Holi Special: ये कैसा सौदा- भाग 3

समय सपनों की तरह बीतने लगा था. संगीता की हर छोटीबड़ी खुशी का खयाल दीक्षित दंपती रखने लगे थे. संगीता की सेवा के लिए अलग से एक आया रखी गई थी. रिया और जिया अच्छी तरह रहने लगी थीं. विक्रम यह सब देख कर खुश था कि उस का परिवार सुखों के झूले में झूलने लगा था.

संगीता अपनी बेटियों के खिले चेहरों को देख कर, अपने पति को निश्चिंत देख कर खुश थी लेकिन अपने आप से खुश नहीं हो पाती थी. पता नहीं क्यों, अपने अंदर पल रहे जीव से वह जुड़ नहीं पा रही थी. उसे वह न अपना अंश लगता था न उस के प्रति ममता ही जाग रही थी. उसे हर पल लगता कि वह एक बोझ उठाए ड्यूटी पर तैनात है और उसे अपने परिवार के सुनहरे भविष्य के लिए एक निश्चित समय तक यह बोझ उठाना ही है.

भले ही अपनी दोनों बेटियों के जन्म के दौरान संगीता ने बहुत कष्ट व कठिनाइयां झेली थीं. तब न डाक्टरी इलाज था और न अच्छी खुराक ही थी. उस पर घर का सारा काम भी उसे करना पड़ता था फिर भी उसे वह सब सुखद लगता था, लेकिन अब कदमकदम पर बिछे फूल भी उसे कांटों जैसे लगते थे. अपने भीतर करवट लेता नन्हा जीव उसे रोमांचित नहीं करता था. उस के दुनिया में आने का इंतजार जरूर था लेकिन खुशी नहीं हो रही थी.

आखिर वह दिन भी आ गया जिस का दीक्षित दंपती को बहुत बेसब्री से इंतजार था. सुबह लगभग 4 बजे का समय था, संगीता प्रसव पीड़ा से बेचैन होने लगी. घबराया सा विक्रम दौड़ कर कोठी में खबर करने पहुंचा. संगीता को तुरंत गाड़ी में बिठा कर नर्सिंगहोम ले जाया गया. महिला डाक्टरों की एक पूरी टीम लेबररूम में पहुंच गई जहां संगीता दर्द से छटपटा रही थी.

प्रसव पूर्व की जांच पूरी हो चुकी थी. अभी कुछ ही क्षण बीते थे कि लेबर रूम से एक नर्स बाहर आ कर बोली कि संगीता ने बेटे को जन्म दिया है. यह खबर सुनते ही दीक्षित दंपती के चेहरों पर खुशी की लहर दौड़ गई जबकि विक्रम का चेहरा लटक गया कि काश, 2 बेटियों के बाद संगीता की कोख से जन्म लेने वाला यह उन का अपना बेटा होता, लेकिन पराई अमानत पर कैसी नजर? विक्रम अपने मन को समझाने लगा.

गुलाबी रंग के फरवाले बेबी कंबल में लपेट कर लेडी डाक्टर जैसे ही बच्चे को ले कर बाहर आई श्रीमती दीक्षित ने आगे बढ़ कर उसे गोद में ले लिया. संगीता ने आंखों में आंसू भर कर मुंह मोड़ लिया. दीक्षित साहब ने धन्यवादस्वरूप विक्रम के हाथ थाम लिए. जहां दीक्षित साहब के चेहरे पर अद्भुत चमक थी वहीं विक्रम का चेहरा मुरझाया हुआ था.

तभी श्रीमती दीक्षित चिल्लाईं, ‘‘डाक्टर, बच्चे को देखो.’’

डाक्टरों की टीम दौड़ती हुई उन के पास पहुंची. बच्चे का शरीर अकड़ गया. नर्सें बच्चे को ले कर आईसीयू की तरफ दौड़ीं. डाक्टर भी पीछेपीछे थे. बच्चा ठीक से सांस नहीं ले पा रहा था. पल भर में ही आईसीयू के बाहर खड़े चेहरों पर दुख की लकीरें खिंच गईं.

एक डाक्टर ने बाहर आ कर बड़े ही दुख के साथ बताया कि बच्चे की दोनों टांगें बेकार हो गई हैं. बहुत कोशिश के बाद उस की जान तो बच गई है लेकिन अभी यह भी नहीं कहा जा सकता कि वह सामान्य बच्चे की तरह होगा या नहीं क्योंकि अचानक उस के दिमाग में आक्सीजन की कमी से यह सब हुआ है.

डाक्टर की बात सुनते ही दीक्षित दंपती के चेहरे पर प्रश्नचिह्न लग गया. विक्रम को वहां छोड़ कर वे वहां से चले गए. एक पल में आया तूफान सब की खुशियां उड़ा ले गया था. 3 दिन बाद संगीता की नर्सिंगहोम से छुट्टी होनी थी. नर्सिंगहोम का बिल और संगीता के नाम 2 लाख रुपए नौकर के हाथ भेज कर दीक्षित साहब ने कहलवाया था कि वे आउट हाउस से अपना सामान उठा लें.

पैसे वालों ने यह कैसा सौदा किया था? पत्नी की कोख का सौदा करने वाला विक्रम अपने स्वाभिमान का सौदा न कर सका. उसे वे 2 लाख रुपए लेना गवारा न हुआ. उस ने पैसे नौकर के ही हाथ लौटा कर अमीरी के मुंह पर वही लात मारी थी जो दीक्षित परिवार ने संगीता की कोख पर मारी थी.

नर्सिंगहोम से छुट्टी के समय नर्स ने जब बच्चा संगीता की गोद में देना चाहा तो वह पागलों की तरह चीख उठी, ‘‘यह मेरा नहीं है.’’ 9 महीने अपनी कोख में रख कर भी इस निर्जीव से मांस के लोथड़े से वह न तो कोई रिश्ता जोड़ पा रही थी और न तोड़ ही पा रही थी. उस की छाती में उतरता दूध उसे डंक मार रहा था. उस के परिवार के भविष्य पर अंधकार के काले बादल छा गए थे.

उस दिन जब विक्रम आउट हाउस से अपना सामान उठाने गया तो कोठी के नौकरों से पता लगा कि दीक्षित दंपती तो विदेश रवाना हो गए हैं.

अज्ञातवास: भाग 4

‘‘बारबार गलती मत कर, अर्चना. मुझे एक बात का दुख है कि तू समाज से अपने हक के लिए लड़ी नहीं. जिस आदमी ने तुझे धोखा दिया वह आराम से रह रहा है. तू तो उस के बारे में नहीं जानती पर उस ने तो शादी भी कर ली होगी, बीवीबच्चे भी होंगे उस के, वह तो आदमी है, उस के सात खून माफ हैं? हम स्त्रियों की कोख है और हम मोहवश बच्चे को भी छोड़ना नहीं चाहतीं. यही हमारी कमजोरी है और हम बदनामी से डरते हैं.’’

‘‘अब क्या हो सकता है नीरा, जो बीत गई सो बीत गई.’’

‘‘अब तू वहां क्यों रह रही है? तेरा बेटा तो अब कमाने लगा, विदेश में रहता है.’’

‘‘जैसे ही मेरा बेटा कमाने लगा, मैं ने मकान ले लिया और हम सुविधापूर्वक रहने लगे. बेटे की शादी भी हो गई. बहू आ गई और 2 बच्चे भी हो गए. फिर उसे एक अच्छा औफर मिला तो वह विदेश चला गया.’’

‘‘तू क्यों नहीं गई?’’

‘‘मैं ने 3 बार वीजा के लिए अप्लाई किया था पर अफसोस मुझे नहीं मिला. मैं वहीं रहती रही. फिर मुझे लगा, इस उम्र में अकेले रहना मुश्किल है. तब मैं सारे सामान को जरूरतमंद गरीबों में बांट कर यहां सेवा करने के लिए आ गई. मेरे बेटे ने बहुत मना किया. मुझे देखने वाला कोई नहीं है. कल कोई हारीबीमारी हो तो कौन ध्यान रखेगा? यहां लोग तो हैं. मैं ने इन लोगों से रिक्वैस्ट की. ये लोग मान गए. पहले कुछ रुपए देने की बात हुई थी पर ये लोग मुकर गए, कहने लगे कि तुम्हारा बेटा कमाता है. खैर, खानापीनारहना फ्री है और खर्चे के लिए बेटा पैसे भेज देता है.’’

‘‘यह जिंदगी तुझे रास आ गई?’’

‘‘रास आए न आए, क्या कर सकते हैं?  एक बात सुन, मेरी भोपाल जाने की इच्छा हो रही है. हम दोनों चलें.’’

‘‘अर्चना, बड़ा आश्चर्य… अभी भी तेरे मन के एक कोने में सब से मिलने की इच्छा हो रही है. अब कितनी मुश्किल है. हम दोनों 77 साल के हो गए. इस समय जाना ठीक नहीं है. अभी तो कोरोना है. मेरे घर वाले भी नहीं भेजेंगे. एक चेंज के लिए कभी हो सका तो चलेंगे. अभी अपनी फोटो भेज. मैं भी अपनी भेजती हूं.’’

