Story In Hindi: कैसी है सीमा – गांव से किसका पत्र आया था

Story In Hindi: ‘आज जरा चेक पर दस्तखत कर देना,’’ प्रभात ने शहद घुली आवाज में कहा.

सीमा ने रोटी बेलतेबेलते पलट कर देखा, चेक पर दस्तखत करवाते समय प्रभात कितने बदल जाते हैं, ‘‘आप की तनख्वाह खत्म हो गई?’’ वह बोली.

‘‘गांव से पिताजी का पत्र आया था. वहां 400 रुपए भेजने पड़े. फिर लीला मौसी भी आई हुई हैं. घर में मेहमान हों तो खर्च बढ़ेगा ही न?’’

सीमा चुप रह गई.

‘‘पैसा नहीं देना है तो मत दो. किसी से उधार ले कर काम चला लूंगा. जब भी पैसों की जरूरत होती है, तुम इसी तरह अकड़ दिखाती हो.’’

‘‘अकड़ दिखाने की बात नहीं है. प्रश्न यह है कि रुपया देने वाली की कुछ कद्र तो हो.’’

‘‘मैं बीवी का गुलाम बन कर नहीं रह सकता, समझीं.’’

बीवी के गुलाम होने वाली सदियों पुरानी उक्ति पुरुष को आज भी याद है. किंतु स्त्रीधन का उपयोग न करने की गौरवशाली परंपरा को वह कैसे भूल गया?

बहस और कटु हो जाए, इस के पहले ही सीमा ने चेक पर हस्ताक्षर कर दिए.

शाम को प्रभात दफ्तर से लौटे तो लीला मौसी को 100 का नोट दे कर बोले, ‘‘मौसी, तुम पड़ोस वाली चाची के साथ जा कर आंखों की जांच करवा आना.’’

‘‘अरे, रहने दे भैया, मैं तो यों ही कह रही थी. अभी ऐसी जल्दी नहीं है. रायपुर जा कर जांच करा लूंगी.’’

‘‘नहीं मौसी, आंखों की बात है. जल्दी दिखा देना ही ठीक है.’’

मौसी मन ही मन गद्गद हो गईं.

प्रभात मौसी का बहुत खयाल रखते हैं. मौसी का ही क्यों, रिश्ते की बहनों, बूआओं, चाचाताउओं सभी का. कोई रिश्तेदार आ जाए तो प्रभात एकदम प्रसन्न हो उठते हैं. उस समय वह इतने उदार हो जाते हैं कि खर्च करते समय आगापीछा नहीं सोचते. मेहमानों की तीमारदारी के लिए ऐसे आकुलव्याकुल हो उठते हैं कि उन के आदेशों की धमक से सीमा का सिर घूमने लगता है.

‘‘सीमा, आज क्या सब्जी बनी?है?’’ प्रभात पूछ रहे थे.

‘‘बैगन की.’’

‘‘बैगन की. मौसी की आंखों में तकलीफ है. बैगन की सब्जी खाने से तकलीफ बढ़ेगी नहीं? उन के लिए परवल की सब्जी बना लो.’’

‘‘नहीं. मैं बैगन की सब्जी खा लूंगी, बेटा. बहू को एक और सब्जी बनाने में कष्ट होगा. कालिज से थक कर आई है.’’

‘‘इस उम्र में थकना क्या है, मौसी? वह तो इन के घर वालों ने काम की आदत नहीं डाली, इसी से थक जाती हैं.’’

‘‘हां, बेटा. आजकल लड़कियों को घरगृहस्थी संभालने की आदत ही नहीं रहती. हम लोग घर के सब काम कर के 10 किलो चना दल कर फेंक देते थे,’’ मौसी बोलीं.

बस, इसी बात से सीमा चिढ़ जाती है. उस के मायके वालों ने काम की आदत नहीं डाली तो क्या प्रभात ने उस के लिए नौकरों की फौज खड़ी कर दी? एक बरतनकपड़े साफ करने वाली के अलावा दूसरा कोई नौकर तो देखा ही नहीं इस घर में.

और लीला मौसी के जमाने में घरगृहस्थी ही तो संभालती थीं लड़कियां. न पढ़ाईलिखाई में सिर खपाना था और न नौकरी के पीछे मारेमारे घूमना था.

सीमा सोचने लगी, ‘लीला मौसी तो खैर अशिक्षित महिला हैं, परंतु प्रभात की समझ में यह बात क्यों नहीं आती?’

अभी पिछले सप्ताह भी ऐसा ही हुआ था. सीमा ने करेले की सब्जी बनाई थी. प्रभात ने देखा तो बोले, ‘‘करेले बनाए हैं? क्या मौसी को दुबला करने का विचार है? उन के लिए कुछ और बना लो.’’

सीमा एकदम हतप्रभ रह गई. मौसी हंसीं, ‘‘नहीं… नहीं, कुछ मत बनाओ, बहू. बस, दाल को तड़का दे दो. तब तक मैं टमाटर की चटनी पीस लेती हूं.’’

‘‘मौसी, बहू के रहते तुम्हें काम करने की क्या जरूरत है? आओ, उस कमरे में बैठें,’’ प्रभात बोले.

सीमा अकेली रसोई में खटती रही. उधर साथ वाले कमरे में मौसी प्रभात को झूठेसच्चे किस्से बताती रहीं, ‘‘तुम्हारे बड़े नानाजी खेत में पहुंचे तो देखा, सामने गांव के धोबी का भूत खड़ा है…’’

मौसी खूब अंधविश्वासी हैं. मनगढ़ंत किस्से खूब बताती हैं. भूतप्रेतों के, प्रभात के बड़े नाना, मझले नाना और छोटे नाना के, दूध सी सफेद छोटी नानी के, प्रभात की ननिहाल के जमींदार महेंद्रप्रताप सिंह और रूपा डाकू के भी. इन किस्सों के साथसाथ मौसी लोगों की मेहमाननवाजी और बढि़या भोजन को भी खूब याद करतीं. उन की व्यंजन चर्चा सुन कर श्रोताओं के मुंह में भी पानी भर आता.

मौसी मूंग के लड्डू, खस्ता, कचौरी, मेवे की गुझिया और खोए की पूरियों को याद किया करतीं.

प्रभात उन की हर फरमाइश पूरी करवाते. सीमा को कालिज जाने तक रसोई में जुटे रहना पड़ता. थकान के कारण खाना भी न खाया जाता. उस दिन भी ऐसा ही हुआ था. कालिज से लौट कर वह कुछ खाना ही चाहती थी कि प्रभात के मित्र आ गए. उस ने किसी तरह उन्हें चायनाश्ता करवाया. दूध का बरतन उठा कर अलमारी में रखने लगी तो सहसा चक्कर खा कर गिर पड़ी. सारे कमरे में दूध ही दूध फैल गया.

मौसी और प्रभात दौड़े आए. अपने निष्प्राण से शरीर को किसी तरह खींचती हुई सीमा पलंग पर जा लेटी. आंखें बंद कर के वह न जाने कितनी देर तक लेटी रही.

अचानक प्रभात ने धीरे से उसे उठाते हुए कहा, ‘‘सुनो, अब उठ कर जरा रसोई में देख लो. तब से मौसी ही लगी हुई हैं.’’

शरीर में उठने की शक्ति ही नहीं थी. ‘हूं’ कह कर सीमा ने दूसरी ओर करवट ले ली.

‘‘तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है, यह मैं मानता हूं परंतु अपने घर का काम कोई और करे यह तो शोभा नहीं देता,’’ प्रभात धीरे से बोले.

सीमा का मन हुआ चीख कर कह दे, ‘मौसी के घर में बहूबेटी बीमार होती हैं, तब क्या वह हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती हैं? एक समय भोजन बना भी लेंगी तो ऐसी क्या प्रलय हो जाएगी?’ लेकिन कहा कुछ नहीं. आवाज कहीं गले में ही फंस कर रह गई. आंखों से आंसू बह निकले. उठ कर बचा हुआ काम निबटाया.

मौसी प्रभात की प्रशंसा करते नहीं थकतीं. उस दिन किसी से कह रही थीं, ‘‘हमारे परिवार में प्रभात हीरा है. सब के सुखदुख में साथ देता है. रुपएपैसे की परवाह नहीं करता. ऐसा आदरसम्मान करता है कि पूछो मत. बहू बड़े घर की लड़की?है, पर प्रभात का ऐसा शासन?है कि मजाल है बहू जरा भी गड़बड़ कर जाए.’’

यह प्रशंसा वह पहली बार नहीं सुन रही थी. ऐसी प्रशंसा प्रभात के परिवार के हर छोटेबड़े के मुख पर रहती है. ससुराल वालों को इतना आतिथ्यसत्कार तथा सेवा करने और बैंक के चेक फाड़फाड़ कर देने के बाद भी वह प्रभात के इस सुयश की भागीदार नहीं बन सकी. या यों कहा जाए कि प्रभात ने इस में उसे भागीदार बनाया ही नहीं बल्कि अपने लोगों के सामने उसे बौना बनाने में ही वह गर्व महसूस करते रहे. उस  की कमियों और गलतियों को वह बढ़ाचढ़ा कर सुनाया करते और सारा परिवार रस ले ले कर सुना करता.

इस संबंध में सीमा को अपनी देवरानी मंगला से ईर्ष्या होती है. देवर सुनील उस के सम्मान को बढ़ाने का एक भी अवसर हाथ से नहीं जाने देते. हैदराबाद से वह साल में एक बार घर आते हैं. छोटेबड़े सभी के लिए कुछ न कुछ लाने का उन का नियम है, लेकिन लेनदेन का दायित्व उन्होंने मंगला को ही सौंप रखा है.

जब सारा परिवार मिल कर बैठता?है तब सुनील पत्नी को गौरवान्वित करते हुए कहते हैं, ‘‘मंगला, निकालो भई, सब चीजें. दिखाओ सब को, क्याक्या लाई हो तुम उन के लिए,’’ सब की नजरें मंगला पर टिक जाती?हैं. वह कितनी ऊंची हो जाती है सब की दृष्टि में.

मंगला की अनुपस्थिति में जब परिवार के लोग मिल बैठते हैं तो उस के लाए उपहारों की चर्चा होती?है. उस की दरियादिली की प्रशंसा होती है. परंतु सीमा की मेहनत की कमाई से भेजे गए मनीआर्डरों का कभी जिक्र नहीं होता. उस का सारा श्रेय प्रभात को जाता है. कभी बात चलती?है तो अम्मां उसे सुना कर साफ कह देती हैं, ‘‘सीमा की कमाई से हमें क्या मतलब? प्रभात घर का बड़ा बेटा है, उस की कमाई पर तो हमारा पूरा हक है.’’

कभीकभी सीमा सोचती है, ‘नेकी करते हुए भी किसी के हिस्से में यश और किसी के हिस्से में अपयश क्यों आता है?’ वैसे इस विषय में ज्यादा सोच कर वह अपना मन खराब नहीं करती. फिर भी उस का स्वास्थ्य ठीक नहीं रह पाता. पिछले दिनों डाक्टर ने बताया था, ‘‘पैर भारी हैं. थोड़ा आराम करना चाहिए.’’

इधर मौसी कहती थीं, ‘‘एक रोटी बनाने का ही तो काम है घर में. न चक्की पीसनी है, न कुएं से पानी खींच कर लाना है. खूब मेहनत करो और डट कर खाओ. तभी तो सेहत बनेगी.’’

और एक दिन सेहत बनाने के चक्कर में लड्डू बांधतेबांधते कालिज जाने का समय हो गया था. सीमा जल्दीजल्दी सीढि़यां उतरने लगी तो अचानक पैर फिसल गया. 3-4 सीढि़यां लांघती हुई वह नीचे जा गिरी. चोट तो उसे विशेष नहीं आई, पर पेट में दर्द होने लगा था.

‘‘इन के लिए बिस्तर पर आराम करना बहुत जरूरी है,’’ डाक्टर ने प्रभात से कहा था.

प्रभात ने लापरवाही के लिए सीमा को जी भर कर कोसा, किंतु इस परिस्थिति में डाक्टर की सलाह मानना आवश्यक हो गया.

झाड़ूपोंछा तो महरी करने लगी पर भोजन बनाने का भार मौसी पर आ पड़ा. वह नाश्ता और खाना बनाने में परेशान हो जातीं. अब वह बिना मसाले की सादी सब्जी से काम चला लेतीं. कहतीं, ‘‘अब उम्र हो गई. काम करने की पहले जैसी ताकत थोड़े ही रह गई है.’’

सीमा का मन होता, पूछे, मौसी, सिर्फ खाना ही तो बनाना?है. और खाना बनाना भी कोई काम है? तुम तो कहती थीं, दालचावल और सब्जीरोटी तो कैदियों का खाना है. तुम ऐसा खाना क्यों बना रही हो, मौसी?

किसी तरह सप्ताह बीता था कि मौसी का मन उखड़ने लगा. एक दिन प्रभात से बोलीं, ‘‘बेटा, तुम्हारे पास बहुत दिन रह ली. सुरेखा रोज सपने में दिखाई देती है. जाने क्या बात है. बहू जैसी ही उस की भी हालत है.’’

प्रभात सन्न रह गए, ‘‘मौसी, ऐसी कोई बात होती तो सुरेखा का पत्र जरूर आता. तुम चली जाओगी तो बड़ी मुसीबत होगी. अच्छा होता जो कुछ दिन और रुकजातीं.’’

पर मौसी नहीं मानीं. वह बेटी को याद कर के रोने लगीं. प्रभात निरुपाय हो गए. उन्होंने उसी दिन गांव पत्र लिखा.

सुशीला जीजी पिछले साल 2 माह रह कर गई थीं. उन्हें भी एक पत्र विस्तार से लिखा. कई दिनों बाद गांव से पत्र आया कि 15 दिनों बाद अम्मां स्वयं आएंगी. पर 15 दिनों के लिए दूसरी क्या व्यवस्था हो सकेगी?

प्रभात को याद आया कि मंगला की बीमारी का समाचार मिलते ही गांव के लोग किस तरह हैदराबाद तक दौड़े चले जाते हैं. फिर सीमा के लिए ऐसा क्यों? शायद इस का कारण वह स्वयं ही है. जिस तरह सुनील ने अपने परिजनों के हृदय में मंगला के लिए स्नेह और सम्मान के बीज बोए थे, वैसा सीमा के लिए कभी किया था उस ने?

15 दिन बाद अम्मां गांव से आ गईं. उन के आते ही प्रभात निश्चिंत हो गए. उन्हें विश्वास था कि अम्मां अब सब संभाल लेंगी. मार्च का महीना?था. वह अपने दफ्तर के कार्यों में व्यस्त हो गए. सुबह घर से जल्द निकलते और रात को देर से घर लौटते.

पिछले वर्ष जब मंगला को आपरेशन से बच्चा हुआ था, उस समय अम्मां हैदराबाद में ही थीं. उन्होंने उस की खूब सेवा की थी. उस की सेवा का औचित्य उन की समझ में आता था, लेकिन सीमा को क्या हुआ, यह उन की समझ में ही न आता. वह दिनभर काम करें और बहू आराम करे, यह उन के लिए असहाय था.

प्रभात के सामने तो अम्मांजी चुपचाप काम किए जातीं, परंतु उन के जाते ही व्यंग्य बाण उन के तरकस में कसमसाने लगते. कभी वह इधरउधर निकल जातीं.

महल्ले की स्त्रियां मजा लेने के लिए उन्हें छेड़तीं, ‘‘अम्मां, हो गया काम?’’

‘‘हां भई, काम तो करना ही है. पुराने जमाने में बहुएं सास की सेवा करती थीं, आज के जमाने में सास को बहुओं की सेवा करनी पड़ती?है.’’

सीमा सुनती तो संकोच से गड़ जाती. किस मजबूरी में वह उन की सेवा ग्रहण कर रही थी, इसे तो वही जानती थी.

उसी समय प्रभात को दफ्तर के काम से सूरत जाना पड़ा. उन के जाने की बात सुन कर सीमा विकल हो उठी थी. जाने के 2 दिन पहले उस ने प्रभात से कहा भी, ‘‘अम्मां से कार्य करवाना मुझे अच्छा नहीं लगता. उन की यहां रहने की इच्छा भी नहीं है. उन्हें जाने दीजिए. यहां जैसा होगा, देखा जाएगा.’’

‘‘परिवार से संबंध बनाना तुम जानती ही नहीं हो,’’ प्रभात ने उपेक्षा से कहा था.

प्रभात के जाते ही अम्मां मुक्त हो गई थीं. वह कभी मंदिर निकल जातीं, कभी अड़ोसपड़ोस में जा बैठतीं. सीमा को यह सब अच्छा ही लगता. उन की उपस्थिति में जाने क्यों उस का दम घुटता था.

उस दिन अम्मां सामने के घर में बैठी बतिया रही थीं. सीमा ने टंकी में से आधी बालटी पानी निकाला और उठाने ही जा रही थी कि देखा, अम्मां सामने खड़ी हैं. उसे याद आया अम्मां पीछे वाली पड़ोसिन से कह रही थीं, ‘‘प्रभात पेट में था, तब छोटी ननद की शादी पड़ी. हमें बड़ेबड़े बरतन उठाने पड़े,  पर कहीं कुछ नहीं हुआ. हमारी बहू तो 2-2 लोटा पानी ले कर बालटी भरती है, तब नहाती?है.’’

सीमा ने झेंप कर बालटी भरी और उठा कर स्नानघर तक पहुंची ही थी कि दर्द के कारण बैठ जाना पड़ा. जिस का भय था, वही हो गया. डाक्टर निरुपाय थे. गर्भपात कराना जरूरी हो गया.

अम्मां रोरो कर सब से कह रही थीं, ‘‘हम इतना काम करते थे तो भला क्या इन्हें बालटी भर पानी नहीं दे सकते थे. हमारे रहने का क्या फायदा हुआ?’’

उसी दिन शाम को प्रभात घर लौटे. अस्पताल पहुंचे तो डाक्टर गर्भपात कर के बाहर निकल रही थीं. उन्होंने दुख व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘बच्चा निकालना जरूरी हो गया था. लड़का था.’’

प्रभात हतबुद्धि से डाक्टर को देखते रह गए. फिर अचकचा कर पूछा, ‘‘सीमा कैसी है?’’ Story In Hindi

Hindi Story: हीरोइन – महरी की चिंता उसे क्यों थी

Hindi Story: पहले तो सरकारी मकान की दिक्कत और दूसरे, घर पर कामकाज करने वालों की किल्लत. घर के बाकी सब काम तो जैसेतैसे हो जाते थे किंतु बरतन साफ करना, झाड़ ूपोंछा करना ऐसे काम थे जिन्हें सुन कर ही पत्नी का तापमान सामान्य से ऊपर पहुंच जाता था. पूरे घर का वातावरण तनावपूर्ण हो जाता था. दिन भर पत्नी मुझ पर, बच्चों पर और खुद पर भी झल्लाती रहती थी. बच्चों के दोचार थप्पड़ भी लग जाना स्वाभाविक ही था. इसलिए लगभग 5 वर्ष पूर्व जब मैं लखनऊ स्थानांतरित हो कर आया था तो इस आशंका से भयंकर रूप से त्रस्त था.

भागदौड़ कर के दारुलशफा (विधायक निवास) के चक्कर काट कर मुझे कालोनी में मकान मिल गया था. वह मेरे लिए कई दृष्टि से महत्त्वपूर्ण था. किराए के मकानों की दशा से कौन परिचित नहीं है. खुशामद और सामर्थ्य से परे किराया और दिनप्रतिदिन की कहासुनी. तनाव का एक छोटा हिस्सा मकान मिलने से अवश्य कम हुआ था किंतु उस का अधिकांश भाग तब तक घर पर मंडराता रहा जब तक चौकाबासन करने वाली महरी की व्यवस्था नहीं हो गई.

