कहीं मेला कहीं अकेला

पूनम अहमद

‘‘यह रिश्ता मुझे हर तरह से ठीक लग रहा है. बस अब तनु आ जाए तो इसे ही फाइनल करेंगे,’’ गिरीश ने अपनी पत्नी सुधा से कहा.

‘‘पहले तनु हां तो करे, परेशान कर रखा है उस ने, अच्छेभले रिश्ते में कमी निकाल देती है…संयुक्त परिवार सुन कर ही भड़क जाती है. अब की बार मैं उस की बिलकुल नहीं सुनूंगी और फिर यह रिश्ता उस की शर्तों पर खरा ही तो उतर रहा है. पता नहीं अचानक क्या जिद चढ़ी है कि बड़े परिवार में विवाह नहीं करेगी, क्या हो गया है इन लड़कियों को,’’ सुधा ने कहा.

‘‘तुम्हें तो पता ही है न, यह सब उस की बैस्ट फ्रैंड रिया का कियाधरा है… ऐसी कहां थी हमारी बेटी पर आजकल के बच्चों पर तो दोस्तों का प्रभाव इतना ज्यादा रहता है कि पूछो मत,’’ गिरीशजी बोले.

दोनों पतिपत्नी चिंतित और गंभीर मुद्रा में बातें कर ही रहे थे कि तनु औफिस से

आ गई. मातापिता का गंभीर चेहरा देख चौंकी, फिर हंसते हुए बोली, ‘‘फिर कोई रिश्ता आ गया क्या?’’

उस के कहने के ढंग पर दोनों को हंसी आ गई. पल भर में माहौल हलकाफुलका हो गया. तीनों ने साथ बैठ कर चाय पी. फिर गिरीश का इशारा पा कर सुधा ने कहा, ‘‘इस रिश्ते में कोई कमी नहीं लग रही है, यहीं लखनऊ में ही लड़के के मातापिता अपने बड़े बेटेबहू के साथ रहते हैं. छोटा बेटा मुंबई में ही कार्यरत है, वह दवा की कंपनी में प्रोडक्ट मैनेजर है.’’

तनु पल भर सोच कर मुसकराती हुई बोली, ‘‘अच्छा, वहां अकेला रहता है?’’

‘‘हां.’’

‘‘फिर यह तो ठीक है. बस, उस के मातापिता बारबार मुंबई न पहुंच जाएं.’’

‘‘क्या बकवास करती हो तनु,’’ सुधा को गुस्सा आ गया, ‘‘उन का बेटा है, क्या वे वहां नहीं जा सकते? कैसी हो गई हो तुम? ये सब क्या सीख लिया है? हम आज भी तरसते हैं कोई बड़ा हमारे सिर पर होता तो कितना अच्छा होता पर सब का साथ सालों पहले छूट गया और एक तुम हो… क्या ससुराल में बस पति से मतलब होता है? बाकी रिश्ते भी होते हैं, उन की भी एक मिठास होती है.’’

‘‘नहीं मां, मुझे घबराहट होती है, रिया बता रही थी…’’

सुधा गुस्से में  खड़ी हो गईं, ‘‘मुझे उस लड़की की कोई बात नहीं सुननी… उस लड़की ने हमारी अच्छीभली बेटी का दिमाग खराब कर दिया है…हमारे परिवार में हम 3 ही हैं. थोड़े दिन पहले तुम जौइंट फैमिली में हर रिश्ते का आनंद उठाना चाहती थी पर इस रिया ने अपनी नैगेटिव बातों से तुम्हारा दिमाग खराब कर दिया है.’’

तनु को भी गुस्सा आ गया. वह भी पैर पटकती हुई अपने रूम में चली गई.

गिरीश और सुधा सिर पकड़े बैठे रह गए.

तनु की बैस्ट फ्रैंड रिया का विवाह 6 महीने पहले ही दिल्ली में हुआ था. उस की ससुराल में सासससुर और पति अनुज थे, समृद्ध परिवार था. रिया भी अच्छी जौब में थी. तनु से ही रिया के हालचाल मिलते रहते थे. दिन भर दोनों व्हाट्सऐप पर चैट करती थीं. अकसर छुट्टी वाले दिन दोनों की बातें सुधा के कानों में पड़ती थीं तो वे मन ही मन बेचैन हो उठती थीं. उन्होंने अंदाजा लगा लिया था कि रिया सासससुर की, यहां तक कि अनुज की भी कमियां निकाल कर तनु को किस्से सुनाती रहती है. वह तनु की बैस्ट फ्रैंड थी,  जिस के खिलाफ एक शब्द भी सुनना तनु को मंजूर नहीं था. तनु को हर बात सुधा से भी शेयर करने की आदत थी इसलिए वह कई बातें उन्हें खुद ही बताती रहती थी.

कभी तनु कहती, ‘‘आज रिया का मूड खराब है मम्मी, उसे अनुज ने मौर्निंग वाक के लिए उठा दिया, उसे सोना था, बेचारी अपनी मरजी से सो भी नहीं सकती.’’

एक दिन तनु ने बताया, ‘‘रिया की सास हैल्थ पर बहुत ध्यान देती हैं… उसे वही बोरिंग टिफिन खाना पड़ता है.’’

सुधा ने पूछा, ‘‘उस की सास ही टिफिन बनाती हैं?’’

‘‘हां, रिया औफिस जाती है तो वे ही घर का सारा काम देखती हैं. उन के यहां कुक है पर उस की सास अपनी निगरानी में ही सब खाना तैयार करवाती हैं.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है. रिया को खुश होना चाहिए, इस में शिकायत की क्या बात है?’’

क्या खुश होगी बेचारी, उसे वह टिफिन अच्छा नहीं लगता. वह किसी और को खिला देती है. अपने लिए कुछ मनचाहा और्डर करती है बेचारी.

‘‘इस में बेचारी की क्या बात है? उस की सास हैल्दी खाना बनवा कर क्या गलत कर रही है?’’

तनु को गुस्सा आ गया, ‘‘आप उस की परेशानी क्यों नहीं समझतीं?’’

‘‘यह कोई परेशानी नहीं है. बेकार के किस्से सुना कर तुम्हारा टाइम और दिमाग दोनों खराब करती है वह लड़की.’’

2 दिन तो तनु चुप रही, फिर आदतन तीसरे दिन ही शुरू हो गई, ‘‘रिया के सारे रिश्तेदार दिल्ली में ही रहते हैं. कभी किसी के यहां कोई फंक्शन होता है, तो कभी किसी के यहां. पता नहीं  कितने तो रिश्ते के देवर, ननदें हैं, जो छुट्टी वाले दिन टाइमपास के प्रोग्राम बनाते रहते हैं. रिया थक जाती है बेचारी.’’

सुधा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. रिया की बातें सुनसुन कर थक गई थीं. तनु की सोच बिलकुल बदल गई थी. अच्छीखासी स्नेहमयी मानसिकता की जगह नकारात्मकता ने ले ली थी.

कुछ दिन बाद तनु के उसी रिश्ते की बात को आगे बढ़ाया गया. तनु और रजत मिले. दोनों ने एकदूसरे को पसंद किया. सब कुछ सहर्ष तय कर दिया गया. रजत मुंबई में अकेला रह रहा था, इसलिए उस के मातापिता गौतम और राधा को उस के विवाह की जल्दी थी. विवाह अच्छी तरह से संपन्न हो गया था.

रिया भी अनुज के साथ आई थी. वह तनु से कह रही थी, ‘‘तुम्हारी तो मौज हो गई तनु. सब से दूर अकेले पति के साथ रहोगी. काश, मुझे भी यही लाइफ मिलती पर वहां तो मेला ही लगा रहता है.’’

इस बात को सुन कर सुधा को गुस्सा आया था. सब रस्में संपन्न होने के बाद 1 हफ्ते बाद तनु और रजत मुंबई जाने की तैयारी कर रहे थे. तनु के औफिस की ब्रांच मुंबई में भी थी. उस की योग्यता को देखते हुए उस का ट्रांसफर मुंबई ब्रांच में कर दिया गया. रजत के भाई विजय, भाभी रेखा और 3 साल का भतीजा यश और स्नेह लुटाते सासससुर सब के साथ तनु का समय बहुत अच्छा बीता था.

बीचबीच में  रिया भी निर्देश देती रहती थी, ‘‘मुंबई आने के लिए कहने की फौर्मैलिटी में मत पड़ना, नहीं तो वहां सब डट जाएंगे आ कर.’’ भरपूर स्नेह और आशीर्वाद के साथ दोनों परिवार उन्हें एअरपोर्ट तक छोड़ने आए.

तनु ने मुंबई पहुंच कर रजत के साथ नया जीवन शुरू किया. रजत के साथ ने उस का जीवन खुशियों से भर दिया. दोनों सुबह निकलते रात को आते. वीकैंड में ही दोनों को थोड़ी राहत रहती. सुबह लताबाई आ कर घर का सारा काम कर जाती. तनु फटाफट किचन का काम देखते हुए तैयार होती. 2 जनों का काम ज्यादा नहीं था पर रात को लौट कर किचन में घुसना अखर जाता.

रजत ने कई बार कहा भी था, ‘‘डिनर के लिए भी किसी बाई को रख लेते हैं.’’

‘‘पर हमारा कोई आने का टाइम तय नहीं है न और फिर घर की चाबी देना भी सेफ नहीं रहेगा.’’

‘‘चलो, ठीक है, मिल कर कुछ कर लिया करेंगे.’’ तनु की रिया से अब भी लगातार चैट चलती रहती थी. रिया उस के आजाद जीवन पर आंहें भरती थी. 5 महीने बीत रहे थे. रजत को 1 हफ्ते की ट्रैनिंग के लिए सिंगापुर भेजा जा रहा था. उस ने कहा, ‘‘अकेली कैसे रहोगी? लखनऊ से मातापिताजी को बुला लेते हैं…वैसे भी अभी तक घर से कोई नहीं आया.’’

‘‘नहीं, अकेली कहां, रिया का बहुत मन कर रहा है आने का, वह आ जाएगी… मातापिताजी को तुम्हारे लौटने के बाद बुला लेंगे,’’ तनु ने अपनी तरफ से बात टालने की कोशिश की तो रजत मान गया.

तनु ने मौका मिलते ही रिया को फोन किया, ‘‘अपना प्रोग्राम पक्का रखना, कोई बहाना नहीं.’’

‘‘अरे, पक्का है. मैं पहुंच जाऊंगी. मुझे भी इस भीड़ से छुट्टी मिलेगी. तेरे पास शांति से रहूंगी 1 हफ्ता.’’

