वर्जिन: कैसे टूटा उन दोनों के सब्र का बांध

रोहित अमला से मिलने उस के कालेज आया था. दोनों कैंटीन में बैठे चाय पी रहे थे. रोहित एमबीए फाइनल ईयर में था और अमला एमए फाइनल में थी. दोनों ने प्लस टू की पढ़ाई एक ही स्कूल से की थी. इस  के बाद वे कालेज की पढ़ाई के लिए दिल्ली आ गए थे. रोहित ग्रेजुएशन के बाद एमबीए करने दूसरे कालेज चला गया था, पर अकसर अमला से मिलने उस के कालेज आता था. उसे कैंपस से अच्छा प्लेसमैंट मिल गया था. दोनों लगभग 6 साल से एकदूसरे को जानते थे और अच्छी तरह परिचित थे.

अमला काफी सुंदर थी और रोहित भी हैंडसम और स्मार्ट था. दोनों पिछले 2 साल से एकदूसरे को चाहने भी लगे थे. दोनों चाय पी रहे थे और टेबल के नीचे अपनी टांगों की जुगलबंदी किए बैठे थे. तभी रोहित का एक दोस्त अशोक भी अपनी गर्लफ्रैंड के साथ वहां आ गया. उस टेबल पर 2 कुरसियां खाली थीं. वे दोनों भी वहीं बैठ गए.

अशोक बोला, ‘‘यार, तुम दोनों की जुगलबंदी हो चुकी हो तो अपनी टांगें हटा लो, अब हमें भी मौका दो.’’

यह सुन कर रोहित और अमला ने अपनेअपने पैर पीछे खींच लिए. अमला थोड़ा झेंप गई थी.

‘‘अच्छा, हम दोनों चाय पी चुके हैं, अब चलते हैं. अब तुम लोगों के जो जी में आए करो,’’ रोहित ने अमला को भी उठने का इशारा किया.

चलतेचलते रोहित ने अमला से पूछा, ‘‘आज शाम मूवी देखने चल सकती हो?’’

‘‘हां, चल सकती हूं.’’

सिनेमाहौल में दोनों मूवी देख रहे थे. रोहित ने अमला का हाथ अपने हाथ में ले कर धीरे से उस के कान में कहा, ‘‘कब तक हम लोग बस हाथपैर मिलाते रहेंगे. इस से आगे भी बढ़ना है कि नहीं?’’

अमला ने संकेत से चुप रहने का इशारा किया और कहा, ‘‘सब्र करो, आसपास और भी लोग हैं. अपना हाथ हटा लो.’’

हाथ हटाते समय रोहित का हाथ अमला के वक्ष को स्पर्श कर गया, हालांकि यह अनजाने में हुआ था. अमला ने मुड़ कर उस की ओर देखा. रोहित को लगा कि अमला की आंखों में कोई शिकायत का भाव नहीं था बल्कि उस की नजरों में खामोशी झलक रही थी.

मूवी देखने के बाद दोनों एक दोस्त मुकेश के यहां डिनर पर गए. वह अपने पिताजी के फ्लैट में अकेला रहता था. उस के पिताजी न्यूजीलैंड में जौब करते थे. मुकेश ने कहा, ‘‘अगले हफ्ते मैं 6 महीने के लिए न्यूजीलैंड और आस्टे्रलिया जा रहा हूं. तुम लोग चाहो तो यहां रह सकते हो. कुछ दिन साथ रह कर भी देखो, आखिर शादी तो तुम्हें करनी ही है. जैसा कि तुम दोनों मुझ से कहते आए हो.’’

यह सुन कर रोहित और अमला एकदूसरे का मुंह देखते रहे. मुकेश बोला, ‘‘तुम लोगों को कोई प्रौब्लम नहीं होनी चाहिए. पिछली बार तुम्हारे पेरैंट्स आए थे तो उन्हें तुम्हारे बारे में पता था. तुम ने खुद बताया था उन्हें. अंकलआंटी दोनों कह रहे थे कि तुम्हारे दादादादी अभी जीवित हैं और बस, उन की एक औपचारिक मंजूरी चाहिए. इत्तेफाक से तुम दोनों सजातीय भी हो तो उन लोगों को भी कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए.’’

‘‘ठीक है, हम सोच कर बताएंगे.’’

डिनर के बाद जब दोनों जाने लगे तो मुकेश बोला, ‘‘तुम एक डुप्लीकेट चाभी रख लो. मैं अपार्टमैंट औफिस में बता दूंगा कि मेरी अनुपस्थिति में तुम लोग यहां रहोगे.’’

इतना कह कर मुकेश ने चाभी रोहित को थमा दी. रास्ते में रोहित से अमला बोली, ‘‘तुम ने चाभी अभी से क्यों रख ली? इस का मतलब हम अभी से साथ रहेंगे क्या? मुझे तो ऐसा ठीक नहीं लगता. मम्मीपापा को शायद उतना बुरा न लगे, पर दादादादी पुराने विचारों के हैं, उन्हें पता चलेगा तो आसमान सिर पर उठा लेंगे.’’

‘‘दादादादी ही पुराने विचारों के हैं, मैं और तुम तो नहीं. और वे गांव में बैठे हैं. उन्हें कौन बताएगा कि हम साथ रह रहे हैं या नहीं. आज जमाना कहां से कहां पहुंच गया है. तुम्हें पता है कि पश्चिमी देशों में अगर कोई युवती 18 साल तक वर्जिन रह जाती है तो उस के घर वाले चिंतित हो जाते हैं, इस का मतलब आमतौर पर लोग यही अंदाजा लगाते हैं कि उस में कोई कमी है.’’

‘‘बेहतर है हम जहां हैं, वहां की बात करें.’’

‘‘तुम किस गलतफहमी में जी रही हो? यहां भी युवकयुवती लिवइन रिलेशन में साल दो साल एकसाथ रहने के बाद एकदूसरे को बायबाय कर देते हैं. वैसे मैं तुम्हें फोर्स नहीं करूंगा. और तुम हां कहोगी तभी हम मुकेश के फ्लैट में शिफ्ट करेंगे. संयोगवश यह मौका मिला है और हम दोनों शादी करने जा ही रहे हैं, पढ़ाई के बाद. तुम कहो तो कोर्ट मैरिज कर लेते हैं इस के पहले.’’

‘‘नो कोर्ट मैरिज. शादी की कोई जल्दबाजी नहीं है. जब भी होगी ट्रैडिशनल शादी ही होगी,’’ अमला ने साफसाफ कहा.

2 हफ्ते तक काफी मनुहार के बाद अमला मुकेश के फ्लैट में रोहित के साथ आ गई. दोनों के कमरे अलगअलग थे. मुकेश की कामवाली और कुक दोनों के कारण खानेपीने या घर के अन्य कामों की कोई चिंता नहीं थी. 4 महीने के अंदर रोहित को नौकरी जौइन करनी थी और उस के पहले अमला को डिग्री भी मिलनी थी.

रोहित और अमला देर रात तक साथ बातें करते और फिर अपनेअपने कमरे में सोने चले जाते थे. धीरेधीरे दोनों और करीब होते गए. अब तो रोहित अमला के बालों से खेलने लगा था, कभीकभी गाल भी सहला लेता. दोनों को यह सब अच्छा लगता. पर एक दिन दोनों के सब्र ने जवाब दे दिया और वे एक हो गए. जब एक बार सब्र का बांध टूट गया तो दोनों इस सैलाब में बह निकले.

कुछ दिन बाद अमला बोली, ‘‘रोहित, इधर कुछ दिनों से मेरे पेट के निचले हिस्से में दर्द सा रहता है. कभीकभी यह ज्यादा ही हो जाता है.’’

‘‘किसी गाइनोकोलौजिस्ट से चैकअप करा लो.’’

‘‘मैं अकेली नहीं जाऊंगी, तुम्हें भी साथ चलना पड़ेगा.’’

‘‘अब लेडी डाक्टर के पास मुझे कहां ले जाओगी?’’

‘‘तब रहने दो, मैं भी नहीं जाती.’’

‘‘अच्छा बाबा, चलो, कल सुबह चलते हैं.’’

अगले दिन सुबह दोनों गाइनोकोलौजिस्ट के पास पहुंचे. वहां कुछ मरीज पहले से ही थे, उन्हें काफी देर तक इंतजार करना पड़ा. इस बीच उन्होंने देखा कि वहां आने वाली ज्यादातर औरतें प्रैग्नैंट थीं और उन के साथ कोई मर्द या प्रौढ़ महिला थी. सब से कम उम्र की पेशैंट अमला ही थी. अमला यह सब देख कर थोड़ी घबरा गई थी. उस की बगल में बैठी एक औरत ने पूछा, ‘‘लगता है तुम्हारा पहला बच्चा है, पहली बार घबराहट सब को होती है. डरो नहीं.’’

रोहित और अमला एकदूसरे को देखने लगे. रोहित बोला, ‘‘डोंट वरी, लेट डाक्टर चैकअप.’’

जब अमला का नाम पुकारा गया तो रोहित भी उस के साथ चैकअप केबिन में जाने लगा. नर्स ने उसे रोक कर कहा, ‘‘आप बाहर वेट करें, अगर डाक्टर बुलाती हैं तो आप बाद में आ जाना.’’

डाक्टर ने अमला को चैक किया. उस की आंखें, पल्स, ब्लडप्रैशर आदि चैक किए. फिर पूछा, ‘‘दर्द कहां होता है?’’

अमला ने पेट के नीचे हाथ रख कर कहा, ‘‘यहां.’’

डाक्टर ने नर्स को पेशैंट का यूरिन सैंपल ले कर प्रैग्नैंसी टैस्ट करने को कहा और पूछा ‘‘शादी हुए कितने दिन हुए.’’

‘‘मैं अनमैरिड हूं डाक्टर.’’

‘‘सैक्स करती हो?’’

अमला ऐसे प्रश्न के जवाब देने के लिए तैयार नहीं थी. उस को कुछ सूझ नहीं रहा था कि वह क्या बोले, वह सिर्फ डाक्टर की ओर देख रही थी. डाक्टर ने नर्स को बुला कर कहा, ‘‘इन के साथ जो आदमी आया है उस को बुला कर लाओ और इन की प्रैग्नैंसी टैस्ट रिपोर्ट लेती आना.’’

रोहित केबिन में गया तो डाक्टर ने पूछा, ‘‘पेशैंट कहती है कि वह अनमैरिड है, पर जब मैं ने सैक्स के बारे में पूछा तो वह कुछ बता नहीं पा रही है. डाक्टर से सच बोलना चाहिए तभी तो इलाज सही होगा.’’

इसी बीच डाक्टर ने उन दोनों से फ्रैंडली होते हुए पूछा कि वे कहां के रहने वाले हैं. बातोंबातों में पता चला कि डाक्टर अमला की मां की सहपाठी रह चुकी हैं. तभी नर्स टैस्ट रिपोर्ट ले कर आई जो पौजिटिव थी. डाक्टर बोली, ‘‘अब तो शक की कोई गुंजाइश नहीं है, अमला तुम प्रैग्नैंट हो. इस का मतलब तुम दोनों अनमैरिड हो लेकिन फिजिकल रिलेशन रखते हो.’’

रोहित और अमला दोनों को यह बात असंभव लगी. उन के बीच रिलेशन तो रहा है, पर उन्होंने सुरक्षा का पूरा ध्यान रखा है. रोहित अमला की ओर देखे जा रहा था, अमला लगातार सिर हिला कर न का संकेत दे रही थी. रोहित के पास भी अमला पर शक करने की कोई वजह नहीं थी.

रोहित डाक्टर से बोला, ‘‘हम फिजिकल भले रहे हों, पर इस रिपोर्ट पर मुझे भरोसा नहीं है.’’

‘‘ठीक है, मैं दोबारा टैस्ट करा लेती हूं या फिर बगल में एक दूसरी लैब में भेज दूं अगर तुम लोगों को मुझ पर भरोसा नहीं है,’’ डाक्टर ने कहा.

‘‘नहीं डाक्टर, भरोसा कर के ही तो हम आप तक आए हैं. फिर भी एक बार और टैस्ट करा लेतीं तो ठीक था.’’

डाक्टर ने नर्स को बुला कर यूरिन का सैंपल दोबारा टैस्ट करने को कहा. नर्स को थोड़ा आश्चर्य हुआ. उस ने रिपोर्ट अपने हाथ में ले कर पढ़ी और कहा, ‘‘सौरी, यह रिपोर्ट इन की नहीं है. दूसरे पेशैंट की है. दरअसल, दोनों के फर्स्ट नेम एक ही हैं और सरनेम में बस, एक लेटर का फर्क है. इन का सरनेम सिन्हा है और यह रिपोर्ट मैडम सिंह की है. आइ एम सो सौरी, अभी इन की रिपोर्ट ले कर आती हूं.’’

यह सुन कर रोहित और अमला की जान में जान आई. नर्स अमला की रिपोर्ट ले कर आई जो निगेटिव थी. तब डाक्टर ने रोहित से कहा, ‘‘आई एम सौरी फौर दिस मेस. आप बाहर, जाएं, मैं पेशैंट को ऐग्जामिन करूंगी.’’

अमला का बैड पर लिटा कर चैकअप किया गया. फिर रोहित को भी अंदर बुला कर डाक्टर ने कहा, ‘‘डौंट वरी, इन के ओवरी में बांयीं ओर कुछ सूजन है. मैं दवा लिख देती हूं, उम्मीद है 2 सप्ताह में आराम मिलेगा. अगर फिर भी प्रौब्लम रहे तो मुझे बताना आगे ट्रीटमैंट चलेगा.’’

अमला ने चलतेचलते डाक्टर को धन्यवाद देते हुए कहा, ‘‘प्लीज डाक्टर, मम्मी को आप यह नहीं बताएंगी.’’

‘‘मेरा तो पिछले 15 साल से उस से कोई संपर्क नहीं रहा है. वैसे पता रहने पर भी नहीं बताती, डौंट वरी, गेट मैरिड सून. अपनी मम्मी का फोन नंबर देती जाना, अगर तुम्हें कोई प्रौब्लम न हो तो.’’

‘‘श्योर, मैं लिख देती हूं, मुझे कोई प्रौब्लम नहीं है.’’

अमला ने अपनी मां का फोन नंबर एक पेपर पर नोट कर डाक्टर को दे दिया.

क्लिनिक से बाहर आ कर अमला ने कहा, ‘‘आज तो हमारे रिश्ते की बात हम दोनों के सिवा इस डाक्टर और नर्स को भी पता चल गई. उस ने मम्मी का कौन्टैक्ट्स भी मुझ से ले लिया है. उम्मीद है कि वह मम्मी को नहीं बताएगी.’’

‘‘बता भी दिया तो क्या हो जाएगा? हम लोग शादी करने जा रहे हैं. मैं अगले महीने नौकरी जौइन करने जा रहा हूं. कंपनी की ओर से फ्लैट और कार भी मिल रही है. जल्द ही हम शादी कर लेंगे.’’

‘‘वो तो ठीक है, पर मम्मी मुझ से कहती आई हैं युवतियों को अपनी वर्जिनिटी शादी तक बचानी चाहिए.’’

‘‘आजकल सबकुछ हो जाने के बाद भी वर्जिनिटी दोबारा मिल सकती है. तुम्हें पता है कि प्लास्टिक सर्जरी से युवतियां अपना खोया हुआ कौमार्य प्राप्त कर सकती हैं.’’

‘‘क्या कह रहे हो?’’

‘‘सही बोल रहा हूं. बस, कुछ हजार रुपए खर्च कर कुछ घंटे प्लास्टिक सर्जन के क्लिनिक पर हाइमनोप्लास्टी द्वारा हाइमन बनाया जाता है और युवतियां फिर से कुंआरी बन जाती हैं.’’

अमला रोहित की तरफ अचरज भरी नजरों से देखने लगी तो फिर वह बोला, ‘‘देश भर के छोटेबड़े शहरों में सैकड़ों क्लिनिक हैं, जो हाइमनोप्लास्टी करते हैं. इन्हें अपने लिए ज्यादा प्रचार भी नहीं करना होता है. यह तो एक कौस्मेटिक सर्जरी है. इतना ही नहीं कुछ बालबच्चों वाली महिलाएं भी वैजिनोप्लास्टी करा कर दांपत्य जीवन के शुरुआती दिनों जैसा आनंद फिर से महसूस करने लगी हैं.’’

‘‘ओह.’’

‘‘जरूरत पड़ी तो तुम्हारी भी हो सकती है, कह कर रोहित हंसने लगा.’’

‘‘मुझे नहीं चाहिए यह सब. अब इस बारे में मुझे और कुछ नहीं सुनना है.’’

रोहित और अमला को अपनी तात्कालिक समस्या का निदान मिल चुका था. दोनों ने खुशीखुशी अपने फ्लैट पर जा कर चैन की सांस ली.

भूलना मत: नम्रता की जिंदगी में क्या था उस फोन कौल का राज?

नम्रता ने फोन की घंटी सुन कर करवट बदल ली. कंबल ऊपर तक खींच कर कान बंद कर लिए. सोचा कोई और उठ कर फोन उठा लेगा पर सभी सोते रहे और फोन की घंटी बज कर बंद हो गई.

‘चलो अच्छा हुआ, मुसीबत टली. पता नहीं मुंहअंधेरे फोन करने का शौक किसे चर्राया,’ नम्रता ने स्वयं से ही कहा.

