स्पर्श दंश

लेखक- सुरेंद्र कुमार

एक छोटी सी घटना भी इनसान के जीवन को कैसे बदल सकती है, इस को वह अब महसूस कर रहा था. सुरेश अपनी ही सोच का कैदी हो अपने ही घर में, अपनों के बीच बेगाना और अजनबी बन गया था.

सुनंदा उस में आए बदलाव को पिछले कुछ दिनों से खामोश देख रही थी. आदमी के व्यवहार में अगर तनिक भी बदलाव आए तो सब से पहले उस की पत्नी को ही इस बात का एहसास होता है.

सुनंदा शायद अभी कुछ दिन और चुप रह कर उस में आए बदलाव का कारण खोजती लेकिन आहत मासूम मानसी की पीड़ा ने उस के सब्र के पैमाने को एकाएक ही छलका दिया.

अपनी बेटी के साथ सुरेश का बेरुखा व्यवहार सुनंदा कब तक चुपचाप देख सकती थी. वह भी उस बेटी के साथ जिस में हमेशा एक पिता के रूप में सुरेश की सारी खुशियां सिमटी रहती थीं.

रविवार की सुबह सुरेश ने मानसी के साथ जरूरत से ज्यादा रूखा और कठोर व्यवहार कर डाला था. वह भी तब जब मानसी ने लाड़ से भर कर अपने पापा से लिपटने की कोशिश की थी.

बेटी का शारीरिक स्पर्श सुरेश को एक दंश जैसा लगा था. उस ने बड़ी बेरुखी से बेटी को यह कहते हुए कि मानसी, तुम अब बड़ी हो गई हो, तुम्हारा यह बचपना अब अच्छा नहीं लगता, अपने से अलग कर दिया था. सुरेश ने बेटी को झिड़कते हुए जिस अंदाज से यह कहा था उस से मानसी सहम गई थी. उस की आंखों में आंसू आ गए थे. साफ लगता था कि सुरेश के व्यवहार से उस को गहरी चोट लगी थी. वह तुरंत ही वहां से चली गई थी.

बेटी के साथ अपने इस व्यवहार पर सुरेश को बहुत पछतावा हुआ था. वह ऐसा नहीं चाहता था मगर उस से ऐसा हो गया था. तब उस को लगा भी था कि सचमुच व्यवहार पर उस का नियंत्रण नहीं रहा.

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सुरेश जानता था कि कई दिनों से खामोश सबकुछ देख रही सुनंदा अब शायद खामोश नहीं रहे. मानसी ने जरूर उस के सामने अपनी पीड़ा जाहिर की होगी.

सुरेश का सोचना गलत नहीं था. रसोई के काम से फारिग हो सुनंदा कमरे में आ गई और आते ही उस ने सुरेश के हाथ में पकड़ा अखबार छीन कर फेंक दिया. वह तैश में थी.

‘‘इस बार जब से तुम टूर से वापस आए हो तुम को आखिर हो क्या गया है? अगर बिजनेस की कोई परेशानी है तो कहते क्यों नहीं, इस तरह सब से बेरुखी से पेश आने का क्या मतलब?’’

‘‘मैं किस से बेरुखी से पेश आता हूं, पहले यह भी तो पता चले?’’ अनजान बनते हुए सुरेश ने पूछा.

‘‘इतने भी अनजान न बनो,’’ सुनंदा ने कहा, ‘‘जैसे कुछ जानते ही नहीं हो. जानते हो तुम्हारे व्यवहार से दुखी मानसी आज मेरे सामने कितनी रोई है. वह तो यहां तक कह रही थी कि पापा अब पहले वाले पापा नहीं रहे और अब वह तुम से बात नहीं करेगी.’’

‘‘अगर मानसी ऐसा कह रही है तो जरूर ही मुझ से गलती हुई है. मैं अपनी बेटी को सौरी कह दूंगा. मैं जानता हूं, मेरी बेटी ज्यादा देर तक मुझ से रूठी नहीं रह सकती.’’

‘‘क्या हम दोनों उस के बगैर रह सकते हैं? एक ही तो बेटी है हमारी,’’ सुनंदा ने कहा.

इस पर सुरेश ने पत्नी का हाथ थाम उसे अपने पास बिठा लिया और बोला, ‘‘अच्छा, एक बात बताओ सुनंदा, क्या तुम को ऐसा नहीं लगता कि हमारी नन्ही बेटी अब बड़ी हो गई है?’’

सुरेश की बात को सुन कर सुनंदा हंस पड़ी और कहने लगी, ‘‘जनाब, इस बार आप केवल 10 दिन ही घर से बाहर रहे हैं और इतने दिनों में कोई लड़की जवान नहीं हो जाती. बेटी बड़ी जरूर हो जाती है, पर इतनी बड़ी भी नहीं कि हम उस की शादी की चिंता करने लगें. अगले महीने मानसी केवल 15 साल की होगी. अभी कम से कम 5-6 वर्ष हैं हमारे पास इस बारे में सोचने को.’’

‘‘मैं ने तो यह बात सरसरी तौर पर की थी, तुम तो बहुत दूर तक सोच गईं.’’

‘‘मुझ को जो महसूस हुआ मैं ने कह दिया. वैसे इस तरह की बातें तुम ने पहले कभी की भी नहीं थीं. इस बार जब से टूर से आए हो बदलेबदले से हो. बुरा मत मानना, मैं कोई गिलाशिकवा नहीं कर रही हूं. लेकिन न जाने क्यों मुझ को ऐसा लगने लगा है कि तुम अपनी परेशानियां अब मुझ से छिपाने लगे हो. तुम्हारे मन में जरूर कुछ है, अपनी खीज दूसरों पर उतारने के बजाय बेहतर यही होगा कि मन की बात कह कर अपना बोझ हलका कर लो,’’ सुरेश के कंधे पर हाथ रखते हुए सुनंदा ने कहा.

‘‘तुम को वहम हो गया है, मेरे मन में न कोई परेशानी है और न ही कोई बोझ.’’

‘‘मेरी सौगंध खा कर और आंखों में आंखें डाल कर तो कहो कि तुम को कोई परेशानी नहीं,’’ सुनंदा ने कहा.

उस के ऐसा करने से सुरेश की परेशानी जैसे और भी बढ़ गई. सुनंदा से आंखें न मिला कर उस ने कहा, ‘‘तुम भी कभीकभी बचपना दिखलाती हो. कारोबार में कोई न कोई परेशानी तो हमेशा लगी ही रहती है.’’

‘‘मैं कब कहती हूं कि ऐसा नहीं होता मगर पहले कभी तुम्हारी कोई कारोबारी परेशानी तुम्हारे घरेलू व्यवहार पर हावी नहीं हुई. इस बार तुम्हारी परेशानी का एक सुबूत यह भी है कि तुम अपनी बेटी की फरमाइश पर उस की बार्बी लाना भी भूल गए, वह भी तब जब उस ने मोबाइल से 2 बार तुम को इस के लिए कहा था. एक तो तुम मुंबई से उस की बार्बी नहीं लाए, उस पर उस से इतना रूखा व्यवहार, वह आहत हो रोएगी नहीं तो क्या करेगी?’’

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‘बार्बी’ के जिक्र से ही सुरेश के शरीर को जैसे कोई झटका सा लगा. जिस गुनाह के एहसास ने उस को अपनी बेटी से बेगाना बना दिया था उस गुनाह के नागपाश ने एकाएक ही उस के सर्वस्व को जकड़ लिया. सुरेश की मजबूरी यह थी कि वह आपबीती किसी से कह नहीं सकता था. सुनंदा से तो एकदम नहीं, जो शादी के बाद से ही इस भ्रम को पाले हुए है कि उस के जीवन में किसी दूसरी औरत की कोई भूमिका नहीं रही.

सुनंदा ही नहीं दुनिया की बहुत सी औरतें जीवन भर इस विश्वास का दामन थामे रहती हैं कि उन के पति को उस के अलावा किसी दूसरी औरत से शारीरिक सुख का कोई अनुभव नहीं. मर्द इस मामले में चालाक होता है. पत्नी से बेईमानी कर के भी उस की नजरों में पाकसाफ ही बना रहता है.

लेकिन कभीकभी मर्द की बेईमानी और उस का गोपनीय गुनाह कैसे उस के जीवन से उस के अपनों को दूर कर सकता है, सुरेश की कहानी तो यही बतलाती थी.

सुनंदा ने गलत नहीं कहा था. मानसी ने 2 बार मोबाइल से अपने पापा सुरेश से ‘बार्बी’ लाने की बात याद दिलाई थी. लेकिन न तो मानसी इस बात को जानती थी और न ही सुनंदा कि जब दूसरी बार मानसी ने सुरेश से बार्बी लाने की बात की थी तब वह मुंबई में नहीं गोआ में था.

सुरेश बिना किसी पूर्व कार्यक्रम के पहली बार गोआ गया था और गोआ ने उस के लिए रिश्तों के माने इतने बदल डाले कि वह अपनी बेटी से मनोवैज्ञानिक रूप से बहुत दूर हो गया था.

मानसी का बचपन बीत गया था पर उस का गुडि़यों के संग्रह का शौक अभी गया नहीं था. मानसी के होश संभालने के बाद से सुरेश जब कभी भी टूर पर जाता था वह अपने पापा से बार्बी की नईनई गुडि़या लाने को कहती थी. ऐसा कभी नहीं हुआ था कि सुरेश अपनी बेटी की मांगी कोई चीज लाना भूला हो. इस बार भी सुरेश नहीं भूला था. यह अलग बात है कि इस बार उस ने बार्बी मुंबई से नहीं गोआ से खरीदी थी. मगर उसी बार्बी ने सुरेश को बेटी से दूर कर दिया था.

सुनंदा भले ही सुरेश के बारे में कितने भी भ्रम पाले रही हो मगर सच था कि शादी के बाद भी वह जिस्म का कारोबार करने वाली औरतों से यौनसंपर्क बनाता रहा था. ऐसा वह तभी करता था जब वह अपने कारोबार के सिलसिले में घर से बाहर दूसरे शहर में होता था. अगर कभी सुरेश का अपना मन बेईमान न हो तो कारोबारी दोस्तों की बेईमानी में साथी बनना पड़ता था. अब की बार इसी तरह के एक चक्कर में सुरेश के साथ जो घटना घटी थी उस ने उस की अंदर की आत्मा को झकझोर डाला था.

गोआ जाने का सुरेश का कोई कार्यक्रम नहीं था. यह तो सुरेश का मुंबई वाला कारोबारी दोस्त युगल था जिस ने अचानक ही गोआ का कार्यक्रम बना डाला था. युगल बाजारू औरतों का रसिया था और अपनी पत्नी के साथ विवाद के चलते वह चैंबूर इलाके में फ्लैट ले कर अकेले ही रह रहा था.

औरतों की तो मुंबई में भी कोई कमी नहीं थी मगर गोआ में उस के जाने का आकर्षण बालवेश्याएं थीं. 12-13 से ले कर 15-16 साल की उम्र तक की वे लड़कियां जो तन और मन दोनों से ही अभी सेक्स के लायक नहीं थीं. मगर अय्याश तबीयत मर्दों की विकृत सोच इन्हीं में पाशविक आनंद तलाशती है.

गोआ में बालवेश्यावृत्ति के बारे में सुरेश ने भी पढ़ा था. इस को ले कर जब युगल ने सुरेश से बात की तो उस का मन भी ललचा गया था.

सारी रात बस का सफर कर के सुरेश और युगल सुबह गोआ की राजधानी पणजी पहुंचे थे. गोआ सुरेश के लिए नई जगह थी, युगल के लिए नहीं. पणजी में कहां और किस होटल में ठहरना था और क्या करना था यह युगल को मालूम था.

होटल में लगभग 4 घंटे आराम करने के बाद सुरेश और युगल बाहर घूमने निकले. दोनों गोआ के खूबसूरत बीचों पर घूम कर अपना समय गुजारते रहे क्योंकि उन्हें तो रात होने का इंतजार था.

शाम होटल लौटते समय सुरेश बाजार से मानसी के लिए बार्बी गुडि़या खरीदना नहीं भूला. मुंबई के मुकाबले गोआ में बार्बी थोड़ी महंगी जरूर मिली थी, मगर उस को खरीदने के बाद सुरेश काफी निश्ंिचत हो गया था कि अब घर वापस जाने पर उसे अपनी बेटी की नाराजगी नहीं झेलनी पड़ेगी.

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होटल के अपने कमरे में आ कर सुरेश ने मानसी के लिए खरीदी बार्बी को यह सोच कर मेज पर रख दिया था कि यहां से जाते समय वह अपने बैग में जगह बना कर इसे रख लेगा.

पणजी में आ कर युगल ने होटल में एक नहीं 2 कमरे बुक करवाए थे. एक सुरेश के नाम से और दूसरा अपने नाम से. बेशक दोनों पणजी पहुंचने के बाद एक ही कमरे में साथसाथ थे, लेकिन रात को उन दोनों को अलग- अलग कमरे में रहना था.

शाम को होटल में वापस आ कर युगल लगभग 1 घंटा गायब रहा था. उस को रात का इंतजाम जो करना था.

1 घंटे बाद युगल वापस आया और अपने होंठों पर जबान फेरते हुए एक खास अंदाज में बोला, ‘‘सुरेश, सारा इंतजाम हो गया है. रात 11 बजे के बाद लड़की तुम्हारे कमरे में होगी. सुबह होने से पहले तुम्हें उस को फारिग करना है. लड़की के साथ पैसों का कोई लेनदेन नहीं होगा. जो उस को छोड़ने आएगा, पैसे वही लेगा.’’

इस के बाद युगल ने गोआ की मशहूर शराब की बोतल खोली. खाना उन दोनों ने होटल के कमरे में ही मंगवा लिया था. खाना खाने के बाद दोनों ने थोड़ी देर गपशप की. रात के लगभग साढे़ 10 बजे अपनी कलाई पर बंधी घड़ी को देख युगल ने अपनी एक आंख दबाते हुए सुरेश से ‘गुडनाइट’ कहा और अपने नाम से बुक दूसरे कमरे में चला गया.

सवा 11 बजे के आसपास सुरेश के कमरे के दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी.

सुरेश के ‘यस, कम इन’ कहने पर एक आदमी अपने साथ एक लड़की लिए कमरे में दाखिल हो गया. लड़की की उम्र 14 साल से ज्यादा नहीं थी. लड़की का कद भी छोटा था और उस के अंग विकास के शुरुआती दौर में थे.

लड़की को कमरे में छोड़ कर वह आदमी सुरेश से 700 रुपए ले कर चला गया. यह उस लड़की की एक रात की कीमत थी.

उस आदमी के जाने के बाद सुरेश ने कमरे की चिटखनी लगा दी थी.

लड़की सिर झुकाए अपनी उंगली के नाखून कुतर रही थी. उस के चेहरे पर किसी तरह की कोई घबराहट नहीं थी. मगर कोई दूसरा भाव भी नहीं था.

इतना तय था कि उसे यह जरूर पता था कि उस के साथ रात भर क्या होने वाला था. मगर उस के साथ जो होना था उस के बारे में शायद उस को पूरा ज्ञान नहीं था. उस की उम्र अभी शायद इन चीजों के बारे में जानने की थी ही नहीं.

सुरेश ने उस का नाम भी पूछा था. नाम से लगता था कि वह क्रिश्चियन थी. मारिया नाम बतलाया था उस ने अपना.

अपने शरीर के निशानों को सहलाने के बाद भी उस की आंखों में मासूमियत बरकरार थी. उस मासूमियत में दम तोड़ते कई सवाल भी थे.

इनसान की जिंदगी में ऐसे कई मौके आते हैं जब वह खुद अपनी ही नजरों में अपने किए पर शर्मिंदा नजर आता है. यही हालत उस वक्त सुरेश की थी.

कपडे़ पहनने के बाद मारिया कमरे में इधरउधर देखने लगी. फिर उस की भटकती नजरें किसी चीज पर टिक गई थीं.

उसी पल सुरेश ने उस के चेहरे पर बच्चों की निर्दोष और स्वाभाविक ललक देखी.

सुरेश ने देखा, मारिया की नजरें उस बार्बी पर टिकी थीं जोकि उस ने मानसी के लिए खरीदी थी.

वह ज्यादा देर बार्बी को दूर से निहारते नहीं रह सकी थी. उम्र और सोच से वह थी तो एक बच्ची ही. उस ने मामूली सी झिझक के बाद मेज पर रखी बार्बी उठाई और उस को अपने सीने से लगा कर सुरेश को देखते हुए बोली, ‘‘साहब, आप ने जो कहा, रात भर मैं ने वही किया. अगर आप मेरी सेवा से खुश हैं तो बख्शीश में यह गुडि़या मुझे दे दो. मैं कभी किसी गुडि़या से नहीं खेली साहब, क्योंकि कोई भी मुझ को गुडि़या ले कर नहीं देता.’’

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मारिया के मुख से निकले ये शब्द किसी कटार की तरह सुरेश के सीने के आरपार हो गए थे. एक पल के लिए उस को ऐसा लगा था कि ‘बार्बी’ को अपने सीने से चिपकाए उस के सामने उस की अपनी बेटी मानसी खड़ी थी…वही मासूम आंखें…मासूम आंखों में वैसी ही ललक, वही अरमान…

उसी रात सुरेश की अपनी नजरों में अपनी ही मौत हो गई थी. वह मौत जिस को किसी दूसरे ने नहीं देखा था. इस गुपचुप मौत के बाद उस में कुछ भी सामान्य नहीं रहा था. अपनी बेटी के शरीर का स्पर्श ही सुरेश के लिए एक ऐसे दंश जैसा बन गया था जिस का दर्द उस से सहन नहीं होता था.

गोआ के एक होटल के कमरे में सुरेश को मारिया नाम की उस लड़की में मानसी नजर आई थी, अब मानसी में उस को मारिया नाम की लड़की की सूरत दिखने लगी थी. वह उन दोनों को अलग करने में स्वयं को असमर्थ महसूस कर रहा था.

उस मोड़ पर

भावनाओं की रौ में बह कर लिए गए फैसले हमेशा गलत होते हैं. चांदनी के प्यार में दीवाने हुए राजीव ने भी ऐसा ही एक फैसला किया उस से शादी करने का. लेकिन महत्त्वाकांक्षी चांदनी ने उसी राजीव के फैसले को इतनी बेदर्दी से ठुकरा दिया जिस के लिए उस ने अपना घर और घर वालों को छोड़ा था.

कभीकभी जीवन की सचाइयां वर्षों के फैसलों को पल भर में बदल देती हैं. प्यार और भावनाओं के आवेश में किए गए वादे दौलत की चमक के आगे बेमानी जान पड़ते हैं और इनसान को लगने लगता है कि उस के पांव के नीचे का धरातल कितना कमजोर था, उस के विश्वास की बुनियाद कितनी खोखली थी.

अपने विवाह के निमंत्रणपत्र को निहारते हुए ऐसे न जाने कितने विचार राजीव के मन को मथ रहे थे. उस की यादों में वे लमहे कौंध गए, जब शाम के समय वह और चांदनी सागर के किनारे रेत पर जा बैठते थे. चांदनी बारबार रेत पर उस के नाम के साथ अपना नाम लिखती जिसे सागर की लहरें आ कर मिटा देती थीं. तब वह उस की बांहों को थाम स्नेहसिक्त स्वर में कहती, ‘आज ये नासमझ लहरें भले ही तुम्हारे नाम के साथ लिखे मेरे नाम को मिटा डालें किंतु कल जब हम दोनों का विवाह हो जाएगा तब तुम्हारे नाम के साथ मेरे नाम को कौन मिटा पाएगा?’ उन लमहों को याद कर राजीव के होंठों पर एक विद्रूप सी मुसकान तैर गई और वह अतीत की गहराइयों में उतरता चला गया.

उस शाम लायंस क्लब में काव्य गोष्ठी का आयोजन था. कई बड़ेबड़े कवि वहां आए हुए थे. साहित्य में रुचि होने के कारण राजीव भी अकसर ऐसे कार्यक्रमों में जाया करता था. उस दिन एक 20-21 साल की युवती की काव्य रचना को काफी सराहा गया था. शब्दों का चयन और भावों की अभिव्यक्ति के बीच सुंदर तालमेल था. कार्यक्रम की समाप्ति पर वह उस लड़की के करीब पहुंचा और बोला, ‘आप बहुत अच्छा लिखती हैं, इतनी कम उम्र में विचारों में इतनी परिपक्वता कम ही देखने को मिलती है.’

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चांदनी हंस दी तो वह एकटक उसे निहारता रह गया था.

‘सच कहूं तो आप का नाम भी आप की कविता की तरह दिल को ठंडक पहुंचाने वाला है,’ वह बोला.

चांदनी खिलखिला पड़ी. उस की खनकती हंसी ऐसी थी मानो जलतरंग बज उठी हो. उस की सुंदर दंतपंक्तियों को देख लग रहा था मानो गुलाब की 2 पंखडि़यों के बीच में आकाश से तारे उतर कर सिमट गए हों.

राजीव मंत्रमुग्ध सा उसे निहारता ही रह गया. उसे लगा, चांदनी के रूप में विधाता ने स्वयं एक जीतीजागती काव्य रचना लिख डाली थी. जैसे ही घर जाने के लिए चांदनी ने बाहर की ओर कदम बढ़ाए, बादलों की गड़गड़ाहट ने बारिश की सूचना दे डाली.

चांदनी घबरा कर बोली, ‘अब मैं घर कैसे जाऊंगी?’

‘अगर आप को कोई एतराज न हो तो आप मेरे साथ कार में बैठ कर अपने घर चल सकती हैं,’ राजीव ने कहा.

