कायरता का प्रायश्चित्त: भाग 2

रूपाली के इस आग्रह को मिताली टाल न सकी और उस के साथ चल दी.

रूपाली को उस की दोस्त के घर छोड़ कर मिहिर ने एक रेस्तरां के सामने गाड़ी रोक दी और मिताली से बोला, ‘चलो, कौफी पी कर घर चलेंगे.’

‘मिहिर, देर हो जाएगी और अभी मुझे अपनी फ्रैंड के घर भी जाना है.’

‘मिताली, ज्यादा देर नहीं लगेगी. प्लीज, चलो न.’

मिहिर के इस आग्रह को मिताली मान गई.

दोनों कोने की एक खाली टेबल पर आ कर बैठ गए.

मिहिर यह सोच कर अपने दिल की बात नहीं कह पा रहा था कि यह उन दोनों की दूसरी मुलाकात है और मिताली कहीं उसे सड़क छाप आशिक न समझ ले.

‘मिहिर, आप ने वह ब्रैसलेट रूपाली को नहीं दिया?’ मिताली सहज ही बोली.

‘मिताली,’ मिहिर बोला, ‘मैं ने वह ब्रैसलेट और ताजमहल उस लड़की के लिए खरीदा है जिसे मैं बहुत प्यार करता हूं और शादी भी करना चाहता हूं. पर…’

‘पर क्या, मिहिर?’

‘पर मिताली, वह मुझे प्यार करती है या नहीं? यह मैं नहीं जानता.’

‘तो क्या अभी तक आप ने अपने दिल की बात उस लड़की से नहीं कही?’ मिताली ने कौफी का आखिरी घूंट भरते हुए पूछा.

‘नहीं, डरता हूं, कहीं वह नाराज न हो जाए. वैसे तुम बताओ मिताली, क्या वह लड़की मेरा प्रेम स्वीकार कर लेगी?’

‘मैं क्या बताऊं मिहिर, पता नहीं उस लड़की के दिल में आप के प्रति क्या है? अच्छा, अब हमें चलना चाहिए,’ मिताली उठ खड़ी हुई.

मिहिर ने मिताली को उस के घर छोड़ दिया और जब तक वह अंदर नहीं चली गई तब तक उसे देखता रहा.

दूसरे दिन मिताली से मिलने मिहिर उस के घर गया तो पता चला कि वह अपनी सहेलियों के साथ सुबह ही एक हफ्ते के लिए शिमला घूमने गई है. मिहिर निराश लौट आया.

मिताली के वापस आने से पहले ही मिहिर की छुट्टियां समाप्त हो गईं और वह वापस होस्टल चला आया. अब मिहिर जब भी खाली होता, उस के कानों में मिताली की खनकती हंसी गूंजती रहती. वह यह सोच कर अपने मन को समझा लेता कि इस बार घर लौटेगा तो अपने दिल की बात मिताली से जरूर कह देगा.

इंतजार की घड़ी कितनी ही लंबी हो खत्म होती ही है. आखिर मिहिर की परीक्षाएं समाप्त हो गईं और उसी दिन वह घर के लिए चल पड़ा.

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मिहिर जब घर पहुंचा तो शाम का धुंधलका छाने लगा था. उसे देख रूपाली खुश होती हुई बोली, ‘भैया, आप बड़े ही ठीक मौके पर आए हैं. मुझे मिताली के घर तक जाना है, आप गाड़ी से छोड़ देंगे क्या?’

मिताली का नाम सुनते ही मिहिर के शरीर में बिजली सी दौड़ गई. वह बोला, ‘हां, मैं थका नहीं हूं. बस, एक कप कौफी पी कर चलता हूं.’

रूपाली को कौफी लाने के लिए बोल कर मिहिर तैयार होने चला गया. तैयार होते समय वह मन ही मन सोच रहा था कि आज वह मिताली से अपने प्यार का इजहार कर ही देगा. चलते वक्त उस ने वह ताजमहल और ब्रैसलेट भी ले लिया जो वह संभाल कर घर में रख गया था.

रास्ते भर रूपाली मिहिर से उस के दोस्तों और होस्टल के बारे में बातें करती रही. मिहिर भी उस के हर सवाल का जवाब दे रहा था.

मिताली का घर बिजली की रंगबिरंगी झालरों से जगमगाता देख कर मिहिर ने छोटी बहन से पूछा, ‘रूपाली, क्या आज मिताली के घर कोई फंक्शन है?’

‘हां, भैया, मैं तो आप को बताना ही भूल गई कि आज मिताली की सगाई है,’ कह कर रूपाली गाड़ी से उतर कर आगे बढ़ गई और जातेजाते कह गई कि गाड़ी पार्क कर आप भी आ जाना.

मिहिर को लगा जैसे उस की आंखों के आगे अंधेरा छा रहा है. वह वहां ठहर न सका और उसी क्षण वापस लौट आया. उस के तमाम सपने शीशे की तरह टूट गए थे जो लगभग एक साल से मिताली को ले कर देखता आया था.

मिहिर ने अंत में वह शहर छोड़ने का फैसला कर लिया. उस के डैडी ने समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन मिहिर को वह शहर हर पल शूल की तरह चुभता था. अत: उस ने कानपुर छोड़ कर इस शहर में आ कर अपनी प्रैक्टिस जमाई.

‘‘साहब, खाना तैयार है, लगा दूं?’’ हरिया ने आ कर उस से पूछा तो मिहिर की तंद्रा भंग हुई और वह जैसे सपने से जाग गया.

‘‘नहीं, मुझे भूख नहीं है. तुम खा लो. हां, मेरे लिए बस, एक कप कौफी भर बना देना,’’ इतना कह कर डा. मिहिर उठे और कंप्यूटर खोल कर कुछ काम करने लगे.

अगले दिन रिपोर्ट ले कर मिताली व नवीन उस के क्लीनिक पर आए. रिपोर्ट देख कर उस ने बता दिया कि कोई गंभीर बीमारी नहीं है और दवाइयों का परचा लिख कर उन्हें दे दिया. जाते समय मिताली व नवीन मिहिर को अपने घर आने का निमंत्रण दे गए.

मिहिर के इलाज से नवीन ठीक हो रहा था. पति को ठीक होता देख कर मिताली भी अब पहले की तरह खिलीखिली रहने लगी थी. उसे खुश देख कर मिहिर को एक अजीब सी संतुष्टि का एहसास होता.

मिताली व नवीन कई बार मिहिर से घर आने को कह चुके थे. एक दिन वह उधर से निकल रहा था तो सोचा, चलो आज मिताली से ही मिल लें और बिना किसी पूर्व सूचना के मिताली के घर पहुंच गया. नवीन और मिताली अभी आफिस से नहीं लौटे थे. घर पर आया थी. अत: मिहिर ड्राइंगरूम में बैठ कर उन की प्रतीक्षा करने लगा.

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बैठेबैठे मिहिर बोर होने लगा तो टेबल पर रखी पत्रपत्रिकाएं ही उलटने- पलटने लगा. तभी उस की नजर एक डायरी पर पड़ी और वह उस डायरी  को उठा कर देखने लगा.

डायरी के पहले पन्ने पर ‘मिताली’ लिखा देख कर मिहिर के मन में उत्सुकता जागी और वह अंदर के पन्नों को खोल कर पढ़ने लगा. एक पृष्ठ पर लिखा था :

‘मैं ने मिहिर के बारे में सुना था. आज रानी के जन्मदिन की पार्टी में उस से मुलाकात भी हो गई. मैं ने अपने जीवनसाथी की जो कल्पना की थी उस पर मिहिर बिलकुल खरा उतरता है.’

कुछ पन्नों को छोड़ कर फिर लिखा था :

‘आज मैं मिहिर से दूसरी बार मिली. बातों में पता चला कि वह किसी और लड़की से प्यार करता है जिस के लिए उस ने आज ही प्यारा सा ताजमहल व ब्रैसलेट खरीदा है. कितनी नसीब वाली होगी वह लड़की जिसे मिहिर प्यार करता है…’

मिहिर आश्चर्यचकित रह गया. तो क्या मिताली भी उसे चाहती थी? खैर, इस में अब संदेह ही कहां था? उस की कायरता का नतीजा मिताली को और उसे भी भुगतना पड़ रहा है.

डायरी जहां से उठाई थी वहीं रख कर मिहिर आंखें बंद किए सोचता रहा कि यदि उस दिन रेस्तरां में हिम्मत कर मिताली से प्यार का इजहार कर दिया होता तो आज उसे अकेलेपन का विषाद तो नहीं झेलना पड़ता.

‘‘अरे, मिहिर आप. अचानक बिना पूर्व सूचना दिए?’’ मिताली कमरे में घुसती हुई बोली.

‘‘मिताली, मैं ने सोचा अचानक, बिना पहले से बताए तुम्हारे घर आ कर तुम्हें चौंका दूं. क्यों, कैसा लगा मेरा यह आइडिया?’’

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‘‘बहुत अच्छा डा. साहब,’’ नवीन ने कहा, ‘‘आप हमारे घर आए. यह हमारे लिए गर्व की बात है.’’

मिताली ने आया को चायनाश्ता लाने का निर्देश दिया और खुद नवीन के बगल में आ कर बैठ गई.

साहब- भाग 2: आखिर शादी के बाद दिपाली अपने पति को साहब जी क्यों कहती थी

महरू ने प्रस्ताव रखा कि वह झाड़ूपोंछा करने के साथसाथ खाना भी बना दिया करेगी, ताकि रमेश को अच्छा भोजन मिल सके.

रमेश ने पूछा, ‘‘भोजन बनेगा तो बरतन भी साफ करने होंगे. उन का अलग से कितना देना होगा?’’

