Hindi Story : दूसरी भूल – क्या थी अनीता की भूल

Hindi Story : अनीता बाजार से कुछ घरेलू चीजें खरीद कर टैंपू में बैठी हुई घर की ओर आ रही थी. एक जगह पर टैंपू रुका. उस टैंपू में से 4 सवारियां उतरीं और एक सवारी सामने वाली सीट पर आ कर बैठ गई. जैसे ही अनीता की नजर उस सवारी पर पड़ी, तो वह एकदम चौंक गई और उस के दिल की धड़कनें बढ़ गईं.

इस से पहले कि अनीता कुछ कहती, सामने बैठा हुआ नौजवान, जिस का नाम मनोज था, ने उस की ओर देखते हुए कहा, ‘‘अरे अनीता, तुम?’’

‘‘हां मैं,’’ अनीता ने बड़े ही बेमन से जवाब दिया.

‘‘तुम कैसी हो? आज हम काफी दिन बाद मिल रहे हैं,’’ मनोज के चेहरे पर खुशी तैर रही थी.

‘‘मैं ठीक हूं.’’

‘‘मुझे पता चला था कि यहां इस शहर में तुम्हारी शादी हुई है. जान सकता हूं कि परिवार में कौनकौन हैं?’’

‘‘मेरे पति, 2 बेटियां और एक बेटा,’’ अनीता बोली.

‘‘तुम्हारे पति क्या करते हैं?’’

‘‘कार मेकैनिक हैं.’’

‘‘क्या नाम है?’’

‘‘नरेंद्र कुमार’’

‘‘मैं यहां अपनी कंपनी के काम से आया था. अब काम हो चुका है. रात की ट्रेन से वापस चला जाऊंगा,’’ मनोज ने अनीता की ओर देखते हुए कहा, ‘‘घर का पता नहीं बताओगी?’’

‘‘क्या करोगे पता ले कर?’’ अनीता कुछ सोचते हुए बोली.

‘‘कभी तुम से मिलने आ जाऊंगा.’’

‘‘क्या करोगे मिल कर? देखो मनोज, अब मेरी शादी हो चुकी है और मुझे उम्मीद है कि तुम ने भी शादी कर ली होगी. तुम्हारे घर में भी पत्नी व बच्चे होंगे.’’

‘‘हां, पत्नी और 2 बेटे हैं. तुम मुझे पता बता दो. वैसे, तुम्हारे घर आने का मेरा कोई हक तो नहीं है, पर एक पुराने प्रेमी नहीं, बल्कि एक दोस्त के रूप में आ जाऊंगा किसी दिन.’’

‘‘शिव मंदिर के सामने, जवाहर नगर,’’ अनीता ने कहा.

कुछ देर बाद टैंपू रुका. अनीता टैंपू से उतरने लगी.

‘‘अनीता, अब तो रात को मैं वापस आगरा जा रहा हूं, फिर किसी दिन आऊंगा.’’

अनीता ने कोई जवाब नहीं दिया. घर पहुंच कर उस ने देखा कि उस की बड़ी बेटी कल्पना, छोटी बेटी अल्पना और बेटा कमल कमरे में बैठे हुए स्कूल का काम कर रहे थे.

अनीता ने कल्पना से कहा, ‘‘बेटी, मैं जरा आराम कर रही हूं. सिर में तेज दर्द?है.’’

‘‘मम्मी, आप को डिस्प्रिन की दवा या चाय दूं?’’ कल्पना ने पूछा.

‘‘नहीं बेटी, कुछ नहीं,’’ अनीता ने कहा और दूसरे कमरे में जा कर लेट गई.

अनीता को तकरीबन 11 साल पहले की बातें याद आने लगीं. जब वह 12वीं जमात में पढ़ रही थी. कालेज से छुट्टी होने पर वह एक नौजवान को अपने इंतजार में पाती थी. वह मनोज ही था. उन दोनों का प्यार बढ़ने लगा. अनीता जान चुकी थी कि मनोज किसी प्राइवेट कंपनी में नौकरी कर रहा है.

मनोज के पिताजी का अपना कारोबार था और अनीता के पिताजी का भी. वे दोनों शादी करना चाहते?थे, पर अनीता के पापा को यह रिश्ता बिलकुल मंजूर नहीं था.

लिहाजा, अनीता और मनोज ने घर से भागने की ठान ली. घर से 50 हजार रुपए नकद व कुछ जेवर ले कर अनीता मनोज के साथ जयपुर जाने वाली ट्रेन में बैठ गई थी.

जयपुर पहुंच कर वे 8-10 दिन होटल में रहे. पता नहीं, पुलिस को कैसे पता चल गया और उन दोनों को पकड़ लिया गया. अनीता के पापा को आगरा से बुलाया गया. मनोज को पुलिस ने नहीं छोड़ा. नाबालिग लड़की को भगाने के अपराध में जेल भेज दिया गया.

पापा को अनीता से बहुत नफरत हो गई थी,क्योंकि उस ने कहना नहीं माना था.अनीता ने आगे पढ़ाई करने को कहा था, पर पापा ने मना कर दिया था और उस की शादी करने की ठान ली थी. उस के लिए रिश्ते ढूंढ़े जाने लगे.

सालभर इधरउधर धक्के खाने के बाद पापा को एक रिश्ता मिल ही गया था. विधुर नरेंद्र की उम्र 35 साल थी. उस की पत्नी की एक हादसे में मौत हो चुकी थी. उस की2 बेटियां थीं. एक 5 साल की और दूसरी 3 साल की.

नरेंद्र एक कार मेकैनिक था. उस की अपनी वर्कशौपथी. पापा ने नरेंद्र से जब शादी की बात की, तो उसे सब सच बता दिया था. नरेंद्र ने सब जान कर भी मना नहीं किया था.अनीता शादी कर के नरेंद्र के घर आ गई थी. अब वह 2 बेटियों की मां बन गई थी.

एक दिन नरेंद्र ने कहा था, ‘देखो अनीता, मुझे तुम्हारी पिछली जिंदगी से कोई मतलब नहीं. तुम भी वह सब भुला दो. इस घर में आने का मतलब है कि अब तुम्हें एक नई जिंदगी शुरू करनी है. अब तुम अल्पना और कल्पना की मम्मी हो… तुम्हें इन दोनों को पालना है.’

‘जी हां, मैं ऐसा ही करूंगी. अब कल्पना और अल्पना आप की ही नहीं, मेरी भी बेटियांहैं,’ अनीता ने कहा था.एक साल बाद अनीता ने एक बेटे को जन्म दिया था. बेटा पा कर नरेंद्र बहुत खुश हुआ था. बेटे का नाम कमल रखा गया था.

अनीता नरेंद्र को पति के रूप में पा कर खुश थी और उस ने भी कभी शिकायत का मौका नहीं दिया था. पापामम्मी भी अपना गुस्सा भूल कर अब उस से मिलने आने लगे थे.

आज दोपहर अनीता की अचानक मनोज से मुलाकात हो गई. उसे मनोज को घर का पता नहीं देना चाहिए था. उस के दिल में एक अनजाना सा डर बैठने लगा. वह आंखें बंद किए चुपचाप लेटी रही.

अगले दिन सुबह के तकरीबन 11 बजे अनीता रसोई में खाना तैयार कर रही थी. कालबेल बज उठी. उस ने दरवाजा खोला, तो सामने मनोज खड़ा था.

‘‘तुम…’’ अनीता के मुंह से अचानक ही निकला,’’ तुम तो कह रहे थे कि मैं रात की गाड़ी से आगरा जा रहा हूं.’’

‘‘अनीता, मुझे रात की गाड़ी से ही आगरा जाना था, पर टैंपू में तुम से मिलने के बाद मेरा दिल दोबारा मिलने को बेचैन हो उठा. होटल में रातभर नींद नहीं आई. तुम्हारे बारे में ही सोचता रहा. तुम नहीं जानती अनीता कि मैं आज भी तुम को कितना चाहता हूं,’’ मनोज ने कहा.

अनीता चुपचाप खड़ी रही. उस ने कोई जवाब नहीं दिया.

‘‘अनीता, अंदर आने के लिए नहीं कहोगी क्या? मैं तुम से केवल 10 मिनट बातें करना चाहता हूं.’’

‘‘आओ,’’ न चाहते हुए भी अनीता के मुंह से निकल गया.

कमरे में सोफे पर बैठते हुए मनोज ने इधरउधर देखते हुए पूछा, ‘‘कोई दिखाई नहीं दे रहा है… सभी कहीं गए हैं क्या?’’

‘‘बच्चे स्कूल गए हैं और नरेंद्र वर्कशौप गए हैं,’’ अनीता बोली.

तभी रसोई से गैस पर रखे कुकर से सीटी की आवाज सुनाई दी.

‘‘जो कहना है, जल्दी कहो. मुझे खाना बनाना है.’’

‘‘अनीता, तुम अब पहले से भी ज्यादा खूबसूरत हो गई हो. दिल करताहै कि तुम्हें देखता ही रहूं. क्या तुम्हें जयपुर के होटल के उस कमरे की याद आती है, जहां हम ने रातें गुजारी थीं?’’

‘‘क्या यही कहने के लिए तुम यहां आए हो?’’

‘‘अनीता, मैं तुम्हारे पति को सब बताना चाहता हूं.’’

‘‘तुम उन्हें क्या बताओगे?’’ अनीता ने घबरा कर पूछा.

‘‘मैं नरेंद्र से कहूंगा कि जयपुर में मैं अकेला ही नहीं था. मेरे 2 दोस्त और भी थे, जिन के साथ अनीता ने खूब मस्ती की थी.’’

‘‘झूठ, बिलकुल झूठ,’’ अनीता गुस्से से चीखी.

‘‘यह झूठ है, पर इसे मैं और तुम ही तो जानते हैं. तुम्हारा पति तो सुनते ही एकदम यकीन कर लेगा,’’ मनोज ने अनीता की ओर देखते हुए कहा.

अनीता ने हाथ जोड़ कर पूछा, ‘‘तुम आखिर चाहते क्या हो?’’

‘‘मैं चाहता हूं कि आज दोपहर बाद तुम मेरे होटल के कमरे में आ जाओ.’’

‘‘नहीं मनोज, मैं नहीं आऊंगी. अब मैं अपनी जिंदगी में जहर नहीं घोलूंगी. नरेंद्र मुझ पर बहुत विश्वास करते हैं.

मैं उन से विश्वासघात नहीं करूंगी,’’ अनीता ने मनोज से घूरते हुए कहा.

‘‘तो ठीक है अनीता, मैं नरेंद्र से मिलने जा रहा हूं वर्कशौप पर,’’ मनोज ने कहा.

‘‘वर्कशौप जाने की जरूरत नहीं है. मैं यहीं आ गया हूं,’’ नरेंद्र की आवाज सुनाई पड़ी.

यह देख अनीता और मनोज बुरी तरह चौंक उठे. अनीता के चेहरे का रंग एकदम पीला पड़ गया.

‘‘यहां क्यों आया है?’’ नरेंद्र ने मनोज को घूरते हुए पूछा, ‘‘तुझे इस घर का पता किस ने दिया?’’

‘‘अनीता ने. कल यह मुझे बाजार में मिली थी,’’ मनोज बोला.अनीता ने घबराते हुए नरेंद्र को पूरी बात बता दी.

‘‘अबे, तुझे अनीता ने पता क्या इसलिए दिया था कि तू घर आए और उसे ब्लैकमेल करे. मैं ने तुम दोनों की बातें सुन ली हैं. अब तू यहां से दफा हो जा. फिर कभी इस घर में आने की कोशिश की, तो पुलिस के हवाले कर दूंगा,’’ नरेंद्र ने मनोज की ओर नफरत से देखते हुए गुस्साई आवाज में कहा. मनोज चुपचाप घर से निकल गया.

अनीता को रुलाई आ गई. वह सुबकते हुए बोली, ‘‘मुझे माफ कर दो. मुझ से बहुत बड़ी भूल हो गई, जो मैं ने मनोज को घर का पता दे दिया?था.’’

‘‘हां अनीता, यह तुम्हारी जिंदगी की दूसरी भूल है, जो तुम ने अपने दुश्मन को घर में आने दिया. मनोज तुम्हारा प्रेमी नहीं, बल्कि दुश्मन था. सच्चे प्रेमी कभी भी अपनी प्रेमिका को घर से रुपएगहने वगैरह ले कर भागने को नहीं कहते.’’

अनीता की आंखों से आंसू बहते रहे. नरेंद्र ने उस के चेहरे से आंसू पोंछते हुए कहा, ‘‘अनीता, मुझे तुम पर बहुत विश्वास था, पर आज की बातें सुन कर यह विश्वास और बढ़ गया है. वैसे तो मनोज अब यहां नहीं आएगा और अगर आ भी गया, तो मुझे फोन कर देना. मैं उसे पुलिस के हवाले कर दूंगा.’’

नरेंद्र की यह बात सुन कर अनीता के मुंह से केवल इतना ही निकला, ‘‘आप कितने अच्छे हैं…’’

Hindi Story : पत्नी पुराण – ऐसी होती हैं हमारे यहां की पत्नियां

Hindi Story : हमारे देश में कई तरह की पत्नियां पाई जाती हैं. जैसे जरूरत से ज्यादा बोलने वाली पत्नी, पति पर हमेशा शक करने वाली पत्नी, पूरे महल्ले के हर घर के अंदर की खबर रखने वाली पत्नी और पति के हर काम में कोई न कोई कमी निकालने वाली पत्नी. आज हम पति के हर काम में कमी निकालने वाली पत्नी पर रिसर्च करेंगे.

इस तरह की पत्नियां हर देश में सभी जगह मिलती हैं. ऐसी पत्नियों में यह खास गुण होता है कि उन्हें अपने पतियों द्वारा किए गए हर काम में कमी पहले ही दिख जाती है. उन के पास जैसे कोई दिव्यदृष्टि होती है. घर में घुसते ही उन्हें पता चल जाता है कि पति ने कौनकौन से काम बिगाड़े हैं. पति द्वारा किए गए अच्छे कामों पर पत्नी की नजर नहीं पड़ पाती है.

एक बार पत्नी ने मुझ से कहा, ‘‘आप बैंक से लौटते समय सब्जी मंडी से बढि़या सी लौकी ले कर आइएगा. लौकी के कोफ्ते बनाने हैं.’’ मैं बैंक से थकाहारा पत्नी के आदेश को मानते हुए सब्जी मंडी में अच्छी

तरह देखभाल कर ताजा लौकी ले कर घर आया. उम्मीद थी कि बढि़या लौकी देख कर पत्नी खुश हो जाएगी. मगर अफसोस, ऐसा नहीं हुआ.

