एकदो भद्दी गाली देने के साथ दोचार थप्पड़ मार कर नितिन ने मुझे घसीटते हुए ला कर बिस्तर पर पटक दिया और दरवाजे को जोर से बंद करते हुए घर से बाहर निकल गए.
बौखलाहट में मुझ पर न जाने कहां से पागलपन सा सवार हो गया. मैं ने उठ कर अपनी व नितिन की फ्रेमजडि़त तसवीर ली और फर्श पर दे मारी तथा साथ में रखा हुआ गुलदान दीवार पर और गुस्से में शादी वाली सोने की अंगूठी उतार कर दूर फेंकते हुए बैड पर धड़ाम से गिर पड़ी. फिर न जाने कब मैं अतीत की स्मृतियों के गहरे सागर में डूबती चली गई.
धीरेधीरे मुझे वे दिन याद आने लगे जब मात्र डेढ़ साल के अंतराल में मैं दूसरी बार मां बनी थी और मैं ने फूल सी कोमल नन्ही गुडि़या को जन्म दिया था. मेरी ननद 10 दिन से अधिक नहीं रुक पाई थीं. वैसे भी उन से जच्चा का काम नहीं होता था. अंकुर व अंकिता, दोनों को एकसाथ संभालना मेरे वश से बाहर था.
मैं ने अपने लिए किसी काम वाली को रखने की बात नितिन से कही तो उन्होंने पड़ोसियों के यहां काम करने वाली निर्मला की 12-13 साल की बेटी प्रीति को घर में मेरी मदद करने के लिए रख लिया था. धीरेधीरे बेटी गोद को समझने लगी थी. दिन छिपने के बाद वह तब तक चुप नहीं होती थी जब तक उसे कोई उठा कर छाती से न लगा ले. प्रीति के साथ वह हिलमिल गई थी. उस का स्पर्श पाते ही अंकिता एकदम चुप हो जाती थी जैसे कि उसे उस की मां ही मिल गई हो.
एक दिन दोपहर में लगभग ढाई बजे के आसपास जब मैं अंकिता को दूध पिला रही थी तो प्रीति मेरे पास कमरे में आई. वैसे तो यह समय उस का आराम करने का होता था. उस की सांस कुछ फूली हुई सी थी और उस के सिर के बाल बेतरतीब से फैले हुए थे. मैं ने उस को नीचे से ऊपर तक निहारा तो लगा कि उस के साथ कुछ हुआ है. मैं ने पूछा था, ‘प्रीति, तुम इतनी घबराई हुई सी क्यों लग रही हो? क्या बात है?’
‘मेमसाहिब, आप कोई और काम करने वाली ढूंढ़ लो. मैं अब आप के घर काम नहीं कर सकती.’
‘क्यों प्रीति, ऐसा क्या हुआ जो तुम अचानक इस तरह दोपहर में काम छोड़ कर जा रही हो? तुम्हारे साथ हम सब अच्छे से बरताव करते हैं. तुम्हें यहां किसी तरह की कोई रोकटोक भी नहीं है. अपनी इच्छा से काम करती हो. जब मन में आता है तब घर घूम आती हो. फिर आज अचानक ऐसा क्यों…’
प्रीति तब कुछ नहीं बोल पाई थी. बस, वापस मुड़ कर अपनी चुनरी के एक कोने को मुंह में दबाए भाग ली थी वह. मैं कुछ भी नहीं समझ पाई थी. अंकिता को सोता छोड़ कर मैं दूसरे कमरे में आ गई थी जहां नितिन सोए थे. मैं ने उन्हें जगाया तो आंख भींचते हुए बोले, ‘क्या बात है छुट्टी वाले दिन तो आराम कर लेने दिया करो?’
मैं ने सारा वृतांत उन्हें सुनाते हुए पूछा, ‘तुम्हें कुछ समझ में आ रहा है कि प्रीति ऐसे अचानक क्यों भाग गई?’
‘प्रीति अपने घर चली गई? मैं आराम करने के लिए जब कमरे में आया था तब तो वह बरामदे में लेटी हुई थी. हो सकता है सोते हुए उस ने कोई बुरा स्वप्न देख लिया हो. शायद डर गई हो, बेचारी. कहीं तुम ने या मां ने तो कुछ नहीं कह दिया? काम करते वक्त उसे कुछ कह तो नहीं दिया आज सुबह या कल शाम को?’
‘नहीं तो, इतने दिन हो गए भला आज तक कुछ कहा है, जो आज. हां, हो सकता है सोते हुए उस ने कोई बुरा स्वप्न देखा हो. खैर, चलो छोड़ो, मैं शाम को उस के घर हो आऊंगी.’
यह कह कर मैं अपने कमरे में आ तो गई लेकिन मुझे चैन नहीं पड़ा रहा था. मैं बैड पर लेटेलेटे सोचती रही कि आखिर ऐसा क्या हुआ होगा जो वह भरी दोपहर में घर वापस जाने को मजबूर हो गई? मांजी से पूछा तो उन्होंने कह दिया कि उन की तो आज प्रीति से कोई बात ही नहीं हुई.
एक दिन प्रोफैसर राजीव अपनी डायरी ढूढ़ते करुणा के कमरे में आए. वहां उन्हें करुणा के साथ मेरी तसवीर दिख गई. वे हतप्रभ रह गए. तसवीर को अपने कमरे में ले गए. मुझे बुलाया, बोले, “बेटा, इतनी बड़ी चीज तुम ने मुझ से छिपाई?”
‘‘क्या अंकल?’’
‘‘बेटा, मैं जिसे बाहर तलाश रहा था वह मेरे घर में ही था.’’
मेरे अश्रु छलक गए, ‘‘अंकल, ऐसा कुछ नहीं है. हम मित्र हैं. आप पिता समान हैं मेरे. आप करुणा की शादी जहां करना चाहें, कर दें, मैं विरोध नहीं करूंगा, पूरा सहयोग दूंगा. हमारा करुणा का पवित्र रिश्ता है.’’
‘‘बेटा, यह बात मेरे दिमाग में पहले क्यों नहीं आई. मैं तुझे अच्छी तरह से जानता हूं, करुणा तेरे साथ बहुत खुश रहेगी. तेरे जैसा दामाद मुझे कहां मिलेगा. दामाद बेटा ही होता है. बुलाओ, करुणा को.’’
करुणा यह सब अंदर से सुन रही थी, दौड़ी हुई आई. उन के पास बैठ गई. उन्होंने उस का हाथ मुझे देते हुए कहा, ‘‘आज मैं भारमुक्त हो गया, खुश रहो.’’ एकाएक उन्हें कम्पन हुआ, सीना जोर से धड़का, और गरदन एक तरफ मुड़ गई. वे चिरनिद्रा में लीन हो गए. मेरी आंखें छलछला आईं. करुणा चीख कर रो पड़ी. उन के जीवन का अंत ऐसा होगा, सोचा भी नहीं था.
अपने हुए पराए
इंट्रो
हार न मानने वाले प्रोफैसर राजीव बेटी करुणा के मामले में थकेहारे जैसे हो गए थे, लेकिन जिंदगी के आखिरी लमहों में घर में ही ऐसी तसवीर मिली जिस ने उन्हें हारने से बचा लिया.
जिंदगी में हार न मानने वाले प्रोफैसर राजीव आज सुबह बहुत ही थके हुए लग रहे थे. मैं उन को लौन में आरामकुरसी पर निढाल बैठे देख सन्न रह गया. उन के बंगले में सन्नाटा था. कहां संगीत की स्वरलहरियां थिरकती रहती थीं, आज ख़ामोशी पसरी थी. मुझे देखते ही वे बोले, ‘‘आओ, बैठो.’’
उन की दर्दमिश्रित आवाज से मुझे आभास हुआ कि कुछ घटित हुआ है. मैं पास पड़ी बैंच पर बैठ गया.
‘‘कैसे हो नरेंद्र?’’ आसमान की ओर निहारते उन्होंने पूछा.
‘‘ठीक हूं,” मैं ने दिया. मेरा दिल अभी भी धड़क रहा था. मैं उन की पुत्री करुणा की तबीयत को ले कर परेशान था. 5 दिनों पूर्व वह अस्पताल में भरती हुई थी. फोन पर मेरी बात नहीं हो सकी. जब भी फोन लगाया स्विचऔफ मिला. चिंताओं ने पैने नाखून गड़ा दिए थे.
मुझे खामोश देख प्रोफैसर राजीव रुंधे स्वर से बोले, “दिल्ली से कब आए?”
‘‘कल रात आया.’’
‘‘इंटरव्यू कैसा रहा?’’
‘‘ठीक रहा.’’
कुछ देर खामोशी छाई रही. उन की आंखें अभी भी आसमान के किसी शून्य पर टिकी थीं. चेहरे पर किसी भयानक अनिष्ट की परछाइयां उतरी थीं जो किसी अनहोनी का संकेत दे रही थीं. मैं चिंता से भर उठा. करुणा को कुछ हो तो नहीं गया. लेकिन जब करुणा को चाय लाते देखा तो सारी चिंताएं उड़ गईं. वह पूरी तरह स्वस्थ्य दिख रही थी.
‘‘पापा चाय लीजिए,’’ करुणा ने चाय की ट्रे गोलमेज पर रखते हुए कहा.
मेरी नजरें अभी भी करुणा के चेहरे पर जमी थीं, लेकिन उस की तरफ से कोई प्रतिक्रिया न देख हैरान रह गया, लगा नाराज है. करुणा चाय दे कर मुड़ी ही थी कि पैर डगमगा गए. मैं ने तुरंत हाथों में संभाल लिया. वह संभलती हुई बोली, ‘‘थैंक्यू.’’ मैं तुरंत अलग हो गया. प्रोफैसर राजीव बोले, “जब चलते नहीं बनता तो हाईहील की सैंडिल क्यों पहनती हो?”
‘‘फैशन है पापा.”
‘‘हूं, सभी मौडर्न हुए जा रहे हैं.’’
मैं समझ गया, उन का इशारा राहुल की बहू अपर्णा पर था. अपर्णा अकसर जींस व टोप पहने ही दिखती है.
मेरे पिताजी और प्रोफैसर राजीव की दोस्ती जगजाहिर थी. एक साथ उन्होंने पढ़ाईलिखाई की, नौकरी की. पड़ोस में मकान बनाया. किसी भी समारोह में गए, साथ गए. यहां तक कि चुनाव भी साथ लड़ा.
मेरे पिताजी कैंसर की बीमारी से पीड़ित थे, जल्दी ही उन की मृत्यु हो गई. मुझे हिदायत दे गए थे कि प्रोफैसर राजीव के घर को अपना घर समझना, पूरी इज्जत देना. तब से मेरा आनाजाना लगा रहता है. प्रोफैसर राजीव मुझे अकसर याद करते रहते हैं और मैं उन के बाहरी काम निबटाता रहता हूं. वे अपने लड़के राहुल से अधिक विश्वस्त मुझे मानते हैं.
प्रोफैसर राजीव का संपन्न परिवार है – पत्नी, एक लड़का, बहू और एक लड़की है. धर्म में उन की आस्था है. भजन, कीर्तन, भागवत जैसे कार्यक्रम वे कराते रहते हैं. करूणा जब एकाएक बीमार हुई और उसे अस्पताल में भरती होना पड़ा तो सभी चिंतित हो गए. मुझे भी शौक लगा. उसे पीलिया हो गया था. 10 दिन वह आईसीयू में भरती रही. तीनचार दिन मैं देखता रहा.
इसी बीच, मेरा इंटरव्यूकौल आ गया. मुझे दिल्ली जाना पड़ा. आज जब दिल्ली से वापस लौटा तो करुणा की याद ही दिल में बसी थी – वह कैसी है, अस्पताल से आई कि नहीं… सोचता हुआ प्रोफैसर राजीव के घर पहुंचा. प्रोफैसर राजीव बाहर ही मिल गए. उन्हें उदास देख मन में तरहतरह की शंकाएं पल गईं.
प्रोफैसर राजीव की चिंता मुझे अभी भी हो रही थी कि वे कुछ छिपाए हुए हैं. वरना तो ऐसे गमगीन वे कभी नहीं दिखे. करुणा के जाने के बाद मैं ने उन की चिंता का कारण पूछा तो वे टालते हुए उठ गए और अंदर कमरे में चले गए. उन के हावभावों ने मुझे फिर घेर लिया. मैं तुरंत करुणा के कमरे में गया. करुणा सोफे पर बैठी डायरी के पन्ने पलट रही थी, बोली, ‘‘कुछ काम?’’