पहले तो चांदनी के चेहरे पर हिचकिचाहट के भाव उभरे फिर परिस्थिति की मजबूरी को समझते हुए उस ने सहमति में गरदन हिला दी. राजीव चांदनी को उस के घर छोड़ कर अपने घर लौट आया.

राजीव शहर के सब से बड़े ज्वैलर्स विजय सहाय का छोटा बेटा था. उस से बड़े दोनों भाई संजय और अजय बी.ए. तक पढ़ाई कर के पिताजी के व्यवसाय में उन का हाथ बटा रहे थे किंतु राजीव की पढ़ने में रुचि अधिक थी इसलिए वह अपने ही शहर के एक प्रतिष्ठित कालिज से एम.बी.ए. की पढ़ाई कर रहा था. शाम को वह अपनी दुकान पर चला जाता था.

उस दिन भी राजीव कुछ ग्राहकों को आभूषण दिखा रहा था, जब चांदनी अपनी मां के साथ वहां आई. उसे देख वह प्रसन्न हो उठा. चांदनी भी उसे दुकान में देख कर हैरान रह गई थी.

‘अरे, तुम यहां? लगता है, पढ़ाई के साथसाथ  पार्टटाइम नौकरी भी करते हो?’

राजीव मुसकराया, ‘ऐसा ही कुछ समझ लो. फिर उस की मां से बोला, ‘हां, तो बताइए आंटी, क्या दिखाऊं?’

‘बेटी के लिए हलका सा हार चाहिए.’

‘अभी लीजिए,’ और इसी के साथ राजीव ने वार्डरोब से कई डब्बे निकाल कर उन के सामने रख दिए. एक के बाद एक कर के कई डब्बे देखने के बाद एक लाल मोतियों के हार पर चांदनी की नजर अटक गई. उस ने उस हार को अपने गले में पहना और खुद को शीशे में निहारते हुए राजीव से पूछा, ‘कैसा लग रहा है?’

प्रशंसात्मक नजरों से राजीव ने चांदनी को देखा और बोला, ‘आप के गले में पड़ कर यह हार नहीं जीत लग रहा है.’

‘हार से ज्यादा सुंदर तो आप की बातें हैं,’ चांदनी बोली, ‘क्या कीमत है इस की?’

‘किस की, हार की या मेरी जबान की?’ राजीव हंसा फिर बोला, ‘5 हजार रुपए.’

चांदनी ने हार खरीद लिया. राजीव ने अपने पिताजी से कह कर उस की कीमत कुछ कम करवा दी. चांदनी उस के हाथ से रसीद लेते हुए बोली थी, ‘लगता है तुम्हारा यहां अच्छा रसूख है.’

राजीव हंस दिया था. अगली शाम वह दुकान पर जब पहुंचा तो चांदनी को वहां पहले से ही आ कर बैठे देखा. वह उस के पिताजी से पूछ रही थी, ‘आप का वह राजीव नाम का कर्मचारी आज नहीं आया?’

पिताजी पहले तो हंसे, फिर बोले, ‘बेटी, वह मेरा कर्मचारी नहीं, मेरा सब से छोटा बेटा है.’

तभी चांदनी की नजर राजीव पर पड़ी. उस ने आंखें तरेर कर उस की तरफ देखा तो उस ने अभिवादन में हलका सा सिर झुका दिया.

चांदनी को हार के साथ के टाप्स चाहिए थे. राजीव ने एक हफ्ते बाद उसे आने के लिए कहा परंतु 3 दिन में ही टाप्स तैयार करवा कर वह उन्हें ले कर चांदनी के घर पहुंच गया.

राजीव को घर आया देख चांदनी बहुत खुश हुई और जल्दी से चाय बना कर ले आई. वह मध्यवर्गीय परिवार की लड़की थी. उस के पिता बिजली विभाग में क्लर्क थे. घर में मांबाप के अलावा एक छोटी बहन भी थी.

चाय पीते हुए चांदनी ने पूछा था, ‘राजीव, तुम इतने बड़े ज्वैलर्स के बेटे हो, घर का जमाजमाया व्यवसाय है, फिर भला तुम्हें एम.बी.ए. करने की क्या सूझी?’

‘मुझे शुरू से ही पढ़ाई का शौक रहा है. पढ़ाई कभी व्यर्थ नहीं जाती, चांदनी. एक न एक दिन काम आती  ही है,’ उस ने तर्क दिया.

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चांदनी ने कंधे उचकाए फिर लापरवाही से बोली, ‘पता नहीं, एम.बी.ए. तुम्हारे ज्वैलरी के व्यवसाय में क्या काम देगा? मेरे विचार में तो पढ़ाईलिखाई का चक्कर छोड़ कर तुम्हें जल्द से जल्द अपने व्यवसाय पर अपनी पकड़ मजबूत करनी चाहिए.’

राजीव खामोश रहा.

वह बोली, ‘क्या सोचने लगे?’

‘सोच रहा था कि अगली बार तुम्हारे घर किस बहाने से आऊंगा?’

उस की बात पर वह खिलखिला कर बोली, ‘राजीव, अब तुम्हें मेरे घर आने के लिए किसी बहाने की जरूरत नहीं है. जब भी दिल करे बेझिझक आया करो.’

धीरेधीरे चांदनी, राजीव की अच्छी दोस्त बन गई. दोनों की मुलाकातों का सिलसिला बढ़ने लगा. दोस्ती के इस रिश्ते में कब प्यार की कोंपलें फूटने लगीं उसे पता ही नहीं चला. अकसर वह और चांदनी समुद्र के किनारे जा बैठते थे. ऐसी ही एक सुनहरी शाम को राजीव ने चांदनी का हाथ अपने हाथ में ले कर पूछा था, ‘चांदनी, मुझ से शादी करोगी?’

यह सुन कर उस के गाल शर्म से  लाल हो उठे थे. वह बोली थी, ‘तुम इतने पैसे वाले बाप के बेटे हो. तुम से विवाह करने का सौभाग्य मिले, इस से ज्यादा खुशी की बात मेरे लिए और क्या हो सकती है? मेरे घर वाले तुरंत राजी हो जाएंगे.’

चांदनी का जवाब पा कर राजीव का मन मयूर नाच उठा था किंतु साथ ही उसे यह चिंता भी थी कि पिताजी प्रेम विवाह के सख्त खिलाफ थे. मंझले भैया एक लड़की को चाहते थे पर पिताजी ने उन की एक न सुनी और भाई का विवाह अपनी पसंद की लड़की से कर दिया. चांदनी के साथ उस के प्रेम की बात उन के कानों में पड़ेगी, तब पता नहीं उन पर क्या प्रतिक्रिया हो. आखिर उस ने सबकुछ समय पर छोड़ दिया.

राजीव का एम.बी.ए. पूरा हो चुका था. अब वह पिताजी के साथ पूरी तरह उन के व्यवसाय में व्यस्त हो गया. एक दिन उस के पिताजी ने काम के सिलसिले में उसे देहरादून जाने के लिए कहा और बोले, ‘देखो बेटे, देहरादून में मेरे बचपन का दोस्त लक्ष्मीकांत रहता है. तुम उन्हीं के घर ठहरना. लक्ष्मीकांत का भी देहरादून में ज्वैलरी का व्यवसाय है. तुम अपने काम में उन की मदद लोगे तो तुम्हारा काम जल्दी हो जाएगा.

देहरादून पहुंच कर राजीव को लक्ष्मीकांत की कोठी तलाशने में कोई कठिनाई नहीं हुई. उसे देख कर वह बहुत प्रसन्न हुए. ड्राइंगरूम में राजीव को बैठा कर उन्होंने आवाज लगाई, ‘अरे, पूजा बेटी, राजीव आ गया है. चाय ले कर आओ.’

थोड़ी देर बाद परदा हटा और ट्रे हाथ में लिए पूजा ने कमरे में प्रवेश किया. लक्ष्मीकांतजी ने राजीव से पूजा का परिचय कराया तो वह धीरे से ‘हैलो’ बोली और नजरें नीची किए चाय बनाने लगी.

दोनों को चाय दे कर जब वह जाने को हुई तो लक्ष्मीकांत बोले, ‘पूजा बेटी, राजीव हमारे घर दोचार दिन रुकेगा. यह पहली बार देहरादून आया है, इसे घुमाना तुम्हारा काम है.’

‘ठीक है, पापा. आज शाम को मैं इन्हें सहस्रधारा ले कर जाऊंगी.’

नाश्ता कर के राजीव और लक्ष्मीकांत काम के सिलसिले में बाहर चले गए. शाम को वह वापस लौटा तो पूजा तैयार खड़ी थी. दोनों कार से सहस्रधारा पहुंचे. सहस्रधारा का प्राकृतिक सौंदर्य देखते ही बनता था.

पूजा व राजीव दोनों पानी के बीच में पड़े पत्थरों पर बैठ गए.

राजीव ने पूछा, ‘पूजा, आजकल तुम क्या कर रही हो?’

‘एम.ए. करने के साथसाथ मैं ज्वैलरी डिजाइनिंग का कोर्स कर रही हूं ताकि पापा के व्यवसाय में उन का हाथ बटा सकूं,’ पूजा बोली थी, ‘और तुम क्या कर रहे हो?’ उस ने राजीव से पूछा.

‘मैं ने एम.बी.ए. किया है. अब पिताजी के व्यवसाय में हाथ बंटा रहा हूं.’

‘एम.बी.ए. कर के तुम कोई दूसरा काम भी कर सकते हो. किसी कंपनी में नौकरी कर सकते हो. मार्केटिंग कर सकते हो. टीचिंग भी कर सकते हो.’

‘सलाह तुम अच्छी दे रही हो किंतु मुझे यह सब करने की क्या जरूरत है, जब पिताजी का जमाजमाया व्यवसाय है.’

‘तुम्हारे बारे में तो मैं नहीं जानती पर अपने बारे में मैं बता सकती हूं कि तुम्हारी जगह अगर मैं होती तो कम से कम कुछ महीनों तक अपने बलबूते अपने पैरों पर खड़ी होने का प्रयास जरूर करती. मुझे पता तो चलता कि मेरे अंदर कितनी क्षमता है,’ पूजा एक पल के लिए रुकी थी फिर बोली, ‘जीवन में अपनी अलग पहचान बनानी भी बहुत जरूरी है. संघर्ष करने से इनसान के जीवन में निखार आता है. पापा का व्यवसाय तो कभी भी अपनाया जा सकता है.’

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राजीव पूजा की बातों से बहुत प्रभावित हुआ था. शाम हो चली थी. घर जाने के लिए दोनों उठ खड़े हुए. अभी राजीव ने कदम आगे बढ़ाया ही था कि अचानक पत्थर पर से पैर फिसल गया. इस से पहले कि वह लड़खड़ा कर गिरता, पूजा ने उसे संभाल लिया था. दर्द की तीखी लहर उस के शरीर में दौड़ गई थी.

‘लगता है पांव में मोच आ गई है,’ राजीव ने अपना पांव मसलते हुए कहा.

‘एक मिनट  ठहरो,’ पूजा तेजी से कार की ओर लपकी और वहां से दवा का डब्बा उठा लाई. दर्द की दवा पैर पर मल कर उस ने क्रेप बैंडेज बांध दी. पूजा ने ड्राइविंग सीट संभाल ली. राजीव उस के बराबर में जा बैठा और वह दक्षता से कार चलाती हुई उसे घर ले आई थी.

3 दिन देहरादून में रुक कर राजीव अपने घर लौट आया. अपने मित्र का हालचाल जानने के बाद पिताजी बोले, ‘राजीव, पूजा तुम्हें कैसी लगी?’

‘पिताजी, पूजा बहुत अच्छी लड़की है. बहुत बुद्धिमान और साहसी. आजकल ज्वैलरी डिजाइनिंग का कोर्स कर रही है.’

‘मुझे पूरी उम्मीद थी कि पूजा तुम्हें पसंद आएगी,’ पिताजी बोले, ‘बेटे, मैं और लक्ष्मीकांत तुम्हारा और पूजा का विवाह करना चाहते हैं.’

‘क्या? पिताजी, ऐसा कैसे हो सकता है?’ राजीव ने हैरानी से मां और पिताजी को बारीबारी से देखा.

‘क्यों नहीं हो सकता? पूजा अच्छी लड़की है. घर अच्छा है, फिर तुम्हें और क्या चाहिए?’ पिताजी ने उसे घूरा.

राजीव की उन से कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं हुई. वह उठ कर अपने कमरे में आ गया.

मां राजीव के कमरे में आईं और उस के समीप बैठ कर स्नेह से बोलीं, ‘मुझे बता बेटा, क्या बात है? क्या पूजा तुझे पसंद नहीं?’

उस दिन सबकुछ बताने का समय आ गया था, राजीव ने मां की तरफ देखा. हिम्मत जुटा कर धीमे स्वर में बोला, ‘मां, मैं चांदनी से प्यार करता हूं. यही सच है और एक न एक दिन आप सब को इस सचाई को स्वीकारना ही पड़ेगा.’

‘तू जानता है राजीव, तेरे पिताजी यह बात कभी नहीं मानेंगे. उन के दिल में तेरे विवाह को ले कर कितने अरमान हैं. क्या बीतेगी उन के दिल पर, जब उन्हें यह पता चलेगा?’ मां के चेहरे पर चिंता की लकीरें सिमट आईं.

‘मां, पिताजी के अरमानों के लिए क्या मैं अपने प्यार को कुर्बान कर दूं?’

‘मेरे लिए किसी को कोई कुर्बानी देने की जरूरत नहीं है राजीव की मां,’ पिताजी ने कमरे में आते हुए कहा और कुरसी खींच कर बैठते हुए बोले, ‘देखो राजीव, पिता होने के नाते तुम्हें समझाना मेरा फर्ज है. विवाह कोई हंसीखेल नहीं. जीवन भर का बंधन है. तुम्हारा भाई अजय भी यह गलती करने जा रहा था पर वक्त रहते वह संभल गया. देखो, मैं कितनी अच्छी बहू लाया हूं उस के लिए. आज वह कितना खुश है.’

‘भैया संभले नहीं थे, आप से डर गए थे इसलिए आप के आगे झुक गए. पर मैं झुकने वाला नहीं. अपने प्यार का बलिदान नहीं कर सकता मैं.’

‘अच्छा बताओ, तुम कितने दिन से चांदनी को जानते हो?’ राजीव की ओर देख पिताजी व्यंग्यात्मक लहजे में बोले.

‘लगभग 6 माह से,’ धीमे स्वर में राजीव बोला.

‘और मैं ने पूजा को बचपन से बड़ा होते देखा है. 15 साल की थी वह जब उस की मां चल बसी थीं. तभी से उस ने अपने घर को संभाल लिया था. उस में बहुत ठहराव है…’

अपने पिताजी की बात बीच में काटते हुए राजीव बोला, ‘आप और मां एक बार चांदनी को देख तो लीजिए. पिताजी, चांदनी बहुत सुंदर है. उस के संस्कार बहुत ऊंचे हैं, जबकि आधुनिक परिवेश में पलीबढ़ी पूजा हमेशा जींस टाप पहने रहती है. ऐसी लड़की हमारे घर में कैसे सामंजस्य बैठा पाएगी?’

‘देखो राजीव, किसी के पहनावे से उस के संस्कारों का पता नहीं चलता है. चांदनी एक साधारण परिवार की लड़की है. मैं दावे से नहीं कह रहा हूं पर इस बात की संभावना हो सकती है कि वह तुम से  नहीं तुम्हारे पैसे से प्यार करती हो.’

अपने पिताजी की बात पर राजीव गुस्से से भन्ना कर बोला, ‘आप समझते हैं कि दुनिया में पैसा ही सबकुछ है, भावनाएं कुछ भी नहीं. आप को अपने पैसे पर इतना ही घमंड है तो मैं अभी यह घर छोड़ कर चला जाता हूं. आप को अपने पैरों पर खड़ा हो कर दिखाऊंगा. आप का पैसा और रुतबा न होने पर भी चांदनी मुझ से ही शादी करेगी, देख लीजिएगा.’

‘अगर ऐसा हुआ तो मैं खुद अपनी बहू को घर ले कर आऊंगा,’ पिताजी बोले.

राजीव ने अपने कपड़े अटैची में रखे और मां पिताजी के पांव छू अटैची उठा घर से बाहर आ गया. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह कहां जाए, तभी सौरभ का खयाल आते ही वह आटो पकड़ कर सौरभ के घर की ओर चल दिया.

सौरभ को राजीव ने सारी स्थिति बता दी तो वह बोला, ‘घर से तू चला आया, अब करेगा क्या?’

‘कुछ न कुछ तो करूंगा ही. चांदनी को पाने के लिए अपनी अलग पहचान बनाना बहुत जरूरी है.’

शाम को राजीव काफी हाउस में चांदनी से मिला और सारे हालात के बारे में उसे बताया. घर से अलग होने की बात सुन कर चांदनी स्तब्ध रह गई. वह नाराजगी जाहिर करते हुए बोली, ‘राजीव, तुम्हें घर नहीं छोड़ना चाहिए था. घर में रह कर भी तो तुम पिताजी को मना सकते थे.’

‘पिताजी मानने वाले नहीं थे, फिर अजय भैया के वक्त भी वह कहां माने थे? आखिरकार भाई को ही झुकना पड़ा था. मैं नहीं चाहता कि हमारे प्यार का भी वही हश्र हो इसलिए मुझे घर छोड़ना पड़ा.’

‘किंतु राजीव, मैं नहीं चाहती कि मेरी खातिर तुम अपने घर वालों को छोड़ो. लोग तो मुझे ही बुरा कहेंगे न.’

‘जिसे जो कहना है, कहने दो. मुझे किसी की परवा नहीं है. मैं अपना घर छोड़ सकता हूं चांदनी, किंतु तुम्हें नहीं छोड़ सकता.’

‘फिर अब क्या करने का इरादा है?’

‘अब नौकरी तलाश करूंगा. तुम निराश मत हो चांदनी, सब ठीक हो जाएगा.’

एक माह के अंदर ही राजीव को नौकरी मिल गई. एक प्रोफेशनल कालिज में वह बी.बी.ए. के छात्रों को पढ़ाने लगा. शाम के समय 9वीं और 10वीं के बच्चे उस के पास ट्यूशन पढ़ने आने  लगे थे. इस से अच्छी आमदनी होने लगी थी उसे. कुछ दिन बाद राजीव ने सौरभ के घर के पास ही एक फ्लैट किराए पर ले लिया. अब वह बहुत खुश था. उस का एम.बी.ए. करना सार्थक हो गया था. धीरेधीरे घर की आवश्यक वस्तुएं जुटाने में 3 माह बीत गए.

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एक रात वह अपने कमरे में बैठा टेलीविजन पर फिल्म देख रहा था, तभी बड़े भैया का फोन आया, ‘राजीव, जल्दी से सिटी नर्सिंगहोम पहुंचो, मां को हार्टअटैक पड़ा है.’

राजीव का दिल धक् से रह गया. जल्दी से स्कूटर स्टार्ट कर वह नर्सिंगहोम पहुंचा. घर के सभी सदस्य आई.सी.यू. के बाहर जमा थे. वह पिताजी के निकट चला आया, उसे देख उन की आंखें भर आईं. उन के हाथों को कस कर थाम राजीव रुंधे कंठ से बोला, ‘हिम्मत रखिए पिताजी, मां को कुछ नहीं होगा?’

‘दर्द में भी तुम्हारी मां बारबार तुम्हें ही याद कर रही थी,’ कहते हुए पिताजी फूटफूट कर रो पड़े थे.

राजीव ने उन्हें बहुत मुश्किल से संभाला. 1 घंटे बाद डाक्टर आई.सी.यू. से बाहर निकले. मां अब खतरे से बाहर थीं. सारी रात हम ने आंखों में काट दी. सुबह नर्स ने आ कर सूचना दी कि आप लोग मां से मिल सकते हैं. पहले राजीव और पिताजी मां के पास गए. राजीव को देख उन के चेहरे पर हलकी सी मुसकराहट आई. अपलक उसे देखती मां ने धीमे स्वर में कहा, ‘राजीव बेटे, तू घर लौट आ. मैं तेरे बगैर जी नहीं पाऊंगी.’

एक हफ्ता नर्सिंगहोम में रह कर मां घर आ गईं. मां और पिताजी के कहने पर राजीव ने अपना फ्लैट छोड़ दिया और सामान ले कर घर वापस आ गया. चांदनी उन दिनों अपनी मौसी के पास गई हुई थी, इसलिए वह उसे कुछ भी न बता सका.’

एक शाम मां और पिताजी के पास राजीव लान में बैठा था तो पिताजी बोले, ‘राजीव, तुम चांदनी से विवाह की बात कर लो. मैं और तुम्हारी मां जल्द से जल्द उस के मांबाप से मिलना चाहते हैं.’

राजीव का दिल उमंग से भर उठा. एक सप्ताह बाद चांदनी लौटी तो वह उस से मिलने पहुंचा. उस दिन वह गुलाबी साड़ी और सफेद मोतियों के हार में बहुत खूबसूरत लग रही थी. उस की आंखों में झांक कर राजीव बोला था, ‘चांदनी, अब वक्त आ गया है कि तुम दुलहन बन कर मेरे घर आ जाओ. बताओ, मैं तुम्हारे घर वालों से कब बात करने आऊं?’

राजीव ने उस से यह बात छिपा ली कि उस के घर वाले अब उस से विवाह के लिए राजी थे. उस ने सोचा कि जब अचानक मां और पिताजी को ले कर वह चांदनी के घर पहुंचेगा, तब उसे कितनी प्रसन्नता मिलेगी.