पत्नी रसोईघर से आगबबूला हो कर बाहर आई, क्योंकि लौकी अंदर से खराब थी. ‘‘आप को तो सब्जी खरीदने की भी अक्ल नहीं है,’’ पत्नी का गुस्सा सातवें आसमान पर था.

अब आप ही बताइए कि जब लौकी देखने में ताजा हो, फिर उस के अंदर का हाल कैसे कोई देख सकता है. सब्जी मंडी अल्ट्रासाउंड या एक्सरे मशीन ले कर तो कोई जाता नहीं है. यह बात पत्नी को कौन समझाए. मेरे एक दोस्त हैं प्रदीपजी. वे संस्कृत के विद्वान हैं. उन्होंने भारतीय औरतों पर रिसर्च कर रखी है. मगर वे भी औरतों के मन की बात को समझने में नाकाम रहे हैं. उन्होंने अपना दुखड़ा इस तरह सुनाया.

प्रदीपजी अपने दफ्तर के एक काम से लखनऊ आए थे. एक दिन उन्हें पत्नी प्रेम जागा. उन्होंने पत्नी के लिए साड़ी खरीदने का विचार किया. सोचा कि पत्नी खुश हो जाएगी. प्यार की बरसात होगी. वे लखनऊ के अमीनाबाद बाजार गए. पूरे बाजार में घूम कर अच्छी सी साड़ी खरीदी. घर आते ही साड़ी का डब्बा पत्नी को दिया.

पत्नी ने भी खुशीखुशी डब्बा खोला. लेकिन एक पल में ही पत्नी के चेहरे से खुशी गायब हो गई. वे प्रदीपजी से गुस्से में बोलीं, ‘‘क्या आप को पता नहीं है कि इस रंग की 3 साडि़यां मेरे पास पहले से ही हैं, फिर उसी रंग की साड़ी उठा लाए. मुझे नहीं चाहिए यह साड़ी,’’ कह कर वे साड़ी प्रदीपजी पर फेंक कर चली गईं. बेचारे प्रदीपजी आसमान से जैसे धरती पर आ गिरे. अपनी हर गलती का ठीकरा भी पति पर फोड़ना हर पत्नी का जन्मसिद्ध अधिकार होता है. हमारे एक और दोस्त प्रकाशजी हैं. एक दिन वे मिले, तो बड़े उदास लग रहे थे. पूछने पर उन्होंने बताया, ‘‘मेरी पत्नी की आदत हो गई है कि वह अपनी हर गलती का कुसूर मेरे सिर मढ़ देती है. आज सुबह से मैं भूखा हूं. पत्नी ने गुस्से में खाना नहीं बनाया.’’

मैं ने वजह पूछी, तो वे बोले, ‘‘खुद चूल्हे पर दूध उबलने के लिए चढ़ा कर पड़ोसन से गपें मारती रही. दूध जल कर राख हो गया, तो सारा कुसूर मेरे ऊपर लगा दिया कि आप चूल्हे से दूध उतार नहीं सकते थे. बताइए भाई साहब, मेरी क्या गलती है?’’ मैं बेबस था. क्या जवाब देता. मैं खुद दूध का जला था.

महल्ले की सारी पत्नियां जब एकसाथ अपनेअपने पतियों की कमियों का पिटारा खोलती हैं, तो गलती से उन के पति उन की बातें सुन लें, तो वे यकीनन कोमा में चले जाएंगे.

Hindi Story : हंसी के घुंघरु – क्यों थी मेरे मन में नफरत

Hindi Story : उस दिन मेरे पिता की बरसी थी. मैं पिता के लिए कुछ भी करना नहीं चाहता था. शायद मुझे अपने पिता से घृणा थी. यह आश्चर्य की बात नहीं, सत्य है. मैं घर से बिलकुल कट गया था. वह मेरे पिता ही थे, जिन्होंने मुझे घर से कटने पर मजबूर कर दिया था.

नीरा से मेरा प्रेम विवाह हुआ था. मेरे बच्चे हुए, परंतु मैं ने घर से उन अवसरों पर भी कोई संपर्क नहीं रखा.

लेकिन मेरे पिता की पुण्य तिथि मनाने के लिए नीरा कुछ अधिक ही उत्साह से सबकुछ कर रही थी. मुझे लगता था कि शायद इस उत्साह के पीछे मां हैं.

मैं सुबह से ही तटस्थ सा सब देख रहा था. बाहर के कमरे में पिता की तसवीर लग गई थी. फूलों की एक बड़ी माला भी झूल रही थी. मुझे लगता था कि मेरी देह में सहस्रों सूइयां सी चुभ रही हैं. नीरा मुझे हर बार समझाती थी, ‘‘बड़े बड़े होते हैं. उन का हमेशा सम्मान करना चाहिए.’’

नीरा ने एक छोटा सा आयोजन कर रखा था. पंडितपुरोहितों का नहीं, स्वजनपरिजनों का. सहसा मेरे कानों में नीरा का स्वर गूंजा, ‘‘यह मेरी मां हैं. मुझे कभी लगा ही नहीं कि मैं अपनी सास के साथ हूं.’’

बातें उड़उड़ कर मेरे कानों में पड़ रही थीं. हंसीखुशी का कोलाहल गूंज रहा था. मैं मां की सिकुड़ीसिमटी आकृति को देखता रहा. मां कितनी सहजता से मेरी गृहस्थी में रचबस गई थीं.

मैं नीरा की इच्छा जाने बिना ही मां को जबरन साथ ले आया था. साथ क्या ले आया था, मुझे लाना पड़ा था. कोई दूसरा विकल्प भी तो नहीं था.

राजू व रमेश विदेश में बस गए थे. पिता की मृत्यु पर वे शोक संवेदनाएं भेज कर निश्चिंत हो गए थे. रीना, इला और राधा आई थीं. मैं श्राद्ध के दिन अकेला ही गांव पहुंचा था.

नीरा नहीं आई थी. मैं ने जोर नहीं दिया था. शायद मैं भी यही चाहता था. जब मेरे हृदय में मृत पिता के लिए स्नेह जैसी कोई चीज ही नहीं थी तो नीरा के हृदय की उदासीनता समझी जा सकती थी.

मेरी दोनों बेटियां मां के पास रह गई थीं. परिवार के दूसरे बच्चे भी सचाई को पहचान गए थे. लोगों की देखादेखी, जब वे बहुत छोटी थीं तो दादादादी की बातें पूछा करती थीं. मैं पता नहीं क्यों ‘दादा’, ‘दादी’ जैसे शब्दों के प्रति ही असहिष्णु हो गया था.

‘दादी’ शब्द मेरे मानस पर दहशत से अधिक घृणा ही पैदा करता था. मेरे बचपन की एक दादी थीं, किंतु कहानियों वाली, स्नेह देने वाली दादी नहीं. हुकूमत करने वाली दादी, मुझे ही नहीं मेरी मां को छोटीछोटी बात पर चिमटे से पीटने वाली दादी. मैं अब भी नहीं समझ पाता हूं, मेरी मां का दोष क्या था?

मेरा घर मध्यवर्गीय बिहारी घर था. सुबह होती कलह से, रात होती कलह से. मेरे पिता का कायरपन मुझे बचपन से ही उद्दंड बनाता गया.

मेरी एक परित्यक्ता बूआ थीं. अम्मां से भी बड़ी बूआ, हर मामले में हम लोगों से छोटी मानी जाती थीं. खानेपहनने, घूमने में उन का हिस्सा हम लोगों जैसा ही होता था. किंतु उन की प्रतिस्पर्धा अम्मां से रहती थी. सौतन सी, वह हर चीज में अम्मां का अधिक से अधिक हिस्सा छीनने की कोशिश करती थीं. बूआ दादी की शह पर कूदा करती थीं.

दादी और बूआ रानियों की तरह आराम से बैठी रहती थीं. हुकूमत करना उन का अधिकार था. मेरी मां दासी से भी गईबीती अवस्था में खटती रहती थीं. पिता बिस्तर से उठते ही दादी के पास चले जाते. दादी उन्हें जाने क्या कहतीं, क्या सुनातीं कि पिता अम्मां पर बरस पड़ते.

एक रोज अम्मां पर उठे पिता के हाथ को कस कर उमेठते हुए मैं ने कहा था, ‘‘खबरदार, जो मेरी मां पर हाथ उठाया.’’

पहले तो पिता ठगे से रह गए थे. फिर एकाएक उबल पड़े थे, लेकिन मैं डरा नहीं था. अब तो हमारा घर एक खुला अखाड़ा बन गया था. दादी मुझ से डरती थीं. मेरे दिल में किसी पके घाव को छूने सी वेदना दादी को देखने मात्र पर होती. मैं दादी को देखना तक नहीं चाहता था.

मैं सोचा करता, ‘बड़ा हो कर मैं अच्छी नौकरी कर लूंगा. फिर अम्मां को अपने पास रखूंगा. रहेंगी दादी और बूआ पिता के पास.’

उन का बढ़ता अंतराल मेरे अंतर्मन में घृणा को बढ़ाता गया. मेरी अम्मां कमजोर हो कर टूटती चली गईं.

उस दिन वह घर स्नेहविहीन हो जाएगा, ऐसा मैं ने कभी सोचा भी नहीं था. अम्मां सारे कामों को निबटा कर सो गई थीं. राधा उन की छाती से चिपटी दूध पी रही थी. मैं बगल के कमरे में पढ़ रहा था.

दादी का हुक्म हुआ, ‘‘जरा, चाय बनाना.’’

कोई उत्तर नहीं मिला. वैसे भी अम्मां तो कभी उत्तर दिया ही नहीं करती थीं. 10 मिनट बाद दादी के स्वर में गरमी बढ़ गई. चाय जो नहीं मिली थी. दादी जाने क्याक्या बड़बड़ा रही थीं. अम्मां की चुप्पी उन के क्रोध को बढ़ा रही थी.

‘‘भला, सवेरेसवेरे कहीं सोया जाता है. कब से गला फाड़ रही हूं. एक कप चाय के लिए, मगर वह राजरानी है कि सोई पड़ी है,’’ और फिर एक से बढ़ कर एक कोसने का सिलसिला.

मैं पढ़ाई छोड़ कर बाहर आ गया. अम्मां को झकझोरती दादी एकाएक चीख उठीं. मैं दरवाजा पकड़ कर खड़ा रह गया. सारे काम निबटा कर निर्जला अम्मां प्राण त्याग चुकी थीं.

दादी ने झट अपना मुखौटा बदला, ‘‘हाय लक्ष्मी…हाय रानी…तुम हमें छोड़ कर क्यों चली गईं,’’ दादी छाती पीटपीट कर रो रही थीं. बूआ चीख रही थीं. मेरे भाईबहन मुझ से सहमेसिमटे चिपक गए थे. अम्मां की दूधविहीन छाती चबाती राधा को यत्न से अलग कर मैं रो पड़ा था.

दादी हर आनेजाने वाले को रोरो कर कथा सुनातीं. पिता भी रोए थे. अम्मां के अभाव ने घर को घर नहीं रहने दिया. बूआ कोई काम करती नहीं थीं. आदत ही नहीं थी. पिता को थोड़ी कमाई में एक बावर्ची रखना संभव नहीं था. वैसे भी कोई ऐसा नौकर तो बहू के सिवा मिल ही नहीं सकता था, जो बिना बोले, बिना खाए खटता रहे. समय से पूर्व ही रीना को बड़ा बनना पड़ा.

देखतेदेखते अम्मां की मृत्यु को 6 माह बीत गए. दादी रोजरोज पिता के नए रिश्ते की बात करतीं. 1-2 रिश्तेदारों ने दबीदबी जबान से मेरी शादी की चर्चा की, ‘‘लड़का एम.एससी. कर रहा है. इसी की शादी कर दी जाए.’’

पर मेरे कायर पिता ने मां की आज्ञा मानने का बहाना कर के मुझ से भी छोटी उम्र की लड़की से ब्याह कर लिया.

मेरा मन विद्रोह कर उठा. लेकिन उस लड़की लगने वाली औरत में क्या था, नहीं समझ पाया. वह बड़ी सहजता से हम सब की मां बन गई. हम ने भी उसे मां स्वीकार कर लिया. मुझे दादी के साथसाथ पिता से भी तीव्र घृणा होने लगती, जब मेरी नजर नई मां पर पड़ती.

‘क्या लड़कियों के लिए विवाह हो जाना ही जीवन की सार्थकता होती है?’ हर बार मैं अपने मन से पूछा करता. मां के मायके में कोई नहीं था. विधवा मां ने 10वीं कक्षा में पढ़ती बेटी का कन्यादान कर के निश्ंिचता की सांस ली थी.

मेरी दूसरी मां भी मेरी अम्मां की तरह ही बिना कोई प्रतिवाद किए सारे अत्याचार सह लेती थीं. अम्मां की मृत्यु के बाद घर से मेरा संबंध न के बराबर रह गया था.

पहली बार नई मां के अधर खुले, जब रीना के ब्याह की बात उठी. वह अड़ गईं, ‘‘विवाह नहीं होता तो मत हो. लड़की पढ़ कर नौकरी करेगी. ऐसेवैसे के गले नहीं मढूंगी.’’

पिता सिर पटक कर रह गए. दादी ने व्यंग्यबाण छोड़े. लेकिन मां शांत रहीं, ‘‘मैं योग्य आदमी से बेटी का ब्याह करूंगी.’’

मां की जिद और हम सब का सम्मिलित परिश्रम था कि अब सारा घर सुखी है. हम सभी भाईबहन पढ़लिख कर अपनीअपनी जगह सुखआनंद से थे.

नई मां ही थीं वह सूत्र जिस ने पिता के मरने के बाद मुझे गांव खींचा था. दादी मरीं, बूआ मरीं, पिता के बुलावे आए, पर मैं गांव नहीं आया. पता नहीं, कैसी वितृष्णा से मन भर गया था.

मैं अपनेआप को रोक नहीं पाया था. पिता के श्राद्ध के दिन घर पहुंचा था. भरे घर में मां एक कोने में सहमीसिकुड़ी रंग उड़ी तसवीर जैसी बैठी थीं. पूरे 10 साल बाद मैं गांव आया था. उन 10 सालों ने मां से जाने क्याक्या छीन लिया था.

