
लेखिका- मनीषा शर्मा
एक सुबह पापा अच्छेखासे आफिस गए और फिर उन का मृत शरीर ही वापस लौटा. सिर्फ 47 साल की उम्र में दिल के दौरे से हुई उन की असामयिक मौत ने हम सब को बुरी तरह से हिला दिया.
‘‘मेरी घरगृहस्थी की नाव अब कैसे पार लगेगी?’’ इस सवाल से उपजी चिंता और डर के प्रभाव में मां दिनरात आंसू बहातीं.
‘‘मैं हूं ना, मां,’’ उन के आंसू पोंछ कर मैं बारबार उन का हौसला बढ़ाती, ‘‘पापा की सारी जिम्मेदारी मैं संभालूंगी. देखना, सब ठीक हो जाएगा.’’
मुकेश मामाजी ने हमें आश्वासन दिया, ‘‘मेरे होते हुए तुम लोगों को भविष्य की ज्यादा चिंता करने की कोई जरूरत नहीं. संगीता ने बी.काम. कर लिया है. उस की नौकरी लगवाने की जिम्मेदारी मेरी है.’’
मुझ से 2 साल छोटे मेरे भाई राजीव ने मेरा हाथ पकड़ कर वादा किया, ‘‘दीदी, आप खुद को कभी अकेली मत समझना. अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करते ही मैं आप का सब से मजबूत सहारा बन जाऊंगा.’’
राजीव से 3 साल छोटी शिखा के आंखों से आंसू तो ज्यादा नहीं बहे पर वह सब से ज्यादा उदास, भयभीत और असुरक्षित नजर आ रही थी.
मोहित मेरा सहपाठी था. उस के साथ सारी जिंदगी गुजारने के सपने मैं पिछले 3 सालों से देख रही थी. इस कठिन समय में उस ने मेरा बहुत साथ दिया.
‘‘संगीता, तुम सब को ‘बेटा’ बन कर दिखा दो. हम दोनों मिल कर तुम्हारी जिम्मेदारियों का बोझ उठाएंगे. हमारा प्रेम तुम्हारी शक्ति बनेगा,’’ मोहित के ऐसे शब्दों ने इस कठिन समय का सामना करने की ताकत मेरे अंगअंग में भर दी थी.
परिवर्तन जिंदगी का नियम है और समय किसी के लिए नहीं रुकता. जिंदगी की चुनौतियों ने पापा की असामयिक मौत के सदमे से उबरने के लिए हम सभी को मजबूर कर दिया.
मामाजी ने भागदौड़ कर के मेरी नौकरी लगवा दी. मैं ने काम पर जाना शुरू कर दिया तो सब रिश्तेदारों व परिचितों ने बड़ी राहत की सांस ली. क्योंकि हमारी बिगड़ी आर्थिक स्थिति में सुधार लाने वाला यह सब से महत्त्वपूर्ण कदम था.
‘‘मेरी गुडि़या का एम.बी.ए. करने का सपना अधूरा रह गया. तेरे पापा तुझे कितनी ऊंचाइयों पर देखना चाहते थे और आज इतनी छोटी सी नौकरी करने जा रही है मेरी बेटी,’’ पहले दिन मुझे घर से विदा करते हुए मां अचानक फूटफूट कर रो पड़ी थीं.
‘‘मां, एम.बी.ए. मैं बाद में भी कर सकती हूं. अभी मुझे राजीव और शिखा के भविष्य को संभालना है. तुम यों रोरो कर मेरा मनोबल कम न करो, प्लीज,’’ उन का माथा चूम कर मैं घर से बाहर आ गई, नहीं तो वह मेरे आंसुओं को देख कर और ज्यादा परेशान होतीं.
मोहित और मैं ने साथसाथ ग्रेजुएशन किया था. उस ने एम.बी.ए. में प्रवेश लिया तो मैं बहुत खुश हुई. अपने प्रेमी की सफलता में मैं अपनी सफलता देख रही थी. मन के किसी कोने में उठी टीस को मैं ने उदास सी मुसकान होंठों पर ला कर बहुत गहरा दफन कर दिया था.
पापा के समय 20 हजार रुपए हर महीने घर में आते थे. मेरी कमाई के 8 हजार में घर खर्च पूरा पड़ ही नहीं सकता था. फ्लैट की किस्त, राजीव व शिखा की फीस, मां की हमेशा बनी रहने वाली खांसी के इलाज का खर्च आर्थिक तंगी को और ज्यादा बढ़ाता.
‘‘अगर बैंक से यों ही हर महीने पैसे निकलते रहे तो कैसे कर पाऊंगी मैं दोनों बेटियों की इज्जत से शादियां? हमें अपने खर्चों में कटौती करनी ही पडे़गी,’’ मां का रातदिन का ऐसा रोना अच्छा तो नहीं लगता पर उन की बात ठीक ही थी.
फल, दूध, कपडे़, सब से पहले खरीदने कम किए गए. मौजमस्ती के नाम पर कोई खर्चा नहीं होता. मां ने काम वाली को हटा दिया. होस्टल में रह रहे राजीव का जेबखर्च कम हो गया.
इन कटौतियों का एक असर यह हुआ कि घर का हर सदस्य अजीब से तनाव का शिकार बना रहने लगा. आपस में कड़वा, तीखा बोलने की घटनाएं बढ़ गईं. कोई बदली परिस्थितियों के खिलाफ शिकायत करता, तो मां घंटों रोतीं. मेरा मन कभीकभी बेहद उदास हो कर निराशा का शिकार बन जाता.
‘‘हिम्मत मत छोड़ो, संगीता. वक्त जरूर बदलेगा और मैं तुम्हारे पास न भी रहूं, पर साथ तो हूं ना. तुम बेकार की टेंशन लेना छोड़ दो,’’ मोहित का यों समझाना कम से कम अस्थायी तौर पर तो मेरे अंदर जीने का नया जोश जरूर भर जाता.
अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने में मैं जीजान से जुटी रही और परिवर्तन का नियम एकएक कर मेरी आशाओं को चकनाचूर करता चला गया.
बी.टेक. की डिगरी पाने के बाद राजीव को स्कालरशिप मिली और वह एम.टेक. करने के लिए विदेश चला गया.
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‘‘संगीता दीदी, थोड़ा सा इंतजार और कर लो, बस. फिर धनदौलत की कमी नहीं रहेगी और मैं आप की सब जिम्मेदारियां, अपने कंधों पर ले लूंगा. अपना कैरियर बेहतर बनाने का यह मौका मैं चूकना नहीं चाहता हूं.’’
राजीव की खुशी में खुश होते हुए मैं ने उसे अमेरिका जाने की इजाजत दे दी थी.
राजीव के इस फैसले से मां की आंखों में चिंता के भाव और ज्यादा गहरे हो उठे. वह मेरी शादी फौरन करने की इच्छुक थीं. उम्र के 25 साल पूरे कर चुकी बेटी को वह ससुराल भेजना चाहती थीं.
मोहित ने राजीव को पीठपीछे काफी भलाबुरा कहा था, ‘‘उसे यहां अच्छी नौकरी मिल रही थी. वह लगन और मेहनत से काम करता, तो आजकल अच्छी कंपनी ही उच्च शिक्षा प्राप्त करने में सहायता करती हैं. मुझे उस का स्वार्थीपन फूटी आंख नहीं भाया है.’’
मोहित के तेज गुस्से को शांत करने के लिए मुझे काफी मेहनत करनी पड़ी थी.
मां कभीकभी कहतीं कि मैं शादी कर लूं, पर यह मुझे स्वीकार नहीं था.
‘‘मां, तुम बीमार रहती हो. शिखा की कालिज की पढ़ाई अभी अधूरी है. यह सबकुछ भाग्य के भरोसे छोड़ कर मैं कैसे शादी कर सकती हूं?’’
मेरी इस दलील ने मां के मुंह पर तो ताला लगाया, पर उन की आंखों से बहने वाले आंसुओं को नहीं रोक पाई.
एम.बी.ए. करने के बाद मोहित को जल्दी ही नौकरी मिल गई थी. उस ने पहली नौकरी से 2 साल का अनुभव प्राप्त किया और इस अनुभव के बल पर उसे दूसरी नौकरी मुंबई में मिली.
अपने मातापिता का वह इकलौता बेटा था. उन्हें मैं पसंद थी, पर वह उस की शादी अब फौरन करने के इच्छुक थे.
‘‘मैं कैसे अभी शादी कर सकती हूं? अभी मेरी जिम्मेदारियां पूरी नहीं हुई हैं, मोहित. मेरे ससुराल जाने पर अकेली मां घर को संभाल नहीं पाएंगी,’’ बडे़ दुखी मन से मैं ने शादी करने से इनकार कर दिया था.