‘‘मेरे पास तो स्मार्टफोन नहीं है. बेटे ने ले कर देने के लिए कहा था पर मैं ने ही मना कर दिया. खैर, कोई बात नहीं, प्रिया के मोबाइल से भेज दूंगी. उस का नंबर तुम्हें दूंगी. तुम उस में भेज देना. प्लीज, मुझे फोन करते रहना. क्या मैं तुम्हें फोन कभी भी कर सकती हूं?’’

‘‘जरूर, तू ऐसे क्यों बोली,मुझे बहुत रोना आ रहा है? तू इतनी दयनीय कैसे बन गई? तुम कैसी थीं और कैसी हो गईं? यार, तुम्हारी क्या हालत हो गई.’’

‘‘नीरा, 60 साल बाद मुझे जो खुशी मिली, उस को कैसे भूल जाऊंगी. अब मैं सही हो जाऊंगी, देख, मरने के पहले किसी को यह कहानी सुनाना चाहती थी. तुम्हें सुना दी. मैं हलकी हो गई. गुडबाय, फिर मिलेंगे.’’

‘‘गुडबाय, गुडनाइट’’ कह कर मैं ने फोन रख दिया.

अपनी सहेली के मिलने की खुशी मनाऊं या उस की बरबादी पर रोऊं.कुछ समझ में नहीं आ रहा. हमारा समाज आखिर कब बदलेगा…

मोह का जाल – भाग 4 : क्यों लड़खड़ाने लगा तनु के पैर

सुबह अस्पताल जाने के लिए गाड़ी स्टार्ट की तो न जाने कैसे स्टियरिंग मनुज के घर की ओर मुड़ गया. जब वहां जा कर कार खड़ी हुई तब होश आया कि अनजाने में कहां से कहां आ गई. वह कैसी स्थिति थी, मैं नहीं जानती. दिल पर अंकुश रख कर गाड़ी बैक करने ही वाली थी कि नौकर दौड़ादौड़ा आया, ‘‘डाक्टर साहब, आप की कृपा से प्रतीक्षित भैया होश में आ गए हैं. साहब आप को ही याद कर रहे हैं.’’

न चाहते हुए भी उतरना पड़ा. मुझे वहां उपस्थित देख कर मनुज आश्चर्यचकित रह गए. उन्हें एकाएक विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मैं बिना बुलाए उन के बेटे का हालचाल पूछने आऊंगी.

‘‘प्रतीक्षित कैसा है? कल उस के ज्वर की तीव्रता देख कर मैं भी घबरा गई थी. सो, उसे देखने चली आई,’’ मनुज के चेहरे पर अंकित प्रश्नों को नजरअंदाज करते हुए मैं बोली.

मनुज ने प्रतीक्षित से मेरा परिचय करवाया तो वह बोला, ‘‘डाक्टर आंटी, मैं ठीक हो जाऊंगा न, तो खूब पढ़ूंगा और आप की तरह ही डाक्टर बनूंगा. फिर आप की तरह ही सफेद कोट पहन कर, स्टेथोस्कोप लगा कर बीमार व्यक्तियों को देखूंगा.’’

‘‘अच्छा बेटा, पहले ठीक हो जा, ज्यादा बातें मत करना, आराम करना. समय पर दवा खाना. मुझ से पूछे बिना कुछ खानापीना मत. अच्छा, मैं चलती हूं.’’

‘‘आंटी, आप फिर आइएगा, आप को देखे बिना मुझे नींद ही नहीं आती है.’’

‘‘बड़ा शैतान हो गया है, बारबार आप को तंग करता रहता है,’’ मनुज खिसियानी आवाज में बोले.

‘‘कोई बात नहीं, बच्चा है,’’ मैं कहती, पर अप्रत्यक्ष में मन कह उठता, ‘तुम से तो कम है. तुम ने तो जीवनभर का दंश दे दिया है.’

मैं जानती थी कि मेरा वहां बारबार जाना उचित नहीं है. कहीं मनुज कोई गलत अर्थ न लगा लें. मनुज की आंखों में मेरे लिए चाह उभरती नजर आई थी. किंतु मेरी अत्यधिक तटस्थता उन्हें सदैव अपराधबोध से दंशित करती रहती. प्रतीक्षित के ठीक होने पर मैं ने जाना बंद कर दिया. वैसे भी प्रतीक्षित के साथ मेरा रिश्ता ही क्या था? सिर्फ एक डाक्टर व मरीज का. जब बीमारी ही नहीं रही तो डाक्टर का क्या औचित्य.

एक दिन शाम को टीवी पर अपनी मनपसंद पिक्चर ‘बंदिनी’ देख रही थी. नायिका की पीड़ा मानो मेरी अपनी पीड़ा हो, पुरानी भावुक पिक्चरों से मुझे लगाव था. जब फुरसत मिलती, देख लेती थी. तभी नौकर ने आ कर सूचना दी कि कोई आया है. मरीजों का चैकअप करने वाले कमरे में बैठने का निर्देश दे कर मैं गई, सामने मनुज और प्रतीक्षित को बैठा देख कर चौंक गई.

‘‘कैसे हो, बेटा? अब तो स्कूल जाना शुरू कर दिया होगा?’’ मैं स्वर को यथासंभव मुलायम बनाते हुए बोली.

‘‘हां, स्कूल तो जाना प्रारंभ कर दिया है किंतु आप से मिलने की बहुत इच्छा कर रही थी. इसलिए जिद कर के डैडी के साथ आ गया. आप क्यों नहीं आतीं डाक्टर आंटी अब हमारे घर?’’

‘‘बेटा, तुम्हारे जैसे और भी कई बीमार बच्चों की देखभाल में समय ही नहीं मिल पाता.’’

‘‘यदि आप नहीं आ सकतीं तो क्या मैं शाम को या छुट्टी के दिन आप के घर मिलने आ सकता हूं?’’

‘‘हां, क्यों नहीं,’’ उत्तर तो दे दिया था, किंतु क्या मनुज पसंद करेंगे.

‘‘घर में भी सदैव आप की बात करता है, डाक्टर आंटी ऐसी हैं, डाक्टर आंटी वैसी हैं,’’ फिर थोड़ा रुक कर मनुज बोले, ‘‘आप ने मेरे पुत्र को जीवनदान दे कर मुझे ऋणी बना दिया है. मैं आप का एहसान जिंदगीभर नहीं भूलूंगा.’’

‘‘वह तो मेरा कर्तव्य था,’’ मेरे मुख से संक्षिप्त उत्तर सुन कर मनुज कुछ और कहने का साहस न जुटा सके, जबकि लग रहा था कि वे कुछ कहने आए हैं. और मैं चाह कर भी ऋचा के बारे में न पूछ सकी. प्रतीक्षित इतने दिन बीमार रहा. वह क्यों नहीं आई, क्यों उस की खबर नहीं ली.

उस दिन के पश्चात प्रतीक्षित लगभग रोज ही मेरे पास आने लगा. मेरा काफी समय उस के साथ बीतने लगा. एक दिन बातोंबातों में मैं ने उस से उस की मां के बारे में पूछा, तो वह बोला, ‘‘डाक्टर आंटी, मां याद तो नहीं हैं, सिर्फ तसवीर देखी है, लेकिन डैडी कहते हैं कि जब मैं 3 साल का था, तभी मां की मौत हो गई थी.’’

सांप सीढ़ी – भाग 2 : प्रशांत के साथ क्या हुआ था?

बोलने में विनम्रता, चाल में आत्मविश्वास, व्यवहार में बड़ों का आदरमान, चरित्र में सोना. सचमुच हजारों में एक को ही नसीब होता है ऐसा बेटा. मौसी वाकई समय की बलवान थीं.

मां के अनुशासन की डोरी पर स्वयं को साधती मैं विवाह की उम्र तक पहुंच चुकी थी. एमए पास थी, गृहकार्य में दक्ष थी, इस के बावजूद मेरा विवाह होने में खासी परेशानी हुई. कारण था, मेरा दबा रंग. प्रत्येक इनकार मन में टीस सी जगाता रहा. पर फिर भी प्रयास चलते रहे.और आखिरकार दिवाकर के यहां बात पक्की हो गई. इस बात पर देर तक विश्वास ही नहीं हुआ. बैंक में नौकरी, देखने में सुदर्शन, इन सब से बढ़ कर मुझे आकर्षित किया इस बात ने कि वे हमारे ही शहर में रहते थे. मां से, मौसी से और खासकर प्रशांत से मिलनाजुलना आसान रहेगा.

पर मेरी शादी के बाद मेरी मां और पिताजी बड़े भैया के पास भोपाल रहने चले गए, इसलिए उन से मिलना तो होता, पर कम.