पिता ने कुछ भी तो नहीं छोड़ा था उन के लिए. हर आदमी मुझे समझा रहा था, ‘‘अपना तो कोई नहीं है. एक तुम्हीं हो.’’

मां की सहमी आंखें, तनी मुद्रा मुझे आश्वस्त कर रही थीं, ‘‘मोहन, घबराओ नहीं. मुझे कुछ साल ही तो और जीना है. मेहनतमजदूरी कर के जी लूंगी.’’

सामीप्य ने मां की सारी निस्वार्थ सेवाएं याद दिलाईं. जन्म नहीं दिया तो क्या, स्नेह तो दिया था. भरपूर  स्नेह की गरमाई, जिस ने छोटे से बड़ा कर के हमें सुंदर घर बनाने में सहारा दिया था.

पता नहीं किस झोंक में मां के प्रतिवाद के बाद भी मैं उन्हें अपने साथ ले आया था.

‘नीरा क्या समझेगी? क्या कहेगी? मां से उस की निभेगी या नहीं?’ यह सब सोचसोच कर मन डर रहा था. कभीकभी अपनी भावुकता पर खीजा भी था. हालांकि विश्वास था कि मेरी मां ‘दादी’ नहीं हो सकती है.

अब 1 साल पूरा हो रहा था. मां ने बड़ी कुशलता से नीरा ही नहीं, मेरी बेटियों का मन भी जीत लिया था.

शुरू शुरू में कुछ दिन अनकहे तनाव में बीते थे. मां के आने से पहले ही आया जा चुकी थी. नई आया नहीं मिल रही थी. नौकरों का तो जैसे अकाल पड़ गया था. नीरा सुबह 9 बजे दफ्तर जाती और शाम को थकीहारी लौटती. अकसर अत्यधिक थकान के कारण हम आपस में ठीक से बात नहीं कर पाते थे. मां क्या आईं, एक स्नेहपूर्ण घर बन गया, बेचारी नीरा आया के  नहीं रहने पर परेशान हो जाती थी. मां ने नीरा का बोझ बांट लिया. मां को काम करते देख कर नीरा लज्जित हो जाती. मां घर का काम ही नहीं करतीं, बल्कि नीरा के व्यक्तिगत काम भी कर देतीं.

कभी साड़ी इस्तिरी कर देतीं. कभी बटन टांक देतीं.

‘‘मां, आप यह सब क्यों करती हैं?’’

‘‘क्या हुआ, बेटी. तुम भी तो सारा दिन खटती रहती हो. मैं घर मैं खाली बैठी रहती हूं. मन भी लग जाता है. कोई तुम पर एहसान थोड़े ही करती हूं. ये काम मेरे ही तो हैं.’’ नीरा कृतज्ञ हो जाती.

‘‘मां, आप पहले क्यों नहीं आईं?’’ गले लिपट कर लाड़ से नीरा पूछती. मां हंस देतीं.

नीरा मां का कम खयाल नहीं रखती थी. वह बुनाई मशीन खरीद लाई थी. मेरे नाराज होने पर हंस कर बोली, ‘‘मां का मन भी लगेगा और उन में आर्थिक निर्भरता भी आएगी.’’

मैं अतीत की भूलभूलैया से वर्तमान में लौटता. नीरा का अंगअंग पुलक रहा था. वह मां के स्नेह व सेवा तथा नीरा के आभिजात्य और समर्पित अनुराग का सौरभ था, जो मेरे घरआंगन को महका रहा था.

कैसे बहुओं की सासों से नहीं पटती? क्या सासें केवल बुरी ही होती हैं? लेकिन मेरी मां जैसी सास कम होती हैं, जो बहू की कठिनाइयों को समझती हैं. घावों पर मरहम लगाती हैं और लुटाती हैं निश्छल स्नेह.

रात शुरू हो रही थी. नीरा थकी सी आरामकुरसी पर बैठी थी. लेकिन आदतन बातों का सूत कात रही थी. मेरी दोनों बेटियां दादी की देह पर झूल रही थीं.

‘‘दादीजी, आज कौन सी कहानी सुनाओगी?’’

‘‘जो मेरी राजदुलारी कहेगी.’’

मैं ने मां को देखा, कैसी शांत, निद्वंद्व वह बच्चों की अनवरत बातों में मुसकराती ऊन की लच्छियां सुलझा रही थीं. मुझे लग रहा था कि वह मेरी सौतेली नहीं, मेरी सगी मां हैं. उम्र में बड़ा हो कर भी मैं बौना होने लगा था. मैं ने नीरा को मां के सामने ही कुरसी से उठा लिया, ‘‘लो, संभालो अपनी इस राजदुलारी को. इसे भी कोई कहानी सुना दो. यह कब से मेरा सिर खा रही है.’’

‘‘मां, सिर में भेजा हो तब तो खाऊं न.’’

नीरा मुसकरा दी. मां की दूध धुली खिलखिलाहट ने हमारा साथ दिया. देखते ही देखते हंसी के घुंघरुओं की झनकार से मेरा घरआंगन गूंज उठा.

Hindi Story : 2 लाख – कर्नल धर्म सिंह ने कैसे सिखाया सबक

Hindi Story : कर्नल धर्म सिंह जैसे ही अपने दफ्तर से निकले कि उन के ड्राइवर ने तेजी दिखाते हुए कार का दरवाजा खोला, पर कर्नल ने इशारे से ड्राइवर को अपने पास बुलाया और उसे बाजार से कुछ सामान लाने का आदेश दिया. फिर वे अपने घर की ओर पैदल ही चल पड़े. दफ्तर से घर का रास्ता मुश्किल से कुछ ही गज की दूरी पर था.

पत्नी रजनी ने कर्नल धर्म सिंह को पहले ही मोबाइल फोन पर सूचना दे दी थी कि उन के गांव के रिश्ते के चाचा रघुवीर सिंह अपने बेटे ज्ञानेश के साथ उन से मिलने आए हैं.

कर्नल धर्म सिंह अपने गांव से आने वाले किसी भी शख्स की खूब आवभगत करते थे. गांव से उन का प्यार और मोह भंग नहीं हुआ था.

रघुवीर चाचा से मिलते ही कर्नल धर्म सिंह ने उन के पैर छुए और चाचा ने भी उन्हें अपने गले से लगा लिया. ज्ञानेश ने भी पूरी इज्जत के साथ कर्नल धर्म सिंह के पैर छुए.

बातचीत का दौर चला, फिर चाचा रघुवीर सिंह अपने मुद्दे पर आ गए. उन्होंने कहा, ‘‘बेटा धर्म सिंह, तुम्हारा यह छोटा भाई ज्ञानेश अगले हफ्ते मेरठ में लगने वाले सेना के भरती कैंप में जाने की तैयारी कर रहा है.’’

‘‘चाचाजी, देश की सेवा से बढ़ कर तो कोई चीज हो ही नहीं सकती. ज्ञानेश जैसे हट्टेकट्टे नौजवानों के सेना में शामिल होने से सेना तो मजबूत होगी ही, हमारे गांव का नाम भी रोशन होगा,’’ कर्नल धर्म सिंह ने कहा.

‘‘बेटा, मैं इसीलिए तो तुम्हारे पास आया हूं कि तू इस की कुछ मदद कर दे.’’

‘‘चाचाजी, यह भी कोई कहने की बात है. ज्ञानेश मेरा छोटा भाई है. इस के कसरती बदन को देख कर ही लग रहा है कि यह सेना के लिए फिट है. रही बात लिखित इम्तिहान की तो इस के लिए मैं कुछ किताबें बता देता हूं, उन से पढ़ाई कर के यह अच्छी तैयारी कर ले.’’

यह सुन कर चाचा रघुवीर सिंह कुछ देर के लिए चुप हो गए, उन के चेहरे की रंगत भी हलकी पड़ गई.

फिर कुछ सोच कर वे धीरे से बोले, ‘‘धर्म सिंह, तैयारी तो इस ने खूब कर रखी है. हकीकत तो यह है कि आजकल बिना लिएदिए कोई बात नहीं बनती.’’

‘‘चाचाजी, सेना की भरती में यह सबकुछ नहीं चलता है. हमारा सिस्टम भले ही कितना भी खराब क्यों न हो गया हो, हमारी सेना अभी भी साफसुथरी है. आखिर देश की हिफाजत का सवाल जो है.’’

कर्नल धर्म सिंह की यह बात सुन कर चाचा रघुवीर सिंह मुसकरा दिए और फिर बड़े यकीन से बोले, ‘‘धर्म सिंह, मुझे ऐसा लगता है कि तुम्हें अभी सिस्टम की सही जानकारी नहीं है या फिर तुम अपनी सेना को पाकसाफ बताने की बहानेबाजी कर रहे हो.

‘‘आसपास के गांवों के 5 लोगों के नाम तो मैं यहां बैठेबैठे बता सकता हूं, जिन्होंने अपने बेटों की भरती में 2-2 लाख रुपए खर्च किए हैं.’’

यह बात सुन कर धर्म सिंह दंग रह गए. वे जानते थे कि सेना की भरती में ऐसा कुछ नहीं होता है और भरती मुहिम के दौरान कोई ऐसा कर भी नहीं सकता है. सबकुछ बड़ी साफगोई और सेना के बड़े अफसरों की निगरानी में होता है.

उन्होंने चाचा रघुवीर सिंह को सबकुछ समझाने की कोशिश की, लेकिन सब फेल. फिर चाचा रघुवीर सिंह ने जो कहा, वह किसी भी ईमानदार और देशभक्त सेनाधिकारी के लिए असहनीय था.

चाचा रघुवीर सिंह ने कहा, ‘‘बेटा धर्म सिंह, ऐसा लगता है कि तुम हमें बातों में उलझा रहे हो और हमारा काम नहीं करना चाहते. यह मत सोचो कि मैं यहां खाली हाथ आया हूं.’’

फिर चाचा रघुवीर सिंह ने अपनी अचकन में हाथ डाला और एकएक हजार रुपए के नोटों की 2 गड्डियां मेज पर रख दीं और कहा, ‘‘धर्म सिंह, गिन लो, पूरे 2 लाख रुपए हैं.’’

कर्नल धर्म सिंह का चेहरा नोटों की गड्डियों को देख कर लाल हो गया.

अगर चाचा रघुवीर सिंह की जगह कोई और होता, तो उन्होंने उसे घर से बाहर का रास्ता दिखा दिया होता या जेल में भिजवा दिया होता.

कर्नल धर्म सिंह ने अपने गुस्से को शांत करने के लिए आधा गिलास पानी पीया, फिर यह सोचते हुए कि चाचाजी को समझाना बेकार है और चाचाजी के उन पर बहुत से एहसान हैं, इसलिए उन्होंने वे दोनों गड्डियां उठा कर अपने पास रख लीं.

इस से चाचा रघुवीर सिंह तो खुश हो गए, लेकिन रजनी पसोपेश में पड़ गई. रजनी को समझ में नहीं आया कि उन का यह देशभक्त पति इतनी आसानी से बेईमान कैसे हो गया? क्या पैसे में इतनी ताकत होती है, जो कर्नल धर्म सिंह जैसे ईमानदारों का भी ईमान बिगाड़ दे?

जब कर्नल धर्म सिंह ने रजनी से दोनों गड्डियों को लौकर में रखने को कहा, तो वे उन पर बिगड़ गईं और बोलीं, ‘‘तुम ने यह सोच भी कैसे लिया कि मैं इन पैसों को हाथ भी लगाऊंगी? तुम ने अपना ईमान खो दिया तो क्या तुम उम्मीद करते हो कि सूबेदार की यह बेटी भी अपना ईमान खो देगी? लानत है तुम पर…’’

रजनी ने अपनी भड़ास निकालते हुए वह सबकुछ कह दिया, जो कहना नहीं चाहिए था. फिर कर्नल धर्म सिंह ने उन्हें कुछ ऐसा समझाया कि वे बुझे मन से उन गड्डियों को लौकर में रख आईं.

सेना में भरती का दिन आ गया. ज्ञानेश ने शारीरिक टैस्ट में अपना दमखम दिखाया और उस का आसानी से चुनाव हो गया. चाचा रघुवीर सिंह तो फूले नहीं समा रहे थे.

वे बारबार ज्ञानेश से कह रहे थे, ‘‘देखा बेटे, गड्डियों का असर. अब तू लिखित इम्तिहान में भी पास होगा.’’

कुछ दिनों बाद लिखित इम्तिहान हुआ. ज्ञानेश ने उस की भी खूब तैयारी की थी. कर्नल धर्म सिंह की बताई किताबों को उस ने खूब पढ़ा था. नतीजा वही रहा कि लिखित इम्तिहान में भी ज्ञानेश ने बाजी मार ली.

चाचा रघुवीर सिंह का तो खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं था. गांव में लड्डू बांटते समय वे 2 लाख रुपए वाली बात किसी को बताना नहीं भूलते थे. फिर उन्होंने कर्नल धर्म सिंह के लिए भी देशी घी के 2 किलो स्पैशल लड्डू तैयार कराए. अगले ही दिन वे ज्ञानेश को ले कर कर्नल धर्म सिंह की कोठी पर जा पहुंचे.

कर्नल धर्म सिंह ने पहले की तरह ही दोनों की आवभगत की. चाचा रघुवीर सिंह तो पूरे जोश में थे. उन से यह बताने से रुका नहीं जा रहा था कि 2 लाख रुपए की वजह से ही ज्ञानेश को यह कामयाबी मिली. उसी जोश में वे पूछ बैठे, ‘‘धर्म सिंह, पैसे कम तो नहीं पड़े? आखिर सब को हिस्सा देना पड़ता है न. तुम्हारे पल्ले भी कुछ पड़ा है कि नहीं?’’

कर्नल धर्म सिंह को यह बात करेले की तरह कड़वी तो लगी ही, नुकीले कांटे की तरह दिल में भी चुभी. लेकिन उन्होंने बड़े सब्र से कहा, ‘‘चाचाजी, मेरे पल्ले तो सबकुछ पड़ गया.’’

‘‘मतलब, तुम ने किसी को कुछ भी नहीं दिया. अकेले ही….’’

‘‘हां चाचाजी… और क्या करता? जरा एक मिनट रुको, मैं अभी आया.’’

कर्नल धर्म सिंह उठ कर दूसरे कमरे में चले गए. चाचा रघुवीर सिंह ने इतराते हुए कहा, ‘‘देखा ज्ञानेश, आज की दुनिया में लोग कैसे पैसे के लिए मरते हैं. धर्म सिंह उस दिन कैसी बड़ीबड़ी बातें कर रहा था, लेकिन देखो कैसे अकेले ही 2 लाख रुपए हड़प गया.’’

