कटी पतंग: बुशरा मलिक की डायरी पढ़कर इंस्पेक्टर क्यों हैरान हुआ

बिस्तर पर एक औरत की लाश पड़ी थी. इंस्पैक्टर ने कमरे का जायजा लेना शुरू किया. कमरे में एक छोटी सी खिड़की थी, जिस पर एक मोटा परदा डला था.

इंस्पैक्टर लाश के नजदीक पहुंच कर ठिठक गई. बैड के पास एक डायरी गिरी हुई थी. उस ने कौंस्टेबल को इशारा कर डायरी अपने पास मंगवाई और पन्ने पलटने लगी. उन पन्नों में लिखी कहानी इंस्पैक्टर की आंखों के सामने चलचित्र की तरह चलनी लगी…

“1जनवरी, 2007

“थैंक यू अब्बू… इस सुंदर डायरी के लिए.

“बुशरा मलिक,

मकान नंबर 10, करीमगंज.”

“3 जनवरी, 2007

“ठीक तो कहता है फैजल कि मैं खूबसूरत हूं, मुझे फिल्मों में होना चाहिए. आज उस की बात सुन कर पहली बार इतने गौर से खुद को आईने में निहारा.

“सुन डायरी, तू तो मेरी दोस्त है ना…इसलिए तुझे आज अपने दिल की बात बताती हूं. फैजल मुझे बेइंतहा मोहब्बत करता है लेकिन बताता नहीं. सब जानती हूं मैं. मुझे जलाने के लिए रूखसाना से बातें करता रहता है जैसेकि मैं सच में जलूंगी…

“मुझे तो मुंबई जाना है. मौका देख कर अब्बू से बात करूंगी लेकिन तब तक यह बात अपने दिल में छिपाए रखना, समझ गई ना…

“चल अब सोती हूं.”

“5 जनवरी,2007

“अब्बू ने आज मुझे बहुत डांटा. बस, इतना ही तो कहा था कि मुझे औडिशन देना है मौडलिंग के लिए. अब्बू कहते हैं कि यह काम शरीफ घरानों की लड़कियों के लिए नहीं है. अब्बू यह क्या बात हुई भला, आप इतने पढेलिखे हैं फिर भी ऐसी बातें करते हैं? आप तो बिलकुल दकियानूसी नहीं थे.

“मैं एक दिन मुंबई जरूर जाऊंगी और देखना, अब्बू आप को अपनी बुशरा पर नाज होगा.”

“10जनवरी, 2007

“आज जन्मदिन है मेरा. अब्बू ने मुझे सोने के झुमके दिए हैं तोहफे में. बहुत प्यार करते हैं मुझे अब्बू. फैजल ने मेकअप बौक्स दिया है. मगर छिपा लिया मैं ने. कोई देख लेता तो तुफान आ जाता.”

“14फरवरी, 2007

“तूझे पता है कि आज फैजल ने मुझे आई लव यू कहा. मुझे बहुत शर्म आई. 4 महीने हो गए हैं फैजल को हमारे शहर में नौकरी करते. बता रहा था कि मुंबई में घर है उस का. मुझ से कहता है कि मुझे हीरोइन बनाएगा, चाहे कुछ भी करना पड़े.

“कह रहा था कि तुम्हारे लिए खुद को भी गिरवी रख दूंगा लेकिन तुम्हारा ख्वाब जरूर पूरा करूंगा…पागल है सच में. ऐसे भी कोई इश्क करता है क्या?”

“20 मार्च, 2007

“आज फिर अम्मी से बात करने की कोशिश की कि अब्बू को समझाए. लेकिन मेरी बात तो हिमाकत लगती है सब को. कह रही थीं कि 19 साल की हो गई हो अब निकाह कर के रूखसत कर देंगी घर से.

“मेरी ख्वाहिश, मेरे अरमानों की फिक्र बस फैजल को है. बेइंतहा मोहब्बत करता है मुझ से. मेरी आंखों में जानें क्या ढूंढ़ते रहता है…बावला है पूरा.

“देख, तुझे बता रही हूं अपने दिल का हाल, लेकिन तू किसी को न कहना.

अब तू भी सो जा. कल फिर तुझ पर मेरी कलम मेरा हाल लिखेगी…”

“5 अप्रैल, 2007

“कल फैजल मुंबई जा रहा है और मैं भी उस के साथ ही चली जाऊंगी. जब सपनों को पूरा कर लूंगी तभी लौट कर आऊंगी. थोड़े से गहने रख लिए हैं साथ में. जरूरत पड़ गई तो बेचारा फैजल कितना करेगा?

“क्या कहा, यह गलत है? अरे, यह गहने अम्मी के नहीं हैं. मेरे निकाह के लिए ही तो बनवाए हैं अम्मी ने. तो इन पर मेरा हक हुआ न…और फिर एक बार हीरोइन बन गई तो ऐसे कितने ही गहने खरीदवा दूंगी अम्मी को…हाय, आज की रात न जाने कैसे बीतेगी.

“तू बहुत बातें करती है डायरी. मुझे भी उलझा देती है नामुराद. चल अब सोती हूं, कल बहुत तैयारी करनी है.”

“10 जनवरी, 2008

“बहुत दिनों बाद तुझे उठा रही हूं डायरी. क्या करती, हिम्मत न थी इन नापाक हाथों से तुझे हाथ लगाने की.

अब्बू बहुत मोहब्बत से मेरे लिए लाए थे तुझे. “आज तुझे सीने से लगाया तो लगा कि अब्बू करीब हैं. मैं मुंबई आ कर अपने अब्बू की बुशरा न रही. अब रोज नए किरदार में खुद को ढालती हूं. रोज बिछती हूं, रोज सिकुड़ती हूं. मरना चाहती हूं लेकिन एक बार अपने अम्मीअब्बू को देख लूं बस.

“किसी तरह मुझे मौका मिल जाए यहां से निकलने का. हीरोइन बनने आई थी लेकिन मालूम न था यह ख्वाहिश मुझे यों तबाह कर देगी. सीने में दर्द उठ रहा है लेकिन तुझ से भी न कहूंगी. यह तो मुझे ही सहना होगा.”

“6 फरवरी, 2008

“जल्दी वापस चली जाऊंगी अपने शहर. एक बार जीभर देख लूं सब को. बस एक बार. फिर तो मर जाऊंगी. 10 बज रहे हैं और मैं यहां अकेली… थकी हुई. आज अगर घर में होती तो अम्मी की गोद में सिर रख कर लेटी होती. अब्बू की लाई कुल्फी खा रही होती लेकिन अब…”

“14 मार्च, 2008

“आज लौट आई हूं वापस अपने शहर लेकिन घर नहीं जा सकती. क्या मुंह दिखाऊंगी किसी को? कैसे कर सकूंगी अब्बू का सामना? कैसे कहूंगी कि आप की बुशरा सब खो चुकी है उस शहर में…

“कैसे कहूं कि फैजल ने नोच दी आप के घर की आबरू. वह बेच गया मुझे मंडी में. बन गई मैं धंधेवाली. नीलाम कर दी बुशरा ने आप की इज्जत. अब तो बस मरने का इंतजार है. काश, मुझे मौत आ जाए…”

“20 जून, 2008

“अखबार में आज अपनी गुमशुदगी की खबर पढी. 1 साल से अधिक हो गए मुझे घर छोड़े लेकिन वे आज भी मुझे याद करते हैं.

“मन करता है जा कर अम्मी के गले लग जाऊं. अब्बू के कदमों में बैठ कर रो लूं. लेकिन नहीं कर सकती ऐसा. मेरे गुनाह इतने छोटे नहीं. मैं इन्हीं अंधेरे में सही हूं. कम से कम मुझे ढूंढ़ तो ना पाएंगे

“मैं अपनी नापाक शरीर ले कर आप के पास नहीं आ सकती, अब्बू. अकेली बैठी हूं इस छोटे से कमरे में. दम घुटता है मेरा यहां. क्या बनना चाहा और क्या बन गई मैं…

“जिस्म से रोज कपड़े उतरते हैं, रोज आदमी बदलते हैं लेकिन मैं तो वही रहती हूं बेशर्म की पुतली बुशरा. कीड़े रेंगते हैं मेरे जिस्म पर. घिनौनी हो गई हूं मैं. क्यों जिंदा हूं? काश कि मौत आ जाए मुझे…”

“20 जुलाई, 2008

“जी न माना तो चली गई आज चुपचाप अब्बू की दुकान पर. बस दूर से देख आई उन्हें. उन की आंखों में दर्द था…

“कितना नाज था उन्हें मुझ पर लेकिन मैं ने… मैं उन से नजरें नहीं मिला सकती.

“काश कि कुदरत मेरे गुनाहों को माफ कर दे, मेरे अब्बू के चेहरे पर हंसी खिला दे. काश, मुझे मौत आ जाए…”

“8 सितंबर, 2008

“दुल्हा बना कितना सुंदर लग रहा था मेरा भाई. मन कर रहा था झूम कर नाचूं…लेकिन…बस दूर से ही देख सकी मैं.

“आज अम्मी ने हरा लिबास पहना था. वैसा ही लिबास जैसा मुझे पसंद है. पर वे बुझी हुई लग रही थीं…वे मुझे भूली नहीं.

“बस एक बार भाभी का चेहरा देख पाती लेकिन यह नापाक साया उन पर नहीं डाल सकती. मैं रो रही हूं अब्बू. मुझे ले जाओ यहां से.

“अम्मी मुझे माफ कर दो. मुझे पनाह दे दो अम्मी…

“यह मैं क्या कह रही हूं? नहीं… नहीं… मुझे मरना होगा. अपनी गंदगी का साया अपने घर पर न डालूंगी. काश, मुझे मौत आ जाए…”

“6 अक्तूबर, 2008

“बुखार से बदन तप रहा है लेकिन मुझ से ज्यादा तपन इन भूखों के शरीर में लगी है. इस शरीर से बेइंतहा मोहब्बत थी मुझे, इस पर गुरूर कर फैजल पर यकीन किया था… लेकिन अब… अब नफरत हो गई… कुदरत अब किसी और बुशरा को उस कमीने के चंगुल में न फंसने देना.

“अब्बू, आप की बुशरा से गुनाह हो गया… मुझे माफ कर दो अब्बू…आप सही कहते थे कि मुंबई बहुत गंदा शहर है. काश, मौत आ जाए मुझे…”

“10 अक्तूबर, 2008

“अपने इस जिस्म पर गुमान कर घर से निकल गई थी… देखो अब्बू… आप की बुशरा इलाज से भी महरूम है. मेरी छींक पर भी बेचैन हो उठते थे आप और आज कैसी गलीच जिंदगी जी रही हूं मैं… काश, मुझे मौत आ जाए…”

“15 अक्तूबर, 2008

“हिम्मत नहीं बची है अब. मौत करीब लग रही है. आज मैं मर जाऊंगी. कुदरत का बुलावा आ गया है. लेकिन मेरे बारे में मेरे परिवार को पता न चले. उन्हें पता न चले कि अब्बू की बुशरा अब धंधेवाली…

“काश, कोई इस जिस्म को लावारिस समझ खाक में मिला दे…”

उस के मासूम चेहरे पर अब भी नजामत दिख रही थी, भले ही प्राण नहीं था शरीर में. इंस्पैक्टर को आंखों में कुछ नमी सी महसूस हुई. डायरी को बंद कर उस ने एक ठंडी सांस ली और फिर मोहब्बत की शिकार ख्वाब देखने वाली बुशरा के मरे जिस्म को उस ने लवारिस लाश में शामिल कर दिया.

बनते बिगड़ते रिश्ते : दाने-दाने को मुहताज हुआ रमेश

उन दिनों रमेश बहुत ज्यादा माली तंगी से गुजर रहा था. उसे कारोबार में बहुत ज्यादा घाटा हुआ था. मकान, दुकान, गाड़ी, पत्नी के गहने सब बिकने के बाद भी बाजार की लाखों रुपए की देनदारियां थीं. आएदिन लेनदार घर आ कर बेइज्जत करते, धमकियां देते और घर का जो भी सामान हाथ लगता, उठा कर ले जाते.

रमेश ने भी अनेक लोगों को उधार सामान दिया था और बदले में उन्होंने जो चैक दिए, वे बाउंस हो गए. वह उन के यहां चक्कर लगातेलगाते थक गया, मगर किसी ने भी न तो सामान लौटाया और न ही पैसे दिए.

थकहार कर रमेश ने उन लोगों पर केस कर दिए, मगर केस कछुए की चाल से चलते रहे और उस की हालत बद से बदतर होती चली गई.

जब दो वक्त की रोटी जुटाना भी मुश्किल हो गया, तो रमेश को अपने पुराने दोस्तों की याद आई. बच्चों की गुल्लक तोड़ कर किराए का इंतजाम किया. कुछ पैसे पत्नी कहीं से ले आई और वह अपने शहर की ओर चल दिया.

पृथ्वी रमेश का सब से अच्छा दोस्त था. रमेश को पूरी उम्मीद थी कि वह उस की मदद जरूर करेगा.

अपने शहर बीकानेर आ कर रमेश सीधा अपनी मौसी के घर चला गया. वहां से नहाधो कर व खाना खा कर वह पृथ्वी के घर की ओर चल दिया.

शनिवार का दिन था. रमेश को पृथ्वी के घर पर मिलने की पूरी उम्मीद थी. वह मिला भी और इतना खुश हुआ, जैसे न जाने कितने सालों बाद मिले हों. इस के बाद वे पूरे दिन साथ रहे. रमेश पृथ्वी से पैसे के बारे में बात करना चाहता था, मगर झिझक की वजह से कह नहीं पा रहा था.

वे एक रैस्टोरैंट में बैठ गए. रमेश ने हिम्मत जुटाई और बोला, ‘‘यार पृथ्वी, एक बात कहनी थी.’’

‘‘हांहां, बोल न,’’ पृथ्वी ने कहा.

इस के बाद रमेश ने उसे अपनी सारी कहानी सुनाई. पृथ्वी गंभीर हो गया और बोला, ‘‘तेरी हालत तो खराब ही है. तू बता, मुझ से क्या चाहता है?’’

‘‘यार, वैसे तो मुझे लाखों रुपए की जरूरत है, मगर तू भी सरकारी नौकरी करता है, इसलिए फिलहाल अगर तू मुझे 3 हजार रुपए भी उधार दे देगा, तो मैं घर में राशन डलवा लूंगा.’’

‘‘कोई बात नहीं. सुबह ले लेना.’’

‘‘तो फिर मैं कितने बजे फोन करूं?’’

‘‘तू मत करना, मैं खुद ही कर लूंगा.’’

रमेश के सिर से एक बड़ा बोझ सा उतर गया था. उस ने चैन की सांस ली. इस के बाद उन्होंने काफी देर तक बातचीत की और बाद में वह रमेश को उस की मौसी के घर तक अपनी मोटरसाइकिल पर छोड़ गया.

रमेश ने पृथ्वी को बताया कि उस की ट्रेन दोपहर 2 बजे जाएगी. उस ने रमेश को भरोसा दिलाया कि वह सुबह ही 3 हजार रुपए पहुंचा देगा.

रमेश ऐसी गहरी नींद सोया कि आंखें 9 बजे ही खुलीं. नहाधो कर तैयार होने तक साढ़े 10 बज गए. पृथ्वी का फोन अभी तक नहीं आया था.

रमेश ने फोन किया, तो पृथ्वी का मोबाइल स्विच औफ ही मिला.

