सपना -भाग 1 : कौनसे सपने में खो गई थी नेहा

सरपट दौड़ती बस अपने गंतव्य की ओर बढ़ रही थी. बस में सवार नेहा का सिर अनायास ही खिड़की से सट गया. उस का अंतर्मन सोचविचार में डूबा था. खूबसूरत शाम धीरेधीरे अंधेरी रात में तबदील होती जा रही थी. विचारमंथन में डूबी नेहा सोच रही थी कि जिंदगी भी कितनी अजीब पहेली है. यह कितने रंग दिखाती है? कुछ समझ आते हैं तो कुछ को समझ ही नहीं पाते? वक्त के हाथों से एक लमहा भी छिटके तो कहानी बन जाती है. बस, कुछ ऐसी ही कहानी थी उस की भी… नेहा ने एक नजर सहयात्रियों पर डाली. सब अपनी दुनिया में खोए थे. उन्हें देख कर ऐसा लग रहा था जैसे उन्हें अपने साथ के लोगों से कोई लेनादेना ही नहीं था. सच ही तो है, आजकल जिंदगी की कहानी में मतलब के सिवा और बचा ही क्या है.

वह फिर से विचारों में खो गई… मुहब्बत… कैसा विचित्र शब्द है न मुहब्बत, एक ही पल में न जाने कितने सपने, कितने नाम, कितने वादे, कितनी खुशियां, कितने गम, कितने मिलन, कितनी जुदाइयां आंखों के सामने साकार होने लगती हैं इस शब्द के मन में आते ही. कितना अधूरापन… कितनी ललक, कितनी तड़प, कितनी आहें, कितनी अंधेरी रातें सीने में तीर की तरह चुभने लगती हैं और न जाने कितनी अकेली रातों का सूनापन शूल सा बन कर नसनस में चुभने लगता है. पता नहीं क्यों… यह शाम की गहराई उस के दिल को डराने लगती है…

एसी बस के अंदर शाम का धुंधलका पसरने लगा था. बस में सवार सभी यात्री मौन व निस्तब्ध थे. उस ने लंबी सांस छोड़ते हुए सहयात्रियों पर दोबारा नजर डाली. अधिकांश यात्री या तो सो रहे थे या फिर सोने का बहाना कर रहे थे. वह शायद समझ नहीं पा रही थी. थोड़ी देर नेहा यों ही बेचैन सी बैठी रही. उस का मन अशांत था. न जाने क्यों इस शांतनीरव माहौल में वह अपनी जिंदगी की अंधेरी गलियों में गुम होती जा रही थी. कुछ ऐसी ही तो थी उस की जिंदगी, अथाह अंधकार लिए दिग्भ्रमित सी, जहां उस के बारे में सोचने वाला कोई नहीं था. आत्मसाक्षात्कार भी अकसर कितना भयावह होता है? इंसान जिन बातों को याद नहीं करना चाहता, वे रहरह कर उस के अंतर्मन में जबरदस्ती उपस्थिति दर्ज कराने से नहीं चूकतीं. जिंदगी की कमियां, अधूरापन अकसर बहुत तकलीफ देते हैं. नेहा इन से भागती आई थी लेकिन कुछ चीजें उस का पीछा नहीं छोड़ती थीं. वह अपना ध्यान बरबस उन से हटा कर कल्पनाओं की तरफ मोड़ने लगी.

उन यादों की सुखद कल्पनाएं थीं, उस की मुहब्बत थी और उसे चाहने वाला वह राजकुमार, जो उस पर जान छिड़कता था और उस से अटूट प्यार करता था.

नेहा पुन: हकीकत की दुनिया में लौटी. बस की तेज रफ्तार से पीछे छूटती रोशनी अब गुम होने लगी थी. अकेलेपन से उकता कर उस का मन हुआ कि किसी से बात करे, लेकिन यहां बस में उस की सीट के आसपास जानपहचान वाला कोई नहीं था. उस की सहेली पीछे वाली सीट पर सो रही थी. बस में भीड़ भी नहीं थी. यों तो उसे रात का सफर पसंद नहीं था, लेकिन कुछ मजबूरी थी. बस की रफ्तार से कदमताल करती वह अपनी जिंदगी का सफर पुन: तय करने लगी.

नेहा दोबारा सोचने लगी, ‘रात में इस तरह अकेले सफर करने पर उस की चिंता करने वाला कौन था? मां उसे मंझधार में छोड़ कर जा चुकी थीं. भाइयों के पास इतना समय ही कहां था कि पूछते उसे कहां जाना है और क्यों?’

रात गहरा चुकी थी. उस ने समय देखा तो रात के 12 बज रहे थे. उस ने सोने का प्रयास किया, लेकिन उस का मनमस्तिष्क तो जीवनमंथन की प्रक्रिया से मुक्त होने को तैयार ही नहीं था. सोचतेसोचते उसे कब नींद आई उसे कुछ याद नहीं. नींद के साथ सपने जुड़े होते हैं और नेहा भी सपनों से दूर कैसे रह सकती थी? एक खूबसूरत सपना जो अकसर उस की तनहाइयों का हमसफर था. उस का सिर नींद के झोंके में बस की खिड़की से टकरातेटकराते बचा. बस हिचकोले खाती हुई झटके के साथ रुकी.

 

कांटों भरी राह पर नंगे पैर : भाग 1

‘यह बताइए कि आप ने जिंदगी के 55वें साल में दूसरी शादी क्यों की? आप की पहली पत्नी भी एक सवर्ण राजपूत परिवार से थीं और दूसरी पत्नी, जो अभी महज 30 साल की हैं, भी सवर्ण हैं… क्या यह आप का सवर्णों से शादी करने का कोई खास एजेंडा है?’’ एक पत्रकार ने बातचीत के दौरान अजीत कुमार से सवाल पूछा. ‘‘देखिए, जहां तक मेरी पहली पत्नी की बात है, तो वह एक खास मकसद से मेरे पास आई और रही… दूसरी पत्नी ने भी मुझे खुद ही प्रपोज किया…

मैं खुद किसी के पास नहीं गया था,’’ अजीत कुमार ने मुसकराते हुए कहा. ‘‘पर, चाकू तरबूज पर गिरे या तरबूज चाकू पर, कटेगा तो तरबूज ही न,’’ एक महिला पत्रकार ने सवाल दागा, तो अजीत कुमार ने कहा, ‘‘हां वह तो है… किसी भी हालत में तरबूज को ही कटना होगा, चाकू तो कटने से रहा…’’ कुछ और सवालजवाब के बाद पत्रकार की बातचीत खत्म हो चुकी थी और अजीत कुमार अपनी कुरसी से उठ चुका था. अजीत कुमार एक समाजसेवी और लेखक था और लगातार दलितों के उत्थान के लिए काम कर रहा था. अजीत कुमार का लखनऊ के एक शानदार इलाके गोमती नगर में बंगला था. अपने घर के दालान में लगे हुए झूले में अजीत कुमार बैठा तो उस की पत्नी सुबोही चाय ले आई.

‘‘एक निचली जाति वाले से शादी कर के तुम्हें पछतावा तो जरूर हो रहा होगा सुबोही?’’ अजीत कुमार ने सुबोही का हाथ पकड़ते हुए पूछा. ‘‘निचली जाति नहीं, निचली समझी जाने वाली जाति कहिए,’’ सुबोही ने कहा. हाल में ही अजीत कुमार ने अपनी आत्मकथा प्रकाशित की थी और उस में बहुत सी ऐसी बातें थीं, जो बहुत से लोगों को अखर रही थीं और उन्होंने इस आत्मकथा को एक खास तबके के खिलाफ गुस्सा और जहर उगलने वाली बताया था. बहुत से लोगों ने इसे सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का तरीका बताया था, पर सच तो यह था कि अजीत कुमार ने इस में कड़वे सच को उजागर करने वाली बातें लिखी थीं, जो लोगों को बुरी लग रही थीं.

