Hindi Story : संकर्षण

Hindi Story : अपने बचपन के मित्र गगन के यहां से लौटते हुए मेरे  पति बारबार एक ही प्रश्न किए जा रहे थे, ‘‘अरे देखो न संकर्षण की शक्लसूरत, व्यवहार सब कुछ गगन से कितना मिलताजुलता है. लगता है जैसे उस का डुप्लिकेट हो. बस नाक तुम्हारी तरह है. मेरा तो जैसे उसे कुछ मिला ही नहीं.’’

‘‘मिला क्यों नहीं है? बुद्धि तुम्हारी तरह ही है. तुम्हारी ही तरह जहीन है.’’  ‘‘हां, वह तो है, पर फिर भी शक्लसूरत और आदतें कुछ तो मिलनी चाहिए थीं.’’  ‘‘शक्लसूरत और आदतें तो इनसान के अपनेअपने परिवेश के अनुसार बनती हैं और हो सकता है उस के गर्भ में आने के बाद से ही मैं ने उसे गगन भाई साहब को देने का मन बना लिया था. इसी कारण उन जैसी शक्लसूरत हो गई हो.’’  ‘‘हां, तुम ठीक कहती हो, पर यार तुम बहुत महान हो. खुशीखुशी अपना बच्चा गगन की झोली में डाल दिया.’’ ‘‘क्या करूं? मुझ से उन लोगों की तकलीफ देखी नहीं जा रही थी. गगन भाई साहब और श्रुति भाभी को हम लोगों ने कोई गैर नहीं समझा. आप के लंदन रहने के दौरान हमारे पिताजी और हमारे बच्चों का कितना ध्यान रखा.’’

‘‘हां, यह बात तो है. गगन और भाभीजी के साथ कभी पराएपन का बोध नहीं हुआ. फिर भी एक मां के लिए अपनी संतान किसी और को दे देना बड़े जीवट का काम है. मेरा तो आज भी मन कर रहा था कि उसे अपने साथ लेते चलूं.’’

‘‘कैसी बात करते हैं आप? देखा नहीं कैसे गगन भाई साहब और श्रुति भाभीजी की पूरी दुनिया उसी के इर्दगिर्द सिमट कर रह गई है.’’  ‘‘सच कह रही हो और संकर्षण भी उन्हीं को अपने मातापिता समझता है. अपने असली मातापिता के बारे में जानता भी नहीं.’’ शुक्र है मेरे पति को किसी प्रकार का शक नहीं हुआ वरना मैं तो डर ही गई थी

कि कहीं यह राज उन पर उजागर न हो जाए कि संकर्षण के पिता वास्तव में गगन ही हैं. आज 17 वर्षों के वैवाहिक जीवन में यही एक ऐसा राज है जिसे मैं ने अपने पति से छिपा कर रखा है और शायद अंतिम भी. इस रहस्य को हम परिस्थितिवश हुई गलती की संज्ञा तो दे सकते हैं, पर अपराध की कतई नहीं. फिर भी जानती हूं इस रहस्य से परदा उठने पर 2 परिवार तबाह हो जाएंगे, इसलिए इस रहस्य को सीने में दबाए रखे हूं.

गगन इन के बचपन के मित्र हैं. गगन जहां दुबलेपतले, शांत और कुछकुछ पढ़ने में कमजोर थे वहीं मेरे पति गुस्सैल, कदकाठी के अच्छे और जहीन थे. घर का परिवेश भी दोनों का नितांत भिन्न था. गगन एक गरीब परिवार से संबंध रखते थे और मेरे पति उच्च मध्यवर्गीय परिवार से. इतनी भिन्नताएं होते हुए भी दोनों की दोस्ती मिसाल देने लायक थी. गगन को कोई भूल से भी कुछ कह देता तो उस की खैर नहीं होती. वहीं मेरे पति आशीष की कही हुई हर बात गगन के लिए ब्रह्मवाक्य से कम नहीं होती.

धीरेधीरे समय बीता और मेरे पति का आईएएस में चयन हो गया और गगन ने अपना छोटामोटा बिजनैस शुरू किया, जिस में हमारे ससुर ने भी आर्थिक सहयोग दिया. मेरी सास की मृत्यु मेरे पति के पढ़ते समय ही हो गई थी. उस समय गगन की मां ने ही मेरे पति को मां का प्यार दिया और ससुर भी कभी गगन को अपने परिवार से अलग नहीं समझते थे और कहते थे कि कुदरत ने उन्हें 2 बेटे दिए हैं. एक आशीष और दूसरा गगन.