रमेश की ट्रेन आई और उस की आंखों के सामने से चली भी गई. उस का मन बुझ सा गया था. उस ने कोशिश करना छोड़ दिया. उस की सूरत ऐसी लग रही थी, जैसे किसी ने गालों पर खूब चांटे मारे हों. उस की आंखों में आंसू तो नहीं थे, मगर एक सूनापन उन में आ कर जम सा गया था. वह काफी देर तक प्लेटफार्म के एक बैंच पर बैठा रहा.

‘‘अरे, रमेश? तू रमेश ही है न?’’

रमेश ने आंखें उठा कर देखा. वह सत्यनारायण था. उस का एक पुराना दोस्त. वह एक गरीब घर से था और रमेश ने कभी भी उसे अहमियत नहीं दी थी.

‘‘हां भाई, मैं रमेश ही हूं,’’ उस ने बेमन से कहा.

‘‘रमेश, मुझे पहचाना तू ने? मैं सत्यनारायण. तुम्हारा दोस्त सत्तू…’’

‘‘क्या हालचाल है सत्तू?’’ रमेश थकीथकी सी आवाज में बोला.

‘‘मैं तो ठीक हूं, मगर तू ने यह क्या हाल बना रखा है? दाढ़ी बढ़ी हुई है और कितना दुबला हो गया है. चल, बाहर चल कर चाय पीते हैं.’’

रमेश की इच्छा तो नहीं थी, मगर सत्यनारायण का जोश देख कर वह उस के साथ हो लिया. वे एक रैस्टोरैंट में आ बैठे और चाय पीने लगे.

‘‘और सुना रमेश, कैसे हालचाल हैं?’’ सत्यनारायण ने पूछा.

‘‘हालचाल क्या होंगे? जिंदा बैठा हूं न तेरे सामने,’’ रमेश ने बेरुखी से कहा.

यह सुन कर सत्यनारायण गंभीर

हो गया, ‘‘बात क्या है रमेश? मुझे बताएगा?’’

‘‘क्या बताऊं? यह बताऊं कि वहां मेरे बच्चे भूखे बैठे हैं और सोच रहे हैं कि पापा आएंगे, तो घर में राशन आएगा. पापा आएंगे, तो वे फिर से स्कूल जाएंगे. पापा आएंगे, तो नए कपड़े सिला देंगे. क्या बताऊं तुझे?’’

सत्यनारायण हक्काबक्का सा रमेश का चेहरा देख रहा था.

‘‘मैं तुझ से कुछ नहीं पूछूंगा रमेश. कितने पैसों की जरूरत है तुझे?’’ सत्यनारायण ने पूछा.

रमेश ने सत्यनारायण को ऊपर से नीचे तक देखा. साधारण से कपड़े, साधारण सी चप्पलें, यह उस की क्या मदद करेगा?

‘‘2 लाख रुपए चाहिए, क्या तू देगा मुझे?’’ रमेश ने कहा.

‘‘रमेश, मैं ने अपना सारा पैसा कारोबार में लगा रखा है. अगर तू मुझे कुछ दिन पहले कहता, तो मैं तुझे

2 लाख रुपए भी दे देता. यह बता कि फिलहाल तेरा कितने पैसों में काम चल जाएगा?’’ सत्यनारायण ने पूछा.

‘‘3 हजार रुपए में.’’

‘‘तू 10 मिनट यहां बैठ. मैं अभी आया,’’ कह कर सत्यनारायण वहां से चला गया.

रमेश को यकीन नहीं था कि सत्यनारायण लौट कर आएगा. अब तो लगता है कि चाय के पैसे भी मुझे ही देने पड़ेंगे.

इसी उधेड़बुन में 10 मिनट निकल गए. रमेश उठ ही रहा था कि उस ने सत्यनारायण को आते देखा.

सत्यनारायण की सांसें तेज चल रही थीं. बैठते ही उस ने जेब में हाथ डाला और 50 के नोटों की एक गड्डी रमेश के सामने रख दी.

‘‘यह ले पैसे…’’

रमेश को यकीन नहीं आ रहा था.

‘‘मगर, मुझे तो सिर्फ 3 हजार…’’ रमेश मुश्किल से बोला.

‘‘रख ले, तेरे काम आएंगे.’’

‘‘सत्तू, मैं तेरा एहसान कभी नहीं भूलूंगा.’’

‘‘क्या बकवास कर रहा है? दोस्ती में कोई एहसान नहीं होता है.’’

‘‘लेकिन, मैं ये पैसे तुझे 3-4 महीने से पहले नहीं लौटा पाऊंगा.’’

‘‘जब तेरे पास हों, तब लौटा देना. मैं कभी मांगूंगा भी नहीं. तुझ पर मुझे पूरा भरोसा है,’’ सत्यनारायण ने कहा, तो रमेश कुछ बोल नहीं पाया.

‘‘अब मैं निकलता हूं. चाय के पैसे दे कर जा रहा हूं. तुझे 5 बजे वाली ट्रेन मिल जाएगी, तू भी निकल. बच्चे तेरा इंतजार कर रहे होंगे.’’

सत्यनारायण चला गया. रमेश उसे दूर तक जाते देखता रहा. इस वक्त ये 5 हजार रुपए उस के लिए लाखों रुपए के बराबर थे. वह जिस इनसान को हमेशा छोटा समझता रहा, आज वही उस के काम आया.

रमेश वापस अपने घर लौट गया. 2-3 महीने का तो इंतजाम हो गया था. इस के बाद उस ने फिर से काम की तलाश शुरू कर दी.

एक दिन रमेश को कपड़े की दुकान पर सेल्समैन का काम मिल गया. तनख्वाह कम थी, मगर जीने के लिए काफी थी.

इस के बाद समय अचानक बदला. 3 मुकदमों का फैसला रमेश के हक में गया. जेल जाने से बचने के लिए लोगों ने उस की रकम वापस कर दी. कुछ दूसरे लोग डर की वजह से फैसला होने से पहले ही पैसे दे गए. 6 महीने में ही पहले जैसे अच्छे दिन आ गए.

रमेश ने फिर से कारोबार शुरू कर दिया. इस वादे के साथ कि पहले जैसी गलतियां नहीं दोहराएगा.

रमेश ने सत्यनारायण के पैसे भी लौटा दिए. उस ने ब्याज देना चाहा, तो सत्यनारायण ने साफ मना कर दिया.

इन सब बातों को आज 10 साल से भी ज्यादा हो गए हैं. रमेश कारोबार के सिलसिले में अपने शहर जाता रहता है. किसी शादी या पार्टी में पृथ्वी से भी मुलाकात हो ही जाती है. पूरे समय वह अपने नए मकान या नई गाड़ी के बारे में ही बताता रहता है और रमेश सिर्फ मुसकराता रहता है.

रमेश का पूरा समय तो अब सिर्फ सत्यनारायण के साथ ही गुजरता है. वह जितने दिन वहां रहता है, उसी के घर में ही रहता है.

रमेश ने बहुत बुरा वक्त गुजारा. ये बुरे दिन हमें बहुतकुछ सिखा भी जाते हैं. हमारी आंखों पर जमी भरम की धुंध मिट जाती है और हम सबकुछ साफसाफ देखने लगते हैं.

चार आंखों का खेल : इश्क की लुकाछिपी

चार आंखों का खेल मेरी नजर में दुनिया का सब से रोमांचक व खूबसूरत खेल है कम से कम शुरू में तो ऐसा ही लगता है. इस खेल की सब से अच्छी बात यही है कि जो चार आंखें यह खेल खेलती हैं, इस खेलके बारे में बस उन्हीं को पता होता है. उन के आसपास रहने वालों को इस खेल का अंदाजा ही नहीं हो पाता है. मैं भी इस खेल में लगभग 1 साल पहले शामिल हुई थी. यहां मुंबई में जुलाई में बारिश का मौसम था. सोसायटी के गार्डन के ट्रैक पर फिसलने का डर था. वैसे मुझे बाहर सड़कों पर सैर करना अच्छा नहीं लगता. ट्रैफिक, स्कूलबसों के हौर्न का शोर, भीड़भाड़ से दूर मुझे अपनी सोसायटी के शांत गार्डन में सैर करना ही अच्छा लगता.

हां, तो बारिश के ही एक दिन मैं घर से 20 मिनट दूर एक दूसरे बड़े गार्डन में सैर के लिए जा रही थी. वहीं सड़क पर वह अपने बेटे को साइकिल चलाना सिखा रहा था. हम दोनों ने अचानक एकदूसरे को देखा. पहली बार आंखों से आंखें मिलते ही जो होना था, हो चुका था. यह शायद आंखों का ही दोष है. किसी की आंखों से किसी की आंखें मिल जाएं, तो फिर उस का कोई इलाज नहीं रहता. शायद इसी का नाम चार आंखों का खेल है.

हां, तो जब हम दोनों ने एकदूसरे को देखा तो कुछ हुआ. क्या, यह बताना उस पल का वर्णन करना, उस एहसास को शब्दों का रूप देना मुश्किल है. हां, इतना याद रहा कि उस पूरा दिन मैं चहकती रही, न घर आते हुए बसों के हौर्न बुरे लग रहे थे, न सड़क पर कुछ शोर सुनाई दे रहा था. सुबह के 7 बजे मैं हवा में उड़ती, चहकती घर लौट आई थी.

मेरे पति निखिल 9 बजे औफिस निकलते हैं. 22 वर्षीय बेटी कोमल कालेज के लिए 8 बजे निकलती है. मैं रोज की तरह कोमल को आवाज दे कर किचन संभालने में व्यस्त हो गई. दोनों के जाने के बाद मैं दिन भर एक अलग ही उत्साह में घिरी रही. अगले दिन भी मैं सैर करने के लिए फिर बाहर ही गई. वह फिर उसी जगह अपने बेटे को साइकिल चलाना सिखा रहा था. हमारी आंखें फिर मिलीं, तनमन एक पुलक से भरते चले गए. फिर अगले 3-4 दिन मेरे सामने यह स्पष्ट हो गया कि उसे भी मेरा इंतजार रहता है. वह बारबार मुड़ कर उसी तरफ देखता है जहां से मैं उस रोड पर आती हूं. मैं ने उसे दूर से ही बारबार देखते देख लिया था.

चार आंखों का खेल बहुत ही खूबसूरती से शुरू हो गया था. दोनों खिलाड़ी शायद हर सुबह का बेचैनी से इंतजार करने लगे थे. मैं संडे को सैर पर कभी नहीं जाती थी, ब्रेक लेती थी, पर अब मैं संडे को भी जाने लगी तो निखिल ने टोका, ‘‘अरे, संध्या कहां…?’’

‘‘सैर पर,’’ मैं ने कहा.

‘‘पर आज तो संडे है?’’

‘‘आंख खुल गई है, तो चली ही जाती हूं. तुम आराम करो, मैं अभी आई,’’ कह मैं तेज कदमों से भागी सी उस रोड पर चली जा रही थी. देखा, आज उस का बेटा नहीं था. सोचा संडे है, सो रहा होगा. आज वह अपनी पत्नी के साथ सैर कर रहा था. मैं ने गौर से उस की पत्नी को देखा. मुझे वह अच्छी लगी, काफी सुंदर व स्मार्ट थी. उस ने मुझे देखा, पत्नी की नजरें बचा कर आज पहली बार वह मुसकरा भी दिया तो मुझे लगा संडे को आना जैसे सार्थक हो गया.

अब कुछ तो जरूर था हम दोनों के बीच जिस ने मुझे काफी बदल दिया था. सुबह के इंतजार में मैं पूरा दिन, शाम, रात बिताने लगी थी. 10 दिन में ही मैं कितना बदल गई थी. पूरा दिन यह एहसास कि रोज सुबह इस उम्र में भी कोई आप का इंतजार कर रहा होगा, इतना ही बहुत है रोमांचित होने के लिए.

धीरेधीरे 1 महीना बीत गया. इस खेल के दोनों खिलाड़ी मुंह से कभी एक शब्द नहीं बोले थे. आंखें ही पूछती थीं, आंखें ही जवाब देती थीं.

एक दिन निखिल ने पूछा भी, ‘‘आजकल सोसायटी के गार्डन नहीं जा रही हो?’’

‘‘नहीं, फिसलने का डर रहता है.’’

‘‘पर तुम्हें तो सैर के समय बाहर का शोर अच्छा नहीं लगता?’’

‘‘हां, पर अब ठीक लग रहा है,’’ कहते हुए मन में थोड़ा अपराधबोध सा तो महसूस हुआ पर चूंकि इस खेल में मजा आने लगा था, इसलिए सिर झटक कर अगली सुबह का इंतजार करने लगी.

बारिश का मौसम खत्म हो गया था, पर मैं अब भी बाहर ही जा रही थी. अक्तूबर शुरू हो गया था. चार आंखों का खेल अब और भी रोमांचक हो चुका था. मैं उसे सिर्फ देखने के लिए बाहर का शोरगुल पसंद न होते हुए भी बाहर भागी चली जाती थी, पहले से ज्यादा तैयार, संजसंवर कर. नईनई टीशर्ट्स, ट्रैक पैंट में, स्टाइलिश शूज में, अपने शोल्डरकट बालों को कभी खुला छोड़ कर, कभी पोनीटेल बना कर, बढि़या परफ्यूम लगा कर षोडशी सी महसूस करती हुई भागी चली जाती थी. सैर तो हमेशा करती आई थी पर इतनी दिलकश सैर पहले कभी नहीं थी.

उस से आंखें मिलते ही कितने सवाल होते थे, आंखें ही जवाब देती थीं. कभी छुट्टी वाले दिन देर से जाने पर कभी अस्वस्थता के कारण नागा होता था, तो उस की आंखें एक शिकायत करती थीं, जिस का जवाब मैं आंखों में ही मुसकरा कर दे देती थी. कभी वह नहीं देखता था तो मैं उसे घूरती थी, वह भी मुसकरा देता था फिर. अजीब सा खेल था, बात करने की जरूरत ही नहीं थी. सुबह से देखने के बाद एक जादुई एहसास से घिरी रहती थी मैं. दिन भर न किसी बात पर गुस्सा आता था, न किसी बात से चिढ़ होती थी. शांत, खुश, मुसकराते हुए अपने घर के  काम निबटाती रहती थी.

निखिल हैरान थे. एक दिन कहने लगे, ‘‘अब तो बारिश भी गई, अब भी बाहर सैर करोगी?’’

‘‘हां, ज्यादा अच्छी और लंबी सैर हो जाती है, सालों से गार्डन में ही सैर कर के ऊब गई हूं.’’

‘‘ठीक है, जहां तुम्हें अच्छा लगे,’’ निखिल भी सैर पर जाते थे, पर जब मैं आ जाती थी, तब.

फिर कमरदर्द से संबंधित शारीरिक अस्वस्थता के कारण मुझे परेशानी होने लगी थी. सुबह 20 मिनट जाना, 20 मिनट आना, फिर आते ही नाश्ता, दोनों के टिफिन, मेरी परेशानी बढ़ रही थी. पहले मैं आधे घंटे में घर आ जाती थी. डाक्टर ने कुछ दिन सैर करने का समय कम करने के लिए कहा तो मैं बेचैन हो गई. मेरे तो रातदिन आजकल उसे सुबह देखने से जुड़े थे. उसे देखने का मतलब था सुबह उठ कर 20 मिनट चल कर जाना, 20 मिनट आना, 40 मिनट तो लगने ही थे. अपनी अस्वस्थता से मैं थकने लगी थी.