‘‘क्या बिना काम के नहीं आ सकता?’’
‘‘रोका किस ने, मैं होती कौन हूं?’’
‘‘अच्छा, समझा.’’
‘‘क्या?’’
‘‘मैं दिल्ली चला गया था, इसलिए…’’
‘‘हां, मैं अस्पताल में थी और हुजूर दिल्ली चले गए.’’
‘‘इंटरव्यू था?’’
‘‘जानती हूं, मैं मर रही थी और आप छूमंतर हो गए, बता कर जा सकते थे.’’
‘‘सौरी, करुणा. प्लीज, मेरा जाना बहुत जरूरी था. पता है, मैं सिलेक्ट हो गया.’’
‘‘सच, नौकरी लग गई तुम्हारी?’’
‘‘हां, लग जाएगी.’’
यह सुनते ही वह मेरे गले से लग गई. उस की गर्म सांसों से मेरा दिल मधुर एहसास से भर उठा, होंठ उस के कपोलों से जा लगे. वह तुरंत दूर होती बोली, ‘‘यह क्या?’’
‘‘सौरी,’’ मैं ने कान पकड़ते हुए कहा.
एक मधुर मुसकन उस के चेहरे पर पसर गई जिसे मैं मंत्रमुग्ध सा देखता रह गया. तभी प्रोफैसर राजीव की आवाज कानों में पड़ी. मैं तुरंत उन के कमरे में गया.
आरती और मेरे रास्ते अब अलगअलग हो चुके थे. मैं उसे कुछ समझाना नहीं चाहता था और वह भी कुछ समझना नहीं चाहती थी.
मुझे बस हमेशा यह उम्मीद रहती थी कि अब उस का फोन आएगा और एक माफी से सबकुछ पहले जैसा हो जाएगा, लेकिन शायद कुछ चीजें बनने के लिए बिगड़ती हैं और कुछ बिगड़ने के लिए बनती हैं.
हमारी कहानी तो शायद बिगड़ने के लिए ही बनी थी. 5 साल का प्यार और साथ सबकुछ खत्म सा हो गया था.
मेरे घर में अब मेरे रिश्ते की बात चलने लगी थी, लेकिन किसी और लड़की से. मां मुझे रोज नएनए रिश्तों के बारे में बताती थीं, लेकिन मैं हर बार कोई न कोई बहाना या कमी निकाल कर मना कर देता था.
मुझे भीड़ में भी अकेलापन महसूस होता था. सब से ज्यादा तकलीफ जीवन के वे पल देते हैं, जो एक समय सब से ज्यादा खूबसूरत होते हैं. वे जितने मीठे पल होते हैं, उन की यादें भी उतनी ही कड़वी होती हैं.
धीरेधीरे वक्त बीतता गया. मेरे साथ आज भी बस, आरती की यादें थीं. मुझे क्या पता था आज मैं किसी से मिलने वाला हूं. आज मैं स्नेहा से मिला. हम दोनों की मुलाकात मेरे दोस्त की शादी में हुई थी.
स्नेहा आरती की चचेरी बहन थी. साधारण नैननक्श वाली स्नेहा शादी में बिना किसी की परवा किए, सब से ज्यादा डांस कर रही थी. 21-22 साल की वह लड़की हरकतों से एकदम 10-12 साल की बच्ची लग रही थी.
‘‘बेटा, तुम्हारी गाड़ी में जगह है?‘‘ मेरे जिस दोस्त की शादी थी, उस की मम्मी ने आ कर मुझ से पूछा.
‘‘हां आंटी, क्यों?‘‘ मैं ने पूछा.
‘‘तो ठीक है, कुछ लड़कियों को तुम अपनी गाड़ी में ले जाना. दरअसल, बस में बहुत लोग हो गए हैं. तुम घर के हो तो तुम से पूछना ठीक समझा.‘‘
सजीधजी 3 लड़कियां मेरी कार में पीछे की सीट पर आ कर बैठ गईं. एक मेरे बराबर वाली सीट पर आ कर बैठ गई.
मेरे यह कहने से पहले कि सीट बैल्ट बांध लो, उस ने बड़ी फुर्ती से बैल्ट बांध ली. वे सब अपनी बातों में मशगूल हो गईं.
मुझे ऐसा एहसास हो रहा था जैसे मैं इस कार का ड्राइवर हूं, जिस से बात करने में किसी को कोई दिलचस्पी नहीं थी.
तभी स्नेहा ने मुझ से पूछा, ‘‘आप रजत भैया के दोस्त हैं न.‘‘
‘‘जी,‘‘ मैं ने बस, इतना ही उत्तर दिया. न तो इस से ज्यादा हमारी कोई बात हुई और न ही मुझे कोई दिलचस्पी थी.
आजकल के हाईटैक युग में जिस से आप आमनेसामने बात करने से हिचकें उस के लिए टैक्नोलौजी ने एक नया नुसखा कायम किया है, जो आज के समय में काफी कारगर है, और वह है चैटिंग.
स्नेहा ने मुझे फेसबुक पर रिक्वैस्ट भेजी और मैं ने भी स्वीकार कर ली.
हम दोनों धीरेधीरे अच्छे दोस्त बन गए. बातोंबातों में उस ने मुझे बताया कि उसे अपने कालेज के सैमिनार में एक प्रोजैक्ट बनाना है. मैं ने कहा, ‘‘तो ठीक है, मैं तुम्हारी मदद कर देता हूं.‘‘
इतने सालों बाद मैं ने उस के लिए दोबारा पढ़ाई की थी उस का प्रोजैक्ट बनवाने के लिए. कभी वह मेरे घर आ जाया करती थी तो कभी मैं उस के घर चला जाता. दरअसल, वह अपने कालेज की पढ़ाई की वजह से रजत के घर ही रहती थी. जब भी वह प्रोजैक्ट बनवाने के लिए आती तो बस, बोलती ही जाती थी. मेरे से बिलकुल अलग थी, वह.
एक दिन बातोंबातों में उस ने पूछा, ‘‘आप की कोई गर्लफ्रैंड नहीं है?‘‘
मैं उस को न कह कर बात वहीं पर खत्म भी कर सकता था, लेकिन मैं ने उस को अपने और आरती के बारे में सबकुछ सचसच बता दिया.
अपना बैग पैक करते हुए अजय ने कविता से बहुत ही प्यार से कहा, ‘‘उदास मत हो डार्लिंग, आज सोमवार है, शनिवार को आ ही जाऊंगा. फिर वैसे ही बच्चे तुम्हें कहां चैन लेने देते हैं. तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कि मैं कब गया और कब आया.’’ कविता ने शांत, गंभीर आवाज में कहा, ‘‘बच्चे तो स्कूल, कोचिंग में बिजी रहते हैं… तुम्हारे बिना कहां मन लगता है.’’
‘‘सच मैं कितना खुशहाल हूं, जो मुझे तुम्हारे जैसी पत्नी मिली. कौन यकीन करेगा इस बात पर कि शादी के 20 साल बाद भी तुम मुझे इतना प्यार करती हो… आज भी मेरे टूअर पर जाने पर उदास हो जाती हो… आई लव यू,’’ कहतेकहते अजय ने कविता को गले लगा लिया और फिर बैग उठा कर दरवाजे की तरफ बढ़ गया. कविता का उदास चेहरा देख कर फिर प्यार से बोला, ‘‘डौंट बी सैड, हम फोन पर तो टच में रहते ही हैं, बाय, टेक केयर,’’ कह कर अजय चला गया.
कविता दूसरी फ्लोर पर स्थित अपने फ्लैट की बालकनी में जा कर जाते हुए अजय को देखने लगी. नीचे से अजय ने भी टैक्सी में बैठने से पहले सालों से चले आ रहे नियम का पालन करते हुए ऊपर देख कर कविता को हाथ हिलाया और फिर टैक्सी में बैठ गया. कविता ने अंदर आ कर घड़ी देखी. सुबह के 10 बज रहे थे. वह ड्रैसिंगटेबल के शीशे में खुद को देख कर मुसकरा उठी. फिर उस ने रुचि को फोन मिलाया, ‘‘रुचि, क्या कर रही हो?’’
रुचि हंसी, ‘‘गए क्या पति?’’
‘‘हां.’’
‘‘तो क्या प्रोग्राम है?’’
‘‘फटाफट अपना काम निबटा, अंजलि से भी बात करती हूं, मूवी देखने चलेंगे, फिर लंच करेंगे.’’
रुचि ने ठहाका लगाते हुए कहा, ‘‘ठीक है, आधे घंटे में मिलते हैं.’’
कविता ने बाकी सहेलियों अंजलि, नीलम और मनीषा से भी बात कर ली. इन सब की आपस में खूब जमती थी. पांचों हमउम्र थीं, सब के बच्चे भी हमउम्र ही थे. सब के बच्चे इतने बड़े तो थे ही कि अब उन्हें हर समय मां की मौजूदगी की जरूरत नहीं थी. कविता और रुचि के पति टूअर पर जाते रहते थे. पहले तो दोनों बहुत उदास और बोर होती थीं पर अब पतियों के टूअर पर जाने का जो समय पहले इन्हें खलता था अब दोनों को उन्हीं दिनों का इंतजार रहता था. कविता ने अपने दोनों बच्चों सौरभ और सौम्या को घर की 1-1 चाबी सुबह ही स्कूल जाते समय दे दी थी. आज का प्रोग्राम तो उस ने कल ही बना लिया था. नियत समय पर पांचों सहेलियां मिलीं. रुचि की कार से सब निकल गईं. फिर मूवी देखी. उस के बाद होटल में लंच करते हुए खूब हंसीमजाक हुआ. मनीषा ने आहें भरते हुए कहा, ‘‘काश, अनिल की भी टूरिंग जौब होती तो सुबहशाम की पतिसेवा से कुछ फुरसत मुझे भी मिलती और मैं भी तुम दोनों की तरह मौज करती.’’
रुचि ने छेड़ा, ‘‘कर तो रही है तू मौज अब भी… अनिल औफिस में ही हैं न इस समय?’’
‘‘हां यार, पर शाम को तो आ जाएंगे न… तुम दोनों की तो पूरी शाम, रात तुम्हारी होगी न.’’
कविता ने कहा, ‘‘हां भई, यह तो है. अब तो शनिवार तक आराम ही आराम.’’ मनीषा ने चिढ़ने की ऐक्टिंग करते हुए कहा, ‘‘बस कर, हमें जलाने की जरूरत नहीं है.’’ नीलम ने भी अपने दिल की बात कही, ‘‘यहां तो बिजनैस है, न घर आने का टाइम है न जाने का, पता ही नहीं होता कब अचानक आ जाएंगे. फोन कर के बताने की आदत नहीं है. न घर की चाबी ले जाते हैं. कहते हैं, तुम तो हो ही घर पर… इतना गुस्सा आता है न कभीकभी कि क्या बताऊं.’’
रुचि ने पूछा, ‘‘तो आज कैसे निकली?’’
‘‘सासूमां को कहानी सुनाई… एक फ्रैंड हौस्पिटल में ऐडमिट है. उस के पास रहना है. हर बार झूठ बोलना पड़ता है. मेरे घर में मेरा सहेलियों के साथ मूवी देखने और लंच पर जाना किसी को हजम नहीं होगा.’’
कविता हंसी, ‘‘जी तो बस हम रहे हैं न.’’
यह सुन तीनों ने पहले तो मुंह बनाया, फिर हंस दीं. बिल हमेशा की तरह सब ने शेयर किया और फिर अपनेअपने घर चली गईं. सौरभ और सौम्या स्कूल से आ कर कोचिंग जा चुके थे. जब आए तो पूछा, ‘‘मम्मी, कहां गई थीं?’’
‘‘बस, थोड़ा काम था घर का,’’ फिर जानबूझ कर पूछा, ‘‘आज डिनर में क्या बनाऊं?’’
बाहर के खाने के शौकीन सौरभ ने पूछा, ‘‘पापा तो शनिवार को आएंगे न?’’
‘‘हां.’’