‘‘संगीता, कब होंगी तुम्हारी जिम्मेदारियां पूरी? कब कहोगी तुम शादी के लिए ‘हां’?’’ मेरा फैसला सुन कर मोहित नाराज हो उठा था.
‘‘राजीव के वापस लौटने के बाद हम….’’
‘‘वह वापस नहीं लौटेगा…कोई भी इंजीनियर नहीं लौटता,’’ मोहित ने मेरी बात को काट दिया, ‘‘तुम्हारी मां विदेश में जा कर बसने को तैयार होंगी नहीं. देखो, हम शादी कर लेते हैं. राजीव पर निर्भर रह कर तुम समझदारी नहीं दिखा रही हो. हम मिल कर तुम्हारी मां व छोटी बहन की जिम्मेदारी उठा लेंगे.’’
‘‘शादी के बाद मुझे मां और छोटी बहन को छोड़ कर तुम्हारे साथ मुंबई जाना पड़ेगा और यह कदम मैं फिलहाल नहीं उठा सकती हूं. मेरा भाई मुझे धोखा नहीं देगा. मोहित, तुम थोड़ा सा इंतजार और कर लो, प्लीज.’’
मोहित ने मुझे बहुत समझाया पर मैं ने अपना फैसला नहीं बदला. मां भी उस की तरफ से बोलीं, पर मैं शादी करने को तैयार नहीं हुई.
मोहित अकेला मुंबई गया. मुझे उस वक्त एहसास नहीं हुआ पर इस कदम के साथ ही हमारे प्रेम संबंध के टूटने का बीज पड़ गया था.
वक्त ने यह भी साबित कर दिया कि राजीव के बारे में मोहित की राय सही थी.
अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद उस ने वहीं नौकरी कर ली. वह हम से मिलने भी आया, एक बड़ी रकम भी मां को दे कर गया, पर मेरी जिम्मेदारियां अपने कंधों पर लेने को वह तैयार नहीं हुआ.
परिस्थितियों ने मुझे कठोर बना दिया था. मेरे आंसू न मोहित ने देखे न राजीव ने. इन का सहारा छिन जाने से मैं खुद को कितनी अकेली और टूटा हुआ महसूस कर रही थी, इस का एहसास मैं ने इन दोनों को जरा भी नहीं होने दिया था.
मां रातदिन शादी के लिए शोर मचातीं, पर मेरे अंदर शादी करने का सारा उत्साह मर गया था. कभी कोई रिश्ता मेरे लिए आ जाता तो मां का शोर मचाना मेरे लिए सिरदर्द बन जाता. फिर रिश्ते आने बंद हो गए और हम मांबेटी एकदूसरे से खिंचीखिंची सी खामोश रह साथसाथ समय गुजारतीं.
लेखिका- मनीषा शर्मा
राजीव ने उस की शादी का सारा खर्च उठाया. वह खुद भी शामिल हुआ. मां ने शिखा को विदा कर के बड़ी राहत महसूस की.
राजीव ने जाने से पहले मुझे बता दिया कि वह अपनी एक सहयोगी लड़की से विवाह करना चाहता है. शादी की तारीख 2 महीने बाद की थी.
उस ने हम दोनों की टिकटें बुक करवा दीं. पर मैं उस की शादी में शामिल होने अमेरिका नहीं गई.
मां अकेली अमेरिका गईं और कुछ सप्ताह बिता कर वापस लौटीं. वह ज्यादा खुश नहीं थीं क्योंकि बहू का व्यवहार उन के प्रति अच्छा नहीं रहा था.
‘‘मां, तुम और मैं एकदूसरे का ध्यान रख कर मजे से जिंदगी गुजारेंगे. तुम बेटे की खुदगर्जी की रातदिन चर्चा कर के अपना और मेरा दिमाग खराब करना बंद कर दो अब,’’ मेरे समझाने पर एक रात मां मुझ से लिपट कर खूब रोईं पर कमाल की बात यह है कि मेरी आंखों से एक बूंद आंसू नहीं टपका.
अब रुपएपैसे की मेरी जिंदगी में कोई कमी नहीं रही थी. मैं ने मां व अपनी सुविधा के लिए किस्तों पर कार भी ले ली. हम दोनों अच्छा खातेपहनते. मेरी शादी न होने के कारण मां अपना दुखदर्द लोगों को यदाकदा अब भी सुना देतीं. मैं सब को हंसतीमुसकराती नजर आती, पर सिर्फ मैं ही जानती थी कि मेरी जिंदगी कितनी नीरस और उबाऊ हो कर मशीनी अंदाज में आगे खिसक रही थी.
‘संगीता, तू किसी विधुर से…किसी तलाकशुदा आदमी से ही शादी कर ले न. मैं नहीं रहूंगी, तब तेरी जिंदगी अकेले कैसे कटेगी?’ मां ने एक रात आंखों में आंसू भर कर मुझ से पुराना सवाल फिर पूछा था.
‘जिंदगी हर हाल में कट ही जाती है, मां. मैं जब खुश और संतुष्ट हूं तो तुम क्यों मेरी चिंता कर के दुखी होती हो? अब स्वीकार कर लो कि तुम्हारी बड़ी बेटी कुंआरी ही मरेगी,’ मैं ने मुसकराते हुए उन का दुखदर्द हलका करना चाहा था.
‘तेरे पिता की असामयिक मौत ने मुझे विधवा बनाया और तुझे उन की जिम्मेदारी निभाने की यह सजा मिली कि तू बिना शादी किए ही विधवा सी जिंदगी जीने को मजबूर है,’ मां फिर खूब रोईं और मेरी आंखें उस रात भी सूनी रही थीं.
अपने भाई, छोटी बहन व पुराने प्रेमी की जिंदगियों में क्या घट रहा है, यह सब जानने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं रही थी. अतीत की बहुत कुछ गलीसड़ी यादें मेरे अंदर दबी जरूर पड़ी थीं, पर उन के कारण मैं कभी दुखी नहीं होती थी.
मेरी समस्या यह थी कि अपना वर्तमान नीरस व अर्थहीन लगता और भविष्य को ले कर मेरे मन में किसी तरह की आशा या उत्साह कतई नहीं बचा था. मैं सचमुच एक मशीन बन कर रह गई थी.
जिंदगी में समय के साथ बदलाव आना तो अनिवार्य ही है. मेरी जिंदगी की गुणवत्ता भी कपूर साहब के कारण बदली.
कपूर साहब आफिस में मेरे सीनियर थे. अपने काम में वह बेहद कुशल व स्वभाव के अच्छे थे. एक शाम बरसात के कारण मुझ से अपनी चार्टर्ड बस छूट गई तो उन्होंने अपनी कार से मुझे घर तक की ‘लिफ्ट’ दी थी. वह चाय पीने के लिए मेरे आग्रह पर घर के अंदर भी आए. मां से उन्होंने ढेर सारी बातें कीं. हम मांबेटी दोनों के दिलों पर अच्छा प्रभाव छोड़ने के बाद ही उन्होंने उस शाम विदा ली थी.
अगले सप्ताह ऐसा इत्तफाक हुआ कि हम दोनों साथसाथ आफिस की इमारत से बाहर आए. जरा सी नानुकुर के बाद मैं उन के साथ कार में घर लौटने को राजी हो गई.
‘‘कौफी पी कर घर चलेंगे,’’ मुझ से पूछे बिना उन्होंने एक लोकप्रिय रेस्तरां के सामने कार रोक दी थी.
हम ने कौफी के साथसाथ खूब खायापिया भी. एक लंबे समय के बाद मैं खूब खुल कर हंसीबोली भी.
उस रात मैं इस एहसास के साथ सोई कि आज का दिन बहुत अच्छा बीता. मन बहुत खुश था और यह चाह बलवती थी कि ऐसे अच्छे दिन मेरी जिंदगी में आते रहने चाहिए.
मेरी यह इच्छा पूरी भी हुई. कपूर साहब और मेरी उम्र में काफी अंतर था. इस के बावजूद मेरे लिए वह अच्छे साबित हो रहे थे. सप्ताह में 1-2 बार हम जरूर छोटीमोटी खरीदारी के लिए या खानेपीने को घूमने जाते. वह मेरे घर पर भी आ जाते. मां की उन से अच्छी पटती थी. मैं खुद को उन की कंपनी में काफी सुरक्षित व प्रसन्न पाती. मेरे भीतर जीने का उत्साह फिर पैदा करने में वह पूरी तरह से सफल रहे थे.
फिर एक शाम सबकुछ गड़बड़ हो गया. वह पहली बार मुझे अपने फ्लैट में उस शाम ले कर गए जब उन की पत्नी दोनों बच्चों समेत मायके गई हुई थीं.
उन्हें ताला खोलते देख मैं हैरान तो हुई थी, पर खतरे वाली कोई बात नहीं हुई. उन की नीयत खराब है, इस का एहसास मुझे कभी नहीं हुआ था.