चांदनी कुछ क्षण खामोश रही फिर बोली, ‘पहले मैं तुम से कुछ मांगना चाहती हूं, बताओ दोगे?’

‘मांगो, क्या मांगती हो? कहो तो आसमान से चांदसितारे तोड़ कर तुम्हारे कदमों में बिछा दूं,’ मुसकराते हुए राजीव बोला.

‘राजीव, मजाक मत करो. मैं गंभीर हूं.’

अब वह भी संजीदा हो उठा. सवालिया नजरों से उस की तरफ देखा था.

‘राजीव, मैं चाहती हूं कि विवाह से पहले तुम अपनी नौकरी छोड़ दो और अपने पिताजी का बिजनेस संभाल लो.’

‘लेकिन क्यों? अच्छीभली नौकरी है, क्या बुराई है इस में,’ राजीव ने हैरत से उस की तरफ देखा.

‘बुराई कुछ भी नहीं परंतु सोचो, कहां यह 2 हजार रुपए की छोटी सी नौकरी और कहां तुम्हारे पिताजी का लाखों का बिजनेस. उस में जो शान और इज्जत होगी वह तुम्हारी इस नौकरी में नहीं होगी.’

‘और कुछ?’ चांदनी का चेहरा गौर से देखते हुए राजीव बोला.

‘विवाह से पहले, उस 2 कमरों के फ्लैट को छोड़ कर अपनी कोठी में चले आओ, क्योंकि तुम्हारे घर से अलग रहने पर तुम्हारी इतनी बड़ी कोठी पर तुम्हारे दोनों भाइयों का कब्जा हो जाएगा.’

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‘अच्छा हुआ चांदनी, विवाह से पहले ही तुम ने अपने मन की बात साफ कह दी,’ बुझे मन से राजीव बोला.

‘मेरी बात का बुरा मत मानना राजीव, हर लड़की की कुछ आकांक्षाएं होती हैं, कुछ सपने होते हैं. मैं ने हमेशा अभाव में जीवन काटा है. बचपन से मेरी इच्छा थी कि किसी बहुत बड़े आदमी के बेटे से मेरा विवाह हो. मैं भी कारों में घूमूं, आलीशान कोठी में रहूं. आज मेरा सपना पूरा होने जा रहा है तो तुम इसे व्यर्थ के आत्मसम्मान के चक्कर में पड़ कर मत तोड़ो,’ चांदनी विनती करते हुए बोली.

राजीव चुपचाप उठ कर वहां से चला आया और सीधे घर न जा कर समुद्र के किनारे रेत पर जा बैठा और आतीजाती लहरों को देखने लगा. कितनी शामें उस ने यहां चांदनी के साथ बिताई थीं. भविष्य के कितने सतरंगी सपने संजोए थे. किंतु आज उसे सबकुछ अर्थहीन लग रहा था. रहरह कर पूजा की कही बातें उस के जेहन में गूंज रही थीं :

‘अपने बलबूते कुछ करने का प्रयास करो. थोड़ा सा भी कमाओगे तो तुम्हारा आत्मविश्वास बढ़ेगा. तुम्हें सच्ची खुशी हासिल होगी.’

कितना फर्क था दोनों की सोच में. अब राजीव को अपने जीवन का फैसला लेने में अधिक देर नहीं लगी. शांत मन से वह घर चला आया और मां और पिताजी से बोला था, ‘पिताजी, मैं पूजा से विवाह करना चाहता हूं.’

आश्चर्य से वे दोनों बेटे का चेहरा देखने लगे.

‘आप ने बिलकुल ठीक कहा था पिताजी कि भावावेश में लिए गए फैसले अकसर गलत होते हैं. आप का अनुमान सही था. चांदनी मुझ से नहीं बल्कि आप के पैसे से प्यार करती थी. अच्छा ही हुआ पिताजी, जो आप ने उस दिन मुझे घर से जाने दिया, अन्यथा मुझे चांदनी की भावनाओं का कभी पता नहीं चलता. जीवन का वह मोड़ मेरे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण था. उसी मोड़ पर आ कर मैं भंवर में फंसने से बच गया. मेरे जीवन को सही दिशा मिली.’

‘अच्छी तरह सोच लो राजीव, तुम्हें अपने फैसले पर अफसोस तो नहीं होगा?’ पिताजी बोले.

‘अब कैसा अफसोस पिताजी? मैं उस मृगतृष्णा से बाहर आ चुका हूं. पूजा जैसे हीरे को छोड़ मैं पत्थर तराश रहा था.’

पिताजी उठे और देहरादून फोन कर के लक्ष्मीकांत को यह खुशखबरी सुनाने चल दिए मां और भाभियां विवाह की तैयारियों में जुट गईं.

सोचते-सोचते राजीव अतीत से वर्तमान में आ गया.

अधिकारों वाली अधिकारी…

शेखपुरा की डीएम इनायत खान 

लेकिन गिनेचुने अधिकारी ऐसे भी होते हैं, जो अपनी परवरिश को ध्यान में रखते हुए जमीन से जुड़े रहते हैं. इनायत खान उन्हीं अधिकारियों में से हैं…

नींद में देखे गए सपने और खुली आंखों से सपने देखना अलगअलग बातें हैं. क्योंकि नींद में दिखने वाले सपने

कोई जरूरी नहीं कि सुबह तक याद रह जाएं. और अगर याद रह भी जाएं तो उन का कोई महत्त्व नहीं होता. जबकि खुली आंखों से दिखने वाले सपनों का वजूद कल्पनाओं की कमजोर टांगों पर टिका होता है.

कहने का अभिप्राय यह कि कल्पना की कडि़यों को जोड़ कर बुने गए सपने हानिकारक भले ही न हों, लेकिन उन का वजूद बुलबुले की तरह होता है, जो हवा के जरा से झोंके में नेस्तनाबूद हो जाता है.

एक और कहावत है सपनों के पीछे भागना. हर पढ़ालिखा समझदार इंसान अपने भविष्य के लिए एक राह चुनता है और उसी पर चलने की कोशिश करता है. मेहनत और लगन से मनचाही राह पर चल कर कई लोग अपनी मंजिल तक पहुंच भी जाते हैं. इसी को कहते हैं सपनों के पीछे भागना. लेकिन इस में कोई दो राय नहीं कि सपनों के पीछे भागने वालों में से कम ही लोगों को सफलता मिल पाती है.

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हां, जो सफल होते हैं, उन में से कुछ दूसरों की बनाई घिसीपिटी राह पर चलते हैं और कुछ अपने लिए नया मुकाम तय करते हैं. ऐसे ही लोगों में हैं इनायत खान, जिन्होंने हाल ही में बिहार के जिला शेखपुरा के जिलाधिकारी की जिम्मेदारी संभाली है.

आगरा के एक मध्यमवर्गीय परिवार की इनायत खान ने डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रैट की कुरसी तक पहुंचने के लिए कम मेहनत नहीं की. वह पूरी लगन और मेहनत से अपने सपनों के पीछे भागती रहीं और अंतत: उन्हें 2011 में सफलता मिल ही गई.

इनायत खान ने उत्तर प्रदेश टेक्निकल यूनिवर्सिटी के अंतर्गत आने वाले आनंद इंजीनियरिंग कालेज से 2007 में इलैक्ट्रौनिक्स में बी.टेक किया था. इस के बाद उन्होंने एक साल तक एक प्रसिद्ध सौफ्टवेयर कंपनी में नौकरी की. लेकिन वहां उन का मन नहीं लगा, इस की वजह उन का आईएएस बनने का सपना भी था, जिस के पीछे वह भाग रही थीं.

अपने सपने को सच करने के लिए उन्होंने 2009 में पहली बार सिविल सेवा परीक्षा दी. इस में वह प्री में तो निकल गईं, लेकिन फाइनल में नहीं निकल पाईं. इसी बीच इनायत का चयन ग्रामीण बैंक में हो गया. लेकिन मेहनती इनायत को इस तरह की नौकरी नहीं चाहिए थी. इसलिए वह आगरा से दिल्ली आ गईं और मुखर्जीनगर के पास गांधी विहार में किराए का एक कमरा ले कर आईएएस की तैयारी में जुट गईं.

2011 में इनायत ने फिर से सिविल सेवा की परीक्षा दी. इस बार वह सफल रहीं. उन का नंबर था 176. उन्हें कैडर मिला बिहार. इनायत की पहली पोस्टिंग नालंदा में हुई, जहां उन्हें असिस्टेंट कलेक्टर बनाया गया. इस के बाद उन्हें एसडीओ बना कर राजगीर भेज दिया गया.

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अब तक इनायत खान बहुत कुछ सीखसमझ चुकी थीं. मसलन अपने अधीनस्थों से कैसे काम लेना है. उन के खुद के काम क्या हैं और अधिकार क्या. राजगीर के बाद इनायत की पोस्टिंग भोजपुर में हुई. वहां उन्होंने बतौर डिस्ट्रिक्ट डेवलपमेंट कमिश्नर (डीडीसी) का पद संभाला. यहीं से इनायत खान की अलग पहचान बननी शुरू हुई, एकदम कड़क अफसर की इमेज. भोजपुर आ कर उन्हें पता चला कि डेवलपमेंट कमेटी का औफिस बाबुओं के बूते पर चलता है.

बाबुओं और छोटे अफसरों पर शिकंजा कसने के लिए इनायत खान ने सब से पहले प्रखंड के प्रत्येक औफिस में सीसीटीवी कैमरा और अटेंडेंस के लिए बायोमीट्रिक मशीनें लगवाई ताकि सभी समय पर आएंजाएं और कैमरों की जद में रहें.

इतना ही नहीं, वह कार्यालय परिसर में कुरसी लगवा कर बैठ जाती थीं. वहां ऐसे कई लोग थे जो रोज पटना आतेजाते थे. इनायत ने इन सब की क्लास ली और भविष्य में ऐसा न करने की चेतावनी दी. इस से मनमौजी अफसरों की गतिविधियों पर अंकुश लग गया.

कई बार इनायत जिले में चल रहे कामों का औचक निरीक्षण करने के लिए जाती तो गाड़ी दूर खड़ी करा देतीं और पैदल ही कार्यस्थल पहुंच जातीं. इस से काम कराने वालों के मन में डर रहता था कि कहीं इनायत न आ जाएं. वहां के अफसर और बाबू चाहते थे कि इनायत का जल्दी से जल्दी ट्रांसफर हो जाए.

जल्दी ही उन का तबादला हो भी गया. उन्हें पर्यटन विभाग का संयुक्त सचिन बनाया गया. इस के साथ ही उन्हें बिहार राज्य पर्यटन विकास निगम का अतिरिक्त प्रभार भी सौंपा गया. यहां से इनायत खान को शेखपुरा का 21वां जिलाधिकारी बना कर भेजा गया, जहां वह बखूबी अपना काम कर रही हैं.

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इनायत खान तेजतर्रार अधिकारी तो हैं ही, साथ ही सामाजिक कार्यों से भी गहराई से जुड़ी रहती हैं. उन में दूसरों का दर्द समझने का भी माद्दा है. 14 फरवरी, 2019 को पुलवामा में सीआरपीएफ के जवानों से भरी बस पर आतंकी हमला हुआ और 40 जवान शहीद हो गए. शहीद होने वालों में बिहार के भी 2 जवान रतन कुमार ठाकुर और संजय सिन्हा शामिल थे.

इनायत खान ने आगे बढ़ कर रतन कुमार और संजय सिन्हा की एकएक बेटी को गोद लेने का ऐलान किया. इन दोनों बच्चियां की पढ़ाई और उन की परवरिश पर होने वाला खर्च वह आजीवन उठाएंगी. इतना ही नहीं, उन्होंने अपना एक दिन का वेतन भी शहीदों के परिवारों को दिया और अपने स्टाफ से भी ऐसा करने को कहा. द्य

 

पुलिस वाले दुल्हनिया…

लेखक- लाज ठाकुर

‘‘मनोज, यहां तुम अपने हस्ताक्षर करो और यहां अपनी बुआ के दस्तखत करवा दो,’’ फूफाजी ने फोल्ड किया एक स्टांप पेपर मेरे सामने मेज पर रख दिया.

कागज पर केवल हस्ताक्षर करने का स्थान ही दिख रहा था. बाकी का तह किया कागज फूफाजी ने अपने हाथ में दबा रखा था.

‘‘पहले जरा सांस तो लेने दीजिए,’’ मैं ने कहा फिर पास वाले सोफे पर माथे पर बल डाले बैठी बुआजी पर एक नजर डाली.

बुआजी ने मुझे देखते ही मुंह फेर लिया.

‘‘कागजी काररवाई के बाद जितनी सांसें लेनी हों ले लेना,’’ फूफाजी बोले, ‘‘शाबाश, करो दस्तखत.’’

‘‘फूफाजी इसे पढ़ने तो दीजिए, क्योंकि बुजुर्गों ने कहा है कि बिना पढ़े कहीं भी हस्ताक्षर न करो,’’ मैं ने कागज खोल कर पढ़ना चाहा.

‘‘मैं ने जो पढ़ लिया है. मैं क्या तुम्हारा बुजुर्ग नहीं हूं?’’ फूफाजी ने गंभीर स्वर में कहा.

‘‘वह तो ठीक है मगर इस में लिखा क्या है?’’

‘‘यह तलाक के कागज हैं,’’ फूफाजी ने बताया.

‘‘मगर किस के तलाक के हैं?’’

‘‘यह मेरे और तुम्हारी बुआजी के आपसी सहमति से तलाक लेने के कागज हैं.’’

‘‘क्या?’’ मैं ने फूफाजी की ओर अब की बार इस तरह देखा जैसे उन के सिर पर सींग निकल आए हों, ‘‘मुझे लगता है आज आप ने सुबह ही बोतल से मुंह लगा लिया है.’’

‘‘अरे, नहीं बेटे, मैं पूरी तरह से होश में हूं. चाहो तो मुंह सूंघ लो,’’ फूफाजी ने मुंह फाड़ा.

‘‘फिर यह तलाक की बात क्यों? क्या बुआजी से फिर कोई झगड़ा हुआ?’’

‘‘न कोई झगड़ा न बखेड़ा… यह तलाक तो मैं अपने वंश के लिए ले रहा हूं.’’

‘‘आप साफसाफ क्यों नहीं बताते कि बात क्या है?’’ मैं ने बेचैनी से पूछा.

‘‘मनोज बेटे, मैं तुम्हारी बुआजी को तलाक दे कर एक विदेशी स्त्री से शादी कर रहा हूं,’’ फूफाजी ने गरदन मटकाई.

‘‘मैं भी अपने को धन्य समझूंगी कि तुम जैसे जाहिल कामचोर से पीछा छूटा,’’ बुआजी भड़क उठीं, ‘‘लाओ, कहां दस्तखत करने हैं.’’

बुआ ने अदालत के पेपर लेने को हाथ बढ़ाया.

‘‘ठहरिए, बुआजी. पहले पता तो चले कि माजरा क्या है.’’

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‘‘मनोज बेटे, विदेश में जा कर जितना धन 5 सालों में बनाया जा सकता है उतना अपने देश में 5 जन्मों में भी नहीं कमाया जा सकता. इसलिए मैं ने विदेशी लड़की से ब्याह रचा कर वहां बसने की ठानी है,’’ फूफाजी ने ‘राज’ खोला.

‘‘मुझे टै्रवल एजेंट ने समझाया है कि बिना कोई जोखिम उठाए विदेश जाने का यही एक आसान तरीका है कि किसी विदेशी लड़की से शादी कर लो तो वह अपने दूल्हे को अपने साथ विदेश ले जाएगी…’’ फूफाजी सांस लेने को रुके.

‘‘और यह सारा इंतजाम उस भलेमानस ट्रैवल एजेंट ने कर दिया है. बस, कुछ लाख रुपए उसे देने पड़े जिस में से कुछ हिस्सा उस विदेशी महिला को शादी करने की फीस के तौर पर एजेंट उसे देगा,’’ फूफाजी ने लंबी सांस छोड़ी.

‘‘मगर आप के पास लाखों रुपए आए कहां से?’’ बुआजी ने फूफाजी से पूछा, ‘‘क्या किसी बैंक में डाका डाला है?’’

‘‘बैंक में डाका नहीं डाला है बल्कि अपने घर को बैंक के पास गिरवी रख कर कर्जा लिया है.’’

‘‘बुढ़ऊ,  तुम्हारा सत्यानाश हो,’’ बुआजी भड़कीं.

‘‘सत्तानाश हो या अट्ठानाश, अब तो मैं ने जो करना था कर दिया. मगर तुम घबराओ नहीं, विदेश से कर्जे की किस्तें भेजता रहूंगा ताकि तुम यहां मजे से रहो,’’ फूफाजी ने तसल्ली दी, ‘‘विदेश से कुछ सालों में करोड़ों रुपए कमा कर वापस आऊंगा, तब तक वह मेरी फौरन वाइफ मुझे धत्ता बता चुकी होगी और मैं तुम से दोबारा ठाट से विवाह कर लूंगा.’’

‘‘मैं तो एक बार ही तुम से शादी कर के पछता रही हूं.’’

‘‘पछताना बाद में, पहले तुम बुआ- भतीजा झट से तलाक के इन कागजों पर दस्तखत करो. मेरा वकील दोस्त और वे लोग आते ही होंगे,’’ फूफाजी ने मेज पर रखे कागजों पर पेन बजाया.

बुआजी का चेहरा गुस्से से तमतमा उठा. उन्होंने हस्ताक्षर कर के कागज और कलम मेरी ओर बढ़ा दिए.

‘‘मनोज, तुम भी इस पर दस्तखत कर दो ताकि इन का यह कर्ज भी खत्म हो, यह झंझट ही समाप्त हो जाए,’’ बुआजी ने मुझ से कहा.

‘‘यह आप क्या कह रही हैं, बुआ. कल को भाभी के मायके वाले और दीदी के ससुराल वाले आप के तलाक के बारे में पूछेंगे तो हम क्या बतलाएंगे?’’

‘‘किसी से कुछ कहने की जरूरत नहीं. जब मैं किसी घपले में अंदर हो जाता हूं तो तुम लोग होंठ सीए रहते हो न. बस, कुछ सालों तक चुप्पी साधे रहना,’’ फूफाजी ने समझाया, ‘‘मैं वहां से आया और सारा मामला सुलझाया.’’

‘‘मनोज बेटा, दस्तखत करो और हम यहां से चलते हैं,’’ बुआजी सोफे पर से उठ खड़ी हुईं.

‘‘अरे भई, बैठोबैठो, उन लोगों में कोई मेरी ओर से भी तो होना चाहिए,’’ फूफाजी ने बुआजी से आग्रह किया, ‘‘फिर इस बेचारे ने मेरीतुम्हारी शादी तो नहीं देखी लेकिन अब इसे मेरी यह शादी तो देख लेने दो,’’ फूफाजी के चेहरे पर खुशी और शर्म के मिलेजुले भाव झलक उठे.

बाहर किसी गाड़ी के रुकने की घरघराहट हुई.

‘‘लो, वे लोग पहुंच गए,’’ यह कहते हुए फूफाजी दरवाजे की ओर लपके.

अब बाहर जाने के लिए रास्ता नहीं था सो बुआजी फिर से सोफे पर बैठ गईं.

फूफाजी के साथ 3 स्थानीय लोग, एक 65 साल का विदेशी पुरुष तथा उस के पीछे 35 साल की एक विदेशी महिला थी…जिस ने खूब मेकअप कर रखा था और बड़ेबड़े फूलों वाली फ्राक और स्कर्ट पहनी हुई थी. स्थानीय पुरुषों में एक तो फोटोग्राफर था और एक पंडितजी थे. उन के साथ जो तीसरा आदमी था उस ने पैंटशर्ट पहन रखी थी.

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‘‘मनोज बेटा, इन से मिलो,’’ फूफाजी ने साथ के सोफे पर बैठे, चेहरे पर चौड़ी मुसकान वाले आदमी की ओर इशारा किया, ‘‘आप हैं, जेल ट्रैवल एजेंसी के मालिक भावलंकरजी.’’

‘‘और यह मेरा सहायक, गोविंदा,’’ टै्रवल एजेंट के मालिक ने कैमरे वाले की ओर उंगली उठाई, ‘‘और आप पंडित धूर्तराजजी, जिन के शुभ आशीर्वाद से ब्याह का कार्यक्रम संपन्न होगा.’’

‘‘अब आगे आप इन को मिलवाएं,’’ टे्रवल एजेंट ने फूफाजी से कहा.

‘‘बेटे मनोज,’’ फूफाजी ने खंखार कर गला साफ किया, ‘‘यह हैं तुम्हारी नई बुआजी…मेरा मतलब…मेरी…यानी तुम समझ ही गए होगे. और यह मेरे नए ससुरजी…यानी ‘फादर इन ला.’ ’’

फूफाजी ने उन विदेशियों की भेंट मुझ से करवाई और चोर नजरों से बुआजी की ओर देखा.

बुआजी ने माथे पर बल डाल कर मुंह फेर लिया.

‘‘बेटे, अब जल्दी से मेहमानों के लिए ठंडा, नमकीन और मिठाई आदि लाओ,’’ फूफाजी ने कहा.

‘‘यजमान, जलपान फेरों के साथसाथ चलता रहेगा. अब वरकन्या को बुलाएं,’’ पंडितजी ने लंबी तान लगाई.

‘‘पंडितजी, वर तो मैं ही हूं और मेरी कन्या…उफ तौबा…’’ फूफाजी ने गाल पीटे, ‘‘यानी मेरी होने वाली दुलहन यह सामने सोफे पर बैठी हैं.’’