संयोग देखो कि दोनों के विवाह के बाद जब मैं और श्रुति आईं तो भी उन दोनों के परिवार में किसी प्रकार का भी अलगाव न आया. मेरी और श्रुति की अच्छी बनती थी. हालांकि जब भी लोग हम चारों की मित्रता को देखते तो कहते कि यह मैत्री भी शायद कुदरत का चमत्कार है, जहां 2 भिन्न परिवेश और भिन्न सोच वाले व्यक्ति अभिन्न हो गए थे. मुझे पति के तबादलों के कारण कई शहरों में रहना पड़ा. ऐसे में ससुर अकेले पड़ गए थे. उन्हें अपना शहर छोड़ कर यों शहरशहर भटकना गंवारा न था. ऐसे में गगन और उन की पत्नी ही उन का पूरा खयाल रखते, बेटेबहू की कमी महसूस न होने देते.

समय बीतता रहा. जहां मैं 2 बच्चों की मां बन गई, वहीं गगन की पत्नी को कई बार गर्भ तो ठहरा पर गर्भपात हो गया. डाक्टर का कहना था कि उन की पत्नी की कोख में कुछ ऐसी गड़बड़ी है कि वह गर्भ पनपने ही नहीं देती. हर बार गर्भपात के बाद दोनों पतिपत्नी बहुत मायूस हो जाते. गगन की पत्नी श्रुति का तो और भी बुरा हाल हो जाता. एक तो गर्भपात की कमजोरी और दूसरा मानसिक अवसाद. दिन पर दिन उन का स्वास्थ्य गिरने लगा. डाक्टर ने सलाह दी कि अब खुद के बच्चे के बारे में भूल जाएं. या तो कोई बच्चा गोद ले लें या किराए की कोख का प्रबंध कर लें वरना पत्नी के जीवन पर संकट आ सकता है.

पर उन पतिपत्नी को डाक्टर की बात रास नहीं आई. गगन मुझ से कहते, ‘‘भाभी अब मैडिकल साइंस ने बहुत तरक्की कर ली है. अगर कुछ कमी है तो क्या वह दवा से दूर हो सकती है. इस शहर के सब डाक्टर पागल हैं. मैं देश के सब से बड़े गाइनोकोलौजिस्ट को दिखाऊंगा, देखिएगा हमारे घर भी अपने बच्चे की किलकारियां गूजेंगी.’’

और सच में उन्होंने देश के सब से मशहूर गाइनोकोलौजिस्ट को दिखाया. उन्होंने आशा बंधाई कि टाइम लगेगा, पर सब कुछ ठीक हो जाएगा. इधर मेरे पति को डैपुटेशन पर 3 सालों के लिए लंदन जाना पड़ा. मैं नहीं जा सकी. बच्चे पढ़ने लायक हो गए थे और ससुर भी अस्वस्थ रहने लगे थे. अब उन्हें केवल गगन के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता था. आखिर हम पतिपत्नी का भी तो कोई उत्तरदायित्व था.

आशीष के लंदन प्रवास के दौरान ही ससुर की मृत्यु हो गई. किसी प्रकार कुछ दिनों की छुट्टी ले कर आशीष आए फिर चले गए. इधर गगन की पत्नी को पुन: गर्भ ठहरा. अब की बार हर प्रकार की सावधानी बरती गई. गगन अपनी पत्नी को जमीन पर पांव ही नहीं धरने देते. वैसे डाक्टर ने भी कंप्लीट बैड रैस्ट के लिए कह रखा था.  डाक्टर ने अल्ट्रासाउंड वगैरह करवाने को भी मन कर दिया था ताकि उस की रेज से भी गर्भ को नुकसान न पहुंचे. धीरेधीरे गर्भ पूरे समय का हो गया. गगन, उन की पत्नी और उन की मां का चेहरा बच्चे के आने की खुशी में पुलकित रहने लगा. प्रसन्नता मुझे भी कम न थी.

नियत समय में श्रुति को प्रसववेदना शुरू हो गई. लगता था सब कुछ सामान्य हो जाएगा. मैं भी अपने बच्चों को मां के पास छोड़ कर गगन के परिवार के साथ थी. आखिरकार इस मुश्किल घड़ी में मैं उन का साथ न देती तो कौन देता. पर 1 हफ्ते तक प्रसववेदना का कोई परिणाम न निकला. डाक्टर भी सामान्य डिलिवरी की प्रतीक्षा करतेकरते थक गई थीं.