अब वहां जाने का नागा होने लगा था, क्योंकि आते ही किचन में मुझे 1 घंटा लगता ही था. मैं अब इतनी देर एकसाथ काम करती तो पूरा दिन मेरी तकलीफ बढ़ी रहती. अब क्या करूं? इतने दिनों से जो एक षोडशी की तरह उत्साहित, रोमांचित महसूस कर रही हूं, अब क्या होगा? सब छूट जाएगा?

निखिल परेशान थे, मुझे समझा रहे थे, ‘‘इतने सालों से यहीं सैर कर रही हो न. अब सुबह सैर पर मत जाओ, तुम्हें और भी काम होते हैं. शाम को फ्री रहती हो, आराम से उस समय सैर पर चली जाया करो. सुबह सब एकसाथ करती हो तो तुम्हारी तकलीफ बढ़ जाती है.’’

डाक्टर ने भी निखिल की बात पर सहमति जताई थी. पर मैं नहीं मानी. एक अजीब सी मनोदशा थी मेरी. शारीरिक रूप से आराम की जरूरत थी पर दिल को आराम उसे देखने से ही मिलता था. मैं उसे देखने के लिए बाहर जाती रही. पर अब नागे बहुत होते थे.

उस का बेटा अब तक साइकिल सीख चुका था. अब वह अकेला ही वहां दिखता था. चार आंखों का खेल जारी था. अपनी हैल्थ की चिंता न करते हुए मैं बाहर ही जाती रही.

पहली जनवरी की सुबह पहली बार उस ने मेरे पास से गुजरते हुए ‘हैप्पी न्यू ईयर’ बोला. मैं ने भी अपने कदम धीरे करते हुए ‘थैंक्स, सेम टू यू’ कहा, इतने दिनों के खेल में शब्दों ने पहली बार भाग लिया था. मन मयूर प्रफुल्लित हो कर नाच उठा.

अब मेरी तबीयत खराब भी रहती तो मैं निखिल और कोमल से छिपा लेती. दोनों के जाने के बाद दर्द से बेहाल हो कर घंटो बैड पर लेटी रहती. कोमल बेटी है, बिना बताए भी चेहरा देख कर मेरे दर्द का अंदाजा उसे हो जाता था, तो कहती थी, ‘‘मौम, आप को स्ट्रैस लेने से मना किया है डाक्टर ने. आप मौर्निंग वाक पर नहीं जाएंगी, अब आप शाम की सैर पर ही जाना.’’

पर मैं नहीं मानी, क्योंकि मैं तो दुनिया के सब से दिलकश खेल की खिलाड़ी थी.

मई का महीना आया तो मेरे मन की उथलपुथल बढ़ गई. मई में मैं ने हमेशा शाम की ही सैर की थी. मुझे जरा भी गरमी बरदाश्त नहीं है. 8-10 दिन तो मैं गई. मुंबई की चिपचिपी गरमी से सुबह ही बेहाल, पसीनेपसीने लौटती. आ कर कभी नीबू पानी पीती, तो कभी आते ही एसी में बैठ जाती पर कितनी देर बैठ सकती थी. किचन के काम तो सब से जरूरी थे सुबह.

इस गरमी ने तो मेरे मन के भाव ही बदल दिए. इस बार की गरमी तो इस चार आंखों के खेल का सब से महत्त्वपूर्ण पड़ाव बन कर सामने आई. बहुत कोशिश करने पर भी मैं गरमी में सुबह सैर पर रोज नहीं जा पाई. छुट्टी वाले दिन चली जाती, क्योंकि जब आते ही किचन में नहीं जाना पड़ता था. उसे देखने के मोह पर गरमी की तपिश भारी पड़ने लगी थी. पसीना पोंछती जाती. उसे देख कर जब वापस आती, तब यह सोचती कि नहीं, अब नहीं जाऊंगी. बहुत गरमी है. मैं कोई षोडशी थोड़े ही हूं कि अपने किसी आशिक को देखने सुबहसुबह भागी जाऊं. अरे, मैं एक मैच्योर औरत हूं, पति है, बेटी है और इतने महीनों से हासिल क्या हुआ? न मुझे उस से कोई अफेयर चलाना है, न मतलब रखना है किसी तरह का. जो हुआ, बस हो गया. इस का कोई महत्त्व थोड़े ही है. जैसेजैसे गरमी बढ़ रही थी, मेरी अक्ल ठिकाने आ रही थी.

सारा उत्साह, रोमांच हवा हो रहा था. गरमी, कमरदर्द और सुबह के कामों ने मिल कर मुझे इस खेल में धराशायी कर दिया था. दिल तो अब भी वहीं उसी पार्क के रोड पर जाने के लिए उकसाता था पर दिमाग अब दिल पर हावी होने लगा था.

मन में कहीं कुछ टूटा तो था पर खुद को समझा लिया था कि ठीक है, लाइफ है, होता है ऐसा कभीकभी. यह उम्र, यह समय, ये जिम्मेदारियां शायद इस खेल के लिए नहीं हैं.

चार आंखों के इस खेल में मैं ने अपनी हार स्वीकार ली थी और पहले की तरह अपनी सोसायटी के गार्डन में ही शाम की सैर पर जाना शुरू कर दिया था.

जुआरी : महबूबा के प्यार ने बना दिया बेईमान

अगर पत्नी पसंद न हो तो आज के जमाने में उस से छुटकारा पाना आसान नहीं है. क्योंकि दुनिया इतनी तरक्की कर चुकी है कि आज पत्नी को आसानी से तलाक भी नहीं दिया जा सकता. अगर आप सोच रहे हैं कि हत्या कर के छुटाकारा पाया जा सकता है तो हत्या करना तो आसान है, लेकिन लाश को ठिकाने लगाना आसान नहीं है.

इस के बावजूद दुनिया में ऐसे मर्दों की कमी नहीं है, जो पत्नी को मार कर उस की लाश को आसानी से ठिकाने लगा देते हैं. ऐसे भी लोग हैं जो जरूरत पड़ने पर तलाक दे कर भी पत्नी से छुटकारा पा लेते हैं. लेकिन यह सब वही लोग करते हैं, जो हिम्मत वाले होते हैं.

हिम्मत वाला तो पुष्पक भी था, लेकिन उस के लिए समस्या यह थी कि पारिवारिक और भावनात्मक लगाव की वजह से वह पत्नी को तलाक नहीं देना चाहता था. पुष्पक सरकारी बैंक में कैशियर था. उस ने स्वाति के साथ वैवाहिक जीवन के 10 साल गुजारे थे. अगर मालिनी उस की धड़कनों में न समा गई होती तो शायद बाकी का जीवन भी वह स्वाति के ही साथ बिता देता.

उसे स्वाति से कोई शिकायत भी नहीं थी. उस ने उस के साथ दांपत्य के जो 10 साल बिताए थे, उन्हें भुलाना भी उस के लिए आसान नहीं था. लेकिन इधर स्वाति में कई ऐसी खामियां नजर आने लगी थीं, जिन से पुष्पक बेचैन रहने लगा था. जब किसी मर्द को पत्नी में खामियां नजर आने लगती हैं तो वह उस से छुटकारा पाने की तरकीबें सोचने लगता है.

इस के बाद उसे दूसरी औरतों में खूबियां ही खूबियां नजर आने लगती हैं. पुष्पक भी अब इस स्थिति में पहुंच गया था. उसे जो वेतन मिलता था, उस में वह स्वाति के साथ आराम से जीवन बिता रहा था, लेकिन जब से मालिनी उस के जीवन में आई, तब से उस के खर्च अनायास बढ़ गए थे. इसी वजह से वह पैसों के लिए परेशान रहने लगा था. उसे मिलने वाले वेतन से 2 औरतों के खर्च पूरे नहीं हो सकते थे. यही वजह थी कि वह दोनों में से किसी एक से छुटकारा पाना चाहता था.

जब उस ने मालिनी से छुटकारा पाने के बारे में सोचा तो उसे लगा कि वह उसे जीवन के एक नए आनंद से परिचय करा कर यह सिद्ध कर रही है. जबकि स्वाति में वह बात नहीं है, वह हमेशा ऐसा बर्ताव करती है जैसे वह बहुत बड़े अभाव में जी रही है. लेकिन उसे वह वादा याद आ गया, जो उस ने उस के बाप से किया था कि वह जीवन की अंतिम सांसों तक उसे जान से भी ज्यादा प्यार करता रहेगा.

पुष्पक इस बारे में जितना सोचता रहा, उतना ही उलझता गया. अंत में वह इस निर्णय पर पहुंचा कि वह मालिनी से नहीं, स्वाति से छुटकारा पाएगा. वह उसे न तो मारेगा, न ही तलाक देगा. वह उसे छोड़ कर मालिनी के साथ कहीं भाग जाएगा.

यह एक ऐसा उपाय था, जिसे अपना कर वह आराम से मालिनी के साथ सुख से रह सकता था. इस उपाय में उसे स्वाति की हत्या करने के बजाय अपनी हत्या करनी थी. सच में नहीं, बल्कि इस तरह कि उसे मरा हुआ मान लिया जाए. इस के बाद वह मालिनी के साथ कहीं सुख से रह सकता था. उस ने मालिनी को अपनी परेशानी बता कर विश्वास में लिया.

इस के बाद दोनों इस बात पर विचार करने लगे कि वह किस तरह आत्महत्या का नाटक करे कि उस की साजिश सफल रहे. अंत में तय हुआ कि वह समुद्र तट पर जा कर खुद को लहरों के हवाले कर देगा. तट की ओर आने वाली समुद्री लहरें उस की जैकेट को किनारे ले आएंगी. जब उस जैकेट की तलाशी ली जाएगी तो उस में मिलने वाले पहचानपत्र से पता चलेगा कि पुष्पक मर चुका है.

उसे पता था कि समुद्र में डूब कर मरने वालों की लाशें जल्दी नहीं मिलतीं, क्योंकि बहुत कम लाशें ही बाहर आ पाती हैं. ज्यादातर लाशों को समुद्री जीव चट कर जाते हैं. जब उस की लाश नहीं मिलेगी तो यह सोच कर मामला रफादफा कर दिया जाएगा कि वह मर चुका है. इस के बाद देश के किसी महानगर में पहचान छिपा कर वह आराम से मालिनी के साथ बाकी का जीवन गुजारेगा.

लेकिन इस के लिए काफी रुपयों की जरूरत थी. उस के हाथों में रुपए तो बहुत होते थे, लेकिन उस के अपने नहीं. इस की वजह यह थी कि वह बैंक में कैशियर था. लेकिन उस ने आत्महत्या क्यों की, यह दिखाने के लिए उसे खुद को लोगों की नजरों में कंगाल दिखाना जरूरी था.

योजना बना कर उस ने यह काम शुरू भी कर दिया. कुछ ही दिनों में उस के साथियों को पता चला गया कि वह एकदम कंगाल हो चुका है. बैंक कर्मचारी को जितने कर्ज मिल सकते थे, उस ने सारे के सारे ले लिए थे. उन कर्जों की किस्तें जमा करने से उस का वेतन काफी कम हो गया था. वह साथियों से अकसर तंगी का रोना रोता रहता था. इस हालत से गुजरने वाला कोई भी आदमी कभी भी आत्महत्या कर सकता था.

पुष्पक का दिल और दिमाग अपनी इस योजना को ले कर पूरी तरह संतुष्ट था. चिंता थी तो बस यह कि उस के बाद स्वाति कैसे जीवन बिताएगी? वह जिस मकान में रहता था, उसे उस ने भले ही बैंक से कर्ज ले कर बनवाया था. लेकिन उस के रहने की कोई चिंता नहीं थी. शादी के 10 सालों बाद भी स्वाति को कोई बच्चा नहीं हुआ था. अभी वह जवान थी, इसलिए किसी से भी विवाह कर के आगे की जिंदगी सुख और शांति से बिता सकती थी. यह सोच कर वह उस की ओर से संतुष्ट हो गया था.

बैंक से वह मोटी रकम उड़ा सकता था, क्योंकि वह बैंक का हैड कैशियर था. सारे कैशियर बैंक में आई रकम उसी के पास जमा कराते थे. वही उसे गिन कर तिजोरी में रखता था. उसे इसी रकम को हथियाना था. उस रकम में कमी का पता अगले दिन बैंक खुलने पर चलता.

इस बीच उस के पास इतना समय रहता कि वह देश के किसी दूसरे महानगर में जा कर आसानी से छिप सके. लेकिन बैंक की रकम में हेरफेर करने में परेशानी यह थी कि ज्यादातर रकम छोटे नोटों में होती थी. वह छोटे नोटों को साथ ले जाने की गलती नहीं कर सकता था, इसलिए उस ने सोचा कि जिस दिन उसे रकम का हेरफेर करना होगा, उस दिन वह बड़े नोट किसी को नहीं देगा. इस के बाद वह उतने ही बड़े नोट साथ ले जाएगा, जितने जेबों और बैग में आसानी से जा सके.

पुष्पक का सोचना था कि अगर वह 20 लाख रुपए भी ले कर निकल गया तो उन्हीं से कोई छोटामोटा कारोबार कर के मालिनी के साथ नया जीवन शुरू करेगा. 20 लाख की रकम इस महंगाई के दौर में कोई ज्यादा बड़ी रकम तो नहीं है, लेकिन वह मेहनत से काम कर के इस रकम को कई गुना बढ़ा सकता है.

जिस दिन उस ने पैसे ले कर भागने की तैयारी की थी, उस दिन रास्ते में एक हैरान करने वाली घटना घट गई. जिस बस से वह बैंक जा रहा था, उस का कंडक्टर एक सवारी से लड़ रहा था. सवारी का कहना था कि उस के पास पैसे नहीं हैं, एक लौटरी का टिकट है. अगर वह उसे खरीद ले तो उस के पास पैसे आ जाएंगे, तब वह टिकट ले लेगा. लेकिन कंडक्टर मना कर रहा था.

पुष्पक ने झगड़ा खत्म करने के लिए वह टिकट 50 रुपए में खरीद लिया. उस टिकट को उस ने जैकेट की जेब में रख लिया. आत्महत्या के नाटक को अंजाम तक पहुंचाने के बाद वह फोर्ट पहुंचा और वहां से कुछ जरूरी चीजें खरीद कर एक रेस्टोरैंट में बैठ गया. चाय पीते हुए वह अपनी योजना पर मुसकरा रहा था. तभी अचानक उसे एक बात याद आई.

उस ने आत्महत्या का नाटक करने के लिए अपनी जो जैकेट लहरों के हवाले की थी, उस में रखे सारे रुपए तो निकाल लिए थे, लेकिन लौटरी का वह टिकट उसी में रह गया था. उसे बहुत दुख हुआ. घड़ी पर नजर डाली तो उस समय रात के 10 बज रहे थे. अब उसे तुरंत स्टेशन के लिए निकलना था. उस ने सोचा, जरूरी नहीं कि उस टिकट में इनाम निकल ही आए इसलिए उस के बारे में सोच कर उसे परेशान नहीं होना चाहिए.

ट्रेन में बैठने के बाद पुष्पक मालिनी की बड़ीबड़ी कालीकाली आंखों की मस्ती में डूब कर अपने भाग्य पर इतरा रहा था. उस के सारे काम बिना व्यवधान के पूरे हो गए थे, इसलिए वह काफी खुश था.