फ्लैट के अंदर उन्होंने मेरे साथ अचानक जोरजबरदस्ती करनी शुरू की, तो मुझे जोर का सदमा लगा.
रात के साढ़े 10 बज रहे थे. तृप्ति खाना खा कर पढ़ने के लिए बैठी थी. वह अपने जरूरी नोट रात में 11 बजे के बाद ही तैयार करती थी. रात में गली सुनसान हो जाती थी. कभीकभार तो कुत्तों के भूंकने की आवाज के अलावा कोई शोर नहीं होता था.
तृप्ति के कमरे का एक दरवाजा बनारस की एक संकरी गली में खुलता था. मकान मालकिन ऊपर की मंजिल पर रहती थीं. वे विधवा थीं. उन की एकलौती बेटी अपने पति के साथ इलाहाबाद में रहती थी.
नीचे छात्राओं को देने के लिए 3 छोटेछोटे कमरे बनाए गए थे. 2 कमरों के दरवाजे अंदर के गलियारे में खुलते थे. उन दोनों कमरों में भी छात्राएं रहती थीं.
दरवाजा बाहर की ओर खुलने का एक फायदा यह था कि तृप्ति को किसी वजह से बाहर से आने में देर हो जाती थी तो मकान मालकिन की डांट नहीं सुननी पड़ती थी.
तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया. तृप्ति किसी अनजाने डर से सिहर उठी. उसे लगा, कोई गली का लफंगा तो नहीं. वैसे, आज तक ऐसा नहीं हुआ था. रात 10 बजे के बाद गली की ओर खुलने वाले दरवाजे को किसी ने नहीं खटखटाया था.
कभीकभार बगल वाली छात्राएं कुछ पूछने के लिए साइड वाला दरवाजा खटखटा देती थीं. उन दोनों से वह सीनियर थी, इसलिए वे भी रात में ऐसा कभीकभार ही करती थीं.
पर जब ‘तृप्ति, दरवाजा खोलो… मैं माधुरी’ की आवाज सुनाई पड़ी, तो तृप्ति ने दरवाजे की दरार से झांक कर देखा. यह माधुरी थी. उस के बगल के गांव की एक सहेली. मैट्रिक तक दोनों साथसाथ पढ़ी थीं. बाद में तृप्ति बनारस आ गई थी. बीए करने के बाद बीएचयू की ला फैकल्टी में एडमिशन लेने के लिए वह एडमिशन टैस्ट की तैयारी कर रही थी.
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माधुरी बगल के कसबे में ही एक कालेज से बीए करने के बाद घर बैठी थी. पिता उस की शादी करने के लिए किसी नौकरी करने वाले लड़के की तलाश में थे.
‘‘अरे तुम… इतनी रात गए… कहां से आ रही हो?’’ हैरान होते हुए तृप्ति ने पूछा.
‘‘बताती हूं, पहले अंदर तो आने दे,’’ कुछ बदहवास और चिंतित माधुरी आते ही बैड पर बैठ गई.
‘‘एक गिलास पानी तो ला… बहुत प्यास लगी है,’’ माधुरी ने इतमीनान की सांस लेते हुए कहा. ऐसा लग रहा था मानो वह दौड़ कर आई थी.
तृप्ति ने मटके से पानी निकाल कर उसे देते हुए कहा, ‘‘गलियां अभी पूरी तरह सुनसान नहीं हुई हैं… वरना अब तक तो इस गली में कुत्ते भी भूंकना बंद कर देते हैं,’’ फिर उस ने माधुरी की ओर एक प्लेट में बेसन का लड्डू बढ़ाते हुए कहा, ‘‘पहले कुछ खा ले, फिर पानी पीना. लगता है, तुम दौड़ कर आ रही हो?’’
माधुरी ने लड्डू खाते हुए कहा, ‘‘इतनी संकरी गली में कमरा लिया है कि तुम्हारे यहां कोई पहुंच भी नहीं सकता. यह तो मैं पिछले महीने ही आई थी इसलिए भूली नहीं, वरना जाने इतनी रात को अब तक कहां भटकती रहती.’’
‘‘पहले मैं गर्ल्स होस्टल में रहना चाहती थी, पर अगलबगल में कोई ढंग का मिल नहीं रहा था, महंगा भी बहुत था. यह बहुत सस्ते में मिल गया. यहां बहुत शांति रहती है, इसलिए इम्तिहान की तैयारी के लिए सही लगा. बस, आ गई. अगर मेरा एडमिशन बीएचयू में हो जाता है, तो आगे से वहीं होस्टल में रहूंगी.
‘‘अच्छा, अब तो बता कैसे आई हो? इतना बड़ा बैग… लगता है, काफी सामान भर रखा है इस में. कहीं जाने का प्लान है क्या?’’ तृप्ति ने पूछा.
‘‘हां, बताती हूं. अब एक कप चाय तो पिला,’’ माधुरी बोली.
‘‘खाना खाया है या बनाऊं… लेकिन, तुम ने खाना कहां से खाया होगा. घर से सीधे आ रही हो या…’’
‘‘खाना तो नहीं खाया है. मौका ही नहीं मिला, लेकिन रास्ते में एक दुकान से ब्रैड ले ली थी. अब इतनी रात को खाने की चिंता छोड़ो. ब्रैडचाय से काम चला लूंगी मैं,’’ माधुरी ने कहा.
चाय और ब्रैड खाने के बाद माधुरी की थकान तो मिट गई थी, पर उस के चेहरे पर अब भी चिंता की लकीरें साफ दिखाई पड़ रही थीं.
माधुरी बोली, ‘‘तृप्ति, तुम्हें याद है, जब हम लोग 9वीं जमात में थे, तब सौरभ नाम का एक लड़का 10वीं जमात में पढ़ता था. वही लंबी नाक वाला, गोरा, सुंदर, जो हमेशा मुसकराता रहता था…’’
‘‘हां, जिस के पीछे कई लड़कियां भागती थीं… और जिस के पिता की गहनों की मार्केट में बड़ी सी दुकान थी,’’ तृप्ति ने याद करते हुए कहा.
‘‘हां, वही.’’
‘‘पर, बात क्या है… तुम कहना क्या चाहती हो?’’
‘‘वही तो मैं बता रही हूं. वह 2 बार मैट्रिक में फेल हुआ तो उस के पिता ने उस की पढ़ाई छुड़वा कर दुकान पर बैठा दिया. पिछले साल भैया की शादी थी. मां भाभी के लिए गहनों के लिए और्डर देने जाने लगीं तो साथ में मुझे भी ले लिया.
‘‘मैं गहनों में बहुत काटछांट कर रही थी, इसलिए उस के पिता ने गहने दिखाने के लिए सौरभ को लगा दिया, तभी उस ने मुझ से पूछा था, ‘तुम माधुरी हो न?’
‘‘मैं ने कहा था, ‘हां, पर तुम कैसे जानते हो?’
‘‘उस ने बताया, ‘भूल गई क्या… हम दोनों एक ही स्कूल में तो पढ़ते थे.’
‘‘मैं उसे पहचानती तो थी, लेकिन जानबूझ कर अनजान बन रही थी. फिर उस ने मेरी ओर देखा तो शर्म से मेरी आंखें झुक गईं. उस दिन गहनों के और्डर दे कर हम लोग घर चले आए, फिर एक हफ्ते बाद मां के साथ मैं भी गहने लेने दुकान पर गई थी.
‘‘मां ने मुझ से कहा था, ‘दुकानदार का बेटा तुम्हारा परिचित है, तो दाम में कुछ छूट करा देना.’
‘‘मैं ने कहा था, ‘अच्छा मां, मैं उस से बोल दूंगी.’
‘‘पर, दाम उस के पिताजी ने लगाए. उस ने पिता से कहा, तो कुछ कम हो गया… घर आने पर मालूम हुआ कि भाभी के लिए जो सोने की अंगूठी खरीदी गई थी, वह नाप में छोटी थी. मां बोलीं, ‘माधुरी, कल अंगूठी ले जा कर बदलवा देना, मुझे मौका नहीं मिलेगा. कल कुछ लोग आने वाले हैं.’
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‘‘मैं दूसरे दिन जब दुकान पर पहुंची तो सौरभ के पिताजी नहीं थे. मुझे देख कर वह मुसकराते हुए बोला, ‘आओ माधुरी, बैठो. आज क्या और्डर करना है?’
‘‘मैं ने कहा था, ‘कुछ नहीं… बस, यह अंगूठी बदलवानी है. भाभी की उंगली में नहीं आएगी. नाप में बहुत छोटी है.’‘‘वह बोला था, ‘कोई बात नहीं,
इसे तुम रख लो. भाभी के लिए मैं दूसरी दे देता हूं.’
‘‘मैं ने छेड़ते हुए कहा था, ‘बड़े आए देने वाले… दाम तो कम कर नहीं सकते… मुफ्त में देने चले हो.’