तभी कर्नल धर्म सिंह एकएक हजार की 2 गड्डियां ले कर कमरे में दाखिल हुए. उन के हाथों में नोटों की गड्डियां देख कर रघुवीर सिंह कुछ सोच में पड़ गए.

कर्नल धर्म सिंह ने दोनों गड्डियां उन के सामने रखते हुए कहा, ‘‘चाचाजी, ये रहे आप के 2 लाख रुपए.’’

‘‘हां, लेकिन इन का मैं क्या करूं? इन पर तो तुम्हारा हक है. तुम ने तो सारा काम कराया है.’’

‘‘हां चाचाजी, मैं ने कोई काम नहीं कराया है और न ही कोई सिफारिश की है. ज्ञानेश का काम अपनी काबिलीयत से हुआ है. हमारी सेना में ऐसा कुछ नहीं होता, जैसा कि आप लोग सोचते हैं.’’

‘‘तो फिर तुम ने उस दिन 2 लाख रुपए क्यों रख लिए थे?’’

‘‘आप के 2 लाख रुपए दलालों के चंगुल से बचाने के लिए. मगर उस दिन मैं 2 लाख रुपए सहित वापस भेज देता, आप किसी दलाल के चंगुल में जा कर फंसते, जैसे आप के वे लोग फंसे हैं, जिन की आप ने उस दिन चर्चा की थी.’’

‘‘मतलब उन के बेटों की भरती भी उन की अपनी मेहनत से हुई थी, लेनदेन से नहीं?’’

‘‘हां चाचाजी. उस दिन भी तो मैं आप को यही समझा रहा था, लेकिन आप की समझ में बात नहीं आ रही थी.

‘‘दलाल लोगों से पैसे ले लेते हैं, काम हो जाता है तो कह देते हैं, काम हम ने कराया है. अगर काम नहीं होता है, तो वे बड़ी मुश्किल से कुछ ही पैसा वापस करते हैं.’’

‘‘हां बेटा, रामरतन का काम न होने पर उस का बड़ी मुश्किल से आधा पैसा ही वापस किया था. दलाल कहते थे कि खिलानेपिलाने में आधा पैसा खर्च हो गया. उन्होंने तो पूरी कोशिश की थी, लेकिन काम नहीं बना, तो वे क्या करें.’’

‘‘चाचाजी, आप गांव के अपने आदमी थे, इसलिए मुझे ऐसा करना पड़ा, नहीं तो मुझे ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं थी. अब इन पैसों को आप अपनी अचकन में रख लो.’’

चाचाजी ने धीरे से दोनों गड्डियां उठा कर अचकन में रखीं. वे एक निगाह कर्नल धर्म सिंह को देखते और दूसरी निगाह खाली होते हुए चाय के प्याले में डालते. बस, अब उन्हें चाय खत्म होने और कर्नल धर्म सिंह से विदाई की इजाजत लेने का इंतजार था.

Hindi Story : मेरी सास – जब मेरा अपनी सास से पाला पड़ा

Hindi Story : कहानियों व उपन्यासों का मुझे बहुत शौक था. सो, कुछ उन का असर था, कुछ गलीमहल्ले में सुनी चर्चाओं का. मैं ने अपने दिमाग में सास की एक तसवीर खींच रखी थी. अपने घर में अपनी मां की सास के दर्शन तो हुए नहीं थे क्योंकि मेरे इस दुनिया में आने से पहले ही वे गुजर चुकी थीं. सास की जो खयाली प्रतिमा मैं ने गढ़ी थी वह कुछ इस प्रकार की थी. बूढ़ी या अधेड़, दुबली या मोटी, रोबदार. जिसे सिर्फ लड़ना, डांटना, ताने सुनाना व गलतियां ढूंढ़ना ही आता हो और जो अपनी सास के बुरे व्यवहार का बदला अपनी बहू से बुरा व्यवहार कर के लेने को कमर कसे बैठी हो. सास के इस हुलिए से, जो मेरे दिमाग की ही उपज थी, मैं इतनी आतंकित रहती कि अकसर सोचती कि अगर मेरी सास ही न हो तो बेहतर है. न होगा बांस न बजेगी बांसुरी.

बड़ी दीदी का तो क्या कहना, उन की ससुराल में सिर्फ ससुरजी थे, सास नहीं थीं. मैं ने सोचा, उन की तो जिंदगी बन गई. देखें, हम बाकी दोनों बहनों को कैसे घर मिलते हैं. लेकिन सब से ज्यादा चकित तो मैं तब हुई जब दीदी कुछ ही सालों में सास की कमी बुरी तरह महसूस करने लगीं. वे अकसर कहतीं, ‘‘सास का लाड़प्यार ससुर कैसे कर सकते हैं? घर में सुखदुख सभीकुछ लगा रहता है, जी की बात सास से ही कही जा सकती है.’’ मैं ने सोचा, ‘भई वाह, सास नहीं है, इसीलिए सास का बखान हो रहा है, सास होती तो लड़ाईझगड़े भी होते, तब यही मनातीं कि इस से अच्छा तो सास ही न होती.’

दूसरी दीदी की शादी तय हो गई थी. भरापूरा परिवार था उन का. घर में सासससुर, देवरननद सभी थे. मैं ने सोचा, यह गई काम से. देखें, ससुराल से लौट कर ये क्या भाषण देती हैं. दीदी पति के साथ दूसरे शहर में रहती थीं, यों भी उन का परिवार आधुनिक विचारधारा का हिमायती था. उन की सास दीदी से परदा भी नहीं कराती थीं. सब तरह की आजादी थी, यानी शादी से पहले से भी कहीं अधिक आजादी. सही है, सास जब खुद मौडर्न होगी तो बहू भी उसी के नक्शेकदमों पर चलेगी. दीदी बेहद खुश थीं, पति व उन की मां के बखान करते अघाती न थीं. मैं ने सोचा, ‘मैडम को भारतीय रंग में रंगी सास व परिवार मिलता तो पता चलता. फिर, ये तो पति के साथ रहती हैं. सास के साथ रहतीं तब देखती तारीफों के पुल कैसे बांधतीं. अभी तो बस आईं और मेहमानदारी करा कर चल दीं.

चार दिन में वे तुम से और तुम उन से क्या कहोगी?’ बड़ी दीदी से सास की अनिवार्यता और मंझली दीदी से सास के बखान सुनसुन कर भी, मैं अपने मस्तिष्क में बनाई सास की तसवीर पूरी तरह मिटा न सकी.

अब मेरी मां स्वयं सास बनने जा रही थीं. भैया की शादी हुई, मेरी भाभी की मां नहीं थी. सो, न तो वे कामकाज सीख सकीं, न ही मां का प्यार पा सकीं. पर मां को क्या हो गया? बातबात पर हमें व भैया को डांट देती हैं. भाभी को हम से बढ़ कर प्यार करतीं?. मां कहतीं, ‘‘बहू हमारे घर अपना सबकुछ छोड़ कर आई है, घर में आए मेहमान से सभी अच्छा व्यवहार करते हैं.’’ मां का तर्क सुन कर लगता, काश, सभी सासें ऐसी हों तो सासबहू का झगड़ा ही न हो. कई बार सोचती, ‘मां जैसी सासें इस दुनिया में और भी होंगी. देखते हैं, मुझे कैसी सास मिलती है.’

इसी बीच, एक बार अपनी बचपन की सहेली रमा से मुलाकात हुई. मैं उस के मेजर पति से मिल कर बड़ी प्रभावित हुई, उस की सास भी काफी आधुनिक लगीं, पर बाद में जब रमा से बातें हुईं तो पता लगा उन का असली रंग क्या है.

रमा कहने लगी, ‘‘मैं तो उन्हें घर के सदस्या की तरह रखना चाहती हूं पर वे तो मेहमानों को भी मात कर देती हैं. शादी के इतने सालों बाद भी मुझे पराया समझती हैं. मेरे दुखसुख से उन्हें कोई मतलब नहीं. बस, समय पर सजधज कर खाने की मेज पर आ बैठती हैं. कभीकभी बड़ा गुस्सा आता है. ननद के आते ही सासजी की फरमाइशें शुरू हो जाती हैं, ‘ननद को कंगन बनवा कर दो, इतनी साडि़यां दो.’ अकेले रमेश कमाने वाले, घर का खर्च तो पूरा नहीं पड़ता, आखिर किस बूते पर करें. ‘‘रमेश परेशान हो जाते हैं तो उन का सारा गुस्सा मुझ पर उतरता है. घर का सुखचैन सब खत्म हो गया है. रमेश अपनी मां के अकेले बेटे हैं, इसलिए उन का और किसी के पास रहने का सवाल ही नहीं है. पोतेपोतियों से यों बचती हैं गोया उन के बेटे के बच्चे नहीं, किसी गैर के हैं. कहीं जाना हुआ तो सब से पहले तैयार, जिस से बच्चों को न संभालना पड़े.’’

रमा की बातें सुन कर मैं बुरी तरह सहम गई. ‘‘अरे, यह तो हूबहू वही तसवीर साक्षात रमा की सास के रूप में विद्यमान है. अब तो मैं ने पक्का निश्चय कर लिया कि नहीं, मेरी सास नहीं होनी चाहिए. लेकिन होनी, तो हो कर रहती है. मैं ने सुना तो दिल मसोस कर रह गई. अब मां से कैसे कहूं कि यहां शादी नहीं करूंगी. कारण पूछेंगी तो क्या कहूंगी कि मुझे सास नहीं चाहिए. वाह, यह भी कोई बात है. मन ही मन उलझतीसुलझती आखिर एक दिन मैं डोली में बैठ विदा हो ही गई. नौकरीपेशा पिता ने हम भाईबहनों को अच्छी तरह पढ़ायालिखाया, पालापोसा, यही क्या कम है.

मेरी देवरानियांजेठानियां सभी अच्छे खातेपीते घरों की हैं, मैं ने कभी यह आशा नहीं की कि ससुराल में मेरा भव्य स्वागत होगा. ज्यादातर मैं डरीसिमटी सी बैठी रहती. कोई कुछ पूछता तो जवाब दे देती. अपनी तरफ से कम ही बोलती. रिश्तेदारों की बातचीत से पता चला कि सास पति की शादी कहीं ऊंचे घराने में करना चाहती थीं. लेकिन पति को पता नहीं मुझ में क्या दिखा, मुझ से ही शादी करने को अड़ गए. लेनदेन से सास खुश तो नजर नहीं आईं, पर तानेबाने कभी नहीं दिए, यह क्या कम है. मैं ने मां की सीख गांठ बांध ली थी कि उलट कर जवाब कभी नहीं दूंगी. पति नौकरी के सिलसिले में दूसरे शहर में रहते थे. मैं उन्हीं के साथ रहती. बीचबीच में हम कभी आते. मेरी सास ने कभी भी किसी बात के लिए नहीं टोका. मुझ से बिछिया नहीं पहनी गई, मुझे उलटी मांग में सिंदूर भरना कभी अच्छा नहीं लगा, गले में चेन पहनना कभी बरदाश्त न हुआ, हाथों में कांच की चूडि़यां ज्यादा देर कभी न पहन पाईं. मतलब सुहाग की सभी बातों से किसी न किसी प्रकार का परहेज था. पर सासजी ने कभी जोर दे कर इस के लिए मजबूर नहीं किया.

दुबलीपतली, गोरीचिट्टी सी मेरी सास हमेशा काम में व्यस्त रहतीं. दूसरों को आदेश देने के बजाय वे सारे काम खुद निबटाना पसंद करती थीं. बेटियों से ज्यादा उन्हें अपनी बहुओं के आराम का खयाल था. इस बीच, मैं 2 बेटियों की मां बन चुकी थी. समयसमय पर बच्चों को उन के पास छोड़ जाना पड़ता तो कभी उन के माथे पर बल नहीं पड़ा. मेरे सामने तो नहीं, पर मेरे पीछे उन्होंने हमेशा सब से मेरी तारीफ ही की. मेरी बेटियां तो मुझ से बढ़ कर उन्हें चाहने लगी थीं. मेरी असली सास के सामने मेरी खयाली सास की तसवीर एकदम धुंधली पड़ती जा रही थी.

इसी बीच, मेरे पति का अपने ही शहर में तबादला हो गया. मैं ने सोचा, ‘चलो, अब आजाद जिंदगी के मजे भी गए. कभीकभार मेहमान बन कर गए तो सास ने जी खोल कर खातिरदारी की. अब हमेशा के लिए उन के पास रहने जा रहे हैं. असली रंगढंग का तो अब पता चलेगा. पर उन्होंने खुद ही मुझे सुझाव दिया कि 3 कमरों वाले उस छोटे से घर में देवरननदों के साथ रहना हमारे लिए मुश्किल होगा. फिर अलग रहने से क्या, हैं तो हम सब साथ ही.

मेरी मां मुझ से मिलतीं तो उलाहना दिया करतीं. ‘‘तुझे तो सास से इतना प्यार मिला कि तू ने अपनी मां को भी भुला दिया.’’ शायद इस दुनिया में मुझ से ज्यादा खुश कोई नहीं. मेरे मस्तिष्क की पहली वाली तसवीर पता नहीं कहां गुम हो गई. अब सोचती हूं कि टीवी सीरियल व फिल्मों वगैरा में गढ़ी हुई सास की लड़ाकू व झगड़ालू औरत का किरदार बना कर, युवतियां अकारण ही भयभीत हो उठती हैं. जैसी अपनी मां, वैसी ही पति की मां, वे भला बहूबेटे का अहित क्यों चाहेंगी या उन का जीवन कलहमय क्यों बनाएंगी. शायद अधिकारों के साथसाथ कर्तव्यों की ओर भी ध्यान दिया जाए तो गलतफहमियां जन्म न लें. एकदूसरे को दुश्मन न समझ कर मित्र समझना ही उचित है. यों भी, ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती.

मेरी सास मुझ से कितनी प्रसन्न हैं, इस के लिए मैं लिख कर अपने मुंह मियां मिट्ठू नहीं बनना चाहती, इस के लिए तो मेरी सास को ही एक लेख लिखना पड़ेगा. पर उन की बहू अपनी सास से कितनी खुश है, यह तो आप को पता चल ही गया है.