फर्स्ट क्लास के उस कूपे में 2 ही बर्थ थीं, इसलिए उन के अलावा वहां कोई और नहीं था. उस ने मालिनी को पूरी बात बताई तो वह एक लंबी सांस ले कर मुसकराते हुए बोली, ‘‘जो भी हुआ, ठीक हुआ. अब हमें पीछे की नहीं, आगे की जिंदगी के बारे में सोचना चाहिए.’’

पुष्पक ने ठंडी आह भरी और मुसकरा कर रह गया. ट्रेन तेज गति से महाराष्ट्र के पठारी इलाके से गुजर रही थी. सुबह होतेहोते वह महाराष्ट्र की सीमा पार कर चुकी थी. उस रात पुष्पक पल भर नहीं सोया था, उस ने मालिनी से बातचीत भी नहीं की थी. दोनों अपनीअपनी सोचों में डूबे थे.

भूत और भविष्य, दोनों के अंदेशे उन्हें विचलित कर रहे थे. दूर क्षितिज पर लाललाल सूरज दिखाई देने लगा था. नींद के बोझ से पलकें बोझिल होने लगी थीं. तभी मालिनी अपनी सीट से उठी और उस के सीने पर सिर रख कर उसी की बगल में बैठ गई. पुष्पक ने आंखें खोल कर देखा तो ट्रेन शोलापुर स्टेशन पर खड़ी थी. मालिनी को उस हालत में देख कर उस के होंठों पर मुसकराहट तैर गई.

हैदराबाद के होटल के एक कमरे में वे पतिपत्नी की हैसियत से ठहरे थे. वहां उन का यह दूसरा दिन था. पुष्पक जानना चाहता था कि मुंबई से उस के भागने के बाद क्या स्थिति है. वह लैपटौप खोल कर मुंबई से निकलने वाले अखबारों को देखने लगा.

‘‘कोई खास खबर?’’ मालिनी ने पूछा.

‘‘अभी देखता हूं.’’ पुष्पक ने हंस कर कहा.

मालिनी भी लैपटौप पर झुक गई. दोनों अपने भागने से जुड़ी खबर खोज रहे थे. अचानक एक जगह पुष्पक की नजरें जम कर रह गईं. उस से सटी बैठी मालिनी को लगा कि पुष्पक का शरीर अकड़ सा गया है. उस ने हैरानी से पूछा, ‘‘क्या बात है डियर?’’

पुष्पक ने गूंगों की तरह अंगुली से लैपटौप की स्क्रीन पर एक खबर की ओर इशारा किया. समाचार पढ़ कर मालिनी भी जड़ हो गई. वह होठों ही होठों में बड़बड़ाई, ‘‘समय और संयोग. संयोग से कोई नहीं जीत सका.’’

‘‘हां संयोग ही है,’’ वह मुंह सिकोड़ कर बोला, ‘‘जो हुआ, अच्छा ही हुआ. मेरी जैकेट पुलिस के हाथ लगी, जिस पुलिस वाले को मेरी जैकेट मिली, वह ईमानदार था, वरना मेरी आत्महत्या का मामला ही गड़बड़ा जाता. चलो मेरी आत्महत्या वाली बात सच हो गई.’’

इतना कह कर पुष्पक ने एक ठंडी आह भरी और खामोश हो गया.

मालिनी खबर पढ़ने लगी, ‘आर्थिक परेशानियों से तंग आ कर आत्महत्या करने वाले बैंक कैशियर का दुर्भाग्य.’ इस हैडिंग के नीचे पुष्पक की आर्थिक परेशानी का हवाला देते हुए आत्महत्या और बैंक के कैश से 20 लाख की रकम कम होने की बात लिखते हुए लिखा था—‘इंसान परिस्थिति से परेशान हो कर हौसला हार जाता है और मौत को गले लगा लेता है. लेकिन वह नहीं जानता कि प्रकृति उस के लिए और भी तमाम दरवाजे खोल देती है.

पुष्पक ने 20 लाख बैंक से चुराए और रात को जुए में लगा दिए कि सुबह पैसे मिलेंगे तो वह उस में से बैंक में जमा कर देगा. लेकिन वह सारे रुपए हार गया. इस के बाद उस के पास आत्महत्या करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा, जबकि उस के जैकेट की जेब में एक लौटरी का टिकट था, जिस का आज ही परिणाम आया है. उसे 2 करोड़ रुपए का पहला इनाम मिला है. सच है, समय और संयोग को किसी ने नहीं देखा है.’

सच उगल दिया: क्या था शीला का सच

जब वह बाबा गली से गुजर रहा था, तब रुक्मिणी उसे रोकते हुए बोलीं, ‘‘बाबा, जरा रुकना.’’

‘‘हां, अम्मांजी…’’ बाबा ने रुकते हुए कहा.

‘‘क्या आप हाथ देख कर सबकुछ सहीसही बता सकते हैं?’’ रुक्मिणी ने सवाल पूछा.

बाबा खुश हो कर बोला, ‘‘हां अम्मांजी, मैं तो ज्योतिषी हूं. मैं हाथ देख कर सबकुछ सचसच बता सकता हूं.’’

बाबा को अपने आंगन में बैठा कर रुक्मिणी अंदर चली गईं. तिलकधारी बाबा के गले में रुद्राक्ष की माला थी, बढ़ी हुई दाढ़ी, उंगलियों में न जाने कितने नगीने पहन खे थे. चेहरे पर चमक थी.

रुक्मिणी उस बाबा को देख भीतर ही भीतर खुश हुईं. आखिरकार बाबा बोला, ‘‘लाओ अम्मांजी, अपना हाथ दो.’’

‘‘मेरा हाथ नहीं देखना है बाबा.’’

‘‘तो फिर किस का हाथ देखना है?’’

‘‘मेरी बहू का.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ है उसे?’’

‘‘शादी को 5 साल हो गए, मगर उस की कोख आज तक हरी नहीं हुई है.’’

‘‘ऐसी बात है क्या?’’

‘‘हां, बाबा.’’

‘‘अरे, माहिर डाक्टरों ने जिन औरतों को बांझ बता दिया है, उन की कोख भी मैं ने अपने मंत्रों से हरी की है,’’ बाबा के मुंह से जब यह सुना, तो रुक्मिणी मन ही मन खुश हो गईं और बाहर से ही आवाज देते हुए बोलीं, ‘‘बहू, जरा बाहर तो आना.’’

कुछ देर बाद बहू शीला बाहर आ कर बोली, ‘‘क्या बात है अम्मांजी?’’

‘‘देखो, ये बहुत पहुंचे हुए बाबा हैं…’’ रुक्मिणी समझाते हुए बोलीं, ‘‘इन को अपना हाथ दिखाओ.’’

‘‘अम्मांजी, हाथ दिखाने से क्या होगा?’’ बहू शीला ने सवाल उठाया.

‘‘अरे, तेरा हाथ देख कर बाबा बताएंगे कि तेरी कोख हरी होगी कि नहीं,’’ रुक्मिणी जरा नाराजगी से बोलीं, ‘‘तू पढ़ीलिखी हो कर बहस करती है. किसी बात पर यकीन नहीं करती है. अरे, इन बाबा ने कहा है कि इन्होंने तो बांझ औरतों को भी अपने मंत्रों से मां बना दिया है.’’

‘‘वह जमाना गया अम्मांजी, जब बाबा मंत्रों से सबकुछ कर लेते थे. अब इन से कुछ नहीं होना है,’’ अपना विरोध दर्ज करते हुए शीला बोली.

‘‘अरे, तू इन पहुंचे हुए बाबा को झूठा बता रही है,’’ रुक्मिणी गुस्से से बोलीं, ‘‘बैठ जा यहां आ कर और बाबा को अपना हाथ दिखा. बहस मत कर. बांझ कहीं की. अब तक तो 3-4 बच्चे की मां हो गई होती.’’

इस के बाद शीला ने कोई विरोध नहीं किया. वह चुपचाप बाबा के पास आ कर बैठ गई. बाबा ने पहले तो शीला को ऊपर से नीचे तक वासना की नजर से देखा, फिर मन ही मन सोचा, ‘अच्छा पंछी हाथ लगा है. अब पिंजरे में कैसे लाया जाए?’ फिर शीला का हाथ पकड़ कर वह बाबा उस के हाथ की रेखाएं बड़े ध्यान से देखता रहा. अपने ज्योतिष का गणित बैठाता रहा. मगर कुछ समझ नहीं पा रहा था. बाबा शीला का हाथ पकड़ कर कुछ बुदबुदा रहा था.

शीला की शादी 5 साल पहले हुई थी. सास रुक्मिणी कितनी खुश हुई थीं. वे बारबार कहतीं कि पोता चाहिए. शादी को अभी 6 महीने ही बीते थे कि शीला पेट से हो गई. यह देख मनीष खुश हुआ था, मगर शीला नहीं चाहती थी कि उस के इतनी जल्दी औलाद हो.

शीला मनीष से बोली थी, ‘मनीष, मैं नहीं चाहती कि इतनी जल्दी हमारी औलाद हो.’ ‘देखो शीला, मैं तो औलाद चाहता हूं, ताकि मां को खिलाने वाला कोई खिलौना मिल जाए,’ मनीष सलाह देते हुए बोला था.

‘ठीक है, सोनोग्राफी करा लेते हैं. अगर लड़का हुआ, तो ठीक. अगर लड़की निकली, तो पेट गिरवा देते हैं.’ शीला ने जब यह शर्त रखी, तो मनीष भी यह शर्त मान गया.

पेट में लड़की पाई गई. डाक्टर से सलाह ले कर बच्चा गिरा दिया गया. मगर इस के बाद डाक्टर ने यह कहा कि अब कभी शीला मां नहीं बन सकेगी. तब उन दोनों को पछतावा हुआ. अम्मांजी को अभी तक इस बात का पता नहीं चला था कि उस ने बच्चा गिरवा दिया था.

‘‘बताइए बाबा, मेरी बहू के औलाद होगी कि नहीं?’’ रुक्मिणी ने जब यह बात कही, तब जा कर शीला पुरानी यादों से लौटी.

बाबा बोला, ‘‘बहू के हाथ की रेखा तो यही बता रही है कि ये बहुत जल्द मां बन जाएंगी.’’

‘‘सच बाबा,’’ यह सुन कर रुक्मिणी के चेहरे पर खुशी लौट आई.

‘‘मगर अम्मांजी, इस के लिए हवन करना पड़ेगा,’’ बाबा ने चाल चली.

‘‘मैं हवन कराने को तैयार हूं बाबा. बताइए, कितना खर्चा आएगा?’’

‘‘वैसे, खर्चा तो खास नहीं आएगा अम्मांजी, मगर हवन श्मशान के मंदिर में रात 12 बजे के बाद होगा. मैं सिर्फ बहू को ले जाऊंगा.’’

‘‘यह सब मैं करने के लिए तैयार हूं बाबा, बस मुझे तो पोता चाहिए,’’ रुक्मिणी ने अपनी हामी दे दी.

इधर शीला ने एक नजर में बाबा की आंखों में आई वासना को पढ़ लिया था. उसे लगा कि यह बाबा झूठा है, ढोंगी है, अंधविश्वासी औरतों को बहलाफुसला कर उन की इज्जत से खेलता है, इसलिए हाथ छुड़ाते हुए बोली, ‘‘हाथ देखने में इतनी देर कर दी बाबा. तुम्हें ज्योतिष के बारे में जानकारी नहीं है, औरतों को फंसाने की जानकारी है.’’

‘‘अरे बहू, ऐसा क्यों कह रही है? बाबा को हाथ की रेखाएं अच्छी तरह से देखने दे,’’ रुक्मिणी बोलीं.

‘‘अम्मां, ये सब ज्योतिषी झूठे और ढोंगी हैं.’’

‘‘अरे बहू, ऐसी बातें मत बोल.’’

‘‘अम्मां, मैं सही कह रही हूं,’’ शीला ने कनखियों से जब बाबा की ओर देखा, तब उस के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं.

शीला बाबा से गुस्से में बोली, ‘‘जाओ बाबा, जाओ. अपनी इज्जत चाहते हो तो…’’

‘ऐ बहू, बाबा की बेइज्जती कर के क्यों भगा रही है?’’ डांटते हुए रुक्मिणी बोलीं, ‘‘बाबा, मैं बहू की तरफ से माफी मांगती हूं. यह ज्यादा पढ़ीलिखी है न, इसलिए इसे यह सब ढोंग लगता है.’’

‘‘ढोंग मैं नहीं कर रही हूं, ढोंगी तो यह बाबा है,’’ ?समझाते हुए शीला बोली, ‘‘श्मशान के मंदिर में रात के 12 बजे के बाद यज्ञ करेगा… मैं अच्छी तरह जानती हूं कि तुम जैसे ढोंगी अम्मां जैसी न जाने कितनी औरतों को फुसला कर जवान औरतों के बदन से खेलते हैं.’’

‘‘एक बाबा की बेइज्जती कर के तुम ने अच्छा नहीं किया है,’’ उठते हुए बाबा बोला, ‘‘मैं तुम्हें श्राप देता हूं कि तू अब कभी मां नहीं बन सकेगी.’’ ऐसा कह कर बाबा तेजतेज कदमों से चलता बना. रुक्मिणी नाराज होते हुए बोलीं, ‘‘यह तू ने क्या कर दिया बहू? बाबा जातेजाते तुम को श्राप दे गया है कि अब तुम कभी मां नहीं बन सकोगी.’’

‘‘अम्मां, मैं ने जो किया सही किया है. मेरा बस चले, तो मैं इसे पुलिस के हवाले कर देती.’’ ‘‘ऐ बहू, ज्यादा बातें मत कर. एक तो मुश्किल से यह बाबा मिला था. ऊपर से हमारी गली में आता कौन है?

‘‘अरे, बाबा तुम्हें ऐसा श्राप दे गया है कि अब तुम कभी मां नहीं बन सकोगी. मैं तो अब बच्चे की किलकारी सुनने के लिए तरस जाऊंगी…’’

‘‘अम्मां, मैं तुम्हें कैसे बताऊं कि मैं मां नहीं बन सकती हूं,’’ कह कर शीला ने अपने मन का दर्द उगल दिया. उस ने सोचा कि यही सही समय है कि सच बता दिया जाए, नहीं तो अंधविश्वासी अम्मां को उम्रभर यह भरम रहेगा कि बाबा के श्राप के असर की वजह से वह मां नहीं  बन सकी है. शीला बोली, ‘‘अम्मां, मनीष और मैं ने आज तक एक बात तुम से छिपा कर रखी है.’’

‘‘कौन सी बात बहू?’’ हैरानी से रुक्मिणी बोलीं.‘‘शादी के 6 महीने बाद मैं पेट से हो गई थी. मैं नहीं चाहती थी कि इतनी जल्दी मां बनूं, इसलिए मनीष से कहा कि बच्चा गिरा दो. मगर उस के साथ ही डाक्टर ने यह कह दिया कि अब तुम कभी मां नहीं बन सकोगी.’ रुक्मिणी कुछ नहीं बोलीं. यह सुन कर वे जड़ हो गईं.

प्यार : होटल की वह रहस्यमयी लड़की

‘‘अरे संजय… चल यार, आज मजा करेंगे,’’ बार से बाहर निकलते समय उमेश संजय से बोला. दिनेश भी उन के साथ था.

संजय ने कहा, ‘‘मैं ने पहले ही बहुत ज्यादा शराब पी ली है और अब मैं इस हालत में नहीं हूं कि कहीं जा सकूं.’’

उमेश और दिनेश ने संजय की बात नहीं सुनी और उसे पकड़ कर जबरदस्ती कार में बिठाया और एक होटल में जा पहुंचे.

