सबसे हसीन वह : दुल्हन के ससुराल आने के बाद क्या हुआ

इन दिनों अनुजा की स्थिति ‘कहां फंस गई मैं’ वाली थी. कहीं ऐसा भी होता है भला? वह अपनेआप में कसमसा रही थी.

ऊपर से बर्फ का ढेला बनी बैठी थी और भीतर उस के ज्वालामुखी दहक रहा था. ‘क्या मेरे मातापिता तब अंधेबहरे थे? क्या वे इतने निष्ठुर हैं? अगर नहीं, तो बिना परखे ऐसे लड़के से क्यों बांध दिया मुझे जो किसी अन्य की खातिर मु झे छोड़ भागा है, जाने कहां? अभी तो अपनी सुहागरात तक भी नहीं हुई है. जाने कहां भटक रहा होगा. फिर, पता नहीं वह लौटेगा भी या नहीं.’

उस की विचार शृंखला में इसी तरह के सैकड़ों सवाल उमड़ते घुमड़ते रहे थे. और वह इन सवालों को झेल भी रही थी.  झेल क्या रही थी, तड़प रही थी वह तो.

लेकिन जब उसे उस के घर से भाग जाने के कारण की जानकारी हुई, झटका लगा था उसे. उस की बाट जोहने में 15 दिन कब निकल गए. क्या बीती होगी उस पर, कोई तो पूछे उस से आ कर.

सोचतेविचारते अकसर उस की आंखें सजल हो उठतीं. नित्य 2 बूंद अश्रु उस के दामन में ढुलक भी आते और वह उन अश्रुबूंदों को देखती हुई फिर से विचारों की दुनिया में चली जाती और अपने अकेलेपन पर रोती.

अवसाद, चिड़चिड़ाहट, बेचैनी से उस का हृदय तारतार हुआ जा रहा था. लगने लगा था जैसे वह अबतब में ही पागल हो जाएगी. उस के अंदर तो जैसे सांप रेंगने लगा था. लगा जैसे वह खुद को नोच ही डालेगी या फिर वह कहीं अपनी जान ही गंवा बैठेगी. वह सोचती, ‘जानती होती कि यह ऐसा कर जाएगा तो ब्याह ही न करती इस से. तब दुनिया की कोई भी ताकत मु झे मेरे निर्णय से डिगा नहीं सकती थी. पर, अब मु झे क्या करना चाहिए? क्या इस के लौट आने का इंतजार करना चाहिए? या फिर पीहर लौट जाना ही ठीक रहेगा? क्या ऐसी परिस्थिति में यह घर छोड़ना ठीक रहेगा?’

वक्त पर कोई न कोई उसे खाने की थाली पहुंचा जाता. बीचबीच में आ कर कोई न कोई हालचाल भी पूछ जाता. पूरा घर तनावग्रस्त था. मरघट सा सन्नाटा था उस चौबारे में. सन्नाटा भी ऐसा, जो भीतर तक चीर जाए. परिवार का हर सदस्य एकदूसरे से नजरें चुराता दिखता. ऐसे में वह खुद को कैसे संभाले हुए थी, वह ही जानती थी.

दुलहन के ससुराल आने के बाद अभी तो कई रस्में थीं जिन्हें उसे निभाना था. वे सारी रस्में अपने पूर्ण होने के इंतजार में मुंहबाए खड़ी भी दिखीं उसे. नईनवेली दुलहन से मिलनजुलने वालों का आएदिन तांता लग जाता है, वह भी वह जानती थी. ऐसा वह कई घरों में देख चुकी थी. पर यहां तो एकबारगी में सबकुछ ध्वस्त हो चला था. उस के सारे संजोए सपने एकाएक ही धराशायी हो चले थे. कभीकभार उस के भीतर आक्रोश की ज्वाला धधक उठती. तब वह बुदबुदाती, ‘भाड़ में जाएं सारी रस्मेंरिवाज. नहीं रहना मु झे अब यहां. आज ही अपना फैसला सुना देती हूं इन को, और अपने पीहर को चली जाती हूं. सिर्फ यही नहीं, वहां पहुंच कर अपने मांबाबूजी को भी तो खरीखोटी सुनानी है.’ ऐसे विचार उस के मन में उठते रहे थे, और वह इस बाबत खिन्न हो उठती थी.

इन दिनों उस के पास तो समय ही समय था. नित्य मंथन में व्यस्त रहती थी और फिर क्यों न हो मंथन, उस के साथ ऐसी अनूठी घटना जो घटी थी, अनसुल झी पहेली सरीखी. वह सोचती, ‘किसे सुनाऊं मैं अपनी व्यथा? कौन है जो मेरी समस्या का निराकरण कर सकता है? शायद कोई भी नहीं. और शायद मैं खुद भी नहीं.’

फिर मन में खयाल आता, ‘अगर परीक्षित लौट भी आया तो क्या मैं उसे अपनाऊंगी? क्या परीक्षित अपने भूल की क्षमा मांगेगा मुझ से? फिर कहीं मेरी हैसियत ही धूमिल तो नहीं हो जाएगी?’ इस तरह के अनेक सवालों से जूझ रही थी और खुद से लड़ भी रही थी अनुजा. बुदबुदाती, ‘यह कैसी शामत आन पड़ी है मु झ पर? ऐसा कैसे हो गया?’

तभी घर के अहाते से आ रही खुसुरफुसुर की आवाजों से वह सजग हो उठी और खिड़की के मुहाने तक पहुंची. देखा, परीक्षित सिर  झुकाए लड़खड़ाते कदमों से, थकामांदा सा आंगन में प्रवेश कर रहा था.

उसे लौट आया देखा सब के मुर झाए चेहरों की रंगत एकाएक बदलने लगी थी. अब उन चेहरों को देख कोई कह ही नहीं सकता था कि यहां कुछ घटित भी हुआ था. वहीं, अनुजा के मन को भी सुकून पहुंचा था. उस ने देखा, सभी अपनीअपनी जगहों पर जड़वत हो चले थे और यह भी कि ज्योंज्यों उस के कदम कमरे की ओर बढ़ने लगे. सब के सब उस के पीछे हो लिए थे. पूरी जमात थी उस के पीछे.

इस बीच परीक्षित ने अपने घर व घर के लोगों पर सरसरी निगाह डाली. कुछ ही पलों में सारा घर जाग उठा था और सभी बाहर आ कर उसे देखने लगे थे जो शर्म से छिपे पड़े थे अब तक. पूरा महल्ला भी जाग उठा था.

जेठानी की बेटी निशा पहले तो अपने चाचा तक पहुंचने के लिए कदम बढ़ाती दिखी, फिर अचानक से अपनी नई चाची को इत्तला देने के खयाल से उन के कमरे तक दौड़तीभागतीहांफती पहुंची. चाची को पहले से ही खिड़की के करीब खड़ी देख वह उन से चिपट कर खड़ी हो गई. बोली कुछ भी नहीं. वहीं, छोटा संजू दौड़ कर अपने चाचा की उंगली पकड़ उन के साथसाथ चलने लगा था.

परीक्षित थके कदमों से चलता हुआ, सीढि़यां लांघता हुआ दूसरी मंजिल के अपने कमरे में पहुंचा. एक नजर समीप खड़ी अनुजा पर डाली, पलभर को ठिठका, फिर पास पड़े सोफे पर निढाल हो बैठ गया और आंखें मूंदें पड़ा रहा.

मिनटों में ही परिवार के सारे सदस्यों का उस चौखट पर जमघट लग गया. फिर तो सब ने ही बारीबारी से इशारोंइशारों में ही पूछा था अनुजा से, ‘कुछ बका क्या?’

उस ने एक नजर परीक्षित पर डाली. वह तो सो रहा था. वह अपना सिर हिला उन सभी को बताती रही, अभी तक तो नहीं.’

एक समय ऐसा भी आया जब उस प्रागंण में मेले सा समां बंध गया था. फिर तो एकएक कर महल्ले के लोग भी आते रहे, जाते रहे थे और वह सो रहा था जम कर. शायद बेहोशी वाली नींद थी उस की.

अनुजा थक चुकी थी उन आनेजाने वालों के कारण. चौखट पर बैठी उस की सास सहारा ले कर उठती हुई बोली, ‘‘उठे तो कुछ खिलापिला देना, बहू.’’ और वे अपनी पोती की उंगली पकड़ निकल ली थीं. माहौल की गर्माहट अब आहिस्ताआहिस्ता शांत हो चुकी थी. रात भी हो चुकी थी. सब के लौट जाने पर अनुजा निरंतर उसे देखती रही थी. वह असमंजस में थी. असमंजस किस कारण से था, उसे कहां पता था.

परिवार के, महल्ले के लोगों ने भी सहानुभूति जताते कहा था, ‘बेचारे ने क्या हालत बना रखी है अपनी. जाने कहांकहां, मारामारा फिरता रहा होगा? उफ.’

आधी रात में वह जगा था. उसी समय ही वह नहाधो, फिर से जो सोया पड़ा, दूसरी सुबह जगा था. तब अनुजा सो ही कहां पाई थी. वह तो तब अपनी उल झनोंपरेशानियों को सहेजनेसमेटने में लगी हुई थी.

वह उस रात निरंतर उसे निहारती रही थी. एक तरफ जहां उस के प्रति सहानुभूति थी, वहीं दूसरी तरफ गहरा रोष भी था मन के किसी कोने में.

सहानुभूति इस कारण कि उस की प्रेमिका ने आत्महत्या जो कर ली थी और रोष इस बात पर कि वह उसे छोड़ भागा था और वह सजीसंवरी अपनी सुहागसेज पर बैठी उस के इंतजार में जागती रही थी. वह उसी रात से ही गायब था. फिर सुहागरात का सुख क्या होता है, कहां जान पाई थी वह.

उस रात उस के इंतजार में जब वह थी, उस का खिलाखिला चेहरा पूनम की चांद सरीखा दमक रहा था. पर ज्यों ही उसे उस के भाग खड़े होने की खबर मिली, मुखड़ा ग्रहण लगे चांद सा हो गया था. उस की सुर्ख मांग तब एकदम से बु झीबु झी सी दिखने लगी थी. सबकुछ ही बिखर चला था.

तब उस के भीतर एक चीत्कार पनपी थी, जिसे वह जबरन भीतर ही रोके रखे हुए थी. फिर विचारों में तब यह भी था, ‘अगर उस से मोहब्बत थी, तो मैं यहां कैसे? जब प्यार निभाने का दम ही नहीं, तो प्यार किया ही क्यों था उस से? फिर इस ने तो 2-2 जिंदगियों से खिलवाड़ किया है. क्या इस का अपराध क्षमायोग्य है? इस के कारण ही तो मु झे मानसिक यातनाएं  झेलनी पड़ी हैं.

मेरा तो अस्तित्व ही अधर में लटक गया है इस विध्वंसकारी के कारण. जब इतनी ही मोहब्बत थी तो उसे ही अपना लेता. मेरी जिंदगी से खिलवाड़ करने का हक इसे किस ने दिया?’ तब उस की सोच में यह भी होता, ‘मैं अनब्याही तो नहीं कहीं? फिर, कहीं यह कोई बुरा सपना तो नहीं?’

दूसरे दिन भी घर में चुप्पी छाई रही थी. वह जागा था फिर से. घर वालों को तो जैसे उस के जागने का ही इंतजार था.  झटपट उस के लिए थाली परोसी गई. उस ने जैसेतैसे खाया और एक बार फिर से सो पड़ा और बस सोता ही रहा था. यह दूसरी रात थी जो अनुजा जागते  बिता रही थी. और परीक्षित रातभर जाने क्याक्या न बड़बड़ाता रहा था. बीचबीच में उस की सिसकियां भी उसे सुनाई पड़ रही थीं. उस रात भी वह अनछुई ही रही थी.

फिर जब वह जागा था, अनुजा के समीप आ कर बोला, तब उस की आवाज में पछतावे सा भाव था, ‘‘माफ करना मु झे, बहुत पीड़ा पहुंचाई मैं ने आप को.’’

‘आप को,’ शब्द जैसे उसे चुभ गया. बोली कुछ भी नहीं. पर इस एक शब्द ने तो जैसे एक बार में ही दूरियां बढ़ा दी थीं. उस के तो तनबदन में आग ही लग गई थी.

रिमझिम, जो उस का प्यार थी, इस की बरात के दिन ही उस ने आत्महत्या कर ली थी. लौटा, तो पता चला. फिर वह भाग खड़ा हुआ था.

लौटने के बाद भी अब परीक्षित या तो घर पर ही गुमसुम पड़ा रहता या फिर कहीं बाहर दिनभर भटकता रहता. फिर जब थकामांदा लौटता तो बगैर कुछ कहेसुने सो पड़ता.

ऐसे में ही उस ने उसे रिमझिम झोड़ कर उठाया और पहली बार अपनी जबान खोली थी. तब उस का स्वर अवसादभरा था, ‘‘मैं पराए घर से आई हूं. ब्याहता हूं आप की. आप ने मु झ से शादी की है, यह तो नहीं भूले होंगे आप?’’

वह निरीह नजरों से उसे देखता रहा था. बोला कुछ भी नहीं. अनुजा को उस की यह चुप्पी चुभ गई. वह फिर से बोली थी, तब उस की आवाज विकृत हो आई थी.

‘‘मैं यहां क्यों हूं? क्या मुझे लौट जाना चाहिए अपने मम्मीपापा के पास? आप ने बड़ा ही घिनौना मजाक किया है मेरे साथ. क्या आप का यह दायित्व नहीं बनता कि सबकुछ सामान्य हो जाए और आप अपना कामकाज संभाल लो. अपने दायित्व को सम झो और इस मनहूसियत को मिटा डालो?’’

चंद लमहों के लिए वह रुकी. खामोशी छाई रही. उस खामोशी को खुद ही भंग करते हुए बोली, ‘‘आप के कारण ही पूरे परिवार का मन मलिन रहा है अब तक. वह भी उस के लिए जो आप की थी भी नहीं. अब मैं हूं और मु झे आप का फैसला जानना है. अभी और अभी. मैं घुटघुट कर जी नहीं सकती. सम झे आप?’’

अनुजा के भीतर का दर्द उस के चेहरे पर था, जो साफ  झलक रहा था. परीक्षित के चेहरे की मायूसी भी वह भलीभांति देख रही थी. दोनों के ही भीतर अलगअलग तरह के झंझावात थे,  झुंझलाहट थी.

परीक्षित उसे सुनता रहा था. वह उस के चेहरे पर अपनी नजरें जमाए रहा था. वह अपने प्रति उपेक्षा, रिमिझम के प्रति आक्रोश को देख रहा था. जब उस ने चुप्पी साधी, परीक्षित फफक पड़ा था और देररात फफकफफक कर रोता ही रहा था. अश्रु थे जो उस के रोके नहीं रुक रहे थे. तब उस की स्थिति बेहद ही दयनीय दिखी थी उसे.

वह सकपका गई थी. उसे अफसोस हुआ था. अफसोस इतना कि आंखें उस की भी छलक आई थीं, यह सोच कर कि ‘मु झे इस की मनोस्थिति को सम झना चाहिए था. मैं ने जल्दबाजी कर दी. अभी तो इस के क्षतविक्षत मन को राहत मिली भी नहीं और मैं ने इस के घाव फिर से हरे कर दिए.’

उस ने उसे चुप कराना उचित नहीं सम झा. सोचा, ‘मन की भड़ास, आंसुओं के माध्यम से बाहर आ जाए, तो ही अच्छा है. शायद इस से यह संभल ही जाए.’ फिर भी अंतर्मन में शोरगुल था. उस में से एक आवाज अस्फुट सी थी, ‘क्या मैं इतनी निष्ठुर हूं जो इस की वेदना को सम झने का अब तक एक बार भी सोचा नहीं? क्या स्त्री जाति का स्वभाव ही ऐसा होता है जो सिर्फ और सिर्फ अपना खयाल रखती है? दूसरों की परवा करना, दूसरों की पीड़ा क्या उस के आगे कोई महत्त्व नहीं रखती? क्या ऐसी सोच होती है हमारी? अगर ऐसा ही है तो बड़ी ही शर्मनाक बात है यह तो.’

उस की तंद्रा तब भंग हुई थी जब वह बोला, ‘‘शादी हो जाती अगर हमारी तो वह आप के स्थान पर होती आज. प्यार किया था उस से. निभाना भी चाहता था. पर इन बड़ेबुजुर्गों के कारण ही वह चल बसी. मैं कहां जानता था कि वह ऐसा कर डालेगी.’’

‘‘पर मेरा क्या? इस पचड़े में मैं दोषी कैसे? मु झे सजा क्यों मिल रही है? आप कहो तो अभी, इसी क्षण अपना सामान समेट कर निकल जाऊं?’’

‘‘देखिए, मु झे संभलने में जरा वक्त लगेगा. फिर मैं ने कब कहा कि आप यह घर छोड़ कर चली जाओ?’’

तभी अनुजा फिर से बिफर पड़ी, ‘‘वह हमारे वैवाहिक जीवन में जहर घोल गई है. अगर वह भली होती तो ऐसा कहर तो न ढाती? लाज, शर्म, परिवार का मानसम्मान, मर्यादा भी तो कोई चीज होती है जो उस में नहीं थी.’’

‘‘इतनी कड़वी जबान तो न बोलो उस के विषय में जो रही नहीं. ऊलजलूल बकना क्या ठीक है? फिर उस ने ऐसा क्या कर दिया?’’ वह एकाएक आवेशित हो उठा था.

वह एक बार फिर से सकपका गई थी. उसे, उस से ऐसे व्यवहार की अपेक्षा तो नहीं थी. फिर वह अब तक यह बात सम झ ही नहीं पाई थी कि गलत कौन है. क्या वह खुद? क्या उस का पति? या फिर वह नासपीटी?

देखतेदेखते चंद दिन और बीत गए. स्थिति ज्यों की त्यों ही बनी रही थी. अब उस ने उसे रोकनाटोकना छोड़ दिया था और समय के भरोसे जी रही थी.

परीक्षित अब भी सोते में, जागते में रोतासिसकता दिखता. कभी उस की नींद उचट जाने पर रात के अंधेरे में ही घर से निकल जाता. घंटों बाद थकाहारा लौटता भी तो सोया पड़ा होता. भूख लगे तो खाता अन्यथा थाली की तरफ निहारता भी नहीं. बड़ी गंभीर स्थिति से गुजर रहा था वह. और अनुजा झुंझलाती रहती थी.

ऐसे में अनुजा को उस की चिंता सताने भी लगी थी. इतने दिनों में परीक्षित ने उसे छुआ भी नहीं था. न खुद से उस से बात ही की थी उस ने.

उस दिन पलंग के समीप की टेबल पर रखी रिमझिम की तसवीर फ्रेम में जड़ी रखी दिखी तो वह चकित हो उठा. उस ने उस फ्रेम को उठाया, रिमझिम की उस मुसकराती फोटो को देर तक देखता रहा. फिर यथास्थान रख दिया और अनुजा की तरफ देखा. तब अनुजा ने देखा, उस की आंखें नम थीं और उस के चेहरे के भाव देख अनुजा को लगा जैसे उस के मन में उस के लिए कृतज्ञता के भाव थे.

अनुजा सहजभाव से बोली, ‘‘मैं ने अपनी हटा दी. रिमझिम दीदी अब हमारे साथ होंगी, हर पल, हर क्षण. आप को बुरा तो नहीं लगा?’’

उस ने उस वक्त कुछ न कहा. काफी समय बाद उस ने उस से पूछा, ‘‘तुम ने खाना खाया?’’ फिर तत्काल बोला, ‘‘हम दोनों इकट्ठे खाते हैं. तुम बैठी रहो, मैं ही मांजी से कह आता हूं कि वे हमारी थाली परोस दें.’’

खाना खाने के दौरान वह देर तक रिमझिम के विषय में बताता रहा. आज पहली बार ही उस ने अनुजा को, ‘आप’ और ‘आप ने’ कह कर संबोधित नहीं किया था. और आज पहली बार ही वह उस से खुल कर बातें कर रहा था. आज उस की स्थिति और दिनों की अपेक्षा सामान्य लगी थी उसे. और जब वह सोया पड़ा था, उस रात, एक बार भी न सिसका, न रोया और न ही बड़बड़ाया. यह देख अनुजा ने पहली बार राहत की सांस ली.

मानसिक यातना से नजात पा कर अनुजा आज गहरी नींद में थी. परीक्षित उठ चुका था और उस के उठने के इंतजार में पास पड़े सोफे पर बैठा दिखा. पलंग से नीचे उतरते जब अनुजा की नजर  टेबल पर रखी तसवीर पर पड़ी तो चकित हो उठी. मुसकरा दी. परीक्षित भी मुसकराया था उसे देख तब.