अजीत कुमार ने अपनी आत्मकथा की एक किताब उठाई और दलितों का यह सच्चा हमदर्द अपनी जिंदगी के पुराने पन्नों की परतें पलटने लगा. अजीत कुमार तब लखनऊ की एक मलिन बस्ती में रहता था और मोबाइल फोन की एक दुकान में काम करता था. वह नई तकनीक की भी अच्छी समझ रखता था. भले ही यह शहर लखनऊ था, पर इस बस्ती के अंदर शहरीकरण का कोई नामोनिशान नहीं था. यहां पर जिंदगी जरूर थी, पर जीने की बुनियादी सुविधाएं तक नहीं थीं. इस बस्ती के बाशिंदे छोटे काम और साफसफाई करने वाले थे.

 

कांटों भरी राह पर नंगे पैर : भाग 2

21 साल के अजीत कुमार के पिताजी सफाई मुलाजिमों के सुपरवाइजर थे. इस बस्ती में रहने वाले लोग उन्हें दिल से इज्जत देते थे. एक बार बस्ती में कलुआ की अम्मां बीमार पड़ गईं. उन्हें तेज बुखार था. आसपास के लोग फौरन एक ओझा के पास पहुंचे और उन्हें ठीक करने की गुहार लगाई. ओझा ने अम्मां की कलाई पकड़ी और उन की पलकों को देखा. अम्मां के आसपास कुछ धुआं सा फैलाने के बाद एक अनूठी भाषा में न जाने क्याक्या बोलने लगा.

इस सारे काम को अजीत कुमार बड़ी देर से देख रहा था. पहले तो वह जिज्ञासावश ओझा की हरकतों का रस लेता रहा, पर थोड़ी देर बाद उसे लगा कि यह तरीका किसी भी बीमारी को भगाने का तो हो नहीं सकता, इसलिए वह कलुआ के पास जा कर खड़ा हो गया और उस ने लोगों से मरीज को डाक्टर के पास ले जाने के लिए कहा. एक छोटे लड़के की बात सुन कर ओझा उसे घूरने लगा. ‘‘नहीं भैया, यह वाला बुखार तो हमारे ओझाजी ही सही करते हैं, कोई भी डाक्टर सही नहीं कर पाएगा,’’ किसी ने कहा. बस्ती वालों के दिमाग में जो सालों से कूड़ा भरा गया था, वे बेचारे उसी के हिसाब से बात कर रहे थे, पर अजीत कुमार लगातार कलुआ की अम्मां को डाक्टर के पास ले जाने की जिद कर रहा था, जबकि बस्ती के लोग झाड़फूंक पर ही जोर दे रहे थे. जब काफी देर तक ओझा से कोई फायदा होता नहीं दिखा,

तब अजीत कुमार से रहा नहीं गया और वह कलुआ की अम्मां को उन के सिर के पास से पकड़ कर उठाने लगा, जिस पर बहुत से लोगों ने विरोध प्रकट किया और उसे ऐसा करने से रोक भी दिया. ‘‘हमारा इलाज ऐसे ही होता आया है और आगे भी ऐसे ही होता रहेगा,’’ एक आदमी बोला और ओझा को उस का काम आगे बढ़ाने को कहने लगा. अजीत कुमार ने हार मान ली, क्योंकि वह समझ गया था कि इन लोगों का जाति के नाम पर इस तरह से ब्रेन वाश किया जा चुका है कि ये सभी अपनेआप को समाज की मुख्यधारा से अलग ही मानने लगे हैं. ओझा का तंत्रमंत्र काम न आया.

कुछ दिन बाद ही कलुआ की अम्मां की मौत हो गई. कुछ दिन बाद महल्ले के बाहर धार्मिक कार्यक्रम होना था, जिस के लिए चंदे की उगाही की जा रही थी. कुछ लोग अजीत कुमार के महल्ले में भी चंदा मांगने आए तो लोग अपनी पूरी श्रद्धा से चंदा देने लग गए. अजीत कुमार को जब यह पता चला, तब उस ने चंदा देने का विरोध करते हुए कहा कि जब हम किसी तरह के धार्मिक कार्यक्रम में शामिल नहीं होते तो चंदा भी क्यों दें? पर बस्ती के लोगों ने उस की इस बात का पुरजोर विरोध किया और बोले कि अगर वे धार्मिक कार्यक्रम में चंदा नहीं देंगे, तो उन का कुछ बुरा हो जाएगा.

महल्ले वालों ने खूब दान किया, जबकि अजीत कुमार और उस के परिवार ने एक भी पैसे का दान नहीं करते हुए महल्लेभर की नाराजगी भी मोल ली थी. अजीत कुमार समझ चुका था कि इस बस्ती के लोग इसलिए आगे नहीं बढ़ पाए हैं, क्योंकि बरसों से उन के मन में यह बात कूटकूट कर भर दी गई है कि वे समाज की आखिरी कड़ी हैं और इसी तरह से डर कर जीना ही उन की नियति है. अजीत कुमार नौजवान था. उस के मन में आगे बढ़ने और कुछ करगुजरने की ख्वाहिश थी. उसे लगा कि दलितों और पिछड़ों को एकजुट करने की दिशा में बहुत ज्यादा मेहनत करनी होगी और इस दिशा में एक मजबूत पहल की बहुत जरूरत भी है, इसलिए अजीत कुमार ने दलितों और पिछड़े लोगों को एकजुट करने का बीड़ा उठाया और सोशल मीडिया को अपना हथियार बनाया. इस सिलसिले में अजीत कुमार ने फेसबुक पर ‘दलित जाग’ नाम से एक पेज बनाया, जिस पर वह अपने कुछ संदेशों को टाइप करता और पेज पर पोस्ट कर देता. कुछ दिनों बाद वह खुद के वीडियो बना कर पेज पर पोस्ट करने लगा, जिन में वह दलित जागरण और उन के उत्थान की बातें करता.

एक गरीब को कैसे आगे बढ़ना चाहिए, यह बात भी अजीत कुमार बखूबी जानता था. लगा था कि ऐसा कर के वह दलितों और पिछड़ों के मन में कुछ ऊर्जा भर देगा या उन्हें अपने हकों के प्रति जागरूक बना देगा. पर, अजीत कुमार का यह सोचना गलत था, क्योंकि उस की बस्ती के कुछ लोग ही एंड्रौइड मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते थे और जो नौजवान मोबाइल रखते थे, वे तो अजीत कुमार के साथ में आ गए, पर जो लोग 40 साल के पार के थे, वे मोबाइल पर सिर्फ मूवी देखते और गाने ही सुनते थे. ऐसे लोग सोशल मीडिया जैसी किसी चीज का इस्तेमाल करना नहीं जानते थे,

लिहाजा अजीत कुमार की मुहिम उस के अपने महल्ले में कुछ रंग नहीं ला सकी. अलबत्ता, महल्ले से बाहर उस की गतिविधियों को अच्छी तरह से नोट किया गया. अजीत कुमार ने महल्ले के लोगों के दिमाग पर धूल की परतें हटाने के लिए दूसरा रास्ता अपनाना शुरू किया. जब रोज शाम को वह काम से वापस आता, तो अपने महल्ले में 2-4 दोस्तों के साथ खड़े हो कर जोरजोर से बोलता और जब कुछ लोगों की भीड़ इकट्ठी हो जाती, तब वह उन से अपनी बात कहता, पर उस की बात कम लोगों को ही समझ में आ रही थी… हम गुलाम कहां हैं… हम तो आजाद हैं… फिर यह सब क्या बता रहा है हम को… अजीत कुमार के मांबाप ने भी उसे अपने काम पर ध्यान देने को कहा. इधर अजीत कुमार को नुक्कड़ नाटक खेलने का ध्यान आया, क्योंकि इस तरीके से वह आसानी से अपनी बात बस्ती के लोगों तक पहुंचा सकता था.