वास्तव में पत्नी से अधिक महरी की चिंता मुझे थी. मैं ने लखनऊ आते ही पूछताछ करनी प्रारंभ कर दी थी. आसपास के घरों में सुबहशाम आतीजाती महरीनुमा औरतों पर निगाह रखना शुरू कर दिया था. 1-2 महरियां दीख पड़ीं, लेकिन उन्होंने बात करते ही ‘खाली नहीं’ की तख्ती दिखा दी. एक सप्ताह बाद पत्नी का धैर्य तेज धूप में कच्ची दीवार सा चटखने लगा. 15 दिन बीततेबीतते उस के चेहरे पर तनाव भी परिलक्षित होना स्वाभाविक ही था.

इतनी बड़ी कालोनी में मेरे ही विभाग के अनेक अधिकारी निवास करते थे. धीरेधीरे मैं ने सभी के सामने महरी की समस्या रखी. अंतत: कमला के बारे में मुझे पता चला किंतु सहयोगी अरविंदजी ने मुझे उस की चर्चा के साथ ही सचेत करते हुए कह दिया था, ‘‘भाई, कालोनी की हीरोइन है कमला, एकदम आधुनिका. बड़ी नखरेबाज. उस की हर किसी के साथ निभ पाना संभव नहीं है.’’

मैं ने पत्नी को आ कर सब बता दिया था और कमला को बुलाने का आग्रह किया था.

कमला आई थी तो उसे देख कर मैं भी पहले दिन ही चकित रह गया था. वह देखने में 30 के आसपास थी. सांवला रंग किंतु तीखे नाकनक्श, सलीके से संवरी हुई आकृति और साफसुथरे कपड़े, अंगूठी से घिरी 2 उंगलियां, कलाई में घड़ी और साधारण एड़ी वाली चप्पलें. उसे देख कर यह विश्वास नहीं हुआ कि वह स्त्री घरों में बरतन मांजने और झाड़ ूपोंछे का काम करती थी.

प्रारंभिक वार्त्ता के बाद कमला ने कार्य प्रारंभ कर दिया था. बाद में पता चला था कि वह इत्तफाक ही था कि एक अधिकारी के स्थानांतरण के फलस्वरूप कमला अभी हाल में ही खाली हुई थी. वरना उस का नियम था कि वह एक ही समय में 5 से अधिक घरों में काम नहीं करती थी.

कमला का काम जहां एक ओर अति स्वच्छ व व्यवस्थित था वहीं दूसरी ओर उस में स्वयं एक सौम्यता व गंभीरता दीख पड़ती थी. घड़ी की सूइयों के साथ वह प्रात: सवा 8 बजे आती थी और 45 मिनट में सारे कार्यों से निवृत्त हो कर चली जाती थी. सायं ठीक सवा 5 बजे कमला घर में घुसती थी और पौने 6 बजे तक घर से निकल जाती थी. न तो वह अधिक बोलती थी और न ही उसे सुनने की कोई आदत थी.

जैसेजैसे समय बीतता गया, हम कमला के बारे में और अधिक जानते गए. उस का पति बीमा कार्यालय में चपरासी था. 3 बच्चे थे उन के. बड़ा लड़का और 2 लड़कियां. कमला को देख कर हम तो यही सोचते थे कि अभी बच्चे छोटे ही होंगे. किंतु मुझे उस दिन घोर आश्चर्य हुआ जब एक 16-17 वर्षीय लड़के ने घर आ कर पूछा था, ‘‘मां आई थीं?’’

‘‘किस की मां?’’ पत्नी ने सकपका कर पूछा था.

‘‘मेरी मां, कमलाजी.’’

‘‘कमला,’’ पत्नी हतप्रभ सी धीरे से मुसकरा दी. फिर सहजता धारण कर के बोली, ‘‘हमारे यहां तो सवा 5 बजे आती है. अभी तो देर है.’’

वह लड़का अभिवादन कर के लौट गया.

पता नहीं क्यों पत्नी के हृदय में एक कुलबुलाहट सी हुई. उस दिन कमला के आने पर पत्नी ने उस के लड़के के आने के बारे में बताते हुए बातों का सिलसिला शुरू कर दिया.

‘‘जी, बीबीजी,’’ कमला ने बताया, ‘‘घर पर अचानक कुछ मेहमान आ गए थे. जल्दी में थे. इसलिए लड़का ढूंढ़ रहा था.’’

‘‘मगर तुम्हारा लड़का और इतना बड़ा?’’ पत्नी रोक न सकी अपनी जिज्ञासा को.

कमला ने शरम से मुंह नीचे कर लिया. पहली बार उस के चेहरे पर स्मित की लहरें उभर आईं.

‘‘तुम देखने में तो इतनी बड़ी उम्र की नहीं लगती हो?’’ पत्नी ने धीरे से बात बनाई थी.

कमला हंसने लगी. फिर दबे स्वर में बोली, ‘‘बीबीजी, कुछ तो शादी ही जल्दी हो गई थी. वैसे अब 33 की तो हो ही रही हूं.’’

कमला ने आगे बताया था कि उस के पिता बरेली में एक स्कूल में अध्यापक थे. घर में पढ़नेलिखने का वातावरण भी था. कमला की 2 बहनों ने इंटर पास किया था. उन की शादी हो गई थी. छोटा भाई बी.ए. कर के कचहरी में बाबू हो गया था.

कमला जब केवल 15 वर्ष की ही थी तो पड़ोस में रह रहे नवयुवक के प्रेमजाल में फंस कर वह उस के साथ लखनऊ चली आई थी. उस समय वह 9वीं की परीक्षा दे चुकी थी. नवयुवक यानी उस के पति के मामा ने उन्हें शरण दी थी तथा कचहरी में विवाह कराया था. उस का पति हाईस्कूल पास था. मामा ने ही सिफारिश कर के उस की बीमा दफ्तर में नौकरी लगवा दी थी.

कमला के पिता और घर के अन्य सदस्य उस घटना के बाद इतने अपमानित व क्षुब्ध थे कि उन्होंने कमला से सदा के लिए अपने संबंध विच्छेद कर लिए थे. उधर पति के घर वाले भी उतने ही नाराज थे किंतु धीरेधीरे उन से संबंध सुधर गए थे.

लगभग 1 वर्ष बाद पुत्र का जन्म हुआ था और बाद में 2 लड़कियों का. अब उन में से एक 15 साल की थी और दूसरी 9 साल की.

हमें लखनऊ में आए लगभग 3 साल बीत चुके थे. अब सब व्यवस्थित हो चला था. कमला से कभीकभार खुल कर बातें भी होने लगी थीं किंतु न तो उस के नित्यक्रम में कोई अंतर आया था और न ही उस में.

कमला की कुछ और भी विशिष्टताएं थीं. वह कभी हमारे घर पर कुछ खातीपीती नहीं थी. और तो और वह कभी चाय भी नहीं लेती थी. घर से खाने का कोई सामान स्वीकार न करना और न ही तीजत्योहार पर किसी अतिरिक्त पैसे, कपड़े या वस्तु की मांग करना. प्रारंभ में हमें लगा कि संभवत: महानगर की ऐसी ही प्रथा हो, किंतु बाद में यह भ्रांति भी दूर हो गई.

उस दिन के बाद कमला का लड़का भी कभी हमारे घर नहीं आया था. पता चला था कि वह हाईस्कूल की परीक्षा में 2 बार फेल हो चुका था. अब तीसरी बार परीक्षा दी थी.

कमला की लड़कियों का हमारे घर पर आने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था.

एक दिन जब पत्नी ने कमला से उस की 2 दिन की अनुपस्थिति में किसी लड़की को काम पर भेजने को कहा था तो पहली बार कमला रोष व खीज भरे स्वर में बोली थी, ‘‘नहीं, बीबीजी, मैं अपनी लड़की को नहीं भेज सकती. जो काम मैं उन बच्चों के लिए करती हूं वह उन को करते नहीं देख सकती हूं.’’

उस वर्ष जब हाईस्कूल बोर्ड का परीक्षाफल आया और कमला का लड़का तीसरी बार अनुत्तीर्ण हुआ तो कमला क्षोभ व यंत्रणा से टूटी सी लगती थी. पत्नी के पूछने पर उस के नेत्र छलछला उठे. फिर सिसकियां ले कर रोने लगी. साथ ही भरभराए स्वर में कहने लगी, ‘‘बीबीजी, सिर्फ इन बच्चों के लिए यह काम करना शुरू किया था, जिस से वे अच्छी तरह रह सकें, अच्छा पहनेंखाएं और पढ़लिख कर लायक बन जाएं.’’

कुछ पल शांत रही कमला. फिर बताने लगी, ‘‘बाबूजी, हमारे पूरे खानदान में यह काम किसी ने नहीं किया था, लेकिन मैं ने सिर्फ बच्चों की खातिर यह धंधा अपनाया था.’’

साड़ी का पल्लू निकाल कर कमला ने आंसू पोंछे. फिर आगे बोली, ‘‘मेरा आदमी मुझ से इस धंधे के पीछे बड़ा नाराज हुआ. दुखी भी हुआ. घर के गुजारे लायक उस को पैसा मिलता था. उस के साथ के चपरासी ऐसे ही रह रहे हैं, लेकिन मैं ने जिद कर के यह काम किया. जानती थी कि उस की आमदनी में काम तो चल जाएगा. लेकिन मैं बच्चों को पढ़ालिखा नहीं सकूंगी. उन्हें ठीक तरह नहीं रख पाऊंगी.

‘‘मैं ने मुन्ना को बड़े चाव से पढ़ाना चाहा था, लेकिन वह पढ़ता ही नहीं है. उस के पापा तो पिछले साल ही पढ़ाई बंद करा रहे थे. उसे कपड़े की दुकान पर लगवा भी दिया था, लेकिन मैं ने जिद कर के वह काम छुड़वाया और पढ़ने भेजा.

‘‘आज सुबह जब नतीजा आया तो मुन्ना को तो डांटाडपटा ही मेरे आदमी ने, मुझे भी बुराभला कहा. फिर आज ही मुन्ना काम पर चला गया उस दुकान पर.’’

कहतेकहते कमला का स्वर बोझिल हो कर टूट सा गया.

‘‘कैसी दुकान है?’’ कुछ देर शांत रह कर कुछ न सूझते हुए पत्नी ने पूछ लिया.

‘‘कपड़े की, जनपथ में है.’’

‘‘कितना देंगे?’’

‘‘यही करीब 300-350 रुपए. मगर बीबीजी, मुझे पैसे का क्या करना है. मुन्ना पढ़ लेता तो जीवन की आस पूरी हो जाती. मेरा यों दरदर ठोकरें खाना सफल हो जाता,’’ कहते हुए कमला की आंखों में एक गीली परत सी जम गई.

कमला की व्यथा सुन कर मैं भी दुखित हो चला था. सचमुच एक विडंबना ही तो थी यह उस की.

उस घटना के बाद कमला दुखी व परेशान सी रहने लगी थी. ऐसा लगता था जैसे कोई दुख उस के हृदय को लगातार बरमे की तरह सालता था. मानो काले बादलों का साया उस के अंतरंग में घुटन सी पैदा कर रहा था. सब काम नियमित रूप से करते हुए भी कमला स्फूर्तिहीन व निस्पंद सी दीख पड़ती थी. कभीकभी यह आशंका होती थी कि कहीं वह काम करना ही न छोड़ दे. किंतु जब 6 माह बीत गए तो पत्नी आश्वस्त हो गई. कमला भी धीरेधीरे सामान्य हो चली थी.

एक दिन कमला ने एक सप्ताह के अवकाश के संबंध में पत्नी से कहा तो उस का आशंकित हो उठना स्वाभाविक था, ‘‘क्या कामवाम छोड़ने का विचार है?’’ अपने संदेह व आशंका को एक धीमी मुसकान से ढांपते हुए पत्नी ने पूछा था.

‘‘नहीं, बीबीजी, ऐसी कोई बात नहीं है,’’ कमला ने सहजता से उत्तर दिया, ‘‘मेरी लड़की की शादी है.’’

‘‘सचमुच?’’ पत्नी ने अचंभे से कमला को देखा.

‘‘हां, बीबीजी. 17 पूरे कर चली है. लड़का मिल गया है सो शादी पक्की कर डाली है.’’

‘‘ठीक ही तो किया तुम ने.’’

‘‘और करती भी क्या. उस को भी पढ़ाने की लाख कोशिश की, लेकिन 9वीं से आगे नहीं पढ़ सकी. मेरी ही तरह रही,’’ कह कर हंस दी वह, ‘‘मैं ने सोचा कि कुछ और न हो इस से पहले ही उस के हाथ पीले कर दूं और छुट्टी पा लूं.’’

कमला के आग्रह पर हम दोनों विवाह में सम्मिलित हुए थे. पत्नी एक बार पहले भी उस के घर जा चुकी थी. उस ने मुझे कमला के घर के रखरखाव के बारे में बताया था. टीवी, सोफा, खाने की मेजकुरसियां, ड्रेसिंग टेबल, सबकुछ उस के घर में था.

आज उस का घर देख कर मैं भी चकित रह गया था. शादी का स्तर भी मध्यवर्गीय परिवार जैसा ही था. कहीं कोई कमी नहीं दीख पड़ी. वह सब देख कर जाने क्यों मेरे हृदय में कहीं अंदर अतीव सुख व संतोष की भावना प्रवाहित हो गई थी.

लड़की के विवाह के बाद एक बार फिर हमें ऐसा लगा कि अब कमला अवश्य काम छोड़ देगी, किंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ.

एक दिन पत्नी ने मुझे बताया कि कमला मुझ से कोई बात करना चाहती थी. सुन कर मुझे आश्चर्य हुआ. अगले दिन मैं ने स्वयं कमला से पूछा था, ‘‘कमला, तुम्हें कुछ बात करनी थी?’’

‘‘जी, बाबूजी,’’ हाथ धो कर वह मेरे पास आ कर नीचे जमीन पर बैठ गई, ‘‘कुछ काम था.’’

‘‘बोलो?’’ आत्मीयता भरे स्वर में मैं ने इजाजत दी थी.

‘‘छोटी मुन्नी का किसी अच्छे स्कूल में दाखिला करा दीजिए.’’

‘‘किस क्लास में?’’

‘‘जी, उस ने कानवेंट से 5वीं पास की है. क्लास में दूसरे नंबर पर आई है. अब छठी में जाएगी. उस की अध्यापिका उस की बड़ी तारीफ कर रही थीं. कह रही थीं कि मैं उसे खूब पढ़ाऊं. मैं उसे किसी अच्छे अंगरेजी स्कूल या सेंट्रल स्कूल में डालना चाहती हूं. मेरी हिम्मत नहीं पड़ती थी. इसलिए आप से ही विनती करने आई हूं.’’

मैं स्तंभित सा सुनता रहा.

‘‘क्यों नहीं. आज ही ले आओ उसे. मैं ले कर चला जाऊंगा. दाखिला भी करवा दूंगा,’’ मैं ने कमला को आश्वासन दिया.

कमला मेरे पैरों को छूने लगी, ‘‘मुझ पर बड़ा एहसान होगा आप का. यह लड़की पढ़ लेगी तो जीवनभर आप को याद करूंगी.’’

‘‘लेकिन तुम ने कभी बताया ही नहीं कि तुम्हारी लड़की कानवेंट में है और पढ़ने में इतनी अच्छी है.’’

‘‘बाबूजी, क्या बताती, मेरी तो आखिरी आशा है वह. कभी लगता है उस को दूसरों से ज्यादा मेरी ही नजर न लग जाए.’’

मैं सुन कर हंसने लगा. वातावरण की गंभीरता टूट चुकी थी. इसलिए मैं ने पूछ ही लिया, ‘‘मगर तुम ने उसे दोनों बच्चों के बीच कैसे पाला?’’

‘‘बस, बाबूजी, शुरू से छोटी मुन्नी को एकदम अलग ही रखा दोनों बच्चों से. उस के लिए अध्यापक लगाए, पढ़ाने से ज्यादा उस को अलग रखने के लिए. वह जो मांगती है, उसे देती हूं,’’ कुछ क्षण रुक कर फिर धीमे से कहने लगी कमला, ‘‘उसे आज तक यह नहीं मालूम कि मैं क्या काम करती हूं. बाबूजी, हो सकता है कि वह जान कर अच्छे बच्चों में खुल कर घुलमिल न पाए.’’

कमला की आंखें डबडबा उठी थीं. मेरे दिल के तार भी जैसे झंकृत हो उठे थे.

कमला उठ कर अपने काम में लग गई.

तब से मैं भी यह मानता हूं कि कमला वास्तव में हीरोइन है. उस रूप में नहीं जिस में लोग उसे कहतेसमझते हैं बल्कि एक नए अर्थ में, एक नए संदर्भ में. Hindi Story

Story In Hindi: मेरा पिया घर आया – रवि के मन में नीरजा ने कैसे अपने प्रेम की अलख जगा दी?

Story In Hindi: रवि अपनी भाभी कविता और उन की सहेली निशा की सारी दलीलों को नजरअंदाज करते हुए शादी न करने की जिद पर कायम रहा, ‘‘मानवी से जुड़ी यादों के कारण अब किसी लड़की की तरफ देखने का मेरा मन नहीं करता,’’ शादी न करने का मुख्य कारण दोहराते हुए रवि का गला भर आया था.

‘‘पर मानवी अब जिंदा नहीं है,’’ निशा ने उत्तेजित लहजे में उसे याद दिलाया, ‘‘जिंदगी में हुए किसी एक हादसे के कारण इंसान को अपनी जीवनधारा को रोक नहीं देना चाहिए.’’

‘‘मैं मानवी की यादों के सहारे सारा जीवन गुजारने का फैसला कर चुका हूं, निशा भाभी.’’

कविता ने एकाएक नियंत्रण खो दिया और गुस्से से भरी आवाज में अपनी सहेली से कहा, ‘‘निशा, इन जनाब के साथ मगज मारने से कोई फायदा नहीं. अच्छा ही है कि ये शादी करने से इनकार कर रहे हैं. इन जैसे जिद्दी और नासमझ इंसान के साथ शादी कर के कोई लड़की खुश रह भी नहीं सकती.’’

अब तक खामोश बैठी निशा की छोटी बहन नीरजा एकाएक भावुक लहजे में बोल पड़ी, ‘‘ऐसा मत कहो कविता दीदी. इन जैसे संवेदनशील इंसान की जीवनसंगिनी बन कर कोई भी लड़की खुद पर गर्व करेगी.’’

निशा और कविता को उस का शरमातेलजाते अंदाज में अपनी बात कहने का यह ढंग हैरान कर गया. रवि भी उस के चेहरे को उलझन भरे अंदाज में पढ़ने की कोशिश कर रहा था.

‘‘नीरजा, तुम तो मानवी से जुड़ी सारी कहानी अच्छी तरह जानती हो. अगर तुम्हारे लिए इस का रिश्ता आए, तो क्या तुम हां कह दोगी?’’ कुछ देर की खामोशी के बाद कविता ने मजाकिया लहजे में नीरजा से यह सवाल पूछ ही लिया.

‘‘मैं तो फौरन हां कह दूंगी,’’ नीरजा ने भावुक लहजे में ऐसा जवाब दिया तो तीनों को यह बात एकदम समझ आ गई कि वह रवि को मन ही मन प्यार करने लगी है.

कविता ने इस बार संजीदा हो कर अगला सवाल पूछा, ‘‘यह तो बता कि तू ने ऐसा क्या खास गुण देख लिया रवि में जो इसे अपना दिल दे बैठी?’’

नीरजा भावुक लहजे में बोली, ‘‘कुछ दिन पहले जब दीदी के बेटे मोहित की तबीयत खराब हुई, तो इन से उस की पीड़ा नहीं देखी गई थी. सब के रोकने के बावजूद ये ही उसे फौरन अस्पताल ले गए थे.’’

‘‘भाभी, आप या दीदी वक्तबेवक्त इन्हें कुछ भी काम बताओ, ये उसे करने में बिलकुल नानुकर नहीं करते. गुस्सा तो जैसे इन के स्वभाव में है ही नहीं. सब से हंस कर मिलते हैं. मैं ने इन्हें गरीब लोगों से भी हमेशा प्यार और इज्जत के साथ पेश आते देखा है. इन की तो जितनी तारीफ की जाए कम है.’’

रवि ने माथे पर बल डाल कर कहा, ‘‘ऐसी बातें सोचने का कोई फायदा नहीं, क्योंकि मुझे तो कभी शादी ही नहीं करनी है.’’