अब उस फोटोफ्रेम में रिमझिम की जगह अनुजा की तसवीर लगी थी.

‘तुम मेरी रिमझिम हो, तुम ही मेरी पत्नी अनुजा भी. तुम्हारा हृदय बड़ा विशाल है और तुम ने मेरे कारण ही महीनेभर से बहुत दुख  झेला है, पर अब नहीं. मैं आज ही से दुकान जा रहा हूं.’

और तभी, अनुजा को महसूस हुआ कि उस की मांग का सिंदूर सुर्ख हो चला है और दमक भी उठा है. कुछ अधिक ही सुर्ख, कुछ अधिक ही दमक रहा है.

कुरसी का करिश्मा : कैसे रानी बन गई कलावती

दीपू के साथ आज मालिक भी उस के घर पधारे थे. उस ने अंदर कदम रखते ही आवाज दी, ‘‘अजी सुनती हो?’’

‘‘आई…’’ अंदर से उस की पत्नी कलावती ने आवाज दी.

कुछ ही देर बाद कलावती दीपू के सामने खड़ी थी, पर पति के साथ किसी अनजान शख्स को देख कर उस ने घूंघट कर लिया.

‘‘कलावती, यह राजेश बाबू हैं… हमारे मालिक. आज मैं काम पर निकला, पर सिर में दर्द होने के चलते फतेहपुर चौक पर बैठ गया और चाय पीने लगा, पर मालिक हालचाल जानने व लेट होने के चलते इधर ही आ रहे थे.

‘‘मुझे चौक पर देखते ही पूछा, ‘क्या आज काम पर नहीं जाना.’

‘‘इन को सामने देख कर मैं ने कहा, ‘मेरे सिर में काफी दर्द है. आज नहीं जा पाऊंगा.’

‘‘इस पर मालिक ने कहा, ‘चलो, मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूं.’

‘‘देखो, आज पहली बार मालिक हमारे घर आए हैं, कुछ चायपानी का इंतजाम करो.’’

कलावती थोड़ा सा घूंघट हटा कर बोली, ‘‘अभी करती हूं.’’

घूंघट के हटने से राजेश ने कलावती का चेहरा देख लिया, मानो उस पर आसमान ही गिर पड़ा. चांद सा दमकता चेहरा, जैसे कोई अप्सरा हो. लंबी कदकाठी, लंबे बाल, लंबी नाक और पतले होंठ. सांचे में ढला हुआ उस का गदराया बदन. राजेश बाबू को उस ने झकझोर दिया था.

इस बीच कलावती चाय ले आई और राजेश बाबू की तरफ बढ़ाती हुई बोली, ‘‘चाय लीजिए.’’

राजेश बाबू ने चाय का कप पकड़ तो लिया, पर उन की निगाहें कलावती के चेहरे से हट नहीं रही थीं. कलावती दीपू को भी चाय दे कर अंदर चली गई.

‘‘दीपू, तुम्हारी बीवी पढ़ीलिखी कितनी है?’’ राजेश बाबू ने पूछा.

‘‘10वीं जमात पास तो उस ने अपने मायके में ही कर ली थी, लेकिन यहां मैं ने 12वीं तक पढ़ाया है,’’ दीपू ने खुश होते हुए कहा.

‘‘दीपू, पंचायत का चुनाव नजदीक आ रहा है. सरकार ने तो हम लोगों के पर ही कुतर दिए हैं. औरतों को रिजर्वेशन दे कर हम ऊंची जाति वालों को चुनाव से दूर कर दिया है. अगर तुम मेरी बात मानो, तो अपनी पत्नी को उम्मीदवार बना दो.

‘‘मेरे खयाल से तो इस दलित गांव में तुम्हारी बीवी ही इंटर पास होगी?’’ राजेश बाबू ने दीपू को पटाने का जाल फेंका.

‘‘आप की बात सच है राजेश बाबू. दलित बस्ती में सिर्फ कलावती ही इंटर पास है, पर हमारी औकात कहां कि हम चुनाव लड़ सकें.’’

‘‘अरे, इस की चिंता तुम क्यों करते हो? मैं सारा खर्च उठाऊंगा. पर मेरी एक शर्त है कि तुम दोनों को हमेशा मेरी बातों पर चलना होगा,’’ राजेश बाबू ने जाल बुनना शुरू किया.

‘‘हम आप से बाहर ही कब थे राजेश बाबू? हम आप के नौकरचाकर हैं. आप जैसा चाहेंगे, वैसा ही हम करेंगे,’’ दीपू ने कहा.

‘‘तो ठीक है. हम कलावती के सारे कागजात तैयार करा लेंगे और हर हाल में चुनाव लड़वाएंगे,’’ इतना कह कर राजेश बाबू वहां से चले गए.

कुछ दिन तक चुनाव प्रचार जोरशोर से चला. राजेश बाबू ने इस चुनाव में पैसा और शराब पानी की तरह बहाया. इस तरह कलावती चुनाव जीतने में कामयाब हो गई.

कलावती व दीपू राजेश बाबू की कठपुतली बन कर हर दिन उन के यहां दरबारी करते. खासकर कलावती तो कोई भी काम उन से पूछे बिना नहीं करती थी.

एक दिन एकांत पा कर राजेश बाबू ने घर में कलावती के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘कलावती, एक बात कहूं?’’

‘‘कहिए मालिक,’’ कलावती राजेश बाबू के हाथ को कंधे से हटाए बिना बोली.

‘‘जब मैं ने तुम्हें पहली बार देखा था, उसी दिन मेरे दिल में तुम्हारे लिए प्यार जाग गया था. तुम को पाने के लिए ही तो मैं ने तुम्हें इस मंजिल तक पहुंचाया है. आखिर उस अनपढ़ दीपू के हाथों

की कठपुतली बनने से बेहतर है कि तुम उसे छोड़ कर मेरी बन जाओ. मेरी जमीनजायदाद की मालकिन.’’

‘‘राजेश बाबू, मैं कैसे यकीन कर लूं कि आप मुझ से सच्चा प्यार करते हैं?’’ कलावती नैनों के बाण उन पर चलाते हुए बोली.

‘‘कल तुम मेरे साथ चलो. यह हवेली मैं तुम्हारे नाम कर दूंगा. 5 बीघा खेत व 5 लाख रुपए नकद तुम्हारे खाते में जमा कर दूंगा. बोलो, इस से ज्यादा भरोसा तुम्हें और क्या चाहिए.’’

‘‘बस… बस राजेश बाबू, अगर आप इतना कर सकते हैं, तो मैं हमेशा के लिए दीपू को छोड़ कर आप की हो जाऊंगी,’’ कलावती फीकी मुसकान के साथ बोली.

‘‘तो ठीक है,’’ राजेश ने उसे चूमते हुए कहा, ‘‘कल सवेरे तुम तैयार रहना.’’

दूसरे दिन कलावती तैयार हो कर आई. राजेश बाबू के साथ सारा दिन बिताया. राजेश बाबू ने अपने वादे के मुताबिक वह सब कर दिया, जो उन्होंने कहा था.

2 दिन बाद राजेश बाबू ने कलावती को अपने हवेली में बुलाया. वह पहुंच गई, तो राजेश बाबू ने उसे अपने आगोश में भरना चाहा, तभी कलावती अपने कपड़े कई जगह से फाड़ते हुए चीखी, ‘‘बचाओ… बचाओ…’’

कुछ पुलिस वाले दौड़ कर अंदर आ गए, तो कलावती राजेश बाबू से अलग होते हुए बोली, ‘‘इंस्पैक्टर साहब, यह शैतान मेरी आबरू से खेलना चाह रहा था. देखिए, मुझे अपने घर बुला कर किस तरह बेइज्जत करने पर तुल गया. यह भी नहीं सोचा कि मैं इस पंचायत की मुखिया हूं.’’

इंस्पैक्टर ने आगे बढ़ कर राजेश बाबू को धरदबोचा और उस के हाथों में हथकड़ी डालते हुए कहा, ‘‘यह आप ने ठीक नहीं किया राजेश बाबू.’’

राजेश बाबू ने गुस्से में कलावती को घूरते हुए कहा, ‘‘धोखेबाज, मुझ से दगाबाजी करने की सजा तुम्हें जरूर मिलेगी. आज तू जिस कुरसी पर है, वह कुरसी मैं ने ही तुझे दिलाई है.’’

‘‘आप ने ठीक कहा राजेश बाबू. अब वह जमाना लद गया है, जब आप लोग छोटी जातियों को बहलाफुसला कर खिलवाड़ करते थे. अब हम इतने बेवकूफ नहीं रहे.

‘‘देखिए, इस कुरसी का करिश्मा, मुखिया तो मैं बन ही गई, साथ ही आप ने रातोंरात मुझे झोंपड़ी से उठा कर हवेली की रानी बना दिया. लेकिन अफसोस, रानी तो मैं बन गई, पर आप राजा नहीं बन सके. राजा तो मेरा दीपू ही होगा इस हवेली का.’’

राजेश बाबू अपने ही बुने जाल में उलझ गए.

मिट्टी का तेल: चिंकी को किस बात का डर था

बूआ और फूफा गुड़गांव से अपने बेटे और नई बहू के साथ मिलने आए थे. दिन भर का कार्यक्रम था. खाना खा कर उन्हें वापस जाना भी था. उमाशंकर ने भी अपने बेटे अतुल की शादी कुछ माह पहले ही की थी. शादी के बाद बूआ और फूफा पहली बार आए थे. स्वागत का विशेष प्रबंध था.

उमाशंकर की पत्नी राजरानी ने झिड़क कर कहा, ‘‘कुछ तो सोच कर बोला करो. बहुएं घर में हैं और सुन भी रही हैं.’’

उमाशंकर ने झिड़की की परवा न कर हंसते हुए कहा, ‘‘अरे यार, उन्हें ही तो सुना रहा हूं. समय पर चेतावनी मिल जाए तो आगे कोई गड़बड़ नहीं होगी और तुम भी आराम से उन पर राज कर सकोगी.’’

‘‘मुझे ऐसा कोई शौक नहीं,’’ राजरानी ने समझदारी से कहा, ‘‘मेरी बहू सुशील, सुशिक्षित और अच्छे संस्कार वाली है. कोई शक?’’

गुड़गांव से आए फूफाजी उठ कर कुछ देर पहले हलके होने के लिए बाथरूम गए थे. जब लौटे तो हंस रहे थे.

कौशल्या ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘किस बात पर हंस रहे हो? बाथरूम में जो पोस्टर चिपका हुआ है उसे पढ़ कर आए हो?’’

‘‘अजीबोगरीब पोस्टर बाथरूम और अपने कमरे में चिपकाना आजकल के नौजवान लड़केलड़कियों का शौक है, पर मुझे हंसी उस पर नहीं आ रही है,’’ फूफाजी ने उत्तर दिया.

‘‘तो फिर?’’ कौशल्या ने पूछा.

फूफाजी ने उमाशंकर से पूछा, ‘‘क्यों भई, बाथरूम में मिट्टी का तेल क्यों रखा हुआ है?’’

उमाशंकर ने जोरदार हंसी के साथ जो उत्तर दिया उस से न चाहते हुए भी दोनों नई बहुएं सहम गईं.

रात के अंधेरे में चिंकी ने बेचैनी से पूछा, ‘‘पिताजी क्या सच कह रहे थे?’’

‘‘क्या कह रहे थे?’’ अतुल ने चिंकी का हाथ पकड़ कर खींचते हुए पूछा.

‘‘वही मिट्टी के तेल वाली बात,’’ चिंकी ने हाथ छुड़ाते हुए कहा.

‘‘ओ हो, तुम भी कितनी मूर्ख हो,’’ अतुल ने चिढ़ कर कहा, ‘‘पिताजी मजाक कर रहे थे और उन्हें मजाक करने की आदत है. तुम औरतों की कमजोरी यही है कि मजाक नहीं समझतीं. अब उस दिन बिना बात तुम्हारी मम्मी भी भड़क गई थीं.’’

‘‘मेरी मां तुम्हारी भी तो कुछ लगती हैं. बेचारी कितनी सीधीसादी हैं. उन का मजाक उड़ाना कोई अच्छी बात थी?’’ चिंकी ने क्रोध से कहा, ‘‘मेरी मां के बारे में कभी कुछ मत कहना.’’

‘‘अच्छा बाबा माफ करो,’’ अतुल ने प्यार से चिंकी को फिर पास खींचा, ‘‘अब तो चुप हो जाओ.’’

‘‘मैं चुप कैसे रह सकती हूं,’’ चिंकी ने शंका से पूछा, ‘‘बताओ न, क्या पिताजी सच कह रहे थे?’’

अब अतुल चिढ़ गया. खीज कर बोला, ‘‘हां, सच कह रहे थे. तो फिर? और यह भी सुनो. इस घर में पहले भी 3-4 बहुएं जलाई जा चुकी हैं और शायद अब तुम्हारी बारी है.’’

चिंकी छिटक कर दूर हो गई. उस रात समझौते की कोई गुंजाइश नहीं थी.

अगले दिन सबकुछ सामान्य था क्योंकि सब अपने- अपने काम रोज की तरह कर रहे थे. कोई तनाव नहीं. सबकुछ एक बदबू के झोंके की तरह उड़ गया था. फिर भी चिंकी जितनी बार बाथरूम जाती, मिट्टी के तेल की बोतल को नई दृष्टि से देखती थी और तरहतरह के दुष्ट विचार मन में आ जातेथे.

एकांत पा कर मां के नाम पत्र लिखा. सारी बातें विस्तार से लिखीं कि शादी में कहीं दहेज में तो कोई कमी नहीं रह गई? लेनेदेने में तो कहीं कोई चूक नहीं हो गई? अतुल को तो किसी तरह मना लेगी, पर ससुर के लिए आने वाली होली पर सूट का कपड़ा और सास के लिए कांजीवरम वाली साड़ी जो जानबूझ कर नहीं दी गई थी, अब अवश्य दे देना. हो सके तो अतुल के लिए सोने की चेन और सास के लिए कंगन भी बनवा देना. पता नहीं कब क्या हो जाए? वैसे माहौल देखते हुए ऐसी कोई आशंका नहीं है. ऊपर से सब का व्यवहार अच्छा है और प्यार से रखते हैं.

पत्र पढ़ कर मां घबरा गईं.

‘‘मेरा मन तो बड़ा घबरा रहा है,’’ मां ने कहा, ‘‘आप जाइए और चिंकी को कुछ दिनों के लिए ले आइए.’’

‘‘अब ऐसे कैसे ले आएं?’’ पिताजी ने चिंता से कहा, ‘‘चिंकी ने किसी की शिकायत भी तो नहीं की है. ले आने का कोई कारण तो होना चाहिए. हम दोनों का रक्तचाप ठीक है और मधुमेह की भी शिकायत नहीं है.’’

‘‘यह कोई हंसने की बात है,’’ मां ने आंसू रोकते हुए कहा, ‘‘कुछ तो बात हुई होगी जिस से चिंकी इतना परेशान हो गई. जो कुछ उस ने मांगा है वह होली पर दे आना. मेरी बेटी को कुछ हो न जाए.’’

‘‘कुछ नहीं होगा. तुम बेकार में दुखी हो रही हो,’’ पिताजी ने कहा, ‘‘उमाशंकरजी को हंसीमजाक करने की आदत है. दहेज के लिए उन्होंने आज तक कोई शिकायत नहीं की.’’

‘‘आदमी का मन कब फिर जाए कोई कह सकता है क्या? आप समझा कर अतुल को एक चिट्ठी लिख दीजिए,’’ मां ने कहा.

‘‘मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा,’’ पिताजी ने दृढ़ता से कहा, ‘‘हां, तुम चिंकी को जरूर लिख दो. कोई चिंता की बात नहीं है. सब ठीक हो जाएगा.’’

मां ने नाराजगी से पति को देखा और चिंकी को सांत्वना का पत्र लिखने बैठ गईं.

होली आई तो अतुल और चिंकी को घर आने की दावत दी. दामाद का खूब सत्कार हुआ. कुछ अधिक ही.

चिंकी ने मां को अलग ले जा कर पूछा, ‘‘आप ने सूट का कपड़ा और साड़ी खरीदी?’’

‘‘नहीं, तेरे पिताजी नहीं मानते. कहते हैं कि फालतू देने से लालच बढ़ जाता है. फिर कोई मांग भी तो नहीं की. हां, अतुल के लिए सोने की चेन बनवा दी है,’’ मां ने प्यार से कहा.

‘‘मां, बस तुम भी…चिंकी ने निराशा से कहा,’’ भुगतना तो मुझे ही पड़ेगा. आप को क्या. बेटी ब्याह दी, किस्सा खत्म. क्या अखबार नहीं पढ़तीं? टीवी नहीं देखतीं? हर रोज बहुओं के साथ हादसे हो रहे हैं.’’

‘‘बेटी, तेरे सासससुर ऐसे नहीं हैं,’’ मां ने समझाने की कोशिश की.

‘‘ठीक है मां…’’ चिंकी ने गिरते आंसुओं को थाम लिया.

जब बेटी और दामाद को बिदा किया तो ढेरों मिठाई और पकवान साथ में दिया. हजारहजार रुपए से टीका भी कर दिया.

अतुल ने विरोध किया, ‘‘मम्मीजी, इतना सब देने की क्या जरूरत है?’’

‘‘बेटा, करना तो बहुत कुछ चाहते थे पर अभी तो इतना ही है,’’ सास ने कहा, ‘‘तुम सब खुश रहो यही मन की इच्छा है.’’

‘‘मम्मीजी, आप का आशीर्वाद है तो सब ठीक ही होगा,’’ अतुल ने जल्दी से कहा, ‘‘अब चलें, देर हो रही है.’’

‘‘उमाशंकरजी और अपनी मम्मी को हमारा आदर सहित प्रणाम कहना,’’ पिताजी ने कहा.

ससुराल आने पर चिंकी बाथरूम गई तो मिट्टी के तेल की बोतल को अपनी जगह पाया. पता नहीं क्या होगा? सासससुर को शिकायत का कोई अवसर नहीं देगी. वैसे धीरेधीरे अतुल को रास्ते पर लाना होगा. जल्दी से जल्दी दूसरा घर या तबादले का प्रबंध करना पड़ेगा. मन के किसी एक कोने में आशंका का दिया जल रहा था.

छुट्टी का दिन था. रात हो चली थी. अतुल किसी काम से बाहर गया हुआ था. अचानक घर की रोशनी चली गई. घोर अंधेरा छा गया. अकसर आधे घंटे में बिजली आ जाती थी, पर आज बहुत देर हो गई.

अंधेरे में क्या करे कुछ सूझ नहीं रहा था.

उमाशंकर ने टटोलते हुए कहा, ‘‘राजरानी, एक टार्च थी न, कहां है? कुछ याद है.’’

‘‘आप की मेज की दराज में है,’’ राजरानी ने कहा, ‘‘पर उस का क्या करोगे? बैटरी तो है नहीं. बैटरी लीक कर गई थी तो फेंक दी थी.’’

उधर रसोई में टटोलते हुए और कुछ बर्तन इधरउधर गिराते हुए राजरानी बड़बड़ा रही थी, ‘‘मरी माचिस भी कहां रख दी, मिल ही नहीं रही है. और यह अतुल भी पता नहीं अंधेरे में कहां भटक रहा होगा.’’

अगर अचानक अंधेरा हो जाए तो बहुत देर तक कुछ नहीं सूझता. राजरानी, उमाशंकर और चिंकी तीनों ही कुछ न कुछ ढूंढ़ रहे थे, पर कभी दीवार से तो कभी फरनीचर से और कभी दरवाजे से टकरा जाते थे.

कमरे में टटोलते हुए चिंकी के हाथ में कुछ आया. स्पर्श से ध्यान आया कि कुछ दिन पहले उस ने एक लैंप देखा था. शायद वही है. पता नहीं कब से पड़ा था. अब बिना तेल के तो जल नहीं सकता.

उसे ध्यान आया, मिट्टी के तेल की बोतल बाथरूम में रखी है. कुछ तो करना होगा. दीवार के सहारे धीरेधीरे कमरे से बाहर निकली. पहला कमरा सास का था. फिर टीवी रूम था. आगे वाला बाथरूम था. दरवाजा खुला था. कुंडी नहीं लगी थी. एक कदम आगे कमोड था. बोतल तक हाथ पहुंचने के लिए कमोड पर पैर रख कर खड़े होना था. चिंकी यह सब कर रही थी, पर न जाने क्यों उस का दिल जोरों से धड़क रहा था.