‘‘आज पिज्जा मंगवा लें?’’ सौरभ की आंखें चमक उठीं.
सौम्या बोली, ‘‘नहीं, मुझे चाइनीज खाना है.’’
कविता ने गंभीर होने की ऐक्टिंग की, ‘‘नहीं बेटा, बाहर का खाना बारबार और्डर करना अच्छी आदत नहीं है.’’
‘‘मम्मी प्लीज… मम्मी प्लीज,’’ दोनों बच्चे कहने लगे, ‘‘पापा को घर का ही खाना पसंद है. आप हमेशा घर पर ही तो बनाती हैं… आज तो कुछ चेंज होने दो.’’
कविता ने बच्चों पर एहसान जताते हुए कहा, ‘‘ठीक है, आज मंगवा लो पर रोजरोज जिद मत करना.’’ सौम्या बोली, ‘‘हां मम्मी, बस आज और कल, आज इस की पसंद से, कल मेरी पसंद से.’’
‘‘ठीक है, दे दो और्डर,’’ दोनों बच्चे चहकते हुए और्डर देने उठ गए.
कविता मन ही मन हंस रही थी कि उस का कौन सा मूड था खाना बनाने का, अजय को घर का ही खाना पसंद है, बच्चे कई बार कहते हैं पापा का तो टूअर पर चेंज हो जाता है, हमारा क्या… वह खुद बोर हो जाती है रोज खाना बनाबना कर. आज बच्चे अपनी पसंद का खा लेंगे. उस ने हैवी लंच किया था. वह कुछ हलका ही खाएगी. फिर वह सैर पर चली गई. सोचती रही अजय टूअर पर जाते हैं तो सैर काफी समय तक हो जाती है नहीं तो बहुत मुश्किल से 15 मिनट सैर कर के भागती हूं. अजय के औफिस से आने तक काफी काम निबटा कर रखना पड़ता है. शाम की सैर से संतुष्ट हो कर सहेलियों से गप्पें मार कर कविता आराम से लौटी. बच्चों का पिज्जा आ चुका था. उस ने कहा, ‘‘तुम लोग खाओ, मैं आज कौफी और सैंडविच लूंगी.’’
बच्चे पिज्जा का आनंद उठाने लगे. अजय से फोन पर बीचबीच में बातचीत होती रही थी. बच्चों के साथ कुछ समय बिता कर वह घर के काम निबटाने लगी. बच्चे पढ़ने बैठ गए. काम निबटा कर उस ने कपड़े बदले, गाउन पहना, अपने लिए कौफी और सैंडविच बनाए और बैडरूम में आ गई. अजय टूअर पर जाते हैं तो कविता को लगता है उसे कोई काम नहीं है. जो मन हो बनाओ, खाओ, न घर की देखरेख, न आज क्या स्पैशल बना है जैसा रोज का सवाल. गजब की आजादी, अंधेरा कमरा, हाथ में कौफी का मग और जगजीतचित्रा की मखमली आवाज के जादू से गूंजता बैडरूम.अजय को साफसुथरा, चमकता घर पसंद है. उन की नजरों में घर को साफसुथरा देख कर अपने लिए प्रशंसा देखने की चाह में ही वह दिनरात कमरतोड़ मेहनत करती रहती है. कभीकभी मन खिन्न भी हो जाता है कि बस यही है क्या जीवन?
ऐसा नहीं है कि अजय से उसे कम प्यार है या वह अजय को याद नहीं करती, वह अजय को बहुत प्यार करती है. यह तो वह दिनरात घर के कामों में पिसते हुए अपने लिए कुछ पल निकाल लेती है, तो अपनी दोस्तों के साथ मस्ती भरा, चिंता से दूर, खिलखिलाहटों से भरा यह समय जीवनदायिनी दवा से कम नहीं लगता उसे. अजय के वापस आने पर तनमन से और ज्यादा उस के करीब महसूस करती है वह खुद को. उस ने बहुत सोचसमझ कर खुद को रिलैक्स करने की आदत डाली है. ये पल उसे अपनी कर्मस्थली में लौट कर फिर घरगृहस्थी में जुटने के लिए शक्ति देते हैं. अजय महीने में 7-8 दिन टूअर पर रहते हैं. कई बार जब टूअर रद्द हो जाता है तो ये कुछ पल सिर्फ अपने लिए जीने का मौका ढूंढ़ते हुए उस का दिमाग जब पूछता है, कब जाओगे प्रिय, तो उस का दिल इस शरारत भरे सवाल पर खुद ही मुसकरा उठता है.
सुधा ने प्रताप के सामने खाने की प्लेट रखी तो उस में मूंग की दाल देख कर वह फुसफुसाया, ‘बाप रे, फिर वही मूंग की दाल.’
प्रताप के यह कहने में न शिकायत थी, न ही उग्रता. उस की आवाज में लाचारी एकदम साफ झलक रही थी. अभी कल ही यानी अपने नियम के अनुसार बुधवार को सुधा ने मूंग की दाल बनाई थी. आज फिर वही दाल खाने का बिलकुल मन नहीं था, फिर भी बिना कुछ बोले प्रताप ने खा ली थी. प्रताप ने धीरे से कहा, ‘‘जानती हो कि मुझे मूंग की दाल जरा भी अच्छी नहीं लगती, फिर भी आज तुम ने वही बना दी है. तुम ने हद कर दी है.’’
प्रताप की पत्नी सुधा रसोई में चुपचाप खड़ी थी. 27 वर्षीया सुधा की गठीली देह गहरे आसमानी रंग के गाउन में कुछ अधिक ही गोरी लग रही थी. प्रताप ने जो कहा था, उसे सुन कर उस के सुंदर चेहरे पर कोई परिवर्तन नहीं आया था. अपने पतले होंठों को सटाए वह प्रताप को ही ताक रही थी. प्रताप के ये शब्द उस के कानों में पड़े, तो पलभर में ही उस की आंखों की चमक बदल गई.
प्रताप ने चेहरा उठा कर उस की ओर देखा. सामने चूहा पड़ने पर जो चमक सांप की आंखों में होती है, कुछ वैसी ही चमक सुधा की आंखों में भी तैरने लगी थी. सुधा के बंद होंठों के पीछे जो बवंडर उठ रहा था वह तबाही मचाने के लिए बेचैन होने लगा था.
प्रताप ने आगे कहा, ‘‘आज तो इस में जलने की भी गंध आ रही है.’’
सुधा को जैसे प्रताप के इन्हीं शब्दों का इंतजार था. नाक फुला कर वह प्रताप की ओर बढ़ी, ‘‘तुम्हारे कहने का मतलब यह है कि मुझे खाना बनाना भी नहीं आता?’’ सुधा अपनी नजरें प्रताप के चेहरे पर जमा कर व्यंग्य से बोली, ‘‘तुम्हें मनपसंद खाना बनाने वाली पत्नी चाहिए थी तो क्या झक मारने के लिए मुझ से शादी की थी? रहने तक का तो ठिकाना नहीं था. भिखारियों की तरह तो रह रहे थे, चले थे विवाह करने.’’
प्रताप सिर झुकाए बैठा था. खा जाने वाली निगाहों से घूरते हुए सुधा ने कहा, ‘‘इस घर में तो मेरी ही मरजी चलेगी. मैं वही बनाऊंगी जो मेरा मन करेगा. तुम्हारी जीभ बहुत चटपटा रही हो तो स्वयं ही बना कर खा लिया करो.’’
सुधा की आवाज मारे गुस्से के तेज हो गई थी. सुधा द्वारा कहे शब्द प्रताप के कानों में गरम शीशे की तरह उतर रहे थे. लेकिन प्रताप को तो 4 साल से यही सब सुनने की आदत सी पड़ गई थी. इस तरह की बातें अब तक वह इतनी सुन चुका था कि उस पर इन बातों का कोई असर नहीं होता था.
‘‘चुप क्यों हो, बोलो न? किसी अच्छे घर की लड़की लाने की हिम्मत थी तुम्हारी?’’ अग्निबाण की तरह दनादन सुधा के होंठों से शब्द छूट रहे थे. प्रताप सिर झुका कर सोच में डूब गया था. सुधा की भी बातें अपनी जगह सच थीं. उसे अपना अतीत याद आ गया.
5 साल पहले प्रताप को बैंक में नौकरी मिली तो वह गढ़वाल का अपना गांव और मांबाप को छोड़ कर दिल्ली आ गया था. शुरू में 1 सप्ताह तो वह अपने बड़े भाई के साथ रहा. उस के बड़े भाई पत्नी और बच्चों के साथ दिल्ली में एक कच्ची कालोनी में रहते थे. वे एक प्राइवेट फैक्टरी में नौकरी करते थे. उन्होंने उस कच्ची कालोनी में 25 गज का छोटा सा प्लौट खरीद कर 1 कमरे का छोटा सा मकान बना लिया था. फैक्टरी में उन्हें बहुत ज्यादा वेतन नहीं मिलता था. किसी तरह वे 5 लोगों का परिवार पाल रहे थे.
उन के यहां रह कर बैंक में नौकरी करना प्रताप के लिए आसान न था. उस का बैंक वहां से लगभग 25 किलोमीटर दूर था. वहां से आनेजाने के लिए बसों की सुविधा भी ठीकठाक न थी. इसलिए न चाहते हुए भी उसे अपने रहने की व्यवस्था अलग करनी पड़ी. दिल तो उस का नहीं मान रहा था परंतु वहां परेशानियां अधिक थीं. प्रताप ने बैंक के पास ही एक कमरा किराए पर ले लिया. वहां से वह 10 मिनट में ही बैंक पहुंच जाता था. उसी बीच आनंद मामा उस के लिए एक रिश्ता ले आए थे.
आनंद मामा की गिनती अपने इलाके के भले आदमियों में होती थी. वे प्रताप की मां के मौसेरे भाई थे. प्रताप के मांबाप गांव में ही रह रहे थे. गांव में जो थोड़ी खेती थी, उसे पिता संभाल रहे थे. बूढ़े मांबाप को आनंद मामा ने बड़े प्रेम से समझाया था, ‘इस तरह की सुंदर और पैसे वाले घर की लड़की प्रताप के लिए जल्दी नहीं मिलेगी. बहुत बड़े घर की बेटी है. दरअसल, लड़की की सगाई कहीं और हुई थी, लेकिन वह टूट गई है. इसीलिए लड़की के मांबाप प्रताप के साथ शादी करने को तैयार हैं. वरना उन के सामने तुम्हारी कुछ भी हैसियत नहीं है.’
डा. दास ने प्रश्न सुना लेकिन जवाब नहीं दिया. वह बगल में बाईं ओर मेडिसिन विभाग के भवन की ओर देखने लगे.
अंजलि ने थोड़ा आश्चर्य से देखा फिर पूछा, ‘‘कितने बच्चे हैं?’’
‘‘2 बच्चे हैं.’’
‘‘लड़के या लड़कियां?’’
‘‘लड़कियां.’’
‘‘कितनी उम्र है?’’
‘‘एक 10 साल की और एक 9 साल की.’’
‘‘और कैसे हो, दास?’’
‘‘मुझे दास…’’ अचानक डा. दास चुप हो गए. अंजलि मुसकराई. डा. दास को याद आ गया, वह अकसर अंजलि को कहा करते थे कि मुझे दास मत कहा करो. मेरा पूरा नाम रवि रंजन दास है. मुझे रवि कहो या रंजन. दास का मतलब स्लेव होता है.
अंजलि ऐसे ही चिढ़ाने वाली हंसी के साथ कहा करती थी, ‘नहीं, मैं हमेशा तुम्हें दास ही कहूंगी. तुम बूढ़े हो जाओगे तब भी. यू आर माई स्लेव एंड आई एम योर स्लेव…दासी. तुम मुझे दासी कह सकते हो.’
आज डा. दास कालिज के सब से पौपुलर टीचर हैं. उन की कालिज और अस्पताल में बहुत इज्जत है. लोग उन की ओर देख रहे हैं. उन्हें कुछ अजीब सा संकोच होने लगा. यहां यों खड़े रहना ठीक नहीं लगा. उन्होंने गला साफ कर के मानो किसी बंधन से छूटने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘बहुत भीड़ है. बहुत देर से खड़ा हूं. चलो, कैंटीन में बैठते हैं, चाय पीते हैं.’’
