सावधान! मूर्खता है धर्मगुरु बनाना और सत्संग में जाना

लंबेचौड़े और ऊंचे मंच पर हजारों की भीड़ के सामने रेशमी गेरुआ वस्त्र धारण किए, रुद्राक्ष, मोती व चंदन की माला पहने, गुलाब के फूलों से महकते सिंहासन पर बैठ, सुंदर रूपसी बालाओं से घिरे हुए धर्मगुरु का देश की गरीबी पर कंरदन करते हुए यह कहना कि संसार मिथ्या है, घरपरिवार माया है, धन की इच्छा लोभ है, मोहमाया के बंधन से मुक्त हो जाओ…और फिर प्रवचन समाप्त कर के उन का अपने भक्तों की भीड़ के बीच से हो कर गुजरना, भक्तों का उन्हें देख कर जयकारा लगाना…इस धर्मगुरु के पैर छूने में एकदूसरे को कुचल डालने की होड़ और अंत में अपनी चमचमाती लग्जरी गाडि़यों के बेड़े से स्टैंडर्ड बढ़ाते चेलों की लंबी लाइन के साथ अपने आलीशान पांचसितारा सुविधाओं वाले आश्रम की तरफ प्रस्थान कर जाने का यह दृश्य किसी फिल्म का नहीं बल्कि किसी भी धर्मगुरु के सत्संग में होने वाली फुजूलखर्ची का नजारा है.

धर्मगुरु बनाने का यह चलन कोई नया नहीं, बल्कि बहुत पुराना है. समाज में इस तरह का प्रचार कर दिया गया है कि भगवान से बड़ा ‘गुरु’ है और लोग भी भगवान को भूल कर गुरु की शरण में आ रहे हैं. शिष्य आजकल गुरुओं की पूजा करने लगे हैं.

इस तरह के प्रचार के चलते ही धर्मभीरु जनता भयभीत हो गुरु को ढूंढ़ती है और गुरु मिल जाने पर उस के द्वारा गुरुमंत्र दिया जाता है, जिस के बदले दीक्षा लेने वाले को मोटी दक्षिणा गुप्त दान के रूप में देनी होती है. इन तथाकथित गुरुओं द्वारा बताया जाता है कि जो जितनी अधिक दक्षिणा देगा उसे उतना ही अधिक लाभ होगा. दक्षिणा के साथ फल का संबंध एक प्रकार का व्यावसायिक संबंध ही है और इस के बाद तो यह सिलसिला जीवन भर चलता रहता है.

हिंदू धर्मग्रंथों में गुरु की महिमा का बढ़चढ़ कर बखान किया गया है. भक्तिकाल के कवियों ने तो जम कर गुरु को महिमामंडित किया है. गुरु के बारे में कई उक्तियां प्रसिद्ध हैं, जैसे :

गुरुर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुगुरूर्देवो महेश्वर:।

गुरु: साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरुवे नम:॥

-स्कंदपुराण, गुरुगीता

(अर्थात गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु महेश्वर है, गुरु ही परब्रह्म है, उस गुरु के लिए नमस्कार.)

गुरु बिन पंथ न पावै कोई।

केतिकौ ज्ञानी ध्यानी होई॥

-नूरमुहम्मद अनुराग बांसुरी, पृ. 33

पहले धार्मिक गुरु ब्राह्मण होते थे और इन्हीं ब्राह्मणों ने धर्म के मुख्य उद्देश्य नैतिकता को ताक पर रख कर दूसरे उद्देश्यों पर पूरा जोर दिया. ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए आत्मापरमात्मा, स्वर्गनरक, जन्ममरण की भूलभुलैया भरे सिद्धांतों के जाल में समाज को फंसा कर उस का खूब शोषण किया.

शोषण का साधन यज्ञ को बनाया. यज्ञ को ले कर धर्मग्रंथों में इस का गुणगान भरा पड़ा है. अथर्ववेद की घोषणा है :

‘अयं यज्ञो भुवनस्य नाभि’

(अर्थात विश्व की उत्पत्ति का स्थान यह यज्ञ है.)

गीता का उद्घोष है :

‘यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्रे लोकोऽयं कर्म बन्धन:’

(अर्थात यज्ञ के लिए जो कर्म किए जाते हैं, उन के अतिरिक्त अन्य कर्मों से यह लोक बंधा है.)

इसी में आगे कहा गया है :

‘नायं लोकोऽस्त्य यज्ञस्य कुतोऽन्य: कुरूसतम’

(अर्थात यज्ञ करने वाले को जब इस लोक में ही कोई सफलता नहीं मिलती तब उसे परलोक कहां मिलेगा.)

राजामहाराजा राजसूर्य या कहें अश्वमेध यज्ञ करते थे, जिन में हजारों ब्राह्मणों को धनदौलत, वस्त्र, दासदासी, घोड़े, रथ आदि दानस्वरूप दिए जाते थे क्योंकि यह यज्ञ पूरे ही तब होते थे जब उन्हें भरपूर दानदक्षिणा मिल जाती थी. यह यज्ञ पूरे साल चलते रहते थे. हां, इन के नाम व उद्देश्य जरूर बदले होते थे पर राजाओं को प्रतिदिन दान करना होता था और तलवार के बल पर जमा की गई धनदौलत से भरे खजाने खाली हो कर ब्राह्मणों के घर चले जाते थे. राजाओं को अश्वमेध यज्ञ के फलस्वरूप इस जन्म में कीर्ति तथा अगले जन्म में पुन: राजा बनने का झूठा आश्वासन मिलता था और ब्राह्मणों के घर ठगी के धन से भर जाते थे. इस दान के प्रमाण ऋग्वेद में मिलते हैं.

‘‘हे अग्ने, देवभक्त के पौत्र पिजवन के पुत्र सुदास ने 200 गाएं, बधुओं सहित 2 रथ दान किए. इस दान की प्रशंसा करते हुए मैं योग्य होता यज्ञ गृह में जाता हूं.’’

-ऋग्वेद 7-18-22.

धर्म के धंधे में पैसा है इसलिए देश में ऐसे निकम्मे लोगों की एक बड़ी फौज खड़ी हो गई है. साधुसंत नामधारी ये जीव गृहत्याग का बहाना बना कर घुमक्कड़ जीवन अपना, एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते हैं. इन सभी का उद्देश्य एक ही होता है कि जीविका के लिए कर्म न करना पड़े और चढ़ावे व भिक्षा के द्वारा ही जीवन निर्वाह होता रहे, यानी धर्म की आड़ में बिना हाथपांव हिलाए पेट भरना, जबकि हकीकत में धर्मकर्म से वे कोसों दूर रहते हैं और इन में बहुत से दुर्व्यसनों व दुराचारों में लीन रहते हैं.

धर्मगुरुओं में आज आपस में ही होड़ मची हुई है कि किस के चेले ज्यादा हैं, कौन छोटा कौन बड़ा है. कौन ज्यादा भीड़ जुटा पाता है और किस के कितने अमीर शिष्य हैं. ये तथाकथित गुरु दुनिया के बैरभाव कहां दूर करेंगे, खुद इन के अपने मठ में ही गद्दी हथियाने की लड़ाइयां चलती रहती हैं, मारकाट मची रहती है.

मठों, आश्रमों में अपार धन आता है. गुरुशिष्य के बीच इस को ले कर लड़ाईझगड़े शुरू हो जाते हैं. इस में सब से ज्यादा चालाक और ताकतवर शिष्य गुरु की गद्दी पर विराजमान होता है. इस का एक ताजा उदाहरण बाबा रामदेव है जो पतंजलि योग पीठ के संस्थापक शंकरदेव को पीछे धकेल कर खुद गद्दी पर बैठ गया.

प्रवचनों का हाईटेक रूप

जिस भी धार्मिक गुरु का प्रवचन जिस शहर में होना होता है वहां उन के शिष्य कई दिन पहले पहुंच कर अपने गुरु की महिमा का बखान शुरू कर उन के नाम के परचे बांटते हैं, बड़ेबड़े होर्डिंग शहर भर के चौराहों पर लगते हैं. अपने गुरु का प्रचार कर बड़ी संख्या में भीड़ जुटाने का काम ये चेले ही करते हैं.

बड़े घरों की महिलाएं सजसंवर कर प्रवचन का लाभ लेने सब से आगे बैठने की होड़ में लगी रहती हैं. अब यह बात अलग है कि उन का मकसद प्रवचन नहीं, वीडियो रिकार्डिंग होती है क्योंकि प्रवचन के वीडियो कैसेट साल भर दिखाए जाते हैं.

चूंकि समय के साथसाथ धर्म का व्यापार भी आधुनिक करवट ले रहा है इसलिए धर्म के क्षेत्र में भी इलेक्ट्रोनिक समावेश अपनी पहचान बना चुका है हिंदुओं की धर्मांधता को भुनाने के लिए कई धार्मिक चैनल आ गए हैं. जैसे, श्रद्धा, संस्कार, आस्था आदि. बाकी के लोकप्रिय चैनल भी दिन में कुछ घंटे प्रवचन जरूर दिखाते हैं.