जैसे ही बोतल हाथ लगी उसे मजबूती से पकड़ लिया. आहिस्ता से नीचे उतरी. फिर से दीवार के सहारे अपने कमरे में पहुंची. अब लैंप का ढक्कन खोल कर उस में तेल डालना था. अंधों की तरह एक हाथ में लैंप पकड़ा और दूसरे हाथ में बोतल. कुछ अंदर गया तो कुछ बाहर गिरा.

लो कितनी मूर्ख हूं मैं? चिंकी बड़बड़ाते हुए बोली. अब माचिस कहां है? माचिस इतनी देर से उस की सास को नहीं मिली तो उसे क्या मिलेगी? सारी मेहनत बेकार गई. अतुल तो सिगरेट भी नहीं पीता.

तभी चिंकी को ध्यान आया कि पिछले माह वह अतुल के साथ एक होटल में गई थी. होटल की ओर से उस के नाम वाली माचिस हर ग्राहक को उपहार में दी गई थी. अतुल ने वह माचिस अपनी कोट की जेब में डाल ली थी. माचिस को अभी भी जेब में होना चाहिए.

जल्दी से तेल की बोतल नीचे रखी और कपड़ों की अलमारी तक पहुंची. सारे कपड़े टटोलते हुए वह कोट पकड़ में आया. गहरी सांस ली और जेब में हाथ डाला. माचिस मिल गई. वह बहुत खुश हुई. जैसे ही जलाने लगी बोतल पर पैर लगा और सारा तेल गिर कर फैल गया.

उमाशंकर ने पूछा, ‘‘राजरानी, मिट्टी के तेल की बदबू कहां से आ रही है? क्या तुम ने तेल की बोतल तो नहीं गिरा दी?’’

‘‘अरे, मैं तो कब से यहां रसोई में खड़ी हूं,’’ राजरानी ने कहा, ‘‘मरी माचिस ढूंढ़ रही हूं.’’

‘‘अब छोड़ो भी माचिसवाचिस,’’ उमाशंकर ने कहा, ‘‘यहां आ जाओ और बैठ कर बिजली आने का इंतजार करो.’’

चिंकी ने माचिस जलाई और गिरी बोतल को हाथ में उठा लिया.

उमाशंकर ने लाइट की चमक देखी तो चिंकी के कमरे की ओर आए और वहां जो नजारा देखा तो सकपका गए. झट से दौड़ कर गए और चिंकी के हाथ से जलती माचिस की तीली छीन ली और अपने हाथ से मसल कर उसे बुझा दी.

‘‘लड़की तू कितनी पागल है?’’ उमाशंकर ने डांट कर कहा, ‘‘तू भी जलती और सारे घर में आग लग जाती.’’

तभी बिजली आ गई और सब की आंखें चौंधिया गईं. चिंकी ने जो दृश्य देखा समझ गई कि वह कितनी बड़ी भूल करने जा रही थी. घबरा कर कांपने लगी.

उमाशंकर ने हंस कर उसे झूठी सांत्वना दी, ‘‘मरने की बड़ी जल्दी है क्या?’’

और चिंकी को जो शर्म आई वह कभी नहीं भूली. शायद भूलेगी भी नहीं.

हमसफर भी तुम ही हो : संस्कृति ने किसे चुना अपना जीवनसाथी

अविनाश सुबह समय पर उठा नहीं तो संस्कृति को चिंता हुई. उस ने अविनाश को उठाते हुए उस के माथे पर हाथ रखा. माथा तप रहा था. संस्कृति घबरा उठी. अविनाश को तेज बुखार था. 2 दिन से वह खांस भी रहा था.

संस्कृति ने कल इसी वजह से उसे औफिस जाने से मना कर दिया था. मगर आज तेज बुखार भी था. उस ने जल्दी से अविनाश को दवा खिला कर माथे पर ठंडे पानी की पट्टी रखी.

संस्कृति और अविनाश की शादी को अभी ज्यादा वक्त नहीं गुजरा था. 2 साल ही हुए थे. पिछले साल तक सासससुर साथ में रहते थे. मगर कोरोना में संस्कृति की जेठानी की मौत हो गई तो सासससुर बड़े बेटे के पास रहने चले गए. उस के बाद करोना का प्रकोप बढ़ता ही गया.

पिछले कुछ समय से टीवी चैनल्स पर दिल्ली के अस्पतालों में कोरोना से जूझने वालों की हालत देख कर वह वैसे भी परेशान थी. कहीं वैंटीलेटर नहीं, तो कहीं औक्सीजन नहीं। मरीजों को अस्पतालों में बैड तक नहीं मिल रहा था. ऐसे में अब उन का क्या होगा, यह सोच कर ही वह कांप उठी.

जल्दी से उस ने मां को फोन लगाया,”मां, अविनाश को सुबह से बहुत तेज बुखार है, क्या करूं?”

“बेटा, यह समय ही बुरा चल रहा है. राजू भी कोरोना पौजिटिव है वरना उसे भेज देती. हम खुद उस की देखभाल में लगे हुए हैं. तू ऐसा कर, जल्दी से डाक्टर को बुला और दवाएं शुरू कर.”

“हां मां, वह तो करना ही होगा. मेरी सास की भी तबीयत भी सही नहीं चल रही है. वरना जेठजी को ही बुला लेती.”

“घबरा नहीं, बेटी. धैर्य से काम ले. सब ठीक हो जाएगा,” मां ने समझाने का प्रयास किया.

संस्कृति ने पति का कोरोना टेस्ट कराया. तब तक फैमिली डाक्टर से पूछ कर दवाएं भी देती रही. इस बीच अविनाश की हालत ज्यादा खराब होने लगी तो वह उसे ले कर अस्पताल भागी.

2 अस्पतालों से निराश लौटने के बाद तीसरे में मुश्किल से बैड का इंतजाम हो सका. सासससुर और जेठ भी दूसरे शहर में थे सो मदद के लिए आ नहीं सके. वैसे भी दिल्ली में लौकडाउन लगा हुआ था. रिश्तेदार चाह कर भी उस की मदद करने नहीं आ सकते थे.

आसपड़ोस वालों ने कोरोना के डर से दरवाजे बंद कर लिए. तब संस्कृति ने अपने दोस्तों को फोन लगाया पर सब ने बहाने बना दिए. अकेली संस्कृति पति की सेवा में लगी हुई थी.

अस्पताल में मरीजों की लंबी कतारों और मौत के तांडव के बीच किसी तरह संस्कृति खुद को बचाते हुए पति के लिए दौड़भाग करने में लग गई. कभी दवा की परची ले कर भागती तो कभी खाना ले कर। कभी डाक्टर से गिड़गिड़ाती तो कभी थकहार कर बैठ जाती.

उसे कोरोना वार्ड में जाने की इजाजत नहीं थी. बाहर रिसैप्शन में बैठ कर ही पति के ठीक होने की कामना करती रहती. उस पर पति की तबीयत अच्छी होने के बजाय बिगड़ती जा रही थी.

उस दिन भी डाक्टर ने परची में कई दवाएं जोड़ कर लिखीं. वह दवाएं लेने गई मगर जो सब से जरूरी दवा थी वही नहीं मिली. अस्पताल में उस का स्टौक खत्म हो चुका था. अब वह क्या करेगी? बदहवास सी वह अस्पताल के बैंच पर बैठ गई. बगल में ही परेशान सा एक युवक भी बैठा हुआ था.

संस्कृति ने उस की तरफ मुखातिब हो कर पूछा,”आप बता सकते हैं यह दवा मुझे कहां मिलेगी?”

“मैं खुद यह दवा ढूंढ़ रहा हूं. आसपास तो मिली नहीं. मेरे दोस्त ने बताया है कि नोएडा में उस की शौप है. उस ने कुछ दवाएं स्टौक कर के रखी हैं, सो वह मुझे दे देगा. अभी जाने की ही सोच रहा था. परची लाइए, मैं अपने साथ आप के लिए भी दवा ले आता हूं.”

“बहुत मेहरबानी होगी. सुबह से इस के लिए परेशान हो रही थी,”पसीना पोंछते हुए संस्कृति ने कृतज्ञ स्वर में कहा.

“मेहरबानी की कोई बात नहीं. इंसान ही इंसान के काम आता है. बस इतना शुक्र मनाइए कि दवा वहां मिल जाए,” कह कर वह चला गया.

करीब 2-3 घंटे बाद लौटा तो उस के चेहरे पर परेशानी की लकीरों के बावजूद खुशी थी.

“यह लीजिए, बड़ी मुश्किल से मिली, मगर मिल गई यही बहुत है.”

“बहुतबहुत शुक्रिया. कितने की है?” संस्कृति का चेहरा भी खिल उठा था.

“अरे नहीं, पैसे की जरूरत नहीं. आप पहले यह दवा खिलाइए मरीज को.

उस दिन के बाद से दोनों में बातचीत होने लगी. वह अपने भाई की देखभाल में लगा था और संस्कृति पति के लिए दौड़भाग कर रही थी. दोनों का दर्द एकसा ही था.

संस्कृति जब भी व्यथित होती तो उस के कंधों पर सिर रख कर रो लेती. कोई चीज लानी होती तो प्रतीक ले कर आता. संस्कृति को घर छोड़ कर आता.

धीरेधीरे तकलीफ के इन दिनों में 2 अजनबी एक बंधन में बंधते जा रहे थे. उन के बीच एक अजीब सा आकर्षण भी था, जो दोनों के इस बंधन को और मजबूत बना रहा था.

एक दिन अविनाश का औक्सीजन लेवल काफी घट गया. अस्पताल में औक्सीजन सिलैंडर नहीं था. तब प्रतीक ने यह जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली. पूरे दिन कड़ी धूप और गरमी में लाइन में लग कर आखिर वह औक्सीजन सिलैंडर ले कर ही लौटा था.

उस दिन संस्कृति ने पूछा था,”आप मेरे लिए इतना कुछ कर रहे हैं, इतना खयाल रखते हैं मगर क्यों? मैं तो आप की कुछ भी नहीं लगती. फिर बताओ न ऐसा क्यों कर रहे हो?”

“पहली बात, हर क्यों का जवाब नहीं होता और दूसरी बात, हम दोनों हमसफर नहीं हैं तो क्या हुआ हमदर्द तो हैं ना. आप के दर्द को मैं बहुत अच्छे से महसूस कर सकता हूं. आप की तकलीफ देख कर मुझे दुख होता है. बस, किसी भी तरह आप की मदद करना चाहता हूं.”

एक अनकहा सा मगर मजबूत साथ महसूस कर वह गमों के बीच भी मुसकरा उठी थी.

धीरेधीरे अविनाश की तबीयत और भी बिगड़ गई और उस को वैंटिलेटर पर रखना पड़ा. अस्पताल में वैंटीलेटर्स की भी कमी थी. कई वैंटिलेटर्स खराब हो गए.

बदहवास सी संस्कृति ने प्रतीक को फोन लगाया तो पता चला कि उस के भाई को भी कहीं और शिफ्ट करने की नौबत आ गई है.

“आप चिंता न करो संस्कृतिजी, मैं अपने भाई को जिस अस्पताल में ले कर जा रहा हूं, आप के पति को भी वहीं ले कर चलता हूं. वहां वैंटिलेटर की सुविधा है और डाक्टर्स भी अच्छे हैं,” प्रतीक ने उसे ढांढ़स बंधाया और फिर जल्दी ही शिफ्टिंग की सारी व्यवस्था करा दी.

शाम में सब निबट गया तो प्रतीक का हाथ पकड़ कर रुंधे गले से संस्कृति इतना ही कह सकी,”आप नहीं होते तो पता नहीं क्या होता.”

“मैं नहीं होता तो कोई और होता. अच्छे लोगों की मदद के लिए कोई ना कोई आ ही जाता है.”

“ऐसा नहीं है प्रतीकजी. मैं ने अपने दोस्तों, पड़ोसियों और परिचितों सब को देख लिया. इस कठिन समय में कोई भी मेरे साथ खड़ा नहीं. केवल आप हैं जिसे 4-6 दिन पहले तक मैं जानती भी नहीं थी. आज लगता है ऐसे आप के बिना रह ही नहीं सकती.”

उस की बात सुन कर प्रतीक ने एक अलग ही नजर नजर से संस्कृति की तरफ देखा और फिर मुसकरा कर चला गया.

संस्कृति के दिल में अजीब सी बेचैनी होने लगी. वह सोचने लगी कि प्रतीक का साथ इस परेशानी के समय में भी कितना सुकून दे जाता है. अस्पताल में मरीजों के रिश्तेदारों की भागदौड़ और परेशानियों के बीच भी चंद लम्हे वह केवल प्रतीक के बारे में सोचती रह गई.

इसी तरह 2-3 दिन और गुजरे. अविनाश की हालत काफी गंभीर थी. फिर एक दिन सुबहसुबह संस्कृति को सूचना मिली कि उस के पति की मृत्यु हो गई है. एक पल में संस्कृति को लगा जैसे वह अधूरी रह गई. उस का सबकुछ छिन गया है. प्रतीक ने जितना हो सका उसे धैर्य बंधाया. कोरोना की वजह से वह पति के शव को घर भी नहीं ला सकती थी. लौकडाउन लगा हुआ था. घर वालों का आना भी कठिन था. ऐसे में उसे समझ नहीं आ रहा था कि पति को अंतिम विदाई कैसे दे?

इस वक्त भी प्रतीक ही उस के काम आया. मुश्किल की इस घड़ी में सब से पहले उस ने संस्कृति को शांत कराया फिर उस के पति को शमशान तक ले जाने का सही से इंतजाम कराया. संस्कृति के साथ वह शमशान तक गया. फिर संस्कृति को उस के घर छोड़ने आया. संस्कृति लगातार रो रही थी. उस के हाथपैर कांप रहे थे.

प्रतीक समझ रहा था कि उस की तबीयत खराब है. वह अकेली है सो अपने खानेपीने को ले कर लापरवाह रहेगी तो और तबीयत खराब होगी.

तब प्रतीक ने हाथपैर धो कर और कपड़े बदल कर उस की रसोई में प्रवेश किया और सब से पहले चाय बनाई. संस्कृति के साथ खुद भी बैठ कर उस ने चाय पी. फिर संस्कृति को नहाने भेज कर खुद दालचावल बनाने लगा. संस्कृति को खाना खिला कर उस के लिए सब्जी, फल, दूध आदि का इंतजाम कर और सांत्वना दे कर वह वापस लौट गया.

2-3 दिनों बाद जब संस्कृति थोड़ी सामान्य हुई और पति की मौत के सदमे से उबरी तो उसे प्रतीक की याद आई. प्रतीक उस के लिए अपनों से बढ़ कर बन चुका था. मगर उसे पता नहीं था कि वह कहां रहता है, क्या जौब करता है? बस एक फोन नंबर था. उस ने फोन मिलाया तो नंबर बंद आ रहा था. संस्कृति घबरा उठी. वह प्रतीक से से संपर्क करना चाहती थी मगर ऐसा हो ना सका. 2-3 घंटे वह लगातार फोन ट्राई करती रही मगर फोन बंद ही आ रहा था.

अब उस से रहा नहीं गया. कुछ सोच कर वह उसी अस्पताल में पहुंची जहां उस के पति और प्रतीक का भाई ऐडमिट थे. वह रिसैप्शन एरिया में घूमघूम कर प्रतीक को खोजने लगी क्योंकि अकसर दोनों वहीं बैठे होते थे. फिर वह उसे खोजती हुई कैंटीन में भी गई. हर तरफ चक्कर लगा लिया मगर प्रतीक कहीं नजर नहीं आ रहा था. थक कर वह वापस रिसैप्शन में आ कर बैठ गई और सोचने लगी अब क्या करे.

तभी उसे वह नर्स नजर आई जिस से संस्कृति की जानपहचान हो गई थी. संस्कृति के पति की देखभाल वही नर्स करती थी. संस्कृति उसे अकसर अम्मां कह कर पुकारा करती. नर्स ने प्रतीक को भी उस के साथ कई बार देखा हुआ था. संस्कृति दौड़ कर नर्स के पास गई.

दुखी स्वर में नर्स ने कहा,”सौरी बेबी, तुम्हारे पति को हम बचा नहीं पाए.”

“जो लिखा था वह हो गया पर यह बताओ, अम्मां आप को प्रतीक याद है, जो अकसर मेरे साथ होता था? उस के भाई का इलाज चल रहा था.”

“हां बेबी, उस के भाई की भी तो मृत्यु हो गई. वह खुद भी ऐडमिट है. उसे भी कोरोना है और जानती हो, बेबी वह तेरे पति वाले बैड पर ही है. बैड नंबर 125.”

“सच अम्मां, आप उसे पहचानती हो ना?”

“हां बेबी, पहचानती हूं. तेरी बहुत हैल्प करता था. पर अब उस की हैल्प करने वाला कोई नहीं. अकेला है वह.”

“मैं हूं न अम्मां. अब उस के लिए किसी भी चीज की जरूरत पड़े तो मुझे बताना. मैं उस के अटेंडैंट के रूप में अपना नाम लिखवा देती हूं.”

“ठीक है, बेबी मैं बताती हूं तुझे.”

इस के बाद संस्कृति पूरे मन से प्रतीक की सेवा में लग गई. उस के लिए घर का खाना, फल, दवाएं वगैरह ले कर आना, उस की हर जिम्मेदारी अपने ऊपर लेना, डाक्टरों से उस की तबियत की हर वक्त जानकारी लेते रहना जैसे काम वह पूरे उत्साह से कर रही थी. इस बीच प्रतीक की हालत बिगड़ी और उसे आईसीयू ले जाने की जरूरत पड़ गई.

इस के लिए अस्पताल के क्लर्क ने उस के आगे एक फौर्म बढ़ाया. उस में मरीज के साथ क्या संबंध है, यह लिख कर हस्ताक्षर करना था.

संस्कृति कुछ पलों के लिए सोचती रही कि वह क्या लिखे. फिर उस ने उस खाली जगह पर ‘पत्नी’ लिख कर साइन कर दिया. क्लर्क को कागज थमा कर वह खुद में ही मुसकरा उठी.

2-3 दिन आईसीयू में रह कर प्रतीक की हालत में सुधार शुरू हुआ और उसे कोविड वार्ड में वापस शिफ्ट कर दिया गया.

7-8 दिनों तक लगातार सुधार होने और रिपोर्ट नैगेटिव आने के बाद उसे डिस्चार्ज भी कर दिया गया. इतने दिनों तक संस्कृति ने भी अपना खानापीना और नींद भूल कर दिनरात प्रतीक की सेवा की थी.

डिस्चार्ज वाले दिन वह बहुत खुश थी. उस ने सीधा अपने घर के लिए कैब बुक किया और प्रतीक को अपने घर ले आई.

प्रतीक ने टोका तो संस्कृति ने थोड़े शरारती अंदाज में जवाब दिया,” मैं ने फौर्म में एक जगह यह लिख कर साइन किया है कि मैं तुम्हारी पत्नी हूं और इसलिए अब मेरा और तुम्हारा घर अलगअलग नहीं, बल्कि एक ही होगा.”

“मगर संस्कृति लोग क्या कहेंगे?”

“लोगों का क्या है प्रतीक, जब मुझे जरूरत थी तो क्या लोग मेरी मदद के लिए आगे आए थे? नहीं न… उस वक्त तुम ने मेरा साथ दिया. अब मेरी बारी है. इस में गलत क्या है? तुम थोड़े ठीक हो जाओ फिर सोचेंगे कि क्या करना है,” संस्कृति ने अपना फैसला सुना दिया.

करीब 10 दिन संस्कृति ने जीभर कर प्रतीक का खयाल रखा. हर तरह से उस की सेहत पहले की तरह बनाने और खुश रखने का प्रयास करती रही.

संस्कृति एक संयुक्त परिवार से संबंध रखती थी. ससुराल में धनसंपत्ति की कमी नहीं थी. यह घर भी पति के बाद उस के नाम हो चुका था. पति ने उस के लिए काफी संपत्ति और गहने भी छोड़े थे. बस एक हमसफर की कमी थी, जिसे प्रतीक पूरा कर सकता था.

उस दिन शाम में संस्कृति ने प्रतीक के हाथों को थाम कर कहा,”जो बात मैं ने अनजाने ही उस फौर्म में लिखा, क्या हम उसे हकीकत का रूप नहीं दे सकते? क्या मैं तुम्हें अपने हमदर्द के साथसाथ एक हमसफर के रूप में भी स्वीकार हूं?”