जिस दिन रजत गया, उसी दिन शाम तक रिया भी मुंबई पहुंच गई. दोनों सहेलियां गले मिलते हुए चहक उठी थीं. बातें खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थीं. देर रात तक रिया के किस्से चलते रहे. सासससुर की बातें, देवरननदों में हंसीमजाक के किस्से, रिश्तेदारों के फंक्शनों के किस्से.

अगले दिन तनु ने छुट्टी ले ली थी. दोनों खूब घूमीं, मूवी देखी, शौपिंग की, रात को ही घर वापस आईं.

रिया ने कहा, ‘‘हाय, ऐसा लग रहा है दूसरी दुनिया में आ गई हूं. तेरे घर में कितनी शांति है तनु, दिल खुश हो गया यहां आ कर.’’

तनु मुसकरा दी, ‘‘अब थक गई हैं, सोती हैं. कल औफिस जाऊंगी, शाम को जल्दी आ जाऊंगी. सुबह मेड आ कर सब काम कर देगी, अपने टिफिन के साथ तेरा खाना भी बना कर रख दूंगी, आराम से उठना कल.’’

अगले दिन सब काम कर के तनु औफिस चली गई. बारह बजे रिया का फोन आया, ‘‘तनु, क्या बताऊं, मजा आ गया अभी सो कर उठी हूं, कितनी शांति है तेरे घर में, कोई आवाज नहीं, कोई शोर नहीं.’’

थोड़ी देर बातें कर रिया ने फोन काट दिया. तनु सुधा को भी रिया के आने का प्रोगाम बता चुकी थी. सुधा ने कहा था, ‘‘कितने अच्छे लोग हैं, बहू को आराम से 1 हफ्ते के लिए फ्रैंड से मिलने भेज रखा है, फिर भी रिया कद्र नहीं करती उन का.’’

रिया ने आराम से फ्रैश हो कर खाना खाया, टीवी देखा, फिर सो गई. शाम को तनु आई तो दोनों ने चाय पीते हुए ढेरों बातें कीं. रिया की बातें खत्म ही नहीं हो रही थीं.

अचानक रिया ने कहा, ‘‘तू भी तो बता कुछ…कुछ किस्से सुना.’’

‘‘बस, किस की बात बताऊं, हम दोनों ही तो हैं यहां, सुबह जा कर रात को आते हैं, पूरा हफ्ता ऐसे ही भागतेदौड़ते बीत जाता है, वीकैंड पर ही आराम मिलता है. घर में तो कोई बात करने के लिए भी नहीं होता.’’

‘‘हां कितनी शांति है यहां. वहां तो घर में घुसते ही सासूमां चाय, नाश्ता, खाने की पूछताछ करने लगी हैं. मैं तो थक गई हूं वहां. आए दिन कुछ न कुछ चलता रहता है.’’

तनु आज अपने ही मनोभावों पर चौंकी. उस ने दिल में एक उदासी सी महसूस की. उस ने रिया की बातें सुनते हुए डिनर तैयार किया, बीचबीच में रिया के पति और उस के सासससुर फोन पर बातें करते रहे थे.

दोनों जब सोने लेटीं तो दोनों के मन में अलगअलग तरह के भाव उत्पन्न हो रहे थे. रिया सोच रही थी वाह, क्या बढि़या लाइफ जी रही है तनु. घर में कितनी शांति है, न कोई शोरआवाज, न किसी की दखलंदाजी कि क्या खाना है, कहां जाना है, अपनी मरजी से कुछ भी करो. वाह, क्या लाइफ है. उधर तनु सोच रही थी रिया इतने दिनों से ससुराल का रोना रो रही है कि काश, वह अकेली रह पाती पर मुझे तो समझ ही नहीं आ रहा कि अकेले रहने में क्या सुख है? यहां तो हम दोनों के अलावा सुबह बस बाई दिखती है जो मशीन की तरह काम कर के चली जाती है. हमारी चिंता करने वाला तो कोई भी नहीं यहां. मायके में भी हम 3 ही थे, कितना शौक था मुझे संयुक्त परिवार की बहू बन कर हर रिश्ते का आनंद उठाने का. यहां हर वीकैंड में किसी मौल में या कोई मूवी देख कर छुट्टी बिता लेते हैं. घर आते हैं तो थके हुए. कोई भी अपना नहीं दिखता. इस अकेले संसार में ऐसा क्या सुख है, जिस के लिए रिया तरसती रहती है. ऐसे अकेलेपन का क्या फायदा जहां न देवर की हंसीठिठोली हो न ननद की छेड़खानी और न सासससुर की डांट और उन का स्नेह भरा संरक्षण.

दोनों सहेलियां एकदूसरे के जीवन के बारे में सोच रही थीं. पर तनु मन ही मन फैसला कर चुकी थी कि वह कल सुबह ही लखनऊ फोन कर ससुराल से किसी न किसी को आने के लिए जरूर कहेगी. उसे भी जीवन में हर रिश्ते की मिठास को महसूस करना है. अचानक उस की नजर रिया की नजरों से मिली तो दोनों हंस दीं.

रिया ने पूछा, ‘‘क्या सोच रही थी?’’

‘‘तुम्हारे बारे में और तुम?’’

‘‘तुम्हारे बारे में,’’ और फिर दोनों हंस पड़ीं, पर तनु की हंसी में जो रहस्यभरी खनक थी वह रिया की समझ से परे थी.

दंश : भाग -1

कुमुद भटनागर

अपने साथ काम करने वाली किसी भी लड़की से गौतम औपचारिक बातचीत से ज्यादा ताल्लुकात नहीं बढ़ाता था. एक रोज एक रिपोर्ट बनाने के लिए उसे और श्रेया को औफिस बंद होने के बाद भी रुकना पड़ा और जातेजाते बौस ने ताकीद कर दी, ‘‘श्रेया को घर जाने में कुछ परेशानी हो तो देख लेना, गौतम.’’

पार्किंग में आने पर श्रेया को अपनी एक्टिवा स्टार्ट करने की असफल कोशिश करते देख गौतम ने कहा, ‘‘इसे आज यहीं छोड़ दो, श्रेया. ठोकपीट कर स्टार्ट कर भी ली तो रास्ते में परेशान कर सकती है. कल मेकैनिक को दिखाने के बाद चलाना.’’

‘‘ठीक है, पंकज से कहती हूं पिक कर ले,’’ श्रेया ने मोबाइल निकालते हुए कहा, ‘‘वह 15-20 मिनट में आ जाएगा.’’

‘‘उसे बुलाने से बेहतर है मेरी बाइक पर चलो,’’ गौतम बोला.

‘‘लेकिन मेरा घर दूसरी दिशा में है, तुम्हें लंबा चक्कर लगाना पड़ेगा.’’

‘‘यहां खड़े रहने से बेहतर होगा तुम मेरे साथ चलो. वैसे भी तुम्हें यहां अकेले छोड़ कर तो जाऊंगा नहीं.’’

बात श्रेया की समझ में आई और वह गौतम की बाइक पर बैठ गई. घर पहुंचने पर श्रेया का आग्रह कर के गौतम को अंदर ले जाना स्वाभाविक ही था. अपने पापा देवेश, मां उमा, छोटी बहन रिया और जुड़वां भाई पंकज से उस ने गौतम का परिचय करवाया.

‘‘ओह, मैं समझा था पंकज तुम्हारा बौयफ्रैंड है, सो तुम्हें लिफ्ट देने में कोई खतरा नहीं है,’’ गौतम बेसाख्ता कह उठा.

‘‘बेफिक्र रहो, पंकज के रहते मुझे बौयफ्रैंड की जरूरत ही महसूस नहीं होती,’’ श्रेया हंसी.

‘‘इसे छोड़ने आने के चक्कर में तुम्हें घर जाने में देर हो गई,’’ उमा ने कहा.

‘‘कोई बात नहीं आंटी, घर जा अकेले चाय पीता, यहां सब के साथ नाश्ता भी कर रहा हूं.’’

उमा को उस की सादगी अच्छी लगी. उस ने गौतम के परिवार के बारे में पूछा. गौतम ने बताया कि उस के कोई बहनभाई नहीं है. मातापिता यूनिवर्सिटी में प्राध्यापक थे. अब उन्होंने प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रत्याशियों के लिए अपना कोचिंग कालेज खोल लिया है.

‘‘छोटी सी फैमिली है मेरी, आप के यहां सब के साथ रौनक में बैठ कर बहुत अच्छा लग रहा है,’’ गौतम ने श्रेया के भाईबहन की ओर देखते हुए कहा, ‘‘आज पहली बार मम्मीपापा से शिकायत करूंगा कोई बहनभाई न देने के लिए.’’

‘‘अब मम्मीपापा तो बहनभाई दिलाने से रहे, यहीं आ जाया करो सब से मिलने. हमें भी अच्छा लगेगा,’’ देवेश ने कहा.

‘‘जी जरूर, अभी चलता हूं, पापा के आने से पहले घर पहुंचना है.’’

‘‘देर से पहुंचने पर पापा नाराज होंगे?’’ पंकज ने पूछा.

‘‘नाराज तो नहीं लेकिन मायूस होंगे जो मुझे पसंद नहीं है,’’ गौतम ने उठते हुए कहा, ‘‘पापा मुझे बहुत प्यार करते हैं और मैं उन्हें.’’

उस के बाद औफिस में तो दोनों के ताल्लुकात पहले जैसे ही रहे लेकिन जबतब श्रेया पापा की ओर से घर आने का आग्रह करने लगी जिसे गौतम तुरंत स्वीकार कर लेता था. एक रोज यह सुन कर कि गौतम को बिरयानी बहुत पसंद है, देवेश ने कहा, ‘‘हमारे यहां हरेक छुट्टी के रोज बिरयानी बनती है. कभी लखनवी, कभी हैदराबादी तो कभी अमृतसरी. तुम किसी रविवार को लंच पर आ जाओ.’’

‘‘रविवार की दावत तो मैं स्वीकार नहीं कर सकता अंकल, क्योंकि एक रविवार ही तो मिलता है पापा के साथ लंच करने को.’’

‘‘तो पापा को भी यहीं ले आओ.’’

‘‘हां, यह ठीक रहेगा,’’ गौतम फड़क कर बोला, ‘‘पापा को भी बिरयानी बहुत पसंद है.’’

‘‘तो ठीक है, इस रविवार को तुम पापामम्मी के साथ लंच पर आ रहे हो. मुझे उन का नंबर दो, मैं स्वयं उन से आने का आग्रह करूंगी,’’ उमा ने कहा.

‘‘इतनी औपचारिकता की आवश्यकता नहीं है आंटी, पापा मेरे कहने से ही आ जाएंगे. मम्मी तो शुद्ध शाकाहारी हैं, इसीलिए हमारे यहां यह सब नहीं बनता. मम्मी को फिर कभी ले आऊंगा, रविवार को मुझे और पापा को ही आने दीजिए,’’ कह करगौतम चला गया.

