Romantic Story: पर्सनल स्पेस – क्यों नेहा के पास जाने को बेताब हो उठा मोहित?

Romantic Story: आज औफिस में मैं बिलकुल भी ढंग से काम नहीं कर सका था. इस कारण बौस से तो कई बार डांट खानी पड़ी ही, सहयोगियों के साथ भी झड़प हो गई थी.

आखिर में तंग आ कर मैं ने औफिस से1 घंटा पहले जाने की अनुमति बौस से मांगी, तो उन्होंने तीखे शब्दों में मुझ से कहा, ‘‘मोहित, आज सारा दिन तुम ने कोई भी काम ढंग से नहीं किया है. मुझे छोटीछोटी बातों पर

किसी को डांटना अच्छा नहीं लगता. मुझे उम्मीद है कि कल तुम्हारा चेहरा मुझे यों लटका हुआ नहीं दिखेगा.’’

‘‘बिलकुल नहीं दिखेगा, सर,’’ ऐसा वादा कर मैं उन के कक्ष से बाहर आ गया.

औफिस से निकल कर मैं मोटरसाइकिल से बाजार जाने को निकल पड़ा. मुझे अपनी पत्नी नेहा के लिए कोई अच्छा सा गिफ्ट लेना था.

हमारी शादी को अभी 4 महीने ही हुए हैं. वह मेरे सुख व खुशियों का बहुत ध्यान रखती है. मेरी पसंद पूछे बिना मजाल है वह कोई काम कर ले.

पिछले गुरुवार को उस का यही प्यार भरा व्यवहार मुझे ऐसा खला कि मैं ने उसे शादी के बाद पहली बार बहुत जोर से डांट दिया था.

उस दिन हमें रवि की शादी की पहली सालगिरह की पार्टी में जाना था. जगहजगह टै्रफिक जाम मिलने के कारण मुझे औफिस से घर पहुंचने में पहले ही देर हो गई थी. ऊपर से ये देख कर मेरा गुस्सा बढ़ने लगा कि नेहा समय से तैयार होना शुरू करने की बजाय मेरे घर पहुंचने का इंतजार कर रही थी.

‘‘इन में से मैं कौन सी साड़ी पहनूं, यह तो बता दो?’’ आदत के अनुरूप उस ने इस मामले में भी मेरी पसंद जाननी चाही थी.

‘‘नीली साड़ी पहन लो,’’ अपना व उस का मूड खराब करने से बचने के लिए मैं ने अपनी आवाज में गुस्से के भाव पैदा नहीं होने दिए थे.

‘‘मुझे लग रहा है कि मैं ने इसे तब भी पहना था, जब हम रवि के घर पहली बार डिनर करने गए थे.’’

‘‘तो कोई दूसरी साड़ी पहन लो.’’

‘‘आप प्लीज बताओ न कि कौन सी पहनूं?’’

इस बार मेरे सब्र का बांध टूट गया और मैं उस पर जोर से चिल्ला उठा, ‘‘यार, तुम जल्दी तैयार होने के बजाय फालतू की बातें करने में समय बरबाद क्यों कर रही हो? हर काम करने से पहले मेरी जान खाने की बजाय तुम अपनेआप फैसला क्यों नहीं करतीं कि क्या किया जाए, क्या न किया जाए? मुझे ऐसा बचकाना व्यवहार बिलकुल अच्छा नहीं लगता है.’’

पार्टी में पहुंच कर उस का मूड पूरी तरह से ठीक हो गया, पर मेरा मूड उस के चिपकू व्यवहार के कारण खराब बना रहा.

रवि मेरा कालेज का दोस्त है. उस पार्टी में शामिल होने कालेज के और भी बहुत से दोस्त आए थे. मैं कुछ समय अपने इन पुराने दोस्तों के साथ बिताना चाहता था, पर नेहा मेरा हाथ छोड़ने को तैयार ही नहीं थी.

कुछ देर के लिए जब वह फ्रैश होने गई, तब मैं अपने दोस्तों के पास पहुंच गया था. मेरे दोस्त मौका नहीं चूके और नेहा का चिपकू व्यवहार मेरी खिंचाई का कारण बन गया था.

मुंहफट सुमित ने मेरा मजाक उड़ाते हुए कह भी दिया, ‘‘अबे मोहित, ऐसा लगता है कि तू ने तो किसी थानेदारनी के साथ शादी कर ली है. नेहा भाभी तो तुझे बिलकुल पर्सनल स्पेस नहीं देती हैं.’’

‘‘शायद मोहित शादी के बाद भी हर सुंदर लड़की के साथ इश्क लड़ाने को उतावला रहता होगा, तभी भाभी इस की इतनी जबरदस्त चौकीदारी करती हैं,’’ कुंआरे नीरज के इस मजाक पर सभी दोस्तों ने एकसाथ ठहाका लगाया था.

अपने मन की खीज को काबू में रखते हुए मैं ने जवाब दिया, ‘‘वह थानेदारनी नहीं बल्कि बहुत डिवोटिड वाइफ है. तुम सब अंदाजा भी नहीं लगा सकते कि वह कितनी केयरिंग और घर संभालने में कितनी कुशल है.’’

‘‘अपना यार तो बेडि़यों को ही आभूषण समझने लगा है,’’ नीरज के इस मजाक पर जब दोस्तों ने एक और जोरदार ठहाका लगाया, तो मैं मन ही मन नेहा से चिढ़ उठा था.

पार्टी में हमारे साथ पढ़ी सीमा भी मौजूद थी. वह कुछ दिनों के लिए मुंबई से यहां मायके में अकेली रहने आई थी. पति के साथ न होने के कारण वह खूब खुल कर कालेज के पुराने दोस्तों से हंसबोल रही थी. मेरे मन में उस के ऊपर डोरे डालने जैसा कोई खोट नहीं था, पर कुछ देर उस के साथ हलकेफुलके अंदाज में फ्लर्ट करने का मजा मैं जरूर लेना चाहता था.

नेहा के हर समय चिपके रहने के कारण मैं उस के साथ कुछ देर भी मस्ती भरी गपशप नहीं कर सका. अपने सारे दोस्तों को उस के साथ खूब ठहाके लगाते देख मेरा मन खिन्न हो उठा.

मुझे थोड़ा सा भी समय अपने ढंग से जीने के लिए नहीं मिल रहा है, मेरे मन में इस शिकायत की जड़ें पलपल मजबूत होती चली गई थीं.

मैं खराब मूड के साथ पार्टी से घर लौटा था. मेरे माथे पर खिंची तनाव की रेखाएं देख कर नेहा ने मुझ से पूछा, ‘‘क्या सिर में दर्द हो रहा है?’’

‘‘हां, मुझे भयंकर सिरदर्द हो रहा है, पर तुम सिर दबाने की बात मुंह से निकालना भी मत,’’ मैं ने रूखे लहजे में जवाब दिया.

‘‘मैं सिर दबा दूंगी तो आप की तबीयत जल्दी ठीक हो जाएगी,’’ मेरी रुखाई देख कर उस का चेहरा फौरन उतर सा गया था.

‘‘मुझे सिरदर्द जल्दी ठीक नहीं करना है. अब तुम मेरा सिर खाना बंद करो, क्योंकि मैं कुछ देर शांति से अकेले बैठना चाहता हूं. मुझे खुशी व सुकून से जीने के लिए पर्सनल स्पेस चाहिए, यह बात तुम जितनी जल्दी समझ लोगी उतना अच्छा रहेगा,’’ मैं उस के ऊपर जोर से गुर्राया, तो वह आंसू बहाती हुई मेरे सामने से हट गई थी.

अगले दिन मैं ने उस के साथ ढंग से बात नहीं की. वह रात को मुझ से लिपट कर सोने लगी, तो मैं ने उसे दूर धकेला और करवट बदल ली. मुझे उस का अपने साथ चिपक कर रहना फिलहाल बिलकुल बरदाश्त नहीं हो रहा था.

अगले दिन शनिवार की सुबह मैं जब औफिस जाने को घर से निकलने लगा, तब उस ने मुझ से दुखी व उदास लहजे में कहा था, ‘‘आपस का प्यार बढ़ाने के लिए पर्सनल स्पेस की नहीं, बल्कि प्यार भरे साथ की जरूरत होती है. मैं आप से दूर नहीं रह सकती, क्योंकि आप के साथ मैं कितना भी हंसबोल लूं, पर मेरा मन नहीं भरता है. आज अपने भाई के साथ मैं कुछ दिनों के लिए मायके रहने जा रही हूं. मेरी अनुपस्थिति में आप जी भर कर पर्सनल स्पेस का मजा ले लेना.’’

मैं ने उसे रुकने के लिए एक बार भी नहीं कहा, क्योंकि मैं सचमुच कुछ दिनों के लिए अपने ढंग से अकेले जीना चाहता था.

नेहा से मिली आजादी का फायदा उठाने के लिए मैं ने उस दिन औफिस खत्म होने के बाद अपने दोस्त नीरज को फोन किया. उस ने फौरन मुझे अपने घर आने की दावत दे दी, क्योंकि वह मुफ्त की शराब पीने को हमेशा ही तैयार रहता था.

हम दोनों ने उस के ड्राइंगरूम में बैठ कर शराब पी. हमारी महफिल सजने के कारण उस की पत्नी कविता का मूड खराब नजर आ रहा था, पर हम दोनों ने अपनी मस्ती के चलते इस बात की फिक्र नहीं की.

शराब खत्म हो जाने के बाद मुझे मालूम पड़ा कि मेरा दोस्त बदल चुका था. नीरज ने कविता के डर के कारण मुझे डिनर कराए बिना ही घर से विदा कर दिया.

मैं ने बाहर से बर्गर खाया और घर लौट कर नीरज को मन ही मन ढेर सारी गालियां देता पलंग पर ढेर हो गया.

पार्टी के दिन सीमा से खुल कर हंसीमजाक न कर पाने की बात अभी भी मेरे मन में अटकी हुई थी. इतवार की सुबह मैं ने रवि से उस का फोन नंबर ले कर उस के साथ लंच करने का कार्यक्रम बना लिया.

हम 12 बजे एक चाइनीज रेस्तरां में मिले. पहले मैं ने उसे बढि़या लंच कराया और फिर हम बाजार में घूमने लगे. उस की खनकती हंसी और बातें करने का दिलकश अंदाज लगातार मेरे मन को गुदगुदाए जा रहा था.

कुछ देर बाद मैं ने उस से पूछा, ‘‘क्या हम मैटनी शो देखने चलें?’’

‘‘नहीं,’’ उस ने अपनी आंखों में शरारत भर कर जवाब दिया.

‘‘क्यों मना कर रही हो?’’ मैं ने हंसते हुए पूछा.

‘‘हाल के अंधेरे में तुम अपने हाथों को काबू में नहीं रख पाओगे.’’

‘‘मैं वादा करता हूं कि बिलकुल शरीफ बच्चा बन कर फिल्म देखूंगा.’’

‘‘सौरी मोहित, शादी के बाद तुम्हें नेहा के प्रति वफादार रहना चाहिए.’’

उस का यह वाक्य मेरे मन को बुरी तरह चुभ गया. मैं ने उस से चिढ़ कर पूछा, ‘‘क्या तुम अपने पति के प्रति वफादार हो?’’

‘‘मैं उन के प्रति पूरी तरह से वफादार हूं,’’ उस का इतरा कर यह जवाब देना मेरी चिढ़ को और ज्यादा बढ़ा गया.

‘‘फिर मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि अगर मैं जरा सी भी कोशिश करूं, तो तुम मेरे साथ सोने को राजी हो जाओगी.’’

‘‘शटअप.’’ उस ने मुझे चिढ़ कर डांटा, तो मैं उस का मजाक उड़ाने वाले अंदाज में हंस पड़ा था.

मेरे खराब व्यवहार के लिए उस ने मुझे माफ नहीं किया और कुछ मिनट बाद जरूरी काम होने का बहाना बना कर चली गई. मुझे उस के चले जाने का अफसोस तो नहीं हुआ, पर मन अजीब सी उदासी का शिकार जरूर हो गया.

मैं ने अकेले ही फिल्म देखी और बाद में देर रात तक बाजार में अकारण घूमता रहा. उस रात भी मैं ढंग से सो नहीं सका, क्योंकि नेहा की याद बहुत सता रही थी. बारबार उस से फोन पर बातें करने की इच्छा हो रही थी, पर उस के साथ गलत व्यवहार करने के अपराधबोध ने ऐसा नहीं करने दिया.

सोमवार को औफिस में दिन गुजारना मेरे लिए मुश्किल हो गया था. काम में मन न लगने के कारण बौस से कई बार डांट खाई. जब वहां रुकना बेहद कठिन हो गया, तो बौस से इजाजत ले कर मैं घंटा भर पहले औफिस से बाहर आ गया था.

औफिस से निकलने के घंटे भर बाद मैं ने नेहा को फोन कर के उलाहना दिया, ‘‘तुम इतनी ज्यादा निर्मोही कैसे हो गई हो? आज दिन भर फोन कर के मेरा हालचाल क्यों नहीं पूछा?’’

‘‘मैं ने तो आप की नाराजगी व डांट के डर से फोन नहीं किया,’’ उस की आवाज का कंपन बता रहा था कि मेरी आवाज सुन कर वह भावुक हो उठी थी.

‘‘तुम्हारा फोन आने से मैं नाराज क्यों होऊंगा?’’

‘‘मैं फोन करती तो आप जरूर डांट कर कहते कि मैं मायके में रह कर भी आप को चैन से जीने नहीं दे रही हूं.’’

‘‘मैं पागल हूं, जो तुम्हें अकारण डांटूंगा. मुझे लगता है कि मायके पहुंच कर तुम्हें मेरा ध्यान ही नहीं आया.’’

‘‘जिस के अंदर मेरी जान बसती है, उस का ध्यान मुझे कैसे नहीं आएगा?’’

‘‘तो वापस कब आओगी?’’

‘‘आप आज लेने आ जाओगे, तो आज ही साथ चल चलूंगी.’’

‘‘मैं तो आ गया हूं.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि दरवाजा क्यों नहीं खोल रही है, पगली?’’

‘‘क्या बारबार घंटी आप बजा रहे हो?’’

‘‘दरवाजा खोल कर देख लो न मेरी जान.’’

‘‘मैं अभी आई.’’

उस की उतावलेपन व खुशी से भरी आवाज सुन कर मैं जोर से हंस पड़ा था.

दरवाजा खोल कर जब नेहा ने मुझे फूलों का बहुत सुंदर सा गुलदस्ता हाथ में लिए खड़ा देखा, तो उस का चेहरा खुशी से खिल उठा. अपना उपहार स्वीकार करने के बाद वह मेरी छाती से लिपट कर खुशी के आंसू बहाने लगी.

मुझे इस समय उस की वह बात ध्यान आ रही थी, जो उस ने मायके आने से पहले कही थी, ‘आपस का प्यार बढ़ाने के लिए पर्सनल स्पेस की नहीं, बल्कि प्यार भरे साथ की जरूरत होती है. मैं आप से दूर नहीं रह सकती, क्योंकि आप के साथ मैं कितना भी हंसबोल लूं, पर मेरा मन नहीं भरता है.’

मैं ने उस का माथा चूम कर भावुक लहजे में कहा, ‘‘मेरी समझ में यह आ गया

है कि तुम्हारे अलावा मेरी जिंदगी में खुशियां भरने की किसी के पास फुरसत नहीं है. मुझे अपनी जिंदगी में पर्सनल स्पेस नहीं, बल्कि तुम्हारा प्यार भरा साथ चाहिए. भविष्य में मेरी बातों का बुरा मान कर फिर कभी मुझे अकेला मत छोड़ना.’’

‘‘कभी नहीं छोड़ूंगी.’’ अपनी मम्मी की उपस्थिति की परवाह न करते हुए उस ने मेरे होंठों पर छोटा सा चुंबन अंकित किया और फिर शरमा भी गई.

उस ने कुछ देर बाद ही मेरे साथ सट कर बैठते हुए ढेर सारे सवाल पूछने शुरू कर दिए. मुझे उस के सवालों का जवाब देने में अब कोई परेशानी महसूस नहीं हो रही थी. उस से दूर रहने के मेरे अनुभव इतने घटिया रहे थे कि मेरे सिर से पर्सनल स्पेस में जीने का भूत पूरी तरह से उतर गया था.

Family Story: मैं सास ही भली – क्या वाणी एक अच्छी बहू बन पाई

Family Story: ‘‘वाणी, बस मुझे तुम से यही कहना है कि मेरी मम्मी को भी अपनी मां ही समझना, उन्हें सास मत सम झना. दीदी का जब से विवाह हुआ है, उन्हें अकेलापन लगता होगा. तुम बिलकुल अपनी मां की तरह ही रहना उन के साथ, प्रौमिस करो, वाणी,’’ फोन पर दूसरी तरफ वाणी ने क्या कहा होगा, यह तो नहीं जान सकती थी लतिका, पर अपने बेटे मयंक की फोन पर यह बात सुन कर उन्हें बेटे पर गर्व हो आया, वाह, कितनी अच्छी बात कर रहा है उन का बेटा, गर्व से सीना चौड़ा हो गया, आंखों में चमक उभर आई.

एक महीने बाद ही तो मयंक का विवाह होना था. वह वाणी से प्रेमविवाह कर रहा था. मयंक ने जब मां लतिका को पहली बार वाणी से मिलवाया था, तो वाणी उन्हें पहली नजर में ही पसंद आ गई थी.

सुंदर, स्मार्ट, खूब हंसमुख वाणी का घर मुंबई के एक इलाके पवई में लतिका के घर से कुछ दूरी पर ही था. वाणी और मयंक अच्छे पद पर थे. दोनों एक कौमन फ्रैंड के घर पर मिले थे. दोस्ती, प्यार, फिर अब विवाह होने वाला था. वाणी अपने मातापिता की इकलौती संतान थी.

लतिका की बेटी सुनयना का विवाह 2 वर्षों पहले हुआ था. वह सपरिवार अमेरिका में थी.

लतिका और उस के पति विनोद बहुत उत्साहपूर्वक विवाह की तैयारियों में व्यस्त थे. वाणी लतिका से फोन पर काफी संपर्क में रहती थी. अभी से ही वह लतिका का दिल जीत चुकी थी. और आज बेटे की फोन पर बात सुन कर तो लतिका के पैर ही जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. विनोद जैसे ही औफिस से आए, लतिका ने उन के साथ बैठ कर चाय पीते हुए मयंक की फोन पर सुनी बात बताई. विनोद ने कहा, ‘‘वाह, तुम तो बहुत लकी हो. एक बेटी गई, दूसरी बेटी घर आ रही है. चलो, अच्छा है. मयंक सचमुच सम झदार बेटा है.’’

लतिका का वाणी को बहू बना कर लाने का उत्साह और भी बढ़ गया था. दिन गिन रही थीं. कब बहू आए और उन्हें अच्छा साथ मिले. कुछ महीनों से उन का स्वास्थ्य भी ठीक नहीं था. और वाणी बहू बन कर आ भी गई, घर की दीवारें जैसे चहक उठीं. लतिका ने खुलेदिल से उस पर स्नेह की वर्षा कर दी. पहले ही दिन वाणी उन से लिपट गई, ‘‘मैं आप को मयंक की तरह मम्मी नहीं कहूंगी, मैं अपनी मम्मी को मां ही कहती हूं, आप को भी मां ही कहूंगी. अब आप भी मेरी मां जैसी ही तो हैं न.’’

‘‘हां, बेटा, और क्या, मु झे अपनी मां ही सम झना, सास नहीं. यह सासबहू का रिश्ता मु झे भी कुछ डराता ही है. हम मांबेटी की तरह ही रहेंगे,’’ विनोद वाहवाह कर उठे, कहने लगे, ‘‘यह क्या? दोनों मांबेटी बन कर रहोगी तो मैं और मयंक तो बोर हो जाएंगे, क्यों मयंक?’’

मयंक सम झा नहीं, बोला, ‘‘क्यों, पापा?’’

‘‘अरे, सासबहू का कोई ड्रामा देखने को नहीं मिलेगा, बोर नहीं होंगे?’’ मयंक हंस पड़ा, वाणी ने इतरा कर कहा, ‘‘नहीं, पापा, आप को सासबहू का कोई ड्रामा देखने को नहीं मिलेगा. ये मेरी मां हैं, सास नहीं.’’

‘‘ओह, मेरी बच्ची,’’ लतिका ने अपनी बांहें फैला दीं, वाणी उन की बांहों में लाड़ से समा गई. सुनयना हंसती हुई यह दृश्य देख रही थी, जो वाणी के लिए अमेरिका से आई थी. बोली, ‘‘यह तो अच्छा है, अब तो आप मु झे याद ही नहीं करेंगी.’’