‘‘ठीक है वरजी, आप यह ‘रेडीमेड’ सेहरा पहन लीजिए,’’ पंडितजी ने अपने झोले में से एक सुनहरी पगड़ी निकाली जिस के साथ सेहरा लटका हुआ था.

‘‘सेहरा पहनूं?’’

‘‘हां, इस सेहरे के साथ वरवधू के फोटो उतारे जाएंगे ताकि ब्याह का प्रमाण हो. उस के बाद ही मैं आप को ब्याह का प्रमाणपत्र दे सकूंगा,’’ पंडितजी ने समझाया.

‘‘कागजी काररवाई के लिए यह बहुत जरूरी है,’’ टै्रवल एजेंट ने पंडितजी की बात का समर्थन किया और अपने सहायक को इशारा किया.

सहायक ने अपना कैमरा एडजस्ट किया.

फूफाजी ने सिर पर सेहरे वाली पगड़ी रख ली.

‘‘देखो, कैसा दिखता हूं?’’ फूफाजी ने बुआजी से पूछा, ‘‘सच बताना, ऐसा रूप तो तुम्हारे साथ शादी के मौके पर भी मुझ पर न चढ़ा होगा.’’

‘‘ठीक कहा. उस से सौगुना फटकार आप के चेहरे पर आज बरस रही है,’’ बुआजी बड़बड़ाईं.

‘‘छाती पर सांप लोट रहे होंगे, तभी तो ऐसा जहर उगल रही हो,’’ फूफाजी ने जहर का घूंट पीते हुए कहा.

‘‘दूल्हादुल्हन इधर आ कर बैठें,’’ पंडितजी ने लंबी तान लगाई.

पंडितजी ने फूफाजी और उस विदेशी महिला को साथसाथ सोफे पर बैठाया और झोले में से फूलपत्तियां निकाल कर फूफाजी और उस विदेशी महिला पर मंत्रोच्चारण करते हुए बरसाईं.

टै्रवल एजेंट के सहायक ने कैमरे से 3-4 फोटो लिए.

‘‘अब फेरों का कार्यक्रम समाप्त हुआ. आज से आप दोनों पतिपत्नी हुए,’’ पंडितजी ने फूफाजी से कहा, ‘‘यजमान, अब आप सेहरे का किराया और मेरी दानदक्षिणा और विवाह के प्रमाणपत्र के 1,500 रुपए दे दीजिए.’’

पंडितजी ने अपने झोले से छपा हुआ एक फार्म निकाला.

‘‘आप 1,500 की बजाय 2 हजार ले लो पंडितजी,’’ फूफाजी ने ब्रीफकेस से नएनए नोट निकाले और पंडितजी की ओर बढ़ा दिए.

पंडितजी ने पहले तो नोट कमीज के अंदर बनी हुई जेब में डाले, फिर फार्म भर कर अपने हस्ताक्षर किए और फूफाजी को शादी का प्रमाणपत्र थमा दिया.

‘‘पंडितजी, यह पगड़ीसेहरा दूल्हे के सिर पर ही लगा रहने दें क्योंकि हमें इस नए जोड़े के साथ, ऐसे ही कोर्ट में जाना है,’’ टै्रवल एजेंट ने कहा.

‘‘ठीक है, मैं आप के दफ्तर से सेहरा ले लूंगा या आप अपने सहायक के हाथ भिजवा देना,’’ पंडितजी गुनगुनाए.

‘‘वह आप का वकील दोस्त अभी तक नहीं पहुंचा,’’ एजेंट ने फूफाजी से कहा, ‘‘मेरा दूसरा सहायक उन को लाने के लिए काफी देर से टैक्सी पर गया है.’’

तभी बाहर किसी गाड़ी के रुकने की आवाज आई.

‘‘लो, वे लोग भी आ पहुंचे,’’ टै्रवल एजेंट ने गरदन घुमा कर देखा.

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दरवाजे में से फूफाजी के वकील दोस्त और टै्रवल एजेंट का सहायक अंदर आ गए. उन के पीछेपीछे एक पुलिस इंस्पेक्टर, 2 लेडी कांस्टेबल तथा 2 पुरुष कांस्टेबल और एक सहायक इंस्पेक्टर ड्राइंगरूम में आ गए.

इंस्पेक्टर ने विदेशी आदमी और टै्रवल एजेंट की ओर उंगली घुमाई. महिला पुलिसकर्मियों ने उस विदेशी महिला के हाथ थाम लिए और सहायक इंस्पेक्टर के साथ दोनों पुलिस वाले उस अधेड़ विदेशी पुरुष व टै्रवल एजेंट के पास खड़े हो गए.

‘‘तुम सब को गिरफ्तार किया जाता है.’’

‘‘मगर क्यों?’’

‘‘देखिए, इंस्पेक्टर, आप मेरे मेहमानों से…नहीं बल्कि सगे संबंधियों से ऐसा बरताब नहीं कर सकते,’’ फूफाजी ने सेहरा संभालते हुए इंस्पेक्टर से कहा, ‘‘आप नहीं जानते, मेरी कहांकहां तक पहुंच है?’’

‘‘शायद आप इन के नए शिकार हैं,’’ इंस्पेक्टर ने फूफाजी की ओर देखा.

‘‘शिकार, कैसा शिकार?’’ मैं ने पूछा.

‘‘यह लोग भोलेभाले लोगों को विदेश ले जाने का झांसा देते हैं. यह मैडम उन लोगों से लाखों रुपए बटोर कर शादी रचाने का ढोंग करती है और फुर्र हो जाती है. यह ऐसे टै्रवल एजेंटों की मिलीभगत से होता है,’’ इंस्पेक्टर बोलता गया, ‘‘अब तक इन लोगों के खिलाफ कई शिकायतें दर्ज हो चुकी हैं मगर यह लोग पकड़ में नहीं आते थे. आखिर आज शिकंजे में आ ही गए.’’

इंस्पेक्टर ने अपने सहायक की ओर देखा.

‘‘ले चलो इन को,’’ इंस्पेक्टर ने होलस्टर से रिवाल्वर निकाल लिया.

पुलिस के घेरे में विदेशी पुरुष व महिला और टै्रवल एजेंट मरीमरी चाल से दरवाजे की ओर बढ़े.

‘‘पंडितजी, आप भी चलिए. आप भी तो इन के ‘फ्राड’ में भागीदार हैं,’’ सबइंस्पेक्टर ने पंडितजी को टोक दिया.

‘‘मगर इंस्पेक्टर, मेरे विदेश जाने के सपने का क्या होगा?’’ फूफाजी ने बुझे स्वर में इंस्पेक्टर से पूछा.

‘‘आप पुलिस स्टेशन चल कर इन के खिलाफ रिपोर्ट लिखवाएं,’’ कहते हुए पुलिस इंस्पेक्टर दरवाजे की ओर मुड़ा.

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‘‘मनोज बेटे, अब तुम तलाक के यह कागज मेरी ओर से कोर्ट में दाखिल करो. अब मैं इन से तलाक लूंगी,’’ बुआजी ने कोर्ट के कागज संभालते हुए कहा.

‘‘अरे, नहीं, ऐसा गजब न करना,’’ फूफाजी ने घबरा कर कहा.

‘‘अब तो यह गजब होगा ही,’’ बुआजी का स्वर कठोर हो गया, ‘‘मेरा फैसला अटल है.’’

‘‘मनोज बेटे, तुम ही इन को समझाओ. मैं तो पूरी तरह लुट गया. बरबाद हो गया. मेरे लाखों रुपए डूब गए. नई नवेली विदेशी दुलहन भी गई और अब तुम्हारी बुआजी भी नाता तोड़ रही हैं,’’

स्मिता

लेखक- बी.आर. जांगिड़

‘‘यह कितनी कौंप्लिकेटेड प्रेग्नैंसी है,’’ राजीव ने तनाव भरे स्वर में कहा.

सारा ने प्रतिक्रिया में कुछ नहीं कहा. उस ने कौफी का मग कंप्यूटर के कीबोर्ड के पास रखा. राजीव इंटरनेट पर सर्फिंग कर रहा था. सारा ने एक बार उस की तरफ देखा, फिर उस ने मौनिटर पर निगाह डाली और वहां खडे़खडे़ राजीव के कंधे पर अपनी ठुड्डी रखी तो उस की घनी जुल्फें पति के सीने पर बिखर गईं.

नेट पर राजीव ने जो वेबसाइट खोल रखी थी वह हिंदी की वेबसाइट थी और नाम था : मातृशक्ति.

साइट का नाम देखने पर सारा उसे पढ़ने के लिए आतुर हो उठी. लिखा था, ‘प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सिगमंड फ्रायड ने भी माना है कि आदमी को जीवन में सब से ज्यादा प्रेरणा मां से मिलती है. फिर दूसरी तरह की प्रेरणाओं की बारी आती है. महान चित्रकार लियोनार्डो दि विंची ने अपनी मां की धुंधली याद को ही मोनालिसा के रूप में चित्र में उकेरा था. इसलिए आज भी वह एक उत्कृष्ट कृति है. नेपोलियन ने अपने शासन के दौरान उसे अपने शयनकक्ष में लगा रखा था.’

वेबसाइट पढ़ने के बाद कुछ पल के लिए सारा का दिमाग शून्य हो गया. पहली बार वह मां बन रही थी इसीलिए भावुकता की रौ में बह कर वह बोली, ‘‘दैट्स फाइनल, राजीव, जो भी हो मेरा बच्चा दुनिया में आएगा. चाहे उस को दुनिया में लाने वाला चला जाए. आजकल के डाक्टर तो बस, यही चाहते हैं कि वे गर्भपात करकर के  अच्छाखासा धन बटोरें ताकि उन का क्लीनिक नर्सिंग होम बन सके. सारे के सारे डाक्टर भौतिकवादी होते हैं. उन के लिए एक मां की भावनाएं कोई माने नहीं रखतीं. चंद्रा आंटी को गर्भ ठहरने पर एक महिला डाक्टर ने कहा था कि यह प्रेग्नैंसी कौंप्लिकेटेड होगी या तो जच्चा बचेगा या बच्चा. देख लो, दोनों का बाल भी बांका नहीं हुआ.’’

‘‘यह जरूरी तो नहीं कि तुम्हारा केस भी चंद्रा आंटी जैसा हो. देखो, मैं अपनी इकलौती पत्नी को खोना नहीं चाहता. मैं संतान के बगैर तो काम चला लूंगा लेकिन पत्नी के बिना नहीं,’’ कहते हुए राजीव ने प्यार से अपना बायां हाथ सारा के सिर पर रख दिया.

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‘‘राजीव, मुझे नर्वस न करो,’’ सारा बोली, ‘‘कल सुबह मुझे नियोनो- टोलाजिस्ट से मिलने जाना है. दोपहर को मैं एक जेनेटिसिस्ट से मिलूंगी. मैं तुम्हारी कार ले जाऊंगी क्योंकि मेरी कार की बेल्ट अब छोटी पड़ रही है. और हां, पापा को ईमेल कर दिया?’’

‘‘पापा बडे़ खुश हैं. उन को भी तुम्हारी तरह यकीन है कि पोती होगी. उन्होंने साढे़ 8 महीने पहले उस का नाम भी रख दिया, स्मिता. कह रहे थे कि स्मिता की स्मित यानी मुसकराहट दुनिया में सब से सुंदर होगी,’’ राजीव ने बताया तो सारा के गालों का रंग और भी सुर्ख हो गया.

‘‘मिस्टर राजीव बधाई हो, आप की पहली संतान लड़की हुई है,’’ नर्स ने बधाई देते हुए कहा.

पुलकित मन से राजीव ने नर्स का हाथ स्नेह से दबाया और बोला, ‘‘थैंक्स.’’

राजीव अपनी बेचैनी को दबा नहीं पा रहा था. वह सारा को देखने के लिए प्रसूति वार्ड की ओर चल दिया.

सारा आंखें मूंदे लेटी हुई थी. किसी के आने की आहट से सारा ने आंखें खोल दीं, फिर अपनी नवजात बेटी की तरफ देखा और मुसकरा दी.

‘‘मुझे पता नहीं था कि बेटियां इतनी सुंदर और प्यारी होती हैं,’’ यह कहते हुए राजीव ने बेटी को हाथों में लेने का जतन किया.

तभी बच्ची को जोर की हिचकी आई. फिर वह जोरजोर से सांसें लेने लगी. यह देख कर पतिपत्नी की सांस फूल गई. राजीव जोर से चिल्लाया, ‘‘डाक्टर…’’

आधे मिनट में लेडी डाक्टर वंदना जैन आ गईं. उन्होंने बच्ची को देख कर नर्स से कहा, ‘‘जल्दी से आक्सीजन मास्क लगाओ.’’

अगले 10 मिनट बाद राजीव और सारा की नवजात बेटी को अस्पताल के नियोनोटल इंटेसिव केयर यूनिट में भरती किया गया. उस बच्ची के मातापिता कांच के बाहर से बड़ी हसरत से अपनी बच्ची को देख रहे थे. तभी नर्स ने आ कर सारा से कहा कि उसे जच्चा वार्ड के अपने बेड पर जा कर आराम करना चाहिए.

सारा को उस के कमरे में छोड़ राजीव सीधा डा. अतुल जैन के चैंबर में पहुंचा, जो उस की बेटी का केस देख रहे थे.

‘‘मिस्टर राजीव, अब आप की बेटी को सांस लेने में कोई दिक्कत नहीं आएगी. लेकिन वह कुछ चूस नहीं सकेगी. मां का स्तनपान नहीं कर पाएगी. उस का जबड़ा छोटा है, होंठों एवं गालों की मांसपेशियां काफी सख्त हैं. बाकी उस के जिनेटिक, ब्रेन टेस्ट इत्यादि सब सामान्य हैं,’’ डा. अतुल जैन ने बताया.

‘‘आखिर मेरी बेटी के साथ समस्या क्या है?’’

‘‘अभी आप की बेटी सिर्फ 5 दिन की है. अभी उस के बारे में कुछ भी नहीं कह सकते. हो सकता है कि कल कुछ न हो. चिकित्सा के क्षेत्र में कभीकभी ऐसे केस आते हैं जिन के बारे में पहले से कुछ कहा नहीं जा सकता. वैसे आज आप की बेटी को हम डिस्चार्ज कर देंगे,’’ डा. अतुल ने कहा.

राजीव वार्ड में सारा का सामान समेट रहा था. स्मिता को नियोनोटल इंटेसिव केयर में सिर्फ 2 दिन रखा गया था. अब वह आराम से सांस ले रही थी.

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‘‘आप ने बिल दे दिया?’’ नर्स ने पूछा.

‘‘हां, दे दिया,’’ सारा ने जवाब दिया.

नर्स ने नन्ही स्मिता के होंठों पर उंगली रखी और बोली, ‘‘मैडम, आप को इसे ट्यूब से दूध पिलाना पडे़गा. बोतल से काम नहीं चलेगा. यह बच्ची मानसिक रूप से कमजोर पैदा हुई है.’’

राजीव और सारा ने कुछ नहीं कहा. नर्स को धन्यवाद बोल कर पतिपत्नी कमरे से बाहर निकल गए.

घर आ कर सारा ने स्मिता के छोटे से मुखडे़ को गौर से देखा. फिर वह सोचने लगी, ‘आखिर इस के होंठों और गालों में कैसी सख्ती है?’

राजीव ने सारा को एकटक स्मिता को ताकते हुए देखा तो पूछा, ‘‘इतना गौर से क्या देख रही हो?’’

सारा कुछ नहीं बोली और स्मिता में खोई रही.

2 दिन बाद डा. अतुल जैन ने फोन कर राजीव व सारा को अपने नर्सिंग होम में बुलाया.

‘‘आप की बेटी की समस्या का पता चल गया. इसे ‘मोबियस सिंड्रोम’ कहते हैं,’’ डा. अतुल जैन ने राजीव और सारा को बताया.

‘‘यह क्या होता है?’’ सारा ने झट से पूछा.

‘‘इस में बच्चे का चेहरा एक स्थिर भाव वाले मुखौटे की तरह लगता है. इस सिंड्रोम में छठी व 7वीं के्रनिकल नर्व की कमी होती है या ये नर्व अविकसित रह जाती हैं. छठी क्रेनिकल नर्व जहां आंखों की गति को नियंत्रित करती है वहीं 7वीं नर्व चेहरे के भावों को सक्रिय करती है,’’ अतुल जैन ने विस्तार से स्मिता के सिंड्रोम के बारे में जानकारी दी.

‘‘इस से मेरी बेटी के साथ क्या होगा?’’ सारा ने बेचैनी से पूछा.

‘‘आप की स्मिता कभी मुसकरा नहीं सकेगी.’’

‘‘क्या?’’  दोनों के मुंह से एकसाथ निकला. हैरत से राजीव और सारा के मुंह खुले के खुले रह गए. किसी तरह हिम्मत बटोर कर सारा ने कहा, ‘‘क्या एक लड़की बगैर मुसकराए जिंदा रह सकती है?’’

डा. जैन ने कोई जवाब नहीं दिया. राजीव भी निरुत्तर हो गया था. वह सारा की गोद में लेटी स्मिता के नन्हे से होंठों को अपनी उंगलियों से छूने लगा. उस की बाईं आंख से एक बूंद आंसू का निकला. इस से पहले कि सारा उस की बेबसी को देखती, राजीव ने आंसू आधे में ही पोंछ लिया.

16 माह की स्मिता सिर्फ 2 शब्द बोलती थी. वह पापा को ‘काका’ और ‘मम्मी’ को ‘बबी’ उच्चारित करती. उस ने ‘प’ का विकल्प ‘क’ कर दिया और ‘म’ का विकल्प ‘ब’ को बना दिया. फिर भी राजीव और सारा हर समय अपनी नौकरी से फुरसत मिलते ही अपनी स्मिता के मुंह से काका और बबी सुनने को बेताब रहते थे.

6 साल की स्मिता अब स्कूल में पढ़ रही थी. लेकिन कक्षा में वह पीछे बैठती थी और हर समय सिर झुकाए रहती थी. उस की पलकों में हर समय आंसू भरे रहते थे. एक छोटी सी बच्ची, जो मन से मुसकराना जानती थी लेकिन  उस के होंठ शक्ल नहीं ले पाते थे. उस पर सितम यह कि उस के सहपाठी दबे मुंह उसे अंगरेजी में ‘स्माइललैस गर्ल’ कहते थे.

इस दौरान राजीव और सारा मुंबई विश्वविद्यालय छोड़ कर अपनी बेटी स्मिता को ले कर जोधपुर आ गए और विश्वविद्यालय परिसर में बने लेक्चरर कांप्लेक्स में रहने लगे. राजीव मूलत: नागपुर के अकोला शहर से थे और पहली बार राजस्थान आए थे.

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स्मिता का दाखिला विश्वविद्यालय के करीब ही एक स्कूल में करा दिया गया. वह मानसिक रूप से एक औसत छात्रा थी.

उस दिन बड़ी तीज थी. विश्व- विद्यालय परिसर में तीज का उत्साह नजर आया. परिसर के लंबेचौडे़ लान में एक झूला लगाया गया. परिसर में रहने वालों की छोटीबड़ी सभी लड़कियां सावन के गीत गाते हुए एकदूसरे को झुलाने लगीं. स्मिता भी अपने पड़ोस की हमउम्र लड़कियों के साथ झूला झूलने पहुंची. लेकिन आधे घंटे बाद वह रोती हुई सारा के पास पहुंची.

‘‘क्या हुआ?’’ सारा ने पूछा.

‘‘मम्मी, पूजा कहती है कि मैं बदसूरत हूं क्योंकि मैं मुसकरा नहीं सकती,’’ स्मिता ने रोते हुए बताया.

‘‘किस ने कहा? मेरी बेटी की मुसकान दुनिया में सब से खूबसूरत होगी?’’

‘‘कब?’’

‘‘पहले तू रोना बंद कर, फिर बताऊंगी.’’

‘‘मम्मी, पूजा ने मेरे साथ चीटिंग भी की. पहले झूलने की उस की बारी थी, मैं ने उसे 20 मिनट तक झुलाया. जब मेरी बारी आई तो पूजा ने मना कर दिया और ऊपर से कहने लगी कि तू बदसूरत है इसलिए मैं तुझे झूला नहीं झुलाऊंगी,’’ स्मिता ने एक ही सांस में कह दिया और बड़ी हसरत से मम्मी की ओर देखने लगी.

बेटी के भावहीन चेहरे को देख कर सारा को समझ में नहीं आया कि वह हंसे या रोए. उस के मन में अचानक सवाल जागा कि क्या मेरी स्मिता का चेहरा हंसी की भाषा कभी नहीं बोल पाएगा. नहीं, ऐसा नहीं होगा. एक दिन जरूर आएगा और वह दिन जल्दी ही आएगा, क्योंकि एक पिता ऐसा चाहता है…एक मां ऐसा चाहती है और एक भाई भी ऐसा ही चाहता है.

एक दिन सुबह नहाते वक्त स्मिता की नजर बाथरूम में लगे शीशे पर पड़ी. शीशा थोड़ा ऊपर था. वह टब में बैठ कर या खड़े हो कर उसे नहीं देख सकती थी. सारा जब उसे नहलाती थी तब पूरी कोशिश करती थी कि स्मिता आईना न देखे. लेकिन आज सारा जैसे ही बेटी को नहलाने बैठी तो फोन आ गया. स्मिता को टब के पास छोड़ कर सारा फोन अटेंड करने चली गई.

