औफिस आने की स्थिति में मैं कई बार नहीं रहा था. लंच के बाद मैं ने सविता के कक्ष में कदम रखा, तो उस ने बड़ी प्यारी, दिलकश मुसकान होंठों पर ला कर मेरा स्वागत किया.

‘‘हैलो, रवि, कैसे हो?’’ कुरसी पर बैठने का इशारा करते हुए उस ने दोस्ताना लहजे में वार्त्तालाप आरंभ किया.

‘‘अच्छा हूं, तुम सुनाओ,’’ आगे झूठ बोलने के लिए खुद को तैयार करने के चक्कर में मैं कुछ बेचैन हो गया था.

‘‘तुम से एक सहायता चाहिए.’’

अपनी हैरानी को काबू में रखते हुए मैं ने पूछा, ‘‘मैं क्या कर सकता हूं तुम्हारे लिए?’’

‘‘कुछ दिन पहले एक पार्टी में मैं तुम्हारे एक अच्छे दोस्त अरुण से मिली थी. वह तुम्हारे साथ कालेज में पढ़ता था.’’

‘‘वह जो बैंक में सर्विस करता है?’’

‘‘हां, वही. उस ने बताया कि तुम बहुत अच्छा गिटार बजाते हो.’’

‘‘अब उतना अच्छा अभ्यास नहीं रहा है,’’ अपने इकलौते शौक की चर्चा छिड़ जाने पर मैं मुसकरा पड़ा.

‘‘मेरे दिल में भी गिटार सीखने की तीव्र इच्छा पैदा हुई है, रवि. प्लीज कल शनिवार को मुझे एक अच्छा सा गिटार खरीदवा दो.’’

बड़े अपनेपन से किए गए सविता के आग्रह को टालने का सवाल ही नहीं उठता था. मैं ने उस के साथ बाजार जाना स्वीकार किया, तो वह किसी बच्चे की तरह खुश हो गई.

‘‘अंजू मायके गई हुई है न?’’

‘‘हां,’’ अपनी पत्नी के बारे में सवाल पूछे जाने पर मेरे होंठों से मुसकराहट गायब हो गई.

‘‘तब तो तुम कल सुबह नाश्ता भी मेरे साथ करोगे. मैं तुम्हें गोभी के परांठे खिलाऊंगी.’’

‘‘अरे, वाह. तुम्हें कैसे मालूम कि मैं उन का बड़ा शौकीन हूं?’’

‘‘तुम्हारे दोस्त अरुण ने बताया था.’’

‘‘मैं कल सुबह 9 बजे तक पहुंचूं?’’

‘‘हां, चलेगा.’’

सविता ने दोस्ताना अंदाज में मुसकराते हुए मुझे विदा किया. मेरे आए दिन छुट्टी लेने के विषय पर चर्चा ही नहीं छिड़ी थी, लेकिन अपने सहयोगियों को मैं सच्ची बात बता देता, तो वे मेरा जीना मुश्किल कर देते. इसलिए उन से बोला, ‘‘ज्यादा छुट्टियां न लेने के लिए लैक्चर सुन कर आ रहा हूं.’’ यह झूठ बोल कर मैं अपने काम में व्यस्त हो गया. पिछले 2 महीनों में वह पहली शुक्रवार की रात थी जब मैं शराब पी कर नहीं सोया. कारण यही था कि मैं सोते रह जाने का खतरा नहीं उठाना चाहता था. सविता के साथ पूरा दिन गुजारने का कार्यक्रम मुझे एकाएक जोश और उत्साह से भर गया था. पिछले 2 महीनों से दिलोदिमाग पर छाए तनाव और गुस्से के बादल फट गए थे. कालेज के दिनों में जब मैं अपनी गर्लफ्रैंड से मिलने जाता था, तब बड़े सलीके से तैयार होता था. अगले दिन सुबह भी मैं ढंग से तैयार हुआ. ऐसा उत्साह और खुशी दिलोदिमाग पर छाई थी, मानो पहली डेट पर जा रहा हूं. सविता पर पहली नजर पड़ी तो उस के रंगरूप ने मेरी आंखें ही चौंधिया दीं. नीली जींस और काले टौप में वह बहुत आकर्षक लग रही थी. उस पल से ही उस जादूगरनी का जादू मेरे सिर चढ़ कर बोलने लगा. दिल की धड़कनें बेकाबू हो चलीं. मैं उस के इशारे पर नाचने को एकदम तैयार था. फिर हंसीखुशी के साथ बीतते समय को जैसे पंख लग गए. कब सुबह से रात हुई, पता ही नहीं चला.

सविता जैसी फैशनेबल, आधुनिक स्त्री से खाना बनाने की कला में पारंगत होने की उम्मीद कम होती है, लेकिन उस सुबह उस के बनाए गोभी के परांठे खा कर मन पूरी तरह तृप्त हो गया. प्यारी और मीठीमीठी बातें करना उसे खूब आता था. कई बार तो मैं उस का चेहरा मंत्रमुग्ध सा देखता रह जाता और उस की बात बिलकुल भी समझ में नहीं आती.

‘‘कहां हो, रवि? मेरी बात सुन नहीं रहे हो न?’’ वह नकली नाराजगी दर्शाते हुए शिकायत करती और मैं बुरी तरह झेंप उठता.

मैं ने उसे स्वादिष्ठ परांठे खिलाने के लिए धन्यवाद दिया तो उस ने सहजता से मुसकराते हुए कहा, ‘‘किसी अच्छे दोस्त के लिए कुकिंग करना मुझे पसंद है. मुझे भी बड़ा मजा आया है.’’

‘‘मुझे तुम अपना अच्छा दोस्त मानती हो?’’

‘‘बिलकुल,’’ उस ने तुरंत जवाब दिया.

‘‘कब से?’’

‘‘इस सवाल से ज्यादा महत्त्वपूर्ण एक दूसरा सवाल है, रवि.’’

‘‘कौन सा?’’

‘‘क्या तुम आगे भी मेरे अच्छे दोस्त बने रहना चाहोगे?’’ उस ने मेरी आंखों में गहराई से झांका.

‘‘बिलकुल बना रहना चाहूंगा, पर क्या मुझे कुछ खास करना पड़ेगा तुम्हारी दोस्ती पाने के लिए?’’

‘‘शायद… लेकिन इस विषय पर हम बाद में बातें करेंगे. अब गिटार खरीदने चलें?’’ सवाल का जवाब देना टाल कर सविता ने मेरी उत्सुकता को बढ़ावा ही दिया.

हमारे बीच बातचीत बड़ी सहजता से हो रही थी. हमें एकदूसरे का साथ इतना भा रहा था कि कहीं भी असहज खामोशी का सामना नहीं करना पड़ा. हमारे बीच औफिस से जुड़ी बातें बिलकुल नहीं हुईं. टीवी सीरियल, फिल्म, खेल, राजनीति, फैशन, खानपान जैसे विषयों पर हमारे बीच दिलचस्प चर्चा खूब चली. उस ने अंजू से जुड़ा कोई सवाल मुझ से पूछ कर बड़ी कृपा की. हां, उस ने अपने भूतपूर्व पति संजीव से अपने संबंधों के बारे में, मेरे बिना पूछे ही जानकारी दे दी.

‘‘संजीव से मेरा तलाक उस की जिंदगी में आई एक दूसरी औरतके कारण हुआ था, रवि. वह औरत मेरी भी अच्छी सहेली थी,’’ अपने बारे में बताते हुए सविता दुखी या परेशान बिलकुल नजर नहीं आ रही थी.

‘‘तो पति ने तुम्हारी सहेली के साथ मिल कर तुम्हें धोखा दिया था?’’ मैं ने सहानुभूतिपूर्ण लहजे में टिप्पणी की.

‘‘हां, पर एक कमाल की बात बताऊं?’’

‘‘हांहां.’’

‘‘मुझे पति से खूब नाराजगी व शिकायत रही. पर वंदना नाम की उस दूसरी औरत के प्रति मेरे दिल में कभी वैरभाव नहीं रहा.’’

‘‘ऐसा क्यों?’’

‘‘वंदना का दिल सोने का था, रवि. उस के साथ मैं ने बहुत सारा समय हंसतेमुसकराते गुजारा था. यदि उस ने वह गलत कदम न उठाया होता तो वह मेरी सब से अच्छी दोस्त होती.’’

‘‘लगता है तुम्हें पति से ज्यादा अपनी जिंदगी में वंदना की कमी खलती है?’’

‘‘अच्छे दोस्त बड़ी मुश्किल से मिलते हैं, रवि. शादी कर के एक पति या पत्नी तो हर कोई पा लेता है.’’

‘‘यह तो बड़े पते की बात कही है तुम ने.’’

‘‘कोई बात पते की तभी होती है जब उस का सही महत्त्व भी इंसान समझ ले. बोलबोल कर मेरा गला सूख गया है. अब कुछ पिलवा तो दो, जनाब,’’ बड़ी कुशलता से उस ने बातचीत का विषय बदला और मेरी बांह पकड़ कर एक रेस्तरां की दिशा में बढ़ चली.

उस के स्पर्श का एहसास देर तक मेरी नसों में सनसनाहट पैदा करता रहा. सविता की फरमाइश पर हम ने एक फिल्म भी देख डाली. हौल में उस ने मेरा हाथ भी पकड़े रखा. मैं ने एक बार हिम्मत कर उस के बदन के साथ शरारत करनी चाही, तो उस ने मुझे प्यार से घूर कर रोक दिया. ‘‘शांति से बैठो और मूवी का मजा लो रवि,’’ उस की फुसफुसाहट में कुछ ऐसी अदा थी कि मेरा मन जरा भी मायूसी और चिढ़ का शिकार नहीं बना.

लंच हम ने एक बढि़या होटल में किया. फिर अच्छी देखपरख के बाद गिटार खरीदने में मैं ने उस की मदद की. उस के दिल में अपनी छवि बेहतर बनाने के लिए वह गिटार मैं उसे अपनी तरफ से उपहार में देना चाहता था, पर वह राजी नहीं हुई.

‘‘तुम चाहो तो मुझे गिटार सिखाने की जिम्मेदारी ले सकते हो,’’ वह बोली तो उस के इस प्रस्ताव को सुन कर मैं फिर से खुश हो गया.

जब हम सविता के घर वापस लौटे, तो रात के 8 बजने वाले थे. उस ने कौफी पिलाने की बात कह कर मेरी और ज्यादा समय उस के साथ गुजारने की इच्छा पूरी कर दी. वह कौफी बनाने किचन में गई तो मैं भी उस के पीछेपीछे किचन में पहुंच गया. उस के नजदीक खड़ा हो कर मैं ऊपर से हलकीफुलकी बातें करने लगा, पर मेरे मन में अजीब सी उत्तेजना लगातार बढ़ती जा रही थी. अंजू के प्यार से लंबे समय तक वंचित रहा मेरा मन सविता के सामीप्य की गरमाहट को महसूस करते हुए दोस्ती की सीमा को तोड़ने के लिए लगभग तैयार हो चुका था. तभी सविता ने मेरी तरफ घूम कर मुझे देखा. उस ने जरूर मेरी प्यासी नजरों को पढ़ लिया होगा, क्योंकि अचानक मेरा हाथ पकड़ कर वह मुझे ड्राइंगरूम की तरफ ले चली.

मैं ने रास्ते में उसे बांहों में भरने की कोशिश की, तो उस ने बिना घबराए मुझ से कहा, ‘‘रवि, मैं तुम से कुछ खास बातें करना चाहती हूं. उन बातों को किए बिना तुम को मैं दोस्त से प्रेमी नहीं बना सकती हूं.’’ उसे नाराज कर के कुछ करने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता था. मैं अपनी भावनाओं को नियंत्रण में कर के ड्राइंगरूम में आ बैठा और सविता बेहिचक मेरी बगल में बैठ गई.

मेरा हाथ पकड़ कर उस ने हलकेफुलके अंदाज में पूछा, ‘‘मेरे साथ आज का दिन कैसा गुजरा है, रवि?’’

‘‘मेरी जिंदगी के सब से खूबसूरत दिनों में से एक होगा आज का दिन,’’ मैं ने सचाई बता दी.

‘‘तुम आगे भी मुझ से जुड़े रहना चाहोगे?’’

‘‘हां… और तुम?’’ मैं ने उस की आंखों में गहराई तक झांका.

‘‘मैं भी,’’ उस ने नजरें हटाए बिना जवाब दिया, ‘‘लेकिन अंजू के विषय में सोचे बिना हम अपने संबंधों को मजबूत आधार नहीं दे सकते.’’

‘‘अंजू को बीच में लाना जरूरी है क्या?’’ मेरा स्वर बेचैनी से भर उठा.

‘‘तुम उसे दूर रखना चाहोगे?’’

‘‘हां.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘वह तुम्हें मेरी प्रेमिका के रूप में स्वीकार नहीं करेगी.’’

‘‘और तुम मुझे अपनी प्रेमिका बनाना चाहते हो?’’

‘‘क्या तुम ऐसा नहीं चाहती हो?’’ मेरी चिढ़ बढ़ रही थी.

कुछ देर खामोश रहने के बाद उस ने गंभीर लहजे में बोलना शुरू किया, ‘‘रवि, लोग मुझे फ्लर्ट मानते हैं और तुम्हें भी जरूर लगा होगा कि मैं तुम्हें अपने नजदीक आने का खुला निमंत्रण दे रही हूं. इस बात में सचाई है क्योंकि मैं चाहती थी कि तुम मेरा आकर्षण गहराई से महसूस करो. ऐसा करने के पीछे मेरी क्या मंशा है, मैं तुम्हें बताऊंगी. पर पहले तुम मेरे एक सवाल का जवाब दो, प्लीज.’’

‘‘पूछो,’’ उस को भावुक होता देख मैं भी संजीदा हो उठा.

‘‘क्या तुम अंजू को तलाक देने का फैसला कर चुके हो?’’

‘‘बिलकुल नहीं,’’ मैं ने चौंकते हुए जवाब दिया.

‘‘मुझे तुम्हारे दोस्त अरुण से मालूम पड़ा कि अंजू तुम से नाराज हो कर पिछले 2 महीने से मायके में रह रही है. तुम उसे वापस क्यों नहीं ला रहे हो?’’

‘‘हमारे बीच गंभीर मनमुटाव चल रहा है. उस को अपनी जबान…’’

‘‘मुझे पूरा ब्योरा बाद में बताना रवि, पर क्या तुम्हें उस की याद नहीं आती है?’’ सविता ने मुझे कोमल लहजे में टोक कर सवाल पूछा.

‘‘आती है… जरूर आती है, पर ताली एक हाथ से तो नहीं बज सकती है, सविता.’’

‘‘तुम्हारी बात ठीक है, पर मिल कर साथ रहने का आनंद तो तुम दोनों ही खो रहे हो न?’’

‘‘हां, पर…’’

‘‘देखो, कुसूरवार तो तुम दोनों ही होंगे… कम या ज्यादा की बात महत्त्वपूर्ण नहीं है, रवि. इस मनमुटाव के चलते जिंदगी के कीमती पल तो तुम दोनों ही बेकार गवां रहे हो या नहीं?’’

‘‘तुम मुझे क्या समझाना चाह रही हो?’’ मेरा मूड खराब होता जा रहा था.