Hindi Story : तपस्या भंग न कर सकी चमेली

Hindi Story : चमेली जब भी रिटायर्ड डिप्टी कलक्टर पवन के बंगले पर काम करने आती है, वह 45 साल से 30 साल की बन जाती है, क्योंकि 65 साला पवन अकेले रहते हैं. उन की पत्नी सुधा उन की रिटायरमैंट के 15 साल पहले गुजर गई थीं. तब से वे अकेले हैं. उन के एकलौता बेटा है जिस की बैंक में पोस्टिंग होने के बाद उस ने वहीं काम कर रही एक लड़की से शादी कर ली थी.

उस समय पवन की रिटायरमैंट के 3 साल बचे थे. जब तक वे सेवा में थे, तब तक उन के सरकारी बंगला था, नौकर थे, इसलिए रोटी बनाने की चिंता नहीं थी. जब भी वे भोपाल जाते बहू का रूखा बरताव देख कर भीतर ही भीतर दुखी होते.

सोचा था कि रिटायरमैंट के बाद वे अपने बेटे के पास रहेंगे. मगर बेटे का बदला बरताव देख कर उन्होंने अपना मन बदल लिया और रिटायरमैंट के बाद वे छोटा का मकान खरीद कर उसी शहर में बस गए. जिस शहर से वे रिटायर हुए थे.

रिटायरमैंट के बाद सरकारी बंगला और नौकर छूट गए थे, इसलिए वे खुद ही रोटी बनाते थे, कमरे में झाड़ू लगाते थे और कपड़े धोबी से धुलवाते थे. इस तरह वे चौकाचूल्हे में माहिर हो गए थे. मगर जैसेजैसे उम्र बढ़ रही थी शरीर में कमजोरी आ रही थी. रोटियां बेलने में तकलीफ होने लगी थी.

जब पवन की पत्नी सुधा गुजरी थीं तब रिश्तेदारों ने उन्हें दोबारा शादी करने की सलाह दी थी. पर तब उन्होंने मना कर दिया था. रिश्तेदार कई रिश्ते भी ले कर आए, मगर उन्होंने सभी रिश्तों को ठुकरा दिया था.

पवन तो अपने बेटे के पास ही बाकी जिंदगी बिताना चाहते थे, मगर ऐसा हो न सका. अब जा कर उन्हें एहसास हुआ कि आज वे अकेले जिंदगी काट रहे हैं.

जब उन से रोटियां नहीं बनने लगीं तब उन्होंने चमेली को रख लिया. शुरुआत में तो वह ठीकठाक रही, मगर जैसेजैसे समय बीतता गया, उस के मन के भीतर का शैतान जागता गया.

वह जानती थी, पवन का बेटा उन से दूर है इन का विश्वास जीत कर सारी धनदौलत हड़पी जा सकती है. इस के लिए उस ने योजना बना कर उसे अपने तरीके से अंजाम देना शुरू कर दिया.??

दरअसल, आदमी की सब से बड़ी कमजोरी औरत होती है, इसलिए जब भी चमेली घर का काम करने आती, अपने को बदलने लगी. वह सजधज कर आने लगी. उन्हें देख कर कामुक निगाहों से मुसकाने लगी.

पवन चमेली का यह बदला रूप देखते थे. वे अपनी नजरें फेर लेते थे. तब चमेली मन ही मन कहती थी, ‘कितने ही विश्वामित्र बन जाओ, मगर यह मेनका एक दिन तुम्हारी तपस्या भंग कर के ही रहेगी.’

इस के बाद चमेली जितनी देर घर में रहती, वह अपना आंचल गिरा देती. बरतन मांजने लगती तो पेटीकोट ऊपर चढ़ा लेती. पवन चमेली के इस बरताव को समझ रहे थे. एक दिन वे बोले, ‘‘तुम शादीशुदा हो, ऐसा मत किया करो.’’

चमेली उस दिन तो चुप रही, फिर अगले दिन उस ने कहा, ‘‘आप को बाईजी की याद तो सताती होगी?’’

‘‘क्या मतलब है?’’ जरा नाराज हो कर पवन बोले.

‘‘मेरा मतलब यह है साहब…’’ चमेली बोली, ‘‘आप अकेले हैं तो आप को बाईजी की याद तो कभीकभी आती होगी? जब रात को अकेले सोते होंगे?

‘‘क्या कहना चाहती है तू?’’

‘‘मैं यह कहना चाहती हूं साहब, अगर आप के मन में कभी औरत की जरूरत हो…’’

‘‘चमेली, मुंह संभाल कर बोल,’’ बीच में ही बात काटते हुए पवन बोले, ‘‘मेरे सामने कभी ऐसी बात मत करना.’’

जी साहब, माफी मांगते हुए चमेली बोली, ‘‘एक दिन आप ने ही तो कहा था कि बात कहने से मन का बोझ हलका हो जाता है.’’

‘‘ठीक है ठीक है…’’ बीच में ही बात काट कर पवन बोले, ‘‘मगर मुझे किसी औरत की जरूरत नहीं है.’’

मगर पवन की समझाइश का असर चमेली पर नहीं पड़ा. उस दिन के बाद तो वह और मेनका बन गई. उस का आंचल गिराना जारी था. यह कर के वह पवन की कमजोरी पकड़ना चाहती थी. मगर उन की तरफ से कोई हलचल नहीं मचती थी. न जाने कैसा पत्थरदिल है उन का दिल. आग के सामने भी नहीं पिघलता.

ऐसे में एक दिन चमेली की सहेली लक्ष्मी ने पूछा, ‘‘तेरे विश्वामित्रजी पिघले कि नहीं?’’

‘‘कहां पिघले… न जाने किस पत्थर के बने हैं.’’

‘‘इस में तेरी कमजोरी होगी.’’

‘‘सबकुछ तो कर लिया जो एक औरत को करना चाहिए. इस में मेरी कहां से कमजोरी आ गई?’’

‘‘तब तो उस की जायदाद कभी हड़प नहीं सकती है.’’

‘‘अब उस के सामने नंगी होने से तो रही.’’

‘‘तुझे नंगा होने की जरूरत ही नहीं है?’’ कह कर लक्ष्मी ने उस के कान में कुछ कहा. वह गरदन हिला कर बोली, ‘‘ठीक है.’’

चमेली ने पवन के भीतर खूब जोश पैदा करने की कोशिश की, मगर वे टस से मस नहीं हुए. जब पानी सिर से ज्यादा ही गुजरने लगा, तब पवन बोले, ‘‘देखो चमेली, मैं पहले ही कह चुका हूं. अब फिर कह रहा हूं तुम ने अपने हावभाव बदलो. मगर तुम एक कान से सुनती हो दूसरे कान से निकाल देती हो.’’

‘‘साहब, चौकाचूल्हे के काम करने में यह सब न चाहते हुए भी हो जाता है,’’ मादक मुसकान फेंकते हुए चमेली बोली.

‘‘झूठ मत बोलो, तुम यह सब जानबूझ कर करती हो.’’

‘‘नहीं साहब, ऐसा नहीं है.’’

‘‘तुम खुद को नहीं बदल सकती हो तो कल से तुम्हारी छुट्टी,’’ पवन अपना फैसला सुनाते हुए बोले.

तब चमेली बहुत चिंतित हो गई. सच तो यह है कि वह यहां काम करती है, बदले में पैसा पाती है. उस ने कभी नहीं सोचा था कि उसे यह दिन देखना पड़ेगा.

वह तकरीबन रोते हुए बोली, ‘‘नहीं साहब, मेरे पेट पर लात मर मारो, अब कभी भी शिकायत नहीं मिलेगी.’’

‘‘ठीक है. मगर फिर शिकायत मिलेगी तब तुझे निकालने में जरा भी देर न करूंगा,’’ कह कर पवन भीतर चले गए. चमेली तिलमिलाती रह गई.

Hindi Story : गवाही – क्या नारायण ने सच का साथ दिया?

Story : चकवाड़ा गांव में कल दोपहर को हुआ दंगा आज सुबह अखबारों की सुर्खियां बन गया. 6 घर जल गए. 3 बच्चों, 4 औरतों व 2 मर्दों की मौत के अलावा कुल 12 लोग घायल हो गए. कुछ लोगों को हलकीफुलकी चोटें आईं.

इत्तिफाक से पुलिस का गश्ती दल वहां पहुंच गया और दंगे पर काबू पा लिया गया. पुलिस ने 30 लोगों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया.

गिरफ्तार हुए लोगों में नारायण भी एक था. उस ने जिंदगी में पहली बार जेल में रात काटी थी. जेल की उस बैरक में नारायण अकेला एक कोने में सहमा सा लेटा रहा. वह उन भेडि़यों के बीच चुपचाप आंखें बंद किए सोने का बहाना करता रहा. बाकी सभी जेल में मटरगश्ती कर रहे थे.

सुबह होते ही सब के साथ नारायण को भी कचहरी लाया गया. भीड़ से अलग, उदासी की चादर ओढ़े वह एक कोने में बैठ गया.

पुरानी, मटमैली सफेद धोती, आधी फटी बांहों वाली बदरंग सी बंडी, दोनों पैरों में अलगअलग रंग के जूते, बस यही उस की पोशाक थी.

कचहरी के बरामदे में फैली चिलचिलाती धूप सब को परेशान कर रही थी, पर नारायण धूप से ज्यादा अपने मन में छाए डर से परेशान था.

नारायण को इस बात का भी डर था कि अगर आज का सारा दिन कचहरी में ही लग गया तो दिनभर के कामधाम का क्या होगा. शायद आज घर वालों को भूखा ही सोना पड़ेगा.

नारायण को मालूम था कि कचहरी में एक मजिस्ट्रेट होता?है, वकील होते हैं और तरहतरह के गवाह होते हैं. जेल से छूटने के लिए जमानत भी देनी पड़ती है.

‘पर आज कौन देगा उस की जमानत? कैसे बताएगा वह अपनी पहचान? कैसे वह अपनेआप को इस कचहरी के चक्कर से बचा पाएगा?’ ये सारे सवाल उस का डर बढ़ाए जा रहे थे.

‘‘नारायण हाजिर हो,’’ कचहरी के गलियारे में एक आवाज गूंजी.

लोगों की भीड़ से नारायण उठा और मजिस्ट्रेट के कमरे की तरफ बढ़ा.

कमरे के दरवाजे पर खड़े चपरासी ने उसे टोका, ‘‘हूं, तुम हो नारायण,’’ उस चपरासी की रूखी आवाज में हिकारत भी मिली हुई थी.

‘‘हां हुजूर, मैं ही हूं नारायण.’’

‘‘यहीं खड़े रहो. अभी तुम्हारा नंबर आने वाला है.’’

थोड़ी देर खड़े रहने के बाद चपरासी की दूसरी आवाज पर वह मजिस्ट्रेट के कमरे में घुस गया. उस ने उन मवालियों की तरफ देखा तक नहीं, जो रातभर जेल में उस के साथ बंद थे.

कमरे में घुसते ही नारायण को एक जोरदार छींक आ गई. सभी उस की तरफ देखने लगे, जैसे उस का छींकना भी जुर्म हो गया हो.

नारायण की नजर जब एक आदमी पर पड़ी तो वह चौंक पड़ा और सोचने लगा, ‘अरे, यह आदमी तो अपने गांव का गुंडा है. यही तो गांव में दंगेफसाद कराता है.’

‘‘हां, तो आप दे रहे हैं इस की जमानत?’’ मजिस्ट्रेट ने उस आदमी से पूछा.

सफेद कुरतापाजामा में वह पूरा नेता लग रहा था. मजिस्ट्रेट ने कागज देखा, फिर वकील से पूछा, ‘‘जगन नाम है न इस का? क्या करता है यह? ऐसा कोई कागज दिखाइए, जिस से इस की कोई पहचान हो सके. भई, अब तो सरकार ने सब को मतदाताकार्ड दे दिए हैं. कोई राशनकार्ड हो तो वह दिखा दो.’’

वकील ने कहा, ‘‘हुजूर, ये मगेंद्रजी इस की जमानत देने आए हैं. अपने मंत्रीजी की बहन के बेटे हें. मैं भी इस को पहचानता हूं. इस का दंगे में कोई हाथ नहीं. यह तो बड़े शरीफ इज्जतदार लोगों के बीच उठताबैठता है.’’

नारायण हैरानी से कभी वकील को तो कभी जगन को देख रहा था. वह सोचने लगा, ‘कितना मीठा बोल रहा है वकील. इस का बस चले तो मजिस्ट्रेट को धरती पर लेट कर प्रणाम कर ले.

‘…और यह जगन तो हमेशा नशे में धुत्त रहता है. बड़ीबड़ी गाडि़यां इसे गांव तक छोड़ने आती हैं. लोग इसे गांव के सरपंच और इस इलाके के मंत्री का खास आदमी बताते हैं तभी तो मंत्री का भांजा इस की जमानत देने आया है.

‘कल भी दंगा इसी ने कराया होगा. पर इस की तो ऊंची पहुंच है, यह पक्का मुजरिम तो जमानत पर छूट जाएगा, पर मेरा क्या होगा?’ सोचतेसोचते नारायण ने अपनेआप से सवाल किया.

नारायण के पास न कोई वकील है, न राशनकार्ड, न मतदाताकार्ड यानी उस के पास पहचान का कोई सुबूत नहीं है.

राशनकार्ड बना तो था, जिस से कभीकभार उस की बीवी कैरोसिन लाती थी तो कभी मटमैली सी शक्कर भी मिल जाती थी. थोड़े दिन पहले उस की बीवी ने उसे बताया था कि दुकानदार ने राशनकार्ड रख लिया है.

‘दुकानदार ने, पर क्यों?’ नारायण ने झुंझला कर अपनी बीवी से पूछा था.

वह बोली थी, ‘दुकानदार कह रहा था कि सरकार का हुक्म आया है कि राशन की चीजें उसे मिलेंगी, जो इनकाम टकस (इनकम टैक्स) नहीं देता है.

‘यह बात तेरे मर्द को कागज पर लिख कर देनी पड़ेगी. अपने मर्द से इस कागज पर दस्तखत करवा कर लाना. तब मिलेगा राशनकार्ड. यह परची दी है दुकानदार ने.’

नारायण चौथी जमात तक पढ़ा था, पर ये ‘इनकम टैक्स’ क्या होता है, उस की समझ में नहीं आया था. पड़ोसियों की देखादेखी उस ने भी कागज पर दस्तखत कर दिए थे.