आम जनता के बीच बड़े पंडाल में जब ये धार्मिक गुरु प्रवचन करते हैं तो उसे प्रवचन कहते हैं और जब वातानुकूलित सभागार में बैठ कर बोलते हैं तो वह आध्यात्मिक उपदेश में तबदील हो जाता है. इन का लक्ष्य विदेशों में रह रहे प्रवासी भारतीय भी हैं. ये प्रवासी भारतीय जम कर दानदक्षिणा देते हैं. धर्म के नाम पर ये गुरु और चैनल वाले दोनों ही जनता की जेब काट रहे हैं.

प्रवचन बिजनेस के ब्रांड नाम का काम

आसाराम बापू, मोरारी बापू, सुधांशु महाराज तो अब प्रवचन बिजनेस के ब्रांड नाम बन चुके हैं. इन के नाम पर लोग अपना सारा कामधंधा छोड़ कर इन का प्रवचन सुनने पहुंचते हैं. इन के प्रवचन का नशा किसी अफीम से कम नहीं है इसीलिए धर्म के नाम पर इन संतों के शिविर हर शहर में लगाए जाते हैं.

इन भव्य पंडालों को लगाने में लाखों रुपए खर्च होते हैं. भक्तों द्वारा आवास समिति, स्वागत समिति, भोजन समिति, पंडाल समिति, स्वामीजी रक्षक समिति, प्रचार समिति व धन संग्रह समिति प्रमुखता से गठित कर दी जाती हैं. यहां पर बड़े दानदाता स्वागत समिति में, व्यापारी भोजन समिति में, पत्रकार, समाजसेवी व खासखास सरकारी विभागों के अधिकारी धनसंग्रह समिति में लिए जाते हैं. शहर के दबंगों को रक्षक समिति में लिया जाता है व बाकी समर्पित कार्यकर्ताओं को पंडाल, सेवा, साफसफाई व प्रचार समिति में रखा जाता है.

ये सभी अपना कामधंधा छोड़ कर जितने दिन प्रवचन होते हैं धार्मिक गुरु की चाकरी में लगे रहते हैं. इस के बदले में इन्हें मिलता है स्वामीजी का आशीर्वाद, जिसे पा कर ये अपने को धन्य समझ लेते हैं और मान लेते हैं कि स्वामीजी का हाथ इन के सिर पर है.

बिजली, माइक, क्लोज सर्किट टीवी और सजावट के दूसरे सामानों पर भी खर्च आता है. हर एक शिविर पर लाखों रुपए का खर्च आता है, जो प्रवचन के ये ब्रांड नाम अपनी जेब से नहीं देते बल्कि इन के प्रवचन के आयोजन- कर्ता खर्च करते हैं और इन के भक्त अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई लुटाने में कोई कसर नहीं छोड़ते.

आगरा में रहने वाले जगमोहन गुप्ता का कहना है कि अभी कुछ साल पहले वृंदावन में मोरारी बापू के प्रवचन का भव्य आयोजन किया गया. यहां पर पंडाल में विशेष भक्तों, पत्रकारों, महिलाओं व विशेष दानदाताओं के लिए अलगअलग स्थान तय थे. भक्तों से मंच पर बैठ कर कथा सुनने की फीस बनाम दक्षिणा 3,100 से 5,100 रुपए तक वसूल की गई. गद्दा और सफेद धुली चादर पर आगे की पंक्ति में बैठ कर कथा सुनने की फीस 2,100 से 3,100 रुपए तक वसूली गई. बढ़ती महंगाई को देख कर कहा जा सकता है कि कथा सुनने की यह फीस अब और भी बढ़ गई होगी.

इस तरह की कथा का आयोजन जहां भी होता है कथा के दौरान लगभग 30-40 अस्थायी दुकानें भी लग जाती हैं. इन दुकानों में गुरुओं की कथा के कैसेट, संतों के प्रवचन के कैसेट और पुस्तकें 30 से ले कर 50 रुपए तक में बिकती हैं. इन के हजारों अनुयायी गुरुओं द्वारा प्रकाशित पत्रिका के स्थायी ग्राहक बनते हैं. प्रत्येक दुकान 11 दिन के लिए 1 हजार से ले कर 2 हजार रुपए तक ठेके पर उठाई जाती है. यहां संतों की तसवीरें भी 100 से 300 रुपए तक में खूब बिकती हैं.

यह आमदनी लाखों में होती है. जहां प्रवचन होते हैं वहां थोड़ीथोड़ी दूरी पर दानदाता की सुविधा के लिए दानपात्र रखे होते हैं, जिन पर लिखा होता है, ‘रुपएपैसे दानपात्र में ही डालें और आभूषण व कपड़े पंडित के पास जमा कराएं.’ सोचने की बात यह है कि ये धर्मगुरु तो संत हैं और संत तो कुछ लेते नहीं हैं या यों कहें कि इन्हें तो कुछ लेना नहीं चाहिए. फिर चढ़ावे की रकम कहांकहां आपस में बंटती है और किस को कितना मिलता है यह खोज का विषय है. यह सबकुछ हर धर्मगुरु के सत्संग में देखने को मिलता है.

मलीमसानपि जनान संत:

कुर्वन्ति निर्मलान।

(अर्थात संत मलिन चित्त वाले मनुष्यों को भी निर्मल कर देते हैं.)

-अचिंत्यानंद वर्णी, विवेकशतक, 55

लेकिन आजकल के ये संत कितने सुचरित्र वाले हैं इस का पता तो इन कुछ उदाहरणों से ही चल जाएगा. अपने प्रवचन में लाखों की भीड़ जुटाने वाला संत ज्ञानेश्वर खुद को भक्तों के बीच भगवान बतलाता था. इस स्वघोषित भगवान की जिस समय गोली मार कर हत्या की गई उस समय उस पर हत्या करने, बिजली की चोरी, सरकारी जमीन पर कब्जा, विस्फोटक पदार्थ एक्ट, अवैध हथियार रखने, जैसे अनेक मुकदमे चल रहे थे. उस के वाराणसी व बाराबंकी आश्रम में बड़ी संख्या में स्त्रियों का शारीरिक शोषण होता था.

करौंथा स्थित सतलोक आश्रम का स्वामी संत रामपाल अब जेल में है. उस की काली करतूतों से परदा उठ चुका है. रामपाल और उस के चेलों पर हत्या और जमीन पर जबरन कब्जा, डरानेधमकाने के अन्य मामले भी दर्ज किए गए हैं. लोगों को मोहमाया से दूर रहने का उपदेश देने वाला रामपाल खुद किस कदर मोहमाया से जकड़ा था यह उस का आलीशान आश्रम देखने से ही पता चल जाता है.

48 साल के पाखंडी साधु विकासानंद को पुलिस ने छापा मार कर जबलपुर के एक होटल से उस वक्त गिरफ्तार किया जब वह कुछ लड़कियों के साथ आपत्तिजनक स्थिति में था.

उस का फाइव स्टार आश्रम जबलपुर में ऐय्याशी, ब्लैकमेलिंग, स्मगलिंग व ब्लू फिल्म बनाने का अड्डा बना हुआ था.

खुद को कृष्ण व शिव का अवतार बता कर एक तांत्रिक नारायण दत्त श्रीमाली व उस के पुत्रों ने हरियाणा के सैकड़ों लोगों से 4 करोड़ के लगभग ठग लिए थे. 2001 में नारायण दत्त के खिलाफ कई आपराधिक मामले भी दर्ज किए गए.

धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने अपनी राजनीतिक पहुंच के कारण अरबों की संपत्ति जमा कर ली. उस का अपना हवाई जहाज और हवाई अड्डा था. ऐसे स्वामी से सदाचार की क्या उम्मीद की जा सकती है?

रामदेव पर भी आयुर्वेद की आड़ में आम लोगों की सेहत से खिलवाड़ करने का आरोप लगा. लेकिन लोगों में उस की पहुंच को देख कर सरकार खामोश हो गई.

शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती की गिरफ्तारी के बाद विश्व हिंदू परिषद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समेत तमाम हिंदूवादी संगठनों और नेताओं ने उन की गिरफ्तारी के तरीकों पर ऐतराज जताते हुए पृथक कानून व्यवस्था बनाने की मांग उठाई.

धर्म के इन ठेकेदारों की मानें तो शंकराचार्य या अन्य किसी धार्मिक व्यक्ति को गिरफ्तार न करना ही धर्म का सम्मान है. ये चाहते हैं कि धर्माचार्यों को अपराध करने की छूट दे दी जाए यानी धर्म को कानून के नीचे रखा जाए. अब सवाल यह उठता है कि हिंदू धर्म की सब से ऊंची गद्दी पर बैठे ये लोग अगर अपराध करते हैं तो इन्हें सजा क्यों न दी जाए?

अब यह साबित हो चुका है कि ये धर्मगुरु खुद ही परले दर्जे के ऐय्याश, धोखेबाज, कुचरित्र, हत्या जैसे जघन्य अपराधों में लिप्त पाए जाते हैं, तो जनता को अपने सत्संग में कौन सा मुक्ति का पाठ पढ़ाएंगे? धार्मिक गुरुओं द्वारा जनता को बेवकूफ बना कर माल बटोरने का यह धंधा सदियों से चला आ रहा है इसलिए अब समय आ गया है कि जनता जागरूक हो जाए और धर्म के ठेकेदार बने इन संतों, गुरुओं की दुकानदारी पर रोक लगाए.