‘‘यह सुन कर उस ने कहा था, ‘कल पिताजी मालिक थे, आज मैं हूं. आज मेरा और्डर चलेगा.’
‘‘सचमुच ही उस ने वही किया, जो कहा. मैं ने बहुत कोशिश की, लेकिन उस ने अंगूठी वापस नहीं ली. भाभी के नाप की वैसी ही दूसरी अंगूठी भी दे दी.
जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…
‘‘बहुत मुश्किल से किसी तरह दवा लाने का बहाना कर के मैं गांव से निकली. फोन पर सौरभ को सारी बातें बताईं. उस ने कहा कि मैं रात में बनारस पहुंच जाऊं. सुबह वहीं से मुंबई के लिए ट्रेन पकड़ लेंगे. उस ने रिजर्वेशन भी करा लिया है. उस का एक दोस्त वहां रहता है. मुझे दोस्त के पास रख कर वह लौट आएगा, फिर पत्नी को तलाक दे कर मुझ से शादी कर लेगा.’’
‘‘ओह… तो तुम मुंबई जाने की तैयारी कर के आई हो?’’ तृप्ति ने कहा.
‘‘हां.’’
‘‘माधुरी, तुम समझदार हो, इसलिए तुम को मैं समझा तो नहीं सकती… और फिर अपनी जिंदगी अपने ढंग से जीने का हक सभी को है, पर हम आपस में इस बारे में बात तो कर ही सकते हैं, जिस से सही दिशा मिल सके और तुम समझ पाओ कि जानेअनजाने में तुम से कोई गलत फैसला तो नहीं हो रहा है.’’
‘‘बोल तृप्ति, समय कम है, मुझे सुबह निकलना भी है. यह तो मुझे भी एहसास हो रहा है कि मैं कुछ गलत कर रही हूं. पर मेरे सामने इस के अलावा कोई रास्ता भी तो नहीं है,’’ माधुरी की चिंता उस के चेहरे से साफ झलक रही थी.
‘‘अच्छा माधुरी, सौरभ के पिता से गहनों की कीमत में छूट कराने के लिए तुम्हें सौरभ से कहना पड़ा था न?’’
‘‘हां.’’
‘‘सौरभ से तुम्हारी जानपहचान भी नहीं थी. सिर्फ इतना ही कि तुम्हारे साथ सौरभ भी एक ही स्कूल में पढ़ता था.’’
‘‘हां.’’
‘‘सौरभ के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी. काफी सारा पैसा उस के बैंक अकाउंट में था, जिसे खर्चने के लिए उसे अपने पिता की इजाजत लेने की जरूरत नहीं थी.’’
‘‘यह भी सही है.’’
‘‘सौरभ की शादी उस की मरजी से नहीं हुई थी. गूंगीबहरी होने के चलते अपनी पत्नी को वह पसंद नहीं करता था. कहीं न कहीं उस के मन में किसी दूसरी सुंदर लड़की की चाह थी.’’
‘‘तुम्हारी बातों में सचाई है. कई बार उस ने ऐसा कहा था. लेकिन तुम जिरह बहुत अच्छा कर लेती हो. देखना, तुम अच्छी वकील बनोगी.’’
‘‘वह खुद जवान और सुंदर है और तुम भी उस की सुंदरता की ओर खिंचने लगी थी.’’
‘‘यह भी सही है.’’
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‘‘फिर अब तो तुम मानोगी कि तुम से ज्यादा तुम्हारी शारीरिक सुंदरता उसे अपनी ओर खींच रही थी और पहली ही झलक में उस ने तुम में अपनी हवस पूरी की इच्छा की संभावना तलाश ली होगी. और जब तुम ने उस की सोने की महंगी अंगूठी स्वीकार कर ली तब वह पक्का हो गया कि अब तुम उस के जाल में आसानी से फंस सकती हो.
‘‘फिर वही हुआ, अपने पैसे का उस ने भरपूर इस्तेमाल किया और तुम पर बेतहाशा खर्च किया, जिस के नीचे तुम्हारा विवेक भी मर गया. तुम्हारी समझ कुंठित हो गई और तुम ने अपनी जिंदगी का सब से बड़ा धन गंवा दिया, जिसे कुंआरापन कहते हैं.’’
माधुरी के माथे पर पसीने की बूंदें छलक आईं.
‘‘बोल तृप्ति बोल, अपने मन की बात खुल कर मेरे सामने रख,’’ माधुरी उत्सुकता से उस की बातें सुन रही थी.
‘‘माधुरी, अब जिस सैक्स सुख के लिए मर्द शादी तक इंतजार करता है, वही उसे उस के पहले ही मिल जाए और उसे यह विश्वास हो जाए कि अपने पैसों से तुम्हारी जैसी लड़कियों को आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता है, तो वह अपनी पत्नी को तलाक देने और दूसरी से शादी करने का झंझट क्यों मोल लेगा?
‘‘फिर वह अच्छी तरह जानता है कि उस की पत्नी की बदौलत ही उस के पास इतनी दौलत है और उसे तलाक देते ही उस को इस जायदाद से हाथ धोना पड़ जाएगा. मुकदमे का झंझट होगा, सो अलग.
‘‘मुझे तो लगता है, तुम किसी बड़ी साजिश की शिकार होने वाली हो. तुम से उस का मन भर गया है. अब वह तुम्हें अपने दोस्त को सौंपना चाहता है.’’
‘‘नहींनहीं…’’ अचानक माधुरी के मुंह से चीख सी निकली.
‘‘पर, इस सब में केवल सौरभ ही कुसूरवार नहीं है, तुम भी हो. तुम ने क्या सोच कर अंगूठी अपने जीजाजी और मां से छिपाई.
‘‘जीजाजी के सामने ही क्यों नहीं कहा कि सौरभ, यह अंगूठी तुम्हें उपहार में दे रहा है. मां को भी क्यों नहीं बताया कि लाख मना करने पर भी सौरभ ने अंगूठी नहीं ली.
‘‘अगर तुम ने ऐसा किया होता तो फिर सौरभ समझ जाता कि उस ने गलत जगह अपनी गोटी डाली है और वह आगे बात न बढ़ाता. जवानी और पैसे के लालच में तुम्हारी मति मारी गई थी. तुम गलत को सही और सही को गलत समझने लगी थी.
‘‘तुम्हारी मां गहनों में छूट चाहती थीं. हर ग्राहक की चाहत सस्ता खरीदने की होती है, उन की भी थी. लेकिन वे नाजायज कुछ नहीं चाहती थीं. उन्होंने धूप में अपने बाल सफेद नहीं किए हैं. उन को सौरभ की अंगूठी देने के पीछे की मंशा पता चल गई थी, इसीलिए ऐसे लोगों से दूर रहने की सलाह दी थी.
‘‘अब तुम्हारी शादी जिस लड़के से तय हुई है, तुम उस से बात करती. उस के स्वभाव, व्यवहार और चरित्र का पता लगाती. अगर पसंद नहीं आता तो साफ इनकार कर देती. यह एक सही कदम होता. इस के लिए कई लोग तुम्हारी मदद में आगे आ जाते. तुम्हारा आत्मविश्वास बना रहता और मनोबल भी ऊंचा रहता.’’
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माधुरी बोली, ‘‘एक गिलास पानी पिला तृप्ति. अब मैं सब समझ गई हूं. कल घर लौट जाऊंगी. मां से बोल दूंगी, आगे की पढ़ाई के लिए समझने मैं तृप्ति के पास आई थी. मां पूछेंगी तो तुम भी यही कह देना.’’
तृप्ति ने कहा, ‘‘कल सुबह मैं चाची को फोन कर के बता दूंगी. सौरभ को अभी तुम बोल दो. अभी वह भी सोया न होगा. बनारस आने की तैयारी में लगा होगा. उस से कहो कि मैं अब गांव लौट रही हूं. मांबाबूजी का दिल दुखाना नहीं चाहती. तुम्हारा घर तोड़ कर किसी की आह नहीं लेना चाहती.
‘‘मुझे पूरा भरोसा है कि सौरभ खुश होगा कि बला उस के सिर से टलेगी.’’
तृप्ति ने सच ही कहा था. सौरभ अभी जाग रहा था और थोड़ी देर पहले ही मुंबई वाले अपने दोस्त से कहा था, ‘यार, अब इस बला को तुम संभालो. वह सुंदर है. खर्च करोगे तो तुम्हारी हो जाएगी. जब मन भर जाएगा तो कुछ दे कर उस के गांव वाली ट्रेन पर बिठा देना. अब मुझे एक दूसरी मिल गई है.’
सौरभ ने एक छोटा सा जवाब दिया था, ‘जैसी तुम्हारी इच्छा. मैं रिजर्वेशन कैंसिल करा देता हूं.’