‘‘रवि, मेरी बात ध्यान से सुनो,’’ सविता का स्वर अपनेपन से भर उठा, ‘‘आज तुम्हारे साथ सारा दिन मौजमस्ती के साथ गुजार कर मैं ने तुम्हें अंजू की याद दिलाने की कोशिश की है. उस से दूर रह कर तुम उन सब सुखसुविधाओं से खुद को वंचित रख रहे हो जिन्हें एक अपना समझने वाली स्त्री ही तुम्हें दे सकती है.

‘‘मेरा आए दिन ऐसे पुरुषों से सामना होता है, जो अपनी अच्छीखासी पत्नी से नहीं, बल्कि मुझ से संबंध बनाने को उतावले नजर आते हैं

‘‘मेरे साथ उन का जैसा रोमांटिक और हंसीखुशी भरा व्यवहार होता है, अगर वैसा ही अच्छा व्यवहार वे अपनी पत्नियों के साथ करें, तो वे भी उन्हें किसी प्रेमिका सी प्रिय और आकर्षक लगने लगेंगी.

‘‘तुम मुझे बहुत पसंद हो, पर मैं तुम्हें और अंजू दोनों को ही अपना अच्छा दोस्त बनाना चाहूंगी. हमारे बीच इसी तरह का संबंध हम तीनों के लिए हितकारी होगा.

‘‘तुम चाहो तो मेरे प्रेमी बन कर सिर्फ आज रात मेरे साथ सो सकते हो. लेकिन तुम ने ऐसा किया, तो वह मेरी हार होगी. कल से हम सिर्फ सहयोगी रह जाएंगे.

‘‘तुम ने दोस्त बनने का निर्णय लिया, तो मेरी जीत होगी. यह दोस्ती का रिश्ता हम तीनों के बीच आजीवन चलेगा, मुझे इस का पक्का विश्वास है.’’

‘‘बोलो, क्या फैसला करते हो, रवि? अंजू और अपने लिए मेरी आजीवन दोस्ती चाहोगे या सिर्फ 1 रात के लिए मेरी देह का सुख?’’

मुझे फैसला करने में जरा भी वक्त नहीं लगा. सविता के समझाने ने मेरी आंखें खोल दी थीं. मुझे अंजू एकदम से बहुत याद आई और मन उस से मिलने को तड़प उठा.

‘‘मैं अभी अंजू से मिलने और उसे वापस लाने को जा रहा हूं, मेरी अच्छी दोस्त.’’ मेरा फैसला सुन कर सविता का चेहरा फूल सा खिल उठा और मैं मुसकराता हुआ विदा लेने को उठ खड़ा हुआ

पिया बावरा : एक डाक्टर की दास्तान

घंटी बजते ही दरवाजे खोल दिए गए थे. डा. सुभाष गर्ग चुपचाप बाहर निकल गए. सब की तरह उन के हाथों में भी फावड़ाटोकरी थमा दिए गए थे.

सुभाष ने हैरत से अपने हाथों को देखा कि जिन में कल तक सिरिंज और आपरेशन के पतले नाजुक औजार होते थे अब उन में फावड़ा और कुदाल थमा दी गई.

‘‘क्यों डाक्टर, उठा तो पा रहे हो न?’’ एक कैदी ने मसखरी की, ‘‘अब यहां कोई नर्स तो मिलेगी नहीं जो अपने नाजुकनाजुक हाथों से आप को कैंचीछुरी थमाएगी.’’

सभी कैदियों को एक बड़ी चट्टान पर पहुंचा दिया गया और कहा गया कि यहां की चट्टानों को तोड़ना शुरू करो.

यह सुन कर सुभाष के पूरे शरीर में सिहरन सी दौड़ गई थी.

‘यह क्या हो गया मुझ से. कुछ भी बुरा करते समय आखिर ऐसे अंजाम के बारे में हम क्यों नहीं सोच पाते हैं?’ सुभाष मन ही मन अपने उस अतीत के लिए तड़प उठे जिस की वजह से आज वे जेल की सजा काट रहे हैं और अब कुछ हो भी नहीं सकता था. इतनी भारी कुदाल उठा कर पत्थर तोड़ना आसान नहीं था. डा. सुभाष गर्ग बहुत जल्दी थक गए. पहले पत्थर तोड़ना फिर उन्हें फावड़े की मदद से तसले में डालना. कुदाल की चार चोटों में ही उन की सांस फूल गई थी. काम रोक कर वहीं पत्थर पर बैठ कर वे सुस्ताने लगे. हीरालाल ने दूर से देखा और अपना काम रोक कर वहीं आ गया.

‘‘थक गए, डाक्टर?’’

सुभाष चुप रहे.

हीरालाल ने पूछा, ‘‘क्यों मारा था पत्नी को?’’

‘‘मैं ने नहीं मारा.’’

‘‘तो मरवाया होगा?’’ हीरालाल ने व्यंग्य से कहा.

डाक्टर चुप रहे.

‘‘बहुत सुंदर होगी वह जिस के लिए तुम ने पत्नी को मरवाया?’’ हीरा शरारत से बोला.

तभी एक सिपाही का कड़कदार स्वर गूंज उठा, ‘‘क्या हो रहा है. एक दिन आए हुआ नहीं कि कामचोरी शुरू हो गई,’’ और दोनों पर एकएक बेंत बरसा कर तुरंत काम करने का आदेश दिया.

बेंत लगते ही दर्द से तड़प उठे डाक्टर. अपनी हैसियत और हालात पर सोच कर उन की आंखें भर आईं. चुपचाप डाक्टर ने कुदाल उठा ली और काम में जुट गए.

जैसेतैसे शाम हुई. सभी कैदी अपनीअपनी कोठरी में पहुंचा दिए गए.

अपनी कोठरी में लेटेलेटे डा. सुभाष बारबार आंखें झपकाने की कोशिश कर रहे थे पर गंदी सीलन भरी जगह और नीची छत देख कर लग रहा था जैसे वह अभी सिर पर टपकने ही वाली है. 2 दिन पहले एक रिपोर्टर उन का इंटरव्यू लेने आई थी. उस ने प्रश्न किया था :

‘अपने प्यार को पाने के लिए क्या पत्नी का कत्ल जरूरी था? आप तलाक भी तो ले सकते थे?’

डाक्टर की यादों के मलबे में जाने कितने कांच और पत्थर दबे हुए थे. रात भर खयालों की हथेलियां उन पत्थरों और कांच के टुकड़ों को उन के जज्बातों पर फेंकती रहती हैं. काश, वे उत्तर दे पाते कि इतने बड़ेबड़े बच्चों की मां और अमीर बाप की उस बेटी को तलाक देना कितना कठिन था.

सुभाष गर्ग जिस साल डाक्टरी की डिगरी ले कर घर पहुंचे थे उसी साल 6 माह के भीतर ही वीणा पत्नी बन कर उन के जीवन में आ गई थी.

वीणा बहुत सुंदर तो नहीं पर आकर्षक जरूर थी. बड़े बाप की इकलौती संतान थी वह. उस के पिता ने सुभाष के लिए नर्सिंग होम बनवाने का केवल वादा ही नहीं किया, बल्कि टीके की रस्म होते ही वह हकीकत में बनने भी लगा था.

मातापिता बहत गद्गद थे. सुभाष भी नए जीवन के रोमांचक पलों को भरपूर सहेज रहे थे. जैसेजैसे डा. सुभाष अपने नर्सिंग होम में व्यस्त होने लगे और वीणा अपने बच्चों में तो पतिपत्नी के बीच की मधुरता धूमिल हो चली.

वीणा के तेवर बदले तो मुंह से अब कर्कश स्वर निकलने लगे. उसे हर पल याद रहने लगा कि वह एक अमीर पिता की संतान है और वारिस भी. इसलिए घर में उस की पूछ कुछ अधिक होनी चाहिए. इसीलिए उस की शिकायतें भी बढ़ने लगीं. सुभाष जैसेजैसे पत्नी वीणा से दूर हो रहे वैसेवैसे वे नर्सिंग होम और अपने मरीजों में खोते जा रहे थे. जीवन में तनिक भी मिठास नहीं बची थी. दवाओं की गंध में फूलों से प्यारे जीवन के क्षण खो गए थे. याद करतेकरते जाने कब डा. सुभाष को नींद ने आ घेरा.

खाने की थाली ले कर जब डा. सुभाष कैदियों की लाइन में लगते तो अपने नर्सिंग होम पर लगी मरीजों की लाइन उन्हें याद आने लगती. वह लाइन शहर में उन की लोकप्रियता का एहसास कराती थी जबकि यह लाइन किसी भिखारी का एहसास दिलाती है. डा. सुभाष को उस पत्रकार महिला का प्रश्न याद आ गया, ‘क्या सचमुच समस्या इतनी बड़ी थी, क्या और कोई राह नहीं थी?’

खाना खाते समय लगभग वे रोते रहते. अपने घर की वह शानदार डाइनिंग टेबल उन्हें याद आने लगती. बस, वही तो कुछ पल थे जिस में पूरा परिवार एकसाथ बैठ कर खाना खाता था. हालांकि यह नियम भी वीणा ने ही बनाया था.

वीणा का नाम व चेहरा दिमाग में आते ही डा. सुभाष फिर पुरानी यादों में खो से गए.

उस साल बड़ा बेटा पुनीत इंजीनियरिंग पढ़ने आई.आई.टी. रुड़की गया था और छोटा भी मेडिकल के लिए चुन लिया गया था. इधर नर्सिंग होम में पहले से और अधिक काम बढ़ गया तो डा. सुभाष दोपहर में घर कम आने लगे. रोज की तरह उस दिन भी घर से उन का टिफिन नर्सिंग होम आ गया था और उन के सामने प्लेट रख कर चपरासी ने सलाद निकाला था. तभी तीव्र सुगंध का झोंका लिए 30 वर्ष की एक युवती ने कमरे में प्रवेश किया.

‘सौरी सर, आप को डिस्टर्ब किया.’

डा. सुभाष ने गर्दन उठाई तो आंखें खुली की खुली रह गईं. मन में खयाल आया कि इतना सौंदर्य कहां से मिल जाता है किसीकिसी को.

‘सर, मैं डा. सुहानी, मुझे आप के पास डा. रावत ने भेजा है कि तुरंत आप से मिलूं.’

एक सांस में बोल कर युवती अपना पसीना पोंछने लगी.

सुभाष मुसकरा दिए.

‘आइए, बैठिए.’

‘नो सर. आप कहें तो मैं थोड़ी देर में आती हूं.’

‘नर्वस क्यों हो रही हैं डाक्टर, आप बैठिए,’ सुभाष ने खड़े हो कर सामने वाली कुरसी की ओर संकेत किया.

सुहानी डरती हुई कुरसी पर बैठ गई. डा. सुभाष ने चपरासी को इशारा किया तो उस ने दूसरी प्लेट सुहानी की तरफ रख दी.

‘नो सर, मैं दोपहर में पूरा खाना नहीं खाती हूं.’

‘आप सलाद लीजिए.’

उन के इतने अनुरोध की मर्यादा रखते हुए सुहानी ने थोड़ा सा सलाद अपनी प्लेट में रख लिया.

डा. सुभाष उस के सौंदर्य को देखते हुए मुसकरा कर बोले, ‘आज मेरी समझ में आया है कि कैसे लड़कियां केवल सलाद खा कर सुंदरता बनाए रखती हैं.’

सुहानी ने संकोच से देखा और बोली, ‘ओके, डाक्टर.’

डा. सुभाष ने कांटे में पनीर का एक टुकड़ा फंसा कर मुख में रख लिया और बोले, ‘आप यहां मेरी सहायक के रूप में काम करेंगी. अभी थोड़ी देर में सुंदर आप को केबिन दिखा देगा.’

उस दिन के बाद डा. सुभाष का हर दिन सुहाना होता गया. सुहानी केवल सौंदर्य की ही नहीं, मन की भी सुंदरी थी. उस के मीठे बोल डा. सुभाष में स्फूर्ति भर देते. यह काम की नजदीकियां कब प्यार में बदल गईं, दोनों को पता ही नहीं चला.

तब घर का पूरा उत्तरदायित्व वे अच्छी तरह पूरा कर रहे थे. पर पहले की तरह अब घर पर दुखी भी होते तो सुहानी की यादें उन की आंखों में घुलीमिली रहतीं.

उन दिनों वीणा कुछ अधिक ही चिड़चिड़ी होती जा रही थी. शायद इस की वजह यह थी कि बच्चों के जाने के बाद सुभाष भी उस से दूर हो गए थे और बढ़ती दूरी के चलते उस को अपने पति सुभाष पर शक हो गया था. एक रात वीणा ने पूछ ही लिया, ‘आजकल कुछ ज्यादा ही महकने लगे हो, क्या बात है?’

डा. सुभाष चौंक पड़े, ‘ये क्या बेसिरपैर की बातें कर रही हो. अब उम्र महकने की तो रही नहीं. मेरी तकदीर में तो आयोडीन और…’

‘बसबस. आदमियों की उम्र महकने के लिए हमेशा 16 की होती है.’

‘देखो वीणा, रातदिन दवाओं की खुशबू सूंघतेसूंघते जी खराब होने लगता है तो कभीकभार सेंट छिड़क लेता हूं. बहुत संभव है कि कभी ज्यादा सेंट छिड़क लिया होगा,’ सुभाष ने सफाई दी, लेकिन धीरेधीरे वीणा की शिकायतों और डा. सुभाष की सफाइयों का सिलसिला बढ़ गया.

नर्सिंग होम में वीणा के बहुत सारे अपने आदमी भी थे जो तरहतरह की रिपोर्ट देते रहते थे.

‘तुम्हारे इतने बड़ेबड़े बच्चे हो गए हैं. कल को उन की शादी होगी. बुढ़ापे में इश्क फरमाते कुछ तो शर्म करो,’ वीणा क्रोध में उन्हें सुनाती.

सुभाष ने उन दिनों चुप रहने की ठान ली थी. इसीलिए वीणा का पारा अधिक गरम होता जा रहा था.

रोजरोज की चिकचिक से तंग आ कर आखिर एक दिन सुभाष के मुख से निकल ही गया कि हां, मैं सुहानी से प्यार करता हूं और उस से शादी भी करना चाहता हूं.

डा. सुभाष को जेल की यातना सहते महीनों बीत चुके थे, लेकिन घर से मिलने कोई नहीं आया था. वे बच्चे भी नहीं जो उन के ही अंश हैं और जिन को उन्होंने अपना नाम दिया है. ऐसा नहीं कि बच्चे उन्हें प्यार नहीं करते थे पर मां तो मां ही होती है. मां की हत्या ने उन्हें बच्चों की नजरों में एक अपराधी, मां का हत्यारा साबित कर दिया था, पर क्या इस हादसे के लिए वे अकेले ही उत्तरदायी हैं?

बच्चे क्या जानें कि वीणा सुहानी को ले कर कितनी हिंसक हो उठी थी. एक दिन गुस्से में  उस ने कहा भी था, ‘आप अगर सोचते हैं कि मैं आप से तलाक ले लूंगी और आप मजे से उस से शादी कर लेंगे तो मैं आप को याद दिला दूं कि मैं उस बाप की बेटी हूं जो अपनी जिद के लिए कुछ भी कर सकती है. मेरे एक इशारे पर आप की वह प्रेमिका कहां गायब हो जाएगी पता भी नहीं चलेगा.’

वीणा की धमकियां जैसेजैसे बढ़ रही थीं वैसेवैसे सुभाष की घबराहट भी बढ़ रही थी…वे अच्छी तरह जानते थे कि इस आयु में बड़ेबड़े बच्चों के सामने पत्नी को तलाक देना या दूसरा विवाह करना उन के लिए सरल न होगा. पर सुहानी को वीणा सताए यह भी उन्हें स्वीकार नहीं था. इसलिए ही उन्होंने सुहानी से कहा था कि वह जितनी जल्दी हो सके यहां से लंबे समय के लिए कहीं दूर चली जाए.