परीक्षा से डर कैसा : यह रिजल्ट आखिरी तो नहीं

मनोवैज्ञानिक और काउंसलर अब्दुल माबूद कहते हैं, ‘‘यह काफी नाजुक दौर होता है, बच्चों को उन की जिंदगी की कीमत समझाना अभिभावकों का पहला काम होना चाहिए.’’

अब्दुल माबूद ने यह बात बच्चों की परीक्षा और उन के मानसिक दबाव को ले कर कही है. दरअसल,  परीक्षाओं का दौर खत्म होने के बाद छात्रों को कुछ दिनों की राहत तो मिलती है पर साथ ही रिजल्ट का अनचाहा दबाव बढ़ने लगता है. बच्चे भले ही हम से न कहें पर उन्हें दिनरात अपने रिजल्ट की चिंता सताती रहती है. बोर्ड एग्जाम्स को तो हमारे यहां हौआ से कम नहीं माना जाता, जबकि यह इतना गंभीर नहीं होता जितना हम इसे बना देते हैं.

आजकल तो छोटी क्लास के बच्चों पर भी रिजल्ट का दबाव रहता है और इस दबाव की वजह सिर्फ और सिर्फ उन के पेरैंट्स होते हैं. ज्यादातर पेरैंट्स बच्चों के रिजल्ट को अपने मानसम्मान और प्रतिष्ठा से जोड़ कर देखते हैं. यही वजह है कि वे खुद तो तनाव में रहते हैं, बच्चों को भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से तनाव का शिकार बना देते हैं.

छात्रों पर बढ़ता दबाव

एग्जाम्स के रिजल्ट आने से पहले ही छात्रों के मनमस्तिष्क पर अपने रिजल्ट को ले कर दबाव पड़ने लगता है. एक तो स्वयं की उच्च महत्त्वाकांक्षा और उस पर प्रतिस्पर्धा का दौर छात्रों के लिए कष्टकारक होता है.

वैसे तो छात्रों को पता होता है कि उन के पेपर कैसे हुए और अमूमन रिजल्ट के बारे में उन्हें पहले से ही पता होता है, इसीलिए कुछ छात्र तो निश्चिंत रहते हैं पर कुछ को इस बात का भय सताता रहता है कि रिजल्ट खराब आने पर वे अपने पेरैंट्स का सामना कैसे करेंगे.

आत्महत्याएं चिंता का विषय

प्रतिस्पर्धा के दौर में सब से आगे रहने की महत्त्वाकांक्षा और इस महत्त्वाकांक्षा का पूरा न हो पाना छात्रों को अवसाद की तरफ धकेल देता है, जिस पर पेरैंट्स हर वक्त उन की पढ़ाई पर किए जाने वाले खर्च की दुहाई देते हुए उन पर लगातार दबाव डालते रहते हैं. इस से कभीकभी छात्र यह सोच कर हीनभावना के शिकार हो जाते हैं कि वे अपने पेरैंट्स की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर सके. यही वजह कभीकभी उन्हें अवसाद के दलदल में धकेल देती है और वे नासमझी में आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं.

पेरैंट्स के पास सिवा पछतावे के कुछ नहीं बचता. ऐसे में उन्हें यह विचार सताने लगता है कि काश, उन्होंने समय रहते अपने बच्चे की कद्र की होती. जिसे इतने अरमानों से पालापोसा, बड़ा किया वह उन के कंधों पर दुख का बोझ छोड़ कर चला गया. पिछले 15 सालों में 34,525 छात्रों ने केवल अनुत्तीर्ण होने की वजह से आत्महत्या की. ये आंकड़े सच में निराशाजनक और चिंतनीय हैं जिन पर सभी को विचार करने की जरूरत है.

बच्चों के साथ फ्रैंडली रहें

पेरैंट्स यदि बच्चों के साथ ज्यादातर सख्ती से पेश आएंगे तो बच्चे उन्हें अपने मन की बात नहीं बताएंगे. अगर वे रिजल्ट को ले कर तनाव में हैं तो भी डर के कारण नहीं बता पाएंगे. बच्चों के साथ आप का दोस्ताना व्यवहार उन्हें आप के नजदीक लाएगा और वे खुल कर आप से बात करना सीखेंगे. इस से न केवल वे तनावमुक्त रहेंगे बल्कि उन का आत्मविश्वास भी बढ़ेगा. उन्हें इस एहसास के साथ जीने दें कि चाहे जो भी रिजल्ट आए, पेरैंट्स उन के दोस्त के रूप में उन के साथ हैं.

तुम हमारे लिए सब से कीमती

बच्चों को इस बात का एहसास कराएं कि इस दुनिया में आप के लिए सब से कीमती वे हैं न कि बच्चों का रिजल्ट. अपने मानसम्मान को बच्चों के कंधों का बोझ न बनाएं. बच्चों के सब से पहले काउंसलर उन के पेरैंट्स ही होते हैं. यदि वे उन्हें नहीं समझेंगे तो हो सकता है बच्चे अवसाद के शिकार हो जाएं. उन्हें यह एहसास दिलाना होगा कि कोई भी परिणाम हमारे लिए तुम्हारी सलामती से बढ़ कर नहीं है.

शिक्षा को अहमियत देना गलत नहीं है लेकिन शिक्षा व परीक्षा के नाम व्यक्तिगत जिंदगी से सबकुछ खत्म कर लेना और उसे ही जीवन का अंतिम सत्य मान लेना खुद को कष्ट पहुंचाना ही है. अगर जीवन के हर भाव व पहलुओं का आनंद लेना है तो बच्चों की खुशी का भी ख्याल रखना होगा.

रिजल्ट के दिनों में पैरेंट्स के लिए बच्चों की गतिविधियों पर नजर रखना बेहद जरूरी है. यह देखें कि कहीं वे गुमसुम या परेशान तो नहीं, ठीक से खाना खाते हैं या नहीं, जीवन के बारे में निराशावादी तो नहीं हो रहे हैं. इस समय पेरैंट्स को धैर्य का परिचय दे कर बच्चों के लिए संबल बनना चाहिए, न कि उन पर दबाव डालना चाहिए. उन्हें यह विश्वास दिलाएं कि उन का रिजल्ट चाहे जैसा रहे, उन के पेरैंट्स हमेशा उन के साथ हैं.

जीवन चलने का नाम है. एक बार गिर कर दोबारा उठा जा सकता है. जीवन में न जाने कितनी परीक्षाएं आतीजाती रहेंगी. उठो, चलो और आगे बढ़ो. अपनी क्षमताओं को पहचानो.

दुनिया ऐसे उदाहरणों से भरी पड़ी है जिन में बचपन में पढ़ाई में कमजोर रहे छात्रों ने बाद में सफलता के कई नए रिकौर्ड कायम किए हैं, आविष्कार किए हैं. यह परीक्षा जीवन की आखिरी परीक्षा नहीं है. जीवन चुनौतियों का नाम है. फेल होने का मतलब जिंदगी का अंत नहीं होता. इंसान वह है जो अपनी गलतियों से सीख कर आगे बढ़े.

डाक्टर की मानें झाड़फूंक की नहीं

रीमा कैंसर की पहले स्टेज से जूझ रही थीं. डाक्टरों का कहना था कि अगर वे समय से पूरा इलाज करा लेंगी तो ठीक हो सकती हैं. लेकिन रीमा के परिवार वालों का डाक्टर के इलाज से ज्यादा झाड़फूंक पर यकीन था. वे उन्हें एक बाबा के पास ले कर पहुंचे.

उस बाबा ने अपने तंत्रमंत्र से रीमा को ठीक करने का दावा किया जिस पर परिवार वालों ने आंख मूंद कर यकीन कर लिया.

उस बाबा ने इस के एवज में न केवल ढेर सारे रुपयों की मांग की, बल्कि रीमा को डाक्टर के पास ले जाने से मना भी कर दिया.

परिवार के लोग रीमा को अकसर उस बाबा के पास झाड़फूंक के लिए ले जाने लगे. रीमा की बीमारी बढ़ती जा रही थी लेकिन उन के घर वालों को उस बाबा पर इस कदर यकीन था कि रीमा की पीड़ा को भी वे महसूस नहीं कर पा रहे थे.

एक दिन रीमा की हालत ज्यादा खराब होने लगी. उन के परिवार वालों को लगा कि उन्हें एक बार फिर से डाक्टर को दिखाना चाहिए.

डाक्टर ने बताया कि झाड़फूंक के चलते रीमा की बीमारी बहुत ज्यादा बढ़ चुकी है और उन का बचना मुश्किल है. आखिरकार एक दिन रीमा की मौत हो गई.

इस देश में आज भी लोग बीमारियों का इलाज माहिर डाक्टरों से न करा कर बाबाओं, पीरफकीरों की शरण में खोजते हैं. ऐसे में हर रोज हजारों लोगों को पाखंड और पोंगापंथ के चक्कर में अपनी जान गंवानी पड़ती है.

डाक्टर वीके वर्मा का कहना है कि उन के पास हर रोज ऐसे मरीज आते हैं जो झाड़फूंक के चक्कर में पड़ कर अपनी बीमारी को गंभीर बना लेते हैं या मौत के मुंह में चले जाते हैं. कई बार मरीजों को झाड़फूंक न कराने की सलाह देने पर उन्हें भी लोगों के विरोध का सामना करना पड़ता है.