हो सकता है, उसे बुरा लगा हो. कुछ पल तक वह कुछ नहीं बोली. शायद यह सोच रही हो कि इतने अपनेपन के बाद भी पैसों की बात कर रहे हैं.

रमेश ने सुधार कर अपनी बात कही, ‘‘पैसों की जरूरत तो सब को होती है. दुनिया का हर काम पैसे से होता है. फिर तुम्हारी अपनी जरूरतें, तुम्हारी बेटी की पढ़ाईलिखाई. इन सब के लिए पैसों की जरूरत तो पड़ेगी ही. मैं मुफ्त में कोई काम कराऊं, यह मुझे खुद भी अच्छा नहीं लगेगा.’’

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‘‘जो आप को देना हो, दे देना.’’

‘‘फिर भी कितना…? मुझे साफसाफ पता रहे ताकि मैं अपना बजट उस हिसाब से बना सकूं.’’

रमेश की बजट वाली बात सुन कर महरू ने कहा, ‘‘साहब, ऐसा करते हैं कि एक की जगह 3 लोगों का खाना बना लेंगे. समय और पैसे की भी बचत होगी. मैं अपने और बेटी के लिए खाना यहीं से ले जाऊंगी.’’

रमेश ने कहा, ‘‘जैसा तुम ठीक समझो.’’

इस के बाद जिस दिन महरू न आ पाती, उस की बेटी आ जाती. वह खाना बना कर रमेश को खिलाती और साफसफाई कर के अपने और मां के लिए भोजन ले जाती. रमेश को मांबेटी से लगाव सा हो गया था.

एक दिन महरू की बेटी आई. उस का चेहरा कुछ पीला सा दिख रहा था.

रमेश ने पूछा, ‘‘आज क्या हो गया मां को?’’

‘‘बाहर गई हैं. नानी बीमार हैं.’’

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद रमेश ने पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘दीपाली.’’

दीपाली धीरेधीरे झाड़ूपोंछा करने लगी. बीचबीच में उस के कराहने की आवाज से रमेश चौंक गए.

‘‘क्या बात है? क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं साहब,’’ दीपाली कराहते हुए बोली.

थोड़ी देर में आह के साथ दीपाली के गिरने की आवाज आई. रमेश भाग कर रसोईघर में गए. दीपाली जमीन पर पड़ी थी. वे घबरा गए. उन्होंने उस के माथे पर हाथ रखा. माथा गरम था. वे समझ गए कि इसे तेज बुखार है.

रमेश ने उसे अपने हाथों से उठा कर अपने ही बिस्तर पर लिटा कर अपनी चादर ओढ़ा दी. तुरंत डाक्टर को बुलाया. डाक्टर ने आ कर दीपाली को एक इंजैक्शन लगाया और कुछ दवाएं दीं.

रमेश के पास डबल बैड का एक ही बैडरूम था. दीपाली तेज बुखार में पड़ी हुई थी. वे दिनभर उस के पास बैठे रहे. उस के माथे पर ठंडे पानी की पट्टी रखते रहे. उस के लिए दलिया बनाया. उस के चेहरे को देखते रहे.

रमेश के मन में मोहमाया के फल खिलने लगे. सालों से बंद दिल के दरवाजे खुलने लगे. रेगिस्तान में बारिश होने लगी. जब उस के प्रति उन का लगाव जयादा होने लगा तो वे वहां से हट गए. लेकिन उस की चिंता उन्हें फिर खींच कर उस के पास ले आती.

रमेश ने अपनेआप को संभाला और डबल बैड के दूसरी ओर चादर ओढ़ कर खुद भी सो गए.

दीपाली तेज बुखार में तपती ‘मांमां’ बड़बड़ाने लगी. उस की आवाज से रमेश की नींद खुल गई. वे उस के पास पहुंचे और उस के माथे पर हाथ रख कर उसे बच्चे की तरह सहलाने लगे.

तभी दीपाली का चेहरा रमेश के सीने में जा धंसा. उस का एक पैर उन के पैर पर था. वह ऐसे निश्चिंत थी, मानो मां से लिपट कर सो रही हो.

रमेश की हालत कुछ खराब थी. आखिर उन की इतनी उम्र भी नहीं हुई थी कि 16 साल की लड़की उन की देह में दौड़ते खून का दौरा न बढ़ाए.

रमेश के शरीर में हवस की चींटियां रेंगने लगीं. अच्छी तो वह उन्हें पहले भी लगती थी, लेकिन प्यार की नजर से कभी नहीं देखा था. लेकिन आज जब इस तनहाई में एक कमरे में एक बिस्तर पर एक 16 साल की सुंदरी रमेश से लिपट कर सो रही थी, तो मन में बुरे विचार आना लाजिमी था.

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रमेश उसे लिपटाए नींद की गोद में समा गए. सुबह जब उन की नींद खुली तो दीपाली बिस्तर पर नहीं थी. रमेश ने आवाज दी तो वह हाथ में झाड़ू लिए सामने आ गई.

‘‘क्या कर रही हो?’’

‘‘झाड़ू लगा रही हूं.’’

‘‘तुम्हें आराम की जरूरत है.’’

‘‘मैं अब ठीक हूं.’’

रमेश ने उसे पास बुला कर उस के माथे पर हाथ रखा. बुखार उतर चुका था.

‘‘अभी 2 दिन की दवा लेनी और बाकी है. अगर दवा पूरी नहीं ली, तो बुखार फिर से आ सकता है.’’

‘‘जी,’’ कह कर दीपाली काम में लग गई.

कभी ऐसा होता है कि मरीज पहली खुराक में ही ठीक हो जाता है, फिर इस में स्नेह भी काम करता है.

‘‘साहब, खाना लगा दिया है,’’ जब दीपाली ने यह कहा तो रमेश खाने की टेबल पर पहुंच गए. उन्होंने कहा, ‘‘तुम्हारी मां तो है नहीं. तुम भी यहीं खाना खा लो.’’

‘‘मैं बाद में खा लूंगी,’’ दीपाली ने शरमाते हुए कहा.

‘‘क्यों… कल तो मुझ से लिपटी थी. अब साथ में खाना खाने में शर्म आ रही है…’’

परख- भाग 1: प्यार व जनून के बीच थी मुग्धा

मुग्धा कैंटीन में कोल्डड्रिंक और सैंडविच लेने के लिए लाइन में खड़ी थी कि अचानक कंधे पर किसी का स्पर्श पा कर यह चौंक कर पलटी तो पीछे प्रसाद खड़ा मुसकरा रहा था.

‘‘तुम?’’ मुग्धा के मुख से अनायास ही निकला.

‘‘हां मैं, तुम्हारा प्रसाद. पर तुम यहां क्या कर रही हो?’’ प्रसाद ने मुसकराते हुए प्रश्न किया.

‘‘जोर से भूख लगी थी, सोचा एक सैंडविच ले कर कैब में बैठ कर खाऊंगी,’’ मुग्धा हिचकिचाते हुए बोली.

‘‘चलो, मेरे साथ, कहीं बैठ कर चैन से कुछ खाएंगे,’’ प्रसाद ने बड़े अपनेपन से उस का हाथ पकड़ कर खींचा.

‘‘नहीं, मेरी कैब चली जाएगी. फिर कभी,’’ मुग्धा ने पीछा छुड़ाना चाहा.

‘‘कैब चली भी गई तो क्या? मैं छोड़ दूंगा तुम्हें,’’ प्रसाद हंसा.

‘‘नहीं, आज नहीं. मैं जरा जल्दी में हूं. मां के साथ जरूरी काम से जाना है,’’ मुग्धा अपनी बारी आने पर सैंडविच और कोल्डड्रिंक लेते हुए बोली. उसे अचानक ही कुछ याद आ गया था.

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‘‘क्या समझूं मैं? अभी तक नाराज हो?’’ प्रसाद ने उलाहना दिया.

‘‘नाराज? इतने लंबे अंतराल के बाद तुम्हें देख कर कैसा लग रहा है, कह नहीं सकती मैं. वैसे हमारी भावनाएं भी सदा एकजैसी कहां रहती हैं. वे भी तो परिवर्तित होती रहती हैं. ठीक है, फिर मिलेंगे. पर इतने समय बाद तुम से मिल कर अच्छा लगा,’’ मुग्धा पार्किंग में खड़ी कैब की तरफ भागी.

कैब में वह आंखें मूंदे स्तब्ध बैठी रही. समझ में नहीं आया कि यह सच था या सपना. 3 वर्ष बाद प्रसाद कहां से अचानक प्रकट हो गया और ऐसा व्यवहार कर रहा था मानो कुछ हुआ ही नहीं. हर एक घटना उस की आंखों के सामने जीवंत हो उठी थी. कितना जीजान से उस ने प्रसाद को चाहा था. उस का पूरा जीवन प्रसादमय हो गया था. उस के जीवन पर मानो प्रसाद का ही अधिकार हो गया था. कोई भी काम करने से पहले उस की अनुमति जरूरी थी. घरबाहर सभी मानते थे कि वे दोनों एकदूजे के लिए ही बने थे.

उस ने भी प्रसाद के साथ अपने भावी जीवन की मोहक छवि बना रखी थी. पर एक दिन अचानक उस के सपनों का महल भरभरा कर गिर गया था. उस के कालेज के दिनों का मित्र शुभम उसे एक पार्टी में मिल गया था. दोनों पुरानी बातों को याद कर के आनंदविभोर हुए जा रहे थे. तभी प्रसाद वहां आ पहुंचा था. उस की भावभंगिमा से उस की अप्रसन्नता साफ झलक रही थी. उस की नाराजगी देख कर शुभम भी परेशान हो गया था.

‘‘प्रसाद, यह शुभम है, कालेज में हम दोनों साथ पढ़ते थे,’’ हड़बड़ाहट में उस के मुंह से निकला था.