अंजलि तुरंत तैयार हो गई, ‘‘चलो.’’
बेटे को यह प्रस्ताव नहीं भाया. उसे भीड़, रोशनी और आवाजों के हुजूम में मजा आ रहा था, बोला, ‘‘ममी, यहीं घूमेंगे.’’
‘‘चाय पी कर तुरंत लौट आएंगे. चलो, गंगा नदी दिखाएंगे.’’
गेट से निकल कर तीनों उत्तर की ओर गंगा के किनारे बने मेडिकल कालिज की कैंटीन की ओर बढ़े. डा. दास जल्दीजल्दी कदम बढ़ा रहे थे फिर अंजलि को पीछे देख कर रुक जाते थे. कैंटीन में भीड़ नहीं थी, ज्यादातर लोग प्रदर्शनी में थे. दोनों कैंटीन के हाल के बगल वाले कमरे में बैठे.
कैंटीन के पीछे थोड़ी सी जगह है जहां कुरसियां रखी रहती हैं, उस के बाद रेलिंग है. बालक की उदासी दूर हो गई. वह दौड़ कर वहां गया और रेलिंग पकड़ कर गंगा के बहाव को देखने लगा.
डा. दास और अंजलि भी कुरसी मोड़ कर उधर ही देखने लगे. गरमी नहीं आई थी, मौसम सुहावना था. मोतियों का रंग ले कर सूर्य का मंद आलोक सरिता के शांत, गंभीर जल की धारा पर फैला था. कई नावें चल रही थीं. नाविक नदी के किनारे चलते हुए रस्सी से नाव खींच रहे थे. कई लोग किनारे नहा रहे थे.
मौसम ऐसा था जो मन को सुखद बीती हुई घडि़यों की ओर ले जा रहा था. वेटर चाय का आर्डर ले गया. दोनों नदी की ओर देखते रहे.
‘‘याद है? हम लोग बोटिंग करते हुए कितनी दूर निकल जाते थे?’’
‘‘हां,’’ डा. दास तो कभी भूले ही नहीं थे. शाम साढ़े 4 बजे क्लास खत्म होने के बाद अंजलि यहां आ जाती थी और दोनों मेडिकल कालिज के घाट से बोटिंग क्लब की नाव ले कर निकल जाते थे नदी के बीच में. फिर पश्चिम की ओर नाव खेते लहरों के विरुद्ध महेंद्रू घाट, मगध महिला कालिज तक.
सूरज जब डूबने को होता और अंजलि याद दिलाती कि अंधेरा हो जाएगा, घर पहुंचना है तो नाव घुमा कर नदी की धारा के साथ छोड़ देते. नाव वेग से लहरों पर थिरकती हुई चंद मिनटों में मेडिकल कालिज के घाट तक पहुंच जाती.
डूबती किरणों की स्वर्णिम आभा में अंजलि का पूरा बदन कंचन सा हो जाता. वह अपनी बड़ीबड़ी आंखें बंद किए नाव में लेटी रहती. लहरों के हलके छींटे बदन पर पड़ते रहते और डा. दास सबकुछ भूल कर उसी को देखते रहते. कभी नाव बहती हुई मेडिकल कालिज घाट से आगे निकल जाती तो अंजलि चौंक कर उठ बैठती, ‘अरे, मोड़ो, आगे निकल गए.’
डा. दास चौंक कर चेतन होते हुए नाव मोड़ कर मेडिकल कालिज घाट पर लाते. कभी वह आगे जा कर पटना कालिज घाट पर ही अनिच्छा से अंजलि को उतार देते. उन्हें अच्छा लगता था मेडिकल कालिज से अंजलि के साथ उस के घर के नजदीक जा कर छोड़ने में, जितनी देर तक हो सके साथ चलें, साथ रहें. वेटर 2 कप चाय दे गया. अंजलि ने बेटे को पुकार कर पूछा, ‘‘क्या खाओगे? बे्रडआमलेट खाओगे. यहां बहुत अच्छा बनता है.’’
‘‘नहीं, आभा, अभी हम किसी से कुछ नहीं कहेंगे. पहले मालती का पीछा कर उस के घर व घरवाले का पता लगाऊंगा, तब तुम मेरा खेल देखना. पापा अपने को बहुत होशियार समझते हैं.’’
‘‘मुझ को डर लग रहा है कि कहीं वह कमबख्त इस घर में धरना ही न दे दे.’’
‘‘अपना उतना बड़ा परिवार छोड़ कर क्या वह यहां पापा के साथ आ सकेगी?’’
‘‘ऐसी औरतें सब कर सकती हैं. अखबार में जबतब पढ़ते नहीं कि अपने 6 बच्चों को छोड़ कर फलां औरत अपने प्रेमी के साथ भाग गई, पति बेचारा ढूंढ़ता फिर रहा है.’’
‘‘उस औरत को भी क्या कहें? अभी मां को गए एक साल भी पूरा नहीं हुआ और पापा को औरत की जरूरत पड़ गई, धिक्कार है.’’
‘‘भैया, अगर ऐसी नौबत आई तो मैं मामा के पास चली जाऊंगी,’’ वह आंसू पोंछ कर बोली.
‘‘अपने भैया को बेसहारा छोड़ कर? तब मैं कहां जाऊंगा?’’
‘‘तब तो हम दोनों को नौकरी की तलाश करनी चाहिए. हम किराए का मकान ले कर रह लेंगे. सौतेली मां की छांह से भी दूर. तब मामा आदि के पास क्यों जाएंगे भला, इसी शहर में रहेंगे.’’
‘‘मां, तुम हम दोनों को बेसहारा छोड़ कर क्यों चली गईं. राह दिखाओ मम्मी, हम दोनों कहां जाएं, क्या करें?’’ अमित का धैर्य भी आंसू बन कर फूट पड़ा, आभा भी रो पड़ी.
दूसरे दिन अमित जल्दी घर से निकल कर मालती के इंतजार में स्कूटर लिए छिपा खड़ा था. जैसे ही वह घर से निकली वह छिपताछिपाता पीछे लग गया. उस का घर लगभग 2 किलोमीटर दूर था. अमित ने देखा उस के घर से छिपा कर लाई रोटीसब्जी मालती ने अपने बच्चों और पति में बांट दी. बच्चे खा कर यहांवहां खेलने निकल गए और जल्दी से अपने घर का काम निबटा कर मालती अपने घरवाले के जाते ही सजधज कर निकली. अमित उस के पीछेपीछे चलता रहा. वह मेन बाजार में जा कर खड़ी हो गई. थोड़ी देर बाद पापा गाड़ी ले कर आए. मालती लपक कर कार में बैठ गई. कार फिर उसी होटल की ओर बढ़ी. वे दोनों फिर उसी होटल में जा पहुंचे. अमित लौट आया.
दूसरे दिन मालती के घर से निकलते ही वह उस के पति हरिया के पीछे लग गया. घर से जब वह दूर आ गया तब स्कूटर उस के सामने कर के खड़ा हो गया, ‘‘सुनो भैया, हमारे यहां ढेरों सामान इकट्ठा है. वह हमें बेचना है.’’
‘‘वह है दूर. अब आज नहीं कल ले चलूंगा. वह मालती तुम्हारी घरवाली है?’’
‘‘हां, तुम कैसे जानते हो?’’ वह बोला.
‘‘वह हमारे घर के पास ही काम करती है इसलिए जानता हूं. इस टाइम वह कहां जाती है?’’
‘‘वह किसी साहब के यहां जाती है, नौकर है वहां?’’
‘‘परंतु मैं ने तो उसे एक साहब के साथ बड़े होटल में जाते देखा है.’’
‘‘कब? कहां?’’ वह आंखें फाड़ कर बोला.
‘‘वह तो सजधज कर रोज जाती है. चलो, तुम्हें दिखाऊं,’’ बिना कुछ सोचे- समझे वह ठेला एक तरफ फेंक कर उस के साथ हो लिया. रास्ते भर अमित नमकमिर्च लगा कर ढेरों बातें बताता चला गया. सुन कर वह क्रोध से पागल हो उठा.
‘‘उधर…ऊपर 22 नंबर कमरा खटखटाओ, साहब के साथ मालती जरूर मिलेगी. एक बात और, मेरा जिक्र किसी से मत करना, यही कहना कि मैं ने तुम्हें कार में बैठे देखा था, तभी से पीछा करते यहां आया हूं.’’
‘‘हां, भैया, यही कहूंगा. आज मैं उस की गति बना कर रहूंगा. कहती थी खाना बनाने जाती हूं,’’ इतना ही नहीं ढेर सारी भद्दी गालियां बकता हुआ वह कमरे की ओर बढ़ रहा था.
अमित एक कुरसी पर बैठ कर आने वाले तूफान का इंतजार करने लगा. उसे अधिक इंतजार नहीं करना पड़ा. ऊपर से घसीटते, मारते, गालियों की बौछार करते वह मालती को नीचे ले आया. चारों ओर भीड़ जुटने लगी. तभी पुलिस भी आ पहुंची. पीछेपीछे भीड़ थी. थोड़ी देर की हुज्जत के बाद अमित ने देखा कि पुलिस वाले पापा का कालर पकड़े उन्हें धकियाते नीचे घसीटते ला रहे हैं. पापा का मुंह लज्जा से लाल पड़ गया था पर उसे दया नहीं आई. पुलिस वाले गालियों की असभ्य भाषा में उन्हें झिंझोड़ रहे थे. शायद वह ऊपर से खासी मरम्मत कर के लाए थे.
पुलिस वाले ने एक झन्नाटेदार थप्पड़ मालती के मुंह पर भी दे मारा, उस के मुंह से चीख निकल गई. मुंह से खून बह आया, उसे देख कर पापा पर घड़ों पानी पड़ गया, शर्म से सिर झुकाए वह पुलिस का हाथ झटक कर कार की ओर बढे़, तभी हरिया ने पीछे से उन का कालर पकड़ा, ‘‘ऐ साहब, मैं ऐसे ही नहीं छोड़ूंगा तुम्हें, मेरी औरत की इज्जत लूटी है तुम ने, मैं इस की डाक्टरी जांच कराऊंगा, समझा क्या है तुम ने?’’
‘‘छोड़ कालर, पहले तू अपनी औरत को संभाल फिर बात कर. जब वह राजी है तो दूसरों को दोष क्यों देता है?’’
‘‘तुम ने क्यों बहकाया मेरी घरवाली को?’’
‘‘पहले उस से पूछ, वह क्यों बहकी?’’
‘‘साहब, आप को थाने चलना पडे़गा,’’ पुलिस वाले ने बांह पकड़ कर खींचा.
भीड़ बढ़ती जा रही थी. वह किसी तरह फंदे से निकल कर कार स्टार्ट कर भाग छूटे, लोग चिल्लाते ही रह गए, इधर अमित भी स्कूटर स्टार्ट कर के घर की ओर रवाना हो गया. आते ही उस ने आभा को पूरी घटना बयान कर डाली. सुन कर आभा का मन जहां खुश था वहीं पिता के न आने से दोनों ने रात आंखों ही में काटी. वे दोनों उन के मोबाइल पर भी बात नहीं कर पाए.
दूसरे दिन न मालती आई न पापा. अमित छिप कर मालती के घर के चक्कर लगा आया. वह घर पर जैसे कैद थी. हरिया दरवाजे पर पहरा लगाए बैठा था. जब 3 दिन तक पापा का कुछ पता न लगा तो दोनों ने घबरा कर सब रिश्तेदारों को फोन कर दिए. तुरंत ही सब घबरा कर दौड़े आए. घर आ कर सब चिंता में पड़ गए. अमित ने अपनी चतुराई की रत्ती भर चर्चा नहीं की. वह पिता की व परिवार की नजरों में पाकसाफ रहना चाहता था. आभा ने भी होंठ नहीं खोले.
वे लोग अखबारों में विज्ञापन देने की सोच रहे थे कि दिल्ली से फोन आया कि वह आगरा आदि घूम कर घर लौट रहे हैं. सुन कर सब का चेहरा प्रसन्नता से खिल उठा. जब वह वापस आए, किसी ने कुछ नहीं पूछा. अमित भी ऐसा बना रहा जैसे उसे कुछ मालूम ही नहीं है. वे दोनों अपने पापा को वापस अपने बीच पाना चाहते थे, शर्मिंदा करना नहीं चाहते थे. पापा के चेहरे पर भी पश्चात्ताप साफ नजर आ रहा था. सब को देख कर वह न हैरान हुए न परेशान, यह जरूर बतलाया कि उन्होंने अपना ट्रांसफर दूसरे शहर में करा लिया है. वह शीघ्र ही यहां से रिलीव हो कर चले जाएंगे.