मौसी अलबत्ता वहीं थीं. उन्होंने शादी के बाद सगी मां की तरह मेरा खयाल रखा. मुझे और दिवाकर को हर त्योहार पर घर खाने पर बुलातीं, नेग देतीं.

प्रशांत का पीईटी में चयन हो चुका था. वह धीरगंभीर युवक बन गया था. मेरे दोनों सगे भाई तो कोसों दूर थे. राखी व भाईदूज का त्योहार इसी मुंहबोले छोटे भाई के साथ मनाती.

स्कूटर की जानीपहचानी आवाज आई, तो मेरी विचारशृंखला टूटी. दिवाकर आ चुके थे. मैं हर्ष की उंगली पकड़े बाहर आई. कुछ कहनेसुनने का अवसर ही नहीं था. हर्ष को उस की बूआ के घर छोड़ कर हम मौसी के घर जा पहुंचे.

घर के सामने लगी भीड़ देख कर और मौसी का रोना सुन कर कुछ भी जानना बाकी न रहा. भीतर प्रशांत की मृतदेह पर गिरती, पछाड़ें खाती मौसी और पास ही खड़े आंसू बहाते मौसाजी को सांत्वना देना सचमुच असंभव था.

शब्द कभीकभी कितने बेमानी, कितने निरर्थक और कितने अक्षम हो जाते हैं, पहली बार इस बात का एहसास हुआ. भरी दोपहर में किस प्रकार उजाले पर कालिख पुत जाती है, हाथभर की दूरी पर खड़े लोग किस कदर नजर आते हैं, गुजरे व्यक्ति के साथ खुद भी मर जाने की इच्छा किस प्रकार बलवती हो उठती है, मुंहबोली बहन हो कर मैं इन अनुभूतियों के दौर से गुजर रही थी. सगे मांबाप के दुख का तो कोई ओरछोर ही नहीं था.

रहरह कर एक ही प्रश्न हृदय को मथ रहा था कि प्रशांत ने ऐसा क्यों किया? मांबाप का दुलारा, 2 वर्ष पहले ही इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की थी. अभी उसे इसी शहर में एक साधारण सी नौकरी मिली हुई थी, पर उस से वह संतुष्ट नहीं था. बड़ी कंपनियों में नौकरी के लिए आवेदन कर रहा था. अपने दोस्त की बहन उसे जीवनसंगिनी के रूप में पसंद थी. मौसी और मौसाजी को एतराज होने का सवाल ही नहीं था. लड़की उन की बचपन से देखीपरखी और परिवार जानापहचाना था. तब आखिर कौन सा दुख था जिस ने उसे आत्महत्या का कायरतापूर्ण निर्णय लेने के लिए मजबूर कर दिया.

सच है, पासपास रहते हुए भी कभीकभी हमारे बीच लंबे फासले उग आते हैं. किसी को जाननेसमझने का दावा करते हुए भी हम उस से कितने अपरिचित रहते हैं. सन्निकट खड़े व्यक्ति के अंतर्मन को छूने में भी असमर्थ रहते हैं.

अभी 2 दिन पहले तो प्रशांत मेरे घर आया था. थोड़ा सा चुपचुप जरूर लग रहा था, पर इस बात का एहसास तक न हुआ था कि वह इतने बड़े तूफानी दौर से गुजर रहा है. कह रहा था, ‘दीदी, इंटरव्यू बहुत अच्छा हुआ है. चयन की पूरी उम्मीद है.’

सुन कर बहुत अच्छा लगा था. उस की महत्त्वाकांक्षा पूरी हो, इस से अधिक भला और क्या चाहिए.

और आज? क्यों किया प्रशांत ने ऐसा? मौसी और मौसाजी से तो कुछ पूछने की हिम्मत ही नहीं हुई. मन में प्रश्न लिए मैं और दिवाकर घर लौट आए.

धीरेधीरे प्रशांत की मृत्यु को 5-6 माह बीत चुके थे. इस बीच मैं जितनी बार मौसी से मिलने गई, लगा, जैसे इस दुनिया से उन का नाता ही टूट गया है. खोईखोई दृष्टि, थकीथकी देह अपने ही मौन में सहमी, सिमटी सी. बहुत कुरेदने पर बस, इतना ही कहतीं, ‘इस से तो अच्छा था कि मैं निस्संतान ही रहती.’

उन की बात सुन कर मन पर पहाड़ सा बोझ लद जाता. मौसाजी तो फिर भी औफिस की व्यस्तताओं में अपना दुख भूलने की कोशिश करते, पर मौसी, लगता था इसी तरह निरंतर घुलती रहीं तो एक दिन पागल हो जाएंगी.

समय गुजरता गया. सच है, समय से बढ़ कर कोई मरहम नहीं. मौसी, जो अपने एकांतकोष में बंद हो गई थीं, स्वयं ही बाहर निकलने लगीं. कई बार बुलाने के बावजूद वे इस हादसे के बाद मेरे घर नहीं आई थीं. एक रोज उन्होंने अपनेआप फोन कर के कहा कि वे दोपहर को आना चाहती हैं.

जब इंसान स्वयं ही दुख से उबरने के लिए पहल करता है, तभी उबर पाता है. दूसरे उसे कितना भी हौसला दें, हिम्मत तो उसे स्वयं ही जुटानी पड़ती है.

मेरे लिए यही तसल्ली की बात थी कि वे अपनेआप को सप्रयास संभाल रही हैं, समेट रही हैं. कभी दूर न होने वाले अपने खालीपन का इलाज स्वयं ढूंढ़ रही हैं.

8-10 महीनों में ही मौसी बरसों की बीमार लग रही थीं. गोरा रंग कुम्हला गया था. शरीर कमजोर हो गया था. चेहरे पर अनगिनत उदासी की लकीरें दिखाई दे रही थीं. जैसे यह भीषण दुख उन के वर्तमान के साथ भविष्य को भी लील गया है.

मौसी की पसंद के ढोकले मैं ने पहले से ही बना रखे थे. लेकिन मौसी ने जैसे मेरा मन रखने के लिए जरा सा चख कर प्लेट परे सरका दी. ‘‘अब तो कुछ खाने की इच्छा नहीं रही,’’ मौसी ने एक दीर्घनिश्वास छोड़ा.

मैं ने प्लेट जबरन उन के हाथ में थमाते हुए कहा, ‘‘खा कर देखिए तो सही कि आप की छुटकी को कुछ बनाना आया कि नहीं.’’

उस दिन हर्ष की स्कूल की छुट्टी थी. यह भी एक तरह से अच्छा ही था क्योंकि वह अपनी नटखट बातों से वातावरण को बोझिल नहीं होने दे रहा था.

प्रशांत का विषय दरकिनार रख हम दोनों भरसक सहज वार्त्तालाप की कोशिश में लगी हुई थीं.

तभी हर्ष सांपसीढ़ी का खेल ले कर आ गया, ‘‘नानी, हमारे साथ खेलेंगी.’’ वह मौसी का हाथ पकड़ कर मचलने लगा. मौसी के होंठों पर एक क्षीण मुसकान उभरी शायद विगत का कुछ याद कर के, फिर वे खेलने के लिए तैयार हो गईं.

हिमशैल: भाग 3

‘‘हम लोगों के जाने न जाने से वहां किसी को क्या फर्क पड़ रहा है? एक बार भी किसी को इस परिवार की याद आई?’’ आरती कह ही रही थी कि…उस के कानों में नेहा के ये शब्द पड़े, ‘‘चाचीजी मुझे तो आप की बहुत याद आ रही थी…आना तो मैं बहुत पहले ही चाहती थी पर…बस…सोचती ही रह गई…अब तो जल्द ही मैं यह घर छोड़ कर चली जाऊंगी. मुझ से कैसी शिकायत?’’ नेहा की आवाज सुन कर सब चौंक कर दरवाजे की तरफदेखने लगे.

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सितारों जड़ी गुलाबी साड़ी में सजी नेहा बेहद सुंदर लग रही थी. अचानक उसे यों अपनी छोटी बहन के साथ आया देख सब हतप्रभ रह गए थे.

‘‘पगली…तुझ से कैसी शिकायत. तुम तो हमारी बच्ची ही हो. पर तुम इस समय यहां…घर में तुम्हारी ससुराल वाले आते ही होंगे,’’ आरती ने प्यार से नेहा को अंदर ला कर सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.

‘‘नहीं, चाचीजी, उन को बता कर आई हूं, सब आप लोगों का ही इंतजार कर रहे हैं. पापा अपने चाचाचाची को नहीं छोड़ सकते तो मैं भी अपने चाचाचाची को नहीं छोड़ सकती. जब तक आप लोग नहीं आएंगे, मैं भी गोदभराई पर नहीं बैठूंगी,’’ नेहा ने अपना निर्णय सुनाते हुए पास ही खड़े छोटे चचेरे भाईबहन को गले से लगा लिया, ‘‘और तुम भी तैयार हो जाओ. फेरों पर जीजाजी के जूते नहीं चुराओगी?’’