वाणी ने कहा, ‘‘अरे नहीं दीदी, एक घर में 2 बेटियां भी तो होती हैं न, मां के लिए तो सब बराबर होती हैं, हैं न, मां?’’ लतिका तो ऐसी लाड़ दिखाने वाली बहू पा कर निहाल थीं, फौरन हां में सिर हिलाया. हंसीखुशी के माहौल में एक हफ्ता खूब शानदार बीता. फिर दोनों एक हफ्ते के लिए हनीमून पर चले गए. वहां से भी वाणी लतिका को मां, मां कर के  लगातार संपर्क में रही. लतिका बहुत खुश थी. जिस दिन मयंक और वाणी घूम कर वापस आए, वाणी ने घर में घुसते हुए अपने बैग जमीन पर पटके और आराम से सोफे पर पसर गई, ‘‘ओह मां, थक गई, चाय चाहिए,’’ रात के 8 बज रहे थे. सुनयना का पति राजीव विवाह अटैंड कर के लौट चुका था. वहां उस के मातापिता भी राजीव और सुनयना के साथ ही रहते थे.

लतिका ने कहा, ‘‘पर बेटा, अब तो खाना लग ही गया है. तुम लोग फ्रैश हो कर खाना पहले खा लेते, चाय बाद में पी लेना.’’

‘‘नहीं मां, चाय पीने का मन है, बना दो न,’’ वाणी ने इस तरह कहा कि सुनयना को हंसी आ गई. उस ने लतिका को देख कर आंख मारते हुए कहा, ‘‘आप की दूसरी बेटी के लिए मैं चाय बना लाती हूं,’’ चाय आने तक वाणी फ्रैश हो चुकी थी. मयंक भी सोफे पर पसरा था. लतिका मयंक से ट्रिप के बारे में पूछती रही. विनोद भी आ गए, तो सब ने खाना शुरू किया. खाना देख कर वाणी ने कहा, ‘‘मां, छोले तो ठीक हैं पर यह आलूगोभी. मां, मेरा दिमाग खराब हो जाता है आलूगोभी देख कर.’’

लतिका चौंकी, ‘‘ओह, पसंद नहीं है?’’

‘‘न मां, बिलकुल नहीं, मु झे यह टिफिन में कभी मत देना?’’

विनोद ने कहा, ‘‘तुम्हें औफिस में टिफिन चाहिए, मैं और मयंक तो औफिस की कैंटीन में ही खा लेते हैं. लतिका के ऊपर सुबह खाने का काफी काम आ जाता था. उस की तबीयत भी ठीक नहीं रहती.’’

‘‘पर पापा, मां हमेशा टिफिन देती थीं. कैंटीन का खाना तो मैं रोजरोज खा ही नहीं सकती.’’

लतिका के चेहरे पर कुछ सोचने के भाव आए, फिर पूछ लिया, ‘‘क्या ले जाना पसंद करोगी, बेटा.’’

‘‘खूब अच्छीअच्छी चीजें, मां?’’

मयंक ने कहा, ‘‘तुम एक काम करना, थोड़ा जल्दी उठ कर मम्मी के साथ किचन देख लेना कि क्या बनाना है?’’

‘‘न बाबा, सुबह कहां किचन में जाने का मन होगा, घर में टिफिन मां ही बनाती थीं, ये भी तो अब मेरी मां हैं. अब मेरा यही घर है, यही मां, है न मां?’’ भोला चेहरा लिए वाणी ऐसे बात कर रही थी कि किसी को पलभर तो कुछ सू झा ही नहीं. विनोद और सुनयना की नजरें मिलीं, दोनों ने अपनी हंसी मुश्किल से रोकी. सुनयना काफी स्नेहिल स्वभाव की लड़की थी, बोली, ‘‘मम्मी, आप मेरा टिफिन बनाती थीं न, अब वाणी का भी बना देना,’’ लतिका ने ठंडी सांस लेते हुए हां में सिर हिला दिया.

वे रात को सोने लेटीं तो विनोद ने उन्हें छेड़ा, ‘‘कैसा लग रहा है? एक और बेटी की मां बन कर. लतिका ने उन्हें घूरा तो विनोद हंस पड़े. रात के 11 बज रहे थे. इतने में वाणी की आवाज आई, ‘‘मां, मां.’’

‘‘अब क्या हुआ,’’ कहती हुई लतिका अपने बैडरूम से बाहर निकलीं, ‘‘क्या हुआ, बेटा?’’

‘‘मां, बहुत दिन हो गए, गरम दूध चाहिए, सोने से पहले मु झे गरम दूध पीने की आदत है.’’

‘‘हां, ले लो बेटा, तुम्हारा घर है, जाओ, ले लो.’’

‘‘नहीं मां, आप दे दो, मैं थक गई हूं, प्लीज मां.’’

‘‘अच्छा,’’ लतिका को जैसे करंट सा लगा था. अभी तो किचन समेट कर फुरसत मिली थी. और तो किसी को दूध पीने की आदत थी नहीं. लतिका दूध गरम कर के लाई. इतनी देर में वाणी सोफे पर लेट कर अपने फोन में कुछ कर रही थी. मां, मां, सुन कर सुनयना भी आ गई थी. वाणी गटागट दूध पी गई, बोली, ‘‘थैंक्स, मां, अब अच्छी नींद आएगी. मां, मु झे रोज रात में दूध देना,’’ फिर लतिका से लिपट कर उन का गाल चूम लिया, ‘‘बाय, गुडनाइट मां, गुडनाइट दीदी.’’

उस के जाने के बाद सुनयना हंसी, ‘‘क्या हुआ, मां, शौक्ड लग रही हो,’’ सुनयना के कहने के ढंग पर लतिका को हंसी आ गई. ‘चुप रहो तुम’ कह कर हंसती हुई सोने गईं तो विनोद ने फिर छेड़ा, ‘‘क्या हुआ, तुम्हारी नई बेटी ‘मां, मां’ क्यों कर रही थी?’’

‘‘उसे दूध पीना था.’’

‘‘क्या?’’ जोर से हंसे विनोद.

‘‘हां, अब रोज देना है उसे गरम दूध, उसे अच्छा लगता है,’’ दोनों इस बात पर हंसीमजाक करते रहे.

कुछ दिन बाद सुनयना चली गई. सब अपने रूटीन में व्यस्त थे. देखने में तो सब बहुत अच्छा चल रहा था पर लतिका की हालत इन 3 महीनों में पस्त हो चुकी थी. प्यारी सी, लाड़प्यार से लिपटती, नखरे उठवाती बहू को किसी भी बात के लिए टोकने की लतिका की हिम्मत ही नहीं होती थी. एक दिन विनोद से कहा भी, ‘‘ऐसे नखरे तो सुनयना ने भी कभी नहीं उठवाए मु झ से.’’

एक दिन सब डिनर कर रहे थे. मयंक ने बहुत ही लगाव से पूछा, ‘‘मम्मी, अब आप को दीदी की कमी तो नहीं खलती न? वाणी तो आप के साथ अपनी मां की तरह ही रहती है न?’’

वाणी लतिका का चेहरा देख रही थी. लतिका ने उस के भोले से चेहरे पर उत्तर की प्रतीक्षारत आंखों में  झांकते हुए कहा, ‘‘हां, हां, अपनी मां ही सम झती है,’’ वाणी बहुत खुश हुई, उठ कर लतिका के गले में बांहें डाल दीं, कहा, ‘‘मैं इस घर में आ कर कितनी खुश हूं, मां. बता नहीं सकती.’’

विनोद बस, लतिका को देख मुसकरा दिए. वे अपनी पत्नी के बढ़े हुए काम, उन का कमरदर्द, थकान सब सम झ रहे थे. पर वाणी को क्या, कैसे कहा जाए, सम झ ही नहीं आ रहा था. नया विवाह था. शुरू में ही कुछ कह कर मतभेद उत्पन्न नहीं करना चाहते थे. वाणी से और कोई शिकायत भी तो नहीं थी किसी को. सब को प्यार करती थी, खुश रहती थी. पूरा दिन औफिस में रह कर शाम को मां, मां करती घर आती थी. लतिका कैसे किसी बात पर उसे टोके. वे तो बहुत शांतिपसंद और स्नेहिल स्वभाव की महिला थीं.

वाणी को घर के कामों में हाथ बंटाने का कोई शौक न था, न उसे जरूरत महसूस हो रही थी. साफसफाई करने वाली मेड उमा ही लतिका का हाथ बंटा रही थी. एक दिन विनोद ने सलाह दी, ‘‘लतिका, उमा से कहो, खाना भी बना दिया करे. अपनी नई बेटी से तो तुम्हें कुछ हैल्प मिलने के आसार नजर नहीं आ रहे.’’

उमा पुरानी मेड थी, घर की सदस्या की तरह ही थी. वह अब लतिका के कहे अनुसार खाना भी बनाने लगी थी. अब लतिका को कुछ आराम हुआ, बैकपेन में कुछ राहत सी मिली. वाणी के आने से पहले वह सब संभाल तो रही थी पर जब से वाणी आई थी, उन का काम बहुत बढ़ गया था. पहले तो जो भी बनता था, तीनों खा लेते थे. पर वाणी के खानेपीने में खूब नखरे थे, उस के लिए कुछ अलग ही अचानक बनाना पड़ जाता था. मां, मां कर के कुछ फरमाइश करती तो लतिका कुछ मना कर ही न पाती थी. रात को सब डिनर कर रहे थे. वाणी चुप सी थी. लतिका ने पूछा, ‘‘क्या हुआ, बेटा? थक गई क्या? बहुत चुप हो.’’

‘‘मां.’’

‘‘हां, बोलो न.’’

‘‘एक बात कहूं?’’

‘‘अरे, बोलो न क्या हुआ?’’

‘‘मां, मु झे उमा आंटी के हाथ का खाना उतना अच्छा नहीं लग रहा है.’’

‘‘पर वह वैसे ही बनाती है जैसा मैं उसे बताती हूं.’’

‘‘पर मां, आप जैसी रोटी नहीं है उन की.’’

मयंक ने कहा, ‘‘तो  क्या हुआ, ये भी काफी अच्छी हैं.’’

‘‘पर मु झे मां के हाथ की रोटी अच्छी लगती है न.’’

‘‘चुपचाप खा लो वाणी, खाना अच्छा है,’’ मयंक ने फिर कहा.

पर वाणी तो अपनी तरह की एक ही बहू थी, बोली, ‘‘मां, बस मेरे लिए 2 रोटी बना दोगी कल से? प्लीज.’’

लतिका को धक्का सा लगा, क्या है यह लड़की. सम झ ही नहीं आया क्या कहे. वाणी ने फिर कहा, ‘‘बस, मेरी 2 रोटी बनाने में तो आप को तकलीफ नहीं होगी न, मां?’’

मयंक ने कहा, ‘‘अरे, चुपचाप खा लो जैसी बनी है. एक तो तुम कुछ भी काम नहीं करतीं, क्यों मां का काम बढ़ाती रहती हो?’’

वाणी ने उसे घूरा, ‘‘तुम चुप रहो, मैं अपनी मां से बात कर रही हूं, तुम्हें क्या परेशानी है?’’ विनोद और लतिका एकदूसरे का मुंह देख रहे थे, क्या कहें अब.

लतिका ने कह दिया, ‘‘हां, बना दूंगी.’’

‘‘ओह मां, आप कितनी अच्छी हैं, बिलकुल मेरी मां की तरह. वे भी मेरी हर बात मान जाती हैं,’’ कहतेकहते उठ कर लतिका के गले में बांहें डाल दीं वाणी ने. सोने से पहले वाणी को गरम दूध का गिलास पकड़ा कर लतिका कमरे में आईं. आंखों पर हाथ रख कर लेट गईं. आज दिनभर उन की तबीयत ढीली ही थी. विनोद ने पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ कहती वे मुसकराईं तो विनोद हंसे, ‘‘दूसरी बेटी के बारे में सोच रही हो न?’’

‘‘सुनो.’’

‘‘हां, बोलो न.’’

‘‘क्या कोई उसे कह सकता है कि वह मु झे अपनी मां नहीं, सास ही सम झ ले. मैं सास ही भली,’’ दोनों हाथ जोड़ कर अपने माथे से लगा कर लतिका ने नाटकीय स्वर में कहा तो विनोद जोर से हंस पड़े.

Family Story: खिलौना – क्यों रीना अपने ही घर में अनजान थी?

Family Story: पलक बहुत ही खोईखोई सी घर के एक कोने में बैठी थी. न जाने क्यों उसे यह घर बहुत अजनबी सा लगता था. बिजनौर में सबकुछ कितना अपनाअपना सा था. सबकुछ जानापहचाना, कितने मस्त दिन थे वे… पासपड़ोस में घंटों खेलती थी और बड़ी मम्मी कितने प्यार से पकवान बनाती थीं. स्कूल में हमेशा प्रथम आती थी वह. वादविवाद प्रतियोगिता हो या गायन, पलक हमेशा ही अव्वल आती.

रविवार का दिन तो जैसे एक त्यौहार होता था। पासपड़ोस के अंकलआंटी आते थे और फिर घर की छत पर मूंगफली और रेवड़ी की बैठक होती थी. बड़े पापा, मम्मी अपने बचपन के किस्से सुनाते थे. पलक घंटों अपनी सहेलियों के साथ बैठ कर उन पलों में सारा बचपन जी लेती थी.

पूरा दिन 24 घंटों में ही बंटा हुआ था। यहां की तरह नही था कि कुछ पलों में ही खत्म हो जाता है।

तभी ऋषभ भैया अंदर आए और बोले,”पलक, तुम यहां क्यों एक कोने में बैठी रहती हो? क्या प्रौब्लम है।”

ऋषभ भैया अनवरत बोले जा रहे थे,”यह दिल्ली है, बिजनौर नहीं। यह क्या अजीब किस्म की जींस और ढीली कुरती पहन रखी हैं…पता है कल मेरे दोस्त तुम्हें देख कर कितना हंस रहे थे।”

पलक को समझ नहीं आ रहा था, जो कपड़े बिजनौर में मौडर्न कहलाते थे वे यहां पर बेकार कहलाते हैं. पलक सोच रही थी कि बड़ी मम्मी, पापा ने तो उसे दिल्ली में पढ़ने के लिए भेजा था पर यहां के स्कूल में तो लगता है पढ़ाई के अलावा सारे काम होते हैं. सब लोग धड़ाधड़ इंग्लिश बोलते हैं, कैसीकैसी गालियां देते हैं कि उस के कान लाल हो जाते हैं।

वैसे इंग्लिश तो पलक की भी अच्छी थी पर न जाने क्यों दिल्ली में उसे बहुत झिझक होती है.

आज ऋषभ भैया और मम्मीपापा पलक को मौल ले कर गए थे, शौपिंग कराने के लिए। इतना बड़ा मौल पलक ने इस से पहले कभी नहीं देखा था.

जब पलक छोटी थी तो बारबार उस के दिमाग मे यही बात आती थी कि वह नानानानी के साथ क्यों रहती है?

पेरैंटटीचर मीटिंग में वह अपने नानानानी को ले कर नहीं जाना चाहती थी, क्योंकि सब की मम्मी इतनी सुंदर, जवान और नएनए स्टाइल के कपड़े पहनती हैं और उस की नानी खिचड़ी बाल और उलटीसीधी साड़ी पहन कर जाती थी.

एक बार उस ने अपनी नानी से पूछ ही लिया,”मैं अपने मम्मीपापा के साथ क्यों नही रहती हूँ?”

नानी हंसते हुए बोली थीं,”क्योंकि कुदरत ने तुम्हें अपने नानानानी के जीवन मे रंग भरने भेजा है.”

पलक को कुछ समझ नहीं आता था पर यह दुविधा उस के बालमन में हमेशा रहती थी. बस इस के अलावा उस की जिंदगी में सब कुछ परफैक्ट था.

जब कभी कभी पलक की मम्मी रीना दिल्ली से अपने बेटे ऋषभ के साथ आती थी तो पलक को बहुत बुरा लगता था. उन दिनों पलक की नानी कितनी अजनबी हो जाती थीं. सारा दिन वह रीना के चारों तरफ घूमती थीं. ऋषभ भैया उसे कितनी हेयदृष्टि से देखते थे.

पलक जब 11 साल की हुई तो उस के जन्मदिन पर उस की मम्मी ने उसे पूरी कहानी बताई कि पलक की बेहतर देखभाल के लिए ही वह नानानानी के पास रहती है और जल्द ही पलक को वे लोग दिल्ली ले जाएंगे.

कितनी खुश हुई थी पलक यह सुन कर कि जल्द ही वह अपने मम्मीपापा के साथ चली जाएगी.

उस बार जब छुट्टियों में रीना बिजनौर आई हुई थी तो पलक रीना को कर अपने स्कूल पेरैंटटीचर मीटिंग में ले कर गई. दोस्तों को उस ने बहुत शान से अपनी मम्मी से मिलवाया था.

रीना बहुत खुश हो कर पलक के साथ उस के स्कूल गई थी, क्योंकि अब वह अपनी बेटी को उस के बेहतर भविष्य के लिए दिल्ली ले कर जाना चाहती थी.

पलक का स्कूल देख कर रीना को धक्का लगा था, क्योंकि पलक का स्कूल छोटा और पुरानी तकनीक पर आधारित था.

आते ही रीना अपनी मां से बोली,”मम्मी, अब पलक को दिल्ली ले कर जाना ही होगा। इस छोटे शहर में पलक का ठीक से विकास नहीं हो पाएगा। इस के स्कूल में कुछ भी ठीक नही है।”

पलक की नानी रुआंसी हो कर बोलीं,”रीना, तुम भी तो इसी स्कूल में पढ़ी थीं और बेटा तुम तो पलक को इस दुनिया मे लाना ही नहीं चाहती थी। वह तो जब मैं ने सारी जिम्मेदारी उठाने की बात की थी तब तुम उसे जन्म देने के लिए तैयार हुई थी।”

रीना बेहद महत्त्वाकांक्षी युवती थी. जब उस का बेटा ऋषभ 3 वर्ष का ही हुआ था तब पलक के आने की आहट रीना को मिली थी। ऋषभ की जिम्मेदारी, नौकरी और घर की भागदौड़ में रीना थक कर चूर हो जाती थी. ऐसे में एक नई जिम्मेदारी के लिए वह तैयार नहीं थी. वैसे भी उन्हें बस एक ही बच्चा चाहिए था, ऐसे में पलक के लिए उन की जिंदगी में कोई जगह नहीं थी.

दिल्ली में आसानी से गर्भपात नहीं हो सकता था इसलिए रीना बिजनौर गर्भपात कराने आयी थी. पर रीना के मम्मीपापा अपने अकेलेपन से ऊब चुके थे. बेटा विदेश में बस गया था. रीना को भी घरपरिवार और नौकरी के कारण यहां आने की फुरसत नहीं थी. इसलिए रीना के मम्मीपापा, जानकीजी और कृष्णकांतजी को ऐसा लगा जैसे यह कुदरत की इच्छा हो और यह बच्चा उन के पास आना चाह रहा हो…

कितनी मुश्किल से जानकी ने रीना को मनाया था। पूरे समय वे रीना के साथ बनी रही थीं ताकि उसे किसी बात की तकलीफ न हो.

पलक के जन्म के 2 माह बाद जानकी पलक को ले कर बिजनौर आ गई थी. रीना किसी
भी कीमत पर पलक की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहती थी, इसलिए उस ने पलक को अपना दूध भी नहीं पिलाया था.

मां का दूध न मिलने के कारण पहले 2 साल तक पलक बेहद बीमार रही. जानकी और कृष्णकांतजी का एक पैर घर और दूसरा हौस्पिटल में रहता.

पासपड़ोस वाले कहते भी,”आराम के वक्त इस उम्र में यह क्या झंझाल मोल ले लिया है…” पर जानकी की जिंदगी को एक मकसद मिल गया था. उन की दुनियाभर की बीमारियां एकाएक गायब हो गई थीं.

सारा दिन कैसे बीत जाता था जानकी को पता भी नहीं लगता था। पलक के साथ जानकी ने बहुत मेहनत की थी. 4 वर्ष की होतेहोते पलक एकदम जापानी गुड़िया सी लगने लगी थी.

अब जब भी छुट्टियों में रीना घर जाती तो पलक की बालसुलभ हरकतें और उस का भोलापन देख कर उस की सोई हुई ममता जाग उठती थी. पर रीना किस मुंह से अपनी मां से यह कहती, क्योंकि वह तो पलक को इस दुनिया में लाना ही नहीं चाहती थी और न उस की कोई जिम्मेदारी उठाना चाहती थी। इसलिए कितनेकितने दिनों तक वह अपने मम्मीपापा के पास बिजनौर फोन भी नहीं करती थी.

धीरेधीरे समय बीतता गया और ऋषभ भी अब किशोरवस्था में पहुंच गया था. ऋषभ अब अपनी ही दुनिया में व्यस्त रहता.

जब रीना ने अपने पति पराग से इस बात का जिक्र किया तो उस ने भी रीना को झिड़क दिया,”तुम कितनी खुदगर्ज हो रीना, अब पलक बड़ी हो गई है और ऋषभ की तरफ से तुम फ्री हो तो तुम्हें पलक याद आने लगी है और तुम्हें यह एहसास होने लगा है कि तुम पलक की मम्मी हो?

