बीड़ीसिगरेट के धुएं में दम तोड़ती जिंदगी

आप जानते हैं कि बीड़ीसिगरेट पीने के चलते भारत में हर साल 10 लाख लोगों की जानें चली जाती हैं? नैशनल फैमिली हैल्थ सर्वे 4 के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2015 में 13 राज्यों में कराए गए सर्वे में यह बात सामने आई कि तंबाकू खाने वालों की तादाद 47 फीसदी है.

दुनियाभर में तकरीबन 60 लाख लोग हर साल तंबाकू की बलि चढ़ते हैं, जिन में से 10 फीसदी यानी 6 लाख लोग नौनस्मोकर होने के बावजूद पैसिव स्मोकिंग का शिकार होते हैं.

नयति सुपर स्पेशलिटी अस्पताल, मथुरा द्वारा कराई गई एक रिसर्च के मुताबिक, अकेले पश्चिमी उत्तर प्रदेश की तकरीबन 21 फीसदी आबादी तंबाकू की लत की शिकार है. यह भी पाया गया है कि 45 साल या इस से ज्यादा की उम्र के लोगों में तंबाकू का प्रयोग आम है, जबकि नौजवान पीढ़ी धूम्रपान की गिरफ्त में है. धूम्रपान करने वाली 55 फीसदी आबादी की उम्र 25 से 45 साल के बीच पाई गई.

दिल्ली के बीएलके सुपर स्पेशलिटी अस्पताल की डाक्टर तपस्विनी शर्मा के मुताबिक, तंबाकू की लत ओरल कैविटी, कंठ नली, ग्रास नली, पेनक्रियाज, आंत और किडनी व फेफड़ों के कैंसर की वजह बनती है.

तंबाकू की लत का सीधा संबंध सभी तरह के कैंसर से होने वाली तकरीबन 30 फीसदी मौतों से होता है. बीड़ीसिगरेट पीने वाले ऐसा नहीं करने वालों की तुलना में औसतन 15 साल पहले मौत के मुंह में चले जाते हैं. सिगरेट, पाइप, सिगार, हुक्का पीने और तंबाकू चबाने व सूंघने जैसे तंबाकू सेवन के दूसरे तरीके खतरनाक होते हैं.

तंबाकू में मौजूद निकोटिन दिमाग में डोपामाइन व एंड्रोफाइन जैसे कैमिकलों का लैवल बढ़ा देता है, जिस से इस की लत लग जाती है. ये कैमिकल मजे का एहसास कराते हैं और इसलिए तंबाकू पीने या चबाने की तलब बढ़ जाती है. अगर कोई शख्स इस लत को छोड़ना भी चाहता है, तो उसे चिड़चिड़ाहट, बेचैनी, तनाव और एकाग्रता की कमी जैसी परेशानियों से गुजरना पड़ता है.

तंबाकू और तंबाकू के धुएं में तकरीबन 4 हजार तरह के कैमिकल पाए जाते हैं, जिन में से 250 कैमिकल जहरीले होते हैं और 60 केमिकल कैंसर के होने की वजह बनते हैं.

तंबाकू का धुआं खून की नलियों को सख्त बना देता है, जिस से हार्ट अटैक का खतरा बढ़ जाता है. इस में कार्बनमोनोआक्साइड तत्त्व भी होता है, जो खून में आक्सिजन की मात्रा घटा देता है.

आमतौर पर सिगरेट नहीं पीने वालों के मुकाबले सिगरेट पीने वालों में कोरोनरी आर्टरी संबंधी बीमारियों से होने वाली मौत की दर 70 फीसदी ज्यादा रहती है.

बीड़ीसिगरेट पीने की लत के चलते औरतें समय से पहले ही बच्चे को जन्म दे देती हैं या उन्हें बारबार बच्चा गिरने की समस्या से जूझना पड़ता है. साथ ही, मरा हुआ बच्चा पैदा होना या बच्चे के कम वजन होने का खतरा रहता है.

बीड़ीसिगरेट पीने के चलते मर्दों में फेफड़े के कैंसर के 90 फीसदी मामले हैं, जबकि औरतों में 80 फीसदी मामले देखे गए हैं. तंबाकू का धुआं नौनस्मोकरों खासकर बच्चों के लिए भी खतरनाक होता है.

society

बीड़सिगरेट पीने वाला कोई शख्स न सिर्फ खुद की सेहत को खतरे में डालता है, बल्कि अपने आसपास मौजूद लोगों, मसलन काम करने वालों और परिवार के दूसरे सदस्यों की जिंदगी भी खतरे में डाल देता है.

बीड़ीसिगरेट पीने की लत अमूमन किशोरावस्था में ही लगती है और जवान होतेहोते लोग इस के आदी हो जाते हैं. इस की लत की चपेट में आने वालों को इस बात का एहसास नहीं होता कि वे क्या कर रहे हैं या किस चीज का इस्तेमाल कर रहे हैं.

ऐसे छोड़ें तंबाकू की लत

अगर एक बार किसी को तंबाकू की लत लग जाती है, तो इसे छोड़ पाना बहुत ही मुश्किल हो जाता है. उसे सिरदर्द, नींद न आना, तनाव, बेचैनी, हाथपैर कांपने और भूख न लगने की शिकायत या खून की उलटी होने जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है.

लेकिन कुछ तरीके ऐसे हैं, जिन को अपनाने से इस लत से छुटकारा पाने में मदद मिल सकती है:

– तंबाकू छोड़ने के लिए सब से जरूरी है कि इसे छोड़ने का पक्का फैसला करें.

– तंबाकू एक झटके में छोड़ना मुश्किल है. धीरेधीरे मात्रा कम करते हुए छोड़ें.

-अपने दोस्तों, परिचितों व रिश्तेदारों को भी बता दें कि आप ने नशा छोड़ दिया है और वे आप को नशा करने के लिए मजबूर न करें.

-अपने पास सिगरेट, तंबाकू, गुटका, माचिस वगैरह रखना छोड़ दें.

-जब आप खुद को सारा दिन मसरूफ रखते हैं, तो आप का ध्यान तंबाकू की तरफ जाएगा ही नहीं.

-अच्छा खानपान और समय पर आराम जैसी बातों का खयाल रखें.

-नशा करने वाले दोस्तों की संगत छोड़ दें.

-तंबाकू छोड़ने के लिए आप बिना शुगर वाली चुइंगम चबाते रहें, फिर आप को तंबाकू की तलब नहीं लगेगी.

-जब भी सिगरेट पीने की इच्छा हो, तो जीभ पर थोड़ा नमक रख लें.

डाक्टर तपस्विनी शर्मा कहती हैं कि बीड़ीसिगरेट पीने से छुटकारा पाने के लिए दवाएं और व्यवहार थैरैपी भी इलाज करने का एक रास्ता हो सकता है. जागरूकता बढ़ाने के लिए एक मजबूत एंटीस्मोकिंग मीडिया कैंपेन अच्छा प्लेटफौर्म हो सकता है.

स्कूलों में धूम्रपान न करने की सीख भी दी जानी चाहिए. अपने घरों, सार्वजनिक जगहों पर बीड़ीसिगरेट पीने या तंबाकू खाने पर बैन करने जैसी सामाजिक पहल से जागरूकता बढ़ाई जा सकती है.

वैसे, सरकार ने नाबालिगों को धूम्रपान, तंबाकू और गुटके के नुकसान से बचाने के लिए इन्हें बेचना गंभीर अपराध घोषित किया है. दिसंबर, 2015 में भारतीय संसद में पास हुए नए जुवैनाइल जस्टिस ऐक्ट में किसी नाबालिग को तंबाकू या उस से संबंधित चीजें बेचना दंडनीय अपराध माना जाएगा और कुसूरवार को 7 साल तक की जेल व एक लाख रुपए तक का जुर्माना लगेगा.

भ्रामक उपचार का प्रचार : शर्तिया इलाज के साइड इफैक्ट

पिछले कुछ सालों से बाजारवाद के चलते जनता सेहत के प्रति बहुत जागरूक हुई है. जागरूक होना अच्छी पहल है, लेकिन इस जागरूकता के पीछे बाजारवाद का होना खतरनाक है.

टैलीविजन चैनलों पर देशी नुसखे और 100 फीसदी फायदे की गारंटी के साथ इश्तिहार दिखाए जाते हैं. इन में 7 दिनों में सिर पर बाल आना, 10 दिनों में डायबिटीज की बीमारी ठीक होना और 7 दिनों में चेहरे की झुर्रियां गायब कर देने की देशी दवाएं बताई जाती हैं. बाद में एक बात कही जाती है कि

इसे सब्सक्राइब करें यानी इन का यह सब्सक्राइब हजार से ऊपर होने पर चैनल उस पर उसी हिसाब से इश्तिहार डालता है और हर इश्तिहार की कमाई का एक बड़ा हिस्सा फर्जी लोगों के पास चला जाता है.

कुछ लोगों के इंटरव्यू भी दिखाए जाते हैं. उसी के साथ एक झूठी कहानी भी बताई जाती है कि किस तरह अफ्रीका के घने जंगलों में फलां फल को खोजा गया और उस का इस्तेमाल किया गया, जिस से शर्तिया फायदा मिल गया.

कौन सा फल? उस के रासायनिक गुण क्या हैं? उस के साइड इफैक्ट क्या हैं? इस बारे में कुछ भी नहीं बताया जाता है, जो ड्रग ऐेंड कंट्रोल के कायदे के मुताबिक कंपनी द्वारा बताया जाना जरूरी है.

पिछले दिनों शुगर की बीमारी को जड़ से खत्म करने के लिए एक ऐसा ही तकरीबन 2,000 रुपए का प्रोडक्ट आया. हैरानी की बात यह है कि उसे लाखों लोगों ने खरीदा, जिस से कंपनी करोड़पति बन गई. पर उस प्रोडक्ट में जो दवाएं मिलाई गई थीं वे कितनी मात्रा में थीं, इस का कहीं भी जिक्र नहीं था और उस का भी प्रचार अफ्रीका के जंगलों और हिमालय पर्वत की घाटियों से लाई गई जड़ीबूटियों के नाम से किया गया था.

न तो 7 दिनों में झुर्रियां जाती हैं और न ही सिर पर 7 दिनों में बाल उगते हैं, लेकिन चैनल पर बैठे वैद्य या डाक्टर खुद के मरीजों द्वारा फायदा दिए जाने की दुहाई देते हैं और आखिर में यह कहते सुनाई देते हैं कि इस जानकारी को जनहित में प्रचारित कीजिए, जितने लाइक और सब्सक्राइब बढ़ेंगे, चैनल पर उस के भाव और बढ़ेंगे, लेकिन इस नीमहकीमी से जो परेशानियां होंगी उन्हें कैसे दूर करना है, इस का कोई जिक्र नहीं होता है.