आकांक्षा व अंशुल आशा भरी नजरों से अजय व आरती को देखने लगे जो असमंजस में थे. तभी कमल उत्साहित हो कर बोल उठा, ‘‘ये हुई न बात. अब तो भैया आप को चलना ही होगा.’’

नेहा के प्यार व अपनत्व ने सब के दिलों को झकझोर दिया था. एकाएक नेहा कितनी समझदार व बड़ी लगने लगी थी. उस के आत्मविश्वास व प्यार भरे अधिकार ने एकबारगी सब को अभिभूत कर दिया था, कोई भी नफरत की दीवार अपनों के रिश्तों के प्यार से ज्यादा मजबूत नहीं होती, ढह ही जाती है. जरूरत केवल समय पर एक ईमानदार प्रयास करने की होती है. वर्षों तक हिमाच्छादित हिमखंड के अंदर बहते निर्मल जल के सोते जैसे अचानक राह मिलते ही बह निकलते हैं, यत्नपूर्वक अब तक रोके गए बहते आंसू ही उन के प्यार की अभिव्यक्ति बन गए थे.

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‘‘हां, तुम लोगों को आना ही होगा,’’ तभी दरवाजे से अंदर आते चाचाजी का स्वर सुनाई दिया, ‘‘जाने- अनजाने तुम लोगों के साथ बहुत अन्याय हुआ है. मुझे इस का दुख है. खैर, अब दिल में कुछ न रखो. यह सबकुछ ठीक नहीं हो रहा है. याद रखो. बंद मुट्ठी ही सवा लाख की होती है.’’

‘‘मुझे माफ कर दो, बहू,’’ चचिया सास पश्चात्ताप भरे स्वर में कह रही थीं, ‘‘नेहा ने मेरी आंखें खोल दी हैं. ईर्ष्या ने मुझे विवेकहीन बना दिया था…कहो तो मैं तुम दोनों के पैर भी…’’

सकपका कर आरती पीछे हट गई, ‘‘अरे, अरे, आप यह क्या कर रही हैं. आप तो हमारी बड़ी हैं.’’

‘‘हां, बड़ी तो हैं पर इन्हें बड़ों के फर्ज नहीं केवल अधिकार ही याद रहे,’’ पहली बार सब ने चाचाजी को गरजते सुना, ‘‘बड़प्पन बनाए रखने के लिए आचरण भी तो मर्यादित होना चाहिए.’’

चाचाजी के और अधिक उग्र क्रोध का लक्ष्य बनने से चाचीजी को बचाते हुए अजय बोला, ‘‘अब छोडि़ए भी, चाचाजी. पश्चात्ताप का एक आंसू ही सारे गिलेशिकवे दूर कर देता है. अपनी गलती का एहसास कर के क्षमाप्रार्थी होना ही सब से बड़ा बड़प्पन है. आप लोगों ने मेरे लिए इतना सोच लिया यही पर्याप्त है.’’

शाम का अंधेरा घिर आया था. कुरसी से जल्दी उठ कर उस ने स्विच आन किया तो कमरा दूधिया प्रकाश से नहा उठा. रात्रि के 9 बज रहे थे. बाहर शाम से चीख रहे लाउडस्पीकर शांत हो चुके थे. सपनों की दुनिया से यथार्थ के धरातल पर आने में उसे कुछ ही पल लगे थे. तब तक टेलीविजन देख रहे बच्चों ने दरवाजा खोल दिया था. अजय अंदर आते हुए उसे उनींदा सा देख पूछ रहे थे, ‘‘क्या हुआ…सो रही थीं?’’

‘‘हां…शायद झपकी सी आ गई थी…पर अब जाग गई हूं. आइए, खाना लगाती हूं.’’

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रसोई की तरफ बढ़ती आरती सोच रही थी कि अवचेतन ने स्वप्न में उन की आशाओं को मूर्तरूप तो दे दिया था पर यथार्थ कितने कठोर होते हैं…बिलकुल हिमशैल की तरह जिस का केवल एकचौथाई भाग ही नजर आता है, शेष जलमग्न रहता है. जिंदगी स्लेट पर लिखी इबारत तो नहीं जिसे पसंद न आने पर मिटा कर पुन: लिख दें. यह तो अमिट शिलालेख है, जिसे चाहते न चाहते हुए भी हमें पढ़ना ही है.

अज्ञातवास: भाग 2

‘‘यह तो मुझे पता था, उस के बाद तुम लोग भोपाल आ गए, यह तो मैं ने सुना था. पर हम आपस में मिल नहीं पाए. मेरा भोपाल आना बहुत कम हो गया था.’’

‘‘भैया ने मुझसे कह दिया, मैं तुम्हें 10वीं के बाद आगे नहीं पढ़ा सकता क्योंकि मेरी अपनी भी 2 लड़कियां हैं. मुझे उन की भी शादी करनी है. तुम्हें ज्यादा पढ़ाऊंगा तो उस लायक लड़का भी देखना पड़ेगा? मैं तुम्हारी शादी कर देता हूं. लड़का देखने की प्रक्रिया शुरू हो गई. हमारी जाति में दहेज की मांग बहुत ज्यादा होती है, तुझे पता है. इस के अलावा कभी लड़का मुझे पसंद नहीं आता, कभी लड़के को मैं पसंद नहीं आती. न कुछ बैठना था, न बैठा. मैं 35 साल की हो गई.’’

‘‘इस बीच अर्चना, तुम ने कुछ नहीं किया, बैठी रहीं?’’

‘‘नहीं नीरा, मैं कैसे बैठी रहती. पहले सिलाई वगैरह सीखी. उस के बाद म्यूजिक सीखने लगी. बीए तो मैं ने म्यूजिक से कर लिया पर आगे कुछ करने के लिए मुझे ग्रेजुएट होना जरूरी था. भाभी से मैं ने कहा. उन्होंने कहा, प्राइवेट भर दो. इंटर किया, फिर बीए भी कर लिया. एमए करने के लिए यूनिवर्सिटी जौइन की. गाने के साथ एमए भी करने लगी.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है अर्चना. तू ने तो अच्छा काम किया.’’

‘‘यहीं से तो मेरी बरबादी के दिन शुरू हो गए. मैं ने सबकुछ खो दिया.’’

‘‘क्या कह रही है अर्चना?’’

‘‘सही कह रही हूं. अभी तक तो सब सही चल रहा था, पता नहीं कैसे एक सज्जन मुझसे से टकरा गए और उन का व्यक्तित्व इतना आकर्षित था कि मैं उन की ओर आकर्षित हो गई.’’

‘‘अर्चना, यह तो कोई बुरी बात नहीं है.’’

‘‘सही कह रही हो नीरा. पहले मुझे भी ऐसा ही लगा था. इस में क्या बुराई है. वैसे भी तुम्हें पता है, मैं जातिधर्म, छुआछूत इन सब से बचपन से ही दूर रहती थी पर हमारा समाज तो ऐसा नहीं है. उस ने कहा, मंदिर में शादी कर लेते हैं. मैं ने अज्ञानता में उसे स्वीकार कर लिया और अपने को भी पूरी तरह से समर्पित कर दिया. उस ने भी कहा, मैं कुछ नहीं मानता हूं, मानवता ही सबकुछ है. पर मुझे  बरबाद करने के बाद वह कहता है, मांबाप से पूछना पड़ेगा. बोल, मैं ने कहा, पहले क्यों नहीं पूछा? लेकिन पूछूंगापूछूंगा कहता रहा. मेरे पेट में गर्भ ठहर गया. ‘अभी भैयाभाभी से मत कहना. पहले मैं अपने मांबाप से कह देता हूं, फिर तुम कहना.’ लेकिन अब तो मेरे लिए रुकने का सवाल ही नहीं. भैयाभाभी से कहना पड़ा.’’

‘‘फिर?’’

‘‘लड़का तो उन्हें भी पसंद था पर उस की बातें बड़ी अनोखी थीं. बारबार बेवकूफ बना रहा था. अब रुकने का तो सवाल ही नहीं था. भैया ने कहा, लड़के पर कार्यवाही करते हैं, जिस के लिए मैं राजी नहीं हुई. जिस को मैं ने एक बार चाहा उस के लिए ऐसी बात कैसे सोच सकती हूं?’’

‘‘अर्चना, यह क्या मूर्खता हुई? अबौर्शन करवा लेतीं.’’