नारायण की बीवी उस परची को ले कर राशन की दुकान पर 5-6 बार चक्कर लगा आई थी, पर राशनकार्ड नहीं मिला था. दुकान खुले तभी तो राशनकार्ड मिले.

किसी खास समय में ही खुलती थी राशन की दुकान. फिर अगर नारायण को राशनकार्ड मिल भी जाता तो क्या होता. कौन उसे जेब में रख कर घूमता है.

नारायण को याद आया कि मतदाताकार्ड भी बना था. पूरे एक दिन का काम खोटा हो गया था. गांव के सरपंच, प्रधान व पंच जैसे लोग आए थे और सब को जीप में बैठा कर ले गए थे.

पंचायतघर के अहाते में फोटो खिंचवाने वालों की लाइन लग गई थी. मतदाताकार्ड पर फोटो तो नारायण का ही था, पर खुद नारायण भी उसे पहचान नहीं पाया. अजीब सी डरावनी शक्ल हो गई थी उस की.

प्रधानी के चुनाव हो गए, तो फिर पंच आए और सब के मतदाताकार्ड छीन कर ले गए. पूछने पर वे बोले, ‘आप लोग क्या करेंगे कार्ड का. कहीं गुम हो जाएगा तो बेवजह पुलिस में एफआईआर दर्ज करानी पड़ेगी. हमें दे दो, संभाल कर रखेंगे. चुनाव आएंगे तो फिर से दे दिए जाएंगे.’

गांव के अनपढ़ लोगों को तो जैसे उल्लू बनाएं, बन जाते हैं बेचारे. कार्ड बटोरने के बाद पंचसरपंच भी कन्नी काटने लगे.

नारायण अपने खयालों में खोया हुआ था कि तभी जगन की मोटी भद्दी सी आवाज आई, ‘‘अच्छा हुजूर, बड़ी मेहरबानी हुई.’’

फिर सब एकएक कर कमरे से बाहर निकल गए थे. कमरे में नारायण, मजिस्टे्रट व चपरासी वगैरह रह गए थे.

‘‘आगे चलो,’’ चपरासी ने नारायण को आगे की ओर धकेला. धक्का इतना जोरदार था कि अगर वह मजबूती से खड़ा न होता तो सीधा मजिस्ट्रेट के सामने जा कर गिरता.

मजिस्ट्रेट ने नारायण को ऊपर से नीचे तक देखा. इस के बाद उस ने नारायण की फाइल देखते हुए पूछा, ‘‘नाम क्या है तुम्हारा?’’

‘‘जी हुजूर, ना… ना… नारायण.’’

वह ‘हुजूर’ तो आसानी से कह गया, पर ‘नारायण’ शब्द उस की जबान पर ठीक से नहीं आ सका. आवाज हलक में ही अटक गई.

मजिस्ट्रेट ने अपनी नजरें ऊपर उठाईं और नारायण की आंखों में झांका. नारायण ने आंखें झुका लीं. इधर मजिस्ट्रेट ने अपने तजरबे के तराजू में नारायण को तौल लिया था.

मजिस्टे्रट बोला, ‘‘अब क्यों डर रहे हो? दंगा करते समय डर नहीं लगा था क्या? शराब पीना और दंगा करना, बस यही काम जानते हो तुम गंवार लोग.

‘‘अच्छा सचसच बताओ, फावड़े से किस को मारा था तुम ने?’’ मजिस्ट्रेट की आवाज में कड़कपन था.

नारायण से यह झूठ बरदाश्त नहीं हुआ, बल्कि उस की ताकत बन गया. इस बार उस की आवाज में बिलकुल भी घबराहट नहीं थी.

नारायण बोला, ‘‘नहीं हुजूर, मैं कभी शराब नहीं पीता. मैं तो दिनभर दूसरों के खेत में मेहनतमजदूरी करता हूं. अगर नशा करूं तो मेरे बीवीबच्चे भूखे मर जाएं…’’

नारायण में आया यह बदलाव मजिस्ट्रेट को अच्छा नहीं लगा. वह नारायण की बात को बीच में ही काटते हुए बोला, ‘‘अपनी रामकहानी मत सुनाओ मुझे. मेरी बात का जवाब दो.

‘‘मैं ने तुम से पूछा था कि तुम ने फावड़े से किसे मारा था? पुलिस की रिपोर्ट में साफ लिखा है कि पुलिस ने जब तुम्हें पकड़ा तो तुम्हारे हाथ में फावड़ा था.’’

मजिस्ट्रेट की डांट से नारायण फिर घबरा गया. हाथ जोड़ कर वह मजिस्ट्रेट से बोला, ‘‘हुजूर, फावड़े से तो मैं खेत में निराईगुड़ाई कर के आया था. जब दंगा हो रहा था तब मैं खेत से सीधा घर लौट रहा था. मुझे पता नहीं था कि गांव में दंगा हो रहा है. जब फावड़ा मेरे हाथ में था, तभी पुलिस ने मुझे पकड़ लिया.’’

मजिस्ट्रेट का गुस्सा अभी कम नहीं हुआ था. वह बोला, ‘‘बड़ी अच्छी कहानी बनाई है. अच्छा चलो, पहले अपना पहचानपत्र दो. तुम्हारा न तो कोई वकील है, न जमानत देने वाला और न तुम्हारी पहचान साबित करने वाला कोई गवाह है.

‘‘मुझे तो तुम्हारी बात पर बिलकुल भी यकीन नहीं है. मैं जानता हूं, तुम सब झूठ बोलने में माहिर हो. कोई सुबूत हो तो जल्दी पेश करो, नहीं तो जेल की हवा खानी पड़ेगी.’’

‘‘हुजूर, मेरे पास तो कोई पहचानपत्र नहीं है. गरीबी की क्या पहचान, हुजूर. मेरी पहचान का सुबूत तो यह मेरा शरीर और ये 2 हाथ हैं,’’ नारायण ने गिड़गिड़ाते हुए कहा और अपने दोनों हाथ की बंद मुट्ठियां मजिस्ट्रेट के सामने खोल दीं.

उस की दोनों हथेलियां छालों से भरी हुई थीं. उस के हाथों के छाले उस की पहचान के पक्के सुबूत थे, जिन्हें किसी वकील की मदद के बिना सबकुछ कहना आता था.

ऐसी ठोस ‘गवाही’ उस मजिस्ट्रेट ने अपनी जिंदगी में पहली बार देखी थी. यह देख कर मजिस्ट्रेट की आंखें भर आईं.

मजिस्ट्रेट ने अपनेआप को संभाला और फिर हुक्म दिया, ‘‘इसे बाइज्जत बरी किया जाता है.’’

Hindi Story : …और राज खुला

Hindi Story : ‘‘राजू मेरा नाम है. अक्ल एमए पास है और शक्ल पीएचडी करने के काबिल है,’’ अपने आटोरिकशा की रफ्तार को और तेज करते हुए राजू ने अपना परिचय फिल्मी अंदाज में दिया.

यूनिवर्सिटी के सामने से राजू ने एक खूबसूरत सवारी अपने आटोरिकशा में बैठाई थी. मशरूम कट बाल, आंखों पर नीला चश्मा, गुलाबी टीशर्ट और काली जींस पहने उस सवारी ने उस से यों ही नाम पूछ लिया था.

उस के जवाब में राजू ने अपना दिलचस्प परिचय दिया था. राजू के जवाब पर वह सवारी मुसकरा दी, ‘‘बड़े दिलचस्प आदमी हो. कितने पढ़ेलिखे हो?’’

‘‘मैं ने इतिहास में एमए किया है. आगे पढ़ने का इरादा है, लेकिन पिताजी की अचानक मौत हो जाने की वजह से घर की गाड़ी में ब्रेक लग गया है. बैंक से कर्ज ले कर यह आटोरिकशा खरीदा है. दिनभर कमाई और रातभर पढ़ाई. बात समझ में आई…’’

‘‘वैरी गुड, कीप इट अप. तुम बहुत होशियार और मेहनती हो. मेरा नाम किरन है,’’ उस सवारी ने राजू की बात से खुश होते हुए कहा.

किरन को साइड मिरर में देख कर राजू ने सोचा, ‘यह जरूर किसी बड़े बाप की औलाद है. एसी में बैठ कर चेहरा गुलाबी हो गया है.’

आटोरिकशा आंचल सिनेमा के पास से गुजरा. उस में एक पुरानी फिल्म ‘मुझ से दोस्ती करोगे’ चल रही थी. किरन ने फिल्म का पोस्टर देख कर कहा, ‘‘मुझ से दोस्ती करोगे?’’

‘‘क्यों नहीं करूंगा. इतिहास गवाह है कि मर्द को अपने दोस्त और अपनी औरत से ज्यादा अजीज कुछ नहीं होता,’’ राजू ने जोश में आ कर कहा.

राजू की बात सुन कर किरन के होंठों पर मुसकराहट तैरने लगी. उस ने तो फिल्म का बस नाम पढ़ा था और राजू ने उस का और ही मतलब निकाल लिया था, पर उस के चेहरे से जाहिर हो रहा था कि उसे इस पढ़ेलिखे आटोरिकशा वाले से दोस्ती करने में कोई एतराज नहीं है.

राजू खुश था. खुशी से उस का चेहरा दमक उठा था. पिछले 6 महीने से वह इस रूट से सवारियां उठाता रहा था, मगर हर कोई उस से तूतड़ाक में ही बात करता था. पहली बार उस के आटोरिकशा में ऐसी सवारी बैठ  थी, जिस का दिल भी उसे उतना ही खूबसूरत लगा, जितना कि बदन.

‘‘आप को कहां जाना है, यह तो आप ने बताया ही नहीं?’’ राजू ने पीछे मुड़ कर पूछा.

‘‘पांचबत्ती चौराहा…’’ छोटा सा जवाब देने के बाद किरन ने गला साफ करते हुए पूछा, ‘‘फिल्में देखते हो?’’

‘‘बचपन में खूब देखता था, इसलिए फिल्मों का मुझ पर बहुत ज्यादा असर पड़ा है.’’

तभी आटोरिकशा एक झटके से रुक गया और राजू बोला, ‘‘आप की मंजिल आ गई.’’

‘‘बातोंबातों में समय का पता ही नहीं चला,’’ कह कर किरन ने 20 रुपए का नोट निकाल कर राजू की ओर बढ़ाया.

राजू नोट लेने से इनकार करते हुए बोला, ‘‘दोस्ती इस मुलाकात तक ही थी तो बेशक मैं पैसे ले लूंगा, वरना आप यह नोट वापस अपनी जेब के हवाले कर लें.’’

किरन ने मुसकरा कर राजू को घूरती निगाहों से देखा, जैसे उस की निगाहें यह परख रही हों कि उस ने किसी गलत आदमी को तो अपना दोस्त नहीं बनाया है. किरन ने नोट वापस जेब में रख लिया और फिर अपना हाथ राजू की तरफ बढ़ाया. राजू ने दोस्त के रूप में किरन का हाथ थाम लिया.

राजू ने महसूस किया कि किरन का हाथ छूते ही उस के दिमाग में अजीब सी तरंगें उठीं. किरन के जाने के 10 मिनट बाद तक राजू वहीं खड़ा रहा.

दूसरे दिन राजू को यूनिवर्सिटी के बाहर किरन के लिए ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा. आटोरिकशा में बैठते ही किरन ने कहा, ‘‘राजू, तुम्हें एमए में कितने फीसदी नंबर मिले थे?’’

‘‘64 फीसदी,’’ कहते हुए राजू ने आटोरिकशा स्टार्ट कर साइड मिरर में किरन के चेहरे को देखा.

किरन ने राजू का जोश बढ़ाते हुए कहा, ‘‘फिर तो तुम प्रतियोगी इम्तिहान पास कर के किसी भी कालेज में लैक्चरर बन सकते हो.’’

‘‘दोस्त, अपनी तकदीर खराब है. मेरी तकदीर में तो यह आटोरिकशा चलाना ही लिखा है.’’

‘‘तकदीर, माई फुट… मुझे इन चीजों पर यकीन नहीं है. आदमी अगर पूरी लगन से काम करे तो वह जो चाहता है, पा सकता है,’’ किरन ने राजू को डांट दिया.

राजू और किरन की दोस्ती पक्की हो गई थी. दोनों राजनीति, पढ़ाईलिखाई, फिल्म, दूसरी घटनाओं वगैरह पर खुल कर बातचीत करने लगे थे.

उस दिन रविवार था. राजू सुबहसुबह पांचबत्ती चौराहा पहुंच गया. आज उस की सालगिरह थी और वह उसे किरन के साथ मनाना चाहता था.

चौराहे के दाईं ओर किरन का बंगला था. बेबाक बातें करने में माहिर किरन ने राजू को अपने नाम के अलावा अपनी निजी जिंदगी और परिवार के बारे में कुछ नहीं बताया था. किरन को बंगले से निकल कर आते देख राजू का चेहरा खिल गया. राजू को खुश देख कर किरन के होंठों पर भी मुसकान उभरी.

किरन के आटोरिकशा में बैठते ही राजू ने म्यूजिक सिस्टम चला दिया. ‘जिंदगी एक सफर है सुहाना…’ गीत ने किरन के चेहरे पर ताजगी ला दी. उस ने राजू से पूछा, ‘‘क्या प्रोग्राम है?’’

‘‘तुम बोलो. जहां चाहो, वहां घुमा दूंगा. अच्छे होटल में खाना खिला दूंगा,’’ राजू ने कहा.

‘‘चलो, शहर में घूमते हैं. फिर दिल ने जो चाहा वही करेंगे. बोलो, मंजूर है?’’ किरन ने कहा.

‘‘आज का पूरा दिन तुम्हारे नाम. जो चाहोगे वही होगा,’’ कह कर राजू ने आटोरिकशा शहर के बाजार के भीड़भाड़ वाले इलाके की ओर मोड़ दिया.

थोड़ी दूर जाने के बाद किरन ने राजू को आटोरिकशा रोकने के लिए कहा. राजू ने आटोरिकशा रोक दिया.

‘‘आज मेरा मूड बहुत खराब है. मुझे तुम्हें कुछ बताना है. एक ऐसा सरप्राइज, जो तुम्हें चौंका देगा,’’ किरन ने आटोरिकशा रुकने के बाद कहा.

‘‘तो बताओ, क्या है सरप्राइज?’’

‘‘ऐसे नहीं, पहले तुम मुझे कुछ खिलाओपिलाओ.’’

‘‘क्या पीना है, कोल्ड डिंक या जूस?’’ राजू ने पूछा.