कुछ कंपनियों के बनाए सामान को आप नहीं जानते हैं, जबकि उन की कीमत लोकल ब्रांडेड कंपनियों के बनाए गए सामान से 50 से 80 गुना ज्यादा होती है. आप को सिर्फ फोन करना होता है, दवा घर पहुंच जाती है. अगर वीपीआर नहीं छुड़वाया तो उन्हें कुछ नुकसान नहीं होता है क्योंकि पहले ही वे कई गुना ज्यादा किसी से वसूल चुके होते हैं, इसलिए अपनी सेहत से खिलवाड़ न करें. आप के फैमिली डाक्टर जो सलाह दें उसी के मुताबिक दवाओं का सेवन करें.

अगर टैलीविजन चैनल की दवा खाने से कुछ साइड इफैक्ट हो गया तो आप भी परेशान होंगे और आप का डाक्टर भी.

बहुत सी दवाओं का ऐंटी डोज दवा में रखे कागज पर होता है लेकिन इन  दवाओं का ऐंटी डोज क्या लेना है, ऐसा कुछ लिखा नहीं होता है. ये लोग अपना सामान बेच कर कई गुना फायदा कमाते हैं, ऊपर से इश्तिहार से भी आमदनी हासिल करते हैं. नुकसान में ग्राहक ही रहते हैं जो रुपयों के अलावा सेहत भी खोते हैं, इसलिए टैलीविजन चैनल पर घर बैठे शर्तिया इलाज के उपयोग से बचें और अपनी सेहत को महफूज रखें.

लड़कियों की कमी के चलते शादियां अटकीं

देश बदल रहा है. शहरों में ही नहीं बल्कि गांवों में भी अब शादी के लिए लड़कियों की कमी होने लगी है. इस से लड़कों की शादियां अटक रही हैं. ज्यादातर परिवारों में लड़कियों की तादाद कम होने लगी है. एक लड़की या एक लड़के से ही परिवार पूरा होने लगा है. गांवों में रहने वाले परिवार अब शहरों में पहुंच गए हैं. ऐसे में आम परिवार की लड़कियां स्कूल जाने लगी हैं.

गांव के किसी स्कूल को देखेंगे तो साफ हो जाएगा कि वहां पढ़ने वालों में लड़कियों की तादाद ज्यादा होती जा रही है. ऐसे में अब मांबाप अपनी लड़कियों की शादियां करने के लिए लड़के को ही नहीं बल्कि उस के परिवार की माली हालत को भी देखते परखते हैं. ऐसे में कम काबिल लड़कों की शादियां नहीं हो रही हैं. उत्तर भारत के कुछ राज्यों खासतौर पर हरियाणा, राजस्थान, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लड़कों के सामने ऐसे हालात बनने लगे हैं.

ऐसे में ये लड़के दूर के प्रदेशों से खरीद कर लड़कियां लाते हैं और उन से शादी कर लेते हैं. गैर प्रदेशों से लाई गई लड़कियों में यह सुविधा रहती है कि वे इन के पास गुलामों की तरह रहती हैं.

दरअसल, उत्तर भारत के ये प्रदेश मर्दवादी सोच से प्रभावित होते हैं. वे औरतों को बराबरी का दर्जा नहीं देना चाहते. इस वजह से उन के लिए खरीद कर लाई गई लड़कियां शादी के लिए सब से उपयोगी होती हैं.

खरीद कर लाई लड़कियों से शादी करने वालों में ऐसे लोग भी होते हैं जो कम उम्र में शादी करने के बाद अकेले हो गए. उन में से कुछ का पत्नी से विवाद हो गया या पत्नी छोड़ कर चली गई या फिर पत्नी की मौत हो गई. ऐसे में दूसरी शादी के लिए खरीद कर लाई गई लड़कियां उन्हें सही लगती हैं.

इस तरह के लड़कों में हर जाति और धर्म के लोग हैं. सब से ज्यादा खराब हालत पिछड़ी जातियों की है. पिछड़ी जातियों की रोजीरोटी पहले खेती पर ही टिकी होती थी. आज भी ये परिवार खेती पर ही टिके हैं. पर अब खेती में मुनाफा कम होने लगा है. ये परिवार खेती को छोड़ कर शहरों में बस रहे हैं. ऐसे में ये काफी गरीब होते जा रहे हैं. अब इन परिवारों के लड़कों को लड़की खरीद कर शादी करना आसान लगने लगा है.

हरियाणा और पंजाब में कई सालों से ऐसे मामले सामने आ रहे हैं. ज्यादातर ऐसे मामले तभी सामने आते हैं जब किसी तरह का कोई झगड़ा हो या फिर मामला पुलिस तक पहुंच जाए.

आमतौर पर खरीदी गई लड़की से शादी करने वाले लोग समाज के सामने इस बात को नहीं मानते हैं कि लड़की खरीदी गई है. ये लोग चोरीछिपे शादी करते हैं. लड़की को अपने घरोें में छिपा कर रखते हैं.

ये लोग शादी के लिए ऐसी लड़की पसंद करते हैं जो इन के जैसी दिखती हो. यही वजह है कि दक्षिण भारत के प्रदेशों की लड़कियों को यहां नहीं लाया जाता. पश्चिम बंगाल और असम की जगह बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ की लड़कियां ज्यादा पसंद की जाती हैं. वहां की लड़कियां हिंदी बोल और समझ लेती हैं. उन का रंग भी साफ होता है. ऐसे में कुछ ही दिनों में वे यहां का रहनसहन सीख कर परिवार के बीच हिलमिल जाती हैं. समाज को यह बताना आसान होता है कि वह किसी दूर के रिश्तेदार की लड़की है.

यही वजह है कि लड़की खरीद कर शादी करने के मामले में बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ की लड़कियां ज्यादा डिमांड में होती हैं. दूसरा पहलू यह भी है कि शादी के नाम पर खरीदी गई लड़कियों में बहुत सी कई बार आगे बेच दी जाती हैं, जो जिस्मफरोशी के बाजार में पहुंच जाती हैं.

जानकार मानते हैं कि पहले बेची गई लड़कियां केवल जिस्मफरोशी के बाजार में ही जाती थीं, पर अब वे शादी कर के दुलहन भी बनने लगी हैं. लड़की के परिवार के लिए यह माने नहीं रखता कि वह कहां जा रही है. वे तो गरीबी से छुटकारा पाने के लिए अपनी लड़की को बेचने की कोशिश करते हैं. ऐसे ज्यादातर मामले सामने नहीं आते.

निशाने पर गरीब प्रदेश

छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले में कुनकुनी थाने में एक आदिवासी लड़की ने शिकायत दर्ज कराई कि उसे नौकरी दिलाने के नाम पर ओडिशा ले जाया गया. वहां उस से जबरन शादी कर के बाद में जिस्मफरोशी के धंधे में उतार दिया गया.

पता चला कि यह ऐसी अकेली घटना नहीं है, बल्कि तमाम लड़कियों को नौकरी के नाम पर बाहर ले जाया जाता है और वहां उन को शादी का झांसा दे कर फंसाया जाता है.

छत्तीसगढ़ ही नहीं, बल्कि ओडिशा, आंध्र प्रदेश, असम, पश्चिम बंगाल, झारखंड, मध्य प्रदेश और बिहार राज्यों से लड़कियों को किसी न किसी तरह का लालच दे कर दूसरे राज्यों में ले जाया जाता है, जहां पर वे नौकरी करने जाती हैं.

इस के बाद इन लड़कियों को शादी से ले कर जिस्मफरोशी तक के जाल में फंसा दिया जाता है. कई बार ऐसी लड़कियां घरेलू नौकरानी बन कर जोरजुल्म का शिकार होती हैं.

उत्तर भारत के कुछ राज्यों जैसे हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान में लड़कियों की कमी है. कई नौजवानों की तो लड़कियों की कमी की वजह से शादियां अटकी होती हैं. ऐसे में वे लोग गरीब और आदिवासी प्रदेशों से लड़कियों की खरीदारी करते हैं.

गरीब और आदिवासी प्रदेशों में कई ऐसी प्लेसमैंट एजेंसियां हैं जो नौकरी दिलाने के नाम पर लड़कियों को दूसरे प्रदेशों में भेजती हैं. ये प्लेसमैंट एजेंसियां अब नौकरी के बजाय शादी के लिए लड़कियों को बाहर भेजने लगी हैं.

ये लोग लड़कियों के घर वालों को समझाते हैं कि लड़की नौकरी के लिए जा रही है. इस के बदले में उन को कभीकभी एकमुश्त और कभीकभी हर महीने पैसे पाने का लालच दिया जाता है.

बड़े शहरों में जाने वाली लड़कियां घरेलू नौकरी करती हैं या फिर जिस्मफरोशी के बाजार में पहुंच जाती हैं. अब छोटेबड़े शहरों के साथसाथ गांव और कसबों में यहां की लड़कियां जाने लगी हैं. ये लोग शादी के नाम पर लड़कियों को ले जाते हैं. असल में इन जगहों पर अब लड़कियों की कमी होने लगी है.

बेरोजगार, नशेड़ी और बिगड़ैल किस्म के लड़कों को अपने समाज की अच्छी लड़कियां शादी के लिए नहीं मिल रही हैं. ऐसे में गरीब लड़कियों को खरीद कर शादी करना उन की मजबूरी हो गई है.

गरीबी है वजह

शादी के लिए खरीद कर आने वाली लड़कियां गरीब परिवारों से होती हैं. वे शादी के बाद हर तरह का जोरजुल्म सहने को तैयार होती हैं. कम उम्र की लड़कियां बड़ी उम्र के मर्दों के साथ शादी करने को तैयार हो जाती हैं. इन मर्दों को अपने समाज की लड़कियां नहीं मिलतीं.

गरीब प्रदेशों की रहने वाली लड़कियों के मातापिता कुछ हजार रुपयों के लालच में अपनी लड़की बाहर भेज देते हैं. उन को इस बात का सुकून होता है कि उन की लड़की भूखी नहीं मरेगी और उन को भी कुछ पैसे मिल जाएंगे. इस काम में लड़की के परिवार को तैयार करने का काम वहां उन के ही समाज के लोग और नातेरिश्तेदार करते हैं.

असम से आई एक लड़की लखनऊ के एक परिवार में रहती है. वह सही से हिंदी भी नहीं बोल पाती है. पहले यह लड़की एक घरेलू नौकर बन कर आई थी, बाद में वहीं एक आदमी उस से शादी करने को तैयार हो गया.

वह लड़की बताती है, ‘‘मेरे घर में रहने के लिए एक छप्पर भी सही तरह का नहीं था. साल में कुछ महीने ही हम भरपेट खाना खाते थे. मेरी 5 बहनें हैं. मेरी बड़ी बहन कोलकाता गई थी. वहां से जो पैसे मिले उस से एक छप्पर वाला मकान बना था.

