मसला : नहीं डर कानून का?

भीड़ का गुस्सा भयावह होता जा रहा है. विरोध करने के चक्कर में सार्वजनिक जगहें और दूसरी चीजें निशाना बनती हैं. इस से सवाल उठते हैं कि क्या जनता का न्याय व्यवस्था से मोह भंग होता जा रहा है? क्या पुलिस के प्रति लोगों का विश्वास घटा है? क्या समाज में गिरावट आई है, जिस से लोग अपना आपा खो रहे हैं? क्या जल्दी इंसाफ नहीं मिलने की वजह से कानून को अपने हाथ में लेने की फितरत बढ़ी है? आखिर वे कौन सी वजहें हैं, जिन के चलते कानून के दायरे में रहने वाले कानून के खलनायक बनने लगे हैं? सड़क हादसे में एक बच्चे की मौत हो गई.

गांव वालों को गुस्सा आ गया और बस में आग लगा दी. एक घर में आग लगने पर फायर ब्रिगेड को फोन किया गया. देर से पहुंचने की वजह से घर जल कर खाक हो गया. भीड़ अपने गुस्से पर काबू नहीं रख सकी. उस ने फायर ब्रिगेड की गाड़ी को भी फूंक दिया. राशन की एक दुकान के लगातार बंद रहने पर भीड़ ने दुकान का ताला तोड़ कर दुकान में रखे सामान को लूट लिया. खाद नहीं मिलने पर किसानों द्वारा किए गए चक्का जाम में पुलिस के बल प्रयोग के बाद गुस्साए किसानों ने मुरैना जिले के सबलगढ़ कसबे में जम कर पथराव किया और पुलिस चौकी समेत कुछ दुकानों में आग लगा दी. साथ ही, अनुविभागीय दंडाधिकारी और पुलिस अधिकारों को विश्रामगृह में बंधक बना कर वहां पथराव किया. पुलिस ने बचाव में हवाई फायर किए और आंसू गैस का इस्तेमाल भी किया. मंदिर तोड़े जाने के खिलाफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा आयोजित 3 घंटे के चक्का जाम का पूरे देश में व्यापक असर. संघ समर्थकों ने जम कर उपद्रव किया.

उन से निबटने के लिए पुलिस लाठीचार्ज और फायरिंग करनी पड़ी, जिस से कई घायल हुए और कई मौतें हुईं. राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के कार्यकर्ताओं की गुंडई के विरोध में रेल यात्रियों के साथ छात्रों ने मारपीट की. ‘जय श्रीराम’ का नारा दलितों और मुसलमानों से बुलवाने के चक्कर में हर रोज कहीं न कहीं फसाद खड़ा हो जाता है. सरकारी पार्टी की शह पर लोग और ज्यादा उग्र हो रहे हैं और कानून हाथ में ले रहे हैं. दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष आदेश गुप्ता खुलेआम अपने कार्यकर्ताओं को कह रहे हैं कि घरघर जा कर चैक करो कि वहां बंगलादेशी और रोहिंग्या शरणार्थी रह रहे हैं, जबकि यह काम सरकार का है और आदेश गुप्ता न मंत्री हैं, न मुख्यमंत्री. भारत में बढ़ते गुस्से के ये वे सीन हैं, जिन का दोहराव हर शहर में अलगअलग रूपों में आएदिन देखने को मिलता है. पूरे देश में आम लोगों को गुस्सा होने का हक दिया जा रहा है. यह तपिश की तरह तेज होता जा रहा है. इस गुस्से में निजी फायदा ही छिपा है और दूसरे का अहित भी. कई गुस्से ऐसे भी हैं, जिन से किसी को कुछ लेनादेना नहीं है, फिर भी भीड़ के भयावह तंत्र का हम और आप सभी एक हिस्सा बन जाते हैं. किसी चौराहे पर बेवजह किसी रिकशे वाले को कोई पुलिस वाला पीटता है, तो अनायास ही अंदर से गुस्सा उबल पड़ता है. मन करता है कि पुलिस के हाथ से डंडा छीन कर उसे ही धुन दें.

कानून को अपने हाथ में लेने की फितरत आखिर क्यों बढ़ रही है? कानून को अपने हाथ में ले कर पुलिस, प्रशासन, न्यायपालिका और राजतंत्र के खिलाफ छापामार लड़ाई छेड़ने के लिए भारत आदी क्यों होता जा रहा है? एक जमाने में यह हालत सिर्फ बिहार की थी, आज पूरे देश में ऐसी ही शासन शैली बन गई है. यह हर प्रदेश में घनी होती जा रही है. भीड़ का हिस्सा और यह भी भयावह बनाने के लिए कौन दोषी है? यह गुस्सा आखिर आता कहां से है? कौन इतना गुस्सा देता है? ये ऐसे सवाल हैं, जिन का जवाब कानून के पास नहीं है और न ही समाज के पास. इन घटनाओं का सीधा सा जवाब है समाज में आई गिरावट और इंसाफ मिलने में हो रही देरी. इस घटना को ही देख लीजिए. मध्य प्रदेश के एक दूल्हे की बरात में नाचगाना कर रहे बरातियों में से 4 लोगों को एक ट्रक ने रौंद दिया.

उस के बाद बरातियों ने कई दुकानें जला दीं और उस ट्रक में आग तो लगाई ही साथ ही सड़क के किनारे खड़े 4-5 दूसरे वाहनों को भी फूंक दिया. पुलिस के आने के पहले तकरीबन घंटाभर तक भीड़ ने आसपास के इलाकों में काफी उत्पात मचाया. राह चलती औरतों और लड़कियों को छेड़ने वाले एक तथाकथित दादा को 20 से ज्यादा लोगों ने उस के घर में धावा बोल कर उस की पिटाई कर दी. उसे लहूलुहान कर दिया. उस के हाथपैर तोड़ डाले. पुलिस से शिकायत करने के बाद भी कोई हल नहीं निकलने पर लोगों ने कानून को अपने हाथ में ले लिया. कई जगहों में भीड़ तत्काल इंसाफ खुद कर देती है. गौरक्षकों को तो ट्रेनिंग दी जा रही है कि खुद ही मारपीट कर किसी को भी सजा दे दो.

मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में 2 दलित आदिवासियों की हत्या मई, 2022 में कर दी गई. उन के इंसाफ करने के तरीके को देख कर लगता है कि सजा देने का कानून पुलिस से जंगल से सीख कर आए हैं. अब हर प्रदेश के शहरों में यह दिखने लगा है. समाज में ये ज्यादातर घटनाएं जाति, वर्ग, धर्म और अंधश्रद्धा से जुड़ी हैं. जब हर शहर में, गांवों में और जिलों में हिंसा को इस रूप में देखा जाता है, तो सहज ही सवाल उठने लगता है कि क्या उन संस्थाओं के प्रति असहिष्णुता बढ़ रही है, जिन पर कानून व्यवस्था बनाए रखने और इंसाफ देने का जिम्मा है? किसी पार्टी के नेता को पुलिस ने पीट दिया, तो उस के समर्थक सड़कों पर उतर आते हैं. सभी तरह के गुस्से के मूल में कोई चाह होती है, जो पूरी नहीं होने पर अचानक ज्वालामुखी की तरह फूट पड़ती है. बिजली नहीं मिली, तो लोगों ने गुस्से में आ कर बिजली के सबस्टेशन में आग लगा दी. एक पब में कट्टरपंथियों ने औरतों पर हमला किया. वे इस बात से नाराज थे कि वे औरतें मुसलिम मर्दों के साथ हंसबोल रही थीं और महिलाएं शराब पी रही थीं.

इस मसले पर शिक्षिका डाक्टर संगीता शर्मा कहती हैं, ‘‘हिंसा बीमारी नहीं, सिस्टम खराब होने का लक्षण है, जो बताता है कि सरकारी तंत्र में कहीं खराबी आ गई है. बारबार शिकायत करने के बाद भी सुधार नहीं होने पर खीज कर लोग हिंसक हुए हैं. वैसे भी जनता में अब सहनशीलता दिनोंदिन घटती जा रही है. ‘‘मनोवैज्ञानिकों की नजर में हिंसा कुंठा की उपज है और कुंठा के मूल में होती है अधूरी इच्छा. भारत के लिहाज से देखें तो जब किसी इनसान की रोटी, शिक्षा, सुरक्षा और स्वास्थ्य आदि बुनियादी सुविधाओं में किसी तरह की कमी होती है या पूरी नहीं होती, तो इस से कुंठा जन्मती है और कुंठित आदमी का हिंसक या आक्रामक होना लाजिमी है.’’ भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता. हर भीड़ एकदम से आक्रामक नहीं होती. भीड़ दिमाग से कम भावनाओं से ज्यादा काम लेती है. इस में दोराय नहीं है कि मामले के निदान में निजी कोशिश नाकाम हो जाती है,

तो भीड़ का सामूहिक प्रयास ही कभीकभी समस्या के निदान का कारक बन जाता है, लेकिन यह वजह हमेशा कारगर साबित नहीं होती. लोगों में कानून को हाथ में लेने की फितरत बढ़ने के पीछे कोई एक वजह नहीं है. हमेशा कानून के सहारे रहने से खुशी नहीं मिलती. उषा अवस्थी कहती हैं, ‘‘अगर भीड़ किसी को सजा दे रही है, तो यह साफ संकेत है कि कानून व्यवस्था और न्याय व्यवस्था को ले कर लोगों में किस कदर घोर निराशा है. हो सकता है कि कानून हाथ में लेने से निर्भीक अपराधियों में डर पैदा हो और वे अपराध करने से पहले सौ बार सोचें.’’ हम जब ट्रेन या बस में सफर करते हैं, तो किनारे पर लिखा होता है कि यात्री अपने सामान की हिफाजत खुद करें यानी रोडवेज, निजी बस औपरेटर या रेलवे आप के सामान की सुरक्षा की जिम्मेदारी नहीं लेता.

ऐसे में किसी यात्री के सामान को कोई चोर ले कर भाग रहा हो या किसी यात्री को कोई बदमाश चाकू मार रहा हो या फिर कोई लोफर किसी औरत या लड़की को छेड़ रहा हो, तो दूसरे मुसाफिर उस अपराधी को पकड़ कर मारने लगें, तो कानून हाथ में लेना कैसे हो गया? बहुत जगहों पर और मामलों में पुलिस का इंतजार नहीं किया जा सकता और न ही न्याय व्यवस्था का. समाज इसे सामान्य मानेगा, तो वहां कानून को तो हाथ में लिया ही जाएगा. आज देश में भारतवासियों को कई तरह का गुस्सा आता है. पर कई मामले में नहीं भी आता. भ्रष्टाचार, जहरीली शराब से होने वाली मौत, शहर में बढ़ते अपराध, बलात्कार की घटनाएं, रेल दुर्घटना आदि ऐसी घटनाएं हैं,

जिन के होने पर लोगों की धार्मिक या राष्ट्रप्रेम की भावनाएं नहीं जागतीं, इसलिए कि समाज ने भ्रष्टाचार को स्वीकार कर लिया है. वह इस बात को मानता है कि कहीं न कहीं हम खुद दोषी हैं. शहर में बढ़ते अपराध पर एक वर्ग इसलिए कुछ नहीं बोलता कि वह पीडि़त नहीं है. रेप की घटनाओं को भी गंभीरता से लोग अब नहीं लेते, तब तक कि जब कोई मासूम पीडि़त न हो या लगातार ऐसी वारदात न हो. जहरीली शराब पर होने वाली मौत पर भी यह कह कर कि शराब जब जहर है, चुप्पी साध लेते हैं. जानते हैं, तो फिर क्यों पी? इसी तरह से नक्सलियों और आतंकवादियों की हरकतों पर गुस्सा कम भड़कता है. संसद भवन को उड़ाने,

मुंबई के ताज होटल और छत्रपति शिवाजी स्टेशन पर आतंकवादियों की दहशत भरी हरकतों पर गुस्सा आता है, लेकिन उस से भी ज्यादा गुस्सा देश की कानून व्यवस्था और राजनीतिक लोगों पर. अब गुस्से को चैनेलाइज कर लिया गया है. फिलहाल यह मुसलिम समाज के खिलाफ है, हिजाब के खिलाफ है, बहुविवाह को ले कर है. पर कल यह गाज किसी पर भी गिर सकती है. जो चंदा न दे, उस पर गिर सकती है. जो सड़क पर चलते हुए कहीं नारे न लगाए, उस पर गिर सकती है. जो विपक्षी दल का है, उस पर गिर सकती है. सामूहिक हिंसा के रूप अलग देखने को मिल रहे हैं. कई बार गलीमहल्ले की घटनाओं में भीड़ उमड़ पड़ती है. उग्र प्रदर्शन भी करती है. ऐसे प्रदर्शन के पीछे बाहरी तत्त्वों का हाथ ज्यादा होता है. कहानी कुछ होती है, लेकिन अंजाम दूसरा निकलता है.

भीड़ को पता भी नहीं होता कि वो किस बात पर उग्र है, लेकिन वह धार्मिक तत्त्वों की वजह से आक्रामक हो जाती है. आक्रामकता दिखाना वीरता नहीं है. वीरता तो सही जगह आक्रामक होने पर है. अधिकारों के प्रति जागरूक होना चाहिए, साथ ही साथ कर्तव्यों के प्रति भी सचेत रहना चाहिए. हिंसा को मीडिया में ज्यादा जगह मिलने से भी लोग हिंसा के रास्ते पर चल कर चर्चित होने के लिए सड़क की राजनीति को अख्तियार कर लेते हैं. यह सच है कि सड़क की राजनीति किसी भी सरकार की नींद में खलल पैदा करने के लिए काफी है. राजस्थान के गुर्जर आरक्षण के लिए कितना हिंसक हुए जगजाहिर है. भले ही बात उस समय नहीं बनी, लेकिन उन्होंने जो उन्माद दिखाया, वह लोकतंत्रीय व्यवस्था में उचित नहीं है. जिस बात से लोक के तंत्र को नुकसान हो, उसे अंजाम नहीं देना चाहिए, हिंसा से बचना चाहिए.

लूट का जरिया बन रही टैक्नोलौजी !

टैक्नोलौजी गरीबों, कम पढ़ेलिखे नौजवानों, बेचारों, बेरोजगारों को कैसे पूरी तरह लूट का जरिया बनती जा रही है, इस का सब से बड़ा नमूना है एप्प के जरिए फलफूल रहा व्यापार. इस में एप्प में चलाई जा रही टैक्सी सॢवसें, फूड डिलीवरी सॄवसें, दवाओं को घरघर पहुंचाने की सॢवसें, मेडिकल टेस्ट कराने की सॢवसें, ब्यूचोलियों, कारपेंटरों, इलैक्ट्रिशियनों की सॢवसें शामिल हो चुकी हैं. अपने खुद के नाम से सेवा देने वालों की कमी होती जा रही है और एयर कंडीशंड आफिसों में कंप्यूटरों के आगे बैठे लोग जमीन पर तपती धूप और कड़ाके की ठंड में काम कर रहे लोगों को चूस रहे हैं क्योंकि उन के पास मोबाइल से हर हाथ पहुंचने वाली टैक्नोलौजी है.

इन सेवाओं को देने वालों ने अपने यूनियनों को बनाने की कोशिश शुरू की है हालांकि यह 1857 की अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई की तरह बेमतलब की साबित होगी क्योंकि इन के पास न टैक्नौलौजी न स्ट्रेरेजी.

दुनिया भर में वह गरीब रहेगा जो नई टैक्नीक को नहीं अपनाएगा और नई टैक्नीक की जानकारी अब इसी मंहगी कर दी गई है कि केवल अमीरों के बच्चे ही जा सकते हैं. ये गरीब पहले छोटी दुकानों में या छोटे खोखों में काम करते थे, अब बड़ी, कईकई देशों में फैली कंपनियों के जरिए काम कर रहे हैं क्योंकि कंपनी के पास टैक्नोलौजी है. वे ग्राहकों, उत्पादकों और डिलिवरी करने वालों सब को लूट सकते हैं.

फूड डिलिवरी का एक नमूना इन बिग सेवा देने वालों की मीङ्क्षटग में बताया गया. इन्हें इंसैङ्क्षटव दिया गया कि यदि एक दिन में 23 डिलिवरी करेंगे तो एक्स्ट्रा पैसे मिलेंगे पर कंप्यूटर सिस्टम सेवा बनाया कि वह 20 आर्डरों के बाद नया आर्डर देगा ही नहीं. केवल छुट्टियों और त्यौहार के साल में 10-95 दिन यह एक्स्ट्रा कमाई हो सकती है.

टेक्नोलौजी के जरिए इन बिग सेवा देने वाली कंपनियों ने कोने की किराने की दुकान का धंधा कम कर दिया, पलंबर को बेकार कर दिया, कैमिस्ट खाली रहने लगा, रेस्ट्राओं का बिजनैस कम हो गया, क्लाउड  किचन चल गईं जिस में किचन का नाम है पर रेस्ट्रा है ही नहीं. इन सब की जान डिलिवरी देने वाले, मेडिकल सैंपल लेने वाले, ब्यूटिशियन, जिम, कारपैंटरी की सेवा देने वाले हैं पर न वे दाम तय करते हैं, न क्वालिटी, टैक्नोजौली कंपनी और ग्राहक के बीच में फंस कर रह गए हैं. मोटर साइकलों पर ये घुड़संवार सैनिकों की वह लाइन है जिस पर लड़ाइयां जीती जाती हैं पर मरते सब से ज्यादा इन्हीं में से हैं.

टैक्नोलौजी बुरी नहीं होती पर आमतौर पर हर युग में टैक्नोलौजी का इजाद करने वाले या कंट्रोल करने वालों के राज किया है और उन से काम कराते वाले फक्कड़ गरीब बने रहे हैं. आज अमेजन की डिलिवरी हो, स्वीगी का फूड पार्सल या 1 एमजी की वलड टेङ्क्षस्टग, जो ग्राहक के संपर्क में आता है उसे न सामान के बारे में काम आता है, न खाने के बारे में न टेङ्क्षस्टग की कला के बारे में उबर या ओला वाला ड्राइवर कंपनी की टैक्नोलौजी के दिए गए रूप पर चल कर ग्राहक लेता है और उसी टैक्नोलौजी के बताए रास्ते पर चल कर पहुंचाता है, उसे कंपनी क्या देगी, यह कंपनी की मर्जी है.

बिग सिस्टम ने ‘मैं ने इसे बनाया’ बड़ी तसल्ली का हक हरेक कामगार से छीन लिया है. यह जलन बेबस है, लाचार है.

नीतीश कुमार अपने पलटियों के लिए हैं बदनाम

नीतीश कुमार अपनी पलटियों की वजह से राजनीतिक हल्कों में अपनी इज्जत तो खो चुके थे पर इस बार उन्होंने मोदीशाह जोड़ी को तुर्की ब तुर्की जवाब दे कर जता दिया कि जो ड्रामा वे करते हैं, दूसरे भी कर सकते हैं. ङ्क्षहदूत्व आज उतना जोर नहीं मार रहा जितना ईडी, इंकमटैक्स, पुलिस, सेना, बुलडोजर भर रहा है. भारतीय जनता पार्टी का मंदिर कार्ड आज भी चल रहा है पर उस के फैलाए सपनीले परदों के नीचे बेहद बढ़ती बदबू व सडऩ अब जनता को खाने लगी है.

जब कभी मुसलिम शासक, मुगल, फ्रैंच, पौर्तुगाली, उठा और अंग्रेज इस देश में आए तो जनता ने चुपचाप उन को आने दिया क्योंकि तब के राजाओं को मंदिर बनाने, यज्ञ हवन कराने, जनता की जगह पूजापाठियों का खयाल रखने से फुर्सत नहीं होती थी. जिस तरह आज आम जनता मंहगाई, बेरोजगारी, तानाशाही और बुलडोजरी घौंस से छटपटा रही है, उसी तरह उस युग की जनता ने हार कर विदेशियों का मुंह देखना ज्यादा अच्छा समझा था.

नीतीश कुमार का हाल मायावती, अकाली दल, शिवेसना, जैसा कर देने की सीख भारतीय जनता पार्टी को पौराणिक कहानियों में ही मिली है जिस में भाईभाई को दगा देता है. रामायण और महाभारत के जितने महान लोग थे. सब की अपनो से नाराजगी थी चाहे वह कैकई हो, विभिषण हो, शकुनी हो, दादा भीष्म हों. नीतीश कुमार के नीचे से कालीन ङ्क्षखचवाने के चक्कर में लगी भाजपा को पटखनी दे कर एक सबक तो सिखाया गया है अब जज, पुलिस, इंक्मटैक्स, ईडी सब पटना में जमा हो जाएंगे जैसे कुरूक्षेत्र में हुए थे और चाहे गरीब राज्य का नुकसान हो, वहां से खबरें छापों की आएंगी, नए निर्माणों की नहीं.

भाजपा की सोच वाले लालूयादव के साथ एक बार ऐसा कर चुके हैं और झूठेसच्चे चारा घोटाले में उसे फसा कर उस कैरियर समाप्त कर चुके हैं. अब खीसिया कर वही दोहराया जाएगा. नवीन पटनायक, जगन रैट्डी, केसीआर को चेतावनी दी जा चुकी है.

बिहार की बात राजनीतिक उठापटक पर हो, यह अफसोस है. बिहार जितने होथियार लोग देश को दिए हैं, उतने शायद किसी और राज्य ने नहीं दिए. उतने शायद किसी और राज्य ने नहीं दिए. मौर्चा युग में बिहार ही देश का सब से अमीर इलाका रहा है. आज भी दुनिया भर में फैले भारतीय भूल के लोग, चाहे वे कोई काम कर रहे हैं, ज्यादातर बिहार के हैं.

बिहार का शोषण किया गया है और भाजपाई सोच वाले ऊंची जातियों के लोग उसे लगातार दुहना चाहते हैं और यह तभी संभव है जब धर्मकर्म वालों की सरकार हो. कांग्रेस के जमाने में जो सरकारें थीं, वे भारतीय जनता पार्टी की सरकारों से बढ़ कर पूजापाठी थीं. अब नीतीश कुमार और तेजस्वी की सरकार जो बनेगी, उसे बिहार के दलदल से निकालने का मौका मिलेगा. वैसे केंद्र सरकार शायद ऐसा नहीं होने देगी और पैसा छीन कर उस का गला घोंटे रखेगी.

नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव जब तक अपनी बात जनता तक नहीं ले जाएंगे, उन का कल्याण नहीं होगा. उन्हें सब से पहले पूजापाठियों से निपटना है जो आसान नहीं है.

दिल्ली: सीबीआई और मनीष सिसोदिया के बहाने भाजपा का सच

दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदियाजिन के पास शिक्षा व आबकारी विभाग हैंआजकल भारतीय जनता पार्टी के निशाने पर हैं. जी हांसीबीआई जांच के साथ ही जिस तरह उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को भारतीय जनता पार्टी के विभिन्न बड़े नेताओं द्वारा निरंतर निशाना बनाया जा रहा हैउस से साबित हो जाता है कि भाजपा की मंशा क्या है. 

मगर कहते हैं न, ‘चोर की दाढ़ी में तिनका’. सीबीआई जांच कर रही है और भाजपा के सारे नेता आक्रामक हो गए हैं. इस का सीधा सा संदेश देश की जनता में यही जा रहा है कि जिस तरह कौरवों ने चक्रव्यूह बना कर अभिमन्यु को मार डाला थाआज की भाजपा भी आप पार्टी के खिलाफ चक्रव्यूह रच रही है.

देश और दुनिया का एक सब से निष्पक्ष कहा जाने वाला मीडिया संस्थान बीबीसी है. इस में जब मनीष सिसोदिया के सीबीआई जांच की रिपोर्टिंग प्रसारित की गईतो आश्चर्यजनक तरीके से मनीष सिसोदिया के पक्ष में कमैंट्स देखे गएजिस में लोगों ने उन का साथ दिया और भाजपा को लताड़ा.

इस समाचार बुलेटिन में कमैंट के रूप में बहुत सारे लोगों ने मनीष सिसोदिया को ईमानदार और एक काम करने वाला नेता माना और उन्होंने भाजपा की कटु निंदा की. यह एक उदाहरण हैजिस के माध्यम से आप पार्टी पर कसा जाने वाला सीबीआई का शिकंजा और उस की कथा उजागर हो गई.

न्यूयौर्क टाइम्स’ में तारीफ

एक आश्चर्यजनक घटना घटित हुई. दुनिया के नामचीन मीडिया संस्थानों में से एक न्यूयौड्डर्क टाइम्स’ में दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था की तारीफ की गई. यही नहींयह भी सच है कि देशभर में आज दिल्ली के स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था और चिकित्सा व्यवस्था पर जोरदार चर्चा चल रही हैजिस से भारतीय जनता पार्टी चिंतित दिखाई देती है.

इधरअमेरिकी अखबार न्यूयौर्क टाइम्स’ ने दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था पर अपनी स्टोरी को निष्पक्ष और जमीनी रिपोर्टिंग’ पर आधारित बताते हुए पेड न्यूज’ के आरोपों को खारिज कर दिया.

सीबीआई ब्यूरो द्वारा दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के आवास पर छापेमारी के बाद अखबार के आलेख को ले कर भाजपा और आप के बीच वाकयुद्ध शुरू हो गया था. आप सरकार की आबकारी नीति को तैयार करने और इस की अनियमितताओं को ले कर सीबीआई ने यह कार्यवाही की.

मनीष सिसोदिया के पास शिक्षा और आबकारी विभाग की भी जिम्मेदारी है. आप ने कहा कि जब न्यूयौर्क टाइम्स’ ने शिक्षा के दिल्ली मौडल पर सकारात्मक खबर छापी तो नरेंद्र मोदी की केंद्र सरकार ने सीबीआई को मनीष सिसोदिया के घर भेज दियावहीं भाजपा ने खिसियानी बिल्ली खंभा नोंचे की तर्ज पर कहा कि यह एक पेड’ आलेख है.

सवाल है कि बिना सुबूतों और जांच के आप यह कैसे कह सकते हैं कि यह पेड न्यूज है?

न्यूयौर्क टाइम्स’ की बाह्य संचार निदेशक निकोल टायलर ने एक ईमेल में लिखा, ‘दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था में सुधार के प्रयासों के बारे में हमारी रिपोर्ट निष्पक्षजमीनी रिपोर्टिंग पर बनी है.

इस के साथ यह भी नहीं भूलना चाहिए कि दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था की चर्चा देशभर के गलीकूचे में हो रही है. जैसा कि हम जानते हैं सच को छिपाया नहीं जा सकतावह धीरेधीरे लोगों तक पहुंच ही जाता है.

सीबीआई क्या बोली

केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो की प्राथमिकी में कहा गया है कि मनोरंजन और इवैंट मैनेजमैंट कंपनी ओनली मच लाउडर’ के पूर्व मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) विजय नायरपरनोड रिकौर्ड के पूर्व कर्मचारी मनोज रायब्रिंडको स्पिरिट्स के मालिक अमनदीप ढल और इंडोस्पिरिट्स के मालिक समीर महेंद्र अनियमितताओं में शामिल थे.

गुड़गांव में बड़ी रिटेल प्राइवेट लिमिटेड के निदेशक अमित अरोड़ादिनेश अरोड़ा और अर्जुन पांडे मनीष सिसोदिया के करीबी सहयोगी’ हैं और आरोपी लोकसेवकों के लिए शराब लाइसैंसधारियों से एकत्र किए गए अनुचित आर्थिक लाभ के प्रबंधन और स्थानांतरण करने में सक्रिय रूप से शामिल थे.

दिनेश अरोड़ा द्वारा प्रबंधित राधा इंडस्ट्रीज को इंडोस्पिरिट्स के समीर महेंद्र से एक करोड़ रुपए मिले. अरुण रामचंद्र पिल्लईविजय नायर के माध्यम से समीर महेंद्र से आरोपी लोकसेवकों को आगे स्थानांतरित करने के लिए अनुचित धन एकत्र करता था.

अर्जुन पांडे नाम के एक आदमी ने विजय नायर की ओर से समीर महेंद्र से  तकरीबन 2-4 करोड़ रुपए की बड़ी नकद राशि एकत्र की. सनी मारवाह की महादेव लिकर्स को योजना के तहत एल-1 लाइसैंस दिया गया था.

यह भी आरोप है कि दिवंगत शराब कारोबारी पोंटी चड्ढा की कंपनियों  के बोर्ड में शामिल मारवाह आरोपी लोकसेवकों के निकट संपर्क में था.

 

 

गरीबों के बच्चों के साथ नाइंसाफी

एक तरफ तो सरकार ने लगभग पूरे देश में पढ़ाई को निजी हाथों में दे कर बेहद महंगा बना दिया और दूसरी तरफ गरीबों की हाय को बंद कराने के नाम पर उन्हें ईडब्लूएस कोटे में 25 फीसदी सीटें दिलवा दीं. निजी स्कूल इन सीटों पर बच्चों को नहीं लेना चाहते क्योंकि एक तो इन बच्चों से फीस नहीं मिलती और दूसरे इन फटेहाल बच्चों से ऊंचे घरों से आए बच्चों की शान घटती है.

क्योंकि ईडब्लूएस कोटा हर स्कूल में हैइसे लागू न करने के बहाने ढूंढ़े जाते हैं और पते को वैरीफाई करना उन में से एक है. मेधावी पर ?ाग्गीझोंपड़ी में रहने वाले बच्चों के पते पक्के नहीं होते. जिस ?ाग्गी में वे रहते हैंवह कब टूट जाएकब इलाके का दादा उन्हें निकाल फेंके या कब मां या बाप की नौकरी छूट जाए और उन्हें मकान बदलना पड़ेकहा नहीं जा सकता. सही पता न होना एक बहाना मिल गया है स्कूलों को इन ईडब्लूएस (इकोनौमिकली वीकर सैक्शन) बच्चों को एडमिशन न देने का.

असल में बात यह है कि कोई नेताकोई अफसरकोई स्कूल मालिक नहीं चाहता कि नीची जातियों के बच्चे उन के स्कूलों में आएं. वे एक तो उन जातियों से आते हैं जिन्हें अछूत माना जाता रहा है और दूसरे वे बातबात पर स्कूल के प्रोग्रामों के लिए पैसे नहीं दे सकते. संगमरमर के फर्श पर वे सीमेंट का पैच लगते हैं और सब को चुभते हैं. अमीर घरों के बच्चों को इन गरीब बच्चों को परेशान करने के लिए भी लगाया जाता है पर चूंकि दमखम में ये हट्टेकट्टे होते हैंकई बार उग्र हो उठते हैं और हंगामा खड़ा कर देते हैंतो पते का बहाना बड़ा मौजूं है.

दिल्ली सरकार ने एक मामले में कोर्ट को कहा कि पते के नाम पर स्कूल एडमिशन देने से इनकार या पहले दिया एडमिशन रद्द नहीं कर सकता पर स्कूल के वकील अड़े हुए हैं कि पता जांचने का हक उन के पास है. यह तो उन इक्केदुक्के मामलों में है जिन में एडमिशन न देने या कैंसिल करने पर गरीब बच्चे के मांबाप कोर्ट चले गए. आमतौर पर तो उन के पास न अक्ल होती हैन पैसे कि अदालत में जाया जा सकता है.

इन मांबाप को मालूम है कि अदालत तो फैसला देने में 4-5 साल लगा देती है और इतने में उन का बच्चा स्कूल की राह देखता हुआ जवान हो जाएगाइसलिए वे चुपचाप सरकारी स्कूल में चले जाते हैं या घर बैठ जाते हैं.

सरकारी स्कूल वह मशीन है जहां गरीबों के बच्चों को उन की सही औकात बताई जाती है. यहां अध्यापक पढ़ाने नहींकमाने आते हैं या जाति का जहर घोलने. यहां हर टीचर द्रोणाचार्य होता है जो एकलव्य को हुनर सीखने नहीं देना चाहता या वह पंडित होता है जिस ने शंबूक के वेद पढ़ने पर एतराज जताया था.

पहला मामला महाभारत का है और दूसरा रामायण का. दोनों ग्रंथों में हिंदुओं के तरहतरह के भगवान हैं और सरकारी स्कूलों के टीचर निजी स्कूलों के टीचरों की तरह इन धर्मग्रंथों के हुक्म की तामील ही करते हैं– कुछ भी हो जाएनीची जाति के लोगों के बच्चों को पढ़ने न दो. वे भगवा ?ांडा उठा लेंकांवड़ उठा लेंहिंदुत्व के नाम पर किसी का भी सिर फोड़ देंसही है पर पढ़ लेंछीछी घोर कलयुग.

आज का हिंदुत्व असल में मुसलमानों के खिलाफ नहीं दलितों और शूद्रों के खिलाफ है. हिंदुत्ववादी जानते हैं कि मुसलमान तो मदरसों के चक्कर में पढ़लिख नहीं रहे और वे दलितों व शूद्रों को भी पढ़ने नहीं देना चाहतेइसलिए स्कूलों ने पढ़ाने या एडमिशन न देने के रोज नएनए बहाने ढूंढ़ लिए हैं.  

15 August Special: तिरंगा फहराना आसान, पर रखरखाव मुश्किल

अटारी वाघा बौर्डर की चैक पोस्ट के नजदीक मार्च, 2017 को लगाए गए 360 फुट ऊंचे तिरंगे झंडे की अपनी अहमियत है. लेकिन इस के फट जाने और बारबार बदले जाने के चलते हो रहे लाखों रुपए के खर्च की खबरें सुर्खियों में रही हैं. इस तिरंगे झंडे की खूबी यह है कि यह दुनिया का 10वां सब से ऊंचा झंडा भी है, पर लंबे समय तक इस के नहीं दिखने के बीच कहा जाने लगा कि अफसरों ने तिरंगा लगाने से पहले तकनीकी चीजों का खयाल नहीं रखा. इस मामले में लापरवाही बरतने का एक आरोप भी अमृतसर इंप्रूवमैंट ट्रस्ट (एआईटी) ने लगाया और सरकार से गुजारिश की है कि वह इस मामले में जांच करे कि आखिर एक महीने में ही यह झंडा 3 बार कैसे फट गया, जबकि झंडे को 3 बार बदला भी गया?

याद रहे कि अटारी के तिरंगे से पहले देश के सब से ऊंचे तिरंगे के रूप में झारखंड की राजधानी रांची के पहाड़ी मंदिर पर 293 मीटर ऊंचे तिरंगे का नाम दर्ज था.

तिरंगे को एक खास आदर से देखा जाता है, लेकिन इधर कुछ अरसे में देश के अलगअलग हिस्सों में ऊंचा तिरंगा फहराने के सिलसिले में तिरंगे के फटने या झुकने की घटनाएं हुई हैं, उस से यह सवाल पैदा हो गया है कि देशभक्ति दिखाने के चक्कर में ऐसी घटनाएं कहीं इस राष्ट्रीय प्रतीक के असम्मान की वजह तो नहीं बन गई हैं?

देश में हर नागरिक को अब अपनी मनचाही जगह पर तिरंगा फहराने और उस के प्रति सम्मान जाहिर करने की आजादी मिली है. अब यह जरूरी नहीं रहा है कि तिरंगा सिर्फ सरकारी इमारतों पर फहराया जाए और किसी खास मौके पर यानी 26 जनवरी व 15 अगस्त को ही इसे लहरानेफहराने की छूट मिले.

यह आजादी देते समय निर्देशित किया गया था कि तिरंगे को फहराते वक्त कोई ऐसी घटना न घटे, जिस से कि उस का अपमान हो. अगर कहीं ऐसा होता है, तो सरकार के मंत्रियोंअफसरों तक को इस के लिए भलाबुरा कहा जाता है. पर कई बार तिरंगे के प्रति देशभक्ति दिखाने के चक्कर में ऐसा भी हुआ है, जब तिरंगे के असम्मान होने का खतरा पैदा हो गया.

जैसे, पिछले साल तेलंगाना सरकार ने नया राज्य बनने की दूसरी वर्षगांठ पर देश का दूसरा सब से ऊंचा तिरंगा झंडा हैदराबाद के हुसैन सागर नामक झील में बने संजीवैया पार्क में फहराया, तो वह 2 दिन बाद फट गया.

इस घटना के बाद वहां नया तिरंगा फहराने की कोशिश की गई, लेकिन वह भी तेज हवाओं के बीच टिक न सका.

इस तिरंगे की देखरेख का जिम्मा ग्रेटर हैदराबाद नगरनिगम को दिया गया था, लेकिन हर तेज हवाओं के साथ हर बार फट जाने वाले तिरंगे को बदलना उसे भारी पड़ रहा है.

ऐसा विशालकाय तिरंगा बनाने में एक लाख, 35 हजार रुपए का खर्च आ रहा है, जिसे उठाना नगरनिगम के लिए मुमकिन नहीं हो पा रहा है.

वैसे तो ऊंची जगह पर फहराए जाने वाले तिरंगे पौलिएस्टर से बनाए जाते हैं, ताकि तेज हवा में वे जल्दी फटे नहीं और बारिश में जल्दी गल न जाएं, लेकिन तेलंगाना वाले मामले में साबित हो रहा है कि वहां यह काम बिना रिसर्च के कर लिया गया था. गौरतलब है कि दिल्ली में भी बेहद ऊंचे खंभे पर तिरंगा फहराया गया है.

दिल्ली में कनाट प्लेस के बीचोंबीच ऐसा तिरंगा आम लोगों को अपनी देशभक्ति दिखाने का मौका देता है. यहां तिरंगे के इतनी जल्दी फट जाने की खबर नहीं मिली है. ऐसा इसलिए है, क्योंकि यहां ऊंचाई पर तिरंगा फहराने से पहले बाकायदा रिसर्च की गई थी.

कनाट प्लेस में इमारतों से घिरे इलाके में तिरंगा फहराया गया, जहां हवा सीधे नहीं आती है. ऐसे बंद इलाकों में तेज हवाएं तिरंगे को ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचा पाती हैं, लेकिन इस की तुलना में हैदराबाद का हुसैन सागर इलाका काफी खुला हुआ है. वहां सागर से उठने वाली तेज हवाएं बड़ी आसानी से तिरंगे को चिथड़े में बदल डालती हैं.

तिरंगे के ऐसे अपमान की कुछ घटनाएं देश के दूसरे इलाकों में भी हुई हैं. झारखंड की राजधानी रांची में पहाड़ी मंदिर पर लगा तिरंगा आधा झुका हुआ पाया गया था, जिस से राज्य सरकार की किरकिरी हुई थी.

रांची में पहाड़ी मंदिर में लगे तिरंगे की ऊंचाई 66 फुट और चौड़ाई 99 फुट है. इस का वजन 60 किलोग्राम है और यह 293 मीटर ऊंचे खंभे पर फहराया जाता है.

गौरतलब है कि 23 जनवरी, 2016 के बाद जब झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास की मौजूदगी में रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने इसे देश के सब से बड़े तिरंगे के तौर पर फहराया था, लेकिन अप्रैल महीने में तिरंगे को खंभे के ऊपर ले जाने वाली पुली खराब हो गई, जिस के चलते तिरंगा आधा झुक गया. रांची जिला प्रशासन ने पुली ठीक करने के लिए भारतीय सेना से मदद मांगी.

ध्यान रहे कि आधा झुका झंडा शोक का प्रतीक है, ऐसे में रांची के मामले को तिरंगे के मानकों के उल्लंघन का मामला भी माना गया था.

तेलंगाना और झारखंड जैसी घटना पिछले साल छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में भी हो चुकी है. रायपुर के मरीन ड्राइव इलाके में देश का सब से ऊंचा तिरंगा फहराने का दावा 30 अप्रैल में किया गया था. लेकिन फहराए जाने के 20-22 दिन बाद यह फट गया और तब से चुपचाप उतार कर रख लिया गया.

एक दिन जब लोगों ने इस तिरंगे को खंभे से नदारद पाया, तो उन्होंने सोशल मीडिया पर तमाम सवाल उठाए.

सरकार को तिरंगे के रखरखाव में हो रही अनदेखी की घटनाओं को भी गंभीरता से लेना चाहिए. यह कहना सही नहीं कि मौसम की वजह से तिरंगा 2 दिन में ही फट गया, तो प्रशासन इस के लिए क्या कर सकता है.

मसला यह भी है कि अगर जनता समेत प्रशासन तिरंगा फहरा कर अपनी देशभक्ति का परिचय देना चाहता है, तो जरूरी है कि वे सब तिरंगे का सम्मान बनाए रखने के लिए उस के रखरखाव से जुड़े नियमकायदों का सख्ती से पालन भी करें.

देशभक्ति का मतलब तिरंगा फहरा देना या तिरंगा यात्रा कर लेना मात्र नहीं है, बल्कि उस की पूरी देखभाल भी जरूरी है. साफ है कि जिस तरह से हमें देश के सम्मान का खयाल है, उसी तरह तिरंगे के सम्मान की भी चिंता होनी चाहिए.

जबरन यौन संबंध बनाना पति का विशेषाधिकार नहीं

विवाह बाद पत्नी से जबरन सैक्स करने को बलात्कार कहा जाने वाला कानून बनाए जाने के खिलाफ जो बातें कही जा रही हैं वे सब धार्मिक नजरिए से कही जा रही हैं. इन का मकसद यह कहना है कि चूंकि हिंदू धर्म में विवाह एक पवित्र बंधन है, इसलिए वैवाहिक बलात्कार जैसी किसी बात के लिए यहां कोई जगह नहीं. जब से विवाहितों के बीच बलात्कार को ले कर चर्चा शुरू हुई तब से यह सवाल भी उठाया जा रहा है कि रोजमर्रा की इस बहुत ही सहज, सरल व सामान्य बात को ले कर इतना शोर मचाने का कोई औचित्य नहीं है.

कभी न कभी हर महिला अपने सुख के लिए नहीं, मात्र पति की यौन संतुष्टि के लिए बिस्तर पर बिछती है. शादी को ले कर उस ने जो सपना बुना होता है वह चूरचूर हो जाता है. कई नवविवाहित युवतियों का पहली रात का अनुभव बड़ा दर्दनाक होता है. इतना कि सैक्स उन के लिए आनंद का नहीं, बल्कि डर का विषय बन कर रह जाता है. कुछ इस डर को रोज झेलती हैं और फिर यह उन की आदत में शुमार हो जाता है.

दरअसल, इस तरह का मामला तब तकलीफदेह हो जाता है जब किसी महिला के पति का संभोग हिंसक यौन हमले का रूप ले लेता है और वह महिला महज यौन सामग्री के रूप में तबदील हो जाती है. वह असहाय हो जाती है. तब जाहिर है, आपसी परिचय और भरोसे की नींव हिल जाती है. कुछ मामलों में वजूद का आपसी टकराव ही ऐसे संबंध की सचाई बन कर रह जाता है. कुछ ज्यादा ही सोचता है. एक लड़की का बदन किस हद तक खुला रहना शोभनीय या अशोभनीय है या फिर किसी बच्ची के लड़की से युवती बनने के रास्ते में कौन से शारीरिक संबंध सामाजिक रूप से स्वीकृत हैं, इस सब के बारे में सामाजिक व धार्मिक फतवे जारी किए जाते हैं. जबकि इसी समाज में चाचा, मामा और यहां तक कि पिता और भाइयों द्वारा भी लड़कियां बलात्कार की शिकार हो रही हैं. तो क्या यह भी धर्म और संस्कृति का हिस्सा है? बहरहाल, अब एक और सांस्कृतिकसामाजिक फतवे को सरकारी स्वीकृति दिलाने की कोशिश की जा रही है और यह स्वीकृति है वैवाहिक संबंध में बलात्कार को ले कर. कहा जा रहा है कि धर्म के अनुसार हुए विवाह में बलात्कार की गुंजाइश नहीं है.

गौरतलब है कि निर्भया कांड के बाद वर्मा कमीशन द्वारा वैवाहिक बलात्कार को बलात्काररोधी कानून में शामिल करने की सिफारिश से हड़कंप मच गया. मोदी सरकार में मंत्री रहे हरिभाई पारथीभाई चौधरी ने साफसाफ शब्दों में कहा है कि वैवाहिक रिश्ते में बलात्कार जैसी कोई चीज हो ही नहीं सकती. इस के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय ने साफ किया कि विधि आयोग ने बलात्कार संबंधी कानून में वैवाहिक बलात्कार को अपराध की सूची में शामिल नहीं किया है और न ही सरकार ऐसा करने की सोच रही है.

अंदेशा यह है कि इस से परिवारों के टूटने का खतरा बढ़ जाएगा. इस खतरे को टालने के लिए हमारा समाज पत्नियों की बलि लेने को तैयार है. तर्क यह भी कि भारतीय समाज में केवल विवाहित यौन संबंध को ही सामाजिक स्वीकृति मिली हुई है और इस पर पत्नी और पति दोनों का ही समान अधिकार है. अर्द्धनारीश्वर की अवधारणा भी तो भारत की धार्मिक संस्कृति का हिस्सा है. लेकिन ऐसा होता कहां है? ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि यौन संबंध बनाने में पत्नी की इच्छा न होने की स्थिति में क्या ऐसा करने का अधिकार अकेले पति को मिल जाता है? जबरन संबंध बनाने का अधिकार अकेले पति  का कैसे हो सकता है? पति द्वारा जबरन यौन संबंध बनाने को आखिर क्यों बलात्कार नहीं माना जाना चाहिए

आइए, जानें कि भारतीय कानून इस बारे में क्या कहता है. कोलकाता हाई कोर्ट के वकील भास्कर वैश्य का कहना है कि भारतीय कानून के तहत पति को केवल 2 तरह के मामलों में बलात्कारी कहा जा सकता है- पहला अगर पत्नी की उम्र 15 साल से कम हो और पति उस के साथ जबरन यौन संबंध बनाए तो कानून की नजर में यह बलात्कार है और दूसरा, पतिपत्नी के बीच तलाक का मामला चल रहा हो, कानूनी तौर पर पतिपत्नी के बीच विच्छेद यानी सैपरेशन चल रहा हो और पति पत्नी की रजामंदी के बगैर जबरन यौन संबंध बनाता है तो इसे भारतीय कानून में बलात्कार कहा गया है. इस के लिए सजा का प्रावधान भी है. हालांकि इन दोनों ही मामलों में पति को जो सजा सुनाई जा सकती है वह बलात्कार के लिए तय की गई सजा की तुलना में कम ही होती है.

विवाह की पवित्रता पर सवाल

सुनने में यह भी बड़ा अजीब लगता है कि विवाहित महिला कानून यौन संबंध के लिए पति को अपनी सहमति देने को बाध्य है यानी पत्नी यौन संबंध के लिए पति को मना नहीं कर सकती. कुल मिला कर यहां यही मानसिकता काम करती है कि चूंकि हमारे यहां विवाह को पवित्र रिश्ते की मान्यता प्राप्त है और इस का निहितार्थ संतान पैदा करना है, इसलिए पतिपत्नी के बीच यौन संबंध बलात्कार की सीमा से बाहर की चीज है. तब तो इस का अर्थ यही निकलता है कि यौन संबंध बनाने की पति की इच्छा के आगे पत्नी की अनिच्छा या उस की असहमति कानून की नजर में गौण है.

ऐसे में यह कहावत याद आती है कि मैरिज इज ए लीगल प्रौस्टिट्यूशन यानी पत्नी का शरीर रिस्पौंस करे या न करे पति के स्पर्श में प्रेम की छुअन का उसे एहसास मिले या न मिले पति की जैविक भूख ही सब से बड़ी चीज है. यह बात दीगर है कि जब प्रेमपूर्ण स्पर्श पर पति की जैविक भूख हावी हो जाती है तब यह स्थिति किसी भी पत्नी के लिए किसी अपमान से कम नहीं होती. जाहिर है, सभी विवाह पवित्र नहीं होते. हमारे समाज में बहुत सारी ऐसी महिलाएं हैं, जिन के मन में कभी न कभी यह सवाल उठाता है कि क्या वाकई सैक्स पत्नियों के लिए भी सुख का सबब हो सकता है? जिन के भी मन में यह सवाल आया, उन के लिए शादी कतई पवित्र रिश्ता नहीं हो सकता. रवींद्रनाथ ठाकुर ने भी अपने एक अधूरे उपन्यास ‘योगायोग’ में वैवाहिक बलात्कार का मुद्दा उठाया है. उन्होंने उपन्यास की नायिका कुमुदिनी के जरीए यही बताने की कोशिश की है कि सभी विवाह पवित्र नहीं होते. शादी के बाद पति मधुसूदन के साथ बिताई गई रात के बाद कुमुदिनी ने आखिर अपनी करीबी बुजुर्ग महिला से पूछ ही लिया कि क्या सभी पत्नियां अपने पति को प्यार करती हैं?

गौरतलब है कि यह उपन्यास 1927 में लिखा गया था. जाहिर है, वैवाहिक बलात्कार इस से पहले एक सामाजिक समस्या रही होगी और नारीवादी रवींद्रनाथ ठाकुर ने इस समस्या को अपने इस उपन्यास में बड़ी शिद्दत से उठाया है.

वैवाहिक बलात्कार और राजनेता

वैवाहिक बलात्कार पर यूनाइटेड नेशंस पौप्यूलेशन फंड का एक आंकड़ा कहता है कि भारत में विवाहित महिलाओं की कुल आबादी की तीनचौथाई यानी 75% महिलाएं अपने वैवाहिक जीवन में अकसर बलात्कार का शिकार होती हैं. मजेदार तथ्य यह है कि आज भी वैवाहिक बलात्कार के आंकड़े पूरी तरह से उपलब्ध नहीं हैं. अगर इस से संबंधित आंकड़े उपलब्ध होते तो समस्या की गंभीरता का अंदाजा लगाना और भी सहज होता, कभीकभार ही कोई मामला दर्ज होता है. विश्व के ज्यादातर देशों में वैवाहिक बलात्कार की गिनती दंडनीय अपराधों में होती है. यूनाइटेड नेशंस पौप्यूलेशन फंड के इस आंकड़े के आधार पर ही डीएमके सांसद कनीमोझी ने भी बलात्कार विरोधी कानून में बदलाव की मांग की थी. इसी मांग के जवाब में मोदी सरकार में तत्कालीन गृह राज्यमंत्री हरिभाई पारथी ने बयान दिया कि वैवाहिक बलात्कार की अवधारणा भारतीय संस्कृति, सामाजिक व्यवस्था, मूल्यबोध और धार्मिक आस्था के अनुरूप नहीं है.

जाहिर है, 16 दिसंबर, 2013 को दिल्ली में निर्भया कांड की जांच के लिए गठित किए गए वर्मा कमीशन की रिपोर्ट की हरिभाई पारथी ने अनदेखी कर के बयान दिया था. गौरतलब है कि वर्मा कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में वैवाहिक बलात्कार को भी बलात्कार विरोधी कानून में शामिल करने की सिफारिश की थी. हालांकि हमारा बलात्कार संबंधी कानून तो यही कहता है कि यौन संबंध बनाने में महिला की सहमति न हो तो उस की गिनती बलात्कार में होगी. लेकिन पति द्वारा बलात्कार को इस से जोड़ कर देखने में सरकार को भी गुरेज है.

शादी एकतरफा यौन संबंध की छूट नहीं

इस विषय पर आम चर्चा के दौरान मध्य कोलकाता में एक डाकघर में कार्यरत संचिता चक्रवर्ती बड़ी ही बेबाकी के साथ कहती हैं कि कानून की बात दरकिनार कर दें. जहां तक यौन संबंध में महिला की सहमति का सवाल है तो उस का निश्चित तौर पर अपना महत्त्व है, इस से इनकार नहीं किया जा सकता. विवाह का प्रमाणपत्र इस महत्त्व को कतई कम नहीं कर सकता. यौन संबंध में पतिपत्नी दोनों अगर बराबर के साझेदार हों तो वह सुख दोनों के लिए अवर्णनीय होगा. विवाह बंधन जबरन यौन संबंध का लाइसैंस किसी भी कीमत पर नहीं हो सकता.

संचिता कहती हैं कि मोदी सरकार में मंत्री के बयान की बात करें तो उस से तो यही लगता है कि उन के हिसाब से भारतीय संस्कृति में पत्नी की सहमति के बगैर यौन संबंध बनाने की पति को छूट है. भारत में विभिन्न संस्कृतियों के लोगों का वास है. तथाकथित भारतीय संस्कृति में विवाहित महिला पुरुष की बांदी है, भोग की वस्तु है. इसीलिए वैवाहिक बलात्कार उन की तथाकथित भारतीय संस्कृति में लागू नहीं होता. अमेरिका के शिकागो में एक अस्पताल में कार्यरत भारतीय मूल की सुष्मिता साहा का कहना है कि इस विषय को गंभीरता से लिया जाना चाहिए और वैवाहिक बलात्कार पर सख्त कानून होना ही चाहिए. आज भारत में जिस संस्कृति की दुहाई दी जा रही है, वही स्थिति कभी ब्रिटेन या न्यूयौर्क में थी. पर अब वहां वैवाहिक बलात्कार के बढ़ते मामलों को देखते हुए कड़े कानून बनाए गए हैं. फिर भारत में यह क्यों नहीं संभव हो सकता?

सुष्मिता कहती हैं, ‘‘जबरन यौन संबंध पति का विशेषाधिकार उसी तरह नहीं हो सकता, जिस तरह विवाह का प्रमाणपत्र यौन हिंसा की छूट नहीं देता. इसलिए वैवाहिक बलात्कार भी दरअसल दूसरे बलात्कार की ही तरह यौन हिंसा का ही एक मामला है, ऐसा न्यूयौर्क के अपील कोर्ट ने अपने बयान में कहा था. लेकिन अगर एक पत्नी के नजरिए से देखें तो वैवाहिक बलात्कार अन्य बलात्कार से इस माने में अलग है कि यहां यौन हिंसा को महिला का सब से करीबी व्यक्ति अंजाम देता है. यही बात किसी पत्नी को जीवन भर के लिए झकझोर देती है.

विवाह और यौन स्वायत्तता

भारतीय संस्कृति में पारंपरिक विवाह के तहत लड़कालड़की की पारिवारिकसामाजिक हैसियत को देखपरख कर वैवाहिक रिश्ते तय होते हैं. ऐसे रिश्ते में जाहिर है परस्पर प्रेम व मित्रता शुरुआत में नहीं होती है. हालांकि कुछ समय के बाद पतिपत्नी के बीच प्रेम का रिश्ता बन जाता है. पर ऐसे ज्यादातर विवाह एकतरफा यौन स्वायत्तता का मामला ही होते हैं. मोदी सरकार के मंत्री ने जिस भारतीय संस्कृति की बात की है उस में नारीजीवन की इसी सार्थकता का प्रचार सदियों से किया जाता रहा है और इस संस्कृति में औरत पुरुष के खानदान के लिए बच्चे पैदा करने का जरीया और पुरुष के लिए यौन उत्तेजना पैदा करने की खुराक मान ली गई है.हमारी परंपरा में लड़कियां अपने मातापिता को खुल कर सब कुछ कहां बता पाती हैं? खासतौर पर नई शादी का ‘लव बाइट’ आगे चल कर पति का ‘वायलैंट बाइट’ बन जाए तो शादी के नाम पर लड़की अकसर अपने भीतर ही भीतर घुट कर रह जाती है. माना ऐसा हर किसी के साथ नहीं होता है.

2013 में दिल्ली में पारंपरिक विवाह के बाद नवविवाहित जोड़ा हनीमून के लिए बैंकौक पहुंचा. हनीमून के दौरान लड़की के साथ उस के पति पुनीत ने क्रूरता की तमाम हदें पार कर के बलात्कार किया. लौट कर लड़की ने पुलिस में शिकायत दर्ज की. पुलिस ने दीनदयाल अस्पताल में लड़की की जांच करवाई तो बलात्कार की पुष्टि हुई. इस के बाद भारतीय दंड विधान की विभिन्न धाराओं के तहत मामला दायर किया. साफ है कि वैवाहिक बलात्कार पर हमारा कानून एकदम से खामोश भी नहीं है. इस के लिए भी हमारे यहां प्रावधान है. भारतीय दंड विधान की घरेलू हिंसा की धारा 498ए के तहत शारीरिक व मानसिक उत्पीड़न और क्रूरता के लिए सजा का प्रावधान है. इसी धारा के तहत वैवाहिक बलात्कार का निदान महिलाएं ढूंढ़ सकती हैं.

अन्य देशों की स्थिति

चूंकि विकास और सभ्यता एक निरंतर प्रक्रिया है, इसीलिए दुनिया के बहुत सारे देशों में वैवाहिक बलात्कार के लिए कोई कानून नहीं था. लेकिन विमन लिबरेशन ने महिलाओं को अपने अधिकार के लिए आवाज बुलंद करना सिखाया. लंबी लड़ाई के बाद सफलता भी मिली. दोयमदर्जे की स्थिति में बदलाव आया. कहा जाता है कि आज दुनिया के 80 देशों में वैवाहिक बलात्कार के लिए कानूनी प्रावधान हैं. बहरहाल, दुनिया में वैवाहिक बलात्कार को ले कर चर्चा ने तब पूरा जोर पकड़ा जब 1990 में डायना रसेल की एक किताब ‘रेप इन मैरिज’ प्रकाशित हुई. इस किताब में डायना रसेल ने समाज को अगाह करने की कोशिश की है कि वैवाहिक जीवन में बलात्कार को पति के विशेषाधिकार के रूप में देखा जाना पत्नी के लिए न केवल अपमानजनक है, बल्कि महिलाओं के लिए एक बड़ा खतरा भी है.

2012 में अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की आयुक्त भारतीय मूल की नवी पिल्लई ने कहा कि जब तक महिलाओं को उन के शरीर और मन पर पूरा अधिकार नहीं मिल जाता, जब तक पुरुष और महिला के बीच गैरबराबरी की खाई को पाटा नहीं जा सकता. महिला अधिकारों का उल्लंघन ज्यादातर उस के यौन संबंध और गर्भधारण से जुड़ा हुआ होता है. ये दोनों ही महिलाओं का निजी मामला है. कब, कैसे और किस के साथ वह यौन संबंध बनाए या कब, कैसे और किस से वह बच्चा पैदा करे, यह पूरी तरह से महिलाओं का अधिकार होना चाहिए. यह अधिकार हासिल कर के ही कोई महिला सम्मानित जीवन जी सकती है. 1991 में ब्रिटेन की संसद में वैवाहिक संबंध में बलात्कार का मामला उठाया गया था, जो आर बनाम आर के नाम से दुनिया भर में जाना जाता है. ब्रिटेन संसद के हाउस औफ लौर्ड्स में कहा गया कि चूंकि शादी के बाद पति और पत्नी दोनों समानरूप से जिम्मेदारियों का वहन करते हैं, इसलिए पति अगर पत्नी की सहमति के बिना यौन संबंध बनाता है तो अपराधी करार दिया जा सकता है. इस से पहले 1736 में ब्रिटेन की अदालत के न्यायाधीश हेल ने एक मामले की सुनवाई के बाद फैसला सुनाया था कि शादी के बाद सभी परिस्थितियों में पत्नी पति से यौन संबंध बनाने को बाध्य है. उस की शारीरिक स्थिति कैसी है या यौन संबंध बनाने के दौरान वह क्या और कैसा महसूस कर रही है, इन बातों के इसलिए कोई माने नहीं हैं, क्योंकि शादी का अर्थ ही यौन संबंध के लिए मौन सहमति है. हेल के इस फैसले को ब्रिटेन में 1949 से पहले कभी किसी चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा. लेकिन 1949 में एक पति को पहली बार पत्नी के साथ बलात्कार का दोषी ठहराया गया.

ब्रिटेन के अलावा यूरोप के कई देशों में वैवाहिक बलात्कार दंडनीय अपराध है. अमेरिका, आस्ट्रेलिया और अफ्रीकी देशों में भी इस के लिए कानून बना कर इसे दंडनीय अपराध घोषित किया गया है. नेपाल के सुप्रीम कोर्ट ने भी पत्नी की रजामंदी के बगैर संभोग को बलात्कार करार दिया है. कोर्ट ने अपनी इस घोषणा का आधार हिंदू धर्म को ही बताते हुए कहा है कि हिंदू धर्म में पति और पत्नी की आपसी समझ को ही महत्त्व दिया गया है. इसलिए यौन संबंध बनाने में पति पत्नी की मरजी की अनदेखी नहीं कर सकता. अब जब गरीब राष्ट्र नेपाल घोषित रूप से भी हिंदू राष्ट्र है, वैवाहिक बलात्कार के लिए महिलाओं के पक्ष में कानून बना सकता है तो भारत में क्या दिक्कत है?

जानकारी: कमेरों का शानदार रोजगार

कुछ दिन पहले जब हमारे बाथरूम के वाशबेसिन में कुछ समस्या आई, तो नलसाज को बुलाया गया. नलसाज मतलब प्लंबर. उस ने आते ही कुछ मिनटों में वाशबेसिन ठीक कर दिया और अपने मेहनताने के तौर पर 100 रुपए ले लिए. सामान का खर्च अलग से था.

मैं ने उस प्लंबर से दिनभर की कमाई पूछी, तो वह हंसते हुए बोला कि अच्छाखासा कमा लेता है.मूल रूप से ओडिशा के रहने वाले उस प्लंबर कृपाशंकर ने मुझे एक और हैरानी से भरी बात बताई कि ओडिशा का केंद्रपाड़ा जिला नलसाजी यानी प्लंबिंग का हब है और वहां से देश के

70 फीसदी प्लंबर आते हैं. इतना ही नहीं, इस जिले के एक गांव पट्टामुंडाई में हर दूसरे घर में एक प्लंबर है. इस की वजह गांव पट्टामुंडाई में बना ‘स्टेट इंस्टीट्यूट औफ प्लंबिंग टैक्नोलौजी’ है.केंद्रपाड़ा के पट्टामुंडाई, औल, राजकनिका और राजनगर गांवों और उन के आसपास के कसबों में शानदार घर बने हुए हैं, जो प्लंबिंग की ही देन हैं. इन

गांवों के तकरीबन 1,00,000 लोग (यह तादाद ज्यादा भी हो सकती है) देशविदेश में बतौर प्लंबर का काम करते हैं.जहां एक तरफ देश के ज्यादातर नौजवान डाक्टर या इंजीनियर बनने के सपने देखते हैं, इस इलाके के नौजवान उम्दा प्लंबर बनने की सोचते हैं. पर ऐसा क्यों है? दरअसल, यहां के लोगों ने यह काम साल 1930 से सीखना शुरू किया था. तब कोलकाता में ब्रिटिश कंपनियों को प्लंबरों की जरूरत थी. केंद्रपाड़ा के कुछ नौजवानों को वहां नौकरी मिली.

1947 में देश के बंटवारे के समय जब कोलकाता के ज्यादातर प्लंबर पाकिस्तान चले गए, तो केंद्रपाड़ा के प्लंबरों के लिए यह एक सुनहरा मौका बन गया. इस के बाद दूसरे लोग भी काफी तादाद में यह काम सीखने लगे. आज हालात ये हैं कि अकेले पट्टामुंडाई गांव में 14 बैंकों की ब्रांच हैं.

इतना होने के बावजूद आज भी देश में ट्रेनिंग पाए प्लंबरों की बेहद कमी है. दूसरों से काम सीख कर यह रोजगार अपनाने वाले प्लंबर बहुत ज्यादा हैं और उन में से काफी तो माहिर हो चुके हैं, पर डिप्लोमा या सर्टिफिकेट कोर्स कर के इस फील्ड में आने वालों की बात ही अलग है, क्योंकि बड़े संस्थानों और विदेशों में तो उन्हें ही ज्यादा तरजीह दी जाती है, जबकि एक आम भारतीय तो यह भी शायद ही जानता होगा कि प्लंबिंग की ट्रेनिंग भी दी जाती है.

दिल्ली के झंडेवाला में बने फ्लैटेड फैक्टरीज कौंप्लैक्स ई-4 में दिल्ली सरकार की स्वरोजगार समिति के तहत प्लंबिंग का 6 महीने का पार्ट टाइम कोर्स कराया जाता है. इस के लिए 8वीं जमात पास होना जरूरी है और जनरल कैटेगरी वालों से 1,800 रुपए फीस ली जाती है. एससी और एसटी वर्ग से महज 600 रुपए फीस ली जाती है. यह फीस पूरे 6 महीने की है.

कोर्स पूरा करने के बाद सिक्योरिटी के 500 रुपए छात्र को वापस कर दिए जाते हैं. छात्रों को डीटीसी की एसी बस के आल रूट पास की भी सुविधा दी जाती है. यह कोर्स दिल्ली व एनसीआर वालों के लिए ही मुहैया है.

इस संस्थान से जुड़े छात्रों को प्लंबिंग की ट्रेनिंग देने वाले इंस्ट्रक्टर सुरेंद्र ने बताया, ‘‘प्लंबिंग का काम पानी से जुड़ा है, जो हमारी बुनियादी जरूरत है, इसलिए इसे सीखने वाला कभी भी बेरोजगार नहीं रह सकता. घर या कोई भी दूसरी इमारत बनाने के बाद लोग बिजली वगैरह के बिना तो रह सकते हैं, पर पानी के बिना उन का गुजारा नहीं हो सकता.

‘‘प्लंबर का काम घर की बुनियाद खुदने से शुरू हो जाता है और घर की पूरी फिनिशिंग होने तक चलता है, इसलिए एक कामयाब प्लंबर को इमारत का नक्शा पढ़ने की अच्छी समझ होनी चाहिए. उसे पानी की निकासी का हुनर आना चाहिए.

‘‘पर, एक कामयाब प्लंबर का सब से पहला गुण उस का अच्छा स्वभाव है. मीठा बोलना, ईमानदारी और अपने काम की अच्छी समझ उसे ग्राहक की नजर में ऊंचा उठाती है और उसे लगातार काम भी दिलवाती है.

‘‘प्लंबिंग का काम बड़ा टैक्निकल होता है, इसलिए प्लंबर का फोकस अपने काम पर रहना चाहिए. काम खत्म होने के बाद उसे अपने औजारों की अच्छी तरह सफाई करनी चाहिए, क्योंकि औजार ही प्लंबर की रोजीरोटी है. लिहाजा, उन की देखभाल बहुत जरूरी है.’’

सवाल उठता है कि किसी प्लंबर के बेसिक औजार कितने के आते हैं? इस बारे में सुरेंद्र ने बताया, ‘‘एक प्लंबर को जिन औजारों की सब से ज्यादा जरूरत पड़ती है, वे तकरीबन 3,000-4,000 रुपए तक में आ जाते हैं. पर कभी भी लोकल औजार नहीं खरीदने चाहिए.‘‘काम के दौरान कोई हादसा न हो, इस बात का खास खयाल रखना चाहिए. अपनी और ग्राहक की इमारत की सिक्योरिटी सब से ऊपर रखनी चाहिए.’’

नक्शा पढ़ना क्यों आना चाहिए? यह सवाल बड़ा अहम है और इस बारे में सुरेंद्र ने बताया, ‘‘नक्शा पढ़ कर प्लंबर को यह समझ में आता है कि रसोई किधर है और बाकी दूसरे कमरे और बाथरूम वगैरह कहां हैं. उसे सीवर की समझ होनी चाहिए और किस तरह ढलान देनी है, इस का भी पता चल जाता है.

‘‘नक्शा पढ़ने से प्लंबर ऐस्टीमेट लगा सकता है कि कितना और कैसा सामान आएगा. वह लागत का हिसाब भी लगा लेता है. आजकल प्लास्टिक की पाइप फिटिंग चलन में है, जो किफायती और मजबूत होती है.

‘‘कुलमिला कर कह सकते हैं कि प्लंबिंग का काम एक अच्छा रोजगार है, जो भविष्य में खत्म होता भी नहीं दिख रहा है. कामयाब प्लंबर देशविदेश में खूब पैसा कमा रहे हैं और इन की मांग बढ़ती ही जा रही है.’’प्लबिंग का कोर्स आईटीआई से भी कराया जाता है, जो देशभर के राज्यों में होता है. आईटीआई एक सरकारी संस्था है, जिस से हर गांवदेहात के लोग परिचित हैं. यहां से भी बहुत कम खर्च में एक साल का कोर्स कर के सरकारी नौकरी तक जाने के लिए रास्ते खुलते हैं.

आईटीआई से प्लंबिंग का कोर्स करने के लिए न्यूनतम योग्यता 10वीं पास है. कुछ प्राइवेट संस्थान कम समय का भी कोर्स कराते हैं. इस के अलावा किसी तजरबेकार नलसाज के साथ रह कर भी काम सीखा जा सकता है.

अंधविश्वासों का विश्वास करते लोग

मेरे एक परिचित का प्रिंटिंग प्रैस है. उन की मशीन का एक बहुमूल्य पार्ट गायब हो गया. मशीन के कमरे में जाने वाले बहुत थे, पर मशीन को मुख्यरूप से 3 ही कर्मचारी प्रयोग कर रहे थे. उन का प्रैस तीनों शिफ्ट चलता था. पूछताछ करने व धमकाने पर भी कर्मचारी अनजान बने थे. किन्ही कारणों से वे मामला पुलिस में देना नहीं चाहते थे. एकाएक उन को किसी ने एक बाबा का नाम बताया जो चोर कौन है यह भी बता देंगे और सामान भी दिला देंगे. वे अगले ही दिन बाबाजी के पास गए और उस के अगले ही दिन उन्होंने मुझे बताया कि वह पार्ट वहीं रखा मिल गया जहां से गायब हुआ था. वे बाबाजी का गुणगान कर रहे थे कि बिना कुछ कहे उन्होंने सब जान लिया. यहां तक कि कर्मचारियों के नाम भी बता दिए.

मुझे हैरानी हुई. मैं ने उन से विस्तार में बाबाजी से भेंट के बारे में पूछा. उन्होंने बताया कि उन्हें ले जा कर एक कमरे में बिठा दिया गया था. फिर बाबाजी के सहयोगी आए. उन्होंने उन की समस्या पूछी, फिर कागजकलम दे कर कहा कि अपनी समस्या इस कागज पर लिख दीजिए, उस के नीचे अपने इष्ट देव का नाम लिख दीजिए. फिर एक और कागज पर उस कमरे में जाने वाले सभी कर्मचारियों के नाम तथा उस के नीचे किसी फूल का नाम. फिर एक कागज पर जिन कर्मचारियों पर शक है उन के नाम तथा उस के नीचे एक फल का नाम लिखने को कहा.

फिर तीनों कागज अपनी जेब में रखने को कहा और बोले, ‘बाबाजी जब बुलाएंगे तब जाइएगा और जब कागज मांगें तो उन को दे दीजिएगा’. पर उन को हैरानी हुई जब बाबाजी ने कोई कागज नहीं मांगा, खुद ही समस्या बता दी और तीनों संदिग्ध कर्मचारियों के नाम भी बताए.

फिर उन्होंने कुछ देर ध्यान लगाया और फिर आंखें खोल कर कहा, ‘उन्होंने सब देख लिया है और किस ने चोरी की है और कहां ले गया है, यह भी देख रहा हूं. तुम जा कर कर्मचारियों को बोल दो कि बाबा ने सब देख लिया है और उन्होंने कहा है कि यदि परसों सुबह तक उस चोर कर्मचारी ने पार्ट वहीं नहीं रख दिया जहां से चुराया था तो वे परसों प्रैस में आएंगे और सब के सामने उस का नाम भी बता देंगे और सामान भी बरामद करवा देंगे. उस के बाद वह चाहे जेल जाए, चाहे पुलिस के डंडे खाए.’

यह सब सुन कर मैं ने अपने परिचित से कहा कि बाबा ने मनोवैज्ञानिक दांव खेला है और ऐसा भ्रम पैदा किया कि चोर ने चुपचाप सामान वहीं रख दिया. पर मेरे परिचित बोले कि उन्होंने मेरी समस्या और कर्मचारियों के नाम कैसे बता दिए?

मैं ने कुछ सोचते हुए उन से पूछा कि आप ने कागज पर नाम लिखा तो उन के सहयोगी ने देख लिया होगा. वे बोले कि नहीं, उस ने नहीं देखा. मैं ने कहा कि आप ने किसी मेज पर रख कर लिखा. वे बोले कि नहीं, मेज तो वहां थी ही नहीं. बाबाजी के शिष्य एक किताब लिए हुए थे. जब मैं लिखने के लिए कागज रखने के लिए कुछ ढूंढ़ रहा था तो उन्होंने वह किताब मुझे दे कर कहा, ‘इस पर रख कर लिख लो.’ मैं ने पूछा कि किताब कैसी थी. उन्होंने कहा कि पता नहीं, उस पर कवर चढ़ा था. अब सारा माजरा समझते मुझे देर न लगी.

मैं ने उन से कहा कि आप को जो किताब दी गई थी उस पर कवर चढ़ा था, उस के अंदर किताब पर एक सादा कागज लगा कर रखा गया था. उस सादे कागज पर एक कार्बनपेपर लगा दिया गया था. आप से जब समस्या व कर्मचारियों के नाम लिखवाए गए तब नीचे सादे कागज पर कार्बन की वजह से सब कौपी हो गया. नीचे, देवता, फल, फूल के नाम इसलिए लिखवाए गए कि किताब के अंदर के कागज के कवर पर लिखी कार्बन से उतरी प्रति पर लिस्टों को अलगअलग समझा जा सके.

वह व्यक्ति तो वहीं बैठा रहा, मगर किताब उस ने अंदर भिजवा दी. बाकी तो केवल मनोवैज्ञानिक दबाव डालने की बात थी. वे जानते थे कि आप चमत्कृत हो जाएंगे और कर्मचारियों को यह बताएंगे कि किस प्रकार आप के बिना कहे ही बाबाजी सब जान गए और कर्मचारियों के नाम भी बताए. आगे का काम उन की धमकी ने कर दिया.

दरअसल, हम में से बहुत से लोग पढ़ेलिखे हो कर भी इस प्रकार की छोटीछोटी तिकड़मों में विश्वास कर लेते हैं और किसी पाखंडी साधू, बाबा को सिद्धपुरुष मान बैठते हैं. कई लोग तो ऐसों के पीछे अपना तनमनधन सब लुटा बैठते हैं.

पकड़ी गई चोरी

ऐसी ही एक घटना मेरी किशोरवस्था की है. मेरे पिताजी भीमताल (जिला नैनीताल) में राजकीय नौर्मल स्कूल में प्रिंसिपल थे. एक बहुत ही प्रसिद्ध स्वनामधन्य बाबा जिन का लखनऊ में एक बड़ा मंदिर भी है, भीमताल आए. उन के आने से पहले ही छोटे से शहर में चहलपहल बढ़ गई थी. अनेक गाडि़यां, अनेक भक्त, दर्शनार्थियों की भीड़ उन के दर्शन के लिए जमा हो गई.

मेरे पिताजी आधुनिक विचारों के थे और वे इन सब समारोहों, अवसरों में नहीं जाते थे. उस दिन शाम को पिताजी व कुछ परिचित बैठे थे. एकाएक एक व्यक्ति आया, उस ने कहा, ‘बाबाजी ने राकेश को बुलाया है.’ यह मेरा नाम था. मैं उस वर्ष 9वीं कक्षा में था. मेरे पिताजी ने आगे पूछा तो उस ने कहा कि हमें कुछ पता नहीं है, हम तो आप को जानते भी नहीं. बाबाजी ने कहा कि यहां एक श्रीवास्तवजी प्रिंसिपल हैं. उन का लड़का राकेश मेरा बड़ा भक्त है. उस को बुला लाओ. सब लोग हैरान.

मुझे ले कर पिताजी, मां व कुछ परिचित भारी भीड़ के बीच बाबाजी के पास पहुंचे. बाबाजी ने मुझे अपने पास बिठाया और कुछकुछ अच्छी शिक्षाएं दीं और फिर पिताजी से कहा, ‘यह मेरा बड़ा भक्त है. इस का खयाल रखना. फिर मुझ से छोटे भाई का नाम ले कर पूछा कि वह नहीं आया. फिर कहा कि तुम 5 भाई हो. इसी प्रकार की कुछ और बातें कहीं और मुझे आशीर्वाद दे कर जाने को कहा.

सभी लोग बड़े हैरान थे. उस दिन घर में यही चर्चा चलती रही. भीमताल जैसे कसबे में यह बात जल्दी ही फैल गई कि किस प्रकार बाबाजी ने प्रिंसिपल साहब के लड़के को नाम ले कर बुला लिया और घर की भी बातें बताईं. बाबा तो अंतर्यामी हैं.

1-2 दिन बाद एक प्रशिक्षणार्थी शिक्षक पिताजी के पास किसी काम से आया. बातोंबातों ही में उस ने पूछा, ‘साहब, आप बाबाजी के पास गए थे.’ पिताजी को कुछ संदेह हुआ. उन्होंने उस से पूछा, ‘तुम गए थे क्या?’ वह बोला, ‘हां, मैं तो उन का बड़ा भक्त हूं. दर्शन करने गया था.’

पिताजी ने पूछा कि और कुछ बात हुई? उस ने कहा, ‘हां, मुझ से पूछ रहे थे कि तुम्हारे प्रिंसिपल कौन हैं, उन के परिवार में कौनकौन हैं, कितने बच्चे हैं, नाम क्या हैं. मुझे आप के बड़े दोनों बेटों के नाम याद थे, सो, मैं ने बता दिए थे.’

अब सब स्पष्ट हो गया

ऐसे ही एक अंतर्यामी बाबाजी थे जिन्होंने अपने शिष्यों के अलगअलग सांकेतिक नाम रखे थे, जैसे किसी का संतान, किसी का गृहविवाद, किसी का संपत्ति, किसी का मुकदमा. फरियादी को जिस कक्ष में बिठाया जाता था, उस में बाबाजी के कुछ अन्य शिष्य भी फरियादी बन कर बैठे रहते थे. बातोंबातों में लोगों से उन की तकलीफ जान लेते थे. फिर जब बाबाजी के पास किसी फरियादी को ले जाना होता था, तो यह व्यवस्था थी कि उन का वह शिष्य अंदर ले कर जाता जिस संबंध में समस्या होती थी. यानी अगर किसी को संतान की समस्या है तो जिस का सांकेतिक नाम संतान है वह उसे ले जाता था.

बाबाजी सामने आए फरियादी के साथ आए शिष्य के सांकेतिक नाम से तुरंत जान जाते थे कि समस्या किस बारे में है. वे भक्त को देख कर आंख बंद कर लेते. थोड़ी देर ध्यानमग्न हो कर बैठते, फिर आंखें खोल कर बड़े गंभीर शब्दों में कुछ इस प्रकार बोलते, ‘संतान, संतान की समस्या से तो सभी जूझ रहे हैं. कुछ पा कर, कुछ न पा कर. बोल, तू क्या चाहता है?’

भक्त चमत्कृत. बिना कहे बाबाजी ने सब जान लिया. बाबाजी पर उस का विश्वास जम जाता कि ऐसे चमत्कारी बाबा निश्चित ही उस की समस्या दूर करेंगे.

प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिकों, मानवशास्त्रियों जैसे रोंडा ब्रायन, जोसफ मर्फी आदि द्वारा अनेक पुस्तकों व व्याख्यानों के माध्यम से बताया गया है कि मनुष्य के मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाली विचारतरंगें भी विद्युत चुंबकीय तरंगें यानी इलैक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्स होती हैं. वैज्ञानिकों द्वारा यह प्रतिस्थापित किया जा चुका है कि पूरा विश्व व प्रत्येक पदार्थ विद्युत चुंबकीय तरंगों से ही बना है. यदि हम किसी पदार्थ को सूक्ष्म से सूक्ष्मतर तोड़ते जाएं तो अणु, फिर परमाणु और अंत में पदार्थ नष्ट

हो जाएगा और विद्युत चुंबकीय तरंगें वातावरण में विस्तारित हो जाएंगी.

यही कारण है कि वैज्ञानिक इन विद्युत चुंबकीय तरंगों में उस पार्टिकल को ढूंढ़ रहे हैं जो बे्रन पार्टिकल या गौड पार्टिकल (ब्रह्मोस या हिग्स बोसान) है जो यह निश्चित करता है कि कब तरंग, पदार्थ के कण यानी पार्टिकल में बदल जाएगी.

इसी सिद्धांत पर यह विश्लेषण मैटाफिजिक्स के वैज्ञानिकों ने किया है कि मनुष्य का विचार जिस चीज पर सतत केंद्रित हो जाता है तथा उस की प्राप्ति का विश्वास हो जाता है, वह सृष्टि के मूल नियम आकर्षण के नियम (ला औफ अट्रैक्शन) के कारण उस की ओर आकर्षित होती है और उस लक्ष्य, वस्तु की प्राप्ति संभव हो जाती है.

मनचाहे फल की चाह में लुटते लोग

चार्ल्स हैवेल के अनुसार, ‘मनुष्य के प्रत्येक विचार की एक निश्चित आवृत्ति (फ्रीक्वैंसी) होती है. जब एक ही विचार बराबर आता रहता है तो व्यक्ति एक निश्चित फ्रीक्वैंसी लगातार सृष्टि में भेजता रहता है. यह एक चुंबकीय सिग्नल की तरह होती है जो समानांतर फ्रीक्वैंसी को ला औफ अट्रैक्शन द्वारा खींच कर ले आती है और हमारा अभीष्ट हम को प्राप्त हो जाता है’

एक उदाहरण से यह और भी अधिक स्पष्ट होगा. टीवी के भिन्नभिन्न चैनलों की अलगअलग फ्रीक्वैंसी होती है. हम टीवी के रिमोट से जो चैनल चुनते हैं वह उस की फ्रीक्वैंसी से ट्यून हो कर उसे टीवी स्क्रीन पर ले आती है.

फिल्म ‘ओम शांति ओम’ में शाहरुख  खान द्वारा बोला हुआ यह डायलौग इस तथ्य को बिलकुल स्पष्ट कर देता है, ‘जब हम पूरी शिद्दत से किसी चीज को चाहते हैं तो सारी कायनात उसे हम से मिलाने में लग जाती है.’

इस कारण, यदि किसी इच्छा या वस्तु की प्राप्ति पर निरंतर ध्यान बना रहे और मन में दृढ़विश्वास  हो कि यह तो प्राप्त होगी ही, तो उस के प्राप्ति की संभावना बहुत बढ़ जाती है.

ऊपर लिखे चमत्कारों से प्रभावित होने वाले भक्त के मन में यह विश्वास घर कर जाता है कि इतने चमत्कारी बाबाजी ने कहा है तो यह निश्चित ही हो कर रहेगा. प्रत्येक व्यक्ति की अपनी परिस्थितियां भी होती हैं परंतु फिर भी यह विश्वास काफी मामलों में मनचाहे फल की प्राप्ति करा देता है और लोग इसे बाबाजी का चमत्कार मान बैठते हैं.

वे यह नहीं समझ पाते कि वे खुद ही अपने लक्ष्य, उद्देश्य की प्राप्ति पर विश्वास रखते, बाबाजी पर विश्वास न कर स्वयं लक्ष्यप्राप्ति पर अडिग विश्वास बना कर अपने प्रयासों, उपक्रमों में लगे रहते तो भी उन को अभीष्ट प्राप्त होता ही.

एक और तथ्य जो विचारणीय है वह यह कि औसत के नियम (ला औफ एवरेजेस) के अनुसार भी जितने लोग ऐसे चमत्कारी बाबाओं के पास जाते हैं उन में लगभग 40-50 फीसदी को वैसे भी अभीष्ट फल मिल जाता है और लगभग आधे खाली हाथ भी रहते हैं.

ऐसा इसलिए भी होता है कि अधिकांश मनुष्य जिस प्रकार की फरियाद करते हैं उन में सामान्यतया पूरी हो सकने वाली मांगें भी रहती हैं, जैसे परीक्षा  में पास होना, मुकदमें में जीत, पुत्र की प्राप्ति आदि. जिस की मुराद स्वाभाविक रूप से भी पूरी हो जाती है वह उसे बाबाजी का चमत्कार मान बैठता है और उन के गुण गाता है. पर जिस की मुराद पूरी नहीं होती, उस का बाबाजी से मोह भंग हो जाता है. वह बाबाजी के पास फिर जाता नहीं. वहां पर मौजूद रहने वाली भीड़ में पुराने वही फरियादी उपस्थित रहते हैं जिन की इच्छा स्वाभाविक रूप से पूरी हो गई हो.

ऐसे में नए फरियादी व भक्त को ये लोग अपनी फलप्राप्ति के किस्से सुनासुना कर बाबाजी के प्रति और भी भरोसा जगाते रहते हैं. इन्हीं भक्तों की सौगातों, भेटों, चढ़ावों से बाबाजी की दुकान चलती है.

सकारात्मक सोच की जरूरत

हर जागरूक व्यक्ति को दूसरों को समझाने और खुद समझने की जरूरत है कि वास्तव में यह चमत्कार किसी बाबाजी का नहीं, केवल अपने खुद की पौजिटिव थिंकिंग यानी सकारात्मक सोच का है.

यदि आप बिना किसी प्रयास, उपक्रम के बैठेबैठे सबकुछ पाने की अभिलाषा रखते हैं तब तो फिर ऐसे बाबाओं, स्वामियों के पास जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं है. पर, आप अपने लक्ष्यउद्देश्य के प्रति पूरे मनोयोग व निष्ठा के साथ प्रयास करते हैं तथा लक्ष्य प्राप्ति का आप को दृढ़विश्वास है, सोतेजागते आप का विश्वास इस बात पर दृढ़ है कि यह लक्ष्य तो प्राप्त होगा ही, तो आप देखेंगे कि रास्ते बनने लगेंगे, मददगार सामने आने लगेंगे, अवसरों के द्वार खुलने लगेंगे और निश्चितरूप से सफलता आप के द्वार खड़ी होगी.

यहां शादी के लिए किया जाता है लड़की को किडनैप

हर देश और समाज में शादी की अलगअलग परंपराएं होती हैं और शादियों की इन परंपराओं और रस्मों में स्थानीय संस्कृति का बड़ा ही महत्त्व होता है. कई बार अजीबअजीब तरह की रस्में भी इन परंपराओं का हिस्सा बन जाती हैं. ऐसी ही एक अजीब परंपरा  इंडोनेशिया के सुम्बा द्वीप की है. यहां पर शादी के लिए युवती का अपहरण कर लिया जाता है. अपहरण के बाद उस के साथ शादी की जाती है.

सुम्बा द्वीप में शादी की इस अजीबोगरीब प्रथा को काविन टांगकाप कहा जाता  है. वैसे यह प्रथा अजीब तो है ही लेकिन इस के साथ ही विवादित भी ज्यादा है. इस प्रथा के अनुसार शादी के लिए इच्छुक व्यक्ति, उस के दोस्त या परिवार वाले बलपूर्वक किसी भी युवती का अपहरण कर लेते हैं. इस के बाद उस लड़की की शादी कर दी जाती है.

पिछले साल बीबीसी के माध्यम से ऐसी ही एक कहानी सामने आई थी जिस में युवती का शादी के लिए अपहरण कर लिया गया था, हालांकि ऐसा नहीं है कि इस प्रथा को ले कर पूरा सुम्बा समाज एक मत है, कई महिला अधिकार समूह लंबे समय से इस के खिलाफ अभियान चला रहे हैं और सरकार से रोक लगाने की मांग कर रहे हैं.

सरकार ने भी इस प्रथा को रोकने के लिए जरूरी कदम उठाए हैं लेकिन पिछले दिनों2 युवतियों के किडनैप होने की घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होने के बाद सरकार इसे ले कर सतर्क हो गई थी और इस पर सख्ती से रोक लगा दी थी. इस के बावजूद सुम्बा के कई हिस्सों में अभी भी यह प्रथा चल रही है.

शादी के लिए अपहरण की गई एक युवती ने अपने अपहरण की जो कहानी बताई वह मार्मिक और खौफनाक है. उस ने बताया कि कैसे वह कार के अंदर से अपने मातापिता को मैसेज करने में कामयाब रही.अपहर्त्ता उसे जहां ले कर जा रहे थे, उस घर में शादी की तैयारियां पहले ही हो चुकी थीं. वह घर उस के पिता के ही एक दूर के रिश्तेदार का था. युवती ने बताया कि वहां शादी की रस्मों के लिए तैयार महिलाएं भी उस का इंतजार कर रही थीं. उस के वहां पहुंचते ही महिलाओं ने गीत गाने शुरू कर दिए और फिर शादी के कार्यक्रम शुरू हो गए. सुम्बा सभ्यता पर 3 धर्मों की परंपराओं का पालन किया जाता है. यहां इसलाम और ईसाई धर्म के अलावा मारापू धर्म का भी पालन किया जाता है. कहते हैं कि इस में दुनिया को संतुलित रखने के लिए आत्माओं को बलियों से खुश करने की परंपरा है.

उस युवती ने बताया कि अपहर्त्ता उसे बारबार यही समझा रहे थे कि वह शादी के लिए मन से तैयार हो जाए. लेकिन महिला उस का विरोध करती रही. इस की वजह यह थी कि वह युवती किसी और से प्यार करती थी.

उस युवती  ने उस की एक बात न मानी. वह लगातार रोती रही. रोतेरोते उस का गला सूख गया और वह फर्श पर गिर गई. तब उस ने अपना सिर लकड़ी के एक बड़े पिलर पर मारा. वह चाहती थी कि इस से शायद उन लोगों को उस पर दया आ जाएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ.अगले 6 दिन तक उसे एक तरह से एक घर में कैदी की तरह रखा गया. वह सारी रात रोती रहती थी. वह बिलकुल भी नहीं सोती थी. उसे ऐसा लग रहा था जैसे वह मर रही है. उस ने खानापीना बंद कर दिया था.

प्रथा के अनुसार यह भी मानना है कि यदि अपहरण की गई युवती खाना खा लेती है तो इस का मतलब यह होता है कि उस ने वह शादी स्वीकार कर ली है लेकिन उस युवती ने उनके घर खाना नहीं खाया. इतना ही नहीं उस ने बता दिया कि वह शादी करने के लिए राजी नहीं है.

दूसरी तरफ उस ने फोन द्वारा अपने घरवालों को जो सूचना दी थी उस के बाद घर वालों ने महिला समूह से संपर्क किया. और कहा कि वह उन की बेटी को उन के चंगुल से छुड़ाने की कोशिश करें. महिला अधिकार समूह पेरुआती ने पिछले 4 साल में महिलाओं के अपहरण की इस तरह की सरकार 7 घटनाओं को दर्ज कराया. समूह का मानना है कि इस तरह की और भी कई घटनाएं हुई होंगी. जो प्रकाश में नहीं आईं. लेकिन इनमें से केवल 3 युवतियां ही खुशकिस्मत निकलीं जो विरोध के कारण ऐसी शादी से बच निकलीं.

पेरुआती की स्थानीय प्रमुख बिंटांग पुष्पयोगा  कहती हैं कि वे शादियों में बनी रहती हैं क्योंकि उन के पास इस का कोई विकल्प नहीं होता. काविन टांगकाप कई दफा एक अरेंज मैरिज का ही रूप होता है. वे कहती हैं कि जो महिलाएं शादी तोड़ने का फैसला लेती हैं, उन्हें  बहुत समझाने की कोशिश की जाती है.

बहरहाल महिला अधिकार समूह के सहयोग से युवती को अपहर्त्ता के चंगुल से मुक्त कराया  और बाद में उस युवती के बौयफ्रैंड के साथ उस की शादी कर दी गई.

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