अगले दिन सुहानी को नर्सिंग होम में न देख कर वीणा बोली थी, ‘उसे भगा दिया न. क्या मैं उसे खोज नहीं सकती. पाताल से भी खोज कर उसे अपनी राह से हटाऊंगी. तुम समझते क्या हो अपनेआप को.’

‘इतनी नफरत किस काम की,’ गुस्से से डा. सुभाष ने कहा था, ‘क्या इस उम्र में मैं दूसरी शादी कर सकता हूं.’

‘प्यार तो कर रहे हो इस उम्र में.’

‘नहीं, किसी ने गलत खबर दी है.’

‘किसी ने गलत खबर नहीं दी,’ वीणा फुफकारती हुई बोली, ‘मैं ने स्वयं आप का पीछा कर के अपनी आंखों से आप दोनों को एकदूसरे की बांहों में सिमटते देखा है.’

डा. सुभाष स्तब्ध थे, कितनी तेज है यह औरत. घबरा कर कहा, ‘अपने बच्चों को भी तो हम किसी अच्छी बात पर प्यार कर लेते हैं.’

‘शर्म नहीं आती तुम को इतना झूठ बोलते हुए,’ वीणा के अंदर का झंझावात बुरी तरह उफन रहा था.

उस दिन पत्थर तोड़ते हुए हीरा ने कहा, ‘‘डाक्टर आप चाहते तो बच सकते थे. आप ने बीवी की कार का पीछा क्यों किया. अच्छेभले नर्सिंग होम में बैठे रहते तो बच जाते.’’

‘‘मैं बहुत डरा हुआ था, क्योंकि वीणा के पिता के आदमी उस की सुरक्षा में लगे हुए थे. शायद हत्या की सुपारी लेने वाला अपना काम न कर पाता,’’ हीरालाल की सहानुभूति पा कर

डा. सुभाष ने भी बोल दिया.

‘‘उस के आदमी चारों तरफ सुरक्षा में फैले रहते हैं. तभी तो आप आसानी से अंदर हैं.’’

शायद हीरालाल ठीक कह रहा था, वे क्या करते, जो कुछ भी हुआ वह सोचीसमझी योजना का हिस्सा नहीं था. वह सबकुछ केवल सुहानी को बचाने की जिद से हो गया. शायद उन से बचकानी हरकत हो गई. इतनी बड़ी बात को गंभीरता से नहीं लिया और नतीजे के बारे में भी नहीं सोचा था.

उन्हें लगा कि वीणा सुहानी के घर की तरफ ही जा रही है और बिना समय गंवाए उन्होंने वीणा पर गोली चला दी. सुहानी तो बच गई मगर वीणा के पिता का कुछ भरोसा नहीं. केवल उन्हें सलाखों के पीछे भेज कर वे संतुष्ट होने वाले नहीं हैं. सुभाष के जीवन से तो सबकुछ छिन गया, पत्नी भी और प्रेमिका भी.

वह 15 अगस्त का दिन था. सभी कैदियों को सुबह झंडा फहराते समय राष्ट्रगान गाना था. फिर सब को बूंदी के लड्डू दिए गए थे. सुभाष अपना लड्डू खाने का प्रयत्न कर ही रहे थे कि हीरालाल ने जल्दी से आ कर उन के कान से मुख सटा दिया और कहा, ‘‘अभीअभी इंस्पेक्टर के कमरे से सुन कर आया हूं, कह रहे थे कि डाक्टर की प्रेमिका का पता चल गया है. बहुत जल्द उसे भी गिरफ्तार कर लिया जाएगा.’’

‘‘क्या?’’ उन के हाथ से लड्डू छिटक गया. हीरालाल ने झट से लड्डू उठा लिया और बोला, ‘‘डाक्टर, मुझे पता है कि अब तुम इस लड्डू को नहीं खाओेगे. डाक्टर हो न, जमीन पर गिरा लड्डू कैसे खा सकते हो.’’

उस ने वह लड्डू भी खा लिया.

सुभाष बहुत व्याकुल हो उठे थे. वे समझ गए थे कि यह सब वीणा के पिता ने ही करवाया है. उन की आंखों से आंसू बहने लगे.

हीरा ने कहा, ‘‘यह क्या, डाक्टर साहब. आप इतने कमजोर दिल के हैं, फिर भला दूसरों के दिल का आपरेशन कैसे करते थे?’’

डाक्टर ने अपने आंसू पोंछे और कहा, ‘‘हीरा, सब को अपने अंत का पता होता है, फिर भी हम जैसों से इतनी भूल कैसे हो जाती है.’’

‘‘आप शरीफ इनसान हैं इसलिए सबकुछ शराफत के दायरे में करने की कोशिश की. काश, आप भी शातिर खिलाड़ी होते तो आज पकड़ा कोई और जाता और आप अपनी सुहानी के साथ हनीमून मना रहे होते.’’

सुभाष ने चौंक कर हीरालाल को देखा और बोले, ‘‘क्या कह रहे हो?’’

‘‘ठीक कह रहा हूं, डाक्टर. आज मैं जिस कत्ल की सजा भोग रहा हूं उस व्यक्ति को मैं ने कभी देखा ही नहीं. उस का हत्यारा बहुत शातिर और धनवान था. मुझे उलझा कर खुद मजे से घूम रहा है.’’

डाक्टर ठगे से खड़े रह गए.

‘‘डाक्टर, सच यह है कि इतने वर्षों में इस जेल के अंदर रह कर मैं ने दांवपेंच सीख लिए हैं. एक बार यहां से भागने का अवसर मिला तो उस शातिर की हत्या कर के सचमुच का हत्यारा बन जाऊंगा.’’

डा. सुभाष अपनी सोच में डूबे हुए थे, धीरे से बुदबुदाए, ‘इस से तो अच्छा था कि मुझे फांसी हो जाती.’’

इतना कहने के साथ ही उन्होंने कस कर अपनी छाती को दबाया और कराह उठे. उन का हृदय दर्द से तड़प रहा था.

‘‘डाक्टर,’’ हीरा चिल्ला उठा.

डाक्टर धीरेधीरे धरती पर गिर कर तड़पने लगे. हलचल मचते ही कई अधिकारी वहां आ गए थे. डाक्टर को स्ट्रेचर पर लिटाया गया और सिपाही चल पड़े. हीरा भाग कर वहां पहुंचा और झुक कर डाक्टर के कान में कहने की चेष्टा की कि वहां से भाग जाना पर सुभाष बेसुध हो चुके थे.

हीरा मन मसोस कर उन्हें जाता देखता रहा. सुभाष की बंद आंखों के सामने बहुत से चेहरे घूम रहे थे.

‘तुम पागल हो गए हो उस बेटी समान लड़की के लिए,’ वीणा के पुराने स्वर डाक्टर को नीमबेहोशी में सुनाई दे रहे थे. फिर सबकुछ डूबने लगा. आवाज, सांस और धुंधलाती सी पुरानी यादें. उस धुंधली छाया में बस एक छवि अटकी थी सुहानी…सुहानी.

रोजरोज की चिकचिक से तंग आ कर आखिर एक दिन सुभाष के मुख से निकल ही गया कि हां, मैं सुहानी से प्यार करता हूं और उस से शादी भी करना चाहता हूं.

उलझन : शीला जीजी क्यों ताना मार रही थी

आश्चर्य में डूबी रश्मि मुझे ढूंढ़ती हुई रसोईघर में पहुंची तो उस की नाक ने उसे एक और आश्चर्य में डुबो दिया, ‘‘अरे वाह, कचौरियां, बड़ी अच्छी खुशबू आ रही है. किस के लिए बना रही हो, मां?’’

‘‘तेरे पिताजी के दोस्त आ रहे हैं आज,’’ उड़ती हुई दृष्टि उस के थके, कुम्हलाए चेहरे पर डाल मैं फिर चकले पर झुक गई.

‘‘कौन से दोस्त?’’ हाथ की किताबें बरतनों की अलमारी पर रखते हुए उस ने पूछा.

‘‘कोई पुराने साथी हैं कालिज के. मुंबई में रहते हैं आजकल.’’

जितनी उत्सुकता से उस के प्रश्न आ रहे थे, मैं उतनी ही सहजता से और संक्षेप में उत्तर दिए जा रही थी. डर रही थी, झूठ बोलते कहीं पकड़ी न जाऊं.

गरमागरम कचौरी का टुकड़ा तोड़ कर मुंह में ठूंसते हुए उस ने एक और तीर छोड़ा, ‘‘इतनी बढि़या कचौरियां आप ने हमारे लिए तो कभी नहीं बनाईं.’’

उस का फूला हुआ मुंह और उस के साथ उलाहना. मैं हंस दी, ‘‘लगता है, तेरे कालिज की कैंटीन में आज तेरे लिए कुछ नहीं बचा. तभी कचौरियों में ज्यादा स्वाद आ रहा है. वरना वही हाथ हैं और वही कचौरियां.’’

‘‘अच्छा, तो पिताजी के यह दोस्त कितने दिन ठहरेंगे हमारे यहां?’’ उस ने दूसरी कचौरी तोड़ कर मुंह में ठूंस ली थी.

‘‘ठहरे तो वह रमाशंकरजी के यहां हैं. उन से रिश्तेदारी है कुछ. तुम्हारे पिताजी ने तो उन्हें आज चाय पर बुलाया है. तू हाथ तो धो ले, फिर आराम से प्लेट में ले कर खाना. जरा सब्जी में भी नमक चख ले.’’

उस ने हाथ धो कर झरना मेरे हाथ से ले लिया, ‘‘वह सब चखनावखना बाद में होगा. पहले आप बेलबेल कर देती जाइए, मैं तलती जाती हूं. आशु नहीं आया अभी तक स्कूल से?’’

‘‘अभी से कैसे आ जाएगा? कोई तेरा कालिज है क्या, जो जब मन किया कक्षा छोड़ कर भाग आए? छुट्टी होगी, बस चलेगी, तभी तो आएगा.’’

‘‘तो हम क्या करें? अर्थशास्त्र के अध्यापक पढ़ाते ही नहीं कुछ. जब खुद ही पढ़ना है तो घर में बैठ कर क्यों न पढ़ें. कक्षा में क्यों मक्खियां मारें?’’ उस ने अकसर कक्षा छोड़ कर आने की सफाई पेश कर दी.

4 हाथ लगते ही मिनटों में फूलीफूली कचौरियों से परात भर गई थी. दहीबड़े पहले ही बन चुके थे. मिठाई इन से दफ्तर से आते वक्त लाने को कह दिया था.

‘‘अच्छा, ऐसा कर रश्मि, 2-4 और बची हैं न, मैं उतार देती हूं. तू हाथमुंह धो कर जरा आराम कर ले. फिर तैयार हो कर जरा बैठक ठीक कर ले. मुझे वे फूलवूल सजाने नहीं आते तेरी तरह. समझी? तब तक तेरे पिताजी और आशु भी आ जाएंगे.’’

‘‘अरे, सब ठीक है मां. मैं पहले ही देख आई हूं. एकदम ठीक है आप की सजावट. और फिर पिताजी के दोस्त ही तो आ रहे हैं, कोई समधी थोड़े ही हैं जो इतनी परेशान हो रही हो,’’ लापरवाही से मुझे आश्वस्त कर वह अपनी किताबें उठा कर रसोई से निकल गई. दूर से गुनगुनाने की आवाज आ रही थी, ‘रजनीगंधा फूल तुम्हारे, महके यों ही जीवन में…’

मैं अवाक् रह गई. अनजाने में वह कितना बड़ा सत्य कह गई थी, वह नहीं जानती थी. सचमुच इन के कोई दोस्त नहीं वरन दफ्तर के साथी रमाशंकर की बहन और बहनोई आ रहे थे रश्मि को देखने.

लेकिन बेटे वालों के जितने नाजनखरे होते हैं, उस के हिसाब से कितनी बार यह नाटक दोहराना पड़ेगा, कौन जानता है. और लाड़दुलार में पली, पढ़ीलिखी लड़कियों का मन हर इनकार के साथ विद्रोह की जिस आग से भड़क उठता है, मैं नहीं चाहती थी, मेरी सीधीसादी सांवली सी बिटिया उस आग में झुलस कर अभी से किसी हीनभावना से ग्रस्त हो जाए.

इसी वजह से वह जितनी सहज थी, मैं उतनी ही घबरा रही थी. कहीं उसे संदेह हो गया तो…

भारतीय परंपरा के अनुरूप हमारे माननीय अतिथि पूरे डेढ़ घंटे देर से आए. प्रतीक्षा से ऊबे रश्मि और आशु अपने पिता पर अपनी खीज निकाल रहे थे, ‘‘रमाशंकर चाचाजी ने जरूर आप का अप्रैल फूल बनाया है. आप हैं भी तो भोले बाबा, कोई भी आप को आसानी से बुद्धू बना लेता है.’’

‘‘नहीं, बेटा, रमाशंकरजी अकेले होते तो ऐसा संभव था, क्योंकि वह अकसर ऐसी हरकतें किया करते हैं. पर उन के साथ जो मेहमान आ रहे हैं न, वे ऐसा नहीं करेंगे. नए शहर में पहली बार आए हैं इसलिए घूमनेघामने में देर हो गई होगी. पर वे आएंगे जरूर…’’

‘‘मान लीजिए, पिताजी, वे लोग न आए तो इतनी सारी खानेपीने की चीजों का क्या होगा?’’ रश्मि को मिठाई और मेहनत से बनाई कचौरियों की चिंता सता रही थी.

‘‘अरे बेटा, होना क्या है. इसी बहाने हमतुम बैठ कर खाएंगे और रमाशंकरजी और अपने दोस्त को दुआ देंगे.’’

बच्चों को आश्वस्त कर इन्होंने खिड़की का परदा सरका कर बाहर झांका तो एकदम हड़बड़ा गए.

‘‘अरे, रमाशंकरजी की गाड़ी तो खड़ी है बाहर. लगता है, आ गए हैं वे लोग.’’

‘‘माफ कीजिए, राजकिशोरजी, आप लोगों को इतनी देर प्रतीक्षा करनी पड़ी, जिस के लिए हम बेहद शर्मिंदा हैं,’’ क्षमायाचना के साथसाथ रमाशंकरजी ने घर में प्रवेश किया, ‘‘पर यह औरतों का मामला जहां होता है, आप तो जानते ही हैं, हमें इंडियन स्टैंडर्ड टाइम पर उतरना पड़ता है.’’

वह अपनी बहन की ओर कनखियों से देख मुसकरा रहे थे, ‘‘हां, तो मिलिए मेरी बहन नलिनीजी और इन के पति नरेशजी से, और यह इन के सुपुत्र अनुपम तथा अनुराग. और नलिनी बहन, यह हैं राजकिशोरजी और इन का हम 2, हमारे 2 वाला छोटा सा परिवार, रश्मि बिटिया और इन के युवराज आशीष.’’

‘‘रमाशंकरजी, हमारे बच्चों को यह गलतफहमी होने लगी थी कि कहीं आप भूल तो नहीं गए आज का कार्यक्रम,’’ सब को बिठा कर यह बैठते हुए बोले.

