पाखंड: आखिर क्या जान गई थी बहू?

‘‘दीदीजी, हमारी बात मानो तो आप भी पहाड़ी वाली माता के पास हो आओ. फिर देखना, आप के सिर का दर्द कैसे गायब हो जाता है,’’ झाड़ू लगाती रामकली ने कहा.

कल रात को लाइट न होने के कारण मैं रात भर सो नहीं पाई थी, इसलिए सिर में हलका सा दर्द हो रहा था, पर इसे कैसे समझाऊं कि दर्द होने पर दवा खानी चाहिए न कि किसी माता के पास जाना चाहिए.

‘‘रामकली, पहले मेरे लिए चाय बना लाओ,’’ मैं कुछ देर शांति चाहती थी. यहां आए हमें 3 महीने हो चुके थे. ऐसा नहीं था कि मैं यहां पहली बार आई थी. कभी मेरे ससुरजी इस गांव के सरपंच हुआ करते थे. पर यह बात काफी पुरानी हो चुकी है. अब तो इस गांव ने काफी उन्नति कर ली है.

30 साल पहले मेरी डोली इसी गांव में आई थी, पर जल्द ही मेरे पति की नौकरी शहर में लग गई और धीरेधीरे बच्चों की पढ़ाईलिखाई के कारण यहां आना कम हो गया. मेरे सासससुर की मृत्यु के बाद तो यहां आना एकदम बंद हो गया. अब जब हमारे बच्चे अपनेअपने काम में रम गए और पति रिटायर हो गए, तो फिर से एक बार यहां आनाजाना शुरू हो गया.

‘‘मेमसाहब, चाय,’’ रामकली ने मुझे चाय ला कर दी. अब तक सिरदर्द कुछ कम हो गया था. सोचा, थोड़ी देर आराम कर लूं, पर जैसे ही आंखें बंद कीं, गली में बज रहे ढोल की आवाजें सुनाई देने लगीं.

‘‘दीदीजी, आज पहाड़ी माता की चौकी लगनी है न… उस के लिए ही पूरे गांव में जुलूस निकल रहा है. आप भी चल कर दर्शन कर लो.’’

‘‘यह पहाड़ी वाली माता कौन है?’’ मैं ने पूछा, पर रामकली मेरी बात को अनसुना कर के जय माता दी कहती हुई चली गई.

थोड़ी देर बाद ढोल का शोर दूर जाता सुनाई दिया. तभी रामकली आ कर बोली, ‘‘लो दीदी, मातारानी का प्रसाद,’’ और फिर अपने काम में लग गई.

कुछ दिनों बाद रामकली ने मुझ से छुट्टी मांगी. मैं ने छुट्टी मांगने का कारण पूछा तो बोली, ‘‘दीदी, माता की चौकी पर जाना है.’’ मैं ने ज्यादा नानुकर किए बिना छुट्टी दे दी.

मेरे पति अपना अधिकतर समय मेरे ससुरजी के खेतों पर ही बिताते. सेवानिवृत्त होने के बाद यही उन का शौक था. मैं घर पर कभी किताबें पढ़ कर तो कभी टीवी देख कर समय बिताती थी. पासपड़ोस में कम ही जाती थी. अगले दिन जब रामकली वापस आई तो बस सारा वक्त माता का ही गुणगान करती रही. शुरूशुरू में मुझे ये बातें बोर करती थीं, पर फिर धीरेधीरे मुझे इन में मजा आने लगा. मैं ने भी इस बार चौकी में जाने का मन बना लिया. सोचा, थोड़ा टाइम पास हो जाएगा.

मैं ने रामकली से कहा तो वह खुशी से झूम उठी और बोली, ‘‘दीदी, यह तो बहुत अच्छा है. आप देखना, आप की हर मुराद वहां पूरी हो जाएगी.’’

कुछ दिनों बाद मैं भी रामकली के साथ मंदिर चली गई. इस मंदिर में मैं पहले भी अपनी सास के साथ कई बार आई थी, पर अब तो यह मंदिर पहचान में नहीं आ रहा था. एक छोटे से कमरे में बना मंदिर विशाल रूप ले चुका था. जहां पहले सिर्फ एक फूल की दुकान होती थी वहीं अब दर्जनों प्रसाद की दुकानें खुल चुकी थीं और इतनी भीड़ कि पूछो मत.

रामकली मुझे सीधा आगे ले गई. मंच पर एक बड़ा सिंहासन लगा हुआ था. रामकली मंच के पास खड़े एक आदमी के पास जा कर कुछ कहने लगी, फिर वह आदमी मेरी ओर देख कर मुसकराते हुए नमस्ते करने लगा. मैं ने भी नमस्ते का जवाब दे दिया.

रामकली फिर मेरे पास आ कर बोली, ‘‘दीदी, वह मेरा पड़ोसी राजेश है. जब से माताजी की सेवा में आया है, इस के वारेन्यारे हो गए हैं. पहले इस की बीवी भी मेरी तरह ही घरों में काम करती थी, पर अब देखो माता की सेवा में आते ही इन के भाग खुल गए. आज इन के पास सब कुछ है.’’

थोड़ी देर बाद वहां एक 30-35 वर्ष की महिला आई, जिस ने गेरुआ वस्त्र पहन रखे थे. माथे पर बड़ा सा तिलक लगा रखा था और गले में रुद्राक्ष की माला पहनी हुई थी.

उस के मंच पर आते ही सब खड़े हो गए और जोरजोर से माताजी की जय हो, बोलने लगे. सब ने बारीबारी से मंच के पास जा कर उन के पैर छुए. पर मैं मंच के पास नहीं गई, न ही मैं ने उन के पैर छुए. 20-25 मिनट बाद ही माताजी उठ कर वापस अपने पंडाल में चली गईं.

माताजी के जाते ही लाउडस्पीकर पर जोरजोर से आवाजें आने लगीं, ‘‘माताजी का आराम का वक्त हो गया है. भक्तों से प्रार्थना है कि लाइन से आ कर माता के सिंहासन के दर्शन कर के पुण्य कमाएं.’’

अजीब नजारा था. लोग उस खाली सिंहासन के पाए को छू कर ही खुश थे.

‘‘दीदी चलो, राजेश ने माताजी के विशेष दर्शन का प्रबंध किया है,’’ रामकली के कहने पर मैं उस के साथ हो गई.

‘‘आओआओ, अंदर आ जाओ,’’ राजेश हमें कमरे के बाहर ही मिल गया. कमरे के अंदर से अगरबत्ती की खुशबू आ रही थी. हलकी रोशनी में माताजी आंखें बंद कर के बैठी थीं. हम उन के सामने जा कर चुपचाप बैठ गए.

थोड़ी देर बाद माताजी की आंखें खुलीं, ‘‘देवी, आप के माथे की रेखाएं बता रही हैं कि आप के मन में हमें ले कर बहुत सी उलझनें हैं…देवी, मन से सभी शंकाएं निकाल दो. बस, भक्ति की शक्ति पर विश्वास रखो.’’

उन की बातें सुन कर मैं मुसकरा दी.

कुछ देर रुक कर वह फिर बोलीं, ‘‘तुम एक सुखी परिवार से हो…तुम्हारे कर्मों का फल है कि तुम्हारे परिवार में सब कुछ ठीक चल रहा है पर देखो देवी, मैं साफसाफ देख सकती हूं कि तुम्हारे परिवार पर संकट आने वाला है. यह संकट तुम्हारे पति के पिछले जन्म के कर्मों का फल है,’’ और माताजी ने एक नजर मुझ पर डाली.

‘‘संकट…माताजी कैसा संकट?’’ मुझ से पहले ही रामकली बोल पड़ी.

‘‘कोई घोर संकट का साया है…और वह साया तुम्हारे बेटे पर है,’’ फिर एक बार माताजी ने मुझ पर गहरी नजर डाली, ‘‘पर इस संकट का समाधान है.’’

‘‘समाधान…कैसा समाधान?’’ इस बार मैं ने पूछा.

‘‘आप के बेटे की शादी को 3 साल हो गए, पर आप आज तक पोते पोतियों के लिए तरस रही हैं,’’ माताजी के मुंह से ये बातें सुन कर मैं सोच में पड़ गई.

माताजी ने आगे बोलना शुरू किया, ‘‘देवीजी, आप का बेटा किसी दुर्घटना का शिकार होने वाला है, पर आप घबराएं नहीं. हम बस एक पूजा कर के सब संकट टाल देंगे और आप के बेटे को बचा लेंगे…यही नहीं, हमारी पूजा से आप जल्दी दादी भी बन जाएंगी.’’

मेरी समझ काम करना बंद कर चुकी थी. मुझे परेशान देख कर रामकली बोली, ‘‘माताजी, आप जैसा कहेंगी, दीदीजी वैसा ही करेंगी…ठीक कहा न दीदी?’’ रामकली ने मुझ से पूछा पर मैं कुछ न कह पाई. बेटे की दुर्घटना वाली बात ने मुझे अंदर तक हिला दिया.

मेरी चुप्पी को मेरी हां मान कर रामकली ने माताजी से पूजा की विधि पूछी तो माताजी बोलीं, ‘‘पूजा हम कर लेंगे…बाकी बात तुम्हें राजेश समझा देगा…देवी, चिंता मत करना हम हैं न.’’

घर आ कर मैं ने सारी बात अपने पति को बताई. मैं अपने बेटे को ले कर काफी परेशान हो गई थी. मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था. सारी बातें सुन कर मेरे पति बोले, ‘‘शिखा, तुम पढ़ीलिखी हो कर कैसी बातें करती हो? ये सब इन की चालें होती हैं. भोलीभाली औरतों को कभी पति की तो कभी बेटे की जान का खतरा बता कर और मर्दों को पैसों का लालच दे कर ठगते हैं. तुम बेकार में परेशान हो रही हो.’’

‘‘पर अगर उन की बात में कुछ सचाई हुई तो…देखिए पूजा करवाने में हमारा कुछ नहीं जाएगा और मन का डर भी निकल जाएगा…आप समझ रहे हैं न?’’

‘‘हां, समझ रहा हूं…जब तुम जैसी पढ़ीलिखी औरत इन के झांसे में आ गई तो गांव के अनपढ़ लोगों को यह कैसे पागल बनाते होंगे…देखो शिखा, रामकली जैसे लोग इन माताओं और बाबाओं के लिए एजैंट की तरह काम करते हैं. तुम्हारी समझ में क्यों नहीं आ रहा,’’ मेरे पति गुस्से से बोले, फिर मेरे पास आ कर बोले, ‘‘तुम इस माता को नहीं जानती. कुछ महीने पहले यह अपने पति के साथ इस गांव में आई थी. पति महंत बन गया और यह माता बन गई. मंदिर के आसपास की जमीन पर भी गैरकानूनी कब्जा कर रखा है. हम लोगों को तो इन के खिलाफ कुछ करना चाहिए और हम ही इन के जाल में फंस गए…शिखा, सब भूल जाओ और अपने दिमाग से डर को निकाल दो.’’

पति के सामने तो मैं चुप हो गई पर सारी रात सो नहीं पाई.

अगले दिन रामकली ने आ कर बताया कि पूजा के लिए 5 हजार रुपए लगेंगे. मैं ने पति के डर से उसे कुछ दिन टाल दिया. पर मन अब किसी काम में नहीं लग रहा था. 3 दिन बीत गए. इन तीनों दिनों में मैं कम से कम 7 बार अपने बेटे को फोन कर चुकी थी, पर मेरा डर कम नहीं हो रहा था.

1 हफ्ता बीत चुका था. दिल में आया कि अपने पति से एक बार फिर बात कर के देखती हूं, पर हिम्मत नहीं कर पाई. फिर एक दिन रामकली ने आ कर बताया कि माताजी ने कहा है कि कल पूर्णिमा है. पूजा कल नहीं हुई तो संकट टालना मुश्किल हो जाएगा. मेरे पास कोई जवाब नहीं था.

रामकली के जाने के बाद मन में गलत विचार आने लगे. मैं ने बिना अपने पति को बताए पैसे देने का फैसला कर लिया. मैं ने सोचा कि कल पूजा हो जानी चाहिए. इस के लिए मुझे अभी पैसे रामकली को दे देने चाहिए, यह सोच कर मैं रामकली के घर पहुंच गई. वहां पता चला कि वह मंदिर गई है.

मेरे पति के आने में अभी वक्त था, इसलिए मैं तेजतेज कदमों से मंदिर की ओर चल दी. मंदिर में आज रौनक नहीं थी, इसलिए मैं सीधी माताजी के कमरे की ओर चल दी. माता के कमरे के बाहर मेरे कदम रुक गए. अंदर से रामकली की आवाजें आ रही थीं, ‘‘मैं ने तो बहुत कोशिश की माताजी पर वह शहर की है. इतनी आसानी से नहीं मानेगी.’’

‘‘अरे रामकली, तुम नईनई इस काम में आई हो, जरा सीखो कुछ राजेश से…इस का फंसाया मुरगा बिना कटे यहां से आज तक नहीं गया,’’ यह आवाज माताजी की थी.

‘‘यकीन मानिए माताजी, मैं ने बहुत कोशिश की पर उस का आदमी नहीं माना. साफ मना कर दिया उसे.’’

अब तक मुझे समझ आ गया था कि यहां मेरे बारे में ही बातें चल रही हैं.

‘‘देख रामकली, तेरा कमीशन तो हम काम पूरा होने पर ही देंगे, तू उस से 5 हजार रुपए ले आ और अपने 500 रुपए ले जा…अगर उस का आदमी नहीं मान रहा तो तू कोई और मुरगा पकड़,’’ राजेश बोला, ‘‘हां, वह दूध वाले की बेटी की शादी नहीं हो रही…अगली चौकी पर उस की घरवाली को ले कर आ…वह जरूर फंस जाएगी.’’

बाहर खडे़खड़े सब सुनने के बाद मुझे खुद पर गुस्सा आ रहा था. मैं वहां से चली आई, पर अंदर ही अंदर मैं खुद को कोस रही थी कि मैं कैसे इन के झांसे में आ गई. मेरी आंखें भर चुकी थीं और खुल भी चुकी थीं कितने सही थे मेरे पति, जो इन लोगों को पहचान गए थे.

शाम को जब मेरे पति घर आए तो मैं ने उन को एक लिफाफा दिया.

‘‘यह क्या है?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘आप ने ठीक कहा था इन पाखंडियों के चक्कर में नहीं आना चाहिए. ये जाल बिछा कर इस तरह फंसाते हैं कि शिकार को पता भी नहीं चल पाता और उस की जेब खाली हो जाती है,’’ मैं ने कहा.

बाटी चोखा: छबीली ने ठेकेदार को कैसे सबक सिखाया

‘‘बिहार से हम मजदूरों को मुंबई तुम ले कर आए थे… अब हम अपनी समस्या तुम से न कहें तो भला किस से कहने जाएं?’’ छबीली ने कल्लू ठेकेदार से मदद मांगते हुए कहा.

कल्लू ठेकेदार ने बुरा सा मुंह बनाया और बोला, ‘‘माना कि मैं तुम सब को बिहार से यहां मजदूरी करने के लिए लाया था, पर अब अगर तुम्हारा पति मजदूरी करते समय अपना पैर तुड़ा बैठा तो इस में मेरा तो कोई कुसूर नहीं है.

‘‘हां… 2-4 सौ रुपए की जरूरत हो, तो मैं अभी दे देता हूं.’’

छबीली ने कल्लू के आगे हाथ जोड़ लिए और बोली, ‘‘2-4 सौ से तो कुछ न होगा… बल्कि हमें तो अपनी जीविका चलाने और धंधा जमाने के लिए कम से कम 20 हजार रुपए की जरूरत होगी.’’

‘‘20 हजार… रुपए… मान ले कि मैं ने तुझे 20 हजार रुपए दे भी दिए, तो तू वापस कहां से करेगी… ऐसा क्या है तेरे पास?’’ कल्लू ने छबीली के सीने को घूरते हुए कहा, जिस पर छबीली ने उस की एकएक पाई धीरेधीरे लौटा देने का वादा किया, पर कल्लू की नजर तो छबीली की कसी हुई जवानी पर थी, इसलिए वह उसे परेशान कर रहा था.

‘‘इस दुनिया में, इस हाथ दे… उस हाथ ले का नियम चलता है छबीली,’’ कल्लू ने अपनी आंखों को सिकोड़ते  हुए कहा.

छबीली अब तक कल्लू की नीयत को अच्छी तरह भांपने लगी थी, फिर भी वह चुपचाप खड़ी रही.

‘‘देख छबीली, मैं तुझे 20 हजार रुपए दे तो दूंगा, पर उस के बदले तुझे अपनी जवानी को मेरे नाम करना होगा. जब तक तू पूरा पैसा मुझे लौटा नहीं देगी, तब तक तेरी हर रात पर मेरा हक होगा,’’ कल्लू ठेकेदार छबीली की हर रात का सौदा करना चाह रहा था.

छबीली को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था, पर वह पैर के अंगूठे से जमीन की मिट्टी को कुरेदने लगी थी.

वैसे भी छबीली का मर्द जोखू लंगड़ा हो चुका था और मजदूरी के लायक नहीं था. मुंबई जैसे शहर में उन्हें पेट भरने के लिए कुछ धंधा जमाना था, जिस के लिए एकमुश्त रकम चाहिए थी, जो सिर्फ कल्लू ठेकेदार ही दे सकता था.

छबीली ने अपने बिहार के गांव में सुन रखा था कि बड़ीबड़ी हीरोइनें भी फिल्मों में काम पाने के लिए लोगों के साथ सोने में नहीं हिचकती हैं और वह तो एक मामूली मजदूर की बीवी है… मजबूरी इनसान से क्याक्या नहीं कराती… और फिर अपनी इज्जत के सौदे वाली बात वह अपने मरद को थोड़े ही बताएगी.

काफी देर तक सोचविचार के बाद छबीली ने 20 हजार रुपए के बदले अपनी हर रात कल्लू ठेकेदार के नाम करने का फैसला कर लिया.

बिहार से लाए गए सारे मजदूर अपने परिवार के साथ एक बिल्डिंग में काम करते थे और उसी बिल्डिंग के एक कोने में इन सभी मजदूरों ने अपने रहने की जगह बना रखी थीं.

छबीली उसी बिल्डिंग के तीसरे फ्लोर पर बने एक कमरे में चली गई

रात में अपने मरद को खिलापिला कर सुलाने के बाद छबीली उसी बिल्डिंग के तीसरे फ्लोर पर बने एक कमरे में चली गई, जहां ठेकेदार रहता था. रातभर कल्लू ठेकेदार ने छबीली के शरीर को ऐसे नोचा, जैसे कोई भूखा भेडि़या मांस के टुकड़े को नोचता है.

सुबह छबीली का पोरपोर दुख रहा था, पर उस के हाथ में 20 हजार रुपए आ चुके थे, जिन से वह अपने लंगड़े आदमी के लिए दो जून की रोटी का जुगाड़ कर सकेगी.

अपने पति को बिना कुछ बताए ही छबीली ने उन पैसों से एक छोटा सा ठेला खरीद तो लिया, पर अब वह यह सोचने लगी कि इस पर धंधा क्या किया जाए?

यह मुंबई का ऐसा एरिया था, जहां पर तमाम कंपनियों के औफिस थे. लिहाजा, खानेपीने का सामान अच्छा बिक सकता था. यहां तो पावभाजी और वडा पाव जैसी चीजें ही लोग खाते थे और छबीली तो ठेठ बिहार से आई थी. उसे तो इन चीजों को बनाना ही नहीं आता था. अपने मरद जोखू से उस ने ये बातें कीं, तो उस ने समाधान बताया कि जब वह मजदूरी करने जाता था, तो उस के गमछे मे बंधे हुए बाटीचोखे को देख कर मुंबई के लोकल लोगों के मुंह में भी पानी आ जाता था.

मुंबई में भी लोग बाटीचोखा के दीवाने हैं, इसलिए हमें भी वही काम करना होगा.