“याद है तुम्हें जब वह 7 महीने की थी और बेहद बीमार थी, तुम्हारी मम्मी ने तुम से आने के लिए कहा था पर तुम औफिस के काम का हवाला दे अमेरिका चली गई थी.

“हर वर्ष जब हम छुट्टियों में घूमने जाते थे तो मैं कितना कहता था कि पलक को भी साथ ले लेते हैं पर तुम हमेशा कतराती थीं क्योंकि तुम 2 बच्चों की जिम्मेदारी एकसाथ नहीं उठा सकती थीं…”

रीना चुपचाप बैठी रही और पलक को अपने घर लाने के लिए मंथन करती रही.

समय बीतता गया और रीना हर संभव कोशिश करती रही अपनी मम्मी को यह जताने की कि उन का पालनपोषण करने का तरीका पुराना है.

वह यह जताना चाहती थी कि पलक की बेहतर परवरिश के लिए उसे दिल्ली भेज देना चाहिए.

आज रीना को पलक के स्कूल जाने से यह मौका मिल भी गया. पलक 12 वर्ष की हो चुकी थी। रीना अपनी बेटी को अपने जैसा ही स्मार्ट बनाना चाहती थी. जब रीना की मम्मी ने अपनी बेटी की बात को अनसुना कर दिया तो रीना ने अपने पापा से बात की कि पलक की आगे की पढ़ाई के लिए उसे दिल्ली भेज देना चाहिए।

कृष्णकांतजी एक व्यवहारिक किस्म के इंसान थे। दिल से न चाहते हुए भी कृष्णकांतजी को पलक की भविष्य की खातिर रीना की बात माननी पड़ी.

पलक को जब पता चला कि वह अपने मम्मीपापा के साथ दिल्ली जा रही है तो वह बेहद खुश थी. पर जब सारा सामान पैक हो गया तो पलक एकाएक रोने लगी कि वह किसी भी कीमत पर नानानानी को छोड़ कर नहीं जाना चाहती…

उधर जानकीजी का घोंसला एक बार फिर से खाली हो गया था पर इस बार पंछी के उड़ने का दर्द अधिक
था. कृष्णकांतजी जितना जानकीजी को समझाते,”वह रीना की ही बेटी है और तुम्हे खुश होना चाहिए कि हमारी पलक बड़े और अच्छे स्कूल में पढ़ेगी पर जानकीजी को तो जैसे उस की दुनिया ही वीरान लगने लगी थी।

जानकीजी को पूरा विश्वास था कि पलक उन के बिना रह नहीं पाएगी. बेटी ने एक बार भी नहीं कहा था, इसलिए उन्हें खुद तो दिल्ली जाने की हिम्मत नही हुई थी पर पति कृष्णकांतजी की चिरौरी कर के घर के पुराने नौकर मातादीन को ढेर सारी मिठाईयों के साथ दिल्ली भेज दिया.

नई दुनिया, नए लोग और चमकदमक सभी को अच्छी लगती हैं और पलक तो फिर भी बच्ची ही थी. वह इस टीमटाम में अपने पुराने घर और साथियों को भूल गई थी. मातादीन को देख कर एक पल के लिए पलक की आंखों में चमक तो आई पर नए रिश्तों के बीच फिर वह चमक भी धीमी पड़ गई थी.

मातादीन पलक को खुश देख कर उसे आशीष दे कर अगले दिन विदा हो गया था. मातादीन को विदा करते हुये रीना का स्वर कसैला हो उठा और
बोली,”काका, मम्मी को बोलिएगा, पलक की चिंता छोड़ दे, वह मेरी बेटी है, मैं अपनेआप संभाल लूँगी।”

दिल्ली आ कर मातादीन ने कहा,”बीबीजी, चिंता छोड़ दीजिए। पलक बिटिया नई दुनिया में रचबस गयी हैं।”

पर जानकीजी खुश होने के बजाए दुखी हो गई थीं और फिर से उन का शरीर बीमारियों का अड्डा बन गया था.

उधर 1 माह बीत गया था और पलक के ऊपर से चमकदमक की खुमारी उतर गई थी. अब पलक चाह कर भी अपनेआप को दिल्ली की भागतीदौड़ती जिंदगी में ठीक से ढाल नहीं पा रही थी.

स्कूल का माहौल उस के पुराने स्कूल से बिलकुल अलग था. घर आ कर पलक किस से अपने मन की बात कहे, उसे समझ ही नहीं आता था.

पलक बहुत कोशिश करती थी अपनेआप को ढालने की पर असफल ही रहती. नानानानी का जब भी बिजनौर से फोन आता तो पलक हर बार यही ही बोलती कि उसे दिल्ली में बहुत मजा आ रहा है. पलक
अपने नानानानी को परेशान नहीं करना चाहती थी.

पलक के मम्मीपापा सुबह निकल कर रात को ही आते थे. ऋषभ भैया अपने दोस्तों और दुनिया में व्यस्त रहते। पासपड़ोस न के बराबर था. यहां के बच्चे उसे बेहद अलग लगते थे।

जब पलक ने अपनी मम्मी से इस बारे में बात की तो 12 साल की बच्ची का अकेलपन दूर करने के लिए उस की मम्मी ने उसे समय देने के बजाए विभन्न प्रकार की हौबीज क्लासेज में डाल दिया.

पहले ही पलक स्कूल में ही ऐडजस्ट नहीं कर पा रही थी और अब गिटार क्लास, डांस क्लास, अबेकस क्लास पलक को हौबी क्लासेज के बजाए स्ट्रैस क्लासेज लगती थी.

पलक की नन्हीं सी जान इतनी अधिक भागदौड़ और तनाव को झेल नहीं पाई थी. उस के हौंसले पस्त हो गए थे.

वार्षिक परीक्षाफल आ गया था और पलक 2 विषयो में फेल हो गई थी.

परीक्षाफल देखते ही रीना पलक पर आगबबूला हो उठी,”बेवकूफ लड़की, कितना कुछ कर रही हूं मैं तुम्हारे लिए… दिल्ली के सलीके सिखाने के लिए कितनी हौबी क्लासेज पर पैसे खर्च हो गए पर तुम तो रहोगी वही छोटे शहर की सिलबिल।”

पराग रीना को समझाने की कोशिश भी करता कि पलक और ऋषभ को एक तराज़ू पर ना तौले. पलक को थोड़ा समय दे, वह जैसे रहना चाहती है उसे रहने दे.

इतने तनाव का यह असर हुआ कि पलक को बहुत तेज बुखार हो गया था. पराग रात भर पलक के माथे पर गीली पट्टियां बदलता रहा था. रीना यह कह कर जल्दी सो गई कि अगले दिन औफिस में उस की जरूरी मीटिंग है.

रात भर बुखार में पलक तड़पती रही. अपनी बेटी को तड़पता देख कर पराग ने निर्णय ले लिया था.
पराग ने जानकीजी को फोन कर दिया और वे जल्दी ही शाम पलक के पास पहुंच गईं.

पराग ने खुद यह महसूस किया कि जानकीजी के आते ही पलक का बुझा हुआ चेहरा चमक उठा था.
जब रात को रीना औफिस से लौटी तो जानकीजी को देख कर वह सकपका गई.

रात में खाने की मेज पर बहुत दिनों बाद पलक ने मन से खाया और बोली,”नानी, यहां पर किसी को ढंग से खाना बनाना नहीं आता।”

रीना कट कर रह गई और बोली,”मम्मी, आप ने पलक की आदत खराब कर रखी है, हैल्थी फूड उसे पसंद ही नही हैं।”

जानकीजी कुछ न बोलीं बस पलक को दुलारती रहीं। 2 दिनों के अंदर ही पलक स्वस्थ हो कर चिड़िया की तरह चहकने लगी.

एक हफ्ते बाद जब जानकीजी अपना सामान बांधने लगीं तो पलक भी अपना बैग पैक करने लगी.

जानकीजी बोलीं,”पलक, तुम कहां जा रही हो?”

पलक बोली,”नानी, मैं आप के बिना नहीं रह सकती हूं, मुझे यहां नहीं पढ़ना।”

रीना चिल्लाने लगी,”मम्मी इसलिए मैं नहीं चाहती थी आप यहां आओ…

“आप ने उसे बिगाड़ दिया है, बिलकुल भी प्रतिस्पर्धा नही है पलक में, बिलकुल छुईमुई खिलौना बना कर छोड़ दिया है। मेरी बेटी इस दुनिया में कभी कुछ कर भी पाएगी या नहीं…”

जानकीजी इस से पहले कुछ बोलतीं कि तभी पराग बोल उठा,”खिलौना पलक को मम्मीजी ने बनाया है या तुम ने?”

“जब तुम्हारा मन था तुम पलक को बिजनौर छोड़ देती हो और जब मन करता है तब तुम सब की अनदेखी कर के पलक को दिल्ली ले कर आ जाती हो, बिना यह जाने कि इस में पलक की मरजी है या नहीं…”

रीना ने हलका सा विरोध किया और बोली,”मां हूं मैं उस की…”

पराग बोला,”हां तुम उस की मां हो और वह तुम्हारी बेटी है मगर कोई चाबी वाला खिलौना नहीं।”

रीना पराग पर कटाक्ष करते हुए बोली,”लगता है तुम बेटी की जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहते हो, इसलिये यह सब बोल रहे हो।”

पराग रीना की बात सुन कर तिलमिला उठा क्योंकि उस में लेशमात्र भी सचाई नहीं थी।

इस से पहले पराग कुछ कहता, पलक ने धीरे से कहा,”मम्मी, मेरी खुशी मेरे अपने घर मे है, जो बिजनौर में है. यह भागदौड़, यह कंपीटिशन मेरे लिए नहीं हैं।”

इस से पहले कि रीना कुछ बोलती, जानकीजी बोलीं,”रीना, जो जहां का पौधा है वह वहीं पर पनपता है।”

रीना ने आगे कुछ नहीं कहा और चुपचाप अपने कमरे में चली गई. जाने से पहले पराग ने पलक को गले लगाते हुए कहा,”पलक जब भी तुम्हारा मन करे बिना एक पल सोचे चली आना और बेटा तुम्हारे 2 घर हैं एक बिजनौर में और दूसरा दिल्ली में।

“बेटा, कामयाबी कभी भी किसी जगह की मुहताज नहीं होती।”

पलक और जानकीजी को जाते हुए देख कर पराग सोच रहा था कि शायद खिलौने की चाबी अब खिलौने के पास ही है.

अब पराग अपनी बेटी की भविष्य को ले कर निश्चिंत हो गया था.

Family Story: समाधान – क्या ममता और राजीव का तलाक हुआ?

Family Story: भारत में औरतों का बांझ होना सब से बड़ा शाप है और बांझ औरत का पिता होना उस से भी बड़ा शाप है. ममता के पिता राकेश मोहन किसान मंडी में एक आढ़त पर मुनीम हैं. 10,000 रुपए महीना पगार है और हर महीने 4,000-5,000 रुपए यहांवहां से कमा लेते हैं. सरकारी स्कूल, सरकारी अस्पताल और सरकारी राशन के भरोसे किसी तरह बच्चों को पालपोस कर बड़ा किया.

राकेश मोहन ने अपनी पूरी जमापूंजी से किसी तरह से बड़ी बेटी ममता की शादी रेलवे के ड्राइवर से करा दी थी. सरकारी नौकरी वाले दामाद के लालच में इस शादी पर 5 लाख रुपए खर्च हो गए थे. अब कोई बचत नहीं थी, क्योंकि परिवार में दामाद के आने से दिखावे पर खर्च बढ़ गया था.

राकेश मोहन अपनी छोटी बेटी शिखा को बीऐड कराने के बाद नौकरी मिलने का इंतजार कर रहे थे. उन्हें पूरी उम्मीद थी कि शिखा की सरकारी नौकरी लग जाएगी और उन्हें उस की शादी पर एक पाई भी नहीं खर्च करनी होगी.

फिलहाल तो उन के माली हालात डांवांडोल थे. शिखा की पढ़ाई और मोबाइल का खर्च भी दीदी और जीजाजी से मिलने वाले उपहार पर निर्भर था.

दामाद बड़ी बेटी का पूरा खयाल रखता था. उस तरफ से कोई चिंता नहीं थी. शिखा की शादी में दामादजी पैसे लगा देंगे, एक उम्मीद इस बात की भी थी.

असली मुसीबत या कहना चाहिए कि मुसीबतों का पहाड़ तब टूटा, जब शादी के 2 साल तक ममता मां नहीं बन सकी और इस मुसीबत ने पूरे परिवार को झकझोर दिया.

गनीमत थी कि ममता अपने पति के साथ शहर में रेलवे क्वार्टर में रहती थी. सास के ताने मोबाइल फोन पर उसे बराबर सुनने पड़ते थे.

राकेश मोहन का ममता से भी बुरा हाल था. ममता की सास तलाक की धमकी दे कर उन का खून सुखा देती थी.

ममता की सास के ताने शादी में मनचाहा दहेज न मिलने से शुरू हो कर बच्चा न होने पर खत्म होते थे. ममता के पूरे मायके को अभागा, मनहूस कहा जाने लगा था.

ममता की छोटी बहन शिखा को भी इस झगड़े में लपेट लिया गया. ममता की सास शिखा से कहती थी कि जरूर ममता की परवरिश ठीक से नहीं की गई, बचपन की गलत आदतों के चलते वह बांझ हो गई है.

ममता की सास ने कानूनी सलाह भी ले ली थी. ममता की सास एक दिन कह रही थीं कि कोर्ट में साबित हो जाएगा कि ममता उन के बेटे को शारीरिक सुख और संतान सुख नहीं दे सकती है. इस वजह से उसे आसानी से तलाक मिल जाएगा. उन्हें हर्जाखर्चा नहीं देना होगा.

ममता की मां इन बातों को सुन कर कई दिन तक कुछ भी नहीं खा सकीं. वे यह सोच कर मरी जा रही थीं कि दामादजी ने अगर ममता को छोड़ दिया, तो उस का क्या होगा.

ममता की दूसरी शादी करने के लिए पैसे तो बचे नहीं हैं और फिर दूसरा आदमी शादी करेगा क्यों?

ममता और उस के पति राजीव को डाक्टर ने बताया कि राजीव के वीर्य में शुक्राणुओं की कमी है और उन्हें डोनर शुक्राणुओं से ‘इन विट्रो फर्टिलाईजेशन’ या ‘इंट्रा यूटेराइन इंसैमिनेशन’ कराना चाहिए, पर दकियानूसी राजीव तैयार नहीं हुआ. जब अपना खून या अपना वंश नहीं है तो संतान से क्या फायदा?

राजीव के शुक्राणुओं को बढ़ाने के लिए डाक्टर ने 2 महीने तक हर हफ्ते अमोनिया एन 13 इंजैक्शन लगाया, उस के बाद डाक्टर ने उन्हें वीटा कवर और विटामिन डी की गोली खाने को दी और परहेज में एंटीऔक्सिडैंट फूड लेने के लिए कहा.

पर जब इस उपाय का असर नहीं हुआ तो एक महीना आयुर्वेदिक ट्रीटमैंट चलाया. डाक्टर ने राजीव को अश्वगंधा और जिनसैंग की औषधि दी. पर जब किसी भी डाक्टरी इलाज से काम नहीं बना, तो मां के बताए हुए उपाय देशी  नुसखे को अपनाया गया.

ममता ने मुलहठी, देवदारू और सिरस के बीज को बराबर मात्रा में ले कर काली गाय के दूध के साथ पीस लिया और इस मिश्रण का 5 दिन तक सेवन किया और 5 दिनों के बाद पति के साथ मिलन किया.

मिलन के समय कूल्हे के नीचे तकिया लगा लिया, ताकि ज्यादा से ज्यादा शुक्राणु गर्भाशय तक पहुंच सकें. कामसूत्र से पढ़ कर कई तरह के आसन आजमाए, पर इन सारे उपाय से भी कोई फर्क नहीं पड़ा.

पति की पगार समय पर आए या न आए, ममता की माहवारी ठीक 28वें दिन आ जाती थी. पतिपत्नी एकदूसरे को बेहद प्यार करते थे और एकदूसरे की कमी बताते नहीं थे. असलियत यह थी कि ममता के पति राजीव की सैक्स में दिलचस्पी नहीं थी.

ममता पति को रिझाने की पूरी कोशिश करती थी. सहेलियों की सीख के मुताबिक ममता ने पति को बहुत मेहनत से कुकुर आसन में सैक्स करना सिखाया. सहेलियों ने बताया था कि इस आसन में वीर्य गर्भाशय के बेहद नजदीक पहुंच जाता है और शुक्राणुओं के अंडाणु से मिलने की उम्मीद बढ़ जाती है.

राजीव को इस खेल में मजा तो आता था, पर वह ममता को मां नहीं बना सका.

इस के बाद राजीव के दोस्तों के सुझाव के मुताबिक मिशनरी आसन किया गया. इस में राजीव ने ममता को बिस्तर पर सीधा लिटाने के बाद ऊपर से अपने अंग को प्रवेश कराया. तर्क यह था कि इस से अंग को योनि में गहराई तक प्रवेश करा सकेंगे, पर यह कोशिश भी बेकार गई.

इस के बाद टोटके का सहारा लिया गया. मंगलवार के दिन पतिपत्नी ने कुम्हार के घर जा कर पुत्र प्राप्ति के लिए प्रार्थना की और एक डोरी, जिस से वह मिट्टी के बरतन बनाता है, मांग लाए.

घर आने के बाद एक गिलास में पानी भर कर वह डोरी उस में डाल दी.

एक हफ्ते तक वह डोरी उस पानी में भिगो कर रखी. अगले मंगलवार को गिलास में से डोरी निकाल कर पतिपत्नी ने वह पानी पी लिया और इस के बाद वह डोरी हनुमान मंदिर जा कर समर्पित कर दी.

उस रात उन्होंने बहुत देर तक सैक्स किया. ममता पसीने से लथपथ थी और राजीव किसी घोड़े की तरह हांफ रहा था. उस रात उन्हें जिंदगी में पहली बार इतना मजा आया था.

ममता बहुत देर तक उसी तरह बिना कपड़ों के बिस्तर पर पड़ी रही, क्योंकि वह कोई जोखिम लेना नहीं चाहती थी. शुक्राणुओं और अंडाणुओं को मिलने में कोई परेशानी न हो, इस बात का पूरा खयाल रखा गया.

28वें दिन जब ममता को पीरियड नहीं आया, तो राजीव दौड़ कर प्रैग्नैंसी टैस्ट किट ले आया. पर यह कोशिश भी नाकाम रही.

29वें दिन खाना बनाते समय ममता को पीरियड हो गया. उसे पैड लगाने का भी समय नहीं मिला और सूती साड़ी पर निशान आ गया.

राजीव की बहन ने एक टोटके को आजमाया. अपने बच्चे का पहला टूटा हुआ दूध का दांत एक काले कपड़े में बांध कर काले धागे की मदद से भाभी की कमर पर बांध दिया. जब तक वे पेट से न हो जाए, इस धागे को किसी भी कीमत पर न उतारने की कठोर हिदायत दी गई.

दूध के दांत को कमर पर बांधे हुए भी 3 महीने का समय हो चुका था. सैक्स के लिए चूहा आसन से हाथी आसन तक सैकड़ों आसनों को आजमाया जा चुका था और अभी भी ममता की कोख सूनी थी.

राजीव भी अब ममता को ही बच्चा न होने के लिए कुसूरवार मानने लगा था. ससुराल पक्ष की मौसी, नानी, बूआ, ताई सभी ममता को ताने देने लगे थे. ममता के पास खुदकुशी करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था. मरने की सोचना आसान है, पर मरना आसान नहीं.

कहते हैं कि मुसीबतें इनसान को बहुत ही शातिर और धोखेबाज बना देती हैं. ममता का देवर मैथिली 2 साल इलाहाबाद में कोचिंग के बाद राजीव और ममता के साथ रहने आया था. शहर में उस के सरकारी नौकरियों के एग्जाम थे. इस हफ्ते दारोगा, अगले महीने रेलवे, उस के बाद पीसीएस, फिर पीजीटी.

ममता को मैथिली के आने से बहुत राहत हो गई. राजीव और उस की मां को अब ममता पर चिल्लाने का मौका नहीं मिलता था.

देवर और भाभी की खूब बनती थी. ऐसा लगता था, जैसे दोनों जन्मजन्मांतर के दोस्त थे. मैथिली के हर काम का समय तय था. 4 बजे जागना, योगासन, कसरत, बादाम का दूध, 4 किलोमीटर की दौड़, फिर दोपहर में घंटों तक सोना और रात 12 बजे तक पढ़ाई. भाभी असिस्टैंट की तरह खड़ी रहती और देवर की हर फरमाइश को मुंह से निकलने से पहले पूरा कर देती.

भैया के घर आने के बाद उन की मोटरसाइकिल से दोनों खरीदारी के बहाने निकल जाते थे. ममता को शादी के 2 साल बाद पता चल रहा था कि वह किस गली और किस महल्ले में रह रही थी, शहर में कौनकौन सी घूमने की जगह थी. शहर में आइसक्रीम की दुकान कहां है और शहर में कितने पार्क हैं.