‘‘वह तो मैं देखते ही समझ गया था. बड़ी पुरानी घनिष्ठता लगती है,’’ प्रसाद व्यंग्य से बोला था. बात बढ़ते देख कर शुभम ने विदा ली थी पर प्रसाद का क्रोध शांत नहीं हुआ था. ‘‘तुम्हें शुभम से इस तरह पेश नहीं आना चाहिए था. वह न जाने क्या सोचता होगा,’’ मुग्धा ने अपनी अप्रसन्नता प्रकट की थी.

‘‘ओह, उस की बड़ी चिंता है तुम्हें. पर तुम्हारा मंगेतर क्या सोचेगा, इस की चिंता न के बराबर है तुम्हें?’’

‘‘माफ करना अभी मंगनी हुई नहीं है हमारी. और यह भी मत भूलो कि भविष्य में होने वाली हमारी मंगनी टूट भी सकती है.’’

‘‘मंगनी तोड़ने की धमकी देती हो? तुम क्या तोड़ोगी मंगनी, मैं ही तोड़ देता हूं,’’ प्रसाद ने उसे एक थप्पड़ जड़ दिया था.

क्रोध और अपमान से मुग्धा की आंखें छलछला आई थीं. ‘‘मैं भी ईंट का जवाब पत्थर से दे सकती हूं, पर मैं व्यर्थ ही कोई तमाशा खड़ा नहीं करना चाहती.’’ मुग्धा पार्टी छोड़ कर चली गई थी.

कुछ दिनों तक दोनों में तनातनी चली थी.दोनों एकदूसरे को देखते ही मुंह फेर लेते. मुग्धा प्रतीक्षा करती रही कि कभी तो प्रसाद उस से क्षमा मांग कर उसे मना लेगा

पर वह दिन कभी नहीं आया. फिर अचानक ही प्रसाद गायब हो गया. मुग्धा ने उसे ढूंढ़ने में दिनरात एक कर दिए पर कुछ पता नहीं चला. दोनों के सांझा मित्र उसे दिलासा देते कि स्वयं ही लौट आएगा. पर मुग्धा को भला कहां चैन था.

धीरेधीरे मुग्धा सब समझ गई थी. प्रसाद केवल प्यार का दिखावा करता था. सच तो यह था कि प्रसाद के लिए अपने अहं के आगे किसी की भावना का कोई महत्त्व था ही नहीं. पर धीरेधीरे परतें खुलने लगी थीं. वह अपनी नौकरी छोड़ गया था. सुना है अपने किसी मित्र के साथ मिल कर उस ने कंपनी बना ली थी. लंबे समय तक वह विक्षिप्त सी रही थी. उसे न खानेपीने का होश था न ही पहननेओढ़ने का. यंत्रवत वह औफिस जाती और लौट कर अपनी ही दुनिया में खो जाती. उस के परिवार ने संभाल लिया था उसे.

‘कब तक उस का नाम ले कर रोती रहेगी बेटे? जीवन के संघर्ष के लिए स्वयं को तैयार कर. यहां कोई किसी का नहीं होता. सभी संबंध स्वार्थ पर आधारित हैं,’ उस की मां चंदा गहरी सांस ले कर बोली थीं.

‘मैं तो कहता हूं कि अच्छा ही हुआ जो वह स्वयं ही भाग गया वरना तेरा जीवन दुखमय बना देता,’ पापा अपने चिरपरिचित अंदाज में बोले थे.

‘जी पापा.’ वह केवल स्वीकृति में सिर हिलाने के अतिरिक्त कुछ नहीं बोल पाई थी.

‘तो ठीक है. तुम ने अपने मन की कर के देख ली. एक बार हमारी बात मान कर तो देख लो. तुम्हारे सपनों का राजकुमार ला कर सामने खड़ा कर देंगे.’

‘उस की आवश्यकता नहीं है, पापा. मुझे शादी की कोई जल्दी भी नहीं है. कोई अपनी पसंद का मिल गया तो ठीक है वरना मैं जैसी हूं, ठीक हूं.’

‘सुना तुम ने? यह है इस का इरादा. अरे, समझाओ इसे. हम सदा नहीं बैठे रहेंगे,’ उस की मां चंदा बदहवास सी बोलीं.

‘मां, इतना परेशान होने की आवश्यकता नहीं है. मेरे घर आते ही आप दोनों एक ही राग ले कर बैठ जाते हो. मैं तो सोचती हूं, कहीं और जा कर रहने लगूं.’

‘बस, यही कमी रह गई है. रिश्तेदारी में सब मजाक उड़ाते हैं पर तुम इस की चिंता क्यों करने लगीं,’ मां रो पड़ी थीं.

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‘मां, क्यों बात का बतंगड़ बनाती हो. जीवन में समस्याएं आती रहती हैं. समय आने पर उन का हल भी निकल आता है,’ मुग्धा ने धीरज बंधाया.

पता नहीं हमारी समस्या का हल कब निकलेगा. मुझे तो लगता है तुम्हें उच्चशिक्षा दिला कर ही हम ने गलती की है. तुम्हारी बड़ी बहनों रिंकी और विभा के विवाह इतनी सरलता से हो गए पर तुम्हारे लिए हमें नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं. विभा कल ही आई थी, तुम औफिस में थीं, इसलिए मुझ से ही बात कर के चली गई. उस का देवर परख इंगलैंड से लौट आया है. अर्थशास्त्र में पीएचडी कर के किसी बैंक में बड़ा अफसर बन गया है. तुम्हारे बारे में पूछताछ कर रहा था. तुम कहो तो बात चलाएं.’

तेरा मेरा साथ: भाग 3

‘‘आप… आप क्यों ?ाड़ू लगा रहे हैं…’’ पाखी बोल ही रही थी कि अरुण बोल पड़ा, ‘‘अरे, वह अचानक लौकडाउन हो गया न, इसलिए कोई कामवाली काम करने नहीं आएगी. अब तो अपना हाथ जगन्नाथ,’’ इतना कहने के साथ ही अरुण के चेहरे पर सहज मुसकान आ गई. कितना बदल गया है इन सालों में सबकुछ.

जिस अरुण को औफिस के कामों, मम्मीजी को पूजापाठ और पापाजी को अखबार से फुरसत नहीं मिलती थी, आज वक्त ने सबकुछ सिखा दिया था. पाखी के लिए समय काटना मुश्किल हो रहा था.

मम्मीजी ने शुरूशुरू में पाखी के चौके में घुसने पर नाकभौं सिकोड़ी. पर अरुण के सख्त चेहरे और हालात के आगे वे ढीली पड़ गईं.

शुरूशुरू में रिश्तेदारों के फोन आते रहते और घर बैठेबैठे आग में घी डालने का काम करते रहते, पर जैसेजैसे लौकडाउन की समयसीमा खिसकती रही, उन के फोन आने बंद हो गए.

पाखी ने घर की सारी जिम्मेदारी संभाल ली

पाखी ने घर की सारी जिम्मेदारी संभाल ली. उसे देख कर लगता ही नहीं था कि वह इस घर से कभी गई भी थी. पापा की नीबू वाली चाय, मम्मीजी की बिना चीनी वाली चाय और अरुण की चीनी कम ज्यादा दूध वाली चाय… आज भी उसे याद थी.

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पर, इन बीते सालों में एकएक कर के बहुत बड़ा बदलाव आया था. जो पाखी अकेले दिनभर घर के कामों में जू?ाती रहती थी, आज हर आदमी उस की मदद के लिए तैयार था.

मम्मीजी सब्जी काट कर दे देतीं, तो अरुण धुले कपड़ों को फैलाने व तह लगाने में उस की मदद कर देता. बच्चे दिनभर बाबा और दादी की रट लगाए रहते. अरुण को लगा मानो उस के घर की खुशियां वापस लौट आई हों.

लौकडाउन की तारीख बारबार बढ़ रही थी. सब बहुत परेशान थे, पर अरुण और पाखी के सूखते रिश्ते को मानो नई जिंदगी मिल गई थी. सब लोग ड्राइंगरूम में समाचार देख रहे थे… ‘कोरोना की व्यापकता को देखते हुए पूरे देश को कई जोन में बांट दिया गया है. लौकडाउन में कुछ छूट दी जाएगी. कल से कुछ जरूरी दुकानें और प्रतिष्ठान कुछ नियमों के साथ खुलेंगे. पर अभी भी सावधानी बरतने की जरूरत है.’

‘‘मां, हमलोगों का शहर किस जोन में आएगा?’’ चीकू ने पूछा, तो पाखी ने बताया, ‘‘ग्रीन.’’

‘‘मां, तो क्या अब हम वापस अपने घर जाएंगे. अब हम पापा के साथ नहीं रहेंगे?’’ चीकू की बात सुन कर सब सकते में आ गए. किसी के पास कोई जवाब नहीं था.

पाखी ने धीरेधीरे अपना सामान समेटना शुरू किया. पता नहीं क्यों उस का मन आज भारी हो रहा था. पर किस हक से वह यहां रुक सकती है. न जाने कितने सवाल उस के मन में घूम रहे थे. बच्चे उदास मन से गाड़ी में जा कर बैठ गए.

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अरुण को सम?ा नहीं आ रहा था कि वह पाखी से क्या कहे. इन बीते दिनों में दोनों ने एकदूसरे को जितना करीब से सम?ा था, उतना तो पहले भी नहीं जानते थे. पाखी के कान भी न जाने क्या सुनने को उतावले से थे. एक बार, बस, एक बार तो कह कर देखो.

अरुण की आंखों से आंसू बह रहे थे

अरुण के शब्द लड़खड़ा रहे थे, ‘‘पाखी… पाखी, क्या ऐसा नहीं हो सकता, तुम हमेशा के लिए यहीं रुक जाओ?’’