“मुझे लगता है संस्कृति कि अब यह बात कहना फुजूल है.”

“मतलब?”

“मतलब यह कि तुम औलरेडी मेरी हमदर्द और हमसफर बन चुकी हो. हम हमेशा साथ रहेंगे. तुम से बढ़ कर कोई और मेरा खयाल नहीं रख सकता,” कह कर प्रतीक ने संस्कृति को गले से लगा लिया.

मेरी डोर कोई खींचे : रचना की कहानी

ट्रक से सामान उतरवातेउतरवाते रचना थक कर चूर हो गई थी. यों तो यह पैकर्स वालों की जिम्मेदारी थी, फिर भी अपने जीवनभर की बसीबसाई गृहस्थी को यों एक ट्रक में समाते देखना और फिर भागते हुए ट्रक में उस का हिचकोले लेना, यह सब झेलना भी कोईर् कम धैर्य का काम नहीं था. उस का मन तब तक ट्रक में ही अटका रहा था जब तक वह सहीसलामत अपने गंतव्य तक नहीं पहुंच गया था. खैर, रचना के लिए यह कोई नया तजरबा नहीं था. तबादले का दंश तो वह अपने पिता के साथ बचपन से ही झेलती आ रही थी. हां, इसे दंश कहना ही उचित होगा क्योंकि इस की तकलीफ तो वही जानता है जो इसे भुगतता है. रचना को यह बिलकुल पसंद नहीं था क्योंकि स्थानांतरण से होने वाले दुष्परिणामों से वह भलीभांति परिचित थी.

बाकी सब बातों की परवा न कर के जिस बात से रचना सब से ज्यादा विचलित रहती थी वह यही थी कि पुराने साथी एकाएक छूट जाते हैं, सभी दोस्त, साथी गलीमहल्लों के रिश्ते पलक झपकते ही पराए हो जाते हैं और हम खानाबदोशों की तरह अपना तंबू दूसरे शहर में तानने को मजबूर हो जाते हैं. अजनबी शहर, उस के तौरतरीके अपनाने में काफी दिक्कत आती है. नए शहर में कोई परिचित चेहरा नजर नहीं आता. वह दुखसुख की बात करे तो किस से? घर जाए तो किस के और अपने घर बुलाए तो भी किसे? नया शहर, नया घर उसे काटने को दौड़ता था.

सौरभ यानी रचना के पति को इस से विशेष फर्क नहीं पड़ता था क्योंकि उन को तो आते ही ड्यूटी जौइन करनी होती थी और वे व्यस्त हो जाते थे. यही हाल बेटे पर्व और बेटी पूजा का था. वे भी अपने नए स्कूल व नई कौपीकिताबों में खो जाते थे. रह जाती थी तो रचना घर में बिलकुल अकेली, अपने अकेलेपन से जूझती.

यह तो भला हो नई तकनीक का, जिस ने अकेलेपन को दूर करने के कई साधन निकाल रखे हैं. रचना उठतेबैठते फेसबुक व व्हाट्सऐप के जन्मदाताओं का आभार व्यक्त करना नहीं भूलती थी. उस की नजर में लोगों से जुड़ने के ये साधन अकेलापन तो काटते ही हैं, साथसाथ व्यक्तिगत स्वतंत्रता भी प्रदान करते हैं, खासकर स्त्रियों को. घर की चारदीवारी में रह कर भी वह अपने मन की बात इन के जरिए कर सकती है.

दिनचर्या से निवृत्त होने के बाद रोज की तरह रचना अपना स्मार्टफोन ले कर बैठ गई. उस में एक फ्रैंडरिक्वैस्ट थी, नाम पढ़ते ही वह चौंक गई-नीरज सक्सेना. उस ने बड़ी उत्सुकता से उस की प्रोफाइल खोली तो खुशी व आश्चर्य से झूम उठी. ‘अरे, यह तो वही नीरज है जो मेरे साथ पढ़ता था,’ उस के मुंह से निकला. पापा का अचानक से ट्रांसफर हो जाने के कारण वह किसी को अपना पता नहीं दे पाई थी और नतीजा यह था कि फेयरवैल पार्टी के बाद आज तक किसी पुराने सहपाठी से नहीं मिल पाई थी.

उस के अंतर्मन का एक कोना अभी भी खाली था जिस में वह सिर्फ और सिर्फ अपनी पुरानी यादों को समेट कर रखना चाहती थी और आज नीरज की ओर से भेजी गई फ्रैंडरिक्वैस्ट दिल के उसी कोने में उतर गई थी. उस ने फ्रैंडरिक्वैस्ट स्वीकार कर ली.

फिर तो बातों का सिलसिला चल निकला और जब भी मौका मिलता, दोनों पुराने दिनों की बातों में डूब जाया करते थे. बातों ही बातों में उसे पता चला कि नीरज भी इसी शहर में रहता है और यहीं आसपास रहता है.

रचना ने सौरभ को भी यह बात बताई तो सौरभ ने कहा, ‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है, तुम सदा शिकायत करती थी कि आप के तो इतने पुराने दोस्त हैं, मेरा कोई नहीं, अब तो खुश हो न? किसी दिन घर बुलाओ उन्हें.’’

एक दिन रचना ने नीरज को घर आने का न्योता दिया. इस के बाद बातों के साथसाथ मिलनेजुलने का सिलसिला भी शुरू हो गया. नीरज को जब भी फुरसत मिलती, वह रचना से बात कर लेता और घर भी आ जाता था.

नीरज अकसर अकेला ही आता था, तो एक दिन सौरभ बोले, ‘‘भई, क्या बात है, आप एक बार भी भाभीजी व बच्चों को नहीं लाए. उन को भी लाया कीजिए.’’

यह सुन कर नीरज बोला, ‘‘अवश्य लाता, यदि वे होते तो?’’

क्या मतलब, तुम ने अभी तक शादी नहीं की, सौरभ ने चुटकी काटी जबकि  रचना सौरभ को बता चुकी थी कि वह शादीशुदा है और एक बेटे का बाप भी है.

सौरभ की बात सुन कर नीरज झेंप कर बोला, ‘‘मेरा कहने का मतलब था- यदि वे यहां होते. प्रिय व संदीप अभी यहां शिफ्ट नहीं हुए हैं, स्कूल में ऐडमिशन की दिक्कत की वजह से ऐसा करना पड़ा.’’

‘‘ठीक कह रहे हो तुम, बड़े शहरों में किसी अच्छे स्कूल में ऐडमिशन करवाना भी कम टेढ़ी खीर नहीं है. हम ने भी बहुत पापड़ बेले हैं बच्चों के ऐडमिशन के लिए.’’

अब सौरभ और नीरज में भी दोस्ती हो गई थी और स्थिति यह थी कि कई बार नीरज बिना न्योते के भी खाने के समय आ जाता था. नीरज के घर में आने से रचना बहुत खुश रहती थी और बहुत ही मानमनुहार से उस की खातिरदारी भी करती थी.

एक बार खाने के समय जब नीरज के बारबार मना करने पर भी रचना ने एक चपाती परोस दी तो सौरभ से रहा नहीं गया और वे बोले, ‘‘खा लो भैया, इतनी खुशामद तो ये मेरी भी नहीं करती.’’

बात साधारण थी पर रचना को यह चेतावनी सी प्रतीत हुई. पतिपत्नी के नाजुक रिश्ते में कभीकभी ऐसी छोटीछोटी बातें भी नासूर बन जाती हैं, इस का एहसास था उसे. उस दिन के बाद से वह हर वक्त यह खयाल भी रखती कि उस के किसी भी व्यवहार के लिए सौरभ को टोकना न पड़े क्योंकि रिश्तों में पड़ी गांठ सुलझाने में हम अकसर खुद ही उलझ जाते हैं.

एक शाम जब सौरभ औफिस से आए तो बोले, ‘‘आई एम सौरी, रचना, मुझे कंपनी की ओर से 15 दिनों के टूर पर अमेरिका जाना पड़ेगा. मेरा मन तो नहीं है कि मैं तुम्हें इस नए शहर में इस तरह अकेले छोड़ कर जाऊं पर क्या करूं, बहुत जरूरी है, जाना ही पड़ेगा.’’

यह सुन कर रचना को उदासी व चिंता की परछाइयों ने घेर लिया. वह धम्म से पलंग पर बैठ गई और रोंआसा हो कर बोली, ‘‘अभी तो मैं यहां ठीक तरह से सैटल भी नहीं हुई हूं. आप तो जानते ही हैं कि आसपड़ोस वाले सब अपने हाल में मस्त रहते हैं. किसी को किसी की परवा नहीं है यहां. ऐसे में 15 दिन अकेली कैसे रह पाऊंगी.’’

‘‘ओह, डोंट वरी, आई नो यू विल मैनेज इट. मुझे तुम पर पूरा भरोसा है.’’

और फिर दूसरे दिन ही सौरभ अमेरिका चले गए और रचना अकेली रह गई. यों तो रचना घर में रोज अकेली ही रहती थी पर इस उम्मीद के साथ कि शाम को सौरभ आएंगे. आज वह उम्मीद नहीं थी, इसलिए घर में उस सूनेपन का एहसास अधिक हो रहा था.

खैर, वक्त तो काटना ही था. बच्चों के साथ व्यस्त रह कर, कुछ घरेलू कामकाज निबटा कर रचना अपना जी लगाए रखती. पर बच्चे भी पापा के बिना बड़े अनमने हो रहे थे. नन्हीं पूजा ने तो शायद इसे दिल से ही लगा लिया था. सौरभ के जाने के बाद उस का खानापीना काफी कम हो गया था. वह रोज पूछती, ‘पापा कब आएंगे?’ और रचना चाह कर भी उसे खुश नहीं रख पाती थी.

एक शाम पूजा को बुखार आ गया. बुखार मामूली था, इसलिए रचना ने घर पर रखी बुखार की दवा दे दी. फिर समझाबुझा कर कुछ खिला कर सुला दिया. आधी रात को पूजा के कसमसाने से रचना की नींद खुली तो उस ने देखा, पूजा का बदन बुखार से तप रहा था. रचना झट से थर्मामीटर ले आई. बुखार 104 डिगरी था. रचना के होशोहवास उड़ गए. इतना तेज बुखार, वह रोने लगी पर फिर हौसला कर के उस ने सौरभ को फोन मिलाया.

संयोग से सौरभ ने फोन तुरंत रिसीव किया. रचना ने रोतेरोते सौरभ को सारी बात बताई.

सौरभ ने कहा, ‘‘घबराओ मत, पूजा को तुरंत डाक्टर के पास ले कर जाओ.’’

रचना ने कहा, ‘‘आप जानते हैं न, यहां रात के 12 बज रहे हैं. गाड़ी खराब है. एकमात्र पड़ोसी बाहर गए हैं. मैं और किसी को जानती भी तो नहीं इस शहर में.’’

‘‘नीरज, हां, नीरज है न, उसे कौल करो. वह तुम्हारी जरूर मदद करेगा.’’

‘‘पर सौरभ, इतनी रात, मैं अकेली, क्या नीरज को बुलाना ठीक रहेगा?’’

‘‘इस में ठीकगलत क्या है? पूजा बीमार है. उसे डाक्टर को दिखाना जरूरी है. बस, इस समय यही सोचना जरूरी है.’’

‘‘पर फिर भी…’’

‘‘तुम किस असमंजस में पड़ गईं? अरे, नीरज अच्छा इंसान है. 2-4 मुलाकातों में ही मैं उसे जान गया हूं. तुम उसे कौल करो, मुझे किसी की परवा नहीं. तुम इसे मेरी सलाह मानो या आदेश.’’

‘‘ठीक है, मैं कौल करती हूं.’’ रचना ने कह तो दिया पर सोच में पड़ गई. रात को 12 बजे नीरज को कौल कर के बुलाना उसे बड़ा अटपटा लग रहा था. वह सोचती रही, और कुछ देर यों ही बुत बन कर बैठी रही.

पर कौल करना जरूरी था, वह यह भी जानती थी. सो, उस ने फोन हाथ में लिया और नंबर डायल किया. घंटी गई और किसी ने उसे काट दिया. आवाज आई, ‘यह नंबर अभी व्यस्त है…’ उस ने फिर डायल किया. फिर वही आवाज आई.

अब क्या करूं, वह तो फोन ही रिसीव नहीं कर रहा. चलो, एक बार और कोशिश करती हूं, यह सोच कर वह रिडायल कर ही रही थी कि कौलबैल बजी.

इतनी रात, कौन हो सकता है? रचना यह सोच कर घबरा गई, ‘तभी उस के लैंडलाइन फोन की घंटी बजी. उस ने डरतेडरते फोन रिसीव किया.

‘‘हैलो रचना, मैं नीरज, दरवाजा खोलो, मैं बाहर खड़ा हूं.’’

रचना को बड़ा आश्चर्य हुआ. नीरज ने तो मेरा फोन रिसीव ही नहीं किया. फिर यह यहां कैसे आया. पर उस ने दरवाजा खोल दिया.

‘‘कहां है पूजा?’’ नीरज ने अंदर आते ही पूछा. स्तंभित सी रचना ने पूजा के कमरे की ओर इशारा कर दिया.

नीरज ने पूजा को गोद में उठाया और बोला, ‘‘घर को लौक करो. हम पूजा को डाक्टर के पास ले चलते हैं. ज्यादा देर करना ठीक नहीं है.’’

गाड़ी चलातेचलाते नीरज ने कहा, ‘‘यह तो अच्छा हुआ कि आज मैं ने सौरभजी का कौल रिसीव कर लिया वरना रात को तो मैं घोड़े बेच कर सोता हूं और कई बार तो फोन भी स्विच औफ कर देता हूं.’’

अब रहस्य पर से परदा उठ चुका था यानी कि उस के कौल से पहले ही सौरभ का कौल पहुंच चुका था नीरज के पास.

पूजा को डाक्टर को दिखा कर, आवश्यक दवाइयां ले कर रचना ने नीरज को धन्यवाद कह कर विदा कर दिया और फिर सौरभ को फोन लगाया.

इस से पहले कि सौरभ कुछ बोलता, रचना बोली, ‘‘धन्यवाद, हमारा इतना ध्यान रखने के लिए और मुझ पर इतना विश्वास करने के लिए. इतना विश्वास तो शायद मुझे भी खुद पर नहीं है, तभी तो मुझे नीरज को फोन करने के लिए इतना सोचना पड़ा.’’

सौरभ बोले, ‘‘मुझे धन्यवाद कैसा? यह तो आदानप्रदान है. तुम भी तो मुझे परदेश में इसी विश्वास के साथ आने देती हो कि मैं लौट कर तुम्हारे पास अवश्य आऊंगा. तो क्या मैं इतना भी नहीं कर सकता. यह विश्वास नहीं, प्यार है.’’

ममता का आंगन: मां के लिए कैसे बदली निशा की सोच

विदाई की बेला… हर विवाह समारोह का सब से भावुक कर देने वाला पल. सुंदर से लहंगे में आभूषणों से लदी निशा धीरेधीरे आगे कदम बढ़ा रही थी. आंसुओं से उस का चेहरा भीगा जा रहा था. सहेलियां और भाभियां उलाहना दे रहीं थीं, “अरे इतना रोओगी तो मेकअप धुल जाएगा.” इसी तरह की चुहलबाजी हो रही थी.

मगर वह चाह कर भी अपने आंसू नहीं रोक पा रही थी. खुद को दोराहे पर खड़ा महसूस कर रही थी आज वह.

सजीधजी सुंदर सी कार उसे पिया के घर ले जाने के लिए तैयार खड़ी थी. अजय कार में बैठ चुका था. निशा ने कनखियों से देखा तो लगा कि अजय बेसब्री से उस का इंतजार कर रहा था, मानो कह रहा हो, “अब बस भी करो निशा… नए घर में भी लोग तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं.”

वह एक कदम आगे बढ़ती तो दो कदम पीछे वाली स्थिति थी. पापाभैया पास में ही खड़े थे. निशा पलट कर पापा के गले लग कर रोने लगी. भाई उसे प्यार से सहला रहा था, मानो पापा से छुड़ाना चाह रहा हो और कह रहा हो,” दीदी, एक नई सुंदर सी दुनिया तुम्हारी प्रतीक्षा में है. उस का स्वागत करो.”

तभी उस ने देखा कि मां किसी अपराधिनी सी दूर खड़ी अपने ढुलकते आंसुओं को छिपाने का असफल प्रयास कर रही थी. दोनों तरफ से स्थिति कमोबेश एक सी ही थी.

मां आगे बढ़ कर उसे गले लगाने का साहस नहीं कर पा रही थी क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं निशा नाराज ना हो जाए. ये अधिकार निशा ने उन्हें आज तक दिया ही नहीं था.

इधर, निशा भी चाहते हुए ममत्व की प्यास को सहलाने में नाकाम साबित हो रही थी. बड़ी ही मुश्किल से मां धीरेधीरे आगे आ कर खड़ी हो गई. मौसी, बुआ सभी से निशा प्रेम से गले मिल रही थी, तभी अचानक मां के दिल में गहरा दर्द का सैलाब उमड़ पड़ा और उसे जोर की रुलाई आ गई.

यह देख कर निशा से रहा नहीं गया. वह मां की तरफ बढ़ी. दोनों मांबेटी इस तरह गले मिलीं जैसे दोनों को एकदूसरे से कोई शिकवाशिकायत ही ना हो. शब्द साथ नहीं दे रहे थे. बस कुछ देर एकदूसरे से लिपट कर दोनों पूर्ण हो गई थी. अब निशा को जाना ही था, क्योंकि कार काफी देर से स्टार्ट हो कर खड़ी थी.

नए घर में पहुंच कर निशा को बहुत प्यारसम्मान मिला. शुरू के कुछ दिनों में उसे किसी भी काम में हाथ नहीं लगाने दिया. उस की छोटी प्यारी सी ननद अपनी मां के हर काम में हाथ बंटाती. धीरेधीरे हाथों की मेहंदी का रंग छूटने के साथसाथ नेहा भी घरपरिवार की जिम्मेदारियों में शामिल हो गई. जबकि मां के घर में वह कोई भी काम नहीं करती थी, मगर ससुराल तो ससुराल ही होता है. शुरुआत में कुछ कठिनाई भी आई. कई बार वह रो पड़ती थी कि अपनी समस्या किसे बताए.. क्योंकि अपनी मां को तो उस ने पूर्ण रूप से तिरस्कृत किया हुआ था

मां ने कई बार प्रयास किया था कि निशा घर के थोड़े बहुत काम सीख ले, परंतु ढाक के वही तीन पात. जब कुछ छोटी थी तो पापा के लाड़प्यार की वजह से और फिर बड़ी होने पर मां से एक अनकही रंजिश होने के नाते. यूं निशा को काम करने में कोई परेशानी नहीं थी, परंतु वह मां से कुछ नहीं सीखना चाहती थी. न जाने क्यों उन्हें अपना दुश्मन समझने लगी थी वह.

विवाह को लगभग 20 दिन बीत चुके थे. निशा की सास उसे एक बड़ा सा डब्बा देते हुए बोली, “बेटा, यह बौक्स तुम्हारी मां ने तुम्हें सरप्राइस के तौर पर दिया है. तुम्हीं इसे खोलना और देखना कि इस में क्या है. अपने सारे जेवर डब्बे में रख देना. लौकर में रखवा देंगे. घर में रखना सुरक्षित नहीं होगा.”

शाम को जब निशा अपने जेवर डब्बे में करीने से संभाल रही थी, तो उस ने वह बौक्स भी खोला. वह देख कर अवाक रह गई. डब्बे में सुंदर से सोने और हीरे के जेवरात थे और साथ में एक पत्र भी.

यह पत्र उस की मां रीता ने लिखा था, “प्यारी निशा, तुम्हारे पापा का मुझ से शादी करने का मकसद सिर्फ इतना था कि उन की अनुपस्थिति में मैं तुम्हारी देखभाल कर सकूं. अब तुम्हारा विवाह हो चुका है. समय के साथ धीरेधीरे समझ जाओगी कि एक पिता के लिए अकेले संतान को पालना कितना मुश्किल होता है. मां तो सिर्फ मां होती है. यह सौतेला शब्द तो हमारे समाज ने ही गढ़ा है. पूर्वाग्रह से ग्रसित यह भावना किसी स्त्री को जाने समझे बगैर ही खलनायिका बना देती है. तुम्हारा विदाई के समय मुझ से लिपटना मुझे उम्रभर की खुशी दे गया.

“मेरा बचपन भी कुछ तुम्हारी ही तरह बीता है. सदा सुखी रहना.