‘‘जब मैं बड़ी हुई तो मेरे एक रिश्तेदार ने मुझे यहां भेज दिया. मैं सालभर में कुछ पैसे अपने घर भेजती थी. 3 साल में मैं ने यहां का रहनसहन सीख लिया. अब कुछकुछ हिंदी बोल लेती हूं.

‘‘जब मैं यहां आई थी तब मेरी उम्र 14 साल थी. मेरे मालिक बहुत अच्छे थे. मेरे पति उन के घर आतेजाते थे. उन्होंने इच्छा जाहिर की थी कि वे मुझ से शादी करना चाहते हैं. इन 4 सालों में मैं अपने घर कभी नहीं गई. मेरे घर वाले शुरू में कभीकभी मेरे बारे में पूछते भी थे, पर अब कोई नहीं आता. जो पैसे मैं उन्हें भेजती थी, यह भी नहीं पता कि वे उन तक पहुंचते भी थे या नहीं. हो सकता है कि अब मेरी छोटी बहन को भी कहीं भेज दिया हो.

‘‘मैं ने शादी की बात मान ली. मैं शादी कर के बहुत खुश हूं. मेरे लिए शादी के साथ घरपरिवार का मिलना ही बड़ी बात है. मेरे लिए पति की उम्र का कुछ साल बड़ा होना माने नहीं रखता. यहां लोग बोलते हैं कि खरीद कर लाई लड़की से शादी हुई है.

‘‘यह सुन कर अजीब लगता है. पर यह उस दुख से काफी बेहतर है जो गरीबी में अपने परिवार में सहन करने पड़े थे. घरेलू नौकर से अब मैं शादीशुदा हो गई. मुझे एक पहचान मिल गई. मैं बाकी बातें भी भूल जाऊंगी और धीरेधीरे बाकी लोग भी शायद भूल जाएंगे.

‘‘गरीब लड़कियों के लिए देह धंधे के दलदल में जाने से बेहतर है कि वे किसी जरूरमंद से शादी कर के उस का घर बसा दें.’’

कई बार बिकती हैं

छत्तीसगढ़ में अपनी संस्था के साथ आदिवासी इलाकों में काम कर रहे समाजसेवी दीनानाथ कहते हैं, ‘‘लड़की के घर वालों को केवल पैसों से मतलब होता है. जहां ज्यादा पैसा मिलता है, वे वहां लड़की भेजने को तैयार हो जाते हैं. हम लोग भी इन बातों को समझते हैं.

‘‘हम लड़कियों के मांबाप को समझाते हैं कि नौकरी के नाम पर भेजने से अच्छा है कि शादी के लिए लड़की को भेज दो. शादी कम से कम 18 साल की उम्र में होती है. मांबाप इस उम्र तक लड़की को घर में रख ही नहीं पाते.

‘‘यहां की लड़कियां ज्यादा से ज्यादा 13 से 15 साल की उम्र में ही बाहर चली जाती हैं. कुछ मांबाप तो 10 साल की उम्र में ही लड़की को बाहर भेजने को तैयार हो जाते हैं.

‘‘ऐसे में कई परिवार अपने लड़के से आधी उम्र की लड़की को ले जाते हैं, फिर कुछ सालों के बाद उन की शादी करा देते हैं. शादी की उम्र होने तक कई बार तो ये लड़कियां कईकई बार बिक चुकी होती हैं.

‘‘सैक्स के नाम पर इन्हें तरहतरह के समझौते करने पड़ते हैं. एक रात में कईकई ग्राहकों को खुश करना पड़ता है. कुछ ही सालों में ये बूढ़ी हो जाती हैं. उन्हें जिंदगी में कभी घरपरिवार का सुख नहीं मिलता, जबकि खरीदी गई दुलहन को शादी के बाद हर सुख मिलता है. ऐसे में शादी के लिए बिकना ज्यादा पसंद किया जा रहा है.’’

छत्तीसगढ़ सरकार ने प्राइवेट प्लेसमैंट एजेंसी ऐक्ट 2013 तैयार किया है. अगस्त, 2014 में इसे लागू भी किया गया. इस के बाद भी अभी तक प्लेसमैंट एजेंसियां अपनी तरह से ही काम कर रही हैं. वे अब मानव तस्करी के अड्डे बन गई हैं.

लड़कियों की खरीदफरोख्त के मामले में पश्चिम बंगाल पहले, ओडिशा दूसरे और छत्तीसगढ़ तीसरे नंबर पर आता है.

एक निजी संस्था द्वारा किए गए सर्वे से पता चलता है कि छत्तीसगढ़ का जशपुर इलाका लड़कियों की खरीदफरोख्त का बहुत बड़ा अड्डा बन गया है. जिले से हर साल तकरीबन 7 हजार लड़कियों को बड़े शहरों में खरीदाबेचा जाता है.

267 गांवों के सर्वे में यह भी सामने आया है कि 70 फीसदी लड़कियां नाबालिग थीं. बाकी भी 18 साल के आसपास थीं. लड़कियों के बेचने में उन के जानपहचान वाले होते हैं. लड़कियों के मांबाप को भी यह पता होता है कि अब लड़की को वापस नहीं आना है.ऐसे में वे एकमुश्त पैसे लेने का काम करते हैं.

शादियों से बदले हालात

समाजसेवी दीनानाथ कहते हैं, ‘‘पहले जहां लड़कियां केवल बिकने के बाद जिस्मफरोशी के बाजार में जाती थीं, वहीं अब वे शादी के लिए भी खरीदी जाने लगी हैं. ऐसे में गरीब लड़कियां इज्जत भरी जिंदगी गुजरबसर करने लगी हैं.’’

सावधान! मूर्खता है धर्मगुरु बनाना और सत्संग में जाना

लंबेचौड़े और ऊंचे मंच पर हजारों की भीड़ के सामने रेशमी गेरुआ वस्त्र धारण किए, रुद्राक्ष, मोती व चंदन की माला पहने, गुलाब के फूलों से महकते सिंहासन पर बैठ, सुंदर रूपसी बालाओं से घिरे हुए धर्मगुरु का देश की गरीबी पर कंरदन करते हुए यह कहना कि संसार मिथ्या है, घरपरिवार माया है, धन की इच्छा लोभ है, मोहमाया के बंधन से मुक्त हो जाओ…और फिर प्रवचन समाप्त कर के उन का अपने भक्तों की भीड़ के बीच से हो कर गुजरना, भक्तों का उन्हें देख कर जयकारा लगाना…इस धर्मगुरु के पैर छूने में एकदूसरे को कुचल डालने की होड़ और अंत में अपनी चमचमाती लग्जरी गाडि़यों के बेड़े से स्टैंडर्ड बढ़ाते चेलों की लंबी लाइन के साथ अपने आलीशान पांचसितारा सुविधाओं वाले आश्रम की तरफ प्रस्थान कर जाने का यह दृश्य किसी फिल्म का नहीं बल्कि किसी भी धर्मगुरु के सत्संग में होने वाली फुजूलखर्ची का नजारा है.

धर्मगुरु बनाने का यह चलन कोई नया नहीं, बल्कि बहुत पुराना है. समाज में इस तरह का प्रचार कर दिया गया है कि भगवान से बड़ा ‘गुरु’ है और लोग भी भगवान को भूल कर गुरु की शरण में आ रहे हैं. शिष्य आजकल गुरुओं की पूजा करने लगे हैं.

इस तरह के प्रचार के चलते ही धर्मभीरु जनता भयभीत हो गुरु को ढूंढ़ती है और गुरु मिल जाने पर उस के द्वारा गुरुमंत्र दिया जाता है, जिस के बदले दीक्षा लेने वाले को मोटी दक्षिणा गुप्त दान के रूप में देनी होती है. इन तथाकथित गुरुओं द्वारा बताया जाता है कि जो जितनी अधिक दक्षिणा देगा उसे उतना ही अधिक लाभ होगा. दक्षिणा के साथ फल का संबंध एक प्रकार का व्यावसायिक संबंध ही है और इस के बाद तो यह सिलसिला जीवन भर चलता रहता है.

हिंदू धर्मग्रंथों में गुरु की महिमा का बढ़चढ़ कर बखान किया गया है. भक्तिकाल के कवियों ने तो जम कर गुरु को महिमामंडित किया है. गुरु के बारे में कई उक्तियां प्रसिद्ध हैं, जैसे :

गुरुर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुगुरूर्देवो महेश्वर:।

गुरु: साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरुवे नम:॥

-स्कंदपुराण, गुरुगीता

(अर्थात गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु महेश्वर है, गुरु ही परब्रह्म है, उस गुरु के लिए नमस्कार.)

गुरु बिन पंथ न पावै कोई।

केतिकौ ज्ञानी ध्यानी होई॥

-नूरमुहम्मद अनुराग बांसुरी, पृ. 33

पहले धार्मिक गुरु ब्राह्मण होते थे और इन्हीं ब्राह्मणों ने धर्म के मुख्य उद्देश्य नैतिकता को ताक पर रख कर दूसरे उद्देश्यों पर पूरा जोर दिया. ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए आत्मापरमात्मा, स्वर्गनरक, जन्ममरण की भूलभुलैया भरे सिद्धांतों के जाल में समाज को फंसा कर उस का खूब शोषण किया.

शोषण का साधन यज्ञ को बनाया. यज्ञ को ले कर धर्मग्रंथों में इस का गुणगान भरा पड़ा है. अथर्ववेद की घोषणा है :

‘अयं यज्ञो भुवनस्य नाभि’

(अर्थात विश्व की उत्पत्ति का स्थान यह यज्ञ है.)

गीता का उद्घोष है :

‘यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्रे लोकोऽयं कर्म बन्धन:’

(अर्थात यज्ञ के लिए जो कर्म किए जाते हैं, उन के अतिरिक्त अन्य कर्मों से यह लोक बंधा है.)

इसी में आगे कहा गया है :

‘नायं लोकोऽस्त्य यज्ञस्य कुतोऽन्य: कुरूसतम’

(अर्थात यज्ञ करने वाले को जब इस लोक में ही कोई सफलता नहीं मिलती तब उसे परलोक कहां मिलेगा.)

राजामहाराजा राजसूर्य या कहें अश्वमेध यज्ञ करते थे, जिन में हजारों ब्राह्मणों को धनदौलत, वस्त्र, दासदासी, घोड़े, रथ आदि दानस्वरूप दिए जाते थे क्योंकि यह यज्ञ पूरे ही तब होते थे जब उन्हें भरपूर दानदक्षिणा मिल जाती थी. यह यज्ञ पूरे साल चलते रहते थे. हां, इन के नाम व उद्देश्य जरूर बदले होते थे पर राजाओं को प्रतिदिन दान करना होता था और तलवार के बल पर जमा की गई धनदौलत से भरे खजाने खाली हो कर ब्राह्मणों के घर चले जाते थे. राजाओं को अश्वमेध यज्ञ के फलस्वरूप इस जन्म में कीर्ति तथा अगले जन्म में पुन: राजा बनने का झूठा आश्वासन मिलता था और ब्राह्मणों के घर ठगी के धन से भर जाते थे. इस दान के प्रमाण ऋग्वेद में मिलते हैं.