‘‘इस मामले में मेरा अपने दिल पर कोई नियंत्रण नहीं रहा है,’’ नीरजा ने शरमाते हुए जवाब दिया.

‘‘तुम पागल हो क्या? क्यों इन सब की हंसी का पात्र न रही हो?’’

‘‘आप जैसा संवेदनशील और नेकदिल जीवनसाथी मुझे ढूंढ़ने पर नहीं मिलेगा,’’ वह अपनी धुन में बोली, मानो उस ने रवि की बात सुनी ही न हो.

रवि को बिलकुल नहीं सूझा कि वह नीरजा से आगे क्या कहे. उसे यों बेबस देख निशा और कविता खुल कर मुसकराए जा रही थीं.

‘‘निशा, मुझे तो तेरी छोटी बहन को अपनी देवरानी बनाने में कोई एतराज नहीं…’’

‘‘भाभी, प्लीज. हम अभी आए,’’ ऐसा कह कर रवि ने नीरजा का हाथ पकड़ा और उसे उन के बीच से उठा कर बाहर लौन में ले आया.

‘‘तुम सब के सामने ऐसी पागलपन वाली बातें कर के अपना और मेरा मजाक मत उड़वाओ,’’ रवि नाराज नजर आ रहा था.

‘‘आप इस दुनिया को छोड़ कर जा चुकी मानवी के अलावा किसी और लड़की से प्रेम नहीं करते हो न?’’ नीरजा एकदम संजीदा हो गई.

‘नहीं.’’

‘‘तो मुझ से शादी कर लो.’’

‘‘तुम मेरी मजबूरी समझो, प्लीज. मैं मानवी को प्यार करता था, करता हूं और करता रहूंगा.’’

‘‘मुझे बिलकुल आप के जैसा ही जीवनसाथी चाहिए. अपनी मृत प्रेमिका के प्रति आप अगर इतने वफादार हो तो यकीनन मेरे प्यार के प्रति भी पूरी तरह से ईमानदार और वफादार रहोगे.’’

‘‘मैं मानवी से कभी बेवफाई नहीं करूंगा,’’ नाराजगी भरे अंदाज में उठ कर रवि अपने घर की तरफ चल पड़ा.

‘‘और मेरा दिल कह रहा है कि हमारी शादी जरूर हो कर रहेगी,’’ नीरजा की इस घोषणा का कोई जवाब देने के लिए रवि रुका नहीं था.

रवि का दिल जीतने की कोशिशें नीरजा ने उसी दिन से बड़े उत्साह के साथ शुरू कर दीं. पड़ोस में घर होने के कारण वह सुबहशाम खूब सजधज कर रवि से मिलने पहुंच जाती.

‘‘मैं कैसी लग रही हूं?’’ रवि के सामने आते ही वह उस से यह सवाल तब तक पूछती रहती जब तक वह उस की तारीफ नहीं कर देता.

अपने फोन के कैमरे से वह रवि के हर किसी के साथ खूब फोटो खींचती. उस का हर काम भागभाग कर खुद करती. उस के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताने के लिए वह अकसर रात का खाना उसी के घर खाने लगी थी.

वह अकसर, ‘अपने पिया की मैं तो बनी रे दुलहनिया…’ और ‘मेरा पिया घर आया…’ जैसे गाने मस्त अंदाज में गाती हुई दोनों घरों में घूमती नजर आती, तो रवि के अलावा सब खूब दिल खोल कर हंसते.

परेशान रवि हर किसी से फरियाद करता, ‘‘कोई इस पगली को समझाओ, प्लीज. यह अपनी भावनाओं पर काबू रखे, नहीं तो बाद में इसे दुख होगा.’’

‘‘उसे समझाना हमारे बस की बात नहीं. वह तो तुम्हारे प्यार में पागल हो चुकी है, रवि,’’ हर किसी से कुछ ऐसा ही जवाब पा कर रवि की खीज निरंतर बढ़ती जाती थी.

आने वाले कुछ दिनों में नीरजा ने अपने उत्साहपूर्ण व्यवहार से रवि के पिता कैलाश, मां सावित्री और बड़े भाई राजीव के दिलों को भी जीत लिया. उन सब के मन में यह उम्मीद बंध  गई कि कभी शादी न करने के रवि के फैसले को शायद नीरजा बदलने में कामयाब हो जाएगी.

नीरजा की मां कांता ने विकास नाम के एक बिजनैसमैन के साथ नीरजा का रिश्ता पक्का करने का मन बना रखा था. जब नीरजा के रवि को दिल देने की खबर उन के कानों तक पहुंची, तो वे अपने पति रमेश के साथ अगले ही दिन मेरठ से दिल्ली आ गईं.

नीरजा को सामने बैठा कर उन्होंने सख्त लहजे में उसे समझाना शुरू किया, ‘‘शादी के बाद किसी भी लड़की की खुशियां सुनिश्चित करने में पैसा बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. तुझे तो इस बात से खुश होना चाहिए कि इतने अमीर घर की बहू बनने का मौका मिल रहा है.’’

‘‘पर मैं रवि को पसंद करती हूं… उसे दिल की गहराइयों से प्यार करती हूं,’’ नीरजा ने रोंआसे स्वर में उन्हें अपने दिल की बात बता दी.

‘‘पैसा सबकुछ नहीं होता, कांता. हमें इस की पसंद नापसंद का भी खयाल रखना चाहिए,’’ रमेश ने अपनी बेटी का पक्ष लिया.

‘‘तुम तो अपना मुंह बंद ही रखो जी,’’ कांता एकदम गुस्से से फट पड़ीं, ‘‘तुम्हारे साथ पिछले 30 साल से मैं अपने मन को मार कर कैसे जी रही हूं, यह मैं ही जानती हूं. कभी न मनचाहा पहना, न कहीं घूमीफिरी. बजट बना कर जीते हुए मेरी सारी जिंदगी बेकार हो गई.’’

रमेशजी ने आगे कुछ न बोलने में ही अपनी भलाई समझी. कांता ने उन से ध्यान हटाया और अपनी बेटी को गुस्से से घूरते हुए कहने लगीं, ‘‘अपने इस प्यार और पसंद के पागलपन को गोली मार और मुझे बता कि विकास के मुकाबले क्या है इस रवि के पास? 3 कमरों का फ्लैट, जिस में वह भैयाभाभी के साथ रहता है और खटारा सी पुरानी कार. अरे, रवि जितना सालभर में कमाता है, उतनी तो विकास की फैक्टरी एक महीने में उसे कमा कर देती है. तू जिंदगीभर ऐश करेगी उस के साथ.’’

नीरजा चिढ़ कर बोली, ‘‘मां, मेरी नजरों में विकास एक अहंकारी और रूखा इंसान है, जो अपनी तारीफ खुद कर के सब को बहुत बोर करता है.’’

‘‘उस काबिल लड़के में जबरदस्ती बेकार के नुक्स मत निकाल. देख, उन्हें सुंदर लड़की चाहिए और ऊपर से तेरी मौसी यह रिश्ता कराने के लिए खूब भागदौड़ कर रही है. तुझ में थोड़ी सी भी अक्ल है, तो फौरन विकास से शादी करने को हां कह दे.’’

‘‘शादी के मामले में किसी ने मेरे साथ जबरदस्ती की तो मैं आत्महत्या कर लूंगी,’’ ऐसी चेतावनी दे कर नीरजा उन के सामने से हट गई.

कुछ देर तक अपनी बेटी को कोसने के बाद कांता ने नीरजा पर दबाव बढ़ाने के लिए विकास को फौरन अगले दिन सुबह मेरठ से दिल्ली आने का हुक्म फोन कर के सुना दिया.

सफल बिजनैसमैन विकास बड़बोला इंसान था, जिसे अपनी अमीरी पर बहुत घमंड था. उसे पूरा विश्वास था कि नीरजा उस के साथ शादी करने से कभी इनकार नहीं करेगी.

‘‘नीरजा को मैं सारी दुनिया घुमाऊंगा… मेरी मां शादी में इतने जेवर चढ़ाएंगी कि देखने वालों की आंखें फटी की फटी रह जाएंगी… हनीमून मनाने के लिए मैं ने स्विट्जरलैंड जाने का मन बना रखा है…’’ हर वक्त ऐसी डींगें मार कर उस ने कांता के अलावा सब को परेशान कर रखा था.

रवि ने अगले ही दिन नीरजा से अकेले में कहा, ‘‘इस विकास के साथ शादी करने को तुम हां मत करना. वह बोर इंसान तुम्हें अपने ढंग से कभी जीने नहीं देगा.’’

‘‘मैं तो आप की हमसफर बनना चाहती हूं, पर आप हो कि हां…’’

‘‘वह बात मत शुरू करो, प्लीज. मैं तुम से शादी नहीं कर सकता,’’ रवि ने उसे फौरन टोक दिया.

‘‘आप मेरी आंखों में देखो और बताओ कि वहां आप को अपने लिए गहरा प्यार दिखाई दे रहा है या नहीं,’’ नीरजा एकदम से रवि के बहुत करीब आ गई थी.

‘‘वह सब तो ठीक है, पर…’’

‘‘मानवी के साथ आप ने सच्चा प्यार किया, पर अब वह इस दुनिया में नहीं है. उस की यादों से जुड़े रह कर मेरे सच्चे प्रेम को अपने दिल में जगह न देने का फैसला करना कहां की समझदारी है,’’ नीरजा का गला एकदम से भर आया.

‘‘मैं मजबूर हूं.’’

‘‘तो मैं भी मजबूर हूं. अगर आप ने हां नहीं की, तो मैं परसों शाम को होने वाली अपनी जन्मदिन पार्टी में विकास के साथ शादी करने को हां जरूर कह दूंगी,’’ नीरजा ने अपना फैसला सुनाने के बाद भावुक अंदाज में उस का हाथ चूमा और अपने कमरे की तरफ चली गई.

उस शाम को विकास के वापस मेरठ लौटने से पहले नीरजा ने सब के सामने उस से कहा, ‘‘मैं शादी को ले कर अपनी पक्की हां या ना आप को 2 दिन के अंदर जरूर बता दूंगी.’’

नीरजा की इस घोषणा के बाद सभी रवि की तरफ आशा भरी नजरों से देखने लगे. उस के गुस्से से डर कर कोई कुछ कह तो नहीं रहा था, पर उन सब की खामोशी भी रवि के ऊपर नीरजा से शादी के लिए हां कहने को जबरदस्त दबाव बना रही थी.

नीरजा की आशा के विपरीत रवि ने शादी को ले कर कोई बात नहीं की. वह तो अपने घर से सुबह से देर रात तक के लिए 2 दिन ऐसा गायब रहा कि उन दोनों की अगली मुलाकात उस की जन्मदिन पार्टी में ही हुई.

पार्टी में शामिल होने के लिए जैसे ही रवि ने ड्राइंगरूम में कदम रखा, तो उस से बेहद खफा नजर आ रही नीरजा ने ऊंची आवाज में सब को संबोधित किया, ‘‘अपने मातापिता की खुशी की खातिर मैं ने विकास से शादी करने का फैसला…’’

रवि ने ऊंची आवाज में टोक कर उसे अपना वाक्य पूरा नहीं करने दिया, ‘‘नीरजा, तुम उस घमंडी इंसान के साथ कभी खुश नहीं रह सकोगी.’’

‘‘तो आप क्यों परेशान हो रहे हैं,’’ गुस्सा करना भूल कर नीरजा एकदम से रोंआसी हो उठी.

कविता ने भी चुभते लहजे में अपने देवर को डांटा, ‘‘यह बिलकुल ठीक कह रही है. तुम्हारे प्रेम में पागल इस प्यारी सी… इस भोली सी…इस सुंदर सी लड़की के सुखदुख की तुम्हें कोई चिंता करने की जरूरत नहीं है. तुम तो जिंदगीभर अपनी मृत महबूबा को नाराज न करने की फिक्र ही करते रहना.’’

‘‘अब बस भी करो, भाभी. आप सब लोगों के ताने सुनसुन कर मैं इतना तंग आ गया हूं कि मैं ने…मुझे नीरजा से शादी करना मंजूर है,’’ रवि की इस घोषणा को सुन नीरजा के अलावा वहां उपस्थित हर इंसान तालियां बजा उठा.

सब की नजरों का केंद्र बन गई नीरजा ने उदास लहजे में अपने मन की बात कही, ‘‘शादी के मामले में मुझे इन की दया या एहसान नहीं चाहिए. ऐसी शादी करने का क्या फायदा कि इन के सामने मैं रहूं, पर ये मानवी के विचारों में खोए रहें?’’

‘‘पहले तुम ही शादी करने को मेरे पीछे हाथ धो कर पड़ी हुई थी, तो अब क्यों इनकार कर रही हो?’’ रवि ने उस के पास आ कर मुसकराते हुए पूछा.

‘‘मुझे लगता है कि मेरे साथ शादी करने का फैसला आप ने खुश हो कर नहीं किया है.’’

‘‘मेरे मन में क्या है, अब यह भी तुम बताओगी?’’

‘‘मुझे ही क्या, यह तो सब को पता है कि आप के दिलोदिमाग पर मानवी का कब्जा है.’’

‘‘तो तुम्हारे साथसाथ और सब भी कान खोल कर सुन लो कि मानवी ने ही मुझे तुम से शादी करने की इजाजत दी है,’’ रवि ने अपना पर्स खोल कर सब को दिखाया.

पर्स में अब तक मानवी का फोटो सभी ने लगा देखा था, पर इस वक्त वहां नीरजा की तसवीर लगी नजर आई.

एकाएक बेहद भावुक हो कर रवि नीरजा से बोला, ‘‘मानवी ने ही कल रात मुझे देर तक समझाया कि अब से तुम मेरे सुखदुख का खयाल रखोगी. कल रात के बाद से मैं आंखें बंद करता हूं, तो उस की जगह अब मुझे तुम नजर आती हो. मुझ से शादी न कर के क्या तुम मानवी को कष्ट पहुंचाना चाहोगी?’’

‘‘मैं भला ऐसा गलत काम क्यों करूंगी? हमारी शादी जरूर होगी,’’ नीरजा किसी छोटी बच्ची की तरह खुशी से तालियां बजाती उछली और फिर शरमाते हुए रवि की छाती से जा लगी. Short Story In Hindi

Love Story In Hindi: अपने प्यार की तमन्ना

Love Story In Hindi: कालेज जाने के लिए निकल ही रही थी कि अमन ने उसे चिढ़ाते हुए कहा, ‘‘क्यों बहना, इतना सजधज कर कोई कालेज थोड़ा ही जाता है…’’ सीमा इठलाते हुए मुंह बना कर, टेढ़ी सी चाल चलते हुए बाहर निकल गई और अपनी साइकिल ले कर कालेज की ओर चल पड़ी. सीमा रास्तेभर वही जवानी वाली रवायतें, हर तरफ उड़ानों की ख्वाहिशें ले कर आगे बढ़ती गई…

कब कालेज आया, उसे पता ही नहीं चला. जैसे ही उस ने कालेज के बाहर लड़केलड़कियों की बातें करने और ठहाके लगाने की आवाजें सुनीं, तब वह अपने खयालों से बाहर आई और साइकिल स्टैंड पर अपनी साइकिल रख कर वह भी अपनी सहेलियों के साथ क्लास में दाखिल हो गई. घर में छोटे भाई अमन से मस्ती वाली लड़ाइयां और कालेज में दोस्तों की मस्ती… सीमा की जिंदगी कुछ ऐसे ही बीत रही थी. अमन के साथ की चुहलबाजी में कभी सीमा गुस्से में मां से शिकायत कर देती थी, तो मां का एक ही जवाब होता था कि जब वह ससुराल जाएगी, तो इन्हीं बातों को याद कर के रोएगी.

शायद सीमा भी यह बात जानती थी. एक ही तो भाई था उस का, लाड़ला भी तो बहुत था. फिर सीमा की जिंदगी में एक मोड़ ऐसा आया, जब उस के कालेज में रोहन आया, जो स्मार्ट और होशियार भी था. वह किसी पैसे वाले का बेटा नहीं था, लेकिन शान से जीता था, ऊपर से पढ़ाई में अव्वल भी था. वह सीमा से एक साल सीनियर था. सीमा जब भी रोहन को देखती, उस के दिल की धड़कनें बढ़ जाती थीं. उसे बारबार देखने को जी चाहता था. ये सब प्यार हो जाने की निशानियां थीं और अब वह भी समझने लगी थी कि उस की चाहत दिन ब दिन बढ़ती जा रही है. और एक दिन वह हो गया, जिस की सीमा को भी चाह थी. उसे कालेज के दफ्तर में कोई फार्म भरने के लिए बुलाया गया था.

वह दफ्तर की तरफ जा ही रही थी कि सामने से रोहन मस्ती में चलता हुआ आ रहा था. सीमा का कलेजा उछल कर गले तक आ गया. कैसे उस का सामना कर पाएगी वह… कालेज के अहाते में वे आमनेसामने आए, तो दोनों ही रुक गए. रोहन ने पहली बार उसे उसी नजर से देखा, जिस नजर से वह उसे देखती थी. वह एकदम सामने आ खड़ा हुआ, इतना पास कि सीमा उस की महकीमहकी सांसों को महसूस कर रही थी. उसे मदहोशी छाने लगी और वह कुछ बोलती, उस से पहले ही रोहन ने पूछ लिया, ‘‘कहां जा रही हो?’’ सीमा की घिग्घी बंध गई. आवाज मानो गले से निकल ही नहीं रही थी. वह इधरउधर देखने लगी, फिर एकदम से बोल पड़ी, ‘‘आप कहां से हैं?’’ एक प्यारी सी मुसकान के साथ रोहन ने बताया कि वह जयपुर से आया है.

उस के पापा एक बड़ी प्राइवेट कंपनी में काम करते हैं. यह सुन कर सीमा छोटी सी मुसकान के साथ आगे बढ़ गई. यह थी उन दोनों की पहली और छोटी सी मुलाकात, जो आगे जा कर प्यार का विराट वट वृक्ष बनने वाली थी. एक दिन जब सीमा अपनी साइकिल पर जा रही थी, तो रास्ते में रोहन मिल गया और उस से कौफी पीने के लिए बोला. सीमा भी बरबस ही हां कर के उस के पीछे चल पड़ी. वैसे, वह खुद भी शायद यही चाहती थी. वे दोनों होटल में गए और एक कोने वाली टेबल पर बैठ गए. अब सीमा शर्म छोड़ कर जी भर के रोहन को देख रही थी. रोहन भी बिना पलक झपकाए उस की आंखों में खो जाना चाहता था. जब वेटर ने उन से और्डर के बारे में पूछा,

तो हड़बड़ा कर उन दोनों ने एकसाथ मैनू कार्ड पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाए और मैनू कार्ड के बदले एकदूसरे का हाथ पकड़ लिया. इस से दोनों के जिस्म में सिहरन सी दौड़ गई. वेटर भी मुसकरा कर चला गया. थोड़ी देर बाद उन दोनों ने सैंडविच के साथ चाय मंगवाने का तय कर के वेटर को बुलाया और और्डर कर दिया. थोड़ी देर बाद चाय और सैंडविच खत्म कर उन दोनों ने फिर से मिलने का वादा किया और अपनेअपने घर की तरफ चल दिए. अब तो सीमा और रोहन की लंबीलंबी मुलाकातें शुरू हो गईं. ऐसे ही 2 साल बीत गए और दोनों को लगा कि अब घर वालों को बता कर रिश्ता तय करने की बात करनी चाहिए. एक दिन सीमा और रोहन होटल में बैठे अपनी भावी जिंदगी के बारे में सपने संजो रहे थे कि अमन अपने कुछ दोस्तों के साथ वहां आया और उन दोनों को साथ देख कर वह कुछ परेशान सा हो गया, पर दोस्तों की वजह से उन्हें अनदेखा कर वह चुप रह गया. सीमा जल्दी से होटल के बाहर निकल गई, पर उस के घर की तरफ कदम नहीं उठ रहे थे.