अपने मरद की यह बात छबीली को जम गई थी. उस ने ठेले पर ही एक बड़ा सा तसला रख लिया, जिस में वह आटे की लोई को आग में पका सकती थी. कुछ लकडि़यां और उपले और एक तरफ चोखे के लिए जरूरी सब्जियां जैसे आलू, प्याज, टमाटर वगैरह रख लीं.

छबीली ने हरे पत्ते के बने हुए दोने भी पास ही रख लिए थे और अब उस का ठेला तैयार हो चुका था अपने पहले दिन की बिक्री के लिए.

ठेले को एक ओर लगा कर छबीली गरमागरम बाटी बनाने लगी.

छबीली को झिझक लग रही थी, आतेजाते लोग उसे घूर रहे थे.

‘‘तुम यूपी, बिहार वाले मजदूर… हमारे यहां पर आ कर गंदगी बढ़ाते हो,’’ एक गुंडे सा दिखने वाला मोटा आदमी अपने 1-2 गुरगों के साथ छबीली की तरफ देखते हुए कह रहा था.

‘‘भैया… हम गरीब मजदूर लोग हैं… पेट भरने के लिए कुछ काम तो करना ही है… तभी तो यह ठेला…’’ छबीली हाथ जोड़ कर कह रही थी.

‘‘ऐ… ऐ… यह भैयावैया से काम नहीं चलने वाला… अपन इस इलाके का भाई है… बोले तो अन्ना… मतलब डौन… और तेरे को ठेला लगाना है, तो इस जगह का भाड़ा देना होगा.’’

उस का लंगड़ा मरद जोखू भी निराश हो रहा था

‘‘पर, अभी तक तो बोहनी भी नहीं…’’ छबीली ने कहा, तो उस गुंडे ने शाम तक आने की बात कही और अपने आदमियों के साथ वहां से चला गया.

छबीली ने राहत की सांस ली, पर अभी तक ग्राहक उस के ठेले के पास नहीं आ रहे थे. उस का लंगड़ा मरद जोखू भी निराश हो रहा था.

‘‘लग रहा है कि हमारी लागत भी बेकार जाएगी और हम एक दिन ऐसे ही बिना रोजीरोटी के मर जाएंगे,’’ जोखू ने कहा, तो छबीली ने उसे उम्मीद बंधाई कि अभी नयानया मामला है, थोड़ा समय तो लगेगा ही.

छबीली ने ध्यान दिया कि लोगों की भीड़ तो खाने के लिए आ रही है, पर ज्यादातर लोग सड़क के दूसरी ओर लगे हुए एक फास्ट फूड के एक बढि़या से खोखे पर जा रहे हैं, जहां पर बुरी सी शक्ल का 40-45 साल का आदमी बैठा था, जिस ने अपने सिर के बालों को रंगवा रखा था और उस के बाल किसी कालेभूरे पक्षी के बालों की तरह लग  रहे थे.

उस खोखे पर चाऊमीन, बर्गर, मोमोज वगैरह बिकते थे, जिन्हें नेपाली सी लगने वाली एक लड़की बनाती थी और लोग बहुत चाव से ये सारी चीजें न केवल खाते थे, बल्कि उन्हें पैक करवा कर भी ले जाते थे.

छबीली के काम में इस भीड़ को अपने ठेले की तरफ खींचना पहली चुनौती थी. उसे याद आया कि गांव के मेले में कैसे एक चीनी की मीठीमीठी चिडि़या बनाने वाला गाना गागा कर लोगों को रिझाता था और लोग भी उस की चिडि़या से ज्यादा उस के गाने को सुनने के लिए उस के पास खिंचे चले आते थे.

छबीली मन ही मन कुछ गुनगुनाने लगी थी, पर तेज आवाज में गाने में उसे हिचक सी लग रही थी. उस ने उड़ती हुई एक नजर अपने लाचार पति पर डाली और अचानक ही उसे हिम्मत आ गई और उस के गले से आवाज फूट पड़ी…

‘‘छैल छबीली आई है…

बाटीचोखा लाई है…

जो न इस को खाएगा…

जीवनभर पछताएगा.’’

लोगों के ध्यान को तो छबीली ने खींच लिया था, पर कुछ लोग ठिठक भी गए थे, लेकिन उस का ठेला अब भी कस्टमरों से खाली था.

छबीली अब तक लोगों की नजरों को पढ़ चुकी थी. वह समझ गई थी कि फास्ट फूड वाले खोखे पर बहुत सारे लोग तो अपनी आंखें सेंकने जाते हैं और उस लड़की से हंसीठिठोली का भी मजा लेते हैं. बस, फिर क्या था. छबीली ने तुरंत ही अपनी चोली के ऊपर का एक बटन खोल दिया, जिस से उस के सीने की गोलाइयां दिखने लगी थीं और जिस्मदिखाऊ अंदाज के साथ जब इस बार छबीली ने अपना गाना गाया, तो लोग उस के पास आने लगे.

कुछ बाटीचोखा का स्वाद लेने, तो कुछ उस के नंगे सीने को निहारने. वहीं पर कुछ लोग ऐसे भी थे जो ये दोनों काम साथ में कर रहे थे.

वजह चाहे जो भी थी, शाम तक छबीली के ठेले पर बना हुआ सारा माल खप चुका था और अच्छीखासी दुकानदारी भी हो चुकी थी. छबीली की आंखें खुशी से नम हो गई थीं.

शाम ढली तो अन्ना के आदमी छबीली से उस जगह का हफ्ता मांगने आ गए. छबीली ने सौ का नोट बढ़ाया, तो उन्होंने 2 सौ रुपए मांगे. इस के बाद छबीली ने एक 50 का नोट और दे दिया.

अन्ना के आदमी संतुष्ट होते दिखे और अगले हफ्ते फिर से आने की बात कह कर चले गए.

छबीली एक काम से फुरसत पाती, तो दूसरा काम सामने आ खड़ा होता. दिनभर की थकी हुई छबीली वापस आई, तो अपने और जोखू के लिए खाना बनाया. अभी तो उसे ठेकेदार की हवस भी तो बुझाने जाना था, जहां पर न जाने पर वह छबीली के साथ क्याक्या करेगा? पर छबीली करती भी क्या… फिलहाल तो उस के सामने कोई चारा भी नहीं था.

छबीली ग्राहकों को अपनी ओर खींचने का मंत्र जान चुकी थी. यहां कंपनी में काम करने वाले और सड़कों पर आतेजाते लोग जबान के स्वाद के साथसाथ बदन भी देखना चाह रहे थे और साथ ही कुछ भद्दे मजाक भी करना और सुनना पसंद करते थे.

मसलन, छबीली, तेरा मरद तो लंगड़ा है… यह तो कुछ कर नहीं पाता होगा… फिर तू अपना काम कैसे चलाती है?

ऐसी बातें सुन कर जोखू का मन करता कि उसे मौत क्यों नहीं आती, पर वह जानता था कि इस दुनिया में एक विधवा का जीना कितना मुश्किल होता है, इसलिए वह छबीली के लिए जिंदा रहना चाह रहा था.

छबीली उन लोगों की बातें और हाथ के गंदे इशारे समझ कर मन ही मन उन्हें गरियाती, पर सामने बस मुसकरा कर यही कहती, ‘‘हाय दइया… मत पूछो… बस चला लेती हूं काम किसी तरह… कभी बाटी आग के नीचे तो कभी बाटी आग के ऊपर,’’ और फिर भद्दी सी हंसी का एक फव्वारा छूट पड़ता.

धीरेधीरे छबीली की इन्हीं रसीली बातों के चलते ही उस का ठेला इस इलाके में नंबर वन हो गया था. छबीली को सिर उठाने की फुरसत ही नहीं मिलती, दिनभर काम करती, पर रात को उस ठेकेदार का बिस्तर गरम करने के लिए जाने में मन टीसता था.

दूसरी तरफ उस फास्ट फूड वाली दुकान पर इक्कादुक्का लोग ही नजर आते थे और हालात ये होने लगे थे कि फास्ट फूड वाले को अपनी दुकान बंद करने की नौबत लग रही थी.

फास्ट फूड दुकान चलाने वाले आदमी का नाम चीका था. वह एक शातिर आदमी था. उसे यह बात समझने में देर नहीं लगी कि छबीली के जिस्म और उस की बाटीचोखा के तिलिस्म को तोड़ना आसान नहीं है, इसलिए उस ने छबीली से मेलजोल बढ़ाना शुरू कर दिया. इस के पीछे उस की मंशा छबीली के ठेले को यहां से हटा देने की थी, जिस से उस की दुकान पहले की तरह ही चलने लगती.

चीका अपना काम छोड़ कर छबीली के ठेले पर रोज जाता और उस की बाटीचोखा खा कर खूब तारीफ करता और कभीकभी तो कुछ छोटेमोटे तोहफे भी छबीली के लिए ले जाता. चीका छबीली को प्यार के झांसे में ले रहा था. साथ ही, चीका ने जोखू से भी जानपहचान बढ़ाई. वह जोखू को भी शराब पिला कर उसे पटाने की कोशिश कर रहा था.

छबीली भी उस की इन मेहरबानियों को खूब समझ रही थी, पर उसे भी चीका से अपना काम निकलवाना था, इसलिए वह भी चीका को रिझा रही थी.

‘‘मैं तुम से प्यार करने लगा हूं,’’ चीका ने छबीली की कमर पर कुहनी का दाब बढ़ाते हुए कहा.

‘‘पर, मैं कैसे मानूं…?’’ छबीली काम करतेकरते इठला कर बोली.

‘‘आजमा ले कभी,’’ चीका ने कहा, तो छबीली ने उसे रात में 10 बजे बिल्डिंग के दूसरे फ्लोर वाले कमरे में आने को कहा.

छबीली के इस बुलावे को चीका उस का प्रेम समर्पण समझ रहा था और मन ही मन में जल्दी से रात आने का और छबीली के साथ मजे करने का ख्वाब देखने लगा.

रात में जोखू के सोने के बाद छबीली ठेकेदार के कमरे पर पहुंच गई. ठेकेदार शराब के नशे में धुत्त था. उस ने जैसे ही छबीली को दबोचने की कोशिश की, छबीली वैसे ही दूर भागती हुई बोली, ‘‘क्या रोजरोज एक ही स्टाइल… कभी कुछ नया तो करो.’’

छबीली की इस बात पर ठेकेदार मुसकराते हुए बोला कि वह आखिर उस से क्या चाहती है?

इस पर छबीली ने उसे बताया कि जैसा फिल्मों में दिखाते हैं न कि हीरोइन आगेआगे भागती है और एक गंदा आदमी उस का पीछा करता और उस के कपड़े फाड़ देता है और उस की इज्जत लूट लेता है, वैसा ही कुछ करो न.

‘‘बलात्कार वाला सीन चाह रही है…’’ ठेकेदार ने खुश होते हुए कहा और फिर नशे में झूमते हुए छबीली का पीछा करने लगा, छबीली भी भागने लगी

और जोरजोर से ‘बचाओबचाओ’ चिल्लाने लगी.

तभी छबीली की चोली ठेकेदार के हाथों में फंस गई और झर्र की आवाज के साथ फट गई. ठीक उसी समय वहां पर चीका आ गया था. उस ने छबीली की आवाज सुनी, तो कमरे में झांका. अंदर का सीन देख कर उसे काटो तो खून नहीं. दोनों हाथों से अपने उभारों को छिपाए हुए छबीली पूरे कमरे में दौड़ रही थी और ठेकेदार उस की इज्जत लूटने की कोशिश कर रहा था.

यह देख कर चीका को गुस्सा आ गया. वह अंदर कूद पड़ा और छबीली के प्रेम की खातिर ठेकेदार को मारने लगा.

चीका ने उस पर लातघूंसों और डंडों की बरसात कर दी और मारता ही रहा. छबीली कोने में खड़ीखड़ी मजे ले  रही थी.

चीका ने ठेकेदार को इतना मारा कि  उस की दोनों टांगें तोड़ दीं.

ठेकेदार ने छबीली के आगे हाथ जोड़ लिए. चीका की ओर रुकने का इशारा करते हुए छबीली ने ठेकेदार  से कहा, ‘‘क्यों और पैसे नहीं  चाहिए तुझे?’’

‘‘न… नहीं… मुझे कुछ नहीं चाहिए… मैं कल  ही यहां से चला जाऊंगा… बस मेरी जान बख्श दो.’’

छबीली ने चीका को बताया कि कैसे वह ठेकेदार लोगों की मदद के नाम पर उन की मजबूरी का फायदा उठाता था और लड़कियों और औरतों की इज्जत लूटता था.

छबीली की ये बातें सुन कर चीका को फिर से गुस्सा आया और उस ने पास में पड़ा हुआ एक ईंट का टुकड़ा उठाया और ठेकेदार के मर्दाना हिस्से पर दे मारा. ठेकेदार मारे दर्द के दोहरा हो गया था.

‘‘मत घबरा छबीली, आज के बाद यह किसी औरत के जिस्म को हाथ लगाने लायक ही नहीं रहेगा,’’ चीका  ने कहा.

छबीली किसी शातिर की तरह मुसकरा उठी थी. आज ठेकेदार से उस का इंतकाम पूरा हो गया था.

इस घटना के कुछ दिन बाद चीका ने छबीली से कहा, ‘‘लगता है, मुझे ही यह दुकान छोड़ कर अपना धंधा कहीं और जमाने के लिए यहां से जाना पड़ेगा, क्योंकि तू तो अपने ग्राहक छोड़ कर जाएगी नहीं.’’

‘‘तुम्हें कहीं जाने की जरूरत नहीं है… तुम चाहो तो हम दोनों साथ में काम शुरू कर सकते हैं,’’ छबीली ने कहा. जोखू भी वहीं खड़ा था.

‘‘पर, कैसे…?’’ चीका ने पूछा.

‘‘देख… अब से हम दोनों फास्ट फूड और बिहार की मशहूर बाटीचोखा एकसाथ बेचेंगे… जिस को जो खाना है खाए… जो मुनाफा होगा, वह आधाआधा,’’ छबीली ने चहकते हुए कहा.

चीका की दुकान का बोर्ड अब छबीली के ठेले पर लगा हुआ था, जिस पर लिखा था…

‘फास्ट फूड सैंटर…

बिहार की मशहूर बाटीचोखा

एक बार खाएंगे… बारबार आएंगे.’

वहां आने वालों को छबीली का गाना भी मुफ्त में सुनने को मिलता था…

‘‘छैल छबीली आई है,

बाटीचोखा लाई है,

जो न इस को खाएगा,

जीवनभर पछताएगा.’’

कारवां : लोगों के साथ भी, लोगों के बाद भी

अतीत के ढेर में दफन दम तोड़ती, मुड़ीतुड़ी न जाने कैसीकैसी यादों को वह खींच लाती है…घटनाएं चाहे जब की हों पर उन्हें आज के परिवेश में उतारना उसे हमेशा से बखूबी आता है…कुछ भी तो नहीं भूलता उसे. छोटी से छोटी बातें भी ज्यों की त्यों याद रहती हैं.

आज अपना असली रंग खो चुके पुराने स्वेटर के बहाने स्मृतियों को बटोरने चली है…अब स्वेटर क्या अतीत को ही उधेड़ने बैठ जाएगी…उधेड़ती जाएगी…उस में पड़ आई हर सिकुड़न को बारबार छुएगी, सहलाएगी…ऐसे निहारेगी कि बस, पूछो मत…फिर गोले की शक्ल में ढालने बैठ जाएगी.

‘‘तुम्हें कुछ याद भी है नरेंद्र या नहीं, यह स्वेटर मैं ने कब बुना था तुम्हारे लिए? तब बुना था जब तुम टूर पर गए थे कहीं. हां, याद आया हैदराबाद. मालूम है नरेंद्र, अंकिता तब गोद में थी और मयंक मात्र 4 साल का था. तुम लौटे तो मैं ने कहा था कि नाप कर देखो तो इसे…हैरान रह गए थे न तुम, तुम ने मेरे हाथ से स्वेटर ले कर देखते हुए पता है क्या कहा था…’’ उस की नजरें मेरे चेहरे पर आ टिकीं, उस के होंठ मुसकराने लगे.

‘‘क्या कहा था, यही न कि भई वाह, कमाल करती हो तुम भी…तुम्हारा हाथ है या मशीन, कब बनाया? बहुत मेहनत, बहुत लगन चाहिए ऐसे कामों के लिए. यही कहा था न मैं ने…’’ उस की आंखों में आंखें डाल कर कहा मैं ने…नहीं कहता तो कहती कि तुम तो ध्यान से मेरी कोई बात सुनते ही नहीं…जैसे कि तुम्हारा  कोई मतलब ही नहीं हो इन बातों से…इस घर में किस से बातें करूं मैं, दीवारों से…

गला रुंध आएगा उस का…आंखें नम पड़ जाएंगी…गलत क्या कहेगी शोभना…उस के और मेरे सिवा इस घर में कौन है, ऊपर से मैं भी चुप लगा जाऊं तो…मेरा क्या है…मैं अगर चुप भी रहूं, वक्त तो तब भी कट ही जाया करता है मेरा. शोभना की तरह बोलने की आदत भी तो नहीं है मेरी. मुझे तो बस, उस को सुनना अच्छा लगता है…अच्छा भी क्या लगता है, न सुनूं तो करूं क्या? 2 दिन भी उस की बकबक सुनने को अगर मैं न होऊं न तो वह बीमार पड़ जाती है बेचारी, सच कहूं तो उस के चेहरे पर मायूसी मुझे जरा भी नहीं भाती…वह तो गुनगुनाती, मुसकराती मेरे इर्दगिर्द डोलती हुई ही अच्छी लगती है. आज तो कुछ ज्यादा ही खुश नजर आ रही थी वह…अब अपने मुंह से कुछ कहे या न कहे मगर मैं तो इस खुशी का राज जानता था…उस के चेहरे की मुसकराहट…होंठों पर गुनगुनाहट मुझे इस बात का एहसास करा जाती है कि अब कोई त्योहार आने वाला है या फिर छुट्टियां…हो सकता है बच्चे आ ही जाएं, घरआंगन चहक उठेगा…बागबगीचा महक उठेगा. असमय अपने चमन में आ जाने वाली बहार की कल्पना मात्र से ही उस का चेहरा खिल उठा है…कोई भी छुट्टियां आने से पहले यही हाल होता है उस का…समय बे समय उठ जाने वाला गांठों का दर्द कुछ दिनों के लिए तो जैसे कहीं गायब ही हो जाता है…और सिरदर्द, कुछ दिन के लिए उस की भी शिकायत से मुक्ति मिल जाती है मेरे कानों को. वरना जब देखो तब…सिर पर पट्टा बंधा हुआ है और होंठ दर्द से कराह रहे होते हैं… ‘उफ् सिर दर्द से फटा जा रहा है…जाने क्या हो गया है….’

शोभना कई दिन से एक ही रट लगाए हुए है. पीछे का स्टोर रूम साफ करवा लूं…कहती है कि ऊनीसूती कपड़ों का जाने क्या हाल होगा, काफी समय से एक ही जगह तह किए पड़े हैं. पिछले दस दिन से हर छुट्टी के दिन काम वाली के लड़के रामधारी को भी बुलवा लेती है मदद के लिए…मैं अकसर चिढ़ जाया करता हूं, ‘एक ही दिन तो चैन से घर में बैठने को मिलता है और तुम हो कि…’

‘काहे की छुट्टी…तुम्हारा तो हर दिन संडे है…नहीं करवाना है कुछ तो वह बोलो…’

कैसे कहूं कि काम जैसा काम हो तब तो करवाऊं भी…कपड़ों को निकालेगी… छोटेछोटे ऊनीसूती फ्राक्स…टोपीमोजे… दस्ताने…एकएक को खोलखोल कर निहारेगी…सहलाएगी और फिर ज्यों की त्यों सहेज कर रख देगी. मजाल है जो किसी चीज को हाथ भी लगाने दे…सब की धूल झाड़ कर जब वापस रखना ही है तो काहे की सफाई…कुछ कह दो तो इस उम्र में कहासुनी और हो जाएगी.