रविवार को गौतम अपने पापा ब्रजेश के साथ आया. देवेश और उमा को ब्रजेश बहुत सहज और मिलनसार व्यक्ति लगे और बापबेटे के आपसी लगाव व तालमेल ने उन्हें बहुत प्रभावित किया.

‘‘इतनी स्वादिष्ठ चिकन बिरयानी तो नहीं लेकिन गीता भी उंगलियां चाटने वाली मटर की कचौड़ी और अचारी आलू वगैरा बनाती है,’’ ब्रजेश ने कहा, ‘‘अगले रविवार को आप सब हमारे यहां आ रहे हैं?’’

देवेश और उमा सहर्ष मान गए. देवेश, उमा और श्रेया रविवार को गौतम के घर पहुंच गए. गीता भी बापबेटे की तरह ही मिलनसार और हंसमुख थी. कुछ ही देर में दोनों परिवारों में अच्छा तालमेल हो गया और वातावरण सहज व अनौपचारिक. उमा किचन में गीता का हाथ बंटाने चली गई, ब्रजेश ने बड़े शौक से सब को अपना पूरा घर दिखाया और फिर आने का अनुरोध किया.

‘‘जरूर आएंगे लेकिन उस से पहले गीता बहन को हमारे यहां आना है,’’ उमा ने कहा.

‘‘आप न कहतीं तो भी मैं इसे ले कर आने वाला ही था और आऊंगा भी,’’ ब्रजेश के कहने के अंदाज पर सभी हंस पड़े.

एक रोज गौतम लंचब्रेक में श्रेया के पास आया, ‘‘मेरे पापामम्मी तुम्हारे घर हमारी शादी की बात करने जा रहे हैं और यह तुम भी जानती हो कि तुम्हारे घर वाले इनकार नहीं करेंगे लेकिन इस से पहले कि तुम हां कहो, मैं तुम्हें कुछ बताना चाहता हूं, अपने और अपने परिवार के बारे में. मेरे जीवन में हमेशा सर्वोच्च स्थान मेरे पापा का ही रहेगा क्योंकि उन के मुझ पर बहुत एहसान हैं. वे मेरे जन्मदाता नहीं हैं. उन का देहांत तो मेरे जन्म के कुछ समय बाद ही हो गया था.

‘‘वैसे तो पापा भी वहीं पढ़ाते थे जहां मम्मी लेकिन वे मेरे मामा के दोस्त भी थे. सो, अकसर घर पर आया करते थे और मेरे साथ बहुत खेलते थे. एक रोज मामा से यह सुनने पर कि घर में मम्मी की दूसरी शादी की चर्चा चल रही है, उन्होंने छूटते ही पूछा, ‘गौतम का क्या होगा?’

‘‘शादी ऐसे व्यक्ति से ही करेंगे जो गौतम को अपने बेटे की तरह अपना मानेगा,’’ मामा ने जवाब दिया.

‘‘इस की क्या गारंटी होगी कि शादी के बाद वह अपनी बात पर कायम रहेगा?’’ पापा ने फिर प्रश्न किया.

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वाइट पैंट – जब 3 सहेलियों के बीच प्यार ने दी दस्तक

लेखिका- सरिता पंथी

इस बार जब मायके आई तो घूमते हुए कालेज के आगे से गुजरना हुआ. तभी अनायास ही वह सफेद पैंट पहना हुआ शख्स आंखों के आगे लहरा गया जिस का नाम ही हम लोगों ने वाइट पैंट रखा हुआ था. और सोचते हुए कालेज के दिन चलचित्र जैसे आंखों के आगे नाचने लगे.

बात तब की है जब हम ने कालेज में नयानया ऐडमिशन लिया था. उस जमाने में कालेज जाना ही बहुत बड़ी बात होती थी. हर कोई स्कूल के बाद कालेज तक नहीं पहुंच पाता था. तो हम खुद को बहुत खुशनसीब समझते थे जो कालेज की चौखट तक पहुंचे थे. इंटर कालेज के कठोर अनुशासन के बाद कालेज का खुलापन और रंगबिरंगे परिधान एक अलग ही दुनिया की सैर कराते थे.

हमारे लिए हर दिन नया दिन होता था. कालेज हमें कभी बोर नहीं करता था. हम 3 सहेलियां थीं सरिता, सुमित्रा और सुदेश. हम हमेशा साथसाथ रहती थीं, इसीलिए सभी लोग हमें त्रिमूर्ति भी कहते थे.

हम तीनों अकसर क्लास खत्म होने के बाद खुले मैदान में बैठ कर घंटों गपें लड़ाती थीं. इसी क्रम में हम तीनों ने महसूस किया कि कोई हमारे आसपास खड़ा हो कर हम पर नजर रखता है और इस बात को हम तीनों ने ही नोट किया. हम ने देखा मध्यम कदकाठी का एक लड़का, जो बहुत खूबसूरत नहीं था, उस के गेहुएं रंग में सिल्की बाल अच्छे ही लग रहे थे. शर्ट जैसी भी पहने था. लेकिन पैंट वह हमेशा सफेद ही पहनता था. रोजरोज उसे सफेद पैंट में देखने के कारण हम ने उस का नाम ही वाइट पैंट रख दिया था जिस से हमें उस के बारे में बात करने में आसानी रहती थी.

हमारा काम था क्लास के बाद मैदान में बैठ कर टाइम पास करना और उस का काम एक निश्चित दूरी से हम को देखते रहना. जब यह क्रम काफी दिनों तक चलता रहा तो हमें भी कुतूहल हुआ कि आखिर यह हम तीनों में से किसे पसंद करता है. सो, हम तीनों ने सोचा क्यों न इस बात का पता लगाया जाए. तो इत्तफाक से एक दिन सुदेश नहीं आई लेकिन हम ने देखा कि वाइट पैंट फिर भी हमारे आसपास उपस्थित है. तो इतना तो पक्का हो गया कि सुदेश वह लड़की नहीं है जिस के लिए वह हमारा ग्रुप ताकता है. कुछ समय बाद सुमित्रा उपस्थित न रही. फिर भी उस का हमें ताकना बदस्तूर जारी रहा. अब सुमित्रा भी इस शक के घेरे से बाहर थी. अब रह गई थी एकमात्र मैं और फिर किसी कारणवश मैं ने भी छुट्टी ली तो अगले दिन कालेज जाने पर पता चला कि मेरे न होने पर भी उस का ताकना जारी था.

अब तो हम तीनों को गुस्सा आने लगा. लेकिन कर भी क्या सकते थे. हम कहीं भी जा कर बैठते, उसे अपने आसपास ही पाते. हम ने कई बार अपने बैठने की जगह भी बदली, मगर उसे अपने ग्रुप के आसपास ही पाया. तीनों में मैं थोड़ी साहसी और निडर थी. हम रोज उसे देख कर यही सोचते कि इसे कैसे मजा चखाया जाए. लेकिन हमारे पास कोई आइडिया नहीं था और वैसे भी, इतने महीनों तक न उस ने कुछ बात की और न ही कभी कोई गलत हरकत. इसलिए भी हम कुछ नहीं कर सके. लेकिन उस का हमेशा हमारे ही ग्रुप को ताकना हमें किसी बोझ से कम नहीं लगता था. एक दिन हमारे बैठते ही जब वह भी आ गया तो मैं ने कहा चलो, आज इसे मजा चखाते हैं. तो दोनों बोलीं, ‘कैसे?’

?मैं ने कहा, ‘यह रोज हमारा पीछा करता है न, तो चलो आज हम इस का पीछा करते हैं.’ वे दोनों बोलीं, ‘कैसे?’ मैं ने कहा, ‘तुम दोनों सिर्फ मेरा साथ दो. जैसा मैं कहती हूं, बस, मेरे साथसाथ वैसे ही चलना.’ उन दोनों ने हामी भर दी. फिर हम वहीं बैठे रहे. हम ने देखा लगभग एक घंटे बाद वह लाइब्रेरी की तरफ गया तो मैं ने दोनों से कहा कि चलो अब मेरे साथ इस के पीछे. आज हम इस का पीछा करेंगे और इसे सताएंगे. मेरी बात सुन कर वे दोनों खुश हो गईं. और हम तीनों उस के पीछेपीछे लाइब्रेरी पहुंच गए. जितनी दूरी पर वह खड़ा होता था, लगभग उतनी ही दूरी बना कर हम तीनों खड़े हो गए. जब उस की नजर हम पर पड़ी तो वह हमें देख कर चौंक गया और हलके से मुसकरा कर अपने काम में लग गया.

उस के बाद वह पानी पीने वाटरकूलर के पास गया तो हम भी उस के पीछेपीछे वहीं पहुंच गए. अब तक वह हम से परेशान हो चुका था. फिर वो नीचे आया और मैदान के दूसरे छोर पर बने विज्ञान विभाग की तरफ चल दिया. हम भी उस के पीछेपीछे चल दिए. वह विज्ञान विभाग के अंदर गया और काफी देर तक बाहर नहीं आया. हम बाहर ही मैदान में बैठ कर उस के बाहर आने का इंतजार करने लगे.

लगभग 35 मिनट के बाद वह चोरों की तरह झांकता हुआ बाहर निकला, तो उस ने हम तीनों को उस के इंतजार में बैठे पाया. 10 बजे से इस चूहेबिल्ली के खेल में 2 बज चुके थे. वह हम से भागतेभागते बुरी तरह थक चुका था. वह कालेज से बाहर निकला और ऋषिकेश की तरफ पैदल चलने लगा. हम भी उस के पीछे हो लिए. वह मुड़मुड़ कर हमें देखता और आगे चलता जाता. जब थकहार कर उसे हम किसी भी तरह टलते नहीं दिखे तो आखिर में वह हरिद्वार जाने वाली बस में चढ़ गया और हमारे सामने से हमें टाटा करते हुए मुसकराते हुए निकल गया. हम तीनों अपनी इस जीत पर पेट पकड़ कर हंसती रहीं और फिर उस दिन के बाद कभी दोबारा हम ने वाइट पैंट को अपने आसपास नहीं देखा.

छुटकी नहीं…बड़की : भाग -1

नीरज कुमार मिश्रा

फजल और हिना की शादी को 7 साल हो गए थे, पर उन्हें अभी तक एक भी औलाद नहीं हो सकी थी. लखनऊ के नामीगिरामी डाक्टरों का इलाज करवाया जा चुका था. हजारों रुपए के टैस्ट करवाए गए, पर सब फुजूल…

डाक्टरों ने हिना और फजल दोनों के टैस्ट की रिपोर्ट आने के बाद यही बताया था कि दोनों की जिस्मानी हालत बिलकुल ठीक नहीं है. हालांकि वे दोनों बच्चा पैदा करने में पूरी तरह से काबिल हैं, पर अगर फिर भी बच्चा नहीं हो रहा है तो सही समय का इंतजार करें. फजल के घर में किसी तरह की कोई कमी नहीं थी. वह घर में मंझला भाई था. बड़े भाई के 3 बच्चे थे, 2 बेटे और एक बेटी. फजल का एक छोटा भाई हैदर था, जिस का हाल ही में निकाह हुआ था.