अरुण की आंखों से आंसू बह रहे थे, पछतावे के आंसू, उम्मीद के आंसू. पाखी, बस, यही तो सुनना चाहती थी. कितने साल लगा दिए अरुण ने यह कहने के लिए.

पाखी की आंखों से भी आंसू बह रहे थे. उस ने अपने आंसुओं को आंचल में समेटा, ‘‘अरुण, बहुत देर हो रही है मु?ो… मु?ो अब जाने दीजिए हमेशा के लिए लौट आने के लिए.’’

दोनों की आंखें आंसुओं से भरी थीं. ये आंसू खुशी के थे. कोरोना ने न जाने कितनों की गोद उजाड़ी, कितनों का सुहाग छीना, पर आज किसी के घर की खुशियों की वजह भी कोरोना ही बना था.

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अटूट बंधन- भाग 1: प्रकाश ने कैसी लड़की का हाथ थामा

बारिश थी कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी. आधे घंटे से लगातार हो रही थी. 1 घंटा पहले जब वे दोनों रैस्टोरैंट में आए थे, तब तो मौसम बिलकुल साफ था. फिर यह अचानक बिन मौसम की बरसात कैसी? खैर, यह इस शहर के लिए कोई नई बात तो नहीं थी परंतु फिर भी आज की बारिश में कुछ ऐसी बात थी, जो उन दोनों के बोझिल मन को भिगो रही थी. दोनों के हलक तक कुछ शब्द आते, लेकिन होंठों तक आने का साहस न जुटा पा रहे थे.

घंटे भर से एकाध आवश्यक संवाद के अलावा और कोई बात संभव नहीं हो पाई थी. कौफी पहले ही खत्म हो चुकी थी. वेटर प्याले और दूसरे बरतन ले जा चुका था. परंतु उन्होंने अभी तक बिल नहीं मंगवाया था. मौन इतना गहरा था कि दोनों सहमे हुए स्कूली बच्चों की तरह उसे तोड़ने से डर रहे थे. प्रकाश त्रिशा के बुझे चेहरे के भावों को पढ़ने की कोशिश करता पर अगले ही पल सहम कर अपनी पलकें झुका लेता. कितनी बड़ीबड़ी और गहरी आंखें थीं त्रिशा की. त्रिशा कुछ कहे न कहे, उस की आंखें सब कह देती थीं.

इतनी उदासी आज से पहले प्रकाश ने इन आंखों में कभी नहीं देखी थी. ‘क्या सचमुच मैं ने इतनी बड़ी गलती कर दी, पर इस में आखिर गलत क्या है?’ प्रकाश का मन इस उधेड़बुन में लगा हुआ था. ‘होश वालों को खबर क्या, बेखुदी क्या चीज है…’ दोनों की पसंदीदा यह गजल धीमी आवाज में चल रही थी. कोई दिन होता तो दोनों इस के साथसाथ गुनगुनाना शुरू कर देते पर आज…

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आखिरकार त्रिशा ने ही बात शुरू करनी चाही. उस के होंठ कुछ फड़फड़ाए, ‘‘तुम…’’ ‘‘तुम कुछ पूछना चाहती हो?’’ प्रकाश ने पूछ ही लिया.

‘‘हां, कल तुम्हारा टैक्स्ट मैसेज पढ़ कर मैं बहुत हैरान हुई.’’ ‘‘जानता हूं पर इस में हैरानी की क्या बात है?’’

‘‘पर सबकुछ जानते हुए भी तुम यह सब कैसे सोच सकते हो, प्रकाश?’’ इस बार त्रिशा की आवाज पहले से ज्यादा ऊंची थी. प्रकाश बिना कुछ जवाब दिए फर्श की तरफ देखने लगा.

‘‘देखो, मुझे तुम्हारा जवाब चाहिए. क्या है यह सब?’’ त्रिशा ने उखड़ी हुई आवाज से पूछा. ‘‘जो मैं महसूस करने लगा हूं और जो मेरे दिल में है, उसे मैं ने जाहिर कर दिया और कुछ नहीं. अगर तुम्हें बुरा लगा हो तो मुझे माफ कर दो, लेकिन मैं ने जो कहा है उस पर गौर करो.’’ प्रकाश रुकरुक कर बोल रहा था, लेकिन वह यह भी जानता था कि त्रिशा अपने फैसले पर अटल रहने वाली लड़की है.

पिछले 3 वर्षों से जानता है उसे वह, फिर भी न जाने कैसे साहस कर बैठा. पर शायद प्रकाश उस का मन बदल पाए. त्रिशा अचानक खड़ी हो गई. ‘‘हमें चलना चाहिए. तुम बिल मंगवा लो.’’

बिल अदा कर के प्रकाश ने त्रिशा का हाथ पकड़ा और दोनों बाहर चले आए. बारिश धीमी हो चुकी थी. बूंदाबांदी भर हो रही थी. प्रकाश बड़ी सावधानी से त्रिशा को कीचड़ से बचाते हुए गाड़ी तक ले आया.

त्रिशा और प्रकाश पिछले 3 वर्ष से बेंगलरु की एक प्रतिष्ठित मल्टीनैशनल कंपनी में कार्य करते थे. त्रिशा की आंखों की रोशनी बचपन से ही जाती रही थी. अब वह बिलकुल नहीं देख सकती थी. यही वजह थी कि उसे पढ़नेलिखने व नौकरी हासिल करने में हमेशा बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ा था. पर यहां प्रकाश और दूसरे कई सहकर्मियों व दोस्तों को पा कर वह खुद को पूरा महसूस करने लगी थी.

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वह तो भूल ही गई थी कि उस में कोई कमी है. वैसे भी उस को देख कर कोई यह अनुमान ही नहीं लगा सकता था कि वह देख नहीं सकती. उस का व्यक्तित्व जितना आकर्षक था, स्वभाव भी उतना ही अच्छा था. वह बेहद हंसमुख और मिलनसार लड़की थी. वह मूलतया दिल्ली की रहने वाली थी. बेंगलुरु में वह एक वर्किंग वुमेन होस्टल में रह रही थी. प्रकाश अपने 2 दोस्तों के साथ शेयरिंग वाले किराए के फ्लैट में रहता था. प्रकाश का फ्लैट त्रिशा के होस्टल से आधे किलोमीटर की दूरी पर ही था.

रोजाना त्रिशा जब होस्टल लौटती तो प्रकाश कुछ न कुछ ऐसी हंसीमजाक की बात कर देता, जिस कारण त्रिशा होस्टल आ कर भी उस बात को याद करकर के देर तक हंसती रहती. परंतु आज जब प्रकाश उसे होस्टल छोड़ने आया तो दोनों में से किसी ने भी कोई बात नहीं की. होस्टल आते ही त्रिशा चुपचाप उतर गई. उस का सिर दर्द से फटा जा रहा था. तबीयत कुछ ठीक नहीं मालूम होती थी.

डिनर के वक्त उस की सहेलियों ने महसूस किया कि आज वह कुछ अनमनी सी है. सो, डिनर के बाद उस की रूममेट और सब से अच्छी सहेली शालिनी ने पूछा, ‘‘क्या बात है त्रिशा, आज तुम्हें आने में देरी क्यों हो गई? सब ठीक तो है न.’’ ‘‘हां, बिलकुल ठीक है. बस, आज औफिस में काम कुछ ज्यादा था,’’ त्रिशा ने जवाब तो दिया पर आज उस के बात करने में रोज जैसी आत्मीयता नहीं थी.

तुमने क्यों कहा मैं सुंदर हूं: भाग 2

इस घटना के कुछ दिनों बाद शाम को मैं औफिस से घर लौटा तो वकील साहिबा मेरे घर पर मौजूद थीं और बेटियों से खूब घुममिल कर बातचीत कर रही थीं. मेरे पहुंचने पर बेटी ने चाय बनाई तो पहले तो उन्होंने थोड़ी देर पहले ही चाय पी है का हवाला दिया, मगर मेरे साथ चाय पीने की अपील को सम्मान देते हुए चाय पीतेपीते उन्होंने बेटियों से बड़ी मोहब्बत से बात करते हुए कहा, ‘देखो बेटी, मैं और तुम्हारी मम्मी एक ही शहर से हैं और एक ही कालेज में सहपाठी रही हैं, इसलिए तुम मुझे आंटी नहीं, मौसी कह कर बुलाओगी तो मुझे अच्छा लगेगा.

‘‘अब जब भी मुझे टाइम मिलेगा, मैं तुम लोगों से मिलने आया करूंगी. तुम लोगों को कोई परेशानी तो नहीं होगी?’ कह कर उन्होंने प्यार से बेटियों की ओर देखा, तो दोनों एकसाथ बोल पड़ीं, ‘अरे मौसी, आप के आने से हमें परेशानी क्यों होगी, हमें तो अच्छा लगेगा, आप आया करिए. आप ने तो देख ही लिया, मम्मी तो अभी बातचीत करना तो दूर, ठीक से बोलने की हालत में भी नहीं हैं. वैसे भी वे दवाइयों के असर में आधी बेहोश सी सोई ही रहती हैं. हम तो घर में रहते हुए किसी अपने से बात करने को तरसते ही रहते हैं और हो सकता है कि आप के आतेजाते रहने से फिल्मों की तरह आप को देख कर मम्मी को अपना कालेज जीवन ही याद आ जाए और वे डिप्रैशन से उबर सकें.’

‘‘मनोचिकित्सक भी ऐसी किसी संभावना से इनकार तो नहीं करते हैं. अपनी बेटियों के साथ उन का संवाद सुन कर मुझे उन के एकदम घर आ जाने से उपजी आशंकापूर्ण उत्सुकता एक सुखद उम्मीद में परिणित हो गई और मुझे काफी अच्छा लगा.