मेरी सोच से बेखबर शोभना बड़ी ही तन्मयता से गोले पर गोले बनाए जा रही थी, ‘‘क्या करोगी अब इस का?’’ मैं ने यों ही पूछ लिया. ‘‘अब…धोऊंगी… सुखाऊंगी…फिर लच्छी करूंगी…फिर गोले बनाऊंगी…’’

‘‘फिर…’’

‘‘…फिर…एक स्वेटर बनाऊंगी… अपने लिए…’’

‘‘स्वेटर…अपने लिए…इस गरमी में…’’ मैं चौंका.

‘‘ए.सी. रूम में पड़ेपड़े कहां पता चलता है कि सर्दी है या गरमी…कुछ हाथ में रहता है तो समय सरलता से कट जाता है.’’

‘‘…समय काटने के और भी बहुत से साधन हैं या आंखें फोड़ना जरूरी है, देखता हूं कभी ऊन ले कर बैठ जाओगी तो कभी सिलाई की मशीन…’’

‘‘तो क्या करूं, तुम्हारी तरह किताब या पेपर ले कर बैठी रहूं…’’

‘‘नहीं बाबा, कुछ भी करो मगर मुझ से मत उलझो…लेकिन एक बात बताओ, तुम क्या करोगी इस का? तुम तो कभी कुछ गरम कपड़े पहनती ही नहीं थीं…दिसंबरजनवरी में भी सुबहसुबह बिना शाल के घूमा करती थीं…कहा करती थीं कि तुम्हें ऊनी कपड़े चुभते हैं…फिर…’’

‘‘अरे बाबा, वो तब की बात थी… अब तो बहुत ठंड लगती है, पहले सौ काम होते थे तब ठंड की कौन परवा किया करता था.’’

‘‘अच्छा, तो ये क्यों नहीं कहतीं कि अब बूढ़ी हो गई हो तुम…उम्र ढलने के साथ अब ठंड ज्यादा लगती है तुम्हें…’’

‘‘हां, और तुम तो जैसे…’’ बात बीच में ही छोड़ कर खामोश हो गई पर कितनी देर, ‘‘नरेंद्र, कभी सुबह से शाम कब हो जाती थी पता ही नहीं चलता था न…घड़ी की सृई के पीछे भागतेभागते थक जाया करती थी मैं…पूरी तरह नींद भी नहीं खुलती और अंकिता के रोने की आवाज कानों में पड़ रही होती…तुम चिढ़ कर कुछ भुनभुनाते और तकिया कान पर धर कर सो जाया करते…फिर शुरू होता काम का शाम तक न थमने वाला सिलसिला…घड़ी पर नजर जाती… ‘बाप रे, 7 बजने वाले हैं…’ जरूर काम वाली खटखटा कर लौट गई होगी…अब क्या? अब तो 10 बजे से पहले आएगी नहीं… गंदे बरतन सिंक में पड़े मुझे मुंह चिढ़ा रहे होते…बच्चों का टिफिन…तुम्हारा लंच… उफ्…फटे दूध में सनी तीनों बोतलें… झुंझलाहट आती अपनेआप पर ही…फिर कितनी भी जल्दी करती, नाश्ते में देर हो ही जाती…लंच बाक्स तुम्हारे पीछे भागभाग कर सीढि़यों पर पकड़ाया करती थी.’’

अकसर वह इस टापिक को इसी मोड़ पर ला कर…एक गहरी सांस छोड़ कर खत्म किया करती… उसे एकटक देखता रह जाता मैं…बात की शुरुआत में कितनी उत्तेजित रहती…और अंत आतेआते…मानो रेत से भरी अंजुरी खाली हो रही हो…मेरे भी होंठ मुसकराने के अंदाज में फैलतेफैलाते मानो ठिठक जाते हैं…कितनी बार तो सुन चुका हूं यही सब.

‘‘नरेंद्र, वक्त कैसे गुजर जाता है…है न, पता ही नहीं चलता…सब से बड़ी मीता की शादी को आज 20 साल पूरे हो जाएंगे. सब से छोटी अंकिता भी 2 बच्चों की मां बन चुकी है. बीच के दोनों मोहित और मयंक अपनेअपने गृहस्थ जीवन का सुखपूर्वक आनंद ले रहे होंगे. सुखी हों भी क्यों न, उन की सुखसुविधा का सदैव ही तो ध्यान रखा है हम ने…उन की जरूरतें पूरी करने के लिए हम क्या कुछ नहीं किया करते थे…मांबाप नहीं एक दोस्त बन कर पाला था हम ने उन्हें…तभी तो अपने प्यार के बारे में मोहित ने सब से पहले मुझे बताया था.

‘‘‘मां, बस, एक बार तुम ममता से मिल तो लो. दाद दोगी मेरी पसंद की… हीरा चुना है हीरा आप के लिए.’ मैं ने उस के लिए कौन सा रत्न चुना था, कहां बता पाई थी उसे…आज भी जब कभी शर्माजी की बेटी हिना मेरे सामने होती है तो मेरे दिल में एक कसक सी उठती है…काश… हिना मेरी बहू होती…’’ वैसे वह अच्छी तरह जानती है कि उस का यों अतीत में भटकना मुझे जरा भी नहीं अच्छा लगता, तभी तो आहिस्ताआहिस्ता खामोश होती चली गई, ‘‘मैं भी, न जाने कबकब की बातें याद करती हूं…है न…’’ मेरे खीझने से पहले ही वह सतर्क हो गई.

मैं आज में जीता हूं…पेपर पढ़ने से फुरसत मिलती है तो घर के आगेपीछे की खाली पड़ी, थोड़ी सी कच्ची जमीन के चक्कर काटने लग जाता हूं…और शोभना, उस की सूई तो जब देखो तब एक ही परिधि में घूमती रहती है. वही मोहित…मयंक…उन के बच्चे…मीता… अंकिता…उन के बच्चे…कुछ नहीं भूलती वह…

‘‘याद आ रही है बच्चों की…’’ मैं उस के करीब खिसक आया, ‘‘नातीपोतों के लिए इतना तरसती हो तो हो क्यों नहीं जातीं किसी के पास…सभी तो बुलाते रहते हैं तुम्हें.’’

हमेशा की तरह भड़क गई वह मेरे ऐसा कहने पर, ‘‘कहीं नहीं जाना मुझे… तुम तो यही चाहते हो कि मैं कहीं चली जाऊं और तुम्हें मेरी बकबक से छुट्टी मिल जाए…न कहीं जानेआने की बंदिश… न खानेपीने की रोकटोक…’’ बात अधूरी छोड़ चली गई वह…

पिछले कुछ वर्षों से वह कहीं जाना ही नहीं चाहती…माना मोहित के पास नहीं जाना चाहती…बड़ी बहू के स्वभाव में अजीब सा रूखापन है…बहुत अपनापन तो छोटी बहू में भी नजर नहीं आता…घर 2 पाली में बंटाबंटा सा लगता है…एक में पतिपत्नी और बच्चे…दूसरे में मांबाप और बेटा…बेटे का डबल रोल देखतेदेखते किसी का भी मन उचट जाए…वह उन सासों में से है भी नहीं जो बहू को दोषी और बेटे को निर्दोष समझें…शायद यही कारण था कि उस का मन सब से उचट गया था…

कभी कुछ कुरेद कर पूछना चाहो तो कुछ कहती भी नहीं…जो भी हो, बड़ी सफाई से अपना दर्द छिपा लिया करती है वह, कहती है, ‘अपना घर अपना ही होता है नरेंद्र…वैसे भी मैं उम्र के इस पड़ाव पर तुम से अलग रहना नहीं चाहती…तुम्हारा साथ बना रहे बस, और कुछ नहीं चाहिए मुझे…’ पहले तो ऐसी नहीं थी वह…जरा सा किसी बच्चे का जन्मदिन भी पड़ता था तो छटपटाने लगती वह…ज्यादा नहीं साल 2 साल पहले की बात है, मोहित के बेटे मयूर का जन्मदिन आने वाला था…बस, क्या था…बेसन के  लड्डू बंधने लगे… मठरियां बनने लगीं…रोजरोज की खरीदारी…कभी बहू के लिए साडि़यां लाई जा रही थीं तो कभी सलवार सूट… बच्चों के लिए ढेरों कपड़े…दुनिया भर की तैयारियां देख कर दंग रह गया था मैं… ‘ये क्या…जन्मदिन तो बस, मयूर का ही है न….’

‘तो क्या हुआ? मोहित हो या मयूर…मेरे लिए तो ऐसे अवसर पर सभी बराबर हैं,’ इतराती हुई सी बोली थी वह.

‘हमें रिजर्वेशन करवाने से पहले एक बार मोहित से बात नहीं कर लेनी चाहिए?’

‘अरे…इस में बात क्या करनी है? हर बार ही तो जाते हैं हम…खैर, तुम्हारी मरजी…कर लो…’ फोन सेट आगे खींच कर रिसीवर मेरी ओर बढ़ा दिया था शोभना ने….

‘नहीं डैड, ममा को कहिए, इस बार हम लोग नहीं मना रहे मयूर का जन्मदिन, वैसे भी उस का क्लास टैस्ट चल रहा है. हम नहीं चाहते कि उस का माइंड डिस्टर्ब हो.’

बस, सारी की सारी तैयारियां धरी रह गईं…लाख समझाया था मैं ने उसे कि तुम्हें आने से कहां मना किया है उस ने…

‘बुलाया भी कहां है…एक बार ये भी तो नहीं कहा न कि आप लोग तो आ जाइए.’

कभीकभी क्यों…अकसर ही सोचता हूं मैं कि शोभना, मेरी पत्नी, मेरी तरह क्यों नहीं सोचती. सोचती तो शायद आज वह भी सुखी रहती…हैरानी होती है.

सबक: संध्या का कौनसा राज छिपाए बैठा था उसका देवर

संध्या की आंखों में नींद नहीं थी. बिस्तर पर लेटे हुए छत को एकटक निहारे जा रही थी. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे, जिस से वह आकाश के चंगुल से निकल सके. वह बुरी तरह से उस के चंगुल में फंसी हुई थी. लाचार, बेबस कुछ भी नहीं कर पा रही थी. गलती उस की ही थी जो आकाश को उसे ब्लैकमेल करने का मौका मिल गया. वह जब चाहता उसे एकांत में बुलाता और जाने क्याक्या करने की मांग करता. संध्या का जीना दूभर हो गया था. आकाश कोई और नहीं उस का देवर ही था. सगा देवर. एक ही घर, एक ही छत के नीचे रहने वाला आकाश इतना शैतान निकलेगा, संध्या ने कल्पना भी नहीं की थी. वह लगातार उसे ब्लैकमेल किए जा रहा था और वह कुछ भी नहीं कर पा रही थी. बात ज्यादा पुरानी नहीं थी. 2 माह पहले ही संध्या अपने पति साहिल के साथ यूरोप ट्रिप पर गई थी. 50 महिलापुरुषों का गु्रप दिल्ली इंटरनैशनल एअरपोर्ट से रवाना हुआ.

15 दिनों की यात्रा से पूर्व सब का एकदूसरे से परिचय कराया गया. संध्या को उस गु्रप में नवविवाहित रितू कुछ अलग ही नजर आई. उसे लगा रितू के विचार काफी उस से मिलते हैं. बातबात पर खिलखिला कर हंसने वाली रितू से वह जल्द ही घुलमिल गई. रितू का पति प्रणव भी काफी विनोदी स्वभाव का था. हर बात को जोक्स से जोड़ कर सब को हंसाने की आदत थी उस की. एक तरह से रितू और प्रणव में सब को हंसाने की प्रतिस्पर्धा चलती थी. संध्या इस नवविवाहित जोड़े से खासी प्रभावित थी. संध्या और उस के पति साहिल के बीच वैसे तो सब कुछ सामान्य था, लेकिन जब भी वह रितू और प्रणव की जोड़ी को देखती आहें भर कर रह जाती. प्रणव के विपरीत साहिल गंभीर स्वभाव का इंसान था, जबकि संध्या साहिल से अलग खुले विचारों वाली थी. यूरोप यात्रा के दौरान ही संध्या, रितू और प्रणव इतना घुलमिल गए कि विभिन्न पर्यटन स्थलों में घूम आने के बाद भी होटल के रूम में खूब बातें करते, हंसीमजाक होता. साहिल संध्या का हाथ पकड़ खींच कर ले जाता. वह कहता कि चलो संध्या, बहुत देर हो गई. इन्हें भी आराम करने दो. हम भी सो लेते हैं. गु्रप लीडर ने सुबह जल्दी उठने को बोला है.

मगर संध्या को कहां चैन मिलता. वह अपने रूम में आ कर भी मोबाइल पर शुरू हो जाती. वहाट्सऐप पर शुरू हो जाता रितू से जोक्स, कौमैंट्स भेजने का सिलसिला. रितू ने संध्या के फेसबुक पर फ्रैंड रिक्वैस्ट भेज डाली. संध्या ने तुरंत स्वीकार कर ली. दिन में जो फोटोग्राफी वे लोग करते उसे वे व्हाट्सऐप पर एकदूसरे को भेजते. फोटो पर कौमैंट्स भी चलते. रात को रितू और संध्या के बीच व्हाट्सऐप पर घंटों बातें चलतीं. जोक्स से शुरू हो कर, समाजपरिवार की बातें होतीं. धीरेधीरे यह सिलसिला व्यक्तिगत स्तर पर आ गया. एकदूसरे की पसंद, रुचि से ले कर स्कूलकालेज की पढ़ाई, बचपन में बीते दिनों की बातें साझा करने लगीं.

एक रात रितू ने व्हाट्सऐप पर संध्या के सामने दिल खोल कर रख दिया. शादी से पहले के प्यार और शादी तक सब कुछ बता दिया. शादी से पहले रितू की लाइफ में प्रणव था. दोनों एक ही कालेज में पढ़ते थे. दोनों का परिवार अलगअलग धर्म और जाति का था. उन के प्यार में कुछ अड़चनें आईं. शादी को ले कर दोनों परिवारों में तकरार हुई पर आखिर रितू और प्रणव ने सूझबूझ दिखाते हुए अपनेअपने परिवार को मना लिया. रितू और प्रणव की शादी हो गई.व्हाट्सऐप पर रितू की लव स्टोरी पढ़ कर संध्या के मन में हलचल पैदा हो गई. उसे अपना अतीत याद हो आया. उस रात उस का मन किया वह भी रितू को वह सब कुछ बता दे जो उस का अतीत है, लेकिन वह हिम्मत नहीं कर पाई कि पता नहीं रितू क्या सोचेगी. वह उस के बारे में न जाने क्या धारणा बना ले. अजीब सी हलचल मन में लिए संध्या सो गई.

अगली रात संध्या अपनेआप को रोक नहीं पाई. रोज की तरह व्हाट्सऐप पर बातों का सिलसिला चल ही रहा था कि मौका देख कर संध्या ने लिख डाला कि मेरा भी एक अतीत है रितू. मैं भी किसी से प्यार करती थी. पर वह प्यार मुझे नहीं मिल सका.

रितू ने आश्चर्य वाला स्माइली भेजा और लिखा कि बताओ कौन था वह? क्या लव स्टोरी है तुम्हारी?

फिर संध्या ने रितू को अपनी लव स्टोरी बताने का सिलसिला शुरू कर दिया. वह मेरे कालेज में ही था. उस का नाम संजय था. हम दोनों एकदूसरे से बहुत प्यार करते थे. हर 1-2 घंटे में मोबाइल पर हमारी बातें नहीं होतीं, तो लगता बहुत कुछ अधूरा है लाइफ में. दोनों में खूब बातें होतीं और तकरार भी. दुनिया से बेखबर हम अपने प्यार की दुनिया में खोए रहते. हमारा प्यार सारी हदें पार कर गया. विश्वास था कि घर वाले हमारी शादी को राजी हो जाएंगे. इसी विश्वास को ले कर मैं ने खुद को संजय को सौंप दिया. संध्या ने रितू को व्हाट्सऐप पर आगे लिखा, उस दिन पापा ने मुझ से कहा कि बेटी, तुम्हारी पढ़ाई पूरी हो चुकी है. हम चाहते हैं कि अब अच्छा सा लड़का देख कर तुम्हारी शादी कर दें. मैं एकाएक पापा से कुछ नहीं बोल पाई. बस, इतना ही कहा कि पापा मुझे नहीं करनी शादी. अभी मेरी उम्र ही क्या हुई है.

इस पर पापा ने कहा कि उम्र और क्या होगी? 25 साल की तो हो चुकी हो. जब मैं ने कहा कि नहीं पापा, मुझे नहीं करनी शादी तो वे हंस पड़े. बोले सच में अभी बच्ची हो. मैं ने पापा की बात को गंभीरता से नहीं लिया, पर वे मेरी शादी को ले कर गंभीर थे. एक दिन पापा ने मुझे बताया कि एक अच्छे परिवार का लड़का है तेरे लायक. किसी बड़ी कंपनी में सौफ्टवेयर इंजीनियर है. 25 लाख का पैकेज है. वे अगले हफ्ते तुझे देखने आ रहे हैं. पापा की बात सुन कर मैं अवाक रह गई. मुझ से रहा नहीं गया. मैं ने हिम्मत जुटा कर पापा से कहा कि पापा, मैं एक लड़के से प्यार करती हूं. आप उन से बात कर लीजिए. पापा मेरी तरफ देखते रह गए. उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि उन की नजर में मैं सीधीसादी नजर आने वाली लड़की किस हद तक आगे बढ़ चुकी हूं.

पापा ने पूछा कि कौन है वह लड़का? मैं ने संजय का नाम, पता बताया तो पापा का गुस्सा बढ़ गया कि कभी उस परिवार में अपनी बेटी का रिश्ता नहीं करूंगा. मैं अंदर तक हिल गई. मुझे लगा मेरे सपने रेत से बने महल की तरह धराशायी हो जाएंगे. मैं ने तो संजय को सब कुछ सौंप दिया था. धरती हिलती हुई नजर आई उस दिन मुझे.

पापा और सब घर वालों ने 2-4 दिन में ऐसा माहौल बनाया कि मेरी और संजय की शादी नहीं हो पाई. अगले हफ्ते ही साहिल और उस के घर वाले मुझे देखने आ गए. मुझे पसंद कर लिया गया. रिश्ता पक्का हो गया. पापा ने सख्त हिदायत दी कि संजय का जिक्र भूल कर भी कभी न करूं. इस तरह मेरी शादी साहिल से हो गई. मैं अतीत भूल कर अपना घर बसाने में लग गई. शादी को 2 साल हो चुके हैं. संध्या ने रितू से व्हाट्सऐप पर अपने अतीत की बातें शेयर की और संजय का वह फोटो भेजा जो उस ने संजय के फेसबुक अकाउंट से डाउनलोड किया था.

‘‘अरे वाह, मैडम तुम ने तो बखूबी हैंडल कर लिया लाइफ को,’’ रितू ने संध्या की कहानी सुन कर लिखा.

इसी तरह हंसीमजाक और व्यक्तिगत बातें शेयर करते हुए यूरोप का ट्रिप पूरा हो गया. जब वे वापस घर पहुंचे तो संध्या और साहिल थक कर चूर हो चुके थे. तब रात के 2 बज रहे थे. सुबह देर तक सोते रहे. सास ने दरवाजा खटखटाया कि संध्या, साहिल उठ जाओ… सुबह के 11 बज चुके हैं. नहा कर नाश्ता कर लो. संध्या हड़बड़ा कर उठी. फटाफट फ्रैश हो कर तैयार हुई और किचन में आ गई. नाश्ता तैयार कर डाइनिंग टेबल पर लगाया तब तक साहिल भी तैयार हो चुका था. दोनों ने नाश्ता किया. तभी संध्या को खयाल आया कि मोबाइल कहां है. उस ने इधरउधर देखा पर नहीं मिला. आखिर कहां गया मोबाइल? उसे ध्यान आ रहा था कि रात को जब आई थी तो डाइनिंग टेबल पर रखा था.