उस की बात बस्ती के नौजवानों के साथसाथ अब और लोगों को भी समझ आने लगी थी. सोशल मीडिया पर अजीत कुमार के सादगी भरे वीडियो लोगों को पसंद आने लग गए और जल्दी ही 21 साल का वह नौजवान दलित पिछड़ों के नेता के रूप में पहचाना जाने लगा. सोशल मीडिया पर ही अजीत कुमार से कई लोग जुड़ने लगे थे. उन में से एक अंजलि भी थी. दोनों एकदूसरे से सोशल मीडिया पर अपनी भावनाओं का इजहार करते थे. अजीत कुमार दुकान पर काम कर रहा था, पर अंजलि एमए कर चुकी थी और अब वह राजनीति में अपने पैर जमाने की कोशिश कर रही थी.

जो बातें सोशल मीडिया से संदेशों के द्वारा शुरू हुई थीं, वे अब मुलाकातों तक जा पहुंची थीं और एक दिन अंजलि ने अजीत कुमार को शादी करने का प्रस्ताव दिया. ‘‘पर, तुम ठहरी पैसे और ऊंची जाति वाली राजपूतानी और मैं एक दलित… मलिन बस्ती में रहने वाला… तुम भला मुझ से क्यों शादी करना चाहोगी?’’ ‘‘तुम्हारी इसी सादगी पर ही तो मरमिटी हूं मैं.’’ ‘‘पर, तुम्हारे मातापिता… वे क्या कहेंगे?’’ अजीत कुमार के इस सवाल पर अंजलि बिना मुसकराए न रह सकी,

क्योंकि अंजलि ने पहले ही अजीत को बता रखा था कि वह माली तौर पूरी तरह आजाद है और इस बार विधायक के चुनाव में खड़ी होने वाली है और उस के घर वाले उस के फैसले में कोई भी दखल नहीं देते हैं. अजीत कुमार ने अंजलि की बात का भरोसा कर लिया और अपने मांबाप से अंजलि के बारे में बताया तो उस के घर वाले भी एक सवर्ण लड़की के बहू बन कर आने से खुश हो गए. अजीत कुमार की शादी होने से पहले ही अंजलि ने खुद ही अजीत के घर का रंगरोगन करवाया, अपने लिए अलग टौयलेट और एक कमरे को साफसुथरा करवा कर उस में एसीकूलर वगैरह की सुविधाएं जुटा लीं. अजीत कुमार की सवालिया नजरों को समझते हुए अंजलि ने उसे बताया कि वह शादी के बाद इसे अपना दफ्तर बनाएगी, इसीलिए ये सारी सुविधाएं जुटा रही है.

एक तीर से कई निशाने : भाग 2

चूंकि मंदिर का दानपात्र मंदिर के बड़े दरवाजे पर रखा था, इसलिए ठाकुर साहब को पंडितजी की नीयत पर भी शक था. हालांकि दानपात्र की चाभी उन के ही पास थी, पर फिर भी वे अकसर सोचते कि कितना अच्छा होता अगर यह मंदिर उन की हवेली के ठीक पास ही बना होता, तब ये पंडितजी चाह कर भी घपला नहीं कर पाते. ठाकुर साहब की एक 24 साल की बेटी थी, जिस का नाम मिताली था. वह दिखने में बहुत खूबसूरत थी. ठाकुरठकुराइन भी यह बात अच्छी तरह से जानते थे कि मिताली की शादी की उम्र हो चली है और ठाकुर विक्रम सिंह मिताली के लिए जोरशोर से एक अच्छा वर भी ढूंढ़ रहे थे.

पर मिताली अभी शादी करने से इनकार कर रही थी, क्योंकि उस ने शहर के कालेज में राजनीति शास्त्र में एमए किया था और अब वह आगे पीएचडी करना चाहती थी, लेकिन ठाकुर साहब ने जिद कर के उसे वापस गांव में बुला लिया था, ताकि अब वे उस की शादी कर सकें. पिछले 3 महीने से मिताली अपने पिता की इसी हवेली में थी, पर उस का मन यहां नहीं लगता था. वह शहर जा कर अपने यारदोस्तों के साथ घूमनाफिरना चाहती थी. आज मिताली अपने पिता से पूछ कर गांव में घूमने निकल पड़ी थी. वह जी भर कर गांव का मजा ले रही थी. उस ने पहले पेड़ों से कच्चे आम तोड़े, फिर खेत से खीरे तोड़ कर गांव के नजदीक से निकलती हुई नदी किनारे बैठ कर खाने लगी. नदी का ठंडा पानी मिताली के गोरे पैरों को भिगोने लगा. वह अपने पैरों को पानी में मारती, तो पानी में ‘छपाक’ की आवाज आती.

यह सब करना मिताली को बहुत अच्छा लग रहा था और यह खेल करतेकरते नदी किनारे की गीली मिट्टी कब नहर के बहाव के साथ दरक गई, यह उसे पता ही नहीं चला और वह नदी के पानी के साथ ही बहने लगी. मिताली पानी में डूबनेउतराने लगी और उसे लगा कि आज उस की जिंदगी खत्म ही हो जाएगी. तभी किसी ने आ कर उसे थाम लिया. वह एक नौजवान था, जो मिताली को अपने कंधे का सहारा दे कर तेजी से किनारे की तरफ ले जाने लगा. किनारे जा कर उस नौजवान ने मिताली को जमीन पर लिटा दिया. मिताली धन्यवाद देने लगी, तो वह सांवला नौजवान मुसकरा उठा और बोला, ‘‘मैं ने आप को डूबने से तो बचा लिया, पर आप को अब गंगाजल से नहाना होगा, क्योंकि अब आप मैली हो गई हैं मितालीजी.’’

उस नौजवान के मुंह से अपना नाम सुन कर मिताली चौंक गई, ‘‘तुम मेरा नाम कैसे जानते हो? और भला मैं मैली कैसे हो गई?’’ मिताली ने एकसाथ 2 सवाल दाग दिए थे. मिताली के इन सवालों के बदले में उस नौजवान ने उसे बताया कि वह ठाकुर विक्रम सिंह की बेटी है और बड़े लोगों के परिवार के लोगों को इस छोटे से गांव में जानना कोई बड़ी बात नहीं होती. ‘‘और भला मैं मैली कैसे हो गई?’’ मिताली को अपनी जान बचाने वाले से बातें करना अच्छा लगने लगा था. मिताली के इस सवाल के जवाब में उस नौजवान ने उसे बताया कि वह एक दलित है और बड़ी जाति के किसी इनसान को छूना उस के लिए वर्जित है. आज उस ने एक ठाकुर की लड़की को छू कर उसे मैला कर दिया है. ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’ मिताली ने यों पूछा जैसे उसे उस नौजवान की जाति से कोई लेनादेना ही नहीं था.

उस नौजवान ने अपना नाम दिनेश बताया, तो मिताली ने उसे नाम से पुकारते हुए कहा, ‘‘दिनेश, किसी की जान बचाना तो नेक काम है… और कोई जाति नीच नहीं होती, बल्कि लोगों की नासमझी के चलते नीच समझी जाती है.’’ मिताली ने यह बात कुछ इस अंदाज में कही थी कि दिनेश भी मिताली के चेहरे को पढ़े बिना नहीं रह सका और जब दिनेश ने अपनी नजरें मिताली के चेहरे पर गड़ाईं, उसी समय हवा का एक झोंका आया और मिताली के गीले बालों की एक आवारा लट को उस के गालों पर उड़ाने लगा. दिनेश ने महसूस किया कि इस आवारा लट ने मिताली की खूबसूरती को और बढ़ा दिया था. कुछ देर और बैठने के बाद जब मिताली का भीगा शरीर सूख गया, तब वह अपने घर वापस जाने लगी.