वहां पहुंच कर उमेश और दिनेश ने एक कमरा ले लिया. उन दोनों ने पहले ही फोन पर इंतजाम कर लिया था, तो होटल का एक मुलाजिम उन के कमरे में एक लड़की को लाया.

उमेश ने उस मुलाजिम को पैसे दिए. वह लड़की को वहीं छोड़ कर चला गया.

वह एक साधारण लड़की थी. लगता था कि वह पहली बार इस तरह का काम कर रही थी, क्योंकि उस के चेहरे पर घबराहट के भाव थे. उस के कपड़े भी साधारण थे और कई जगह से फटे हुए थे.

संजय उस लड़की के चेहरे को एकटक देख रहा था. उसे उस में मासूमियत और घबराहट के मिलेजुले भाव नजर आ रहे थे, जबकि उमेश और दिनेश उस को केवल हवस की नजर से देखे जा रहे थे.

तभी उमेश लड़खड़ाता हुआ उठा और उस ने दिनेश व संजय को बाहर जाने के लिए कहा. वे दोनों बाहर आ गए.

अब कमरे में केवल वह लड़की और उमेश थे. उमेश ने अंदर से कमरा बंद कर लिया. संजय को यह सब बिलकुल भी अच्छा नहीं लग रहा था, लेकिन उमेश और दिनेश ने इतनी ज्यादा शराब पी ली थी कि उन्हें होश ही न था कि वे क्या कर रहे हैं.

काफी देर हो गई, तो संजय ने दिनेश को कमरे में जा कर देखने को कहा.

दिनेश शराब के नशे में चूर था. लड़खड़ाता हुआ कमरे के दरवाजे पर पहुंच कर उसे खटखटाने लगा. काफी देर बाद लड़की ने दरवाजा खोला.

उस लड़की ने दिनेश से कहा कि उस का दोस्त सो गया है, उसे उठा लो. नशे की हालत में चूर दिनेश उस लड़की की बात सुनने के बजाय पकड़ कर उसे अंदर ले गया और दरवाजा बंद कर लिया.

संजय दूर बरामदे में बैठा यह सब देख रहा था. दिनेश को भी कमरे में गए काफी देर हो गई, तो संजय ने दरवाजा खड़काया.

इस बार भी उसी लड़की ने दरवाजा खोला. वह अब परेशान दिख रही थी. उस ने संजय की तरफ देखा और कहा, ‘‘ बाबू, ये लोग कुछ कर भी नहीं कर रहे और मेरा पैसा भी नहीं दे रहे हैं.

मुझे पैसे की जरूरत है और जल्दी घर भी जाना है,’’ कहते हुए उस लड़की का गला बैठ सा गया.

संजय ने लड़की को अंदर चलने को कहा और थोड़ी देर में उसे उसी होटल के दूसरे कमरे में ले गया. उस ने जाते हुए देखा कि उमेश और दिनेश शराब में चूर बिस्तर पर पड़े थे.

संजय ने दूसरे कमरे में उस लड़की को बैठने को कहा. लड़की घबराते हुए बैठ गई. वह थोड़ा जल्दी में लग रही थी. संजय ने उसे पास रखा पानी पीने को दिया, जिसे वह एक सांस में ही पी गई.

पानी पीने के बाद वह लड़की खड़ी हुई और संजय से बोली, ‘‘बाबू, अब जो करना है जल्दी करो, मुझे पैसे ले कर जल्दी घर पहुंचना है.’’

संजय को उस की मासूम बातों पर हंसी आ रही थी. उस ने उसे पैसे दे दिए तो उस ने पैसे रख लिए और संजय को पकड़ कर बिस्तर पर ले गई और अपने कपड़े उतारने लगी.

संजय ने उस का हाथ पकड़ा और कपड़े खोलने को मना किया. लड़की बोली, ‘‘नहीं बाबू, कस्तूरी ऐसी लड़की नहीं है, जो बिना काम के किसी से भी पैसे ले ले. मैं गरीब जरूर हूं, लेकिन भीख नहीं लूंगी.’’

संजय अब बोल नहीं पा रहा था. तभी कस्तूरी ने संजय का हाथ पकड़ा और उसे बिस्तर पर ले गई, यह सब इतना जल्दी में हुआ कि संजय कुछ कर नहीं पाया.

कस्तूरी ने जल्दी से अपने कपड़े उतारे और संजय के भी कपड़े उतारने लगी. अब कस्तूरी संजय के इतने नजदीक थी कि उस के मासूम चेहरे को वह बड़े प्यार से देख रहा था. वह कस्तूरी की किसी बात का विरोध नहीं कर पा रहा था. उस के मासूम हावभाव व चेहरे से संजय की नजर हटती, तब तक कस्तूरी वह सब कर चुकी थी, जो पतिपत्नी करते हैं.

कस्तूरी ने जल्दी से कपड़े पहने और होटल के कमरे से बाहर निकल गई. संजय अभी भी कस्तूरी के खयालों में खोया हुआ था.

समय बीतता गया, लेकिन संजय के दिमाग से कस्तूरी निकल नहीं पा रही थी.

एक दिन संजय बाजार में सामान खरीद रहा था. उस ने देखा कि कस्तूरी भी उस के पास की ही एक दुकान से सामान खरीद रही थी.

संजय उस को देख कर खुश हुआ. उस ने कस्तूरी को आवाज दी तो कस्तूरी ने मुड़ कर देखा और फिर दुकानदार से सामान लेने में जुट गई.

संजय उस के पास पहुंचा. कस्तूरी ने संजय की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया. कस्तूरी ने सामान खरीदा और दुकान से बाहर निकल गई.

संजय उसे पीछे से आवाज देता रहा, लेकिन उस ने अनसुना कर दिया.

कुछ दिन बाद संजय को कस्तूरी फिर दिखाई दी. उस दिन संजय ने कस्तूरी का हाथ पकड़ा और उसे भीड़ से दूर खींच कर ले गया और उस से उस की पिछली बार की हरकत के बारे में पूछना चाहा, तो संजय के पैरों की जमीन खिसक गई. उस ने देखा, कस्तूरी का चेहरा पीला पड़ चुका था और वह बहुत कमजोर हो गई थी. उस ने अपनी फटी चुनरी से अपना पेट छिपा रखा था, जो कुछ बाहर दिख रहा था.

कस्तूरी वहां से जाने के लिए संजय से जोरआजमाइश कर रही थी. संजय ने किसी तरह उसे शांत किया और भीड़ से दूर एक चाय की दुकान पर बिठाया.

संजय ने गौर से कस्तूरी के चेहरे की तरफ देखा, तो उस का दिल बैठ गया. कस्तूरी सचमुच बहुत कमजोर थी. संजय ने कस्तूरी से उस की इस हालत के बारे में पूछा, तो पहले तो कुछ नहीं बोली, लेकिन संजय ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरा तो वह रोने लगी.

संजय कुछ समझ नहीं पा रहा था. कस्तूरी ने अपने आंसू पोंछे और बोली, ‘‘बाबू, मेरी यह हालत उसी दिन से है, जिस दिन आप और आप के दोस्त मुझे होटल में मिले थे.’’

संजय ने उस की तरफ सवालिया नजरों से देखा, तो वह फिर बोली, ‘‘बाबू, मैं कोई धंधेवाली नहीं हूं. मैं उस गंदे नाले के पास वाली कच्ची झोंपड़पट्टी में रहती हूं. उस दिन पुलिस मेरे भाई को पकड़ कर ले गई थी, क्योंकि वह गली में चरसगांजा बेच रहा था. उसे जमानत पर छुड़ाना था और मेरे मांबाप के पास पैसा नहीं था. अब मुझे ही कुछ करना था.

‘‘मैं ने अपने पड़ोस में सब से पैसा मांगा, लेकिन किसी ने नहीं दिया. थकहार कर मैं बैठ गई तो मेरी एक मौसी बोली कि इस बेरहम जमाने में कोई मुफ्त में पैसा नहीं देता.

‘‘मौसी की यह बात मेरी समझ में आई और मैं आप और आप के दोस्तों तक पहुंच गई.’’

कस्तूरी चुप हुई, तो संजय ने अपने चेहरे के दर्द को छिपाते हुए पूछा, ‘‘तुम्हारी यह हालत कैसे हुई?’’

कस्तूरी ने कहा, ‘‘बाबू, यह जान कर आप क्या करोगे? यह तो मेरी किस्मत है.’’

संजय ने फिर जोर दिया, तो कस्तूरी बोली, ‘‘बाबू, उस दिन आप के दिए गए पैसे से मैं अपने भाई को हवालात से छुड़ा लाई, तो भाई ने पूछा कि पैसे कहां से आए. मैं ने झूठ बोल दिया कि किसी से उधार लिए हैं.’’

थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह फिर बोली, ‘‘बाबू, सब ने पैसा देखा, लेकिन मैं ने जो जिस्म बेच कर एक जान को अपने शरीर में आने दिया, तो उसे सब नाजायज कहने लगे और जिस भाई को मैं ने बचाया था, वह मुझे धंधेवाली कहने लगा और मुझे मारने लगा. वह मुझे रोज ही मारता है.’’

यह सुन कर संजय के कलेजे का खून सूख गया. इस सब के लिए वह खुद को भी कुसूरवार मानने लगा. उस की आंखों में भी आंसू छलक आए थे.

कस्तूरी ने यह देखा तो वह बोली, ‘‘बाबू, इस में आप का कोई कुसूर नहीं है. अगर मैं उस रात आप को जिस्म नहीं बेचती तो किसी और को बेचती. लेकिन बाबू, उस दिन के बाद से मैं ने अपना जिस्म किसी को नहीं बेचा,’’ यह कहते हुए वह चुप हुई और कुछ सोच कर बोली, ‘‘बाबू, उस रात आप के अच्छे बरताव को देख कर मैं ने फैसला किया था कि मैं आप की इस प्यार की निशानी को दुनिया में लाऊंगी और उसी के सहारे जिंदगी गुजार दूंगी, क्योंकि हम जैसी गरीब लड़कियों को कहां कोई प्यार करने वाला जीवनसाथी मिलता है.’’

इतना कह कर कस्तूरी का गला भर आया. वह आगे बोली, ‘‘बाबू, यह आप की निशानी है और मैं इसे दुनिया में लाऊंगी, चाहे इस के लिए मुझे मरना ही क्यों न पड़े,’’ इतना कह कर वह तेजी से उठी और अपने घर की तरफ चल दी.

यह सुन कर संजय जैसे जम गया था. वह कह कर भी कुछ नहीं कह पाया. उस ने फैसला किया कि कल वह कस्तूरी के घर जा कर उस से शादी की बात करेगा.

वह रात संजय को लंबी लग रही थी. सुबह संजय जल्दी उठा और बदहवास सा कस्तूरी के घर की तरफ चल दिया. वह उस के महल्ले के पास पहुंचा तो एक जगह बहुत भीड़ जमा थी. वह किसी अनहोनी के डर को दिल में लिए भीड़ को चीर कर पहुंचा, तो उस ने जो देखा तो जैसे उस का दिल बाहर निकलने की कोशिश कर रहा हो.

कस्तूरी जमीन पर पड़ी थी. उस की आंखें खुली थीं और चेहरे पर वही मासूम मुसकराहट थी.

संजय ने जल्दी से पूछा कि क्या हुआ है तो किसी ने बताया कि कस्तूरी के भाई ने उसे चाकू से मार दिया है, क्योंकि सब कस्तूरी के पेट में पल रहे बच्चे की वजह से उसे बेइज्जत करते थे.

संजय पीछे हटने लगा, अब उसे लगने लगा था कि वह गिर जाएगा. तभी पुलिस का सायरन बजने लगा तो भीड़ छंटने लगी.

संजय पीछे हटते हुए कस्तूरी को देख रहा था. उस का एक हाथ अपने पेट पर था और शायद वह अपने प्यार को मरते हुए भी बचाना चाहती थी. उस के चेहरे पर मुसकराहट ऐसी थी, जैसे उन खुली आंखों से संजय को कहना चाहती हो, ‘बाबू, यह तुम्हारे प्यार की निशानी है, पर इस में तुम्हारा कोई कुसूर नहीं है.’

संजय पीछे मुड़ा और अपने घर पहुंच कर रोने लगा. वह अपनेआप को माफ नहीं कर पा रहा था, क्योंकि अगर वह कल ही उस से शादी की बात कर लेता तो शायद कस्तूरी जिंदा होती.

बारिश होने लगी थी. बादल जोर से गरज रहे थे. वे भी कस्तूरी के प्यार के लिए रो रहे थे.

विश्वास: क्या बीमार नीता को मिला उस का हमदम

उस रात नीता बहुत खुश थी. जब वह घर लौटी तो पुरानी यादों में ऐसी खोई कि उस की आंखों की नींद न जाने कहां गायब हो गई. उसे समीर ही समीर दिखाई दे रहा था. जब वह पहली बार समीर से मिली थी, तब उसे देखते ही उस का दिल धड़क उठा था.

समीर एम. टैक. फाइनल ईयर का छात्र था और नीता फाइन आर्ट्स की. दोनों एक अनजाने आकर्षण से एकदूसरे की ओर खिंचे चले जा रहे थे. दोनों रोज मिलते. प्रेम के सागर में डूबे दोनों को एकदूसरे के बिना जीवन निरर्थक लगने लगा था. समीर नीता के सौंदर्य और उस के मधुर स्वभाव पर मुग्ध था और नीता… नीता तो समीर की दीवानी थी. जब कभी अपने सपनों के शहजादे की कल्पना करती तो उस की आंखों में समीर का ही चेहरा आता.

नीता समीर से रोज मिलती थी. एक दिन नीता समीर के प्यार में सराबोर हो ऐसी बही की सारी सीमाएं ही भूल गई. मगर समझदार थे दोनों, इसलिए पूरी सावधानी बरती थी.

नीता की प्रेम के रंग में रंगी पतंग आसमान में ऊंची उड़ती जा रही थी. तभी एक दिन वह पतंग अचानक धम से नीचे आ गिरी. दरअसल, हुआ यह कि नीता को नहाते समय शीशे में अपनी पीठ पर एक सफेद दाग दिखा. वह उस दाग को देखते ही विचलित हो उठी कि यदि यह बीमारी फैल गई तो कैसे जीवित रहेगी वह? समीर का खयाल आते ही उस के मधुर सपने कांच की तरह टूट कर बिखर गए. उस ने रोतेरोते मां से कहा, ‘‘देखो न मां, मेरी पीठ पर यह कैसा दाग दिखाई दे रहा है.’’

नीता की मां शांति ने जैसे ही दाग देखा तो वे भी परेशान हो गईं.

फिर एक दिन शांति ने अपनी सहेली से कंकड़ बाबा का पता ले कर नीता से कहा, ‘‘चल नीता बेटी, तैयार हो जा. मैं तुझे कंकड़ बाबा के पास ले चलती हूं… कुछ दिन पहले मेरी सहेली सुजाता की भानजी को भी ऐसे ही दाग हो गए थे. सुजाता उसे 2-4 बार कंकड़ बाबा के पास ले कर गई और उस के दाग गायब हो गए.’’

नीता को मां से ऐसी बात की कतई आशा नहीं थी. अत: झुंझलाते हुए बोली, ‘‘मां, आप पढ़ीलिखी हो कर कैसी बातें कर रही हैं? ये बाबा लोग धर्म और आस्था के नाम पर लोगों को मानसिक रूप से गुलाम बना कर उन्हें ठगते हैं.’’