‘‘संध्या मैं औफिस जा रहा हूं. आज बौस आ रहे हैं. 3 बजे उन के साथ मीटिंग है,’’ साहिल ने घर से निकलते हुए कहा.

‘‘ठीक है.’’

साहिल के जाने के बाद संध्या मोबाइल ढूंढ़ने में जुट गई. हर जगह देखा. वह अपने देवर आकाश के कमरे में जा पहुंची कि कहीं उस ने देखा हो. वह उस के कमरे में पहुंची तो मोबाइल आकाश के हाथों में देखा. वह मोबाइल स्क्रीन पर व्हाट्सऐप पर मैसेज पढ़ रहा था. वह मैसेज जो संध्या ने रितू को लिखे थे. वह सब कुछ पढ़ चुका था और मोबाइल को साइड में रखने ही जा रहा था.

‘‘आकाश, क्या कर रहे हो? मेरा मोबाइल तुम्हारे पास कहां से आया? क्या देख रहे थे इस में?’’ संध्या ने पूछा तो हमउम्र देवर आकाश के होंठों पर कुटिल मुसकान दौड़ गई.

‘‘कुछ नहीं भाभी, बस आप की लव स्टोरी पढ़ रहा था. आप के लवर का फोटो भी देखा. बहुत स्मार्ट है वह. क्या नाम था उस का संजय?’’ आकाश ने कहा तो संध्या की आंखों के सामने अंधेरा छा गया.

‘‘कुछ नहीं है… आकाश वे सब मजाक की बातें थीं,’’ संध्या ने गिड़गिड़ाते हुए कहा.

‘‘अगर भैया को ये सब मजाक की बातें बता दूं तो…?’’ आकाश ने तिरछी नजरें करते हुए कहा. उस की आंखों में शरारत साफ नजर आ रही थी.

संध्या को आकाश के इरादे नेक नहीं लगे. उसे अफसोस था कि उस ने किसी अनजानी दोस्त के सामने क्यों अपने अतीत की बातें व्हाट्सऐप पर लिखी. लिख भी दी थीं तो डिलीट क्यों नहीं कीं.

‘‘तुम ऐसा कुछ नहीं करोगे आकाश. यह मजाक अच्छा नहीं है तुम्हारे लिए,’’ संध्या ने सख्त लहजे में कहा.

यह सुन कर आकाश अपनी औकात पर उतर आया, ‘‘भाभी जान, क्यों घबराती हो, ऐसा कुछ नहीं करूंगा. आप बस देवर को खुश कर दिया करो.’’

संध्या गुस्सा पीते हुए बोली, ‘‘मुझे क्या करना होगा? तुम क्या चाहते हो?’’

‘‘भाभी, इतना बताना पड़ेगा क्या आप को? आप शादीशुदा हैं. शादी से पहले भी आप काफी ज्ञान रखती थीं,’’ आकाश ने बेशर्मी से कहा.

संध्या को लगा वह बहुत बड़े जाल में फंसने जा रही है. अब करे भी तो क्या करे?

‘‘क्या सोच रही हो संध्या? आकाश अचानक भाभी से संध्या के संबोधन पर उतर आया.

‘‘मुझे सोचने का वक्त दो आकाश,’’ संध्या ने कहा.

‘‘ओके, नो प्रौब्लम. जैसा तुम्हें ठीक लगे. पर याद रखना मेरे पास बहुत कुछ है. भैया को पता चल गया तो धक्के मार कर घर से निकाल देंगे तुम्हें.’’

‘‘पता है, तुम किस हद तक नीचता कर सकते हो,’’ संध्या ने रूखे स्वर में कहा.

संध्या अब क्या करे? कैसे पीछा छुड़ाए आकाश से? वह देवरभाभी के रिश्ते को कलंकित करने पर उतारू था. वह जब भी मौका मिलता संध्या का रास्ता रोक कर खड़ा हो जाता कि क्या सोचा तुम ने?

आकाश मोबाइल पर संध्या को कौल करता, ‘‘इतने दिन हो गए, अभी तक सोचा नहीं क्या? क्यों तड़पा रही हो?’’

संध्या पर आकाश लगातार दबाव बढ़ा रहा था. उस का जीना दूभर हो गया. इसी उधेड़बुन में वह करवटें बदल रही थी. उस की नींद उड़ चुकी थी. वह सुबह तक किसी निर्णय पर पहुंचना चाहती थी. उस के सामने दुविधा यह थी कि वह खुद को बचाए या आकाश की वजह से परिवार में होने वाले विस्फोट से बचे. वह चाहती थी किसी तरह आकाश को समझा सके, ताकि यह बात अन्य सदस्यों तक नहीं पहुंचे, लेकिन करे तो क्या करें. अचानक उस के दिमाग में एक विचार कौंधा. हां, यही ठीक रहेगा. उस ने मन ही मन सोचा और गहरी नींद में सो गई. अगले दिन संध्या ने घर का कामकाज निबटाया और अपनी सास से बोली, ‘‘मम्मीजी, मुझे मार्केट जाना है कुछ घर का सामान लाने. घंटे भर में वापस जा जाऊंगी.’’

फिर संध्या जब घर लौटी तो उस के चेहरे पर चिंता की लकीरों के बजाय चमक थी. उस ने पढ़ा था कि राक्षस को मारने के लिए मायावी होना ही पड़ता है. वह आकाश को भी उसी के हथियार से मारेगी… उस का सामना करेगी. मार्केट से वह अपने मोबाइल में वायस रिकौर्डिंग सौफ्टवेयर डलवा आई. कुछ देर बाद ही आकाश ने घर से बाहर जा कर संध्या के मोबाइल पर कौल की. संध्या पूरी तरह तैयार थी.

‘‘हैलो संध्या क्या सोचा तुम ने?’’ आकाश ने पूछा.

‘‘मुझे क्या करना होगा?’’ संध्या ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं बस वही सब… तुम्हें बताना पड़ेगा क्या?’’

‘‘हां, बताना पड़ेगा. मुझे क्या पता तुम क्या चाहते हो?’’

‘‘तुम मेरे साथ…’’ और फिर सब कुछ बताता चला गया आकाश. कब, कहां, क्या करना होगा.

‘‘और अगर मैं मना कर दूं तो क्या करोगे?’’ संध्या ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं तुम्हारी लव स्टोरी सब को बता दूंगा.’’

संध्या गुस्से से चिल्ला पड़ी, ‘‘जाओ, सब को बताओ. परंतु एक बात याद रखना तुम जो मुझे ब्लैकमेल कर रहे हो न मैं इस की शिकायत पुलिस में करूंगी. ऐसी हालत कर दूंगी कि कई जन्मों तक याद रखोगे.’’

‘‘कैसे करोगी?’’ क्या प्रूफ है तुम्हारे पास?’’ आकाश ने कहा.

‘‘घर आ कर देख लेना यों कायरों की तरह घर से बाहर जा कर क्या बात कर रहे हो,’’ संध्या का गुस्सा बढ़ता ही जा रहा था.

शाम को आकाश घर आया. संध्या ने मौका मिलते ही धीमे से कहा ‘‘पू्रफ दूं या वैसे ही मान जाओगे? तुम ने जो भी बातें की हैं वह सब मोबाइल में रिकौर्ड हैं और इस की सीडी अपने लौकर में रख ली है.’’

आकाश को विश्वास नहीं हो रहा था कि संध्या इस कदर पलटवार करेगी. वह चुपचाप अपने कमरे में खिसक गया. संध्या आज अपनी जीत पर प्रसन्न थी. व्हाट्सऐप के जरीए जो मुसीबत उस पर आई थी, वह उस से छुटकारा पा चुकी थी.

चोट: शिवेंद्र अपनी टीस को झेलते हुए कैसे कामयाबी की सीढि़यां चढ़ता गया

दिल्ली से सटे तकरीबन 40 किलोमीटर दूर रावतपुर नाम के एक छोटे से कसबे में अमरनाथ नाम का एक किसान रहता था. उस के पास तकरीबन डेढ़ एकड़ जमीन थी, जिस में फसल उगा कर वह अपने परिवार को पाल रहा था. पत्नी, एक बेटा और एक बेटी यही छोटा सा परिवार था उस का, इसलिए आराम से गुजारा हो रहा था.

अमरनाथ का बड़ा बेटा शिवेंद्र पढ़नेलिखने में बहुत तेज तो नहीं था, पर इंटरमीडिएट तक सभी इम्तिहान ठीकठाक अंकों से पास करता गया था.

अमरनाथ को उम्मीद थी कि ग्रेजुएशन करने के बाद उसे कहीं अच्छी सी नौकरी मिल ही जाएगी और वह खेतीकिसानी के मुश्किल काम से छुटकारा पा जाएगा.

रावतपुर कसबे में कोई डिगरी कालेज न होने के चलते अमरनाथ के सामने शिवेंद्र को आगे पढ़ाने की समस्या खड़ी हो गई. उस ने काफी सोचविचार कर बच्चों को ऊंची तालीम दिलाने के लिए दिल्ली में टैंपरेरी ठिकाना बनाने का फैसला लिया और रावतपुर में अपने खेत बंटाई पर दे कर सपरिवार दिल्ली के सोनपुरा महल्ले में एक कमरा किराए पर ले कर रहने लगा.

अमरनाथ ने शिवेंद्र को आईआईटी की प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए ज्ञान कोचिंग सैंटर में दाखिला करा दिया और बेटी सुमन को पास के ही महात्मा गांधी बालिका विद्यालय में दाखिला दिला दिया. उस ने अपना ड्राइविंग लाइसैंस बनवाया और आटोरिकशा किराए पर ले कर चलाना शुरू कर दिया.

आटोरिकशा के मालिक को रोजाना 400 रुपए किराया देने के बाद भी शाम तक अमरनाथ की जेब में 3-4 सौ रुपए बच जाते थे जिस से उस का घरखर्च चल जाता था.

अमरनाथ सुबह 8 बजे आटोरिकशा ले कर निकालता और शिवेंद्र को कोचिंग सैंटर छोड़ता हुआ अपने काम पर निकल जाता. शिवेंद्र की छुट्टी शाम को 4 बजे होती थी.

अमरनाथ इस से पहले ही कोचिंग सैंटर के पास के चौराहे पर आटोरिकशा ले कर पहुंच जाता और शिवेंद्र को घर छोड़ कर दोबारा सवारियां ढोने के काम में लग जाता.

अमरनाथ सुबहशाम बड़ी चालाकी से उसी रूट पर सवारियां ढोता जिस रूट पर शिवेंद्र का कोचिंग सैंटर था और जब शिवेंद्र को लाते और ले जाते समय कोई सवारी उसी रूट की मिल जाती तो अमरनाथ की खुशी का ठिकाना न रहता.

एक दिन शाम को साढ़े 4 बजे के आसपास अमरनाथ चौराहे पर शिवेंद्र का इंतजार कर रहा था कि तभी ट्रैफिक पुलिस का दारोगा डंडा फटकारता हुआ वहां आ गया और उस से तुरंत अमरनाथ को वहां से आटोरिकशा ले जाने को कहा.

अमरनाथ ने दारोगा को बताया कि उस का बेटा कोचिंग पढ़ कर आने वाला है. वह उसी के इंतजार में चौराहे पर खड़ा है. बेटे के आते ही वह चला जाएगा.

‘‘अच्छा, मुझे कानून बताता है. भाग यहां से वरना मारमार कर हड्डीपसली एक कर दूंगा.’’ दारोगा गुर्राया.

‘‘साहब, अगर मैं यहां से चला गया तो मेरा बेटा…’’

अमरनाथ अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि दारोगा ने ताबड़तोड़ उस पर डंडा बरसाना शुरू कर दिया. उसी समय शिवेंद्र वहां पहुंच गया. अपने पिता को लहूलुहान देख उस की आंखों में खून उतर आया. उस ने लपक कर दारोगा का डंडा पकड़ लिया.

शिवेंद्र को देख अमरनाथ कराहते हुए बोला, ‘‘साहब, मैं इसी का इंतजार कर रहा था. अब मैं जा रहा हूं.’’

अमरनाथ ने शिवेंद्र की ओर हाथ बढ़ाते हुए उठने की कोशिश की तो शिवेंद्र ने दारोगा का डंडा छोड़ अपने पिता को उठा लिया और आटोरिकशा में बिठा कर आटो स्टार्ट कर दिया.

शिवेंद्र ने दारोगा को घूरते हुए आटोरिकशा चलाना शुरू किया तो दारोगा ने एक भद्दी सी गाली दे कर आटोरिकशा पर अपना डंडा पटक दिया.

इस घटना के 3-4 दिन बाद तक शिवेंद्र कोचिंग पढ़ने नहीं गया. हथेली जख्मी हो जाने के चलते अमरनाथ आटोरिकशा चलाने में नाकाम था, इसलिए वह घर पर ही पड़ा रहा और घरेलू उपचार करता रहा.

घरखर्च के लिए शिवेंद्र ने बैटरी से चलने वाला आटोरिकशा किराए पर उसी आटो मालिक से ले लिया जिस से उस के पिता किराए पर आटोरिकशा लेते थे, ताकि ड्राइविंग लाइसैंस का झंझट न पड़े. वह पूरे दिल से आटोरिकशा चलाता और फिर देर रात तक पढ़ाई करता.

एक दिन रात को शिवेंद्र पढ़तेपढ़ते सो गया. उस की मां की नींद जब खुली तो उस ने शिवेंद्र की किताब उठा कर रख दी. तभी उस की निगाह तकिए के पास रखे बड़े से चाकू पर गई.

सुबह उठ कर शिवेंद्र की मां ने उस से पूछा, ‘‘तू यह चाकू क्यों लाया है और इसे तकिए के नीचे रख कर क्यों सोता है?’’

अपनी मां का सवाल सुन कर शिवेंद्र सकपका गया. उस ने कोई जवाब देने के बजाय चुप रहना ही ठीक समझा. उस की मां ने जब बारबार यही सवाल दोहराया तो वह दांत पीसते हुए बोला, ‘‘उस दारोगा के बच्चे का पेट फाड़ने के लिए लाया हूं जिस ने मेरे पापा की बेरहमी से पिटाई की है.’’

शिवेंद्र का जवाब सुन कर उस की मां सन्न रह गई.

शिवेंद्र के जाने के बाद मां ने यह बात अमरनाथ को बताई. अमरनाथ ने जब यह सुना तो उस के होश उड़ गए. कुछ पलों तक वह बेचैनी से शून्य में देखता रहा, फिर अपनी पत्नी से कहा, ‘‘तू ने मुझे पहले क्यों नहीं बताया? उसे घर के बाहर क्यों जाने दिया? अगर वह कुछ ऐसावैसा कर बैठा तो…?’’

रात को 8 बजे जब आटोरिकशा वापस जमा कर के शिवेंद्र घर लौटा और दिनभर की कमाई पिता को दी तो अमरनाथ ने उसे अपने पास बैठा कर बहुत प्यार से समझाया, ‘‘बेटा, दारोगा ने सही किया या गलत, यह अलग बात है, मगर जो तू कर रहा है, उस से न केवल तेरी जिंदगी बरबाद हो जाएगी, बल्कि पूरा परिवार ही तबाह हो जाएगा.

‘‘हम सब के सपनों का आधार तू ही है बेटा, इसलिए दारोगा से बदला लेने की बात तू अपने दिमाग से बिलकुल निकाल ही दे, इसी में हम सब की भलाई है.’’

शिवेंद्र चुपचाप सिर झुकाए अपने पिता की बातें सुनता रहा. दुख और मजबूरी से उस की आंखें डबडबा आईं. बहुत समझाने पर उस ने अपनी कमर में खुंसा चाकू निकाल कर अमरनाथ के सामने फेंक दिया और उस के पास से हट गया.

अमरनाथ ने चुपचाप चाकू उठा कर अपने बौक्स में रख कर ताला लगा दिया.

अगले दिन अमरनाथ ने चोट के बावजूद खुद आटोरिकशा संभाल लिया और शिवेंद्र को ले कर कोचिंग सैंटर गया.

शिवेंद्र जब आटो से उतर कर कोचिंग सैंटर चला गया तो कुछ देर तक अमरनाथ बाहर ही खड़ा रहा. फिर कोचिंग सैंटर के हैड टीचर जिन्हें सब अमित सर कहते थे, के पास गया और उन्हें दारोगा वाली पूरी बात बताई.

अमित सर ने अमरनाथ की पूरी बात सुनी और उसे भरोसा दिलाया कि वे शिवेंद्र की काउंसलिंग कर के जल्दी ही उसे सही रास्ते पर ले आएंगे.

अमरनाथ के जाने के बाद अमित सर ने शिवेंद्र को अपने कमरे में बुलाया और उस से पुलिस द्वारा की गई ज्यादती के बारे में पूछा, तो शिवेंद्र फफक कर रो पड़ा.

जब शिवेंद्र 5-7 मिनट तक रो चुका तो अमित सर ने उसे चुप कराते हुए सवाल किया, ‘‘क्या तुम जानते हो कि पुलिस वाले ने तुम्हारे पिता पर हाथ क्यों उठाया?’’

‘‘सर, उन की कोई गलती नहीं थी. वे चौराहे पर मेरा इंतजार कर रहे थे. यह बात उन्होंने उस पुलिस वाले को बताई भी थी.’’

‘‘मतलब, उन की कोई गलती नहीं थी. अब यह बताओ कि अगर तुम्हारे पिता की जगह पर कोई अमीर आदमी बड़ी सी महंगी कार लिए अपने बेटे का वहां इंतजार कर रहा होता तो क्या पुलिस वाला उस आदमी पर हाथ उठाता?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘इस का मतलब यह है कि गरीब होने के चलते तुम्हारे पिता के ऊपर हाथ उठाने की हिम्मत उस दारोगा ने की.’’

‘‘जी सर.’’

‘‘तो बेटा, तुम्हें उस दारोगा से बदला लेने के बजाय उस गरीबी से लड़ना चाहिए जिस के चलते तुम्हारे पिता की बेइज्जती हुई. होशियारी इनसान से लड़ने में नहीं, हालात से लड़ने में है.

‘‘अगर तुम लड़ना ही चाहते हो तो गरीबी से लड़ो और इस का एक ही उपाय है ऊंची तालीम. अपनी गरीबी से संघर्ष करते हुए खुद को इस काबिल बनाओ कि उस जैसे पुलिस वाले को अपने घर में गार्ड रख सको.

‘‘तुम मेहनत कर के आईआईटी की प्रवेश परीक्षा में कामयाबी पाओ. फिर इंजीनियरिंग की डिगरी हासिल कर के कोई बड़ी नौकरी हासिल करो. फिर तुम देखना कि वह दारोगा ही क्या, उस के जैसे कितने ही लोग तुम्हारे सामने हाथ जोड़ेंगे और आईएएस बन गए तो यही दारोगा तुम्हें सैल्यूट मारेगा.

‘‘तुम्हारे इस संघर्ष में मैं तुम्हारा साथ दूंगा. बोलो, मंजूर है तुम्हें यह संघर्ष?’’

अमित सर की बात सुन कर शिवेंद्र का चेहरा सख्त होता चला गया, मानो उस की चोट फूट कर बह जाने के लिए उसे बेताब कर रही हो.

शिवेंद्र ने दोनों हाथ उठा कर कहा, ‘‘हां सर, मैं लडूंगा. पूरी ताकत से लड़ूंगा और इस लड़ाई को जीतने के लिए जमीनआसमान एक कर दूंगा.’’

दारोगा के गलत बरताव से शिवेंद्र के मन पर जो चोट लगी थी उस की टीस को झेलते हुए वह कामयाबी की सीढि़यां चढ़ता गया और आईआईटी मुंबई से जब वह इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर के लौटा तो 35 लाख रुपए सालाना तनख्वाह का प्रस्ताव भी जेब में ले कर आया. शिवेंद्र ने अपनी तनख्वाह के बारे में जब अमरनाथ को बताया तो उस का मुंह खुला का खुला रह गया, फिर वह तकरीबन चीखते हुए बोला, ‘‘अरे शिवेंद्र की मां, इधर आ. देख तो अपना शिवेंद्र कितना बड़ा आदमी हो गया है.’’