स्मिता के मन में एक विचार आया. वह टब पर धीरे से चढ़ी. अब वह शीशे में साफ देख सकती थी. लेकिन अपना सपाट और भावहीन चेहरा शीशे में देख कर स्मिता भय से चिल्ला उठी, ‘‘मम्मी…’’

सारा बेटी की चीख सुन कर दौड़ी आई, बाथरूम में आ कर उस ने देखा तो शीशा टूटा हुआ था. स्मिता टब में सहमी बैठी हुई थी. उस ने गुस्से में नहाने के शावर को आईने पर दे मारा था.

‘‘मम्मी, मैं मुसकराना चाहती हूं. नहीं तो मैं मर जाऊंगी,’’ सारा को देखते ही स्मिता उस से लिपट कर रोने लगी. सारा भी अपने आंसू नहीं रोक पाई.

‘‘मेरी बेटी बहुत बहादुर है. वह एक दिन क्या थोडे़ दिनों में मुसकराएगी,’’ सारा ने उसे चुप कराने के लिए दिलासा दी.

स्मिता चुप हो गई. फिर बोली, ‘‘मम्मी, मैं आप की तरह मुसकराना चाहती हूं क्योंकि आप की मुसकराहट से खूबसूरत दुनिया में किसी की मुसकराहट नहीं है.’’

राजीव शिमला से वापस आए तो सारा ने पूछा, ‘‘हमारी बचत कितनी होगी, राजीव?’’

‘‘क्या तुम प्लास्टिक सर्जरी के बारे में सोच रही हो,’’ राजीव ने बात को भांप कर कहा.

‘‘हां.’’

‘‘चिंता मत करो. कल हम स्मिता को सर्जन के पास ले जाएंगे,’’ राजीव ने कहा.

‘‘सिस्टर, तुम देखना मेरी मुसकराहट मम्मी जैसी होगी. जो मेरे लिए दुनिया में सब से खूबसूरत मुसकराहट है,’’ एनेस्थिसिया देने वाली नर्स से आपरेशन से पहले स्मिता ने कहा.

स्मिता का आपरेशन शुरू हो गया. सारा की सांस अटक गई. उस ने डरते हुए राजीव से पूछा, ‘‘सुनो, उसे आपरेशन के बाद होश आ जाएगा न? कभीकभी मरीज कोमा में चला जाता है.’’

‘‘चिंता मत करो. सब ठीक होगा,’’ राजीव ने मुसकराते हुए जवाब दिया ताकि सारा का मन हलका हो जाए.

डा. अतुल जैन ने स्मिता की जांघों की ‘5वीं नर्व’ की शाखा से त्वचा ली क्योंकि वही त्वचा प्रत्यारोपण के बाद सक्रिय रहती है. इस से ही काटने और चबाने की क्रिया संभव होती है. राजीव और सारा का बेटी के प्रति प्यार रंग लाया. आपरेशन के 1 घंटे बाद स्मिता को होश आ गया. लेकिन अभी एक हफ्ते तक वे अपनी बेटी का चेहरा नहीं देख सकते थे.

काफी दिनों तक राजीव पढ़ाने नहीं जा पाया था. आज सुबह 10 बजे वह पूरे 2 महीने बाद लाइफ साइंस के अपने विभाग गया था. आज ही सुबह 11 बजे स्मिता को अस्पताल से छुट्टी मिली. रास्ते में उस ने सारा से कहा, ‘‘मम्मी, मुझे कुछ अच्छा सा महसूस हो रहा है.’’

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यह सुन कर सारा ने स्मिता के चेहरे को गौर से देखा तो उस के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा. स्मिता जब बोल रही थी तब उस के होंठों ने एक आकार लिया. सारा ने आवेश में स्मिता का चेहरा चूम लिया. उस ने तुरंत राजीव को मोबाइल पर फ ोन किया.

फोन लगते ही सारा चिल्लाई, ‘‘राजीव, स्मिता मुसकराई…तुम जल्दी आओ. आते वक्त हैंडीकैम लेते आना. हम उस की पहली मुसकान को कैमरे में कैद कर यादों के खजाने में सुरक्षित रखेंगे.’’

उधर राजीव इस बात की कल्पना में खो गया कि जब वह अपनी बेटी को स्मिता कह कर बुलाएगा तब वह किस तरह मुसकराएगी.

विदाई

पूर्व कथा

टीना और नरेश की शादी की सभी रस्में पूरी हो जाती हैं. विदाई के समय उस की मां केवल उसे अपना ध्यान रखने की सलाह देती है.

एक विवाह समारोह में नरेश की मां खूबसूरत टीना को देखती है और बहू बनाने का फैसला कर लेती है. 6 माह के अंदर नरेश और टीना की शादी हो जाती है.

शादी के बाद भी टीना मांमां की रट लगाए रहती है ससुराल में सभी लोग उसे बहुत प्यार करते हैं लेकिन टीना बड़ी बेरुखी से उन के साथ पेश आती है और नरेश से मायके जाने की जिद करती है? टीना के घर जा कर नरेश को यह एहसास होता है कि उस के घर में मां का राज है पिता को कोई पूछता भी नहीं.

शादी के कुछ ही हफ्तों में नरेश टीना की असलियत समझ जाता है कि टीना की गृहस्थी के कामों में कोई रुचि नहीं है बल्कि बातबात पर वह उस से लड़ने के बहाने ढूंढ़ती है और नाराज हो कर आत्महत्या की धमकी देने लगती है.

टीना अपनी ससुराल और नरेश से जुड़ी हर बात की खबर अपनी मां को देती है और वह भी टीना को सही सलाह देने के बजाय नरेश पर नजर रखने को कहती है अब आगे…

अंतिम भाग

कहानी द्य डा. के. रानी

गतांक से आगे…

टीना ने महसूस किया कि नरेश कुछ दिनों से खोयाखोया सा रहता है. पत्नी की इच्छा के खिलाफ उस ने कभी मांबाप से मिलने की इच्छा जाहिर नहीं की. उसे यकीन था उस का प्यार और धैर्य एक दिन टीना को बदल देगा. लेकिन एक साल गुजर गया पर टीना के व्यवहार में कोई फर्क न था. अपनी सास से वह नरेश के अनुरोध पर 10-15 दिनों में एकआध मिनट के लिए बात कर लेती. हां, अपनी मम्मी से सुबहशाम नियम से बात करना वह कभी न भूलती.

एक दिन नरेश ने टीना को बताया कि उस के आफिस का माहौल कुछ ठीक नहीं चल रहा है. यही हाल रहा तो एक दिन वापस घर जाना पडे़गा. यह सुन कर टीना अंदर ही अंदर कांप गई कि कैसे रहेगी वह सासससुर, ननददेवर के बीच. सुबह- शाम खाना बनाना और घर की देखभाल करना उस के बूते की बात न थी. अब भी वह कई बार 9 बजे सो कर उठती. नरेश कभी विरोध न करता. चुपचाप चाय पी कर आफिस चला जाता है. नरेश की कही बात टीना ने तुरंत अपनी मम्मी को बताई.

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‘‘यह तो बड़ी बुरी खबर है टीना.’’

‘‘मम्मी, मैं तो नरेश के साथ दिल्ली आ जाऊंगी.’’

‘‘नरेश न माना तो…’’

‘‘इस के लिए आप कोई उपाय करो न मम्मी.’’

‘‘अच्छा, सोच कर बताती हूं,’’ कह कर नीता ने फोन रख दिया.

शाम को नरेश के आने से पहले  नीता ने टीना को फोन किया, ‘‘टीना, तुम्हारी बातों ने मुझे बड़ा विचलित किया है. ससुराल में कैसे रहोगी जीवन भर. मैं एक तांत्रिक को जानती हूं. उस के पास हर समस्या का उपाय है. वह हमारी समस्या चुटकियों में हल कर देंगे.’’

‘‘यह ठीक है मम्मी, कल सुबह बात करूंगी,’’ कह कर टीना आश्वस्त हो गई.

अगले दिन दोपहर को टीना के पास उस की मां का फोन आया,  ‘‘बेटी, घबराने की बात नहीं है. बाबा ने यकीन दिलाया है कि सब ठीक हो जाएगा. उन्होंने नरेश को पहनने के लिए एक अंगूठी दी है. मैं ने कूरियर से उसे तुम्हारे पास भेज दिया है. तुम उसे नरेश को जरूर पहना देना.’’

2 दिन में अंगूठी टीना के पास पहुंच गई. अगूंठी सोने की थी. टीना ने वह बड़े प्यार से नरेश की उंगली में पहना दी. नरेश ने प्रश्नवाचक दृष्टि से टीना को देखा.

‘‘मम्मी ने भेजी है तुम्हारे लिए.’’

‘‘मेरे पास तो अंगूठियां हैं.’’

‘‘यह स्पेशल है. बडे़ सिद्ध बाबा ने दी है. इस से तुम्हारे दफ्तर के सारे कष्ट दूर हो जाएंगे.’’

‘‘अच्छा,’’ कह कर नरेश ने बड़ी श्रद्धा से अंगूठी को आंखों से छुआ लिया. टीना आश्वस्त हो गई.

नरेश के साथ हुई पूरी बात टीना ने मम्मी को बताई. नीता बहुत खुश थी कि बाबा की अंगूठी वास्तव में चमत्कारी थी. वह बोली, ‘‘बेटी, तांत्रिक बाबा ने एक छोटा सा अनुष्ठान करवाने के लिए कहा है. तुम्हें 15 दिन के लिए मायके आना होगा. मैं ने सारा प्रबंध कर लिया है. तुम इस बारे में नरेश से बात करना. इस से उस का काम फिर से चल पड़ेगा.’’

शाम को टीना ने नरेश को मम्मी से हुई पूरी बात बता दी और उस से मायके जाने की अनुमति ले ली. नरेश स्वयं उसे दिल्ली छोड़ कर मुंबई आ गया.

नीता का हर पत्ता सही पड़ रहा था. मांबेटी नियम से बाबा के पास जातीं और घंटों अनुष्ठान में लगी रहतीं. इन 12-13 दिनों में बाबा ने अनुष्ठान के नाम पर हजारों रुपए ठग लिए. आखिर वह दिन आ पहुंचा जिस का मांबेटी को इंतजार था.

तांत्रिक बोला, ‘‘बेटी को अनुष्ठान का पूरा लाभ चाहिए तो अंतिम आहुति उसी व्यक्ति से डलवानी होगी जिस के लिए यह अनुष्ठान किया जा रहा है. आप अपने दामाद को तुरंत बुला लीजिए. ध्यान रहे, इस अनुष्ठान की खबर किसी को नहीं होनी चाहिए.’’

नीता और टीना ने एकदूसरे को देखा और घर की ओर चल पड़ीं. टीना ने खामोशी तोड़ी, ‘‘मम्मी, अब क्या होगा?’’

‘‘होना क्या है, अनुष्ठान के कारण नरेश का मन पहले ही काफी बदल गया है. तुम ने देखा है, वह तुम्हारी किसी बात का विरोध नहीं करता. मुझे यकीन है, वह तुम्हारी यह बात तुरंत मान लेगा. तुम फोन करो तो सही.’’

बाबा का ध्यान कर के टीना ने नरेश को फोन मिलाया.

‘‘कैसी हो टीना, कब आ रही हो?’’

‘‘जब तुम लेने आ जाओ.’’

‘‘तब ठीक है, आज ही चल देता हूं तुम से मिलने.’’

‘‘आज नहीं 2 दिन बाद.’’

‘‘कोई खास बात है क्या?’’

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‘‘यही समझ लो. मैं जिस काम के लिए मायके आई थी वह 2 दिन बाद खत्म हो जाएगा और उस में तुम्हारा आना जरूरी है. आओेगे न?’’

‘‘जैसी तुम्हारी आज्ञा, हम तो हुजूर के गुलाम हैं.’’

‘‘पर एक शर्त है कि यह बात तुम्हारे और मेरे सिवा किसी को मालूम नहीं चलनी चाहिए वरना अनुष्ठान का प्रभाव खत्म हो जाएगा.’’

‘‘मेरे तुम्हारे अलावा मम्मीजी भी तो यह बात जानती हैं.’’

‘‘मम्मी हम दोनोें से अलग थोड़े ही हैं. सच पूछो तो हमारी भलाई उन के अलावा कोई सोच ही नहीं सकता.’’

‘‘इस अनुष्ठान से तुम्हें यकीन है कि हम सुखी हो जाएंगे?’’

‘‘100 प्रतिशत. मम्मी ने हमारी खुशी के लिए क्या कुछ नहीं किया? दिनरात एक कर के ऐसे सिद्ध बाबा से अनुष्ठान करवाया है. तुम आ रहे हो न.’’

‘‘टीना, मैं ठीक समय पर घर पहुंच जाऊंगा.’’

‘‘अरे, बाबा घर नहीं, तुम्हारे लिए मम्मी होटल में कमरा बुक करा देंगी.’’

‘‘ऐसा क्यों?’’

‘‘बहुत भोले हो तुम. घर पर पापा भी तो हैं. उन्हें तुम्हारे आने से सबकुछ पता चला जाएगा जबकि यह बात सब से छिपा कर रखनी है.’’

‘‘ओह, आई एम सौरी,’’ कह कर नरेश ने फोन रख दिया.

टीना ने जैसे समझाया था उसी तरह अंतिम आहुति देने के लिए नरेश दिल्ली पहुंच गया. टीना उस के स्वागत में एअरपोर्ट पर खड़ी थी. वह नरेश को ले कर सीधा होटल आ गई और नरेश से लिपट कर बोली, ‘‘ये 15 दिन मुझे कितने लंबे महसूस हुए जानते हो?’’

‘‘तुम्हें ही क्यों मुझे भी तो ऐसा ही एहसास हुआ पर मजबूरी थी. तुम्हारी खुशी जो इसी में थी.’’

‘‘मेरी नहीं हमारी. आज के बाद हमारी सारी परेशानियां दूर हो जाएंगी.’’

‘‘चलो, कहां चलना है?’’

‘‘बाबा के शिविर में.’’

‘‘यह बाबा का शिविर कहां पर है?’’

‘‘मैं तुम्हारे साथ चल रही हूं. तुम्हें खुद ब खुद पता चल जाएगा.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर नरेश चलने को तैयार हुआ. दरवाजे पर आ कर वह टीना से बोला, ‘‘डार्लिंग, मैं अपना पर्स तो अंदर ही भूल गया. तुम नीचे चलो मैं उसे लेकर आता हूं.’’

टीना होटल के मुख्य गेट पर आ गई. पापा की गाड़ी उस के पास थी. नरेश आ कर गाड़ी में बैठ गया. उधर नीता बाबा की विदाई की तैयारी में व्यस्त थी. अंतिम आहुति के साथ उसे बाबा को वस्त्र, धन और फलफूल देने थे. नीता ने कपड़े तो पहले ही खरीद लिए थे. ताजे फल खरीदने के लिए वह फल की दुकान पर खड़ी थी. टीना ने गाड़ी एक किनारे पार्क की और मम्मी की ओर बढ़ गई. फल खरीद कर टीना व नीता ज्यों ही दुकान से बाहर निकले सामने पापा के साथ नरेश के मम्मीपापा को देख कर वे दंग रह गईं.

नीता को काटो तो खून नहीं. वह अचकचा कर बोली, ‘‘आप यहां?’’

‘‘हम लोगों का यहां आना आप को अच्छा नहीं लगा?’’

‘‘नहींनहीं ऐसी बात नहीं है. असल में एक जरूरी काम से हमें जाना है. आप घर चलिए.’’

‘‘टीना, मेरी मम्मी को जरूरी काम नहीं बताओगी?’’

टीना चुप रही तो नरेश ही बोला, ‘‘मैं बताता हूं पूरी बात. मम्मीजी, बेटी के मोह में अंधी हो कर क्या कर रही हैं यह इन को खुद नहीं पता.’’

‘‘नरेश…’’ टीना चीखी.

‘‘मर गया तुम्हारा नरेश. तुम लोगों की पोल यहीं खोल दूं या तुम्हारे घर जा कर सबकुछ बताऊं?’’

‘‘यह क्या कह रहे हो नरेश तुम. क्या हुआ बेटा?’’ टीना के पापा ने पूछा.

‘‘यह आप अपनी पत्नी और बेटी से पूछिए भाई साहब, जो रातदिन मेरे घर को बरबाद करने की साजिश रचते रहे,’’ सुधा बोली.

‘‘बहनजी, मेरी इज्जत का कुछ तो लिहाज कीजिए. घर चल कर बात करते हैं,’’ टीना के पापा हाथ जोड़ कर बोले.

सुधा एक नेक इनसान की बात न टाल सकी.

घर आ कर उन्होंने पूछा, ‘‘माजरा क्या है नीता?’’

‘‘ये क्या बताएंगी मैं आप को बताती हूं,’’ सुधा बोली.

‘‘शादी के दिन से ही आप की बेटी ससुराल में नहीं रहना चाहती थी. वह अपनी हर इच्छा नरेश पर लादती रहती और उस के मना करने पर आत्महत्या की धमकी देती. बेचारा नरेश क्या करता, चुपचाप सबकुछ सहन करता. यह हर बात अपनी मम्मी को बताती और आप की पत्नी अपनी बेटी टीना को उल्टी शिक्षा देतीं. ताकि बेटी को ससुराल में रह कर कुछ न करना पड़े.’’

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‘‘यह सच नहीं है,’’ नीता बोली.

‘‘तो आप ही बात दीजिए सच क्या है?’’ नरेश तीखे स्वर में बोला.

‘‘मेरे बेटे को वश में करने के लिए ये मांबेटी किसी बाबा से अनुष्ठान करवा रही हैं. विश्वास न हो तो खुद चल कर देख लीजिए. हम स्वयं उस बाबा से मिल कर आ रहे हैं, सुधा बोली.’’

‘‘क्या यह सच है?’’ पापा ने पूछा.

‘‘यह क्या जवाब देंगी. इस ने तो एक पल को भी अपनी ससुराल को अपना घर नहीं समझा. इस में इस का भी क्या दोष? इसे अपनी मां से शिक्षा ही ऐसी मिली थी. अब अपनी बेटी को आप अपने ही पास रखिए. इस से न इसे तकलीफ होगी न इस की मम्मी को. मेरे बेटे को भी इन की ज्यादतियों से मुक्ति मिल जाएगी. इस एक साल में हमारे बेटे ने क्या कुछ न सहा… क्या सुख मिला इसे शादी का. ससुराल के नाम से ही चिढ़ है टीना को, बेचारा छिपा कर सब बातें अपनी मां को बताता रहा. मेरे समझाने पर उस ने टीना की, हर नाजायज बात स्वीकार कर ली. मुझे उम्मीद थी कि टीना को एक दिन अपनी गलती का एहसास जरूर होगा पर वह दिन देखना शायद हम लोगों की किस्मत में नहीं था.हम जा रहे हैं. आप अपनी बेटी को अपने पास रखिए. अगर हम इस की हरकतों से तंग आ कर इसे वापस मायके भेजते तो किसी को हमारी बात का यकीन न होता. सब हमें ही दोषी ठहराते. आज सबकुछ आप अपनी आंखों से देख सकते हैं,’’ नरेश के पापा बोले.

सुधा, पति व बेटे के साथ जाने लगी तो टीना के पापा ने उन के पैर पकड़ लिए.

‘‘भाई साहब, इस में आप का कोई दोष नहीं है. नीता ने आप को घर का मुखिया समझा ही कब? पहले ये खुद मनमानी करती रहीं अब वही सब बेटी के साथ दोहरा रही हैं.’’

‘‘मेरी बेटी की गलती को माफ कर दीजिए,’’ टीना के पापा बोले.

नरेश उन से हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘पापाजी, ससुराल में टीना को रहना है. इस में आप और हम क्या कर सकते हैं. मम्मी की शह पर टीना ने कभी आप को पिता होने का ओहदा न दिया. जो लड़की पिता को कुछ न समझे वह ससुर को क्या समझेगी? अभी हम जा रहे हैं. बाकी निर्णय तो टीना को लेना है.’’

नरेश अपने मम्मीपापा के साथ वापस लखनऊ चला आया.

ससुराल वालों से जलील हो कर टीना बड़ी आहत थी. नीता की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे? नरेश अपने मम्मीपापा के साथ मिल कर ऐसा खेल खेलेगा इस की टीना व नीता को रत्ती भर भी उम्मीद न थी.

अपने घर में अपने ही कर्मों से नीता बुरी तरह लज्जित हो गई. पति के सामने उस की हरकतों का कच्चा चिट्ठा दामाद ने खोल दिया. उन के जाते ही प्रकाश बोले, ‘‘तुम मांबेटी की हरकतों ने आज मेरी इज्जत सरेआम उछाल दी. जो कोई भी सुनेगा, थूकेगा तुम दोनों पर. कितनी ओछी हरकत की है तुम दोनों ने.’’

आज पहली बार प्रकाश की बातों का नीता ने पलट कर जवाब नहीं दिया. दामाद को अपनी ओर करने के चक्कर में वह खुद एकदम अकेली पड़ गई.

नीता को गुमसुम देख कर टीना बोली, ‘‘मम्मी, जो होना था सो हो गया. शायद मेरे भाग्य में यही लिखा था. अब मैं आप को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी.’’

‘‘तुम्हारे ससुराल के रास्ते मैं ने ही अपने हाथों बंद किए हैं बेटी, उन्हें खोलना मेरा ही फर्ज है,’’ कह कर नीता ने अपनी ननद को फोन मिलाया और सारी बातें ज्यों की त्यों उन्हें बात दीं.