उसे जाता देख कर दिनेश ने मिताली से हिम्मत कर के कहा, ‘‘अगली बार नदी के किनारे बैठिएगा तो जरा संभल कर… गहराई मत नापने लगिएगा,’’ उस की यह बात सुन कर मिताली बिना मुसकराए नहीं रह सकी. हवेली पहुंच कर मिताली को एहसास हुआ कि उसे वापस आने में देर हो गई है. उस की मां उसे कुछ टोकने ही वाली थी कि वह तेज कदमों से अपने कमरे की ओर बढ़ गई और अंदर से दरवाजा बंद कर लिया. अगले 3 दिन तक गांव में तेज बारिश हुई, इसलिए मिताली बाहर निकल नहीं सकी, पर उसे अब हवेली में रहना सुहा नहीं रहा था. बारिश रुकी तो मिताली हवेली की छत पर मौसम का हाल देखने पहुंच गई. आसमान से अब भी हलकी फुहार पड़ रही थी. वह छत के कोने में जा कर खड़ी हो गई. तभी उस की नजर हवेली के दालान में गई, जहां उस के पिता किसी नौजवान से बात कर रहे थे. मिताली ने ध्यान से देखा तो वह दिनेश था, जो ठाकुर साहब को एक चार्ट पेपर पर कुछ समझाता सा नजर आ रहा था.

इस बीच दिनेश की नजर भी छत पर खड़ी मिताली से टकराई, तो दोनों एकदूसरे को देख कर बिना मुसकराए न रह सके. जब दिनेश चला गया तो मिताली ने अपने पिता से बातोंबातों में उन की एक अजनबी से हुई बातचीत के बारे में पूछा, तो ठाकुर विक्रम सिंह ने उसे बताया कि दिनेश नाम का यह नौजवान गांव में एक बायोगैस प्लांट लगाना चाहता है. वह सारे मवेशियों का गोबर एक बड़े से लोहे के टैंक में डलवा कर उस से गैस बनाएगा, जो पाइपलाइन द्वारा गांव के घरघर में जाएगी और लोग उस से चूल्हा जला सकेंगे. ‘‘पर पिताजी, सरकार ने तो पहले से ही सुजला नामक योजना के तहत फ्री में गैस सिलैंडर बांटे हैं,’’ मिताली ने कहा. ‘‘अरे, बांट तो देती है सरकार, पर आएदिन रसोई गैस के दाम भी तो बढ़ा रही है.

किसी के लिए भी गैस सिलैंडर लेना भारी है. हमारे गांव में 20 गैस कनैक्शन होंगे, पर गांव के तकरीबन हर आदमी के यहां मिट्टी का चूल्हा ही जल रहा है…’’ ठाकुर साहब ने फुसफुसाते हुए कहा, ‘‘और फिर ये जो दिनेशवा है न… यह भी छोटी जात का है. भले ही ये लोग कितना भी पढ़लिख जाएं, पर काम तो गोबर की साफसफाई का ही करेंगे न,’’ ठाकुर साहब के चेहरे पर हिकारत के भाव उभर आए थे.

एक तीर से कई निशाने : भाग 1

अरे, चुप कर. तुझे पता नहीं है कि हम नीच जात हैं, मंदिर के अंदर नहीं जा सकते… अंदर सब छूत हो जाएगा.’’ ‘‘अरे, अंदर जाने से छूत हो जाएगा और हम उठा कर बैलगाड़ी में रखेंगे तो क्या दानपात्र शुद्ध रहेगा?’’

नौजवान मजदूर थोड़ा उग्र हो रहा था. हालांकि, उस का सवाल तो जायज था, पर गांव के अंदर यह सवाल बदतमीजी कहलाता है. ‘‘क्या फुसफुसा रहा है यह?’’ पंडितजी के गोरे चेहरे पर गुस्सा छलक आया. ‘‘कुछ नहीं पंडितजी, नया लड़का है… शहर में मजदूरी करता था… गांव के कायदेकानून भी नहीं जानता है,’’ इतना कहने के बाद बड़ी उम्र वाले मजदूर ने उस नौजवान मजदूर को कुहनी मारी और दोनों रस्सी पकड़ कर दानपात्र को मंदिर से बाहर लाने की कोशिश करने लगे. कुछ देर की मशक्कत के बाद दानपात्र मंदिर की दहलीज के बाहर आ गया. फिर उन्होंने दानपात्र पर एक कपड़ा डाल कर उसे उठा कर ट्रौली में लाद दिया और पंडितजी भी अपनी मोटरसाइकिल पर किक मार कर उस ट्रौली के आगेआगे चल दिए. पंडितजी और बैलगाड़ी दोनों की मंजिल ठाकुर साहब की हवेली थी. कुछ देर बाद दानपात्र और पंडितजी दोनों ठाकुर विक्रम सिंह की हवेली के विशाल आंगन में पहुंच गए थे.

ठाकुर साहब ने अपनी जेब से बड़ी सी चाभी निकाल कर दानपात्र को खोल दिया और उन की लालच से भरी नजरें दानपात्र के अंदर रखे हुए हरेलाल नोटों पर गड़ गई थीं. ठाकुर साहब मुसकराते हुए एक कोने में पड़ी हुई आरामकुरसी में धंस गए और वहीं पर रखा हुआ हुक्का गुड़गुड़ाने लगे. दानपात्र में आए हुए ढेर सारे नोटों को गिनने का काम आसान नहीं था, पर पंडितजी बड़ी लगन के साथ यह काम एक सहायक के साथ मिल कर करने लगे और कुछ घंटों की मशक्कत के बाद नोट गिनने का काम पूरा हो गया. ‘‘पूरे 70,000 रुपए का दान आया है इस बार ठाकुर साहब,’’ पंडितजी ने एक गर्वीली मुसकान के साथ कहा. ‘‘क्या…

एक लाख भी पूरा नहीं हो पाया? इस बार तो बहुत कम दान आया है… लगता है कि आप अपना काम सही से नहीं कर रहे हैं पंडितजी,’’ ठाकुर विक्रम सिंह की आवाज में कठोरता थी. ‘‘नहीं ठाकुर साहब… ऐसा तो नहीं है. हम तो बराबर गांव वालों को दान और चढ़ावा देने के लिए कहते रहते हैं,’’ पंडितजी की यह बात ठाकुर साहब को रास नहीं आई और उन्होंने पंडितजी को लताड़ते हुए कहा कि वे गांव वालों को ईश्वरीय प्रकोप से डरा कर रखें… और मुमकिन हो तो हाथ की सफाई और मूर्तियों को दूध पिलाने वाले चमत्कार भी लोगों के सामने दिखाएं, जिस से गांव वाले दानपात्र में जी खोल कर दान दें. ठाकुर साहब ने बातोंबातों में पंडितजी को यह भी चेता दिया कि खुद उन की तनख्वाह भी इसी चढ़ावे के पैसों पर निर्भर करती है और अगर दान और चढ़ावे में इजाफा नहीं हुआ तो पंडितजी की तनख्वाह मिलना बंद हो जाएगी. ठाकुर साहब की ये धमकी भरी बातें सुन कर पंडितजी को अपनी तनख्वाह बंद हो जाने का डर सताने लगा और वे मन ही मन में एक योजना पर विचार करने लगे.

ठाकुर साहब की कुलदेवी का मंदिर गांव के शुरुआती छोर पर बना हुआ था. 55 साल के ठाकुर विक्रम सिंह को कुलदेवी का यह मंदिर विरासत में मिला था और उन्होंने इस की पूजापाठ की सारी जिम्मेदारी पंडित रमेश चंद को दे दी थी. मंदिर में गांव वालों द्वारा जो भी रुपयापैसा दानपात्र में आता था, वह ठाकुर साहब के पास जाता था, जबकि चढ़ावे के रूप में प्रसाद, फलमिठाई वगैरह आता था, वह पंडितजी खुद रख लेते थे.

 

कांटों भरी राह पर नंगे पैर : भाग 3

लखनऊ शहर की इस गंदी बस्ती में आज जश्न था, क्योंकि आज उन के महल्ले के एक लड़के की शादी एक अमीर और सवर्ण लड़की से जो हो गई थी. अगले दिन से ही अंजलि घर पर मेहंदी रचा कर नहीं बैठी, बल्कि चुनाव प्रचार में बिजी हो गई. पूरे शहर में अंजलि ने अपनेआप को ‘दलित समाज की बहू’ कह कर चुनाव प्रचार करवाया और अजीत कुमार के साथ दलित बस्तियों का दौरा भी किया और दोपहर का खाना भी लखनऊ शहर के ही राजाजीपुरम इलाके में रह रहे एक दलित परिवार के यहां खाया.