‘‘हे अग्ने, देवभक्त के पौत्र पिजवन के पुत्र सुदास ने 200 गाएं, बधुओं सहित 2 रथ दान किए. इस दान की प्रशंसा करते हुए मैं योग्य होता यज्ञ गृह में जाता हूं.’’

-ऋग्वेद 7-18-22.

धर्म के धंधे में पैसा है इसलिए देश में ऐसे निकम्मे लोगों की एक बड़ी फौज खड़ी हो गई है. साधुसंत नामधारी ये जीव गृहत्याग का बहाना बना कर घुमक्कड़ जीवन अपना, एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते हैं. इन सभी का उद्देश्य एक ही होता है कि जीविका के लिए कर्म न करना पड़े और चढ़ावे व भिक्षा के द्वारा ही जीवन निर्वाह होता रहे, यानी धर्म की आड़ में बिना हाथपांव हिलाए पेट भरना, जबकि हकीकत में धर्मकर्म से वे कोसों दूर रहते हैं और इन में बहुत से दुर्व्यसनों व दुराचारों में लीन रहते हैं.

धर्मगुरुओं में आज आपस में ही होड़ मची हुई है कि किस के चेले ज्यादा हैं, कौन छोटा कौन बड़ा है. कौन ज्यादा भीड़ जुटा पाता है और किस के कितने अमीर शिष्य हैं. ये तथाकथित गुरु दुनिया के बैरभाव कहां दूर करेंगे, खुद इन के अपने मठ में ही गद्दी हथियाने की लड़ाइयां चलती रहती हैं, मारकाट मची रहती है.

मठों, आश्रमों में अपार धन आता है. गुरुशिष्य के बीच इस को ले कर लड़ाईझगड़े शुरू हो जाते हैं. इस में सब से ज्यादा चालाक और ताकतवर शिष्य गुरु की गद्दी पर विराजमान होता है. इस का एक ताजा उदाहरण बाबा रामदेव है जो पतंजलि योग पीठ के संस्थापक शंकरदेव को पीछे धकेल कर खुद गद्दी पर बैठ गया.

प्रवचनों का हाईटेक रूप

जिस भी धार्मिक गुरु का प्रवचन जिस शहर में होना होता है वहां उन के शिष्य कई दिन पहले पहुंच कर अपने गुरु की महिमा का बखान शुरू कर उन के नाम के परचे बांटते हैं, बड़ेबड़े होर्डिंग शहर भर के चौराहों पर लगते हैं. अपने गुरु का प्रचार कर बड़ी संख्या में भीड़ जुटाने का काम ये चेले ही करते हैं.

बड़े घरों की महिलाएं सजसंवर कर प्रवचन का लाभ लेने सब से आगे बैठने की होड़ में लगी रहती हैं. अब यह बात अलग है कि उन का मकसद प्रवचन नहीं, वीडियो रिकार्डिंग होती है क्योंकि प्रवचन के वीडियो कैसेट साल भर दिखाए जाते हैं.

चूंकि समय के साथसाथ धर्म का व्यापार भी आधुनिक करवट ले रहा है इसलिए धर्म के क्षेत्र में भी इलेक्ट्रोनिक समावेश अपनी पहचान बना चुका है हिंदुओं की धर्मांधता को भुनाने के लिए कई धार्मिक चैनल आ गए हैं. जैसे, श्रद्धा, संस्कार, आस्था आदि. बाकी के लोकप्रिय चैनल भी दिन में कुछ घंटे प्रवचन जरूर दिखाते हैं.

आम जनता के बीच बड़े पंडाल में जब ये धार्मिक गुरु प्रवचन करते हैं तो उसे प्रवचन कहते हैं और जब वातानुकूलित सभागार में बैठ कर बोलते हैं तो वह आध्यात्मिक उपदेश में तबदील हो जाता है. इन का लक्ष्य विदेशों में रह रहे प्रवासी भारतीय भी हैं. ये प्रवासी भारतीय जम कर दानदक्षिणा देते हैं. धर्म के नाम पर ये गुरु और चैनल वाले दोनों ही जनता की जेब काट रहे हैं.

प्रवचन बिजनेस के ब्रांड नाम का काम

आसाराम बापू, मोरारी बापू, सुधांशु महाराज तो अब प्रवचन बिजनेस के ब्रांड नाम बन चुके हैं. इन के नाम पर लोग अपना सारा कामधंधा छोड़ कर इन का प्रवचन सुनने पहुंचते हैं. इन के प्रवचन का नशा किसी अफीम से कम नहीं है इसीलिए धर्म के नाम पर इन संतों के शिविर हर शहर में लगाए जाते हैं.

इन भव्य पंडालों को लगाने में लाखों रुपए खर्च होते हैं. भक्तों द्वारा आवास समिति, स्वागत समिति, भोजन समिति, पंडाल समिति, स्वामीजी रक्षक समिति, प्रचार समिति व धन संग्रह समिति प्रमुखता से गठित कर दी जाती हैं. यहां पर बड़े दानदाता स्वागत समिति में, व्यापारी भोजन समिति में, पत्रकार, समाजसेवी व खासखास सरकारी विभागों के अधिकारी धनसंग्रह समिति में लिए जाते हैं. शहर के दबंगों को रक्षक समिति में लिया जाता है व बाकी समर्पित कार्यकर्ताओं को पंडाल, सेवा, साफसफाई व प्रचार समिति में रखा जाता है.

ये सभी अपना कामधंधा छोड़ कर जितने दिन प्रवचन होते हैं धार्मिक गुरु की चाकरी में लगे रहते हैं. इस के बदले में इन्हें मिलता है स्वामीजी का आशीर्वाद, जिसे पा कर ये अपने को धन्य समझ लेते हैं और मान लेते हैं कि स्वामीजी का हाथ इन के सिर पर है.

बिजली, माइक, क्लोज सर्किट टीवी और सजावट के दूसरे सामानों पर भी खर्च आता है. हर एक शिविर पर लाखों रुपए का खर्च आता है, जो प्रवचन के ये ब्रांड नाम अपनी जेब से नहीं देते बल्कि इन के प्रवचन के आयोजन- कर्ता खर्च करते हैं और इन के भक्त अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई लुटाने में कोई कसर नहीं छोड़ते.

आगरा में रहने वाले जगमोहन गुप्ता का कहना है कि अभी कुछ साल पहले वृंदावन में मोरारी बापू के प्रवचन का भव्य आयोजन किया गया. यहां पर पंडाल में विशेष भक्तों, पत्रकारों, महिलाओं व विशेष दानदाताओं के लिए अलगअलग स्थान तय थे. भक्तों से मंच पर बैठ कर कथा सुनने की फीस बनाम दक्षिणा 3,100 से 5,100 रुपए तक वसूल की गई. गद्दा और सफेद धुली चादर पर आगे की पंक्ति में बैठ कर कथा सुनने की फीस 2,100 से 3,100 रुपए तक वसूली गई. बढ़ती महंगाई को देख कर कहा जा सकता है कि कथा सुनने की यह फीस अब और भी बढ़ गई होगी.

इस तरह की कथा का आयोजन जहां भी होता है कथा के दौरान लगभग 30-40 अस्थायी दुकानें भी लग जाती हैं. इन दुकानों में गुरुओं की कथा के कैसेट, संतों के प्रवचन के कैसेट और पुस्तकें 30 से ले कर 50 रुपए तक में बिकती हैं. इन के हजारों अनुयायी गुरुओं द्वारा प्रकाशित पत्रिका के स्थायी ग्राहक बनते हैं. प्रत्येक दुकान 11 दिन के लिए 1 हजार से ले कर 2 हजार रुपए तक ठेके पर उठाई जाती है. यहां संतों की तसवीरें भी 100 से 300 रुपए तक में खूब बिकती हैं.

यह आमदनी लाखों में होती है. जहां प्रवचन होते हैं वहां थोड़ीथोड़ी दूरी पर दानदाता की सुविधा के लिए दानपात्र रखे होते हैं, जिन पर लिखा होता है, ‘रुपएपैसे दानपात्र में ही डालें और आभूषण व कपड़े पंडित के पास जमा कराएं.’ सोचने की बात यह है कि ये धर्मगुरु तो संत हैं और संत तो कुछ लेते नहीं हैं या यों कहें कि इन्हें तो कुछ लेना नहीं चाहिए. फिर चढ़ावे की रकम कहांकहां आपस में बंटती है और किस को कितना मिलता है यह खोज का विषय है. यह सबकुछ हर धर्मगुरु के सत्संग में देखने को मिलता है.

मलीमसानपि जनान संत:

कुर्वन्ति निर्मलान।

(अर्थात संत मलिन चित्त वाले मनुष्यों को भी निर्मल कर देते हैं.)

-अचिंत्यानंद वर्णी, विवेकशतक, 55

लेकिन आजकल के ये संत कितने सुचरित्र वाले हैं इस का पता तो इन कुछ उदाहरणों से ही चल जाएगा. अपने प्रवचन में लाखों की भीड़ जुटाने वाला संत ज्ञानेश्वर खुद को भक्तों के बीच भगवान बतलाता था. इस स्वघोषित भगवान की जिस समय गोली मार कर हत्या की गई उस समय उस पर हत्या करने, बिजली की चोरी, सरकारी जमीन पर कब्जा, विस्फोटक पदार्थ एक्ट, अवैध हथियार रखने, जैसे अनेक मुकदमे चल रहे थे. उस के वाराणसी व बाराबंकी आश्रम में बड़ी संख्या में स्त्रियों का शारीरिक शोषण होता था.

करौंथा स्थित सतलोक आश्रम का स्वामी संत रामपाल अब जेल में है. उस की काली करतूतों से परदा उठ चुका है. रामपाल और उस के चेलों पर हत्या और जमीन पर जबरन कब्जा, डरानेधमकाने के अन्य मामले भी दर्ज किए गए हैं. लोगों को मोहमाया से दूर रहने का उपदेश देने वाला रामपाल खुद किस कदर मोहमाया से जकड़ा था यह उस का आलीशान आश्रम देखने से ही पता चल जाता है.

48 साल के पाखंडी साधु विकासानंद को पुलिस ने छापा मार कर जबलपुर के एक होटल से उस वक्त गिरफ्तार किया जब वह कुछ लड़कियों के साथ आपत्तिजनक स्थिति में था.