‘‘शराब पीनी है.’’

‘‘शराब, वह भी दिन में… मैं ने तो कभी शराब को छुआ तक नहीं,’’ राजू ने हैरानी से कहा.

‘‘अभी तो तुम ने मेरी मरजी के मुताबिक दिन बिताने का वादा किया था और फौरन भूल गए,’’ किरन ने कहा.

‘‘ठीक है, चलो,’’ कह कर राजू ने बेमन से आटोरिकशा बाजार की ओर बढ़ा दिया.

शराब का ठेका पास ही था. राजू शराब की बोतल ले आया. साथ में 2 कोल्ड ड्रिंक की बोतलें भी थीं. फिर दोनों सुनसान जगह पर जा पहुंचे. राजू ने वहां आटोरिकशा खड़ा कर दिया.

किरन ने कोल्ड ड्रिंक की दोनों बोतलों को आधा खाली कर के उन में शराब डाल दी. राजू का मन थोड़ा बेचैन सा हो गया, लेकिन वह अपने नए दोस्त को नाराज नहीं करना चाहता था. दोनों शराब पीने लगे. जैसा कि शराब पीने के बाद पीने वाले का हाल होता है, वही उन दोनों का भी हुआ. किरन को कम, मगर राजू को बहुत नशा चढ़ गया. वह निढाल सा हो कर आटोरिकशा की पिछली सीट पर बैठ गया.

‘‘चलो, अब शहर घूमते हैं. अब आटोरिकशा चलाने का जिम्मा मेरा,’’ कह कर किरन ने आटोरिकशा स्टार्ट कर दिया.

किरन को कार चलानी आती थी, इसलिए आटोरिकशा चलाना उसे बाएं हाथ का खेल लगा. उस ने आटोरिकशा का हैंडिल थाम लिया और भीड़भाड़ वाली सड़क की ओर मोड़ दिया.

नशे के सुरूर में किरन से आटोरिकशा संभल नहीं रहा था, फिर भी उसे चलाने में मजा आने लगा. बाजार में घुसते ही आटोरिकशा सब्जी के एक ठेले से टकरा गया, फिर आगे बढ़ कर एक साइकिल सवार को ऐसी टक्कर मारी कि वह बेचारा सड़क पर मुंह के बल गिर पड़ा. उस के होंठ व नाक से खून बहने लगा.

वह साइकिल सवार आटोरिकशा चलाने वाले को भलाबुरा कहता, उस से पहले ही सड़क के किनारे एक शोरूम के सामने खड़ी कार से आटोरिकशा टकरा कर बंद हो गया.

नशे की वजह से राजू को कुछ भी पता नहीं लगा. देखते ही देखते वहां लोगों की अच्छीखासी भीड़ जमा हो गई.

‘‘2 थप्पड़ मारो इस को, अभी नशा उतर जाएगा. दूध के दांत भी नहीं टूटे कि शराब पीना शुरू कर दिया,‘‘ भीड़ में से किसी ने कहा.

एक लड़के ने किरन को खींच कर आटोरिकशा से बाहर निकाला और पीटना शुरू किया.

‘‘मुझे मत मारो, मैं…’’ किरन ने डरते हुए कहा. मगर उस की बात किसी ने नहीं सुनी.

तभी 2 पुलिस वाले वहां आ गए. उन्होंने भी लगे हाथ किरन के गालों पर 2 थप्पड़ रसीद कर दिए.

शोरगुल सुन कर नशे में धुत्त राजू उठ खड़ा हुआ. मारपीट देख कर वह घबरा गया. वह किरन को बचाने के लिए भीड़ में घुस गया, मगर भीड़ तो मरनेमारने पर उतारू हो चुकी थी.

‘‘मैं लड़की हूं. मुझ पर हाथ मत उठाओ,’’ किरन ने चीखते हुए कहा.

‘‘अच्छा, खुद को लड़की बता कर पिटने से बचना चाहता है…’’ एक आदमी ने उसे घूंसा मारते हुए कहा.

किरन चेहरेमोहरे और कपड़ों से लड़की नहीं लगती थी. लोगों ने उसे पीटना जारी रखा. राजू भी बीचबचाव में किरन के साथ पिटने लगा.

‘‘मैं लड़की हूं… मुझे छोड़ दो,’’ किरन ने जोर से चिल्लाते हुए अपनी टीशर्ट उतार दी.

किरन के टीशर्ट उतारते ही लोग सकते में आ गए. वे दूर हट कर खड़े हो गए. किरन के कसे हुए ब्लाउज में छाती के उभार उस के लड़की होने का सुबूत दे रहे थे.

यह देख कर राजू का नशा काफूर हो गया. जिसे वह लड़का समझ कर दोस्ती निभा रहा था, वह एक लड़की थी. यह राज खुलना लोगों के लिए ही नहीं, बल्कि राजू के लिए भी अचरज की बात थी.

Hindi Kahani : चप्पल – आखिर मुख्यमंत्री के साथ ये क्या हो गया

Hindi Kahani : ‘‘अरे, उस पागल को पकड़ो… भागने न पाए,’’ एक सिक्योरिटी गार्ड दौड़ते हुए बोला. तब तक चारों ओर से सभी उसे दौड़ कर पकड़ चुके थे.

‘‘उसे छोड़ दो और मेरे पास लाओ,’’ मुख्यमंत्री का आदेश सुन कर सभी उसे उन के पास ले आए.

‘‘आओ, यहां आ कर बैठो,’’ मुख्यमंत्री ने थोड़ा गंभीर आवाज में कहा.

वह सिक्योरिटी गार्डों के घेरे में आ कर बैठ गया.

‘‘बताओ, तुम ने मुझे क्यों मारा? मैं ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था?’’ मुख्यमंत्री ने सीधे सवाल पूछा.

‘‘आप ने शराबबंदी क्यों लागू की?’’ यह उस का पहला सवाल था, जो सवाल के जवाब में पूछा गया

‘‘शराबबंदी लागू करने की वजह से मुझे क्यों मारा?’’ मुख्यमंत्री ने फिर सवाल किया.

‘‘इसलिए कि लाखों लोगों की रोजीरोटी इसी शराब से चलती थी. इसलिए कि बिना पहले कोई सूचना दिए शराबबंदी लागू कर देने से लाखों रुपए का घाटा हो गया,’’ उस ने जवाब दिया.

‘‘देखो भाई, शराब पीने से हजारों लोग मरते थे. अनेकों घर उजड़ जाते थे,’’ मुख्यमंत्री ने सरल भाव से उसे समझाया.

‘‘मगर, कितने लोगों की रोजीरोटी इस से चलती थी… कितने लोग इस के कारोबार से पलते थे… रही बात शराबबंदी की, तो शराब आज भी धड़ल्ले से बिक रही है. बस, पड़ोसी राज्य कमा रहे हैं,’’ उस ने मुख्यमंत्री को आईना दिखा दिया.

‘‘मगर मुझे मारने से तुम्हें क्या मिला?’’ मुख्यमंत्री का सवाल था.

‘‘दिल को सुकून. मैं आप को थप्पड़ नहीं मार सकता. आप अच्छे आदमी हैं, इसलिए जान से नहीं मारना चाहता था. बस, सबक सिखाने के लिए मैं ने अपना हाथ चला दिया.’’

इस जवाब ने मुख्यमंत्री को चौंका दिया. वे बोले, ‘‘देखो, तुम बहुत गरीब हो. इस तरह की हरकत से तुम अपना नुकसान कर रहे हो.’’

मुख्यमंत्री ने उस से इतना कह कर सिक्योरिटी गार्ड से उसे ले जाने को कहा. बाद में एसपी को बुला कर सच्ची बात उगलवाने की सलाह दी.

‘‘यह झूठ बोल रहा है. चप्पल मार कर यह मुझे मानसिक आघात पहुंचाना चाहता था, इसलिए पता करो कि सच क्या है?’’

मुख्यमंत्री की इस बात को सुनते ही एसपी झट से बोल उठा, ‘‘आप चिंता न करें सर. इस से सच उगलवा कर रहेंगे.’’

उसे सचिवालय थाने में लाया गया.

‘‘देख बे, हम सब आराम से पूछ रहे हैं. सच बता दे, वरना हमें दूसरा रास्ता भी अपनाना आता है,’’ एसपी उस के पास जा कर बोला.

‘‘क्या कर लेगा? हाईप्रोफाइल केस है. हाथ लगा कर तो दिखा, वरदी न उतरवा दूं, तो कहना,’’ वह अकड़ कर बोला.

अब तो एसपी का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया. वह 8-10 बेंत जमा कर बोला, ‘‘वरदी उतरवाएगा… चल उतरवा… तेरा एनकाउंटर यहीं कर देते हैं.’’

डंडे की चोट अच्छेअच्छों को ठीक कर देती है. वह चिल्लाया, ‘‘मत मारो, मैं बताता हूं.’’

एसपी रुकते हुए बोला, ‘‘सच बता दे, वरना तेरा यहीं काम तमाम कर देंगे.’’

‘‘बिलकुल सच बोलूंगा. मेरी मां बहुत बीमार हैं. उन के इलाज पर काफी पैसा खर्च होना है. मुझे इस काम के लिए 50 हजार रुपए मिले थे. मनोहर लाल ने मुझे पैसा दिया, तो मैं ने अपना काम कर दिया,’’ उस ने कहा.

‘‘तेरी बात गलत निकली, तो काट कर रख देंगे,’’ एसपी इतना कहता हुआ वहां से चला गया.

मुख्यमंत्री को जैसे ही पता चला, तो वे झट से मीडिया को बुला कर मुखातिब होते हुए बोले, ‘‘मेरे ऊपर चप्पल फेंकने वाला राजनीति से प्रेरित था. उसे ऐसा करने के लिए लोगों ने खासकर एक नेता ने मजबूर किया था.’’

‘‘आप को इन बातों का पता कैसे चला?’’ एक पत्रकार के सवाल पर उन्होंने एसपी को आगे कर दिया, जिस ने सभी को उचित जवाब दिया.

‘‘अब आप क्या करेंगे?’’ एक पत्रकार के इस सवाल पर मुख्यमंत्री झट से बोल उठे, ‘‘मैं उस की मां का इलाज कराऊंगा, क्योंकि जनता की देखरेख करना मेरा फर्ज है.’’

मुख्यमंत्री के इस बयान की सब ने तारीफ की. इधर मनोहर लाल नफरत की आग में जलने लगा था, ‘‘उस ने पैसा ले कर गद्दारी की है. मैं उसे कभी माफ नहीं करूंगा. मैं उस की मां को अस्पताल में ही मरवा दूंगा,’’ वह बड़बड़ाता हुआ बाहर आया, मगर बाहर खड़ी पत्रकारों की टीम ने उस के होश उड़ा दिए.

‘‘मनोहर लाल साहब, आप ने मुख्यमंत्री को चप्पल क्यों मरवाई?’’ एक पत्रकार का सीधा सवाल था.

‘‘मैं ऐसा क्यों करने लगा? जनता जनार्दन ही बुरे कामों के चलते चप्पल मारती है,’’ उस ने जवाब दिया.

‘‘आप गलत बोल रहे हैं. मुख्यमंत्री को चप्पल मारने वाला इस बात को कबूल कर चुका है कि आप ने चप्पल मारने के लिए उसे 50 हजार रुपए दिए थे,’’ यह दूसरे पत्रकार का कहना था.

‘‘पुलिसिया डंडे से तो आप भी उन का मनचाहा बयान दे देंगे. सच तो यह है कि मैं ने इस काम के लिए किसी को कोई पैसा नहीं दिया,’’ मनोहर लाल लीपापोती में लगा था.

‘‘आप का पैसा पकड़ा जा चुका है. वह आदमी न सिर्फ कबूल कर चुका है, बल्कि अस्पताल में फीस के 50 हजार रुपए आप का आदमी दीनदयाल जमा करा चुका है,’’ यह तीसरे पत्रकार की आवाज थी.

‘‘दीनदयाल ने किसी की मदद की तो यह अच्छी बात है, मगर चप्पल मारने का सौदा मैं ने किसी के साथ नहीं किया,’’ मनोहर लाल ने बात को संभालने की कोशिश की.

इधर मुख्यमंत्री खुद अस्पताल जा कर उस की मां के इलाज का पूरा पैसा जमा करा चुके थे. मनोहर लाल वाली बात वह अपराधी भी कबूल चुका था. वह पास आते ही उन के पैरों पर गिर कर बोला, ‘‘हुजूर, मुझ से गुनाह हो गया. आप मुझे चाहे फांसी पर लटकवा दें, मगर मेरी मां को…’’

‘‘कुछ नहीं होगा तुम्हारी मां को. वह पूरी तरह ठीक है. रही बात तुम्हारी, तो तुम ने सच कबूला है, इसलिए तुम्हारा बाल भी बांका नहीं होगा,’’ मुख्यमंत्री के इस बयान से वह रोने लगा.

‘‘अच्छा जाओ,’’ कह कर मुख्यमंत्री ने उसे विदा किया, तो वह बाहर आ गया.

मनोहर लाल का बयान बेतुका हो गया. जब पुलिस के डंडे दीनदयाल पर बजे, तो उस ने भी इस सच को कबूला कि उसे मनोहर लाल ने 50 हजार रुपए अस्पताल में जमा कराने के लिए भेजा था. साथ ही, चप्पल मारने का ठेका भी दिया था.

अब तो आलाकमान ने मनोहर लाल को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया. जेल की हवा खानी पड़ी, सो अलग.

मुख्यमंत्री मनोहर लाल से जेल में मिलने गए और मिलने के बाद पत्रकारों से मुखातिब होते हुए बोले, ‘‘मेरा मनोहर लाल से कोई वैर नहीं है. उस ने मुझे नीचा दिखाने के लिए ऐसी ओछी हरकत की. जो आदमी 50 हजार रुपए दे कर मुझ पर चप्पल फिंकवा सकता है, वह लाख 2 लाख रुपए दे कर मुझे मरवा भी सकता है.’’

‘‘मगर सर, क्या आप इस घटना से दुखी नहीं हैं,’’ एक पत्रकार के इस सवाल के जवाब में वे बोले, ‘‘जनता की सेवा करना, गलत काम को रोकना मेरा फर्ज है. सुशासन देने के लिए जनता ने मुझे मुख्यमंत्री बनाया है. मैं ने शराबबंदी की, तो शराबियों की दुकानें बंद हो गईं. मनोहर लाल भी इन्हीं में से एक है. वह मौत का सौदागर है.’’