लोकल न्यूज चैनल पर इस खबर का खूब प्रचारप्रसार भी करवाया. चुनाव नतीजा तो आया, पर अंजलि की सोच के मुताबिक नहीं. वह अपने विरोधी से बुरी तरह चुनाव हार चुकी थी. पूरे 2 दिन तक वह घर से बाहर रही. अजीत कुमार ने उस का मोबाइल भी मिलाया, पर मोबाइल ‘नौट रीचेबल’ ही बताता रहा. फिर एक दिन अंजलि अचानक नाटकीय रूप से प्रकट हो गई. उस ने घर के किसी शख्स से बात तक नहीं की और न ही किसी की तरफ देखा भी. वह सीधा अपने कमरे में चली गई. अजीत कुमार उस के पीछेपीछे गया, तो अंजलि उस से कहने लगी, ‘‘देखो अजीत, मैं ने तुम से इसलिए शादी की थी, क्योंकि सोशल मीडिया पर तुम्हारे दलित फैंस को देख कर मुझे ऐसा लगा कि अगर मैं तुम से शादी कर के दलितों के वोट अपनी ओर कर लूंगी,

तो इलैक्शन जीत जाऊंगी, पर अफसोस, यह नहीं हो सका और मैं चुनाव हार गई…’’ सांस लेने के लिए अंजलि रुकी और फिर आगे कहना शुरू किया, ‘‘पर, अब मेरा इस गंदी बस्ती और तुम्हारे साथ दम घुट रहा है, इसलिए मैं यहां से जा रही हूं और अपने आदमियों से तलाक के कागज भी भिजवा दूंगी… साइन कर देना.’’ अजीत कुमार अवाक रह गया. अपनी जिंदगी में इतना बड़ा धोखा उस ने कभी नहीं खाया था. अंजलि जा चुकी थी और कुछ घंटे बाद ही उस के आदमी तलाक के कागज ले कर आए और अजीत कुमार से दस्तखत लेने लगे.

कुछ लोग अंजलि के कमरे का सामान ले जाने लगे, जिस में उस कमरे में लगा हुआ एसीकूलर वगैरह भी शामिल था. अजीत कुमार काफी बेइज्जती महसूस कर रहा था, पर करता भी क्या? एक दलित की जिंदगी कितनी कड़वी हो सकती है, यह सब उस की झांकी भर ही था. कुछ दिन तो अजीत कुमार भी सदमे में रहा. उसे लगा कि उसे मर जाना चाहिए, क्योंकि वह एक सवर्ण महिला द्वारा बेइज्जत किया जा चुका है. लोग सही कहते हैं… हम दलित लोगों की ‘ब्रेन वाशिंग’ इस तरह से कर दी गई है कि लगता है कि हमारे सोचनेसमझने की ताकत ही चली गई है.

तभी तो शायद हम समाज में सब से आखिरी पायदान पर हैं… तो क्या मर जाना ही इस का समाधान है, बिलकुल, जब जिंदगी ही नहीं रहेगी, तो कैसा दुख और कैसा दर्द. अपने मोबाइल को अजीत कुमार ने आखिरी बार निहारा. उस ने पाया कि उस के फेसबुक मैसेंजर पर बहुत से दलित भाइयों और जरूरतमंद लोगों के संदेश भरे हुए थे, जो उस से मदद मांग रहे थे… ‘तो फिर इन का क्या होगा? क्या मेरे मर जाने से इन की उम्मीदभरी नजरों को ठोकर नहीं लगेगी?’ एक बार ऐसा खयाल अजीत कुमार के जेहन में आया, तो उस ने मरने का विचार छोड़ दिया. ठंडे पानी का एक गिलास हलक के नीचे उतारा और अपने कमरे में वापस आया…

एक लंबे सफर की तैयारी जो करनी थी उसे. उस दिन के बाद से अजीत कुमार ने सोशल मीडिया को अपना हथियार बनाया और उस ने ‘फेसबुक लाइव’ के द्वारा लोगों को संबोधित किया और दलितों को जगाने और उन की सदियों से चली आ रही ‘ब्रेन वाशिंग’ को ही खत्म करने के कोशिश की. खुद के साथ हुए धोखे के बारे में लोगों को बताया कि लोग किस तरह से उन के भोलेपन का फायदा उठाते हैं. भोलेभाले लोग यह जानते ही नहीं कि सालों से उन्हें कमतर होने का एहसास कराया जाता रहा है, जिस से वे अपनेआप को नीचा समझने लगे हैं. दलित गरीब होता है,

इसलिए उन के उत्थान में सब से पहले पैसे की जरूरत थी. अजीत कुमार ने अपने महल्ले के बीचोंबीच एक डब्बा रखवाया और उस पर लिखवा दिया कि इस डब्बे में वे लोग हर रोज महज एकएक रुपया डाला करेंगे और इस से जो पैसे इकट्ठे होंगे, वे गरीब दलितों के काम आएंगे, मसलन बच्चों की पढ़ाईलिखाई और लड़कियों की शादी में. अजीत कुमार ने ऊंची नौकरी कर रहे कुछ दलित लोगों से भी बात की और उन से भी सहयोग करने को कहा. लोग सामने आए और अजीत कुमार के कंधे से कंधा भी मिलाया. अजीत कुमार ने अपनी पूरी जिंदगी ही दलित समाज के जागरण को समर्पित कर दी थी. यह सब इतना आसान नहीं था,

पर दृढ़ संकल्प से कुछ भी मुमकिन था. तकरीबन 15 साल की समाजसेवा के बाद अजीत कुमार एक जानामाना नाम बन गया था, जिस का एहसास उस चालाक राजपूतानी अंजलि को भी हो चुका था, तभी वह एक दिन अजीत कुमार के पास आई और अपने द्वारा दिए गए धोखे पर माफी मांगते हुए उस से दोबारा शादी करने की इजाजत मांगी, पर अजीत कुमार इतना भी बेवकूफ नहीं था कि अंजलि से दोबारा शादी करता. दलित उत्थान में अजीत कुमार अकेला चला तो था, पर उसे इस राह में कई लोग मिलते गए, जिन्होंने हर तरीके से उस की मदद की.

अजीत कुमार ने अपनी जिंदगी के कड़वे अनुभवों को ले कर आत्मकथा भी लिखी, जिस का नाम रखा गया ‘कांटों भरी राह पर नंगे पैर’. अजीत कुमार की आत्मकथा को पहले तो कोई प्रकाशक नहीं मिल रहा था, क्योंकि एक दलित की आत्मकथा को प्रकाशित करना उन्हें फायदे का सौदा नहीं लग रहा था, इसलिए अजीत कुमार ने अपनी आत्मकथा को ‘अमेजन किंडल’ पर प्रकाशित करने का फैसला लिया और यह आत्मकथा एक बैस्ट सैलर साबित हुई. अजीत कुमार के पास बधाइयों का तांता लग गया था. आज अपना 50वां जन्मदिन मनाने के लिए समाजसेवी अजीत कुमार एक दलित बस्ती में आया था. उसे चारों तरफ से लोगों ने घेर रखा था. अजीत कुमार के चेहरे पर एक मधुर मुसकराहट थी कि तभी भीड़ को चीरते हुए एक 25-26 साल की लड़की अजीत कुमार के पास आई और बोली, ‘‘मैं सुबोही…

आप की बहुत बड़ी फैन हूं. आप के बारे में सबकुछ आत्मकथा से जान चुकी हूं और आप के काम से प्रभावित हूं… आप से शादी करना चाहती हूं… और हां… मैं जाति से ठकुराइन हूं.’’ अजीत कुमार उस लड़की को बड़ी देर तक देखता रहा, फिर बोला, ‘‘पर, हमारी उम्र के बीच जो फासला है…?’’ ‘‘प्रेम कोई फासला नहीं जानता,’’ सुबोही ने मुसकराते हुए कहा. ‘‘पर, तुम्हें विधायकी का चुनाव तो नहीं लड़ना है न?’’ अजीत ने चुटकी ली और दोनों एकदूसरे की तरफ देख कर मुसकरा उठे. ‘‘बस करिए, अपनी आत्मकथा को कब तक निहारते रहेंगे…’’ सुबोही ने पूछा. ‘‘यह तो एक बहाना है… तुम से हुई पहली मुलाकात को याद करने का…’’ अजीत कुमार ने सुबोही से कहा.