पर फोन फिर से बजने लगा तो नम्रता झुंझला गई, ‘‘लगता है घर में मेरे अलावा यह घंटी किसी को सुनाई ही नहीं देती,’’ उस ने उठने का उपक्रम किया पर उस के पहले ही अपने पिता शैलेंद्र बाबू की पदचाप सुन कर वह दोबारा सो गई. पिता ने फोन उठा लिया.

‘‘क्या? क्या कह रहे हो कार्तिक? मुझे तो अपने कानों पर विश्वास ही नहीं होता. पूरे देश में प्रथम स्थान? नहींनहीं, तुम ने कुछ गलत देखा होगा. क्या नैट पर समाचार है?’’

‘‘अब तो आप को मिठाई खिलानी ही पड़ेगी.’’

‘‘हां, है.’’

‘‘मिठाई?’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं, घर आओ तो, मिठाई क्या शानदार दावत मिलेगी तुम्हें,’’ शैलेंद्र बाबू फोन रखते ही उछल पड़े. थोड़ी देर पहले की मीठी नींद से उठने की खुमारी और बौखलाहट एक क्षण में उड़नछू हो गई.

‘‘सुचित्रा, नम्रता, अनिमेष, कहां हो तुम तीनों? देखो कितनी खुशी की बात है,’’ वे पूरी शक्ति लगा कर चीखे.

‘‘क्या है? क्यों सारा घर सिर पर उठा रखा है?’’ सुचित्रा पति की चीखपुकार सुन कर उठ आईं.

‘‘बात ही ऐसी है. सुनोगी तो उछल पड़ोगी.’’

‘‘अब कह भी डालो, भला कब तक पहेलियां बुझाते रहोगे.’’

‘‘तो सुनो, हमारी बेटी नम्रता भारतीय प्रशासनिक सेवा में प्रथम आई है.’’

‘‘क्या? मुझे तो विश्वास नहीं होता. किसी ने अवश्य तुम्हें मूर्ख बनाने का प्रयत्न किया है. किस का फोन था? अवश्य ही किसी ने मजाक किया होगा.’’

‘‘कार्तिक का फोन था और मैं उस की बात पर आंख मूंद कर विश्वास कर सकता हूं.’’

मातापिता की बातचीत सुन कर नम्रता और अनिमेष भी उठ कर आ गए.

‘‘मां ठीक कहती हैं, पापा. क्या पता किसी ने शरारत की हो. परीक्षा में सफल होना तो संभव है पर सर्वप्रथम आना…मैं जब तक अपनी आंखों से न देख लूं, विश्वास नहीं कर सकती,’’ नम्रता ने अपना मत प्रकट किया.

पर जब तक नम्रता कुछ और कहती अनिमेष कंप्यूटर पर ताजा समाचार देखने लगा जहां नम्रता के भारतीय प्रशासनिक सेवा में प्रथम आने का समाचार प्रमुखता से दिखाया जा रहा था. कुछ ही देर में समाचारपत्र भी आ गया और फोन पर बधाई देने वालों का तांता सा लग गया.

शैलेंद्र बाबू तो फोन पर बधाई स्वीकार करने और सब को विस्तार से नम्रता के आईएएस में प्रथम आने के बारे में बताते हुए इतने व्यस्त हो गए कि उन्हें नाश्ता तक करने का समय नहीं मिला.

दिनभर घर आनेजाने वालों से भरा रहा. नम्रता जहां स्थानीय समाचारपत्रों के प्रतिनिधियों व टीवी चैनलों को साक्षात्कार देने में व्यस्त थी, वहीं अनिमेष और सुचित्रा मेहमानों की खातिरदारी में.

शैलेंद्र बाबू के तो पांव खुशी के कारण जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. नम्रता ने एक ही झटके में पूरे परिवार को साधारण से असाधारण बना दिया था.

रात गहराने लगी तो अनेक परिचित विदा लेने लगे. पर दूर से आए संबंधियों के ठहरने, खानेपीने का प्रबंध तो करना ही था. सुचित्रा के तो हाथपैर फूल गए थे. तीन बुलाए तेरह आए तो सुना था उन्होंने पर यहां तो बिना बुलाए ही सब ने धावा बोल दिया था.

वे अनिमेष को बारबार बाजार भेज कर आवश्यकता की वस्तुएं मंगा रही थीं और स्वयं दिनभर रसोई में जुटी रहीं.

अतिथियों को खिलापिला व सुला कर जब पूरा परिवार साथ बैठा तो सभी को अपनी कहने और दूसरों की सुनने का अवसर मिला.

‘‘मुझ से नहीं होता इतने लोगों के खानेपीने का प्रबंध. कल ही एक रसोइए का प्रबंध करो,’’ सब से पहले सुचित्रा ने अपना दुखड़ा कह सुनाया.

‘‘क्यों नहीं, कल ही से रख लेते हैं. कुछ दिनों तक आनेजाने वालों का सिलसिला चलेगा ही,’’ शैलेंद्र बाबू ने कहा.

‘‘मां, घर में जो भी सामान मंगवाना हो उस की सूची बना लो. कल एकसाथ ला कर रख दूंगा. आज पूरे दिन आप ने मुझे एक टांग पर खड़ा रखा है,’’ अनिमेष बोला.

‘‘तुम लोगों को एक दिन थोड़ा सा काम करना पड़ जाए तो रोनापीटना शुरू कर देते हो. पर जो सब से महत्त्वपूर्ण बातें हैं उन की ओर तुम्हारा ध्यान ही नहीं जाता,’’ शैलेंद्र बाबू गंभीर स्वर में बोले.

‘‘ऐसी कौन सी महत्त्वपूर्ण बात है जिस की ओर हमारा ध्यान नहीं गया?’’ सुचित्रा ने मुंह बिचकाया.

‘‘कार्तिक…आज सुबह सब से पहले कार्तिक ने ही मुझे नम्रता की इस अभूतपूर्व सफलता की सूचना दी थी. पर मैं पूरे दिन प्रतीक्षा करता रहा और वह नहीं आया.’’

‘‘प्रतीक्षा केवल आप ही नहीं करते रहे, पापा, मैं ने तो उसे फोन भी किया था. जितना प्रयत्न और परिश्रम मैं ने किया उतना ही उस ने भी किया. उसे तो जैसे धुन सवार थी कि मुझे इस प्रतियोगिता में सफल करवा कर ही मानेगा. मेरी सफलता का श्रेय काफी हद तक कार्तिक को ही जाता है.’’

‘‘सब कहने की बात है. ऐसा ही है तो स्वयं क्यों नहीं दे दी आईएएस की प्रवेश परीक्षा?’’

‘‘क्योंकि वह चाहता ही नहीं, मां. उसे पढ़नेपढ़ाने में इतनी रुचि है कि वह व्याख्याता की नौकरी छोड़ना तो दूर, अर्थशास्त्र में पीएचडी करने की योजना बना रहा है.’’

‘‘तो अब मेरी बात ध्यान से सुनो. अब तक तो तुम दोनों की मित्रता ठीक थी पर अब तुम दोनों का मिलनाजुलना मुझे पसंद नहीं है. बड़ी अफसर बन जाओगी तुम. अपनी बराबरी का वर ढूंढ़ो तो मुझे खुशी होगी. भूल गईं, सुधीर और उस के परिवार ने हमारे साथ कैसा व्यवहार किया था?’’ सुचित्रा बोलीं.

‘‘तो आप चाहती हैं कि मैं भी कार्तिक के साथ वही करूं जो सुधीर ने मेरे साथ किया था.’’

‘‘हां, तुम लोगों ने अपनी व्यस्तता में देखा नहीं, कार्तिक आया था, मैं ने ही उसे समझा दिया कि अब नम्रता उस से कहीं आगे निकल गई है तो किसी से बिना मिले मुंह छिपा कर चला गया,’’ सुचित्रा बोलीं.

‘‘क्या? आप ने मुझे बताया तक नहीं? कार्तिक जैसे मित्र बड़ी मुश्किल से मिलते हैं. हम दोनों तो जीवनसाथी बनने का निर्णय ले चुके हैं,’’ यह बोलते हुए नम्रता रो पड़ी.

‘‘मैं तुम से पूरी तरह सहमत हूं, बेटी. कार्तिक हीरा है, हीरा. उसे हाथ से मत जाने देना,’’ शैलेंद्रजी ने नम्रता को ढाढ़स बंधाया.

एकांत मिलते ही नम्रता ने कार्तिक का नंबर मिलाया. पर बहुत पहले की एक फोन कौल उस के मानसपटल पर हथौड़े की चोट करने लगी थी.

उस दिन भी फोन उस के पिता ने ही उठाया था.

‘नमस्ते शैलेंद्र बाबू. कहिए, विवाह की सब तैयारियां हो गईं?’ फोन पर धीर शाह का स्वर सुन कर शैलेंद्र बाबू चौंक गए थे.

‘सब आप की कृपा है. हम सब तो कल की तैयारी में ही व्यस्त हैं.’

इधरउधर की औपचारिक बातों के बाद धीर बाबू काम की बात पर आ गए.

‘ऐसा है शैलेंद्र बाबू, मैं ने तो लाख समझाया पर रमा, मेरी पत्नी तो कुछ सुनने को तैयार ही नहीं. बस, एक ही जिद पर अड़ी है. उसे तो तिलक में 10 लाख नकद चाहिए. वह अपने मन की सारी साध पूरी करेगी.’’

‘क्या कह रहे हैं आप, धीर बाबू? तिलक में तो लेनेदेने की बात तय नहीं हुई थी. अब एक दिन में 10 लाख का प्रबंध कहां से करूंगा मैं?’ शैलेंद्र बाबू का सिर चकराने लगा. आवाज भर्रा गई.

‘क्या कहूं, मैं तो आदर्शवादी व्यक्ति हूं. दहेज को समाज का अभिशाप मानता हूं. पर नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है. रमा ने तो जिद ही पकड़ ली है. वैसे गलती उस की भी नहीं है. आप के यहां संबंध होने के बाद भी लोग दरवाजे पर कतार बांधे खड़े हैं.’

सोचने व समझ पाने के लिए शैलेंद्र ने कहा, ‘मेरे विचार से ऐसे गंभीर विचारविमर्श फोन पर करना ठीक नहीं रहेगा. मैं अपनी पत्नी सुचित्रा के साथ आप के घर आ रहा हूं. वहीं मिलबैठ कर सब मसले सुलझा लेंगे.’

नम्रता ने शैलेंद्र बाबू और धीर शाह के बीच होने वाली बातचीत को सुन लिया था और किसी अशुभ की आशंका से वह कांप उठी थी.

शैलेंद्र बाबू और सुचित्रा जब धीर बाबू के घर गए तो उन्होंने 10 लाख की मांग को दोहराया, जिस से शैलेंद्र बाबू निराश हो गए.

जब नम्रता से सुधीर का संबंध हुआ था तब सुधीर डिगरी कालेज में साधारण सा व्याख्याता था पर अब वह भारतीय प्रशासनिक सेवा का अफसर बन गया था. इसी कारण वर का भाव भी बढ़ गया. अफसर बनते ही सुधीर का दुनिया के प्रति नजरिया भी बदल गया.

शैलेंद्र और सुचित्रा उठ खड़े हुए. घर आ कर बात साफ कर दी गई.

‘यह विवाह नहीं होगा. लगता है और कोई मोटा आसामी मिल गया है धीर बाबू को,’ शैलेंद्र बाबू ने सुचित्रा से कहा.

सुधीर और नम्रता ने कालेज की पढ़ाई साथ पूरी की थी. दोनों के प्रेम के किस्से हर आम और खास व्यक्ति की जबान पर थे. एमफिल करते ही जब दोनों को अपने ही कालेज में व्याख्याता के पद प्राप्त हो गए तो उन की खुशी का ठिकाना न रहा. उन के प्यार की दास्तान सुन कर दोनों ही पक्षों के मातापिता ने उन के विवाह की स्वीकृति दे दी थी.

नम्रता से विवाह तय होते ही जब सुधीर का आईएएस में चयन हो गया तो सुचित्रा और शैलेंद्र बाबू भी खुशी से झूम उठे. वे मित्रों, संबंधियों और परिचितों को यह बताते नहीं थकते थे कि उन की बेटी नम्रता का संबंध एक आईएएस अफसर से हुआ है.

नम्रता स्वयं भी कुछ ऐसा ही सोचने लगी थी. वह जब भी सुधीर से मिलती तो गर्व महसूस करती थी. पर आज सबकुछ बदला हुआ नजर आ रहा था.

सुधीर और उस का प्रेमप्रसंग तो पिछले 5 वर्षों से चल रहा था. सुधीर तो दहेज के सख्त खिलाफ था. फिर आज अचानक इतनी बड़ी मांग? वह छटपटा कर रह गई.

उस ने तुरंत सुधीर को फोन मिलाया. उसे अब भी विश्वास नहीं हो रहा था कि सुधीर और उस का परिवार तिलक से ठीक पहले ऐसी मांग रख देंगे. वह सुधीर से बात कर के सब साफसाफ पूछ लेना चाहती थी. उन दोनों के प्यार के बीच में यह पैसा कहां से आ गया था.

‘हैलो, सुधीर, मैं नम्रता बोल रही हूं.’

‘हां, कहो नम्रता, कैसी हो? कल की सब तैयारी हो गई क्या?’

‘यही तो मैं तुम से पूछ रही हूं. यह एक दिन पहले क्या 10 लाख की रट लगा रखी है? मेरे पापा कहां से लाएंगे इतना पैसा?’

‘शांत, नम्रता शांत. इतने सारे प्रश्न पूछोगी तो मैं उन के उत्तर कैसे दे सकूंगा.’

‘बनो मत, तुम्हें सब पता है. तुम्हारी स्वीकृति के बिना वे ऐसी मांग कभी नहीं करते,’ नम्रता क्रोधित स्वर में बोली.

‘तो तुम भी सुन लो, क्या गलत कर रहे हैं मेरे मातापिता? लोग करोड़ों देने को तैयार हैं. कहां मिलेगा तुम्हें और तुम्हारे पिता को आईएएस वर? तुम लोग इस छोटी सी मांग को सुनते ही बौखला गए,’ सुधीर का बदला सुर सुनते ही स्तब्ध रह गई नम्रता. हाथपैर कांप रहे थे. वह वहीं कुरसी पर बैठ कर देर तक रोती रही.

अनिमेष सो रहा था. वह किसी प्रकार लड़खड़ाती हुई अपने कक्ष में गई और कुंडी चढ़ा ली.

शैलेंद्र और सुचित्रा घर पहुंचे तो देर तक घंटी बजाने और द्वार पीटने के बाद जब अनिमेष ने द्वार खोला तो शैलेंद्र बाबू उस पर ही बरस पड़े.

‘यहां जान पर बनी है और तुम लोग घोड़े बेच कर सो रहे हो.’

‘बहुत थक गया था. मैं ने सोचा था कि नम्रता दीदी द्वार खोल देंगी. वैसे भी उन की नींद जल्दी टूट जाती है,’ अनिमेष उनींदे स्वर में बोला.

‘नम्रता? हां, कहां है नम्रता?’ शैलेंद्र बाबू ने चिंतित स्वर में पूछा.

‘अपने कमरे में सो रही हैं,’ अनिमेष बोला और फिर सो गया.

पर शैलेंद्र और सुचित्रा को कुछ असामान्य सा लग रहा था. मातापिता की चिंता से अवगत थी नम्रता. ऐसे में उसे नींद आ गई, यह सोच कर ही घबरा गए थे दोनों.

सुचित्रा ने तो नम्रता के कक्ष का द्वार ही पीट डाला. पर कोई उत्तर न पा कर वे रो पड़ीं. अब तो अनिमेष की नींद भी उड़ चुकी थी. शैलेंद्र बाबू और अनिमेष ने मिल कर द्वार ही तोड़ डाला.

उन का भय निर्मूल नहीं था. अंदर खून से लथपथ नम्रता बेसुध पड़ी थी. उस ने अपनी कलाई की नस काट ली थी.

अब अगले दिन के तिलक की बात दिमाग से निकल गई थी. वर पक्ष की मांग और उन के द्वारा किए गए अपमान की बात भुला कर वे नम्रता को ले कर अस्पताल की ओर भागे थे.

समाचार सुनते ही नम्रता के मित्र और सहकर्मी आ पहुंचे थे. सुचित्रा और अनिमेष का रोरो कर बुरा हाल था. शैलेंद्र बाबू अस्पताल में प्रस्तर मूर्ति की भांति शून्य में ताकते बैठे थे. कार्तिक ने न केवल उन्हें सांत्वना दी थी बल्कि भागदौड़ कर के सुचित्रा की देखभाल भी की थी.

कार्तिक रातभर नम्रता के होश में आने की प्रतीक्षा करता रहा था पर नम्रता तो होश में आते ही बिफर उठी थी.

‘कौन लाया मुझे यहां? मर क्यों नहीं जाने दिया मुझे? मैं जीना नहीं चाहती,’ वह प्रलाप करने लगी थी.

‘चुप करो, यह बकवास करने का समय नहीं है. तुम ऐसा कायरतापूर्ण कार्य करोगी, मैं सोच भी नहीं सकता था.’

‘मैं अपने मातापिता को और दुख देना नहीं चाहती.’