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‘‘इस के बाद 3-4 दिनों तक मेरा उन से मिलना नहीं हो पाया. उस दिन शाम को औफिस से घर के लिए निकल ही रहा था कि उन का फोन आया. फोन पर उन्होंने मुझे शाम को अपने औफिस में आने को कहा तो थोड़ा अजीब तो लगा मगर उन के बुलावे की अनदेखी भी नहीं कर सका.

‘‘उन के औफिस में वे आज भी बेहद सलीके से सजी हुई और किसी का इंतजार करती हुई जैसी ही मिलीं. तो मैं ने पूछ ही लिया कि वे कहीं जा रही हैं या कोई खास मेहमान आने वाला है?

‘‘मेरा सवाल सुन कर वे बोलीं, ‘आप बारबार यही अंदाजा क्यों लगाते हैं.’ यह कह कर थोड़ी देर मुझे एकटक देखती रहीं, फिर एकदम बुझे स्वर में बोलीं, ‘मेरे पास अब कोई नहीं आने वाला है. वैसे आएगा भी कौन? जो आया था, जिस ने इस मन के द्वार पर दस्तक दी थी, मैं ने तो उस की दस्तक को अनसुना ही नहीं किया था, पता नहीं किस जनून में उस के लिए मन का दरवाजा ही बंद कर दिया था. उस के बाद किसी ने मन के द्वार पर दस्तक दी ही नहीं.

‘‘आज याद करती हूं तो लगता है कि वह पल तो जीवन में वसंत जैसा मादक और उसी की खुशबू से महकता जैसा था. मगर मैं न तो उस वसंत को महसूस कर पाई थी, न उस महकते पल की खुशबू का आनंद ही महसूस कर सकी थी,’ यह कह कर वे खामोश हो गईं.

‘‘थोड़ी देर यों ही मौन पसरा रहा हमारे बीच. फिर मैं ने ही मौन भंग किया, ‘मगर आप के परिवारजन, मेरा मतलब भाई वगैरह, तो आतेजाते होंगे.’ मेरी बात सुन कर थोड़ी देर वे खामोश रहीं, फिर बोलीं, ‘मातापिता तो रहे नहीं. भाइयों के अपनेअपने घरपरिवार हैं. उन में उन की खुद की व्यस्तताएं हैं. उन के पास समय कहां है?’ कहते हुए वे काफी निराश और भावुक होने लगीं तो मैं ने उन की टेबल पर रखे पानी के गिलास को उन की ओर बढ़ाया और बोला, ‘आप थोड़ा पानी पी लीजिए.’

‘‘मेरी बात सुन कर भी वे खामोश सी ही बैठी रहीं तो मैं गिलास ले कर उन की ओर बढ़ा और उन की कुरसी की बगल में खड़ा हो कर उन्हें पानी पिलाने के लिए गिलास उन की ओर बढ़ाया. तो उन्होंने मुझे बेहद असहाय नजर से देखा तो सहानुभूति के साथ मैं ने अपना एक हाथ उन के कंधे पर रख कर गिलास उन के मुंह से लगाना चाहा. उन्होंने मेरे गिलास वाले हाथ को कस कर पकड़ लिया. तब मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ, और मैं ने सौरी बोलते हुए अपना हाथ खींचने की कोशिश की.

‘‘मगर उन्होंने तो मेरे गिलास वाले हाथ पर ही अपना सिर टिका दिया और सुबकने लगीं. मैं ने गिलास को टेबल पर रख दिया, उन के कंधे को थपथपाया. पत्नी की लंबी बीमारी के चलते काफी दिनों के बाद किसी महिला के जिस्म को छूने व सहलाने का मौका मिला था, मगर उन से परिचय होने के कम ही वक्त और अपने सरकारी पद का ध्यान रखते हुए मैं शालीनता की सीमा में ही बंधा रहा.

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‘‘थोड़ी देर में उन्हें सुकून महसूस हुआ तो मैं ने कहा, ‘आई एम सौरी वकील साहिबा, मगर आप को छूने की मजबूरी हो गई थी.’ सुन कर वे बोलीं, ‘आप क्यों अफसोस जता रहे हैं, गलती मेरी थी जो मैं एकदम इस कदर भावुक हो गई.’ कह कर थोड़ी देर को चुप हो गईं, फिर बोलीं, ‘आप से एक बात कहना चाहती हूं. आप ‘मैं जवान हूं, मैं सुंदर हूं’ कह कर मेरी झूठी तारीफ कर के मुझे यों ही बांस पर मत चढ़ाया करिए.’ यह कहते हुए वे एकदम सामान्य लगने लगीं, तो मैं ने चैन की सांस ली.

‘‘उस दिन के बाद मेरा आकर्षण उन की तरफ खुद ही बढ़ने लगा. कोर्ट से लौटते समय वे अकसर मेरी बेटियों से मिलने घर आ जाती थीं. फिर घर पर साथ चाय पीते हुए किसी केस के बारे में बात करते हुए बाकी बातें फाइल देख कर सोचने के बहाने मैं लगभग रोज शाम को ही उन के घर जाने लगा.

पत्नी की मानसिक अस्वस्थता के चलते उन से शारीरिक रूप से लंबे समय से दूर रहने से उपजी खीझ से तल्ख जिंदगी में एक समवयस्क महिला के साथ कुछ पल गुजारने का अवसर मुझे खुशी का एहसास देने लगा.

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प्रेम ऋण- भाग 1: पारुल अपनी बहन को क्यों बदलना चाहती थी?

‘‘दी  दी, आप की बात पूरी हो गई हो तो कुछ देर के लिए फोन मुझे दे दो. मुझे तानिया से बात करनी है,’’ घड़ी में 10 बजते देख कर पारुल धैर्य खो बैठी.

‘‘लो, पकड़ो फोन, तुम्हें हमेशा आवश्यक फोन करने होते हैं. यह भी नहीं सोचा कि प्रशांत क्या सोचेंगे,’’ कुछ देर बाद अंशुल पारुल की ओर फोन फेंकते हुए तीखे स्वर में बोली.

‘‘कौन क्या सोचेगा, इस की चिंता तुम कब से करने लगीं, दीदी? वैसे मैं याद दिला दूं कि कल मेरा पहला पेपर है. तानिया को बताना है कि कल मुझे अपने स्कूटर पर साथ ले जाए,’’ पारुल फोन उठा कर तानिया का नंबर मिलाने लगी थी.

‘‘लो, मेरी बात हो गई, अब चाहे जितनी देर बातें करो, मुझे फर्क नहीं पड़ता,’’ पारुल पुन: अपनी पुस्तक में खो गई.

‘‘पर मुझे फर्क पड़ता है. मैं मम्मी से कह कर नया मोबाइल खरीदूंगी,’’ अंशुल ने फोन लौटाते हुए कहा और कमरे से बाहर चली गई.

पारुल किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहती थी. फिर भी अंशुल के क्रोध का कारण उस की समझ में नहीं आ रहा था. पिछले आधे घंटे से वह प्रशांत से बातें कर रही थी. उसे तानिया को फोन नहीं करना होता तो वह कभी उन की बातचीत में खलल नहीं डालती.

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अंशुल ने कमरे से बाहर आ कर मां को पुकारा तो पाया कि वह उस के विवाह समारोह के हिसाबकिताब में लगी हुई थीं.

‘‘मां, मुझे नया फोन चाहिए. मैं अब अपना फोन पारुल और नवीन को नहीं दे सकती,’’ वह अपनी मां सुजाता के पास जा कर बैठ गई थी.

‘‘क्या हुआ? आज फिर झगड़ने लगे तुम लोग? तेरे सामने फोन क्या चीज है. फिर भी बेटी, 1 माह भी नहीं बचा है तेरे विवाह में. क्यों व्यर्थ लड़तेझगड़ते रहते हो तुम लोग? बाद में एकदूसरे की सूरत देखने को तरस जाओगे,’’ सुजाता ने अंशुल को शांत करने की कोशिश की.

‘‘मां, आप तो मेरा स्वभाव भली प्रकार जानती हैं. मैं तो अपनी ओर से शांत रहने का प्रयत्न करती हूं पर पारुल तो लड़ने के बहाने ढूंढ़ती रहती है,’’ अंशुल रोंआसी हो उठी.

‘‘ऐसा क्या हो गया, अंशुल? मैं तेरी आंखों में आंसू नहीं देख सकती, बेटी.’’

‘‘मां, जब भी देखो पारुल मुझे ताने देती रहती है. मेरा प्रशांत से फोन पर बातें करना तो वह सहन ही नहीं कर सकती. आज प्रशांत ने कह ही दिया कि वह मुझे नया फोन खरीद कर दे देंगे.’’

‘‘क्या कह रही है, अंशुल. लड़के वालों के समाने हमारी नाक कटवाएगी क्या? पारुल, इधर आओ,’’ उन्होंने क्रोधित स्वर में पारुल को पुकारा.

‘‘क्या है, मां? मेरी कल परीक्षा है, आप कृपया मुझे अकेला छोड़ दें,’’ पारुल झुंझला गई थी.

‘‘इतनी ही व्यस्त हो तो बारबार फोन मांग कर अंशुल को क्यों सता रही हो,’’ सुजाताजी क्रोधित स्वर में बोलीं.

‘‘मां, मुझे तानिया को जरूरी फोन करना था. मेरा और उस का परीक्षा केंद्र एक ही स्थान पर है. वह जाते समय मुझे अपने स्कूटर पर ले जाएगी,’’ पारुल ने सफाई दी.