माधुरी का मन अब हलका था, ‘‘तृप्ति, अब एक काम और कर दे. कल क्यों आज ही घर में फोन कर दे. अभी रात के 12 बजे हैं. मांबाबूजी बहुत चिंतित होंगे. मैं चुपके से यहां आ गई हूं.’’
‘‘अच्छा, बोलती हूं…’’ तृप्ति माधुरी की मां को समझा रही थी, ‘‘चिंता न करें आंटीजी. माधुरी मेरे पास आ गई है. वह आगे पढ़ना चाहती है. आप ने उस को घर से निकलने पर बंदिश लगा दी थी न, इसलिए… हां, उसे बता कर निकलना चाहिए था… अच्छा प्रणाम, माधुरी सो गई है, कल सुबह बात कर लेगी.’’
फोन कट गया. माधुरी को अपने किए पर पछतावा तो था, पर आगे साजिश में फंसने से बच जाने की खुशी भी थी. साथ ही, अपनी सहेली तृप्ति पर गर्व भी था. दोनों सहेलियां बात करतेकरते सो गईं.
‘‘मैं ने डरतेडरते कहा था, ‘इस को वापस लेने से इनकार कर दिया मां.’
‘‘यह सुन कर मां ने कठोर आवाज में पूछा था, ‘किस ने? उस छोकरे ने या उस के बाप ने?’
‘‘मैं ने कहा था, ‘उस के पिताजी नहीं थे, आज वही था.’
‘‘मां ने कहा था, ‘अंगूठी निकाल दे. कल मैं लौटा आऊंगी. बेवकूफ लड़की, तुम नहीं जानती, यह सुनार का छोकरा तुझ पर चारा डाल रहा है. उस की मंशा ठीक नहीं है. अब आगे से उस की दुकान पर मत जाना.’
‘‘मां की बात मुझे बिलकुल नहीं सुहाई. पिछली बार जब मैं उस की दुकान पर गई थी तब तो दाम कम कराने के लिए उसी से पैरवी करवा रही थीं. अब जब इतना बड़ा उपहार अपनी इच्छा से दिया तो नखरे कर रही हैं.
‘‘सच कहूं तृप्ति, मां के इस बरताव से मेरा सौरभ के प्रति और झुकाव बढ़ गया. उस दिन के बाद से मैं उस की दुकान पर जाने का बहाना ढूंढ़ने लगी.
‘‘एक दिन मौका मिल ही गया. बड़े वाले जीजाजी घर आए थे. मां ने जब भाभी के लिए खरीदे गए गहनों को दिखाया तो वे बोले, ‘सुनार ने वाजिब दाम लगाया है. मुझे भी उपहार में देने के लिए एक अंगूठी की जरूरत है. सलहज की उंगली का नाप आप के पास है ही, इस से थोड़ी अलग डिजाइन की अंगूठी मैं भी उसी दुकान से ले लेता हूं.’
‘‘मां ने कहा था, ‘माधुरी साथ चली जाएगी. दुकानदार का लड़का इस का परिचित है. कुछ छूट भी कर देगा.’
‘‘मां ने अंगूठी लौटाने वाली बात को जानबूझ कर छिपा लिया था. वे नहीं चाहती थीं कि मुझ पर किसी तरह का आरोप लगे. मेरी शादी के लिए बाबूजी किसी नौकरी वाले लड़के की तलाश में थे.
‘‘दूसरे दिन जीजाजी के साथ जब मैं उस की दुकान पर पहुंची तब सौरभ किसी औरत को अंगूठी दिखा रहा था. मुझे देखते ही वह मुसकराया और बैठने के लिए इशारा किया. जब जीजाजी ने अंगूठी दिखाने को कहा तो उस के पिताजी ने उसी की ओर इशारा कर दिया.
‘‘तभी कोई फोन आया और उस के पिताजी बोले, ‘2-3 घंटे के लिए मैं कुछ जरूरी काम से बाहर जा रहा हूं. ये लोग पुराने ग्राहक हैं, इन का ध्यान रखना.’
‘‘यह सुन कर सौरभ के चेहरे पर मुसकान थिरक गई. वह बोला, ‘जी बाबूजी, मैं सब संभाल लूंगा.’’
‘‘जीजाजी ने एक अंगूठी पसंद की और उस का दाम पूछा. मैं ने कहा, ‘मेरे जीजाजी हैं.’
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‘‘मेरा इशारा समझ कर सौरभ ने कहा, ‘फिर तो जो आप दे दें, मुझे मंजूर होगा.’
‘‘जीजाजी ने बहुत कहा, लेकिन वह एक ही रट लगाए रहा, ‘आप जो देंगे, ले लूंगा. आप लोग पुराने ग्राहक हैं. आप लोगों से क्या मोलभाव करना है.’
‘‘जीजाजी धर्मसंकट में थे. उन्होंने अपना डैबिट कार्ड बढ़ाते हुए कहा, ‘अब मैं भी मोलभाव नहीं करूंगा. आप जो दाम भर देंगे, स्वीकार कर लूंगा.’
‘‘खैर, जीजाजी ने जो सोचा था, उस से कम दाम उस ने लगाया. उस ने हम लोगों के लिए मिठाई मंगाई और जब जीजाजी मुंह धोने वाशबेसिन की ओर गए तो वही पुरानी अंगूठी मुझे जबरन थमाते हुए कहा था, ‘अब फिर न लौटाना… नहीं तो मेरा दिल टूट जाएगा.’
‘‘जीजाजी देख न लें, इसलिए मैं ने उस अंगूठी को ले कर छिपा लिया.
‘‘उस दिन के बाद हम दोनों मौका निकाल कर चोरीछिपे एकदूसरे से मिलते रहे. सौरभ से मालूम हुआ कि उस के पिताजी ने पिछले साल उस की शादी एक अमीर लड़की से दहेज के लालच में करा दी थी. लड़की तो सुंदर है, लेकिन गूंगीबहरी है. वह अपने मातापिता की एकलौती बेटी है. मां का देहांत हो चुका है. पिता ने अपनी जायदाद लड़की के नाम कर दी है. शहर में एक तिमंजिला मकान भी उस की नाम से है. उस मकान से हर महीने अच्छा किराया मिलता है. रुपयापैसा उसी के अकाउंट में जमा होता है. पिताजी ने भी गहनों की यह दुकान उस के नाम कर दी है.
‘‘तृप्ति, सौरभ मुझ पर इतना पैसा खर्च करने लगा कि मैं उसी की हो कर रह गई.’’
‘‘यानी तुम ने अपना जिस्म भी उसे सौंप दिया?’’ तृप्ति ने हैरान होते हुए पूछ लिया.
‘‘क्या करती… कई बार हम लोग होटल में मिले. कोई न कोई बहाना बना कर मैं सुबह निकलती और उस के बुक कराए होटल में पहुंच जाती. शुरू में तो काफी हिचकिचाई, पर बाद में उस के आग्रह के आगे झुक गई.’’
‘‘फिर…?’’ तृप्ति ने पूछा.
‘‘फिर क्या… मैं हर वक्त उसी के बारे में सोचने लगी. उस ने मुझे भरोसा दिलाया कि कुछ दिनों बाद वह अपनी पत्नी को तलाक दे देगा और मुझ से शादी कर लेगा.’’
‘‘और तुम्हें विश्वास हो गया?’’
‘‘उस ने शपथ ले कर कहा है. मुझे विश्वास है कि वह धोखा नहीं देगा.’’
‘‘अब बताओ कि तुम यहां कैसे आई हो?’’ तृप्ति ने उत्सुकता से पूछा.
‘‘एक हफ्ता पहले जीजाजी आए थे. उन्होंने बाबूजी के सामने एक लड़के का प्रस्ताव रखा था. लड़का एक सरकारी दफ्तर में है, लेकिन बचपन से ही उस का एक पैर खराब है, इसलिए लंगड़ा कर चलता है. वह मुझ से बिना दहेज की शादी करने को तैयार है.
‘‘बाबूजी तैयार हो गए. मां ने विरोध किया तो कहने लगे, ‘एक पैर ही तो खराब है. सरकारी नौकरी है. उसे कई रियायतें भी मिलेंगी.
‘‘जब मां भी तैयार हो गईं तो मैं ने मुंह खोला, पर उन्होंने मुझे डांटते हुए कहा, ‘तुम्हें तो नौकरी मिली नहीं, अब मुश्किल से नौकरी वाला एक लड़का मिला है, तो जबान चलाती है.’
‘‘लेकिन, बात यह नहीं थी. किसी ने मां के कान में डाल दिया था कि मेरा सौरभ से मिलनाजुलना है. मां को तो उसी समय शक हो गया था, जब मैं अंगूठी बिना लौटाए आ गई थी.
‘‘इधर सौरभ मेरे लिए कुछ न कुछ हमेशा खरीदता रहता था. अब घर में क्याक्या छिपाती मैं. कोई न कोई बहाना बनाती, पर मां का शक दूर न होता. वे भी चाहती थीं कि किसी तरह जल्द से जल्द मेरी शादी हो जाए, ताकि समाज में उन की नाक न कटे.