‘तुम ने उन्हें कितना दुख दिया है, देखना चाहोगी. तुम्हारी मां रोरो कर दीवार से अपना सिर टकरा रही थीं. बड़ी कठिनाई से अनिमेष उन्हें घर ले गया है. तुम्हारे पिता तुम्हारे कक्ष के बाहर बैंच पर बेहोश पड़े हैं.’

‘ऐसी परिस्थिति में मैं और कर भी क्या सकती थी?’

‘तुम पहली युवती नहीं हो जिस का विवाह टूटा है, कारण कोई भी रहा हो. दुख का पहाड़ तो पूरे परिवार पर टूटा था पर तुम बड़ी स्वार्थी निकलीं. केवल अपने दुख का सोचा तुम ने. तुम्हें तो उन्हें ढाढ़स बंधाना चाहिए था.’

नम्रता चुप रह गई. कार्तिक उस का अच्छा मित्र था. उस ने और कार्तिक ने एकसाथ कालेज में व्याख्याता के रूप में प्रवेश किया था. पर सुधीर के कालेज में आते ही नम्रता उस के लटकोंझटकों पर रीझ गई थी.

नम्रता स्वस्थ हो कर घर आ गई थी पर कार्तिक के सहारे ही वह सामान्य हो सकी थी. ‘स्वयं को पहचानो नम्रता,’ वह बारबार कहता. उस के प्रोत्साहित करने पर ही नम्रता ने आईएएस की तैयारी प्रारंभ की थी. उस की तैयारी में कार्तिक ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. पर आज न जाने उस पर क्या बीती होगी.

‘‘हैलो कार्तिक,’’ फोन मिलते ही नम्रता ने कार्तिक का स्वर पहचान लिया था.

‘‘कहो नम्रता, कैसी हो?’’

‘‘मैं कैसी हूं अब पूछ रहे हो तुम? सुबह से कहां थे?’’

‘‘मैं तो तुम से मिलने आया था पर तुम बहुत व्यस्त थीं.’’

‘‘और तुम बिना मिले चले गए? यह भी भूल गए कि तुम ने तो सुखदुख में साथ निभाने का वादा किया है.’’

‘‘आज के संसार में इन वादों का क्या मूल्य है?’’

‘‘मेरे लिए ये वादे अनमोल हैं, कार्तिक. हम कल ही मिल रहे हैं. बहुत सी बातें करनी हैं, बहुत से फैसले करने हैं. ठीक है न?’’ नम्रता ने व्यग्रता से पूछा था.

‘‘ठीक है, नम्रता. तुम भी मेरे लिए अनमोल हो. यह कभी मत भूलना.’’

कार्तिक ने अपने एक वाक्य में अपना हृदय ही उड़ेल दिया था. नम्रता की आंखों में आंसू झिलमिलाने लगे थे. तृप्ति व खुशी के आंसू.

रफ्तार : क्या सुधीर को मिली अपनी पसंद की लड़की?

गाड़ी की रफ्तार धीरेधीरे कम हो रही थी. सुधीर ने झांक कर देखा, स्टेशन आ गया था. गाड़ी प्लेटफार्म पर आ कर खड़ी हो गई थी. प्रथम श्रेणी का कूपा था, इसलिए यात्रियों को चढ़नेउतरने की जल्दी नहीं हो रही थी.

सुधीर इत्मीनान से अटैची ले कर दरवाजे की ओर बढ़ा. तभी उस ने देखा कि गाड़ी के दरवाजे पर सुनहरे फ्रेम का चश्मा लगाए व सूटबूट पहने एक आदमी आरक्षण सूची में अपना नाम देख रहा था.

उस आदमी को अपना नाम दिखाई दिया तो उस ने पीछे खड़े कुली से सामान अंदर रखने को कहा.

सुधीर को उस की आकृति कुछ पहचानी सी लगी. पर चेहरा तिरछा था इसलिए दिखाई नहीं दिया. जब उस ने मुंह घुमाया तो दोनों की नजरें मिलीं. क्षणांश में ही दोनों दोस्त गले लग गए. सुधीर के कालेज के दिनों का साथी विनय था. दोनों एक ही छात्रावास में कई साल साथ रहे थे.

सुधीर ने पूछा, ‘‘आजकल कहां हो? क्या कर रहे हो?’’

विनय बोला, ‘‘यहीं दिल्ली में अपनी फैक्टरी है. तुम कहां हो?’’

‘‘सरकारी नौकरी में उच्च अधिकारी हूं. दौरे पर बाहर गया था. मैं भी यहीं दिल्ली में ही हूं.’’

वे बातें कर ही रहे थे कि गाड़ी की सीटी ने व्यवधान डाला. एक गाड़ी से उतर रहा था, दूसरा चढ़ रहा था. दोनों ने अपनेअपने विजिटिंग कार्ड निकाल कर एकदूसरे को दिए. सुधीर गाड़ी से उतर गया. दोनों मित्र एकदूसरे की ओर देखते हुए हाथ हिलाते रहे. जब गाड़ी आंखों से ओझल हो गई तो सुधीर के पांव घर की ओर बढ़ने लगे.

टैक्सी चल रही थी, पर सुधीर का मन विनय में रमा था. विनय और वह छात्रावास के एक ही कमरे में रहते थे. विनय का मन खेलकूद में ही लगा रहता था, जबकि सुधीर की आकांक्षा थी कि किसी प्रतियोगिता में चुना जाए और उच्च अधिकारी बने. इसलिए हर समय पढ़ता रहता था.

जबतब विनय उसे टोकता था, ‘क्यों किताबी कीड़ा बना रहता है, जिंदगी में और भी चीजें हैं, उन की ओर भी देख.’

‘मेरे कुछ सपने हैं कि उच्च अफसर बनूं, कार हो, बंगला हो, इसलिए मेरी मां मेरे सपने को पूरा करने के लिए जेवर बेच कर मेरी फीस भर रही है.’

उस की सब तमन्नाएं पूरी हो गई थीं. पर विनय से मिलने के बाद उसे ताज्जुब हो रहा था कि वह भी उसी की तरह गरीब परिवार से था. उस का यह कायापलट कैसे हो गया? एक फैक्टरी का मालिक कैसे बन गया? इसी उधेड़बुन में वह घर पहुंचा.

नौकर रामू ने कार का दरवाजा खोला. घर के अंदर मेज पर मां की बीमारी का तार पड़ा था. पड़ोसिन चाची ने बुलाया था.

रामू ने बताया, ‘‘मेम साहब अपनी सहेलियों के साथ घूमने गई हैं.’’

सुनते ही सुधीर को गुस्सा आ गया. वह सोच रहा था कि जब मां का तार आ गया था तो रश्मि को उन के पास जाना चाहिए था. वह उलटे पांव बस अड्डे की ओर चल दिया. वह रहरह कर रश्मि पर खीज रहा था कि उसे मां की बीमारी की जरा भी परवा नहीं है.

मां बेटे को देख प्रसन्न हो उठीं. पड़ोसिन चाची ने बताया, ‘‘तेरी मां को तेज बुखार था. हम तो घबरा गए. इसीलिए तुझे तार दे दिया. रश्मि को क्यों नहीं लाया?’’

‘‘वह अपनी मां के पास गई है. घर होती तो अवश्य आती.’’

सुधीर जानता था कि गांव के माहौल में मां के साथ रहना रश्मि को गवारा नहीं है. मां भी उस की आदतें जानती थीं, इसीलिए उन्होंने अधिक कुछ नहीं कहा.

दूसरे दिन सुधीर लौट आया था. रश्मि ने मां की बीमारी के बारे में ज्यादा पूछताछ नहीं की थी.

अगली सुबह वह अभी दफ्तर पहुंचा ही था कि रश्मि का फोन आ गया, ‘‘आज घर में पार्टी है, नौकर नहीं आया है, तुम दफ्तर के किसी आदमी को थोड़ी देर के लिए भेज दो.’’

सुधीर कुढ़ गया, पर कुछ सोचते हुए बेरुखी से बोला, ‘‘ठीक है, भेज दूंगा.’’

शाम को वह घर पहुंचा. सोचा था कि थोड़ी देर आराम करेगा और कौफी पी कर थकान मिटाएगा. वह रश्मि के पास पहुंचा. वह लेटी हुई पुस्तक पढ़ रही थी.

सुधीर को देख कर बोली, ‘‘आज मैं तो बहुत थक गई. नौकर भी नहीं आया. अब तो उठा भी नहीं जा रहा है. पर किटी पार्टी बहुत अच्छी रही. रमी में बारबार हारती ही रही, इसलिए थोड़ा जी खट्टा हो गया. आज तो रात का खाना बाहर ही खाना पड़ेगा.’’

रश्मि की बातें सुन सुधीर की कौफी पीने की इच्छा मर गई. वह पलंग पर लेट गया और सोचने लगा, ‘रश्मि का समय या तो घूमने में व्यतीत होता है या सखियों के साथ ताश खेलने में. घर के कामों में तो उस का मन ही नहीं लगता है, इसीलिए मोटी और भद्दी होती जा रही है. जब कभी मैं राय देता हूं कि घर के कामों में मन नहीं लगता है तो मत करो, लेकिन घूमने या रमी खेलने के बजाय कुछ रचनात्मक कार्य करो तो चिढ़ उठती है.’

सोचतेसोचते सुधीर सो गया. 9 बजे रश्मि ने जगाया, ‘‘चलिए, किसी होटल में खाना खाते हैं.’’

न चाहते हुए भी सुधीर को उस के साथ जाना पड़ा.

सुबह सुधीर दफ्तर जाने लगा तो रश्मि बोल उठी, ‘‘दफ्तर पहुंच कर ड्राइवर से कहिएगा कि कार घर ले आए. कुछ खरीदारी करनी है.’’

‘‘कल ही तो इतना सामान खरीद कर लाई हो, आज फिर कौन सी ऐसी जरूरत पड़ गई. अपने दोनों बच्चे मसूरी में पढ़ रहे हैं. उन का खर्चा भी है. इस तरह तो तनख्वाह में गुजारा होना मुश्किल है. ऊपरी आमदनी भी कम है, लोग पैसा देते हैं तो 10 काम भी निकालते हैं.’’

सुनते ही रश्मि के माथे पर बल पड़ गए, ‘‘बड़े भैया भी इसी पद पर हैं लेकिन उन की सुबह तो तोहफों से शुरू होती है और रात नोट गिनते हुए व्यतीत होती है. वह तो कभी टोकाटाकी नहीं करते.’’

‘‘आजकल जमाना खराब है, बहुत सोचसमझ कर कदम बढ़ाना पड़ता है. अगर कहीं छानबीन हो गई तो सारी इज्जत खाक में मिल जाएगी,’’ सुधीर बोला.

रश्मि रोंआसी हो गई, ‘‘कार क्या मांगी, पचास बातें सुननी पड़ीं.’’

सुधीर रश्मि के आंसू नहीं देख सकता था. माफी मांग कर उस के आंसू पोंछने के लिए रूमाल निकाला तो जेब से एक कार्ड गिर पड़ा.

कार्ड देख कर विनय का ध्यान आ गया, ‘‘मेरे कालेज के दिनों का मित्र इसी शहर में रह रहा है, मुझे पता ही नहीं चला. अब किसी दिन उस के घर चलेंगे.’’

रश्मि को गाड़ी भेजने का वादा कर के ही वह दफ्तर जा पाया. दफ्तर से विनय को फोन किया. दूसरे दिन छुट्टी थी. विनय ने दोनों को खाने पर आने का न्योता दे दिया.

दूसरे दिन सुधीर और रश्मि गाड़ी से विनय के घर की ओर चल पड़े. आलीशान कोठी के गेट पर दरबान पहरा दे रहा था. पोर्टिको में विदेशी गाड़ी खड़ी थी. लौन में बैठा विनय उन का इंतजार कर रहा था. उस ने मित्र को गले लगा लिया. फिर रश्मि को ‘नमस्ते’ कह कर उन्हें बैठक में ले गया.

सुधीर ने देखा कि बैठक विदेशी और कीमती सामानों से सजी हुई है. सभी सोफे पर बैठ गए. नौकर ठंडा पानी ले कर आया. रश्मि ने इधरउधर देख कर पूछा, ‘‘भाभीजी दिखाई नहीं दे रही हैं?’’

‘‘जरूरी काम पड़ गया था इसलिए फैक्टरी जाना पड़ा. आती ही होंगी,’’ विनय ने उत्तर दिया.

थोड़ी देर बाद क्षमा आती हुई दिखाई दी.

सुधीर ने देखा, इकहरे शरीर व सांवले रंगरूप वाली क्षमा सीधी चोटी और कायदे से बंधी साड़ी में भली और शालीन लग रही थी.

मेहमानों को अभिवादन कर के वह बैठ गई.

सुधीर को लगा कि इसे कहीं देखा है, पर याद नहीं आया. वह सोच रहा था, ‘रश्मि इस से सुंदर है, पर मोटापे के कारण कितनी भद्दी लग रही है.’

तभी 2 बच्चों की ‘नमस्ते’ से उस का ध्यान टूटा. दोनों बच्चे मां के पास बैठ गए थे. सुधीर ने देखा, बच्चे भी मांबाप के प्रतिरूप हैं. शीघ्र ही मां से खेलने जाने की आज्ञा मांगी तो क्षमा ने कहा, ‘‘जाओ, खेल आओ, परंतु खाने के समय आ जाना.’’

फिर वह रश्मि से बोली, ‘‘आप बच्चों को क्यों नहीं लाईं?’’

रश्मि के चेहरे पर गर्वीली मुसकान छा गई. कटे हुए बालों को झटक कर कहा, ‘‘दोनों बच्चे मसूरी में पढ़ते हैं, घर में ठीक से पढ़ाई नहीं हो पाती है.’’

क्षमा ने बच्चों को स्नेह से देखा, जो बाहर खेलने जा रहे थे, ‘‘मैं तो इन के बिना रह ही नहीं सकती.’’

विनय और सुधीर अपने कालेज के दिनों की बातें कर रहे थे, जैसे कई साल पीछे पहुंच गए हों.

क्षमा को देख कर विनय बोला, ‘‘यह तो हमेशा पढ़ाई में लगा रहता था, लेकिन मैं खेलने में मस्त रहता था. परीक्षा के दिनों में यह मेरे पीछे पड़ा रहता कि किसी तरह से कुछ याद कर लूं. तब मैं इस का मजाक उड़ाता था. आज यह अपनी मेहनत और लगन से ही उच्च ओहदे पर पहुंचा है.’’

सुधीर ने हंसते हुए कहा, ‘‘भाभीजी, झगड़ा यह करता था, निबटाने मैं पहुंचता था.’’

दोनों दोस्त बातों में मगन थे कि फोन की घंटी बजी. विनय कुछ देर बात करने के बाद पत्नी से बोला, ‘‘बाहर से कुछ लोग आए हैं, वे व्यापार के सिलसिले में हम से बात करना चाहते हैं. तुम्हारे पास कब समय है? वही समय उन्हें बता दूं. जरूरी मीटिंग है, हम दोनों को जाना होगा.’’

क्षमा ने घड़ी देख कर कहा, ‘‘कल की मीटिंग रख लीजिए, मैं फैक्टरी पहुंच जाऊंगी.’’

देखने में साधारण व घरेलू लगने वाली महिला क्या मीटिंग में बोल पाएगी? कैसे व्यापार संबंधी बातचीत करती होगी? सुधीर क्षमा को ताज्जुब से देख रहा था.

उस की शंका का समाधान विनय ने किया, ‘‘क्षमा बहुत होशियार हैं, कुशाग्रबुद्धि और मेहनती हैं. इन्हीं की असाधारण प्रतिभा और मेहनत के कारण ही छोटी सी दुकान से शुरू कर के आज हम फैक्टरी के मालिक बन गए हैं.’’

क्षमा ने बातों का रुख बदलते हुए कहा, ‘‘चलिए, खाना लग गया है.’’

सभी भोजनकक्ष में आ गए तो क्षमा ने बच्चों को भी बुला लिया. खाने की मेज पर कुछ भारतीय तो कुछ विदेशी व्यंजन दिखाई दे रहे थे.

रश्मि ने कहा, ‘‘आप को तो घर का काम देखने की फुरसत ही नहीं मिलती होगी क्योंकि फैक्टरी में जो व्यस्त रहती हैं.’’

विनय ने पत्नी की ओर प्रशंसाभरी नजरों से देखते हुए कहा, ‘‘यही तो इन की खूबी है, खाना अपने तरीके से बनवाती हैं. जिस दिन ये रसोई में नहीं जातीं तो बच्चों का और मेरा पेट ही नहीं भरता.’’

बच्चे खाना खा कर अपने कमरे में जा चुके थे. उन के हंसनेबोलने की आवाजें आ रही थीं. सारा माहौल अत्यंत खुशनुमा प्रतीत हो रहा था, जबकि सुधीर को अपना सूना घर कभीकभी अखर जाता था. वह तो चाहता था कि बच्चे घर पर ही पढ़ें. पर इस से रश्मि की आजादी में खलल पड़ता था. दूसरे, जिस तरह का जीवन रश्मि जी रही थी, उस माहौल में बच्चे पढ़ ही नहीं सकते थे. इसीलिए उन्हें मसूरी भेज दिया था.

जाड़ों की धूप का अलग ही आनंद होता है. खाना खा कर सभी धूप में बैठ कर गपशप करने लगे. गरमागरम कौफी भी आ गई. विनय ने पूछा, ‘‘मां कैसी हैं? मुझे तो उन्होंने बहुत प्यार दिया है.’’