यह सुन कर मां गुस्सा हो कर कहने लगीं, ‘‘बस यही तो इस नई जैनरेशन की परेशानी है… बच्चे अपने आगे किसी को कुछ समझते ही नहीं. अरे भई, मंत्र में भी बड़ी शक्ति होती है. चल, जल्दी से तैयार हो जा.’’

नीता को न चाहते हुए भी उस कंकड़ बाबा के पास जाना पड़ा. कंकड़ बाबा के पास बहुत सारे लोग इलाज के लिए आए थे. कुछ ही देर में काले वस्त्र पहने वहां ‘जय मां काली, जय मां काली’ कहते हुए कंकड़ बाबा पहुंच गया. भक्तों ने भी ‘जय मां काली’ के जयकारे लगाने शुरू कर दिए. फिर बाबा ने बड़े ही विचित्र ढंग से लोगों का उपचार करना शुरू किया.

एक औरत के पेट में पथरी थी. बाबा ने कोई मंत्र फूंका और फिर उस के पेट में से पत्थर को चूस कर बाहर निकालने का दावा किया. नीता ये सब देख कर डर गई. जब उस का नंबर आया तब बाबा ने नीता का कुरता उठाया और कमर पर मोरपंख की झाड़ू घुमाते हुए मंत्र फूंका. फिर नीता को अजीब नजरों से घूरते हुए बोला, ‘‘यह दाग किसी ऊपरी शक्ति का प्रकोप है. इस के लिए तो बड़े उपाय करने होंगे.’’

‘‘बताइए न बाबा,’’ शांति ने बड़ी श्रद्धा से कहा.

‘‘बाबा ने नीता को एक लाल कपड़े की पोटली देते हुए कहा, ‘‘लड़की,

इस लाल कपड़े की पोटली को रोज अपने तकिए के नीचे रख कर सोना. और हां, एक काले कुत्ते को हर शनिवार को इमरती खिलाना.’’

शांति ने स्वीकृति में सिर हिलाया. फिर बाबा कोई पेयपदार्थ देते हुए बोला, ‘‘ले, यह दिव्य पेय अभी पी ले और अंदर कुटिया में एक शिला है, उस पर जा कर लेट जा. कोई लेप लगाना होगा.’’

नीता की मां शांति भी उस के साथ कुटिया में जाने के लिए उठने लगीं तो बाबा ने कहा, ‘‘अरेअरे रुक… वहां इसे अकेले ही जाना होगा.’’

नीता वहां का माहौल देख कर बुरी तरह डर गई थी. वह उठी और भागने लगी. पीछेपीछे उस की मां शांति भी भागीं.

बाबा के चेले चिल्लाते रह गए, ‘‘रुको… रुको…’’

नीता ने किसी की नहीं सुनी. वह चिल्लाते हुए बोली, ‘‘मुझे नहीं दिखाना किसी बाबा को. इन पाखंडी, ठग बाबाओं के नित नए कारनामे सुन कर भी क्या मां आप को डर नहीं लगता? चलो, घर चलो.’’

जब नीता के पापा दिनेशजी ने ये सब सुना तो वे शांति पर बहुत गुस्सा हुए. बोले, ‘‘शांति, तुम किस पचड़े में पड़ी हो? ये बाबा, ओझा आदि तंत्रमंत्र और दैवीय शक्ति के नाम पर सीधेसादे लोगों को मूर्ख बनाते हैं. न जाने अकेले में वह बदमाश क्याक्या करता. ये पाखंडी लोगों की अंधश्रद्धा का फायदा उठाते

हैं… नीता बेटा, मैं कल तुझे डाक्टर के पास ले चलूंगा.’’

नीता के पिता उसे डाक्टर के पास ले गए. डाक्टर ने चैकअप कर कहा, ‘‘यह ल्यूकोडर्मा जैसी बीमारी की शुरुआत है. समय पर इलाज करा लेने से ठीक हो जाती है वरना इस के परिणाम खतरनाक भी हो सकते हैं.’’

नीता पूरे मनोयोग से इलाज करा रही थी. मगर उसे यह चिंता भी

सता रही थी कि यदि सफेद दाग के बारे में जान कर समीर ने शादी से इनकार कर दिया तो? इस कल्पना मात्र से उस का दिल क्यों दुखाऊं? मगर शादी के बाद जब उसे दाग दिखाई देगा, तब उस का क्या हाल होगा? वह क्या सोचेगा?

ऐसे ही खयालों में डूबी नीता रोज परेशान रहती थी. उस का दिल और दिमाग दोनों ही अलगअलग दिशाओं में जा रहे थे. वह समीर को खोने के डर से सच छिपाने की कोशिश करती रहती थी.

नीता का मन उसे ऐसा करने से धिक्कारता. मन की आवाज की अवहेलना करतेकरते वह परेशान हो उठी थी. नीता यह समझ गई थी कि सफेद दाग की बात छिपाना समीर को बहुत बड़ा धोखा देना होगा. वह यह भलीभांति जानती थी कि विवाह जैसे पावन, मधुर रिश्ते की नींव विश्वास और प्रेम पर ही टिकी होती है. यदि प्रेम और विश्वास न हो तो सफल विवाह की कल्पना भी नहीं की जा सकती. अत: उस ने मन ही मन यह निर्णय कर लिया कि जो भी होगा वह सह लेगी, पर समीर से सच नहीं छिपाएगी.

इसी बीच एक दिन समीर का फोन आया. बोला, ‘‘शहर में एक नया रेस्तरां खुला है… कल चलोगी न?’’

समीर ने इतने आग्रहपूर्वक कहा कि नीता तुरंत मान गई.

अगले दिन यूनिवर्सिटी जाने के बजाय वह समीर के साथ नए रेस्तरां पहुंच गई.

रेस्तरां का वह कोना रंगबिरंगी रोशनी से खूब चमक रहा था. वातावरण में अनोखी चमक थी.

समीर घुटनों के बल बैठ कर धरती, आकाश, जल, पवन और अग्नि को साक्षी मान कर नीता को प्रोपोज करने ही वाला था कि तभी नीता बोल पड़ी, ‘‘समीर, मुझे तुम से कुछ कहना है.’’

उस का दिल जोरजोर से धड़क रहा था. उस ने अपने दिल को कड़ा कर लिया था. वह समीर के हर उत्तर के लिए तैयार थी. फिर उस ने समीर को अपने सफेद दाग के बारे में बता दिया.

सुन कर समीर ने नीता का हाथ पकड़ कर बड़े प्यार से कहा, ‘‘मैं हर स्थिति में तुम्हारे साथ हूं. तुम मेरी धड़कन हो… करोगी न मुझ से शादी?’’ नीता की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे. उस के मन में उमड़ा तूफान पूरी तरह शांत हो चुका था. सारी शंकाएं दूर हो चुकी थीं. उसे पवित्र प्रेम का उपहार मिल चुका था.

नीता जीवन की इन्हीं खट्टीमीठी यादों को याद करते हुए न जाने कब नींद के आगोश में चली गई.

सुबह उस की मां ने उसे उठाते हुए कहा, ‘‘उठो बेटा, यूनिवर्सिटी जाने का समय हो गया है.’’

नीता के चेहरे पर अद्भुत तेज और सुकून दिखाई दे रहा था. वह मां से बोली, ‘‘मां, बैठो न मेरे पास,’’ नीता मां की गोद में सिर रख कर लेट गई फिर प्यार से बोली, ‘‘मां, मैं आप को कुछ बताना चाहती हूं.’’

मां ने उस के बालों को सहलाते हुए कहा, ‘‘बोल बेटी, क्या कहना चाहती है?’’

‘‘मां, आप समीर से तो मिल चुकी हैं. मैं उस से बहुत प्यार करती हूं. हम दोनों शादी करना चाहते हैं.’’

‘‘यह तो ठीक है बेटी, पर क्या वह तेरी बीमारी के बारे में जानता है?’’ मां ने पूछा.

‘‘हां मां, मैं ने उसे सब बता दिया है.’’

नीता के मातापिता उस का रिश्ता ले कर समीर के घर गए. सब की रजामंदी से समीर और नीता का रिश्ता तय हो गया. अब तक जो प्रेम छिपछिप कर चल रहा था, अब जग उजागर हो चुका था. कुछ ही दिनों में बड़ी धूमधाम से दोनों का विवाह हो गया.

अपने कमरे में नईनवेली दुलहन नीता रिश्तेदारों से घिरे समीर का इंतजार कर रही थी. थोड़ी देर में नीता की प्रतीक्षा की घडि़यां समाप्त हुईं. समीर को देखते ही वह खुशी से झूम उठी. पतिपत्नी अपनी न्यारी, प्यारी दुनिया में खोए रहे. बहुत देर हंसतेबतियाते रहे.

नीता ने कहा, ‘‘समीर, तुम ने मुझे मेरे दाग के साथ अपना कर मेरा जीवन सफल कर दिया.’’

समीर ने नीता का चुंबन लेते हुए कहा, ‘‘तुम्हें याद है वह दिन, जब तुम उस मदमाती बेल की तरह मुझ से लिपट गई थी और सारी सीमाओं को भूल गई थी?’’

समीर की बात सुनते ही नीता शर्म से लाल हो गई.

समीर बोला, ‘‘सच बताऊं तो मैं ने तुम्हारा दाग उसी दिन देख लिया था. मैं तो तुम्हारीझ्र भोली सूरत, समझदारी और मधुर स्वभाव पर हमेशा से मुग्ध था. नीता, मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं, पर मेरे मन के किसी कोने में यह इच्छा दबी थी कि तुम अपने जीवन का सत्य मुझे स्वयं बताओ. नीता उस रेस्तरां की रंगबिरंगी रोशनी में तुम ने सच बोल कर मेरे विश्वास को हमेशा के लिए जीत लिया. नीता तुम मेरी जिंदगी हो… मैं तुम्हारे बिना अधूरा हूं.’’

सुरक्षाबोध: कहानी नए प्यार की

लड़के ने लड़की को मैसेज किया सुंदर से गुलाब के फूल के साथ, जिस की पंखुडि़यों पर ओस की बूंदें थीं. उस के हाथ जुड़े हुए थे और उस पर लिखा था, ‘‘बीते साल में हम से कोई गलती हुई हो तो माफ कीजिएगा. यह साथ नए वर्ष में भी बना रहे.’’

उस मैसेज को पढ़ कर लड़की ने हंसते हुए अनेक इमोजी दाग दिए.

‘‘अरे, ऐसा तो मैं ने कुछ नहीं कहा कि इतना हंसा जाए,’’ बेचारा हैरान सा हो कर रह गया. अभी सोच ही रहा था कि उधर से हंसी वाले इमोजी की एक कतार और टपक पड़ी. अगले दिन जब मुलाकात हुई तो उस ने पूछ ही लिया, ‘‘भला ऐसा क्या था मेरे मैसेज में जो तुम को हंसी आ गई, जोक तो नहीं भेजा था मैं ने.’’

लड़की फिर भी लगातार हंसे जा रही थी. उस ने थोड़ा झुक कर पेट पकड़ लिया था और दोहरी हुई जा रही थी. लड़की की विस्मय से आंखें फटी जा रही थीं.

‘‘तुम ने जोक नहीं सुनाया, यह तो सही है मगर तुम ने माफी किस बात की मांगी, यह तो बताओ,’’ लड़की ने कहा.

‘‘ऐसे ही, जानेअनजाने गलती हो जाती है. बस, इसीलिए मैं ने इंसानियत के नाते माफी मांग ली.’’

18 साल की वह लड़की देखने में पूरी तरह मौडर्न कही जा सकती थी. मिनी स्कर्ट के साथ पिंक स्लीवलैस टौप उस पर खूब फब रहा था. कंधे तक कटे बाल उस पर बहुत सूट कर रहे थे. आंखों में लगे मोटेमोटे काजल ने उन्हें और बड़ा बना दिया था. वह इतनी अदा से बोल रही थी कि लड़के की नजर उस के चेहरे से हट ही नहीं रही थी. लड़का कुछ कम स्मार्ट हो, ऐसा नहीं था. अच्छाखासा कद, चौड़े कंधे, स्टाइलिश बाल, उसे देख कर कोई भी लड़की उस पर फिदा हो सकती थी.

वे दोनों दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ते थे. कालेज औफ कैंपस था. आसपास का माहौल भी ऐसा था कि बिगड़े और कुछ लफंगे लड़के ही नजर आते थे. कालेज में सुबह से शाम तक हलचल रहती थी और किसी न किसी बात पर होहल्ला भी होता रहता था.

वे दोनों कैंटीन में थे. लड़की चल कर बड़ी टेबल तक पहुंच गई. लड़का भी उस के पीछेपीछे चला जा रहा था जैसे सूई के पीछे धागा. लड़की ने टेबल पर अपना पर्स उलट दिया, छोटेछोटे कई सामान गिर पड़े, ब्रेसलेट, ईयर रिंग, रूमाल आदि. उस ने ब्रेसलेट हाथ में उठाया और लड़के की नाक के पास ले गई. लड़के को लगा था माथे पर मारेगी तो थोड़ा पीछे हटा, लेकिन, लड़की नहीं मानी, वह उतना ही आगे झुक गई.

‘‘यह ब्रेसलेट मुझे उस ने दिया,’’ लड़की ने कहा.

‘‘हकलाते हुए उस ने बोला, ‘‘किस ने?’’

‘‘वह जो फर्स्ट रौ में सब से लास्ट में बैठता है.’’

‘‘अच्छाअच्छा वह तो…’’ लड़के ने राहत की सांस ली. लेकिन अगले ही पल लड़की ने परफ्यूम उठा लिया और दाएंबाएं शीशी नचाने लगी. पास आते हुए बोली, ‘‘यह मुझे उस ने दिया.’’

‘‘किस ने?’’ लड़का फिर घबरा गया उसे समझ नहीं आ रहा था कि उस की सांस क्यों तेज चल रही है.

‘‘वही जिस के बाजू पर टैटू है,’’ लड़की बोली, ‘‘और कुछ कहा भी, सुनना चाहोगे?’’

लड़का हकलाने लगा था, ‘‘हां, ब…ब… बताओ… क क क्या कहा था उस ने?’’

‘‘न्यू ईयर गिफ्ट जानेमन,’’ लड़की ने बताया.

लड़के की आंखों की पुतलियां फैल गईं, ‘‘उस ने ऐसा कहा?’’

लड़की अब एक के बाद एक आइटम उठाउठा कर लड़के की आंखों के सामने नचा रही थी और देने वाले का बखान भी कर रही थी.

फिर, लड़की एकदम गंभीर हो गई.

‘‘तुम लड़के क्या समझते हो? मित्रता क्या है?’’

लड़का मौन था. जैसे सांप सूंघ गया हो. उसे लड़की की ओर देखने के अलावा कुछ और सूझ नहीं रहा था. न सूझने के कारण ही वह अवाक था. ऐसा लगने लगा जैसे उस की आंखें 2 बटन की तरह लड़की के चेहरे पर टांक दी गई थीं.

लड़की अब तटस्थ हो चली थी, ‘‘तुम लड़के हम से मित्रता करते ही क्यों हो? क्योंकि यह एक अच्छा टाइमपास है?’’ उस ने अपना मुंह दूसरी ओर घुमा लिया.

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है,’’ लड़का मुश्किल से बस इतना ही बोल पाया.