प्रेम को पनपने के लिए इतनी जगह बहुत है. दोपहर को मैथिली के उठने का समय हो गया था. ममता उस के लिए चाय बना लाई, लेकिन उठाया नहीं बल्कि उस के हाथपैरों को सहलाने लगी, उस के बालों में उंगलियां फिराने लगी.

मैथिली ने एक झटके में ममता को खींच कर सीने से सटा लिया और फिर वे एकदूसरे में खो गए.

अगले दिन भाभी और देवर नजर नहीं मिला पा रहे थे, पर उन के बरताव से साफ समझ आ रहा था कि दोनों बहुत खुश थे.

मैथिली ने रसोईघर में जा कर भाभी की कमर में पीछे से हाथ डाला और कूल्हों को सहलाया तो ममता ने गुस्से में उस की पीठ पर हलके से चिमटे से मार दिया. उसे लिमिट में रहने की हिदायत  दी और जब मैथिली बुरा मान गया तो तुरंत ही ममता ने कान पकड़ कर माफी मांग ली.

ममता का खुराफाती दिमाग पूरी कुशलता से काम कर रहा था. उस रात ममता ने राजीव को बताया कि इन दिनों वह शिवलिंगी बीज एक भाग और पुत्रजीवक बीज 2 भाग को मिश्री के साथ खा रही है. ननद का दिया टोटका बंधा ही है, तो आज अच्छी उम्मीद है. फिर रात में देर तक उस ने राजीव के साथ भी संबंध बनाया.

यह कई दिनों तक चलता रहा. दोपहर में मैथिली और रात में राजीव के साथ प्यार. माहवारी आने के 5 दिन पहले उस ने दोनों से दूरी बना ली. इस बार उन की कोशिश रंग लाई.

शाम को ममता ने राजीव की पसंदीदा कौफी और पकोड़े बनाए और उसे यह खुशखबरी सुनाते हुए उस की गोद में बैठ गई, तो राजीव ने उसे ढेर सारा प्यार किया.

मैथिली, जो अपने एग्जाम दे कर वापस इलाहाबाद चला गया था, ममता ने प्रैग्नैंसी के आखिरी दिनों में वापस बुला लिया. अब दिनभर बेरोकटोक मैथिली अपनी प्यारी भाभी के साथ रह सकता था और एग्जाम की तैयारी भी कर सकता था.

ठीक ममता के डिलीवरी के दिन मैथिली का पीसीएस का रिजल्ट आ गया. मैथली को सरकारी नौकरी मिल गई. ममता के बच्चे की आंखें ममता से मिलती थीं. कान, नाक, ठुड्डी ससुराल के किसी न किसी सदस्य से मिलते थे.

मैथिली के लिए एक से एक अमीर घरों के रिश्ते आ रहे थे, बहुत सारा दहेज भी मिल रहा था, लेकिन मैथिली ने लड़की देखने से साफ मना कर दिया. ममता ने मैथिली को अपनी बहन शिखा से शादी के लिए मना लिया.

मैथिली को भी इसी शहर में नौकरी मिल गई है. दोनों परिवार एकसाथ बहुत प्यार से रहते हैं. ममता दोबारा मां बनने वाली है और इस महीने शिखा की माहवारी भी नहीं हुई है.

Family Story: सावधानी हटी दुर्घटना घटी – आखिर क्या हुआ था सौजन्या के साथ?

Family Story: ‘‘सौजन्या तुम अब तक यहीं बैठी हो? घर नहीं गईं?’’ रीमा सौजन्या को अपने कक्ष में लैपटौप में व्यस्त देख चौंक गई. ‘‘आओ रीमा बैठो. घर जाने का मन नहीं कर रहा था. इसीलिए समाचार आदि देखने लगी. यह इंटरनैट भी कमाल की चीज है. समय कैसे बीत जाता है, पता ही नहीं चलता,’’ सौजन्या बोली.

‘‘हां, वह भी जब तुम विवाह डौट कौम पर व्यस्त हो,’’ रीमा हंसी. ‘‘तुम भी उपहास करने लगीं. विवाह

डौट कौम मेरा शौक नहीं मजबूरी है. सोचती हूं कोई ठीकठाक सा प्राणी मिल जाए तो समझो मैं चैन से जी सकूंगी,’’ सौजन्या बड़े दयनीय ढंग से मुसकराई.

‘‘समझ में नहीं आता तुम्हें कैसे समझाऊं… एक बार नवीन से मिल तो लो. वह भी तुम्हारी तरह हालात का मारा है. पत्नी ने 3 माह की मासूम बच्ची को छोड़ कर आत्महत्या कर ली. बेचारा कोर्टकचहरी के चक्कर में फंस कर बुरी तरह टूट चुका है,’’ रीमा ने पुन: अपनी बात दोहराई. ‘‘तुम भी रीमा… मैं तो सोचती थी तुम मेरी परम मित्र हो. मुझे और मेरी मजबूरी को भली प्रकार समझती हो. मैं तो स्वयं अपने तलाक के केस में उलझ कर रह गई थी. जीवन में कड़वाहट के अलावा कुछ बचा ही नहीं था. 10 साल लग गए उस मकड़जाल से निकलने में. सोचा था तलाक के बाद खुली हवा में सांस ले पाऊंगी, पर अब शुभचिंतक पीछे पड़े हैं. एक तुम्हारे नवीन का ही प्रस्ताव नहीं है मेरे सामने. दूरपास के संबंधियों को अचानक मेरी इतनी चिंता सताने लगी है कि मेरे लिए विवाह के प्रस्तावों की वर्षा होने लगी है,’’ सौजन्या एक ही सांस में बोल गई.

‘‘तो इस में बुराई ही क्या है? अब तो तुम्हारा तलाक भी हो गया है. कब तक यों ही अकेली रहोगी? अपनी नहीं तो अपने मातापिता की सोचो. तुम्हारी चिंता में घुल रहे हैं… तुम तो स्वयं समझदार हो. तुम्हारे भाईबहन अपनी ही दुनिया में इतने व्यस्त हैं कि तुम्हारी खोजखबर तक नहीं लेते,’’ रीमा भी कब चुप रहने वाली थी. ‘‘मैं ने कब मना किया है. मैं तो स्वयं अपने जीवन से ऊब गई हूं. पर समस्या यह है कि सभी प्रस्ताव तुम्हारे कजिन नवीन जैसे ही हैं. मैं ने अपनी मुक्ति के लिए इतनी लंबी लड़ाई लड़ी है कि मैं किसी और के घावों पर मरहम लगाने की हालत में नहीं हूं. मुझे तो कोई ऐसा चाहिए जो मेरे घावों पर मरहम लगा सके.’’

‘‘ठीक है, जैसा तू ठीक समझे. मैं तो तुझे खुश देखना चाहती हूं. मन को मन से राह होती है. पर जब तुम्हें कोई मनचाहा साथी मिल जाए तो बताना जरूर. अकेले ही कोई निर्णय मत ले लेना. इस बार तो हम खूब ठोकबजा कर देखेंगे ताकि बाद में पछताना न पड़े.’’ ‘‘वही तो. मैं तो ऐसा जीवनसाथी चाहती हूं, जो मेरी नौकरी और मोटे वेतन के लालच में नहीं, मैं जैसी हूं मुझे वैसी स्वीकार कर ले,’’ सौजन्या भीगे स्वर में बोली तो रीमा का मन भी भर आया.

दोनों बचपन की सहेलियां थीं और एकदूसरी पर जान छिड़कती थीं. रीमा अपने 2 बच्चों और पति के साथ अपने घरसंसार में सुखी थी, तो सौजन्या अपने नारकीय वैवाहिक जीवन से मुक्त होने के संघर्ष में टूट चुकी थी. 10 सालों के लंबे संघर्ष के बाद उसे पीड़ा से मुक्ति तो मिल गई पर इन 10 सालों के अपमान, तिरस्कार और कड़वाहट को भूल पाना सरल नहीं था. उस पर शुभचिंतकों द्वारा लाए गए नितनए विवाह के प्रस्ताव उस का जीना दूभर कर रहे थे. अत: उस ने अपने जीवन की बागडोर दृढ़ता से अपने हाथों में थामने का निर्णय ले लिया. दूसरा विवाह वह करेगी पर अपनी शर्तों पर. अपने भावी वर का चुनाव वह स्वयं करेगी. वह नहीं चाहती थी कि कोई उस पर तरस खा कर विवाह करे या उस की नौकरी और ऊंचे वेतन के लालच में विवाह के बंधन में बंधे और उस का जीवन नर्क बना दे. अंतर्मुखी सौजन्या को इन हालात में ‘इंटरनैट’ देवदूत की भांति लगा था और वह उसी में अपने सपनों के राजकुमार की खोज में जुट गई थी. 1 सप्ताह पहले जब रीमा अचानक उस के कक्ष में चली आई थी तो वह विभिन्न इंटरनैट पटलों पर भावी वरों के जीवनविवरण देखने में व्यस्त थी.

आशीष कुमार नाम के एक युवक का फोटो और जीवनविवरण उसे इतना भा गया कि वह देर तक उस फोटो को हर कोण से देख कर मंत्रमुग्ध होती रही. जीवनविवरण का हर शब्द उस ने कई बार पढ़ा और पंक्तियों के बीच छिपे अर्थ को ढूंढ़ने का प्रयत्न करती रही. पहली बार उसे लगा कि आशीष को कुदरत ने उसी के लिए बनाया है. चेहरे का हर भाव उसे दीवाना सा किए जा रहा था. फिर तो सौजन्या मौका मिलते ही अपना लैपटौप खोल कर बैठ जाती और मंत्रमुग्ध सी अपने प्रिय को निहारती रहती.

सौजन्या को लगता कि अब उसे छिप कर रोमांस करने की जरूरत नहीं है. अब तो वह डंके की चोट पर अपने प्यार का इजहार करेगी. आशीष भी उस के प्रति अपना प्रेम प्रकट करने में पीछे नहीं रहता था. उस का फोटो देख कर ही वह इतना मंत्रमुग्ध हो गया था कि उस से मिलने की प्रबल इच्छा प्रकट करता रहता था. पर न जाने क्यों सौजन्या ही उस से मिलने का साहस नहीं जुटा पा रही थी. वह एक ही तर्क देती, पहले एकदूसरे को जान लें, समझ लें तब मिलने की सोचेंगे. सौजन्या के मन में अजीब सी जड़ता ने घर कर लिया था. कहीं मिल कर निराशा हाथ लगी तो? कभी सोचती कि उस के जीवन में जो कुछ घट रहा है कहीं मात्र स्वप्न तो नहीं? कहीं आंखें खोलते ही सबकुछ विलुप्त तो नहीं हो जाएगा? क्यों न इस स्वप्न को यों ही चलने दे और उस का रसास्वादन करती रहे.

उधर आशीष का उस से मिलने का हठ बढ़ता ही जा रहा था. सौजन्या का एक ही उत्तर होता कि पहले हम एकदूसरे को भली प्रकार समझ तो लें. ‘‘हमारा परिचय हुए 3 माह से अधिक हो गए हैं. अधिक समझने के लिए एकदूसरे से मिलना भी तो जरूरी है,’’ एक दिन आशीष अनमने स्वर में बोला.

‘‘अभी नहीं, मैं जब मानसिकरूप से तुम से मिलने को तैयार हो जाऊंगी तो स्वयं तुम्हें सूचित कर दूंगी,’’ सौजन्या ने दोटूक उत्तर दिया. अब सौजन्या को रीमा की याद आई, ‘‘रीमा, आज शाम को घर आना. कुछ जरूरी बातें करनी हैं,’’ उस ने रीमा को फोन कर कहा.

‘‘ऐसी क्या जरूरी बातें हैं, जो तुम औफिस में नहीं कर सकतीं?’’ रीमा ने उत्सुक स्वर में पूछा. ‘‘यह तो घर आ कर ही पता चलेगा,’’ सौजन्या ने टाल दिया.

सौजन्या घर पहुंची ही थी कि रीमा आ पहुंची. उस का सामना पहले सौजन्या की मां से हुआ. ‘‘नमस्ते आंटी,’’ रीमा उन्हें देखते ही बोली.

‘‘नमस्ते, तुम तो ईद का चांद हो गई हो बेटी. कभीकभी हम से भी मिलने आ जाया करो,’’ वे बोलीं. ‘‘2 माह पहले ही तो आई थी आंटी,’’

रीमा बोली. ‘‘हां, और मैं ने तुम से कुछ कहा था पर उस का कोई नतीजा तो सामने आया नहीं. विवाह का नाम सुनते ही सौजन्या बेलगाम सांड़ की तरह भड़क उठती है.’’

सौजन्या की मां रीमा से बातें कर ही रही थीं कि सौजन्या अपने कमरे के बाहर की बालकनी में प्रकट हुई, ‘‘अरे रीमा, वहां क्या कर रही हो? ऊपर आओ न.’’ ‘‘जाओ बेटी, हम वृद्धों के पास तुम्हारा

क्या काम?’’ ‘‘क्या मां, छोटी सी बात पर भड़क उठती हो. थोड़ी देर में हम दोनों नीचे आती हैं,’’ सौजन्या बोली.

‘‘जाओ रीमा बेटी, लैपटौप खोल कर बैठी होगी. आजकल वही इस का सबकुछ है. अपने परिवार या समाज की तो इसे चिंता ही नहीं है.’’ ‘‘आंटी, अपना गुस्सा मुझ पर उतार रही थीं. वे शायद समझती नहीं कि सहेली हूं तो क्या हुआ? औफिस में तो तू मेरी बौस है. मेरी बात भला क्यों मानने लगी,’’ रीमा सौजन्या के कक्ष में पहुंचते ही आहत स्वर में बोली.

‘‘अब दूंगी एक, पर छोड़ ये सब, यह देख,’’ सौजन्या ने विवाह डौट कौम पर आशीष का फोटो और जीवनविवरण निकाल लिया, ‘‘देख तो कैसा है?’’ ‘‘वाऊ, यह तो किसी फिल्मी हीरो की तरह लग रहा है. कब से चल रहा है ये सब?’’ रीमा आशीष का विवरण पढ़ते हुए बोली.

‘‘3 माह पहले मिले थे हम दोनों.’’ ‘‘कहां?’’

‘‘यहीं इंटरनैट पर और कहां.’’ ‘‘तो अभी मेलमुलाकात भी नहीं हुई? विवाह भी इंटरनैट पर ही करोगी क्या?’’ रीमा हंस दी.

‘‘आशीष तो बहुत दिनों से मिलने की रट लगाए हैं. मेरी ही हिम्मत नहीं होती. तुम चलोगी मेरे साथ?’’ ‘‘मैं क्यों कबाब में हड्डी बनने लगी? अब तुम छोटी बच्ची नहीं हो. अपने निर्णय स्वयं लेने सीखो. औफिस में तो लाखों के वारेन्यारे करती हो और यहां किसी से मिलने से कतरा रही हो?’’ रीमा ने समझाना चाहा.

‘‘यही पूछना था तुम से. तुम ने कहा था न कि कोई पसंद आए तो बताना. तो सब से पहले तुम्हें ही बता रही हूं.’’ ‘‘ओह हो, तुम अभी से शरमा रही हो. चेहरे पर भी लाली छा रही है. चल अभी इस से मिलने का दिन और तिथि तय कर लो.’’

‘‘रविवार कैसा रहेगा?’’ ‘‘बहुत बढि़या, छुट्टी का दिन है. दोनों पूरा दिन साथ बिता सकते हो. एकदूसरे को जाननेसमझने में मदद मिलेगी.’’ तुरंत सौजन्या और आशीष के बीच संदेशों का आदानप्रदान हुआ और रविवार के दिन मिलने की बात तय हो गई.

‘‘आंटी, अब मत डांटना मुझे. आप की इच्छा पूरी होने जा रही है. बैंडबाजा बजने में अधिक देर नहीं है अब,’’ रीमा जातेजाते सौजन्या की मां से बोली. ‘‘तुम्हारे मुंह में घीशक्कर, पर पूरी बात तो बताती जाओ,’’ वे बोलीं.

‘‘वह तो आप सौजन्या से ही पूछना. मुझे देर हो रही है. घर में सब इंतजार कर रहे होंगे,’’ कह रीमा सरपट भागी. मगर दूसरे दिन कुछ अप्रत्याशित सा घट गया. सौजन्या एक मीटिंग में व्यस्त थी कि उस के सहायक ने एक चिट ला कर दी. चिट पर आशीष कुमार का नाम देखते ही उस के होश उड़ गए. वह बाहर की ओर लपकी.

आशीष लौबी में बैठा उस का इंतजार कर रहा था. ‘‘आप यहां? इस समय?’’ सौजन्या के मुंह से किसी प्रकार निकला.

‘‘रहा नहीं गया. इसीलिए मिलने चला आया. मैं रविवार तक प्रतीक्षा नहीं कर सकता. चलो छुट्टी ले लो कहीं घूमनेफिरने चलते हैं,’’ आशीष बोला. ‘‘यह क्या पागलपन है. मेरी एक जरूरी मीटिंग चल रही है. मैं छुट्टी नहीं ले सकती… इस तरह यहां क्यों चले आए? देखो सब की निगाहें हम दोनों पर ही टिकी हैं,’’ सौजन्या झेंप गई थी पर आशीष अपनी ही जिद पर अड़ा था.

बड़ी मुश्किल से सौजन्या ने आशीष को समझाबुझा कर भेजा और रविवार को मिलने की बात दोहराई. लंच के समय रीमा ने सौजन्या की खूब खिंचाई की, ‘‘लगता है आशीष बाबू से अब यह दूरी सहन नहीं हो रही.’’

‘‘पर इस तरह औफिस में आ धमकना? मुझे तो अच्छा नहीं लगा.’’ ‘‘चलता है सब चलता है. प्रेम और जंग में सब जायज है,’’ रीमा हंस दी.

शुक्रवार को सौजन्या घर पहुंची ही थी कि रीमा आ पहुंची. ‘‘क्या हुआ? आज औफिस क्यों नहीं आईं और अब इस तरह अचानक?’’ सौजन्या चौंक गई.

‘‘इतने प्रश्न मत किया करो. अपने कमरे में चलो. जरूरी बात करनी है,’’ रीमा बोली और फिर दोनों सहेलियां सौजन्या के कमरे में जा बैठीं. रीमा ने चटपट ‘विवाहविच्छेद डौट कौम’ नाम की साइट खोली और एक फोटो और जीवनविवरण ढूंढ़ निकाला.

‘‘यह देखो, पहचाना?’’ रीमा बोली. ‘‘यह तो आशीष है.’’

‘‘नहीं, नीचे पढ़ो. यह रूबीन है. यहां इस का नाम, काम, धाम सब बदला हुआ है. यहां ये महोदय सरकारी अफसर नहीं चिकित्सक हैं. अविवाहित नहीं तलाकशुदा हैं. पर फोन नंबर वही है. जाति, धर्म भी बदल गए हैं.’’ ‘‘उफ, ऐसा मेरे साथ ही क्यों होता है?’’ सौजन्या ने सिर पकड़ लिया.

‘‘स्वयं पर तरस खाना छोड़ दो सौजन्या. ऐसा किसी के साथ भी हो सकता है. चलो नवीन से मिलने चलते हैं.’’ ‘‘मैं किसी से मिलने की स्थिति में नहीं हूं.’’

‘‘मैं तुम्हें उस से मिलवाने नहीं ले जा रही. हम उस से इन आशीष उर्फ रूबीन महोदय के विरुद्ध सहायता मांगेंगी. इस धोखेबाज को दंड दिलाए बिना मुझे चैन नहीं मिलने वाला. नवीन साइबर अपराध शाखा में कार्यरत है,’’ रीमा नवीन को फोन मिलाते हुए बोली. कुछ ही देर में दोनों सहेलियां नवीन के सामने बैठी सौजन्या की आपबीती सुना रही थीं.

‘‘मैं ने तो स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि औनलाइन भी इस तरह की धोखाधड़ी होती है. मैं तो सोचती थी कि ये डौट कौम कंपनियां सबकुछ पता लगा कर ही किसी का विवरण पंजीकृत करती हैं.’’ ‘‘धोखाधड़ी कहां नहीं होती सौजन्याजी. हमारे अपने भी हमें धोखा दे देते हैं. हमें सावधानी से काम लेना चाहिए. यों समझ लीजिए कि सावधानी हटी, दुर्घटना घटी,’’ नवीन बोला और फिर देर तक फोन करने में व्यस्त रहा.

‘‘कुछ देर तक यह आशीष उर्फ रूबीन मुझ से बात करता रहा. पर जब मैं ने पूछताछ शुरू की तो फोन काट दिया. पर आप चिंता न करें. आप चाहें तो अपनी जानकारी गुप्त रखते हुए इस व्यक्ति के विरुद्ध रपट लिखवा सकती हैं.’’ ‘‘नहीं, मैं किसी चक्कर में नहीं पड़ना चाहती. वैसे भी मैं तो बालबाल बच गई… रीमा ने बचा लिया मुझे नहीं तो पता नहीं क्या होता. मैं बहुत डर गई हूं… अब कभी इस झंझट में नहीं पड़ने वाली.’’