झिलमिल सितारों का आंगन होगा

नीलमस्ती में गुनगुना रहा था, ‘‘मेरे रंग में रंगने वाली, परी हो या हो परियों की रानी,’’ तभी पीछे से उस की छोटी बहन अनु ने आ कर कहा, ‘‘भैया प्यार हो गया है क्या किसी से शादी के बाद?’’

नील बोला, ‘‘नहीं तो पर गाना तो गा ही सकता हूं.’’

अनु मुसकराते हुए अंदर चाय बनाने चली गई. तभी घर के बाहर कार के रुकने की आवाज आई. अनु ने खिड़की से देखा, राजीव भैया और मधु भाभी आ रहे थे.

अनु जब चाय ले कर कमरे में पहुंची तो राजीव भैया बोले, ‘‘अनु मेघा भाभी नहीं आई अब तक?’’

इस से पहले कि अनु कुछ बोल पाती, मम्मी बोलीं, ‘‘अरे मेघा के तो बैंक में बहुत काम चल रहा है देर रात घर में पहुंचती है. बेचारी का काम के बो झ के कारण चेहरा उतर जाता है.’’

नील बरबस बोल उठा, ‘‘अरे मम्मी बहू ही तुम्हारी काले मेघ जैसी है, तुम बेकार में ही काम को दोष दे रही हो.’’

मेघा ने तभी घर में कदम रखा था. नील की बात पर वह सकपका गई.

नील खुद ही अपने चुटकुले पर हंसने लगे. नील की मम्मी का माथा ठनका और बोलीं, ‘‘नील हंसीमजाक करने का भी एक स्तर होता है.’’

नील बोला, ‘‘मम्मी मेघा मेरी जीवनसाथी है. मेरे साथसाथ मेरे मजाक को भी सम झती है.’’

मगर मेघा को देख कर ऐसा नहीं लग रहा था. कुछ देर बाद मेघा तैयार हो कर बाहर आ गई. महरून सूट में बेहद सलोनी लग रही थी. परंतु नील बारबार मधु की तरफ देख रहा था.

राजीव नील का करीबी दोस्त था. अभी पिछले हफ्ते ही उन का विवाह हुआ था. मधु बेहद खूबसूरत थी, परंतु मेघा के तीखे नैननक्श भी कुछ कम नहीं थे.

डाइनिंगटेबल पर तरहतरह के पकवान सजे हुए थे. अनु बोली, ‘‘मधु भाभी यह फ्रूट कस्टर्ड और शाही पनीर हमारी मेघा भाभी की पसंद हैं.’’

राजीव बोल उठा, ‘‘अरे अनु, मधु कुछ भी फ्राइड या औयली नहीं लेती हैं. चेहरे पर दाने आ जाते हैं.’’

एकाएक नील प्रशंसात्मक स्वर में बोल उठा, ‘‘फिर गोरे रंग पर अलग से दिखते भी हैं. गहरे रंग में तो सब घुलमिल जाता है.’’

मेघा बोली, ‘‘हां सिवा प्यार के,’’ उस के बाद मेघा वहां रुकी नहीं और दनदनाती हुई अंदर चली गई. उस के बाद महफिल न जम सकी.

जब वे लोग जा रहे थे तो मेघा उन्हें छोड़ने बाहर भी नहीं आईर्. कमरे में घुसते ही नील बोला, ‘‘मेघा तुम बाहर क्यों नहीं आईं?’’

मेघा ने कहा, ‘‘क्योंकि मैं थक गई थी और तुम तो थे न वहां मधु का ध्यान रखने के लिए.’’

नील गुस्से में बोला, ‘‘इतनी असुरक्षित क्यों रहती हो? अगर कोई सुंदर है तो क्या उसे सुंदर कहने से मैं बेवफा हो जाऊंगा.’’

मेघा बोली, ‘‘नील मैं तुम्हारी तरह अपने पापा के साथ काम नहीं करती हूं कि जब मरजी हो तब जाओ और जब मरजी हो तब मत जाओ.’’

नील गुस्से में बोला, ‘‘बहुत घमंड है तुम्हें अपनी नौकरी का. जो भी करती हो अपने लिए करती हो. मेरे लिए तो तुम ने कभी कुछ नहीं किया है.’’

सुबह मेघा के दफ्तर जाने के बाद मम्मी नील से बोलीं, ‘‘नील, कुछ तो बिजनैस पर ध्यान दे. शादी को 7 महीने हो गए हैं. कल को तुम्हारे खर्चे भी बढ़ेंगे.’’

नील हमेशा की तरह मम्मी की बात को टाल कर चला गया. रात को खाने पर पापा गुस्से में नील से बोले, ‘‘तुम्हारा ध्यान कहां है? आज पूरा दिन तुम दफ्तर में नहीं थे. ऐसा ही रहा तो मैं तुम्हें खर्च देना बंद कर दूंगा.’’

नील बेशर्मी से बोला, ‘‘पापा, आप कमाते हो और मम्मी घर पर रहती हैं पर मेरे केस में मेरी बीवी कमाती है और मैं बाहर के काम देख लेता हूं.’’

मेघा हक्कीबक्की रह गई. अंदर कमरे में घुसते ही मेघा ने नील को आड़े हाथों लिया, ‘‘क्या तुम ने मु झ से शादी मेरी तनख्वाह के कारण की है? मैं ने तो सोचा था कि तुम घर की जिम्मेदारियां उठाओगे और मैं पैसे बचा कर एक घर खरीद लूंगी. कब तक मम्मीपापा पर बोझ बने रहेंगे.’’

नील भी गुस्से में बोला, ‘‘मैं ने भी सोचा था कि गोरीचिट्टी बीवी लाऊंगा, जो मु झे सम झेगी और मेरी मदद करेगी. पर तुम्हें तो अपनी नौकरी की बहुत अकड़ है.’’

हालांकि नील ने यह बात दिल से नहीं कही थी पर यह मेघा के दिल में फांस की तरह चुभ गई.

आज पूरा दिन बैंक में मेघा को नील का रहरह कर मधु को देखना याद आ रहा था. बारबार वह यही सोच रही थी कि क्या वह बस नील की जिंदगी में नौकरी के कारण है.

एकाएक उसे अपनी दादी की बात याद आ गई. दादी कितना कहती थीं कि बिट्टू यह गोरेपन की क्रीम लगा ले. आजकल काले को भी गोरी दुलहन चाहिए.

मेघा का जब गौरवर्ण नील से विवाह हो रहा था तो उस ने दादी से कहा था, ‘‘दादी, देखो तुम्हारी बिट्टू को गोरा दूल्हा मिल गया है और वह भी बिना फेयर ऐंड लवली के.’’

मगर आज मेघा को लगा था कि नील ने तो उस की नौकरी के कारण उस के काले रंग से सम झौता किया था.

मेघा की जिंदगी में वैसे तो सबकुछ नौर्मल था, पर एक अनकहा तनाव था, जो उस के और नील के बीच पसर गया था. नील को लगने लगा था कि मेघा को अपनी नौकरी का घमंड है तो मेघा को लगता था कि नील उस की दबी हुई रंगत के कारण अपने दोस्तों की बीवियों से हेय सम झता है. इसलिए नील उसे कभी भी अपने किसी दोस्त के घर ले कर नहीं जाता था.

उधर नील अपनी नाकामयाबियों के जाल में इतना फंस गया था कि उस ने अपना सामाजिक दायरा बहुत छोटा कर लिया था.

नील कुछ करना चाहता था. वह प्रयास भी करता पर विफल हो जाता था. पिता के व्यापार में उस का मन नहीं लगता था. वह अपने हिसाब से, अपनी तरह से काम करना चाहता था. आज उसे एक बहुत अच्छा प्रोपोजल आया था. काम ऐसा था, जिस में नील अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई को भी इस्तेमाल कर सकता था. परंतु अपने काम के लिए उसे पूंजी की जरूरत थी. नील को पता था कि  उस के पिता अपने पुराने अनुभवों के कारण उस की मदद नहीं करेंगे.

नील को लगा मेघा उस की जीवनसाथी है शायद वह उस की बात सम झ जाए. जब नील ने मेघा से कहा तो मेघा तुनक कर बोली, ‘‘अलग बिजनैस का इतना ही शौक है, तो अपनी कमाई से कर लो. मु झे तो लगता है कि तुम ने मु झ से शादी ही इस कारण से की है कि बीवी की कमाई से अपने सपने पूरे करोगे. फ्रीसैक्स मु झ से मिल ही रहा है. जेबखर्च 30 की उम्र में भी अपने पापा से लेते हो और बाहर घुमाने के लिए ये पतली, सुंदर और गोरी लड़कियां तो तुम्हारे पास होंगी ही न.’’

रात में खाने की मेज पर तनाव छाया रहा. अनु ने चुपके से पापा को सारी बात बता दी थी.

पापा ने मेघा से कहा, ‘‘बेटा एक बार नील की बात पर ठंडे दिमाग से सोचो. जब बच्चे हो जाएंगे तो वैसे ही तुम लोगों का हाथ तंग हो जाएगा.’’

मेघा भाभी फुफकार उठीं, ‘‘अच्छा बहाना ढूंढ़ा है पूरे परिवार ने पैसा उघाई का. जानती हूं एक काली लड़की का उद्धार क्यों किया है इस परिवार ने. अब कीमत तो चुकानी ही होगी न? इतना ही अच्छा बिजनैस प्रोपोजल है तो आप क्यों नहीं लगाते हो पैसा.’’

नील अपनाआपा खो बैठा और चिल्ला कर बोला, ‘‘काला तुम्हारी त्वचा का रंग नहीं पर दिल का रंग है मेघा, तुम से शादी मैं ने अपने दिल से की थी पर लगता है कुछ गलती कर दी है.’’

नील बेहद रोष में खाना अधूरा छोड़ कर चला गया था. यह जरूर था कि वह मेघा को चिढ़ाने के लिए कुछ भी बोल देता था पर उस के दिल में ऐसा कुछ नहीं था. आज मेघा वास्तव में विद्रूप लग रही थी. न जाने क्या सोच कर नील ने कार राजीव के घर की तरफ मोड़ दी थी.

3 बार घंटी बजाने के पश्चात नील मुड़ ही रहा था कि मधु ने दरवाजा खोला. एक रंग उड़ेगा उन में और छितरे हुए बालों में वह बेहद फूहड़ लग रही थी. लग ही नहीं रहा था कि उस के विवाह को एक माह ही हुआ है. अंदर का हाल देख कर तो नील चकरा ही गया. चारों तरफ कपड़ों का अंबार और धूल जमी हुई थी.

राजीव  झेंपते हुए बोला, ‘‘अरे, मधु को धूल से ऐलर्जी है. 2 दिन से कामवाली भी नहीं आ रही है.’’

मधु ट्रे में 2 कप चाय ले आई. अचानक नील को लगा कि वह कितना खुशहाल है मेघा कितनी सुघड़ है. नौकरी के साथसाथ घर भी कितनी अच्छी तरह संभालती है और एक वह है नकारा. अगर मेघा कुछ कहती भी है तो उस के भले के लिए ही कहती है. कब तक वह अपने परिवार पर बो झ बना रहेगा?

चाय पीने के बाद नील ने झिझकते हुए कहा, ‘‘राजीव यार, कुछ पैसे मिल सकते हैं क्या? मैं बिजनैस शुरू करना चाहता हूं.’’

राजीव बोला, ‘‘नील पूरी सेविंग शादी में खर्च हो गई है और मधु के नखरे देख कर लगता है अब सेविंग हो नहीं पाएगी.’’

रात में जब नील घर पहुंचा तो देखा मेघा जगी हुई थी. नील को देख कर बोली, ‘‘फोन क्यों स्विच औफ कर रखा है? नील क्या हम शांति से बात नहीं कर सकते हैं?’’

नील ने मेघा से कहा, ‘‘मेघा मैं कोशिश कर रहा हूं पर मु झे तुम्हारे साथ की जरूरत है.’’

मेघा भी भर्राए स्वर में बोली, ‘‘नील मैं जानती हूं पर जब तुम मेरे रंग पर  कटाक्ष करते हो, तु झे बहुत छोटा महसूस होता है.’’

नील बोला, ‘‘तुम पर नहीं मेघा, अपनी नाकामयाबी पर हताश हो कर कटाक्ष कर देता हूं. आज तक किसी से नहीं कहा पर मेघा बहुत कोशिश कर के भी अपनी नाकामयाबी की परछाईं से बाहर नहीं निकल पा रहा हूं. तुम अच्छी नौकरी में हो तुम नहीं सम झ सकती कि कितना मुश्किल है नाकामयाबी का बो झ ढोना.’’

मेघा सुबकते हुए बोली, ‘‘जानती हूं नील, कैसा लगता है जब लोग आप को रिजैक्ट कर देते हैं. तुम से पहले 10 लड़के मेरे रंग के कारण मु झे नकार चुके थे. तुम से विवाह के बाद ऐसा लगा जैसे सबकुछ ठीक हो गया है पर रहरह कर तुम्हारे मजाक मेरे दिल में कड़वाहट भर देते हैं.’’

नील बोला,’’ पगली ऐसा कुछ नहीं हैं, मैं ज्यादा बोलता हूं न तो कुछ भी बोल जाता हूं. तुम से ज्यादा सम झदार और प्यारी पत्नी मु झे नहीं मिल सकती है, यह मैं अच्छी तरह जानता हूं. हां तुम्हारा मु झे हेयदृष्टि से देखना पागल कर देता था और इस कारण मैं कभीकभी जानबू झ कर तुम्हें नीचा दिखाने के लिए कभीकभी कटाक्ष कर देता था.’’

 

अपना बेटा : मामाजी को देख क्यों परेशान हो उठे अंजलि और मुकेश

उलझन : कनिका की मां प्रेरणा किसे देख कर थी हैरान?

उलझन- भाग 3 : कनिका की मां प्रेरणा किसे देख कर थी हैरान?

शायद यहीं आ कर नई पीढ़ी आगे निकल गई है. आज किसी कनिका और किसी अभिषेक को किसी से डरने की जरूरत नहीं है. अपना फैसला वे खुद करते हैं. मांबाप को सूचित कर दिया यही काफी है. यह तो कनिका और अभिषेक के भले संस्कारों का असर है जो इंडिया आ कर शादी कर रहे हैं. यों अगर वे अमेरिका में ही कोर्टमैरिज कर लेते तो भला कोई क्या कर लेता.

प्रेरणा की शादी अनिकेत से तय हो गई थी. न कोई शिकवा न गिला यों हुआ उन की प्रेमकथा का एक मूक अंत.

विदाई के समय प्रेरणा की नजरें घर की छत पर जा टिकीं, जहां कपिल को खडे़ देख कर उस के दिल में एक हूक सी उठी थी लेकिन चाहते हुए भी प्रेरणा की नजरें कुछ क्षण से ज्यादा कपिल पर टिकी न रह सकीं.

हर जख्म समय के साथ भर जाए यह जरूरी नहीं.

प्रेरणा को याद है. जब शादी के कुछ समय बाद कपिल से उस की मुलाकात मायके में हुई थी, वह कैसा बुझाबुझा सा लग रहा था.

‘कैसे हो कपिल?’ प्रेरणा ने कपिल के करीब आ कर पूछा.

न जाने कपिल को क्या हुआ कि वह प्रेरणा के सीने से चिपक कर रोने लगा. ‘काश, प्रेरणा हम समय पर बोल पाते. क्यों मैं ने हिम्मत नहीं दिखाई? पे्ररणा, इतनी कायरता भी अच्छी नहीं. तुम से बिछड़ कर जाना कि मैं ने क्या खो दिया.’

‘ओह कपिल…’ प्रेरणा भी रोने लगी.

चाहीअनचाही इच्छाओं के साथ प्रेरणा और कपिल का रिश्ता एक बार फिर से जुड़ गया. प्रेरणा के मायके के चक्कर ज्यादा ही लगने लगे थे.

अब प्रेरणा की दिलचस्पी फिर से कपिल में बढ़ती जा रही थी और अनिकेत में कम होती जा रही थी. पर अकसर टूर पर रहने वाले अनिकेत को प्रेरणा के बारबार मायके जाने का कारण अपनी व्यस्तता और उस को समय न देना ही लगता.

प्रेरणा और कपिल का यह रिश्ता उन्हें कहां ले जाएगा यह दोनों ही नहीं सोचना चाहते थे. बस, एक लहर के साथ वे बहते चले जा रहे थे.

शादी के पहले तो सब के अफेयर होते हैं, जो नाजायज तो नहीं पर जायज भी नहीं होते हैं. पर शादी के बाद के रिश्ते नाजायज ही कहलाएंगे. यह बात प्रेरणा को अच्छी तरह समझ में आ गई थी. कनिका के जन्म के बाद से ही प्रेरणा ने कपिल से संबंध खत्म करने का निर्णय ले लिया था. कनिका के जन्म के बाद पहली बार प्रेरणा अपने मायके आई थी. कमरे में प्रेरणा अपने और कनिका के कपड़े अलमारी में लगा रही थी कि अचानक कपिल ने पीछे से आ कर प्रेरणा को अपनी बांहों में भर लिया.

‘ओह, प्रेरणा कितने दिनों बाद तुम आई हो. उफ, ऐसा लगता है मानो बरसों बाद तुम्हें छू रहा हूं. प्रेरणा, तुम कितनी खूबसूरत लग रही हो. तुम्हारा यह भरा हुआ बदन…सच में मां बनने के बाद तुम्हारी खूबसूरती और भी निखर गई है.’ और हर शब्दों के साथ कपिल की बांहों का कसाव बढ़ता जा रहा था.

इस वक्त घर में कोई नहीं है यह बात कपिल को पता थी, इस वजह से वह बिना डरे बोले जा रहा था.

प्रेरणा के इकरार का इंतजार किए बिना ही कपिल उस की साड़ी उतारने लगा. कंधे से पल्ला गिरते ही लाल रंग के ब्लाउज में प्रेरणा का बदन बहुत उत्तेजित लगने लगा जिसे देख कर कपिल मदहोश हुआ जा रहा था.

इस से पहले कि कपिल के हाथ प्रेरणा के ब्लाउज के हुक खोलते, एक झन्नाटेदार चांटा कपिल के गाल पर पड़ा. ‘यह क्या कर रहे हो कपिल, तुम्हें शर्म नहीं आती कि मेरी बेटी यहां पर लेटी है. अब मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता है.’ न जाने प्रेरणा में इतना परिवर्तन कैसे आ गया था, जो अपने ही प्यार का अपमान इस तरह से कर रही थी.

कपिल एक क्षण के लिए चौंक गया फिर बिना कुछ बोले, बिना कुछ पूछे वह तुरंत कमरे से बाहर निकल गया. शायद इतनी बेइज्जती के बाद उस ने वहां रुकना उचित न समझा. कपिल के जाते ही प्रेरणा फूटफूट कर रोने लगी. कपिल से रिश्ता खत्म करने का शायद उसे यही एक रास्ता दिखा था. कपिल से रिश्ता तोड़ना प्रेरणा के लिए आसान नहीं था पर आज प्रेरणा एक औरत बन कर नहीं बल्कि एक मां बन कर सोच रही थी. कल को उस के नाजायज संबंधों का खमियाजा उस की बेटी को न भोगना पड़े.

बच्चों को आदर्श की बातें बड़े तभी सिखा पाते हैं जब वे खुद उन के लिए एक आदर्श हों. जिन भावनाओं को प्रेरणा शादी के बाद भी नहीं छोड़ पाई, उन्हीं भावनाओं को अपनी औलाद के लिए त्यागना कितना आसान हो गया था.

उस के बाद प्रेरणा और कपिल की कोई मुलाकात नहीं हुई.

पर आज भी कपिल प्रेरणा के खयालों में रहता है और अनिकेत के साथ अंतरंग क्षणों में प्रेरणा को कपिल की यादों का एहसास होता है. वक्तबेवक्त कपिल की यादें प्रेरणा की आंखों को नम कर देती थीं.

कुछ रिश्ते यादों की धुंध में ही अच्छे लगते हैं. यह बात प्रेरणा अच्छी तरह जानती थी पर आज वही रिश्ते यादों की धुंध से निकल कर प्रेरणा को विचलित कर रहे थे.

जिस इनसान से प्रेरणा कभी प्रेम करती थी अब उसी का बेटा उस की बेटी के जीवन में आ गया था.

कैसे प्रेरणा कपिल का सामना कर पाएगी? कपिल के लिए जो भावनाएं आज भी उस के दिल में जीवित हैं उन भावनाओं को हटा कर एक नया रिश्ता कायम करना क्या उस के लिए संभव हो सकेगा? कैसे वह इन नए संबंधों को संभाल पाएगी? बरसों बाद अपने पहले प्यार की मिलनबेला का स्वागत करे या…

कैसे वह अपनी ही जाई बेटी की खुशियों का गला घोट डाले? कैसे अपने और कपिल के रिश्ते को सब के सामने खोले? क्या कनिका यह सहन कर पाएगी?

वैसे भी नई पीढ़ी जातिपांति को नहीं मानती. उस के लिए तो प्यार में सब चलता है. नई पीढ़ी तो इन बंधनों के सख्त खिलाफ है. जातपांति के मिटने में ही सब का भला है. आज की पीढ़ी यही समझ रही है, तब किस आधार पर अभिषेक और कनिका का रिश्ता ठुकराया जाए?

अपने ही खयालों के भंवर में प्रेरणा फंसती जा रही थी. सच में दुनिया गोल है. कोई सिरा अगर छूट जाए तो आगेपीछे मिल ही जाता है. पर ऐसे सिरे से क्या फायदा जो सुलझाने के बजाय और उलझा दे.

अभिषेक के मातापिता को देख कर कनिका का दिल शायद न धड़के पर कपिल का सामना करने के केवल खयाल से ही प्रेरणा का दिल आज पहले की तरह तेजी से धड़क रहा था. धड़कते दिल को संभालने के लिए अनायास ही उस के मुंह  से निकल गया.

‘रखा था खयालों में अपने

जिसे संभाल कर,

ताउम्र उस को निहारा, सब से छिपा कर,

पर आज,

वक्त के थपेड़ों से सब बिखरता नजर आता है,

छिप कर आज कहां जाऊं,

वही चेहरा हर तरफ नजर आता है.’?

‘तो क्या जिस तरह यादों के तीर मेरे सीने के आरपार होते रहे उसी तरह के तीरों का शिकार अपनी बेटी को भी होने दूं?’ खुद से पूछे गए इस एक सवाल ने प्रेरणा को ठीक फैसला ले सकने की प्रेरणा दे दी. ‘कनिका को वैसा कुछ न सहना पड़े जो मैं ने सहा, चाहे इस के लिए अब मुझे कुछ भी सहना पड़े’ यह सोच कर प्रेरणा के मन की सारी उलझन गायब हो गई.

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