‘‘तो फिर बताओ,’’ लड़की अब काफी नजदीक आ गई थी. उस का चेहरा फिर लड़के के चेहरे के बिलकुल सामने था जैसे कि उस की आंखें लड़के की आंखों में कूदी जा रही थीं.

‘‘तुम ने कभी इन सब को रोका क्यों नहीं, तुम तो जानते थे कि ये सब मुझे तंग करते हैं या नहीं, जानते थे. बोलो?’’ उस के हाथ से चुटकी बजी.

‘‘हां, थोड़ा तो…’’ लड़के ने जवाब दिया.

‘‘तो फिर?’’ लड़की ने उसे घूरते हुए कहा.

‘‘सौरी,’’ लड़का झिझकते हुए बोला.

‘‘सौरी क्यों बोल रहे हो,’’ लड़की ने आश्चर्य से उस की ओर देखते हुए कहा.

‘‘मुझे इन सब के बारे में पता नहीं था लेकिन जब मैं उन सब को तुम्हारी तरह देखता, तो मुझे लगता था जैसे तुम्हें यह अटैंशन अच्छी लगती है.’’

‘‘क्या, सच में?’’

‘‘हां, पर सच अब जान पाया हूं और गलती का एहसास हो रहा है.’’

लड़के को फिर से कुछ सूझ नहीं रहा था. कुछ न सूझने की यह बीमारी उस की एकदम नई थी. बेचारा सही अर्थों में मिट्टी का माधो हो गया था. वैसे लड़का था मेधावी. हमेशा मैरिट लिस्ट में रहता था. स्कूल के दिनों में ऐथलीट भी रहा. लेकिन इधर कालेज में आने के बाद किताबी कीड़ा हो गया था. पिता की बेकरी शौप पर भी कभीकभी बैठ लेता था. ग्राहकों से मिठयामिठया कर बोलता. वैसे कोई ऐब नहीं था लड़के में. बस, दिन में 2-4 मैसेज वह लड़की को कर ही देता था. उस का हालचाल पूछता, गुडमौर्निंग और गुडनाइट के अलावा फलानेढिमकाने दिवस की शुभकामनाएं देता रहता और हां, उस की डीपी को एकांत में जूम कर के देखा करता.

शायद लड़का लड़की को मन ही मन चाहता था पर बेचारा बोलने से घबरा जाता. उसे लगता, कहीं जितनी बात होती है वह भी बंद न हो जाए.

इधर लड़की को भी लड़के की संजीदगी पसंद थी. लड़की के सामने आने पर वह मुसकरा कर रह जाता, कभीकभी हाय बोलता. कभी अधिक बात नहीं करता था. यही उस की एक बात थी जो लड़की को अच्छी लगती थी. वह चाहती थी इस घोंचू से कुछ कहे, मगर क्यों कहे, क्या उसे खुद नहीं दिखाई देता?

जब परफ्यूम वाले लड़के ने परफ्यूम गिफ्ट किया था और जानेमन कहा था तो सातों समंदर उस के अंदर खौल पड़े थे, फिर भी वह ऊपर से शांत पानी थी. लहर का कोई निशान नहीं. निर्भया के साथ क्या हुआ इधर हैदराबाद में वेटेरिनरी डाक्टर का भी कैसा हाल हुआ था. उन्नाव में भी… तभी उसे उस लड़की का चेहरा याद आ गया. वह किसी से मदद नहीं मांग सकती. हां, यह लड़का है न, कुछ और नहीं तो कम से कम उस के साथ चल तो सकता है, उन से बात कर सकता है समझा सकता है. लेकिन लड़के ने ऐसा कुछ नहीं किया. वह किसी तरह व्हाट्सऐप नंबर पा गया था और इतने में ही खुश था. लड़की ने लंबी सांस ली और बताया, ‘‘मैं अब क्लासेस अटैंड नहीं करूंगी.’’

‘‘क्यों?’’ लड़के ने पूछा.

‘‘डर लगता है कहीं मैं भी… निर्भया…डाक्टर… उन्नाव… समझ गए न? मुझे इस माहौल में डर लगता है कभीकभी.’’

‘‘चुप,’’ न जाने कैसे लड़के का हाथ लड़की के मुंह तक चला गया. लड़की की आंखों में 2 बूंदें आंसू की छलक आई थीं. इस बार सातों समंदर में एकसाथ ज्वार आया था.

‘‘मैं वादा करता हूं,’’ लड़का अब तक स्वयं को संतुलित कर चुका था. ‘‘तुम्हारी सुरक्षा अब मेरी जिम्मेदारी है. तुम्हें अकेला नहीं छोड़ूंगा. तुम्हें अब से कोई तंग नहीं करेगा,’’ कहते हुए लड़का एक समझदार वयस्क की तरह पेश आ रहा था.

लड़की अब सुबकने लगी थी. उस ने लड़के का हाथ अपने मुंह से हटा दिया, ‘‘मगर वे तुम्हें कुछ करेंगे तो नहीं? झगड़ा मत करना प्लीज’’ लड़की को अब एक अलग तरह का डर सताने लगा था.

‘‘मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा,’’ उस ने लड़की का हाथ अपने हाथ में ले लिया, ‘‘मैं सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे साथ रहूंगा, देखूंगा तुम्हें कोई तंग न करे, तुम्हें अकेला नहीं छोड़ूंगा, बस.’’

‘‘सच?’’ लड़की खुश थी. उस ने लड़के के कंधे को अपने सिर से हलका धक्का दिया, ‘‘जाओ, अब माफ किया.’’

‘‘हैं?’’ लड़का फिर हैरान था.

‘‘नए साल में अगर मुझ से कोई गलती हो गई हो तो प्लीज मुझे माफ करना. यह साथ यों ही बना रहे,’’ कहते हुए लड़की के मुंह से फूल और सितारे झड़ रहे थे जो सीधे धरती से आकाश तक फैल गए थे. लड़का लड़की को खुश देख कर खुश था.

हवेली : गीता के दम तोड़ते एहसास

‘साड्डा चिडि़यां दा चंबा वे… बाबुल, असां उड़ जाना…’ यानी हे पिता, हम लड़कियों का अपने पिता के घर में रहना चिडि़यों के घोंसले में पल रहे नन्हे चूजों के समान होता है, जो जल्द ही बड़े हो कर उड़ जाते हैं. हे पिता, हमें तो बिछुड़ जाना है.

लोग कहते हैं कि हमारे लोकगीतों में जिंदगी के दुखदर्द की सचाई बयान होती है, मगर गीता के लिए इस लोकगीत का मतलब गलत साबित हुआ था. आसपास की सभी लड़कियां ससुराल जा कर अपनेअपने परिवार में रम गई थीं, मगर गीता ने यों ही सारी जिंदगी निकाल दी. इस तनहा जिंदगी का बोझ ढोतेढोते गीता के सारे एहसास मर चुके थे. कोई अरमान नहीं था. अपनी अधेड़ उम्र तक उसे अपने सपनों के राजकुमार का इंतजार रहा, मगर अब तो उस के बालों में पूरी सफेदी उतर चुकी थी. आसपड़ोस के लोगों के सहारे ही अब उस के दिन कट रहे थे.

एक वक्त था, जब इसी हवेली में गीता का हंसताखेलता भरापूरा परिवार था. अब तो यहां केवल गीता है और उस की पकी हुई गम से भरी जवानी व लगातार खंडहर होती जा रही यह पुरानी हवेली. गीता की कहानी इसी खस्ताहाल हवेली से शुरू होती है और उस का खात्मा भी यहीं होना तय है.

‘साड्डी लंबी उडारी वे… बाबुल, असां उड़ जाना…’ यानी हमारी उड़ान बहुत लंबी है. ससुराल का घर बहुत दूर लगता है, चाहे वह कुछ कोस की दूरी पर ही क्यों न हो. हे पिता, हमें बिछुड़ जाना है.

गीता की शादी बहुत धूमधाम से हुई थी. बड़ेबड़े पंडाल लगाए गए थे. हजारों की तादाद में घराती और बराती इकट्ठा हुए थे. ऐसेऐसे पकवान बनाए गए थे, जो फाइवस्टार होटलों में भी कभी न बने हों. 10 किस्म के पुलाव थे, 5 किस्म के चिकन, बेहिसाब फलजूस, विलायती शराब की हजारों बोतलें पीपी कर लोग सारी रात झूमते रहे थे.

एक हफ्ते तक समारोह चलता रहा था. दनादन फोटो और वीडियो रीलें बनी थीं, जिन में गर्व से इतराते जवान दूल्हे और शरमाई दुलहन के साथ सभी रिश्तेदार खुशी से चिपक कर खड़े थे. गीता को तब पता नहीं था कि एक साल के अंदर ही उस की बदनामी होने वाली है.

‘कित्ती रोरो तैयारी वे… बाबुल, असां उड़ जाना…’ यानी शादी होने के बाद मैं ने बिलखबिलख कर ससुराल जाने की तैयारी कर ली है. हर किसी की आंखों में आंसू हैं. हे पिता, हमें बिछुड़ जाना है.

गीता का चेहरा शर्म से लाल सुर्ख हुआ जा रहा था और वह अंदर से इतनी ज्यादा खुश थी कि एक बहुत बड़े रईस परिवार से अब जुड़ गई थी. 2 महीने बाद उसे अपने पति के साथ लंदन जाना था. लड़के के परिवार वाले भी बेहद खुश दिख रहे थे. दूल्हा बड़ी शान से एक सजे हुए विशाल हाथी पर बैठ कर आया था. फूलों से लदी एक काली सुंदर चमचमाती लंबी लिमोजिन कार गीता की डोली ले जाने के लिए सजीसंवरी उस के पीछेपीछे आई थी.

लड़के का पिता अपने इलाके का बहुत बड़ा जमींदार था. उस ने भारी रोबदार लहजे में गीता के पिता से कहा था, ‘मेरे लिए कोई खास माने नहीं रखता कि तुम अपनी बेटी को दहेज में क्या देते हो. हमारे पास सबकुछ है. हमारी बरात का स्वागत कुछ ऐसे तरीके से कीजिएगा कि सदियों तक लोग याद रखें कि चौधरी धर्मदेव के बेटे की शादी में गए थे.’ लोग तो उस शानदार शादी को आसानी से भूल गए थे. आजकल तकरीबन सभी शादियां ऐसी ही सजधज से होती हैं. पर गीता को कुछ नहीं भूला था. उस के दूल्हे ने पहली रात को उसे हजारों सब्जबाग दिखाए थे.

शादी के बाद एक महीना कैसे बीता, पता ही नहीं चला. गीता के तो पैर जमीन पर नहीं पड़ते थे. वह पगलाई सी उस रस के लोभी भंवरे के साथ भारत के हर हिल स्टेशन पर घूमती रही, शादी को बिना रजिस्टर कराए. गीता के पति को एक दिन अचानक लंदन जाना पड़ा. कुछ महीनों बाद तक यह सारा माजरा गीता के परिवार वालों की समझ में नहीं आया. गीता तो कुछ ज्यादा ही हवा में थी कि विदेश जा कर यह कोर्स करेगी, वह काम करेगी.

कुछ दिनों तक गीता मायके में रही. ससुराल से कोई खोजखबर नहीं मिल पा रही थी. गीता का पति जो फोन नंबर उसे दे गया था, वह फर्जी था. लोगों को दो और दो जोड़ कर पांच बनाते देर नहीं लगती. अखबारों को भनक लगी, तो उन्होंने मिर्चमसाला लगा कर गीता के नाम पर बहुत कीचड़ उछाला. पत्रकारों को भी मौका मिल गया था अपनी भड़ास निकालने का. कहने लगे कि लालच के मारे ये

मिडिल क्लास लोग बिना कोई पूछताछ किए विदेशी दूल्हों के साथ अपनी लड़कियां बांध देते हैं. ये एनआरआई रईस 2-3 महीने जवान लड़की का जिस्मानी शोषण कर के फुर्र हो जाते हैं, फिर सारी उम्र ये लड़कियां विधवाओं से भी गईगुजरी जिंदगी बसर करती हैं. आने वाले समय में जिंदगी ने जो कड़वे अनुभव गीता को दिए थे, वे उस के लिए पलपल मौत की तरफ ले जाने वाले कदम थे. उस के मातापिता ने शादी में 25 लाख रुपए खर्च कर दिए थे और क्याकुछ नहीं दिया था. एक बड़ी कार भी उसे दहेज में दी थी.

खैर, 2-3 महीने बाद एक नया नाटक सामने आया. गीता के बैंक खाते में पति ने कुछ पैसे जमा किए. अब वह उसे हर महीने कुछ रुपए भेजने लगा था, ताकि पैसे के लिए ही सही गीता उस के खिलाफ कोई होहल्ला न करे. गीता के पिता ने कुछ रिश्तेदारों को साथ ले कर उस की ससुराल जा कर खोजबीन की.

पता चला कि लड़का तो लंदन में पहले से ही शादीशुदा है. यह बात उस ने अपने मांबाप से भी छिपाई थी. कुछ अरसा पहले उस ने अपनी मकान मालकिन से ही शादी कर ली थी, ताकि वहां का परमानैंट वीजा लग जाए. बाद में उस से पीछा छुड़वा कर वह गीता से शादी करने से 7 महीने पहले एक और रूसी गोरी मेम से कोर्ट में शादी रचा चुका था. गीता के साथ तो उस ने अपने मांबाप को खुश रखने के लिए शादी की थी, ताकि वह सारी उम्र उन की ही सेवा में लगी रहे.

इस मामले में गीता के घर वाले उस की ससुराल वालों को फंसा सकते थे, मगर यह इतना आसान नहीं था. गीता के मांबाप ने उस के ससुराल पक्ष पर सामाजिक दबाव बढ़ाना शुरू किया और अदालत का डर दिखाया, तो वे 5 लाख रुपए दे कर गीता से पीछा छुड़ाने का औफर ले कर आ गए. गीता की शादी भारत में रजिस्टर नहीं हुई थी और इंगलैंड में उस की कोई कानूनी मंजूरी नहीं थी, इसलिए गीता के घर वाले उस के पति का कुछ नहीं बिगाड़ सकते थे, जिस ने गीता के साथ यह घिनौना मजाक किया था.

गीता के ससुराल वाले चाहते थे कि एक महीने तक उन के बेटे को जो गीता ने सैक्स सर्विस दी थी, उस का बिल 5 लाख रुपए बनता है. वह ले कर गीता दूसरी शादी करने को आजाद थी. वे बाकायदा तलाक दिलाने का वादा कर रहे थे. अब गीता का पति उन के हाथ आने वाला नहीं था.

तब गीता की ससुराल वालों ने उस के परिवार को एक दूसरी योजना बताई. गीता का देवर अभी कुंआरा ही था. उन्होंने सुझाया कि गीता चाहे तो उस के साथ शादी कर सकती है. ऐसा खासतौर पर तब किया जाता है, जब पति की मौत हो जाए. गीता की मरजी के बिना ही उस की जिंदगी को ले कर अजीबअजीब किस्म के करार किए जा रहे थे और वह हर बार मना कर देती. कोई उस के दिल के भीतर टटोल कर नहीं देख रहा था कि उसे क्या चाहिए.