‘‘मैं सब समझती हूं, अंशुल को अच्छा घरवर मिला है यह तुम से सहन नहीं हो रहा. ईर्ष्या से जलभुन गई हो तुम.’’

‘‘मां, यही बात आप के स्थान पर किसी और ने कही होती तो पता नहीं मैं क्या कर बैठती. फिर भी मैं एक बात साफ कर देना चाहती हूं कि मुझे प्रशांत तनिक भी पसंद नहीं आए. पता नहीं अंशुल दीदी को वह कैसे पसंद आ गए.’’

‘‘यह तुम नहीं, तुम्हारी ईर्ष्या बोल रही है. यह तो अंशुल का अप्रतिम सौंदर्य है जिस पर वह रीझ गए, वरना हमारी क्या औकात थी जो उस ओर आंख उठा कर भी देखते. तुम्हें तो वैसा सौंदर्य भी नहीं मिला है. यह साधारण रूपरंग ले कर आई हो तो घरवर भी साधारण ही मिलेगा, शायद इसी विचार ने तुम्हें परेशान कर रखा है.’’

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मां का तर्क सुन कर पारुल चित्रलिखित सी खड़ी रह गई थी कि एक मां अपनी बेटी से कैसे कह सकी ये सारी बातें. वह उन की आशा के अनुरूप अनुपम सुंदरी न सही पर है तो वह उन्हीं का अंश, उसे इस प्रकार आहत करने की बात वह सोच भी कैसे सकीं.

किसी प्रकार लड़खड़ाती हुई वह अपने कमरे में लौटी. वह अपनी ही बहन से ईर्ष्या करेगी यह अंशुल और मां ने सोच भी कैसे लिया. मेज पर सिर टिका कर कुछ क्षण बैठी रही वह. न चाहते हुए भी आंखों में आंसू आ गए. तभी अपने कंधे पर किसी का स्पर्श पा कर चौंक उठी वह.

‘‘नवीन भैया? कब आए आप? आजकल तो आप प्रतिदिन देर से आते हैं. रहते कहां हैं आप?’’

‘‘मैं, अशोक और राजन एकसाथ पढ़ाई करते हैं अशोक के यहां. वैसे भी घर में इतना तनाव रहता है कि घर में घुसने के लिए बड़ा साहस जुटाना पड़ता है,’’ नवीन ने एक सांस में ही पारुल के हर प्रश्न का उत्तर दे दिया.

‘‘भूख लगी होगी, कुछ खाने को लाऊं क्या?’’

‘‘नहीं, मैं खुद ले लूंगा. तुम्हारी कल परीक्षा है, पढ़ाई करो. पर पहले मेरी एक बात सुन लो. तुम्हारे पास अद्भुत सौंदर्य न सही, पर जो है वह रेगिस्तान की तपती रेत में भी ठंडी हवा के स्पर्श जैसा आभास दे जाता है. इन सब जलीकटी बातों को एक कान से सुनो और दूसरे से निकाल दो और सबकुछ भूल कर परीक्षा की तैयारी में जुट जाओ,’’ पारुल के सिर पर हाथ फेर कर नवीन कमरे से बाहर निकल गया.

रुह का स्पंदन: भाग 1

‘‘डूयू बिलीव इन वाइब्स?’’ दक्षा द्वारा पूरे गए इस सवाल पर सुदेश चौंका. उस के चेहरे के हावभाव तो बदल ही गए, होंठों पर हलकी मुसकान भी तैर गई. सुदेश का खुद का जमाजमाया कारोबार था. वह सुंदर और आकर्षक युवक था. गोरा चिट्टा, लंबा, स्लिम,

हलकी दाढ़ी और हमेशा चेहरे पर तैरती बाल सुलभ हंसी. वह ऐसा लड़का था, जिसे देख कर कोई भी पहली नजर में ही आकर्षित हो जाए. घर में पे्रम विवाह करने की पूरी छूट थी, इस के बावजूद उस ने सोच रखा था कि वह मांबाप की पसंद से ही शादी करेगा.

सुदेश ने एकएक कर के कई लड़कियां देखी थीं. कहीं लड़की वालों को उस की अपार प्यार करने वाली मां पुराने विचारों वाली लगती थी तो कहीं उस का मन नहीं माना. ऐसा कतई नहीं था कि वह कोई रूप की रानी या देवकन्या तलाश रहा था. पर वह जिस तरह की लड़की चाहता था, उस तरह की कोई उसे मिली ही नहीं थी.

सुदेश का अलग तरह का स्वभाव था. उस की सीधीसादी जीवनशैली थी, गिनेचुने मित्र थे. न कोई व्यसन और न किसी तरह का कोई महंगा शौक. वह जितना कमाता था, उस हिसाब से उस के कपड़े या जीवनशैली नहीं थी. इस बात को ले कर वह हमेशा परेशान रहता था कि आजकल की आधुनिक लड़कियां उस के घरपरिवार और खास कर उस के साथ व्यवस्थित हो पाएंगी या नहीं.

अपने मातापिता का हंसताखेलता, मुसकराता, प्यार से भरपूर दांपत्य जीवन देख कर पलाबढ़ा सुदेश अपनी भावी पत्नी के साथ वैसे ही मजबूत बंधन की अपेक्षा रखता था. आज जिस तरह समाज में अलगाव बढ़ रहा है, उसे देख कर वह सहम जाता था कि अगर ऐसा कुछ उस के साथ हो गया तो…

सुदेश की शादी को ले कर उस की मां कभीकभी चिंता करती थीं लेकिन उस के पापा उसे समझाते रहते थे कि वक्त के साथ सब ठीक हो जाएगा. सुदेश भी वक्त पर भरोसा कर के आगे बढ़ता रहा. यह सब चल रहा था कि उस से छोटे उस के चचेरे भाई की सगाई का निमंत्रण आया. इस से सुदेश की मां को लगा कि उन के बेटे से छोटे लड़कों की शादी हो रही हैं और उन का हीरा जैसा बेटा किसी को पता नहीं क्यों दिखाई नहीं देता.

चिंता में डूबी सुदेश की मां ने उस से मेट्रोमोनियल साइट पर औनलाइन रजिस्ट्रेशन कराने को कहा. मां की इच्छा का सम्मान करते हुए सुदेश ने रजिस्ट्रेशन करा दिया. एक दिन टाइम पास करने के लिए सुदेश साइट पर रजिस्टर्ड लड़कियों की प्रोफाइल देख रहा था, तभी एक लड़की की प्रोफाइल पर उस की नजर ठहर गई.

ज्यादातर लड़कियों ने अपनी प्रोफाइल में शौक के रूप में डांसिंग, सिंगिंग या कुकिंग लिख रखा था. पर उस लड़की ने अपनी प्रोफाइल में जो शौक लिखे थे, उस के अनुसार उसे ट्रैवलिंग, एडवेंचर ट्रिप्स, फूडी का शौक था. वह बिजनैस माइंडेड भी थी.

उस की हाइट यानी ऊंचाई भी नौर्मल लड़कियों से अधिक थी. फोटो में वह काफी सुंदर लग रही थी. सुदेश को लगा कि उसे इस लड़की के लिए ट्राइ करना चाहिए. शायद लड़की को भी उस की प्रोफाइल पसंद आ जाए और बात आगे बढ़ जाए. यही सोच कर उस ने उस लड़की के पास रिक्वेस्ट भेज दी.

सुदेश तब हैरान रह गया, जब उस लड़की ने उस की रिक्वेस्ट स्वीकार कर ली. हिम्मत कर के उस ने साइट पर मैसेज डाल दिया. जवाब में उस से फोन नंबर मांगा गया. सुदेश ने अपना फोन नंबर लिख कर भेज दिया. थोड़ी ही देर में उस के फोन की घंटी बजी. अनजान नंबर होने की वजह से सुदेश थोड़ा असमंजस में था. फिर भी उस ने फोन रिसीव कर ही लिया.

दूसरी ओर से किसी संभ्रांत सी महिला ने अपना परिचय देते हुए कहा, ‘‘मैं दक्षा की मम्मी बोल रही हूं. आप की प्रोफाइल मुझे अच्छी लगी, इसलिए मैं चाहती हूं कि आप अपना बायोडाटा और कुछ फोटोग्राफ्स इसी नंबर पर वाट्सऐप कर दें.’’

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सुदेश ने हां कह कर फोन काट दिया. उस के लिए यह सब अचानक हो गया था. इतनी जल्दी जवाब आ जाएगा और बात भी हो जाएगी, सुदेश को उम्मीद नहीं थी. सोचविचार छोड़ कर उस ने अपना बायोडाटा और फोटोग्राफ्स वाट्सऐप कर दिए.

फोन रखते ही दक्षा ने मां से पूछा, ‘‘मम्मी, लड़का किस तरह बातचीत कर रहा था? अपने ही इलाके की भाषा बोल रहा था या किसी अन्य प्रदेश की भाषा में बात कर रहा था?’’

‘‘बेटा, फिलहाल वह दिल्ली में रह रहा है और दिल्ली में तो सभी प्रदेश के लोग भरे पड़े हैं. यहां कहां पता चलता है कि कौन कहां का है. खासकर यूपी, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड और राजस्थान वाले तो अच्छी हिंदी बोल लेते हैं.’’ मां ने बताया.

‘‘मम्मी, मैं तो यह कह रही थी कि यदि वह अपने ही क्षेत्र का होता तो अच्छा रहता.’’ दक्षा ने मन की बात कही. लड़का गढ़वाली ही नहीं, अपने इलाके का ही है. मां ने बताया तो दक्षा खुश हो उठी.

कायरता का प्रायश्चित्त: भाग 3

कुछ देर इधरउधर की बातें होती रहीं. फिर मिहिर ने कहा, ‘‘अब आप लोग मेरे घर कब आ रहे हैं? ऐसा करो मिताली, नवीनजी को ले कर इसी इतवार को आ जाओ.’’