उस का फाइव स्टार आश्रम जबलपुर में ऐय्याशी, ब्लैकमेलिंग, स्मगलिंग व ब्लू फिल्म बनाने का अड्डा बना हुआ था.

खुद को कृष्ण व शिव का अवतार बता कर एक तांत्रिक नारायण दत्त श्रीमाली व उस के पुत्रों ने हरियाणा के सैकड़ों लोगों से 4 करोड़ के लगभग ठग लिए थे. 2001 में नारायण दत्त के खिलाफ कई आपराधिक मामले भी दर्ज किए गए.

धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने अपनी राजनीतिक पहुंच के कारण अरबों की संपत्ति जमा कर ली. उस का अपना हवाई जहाज और हवाई अड्डा था. ऐसे स्वामी से सदाचार की क्या उम्मीद की जा सकती है?

रामदेव पर भी आयुर्वेद की आड़ में आम लोगों की सेहत से खिलवाड़ करने का आरोप लगा. लेकिन लोगों में उस की पहुंच को देख कर सरकार खामोश हो गई.

शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती की गिरफ्तारी के बाद विश्व हिंदू परिषद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समेत तमाम हिंदूवादी संगठनों और नेताओं ने उन की गिरफ्तारी के तरीकों पर ऐतराज जताते हुए पृथक कानून व्यवस्था बनाने की मांग उठाई.

धर्म के इन ठेकेदारों की मानें तो शंकराचार्य या अन्य किसी धार्मिक व्यक्ति को गिरफ्तार न करना ही धर्म का सम्मान है. ये चाहते हैं कि धर्माचार्यों को अपराध करने की छूट दे दी जाए यानी धर्म को कानून के नीचे रखा जाए. अब सवाल यह उठता है कि हिंदू धर्म की सब से ऊंची गद्दी पर बैठे ये लोग अगर अपराध करते हैं तो इन्हें सजा क्यों न दी जाए?

अब यह साबित हो चुका है कि ये धर्मगुरु खुद ही परले दर्जे के ऐय्याश, धोखेबाज, कुचरित्र, हत्या जैसे जघन्य अपराधों में लिप्त पाए जाते हैं, तो जनता को अपने सत्संग में कौन सा मुक्ति का पाठ पढ़ाएंगे? धार्मिक गुरुओं द्वारा जनता को बेवकूफ बना कर माल बटोरने का यह धंधा सदियों से चला आ रहा है इसलिए अब समय आ गया है कि जनता जागरूक हो जाए और धर्म के ठेकेदार बने इन संतों, गुरुओं की दुकानदारी पर रोक लगाए.

परीक्षा से डर कैसा : यह रिजल्ट आखिरी तो नहीं

मनोवैज्ञानिक और काउंसलर अब्दुल माबूद कहते हैं, ‘‘यह काफी नाजुक दौर होता है, बच्चों को उन की जिंदगी की कीमत समझाना अभिभावकों का पहला काम होना चाहिए.’’

अब्दुल माबूद ने यह बात बच्चों की परीक्षा और उन के मानसिक दबाव को ले कर कही है. दरअसल,  परीक्षाओं का दौर खत्म होने के बाद छात्रों को कुछ दिनों की राहत तो मिलती है पर साथ ही रिजल्ट का अनचाहा दबाव बढ़ने लगता है. बच्चे भले ही हम से न कहें पर उन्हें दिनरात अपने रिजल्ट की चिंता सताती रहती है. बोर्ड एग्जाम्स को तो हमारे यहां हौआ से कम नहीं माना जाता, जबकि यह इतना गंभीर नहीं होता जितना हम इसे बना देते हैं.

आजकल तो छोटी क्लास के बच्चों पर भी रिजल्ट का दबाव रहता है और इस दबाव की वजह सिर्फ और सिर्फ उन के पेरैंट्स होते हैं. ज्यादातर पेरैंट्स बच्चों के रिजल्ट को अपने मानसम्मान और प्रतिष्ठा से जोड़ कर देखते हैं. यही वजह है कि वे खुद तो तनाव में रहते हैं, बच्चों को भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से तनाव का शिकार बना देते हैं.

छात्रों पर बढ़ता दबाव

एग्जाम्स के रिजल्ट आने से पहले ही छात्रों के मनमस्तिष्क पर अपने रिजल्ट को ले कर दबाव पड़ने लगता है. एक तो स्वयं की उच्च महत्त्वाकांक्षा और उस पर प्रतिस्पर्धा का दौर छात्रों के लिए कष्टकारक होता है.

वैसे तो छात्रों को पता होता है कि उन के पेपर कैसे हुए और अमूमन रिजल्ट के बारे में उन्हें पहले से ही पता होता है, इसीलिए कुछ छात्र तो निश्चिंत रहते हैं पर कुछ को इस बात का भय सताता रहता है कि रिजल्ट खराब आने पर वे अपने पेरैंट्स का सामना कैसे करेंगे.

आत्महत्याएं चिंता का विषय

प्रतिस्पर्धा के दौर में सब से आगे रहने की महत्त्वाकांक्षा और इस महत्त्वाकांक्षा का पूरा न हो पाना छात्रों को अवसाद की तरफ धकेल देता है, जिस पर पेरैंट्स हर वक्त उन की पढ़ाई पर किए जाने वाले खर्च की दुहाई देते हुए उन पर लगातार दबाव डालते रहते हैं. इस से कभीकभी छात्र यह सोच कर हीनभावना के शिकार हो जाते हैं कि वे अपने पेरैंट्स की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर सके. यही वजह कभीकभी उन्हें अवसाद के दलदल में धकेल देती है और वे नासमझी में आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं.

पेरैंट्स के पास सिवा पछतावे के कुछ नहीं बचता. ऐसे में उन्हें यह विचार सताने लगता है कि काश, उन्होंने समय रहते अपने बच्चे की कद्र की होती. जिसे इतने अरमानों से पालापोसा, बड़ा किया वह उन के कंधों पर दुख का बोझ छोड़ कर चला गया. पिछले 15 सालों में 34,525 छात्रों ने केवल अनुत्तीर्ण होने की वजह से आत्महत्या की. ये आंकड़े सच में निराशाजनक और चिंतनीय हैं जिन पर सभी को विचार करने की जरूरत है.

बच्चों के साथ फ्रैंडली रहें

पेरैंट्स यदि बच्चों के साथ ज्यादातर सख्ती से पेश आएंगे तो बच्चे उन्हें अपने मन की बात नहीं बताएंगे. अगर वे रिजल्ट को ले कर तनाव में हैं तो भी डर के कारण नहीं बता पाएंगे. बच्चों के साथ आप का दोस्ताना व्यवहार उन्हें आप के नजदीक लाएगा और वे खुल कर आप से बात करना सीखेंगे. इस से न केवल वे तनावमुक्त रहेंगे बल्कि उन का आत्मविश्वास भी बढ़ेगा. उन्हें इस एहसास के साथ जीने दें कि चाहे जो भी रिजल्ट आए, पेरैंट्स उन के दोस्त के रूप में उन के साथ हैं.

तुम हमारे लिए सब से कीमती

बच्चों को इस बात का एहसास कराएं कि इस दुनिया में आप के लिए सब से कीमती वे हैं न कि बच्चों का रिजल्ट. अपने मानसम्मान को बच्चों के कंधों का बोझ न बनाएं. बच्चों के सब से पहले काउंसलर उन के पेरैंट्स ही होते हैं. यदि वे उन्हें नहीं समझेंगे तो हो सकता है बच्चे अवसाद के शिकार हो जाएं. उन्हें यह एहसास दिलाना होगा कि कोई भी परिणाम हमारे लिए तुम्हारी सलामती से बढ़ कर नहीं है.

शिक्षा को अहमियत देना गलत नहीं है लेकिन शिक्षा व परीक्षा के नाम व्यक्तिगत जिंदगी से सबकुछ खत्म कर लेना और उसे ही जीवन का अंतिम सत्य मान लेना खुद को कष्ट पहुंचाना ही है. अगर जीवन के हर भाव व पहलुओं का आनंद लेना है तो बच्चों की खुशी का भी ख्याल रखना होगा.

रिजल्ट के दिनों में पैरेंट्स के लिए बच्चों की गतिविधियों पर नजर रखना बेहद जरूरी है. यह देखें कि कहीं वे गुमसुम या परेशान तो नहीं, ठीक से खाना खाते हैं या नहीं, जीवन के बारे में निराशावादी तो नहीं हो रहे हैं. इस समय पेरैंट्स को धैर्य का परिचय दे कर बच्चों के लिए संबल बनना चाहिए, न कि उन पर दबाव डालना चाहिए. उन्हें यह विश्वास दिलाएं कि उन का रिजल्ट चाहे जैसा रहे, उन के पेरैंट्स हमेशा उन के साथ हैं.

जीवन चलने का नाम है. एक बार गिर कर दोबारा उठा जा सकता है. जीवन में न जाने कितनी परीक्षाएं आतीजाती रहेंगी. उठो, चलो और आगे बढ़ो. अपनी क्षमताओं को पहचानो.

दुनिया ऐसे उदाहरणों से भरी पड़ी है जिन में बचपन में पढ़ाई में कमजोर रहे छात्रों ने बाद में सफलता के कई नए रिकौर्ड कायम किए हैं, आविष्कार किए हैं. यह परीक्षा जीवन की आखिरी परीक्षा नहीं है. जीवन चुनौतियों का नाम है. फेल होने का मतलब जिंदगी का अंत नहीं होता. इंसान वह है जो अपनी गलतियों से सीख कर आगे बढ़े.

डाक्टर की मानें झाड़फूंक की नहीं

रीमा कैंसर की पहले स्टेज से जूझ रही थीं. डाक्टरों का कहना था कि अगर वे समय से पूरा इलाज करा लेंगी तो ठीक हो सकती हैं. लेकिन रीमा के परिवार वालों का डाक्टर के इलाज से ज्यादा झाड़फूंक पर यकीन था. वे उन्हें एक बाबा के पास ले कर पहुंचे.

उस बाबा ने अपने तंत्रमंत्र से रीमा को ठीक करने का दावा किया जिस पर परिवार वालों ने आंख मूंद कर यकीन कर लिया.

उस बाबा ने इस के एवज में न केवल ढेर सारे रुपयों की मांग की, बल्कि रीमा को डाक्टर के पास ले जाने से मना भी कर दिया.

परिवार के लोग रीमा को अकसर उस बाबा के पास झाड़फूंक के लिए ले जाने लगे. रीमा की बीमारी बढ़ती जा रही थी लेकिन उन के घर वालों को उस बाबा पर इस कदर यकीन था कि रीमा की पीड़ा को भी वे महसूस नहीं कर पा रहे थे.

एक दिन रीमा की हालत ज्यादा खराब होने लगी. उन के परिवार वालों को लगा कि उन्हें एक बार फिर से डाक्टर को दिखाना चाहिए.