अब तो मुख्यमंत्री की जयजयकार होने लगी, वहीं मनोहर लाल कोर्टकचहरी में उलझता चला गया. उस के घर से एक पेटी शराब पकड़ी गई और सरकार ने उस का घर सील कर दिया.

इस से मनोहर लाल टूट गया और झट से पैतरा बदलते हुए बोला, ‘‘मुख्यमंत्री मेरे दोस्त हैं. मुझे उन से कोई वैर नहीं है और न ही मैं ने ऐसा कराया है. चप्पल मारने वाले उस आदमी और दीनदयाल को सद्बुद्धि मिले. मैं ने उन दोनों को माफ कर दिया है.’’

Hindi Story : शादी का कार्ड – जब उस ने थमाया मुझे कार्ड

Hindi Story : अपने दफ्तर से लौटते समय आज शाम को जब रामेश्वर को किसी औरत ने नाम ले कर आवाज लगाई, तो उस के दोनों तेज दौड़ने वाले पैर जैसे जमीन से चिपक कर ही रह गए थे. रामेश्वर जिस तेजी के साथ सड़क से चिपक गया था, उस से कहीं तेजी से उस की सीधी दिशा में देखने वाली गरदन पीछे की तरफ मुड़ी और गरदन के मुड़ते ही जब रामेश्वर की दोनों आंखें उस आवाज देने वाली पर टिकीं, तो वह सन्न रह गया.

रामेश्वर सोच में पड़ गया कि आज सालों बाद मिलने वाले अपने इस अतीत को देख कर वह मुसकराए या फिर बिना कुछ कहे आगे की तरफ निकल जाए. वह चंद लमहों में अपने से ही ढेर सारे सवालजवाब कर बैठा था. जब रामेश्वर की जबान ने उस का साथ देने से साफ इनकार कर दिया, तो खामोशी तोड़ते हुए वह औरत पूछने लगी, ‘‘रामेश्वर, भूल गए क्या? तुम तो कहते थे कि मैं तुम्हें ख्वाबों में भी नहीं भूल सकता.’’

‘‘सच कहता था. मैं ने एकदम सच कहा था. कौन भूला है तुम्हें? क्या तुम्हें ऐसा लगा कि मैं तुम्हें भूल गया हूं? ‘‘मुझे आज भी तुम्हारा नाम याद है. कभी तुम ने साथ जिंदगी जीने की कसमें खाई थीं. इतना ही नहीं, तुम से मिलने की खुशी से ले कर तुम से बिछड़ने तक के सफर में जो भी हुआ, सब याद है.

‘‘आज भी तुम्हारी एक आवाज ने मेरे दौड़ते पैरों को रोक दिया, जबकि इस भागतेदौड़ते शहर की तेज जिंदगी में लोग अपने अंदर तक की आवाज को नहीं सुन पाते.

‘‘लाखों की तादाद में चलने वाली गाडि़यों की आवाजें, तेज कदमों की आवाजों के बीच कितनी ही खामोशियों की आवाज टूट कर रह जाती है. मगर मैं ने और मेरी खामोशियों ने आज भी तुम्हारी आवाज की ताकत बढ़ा दी. क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता सुचित्राजी…’’

रामेश्वर अभी अपनी पूरी बात कहने ही वाला था कि तभी एक लाल रंग की कार बड़ी तेजी से उस की तरफ बढ़ती दिखी. सुचित्रा ने फुरती से उस को अपनी तरफ खींच लिया. दोनों की सांसों की रफ्तार उस कार की रफ्तार से भी तेज हो गई थी. कुछ संभलते हुए रामेश्वर बुदबुदाया, ‘‘फिर तेरे कर्ज में डूबा यह दीवाना. मरे हुए को बचा कर तू ने अच्छा नहीं किया.

‘‘सुचित्राजी, एक बार फिर मैं और मेरी जिंदगी तुम्हारी कर्जदार हो गई है. इतने एहसान भी मत करो. आज मिली भी तो मिलते ही एहसान चढ़ा दिया,’’ रामेश्वर की आवाज में दर्द की चीखें साफ सुनाई दे रही थीं. ‘‘कैसी बातें कर रहे हैं रामेश्वर. मैं ने कोई एहसान नहीं किया. मेरी जगह कोई और होता, तो वह भी यही सब करता. क्या तुम मुझे नहीं बचाते?

‘‘और यह तुम ने जी…जी की क्या रट लगा रखी है. क्या मैं अब इतनी पराई हो गई हूं?’’ वह थोड़ा मुसकरा कर बोली, ‘‘चलो, किसी रैस्टोरैंट में बैठ कर चाय पीते हैं. चलोगे मेरे साथ चाय पीने?’’ सुचित्रा के अंदाज में एक नशा सा था, तभी तो रामेश्वर चाह कर भी उसे मना नहीं कर सका.

चाय का प्याला लेते हुए सुचित्रा मुसकराते हुए बोली, ‘‘रामेश्वर, कैसी गुजर रही है तुम्हारी जिंदगी? कितने बच्चे हैं? अच्छा, यह तो बताओ कि तुम्हारी बीवी तुम्हारा कितना खयाल रखती है?’’

सुचित्रा की आंखों में आज भी पहले जैसा ही तेज नशा और होंठों पर पहले जैसी रंगत थी. हां, चेहरे की ताजगी में कुछ रूखापन जरूर आ गया था.

सुचित्रा आज भी बला की खूबसूरत थी. उस के बात करने का अंदाज आज भी उतना ही कातिल था, जितना कि 5 साल पहले था.

‘‘मैं एक कंपनी में असिस्टैंट मैनेजर के पद पर हूं. यहीं कुछ दूरी पर रहता हूं. वैसे, आप इस शहर में अकेली क्या कर रही हो सुचित्रा?’’ ‘‘तुम भी तो इस शहर की भीड़ में अकेले ही चल रहे थे. बस, कुछ ऐसे

ही मैं भी,’’ इतना कह कर सुचित्रा खिलखिला कर हंस दी. ‘‘सुचित्रा, एक बात कहूं… अगर तुम्हें बुरा न लगे तो…’’ रामेश्वर के चेहरे पर हजारों सवाल आसानी से पढे़ जा सकते थे.

‘‘मैं ने आज तक तुम्हारी बात का बुरा माना ही कब है, जो आज मानूंगी. कहो, जो कहना है. मुद्दत के बाद की इस मुलाकात को किसी तरह आगे तो बढ़ाया जाए… क्यों मिस्टर रामेश्वर?’’ सुचित्रा के बात करने के अंदाज कातिल होते जा रहे थे. कुछ सकपकाते हुए रामेश्वर कहने लगा, ‘‘वह तो ठीक है. पहले कुछ और बात थी…’’ बात को बीच में ही काटते हुए सुचित्रा बोली, ‘‘बात आज भी वही है, इतना पराया मत बनाओ यार.’’

सुचित्रा के बोलने और देखने के अंदाज रामेश्वर को परेशानी में डाल रहे थे. वह कहने लगा, ‘‘मैं तो यह कह रहा था, तुम आज भी बहुत खूबसूरत लग रही हो. कुछ भी नहीं बदला, तुम कितनी…’’ आगे रामेश्वर कुछ भी नहीं कह पाया. ऐसा लगा, जैसे और शब्द उस के हलक में चिपक कर रह गए हों. ‘‘तुम भी तो पहले जैसे ही हो. हां, पहले मेरे मना करने पर भी मेरी तारीफ करते थे और आज तारीफ करने के लिए भी तुम्हें सोचना पड़ता है,’’ तेज आवाज में हंसते हुए सुचित्रा आगे कहने लगी, ‘‘हां तो मिस्टर रामेश्वर, एक फर्क और भी आया है आप में.’’

रामेश्वर ने चौंकते हुए पूछा, ‘‘क्या फर्क आया है मुझ में सुचित्रा?’’ रामेश्वर का उदास चेहरा देख

कर सुचित्रा हंसते हुए बोली, ‘‘इतना क्यों घबराते हो मेरे राम. फर्क आया है मूंछों का. पहले इस चेहरे पर ये कालीकाली हसीन मूंछें नहीं थीं.’’

इस बात पर वे दोनों खिलखिला कर हंस पड़े. ‘‘सुचित्रा, तुम ने बताया नहीं कि तुम इस शहर में कैसे? तुम्हारे पति क्या करते हैं?’’ रामेश्वर ने सवाल किया.

सुचित्रा कुछ खामोश सी हो कर बताने लगी, ‘‘मैं तो इस शहर में नौकरी की तलाश में आई थी, नौकरी न सही तुम ही सही. वैसे, मेरे पति क्या करते हैं, यह मुझे अभी तक नहीं पता.’’ ‘‘तुम ने क्यों इतना खुला

छोड़ रखा है उसे?’’ अब रामेश्वर ने चुटकी लेते हुए पूछा, ‘‘तुम को भी तो खुला छोड़ रखा

है तुम्हारी पत्नी ने,’’ अपनी मोटीमोटी नशीली आंखों को रामेश्वर के चेहरे पर गड़ाते हुए सुचित्रा ने कहा. ‘‘आज क्या रैस्टोरैंट में ही ठहरने का इरादा है? तुम्हारे पति तुम्हारा इंतजार कर रहे होंगे. फिर कभी मिलते हैं सुचित्रा,’’ रामेश्वर ने अनमने मन से कहा.

सुचित्रा अपनी जुल्फों को लहराते हुए आशिकाना अंदाज में कहने लगी, ‘‘5-6 साल बाद तो आज मिले हैं, अब की बार बिछड़े तो कौन जाने फिर मिलें या न मिलें. वैसे भी इस कटी पतंग की डोर का कोई मालिक नहीं है. हां, शायद आप की पत्नी आप का इंतजार कर रही होंगी.’’ ‘‘क्या…’’ रामेश्वर कटी पतंग सुन कर चौंका और उस से पूछने लगा, ‘‘क्यों, तलाक हो गया क्या?’’

‘‘तलाक तो तब होता, जब शादी होती रामेश्वर,’’ अब की बार सुचित्रा काफी थकेथके अंदाज में बोली. ‘‘क्या कह रही हो सुचित्रा? तुम्हारी शादी के तो कार्ड भी छपे थे. फिर वह सब क्या था?’’ रामेश्वर ने सवाल किया.

‘‘वे कार्ड तो कार्ड बन कर ही रह गए, तुम ने तो जा कर देखा तक भी नहीं. देखते भी कैसे? कौन अपनी मुहब्बत का जनाजा उठते देख सकता है? कैसे देखते तुम अपनी मुहब्बत का सौदा किसी दूसरे के हाथों होता? मैं भी नहीं देख सकती थी,’’ अब की बार सुचित्रा की आंखें नम थीं और आवाज भी चेहरे पर जिंदगी की शिकायत आसानी से पढ़ी जा सकती थी. सुचित्रा आगे बताने लगी, ‘‘हुआ यों रामेश्वर, शादी के कार्ड भी छपे, बरात भी आई, मेहमान भी आए, मंडप भी सजा और बाजे भी बजे, लेकिन…’’ आगे के अलफाज सुचित्रा के मुंह में ही जैसे अपना दम तोड़ चुके थे.

‘‘लेकिन क्या सुचित्रा?’’ रामेश्वर ने गंभीरता से पूछा. ‘‘पिताजी ने मेरी लाख खिलाफत के बावजूद मेरी शादी दूसरी जगह तय कर दी. मैं ने तुम्हारे बारे में बताया, मगर तुम्हारी बेरोजगारी के चलते वे अपनी जिद पर अड़ गए. असल में वे तुम्हारी अलग जाति की वजह से मना कर रहे थे और मेरा विरोध उन के सामने टूट कर रह गया और तुम भी काफी दूर निकल गए. कभी सोचा भी नहीं था कि हम ऐसे भी मिलेंगे,’’ कह कर सुचित्रा ने अपनी गरदन नीचे की तरफ झुका ली.

‘‘आगे क्या हुआ क्या हुआ था सुचित्रा?’’ रामेश्वर ने पूछा. ‘‘मुझे फेरों के लिए लाया ही गया था कि अचानक मंडप में पुलिस आ गई और दूल्हे के हाथों में हथकड़ी लगा कर अपने साथ ले गई,’’ सुचित्रा की आंखों से आंसू लुढ़क कर उस के गालों को भिगोने लगे.

‘‘लेकिन क्यों सुचित्रा?’’ पूछते हुए रामेश्वर चौंका. ‘‘इसलिए कि वह स्मगलिंग करता था और उस ने पापा को एक कंपनी का मालिक बताया था. उस के बाद न तो पापा ही जिद कर सके और न ही मैं ने शादी करनी चाही.

‘‘मैं अब परिवार पर बोझ बन कर जीना नहीं चाहती थी, इसलिए नौकरी की तलाश में यहां तक आ गई और तुम से मुलाकात हो गई. ‘‘अब तुम बताओ कि तुम्हारा परिवार कैसा है?’’ सुचित्रा ने खुद को संभालते हुए रामेश्वर को बोलने का मौका दिया. ‘‘किसी नजर को तेरा इंतजार आज भी है. कहां हो तुम ये दिल बेकरार आज भी है.

‘‘ये लाइनें मेरे जीने का जरीया बन चुकी थीं सुचित्रा. मैं तो अभी तक तुम्हारे इंतजार में ही बैठा तुम्हारे लौटने की राह ताक रहा था,’’ इतना सुन कर सुचित्रा सभी से बेखबर हो रामेश्वर से लिपट कर फूटफूट कर रोने लगी और सिसकियां लेते हुए कहने लगी, ‘‘रामेश्वर, अब की बार मुझे अकेला मत छोड़ना. इस कटी पतंग की डोर तुम उम्रभर के लिए अपने हाथों में ले लो रामेश्वर, अपने हाथों में ले लो.’’

‘‘ठीक है, हम अपनी शादी के कार्ड छपवा लेते हैं,’’ रामेश्वर मुसकराते हुए बोला.

‘‘अब की बार कार्ड नहीं सीधे शादी करेंगे रामेश्वर,’’ सुचित्रा की बात सुन कर रामेश्वर ने उसे अपने आगोश में ले कर चूम लिया था. रैस्टोरैंट में बैठे बाकी लोग, जो काफी समय से उन दोनों की बातें सुन रहे थे, एकसाथ खड़े हो कर तालियां बजाने लगे. दोनों शरमाते हुए एकदूसरे को गले लगाते हुए बाहर निकल गए.

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