पूरे परिवार के लिए वह दिन त्योहार की तरह बीता. शाम को काजू की बरफी ले कर शिवेंद्र अमित सर के घर पहुंचा तो उन्होंने उसे गले लगा कर उस की पीठ थपथपाई और बोले, ‘‘मुझे खुशी है कि वक्त ने तुम्हारे दिल को जो चोट दी, उसे तुम ने सहेज कर रखा और उस का इस्तेमाल सीढ़ी के रूप में कर के तरक्की की चोटी तक पहुंचे.

‘‘अब तुम्हें पीछे मुड़ कर देखने की जरूरत नहीं है. बस, यह ध्यान रखना कि किसी को तुम्हारे चलते बेइज्जत न होना पड़े, किसी गरीब को तुम से चोट न पहुंचे, यही तुम्हारा असली बदला होगा.’’

परिचय: कौन पराया, कौन अपना

मैं अपने केबिन में बैठी मुंशीजी से पेपर्स टाइप करवा रही थी. मन काम में नहीं लग रहा था. पिछले 1 घंटे से मैं कई बार घड़ी देख चुकी थी, जो लंच होने की सूचना शीघ्र ही देने वाली थी. दरअसल, मुझे वंदना का इंतजार था. पूरी वकील बिरादरी में एक वही तो थी, जिस से मैं हर बात कर सकती थी. इधर घड़ी ने 1 बजाया,

उधर वंदना अपना काला कोट कंधे पर टांगे और अपने चेहरे को रूमाल से पोंछती हुई अंदर दाखिल हुई. मेरे चेहरे पर मुसकान दौड़ गई. ‘‘बहुत गरमी है आज,’’ कहती हुई वंदना कुरसी खींच कर बैठ गई. मुंशीजी खाना खाने चले गए. मेरा चेहरा फिर गंभीर हो गया. वंदना एक अच्छी वकील होने के साथ ही मन की थाह पा लेने वाली कुशाग्रबुद्धि महिला भी है.

‘‘आज फिर किसी केस में उलझ गई हैं श्रीमती सुनंदिता सिन्हा,’’ उस ने प्रश्नसूचक दृष्टि मेरे चेहरे पर टिका दी.

‘‘नहीं तो.’’

‘‘इस ‘नहीं तो’ में कोई दम नहीं है. तुम कोई बात छिपाते वक्त शायद यह भूल जाती हो कि हम पिछले 3 साल से साथ हैं और अच्छी दोस्त भी हैं.’’

मैं उत्तर में केवल मुसकरा दी.

‘‘चलो, चल कर लंच करें, मुझे बहुत भूख लगी है,’’ वंदना बोली.

‘‘नहीं वंदना, यहीं बैठ जाओ. एक दिलचस्प केस पर काम कर रही हूं मैं.’’

‘‘किस केस पर काम चल रहा है भई?’’ वह उतावली हो कर बोली.

मैं उसे नम्रता के बारे में बताने लगी.

‘‘आज नम्रता मेरे पास आई थी. वह सुंदर, मासूम, भोलीभाली, बुद्धिमान युवती है. 4 साल पहले उस की शादी मुकुल दवे के साथ हुई थी. दोनों खुश भी थे. किंतु शादी के तकरीबन 2 साल बाद उस का परिचय एक अन्य लड़की के साथ हुआ. उन दोनों के बारे में नम्रता को कुछ ही दिन पहले पता चला है. मुकुल, जो एक 3 साल के बेटे का पिता है, उस ने गुपचुप ढंग से उस लड़की से 2 साल पहले विवाह कर रखा है. लड़की उसी के महल्ले में रहती थी. अजीब बात है.’’

‘‘ऐसा तो हर रोज कहीं न कहीं होता रहता है. तुम और मैं, वर्षों से देख रहे हैं. इस में अजीब बात क्या है?’’ वंदना बोली.

‘‘अजीब यह है कि लड़की उसी महल्ले में रहती थी, जिस में नम्रता. बल्कि नम्रता उस लड़की को जानती थी. हैरानी तो इस बात की है कि उन दोनों के पास रहते हुए भी वह यह कैसे नहीं जान पाई कि उस के पति के इस औरत के साथ संबंध हैं.’’

वंदना मेरी इस बात पर ठहाका लगा कर हंस पड़ी, ‘‘भई, मुकुल क्या नम्रता को यह बता कर जाता था कि वह फलां लड़की से मिलने जा रहा है और वह उसे रंगे हाथों आ कर पकड़ ले. वैसे नम्रता को उस के बारे में पता कैसे चला?’’

‘‘उस बेचारी को खुद मुकुल ने बताया कि वह उसे तलाक देना चाहता है. नम्रता उसे तलाक देना नहीं चाहती. उस का उस के पति के सिवा इस दुनिया में कोई नहीं है. कोई प्रोफेशनल टे्रनिंग भी नहीं है उस के पास कि वह आत्मनिर्भर हो सके,’’ मैं ने लंबी सांस छोड़ी.

‘‘क्या वह दूसरी औरत छोड़ने के लिए तैयार  होगा? तुम तो जानती हो ऐसे संबंधों को साबित करना कितना कठिन होता है,’’ वंदना घड़ी देख उठती हुई बोली.

‘‘मुश्किल तो है, लेकिन लड़ना तो होगा. साहस से लड़ेंगे तो जरूर जीतेंगे,’’ मेरे चेहरे पर आत्मविश्वास था.

‘‘अच्छा चलती हूं,’’ कह कर वंदना चली गई.

मैं दिन भर कचहरी के कामों में उलझी रही. शाम 5 बजे के लगभग घर लौटी तो शांतनु लौन में मेघा के साथ खेल रहे थे. मेरी गाड़ी घर में दाखिल होते ही मेघा मम्मीमम्मी कह कर मेरी तरफ दौड़ी. मैं मेघा को गोद में उठाने को लपकी. शांतनु हमें देख मंदमंद मुसकरा रहे थे. उन्होंने झट से एक खूबसूरत गुलाब तोड़ कर मेरे बालों में लगा दिया.

‘‘कब आए?’’ मैं ने पूछा.

‘‘आधा घंटा हो गया जनाब,’’ कह कर शांतनु मेरे लिए चाय कप में उड़ेलने लगे.

‘‘अरे अरे, मैं बना लेती हूं.’’

‘‘नहीं, तुम थक कर लौटी हो, तुम्हारे लिए चाय मैं बनाता हूं,’’ वह मुसकरा कर बोले. तभी फोन की घंटी बजी और अंदर चले गए. मैं आंखें मूंदे वहीं कुरसी पर आराम करने लगी.

शांतनु का यही स्नेह, यही प्यार तो मेरे जीवन का सहारा रहा है. घर आते ही शांतनु और मेघा के अथाह प्रेम से दिन भर की थकान सुकून में बदल जाती है. अगर शांतनु का साथ न होता तो शायद मैं कभी भी इतनी कामयाब वकील न होती कि लोग मुझे देख कर रश्क कर सकें.

दिन बीतते गए. यही दिनचर्या, यही क्रम. पता नहीं क्यों मैं नम्रता के केस में अधिक ही दिलचस्पी लेने लगी थी और हर कीमत पर उस के पति को सबक सिखाना चाहती थी, जो अपनी  पत्नी को छोड़ किसी अन्य पर रीझ गया था.

मुझे नम्रता के केस में उलझे हुए लगभग 1 साल बीत गया. दिन भर की व्यस्तता में वंदना की मुसकराहट मानसिक तनाव को कम कर देती थी. उस दिन भी कोर्ट में नम्रता के केस की तारीख थी. मैं जीजान से जुटी थी. आखिर फैसला हो ही गया.

मुकुल दवे सिर झुकाए कोर्ट में खड़ा था. उस ने जज साहब के सामने नम्रता से माफी मांगी और जिंदगी भर उस लड़की से न मिलने का वादा किया. नम्रता की आंखों में खुशी के आंसू थे. मैं भी बहुत खुश थी. घर लौट कर यही खुशखबरी मैं शांतनु को सुनाना चाहती थी.

उस दिन शांतनु पहली बार लौन में नहीं बल्कि अपने कमरे में मेरा इंतजार कर रहे थे. इस से पहले कि मैं कुछ कह पाती वह बोले, ‘‘बैठो सुनंदिता, मुझे तुम से कुछ जरूरी बातें करनी हैं.’’

उन की मुखमुद्रा गंभीर थी. मैं कुरसी खींच कर पास बैठ गई. मैं ने आज तक उन्हें इतना गंभीर नहीं देखा था.

वह बोले, ‘‘हमारी शादी को 6 साल हो गए हैं सुनंदिता और इन 6 सालों में मैं ने यह महसूस किया है कि तुम एक संपूर्ण स्त्री नहीं हो, जो मुझे पूर्णता प्रदान कर सके. तुम में कुछ अधूरा है, जो मुझे पूर्ण होने नहीं देता.’’

मैं अवाक् रह गई. मेरा चेहरा आंसुओं से भीग गया.

वह आगे बोले, ‘‘मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है सुनंदिता. तुम एक चरित्रवान पत्नी, अच्छी मां और अच्छी महिला भी हो. मगर कहीं कुछ है जो नहीं है.’’

शब्द मेरे गले में घुटते चले गए, ‘‘तो इतना बता दो शांतनु, वह कौन  है, जिस के तुम्हारे जीवन में आने से मैं अधूरी लगने लगी हूं?’’

‘‘तुम चाहो तो मेघा को साथ रख सकती हो. उसे मां की जरूरत है.’’

‘‘मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर दो, शांतनु, कौन है वह?’’

वह खिड़की के पास जा कर खड़े हो गए और अचानक बोले, ‘‘वंदना.’’

मुझ पर वज्रपात हुआ.

‘‘हां, एडवोकेट वंदना प्रधान.’’

मैं बेजान हो गई. यहां तक कि एक सिसकी भी नहीं ले सकी. जी चाह रहा था कि पूछूं, कब मिलते थे वंदना से और कहां? सारा दिन तो वह कोर्ट में मेरे साथ रहा करती थी. तभी वंदना के वे शब्द मेरे कानों में गूंज उठे, ‘क्या मुकुल नम्रता को बता कर जाता होगा कि कब मिलता है उस पराई स्त्री से. ऐसा तो रोज ही होता है.’

‘मैं नम्रता से कहा करती थी कि कैसी बेवकूफ स्त्री हो तुम नम्रता, पति के हावभाव, उठनेबैठने, बोलनेचालने से तुम इतना भी अंदाजा नहीं लगा सकीं कि उस के दिल में क्या है.’ मैं खुद भी तो ऐसा नहीं कर पाई.

मैं ने कस कर अपने कानों पर हाथ टिका लिए. जल्दीजल्दी सामान अपने सूटकेस में भरने लगी. शांतनु जड़वत खड़े रहे. मैं मेघा की उंगली थामे गेट से बाहर निकल आई.

अगले दिन मैं कोर्ट नहीं गई. दिमाग पर बारबार अपने ही शब्द प्रहार कर रहे थे, ‘एक महल्ले में रह कर भी नम्रता कुछ न जान पाई’ और मैं दिन में वंदना और शाम को शांतनु इन दोनों के बीच में ही झूलती रही थी फिर भी…गिला करती तो किस से. पराया ही कौन था और अपना ही कौन निकला. एक पल को मन चाहा कि मुकुल की तरह शांतनु भी हाथ जोड़ कर माफी मांग ले. लेकिन दूसरे ही पल शांतनु का चेहरा खयालों में उभर आया. मन वितृष्णा से भर उठा. मैं शायद उसे कभी माफ न कर सकूं?

मैं नम्रता नहीं हूं. अगले दिन मुंशी जी टाइपराइटर ले कर बैठे और बोले, ‘‘जी, मैडम, लिखवाइए.’’

‘‘लिखिए मुंशीजी, डिस्साल्यूशन आफ मैरिज बाई डिक्री ओफ डिवोर्स सुनंदिता सिन्हा वर्सिज शांतनु सिन्हा,’’ टाइपराइटर की टिकटिक का स्वर लगातार ऊंचा हो रहा था.

अपना कौन: मधुलिका आंटी का अपनापन

मम्मीपापा अचानक ही देहरादून छोड़ कर दिल्ली आ बसे. यहां का स्कूल और सहेलियां कशिश को बहुत पसंद आईं. देहरादून पिछली कक्षा की किताबों की तरह पीछे छूट गया. बस, मधुलिका आंटी की याद गाहेबगाहे आ जाती थी.

‘‘देहरादून से सभी लोग आप से मिलने आते हैं. बस, मधुलिका आंटी नहीं आतीं,’’ कशिश ने एक रोज हसरत से कहा.

‘‘मधुलिका आंटी डाक्टर हैं और देवेन अंकल वकील. दोनों ही अपनी प्रैक्टिस छोड़़ कर कैसे आ सकते हैं?’’ मां ने बताया.

मां और भी कुछ कहना चाह रही थीं लेकिन उस से पहले ही पापा ने कशिश को पानी पिलाने को कहा. वह पानी ले कर आई तो सुना कि पापा कह रहे थे, ‘कशिश की यह बात तुम मधु को कभी मत बताना.’

कशिश को समझ में नहीं आया कि इस में न बताने वाली क्या बात थी.

जल्दी ही उम्र का वह दौर शुरू हो गया जिस में किसी को खुद की ही खबर नहीं रहती तो मधु आंटी को कौन याद करता.

मम्मीपापा न जाने कैसे उस के मन की बात समझ लेते थे और उस के कुछ कहने से पहले ही उस की मनपसंद चीज उसे मिल जाती थी. उस की सहेलियां उस की तकदीर से रश्क किया करतीं. कशिश का मेडिकल कालिज में अंतिम वर्ष था. मम्मीपापा दोनों चाहते थे कि वह अच्छे नंबरों से पास हो. वह भी जीजान से पढ़ाई में जुटी हुई थी कि दादी के मरने की खबर मिली. दादादादी अपने सब से छोटे बेटे सुहास और बहू दीपा के साथ चंडीगढ़ में रहते थे. पापा के अन्य भाईबहन भी वहां पहुंच चुके थे. घर में काफी भीड़ थी. दादी के अंतिम संस्कार के बाद दादाजी ने कहा, ‘‘शांति बेटी, तुम्हारी मां के जो जेवर हैं, मैं चाहता हूं कि वह तुम सब आपस में बांट लो. तू सब से बड़ी है इसलिए सब के जाने से पहले तू बराबर का बंटवारा कर दे.’’

रात को जब कशिश दादाजी के लिए दूध ले कर गई तो दरवाजे के बाहर ही अपना नाम सुन कर ठिठक गई. दादाजी शांति बूआ से पूछ रहे थे, ‘‘तुझे कशिश से चिढ़ क्यों है. वह तो बहुत सलीके वाली और प्यारी बच्ची है.’’

‘‘मैं कशिश में कोई कमी नहीं निकाल रही पिताजी. मैं तो बस, यही कह रही हूं कि मां के गहने हमारी पुश्तैनी धरोहर हैं जो सिर्फ  मां के अपने बच्चों को मिलने चाहिए, किसी दूसरे की औलाद को नहीं. मां के जो भी जेवर अभी विभा भाभी को मिलेंगे वह देरसवेर देंगी तो कशिश को ही, यह नहीं होना चाहिए.’’ शांति बूआ समझाने के स्वर में बोलीं.

कशिश इस के आगे कुछ नहीं सुन सकी. ‘दूसरे की औलाद’ शब्द हथौड़े की तरह उस के दिलोदिमाग पर प्रहार कर रहा था. उस ने चुपचाप लौट कर दूध का गिलास नौकर के हाथ दादाजी को भिजवा दिया और सोचने लगी कि वह किसी दूसरे यानी किस की औलाद है.

दूसरी जगह और इतने लोगों के बीच मम्मीपापा से कुछ पूछना तो मुनासिब नहीं था. तभी दीपा चाची उसे ढूंढ़ती हुई आईं और बरामदे में पड़ी कुरसी पर निढाल सी लेटी कशिश को देख कर बोलीं, ‘‘थक गई न. जा, सो जा अब.’’

तभी कशिश के दिमाग में बिजली सी कौंधी. क्यों न दीपा चाची से पूछा जाए. दोनों की उम्र में ज्यादा फर्क न होने के कारण उस की दीपा चाची से बहुत बनती थी और पिछले 3-4 रोज से एकसाथ काम करते हुए दोनों में दोस्ती सी हो गई थी.

‘‘आप से कुछ पूछना है चाची, बताएंगी ?’’ उस ने निवेदन करने के अंदाज में कहा.

‘‘जरूर,’’ दीपा ने प्यार से उस का सिर सहलाया.

‘‘मैं कौन हूं?’’

कशिश के इस प्रश्न से दीपा चौंक पड़ी फिर संभल कर बोली, ‘‘मेरी प्यारी भतीजी, कशिश.’’

‘‘मगर मैं आप की असली भतीजी तो नहीं हूं न, क्योंकि मैं डा. विकास और डा. विभा की नहीं किसी दूसरे की औलाद…’’

‘‘यह तू क्या कह रही है?’’ दीपा ने बात काटी.

‘‘जो भी कह रही हूं  चाची, सही कह रही हूं’’ और कशिश ने शांति बूआ और दादाजी के बीच हुई बातचीत दोहरा दी.

दीपा झल्ला कर बोली, ‘‘तुम्हारी शांति बूआ को भी बगैर बवाल मचाए खाना नहीं पचता…’’

‘‘उन्होंने कोई बवाल नहीं मचाया, चाची, सिर्फ सचाई बताई है पर अगर आप मुझे यह नहीं बताएंगी कि मैं किस की औलाद हूं तो बवाल मच सकता है.’’

‘‘मैं जो बताऊंगी उस पर तू यकीन करेगी?’’

अगर यकीन नहीं करना होता तो आप से पूछती ही क्यों? असलियत जानने के बाद मैं मम्मीपापा से कुछ नहीं पूछूंगी और कम से कम यहां तो कतई नहीं.

‘‘कभी भी और कहीं भी नहीं पूछना बेटे, वरना वे बहुत दुखी होंगे कि शायद उन की परवरिश में ही कोई कमी रह गई. तुम डा. मधुलिका और देंवेंद्र नाथ वर्मा की बेटी हो. विभा भाभी और मधुलिका बचपन की सहेलियां हैं. यह स्पष्ट होने पर कि बचपन में हुई किसी दुर्घटना के चलते विभा भाभी कभी मां नहीं बन सकतीं, मधुलिका ने उन की गोद में तुम्हें डाल दिया था. विभा भाभी और विकास भाई साहब ने तुम्हें शायद ही कभी शिकायत का मौका दिया हो.’’

कशिश ने सहमति में सिर हिलाया.

‘‘मम्मीपापा से मुझे कोई शिकायत नहीं है लेकिन मधु आंटी ने मुझे क्यों और कैसे दे दिया?’’

‘‘दोस्ती की खातिर.’’

‘‘दोस्ती ममता से ज्यादा…’’

तभी अंदर से बहुत उत्तेजित स्वर सुनाई देने लगे. सब से ऊंचा स्वर विकास का था.

‘‘मेरे लिए मेरे जीवन की सब से अमूल्य निधि मेरी बेटी है, जिस के लिए मैं देहरादून से सरकारी नौकरी छोड़ कर चला आया. उस के लिए क्या चंद गहने नहीं छोड़ सकता? मैं कल सवेरे यानी आप के बंटवारे से पहले ही यहां से चला जाऊंगा’’

‘‘लेकिन मां की उठावनी?’’ शांति बूआ ने पूछा.

‘‘उस के लिए आप सब हैं न. मां की अंत समय में सेवा कर ली, मेरे लिए यही बहुत है,’’ विकास ने कड़वे स्वर में कहा, ‘‘जो लोग मेरी बेटी को पराया समझते हों उन के साथ रहना मुझे गवारा नहीं है.’’