‘‘मां का मुझ पर भरोसा नहीं रहा था. उन्होंने मुझे गांव से बाहर जाने की मनाही कर दी. उधर बाबूजी ने जीजाजी के प्रस्ताव पर हामी भर दी.
लड़के ने मेरा फोटो और बायोडाटा देख कर शादी करने का फैसला मुझ पर छोड़ दिया. बिना मुझ से सलाह लिए मांबाबूजी ने अगले महीने मेरी शादी की तारीख भी पक्की कर दी है.
‘‘मांबाबूजी का यह रवैया मुझे नागवार लगा, इसलिए मैं सौरभ से इस संबंध में बात करना चाहती थी. मैं उस के साथ कहीं भाग जाना चाहती थी.
लेखक- एन.के. सोमानी
मनीष उस समय 27 साल का था. उस ने अपनी शिक्षा पूरी कर मुंबई के उपनगर शिवड़ी स्थित एक काल सेंटर से अपने कैरियर की शुरुआत की, जहां का ज्यादातर काम रात को ही होता था. अमेरिका के ग्राहकों का जब दिन होता तो भारत की रात, अत: दिनचर्या अब रातचर्या में बदल गई.
मनीष एक खातेपीते परिवार का बेटा था. सातरस्ते पर उस का परिवार एक ऊंची इमारत में रहता था. पिता का मंगलदास मार्केट में कपड़े का थोक व्यापार था. मनीष की उस पुरानी गंदी गलियों में स्थित मार्केट में पुश्तैनी काम करने में कोई रुचि नहीं थी. परिवार के मना करने पर भी आई.टी. क्षेत्र में नौकरी शुरू की, जो रात को 9 बजे से सुबह 8 बजे तक की ड्यूटी के रूप में करनी पड़ती. खानापीना, सोनाउठना सभी उलटे हो गए थे.
जवानी व नई नौकरी का जोश, सभी साथी लड़केलड़कियां उसी की उम्र के थे. दफ्तर में ही कैंटीन का खाना, व्यायाम का जिमनेजियम व आराम करने के लिए रूम थे. उस कमरे में जोरजोर से पश्चिमी तर्ज व ताल पर संगीत चीखता रहता. सभी युवा काम से ऊबने पर थोड़ी देर आ कर नाच लेते. साथ ही सिगरेट के साथ एक्स्टेसी की गोली का भी बियर के साथ प्रचलन था, जिस से होश, बदहोश, मदहोश का सिलसिला चलता रहता.
शोभना एक आम मध्यम आय वाले परिवार की लड़की थी. हैदराबाद से शिक्षा पूरी कर मुंबई आई थी और मनीष के ही काल सेंटर में काम करती थी. वह 3 अन्य सहेलियों के साथ एक छोटे से फ्लैट में रहती थी. फ्लैट का किराया व बिजलीपानी का जो भी खर्च आता वे तीनों सहेलियां आपस में बांट लेतीं. भोजन दोनों समय बाहर ही होता. एक समय तो कंपनी की कैंटीन में और दिन में कहीं भी सुविधानुसार.
रात को 2-3 बजे के बीच मनीष व शोभना को डिनर बे्रक व आराम का समय मिलता. डिनर तो पिज्जा या बर्गर के रूप में होता, बाकी समय डांस में गुजरता. थोड़े ही दिनों में दफ्तर के एक छोटे बूथ में दोनों का यौन संबंध हो गया. मित्रों के बीच उन के प्रेम के चर्चे आम होने लगे तो साल भर बीतने पर दोनों का विवाह भी हो गया, जिस में उन के काल सेंटर के अधिकांश सहकर्मी व स्टाफ आया था. विवाह उपनगर के एक हालीडे रिजोर्ट में हुआ. उस दिन सभी वहां से नशे में धुत हो कर निकले थे.
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दूसरे साल मनीष ने काल सेंटर की नौकरी से इस्तीफा दे कर अपने एक मित्र के छोटे से दफ्तर में एक मेज लगवा कर एक्सपोर्ट का काम शुरू किया. उन दिनों रेडीमेड कपड़ों की पश्चिमी देशों में काफी मांग थी. अत: नियमित आर्डर के मुताबिक वह कंटेनर से कोच्चि से माल भिजवाने लगा. उधर शोभना उसी जगह काम करती रही थी. अब उन दोनों की दिनचर्या में इतना अंतराल आ गया कि वे एक जगह रहते हुए भी हफ्तों तक अपने दुखसुख की बात नहीं कर पाते, गपशप की तो बात ही क्या थी. दोनों ही को फिलहाल बच्चे नहीं चाहिए थे, अत: शोभना इस की व्यवस्था स्वयं रखती. इस के अलावा घर की साफसफाई तो दूर, फ्लैट में कपड़े भी ठीक से नहीं रखे जाते और वे चारों ओर बिखरे रहते. मनीष शोभना के भरोसे रहता और उसे काम से आने के बाद बिलकुल भी सुध न रहती. पलंग पर आ कर धम्म से पड़ जाती थी.
मनीष का रहनसहन व संगत अब ऐसी हो गई थी कि उसे हर दूसरे दिन पार्टियों में जाना पड़ता था जहां रात भर पी कर नाचना और उस पर से ड्रग लेना पड़ता था. इन सब में और दूसरी औरतों के संग शारीरिक संबंध बनाने में इतना समय व रुपए खर्च होने लगे कि उस के अच्छेभले व्यवसाय से अब खर्च पूरा नहीं पड़ता.
किसी विशेष दिन शोभना छुट्टी ले कर मनीष के साथ रहना चाहती तो वह उस से रूखा व्यवहार करता. साथ में रहना या रेस्तरां में जाना उसे गवारा न होता. शोभना मन मार कर अपने काम में लगी रहती.
यद्यपि शोभना ने कई बार मनीष को बातोंबातों में सावधान रहने व पीने, ड्रग आदि से दूर रहने के संकेत दिए थे पर वह झुंझला कर सुनीअनसुनी कर देता, ‘‘तुम क्या जानो कमाई कैसे की जाती है. नेटवर्क तो बनाना ही पड़ता है.’’
एक बार मनीष ने एक कंटेनर में फटेपुराने चिथड़े भर कर रेडीमेड के नाम से दस्तावेज बना कर बैंक से रकम ले ली, लेकिन जब पोर्ट के एक जूनियर अधिकारी ने कंटेनर खोल कर तलाशी ली तो मनीष के होश उड़ गए. कोर्ट में केस न दर्ज हो इस के लिए उस ने 15 लाख में मामला तय कर अपना पीछा छुड़ाया, लेकिन उस के लिए उसे कोच्चि का अपना फ्लैट बेचना पड़ा था. वहां से बैंक को बिना बताए वापस मुंबई शोभना के साथ आ कर रहने लगा. बैंक का अकाउंट भी गलत बयानी के आधार पर खोला था. अत: उन लोगों ने एफ.आई.आर. दर्ज करा कर फाइल बंद कर दी.
इस बीच मनीष की जीवनशैली के कारण उस के लिवर ने धीरेधीरे काम करना बंद कर दिया. खानापीना व किडनी के ठीक न चलने से डाक्टरों ने उसे सलाह दी कि लिवर ट्रांसप्लांट के बिना अब कुछ नहीं हो सकता. इस बीच 4-6 महीने मनीष आयुर्वेदिक दवाआें के चक्कर में भी पड़ा रहा. लेकिन कोई फायदा न होता देख कर आखिर शोभना से उसे बात करनी पड़ी कि लिवर नया लगा कर पूरी प्रक्रिया में 3-4 महीने लगेंगे, 12-15 लाख का खर्च है. पर सब से बड़ी दुविधा है नया लिवर मिलने की.
‘‘मैं ने आप से कितनी बार मना किया था कि खानेपीने व ड्रग के मामले में सावधानी बरतो पर आप मेरी सुनें तब न.’’
‘‘अब सुनासुना कर छलनी करने से क्या मैं ठीक हो जाऊंगा?’’
सारी परिस्थिति समझ कर शोभना ने मुंबई के जे.जे. अस्पताल में जा कर अपने लिवर की जांच कराई. उस का लिवर ऐसा निकला जिसे मनीष के शरीर ने मंजूर कर लिया. अपने गहनेजेवर व फ्लैट को गिरवी रख एवं बाकी राशि मनीष के परिवार से जुटा कर दोनों अस्पताल में इस बड़ी शल्यक्रिया के लिए भरती हो गए.
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मनीष को 6 महीने लगे पूरी तरह ठीक होने में. उस ने अब अपनी जीवन पद्धति को पूरी तरह से बदलने व शोभना के साथ संतोषपूर्वक जीवन बिताने का निश्चय कर लिया है. दोनों अब बच्चे की सोचने लगे हैं, ता
लेखिका- कादंबरी मेहरा
मैं अनीता जोशी, माताजी की नर्स हूं.