रमा ने भाभी की कही बातें सुनीं तो उन के पैरों तले जमीन खिसक गई. उस ने ही टीना का रिश्ता अपनी ससुराल के दूर के रिश्ते में तय करवाया था.

‘‘भाभी, तुम चिंता मत करो. मैं सुधा व नरेश से बात करूंगी,’’ रमा बोली.

‘‘रमा, मुझे माफ कर दो. यह बात लोग सुनेंगे तो कहेंगे कि दामाद ने मेरी नासमझी को मेरे ही घर में सुबूत सहित सब को दिखा दिया. मेरे लिए तो चुल्लू भर पानी में डूब मरने के अलावा कोई रास्ता नहीं है.’’

‘‘भाभी, हिम्मत रखो. जिंदगी के रास्ते एकदम सीधे नहीं, टेढे़मेढ़े होते हैं. एक रुकावट आने से मंजिल नहीं छूटती, रास्ते का फेर बढ़ जाता है. टीना को तुम ने लापरवाह बनाया है तो सुधारना भी तुम्हें ही होगा.’’

‘‘मैं सबकुछ करने को तैयार हूं. बस, टीना को इस बदनामी से बचा लो.’’

‘‘एक अच्छी पत्नी का अच्छी बहू होना जरूरी है. पति के दिल में उतरने का सब से सरल रास्ता उस के मातापिता की सेवा से बनता है. तुम उसे इस बार नरेश के पास नहीं सुधा के पास लखनऊ ले कर चलो. मैं भी वहीं पहुंच रही हूं.’’

नीता के पहुंचने से पहले रमा सुधा के पास पहुंच चुकी थी.

‘‘सुधा, टीना मक्कार नहीं भटकी हुई है. उसे रास्ता दिखाना तुम्हारा फर्ज बनता है. नीता के लाड़प्यार ने आज उसे इस स्थिति पर ला दिया है. यह दो जिंदगियों का सवाल है.’’

रमा के समझाने का सुधा पर अच्छा प्रभाव पड़ा. वह रमा का आग्रह न टाल सकी.

‘‘बहनजी, मैं वादा करती हूं कि आप के परिवार के बीच कभी कोई अड़चन नहीं डालूंगी,’’ नीता सिर झुका कर बोली, ‘‘यहां तक कि टीना से बात तक नहीं करूंगी. इसे जो कहना होगा अपने पापा से कहेगी, मुझ से नहीं. मैं टीना को आप की छत्रछाया में छोड़ कर जा रही हूं. हो सके तो इसे भी कुछ अच्छे संस्कार सिखा दीजिएगा.’’

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‘‘यह टीना के जीवन का प्रश्न है और उसे पति व उस के परिवार के साथ खुद को एडजस्ट करना है. हम उस पर कोई बोझ नहीं डालना चाहते,’’ सुधा बोली.

‘‘मम्मीजी, मुझे आप की हर शर्त मंजूर है. प्लीज, मुझे यहीं रहने दीजिए,’’ टीना बोली.

‘‘यह घर तुम्हारा ही था बेटी पर तुम ने इसे कभी अपना नहीं समझा. केवल पति तक सीमित हो कर रह गई थीं तुम्हारी भावनाएं. और भावनाएं शर्तों पर नहीं जगाई जा सकतीं.’’

‘‘भूल मुझ से हुई तो प्रायश्चित्त भी मैं ही करूंगी. 6 महीने आप के साथ रह कर अपने को एक अच्छी बहू साबित कर के दिखा दूंगी, मुझे एक मौका दीजिए.’’

सुधा ने नीता और टीना को माफ कर दिया. भारी मन से नीता ने टीना से विदा ली. चलते समय वह बेटी को नसीहत दे रही थी, ‘‘टीना, अपने व्यवहार से सब को खुश रखना. सासससुर की सेवा करना,’’ आगे वह कुछ न कह सकी. सही माने में सच्ची विदाई तो टीना की आज ही हुई थी, मां के आशीर्वाद के साथ.     द

कायाकल्प

लेखक- रिचा शर्मा

खिड़की से बाहर झांक रही सुमित्रा ने एक अनजान युवक को गेट के सामने मोटरसाइकिल रोकते देखा.

‘‘रवि, तू यहां क्या कर रहा है?’’ सामने के फ्लैट की बालकनी में खड़े अजय ने ऊंची आवाज में मोटर- साइकिल सवार से प्रश्न किया.

‘‘यार, एक बुरी खबर देने आया हूं.’’

‘‘क्या हुआ है?’’

‘‘शर्मा सर का ट्रक से एक्सीडेंट हुआ जिस में वह मर गए.’’

खिड़की में खड़ी सुमित्रा अपने पति राजेंद्र के बाजार से घर लौटने का ही इंतजार कर रही थीं. रवि के मुंह से यह सब सुन कर उन के दिमाग को जबरदस्त झटका लगा. विधवा हो जाने के एहसास से उन की चेतना को लकवा मार गया और वह धड़ाम से फर्श पर गिरीं और बेहोश हो गईं.

छोटे बेटे समीर और बेटी रितु के प्रयासों से कुछ देर बाद जब सुमित्रा को होश आया तो उन दोनों की आंखों से बहते आंसुओं को देख कर उन के मन की पीड़ा लौट आई और वह अपनी बेटी से लिपट कर जोर से रोने लगीं.

उसी समय राजेंद्रजी ने कमरे में प्रवेश किया. पति को सहीसलामत देख कर सुमित्रा ने मन ही मन तीव्र खुशी व हैरानी के मिलेजुले भाव महसूस किए. फिर पति को सवालिया नजरों से देखने लगीं.

‘‘सुमित्रा, हम लुट गए. कंगाल हो गए. आज संजीव…’’ और इतना कह पत्नी के कंधे पर हाथ रख वह किसी छोटे बच्चे की तरह बिलखने लगे थे.

सुमित्रा की समझ में आ गया कि रवि उन के बड़े बेटे संजीव की दुर्घटना में असामयिक मौत की खबर लाया था. इस नए सदमे ने उन्हें गूंगा बना दिया. वह न रोईं और न ही कुछ बोल पाईं. इस मानसिक आघात ने उन के सोचनेसमझने की शक्ति पूरी तरह से छीन ली थी.

करीब 15 दिन पहले ही संजीव अपनी पत्नी रीना और 3 साल की बेटी पल्लवी के साथ अलग किराए के मकान में रहने चला गया था.

पड़ोसी कपूर साहब, रीना व पल्लवी को अपनी कार से ले आए. कुछ दूसरे पड़ोसी, राजेंद्रजी और समीर के साथ उस अस्पताल में गए जहां संजीव की मौत हुई थी.

अपनी बहू रीना से गले लग कर रोते हुए सुमित्रा बारबार एक ही बात कह रही थीं, ‘‘मैं तुम दोनों को घर से जाने को मजबूर न करती तो आज मेरे संजीव के साथ यह हादसा न होता.’’

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इस अपराधबोध ने सुमित्रा को तेरहवीं तक गहरी उदासी का शिकार बनाए रखा. इस कारण वह सांत्वना देने आ रहे लोगों से न ठीक से बोल पातीं, न ही अपनी गृहस्थी की जिम्मेदारियों का उन्हें कोई ध्यान आता.

ज्यादातर वह अपनी विधवा बहू का मुर्झाया चेहरा निहारते हुए मौन आंसू बहाने लगतीं. कभीकभी पल्लवी को छाती से लगा कर खूब प्यार करतीं, पर आंसू तब भी उन की पलकों को भिगोए रखते.

तेरहवीं के अगले दिन वर्षों की बीमार नजर आ रही सुमित्रा क्रियाशील हो उठीं. सब से पहले समीर और उस के दोस्तों की मदद से टैंपू में भर कर संजीव का सारा सामान किराए के मकान से वापस मंगवा लिया.

उसी दिन शाम को सुमित्रा के निमंत्रण पर रीना के मातापिता और भैयाभाभी उन के घर आए.

सुमित्रा ने सब को संबोधित कर गंभीर लहजे में कहा, ‘‘पहले मेरी और रीना की बनती नहीं थी पर अब आप सब लोग निश्ंिचत रहें. हमारे बीच किसी भी तरह का टकराव अब आप लोगों को देखनेसुनने में नहीं आएगा.’’

‘‘आंटी, मेरी छोटी बहन पर दुख का भारी पहाड़ टूटा है. अपनी बहन और भांजी की कैसी भी सहायता करने से मैं कभी पीछे नहीं हटूंगा,’’ रीना के भाई रोहित ने भावुक हो कर अपने दिल की इच्छा जाहिर की.

‘‘आप सब को बुरा न लगे तो रीना और पल्लवी हमारे साथ भी आ कर रह सकती हैं,’’ रीना के पिता कौशिक साहब ने हिचकते हुए अपना प्रस्ताव रखा.

सुमित्रा उन की बातें खामोश हो कर सुनती रहीं. वह रीना के मायके वालों की आंखों में छाए चिंता के भावों को आसानी से पढ़ सकती थीं.

रीना के साथ पिछले 6 महीनों में सुमित्रा के संबंध बहुत ज्यादा बिगड़ गए थे. समीर की शादी करीब 3 महीने बाद होने वाली थी. नई बहू के आने की बात को देखते हुए सुमित्रा ने रीना को और ज्यादा दबा कर रखने के प्रयास तेज कर दिए थे.

‘इस घर में रहना है तो जो मैं चाहती हूं वही करना होगा, नहीं तो अलग हो जाओ,’ रोजरोज की उन की ऐसी धमकियों से तंग आ कर संजीव और रीना ने अलग मकान लिया था.

उन की बेटी सास के हाथों अब तो और भी दुख पाएगी, रीना के मातापिता के मन के इस डर को सुमित्रा भली प्रकार समझ रही थीं.

उन के इस डर को दूर करने के लिए ही सुमित्रा ने अपनी खामोशी को तोड़ते हुए भावुक लहजे में कहा, ‘‘मेरा बेटा हमें छोड़ कर चला गया है, तो अब अपनी बहू को मैं बेटी बना कर रखूंगी. मैं ने मन ही मन कुछ फैसला लिया है जिन्हें पहली बार मैं आप सभी के सामने उजागर करूंगी.’’

आंखों से बह आए आंसुओं को पोंछती हुई सुमित्रा सब की आंखों का केंद्र बन गईं. राजेंद्रजी, समीर और रितु के हावभाव से यह साफ पता लग रहा था कि जो सुमित्रा कहने जा रही थीं, उस का अंदाजा उन्हें भी न था.

‘‘समीर की शादी होने से पहले ही रीना के लिए हम छत पर 2 कमरों का सेट तैयार करवाएंगे ताकि वह देवरानी के आने से पहले या बाद में जब चाहे अपनी रसोई अलग कर ले. इस के लिए रीना आजाद रहेगी.

‘‘अतीत में मैं ने रीना के नौकरी करने का सदा विरोध किया, पर अब मैं चाहती हूं कि वह आत्मनिर्भर बने. मेरी दिली इच्छा है कि वह बी.एड. का फार्म भरे और अपनी काबिलीयत बढ़ाए.

‘‘आप सब के सामने मैं रीना से कहती हूं कि अब से वह मुझे अपनी मां समझे. जीवन की कठिन राहों पर मजबूत कदमों से आगे बढ़ने के लिए उसे मेरा सहयोग, सहारा और आशीर्वाद सदा उपलब्ध रहेगा.’’

सुमित्रा के स्वभाव में आया बदलाव सब को हैरान कर गया. उन के मुंह से निकले शब्दों में छिपी भावुकता व ईमानदारी सभी के दिलों को छू कर उन की पलकें नम कर गईं. एक तेजतर्रार, झगड़ालू व घमंडी स्त्री का इस कदर कायाकल्प हो जाना सभी को अविश्वसनीय लग रहा था.

रीना अचानक अपनी जगह से उठी और सुमित्रा के पास आ बैठी. सास ने बांहें फैलाईं और बहू उन की छाती से लग कर सुबकने लगी.

कमरे का माहौल बड़ा भावुक और संजीदा हो गया. रीना के मातापिता व भैयाभाभी के पास अब रीना व पल्लवी के हितों पर चर्चा करने के लिए कोई कारण नहीं बचा.

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क्या सुमित्रा का सचमुच कायाकल्प हुआ है? इस सवाल को अपने दिलों में समेटे सभी लोग कुछ देर बाद विदा ले कर अपनेअपने घर चले गए.

अब सिर्फ अपने परिवारजनों की मौजूदगी में सुमित्रा ने अपने मनोभावों को शब्द देना जारी रखा, ‘‘समीर और रितु, तुम दोनों अपनी भाभी को इस पल से पूरा मानसम्मान दोगे. रीना के साथ तुम ने गलत व्यवहार किया तो उसे मैं अपना अपमान समझूंगी.’’

‘‘मम्मी, आप को मुझ से कोई शिकायत नहीं होगी,’’ रितु उठ कर रीना की बगल में आ बैठी और बड़े प्यार से भाभी का हाथ अपने हाथों में ले लिया.

‘‘मेरा दिमाग खराब नहीं है जो मैं किसी से बिना बात उलझूंगा,’’ समीर अचानक भड़क उठा.

‘‘बेटे, अगर तुम्हारा रवैया नहीं बदला तो रीना को साथ ले कर एक दिन मैं इस घर को छोड़ जाऊंगी.’’

सुमित्रा की इस धमकी का ऐसा प्रभाव हुआ कि समीर चुपचाप अपनी जगह सिर झुका कर बैठ गया.

‘‘सुमित्रा, तुम सब तरह की चिंताएं अपने मन से निकाल दो. रीना और पल्लवी के भविष्य को सुखद बनाने के लिए हम सब मिल कर सहयोग करेंगे,’’ राजेंद्रजी से ऐसा आश्वासन पा कर सुमित्रा धन्यवाद भाव से मुसकरा उठी थीं.

कमरे से जब सब चले गए तब सुमित्रा ने रीना से साफसाफ पूछा, ‘‘बहू, तुम्हें मेरे मुंह से निकली बातों पर क्या विश्वास नहीं हो रहा है?’’

‘‘आप ऐसा क्यों सोच रही हैं, मम्मी. आप लोगों के अलावा अब मेरा असली सहारा कौन बनेगा?’’ रीना का गला भर आया.

‘‘मैं तुम्हें कभी तंग नहीं करूंगी, बहू. बस, तुम यह घर छोड़ कर जाने का विचार अपने मन में कभी मत लाना, नहीं तो मैं खुद को कभी माफ नहीं कर पाऊंगी.’’

‘‘नहीं, मम्मी. मैं आप के पास रहूंगी और आप को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी.’’

‘‘देख, पल्लवी के नाम से मैं ने 1 लाख रुपए फिक्स्ड डिपोजिट करने का फैसला कर लिया है. आने वाले समय में यह रकम बढ़ कर उस की पढ़ाई और शादी के काम आएगी.’’

‘‘जी,’’ रीना की आंखों में खुशी की चमक उभरी.

‘‘सुनो बहू, एक बात और कहती हूं मैं,’’ सुमित्रा की आंखों में फिर से आंसू चमके और गला रुंधने सा लगा, ‘‘करीब 4 साल पहले तुम ने इस घर में दुलहन बन कर कदम रखा था और मैं वादा करती हूं कि उचित समय और उचित लड़का मिलने पर तुम्हें डोली में बिठा कर यहां से विदा भी कर दूंगी. जरूरत पड़ी तो पल्लवी अपने दादादादी के पास रहेगी और तुम अपनी नई घरगृहस्थी…’’

‘‘बस, मम्मीजी, और कुछ मत कहिए आप,’’ रीना ने उन के मुंह पर अपना हाथ रख दिया, ‘‘मुझे विश्वास हो गया है कि पल्लवी और मैं आप दोनों की छत्रछाया में यहां बिलकुल सुरक्षित हैं. मुझ में दूसरी शादी करने में जरा भी दिलचस्पी कभी पैदा नहीं होगी.’’

रीना अपने सासससुर के लिए जब चाय बनाने चली गई तो राजेंद्रजी ने सुमित्रा का माथा चूम कर उन की प्रशंसा की, ‘‘सुमि, आज जो मैं ने देखासुना है उस पर मुझे आश्चर्य हो रहा है, साथ ही गर्व भी कर रहा हूं. एक बात पूछूं?’’

‘‘पूछिए,’’ सुमित्रा ने पति के कंधे पर सिर टिकाते हुए कहा और आंखें मूंद लीं.

‘‘तुम्हारी सोच, तुम्हारा नजरिया… तुम्हारे दिल के भाव अचानक इस तरह कैसे बदल गए हैं?’’

‘‘आप मुझ में आए बदलाव का क्या कारण समझते हैं?’’ आंखें बंद किएकिए ही सुमित्रा बोलीं.

‘‘मुझे लगता है संजीव की असमय हुई मौत ने तुम्हें बदला है, पर फिर वैसा ही बदलाव मेरे अंदर क्यों नहीं आया?’’

‘‘संजीव इस दुनिया में नहीं रहा, ये जानने से पहले मुझे एक और जबरदस्त सदमा लगा था. क्या आप को उस की याद है?’’

‘‘हां, जो लड़का बुरी खबर लाया था वह संजीव का जूनियर था और तुम समझीं कि वह कोई मेरा छात्र है और मेरी न रहने की खबर लाया है.’’

‘‘दरअसल, गलत अंदाजा लगा कर मैं बेहोश हो गई थी. फिर मुझे धीरेधीरे होश आया तो मेरे मन ने काम करना शुरू किया.

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‘‘सब से पहले असहाय और असुरक्षित हो जाने के भय ने मेरे दिलोदिमाग को जकड़ा था. मन में गहरी पीड़ा होने के बावजूद अपनी जिस जिम्मेदारी का मुझे ध्यान आया वह रितु की शादी का था.

‘‘कैसे पूरी करूंगी मैं यह जिम्मेदारी? मन में यह सवाल कौंधा तो जवाब में सब से पहले संजीव और रीना की शक्लें उभरी थीं. उन से मेरा लाख झगड़ा होता रहा हो पर मुसीबत के समय मन को उन्हीं दोनों की याद पहले आई थी,’’ अपने मन की बातों को सुमित्रा बड़े धीरेधीरे बोलते हुए पति के साथ बांट रही थीं.

राजेंद्रजी खामोश रह कर सुमित्रा के आगे बोलने का इंतजार करने लगे.

सुमित्रा ने पति की आंखों में देखते हुए भावुक लहजे में आगे कहा, ‘‘मेरे बहूबेटे मुसीबत में मेरा मजबूत सहारा बनेंगे, अगर मेरी यह उम्मीद भविष्य में पूरी न होती तो मेरा दिल उन दोनों को कितना कोसता.’’

एक पल रुक कर सुमित्रा फिर बोलीं, ‘‘असली विपदा का पहाड़ तो रीना के सिर पर टूटा था. मेरी ही तरह क्या उस ने भी उन लोगों का ध्यान नहीं किया होगा जो इस कठिन समय में उस के काम आएंगे?’’

‘‘जरूर आया होगा,’’ राजेंद्रजी बोले.

‘‘अगर उस ने हमें विश्वसनीय लोगों की सूची में नहीं रखा होगा तो यह हमारे लिए बड़े शर्म की बात है और अगर हमारे सहयोग और सहारे की उसे आशा है और हम उस की उम्मीदों पर खरे न उतरे तो क्या वह हमें नहीं कोसेगी?’’

‘‘तुम्हारे मनोभाव अब मेरी समझ में आ रहे हैं. तुम्हारे कायाकल्प का कारण मैं अब समझ सकता हूं,’’ राजेंद्रजी ने प्यार से पत्नी का माथा एक बार फिर चूमा.

‘‘हमारा बेटा संजीव अब बहू और पोती के रूप में अपना अस्तित्व बनाए हुए है और ये दोनों हमें कोसें ऐसा मैं कभी नहीं चाहूंगी. इन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए ही मैं ने अपने को बदल डाला है. कभी मैं राह से भटकूं तो आप मुझे टोक कर सही राह दिखा देना,’’ सुमित्रा ने अपने जीवनसाथी से हाथ जोड़ कर विनती की.

‘‘उस की जरूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि तुम्हारा यह कायाकल्प दिल की गहराइयों से हुआ है.’’

अपने पति की आंखों में अपने लिए गहरे सम्मान, प्रशंसा व प्रेम के भावों को पढ़ कर सुमित्रा हौले से मुसकराईं.

जब हमारे साहबजादे क्रिकेट खेलने गए

लेखक- कुंतल सिंघवी

हमारे साढ़े 6 वर्षीय बेटे को क्रिकेट खेलने का बहुत शौक है. यद्यपि इस खेल के संबंध में उन का ज्ञान इतना तो नहीं कि किसी खेल संबंधी प्रश्नोत्तर प्रतियोगिता में भाग ले सकें, पर फिर भी उन्हें खिलाडि़यों की पहचान हम से अधिक है और क्रिकेट की फील्ड की रचना कैसे की जाती है, इस बारे में भी वह हम से ज्यादा ही जानते हैं.

जब कभी टेस्ट मैच या एकदिवसीय मैच होता है तो वह बराबर टीवी के सामने बैठे रहते हैं. यदि कभी हमारा बाहर जाने का कार्यक्रम बनता है तो वह तड़ से कह देते हैं, ‘‘मां, मैं क्रिकेट मैच नहीं देख पाऊंगा, इसलिए मैं घर पर ही रहूंगा.’’ इस खेल के प्रति उन की रुचि व लगन पढ़ाई से अधिक है.