डाक्टर ने बताया कि झाड़फूंक के चलते रीमा की बीमारी बहुत ज्यादा बढ़ चुकी है और उन का बचना मुश्किल है. आखिरकार एक दिन रीमा की मौत हो गई.

इस देश में आज भी लोग बीमारियों का इलाज माहिर डाक्टरों से न करा कर बाबाओं, पीरफकीरों की शरण में खोजते हैं. ऐसे में हर रोज हजारों लोगों को पाखंड और पोंगापंथ के चक्कर में अपनी जान गंवानी पड़ती है.

डाक्टर वीके वर्मा का कहना है कि उन के पास हर रोज ऐसे मरीज आते हैं जो झाड़फूंक के चक्कर में पड़ कर अपनी बीमारी को गंभीर बना लेते हैं या मौत के मुंह में चले जाते हैं. कई बार मरीजों को झाड़फूंक न कराने की सलाह देने पर उन्हें भी लोगों के विरोध का सामना करना पड़ता है.

पढ़ेलिखे भी शिकार

एक मनोविज्ञानी राधेश्याम चौधरी का कहना है कि पढ़ेलिखे लोगों की इलाज के लिए बाबाओं के आगे लाइन लगाने की खास वजह यह होती है कि उन के मन में बचपन से ही भूतप्रेतों और बाबाओं को ले कर डर बैठा दिया जाता है जिसे वे बड़ा होने पर भी अपने मन से निकाल नहीं पाते हैं.

अगर ऐसे लोग कभी बीमार पड़ते भी हैं या परेशानियों का शिकार होते हैं तो उन्हें इस का इलाज बाबाओं के पास ज्यादा दिखाई देता है. उन को इस बात की समझ तब आती है जब वे बाबाओं के झांसे में पड़ कर अपना नुकसान कर बैठते हैं. हमें बच्चों में वैज्ञानिक सोच पैदा करनी चाहिए जिस से उन के मन में भूतप्रेतों का डर न रहने पाए.

ऐसे मरीज हैं ज्यादा

पीरफकीरों के यहां झाड़फूंक कराने आए ज्यादातर लोग दिमागी बीमारियों से जूझ रहे होते हैं. ऐसे मरीजों के परिवार वाले मरीज की ऊलजुलूल हरकतों को भूतप्रेत का साया मान लेते हैं जिस के चलते वे बाबाओं की शरण में पहुंच जाते हैं.

झाड़फूंक की दुकान चलाने वाला बाबा सब से पहले उन्हें डाक्टरों के पास ले जाने से मना करता है, क्योंकि उसे पता होता है कि अगर मरीज डाक्टर के पास चला गया तो न केवल आसानी से ठीक हो जाएगा बल्कि उसे अपनी झाड़फूंक की दुकान भी बंद करनी पड़ जाएगी. इस से लंबे समय तक जेब ढीली करने वालों की तादाद में कमी आ जाएगी और उस की पोल खुलने का भी डर बना रहेगा.

मानसिक रोग विशेषज्ञ डाक्टर मलिक मोहम्मद अकमलुद्दीन का कहना है कि दिमागी बीमारी के ज्यादातर मरीज तो उन के पास तब आते हैं जब उन की हालत बहुत ज्यादा बिगड़ चुकी होती है.

परिवार से पूछने पर पता चलता है कि मरीज की अजीबोगरीब हरकतों को भूतप्रेतों का साया मान कर वे उस की झाड़फूंक करा रहे थे.

अजीब हरकतें करना दिमागी बीमारी की निशानी है. इस में कई तरह के लक्षण एकसाथ दिखाई पड़ सकते हैं. इन में स्किजोफ्रेनिया, बाइपोलर डिसऔर्डर या कैटाटोनिक अवसाद जैसी कई बीमारियां शामिल हैं.

इन बीमारियों में मरीज के विचारों और बरताव में बदलाव आ जाता है. इस के चलते वह कुछ समय के लिए अपनी देखभाल करने में नाकाम हो जाता है.

इसी तरह के लक्षण दूसरी दिमागी बीमारियों में भी पाए जाते हैं. कुछ बीमारियों में मरीज अपनेआप को किसी दूसरे के किरदार के साथ जीने लगता है. लोग समझते हैं कि उस पर कोई ऊपरी साया है, जबकि भूतप्रेत या ऊपरी साया सब बकवास है जो पोंगापंथियों के दिमाग की उपज होती है.

ऐसी बीमारियों में डाक्टरी इलाज का सहारा लेना चाहिए, न कि बेसिरपैर की बातों में फंस कर अपनी जेब ढीली कर दी जाए.

डाक्टर वीके वर्मा का कहना है कि सामान्य या गंभीर बीमारियों की दशा में हमें डाक्टर से इलाज कराना चाहिए जिस से समय रहते बीमारी से न केवल नजात मिलेगी, बल्कि बच्चा न पैदा होने जैसी समस्याओं से जूझ रही औरतों का बाबाओं द्वारा यौन शोषण भी नहीं हो पाएगा.

अगर कोई भी इलाज के लिए पीरफकीरों और बाबाओं की शरण में जाने को कहता है तो उसे अंधविश्वास फैलाने के जुर्म में जेल भिजवाने का डर दिखाएं.

याद रखिए, कोई भी आप को झाड़फूंक कराने के लिए मजबूर नहीं कर सकता. अगर कोई ऐसा करता पाया जाता है तो उस के ऊपर सख्त कानूनी कार्यवाही की जा सकती है.

शौचालय सस्ते में बनाएं

भारत में खुले में शौच की समस्या आज भी चुनौती बनी हुई है, जबकि सरकार जोरजोर से खुले में शौच मुक्त होने के ढोल पीट रही है. सरकार शौचालय बनवाने के लिए रुपए भी देती है, लेकिन यह पैसे भ्रष्टाचार के चलते जरूरतमंदों तक पहुंच ही नहीं पाते हैं.

खुले में शौच की समस्या का सीधा सामना औरतों और लड़कियों को ज्यादा करना पड़ता है. इस दौरान किसी जंगली जानवर के हमले या जहरीले जीव के काटने से भी मौत होना आम बात है. कई बार उन्हें बलात्कार का शिकार तक होना पड़ता है.

बूढ़े और लाचार बीमार लोगों का बाहर शौच के लिए जाना और भी मुश्किल काम है. बारिश के दौरान या आपदा के समय में यह और भी भयावह हो जाता है.

खुले में किए गए शौच से संक्रमण फैलने और बीमारियां होने का खतरा बना रहता है क्योंकि यहीं से मक्खियां मल से फैलने वाले कीटाणुओं को घरों और खाने की चीजों तक पहुंचा देती हैं.

लिहाजा, यह जरूरी हो जाता है कि गांवों या शहरों में खुले में शौच में कमी लाने के लिए शौचालय बनाने की सस्ती तकनीक का सहारा लिया जाए जिस के तहत बने शौचालय सस्ते होने के साथसाथ टिकाऊ भी हों.

सोख्ता शौचालय

सोख्ता गड्ढों वाले शौचालयों को महज 10 से 12 हजार रुपए में तैयार किया जा सकता है. इस में 2 गड्ढे बनाए जाते हैं. इन की गहराई सवा मीटर से ज्यादा नहीं होनी चाहिए क्योंकि मल को खाने वाले कीड़े जमीन के अंदर सवा मीटर की गहराई में ही पैदा होते हैं. ज्यादा गहराई होने पर कीड़े पैदा नहीं हो पाते हैं और जमीन के अंदर तक पीने का पानी खराब होने का खतरा भी बढ़ जाता है.

प्रधानमंत्री के हाथों ‘गौरवग्राम पुरस्कार’ हासिल कर चुके स्मार्ट विलेज हसुड़ी औसानपुर के ग्राम प्रधान दिलीप कुमार त्रिपाठी बताते हैं कि अगर सोख्ता गड्ढों वाले शौचालय का इस्तेमाल ज्यादा समय तक करना चाहते हैं तो शौचालय की सीट के पास 2 गड्ढे बनाने चाहिए. इन्हें समयसमय पर साफ कर के 10 से 12 सदस्यों वाले परिवार के लिए सालों तक इस्तेमाल में लाया जा सकता है.

इस तरह के शौचालयों को बनाते समय यह ध्यान देना चाहिए कि शौचालय के गड्ढे पीने के पानी के चांपाकल वगैरह से कम से कम 10 मीटर की दूरी पर हों.

society

2 गड्ढों वाले शौचालय व एक चबूतरे को बनाने के लिए 1,000 ईंटें, डेढ़ से 3 बोरी सीमेंट, 10 से 12 बोरी बालू, 4 फुट पाइप, एक लैट्रिन सीट व गड्ढा ढकने के लिए ढक्कन की जरूरत पड़ती है. इस तरह के शौचालय को बनाने के लिए सरकार से 12,000 रुपए की मदद भी मुहैया कराई जाती है.

बांस से बने सस्ते शौचालय

अगर सस्ते में शौचालय बनवाने की बात की जाए तो बांस से बने शौचालयों का सहारा ले सकते हैं. इन में बहुत कम खर्च आता है.

गोरखपुर जिले के जंगल कौडि़या ब्लौक के कई गांवों में इस तरह की तकनीक से लोगों ने अपने घरों में शौचालयों को बनवाया है जिन में शौचालय की दीवारों और छत को बांस से बना कर उस पर मिट्टी का लेप लगा दिया जाता है और नीचे सीमेंट, ईंट के साथ चबूतरा बना कर लैट्रिन सीट बिठाई जाती है. इसी के बगल में गड्ढा बनाया जाता है. यह गड्ढा सोख्ता गड्ढों की तरह ही बनता है.

इस तरह की शौचालय तकनीक को ईजाद करने वाली संस्था गोरखपुर ऐनवायरनमैंटल ऐक्शन ग्रुप से विजय पांडेय बताते हैं कि गरीब परिवारों के लिए यह तकनीक बहुत ही कारगर है और इस में मुश्किल से 4,930 रुपए की लागत आती है जिसे कोई भी परिवार आसानी से अपने घरों में बनवा सकता है. यह जगह भी कम घेरता है.

सैप्टिक टैंक शौचालय

ऐसे शौचालयों को भी कम लागत में बनाया जा सकता है लेकिन यह उस जगह के लिए ज्यादा मुफीद माना जाता है जहां सीवर लाइन हो या ढकी हुई नालियां हों.

शौचालय बनाने के कारोबार से जुड़े राकेश बताते हैं कि सैप्टिक टैंक शौचालय को महज एक दिन में बना कर इस्तेमाल में लाया जा सकता?है. इस के लिए पहले से बने सीसी पाइप को जमीन के अंदर फिट किया जाता है और फिर उस के बगल में चबूतरा बना कर शौच जाने के लिए चालू कर दिया जाता है.