रमाशंकरजी ने गोलगोल आंख मटकाते हुए आशु की तरफ देखा, ‘‘वाह, मेरे प्यारे बच्चो, ऐसी शानदार पार्टी भी कोई भूलने की चीज होती है भला? अरे, आशु बेटा, दरवाजा बंद कर लो. कहीं ऐसा न हो कि इतनी अच्छी महक से बहक कर कोई राह चलता अपना घर भूल इधर ही घुस आए,’’ अपने चिरपरिचित हास्यमिश्रित अभिनय के साथ जिस नाटकीय अदा से रमाशंकरजी ने ये शब्द कहे उस से पूरा कमरा ठहाकों से गूंज गया.

प्रतीक्षा से बोझिल वातावरण एकाएक हलका हो गया था. बातचीत आरंभ हुई तो इतनी सहज और अनौपचारिक ढंग से कि देखतेदेखते अपरिचय और दूरियों की दीवारें ढह गईं. रमाशंकरजी का परिवार जितना सभ्य और सुशिक्षित था, उन के बहनबहनोई का परिवार उतना ही सुसंस्कृत और शालीन लगा.

चाय पी कर नलिनीजी ने पास रखी अटैची खोल कर सामान मेज पर सजा दिया. मिठाई के डब्बे, साड़ी का पैकेट, सिंदूर रखने की छोटी सी चांदी की डिबिया. फिर रश्मि को बुला कर अपने पास बिठा कर उस के हाथों में चमचमाती लाल चूडि़यां पहनाते हुए बोलीं, ‘‘यही सब खरीदने में देर हो गई. हमारे नरेशजी का क्या है, यह तो सिर्फ बातें बनाना जानते हैं. पर हम लोगों को तो सब सोचसमझ कर चलना पड़ता है न? पहलीपहली बार अपनी बहू को देखने आ रही थी तो क्या खाली हाथ झुलाती हुई चली आती?’’

‘‘बहू,’’ मैं ने सहसा चौंक कर खाने के कमरे से झांका तो देखती ही रह गई. रश्मि के गले में सोने की चेन पहनाते हुए वह कह रही थीं, ‘‘लो, बेटी, यह साड़ी पहन कर आओ तो देखें, तुम पर कैसी लगती है. तुम्हारे ससुरजी की पसंद है.’’

रश्मि के हाथों में झिलमिलाती हुई चूडि़यां, माथे पर लाल बिंदी, गले में सोने की चेन…यह सब क्या हो रहा है? हम स्वप्न देख रहे हैं अथवा सिनेमा का कोई अवास्तविक दृश्य. घोर अचरज में डूबी रश्मि भी अलग परेशान लग रही थी. उसे तो यह भी नहीं मालूम था कि उसे कोई देखने आ रहा है.

हाथ की प्लेटें जहां की तहां धर मैं सामने आ कर खड़ी हो गई, ‘‘क्षमा कीजिए, नलिनीजी, हमें भाईसाहब ने इतना ही कहा था कि आप लोग रश्मि को देखने आएंगे, पर आप का निर्णय क्या होगा, उस का तो जरा सा भी आभास नहीं था, सो हम ने कोई तैयारी भी नहीं की.’’

‘‘तो इस में इतना परेशान होने की क्या बात है, सरला बहन? बेटी तो आप की है ही, अब हम ने बेटा भी आप को दे दिया. जी भर के खातिर कर लीजिएगा शादी के मौके पर,’’ उन का चेहरा खुशी के मारे दमक रहा था, ‘‘अरे, आ गई रश्मि बिटिया. लो, रमाशंकर, देख लो साड़ी पहन कर कैसी लगती है तुम्हारी बहूरानी.’’

‘‘हम क्या बताएंगे, दीदी, आप और जीजाजी बताइए, हमारी पसंद कैसी लगी आप को? हम ने हीरा छांट कर रख दिया है आप के सामने. अरे भई, अनुपम, ऐसे गुमसुम से क्यों बैठे हो तुम? वह जेब में अंगूठी क्या वापस ले जाने के इरादे से लाए हो?’’ रमाशंकरजी चहके तो अनुपम झेंप गया.

‘‘हमारी अंगूठी के अनुपात से काफी दुबलीपतली है यह. खैर, कोई बात नहीं. अपने घर आएगी तो अपने जैसा बना लेंगे हम इसे भी,’’ नलिनीजी हंस दीं.

पर मैं अपना आश्चर्य और अविश्वास अब भी नियंत्रित नहीं कर पा रही थी, ‘‘वो…वो…नलिनीजी, ऐसा है कि आजकल लड़के वाले बीसियों लड़कियां देखते हैं…और इनकार कर देते हैं…और आप…?

‘‘हां, सरला बहन, बड़े दुख की बात है कि संसार में सब से महान संस्कृति और सभ्यता का दंभ भरने वाला हमारा देश आज बहुत नीचे गिर गया है. लोग बातें बहुत बड़ीबड़ी करते हैं, आदर्श ऊंचेऊंचे बघारते हैं, पर आचरण ठीक उस के विपरीत करते हैं.

‘‘लेकिन हमारे घर में यह सब किसी को पसंद नहीं. लड़का हो या लड़की, अपने बच्चे सब को एक समान प्यारे होते हैं. किसी का अपमान अथवा तिरस्कार करने का किसी को भी अधिकार नहीं है. हमारे अनुपम ने पहले ही कह दिया था, ‘मां, जो कुछ मालूम करना हो पहले ही कर लेना. लड़की के घर जा कर मैं उसे अस्वीकार नहीं कर सकूंगा.’

‘‘इसलिए हम रमाशंकर और भाभी से सब पूछताछ कर के ही मुंबई से आए थे कि एक बार में ही सब औपचारिकताएं पूरी कर जाएंगे और हमारी भाभी ने रश्मि बिटिया की इतनी तारीफ की थी कि हम ने और लड़की वालों के समस्त आग्रह और निमंत्रण अस्वीकार कर दिए. घरघर जा कर लड़कियों की नुमाइश करना कितना अपमानजनक लगता है, छि:.’’

उन्होंने रश्मि को स्नेह से निहार कर हौले से उस की पीठ थपथपाई, ‘‘बेटी का बहुत चाव था हमें, सो मिल गई. अब तुम्हें 2-2 मांओं को संभालना पड़ेगा एकसाथ. समझी बिटिया रानी?’’ हर्षातिरेक से वह खिलीखिली जा रही थीं.

‘‘अच्छा, बहनजी, अब आप का उठने का विचार है या अपनी लाड़ली बहूरानी को साथ ले कर जाने का ही प्रण कर के आई  हैं?’’ रमाशंकरजी अपनी चुटकियां लेने की आदत छोड़ने वाले नहीं थे, ‘‘बहुत निहार लिया अपनी बहूरानी को, अब उस बेचारी को आराम करने दीजिए. क्यों, रश्मि बिटिया, आज तुम्हारी जबान को क्या हो गया है? जब से आए हैं, तुम गूंगी बनी बैठी हो. तुम भी तो कुछ बोलो, हमारे अनुपम बाबू कैसे लगे तुम्हें? कौन से हीरो की झलक पड़ती है इन में?’’

रश्मि की आंखें उन के चेहरे तक जा कर नीचे झुक गईं तो वह हंस पड़े, ‘‘भई, आज तो तुम बिलकुल लाजवंती बन गई हो. चलो, फिर किसी दिन आ कर पूछ लेंगे.’’

तभी इन्होंने एक लिफाफा नरेशजी के हाथों में थमा दिया, ‘‘इस समय तो बस, यही सेवा कर सकते हैं आप की. पहले से मालूम होता तो कम से कम अनुपमजी के लिए एक अंगूठी और सूट का प्रबंध तो कर ही लेते. जरा सा शगुन है बस, ना मत कीजिएगा.’’

हम लोग बेहद संकोच में घिर आए थे. अतिथियों को विदा कर के आए तो लग रहा था जैसे कोई सुंदर सा सपना देख कर जागे हैं. चारों तरफ रंगबिरंगे फूलों की वादियां हैं, ठंडे पानी के झरझर झरते झरने हैं और बीच में बैठे हैं हम और हमारी रश्मि. सचमुच कितना सुखी जीवन है हमारा, जो घरबैठे लड़का आ गया था. वह भी इंजीनियर. भलाभला सा, प्यारा सा परिवार. कहते हैं, लड़की वालों को लड़का ढूंढ़ने में वर्षों लग जाते हैं. तरहतरह के अपमान के घूंट गले के भीतर उड़ेलने पड़ते हैं, तब कहीं वे कन्यादान कर पाते हैं.

क्या ऐसे भले और नेक लोग भी हैं आज के युग में?

नलिनीजी के परिवार ने लड़के वालों के प्रति हमारी तमाम मान्यताओं को उखाड़ कर उस की जगह एक नन्हा सा, प्यारा सा पौधा रोप दिया था, मानवता में विश्वास और आस्था का. और उस नन्हे से झूमतेलहराते पौधे को देखते हुए हम अभिभूत से बैठे थे.

‘‘अच्छा, जीजी, चुपकेचुपके रश्मि बिटिया की सगाई कर डाली और शहर के शहर में रहते भी हमें हवा तक नहीं लगने दी?’’ देवरानी ने घुसते ही बधाई की जगह बड़ीबड़ी आंखें मटकाते हुए तीर छोड़ा.

‘‘अरे मंजु, क्या बताएं, खुद हमें ही विश्वास नहीं हो रहा है कि कैसे रश्मि की सगाई हो गई. लग रहा है, जैसे सपना देख कर जागे हैं. उन लोगों ने देखने आने की खबर दी थी, पर आए तो पूरी सगाई की तैयारी के साथ. और हम लोग तो समझो, पानीपानी हो गए एकदम. लड़के के लिए न अंगूठी, न सूट, न शगुन का मिठाईमेवा. यह देखो, तुम्हारी बिटिया के लिए कितना सुंदर सेट और साड़ी दे गए हैं.’’

मंजु ने सामान देखा, परखा और लापरवाही से एक तरफ धर कर, फिर जैसे मैदान में उतर आई, ‘‘अरे, अब हमें मत बनाइए, जीजी. इतनी उमर हो गई शादीब्याह देखतेदेखते, आज तक ऐसा न देखा न सुना. परिवार में इतना बड़ा कारज हो जाए और सगे चाचाचाची के कान में भनक भी न पड़े.’’

‘‘मंजु, इस में बुरा मानने की क्या बात है. ये लोग बड़े हैं. जैसा ठीक समझा, किया. उन की बेटी है. हो सकता है, भैयाभाभी को डर हो, कहीं हम लोग आ कर रंग में भंग न डाल दें. इसलिए…’’

‘‘मुकुल भैया, आप भी…हम पर इतना अविश्वास? भला शुभ कार्य में अपनों से दुरावछिपाव क्यों करते?’’ छोटे भाई जैसे देवर मुकुल से मुझे ऐसी आशा नहीं थी.

‘‘अच्छा, रानीजी, जो हो गया सो तो हो गया. अब ब्याह भी चुपके से न कर डालना. पहलीपहली भतीजी का ब्याह है. सगी बूआ को न भुला देना,’’ शीला जीजी दरवाजे की चौखट पर खड़ेखड़े तानों की बौछार कर रही थीं.

‘‘हद करती हैं आप, जीजी. क्या मैं अकेले हाथों लड़की को विदा कर सकती हूं? क्या ऐसा संभव है?’’

‘‘संभवअसंभव तो मैं जानती नहीं, बीबी रानी, पर इतना जरूर जानती हूं कि जब आधा कार्य चुपचाप कर डाला तो लड़की विदा करने में क्या धरा है. अरे, मैं पूछती हूं, रज्जू से तुम ने आज फोन करवाया. कल ही करवा देतीं तो क्या घिस जाता? पर तुम्हारे मन में तो खोट था न. दुरावछिपाव अपनों से.’’

शीला जीजी हाथ का झोला सोफे पर पटक कर स्वयं भी पसर गईं, ‘‘उफ, इन बसों का सफर तो जान सोख लेता है. पर क्या किया जाए, सुन कर बैठा भी तो नहीं गया. जैसे ही यह दफ्तर से आए, सीधे बस पकड़ कर चले आए. अपनों की मायाममता होती ही ऐसी है. भाई का जरा सा सुखदुख सुनते ही छटपटाहट सी होने लगती है. पर तुम पराए घर की लड़की, क्या जानो, हमारा भाईबहन का संबंध कितना अटूट है.’’

शीला जीजी के शब्द कांटों की तरह कलेजे को आरपार चीरे डाल रहे थे.

‘‘ला तो रश्मि, जरा दिखा तो तेरे ससुराल वालों ने क्या पहनाया तुझे? सुना है बड़े अच्छे लोग हैं…बड़े भले हैं…रज्जू ने फोन पर बताया. दूर के ढोल ऐसे ही सुहावने लगते हैं. अपने सगे तो तुम्हारे दुश्मन हैं.’’

‘‘अच्छा, मामीजी, जल्दी से पैसे निकालिए, बहन की सगाई हुई है. कम से कम मुंह तो मीठा करवा दीजिए सब का,’’ शीला जीजी के बेटे ने जैसे मुसीबतों के पहाड़ तले से खींच कर उबार लिया मुझे.

‘‘हां…हां, अरुण, एक मिनट ठहरो, मैं रुपए लाती हूं,’’ कहती हुई मैं वहां से उठ गई.

देखतेदेखते अरुण रुपयों के साथ इन का स्कूटर भी ले कर उड़ गया. लौटा तो मिठाई, नमकीन मेज पर रखते हुए बोला, ‘‘मामीजी, मिठाई वाले का उधार कर आया हूं. पैसे कम पड़ गए. आप बाद में आशु से भिजवा दीजिएगा 30 रुपए. पता लिखवा आया हूं यहां का.’’

मैं सकते में खड़ी थी. 50 का नोट भी कम पड़ गया था. कैसे? पर जब मेज पर नजर पड़ी तो कारण समझ में आ गया. एक से एक बढि़या मिठाइयां मेज पर बिखरी पड़ी थीं और शीला जीजी और मुकुल भैया अपने बच्चों सहित बड़े प्रेम से मुंह मीठा कर रहे थे. लड़की की सगाई जो हुई थी हमारी.

‘‘अच्छा, तो अकेलेअकेले बिटिया रानी की सगाई की मिठाई उड़ाई जा रही है,’’ दरवाजे पर मेरे मझले मामामामी अपने बेटेबहुओं के साथ खड़े थे, ‘‘क्यों, सरला, तेरा नाम जरूर सरला है, पर निकली तू विरला. क्यों री, तेरे एक ही तो मामा बचे हैं लेदे के और उन्हें भी तू ने समधियों से मिलवाना जरूरी नहीं समझा? अरे बेटा, हम लोग बुजुर्ग हैं, तजरबेकार हैं, शुभ काम में अच्छी ही सलाह देते. याद है, तेरे ब्याह पर मैं ने ही तुझे गोद में उठा कर मंडप में बिठाया था?’’

उफ्, किस मुसीबत में फंस गए थे हम लोग. छोटाबड़ा कोई भी हम पर विश्वास करने को तैयार नहीं था. नाहक ही सब को फोन कर के दफ्तर से खबर करवाई. कल की खुशी की मिठाई मुंह में कड़वी सी हो गई थी.

‘‘मामाजी, बात यह हुई कि हमें खुद ही पता नहीं था. वे लोग रश्मि को देखने आए थे…’’ खीजा, झुंझलाया स्वर स्वयं मुझे अपने ही कानों में अटपटा लग रहा था.