‘‘वही तो मैं समझा रहा हूं. उस ने मानसिक संताप दिया है आप को. इस के लिए उसे 3 साल की सजा भी हो सकती है,’’ नवीन ने समझाया. ‘‘मैं कुछ समय चाहती हूं,’’ सौजन्या ने हथियार डाल दिए थे.

धीरेधीरे जीवन अपने ही ढर्रे पर चलने लगा था. न सौजन्या ने आशीष वाली घटना का कभी जिक्र किया न रीमा ने पूछा. रीमा को लगा कि उस घटना को किसी बुरे सपने की तरह भूल जाना ही ठीक था. अचानक एक दिन नवीन रीमा के घर आ धमका. ‘‘मैं तो खुद तुम से मिल कर धन्यवाद देना चाहती थी. तुम ने उस प्रकरण को कितनी कुशलता से संभाला वरना तो पता नहीं मेरी सहेली सौजन्या का क्या हाल होता,’’ रीमा ने आभार व्यक्त किया.

‘‘रीमा, आभार तो मुझे तुम्हारा व्यक्त करना चाहिए. सौजन्या मेरे जीवन में सुगंधित पवन के झोंके की तरह आई है. शाम की प्रतीक्षा में दिन कब बीत जाता है पता ही नहीं चलता.’’ ‘‘क्या? फिर से कहो, सुगंधित पवन का झोंका और न जाने क्या? लगता है आजकल सौजन्या तुम्हें घास डालने लगी है,’’ रीमा मुसकराई.

‘‘घास तो फिलहाल हम ही डाल रहे हैं, पर जीवन में कुछ ऐसा घटित हो रहा है जो पहले कभी नहीं हुआ था.’’ ‘‘मैं सौजन्या से बात करूंगी,’’ रीमा ने कहा.

‘‘नहीं, तुम ऐसा कुछ नहीं करोगी. उसे भनक भी लग गई कि मैं उस पर डोरे डाल रहा हूं तो भड़क उठेगी. यह समस्या मेरी है. इसे सुलझाने का भार भी मेरे ही कंधों पर है,’’ कह नवीन कहीं खो सा गया. मगर रीमा उस की आंखों में लहराते प्रेम के अथाह सागर को साफ देख पा रही थी. पहली बार रीमा को लगा कि अपने करीबी लोगों को भी कितना कम जानते हैं हम. पर वह खुश थी सौजन्या के लिए और नवीन के लिए भी जो अनजाने ही निशांत की ओर बढ़े जा रहे थे.

Family Story: कमाऊ मुरगी – क्यों धैर्या की शादी नहीं होने देना चाहते थे घरवाले?

Family Story: ‘‘मां,भैया देखो मैं किसे आप से मिलाने लाई हूं,’’ धैर्या ने कमरे में घुसते ही खुशी से अपने परिवार के लोगों को पुकारा. ‘‘अरे कौन है भई जो इतनी खुश नजर आ रही है मेरी बहना?’’ भाई अमन पत्नी के साथ अपने कमरे से बाहर आते हुए बोला.

अब तक मां भी ड्राइंगरूम में आ चुकी थीं. ‘‘मां, ये हैं मेजर वीर प्रताप सिंहजी.

इन की पूना में पोस्टिंग है,’’ धैर्या ने चकहते हुए अपने साथ आए एक लंबे कद के आकर्षक पर्सनैलिटी वाले व्यक्ति से सब का परिचय कराया. ‘‘नमस्ते,’’ कह कर मेजर ने सब का अभिवादन किया.

चायनाश्ते के दौरान मेजर ने बताया कि वे हरियाणा के करनाल के रहने वाले हैं और अपने मातापिता के इकलौते बेटे हैं. वे जाट परिवार से हैं और अभी तक कुंआरे हैं. चायनाश्ता कर के मेजर धैर्या की ओर मुखातिब होते हुए बोले, ‘‘अच्छा धैर्या अब मैं चलता हूं, कल मिलते हैं.’’

‘‘जी, अच्छा,’’ कह धैर्या उन्हें बाहर तक छोड़ने गई. ‘‘2-4 दिनों में तुम्हें अपने मातापिता से मिलवाने की कोशिश करता हूं,’’ मेजर ने अपनी कार में बैठते हुए कहा.

जब धैर्या अंदर आई तो मां, भाई और भाभी सभी को अपनी ओर गुस्से से देखते हुए पाया. ‘‘कौन थे ये जनाब दीदी और हम से मिलवाने का क्या मतलब था?’’ भाभी व्यंग्यात्मक स्वर में बोलीं.

‘‘मां, ये सेना में अधिकारी हैं. उम्र में मुझ से 10 साल बड़े हैं, इसलिए आप से मिलवाने लाई थी,’’ एक सांस में सारी बात कह कर धैर्या अपने कमरे में चली गई. यह सुन कर घर के तीनों सदस्यों को जैसे सांप सूंघ गया. सब हैरान से एकदूसरे को देखने लगे.

‘‘दिमाग खराब हो गया है इस लड़की का. अब इस उम्र में शादी करेगी और वह भी गैरजाति के लड़के से… हमारी तो बिरादरी में नाक ही कट जाएगी,’’ मां अपना सिर पकड़ कर बोलीं. ‘‘बाहर आने दो, मैं बात करता हूं इस से,’’ भाई अमन बोला.

‘‘ननद रानी का तो दिमाग ही फिर गया है… शादी वह भी इतनी बड़ी उम्र के इंसान से?’’ भाभी धारिणी भला कहां चुप रहने वाली थी. ‘‘भाभी, क्या बुरा कर रही हूं मैं? इस संसार में सभी तो शादी करते हैं… आप भी तो शादी कर के ही इस घर में आई हैं. फिर उम्र से क्या फर्क पड़ता है? मेरी उम्र भी कौन सी कम है?’’ कमरे से बाहर आते हुए धैर्या बोली.

‘‘अच्छीभली तो चल रही है तेरी जिंदगी… क्यों उस में आग लगा रही है? एक तो पिछड़ी जाति का लड़का और फिर उम्र में भी तुझ से 10 साल बड़ा… न शक्ल न सूरत, तुझे उस में क्या दिखा, जो शादी करने की सोच ली. तेरे आगे कहीं नहीं लगता वह,’’ मां ने समझाने की कोशिश की. ‘‘ठीक है न मां, सारी जिंदगी तो आप सब के हिसाब से ही चली. अब कुछ अपने मन का भी करने दें,’’ कह धैर्या नहाने चली गई.

उस दिन से घर में जैसे तूफान आ गया. सुबह उस से किसी ने बात नहीं की. वह चुपचाप नाश्ता कर के औफिस चल दी. तभी मेजर का फोन आ गया, ‘‘हैलो गुड मौर्निंग डियर, हाऊ आर यू? नींद आई थी भी

या नहीं?’’ ‘‘मैं ठीक हूं,’’ धैर्या ने उत्तर दिया.

‘‘क्या हुआ कुछ मूड ठीक नहीं है. ऐनी प्रौब्लम?’’ धैर्या को रोना आ गया. बोली, ‘‘घर में कल आप के जाने के बाद जम कर कुहराम मचा… कोई मेरी शादी नहीं करना चाहता… ऐसा मैं ने क्या कर दिया,’’ वह रोंआसे स्वर में बोली.

‘‘कोई बात नहीं, तुम उदास न हो… ये सब हम बाद में हल कर लेंगे. कल मम्मीपापा आ रहे हैं अपनी लाड़ली बहू से मिलने, तुम तैयार रहना,’’ मेजर ने उत्साह से कहा. यह सुन धैर्या एकदम चौंक कर अपने आंसू पोंछते हुए बोली, ‘‘कल… क… ल… मैं कैसे कर पाऊंगी सब?’’ ‘‘तुम्हें करना ही क्या है. बस तैयार हो कर कल 11 बजे होटल ताज पहुंच जाना. मैं वहीं मिलूगा.’’

‘‘जी वे सब तो ठीक है, पर मैं बहुत नर्वस फील कर रही हूं,’’ धैर्या ने थोड़ा घबराते हुए कहा. ‘‘अरे, इस में नर्वस होने की क्या बात है. मेरे मातापिता बेहद सीधे हैं. वे कब से अपनी बहू के लिए तरस रहे हैं. बस मैं ही शादी के लिए तैयार नहीं था… उन का बस चले तो आज ही शादी कर के तुम्हें घर ले जाएं. ठीक है तो कल मिलते हैं,’’ कह कर मेजर ने फोन काट दिया.

शाम को औफिस से घर आ कर धैर्या कौफी का मग ले कर बालकनी में आ खड़ी

हुई. उस का मन आज से 6 माह पहले मेजर से हुई पहली मुलाकात पर चला गया था. होश संभालते ही घर की जिम्मेदारियों को निभातेनिभाते वह अपने बारे में सोचना ही भूल गई थी. बस मां, भाई, भाभी, भतीजा ही उस की दुनिया थे. पर पिछले कुछ दिनों से घर वालों का बर्ताव और कुछ कानों में पड़ी बातों ने उस के मन को बुरी तरह आहत कर दिया था. तभी उसे समझ आया कि घर में सब अपनेअपने में मसरूफ हैं… सभी को उस के पैसे से मतलब है न कि उस से. वह तपड़ उठी थी जब मौसी ने मां से उस की शादी के बारे में बात की थी. तब मां बोली थीं, ‘‘अरे जीजी धैर्या का ब्याह हो गया तो हमारी जिंदगी तो नर्क हो जाएगी. अमन की तो नौकरी लगतीछूटती रहती है… शादी के बाद ससुराल वाले मायके की मदद तो नहीं करने देंगे न.’’

मां की बातें सुन कर धैर्या के पैरों तले की जमीन जिसक गई. 1 सप्ताह के गंभीर मंथन के बाद वह किसी नतीजे पर पहुंचती, तभी उसे एक दिन औफिस जाते समय मैट्रो में अपनी बचपन की सहेली निशा मिल गई. धैर्या की आपबीती सुन कर निशा गुस्से से भर कर बोली, ‘‘तू अभी तक उन सब को ढो रही है. अंकल थे तब तू कमाऊ पूत थी और अंकल के जाने के बाद सब के लिए मात्र सोने के अंडे देने वाली कमाऊ मुरगी बन कर रह गई है, जिसे तेरे घर वाले शादी कर हलाल नहीं करना चाहते हैं. अब मैं तेरी एक नहीं सुनूंगी. बस तू अभी मेरे साथ चल,’’ कह कर वह उसे अपने एक जानपहचान के मैरिज ब्यूरो ले गई और फिर उस का वहां शादी के लिए रजिस्ट्रेशन करवा दिया.

मैरिज ब्यूरो से 1 माह बाद ही धैर्या के पास फोन आ गया और तब उस की मेजर सिंह से मुलाकात हुई. वे उसे पहली मुलाकात में ही भा गए थे. बिना लागलपेट के उन्होंने धैर्या को बताया कि वे 42 साल के हो कर भी सिर्फ इसलिए कुंआरे हैं कि वे अपनी नौकरी में मसरूफ थे. अपनी पोस्टिंग पर उन्हें परिवार को ले जाने की मनाही थी. छुट्टी भी बहुत कम मिलती थी. मातापिता की देखभाल के लिए किसी भी लड़की को ब्याह कर ससुराल में छोड़ना उन्हें पसंद नहीं था. अब उन की पोस्टिंग पूना में है और वे परिवार को अपने साथ रख सकते हैं. इसीलिए शादी को तैयार हो गए. धैर्या के बारे में सब सुन कर उन्होंने कहा, ‘‘आप जैसी जिम्मेदार लड़की से कौन शादी नहीं करना चाहेगा… आप को अपने घर ला कर मैं और मेरे मातापिता खुद को धन्य समझेंगे.’’

मेजर साहब से होटल में मिलने के बाद धैर्या ने वहीं से निशा को उन के बारे में बताया तो वह खुशी से बोली, ‘‘अब देर मत कर, भले ही तुझ से उम्र में 10 साल बड़े हैं, जाति और कल्चर अलग हैं, पर उस से कोई फर्क नहीं पड़ता. तुम दोनों समझदार हो. तू अपना सबकुछ लुटा कर भी परिवार वालों की सगी नहीं हो सकती… वे सिर्फ अपना मतलब निकाल रहे हैं. शादी कर के अपना घरपरिवार बसा और अपनी जिंदगी जी.’’ मेजर सिंह से कुछ मुलाकातों में ही उस की समझ में आने लगा कि जीवनसाथी के साथ जिंदगी बिताने का आनंद क्या होता है. खुद को अंदर से मजबूत कर के और शादी का पक्का मन बनाने के बाद ही उस ने मेजर सिंह को अपने परिवार वालों से मिलवाया.

अगले दिन सुबह धैर्या फीरोजी रंग की शिफौन की साड़ी पर हैदराबादी मोतियों का सैट पहन कर घर से निकली तो मां और भाभी उसे खा जाने वाली नजरों से देख रही थीं.

ताज होटल के कमरा नं. 403 के बाहर पहुंच कर घंटी पर हाथ रखते समय उस का दिल जोरजोर से धड़क रहा था. उसे लग रहा था मानो वह जिंदगी का सब से बड़ा इम्तिहान देने जा रही हो.

जैसे ही दरवाजा खुला मेजर सिंह सामने खड़े थे. वे उस का हाथ पकड़ कर उसे अंदर तक ले गए. उसे देखते ही उन के मातापिता खड़े हो गए. उस ने हाथ जोड़ कर उन का अभिवादन किया. मेजर सिंह की मां ने उसे अपने गले से लगा लिया और फिर बोलीं, ‘‘कुदरत का लाखलाख शुक्र है जो उस ने हमें इतनी प्यारी लड़की बहू के रूप में दी. इस दिन के लिए मेरी आंखें कब से तरस रही थीं.’’

‘‘बैठो, बेटा आराम से बैठो,’’ मेजर सिंह के पिता ने उस के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा. धैर्या लजाते हुए सामने रखे सोफे पर बैठ गई.

‘‘बेटा, हम तुम से कुछ नहीं पूछना चाहते. हमें प्रताप ने सब बता दिया है. हम बस तुम्हें एक बार देखना चाहते थे, अब बस हम तुम्हारे परिवार वालों से मिल कर शादी की डेट तय करना चाहते हैं. शाम को हम तुम्हारे घर आ रहे हैं,’’ मेजर सिंह के पिता ने कहा. ‘‘जी, जैसा आप ठीक समझें,’’ धैर्या सिर नीचा किए शरमाते हुए बोली.

हलकेफुलके चायनाश्ते के बाद वह घर आ गई. फ्रैश हो कर चाय पीतेपीते वह गंभीर स्वर में बोली, ‘‘मां, भैया, मेजर साहब के मातापिता आज शाम को आ कर आप दोनों से मिल कर हमारी शादी की तारीख तय करना चाहते हैं.’’ ‘‘शादी? कैसी शादी? हमें यह शादी मंजूर नहीं और न हम ऐसी किसी शादी में शामिल होंगे… हम ऐसी गैरजाति की बेमेल शादी नहीं होने देंगे.’’

भाई अमन तो मानो अपना आपा ही खो बैठा था. ‘‘पर मैं ने तय कर लिया है भैया कि मैं मेजर साहब से ही शादी करूंगी,’’ धैर्या दृढ़ता से बोली.

यह सुन कर अमन भी तेज आवाज में बोला, ‘‘मैं बरसों से पापा की बनीबनाई

इज्जत को मिट्टी में नहीं मिलने दूंगा.’’ ‘‘कुछ तो बोलो मां, आप क्यों चुप बैठी हो?’’ धैर्या ने शांति से तमाशा देख रहीं मां की ओर देख कर कहा.

मां पहले से ही कुढ़ी बैठी थीं. अत: गुस्से से बोलीं, ‘‘अरे मैं क्या बोलूं, जब तुझे कुछ समझ ही नहीं आ रहा.’’ ‘‘क्या समझ नहीं आ रहा मां? शादी ही तो कर रही हूं कोई गलत काम तो नहीं कर रही,’’ धैर्या ने लगभग रोंआसे स्वर में कहा.

‘‘ननद रानी आप तो बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम वाली बात कर रही हैं. शादी वह भी इस उम्र में?’’ भाभी ने भी अपनी औकात दिखा ही दी. ‘‘क्यों भाभी कल तक जब आप के लिए महंगे सूट, साडि़यां और गहने लाती थी, तब तो बड़ी प्यारी ननद और बहन कहतेकहते नहीं थकती थीं आप और आज मैं बूढ़ी घोड़ी हो गई? असल में आप तीनों ही मेरी शादी करना नहीं चाहते, क्योंकि मैं आप के लिए महज एक कमाऊ मुरगी हूं. मेरी कमाई से ही तो आप सब अपने शौक पूरे कर रहे हैं. आप सब अपनी दुनिया में मस्त हैं, कभी किसी ने मेरे बारे में सोचा है?’’

‘‘देख बेटा अब तू अपनी सीमाएं लांघ रही है. उस मेजर ने लगता है तेरा दिमाग खराब कर दिया है,’’ मां गुस्से से बोलीं. ‘‘नहीं मां मेरा दिमाग तो अब तक खराब था. आज ही ठिकाने आया है. याद है पिछले महीने जब मौसी ने मेरी शादी की बात आप से की थी तो आप ही कह रही थीं कि धैर्या की शादी कर दी तो हम कैसे रहेंगे? उसी से तो घर चलता है. बताइए, इसीलिए तो आप ने कभी मेरी शादी के बारे में नहीं सोचा.’’

‘‘छोटी बस कर, बहुत बोल ली तू… इस उम्र में ये शादीवादी के सपने देखना छोड़ दे. चैन से नौकरी कर और सब के साथ रह जैसे अब तक रहती आई है,’’ अमन ने थोड़ा नर्म होते हुए कहा. ‘‘भैया आप को याद है, आप और भाभी हमेशा हर नई फिल्म का पहला शो देखते हो. पिछली बार जब आप कोई फिल्म देख कर आए थे और भाभी से मेरी शादी की बात कर रहे थे, तब भाभी ने कहा था कि दीदी की शादी हो गई तो हमारा खर्चा नहीं चलेगा. इसलिए जैसा चल रहा है चलने दो और आप ने कहा था, यह तो है. मेरी तनख्वाह से तो हमारा घर का गुजारा नहीं हो सकता. फिल्म देखना तो दूर की बात है.’’

‘‘भैया आप अपनी दुनिया में इतने व्यस्त हो गए कि मुझ से 5 साल बड़े हो कर भी आप ने कभी मेरे बारे में नहीं सोचा,’’ धैर्या ने गुस्से में कहा तो भैया और भाभी निरुत्तर हो कर एकदूसरे का मुंह देखने लगे.

‘‘देख बेटा अब इस उम्र में शादी के सपने देखना छोड़ दे. एक तो गैरजाति का लड़का ऊपर से उम्र में 10 साल बड़ा. ये लोग बड़े चालाक होते हैं. लड़कियों की कोई इज्जत नहीं होती इन के यहां. मुझे तो लगा वे बस तेरे पैसे के लालच में शादी करने की बात कर रहे हैं… तू पछताएगी,’’ मां ने अपना आखिरी दांव चला.

‘‘नहीं मांजी, आप गलत सोच रही हैं. मेरे परिवार को पैसों का कोई लालच नहीं है. हमारा परिवार तो धैर्या जैसी लड़की को अपने परिवार की बहू बना कर अपने को धन्य समझेगा. मैं उसे जीवन की वह हर खुशी दूंगा जिस पर एक लड़की और एक पत्नी का अधिकार होता है. शादी के बाद भी यह आप लोगों पर खर्च करना चाहे, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी,’’ मेजर सिंह की आवाज सुन कर धैर्या चौंक गई, जो दरवाजे की ओट में खड़े न जाने कब से घर के सदस्यों की बातें सुन रहे थे. ‘‘आप… आप यहां कब आए?’’ धैर्या ने अचकचाते हुए पूछा.

‘‘धैर्या, तुम जल्दीबाजी में अपना मोबाइल होटल में ही भूल आई थीं… मैं इसे देने यहां चला आया. अब मुझे लगता है कि मेरे मम्मीपापा को शादी तय करने के लिए यहां आने की जरूरत नहीं है.’’‘और मैं आप सब से भी कहना चाहता हूं कि आज से बल्कि अभी से इस के जीवन का हर सुखदुख मेरा है. मैं ने आप सब लोगों की सारी बातें सुन ली हैं और अब मैं इसे यहां आप लोगों के बीच एक पल भी नहीं रहने दूंगा. धैर्या, चलो मेरे साथ.’’ हम दोनों शादी कर रहे हैं. आप लोगों को यदि उचित लगे तो आशीर्वाद देने आ जाइएगा. शादी 1 माह बाद अदालत में होगी. उतने दिन धैर्या मेरे घर में मेहमान की तरह रहेगी. धैर्या के घर वालों को अपना फैसला सुना कर मेजर सिंह धैर्या का हाथ पकड़ कर उसे बाहर अपनी गाड़ी तक ले गए.