‘‘वे रुड़की से आना ही नहीं चाहतीं. हम लोग तो बहुत चाहते हैं कि वे यहीं रहें,’’ सुधीर ने उदास स्वर में उत्तर दिया.

विनय ने बताया, ‘‘क्षमा का मायका भी रुड़की में ही है. इस तरह तो तू उस का भाई हुआ और मेरा साला भी बन गया. दोस्त और साला यानी पक्का रिश्ता हो गया.’’

विनय हंसा तो साथ में सभी हंस पड़े. अब सुधीर को सारी कहानी समझ में आ गई थी कि क्षमा को कहां और कब देखा था? उस की पढ़ाई समाप्त हो चुकी थी. मनमाफिक नौकरी मिल चुकी थी. दिलोदिमाग पर अफसरी की शान छाई थी. शादी के लिए हर तरह के रिश्ते आ रहे थे. लेकिन उस के दिमाग में ऐसी लड़की की तसवीर बन गई थी जो जिंदगी की गाड़ी तेजी से दौड़ा सके, जिस की रफ्तार धीमी न हो.

मां ने क्षमा की फोटो दिखाई थी. एक दिन वह उस को देखने उस के घर जा पहुंचा था. साधारण वेशभूषा में दुबलीपतली सांवले रंगरूप वाली क्षमा ने आ कर नमस्कार किया था.

तब सुधीर ने सोचा कि अगर इस साधारण सी लड़की से शादी की तो जिंदगी में कुछ चमकदमक नहीं होगी और न ही कोई नवीनता, वही पुरानी घिसीपिटी धीमी गति से गाड़ी हिचकोले खाती रहेगी.

उस का ध्यान दीनानाथ की बातों से टूटा था, ‘क्षमा बहुत कुशाग्रबुद्धि है, हमेशा प्रथम आई है. खाना तो बहुत ही अच्छा बनाती है. यह गुलाबजामुन इसी के बनाए हुए हैं.’

सुधीर यह कह कर लौट आया था कि मां से सलाह कर के जवाब देगा. रश्मि सुधीर के एक मित्र की बहन थी. जब वह आधुनिक पोशाक में उस के सामने आई तो सौंदर्य के साथसाथ उस की शोखी और चपलता भी सुधीर को भा गई.

उस ने सोचा, ‘यही लड़की मेरे लिए ठीक रहेगी. कहां क्षमा जैसी सीधीसादी लड़की और कहां यह तेजतर्रार आधुनिका…दोनों की कोई तुलना नहीं.’

सुधीर ने मां को फैसला सुना दिया और रश्मि उस की सहचरी बन गई.

अब उसे लग रहा था कि वास्तव में क्षमा की रफ्तार ही तेज है. रश्मि तो फिसड्डी और घिसीपिटी निकली, जिस में न कुछ करने की उमंग है, न लगन.

डायन : दूर हुआ गेंदा की जिंदगी का अंधेरा

केशव हाल ही में तबादला हो कर बस्तर से जगदलपुर के पास सुकुमा गांव में रेंजर पद पर आए थे. जगदलपुर के भीतरी इलाके नक्सलवादियों के गढ़ हैं, इसलिए केशव अपनी पत्नी करुणा और दोनों बच्चों को यहां नहीं लाना चाह रहे थे.

एक दिन केशव की नजर एक मजदूरिन पर पड़ी, जो जंगल में सूखी लकडि़यां बीन कर एक जगह रखती जा रही थी.

वह मजदूरिन लंबा सा घूंघट निकाले खामोशी से अपना काम कर रही थी. उस ने बड़ेबड़े फूलों वाली गुलाबी रंग की ऊंची सी साड़ी पहन रखी थी. वह गोरे रंग की थी. उस ने हाथों में मोटा सा कड़ा पहन रखा था व पैरों में बहुत ही पुरानी हो चुकी चप्पल पहन रखी थी.

उस मजदूरिन को देख कर केशव उस की उम्र का अंदाजा नहीं लगा पा रहे थे, फिर भी अपनी आवाज को नम्र बनाते हुए बोले, ‘‘सुनो बाई, क्या तुम मेरे घर का काम करोगी? मैं अभी यहां नयानया ही हूं.’’

केशव के मुंह से अचानक घर के काम की बात सुन कर पहले तो मजदूरिन घबराई, लेकिन फिर उस ने हामी भर दी.

इस बीच केशव ने देखा, उस मजदूरिन ने अपना घूंघट और नीचे खींच लिया. केशव ने वहां पास ही खड़े जंगल महकमे के एक मुलाजिम को आदेश दिया, ‘‘तोताराम, तुम इस बाई को मेरे घर ले जाओ.’’ तोताराम केशव की बात सुन कर एक अजीब सी हंसी हंसा और सिर झुका कर बोला, ‘‘जी साहब.’’

केशव उस की इस हंसी का मतलब समझ नहीं सके. तोताराम ने तुरंत मजदूरिन की तरफ मुड़ कर कहा, ‘‘चल गेंदा, तुझे साहब का घर दिखा दूं.’’

केशव ने उस मजदूरिन के लंबे घूंघट पर ध्यान दिए बिना ही उस से पूछा, ‘‘तुम हमारे घर के सभी काम कर लोगी न, जैसे कपड़े धोना, बरतन मांजना, घर की साफसफाई वगैरह? मैं यहां अकेला ही रहता हूं.’’

इस पर गेंदा ने धीरे से जवाब दिया, ‘‘जी साहब, आप जो भी काम कहेंगे, मैं कर दूंगी.’’

जब से गेंदा आई थी, केशव को बड़ा आराम हो गया था. लेकिन 8-10 दिन बाद ही केशव ने महसूस किया कि गेंदा के आने के बाद से जंगल महकमे के मुलाजिम और पास के क्वार्टर में रहने वाले लोग उन्हें देख कर हंसी उड़ाने वाले अंदाज में मुसकराते थे.

एक दिन दफ्तर से आ कर चाय पीते हुए केशव गेंदा से बोले, ‘‘तुम मेरे सामने क्यों घूंघट निकाले रहती हो? मेरे सामने तो मुंह खोल कर रहो.’’

यह सुन कर गेंदा कुछ समय तक तो हैरान सी खड़ी रही और अपने पैर के अंगूठे से जमीन खुरचती रही, फिर गेंदा ने घूंघट उलट दिया.

गेंदा का चेहरा देखते ही केशव की चीख निकल गई, क्योंकि गेंदा का चेहरा एक तरफ से बुरी तरह जला हुआ था, जिस के चलते वह बड़ी डरावनी लग रही थी.

गेंदा फफक कर रो पड़ी और रोतेरोते बोली, ‘‘साहब, मैं इसलिए अपना चेहरा छिपा कर रखती हूं, ताकि मुझे देख कर कोई डरे नहीं.’’

केशव ने गेंदा के चेहरे की तरफ देखते हुए पूछा, ‘‘यह तुझे क्या हो गया है? तू कैसे इतनी बुरी तरह जल गई? तेरा रूपरंग देख कर तो लगता है, तू कभी बड़ी खूबसूरत रही होगी?’’

प्रेम के दो शब्द सुन कर गेंदा फिर से रो पड़ी और वापस घूंघट खींच कर उस ने अपना चेहरा छिपा लिया और भरे गले से बोली, ‘‘साहब, मैं ने सोचा था कि घूंघट निकाल कर आप का काम कर दिया करूंगी. मुझ गरीब को भी भरपेट भोजन मिल जाएगा, पर कल से नहीं आऊंगी. आप दूसरी महरी रख लेना.’’

इतना कह कर वह जाने लगी, तो केशव ने उसे रोक कर कहा, ‘‘गेंदा, मैं जानना चाहता हूं कि तुम्हारे साथ क्या हुआ और तुम्हारे परिवार में कौनकौन हैं? मुझे पूरी बात सचसच बताओ.’’

‘‘साहब, मैं आप से कुछ नहीं छिपाऊंगी. मैं ने बचपन से ही बहुत दुख सहे हैं. जब मैं 8 साल की थी, तभी मेरे पिता की मौत हो गई थी. थोड़े दिन बाद मेरी मां ने दूसरी शादी कर ली.

‘‘मेरे सौतेले पिता बहुत ही गंदे थे. वे छोटीछोटी बात पर मुझे मारते थे. मेरी मां मुझे बचाने आती, तो पिता उसे भी पीट देते.

‘‘सौतेले पिता मेरी मां को तो रखना चाहते थे, पर मुझे नहीं. इसलिए मेरी मां ने मेरी शादी करने की सोची.

‘‘मैं बहुत ही खूबसूरत और गोरी थी, इसलिए जैसे ही मैं 10 साल की हुई, मां ने मेरी शादी कर दी और मुझे  ससुराल भेज दिया.

‘‘मेरा पति मुझ से उम्र में 10 साल बड़ा था, ऊपर से दुनिया के सारे ऐब उस में थे. मैं जब 13 साल की थी, तभी मुझे एक बेटी हुई.

‘‘बेटी होने से मेरा पति बहुत चिढ़ गया और मुझे दूसरे मर्दों के साथ सोने के लिए मजबूर करने लगा, ताकि उस की नशे की जरूरत को मैं पूरा कर सकूं. पर इस गलत काम के लिए मैं तैयार नहीं थी. इसलिए मारपीट कर के मुझे डराताधमकाता, लेकिन मैं इस के लिए तैयार नहीं हुई.

‘‘इस बीच 14 साल की उम्र में मुझे दूसरी बेटी हो गई. अब तो उस के जुल्म मुझ पर बहुत बढ़ गए, इस से घबरा कर मैं अपनी दोनों बेटियों के साथ मायके चली आई. वहां भी मुझे चैन नहीं मिला, क्योंकि सौतेले पिता मुझे देखते ही गुस्से में अपना आपा खो बैठे, जिस पर मां ने उन्हें समझाया.’’

गेंदा बात करतेकरते बीच में अपने आंसू भी पोंछती जाती थी. तभी केशव को उस की आपबीती सुनतेसुनते कुछ सुध आई, तो उस ने उठ कर गेंदा को एक गिलास पानी पीने को दिया और उस के सिर पर हाथ फेरा.

उस के बाद गेंदा ने आगे बताया, ‘‘मैं जब मायके पहुंची, तो 5-7 दिन में ही मेरा पति मुझे लेने आ गया और मां को भरोसा दिलाया कि अब मुझे अच्छे से रखेगा. मां भी क्या करतीं. मुझे मेरे पति के साथ वापस भेज दिया.

‘‘कुछ दिन तक तो वह ठीक रहा, फिर वही जिद करने लगा, पराए मर्दों के साथ सोने के लिए. मैं मार खाती रही, पर गलत काम नहीं किया.

‘‘मैं जब 16 साल की थी, तब तीसरी बार मां बनी. इस बार बेटा हुआ था. मेरे 3-3 छोटे बच्चे, ऊपर से मेरा कमजोर शरीर, लेकिन उसे मुझ पर जरा भी तरस नहीं आया, इसलिए मैं बहुत बीमार हो गई.

‘‘मेरी बीमारी से चिढ़ कर मेरा पति मुझे मेरे मायके छोड़ आया. जब मैं मायके आई, तो इस बार सौतेले पिता का बरताव बड़ा अच्छा था, पर मैं क्या जानती थी कि इस अच्छे बरताव के पीछे उन का कितना काला मन है.

‘‘मेरे सौतेले पिता ने 40 हजार रुपए में मुझे बेच दिया था और वह आदमी पैसे ले कर आने वाला था. यह बात मुझे गांव की एक चाची ने बताई. मेरे पास ज्यादा समय नहीं था.

‘‘फिर भी मैं गांव की पुलिस चौकी पर गई और वहां जा कर थानेदार साहब को अपनी बीमारी के बारे में बताया और उन से विनती की कि मेरी बेटियों को कहीं अनाथ आश्रम में रखवा दें.

‘‘वहां के थानेदार भले आदमी थे. उन्हें मेरी हालत दिख रही थी, इसलिए उन्होंने मुझे भरोसा दिया कि तुम इस फार्म पर दस्तखत कर दो, मैं तुम्हारी दोनों बेटियां वहां रखवा दूंगा. जब तुम्हें उन से मिलना हो, वहां जा सकती हो.

‘‘अपनी दोनों बेटियां उन्हें सौंप कर मैं भाग कर अपने पति के पास आ गई. मुझे देख कर मेरा पति बोला, ‘‘आ गई मायके से. वहां तेरे आगे किसी ने दो रोटी नहीं डाली.

‘‘बेटियों के बारे में न उस ने पूछा और न मैं ने बताया. मैं बहुत बीमार थी, इसलिए बेटे को संभाल नहीं पा रही थी. वह बेचारा भी ढंग से देखभाल नहीं होने के चलते इस दुनिया से चला गया.

‘‘मैं अकेली रह गई थी. मैं ने मन में सोचा कि ऐसे पति के साथ रहने से अच्छा है कि कहीं दूसरे गांव में चली जाऊं और मजदूरी कर के अपना पेट पालूं. मेरे पति को पता नहीं कैसे मेरे घर छोड़ने की बात पता चल गई और उस ने चूल्हे पर रखी गरम चाय गुस्से में मेरे चेहरे पर फेंक दी और मुझे एक ठोकर मारता हुआ बोला, ‘अब निकल जा मेरे घर से. तेरा चेहरा ऐसा बिगाड़ दिया है मैं ने कि कोई तेरी तरफ देखेगा भी नहीं.’

‘‘गरम चाय से मैं बुरी तरह जल गई थी. उस ने मुझे घसीटते हुए धक्का मार कर बाहर कर दिया. मैं दर्द से बेहाल  सरकारी अस्पताल में गई. वहां मेरी बुरी हालत देख डाक्टर ने भरती कर लिया.

‘‘जब मैं ठीक हुई, तो पति का गांव छोड़ कर इस गांव में रहने लगी, पर यहां भी मुझे चैन नहीं है. गांव के लफंगे  कहते हैं कि हमें तेरे चेहरे से क्या मतलब, तू अपना घूंघट तो निकाल कर रखती है.

‘‘जब मैं ने सख्ती से दुत्कार दिया, तो वे मुझे डायन कह कर बदनाम कर रहे हैं. गांव में किसी के भी यहां मौत होने पर मुझे ही इस का जिम्मेदार माना जाता है.’’

केशव ने बड़े ही अपनेपन से कहा, ‘‘गेंदा, तुम कहीं नहीं जाओगी. तुम यहीं मेरे पास रहोगी.’’

केशव के ये शब्द सुन कर गेंदा रोती हुई केशव के पैरों से लिपट कर बोली, ‘‘साहब, आप बहुत अच्छे हैं. मुझे बचा लो. इस गांव के लोग मुझे डायन कहते हैं. हो सकता है कि गांव के किसी ऊंची पहुंच वाले के यहां जवान मौत हो जाए, तो ये मुझे मार ही डालेंगे.’’

केशव ने कहा, ‘‘गेंदा, तुम डरो मत. तुम्हें कुछ नहीं होगा.’’

धीरेधीरे गेंदा को केशव के घर में काम करतेकरते एक साल बीत गया, और सबकुछ ठीकठाक सा चल रहा था. शायद तूफान से पहले की शांति जो केशव समझ नहीं पाए.

एक दिन गेंदा काम पर नहीं आई, तो केशव ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया. सोचा, बीमार होगी या बेटियों से मिलने चली गई होगी.

शाम के तकरीबन 4 बजे के करीब तोताराम दौड़ता हुआ आया. वह बहुत डरा हुआ था. उस ने केशव से कहा, ‘‘साहब, जल्दी चलो. गांव के लोग गेंदा को डायन कह कर धमका रहे हैं और उसे जिंदा जलाने जा रहे हैं. क्योंकि गांव के सरपंच का जवान बेटा मर गया है.

‘‘मरा तो वह शराब पी कर है साहब, पर लांछन गेंदा पर लगा रहे हैं कि यह डायन सरपंच के जवान बेटे को खा गई.’’

यह सुन कर केशव हैरान रह गए. उन्होंने सब से पहले पुलिस को फोन किया और तुरंत घटना वाली जगह पर पहुंचने की गुजारिश की और खुद भी वहां चल दिए. वहां का दिल दहला देने वाला सीन देख कर केशव गुस्से से कांपने लगे. तब तक पुलिस भी वहां आ गई थी.

गांव के आदमीऔरत चीखचीख कर गेंदा को डायन कह रहे थे और उसे जिंदा जलाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन पुलिस को देख कर सभी ठिठक गए. तब तक केशव ने दौड़ कर गेंदा को अपनी तरफ खींचा, जो अपनी जान बचाने के लिए डरीसहमी इधरउधर दौड़ रही थी.

केशव ने चिल्ला कर औरतों से कहा, ‘‘तुम औरतों को शर्म आनी चाहिए कि इस बेकुसूर औरत को जिंदा जलाया जा रहा है. अगर तुम्हारी बेटी को कोई डायन कहे और उसे जिंदा जलाए, तो तुम्हें कैसा लगेगा? सरपंच का बेटा छोटी उम्र ले कर आया था, तो यह क्या करे?

‘‘गेंदा ने गांव के आदमियों की गलत बात नहीं मानी, तो उसे डायन कह कर बदनाम कर दिया. यह औरत हिम्मत के साथ इस समाज से अकेले लड़ रही है और अपनी इज्जत बचाए हुए है.