पर मामाजी ने मेरी बात बीच में ही काट दी, ‘‘अरे, हां…हां, ये सब बहाने तो हम लोग काफी देर से सुन रहे हैं. पर बेटा, बड़ों की सलाह लिए बिना तुम्हें ‘हां’ नहीं कहनी चाहिए थी. खैर, अब जो हो गया सो हो गया. अच्छाबुरा जैसा भी होगा, सब की जिम्मेदारी तुम्हीं पर होगी.

‘‘पर आश्चर्य तो इस बात का है कि राजकिशोरजी ने भी हम से दुराव रखा. आज की जगह कल फोन कर लेते तो हम समधियों से बातचीत कर लेते, उन्हें जांचपरख लेते. खैर, तुम लोग जानो, तुम्हारा काम. हम तो सिर्फ अपना फर्ज निभाते आए हैं.

‘‘पुराने लोग हैं, उसूलों पर चलने वाले. तुम लोग ठहरे नए जमाने के आधुनिक विचारों वाले. चाहो तो शादी की सूचना का कार्ड भिजवा देना, चले आएंगे. न चाहो तो कोई बात नहीं. कोई गिला- शिकवा करने नहीं आएंगे उस के लिए.’’

समझ में नहीं आ रहा था, यह क्या हो रहा है. सिर भन्ना गया था. बेटी की शादी की बधाई तथा उस के सुखमय भविष्य के लिए आशीषों की वर्षा की जगह हम पर झूठ, धोखेबाजी, दुरावछिपाव और न जाने किनकिन मिथ्या आरोपों की बौछार हो रही थी और हम इन आरोपों की बौछार तले सिर झुकाए बैठे थे…आहत, मर्माहत, निपट अकेले, निरुपाय.

सब को विदा करतेकराते रात के साढ़े 9 बज गए थे. मन के साथ तन भी एक अव्यक्त सी थकान से टूटाटूटा सा हो आया था. घर में मनहूस सी शांति पसरी पड़ी थी. मौन इन्होंने ही तोड़ा, ‘‘लगता है, रश्मि की सगाई की खबर सुन कर कोई खुश नहीं हुआ. अपनी सगी बहन…अपना भाई…’’ धीरगंभीर व्यथित स्वर.

घंटों से उमड़ताघुमड़ता अपमान और दुख आंखों की राह बह निकला.

‘‘ओफ्फोह, मां, आप भी बस, रोने से क्या वे खुश हो जाएंगे? सब के सब कुढ़ रहे थे कि दीदी का ब्याह इतनी आसानी से और इतने अच्छे घर में क्यों तय हो गया. बस, यही कुढ़न हमारे ऊपर उलटेसीधे तानों के रूप में उड़ेल गए. उंह, यह भी कोई बात हुई,’’ कुछ ही घंटों में आशु भावनाओं की काफी झलक पा गया था.

‘‘छि: बेटा, ऐसे नहीं कहते. वे हमारे बड़े हैं…अपने हैं…उन के लिए ऐसे शब्द नहीं कहने चाहिए.’’

‘‘उंह, बड़े आए अपने. 80 रुपए की मिठाइयां खा गए, ऊपर से न जाने क्या- क्या कह गए. ऐसे ही नाराज थे तो मिठाई क्यों खाई? क्यों मुंह मीठा किया? प्लेटों पर तो ऐसे टूट रहे थे जैसे मिठाई कभी देखी ही न हो. इतना गुस्सा आ रहा था कि बस, पर आप के डर से चुप रह गया कि बोलते ही सब के सामने मुझे डांट देंगी.’’

16 वर्षीय आशु भी अपना आक्रोश मुझ पर निकाल रहा था, ‘‘सब से अच्छा यही है कि दीदी की शादी में किसी को न बुलाया जाए. चुपचाप कोर्ट में जा कर शादी कर ली जाए.’’

मैं गुमसुम सी खड़ी थी. समझ नहीं आ रहा था कि क्या खून के रिश्ते इतनी आसानी से झुठलाए जा सकते हैं?

शायद नहीं…तो फिर?

आशु के तमतमाए चेहरे पर एक दृष्टि डाल, मैं मेज पर फैली बिखरी प्लेटें समेटने लगी. कैसे हैं ये मन के बंधन, जो नितांत अनजान और अपरिचितों को एक प्यार भरी सतरंगी डोर से बांध देते हैं तो अपने ही आत्मीयों को पल भर में छिटका कर परे कर देते हैं.

कैसी विडंबना है यह? जो आज की टूटतीबिखरती आस्थाओं और आशाओं को बड़े यत्न से सहेज कर मन में प्रेम और विश्वास का एक नन्हा सा पौधा रोप गए थे. वे कल तक नितांत पराए थे और आज उस नवजात पौधे को जड़मूल से उखाड़ कर अपने पैरोंतले पूरी तरह कुचल कर रौंदने वाले हमारे अपने थे. सभी आत्मीय…

इन में से किसे अपना मानें, किसे पराया, कुछ भी तो समझ में नहीं आ रहा है. द्

जन्म समय: एक डौक्टर ने कैसे दूर की शंका

रिसैप्शन रूम से बड़ी तेज आवाजें आ रही थीं. लगा कि कोई झगड़ा कर रहा है. यह जिला सरकारी जच्चाबच्चा अस्पताल का रिसैप्शन रूम था. यहां आमतौर पर तेज आवाजें आती रहती थीं. अस्पताल में भरती होने वाली औरतों के हिसाब से स्टाफ कम होने से कई बार जच्चा व उस के संबंधियों को संतोषजनक जवाब नहीं मिल पाता था.

अस्पताल बड़ा होने के चलते जच्चा के रिश्तेदारों को ज्यादा भागादौड़ी करनी पड़ती थी. इसी झल्लाहट को वे गुस्से के रूप में स्टाफ व डाक्टर पर निकालते थे.

मुझे एक तरह से इस सब की आदत सी हो गई थी, पर आज गुस्सा कुछ ज्यादा ही था. मैं एक औरत की जचगी कराते हुए काफी समय से सुन रहा था और समय के साथसाथ आवाजें भी बढ़ती ही जा रही थीं. मेरा काम पूरा हो गया था. थोड़ा मुश्किल केस था. केस पेपर पर लिखने के लिए मैं अपने डाक्टर रूम में गया.

मैं ने वार्ड बौय से पूछा, ‘‘क्या बात है, इतनी तेज आवाजें क्यों आ रही हैं?’’

‘‘साहब, एक शख्स 24-25 साल पुरानी जानकारी हासिल करना चाहते हैं. बस, उसी बात पर कहासुनी हो रही है.’’ वार्ड बौय ने ऐसे बताया, जैसे कोई बड़ी बात नहीं हो.

‘‘अच्छा, उन्हें मेरे पास भेजो,’’ मैं ने कुछ सोचते हुए कहा.

‘‘जी साहब,’’ कहता हुआ वह रिसैप्शन रूम की ओर बढ़ गया.

कुछ देर बाद वह वार्ड बौय मेरे चैंबर में आया. उस के साथ तकरीबन 25 साल की उम्र का नौजवान था. वह शख्स थोड़ा पढ़ालिखा लग रहा था. शक्ल भी ठीकठाक थी. पैंटशर्ट में था. वह काफी परेशान व उलझन में दिख रहा था. शायद इसी बात का गुस्सा उस के चेहरे पर था.

‘‘बैठो, क्या बात है?’’ मैं ने केस पेपर पर लिखते हुए उसे सामने की कुरसी पर बैठने का इशारा किया.

‘‘डाक्टर साहब, मैं कितने दिनों से अस्पताल के धक्के खा रहा हूं. जिस टेबल पर जाऊं, वह यही बोलता है कि यह मेरा काम नहीं है. उस जगह पर जाओ. एक जानकारी पाने के लिए मैं 5 दिन से धक्के खा रहा हूं,’’ उस शख्स ने अपनी परेशानी बताई.

‘‘कैसी जानकारी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘जन्म के समय की जानकारी,’’ उस ने ऐसे बोला, जैसे कि कोई बड़ा राज खोला.

‘‘किस के जन्म की?’’ आमतौर पर लोग अपने छोटे बच्चे के जन्म की जानकारी लेने आते हैं, स्कूल में दाखिले के लिए.

‘‘मेरे खुद के जन्म की.’’

‘‘आप के जन्म की? यह जानकारी तो तकरीबन 24-25 साल पुरानी होगी. वह इस अस्पताल में कहां मिलेगी. यह नई बिल्डिंग तकरीबन 15 साल पुरानी है. तुम्हें हमारे पुराने अस्पताल के रिकौर्ड में जाना चाहिए.

‘‘इतना पुराना रिकौर्ड तो पुराने अस्पताल के ही रिकौर्ड रूम में होगा, सरकार के नियम के मुताबिक, जन्म समय का रिकौर्ड जिंदगीभर तक रखना पड़ता है.

‘‘डाक्टर साहब, आप भी एक और धक्का खिला रहे हो,’’ उस ने मुझ से शिकायती लहजे में कहा.

‘‘नहीं भाई, ऐसी बात नहीं है. यह अस्पताल यहां 15 साल से है. पुराना अस्पताल ज्यादा काम के चलते छोटा पड़ रहा था, इसलिए तकरीबन 15 साल पहले सरकार ने बड़ी बिल्डिंग बनाई.

‘‘भाई यह अस्पताल यहां शिफ्ट हुआ था, तब मेरी नौकरी का एक साल ही हुआ था. सरकार ने पुराना छोटा अस्पताल, जो सौ साल पहले अंगरेजों के समय बना था, पुराना रिकौर्ड वहीं रखने का फैसला किया था,’’ मैं ने उसे समझाया.

‘‘साहब, मैं वहां भी गया था, पर कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला. बोले, ‘प्रमाणपत्र में सिर्फ तारीख ही दे सकते हैं, समय नहीं,’’’ उस शख्स ने कहा.

आमतौर पर जन्म प्रमाणपत्र में तारीख व जन्मस्थान का ही जिक्र होता है, समय नहीं बताते हैं. पर हां, जच्चा के इंडोर केस पेपर में तारीख भी लिखी होती है और जन्म समय भी, जो घंटे व मिनट तक होता है यानी किसी का समय कितने घंटे व मिनट तक होता है, यानी किसी का समय कितने घंटे व मिनट पर हुआ.

तभी मेरे दिमाग में एक सवाल कौंधा कि जन्म प्रमाणपत्र में तो सिर्फ तारीख व साल मांगते हैं, इस को समय की जरूरत क्यों पड़ी?

‘‘भाई, तुम्हें अपने जन्म के समय की जरूरत क्यों पड़ी?’’ मैं ने उस से हैरान हो कर पूछा.

‘‘डाक्टर साहब, मैं 26 साल का हो गया हूं. मैं दुकान में से अच्छाखासा कमा लेता हूं. मैं ने कालेज तक पढ़ाई भी पूरी की है. मुझ में कोई ऐब भी नहीं है. फिर भी मेरी शादी कहीं तय नहीं हो पा रही है. मेरे सारे दोस्तों व हमउम्र रिश्तेदारों की भी शादी हो गई है.

‘‘थकहार कर घर वालों ने ज्योतिषी से शादी न होने की वजह पूछी. तो उस ने कहा, ‘तुम्हारी जन्मकुंडली देखनी पड़ेगी, तभी वजह पता चल सकेगी और कुंडली बनाने के लिए साल, तारीख व जन्म के समय की जरूरत पड़ेगी.’

‘‘मेरी मां को जन्म की तारीख तो याद है, पर सही समय का पता नहीं. उन्हें सिर्फ इतना पता है कि मेरा जन्म आधी रात को इसी सरकारी अस्पताल में हुआ था.

‘‘बस साहब, उसी जन्म के समय के लिए धक्के खा रहा हूं, ताकि मेरा बाकी जन्म सुधर जाए. शायद जन्म का सही समय अस्पताल के रिकौर्ड से मिल जाए.’’

‘‘मेरे साथ आओ,’’ अचानक मैं ने उठते हुए कहा. वह उम्मीद के साथ उठ खड़ा हुआ.

‘‘यह कागज व पैन अपने साथ रखो,’’ मैं ने क्लिप बोर्ड से एक पन्ना निकाल कर कहा.

‘‘वह किसलिए?’’ अब उस के चौंकने की बारी थी.

‘‘समय लिखने के लिए,’’ मैं ने उसे छोटा सा जवाब दिया.

‘‘मेरी दीवार घड़ी में जितना समय हुआ है, वह लिखो,’’ मैं ने दीवार घड़ी की ओर इशारा करते हुए कहा.

उस ने हैरानी से लिखा. सामने ही डिलीवरी रूम था. उस समय डिलीवरी रूम खाली था. कोई जच्चा नहीं थी. डिलीवरी रूम में कभी भी मर्द को दाखिल होने की इजाजत नहीं होती है. मैं उसे वहां ले गया. वह भी हिचक के साथ अंदर घुसा.

मैं ने उस कमरे की घड़ी की ओर इशारा करते हुए उस का समय नोट करने को कहा, ‘‘अब तुम मेरी कलाई घड़ी और अपनी कलाई घड़ी का समय इस कागज में नोट करो.’’

उस ने मेरे कहे मुताबिक सारे समय नोट किए.

‘‘अच्छा, बताओ सारे समय?’’ मैं ने वापस चैंबर में आ कर कहा.

‘‘आप की घड़ी का समय दोपहर 2.05, मेरी घड़ी का समय दोपहर 2.09, डिलीवरी रूम का समय दोपहर 2.08 और आप के चैंबर का समय दोपहर 2.01 बजे,’’ जैसेजैसे वह बोलता गया, खुद उस के शब्दों में हैरानी बढ़ती जा रही थी.

‘‘सभी घडि़यों में अलगअलग समय है,’’ उस ने इस तरह से कहा कि जैसे दुनिया में उस ने नई खोज की हो.

‘‘देखा तुम ने अपनी आंखों से, सब का समय अलगअलग है. हो सकता है कि तुम्हारे ज्योतिषी की घड़ी का समय भी अलग हो. और जिस ने पंचांग बनाया हो, उस की घड़ी में उस समय क्या बजा होगा, किस को मालूम?

‘‘जब सभी घडि़यों में एक ही समय में इतना फर्क हो, तो जन्म का सही समय क्या होगा, किस को मालूम?

‘‘जिस केस पेपर को तुम ढूंढ़ रहे हो, जिस में डाक्टर या नर्स ने तुम्हारा जन्म समय लिखा होगा, वह समय सही होगा कि गलत, किस को पता?

‘‘मैं ने सुना है कि ज्योतिष शास्त्र के अनुसार एक पल का फर्क भी ग्रह व नक्षत्रों की जगह में हजारों किलोमीटर में हेरफेर कर देता है. तुम्हारे जन्म समय में तो मिनटों का फर्क हो सकता है.

‘‘सुनो भाई, तुम्हारी शादी न होने की वजह यह लाखों किलोमीटर दूर के बेचारे ग्रहनक्षत्र नहीं हैं. हो सकता है कि तुम्हारी शादी न होने की वजह कुछ और ही हो. शादियां सिर्फ कोशिशों से होती हैं, न कि ग्रहनक्षत्रों से,’’ मैं ने उसे समझाते हुए कहा.

‘‘डाक्टर साहब, आप ने घडि़यों के समय का फर्क बता कर मेरी आंखें खोल दीं. इतना पढ़नेलिखने के बावजूद भी मैं सिर्फ निराशा के चलते इन अंधविश्वासों के फेर में फंस गया. मैं फिर से कोशिश करूंगा कि मेरी शादी जल्दी से हो जाए.’’ अब उस शख्स के चेहरे पर निराशा की नहीं, बल्कि आत्मविश्वास की चमक थी.