दीपा ने कशिश की ओर देखा और उस ने चुपचाप सिर झुका लिया.

‘‘यह अब नहीं रुकेगा. रोक कर शांति तुम बात मत बढ़ाओ,’’ दादाजी का स्वर उभरा. उसी समय विकास कशिश को पुकारता हुआ वहां आया और उसे इस तरह बांहों में भर कर अपने कमरे में ले गया जैसे कोई कशिश को उस से छीन न ले, ‘‘कल हम दिल्ली लौट रहे हैं कशिश, सो अब तुम सो जाओ. सुबह जल्दी उठना होगा,’’ विकास ने कहा.

‘‘जी, पापा,’’ कशिश ने कहा और चुपचाप बिस्तर पर लेट गई. विकास ने बत्ती बुझा दी.

‘‘विकास,’’ कुछ देर के बाद विभा का स्वर उभरा, ‘‘मुझे लगता है इस तरह लौट कर तुम सब की भावनाओं को ठेस पहुंचा रहे हो.’’

‘‘शांति बहनजी ने जिस बेदर्दी से मेरी भावनाओं को कुचला है न उस के मुकाबले में मेरी ठेस तो बहुत मामूली है,’’ विकास ने तल्खी से कहा, ‘‘जो भी मेरी बेटी को नकारेगा उसे मैं कदापि स्वीकार नहीं करूंगा… चाहे वह कोई भी हो… यहां तक कि तुम भी.’’

अगली सुबह उन्हें विदा करने को केवल दादाजी, सुहास और दीपा ही थे और सब शायद अप्रिय स्थिति से बचने के लिए नींद का बहाना कर के उठे ही नहीं.

घर आ कर विभा और विकास अपने काम में व्यस्त हो गए और कशिश पढ़ाईर् में. हालांकि कशिश को लग रहा था कि चंडीगढ़ से लौटने के बाद पापा उसे ले कर कुछ ज्यादा ही पजेसिव हो गए हैं लेकिन वह अपने असली मातापिता से मिलने और यह जानने को बेचैन थी कि उन्होंने उसे अपनी गोद से उठा कर दूसरे की गोद में क्यों डाल दिया? उस ने मम्मी की डायरी में से मधुलिका मौसी का फोन नंबर और पता तो नोट कर लिया था मगर वह खत या फोन के जरिए नहीं, स्वयं मिल कर यह बात पूछना चाहती थी.

परीक्षा सिर पर थी और पढ़ाई में दिल नहीं लग रहा था. कशिश यही सोचती रहती थी कि क्या बहाना बना कर देहरादून जाए. समीरा उस की खास सहेली थी. उस से कशिश की बेचैनी छिप नहीं सकी. उस के पूछने पर कशिश को बताना ही पड़ा.

‘‘समझ में नहीं आ रहा कि देहरादून किस बहाने से जाऊं.’’

‘‘तू भी अजब भुलक्कड़ है. कई बार तो बता चुकी हूं कि सालाना परीक्षा खत्म होते ही मेरे बड़े भाई की शादी है और बरात देहरादून जाएगी. मैं तुझे बरात में ले चलती हूं. वहां जा कर तू जहां कहेगी तुझे पहुंचवाने का इंतजाम करवा दूंगी. सो अब सारी चिंता छोड़ कर पढ़ाई कर.’’

समीरा की बात से कशिश को कुछ राहत मिली. और फिर शाम को समीरा उस के मम्मीपापा से मिल कर बरात में चलने की स्वीकृति लेने उस के घर आ गई.

‘‘बरात में जाने के बारे में सोचने के बजाय फिलहाल तो तुम दोनों पढ़ाई में ध्यान लगाओ,’’ पापा ने समीरा की बात सुन कर बड़े प्यार से दोनों का सिर सहलाया.

‘‘अंतिम साल की परीक्षा है. इस के नतीजे पर तुम्हारा पूरा भविष्य निर्भर करता है. कशिश को तो मैं कार्डियोलोजी में महारत हासिल करने के लिए अमेरिका भेज रहा हूं. तुम्हारा क्या इरादा है, समीरा?’’

‘‘अगर मैं भी कार्डियोलोजिस्ट बन गई अंकल, तो मुझ में और कशिश में दोस्ती के  बजाय स्पर्धा हो जाएगी और हमारी दोस्ती खत्म हो ऐसा रिस्क मुझे नहीं लेना है. सो कुछ और सोचना पडे़गा मगर सोचने को फिलहाल आप ने मना कर दिया है,’’ समीरा हंसी.

समीरा को विदा कर के कशिश जब अंदर आई तो उस ने अपने पापा को यह कहते सुना, ‘‘मैं नहीं चाहता विभा कि कशिश देहरादून जाए और मधुदेवेन से मिले. इसलिए समीरा के भाई की शादी से पहले ही कशिश को ले कर कहीं और घूमने चलते हैं.’’

‘‘कैसे जाओगे विकास? इस बार आई.एम.ए. का वार्षिक अधिवेशन तुम्हारी अध्यक्षता में होगा और वह उन्हीं दिनों में है.’’

कशिश लपक कर कमरे में आई और कहने लगी, ‘‘मेरी एक बात मानेंगी, मम्मा? आप प्लीज, मधु मौसी को मेरे देहरादून आने के बारे में कुछ मत बताना क्योंकि मैं शादी की रौनक छोड़ कर उन से मिलने नहीं जाने वाली.’’

पापा के चेहरे पर यह सुन कर राहत के भाव उभरे थे.

‘‘ठीक कहती हो. अपनी सहेलियों को छोड़ कर मां की सहेली के साथ बोर होने की कोई जरूरत नहीं है.’’

‘‘थैंक यू, पापा,’’ कह कर कशिश बाहर आ कर दरवाजे के पास खड़ी हो गई.

पापा, मम्मी से कह रहे थे कि अच्छा है, कशिश उन दिनों शादी में जा रही है क्योंकि हम दोनों तो अधिवेशन की तैयारी में व्यस्त हो जाएंगे और यह घर पर बोर होती रहने से बच जाएगी. इस तरह समस्या हल होते ही कशिश जीजान से पढ़ाई में जुट गई.

देहरादून स्टेशन पर बरात का स्वागत करने वालों में कई महिलाएं भी थीं. लड़की के पिता सब का एकदूसरे से परिचय करवा रहे थे. एक अत्यंत चुस्तदुरुस्त, सौम्य महिला का परिचय करवाते हुए उन्होंने कहा, ‘‘यह डा. मधुलिका हैं. कहने को तो हमारी फैमिली डाक्टर और पड़ोसिन हैं लेकिन हमारे परिवार की ही एक सदस्य हैं. हमारे से ज्यादा शादी की धूमधाम इन की कोठी में है क्योंकि सभी मेहमान वहीं ठहरे हुए हैं.’’

कशिश को यकीन नहीं हो रहा था कि उस का काम इतनी आसानी से हो जाएगा. उस ने आगे बढ़ कर मधुलिका को अपना परिचय दिया. मधुलिका ने उसे खुशी से गले से लगाया और पूछा कि विभा क्यों नहीं आई?

‘‘आंटी, मम्मीपापा आजकल एक अधिवेशन में भाग ले रहे हैं. मैं भी इस बरात में महज आप से मिलने आई हूं,’’ कशिश ने बिना किसी हिचक के कहा, ‘‘मुझे आप से अकेले में बात करनी है.’’

मधुलिका चौंक पड़ी फिर संभल कर बोली, ‘‘अभी तो एकांत मिलना मुश्किल है. रात को बरात की खातिरदारी से समय निकाल कर तुम्हें अपने घर ले चलूंगी.’’

‘‘उस में तो बहुत देर है, उस से पहले ही घर ले चलिए न,’’ कशिश ने मनुहार की.

‘‘अच्छा, दोपहर को क्लिनिक से लौटते हुए ले जाऊंगी.’’

दोपहर को मधुलिका ने खुद आने के बजाय उसे लाने के लिए अपनी गाड़ी भेज दी. वह अपने क्लिनिक में उस का इंतजार कर रही थी.

‘‘तुम अकेले में मुझ से बात करना चाहती हो, जो फिलहाल घर पर मुमकिन नहीं  है. बताओ क्या बात है?’’ मधुलिका मुसकराई.

‘‘मैं यह जानना चाहती हूं कि आप ने मुझे क्यों नकारा, क्यों मुझे दूसरों को पालने के लिए दे दिया? मां, मुझे मालूम हो चुका है कि मैं आप की बेटी हूं,’’ और कशिश ने चंडीगढ़ वाला किस्सा उन्हें सुना दिया.

‘‘विभा और विकास ने तुम्हें क्या वजह बताई?’’ मधुलिका ने पूछा.

‘‘उन्हें मैं ने बताया ही नहीं कि मुझे सचाई पता चल गई है. वह दोनों मुझे इतना ज्यादा प्यार करते हैं कि  मैं कभी सपने में भी उन से कोई अप्रिय बात पूछ कर उन्हें दुखी नहीं कंरूगी.’’

‘‘यानी कि तुम्हें विभा और विकास से कोई शिकायत नहीं है?’’

‘‘कतई नहीं. लेकिन आप से है. आप ने क्यों मुझे अपने से अलग किया?’’

‘‘कमाल है, बजाय मेरा शुक्रिया अदा करने के कि तुम्हें इतने अच्छे मम्मीपापा दिए, तुम शिकायत कर रही हो?’’

‘‘सवाल अच्छेबुरे का नहीं बल्कि उन्हें दिया क्यों, यह है?’’

‘‘मान गए भई, पली चाहे कहीं भी हो, रहीं वकील की बेटी,’’ मधुलिका ने बात हंसी में टालनी चाही.

‘‘मगर वकील की बेटी को डाक्टर की बेटी कहलवाने की क्या मजबूरी थी?’’

‘‘मजबूरी कुछ नहीं थी बस, दोस्ती थी. विभा मां नहीं बन सकती थी और अनाथालय से किसी अनजान बच्चे को अपनाने में दोनों हिचक रहे थे. बेटे और बेटी के जन्म के बाद मेरा परिवार तो पूरा हो चुका था. सो जब तुम होने वाली थीं तो हम लोगों ने फैसला किया कि चाहे लड़का हो या लड़की यह बच्चा हम विभा और विकास को दे देंगे. ऐसा कर के मैं नहीं सोचती कि मैं ने तुम्हारे साथ कोई अन्याय किया है.’’

‘‘अन्याय तो खैर किया ही है. पहले तो सब ठीक था मगर असलियत जानने के बाद मुझे अपने असली मातापिता का प्यार चाहिए…’’

तभी कुछ खटका हुआ और एक प्रौढ़ पुरुष ने कमरे में प्रवेश किया. मधुलिका चौंक ०पड़ी.

‘‘आप इस समय यहां?’’

‘‘कोर्ट से लौट रहा था तो बाहर तुम्हारी गाड़ी देख कर देखने चला आया कि खैरियत तो है.’’

‘‘ऋचा की बरात में कशिश भी आई है. मुझ से अकेले में बात करना चाह रही थी, सो यहां बुलवा लिया,’’ मधुलिका ने कहा और कशिश की ओर मुड़ी,‘‘यह तुम्हारे देवेन अंकल हैं.’’

‘‘अंकल क्यों, पापा कहिए न?’’ कशिश नमस्ते कर के देवेन की ओर बढ़ी लेकिन देवेन उस की अवहेलना कर के मधुलिका के जांच कक्ष में

जाते हुए कड़े स्वर में बोले, ‘‘इधर आओ, मधु.’’

मधुलिका सहमे स्वर में कशिश को रुकने को कह कर परदे के पीछे चली गई.

‘‘यह सब क्या है, मधु? मैं ने तुम्हें कितना समझाया था कि अपने बेटेबेटी का प्यार और हक बांटने के लिए मुझे तीसरी औलाद नहीं चाहिए, तुम गर्भपात करवाओ. मगर तुम नहीं मानीं और इसे अपनी सहेली के लिए पैदा किया. खैर, उन के दिल्ली जाने के बाद मैं ने चैन की सांस ली थी मगर यह फिर टपक पड़ी मुझे पापा कहने, हमारे सुखी परिवार में सेंध लगाने के लिए. साफ कहे दे रहा हूं मधु, मेरे लिए यह अनचाही औलाद है. न मैं स्वयं इस का अस्तित्व स्वीकार करूंगा न अपने बच्चों…’’

कशिश आगे और नहीं सुन सकी. उस ने फौरन बाहर आ कर एक रिकशा रोका. अब उसे दिल्ली जाने का इंतजार था, जहां उस के मम्मीपापा व्यस्तता के बावजूद उस के बगैर बेहाल होंगे. प्यार जन्म से नहीं होता है. प्यार तो प्यार करने वालों से होता है और जो प्यार उसे अपने दिल्ली वाले मातापिता से मिला, उस का तो कोई मुकाबला ही नहीं.

 

पेड़ : कैसी लड़की थी सुलभा

चीनू की नन्हीनन्ही हथेलियां दूर होती चली गईं और धीरेधीरे एकदम से ओझल हो गईं.

पूरे 30 दिन से उन का घर गुलजार था. बच्चों के होहल्ले से भरा था. साल भर में उन के घर में 2 ही तो खुशी के मौके आते थे. एक गरमी की लंबी छुट्टियों में और दूसरा, दशहरे की छुट्टियों के समय.

उन दिनों नीरेंद्र की उजाड़ जिंदगी में हुलस कर बहार आ जाती थी. उस का जी करता था कि इस आए वक्त को रोक कर अपने घर में कैद कर ले. खूब नाचेगाए और जश्न मनाए, पर ऐसा हो कहां सकता था.

छोटी बहन के साथ 2 बच्चे, छोटे भाई के 2 बच्चे और बड़ी दीदी के दोनों बच्चे, पूरे 6 नटखट ऊधमी सदस्यों के आने से ऐसा लगता जैसे घर छोटा पड़ गया हो. बच्चे उस कमरे से इस कमरे में और इस कमरे से उस कमरे में भागे फिरते, चिल्लाते और चीजें बिखेरते रहते.

बच्चों के मुंह से ‘चाचीजी’, ‘मामीजी’ सुनसुन कर वे अघाते न थे. दिनरात उन की फरमाइशें पूरी करने में लगे रहते. किसी को कंचा चाहिए तो किसी को गुल्लीडंडा. किसी को गुडि़या तो किसी को लट्टू.

4 माह में जितना पैसा वे बैंक से निकाल कर अपने ऊपर खर्च करते थे, उस से भी ज्यादा बच्चों की फरमाइशें पूरी करने में उन दिनों खर्च कर देते. फिर भी लगता कि कुछ खर्च ही नहीं किया है. वे तो नईनई चीजें खरीदने के लिए बच्चों को खुद ही उकसाते रहते.

कभीकभी भाईबहनों को गुस्सा आने लगता तो वे उन्हें झिड़कते, ‘‘क्या करते हो भैया. सुबह से इन मामूली चीजों के पीछे लगभग 100 रुपए फूंक चुके हो. बच्चों की मांग का भी कहीं अंत है?’’

नीरेंद्र हंस देते, ‘‘अरे, रहने दो, यह इन्हीं का तो हिस्सा है. बस, साल में 10 दिन ही तो इन के चाव के होते हैं. देता हूं तो बदले में इन से प्यार भी तो पाता हूं.’’

सिर्फ 30 दिन का ही तो यह मेला होता है. बाद में बच्चों की बातें, उन की गालियां याद आतीं. उन की छोड़ी हुई कुछ चीजें, कुछ खिलौने संभाल कर वे उन निर्जीव वस्तुओं से बातें करते रहते और मन को बहलाते. उन की एक बड़ी अलमारी तो बच्चों के खिलौनों से भरी पड़ी थी.

इस तरह नीरेंद्र अपने अकेलेपन को काटते. हर बार उन का जी करता कि बच्चों को रोक लें, पर रोक नहीं पाते. न बच्चे रुकना चाहते हैं न माताएं उन्हें यहां रहने देना पसंद करती हैं. पहले तो उन के छोटे होने का बहाना था. बड़े हुए तो छात्रावास में डाल दिए गए. इसी से नीरेंद्र उन्हीं बच्चों में से एक को गोद लेना चाहते थे. मगर हर घर में 2 बच्चे देख खुद ही तालू से जबान लग जाती थी.

किसीकिसी साल तो ऐसा भी होता है कि 30 दिनों में भी कटौती हो जाती. कभीकभी बच्चे यहां आने के बजाय कश्मीर, मसूरी घूमने की ठान लेते. फिर तो ऐसा लगने लगता जैसे जीने का बहाना ही खत्म हो जाएगा. पिछले साल यही तो हुआ था. बच्चे रानीखेत घूमने की जिद कर बैठे थे और यहां आना टल गया था. किसी तरह छुट्टियों के 7-8 दिन बचा कर वे यहां आए थे तो उन का मन रो कर रह गया था.

कभीकभी नीरेंद्र को अपनेआप पर ही कोफ्त होने लगती कि क्यों वे अकेले रह गए? आखिर क्या कारण था इस का? पिता की असमय मृत्यु ने उन के घर को अनाथ कर दिया था. घर में वे सब से बड़े थे, इसलिए जिम्मेदारी निभाना उन्हीं का कर्तव्य था. घर में सभी को पढ़ाया- लिखाया. पूरी तरह से हिम्मत बांध कर उन के शादीब्याह किए तब कहीं जा कर अपने लिए विचार किया था.

नीरेंद्र सीधीसादी लड़की चाहते थे. मां ने उन के लिए सुलभा को पसंद किया था. सुलभा में कोई दोष न था. नीरेंद्र खुश थे कि उम्र उन के विवाह में बाधक नहीं बनी. इस से पहले जब वे भाईबहनों का घर बसा रहे थे तब सदा उन्हें एक ही ताना मिला था, ‘‘क्यों नीरेंद्र, ब्याह करोगे भी या नहीं? बूढ़े हो जाओगे, तब कोई लड़की भी न देगा. बाल पक रहे हैं, आंखों पर चश्मा चढ़ गया है और क्या कसर बाकी है?’’

सुन कर नीरेंद्र हंस देते थे, ‘‘चश्मा और पके बाल तो परिपक्वता और बुद्धिमत्ता की निशानी हैं. मेरी जिम्मेदारी को जो लड़की समझेगी वही मेरी पत्नी बनेगी.’’

सुलभा उन्हें ऐसी ही लड़की लगी थी. सगाई के बाद तो वे दिनरात सुलभा के सपने भी देखने लगे थे. उन्हें ऐसा लगता जैसे सुलभा उन की जिंदगी में एक बहार बन कर आएगी.

विवाह की तिथि को अभी काफी दिन थे. एक दिन इसी बीच वे सुलभा के साथ रात को फिल्म देख कर लौट रहे थे. अचानक कुछ बदमाशों ने सुलभा के साथ छेड़छाड़ की थी. नीरेंद्र को बुढ़ऊ कह कर ताना मार दिया था.

सुन कर नीरेंद्र को सहन न हुआ था और वे बदमाशों से उलझ पड़े थे, पर उन से वे कितना निबट सकते थे. अपनेआप से वे पहली बार हारे थे. गुस्सा आया था उन्हें अपनी कमजोरी पर. वे स्वयं को अत्यंत अपमानित महसूस कर रहे थे. हतप्रभ रह गए थे अपने लिए बुढ़ऊ शब्द सुन कर. उस शाम किसी तरह वे और सुलभा बच कर लौट तो आए थे मगर सुलभा ने दूसरे ही दिन सगाई की अंगूठी वापस भेज दी थी. शायद उसे भी यकीन हो गया था कि वे बूढ़े हो गए हैं.

‘अच्छा ही किया सुलभा ने.’ एक बार नीरेंद्र ने सोचा था. परंतु मन में अपनी हीनता और कमजोरी का एक दाग सा रह गया. विवाह से मन उचट गया, कोई इस विषय पर बात चलाए भी तो उस से उलझ बैठते. मां जब तक रहीं नीरेंद्र को शादी के लिए मनाती रहीं, समझाती रहीं.