“और हां, अपनी मां से मिलने कब आ रही हो?”

वह सोच में पड़ गई. उस की आंखों से आंसू बहने लगे. उसे इन गहनों में से ममत्व की सुगंध आने लगी. वह काफी देर तक उन्हें देखती रही. इन में से कुछ गहने उस की अपनी मां के थे और अधिकतर नई मां के, जिसे उस ने मां तो कभी माना ही नहीं.

दरअसल, निशा के जीवन में दुखद मोड़ तब आया, जब 12 साल की उम्र में उस की मां की मृत्यु हो गई थी. लाड़प्यार से पली एकलौती संतान कुदरत के इस अन्याय को सहने की समझ भी नहीं रखती थी. पिता राजेश भी परेशान. एक तो पत्नी की असमय मृत्यु का गम, दूसरा 12 साल की बिटिया को पालने की जिम्मेदारी. ऐसी कच्ची उम्र में जब बच्चे कई तरह के शारीरिक और मानसिक परिवर्तनों से गुजरते हैं, एक पिता के लिए बहुत ही मुश्किल हो जाता है, ऐसे में खासकर बिटिया का लालनपालन करना.

कुछ लोगों ने सलाह दी कि वह निशा की मौसी से विवाह कर ले. क्योंकि अपनी बहन की संतान को जितने प्यार से वह पालेगी, ऐसा कोई दूसरी महिला नहीं कर सकती. परंतु निशा की मौसी उस के पिता से उम्र में बहुत छोटी थी, इसलिए राजेश को यह मंजूर नहीं था. खैर, समय की मांग को देखते हुए रीता के साथ निशा के पिता राजेश का पुनर्विवाह सादे समारोह में हो गया.

मां को गए अभी सिर्फ एक ही साल हुआ था. निशा की यादों में मां की हर बात जिंदा थी. इकलौती संतान होने की वजह से मातापिता का संपूर्ण प्यार उसी पर निछावर था.

राजेश ने रीता के साथ विवाह तो किया, परंतु निशा को किसी भी मनोवैज्ञानिक संकट में वह नहीं डालना चाहते थे. रीता भी खुद बहुत समझदार थी. इधर निशा भावनात्मक मानसिक और शारीरिक तौर पर आने वाले बदलावों से गुजर रही थी.

मां उसे भावनात्मक सहारा देने का भरसक प्रयास करती, परंतु निशा हर बार मां को ठुकरा देती है. अकेलीअकेली उदास सी रहती थी वह. नई मां कभी पिता से हंस कर, खिलखिला कर बात करती, तो निशा परेशान हो उठती. उसे लगता कि इस महिला ने आ कर उस की मां की जगह ले ली है.

निशा की मां की साड़ियां राजेश के कहने पर अगर रीता ने पहन लीं, तो निशा आगबबूला हो उठती. यह सब देख कर रीता ने अपनेआप को बहुत संयमित कर लिया था. वह नहीं चाहती थी कि किशोरावस्था में किसी बच्चे के दिमाग पर कोई गलत असर पड़े. समय के साथसाथ निशा का अकेलापन दूर करने के लिए एक छोटा भाई आ चुका था. आश्चर्य कि छोटे भाई से निशा को कोई शिकायत नहीं थी. वह उस के साथ खेलती और अब थोड़ा खुश रहने लगी थी. लेकिन मां के प्रति अपने व्यवहार को वह नहीं बदल पाई थी.

22 साल की उम्र पूरी होने पर घर वालों से विचारविमर्श के बाद निशा का विवाह तय कर दिया गया. निशा ने भी कोई अरुचि नहीं दिखाई. वह तो मानो नई मां से छुटकारा पाना चाहती थी.

आज इन गहनों को संभालते वक्त वह सोचने लगी कि अपनी मां की साड़ी तक वह नई मां को नहीं पहनने देती थी और इस अनचाही मां ने तो उसे खूब लाड़प्यार से पाला. कभी अपने बेटे और उस में कोई फर्क नहीं किया.

विवाह के समय अपनी सुंदर कीमती साड़ियां और भारी गहने सब उसी को सौंप दिए, जैसा कोई असली मां करती है.

तभी सासू मां ने उसे आवाज दे कर दरवाजे पर अपनी उपस्थिति का एहसास कराया. निशा का उदासीन चेहरा देख कर वह बोली, “अरे बेटा, क्या बात है…? मैं ने लौकर वाली बात कह कर तुम्हारा दिल तो नहीं दुखाया… दरअसल, घर में इतना कीमती सामान रखना असुरक्षित है इसीलिए मैं ने ऐसा कह दिया.”

“अरे नहीं मम्मी, ऐसी बात नहीं है,” कह कर वह रुक गई. आगे और कहती भी क्या..? कैसे कह देती कि जिस मां ने अपना सर्वस्व उस के लालनपालन में लुटा दिया, उस से वह इतनी नफरत करती थी कि पश्चाताप करने की भी कोई राह ही नहीं सूझ रही है.

खैर, सासू मां समझदार थी. सब जानते हुए भी वे अनजान ही बनी रहीं. इधर निशा के अंदर उधेड़बुन चलती रही.

शाम को अजय आ कर बोला,”अगले 2-3 दिन में हम तुम्हारे घर मम्मीपापा से मिलने चल रहे हैं.”

दरअसल, अजय की मां ने ही उसे निशा को मां के घर ले जाने की सलाह दी थी. वह धीरे से बोली, “ठीक है.” मगर मन ही मन बड़ी शर्मिंदा हो रही थी कि कैसे सामना करूंगी मां का.

अगले दिन सुबह मौसी का फोन आया. निशा आत्मग्लानि से भरी हुई थी. उस ने मौसी से मां का जिक्र किया. तब मौसी ने ही उसे बताया कि अजय के साथ उस का विवाह उस की मां रीता ने ही तय किया था. दरअसल, अजय की मां रीता की बचपन की सहेली थी. अजय की मां का विवाह तो समय से हो गया, परंतु यह रीता का दुर्भाग्य था कि बहुत ही छोटी उम्र में उस की मां की मृत्यु हो गई. पिता ने दूसरा विवाह नहीं किया. पारिवारिक सदस्यों के साथ मिल कर खुद ही अपनी बेटी को पालने की जिम्मेदारी ली. परिवार के बीच में रीता की परवरिश तो ठीकठाक हो गई, परंतु उस के विवाह में देरी होती रही, क्योंकि दादादादी की मृत्यु हो चुकी थी. ताऊताई अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गए थे. अब रह गए थे रीता और उस के पिता. वह पिता को छोड़ कर कहीं नहीं जाना चाहती थी.

अधिक उम्र हो जाने पर भी लड़की के लिए लड़का मिलना कभीकभी मुश्किल काम साबित हो जाता है. इसीलिए जब राजेश की पहली पत्नी की मृत्यु हुई, तब रीता का विवाह उन के साथ इस शर्त पर हुआ कि उन की बेटी निशा को अपनी बेटी की तरह मान कर पालेगी. और रीता ने यह जिम्मेदारी बखूबी निभाई. कुछ साल बाद अपना बेटा होने के बावजूद भी उस ने दोनों बच्चों में कभी कोई फर्क नहीं किया. और आज भी यह रीता ही थी, जिस ने निशा का रिश्ता अपनी सहेली के बेटे अजय से करवाया था, ताकि वह स्वयं अपनी बेटी के भविष्य को ले कर आशान्वित रहे. परंतु यह बात परिवार के किसी भी सदस्य ने निशा को नहीं बताई थी, क्योंकि उसे तो नई मां से अत्यधिक बैर था. फिर वह ये बात कैसे बरदाश्त करती…?

यह जान कर निशा अत्यधिक दुखी और शर्मिंदा थी. उस ने साहस कर के मां को फोन मिलाया.

उधर से मां की प्यारी सी आवाज आई,” बेटा, रिश्तों को सहेजने की कोई उम्र नहीं होती. जब भी अवसर मिले, इन्हें संवार लो.”

शायद मां इस से आगे कुछ नहीं बोल पाई और इधर निशा मायके जाने की तैयारी में जुट गई, क्योंकि उधर ममता का आंगन बांह पसारे उस के इंतजार में था.

लेखिका- अमृता पांडेय

कितने दूर कितने पास : एक हसंता खेलते परिवार की कहानी

सरकारी सेवा से मुक्त होने में बस, 2 महीने और थे. भविष्य की चिंता अभी से खाए जा रही थी. कैसे गुजारा होगा थोड़ी सी पेंशन में. सेवा से तो मुक्त हो गए परंतु कोई संसार से तो मुक्त नहीं हो गए. बुढ़ापा आ गया था. कोई न कोई बीमारी तो लगी ही रहती है. कहीं चारपाई पकड़नी पड़ गई तो क्या होगा, यह सोच कर ही दिल कांप उठता था. यही कामना थी कि जब संसार से उठें तो चलतेफिरते ही जाएं, खटिया रगड़ते हुए नहीं.

सब ने समझाया और हम ने भी अपने अनुभव से समझ लिया था कि पैसा पास हो तो सब से प्रेमभाव और सुखद संबंध बने रहते हैं. इस भावना ने हमें इतना जकड़ लिया था कि पैसा बचाने की खातिर हम ने अपने ऊपर काफी कंजूसी करनी शुरू कर दी. पैसे का सुख चाहे न भोग सकें परंतु मरते दम तक एक मोटी थैली हाथ में अवश्य होनी चाहिए. बेटी का विवाह हो चुका था.

वह पति और बच्चों के साथ सुखी जीवन व्यतीत कर रही थी. जैसेजैसे समय निकलता गया हमारा लगाव कुछ कम होता चला गया था. हमारे रिश्तों में मोह तो था परंतु आकर्षण में कमी आ गई थी. कारण यह था कि न अब हम उन्हें अधिक बुला सकते थे और न उन की आशा के अनुसार उन पर खर्च कर सकते थे. पुत्र ने अवसर पाते ही दिल्ली में अपना मकान बना लिया था. इस मकान पर मैं ने भी काफी खर्च किया था.

आशा थी कि अवकाश प्राप्त करने के बाद इसी मकान में आ कर पतिपत्नी रहेंगे. कम से कम रहने की जगह तो हम ने सुरक्षित कर ली थी. एक दिन पत्नी के सीने में दर्द उठा. घर में जितनी दवाइयां थीं सब का इस्तेमाल कर लिया परंतु कुछ आराम न हुआ.

सस्ते डाक्टरों से भी इलाज कराया और फिर बाद में पड़ोसियों की सलाह मान कर 1 रुपए की 3 पुडि़या देने वाले होमियोपैथी के डाक्टर की दवा भी ले आए. दर्द में कितनी कमी आई यह कहना तो बड़ा कठिन था परंतु पत्नी की बेचैनी बढ़ गई. एक ही बात कहती थी, ‘‘बेटी को बुला लो. देखने को बड़ा जी चाह रहा है. कुछ दिन रहेगी तो खानेपीने का सहारा भी हो जाएगा. बहू तो नौकरी करती है, वैसे भी न आ पाएगी.’’ ‘‘प्यारी बेटी,’’ मैं ने पत्र लिखा, ‘‘तुम्हारी मां की तबीयत बड़ी खराब चल रही है. चिंता की कोई बात नहीं. पर वह तुम्हें व बच्चों को देखना चाह रही है. हो सके तो तुम सब एक बार आ जाओ.

कुछ देखभाल भी हो जाएगी. वैसे अब 2 महीने बाद तो यह घर छोड़ कर दिल्ली जाना ही है. अच्छा है कि तुम अंतिम बार इस घर में आ कर हम लोगों से मिल लो. यह वही घर है जहां तुम ने जन्म लिया, बड़ी हुईं और बाजेगाजे के साथ विदा हुईं…’’ पत्र कुछ अधिक ही भावुक हो गया था.

मेरी ऐसी कोई इच्छा नहीं थी, पर कलम ही तो है. जब चलने लगती है तो रुकती नहीं. इस पत्र का कुछ ऐसा असर हुआ कि बेटी अपने दोनों बच्चों के साथ अगले सप्ताह ही आ गई. दामाद ने 10 दिन बाद आने के लिए कहा था. न जाने क्यों मांबेटी दोनों एकदूसरे के गले मिल कर खूब रोईं. भला रोने की बात क्या थी? यह तो खुशी का अवसर था. मैं अपने नातियों से गपें लगाने लगा.

रचना ने कहा, ‘‘बोलो, मां, तुम्हारे लिए क्या बनाऊं? तुम कितनी दुबली हो गई हो,’’ फिर मुझे संबोधित कर बोली, ‘‘पिताजी, बकरे के दोचार पाए रोज ले आया कीजिए. यखनी बना दिया करूंगी. बच्चों को भी बहुत पसंद है. रोज सूप पीते हैं. आप को भी पीना चाहिए,’’ फिर मेरी छाती को देखते हुए बोली, ‘‘क्या हो गया है पिताजी आप को?

सारी हड्डियां दिखाई दे रही हैं. ठहरिए, मैं आप को खिलापिला कर खूब मोटा कर के जाऊंगी. और हां, आधा किलो कलेजी- गुर्दा भी ले आइएगा. बच्चे बहुत शौक से खाते हैं.’’ मैं मुसकराने का प्रयत्न कर रहा था, ‘‘कुछ भी तो नहीं हुआ. अरे, इनसान क्या कभी बुड्ढा नहीं होता? कब तक मोटा- ताजा सांड बना रहूंगा? तू तो अपनी मां की चिंता कर.’’ ‘‘मां को तो देख लूंगी, पर आप भी खाने के कम चोर नहीं हैं. आप को क्या चिंता है? लो, मैं तो भूल ही गई. आप तो रोज इस समय एक कप कौफी पीते हैं. बैठिए, मैं अभी कौफी बना कर लाती हूं. बच्चो, तुम भी कौफी पियोगे न?’’

मैं एक असफल विरोध करता रह गया. रचना कहां सुनने वाली थी. दरअसल, मैं ने कौफी पीना अरसे से बंद कर दिया था. यह घर के खर्चे कम करने का एक प्रयास था. कौफी, चीनी और दूध, सब की एकसाथ बचत. पत्नी को पान खाने का शौक था. अब वह बंद कर के 10 पैसे की खैनी की पुडि़या मंगा लेती थी, जो 4 दिन चलती थी. हमें तो आखिर भविष्य को देखना था न. 

‘‘अरे, कौफी कहां है, मां?’’ रचना ने आवाज लगा कर पूछा, ‘‘यहां तो दूध भी दिखाई नहीं दे रहा है? लो, फ्रिज भी बंद पड़ा है. क्या खराब हो गया?’’ मां ने दबे स्वर में कहा, ‘‘अब फ्रिज का क्या काम है? कुछ रखने को तो है नहीं. बेकार में बिजली का खर्चा.’’ ‘‘पिताजी, ऐसे नहीं चलेगा,’’ रचना ने झुंझला कर कहा, ‘‘यह कोई रहने का तरीका है? क्या इसीलिए आप ने जिंदगी भर कमाया है?

अरे ठाट से रहिए. मैं भी तो सिर उठा कर कह सकूं कि मेरे पिताजी कितनी शान से रहते हैं. ए बिट्टू, जा, नीचे वाली दुकान से दौड़ कर कौफी तो ले आ. हां, पास ही जो मिट्ठन हलवाई की दुकान है, उस से 1 किलो दूध भी ले आना. नानाजी का नाम ले देना, समझा? भाग जल्दी से, मैं पानी रख रही हूं.’’ किट्टू बोला, ‘‘मां, मैं भी जाऊं. फाइव स्टार चाकलेट खानी है.’’ ‘‘जा, तू भी जा, शांति तो हो घर में,’’ रचना ने हंस कर कहा, ‘‘चाकलेट खाने की तो ऐसी आदत पड़ गई है कि बस, पूछो मत. इन की तो नौकरी भी ऐसी है कि मुफ्त देने वालों की कमी नहीं है.’’

मैं मन ही मन गणित बिठा रहा था. 5 रुपए की चाकलेट, 6 रुपए का दूध, 15 रुपए की कौफी, 16 रुपए की आधा किलो कलेजी, ढाई रुपए के 2 पाए…’’ कौफी पी ही रहा था कि रचना का क्रुद्ध स्वर कानों में पड़ा, ‘‘मां, तुम ने घर को क्या कबाड़ बना रखा है. न दालें हैं न सब्जी है, न मसाले हैं. आप लोग खाते क्या हैं? बीमार नहीं होंगे तो क्या होंगे? छि:, मैं भाभी को लिख दूंगी. आप की खूब शिकायत करूंगी. दिल्ली में अगर आप को इस हालत में देखा तो समझ लेना कि भाभी से तो लड़ाई करूंगी ही, आप से भी कभी मिलने नहीं आऊंगी.’

रचना जल्दी से सामान की सूची बनाने लगी. मेरी पत्नी का खाना बनाने को मन नहीं करता था. उसे अपनी बीमारी की चिंता अधिक सताती थी. पासपड़ोस की औरतें भी उलटीसीधी सीख दे जाया करती थीं. मैं ने भी समझौता कर लिया था. जो एक समय बन जाता था वही दोनों समय खा लेते थे.

आखिर इनसान जिंदा रहने के लिए ही तो खाता है. अब इस उम्र में चटोरापन किस काम का. यह बात अलग थी कि हमारा खर्च आधा रह गया था. बैंक में पैसे भी बढ़ रहे थे और सूद भी. पत्नी ने धीरे से कहा, ‘‘यह तो पराया समझ कर घर लुटा रही है. सामान तुम ही लाना और मुझे यखनीवखनी कुछ नहीं चाहिए. कलेजी भी कम लाना. अगर बच्चों को खिलाना है तो सीधी तरह से कह देती.

लगता है मुझे ही रसोई में लगना पड़ेगा. हमें आगे का देखना है कि अभी का?’’ फिर सिर पर हाथ रखते हुए बोली, ‘‘अभी तो दामाद को भी आना है. उन्हें तो सारा दिन खानेपीने के सिवा कुछ सूझता ही नहीं.’’ ‘‘तुम ने ही तो कहा था बुलाने को.’’ ‘‘कहा था तो क्या तुम मना नहीं कर सकते थे. ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि जो मैं ने कहा वह पत्थर की लकीर हो गई,’’ पत्नी ने उलाहना दिया. ‘‘अब तो भुगतना ही पड़ेगा. अब देर हो गई. कल सुबह बैंक से पैसे निकालने जाना पड़ेगा,’’ मैं ने दुखी हो कर कहा. इतने में रचना आ गई, ‘‘मां, देसी घी कहां है? दाल किस में छौंकूंगी? रोटी पर क्या लगेगा?’’ मां ने ठंडे दिल से कहा, ‘‘डाक्टर ने देसी घी खाने को मना किया है न.

चरबी वाली चीजें बंद हैं. तेरे लिए आधा किलो मंगवा दूंगी.’’ मैं ने खोखली हंसी से कहा, ‘‘कोलेस्टेराल बढ़ जाता है न, और रक्तचाप भी.’’ ‘‘भाड़ में गए ऐसे डाक्टर. हड्डी- पसली निकल रही है, सूख कर कांटा हो रहे हैं और कोलेस्टेराल की बात कर रहे हैं. आप अभी 5 किलोग्राम वाले डब्बे का आर्डर कर आइए. मेरे सामने आ जाना चाहिए,’’ रचना ने धमकी दी. मेरे और पत्नी के दिमाग में एक ही बात घूम रही थी, ‘कितना खर्च हो जाएगा इन के रहते. सेवा से अवकाश लेने वाला हूं. कम खर्च में काम चलाना होगा. बेटे के ऊपर भी तो बोझ बन कर नहीं रहना है.’

सुबह ही सुबह रचना दूध वाले से झगड़ा कर रही थी, ‘‘क्यों, पहलवान, मैं क्या चली गई, तुम ने तो दूध देना ही बंद कर दिया.’’ ‘‘बिटिया, हम क्यों दूध बंद करेंगे? मांजी ने ही कहा कि बस, आधा किलो दे जाया करो. चाय के लिए बहुत है. क्या इसी घर में हम ने 4-4 किलो दूध नहीं दिया है?’’ ‘‘देखो, जब तक मैं हूं, 3 किलो दूध रोज चाहिए. बच्चे दोनों समय दूध लेते हैं. जब मैं चली जाऊं तो 2 किलो देना, मां मना करें या पिताजी.