फजल की कमाई का जरीया उस की आरा मशीन थी, जो घर से कुछ ही दूरी पर लगी हुई थी. उस पर इतना काम आता कि काम बंद करतेकरते ही रात के 9 भी बज जाते थे. तकरीबन 15 आरा मशीन पर नौकर लगे हुए थे, जो बड़ी ईमानदारी से काम करते थे.

पुराने लखनऊ में तिमंजिला मकान होना अपनेआप में बहुत बड़ी बात थी और चारपहियों की 2 गाडि़यां भी फजल के दरवाजे पर खड़ी रह कर शान बढ़ाती थीं. फजल के पास न तो काम की कमी थी और न ही पैसे की… उस की और हिना की जिंदगी में एक औलाद की कमी जरूर थी और यह कमी फजल को अब और भी खलने लगी, जब छोटे भाई हैदर के निकाह के साल के अंदर ही वह भी एक चांद जैसी बेटी का बाप बन गया.

‘‘जी… शादी के 2 सालों तक औलाद नहीं हुई तो अब हमें औलाद क्या होगी, इसीलिए मैं चाहती हूं कि हम कोई बच्चा गोद ले लें,’’ एक दिन हिना ने कहा. ‘‘तुम भी क्या बेकार की बात करती हो… डाक्टर ने कहा है कि मेरी मर्दानगी में कोई कमी नहीं है और न ही तुम में कोई कमी है और फिर 2 सालों में तुम्हें 2 बार बच्चा ठहर भी तो चुका है…

‘‘अब यह अलग बात है कि तुम उन्हें संभाल नहीं पाई और तुम को 2 महीने पर ही गर्भपात हो गया… हम फिर से कोशिश करेंगे और हमें औलाद जरूर होगी,’’ फजल ने हिना को समझाया.

हिना की बच्चे को गोद लेने वाली बात से शायद फजल के आत्मसम्मान को ठेस लग गई थी, इसीलिए वह हिना पर झल्ला उठा था. हिना उस समय तो फजल की बात का कोई जवाब नहीं दे पाई, पर एक औलाद न होने के गम में वह अंदर ही अंदर घुटने लगी और परेशान रहने लगी.

2 साल का समय और गुजर गया. अब भी हिना मां नहीं बन पाई थी और एक दिन अचानक वह बहुत बीमार पड़ गई. उसे डाक्टरों को दिखाया गया. ‘‘देखिए, इन्हें अंदरूनी कमजोरी है और ब्लड प्रैशर बढ़ा हुआ है… आप लोग इन्हें ज्यादा से ज्यादा खुश रखने की कोशिश कीजिए… इन की बीमारी अपनेआप ठीक हो जाएगी,’’ डाक्टर कह कर चला गया.

फजल को पता था कि हिना खुश क्यों नहीं रह पा रही है. शादी के इतने साल बाद भी वह मां नहीं बन पाई है. परेशान हालत में वह अपनी आरा मशीन पर बैठा हुआ लकडि़यों के एक ठूंठ को देख रहा था.

‘‘सब खैरियत तो है फजल बाबू,’’ आरा मशीन पर काम करने वाले सज्जाद मुंशी ने पूछा.

‘‘अरे कहां सज्जाद भाई… मेरी दिक्कतें तो आप को पता ही हैं… पर, अब हिना ने मां न बन पाने की बात को अपने जेहन की गहराइयों में बिठा लिया है… लिहाजा, बीमार हो कर वह बिस्तर पर पड़ी है…

‘‘हां, एक बार उस ने एक बच्चा गोद लेने की फरमाइश जरूर की थी, पर मैं ने उसे मना कर दिया, क्योंकि मुझे लगता है कि मेरे भाइयों के बच्चे भी तो मेरे बच्चे हैं… तो भला बच्चा गोद लेने की जरूरत है?’’ फजल उसे बता रहा था.

‘‘तो इस में परेशानी क्या है… आप किसी बच्चे को गोद ले सकते हैं,’’ सज्जाद मुंशी ने कहा.

‘‘ऐसे हर किसी राह चलते का बच्चा तो गोद नहीं लिया जा सकता न सज्जाद भाई… कोई ऐसा हो, जिसे हम जानते हों… उस के परिवार को जानते हों… उन के परिवार में कोई ऐब न हो तो ही ठीक है… वरना हम बेऔलाद ही मर जाएं तो बेहतर होगा,’’ फजल ने लंबी सांस भरते हुए कहा.

‘‘ऐसी बात मत कहिए हुजूर… वैसे, अगर आप चाहें तो इस नाचीज का बच्चा गोद ले सकते हैं. अभी मेरी बीवी ने कोई 10 दिन पहले ही एक बेटी को जन्म दिया है. आप तो जानते ही हैं कि मेरे पहले से ही 3 लड़कियां हैं… एक लड़के की चाह में मेरा परिवार बड़ा होता गया…

‘‘अब इतनी महंगाई के दौर में 4 लड़कियों को पालना… मेरे लिए भी मुश्किल होगा शुरुआत से आप बच्ची को साथ रखेंगे, तो वह आप को अब्बू और हिना को अम्मी ही समझेगी,’’ सज्जाद मुंशी ने कहा.

‘‘तुम्हारी बेटी को मैं गोद ले लूं, पर क्या तुम्हारी बीवी इस के लिए राजी हो जाएगी?’’ फजल ने पूछा.

‘‘मेरी अपनी बीवी को तो मैं मना लूंगा… और फिर मेरा बच्चा आप जैसे शरीफ आदमी के घर पलेगा तो इस से बड़ी सुकून देने वाली बात मेरे लिए और क्या होगी… यह हम 2 लोगों की जबान का मामला है… न इस में किसी कोर्ट की जरूरत होगी और न ही किसी कागजी कार्यवाही की…

‘‘मैं कसम खाता हूं कि इस बच्चे को आप को सौंपने के बाद उस पर कभी हक नहीं जताऊंगा,’’ सज्जाद ने कहा.

सज्जाद मुंशी की बातों में फजल को सचाई नजर आ रही थी और उस की बातों से एक नया हौसला भी मिल रहा था.

उसे यों सोच में पड़ा देख सज्जाद मुंशी बोला, ‘‘इतनी भी कोई जल्दी नहीं है… आप घर जा कर अच्छी तरह सोच लेना… घर पर सलाह कर लेना, तब मुझे बताना.’’

घर आ कर फजल ने एक बच्ची को गोद लेने वाली बात हिना से कही.फजल की बातें सुन कर हिना की सूनी आंखों में मानो रोशनी आ गई. वह बिस्तर पर से उठ कर बैठ गई और बोली, ‘‘तो क्या मुझे भी कोई अम्मी कह कर पुकारेगा? मैं भी किसी को गोद में ले सकूंगी,’’ हिना की आंखों से आंसू छलक पड़े थे.

काफी अच्छी तरह सोचविचार करने के बाद फजल सज्जाद मुंशी के घर जा कर उस की दुधमुंही बच्ची को अपने घर ले आया. दुनिया की कोई भी मां अपने दुधमुंहे बच्चे को अपने से अलग नहीं करना चाहती है, पर जब सज्जाद मुंशी ने अपनी बीवी को यह बात समझाई कि उस की बेटी इतने बड़े घर में जाएगी और वे लोग भी तुम्हारी बेटी को कितना लाड़ करेंगे, तब जा कर कहीं हामी भरी थी सज्जाद की बीवी ने.

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यह तो पागल है

अपनी पत्नी सरला को अस्पताल के इमरजैंसी विभाग में भरती करवा कर मैं उसी के पास कुरसी पर बैठ गया. डाक्टर ने देखते ही कह दिया था कि इसे जहर दिया गया है और यह पुलिस केस है. मैं ने उन से प्रार्थना की कि आप इन का इलाज करें, पुलिस को मैं खुद बुलवाता हूं. मैं सेना का पूर्व कर्नल हूं. मैं ने उन को अपना आईकार्ड दिखाया, ‘‘प्लीज, मेरी पत्नी को बचा लीजिए.’’

डाक्टर ने एक बार मेरी ओर देखा, फिर तुरंत इलाज शुरू कर दिया. मैं ने अपने क्लब के मित्र डीसीपी मोहित को सारी बात बता कर तुरंत पुलिस भेजने का आग्रह किया. उस ने डाक्टर से भी बात की. वे अपने कार्य में व्यस्त हो गए. मैं बाहर रखी कुरसी पर बैठ गया. थोड़ी देर बाद पुलिस इंस्पैक्टर और 2 कौंस्टेबल को आते देखा. उन में एक महिला कौंस्टेबल थी.

मैं भाग कर उन के पास गया, ‘‘इंस्पैक्टर, मैं कर्नल चोपड़ा, मैं ने ही डीसीपी मोहित साहब से आप को भेजने के लिए कहा था.’’

पुलिस इंस्पैक्टर थोड़ी देर मेरे पास रुके, फिर कहा, ‘‘कर्नल साहब, आप थोड़ी देर यहीं रुकिए, मैं डाक्टरों से बात कर के हाजिर होता हूं.’’

मैं वहीं रुक गया. मैं ने दूर से देखा, डाक्टर कमरे से बाहर आ रहे थे. शायद उन्होंने अपना इलाज पूरा कर लिया था. इंस्पैक्टर ने डाक्टर से बात की और धीरेधीरे चल कर मेरे पास आ गए.

मैं ने इंस्पैक्टर से पूछा, ‘‘डाक्टर ने क्या कहा? कैसी है मेरी पत्नी? क्या वह खतरे से बाहर है, क्या मैं उस से मिल सकता हूं?’’ एकसाथ मैं ने कई प्रश्न दाग दिए.

‘‘अभी कुछ नहीं कहा जा सकता. डाक्टर अपना इलाज पूरा कर चुके हैं. उन की सांसें चल रही हैं. लेकिन बेहोश हैं. 72 घंटे औब्जर्वेशन में रहेंगी. होश में आने पर उन के बयान लिए जाएंगे. तब तक आप उन से नहीं मिल सकते. हमें यह भी पता चल जाएगा कि उन को कौन सा जहर दिया गया है,’’ इंस्पैक्टर ने कहा और मुझे गहरी नजरों से देखते हुए पूछा, ‘‘बताएं कि वास्तव में हुआ क्या था?’’