तेरे बिन: क्या हर्षा को कोई और मिल गया था या बात कुछ और थी

हर्षा जिस दिन से मायके से लौटी थी उल्लास उसे कुछ बदलाबदला पा रहा था. औफिस जाते समय पहले तो वह उस की हर जरूरत का ध्यान रखती. नाश्ता, टिफिन, घड़ी, मोबाइल, वालेट, पैन, रूमाल कहीं कुछ रह न जाए. वह नहा कर निकलता तो धुले व पै्रस किए कपड़े, पौलिश किए जूते उसे तैयार मिलते. रोज बढि़या डिनर, संडे को स्पैशल लंच, सुंदर सजासंवरा घर, मुसकान से खिलीखिली हर वक्त आंखों में प्यार का सागर लिए उस की सेवा में बिछी रहने वाली हर्षा के रंगढंग उस दिन से कुछ अलग ही नजर आ रहे थे.

अब उसे कोई चीज टाइम पर जगह पर नहीं मिलती. पूछता तो उलटे तुरंत जवाब मिल जाता कि कुछ खुद भी कर लिया करो. अकेली कितना करूं. उल्लास इधरउधर दिमाग के घोड़े दौड़ाने लगा था.

‘उस दिन औफिस की पुरानी सैक्रेटरी बीमार जान कर उसे देखने घर चली आई. कहीं इस कारण हर्षा को कुछ फील तो नहीं हो गया या  हर्षा की नई भाभी पारुल ने तो कहीं उसे पट्टी पढ़ा कर नहीं भेजा, बहुत तेज लगती है वह या फिर औफिस में बिजी रहने के कारण आजकल कम टाइम दे पाता हूं. घर में अकेले पड़ेपड़े बोर हो जाती होगी शायद. मायके में जौइंट फैमिली जो है… बच्चा भी तो नहीं अभी कोई, जो उसी से मन लग जाता. 2-3 साल बाद बच्चे का प्लान खुद ही तो मिल कर बनाया था. पूछने पर तो सही जवाब भी नहीं देती आजकल,’ उल्लास सोचे जा रहा था.

‘‘उल्लास खाना बना दिया है, निकाल कर खा लेना. बाकी फ्रिज में रख देना. मुझे शायद आने में देर हो जाए. फ्रैंड के घर किट्टी पार्टी है,’’ हर्षा का सपाट स्वर सुनाई दिया.

‘‘संडे को कौन किट्टी पार्टी रखता है? एक ही दिन तो सभी जैंट्स घर पर होते हैं?’’

‘‘और हम जो रोज घर में रहतीं हैं उन का क्या? कल से तुम्हारे कपड़े बैड पर फैले हैं. उन्हें समेट कर रख लेना. मेरी समझ नहीं आता मेरे लिए क्यों छोड़ कर जाते हो?’’ और धड़ाम से दरवाजा बंद कर वह चली गई.

उल्लास सोचने लगा कि वह पहले भी तो यों छोड़ जाता था… तब उस के काम खुशीखुशी कर देती थी, तो अब उस ने ऐसा क्या कर दिया जो हर्षा उस से रूठीरूठी सी रहने लगी है? वह उस पर और बर्डन नहीं डालेगा. अपने काम खुद कर लिया करेगा.

उल्लास ने जैसेतैसे बेमन से खाना खा  लिया. हर्षा का खाना बेस्वाद तो कभी नहीं बना, भले ही खिचड़ी बनाए. इसी कारण उस का बाहर का खाना बिलकुल छूट गया था… पर अब तो कभी नमक ज्यादा तो कभी कम. कच्ची सब्जी, जलीजली रोटियां. हुआ क्या है उसे? वह हैरान था. उस की समझ में कुछ नहीं आ रहा था.

फिर मन ही मन बुदबुदाया कि चल बेटा होस्टल डेज याद कर और आज कुछ बना डाल हर्षा को खुश करने के लिए. जब तक वह घर लौटे बढि़या सा डिनर तैयार कर ले उस के लिए… हमेशा वही बनाती है उसे भी तो कभी कुछ करना चाहिए. फिर सोचने लगा कि हर्षा को आमिर खान पसंद है. अत: पहले ‘दंगल’ मूवी के टिकट बुक करा लिए जाएं नाइट शो के. फिर औनलाइन टिकट बुक किए. दोनों की पसंद का खाना तैयार किया.

हर्षा आई तो उस का प्रयास देख कर मन ही मन खुश हुई. करी को थोड़ा सा ठीक किया, पर बाहर जाहिर नहीं होने दिया. यही तो चाहने लगी थी कि उल्लास किसी भी बात के लिए उस पर निर्भर न रहे. डिनर भी चुपचाप हो गया. मूवी में भी हर्षा चुपचुप रही.

उस की चुप्पी उल्लास को अखरने लगी थी. अत: बोला, ‘‘कोई बात है हर्षा तो मुझे बताओ… मुझ से कुछ गलत हो गया या मेरा साथ तुम्हें अब अच्छा नहीं लगता?’’

‘‘जब तुम हिंदी मूवी पसंद नहीं करते हो, तो मेरी पसंद के टिकट नहीं लाने चाहिए थे. प्रत्यूष और धनंजय को ले कर अच्छा होता कोई अपनी पसंद की इंग्लिश मूवी ऐंजौय करते… जबरदस्ती मेरे कारण देखने की क्या जरूरत है?’’

उल्लास देखता रह गया कि जो हर्षा रातदिन उसे दोस्तों के साथ न जाने और अपने साथ ही हिंदी मूवी देखने की जिद करती थी वही आज उलटी बात कर रही है… क्यों उस से कट रही है हर्षा? क्या किसी और के लिए दिल में जगह बना ली है? फिर उस ने सिर झटका कि वह ऐसा सोच भी कैसे सकता है? उसे दीवानों की तरह चाहने वाली हर्षा ऐसा कभी नहीं कर सकती. वह चाहती है न कि वह अपने सारे काम खुद करे तो करेगा. तब तो खुश होगी. उसे पहले वाली हर्षा मिल जाएगी.

2-3 महीने में उल्लास ने अपने को काफी बदल लिया. अपने कपड़े हर संडे धो डालता. कुछ खुद प्रैस करता कुछ को बाहर से करवा लेता. घड़ी, वालेट, मोबाइल, चार्जर वगैरह ध्यान से 1-1 चीज रख लेता. हर्षा को इस के लिए परेशान न करता. पेट भरने लायक खाना भी बनाना आ गया था. औफिस जाने से पहले अपना कमरा ठीक कर जाता.

अब तो खुश हो हर्षा? वह पूछता तो हर्षा हौले से मुसकरा देती, पर अंदर से उसे अपने कामों को स्वयं करता देख बहुत दुखता, पर वह ऐसा करने के लिए मजबूर थी.

‘‘उल्लास इंगलिश की नईर् मूवी लगी है, जाओ अपने दोस्तों के साथ देख आओ.’’

‘‘हर्षा तुम मुझे ऐसे अपने से दूर क्यों कर रही हो. मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि यह कैसी खुशी है तुम्हारी? क्या मुझे अपने लायक नहीं समझती अब?’’

‘‘उल्लास तुम तो लायक हो और तुम्हारे लिए वह लाली मौसी ने सही लड़की चुनी थी उन की ननद की बेटी संजना. बिलकुल तुम्हारे लिए हर तरह से सही मैच… उस ने अभी तक शादी नहीं की. मेरी वजह से उस से रिश्ता होतेहोते रह गया था तुम्हारा… लाली मौसी इसी कारण अभी तक नाराज हैं. उन की नाराजगी तुम दूर कर सकते हो तो बताओ…’’

‘‘कहां इतनी पुरानी बात ले कर बैठ गई तुम… हम दोनों ने एकदूसरे को

पसंद किया, प्यार किया, शादी की. अब यह बात कहां से आ गई… अच्छा औफिस को देर हो रही है. मैं निकलता हूं शाम को बात करते हैं रिलैक्स,’’ और फिर हमेशा की तरह बाहर निकलते हुए उस के माथे पर चुंबन जड़ दिया, ‘‘तुम कुछ भी कर लो, कह लो तुम्हें प्यार करता रहूंगा. सी यू हनी.’’

‘‘यही तो मैं अब नहीं चाहती उल्लास… तुम्हें कुछ कह भी तो नहीं सकती,’’ हर्षा देर तक रोती रही. कल ही उसे मुंबई के लिए निकलना था कभी न लौटने के लिए. उस ने अपनेआप को किसी तरह संभाला. छोटे से बैग में सामान पैक कर लिया. उल्लास आया तो उसे बताने की हिम्मत न हुई. रात बेचैनी से करवटें बदलते बीत गई.

‘‘तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं लग रही हर्षा,’’ उल्लास कभी पानी, कभी चाय तो कभी कौफी बना लाता. कभी माथा सहलाता.

‘‘डाक्टर को बुलाऊं क्या?’’

‘‘कुछ नहीं थोड़ा सिरदर्द है. सुबह तक ठीक हो जाएगा. तुम अब सो जाओ.’’

मगर उल्लास माना नहीं तेल की शीशी उठा लाया. ढक्कन खोला तो वह फिसल कर बैड के नीचे पहुंच गया. वह झुका तो पैक्ड बैग नजर आया.

‘‘अरे यह बैग कैसा है? कौन जा रहा है?’’

‘‘हां, उल्लास मुझे कल ही जाना पड़ रहा है मुंबई. अभि मुझे लेने कल सुबह यहां पहुंच जाएगा. वह मेरी सहेली रुचि की बहन की शादी है. उस का कोई है नहीं. घबरा रही है, डिप्रैशन में अस्पताल में दाखिल भी रही. सारी तैयारी करनी है. अत: मां से रिक्वैस्ट की कि अभि को भेज कर मुझे बुला लें. मेरे पास भी तुम से रिक्वैस्ट करने के लिए फोन आया था. मैं ने कह दिया उल्लास मुझे मना नहीं करेंगे… 1 महीना क्या 6 महीने रख लो. सारे काम खुद करने की आदत डाल ली है. अब उल्लास को कोई परेशानी नहीं होगी अकेले. सही है न?’’ वह हलके से मुसकराई. पर इतना प्यार करने वाले पति उल्लास से सब मनगढ़ंत कहने के लिए मजबूर वह अंदर तक हिल गई.

‘‘मगर… कितने दिन… मैं अकेले कैसे… कुछ बताया तो होता?’’

‘‘अकेले की आदत तो डाल ही लेनी चाहिए… आत्मनिर्भर होना चाहिए हर तरह से… अचानक कोई चल पड़े तो रोता ही फिरे दूसरा, कुछ कर ही न पाए,’’ वह हंसी थी.

‘‘चुप करो… कैसी बेसिरपैर की बातें कर रही हो… जा रही हो तो मैं तुम्हें रोक नहीं रहा… कब लौटोगी यह बताओ. शादी के लिए 10 दिन बहुत हैं, 1 महीना जा कर क्या करोगी पर ठीक है जाओ… हर दिन मुझे फोन करोगी. चलो अब सो जाओ.’’

8 बज चुके थे. तभी अभि आ गया, ‘‘कहां हो दीदी?’’

‘‘अभी उठी नहीं. कल तबीयत कुछ ठीक नहीं थी उस की… कुछ अजीब सी बातें कर रही थी, इसलिए अभी उठाया नहीं.’’

‘‘1 बजे की फ्लाइट है जीजू, देर न हो जाए.’’

‘‘हां, मैं उठाने ही जा रहा था. मुझे रात को ही मालूम हुआ… चाय बन गई, तुम उठा दो मैं चाय डाल कर लाता हूं.’’

‘‘दीदी उठो. मैं आ भी गया. चलना नहीं क्या? देर हो जाएगी,’’ अभि ने उसे उठाया.

‘‘जितनी देर होनी थी अभि हो चुकी अब और क्या होगी?’’ कहते हुए हर्षा उठ बैठी.

‘‘क्यों नहीं आप वहां रुकीं इलाज करवाने… कोशिश तो की ही जा सकती थी… क्यों नहीं बताने दिया जीजू को?’’ छोटा भाई अभि उस के कंधे पकड़ लाचारगी से बैठ गया. आंखों में बूंदें झलकने लगीं.

‘‘वक्त बहुत कम था मेरे पास, कितना इलाज हो पाता… तुझे तो पता ही है, तेरे जीजू को तैयार भी तो करना था मेरे बिना रहने के लिए… तू शांत हो जा बस,’’ हर्षा उस के आंसू पोंछने लगी जो रुक ही नहीं रहे थे.

उल्लास के कदमों की आहट कमरे की ओर आने लगी, तो अभि ने झट अपने आंसू दोनों हाथों से पोंछ डाले और सामान्य दिखने की कोशिश करने लगा.

हर्षा जातेजाते उल्लास को ठीक से रहनेखाने की तमाम हिदायतें दिए जा रही थी. अधिक फोन मत करना… वहां सब मुझे छेड़ेंगे कि उल्लास तेरे बिना रह ही नहीं पा रहा.

अब उदास, परेशान मत हो… तुम्हीं ने तो लंबा प्रोग्राम बनाया है. दोस्त के यहां शादी में जा रही हो. खुशीखुशी जाओ, मेरी चिंता बिलकुल छोड़ दो. मैं सब मैनेज कर लूंगा… ठाट से रहूंगा, देखना.’’

एअरपोर्ट से अंदर जाने के लिए हर्षा ने उल्लास का हाथ छोड़ा तो लगा उस की सारी दुनिया ही छूट गई. उल्लास को आखिरी बार जी भर कर देख लेना चाह रही थी. बड़ी मुश्किल से अपने को संभाला और हौले से बाय कहा. मुसकरा कर हाथ हिलाया और फिर झटके से चेहरा घुमा लिया. आंखों में उमड़ते बादलों को बरसने से रोक पाना उस के लिए असंभव था.

2 दिन ही बीते थे हर्षा को गए हुए औफिस में उल्लास को पता चला उस की अगले फ्राईडे को मुंबई में मीटिंग है. वह खुशी से उछल पड़ा. उस ने 2-3 बार ट्राई किया कि हर्षा को बता दे पर फोन नहीं मिला. फिर सोचा अचानक उसे सरप्राइज देगा.

‘‘फोन ही नहीं मिल रहा हर्षा का. यहां मेरी मीटिंग है आज 3 बजे. सोच रहा हूं हर्षा को सरप्राइज दूं. उस की सहेली रुचि का जल्दी पता बता अभि.’’

अभि उसे हैरानपरेशान सा देख रहा था.

‘‘जीजू आप…’’ उस ने पैर छुए, ‘‘मैं वहीं जा रहा हूं आइए. 1 मिनट रुको. अंदर अम्मांजी से तो मिल लूं.’’

‘‘सब वहीं हैं जीजू,’’ वह धीरे से बोला.

‘‘कहां खोया है तू… लगता है तेरी भी जल्दी शादी करनी पड़ेगी,’’ उल्लास अकेले ही बोले जा रहा था.

‘‘अरे कहां ले आया तू टाटा मैमोरियल… कौन है यहां कुछ तो बोल… अभि कहीं हर्षा…’’ वह आशंका से व्याकुल हो उठा.

अभि बिना कुछ बोले उस का हाथ पकड़ सीधे हर्षा के पास ले आया, ‘‘सौरी दी… मैं आप को दिया प्रौमिस पूरा नहीं कर पाया,’’ और फिर फूटफूट कर रो पड़ा.

दिल से न चाहते हुए भी हर्षा की आंखें जैसे उल्लास का ही इंतजार कर रही थीं.