मां की मृत्यु के बाद वह जिद और मनुहार भी खत्म हो गई. कुछ यह भी जिद थी कि अब इसी तरह जीना है. पहले भाईबहनों पर भरोसा था, पर वे अपनी- अपनी जिंदगी में लग गए तो उन्होंने उन्हें छेड़ना भी उचित न समझा.

हां, भाईबहनों के बच्चों ने अवश्य ही नीरेंद्र के अंदर एक बार गृहस्थी का लालच जगा दिया था. अंदर ही अंदर वे आकांक्षा से भर उठे कि उन्हें भी कोई पिता कहता. वे भी किसी के भविष्य को ले कर चिंता करते. वे भी कोई सपना पालते कि उन का बेटा बड़ा हो कर डाक्टर बनेगा या कोई उन का भी दुखसुख सुनता. सोतेजागते वे यही सोचा करते.

तब कभीकभी मन में मनाते कि कोई उन्हें क्यों नहीं कहता कि ब्याह कर लो. अकेले ही वे रसोईचूल्हे से उलझे हुए हैं कोई पसीजता क्यों नहीं, कोई अजूबा तो नहीं इस उम्र में ब्याह करना. बहुत से लोग कर रहे हैं.

नीरेंद्र अपनी जिंदगी की तुलना भाई की जिंदगी से करते. सोचते कि उन की और धीरेंद्र की सुबह में कितना अंतर है. वे 4 बजे का अलार्म लगा कर सोते. सोचते हुए देर रात गए उन्हें नींद आती. परंतु सुबह तड़के घड़ी की तेज घनघनाहट के साथ ही उन की नींद टूट जाती जबकि वे जागना नहीं चाहते. लेकिन जानते हैं कि सुबह के नाश्ते की तैयारी, कमरों की सफाई, कपड़ों की धुलाई आदि सब उन्हीं को ही करनी है.

मगर धीरेंद्र की सुबह भले ही झल्लाहट से शुरू हो लेकिन उत्सुकता से भरी जरूर होती है. 4 बजे का अलार्म बज जाए तो भी उसे कोई परवाह नहीं. नींद ही नहीं टूटती है. न जाने उसे कैसी गहरी नींद आती है.

घड़ी का कांटा जब 4 से 5 तक पहुंचता है तब उस की पत्नी चिल्लाती है, ‘‘उठो, दफ्तर जाने में देर हो जाएगी.’’

‘‘हूं,’’ धीरेंद्र उसी खर्राटे के साथ कहेगा, ‘‘क्या 5 बज गए?’’

‘‘तैयार होतेहोते 10 बज जाएंगे. फिर मुझे न कहना कि देर हो गई.’’

शायद फिर बच्चों को इशारा किया जाता होगा. पप्पू धीरेंद्र के बिछौने पर टूट पड़ता, ‘‘उठिए पिताजी, वरना पानी डाल दूंगा.’’

फिर वह बच्चों के अगलबगल बैठ कर कहता, ‘‘अरे, नहीं बाबा, मां से कहो कि चाय ले आए.’’

स्नानघर में जा कर भी धीरेंद्र बीवी से उलझता रहता, ‘‘मेरे कुरते में 2 बटन नहीं हैं और जूते के फीते बदले या नहीं? जाने मोजों की धुलाई हुई है या नहीं?’’

पत्नी तमक कर कहती, ‘‘केवल तुम्हें ही तो नौकरी पर नहीं जाना है, मुझे भी दफ्तर के लिए निकलना है.’’

‘‘ओह, तो क्या तुम्हारे ब्लाउज के बटन मुझे टांकने होंगे,’’ धीरेंद्र चुहल करता तो पत्नी उसे धप से उलटा हाथ लगाती.

इसे कोई कुछ भी कहे, पर नीरेंद्र का लोभी मन गृहस्थी के ऐसे छोटेमोटे सुखों की कान लगा कर आहट लेता रहता.

नीरेंद्र बेसन के खुशबूदार हलवे के बहुत शौकीन हैं. जी करता है नाश्ते में कोई सुबहसुबह हलवा परोस दे और वे जी भर कर खाएं. अम्मां थीं तो उन का यह पसंदीदा व्यंजन हफ्ते में 3-4 बार अवश्य मिला करता था. पर उन की मृत्यु के बाद सारे स्वाद समाप्त हो गए.

धीरेंद्र की पत्नी बेसन का हलवा देखते ही मुंह बनाती थी. खुद नीरेंद्र अम्मां की भांति कभी हलवा बना नहीं सके. अब तो बस हलवे की खुशबू मन में ही दबी रहती है.

धीरेंद्र को बेसन के पकौड़ों के एवज में कई बार बीवी के हाथ बिक जाना पड़ता है. बीवी का मन न हो तो कोई न कोई बात पक्की करवा कर ही वह पकौड़े बनाती है. नीरेंद्र भी अपने पसंद के हलवे पर नीलाम हो जाना चाहते हैं, पर वह नीलामी का चाव मन में ही दबा रह गया. अब तो रोज सुबह थोड़ा सा चिवड़ा फांक कर दफ्तर की ओर चल देते हैं.

दफ्तर में नए और पुराने सहयोगियों का रेला नीरेंद्र को देखदेख कर दबी मुसकराहट से अभिवादन करता. कम से कम इतनी तसल्ली तो जरूर रहती कि हर कोई उन से काम निकलवाने के कारण मीठीमीठी बातें तो जरूर करता है. उस के साहब, अपनीअपनी फाइल तैयार करवाने के चक्कर में उसे मसका लगाते रहते. किसी को पार्टी में जाना हो, पत्नी को ले कर बाजार जाना हो, बच्चे को अस्पताल पहुंचाना हो, तुरंत उन्हें पकड़ते. ‘‘नीरेंद्र, थोड़ा सा यह काम कर दो.’’

इतना ही नहीं दफ्तर के क्लर्क, चपरासी, माली, जमादार आदि अपने तरीके से इस अकेले व्यक्ति से नजराना वसूलते रहते. अगर देने में थोड़ी सी आनाकानी की तो वे लोग कह देते, ‘‘किस के लिए बचा रहे हो, बाबू साहब. आप की बीवी होती तो कहते, साड़ी की फरमाइश पूरी करनी है. बेटा होता तो कहते कि उस की पढ़ाई का खर्च है. अगर बेटी होती तो हम कभी धेला भी न मांगते…मगर कुंआरे व्यक्ति को भला कैसी चिंता?’’

पर धीरेंद्र को न तो दफ्तर में रुकने की जरूरत पड़ती और न ही अपने मातहतों के हाथ में चार पैसे धरने की नौबत आती. घर जल्दी लौटने के बहाने भी उसे नहीं बनाने पड़ते. खुद ही लोग समझ जाते हैं कि घर में देरी की तो जनाब की खैर नहीं.

पर नीरेंद्र किस के लिए जल्दी घर लौटें. बालकनी में टहलते ठीक नहीं लगता. अपनीअपनी छतों पर टहलते जोड़ों का आपस में हंसीमजाक सुनना अब उन से सहन नहीं होता. बारबार  लगता है जैसे हर बात उन्हें ही सुनाई जा रही है. खनकती, ठुनकती हंसी वे पचा नहीं पाते. घर के अंदर भाग कर आएं तो मच्छरों की भूखी फौज उन की दुबली देह पर टूट पड़ती है. तब एक ही उपाय नजर आता है कि मच्छरदानी गिरा कर अंदर घुस जाएं और घड़ी के भागते कांटों को देखते हुए समय निकालते रहें.

इसीलिए नीरेंद्र कभीकभी वैवाहिक विज्ञापनों में स्वयं ही अपने लिए उपयुक्त पात्र तलाशने लगते हैं. पर ऐसा कभी न हो सका. कई बार समझौतों के सहारे लगा कि बात बनेगी परंतु विवाह के लिए समझौता करना उन्हें उचित नहीं लगा. अकेलेपन के कारण झिझकते हुए उन्होंने छोटे भाई की लड़की नीलू को अपने पास रख लेने का प्रस्ताव किया तो वह बचने लगा था, ‘‘पता नहीं, बच्ची की मां राजी होगी या नहीं?’’

पर नीरेंद्र बजाय बच्ची की मां से पूछने के छोटी बहन के सामने ही गिड़गिड़ा उठे थे, ‘‘कामिनी, मैं चाहता हूं, क्यों न आशू यहीं मेरे साथ रहे. उस का जिम्मा मैं उठाऊंगा.’’

‘‘आशू?’’ बहन की आंखें झुक गईं, ‘‘बाप रे, इस की दादी तो मुझे काट कर रख देंगी.’’

जवाब सुन कर नीरेंद्र चकित रह गए थे, ‘अरे यह क्या? अपनी लगभग सारी कमाई इन के बच्चों पर उड़ाता हूं. कितने दुलार से यहां उन्हें रखता हूं. हर वर्ष राखी पर मुंहमांगी चीज बहन के हाथ में रखता हूं. इतना ही नहीं, किसी भी बच्चे को कुछ भी चाहिए तो साधिकार माएं चालाकी से उन की फरमाइश लिख भेजती हैं, लेकिन क्या कोई भी अपने एक बच्चे को मेरे पास नहीं छोड़ सकती. कल को वह बच्चा मेरी पूरी संपत्ति का वारिस होगा, लेकिन सब ने मेरी मांग ठुकरा दी.’

‘‘अच्छा, आशू से ही पूछती हूं,’’ बहन ने आशू को आवाज दी थी.

नीरेंद्र उस की बातों से बेजार छत ताकने लगे थे, लेकिन आशू को सिर्फ उन की चीजें ही अच्छी लगती थीं.

कुंआरे रह कर नीरेंद्र लोगों के लिए सिर्फ एक पेड़ बन कर रह गए थे, जिसे जिस का जी चाहे, नोचे, फलफूल, लकड़ी आदि प्रत्येक रूप में उस का उपयोग करे. अपने लिए भी वे एक पेड़ की भांति थे. जैसे बसंत के मौसम में पेड़ों के नए फूलपत्ते आते हैं उसी प्रकार वे भी किसी पेड़ की तरह हरेभरे हो जाते. क्या उन्हें वर्ष भर मुसकराने का हक नहीं है? स्वयं के नोचे जाने के विरोध का भी कोई अधिकार नहीं है?

कर्ण : खराब परवरिश के अंधेरे रास्ते

न्यू साउथ वेल्स, सिडनी के उस फोस्टर होम के विजिटिंग रूम में बैठी रम्या बेताबी से इंतजार कर रही थी उस पते का जहां उस की अपनी जिंदगी से मुलाकात होने वाली थी. खिड़की से वह बाहर का नजारा देख रही थी. कुछ छोटे बच्चे लौन में खेल रहे थे. थोड़े बड़े 2-3 बच्चे झूला झूल रहे थे. वह खिड़की के कांच पर हाथ फिराती हुई उन्हें छूने की असफल कोशिश करने लगी. मृगमरीचिका से बच्चे उस की पहुंच से दूर अपनेआप में मगन थे. कमरे के अंदर एक बड़ा सा पोस्टर लगा था, हंसतेखिलखिलाते, छोटेबड़े हर उम्र और रंग के बच्चों का. रम्या अब उस पोस्टर को ध्यान से देखने लगी, कहीं कोई इन में अपना मिल जाए.

‘ज्यों सागर तीर कोई प्यासा, भरी दुनिया में अकेला, खाने को छप्पन भोग पर रुचिकर कोई नहीं.’ रम्या की गति कुछ ऐसी ही हो रखी थी. तड़पतीतरसती जैसे जल बिन मछली. उस ने सोफे पर सिर टिका अपने भटकते मन को कुछ आराम देना चाहा, लेकिन मन थमने की जगह और तेजी से भागने लगा, भविष्य की ओर नहीं, अतीत की ओर. स्याह अतीत के काले पन्ने फड़फड़ाने लगे, बिना अंधड़, बिना पलटे जाने कितने पृष्ठ पलट गए. जिस अतीत से वह भागती रही, आज वही अपने दानवी पंजे उस के मानस पर गड़ा और आंखें तरेर कर गुर्राने लगा.

बात तब की है जब रम्या 14-15 वर्ष की रही होगी. उस के डैडी को 2-3 वर्षों में ही इतने बड़ेबड़े ठेके मिल गए कि वे लोग रातोंरात करोड़पति बन गए. पैसा आ जाने से सभ्यता और संस्कार नहीं आ जाते. ऐसा ही हाल उन लोगों का भी था. पैसों की गरमी से उन में ऐंठन खूब थी. आएदिन घर में बड़ीबड़ी पार्टियां होती थीं. बड़ेबड़े अफसर और नेताओं को खुश करने के लिए घर में शराब की नदियां बहती थीं.

एक स्वामीजी हर पार्टी में मौजूद रहते थे. रम्या के डैडी और मौम उन के आने से बिछबिछ जाते. वे बड़ेबड़े औद्योगिक घरानों में बड़ी पैठ रखते थे. उन घरानों से काम या ठेके पाने के लिए स्वामीजी की अहम भूमिका होती थी.

पार्टी वाले दिन रम्या और उस की दीदी को नीचे आने की इजाजत नहीं होती थी. अपनी केयरटेकर सुफला के साथ दोनों बहनें छत वाले अपने कमरे में ही रहतीं और छिपछिप कर पार्टी का नजारा लेतीं. कुछ महीने से दीदी भी गायब रहने लगीं. वे रातरातभर घर नहीं आती थीं. जब सुबह लौटतीं तो उन की आंखें लाल और उनींदी रहतीं. फिर वे दिनभर सोती ही रहतीं. यों तो मौम और डैड भी रात की पार्टी के बाद देर से उठते, सो, उन्हें दीदी के बारे में पता ही नहीं था कि वे रातभर घर में नहीं होती हैं.

उस दिन सुबह से ही घर में चहलपहल थी. मौम किसी को फोन पर बता रही थीं कि एक बहुत बड़े ठेके के लिए उस के पापा प्रयासरत हैं. आज वे स्वामीजी भी आने वाले हैं, यदि स्वामीजी चाहें तो उक्त उद्योगपति यह ठेका उस के पापा को ही देंगे.

रम्या उस दिन बहुत परेशान थी, उस के स्कूल टैस्ट में नंबर बहुत कम आए थे और उस का मन कर रहा था कि वह मौम को बताए कि उसे एक ट्यूटर की जरूरत है. वह चुपके से सुफला की नजर बचा कर मौम के कमरे की तरफ चली गई.

अधखुले दरवाजे की ओट से उस ने जो देखा, उस के पांवतले जमीन खिसक गई. मौम और स्वामीजी की अंतरंगता को अपनी खुली आंखों से देख उसे वितृष्णा सी हो गई. वह भागती हुई छत वाले कमरे की तरफ जाने लगी. अब वह इतनी छोटी भी नहीं थी, जो उस ने देखा था वह बारबार उस की आंखों के सामने नाच रहा था. इसी सोच में वह दीदी से टकरा गई.

‘दीदी, मैं ने अभी जो देखा…मौम को छिछि…मैं बोल नहीं सकती,’ रम्या घबरातीअटकती हुई दीदी से बोलने लगी. दीदी ने मुसकराते हुए उसे देखा और कहा, ‘चल, आज तुझे भी एक पार्टी में ले चलती हूं.’

‘कैसी पार्टी, कौन सी पार्टी?’ रम्या ने पूछा.

‘रेव पार्टी,’ दीदी ने आंखें बड़ीबड़ी कर उस से कहा.

‘यह शहर से दूर बंद अंधेरे कमरों में तेज म्यूजिक के बीच होने वाली मस्ती है, चल कोई बढि़या सा हौट ड्रैस पहन ले,’ दीदी ने कहा तो रम्या सब भूल झट तैयार होने लगी.

‘बेबी आप लोग किधर जा रही हैं, साहब, मेमसाहब को पता चला तो मुझे ही डांटेंगे?’ सुफला ने बीच में कहा.

‘चल सुफला, आज की रात तू भी ऐश कर ले,’ दीदी ने उसे 100 रुपए का एक नोट पकड़ा दिया.

उस दिन रम्या पहली बार किसी ऐसी पार्टी में गई. दीदी व दूसरे लड़केलड़कियों को बेतकल्लुफ हो तेज संगीत और लेजर लाइट में नाचते, झूमते, पीते, खाते, सूंघते, सुई लगाते देखा. थोड़ी देर वह आंख फाड़े देखती रही. फिर धीरेधीरे शोर मध्यम लगने लगा, अंधेरा भाने लगा, तेजी से झूमना और जिसतिस की बांहों में गुम होते जाना सुकूनदायक हो गया.

दूसरे दिन जब आंख खुली तो देखा कि वह अपने बिस्तर पर है. घड़ी दोपहर का वक्त बता रही थी यानी आज सारा दिन गुजर गया. वह स्कूल नहीं जा पाई. रात की घटनाएं हलकीहलकी अभी भी जेहन में मौजूद थीं. उसे अब घिन्न सी आने लगी. रम्या को पढ़नेलिखने और कुछ अच्छा बनने का शौक था. बाथरूम में जा कर वह देर तक शौवर में खुद को धोती रही. उसे अपनी भूल का एहसास होने लगा था.

‘क्यों रामी डिअर, कल फुल एंजौयमैंट हुआ न, चल आज भी ले चलती हूं एक नए अड्डे पर,’ दीदी ने मुसकराते हुए पूछा तो रम्या ने साफ इनकार कर दिया. आने वाले दिनों में वह मौमडैड और बहन व आसपास के माहौल सब से कन्नी काट अपनी पढ़ाई व परीक्षा की तैयारी में लगी रही. एक सुफला ही थी जो उसे इस घर से जोड़े हुए थी. बाकी सब से बेहद सामान्य व्यवहार रहा उस का.

कुछ दिनों से उसे बेहद थकान महसूस हो रही थी. उसे लगातार हो रही उलटियां और जी मिचलाते रहना कुछ और ही इशारा कर रहा था.

सुफला की अनुभवी नजरों से वे छिप नहीं पाईं, ‘बेबीजी, यह आप ने क्या कर लिया?’

‘सुफला, क्या मैं तुम पर विश्वास कर सकती हूं, उस एक रात की भूल ने मुझे इस कगार पर ला दिया है. मुझे कोई ऐसी दवाई ला दो जिस से यह मुसीबत खत्म हो जाए और किसी को पता भी न चले. अगले कुछ महीनों में मेरी परीक्षाएं शुरू होंगी. मुझे आस्ट्रेलिया के विश्वविद्यालय से अपनी आगे की पढ़ाई करनी है. मुझे घर के गंदे माहौल से दूर जाना है,’ कहतेकहते रम्या सुफला की गोद में सिर रख कर रोने लगी.

अब सुफला आएदिन कोई दवा, कोई जड़ीबूटी ला कर रम्या को खिलाने लगी. रम्या अपनी पढ़ाई में व्यस्त होती गई और एक जीव उस के अंदर पनपता रहा. इस बीच घर में तेजी से घटनाक्रम घटे. उस की दीदी को एक रेव पार्टी से पुलिस पकड़ कर ले गई और फिर उसे नशामुक्ति केंद्र में पहुंचा दिया गया.

उस दिन मौम अपनी झीनी सी नाइटी पहन सुबह से बेचैन सी घर में घूम रही थीं कि उन की नजर रम्या के उभार पर पड़ी. तेजी से वे उस का हाथ खींचते हुए अपने कमरे में ले गईं. ‘रम्या, यह क्या है? आर यू प्रैग्नैंट? बेबी तुम ने प्रिकौशन नहीं लिया था? तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं?’ मौम ने प्रश्नों की झड़ी सी लगा दी थी.

रम्या खामोश ही रही तो मौम ने आगे कहा, ‘मेरी एक दोस्त है जो तुम्हें इस मुसीबत से छुटकारा दिला देगी. हम आज ही चलते हैं. उफ, सारी मुसीबतें एकसाथ ही आती हैं,’ मौम बड़बड़ा रही थीं.