‘‘दोपहर 3 बजे हम लंच करते हैं. लंच करने से पहले मैं वाशरूम गया और हाथ धोए. सरला, मेरी पत्नी, लंच शुरू कर चुकी थी. मैं ने कुरसी खींची और लंच करने के लिए बैठ गया. अभी पहला कौर मेरे हाथ में ही था कि वह कुरसी से नीचे गिर गई. मुंह से झाग निकलने लगा. मैं समझ गया, उस के खाने में जहर है. मैं तुरंत उस को कार में बैठा कर अस्पताल ले आया.’’

‘‘दोपहर का खाना कौन बनाता है?’’

‘‘मेड खाना बनाती है घर की बड़ी बहू के निर्देशन में.’’

‘‘बड़ी बहू इस समय घर में मिलेगी?’’

‘‘नहीं, खाना बनवाने के बाद वह यह कह कर अपने मायके चली गई कि उस की मां बीमार है, उस को देखने जा रही है.’’

‘‘इस का मतलब है, वह खाना अभी भी टेबल पर पड़ा होगा?’’

‘‘जी, हां.’’

‘‘और कौनकौन है, घर में?’’

‘‘इस समय तो घर में कोई नहीं होगा. मेरे दोनों बेटों का औफिस ग्रेटर नोएडा में है. वे दोनों 11 बजे तक औफिस के लिए निकल जाते हैं. छोटी बहू गुड़गांव में काम करती है. वह सुबह ही घर से निकल जाती है और शाम को घर आती है. दोनों पोते सुबह ही स्कूल के लिए चले जाते हैं. अब तक आ गए होंगे. मैं गार्ड को कह आया था कि उन से कहना, दादू, दादी को ले कर अस्पताल गए हैं, वे पार्क में खेलते रहें.’’

इंस्पैक्टर ने साथ खड़े कौंस्टेबल से कहा, ‘‘आप कर्नल साहब के साथ इन के फ्लैट में जाएं और टेबल पर पड़ा सारा खाना उठा कर ले आएं. किचन में पड़े खाने के सैंपल भी ले लें. पीने के पानी का सैंपल भी लेना न भूलना. ठहरो, मैं ने फोरैंसिक टीम को बुलाया है. वह अभी आती होगी. उन को साथ ले कर जाना. वे अपने हिसाब से सारे सैंपल ले लेंगे.’’

‘‘घर में सीसीटीवी कैमरे लगे हैं?’’ इंस्पैक्टर ने मुझ से पूछा.

‘‘जी, नहीं.’’

‘‘सेना के बड़े अधिकारी हो कर भी कैमरे न लगवा कर आप ने कितनी बड़ी भूल की है. यह तो आज की अहम जरूरत है. यह पता भी चल गया कि जहर दिया गया है तो इसे प्रूफ करना मुश्किल होगा. कैमरे होने से आसानी होती. खैर, जो होगा, देखा जाएगा.’’

 

इतनी देर में फोरैंसिक टीम भी आ गई. उन को निर्देश दे कर इंस्पैक्टर ने मुझ से उन के साथ जाने के लिए कहा.

‘‘आप ने अपने बेटों को बताया?’’

‘‘नहीं, मैं आप के साथ व्यस्त था.’’

‘‘आप मुझे अपना मोबाइल दे दें और नाम बता दें. मैं उन को सूचना दे दूंगा.’’ इंस्पैक्टर ने मुझ से मोबाइल ले लिया.

फोरैंसिक टीम को सारी कार्यवाही के लिए एक घंटा लगा. टीम के सदस्यों ने जहर की शीशी ढूंढ़ ली. चूहे मारने का जहर था. मैं जब पोतों को ले कर दोबारा अस्पताल पहुंचा तो मेरे दोनों बेटे आ चुके थे. एक महिला कौंस्टेबल, जो सरला के पास खड़ी थी, को छोड़ कर बाकी पुलिस टीम जा चुकी थी. मुझे देखते ही, दोनों बेटे मेरे पास आ गए.

‘‘पापा, क्या हुआ?’’

‘‘मैं ने सारी घटना के बारे में बताया.’’

‘‘राजी कहां है?’’ बड़े बेटे ने पूछा.

‘‘कह कर गई थी कि उस की मां बीमार है, उस को देखने जा रही है. तुम्हें तो बताया होगा?’’

‘‘नहीं, मुझे कहां बता कर जाती है.’’

‘‘वह तुम्हारे हाथ से निकल चुकी है. मैं तुम्हें समझाता रहा कि जमाना बदल गया है. एक ही छत के नीचे रहना मुश्किल है. संयुक्त परिवार का सपना, एक सपना ही रह गया है. पर तुम ने मेरी एक बात न सुनी. तब भी जब तुम ने रोहित के साथ पार्टनरशिप की थी. तुम्हें 50-60 लाख रुपए का चूना लगा कर चला गया.

‘‘तुम्हें अपनी पत्नी के बारे में सबकुछ पता था. मौल में चोरी करते रंगेहाथों पकड़ी गई थी. चोरी की हद यह थी कि हम कैंटीन से 2-3 महीने के लिए सामान लाते थे और यह पैक की पैक चायपत्ती, साबुन, टूथपेस्ट और जाने क्याक्या चोरी कर के अपने मायके दे आती थी और वे मांबाप कैसे भूखेनंगे होंगे जो बेटी के घर के सामान से घर चलाते थे. जब हम ने अपने कमरे में सामान रखना शुरू किया तो बात स्पष्ट होने में देर नहीं लगी.

‘‘चोरी की हद यहां तक थी कि तुम्हारी जेबों से पैसे निकलने लगे. घर में आए कैश की गड्डियों से नोट गुम होने लगे. तुम ने कैश हमारे पास रखना शुरू किया. तब कहीं जा कर चोरी रुकी. यही नहीं, बच्चों के सारे नएनए कपड़े मायके दे आती. बच्चे जब कपड़ों के बारे में पूछते तो उस के पास कोई जवाब नहीं होता. तुम्हारे पास उस पर हाथ उठाने के अलावा कोई चारा नहीं होता.

‘‘अब तो वह इतनी बेशर्म हो गई है कि मार का भी कोई असर नहीं होता. वह पागल हो गई है घर में सबकुछ होते हुए भी. मानता हूं, औरत को मारना बुरी बात है, गुनाह है पर तुम्हारी मजबूरी भी है. ऐसी स्थिति में किया भी क्या जा सकता है.

‘‘तुम्हें तब भी समझ नहीं आई. दूसरी सोसाइटी की दीवारें फांदती हुई पकड़ी गई. उन के गार्डो ने तुम्हें बताया. 5 बार घर में पुलिस आई कि तुम्हारी मम्मी तुम्हें सिखाती है और तुम उसे मारते हो. जबकि सारे उलटे काम वह करती है. हमें बच्चों के जूठे दूध की चाय पिलाती थी. बच्चों का बचा जूठा पानी पिलाती थी. झूठा पानी न हो तो गंदे टैंक का पानी पिला देती थी. हमारे पेट इतने खराब हो जाते थे कि हमें अस्पताल में दाखिल होना पड़ता था. पिछली बार तो तुम्हारी मम्मी मरतेमरते बची थी.

‘‘जब से हम अपना पानी खुद भरने लगे, तब से ठीक हैं.’’ मैं थोड़ी देर के लिए सांस लेने के लिए रुका, ‘‘तुम मारते हो और सभी दहेज मांगते हैं, इस के लिए वह मंत्रीजी के पास चली गई. पुलिस आयुक्त के पास चली गई. कहीं बात नहीं बनी तो वुमेन सैल में केस कर दिया. उस के लिए हम सब 3 महीने परेशान रहे, तुम अच्छी तरह जानते हो. तुम्हारी ससुराल के 10-10 लोग तुम्हें दबाने और मारने के लिए घर तक पहुंच गए. तुम हर जगह अपने रसूख से बच गए, वह बात अलग है. वरना उस ने तुम्हें और हमें जेल भिजवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. इतना सब होने पर भी तुम उसे घर ले आए जबकि वह घर में रहने लायक लड़की नहीं थी.

‘‘हम सब लिखित माफीनामे के बिना उसे घर लाना नहीं चाहते थे. उस के लिए मैं ने ही नहीं, बल्कि रिश्तेदारों ने भी ड्राफ्ट बना कर दिए पर तुम बिना किसी लिखतपढ़त के उसे घर ले आए. परिणाम क्या हुआ, तुम जानते हो. वुमेन सैल में तुम्हारे और उस के बीच क्या समझौता हुआ, हमें नहीं पता. तुम भी उस के साथ मिले हुए हो. तुम केवल अपने स्वार्थ के लिए हमें अपने पास रखे हो. तुम महास्वार्थी हो.

‘‘शायद बच्चों के कारण तुम्हारा उसे घर लाना तुम्हारी मजबूरी रही होगी या तुम मुकदमेबाजी नहीं चाहते होगे. पर, जिन बच्चों के लिए तुम उसे घर ले कर आए, उन का क्या हुआ? पढ़ने के लिए तुम्हें अपनी बेटी को होस्टल भेजना पड़ा और बेटे को भेजने के लिए तैयार हो. उस ने तुम्हें हर जगह धोखा दिया. तुम्हें किन परिस्थितियों में उस का 5वें महीने में गर्भपात करवाना पड़ा, तुम्हें पता है. उस ने तुम्हें बताया ही नहीं कि वह गर्भवती है. पूछा तो क्या बताया कि उसे पता ही नहीं चला. यह मानने वाली बात नहीं है कि कोई लड़की गर्भवती हो और उसे पता न हो.’’

‘‘जब हम ने तुम्हें दूसरे घर जाने के लिए डैडलाइन दे दी तो तुम ने खाना बनाने वाली रख दी. ऐसा करना भी तुम्हारी मजबूरी रही होगी. हमारा खाना बनाने के लिए मना कर दिया होगा. वह दोपहर का खाना कैसा गंदा और खराब बनाती थी, तुम जानते थे. मिनरल वाटर होते हुए भी, टैंक के पानी से खाना बनाती थी.

‘‘मैं ने तुम्हारी मम्मी से आशंका व्यक्त की थी कि यह पागल हो गई है. यह कुछ भी कर सकती है. हमें जहर भी दे सकती है. किचन में कैमरे लगवाओ, नौकरानी और राजी पर नजर रखी जा सकेगी. तुम ने हामी भी भरी, परंतु ऐसा किया नहीं. और नतीजा तुम्हारे सामने है. वह तो शुक्र करो कि खाना तुम्हारी मम्मी ने पहले खाया और मैं उसे अस्पताल ले आया. अगर मैं भी खा लेता तो हम दोनों ही मर जाते. अस्पताल तक कोई नहीं पहुंच पाता.’’