माताजी जब बड़े भैया के यहां से वापस आई थीं, एकदम चुस्त- दुरुस्त थीं. खूब हंसहंस कर बाबूजी को बता रही थीं कि क्या खाया, क्या पिया, किस ने पकाया.
बड़े भैया जब भी कनाडा से भारत आते मां को अपने फ्लैट पर ले जाते और अमृतसर से अपनी छोटी बहन मंजू को भी बुला लेते. कई सालों से यह सिलसिला चल रहा है. महीना भर के लिए मेरी भी मौज हो जाती. मैं भी उधर ही रहती. माताजी पिछले 4 सालों से मेरे ऊपर पूरी तरह निर्भर थीं. 90 साल की उम्र ठहरी, शरीर के सभी जरूरी काम बिस्तर पर ही निबटाने पड़ते थे.
वैसे देखा जाए तो सुरेश और उन की पत्नी संतोष को सेवा करनी चाहिए. मांबाप के घर में जो रह रहे हैं. कभी काम नहीं जमाया. एक तरह से बाबूजी का ही सब हथिया कर बैठ गए हैं. संतोष बीबीजी भी एकदम रूखी हैं. पता नहीं कैसे संस्कार पाए हैं. औरत होते हुए भी इन का दिल कभी अपनी सास के प्रति नहीं पसीजता. बस, अपने पति और बच्चों से मतलब या पति की गांठ से.
इधर कई महीनों से माताजी रात को आवाज लगाती थीं तो सुरेश का परिवार सुनीअनसुनी कर देता था. एक दिन बाबूजी ने सुरेश के बच्चों को फटकारा तो वह कहने लगे कि ऊपर तक आवाज सुनाई नहीं देती. आवाज लगाना फुजूल हुआ तो माताजी ने कटोरी पर चम्मच बजा कर घंटी बना ली. इस पर संतोष बीबीजी ने यह कह कर कटोरी की जगह प्लास्टिक की डब्बी रखवा दी कि कटोरी बजाबजा कर बुढि़या ने सिर में दर्द कर दिया.
मैं ड्यूटी पर आई तो माताजी ने कहा कि अनीता, तू ने मुझे रात को खाना क्यों नहीं दिया. मैं बोली कि खाना तो मैं बना कर जाती हूं और आशीष आप को दोनों समय खाना खिलाता है. मैं ने ऊपर जा कर छोटी बहू संतोष से पूछा तो वह बोलीं, ‘‘अरे, इस बुढि़या का तो दिमाग चल गया है. खाऊखाऊ हमेशा लगाए रखती है. खाना दिया था यह भूल गई.’’
अगले दिन बाबूजी से पूछा तो वह कहने लगे कि डाक्टर ने खाने के लिए मना किया है. रात का खाना खिलाने से इन का पेट खराब हो जाएगा. ताकत की दवाइयां दे गया है. आशीष खिला देता है.
मैं ने माताजी से पूछा, ‘‘डाक्टर आप को देखने आया था लेकिन आप ने तो नहीं बताया.’’
माताजी हैरान हो कर बोलीं, ‘‘कौन सा डाक्टर? अरे, मैं तो डा. चावला को दिखाती थी पर उन को मरे हुए तो 2 साल हो गए. दूसरे किसी डाक्टर को ये इसलिए नहीं दिखाते कि मुझ पर इन को पैसा खर्च करना पड़ेगा.’’
मैं ने फिर पूछा, ‘‘ताकत की गोलियां कहां हैं मांजी, दूध के संग उन्हें मेरे सामने ही ले लो.’’
वह बोलीं, ‘‘कौन सी गोलियां? मरने को बैठी हूं… झूठ क्यों बोलूंगी? 3 दिन से रात का खाना बंद कर दिया है मेरा. जा, पूछ, क्यों किया ऐसा.’’
मैं ने तरस खा कर जल्दी से एक अंडा आधा उबाला और डबल रोटी का एक स्लाइस ले कर अपने घर जाने से पहले उन्हें खिला दिया.
अगले दिन मेरी आफत आ गई. सुरेश बाबू ने मुझे डांटा और कहा कि जो वह कहेंगे वही मुझे करना पड़ेगा. रात को उन्हें पाखाना कौन कराएगा.
मैं ने दबी जबान से दलील दी कि भूख तो जिंदा इनसान को लगती ही है, तो चिल्ला पड़े, ‘‘तू मुझे सिखाएगी?’’
मैं भी मकानजायदाद वाली हूं. घर से कमजोर नहीं हूं. मेरा बड़ा बेटा डाक्टरी पढ़ रहा है. छोटा दर्जी की दुकान करता है. उसी की कमाई से फीस भरती हूं. दोनों मुझे यहां कभी न आने देते. मगर माताजी मेरे बिना रोने लगती हैं. मैं हूं भी कदकाठी से तगड़ी. माताजी 80 किलो की तो जरूर होंगी. उन्हें उठानाबैठाना आसान काम तो नहीं और मैं कर भी लेती हूं.
एक बार कनाडा से माताजी जिमर फ्रेम ले आई थीं जो वजन में हलका और मजबूत था. माताजी उसे पकड़ कर चल लेती थीं. अंदरबाहर भी हो आती थीं. पर तभी छोटी बहू के पिताजी को लकवा मार गया. अत: उन्होंने जिमर फ्रेम अपने पिताजी को भिजवा दिया.
बड़े भैया जब अगली बार आए तो अपनी मां को एक पहिएदार कुरसी दिला गए. मैं उसी पर बैठा कर उन को नहलानेधुलाने बाथरूम में ले जाती थी. मगर 2 साल पहले जब आशीष ने कंप्यूटर खरीदा तो संतोष बीबीजी ने उस की पुरानी मेज माताजी के कमरे में रखवा दी जिस से व्हील चेयर के लिए रास्ता ही नहीं बचा.
बड़े भैया कनाडा से आते तो अपनी मां के लिए जरूरत का सब सामान ले आते. भाभीजी सफाईपसंद हैं, एकदम कंचन सा सास को रखतीं. भाभीजी अपने हाथ से माताजी की पसंद का खाना बना कर खिलातीं. बाबूजी बड़े भैया के घर नहीं जाते थे. सुरेश ने कुछ ऐसा काम कर रखा था कि बाप बेटे से जुदा हो गया. बाबूजी के मन में अपने बड़े बेटे के प्रति कैसा भाव था यह तब देखने को मिला जब भैया माताजी से मिलने आए तो बाबूजी परदे के पीछे चले गए. इस के बाद ही बड़े भैया ने अलग मकान लिया और मां को बुलवा कर उन की सारी इच्छाओं को पूरा करते थे. तब मेरी भी खूब मौज रहती. वह मुझे 24 घंटे माताजी के पास रखते और उतने दिनों के पैसों के साथ इनाम भी देते.
फिर जब उन के कनाडा जाने का समय आता तो वह माताजी को वापस यहां छोड़ जाते और वह फिर उसी गंदी कोठरी में कैद हो जातीं. भाभीजी की लाई हुई सब चीजें एकएक कर गायब हो जातीं. मैं ने एक बार इस बात की बाबूजी से शिकायत की तो उलटा मुझ पर ही दोष लगा दिया गया. मैं ने जवाब दे दिया कि कल से नहीं आऊंगी, दूसरा इंतजाम कर लो. मगर माताजी ने मेरे नाम की जो रट लगाई कि उन का चेहरा देख कर मुझे अपना फैसला बदलना पड़ा.
खाना तो रोज बनता है इस घर में. बाबूजी को खातिर से खिलाते हैं मगर मांजी के लिए 2 रोटी नहीं हैं. यह वही मां है जिस ने किसी को कभी भूखा नहीं सोने दिया. देवर, ननद, सासससुर, बच्चे सब संग ही तो रहते थे. आज उसी का सब से लाड़ला बेटा उसे 2 रोटी और 1 कटोरी सब्जी न दे? क्या कोई दुश्मनी थी?
माताजी की सहेली भी मैं ही थी. एक दिन उन से पूछा तो कहने लगीं कि बाबूजी की ये खातिरवातिर कुछ नहीं करते. सब नीयत के खोटे हैं. बाबूजी के बैंक खाते में करोड़ों रुपए हैं इसलिए उन्हें मस्का लगाते हैं. मैं ठहरी औरत जात. 2-4 गहने थे उन्हें बेटी के नेगजोग में दे बैठी. इन पर बोझ नहीं डाला कभी. अब मैं खाली हाथ खर्चे ही तो करवा रही हूं. रोज दवाइयां, डाक्टर. ऊपर से मुझे दोष लगाते हैं कि तू मेरे गहने परायों को दे आई.