‘‘खबरदार, जो किसी ने इसे हाथ भी लगाया. आज से यह मेरी बहन है और मेरे साथ ही रहेगी. मैं जहां जाऊंगा, यह मेरे साथ ही रहेगी,’’ कह कर केशव उसे अपने साथ ले आए.

वैसे, उस दिन सुकुमा में शाम होने को थी, पर गेंदा की जिंदगी में छाया अंधेरा केशव की हिम्मत से दूर हो गया था.

विरोधाभास : सबीर का कैसा था चरित्र

मुजफ्फरपुर आए 2-3 दिन हो चुके थे. अभी मैं दफ्तर के लोगों को जानने, समझने, स्थानीय राजनीति की समीक्षा करने में ही लगा हुआ था. मेरा विभाग गुटबंदी का शिकार था. यूनियन 3 खेमों में बंटी थी और हर खेमा अपनी प्रमुखता और दूसरे की लघुता प्रमाणित करने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ता था. 3 गेंदों को एकसाथ हवा में उछालने वाला जादूगर बिस्मार्क मुझे रहरह कर याद आता था. अचानक, ‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं,’ का स्वर मेरे कानों में पड़ा. मैं काफी देर से फाइलों में उलझा हुआ था. इस स्वर में निहित विनम्रता तथा संगीतमय खनक ने मेरा ध्यान बरबस अपनी ओर आकृष्ट कर लिया. मैं ने गरदन ऊपर उठाई और चेहरे पर थोड़ी सी मुसकान ला कर कहा, ‘‘हांहां, आइए.’’

‘‘नमस्कार, सर. आप कैसे हैं?’’ आगंतुक सबीर अहमद ने बुलबुल की तरह चहकते हुए कहा. मैं ने हाथ के संकेत से उसे बैठने का इशारा कर दिया था. वह शायद संकेतों की भाषा में माहिर था. मुसकराते हुए मेरे सामने रखी कुरसियों में से एक पर बैठ गया.

‘‘मैं ठीक हूं. आप कैसे हैं, मि. अहमद?’’ मैं ने पूछा. ‘‘सर, पहली बात तो यह कि आप मुझे ‘मि. अहमद’ न कहें. यह बेहद औपचारिक लगता है. मेरी इल्तिजा है, मेरा अनुरोध है कि आप मुझे सबीर ही कहें. आप से हर मामले में छोटा हूं, उम्र में, नौकरी में, पद में, प्रतिष्ठा में…’’

‘‘बसबस, आगे कुछ मत कहिए, सबीर साहब. तारीफ जब सीमा लांघने लगती है तो उस में चापलूसी की बू आ जाती है, जो कहने और सुनने वाले, यानी दोनों के लिए नुकसानदेह होती है,’’ मैं ने प्यार से मुसकराते हुए कहा तो सबीर ने बड़ी अदा से सिर झुका कर आंखें बंद कर हथेलियों को माथे से सटाया.

मैं ने कहा, ‘‘और दूसरी बात क्या है?’’ ‘‘सर, दूसरी बात यह है कि आप बड़े चिंतित लग रहे हैं, पर ऊपर से सामान्य दिख रहे हैं. कृपया इसे चापलूसी न समझें. अगर आप मुझे अपने छोटे भाई की जगह दें तो मुझे बहुत खुशी होगी.’’

पता नहीं क्यों, सबीर के स्वर में मुझे सचाई की झलक महसूस हुई और मैं ने घंटी बजा कर चपरासी को बुला कर कहा, ‘‘2 कौफी…’’ चपरासी के जाने के बाद मैं ने गहरी सांस ली. अंदर की सारी परेशानी मानो थोड़ी देर के लिए बाहर निकल गई.

‘‘मैं गुडि़या और डौली के दाखिले को ले कर बहुत परेशान हूं. महिला कालेज में कई बार जा चुका हूं, पर रिसैप्शनिस्ट हर बार एक ही जवाब देती है कि सीट नहीं है. बेचारी लड़कियां नाउम्मीद सी हो गई हैं,’’ मैं ने कहा. ‘‘सर, आप बेफिक्र रहें, समझ लें कि यह काम हो गया. मैं वाइस चांसलर को जानता हूं. उन से कह कर यह काम करा लूंगा. बस, इस नाचीज को 24 घंटे की मुहलत दे दें और दोनों बेटियों के कागजात भी मुझे दे दें,’’ उस ने इतमीनान से कहा.

‘‘शुक्रिया, दोस्त. अगर यह काम हो गया तो मैं चैन की सांस ले सकूंगा,’’ मैं ने कहा. तभी कौफी आ गई और सबीर मुझे कौफी पर कई शेर सुनाता चला गया. उस की आवाज तो दिलकश थी ही, शेरों का चयन भी उम्दा था. मैं ने उस की खूब तारीफ की. थोड़ी देर बाद मुसकराता हुआ वह कागजात ले कर चला गया.

अगले दिन वह दोपहर के भोजन के समय मेरे घर पर आ गया. मुझे देखते ही बोला, ‘‘सर, दाखिला हो गया. यह रही रसीद और ये रहे बाकी पैसे.’’ डौली और गुडि़या, जो बेमन से खाना सजा रही थीं, यह बात सुनते ही उछल पड़ीं.

‘‘यह तुम्हारे सबीर चाचा हैं. इन्होंने ही इस काम को करवाया,’’ मैं ने बेटियों से कहा तो दोनों ने उन्हें धन्यवाद दिया. पत्नी ने अपनी खुशी का इजहार, ‘सबीर भाईसाहब, खाना खा कर ही जाइएगा,’ कह कर किया.

सबीर ने पहले तो इनकार किया, पर मां, बेटियां उस पर इतनी मेहरबान थीं कि बिना खिलाए जाने ही नहीं दिया. 2 दिनों बाद रविवार था. मैं बरामदे में बैठा अखबार पढ़ रहा था. अचानक सबीर को जीप से उतरते देखा. ‘यह तो मोटरसाइकिल सवार है, जीप से कैसे?’ मैं अभी सोच ही रहा था कि ड्राइवर ने पीछे से 2 गैस सिलिंडर उतारे और सबीर के निर्देश पर भीतर ले आया.

उसी समय मेरी पत्नी भी बाहर आ गई. गैस सिलिंडर देख कर वह बहुत प्रसन्न हुई. शायद मैं ने उसे बहुत कम मौकों पर इतना पुलकित देखा था. वह खिलखिलाती हुई बोली, ‘‘वाह, भाईसाहब, वाह, स्टोव से पीछा छुड़ाने का लाखलाख शुक्रिया.’’ सबीर नए दूल्हे की तरह शरमाता हुआ बोला, ‘‘इस में शुक्रिया काहे का, मालूम होता तो यह काम पहले ही हो जाता.’’

‘‘पर तुम्हें गैस के लिए किस ने और कब कहा?’’ मैं ने परेशान होते हुए पूछा. ‘‘मैं ने कहा था जब उस दिन आप स्नानघर में घुसे हुए थे. इन्होंने पूछा, ‘और कोई सेवा?’ और मैं ने अपना दुखड़ा सुना दिया,’’ जवाब पत्नी ने दिया.

‘‘पर यह सब करनेकराने की क्या जरूरत थी, 2-4 माह स्टोव पर ही…’’ मैं ने पत्नी पर नाराजगी उतारते हुए कहा, ‘‘तुम यूनियन वालों को नहीं जानतीं, वे लोग हंगामा खड़ा कर देंगे कि क्षेत्रीय प्रबंधक स्टाफ को अपना घरेलू नौकर समझते हैं. बनीबनाई इज्जत धूल में मिल जाएगी.’’ ‘‘सर, मैं ने आप से प्रार्थना की थी कि मुझे अपना छोटा भाई समझें. क्या भाभीजी का छोटामोटा काम आप के भाई नहीं करते? क्या घर वाले एकदूसरे पर एहसान करते हैं?’’ उस ने दुखी स्वर में कहा.

‘‘माफ करना, भई, मेरा इरादा तुम्हें दुख पहुंचाना नहीं था, पर…’’ कहतेकहते मैं रुक गया. मुझे शब्द ही नहीं मिल रहे थे. ‘‘परवर कुछ नहीं, सर, डीएम का पीए मेरा भाई है, उसी से कह कर महीनों का काम कुछ दिनों में करवा लिया, वरना गैस एजेंसी वाले तो ऐसा चक्कर डालते हैं कि कभीकभी 2 साल भी लग जाते हैं. मैं आखिर किस मर्ज की दवा हूं…’’

मेरा परिवार सबीर पर फिदा था. पत्नी तो उसे घर का सदस्य ही समझती थी. चंद दिनों में उस ने राशनकार्ड भी बनवा दिया. घर की हर जरूरत, हर समस्या वह ‘भाभीजी’ यानी मेरी श्रीमती की इच्छानुसार पूरी करवाता. सबीर की निकटता ने मुझे यूनियन के झगड़ों से भी मुक्त कर दिया था. वह सभी गुटों का काम करता, करवाता. सब के बच्चों के दाखिले और शादीब्याह वगैरा में मदद करता. वह सब की आंखों का तारा, हरदिल अजीज सबीर भाई था.

वह औफिस के काम में भी बहुत चुस्त था. जो सूचना चाहिए, सबीर अहमद मिनटों में दे देता. औफिस के सांस्कृतिक कार्यक्रमों की तो वह जान ही था. अकसर मैं सोचता, ‘प्रकृति ने इस आदमी में एकसाथ इतने गुणों को भर दिया है कि सामने वाला न चाहते हुए भी खुद को इस पर निर्भर मानता है.’

वह मोतिहारी में क्षेत्राधिकारी था. मुजफ्फरपुर से मोतिहारी की दूरी 80-85 किलोमीटर है, पर उस के लिए यह सामान्य सी बात थी. मैं अभी मोतिहारी गया भी नहीं था, सारे क्षेत्राधिकारी महीने में 1-2 बार मुख्यालय आते और आवश्यक जानकारी दे जाते. एक दिन सबीर ने प्रार्थनापत्र देते हुए कहा, ‘‘सर, मैं ने मोतिहारी में किराए का मकान ले लिया है, गांव से पत्नी और बच्चों को ले आया हूं. सरकारी नियमों के अनुसार, मकान में दफ्तर रखने पर किराया मिल जाता है, आप निरीक्षण कर लेते और ओसीआर यानी औफिस कम रैजीडैंस प्रमाणपत्र दे देते तो मुझे प्रतिमाह 15 सौ रुपए मिल जाते.’’

‘‘ठीक है, पता मेरे ड्राइवर को बता दो. मैं अगले सप्ताह मोतिहारी कार्यालय का निरीक्षण करने आऊंगा तो यह कार्य भी कर दूंगा.’’ ‘‘शुक्रिया, सर,’’ कहता हुआ वह उठ खड़ा हुआ. थोड़ी देर बाद उस की मोटरसाइकिल के स्टार्ट होने की आवाज आई, जो धीरेधीरे दूर होती चली गई.

मैं ने पान की पीक थूकने के लिए खिड़की का परदा उठाया. आसमान पर हलकेहलके बादल तैर रहे थे, धूप की चमक फीकी हो रही थी, जो कि वर्षा आने का संकेत था. मौसम तेजी से बदल रहा था, जो कि स्वास्थ्य के लिए बुरा था.

मोतिहारी में सबीर का मकान ढूंढ़ना नहीं पड़ा. चांदमारी महल्ले के मोड़ पर ही सबीर मुझे पान की एक दुकान पर मिल गया. फिर अपने मकान पर ले गया. बाहर नेमप्लेट पर लिखा था, ‘सबीर अहमद, फील्ड औफिसर, इफको.’ वह मुझे बैठक में ले गया. कमरे को दफ्तर कहना ज्यादा श्रेष्ठ था. एक बड़ी सी मेज व 6 कुरसियां लगी थीं. मेज पर मेरे विभाग का कैलेंडर रखा था, डायरी थी, फाइलें थीं और कागज आदि थे. दीवार पर विभागीय मोनोग्राम लटका हुआ था. एक कोने में सोफासैट था, हम उस पर बैठ गए.

थोड़ी देर बाद 8-9 वर्ष की प्यारी सी गुडि़या कौफी ले कर आई. उस ने सलीके से ‘नमस्ते, अंकल,’ कहा और ट्रे मेज पर रख कर बाहर चली गई. सबीर ने हंस कर कहा, ‘‘बड़ी शरमीली बिटिया है.’’ मैं ने कहा, ‘‘नहीं, बड़ी प्यारी बिटिया है.’’

इस पर हम दोनों हंस पड़े. सबीर फाइलें लाता रहा, मुझे दिखाता रहा और अपने बारे में भी बताता रहा. उस ने कहा कि एक कमरे में उस की गर्भवती बहन रह रही है, जो प्रसव के लिए आई है, दूसरे में उस का परिवार है. बैठक को औफिस बना लिया है. एक स्टोर, रसोई और भोजनकक्ष है.

कुछ देर बाद वह भीतर गया और जल्दी ही लौट कर बोला, ‘‘सर, खाना तैयार है, अम्मी बुला रही हैं.’’ निरीक्षण के दौरान उस के घर खाना खाना मेरे अुनसार गलत कार्य था. मैं ने मना कर दिया, मगर उस के पैने तर्कों के आगे मेरे सिद्धांत फीके लग रहे थे. वह मां की ममता का वास्ता दे रहा था, ‘‘अम्मी बहुत दुखी हो जाएंगी. वे कह रही हैं कि हम मुसलमान हैं, इसलिए हमारे घर का खाना…’’

अंत में मुझे भोजन के लिए उठना ही पड़ा. पता नहीं मन की किस भावना ने मुझे खाने से ज्यादा उस की भावना के प्रति नतमस्तक कर दिया. रसोई सामने थी. एक बूढ़ी, विधवा औरत वहां मौजूद थी. मैं ने ‘प्रणाम, माताजी,’ कहा तो उन्होंने ‘जीते रहो, भैया,’ कह कर ममता का सागर उड़ेल दिया. खाना शाकाहारी व बेहद स्वादिष्ठ था. 2 स्त्रियां दूसरे कमरे में दिखीं, मगर मैं ने सोचा ‘परदे की वजह से शायद वे सामने नहीं आईं.’ चलते समय वह बच्ची फिर आई और ‘नमस्ते, अंकलजी, फिर कभी आएइगा,’ कह कर अपने नन्हे हाथों से बायबाय कर गई. मैं संतुष्ट था, उस का मकान वास्तव में 15 सौ रुपए के लायक था, उस में दफ्तर मौजूद था ही, परिवार भी रहता था. मैं ने तुरंत ही ओसीआर रिपोर्ट पटना भेज दी. कुछ दिनों बाद उस की स्वीकृति भी आ गई और सबीर को हर माह 15 सौ रुपए मिलने लगे.

लगभग 4-5 महीने बाद मेरे बड़े भाई की लड़की की शादी मोतिहारी में होनी तय हुई. लड़का तो दिल्ली में नौकरी करता था. पर उस के मातापिता मोतिहारी में ही रहते थे. भैया को केवल उन का नाम और चांदमारी महल्ला ही पता था. अचानक बादलों में जैसे बिजली कौंध गई, सबीर का खयाल आते ही मैं स्फूर्ति से भर उठा. ड्राइवर ने मोतिहारी में सबीर के मकान के आगे गाड़ी रोकी. मैं अभी गाड़ी से उतर भी नहीं पाया था कि सबीर की नन्ही सी प्यारी सी, बिटिया ने ‘नमस्ते, अंकल,’ कहा.

मैं ने बिस्कुट का पैकेट बच्ची को पकड़ाते हुए कहा, ‘‘बेटा, पापा घर पर हैं?’’

‘‘जी हां.’’ थोड़ी देर में एक सज्जन अंदर से आए. लंबा कद और आंखों पर चश्मा. मैं ने पूछा, ‘‘सबीर घर पर हैं क्या?’’

वे हैरानी से बोेले, ‘‘कौन सबीर?’’ मैं ने प्रत्युत्तर में पूरी दास्तान सुनाते हुए कहा, ‘‘आप सबीर को नहीं जानते?’’

‘‘अच्छाअच्छा, सबीर साहब, देखिए, उस दिन एक रोज के लिए यह घर उन्होंने एक हजार रुपए किराए पर लिया था. मेरी ‘नेमप्लेट’ उतारी गई और उन की पहचान टांगी गई और नौकरानी ने मां बन कर खाना खिलाया. मेरी बेटी ने उन की बेटी की भूमिका निभाई. बस, खेल खत्म पैसा हजम.’’ मैं ने वितृष्णा से कहा, ‘‘शर्म आनी चाहिए.’’

वे छूटते ही बोले, ‘‘किसे? मुझे या सबीर साहब को? अरे साहब, यह सब इस बिहार में दाल में नमक के बराबर भी नहीं, समुद्र में एक चम्मच चीनी मिलाने जैसा है. यहां आएदिन घोटाले हो रहे हैं, मंत्री अरबों लूट रहे हैं तो सरकारी कर्मचारी हरिश्चंद्र क्यों बने रहें?’’ मैं वापस चल पड़ा. नुक्कड़ पर पान वाले से आ कर पता पूछा. आज उस से अंतिम फैसला करना है. मैं गुस्से से उबल रहा था. मेरा विश्वास, मेरी ईमानदारी को सबीर ने दांव पर लगा दिया था.