‘‘भैयाभाभी ने भी इसी की सलाह दी थी. अर्चना, तू बता इन सब के चक्कर में मैं 38 साल की हो गई. अबौर्शन करवाना भी रिस्की था. इस के अलावा मुझे बच्चा चाहिए था. उस के जैसे आकर्षित व्यक्तित्व, सर्वगुण संपन्न और बुद्धिमान लड़का ही मुझे चाहिए था. जो मुझे सिर्फ एक बार मिला. सोचा, यही मेरी जिंदगी है. इस से लड़का या लड़की जो होगा, वैसा ही होगा, वही मुझे चाहिए था. कब मेरी शादी होती? कब बच्चा होता? इन सब बातों ने मुझे व्यथित कर दिया था. जो एक बार मुझे मिल गया, उसे मैं खोना नहीं चाहती थी. औरत अपने को तब तक संपूर्ण नहीं मानती जब तक वह मां नहीं बन जाती. तू कुछ भी कह नीरा, यह बात मेरे अंदर बहुत गहराई से बैठ गई थी. इस के लिए मैं कोई भी रिस्क उठाने को तैयार थी. सब तकलीफ बरदाश्त कर सकती थी. मैं तुझे बेवकूफ, मूर्ख, पागल या पिछड़ी हुई लग सकती हूं पर मैं बच्चा चाहती थी. मैं ने भैया से साफसाफ कह दिया. मुझे बच्चा चाहिए.’’

‘‘फिर?’’

‘‘भैया ने कहा, ‘यदि तू यही चाहती है तो समाज वाले तुझे स्वीकार नहीं करेंगे? यही नहीं, मुझे भी अपनी लड़कियों की शादी करनी है. फिर मेरी लड़कियों की शादी कैसे होगी? यदि तू बच्चा ही चाहती है तो इस के लिए तुझे बहुत सैक्रिफाइस करना पड़ेगा. क्या तू इस के लिए राजी है?’ मैं ने कहा, मैं इस के लिए तैयार हूं.’’

‘‘क्या भैया ने तुझे घर से निकल जाने को कहा?’’

‘‘नहीं, उन्होंने कहा जहां तुझे कोई नहीं जानता हो ऐसी जगह तुझे जाना पड़ेगा और किसी भी पहचान के लोगों से संबंध नहीं रखना होगा? क्या इस के लिए तू तैयार है? मैं बच्चे के लिए यह शर्त मानने को तैयार हो गई.’’

‘‘यार अर्चना, तू तो पागल हो गई थी.’’

‘‘अब नीरा, तू कुछ भी कह सकती है. पर मुझे जो समझ में आया, मैं ने वही किया. अब मैं कल तुम्हें बाकी बातें बताऊंगी क्योंकि मेरी एक सहेली आ गई है, उस को कुछ जरूरी काम है. बाय, बाय.’’

‘‘बाय, बाय अर्चना, कल 8 बजे इंतजार करूंगी?’’

‘‘बिलकुल, बिलकुल.’’

कह तो दिया मैं ने, पर दूसरे दिन रात के 8 बजे तक बड़े अजीबअजीब खयाल मेरे दिमाग में आए. क्या अच्छे घर की लड़की थी और आज एक अनाथाश्रम में रह रही है? वक्त कब, किस के साथ, कैसा खेल खेल जाए, कुछ पता नहीं चलता. मन उमड़घुमड़ कर अर्चना के आसपास ही घूम रहा था. सारा दिन मेरा मन किसी काम में नहीं लगा.

बारबार घड़ी की तरफ देखने लगती. अरे, यह क्या, अर्चना के फोन की घंटी है. मैं ने देखा, क्या 8 बज गए, नहीं अभी तो 7 ही बज रहे थे. मैं ने उठाते ही बोला, ‘‘व्हाट्स अ ग्रेट सरप्राइस, अभी तो 7 ही बजे हैं अर्चना.’’

‘‘तुझे काम है नीरा तो मैं बाद में करती हूं.’’

‘‘अरे नहीं रे, मैं तो तेरे फोन का इंतजार कर रही थी पर तुम ने कहा था 8 बजे, इसीलिए अभी तो 7 ही बज रहे हैं. मैं तो फ्री हूं तुम्हारी कथा सुनने के लिए. कल क्या बात हो गई थी? तुम क्यों चली गईं?’’

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मोह का जाल – भाग 3 : क्यों लड़खड़ाने लगा तनु के पैर

‘माफ कीजिएगा, आप तनुजा हैं न?’’ लड़खड़ाते शब्दों में उन्होंने पूछा.

‘‘क्यों, आप को कुछ शक है क्या?’’ तेज निगाहों से देखते हुए मैं ने पूछा.

‘‘मैं ने तुम्हारे साथ कठोर व्यवहार व अन्याय किया है, जिसे मैं कभी भूल नहीं पाया. कल तुम्हें देखने के बाद से ही मैं पश्चात्ताप की अग्नि में जल रहा हूं. मुझे माफ कर दो, तनु.’’

‘‘तनु नहीं, कुमारी तनुजा कहिए और बाहर आप मेरे नाम की तख्ती देख लीजिए,’’ निर्विकार मुद्रा में बोली थी मैं. ‘‘आप की पत्नी की तबीयत अब कैसी है? उन का खयाल रखिएगा और हो सके तो प्रत्येक 15 दिन बाद परीक्षण करवाते रहिएगा,’’ कह कर मैं ने घंटी बजा दी, ‘‘मरीजों को अंदर भेज दो,’’ चपरासी को निर्देश देती हुई बोली.

‘‘अच्छा, मैं चलता हूं, तनु,’’ मनुज ने मेरी ओर आग्रहपूर्वक देखते हुए कहा.

‘‘तनु नहीं, कुमारी तनुजा,’’ मैं ने कुमारी शब्द पर थोड़ा जोर देते हुए तीव्र स्वर में कहा. और लड़खड़ाते कदमों से मनुज चले गए.

मैं देखती रह गई. क्या यह वही व्यक्ति है जिस ने मुझे मझधार में डूबने के लिए छोड़ दिया था. किंतु यह इस समय इतना निरीह क्यों? इतना दयनीय क्यों? क्या यह सिर्फ मेरे पद के कारण है या इस के जीवन में कोई अभाव है? मुझे स्वयं पर हंसी आने लगी थी. इसे क्या अभाव होगा, जिस की इतनी प्यारी पत्नी है, पद है, मानसम्मान है.

तब तक मरीजों ने आ कर मेरी विचार शृंखला को भंग कर दिया और मैं कार्य में व्यस्त हो गई.

अतीत ने मुझे कुरेदा जरूर था किंतु अनजाने सुख भी दे गया था, क्योंकि वह व्यक्ति जिस ने मुझे अपमानित किया था, मानसिक पीड़ा दी थी, वह मेरे सामने निरीह व दयनीय बन कर खड़ा था. इस से अधिक सुख क्या हो सकता था? मेरे जीवन में एक और परिवर्तन आ गया था, वह तसवीर जिसे शादी के दूसरे दिन दोनों ने बड़े प्रेम से खिंचवाया था उसे देखे बिना मुझे नींद नहीं आती थी. उस तसवीर में उस का निरीह चेहरा मेरे आत्मसम्मान को सुख पहुंचाता था. इसलिए, अब वह तसवीर मेरे बेडरूम में लग गई थी.

ऋचा हर 15 दिन पश्चात आती रही, किंतु उस के साथ वह चेहरा देखने को नहीं मिला. 2 माह पश्चात लड़का हुआ. उस ने आ कर आभार प्रदर्शन करते हुए कहा था, ‘‘तनुजाजी, मैं आप का गुनाहगार हूं. किंतु, आप ने बेटे के रूप में उपहार दे कर अनिर्वचनीय आनंद प्रदान किया है. शायद, आप नहीं जानती कि यह मेरी और ऋचा की तीसरी संतान है. अन्य 2 जन्म से पूर्व ही काल के गाल में समा गईं.’’

मनुज चला गया, किंतु हृदय में सुलगते दावानल को मेरे सामने प्रकट कर गया. शायद वह अपनी पूर्व 2 संतानों की असमय ही मौत का कारण तनु के साथ पूर्व में किए गए अपने गलत व्यवहार को ही समझ बैठा था, तभी इतना निरीह व कातर लगने लगा है.

कुछ दिन पश्चात ही मेरा वहां से स्थानांतरण हो गया. अतीत से संबंध कट गया. किंतु कभीकभी मेरा दिल अपने ही हाथों से मात खा जाता था. तब तड़प उठती थी, क्या मेरे जीवन में यही एकाकीपन लिखा है? मम्मीपापा का देहांत हो गया था. भाई अपनी घरगृहस्थी में व्यस्त था.

कितने वर्ष यों ही बीत गए. अपने को बेसहारा पा कर मैं ने एक अनाथ बेसहारा लड़की को गोद ले लिया ताकि जीवन की शून्यता को भर सकूं. लड़की पढ़ने में तेज थी. डाक्टरी पढ़ कर अनाथ बेसहाराजनों की सेवा करना चाहती थी.

करीब 5 वर्ष पूर्व न्यूमोनिया बीमारी से पीडि़त हो कर अस्पताल में भरती हुई थी. उस की मासूम नीली आंखों में न जाने क्या था कि मन उसे अपनाने को मचल उठा था. अनाथाश्रम से उठा कर घर लाई तो सहसा विश्वास ही नहीं हो रहा था. पिछले वर्ष ही मैडिकल की प्रतियोगी परीक्षा में उस का चयन हुआ और पढ़ाई के लिए उसे इलाहाबाद जाना पड़ा और मैं फिर एक बार अकेली हो गई थी.