आज सुरेश अपनी बीवी को 5 हजार रुपया महीना जेबखर्च देता है. मेरा आदमी इसे देख कर भी नहीं सीखता. पहले तो ऐसा रिवाज नहीं था. औरतों को कौन जेबखर्च देता था.
माताजी की बाबूजी से नहीं बनती. कैसे बने? शराबी का अपना दिमाग तो होता नहीं. सुरेश के हाथ कठपुतली बन कर रह गए हैं. 10वीं में बेटा फेल हुआ तो उसे अपने साथ दुकानदारी में लगा लिया और पीना भी सिखा दिया. अब उसी नालायक से यारी निभा रहे हैं. माताजी कहती थीं कि देखना अनीता, जिस दिन मेरी आंखें बंद हो जाएंगी यह बाप की रोटीपानी भी बंद कर देगा. बाप को बोतल पकड़ा कर निचोड़ रहा है, ताकि जल्दी मरे.
माताजी कोसतीं कि इतनी बड़ी कोठी कौडि़यों के मोल बेच दी और इस दड़बे जैसे घर में आ बैठा, जहां न हवा है न रोशनी. मेरे कमरे में तो सूरज के ढलने या उगने का पता ही नहीं चलता. ऊपर से संतोष ने सारे घर का कबाड़ यहीं फेंक रखा है.
माताजी रोज अपनी कोठी को याद करती थीं. सुबह चिडि़यों को दाना डालती थीं. सूरज को निकलते देखतीं, पौधों को सींचतीं. ग्वाला गाय ले कर आता तो दूध सामने बैठ कर कढ़वातीं. लोकाट और आम के पेड़ थे, लाल फूलों वाली बेल थीं.
बड़े भैया के बच्चे सामने चबूतरे पर खेलते थे. बड़े भैया अच्छा कमाते थे. सारे घर का खर्च उठाते थे. सारा परिवार एक छत के नीचे रहता था और यह सुरेश की बहू डोली से उतरने के 4 दिन बाद से ही गुर्राने लगी. अपने घर की कहानी सुनातेसुनाते माताजी रो पड़तीं.
इस बार बड़े भैया जब आए तब जाने क्यों बाबूजी खुद ही उन से बोलने लगे. भाभीजी ने पांव छुए तो फल उठा कर उन के आंचल में डाले. पास बैठ कर घंटों अच्छे दिनों की यादें सुनाने लगे. जब वह लोग माताजी को अपने फ्लैट पर ले गए तो मैं ने देखा कि उस रोज बाबूजी पार्क की बेंच पर अकेले बैठे रो रहे थे.
मैं रुक गई और पूछा, ‘‘क्या बात हो गई?’’ तो कहने लगे कि अनीता, आज तो मैं लुट गया. मेरा एक डिविडेंड आना था. सुरेश फार्म पर साइन करवाने कागज लाया था. मगर मैं ने कुछ अधिक ही पी रखी थी. उस ने बीच में सादे स्टांप पेपर पर साइन करवा लिए. नशा उतरने के बाद अपनी गलती पर पछता रहा हूं. अरे, यह सुरेश किसी का सगा नहीं है. पहले बड़े भाई के संग काम करता था तो उसे बरबाद किया. वह तो बेचारा मेहनत करने परदेस चला गया. मुझ से कहता था, भाई ने रकम दबा ली है और भाग निकला है. मैं भी उसे ही अब तक खुदगर्ज समझता रहा मगर बेईमान यह निकला.
मैं ने कहा, ‘‘अभी भी क्या बिगड़ा है. सबकुछ तो आप के पास है. बड़े को उस का हक दो और आप भी कनाडा देखो.’’
वह हताश हो कर बोले, ‘‘अनीता, कल तक सब था, आज लुट गया हूं. क्या मुंह दिखाऊंगा उसे. मुझे लगता है कि मैं ने इस बार बड़े से बात कर ली तो छोटे ने जलन में मुझे बरबाद कर दिया.’’
मन में आया कह दूं कि आप को तो रुपए की बोरी समझ कर संभाल रखा है. मांजी पर कुछ नहीं है इसलिए उन्हें बड़े भाई के पास बेरोकटोक जाने देता है. मगर मैं क्यों इतनी बड़ी बात जबान पर लाती.
होली की छुट्टियों में मैं गांव गई थी. जाते समय जमादारिन से कह गई थी कि माताजी को देख लेगी. 4 दिन बाद गांव से लौटी तो देखा माताजी बेहोश पड़ी थीं. बड़े भैया 1 माह की दवाइयां, खाने का दिन, समय आदि लिख कर दे गए थे. उसी डा. चावला को टैक्सी भेज कर बुलवाया था जिसे इन लोगों ने मरा बता दिया था. माताजी देख कर हैरान रह गई थीं. डाक्टर साहब ने हंस कर कहा था, ‘‘उठिए, मांजी, स्वर्ग से आप को देखने के लिए आया हूं.’’
बाबूजी ने मुझे बताया कि जब से तू गांव गई सुरेश ने एक भी दवाई नहीं दी. कहने लगा कि आशीष और विशेष की परीक्षाएं हैं, उस के पास दवा देने का दिन भर समय नहीं और मुझे तो ठीक से कुछ दिखता नहीं.
माताजी ब्लड प्रेशर की दवा पिछले 55 साल से खाती आ रही हैं. मुझे बाबूजी से मालूम हुआ कि दवा बंद कर देने से उन का दिल घबराया और सिर में दर्द होने लगा तो सुरेश ने आधी गोली नींद की दे दी थी. उस के बाद ही इन की हालत खराब हुई है.
मैं ने माताजी की यह हालत देखी तो झटपट बड़े भैया को फोन लगाया. सुनते ही वह दौड़े आए. बड़ी भाभी ने हिलाडुला कर किसी तरह उठाया और पानी पिलाया. माताजी ने आंखें खोलीं. थोड़ा मुसकराईं और आशीर्वाद दिया, ‘‘सुखी रहो…सदा सुहागिन बनी रहो.’’
बस, यही उन के आखिरी बोल थे. अगले 7 दिन वह जिंदा तो रहीं पर न खाना मांगा न उठ कर बैठ पाईं. डाक्टर ने कहा, सांस लेने में तकलीफ है. चम्मच से पानी बराबर देते रहिए.
मैं बैठी रही पर उन्होंने आंखें नहीं खोलीं. ज्यादा हालत बिगड़ी तो डाक्टर ने कहा कि इन्हें अस्पताल में भरती करवाना पड़ेगा.
सुरेश झट से बोला, ‘‘देख लो, बाबूजी. क्या फायदा ले जाने का, पैसे ही बरबाद होंगे.’’
तभी बड़ी भाभी ने अंगरेजी में बाबूजी को डांटा कि आप इन के पति हैं. यह घड़ी सोचने की नहीं बल्कि अपनी बीवी को उस के आखिरी समय में अच्छे से अच्छे इलाज मुहैया कराने की है, अभी इसी वक्त उठिए, आप को कोई कुछ करने से नहीं रोकेगा.
2 दिन बाद माताजी चल बसीं. उन का शव घर लाया गया. महल्ले की औरतें घर आईं तो संतोष बीबीजी ऊपर से उतरीं और दुपट्टा आंखों पर रख कर रोने का दिखावा करने लगीं.
अंदर मांजी को नहलानेधुलाने का काम मैं ने और बड़ी भाभी ने किया. बड़े भैया ने ही उन के दाहसंस्कार पर सारा खर्च किया.
कल माताजी का चौथा था. कालोनी की नागरिक सभा की ओर से सारा इंतजाम मुफ्त में किया गया. पंडाल लगा, दरी बिछाई गई. रस्म के मुताबिक सुरेश को सिर्फ चायबिस्कुट खिलाने थे.
सुबह 11 बजे मैं घर पहुंची तो देखा, बाबूजी उसी पलंग पर लेटे हुए थे जिस पर माताजी लेटा करती थीं. मैं ने उन्हें उठाया, कहा कि पलंग की चादरें भी नहीं बदलवाईं अभी किसी ने.
यह सुनते ही सुरेश चिल्लाए, ‘‘तेरा अब यहां कोई काम नहीं, निकल जा. होली की छुट्टी लेनी जरूरी थी. मार डाला न मेरी मां को. अब 4 दिन की नागा काट कर हिसाब कर ले और दफा हो.’’
‘‘माताजी को किस ने मारा, यह इस परिवार के लोगों को अच्छी तरह पता है. मुझे नहीं चाहिए तुम्हारा हिसाब.’’
मैं चिल्ला पड़ी थी. मेरा रोना निकल गया पर मैं रुकी नहीं. लंबेलंबे डग भर कर लौट पड़ी.
बाबूजी मेरे पीछेपीछे आए. मेरे कंधे पर हाथ रखा. उन की आंखों में आंसू थे, भर्राए गले से बोले, ‘‘अब मेरी बारी है, अनीता.’’