ऐसे शौचालयों से निकलने वाले पानी को खुले में नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि इस से मच्छर, कीड़ेमकोड़ों के पनपने का डर बढ़ जाता है और खुले में पानी छोड़ने से आबोहवा पर बुरा असर पड़ सकता है.

ऐसे शौचालय बनाने के लिए 15 से 17 हजार रुपए की लागत आती है. 5 से 10 सदस्यों वाले परिवारों के लिए इसे 50 साल तक शौच जाने के लिए इस्तेमाल में लाया जा सकता है.

बच्चा उदास रहे तो हो जाएं सावधान

15 साल की रिया जब भी स्कूल जाती, क्लास में सब से पीछे बैठ कर हमेशा सोती रहती. उस का मन पढ़ाई में नहीं लगता था. वह किसी से न तो ज्यादा बात करती और न ही किसी को अपना दोस्त बनाती. अगर वह कभी सोती नहीं थी, तो किताबों के पन्ने उलट कर एकटक देखती रहती. क्या पढ़ाया जा रहा है, इस से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता. हर बार उस की शिकायत उस के मातापिता से की जाती, पर इस का उस पर कोई असर नहीं पड़ता था.

वह हमेशा उदास रहा करती थी. इसे देख कर कुछ बच्चे तो उसे चिढ़ाने भी लगते थे, पर वह उस पर भी अधिक ध्यान नहीं देती थी. परेशान हो कर उस की मां ने मनोवैज्ञानिक से सलाह ली. कई प्रकार की दवाएं और थेरैपी लेने के बाद वह ठीक हो पाई.

दरअसल, बच्चों में डिप्रैशन एक सामान्य बात है, पर इस का पता लगाना मुश्किल होता है. अधिकतर मातापिता इसे बच्चे का आलसीपन समझते हैं और उन्हें डांटतेपीटते रहते हैं. इस से वे और अधिक क्रोधित हो कर कभी घर छोड़ कर चले जाते हैं या फिर कभी आत्महत्या कर लेते हैं.

बच्चों की समस्या न समझ पाने की 2 खास वजहें हैं. पहली तो हमारे समाज में मानसिक समस्याओं को अधिक महत्त्व नहीं दिया जाता और दूसरे, अभी बच्चा छोटा है, बड़ा होने पर समझदार हो जाएगा, ऐसा कह कर अभिभावक इस समस्या को गहराई से नहीं लेते. मातापिता को लगता है कि यह समस्या सिर्फ वयस्कों को ही हो सकती है, बच्चों को नहीं.

शुरुआती संकेत : जी लर्न की मनोवैज्ञानिक दीपा नारायण चक्रवर्ती कहती हैं कि आजकल के मातापिता बच्चों की मानसिक क्षमता को बिना समझे ही बहुत अधिक अपेक्षा रखने लगते हैं. इस से उन्हें यह भार लगने लगता है और वे पढ़ाई से दूर भागने लगते हैं. अपनी समस्या वे मातापिता से बताने से डरते हैं और उन का बचपन ऐसे ही डरडर कर बीतने लगता है, जो धीरेधीरे तनाव का रूप ले लेता है. मातापिता को बच्चे में आए अचानक बदलाव को नोटिस करने की जरूरत है. कुछ शुरुआती लक्षण निम्न हैं :

–       अगर बच्चा आम दिनों से अधिक चिड़चिड़ा हो रहा हो या बारबार उस का मूड बदल रहा हो.

–       बातबात पर  गुस्सा होना या रोना.

–       अपनी किसी हौबी या शौक को फौलो न करना.

–       खानेपीने में कम दिलचस्पी रखना.

–       सामान्य से अधिक समय तक सोना.

–       अलगथलग रहने की कोशिश करना.

–       स्कूल जाने की इच्छा का न होना

–       स्कूल के किसी काम को न करना आदि.

इस बारे में दीपा आगे बताती हैं कि किसी भी मातापिता को बच्चे को डिप्रैशन में देखना आसान नहीं होता और वे इसे मानने को भी तैयार नहीं होते कि उन का बच्चा डिप्रैशन में है.

तनाव से निकालना : निम्न कुछ बातों से बच्चे को तनाव से निकाला जा सकता है–

–       हमेशा धैर्य रखें, गुस्सा करने पर बच्चा भी रिवोल्ट करेगा और आप उसे कुछ समझा नहीं सकते.

–       बच्चे को कभी यह एहसास न होने दें कि वह बीमार है. यह कोई बीमारी नहीं है, इस का इलाज हो सकता है.

–       हिम्मत से काम लें, बच्चे को डिप्रैशन से निकालने में मातापिता से अच्छा कोई नहीं हो सकता.

–       बच्चे से खुल कर बातचीत करें, तनावग्रस्त बच्चा अधिकतर कम बात करना चाहता है. ऐसे में बात करने से उस के मनोभावों को समझना आसान होता है. उस के मन में कौन सी बात चल रही है, उस का समाधान भी आप कर सकते हैं.

–       हमेशा बच्चे को लोगों से मिलनेजुलने के लिए प्रेरित करें.

–       बातचीत से अगर समस्या नहीं सुलझती है, तो इलाज करवाना जरूरी है. इस के लिए आप खुद उसे मनाएं और ध्यान रखें कि डाक्टर जो भी दवा दे, उसे वह समय पर ले, इस से वह जल्दी डिप्रैशन से निकलने में समर्थ हो जाएगा.

अपना दायित्व समझें : मातापिता बच्चे के रिजल्ट को ले कर बहुत अधिक परेशान रहते हैं. इस बारे में साइकोलौजिस्ट राशिदा कपाडि़या कहती हैं कि बच्चों में तनाव और अधिक बढ़ जाता है जब उन की

बोर्ड की परीक्षा हो. ऐसे में हर मातापिता अपने बच्चे से 90 प्रतिशत अंक की अपेक्षा लिए बैठे रहते हैं और कम नंबर आने पर वे मायूस होते हैं. ऐसे में बच्चा और भी घबरा जाता है. उसे एहसास होता है कि नंबर कम आने पर उसे कहीं ऐडमिशन नहीं मिलेगा, जबकि ऐसा नहीं है, हर बच्चे को अपनी क्षमता के अनुसार दाखिला मिल ही जाता है.

कई ऐसे उदाहरण हैं जहां रिजल्ट देखे बिना ही बच्चे परीक्षा में अपनी खराब परफौर्मेंस के बारे में सोच कर आत्महत्या तक कर लेते हैं. इस से बचने के लिए मातापिता को खास ध्यान रखने की जरूरत है :

–       अपने बच्चे की तुलना किसी अन्य बच्चे से न करें.

–       वह जो भी नंबर लाया है उस की तारीफ करें और उस की चौइस को आगे बढ़ाएं.

–       अपनी इच्छा बच्चे पर न थोपें.

–       उस की खूबियों और खामियों को समझने की कोशिश करें. अगर किसी क्षेत्र में प्रतिभा नहीं है, तो उसे छोड़ उस के हुनर को उभारने की कोशिश करें.

–       एप्टिट्यूड टैस्ट करवा लें, इस से बच्चे की प्रतिभा का अंदाजा लगाया जा सकता है.

–       उस के सैल्फ स्टीम को कभी कम न करें.

–       उस की मेहनत को बढ़ावा दें.

–       समस्या के समाधान के लिए बच्चे से खुल कर बातचीत करें और उस के मनोभावों को समझें तथा उस के साथ चर्चा करें.

–       अपनी कम कहें, बच्चे की ज्यादा सुनें, इस से बच्चा आप से कुछ भी कहने से हिचकिचाएगा नहीं.

–       बच्चे को हैप्पी चाइल्ड बनाएं, डिप्रैशनयुक्त नहीं.

लड़कियां हों या महिलाएं, 5 समस्याएं गायनोकोलौजिस्ट से न छिपाएं

हमेशा हंसती रहने वाली मेघा पिछले 2 महीने से काफी उदास रहने लगी थी. उसे किसी से बात करना तक अच्छा नहीं लगता था. उस ने कालेज जाना भी कम कर दिया था. एक दिन उस की मां ने उस से पूछा, ‘‘क्या बात है मेघा, आजकल मैं देख रही हूं कि तू बहुत उदास रहने लगी है. न हंसती है न किसी से बात करती है?’’

इस पर मेघा ने कहा, ‘‘नहीं मम्मी, ऐसी कोई बात नहीं है, बस यों ही.’’

मेघा की रमेश के साथ पिछले एक साल से दोस्ती थी. दोनों कालेज के बाद अकसर गार्डन या मौल में घूमने जाते थे. उन के शारीरिक संबंध भी बन गए थे. रमेश जब चाहता उसे एकांत जगह पर ले जाता और फिर दोनों सैक्स करते.

2 महीने से मेघा को पीरियड्स नहीं हुए थे. उसे लग रहा था कि वह प्रैग्नैंट हो गई है. इसीलिए वह उदास रहने लगी थी. उसे डर था कि अगर वह मां को यह बताएगी कि रमेश के साथ उस के शारीरिक संबंध हैं और पीरियड्स नहीं हो रहे हैं तो मां उसे डांटेगी और गायनोकोलौजिस्ट के पास ले जाएगी जहां उस की पोलपट्टी खुल जाएगी.

लेकिन ऐसा कब तक चलता. एक दिन उस ने मां को बताया कि उसे पिछले 2 महीने से पीरियड्स नहीं हुए हैं. यह सुन कर पहले तो मां का माथा ठनका कि कहीं मेघा प्रैग्नैंट तो नहीं हो गई है. खैर, मां ने उसे कुछ नहीं कहा. एक दिन वह उसे ले कर एक गायनोकोलौजिस्ट के पास गई. मेघा थरथर कांपने लगी जब गायनोकोलौजिस्ट ने मेघा से उस की समस्या पूछी. पहले तो मेघा सकुचाई पर फिर उस ने डाक्टर को बताया कि उसे पिछले 2 महीने से पीरियड्स नहीं हुए हैं.

डाक्टर ने पूछा कि इस से पहले भी कभी ऐसा हुआ है? तो उस ने जवाब दिया कि पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ.

लेडी डाक्टर बुजुर्ग थी. उस के पास ऐसे कई केस आते थे. डाक्टर ने इस बारे में उस से ज्यादा पूछना उचित नहीं समझा. उस ने मेघा का प्रैग्नैंसी टैस्ट किया, लेकिन रिपोर्ट नैगेटिव निकली, इस का मतलब था कि मेघा प्रैग्नैंट नहीं थी. किसी और वजह से उसे पीरियड्स नहीं हो रहे थे.

इस बार तो मेघा बालबाल बच गई लेकिन अब उस ने फैसला कर लिया कि वह अब अपने बौयफ्रैंड के साथ कभी शारीरिक संबंध नहीं बनाएगी.