मानो कह रही हों तुम्हें देख अब तसल्ली से जा सकूंगी. उल्लास के हाथ को कस कर थामे उस की हथेलियों की पकड़ ढीली पड़ने लगी. वह बेसुध हो गई.

‘‘हर्षाहर्षा तुम्हें कुछ नहीं होने दूंगा. तुम ने मुझे क्यों नहीं पता लगने दिया? डाक्टर… सिस्टर…’’

‘‘आप बाहर आइए प्लीज, हिम्मत से काम लीजिए… मैं ने इन्हें 2-3 महीने पहले ही बता दिया था… बहुत लेट आए थे… कैंसर की लास्ट स्टेज थी. अब कुछ नहीं हो सकता…’’

‘‘ऐसे कैसे कह सकते हैं डाक्टर? आप लोग नहीं कर पा रहे यह बात और है… मैं अमेरिका ले जाऊंगा… फौरन डिस्चार्ज कर दीजिए. मैं तुम्हें कुछ नहीं होने दूंगा हर्षा मैं अभी आया,’’ और वह बाहर भागा.

जी जान लगा कर उल्लास ने आननफानन में अमेरिका जाने की व्यवस्था कर ली. 2 दिन बाद वह हर्षा को ले कर लुफ्थांसा विमान में इसी उम्मीद की उड़ान भर रहा था.

‘‘तेरे बिन नहीं जीना मुझे हर्षा,’’ उस ने उस के कानों में धीरे से कहा और हमेशा की तरह उस के माथे पर चुंबन अंकित कर दिया, परंतु इस बार वह आंसुओं में भीगा था.

आधा चांद: क्यूं परेशान थी राधिका

इन सितारों के बीच भी क्या यह चांद खुद को अकेला महसूस करता होगा? क्या यह भी किसी से मिलने के लिए रोज आसमान में आता है? क्या ये तारे भी इस की भाषा समझते हैं? क्या इसे भी किसी की याद आती होगी? कैसे अजीब से सवाल आते रहते हैं मेरे मन में, जिन का जवाब शायद किसी के पास नहीं, या फिर ये सवाल ही फुजूल हैं. मेरी आदत है, हर रोज यों ही 10 बजे छत पर आ कर इस चांद को निहारने की. इस समय जब सब लोग परिवार के साथ टैलीविजन देखते हैं या मोबाइल में मैसेज टाइप कर रहे होते हैं, मैं यहां आ जाता हूं, इस चांद से बातें करने, क्योंकि एक यही तो है, जो मेरे इन तनहाई के दिनों में मुझे सुनता है, मेरा दर्द समझता है. जब हम प्यार में होते हैं, तो चांद में महबूब का अक्स देखते हैं और वहीं दूसरी तरफ जब दर्द में होते हैं, तो उस में हमदर्द तलाश कर लेते हैं और चांद की खूबी है कि यह सब बन जाता है.

पिछले 2 साल से मेरी रातें यहीं कटती हैं. अब तो इसे देखने की इतनी आदत हो गई है कि एक दिन यहां न आऊं तो कैसा लगेगा पता नहीं, क्योंकि आज तक कभी ऐसा हुआ नहीं. आदत कह कर मैं हंस पड़ा. कितनी अजीब है न यह आदत भी, कब और किस की लग जाए, पता नहीं. पहले राधिका की लगी, अब इस चांद की.

राधिका… आखिर आ ही गया उस का नाम मेरी जबां पर. आज तक ऐसा कोई दिन नहीं हुआ, जब मैं ने यहां आ कर उस का कोई किस्सा तुम्हें न सुनाया हो. तुम भी सोचते होंगे कि इतने दिन जिस का साथ नहीं रहा, यादें कैसे इतने दिन ठहर गईं?

राधिका और मैं पहली बार तब मिले थे, जब मैं मूवी का टिकट लेने टिकट खिड़की की लंबी लाइन में लगा था.  उस दिन कुछ ज्यादा ही भीड़ थी. मैं ने कभी नहीं सोचा था कि ऐसी किसी जगह भी कोई मिल सकता है, जो हमेशा याद रह सकता है. दरअसल, टिकट आखिरी थी और लड़केलड़कियों की अलगअलग लाइन होने के चलते हम दोनों ही खिड़की पर खड़े थे. टिकट वाला भी सोच में पड़ गया कि किसे दे…

मैं भी पीछे नहीं हटा और वह भी. टिकट वाले ने कहा कि आप दोनों तय कर लीजिए कि किसे चाहिए. वह खुद किसी झमेले में पड़ना नहीं चाहता था.

अब करें भी तो क्या. मैं उस से कुछ कहता, उस से पहले ही वह बोल पड़ी, ‘‘देखिए, यह टिकट तो मैं ही लूंगी, आप कल देख लेना.’’ ‘अजीब लड़की है,’ मैं ने सोचा. प्लीज कहने के बजाय ऐसे अकड़ कर बोल रही थी. मैं कुछ कहता, उस से पहले ही मेरे मोबाइल की घंटी बजी. मैं रिसीव करने थोड़ी दूर आया, 2 मिनट में काल कट कर के मैं वापस गया तो वह लड़की वहां नहीं थी.

मैं ने टिकट वाले की ओर सवालिया नजरों से देखा, तो वह बोला, ‘‘टिकट तो वे मैडम ले कर चली गईं.’’ मैं खिसिया कर रह गया. हद होती है… एक तो दिन मिलता है छुट्टी का और आज ही यह सब. अच्छाभला मूड ले कर आया था, लिहाजा उस दिन मैं उसी लड़की को कोसता रहा.

अगले हफ्ते समय से काफी पहले ही मैं टिकट लेने चला गया. भीड़ भी थोड़ी कम थी. इसे इत्तिफाक कहिए या कुछ और कि वह लड़की आज भी आई थी. मैं ने उसे नजरअंदाज करना ही ठीक समझा. आखिर कैसे उस दिन उस ने…

खैर, मैं ने टिकट ली और मुड़ा. वह मेरे पीछेपीछे थी. मैं उसे नजरअंदाज करने लगा. उस ने मुझे रोकते हुए कहा, ‘‘सुनिए…’’ मैं ने उस की ओर देखा, तो वह बोली, ‘‘सौरी, पिछली बार मैं ने टिकट ले ली थी.’’

मैं ने सोचा कि यह कैसे इतना बदल गई. खैर, मैं ‘इट्स ओके’ बोल कर आगे बढ़ा. वह फिर मेरे सामने आ कर ‘थैंक्स’ बोलने लगी. मैं दिखावे के लिए हलका सा मुसकरा दिया, फिर वह बोली, ‘‘क्या आप मेरी हैल्प कर सकते हैं?’’ मैं ने चौंक कर पूछा, ‘‘मैं क्या मदद कर सकता हूं?’’

वह बोली, ‘‘मेरे पास 15 रुपए कम हैं मूवी की टिकट के लिए. अगर आप अभी दे देते हैं, तो मैं वापस कर दूंगी. मूवी के बाद घर से ला कर पक्का. अभी जाऊंगी तो देर हो जाएगी.’’ मैं उस लड़की की मदद बिलकुल नहीं करना चाहता था. आखिर कैसे उस ने पिछली बार धोखे से टिकट ले ली थी, मुझे नीचा दिखा कर…

‘‘अच्छा तो इसलिए इस ने माफी मांगी होगी, तभी सोचूं कि इतना जल्दी कोई कैसे बदल सकता है,’’ मैं खुद में ही बुदबुदा रहा था कि तभी उस ने दोबारा कहा, ‘‘प्लीज…’’ मैं अपने खयाल से बाहर निकला. ऐसा कोई जरूरी नहीं था कि मैं उस की मदद करूं, पर पता नहीं क्यों, मैं खुद को रोक नहीं पाया और उसे 15 रुपए दे दिए.

वह देख कर ऐसे उछल कर ‘थैंक्स’ बोली, जैसे रोते हुए बच्चे को उस का मनपसंद खिलौना मिल गया हो. वह पहली बार तब अच्छी लगी थी मुझे. 3 घंटे की उस मूवी में मुझे उस का खयाल 30 बार आया. पता नहीं क्यों, पर मैं मिलना चाहता था उस से एक बार, देखना चाहता था उसे एक और बार. नहीं, वे 15 रुपए नहीं चाहिए थे मुझे, वह तो बस… होता है कभीकभी कि कोई एक नजर में ही बस जाता है इन नजरों में. मैं अपनी बाइक स्टार्ट कर के निकलने ही वाला था कि वह अचानक से मेरे सामने आ गई. वह बोली, ‘‘आप 5 मिनट यहीं रुकें, तो मैं घर से रुपए ला कर दे दूंगी.’’

मैं कहना चाहता था कि हां, बिलकुल रुक सकता हूं, क्योंकि 5 मिनट बाद मैं उसे फिर देख पाता, पर इसी बीच मेरे मोबाइल की रिंग बजी. कमबख्त यह हमेशा गलत समय पर ही बजता है. एक दोस्त का फोन था. कुछ जरूरी काम था. ‘अभी आता हूं’ कह कर मैं ने फोन काट किया और बाइक स्टार्ट करते हुए बोला, ‘‘नहीं, इस की कोई जरूरत नहीं है.’’ उस दिन के बाद से मैं हर संडे वहां जाता था. नहीं, मूवी देखने नहीं. मैं वहां मूवी शुरू होने तक खड़ा रहता और आतेजाते लोगों को देखता रहता. नजरें बस उसे ही तलाशती रहतीं, पर एक महीना यानी 4 रविवार हो गए थे, वह नहीं दिखी थी और इन 4 रविवार में मैं ने खुद भी कभी मूवी नहीं देखी, मन ही नहीं किया. आज 5वां रविवार था. मुझे खुद नहीं पता था कि मैं ऐसा क्यों कर रहा हूं. कुछ सवाल ऐसे होते हैं, जिन के जवाब हमारे पास नहीं होते या होते भी हैं, तो हम उन्हें स्वीकार नहीं कर पाते.

अचानक से उसे अपने सामने दूर से आता देख मेरी आंखों में अजीब सी चमक आ गई. उस के सामने गया तो वो भी मुझे देख कर हलका सा मुसकरा दी और बोली, ‘‘आप हर रविवार आते हैं यहां?’’ मैं ने जवाब देने के बदले सवाल कर दिया, ‘‘आप पिछले महीने एक बार भी नहीं आईं… क्यों?’’ वह कुछ सैकंड तक मुझे एकटक देखती रही, जैसे पूछना चाहती हो कि क्या मैं ने उस का इंतजार किया था, पर उस ने कुछ कहा नहीं, फिर खामोशी तोड़ते हुए वह बोली, ‘‘मैं शहर से बाहर गई हुई थी, इसलिए नहीं आई.’’

उस के बाद हम दोनों ने टिकट ली और मूवी देखने लगे. उस दिन के बाद से हर रविवार मैं भी जाता और वह भी आती थी. ऐसा कुछ था नहीं कि हम ने तय किया था कि हर हफ्ते आएंगे. पर होते हैं न कुछ वादे, जो हम जानेअनजाने एकदूसरे से कर देते हैं. कभी मैं जल्दी पहुंच जाता तो कभी वह. धीरेधीरे हम एकदूसरे के बारे में जानने लगे. मैं ने बताया कि मेरा घर अहमदाबाद में है और यहां नौकरी. तो उस ने बताया कि वह यहां पास में ही रहती है और एक स्कूल में टीचर है. वह अकसर अपने परिवार के बारे में बात करती थी.

उस की बातों से मैं इतना तो जान गया था कि उसे ज्यादा लोगों से मिलनाजुलना पसंद नहीं. कभीकभी मेरा मन करता कि उस से पूछूं कि वह मेरे साथ इतना खुल कर बात कैसे कर लेती है. मैं जो बहुत बोलने वाला था, उस से मिल कर उस की बातें खामोशी से सुनना सीख गया था और वह जो कम बोलती थी, मुझ से मिल कर खुल कर बोलने लगी थी. उसे मुझ से कहना पसंद था और मुझे उसे सुनना.

ऐसे ही एक दिन मूवी के बाद हम दोनों के कदम रुक गए और हम मुड़ कर एकदूसरे को देखने लगे. मुझे ऐसा लगा जैसे वह भी वही कहना चाहती है जो मैं उस से.

अब मुझ से बरदाश्त नहीं हो रहा था. मैं कहना चाहता था उस से अपने दिल की बात. मैं बताना चाहता था उसे कि मैं यहां मूवी देखने नहीं, बल्कि तुम्हें देखने आता हूं, तुम से मिलने आता हूं. मैं बताना चाहता था कि उसे देखे बिना मेरे ये 6 दिन कैसे बीतते हैं. पता नहीं क्यों, पर जब वह सामने आती तो मैं कुछ नहीं कह पाता था, बस उसे सुनता रहता था. एक बार बातों ही बातों में उस ने बताया था कि उसे चांद देखना बहुत पसंद है, लेकिन पूरा चांद आधा नहीं. अधूरा चांद, अधूरी ख्वाहिशें बहुत तकलीफ देती हैं…

इतना कहतेकहते वह रुक गई थी. तब मैं चाह कर भी कुछ कह नहीं पाया था. उस दिन पूर्णिमा थी. तब मैं ने पहली बार चांद को इतना गौर से देखा था. तब मुझे लगा कि राधिका भी उसे ही देख रही है. अगले हफ्ते जब मैं उस से मिला, तो उस ने कहा कि चलो, कहीं पास में बैठ कर बात करते हैं. मैं उसे देखता रह गया. जैसे वह जान गई थी कि मैं मूवी देखता ही नहीं था. मैं ने हां की और थोड़ी देर बाद हम एक कैफे में थे.

वह बहुत शांत थी आज, पर उस की आंखें बहुतकुछ कह रही थीं. कभीकभी कहना नहीं सिर्फ महसूस करना जरूरी होता है. मैं महसूस कर सकता था, उस के खामोश होंठों में कैद लफ्जों को. उस दिन विदा लेते समय उस ने मेरा हाथ अपने हाथ में ले कर मेरी हथेली पर एक कागज का छोटा सा टुकड़ा रख कर कहा कि घर जा कर देखना.

मैं कुछ कहता, उस से पहले ही वह मुड़ गई अपने घर की तरफ. मैं उसे जाते देखता रहा, तब तक जब तक कि वह मेरी नजरों से ओझल नहीं हो गई. एक नन्ही सी बूंद मेरे चेहरे पर पड़ी. मैं वर्तमान में आ गया. आसमान में बादल घिर आए थे. तब से ले कर आज तक मैं हर रविवार वहां जाता हूं. नहीं, मूवी देखने नहीं, उसे महसूस करने. वह नहीं आती अब, पर अभी भी जब मैं वहां जाता हूं तो मुझे लगता है कि जैसे वह यहींकहीं है और छिप कर मुझे देख रही है.

यह प्यार भी इनसान को क्या से क्या बना देता है, इस का अहसास मुझे उस से मिल कर हुआ. खैर, मैं जानता हूं कि वह अब कभी नहीं आएगी. नहीं, उस ने ऐसा कहा नहीं था, पर जो वह दे गई थी उस शाम वह कागज का टुकड़ा, उस से जान गया हूं. वह टुकड़ा आज भी मेरे पर्स में रखा है. कुछ लिखा नहीं है उस में, पर बस बना है आधा चांद.