उस ने रोहन को नहीं बताया था कि अमन उस का भाई है. वह घर तो पहुंच गई, पर किसी से कुछ कहे बगैर ही अपने कमरे में जा कर लेट गई और बाहर की आहटें लेती रही. अमन की मोटरसाइकिल की आवाज से ही सीमा डर के मारे कांप सी गई और फिर अमन और मां की फुसफुसाहट की आवाजें आने लगीं. बस इतना समझ आया कि वे लोग पापा के घर आने का इंतजार करने की बात कर रहे थे. वह सोच रही थी कि पापा को पता चलते ही वे उसे बहुत डांटेंगे और शायद पिटाई भी कर दें. इन सब के लिए वह अपनेआप को मानसिक रूप से तैयार कर रही थी. यह सब सोचतेसोचते कब सीमा की आंख लग गई, उसे पता ही नहीं चला. जब आंखें खुलीं, तो उस के पापा पानी का गिलास ले कर सामने खड़े हुए थे. सीमा एकदम से उठ बैठी. पापा ने उसे पानी दे कर हालचाल पूछा,

लेकिन रोहन के बारे में कुछ नहीं पूछा और उस की मां से चाय बनाने की बोल कर वे सीमा का हाथ पकड़ उसे भी डाइनिंग टेबल पर ले गए. सीमा हैरान थी कि क्यों रोहन की कोई बात नहीं हुई. दूसरे दिन जब वह कालेज जाने को तैयार हुई तो उस की मां ने उसे रोका और बोलीं कि वे लोग उसी शाम को घूमने के लिए किसी हिल स्टेशन पर जा रहे हैं, तो उसे भी अपना बैग तैयार कर लेना चाहिए. सीमा हैरान थी, लेकिन वापस अपने कमरे में जा कर कुछ सोचतेसोचते अपने कुछ जोड़ी कपड़े अलमारी से निकाल कर एक अटैची में तह लगा कर रखने लगी, फिर सोचा कि रोहन को तो बताना पड़ेगा कि वह कुछ दिनों के लिए मिल नहीं पाएंगे, लेकिन बताए भी तो कैसे?

शाम को सीमा के पापा थोड़ा जल्दी ही आ गए थे. जैसे ही वे गुसलखाने से बाहर आए, मां सब के लिए चाय लाईं. चाय पी कर वे सब गाड़ी में बैठ निकल पड़े. सीमा का मन कर रहा था कि वह उड़ कर रोहन के पास चली जाए, लेकिन गाड़ी तो उसे रोहन से दूर लिए जा रही थी. कुछ ही घंटों के बाद वे लोग हिल स्टेशन पहुंच गए थे और होटल ढूंढ़ कर सामान ले कर अपने कमरों में गए. सीमा के पापा और मां एक कमरे में थे और वह अपने भाई अमन के साथ अलग कमरे में रहने वाली थी. अमन भी खुश था. उसे पापा के प्लान का पता चल चुका था. शाम की चाय पीने के बाद सब पार्क में घूम कर वापस आए, तो अमन ने ताश की गड्डी निकाली और सब खेलने लगे,

पर सीमा का मन खेलने में नहीं लग रहा था. वह बस रोहन के खयाल में ही उलझी रही थी. वह कब हार गई, पता ही नहीं चला. अगले दिन सीमा की मां ने उस से कहा कि शाम को वे लोग किसी के साथ डिनर पर जाने वाले हैं और उसे ठीक से तैयार होने के लिए भी बोला. शाम को जब सीमा उन लोगों से मिली, तो सारी बातें समझ में आ गईं. वे लड़के वाले लोग थे, जो सीमा को देखने आए थे. सीमा ने सोचा कि जब वह लड़के से अकेले में मिलेगी तो सब बता देगी, पर वह मौका भी नहीं मिला. दूसरे ही दिन उन का रोका और फिर सगाई और शादी भी हो गई. पापा ने डैस्टिनेशन वैडिंग का बहाना कर शादी निबटा दी थी. सीमा के पति का नाम तरुण था. जब वह ससुराल पहुंची, तो एकदम सामान्य सा, छोटा सा घर था और वैसा ही फर्नीचर था. पहले तो उस ने सोचा कि सुहागरात से पहले रोहन के बारे में तरुण को सबकुछ बता देगी, पर बाद में सोचा कि ये सब बातें बताने के लिए बहुत देर हो चुकी है. और आहिस्ता से कब सीमा की जिंदगी उन नई राहों पर चल पड़ी, पता ही नहीं चला.

बेटी कृति का जन्म उस के हजारों जख्मों पर मरहम लगा गया. उस की एकएक मुसकान पर वारी जाने लगी सीमा और जिंदगी कुछ संवर सी रही थी. एक दिन टैलीविजन पर किसी विचारक के इंटरव्यू को सुन कर सीमा चौंक गई. वह रोहन था. सीमा को आज शादी के इतने साल बाद भी रोहन की आवाज और बातें सुनसुन कर जो दुख हुआ, वह उस के चेहरे पर दिखने लगा था. वह रोने लगी थी, पर जल्दी ही उसे याद आया कि सास भी साथ बैठी हैं, तो वह बाथरूम में गई और मुंह धोया. इस के बाद वह जा कर बिस्तर पर लेट गई और कब सो गई, पता ही नहीं चला. अगली सुबह सीमा का थकान और दर्द से बदन टूट रहा था. वह बड़ी मुश्किल से उठ कर रसोईघर की तरफ जा रही थी,

तो चक्कर खा कर गिर पड़ी और बेहोश हो गई. जब उसे होश आया, तो वह बिस्तर पर पड़ी थी और सामने डाक्टर साहब, सास और तरुण बैठे थे. सास ने सारी बातें डाक्टर साहब को बता दी थीं. वे दवाएं दे कर चले गए और बाकी घर वाले भी अपनेअपने काम में लग गए, पर सीमा मानो बिस्तर से लग कर रह गई. उस के मन में एक टीस थी बेवफाई की. धीरेधीरे उस की सेहत और ज्यादा खराब होने लगी. दिनों के बाद हफ्ते और फिर महीने बीतने लगे, लेकिन सीमा की सेहत में कोई फर्क नहीं आया. सीमा को पहले भी कई बार रोहन की याद आती भी थी, पर वह यह सोच कर अपने मन को मना लेती थी कि वह भी शादी कर के घरगृहस्थी जमा चुका होगा, लेकिन जब से उसे यह पता चला कि वह आज भी अकेला है, तो वह भी टूट सी गई. इधर घर में सब डर रहे थे कि सीमा को कोई बड़ी बीमारी ने तो नहीं पकड़ लिया है, पर डाक्टर को भी उस की इस हालत को देख हैरानी हो रही थी,

क्योंकि उसे कोई बीमारी तो थी ही नहीं. तरुण अमन से मिला और सीमा के अतीत के बारे में जानना चाहा. पहले तो अमन ने टालमटोल की, पर जब तरुण ने जोर दे कर पूछा तो उस ने रोहन का सारा किस्सा बता दिया. तरुण को रोहन का पता ढूंढ़ने में ज्यादा तकलीफ नहीं हुई, क्योंकि वह काफी मशहूर हो चुका था. जब वह रोहन के घर पहुंचा, तो गेटकीपर और रोहन के सैक्रेटरी ने मिलवाने से मना कर दिया. तब तरुण ने कहा कि वे रोहन को बताएं कि सीमा के पति उस से मिलने आए हैं, बहुत जरूरी काम है. थोड़ी देर बाद गेटकीपर तरुण को रोहन के पास ले गया. रोहन ने तरुण का स्वागत किया और आने की वजह पूछी. जब तरुण ने पूरे हालात को बयां किया, तो रोहन के चेहरे पर चिंता की रेखाएं उभर आईं, फिर उस ने सीमा से मिलने की इच्छा जाहिर की, तो तरुण ने खुशीखुशी उसे अपने घर आने का न्योता दिया और अपने आंसू छिपाता हुआ बाहर निकल गया.

अगले दिन सुबहसुबह रोहन का फोन आया और सुबह के 10 बजने से पहले ही वह तरुण के घर जा पहुंचा. सीमा आंखें बंद किए बिस्तर पर पड़ी थी, लेकिन आहट होने पर जब उस ने अपनी आंखें खोलीं तो तरुण के साथ रोहन को खड़ा देख कर पहले तो वह सकपकाई और फिर उठ कर बैठने की कोशिश करने लगी. तरुण ने उसे लेटे रहने को कहा. पास में रखी कुरसी पर रोहन बैठ गया और सीमा की तरफ देख कर सोचने लगा कि कैसी हालत बना ली है अपनी सीमा ने. तरुण चाय लाने के बहाने वहां से बाहर चला गया. रोहन और सीमा अकेले रह गए कमरे में.

रोहन से बोलते नहीं बन रहा था. गले में से शब्द नहीं निकल रहे थे. सीमा अपने आंसुओं को रोक नहीं पाई और इतने सालों का दर्द रोहन की आंखों से भी बारिश की तरह बहने लगा, लेकिन जब तरुण चाय ले कर आया, तो उन दोनों ने अपने आंसू पोंछ लिए. रोहन ने तरुण से अगले दिन फिर आने की पूछी तो उस ने दिल खोल कर इस बात का स्वागत किया. रोहन उठा और बिना चाय पिए ही वहां से चला गया. अगले दिन सुबहसुबह ही रोहन आ गया था. तरुण की नमस्ते का जवाब दे कर वह उस के साथ सीमा के कमरे की तरफ चल पड़ा. सीमा की दुबली देह पलंग में पड़ी थी,

पर उस के चेहरे पर पहले जैसे दर्द की जगह अब शांति थी. तरुण ने सीमा के हाथ को छू कर उठाया, तो धीरे से आंखें खोल कर उस ने पहले तरुण को और फिर उस के पीछे खड़े रोहन को देखा. उस के चेहरे पर एक हलकी सी मुसकान आई, फिर धीरे से आंखें बंद हुईं और चेहरा दाईं तरफ लुढ़क गया. तरुण और रोहन दोनों अवाक से सीमा की देह से चेतना को खत्म होती देखते रहे, जो सभी दुखों से, रिश्तों से कहीं दूर चली गई थी. अपनी बेवफाई के लिए अपनी जान का बलिदान कर अनंत यात्रा पर निकल गई थी सीमा. Love Story In Hindi

Family Story In Hindi: मेरे बेटे की गर्लफ्रैंड

Family Story In Hindi: बेटे राहुल के स्वभाव में मुझे कुछ बदलाव साफ दिखाई दे रहे थे, ये बदलाव तो प्राकृतिक थे इसलिए इस में कुछ हैरानी की बात नहीं थी और जब राहुल के 14वें जन्मदिन पर मैं ने घर पर उस के दोस्तों के लिए पार्टी रखी तो उस के ग्रुप में पहली बार 2-3 लड़कियां आईं. विजय मेरे कान में फुसफुसाए, ‘अरे वाह, बधाई हो, तुम्हारा लड़का जवान हो गया है.’ मैं ने उन्हें घूरा फिर मुसकरा दी. मुझे उन लड़कियों को देख कर अच्छा लगा. छोटी सी बच्चियां कोने में बैठ गईं, मैं ने उन्हें दिल से अटैंड किया. लड़के- लड़कियां आजकल साथ पढ़ते हैं, साथ खेलते हैं, मैं उन की दोस्ती को बुरा भी नहीं मानती.

उन तीनों में से 1 लड़की स्वाति कुछ ज्यादा ही संकोच में बैठी थी. बाकी 2 मुझे देख कर मुसकराती रहीं, दोचार बातें भी कीं, लेकिन स्वाति ने मुझ से नजरें भी नहीं मिलाईं तो मुझे बहुत अजीब सा लगा. मैं ने अपनी 17 वर्षीया बेटी स्नेहा से कहा भी, ‘‘यह लड़की इतना शरमा क्यों रही है?’’

स्नेहा बोली, ‘‘अरे मम्मी, छोड़ो भी, इतने बच्चों में 1 लड़की के व्यवहार पर इतना क्यों सोच रही हैं?’’ मेरी तसल्ली नहीं हुई. मैं ने विजय से कहा, ‘‘वह लड़की तो कुछ भी नहीं खा रही है, बहुत संकोच कर रही है, सब बच्चों को देखो, कितनी मस्ती कर रहे हैं.’’

विजय ने कहा, ‘‘हां, कुछ ज्यादा ही चुप है. खैर, छोड़ो, बाकी बच्चे तो मस्त हैं न.’’

राहुल ने केक काटा तो हमें खिलाने के बाद उस की नजरें सीधे स्वाति पर गईं तो मैं ने राहुल की मुसकराहट में एक पल के लिए कुछ नई सी बात नोट की, मां हूं उस की लेकिन किसी से कुछ कहने की बात नहीं थी. खैर, कुछ गेम्स फिर डिनर के बाद बच्चे खुशीखुशी अपने घर चले गए. मैं ने बाद में राहुल से पूछा, ‘‘सिया और रश्मि तो सब से अच्छी तरह बात कर रही थीं, यह स्वाति क्यों इतना शरमा रही थी?’’

राहुल मुसकराया, ‘‘हां, उसे शरम आ रही थी.’’

‘‘क्यों? शरमाने की क्या बात थी?’’

‘‘अरे मम्मी, हमारे सब दोस्त हम दोनों का साथ नाम ले कर खूब चिढ़ाते हैं न.’’

मैं चौंकी, ‘‘क्या? क्यों चिढ़ाते हैं?’’

‘‘अरे, आप को भी न हर बात समझा कर बतानी पड़ती है मम्मी. सब दोस्त एकदूसरे को किसी न किसी लड़की का नाम ले कर छेड़ते हैं.’’ मैं अपने युवा होते बेटे के समझाने के इतने स्पष्ट ढंग पर कुछ हैरान सी हुई, फिर मैं ने कहा, ‘‘यह कोई उम्र है इन मजाकों की, पढ़नेलिखने, खेलने की उम्र है.’’

‘‘लीव इट, मम्मी, आप हर बात को इतना सीरियसली क्यों लेती हैं…सभी ऐसी बातें करते हैं.’’

फिर मैं ने आने वाले दिनों में नोट किया कि राहुल का फोन पर बात करना बढ़ गया है. कई बार मैं उठाती तो फोन काट दिया जाता था, फिर राहुल के उठाने पर बात होती रहती थी. मेरे पूछने पर राहुल साफ बताता कि स्वाति का फोन है. मैं कहती, ‘‘इतनी क्या बात करनी होती है तुम दोनों को.’’

राहुल नाराज हो जाता, ‘‘मेरी फ्रैंड है, क्या मैं उस से बात नहीं कर सकता?’’ धीरेधीरे यह सब बढ़ता ही जा रहा था.

स्वाति हमारी ही सोसायटी में रहती थी. उस के मम्मीपापा दोनों नौकरीपेशा थे. मैं उन से कभी नहीं मिली थी. राहुल और स्वाति एक ही स्कूल में थे, एक ही बस में जाते थे. दोनों के शौक भी एक जैसे थे. राहुल अपने स्कूल की फुटबाल टीम का बहुत अच्छा प्लेयर था और स्वाति उस के हर मैच में उस का साहस बढ़ाने के लिए उपस्थित रहती. मैं विजय से कहती, ‘‘कुछ ज्यादा ही हो रहा है दोनों का.’’ विजय कहते, ‘‘तुम यह सब नहीं रोक पाओगी. अब तो उस की ऐसी उम्र भी नहीं है कि ज्यादा डांटडपट की जाए.’’

अब तक हमेशा 90 प्रतिशत से ऊपर अंक लाने वाला मेरा बेटा कहीं पढ़ाई में न पिछड़ जाए, इस बात की मुझे ज्यादा चिंता रहती. मैं रातदिन अब राहुल की हरकतों पर नजर रखती और महसूस करती कि मैं किसी भी तरह राहुल और स्वाति को एकदूसरे से मिलने से रोक ही नहीं सकती, सारा दिन तो साथ रहते थे दोनों. कुछ और समय बीता. राहुल और स्वाति दोनों ने 10वीं की बोर्ड की परीक्षाओं में 85 प्रतिशत अंक प्राप्त किए तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा.

विजय कहते, ‘‘देखा? इतने दिन तुम अपना खून जलाती रहीं, पढ़ाई तो दोनों ने अच्छी की.’’

मैं कुछ कह नहीं पाई. राहुल को हम ने गिफ्ट में एक मोबाइल फोन ले दिया तो वह बहुत खुश हुआ, कई दिनों से कह रहा था कि उसे फोन चाहिए. फिर मैं ने ही धीरेधीरे अपने मन को समझा लिया कि स्वाति राहुल की गर्लफ्रैंड है और मैं उसे कुछ नहीं कह सकती. सांवली सी, पतलीदुबली स्वाति महाराष्ट्रियन थी, हम उत्तर भारतीय कायस्थ. वह मुझ से अब भी कतराती थी. एक ही सोसायटी थी, कई बार सामना होता तो वह नजरें चुरा लेती. मुझे गुस्सा आता. राहुल से कहती, ‘‘और भी तो लड़कियां हैं, सब हायहलो करती हैं और इस लड़की को इतनी भी तमीज नहीं कि कभी विश कर दे.’’

राहुल तुरंत उस की साइड लेता, ‘‘वह आप से डरती है, मम्मी.’’

‘‘क्यों? क्या मैं उसे कुछ कहती हूं?’’

‘‘नहीं, मैं ने उसे बताया है कि आप को उस की और मेरी दोस्ती के बारे में पता है और आप को यह सब बिलकुल पसंद नहीं है.’’

मैं कहती, ‘‘दोस्ती को मैं थोड़े ही बुरा समझती हूं लेकिन हद से बाहर कुछ दिखता है तो गुस्सा तो आता ही है. सब खबर है मुझे.’’

राहुल पैर पटकता चला जाता. कुछ समय और बीता, दोनों की 12वीं भी हो गई. इस बार राहुल के 91 प्रतिशत और स्वाति के 93 प्रतिशत अंक आए. हम सब बहुत खुश थे. अब राहुल ने कौमर्स ली, स्वाति ने साइंस. अब तो कई मेरी करीबी सहेलियां सोसायटी के गार्डन में सैर करते हुए स्वाति को आतेजाते देख कर मुझे कोहनी मारतीं, ‘‘देख, तेरे बेटे की गर्लफैं्रड जा रही है.’’ मैं ऊपर से मुसकरा देती और दिल ही दिल में सोचती, इस का मतलब अच्छे- खासे मशहूर हैं दोनों. मुझे अच्छी तरह पता चल गया था कि दोनों एकदूसरे को बहुत सीरियसली लेते हैं. अब मैं ही विजय से कहती, ‘‘बचपन से ये दोनों साथ हैं, मुझे तो लगता है अपने पैरों पर खड़ा होने पर ये विवाह भी करेंगे.’’

विजय मेरी इतनी गंभीरता से कही गई बात को हलकेफुलके ढंग से लेते और हंस कर कहते, ‘‘वाह, क्या हमारे घर में महाराष्ट्रियन बहू आ रही है? क्या बुराई है?’’ अब तो मैं भी मानसिक रूप से उसे बहू के रूप में देखने के लिए तैयार हो गई थी. मन ही मन कई बातें उस के बारे में सोचती रहती. स्नेहा कभी अपनी टिप्पणी देती, कभी चुपचाप हमारी बात सुनती. वह भी हमें राहुल और स्वाति की कई बातें बताती रहती.

वक्त अपनी रफ्तार से चल रहा था. राहुल का यहीं मुंबई में ऐडमिशन हुआ, स्वाति का कोटा में. मैं सोचती अब तो बस फोन ही माध्यम होगा इन की बातचीत का. स्वाति कोटा चली गई. राहुल कई दिन चुप व गंभीर सा रहा. फोन पर बात कर रहा होता तो मैं समझ जाती उधर कौन है. वह कई बार फोन पर दोस्तों से बात करता लेकिन जब वह स्वाति से बात करता तो उस के बिना बताए मैं उस के चेहरे के भावों से समझ जाती कि उधर स्वाति है फोन पर.