जीवन मेरे साथ आंखमिचौली खेल रहा था. सुखदुख एक ही सिक्के के 2 पहलू हो चले थे. एक दिन अपने कमरे में बैठी अपने संस्मरण लिख रही थी कि नौकर ने आ कर बताया कि एक आदमी आप से मिलना चाहता है. मैं बाहर निकल कर आई तो वह बोला, ‘‘डाक्टर साहब, शर्मा साहब का लड़का बेहद बीमार है. आप शीघ्र चलिए.’’

अपना बैग उठाया तथा कार में उस अनजान आदमी को बैठा कर चल पड़ी. ऐसे अवसरों पर अनजान व्यक्ति के साथ जाते समय मन में बेहद उथलपुथल होती थी, किंतु यह सोच कर चल पड़ती कि हर आदमी बुरा नहीं होता, फिर किसी पर अविश्वास क्यों और किसलिए, इंसान को अपना कर्तव्य करते रहना चाहिए. हमारा कर्तव्य हमारे साथ, उस का कर्तव्य उस के साथ. यही तो मेरी विचारधारा थी, जीवनदर्शन था.

कार के पहुंचते ही एक आदमी तेजी से उधर से बाहर आया और बोला, ‘‘डाक्टर साहब, आप को तकलीफ हुई होगी, लेकिन मजबूर था. प्रतीक्षित को 104 डिगरी बुखार है.’’

‘‘चलिए,’’ तब तक हम रोशनी में पहुंच चुके थे.

‘‘अरे तनु, तुम. ओह, माफ कीजिएगा तनुजाजी, मुझ से गलती हो गई,’’ मनुज एकदम हड़बड़ा कर बोले.

मैं भी एकदम चौंक उठी थी. इस जिंदगी में यह दोबारा अप्रत्याशित मिलन किसलिए? सोच ही नहीं पा रही थी. मैं ने पूछा, ‘‘प्रतीक्षित कहां है?’’

अंदर गए तो देखा वह बुखार में तप रहा था. आंखें बंद थीं, किंतु मुंह से कुछ अस्फुट स्वर निकल रहे थे. नब्ज देखी तो टायफायड के लक्षण नजर आए. ज्वर की तीव्रता को कम करने के लिए दवा बैग से निकाल कर खिला दी. अन्य दवाइयां परचे पर लिख कर देते हुए बोली, ‘‘ये दवाएं बाजार से मंगवा लीजिए तथा ज्वर की तीव्रता को कम करने के लिए ठंडे पानी की पट्टी माथे पर रखिए और हाथ, पैर व तलवे की भी मालिश कीजिए.’’

मनुज उस के हाथों को अपनी गोद में ले कर सहलाने लगे तथा चिंतित व घबराए स्वर में बोले, ‘‘डाक्टर साहब, मेरा प्रतीक्षित बच जाएगा न? यही मेरा जीवन है. मेरे जीवन की एकमात्र पूंजी.’’

लगभग एक घंटे पश्चात बंद पलकों में हलचल हुई तथा होंठ बुदबुदा उठे, ‘‘प…पानी… पानी…’’

मनुज ने तत्काल उठ कर उस के मुंह में चम्मच से पानी डाला. दवा के असर के कारण वह पानी पी कर फिर सो गया.

‘‘अच्छा, अब मुझे इजाजत दीजिए. आवश्यकता पड़ने पर बुला लीजिएगा,’’ घड़ी पर निगाह डालते हुए मैं ने कहा.

‘‘चलिए, मैं आप को छोड़ आता हूं,’’ मनुज ने मेरा बैग उठाते हुए कहा.

रातभर बेचैन रही. प्रतीक्षित के लिए न जाने क्यों अनजाने ही लगाव हो गया था. मैं जितना ही उस की भोली व मासूम सूरत से भागने का प्रयास करती वह उतनी ही और करीब आती जाती. ऋचा नजर नहीं आ रही थी, लेकिन पूछने का साहस भी नहीं कर पाई.

सांप सीढ़ी – भाग 1 : प्रशांत के साथ क्या हुआ था?

जब से फोन आया था, दिमाग ने जैसे काम करना बंद कर दिया था. सब से पहले तो खबर सुन कर विश्वास ही नहीं हुआ, लेकिन ऐसी बात भी कोई मजाक में कहता है भला.

फिर कांपते हाथों से किसी तरह दिवाकर को फोन लगाया. सुन कर दिवाकर भी सन्न रह गए.

‘‘मैं अभी मौसी के यहां जाऊंगी,’’ मैं ने अवरुद्ध कंठ से कहा.

‘‘नहीं, तुम अकेली नहीं जाओगी. और फिर हर्ष का भी तो सवाल है. मैं अभी छुट्टी ले कर आता हूं, फिर हर्ष को दीदी के घर छोड़ते हुए चलेंगे.’’

दिवाकर की बात ठीक ही थी. हर्ष को ऐसी जगह ले जाना उचित नहीं था. मेरा मस्तिष्क भी असंतुलित हो रहा था. हाथपैर कांप रहे थे, मन में भयंकर उथलपुथल मची हुई थी. मैं स्वयं भी अकेले जाने की स्थिति में कतई नहीं थी.

पर इस बीतते जा रहे समय का क्या करूं. हर गुजरता पल मुझ पर पहाड़ बन कर टूट रहा था. दिवाकर को बैंक से यहां तक आने में आधा घंटा लग सकता था. फिर दीदी का घर दूसरे छोर पर, वहां से मौसी का घर 5-6 किलोमीटर की दूरी पर. उन के घर के पास ही अस्पताल है, जहां प्रशांत अपने जीवन की शायद आखिरी सांसें गिन रहा है. कम से कम फोन पर खबर देने वाले व्यक्ति ने तो यही कहा था कि प्रशांत ने जहर इतनी अधिक मात्रा में खा लिया है कि उस के बचने की कोई उम्मीद नहीं है.

जिस प्रशांत को मैं ने गोद में खिलाया था, जिस ने मुझे पहलेपहल छुटकी के संबोधन से पदोन्नत कर के दीदी का सम्मानजनक पद प्रदान किया था, उस प्रशांत के बारे में इस से अधिक दुखद मुझे क्या सुनने को मिलता.

उस समय मैं बहुत छोटी थी. शायद 6-7 साल की जब मौसी और मौसाजी हमारे पड़ोस में रहने आए. उन का ममतामय व्यक्तित्व देख कर या ठीकठीक याद नहीं कि क्या कारण था कि मुझे उन्हें देख कर मौसी संबोधन ही सूझा.

यह उम्र तो नामसझी की थी, पर मांपिताजी के संवादों से इतना पता तो चल ही गया था कि मौसी की शादी हुए 2-3 साल हो चुके थे, और निस्संतान होने का उन्हें गहरा दुख था. उस समय उन की समूची ममता की अधिकारिणी बनी मैं.

मां से डांट खा कर मैं उन्हीं के आंचल में जा छिपती. मां के नियम बहुत कठोर थे. शाम को समय से खेल कर घर लौट आना, फिर पहाड़े और कविताएं रटना, तत्पश्चात ही खाना नसीब होता था. उतनी सी उम्र में भी मुझे अपना स्कूलबैग जमाना, पानी की बोतल, अपने जूते पौलिश करना आदि सब काम स्वयं ही करने पड़ते थे. 2 भाइयों की एकलौती छोटी बहन होने से भी कोई रियायत नहीं मिलती थी.

उस समय मां की कठोरता से दुखी मेरा मन मौसी की ममता की छांव तले शांति पाता था.

मौसी जबतब उदास स्वर में मेरी मां से कहा करती थीं, ‘बस, यही आस है कि मेरी गोद भरे, बच्चा चाहे काला हो या कुरूप, पर उसे आंखों का तारा बना कर रखूंगी.’

मौसी की मुराद पूरी हुई. लेकिन बच्चा न तो काला था न कुरूप. मौसी की तरह उजला और मौसाजी की तरह तीखे नाकनक्श वाला. मांबाप के साथसाथ महल्ले वालों की भी आंख का तारा बन गया. मैं तो हर समय उसे गोद में लिए घूमती फिरती.

प्रशांत कुशाग्रबुद्धि निकला. मैं ने उसे अपनी कितनी ही कविताएं कंठस्थ करवा दी थीं. तोतली बोली में गिनती, पहाड़े, कविताएं बोलते प्रशांत को देख कर मौसी निहाल हो जातीं. मां भी ममता का प्रतिरूप, तो बेटा भी उन के स्नेह का प्रतिदान अपने गुणों से देता जा रहा था. हर साल प्रथम श्रेणी में ही पास होता. चित्रकला में भी अच्छा था. आवाज भी ऐसी कि कोई भी महफिल उस के गाने के बिना पूरी नहीं होती थी. मैं उस से अकसर कहती, ‘ऐसी सुरीली आवाज ले कर किसी प्रतियोगिता के मैदान में क्यों नहीं उतरते भैया?’ मैं उसे लाड़ से कभीकभी भैया कहा करती थी. मेरी बात पर वह एक क्षण के लिए मौन हो जाता, फिर कहता, ‘क्या पता, उस में मैं प्रथम न आऊं.’