उन को इस खेल के प्रति रुचि अचानक ही नहीं हुई बल्कि जब वह मात्र 3 साल के थे तब से ही स्केल और पिंगपांग बाल को वह क्रिकेट की गेंद व बल्ला समझ कर खेला करते थे. अपनी तीसरी वर्षगांठ पर उन्होंने हम से बल्ला व गेंद उपहारस्वरूप झड़वा लिया. इस खेल में विकेट और पैड भी जरूरी होते हैं. इस की जानकारी उन्हें भारत और पाकिस्तान के बीच हुए मैच के दौरान हुई, जिस का सीधा प्रसारण वह टीवी पर देखा करते थे.

उन्होंने खाना छोड़ा होगा, पीना छोड़ा होगा, दोपहर में पढ़ना और सोना भी छोड़ा होगा, पर मैच देखना कभी छोड़ा हो, ऐसा हमें याद नहीं. हमारे देश का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री कौन है वह इस बात को भले ही न जानें, पर कपिलदेव, सुनील गावसकर, लायड, जहीर अब्बास को वह केवल जानते ही नहीं, उन के हर अंदाज से भी अच्छी तरह वाकिफ हैं.

इस खेल के प्रति उन की रुचि तब और बढ़ गई, जब उन्होंने गावसकर को मारुति व रवि शास्त्री को आउडी कार मिलते देखी. उन्हें कार पाने का इस से सरल तरीका और कोई नहीं दिखा कि सफेद कमीज पहन लो, पैंट न हो तो नेकर पहन लो, ऊनी दस्ताने पहन लो तथा छोटीबड़ी कैसी भी कैप पहन लो और बस, चल दो बल्ला और गेंद उठा कर खेल के मैदान में.

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कार के वह पैदाइशी शौकीन हैं. जब उन्होंने अपने जीवन के 4 महीने ही पूरे किए थे तब पहली बार कार का हार्न सुन कर बड़े खुश हुए थे. जब वह 8 महीने के थे तब घर के सदस्यों को पहचानने के बजाय उन्होंने सब से पहले तसवीरों में कार को पहचाना था.

तो जनाब, कार के प्रति उन के मोह ने उन्हें क्रिकेट की तरफ मोड़ दिया. फिर वह हमारे पीछे पड़ गए और बोले, ‘‘हम रोज घर पर खेलते हैं, आज हम स्टेडियम में खेलेंगे.’’

हम ने उन से कहा, ‘‘पहले आसपास के बच्चों के साथ घर के बाहर तो खेलो.’’ तो साहब, उन्होंने हमारी आज्ञा का पालन किया, अगले दिन शाम होते ही आ कर बोले, ‘‘आप लोग लान में खड़े हो कर देखिएगा, हम सड़क पर भैया लोगों के साथ खेलने जा रहे हैं.’’ हम मांबाप दोनों ही उन्हें दरवाजे पर इस तरह शुभकामनाओं के साथ छोड़ने गए जैसे वह विदेश जा रहे हों.

बहुत देर तक हम खेल शुरू होने का इंतजार करते रहे, क्योंकि करीबकरीब सभी बच्चे मय टूटी कुरसी के, जोकि उन की विकेट थी, सड़क पर पहुंच चुके थे. पर खेल शुरू होने के आसार न दिखने से हम अपना काम करने अंदर आ गए. करीब 20 मिनट बाद जब हम बाहर आए तो देखा, खिलाडि़यों में कुछ झगड़ा सा हो रहा है.

हम ने पतिदेव से, जोकि अपने बेटे के पहले छक्के को देखने की उम्मीद में बाहर खड़े थे, पूछा कि माजरा क्या है, अभी तक खेल क्यों नहीं शुरू हुआ तो उन्होंने कहा कि फिलहाल कपिल बनाम गावसकर यानी कप्तान कौन हो, का विवाद छिड़ा हुआ है.

4 बड़े लड़के कप्तान बनने की दलील दे रहे थे. एक कह रहा था, ‘‘विकेट (टूटी कुरसी) मैं लाया हूं, इसलिए कप्तान मैं हूं.’’ दूसरा कह रहा था, ‘‘अरे, वाह, बल्ला और गेंद तो मैं लाया हूं. मेरा असली बल्ला है, तुम्हारा तो टेनिस की गेंद से खेलने लायक है. अत: मैं बनूंगा कप्तान.’’ तीसरा जोकि अच्छी बल्लेबाजी करता था, बोला, ‘‘देखो, कप्तान मुझे ही बनाना चाहिए, क्योंकि सब से ज्यादा रन मैं ही बनाता हूं.’’

चौथा इस बात पर अड़ा हुआ था कि खेल क्योंकि उस के घर के सामने हो रहा था अत: बाल यदि चौकेछक्के में घर के अंदर चली गई तो उसे वापस वह ही ला सकता है, क्योंकि गेट पर उस की मां ने उस भयंकर कुत्ते को खुला छोड़ रखा था, जिस से वे सब डरते थे.

खैर, किसी तरह कप्तान की घोषणा हुई तो देखा बच्चे अब भी खेलने को तैयार नहीं, क्योंकि उन्हें उस की कप्तानी पसंद नहीं थी. यहां भी टीम का चयन करने में समस्या थी, क्योंकि जितने खिलाड़ी चाहिए थे, उस से 10 बच्चे अधिक थे. अब समस्या थी कि किसे खेल में शामिल किया जाए.

यहां कोई चयन समिति तो थी नहीं, जो इन की पहली कारगुजारी के आधार पर इन्हें चुनती. यहां तो हर कोई अपने को हरफनमौला बता रहा था.

खैर, साहब, जो बच्चे बल्ले नहीं लाए थे, उन्हें बजाय वापस घर भेजने के गली के नुक्कड़ पर खड़ा कर दिया गया ताकि अगर भूलेचूके गेंद वहां चली जाए तो वे उसे उठाने में मदद करें. जब टीम का चयन हो गया तो टास हुआ, 2 बार तो टास में अठन्नी पास की नाली में जा गिरी. तीसरी बार के टास से पता चला कि टीम ‘क’ पहले बल्लेबाजी करेगी तथा टीम ‘ख’ फील्डिंग.

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हमारे सुपुत्र चूंकि हमें फील्ड में यानी सड़क पर कहीं नजर नहीं आए तो हम ने समझा शायद ‘क’ टीम में होंगे, पर शंका का समाधान थोड़ी देर में हो गया जब वह मुंह लटका कर द्वार में प्रविष्ट हुए.

हम ने उन से पूछा, ‘‘आप वापस कैसे आ गए?’’ इस पर वह बोले, ‘‘हम सब से छोटे हैं, फिर भी सब से पहले हम से बल्लेबाजी नहीं करवाई और बड़े भैया खुद खेले जा रहे हैं.’’

हम ने उन्हें हतोत्साहित नहीं होने दिया और कहा, ‘‘जल्दी ही आप की बारी आ जाएगी, आप वापस चले जाइए.’’

वह अंदर गए, लगे हाथ एक कोल्ड डिं्रक चढ़ाई और जब वह वापस आए तो उन के चेहरे के भाव उसी तरह थे, जैसे ड्रिंक इंटरवल के बाद खिलाडि़यों के चेहरों पर होते हैं. जब वह फील्ड पर पहुंचे तो पता लगा उन की बारी आ चुकी थी, पर वह मौके पर उपस्थित नहीं थे, अत: 12वें नंबर के खिलाड़ी को बल्लेबाजी करने भेज दिया गया यानी बल्लेबाजी तो वह कर ही नहीं पाए.

अब फील्डिंग की बारी थी. वहां भी शायद वह अपनी अच्छी छाप नहीं छोड़ सके, क्योंकि अगले दिन जब हम ने उन्हें शाम को तैयार कर के भेजना चाहा तो वह तैयार नहीं हो रहे थे. हम ने कहा, ‘‘अरे भई, आज हम बिलकुल कहीं नहीं जाएंगे, लान में खड़े हो कर आप का ही मैच देखेंगे.’’ पर वह टस से मस नहीं हुए. उलटे उन के हाथ में क्रिकेट के बल्ले की जगह बैडमिंटन रैकिट था. यानी उन्होंने क्रिकेट से तौबा कर ली थी.

खैर, किसी तरह हम ने उन्हें खेलने भेजा. हम अपनी सब्जी गैस पर बनने रख आए थे. उसे देखने अंदर आ गए. वह तो खैर जलभुन कर राख हो ही चुकी थी, ऊपर से इन्होंने बताया कि हमारे नवाबजादे टीम से निकाल दिए गए हैं, इसीलिए खेलने नहीं जा रहे थे.

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हम ने उन से निकाले जाने का कारण पूछा तो पता चला कि फील्डिंग के समय उन्हें जो पोजीशन मिली थी, वह महत्त्व की थी और वहां पर चौकन्ना हो कर खड़े रहने की जरूरत थी. पर हमारे नवाबजादे जहां लपक कर कैच लेना था, वहां पर तो डाइव मार कर एक हाथ से कैच ले रहे थे. जैसा कभी उन्होंने गावसकर को आस्ट्रेलिया में लेते देखा था, और जहां पर डाइव लगानी थी, वहां सीधे हाथ आकाश में लिए खड़े थे. इस तरह वह 3-4 महत्त्वपूर्ण कैच छोड़ चुके थे, अत: कप्तान उन्हें गुस्से में घूरने लगा था.

जब 5वीं बार उन्हें एक खिलाड़ी को रन आउट करने का मौका मिला था तो उन्होंने गेंद बजाय खिलाड़ी को रन आउट करने के लिए विकेट पर मारने के अपने कप्तान के मुंह पर दे मारी, क्योंकि वह गुस्से में थे कि पारी की शुरुआत उन से क्यों नहीं करवाई गई. जब शाम से रात हुई और स्टंप उखाड़े गए, यानी कुरसी सरका ली गई तो उन्हें अगले दिन वहां आने से मना कर दिया गया.

हमारे लाड़ले का कहना था, ‘‘यह भी कोई क्रिकेट मैच है? पास में नाली बह रही है. इतने सारे मच्छर खाते हैं, न कोई ड्रिंक्स ट्राली आती है, न कोई फोटो खींचता है. हम तो विदेश जा कर ही खेलेंगे.’’

वंश बेल

भाग-1

रामलीला मैदान में आज और दिनों की अपेक्षा कुछ अधिक भीड़ थी. महाराजजी का उपदेश सुनने दूरदूर से आए भक्तों की भीड़ को नियंत्रित करने के लिए आयोजकों के साथसाथ शहर की कई स्वयंसेवी संस्थाएं अपना योगदान दे रही थीं. कतार में भक्ति भाव से बैठे भक्तों के बीच महाराजजी की फोटो थाल में सजा कर कई व्यक्ति घूम रहे थे जिस में भक्त बडे़ श्रद्धाभाव से भेंट चढ़ा रहे थे.

महाराजजी के इस सातदिवसीय कार्यक्रम का आज अंतिम दिन है. पंडाल के बाहर महाराजजी की संस्था के कार्यकर्ता उन के प्रवचनों, गीतों के कैसेट्स, किताबें और पूजा से संबंधित सामग्री के स्टाल लगाए हुए थे. साथ ही प्रायोजक दुकानदारों की दुकानें भी सजी हुई थीं जिन मेें कई प्रकार के शर्बतों के अलावा आंवला, सेब व बेल की मिठाइयां एवं चूर्ण के साथ खानेपीने की अन्य वस्तुएं भी बिक रही थीं. आज उपदेश के बाद महाराजजी अपने भक्तों की व्यक्तिगत समस्याओं को सुनने के लिए कुछ समय देने वाले थे.

कार्यक्रम के अंतिम दिन महाराजजी का यह व्यक्तिगत परिचय भक्तों को एक अभूतपूर्व  संतुष्टि देता था. इस कारण भी महाराजजी खासतौर से चर्चित थे. किंतु भक्तों की लंबी कतार एवं समय की कमी के चलते महाराजजी केवल 50 व्यक्तियों को ही समय दे पाते थे. अपनी समस्याओं का समाधान एवं आशीर्वाद लेने के लिए लोग बाहर एक सेवक को अपना नामपता लिखवा रहे थे.

उपदेश एवं भजन समाप्त हुए. महाराजजी स्टेज के पीछे बने छोटे से कमरे में चले गए. वहां एक के बाद एक लोग आते और महाराजजी को विस्तार से अपनी समस्याएं बताते. महाराजजी उन को एक गुरुमंत्र धीमे से बताते और कुछ पुडि़याएं देते. उन के पास ही एक बड़ा सा चांदी का थाल रखा हुआ था जिस में एक लाल रंग के वस्त्र के ऊपर 100 और 500 रुपए के कुछ नोट रखे हुए थे. भक्तों के लिए इतना इशारा ही काफी था.

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‘‘महाराजजी,’’ कहते हुए एक स्त्री आते ही उन के चरणों में गिर पड़ी और सुबकसुबक  कर रोने लगी.

‘‘उठो बेटी, क्या बात है,’’ कहते हुए महाराजजी ने उसे स्वयं सहारा दे कर उठाया और अपने पास बिठा लिया. महाराजजी का स्पर्श पाते ही वह बेहद भावुक हो उठी.

‘‘10 वर्ष हो गए हैं विवाह को, 2 बेटियां हैं, बेटे की चाहत लिए आप के पास आई हूं. आप तो जानते ही हैं कि बेटा न होने पर समाज में कैसेकैसे ताने सुनने पड़ते हैं और ससुराल में प्रताडि़त किया जाता है, जैसे सारा दोष मेरा ही हो…बड़ी उम्मीद ले कर आई हूं आप के पास,’’ इतना कहतेकहते वह फिर बिलखने लगी.

‘‘शांत हो जाओ, बेटी. बेटाबेटी होना इनसान के पूर्व जन्मों का फल है. हमारे परिवारों में घोर अज्ञानता है इसीलिए यह दोष बेटियों के सिर मढ़ दिया जाता है. तुम चिंता मत करो. मैं कोशिश करता हूं. तुम्हारे भी दिन फिरेंगे.’’

‘‘अब तो बस, आप का ही सहारा है,’’ वह साड़ी के आंचल से आंसू पोंछते हुए बोली.

‘‘मैं एक मंत्र और उस के जाप की विधि के साथ तुम्हें कुछ पुडि़या दे रहा हूं. सेवक से सब समझ लेना. लाभ अवश्य होगा. अगली बार पति की फोटो भी साथ में लाना. मैं सम्मोहन प्रक्रिया से उन का मत बदलने का प्रयत्न करूंगा.’’

स्त्री ने पुन: महाराजजी के चरणस्पर्श किए और 101 रुपए थाल में भेंट चढ़ा कर बड़ी आशा लिए वहां से चली गई.

ठीक 5 बजते ही महाराजजी एक बड़ी सी विदेशी कार में बैठ कर अपने आश्रम की तरफ चल दिए. उन के पीछेपीछे कारों का लंबा काफिला था जिन में शायद उन के अंतरंग सेवक, विशिष्ट व्यक्ति और विदेशी अनुयायी बैठे थे.

अपने निजी कक्ष में कुछ देर विश्राम करने के बाद महाराज आश्रम के हाल में आ गए. यहां केवल उन के बेहद खास सेवक ही मौजूद थे. उन के आते ही सब ने उठ कर उन का स्वागत किया और महाराजजी के आसन पर बैठते ही वे सब सामने की कुरसियों पर बैठ गए.

‘‘महाराजजी,’’ कहते हुए रमेश भाई बोले, ‘‘प्रीत नगर कैंसर सोसायटी आप का चारदिवसीय कार्यक्रम रखना चाहती है. इस के लिए सोसायटी के लोग 50 हजार रुपए का चेक भी दे गए हैं किंतु अंतिम स्वीकृति तो आप को ही देनी है. आप की आज्ञा हो तो…’’

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‘‘सिर्फ 50 हजार रुपए रमेश भाई,’’ चौंक कर महाराजजी ने पूरे व्यावसायिक अंदाज में कहा, ‘‘प्रतिदिन 50 हजार से कम तो किसी प्रोग्राम के मत लो. आप को मालूम होना चाहिए कि लोग मेरे नाम का उपयोग कर के कितना धन कमाते हैं. पिछले महीने जयपुर में जो तीनदिवसीय कार्यक्रम का आयोजन हुआ था, उस में संस्था ने पूरे 6 लाख रुपए कमाए थे. लोगों की श्रद्धा और भावनाओं को कैसे भुनाया जाता है ये संस्थाएं अच्छी तरह जानती हैं…फिर हम लोग पीछे क्यों हटें.’’

‘‘जी महाराज, मैं सारी बातें फिर से तय कर के आप को बताता हूं,’’ कहते हुए रमेश भाई बैठ गए.

‘‘आज की व्यवस्था कैसी रही मोहनदासजी,’’ महाराजजी ने दूसरे की तरफ देख कर मुसकराते हुए पूछा.

‘‘और दिनों के मुकाबले आज काफी अच्छी थी. आप के थाल से 19 हजार, पुस्तकों की बिक्री से 7,800, कैसेट एवं सीडी से 18 हजार की राशि प्राप्त हुई है. महाराजजी, आजकल घरों में महात्माओं के बडे़बडे़ फोटो लगाने का प्रचलन बढ़ रहा है. कई भक्त इस बारे में मुझ से पूछ चुके हैं,’’ मोहनदास बोले.

‘‘यह भी उत्तम विचार है. 6 हजार से नीचे तो मेरी फोटो की कीमत होनी ही नहीं चाहिए और 10 हजार रुपए देने वाले को मैं खुद फोटो भेंट करूंगा.’’

इस तरह के नएनए तरीकों से अतिरिक्त धन जुटाने की सलाह समिति के सदस्य दे रहे थे.

कुछ देर बाद सभी सदस्य उठ कर चले गए. महाराजजी के साथ उन के 3 परम शिष्य वहीं बैठे रहे. आज खासतौर से इन शिष्यों ने कुछ अंतरंग विषयों पर चर्चा करने के लिए महाराजजी से अनुनयविनय की थी.

‘‘गुरुजी, कई दिनों से एक बात हम लोगों को विचलित कर रही है. वैसे हम उसे कहना नहीं चाहते थे पर लोगों का मुंह भी कैसे रोकें इसलिए मजबूर हो कर आप से पूछना पड़ रहा है. आप के नाम का यश और कीर्ति निरंतर फैलती जा रही है, भक्तों की भी निरंतर वृद्धि हो रही है, किंतु…’’

‘‘किंतु क्या? शंका एवं समस्या क्या है?’’ महाराज बोले, ‘‘आप को इतनी बड़ी भूमिका बांधनी पड़ रही है.’’

‘‘इस वंश बेल को संभालने के लिए भी तो कोई चाहिए…यदि एक बेटा होता तो…आप तो जानते ही हैं कि कई बार लोग कैसे बेहूदे सवाल करते हैं. कहते हैं, यदि बेटा होने का कोई मंत्र या दवा होती तो महाराज का अब तक बेटा क्यों नहीं हुआ. महाराज, इस से पहले कि आप की छवि धूल में मिल जाए कुछ तो कीजिए. आप समझ रहे हैं न, मैं क्या कह रहा हूं.’’

महाराज निशब्द हो गए…जैसे किसी ने उन की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो. बात सच भी थी. आखिर इतनी बड़ी संस्था को चलाने के लिए कोई तो अपना होना चाहिए था. महाराज की बेटे की चाहत में पहले से ही 3 बेटियां थीं और इस उम्र में बेटा पैदा करने का रिस्क वह लेना नहीं चाहते थे. महाराजजी देर तक शून्य में देखते रहे फिर कुछ सोच कर बोले, ‘‘सोचा तो मैं ने भी बहुत है पर अब क्या हो सकता है?’’

‘‘क्यों नहीं हो सकता, महाराज. आप की उम्र ही अभी क्या है. फिर पहले के ऋषिमुनि भी तो यही तरीका अपनाते थे.’’

‘‘कौन सा तरीका?’’ सबकुछ जानते हुए भी अनजान बन कर पूछा महाराजजी ने.

‘‘दूसरा विवाह. आप का काम भी हो जाएगा और लोगों का मुंह भी बंद हो जाएगा.’’

महाराज धीरे से मुसकराए. दूसरे विवाह की कल्पना मात्र से ही वह पुलकित हो उठे थे इसलिए खुल कर मना भी न कर सके.

बेटा न होने का सारा दोष महाराजजी ने अपनी पत्नी सावित्री के सिर मढ़ दिया था. यही नहीं, बेटा पाने की चाह में 2 बार सावित्री का वह गर्भपात भी करा चुके थे.

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अब फिर शिष्यों के कहने पर उन की सोई चाहत फिर से बलवती हो उठी. एक तो बेटे की चाहत और उस से भी बड़ी खूबसूरत, छरहरी अल्प आयु की पत्नी पाना. महाराज का रोमरोम खिल उठा.

शिष्यों ने महाराज को कई सुंदर युवतियां दिखाईं और उन में से एक को महाराज ने पसंद कर लिया.

महाराज के शिष्य इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि यह विवाह उन की प्रतिष्ठा एवं चरित्र पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है. इसलिए वे कोई ठोस धरातल और उपयुक्त मौके की तलाश में थे और वह मौका उन्हें जल्द मिल गया.

शिष्यों ने पहले तो इस बात की चर्चा फैला दी कि एक शराबी पति ने अपनी पत्नी पर लांछन लगा कर उसे घर से निकाल दिया है. बेचारी अनाथ, बेसहारा लड़की अब महाराज की शरण में आ गई है. इस के अलावा वह गर्भवती भी है वरना तो उसे नारी निकेतन भेज देते.

पूर्वनियोजित ढंग से शिष्यों ने एक सभा के दौरान महाराज से पूछा कि अब इस स्त्री का भविष्य क्या है?