‘‘मिहिर, इस इतवार को तो नवीनजी का बहुत व्यस्त कार्यक्रम है.’’

‘‘मिताली, तुम अकेले ही चली जाना,’’ नवीन बोले, ‘‘मैं फिर कभी चला जाऊंगा.’’

मिहिर घर लौट कर आया तो उस की बेचैनी और बढ़ गई थी.

मिताली इतवार को नियत समय पर मिहिर के घर पहुंच गई. घर में इधरउधर देख कर बोली, ‘‘मिहिर, और कोई दिखाई नहीं दे रहा है, क्या सब लोग कहीं गए हैं?’’

‘‘मिताली, मैं यहां अकेला रहता हूं. दरअसल, मैं जिस लड़की से प्यार करता था उस की शादी कहीं और हो गई. मैं ने निश्चय किया था कि उस के अलावा किसी और लड़की से मैं विवाह नहीं करूंगा और मैं ने ऐसा ही किया.’’

मिताली उसे देख कर हैरान रह गई. बोली, ‘‘पर मिहिर, कब तक व कैसे अकेले जीवन व्यतीत करेंगे आप?’’

‘‘मिताली, मैं अकेला बेशक हूं पर उस की यादें मेरे साथ हैं. वही मेरे जीने का सहारा है. यही नहीं मैं तो अब उसे अकसर प्रत्यक्ष अपनी आंखों से देखता हूं.’’

‘‘तो क्या वह भी इसी शहर में है?’’

‘‘हां, मिताली,’’ मिहिर बोला, ‘‘क्या तुम उस से मिलना चाहोगी, अच्छा चलो, मैं तुम्हें अभी उस से मिलवाता हूं,’’ और भाववेश में मिताली को ले जा कर मिहिर शीशे के सामने खड़ा कर के बोला, ‘‘देखो मिताली, यही है मेरा प्यार.’’

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‘‘मिहिर, यह क्या मजाक है?’’ दूर छिटक कर मिताली गुस्से से बोली.

मिहिर ने उसे सबकुछ सचसच बता डाला और अलमारी से निकाल कर वह ताजमहल व ब्रैसलेट उस के सामने रख दिया.

हतप्रभ खड़ी मिताली कभी मिहिर को तो कभी ब्रैसलेट व सफेद संगमरमर के ताजमहल को देख रही थी जिस पर छोटेछोटे शब्दों में खुदा था, ‘मिताली के लिए’.

मिताली एक अजीब दुविधाजनक स्थिति लिए घर लौटी थी. एक तरफ नवीन था जिस के नाम का मंगलसूत्र उस के गले में पड़ा है. दूसरी तरफ मिहिर, जिस के प्यार का अंकुर कभी उस के मन में फूटा था, किंतु वह फूल पुष्पित न हो सका. और आज इतने सालों के बाद, न जाने कैसे अनायास ही उस में कोंपलें निकलने लगीं.

मिताली रात भर करवटें बदलती रही. सुबह उठी तो सो न पाने के कारण आंखें लाल और सिर में तेज दर्द हो रहा था. नवीन उस की हालत देख कर परेशान हो उठा. अभी तक नौकरानी नहीं आई थी. अत: वह खुद ही चाय बना लाया.

‘‘मिताली, शायद तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है,’’ चाय का प्याला उस की तरफ बढ़ाते हुए नवीन बोला.

‘‘तैयार हो जाओ, मैं आफिस चलते समय तुम्हें डा. मिहिर को दिखा दूंगा.’’

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मिहिर के क्लीनिक में काफी भीड़ थी. अत: नवीन मिताली को छोड़ कर आफिस चला गया. मिताली का जब नंबर आया तो दोपहर हो चुकी थी. मिहिर ने मिताली की जांच की, कुछ दवाएं दीं और बोला, ‘‘चलो, आज हम दोनों बाहर लंच करते हैं.’’

आज मिताली बिना किसी विरोध के मिहिर के साथ चल दी. दोनों ने होटल में खाना खाया, बातें कीं. फिर मिताली घर लौट आई और मिहिर क्लीनिक लौट गया. मिताली का साथ मिहिर को आनंदित करता, उस में नए उत्साह का संचार हो जाता. मिताली को भी मिहिर का साथ सुखद लगता. अब वे हमेशा मिलते रहते.

उस दिन दोपहर से ही आसमान में बादल सूरज के साथ आंखमिचौली कर रहे थे. मिताली को बादलों वाले मौसम में बाहर घूमने में बड़ा मजा आता था. अत: दफ्तर से जल्दी घर लौट आई और फिर शाम को तैयार हो कर वह मिहिर से मिलने क्लीनिक चल दी.

मिहिर भी क्लीनिक से निकलने की तैयारी कर रहा था. अत: दोनों गाड़ी में बैठ कर मिहिर के घर आ गए.

‘‘मिताली, कितना अच्छा लगता है जब तुम साथ होती हो,’’ मिहिर उस की आंखों में झांकते हुए बोला, ‘‘कभीकभी सोचता हूं कि यहां आ कर मैं ने कितना अच्छा किया, यदि यहां न आता तो तुम शायद कभी न मिलतीं.’’

‘‘मिहिर, यदि आप ने अपने दिल की बात तभी मुझ से कह दी होती तो आज आप को यों अकेला जीवन व्यतीत न करना पड़ता.’’

‘‘हां, मिताली, तुम ठीक कहती हो. पर क्या हम अपनी गलती सुधार नहीं सकते?’’

‘‘मिहिर, कुछ गलतियां ऐसी होती हैं जो कभी सुधारी नहीं जा सकतीं. अच्छा, अब मैं चलती हूं, काफी देर हो गई,’’ कौफी का खाली कप मेज पर रखती हुई मिताली बोली.

मिताली बाहर निकली, किंतु तेज बारिश शुरू हो गई थी. उस ने सोचा कि वह निकल जाए. पता नहीं कब बारिश बंद हो, किंतु इतने खराब मौसम में मिहिर ने उसे जाने नहीं दिया. उस ने कहा कि बारिश बंद हो जाएगी तो वह खुद उसे छोड़ आएगा.

आज जैसे कुदरत भी उन्हें मिलाने को तैयार थी. मिताली की बुद्धि ने भावनाओं के ज्वार के सामने हथियार डाल दिए. उन्हें उचितअनुचित का भी ध्यान न रहा. मिहिर के प्रति मिताली के मन में निकली प्रेम की कोंपलों ने आखिर उस रेशमी डोर को काट ही डाला जिस से मिताली नवीन के साथ बंधी थी.

सुबह बारिश रुकी तो मिताली घर आई पर उस के दिल में एक अपराधबोध था कि उस ने ऐसा क्यों किया. पर वह भी क्या करती, मिहिर की आवाज कानों में पड़ते ही या उस के सामने रहते हुए उसे अपनी सुध ही कहां रहती है जो वह सहीगलत का फैसला कर पाती.

‘‘अरे मिताली, तुम रात भर कहां थीं,’’ नवीन बेचैन हो कर बोले, ‘‘मैं पूरी रात तुम्हें ले कर परेशान होता रहा.’’

‘‘नवीन, कल शाम को मैं

डा. मिहिर के क्लीनिक दवा लेने गई थी. लौटते समय एक सहेली के यहां चली गई. मैं तो बारिश में ही आ रही थी पर उस ने यह कह कर आने नहीं दिया कि इस बरसात में जा कर तुम अपनी तबियत और खराब करोगी क्या?’’

‘‘मिताली, आज शाम की टे्रन से सीमा दीदी, 3-4 दिनों के लिए यहां आ रही हैं. रात में जीजाजी का फोन आया था. कोई चीज मंगानी हो तो बता देना. दोपहर में मैं किसी से भिजवा दूंगा,’’ नवीन ने कहा.

मिताली ने सामान की सूची नवीन को दे दी.

करीब हफ्ते भर रह कर सीमा दीदी वापस चली गईं तब मिताली आफिस गई और फिर वहां से मिहिर के घर चली गई.

मिताली को देखते ही मिहिर बोला, ‘‘अरे तुम कहां थीं, न घर आईं न ही फोन किया. कहीं तुम उस दिन की घटना से नाराज तो नहीं हो?’’

मिताली कुछ बोली नहीं. उस ने मिहिर का माथा छू कर देखा तो वह तप रहा था.

‘‘अपने प्रति इतनी लापरवाही ठीक नहीं है, मिहिर. आप सब का इलाज कर सकते हैं, अपना नहीं,’’ मीठी झिड़की देते हुए मिताली बोली.

‘‘मिताली, मेरी बीमारी सिर्फ तुम ही दूर कर सकती हो. अकेलेपन की यह पीड़ा अब मैं और बरदाश्त नहीं कर सकता, न तन से न मन से. तुम मेरे जीवन में आ जातीं तो जीने की राह आसान हो जाती,’’ अपने दिल की बात मिहिर ने मिताली के समक्ष जाहिर कर दी.

‘‘मिहिर, क्या नवीन को छोड़ देना सही होगा?’’ मिताली ने तर्क पेश किया.

‘‘मेरे लिए मिताली, सही और गलत क्या है यह मैं नहीं जानता. बस, इतना जानता हूं कि तुम मेरा प्यार हो और नवीन तुम पर थोपा गया है. तुम्हारा व उस का साथ तो मात्र संयोग है.’’

सच ही तो कह रहे हैं मिहिर. मिताली ने सोचा. नवीन के साथ शादी तय करने के बाद ही तो घर वालों ने उसे बताया था. जबकि मिहिर को मैं ने पसंद किया था. मेरा पहला प्यार है मिहिर.