तभी एक दिन बूआ ने पास बैठ कर गंभीर स्वर में कहा, ‘‘महेंद्र, अगर तू चाहे तो कहीं किसी विधवा से या तलाकशुदा किसी लड़की से बात चलाएं. पेपर में विज्ञापन देने से ढेरों आफर आ सकते हैं.’’
‘‘अरे नहीं, दीदी, अब इस की जरूरत नहीं है. माया की याद क्या कभी दिल से निकल सकेगी? अब तो अमित और आभा के लिए सोच रहा हूं. दोनों को अच्छे मैच मिल जाएं तो घर आबाद हो जाएगा. मैं अमित को बिजनेस में डालने की सोच रहा हूं. जब तक इस का कारोबार जमेगा आभा भी एम.ए. कर लेगी. अब यहां मेरा मन नहीं लगता, न इन बच्चों का लगता है, क्यों अमित?’’
‘‘हां, पापा, अब यहां नहीं रहेंगे,’’ दोनों चहक उठे. तभी उन्होंने अकेले में अमित से पूछा, ‘‘अमित, तुम ने उस दिन की घटना किसी से बताई तो नहीं?’’ अमित को समझते देर न लगी कि पापा ने उस दिन उसे घटना वाली जगह पर देख लिया था.
बिना घबराए वह बोला, ‘‘नहीं, पापा, मेरी तो समझ में नहीं आया था कि यह क्या हो रहा है. मैं तो रोज की तरह उधर से गुजर रहा था कि झगड़ा और शोर सुन कर उधर आ गया, पता नहीं मालती किस के साथ थी, नाम आप का लग गया. जो हो गया उसे भूल जाइए, पापा. नए शहर में नया माहौल और नए लोग होंगे. आप यहां का सब भूल जाएं तो अच्छा है. इज्जतआबरू बची रहे यही सब से बड़ी बात है,’’ उसे विश्वास हो गया था कि पापा को जो ठोकर लगी है वह जिंदगी भर के लिए एक सबक है. सुबह का भूला घर आ गया था.
‘‘मां, कल रश्मि का बर्थडे है. उसे रात को 12 बजे केक काटने का बहुत शौक है, इसलिए आज आप को थोड़ा ऐडजस्ट करना पड़ेगा. मैं औफिस से आता हुआ केक ले आऊंगा, आप उसे फ्रिज में छिपा देना. आज शायद आप को सोने में थोड़ी देर हो जाए. उसे रात को सरप्राइज देंगे,’’ पवन की आवाज में जो उत्साह था, वह एक पल में ही खत्म हो गया जब माया ने कहा, ‘‘यह 12 बजे केक काटने का नाटक मुझे बिलकुल पसंद नहीं है. दिन में भी तो बर्थडे मना सकते हो. यह सब नहीं चलेगा. बेवजह मेरी नींद खराब होगी.’’
वहीं बैठे हुए सुधीर ने कहा, ‘‘माया, बहू का पहला बर्थडे है हमारे साथ, बच्चों को अच्छी तरह से जन्मदिन मनाने दो. एक दिन थोड़ी देर से सोएंगे, तो क्या हो जाएगा.’’ माया दहाड़ी, ‘‘तुम तो चुप ही रहो. खुद तो सो जाओगे, मेरी नींद डिस्टर्ब होती है. नहीं, यह सब शुरू ही मत करो वरना हर साल यह ड्रामा होगा.’’ पवन को बहुत बुरा लगा. वह बोला, ‘‘ठीक है मां, फिर मैं शाम को ही रश्मि को बाहर ले जाता हूं. बाहर ही डिनर कर के वहीं केक भी काट लेंगे. आप सो जाना अपने टाइम पर.’’
माया को झटका लगा, बोली, ‘‘साल भी नहीं हुआ शादी हुए, इतने गुलाम बन गए हो.’’ पवन को गुस्सा आ गया, ‘‘आप क्या समझेंगी पतिपत्नी की आपसी समझ को?’’
माया चिल्लाई, ‘‘क्यों नहीं समझूंगी, मैं क्या पत्नी नहीं हूं तुम्हारे पिता की, इतने सालों से मैं क्या झक मार रही हूं?’’
‘‘आप कैसी पत्नी हैं, आप अच्छी तरह जानती होंगी?’’
माया के गुस्से का ठिकाना नहीं था. पर बेटा कहीं हाथ से न निकल जाए, इस बात का ध्यान गुस्से में भी था. स्वर को संयत करते हुए बोली, ‘‘ठीक है, जैसी मरजी हो, कर लो, हम ने कभी घर में न यह सब नाटक किया, न देखा, इसलिए हमारे लिए थोड़ा नया ही है यह सब. खैर, ले आना केक.’’ सब डाइनिंग टेबल पर बैठे थे. रश्मि औफिस के लिए जल्दी निकलती थी. वह जा चुकी थी. सुधीर ने कहा, ‘‘पवन, रश्मि की पसंद का ‘ब्लू बेरी चीज’ केक लाओगे न? उसे यही फ्लेवर पसंद है.’’ पवन मुसकरा दिया, ‘‘वाह पापा, आप को याद है?’’
‘‘हां, मेरे बर्थडे पर वह यही लाई थी, तभी उस ने बताया था. बहुत प्यारी बच्ची है.’’
माया को बहू की तारीफ सुन कर गुस्सा आ गया, ‘‘तुम चुप नहीं रह सकते. चुपचाप नाश्ता करो. तुम से किसी ने उस की तारीफ का सर्टिफिकेट मांगा है क्या.’’ कर्कशा, मुंहफट पत्नी को देखते हुए सुधीर ने दुख से कहा, ‘‘चुप ही तो हूं सालों से.’’
‘‘पापा, अब मैं चलता हूं, बाय,’’ कह कर पवन भी औफिस के लिए निकल गया. सुधीर सब से बाद में निकलते थे. उन का औफिस घर के पास ही था. वे चुपचाप अपना बैग ले कर निकल रहे थे. माया का बड़बड़ाना उन के कानों में पड़ ही रहा था, ‘सालभर नहीं हुआ है घर में आए हुए, पता नहीं यह लड़की क्या जादू जानती है, पति को पहले दिन से ही गुलाम बना कर रखा है.’
सुधीर चले गए, सामान इधर से उधर रखती हुई माया गुस्से में तपी घूम रही थी. इकलौता बेटा है पवन, उस से उलझना भी नहीं चाहती. कहीं बहू को ले कर अलग हो गया तो क्या करेगी. बेटे को भी दूर नहीं होने देना है, बहू को भी दबा कर रखना है. क्या करे, यह लड़की तो हाथ ही नहीं आती. सुबह ही निकल जाती है, शाम को लगभग सुधीर के साथ ही आती है. पवन भी तभी आ जाता है. घर में काम के लिए कोई क्लेश न हो, यह सोच कर बहूरानी ने पहले दिन से कुक रख ली है. दलील दी थी, ‘मां, औफिस के काम के चक्कर में किचन में आप का हाथ ज्यादा नहीं बंटा पाऊंगी तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा कि आप पर ही सब काम रहे. यह लता अच्छी कुक है. दोनों टाइम जो खाना बनवाना हो, इस से बनवा लेना. आप को भी आराम मिलेगा.’ सुधीर और पवन ने भी इस बात का समर्थन किया था. माया जब अकेली पड़ गई तो तीनों के सामने क्या कहती. बात माननी पड़ी. सफाईबरतन का काम राधा कर ही जाती थी. अब बचा क्या जिसे ले कर रश्मि की क्लास ले. मौका ही नहीं देती. मांमां करती घर में घुसती है, सुबह मांमां करती निकल जाती है.
आज सुधीर भी औफिस में माया के बारे में ही सोच रहे थे. इतने सुशिक्षित, सभ्य इंसान हो कर भी कैसी कर्कशा, क्लेशप्रिया पत्नी मिली है उन्हें. नारी के हृदय की कोमलता तो उसे छू कर भी नहीं गुजरी कभी. यह उन के पिता ने कैसी लड़की उन के पल्ले बांध दी जिस के साथ निभातेनिभाते वे थक गए हैं. वह तो अब उन के घर में रश्मि बहू बन कर ताजी हवा के झोंके की तरह आई है, तो घर, घर लगने लगा है. कितनी अच्छी बच्ची है. कितनी पढ़ीलिखी, कितनी शालीन पर माया के स्वभाव के कारण किसी दिन बेटेबहू दूर न हो जाएं, यह बात उन के मन को अकसर उदास कर देती थी.
शाम को रश्मि औफिस से आई. पवन को आज आने में थोड़ा टाइम था. उसे रश्मि के बर्थडे के लिए केक और गिफ्ट लेना था. रश्मि ने पूछा, ‘‘पापा, डिनर लगा दूं?’’
‘‘पवन को आने दो.’’
‘‘उन्हें थोड़ी देर होगी, कहा है सब लोग खाना खा लेना.’’
सुधीर ने कहा, ‘‘ठीक है, फिर लगा दो.’’ रश्मि डिनर लगाने लगी, माया वहीं बैठी टैलीविजन देख रही थी. रश्मि ने खाना लगाते हुए कहा, ‘‘मां, आप ने फिर कोफ्ते बनवाए हैं? अभी तो बने थे.’’
‘‘हां, मुझे बहुत पसंद हैं, लता अच्छे बनाती है.’’
‘‘पर मां, पापा ने तो कल दाल और करेले बनवाने के लिए कहा था.’’
‘‘मेरा मन नहीं था वह सब खाने का.’’
‘‘ठीक है मां, पर कल जरा पापा की पसंद का खाना बनवा लेना.’’
सुधीर ने कहा, ‘‘कोई बात नहीं बेटा, जो बना है ठीक है.’’
माया ने फटकार लगाई, ‘‘तुम चुप रहो. ज्यादा शरीफ बन कर दिखाने की जरूरत नहीं है.’’ सुधीर के चेहरे का रंग अपमान से काला पड़ गया. वे पत्नी का मुंह देखते रह गए. क्या यह औरत कभी नहीं सुधरेगी. वह उन की शराफत, शालीनता का सारी उम्र फायदा उठाती रही है. अब बेटेबहू के सामने भी क्या उन का अपमान करती रहेगी? क्या वही अच्छा रहता कि इस की बदतमीजी पर एक थप्पड़ शुरू में ही लगा देता? क्या ऐसी औरतें तभी ठीक रहती हैं. क्या उन का अपने क्रोध पर संयम रखना ही उन की कमजोरी बन गया है? घर में, बेटे के जीवन में सुखशांति के लिए हमेशा चुप रहना ही क्या उन की नियति है? रश्मि ने सुधीर का उदास चेहरा देखा तो सब समझ गई. उसे बहुत दुख हुआ. वह बहुत ही समझदार लड़की थी. कई बार उस ने पवन से अकेले में मजाक भी किया था, ‘पुरानी ब्लैक ऐंड व्हाइट फिल्में ज्यादा तो नहीं देखीं पर जितनी भी देखी और सुनी हैं, मां को देख कर ललिता पवार याद आ जाती है.’ पवन ने घूरने के बाद फिर स्वीकारा था, ‘हां, रश्मि, पापा जितने शांत हैं, मां उतना ही गुस्से वाली. बेचारे पापा, मैं ने उन्हें ही हमेशा सामंजस्य बिठाते देखा है.’
रश्मि ने खूब उत्साह से 12 बजे केक काटा. पवन उस के लिए एक सुंदर साड़ी भी लाया था. सुधीर ने भी एक लिफाफा रश्मि को देते हुए सिर पर प्यारभरा हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बेटा, हमारी तरफ से अपनी पसंद का कुछ ले लेना कल.’’ इस पर माया चौंकी, पर बोली कुछ नहीं. रश्मि बहुत खुश हुई. पवन ने कहा, ‘‘मां, कल हम दोनों ने छुट्टी ली है. कल सब मूवी देखने चलेंगे.’’ सुधीर को फिल्मों का बहुत शौक था, उत्साह से पूछा, ‘‘हांहां, बिलकुल, कौनसी?’’