रम्या ने पास पड़े अखबार में उन स्वामीजी की तसवीर को देखा जिन्हें हथकड़ी लगा ले जाया जा रहा था. अगले कुछ दिन मौम रम्या को ले अपनी दोस्त के क्लिनिक में ही व्यस्त रहीं, लेकिन अबौर्शन का वक्त निकल चुका था और गलत दवाइयों के सेवन से अंदरूनी हिस्से को काफी नुकसान हो चुका था.

इस बीच न्यूज चैनल और अखबारों में स्वामीजी और उस की मौम के रिश्ते भी सुर्खियों में आने लगे. रम्या की तो पहले से ही आस्ट्रेलिया जाने की तैयारियां चल रही थीं. मौम उसे ले अचानक सिडनी चली गईं ताकि कुछ दिन वे मीडिया से बच सकें और रम्या की मुसीबत का हल विदेश में ही हो जाए बिना किसी को बताए.

लाख कोशिशों के बावजूद एक नन्हामुन्ना धरती पर आ ही गया. मौम ने उसे सिडनी के एक फोस्टर होम में रख दिया. रम्या फिर भारत नहीं लौटी. अनचाहे मातृत्व से छुटकारा मिलने के बाद वह वहीं अपनी आगे की पढ़ाई करने लगी. 5 वर्षों बाद उस ने वहीं की नागरिकता हासिल कर अपने साथ ही काम करने वाले यूरोपियन मूल के डेरिक से विवाह कर लिया. रम्या अब 28 वर्ष की हो चुकी थी. शादी के 5 वर्ष बीत गए थे. लेकिन उस के मां बनने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे थे.

सिडनी के बड़े अस्पताल के चिकित्सकों ने उसे बताया कि पहले गर्भाधान के दौरान ही उस कीबच्चेदानी में अपूर्णीय क्षति हो गई थी और अब वह गर्भधारण करने लायक नहीं है. यह सुन कर रम्या के पैरोंतले जमीन खिसक गई. डेरिक तो सब जानता ही था, उस ने बिलखती रम्या को संभाला. ‘रम्या, किसी दूसरे के बच्चे को अडौप्ट करने से बेहतर है हम तुम्हारे बच्चे को ही अपना लें,’ डेरिक ने कहा. यह सुन कर रम्या एकबारगी सिहर उठी, अतीत फिर फन काढ़ खड़ा हो गया.

‘लेकिन, वह मेरी भूल है, अनचाहा और नफरत का फूल,’ रम्या ने कहा.

जब कोई वस्तु या व्यक्ति दुर्लभ हो जाता है तो उस को हासिल करने की चाह और ज्यादा हो जाती है. अब तक जिस से उदासीन रही और नफरत करती रही, धीरेधीरे अब उस के लिए छाती में दूध उतरने लगा. फिर एक दिन डेरिक के साथ उस फोस्टर होम की तरफ उस के कदम उठ ही गए.

…तभी संचालिका ने रम्या की तंद्रा को भंग किया, ‘‘यह रहा उस बच्चे को अडौप्ट करने वाली लेडी का पता. वे एक सिंगल मदर हैं और मार्टिन प्लेस में रहती हैं. मैं ने उन्हें सूचना दे दी है कि आप उन के बच्चे को जन्म देनेवाली मां हैं और मिलना चाहती हैं.’’ फोस्टर होम की संचालिका ने कार्ड थमाते हुए कहा.

जो भाव आज से 13-14 वर्र्ष पहले अनुभव नहीं हुआ था वह रम्या में उस कार्ड को पकड़ते ही जागृत हो उठा. उसे ऐसा लगा कि उस के बच्चे का पता नहीं, बल्कि वह पता ही खुद बच्चा हो. मातृत्व हिलोरे लेने लगा. डेरिक ने उसे संभाला और अगले कुछ घंटों में वे लोग, नियत समय पर मार्टिन प्लेस, मिस पोर्टर के घर पहुंच चुके थे. 50-55 वर्षीया, थोड़ा घसीटती हुई चलती मिस पोर्टर एक स्नेहिल और मिलनसार महिला लगीं. रम्या के चेहरे के भावों को पढ़ते हुए उन्होंने लौन में लगी कुरसी पर बैठने का इशारा किया.

‘‘क्या मैं अपने बेटे से मिल सकती हूं्? क्या मैं उसे अपने साथ ले जा सकती हूं?’’ रम्या ने छूटते ही पूछा पर आखिरी वाक्य बोलते हुए खुद ही उस की जबान लड़खड़ाने लगी. डेरिक और रम्या ने देखा, मिस पोर्टर की आंखें अचानक छलछला गईं.

‘‘आप उस की जन्म देनेवाली मां हैं, पहला हक आप का ही है. वह अभी स्कूल से आता ही होगा. वह देखिए, आप का बेटा,’’ गेट की तरफ इशारा करते हुए मिस पोर्टर ने कहा.

रम्या अचानक चौंक गई, उसे ऐसा लगा कि उस ने आईना देख लिया. हूबहू उस की ही तरह चेहरा, वही छोटी सी नुकीली नाक, हिरन सी चंचल बड़ी सी आंखें, पतले होंठ, घुंघराले काले बाल और बिलकुल उस की ही रंगत.

‘‘आओ बैठो, मैं ने तुम्हे बताया था न कि तुम्हारी मां आने वाली हैं. ये तुम्हारी मां रम्या हैं,’’ मिस पोर्टर ने प्यार से कहा. 14 वर्षीय उस बच्चे ने गरदन टेढ़ी कर रम्या को ऊपर से नीचे तक देखा और मिस पोर्टर की बगल में बैठ गया, ‘‘मौम, तुम्हारे पैरों का दर्द अब कैसा है, क्या तुम ने दवा खाई?’’

रम्या लालसाभरी नजरों से देख रही थी, जिस के लिए जीवनभर हिकारत और नफरत भाव संजोए रही, आज उसे सामने देख ममता का सागर हिलोरे मारने लगा.

‘‘बेटा, मेरे पास आओ. मैं ने तुम्हें जन्म दिया है. तुम्हें छूना चाहती हूं,’’ दोनों हाथ पसार रम्या ने तड़प के साथ कहा.

बच्चे ने मिस पोर्टर की तरफ सवालिया नजरों से देखा. उन्होंने इशारों से उसे जाने को कहा. पर वह उन के पास ही बैठा रहा.

‘‘यदि आप मेरी जन्मदात्री हैं तो इतने वर्षों तक कहां रहीं? आप के होते हुए मैं अनाथ आश्रम में क्यों रहा?’’ बेटे के सवालों के तीर अब रम्या को आगोश में लेने लगे. बेबसी के आंसू उस की पलकों पर टिकने से विद्रोह करने लगे. उस मासूम के जायज सवालों का वह क्या जवाब दे कि तुम नाजायज थे, पर अब उसी को जायज बनाने, बेशर्म हो, आंचल पसारे खड़ी हूं.

बेटा आगे बोला, ‘‘आप को मालूम है, मैं 5 वर्ष की उम्र तक फोस्टर होम में रहा. मेरी उम्र के सभी बच्चों को किसी न किसी ने गोद लिया था. पर आप के द्वारा बख्शी इस नस्ल और रंग ने मुझे वहीं सड़ने को मजबूर कर दिया था.’’

‘‘मैं वहां हफ्ते में एक बार समाजसेवा करने जाती थी. इस के अकेलेपन और नकारे जाने की हालत मुझे साफ नजर आ रही थी. फोस्टर होम की मदद से मैं ने इंडिया के कुछ एनजीओज से संपर्क साधा, जिन्होंने आश्वासन दिया कि शायद वहां इसे कोई गोद ले लेगा. मैं ले कर गई भी. कुछ लोगों से संपर्क भी हुआ. पर फिर मेरा ही दिल इसे वहां छोड़ने को नहीं हुआ, बच्चे ने मेरा दिल जीत लिया. और मैं इसे कलेजे से लगा कर वापस सिडनी आ गई,’’ मिस पोर्टर ने भर्राए हुए गले से बताया.

‘‘इस के जन्म के वक्त आप की मां ने आप के बारे में जो सूचना दी थी, उस आधार पर मुझे पता चला कि आप यहीं आस्ट्रेलिया में ही कहीं हैं. यह भी एक कारण था कि मैं इसे वापस ले आई और मैं ने अपने कोखजाए की तरह इसे पाला. मन के एक कोने में यह उम्मीद हमेशा पलती रही थी कि आप एक दिन जरूर आएंगी,’’ मिस पोर्टर ने जब यह कहा तो रम्या को लगा कि काश, धरती फट जाती और वह उस में समा जाती. डबडबाई आंखों से उस ने शर्मिंदगी के भार से झुकी पलकों को उठाया.

बच्चा अब मिस पोर्टर से लिपट कर बैठा था. मिस पोर्टर स्नेह से उस के घुंघराले बालों को सहला रही थीं.

‘‘आप ले जाइए अपने बेटे को. मैं इसे भेज, ओल्डएज होम चली जाऊंगी,’’ उन्होंने सरलता से मुसकराते हुए कहा.

रम्या की आंखों में चमक आ गई, उस ने अपनी बांहें पसार दीं.

‘‘आज इतने सालों बाद मुझ से मिलने और मुझे अपनाने का क्या राज है? आप यहीं थीं, जानती थीं कि मैं किस अनाथ आश्रम में हूं, फिर भी आप का दिल नहीं पसीजा? आज क्यों अपना मतलबी प्यार दिखाने मुझ से मिलने चली आईर्ं? लाख तकलीफें सह कर, मुसीबतों के पहाड़ टूटने के बावजूद इन्होंने मुझे नहीं छोड़ा और अब मैं इन्हें नहीं छोडूंगा.’’ बेटे के मुंह से यह सुन रम्या को अपनी खुदगर्जी पर शर्म आने लगी.

‘‘बेटा, तुम्हारा नाम क्या है?’’ डेरिक ने रम्या का हाथ थाम उठते हुए पूछा.

‘‘कीन, कीन पोर्टर है मेरा नाम.’’

‘‘क्या कहा कर्ण. ‘कर्ण,’ हां यही होगा तुम्हारा नाम, वाकई तुम क्यों छोड़ोगे अपने आश्रयदाता को. पर मैं कुंती नहीं, मैं कुंती होती तो मेरे पांडव भी होते. मेरी भूल माफ करने लायक नहीं…’’

खाली गोद लौटती रम्या बुदबुदा रही थी और डेरिक हैरानी से उस की बातों का मतलब समझने की कोशिश कर रहा था.

उसके साहबजी: श्रीकांत की जिंदगी में आई शांति

दरवाजे की कौलबैल बजी तो थके कदमों से कमरे की सीढि़यां उतर श्रीकांत ने एक भारी सांस ली और दरवाजा खोल दिया. शांति को सामने खड़ा देख उन की सांस में सांस आई.

शांति के अंदर कदम रखते ही पलभर पहले का उजाड़ मकान उन्हें घर लगने लगा. कुछ चल कर श्रीकांत वहीं दरवाजे के दूसरी तरफ रखे सोफे पर निढाल बैठ गए और चेहरे पर नकली मुसकान ओढ़ते हुए बोले, ‘‘बड़ी देर कर देती है आजकल, मेरी तो तुझे कोई चिंता ही नहीं है. चाय की तलब से मेरा मुंह सूखा जा रहा है.’’

‘‘कैसी बात करते हैं साहबजी? कल रातभर आप की चिंता लगी रही. कैसी तबीयत है अब?’’ रसोईघर में गैस पर चाय की पतीली चढ़ाते हुए शांति ने पूछा.

पिछले 2 दिनों से बुखार में पड़े हुए हैं श्रीकांत. बेटाबहू दिनभर औफिस में रहते और देर शाम घर लौट कर उन्हें इतनी फुरसत नहीं होती की बूढ़े पिता के कमरे में जा कर उन का हालचाल ही पूछ लिया जाए. हां, कहने पर बेटे ने दवाइयां ला कर जरूर दे दी थीं पर बूढ़ी, बुखार से तपी देह में कहां इतना दम था कि समयसमय पर उठ कर दवापानी ले सके. उस अकेलेपन में शांति ही श्रीकांत का एकमात्र सहारा थी.

श्रीकांत एएसआई पद से रिटायर हुए. तब सरकारी क्वार्टर छोड़ उन्हें बेटे के साथ पौश सोसाइटी में स्थित उस के आलीशान फ्लैट में शिफ्ट होना पड़ा. नया माहौल, नए लोग. पत्नी के साथ होते उन्हें कभी ये सब नहीं खला. मगर सालभर पहले पत्नी की मृत्यु के बाद बिलकुल अकेले पड़ गए श्रीकांत. सांझ तो फिर भी पार्क में टहलते हमउम्र साथियों के साथ हंसतेबतियाते निकल जाती मगर लंबे दिन और उजाड़ रातें उन्हें खाने को दौड़तीं. इस अकेलेपन के डर ने उन्हें शांति के करीब ला दिया था.

35-36 वर्षीया परित्यक्ता शांति  श्रीकांत के घर पर काम करती थी. शांति को उस के पति ने इसलिए छोड़ दिया था क्योंकि वह उस के लिए बच्चे पैदा नहीं कर पाई. लंबी, छरहरी देह, सांवला रंग व उदास आंखों वाली शांति जाने कब श्रीकांत की ठहरीठहरी सी जिंदगी में अपनेपन की लहर जगा गई, पता ही नहीं चला. अकेलापन, अपनों की उपेक्षा, प्रेम, मित्रता न जाने क्या बांध गया दोनों को एक अनाम रिश्ते में, जहां इंतजार था, फिक्र थी और डर भी था एक बार फिर से अकेले पड़ जाने का.

पलभर में ही अदरक, इलायची की खुशबू कमरे में फैल गई. चाय टेबल पर रख शांति वापस जैसे ही रसोईघर की तरफ जाने को हुई तभी श्रीकांत ने रोक कर उसे पास बैठा लिया और चाय की चुस्कियां लेने लगे, ‘‘तो तूने अच्छी चाय बनाना सीख ही लिया.’’

मुसकरा दी शांति, दार्शनिक की सी मुद्रा में बोली, ‘‘मैं ने तो जीना भी सीख लिया साहबजी. मैं तो अपनेआप को एक जानवर सा भी नहीं आंकती थी. पति ने किसी लायक नहीं समझा तो बाल पकड़ कर घर से बाहर निकाल दिया. मांबाप ने भी साथ नहीं दिया. आप जीने की उम्मीद न जगाते तो घुटघुट कर या जहर खा कर अब तक मर चुकी होती, साहबजी.’’

‘‘पुरानी बातें क्यों याद करती है पगली. तू क्या कुछ कम एहसान कर रही है मुझ पर? घंटों बैठ कर मेरे अकेलेपन पर मरहम लगाती है, मेरे अपनों के लिए बेमतलब सी हो चुकी मेरी बातों को माने देती है और सब से बड़ी बात, बीमारी में ऐसे तीमारदारी करती है जैसे कभी मेरी मां या पत्नी करती थी.’’

भीग गईं 2 जोड़ी पलकें, देर तक दर्द धुलते रहे. आंसू पोंछती शांति रसोईघर की तरफ चली गई. उस की आंखों के आगे उस का दूषित अतीत उभर आया और उभर आए किसी अपने के रूप में उस के साहबजी. उन दिनों कितनी उदास और बुझीबुझी रहती थी शांति. श्रीकांत ने उस की कहानी सुनी तो उन्होंने एक नए जीवन से उस का परिचय कराया.

उसे याद आया कैसे उस के साहबजी ने काम के बाद उसे पढ़नालिखना सिखाया. जब वह छुटमुट हिसाबकिताब करना भी सीख गई, तब श्रीकांत ने उस के  सिलाई के हुनर को आगे बढ़ाने का सुझाव दिया. आत्मविश्वास से भर गई थी शांति. श्रीकांत के सहयोग से अपनी झोंपड़पट्टी के बाहर एक सिलाईमशीन डाल सिलाई का काम करने लगी. मगर अपने साहबजी के एहसानों को नहीं भूल पाई, समय निकाल कर उन की देखभाल करने दिन में कई बार आतीजाती रहती.

सोसाइटी से कुछ दूर ही थी उस की झोंपड़ी. सो, श्रीकांत को भी सुबह होते ही उस के आने का इंतजार रहता. मगर कुछ दिनों से श्रीकांत के पड़ोसियों की अनापशनाप फब्तियां शांति के कानों में पड़ने लगी थीं, ‘खूब फांस लिया बुड्ढे को. खुलेआम धंधा करती है और बुड्ढे की ऐयाशी तो देखो, आंख में बहूबेटे तक की शर्म नहीं.’

खुद के लिए कुछ भी सुन लेती, उसे तो आदत ही थी इन सब की. मगर दयालु साहबजी पर लांछन उसे बरदाश्त नहीं था. फिर भी साहबजी का अकेलापन और उन की फिक्र उसे श्रीकांत के घर वक्तबेवक्त ले ही आती. वह भी सोचती, ‘जब हमारे अंदर कोई गलत भावना नहीं तब जिसे जो सोचना है, सोचता रहे. जब तक खुद साहबजी आने के लिए मना नहीं करते तब तक मैं उन से मिलने आती रहूंगी.’

शाम को पार्क में टहलने नहीं जा सके श्रीकांत. बुखार तो कुछ ठीक था मगर बदन में जकड़न थी. कांपते हाथों से खुद के लिए चाय बना, बाहर सोफे पर बैठे ही थे कि बहूबेटे को सामने खड़ा पाया. दोनों की घूरती आंखें उन्हें अपराधी घोषित कर रही थीं.

श्रीकांत कुछ पूछते, उस से पहले ही बेटा उन पर बरस उठा, ‘‘पापा, आप ने कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा हमें. एक नौकरानी के साथ…छी…मुझे तो कहते हुए भी शर्म आती है.’’

‘‘यह क्या बोले जा रहे हो, अविनाश?’’ श्रीकांत के पैरों तले से मानो जमीन खिसक गई.

अब बहू गुर्राई, ‘‘अपनी नहीं तो कुछ हमारी ही इज्जत का खयाल कर लेते. पूरी सोसाइटी हम पर थूथू कर रही है.’’

पैर पटकते हुए दोनों रोज की तरह भीतर कमरे में ओझल हो गए. श्रीकांत वहीं बैठे रहे उछाले गए कीचड़ के साथ. वे कुछ समझ नहीं पाए कहां चूक हुई. मगर बच्चों को उन की मुट्ठीभर खुशी भी रास नहीं, यह उन्हें समझ आ गया था. ये बेनाम रिश्ते जितने खूबसूरत होते हैं उतने ही झीने भी. उछाली गई कालिख सीधे आ कर मुंह पर गिरती है. दुनिया को क्या लेना किसी के सुखदुख, किसी की तनहाई से.

वे अकेलेपन में घुटघुट कर मर जाएं या अपनों की बेरुखी को उन की बूढ़ी देह ताउम्र झेलती रहे या रिटायर हो चुका उन का ओहदा इच्छाओं, उम्मीदों को भी रिटायर घोषित क्यों न कर दे. किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता. मगर न जाने उन की खुशियों पर ही क्यों यह समाज सेंध लगा कर बैठा है?

श्रीकांत सोचते, बूढ़ा आदमी इतना महत्त्वहीन क्यों हो जाता है कि वह मुट्ठीभर जिंदगी भी अपनी शर्तों पर नहीं जी पाता. बिलकुल टूट गए थे श्रीकांत, जाने कब तक वहीं बैठे रहे. पूरी रात आंखों में कट गई.

दूसरे दिन सुबह चढ़ी. देर तक कौलेबैल बजती रही. मगर श्रीकांत ने दरवाजा नहीं खोला. बाहर उन की खुशी का सामान बिखरा पड़ा था और भीतर उन का अकेलापन. बुढ़ापे की बेबसी ने अकेलापन चुन लिया था. फिर शाम भी ढली. बेटाबहू काम से खिलखिलाते हुए लौटे और दोनों अजनबी सी नजरें श्रीकांत पर उड़ेल, कमरों में ओझल हो गए.

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