अब राहुल बीकौम के साथसाथ सीए भी कर रहा था. मैं ने आश्चर्यजनक रूप से एक बड़ा परिवर्तन महसूस किया. अब किसी अवनि के फोन आने लगे थे. राहुल की बातों से पता चला कि उस की क्लासफैलो अवनि उस की खास दोस्त है. 1-2 बार वह उसे किसी प्रोजैक्ट की तैयारी के लिए 2-3 दोस्तों के साथ घर भी लाया. उन की दोस्ती साधारण दोस्ती से हट कर लगी. अवनि ने मुझ से पूरे कौन्फिडैंस से बात की, किचन में मेरा हाथ बंटाने भी आ गई. वह साउथइंडियन थी, स्मार्ट थी. जब तक घर में रही, राहुलराहुल करती रही. मैं चुपचाप उस की भावभंगिमाओं का निरीक्षण करती रही और इस नतीजे पर पहुंची कि जो संबंध अब तक राहुल का स्वाति से था, वही आज अवनि से है.

मुझे मन ही मन राहुल पर गुस्सा आने लगा कि यह क्या तमाशा है, कभी किसी लड़की से इतनी दोस्ती तो कभी किसी और से. वह अवनि के साथ फोन पर गप्पें मारता रहता. मैं ने 1-2 बार पूछ ही लिया, ‘‘स्वाति कैसी है?’’‘‘ठीक है, क्यों?’’‘‘उस से बात तो होती रहती होगी?’’‘‘हां, कभी फ्री होता हूं तो बात हो जाती है, वह भी बिजी है, मैं भी.’’मैं ने मन ही मन सोचा, ‘हां, मुझे पता है तुम कहां बिजी हो.’मैं ने इतना ही कहा, ‘‘तुम्हारी तो वह अच्छी फ्रैंड है न, उस के लिए तो टाइम मिल ही जाता होगा.’’

वह झुंझला गया, ‘‘तो क्या उस से रोज बात करता रहूं? और रोजरोज कोई क्या बात करे.’’मैं हैरान उस का मुंह देखती रह गई और वह पैर पटकता वहां से चला गया.अब राहुल पर मुझे हर समय गुस्सा आता रहता. अवनि कभी भी उस के दोस्तों के साथ आ जाती, लंच करती, हम सब से खूब बातें करती. रात को बैडरूम में विजय को देखते ही मेरे मन का गुबार निकलना शुरू हो जाता, ‘‘हुंह, पुरुष है न, किसी लड़की की भावनाओं से खेलना अपना हक समझता है, बचपन से जिस के साथ घूम रहा है, जिस के साथ सोसायटी में अच्छेखासे चर्चे हैं, अब इतने आराम से उसे भूल कर किसी और लड़की से दोस्ती कर ली है, आवारा कहीं का.’’

विजय कहते, ‘‘प्रीति, तुम क्यों बच्चों की बातों में अपना दिमाग खराब करती रहती हो. यह उम्र ही ऐसी है, ज्यादा ध्यान मत दिया करो.’’मैं चिढ़ जाती, ‘‘हां, आप तो उसी की साइड लेंगे, खुद भी तो एक पुरुष हो न.’’‘‘अरे, हम तो हमेशा से आप के गुलाम हैं, कभी शिकायत का मौका दिया है,’’ विजय नाटकीय स्वर में कहते तो भी मैं चुप रहती.

मेरा ध्यान स्वाति में रहता. मैं उसी के बारे में सोचती. कोई भी काम करते हुए मुझे उस का ध्यान आ जाता कि बेचारी को राहुल का व्यवहार कितना खलता होगा, उसे राहुल का बचपन का साथ याद आता होगा.

काफी समय बीतता चला गया. स्नेहा एमबीए कर रही थी, राहुल का भी सीए पूरा होने वाला था. यह पूरा समय मुझे स्वाति का ध्यान आता रहा था. राहुल के किसी फोन से मुझे अब यह न लगता कि वह स्वाति के संपर्क में भी है. अवनि से उस की घनिष्ठता बढ़ गई थी. एक दिन मुझे शौपिंग के लिए जाना था, विजय ने कहा, ‘‘तुम शाम को 6 बजे कैफे कौफी डे पहुंच जाना, वहीं कुछ खापी कर शौपिंग करने चलेंगे.’’

मैं वहां पहुंची, एक कार्नर में बैठ गई. विजय को फोन कर के पूछा कि कितनी देर में आ रहे हो. उन्होंने कहा, ‘‘तुम और्डर दे दो, मैं भी पहुंच ही रहा हूं.’’

मैं ने और्डर दे कर यों ही नजरें इधरउधर दौड़ाईं तो मैं चौंक पड़ी, स्वाति एक टेबल पर एक लड़के के साथ बैठी थी और दोनों चहकते हुए आसपास के माहौल से बेखबर अपनी बातों में व्यस्त थे. मैं गौर से स्वाति को देखती रही, वह काफी खुश लग रही थी. मेरी नजरें स्वाति से हट नहीं रही थीं, शायद उसे भी किसी की घूरती निगाहों का एहसास हुआ हो, उस ने इधरउधर देखा, चौंक कर उस लड़के को कुछ कहा, फिर उठ कर आई, मेरी टेबल के पास खड़ी हुई, मुझे नमस्ते की. मैं ने उसे बैठने का इशारा करते हुए उस के हालचाल पूछे.

वह बैठी तो नहीं लेकिन आज पहली बार वह मुझ से बात कर रही थी. मैं ने उस की पढ़ाई के बारे में पूछा. उस से बात करतेकरते मेरी नजर उस के पीछे आ कर खड़े हुए लड़के पर पड़ी. स्वाति ने उस से परिचय करवाया, ‘‘आंटी, यह आकाश है, कोटा में मेरे कालेज में ही है. यहीं मुंबई में ही रहता है.’’ मैं ने दोनों से कुछ हलकीफुलकी बात की, फिर वे दोनों ‘बाय आंटी’ कह कर चले गए.

मैं स्वाति को हंसतेमुसकराते जाते देखती रही. मैं सोच रही थी, यह लड़की कभी नहीं जान पाएगी कि यह कितने दिनों से मेरे दिमाग पर छाई थी. मैं ने मन ही मन पता नहीं क्या रिश्ता बना लिया था इस से, पता नहीं इस की कितनी भावनाओं से मेरा मन जुड़ गया था, लेकिन आज मैं स्वाति को खुश देख कर बेहद खुश थी. Family Story In Hindi

Story In Hindi: कभी अपने लिए

Story In Hindi: विमान ने उड़ान भरी तो मैं ने खिड़की से बाहर देखा. मुंबई की इमारतें छोटी होती गईं, बाद में इतनी छोटी कि माचिस की डब्बियां सी लगने लगीं. प्लेन में बैठ कर बाहर देखना मुझे हमेशा बहुत अच्छा लगता है. बस, बादल ही बादल, उन्हें देख कर ऐसा लगता है कि रुई के गोले चारों तरफ बिखरे पड़े हों. कई बार मन होता है कि हाथ बढ़ा कर उन्हें छू लूं.

मुझे बचपन से ही आसमान का हलका नीला रंग और कहींकहीं बादलों के सफेद तैरते टुकड़े बहुत अच्छे लगते हैं. आज भी इस तरह के दृश्य देखती हूं तो सोचती हूं कि काश, इस नीले आसमान की तरह मिलावट और बनावट से दूर इनसानों के दिल भी होते तो आपस में दुश्मनी मिट जाती और सब खुश रहते.

दिल्ली पहुंचने में 2 घंटे का समय लगना था. बाहर देखतेदेखते मन विमान से भी तेज गति से दौड़ पड़ा, एअरपोर्ट से बाहर निकलूंगी तो अभिराम भैया लेने आए हुए होंगे, वहां से हम दोनों संपदा दीदी को पानीपत से लेंगे और फिर शाम तक हम तीनों भाईबहन मां के पास मुजफ्फरनगर पहुंच जाएंगे.

हम तीनों 10 साल के बाद एकसाथ मां के पास पहुंचेंगे. वैसे हम अलगअलग तो पता नहीं कितनी बार मां के पास चक्कर काट लेते हैं. अभिराम भैया दिल्ली में हृदयरोग विशेषज्ञ हैं. संपदा दीदी पानीपत में गर्ल्स कालेज की पिं्रसिपल हैं और मैं मुंबई में हाउसवाइफ हूं. 10 साल से मुंबई में रहने के बावजूद यहां के भागदौड़ भरे जीवन से अपने को दूर ही रखती हूं. बस, पढ़नालिखना मेरा शौक है और मैं अपना समय रोजमर्रा के कामों को करने के बाद अपने शौक को पूरा करने में बिताती हूं. शशांक मेरे पति हैं. मेरे दोनों बच्चे स्नेहा और यश मुंबई के जीवन में पूरी तरह रम गए हैं. मां के पास तीनों के पहुंचने का यह प्रोग्राम मैं ने ही बनाया है. कुछ दिनों से मन नहीं लग रहा था. लग रहा था कि रुटीन में कुछ बदलाव की जरूरत है.

स्नेहा और यश जल्दी कहीं जाना नहीं चाहते, वे कहीं भी चले जाते हैं तो दोनों के चेहरों से बोरियत टपकती रहती है, शशांक सेल्स मैनेजर हैं, अकसर टूर पर रहते हैं. एक दिन अचानक मन में आया कि मां के पास जाऊं और शांति से कम से कम एक सप्ताह रह कर आऊं. शशांक या बच्चों के साथ कभी जाती हूं तो जी भर कर मां के साथ समय नहीं बिता पाती, इन्हीं तीनों की जरूरतों का ध्यान रखती रह जाती हूं, इस बार सोचा अकेली जाती हूं. मां वहां अकेली रहती हैं, हमारे पापा का सालों पहले देहांत हो चुका है. मां टीचर रही हैं. अभी रिटायर हुई हैं.

हम तीनों भाईबहनों ने उन्हें साथ रहने के लिए कई बार कहा है लेकिन वे अपना घर छोड़ना नहीं चाहतीं, उन्हें वहीं अच्छा लगता है. सुबहशाम काम के लिए राधाबाई आती है. सालों से वैसे भी मां ने अपने अकेलेपन का रोना कभी नहीं रोया, वे हमेशा खुश रहती हैं, किसी न किसी काम में खुद को व्यस्त रखती हैं.

हां, तो मैं ने ही दीदी और भैया के साथ यह कार्यक्रम बनाया है कि हम तीनों अपनेअपने परिवार के बिना एक सप्ताह मां के साथ रहेंगे. अपनी हर व्यस्तता, हर जिम्मेदारी से स्वयं को दूर रख कर. कभी अपने लिए, अपने मन की खुशी के लिए भी तो कुछ सोच कर देखें, बस कुछ दिन.

अभिराम भैया को अपने मरीजों से समय नहीं मिलता, दीदी कालेज की गतिविधियों में व्यस्त रह कर कभी अपने स्वास्थ्य की भी चिंता नहीं करतीं, मेरा एक अलग निश्चित रुटीन है लेकिन मेरे प्रस्ताव पर दोनों सहर्ष तैयार हो गए, शायद हम तीनों ही कुछ बदलाव चाह रहे थे. शशांक तो मेरा कार्यक्रम सुनते ही हंस पड़े, बोले, ‘हम लोगों से इतनी परेशान हो क्या, सुखदा?’

मैं ने भी छेड़ा था, ‘हां, तुम लोगों को भी तो कुछ चेंज चाहिए, मैं जा रही हूं, मेरा भी चेंज हो जाएगा और तुम लोगों का भी, बोर हो गई हूं एक ही रुटीन से,’ शशांक ने हमेशा की तरह मेरी इच्छा का मान रखा और मैं आज जा रही हूं.

एअरहोस्टैस की आवाज से मेरी तंद्रा भंग हुई, मैं काफी देर से अपने विचारों में गुम थी. दिल्ली पहुंच कर जैसे ही एअरपोर्ट से बाहर आई, अभिराम भैया खड़े थे, उन्होंने हाथ हिलाया तो मैं तेजी से बढ़ कर उन के पास पहुंच गई, उन्होंने हमेशा की तरह मेरा सिर थपथपाया, बैग मेरे हाथ से लिया. बोले, ‘‘कैसी हो सुखदा, मान गए तुम्हें, यह योजना तुम ही बना सकती थीं, मैं तो अभी से एक हफ्ते की छुट्टी के लिए ऐक्साइटेड हो रहा हूं, पहले घर चलते हैं, तुम्हारी भाभी इंतजार कर रही हैं.’’

रास्ते भर हम आने वाले सप्ताह की प्लानिंग करते रहे. भैया के घर पहुंच कर स्वाति भाभी के हाथ का बना स्वादिष्ठ खाना खाया. अपने भतीजे राहुल के लिए लाए उपहार मैं ने उसे दिए तो वह चहक उठा. भैया बोले, ‘‘सुखदा, थोड़ा आराम कर लो.’’

मैं ने कहा, ‘‘बैठीबैठी ही आई हूं, एकदम फ्रैश हूं, कब निकलना है?’’

भाभी ने कहा, ‘‘1-2 दिन मेरे पास रुको.’’

‘‘नहीं भाभी, आज जाने दो, अगली बार रुकूंगी, पक्का’’

‘‘हां भई, मैं कुछ नहीं बोलूंगी बहनभाई के बीच में,’’ फिर हंस कर कहा, ‘‘वैसे कुछ अलग तरह का ही प्रोग्राम बना है इस बार, चलो, जाओ तुम लोग, मां को सरप्राइज दो.’’

मैं ने भाभी से विदा ले कर अपना बैग उठाया, भैया ने अपना सामान तैयार कर रखा था. हम भैया की गाड़ी से ही पानीपत बढ़ चले. वहां संपदा दीदी हमारा इंतजार कर रही थीं. ढाई घंटे में दीदी के पास पहुंच गए, वहां चायनाश्ता किया, जीजाजी हमारे प्रोग्राम पर हंसते रहे, अपनी टिप्पणियां दे कर हंसाते रहे, बोले, ‘‘हां, भई, ले जाओ अपनी दीदी को, इस बहाने थोड़ा आराम मिल जाएगा इसे,’’ फिर धीरे से बोले, ‘‘हमें भी.’’ सब ठहाका लगा कर हंस पड़े. दीदी की बेटियों के लिए लाए उपहार उन्हें दे कर हम मां के पास जाने के लिए निकल पड़े. पानीपत से मुजफ्फरनगर तक का समय कब कट गया, पता ही नहीं चला.

मुजफ्फरनगर में गांधी कालोनी में  जब कार मुड़ी तो हमें दूर से ही  अपना घर दिखाई दिया, तो भैया बच्चों की तरह बोले, ‘‘बहुत मजा आएगा, मां के लिए यह बहुत बड़ा सरप्राइज होगा.’’

हम ने धीरे से घर का दरवाजा खोला. बाहरी दरवाजा खोलते ही गेंदे के फूलों की खुशबू हमारे तनमन को महका गई. दरवाजे के एक तरफ अनगिनत गमले लाइन से रखे थे और मां अपने बगीचे की एक क्यारी में झुकी कुछ कर रही थीं. हमारी आहट से मुड़ कर खड़ी हुईं तो खड़ी की खड़ी रह गईं, इतना ही बोल पाईं, ‘‘तुम तीनों एकसाथ?’’

हम तीनों ही मां के गले लग गए और मां ने अपने मिट्टी वाले हाथ झाड़ कर हमें अपनी बांहों में भरा तो पल भर के लिए सब की आंखें भर आईं, फिर हम चारों अंदर गए, दीदी ने कहा, ‘‘यह कार्यक्रम सुखदा ने मुंबई में बनाया और हम आप के साथ पूरा एक हफ्ता रहेंगे.’’

मां की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था, हमारे सुंदर से खुलेखुले घर में मां अकेली ही तो रहती हैं. हां, एक हिस्सा उन के किराएदार के पास है. मां के मना करने पर भी हम दोनों मां के साथ किचन में लग गईं और भैया थोड़ी देर सो गए. इतनी देर गाड़ी चलाने से उन्हें कुछ थकान तो थी ही. फिर हम चारों ने डिनर किया, अपनेअपने घर सब के हालचाल लिए. सोने को हुए तो बिजली चली गई, मां को फिक्र हुई, बोलीं, ‘‘तुम तीनों को दिक्कत होगी अब, इनवर्टर भी खराब है, तुम लोगों को तो ए.सी.  की आदत है. मैं तो छत पर भी सो जाती हूं.’’

संपदा  दीदी ने कहा, ‘‘मां, मुझ से छत पर नहीं सोया जाएगा.’’

भैया बोले, ‘‘फिक्र क्यों करती हो दीदी, चल कर देखते हैं.’’ और हम चारों अपनीअपनी चटाई ले कर छत पर चले गए. हम छत पर क्या गए, तनमन खुशी से झूम उठा. क्या मनमोहक दृश्य था, फूलों की मादक खुशबू छाई हुई थी, संदली हवाओं के बीच धवल चांदनी छिटकी हुई थी. हम सब खुले आसमान के नीचे चटाई बिछा कर लेट गए, फ्लैटों में तो कभी छत के दर्शन ही नहीं हुए थे. खुले आकाश के आंचल में तारों का झिलमिल कर टिमटिमाना बड़ा ही सुखद एहसास था. बचपन में मां ने कई बार बताया था, ठीक 4 बजे भोर का तारा निकल आता है.

‘‘प्रकृति में कितना रहस्य व आनंद है लेकिन आज का मनुष्य तो बस, मशीन बन कर रह गया है. अच्छा किया तुम लोग आ गए, रोज की दौड़भाग से तुम लोगों को कुछ आराम मिल जाएगा,’’ मां ने कहा.

प्राकृतिक सुंदरता को देखतेदेखते हम कब सो गए, पता ही नहीं चला जबकि ए.सी. में भी इतना आनंद नहीं था. सब ने सुबह बहुत ही तरोताजा महसूस किया. जैसे हम में नई चेतना, नए प्राण आ गए थे. गमले के पौधों की खुशबू से पूरा वातावरण महक रहा था. रजनीगंधा व बेले की खुशबू ने तनमन दोनों को सम्मोहित कर लिया था. हम नीचे आए, मां नाश्ता तैयार कर चुकी थीं. भैया अपनी पसंद के आलू के परांठे देख कर खुश हो गए. उत्साह से कहा, ‘‘आज तो खा ही लेता हूं, बहुत हो गया दूध और कौर्नफ्लेक्स का नाश्ता.’’

मैं ने कहा, ‘‘मां, मुझे तो कुछ हलका ही दे दो, मुझे सुबह कुछ हलका ही लेने की आदत है.’’

दीदी भी बोलीं, ‘‘हां, मां, एक ब्रैडपीस ही दे दो.’’

अभिराम भैया ने टोका, ‘‘यह पहले ही तय हो गया था कि कोई खानेपीने के नखरे नहीं करेगा, जो बनेगा सब एकसाथ खाएंगे.’’

मां हंस पड़ीं, ‘‘क्या यह भी तय कर के आए हो?’’

दीदी बोलीं, ‘‘हां, मां, सुखदा ने ही कहा था, दीदी आप अपना माइग्रेन भूल जाना और मैं कमरदर्द तो मैं ने इस से कहा था, तू भी फिगर और ऐक्सरसाइज की चिंता मुंबई में ही छोड़ कर आना.’’

मैं ने कहा, ‘‘ठीक है, चलो, चारों नाश्ता करते हैं.’’

हम ने डट कर नाश्ता किया और फिर मां के साथ किचन समेट कर खूब बातें कीं.

राधाबाई आई तो हम तीनों बाजार घूमने चले गए. दिल्ली, मुंबई के मौल्स में घूमना अलग बात है और यहां दुकानदुकान जा कर खरीदारी करना अलग बात है. हम तीनों ने अपनेअपने परिवार के लिए कुछ न कुछ खरीदा, फोन पर सब के हालचाल लिए और फिर अपनी मनपसंद जगह ‘गोल मार्किट’ चाट खाने पहुंच गए. हमारा डाक्टर भाई जिस तरह से हमारे साथ चाट खा रहा था, कोई देखता तो उसे यकीन ही नहीं होता कि वह अपने शहर का प्रसिद्ध हृदयरोग विशेषज्ञ है. ढीली सी ट्राउजर पर एक टीशर्ट पहने दीदी को देख कर कौन कह सकता है कि वे एक सख्त पिं्रसिपल हैं, मैं ये पल अपने में संजो लेना चाहती थी, दीदी ने मुझे कहीं खोए हुए देख कर पूछा भी, ‘‘चाट खातेखाते हमारी लेखिका बहन कोई कहानी ढूंढ़ रही है क्या?’’ मैं हंस पड़ी.