‘‘इस शरण में आई अबला का आप लोगों में से कोई हाथ थाम ले तो मैं समझूंगा कि मेरा कार्य सार्थक हो गया,’’ महाराज ने बेबस हो कर याचना की.

‘‘ऐसी स्त्री का कौन हाथ पकडे़गा. यदि यह गर्भवती न होती तो शायद कोई सोचता भी.’’

‘‘फिर मैं समझूंगा कि मेरी वाणी और विचारों का आप लोगों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. हमें पुरानी रूढि़यां तोड़ कर नए समाज का निर्माण तो करना ही है और हम वचनबद्ध भी हैं.’’

‘‘कहना बहुत सरल है, महाराज, पर कौन देगा ऐसी स्त्री को सहारा? क्या आप दे सकेंगे? भीड़ में से एक स्वर तेजी से उभरा.

सभा में खामोशी छा गई. कई सौ निगाहें उस व्यक्ति पर जा टिकीं.

उस ने फिर अपना प्रश्न दोहराया, ‘‘कहिए महाराज, आप चुप क्यों हैं?’’

‘‘हां, मैं इसे अपनाने के लिए तैयार हूं,’’ कह कर महाराज ने सब को हैरानी में डाल दिया.

चारों तरफ महाराज की जयजयकार होने लगी. महाराज ने देखा, सबकुछ वैसा ही हुआ जैसा उन्होंने चाहा था.

सावित्री को जब इस बात का पता चला तो वह बेहद नाराज हुई. घर में तनाव का वातावरण पैदा हो गया. पर महाराज ने इस ओर ध्यान न दे कर उस स्त्री को दूसरे आश्रम में स्थान दे दिया. सावित्री की नाराजगी को दूर करने के लिए महाराज ने एक दिन विशाल सभा में उस के त्याग और प्रेम की बेहद प्रशंसा की और बोले कि यदि सावित्री का साथ न होता तो शायद मैं कभी इस स्थान पर न पहुंचता. और उस दिन के बाद सावित्री को ‘गुरु मां’ का दरजा मिल गया.

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समय चक्र तेजी से घूमने लगा. उधर गुरु मां स्थानस्थान पर सभाओं और समारोहों का उद्घाटन करने में व्यस्त रहने लगीं, इधर महाराजजी अपनी नई दुलहन सुनीता के साथ अति व्यस्त रहने लगे. एक दिन उन्हें यह जान कर बेहद खुशी हुई कि पत्नी सुनीता का पांव भारी है.

महाराजजी खुद सुनीता को ले कर एक प्राइवेट नर्सिंग होम में गए. डाक्टर साहब उन के शिष्य थे इसलिए व्यक्तिगत रूप से उस का चेकअप करने लगे. बात जब अल्ट्रासाउंड की आई तो डाक्टर साहब ने उन्हें डेढ़ माह बाद आने को कहा.

डेढ़ माह महाराजजी के लिए जैसे डेढ़ युग के बराबर गुजरा. निर्धारित दिन को महाराज अपनी लंबी विदेशी गाड़ी में खुद सुनीता को ले कर उसी डाक्टर के पास पहुंचे. अल्ट्रासाउंड के बाद महाराज और डाक्टर साहब दूसरे कमरे में चले गए. सुनीता बाहर बैठी थी, तभी उस का ध्यान अचानक अपनी चेन और कंगनों पर गया जो उस ने मशीन के पास उतारे थे. वह तेजी से भीतर गई तो उन दोनों की बातें सुन कर क्षण भर के लिए वहां रुक गई.

‘‘महाराज, यह बात तो आप भी जानते हैं कि लिंगभेद बताना गलत है फिर भी आप इतना आग्रह कर रहे हैं तो बता दूं कि आप के घर लक्ष्मी का प्रवेश हो रहा है.’’

‘‘ओह,’’ कहते हुए महाराज निढाल हो गए.

‘‘क्या हुआ, महाराज? सब ठीक तो है न,’’ डाक्टर साहब ने तुरंत खडे़ हो कर पूछा, ‘‘आप तो अंतर्यामी हैं. आप की भी यही कामना रही होगी.’’

‘‘अब क्या बताऊं आप को,’’ महाराज बेहद उदास स्वर में बोले, ‘‘मेरी पहले से ही 3 बेटियां हैं.’’

‘‘परंतु महाराज, आप तो लोगों की मनोकामनाएं पूरी करते हैं. कितने ही भक्तों ने आप के आशीर्वाद से पुत्र प्राप्त किए हैं और आप अपने लिए कुछ न कर पाए, यह मैं नहीं मानता,’’ डाक्टर ने अपनी शंका सामने रखी.

‘‘डाक्टर, यह तो आप भी जानते हैं कि मंत्रों, टोनेटोटकों से कुछ नहीं होता. इन से ही यदि पुत्र प्राप्त होते तो आज मेरे घर बेटियां न होतीं. मैं तो बस, विश्वास बनाए रखता हूं. कोई मनोरथ सिद्ध हो जाता है तो श्रेय मुझ को जाता है अन्यथा कर्मों का वास्ता दे कर मैं चुप हो जाता हूं.’’

डाक्टर साहब बड़ी हैरानी से यह सब बातें सुनते रहे. उन्हें महाराज का यह बदला हुआ रूप बड़ा अजीब लगा.

‘‘डाक्टर, इस कन्या के आने से मेरे घर में काफी रोष उत्पन्न हो जाएगा. आप इस का तत्काल अबार्शन कर दीजिए, नहीं तो भक्तों का मुझ पर से विश्वास ही उठ जाएगा.’’

‘‘यह क्या कह रहे हैं आप, महाराज. इस स्त्री का यह पहला बच्चा है और हम पहले बच्चे का गर्भपात नहीं करते. मैं तो कहूंगा कि…’’

‘‘आप अपनी राय अपने पास ही रखिए,’’ महाराज तिलमिला उठे, ‘‘मेरे पास तुम जैसे शिष्यों की कमी नहीं है. यह काम तो मैं कहीं भी करा लूंगा.’’

-क्रमश:

रात्रिभोज

विधानसभा चुनावों के दौरान राजा बाबू ने दद्दा साहब को ऐसा करारा झटका दिया कि वह राजनीति की बिसात पर एक पिटा मोहरा बन कर रह गए.

‘‘दद्दा साहब, एक बुरी खबर है,’’ भूषण ने हांफते हए जनतांत्रिक दल के प्रदेश अध्यक्ष राजनारायण उर्फ दद्दा साहब के कक्ष में प्रवेश किया.

‘‘क्या हुआ?’’ दद्दा साहब ने फाइल से सिर ऊपर उठाते हुए पूछा था.

‘‘कासिमाबाद में रामाधार बाबू की जमानत जब्त हो गई है और राजा बाबू भारी बहुमत से जीत गए हैं,’’ भूषण ने अपनी बात पूरी की थी.

‘‘तो क्या हो गया? चुनाव में हारजीत तो लगी ही रहती है. वैसे भी रामाधार को टिकट देना दल का दायित्व था तो उन का और उन के समर्थकों का दायित्व था चुनाव जीतना.’’

‘‘लेकिन दद्दा, कौशल बाबू अपने दामाद की हार का सारा दोष हम लोगों के सिर मढ़ देंगे. जबकि मैं आप को विश्वास दिलाता हूं कि जनतांत्रिक दल के कार्यकर्ताओं ने इस चुनाव के दौरान कासिमाबाद में अपनी पूरी शक्ति झोंक दी थी.’’

‘‘राजनीति में यह उठापटक तो चलती ही रहती है. यह सब भूल कर आगे की सोचो. इस बार विधानसभा में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत मिलने की संभावना न के बराबर है. शीघ्र ही सरकार बनाने की जोड़तोड़ शुरू हो जाएगी इसलिए उधर ध्यान दो,’’ दद्दा ने भूषण के उत्साह पर शीतल जल छिड़क दिया था.

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भूषण तो चला गया पर दद्दा को आंदोलित कर गया. उन्हीं का चेला उन्हें ऐसी पटखनी देगा उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था. इसी के साथ कुछ दिन पहले की घटनाएं उन के दिमाग में किसी चलचित्र की तरह आकार ग्रहण करने लगी थीं :

भूषण और राजन के साथ टिकट बंटवारे को ले कर विचारविमर्श में दद्दा व्यस्त थे कि राजा बाबू के मुख से अपने नाम का संबोधन सुन कर वह चिहुंके थे और सिर को ऊपर उठा कर देखा था.

‘क्या है, राजा? देख नहीं सकते क्या कि मैं इस समय कितना व्यस्त हूं?’

‘दद्दा साहब, 8 घंटे हो गए, आप के कपाटों को अपलक निहारते हुए पर आप का सचिव नीनू मिलने ही नहीं दे रहा था,’ राजा बाबू ने अनुनय की थी.

‘राजा, नीनू बेचारा तो मेरे ही आदेश का पालन कर रहा है. चुनाव सिर पर हैं इसलिए व्यस्तता की चरम सीमा है. खानेपीने तक को समय नहीं मिलता. कुछ देर और प्रतीक्षा करो तुम्हारी बारी भी आएगी,’ फिर कुछ सोच कर बोले, ‘चलो जाने दो. भूषण और राजन तुम दोनों थोड़ी देर के लिए बाहर चले जाओ. पहले राजा को निबटा देता हूं. दूसरे विषयों पर

बाद में विचारविमर्श करेंगे. आ राजा. बैठ, बोल, क्या बात है?’

‘क्या बोलूं दद्दा, मेरे बोलने को बचा ही क्या है. पिछले 15 वर्षों से जनतांत्रिक दल में हूं पर खुद को इतना अपमानित कभी अनुभव नहीं किया.’

‘ऐसा क्या हो गया राजा?’ दद्दा ने अनजान बनने का नाटक किया था.

‘आप तो सब जानते हैं. मैं अपने लिए कुछ नहीं मांग रहा पर कासिमाबाद में 90 प्रतिशत से अधिक मेरे समर्थक हैं. उन्हें जब से मुझे टिकट न देने के दल के फैसले के बारे में पता चला है, वे निराश और उद्वेलित हो गए हैं. न जाने कितने घरों में कल से चूल्हा नहीं जला है. मेरे समर्थक तो खुद आप के पास धरना देने आने वाले थे पर मैं ने उन्हें समझाबुझा कर शांत किया और कहा कि मैं स्वयं आप से बात करूंगा.’

‘देख राजा, अपने अनुयायियों पर नियंत्रण रखना तेरा काम है. कासिमाबाद का टिकट रामाधार बाबू को दे दिया गया है. उस में अब कोई फेरबदल नहीं हो सकता. उस क्षेत्र में दल की जीत का भार तेरे ही कंधों पर है…’

‘रामाधार, कौशल बाबू जैसे कद्दावर नेता के दामाद हैं. कौशल बाबू का दल के लिए त्याग और समर्पण कौन नहीं जानता.’

‘दद्दा, मुझे टिकट नहीं मिला तो कासिमाबाद में दल के लिए समस्या हो सकती है.’

‘दद्दा को धमकी देता है क्या रे? आयु क्या है रे तेरी?’

‘जी, 35 वर्ष.’

‘तू 35 का है और मैं 40 सालों से राजनीति कर रहा हूं. मैं ने कभी तेरी आयु में विधायक या सांसद बनने के स्वप्न नहीं देखे पर आजकल के छोकरे दल के सदस्य बनते ही मंत्री बनना चाहते हैं. अच्छे कार्यकर्ता के नाते तुरंत रामाधार के चुनाव अभियान की तैयारी शुरू कर,’ दद्दा साहब ने आदेश दे दिया था.

पर उत्तर में राजा बाबू अपने स्थान से हिले तक नहीं थे. उन की आंखों से टपाटप आंसू झरने लगे थे. देर तक उन के हिलते कंधों और थरथराती सिसकियों के स्वर से तो दद्दा साहब भी एक क्षण को सहम गए थे, ‘यह क्या बचपना है राजा, धीरज धर धीरज. मैं हूं ना तेरे हितों की रक्षा करने को. सब्र का फल सदा मीठा होता है. अपने समय की प्रतीक्षा कर…अरे, ओ रघु,’ उन्होंने सेवक को पुकारा था.

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‘जी सरकार,’ रघु दौड़ा आया था.

‘पानी ले कर आ और फिर 2 प्याले गरम चाय ले आ.’

रघु आननफानन में पानी ले आया था. दद्दा ने बड़े प्यार से अपने हाथों से राजा को पानी पिलाया और देर तक उस की पीठ पर हाथ फेरते रहे थे.

अब तक रघु चाय रख गया था.

‘देख बेटा, राजनीति में बडे़बड़े समझौते करने पड़ते हैं. दल को जोड़े रखने के लिए कुछ अप्रिय फैसले भी लिए जाते हैं. पर दिल वाला वह है जो इन संकटों का हंसते हुए सामना करे,’  दद्दा साहब अपने उपदेशों का सिलसिला आगे बढ़ाते उस से पहले ही एक ही घूंट में चाय का कप खाली कर राजा बाबू बाहर निकल गए थे.

उधर राजा बाबू के समर्थक कुछ भी समझने को तैयार नहीं थे. उन्होंने दोटूक निर्णय सुना दिया था कि वे राजा बाबू के  अलावा किसी दूसरे को अपना प्रतिनिधि नहीं चुनेंगे.

कई दिनों तक धरनोंप्रदर्शनों का सिलसिला चलता रहा, पर उच्च कमान को न पसीजना था न पसीजी. नाराज दद्दा साहब ने राजा बाबू को बुलावा भेजा था. राजा बाबू जब दद्दा से मिलने पहुंचे तो वह क्रोध की प्रतिमूर्ति बने बैठे थे.

‘क्यों रे राजा, बहुत बड़ा नेता बन गया है क्या?’ वह छूटते ही बोले थे.

‘कैसी बातें कर रहे हैं दद्दा साहब, आप की बात को टालने का साहस मैं तो क्या, दल के बड़े दिग्गज भी नहीं कर सकते.’

‘तो इन धरनों प्रदर्शनों का क्या मतलब है?’

‘वह मेरी नहीं मेरे समर्थकों की गलती है. मैं ने उन्हें लाख समझाया पर वे लोग कुछ सोचनेसमझने को तैयार ही नहीं हैं.’

‘ठीक है, तो इस बार उन्हें अच्छी तरह से समझा देना कि मुझे ऐसी अनुशासनहीनता से निबटना भली प्रकार आता है,’ दद्दा ने धमकी दी थी.

‘दद्दा, आप भी मुझे ही दोषी ठहरा रहे हैं. आप ने ही मुझे टिकट दिलवाने का आश्वासन दिया था. अब टिकट न मिलने से समर्थकों में गहरी निराशा है दद्दा.’

‘बात को समझा कर राजा, कौशल बाबू को नाराज नहीं किया जा सकता. इस बार तू ने रामाधार बाबू को चुनाव जितवा दिया तो दल तुझे सदा याद रखेगा. तुझे तेरी सेवाओं के  बदले पुरस्कृत भी किया जाएगा. अब निर्णय तुझे ही लेना है.’

‘जी दद्दा,’ राजा बाबू बोले थे.

‘क्या जी जी लगा रखा है. बंद करो ये धरनेप्रदर्शन और कमर कस कर मैदान में कूद पड़ो,’ दद्दा साहब ने मानो निर्णय सुनाया था.

लेकिन दूसरे दिन जब राजा बाबू ने स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने की घोषणा की थी तो दद्दा तिलमिला कर रह गए थे. घंटों अपने कमरे के  बाहर राजा को प्रतीक्षा करवाने वाले दद्दा साहब ने राजा बाबू को बारबार निमंत्रण भेजा था पर वह नहीं आए थे.

राजा बाबू की चुनौती को स्वीकार कर कौशल बाबू ने अपने दामाद रामाधार के साथ चुनाव क्षेत्र में ही डेरा डाल दिया था. दल की मशीनरी का साथ होने पर भी रामाधार की जमानत जब्त हो गई थी. राजा बाबू को पहले ही जनतांत्रिक दल से निष्कासित कर दिया गया था.

जब ढोलनगाड़ों की थाप पर राजा बाबू का विजय रथ जनतांत्रिक दल के कार्यालय के सामने से निकला था, दल के नेतागण मन मसोस कर रह गए थे.

सरकार बनाने की कोशिश शुरू होते ही स्वतंत्र विधायकों की बन आई थी. दोनों पक्षों में कांटे की टक्कर थी, अत: हर पक्ष उन्हें अधिक से अधिक प्रलोभन देना चाहता था.

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दद्दा साहब राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी थे. कब कैसे पैंतरा बदला जाए वह भली प्रकार जानते थे. दल के  दिग्गजों ने जब सातों स्वतंत्र विधायकों को रात्रिभोज के लिए बुलाया तो उन सभी ने राजा बाबू को अपना नेता घोषित कर दिया था.

बातचीत का दौर प्रारंभ हुआ तो सातों को तरहतरह के प्रलोभन दिए जाने लगे.

‘‘आज्ञा हो तो मैं भी कुछ कहूं,’’ स्वतंत्र गुट की ओर से राजा बाबू बोले थे.

‘‘हां, बोलो बेटा, हमें भी तो पता चले कि आप लोग चाहते क्या हैं,’’ दद्दा साहब बोले थे.

‘‘अवश्य बताएंगे पर पहले भोजन कर लीजिए. इतना अच्छा भोजन सामने है, ऐसे में रंग में भंग डालने का हमारा कोई इरादा नहीं है,’’ स्वतंत्र विधायकों में से एक बंसी बाबू बोले थे.

हासपरिहास के बीच रात्रिभोज समाप्त हुआ था. स्वादिष्ठ आइसक्रीम के साथ सभी सोफों पर जा विराजे थे.

‘‘चलिए, अब काम की बात कर ली जाए,’’ कौशल बाबू और दद्दा समवेत स्वर में बोले थे, ‘‘क्या मांग है आप की?’’

‘‘हमारी तो एक ही मांग है. मुझे मुख्यमंत्री बनाया जाए और मेरे अन्य मित्रों को मंत्रिमंडल में स्थान मिले,’’ राजा बाबू गंभीर स्वर में बोले थे.

‘‘क्या?’’ जनतांत्रिक दल के दिग्गज नेताओं को मानो सांप सूंघ गया था.

‘‘तुम जानते हो न राजा बेटे कि तुम क्या कह रहे हो?’’ अंतत: मौन दद्दा साहब ने तोड़ा था.

‘‘जी हां, भली प्रकार से जानता हूं.’’

‘‘देखो राजा, दल में अनेक वयोवृद्ध नेताओं को छोड़ कर तुम्हें मुख्यमंत्री बनाएंगे तो दल में असंतोष फैल जाएगा. वैसे भी यह क्या कोई आयु है मुख्यमंत्री बनने की? इस गरिमापूर्ण पद पर तो कोई गरिमापूर्ण व्यक्तित्व ही शोभा देता है,’’ कौशल बाबू ने अपनी ओर से प्रयत्न किया था.

‘‘मैं ने आप को अपनी शर्तों के बारे में सूचित कर दिया है. अब गेंद आप के पाले में है. जैसे चाहें खेल को संचालित करें,’’ बंसी बाबू बोले थे.

‘‘राजा, कुछ देर के लिए मैं तुम से एकांत में विचारविमर्श करना चाहता हूं,’’ दद्दा साहब ने राजा बाबू को साथ के कक्ष में बुलाया था.

‘‘आप को जो कहना है हम सब के सामने कहिए. हम सब एक हैं. कहीं कोई दुरावछिपाव नहीं है,’’ बंसी बाबू ने राजा को रोकते हुए कहा था.

‘‘ठीक है, हम आपस में विचारविमर्श कर के आते हैं. फिर आप को सूचित करेंगे,’’ कहते हुए दद्दा साहब, कौशल बाबू और जनतांत्रिक दल के अन्य दिग्गज नेता उठ कर साथ के कमरे में चले गए थे.

‘‘समझता क्या है अपनेआप को? कल तक तो दरी बिछाने और लोगों को पानी पिलाने का काम करता था, आज मुख्यमंत्री बनने का स्वप्न देखने लगा है?’’ कौशल बाबू बहुत क्रोध में थे.

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‘‘मत भूलिए कि सत्ता की चाबी अब उन के हाथ में है,’’ दद्दा साहब ने समझाया था.

‘‘इस का अर्थ यह तो नहीं है कि सारा राज्य इन नौसिखियों के हवाले कर दें.’’

‘‘सोचसमझ कर निर्णय लीजिए. नहीं तो गणतांत्रिक दल वाले तैयार बैठे हैं इन्हें लपकने को,’’ अंबरीष बाबू बोले थे.

‘‘निर्णय लेने को अब बचा ही क्या है? या तो उन की शर्तें माननी हैं या नहीं माननी हैं,’’ कौशल बाबू झुंझला गए थे.

बहुत बेमन से सभी दिग्गज नेता एकमत हुए थे. शायद वे समझ गए थे कि सत्ता में बने रहने का यही एकमात्र तरीका था.

दूसरे दिन जब एक साझी प्रेस कानफें्रस में जनतांत्रिक दल के स्वतंत्र विधायकों से गठबंधन की घोषणा की गई और राजा बाबू के नाम की घोषणा भावी मुख्यमंत्री के रूप में हुई तो सभी आश्चर्यचकित रह गए.

राजा बाबू ने कैमरों की फ्लैश- लाइटों के बीच दद्दा साहब के पैर छू कर आशीर्वाद लिया तो दद्दा साहब ने उन्हें गले से लगा लिया. वह समझ गए थे कि परिवर्तन की आंधी को रोकना अब उन के वश में नहीं था.    द्य

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