सती: अवनि की जिंदगी में क्या हुआ पति की मौत के बाद

अवनी ने मनीष को दवा खिलाई और बाहर आ कर ड्राइंगरूम में टीवी देखने लगी. तभी अंदर से मनीष
के चिल्लाने की आवाज आई. अवनी भगाती हुई अंदर गई तो देखा मनीष गुस्से से भरा बैठा था.

अवनी को देखते ही बोला,”तुम मेरी नर्स हो या पत्नी? 2 मिनट भी साथ नहीं बैठ सकतीं? तुम्हें नाम, पैसा, 2 बेटे, कोठी क्या कुछ नहीं दिया और मेरे बीमार पड़ते ही तुम ने नजरें फेर लीं?”

अवनी इस से पहले कुछ बोलती, उस के दोनों बेटे रचित, सार्थक और सासससुर भी आ गए थे.

रचित गुस्से में बोला,”मम्मी, शर्म आनी चाहिए आप को। एक दिन टीवी नहीं देखोगी तो कोई तूफान नहीं आ जाएगा।”

सास गुस्से में बोलीं,”पत्नी अपने पति के लिए क्या क्या नहीं करती। मेरे बेटे को कैंसर क्या हुआ अवनी कि तुम ने अपनी नजरें ही फेर लीं…”

अवनी कमरे में एक तरफ अपराधी की तरह बैठी रही, वह अपराध जो उस ने किया ही नहीं था. मनीष के सिर पर अवनी ने जैसे ही हाथ फेरा मनीष ने झटक कर हाथ हटा दिया। अवनी की आंखों मे आंसू आ गए. उसे पता था मनीष कैंसर के कारण चिड़चिड़ा हो गया है पर वह क्या करे? वह पूरी कोशिश करती है पर आखिर है तो इंसान ही. पिछले 3 सालों से मनीष के कैंसर का इलाज चल रहा था. अवनी शुरुआत में रातदिन मनीष के साथ साए की तरह बनी रहती थी. पर धीरेधीरे वह तनमन से थक गई थी.

पर परिवार के सब लोग मनीष का भार अवनी पर डाल कर निश्चिंत हो गए थे. मनीष की बीमारी मानों
अवनी के लिए एक कैदखाना हो गई थी. अवनी के उठनेबैठने, कपड़े पहनने तक पर सब की निगाहें रहती थीं. अवनी अगर थोड़ा सा तैयार हो जाती तो मनीष की नजरों में सवाल तैरने लगते थे. अवनी का बहुत मन होता मनीष को बताने का कि उसे दुख है पर वह जीना नहीं छोड़ सकती.

पिछले 3 सालों से अवनी ने घर से बाहर कदम नहीं रखा था. किसी की शादी या कोई समारोह होता तो अवनी के सासससुर दोनों बेटों के साथ चले जाते थे. अवनी को ऐसा महसूस होने लगा था कि वह मनीष
के जिंदा होते हुए भी सती हो गई है. सती तो शायद पति की चिता के साथ एक बार ही जली थी पर अवनी तो पिछले 3 सालों से तिलतिल कर जल रही थी.

कल रात बहुत देर से अवनी की आंख लगी और मनीष के चिल्लाने की आवाज से एक झटके से खुल गई.
मनीष गुस्से में बड़बड़ा रहा था,”अगर मेरे पास पैसा न होता तो तुम तो मुझे सड़क पर बैठा देतीं।”

अवनी बिना कुछ बोले चुपचाप चाय बनाने चली गई. उस को देखते ही सास बोलीं,”आज तो तुम ने हद
कर दी है, कब मनीष कुछ खाएगा और कब वह दवा लेगा? तुम्हें पता है न कीमोथेरैपी के लिए डाइट का अच्छा होना जरूरी है…”

मनीष को चाय और बादाम दे कर अवनी नहाने चली गई. जब नहा कर बाहर निकली तो देखा कमरे में से
किसी के जोरजोर से हंसने की आवाज आ रही थी. अवनी ने गीले बालों को तौलिए से लपेट रखा था।कुछ गीले बाल छितर कर इधरउधर बिखरे हुए थे और इंडिगो ब्लू रंग का सूट उस पर खूब खिल रहा था.

जैसे ही वह बाहर आई, वह युवक बोला,”अरे भाभीजी को तो देख कर लगता ही नहीं इन के 18 और 20 साल के बेटे भी होंगे।”

मनीष कड़वा सा मुंह बनाते हुए बोला,”हां कुदरत ने सारा बुढ़ापा तेरे भैया के ही नसीब में लिख दिया है,”
और फिर वह फफकफफक कर रोने लगा. अवनी अपराधी की तरह खड़ी रह गई.

अवनी सब समझती थी। कीमोथेरैपी के कारण मनीष के बाल झड़ गए थे। चेहरे पर काले धब्बे पड़ गए थे और आंखे अंदर धंस गई थीं. पर अवनी को समझ नहीं आता था कि वह कैसे मनीष का मनोबल बढ़ाए.

तभी वह युवक बोला,”अरे अवनीजी, आप ने मुझे पहचाना नहीं, मैं मनीष की बुआ का बेटा हूं और रिश्ते में
आप का देवर हूं। मेरा नाम कुणाल है।”

अवनी बोली,”अरे आप बैठो, मैं चायनाश्ते का इंतजाम करती हूं।”

अवनी ने फटाफट कुक की मदद से पनीर के परांठे, ढोकला, सूजी का हलवा और लालमिर्च की चटनी बना
ली थी. जैसे ही वह बाहर निकली तो मनीष को डाइनिंग टेबल पर बैठा देख कर खुश हो गई.

कुणाल बोला,”जल्दीजल्दी नाश्ता लगाएं, बड़ी कस कर भूख लगी है।”

आज शायद लगभग 1 साल के बाद मनीष ने डाइनिंग टेबल पर बैठ कर सब के साथ खाया होगा. कुणाल पूरे समय चुटकले सुनाता रहा और अवनी के नाश्ते की तारीफ करता रहा. न जाने क्यों अवनी को लग रहा था कि कुणाल के आने से पूरे घर में खुशियों की लहर आ गई है. नाश्ते के बाद सब लोग अपनेअपने काम में लग गए और कुणाल ड्राइंगरूम में बैठ कर टीवी पर कोई प्रोग्राम देखने लगा. अवनी भी वहीं बैठ कर सब्जी काटने लगी और सब्जी काटतेकाटते कुणाल से बोली,”और आप के घर में सब कैसे हैं?”

कुणाल हंसते हुए बोला,”मैं ही घर हूं।
और कोई नहीं है मेरे घर में। मैं अच्छा हूं तो घर भी अच्छा है।”

अवनी बोली,”आप ने अब तक शादी नहीं करी क्या?”

कुणाल बोला,”करी थी मगर सोनल शादी के 4 साल बाद मुझ से अलग हो गई थी।”

अवनी ने धीमे से कहा,”सौरी…”

कुणाल हंसते हुए बोला,”अरे इस में सौरी की क्या बात है। अगर कोई मेरी टाइप की मिलेगी तो शादी कर लूंगा।”

कुणाल बिजनैस के सिलसिले में यहां आया हुआ था. वह अगले दिन से रोज सुबह काम पर निकल जाता
और शाम को आ जाता था. उस के आते ही अवनी के चेहरे पर रौनक आ जाती थी. कुणाल अवनी से सुखदुख की बात कर लेती थी.

धीरेधीरे कुणाल और अवनी के बीच अच्छी दोस्ती हो गई थी. कुणाल लगभग 2 महीने रहा और इन 2 महीनों में वह हर वीकैंड पर आउटिंग का प्लान करता था. जब पहली बार कुणाल ने मूवी का प्लान बनाया तो रचित और सार्थक का हमेशा की तरह अपने प्रोग्राम बने हुए थे.

सासससुर जब तैयार हो गए तो कुणाल बोला,”मनीष भैया और अवनी भाभी नही चलेंगे?”

अवनी की सास बोलीं,”अरे मनीष कहीं आताजाता नहीं है। वह तो तेरे कहने पर हम भी बरसों बाद मूवी
देखने जा रहे हैं।”

कुणाल ने जबरदस्ती मनीष को यह कहते हुए तैयार कर लिया कि अगर मन नहीं लगा तो वह खुद बीच में ही मनीष के साथ घर आ जाएगा.

जब इंटरवल में कुणाल और अवनी पौपकौर्न लेने गए तो कुणाल बोला,”ऐसे ही खुश रहा करो, अच्छी लगती हो। भैया बीमार हैं पर आप क्यों उन के साथ समय से पहले ही सती हो रही हो?”

कुणाल जातेजाते अवनी को हिम्मत और साहस दे गया था. अब अवनी महीने में 1 बार जरूर बाहर अपने दोस्तों से मिलने या मूवी देखने चली जाती थी. मनीष की चिड़चिड़ाहट, बच्चों की शिकायतें या
सासससुर की नसीहतों को अब अवनी अनदेखा कर देती थी. जब भी अवनी को अकेलापन लगता या हौसला टूटने लगता तो वह कुणाल से फोन पर बात कर लेती थी. मनीष के अंतिम दिनों में कुणाल भी वहीं आ गया था. कुणाल के आने से अवनी को हर तरह से सहारा मिल गया था.

जब मनीष की मृत्यु हो गई तो कुणाल ही था जो पूरे परिवार के लिए रातदिन खड़ा रहा था. वह पूरे 1 माह रुका और जाने से पहले कुणाल ने अवनी को कहा,”जब कभी भी मेरी जरूरत महसूस हो बस एक कौल कर देना…”

अब अवनी ने फिर से अपनी जिंदगी नई सिरे से शुरू करनी चाही पर उस का अपना परिवार उसे यह करने
से रोक रहा था. जब अवनी ने अपने ससुर से बिजनैस जौइन करने की बात करी तो ससुर बोले,”यह उम्र तुम्हारे बेटों की बिजनैस सीखने की है। तुम घर पर रह कर योगसाधना में अपना ध्यान लगाओ। पूजापाठ करो ताकि अगले जन्म में वैधव्य का दुख न भोगना पड़े।”

अवनी उन की अंधविश्वास भरी बातें सुन कर हैरान रह जाती। अगर वह थोड़ा ढंग से तैयार हो जाती तो सास की तीखी नजरें उसे चुभती रहती थीं. अवनी कभीकभी दुखी हो कर सोचती कि इस से अच्छा तो पहला जमाना था जब पति के साथ ही पत्नी सती हो जाती थी। कम से कम रोज तिलतिल कर मरना तो नहीं पड़ता था.

मनीष की मृत्यु को पूरे 1 साल हो गए थे. आज मनीष की बरसी थी और कुणाल भी आया हुआ था. अवनी
को देखते ही बोला,”यह तुम ने अपना क्या हाल बना लिया है? भैया की मृत्यु हुई है तुम्हारी नहीं।”

अवनी फफकफफक कर रो पड़ी और बोली,”काश, मैं ही मर जाती, कुणाल। मेरे कपड़े पहनने, हंसनेबोलने सब पर पाबंदी है। मेरे खुद के बेटे मुझे खुश देखते ही शक करने लगते हैं। मुझे बाहर काम करने की इजाजत नहीं है। घर पर कोई काम है नहीं, बच्चे बड़े हो गए हैं। बताओ मैं क्या करूं?

“इस पूजापाठ, व्रत में मेरी श्रद्धा नहीं है। मुझे एक सामान्य औरत की तरह जीने का मन है। मुझे देवी नहीं बनना है…”

कुणाल ने एकाएक कहा,”अवनी, मुझ से शादी करोगी?”

अवनी एकदम से हक्कीबक्की रह गई और बोली,”क्या कह रहे हो तुम? मेरे 2-2 जवान बेटे हैं…”

कुणाल बोला,”हां 2-2 बेटे हैं जिन्हें कभी भी तुम्हारी जरूरत नहीं थी।सोच कर बताना, अगर जवाब न भी होगा तो भी तुम्हारा दोस्त बन कर हमेशा खड़ा रहूंगा।”

कुणाल के जाने के बाद अवनी बहुत दिनों तक सोचविचार करती रही मगर उस के अंदर डर उसे भयभीत करता रहता।

कुछ दिनों बाद मनीष के परिवार में ही शादी थी. सब लोग अच्छे से तैयार हुए मगर अवनी जैसे ही तैयार हो
कर बाहर आई तो सास बोलीं,”यह नारंगी रंग की साड़ी के बजाए कोई लाइट कलर पहन लो। लोग क्या सोचेंगे कि तुम्हें जरा भी मनीष के जाने का दुख नहीं है।”

जैसे ही अवनी जाने लगी तो बड़े बेटे रचित की आवाज आई,”मम्मी, यह लिपस्टिक भी हलकी कर लीजिए।लोग आप को ऐसे देखें तो अच्छा नहीं लगता।”

अवनी अंदर जा कर फूटफूट कर रोई और जब बाहर निकली तो वह एक सफेद साड़ी में लिपटी थी।

ससुरजी गुस्से में बोले,”यह जानबूझ कर नाटक क्यों कर रही हो अवनी, ताकि सब को लगे हम एक विधवा पर जुल्म कर रहे हैं…”

आखिरकार अवनी उस शादी में गई ही नहीं मगर उस रात बहुत देर तक वह कुणाल से बात करती रही।
अगले दिन सब के सामने अवनी ने कुणाल से विवाह करने का फैसला सुना दिया। दोनों बेटे सकते में
आ गए थे.

सास रोते हुए बोलीं,”तेरा चक्कर तो कुणाल से शायद बहुत पहले से ही चल रहा था, अवनी. तभी तो तुम मेरे
बीमार बेटे की देखभाल नहीं करती थीं।”

ससुरजी बोले,”बेवकूफ औरत, यह तुम्हारे बेटों की शादी की उम्र है नाकि तुम्हारी. जरा अपनी उम्र का लिहाज तो करो. 2 साल भी तुम से मर्द के बिना नहीं रहा जा रहा है?”

सार्थक गुस्से में बोला,”अगर आप ने कुणाल से शादी करी तो आप हम से रिश्ता तोड़ लेना।”

अवनी के मातापिता भी उस के फैसले से खुश नहीं थे. अवनी की भाभी बोलीं,”दीदी, सार्थक और
रचित के बारे में तो सोचो। कुछ वर्षों बाद आप के पोतेपोती खिलाने की उम्र हो जाएगी और आप डोली में बैठने की तैयारी कर रही हो… अगर आप अकेली होतीं तो ठीक था पर आप के तो 2 जवान बेटे हैं, आप को क्यों किसी सहारे की आवश्यकता है?”

अवनी को समझ नहीं आ रहा था कि वह कैसे किसी को समझाए. जिंदगी का मतलब बस रोटी, कपड़ा और
मकान ही तो नहीं है. सब के विरोध के बावजूद भी अवनी और कुणाल ने कोर्ट में विवाह कर लिया था.

जब सब पुराने रिश्तों से रीति हो कर अवनी कुणाल का हाथ थाम कर उस के घर मे आई तो उस की आंखें
गीली थीं. अवनी कुणाल से बोली,”कुणाल, मुझे मेरे बेटों ने अपनी जिंदगी से बेदखल कर दिया है।”

कुणाल हंसते हुए बोला,”अवनी, देरसवेर रचित और सार्थक तुम्हारा पहलू समझ जाएंगे. सती प्रथा को समाप्त करने के लिए किसी को तो पहल करनी होती है न…”

अवनी के मन में ये पंक्तियां बारबार उमड़ रही थीं,”न बनना चाहती हूं मैं देवी और न ही बनना चाहती हूं सती, मैं हूं एक सामान्य नारी जो हर उम्र में चाहती है जीवन में भावनाओं की गति.

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