धैर्या तब तक अपना सामान पैक कर चुकी थी. परिवार के तीनों सदस्य धूल उड़ती गाड़ी को चुपचाप जाते देखते रह गए. धैर्या ने मेजर सिंह के कंधे पर सिर टिका कर अपनी आंखें मूंद लीं मानो जीवन में आने वाले नए उजाले के सपने देखने की कोशिश कर रही हो.

Romantic Story: प्यार के मायने – निधि को किस ने सिखाया प्यार का सही मतलब?

Romantic Story: उससे मेरा कोई खास परिचय नहीं था. शादी से पहले जिस औफिस में काम करती थी, वहीं था वह. आज फ्रैंच क्लास अटैंड करते वक्त उस से मुलाकात हुई. पति के कहने पर अपने फ्री टाइम का सदुपयोग करने के विचार से मैं ने यह क्लास जौइन की थी.

‘‘हाय,’’ वह चमकती आंखों के साथ अचानक मेरे सामने आ खड़ा हुआ.

मैं मुसकरा उठी, ‘‘ओह तुम… सो नाइस टु मीट यू,’’ नाम याद नहीं आ रहा था मुझे उस का. उस ने स्वयं अपना नाम याद दिलाया, ‘‘अंकित, पहचाना आप ने?’’

‘‘हांहां, बिलकुल, याद है मुझे.’’

मैं ने यह बात जाहिर नहीं होने दी कि मुझे उस का नाम भी याद नहीं.

‘‘और सब कैसा है?’’ उस ने पूछा.

‘‘फाइन. यहीं पास में घर है मेरा. पति आर्मी में हैं. 2 बेटियां हैं, बड़ी 7वीं कक्षा में और छोटी तीसरी कक्षा में पढ़ती है.’’

‘‘वाह ग्रेट,’’ वह अब मेरे साथ चलने लगा था, ‘‘मैं 2 सप्ताह पहले ही दिल्ली आया हूं. वैसे मुंबई में रहता हूं. मेरी कंपनी ने 6 माह के प्रोजैक्ट वर्क के लिए मुझे यहां भेजा है. सोचा, फ्री टाइम में यह क्लास भी जौइन कर लूं.’’

‘‘गुड. अच्छा अंकित, अब मैं चलती हूं. यहीं से औटो लेना होगा मुझे.’’

‘‘ओके बाय,’’ कह वह चला गया.

मैं घर आ गई. अगले 2 दिनों की छुट्टी ली थी मैं ने. मैं घर के कामों में पूरी तरह व्यस्त रही. बड़ी बेटी का जन्मदिन था और छोटी का नए स्कूल में दाखिला कराना था.

2 दिन बाद क्लास पहुंची तो अंकित फिर सामने आ गया, ‘‘आप 2 दिन आईं नहीं. मुझे लगा कहीं क्लास तो नहीं छोड़ दी.’

‘‘नहीं, घर में कुछ काम था.’

वह चुपचाप मेरे पीछे वाली सीट पर बैठ गया. क्लास के बाद निकलने लगी तो फिर मेरे सामने आ गया, ‘‘कौफी?’’

‘‘नो, घर जल्दी जाना है. बेटी आ गई होगी, और फिर पति आज डिनर भी बाहर कराने वाले हैं,’’ मैं ने उसे टालनाचाहा.

‘‘ओके, चलिए औटो तक छोड़ देता हूं,’’ वह बोला.

मुझे अजीब लगा, फिर भी साथ चल दी. कुछ देर तक दोनों खामोश रहे. मैं सोच रही थी, यह तो दोस्ती की फिराक में है, जब कि मैं सब कुछ बता चुकी हूं. पति हैं, बच्चे हैं मेरे. आखिर चाहता क्या है?

तभी उस की आवाज सुनाई दी, ‘‘आप को किरण याद है?’’

‘‘हां, याद है. वही न, जो आकाश सर की पीए थी?’’

‘‘हां, पता है, वह कनाडा शिफ्ट हो गई है. अपनी कंपनी खोली है वहां. सुना है किसी करोड़पति से शादी की है.’’

‘‘गुड, काफी ब्रिलिऐंट थी वह.’’

‘‘हां, मगर उस ने एक काम बहुत गलत किया. अपने प्यार को अकेला छोड़ कर चली गई.’’

‘‘प्यार? कौन आकाश?’’

‘‘हां. बहुत चाहते थे उसे. मैं जानता हूं वे किरण के लिए जान भी दे सकते थे. मगर आज के जमाने में प्यार और जज्बात की कद्र ही कहां होती है.’’

‘‘हूं… अच्छा, मैं चलती हूं,’’ कह मैं ने औटो वाले को रोका और उस में बैठ गई.

वह भी अपने रास्ते चला गया. मैं सोचने लगी, आजकल बड़ी बातें करने लगा है, जबकि पहले कितना खामोश रहता था. मैं और मेरी दोस्त रिचा अकसर मजाक उड़ाते थे इस का. पर आज तो बड़े जज्बातों की बातें कर रहा है. मैं मन ही मन मुसकरा उठी. फिर पूरे रास्ते उस पुराने औफिस की बातें ही सोचती रही. मुझे समीर याद आया. बड़ा हैंडसम था. औफिस की सारी लड़कियां उस पर फिदा थीं. मैं भी उसे पसंद करती थी. मगर मेरा डिवोशन तो अजीत की तरफ ही था. यह बात अलग है किअजीत से शादी के बाद एहसास हुआ कि 4 सालों तक हम ने मिल कर जो सपने देखे थे उन के रंग अलगअलग थे. हम एकदूसरे के साथ तो थे, पर एकदूसरे के लिए बने हैं, ऐसा कम ही महसूस होता था. शादी के बाद अजीत की बहुत सी आदतें मुझे तकलीफ देतीं. पर इंसान जिस से प्यार करता है, उस की कमियां दिखती कहां हैं?

शादी से पहले मुझे अजीत में सिर्फ अच्छाइयां दिखती थीं, मगर अब सिर्फ रिश्ता निभाने वाली बात रह गई थी. वैसे मैं जानती हूं, वे मुझे अब भी बहुत प्यार करते हैं, मगर पैसा सदा से उन के लिए पहली प्राथमिकता रही है. मैं भी कुछ उदासीन सी हो गई थी. अब दोनों बच्चियों को अच्छी परवरिश देना ही मेरे जीवन का मकसद रह गया था.

अगले दिन अंकित गेट के पास ही मिल गया. पास की दुकान पर गोलगप्पे खा रहा था. उस ने मुझे भी इनवाइट किया पर मैं साफ मना कर अंदर चली गई.

क्लास खत्म होते ही वह फिर मेरे पास आ गया, ‘‘चलिए, औटो तक छोड़ दूं.’’

‘‘हूं,’’ कह मैं अनमनी सी उस के साथ चलने लगी.

उस ने टोका, ‘‘आप को वे मैसेज याद हैं, जो आप के फोन में अनजान नंबरों से आते थे?’’

‘‘हां, याद हैं. क्यों? तुम्हें कैसे पता?’’ मैं चौंकी.

‘‘दरअसल, आप एक बार अपनी फ्रैंड को बता रही थीं, तो कैंटीन में पास में ही मैं भी बैठा था. अत: सब सुन लिया. आप ने कभी चैक नहीं किया कि उन्हें भेजता कौन है?’’

‘‘नहीं, मेरे पास इन फुजूल बातों के लिए वक्त कहां था और फिर मैं औलरैडी इंगेज थी.’’

‘‘हां, वह तो मुझे पता है. मेरे 1-2 दोस्तों ने बताया था, आप के बारे में. सच आप कितनी खुशहाल हैं. जिसे चाहा उसी से शादी की. हर किसी के जीवन में ऐसा कहां होता है? लोग सच्चे प्यार की कद्र ही नहीं करते या फिर कई दफा ऐसा होता है कि बेतहाशा प्यार कर के भी लोग अपने प्यार का इजहार नहीं कर पाते.’’

‘‘क्या बात है, कहीं तुम्हें भी किसी से बेतहाशा प्यार तो नहीं था?’’ मैं व्यंग्य से मुसकराई तो वह चुप हो गया.

मुझे लगा, मेरा इस तरह हंसना उसे बुरा लगा है. शुरू से देखा था मैं ने. बहुत भावुक था वह. छोटीछोटी बातें भी बुरी लग जाती थीं. व्यक्तित्व भी साधारण सा था. ज्यादातर अकेला ही रहता. गंभीर, मगर शालीन था. उस के 2-3 ही दोस्त थे. उन के काफी करीब भी था. मगर उसे इधरउधर वक्त बरबाद करते या लड़कियों से हंसीमजाक करते कभी नहीं देखा था.

मैं थोड़ी सीरियस हो कर बोली, ‘‘अंकित, तुम ने बताया नहीं है,’’ तुम्हारे कितने बच्चे हैं और पत्नी क्या करती है?

‘‘मैडम, आप की मंजिल आ गई, उस ने मुझे टालना चाहा.’’

‘‘ठीक है, पर मुझे जवाब दो.’’

मैं ने जिद की तो वह मुसकराते हुए बोला, ‘‘मैं ने अपना जीवन एक एनजीओ के बच्चों के नाम कर दिया है.’’

‘‘मगर क्यों? शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘क्योंकि हर किसी की जिंदगी में प्यार नहीं लिखा होता और बिना प्यार शादी को मैं समझौता मानता हूं. फिर समझौता मैं कभी करता नहीं.’’

वह चला गया. मैं पूरे रास्ते उसी के बारे में सोचती रही. मैं पुराने औफिस में अपनी ही दुनिया में मगन रहती थी. उसे कभी अहमियत नहीं दी. मैं उस के बारे में और जानने को उत्सुक हो रही थी. मुझे उस की बातें याद आ रही थीं. मैं सोचने लगी, उस ने मैसेज वाली बात क्यों कही? मैं तो भूल भी गई थी. वैसे वे मैसेज बड़े प्यारे होते थे. 3-4 महीने तक रोज 1 या 2 मैसेज मुझे मिलते, अनजान नंबरों से. 1-2 बार मैं ने फोन भी किया, मगर कोई जवाब नहीं मिला.

घर पहुंच कर मैं पुराना फोन ढूंढ़ने लगी. स्मार्ट फोन के आते ही मैं ने पुराने फोन को रिटायर कर दिया था. 10 सालों से वह फोन मेरी अलमारी के कोने में पड़ा था. मैं ने उसे निकाल कर उस में नई बैटरी डाली और बैटरी चार्ज कर उसे औन किया. फिर उन्हीं मैसेज को पढ़ने लगी. उत्सुकता उस वक्त भी रहती थी और अब भी होने लगी कि ये मैसेज मुझे भेजे किस ने थे? जरूर अंकित इस बारे में कुछ जानता होगा, तभी बात कर रहा था. फिर मैं ने तय किया कि कल कुरेदकुरेद कर उस से यह बात जरूर उगलवाऊंगी.

पर अगले 2-3 दिनों तक अंकित नहीं आया. मैं परेशान थी. रोज बेसब्री से उस का इंतजार करती. चौथे दिन वह दिखा.मुझ से रहा नहीं गया, तो मैं उस के पास चली गई. फिर पूछा, ‘‘अंकित, इतने दिन कहां थे?’’

वह चौंका. मुझे करीब देख कर थोड़ा सकपकाया, फिर बोला, ‘‘तबीयत ठीक नहीं थी.’’

‘‘तबीयत तो मेरी भी कुछ महीनों से ठीक नहीं रहती.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’ उस ने चिंतित स्वर में पूछा.

‘‘बस किडनी में कुछ प्रौब्लम है.’’

‘‘अच्छा, तभी आप के चेहरे पर थकान और कमजोरी सी नजर आती है. मैं सोच भी रहा था कि पहले जैसी रौनक चेहरे पर नहीं दिखती.’’

‘‘हां, दवा जो खा रही हूं,’’ मैं ने कहा.

फिर सहज ही मुझे मैसेज वाली बात याद आई. मैं ने पूछा, ‘‘अच्छा अंकित, यह बताओ कि वे मैसेज कौन भेजता था मुझे? क्या तुम जानते हो उसे?’’

वह मेरी तरफ एकटक देखते हुए बोला, ‘‘हां, असल में मेरा एक दोस्त था. बहुत प्यार करता था आप से पर कभी कह नहीं पाया. और फिर जानता भी था कि आप की जिंदगी में कोई और है, इसलिए कभी मिलने भी नहीं आया.’’

‘‘हूं,’’ मैं ने लंबी सांस ली, ‘‘अच्छा, अब कहां है तुम्हारा वह दोस्त?’’

वह मुसकराया, ‘‘अब निधि वह इस दुनिया की भीड़ में कहीं खो चुका है और फिर आप भी तो अपनी जिंदगी में खुश हैं. आप को परेशान करने वह कभी नहीं आएगा.’’

‘‘यह सही बात है अंकित, पर मुझे यह जानने का हक तो है कि वह कौन है और उस का नाम क्या है’’

‘‘वक्त आया तो मैं उसे आप से मिलवाने जरूर लाऊंगा, मगर फिलहाल आप अपनी जिंदगी में खुश रहिए.’’

मैं अंकित को देखती रह गई कि यह इस तरह की बातें भी कर सकता है. मैं मुसकरा उठी. क्लास खत्म होते ही अंकित मेरे पास आया और औटो तक मुझे छोड़ कर चला गया.

उस शाम तबीयत ज्यादा बिगड़ गई. 2-3 दिन मैं ने पूरा आराम किया. चौथे दिन क्लास के लिए निकली तो बड़ी बेटी भी साथ हो ली. उस की छुट्टी थी. उसी रास्ते उसे दोस्त के यहां जाना था. इंस्टिट्यूट के बाहर ही अंकित दिख गया. मैं ने अपनी बेटी का उस से परिचय कराते हुए बेटी से कहा, ‘‘बेटा, ये हैं आप के अंकित अंकल.’’

तभी अंकित ने बैग से चौकलेट निकाला और फिर बेटी को देते हुए बोला, ‘‘बेटा, देखो अंकल आप के लिए क्या लाए हैं.’’

‘‘थैंक्यू अंकल,’’ उस ने खुशी से चौकलेट लेते हुए कहा, ‘‘अंकल, आप को कैसे पता चला कि मैं आने वाली हूं?’’

‘‘अरे बेटा, यह सब तो महसूस करने की बात है. मुझे लग रहा था कि आज तुम मम्मी के साथ आओगी.’’

वह मुसकरा उठी. फिर हम दोनों को बायबाय कह कर अपने दोस्त के घर चली गई. हम अपनी क्लास में चले गए.

अंकित अब मुझे काफी भला लगने लगा था. किसी को करीब से जानने के बाद ही उस की असलियत समझ में आती है. अंकित भी अब मुझे एक दोस्त की तरह ट्रीट करने लगा, मगर हमारी बातचीत और मुलाकातें सीमित ही रहीं. इधर कुछ दिनों से मेरी तबीयत ज्यादा खराब रहने लगी थी. फिर एक दिन अचानक मुझे हौस्पिटल में दाखिल होना पड़ा. सभी जांचें हुईं. पता चला कि मेरी एक किडनी बिलकुल खराब हो गई है. दूसरी तो पहले ही बहुत वीक हो गई थी, इसलिए अब नई किडनी की जरूरत थी. मगर मुझ से मैच करती किडनी मिल नहीं रही थी. सब परेशान थे. डाक्टर भी प्रयास में लगे थे. एक दिन मेरे फोन पर अंकित की काल आई. उस ने मेरे इतने दिनों से क्लास में न आने पर हालचाल पूछने के लिए फोन किया था. फिर पूरी बात जान उस ने हौस्पिटल का पता लिया. मुझे लगा कि वह मुझ से मिलने आएगा, मगर वह नहीं आया. सारे रिश्तेदार, मित्र मुझ से मिलने आए थे. एक उम्मीद थी कि वह भी आएगा. मगर फिर सोचा कि हमारे बीच कोई ऐसी दोस्ती तो थी नहीं. बस एकदूसरे से पूर्वपरिचित थी, इसलिए थोड़ीबहुत बातचीत हो जाती थी. ऐसे में यह अपेक्षा करना कि वह आएगा, मेरी ही गलती थी.

समय के साथ मेरी तबीयत और बिगड़ती गई. किडनी का इंतजाम नहीं हो पा रहा था. फिर एक दिन पता चला कि किडनी डोनर मिल गया है. मुझे नई किडनी लगा दी गई. सर्जरी के बाद कुछ दिन मैं हौस्पिटल में ही रही. थोड़ी ठीक हुई तो घर भेज दिया गया. फ्रैंच क्लासेज पूरी तरह छूट गई थीं. सोचा एक दफा अंकित से फोन कर के पूछूं कि क्लास और कितने दिन चलेंगी. फिर यह सोच कर कि वह तो मुझे देखने तक नहीं आया, मैं भला उसे फोन क्यों करूं, अपना विचार बदल दिया. समय बीतता गया. अब मैं पहले से काफी ठीक थी. फिर भी पूरे आराम की हिदायत थी. एक दिन शाम को अजीत मेरे पास बैठे हुए थे कि तभी फ्रैंच क्लासेज का जिक्र हुआ. अजीत ने सहसा ही मुझ से पूछा, ‘‘क्या अंकित तुम्हारा गहरा दोस्त था? क्या रिश्ता है तुम्हारा उस से?’’

‘‘आप ऐसा क्यों पूछ रहे हैं?’’ मैं ने चौंकते हुए कहा.

‘‘अब ऐसे तो कोई अपनी किडनी नहीं देता न. किडनी डोनर और कोई नहीं, अंकित नाम का व्यक्ति था. उस ने मुझे बताया कि वह तुम्हारे साथ फ्रैंच क्लास में जाता है और तुम्हें अपनी एक किडनी देना चाहता है. तभी से यह बात मुझे बेचैन किए हुए है. बस इसलिए पूछ लिया.’’ अजीत की आंखों में शक साफ नजर आ रहा था. मैं अंदर तक व्यथित हो गई, ‘‘अंकित सचमुच केवल क्लासफैलो था और कुछ नहीं.’’

‘‘चलो, यदि ऐसा है, तो अच्छा वरना अब क्या कहूं,’’ कह कर वे चले गए. पर उन का यह व्यवहार मुझे अंदर तक बेध गया कि क्या मुझे इतनी भी समझ नहीं कि क्या गलत है और क्या सही? किसी के साथ भी मेरा नाम जोड़ दिया जाए.

मैं बहुत देर तक परेशान सी बैठी रही. कुछ अजीब भी लग रहा था. आखिर उस ने मुझे किडनी डोनेट की क्यों? दूसरी तरफ मुझ से मिलने भी नहीं आया. बात करनी होगी, सोचते हुए मैं ने अंकित का फोन मिलाया, मगर उस ने फोन काट दिया. मैं और ज्यादा चिढ़ गई. फोन पटक कर सिर पकड़ कर बैठ गई.

तभी अंकित का मैसेज आया, ‘‘मुझे माफ कर देना निधि. मैं आप से बिना मिले चला आया. कहा था न मैं ने कि दीवानों को अपने प्यार की खातिर कितनी भी तकलीफ सहनी मंजूर होती है. मगर वे अपनी मुहब्बत की आंखों में तकलीफ नहीं सह सकते, इसलिए मिलने नहीं आया.’’

मैं हैरान सी उस का यह मैसेज पढ़ कर समझने का प्रयास करने लगी कि वह कहना क्या चाहता है. मगर तभी उस का दूसरा मैसेज आ गया, ‘‘आप से वादा किया था न मैं ने कि उस मैसेज भेजने वाले का नाम बताऊंगा. दरअसल, मैं ही आप को मैसेज भेजा करता था. मैं आप से बहुत प्यार करता हूं. आप जानती हैं न कि इनसान जिस से प्यार करता है उस के आगे बहुत कमजोर महसूस करने लगता है. बस यही समस्या है मेरी. एक बार फिर आप से बहुत दूर जा रहा हूं. अब बुढ़ापे में ही मुलाकात करने आऊंगा. पर उम्मीद करता हूं, इस दफा आप मेरा नाम नहीं भूलेंगी, गुडबाय.’’ अंकित का यह मैसेज पढ़ कर मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं मुसकराऊं या रोऊं. अंदर तक एक दर्द मेरे दिल को बेध गया था. सोच रही थी, मेरे लिए ज्यादा गहरा प्यार किस का है, अजीत का, जिन्हें मैं ने अपना सब कुछ दे दिया फिर भी वे मुझ पर शक करने से नहीं चूके या फिर अंकित का, जिसे मैं ने अपना एक पल भी नहीं दिया, मगर उस ने आजीवन मेरी खुशी चाही.

Hindi Family Story: संबंध

Hindi Family Story, लेखक- सतीश चंद्र माथुर

शादी का जब वह निमंत्रण आया था, पूरे घर में हंगामा मच गया था. मां बोली थीं, ‘‘अब यह नया खेल खेला है कम्बख्त ने. पता नहीं क्या गुल खिलाने जा रही है. जरूर इस के पीछे कोई राज है वरना 2 बेटों के रहते कोई इतना बड़ा बेटा गोद लेता है? अब उस की शादी रचाने जा रही है.’’