इतने में पुलिस इंस्पैक्टर आए और कहने लगे, ‘‘आप सब को थाने चल कर बयान देने हैं. डीसीपी साहब इस के लिए वहीं बैठे हैं.’’ थाने पहुंचे तो मेरे मित्र डीसीपी मोहित साहब बयान लेने के लिए बैठे थे. उन्होंने कहा, ‘‘मुझे सब से पहले आप की छोटी बहू के बयान लेने हैं. पता करें, वह स्कूल से आ गई हो, तो तुरंत बुला लें.’’

छोटी बहू आई तो उसे सीधे डीसीपी साहब के सामने पेश किया गया. उसे हम में से किसी से मिलने नहीं दिया गया. डीसीपी साहब ने उसे अपने सामने कुरसी पर बैठा, बयान लेने शुरू किए.

2 इंस्पैक्टर बातचीत रिकौर्ड करने के लिए तैयार खड़े थे. एक लिपिबद्ध करने के लिए और एक वीडियोग्राफी के लिए.

डीसीपी साहब ने पूछना शुरू किया-

‘‘आप का नाम?’’

‘‘जी, निवेदिका.’’

‘‘आप की शादी कब हुई? कितने वर्षों से आप कर्नल चोपड़ा साहब की बहू हैं?’’

‘‘जी, मेरी शादी 2011 में हुई थी.

6 वर्ष हो गए.’’

‘‘आप के कोई बच्चा?’’

‘‘जी, एक बेटा है जो मौडर्न स्कूल में दूसरी क्लास में पढ़ता है.’’

‘‘आप को अपनी सास और ससुर से कोई समस्या? मेरे कहने का मतलब वे अच्छे या आम सासससुर की तरह तंग करते हैं?’’

‘‘सर, मेरे सासससुर जैसा कोई नहीं हो सकता. वे इतने जैंटल हैं कि उन का दुश्मन भी उन को बुरा नहीं कह सकता. मेरे पापा नहीं हैं. कर्नल साहब ने इतना प्यार दिया कि मैं पापा को भूल गई. वे दोनों अपने किसी भी बच्चे पर भार नहीं हैं. पैंशन उन की इतनी आती है कि अच्छेअच्छों की सैलरी नहीं है. दवा का खर्चा भी सरकार देती है. कैंटीन की सुविधा अलग से है.’’

‘‘फिर समस्या कहां है?’’

‘‘सर, समस्या राजी के दिमाग में है, उस के विचारों में है. उस के गंदे संस्कारों में है जो उस की मां ने उसे विरासत में दिए. सर, मां की प्रयोगशाला में बेटी पलती और बड़ी होती है, संस्कार पाती है. अगर मां अच्छी है तो बेटी भी अच्छी होगी. अगर मां खराब है तो मान लें, बेटी कभी अच्छी नहीं होगी. यही सत्य है.

‘‘सर, सत्य यह भी है कि राजी महाचोर है. मेरे मायके से 5 किलो दान में आई मूंग की दाल भी चोरी कर के ले गई. मेरे घर से आया शगुन का लिफाफा भी चोरी कर लिया, उस की बेटी ने ऐसा करते खुद देखा. थोड़ा सा गुस्सा आने पर जो अपनी बेटी का बस्ता और किताबें कमरे के बाहर फेंक सकती है, वह पागल नहीं तो और क्या है. उस की बेटी चाहे होस्टल चली गई परंतु यह बात वह कभी नहीं भूल पाई.’’

‘‘ठीक है, मुझे आप के ही बयान लेने थे. सास के बाद आप ही राजी की सब से बड़ी राइवल हैं.’’

उसी समय एक कौंस्टेबल अंदर आया और कहा, ‘‘सर, राजी अपने मायके में पकड़ी गई है और उस ने अपना गुनाह कुबूल कर लिया है. उस की मां भी साथ है.’’

‘‘उन को अंदर बुलाओ. कर्नल साहब, उन के बेटों को भी बुलाओ.’’

थोड़ी देर बाद हम सब डीसीपी साहब के सामने थे. राजी और उस की मां भी थीं. राजी की मां ने कहा, ‘‘सर, यह तो पागल है. उसी पागलपन के दौरे में इस ने अपनी सास को जहर दिया. ये रहे उस के पागलपन के कागज. हम शादी के बाद भी इस का इलाज करवाते रहे हैं.’’

‘‘क्या? यह बीमारी शादी से पहले की है?’’

‘‘जी हां, सर.’’

‘‘क्या आप ने राजी की ससुराल वालों को इस के बारे में बताया था?’’ डीसीपी साहब ने पूछा.

‘‘सर, बता देते तो इस की शादी नहीं होती. वह कुंआरी रह जाती.’’

‘‘अच्छा था, कुंआरी रह जाती. एक अच्छाभला परिवार बरबाद तो न होता. आप ने अपनी पागल लड़की को थोप कर गुनाह किया है. इस की सख्त से सख्त सजा मिलेगी. आप भी बराबर की गुनाहगार हैं. दोनों को इस की सजा मिलेगी.’’

‘‘डीसीपी साहब किसी पागल लड़की को इस प्रकार थोपने की क्रिया ही गुनाह है. कानून इन को सजा भी देगा. पर हमारे बेटे की जो जिंदगी बरबाद हुई उस का क्या? हो सकता है, इस के पागलपन का प्रभाव हमारी अगली पीढ़ी पर भी पड़े. उस का कौन जिम्मेदार होगा? हमारा खानदान बरबाद हो गया. सबकुछ खत्म हो गया.’’

‘‘मानता हूं, कर्नल साहब, इस की पीड़ा आप को और आप के बेटे को जीवनभर सहनी पड़ेगी, लेकिन कोई कानून इस मामले में आप की मदद नहीं कर पाएगा.’’

थाने से हम घर आ गए. सरला की तबीयत ठीक हो गई थी. वह अस्पताल से घर आ गई थी. महीनों वह इस हादसे को भूल नहीं पाई थी. कानून ने राजी और उस की मां को 7-7 साल कैद की सजा सुनाई थी. जज ने अपने फैसले में लिखा था कि औरतों के प्रति गुनाह होते तो सुना था लेकिन जो इन्होंने किया उस के लिए 7 साल की सजा बहुत कम है. अगर उम्रकैद का प्रावधान होता तो वे उसे उम्रकैद की सजा देते.

पश्चात्ताप- भाग 3: सुभाष ध्यान लगाए किसे देख रहा था?

Writer- डा. अनुसूया त्यागी

मैं सांत्वना देने का प्रयास कर रहा हूं, ‘आप का बेटा बिलुकल ठीक हो जाएगा, आप चिंता मत कीजिए,’ बाकी औरतों की आवाज से कैजुअल्टी गूंजने लगती है.

मैं वार्डब्वाय को आवाज दे कर इशारे से कहता हूं कि इन सब औरतों को बाहर निकाल दो, लड़के की मां को छोड़ कर. सब से भी प्रार्थना करता हूं कि आप सब कृपा कर के बाहर चली जाएं और हमें अपना काम करने दें. सभी महिलाएं चुपचाप बाहर निकल जाती हैं. केवल लड़के की मां रह जाती है. मैं उस के बेटे के ठीक होने का विश्वास दिलाता हूं और वह संतुष्ट दिखाई देती है. दूसरे युवक पर मेरा ध्यान जाता है. उस की ओर इशारा कर के मैं पूछता हूं, ‘यह कौन है? यह युवक भी तो आप के बेटे के साथ ही आया है?’

वह औरत चौंकती है दूसरे युवक को देख कर, ‘अरे, यह तो शिरीष का दोस्त है, अनिल, कैसा है बेटा तू?’ वह उठ कर उस के पास पहुंचती है. मैं ने देखा वह दर्द से बेचैन था. मैं डाक्टर विमल को आवाज देता हूं, ‘डाक्टर , प्लीज, इस युवक का जल्दी एक्सरे करवाइए या मुझे निरीक्षण करने दीजिए. इसे चैस्ट पेन हो रहा है. मैं शिरीष की ओर इशारा कर के कहता हूं, ‘आप इसे संभालिए, मैं उसे देख लेता हूं.’ मुझे कोई जवाब मिले, इस से पहले ही सर्जन आ जाते हैं और मुझ से कहते हैं, ‘डाक्टर प्लीज, आप को ऐसे ही हमारे साथ औपरेशन थिएटर तक चलना होगा. आप अगर अंगूठा हटाएंगे अभी, तो फिर काफी खून बहेगा,’ और मैं उन के साथ युवक की ट्राली के साथसाथ औपरेशन थिएटर की ओर चल पड़ता हूं.

जातेजाते मैं देखता हूं कि डाक्टर विमल उस युवक को एक्सरे के लिए रवाना कर रहे हैं. ‘इस की वैट फिल्म (गीली एक्सरे) मंगवा लेना’, मैं जोर दे कर कहता हूं और रवाना हो जाता हूं. आधा घंटा औपरेशन थिएटर में लगा कर लौटता हूं और ज्यों ही कैजुअल्टी के पास पहुंचता हूं, मुझे एक हृदयविदारक चीख सुनाई देती है. मेरे पैरों की गति तेज हो गई है.

मैं दौड़ कर कैजुअल्टी पहुंचता हूं. ‘यह कौन चीख रहा था?’ मैं सिस्टर से पूछा रहा हूं. उस ने बैड की ओर इशारा किया और मैं ने देखा कि डा. विमल अपना स्टेथस्कोप लगा कर उस युवक के दिल की धड़कन सुनने का प्रयास कर रहे हैं, ‘ही इज डैड, डाक्टर, ही इज डैड,’ ओफ, यह क्या हो गया? जिस बात से मैं डर रहा था, वही हुआ. कार्डियक मसाज, इंजैक्शन कोरामिन, इंजैक्शन एड्रीनलीन, कोई भी उसे पुनर्जीवित नहीं कर पा रहा है. डा. विमल इस की वैट फिल्म के लिए कहते हैं, ‘अरे लक्ष्मण, तू एक्सरे नहीं लाया?’

‘जाता हूं साहब, यहां एक मिनट तो फुरसत नहीं मिलती,’ वैट फिल्म आई और जब मैं ने उसे देखा तो मेरे मुंह से एक आह निकल गई. डा. विमल ने पूछा, ‘क्या हुआ डाक्टर?’

हम इसे बचा सकते थे, इसे तो निमोथोरेक्स था. फेफड़े में छेद हो गया था, जिस से बाहरी हवा तेजी से घुस कर उस पर दबाव डाल रही थी और मरीज को सांस लेने में कठिनाई हो रही थी. काश, मैं ने इस का निरीक्षण किया होता. एक मोटी सूई डालने से ही इमरजैंसी टल सकती थी और बाद में फिर एक रबर ट्यूब डाल दी जाती मोटी सी. तो मरीज नहीं मरता.