लेडी डाक्टर ने मेघा का इलाज शुरू किया और जल्दी ही उस के पीरियड्स नियमित हो गए.

युवतियों की शारीरिक संरचना काफी जटिल होती है. हमेशा कुछ न कुछ समस्या लगी रहती है. अधिकतर युवतियों को इस बारे में सही जानकारी नहीं होती, इसलिए वे डर जाती हैं. उन्हें लगने लगता है कि वे प्रैग्नैंट हो गई हैं, क्योंकि आजकल युवकयुवतियां सैक्स को ले कर काफी बोल्ड हो गए हैं. वे इस में कोई बुराई नहीं समझते. वे खुल कर सैक्स एंजौय करते हैं.

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युवतियों की शारीरिक समस्याएं

अनियमित माहवारी : युवतियों की यह समस्या आम है, पर इसे ले कर वे काफी भयभीत रहती हैं. अनियमित माहवारी के कई कारण हैं. गायनोकोलौजिस्ट डा. रेनू शर्मा के अनुसार, ‘‘जो युवतियां सोचती हैं कि माहवारी प्रैग्नैंसी की वजह से रुकती है, तो यह गलत है. ऐसे अनेक कारण हैं जिन की वजह से अकसर युवतियां इस शारीरिक समस्या का शिकार होती हैं.’’

वास्तव में यह कोई बीमारी नहीं है. यदि समय पर इलाज किया जाए और खानपान पर ध्यान दिया जाए तो यह समस्या जल्दी ही खत्म हो जाती है. कभी कुछ युवतियों को महीने में 2 बार भी माहवारी हो जाती है, जिस से शरीर का काफी खून निकल जाता है और उन में कमजोरी आ जाती है. यह समस्या हार्मोन की गड़बड़ी की वजह से होती है. टैस्टों के जरिए समस्या की जड़ तक पहुंचा जा सकता है और फिर उस के अनुसार ही इलाज किया जाता है.

स्तन में गांठें बनना : युवतियों में यह समस्या कौमन है. अकसर उन के स्तन में गांठें पड़ जाती हैं, जिस की वजह से स्तन को स्पर्श करते ही उन्हें काफी दर्द महसूस होता है. यदि आप को भी यह समस्या है तो आप बिना संकोच के तुरंत अपनी लेडी डाक्टर से मिलें और पूरी समस्या उन्हें सहीसही बता दें. स्तन में गांठें पड़ने के कई कारण हो सकते हैं.

खून की जांच व अल्ट्रासाउंड से समस्या की वजह पता चल जाती है और फिर इलाज से इस समस्या पर काबू पाया जा सकता है. बड़ी उम्र की महिलाओं के स्तनों में गांठों की समस्या हो जाती है जो कभीकभी ब्रैस्ट कैंसर के रूप में सामने आती है. ऐसे में कीमोथेरैपी की जाती है और कभीकभी तो जिस ब्रैस्ट में यह समस्या है, उसे काटना भी पड़ सकता है. युवतियों में ब्रैस्ट कैंसर का प्रतिशत बहुत कम होता है, इसलिए उन्हें घबराने की जरूरत नहीं है.

ल्यूकोरिया : ल्यूकोरिया यानी वेजाइना से निकलने वाला सफेद या चिपचिपा गाढ़ा पदार्थ. ल्यूकोरिया की शिकायत उन युवतियों में अधिक होती है जो अपने जननांगों की साफसफाई नहीं रखतीं या फिर किसी दूसरी युवती के अंदरूनी कपड़े पहनती हैं. यह एक छूत की बीमारी है. यदि समय पर इस का इलाज नहीं कराया जाए तो यह बीमारी काफी बढ़ जाती है. इस से पीडि़त युवती कमजोर हो जाती है. इसलिए अगर आप के साथ ऐसी समस्या है तो तुरंत किसी डाक्टर से संपर्क करें और उन्हें अपनी समस्या बताएं. इस बात का हमेशा ध्यान रखें कि समस्या छिपाने से और बढ़ती है.

ओवरी में गांठ (पीसीओडी) : युवतियों में पीसीओडी की समस्या भी आम है. इस समस्या में ओवरी में गांठ (सिस्ट) बन जाती है, जिस से माहवारी तो रुक ही जाती है, साथ ही पेट में भी दर्द रहता है. कभीकभी अंडाशय में बना अंडा, जो हर महीने फूट कर खून (माहवारी) के रूप में बाहर निकल जाता है, वह फूट नहीं पाता और अंडाशय के चारों ओर जमा हो कर दीवार सी बना देता है, जिस से पेट में सूजन आ जाती है. अगर माहवारी बंद हो जाए तो अल्ट्रासाउंड कराना जरूरी होता है. इस से मालूम हो जाता है कि युवती को पीसीओडी की समस्या है या नहीं. वैसे, इस में कोई घबराने वाली बात नहीं है. यदि समय पर डाक्टर को दिखाया जाए तो इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है.

जो युवतियां संकोचवश समय रहते गायनोकोलौजिस्ट को नहीं दिखातीं उन की यह समस्या बढ़ जाती है. समस्या के बढ़ने पर उन में बांझपन का खतरा भी बढ़ जाता है. इसलिए ऐसी स्थिति में युवतियों को तुरंत डाक्टर से संपर्क करना चाहिए और उन्हें खुल कर अपनी समस्या बतानी चाहिए.

बिना शादी के प्रैग्नैंसी : युवतियां अपनी गलतियों की वजह से प्रैग्नैंसी का शिकार हो जाती हैं. यदि आप कुंआरी हैं और प्रैग्नैंट हो गई हैं तो पहले अपनी मां या बड़ी बहन को कौन्फिडैंस में लें और उन्हें सबकुछ सचसच बता दें.

बहुत सी लड़कियां प्रैग्नैंट होने पर बदनामी के डर से डाक्टर के पास नहीं जातीं और अपनेआप गर्भ गिराने वाली दवाएं खाती रहती हैं, लेकिन कभीकभी ये दवाएं जिंदगी के लिए खतरा भी बन जाती हैं.

पुण्य और फल : पैसा बटोरने का धंधा

भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, जहां धर्म के नाम पर जो भी किया जाए, सब जायज माना जाता है. अपनी तथाकथित आस्था और बेसिरपैर के विश्वास के लिए यहां के रूढ़िवादी लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं. वे तथाकथित देवताओं को भी खुश करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ना चाहते.

‘पुण्य’ कमाने और ‘फल’ पाने के लोगों ने कई साधन अपना रखे हैं, इन्हीं में से एक है, भगवती जागरण. इस से रातभर जाग कर अन्य किसी को कुछ हासिल होता हो या न होता हो, मगर जागरण करने वाली पार्टियों और धंधेबाजों के लिए यह बड़े फायदे का आयोजन बन कर रह गया है.

अब तो भगवती जागरण करने वाली पार्टियां भी पूर्ण रूप से व्यावसायिक हो गई हैं. पहले जहां 500 रुपए में भी ऐसा आयोजन हो जाता था वहीं अब छोटेमोटे गायक ही 2 से 10 हजार रुपए आराम से ले लेते हैं. इस के अलावा अन्य खर्चों की तो बात ही अलग है.

कहींकहीं गुफा बना कर बर्फ की सिल्लियां भी रख दी जाती हैं, जिन पर से बहुत से लोग फिसल कर गिर पड़ते हैं, कई बार तो गंभीर दुर्घटनाएं भी हो जाती हैं. मगर इन सब से बेपरवाह आयोजक पुण्य कमाने के लिए आंखें बंद किए रहते हैं. दरबार किसी पुरोहित के बिना शोभा नहीं देता इसलिए वहां पर अपना एक आदमी बैठा दिया जाता है, ताकि चढ़ावे का ध्यान रखा जाए.

बड़े आयोजनों के लिए महीनों पहले चंदा इकट्ठा किया जाता है. शहरों में मुनादी करवाई जाती है, अखबारों में विज्ञापन दे कर लोगों को सूचित किया जाता है कि वे इस अवसर पर एकत्र हो कर पुण्य कमाने में पीछे न रहें. कई बार आयोजकों को पैसे के कारण आपस में लड़तेझगड़ते भी देखा गया है.

यहां गायक व गायिकाएं फिल्मी तर्जों पर ‘भेंटें’ गाते दिखाई देते हैं. यह सिलसिला सारी रात चलता रहता है और कानफोड़ू आरकेस्ट्रा से बेहद शोर उत्पन्न कर आसपास के लोगों को परेशान किया जाता है. फिर इस से ध्वनि प्रदूषण की जो समस्या उत्पन्न होती है, वह तो अलग ही है. समाज सुधारक भी यहां आ कर खूब तालियां पीटते देखे जाते हैं.

ध्यान देने योग्य बात यह है कि जिस शोर को सुन कर आम आदमी भी खुश नहीं होता, वहां देवी का प्रसन्न होना तो दूर की बात है. भगवती जागरण के अधिकांश कार्यक्रमों में ऐसे भक्त मिल जाएंगे, जो बिना किसी नशे के गा ही नहीं पाते. जब खुद में ही कोई श्रद्धा और भक्ति की भावना नहीं जगा पाए तो उन का गायन दूसरों को कैसे प्रभावित कर सकता है.

इसलिए अब ऐसे आयोजनों का मंतव्य सिर्फ नाम, शोहरत और पैसा कमाना ही रह गया है. यही इन की मुख्य आस्था और यकीन है और इसी यकीन के बल पर कई गायकों ने अपने आडियो कैसेट निकाले हैं. कुछ व्यावसायिक भक्तों ने तो वीडियो कैसेट भी जारी किए हैं. इसी ‘भक्तिभाव’ से प्रेरित हो कर दिन प्रतिदिन ऐसे लोगों की जमात बढ़ती जा रही है.

चिंतपूर्णी मंदिर के पास एक धर्मशाला में एक बार ऐसे आयोजन करने गई 2 देवियों में चढ़ावे की रकम को ले कर विवाद पैदा हो गया. एक देवी ने अपने पास रखे त्रिशूल से दूसरी ‘माता’ पर वार कर दिया और उसे लहूलुहान कर दिया. बाद में थाने में इन में समझौता करवाया गया. जागरण के पीछे लगभग हर जगह यही मानसिकता दिखाई देती है.

जितना धन ऐसे आयोजनों पर खर्च किया जाता है, उस से कई कल्याणकारी योजनाएं चलाई जा सकती हैं. परंतु धर्म के ठेकेदारों को यह सब मंजूर नहीं, क्योंकि पैसा बटोरने का इस से सरल रास्ता और कोई उन्हें दिखाई नहीं देता. इस ‘जागरण संस्कृति’ ने अब व्यवसाय का रूप धारण कर लिया है. फिर ऐसे फलतेफूलते कारोबार को कौन बेवकूफ बंद करना चाहेगा.

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