पढ़ेलिखे भी शिकार

एक मनोविज्ञानी राधेश्याम चौधरी का कहना है कि पढ़ेलिखे लोगों की इलाज के लिए बाबाओं के आगे लाइन लगाने की खास वजह यह होती है कि उन के मन में बचपन से ही भूतप्रेतों और बाबाओं को ले कर डर बैठा दिया जाता है जिसे वे बड़ा होने पर भी अपने मन से निकाल नहीं पाते हैं.

अगर ऐसे लोग कभी बीमार पड़ते भी हैं या परेशानियों का शिकार होते हैं तो उन्हें इस का इलाज बाबाओं के पास ज्यादा दिखाई देता है. उन को इस बात की समझ तब आती है जब वे बाबाओं के झांसे में पड़ कर अपना नुकसान कर बैठते हैं. हमें बच्चों में वैज्ञानिक सोच पैदा करनी चाहिए जिस से उन के मन में भूतप्रेतों का डर न रहने पाए.

ऐसे मरीज हैं ज्यादा

पीरफकीरों के यहां झाड़फूंक कराने आए ज्यादातर लोग दिमागी बीमारियों से जूझ रहे होते हैं. ऐसे मरीजों के परिवार वाले मरीज की ऊलजुलूल हरकतों को भूतप्रेत का साया मान लेते हैं जिस के चलते वे बाबाओं की शरण में पहुंच जाते हैं.

झाड़फूंक की दुकान चलाने वाला बाबा सब से पहले उन्हें डाक्टरों के पास ले जाने से मना करता है, क्योंकि उसे पता होता है कि अगर मरीज डाक्टर के पास चला गया तो न केवल आसानी से ठीक हो जाएगा बल्कि उसे अपनी झाड़फूंक की दुकान भी बंद करनी पड़ जाएगी. इस से लंबे समय तक जेब ढीली करने वालों की तादाद में कमी आ जाएगी और उस की पोल खुलने का भी डर बना रहेगा.

मानसिक रोग विशेषज्ञ डाक्टर मलिक मोहम्मद अकमलुद्दीन का कहना है कि दिमागी बीमारी के ज्यादातर मरीज तो उन के पास तब आते हैं जब उन की हालत बहुत ज्यादा बिगड़ चुकी होती है.

परिवार से पूछने पर पता चलता है कि मरीज की अजीबोगरीब हरकतों को भूतप्रेतों का साया मान कर वे उस की झाड़फूंक करा रहे थे.

अजीब हरकतें करना दिमागी बीमारी की निशानी है. इस में कई तरह के लक्षण एकसाथ दिखाई पड़ सकते हैं. इन में स्किजोफ्रेनिया, बाइपोलर डिसऔर्डर या कैटाटोनिक अवसाद जैसी कई बीमारियां शामिल हैं.

इन बीमारियों में मरीज के विचारों और बरताव में बदलाव आ जाता है. इस के चलते वह कुछ समय के लिए अपनी देखभाल करने में नाकाम हो जाता है.

इसी तरह के लक्षण दूसरी दिमागी बीमारियों में भी पाए जाते हैं. कुछ बीमारियों में मरीज अपनेआप को किसी दूसरे के किरदार के साथ जीने लगता है. लोग समझते हैं कि उस पर कोई ऊपरी साया है, जबकि भूतप्रेत या ऊपरी साया सब बकवास है जो पोंगापंथियों के दिमाग की उपज होती है.

ऐसी बीमारियों में डाक्टरी इलाज का सहारा लेना चाहिए, न कि बेसिरपैर की बातों में फंस कर अपनी जेब ढीली कर दी जाए.

डाक्टर वीके वर्मा का कहना है कि सामान्य या गंभीर बीमारियों की दशा में हमें डाक्टर से इलाज कराना चाहिए जिस से समय रहते बीमारी से न केवल नजात मिलेगी, बल्कि बच्चा न पैदा होने जैसी समस्याओं से जूझ रही औरतों का बाबाओं द्वारा यौन शोषण भी नहीं हो पाएगा.

अगर कोई भी इलाज के लिए पीरफकीरों और बाबाओं की शरण में जाने को कहता है तो उसे अंधविश्वास फैलाने के जुर्म में जेल भिजवाने का डर दिखाएं.

याद रखिए, कोई भी आप को झाड़फूंक कराने के लिए मजबूर नहीं कर सकता. अगर कोई ऐसा करता पाया जाता है तो उस के ऊपर सख्त कानूनी कार्यवाही की जा सकती है.

शौचालय सस्ते में बनाएं

भारत में खुले में शौच की समस्या आज भी चुनौती बनी हुई है, जबकि सरकार जोरजोर से खुले में शौच मुक्त होने के ढोल पीट रही है. सरकार शौचालय बनवाने के लिए रुपए भी देती है, लेकिन यह पैसे भ्रष्टाचार के चलते जरूरतमंदों तक पहुंच ही नहीं पाते हैं.

खुले में शौच की समस्या का सीधा सामना औरतों और लड़कियों को ज्यादा करना पड़ता है. इस दौरान किसी जंगली जानवर के हमले या जहरीले जीव के काटने से भी मौत होना आम बात है. कई बार उन्हें बलात्कार का शिकार तक होना पड़ता है.

बूढ़े और लाचार बीमार लोगों का बाहर शौच के लिए जाना और भी मुश्किल काम है. बारिश के दौरान या आपदा के समय में यह और भी भयावह हो जाता है.

खुले में किए गए शौच से संक्रमण फैलने और बीमारियां होने का खतरा बना रहता है क्योंकि यहीं से मक्खियां मल से फैलने वाले कीटाणुओं को घरों और खाने की चीजों तक पहुंचा देती हैं.

लिहाजा, यह जरूरी हो जाता है कि गांवों या शहरों में खुले में शौच में कमी लाने के लिए शौचालय बनाने की सस्ती तकनीक का सहारा लिया जाए जिस के तहत बने शौचालय सस्ते होने के साथसाथ टिकाऊ भी हों.

सोख्ता शौचालय

सोख्ता गड्ढों वाले शौचालयों को महज 10 से 12 हजार रुपए में तैयार किया जा सकता है. इस में 2 गड्ढे बनाए जाते हैं. इन की गहराई सवा मीटर से ज्यादा नहीं होनी चाहिए क्योंकि मल को खाने वाले कीड़े जमीन के अंदर सवा मीटर की गहराई में ही पैदा होते हैं. ज्यादा गहराई होने पर कीड़े पैदा नहीं हो पाते हैं और जमीन के अंदर तक पीने का पानी खराब होने का खतरा भी बढ़ जाता है.

प्रधानमंत्री के हाथों ‘गौरवग्राम पुरस्कार’ हासिल कर चुके स्मार्ट विलेज हसुड़ी औसानपुर के ग्राम प्रधान दिलीप कुमार त्रिपाठी बताते हैं कि अगर सोख्ता गड्ढों वाले शौचालय का इस्तेमाल ज्यादा समय तक करना चाहते हैं तो शौचालय की सीट के पास 2 गड्ढे बनाने चाहिए. इन्हें समयसमय पर साफ कर के 10 से 12 सदस्यों वाले परिवार के लिए सालों तक इस्तेमाल में लाया जा सकता है.

इस तरह के शौचालयों को बनाते समय यह ध्यान देना चाहिए कि शौचालय के गड्ढे पीने के पानी के चांपाकल वगैरह से कम से कम 10 मीटर की दूरी पर हों.

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2 गड्ढों वाले शौचालय व एक चबूतरे को बनाने के लिए 1,000 ईंटें, डेढ़ से 3 बोरी सीमेंट, 10 से 12 बोरी बालू, 4 फुट पाइप, एक लैट्रिन सीट व गड्ढा ढकने के लिए ढक्कन की जरूरत पड़ती है. इस तरह के शौचालय को बनाने के लिए सरकार से 12,000 रुपए की मदद भी मुहैया कराई जाती है.

बांस से बने सस्ते शौचालय

अगर सस्ते में शौचालय बनवाने की बात की जाए तो बांस से बने शौचालयों का सहारा ले सकते हैं. इन में बहुत कम खर्च आता है.

गोरखपुर जिले के जंगल कौडि़या ब्लौक के कई गांवों में इस तरह की तकनीक से लोगों ने अपने घरों में शौचालयों को बनवाया है जिन में शौचालय की दीवारों और छत को बांस से बना कर उस पर मिट्टी का लेप लगा दिया जाता है और नीचे सीमेंट, ईंट के साथ चबूतरा बना कर लैट्रिन सीट बिठाई जाती है. इसी के बगल में गड्ढा बनाया जाता है. यह गड्ढा सोख्ता गड्ढों की तरह ही बनता है.

इस तरह की शौचालय तकनीक को ईजाद करने वाली संस्था गोरखपुर ऐनवायरनमैंटल ऐक्शन ग्रुप से विजय पांडेय बताते हैं कि गरीब परिवारों के लिए यह तकनीक बहुत ही कारगर है और इस में मुश्किल से 4,930 रुपए की लागत आती है जिसे कोई भी परिवार आसानी से अपने घरों में बनवा सकता है. यह जगह भी कम घेरता है.

सैप्टिक टैंक शौचालय

ऐसे शौचालयों को भी कम लागत में बनाया जा सकता है लेकिन यह उस जगह के लिए ज्यादा मुफीद माना जाता है जहां सीवर लाइन हो या ढकी हुई नालियां हों.