‘काश, मैं इसे समय पर देख पाता तो यह यों ही नहीं चला गया होता,’ मेरे स्वर में पश्चात्ताप था. पर मैं अब कुछ नहीं कर सकता था. यही अनुताप मेरे मन को और व्यथित कर रहा था. तभी शिरीष की मां आई. वह शायद कुछ भूल गई थी. पूछा, ‘कैसा हैवह शिरीष का दोस्त?’ और मेरा वेदनायुक्त चेहरा तथा मरीज के ऊपर ढकी हुई सफेद चादर अनकही बात को कह रही थी.

‘ओह, यह तो अपनी विधवा मां का अकेला लड़का था. बहुत बुरा हुआ. शिरीष सुनेगा तो पागल हो उठेगा,’ उस की मां कह रही थी. मेरी कैजुअल्टी में एक पल भी ठहरने की इच्छा नहीं हुई. डा. विमल दूसरे डाक्टर को मरीजों के औवर दे रहे थे. हमारी ड्यूटी समाप्त हो चुकी थी, मेरे पैर दरवाजे की ओर बढ़ गए. पर एक घंटे बाद ही मुझे वापस लौटना पड़ा अपना स्टेथस्कोप लेने के लिए. इच्छा तो नहीं थी, पर जाना पड़ा.

अंदर घुसते ही आंखें स्वत: ही उस युवक के बैड की ओर मुड़ गईं. ऐसा ही जड़वत चेहरा, जैसा अर्जुन की मां का है, वही भावशून्य आंखें ले कर एक अधेड़ औरत बैठी थी. उस की अपनी मां, वही दृश्य जो मैं ने 25 वर्षों पहले देखा था. आज उस की पुनरावृत्ति हो रही थी.

कुछ देर पहले मैं उस ड्राइवर के लिए सजा की तजवीज कर रहा था. क्या दंड मिलना चाहिए उसे, यह  सोच रहा था. पर काश, अपने व डा. विमल के लिए भी कोई सजा सोच पाता, सिवा इस पश्चात्ताप की अग्नि में जलने के. मेरा मन हाहाकार कर उठता है. कब मैं निगम बोध घाट पहुंच गया हूं. पता नहीं चला. सामने अर्जुन की चिता जल रही है. धूधू करती लाश, यह तो कुछ देर में बुझ जाएगी, पर क्या मेरे मन की आग बुझ सकेगी कभी?

पश्चात्ताप- भाग 1: सुभाष ध्यान लगाए किसे देख रहा था?

Writer- डा. अनुसूया त्यागी

सफेद चादर से ढकी हुई लाश पड़ी थी. भावशून्य चेहरा लिए वह औरत उस लाश के पास ऐसे बैठी थी जैसे मृत युवक के साथ उस का कोई रिश्ता ही न हो. निस्तेज आंखें, वाकशून्य औरत और वह युवक दोनों ही आपस में अजनबीपन का एहसास करवा रहे थे.

अरे, यह तो अर्जुन की मां है. ओह, तो अर्जुन ही दुर्घटनाग्रस्त हुआ है. उस ड्राइवर के उतावलेपन व जल्दबाजी ने फुटपाथ पर चलते हुए बेचारे युवक को ही कुचल दिया. यह अधेड़ औरत, अर्जुन की विधवा मां है. इस का एकमात्र अवलंब अर्जुन ही था. हमारे पड़ोस में ही रह रही है. दूसरों के घर के कपड़ों की सिलाई का काम कर के जैसेतैसे उस ने अपने इकलौते पुत्र को बड़ा किया था, अपनी ओर से भरसक प्रयत्न कर के पुत्र को एमएससी तक पढ़ाया था और जब उसे बेटे की कमाई का आनंद उठाने का समय आया तो यह दुर्घटना हो गई.

मेरी पड़ोसिन होने के नाते व चूंकि मैं डाक्टर था, लोग जल्दी से मुझे बुला कर घर ले आए. किसी के मुंह से एक शब्द नहीं निकल पा रहा है, न सांत्वना का, न ही कोई अन्य शब्द. कभीकभी ऐसी पीड़ादायक स्थितियां आ जाती हैं कि शब्द निरर्थक प्रतीत होते हैं. इतने गहरे जख्म को सहलाना छोड़, छूने भर का एहसास करवाने को जबान ही साथ नहीं देती.

मैं अस्पताल जाने के लिए तैयार हो रहा था एक गंभीर रोगी को देखने, पर यहां आना अत्यधिक जरूरी था. जब अस्पताल की गाड़ी उस के लड़के को उस के घर के सामने उतार रही थी, वह उन्हें रोकने आई कि अरे, यह कौन है? इसे यहां क्यों उतार रहे हो? जो लोग उसे ले कर आए थे, जवाब देने की हिम्मत उन में से भी किसी की नहीं हुई. उस ने आगे बढ़ कर उस की चादर हटा कर मुंह देखा और जड़वत रह गई और अभी भी ऐसे ही मूक बनी बैठी है. ये भावशून्य आंखें, ओह, ये आंखें…बिलकुल याद दिला रही हैं 25 वर्ष पहले की उन्हीं आंखों की, बिलकुल ऐसी ही थीं. अतीत एक बार फिर साकार हो उठता है मेरे सामने.

यों तो मैं डाक्टर हूं, अब तक पता नहीं कितनों की मृत्यु के प्रमाणपत्र दे चुका हूं. मौतें होती ही रहती हैं, पर कुछ ऐसी होती हैं जो मस्तिष्क पर सदैव के लिए अंकित हो जाती हैं, अगर आप उन से कहीं न कहीं जुड़े हैं तो. वैसे तो डाक्टर व मरीज का रिश्ता… एक मरीज आया, ठीक हो गया, चला गया. ठीक नहीं हुआ तो 2-3 बार आ गया. फिर वह डाक्टर को भूल गया, डाक्टर भी उसे भूल गया. बहुत से रोगी डाक्टर बदलते रहते हैं. आज इस डाक्टर के पास, कल दूसरे डाक्टर के पास. बहुत से रोगी हमेशा आते रहेंगे. कहेंगे, डाक्टर साहब, किसी और डाक्टर के पास जाने की इच्छा नहीं होती और अगर चला भी जाता हूं तो ठीक नहीं हो पाता.

एक मरीज व डाक्टर का रिश्ता कायम रहता है और डाक्टर अपने मरीज के बारे में सबकुछ पता रखता है. पर कभीकभी ऐसा भी होता है कि एक मरीज एक बार ही आया है आप के पास लेकिन फिर भी वह अपनेआप को आप की स्मृति से ओझल नहीं होने देता. आप के लिए एक अकुलाहट व एक अजीब व्याकुलता छोड़ जाता है. काश, मैं उस के लिए यह कर पाता, आप को पश्चात्ताप की अग्नि में जलाता है. आप सोचते हैं कि यदि मुझ से यह गलती न होती तो वह बच जाता और ऐसा ये भावशून्य आंखें मुझे आज से 25 वर्ष पूर्व के अतीत की याद दिला रही हैं, बहुत साम्यता है इन आंखों व उन आंखों में.

मैं ने तब अपनी एमडी की डिगरी ले कर दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में नियुक्ति ली थी कैजुअल्टी औफिसर के पद पर. दिल्ली के इतने बड़े अस्पताल में नियुक्ति होने की बहुत प्रसन्नता थी मुझे, पर यह खुशी अधिक दिनों तक टिकी न रह सकी.

दिल्ली के डाक्टर, विशेषतौर पर इस अस्पताल के डाक्टरों में सुपीरियरिटी कौंपलैक्स बहुत अधिक था. दूसरे प्रदेश से आए हुए व दूसरी जगह के मैडिकल कालेज से पास हो कर आए डाक्टरों को तो वे सब, डाक्टर ही नहीं समझते थे. खैर, मेरी कैजुअल्टी में नियुक्ति हुई थी और कार्य इतना अधिक था कि बात करने का समय ही नहीं मिलता था. मेरे साथी डाक्टर की नियुक्ति मुझ से कुछ पहले हुई थी और उस ने दिल्ली से ही डाक्टरी डिगरी ली थी, सो, उस में अहं भाव अधिक था. कुछ रोब दिखाने की भी आदत थी.

वैसे भी आयुर्विज्ञान संस्थान की कैजुअल्टी में दम लेने की फुरसत ही कहां थी. ‘सिस्टर, इंजैक्शन बेरालगन लगाना बैड नं. 3 को’  व कभी ‘सिस्टर, 6 नंबर को चैस्ट पेन है, एक पेथीडिन इंजैक्शन हंड्रेड मिलीग्राम लगा देना.’ ‘अरे भई, सिस्टर डिसूजा, जरा इस बच्चे को ड्रिप लगेगी, गैस्ट्रोएंटरिट का मरीज है. जल्दी लाइए ड्रिप का सामान.’ सब ओर हड़बड़ाहट, भागदौड़ और अफरातफरी का माहौल. आकस्मिक दुर्घटनाओं व रोग से ग्रसित रोगी एक के बाद एक चले आते हैं.

‘सुभाष, देखो, ट्राली पर कौन है, अरे भई, यह तो गेस्प कर रहा है, औक्सीजन लगाओ जरा,’ ‘सिस्टर, इंजैक्शन कोरामिन लाना.’

इतने में 8-10 लोग आते हैं एक युवक को उठाए हुए, ‘डाक्टर साहब, देखिए इसे, इस युवक का ऐक्सिडैंट हुआ है. इस की खून की नली से बहुत खून बह रहा है, रोकने के लिए इस ने अंगूठे से दबा रखा है. देखिए, ज्यों ही वह अपना अंगूठा हटाता है दिखाने के लिए, खून का फुहारा मेरे कपड़ों व उस के कपड़ों को भी खराब करता है.’

मोह का जाल – भाग 5 : क्यों लड़खड़ाने लगा तनु के पैर

मन हाहाकार कर उठा था. एक को तो उस ने स्वयं ठुकरा दिया और दूसरी स्वयं उसे छोड़ कर चली गई. प्रकृति ने उसे उस के अमानवीय व अमानुषिक कृत्य के लिए दंड दे दिया था. अब मुझे भी प्रतीक्षित के आने की प्रतीक्षा रहती. उस की स्मरणशक्ति व बुद्धि काफी तीव्र थी. जो एक बार बता देती, भूलता नहीं था. किसी भी नई चीज, नई वस्तु को देख कर उस के उपयोग के बारे में बालसुलभ जिज्ञासा से पूछता तथा मैं भी यभासंभव उस के प्रश्नों का समाधान करती.

स्कूल में विज्ञान प्रदर्शनी थी. मेरी सहायता से प्रतीक्षित ने मौडल बनाया. मौडल देख कर वह अत्यंत प्रसन्न था.