पान वाले ने उस का नाम सुनते ही कहा, ‘‘हां साहब, जानते हैं हम. उन्हें हम ही क्या, इस शहर का हर पान वाला एक उम्दा इंसान समझता है. बड़े रईस आदमी हैं, मोतिहारी के चांदमारी में भी एक मकान है, चकिया में स्वयं रहते हैं. पीपराकोड़ी में उन का विशाल फार्महाउस है, वहां मेरा भाई दरबान है, हुजूर.’’ ‘स्वयं चकिया में, फार्महाउस पीपराकोठी में और पता चांदमारी का. वाह रे सबीर, क्या गुल खिलाया है तुम ने,’ मैं ने मन ही मन भन्नाते हुए कहा. मूड खराब हो चुका था. सो, लौट जाने का निर्णय किया.

अचानक मैं ने ड्राइवर से पीपराकोठी फार्महाउस चलने को कहा. ज्यादा परेशानी नहीं हुई. मुख्य सड़क से 14-15 किलोमीटर अंदर झखराग्राम में उस का फार्महाउस मिल गया. दरबान को उस के भाई का हवाला दिया तो उस ने विशाल फाटक खोल दिया. अंदर किले सा दृश्य था. चमचमाती सड़क और सुंदर सा गैस्टहाउस. गैस्टहाउस के पीछे एक विशाल गोदाम और वहां खड़े दर्जनों ट्रक. मैं ने वहां खड़े एक व्यक्ति से कहा, ‘‘मैं सीबीआई इंस्पैक्टर राणा हूं.’’

फार्महाउस में इफको खाद में नदी की बारीक रेत मिलामिला कर 1 टन खाद को 3 टन बनाया जा रहा था और करोड़ों रुपए गैरमामूली तौर पर कमाए जा रहे थे. पूछताछ से ज्ञात हुआ कि इस काले व्यापार में मंत्री महोदय भी बराबर के हिस्सेदार हैं. मैं सबीर के चरित्र के इस विरोधाभास पर हतप्रभ था.

परवरिश : सोचने पर क्यों विवश हुई सुजाता

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ऊपर तक जाएगी : कैसे हुआ ललन का काम

.‘‘बाबूजी, मुझ से खेती न होगी. थोड़े से खेत में पूरा परिवार लगा रहे, फिर भी मुश्किल से सब का पेट भरे.

‘‘मैं यह काम नहीं करूंगा. मैं तो हरि काका के साथ मछली पकड़ूंगा,’’ कहता हुआ ललन मछली रखने की टोकरी सिर पर रख कर घर से बाहर निकल गया.

ललन के बाबा बड़बड़ाए, ‘नालायक, कभी नदी में डूब कर मर न जाए.’

‘पहाडि़यों से उतरती नदी की धारा. नदी के किनारे देवदार के पेड़, कलकल करती नदियों का मधुर संगीत… कितना अच्छा नजारा है यह,’ ललन बड़बड़ाया, ‘अभी एक धमाका होगा और ढेर सारी मछलियां मेरी टोकरी में भर जाएंगी. एक घंटे में सारी मछलियां मंडी में बेच कर घर पहुंच जाऊंगा और मोबाइल फोन पर फिल्में देखूंगा… मगर यह ओमप्रकाश कहां मर गया…’

तभी ललन ने ओमप्रकाश को ढलान पर चढ़ते देखा तो वह खुश हो गया.

ललन ने जल्दी से थैले में से कांच की एक बोतल निकाली और उस में कुछ बारूद जैसी चीज भरी. दोनों नदी के किनारे पहुंच कर एक बड़े से पत्थर पर बैठ गए और पानी में चारा डाल कर मछलियों के आने का इंतजार करने लगे.

दरअसल, दोनों बोतल बम बना कर जहां ढेर सारी मछलियां इकट्ठा होतीं, वहीं पानी में फेंक देते, जिस से तेज धमाका हो जाता और मछलियां घायल हो कर किनारे पर आ जातीं. दोनों झटपट उन्हें इकट्ठा कर मंडी में बेच देते, जिस से तुरंत अच्छी आमदनी हो जाती.

‘‘जब मछलियां इकट्ठा हो जाएंगी, तो मैं इशारा कर दूंगा… तू बम फेंक देना,’’ ओमप्रकाश बोला.

हरि काका इसे कुदरत के खिलाफ मानते थे. उन्हें जाल फैला कर मछली पकड़ना पसंद था, इसीलिए ललन उन के साथ मछली पकड़ने नहीं जाता था. उसे ओमप्रकाश का तरीका पसंद था.

अभी भी इक्कादुक्का मछलियां ही चारा खाने पहुंची थीं. शायद बम वाले तरीके को मछलियों ने भांप लिया था.

नदी के किनारे एक बड़ा सा पत्थर था, जिस का एक हिस्सा पानी में डूबा हुआ था. ओमप्रकाश मछलियों के न आने से निराश हो कर पत्थर पर लेट गया और आसमान की ओर देखने लगा.

ललन थोड़ी दूरी पर दूसरे पत्थर पर खड़ा था एक बोतल बम हाथ में लिए. वह ओमप्रकाश के इशारे का इंतजार कर रहा था.

तभी ओमप्रकाश को सामने की पहाड़ी की तरफ से आता एक बाज दिखा, जिस के पंजों में कुछ दबा था.

‘‘अरे, बाज के पंजों में तो सांप है,’’ ज्यों ही बाज ओमप्रकाश के ऊपर पहुंचा, उस ने पहचान लिया. वह  चिल्लाया, ‘‘ललन, बाज के पंजों में सांप…’’

ललन ने तुरंत ऊपर निगाह उठाई तो देखा कि वह सांप बाज के पंजों से छूट कर नीचे गिर रहा था. जब तक वह कुछ समझ पाता, सांप ओमप्रकाश पर गिर गया और उसे डस लिया.

डर के मारे ललन की चीख निकल गई. वह संभलता, इस से पहले बोतल बम उस के हाथ से छूट कर गिर पड़ा.

तभी जोर का धमाका हुआ. ललन को उस धमाके से एक तेज झटका लगा और ललन का बायां हाथ उस के शरीर से टूट कर दूर जा गिरा.

जब होश आया तो ललन ने खुद को अस्पताल के बिस्तर पर पाया. बोतल बम ने उस का हाथ छीन लिया था.

ललन ने ओमप्रकाश के बारे में पूछा. पता चला कि वह सांप के डसने से मर चुका था.

ललन के घाव भरने में महीनाभर लग गया. लेकिन अपना एक हाथ और अपने दोस्त ओमप्रकाश को खोने का दुख उसे बहुत सताता था.

‘मैं कुदरत के खिलाफ काम कर रहा था, उसी की सजा है यह. हरि काका ठीक कहते थे. मैं जिंदा बच गया. मुझे गलतियां सुधारने का मौका मिल गया. लेकिन बेचारा ओमप्रकाश…’ एक सुबह ललन यह सब सोच रहा था कि उस के बाबा उस से बोले, ‘‘ललन, घर में खाने को नहीं है. तुम्हारे इलाज में सब पैसा खर्च हो गया. अब कुछ कामधंधे की सोचो, नहीं तो एक दिन हम सब भूख से मर जाएंगे.’’

बाबा की बात से ललन को ध्यान आया कि कोई कामधंधा शुरू किया जाए, लेकिन एक हाथ से वह क्या कर सकता था?

एक दिन गांव के मुखिया से ललन को मालूम हुआ कि सरकार विकलांग लोगों को कामधंधा शुरू करने के लिए आसानी से कम ब्याज पर लोन देती है. उस ने विकलांगता का प्रमाणपत्र बनवा कर लोन के लिए अर्जी दे दी.

एक दिन बैंक से ललन को बुलावा आया. वह खुश हो गया कि उसे आज लोन मिल जाएगा और वह 2 भैंसें खरीद कर दूध बेचने का धंधा शुरू कर देगा.

‘‘लोन का 10 फीसदी मुझे पहले देना होगा तभी लोन मिलेगा,’’ बैंक मुलाजिम ने उस के कान में कहा.

‘‘यह क्या अंधेरगर्दी है, तुम लोगों को तनख्वाह नहीं मिलती क्या…’’ ललन को गुस्सा आ गया.

‘‘यहां का यही कायदा है,’’ बैंक मुलाजिम ललन को समझाने लगा, ‘‘भैया, गुस्सा क्यों करते हो? मैं कोई अकेला थोड़े ही न यह पैसा लूंगा. सब का हिस्सा बंटा होता है.’’

मायूस ललन घर की ओर लौट पड़ा.

अगले दिन ललन ने कुछ पैसों का जुगाड़ किया और कलक्टर के दफ्तर पहुंच गया.

‘‘मुझे साहब से जरूरी बात करनी है,’’ ललन ने संतरी से कहा.

संतरी ने बारी आने पर ललन को साहब के कमरे में भेज दिया.

‘‘कहो, क्या बात है?’’ कलक्टर साहब ने ललन की ओर देख कर पूछा.

ललन ने तुरंत अपने गमछे में बंधे रुपयों को निकाल कर टेबल पर रख दिया और बोला, ‘‘साहब, मैं गरीब हूं. आप अपना यह हिस्सा रख लीजिए और मेरा लोन पास कर दीजिए.’’

‘‘किस ने कहा कि मैं काम कराने के बदले पैसे लेता हूं?’’ कलक्टर ने पूछा.

ललन ने बैंक मुलाजिम की बात बताते हुए कहा, ‘‘साहब, उस ने कहा था कि पैसा ऊपर तक जाएगा. इसीलिए मैं आप का हिस्सा देने आ गया.’’

‘‘ठीक है, तुम ये पैसे उठा लो और घर जाओ. तुम्हें लोन मिल जाएगा,’’ कलक्टर ने कहा.

‘‘अच्छा साहब,’’ कह कर ललन  कमरे से बाहर निकल गया.

तीसरे दिन एक सूटबूट वाला आदमी ललन को खोजता हुआ उस के घर आया. ललन को रुपयों का पैकेट पकड़ाते हुए बोला, ‘‘ऊपर से आदेश है, लोन के रुपए सीधे तुम्हारे घर पहुंचाने का, इसीलिए मैं आया हूं. ये पैसे लो.

‘‘और हां, बैंक का कोई भी काम हो तो मुझ से मिलना. मैं बैंक मैनेजर हूं. मैं ही तुम्हारा काम कर दूंगा.’’

वह बैंक मुलाजिम, जिस ने ललन से घूस मांगी थी, अब जेल में था. ललन कुछ समझ नहीं पा रहा था कि ऊपर के लोगों ने बिना रुपए लिए उस का काम कैसे कर दिया?

किसना : जिस्म बेचकर बना दी बेटी की जिंदगी

झारखंड का एक बड़ा आदिवासी इलाका है अमानीपुर. जिले के नए कलक्टर ने ऐसे सभी मुलाजिमों की लिस्ट बनाई, जो आदिवासी लड़कियां रखे हुए थे. उन सब को मजबूर कर दिया गया कि वे उन से शादी करें और फिर एक बड़े शादी समारोह में उन सब का सामूहिक विवाह करा दिया गया. दरअसल, आदिवासी बहुल इलाकों के इन छोटेछोटे गांवों में यह रिवाज था कि वहां पर कोई भी सरकारी मुलाजिम जाता, तो किसी भी आदिवासी घर से एक लड़की उस की सेवा में लगा दी जाती. वह उस के घर के सारे काम करती और बदले में उसे खानाकपड़ा मिल जाता. बहुत से लोग तो उन में अपनी बेटी या बहन देखते, मगर उन्हीं में से कुछ अपने परिवार से दूर होने के चलते उन लड़कियों का हर तरह से शोषण भी करते थे.

वे आदिवासी लड़कियां मन और तन से उन की सेवा के लिए तैयार रहती थीं, क्योंकि वहां पर ज्यादातर कुंआरे ही रहते थे, जो इन्हें मौजमस्ती का सामान समझते और वापस आ कर शादी कर नई जिंदगी शुरू कर लेते. मगर शायद आधुनिक सोच को उन पर रहम आ गया था, तभी कलक्टर को वहां भेज दिया था. उन सब की जिंदगी मानो संवर गई थी.

मगर यह सब इतना आसान नहीं था. मुखिया और कलक्टर का दबदबा होने के चलते कुछ लोग मान गए, पर कुछ लोग इस के विरोध में भी थे. आखिरकार कुछ लोग शादी के बंधन में बंध गए और लड़कियां दासी जीवन से मुक्त हो कर पत्नी का जीवन जीने लगीं.

मगर 3 साल बाद जब कलक्टर का ट्रांसफर हो गया, तब शुरू हुआ उन लड़कियों की बदहाली का सिलसिला. उन सारे मुलाजिमों ने उन्हें फिर से छोड़ दिया और  शहर जा कर अपनी जाति की लड़कियों से शादी कर ली और वापस उसी गांव में आ कर शान से रहने लगे.

तथाकथित रूप से छोड़ी गई लड़कियों को उन के समाज में भी जगह नहीं मिली और लोगों ने उन्हें अपनाने से मना कर दिया. ऐसी छोड़ी गई लड़कियों से एक महल्ला ही बस गया, जिस का नाम था ‘किस बिन पारा’ यानी आवारा औरतों का महल्ला.

उसी महल्ले में एक ऐसी भी लड़की थी, जिस का नाम था किसना और उस से शादी करने वाला शहरी बाबू कोई मजबूर मुलाजिम न था. उस ने किसना से प्रेम विवाह किया था और उस की 3 साल की एक बेटी भी थी. पर समय के साथ वह भी उस से ऊब गया, तो वहां से ट्रांसफर करा कर चला गया. किसना को हमेशा लगता था कि उस की बेटी को आगे चल कर ऐसा काम न करना पड़े. वह कोशिश करती कि उसे इस माहौल से दूर रखा जाए.

लिहाजा, उस को किसना ने दूसरी जगह भेज दिया और खुद वहीं रुक गई, क्योंकि वहां रुकना उस की मजबूरी थी. आखिर बेटी को पढ़ाने के लिए पैसा जो चाहिए था. बदलाव बस इतना ही था कि पहले वह इन लोगों से कपड़ा और खाना लेती थी, पर अब पैसा लेने लगी थी. उस में से भी आधा पैसा उस गांव की मुखियाइन ले लेती थी. उस दिन मुखियाइन किसना को नई जगह ले जा रही थी, खूब सजा कर. वह मुखियाइन को काकी बोलती थी. वे दोनों बड़े से बंगले में दाखिल हुईं. ऐशोआराम से भरे उस घर को किसना आंखें फाड़ कर देखे जा रही थी.

तभी किसना ने देखा कि एक तगड़ा 50 साला आदमी वहां बैठा था, जिसे सब सरकार कहते थे. उस आदमी के सामने सभी सिर झुका कर नमस्ते कर रहे थे.

उस आदमी ने किसना को ऊपर से नीचे तक घूरा और फिर रूमाल से मोंगरे का गजरा निकाल कर उस के गले में डाल दिया. वह चुपचाप खड़ी थी.

सरकार ने उस की आंखों में एक अजीब सा भाव देखा, फिर मुखियाइन को देख कर ‘हां’ में गरदन हिला दी.

तभी एक बूढ़ा आदमी अंदर से आया और किसना से बोला, ‘‘चलो, हम तुम्हारा कमरा दिखा दें.’’

किसना चुपचाप उस के पीछे चल दी. बाहर बड़ा सा बगीचा था, जिस के बीचोंबीच हवेली थी और किनारे पर छोटे, पर नए कमरे बने थे.

वह बूढ़ा नौकर किसना को उन्हीं बने कमरों में से एक में ले गया और बोला, ‘‘यहां तुम आराम से रहो. सरकार बहुत ही भले आदमी हैं. तुम्हें डरने की कोई जरूरत नहीं है…’’

किसना ने अपनी पोटली वहीं बिछे पलंग पर रख दी और कमरे का मुआयना करने लगी.

दूसरे दिन सरकार खुद ही उसे बुलाने कमरे तक आए और सारा काम समझाने लगे. रात के 10 बजे से सुबह के 6 बजे तक उन की सेवा में रहना था.

किसना ने भी जमाने भर की ठोकरें खाई थीं. वह तुरंत समझ गई कि यह बूढ़ा क्या चाहता है. उसे भी ऐसी सारी बातों की आदत हो गई थी.

वह मुसकराते हुए बोली, ‘‘हम अपना काम बहुत अच्छी तरह से जानते हैं सरकार, आप को शिकायत का मौका नहीं देंगे.’’

कुछ ही दिनों में किसना सरकार के रंग में रंग गई. उन के लिए खाना बनाती, कपड़े धोती, घर की साफसफाई करती और उन्हें कभी देर हो जाती, तो उन का इंतजार भी करती. सरकार भी उस पर बुरी तरह फिदा थे. वे दोनों हाथों से उस पर पैसा लुटाते.

एक रात सरकार उसे प्यार कर रहे थे, पर किसना उदास थी. उन्होंने उदासी की वजह पूछी और मदद करने की बात कही.

‘‘नहीं सरकार, ऐसी कोई बात नहीं है,’’ किसना बोली.

‘‘देख, अगर तू बताएगी नहीं, तो मैं मदद कैसे करूंगा,’’ सरकार उसे प्यार से गले लगा कर बोले.