‘तो क्या हुआ, प्रथम आना जरूरी थोड़े ही है,’ मैं जिरह करती, लेकिन वह चुप्पी साध लेता.

बरसों की साध: भाग 2

‘‘तो फिर आप मेरी मम्मी को समझा दीजिएगा.’’ आंसू पोंछते हुए सुधा ने कहा.

‘‘ऐसी बात है तो अब हम चलेंगे. जब कभी हमारी जरूरत पड़े, आप हमें याद कर लीजिएगा. हम हाजिर हो जाएंगे.’’ कह कर प्रशांत उठने लगे तो सुधा की सास ने कहा, ‘‘हम आप को भूले ही कब थे, जो याद करेंगे. कितने दिनों बाद तो आप मिले हैं. अब ऐसे ही कैसे चले जाएंगे. मैं तो कब से आप की राह देख रही थी कि आप मिले तो सामने बैठा कर खिलाऊं. लेकिन मौका ही नहीं मिला. आज मौका मिला है. तो उसे कैसे हाथ से जाने दूंगी.’’

‘‘आप कह क्या रही हैं. मेरी समझ में नहीं आ रहा है?’’ हैरानी से प्रशांत ने कहा.

‘‘भई, आप साहब बन गए, आंखों पर चश्मा लग गया. लेकिन चश्मे के पार चेहरा नहीं पढ़ पाए. जरा गौर से मेरी ओर देखो, कुछ पहचान में आ रहा है?’’

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प्रशांत के असमंजस को परख कर सुधा की सास ने हंसते हुए कहा, ‘‘आप तो ज्ञानू बनना चाहते थे. मुझ से अपने बडे़ होने तक राह देखने को भी कहा था. लेकिन ऐसा भुलाया कि कभी याद ही नहीं आई.’’

अचानक प्रशांत की आंखों के सामने 35-36 साल पहले की रूपमती भाभी का चेहरा नाचने लगा. उस के मुंह से एकदम से निकला, ‘‘भाभी आप…?’’

‘‘आखिर पहचान ही लिया अपनी भाभी को.’’

गहरे विस्मय से प्रशांत अपनी रूपमती भाभी को ताकता रहा. सुधा का रक्षाकवच बनने की उन की हिम्मत अब प्रशांत की समझ में आ गई थी. उन का मन उस नारी का चरणरज लेने को हुआ. उन की आंखें भर आईं.

रूपमती यानी सुधा की सास ने कहा, ‘‘देवरजी, तुम कितने दिनों बाद मिले. तुम्हारा नाम तो सुनती रही, पर वह तुम्हीं हो, यह विश्वास नहीं कर पाई आज आंखों से देखा, तो विश्वास हुआ. प्यासी, आतुर नजरों से तुम्हारी राह देखती रही. तुम्हारे छोड़ कर जाने के बरसों बाद यह घर मिला. जीवन में शायद पति का सुख नहीं लिखा था. इसलिए 2 बेटे पैदा होने के बाद आठवें साल वह हमें छोड़ कर चले गए.

‘‘बेटों को पालपोस कर बड़ा किया. शादीब्याह किया. इस घर को घर बनाया, लेकिन छोटा बेटा कुपुत्र निकला. शायद उसे पालते समय संस्कार देने में कमी रह गई. भगवान से यही विनती है कि मेरे ऊपर जो बीती, वह किसी और पर न बीते. इसीलिए सुधा को ले कर परेशान हूं.’’

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प्रशांत अपलक उम्र के ढलान पर पहुंच चुकी रूपमती को ताकता रहा. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे. रूपमती भाभी के अतीत की पूरी कहानी उस की आंखों के सामने नाचने लगी.

बचपन में प्रशांत की बड़ी लालसा थी कि उस की भी एक भाभी होती तो कितना अच्छा होता. लेकिन उस का ऐसा दुर्भाग्य था कि उस का अपना कोई सगा बड़ा भाई नहीं था. गांव और परिवार में तमाम भाभियां थीं, लेकिन वे सिर्फ कहने भर को थीं.

संयोग से दिल्ली में रहने वाले प्रशांत के ताऊ यानी बड़े पिताजी के बेटे ईश्वर प्रसाद की पत्नी को विदा कराने का संदेश आया. ताऊजी ही नहीं, ताईजी की भी मौत हो चुकी थी. इसलिए अब वह जिम्मेदारी प्रशांत के पिताजी की थी. मांबाप की मौत के बाद ईश्वर ने घर वालों से रिश्ता लगभग तोड़ सा लिया था. फिर भी प्रशांत के पिता को अपना फर्ज तो अदा करना ही था.

ईश्वर प्रसाद प्रशांत के ताऊ का एकलौता बेटा था. उस की शादी ताऊजी ने गांव में तब कर दी थी. जब वह दसवीं में पढ़ता था. तब गांव में बच्चों की शादी लगभग इसी उम्र में हो जाती थी. उस की शादी उस के पिता ने अपने ननिहाली गांव में तभी तय कर दी थी, जब वह गर्भ में था.

देवनाथ के ताऊजी को अपनी नानी से बड़ा लगाव था, इसीलिए मौका मिलते ही वह नानी के यहां भाग जाते थे. ऐसे में ही उन की दोस्ती वहां ईश्वर के ससुर से हो गई थी.

अपनी इसी दोस्ती को बनाए रखने के लिए उन्होंने ईश्वर के ससुर से कहा था कि अगर उन्हें बेटा होता है तो वह उस की शादी उन के यहां पैदा होने वाली बेटी से कर लेंगे.

उन्होंने जब यह बात कही थी, उस समय दोनों लोगों की पत्नियां गर्भवती थीं. संयोग से ताऊजी के यहां ईश्वर पैदा हुआ तो दोस्त के यहां बेटी, जिस का नाम उन्होंने रूपमती रखा था.

प्रशांत के ताऊ ने वचन दे रखा था, इसलिए ईश्वर के लाख मना करने पर उन्होंने उस का विवाह रूपमती से उस समय कर दिया, जब वह 10वीं में पढ़ रहा था. उस समय ईश्वर की उम्र कम थी और उस की पत्नी भी छोटी थी. इसलिए विदाई नहीं हुई थी. ईश्वर की शादी हुए सप्ताह भी नहीं बीता था कि उस के ससुर चल बसे थे. इस के बाद जब भी विदाई की बात चलती, ईश्वर पढ़ाई की बात कर के मना कर देता. वह पढ़ने में काफी तेज था. उस का संघ लोक सेवा आयोग द्वारा प्रशासनिक नौकरी में चयन हो गया और वह डिप्टी कलेक्टर बन गया. ईश्वर ट्रेनिंग कर रहा था तभी उस के पिता का देहांत हो गया था.

संयोग देखो, उन्हें मरे महीना भी नहीं बीता था कि ईश्वर की मां भी चल बसीं. मांबाप के गुजर जाने के बाद एक बहन बची थी, उस की शादी हो चुकी थी. इसलिए अब उस की सारी जिम्मेदारी प्रशांत के पिता पर आ गई थी.

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लेकिन मांबाप की मौत के बाद ईश्वर ने घरपरिवार से नाता लगभग खत्म सा कर लिया था. आनेजाने की कौन कहे, कभी कोई चिट्ठीपत्री भी नहीं आती थी. उन दिनों शहरों में भी कम ही लोगों के यहां फोन होते थे. अपना फर्ज निभाने के लिए प्रशांत के पिता ने विदाई की तारीख तय कर के बहन से ईश्वर को संदेश भिजवा दिया था.

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मोह का जाल – भाग 2 : क्यों लड़खड़ाने लगा तनु के पैर

‘‘पिताजी, मैं इस के साथ नहीं रह सकता. मैं ने एक सर्वगुणसंपन्न व स्वस्थ जीवनसाथी की तलाश की थी न कि रोगी की. क्या मैं इस की लाश को जीवनभर ढोता रहूंगा? अभी यह हाल है तो आगे क्या होगा?’’ कड़कती मुद्रा में ये बोले.

‘‘पापा, भैया ठीक ही तो कह रहे हैं,’’ स्नेहा, मेरी ननद ने भाई का समर्थन करते हुए कहा.

‘‘तुम चुप रहो. अभी छोटी हो, शादीविवाह कोई बच्चों का खेल नहीं है जो तोड़ दिया जाए,’’ पितासमान ससुरजी ने स्नेहा को डांटते हुए कहा.

‘‘मैं कल ही अपने काम पर लौट रहा हूं.’’ कुछ कहने को आतुर अपने पिता को चुप कराते हुए, मनुज घर से चले गए.