प्रदर्शनी के पश्चात वह सीधा मेरे घर आया. मेरी तबीयत ठीक नहीं थी. मैं अपने शयनकक्ष में लेटी आराम कर रही थी. दौड़ता हुआ आया व खुशी से चिल्लाता हुआ बोला, ‘‘डाक्टर आंटी, आप कहां हो? देखो, मुझे प्रथम पुरस्कार मिला है. और आंटी, गवर्नर ने हमारी प्रदर्शनी का उद्घाटन किया था और उन्होंने ही पुरस्कार दिया. आप को मालूम है, उन के साथ मेरी फोटो भी खिंची है. उन्होंने मेरी बहुत प्रशंसा की,’’ पलंग पर बैठते हुए उस ने कहा, ‘‘आप की तबीयत खराब है क्या?’’

‘‘लगता है थोड़ा बुखार हो गया है. ठीक हो जाएगा.’’

‘‘आप सब की देखभाल करती हैं किंतु अपनी नहीं,’’ तभी उस की नजर स्टूल पर रखे फोटो पर गई. हाथ में उठा कर बोला, ‘‘आंटी, यह तसवीर तो पापा की है, साथ में आप भी हैं. इस में आप दोनों जवान लग रहे हैं. यह तसवीर आप ने कब और क्यों खिंचवाई?’’

जिस का मुझे डर था वही हुआ, इसीलिए कभी उसे शयनकक्ष में नहीं लाती थी. वह फोटो मेरी अहम संतुष्टि का साधन बनी थी, सो, चाह कर भी अंदर नहीं रख पाई थी. मेरा अब कोई संबंध भी नहीं था मनुज से, लेकिन यदि तथ्य को छिपाने का प्रयत्न करती तो वह कभी संतुष्ट न हो पाता तथा कालांतर में मेरी उजली छवि में दाग लग सकता था. सो, सबकुछ सचसच बताना पड़ा.

वस्तुस्थिति जान कर वह उबल पड़ा था कि यह डैडी ने अच्छा नहीं किया. मैं यह सोच भी नहीं सकता था कि डैडी ऐसा भी कर सकते हैं. मैं अभी डैडी से जा कर इस का उत्तर मांगता हूं कि उन्होंने आप के साथ ऐसा क्यों किया? मैं बीमार हो जाऊं तो क्या वे मुझे भी छोड़ देंगे? वह जाने को उद्यत हुआ. मैं ने उस का हाथ पकड़ लिया, ‘‘बेटा, मैं ने कभी किसी से कुछ नहीं मांगा. जीवनपथ पर जैसे भी चली जा रही हूं, चलने दो, अब आखिरी पड़ाव पर मेरी भावनाओं, मेरे विश्वास, मेरे झूठे आत्मसम्मान को ठेस मत पहुंचाना तथा किसी से कुछ न कहना,’’ कहतेकहते एक बार फिर उस के सम्मुख आंसू टपक पड़े.

‘‘मैं किसी से कुछ नहीं कहूंगा, मां, किंतु आप को न्याय दिलाने का प्रयत्न अवश्य करूंगा,’’ दृढ़ निश्चय व दृढ़ कदमों से वह कमरे से बाहर चला गया था.

किंतु उस के मुखमंडल से निकला, ‘मां’ शब्द उस के जाने के पश्चात भी वातावरण में गूंज कर उस की उपस्थिति का एहसास करा रहा था, कैसा था वह संबोधन… वह आवाज, उस की सारी चेतना…संपूर्ण अस्तित्व सिर्फ एक शब्द में खो गया था. जिस मोह के जाल को वर्षों पूर्व तोड़ आई थी, अनायास ही उस में फंसती जा रही थी…कैसा है यह बंधन? कैसे हैं ये रिश्ते? अनुत्तरित प्रश्न बारबार अंत:स्थल में प्रहार करने लगे थे.

सांप सीढ़ी – भाग 3 : प्रशांत के साथ क्या हुआ था?

बोर्ड बिछ गया.

‘‘नानी, मेरी लाल गोटी, आप की पीली,’’ हर्ष ने अपनी पसंदीदा रंग की गोटी चुन ली.

‘‘ठीक है,’’ मौसी ने कहा.

‘‘पहले पासा मैं फेंकूंगा,’’ हर्ष बहुत ही उत्साहित लग रहा था.

दोनों खेलने लगे. हर्ष जीत की ओर अग्रसर हो रहा था कि सहसा उस के फेंके पासे में 4 अंक आए और 99 के अंक पर मुंह फाड़े पड़ा सांप उस की गोटी को निगलने की तैयारी में था. हर्ष चीखा, ‘‘नानी, हम नहीं मानेंगे, हम फिर से पासा फेंकेंगे.’’

‘‘बिलकुल नहीं. अब तुम वापस 6 पर जाओ,’’ मौसी भी जिद्दी स्वर में बोलीं.

दोनों में वादप्रतिवाद जोरशोर से चलने लगा. मैं हैरान, मौसी को हो क्या गया है. जरा से बच्चे से मामूली बात के लिए लड़ रही हैं. मुझ से रहा नहीं गया. आखिर बीच में बोल पड़ी, ‘‘मौसी, फेंकने दो न उसे फिर से पासा, जीतने दो उसे, खेल ही तो है.’’

‘‘यह तो खेल है, पर जिंदगी तो खेल नहीं है न,’’ मौसी थकेहारे स्वर में बोलीं.

मैं चुप. मौसी की बात बिलकुल समझ में नहीं आ रही थी.

‘‘सुनो शोभा, बच्चों को हार सहने की भी आदत होनी चाहिए. आजकल परिवार बड़े नहीं होते. एक या दो बच्चे, बस. उन की हर आवश्यकता हम पूरी कर सकते हैं. जब तक, जहां तक हमारा वश चलता है, हम उन्हें हारने नहीं देते, निराशा का सामना नहीं करने देते. लेकिन ऐसा हम कब तक कर सकते हैं? जैसे ही घर की दहलीज से निकल कर बच्चे बाहर की प्रतियोगिता में उतरते हैं, हर बार तो जीतना संभव नहीं है न,’’ मौसी ने कहा.

मैं उन की बात का अर्थ आहिस्ताआहिस्ता समझती जा रही थी.

‘‘तुम ने गौतम बुद्ध की कहानी तो सुनी होगी न, उन के मातापिता ने उन के कोमल, भावुक और संवेदनशील मन को इस तरह सहेजा कि युवावस्था तक उन्हें कठोर वास्तविकताओं से सदा दूर ही रखा और अचानक जब वे जीवन के 3 सत्य- बीमारी, वृद्धावस्था और मृत्यु से परिचित हुए तो घबरा उठे. उन्होंने संसार का त्याग कर दिया, क्योंकि संसार उन्हें दुखों का सागर लगने लगा. पत्नी का प्यार, बच्चे की ममता और अथाह राजपाट भी उन्हें रोक न सका.’’

मौसी की आंखों से अविरल अश्रुधार बहती जा रही थी, ‘‘पंछी भी अपने नन्हे बच्चों को उड़ने के लिए पंख देते हैं. तत्पश्चात उन्हें अपने साथ घोंसलों से बाहर उड़ा कर सक्षम बनाते हैं. खतरों से अवगत कराते हैं और हम इंसान हो कर अपने बच्चों को अपनी ममता की छांव में समेटे रहते हैं. उन्हें बाहर की कड़ी धूप का एहसास तक नहीं होने देते. एक दिन ऐसा आता है जब हमारा आंचल छोटा पड़ जाता है और उन की महत्त्वाकांक्षाएं बड़ी. तब क्या कमजोर पंख ले कर उड़ा जा सकता है भला?’’

मौसी अपनी रौ में बोलती जा रही थीं. उन के कंधे पर मैं ने अपना हाथ रख कर आर्द्र स्वर में कहा, ‘‘रहने दो मौसी, इतना अधिक न सोचो कि दिमाग की नसें ही फट जाएं.’’

‘‘नहीं, आज मुझे स्वीकार करने दो,’’ मौसी मुझे रोकते हुए बोलीं, ‘‘प्रशांत को पालनेपोसने में भी हम से बड़ी गलती हुई. बचपन से खेलखेल में भी हम खुद हार कर उसे जीतने का मौका देते रहे. एकलौता था, जिस चीज की फरमाइश करता, फौरन हाजिर हो जाती. उस ने सदा जीत का ही स्वाद चखा. ऐसे क्षेत्र में वह जरा भी कदम न रखता जहां हारने की थोड़ी भी संभावना हो.’’ मौसी एक पल के लिए रुकीं, फिर जैसे कुछ सोच कर बोलीं, ‘‘जानती हो, उस ने आत्महत्या क्यों की? उसे जिस बड़ी कंपनी में नौकरी चाहिए थी, वहां उसे नौकरी नहीं मिली. भयंकर बेरोजगारी के इस जमाने में मनचाही नौकरी मिलना आसान है क्या? अब तक सदा सकारात्मक उत्तर सुनने के आदी प्रशांत को इस मामूली असफलता ने तोड़ दिया और उस ने…’’

मौसी दोनों हाथों में मुंह छिपा कर फूटफूट कर रो पड़ीं. मैं ने उन का सिर अपनी गोद में रख लिया.

मौसी का आत्मविश्लेषण बिलकुल सही था और मेरे लिए सबक. मां के अनुशासन तले दबीसिमटी मैं हर्ष के लिए कुछ ज्यादा ही उन्मुक्तता की पक्षधर हो गई थी. उस की उचित, अनुचित, हर तरह की फरमाइशें पूरी करने में मैं धन्यता अनुभव करती. परंतु क्या यह ठीक था?

मां और पिताजी ने हमें अनुशासन में रखा. हमारी गलतियों की आलोचना की. बचपन से ही गिनती के खिलौनों से खेलने की, उन्हें संभाल कर रखने की आदत डाली. प्यार दिया पर गलतियों पर सजा भी दी. शौक पूरे किए पर बजट से बाहर जाने की कभी इजाजत नहीं दी. सबकुछ संयमित, संतुलित और सहज. शायद इस तरह से पलनेबढ़ने से ही मुझ में एक आत्मबल जगा. अब तक तो इस बात का एहसास भी नहीं हुआ था पर शायद इसी से एक संतुलित व्यक्तित्व की नींव पड़ी. शादी के समय भी कई बार नकारे जाने से मन ही मन दुख तो होता था पर इस कदर नहीं कि जीवन से आस्था ही उठ जाए.

मैं गंभीर हो कर मौसी के बाल, उन की पीठ सहलाती जा रही थी.

हर्ष विस्मय से हम दोनों की इस अप्रत्याशित प्रतिक्रिया को देख रहा था. उसे शायद लगा कि उस के ईमानदारी से न खेलने के कारण ही मौसी को इतना दुख पहुंचा है और उस ने चुपचाप अपनी गोटी 99 से हटा कर 6 पर रख दी और मौसी से खेलने के लिए फिर उसी उत्साह से अनुरोध करने लगा.

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