हम तीनों ने मां के लिए साडि़यां खरीदीं और खाने का काफी सामान पैक करवा कर घर आए. बस, अब हम तीनों मां के साथ बातें करते, चारों कभी घूमतेफिरते ‘शुक्रताल’ पहुंच जाते कभी बाजार. भैया ने अपने मरीजों से, दीदी ने कालेज से और मैं ने अपने गृहकार्यों से जो समय निकाल लिया था, उसे हम जी भर कर जी रहे थे. शाम होते ही हम अपनी चटाइयां ले कर छत पर पहुंच जाते, इनवर्टर ठीक हो चुका था लेकिन छत पर सोने का सुख हम खोना नहीं चाहते थे. अपनी मां के साथ हम तीनों छत पर साथ बैठ कर समय बिताते तो हमें लगता हम किसी और ही दुनिया में पहुंच गए हैं.

मैं सोचती महानगर में सोचने का वक्त भी कहां मिलता है, अपनी भावनाओं को टटोलने की फुरसत भी कहां मिलती है. शाम की लालिमा को निहार कर कल्पनाओं में डूबने का समय कहां मिलता है, सुबह सूरज की रोशनी से आंखें चार करने का पल तो कैद हो जाता है कंकरीट की दीवारों में.

दीदी अपना माइग्रेन और मैं अपना कमरदर्द भूल चुकी थी. आंगन में लगे अमरूद के पेड़ से जब भैया अमरूद तोड़ कर खाते तो दृश्य बड़ा ही मजेदार होता.

छठी रात थी. कल जाना था, छत पर गए तो लेटेलेटे सब चुप से थे, मेरा दिल भी भर आया था, ये दिन बहुत अच्छे बीते थे, बहुत सुकून भरे और निश्चिंत से दिन थे, ऐसा लगता रहा था कि फिर से बचपन में लौट गए थे, वही बेफिक्री के दिन. सच ही है किसी का बचपन उम्र बढ़ने के साथ भले ही बीत जाए लेकिन वह उस के सीने में सदैव सांस लेता रहता है. यह संसार, प्रकृति तो नहीं बदलती, धूपछांव, चांदतारे, पेड़पौधे जैसे के तैसे अपनी जगह खड़े रहते हैं और अपनी गति से चलते रहते हैं. वह तो हमारी ही उम्र कुछ इस तरह बढ़ जाती है कि बचपन की उमंग फिर जीवन में दिखाई नहीं देती.

मां ने मुझे उदास और चुप देखा तो मेरे लेखन और मेरी प्रकाशित कहानियों की बातें छेड़ दीं क्योेंकि मां जानती हैं यही एक ऐसा विषय है जो मुझे हर स्थिति में उत्साहित कर देता है. मुझे मन ही मन हंसी आई, बच्चे कितने भी बड़े हो जाएं, मां हमेशा अपने बच्चों के दिल की बात समझ जाती है. मां ने मेरी रचनाओं की बात छेड़ी तो सब उठ कर बैठ गए. मां, दीदी, भैया वे सब पत्रिकाएं जिन में मेरी रचनाएं छपती रहती हैं जरूर पढ़ते हैं और पढ़ते ही सब मुझे फोन करते हैं और कभीकभी तो किसी कहानी के किसी पात्र को पढ़ते ही समझ जाते हैं कि वह मैं ने वास्तविक जीवन के किस व्यक्ति से लिया है. फिर सब मुझे खूब छेड़ते हैं. कुछ हंसीमजाक हुआ तो फिर सब का मन हलका हो गया.

जाने का समय आ गया, दिल्ली से ही फ्लाइट थी. मां ने पता नहीं क्याक्या, कितनी चीजें हम तीनों के साथ बांध दी थीं. हम तीनों की पसंद के कपड़े तो पहले ही दिलवा लाईं. अश्रुपूर्ण नेत्रों से मां से विदा ले कर हम तीनों पानीपत निकल गए, रास्ते में ही अगले साल इसी तरह मिलने का कार्यक्रम बनाया, यह भी तय किया परिवार के साथ आएंगे, यदि बच्चे आ पाए तो अच्छा होगा, हमें भी तो अपने बच्चों का प्रकृति से परिचय करवाना था, हमें लगा कहीं महानगरों में पलेबढ़े हमारे बच्चे प्रकृति के उस रहस्य व आनंद से वंचित न रह जाएं जो मां की बगिया में बिखरा पड़ा था और अगर बच्चे आना नहीं चाहेंगे तो हम तीनों तो जरूर आएंगे, पूरे साल से बस एक हफ्ता तो हम कभी अपने लिए निकाल ही सकते हैं, मां के साथ बचपन को जीते हुए, प्रकृति की छांव में. Story In Hindi

Hindi Story: मलिका – रिद्धिमा के पापा क्यों जल्दी शादी करना चाहते थें

Hindi Story: यह-कहानी शुरू होती है एक साधारण सी लड़की से, जिसे शायद कुदरत रंगरूप देना भूल गई थी, या फिर यों कहिए कि कुदरत ने उस साधारण लड़की में कुछ असाधारण गुण जड़ दिए थे जो वक्त के साथ उभरते और निखरते रहे. 3 बहनों में दूसरे नंबर की सांवली का नाम शायद उस के मातापिता ने उस के रंग के कारण ही रखा था. एक तो सांवली ऊपर से दांत भी बाहर निकले हुए, एक नजर में कुरूपता की निशानी. बड़ी और छोटी बहनें गजब की खूबसूरत थीं. दोनों बहनों में जैसे एक बदनुमा दाग की तरह दिखने वाली, मातपिता की सहानुभूति, रिश्तेदारों, परिचितों से मिली उपेक्षा ने सांवली में एक अद्भुत स्वरूप को उकेरना शुरू कर दिया था.

वह था स्वयं से प्यार. बचपन से ही अंतर्मुखी सांवली का दिमाग उम्र से ज्यादा तेज था. छोटीमोटी उलझनों को चुटकी में सुलझा देना उस के नैसर्गिक गुणों से शुमार था. जहां एक ओर उस की दोनों बहनें घरघर खेलतीं, सजतींसंवरतीं, वहीं सांवली गणित के सवालों को हल करती दिखती. वक्त के साथ तीनों जवान हो गईं. सांवली पढ़ाई में हमेशा अव्वल रही. बहनों की खूबसूरती और निखर गई, सांवली अपना संसार बुनती रही, जहां उस के अपने सपने थे. अपने दम पर खुद को सिर्फ खुद के लिए साबित करना, उस की प्रतियोगिता किसी और से नहीं, स्वयं से थी. जूडो और बौक्सिंग उस के पसंदीदा खेल थे. स्कूल और कालेज स्तरीय कई प्रतियोगिताओं के मैडल उस ने अपने नाम कर लिए थे. मातापिता को चिंता खाए जा रही थी कि तीनों का विवाह करना है और खासकर सांवली को ले कर चिंतित रहते थे कि कैसे होगा इस का विवाह, कौन इसे पसंद करेगा, ज्यादा दहेज देने की हैसियत नहीं है, क्या होगा? लेकिन सांवली इन सब बातों से बेफिक्र थी, उस की डिक्शनरी में अभी विवाह नाम का कोई शब्द नहीं था.

उस ने तो ठान लिया था कि मरुस्थल में फूल खिलाना है. ‘‘पता नहीं, रिद्धिमा के पापा ने लड़के वालों से बात की होगी या नहीं?’’ सांवली की मां मालती ने अपनी सासुमां गिरिजा देवी से कहा. ‘‘अब तो आता ही होगा, आ कर बताएगा कि क्या बात हुई, फिक्र क्यों करती हो,’’ गिरिजा देवी ने कहा. ‘‘अम्मां, 3 जवान लड़कियां छाती पर बैठी हों तो फिक्र तो होती ही है,’’ मालती बोली. ‘‘अरे रिद्धिमा तो खूबसूरत है, निबट ही जाएगी, फिक्र तो सांवली की रहती है, इस का क्या होगा,’’ गिरिजा देवी माथे पर हाथ रखती हुई बोलीं. ‘‘हमारी फिक्र न करो दादी, हमारा लक्ष्य सिर्फ शादी नहीं है, हम तो वे करेंगे जो कोई दूसरा नहीं करता,’’ सांवली ने तपाक से कहा. ‘‘क्या मतलब, क्या तू लड़की नहीं है,

लड़की की जात को चूल्हाचौका ही सुहाता है, समझी,’’ दादी ने आंखें तरेर कर कहा. ‘‘हां दादी, मैं तो समझी, पर आप नहीं समझीं,’’ कह सांवली हंस पड़ी. तभी सांवली के पिता बलरामजी के खखारने की आवाज सुनाई दी. ‘‘अरी जा, देख पापा आ गए,’’ मालती ने सांवली से कहा और खुद भी दरवाजे की ओर दौड़ी. मां पानी का गिलास ले आईं, बोलीं, ‘‘बताओ, लड़के वालों से क्या बात हुई आप की?’’ ‘‘हां, परसों आ रहे हैं, समीक्षा को देखने,’’ बदलेव सिंह सोफे पर बैठते हुए बोले. ‘‘कौनकौन आएगा?’’ मां ने प्रश्न किया. ‘‘अब यह तो नहीं पूछा, 3-4 लोग तो होंगे ही,’’ बलदेव सिंह बोले. ‘‘अच्छा, कितने बजे तक आएंगे, यह तो पूछा होगा?’’ मां ने अगला प्रश्न किया. ‘‘दोपहर 1 बजे. रविवार है… सभी के लिए सुविधाजनक है,’’ बलदेव सिंह ने बताया. ‘‘सांवली ओ सांवली,’’ मां ने पुकारा. ‘‘हां, मां क्या बात है कहो,’’ सांवली ने बैठक में आते हुए पूछा. ‘‘सुन, परसों तेरी समीक्षा जीजी को लड़के वाले देखने आ रहे हैं, तो तू अभी तैयारी शुरू कर दे, क्या बनाएगी? उस के लिए क्या कुछ सामान बाजार से लाना है.

एक लिस्ट बना ले, तेरे पापा शाम को ले आएंगे और सुन तू भी जरा बेसन का लेप लगा लेना, रंग थोड़ा खुला दिखेगा,’’ मां ने सांवली को देखते हुए कहा. ‘‘मां… अब इस में मुझे बेसन का लेप लगाने की क्या जरूरत आन पड़ी? वे लोग तो जीजी को देखने आ रहे हैं,’’ सांवली ने कंधे उचकाते हुए कहा. ‘‘अरे, ऐसे ही एक के बाद एक रस्ते खुलते हैं, हो सकता है उन की नजर में तेरे लायक भी कोई रिश्ता हो, चल अब जा, परसों की तैयारियां कर,’’ मां ने कहा. तैयारियां शुरू हो गईं, समीक्षा फेशियल, साडि़यों के चयन आदि में व्यस्त रही और सांवली किचन की तैयारियों में, जो सूखा नाश्ता जैसे मठरी, गुझिया, चिवड़ा आदि उस ने एक दिन पहले ही बना कर तैयार कर लिए थे. रविवार सुबह से समोसे, मूंग का हलवा और बादाम की खीर की खूशबू से सारा घर महक रहा था. समीक्षा साडि़यों पर साडि़यां बदले जा रही थी, छोटी बहन सुनीति उस की मदद कर रही थी. ‘‘समीक्षा, तू कुछ भी पहन ले, सुंदर ही दिखेगी, तुझे तो एक नजर में पसंद कर लेंगे वे, चिंता मत कर, कुछ भी पहन ले,’’ मां ने पूर्ण विश्वास से कहा.

‘‘सांवली ओ सांवली,’’ मां ने सांवली को पुकारा. ‘‘क्या है मां,’’ किचन से निकलते हुए सांवली बोली. ‘‘सुन, तू भी अब मुंह धो ले, और अच्छी तरह पाउडर लगा कर, हलकेपीले रंग का जो सूट है न उसे पहन ले, उस में तेरा रंग खिला हुआ लगता है,’’ मां ने सांवली को ऊपर से नीचे तक देखते हुए कहा. ‘‘मां… तुम भी न… आज तो समीक्षा जीजी को तैयार होने दो, क्यों जीजी…’’ सांवली ने समीक्षा से चुटकी ली. ‘‘जा, तू भी तैयार हो जा…’’ समीक्षा ने मुसकराते हुए सांवली से कहा. ‘‘ठीक है जीजी,’’ सांवली हंसते हुए बोली. ‘‘डेढ़ बजे के करीब लड़के वाले तशरीफ ले आए, मातापिता, लड़का और उस की छोटी बहन, कुल 4 लोग आए थे.’’ ‘‘आइए भाई साहब, नमस्ते बहनजी, आओ बेटा आओ…’’ बलदेव सिंह सब का स्वागत करते हुए बोले. ‘‘बहनजी, आप का घर तो खाने की खुशबूओं से महक रहा है, कितने पकवान बनवा लिए आप ने?’’ लड़के की मां ने घर में घुसते ही कहा. ‘‘अरे बहनजी, बच्चियों से जो कुछ बन सका, बस यों ही थोड़ाबहुत…’’ मां ने मुसकान बिखेरते हुए कहा. सभी को बैठक में बैठाया गया,

जो सांवली की कलाकृतियों से बहुत ही करीने से सजासंवरा, छोटा सा कमरा था. सांवली पानी की ट्रे लिए बैठक में दाखिल हुईर्. लड़के की मां उसे कुछ ज्यादा ही ध्यान से देखने लगी. ‘‘बहनजी, यह मझली बेटी सांवली है, समीक्षा, जिसे आप देखने आई हैं, वह अभी अंदर है,’’ मां ने लड़के की मां की नजरों को ताड़ते हुए कहा. ‘‘ओह, अच्छा…’’ लड़के की मां सोफे से पीठ टिकाती हुई बोली. सांवली ने सभी को नमस्ते कर ट्रे में पानी के गिलास रख दिए. ‘‘जा वांवली, जीजी को ले आ,’’ मां ने कहा. ‘‘ये वौल पीस, हैंगिंग और पेंटिंग्स तो बहुत जोरदार हैं, बिटिया ने बनाई हैं क्या?’’ लड़के की मां ने चारों तरफ नजर घुमाते हुए पूछा. ‘‘हं… हां… हां…’’ मां ने कहा, पर यह बात गोल कर दी कि किस बिटिया ने बनाई है, क्योंकि अभी तो समीक्षा को निबटाना था. तभी सांवली अपनी समीक्षा जीजी के साथ बैठक में दाखिल हुई. लड़के की मां का चेहरा खिल उठा. ‘‘आओ… आओ, बिटिया… वाह… बहुत ही सुंदर, क्यों बेटा है न?’’ लड़के की मां ने अपने बेटे की तरफ देखते हुए कहा. लड़के ने आंखें उठा कर देखा तो उस की नजर सांवली की नजर से टकराई, जो उस का रिएक्शन देखने के लिए उसे ही देख रही थी. लड़के ने झेंप कर नजर झुका ली. ‘‘भई मुझे तो बिटिया बहुत पसंद है, अब फैसला तो श्याम के हाथ में है, मेरे खयाल से हमें इन दोनों को भी एकदूसरे से खुल कर बातचीत करने के लिए अकेला छोड़ देना चाहिए, क्यों जी, सही न,’’ लड़के की मां ने लड़के के पिता से कहा. ‘‘हां बिलकुल ठीक है,’’ लड़के के पिता ने कहा. ‘‘सांवली, जाओ बेटा जीजी और श्याम बाबू को बगीचे की सैर करवा दो,’’ मां ने झट से कहा. ‘‘

जी ठीक है मां, आइए जीजी…’’ सांवली ने समीक्षा और श्याम से चलने को कहा. बगीचे में पहुंच कर सांवली ने कहा, ‘‘जीजी, आप लोग बात कीजिए, तब तक मैं नाश्ते का प्रबंध करती हूं,’’ और वह भीतर चली आई. समीक्षा और श्याम करीब 15 मिनट बातचीत करते रहे, फिर वे भी भीतर बैठक में आ गए. ‘‘वाह भई, ऐसा स्वादिष्ठ नाश्ता कर के मजा आ गया, भई अब तो जी चाहता है सारा जीवन ऐसा ही नाश्ता मिलता रहे,’’ लड़के की मां ने कनखियों से समीक्षा को देखते हुए कहा. समीक्षा मुसकरा रही थी. श्याम और समीक्षा की रजामंदी से विवाह पक्का हो गया. इधर सांवली अपनी परीक्षा की तैयारियों में जुटी थी, उधर समीक्षा का विवाह भी हो गया. सांवली ने एमबीए के कोर्स में प्रवेश ले लिया, मैनेजमैंट और अकाउंटैंसी दोनों में ही सांवली का कोई जोड़ नहीं था. एमबीए पूरा होतेहोते छोटी बहन भी ब्याह कर ससुराल चली गई. अब मातापिता को सांवली की चिंता थी, हालांकि वे यह भी जानते थे कि सारे घर का दारोमदार अब सांवली के कंधों पर ही है, पिता रिटायर हो चुके थे, उन की पैंशन और सांवली की कमाई से ही घर का खर्च चलता था, पिता के पैंशन का मैटर भी विभागीय मसले में उलझ गया था,

जिसे सांवली ने ही अपनी सूझबूझ से निबटाया और पैंशन पक्की हो पाई. पिता तो सांवली के ऐसे कायल हो गए कि हर समस्या के समाधान के लिए उन की जबान पर एक ही नाम होता था सांवली. ‘‘अरे बेटा रो मत, सांवली घर आ जाए, मैं उस से बात करता हूं, दामादजी को वह इस मुश्किल से चुटकी में निकाल देगी, तू फिक्र मत कर,’’ पिता ने समीक्षा से फोन पर कहा. ‘‘ठीक है पापा, मैं कल श्याम के साथ घर आती हूं, सांवली को सारा मसला समझा देंगे,’’ समीक्षा ने कहा और फोन रख दिया. अगले दिन सुबह ही समीक्षा अपने पति के साथ घर आ गई. सांवली को श्याम ने अपने व्यापार में हुए घोटाले और घाटे से सड़क पर आ जाने का पूरा विवरण बताया. सांवली बहुत ही गंभीर मुद्रा में हर बात सुनती रही, फिर उस ने श्याम से कुछ प्रश्न किए जिन के उत्तरों से उसे समझ में आ गया कि आखिर चूक कहां हुई है. उस ने कुछ सुझाव दिए और कहा कि तुम इन पर अमल करो, बाकी मैं संभाल लूंगी. सांवली ने अपने तेज दिमाग से अपने जीजाजी का न केवल घाटा पूरा करवाया, बल्कि उस के बाद उन का बिजनैस जोर पकड़ता गया. अब तो श्याम जैसे सांवली का दीवाना हो गया, कभीकभी मजाक में कह भी देता था कि इस से तो मैं तुम से शादी करता तो ज्यादा अच्छा रहता. खैर, आधी घरवाली तो तुम हो ही.’’ इस पर सांवली कहती,

‘‘इस मुगालते में मत रहना जीजाजी, सांवली सिर्फ सांवली है, किसी की घरवाली नहीं, न आधी न पूरी.’’ जीजाजी जैसे मन मसोस कर रह जाते. कई बार कोशिश करने पर भी सांवली ने उन की दाल गलने न दी. सांवली जानती थी कि, उस का दिमाग और फिट फिगर पुरुषों को बेहद आकर्षित करता है, हर कोई चाहता है कि उस की बीवी खूबसूरत होने के साथ स्मार्ट माइंड भी रखती हो. वह अब यह भी जानती थी कि आज इस समय उस से कोई भी शादी करने के लिए तैयार हो जाएगा, लेकिन अब वह अपनी शर्तों पर जीवन जीना सीख चुकी थी, अब तो पुरुषों को अपनी उंगली पर नचाने में उसे मजा आता था. मन में एक भड़ास थी कि कभी उसे रूप के कारण कमतर आंका गया है, बहुत परिश्रम करना पड़ा है उसे यह मुकाम हासिल करने में. ‘‘हैलो, क्या मैं सांवलीजी से बात कर सकता हूं?’’ फोन पर किसी ने सांवली से कहा. ‘‘जी, कहिए, मैं सांवली बोल रही हूं,’’ सांवली ने जवाब दिया. ‘‘मैडम, आप से अपौइंटमैंट लेना था, एक प्रौपर्टी केस के सिलसिले में आप से कंसल्ट करना चाहता हूं, प्लीज बताइए, मैं आप से किस समय मिल सकता हूं?’’ अजनबी ने कहा.