यह मेरा हुक्म है, समझे?’’ ‘‘समझा, बिटिया, हम भी तो कहें, क्यों मांजी और बाबूजी कमजोर हो रहे हैं. यही तो खानेपीने की उम्र है. अभी दूध नहीं पिएंगे तो कब पिएंगे?’’ 18 रुपए का दूध रोज. मैं मन ही मन सोच रहा था कि पत्नी इशारे से दूध वाले को कुछ कहने का असफल प्रयत्न कर रही थी. ‘‘अंडे भी नहीं हैं. न मक्खन न डबल रोटी,’’ रचना चिल्ला रही थी, ‘‘आप लोग बीमार नहीं पड़ेंगे तो क्या होगा.

बिट्टू, जा दौड़ कर नीचे से एक दर्जन अंडे ले आ और 500 ग्राम वाली मक्खन की टिकिया, नानाजी का नाम ले देना.’’ ‘‘मां, मैं भी जाऊं,’’ किट्टू बोला, ‘‘टाफी लाऊंगा. तुम्हारे लिए भी ले आऊं न?’’ ‘‘जा बाबा, जा, सिर मत खा,’’ रचना ने हंसते हुए कहा. हाथ दबा कर खर्च करने के चक्कर में बहुत मना करने पर भी पत्नी ने रसोई का काम संभाल लिया.

जब दामाद आए तब तो किसी को फुरसत ही कहां. रोज बाजार कुछ न कुछ खरीदने जाना और नहीं तो यों ही घूमने के लिए. रिश्तेदार भी कई थे. कोई मिलने आया तो किसी के यहां मिलने गए. परिणाम यह हुआ कि पत्नी के लिए रसोई लक्ष्मण रेखा बन गई. दामाद की सारी फरमाइशें रचना मां को पहुंचा देती थी, ‘‘सास के हाथ के कबाब तो बस, लाजवाब होते हैं.

उफ, पिछली दफा जो कीमापनीर खाया था, आज तक याद है. मुर्गमुसल्लम तो जो मां के हाथ का खाया था अशोक होटल में भी क्या बनेगा.’’ जब तक रचना पति और बच्चों के साथ वापस गई, मेरी पत्नी के सीने का दर्द वापस आ गया था, लेकिन दर्द के बारे में सोचने की फुरसत कहां थी. घर छोड़ कर दिल्ली जाने में 1 महीना रह गया था. कुछ सामान बेचा तो कुछ सहेजा. एक दिन 20-25 बक्सों का कारवां ले कर जब दिल्ली पहुंचे तो चमचमाते मुंह से पुत्र ने स्वागत किया और बहू ने सिर पर औपचारिक रूप से साड़ी का पल्ला खींचते हुए सादर पैर छू कर हमारा आशीर्वाद प्राप्त किया.

पोता दादी से चिपक गया तो नन्ही पोती मेरी गोदी में चढ़ गई. सुबह जल्दी उठने की आदत थी. पुत्र का स्वर कानों में पड़ा, ‘‘सुनो, दूध 1 किलो ज्यादा लेना. मां और पिताजी सुबह नाश्ते में दूध लेते हैं.’’ बहू ने उत्तर दिया, ‘‘दूध का बिल बढ़ जाएगा. इतने पैसे कहां से आएंगे? और फिर अकेला दूध थोड़े ही है. अंडे भी आएंगे. मक्खन भी ज्यादा लगेगा…’’ पुत्र ने झुंझला कर कहा, ‘‘ओहो, वह हिसाबकिताब बाद में करना. मांबाप हमारे पास रहने आए हैं. उन्हें ठीक तरह से रखना हमारा कर्तव्य है.’’ ‘‘तो मैं कोई रोक रही हूं? यही तो कह रही हूं कि खर्च बढ़ेगा तो कुछ पैसों का बंदोबस्त भी करना पड़ेगा. बंधीबंधाई तनख्वाह के अलावा है क्या?’’ ‘‘देखो, समय से सब बंदोबस्त हो जाएगा. अभी तो तुम रोज दूध और अंडों का नाश्ता बना देना.’’ ‘‘ठीक है, बच्चों का दूध आधा कर दूंगी. एक समय ही पी लेंगे. अंडे रोज न बना कर 2-3 दिन में एक बार बना दूंगी.’’

‘‘अब जो ठीक समझो, करो,’’ बेटे ने कहा, ‘‘सेना के एक कप्तान से मैं ने दोस्ती की है. एक दिन बुला कर उसे दावत देनी है.’’ ‘‘वह किस खुशी में?’’ ‘‘अरे, जानती तो हो, आर्मी कैंटीन में सामान सस्ता मिलता है, एक दिन दावत देंगे तो साल भर सामान लाते रहेंगे.’’ ‘‘ठीक तो है, रंजना के यहां तो ढेर लगा है. जब पूछो, कहां से लिया है तो बस, इतरा कर कहती है कि मेजर साहब ने दिलवा दिया है.’’

जब नाश्ता करने बैठे तो मैं ने कहा, ‘‘अरे, यह दूध मेरे लिए क्यों रख दिया. अब कोई हमारी उम्र दूध पीने की है. लो, बेटा, तुम पी लो,’’ मैं ने अपना आधा प्याला पोते के आधे प्याले में डाल दिया. पत्नी ने कहा, ‘‘यह अंडा तो मुझे अब हजम नहीं होता. बहू, इन बच्चों को ही दे दिया करो. बाबा, डबल रोटी में इतना मक्खन लगा दिया…मैं तो बस, नाम मात्र का लेती हूं.’’ बहू ने कहा, ‘‘मांजी, ऐसे कैसे होगा? बच्चे तो रोज ही खाते हैं. आप जब तक हमारे पास हैं अच्छी तरह खाइए. लीजिए, आप ने भी दूध छोड़ दिया.’’ ‘‘मेरी सोना को दे दो. बच्चों को तो खूब दूध पीना चाहिए.’’

‘‘हां, बेटा, मैं तो भूल ही गया था. तुम्हारी मां के सीने में दर्द रहता है. काफी दवा की पर जाता ही नहीं. अच्छा होता किसी डाक्टर को दिखा देते. है कोई अच्छा डाक्टर तुम्हारी जानपहचान का?’’ बेटे ने सोच कर उत्तर दिया, ‘‘मेरी जानपहचान का तो कोई है नहीं पर दफ्तर में पता करूंगा. हो सकता है एक्सरे कराना पड़े.’’ बहू ने तुरंत कहा, ‘‘अरे, कहां डाक्टर के चक्कर में पड़ोगे, यहां कोने में सड़क के उस पार घोड़े की नाल बनाने वाला एक लोहार है. बड़ी तारीफ है उस की. उस के पास एक खास दवा है. बड़े से बड़े दर्द ठीक कर दिए हैं उस ने. अरे, तुम्हें तो मालूम है, वही, जिस ने चमनलाल का बरसों पुराना दर्द ठीक किया था.’’

‘‘हां,’’ बेटे ने याद करते हुए कहा, ‘‘ठीक तो है. वह पैसे भी नहीं लेता. बस, कबूतरों को दाना खिलाने का शौक है. सो वही कहता है कि पैसों की जगह आप आधा किलो दाना डाल दो, वही काफी है.’’ मैं ने गहरी सांस ली. पत्नी साड़ी के कोने से मेज पर पड़ा डबल रोटी का टुकड़ा साफ कर रही थी. मेरी मुट्ठी भिंच गईं. मुझे लगा मेरी मुट्ठी में इस समय अनगिनत रुपए हैं.

सोचने की बात सिर्फ यह थी कि इन्हें आज खत्म करूं या कल, परसों या कभी नहीं. बेटा दफ्तर जा रहा था. ‘‘सुनो,’’ उस ने बहू से कहा, ‘‘जरा कुछ रुपए दे दो. लौटते हुए गोश्त लेता आऊंगा, और रबड़ी भी. पिताजी को बहुत पसंद है न.’’ बहू ने झिड़क कर कहा, ‘‘अरे, पिताजी कोई भागे जा रहे हैं जो आज ही रबड़ी लानी है? रहा गोश्त, सो पाव आध पाव से तो काम चलेगा नहीं.

कम से कम 1 किलो लाना पड़ेगा. मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं. अब खाना ही है तो अगले महीने खाना.’’ ‘‘ठीक है,’’ कह कर बेटा चला गया. मुझे एक बार फिर लगा कि मेरी मुट्ठी में बहुत से पैसे हैं. मैं ने मुट्ठी कस रखी है. प्रतीक्षा है सिर्फ इस बात की कि कब अपनी मुट्ठी ढीली करूं. पत्नी ने कराहा. शायद सीने में फिर दर्द उठा था.

खोया हुआ आशिक : शालिनी के लौटने पर क्यों परेशान थी विनीता

‘‘हैलोविन्नी… कैसी हो मेरी जान… अरे, मैं शालिनी बोल रही हूं… तुम्हारी शालू’’ सुन कर विनीता को समझने में कुछ समय लगा, मगर फिर जल्दी ही जैसे दिमाग सोते से जागा.

‘‘अरे, शालू तुम? अचानक इतने सालों बाद? तुम तो नितेश से शादी कर के अमेरिका चली गई थी… आज इतने सालों बाद अचानक मेरी याद कैसे आई? क्या इंडिया आई हो?’’ विनीता ने अपने मन की घबराहट छिपाते हुए पूछा.

‘‘अरे बाप रे, इतने सारे सवाल एकसाथ? बताती हूं… बताती हूं… अभी तो बातें शुरू हुई हैं…’’ शालिनी ने अपनी आदत के अनुसार ठहाका लगाते हुए कहा.

‘‘पहले तू यह बता कि मेरे खोए हुए आशिक यानी जतिन के बारे में तुझे कोई खबर है क्या? शायद मेरी तरह उस ने भी हमारे अतीत के कुछ पन्ने संभाल कर रखें हों…’’ शालिनी का सवाल सुनते ही विनीता के हाथ से मोबाइल छूटने को हुआ. वह उसे कैसे बताती कि उस का खोया हुआ आशिक ही अब उस का पाया हुआ प्यार है… जिन अतीत के पन्नों की बात ‘शालू कर रही थी वही पन्ने उस के जाने के बाद विनीता वर्तमान में पढ़ रही है… हां, वही जतिन जो कभी शालू का आशिक हुआ करता था आज विनीता का पति है.’

विनीता को एकाएक कोई जवाब नहीं सूझा तो उस ने 4-5 बार ‘‘हैलो… हैलो…’’ कह कर फोन काट दिया और फिर उसे स्विच औफ भी कर दिया. वह फिलहाल शालू के किसी भी सवाल का जवाब देने की स्थिति में नहीं थी.

विनीता बैडरूम में आ कर कटे पेड़ की तरह ढह गई. न जाने कितनी ही बातें… कितनी ही यादें थीं, जो 1-1 कर आंखों के रास्ते गुजर रही थी. कौन जाने… आंखों से यादें बह रही थीं या आंसुओं का सैलाब… कैसे भूल सकती है विनीता कालेज के आखिरी साल के वे दिन जब शालिनी ने अचानक नितेश से शादी करने के अपने पापा के फैसले को हरी झंडी दे दी थी. विनीता ने क्या कम समझाया था उसे?

‘‘शालू, तुम जतिन के साथ ऐसा कैसे कर सकती हो? उसे कितना भरोसा है तुम पर… बहुत प्यार करता है तुम से… वह टूट जाएगा शालू… मुझे तो डर है कि कहीं कुछ उलटासीधा न कर बैठे…’’ विनीता को शालू की बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था. एक वही तो थी इस रिश्ते की चश्मदीद गवाह.

‘‘बी प्रैक्टिकल यार. प्यार अलग चीज है और शादी अलग… नितेश से जो मुझे मिल सकता है वह जतिन कभी नहीं दे सकता… नीतेश एअर इंडिया में पायलट है… महानगर में शानदार फ्लैट… अच्छी नौकरी… हैंडसम पर्सनैलिटी… रोज विदेश के दौरे… क्या

ये सब जतिन दे पाएगा मुझे? उसे तो अभी

सैटल होने में ही बरसों लग जाएंगे… तब तक

तो मैं बूढ़ी हो जाऊंगी…’’ शालू ने आदतन ठहाका लगाया.

‘‘देख शालू, तुझे जो करना है वह कर,

मगर प्लीज… फाइनल ऐग्जाम तक इस बारे में जतिन को कुछ मत बताना वरना वह एग्जाम भी नहीं दे पाएगा… उस का फ्यूचर खराब हो जाएगा…’’ विन्नी उस के सामने लगभग गिड़गिड़ा उठी.

‘‘ओके डन… मगर तू क्यों इतनी मरी जा रही है उस के लिए?’’ शालू विन्नी पर कटाक्ष करते हुए क्लास से चली गई.

फाइनल परीक्षा खत्म हो गई. आखिरी पेपर के बाद तीनों कालेज कैंटीन में मिले थे. तभी शालू ने नितेश के साथ अपनी सगाई की खबर सार्वजनिक की थी. विनीता की नजर लगातार जतिन के चेहरे पर ही टिकी थी. वह संज्ञा शून्य सा बैठा था. उन दोनों को सकते में छोड़ कर शालू कब की जा चुकी थी. विनीता किसी तरह जतिन को वहां से उठा कर ला पाई थी.

नितेश से शादी कर के 2 ही महीनों में शालू अमेरिका चली गई. फाड़ कर फेंक गई थी अपने अतीत के पन्ने… पीछे छोड़ गई थी टूटा… हारा… अपना आशिक… जिसे विनीता ने न केवल संभाला, बल्कि संवार निखार भी दिया. शालू की बेवफाई के गम को भुलाने के लिए जतिन ने अपने आप को पढ़ाई में डुबो दिया. विनीता ने उस के आंसुओं को कंधा दिया. वह लगातार उस का हौसला बढ़ाती रही. आखिर जतिन की मेहनत और विनीता की तपस्या रंग लाई. प्रशासनिक अधिकारी तो नहीं, मगर जतिन एक राजपत्रित अधिकारी तो बन ही गया था. अपनी सफलता का सारा श्रेय विनीता को देते हुए एक दिन जब जतिन ने उसे शादी के लिए प्रोपोज किया तो वह भी न नहीं कह सकी और घर वालों की सहमति से दोनों विवाहसूत्र में बंध गए. बेशक यह पहली नजर वाला प्रेम नहीं था, मगर हौलेहौले हो ही गया था.

तभी लैंडलाइन की घंटी ने उसे वर्तमान में ला दिया.

‘‘अरे, क्या बात है… तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न? मोबाइल स्विच औफ क्यों आ रहा है?’’ जतिन की आवाज में खुद के लिए इतनी फिक्र महसूस कर विनीता को दिली राहत मिली.

‘‘अच्छा… मोबाइल स्विच औफ है? मैं ने देखा नहीं… शायद चार्ज करना भूल गई,’’ विनीता साफ झूठ बोल गई.

‘‘सुनो, मुझे दोपहर बाद टूअर पर निकलना है. ड्राइवर को भेज रहा हूं, मेरा बैग पैक कर के दे देना. घर नहीं आ पाऊंगा, जरूरी मीटिंग है,’’ जतिन ने जल्दबाजी में कहा.

जतिन के टूअर अकसर ऐसे ही बनते. मगर हर बार की तरह इस बार विनीता परेशान नहीं हुई, बल्कि उस ने राहत की सांस ली, क्योंकि वह इस समय सचमुच एकांत चाहती थी ताकि शालिनी से आने से बनी इस परिस्थिति पर कुछ सोचविचार कर सके.

‘क्या होगा अगर उस ने घर आने और मेरे पति से मिलने की जिद की तो? क्या कहूंगी मैं शालू से? क्या जतिन से शादी कर के मैं ने कोई अपराध किया है?’ इन्हीं सवालों के जवाब वह एकांत में अपनेआप से पाना चाहती थी. पूरा दिन वह मंथन करती रही. उस की आशंका के अनुरूप अगले ही दिन दोपहर में शालिनी का फोन आ गया. अब तक विनीता अपनेआप को इस स्थिति के लिए मानसिक रूप से तैयार कर चुकी थी.

‘‘यार विन्नी, तुम तो बड़ी छिपी रुस्तम निकली… मेरी ही थाली पर हाथ साफ कर लिया… मेरे आशिक को अपना पति बना लिया… मैं ने कल ही जतिन की फेसबुक आईडी देखी तो पता चला… क्या तुम्हारी पहले से ही प्लानिंग थी?’’ शालू का व्यंग्य सुन कर विन्नी गुस्से और अपमान से तिलमिला उठी.

‘‘नहीं शालू… थाली पर हाथ साफ नहीं किया, बल्कि जिस पौध को तुम कुचल कर खत्म होने के लिए फेंक गई थी मैं ने उसे सहेज कर फिर से गमले में लगा दिया… अब उस के फूल या फल, जो भी हों, वे मेरी ही झोली में आएंगे न… चल छोड़ ये बातें… तू बता क्या चल रहा है तेरी लाइफ में? कितने दिन के लिए इंडिया आई हो? अकेली आई हो या नितेश भी साथ है?’’ विन्नी ने संयत स्वर में पूछा.

‘‘अकेली आई हूं, हमेशा के लिए… हमारा तलाक हो गया.’’

‘‘क्यों? कैसे? वह तो तुम्हारे हिसाब से बिलकुल परफैक्ट मैच था न?’’

‘‘अरे यार, दूर के ढोल सुहावने होते हैं… नितेश भी बाहर से तो इतना मौडर्न… और भीतर से वही… टिपिकल इंडियन हस्बैंड… यहां मत जाओ… इस से मत मिलो… उस से दूर रहो… परेशान हो गई थी मैं उस से… खुद तो चाहे जिस से लिपट कर डांस करे… और कोई मेरी कमर में हाथ डाल दे तो जनाब को आग लग जाती थी… रोज हमारा झगड़ा होने लगा… बस, फिर हम आपसी सहमति से अलग हो गए. अब मैं हमेशा के लिए इंडिया आ गई हूं,’’ शालू ने बड़ी ही सहजता से अपनी कहानी बता दी जैसे यह कोई खास बात नहीं थी, मगर विनीता के मन में एक अनजाने डर ने कुंडली मार ली.

‘‘अगर यह हमेशा के लिए इंडिया आ गई है, तो जतिन से मिलने की कोशिश भी जरूर करेगी… कहीं इन दोनों का पुराना प्यार फिर से जाग उठा तो? कहते हैं कि व्यक्ति अपना पहला प्यार कभी नहीं भूलता… फिर? उस का क्या होगा?’’ विनीता ने डर के मारे फोन काट दिया.

विनीता के दिल में शक के बादलों ने डेरा जमाना शुरू कर दिया. उस का शक विश्वास में बदलने लगा जब एक दिन उस ने फेसबुक पर नोटिफिकेशन देखा, ‘‘जतिन बिकम्स फ्रैंड विद शालिनी.’’

‘‘जतिन ने मुझे बताना भी जरूरी नहीं समझा? हो सकता है शालिनी इन से मिली भी हो…’’ विनीता के दिल में शक के नाग ने फुफकार भरी. विनीता अपने दिल की बात किसी से भी शेयर नहीं कर पा रही थी. धीरेधीरे उस की मनोस्थिति उस पर हावी होने लगी. नतीजतन उस के व्यवहार में एक अजीब सा रूखापन आ गया. जतिन जब भी उसे हंसाने की कोशिश करता वह बिफर उठती.

‘‘तुम्हें पता है शालिनी वापस लौट आई है?’’ एक दिन औफिस से आते ही जतिन ने विस्फोट किया.

‘‘हां, उस ने एक दिन मुझे फोन किया था. मगर तुम्हें किस ने बताया?’’ विनीता ने उस की आंखों में आंखें डाल कर पूछा. जतिन की आंखों में उसे जरा भी चोरी नजर नहीं आई, बल्कि उन में तो विश्वास भरी चमक थी.

‘‘अरे, उसी ने आज मुझे भी फोन किया था. उसे टाइम पास करने के लिए कोई जौब चाहिए. मुझ से मदद मांग रही थी.’’

‘‘फिर तुम ने क्या कहा?’’

‘‘1-2 लोगों से कहा है… देखो, कहां बात बनती है.’’

‘‘मगर तुम्हें क्या जरूरत है किसी पचड़े में पड़ने की?’’

‘‘अरे यार, इंसानियत नाम की भी कोई चीज होती है या नहीं… चलो छोड़ो, तुम बढि़या सी चाय पिलाओ,’’ कहते हुए जतिन ने बात खत्म कर दी.

मगर यह बात इतनी आसानी से कहां खत्म होने वाली थी. विनीता के कानों में रहरह कर शालिनी की चैलेंज देती आवाज गूंज रही थी. अब उस के पास शालिनी के फोन आने बंद हो गए थे. इस बात ने भी विनीता की रातों की नींद उड़ा दी थी.