बड़े भैया राकेश बोले थे, ‘‘आप की और वीरेश की सहमति होगी तभी तो उस ने बाप की जगह वीरेश का नाम छपवाया है.’’

मां ने प्रतिवाद किया, ‘‘अरे कैसी सहमति? तुम्हारे पापा की तेरहवीं पर बताया था कि राहुल को बेटे जैसा मानने लगी है. हम तो उसे ड्राइवर समझते थे. बरामदे में ही चाय भिजवा दिया करते थे.’’

‘‘क्या बात करती हैं?’’ राकेश बोले, ‘‘राहुल हर वक्त साथसाथ रहता है नीरू के. सारा बिजनैस देखता है. बैंक अकाउंट तक उस के नाम है. आप ने ही तो बताया था.’’

‘‘अरे कहती थी कि भागदौड़ के लिए ही रखा है उसे. अकेली औरत क्याक्या करे. अब क्या पता था कि बाकायदा बेटा बना लेगी उसे.’’

‘‘तो नुकसान क्या है? आप समझ लीजिए 3 पोते हैं आप के,’’ बड़े भैया ने बात को हलका करना चाहा, ‘‘वीरेश आए तो उस से पूछिएगा.’’

महत्त्वाकांक्षी नीरू को घर से गए 8 साल हो गए थे. 14 और 10 साल के सुधांशु और हिमांशु को छोड़ कर जब उसे जाना पड़ा था तब घर का वातावरण काफी विषाक्त हो चुका था. लगने लगा था कि कभी भी कुछ अवांछनीय घट सकता है.

वीरेश शुरू से ही मस्तमौला किस्म का इंसान रहा है. घूमनाफिरना, सजनासंवरना, नाचनागाना यही शौक थे बचपन से. घर का लाड़ला, मां का दुलारा. मस्तीमस्ती में एमए कर के गाजियाबाद में ही नौकरी भी ढूंढ़ ली. जबकि बड़ा बेटा राकेश सरकारी नौकरी में गाजियाबाद से बाहर ही रहा.

इस से भी मां का लाड़ वीरेश पर कुछ ज्यादा बरसा. पैसे की कमी नहीं थी. पिताजी की पैंशन और पैतृक मकान के 2 हिस्सों का किराया नियमित आमदनी थी. वीरेश धीरेधीरे लापरवाह होने लगा. एक नौकरी छूटी, दूसरी ढूंढ़ी. कभी इस सिलसिले में घर भी बैठना पड़ता. पिताजी भुनभुनाते, ‘कहीं बाहर  क्यों नहीं एप्लाई करते हो?’

मां फौरन बोलतीं, ‘एक बेटा तो  बाहर ही रहता है. यह यहीं रहेगा. नौकरियों की कमी है क्या?’

पिताजी चिल्लाते, ‘घरघुस्सा होता जा रहा है. जाहिल भी हो गया है. 9 बजे से पहले सो कर नहीं उठता. 3-4 कप चाय पीता है, तब इस की सुबह होती है. 11 बजे नौकरी पर जाएगा तो कौन रखेगा इसे? कितनी अच्छीअच्छी नौकरियां छोड़ दीं. मैं कब तक खिलाऊंगा इसे?’

पर वीरेश पर असर नहीं होता. मां बचाव करतीं, ‘शादी हो जाएगी तो सब ठीक हो जाएगा.’

‘कौन देगा इस निखट्टू को अपनी लड़की?’ पिताजी हथियार डाल देते.

लेकिन सुंदर चेहरेमोहरे वाला निखट्टू वीरेश प्रेम विवाह कर पत्नी ले आया. नीरू सुंदर थी. शादी के बाद वीरेश और लाटसाहब हो गया. अब शाम को कभीकभार डिं्रक्स भी लेने लगा. शुरूशुरू में तो नीरू को अच्छा लगा पर जब वीरेश घूमनेफिरने, पिक्चर वगैरह के लिए भी मां से रुपए मांगता तो उसे बुरा लगता. वीरेश नौकरी करता पर 6 महीने या साल भर से ज्यादा नहीं. कभी निकाल दिया जाता, कभी खुद छोड़ आता. कभी नौकरी जाने के गम में, कभी नौकरी मिलने की खुशी में, कभी किसी की सालगिरह पर, मतलब यह कि बेमतलब के बहानों से शराब पीना बढ़ता गया. 5 साल में 2 बेटे भी हो गए.

बड़े भैया होलीदीवाली आते भी तो मेहमान की तरह. कभी वीरेश को समझाने की कोशिश करते तो बीच में फौरन मां आ जातीं, ‘तुम सभी उस बेचारे के पीछे क्यों पड़े रहते हो? अब उस का समय ही खराब है तो कोई क्या करे? कोई ढंग की नौकरी मिलती ही नहीं उसे. तेरी तरह सरकारी नौकरी में होता तो यह सब क्यों सुनना पड़ता उसे?’

‘क्यों, सरकारी नौकरी में काम नहीं करना पड़ता है क्या? मेरा हर 3 साल में ट्रांसफर होता है. कितनी परेशानी होती है. मकान ढूंढ़ो, बच्चों का नए स्कूल में ऐडमिशन करवाओ. बदलता परिवेश, बदलते लोग. आसान नहीं है सरकारी नौकरी. इन का क्या है? ठाट से घर में रहते हैं. खिलाने को आप लोग हैं. जब बैठेबैठे खाने को मिले तो कोई क्यों करे नौकरी?’

‘बसबस, रहने दे. जब देखो तब जलीकटी सुनाता रहता है. कोई अच्छी सी नौकरी ढूंढ़ इस के लिए.’

‘अच्छी सी माने? जहां काम न हो? हुकम बजाने के लिए नौकर हो? घूमने के लिए गाड़ी हो? शाम के लिए दारू हो?’

‘देखा मां,’ अब वीरेश बोला, ‘इसीलिए मैं इन के साथ नहीं बैठता हूं.

4 दिन के लिए आते हैं और चिल्लाते रहते हैं.’

वीरेश गुस्से से बाहर चला जाता. मां बड़बड़ातीं. पिताजी कभी राकेश का साथ देते तो कभी मां का.

बच्चे बड़े हो रहे थे. खर्चे बढ़ रहे थे पर वीरेश में कोई परिवर्तन नहीं हुआ. पिताजी अकसर बड़बड़ाते. खासकर जब राकेश आते छुट्टियों में, ‘मैं पैंशन से 2-2 परिवार कैसे पालूं? तुम्हीं कुछ भेजा करो. बच्चे स्कूल जाने लगे हैं. कम से कम उन की फीस तो दे ही सकते हो.’

राकेश झुंझलाते, ‘मेरे खर्चे नहीं हैं क्या? तनख्वाह से मेरा भी बस गुजारा ही हो रहा है. आप जानते हैं कि

कोई ऊपरी आमदनी भी नहीं है मेरी. चलाने दीजिए इस को अपनी गृहस्थी किराए से या कैसे भी. अपनेआप

ठीक हो जाएगा. आप लोग चलिए मेरे साथ इलाहाबाद.’

‘बेटे, भूखा मरते तू देख सकता है भाई को. मांबाप नहीं देख सकते. हम तो करेंगे जितना हो सकेगा. तुझे मदद नहीं करनी, मत कर. किराए से बेचारे वीरेश का खर्च कैसे चलेगा?’ मां आ जातीं बीच में.

‘बेचारा, बेचारा, क्यों है बेचारा वह? लूलालंगड़ा है? दिमाग से कमजोर है? क्या कमी है उस में? अच्छीखासी नौकरियां छोड़ीं उस ने. किस वजह से? अपनी काहिली की वजह से न? गाजियाबाद छोड़ कर कहीं बाहर नहीं जाएंगे, क्यों? घर बैठे हलुआपरांठा मिले तो कोई काम क्यों करे? आप लोगों ने ही बिगाड़ा है उसे. कभी सख्ती से नहीं कहा कि पालो अपना परिवार,’ राकेश के सब्र का बांध टूट गया.

‘कहा है बेटा, कई बार कहा,’ अब पिताजी ने सफाई दी, ‘पहले कहता था कि मैं कोशिश करता हूं पर अच्छी नौकरी नहीं मिलती. अब कहता है कि घर छोड़ दूंगा, साधु बन जाऊंगा, आत्महत्या कर लूंगा. एक बार चला भी गया था. 2 दिन तक नहीं आया. तुम्हारी मां का रोरो कर बुरा हाल हो गया था.’

‘इसे क्या? यह तो आराम से बाहर नौकरी करता है. वह तो मेरी ममता थी जो उसे खींच लाई वरना वह साधु बन गया था,’ मां ने कहा.

‘मां की ममता नहीं थी, भूख के थपेड़े थे. पैसे खत्म हो गए होंगे लाटसाहब के,’ राकेश चिल्लाए.

‘ठीक है, यह बहस, अब बंद करो,’ हमेशा की तरह मां बड़बड़ाती हुई चली गईं.

वीरेश और नीरू के झगड़े बढ़ने लगे. अकसर मारपीट तक नौबत आ जाती. बच्चों के कोमल मन पर असर पड़ने लगा था.

बड़ा बेटा सुधांशु गुमसुम हो गया था. छोटा बेटा हिमांशु जिद्दी और मनमौजी. नीरू ने खुद काम करना शुरू किया. कभी छोटी नौकरी की, कभी घर में अचारमुरब्बे बना कर बेचे. इस के लिए उसे घर से बाहर निकलना पड़ता तब भी वीरेश चिल्लाता, ‘देखो, कैसे नखरे दिखा रही है  कामकाजी बन कर, जैसे घर में भूखी मरती है. अरे, इस का मन ही नहीं लगता घर में. बाहर 10 लोगों से मिलती है, रंगरेलियां मनाती है. मां, जरा पूछो इस से, कितनी कमाई कर के लाती है?’

नीरू जवाब देती तो झगड़ा और बढ़ता. मां अकसर वीरेश का पक्ष लेतीं और बहस मारपीट तक पहुंच जाती. बच्चे सहमे हुए होमवर्क करने का नाटक करने लगते. यह झगड़ा तब जरूर होता जब वीरेश नशे में होता.

तभी वीरेश को एक अच्छी एडवरटाइजिंग कंपनी में स्थानीय प्रतिनिधि की नौकरी मिल गई. लगा अब सब ठीक हो जाएगा. वीरेश को अपनी कंपनी के लिए विज्ञापन लाने का काम करना था. पर उस के आलसी स्वभाव के कारण उसे विज्ञापन नहीं मिल पाते थे.

नीरू ने वीरेश की मदद की और विज्ञापन मिलने लगे. अब होता यह कि जाना वीरेश को होता पर वह नीरू को भेज देता. कभी नीरू को विज्ञापनों के सिलसिले में कंपनी के जीएम से सीधे बात करनी पड़ जाती. नतीजा यह हुआ कि कंपनी ने कुछ ही दिनों में वीरेश की जगह नीरू को प्रतिनिधि नियुक्त कर दिया.

इस पर घर में महाभारत हो गया और नीरू ने नियुक्ति अस्वीकार कर दी, पर कंपनी ने वीरेश को फिर नियुक्त नहीं किया. मां ने वीरेश की नौकरी जाने का सारा दोष नीरू के सिर मढ़ दिया और वीरेश फिर शराब में डूब गया.

बच्चों के बढ़ते खर्चे और वीरेश के तानों से तंग आ कर नीरू ने एक बार फिर प्रयास किया और खुद ही भागदौड़ कर सरकार की महिला स्वरोजगार योजना के तहत बैंक से लोन लिया और फल संरक्षण केंद्र खोल लिया. पर उस के लिए भी उसे घर से बाहर जाना पड़ता.

कुछ दिनों बाद यह काम भी बंद हो गया. बैंक से ऋण वसूली का नोटिस आया. वीरेश ने जवाब भिजवाया कि यहां कोई नीरू नहीं रहती. पर बैंक के रिकौर्ड्स में नीरू के पति वीरेश और पारिवारिक मकान के सत्यापन प्रमाण थे. इसलिए रिकवरी नोटिस ले कर बैंक अधिकारी पुलिस के साथ पहुंच गए.

वीरेश के हाथपांव फूल गए और वह नीरू को उस के मायके छोड़ आया. पिताजी ने सरकारी नौकरी का वास्ता दिखा कर समय मांगा और बैंक की ऋण अदायगी की. इस में नीरू के और कुछ मां के भी जेवर बिक गए. राकेश ने भी काफी रुपए भिजवाए. मां ने ऐलान कर दिया कि वह कम्बख्त अब इस घर में दोबारा नहीं आएगी और भला वीरेश को इस में क्या ऐतराज हो सकता था?

बाद में नीरू ने एक पत्र राकेश को भी लिखा. उस का सारा आक्रोश मां के ऊपर था पर वीरेश को भी कभी माफ न करने की कसम खाई थी. इतना ही नहीं, उस ने आरोप लगाया था कि वीरेश ने एडवरटाइजिंग कंपनी में अपनी स्टैनो से अवैध संबंध भी बना लिए थे. सुबूत के तौर पर एक पत्र भी संलग्न था जो किसी किरन ने वीरेश को लिखा था.

राकेश सन्न रह गए थे. ऐसी स्थिति में मां को या वीरेश को समझाना व्यर्थ था. उन्होंने नीरू को ही समझाया कि इस स्थिति में समझौते से अच्छा है अपने पैरों पर खड़ा होना. बाद में पता चला कि नीरू ने दिल्ली जा कर पहले ऐडवरटाइजिंग एजेंसी में काम किया. फिर प्रौपर्टी डीलर बन गई. फ्लैट लिया, गाड़ी ली. घर तो कभी नहीं आई पर बच्चों से उन के स्कूलों में मिलती रही. जन्मदिन पर, त्योहारों पर बच्चों को तोहफे भी भिजवाती रही.

साल दर साल बीतते गए. मांपिताजी ने कोशिश की कि तलाक दिलवा कर वीरेश की दूसरी शादी करवाएं पर नीरू का संदेश आया कि भूल कर भी ऐसा नहीं करिएगा वरना शारीरिक प्रताड़ना के बाद घर से निकालने का केस बन जाएगा. वीरेश संन्यासी सा हो गया.

बढ़ती उम्र और शराब ने एक अजीब दयनीयता पोत दी थी उस के चेहरे पर. न किसी से मिलना न कहीं जाना. बस, शाम को किसी बहाने से मां से पैसे ले कर निकल जाता और देर रात झूमताझामता आता और सो जाता. तरस आने लगा उसे देख कर.

करीब 8 साल बाद नीरू घर आई जब पिताजी की मृत्यु हुई. शोक के अवसर पर किसी ने उस से कुछ नहीं कहा. तभी पहली बार सब ने राहुल को देखा था. 25-26 वर्ष का हट्टाकट्टा लड़का, चुपचाप बरामदे में बैठा था. सब ने उसे ड्राइवर ही समझा था. संवेदना व्यक्त कर के नीरू चली गई पर उस के बाद वह अकसर आने लगी. मां और वीरेश के व्यवहार से लगा कि उन्होंने उसे अपनाने का मन बना लिया.

एक बार जिद कर के अपनी कार से वह उन्हें नोएडा भी ले गई जहां उस ने शानदार फ्लैट लिया था. सुधांशु को नौकरी दिलवाने में मदद की और हिमांशु को इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला दिलवाया. वीरेश अकसर नोएडा जाने लगा. गाड़ी पटरी पर आ ही रही थी कि यह धमाका हो गया.

राहुल की शादी का कार्ड आया. मां की जगह नीरू, पिता की जगह वीरेश और दादी की जगह मां का नाम छपा था.

सुगबुगाहट थमी भी नहीं थी कि एक शाम नीरू आई, मिठाई के डब्बे और उपहारों के साथ. राहुल की सगाई में उस की ससुराल से मिले थे उपहार. कार्ड के बारे में पूछने पर नीरू ने कहा कि उस ने वीरेश को बता दिया था कि उस ने बाकायदा राहुल को गोद लिया है और वीरेश ने कोई आपत्ति नहीं की थी.

अब नीरू उस की मां हो गई तो वीरेश स्वत: ही पिता हो गया और मां दादी. वीरेश ने ही उस का बचाव किया, ‘अपने बेटों से इतने साल अलग रही तो राहुल को देख कर मातृत्व जागा और जब बेटा बना ही लिया तो शादी भी करनी थी.’ सब ने इस पर मौन सहमति दे दी.

राहुल की शादी में सब सम्मिलित हुए. सुधांशु और हिमांशु भी भैया की शादी में खूब नाचे. मां तो गद्गद थीं. नीरू ने उन्हें कई कीमती साडि़यों के साथ हीरे के टौप्स दिए थे. राहुल की ससुराल से भी दादीमां के लिए साड़ी मिली थी. शादी के बाद नीरू बहू को ले कर जब गाजियाबाद गई तब मां ने मुंहदिखाई में साड़ी दी बहू को. इसी हंसीखुशी के माहौल में मां ने नीरू से कहा कि अब वह भी लौट आए और अपनी गृहस्थी संभाले.

नीरू 1 मिनट तो चुप रही फिर जैसे फट पड़ी, ‘‘आप अपने लड़के की फिक्र कीजिए मांजी. मेरी गृहस्थी तो उजड़ी भी और बस भी गई. उजड़ी तब थी जब मुझे धोखे से मायके पहुंचा दिया गया था कि मामला ठंडा होने पर ले आएंगे. और ये शायद खुद सौत लाने की फिराक में थे. सब ने इन्हीं का साथ दिया था तब. जैसे सारी गलती मेरी ही हो. मेरा कसूर यही था न कि मैं आप के बेटे को उस के पैरों पर खड़ा देखना चाहती थी. तब उजड़ी थी मेरी गृहस्थी और बसी तब जब मैं अपने पैरों पर खड़ी हो गई. हां, तब मुझे भी गैर मर्दों का सहारा लेना पड़ा था. पर अब मुझे किसी सहारे की जरूरत नहीं.

‘‘पता नहीं मेरे बेटे मेरे रह पाते या नहीं इसलिए एक बेटा अपनाया. अब मैं भी सासू मां हूं. मेरा भरापूरा परिवार है. अब जिसे मेरा साथ चाहिए वह आए मेरे पास. इस घर से मैं ने अपना संबंध टूटने नहीं दिया. पर वह संबंध अब आप की शर्तों पर नहीं, मेरी शर्तों पर रहेगा. पूछिए अपने बेटे से, क्या वे रह सकते हैं मेरे साथ, मेरी शर्तों पर या यों ही मां की पैंशन पर जिंदगी गुजारने का इरादा रखते हैं?’’

सब हैरान थे पर वीरेश के मौन आंसू उस की सहमति बयान कर रहे थे.

Family Story: दिस इज टू मच: आखिर क्यों उन दोनों को सजा मिली?

Family Story: ‘दिस इज टू मच’ ये शब्द शूल की तरह मेरे हृदय को भेद रहे हैं. मानो मेरे कानों में कोई पिघला शीशा उड़ेल रहा हो. मेरा घर भी अखबारों की सुर्खियां बनेगा, यह तो मैं ने स्वप्न में भी न सोचा  था. हमारे हंसतेखेलते घर को न जाने किस की हाय लग गई. हम 4 जनों का छोटा सा खुशहाल परिवार – बेटा बीटैक थर्ड ईयर का छात्र और बेटी बीटैक फर्स्ट ईयर की. कोरोना संक्रमण के फैलाव को रोकने के लिए जब सभी कालेजों और स्कूलों से विद्यार्थियों को घर वापस भेजा जाने लगा और मेरा भी विद्यालय बंद हो गया तो मैं प्रसन्न हो गई कि बरसों बाद अपने बच्चों के साथ मुझे समय बिताने का मौका मिलेगा.

कानपुर आईआईटी में पढ़ने वाला मेरा बेटा और बीबीडी इंजीनियरिंग कालेज लखनऊ में पढ़ने वाली मेरी बेटी जब घर आए तो मेरा घर गुलजार हो गया.

बच्चे घर पर नहीं थे, तो नरेंद्र अपनी पुलिस की ड्यूटी निभाने में व्यस्त रहते थे और मैं कोश्चन पेपर बनाने, वर्कशीट बनाने और पढ़नेलिखने में. बस, यही व्यस्त दिनचर्या रह गई थी हमारी.

जब बच्चे घर आए तो उन से बातें करते, मिलजुल कर घर के काम करते, और साथ बैठ कर टीवी देखते तथा मजे करते  दिन कैसे बीत जाता, पता ही नहीं चलता.  पर मेरी यह खुशी ज्यादा दिन न टिक पाई.

सौरभ और सुरभि ने कुछ दिनों तो मेरे साथ खुशीखुशी समय बिताया, फिर बोर होने लगे, बातों का खजाना खाली हो गया और घर का काम बोझ लगने लगा, उमंग और उल्लास का स्रोत सूखने लगा. दोनों अपनेअपने कमरों में अपनेअपने मोबाइल व लैपटौप के साथ अपनी ही दुनिया में मग्न रहते.