किसना को उन की बांहें किसी फांसी के फंदे से कम न लगीं. एक बार तो जी में आया कि धक्का दे कर बाहर चली जाए, पर वह वहां से हमेशा के लिए जाना  चाहती थी. उसे अच्छी तरह मालूम था कि यह बूढ़ा उस पर जान छिड़कता है. सो, उस ने अपना आखिरी दांव खेला, ‘‘सरकार, मेरी बेटी बहुत बीमार है. इलाज के लिए काफी पैसों की जरूरत है. मैं पैसा कहां से लाऊं? आज फिर मेरी मां का फोन आया है.’’

‘‘कितने पैसे चाहिए?’’

‘‘नहीं सरकार, मुझे आप से पैसे नहीं चाहिए… मुखियाइन मुझे मार देगी. मैं पैसे नहीं ले सकती.’’

सरकार ने उस का चेहरा अपने हाथों में ले कर कहा, ‘‘मुखियाइन को कौन बताएगा? मैं तो नहीं बताऊंगा.’’

‘‘एक लाख रुपए चाहिए.’’

‘‘एक… लाख…’’ बड़ी तेज आवाज में सरकार बोले और उसे दूर झटक दिया. किसना घबरा कर रोने लगी.

‘‘अरे… तुम चुप हो जाओ,’’ और सरकार ने अलमारी से एक लाख रुपए निकाल कर उस के हाथ पर रख दिए, फिर उस की कीमत वसूलने में लग गए.

बेचारी किसना उस सारी रात क्याक्या सोचती रही और पूरी रात खुली आंखों में काट दी.

शाम को जब सरकार ने किसना को बुलाने भेजा था, तो वह कमरे पर नहीं मिली. चिडि़या पिंजरे से उड़ चुकी थी. आखिरी बार उसे माली काका ने देखा था. सरकार ने भी अपने तरीके से ढूंढ़ने की कोशिश की, पर वह नहीं मिली.

उधर किसना पैसा ले कर कुछ दिनों तक अपनी सहेली पारो के घर रही और कुछ समय बाद अपने गांव चली गई.

किसना की सहेली पारो बोली, ‘‘किसना, अब तू वापस मत आना. काश, मैं भी इसी तरह हिम्मत दिखा पाती. खैर छोड़ो…’’

किसना ने अपना चेहरा घूंघट से ढका और बस में बैठते ही भविष्य के उजियारे सपनों में खो गई. इन सपनों में खोए 12 घंटों का सफर उसे पता ही नहीं चला. बस कंडक्टर ने उसे हिला कर जगाया, ‘‘ऐ… नीचे उतर, तेरा गांव आ गया है.’’

किसना आंखें मलते हुए नीचे उतरी. उस ने अलसाई आंखों से इधरउधर देखा. आसमान में सूरज उग रहा था. ऐसा लगा कि जिंदगी में पहली बार सूरज देखा हो.

आज 30 बसंत पार कर चुकी किसना को ऐसा लगा कि जैसे जिंदगी में ऐसी सुबह पहली बार देखी हो, जहां न मुखियाइन, न दलाल, न सरकार… वह उगते हुए सूरज की तरफ दोनों हाथ फैलाए एकटक आसमान की तरफ निहारे जा रही थी. आतेजाते लोग उसे हैरत से देख रहे थे, तभी अचानक वह सकुचा गई और अपना सामान समेट कर मुसकराते हुए आगे बढ़ गई.

किसना को घर के लिए आटोरिकशा पकड़ना था. तभी सोचा कि मां और बेटी रोशनी के लिए कुछ ले ले, दोनों खुश हो जाएंगी. उस ने वहां पर ही एक मिठाई की दुकान में गरमागरम कचौड़ी खाई और मिठाई भी ली.

किसना पल्लू से 5 सौ का नोट निकाल कर बोली, ‘‘भैया, अपने पैसे काट लो.’’

दुकानदार भड़क गया, ‘‘बहनजी, मजाक मत करिए. इस नोट का मैं क्या करूंगा. मुझे 2 सौ रुपए दो.’’

‘‘क्यों भैया, इस में क्या बुराई है.’’

‘‘तुम को पता नहीं है कि 2 दिन पहले ही 5 सौ और एक हजार के नोट चलना बंद हो गए हैं.’’

किसना ने दुकानदार को बहुत समझाया, पर जब वह न माना तो आखिर में अपने पल्लू से सारे पैसे निकाल कर उसे फुटकर पैसे दिए और आगे बढ़ गई.

अभी किसना ढंग से खुशियां भी न मना पाई थी कि जिंदगी में फिर स्याह अंधेरा फैलने लगा. अब क्या करेगी? उस के पास तो 5 सौ और एक हजार के ही नोट थे, क्योंकि इन्हें मुखियाइन से छिपा कर रखना जो आसान था.

रास्ते में बैंक के आगे लगी भीड़ में जा कर पूछा तो पता लगा कि लोग नोट बदल रहे हैं. किसना को तो यह डूबते को तिनके का सहारा की तरह लगा. किसी तरह पैदल चल कर ही वह अपने घर पहुंची.

बेटी रोशनी किसना को देखते ही लिपट गई और बोली, ‘‘मां, अब तुम यहां से कभी वापस मत जाना.’’

किसना उसे प्यार करते हुए बोली, ‘‘अब तेरी मां कहीं नहीं जाएगी.’’

बेटी के सो जाने के बाद किसना ने अपनी मां को सारा हाल बताया. उस की मां ने पूछा, ‘‘अब आगे क्या करोगी?’’

किसना ने कहा, ‘‘यहीं सिलाईकढ़ाई की दुकान खोल लूंगी.’’

दूसरे दिन ही किसना अपने पैसे ले कर बैंक पहुंची, मगर मंजिल इतनी आसान न थी. सुबह से शाम हो गई, पर उस का नंबर नहीं आया और बैंक बंद हो गया.

ऐसा 3-4 दिनों तक होता रहा और काफी जद्दोजेहद के बाद उस का नंबर आया, तो बैंक वालों ने उस से पहचानपत्र मांगा. वह चुपचाप खड़ी हो गई.

बैंक के अफसर ने पूछा कि पैसा कहां से कमाया? वह समझाती रही कि यह उस की बचत का पैसा है.

‘‘तुम्हारे पास एक लाख रुपए हैं. तुम्हें अपनी आमदनी का जरीया बताना होगा.’’

बेचारी किसना रोते हुए बैंक से बाहर आ गई.

किसना हर रोज बैंक के बाहर बैठ जाती कि शायद कोई मदद मिल जाए, मगर सब उसे देखते हुए निकल जाते.

तभी एक दिन उसे एक नौजवान आता दिखाई पड़ा. जैसेजैसे वह किसना के नजदीक आया, किसना के चेहरे पर चमक बढ़ती चली गई. उस के जेहन में वे यादें गुलाब के फूल पर पड़ी ओस की बूंदों की तरह ताजा हो गईं. कैसे यह बाबू उस का प्यार पाने के लिए क्याक्या जतन करता था? जब वह सुबहसुबह उस के गैस्ट हाउस की सफाई करने जाती थी, तो बाबू अकसर नजरें बचा कर उसे देखता था.

वह बाबू किसना को अकसर घुमाने ले जाता और घंटों बाग में बैठ कर वादेकसमें निभाता. वह चाहता कि अब हम दोनों तन से भी एक हो जाएं. किसना अब उसे एक सच्चा प्रेमी समझने लगी और उस की कही हर बात पर भरोसा भी करती थी, मगर किसना बिना शादी के कोई बंधन तोड़ने को तैयार न थी, तो उस ने उस से शादी कर ली, मगर यह शादी उस ने उस का तन पाने के लिए की थी.

किसना का नशा उस की रगरग में समाया था. उस ने सोचा कि अगर यह ऐसे मानती है तो यही सही, आखिर शादी करने में बुराई क्या है, बस माला ही तो पहनानी है. उस ने आदिवासी रीतिरिवाज से कलक्टर और मुखिया के सामने किसना से शादी कर ली, लेकिन उधर लड़के की मां ने उस का रिश्ता कहीं और तय कर दिया था.

एक दिन बिना बताए किसना का बाबू कहीं चला गया. इस तरह वे दोनों यहां मिलेंगे, किसना ने सोचा न था.

जब वह किसना के बिलकुल नजदीक आया, तो किसना चिल्ला कर बोली, ‘‘अरे बाबू… आप यहां?’’

वह नौजवान छिटक कर दूर चला गया और बोला, ‘‘क्या बोल रही हो? कौन हो तुम?’’

‘‘मैं तुम्हारी किसना हूं? क्या तुम अब मुझे पहचानते भी नहीं हो? मुझे तुम्हारा घर नहीं चाहिए. बस, एक छोटी सी मदद…’’

‘‘अरे, तुम मेरे गले क्यों पड़ रही हो?’’ वह नौजवान यह कहते हुए आगे बढ़ गया और बैंक के अंदर चला गया.

अब तो किसना रोज ही उस से दया की भीख मांगती और कहती कि बाबू, पैसे बदलवा दो, पर वह उसे पहचानने से मना करता रहा.

ऐसा कहतेकहते कई दिन बीत गए, मगर बाबू टस से मस न हुआ.

आखिरकार किसना ने ठान लिया कि अब जैसे भी हो, उसे पहचानना ही होगा. उस ने वापस आ कर सारा घर उलटपलट कर रख दिया और उसे अपनी पहचान का सुबूत मिल गया.

सुबह उठ कर किसना तैयार हुई और मन ही मन सोचा कि रो कर नहीं अधिकार से मांगूंगी और बेटी को भी साथ ले कर बैंक गई. उस के तेवर देख कर बाबू थोड़ा सहम गया.

उसे किनारे बुला कर किसना बोली, ‘‘यह रहा कलक्टर साहब द्वारा कराई गई हमारी शादी का फोटो. अब तो याद आ ही गया होगा?’’

‘‘हां… किसना… आखिर तुम चाहती क्या हो और क्यों मेरा बसाबसाया घर उजाड़ना चाहती हो?’’

किसना आंखों में आंसू लिए बोली, ‘‘जिस का घर तुम खुद उजाड़ कर चले आए थे, वह क्या किसी का घर उजाड़ेगी, रमेश बाबू… वह लड़की जो खेल रही है, उसे देखो.’’

रमेश पास खेल रही लड़की को देखने लगा. उस में उसे अपना ही चेहरा नजर आ रहा था. उसे लगा कि उसे गले लगा ले, मगर अपने जज्बातों को काबू कर के बोला, ‘‘हां…’’

किसना तकरीबन घूरते हुए बोली, ‘‘यह तुम्हारी ही बेटी है, जिसे तुम छोड़ आए थे.’’

रमेश के चेहरे के भाव को देखे बिना ही बोली, ‘‘देखो रमेश बाबू, मुझे तुम

में कोई दिलचस्पी नहीं है. मैं एक नई जिंदगी जीना चाहती हूं. अगर इन पैसों का कुछ न हुआ, तो लौट कर फिर वहीं नरक में जाना पड़ेगा.

‘‘मैं अपनी बेटी को उस नरक से दूर रखना चाहती हूं, नहीं तो उसे भी कुछ सालों में वही कुछ करना पड़ेगा, जो उस की मां करती रही है. अपनी बेटी की खातिर ही रुपया बदलवा दो, नहीं तो लोग इसे वेश्या की बेटी कहेंगे.

‘‘अगर तुम्हारे अंदर जरा सी भी गैरत है, तो तुम बिना सवाल किए पैसा बदलवा लाओ, मैं यहीं तुम्हारा इंतजार कर रही हूं.’’

रमेश ने उस से पैसों का बैग ले लिया और खेलती हुई बेटी को देखते हुए बैंक के अंदर चला गया और कुछ घंटे बाद वापस आ कर रमेश ने नोट बदल कर किसना को दे दिए और कुछ खिलौने अपने बेटी को देते हुए गले लगा लिया.

तभी किसना ने आ कर उसे रमेश के हाथों से छीन लिया और बेटी का हाथ अपने हाथ में पकड़ कर बोली, ‘‘रमेश बाबू… चाहत की अलगनी पर धोखे के कपड़े नहीं सुखाए जाते…’’ और बेटी के साथ सड़क की भीड़ में अपने सपनों को संजोते हुए खो गई.

फलक से टूटा इक तारा: सान्या का यह एहसास

Story in Hindi

पछतावा: लालपरी उस रोज विलास के साथ क्यों भाग गई

विलास की विलासी नजरें लालपरी से बची न थीं. इसीलिए बच्चा पाने के लिए राजदेव की बात मान कर विलास के पास जा कर भूत झड़वाना उसे गवारा न था. लेकिन लालपरी एक रोज उसी विलास के साथ क्यों भाग खडी़ हुई?

सब को चाय पिला कर मैं ने जूठी प्यालियां टेª में समेट लीं. घडी सुबह के 7 बजा रही थी. मैं ने टीवी खोल दिया. समाचार देखने सारा परिवार ड्राइंगरूम में आ गया. यह तो रोज का रुटीन है. समाचार देखने के समय मैं चाकू ले कर सब्जियां काटने बैठती हूं. पतिदेव सोफे पर आराम से बैठ कर सेंटर टेबिल पर आईना रख कर शेव करने बैठते हैं. पिकी और मीनी एकदूसरे को चिढा़ती, मुंह बिचकाती, जीभ दिखाती टीवी देखती रहती हैं.

फ्भई, आज सेकंड राउंड चाय नहीं हो रही है? इन्होंने दाढी़ बनाते हुए पूछा.

फ्आज लालपरी नहीं आई है. मुझे आटा गूंधना है, मसाला पीसना है. बच्चों का टिफिन, आप का खाना, नाश्ता—

फ्समझ गया सरकार, लालपरी होती है तब तो आप कहती हैं, ‘निकम्मी है यह, सारा काम मुझे ही संभालना पड़ता है,’ और एक दिन नहीं आई तो–. बीच में ही बात रोक कर उन्होंने मेरी नकल उतारी और हंसने लगे.

फ्लालपरी अभी किशोरी है. उसे ऐसे नहीं कहूंगी तो वह काम में तेजी कैसे लाएगी. काम तो करती ही है बेचारी. मूर्ख पति मिला है उस बदनसीब को, मैं ने ठंडी आह भरी.

साढे़ 9 बजतेबजते घर खाली सा हो गया. बच्चे स्कूल और पतिदेव आफिस जा चुके थे. मैं ने घर के बाकी काम समेटने शुरू किए. झाड़न्न् लगाना आसान था, पर पाेंछा लगाने में तो कमर ही जैसे टूट गई, ‘कोई होता तो लालपरी के घर भेज कर उस का हाल पुछवा लेती. क्या करूं, अभी तो खैर कालिज बंद हैं पर जिस रपतार से यह नागा करने लगी है उस से तो काम नहीं चलेगा. लगता है किसी और को रखना होगा. आने दो, मैं स्वयं बात करती हूं इस सिलसिले में,’ मैं ने मन ही मन सोचा.

शाम को लालपरी आई. आते ही नजरें नीची किए बंगले के पिछवाडे़ जाने लगी. मेरी सास के जमाने से यह सिलसिला चला आ रहा है कि मुख्यद्वार से दाईं ओर नौकर अंदर नहीं जाते. रसोई के पीछे नल है, वहां साबुन, तौलिया रखा रहता है, आने पर हाथपैर साबुन से अच्छी तरह धोकर ही रसोई में घुसना होता है. लालपरी अपनी मां के साथ आती थी. मां जब सोहन रिकशे वाले के साथ भाग गई तब मैं ने इसे ‘सहारा’ दिया या इस ने मुझे ‘सहारा’ दिया, कहना मुश्किल है. 14 साल की नन्ही उम्र में बाप ने इस की शादी कर दी इसी टोले में. अब यह अपने पति के साथ रहती है.

Short Story: आखिर कहां तक?

फ्लालपरी, जरा इधर आना, मैं ने आवाज दी.

फ्जी, भाभीजी, कह कर वह सामने आ कर खडी़ हो गई.

मैं ने उस के चेहरे पर नजरें जमा दीं. बाप रे, उस का चेहरा बुरी तरह सूजा हुआ था. आंखें लाललाल अंगारों की तरह दहक रही थीं. नाक की कील गायब थी और उस जगह कटे का ताजाताजा सा निशान चीखचीख कर हाल बयान कर रहा था.

फ्क्या हुआ तुझे? राजदेव ने तुझे फिर मारा है? तेरा चेहरा तो सूज कर पुआ बन गया री, मेरे शब्द डगमगा गए. इस युवती को 3 साल की छोटी उम्र से मैं ने लगभग पाला ही तो है. मां कपडे़ धोती और यह रोने लगती तब मैं कभी इसे बिस्कुट देती, कभी टाफी, कभी खाली डब्बे, क्रीम की खाली बोतलें, पुरानी कंघी जैसे बेकार पडे़ घरेलू सामान देती और जरा सा पुचकारती, यह झट से मुसकरा देती.घ्और इस की मासूम मुसकान से बंगले का कोनाकोना महक उठता. उन दिनों घर की मालकिन मेरी अम्मांजी थीं इसलिए नौकरचाकर, धोबी, दूध वाला, पेपर वाला सब मुझे ‘भाभीजी’ कहते. ससुराल में इस से सुंदर, सरस भला और क्या संबोधन हो सकता है. मां से सुनसुन कर यह भी ‘भाभीजी’ ही कहने लगी थी.