‘‘अब तो सीधे जतिन को ही कौल करती होगी… मैं तो शायद कबाब में हड्डी हो चुकी हूं,’’ विनीता अपनेआप से ही बातें करती परेशान होती रहती. इन सब के फलस्वरूप वह कुछ बीमार भी रहने लगी थी.

‘‘मेरे कहने पर एक होटल में शालिनी को एचआर की जौब मिल गई. इस खुशी में वह आज मुझे इसी होटल में ट्रीट देना चाहती है… तुम चलोगी?’’ एक शाम जतिन ने घर आते ही कहा.

‘‘पूछ रहे हो या चलने को कह रहे हो?’’ विनीता भीतर ही भीतर सुलग रही थी.

‘‘आजकल तुम्हें बाहर का खाना सूट नहीं करता न, इसलिए पूछ रहा हूं,’’ जतिन ने सहजता से कहा.

विनीता कुछ नहीं बोली. चुपचाप हारे हुए खिलाड़ी की तरह जतिन को अपने से दूर जाते देखती रही.

धीरेधीरे उस ने चुप्पी ही साथ ली. उस ने जतिन से दूरी बढ़ानी शुरू करदी. उन के रिश्ते में ठंडापन आने लगा. वह मन ही मन अपनेआप को जतिन से तलाक के लिए तैयार करने लगी. वहीं जतिन इसे उस की बीमारी के लक्षण समझ कर बहुत ही सामान्य रूप से ले रहा था. हमेशा की तरह वह उसे घर आते ही औफिस से जुड़ी मजेदार बातें बताता था. इन दिनों उस की बातों में शालिनी का जिक्र भी होने लगा था. हालांकि शालू कभी उन के घर नहीं आई, मगर जतिन के अनुसार वह कभीकभार उस से मिलने औफिस आ जाती. वह भी 1-2 बार उस के बुलावे पर होटल गया था.

जतिन की साफगोई के विपरीत विनीता इसे अपने खिलाफ शालिनी की साजिश समझ रही थी. भीतर ही भीतर घुटती विनीता आखिरकार एक दिन हौस्पिटल के बिस्तर पर पहुंच गई. जतिन घबरा गया. वह समझ नहीं पा रहा था कि हंसतीखेलती विन्नी को अचानक क्या हो गया है. ठीक है वह पिछले दिनों कुछ परेशान थी, मगर स्थिति इतनी बिगड़ जाएगी, यह उस ने कल्पना भी नहीं की थी. जतिन उस का अच्छे से अच्छा इलाज करवा रहा था. जतिन की गैरमौजूदगी में एक दिन अचानक शालिनी उस से मिलने हौस्पिटल आई. विन्नी अनजाने डर से सिहर गई.

‘‘थैंक यू विन्नी, तुम्हारी बीमारी ने मेरा रास्ता बहुत आसान कर दिया… तुम जतिन से जितनी दूर जाओगी, वह उतना ही मेरे करीब आएगा…’’ शालिनी ने बेशर्मी से कहा. उस ने जतिन के साथ अपनी कुछ सैल्फियां भी उसे दिखाईं जिन में वह उस के साथ मुसकरा रहा था, साथ ही कुछ मनगढ़ंत चटपटे किस्से भी परोस दिए. शालू की बातें देखसुन कर विनीता ने मन ही मन इस रिश्ते के सामने हथियार डाल दिए.

‘‘जतिन, तुम शालू को अपना लो… अब तो तलाक की बाध्यता भी नहीं रहेगी… मैं ज्यादा दिन तुम्हें परेशान नहीं करूंगी…’’

विनीता के मुंह से ऐसी बात सुन कर जतिन चौंक गया. बोला, ‘‘आज तुम ये कैसी पागलों सी बातें कर रही हो? और यह शालू कहां से आ गई हमारे बीच में?’’

‘‘तुम्हें मुझ से कुछ भी छिपाने की जरूरत नहीं है. मुझे शालू ने सब बता दिया,’’ विन्नी ने किसी तरह अपनी सुबकाई रोकी, मगर आंखें तो फिर भी छलक ही उठीं.

‘‘तुम उस सिरफिरी शालू की बातों पर भरोसा कर रही हो मेरी बात पर नहीं… बस, इतना ही जानती हो अपने जतिन को? अरे, लाखों शालू भी आ जाएं तब भी मेरा फैसला तुम ही रहोगी… मगर शायद गलती तुम्हारी भी नहीं है… जरूर मेरे ही प्यार में कोई कमी रही होगी… मैं ही अपना भरोसा कायम नहीं रख पाया… मुझे माफ कर दो विन्नी… मगर इस तरह मुझ से दूर जाने की बात न करो…’’ जतिन भी रोने को हो आया.

‘‘यही सब बातें मैं अपनेआप को समझाने की बहुत कोशिश करती हूं. मगर दिल में कहीं दूर से आवाज आती है कि विन्नी तुम यह कैसे भूल रही हो कि शालू ही वह पहला नाम है जो जतिन ने अपने दिल पर लिखा था और फिर मैं दो कदम पीछे हट जाती हूं.’’

‘‘मुझे इस बात से इनकार नहीं कि शालू का नाम मेरे दिल पर लिखा था… मगर तुम्हारा नाम तो खुद गया है मेरे दिल पर… और खुदी हुई इबारतें कभी मिटा नहीं करतीं पगली…’’

‘‘तुम ने मुझे न केवल जिंदगी दी है,

बल्कि जीने के मकसद भी दिए हैं. तुम्हारे बिना न मैं कुछ हूं और न ही मेरी जिंदगी. अगर इस बीमारी की वजह शालू है, तो मैं आज इसे जड़ से ही खत्म कर देता हूं… अभी होटल के मालिक को फोन कर के शालू को नौकरी से हटाने को कह देता हूं, फिर जहां उस की मरजी हो चली जाए,’’ कह जतिन ने जेब से मोबाइल निकाला.

‘‘नहीं जतिन, रहने दीजिए… शायद सारी गलती मेरी ही थी… मुझे अपने प्यार पर भरोसा रखना चाहिए था… मगर मैं नहीं रख पाई… आशंकाओं के अंधेरे में भटक गई थी… मेरी आशंकाओं के बादल अब छंट चुके हैं… हमारे रिश्ते को किसी शालू से कोई खतरा नहीं…’’ विनीता मुसकरा दी.

तभी जतिन का मोबाइल बज उठा. शालिनी कौलिंग देख कर वह मुसकरा दिया. उस ने मोबाइल को स्पीकर पर कर दिया.

‘‘हैलो जतिन, फ्री हो तो क्या हम कौफी साथ पी सकते हैं? वैसे भी विन्नी तो हौस्पिटल में है… आ जाओ,’’ शालिनी ने मचलते हुए कहा.

‘‘विन्नी कहीं भी हो, हमेशा मेरे साथ मेरे दिल में होती है. और हां, यदि तुम ने मुझे ले कर कोई गलतफहमी पाल रखी है तो प्लीज भूल जाओ… तुम मेरी विन्नी की जगह कभी नहीं ले सकती… नाऊ बाय…’’ जतिन बहुत संयत था.

‘‘बाय ऐंड थैंक्स शालू… हमारे रिश्ते को और भी ज्यादा मजबूत बनाने के लिए…,’’ विन्नी भी खिलखिला कर जोर से बोली और फिर जतिन ने फोन काट दिया. दोनों देर तक एकदूसरे का हाथ थामे अपने रिश्ते की गरमाहट महसूस करते रहे.’’

दुनिया नई पुरानी : एक परिवार ऐसा भी

एक सीधीसादी, संतुष्ट जिंदगी जी रहा था जनार्दन का परिवार. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था लेकिन एक दिन ऐसा जलजला आया जो परिवार की सारी खुशियां बहा ले गया.

पदोन्नति के साथ जनार्दन का तबादला किया गया था. अब वे सीनियर अध्यापक थे. दूरदराज के गांवों में 20 वर्षों का लंबा सेवाकाल उन्होंने बिता दिया था. उन की पत्नी शहर आने पर बहुत खुश थी. गांव की अभावभरी जिंदगी से वह ऊब चुकी थी. अपने बच्चों को पढ़ानेलिखाने में जनार्दन व उन की पत्नी ने खूब ध्यान दिया था.

उन की 2 बेटियां और एक बेटा था. बड़ी का नाम मालती, मंझली मधु और छोटे बेटे का नाम दीपू था. मालती सीधीसादी मगर गंभीर स्वभाव की, तो मधु थोड़ी जिद्दी व शरारती थी, जबकि दीपू थोड़ा नटखट था.

मालती बीए की पढ़ाई कर रही थी, मधु 11वीं में पढ़ रही थी और दीपू तीसरी कक्षा में पढ़ रहा था. समय बीत रहा था.

वहां गांव में जनार्दन पैदल ही स्कूल जातेआते थे. यहां शहर में आ कर उन्होंने बाइक ले ली थी. जिस पर छुट्टी के दिन श्रीमतीजी को बैठा कर जनार्दन शौपिंग करने या घूमने जाते थे. उन की पत्नी दुपहिया वाहन में सैर कर फूले न समाती. कभीकभी दीपू भी जिद कर मांबाप के बीच बैठ कर सवारी का आनंद ले लेता था.

मधु विज्ञान विषय ले कर पढ़ रही थी. जनार्दन ने शहर के एक ट्यूशन सैंटर में भी अब उस का दाखिला करवा दिया था. वह बस से आयाजाया करती. दीपू को जनार्दन खुद स्कूल छोड़ जाया करते और लौटते समय ले आते. एक व्यवस्थित ढर्रे पर जीवन चल रहा था.

नई कालोनी में आ कर जनार्दन की पत्नी बच्चों के लालनपालन में तल्लीन थी. दिन के बाद रात, रात के बाद दिन. समय कट रहा था. बेहद घरेलू टाइप की महिला थी वह. एक ऐसी आम भारतीय महिला जिस का सबकुछ उस का पति, बच्चे व घर होता है. मां का यह स्वभाव बड़ी बेटी को ही मिला था.

मधु ट्यूशन खत्म होते ही बस से ही लौटती. कालोनी के पास ही बस का स्टौप था. ट्यूशन सैंटर के पास एक ढाबा था. शहर के लड़के और बाबू समुदाय अपने खाने का शौक पूरा करने वहां आते थे. एक दिन यहीं पर मधु सड़क पार कर बसस्टौप के लिए जा रही थी, एक कार टर्न लेते हुए मधु के एकदम पास आ कर रुकी. मधु घबरा गई थी. वह पीछे हट गई. कारचालक ने कार किनारे पार्क की और मधु के पास आया, बोला, ‘‘मैडम, सौरी, मैं जरा जल्दी में था.’’  दोनों की आंखें चार हुईं.

‘‘दिखाई नहीं देता क्या,’’ वह गुस्से से बोली.

‘‘अब एकदम ठीक दिखाई देता है मैडम.’’ उस ने मधु की आंखों में आंखें डालते हुए कहा.

‘‘नौनसैंस,’’ मधु ने उसे गुस्से से देख कर कहा.

फिर मधु बसस्टौप की तरफ बढ़ चली. वह उसे जाता हुआ देखता रहा. उस का नाम था शैलेश. शहर के एक कपड़े के व्यापारी का बेटा. अब तो शैलेश अकसर ट्यूशन सैंटर के पास दिखता- कभी ढाबे से निकलते हुए, कभी कार खड़ी कर इंतजार करते हुए. फिर वही हुआ जो ऐसे में होता है. एक शरारत पहचान में, पहचान दोस्ती में, और फिर दोस्ती प्यार में बदल गई.

बस की जगह अब मधु कार या कभी बाइक में ट्यूशन से लौटती. मधु के मातापिता इस बात से अनजान थे. लेकिन कालोनी के एक अशोकन सर को सबकुछ पता था. इधर अशोकन सर

शाम की चहलकदमी को निकलते और कालोनी से कुछ कदम दूर मधु कार से कभी बाइक से उतरती, दबेपांव धीरेधीरे घर की ओर जाती. इन की हायबाय उन्होंने कितनी ही बार देखी.

मां तो यही सोचती कि उस की बेटी सयानी है, विज्ञान की छात्रा है, एक दिन उसे डाक्टर बनना है. वह एक मौडर्न लड़की है. दुनिया में आजकल यही तो चाहिए. पिता को घर की जिम्मेदारियों से फुरसत कहां मिलती है भला.

लेकिन मधु के प्यार की भनक मालती को लग गई थी. उस के फोनकौल्स अब ज्यादा ही आ रहे थे. जब देखो मोबाइल फोन कान से लगाए रहती. एक शाम जब वह काफी देर बातें कर चुकी, तो मालती ने पूछा, ‘‘मधु, कौन था वह जिस से तुम इतनी हंसहंस कर बातें कर रही थी? तुम कहीं ऐसेवैसे के चक्कर में तो नहीं पड़ गईं. अपनी पढ़ाई का खयाल रखना.’’

मधु ने जवाब में कहा, ‘‘नहीं दीदी, ऐसीवैसी कोई बात नहीं है.’’

आखिर एक दिन उस ने दीदी को बता ही दिया कि वह शैलेश से प्यार करने लगी है. वह अच्छा लड़का है.’’

मालती ने मन में सोचा, ‘शायद यह सब सच हो.’

एक दिन अचानक मुख्यभूमि से जनार्दन के पास फोनकौल आई.

उन्हें अपने पैतृक गांव जाना पड़ा. उन के मित्र वेंकटेश ने फौरन उन के विमान टिकट का बंदोबस्त किया. पापामम्मी दोनों को जाना था. ज्यों ही मम्मीपापा गए, मधु ने दीदी से कहा कि वह 2-3 दिनों के लिए चेन्नई जाना चाहती है. शैलेश 2-3 दिनों के लिए अपने बिजनैस के सिलसिले में चेन्नई जाएगा. वह उसे भी साथ ले जाना चाहता है.

‘‘दीदी, तू साथ दे दे. बस, 2-3 दिनों की ही तो बात है.’’

मालती अवाक रह गई. मगर वह क्या कर पाती भला. उस की ख्वाहिश और बारबार यह आश्वासन कि शैलेश बहुत अच्छा लड़का है, वह उस से शादी करने को राजी है. मालती ने उसे इजाजत दे दी. शैलेश के साथ विमान से मधु चेन्नई चली गई. मालती का जैसे दिन का चैन और रातों की नींद उड़ गई थी. पता नहीं क्या हो जाए. लेकिन चौथे दिन वह शैलेश के साथ लौट आई थी. टूरिस्ट सीजन की वजह से उन्हें किसी ने ज्यादा नोटिस नहीं किया था.

एक सप्ताह के बाद मम्मीपापा मुख्यभूमि से लौट आए थे. गांव की पुश्तैनी जमीन का उन का हिस्सा उन्हें मिलने वाला था. मम्मीपापा के लौट आने पर मालती का मन बेहद हलका हो गया था.

समय गुजरता जा रहा था. जनार्दन और उन की पत्नी बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए दिनरात एक कर रहे थे. मालती अब बीए पास कर चुकी थी. वह आगे पढ़ने की सोच रही थी. दीपू 7वीं कक्षा में पहुंच गया था और मधु अब कालेज में पढ़ रही थी.

आधुनिक खयाल की लड़की होने के कारण मधु के पहनावे भी आधुनिक थे. उस की सहेलियां अमीर घरों की थीं. उन लड़कियों के बीच एक नाम बहुत ही सुनाई देता था- बबलू. वैसे उस का सही नाम जसवंत था. बबलू कभी अकेला नहीं घूमता था, 3-4 चेले हमेशा उसे घेरे रहते. क्यों न हों, वह शहर के एक प्रभावी नेता का बेटा जो था. ऊपर से वह तबीयत का भी रंगीन था. उस ने जब मधु को देखा, तो देखता ही रह गया उस की गोरी काया और भरपूर यौवन को. पर मधु भला उस पर क्यों मोहित होती, वह तो शैलेश की दीवानी थी. जब कभी कक्षाएं औफ होतीं तो मधु अपना समय शैलेश के साथ ही बिताती, कभी किसी पार्क या किसी दूसरी जगह पर.

जर्नादन और वेंकटेश की दोस्ती अब पारिवारिक बंधन में बदलने जा रही थी. वेंकटेश के बेटे को मालती बहुत पसंद थी. पिछले बरस उस ने अपनी सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की थी और उस की सरकारी नौकरी भी लग गई थी.

एक सुबह वेंकटेश और उन की पत्नी अपने बेटे का रिश्ता मालती के लिए ले कर आ गए थे. और अगले फागुन में शादी की तिथि निकल आई थी. मालती शादी के बाद भी पढ़ाई करे, उन्हें एतराज नहीं था. मां यही तो चाहती थी कि उस की बेटी को अच्छी ससुराल मिले.

इधर, मधु कालेज में अपनी सहेलियों की मंडली में हंसतीखेलती व चहकती रहती. क्लास न होने पर कैंटीन में समय बिताती या लाइब्रेरी में पत्रिकाएं उलटतीपलटती. कभीकभार शैलेश उसे पार्क में बुला लेता. बबलू तो बस हाथ मसोस कर रह जाता. वैसे, बहुत बार उस ने मधु को आड़ेहाथों लेने की कोशिश की थी.

वह गांधी जयंती की सुबह थी. कालेज में हर वर्ष की तरह राष्ट्रपिता की जयंती मनाने का प्रबंध बहुत ही अच्छे तरीके से किया गया था. लड़कियां रंगबिरंगे कपड़ों में कालेज के कैंपस और पंडाल में आजा रही थीं. तभी, बबलू की टोली ने देखा कि मधु शैलेश की कार में बैठ रही है.

अक्तूबर का महीना. सूरज की किरणों में गरमी बढ़ रही थी. शहर से दूर समुद्र के किनारे एक पेड़ के तने से लगे मधु और शैलेश बैठे हुए थे. शैलेश का सिर मधु की गोद में था और मधु की उंगलियां उस के बालों से खेल रही थीं. जब भी दोनों को मौका मिलता तो शहर से दूर दोनों एकदूसरे की बांहों में समा जाते. तभी, शैलेश ने जमीन पर फैले पत्तों में किसी के पैरों की पदचाप सुनी और वह उठ गया, देखा कि सामने एक नौजवान खड़ा है और उस के पीछे 3 और लड़के. मधु ने देखा, वह बबलू था.

और अगले क्षण बबलू ने मधु को हाथों में जकड़ लिया. बब्लू ने मधु को उस की गिरफ्त से छुड़ाना चाहा और पूछा, ‘‘तुम लोग कौन हो और इस बदतमीजी का मतलब…’’ बात अभी पूरी भी न हो पाई थी कि बबलू के बूटों का एक प्रहार उस की कमर पर पड़ा. वह उठ कर भिड़ना ही चाहता था कि बबलू का एक सख्त घूंसा उस के गाल पर पड़ा.

बबलू के इशारे पर 2 लड़कों ने उसे पीटना शुरू कर दिया. शैलेश ने मधु को अपनी बलिष्ठ बांहों में उठा लिया और पास ही के जंगल की ओर बढ़ चला. मधु प्रतिवाद करती रही. बबलू का तीसरा सहायक भी उन के पीछे पहुंच गया था.

शाम तक मधु के न लौटने पर जनार्दन व उन के घर वाले घोर चिंता में घिर गए. उन्होंने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा दी. मालती अनजाने भय से अंदर ही अंदर घबरा रही थी.

अगले दिन यह खबर जंगली आग की तरह फैल गई थी कि शहर से दूर जंगल में एक लड़की का शव और समुद्र के किनारे एक लड़का घायल अवस्था में मिला है. पुलिस हरकत में आई. उस ने शव को अस्पताल पहुंचा दिया और घायल लड़के को अस्पताल में भरती करा दिया.

जनार्दन को पुलिस ने अस्पताल बुला लिया था शिनाख्त के लिए. जब पुलिस अधिकारी ने शव के मुंह से कपड़ा हटाया, जनार्दन के मुंह से चीख निकल गई. वे वहीं गिर पड़े.

दोपहर तक शव कालोनी में लाया गया. कालोनी के लिए वह दिन शोक का था. सभी जनार्दन परिवार के दुख में शामिल थे. मां का रो कर बुरा हाल था, छोटे दीपू को जैसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था. मालती दहाड़ें मारमार कर रो रही थी. जर्नादन के लिए सबकुछ एक अबूझ पहेली की तरह था. उन के सपनों का महल धराशायी हो गया था. रोरो कर उन का भी बुरा हाल था.