फिर कुछ महीनों बाद गीता की ससुराल वालों का यह प्रस्ताव आया कि गीता के परिवार वाले 10 लाख रुपए का इंतजाम करें और गीता को उस के पति के पास लंदन भेज दें. शायद गीता के पति का मन अपनी विदेशी मेम से भर चुका था और वह गीता को बीवी बना कर रखने को तैयार हो गया था. गीता के सामने हर बार इतने अटपटे प्रस्ताव रखे जाते थे कि उस का खून खौल उठता था. शुरू में तो गीता को लगता था कि उस के परिवार वाले उस के लिए कितने चिंतित हैं और वे उस की पटरी से उतरी हुई गाड़ी को ठीक चढ़ा ही देंगे, मगर फिर उन की पिछड़ी सोच पर गीता को खीज भरी झुंझलाहट होने लगी थी.

गीता अपने दुखों का पक्का इलाज चाहती थी. समझौते वाली जिंदगी उसे पसंद नहीं थी. वह हाड़मांस की बनी एक औरत थी और इस तरह का कोई समझौता उस की खराब शादी को ठीक नहीं कर सकता था. अब गीता के मांबाप के पास इतना पैसा नहीं था कि वे उसे लंदन भेज सकें, ताकि गीता उस आदमी को पा सके. मगर पिछले 3 साल से वह भारत नहीं आया था और ऐसा कोई कानून नहीं था कि गीता के परिवार वाले उसे कोई कानूनी नोटिस भिजवा सकें.

गीता के मांबाप ने कोर्ट में केस दायर कर दिया था. वे अपने 25 लाख रुपए वापस चाहते थे, जो उन्होंने गीता की शादी में खर्च किए थे. गीता के लिए तो यह सब एक खौफनाक सपने की तरह था. वह पैसा नहीं चाहती थी. वह अपने बेवफा पति को भी वापस नहीं चाहती थी.

गीता क्या चाहती थी, यह उस की कच्ची समझ में तब नहीं आ रहा था. हर कोई अपनी लड़ाई लड़ने में मसरूफ था. किसी ने यह नहीं सोचा था कि गीता की उम्र निकलती जा रही है, उस के मांबाप बूढ़े होते जा रहे हैं. कोई सगा भाई भी नहीं है, जो बुढ़ापे में गीता की देखभाल करेगा.

अदालत के केस में फंसे गीता के पिता की सारी जमापूंजी खत्म हो गई. गीता की ससुराल वालों के पास खूब पैसा था. केस लटकता जा रहा था और एक दिन गीता के पिता ने तंग आ कर खेत में पेड़ से लटक कर जान दे दी. मां ने 3-4 साल तक गीता के साथ कचहरी की तारीखें भुगतीं, मगर एक दिन वे भी नहीं रहीं.

अब अपनी लड़ाई लड़ने को अकेली रह गई थी अधेड़ गीता. खेतों से जो पैदावार आती थी, वह इतनी ज्यादा नहीं थी कि लालची वकीलों को मोटी फीस दी जा सके. थकहार कर गीता ने कचहरी जाना ही छोड़ दिया. वह अपनी ससुराल वालों की दी गई हर पेशकश या समझौते को मना करती रही. एकएक कर के गीता के साथ के सभी लोग मरखप गए.

हवेली का रंगरूप बिगड़ता गया. अब इस कसबे में नए बाशिंदे आ कर बसने लगे थे. सरकार ने जब इस क्षेत्र को स्पैशल इकोनौमिक जोन बनाया, तो आसपास के खेतों में कारखाने खुलने लगे. उन में काम करने वालों के लिए गीता की हवेली सब से सस्ती जगह थी. गीता किराए के सहारे ही हवेली का थोड़ाबहुत रखरखाव कर रही थी. अपने बारे में तो उस ने कब से सोचना छोड़ दिया था.

ऐसा लग रहा था कि गीता और हवेली में एक प्रतियोगिता चल रही थी कि कौन पहले मिट्टी में मिलेगी.

हम बेवफा न थे : अख्तर के दिल की आवाज

‘‘अरे, आप लोग यहां क्या कर रहे हैं? सब लोग वहां आप दोनों के इंतजार में खड़े हैं,’’ हमशां ने अपने भैया और होने वाली भाभी को एक कोने में खड़े देख कर पूछा.

‘‘बस कुछ नहीं, ऐसे ही…’’ हमशां की होने वाली भाभी बोलीं.

‘‘पर भैया, आप तो ऐसे छिपने वाले नहीं थे…’’ हमशां ने हंसते हुए पूछा.

‘काश हमशां, तुम जान पातीं कि मैं आज कितना उदास हूं, मगर मैं चाह कर भी तुम्हें नहीं बता सकता,’ इतना सोच कर हमशां का भाई अख्तर लोगों के स्वागत के लिए दरवाजे पर आ कर खड़ा हो गया.

तभी अख्तर की नजर सामने से आती निदा पर पड़ी जो पहले कभी उसी की मंगेतर थी. वह उसे लाख भुलाने के बावजूद भी भूल नहीं पाया था.

‘‘हैलो अंकल, कैसे हैं आप?’’ निदा ने अख्तर के अब्बू से पूछा.

‘‘बेटी, मैं बिलकुल ठीक हूं,’’ अख्तर के अब्बू ने प्यार से जवाब दिया.

‘‘हैलो अख्तर, मंगनी मुबारक हो. और कितनी बार मंगनी करने की कसम खा रखी है?’’ निदा ने सवाल दागा.

‘‘यह तुम क्या कह रही हो? मैं तो कुछ नहीं जानता कि हमारी मंगनी क्यों टूटी. पता नहीं, तुम्हारे घर वालों को मुझ में क्या बुराई नजर आई,’’ अख्तर ने जवाब दिया.

‘‘बस मिस्टर अख्तर, आप जैसे लोग ही दुनिया को धोखा देते फिरते हैं और हमारे जैसे लोग धोखा खाते रहते हैं,’’ इतना कह कर निदा गुस्से में वहां से चली गई.

सामने स्टेज पर मंगनी की तैयारी पूरे जोरशोर से हो रही थी. सब लोग एकदूसरे से बातें करते नजर आ रहे थे. तभी निदा ने हमशां को देखा, जो उसी की तरफ दौड़ी चली आ रही थी.

‘‘निदा, आप आ गईं. मैं तो सोच रही थी कि आप भी उन लड़कियों जैसी होंगी, जो मंगनी टूटने के बाद रिश्ता तोड़ लेती हैं,’’ हमशां बोली.

‘‘हमशां, मैं उन में से नहीं हूं. यह सब तो हालात की वजह से हुआ है…’’ निदा उदास हो कर बोली, ‘‘क्या मैं जान सकती हूं कि वह लड़की कौन है जो तुम लोगों को पसंद आई है?’’

‘‘हां, क्यों नहीं. वह देखो, सामने स्टेज की तरफ सुनहरे रंग का लहंगा पहने हुए खड़ी है,’’ हमशां ने अपनी होने वाली भाभी की ओर इशारा करते हुए बताया.

‘‘अच्छा, तो यही वह लड़की है जो तुम लोगों की अगली शिकार है,’’ निदा ने कोसने वाले अंदाज में कहा.

‘‘आप ऐसा क्यों कह रही हैं. इस में भैया की कोई गलती नहीं है. वह तो आज भी नहीं जानते कि हम लोगों की तरफ से मंगनी तोड़ी गई?है,’’ हमशां ने धीमी आवाज में कहा.

‘‘मगर, तुम तो बता सकती थीं.

तुम ने क्यों नहीं बताया? आखिर तुम भी तो इसी घर की हो,’’ इतना कह कर निदा वहां से दूसरी तरफ खड़े लोगों की तरफ बढ़ने लगी.

निदा की बातें हमशां को बुरी तरह कचोट गईं.

‘‘प्लीज निदा, आप हम लोगों को गलत न समझें. बस, मम्मी चाहती थीं कि भैया की शादी उन की सहेली की बेटी से ही हो,’’ निदा को रोकते हुए हमशां ने सफाई पेश की.

‘‘और तुम लोग मान गए. एक लड़की की जिंदगी बरबाद कर के अपनी कामयाबी का जश्न मना रहे हो,’’ निदा गुस्से से बोली.

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं?है. मैं अच्छी तरह से जानती हूं कि मम्मी की कसम के आगे हम सब मजबूर थे वरना मंगनी कभी भी न टूटने देते,’’ कह कर हमशां ने उस का हाथ पकड़ लिया.

‘‘देखो हमशां, अब पुरानी बातों को भूल जाओ. पर अफसोस तो उम्रभर रहेगा कि इनसानों की पहचान करना आजकल के लोग भूल चुके हैं,’’ इतना कह कर निदा ने धीरे से अपना हाथ छुड़ाया और आगे बढ़ गई.

‘‘निदा, इन से मिलो. ये मेरी होने वाली बहू के मम्मीपापा हैं. यह इन की छोटी बेटी है, जो मैडिकल की पढ़ाई कर रही है,’’ अख्तर की अम्मी ने निदा को अपने नए रिश्तेदारों से मिलवाया.

निदा सोचने लगी कि लोग तो रिश्ता टूटने पर नफरत करते हैं, लेकिन मैं उन में से नहीं हूं. अमीरों के लिए दौलत ही सबकुछ है. मगर मैं दौलत की इज्जत नहीं करती, बल्कि इनसानों की इज्जत करना मुझे अपने घर वालों ने सिखाया है.

‘‘निदा, आप भैया को माफ कर दें, प्लीज,’’ हमशां उस के पास आ कर फिर मिन्नत भरे लहजे में बोली.

‘‘हमशां, कैसी बातें करती हो? अब जब मुझे पता चल गया है कि इस में तुम्हारे भैया की कोई गलती नहीं है तो माफी मांगने का सवाल ही नहीं उठता,’’ निदा ने हंस कर उस के गाल पर एक हलकी सी चपत लगाई.

कुछ देर ठहर कर निदा फिर बोली, ‘‘हमशां, तुम्हारी मम्मी ने मुझ से रिश्ता तोड़ कर बहुत बड़ी गलती की. काश, मैं भी अमीर घर से होती तो यह रिश्ता चंद सिक्कों के लिए न टूटता.’’

‘‘मुझे मालूम है कि आप नाराज हैं. मम्मी ने आप से मंगनी तो तोड़ दी, पर उन्हें भी हमेशा अफसोस रहेगा कि उन्होंने दौलत के लिए अपने बेटे की खुशियों का खून कर दिया,’’ हमशां ने संजीदगी से कहा.

‘‘बेटा, आप लोग यहां क्यों खड़े हैं? चलो, सब लोग इंतजार कर रहे हैं. निदा, तुम भी चलो,’’ अख्तर के अब्बू खुशी से चहकते हुए बोले.

‘‘मुझे यहां इतना प्यार मिलता है, फिर भी दिल में एक टीस सी उठती?है कि इन्होंने मुझे ठुकराया है. पर दिल में नफरत से कहीं ज्यादा मुहब्बत का असर है, जो चाह कर भी नहीं मिटा सकती,’ निदा सोच रही थी.

‘‘निदा, आप को बुरा नहीं लग रहा कि भैया किसी और से शादी कर रहे हैं?’’ हमशां ने मासूमियत से पूछा.

‘‘नहीं हमशां, मुझे क्यों बुरा लगने लगा. अगर आदमी का दिल साफ और पाक हो, तो वह एक अच्छा दोस्त भी तो बन सकता है,’’ निदा उमड़ते आंसुओं को रोकना चाहती थी, मगर कोशिश करने पर भी वह ऐसा कर नहीं सकी और आखिरकार उस की आंखें भर आईं.

‘‘भैया, आप निदा से वादा करें कि आप दोनों जिंदगी के किसी भी मोड़ पर दोस्ती का दामन नहीं छोड़ेंगे,’’ हमशां ने इतना कह कर निदा का हाथ अपने भैया के हाथ में थमा दिया और दोनों के अच्छे दोस्त बने रहने की दुआ करने लगी.

‘‘माफ कीजिएगा, अब हम एकदूसरे के दोस्त बन गए हैं और दोस्ती में कोई परदा नहीं, इसलिए आप मुझे बेवफा न समझें तो बेहतर होगा,’’ अख्तर ने कहा.

‘‘अच्छा, आप लोग मेरे बिना दोस्ती कैसे कर सकते हैं. मैं तीसरी दोस्त हूं,’’ अख्तर की मंगेतर निदा से बोली.

निदा उस लड़की को देखती रह गई और सोचने लगी कि कितनी अच्छी लड़की है. वैसे भी इस सब में इस की कोई गलती भी नहीं है.

‘‘आंटी, मैं हमशां को अपने भाई के लिए मांग रही हूं. प्लीज, इनकार न कीजिएगा,’’ निदा ने कहा.

‘‘तुम मुझ को शर्मिंदा तो नहीं कर रही हो?’’ अख्तर की अम्मी ने पलट कर पूछा.

‘‘नहीं आंटी, मैं एक दोस्त होने के नाते अपने दोस्त की बहन को अपने भाई के लिए मांग रही हूं,’’ इतना कह कर निदा ने हमशां को गले से लगा लिया.

‘‘निदा, आप हम से बदला लेना चाहती?हैं. आप भी मम्मी की तरह रिश्ता जोड़ कर फिर तोड़ लीजिएगा ताकि मैं भी दुनिया वालों की नजर में बदनाम हो जाऊं,’’ हमशां रोते हुए बोली.

‘‘अरी पगली, मैं तो तेरे भैया की दोस्त हूं, दुख और सुख में साथ देना दोस्तों का फर्ज होता है, न कि उन से बदला लेना,’’ निदा ने कहा.

‘‘नहीं, मुझे यह रिश्ता मंजूर नहीं है,’’ अख्तर की अम्मी ने जिद्दी लहजे में कहा.

तभी अख्तर के अब्बू आ गए.

‘‘क्या बात है? किस का रिश्ता नहीं होने देंगी आप?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘अंकल, मैं हमशां को अपने भाई के लिए मांग रही हूं.’’

‘‘तो देर किस बात की है. ले जाओ. तुम्हारी अमानत है, तुम्हें सौंप देता हूं.’’

‘‘निदा, आप अब भी सोच लें, मुझे बरबाद होने से आप ही बचा सकती हैं,’’ हमशां ने रोते हुए कहा.

‘‘कैसी बहकीबहकी बातें कर रही हो. मैं तो तुम्हें दिल से कबूल कर रही हूं, जबान से नहीं, जो बदल जाऊंगी,’’ निदा खुशी से चहकी.

‘‘हमशां, निदा ठीक कह रही हैं. तुम खुशीखुशी मान जाओ. यह कोई जरूरी नहीं कि हम लोगों ने उस के साथ गलत बरताव किया तो वह भी ऐसी ही गलती दोहराए,’’ अख्तर हमशां को समझाते हुए कहने लगा.

‘‘अगर वह भी हमारे जैसी बन जाएगी, तब हम में और उस में क्या फर्क रहेगा,’’ इतना कह कर अख्तर ने हमशां का हाथ निदा के भाई के हाथों में दे दिया.

‘‘निदा, हम यह नहीं जानते कि कौन बेवफा था, लेकिन इतना जरूर जानते हैं कि हम बेवफा न थे,’’ अख्तर नजर झुकाए हुए बोला.

‘‘भैया, आप बेवफा न थे तो फिर कौन बेवफा था?’’ हमशां शिकायती लहजे में बोली. उस की नजर जब अपने भैया पर पड़ी तो देख कर दंग रह गई. उस का भाई रो रहा था.

‘‘भैया, मुझे माफ कर दीजिए. मैं ने आप को गलत समझा,’’ हमशां अख्तर के गले लग कर रोने लगी.

सच है कि इनसान को हालात के आगे झुकना पड़ता है. अपनों के लिए बेवफा भी बनना पड़ता है.

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