‘‘मिताली, आज तुम्हारी पसंद तुम्हारे सामने है, जिसे अपनाने में तुम्हें संकोच नहीं करना चाहिए. अपनी इच्छानुसार जीना हर व्यक्ति का अधिकार है. मिताली, तुम मेरे जीवन में आ जाओ. यही हमारी कायरता का प्रायश्चित्त होगा.’’

सच. आखिर सारा दोष मिहिर का तो नहीं, वह भी बराबर की दोषी है. यदि मिहिर ने संकोचवश अपने दिल की बात उस से नहीं कही तो उस ने भी कहां अपने प्यार का इजहार किया था. मिहिर कायर थे तो वही कहां हिम्मती थी. नहीं, अब और अकेलेपन की पीड़ा नहीं उठाने देगी वह. मिहिर के जीवन में आ कर खुशियां भर देगी. मिताली ने मन ही मन फैसला किया तो मिहिर के प्रति उस के हृदय में सहानुभूति की बाढ़ सी आ गई.

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मिताली ने फोन उठाया और नवीन का नंबर मिला कर बोली, ‘‘नवीन, मैं ने एक बार बताया था न कि मैं ने किसी से प्यार किया था. वह कोई और नहीं बल्कि डा. मिहिर हैं. आज मैं ने अपना खोया हुआ प्यार दोबारा पा लिया है.’’

‘‘मिताली, तुम यह क्या बहकी- बहकी बातें कर रही हो,’’ नवीन बोला, ‘‘प्लीज, जल्दी घर आओ. पतिपत्नी के रिश्ते क्या इतने सहज हैं जो तोड़ दिए जाएं.’’

‘‘नवीन, मुझे क्या करना है क्या नहीं, अपनी जिंदगी किस के साथ व्यतीत करनी है किस के साथ नहीं, यह मुझ से बेहतर और कौन जान सकता है? मैं ने काफी सोचसमझ कर फैसला लिया है. रही बात कानूनी काररवाई की तो वह हम बाद में पूरी कर लेंगे,’’ कह कर मिताली ने फोन बंद कर दिया.

साहब- भाग 3: आखिर शादी के बाद दिपाली अपने पति को साहब जी क्यों कहती थी

यह सुन कर दीपाली शरमा गई, पर कुछ नहीं बोली. फिर ज्यादा जोर देने पर वह साथ खाने बैठ गई.

‘‘दवा पूरी खाना,’’ रमेश ने खाना खाते हुए कहा.

‘‘जी.’’

‘‘कौन सी क्लास में पढ़ती हो?’’

‘‘12वीं क्लास में.’’

‘‘पढ़ाई कैसी चल रही है?’’

‘‘जी, ठीक चल रही है.’’

‘‘क्या बनने का इरादा है?’’

‘‘साहब, आगे तो अभी कालेज की पढ़ाई है. आगे क्या पता? मां पढ़ा पाएंगी या नहीं… हो सकता है, मां मेरी शादी करा दें.’’

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‘‘हां, यह भी हो सकता है.’’

दीपाली ने रमेश से कहा, ‘‘साहब, मैं आप से कुछ पूछ सकती हूं… बुरा तो नहीं मानेंगे आप?’’

‘‘पूछो, क्या पूछना चाहती हो?’’

‘‘आप ने शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘सब वक्त की बात है. किसी को मैं पसंद नहीं आया, कोई मुझे पसंद नहीं आई. फिर शादी के लिए मैं किसे आगे करता. न मातापिता, न भाईबहन. लोग अकेले लड़के को अपनी लड़की देने में कतराते हैं.’’

‘‘आप बहुत अच्छे हैं साहब.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘कल रात मुझे आप में अपनी मां और पिता दोनों दिखाई दिए.’’

‘‘क्या मेरी उम्र भी है मातापिता की उम्र जैसी?’’

‘‘उम्र नहीं, गुण हैं आप में ऐसे. पहले मैं आप को केवल साहब की नजर से देखती थी…’’

‘‘और अब?’’

‘‘अब मैं आप को आदर की नजर से देखती हूं.’’

रमेश ने दीपाली से कहा तो नहीं, लेकिन मन ही मन सोचा, ‘प्यार की नजर से तो कोई नहीं देखता. प्यार भी कहा होता तो अच्छा लगता. दिल को तसल्ली मिलती.’

अब दीपाली रोज काम करने आती.

एक दिन रमेश ने पूछा, ‘‘तुम्हारी मां अभी तक नहीं आई?’’

‘‘वे तो कब की आ चुकी हैं, लेकिन बीमार हैं.’’

रमेश ने कई बार सोचा कि महरू को देखने जाएं, लेकिन वे कभी भूल जाते, तो कभी कोई और काम आ जाता.

एक दिन घबराई हुई दीपाली रमेश के पास आई और बोली, ‘‘साहब, मां की तबीयत बहुत ज्यादा खराब है. वे आप को बुला रही हैं.’’

दीपाली की घबराहट से रमेश समझ गए कि बात गंभीर है. उन्होंने तुरंत तैयार हो कर उसे अपनी मोटरसाइकिल पर बिठाया और जैसे वह बताती गई, वे उसी रास्ते पर मोटरसाइकिल घुमा देते.

रमेश ने दीपाली के कहने पर एक छोटी सी गंदी बस्ती में एक कच्चे मकान के सामने मोटरसाइकिल रोकी.

दीपाली ने उतरते हुए कहा, ‘‘अंदर आइए साहब.’’

रमेश ने अंदर जा कर देखा. महरू का शरीर बिलकुल सूख चुका था. रमेश को देख कर उस के चेहरे पर खुशी तैर गई. उस ने उठने की कोशिश की, लेकिन उठ न सकी.

‘‘लेटी रहो,’’ रमेश ने कहा. दीपाली अपनी मां के पास बैठ गई.

‘‘क्या हो गया है तुम को? तुम तो मायके गई थीं?’’

‘‘साहब…’’ महरू ने उखड़ती सांसों के साथ कहा, ‘‘डाक्टर ने मुझे 1-2 दिन का मेहमान बताया है. मुझे अपनी बेटी की चिंता है. मेरे अलावा इस का कोई नहीं है. न कोई सगेसंबंधी, न रिश्तेदार. इस घर में इस का अकेले रहने का मतलब है कि कभी भी…’’ आगे वह चुप रही, फिर थोड़ी देर बाद बोली, ‘‘साहब, आप से एक गुजारिश है. आप भले आदमी हैं. आप मेरी बेटी को अपना लीजिए. चाहे नौकरानी समझ कर, चाहे…’’ फिर वह रुक गई, ‘‘आप भी अकेले हैं. यह आप का घर संभाल लेगी. अपनी औकात से बड़ी बात कर रही हूं, लेकिन मैं किसी और पर भरोसा भी नहीं कर सकती.

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‘‘आप को इस के भविष्य के लिए जो अच्छा लगे, करना. मैं इसे आप के सहारे छोड़ कर जा रही हूं…’’ और एक हिचकी के साथ महरू ने दम तोड़ दिया.

दीपाली जोरजोर से रोने लगी. बस्ती के बहुत से लोग जमा हो गए. रमेश ने दीपाली को हौसला दिया. महरू का अंतिम संस्कार कराने के बाद वे उसे अपने साथ ले आए.

महरू रमेश पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी सौंप कर चली गई थी. इस लड़की से वे क्या रिश्ता बनाएं? उम्र का भी इतना बड़ा फासला है. कैसे इस से शादी कर लें. बिना शादी किए किस रिश्ते से रखें? लोग क्या कहेंगे? कामवाली बाई की इतनी कम उम्र की लड़की की गरीबी का फायदा उठा कर शादी कर ली. फिर कानूनन वह नाबालिग थी.

बहुत सोचविचार के बाद रमेश ने दीपाली को गर्ल्स होस्टल में दाखिला दिला दिया. वह न केवल उन पर आश्रित थी, बल्कि उसे उन से लगाव भी था. मना करने के बाद भी वह खाना बनाने आ जाती थी. उन के और दीपाली के बीच बहुत सी बातें होतीं. एक तरह से रमेश उस के गार्जियन बन चुके थे.

दीपाली अब 18 साल से ऊपर की हो चुकी थी. अपनी पढ़ाई में बिजी होने के चलते वह आ नहीं पाती थी. अब तो  छुट्टी के दिन भी वह नहीं आ पाती थी.

रमेश को लगा कि दीपाली अब उन से कतराने लगी है.

एक दिन एक अनजान नंबर से फोन आया, ‘साहब, आप कैसे हैं?’

‘‘अरे, कौन…? दीपाली? मैं ठीक हूं. तुम कैसी हो?’’ रमेश ने पूछा.

‘साहब, मैं ठीक हूं. क्या आप को मैं पसंद नहीं?’

‘‘ऐसा क्यों पूछ रही हो तुम?’’

‘तो फिर आप ने शादी के लिए क्यों नहीं कहा?’

‘‘देखो दीपाली, मैं तुम से प्यार करता हूं. शादी जिंदगीभर का बंधन होता है और मैं तुम से उम्र में भी बहुत बड़ा हूं. तुम्हें बाद में परेशानी होगी. फिर क्या करोगी?’’

‘मैं मैनेज कर लूंगी. आप के साथ मैं हमेशा खुश रहूंगी. एक लड़की को इस से ज्यादा क्या चाहिए. जो समस्या होगी, वह हम दोनों की होगी.

‘साहब, आप मन से सारे संकोच निकाल कर मुझे अपना लीजिए.’

‘‘तुम बालिग हो गई हो दीपाली. मेरी जिंदगी में तुम्हारा स्वागत है.’’

रमेश की मुरझाती जिंदगी में फिर से बहार आ गई. शादी के इतने साल बाद भी दीपाली रमेश को साहब ही कहती है.

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