मालती के सिवा कौन जानता था कि मधु के जीवन के ऐसे अंत के लिए मालती भी तो जिम्मेदार थी. काश, शुरू से उस ने उसे बढ़ावा न दिया होता और मांपिताजी को सबकुछ बता दिया होता. दहाड़े मार कर रोती मालती को अड़ोसीपड़ोसी ढांढ़स बंधा रहे थे.

फैसला: कैसा था शादीशुदा रवि और तलाकशुदा सविता का प्यार

मैं अपने सहयोगियों के साथ औफिस की कैंटीन में बैठा था कि अचानक सविता दरवाजे पर नजर आई. खूबसूरती के साथसाथ उस में गजब की सैक्स अपील भी है. जिस की भी नजर उस पर पड़ी, उस की जबान को झटके से ताला लग गया.

‘‘रवि, लंच के बाद मुझ से मिल लेना,’’ यह मुझ से दूर से ही कह कर वह अपने रूम की तरफ चली गई.

मेरे सहयोगियों को मुझे छेड़ने का मसाला मिल गया. ‘तेरी तो लौटरी निकल आई है, रवि… भाभी तो मायके में हैं. उन्हें क्या पता कि पतिदेव किस खूबसूरत बला के चक्कर में फंसने जा रहे हैं… ऐश कर ले सविता के साथ. हम अंजू भाभी को कुछ नहीं बताएंगे…’ उन सब के ऐसे हंसीमजाक का निशाना मैं देर तक बना रहा.हमारे औफिस में तलाकशुदा सविता की रैपुटेशन बड़ी अजीब सी है. कुछ लोग उसे जबरदस्त फ्लर्ट स्त्री मानते हैं और उन की इस बात में मैं ने उस का नाम 5-6 ऐसे पुरुषों से जुड़ते देखा है, जिन्हें सीमित समय के लिए ही उस के प्रेमियों की श्रेणी में रखा  जा सकता है. उन में से 2 उस के आज भी अच्छे दोस्त हैं. बाकियों से अब उस की साधारण दुआसलाम ही है.

सविता के करीब आने की इच्छा रखने वालों की सूची तो बहुत लंबी होगी, पर वह इन दिलफेंक आशिकों को बिलकुल घास नहीं डालती. उस ने सदा अपने प्रेमियों को खुद चुना है और वे हमेशा विवाहित ही रहे हैं. मैं तो पिछले 2 महीनों से अपनी विवाहित जिंदगी में आई टैंशन व परेशानियों का शिकार बना हुआ था. अंजू 2 महीने से नाराज हो कर मायके में जमी हुई थी. अपने गुस्से के चलते मैं ने न उसे आने को कहा और न ही लेने गया. समस्या ऐसी उलझी थी कि उसे सुलझाने का कोई सिरा नजर नहीं आ रहा था. मेरा अंदाजा था कि सविता ने मुझे पिछले दिनों जरूरत से ज्यादा छुट्टियां लेने की सफाई देने को बुलाया है. तनाव के कारण ज्यादा शराब पी लेने से सुबह टाइम से औफिस आने की स्थिति में मैं कई बार नहीं रहा था. लंच के बाद मैं ने सविता के कक्ष में कदम रखा, तो उस ने बड़ी प्यारी, दिलकश मुसकान होंठों पर ला कर मेरा स्वागत किया.

‘‘हैलो, रवि, कैसे हो?’’ कुरसी पर बैठने का इशारा करते हुए उस ने दोस्ताना लहजे में वार्त्तालाप आरंभ किया.

‘‘अच्छा हूं, तुम सुनाओ,’’ आगे झूठ बोलने के लिए खुद को तैयार करने के चक्कर में मैं कुछ बेचैन हो गया था.

‘‘तुम से एक सहायता चाहिए.’’

अपनी हैरानी को काबू में रखते हुए मैं ने पूछा, ‘‘मैं क्या कर सकता हूं तुम्हारे लिए?’’

‘‘कुछ दिन पहले एक पार्टी में मैं तुम्हारे एक अच्छे दोस्त अरुण से मिली थी. वह तुम्हारे साथ कालेज में पढ़ता था.’’

‘‘वह जो बैंक में सर्विस करता है?’’

‘‘हां, वही. उस ने बताया कि तुम बहुत अच्छा गिटार बजाते हो.’’

‘‘अब उतना अच्छा अभ्यास नहीं रहा है,’’ अपने इकलौते शौक की चर्चा छिड़ जाने पर मैं मुसकरा पड़ा.

‘‘मेरे दिल में भी गिटार सीखने की तीव्र इच्छा पैदा हुई है, रवि. प्लीज कल शनिवार को मुझे एक अच्छा सा गिटार खरीदवा दो.’’

बड़े अपनेपन से किए गए सविता के आग्रह को टालने का सवाल ही नहीं उठता था. मैं ने उस के साथ बाजार जाना स्वीकार किया, तो वह किसी बच्चे की तरह खुश हो गई.

‘‘अंजू मायके गई हुई है न?’’

‘‘हां,’’ अपनी पत्नी के बारे में सवाल पूछे जाने पर मेरे होंठों से मुसकराहट गायब हो गई.

‘‘तब तो तुम कल सुबह नाश्ता भी मेरे साथ करोगे. मैं तुम्हें गोभी के परांठे खिलाऊंगी.’’

‘‘अरे, वाह. तुम्हें कैसे मालूम कि मैं उन का बड़ा शौकीन हूं?’’

‘‘तुम्हारे दोस्त अरुण ने बताया था.’’

‘‘मैं कल सुबह 9 बजे तक पहुंचूं?’’

‘‘हां, चलेगा.’’

सविता ने दोस्ताना अंदाज में मुसकराते हुए मुझे विदा किया. मेरे आए दिन छुट्टी लेने के विषय पर चर्चा ही नहीं छिड़ी थी, लेकिन अपने सहयोगियों को मैं सच्ची बात बता देता, तो वे मेरा जीना मुश्किल कर देते. इसलिए उन से बोला, ‘‘ज्यादा छुट्टियां न लेने के लिए लैक्चर सुन कर आ रहा हूं.’’ यह झूठ बोल कर मैं अपने काम में व्यस्त हो गया. पिछले 2 महीनों में वह पहली शुक्रवार की रात थी जब मैं शराब पी कर नहीं सोया. कारण यही था कि मैं सोते रह जाने का खतरा नहीं उठाना चाहता था. सविता के साथ पूरा दिन गुजारने का कार्यक्रम मुझे एकाएक जोश और उत्साह से भर गया था. पिछले 2 महीनों से दिलोदिमाग पर छाए तनाव और गुस्से के बादल फट गए थे. कालेज के दिनों में जब मैं अपनी गर्लफ्रैंड से मिलने जाता था, तब बड़े सलीके से तैयार होता था. अगले दिन सुबह भी मैं ढंग से तैयार हुआ. ऐसा उत्साह और खुशी दिलोदिमाग पर छाई थी, मानो पहली डेट पर जा रहा हूं. सविता पर पहली नजर पड़ी तो उस के रंगरूप ने मेरी आंखें ही चौंधिया दीं. नीली जींस और काले टौप में वह बहुत आकर्षक लग रही थी. उस पल से ही उस जादूगरनी का जादू मेरे सिर चढ़ कर बोलने लगा. दिल की धड़कनें बेकाबू हो चलीं. मैं उस के इशारे पर नाचने को एकदम तैयार था. फिर हंसीखुशी के साथ बीतते समय को जैसे पंख लग गए. कब सुबह से रात हुई, पता ही नहीं चला.

सविता जैसी फैशनेबल, आधुनिक स्त्री से खाना बनाने की कला में पारंगत होने की उम्मीद कम होती है, लेकिन उस सुबह उस के बनाए गोभी के परांठे खा कर मन पूरी तरह तृप्त हो गया. प्यारी और मीठीमीठी बातें करना उसे खूब आता था. कई बार तो मैं उस का चेहरा मंत्रमुग्ध सा देखता रह जाता और उस की बात बिलकुल भी समझ में नहीं आती.

‘‘कहां हो, रवि? मेरी बात सुन नहीं रहे हो न?’’ वह नकली नाराजगी दर्शाते हुए शिकायत करती और मैं बुरी तरह झेंप उठता.

मैं ने उसे स्वादिष्ठ परांठे खिलाने के लिए धन्यवाद दिया तो उस ने सहजता से मुसकराते हुए कहा, ‘‘किसी अच्छे दोस्त के लिए कुकिंग करना मुझे पसंद है. मुझे भी बड़ा मजा आया है.’’

‘‘मुझे तुम अपना अच्छा दोस्त मानती हो?’’

‘‘बिलकुल,’’ उस ने तुरंत जवाब दिया.

‘‘कब से?’’

‘‘इस सवाल से ज्यादा महत्त्वपूर्ण एक दूसरा सवाल है, रवि.’’

‘‘कौन सा?’’

‘‘क्या तुम आगे भी मेरे अच्छे दोस्त बने रहना चाहोगे?’’ उस ने मेरी आंखों में गहराई से झांका.

‘‘बिलकुल बना रहना चाहूंगा, पर क्या मुझे कुछ खास करना पड़ेगा तुम्हारी दोस्ती पाने के लिए?’’

‘‘शायद… लेकिन इस विषय पर हम बाद में बातें करेंगे. अब गिटार खरीदने चलें?’’ सवाल का जवाब देना टाल कर सविता ने मेरी उत्सुकता को बढ़ावा ही दिया.

हमारे बीच बातचीत बड़ी सहजता से हो रही थी. हमें एकदूसरे का साथ इतना भा रहा था कि कहीं भी असहज खामोशी का सामना नहीं करना पड़ा. हमारे बीच औफिस से जुड़ी बातें बिलकुल नहीं हुईं. टीवी सीरियल, फिल्म, खेल, राजनीति, फैशन, खानपान जैसे विषयों पर हमारे बीच दिलचस्प चर्चा खूब चली. उस ने अंजू से जुड़ा कोई सवाल मुझ से पूछ कर बड़ी कृपा की. हां, उस ने अपने भूतपूर्व पति संजीव से अपने संबंधों के बारे में, मेरे बिना पूछे ही जानकारी दे दी.

‘‘संजीव से मेरा तलाक उस की जिंदगी में आई एक दूसरी औरतके कारण हुआ था, रवि. वह औरत मेरी भी अच्छी सहेली थी,’’ अपने बारे में बताते हुए सविता दुखी या परेशान बिलकुल नजर नहीं आ रही थी.

‘‘तो पति ने तुम्हारी सहेली के साथ मिल कर तुम्हें धोखा दिया था?’’ मैं ने सहानुभूतिपूर्ण लहजे में टिप्पणी की.

‘‘हां, पर एक कमाल की बात बताऊं?’’

‘‘हांहां.’’

‘‘मुझे पति से खूब नाराजगी व शिकायत रही. पर वंदना नाम की उस दूसरी औरत के प्रति मेरे दिल में कभी वैरभाव नहीं रहा.’’

‘‘ऐसा क्यों?’’

‘‘वंदना का दिल सोने का था, रवि. उस के साथ मैं ने बहुत सारा समय हंसतेमुसकराते गुजारा था. यदि उस ने वह गलत कदम न उठाया होता तो वह मेरी सब से अच्छी दोस्त होती.’’

‘‘लगता है तुम्हें पति से ज्यादा अपनी जिंदगी में वंदना की कमी खलती है?’’

‘‘अच्छे दोस्त बड़ी मुश्किल से मिलते हैं, रवि. शादी कर के एक पति या पत्नी तो हर कोई पा लेता है.’’

‘‘यह तो बड़े पते की बात कही है तुम ने.’’

‘‘कोई बात पते की तभी होती है जब उस का सही महत्त्व भी इंसान समझ ले. बोलबोल कर मेरा गला सूख गया है. अब कुछ पिलवा तो दो, जनाब,’’ बड़ी कुशलता से उस ने बातचीत का विषय बदला और मेरी बांह पकड़ कर एक रेस्तरां की दिशा में बढ़ चली.

उस के स्पर्श का एहसास देर तक मेरी नसों में सनसनाहट पैदा करता रहा. सविता की फरमाइश पर हम ने एक फिल्म भी देख डाली. हौल में उस ने मेरा हाथ भी पकड़े रखा. मैं ने एक बार हिम्मत कर उस के बदन के साथ शरारत करनी चाही, तो उस ने मुझे प्यार से घूर कर रोक दिया. ‘‘शांति से बैठो और मूवी का मजा लो रवि,’’ उस की फुसफुसाहट में कुछ ऐसी अदा थी कि मेरा मन जरा भी मायूसी और चिढ़ का शिकार नहीं बना.

लंच हम ने एक बढि़या होटल में किया. फिर अच्छी देखपरख के बाद गिटार खरीदने में मैं ने उस की मदद की. उस के दिल में अपनी छवि बेहतर बनाने के लिए वह गिटार मैं उसे अपनी तरफ से उपहार में देना चाहता था, पर वह राजी नहीं हुई.

‘‘तुम चाहो तो मुझे गिटार सिखाने की जिम्मेदारी ले सकते हो,’’ वह बोली तो उस के इस प्रस्ताव को सुन कर मैं फिर से खुश हो गया.

जब हम सविता के घर वापस लौटे, तो रात के 8 बजने वाले थे. उस ने कौफी पिलाने की बात कह कर मेरी और ज्यादा समय उस के साथ गुजारने की इच्छा पूरी कर दी. वह कौफी बनाने किचन में गई तो मैं भी उस के पीछेपीछे किचन में पहुंच गया. उस के नजदीक खड़ा हो कर मैं ऊपर से हलकीफुलकी बातें करने लगा, पर मेरे मन में अजीब सी उत्तेजना लगातार बढ़ती जा रही थी. अंजू के प्यार से लंबे समय तक वंचित रहा मेरा मन सविता के सामीप्य की गरमाहट को महसूस करते हुए दोस्ती की सीमा को तोड़ने के लिए लगभग तैयार हो चुका था. तभी सविता ने मेरी तरफ घूम कर मुझे देखा. उस ने जरूर मेरी प्यासी नजरों को पढ़ लिया होगा, क्योंकि अचानक मेरा हाथ पकड़ कर वह मुझे ड्राइंगरूम की तरफ ले चली.

मैं ने रास्ते में उसे बांहों में भरने की कोशिश की, तो उस ने बिना घबराए मुझ से कहा, ‘‘रवि, मैं तुम से कुछ खास बातें करना चाहती हूं. उन बातों को किए बिना तुम को मैं दोस्त से प्रेमी नहीं बना सकती हूं.’’ उसे नाराज कर के कुछ करने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता था. मैं अपनी भावनाओं को नियंत्रण में कर के ड्राइंगरूम में आ बैठा और सविता बेहिचक मेरी बगल में बैठ गई.

मेरा हाथ पकड़ कर उस ने हलकेफुलके अंदाज में पूछा, ‘‘मेरे साथ आज का दिन कैसा गुजरा है, रवि?’’

‘‘मेरी जिंदगी के सब से खूबसूरत दिनों में से एक होगा आज का दिन,’’ मैं ने सचाई बता दी.

‘‘तुम आगे भी मुझ से जुड़े रहना चाहोगे?’’

‘‘हां… और तुम?’’ मैं ने उस की आंखों में गहराई तक झांका.

‘‘मैं भी,’’ उस ने नजरें हटाए बिना जवाब दिया, ‘‘लेकिन अंजू के विषय में सोचे बिना हम अपने संबंधों को मजबूत आधार नहीं दे सकते.’’

‘‘अंजू को बीच में लाना जरूरी है क्या?’’ मेरा स्वर बेचैनी से भर उठा.

‘‘तुम उसे दूर रखना चाहोगे?’’

‘‘हां.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘वह तुम्हें मेरी प्रेमिका के रूप में स्वीकार नहीं करेगी.’’

‘‘और तुम मुझे अपनी प्रेमिका बनाना चाहते हो?’’

‘‘क्या तुम ऐसा नहीं चाहती हो?’’ मेरी चिढ़ बढ़ रही थी.

कुछ देर खामोश रहने के बाद उस ने गंभीर लहजे में बोलना शुरू किया, ‘‘रवि, लोग मुझे फ्लर्ट मानते हैं और तुम्हें भी जरूर लगा होगा कि मैं तुम्हें अपने नजदीक आने का खुला निमंत्रण दे रही हूं. इस बात में सचाई है क्योंकि मैं चाहती थी कि तुम मेरा आकर्षण गहराई से महसूस करो. ऐसा करने के पीछे मेरी क्या मंशा है, मैं तुम्हें बताऊंगी. पर पहले तुम मेरे एक सवाल का जवाब दो, प्लीज.’’

‘‘पूछो,’’ उस को भावुक होता देख मैं भी संजीदा हो उठा.

‘‘क्या तुम अंजू को तलाक देने का फैसला कर चुके हो?’’

‘‘बिलकुल नहीं,’’ मैं ने चौंकते हुए जवाब दिया.

‘‘मुझे तुम्हारे दोस्त अरुण से मालूम पड़ा कि अंजू तुम से नाराज हो कर पिछले 2 महीने से मायके में रह रही है. तुम उसे वापस क्यों नहीं ला रहे हो?’’

‘‘हमारे बीच गंभीर मनमुटाव चल रहा है. उस को अपनी जबान…’’

‘‘मुझे पूरा ब्योरा बाद में बताना रवि, पर क्या तुम्हें उस की याद नहीं आती है?’’ सविता ने मुझे कोमल लहजे में टोक कर सवाल पूछा.

‘‘आती है… जरूर आती है, पर ताली एक हाथ से तो नहीं बज सकती है, सविता.’’

‘‘तुम्हारी बात ठीक है, पर मिल कर साथ रहने का आनंद तो तुम दोनों ही खो रहे हो न?’’

‘‘हां, पर…’’

‘‘देखो, कुसूरवार तो तुम दोनों ही होंगे… कम या ज्यादा की बात महत्त्वपूर्ण नहीं है, रवि. इस मनमुटाव के चलते जिंदगी के कीमती पल तो तुम दोनों ही बेकार गवां रहे हो या नहीं?’’

‘‘तुम मुझे क्या समझाना चाह रही हो?’’ मेरा मूड खराब होता जा रहा था.

‘‘रवि, मेरी बात ध्यान से सुनो,’’ सविता का स्वर अपनेपन से भर उठा, ‘‘आज तुम्हारे साथ सारा दिन मौजमस्ती के साथ गुजार कर मैं ने तुम्हें अंजू की याद दिलाने की कोशिश की है. उस से दूर रह कर तुम उन सब सुखसुविधाओं से खुद को वंचित रख रहे हो जिन्हें एक अपना समझने वाली स्त्री ही तुम्हें दे सकती है.

‘‘मेरा आए दिन ऐसे पुरुषों से सामना होता है, जो अपनी अच्छीखासी पत्नी से नहीं, बल्कि मुझ से संबंध बनाने को उतावले नजर आते हैं

‘‘मेरे साथ उन का जैसा रोमांटिक और हंसीखुशी भरा व्यवहार होता है, अगर वैसा ही अच्छा व्यवहार वे अपनी पत्नियों के साथ करें, तो वे भी उन्हें किसी प्रेमिका सी प्रिय और आकर्षक लगने लगेंगी.

‘‘तुम मुझे बहुत पसंद हो, पर मैं तुम्हें और अंजू दोनों को ही अपना अच्छा दोस्त बनाना चाहूंगी. हमारे बीच इसी तरह का संबंध हम तीनों के लिए हितकारी होगा.

‘‘तुम चाहो तो मेरे प्रेमी बन कर सिर्फ आज रात मेरे साथ सो सकते हो. लेकिन तुम ने ऐसा किया, तो वह मेरी हार होगी. कल से हम सिर्फ सहयोगी रह जाएंगे.

‘‘तुम ने दोस्त बनने का निर्णय लिया, तो मेरी जीत होगी. यह दोस्ती का रिश्ता हम तीनों के बीच आजीवन चलेगा, मुझे इस का पक्का विश्वास है.’’

‘‘बोलो, क्या फैसला करते हो, रवि? अंजू और अपने लिए मेरी आजीवन दोस्ती चाहोगे या सिर्फ 1 रात के लिए मेरी देह का सुख?’’

मुझे फैसला करने में जरा भी वक्त नहीं लगा. सविता के समझाने ने मेरी आंखें खोल दी थीं. मुझे अंजू एकदम से बहुत याद आई और मन उस से मिलने को तड़प उठा.

‘‘मैं अभी अंजू से मिलने और उसे वापस लाने को जा रहा हूं, मेरी अच्छी दोस्त.’’ मेरा फैसला सुन कर सविता का चेहरा फूल सा खिल उठा और मैं मुसकराता हुआ विदा लेने को उठ खड़ा हुआ

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