रश्मि ने कहा, ‘‘जो आप कहें, पापा.’’
माया ने कहा, ‘‘मेरा मन नहीं है, मुझे नहीं जाना.’’
सुधीर ने कहा, ‘‘चलो न माया, बच्चों के साथ तो कभी गए ही नहीं अब तक.’’
रश्मि तो बहुत ही उत्साहित थी, बोली, ‘‘हां मां, बर्थडे है मेरा, खूब मजा आएगा, चलिए न.’’
‘‘नहीं, अब मुझे नींद आ रही है. पहले ही इतनी देर हो गई सोने में,’’ कह कर माया बैडरूम में चली गई तो सुधीर भी एक ठंडी सांस ले कर ‘गुडनाइट’ कह कर सोने चले गए. रश्मि ने बैडरूम में पवन से कहा, ‘‘पवन, बुरा मत मानना, मुझे मां की कई बातें पसंद नहीं हैं.’’
‘‘हां, रश्मि, मां शुरू से ही ऐसी हैं. मुझे भी बहुत दुख होता है.’’
‘‘पर मैं मां का यह व्यवहार ज्यादा सहन नहीं करूंगी, अभी बता देती हूं.’’ पवन चुप ही रहा, वह तो बचपन से ही मां का जिद्दी, गुस्सैल स्वभाव देखता आ रहा था. सुबह जब रश्मि सो कर उठी तो देखा सुधीर ड्राइंगरूम में रखे दीवान पर सो रहे थे. आहट से उठे तो रश्मि ने पूछा, ‘‘पापा, आप यहां क्यों सोए?’’
‘‘सोने में माया को देर हो गई तो वह मेरे करवट बदलने से डिस्टर्ब हो रही थी, उसे परेशानी हो रही थी.’’
‘‘पर इस गद्दे पर सोने से आप को गरदन में दर्द होता है न.’’
‘‘हां, पर ठीक है, कोई बात नहीं.’’
‘‘कोई बात कैसे नहीं पापा, आप को तकलीफ होगी तो यह क्या अच्छी बात है?’’ सुधीर बिना कुछ बोले फ्रैश होने चले गए. सुधीर की इच्छा देखते हुए भी माया मूवी देखने नहीं गई. सुधीर ने ही पवन और रश्मि को भेजते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं, हम तुम्हें डिनर पर जौइन करेंगे, बता देना, कहां आना है.’’ डिनर पर माया आराम से तैयार हो कर गई. चारों ने अच्छे मूड में डिनर किया और लौट आए. आज रश्मि मन ही मन बहुत सारी बातें सोच चुकी थी. घर आते ही सुधीर का मोबाइल बजा. बात करने के बाद उन्होंने बताया, ‘‘माया, अगले महीने मुग्धा आ रही है, संजीव भी साथ आएगा.’’
माया गुर्राई, ‘‘क्यों?’’
‘‘अरे, उस के भाई का घर है, एक ही तो बहन है मेरी, उस का रश्मि से मिलने का मन है.’’
रश्मि खुश हुई, ‘‘वाह, बूआजी आ रही हैं. मजा आएगा. विवाह के समय भी वे मुझे बहुत अच्छी लगी थीं.’’
‘‘हां, बहुत खुशमिजाज है मेरी बहन.’’
‘‘तुम तो चुप ही रहो,’’ माया चिढ़ गई, ‘‘क्या मजा आएगा. गरमी में किसी के आने पर कितनी परेशानी होती है, तुम्हें क्या पता.’’ रश्मि आज चुप नहीं रह पाई, बोली, ‘‘मां, पापा ही हमेशा क्यों चुप रहें. उन की बहन है, अपनी बहन के आने पर वे खुश क्यों न हों?’’
माया ने रश्मि को डांट दिया, ‘‘मुझ से बहस करने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हो रही है?’’
‘‘मां, बहस कहां कर रही हूं. जब से आई हूं यही तो देख रही हूं कि पापा कुछ बोल ही नहीं सकते.’’
माया के गुस्से की सीमा नहीं थी, ‘‘पवन, देख रहा है? इस की इतनी हिम्मत?’’
रश्मि ने बहुत मधुर स्वर में कहा, ‘‘मां, मुझे अच्छा नहीं लगता आप पापा को बोलने ही नहीं देतीं. मैं ने अपने घर में अपने मम्मीपापा का एकदूसरे के लिए बहुत ही प्यार और आदरभरा रिश्ता देखा है और वैसे ही पवन के साथ रहने की इच्छा है. यहां मुझे और कोई कमी नहीं है, बस, आप का पापा के साथ जो रवैया है, वह खटकता है. पापा का स्वभाव कितना अच्छा है.’’ पवन ने रश्मि के कंधे पर हाथ रख कर उसे शांत रहने का इशारा किया तो माया ने तेज आवाज में कहा, ‘‘सुन रहा है इस की बातें?’’
‘‘मां, रश्मि ठीक ही तो कह रही है. मैं और पापा सालों से आप का जिद्दी और गुस्सैल स्वभाव सहते आ रहे हैं पर अपने घर का अच्छा माहौल देख कर आने वाली लड़की को तो आप का स्वभाव अजीब ही लगेगा.’’ माया को तो आज झटके पर झटके लग रहे थे. उस ने सुधीर से कहा, ‘‘मेरी शक्ल क्या देख रहे हो, तुम कुछ बोलते क्यों नहीं?’’ सुधीर का चेहरा तो बच्चों की बातें सुन कर अलग ही खुशी से चमक रहा था. हंसते हुए बोले, ‘‘भई, मैं तो आज भी चुप ही रहूंगा.’’ पवन और रश्मि ने भी खुल कर उन की उन्मुक्त हंसी में उन का साथ दिया तो माया का चेहरा देखने लायक था.
सच तो यह है कि मैं ने कोई गुनाह नहीं किया. मैं ने बहुत सोचसमझ कर फैसला किया था और मैं अपने फैसले पर बहुत खुश हूं. मुझे बिलकुल भी पछतावा नहीं है.
मांबाप के घर गई थी. मां ने नजरें उठा कर मेरी ओर देखा भी नहीं. उसी मां ने जो कैलेंडर में छपी खूबसूरत लड़की को देख कर कहती थी कि ये मेरी चंद्रा जैसी है. पापा ने चेहरे के सामने से अखबार भी नहीं हटाया.
‘‘क्या मैं चली जाऊं? साधारण शिष्टाचार भी नहीं निभाया जाएगा?’’ सब्जी काटती मां के हाथ रुक गए.
‘‘अब क्या करने आई हो? मुंह दिखाने लायक भी नहीं रखा. हमारा घर से निकलना भी मुश्किल कर दिया है. लोग तरहतरह के सवाल करते हैं.’’
‘‘कैसे सवाल, मम्मी?’’
‘‘यही कि तुम्हारे पति ने तुम्हें निकाल दिया है. तुम्हारा तलाक हो गया है. तुम बदचलन हो, इसलिए तुम्हारा पति तलाक देने को खुशी से तैयार हो गया.’’
‘‘बदचलन होने के लिए वक्त किस के पास था, मम्मी? सवेरे से शाम तक नौकरी करती थी, फिर घर का सारा काम करना पड़ता था. तुम तो समझ सकती हो?’’
पापा ने कहा, ‘‘तुम ने हमारी राय जानने की कोई परवा नहीं की, सबकुछ अपनेआप ही कर लिया.’’
‘‘इसलिए कि आप लोग केवल गलत राय देते जबकि हर सूरत में मैं राजीव से तलाक लेने का फैसला कर चुकी थी. फैसला जब मेरे और राजीव के बीच में होना था तो आप को किसलिए परेशान करती. मैं नौकरी करतेकरते तंग आ गई थी. हर औरत की ख्वाहिश होती है कि वह अपना घर संभाले. 1-2 बच्चे हों. मां बनने की इच्छा करना किसी औरत के लिए गुनाह तो नहीं है पर राजीव के पास रह कर मैं कुछ भी नहीं बन सकती थी. मैं सिर्फ रुपया कमाने वाली मशीन बन कर रह गई थी.’’
‘‘लोगों को कुछ काम नहीं है. दूसरों पर उंगली उठाना उन की आदत है. उन की अपनी जिंदगी इतनी नीरस है कि वे दूसरों की जिंदगी में ताकझांक कर के अपना मनोरंजन करना चाहते हैं. खैर, मैं ने जो ठीक समझा, वही किया है. नौकरी राजीव के साथ रह कर भी कर रही थी, अब भी करूंगी और शादी से पहले भी करती थी.’’
‘‘शादी से पहले तुम अपनी खुशी से वक्त काटने के लिए नौकरी करती थी.’’
‘‘दूसरों को कहने के लिए ये बातें अच्छी हैं. आप भी जानते हैं और मैं भी जानती हूं कि मेरी शादी से पहले नौकरी कर के लाया हुआ रुपया व्यर्थ नहीं गया, सिर्फ मेरी खुशी पर ही खर्च नहीं हुआ. मेरा रुपया कम से कम एक भाई की इंजीनियरिंग और दूसरे की डाक्टरी की फीस देने के काम आ गया. मैं आप को दोष नहीं दे रही हूं, क्योंकि हम मध्यवर्ग के लोग हैं और यह सच है कि हर एक के शासन में मध्यवर्ग ही पिसा है.
‘‘गरीबों को फायदा हुआ. उन की मजदूरी बढ़ गई. उन की तनख्वाह बढ़ गई पर मध्यवर्ग के लोग बढ़ी हुई महंगाई और बच्चों की शिक्षा के खर्च के बीच पिसते रहे, अपनी इज्जत बनाए रखने के लिए संघर्ष करते रहे. सब ने गरीबों की बात की पर कभी किसी ने भी मध्यवर्गीय लोगों की बात नहीं की. फिर भी आप लोग यह बात कह रहे हैं कि मैं ने सिर्फ अपनी खुशी के लिए, वक्त काटने के लिए नौकरी की. आप की तनख्वाह से सिर्फ घर का खर्च आसानी से चलता था और कुछ नहीं.’’
मैं रुक गई और मैं ने पापा की ओर देखा. उन के चेहरे पर परेशानी साफ झलक रही थी. मां ने जोश में आ कर अपनी उंगली काट ली थी.
‘‘यह वही मध्यवर्ग है जो देश को एक वक्त भूखे रह कर भी, अध्यापक, डाक्टर्स, इंजीनियर्स और वैज्ञानिक देता रहा है. देश की आजादी कायम रखने के लिए भी अपने बेटे फौज में ज्यादातर मध्यवर्गीय लोगों ने ही दिए हैं. यह वही पढ़ालिखा शिक्षित वर्ग है, जो चुपचाप बिना विद्रोह किए सबकुछ सहता आया है.’’
मैं और कुछ कहूं इस के पहले ही पापा ने ताली बजाते हुए कहा, ‘‘शाबाश, स्पीच अच्छी देती हो. मैं देख रहा हूं कि तुम्हें ऊंची शिक्षा दिलाना बेकार नहीं गया.’’ और वे हंसने लगे. मां के चेहरे पर भी मुसकराहट आ गई. वातावरण कुछ हलका होता लगा.
‘‘नौकरी अब मजबूरन करूंगी, अपना पेट भरने के लिए. खैर जो होना था, हो चुका है. तलाक हम दोनों की रजामंदी से हुआ है. हम दोनों ही समझ चुके थे कि अब साथ रहना नहीं हो सकेगा. मैं जा रही हूं, मम्मी. अगर आप लोग इजाजत देंगे तो कभीकभी देखने आ जाया करूंगी.’’
मेरी बात सुन कर जैसे मम्मी होश में आ गईं, बोलीं, ‘‘खाना खा कर जाओ.’’
‘‘नहीं, मम्मी, बहुत थकी हुई हूं, घर जा कर आराम करूंगी.’’
रास्ते में सरला मिल गई. वह बाजार से सामान खरीद कर लौट रही थी. कार रोक कर मैं ने सरला से साथ चलने को कहा.
‘‘दीदी, अभी तो मुझे और भी सामान लेना है.’’
‘‘फिर ले लेना,’’ मैं ने कहा और सरला को कार के भीतर घसीट लिया. कार थोड़ी पुरानी है. मेरे चाचा अमेरिका में बस गए थे और अपनी पुरानी कार मुझे शादी में भेंट दे गए थे.