मैं 5 बजे उठ कर सोचती कि 5 बजे न सही, कम से कम 6-7 बजे तक ही उठ कर दोनों मेरे साथ एरोबिक्स या कोई ऐक्सरसाइज करें. हम साथसाथ मिल कर काम करें और साथसाथ बैठ कर मूवी देखें और समय बिताएं. मैं उन की पसंद का नाश्ता बना कर उन के उठने का इंतजार करती. पहले उन्हें प्यार से उठाती, फिर चिल्लाती. पर उन दोनों के कानों पर तो जू तक न रेंगती.

बेटी को उठाती तो वह कहती, ‘आप मेरे ही पीछे पड़ी रहती हो, पहले भैया को उठाओ जा कर.’ और बेटे को कहती तो वह कहता, ‘मां, दिस इज टू मच. चैन से सोने भी नहीं देती हो. अब मैं कोई छोटा बच्चा नहीं हूं.’ मैं अपना सा मुंह ले कर रह जाती.

जिंदगी की भागदौड़ में 21 बरस कैसे बीत गए, पता ही न चला. लगता है जैसे कल की ही बात हो जब मेरा सौरभ अपनी शरारतों से हम सब के बीच आकर्षण का केंद्र बना रहता था. उस से 2 साल छोटी सुरभि जब ठुमकठुमक कर चलती थी तो मानो खूबसूरत बार्बी डौल चल रही हो. उन्हें देख कर हम फूले नहीं समाते थे.

नरेंद्र मंत्रमुग्ध हो कहते, ‘मैं अपने बेटे को पुलिस कमिश्नर बनाऊंगा और बेटी को जज.’ ऐसे ही न जाने कितने सपने सजाए हम दिलोजान से उन्हें अच्छी परवरिश देने में लगे थे. मैं सुबह 5 बजे उठ कर सब का नाश्ता तैयार करती. नरेंद्र यदि घर पर होते तो बच्चों को तैयार करने में मेरी सहायता करते. बच्चों को बसस्टौप पर छोड़ कर अपने स्कूल के लिए भागती.

बच्चों की छुट्टी 2 बजे हो जाती थी. इसलिए वे स्कूल से सीधे अपनी नानी के घर चले जाते थे. मैं जब साढ़े 3 बजे स्कूल से लौटती तो अपने साथ घर वापस ले आती. घर आ कर उन दोनों को रैस्ट करने के लिए कहती और खुद भी थोड़ी देर आराम करती. 5 बजे उन्हें उठा कर होमवर्क कराने बैठाती और साथ ही, घर के काम भी निबटाती जाती.

जीवन की आपाधापी में समय कब पंख लगा कर उड़ गया, पता ही न चला. नरेंद्र की 24 घंटे की पुलिस की नौकरी और हजारों तरह की कठिनाइयों के बाद भी वे मुझे और बच्चों को समय देने और हमारा ध्यान रखने की पूरी कोशिश करते. उन्हें अपने दोनों बच्चों पर बड़ा गर्व था.

सौरभ का जब आईआईटी कानपुर में सेलैक्शन हो गया तब उन्होंने अपने पूरे स्टाफ को मिठाई बांटी और रिश्तेदारों को पार्टी दी. सौरभ के होस्टल जाने के बाद मैं कितना रोई थी. उस के सेलैक्ट होने की खुशी तो थी पर घर से जाने का गम भी बहुत ज्यादा था. कुछ भी बनाती, तो उस की याद आती. डाइनिंग टेबल पर उस की खाली कुरसी देख कर मैं रो पड़ती कि मेरा बेटा होस्टल का रूखासूखा खाना खा रहा होगा.

उस के 2 वर्षों बाद ही सुरभि को भी बीबीडी इंजीनियरिंग कालेज, लखनऊ में ऐडमिशन मिल गया और वह भी चली गई. उस के जाने के बाद ऐसा लगा जैसे घर से खुशियां ही चली गई हों.

धीरेधीरे इस सन्नाटे की हमें आदत हो गई. अकसर 10 दिनों के लिए बच्चे हवा के झोंकों की तरह घर आते और चले जाते. कोरोना के कहर ने सारे संसार को आतंकित कर रखा है. मैं कोरोना से भयभीत तो थी पर मुझे खुशी थी कि जीवन की इस आपाधापी में मुझे बरसों बाद अपने बच्चों के साथ समय बिताने को मिलेगा.

अफसोस, समय तो तेरे हाथ से न जाने कब का फिसल चुका था. बच्चों को अब मेरी जरूरत नहीं थी. उन्हें उन की दुनिया में मेरा प्रवेश दखलंदाजी लगता था. रोज अखबारों और टीवी में लोगों द्वारा परिवार के साथ मिलजुल कर समय बिताने की खबरें मेरे हृदय को विचलित कर रही थीं. मेरे पति कोरोना के खिलाफ जंग में एक योद्धा के रूप में अपना कर्तव्य निभा रहे थे और बच्चों का संसार उन के कमरों तक सिमट गया था.

उस दिन जब मैं ने सौरभ और सुरभि को समझाना चाहा तो वे मुझ पर बरस पड़े, ‘‘सारी जिंदगी तो आप को हमारे लिए फुरसत मिली नहीं, अब आप चाहती हो कि हम आप के साथ बैठें.’’ सुरभि बोली, ‘‘किया ही क्या है आप ने हमारे लिए. आप तो अपनी ही दुनिया में मग्न रहती थीं. वह तो नानी ही थीं जो हमारा ध्यान रखती थीं. आप से ज्यादा तो हम नानी से अटैच्ड हैं.’’

मैं ने उन्हें समझाना चाहा कि मैं ने नौकरी इसलिए की थी जिस से उन्हें अच्छे स्कूल में पढ़ा सकूं और उन की ख्वाहिशें पूरी कर सकूं. उन के पापा की सैलरी में यह संभव नहीं था. इस पर सौरभ भड़क उठा, ‘‘दिस इज टू मच, डोंट इंटरफेयर इन अवर लाइफ.’’

‘‘झूठ मत बोलिए, पापा की सैलरी इतनी भी कम नहीं थी कि हमारी जरूरतें पूरी न हो पातीं. नौकरी तो आप ने अपने शौक पूरे करने के लिए की थी और एहसान हम पर लाद रही हो,’’ सुरभि गुस्से से पैर पटकती हुई अपने कमरे में चली गई और मैं अपने कमरे में आ कर आंसू बहाने लगी.

रात को साढ़े 11 बजे जब नरेंद्र थकेहारे वापस लौट कर आए तो मेरी सूजी हुई आंखें देख कर बड़े प्यार से उन्होंने पूछा, ‘‘डार्लिंग, यह फूल सा चेहरा मुरझाया हुआ क्यों है?’’ उन की यह बात सुन कर मेरी आंखों से गंगाजमुना बहने लगी. मैं बोली, ‘‘मैं ने सारी जिंदगी तुम्हारा घर और बच्चे संभालने में बिता दी. पर न तुम्हारे पास मेरे लिए वक्त है और न तुम्हारे बच्चों के पास.’’

इस के बाद शाम को घटी सारी घटना मैं ने उन्हें सुना दी. यह सुन कर वे क्रोध से आगबबूला हो उठे और सीधे सौरभ और सुरभि के कमरे की ओर गए. सुरभि सो रही थी और सौरभ मोबाइल में व्यस्त था. उन्होंने उसे डांटा, ‘‘तुम्हें बिलकुल तमीज नहीं है, कोई अपनी मां से इस तरह बात करता है. यह मोबाइल मैं ने तुम्हें तुम्हारे जरूरी काम करने के लिए दिलवाया था, न कि फालतू समय बरबाद करने के लिए.’’

इस पर सौरभ बोला, ‘‘दिस इज टू मच, पापा. इन को तो आदत है तिल का ताड़ बनाने की. आप भी इन के बहकावे में आ कर मुझे ही डांट रहे हैं. इन से कह दें, अपने काम से काम रखें, हमारे काम में दखल न दें.’’

वे बोले, ‘‘बदतमीज, जबान लड़ाता है, अपनी मां के लिए अपशब्द बोलता है.’’ उन्होंने उसे 2 थप्पड़ जड़ दिए. इस पर उस ने उन का हाथ पकड़ लिया. उन का क्रोध सातवें आसमान पर पहुंच गया. उन्होंने उस का मोबाइल छीन कर फेंक दिया. सौरभ गुस्से से चीखनेचिल्लाने लगा. नरेंद्र चुपचाप अपने कमरे में चले गए और बिना कुछ खाएपिए ही सो गए.

अगले दिन मैं रोज की तरह सुबह 5 बजे सो कर उठी. सिर भारी हो रहा था. आदतवश दोनों बच्चों के कमरों में झांका. सौरभ के कमरे में झांका तो मेरी चीख निकल गई और मैं मूर्च्छित हो कर गिर गई. मेरी चीख सुन कर नरेंद्र और पड़ोस वाले शर्माजी दौड़े हुए आए और सौरभ को फांसी पर झूलते हुए देख कर उन के होश उड़ गए.

दूसरे दिन मेरा घर अखबारों की सुर्खियों में था. बड़ेबड़े अक्षरों में लिखा था, ‘एक पुलिस इंस्पैक्टर के बेटे ने पिता द्वारा मोबाइल के लिए डांटने पर फांसी लगा ली.’ मेरा खुशियों का संसार पलभर में ही उजड़ गया. मैं समझ नहीं पा रही हूं कि दोषी कौन है – मैं, नरेंद्र, सौरभ या मोबाइल. उस के शब्द मेरे कानों में गूंज रहे हैं, ‘‘दिस इज टू मच, डोंट इंटरफेयर इन माय लाइफ.’’ मेरा हृदय छलनी हुआ जा रहा है.

Family Story: कागज के चंद टुकड़ों का मुहताज रिश्ता

Family Story, लेखिका- मीनाक्षी सिंह

रोहिणी और नमित की शादी को 10 साल पूरे होने को थे. दांपत्य के इस मोड़ पर रोहिणी द्वारा तलाक के लिए अर्जी देना सब को अचंभित कर रहा था. कभी तलाक नमित भी चाहता था और रोहिणी किसी भी शर्त पर उसे तलाक देने के पक्ष में नहीं थी.

2 साल तक रोहिणी की शादी के लिए लड़का तलाश करने के बाद जब नमित के पापा ने मनचाहा दहेज देने के लिए रोहिणी के पापा द्वारा हामी भरे जाने पर शादी के लिए हां की, तो एक बेटी के मजबूर पिता के रूप में रोहिणी के पिता रमेश बेहद खुश हुए.

अपनी समझदार व खुद्दार बेटी रोहिणी की शादी नमित के साथ कर के रमेश अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री समझ कर पत्नी के साथ गंगा स्नान को निकल गए इन सब बातों से बेखबर कि उधर ससुराल में उन की लाड़ली को लोगों की कैसी प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ रहा है.

शादी में चेहरेमोहरे पर लोगों द्वारा छींटाकशी तो आम बात है, लेकिन जब पति भी अपनी पत्नी के रंगरूप से संतुष्ट न हो, तो पत्नी के लिए लोगों के शब्दबाणों का सामना करना बड़ा मुश्किल हो जाता है.

रोहिणी सोच से बेहद मजबूत किस्म की लड़की थी. तानोंउलाहनों को धीरेधीरे नजरअंदाज करते हुए उस ने घर की जिम्मेदारी बखूबी संभाल ली थी.

कुछ महीने बाद, शादी के पहले, शिक्षक के लिए दी गई प्रतियोगिता परीक्षा का रिजल्ट आया, जिस में रोहिणी का चयन हुआ और रोहिणी एक शिक्षक बनने की दिशा में आगे बढ़ गई.

इस खुशखबरी और रोहिणी के अच्छे व्यवहार से उस के प्रति घर वालों का नजरिया बदलने लगा था. नमित भी अब रोहिणी से खुश रहने लगा था. पैसा अपने अंदर किसी के प्रति किसी का नजरिया बदलवाने का खूबसूरत माद्दा रखता है. यही अब उस घर में दृष्टिगोचर हो रहा था.

शादी के 5 साल पूरे होने को थे और रोहिणी की गोद अभी तक सूनी थी. यह बात अब आसपास और परिवार के लोगों को खटकने लगी थी, तो नमित तक भी यह खटकन पहुंचनी ही थी.

शुरू में नमित ने मां को समझाने की कोशिश की, पर दादी शब्द सुनने की उम्मीद ने एक बेटे के समझाते हुए शब्दों के सामने अपना पलड़ा भारी रखा और नमित की मां इस जिद पर अड़ी रहीं कि अब तो उन्हें एक पोता चाहिए ही चाहिए.

कहते हैं कि अगर किसी बात को बारबार सुनाया जाए, तो वही बात हमारे लिए सचाई सी बन जाती है, ठीक उसी तरह लोगों द्वारा रोहिणी के मां न बनने की बात सुनतेसुनते नमित को लगने लगा कि अब रोहिणी को मां बनना ही चाहिए और उस के दिमाग पर भी पिता बनने की ख्वाहिश गहराई से हावी होने लगी. उस ने रोहिणी से बात की और उसे चैकअप के लिए ले गया.

रोहिणी की रिपोर्ट नौर्मल आई, इस के बावजूद काफी कोशिश के बाद भी वह पिता नहीं बन सका. अब रोहिणी भी नमित पर दबाव डालने लगी कि उस की सभी रिपोर्ट नौर्मल हैं, तो एक बार उसे भी चैकअप करवा लेना चाहिए, लेकिन नमित ने उस की बात नहीं मानी. वह अपना चैकअप नहीं करवाना चाहता था, क्योंकि उस के अनुसार उस में कोई कमी हो ही नहीं सकती थी.

मां चाहती थीं कि नमित रोहिणी को तलाक दे कर दूसरी शादी कर ले. वह खुल कर तो मां की बात का समर्थन नहीं कर रहा था, पर उस के अंतर्मन को कहीं न कहीं अपनी मां का कहना सही लग रहा था. एक पति पर पिता बनने की ख्वाहिश पूरी तरह हावी हो चुकी थी.

धीरेधीरे उम्मीद की किरण लुप्त सी होने लगी थी. अब उस घर में सब चुपचुप से रहने लगे थे. खासकर रोहिणी के प्रति सभी का व्यवहार कटाकटा सा था. घर वालों के रूखे व्यवहार ने रोहिणी को भी काफी चिड़चिड़ा बना दिया था.

एक दिन नमित ने रोहिणी को समझाने की कोशिश की, ‘‘देखो रोहिणी, वंश चलाने के लिए एक वारिस की जरूरत होती है और मुझे नहीं लगता कि अब तुम इस घर को कोई वारिस दे पाओगी. इसलिए तुम तलाक के कागजात पर साइन कर दो.

‘‘और यकीन रखो, तलाक के बाद भी हमारा रिश्ता पहले जैसा ही रहेगा. हमारा रिश्ता कागज के चंद टुकड़ों का मुहताज कभी नहीं होगा. भले ही हम कानूनी रूप से पतिपत्नी नहीं रहेंगे, पर मेरे दिल में हमेशा तुम ही रहोगी.’

‘‘नाम के लिए कागज पर मेरी पत्नी, मेरे साथ काम कर रही रोजी होगी, परंतु उस से शादी का मेरा मकसद बस औलाद प्राप्ति होगा. तुम्हें बिना तलाक दिए भी मैं उस से शादी कर सकता हूं, पर तुम तो जानती हो कि हम दोनों की सरकारी नौकरी है और बिना तलाक शादी करना मुझे परेशानी में डाल कर मेरी नौकरी को खतरे में डाल सकता है.’’

‘‘तुम अपना चैकअप क्यों नहीं करवाते हो, नमित. मुझे लगता है कि कमी तुम में ही है. एक बात कहूं, तुम निहायत ही दोगले इंसान हो, शरीफ बने इस चेहरे के पीछे एक बेहद घटिया और कायर इंसान छिपा है.

‘‘कान खोल कर सुन लो, मैं तुम्हें किसी शर्त पर तलाक नहीं दूंगी. तुम्हें जो करना हो, कर लो. सारी परेशानियों को सहते हुए मैं इसी परिवार में रह

कर तुम सब के दिए कष्टों को सह

कर तुम्हारे ही साथ अपने बैडरूम

में रहूंगी.’’

‘‘नहीं, मुझ में कोई कमी नहीं हो सकती, और तलाक तो तुम्हें देना ही होगा. मुझे इस खानदान के लिए वारिस चाहिए, चाहे वह तुम से मिले या किसी और से.

‘‘अगर तुम सीधेसीधे तलाक के पेपर पर हस्ताक्षर नहीं करती हो, तो मैं तुम पर मेरे परिवार वालों को परेशान करने और बदचलनी का आरोप लगाऊंगा,’’ नमित के शब्दों का अंदाज बदल चुका था.

कुछ दिनों बाद नमित ने कोर्ट में रोहिणी पर इलजाम लगाते हुए तलाक की अर्जी दाखिल कर दी.

अब रोहिणी बिलकुल चुप सी रहने लगी थी, लेकिन तलाक मिलने तक अपने बैडरूम पर कब्जा नहीं छोड़ने के अपने फैसले पर अडिग थी.

2 महीने बाद ही उसे पता चला कि वह मां बनने वाली है. यह खबर मिलते ही नमित ने तलाक की दी हुई अर्जी वापस ले ली.

उस के अगले ही दिन रोहिणी अपना बैग पैक कर के मायके चली गई. सारी बातें सुन कर मातापिता ने समझाने की कोशिश की कि जब सबकुछ ठीक

हो रहा है, तो इस तरह की जिद सही नहीं है.

‘‘अगर आप लोगों को मेरा आप के साथ रहना पसंद नहीं है, तो मैं जल्दी ही कहीं और रूम ले कर रहने चली जाऊंगी. आप लोगों पर ज्यादा दिन बोझ बन कर नहीं रहूंगी.’’

बेटी से इस तरह की बातें सुन कर दोनों चुप हो गए.

अगले दिन शाम को घंटी बजने पर रोहिणी ने दरवाजा खोला सामने नमित था. बिना जवाब की प्रतीक्षा किए वह अंदर आ कर सोफे पर बैठ गया, तब तक रोहिणी के मातापिता भी आ चुके थे.

बात की शुरुआत नमित ने की, ‘‘रोहिणी हमारी गोद में जल्दी ही एक खूबसूरत संतान आने वाली है, तो तुम अब यह सब क्यों कर रही हो.

‘‘जब मैं ने तुम्हें तलाक देना चाहा था, तब तो तुम किसी भी शर्त पर तलाक देने को तैयार नहीं थीं, फिर अब क्या हुआ. अब जब सबकुछ सही हो रहा है, सब ठीक होने जा रहा है, तो इस तरह की जिद का क्या औचित्य?’’

‘‘नमित, तुम्हें क्या लगता है, यह बच्चा तुम्हारा है? तो मैं तुम्हें यह साफसाफ बता दूं कि यह बच्चा तुम्हारा नहीं, मेरे कलीग सुभाष का है, जो इस तलाक के बाद जल्दी ही मुझ से शादी करने वाला है.

‘‘तुम ने मुझ पर चरित्रहीनता के झूठे आरोप लगाए थे न, मैं ने तुम्हारे लगाए हर उस आरोप को सच कर के दिखा दिया. और साथ ही, यह भी दिखा दिया कि मुझ में कोई कमी नहीं, कमी तुम में है. तुम एक अधूरे मर्द हो जो अपनी कमी से पनपी कुंठा अब तक अपनी पत्नी पर उड़ेलते रहे. विश्वास न हो तो जा कर अपना चैकअप करवाओ और फिर जितनी चाहे उतनी शादियां करो.

‘‘तुम्हारे घर में तुम्हारी मां और बहन द्वारा दिए गए उन सारे जख्मों को मैं भुला देती, अगर बस तुम ने मेरा साथ दिया होता. औरत को बच्चे पैदा करने की मशीन मानने वाले तुम जैसे मर्द, मेरे तलाक नहीं देने के उस फैसले को मेरी एक अदद छत पाने की लालसा समझते रहे और मैं उसी छत के नीचे रह कर अपने ऊपर होते अत्याचारों की आंच पर तपती चली गई, अंदर से मजबूत होती चली गई. ऐसे में मुझे सहारा मिला सुभाष के कंधों का और उस ने एक सच्चा मर्द बन कर, सही मानो में मुझे औरत बनने का मौका दिया.

‘‘अब तुम्हारे द्वारा लगाए गए उन झूठे आरोपों को मैं सच्चा साबित कर के तुम से तलाक लूंगी और तुम्हें मुक्त करूंगी इस अनचाहे रिश्ते से, तुम्हें अपनी मरजी से शादी करने के लिए, जो तुम्हारे खानदान को तुम से वारिस दे सके जो मैं तुम्हें नहीं दे पाई.

‘‘अब तुम जा सकते हो. कोर्ट में मिलेंगे,’’ बिना नमित के उत्तर की प्रतीक्षा किए रोहिणी उठ कर अपने कमरे में चली गई.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें