कुसुमजी का मन जैसे कोई भंवर बन गया था जिस में सबकुछ गोलगोल घूम रहा था. महाराजिन? वह तो चौके के अलावा कभी किसी के कमरे में भी नहीं जाती. उस के अलगथलग बने मेहमानों के कमरे में जाने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता था. महरी? वह बरतन मांज कर चौके से ही आंगन में हो कर पिछवाड़े के दरवाजे से निकल जाती है. गरीब आदमी के ईमान पर शक नहीं करना चाहिए. फिर कंबल गया तो गया कहां? अब मेहमान से भी क्या कहें? कुसुमजी की परेशानी सुलझने का नाम ही नहीं ले रही थी. तभी मेहमान ने अपना सामान ला कर आंगन में रख दिया.
वह कुसुमजी को नमस्कार करने के लिए उद्यत हुआ. वह बिना कंबल के जा रहा है या कंबल मिल गया है यह जानने के लिए जैसे ही उन्होंने पूछा तो मेहमान ने झिझकते हुए कहा, ‘‘नहीं, भाभीजी, मिला तो नहीं. पर छोडि़ए इस बात को.’’ ‘‘नहींनहीं, अभी और देख लेते हैं. आप रुकिए तो.’’ कुसुमजी ने पति को बुलवा लिया. इत्तला की कि मेहमान का कंबल नहीं मिल रहा है. वह भी सुन कर सन्न रह गए. इस का सीधा सा अर्थ था कि कंबल खो गया है.
उन के घर में ही किसी ने चुरा लिया है. कुसुमजी ने बड़े अनुनय से मेहमान को रोका, ‘‘अभी रुकिए आप. कंबल जाएगा कहां? ढूंढ़ते हैं सब मिल कर.’’ कुसुमजी, उन के पति, बच्चे, सासससुर सब मिल कर घर को उलटपलट करने लगे. सारी अलमारियां, घर के बिस्तर, ऊपर परछत्ती, टांड, कोई ऐसी जगह नहीं छोड़ी जहां कंबल को न ढूंढ़ा गया हो. कुसुमजी ने पहली बार गृहस्वामी को ऊंची आवाज में बोलते सुना, ‘‘घर की कैसी देखभाल करती हो? घर में मेहमान का कंबल खो गया, इस से बड़ी शर्म की क्या बात होगी?’’ कुसुमजी तो पहले ही हैरानपरेशान थीं, पति की डांट खा कर उन का जी और छोटा हो गया.
उन की आंखों से आंसू टपटप टपकने लगे. साथ ही वह सब जगह कंबल की तलाश करती रहीं. ऐसा लगता था जैसे घर में कोई भूचाल आ गया हो. दालान में बैठा मेहमान मन में पछताने लगा कि अच्छा होता कंबल खोने की बात बताए बिना ही वह चला जाता. क्यों शांत घर में सुबहसवेरे तूफान खड़ा कर दिया. इस दौरान गृहस्वामी का उग्र स्वर भी टुकड़ोंटुकड़ों में सुनने को मिल रहा था.
मेहमान सोचने लगा, 300 रुपए अपने लिए तो बड़ी रकम है पर इन लोगों के लिए वह कौन सी बड़ी रकम है, जो इस कंबल के लिए जमीनआसमान एक किए हुए हैं. मेहमान ने उठ कर फिर गृहस्वामी को आवाज दी, ‘‘भाई साहब, आप कंबल के लिए परेशान न हों. अब मैं चलता हूं.’’ ‘‘नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है? आप बस 10 मिनट और रुकिए,’’ मेहमान को जबरदस्ती रोक कर गृहस्वामी बाहरी दरवाजे की तरफ लपक लिए. वह आधे घंटे बाद लौटे, हाथ में एक बड़ा सा कागज का पैकेट लिए.
उन्होंने मेहमान के सामान पर पैकेट ला कर रखा और बोले, ‘‘भाई साहब, इनकार न कीजिएगा. आप का कंबल हमारे यहां खोया है. इस की शर्मिंदगी ही हमारे लिए काफी है.’’ मेहमान भी कनखियों से देख कर जान चुके थे कि पैकेट में नया कंबल है, जिसे गृहस्वामी अभीअभी बाजार से खरीद कर लाए हैं. थोड़ीबहुत नानुकर करने के बाद मेहमान कंबल सहित विदा हो लिए. मेहमान तो चले गए, पर कुसुमजी के लिए वह अपने पीछे एक तूफान छोड़ गए. मुसीबत तो टल गई थी, लेकिन कंबल के खोने का सवाल अब भी ज्यों का त्यों मुंहबाए खड़ा था.
कोई आदमी ऐसा नहीं था जिस पर कुसुमजी शक कर सकें. फिर कंबल गया तो कहां गया? बिना सचाई जाने छोड़ भी कैसे दें? इसी उधेड़बुन में कुसुमजी उस रात सो नहीं सकीं. सुबह उठीं तो सिर भारी और आंखें लाल थीं. इतना दुख कंबल खरीद कर देने का नहीं था जितना इस बात का था कि चोर घर में था. चोरी घर में हुई थी. कुसुमजी यह समझती थीं कि घर में उन की मरजी के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता, पर अचानक उन का यह विश्वास हिल गया था.
किस से कहें कि ठीक उन की नाक के नीचे एक चोर भी मौजूद है जो आज कंबल चुरा सकता है तो कल घर की कोई भी चीज चुरा सकता है. घर में कुछ भी सुरक्षित नहीं है. कुसुमजी की समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए. इसी परेशानी के आलम में उन की सहेली सविता ने परामर्श दिया कि पास में ही एक पहुंचे हुए ज्योतिषी बाबा हैं. वह बड़े तांत्रिक और सिद्ध पुरुष हैं. कैसा भी राज हो, बाबा को सब मालूम हो जाता है.