सरला और मैं ने मिल कर एक छोटा सा फ्लैट किराए पर ले लिया था. सरला मेरे ही दफ्तर में एक कंप्यूटर औपरेटर थी.
रात को अपने कमरे में पलंग पर लेटते ही मम्मीपापा का व्यवहार याद आ गया. उन लोगों ने तो मेरी जिंदगी को नहीं जिया है, फिर नाराज होने का भी उन्हें क्या हक है? जिंदगी के बारे में सोचते ही राजीव का चेहरा आंखों के सामने आ गया.
‘क्यों छोड़ी नौकरी? मैं ने तुम से शादी सिर्फ इसलिए की थी कि मुझे एक कमाने वाली पत्नी मिलने वाली थी. मेरे लिए लड़कियों की क्या कमी थी?’
‘औफिस का काम और ऊपर से घर का काम, दोनों मैं नहीं कर पा रही थी. आप की हर जरूरत नौकरी करने पर मैं कैसे पूरी कर सकती थी? बहुत थक जाती हूं, इसलिए इस्तीफा दे आई हूं.’
‘कल जा कर अपना इस्तीफा वापस ले लेना, तभी मेरे साथ रहना हो सकेगा.’
‘अच्छी बात है, जैसा आप कहेंगे वही करूंगी.’
‘तुम समझती क्यों नहीं, चंद्रा. दो लोगों के कमाने से हम लोग ठीक से रह तो सकते हैं? दूसरों की तरह एकएक चीज के लिए किसी का मुंह तो नहीं देखना पड़ता है? तुम जब चाहती हो साडि़यां खरीद लेती हो, इसलिए कि हम दोनों कमाते हैं. ऊपर से महंगाई भी कितनी है.’
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‘क्या शराब और सिगरेट के दाम बहुत बढ़ गए हैं? मैं ने सिर्फ इसलिए पूछा कि आप को गृहस्थी की और चीजों से तो कोई मतलब नहीं है.’
‘ठीक समझती हो,’ राजीव ने हंसते हुए कहा था.
‘मैं सिर्फ आप की तनख्वाह में भी रह सकती हूं अगर आप शराब, जुए और दोस्तों के खर्च में कुछ कटौती कर दें.’
‘नहीं, नहीं. मैं ऐसी ऊबभरी जिंदगी नहीं जी सकूंगा.’
‘मैं भी फिर इतनी थकानभरी जिंदगी कब तक जी सकूंगी?’
‘सुनो, घर के कामों को जरा आसानी से लिया करो. औफिस से आने पर अगर देर हो जाए तो किसी होटल में भी खाना खाया जा सकता है. तुम घर के कामों को बेवजह बहुत महत्त्व दे रही हो.’
‘हम दोनों ने नौकरी कर के कितना रुपया जमा कर लिया है? आमदनी के साथ खर्च बढ़ता गया है.’
‘जोड़ने को तो सारी उम्र पड़ी है. और फिर क्या मैं ही खर्च करता हूं? तुम्हारा खर्च नहीं है?’
‘जरूर है. अन्य औरतों के मुकाबले में ज्यादा भी है. इसलिए कि मुझे नौकरी करने के लिए घर से बाहर जाना पड़ता है. घर में तो कैसे भी, कुछ भी पहन कर रहा जा सकता है.’
‘इतनी काबिल औरत हो, तुम्हारे बौस भी तुम्हारी बहुत तारीफ करते हैं. एक साधारण औरत की तरह रसोई और घर के कामों में समय बरबाद करना चाहती हो? कल ही जा कर अपना इस्तीफा वापस ले लेना. बड़े ताज्जुब की बात है कि इतना बड़ा कदम उठाने से पहले तुम ने मुझ से पूछा तक भी नहीं.’
‘राजीव, मैं ने निश्चय कर लिया है कि अब मैं तुम्हारे साथ नहीं रहूंगी.’
‘क्या मतलब?’
‘मतलब साफ है. हम दोनों अपनी रजामंदी से तलाक का फैसला ले लें तो अच्छा रहेगा. खर्च भी कम होगा.’
‘सवेरे बात करेंगे. इस समय तुम किसी वजह से परेशान हो या थकी हुई हो.’
‘शादी के बाद से मैं ने आराम किया ही कब है? बात सवेरे नहीं, अभी होगी, क्योंकि मैं कल इस घर को छोड़ कर जा रही हूं. मेरा निश्चय नहीं बदलेगा. तलाक के बाद तुम फिर आराम से दूसरी कमाने वाली लड़की से शादी कर लेना.’
‘अच्छी बात है, जैसा तुम कहोगी वैसा ही होगा, पर मुझे अपनी बहन की शादी में कम से कम 4-5 लाख रुपए देने होंगे. अगर तुम 4-5 साल रुक जातीं तो इतने रुपए हम दोनों मिल कर जमा कर लेते. मैं ने सिगरेट और शराब वगैरा का खर्च कम करने का निश्चय कर लिया था.’
‘तब भी नहीं.’
‘मैं तुम्हारी हर बात मानने के लिए तैयार हो गया हूं और तुम मेरी इतनी सी बात भी नहीं मान रही हो. सिर्फ 4-5 लाख रुपयों का ही तो सवाल है.’
‘आप को मालूम पड़ गया है कि मेरे पास बैंक में कितने रुपए हैं. इसीलिए यह सौदेबाजी हो रही है. अगर मुझे आजाद करने की कीमत 5 लाख रुपए है तो दे दूंगी. मेरी दिवंगत दादी के रुपए कुछ काम तो आ जाएंगे.’ और फिर एक दिन तलाक भी हो गया और मैं सरला के साथ अलग फ्लैट में रहने लगी.
अभी मैं राजीव को ले कर पुरानी बातों में ही उलझी हुई थी कि सरला ने आ कर कहा, ‘‘हर समय क्या सोचती रहती हैं, दीदी? आप का खाना टेबल पर रखा है, खा लीजिएगा. मैं बाजार जा रही हूं. घर में सब्जी कुछ भी नहीं है. सवेरे लंच के लिए क्या ले कर जाएंगे?’’
‘‘अरे छोड़ो भी, सरला, कैंटीन से लंच ले लेंगे.’’
‘‘नहीं, नहीं. आप को कैंटीन का खाना अच्छा नहीं लगता है. कल लंच में आलूमटर की सब्जी और कचौडि़यां होंगी. क्यों, दीदी, ठीक है न? आप को उड़द की दाल की कचौडि़यां बहुत अच्छी लगती हैं. मैं ने तो दाल भी पीस कर रख दी है.’’
‘‘सरला, क्यों मेरा इतना ध्यान रखती हो? आज तक तो किसी ने भी नहीं रखा.’’
‘‘दीदी, सुन लो. आप ऐसी बात फिर कभी मुंह से मत निकालिएगा.’’
‘‘कौन से जनम का रिश्ता निभा रही हो, सरला? मांबाप ने तो इस जनम का भी नहीं निभाया. तुम इतने सारे रिश्ते कहां से समेट कर बैठ गई हो?’’
जवाब में सरला ने पास आ कर मेरे गले में बांहें डाल दीं, ‘‘दीदी, मेरा इस दुनिया में आप के सिवा कोई नहीं है. फिर ऐसी बात मत कहिएगा.’’
सरला सब्जी लेने चली गई थी. टेबल पर खाना सजा हुआ रखा था. अकेले खाने को दिल नहीं कर रहा था, पर सरला का मन रखने के लिए खाना जरूरी था. न जाने क्या हुआ कि खातेखाते एकाएक समीर का ध्यानहो आया. समीर हमारी कंपनी में कानूनी मामलों की देखभाल के लिए रखा गया एक वकील था. जवान और काफी खूबसूरत.
एक दिन बसस्टौप पर मेरे बराबर कार रोक कर खड़ा हो गया और बैठने की खुशामद करने लगा. मैं ने मना कर दिया.
‘‘मुझे आप से कुछ पूछना है.’’
‘‘कहिए.’’
‘‘क्या आप कुछ रोमांटिक डायलौग बतला सकती हैं, जो एक आदमी किसी औरत से कह सकता है?’’
‘‘किस औरत से?’’
‘‘जिसे वह बहुत प्यार करता है और जिस से शादी करना चाहता है,’’ समीर ने डरतेडरते कहा.
‘‘मुझे नहीं मालूम. मैं ने इस तरह के डायलौग कभी नहीं सुने हैं. क्यों नहीं आप जा कर कोई हिंदी फिल्म देख लेते हैं, आप की समस्या आसानी से हल हो जाएगी,’’ मैं ने कहा और आगे बढ़ गई.
एक दिन फिर उस ने मुझे रोक लिया, ‘‘चंद्राजी, इन अंधेरों से निकल कर बाहर आ जाइए. बाहर का आसमान बहुत खुलाखुला है और साफ है. चारों तरफ रोशनी फैली हुई है. आप बेवजह अंधेरों में भटक रही हैं.’’
‘‘मुझे इन अंधेरों में ही रहने की आदत है. मेरी ये आंखें रोशनी सह न सकेंगी,’’ मैं ने भी मजाक में कह दिया. ‘‘आओ, मेरा हाथ पकड़ लो, मैं आहिस्ताआहिस्ता तुम्हें इन अंधेरों से बाहर ले आऊंगा,’’ समीर ने गंभीर सा चेहरा बनाते हुए कहा.
समीर का डायलौग सुन हंसतेहंसते मेरा बुरा हाल हो गया. समीर भी हंसने लगा.
‘‘बड़ी मुश्किल से याद किए थे, चंद्रा. छोड़ो डायलौग की बात, मैं तुम से शादी करना चाहता हूं. तुम्हें बेहद प्यार करता हूं.’’
‘‘समीर, तुम्हें मेरे बारे में कुछ भी नहीं मालूम है. तुम सिर्फ इतना जानते हो कि मैं बौस की प्राइवेट सैक्रेटरी हूं.’’
‘‘मैं कुछ जानना भी नहीं चाहता. जितना जानता हूं, उतना ही काफी है. मैं तुम से वादा करता हूं कि तुम्हारी पिछली जिंदगी के बारे में कभी भी कोई बात नहीं करूंगा.’’
‘‘करनी है तो अभी कर लो.’’
‘‘मैं तो सिर्फ इतना ही जानता हूं कि मेरी मां घर के दरवाजे पर मेरी होने वाली पत्नी और मेरे होने वाले बच्चों के लिए आंखें बिछाए बैठी रहती हैं.’’
‘‘ले चलो अपनी मां के पास. रोजरोज मेरे रास्ते पर खड़े रहते हो, अब मुझे तुम्हारी इस हरकत से उलझन होने लगी है.’’
और जब समीर मुझे अपनी मां के पास ले गया तो उन्होंने मुझे देखते ही अपने सीने से लगा लिया, ‘‘हर समय समीर बस तेरी ही बातें करता है. मैं तुझे देखने को तरस रही थी.’’
मैं ने मांजी की गोद में सिर रख दिया. समीर से शादी के बाद फिर एक बार मम्मीपापा से मिलने गई. मां ने चौंक कर मेरी ओर देखा जैसे विश्वास नहीं आ रहा हो. गुलाबी रंग की बनारसी साड़ी, मांग में सिंदूर और उंगली में बड़ेबड़े हीरों की अंगूठी पहने बेटी उन के सामने आ कर खड़ी हो गई थी.
‘‘मां, मैं ने शादी कर ली है. समीर हमारी कंपनी में ही कानूनी सलाह देने के लिए नियुक्त एक वकील हैं.’’
‘‘दूसरी शादी? पहले पति को छोड़ा, वही बड़ा भारी अधर्म का काम किया था और अब…’’
‘‘एक गुनाह और कर लिया, मम्मी. अगर आप लोग इजाजत देंगे तो किसी दिन समीर को आप लोगों से मिलाने के लिए ले आऊंगी.’’
मम्मी कुछ नहीं बोलीं. मुझे लगा कि पापा अपने चेहरे के सामने से अखबार हटाना चाहते हैं, पर हटा नहीं पा रहे हैं. मैं देख रही थी कि अखबार पकड़े हुए उन की बूढ़ी उंगलियां कांप रही हैं.