‘‘आप सारे डौक्युमैंट्स ले कर परसों मेरे औफिस आ जाइए, बाइ दा वे, आप का शुभनाम?’’ सांवली ने पूछा. ‘‘ओह, आई एम सौरी, माई नेम इज बृज, मैं परसों मिलता हूं आप से, थैंक यू सो मच,’’ और फोन काट दिया गया. नियत समय पर बृज सांवली के औफिस पहुंचा. ‘‘गुड मौर्निंग… सांवली,’’ बृज ने अभिवादन किया. ‘‘वैरी गुड मौर्निंग बृज, टेक योर सीट,’’ सांवली ने मुसकान बिखेरते हुए कहा, ‘‘पेपर्स दिखाइए और केस की डिटेल्स बताइए.’’ ‘‘ओके, ये लीजिए पेपर्स. दरअसल, मेरी पार्टनर मेरी वाइफ ही थी, उस ने अपनी खूबसूरती के जाल में उलझा कर मुझ से कहांकहां साइन करवा लिए, मुझे पता नहीं चला, मेरा सारा बिजनैस खुद के नाम कर के मुझे डिवोर्स पेपर्स भेज दिए, मैं चाहता हूं कि उसे इस की सजा मिले, मुझे किसी ने आप का नाम सजेस्ट किया, बताया कि ऐसे उलझे मामलों को आप ने बड़ी होशियारी से सुलझाया है. मैं चाहता तो किसी वकील के पास भी जा सकता था, लेकिन इस केस को कैसे डील करना है, वह अब आप ही देखिए, वकील तो जो आप कहेंगी उसे कर लेंगे,’’ बृज एक सांस में बोल गया.

‘‘ओके, डौंट वरी, आई विल मैनेज एवरीथिंग, मैं प्लान प्रोग्राम कर आप से कौंटैक्ट करती हूं,’’ सांवली ने फिर एक गहरी मुसकान बिखेरते हुए कहा. ‘‘ओके, थैंक्स,’’ कह कर बृज ने हाथ आगे बढ़ाया, सांवली ने अपना हाथ बढ़ा कर शेक हैंड किया. महीनेभर की मशक्कत के बाद आखिर सांवली केस को सुलझाने में सफल हो गई. बृज की बीवी को स्वीकार करना पड़ा कि उस ने जालसाजी से ये सब किया था, क्योंकि बृज को उस पर अंधाविश्वास था, इसलिए उन्हें आसानी से बेवकूफ बनाने में वह कामयाब रही, लेकिन जिन पौइंट्स पर वाह चूक गई थी, सांवली ने उन्हें पकड़ कर उस की जालसाजी पकड़ ली, बृज को अपनी प्रौपर्टी वापस मिल गई और महीनेभर की मुलाकातों ने उसे सांवली के व्यक्तित्व ने इतना प्रभावित किया कि उस ने फैसला कर लिया कि वह सांवली को अपना जीवनसाथी बनाएगा, यही सोच कर वह फूलों का बड़ा गुलदस्ता ले कर सांवली के औफिस पहुंचा. ‘‘हैलो मिस सांवली,’’ बृज ने सांवली से कहा. ‘‘हैलो बृज, बधाई हो आप को, अब तो आप खुश हैं न?’’ सांवली ने मुसकान बिखेरते हुए कहा. ‘‘हां, लेकिन यह खुशी दोगुना हो सकती है, अगर आप मेरी हमसफर बनने के लिए राजी हो जाएं?’’

बृज ने बिना किसी भूमिका के दिल की बात कह दी. ‘‘क्यों, एक धोखा खा कर तसल्ली नहीं हुई आप को, जो फिर ओखली में सिर डालने चले हो?’’ अभी तो मैं निकाल लाई आप को, मुझ से कौन बचाएगा आप को? सांवली ने खिलखिलाते हुए कहा. ‘‘अब तुम ने निकलना ही नहीं है. बिजनैस तुम ही संभालोगी, मुझे तो बस एक प्यार करने वाली बीवी चाहिए, जिस की मुसकराहट मेरी जिंदगी संवार दे और जो एक बेहतरीन दिल के साथ, शानदार दिमाग की भी मालिक हो, और वह हो तुम, तो कहो मेरी मलिका बनने को तैयार हो?’’ बृज ने दिल पर हाथ रख कर कुछ झुकते हुए कहा. ‘‘यस जहांपनाह, बाअदब, बामुलाहिजा, होशियार… मलिका ए दिमाग, आप के दिल में दाखिल होने जा रहा है.’’ ‘‘दिमाग चाहे तो वह हर मुकाम हासिल कर सकता है, जो रूप के बूते मिलता है, लेकिन रूप चाह कर भी वह मुकाम हासिल नहीं कर सकता, जो दिमाग हासिल कर सकता है,’’ सांवली बृज की बांहों में झूल रही थी. Hindi Story

Story In Hindi: जीवन चलने का नाम

Story In Hindi: ‘‘ मम्मी, चाय,’’ सरिता ने विभा को चाय देते हुए ट्रे उन के पास रखी तो उन्होंने पूछा, ‘‘विनय आ गया?’’

‘‘हां, अभी आए हैं, फ्रेश हो रहे हैं. आप को और कुछ चाहिए?’’

‘‘नहीं बेटा, कुछ नहीं चाहिए,’’ विभा ने कहा तो सरिता ड्राइंगरूम में आ कर विनय के साथ बैठ कर चाय पीने लगी.

विनय ने सरिता को बताया, ‘‘परसों अखिला आंटी आ रही हैं, उन का फोन आया था, जा कर मम्मी को बताता हूं, वे खुश हो जाएंगी.’’

सरिता जानती थी कि अखिला आंटी और मम्मी का साथ बहुत पुराना है. दोनों मेरठ में एक ही स्कूल में वर्षों अध्यापिका रही हैं. विभा तो 1 साल पहले रिटायर हो गई थीं, अखिला आंटी के रिटायरमैंट में अभी 2 साल शेष हैं. सरिता अखिला से मेरठ में कई बार मिली है. विभा रिटायरमैंट के बाद बहूबेटे के साथ लखनऊ में ही रहने लगी हैं.

विनय के साथसाथ सरिता भी विभा के कमरे में आ गई. विनय ने मां को बताया, ‘‘मम्मी, अखिला आंटी किसी काम से लखनऊ आ रही हैं, हमारे यहां भी 2-3 दिन रह कर जाएंगी.’’

विभा यह जान कर बहुत खुश हो गईं, बोलीं, ‘‘कई महीनों से मेरठ चक्कर नहीं लगा. चलो, अब अखिला आ रही है तो मिलना हो जाएगा. मेरठ तो समझो अब छूट ही गया.’’

विनय ने कहा, ‘‘क्यों मां, यहां खुश नहीं हो क्या?’’ फिर पत्नी की तरफ देख कर उसे चिढ़ाते हुए बोला, ‘‘तुम्हारी बहू तुम्हारी सेवा ठीक से नहीं कर रही है क्या?’’

विभा ने तुरंत कहा, ‘‘नहींनहीं, मैं तो पूरा दिन आराम रतेकरते थक जाती हूं. सरिता तो मुझे कुछ करने ही नहीं देती.’’

थोड़ी देर इधरउधर की बातें कर के दोनों अपने रूम में आ गए. उन के दोनों बच्चे यश और समृद्धि भी स्कूल से आ चुके थे. सरिता ने उन्हें भी बताया, ‘‘दादी की बैस्ट फ्रैंड आ रही हैं. वे बहुत खुश हैं.’’

अखिला आईं. उन से मिल कर सब  बहुत खुश हुए. सब को उन से हमेशा अपनत्व और स्नेह मिला है. मेरठ में तो घर की एक सदस्या की तरह ही थीं वे. एक ही गली में अखिला और विभा के घर थे. सगी बहनों की तरह प्यार है दोनों में.

चायनाश्ते के दौरान अखिला ही ज्यादा बातें करती रहीं, अपने और अपने परिवार के बारे में बताती रहीं. मेरठ में वे अपने बहूबेटे के साथ रहती हैं. उन के पति रिटायर हो चुके हैं लेकिन किसी औफिस में अकाउंट्स का काम देखते हैं. विभा कम ही बोल रही थीं, अखिला ने उन्हें टोका, ‘‘विभा, तुझे क्या हुआ है? एकदम मुरझा गई है. कहां गई वह चुस्तीफुरती, थकीथकी सी लग रही है. तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

‘‘मैं बिलकुल ठीक हूं. तुझे ऐसे ही लग रहा है,’’ विभा ने कहा.

‘‘मैं क्या तुझे जानती नहीं?’’ दोनों बातें करने लगीं तो सरिता डिनर की तैयारी में व्यस्त हो गई. वह भी सोचने लगी कि मम्मी जब से लखनऊ आई हैं, बहुत बुझीबुझी सी क्यों रहने लगी हैं. उन के आराम का इतना तो ध्यान रखती हूं मैं. हमेशा मां की तरह प्यार और सम्मान दिया है उन्हें और वे भी मुझे बहुत प्यार करती हैं. हमारा रिश्ता बहुत मधुर है. देखने वालों को तो अंदाजा ही नहीं होता कि हम मांबेटी हैं या सासबहू. फिर मम्मी इतनी बोझिल सी क्यों रहती हैं? यही सब सोचतेसोचते वह डिनर तैयार करती रही.

डिनर के बाद अखिला ने विभा से कहा, ‘‘चल, थोड़ा टहल लेते हैं.’’

‘‘टहलने का मन नहीं. चल, मेरे रूम में, वहीं बैठ कर बातें करेंगे,’’ विभा ने कहा.

‘‘विभा, तुझे क्या हो गया है? तुझे तो आदत थी न खाना खा कर इधरउधर टहलने की.’’

‘‘आंटी, अब तो मम्मी ने घूमनाटहलना सब छोड़ दिया है. बस, डिनर के बाद टीवी देखती हैं,’’ सरिता ने अखिला को बताया तो विभा मुसकरा भर दीं.

‘‘मैं यह क्या सुन रही हूं विभा?’’

‘‘अखिला, मेरा मन नहीं करता?’’

‘‘भई, मैं तुम्हारे साथ रूम में घुस कर बैठने नहीं आई हूं, चुपचाप टहलने चल और कल मुझे लखनऊ घुमा देना. थोड़ी शौपिंग करनी है, बहू ने चिकन के सूट मंगाए हैं.’’

सरिता ने कहा, ‘‘आप मेरे साथ चलना आंटी. मम्मी के पैरों में दर्द रहता है. वे आराम कर लेंगी.’’

अगले दिन अखिला विभा को जबरदस्ती ले कर बाजार गई. दोनों लौटीं तो खूब खुश थीं. विभा भी सरिता के लिए एक सूट ले कर आई थीं.

डिनर के बाद भी अखिला विभा को घर के पास बने गार्डन में टहलने ले गई. विभा बहुत फ्रैश थीं. सरिता को अच्छा लगा, विभा का बहुत अच्छा समय बीता था.

विभा को ले कर अखिला बहुत चिंतित  थीं. वे चाहती थीं कि विभा पहले की तरह ही चुस्तदुरुस्त हो जाए. पर यह इतना आसान न था. जिस दिन अखिला को वापस जाना था वे सरिता से बोलीं, ‘‘बेटा, कुछ जरूरी बातें करनी हैं तुम से.’’

‘‘कहिए न, आंटी.’’

‘‘मेरे साथ गार्डन में चलो, वहां अकेले में बैठ कर बातें करेंगे.’’

दोनों घर के सामने बने गार्डन में जा कर एक बैंच पर बैठ गईं.

‘‘सरिता, विभा बहुत बदल गई है. उस का यह बदलाव मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा है.’’

‘‘हां आंटी, मम्मी बहुत डल हो गई हैं यहां आ कर जबकि मैं उन का बहुत ध्यान रखती हूं, उन्हें कोई काम नहीं करने देती, कोई जिम्मेदारी नहीं है उन पर, फिर भी पता नहीं क्यों दिन पर दिन शिथिल सी होती जा रही हैं.’’

‘‘यही तो गलती कर दी तुम ने बेटा, तुम ने उसे सारे कामों से छुट्टी दे कर उस के जीवन के  उद्देश्य और उपयोगिता को ही खत्म कर दिया. अब वह अपनेआप को अनुपयोगी मान कर अनमनी सी हो गई है. उसे लगता है कि उस का जीवन उद्देश्यहीन है. मुझे पता है तुम तो उस के आराम के लिए ही सोचती हो लेकिन हर इंसान की जरूरतें, इच्छाएं अलग होती हैं. किसी को जीवन की भागदौड़ के बाद आराम करना अच्छा लगता है तो किसी को कुछ काम करते रहना अच्छा लगता है. विभा तो हमेशा से ही बहुत कर्मठ रही है. मेरठ से रिटायर होने के बाद भी वह हमेशा किसी न किसी काम में व्यस्त रहती थी. वह जिम्मेदारियां निभाना पसंद करती है. ज्यादा टीवी देखते रहना तो उसे कभी पसंद नहीं था. कहती थी, सारा दिन टीवी वही बड़ेबुजुर्ग देख सकते हैं जिन्हें कोई काम नहीं होता. मेरे पास तो बहुत काम हैं और मैं तो अभी पूरी तरह से स्वस्थ हूं.

‘‘जीवन से भरपूर, अपनेआप को किसी न किसी काम में व्यस्त रखने वाली अब अपने कमरे में चुपचाप टीवी देखती रहती है.

‘‘विनय जब 10 साल का था, उस के पिताजी की मृत्यु हो गई थी. विभा ने हमेशा घरबाहर की हर जिम्मेदारी संभाली है. वह अभी तक स्वस्थ रही है. मुझे तो लगता है किसी न किसी काम में व्यस्त रहने की आदत ने उसे हमेशा स्वस्थ रखा है. तुम धीरेधीरे उस पर फिर से थोड़ेबहुत काम की जिम्मेदारी डालो जिस से उसे लगे कि तुम्हें उस के साथ की, उस की मदद की जरूरत है.

सरिता, इंसान तन से नहीं, मन से बूढ़ा होता है. जब तक उस के मन में काम करने की उमंग है उसे कुछ न कुछ करते रहने दो. तुम ने ‘आप आराम कीजिए, मैं कर लूंगी’ कह कर उसे एक कमरे में बिठा दिया है. जबकि विभा के अनुसार तो जीवन लगातार चलते रहने का नाम है. उसे अब अपना जीवन ठहरा हुआ, गतिहीन लगता है. तुम ने मेरठ में उस की दिनचर्या देखी थी न, हर समय कुछ न कुछ काम, इधर से उधर जाना, टहलना, घूमना, कितनी चुस्ती थी उस में, मैं ठीक कह रही हूं न बेटा?’’

‘‘हां आंटी, आप बिलकुल ठीक कह रही हैं, मैं आप की बात समझ गई हूं. अब आप देखना, अगली बार मिलने पर मम्मी आप को कितनी चुस्तदुरुस्त दिखेंगी.’’

अखिला मेरठ वापस चली गईं. सरिता विभा के कमरे में जा कर उन्हीं के बैड पर लेट गई. विभा टीवी देख रही थीं. वे चौंक गईं, ‘‘क्या हुआ, बेटा?’’

‘‘मम्मी, बहुत थक गई हूं, कमर में भी दर्द है.’’

‘‘दबा दूं, बेटा?’’

‘‘नहीं मम्मी, अभी तो बाजार से घर का कुछ जरूरी सामान भी लाना है.’’

विभा ने पलभर सरिता को देख कर कुछ सोचा, फिर कहा, ‘‘मैं ला दूं?’’

‘‘आप को कोई परेशानी तो नहीं होगी?’’ सरिता धीमे से बोली.

‘‘अरे नहीं, परेशानी किस बात की, तुम लिस्ट बना दो, मैं अभी कपड़े बदल कर बाजार से सारा सामान ले आती हूं,’’ कह कर विभा ने फटाफट टीवी बंद किया, अपने कपड़े बदले, सरिता से लिस्ट ली और पर्स संभाल कर उत्साह और जोश के साथ बाहर निकल गईं.

विनय आया तो सरिता ने उसे अखिला आंटी से हुई बातचीत के बारे में बताया. उसे भी अखिला आंटी की बात समझ में आ गई. उस ने भी अपनी मम्मी को हमेशा चुस्तदुरुस्त देखा था, वह भी उन के जीवन में आई नीरसता को ले कर चिंतित था.

एक घंटे बाद विभा लौटीं, उन के चेहरे पर ताजगी थी, थकान का कहीं नामोनिशान नहीं था. मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘आज बहुत दिनों बाद खरीदा है, देख लो, कहीं कुछ रह तो नहीं गया.’’

सरिता सामान संभालने लगी तो विभा ने पूछा, ‘‘तुम्हारा दर्द कैसा है?’’

‘‘थोड़ा ठीक है.’’

इतने में विनय ने कहा, ‘‘सरिता, आज खाने में क्या बनाओगी?’’

‘‘अभी सोचा नहीं?’’

विनय ने कहा, ‘‘मम्मी, आज आप अपने हाथ की रसेदार आलू की सब्जी खिलाओ न, बहुत दिन हो गए.’’

विभा चहक उठीं, ‘‘अरे, अभी बनाती हूं, पहले क्यों नहीं कहा?’’

‘‘मम्मी, आप अभी बाजार से आई हैं, पहले थोड़ा आराम कर लीजिए, फिर बना दीजिएगा,’’ सरिता ने कहा तो विभा ने किचन की तरफ जाते हुए कहा, ‘‘अरे, आराम कैसा, मैं ने किया ही क्या है?’’

विनय ने सरिता की तरफ देखा. विभा को पहले की तरह उत्साह से भरे देख कर दोनों का मन हलका हो गया था. वे हैरान भी थे और खुश भी कि सुस्त रहने वाली मां कितने उत्साह से किचन की तरफ जा रही थीं. सरिता सोच रही थी कि आंटी ने ठीक कहा था जब तक मम्मी स्वयं को थका हुआ महसूस न करें तब तक उन्हें बेकार ही इस बात का एहसास करा कर कुछ काम करने से नहीं रोकना चाहिए था, जबरदस्ती आराम नहीं करवाना चाहिए था. अच्छा तो यही है कि मम्मी अपनी रुचि का काम कर के अपनेआप को व्यस्त और खुश रखें और जीवन को उत्साह से जिएं. उन का व्यक्तित्व हमारे लिए आज भी महत्त्वपूर्ण व उपयोगी है यह एहसास उन्हें करवाना ही है.

सरिता ने अपने विचारों में खोए हुए किचन में जा कर देखा, पिछले 6 महीने से कभी कमर, कभी पैर दर्द बताने वाली मां के हाथ बड़ी तेजी से चल रहे थे.  वह चुपचाप किचन से मुसकराती हुई बाहर आ गई. Story In Hindi

Hindi Story: बैंगन नहीं टैंगन – इशिता और मधु का क्या रिश्ता था

Hindi Story: मधु को देख इशिता चौंक गई. अभी बमुश्किल 6 महीने ही हुए होंगे, जब वह पहली बार उस से मिली थी. झारखंड के एक छोटी सी जगह गुमला से सिविल सर्विसेज की तैयारी करने वह जिद कर के घर से आई थी. चेहरे से टपकते भोलेपन ने उस का मन मोह लिया था. पढ़ाई के प्रति उस की लगन और जज्बे ने सोने पर सुहागे का काम किया था, उस की इमेज को इशिता के दिल में जगह बनाने में.