मैं ने लालपरी की ठोडी़ ऊपर उठाई, मेरे हाथों को पकड़ कर वह फफकफफक कर रो पडी़. उस की आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली. मैं ने उसे हाथ पकड़ कर बिठाया. टेबिल पर रखी बोतल में से एक गिलास पानी दिया और कहा, फ्मैं तेरी मां जैसी हूं, मुझे अपना दुख नहीं बताएगी क्या.

पानी के 4-6 घूंट पी कर वह थोडी़ शांत हुई थी. उस ने नजरें नीची किए ही कहा, फ्वह बोलता है मैं बांझ हूं. आज अमावस्या है न, आज इमलीचौक वाले मठ पर विलसवा की देह पर भूत आता है, उसी से झड़वानेफुंकवाने ले जाना चाह रहा था. मैं ने मना कर दिया, बस, वह फिर रोने लगी.

फ्अरी, तो चली जाती, राजदेव का मन ही रखने के लिए. इतनी मार से तो बच जाती नादान लड़की.

फ्कैसे चली जाती भाभीजी. विलसवा की आंखों में, उस की बातों में गंदगी दिखाई देती है हमें. वह कई बार हमें इंद्रासन का सुख दिखाने की बात कह चुका है. मूछड़ हमें देख कर आंख मारता है और इस हरामी मरद को वह ‘परमात्मा का अवतार’ लगता है.

लालपरी गुस्से और उत्तेजना से कांप रही थी. मैं ने कहा, फ्तुम ने राजदेव से विलास की हरकतों के बारे में बातें कीं कभी. कौन पति ऐसा होगा जो किसी कामुक, हवस के भूखे के पास अपनी बीवी को भेज देगा.

फ्मूर्ख है, जाहिल है, भेजे में भूसा भरा हुआ है उस के. कहता है, ‘ओझा की आंखों में भूतप्रेत बसते हैं, तू उन में झांकती क्यों है री छिनाल,’ उस की इसी गाली पर हम ने कहा, ‘तू जान ले ले पर बदचलनी का दोष मत लगा हमारे चरित्र पर. बस, इसी बात पर लातघूंसों से टूट पडा़ वह हमारे ऊपर. मुंह पर मारता रहा और चिल्लाता रहा, ‘तू जबान चलाती है साली’—

लालपरी अपने पति की दी गालियों को एक सांस में दोहरा गई और उस के बाद फिर वही लावा जो भीतर कैद था, आंसुओं के रूप में बाहर आने लगा. और कोई रास्ता न देख मैं ने कहा, फ्ऐ लालपरी, ऐ सब्जपरी, तू रोती क्यों है री. भाभीजी को चाय नहीं पिलाएगी क्या?

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जैसे नींद से जाग गई लालपरी. उस ने मेरी ओर देख कर कहा, फ्अभी तुरंत हाजिर करती हूं. आप हमें अभी भी बच्चा समझती हैं, लालपरी, सब्जपरी कह कर तो आप बचपन में हमें चुप कराती थीं, कहती हुई 20 साल की युवती, जिस के रगरग से यौवन, सरलता, सरसता, प्राकृतिक, अनुपम सौंदर्य छलक रहा था, अंदर चली गई.

रात में इन से लालपरी का जिक्र किया, उस की सारी परेशानियां बयान कीं. सुन कर ये उदास हो गए और थोडी़ देर चुप रहने के बाद बोले, फ्राजदेव पागल हो गया है क्या. उसे कल दोपहर में किसी बहाने बुलाना, मैं बात करूंगा उस से. लालपरी इस घर के सदस्य की तरह है. जब इस महल्ले में मेरे दादाजी ने यह बंगला बनवाया था तब गांव से ही इस के दादादादी को ले आए थे. दादी बताती थीं कि इस का खानदान पूरे इलाके में अपने चरित्र की उज्ज्वलता के लिए ‘वफादारईमानदार’ की उपाधि से संबोधित किया जाता था. यह लड़की कष्ट सहे, यह तो पुरखों का अपमान है…

फ्राजदेव अर्थ का अनर्थ समझ लेगा तो, मैं ने आशंका जताई.

फ्उस के बाप का राज है क्या. बिना डाक्टरी जांच कराए उस ने इसे ‘बांझ’ घोषित कर दिया है. तुम इसे ले कर अपनी सहेली डाक्टर के पास चली जाना ताकि सचाई मालूम हो सके. उन के सुझाव पर जो भी उचित होगा, दवा या आपरेशन, हम करवाएंगे. इसे यों ही नहीं छोड़ सकते न.

दूसरे दिन अचानक गांव से रामू लौट आया. वह हर साल 2 माह की छुट्टी ले कर गांव जाता है. धान रोप आता है, गेहूं तैयार कर घर में रख आता है.घ्आते समय मालदा आम की 2 बोरियां ठेले पर ले आता है. मैं ने खुश हो कर कहा, फ्रामू, 8 दिन पहले आ गए तुम.

फ्बरसात समय पर हो गई. आप के खेतों में धानरोपाई हो गई, आम बेच दिया. काम खत्म हो गया तो अम्मां ने कहा, ‘चला जा. यहां बुधनी तो है ही, उस के बच्चे भी आ गए हैं, खूब चहलपहल है.’

फ्तेरी बीवी कैसी है? मैं ने पूछा.

फ्अच्छी है, भाभीजी, उसे फिर लड़का हुआ है, कह कर रामू शरमा गया.

फ्अरे, लड्डू बांटने की जगह शरमा रहे हो तुम. बहुतबहुत बधाई हो रामू. तुम 2 बेटों के बाप बन गए 3 साल में ही, मैं स्वयं ही यह कह कर मुसकराने लगी.

फ्अम्मां ने कहा है इस साल आप मेरा आपरेशन करवा दें, रामू गमछे से मुंह पोंछने का बहाना कर शरमाता हुआ अंदर चला गया. 25-26 साल का रामू मन से 10 साल का बालक है. बिलकुल भोलाभाला, सीधासादा.

रामू को भेज कर राजदेव को बुलवाया. वह आ गया तो इन्होंने कहा, फ्राजदेव, क्या हालचाल हैं?

फ्ठीक हैं, वकील साहब, उस ने कहा.

फ्आजकल आतेजाते नहीं हो, क्या बात है, उन्होंने कहा.

फ्रामू की तरह बेटों का बाप हूं क्या जो खुशियां मनाता फिरूं, उसने कहा.

फ्तुम्हारी और लालपरी की अभी उम्र ही क्या है. प्रेम और शांति से रहो, इसी में गृहस्थी का सुख है. जब मन सुखी होगा तभी तो मांबाप बनता है कोई, धीरज रखो.

फ्वह छिनाल बांझ है, उस पर नखरा यह कि ओझा विलास के पास नहीं जाती, उस ने कहा.

फ्गालियां क्यों दे रहे हो, वह तुम्हारी पत्नी है. अपनी पत्नी की इज्जत तुम स्वयं नहीं करोगे तो दूसरे कैसे करेंगे. बच्चा चाहिए तो डाक्टर के पास जाओ, ओझा क्या करेगा. विलास तो एक नंबर का गंजेडी़ है. कल तक स्मगलरों का मुखबिर था. आज ओझा कैसे हो गया?

फ्यह हमारा घरेलू मामला है. इस में आप बडे़ लोग न बोलें तो ही ठीक है. ओझा को हम मानते हैं, बस.

फ्ठीक है, तुम उसे चाहे जो मानो परंतु लालपरी मेरी बहन जैसी है. उस पर इस तरह हाथलात मत उठाया करो.

फ्क्या कर लेंगे आप. वह मेरी बीवी है कि आप की बहन जैसी है, हूं. मैं सब समझता हूं, आप चाहते ही नहीं कि लालपरी को औलाद हो. आप के बरतन कौन घिसेगा इतने चाव से, वह जाने लगा.

फ्पागल मत बनो. दुनिया में कानून भी कोई चीज है या नहीं. जिस दिन हवालात पहुंच जाओगे, सारी अकड़ निकल जाएगी, समझे. लालपरी पर हाथ उठाने से पहले हजार बार सोच लेना. जाओ, दफा हो जाओ, इन के स्वर में क्रोध साफ झलक रहा था.

रामू पर घरद्वार, रसोई छोड़ कर मैं लालपरी को ले कर शहर में डाक्टर केघ्पास आ गई. डाक्टर शोभनाजी क्लीनिक में ही मिल गईं. सारी बात जाननेपूछने के बाद उन्होंने लालपरी की जांच की. कुछ टेस्ट कराए और मेरे पास आ कर बैठती हुई बोलीं, फ्सीता दीदी, आप बेफिक्र रहें. इस लड़की में कोई कमी नहीं है. टेस्ट की रिपोर्ट भी कल तक आ जाएगी. वैसे इस का पति भी टेस्ट करवा लेता तो इलाज में सुविधा होती.

फ्वह नहीं आएगा, मैं ने कहा.

शोभना ने हंस कर कहा, फ्लालपरी समझा कर, प्यार से कहेगी तो मान जाएगा, क्यों लालपरी.

शोभना के साथ हम दोनों भी हंसने लगीं. थोडी़ देर इधरउधर की बात कर के हम दोनों वापस आ गए.

कुछ दिनों तक राजदेव शांत रहा. शांत क्या, बल्कि मुंह फुलाए रहा. लालपरी रोज उस का किस्सा सुनाती और खूब खिल- खिलाती. रामू शोभना के यहां से रिपोर्ट ले आया था. लालपरी ने जब राजदेव से कहा, फ्हम में कोई खराबी नहीं है, हमतुम जिस दिन चाहेंगे बच्चा होगा पर तुम एक बार डाक्टरनी के पति से दिखा लेते तो…

फ्ऐ, कहना क्या चाहती है तू. मैं नामर्दघ्हूं, बोल, मैं नपुंसक हूं, वह चिल्लाने लगा.

फ्चिल्लाओ मत, हम में खराबी नहीं है, तुम में खराबी नहीं है तो इंतजार करो. ओझागुणी का चक्कर छोडो़, लालपरी ने कहा.

रात में राजदेव विलास को बुला लाया. लालपरी से कहा, फ्बढि़या सी कलेजी भून दे, एक लोटा ठंडा पानी, 2 खाली गिलास रख यहां और भाभीजी के यहां से बर्फ ले आ जा कर.

फ्तुम भैयाजी से झगडा़ करते रहो और हम बर्फ—, उस ने बच्चों की तरह ठुनक कर कहा.

फ्अरे, वो तो नशे में बोल गया था. उन का 20 हजार रुपया लगा है हमारी बीमारी में, कौन देता बिना सूद के इतने पैसे? तेरे तो वह सगे भाई थे पिछले जन्म के. जा, जा कर बर्फघ्ले आ.

लालपरी ने आ कर मुझ से सारा किस्सा कहा और अपनी स्वाभाविक हंसी हंसने लगी. मैं ने कहा, फ्तू बहुत प्यार करती है राजदेव से, है न.

फ्हां, भाभीजी. हम यह भी जानते हैं कि वह कभी बाप नहीं बन पाएगा. बचपन में ताड़ के पेड़ से गिर गया था न, कल उस की बडी़ बहन मीठनपुरा बाजार में मिली थी, बता कर रोने लगी. बोली, ‘डाक्टर टी.के. झा ने कहा था, राजदेव कभी बाप नहीं बनेगा.’ पर हम हर हाल में उस के साथ खुश हैं भाभीजी. बच्चा नहीं हुआ तो क्या, आप के बच्चे हैं, मेरी ननद के बच्चे हैं, उस का स्वर छलछला उठा.

फ्बर्फ के साथ थोडा़ प्याज, टमाटर, नीबू भी लेती जाना, राजदेव अकसर मंगवाता था. आज झिझक से नहीं बोला होगा, मैं ने लालपरी के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा.

सामान ले कर लालपरी चली गई. सुबह आई तो सुस्तसुस्त सी लगी. मैं ने सोचा थकी होगी. बेचारी बरतन घिसने बैठी तो थोडी़ देर बार सिर पकड़ कर बोली, फ्रामू भैया, एक प्याली चाय पिला दो, सिर बहुत भारी है.

फ्क्या सिरदर्द है? मैं ने पूछा.

फ्न, ऐसे ही, उस के शब्द लड़खडा़ रहे थे. मुझे बडा़ अजीब लगा. लालपरी जरूर कुछ छिपा रही है. मैं ने रामू से कहा, फ्रामू, तुम बरतन धो लो और उसे चाय पीने के बाद मेरे पास भेज दो.

10 मिनट बाद लालपरी आ कर कमरे में खडी़ हुई. मैं ने कहा, फ्क्या बात है, आंखें आज फिर लाल हैं, क्या फिर मारा राजदेव ने?

फ्मारता तो दुख नहीं होता पर मुझे धोखे से नशा करवा कर जाने क्या किया- कराया है उस ने.

फ्क्या किया है? खुल कर बताओ तभी तो समझूंगी.

फ्भाभीजी, भैयाजी का शरीर, उन के शरीर की गंध, उन के प्यार करने का तरीका सब आप को मालूम है न. आंखें बंद हों या खुली उन्हें तो आप कैसे भी पहचान ही लेंगी न? लालपरी ने सवाल के बदले सवाल किया.

फ्हां, बिलकुल, अपने पति को तो अंधी स्त्री भी पहचानती है.

फ्बस, यही हमारा दुख है भाभीजी. हमें लगता है रात में मेरे साथ वह खुद नहीं विलसवा सोया था, पर वह बोलता है यह हमारा भ्रम है, शक है, सचाई नहीं. पर हमें पूरा विश्वास है भाभीजी, रात में हमारी इज्जत, हमारी आबरू इस हरामी ने बेच दी एक किलो कलेजी और एक बोतल शराब के वास्ते. हम तो अपनी नजर में ही गिर गए हैं भाभीजी, लालपरी बिलखबिलख कर रोने लगी.

मैं ने उसे तसल्ली देते हुए कहा, फ्देख लालपरी, कत्ल भी अनजाने में, बेहोशी में या पागलपन में होता है तो कानून उसे कत्ल नहीं मानता, फांसी नहीं देता. जब तू ठीकठीक जानती ही नहीं कि क्या हुआ, कैसे हुआ तो इतना विलाप क्या उचित है? तूने तो धर्म नहीं छोडा़ न, तू तो नहीं गई किसी के पास, फिर अपने को अपराधी क्यों मानती है?

मैं ने समझाबुझा कर उसे सामान्य बनाने की पूरी कोशिश की और वह जाते समय तक सामान्य दिखने भी लगी थी.

2 दिन यों ही बीत गए. इस घटना की चर्चा मैं ने लालपरी का वहम समझ कर किसी से नहीं की. पता नहीं क्यों, मेरा मन इसे सत्य मानने को तैयार नहीं था, राजदेव इतना पतित नहीं हो सकता. यह बेचारी जाए तो कहां जाए. बाप 2 साल पहले ही मर चुका है. एक भाई है जो 7-8 साल से बाहर है. कौन जाने जीवित भी है या नहीं. मां जो भागी तो आज तक पता नहीं चला वह पृथ्वी के किस कोने में समा गई. सोहना का भी ठिकाना नहीं.

सुबहसुबह रामू ने कहा, फ्रात दुसाध टोले से लालपरी के चीखनेचिल्लाने की आवाज आ रही थी, जरा जा कर देख आता हूं.

आया तो कुछ उदास, परेशान सा था. बोला, फ्लालपरी थोडी़ देर बाद खुद आएगी पर उस के घर का हाल बेहाल था. कल राजदेव का सिर फोड़ दिया है लालपरी ने. लालपरी के घुटने एवं गरदन में बहुत चोट है.

लालपरी दोपहर में आई और उस ने बिना किसी भूमिका के कहा, फ्हमारा शक सही था भाभीजी. कल रात भूत झाड़ने का बहाना कर उस ने विलास को बुलवाया. मुझे जो ‘दवा’ दी उसे मैं ने नजरें बचा कर नीचे गिरा दिया. 2 दिन मैं इस पापी की ‘दवा’ के शक में जी चुकी थी. मैं ने सोचा तीसरी बार बेहोशी में इज्जत नहीं लुटाऊंगी. जो होगा जान लूं, समझ लूं. इस ने विलास से कहा, ‘हम पर लगा कलंक धो दे यार. बस, 1 बच्चा पैदा कर दे ताकि मैं भी मरद बन कर जी सकूं.’ मुझे गुस्सा आया, मैं ने उस के सिर पर बेलन दे मारा. उस ने भी मुझे खूब मारा होता मगर विलास ने कहा,  ‘औरत को मार कर मरद नहीं बना जाता,’ बस, हम ने भी ठान ली और कहा, ‘विलास, तुझ में हिम्मत है तो आ, मुझे ले कर कहीं भाग चल, गृहस्थी बसा कर लौटेंगे,’ फिर वह बिना बोले चला गया.

मुझे लगा, लालपरी गुस्से  में बोल रही है, पर वह सही थी. दूसरे दिन राजदेव रोता हुआ आ कर इन के पैरों में गिर गया, फ्मालिक, लालपरी को हम ने ही गलत रास्ता दिखा दिया. वह विलसवा के साथ भाग गई, जेवर कपडा़ ले कर. मैं तो पछता रहा हूं.

इन्होंने ठंडी सांस ले कर कहा, फ्पछतावे का भी एक समय होता है अब क्या लाभ?

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