शौचालय बनाने के कारोबार से जुड़े राकेश बताते हैं कि सैप्टिक टैंक शौचालय को महज एक दिन में बना कर इस्तेमाल में लाया जा सकता?है. इस के लिए पहले से बने सीसी पाइप को जमीन के अंदर फिट किया जाता है और फिर उस के बगल में चबूतरा बना कर शौच जाने के लिए चालू कर दिया जाता है.

ऐसे शौचालयों से निकलने वाले पानी को खुले में नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि इस से मच्छर, कीड़ेमकोड़ों के पनपने का डर बढ़ जाता है और खुले में पानी छोड़ने से आबोहवा पर बुरा असर पड़ सकता है.

ऐसे शौचालय बनाने के लिए 15 से 17 हजार रुपए की लागत आती है. 5 से 10 सदस्यों वाले परिवारों के लिए इसे 50 साल तक शौच जाने के लिए इस्तेमाल में लाया जा सकता है.

बच्चा उदास रहे तो हो जाएं सावधान

15 साल की रिया जब भी स्कूल जाती, क्लास में सब से पीछे बैठ कर हमेशा सोती रहती. उस का मन पढ़ाई में नहीं लगता था. वह किसी से न तो ज्यादा बात करती और न ही किसी को अपना दोस्त बनाती. अगर वह कभी सोती नहीं थी, तो किताबों के पन्ने उलट कर एकटक देखती रहती. क्या पढ़ाया जा रहा है, इस से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता. हर बार उस की शिकायत उस के मातापिता से की जाती, पर इस का उस पर कोई असर नहीं पड़ता था.

वह हमेशा उदास रहा करती थी. इसे देख कर कुछ बच्चे तो उसे चिढ़ाने भी लगते थे, पर वह उस पर भी अधिक ध्यान नहीं देती थी. परेशान हो कर उस की मां ने मनोवैज्ञानिक से सलाह ली. कई प्रकार की दवाएं और थेरैपी लेने के बाद वह ठीक हो पाई.

दरअसल, बच्चों में डिप्रैशन एक सामान्य बात है, पर इस का पता लगाना मुश्किल होता है. अधिकतर मातापिता इसे बच्चे का आलसीपन समझते हैं और उन्हें डांटतेपीटते रहते हैं. इस से वे और अधिक क्रोधित हो कर कभी घर छोड़ कर चले जाते हैं या फिर कभी आत्महत्या कर लेते हैं.

बच्चों की समस्या न समझ पाने की 2 खास वजहें हैं. पहली तो हमारे समाज में मानसिक समस्याओं को अधिक महत्त्व नहीं दिया जाता और दूसरे, अभी बच्चा छोटा है, बड़ा होने पर समझदार हो जाएगा, ऐसा कह कर अभिभावक इस समस्या को गहराई से नहीं लेते. मातापिता को लगता है कि यह समस्या सिर्फ वयस्कों को ही हो सकती है, बच्चों को नहीं.

शुरुआती संकेत : जी लर्न की मनोवैज्ञानिक दीपा नारायण चक्रवर्ती कहती हैं कि आजकल के मातापिता बच्चों की मानसिक क्षमता को बिना समझे ही बहुत अधिक अपेक्षा रखने लगते हैं. इस से उन्हें यह भार लगने लगता है और वे पढ़ाई से दूर भागने लगते हैं. अपनी समस्या वे मातापिता से बताने से डरते हैं और उन का बचपन ऐसे ही डरडर कर बीतने लगता है, जो धीरेधीरे तनाव का रूप ले लेता है. मातापिता को बच्चे में आए अचानक बदलाव को नोटिस करने की जरूरत है. कुछ शुरुआती लक्षण निम्न हैं :

–       अगर बच्चा आम दिनों से अधिक चिड़चिड़ा हो रहा हो या बारबार उस का मूड बदल रहा हो.

–       बातबात पर  गुस्सा होना या रोना.

–       अपनी किसी हौबी या शौक को फौलो न करना.

–       खानेपीने में कम दिलचस्पी रखना.

–       सामान्य से अधिक समय तक सोना.

–       अलगथलग रहने की कोशिश करना.

–       स्कूल जाने की इच्छा का न होना

–       स्कूल के किसी काम को न करना आदि.

इस बारे में दीपा आगे बताती हैं कि किसी भी मातापिता को बच्चे को डिप्रैशन में देखना आसान नहीं होता और वे इसे मानने को भी तैयार नहीं होते कि उन का बच्चा डिप्रैशन में है.

तनाव से निकालना : निम्न कुछ बातों से बच्चे को तनाव से निकाला जा सकता है–

–       हमेशा धैर्य रखें, गुस्सा करने पर बच्चा भी रिवोल्ट करेगा और आप उसे कुछ समझा नहीं सकते.

–       बच्चे को कभी यह एहसास न होने दें कि वह बीमार है. यह कोई बीमारी नहीं है, इस का इलाज हो सकता है.

–       हिम्मत से काम लें, बच्चे को डिप्रैशन से निकालने में मातापिता से अच्छा कोई नहीं हो सकता.

–       बच्चे से खुल कर बातचीत करें, तनावग्रस्त बच्चा अधिकतर कम बात करना चाहता है. ऐसे में बात करने से उस के मनोभावों को समझना आसान होता है. उस के मन में कौन सी बात चल रही है, उस का समाधान भी आप कर सकते हैं.

–       हमेशा बच्चे को लोगों से मिलनेजुलने के लिए प्रेरित करें.

–       बातचीत से अगर समस्या नहीं सुलझती है, तो इलाज करवाना जरूरी है. इस के लिए आप खुद उसे मनाएं और ध्यान रखें कि डाक्टर जो भी दवा दे, उसे वह समय पर ले, इस से वह जल्दी डिप्रैशन से निकलने में समर्थ हो जाएगा.

अपना दायित्व समझें : मातापिता बच्चे के रिजल्ट को ले कर बहुत अधिक परेशान रहते हैं. इस बारे में साइकोलौजिस्ट राशिदा कपाडि़या कहती हैं कि बच्चों में तनाव और अधिक बढ़ जाता है जब उन की

बोर्ड की परीक्षा हो. ऐसे में हर मातापिता अपने बच्चे से 90 प्रतिशत अंक की अपेक्षा लिए बैठे रहते हैं और कम नंबर आने पर वे मायूस होते हैं. ऐसे में बच्चा और भी घबरा जाता है. उसे एहसास होता है कि नंबर कम आने पर उसे कहीं ऐडमिशन नहीं मिलेगा, जबकि ऐसा नहीं है, हर बच्चे को अपनी क्षमता के अनुसार दाखिला मिल ही जाता है.

कई ऐसे उदाहरण हैं जहां रिजल्ट देखे बिना ही बच्चे परीक्षा में अपनी खराब परफौर्मेंस के बारे में सोच कर आत्महत्या तक कर लेते हैं. इस से बचने के लिए मातापिता को खास ध्यान रखने की जरूरत है :

–       अपने बच्चे की तुलना किसी अन्य बच्चे से न करें.

–       वह जो भी नंबर लाया है उस की तारीफ करें और उस की चौइस को आगे बढ़ाएं.

–       अपनी इच्छा बच्चे पर न थोपें.

–       उस की खूबियों और खामियों को समझने की कोशिश करें. अगर किसी क्षेत्र में प्रतिभा नहीं है, तो उसे छोड़ उस के हुनर को उभारने की कोशिश करें.

–       एप्टिट्यूड टैस्ट करवा लें, इस से बच्चे की प्रतिभा का अंदाजा लगाया जा सकता है.

–       उस के सैल्फ स्टीम को कभी कम न करें.

–       उस की मेहनत को बढ़ावा दें.

–       समस्या के समाधान के लिए बच्चे से खुल कर बातचीत करें और उस के मनोभावों को समझें तथा उस के साथ चर्चा करें.

–       अपनी कम कहें, बच्चे की ज्यादा सुनें, इस से बच्चा आप से कुछ भी कहने से हिचकिचाएगा नहीं.

–       बच्चे को हैप्पी चाइल्ड बनाएं, डिप्रैशनयुक्त नहीं.

लड़कियां हों या महिलाएं, 5 समस्याएं गायनोकोलौजिस्ट से न छिपाएं

हमेशा हंसती रहने वाली मेघा पिछले 2 महीने से काफी उदास रहने लगी थी. उसे किसी से बात करना तक अच्छा नहीं लगता था. उस ने कालेज जाना भी कम कर दिया था. एक दिन उस की मां ने उस से पूछा, ‘‘क्या बात है मेघा, आजकल मैं देख रही हूं कि तू बहुत उदास रहने लगी है. न हंसती है न किसी से बात करती है?’’

इस पर मेघा ने कहा, ‘‘नहीं मम्मी, ऐसी कोई बात नहीं है, बस यों ही.’’

मेघा की रमेश के साथ पिछले एक साल से दोस्ती थी. दोनों कालेज के बाद अकसर गार्डन या मौल में घूमने जाते थे. उन के शारीरिक संबंध भी बन गए थे. रमेश जब चाहता उसे एकांत जगह पर ले जाता और फिर दोनों सैक्स करते.

2 महीने से मेघा को पीरियड्स नहीं हुए थे. उसे लग रहा था कि वह प्रैग्नैंट हो गई है. इसीलिए वह उदास रहने लगी थी. उसे डर था कि अगर वह मां को यह बताएगी कि रमेश के साथ उस के शारीरिक संबंध हैं और पीरियड्स नहीं हो रहे हैं तो मां उसे डांटेगी और गायनोकोलौजिस्ट के पास ले जाएगी जहां उस की पोलपट्टी खुल जाएगी.

लेकिन ऐसा कब तक चलता. एक दिन उस ने मां को बताया कि उसे पिछले 2 महीने से पीरियड्स नहीं हुए हैं. यह सुन कर पहले तो मां का माथा ठनका कि कहीं मेघा प्रैग्नैंट तो नहीं हो गई है. खैर, मां ने उसे कुछ नहीं कहा. एक दिन वह उसे ले कर एक गायनोकोलौजिस्ट के पास गई. मेघा थरथर कांपने लगी जब गायनोकोलौजिस्ट ने मेघा से उस की समस्या पूछी. पहले तो मेघा सकुचाई पर फिर उस ने डाक्टर को बताया कि उसे पिछले 2 महीने से पीरियड्स नहीं हुए हैं.

डाक्टर ने पूछा कि इस से पहले भी कभी ऐसा हुआ है? तो उस ने जवाब दिया कि पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ.

लेडी डाक्टर बुजुर्ग थी. उस के पास ऐसे कई केस आते थे. डाक्टर ने इस बारे में उस से ज्यादा पूछना उचित नहीं समझा. उस ने मेघा का प्रैग्नैंसी टैस्ट किया, लेकिन रिपोर्ट नैगेटिव निकली, इस का मतलब था कि मेघा प्रैग्नैंट नहीं थी. किसी और वजह से उसे पीरियड्स नहीं हो रहे थे.

इस बार तो मेघा बालबाल बच गई लेकिन अब उस ने फैसला कर लिया कि वह अब अपने बौयफ्रैंड के साथ कभी शारीरिक संबंध नहीं बनाएगी.

लेडी डाक्टर ने मेघा का इलाज शुरू किया और जल्दी ही उस के पीरियड्स नियमित हो गए.

युवतियों की शारीरिक संरचना काफी जटिल होती है. हमेशा कुछ न कुछ समस्या लगी रहती है. अधिकतर युवतियों को इस बारे में सही जानकारी नहीं होती, इसलिए वे डर जाती हैं. उन्हें लगने लगता है कि वे प्रैग्नैंट हो गई हैं, क्योंकि आजकल युवकयुवतियां सैक्स को ले कर काफी बोल्ड हो गए हैं. वे इस में कोई बुराई नहीं समझते. वे खुल कर सैक्स एंजौय करते हैं.

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युवतियों की शारीरिक समस्याएं

अनियमित माहवारी : युवतियों की यह समस्या आम है, पर इसे ले कर वे काफी भयभीत रहती हैं. अनियमित माहवारी के कई कारण हैं. गायनोकोलौजिस्ट डा. रेनू शर्मा के अनुसार, ‘‘जो युवतियां सोचती हैं कि माहवारी प्रैग्नैंसी की वजह से रुकती है, तो यह गलत है. ऐसे अनेक कारण हैं जिन की वजह से अकसर युवतियां इस शारीरिक समस्या का शिकार होती हैं.’’

वास्तव में यह कोई बीमारी नहीं है. यदि समय पर इलाज किया जाए और खानपान पर ध्यान दिया जाए तो यह समस्या जल्दी ही खत्म हो जाती है. कभी कुछ युवतियों को महीने में 2 बार भी माहवारी हो जाती है, जिस से शरीर का काफी खून निकल जाता है और उन में कमजोरी आ जाती है. यह समस्या हार्मोन की गड़बड़ी की वजह से होती है. टैस्टों के जरिए समस्या की जड़ तक पहुंचा जा सकता है और फिर उस के अनुसार ही इलाज किया जाता है.

स्तन में गांठें बनना : युवतियों में यह समस्या कौमन है. अकसर उन के स्तन में गांठें पड़ जाती हैं, जिस की वजह से स्तन को स्पर्श करते ही उन्हें काफी दर्द महसूस होता है. यदि आप को भी यह समस्या है तो आप बिना संकोच के तुरंत अपनी लेडी डाक्टर से मिलें और पूरी समस्या उन्हें सहीसही बता दें. स्तन में गांठें पड़ने के कई कारण हो सकते हैं.

खून की जांच व अल्ट्रासाउंड से समस्या की वजह पता चल जाती है और फिर इलाज से इस समस्या पर काबू पाया जा सकता है. बड़ी उम्र की महिलाओं के स्तनों में गांठों की समस्या हो जाती है जो कभीकभी ब्रैस्ट कैंसर के रूप में सामने आती है. ऐसे में कीमोथेरैपी की जाती है और कभीकभी तो जिस ब्रैस्ट में यह समस्या है, उसे काटना भी पड़ सकता है. युवतियों में ब्रैस्ट कैंसर का प्रतिशत बहुत कम होता है, इसलिए उन्हें घबराने की जरूरत नहीं है.

ल्यूकोरिया : ल्यूकोरिया यानी वेजाइना से निकलने वाला सफेद या चिपचिपा गाढ़ा पदार्थ. ल्यूकोरिया की शिकायत उन युवतियों में अधिक होती है जो अपने जननांगों की साफसफाई नहीं रखतीं या फिर किसी दूसरी युवती के अंदरूनी कपड़े पहनती हैं. यह एक छूत की बीमारी है. यदि समय पर इस का इलाज नहीं कराया जाए तो यह बीमारी काफी बढ़ जाती है. इस से पीडि़त युवती कमजोर हो जाती है. इसलिए अगर आप के साथ ऐसी समस्या है तो तुरंत किसी डाक्टर से संपर्क करें और उन्हें अपनी समस्या बताएं. इस बात का हमेशा ध्यान रखें कि समस्या छिपाने से और बढ़ती है.

ओवरी में गांठ (पीसीओडी) : युवतियों में पीसीओडी की समस्या भी आम है. इस समस्या में ओवरी में गांठ (सिस्ट) बन जाती है, जिस से माहवारी तो रुक ही जाती है, साथ ही पेट में भी दर्द रहता है. कभीकभी अंडाशय में बना अंडा, जो हर महीने फूट कर खून (माहवारी) के रूप में बाहर निकल जाता है, वह फूट नहीं पाता और अंडाशय के चारों ओर जमा हो कर दीवार सी बना देता है, जिस से पेट में सूजन आ जाती है. अगर माहवारी बंद हो जाए तो अल्ट्रासाउंड कराना जरूरी होता है. इस से मालूम हो जाता है कि युवती को पीसीओडी की समस्या है या नहीं. वैसे, इस में कोई घबराने वाली बात नहीं है. यदि समय पर डाक्टर को दिखाया जाए तो इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है.

जो युवतियां संकोचवश समय रहते गायनोकोलौजिस्ट को नहीं दिखातीं उन की यह समस्या बढ़ जाती है. समस्या के बढ़ने पर उन में बांझपन का खतरा भी बढ़ जाता है. इसलिए ऐसी स्थिति में युवतियों को तुरंत डाक्टर से संपर्क करना चाहिए और उन्हें खुल कर अपनी समस्या बतानी चाहिए.

बिना शादी के प्रैग्नैंसी : युवतियां अपनी गलतियों की वजह से प्रैग्नैंसी का शिकार हो जाती हैं. यदि आप कुंआरी हैं और प्रैग्नैंट हो गई हैं तो पहले अपनी मां या बड़ी बहन को कौन्फिडैंस में लें और उन्हें सबकुछ सचसच बता दें.

बहुत सी लड़कियां प्रैग्नैंट होने पर बदनामी के डर से डाक्टर के पास नहीं जातीं और अपनेआप गर्भ गिराने वाली दवाएं खाती रहती हैं, लेकिन कभीकभी ये दवाएं जिंदगी के लिए खतरा भी बन जाती हैं.

पुण्य और फल : पैसा बटोरने का धंधा

भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, जहां धर्म के नाम पर जो भी किया जाए, सब जायज माना जाता है. अपनी तथाकथित आस्था और बेसिरपैर के विश्वास के लिए यहां के रूढ़िवादी लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं. वे तथाकथित देवताओं को भी खुश करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ना चाहते.

‘पुण्य’ कमाने और ‘फल’ पाने के लोगों ने कई साधन अपना रखे हैं, इन्हीं में से एक है, भगवती जागरण. इस से रातभर जाग कर अन्य किसी को कुछ हासिल होता हो या न होता हो, मगर जागरण करने वाली पार्टियों और धंधेबाजों के लिए यह बड़े फायदे का आयोजन बन कर रह गया है.

अब तो भगवती जागरण करने वाली पार्टियां भी पूर्ण रूप से व्यावसायिक हो गई हैं. पहले जहां 500 रुपए में भी ऐसा आयोजन हो जाता था वहीं अब छोटेमोटे गायक ही 2 से 10 हजार रुपए आराम से ले लेते हैं. इस के अलावा अन्य खर्चों की तो बात ही अलग है.

कहींकहीं गुफा बना कर बर्फ की सिल्लियां भी रख दी जाती हैं, जिन पर से बहुत से लोग फिसल कर गिर पड़ते हैं, कई बार तो गंभीर दुर्घटनाएं भी हो जाती हैं. मगर इन सब से बेपरवाह आयोजक पुण्य कमाने के लिए आंखें बंद किए रहते हैं. दरबार किसी पुरोहित के बिना शोभा नहीं देता इसलिए वहां पर अपना एक आदमी बैठा दिया जाता है, ताकि चढ़ावे का ध्यान रखा जाए.

बड़े आयोजनों के लिए महीनों पहले चंदा इकट्ठा किया जाता है. शहरों में मुनादी करवाई जाती है, अखबारों में विज्ञापन दे कर लोगों को सूचित किया जाता है कि वे इस अवसर पर एकत्र हो कर पुण्य कमाने में पीछे न रहें. कई बार आयोजकों को पैसे के कारण आपस में लड़तेझगड़ते भी देखा गया है.

यहां गायक व गायिकाएं फिल्मी तर्जों पर ‘भेंटें’ गाते दिखाई देते हैं. यह सिलसिला सारी रात चलता रहता है और कानफोड़ू आरकेस्ट्रा से बेहद शोर उत्पन्न कर आसपास के लोगों को परेशान किया जाता है. फिर इस से ध्वनि प्रदूषण की जो समस्या उत्पन्न होती है, वह तो अलग ही है. समाज सुधारक भी यहां आ कर खूब तालियां पीटते देखे जाते हैं.

ध्यान देने योग्य बात यह है कि जिस शोर को सुन कर आम आदमी भी खुश नहीं होता, वहां देवी का प्रसन्न होना तो दूर की बात है. भगवती जागरण के अधिकांश कार्यक्रमों में ऐसे भक्त मिल जाएंगे, जो बिना किसी नशे के गा ही नहीं पाते. जब खुद में ही कोई श्रद्धा और भक्ति की भावना नहीं जगा पाए तो उन का गायन दूसरों को कैसे प्रभावित कर सकता है.

इसलिए अब ऐसे आयोजनों का मंतव्य सिर्फ नाम, शोहरत और पैसा कमाना ही रह गया है. यही इन की मुख्य आस्था और यकीन है और इसी यकीन के बल पर कई गायकों ने अपने आडियो कैसेट निकाले हैं. कुछ व्यावसायिक भक्तों ने तो वीडियो कैसेट भी जारी किए हैं. इसी ‘भक्तिभाव’ से प्रेरित हो कर दिन प्रतिदिन ऐसे लोगों की जमात बढ़ती जा रही है.

चिंतपूर्णी मंदिर के पास एक धर्मशाला में एक बार ऐसे आयोजन करने गई 2 देवियों में चढ़ावे की रकम को ले कर विवाद पैदा हो गया. एक देवी ने अपने पास रखे त्रिशूल से दूसरी ‘माता’ पर वार कर दिया और उसे लहूलुहान कर दिया. बाद में थाने में इन में समझौता करवाया गया. जागरण के पीछे लगभग हर जगह यही मानसिकता दिखाई देती है.

जितना धन ऐसे आयोजनों पर खर्च किया जाता है, उस से कई कल्याणकारी योजनाएं चलाई जा सकती हैं. परंतु धर्म के ठेकेदारों को यह सब मंजूर नहीं, क्योंकि पैसा बटोरने का इस से सरल रास्ता और कोई उन्हें दिखाई नहीं देता. इस ‘जागरण संस्कृति’ ने अब व्यवसाय का रूप धारण कर लिया है. फिर ऐसे फलतेफूलते कारोबार को कौन बेवकूफ बंद करना चाहेगा.

जाति से बाहर शादी पर होता बवाल

हमारे देश में इंटरकास्ट लवमैरिज यानी जाति से बाहर शादी करने वालों की तादाद आज भी महज 5 फीसदी ही है. 95 फीसदी लोग अपनी जाति में ही शादी करते हैं. नैशनल काउंसिल औफ एप्लाइड इकोनौमिक रिसर्च और यूनिवर्सिटी औफ मैरीलैंड की एक हालिया स्टडी से पता चलता है कि भारत में 95 फीसदी शादियां अपनी जाति के अंदर होती हैं. यह स्टडी 2011-12 में इंडियन ह्यूमन डवलपमैंट द्वारा कराए गए सर्वे पर आधारित है. इस सर्वे में 33 राज्यों व केंद्रशासित शहरी व गंवई इलाकों में बने 41,554 घरों को शामिल किया गया था.

जब इन घरों की औरतों से पूछा गया कि क्या आप की इंटरकास्ट मैरिज हुई थी, तो महज 5 फीसदी औरतों ने ही हां में जवाब दिया. गंवई इलाकों की तुलना में कसबों के हालात थोड़ा बेहतर हैं.

अपनी ही जाति में शादी करने वालों में मध्य प्रदेश के लोगों की तादाद सब से ज्यादा यानी 99 फीसदी रही, जबकि हिमाचल प्रदेश और छत्तीसगढ़ में यह तादाद 98 फीसदी थी.

भारत में कानूनी तौर पर जाति से बाहर शादी करने को मान्यता मिली हुई है. इंटरकास्ट मैरिज को ले कर 50 साल पहले ही कानून पास किया जा चुका है, फिर भी लोग ऐसा करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं. इस की अहम वजह यह है कि ऐसा करने पर अपने ही समुदाय के लोग इन लोगों का जीना मुश्किल कर देते हैं.

झारखंड की रहने वाली काजल के घर वालों के साथ महज इस वजह से मारपीट की गई, क्योंकि काजल ने दूसरी जाति के सुबोध कुमार नामक लड़के से लवमैरिज की थी.

इस बात को 2 साल हो चुके हैं. शादी के वक्त दोनों बालिग थे और इस रिश्ते को उन के परिवार वालों की हामी भी मिली हुई थी, फिर भी यह बात उन के समुदाय के दूसरे लोगों को हजम नहीं हो रही थी. गांव के कुछ दबंगों द्वारा उन्हें धमकियां दी जाती थीं. जुर्माने के तौर पर उन्होंने रुपयों की भी मांग रखी थी.

16 मई, 2016 को समाज का गुस्सा इतना उबला कि 4-5 लोग लाठियां ले कर काजल के पिता एस. प्रजापति के घर पहुंच गए. काजल के मांबाप और दोनों भाइयों को पहले बंधक बनाया गया और फिर उन की जम कर पिटाई की गई. घायल परिवार रोताबिलखता थाने पहुंचा.

दिल की आवाज सुनने का यह हश्र सिर्फ काजल का ही नहीं हुआ है, बल्कि ऐसे हजारों नौजवान जोड़े हैं, जिन्हें अपनी जाति से बाहर शादी करने की सजा भुगतनी पड़ी है. उन्हें जिस्मानी व दिमागी रूप से इतना सताया जाता है कि कई दफा थकहार कर वे खुदकुशी तक कर लेते हैं और यह सब करने वाले आमतौर पर उन के घर वाले नहीं, बल्कि उन की जाति और गांव के लोग होते हैं.

जरा सोचिए, भारत में तकरीबन 3 हजार जातियां और 25 हजार उपजातियां हैं. शादी के वक्त न सिर्फ जाति, बल्कि उपजाति का भी खयाल रखना पड़ता है. इस के बाद जाहिर है कि हर इनसान की अपनी खास पसंद होती है. उसे खास भाषा, माली हालत, प्रोफैशन, उम्र, सामाजिक बैकग्राउंड वगैरह भी देखना होता है. जाहिर है, इन सब के बीच अपने जीवनसाथी का चुनाव करना बहुत ही मुश्किल हो जाता है.

इस का नतीजा यह निकलता है कि डिमांड और सप्लाई का सिद्धांत काम करने लगता है और शादी के बाजार में लड़कों की कीमत आसमान छूने लगती है. यहीं से दूसरी सामाजिक बुराइयां भी पनपने लगती हैं.

देश में फैला है अंधविश्वास ही अंधविश्वास

चाहे कोई भी हो, यह मानने को कतई तैयार नहीं है कि वह अंधविश्वासी है. किसी को गाली देने से जैसे कोई शख्स दुखी और गुस्सा हो जाता है, वैसे ही किसी को अंधविश्वासी कहने से भी वह गुस्सा हो जाता है. अंधविश्वासी कहलाना कोई भी नहीं चाहता, पर अंधविश्वास हैं क्याक्या, यही उन्हें पता नहीं होता. हालांकि यह सभी मानने को तैयार हैं कि अंधविश्वास और सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक बुराइयां, परंपरा, रस्मोरिवाज हमारी तरक्की में बहुत बड़ी रुकावट हैं.

देश में ‘अर्जक संघ’ समेत कई ऐसे संगठन हैं, जो अंधविश्वास के साथसाथ समाज में फैली बुराइयों को खत्म करने में जुटे हैं.

हम यहां कुछ अंधविश्वासों, परंपराओं व बुराइयों की ओर आप का ध्यान खींच रहे हैं:

* सुबह उठते ही अपनी दोनों हथेलियां देखना.

* अगर कोई काम नहीं हो सका, तो यह कहना कि न जाने हम किस का मुंह देख कर उठे थे.

* नहाधो कर सुबह एक लोटा पानी सूरज की ओर गिराना और कान ऐंठ कर प्रणाम करना.

* सुबहसवेरे नहाधो कर तुलसी के पौधे में पानी डालना.

* तथाकथित धर्मग्रंथ का पाठ कर के खुद और अपने परिवार का समय बरबाद करना.

* दिन के मुताबिक रंगीन कपड़ों को पहनना, भोजन करना वगैरह.

* घर के दरवाजे पर पुरानी चप्पल या जूता, सूप, नीबू, मिर्च वगैरह टांगना.

* बाहर निकलते समय घर के लोगों को दही, चीनी खाने को कहना और माथे पर टीका करना.

* बाहर निकलते समय अगर तेली जाति का शख्स दिख जाए, तो अशुभ मानना.

* अगर कोई छींक दे, तो अशुभ मान कर रुक जाना.

* रास्ते में अगर आगे से कोई बिल्ली चली जाए, तो वहीं रुक जाना.

* अगर बच्चा या कोई शख्स बीमार पड़ जाए, तो झाड़फूंक कराना.

* किसी को सांपबिच्छू काट ले, तो झाड़फूंक कराना.

* हाथ में गंडातावीज बांधना और काला टीका करना.

* बच्चे के जन्म के बाद उस के पास लोहे की चीज रखना.

* नवजात बच्चे को किसी को इसलिए नहीं दिखाना कि कहीं नजर न लग जाए.

* बच्चे के हाथपैर, कमर में काला धागा बांधना या काला टीका लगाना.

* जन्म के बाद किसी ब्राह्मण को बुला कर पत्री दिखाना और उस के कहने पर कर्मकांड करना.

* नाम रखने के लिए ब्राह्मण पर आश्रित रहना.

* पढ़ने की शुरुआत किसी खास दिन से करना और पुरोहित से पूछ कर स्कूल भेजना.

* कहीं बाहर जाने से पहले ब्राह्मण से पत्री दिखाना और उसी के मुताबिक चलना.

* नए घर जाने से पहले ब्राह्मण से पूछ कर तारीख तय करना.

* शादी के पहले ब्राह्मण से दिन दिखाना और उसी से शादी या श्राद्ध कराना.

* कोई भी कर्मकांड करने या त्योहार के बाद ब्राह्मण को दान देना.

* त्योहार के नाम पर पत्थर, मिट्टी की मूर्ति के सामने गिड़गिड़ाना.

* किसी चमत्कार के बाद उस की वजह को ढूंढ़ने के बजाय ईश्वरीय शक्ति मान बैठना.

* अपनी गरीबी, जोरजुल्म से लड़ने के बजाय तकदीर में लिखा है कह कर चुप बैठ जाना.

* शरीर से ठीकठाक होने के बावजूद घरघर घूमते साधुमहात्मा के नाम पर लोगों को दान देना.

* शादी के समय काला कपड़ा नहीं पहनना.

* शादी के समय किसी विधवा को नहीं रहने देना.

* मरने के बाद कर्मकांड करना, सिर मुंड़वाना, ब्रह्मभोज करना, दान देना.

* सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण लगने पर भोजन नहीं करना और ब्राह्मण को दान देना.

* वास्तुशास्त्र के मुताबिक ही मकान बनवाना.

* ज्योतिष से हाथ दिखाना, भविष्यफल देखना और उस के बताए उपाय करना.

* रविवार को हल नहीं चलाना.

* देवीदेवता की पूजा किए बगैर धान नहीं रोपना.

और भी ऐसी कई बातें हैं, जो अंधविश्वास मानी जाती हैं. लेकिन हैं बिलकुल अधार्मिक बातें.

हमें वैज्ञानिक सोच पैदा करने की जरूरत है, ताकि जिंदगी में तरक्की के रास्ते पर चल सकें. इस से एक फायदा यह भी होगा कि जो बगैर मेहनत किए अपना पेट पाल रहा है, वह मेहनत की अहमियत समझ कर और ज्यादा मेहनत करने लगेगा. देश और समाज तरक्की की ओर बढ़ सकेगा.

इन सब प्रपंचों से धर्म के दुकानदारों को पैसा मिलता है, जो चाहे मंदिरों, चर्चों, मसजिदों में इस्तेमाल हो या दूसरों का सिर फोड़ने के काम आए. अंधविश्वास सीधे पंडों की जेबों से जुड़े हैं.

प्लंबर बनें और कमाई करें

प्लंबिंग के काम का इतिहास बहुत पुराना है. सिंधु घाटी की सभ्यता में ऐसे सुबूत मिले हैं जब पानी को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने के लिए इस तरह की तकनीक को अपनाया जाता था.

प्लंबिंग का काम कम पढ़ेलिखे लोगों के लिए रोजगार का अच्छा जरीया है और आज के दौर में तो प्लंबर की अकसर जरूरत पड़ती है. खेतखलिहानों से ले कर घर, औफिस या फैक्टरी सभी जगह प्लंबर की काफी मांग बनी रहती है.

प्लंबिंग का काम किसी कुशल प्लंबर के साथ रह कर सीखा जा सकता है. इस के अलावा इस काम को सिखाने के लिए अनेक संस्थाएं हैं जैसे आईटीआई, पौलीटैक्निक जो इस काम की ट्रेनिंग देती हैं.

इस कोर्स को करने के बाद डिप्लोमा या सर्टिफिकेट मिलता है. प्राइवेट संस्थानों में ट्रेनिंग की फीस ज्यादा हो सकती है लेकिन सरकारी संस्थानों में फीस काफी कम होती है.

आईटीआई और पौलीटैक्निक से प्लंबिंग में डिप्लोमा लेने के लिए कम से कम 10वीं पास होना जरूरी है. आईटीआई में एक साल का डिप्लोमा कोर्स होता है. इस के अलावा 8वीं जमात पास लोगों के लिए भी 6 महीने का सर्टिफिकेट कोर्स है, जिसे सोसाइटी फोर सैल्फ एंप्लौयमैंट (स्वरोजगार समिति) दिल्ली सरकार के तहत कराया जाता है.

स्वरोजगार समिति में प्लंबिंग के मास्टर सुरेंद्र सिंह ने बताया कि 8वीं जमात पास नौजवान भी इस कोर्स को कर सकते हैं. ट्रेनिंग पूरी होने पर एक सर्टिफिकेट दिया जाता है. अगर छात्र 10वीं पास है तो वह दिल्ली जल बोर्ड में लाइसैंस के लिए भी अप्लाई कर सकता है. लाइसैंस मिलने पर वह सरकारी व प्राइवेट काम के ठेके भी ले सकता है.

मास्टर सुरेंद्र सिंह ने आगे बताया कि प्लंबिंग में 3 तरह की ट्रेनिंग दी जाती है. सब से पुरानी तकनीक है जीआई पाइप (ग्लैवनाइज्ड आयरन पाइप) की फिटिंग. इस में लोहे के पाइपों की फिटिंग की जाती है. दूसरी सीपीवीसी तकनीक है जिस में पीवीसी पाइपों को सोल्वैंट सीमेंट (एक तरह का तरल पदार्थ) के जरीए फिटिंग की जाती है. तीसरी है पीपीआर तकनीक. इस के तहत पीपीआर मशीन से पाइपों के किनारों को गरम कर के फिटिंग की जाती है.

प्लंबिंग में घरेलू फिटिंग, फैक्टरी की फिटिंग, बिजली मोटर पंप लगाना, गीजर लगाना, सिंक, वाशवेसिन वगैरह लगाने के अलावा सीवर लाइन की फिटिंग जैसे काम भी आते हैं और आज तरक्की के इस दौर में खाना बनाने वाली घरेलू गैस भी बड़े शहरों में पाइपों के जरीए घरों में सप्लाई की जा रही है. मतलब, नौब खोलो और गैस का इस्तेमाल कर खाना बनाओ. यानी अब गैस के सिलैंडर की जरूरत ही नहीं. इस दिशा में भी रोजगार के अच्छे मौके मिल सकते हैं.

आज के समय में लोहे के पाइपों की फिटिंग की जगह दूसरी नई तकनीकों ने ले ली है. इन तकनीकों में लोहे के पाइपों की फिटिंग के मुकाबले खर्च भी कम होता है और इस में मेहनत भी कम लगती है लेकिन मजदूरी पूरी मिलती है.

6 महीने की ट्रेनिंग लेने के बाद कोई भी बहुत ही कम खर्च में अपना धंधा शुरू कर सकता है. अपनी दुकान खोल सकता है या घर पर रह कर भी अपना कामधंधा शुरू कर सकता है.

2,000 से 5,000 रुपए तक में औजार खरीद कर अपना काम शुरू किया जा सकता है. कुछ औजार सैनेटरी हाईवेयर वालों से किराए पर भी मिल जाते हैं. औसतन हर महीने कम से कम 15 से 20,000 रुपए की कमाई आसानी से हो सकती है. कई दफा ठेके पर काम ले कर ज्यादा कमाई भी हो जाती है. प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना के तहत लोन ले कर भी अपने रोजगार को बढ़ाया जा सकता है.

अगर आप प्लंबिंग का कोर्स करना चाहते हैं या इस बारे में ज्यादा जानकारी हासिल करना चाहते हैं तो प्लंबिंग मास्टर सुरेंद्र सिंह के मोबाइल फोन नंबर 9899102589 पर सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे तक फोन कर सकते हैं या सोसाइटी फोर सैल्फ एंप्लौयमैंट के दिल्ली दफ्तर ई-3, फ्लैटेड फैक्टरीज, झंडेवाला कांप्लैक्स, नई दिल्ली-110055 से भी फोन नंबर 011-23673098 जानकारी ले सकते हैं.

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