‘‘अच्छा, मम्मी, अब मैं चलती हूं. समीर इंतजार कर रहे होंगे.’’
‘‘बेटी, खाना खा कर नहीं जाओगी?’’ पापा ने अखबार हटाते हुए कहा और न जाने कब उन की आंखों से दो आंसू टप से कांपते हुए अखबार पर गिर पड़े.
VIDEO : नेल आर्ट डिजाइन – टील ब्लू नेल आर्ट
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राजू भी दिन भर बाहर रहता है. खानेपीने का कोई नियम नहीं. तेरे पापा ने चाय बनानी सीख ली है. चाय तो वे ही बना लेते हैं.
ये सब सुन कर मन बेहद दुखी हुआ. मैं भी रेनू और राजू के बहकते कदमों के बारे में मम्मी को सतर्क करना चाहती थी पर उन के स्वास्थ्य को देखते हुए मैं ने इस विषय पर चुप्पी ही साध ली.
अगले दिन मैं ने अपनी सहेली चित्रा को फोन किया. वह मुझ से मिलने घर आ गई. विवाह के बाद मैं उसे मिल न पाई थी. चित्रा मेरी बचपन की एक मात्र अंतरंग सखी थी. वह एक धनी व्यवसायी की बेटी थी, परंतु घमंड से कोसों दूर थी. बेहद स्नेहमयी थी. इसीलिए वह हमेशा मेरे दिल के करीब रही. दोनों एकदूसरे के दुखसुख में भागीदार रहती थीं.
चित्रा के आने पर मेरा मन खुश हो उठा. हम दोनों पहले मम्मी के पास बैठीं.
मम्मी बोलीं, ‘‘अरे चित्रा, आज तो तू मीनू को कहीं बाहर घुमा ला. जब से आई है मेरी सेवा में लगी है. अब मैं ठीक हूं.’’
चित्रा ने चलने का अनुरोध किया तो मैं मना न कर पाई. वह अपनी कार में आई थी. दोनों एक रेस्तरां में पहुंच गईं. चित्रा ने कौफी और सैंडविच का और्डर दिया. फिर दोनों बतियाने लगीं. चित्रा मुझ से मेरे विवाह और ससुराल के अनुभव सुनने के लिए बेताब थी. फिर अचानक चित्रा गंभीर हो गई. बोली, ‘‘मीनू, हम दोनों कितने समय बाद मिले हैं. मैं तेरा दिल दुखाना नहीं चाहती हूं पर इस विषय पर चुप्पी साध कर भी मैं तेरा और तेरे परिवार का नुकसान नहीं करना चाहती.’’
मैं ने उसे सब कुछ खुल कर बताने को कहा तो चित्रा ने कहा, ‘‘मीनू तू तो जानती है
कि मेरा छोटा भाई रजत और राजू कालेज में एकसाथ ही हैं. रजत ने मुझे बताया कि राजू 3-4 महीनों से कालेज में बहुत कम दिखाई देता है. वह कुछ दादा टाइप लड़कों के साथ घूमता है. प्रोफैसर उसे कई बार चेतावनी दे चुके हैं. मुझे लगता है उसे अभी न रोका गया तो वह गलत रास्ते पर आगे बढ़ जाएगा, फिर वहां से लौटना कठिन हो जाएगा.’’
मैं ने चित्रा को शुक्रिया कहा और बोली, ‘‘तू ने सही समय पर मुझे सचेत कर दिया. राजू से आज ही बात करती हूं.’’
बात निकली तो मैं ने रेनू के बारे में भी चित्रा को सब बता दिया. मेरी बात सुन कर चित्रा कहने लगी, ‘‘वैसे तो इस उम्र में लड़कियों और लड़कों में आकर्षण आम बात है पर परेशानी तब होती है जब लड़के मासूम लड़कियों को बहलाफुसला कर उन से संबंध बना कर उन के आपत्तिजनक वीडियो बना कर ब्लैकमेल करने लगते हैं.’’
मैं ने कहा, ‘‘बस चित्रा मुझे यही चिंता खा रही है. रेनू सुनने को तैयार ही नहीं है.
अभी हम बातें कर ही रही थीं कि एकाएक मेरी नजर सामने की टेबल पर पड़ी. वहां एक नवयुवक और एक नवयुवती हाथों में हाथ डाले जूस पी रहे थे. वे धीरेधीरे बातें कर रहे थे. मुझे लगा कि इस लड़के को कहीं देखा है. दिमाग पर जोर डाला और ध्यान से देखा तो याद आ गया. यह वही लड़का है, जिस के साथ रेनू बाइक पर घूमती है.
बस अब मेरा दिमाग तेजी से काम करने लगा. इस फ्लर्टी लड़के के चक्कर में रेनू मेरा इतना अपमान कर रही थी. मैं ने झटपट एक प्लान बनाया और चित्रा को समझाया. चित्रा वाशरूम जाने के बहाने उन दोनों के पास जा कर रुकेगी और मैं समय नष्ट न करते हुए मोबाइल से उन का फोटो ले लूंगी. अगर वह जोड़ा सचेत हो जाता है, तो मैं कैमरे का रुख चित्रा की ओर कर के उसे पोज देने को कहने लगूंगी. मगर दोनों प्रेमी अपने आसपास की चहलपहल से बेखबर एक ही गिलास में जूस पीने में मस्त थे. मैं ने जल्दी से फोटो लिए और हम दोनों रेस्तरां से बाहर आ गईं.
घर पर रेनू और राजू भी आ चुके थे. राजू तो चित्रा को घर आया देख सकपका सा गया
पर चित्रा को रेनू बहुत पसंद करती थी, इसलिए वह चित्रा से बहुत प्यार से मिली. एकदूसरे का हालचाल पूछ कर रेनू सब के लिए चाय बनाने चली गई.
कुछ देर रुक राजू मौका देख कर कोचिंग क्लास के बहाने बाहर जाने लगा तो चित्रा ने लपक कर उस का हाथ पकड़ लिया और बोली, ‘‘क्यों मैं इतने दिनों बाद आई हूं, मुझ से बातचीत नहीं करोगे? मीनू के ससुराल जाने के बाद अब मैं ही तुम्हारी दीदी हूं. मुझ से अपने मन की बात कह सकते हो,’’ यह कहतेकहते वह राजू को अलग कमरे में ले गई.
चित्रा ने राजू को समझाया, ‘‘तुम्हारी हरकतों से तुम्हारा कैरियर तो खराब होगा ही, पूरे घर के मानसम्मान पर भी धब्बा लगेगा. तुम्हारे मातापिता तुम से कितनी उम्मीदें लगाए बैठे हैं.’’
राजू सब सिर झुकाए सुनता रहा.
चित्रा ने आगे कहा, ‘‘तुम कल से नियमित कालेज जाओ… उन लड़कों से मिलनाजुलना बंद करो. अगर इस में कोई भी समस्या सामने आती है, तो प्रोफैसर आदित्य के पास चले जाना. वे मेरे कजिन हैं. हर तरह से तुम्हारी मदद करेंगे. हां, अब तुम्हारी सारी गतिविधियों पर ध्यान भी रखा जाएगा. याद रहे तुम्हारी मीनू दीदी उसी कालेज में टौपर रह चुकी हैं.’’
राजू चित्रा का बहुत आदर करता था. अत: ये सब सुन कर रो पड़ा. उस ने चित्रा से वादा किया कि वह उन की बातों पर अमल करेगा. चित्रा ने प्यार से उस की पीठ थपथपाई. तभी
रेनू चाय बना कर कर ले आई. उधर मैं ने भी अपना काम कर लिया. मैं ने रेस्तरां में खींचे गए फोटो वहीं रख दिए जहां टेबल पर रेनू ने चाय रखी थी. मैं वहां से उठ कर मम्मी के कमरे में चली गई.
रेनू चाय के लिए सब को बुलाने लगी. हम सब हंसतेखिलाते चाय पीने लगे. तभी रेनू की नजर फोटो पर पड़ गई, ‘‘किस के फोटो हैं ये?’’ कह कर उन्हें उठा लिया.
चित्रा बोली, ‘‘ये मेरे फोटो खींच रही थी. मेरे तो खींच नहीं पाई. यह जोड़ा रेस्तरां में बैठा था, उस की खिंच गई. मीनू तू तो मोबाइल से भी फोटो नहीं खींच पाती.’’
फोटो देखते ही रेनू के चेहरे का रंग बदल गया. हम चुपचाप अनजान बने चाय पीते रहे.
रेनू चुपचाप वहां से चली गई. हम थोड़ी देर बाद रेनू के कमरे में जा पहुंचे. वह बिस्तर पर पड़ी रो रही थी.
चित्रा ने उस से प्यार से रोने का कारण पूछा तो उस ने पहले तो बहाना किया पर उस का बहाना मेरे और चित्रा के सामने नहीं चला. मैं ने पुचकार कर पूछा तो उस ने उस लड़के के बारे में सब बता दिया. मैं ने और चित्रा ने उसे इस उम्र में होने वाली गलतियों से आगाह किया और पढ़ाईलिखाई में ध्यान देने को कहा.
रेनू रोतेरोते मेरे गले लग गई और बोली, ‘‘दीदी, मुझे डांटो, मैं बहुत खराब हूं.’’
तब मैं ने प्यार से समझाया, ‘‘सुबह का भूला अगर शाम को घर वापस आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते. अब मम्मीपापा की देखभाल की पूरी जिम्मेदारी तुम्हारी है.’’
रेनू ने हां में सिर हिला दिया. राजू भी सिर झुकाए खड़ा था. वह भी मेरे गले लग गया.
चित्रा जाते समय मम्मीपापा से मिलने गई तो हंस कर बोली, ‘‘अंकल जिस काम के लिए मैं यहां आई थी उसे तो भूल कर जा रही थी. दरअसल, पापा ने मुझे आप के पास इसलिए भेजा था कि पापा को अपने व्यवसाय के लिए एक अनुभवी अकाउंटैंट चाहिए. यदि आप यह कार्य संभाल लें तो उन की चिंता कम हो जाएगी.’’
पापा की खुशी की सीमा न रही. बोले, ‘‘नेकी और पूछपूछ. चित्रा बेटी तुम्हारा यह उपकार कभी नहीं भूलूंगा.’’
यह सुन कर चित्रा प्यार भरे गुस्से से बोली, ‘‘अंकल आप ऐसा कहेंगे तो मैं आप से बहुत नाराज हो जाऊंगी.’’
पापा ने मुसकरा कर अपने कान पकड़ लिए तो सभी जोर से हंस पड़े. सारा माहौल खुशगवार हो गया.
मम्मी अब ठीक थीं. रेनू ने भी घर के कामकाज में ध्यान देना शुरू कर दिया था. मैं ने भी ससुराल लौटने की इच्छा जताई. इस बार राजू मुझे ससुराल छोड़ने जा रहा था. अगले दिन मैं जाने से पहले मम्मीपापा के कमरे के पास से गुजर रही थी तो मुझे उन की बातचीत सुनाई पड़ी.
मम्मी कह रही थीं, ‘‘देखो हम बेटियों को पराया धन, पराई अमानत कह कर दुखी करते हैं परंतु बेटियां पति के घर जा कर भी पिता की चिंता नहीं छोड़तीं.’’
पापा हंस कर बोले, ‘‘तुम ने वह कहावत नहीं सुनी है कि बेटे अपने तब तक रहते हैं जब तक न हो वाइफ और बेटियां तब तक साथ रहती हैं जब तक हो लाइफ.’’
यह सुन कर मैं भी मुसकरा दी. अगले दिन मैं मायके से विदा हो कर ससुराल आ गई. सभी मुझ से और राजू से बहुत प्यार से मिले. शेखर ने राजू को पूरी दिल्ली घुमाया. कई तोहफे दिए. नीलम जीजी भी राजू से मिलने आईं. राजू बहुत ही अच्छे मूड में विदा हुआ.
अम्मां के घुटनों के दर्द के लिए मैं एक तेल लाई थी. उस से मालिश कर के अम्मां और पापाजी के कमरे से निकली तो पापा की आवाज सुनाई दी, ‘‘बहुएं तो प्यार की भूखी होती हैं. जब तक उन्हें पराए घर की, पराए खून की कहते रहेंगे वे ससुराल में अपनी जगह कैसे बनाएंगी?’’