काश, ये भोलापन और मासूमियत महानगर की भीड़ में अपना चेहरा न बदल ले. पर, उस की शंका निर्मूल साबित नहीं हुई. मधु की बदली वेशभूषा और नई बोली उस का नया परिचय दे रही थी.

इशिता को आज उस के बैच की कक्षा लेनी थी. उन्होंने देखा कि पढ़ाई के मामले में वह अब भी गंभीर ही थी… और यह बात उसे सुकून दे रही थी.

वर्षों से वह कोचिंग सैंटर में पढ़ा रही थी और उसे दुख होता था उन लड़कियों को देख कर, जो अपनेअपने गांवकसबे या शहरों से यहां आ कर यहां की चकाचौंध में खो जाती थीं.

ऊंचे ख्वाबों की गठरी कुछ ही दिनों के बाद, यहां की जिंदगी को अपनाने के चक्कर में बिखर जाते थे, अपनी हीनभावना से लड़ते हुए, अपने को पिछड़ेपन की तथाकथित गर्त से निकालने के फेर में वे और गहरी डूबती चली जातीं.
नकल में अक्ल पर बेअक्ल का परदा डाल ये कसबाई लड़कियां वो सब करने को तैयार हो जाती थीं, जो उन्हें गंवार के टैग से आजादी दे.

इशिता ने मधु को अपने पास बुलाया और उस का हालचाल लेने लगी. बातों ही बातों में पता चला कि अब वह अपने गर्ल्स पीजी से आजाद हो कर एक फ्लैट में किसी लड़के के साथ रहने लगी है, जो उस की तरह ही प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा है.

“मैडम अपूर्व बहुत तेज है पढ़ने में, उस के साथ रही तो जरूर कंपीटिशन निकाल लूंगी. फिर इस महानगर में कोई तो ऐसा हो, जिस के साथ सुरक्षित महसूस हो.”

मधु की बातों से उस का नवजागृत आत्मविश्वास छलका जा रहा था.

‘सचमुच बहुत तरक्की कर ली है इस ने,‘ मैडम इशिता ने समझ लिया. उन्हें याद आया, उन की नानी कहती थीं कि गरीब घर की लड़की की जब बड़े घरों में शादी हो जाती है, तो उन में एक ऐंठन आ जाती है और हर चीज में अपनी अधजल गगरी छलकाएंगी.

“ओह, आप इसे बैंगन कहती हैं. हमारे यहां इसे टैंगन कहते हैं.‘‘

मधु की बातें इशिता मैडम को कुछ ऐसी ही लग रही थीं, जो अब बेशर्मी से लिव इन की वकालत कर रही थी यानी बैंगन टैंगन हो ही चुका था.

देश के दूरदराज के गांवकसबों से कभी पढ़ाई तो कभी अच्छे मौकों की तलाश में युवा महानगरों का रुख करते हैं. इस में कई बार सिर्फ कसबाई माहौल से पलायन भी कारण होता है. बड़े शहरों में भले अब तक नहीं रही हों, पर उन्हें अपनी इच्छाओं और हकों की पूरी जानकारी होती है. वहां की बंदिशों से आजाद होने की कसमसाहट उन्हें महानगरों की तरफ उन्मुख करती है.

विभिन्न संस्थानों से पढ़ाई के पश्चात भी युवाओं की एक बड़ी तादाद शहरों में नौकरी करने आती है, जो शुरुआती संकोच के बाद बेहिचक यहां के रंगढंग में ढल जाती है. घरपरिवार, कालेजों की हजारों बंदिशों के बाद यहां की आजादी में वे कुछ ज्यादा ही रम जाते हैं. छोटी जगहों के विपरीत महानगरों में कोई किसी की निजी जिंदगी में टोकाटोकी नहीं करता है और न ही कोई जानपहचान या खास रिश्तेदारी की कोई जासूसी.

सो, शहर की ओर उन्मुख करते वो सारी वर्जनाएं टूटने लगती हैं, जो अब तक संकुचन में जी रहे थे. यों भी भोलेपन या सीधेपन पर गांवदेहात या कसबे का अब एकाधिकार नहीं रहा है. इस इंटरनेट और ओटीटी के युग
में सभी समय पूर्व ही परिपक्व हो रहे हैं, फिर वह गांव हो या शहर.

मधुरा पढ़ने में अच्छी थी, उस ने कैम्पस में रह कर इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की. उस की पहली पोस्टिंग बेंगलुरू हुई. बिहार के एक छोटे से शहर सिवान से उस के पिता उसे बेंगलुरू में कुछ दिन रह कर उस की अन्य सहेलियों के साथ रहने का इंतजाम कर वापस चले आए. पर, पिता के वापस लौटते ही मधुरा अपने कैम्पस के एक दोस्त अंगद के साथ रहने लगी. दोनों के दोस्तों को उन के लिव इन रिलेशन का हमेशा पता रहा. दिखावे के लिए शेयरिंग फ्लैट को उस ने हमेशा रखा, पर रहती रही अंगद के संग. दोस्तों के आश्चर्य की सीमा नहीं रही थी, जब 5 साल के बाद एक दिन मधुरा ने बताया कि उस की शादी एक सजातीय एनआरआई से हो रही है. मेरे पिता बहुत ही संकीर्ण हैं. वे अंगद से मेरी शादी कभी नहीं करेंगे.

यह सुन कर अंगद के पैरों तले जमीन खिसक गई उस की इस बेवफाई से. हद तो तब हो गई, जब उस ने अपनी शादी में अंगद को स्पेशल न्योता दे कर बुलाया और अपने पति से बेहद सहजता से परिचय भी कराया. शायद उसे ये हमेशा से पता था, पर वह अंगद के संग प्रेम कर जीवन को एक अलग अंदाज में जीती रही.

गांवदेहात की सारी लड़कियां पाबंदी या बंदिशों में नहीं जीती हैं अब, बल्कि वे भी शहरी लड़कियों की ही तरह अपने खास अंदाज में अपनी आजादी का लुत्फ उठाती हैं. शहरी उच्छृंखलता सिर्फ महानगरों तक अब सीमित
नहीं हैं, उन की पैठ अंदरूनी दूरदराज जगहों तक हो गई है. विचारों, संस्कारों की बेड़ियां टूटती दिख रहीं हैं. बदलाव ही एकमात्र स्थायी चरित्र होता है, पर ध्यान रहे कि ये बदलाव देश, समाज और परिवार के हित में ही रहे.

स्त्री आजादी आर्थिक स्वावलंबन पर ही टिकी होती है, ये भान रहे. आधुनिक होने का मतलब सिर्फ स्थापित धारणाओं का खंडन ही नहीं होता है, अपितु समाज, परिवार में संतुलन बना रहे और विचारों का उन्नयन होता रहे, ये आवश्यक है.

ऊपर वर्णित उदाहरण सिर्फ खुदगर्जी ही प्रस्तुत कर रहे हैं, जहां अपनी जड़ों से कटने की बेताबी झलक रही है. ये चंद उदाहरण ये भी इंगित कर रहे हैं कि वो जमाना बीत गया, जब सिर्फ लड़कियां ही शोषित होती थीं. हां, अब भी ऐसे उदाहरण कम ही हैं और 90 फीसदी केस में अब भी लड़कियां ही शिकार बनती हैं.

विदेशी संस्कृति की अच्छी बातों को अपनाते हुए अपनी संस्कृति की उच्च परंपरागत सोच की निरंतरता को भी बनाए रखना जरूरी है. Hindi Story

Story In Hindi: छाया – वृंदा और विनय जब बन गए प्रेम दीवाने

Story In Hindi: ‘‘तुम में इतना धैर्य कहां से आ गया. 2 दिन हो गए एक फोन भी नहीं किया,’’ विनय झल्लाहट दबा कर बोला.‘‘नारी का धैर्य तुम ने अभी देखा ही कहां है. वैसे भी मैं तुम्हारे साथ थी भी कहां. बस, एक भीड़ का हिस्सा थी,’’ वृंदा का स्वर शांत था.

‘‘क्या मतलब है. ऐसे कैसे कह सकती हो. परसों मिले थे तो कोई लड़ाईझगड़ा नहीं हुआ था. मैं ने तुम्हें कुछ कहा भी नहीं जिस से तुम्हें गुस्सा आए.’’

‘‘कहने की जरूरत नहीं होती. पिछले 6 महीने से तुम लगातार मुझे अनदेखा करते आ रहे हो और मैं हमेशा सिर्फ तुम्हारे बारे में सोचती रहती हूं. परसों भी अपनी किसी न किसी महिला मित्र से तुम फोन पर बात करते रहे, मानो मैं तुम्हारे साथ थी ही नहीं.’’

‘‘वह तो मेरी लाइन ही ऐसी है.’’‘‘पर मैं तो पूरी तरह तुम्हारे सुखदुख में भागीदार बन कर समर्पित रही. जब भी तुम्हें कोई काम पड़ा तुम मुझे कह देते और तुम्हारा वह काम करते हुए मुझे लगता कि मैं प्यार के लिए अपना फर्ज निभा रही हूं.’’

‘‘यार, ऐसा कुछ भी नहीं है. अच्छा तुम कल मिलो. ये बेकार की बातें हैं, इन्हें दिमाग से निकालो. कुछ भी नहीं बदला है.’’‘‘अभी आफिस में काम है, फिर बात करेंगे,’’ कह कर वृंदा मोबाइल औफ करती हुई दफ्तर में लौट आई.

अपनी कुरसी पर बैठी वृंदा सोचने लगी कि इसी विनय ने 2 साल पहले शुरुआती दौर में कितनी कोशिश कर के उस से संपर्क बढ़ाया था. नौकरी लगने के बाद जब वृंदा ने अपनी कहानी छपवाई तो उस को लगा था कि वह हवा में उड़ रही है. पहली ही कहानी किसी प्रतिष्ठित पत्रिका में छप जाए और प्रशंसा के सैकड़ों पत्र मिलें तो मन तो उड़ेगा ही.

बाद में उस की कुछ और कहानियां छपीं तो कुछ पाठकों के फोन भी आने लगे. कुछ तो प्रशंसा के बहाने अपनी रचना पढ़ने का अनुरोध कर देते. कुछ छपी कहानी की समीक्षा विस्तार से करते.उन्हीं प्रशंसकों में से एक विनय भी था. किसी भी अखबार में वृंदा का कुछ छप जाता तो सब से पहले उस का फोन आता.

एक दिन उस ने पूछ ही लिया, ‘आप क्या हर महिला लेखिका को फोन करते हैं? मेरे अलावा दूसरे लेखकों को भी पढ़ते हैं क्या?’‘मैडम, मैं पत्रकार हूं. साहित्यिक पृष्ठ मैं ही तैयार करता हूं. बाकी पत्रपत्रिकाओं में क्या जा रहा है उस की पूरी जानकारी मुझे रहती है.’

‘क्या आप मेरी कहानियों को संभाल कर रखते हैं?’ वृंदा ने झिझकते हुए पूछा.‘मैं आप का जबरदस्त प्रशंसक हूं. बताइए, क्या सेवा है.’‘आप के यहां से प्रकाशित पत्रिका के पिछले अंक में मेरी एक कहानी छपी है. उस की एक भी प्रति मेरे पास नहीं है. क्या आप एक प्रति भिजवा देंगे. शायद पोस्टमैन ने रख ली होगी.’

और अगले दिन विनय मेरे आफिस के रिसेप्शन पर बैठा था. हम दोनों चाय पीने के लिए पास के रेस्तरां में बैठे तो विनय का फोन बारबार बज उठता.‘किसी मित्र का फोन है क्या? सुन लो.’

‘नहीं, बड़ी मुश्किल से आप से मिलना हो पाया है. बाद में फोन सुन लूंगा. मुझे आप की कहानियां सच में बहुत अच्छी लगती हैं और प्रभावित भी करती हैं. बाकी लेखिकाएं नारी विमर्श के नाम पर मीडिया से जुड़ा जो कुछ लिख रही हैं वह पढ़ा नहीं जाता है.’

‘मुझे भी लगता है कि नारी आंदोलन को व्यवसाय बना लिया गया है. ऐसी औरतें नारी मुक्ति का झंडा उठाए हुए हैं जो खुद कब की आजाद हो चुकी हैं.’

‘आप समाज के सभी पात्रों को लेती हैं. हमारे परिवार के ढांचे को तोड़ने वाले साहित्य का क्या फायदा. कुछ लेखिकाएं ‘लिव इन रिलेशन’ को मुद्दा बना कर लिख रही हैं तो कुछ कई पुरुषों के साथ यौन संबंधों पर. हम कह सकते हैं कि आपस में वादा और विश्वास होने की बातें कहीं खोती जा रही हैं.’

‘ये तथाकथित लेखिकाएं महिलाओं के किस वर्ग को चित्रित कर रही हैं. इन की चकाचौंध में समस्याओं का सामना करने वाली निम्न और मध्यम वर्ग की महिलाओं पर ध्यान ही नहीं दिया जाता,’ वृंदा जोश में बहती जा रही थी.

‘मैडम, आज मेरा इंटरव्यू है. अब निकलता हूं. अब तो आप से मिलना- जुलना होता ही रहेगा,’ यह कह कर विनय फटाफट चला गया.फिर तो वृंदा को मानो बात करने के लिए बेहद सुलझा हुआ अपनी तरह की सोच वाला साथी मिल गया. घर और आफिस के बंधेबंधाए ढांचे में सामाजिक चर्चाओं के लिए कोई भी नहीं था. पर विनय के साथ चर्चाओं का दायरा जल्दी ही टूट गया. बौद्धिक चर्चाएं स्त्रीपुरुष के परस्पर आकर्षण पर आ कर रुक गईं. साहित्य जीवन से ही तो बना है. मगर विनय फ्रीलांसर था. इसलिए उस ने साफ कह दिया कि कहीं पक्की नौकरी लगने तक उसे शादी के लिए रुकना होगा.

विनय ने भी हिंदी और अंगरेजी साहित्य पढ़ा था. पर उसे सरकारी नौकरी से चिढ़ थी. पत्रकार को जो आजादी है, वह और किस को है. फिर पावर भी तो है. सत्ता के साए में रहने वाले बड़ेबड़े लोगों से मिलने और बात करने का मौका जिस सहजता से एक पत्रकार को मिलता है वह दूसरों को कहां मिलता है. विनय को एक न्यूज चैनल में नौकरी मिली तो उस का व्यक्तित्व निखर गया और उसी के साथ उस के संपर्क बढ़ते जा रहे थे.

उस दिन लंच में वे दोनों पार्क में बैठे थे तो विनय फोन सुनने लगा. ग्रुप के मित्रों की आपसी खटपट को ले कर वह नीता से 20 मिनट तक बात करता रहा. धीरेधीरे अलगअलग नामों के फोन आने लगे. विनय फोन काटता तो तुरंत एसएमएस आ जाता. वृंदा के साथ होने पर भी विनय का ध्यान दूर जाने लगा था.

वृंदा को विनय अपने कामों में उलझाए रखता. कभी समीक्षा के लिए लाइब्रेरी से किताब मंगाता तो कभी कोलकाता में अपने घर जाने के लिए रेल का आरक्षण कराने के लिए वृंदा को कह देता. वह लंच में आधाआधा घंटा उस का इंतजार करती रहती और जब विनय आता तो फोन पर कोई न कोई डिस्टर्ब करता रहता.

धीरेधीरे वृंदा को लगने लगा कि वह प्यार किसे करती है विनय को या प्यार की धारणा को. जो आदमी अभी से कई लोगों में बंटा है, शादी के बाद उस से कैसे निष्ठा की उम्मीद की जा सकती है. फिर तो पूरा परिवार और समाज बीच में आ जाएगा. कभी वह विनय को टोकती तो कह देता, ‘तुम्हारा वहम है. वह मेरी महिला मित्र है. सब से काम पड़ता है. फिर हमारा दायरा ऐसा है जिस में पीनेपिलाने के लिए पार्टीज चलती ही रहती हैं.’

‘मुझे इन्हीं से चिढ़ है. जहां तक शराब की बात है तो हमारे यहां इसे कोई पसंद नहीं करता. फिर औरतों का शराब पीना तो हम सोच भी नहीं सकते.’

‘तुम अपनी मध्यवर्गीय सोच से बाहर निकलो. सब की अपनीअपनी जिंदगी है. मैं तो कम ही पीता हूं पर ग्रुप में कुछ लोग मुफ्त की देख कर इतनी पी लेते हैं कि उन के लिए घर लौटना मुश्किल हो जाता है.’

‘देखो विनय, अगर तुम शराब नहीं छोड़ोगे तो हम शादी भी नहीं कर सकते हैं.’

‘रहना तो मुझे पत्रकारिता की दुनिया में ही है. तुम अपने मातापिता को समझाओ न कि शायद पीने वाला हर आदमी बुरा नहीं होता है.’

‘मुझे मत समझाओ. मैं ने शादियों में शराब पी कर लोगों को हुड़दंग करते देखा है. बीवी को पीटते लोग भी देखे हैं. हमारे एक रिश्तेदार की मौत शराब पीने के बाद छत से गिर कर हो गई थी. जब मैं ही तुम से कनविंस नहीं हो पा रही हूं तो मम्मीपापा को कैसे करूं. हम दोनों की जिंदगी और हमारे मूल्यांकन का तौर- तरीका बिलकुल अलग है. जो चीज तुम्हें सामान्य लगती है वह मेरे लिए अजीब हो जाती है. फिर तुम सिर्फ मेरे नहीं हो बल्कि नीता, पिंकी, श्वेता यानी एकसाथ कितनी लड़कियों से दोस्ती की हुई है, जो तुम्हारे करीब आने के लिए एकदूसरे को पछाड़ने में लगी हुई हैं.’

‘उन के साथ काम के सिलसिले में बाहर जाना होता है. फिर मैं हूं ही इतना हैंडसम और वैलबिहेव्ड कि सभी मुझे पसंद करती हैं. पर मैं शादी तो तुम से ही करूंगा.’

वृंदा का फ्रस्ट्रैशन बढ़ने लगा था. विनय का फोन अकसर व्यस्त मिलने लगा. कहीं उस की सरकारी नौकरी के कारण ही तो उस से वह शादी करने के लिए जिद पर अड़ा हुआ है. फिर वृंदा की कहानियों और व्यक्तित्व की जो तारीफ शुरू में होती थी वह क्या था? शायद फ्लर्ट करने का तरीका. जिन सामाजिक महिला कार्यकर्ताओं, लेखिकाओं की शुरू में विनय आलोचना करता था, हमेशा उन्हीं के बीच तो रहता है. वह रिश्ता शायद दोनों के लिए अपरिचित संसार का आकर्षण था. वृंदा मुलाकातों में खुद के लिए विनय के मन में जगह ढूंढ़ती मगर वहां उसे भीड़ नजर आती.

शाम को विनय का फोन फिर आया, ‘‘कल लंच में मिलो न, नाराज क्यों हो?’’

‘‘नाराज नहीं हूं पर मुझे नहीं लगता कि हमें शादी करनी चाहिए. ऐसी जिंदगी का क्या फायदा जिस में मैं तुम्हारे लाइफस्टाइल की आलोचना करती रहूं और तुम मेरे. अपनी लाइफ स्टाइल की ही किसी लड़की से शादी कर लो. मैं भी अपने रिश्ते के बारे में सोचतेसोचते थक गई हूं. कोई रास्ता तो निकलेगा ही.’’

‘‘ध्यान से सोचो. जल्दबाजी में कोई फैसला मत लो.’’

‘‘नहीं, मैं तुम से जितना प्यार करती हूं उतना तुम मुझ से कभी भी नहीं कर पाओगे. हमेशा मैं ही समझौता करती हूं और तुम पूरा ध्यान न दो, ऐसा कब तक चलेगा,’’ कह कर वृंदा ने फोन काट दिया.

अचानक उस ने राहत की सांस ली. रुलाई फूट रही थी मगर प्यार या रिश्ते की छाया के पीछे कब तक भागा जा सकता है. एक कविता की पंक्ति मन में उभरी :

‘मेरा तेरा रिश्ता तू तू मैं मैं का रहा. मैं तू तू करती रही, तू मैं मैं करता रहा.’ Story In Hindi

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