मनुज की बातों से व्याकुल सास मेरे पास आईं. मेरी आंखों से बहते आंसुओं को अपने आंचल से पोंछते हुए बोलीं, ‘‘बेटी घबरा मत, सब ठीक हो जाएगा. बेवकूफ लड़का है, इतना भी नहीं समझता कि बीमारी कभी भी किसी को भी हो सकती है. इस की वजह से विवाह जैसे पवित्र संबंध को तोड़ा नहीं जा सकता. हां, इतना अवश्य है कि राजेंद्र भाईसाहब को बीमारी के संबंध में छिपाना नहीं चाहिए था.’’

‘‘मांजी, मम्मीपापा ने छिपाया अवश्य था, किंतु मैं ने इन्हें सबकुछ सचसच लिख दिया था. इन का पत्र प्राप्त कर मैं समझी थी कि इन्होंने मेरी बीमारी को गंभीरता से नहीं लिया है, वरना मैं विवाह ही नहीं करती,’’ कहतेकहते आंचल में मुंह छिपा कर मैं रो पड़ी थी.

डाक्टर भी आ गए थे. रोग की तीव्रता को देख कर इंजैक्शन दिया तथा दवा भी लिखी. रोग की तीव्रता कम होने लगी थी, किंतु इन के जाने की बात सुन कर मन अजीब सा हो गया था. सारी शरम छोड़ कर सासूजी से कहा, ‘‘मम्मी, क्या ये एक बार, सिर्फ एक बार मुझ से बात नहीं कर सकते?’’

सासुमां ने मनुज से आग्रह भी किया, किंतु कोई भी परिणाम न निकला. जाते समय मैं भी सब के साथ बाहर आई. इन्होंने मां और पिताजी के पैर छुए, बहन को प्यार किया और मेरी ओर उपेक्षित दृष्टि डाल कर चले गए. सासुमां ने दिलासा देते हुए मेरे कंधे पर हाथ रखा तो मैं विह्वल स्वर में बोल उठी, ‘‘मां, मेरा क्या होगा?’’

आदमी इतना तटस्थ हो सकता है, मैं ने स्वप्न में भी कभी नहीं सोचा था. विगत एक हफ्ते में हम ने कुछ अंतरंग क्षण व्यतीत किए थे, कुछ सपने बुने थे, सुखदुख में साथ रहने की कसमें खाई थीं, क्या वह सब झूठ था?

डैडी को पता चला तो वे भी आए. उन के उदास चेहरे पर मैं नजर भी न डाल सकी. कितने प्रयत्न, कितनी खुशी से संबंध तय किया था, क्या सिर्फ एक हफ्ते के लिए?

‘‘दिवाकरजी, आप मनुज को समझा कर देखिए. यह रोग भयंकर रोग तो है नहीं, मैं सच कहता हूं, हमारे यहां न मेरी तरफ और न ही इस की मां की तरफ किसी को यह रोग है. सो, यदि प्रयास किया जाए तो ठीक हो सकता है,’’ गिड़गिड़ाते हुए डैडी बोले.

‘‘भाईसाहब, अपनी तरफ से तो मैं पूर्ण प्रयास करूंगा पर नई पीढ़ी को तो आप जानते ही हैं, यह सदा अपने मन की ही करती है,’’ मेरे ससुरजी डैडी को दिलासा देते हुए बोले.

मैं डैडी के साथ अपने घर वापस लौट आई. इस तरह एक हफ्ते में सारे सुख और दुख मेरे आंचल में आ गिरे थे. इस जीवन का क्या होगा? यह प्रश्न बारबार जेहन में उभर रहा था. मां मेरे लौट आने के बाद गुमसुम हो गई थीं. डैडी अब देर से घर लौटते थे. शायद कोई भी एकदूसरे से नजर मिलाने का साहस नहीं कर पा रहा था.

मैं विश्वविद्यालय की पढ़ाई करना नहीं चाहती थी. 2 बार प्रीमैडिकल परीक्षा में असफल होने के पश्चात एक बार फिर प्रीमैडिकल परीक्षा में सम्मिलित होने का निर्णय सुनाया तो सभी ने स्वागत किया. परीक्षा का फौर्म भरते समय नाम के आगे कुमारी शब्द देख कर मम्मी व डैडी बिगड़ उठे, किंतु, भाई रंजन ने मेरे समर्थन में आवाज उठाई, बोले, ‘‘ठीक ही तो है. उस संबंध को लाश की तरह उठाए कब तक फिरेगी?’’

एक महीने पश्चात मनुज ने अपने वकील के माध्यम से तलाक के लिए नोटिस भिजवाया. मांपिताजी ने हस्ताक्षर करने से मना किया, किंतु मैं ने दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘पतिपत्नी का संबंध मन व आत्मा से होता है. यदि मन ही एकाकार नहीं हुए तो टूटी डोर में गांठ बांधने से क्या फायदा,’’ और कागज पर हस्ताक्षर कर दिए.

जीवन में अब न कोई उमंग थी और न ही तरंग. किसी पर भार बन कर रहना नहीं चाहती थी. सो, प्रीमैडिकल में सफल होना प्रथम और अंतिम ध्येय बन गया था. समय कम था. मन को पढ़ाई में एकाग्र किया. परीक्षा हुई और परिणाम निकला. सफल प्रतियोगियों में मैं अपना नाम देख कर खुशी से झूम उठी.

मम्मीडैडी के उदास चेहरों पर एक बार फिर खुशी झलकने लगी थी और मुझे मेरी मंजिल मिल गई थी.

5 वर्ष की पढ़ाई पूरी हुई. मैं लड़कियों में प्रथम रही थी. योग्यता के कारण सरकारी सेवा में नियुक्ति हो गई. पूरे दिन रोगियों की सेवा करती तो अलग तरह के आनंद की प्राप्ति होती. कभीकभी लगता वह जीवन क्षणमात्र के लिए था. मेरा जन्म तो इसी के लिए हुआ है. कभी फ्लोरेंस नाइटिंगेल से अपनी तुलना करती तो कभी जौन औफ आर्क से, मन में छाया कुहासा पलभर में दूर हो जाता और कर्तव्यपथ पर कदम स्वयं बढ़ने लगते.

एक दिन अस्पताल में बैठी रोगियों को देख रही थी कि एक युगल ने कमरे में प्रवेश किया. मैं उस जोड़े को देख कर चौंक गई, किंतु चेहरे पर आए परिवर्तन पर यथासंभव अंकुश लगा लिया.

‘‘कहिए, क्या तकलीफ है आप को?’’ मैं ने सामान्य होते हुए पूछा.

‘‘आप इन का चैकअप कर लीजिए. चलनेफिरने में तकलीफ होती है, पैरों में सूजन भी है,’’ युवक ने कहा.

‘‘चलिए,’’ उठते हुए मैं ने कहा व बगल के कमरे में ले जा कर युवती का पूरा चैकअप किया और फिर बताया, ‘‘कोई परेशानी की बात नहीं है, इन्हें उच्च रक्तचाप है. इसी कारण पैरों में सूजन है. दवा लिख रही हूं, समय पर देते रहिएगा. बच्चा होने तक लगातार हर 15 दिन बाद चैकअप करवाते रहिएगा.’’

‘‘जी, डाक्टर.’’

‘‘नाम?’’ दवाई का परचा लिखते हुए मैं ने पूछा.

‘‘ऋचा शर्मा,’’ उत्तर युवती ने दिया.

परचे पर नाम लिखते समय न जाने क्यों हाथ कांप गया था. कुछ दवाएं व टौनिक लिख कर दिए. साथ में कुछ हिदायतें भी. वे दोनों उठ कर चले गए, किंतु दिल में हलचल मचा गए. उस दिन, दिनभर व्यग्र रही. बारबार अतीत आ कर कुरेदने लगा. जो चीज मैं पीछे छोड़ आई थी, वह क्यों फिर से मुझे बेचैन करने लगी थी. मैं ने अलमारी से वह फोटो निकाली जो विवाह के दूसरे दिन जा कर खिंचवाई थी. देख कर मैं बुदबुदा उठी थी, ‘तुम क्यों मेरे शांत जीवन में हलचल मचाने आ गए. मैं ने तुम से कुछ नहीं मांगा. तुम ने साथ चलने से इनकार कर दिया तो मैं ने अपनी राह स्वयं बना ली. तुम इस राह में फिर क्यों आ गए. कितना त्याग और बलिदान चाहते हो?’ रात अशांति में, बेचैनी में गुजरी. सुबह उठी तो रातभर जागने के कारण आंखें बोछिल थीं. अस्पताल जाने की इच्छा नहीं हो रही थी, किंतु फिर भी यह सोच कर तैयार हुई कि कार्य में व्यस्त रहने पर मन शांत रहता है.

अस्पताल में कमरे के बाहर मनुज को प्रतीक्षारत पाया तो कदम लड़खड़ा गए. किंतु सहज बनने का अभिनय करते हुए उन्हें अनदेखा कर अपने कमरे में जा कर कुरसी पर बैठ गई. मनुज भी मेरे पीछेपीछे आए थे.

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