अंत में उन्होंने औपरेशन का फैसला लिया और औपरेशन से जिस बच्चे ने जन्म लिया, वह भयानक शक्ल वाला 2 सिर और 3 हाथ का बालक था. जन्म लेते ही उस ने इतने जोर का रुदन किया कि सारी नर्सें उसे वहीं छोड़ कर डर कर भाग गईं.

डाक्टर ने यह खबर गगन को दी. गगन भी बच्चे को देख कर हैरान रह गए. यह तो अच्छा हुआ कि बच्चा आधे घंटे में ही इस दुनिया से चल दिया. गगन की पत्नी बेहोश थीं.  गगन जब बच्चे को दफना कर लौटे तो इतने थकेहारे, बेबस लग रहे थे कि पूछो मत.  गगन की मां ने मुझ से कहा, ‘‘सीमा तुम गगन को ले कर घर जाओ. बहुत परेशान है वह. थोड़ा आराम करेगा तो इस परेशानी से निकलेगा. मैं हौस्पिटल में रुकती हूं.’’

मैं ने विरोध भी किया, ‘‘आंटी, आप और गगन भाई साहब चले जाएं. मैं यहां रुकती हूं.’’  मगर गगन एकदम से उठ कर खड़े हो गए. बोले, ‘‘चलिए भाभी चलते हैं.’’ मैं और गगन कमरे में आ गए. कमरे में आ कर मैं ने गगन के ऊपर सांत्वना भरा हाथ रखा  भर था कि उन का इतनी देर का रोका सब्र का बांध टूट गया.

वे मेरी गोद में सिर रख कर फफकफफक कर रोने लगे, ‘‘मैं क्या करूं भाभी? मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है. श्रुति जब होश में आएगी तो मैं उसे क्या जवाब दूंगा? इस से अच्छा होता वह गर्भ में आया ही न होता… श्रुति क्या यह सदमा बरदाश्त कर पाएगी? मुझे उस की बड़ी फिक्र हो रही है. उस का सामना करने की हिम्मत मुझ में नहीं है. मैं कहीं चला जाऊंगा. भाभी आप ही उसे संभालिएगा.’’

मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि किन शब्दों में उन्हें सांत्वना दूं. केवल उन के बाल सहलाती रही. हम दोनों को ही उस मुद्रा में झपकी सी आ गई और उस दौरान कब प्रकृति और पुरुष का मिलन हो गया हम दोनों ही समझ न पाए. गगन अपराधबोध से भर उठे थे. अपराधबोध मुझे भी कम न था, क्योंकि जो कुछ भी हम दोनों के बीच हुआ था उसे न तो बलात्कार की संज्ञा दी जा सकती थी और न ही बेवफाई की. हम दोनों ही समानरूप से अपराधी थे… परिस्थितियों के षड्यंत्र का शिकार.

गगन अपनी पत्नी को ले कर दूर किसी पर्वतीय स्थल पर चले गए थे. आशीष को कुछ दिन बाद ही लंदन से लौटना था और हम लोगों को ले कर वापस जाना था, क्योंकि आशीष को वहां पर काफी अच्छी जौब मिल गई थी. उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया था. मुझे देश और इतनी अच्छी नौकरी छोड़ कर विदेश जाना स्वीकार न था, पर आशीष पर तो पैसे और विदेश का भूत सवार था. आशीष आए तभी मुझे पता चला कि मैं फिर से मां बनने वाली हूं. मुझे अच्छी तरह से पता था कि यह बच्चा गगन का है. आशीष को पता चला तो वे आश्चर्य में पड़ गए. बोले, ‘‘इतनी  सावधानियों के बाद ऐसा कैसे हो सकता है?’’

मैं ने कहा, ‘‘अब हो गया है तो क्या करें?’’

आशीष बोले, ‘‘अबौर्शन करवा लो. अभी नए देश में खुद को और बच्चों को ऐडजस्ट करने में समय लगेगा. यह सब झमेला कैसे चल पाएगा?’’

मैं ने कहा, ‘‘मैं एक बात सोचती हूं. श्रुति भाभी बहुत दुखी हैं, डिप्रैशन में आ गई हैं, शायद अब उन का दूसरा बच्चा हो भी न? तो क्यों न हम इस बच्चे को उन लोगों को दे दें.’’

‘‘तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं है? अपना बच्चा कोई कैसे दूसरे को दे सकता है?’’

आशीष बोले.

‘‘क्यों? वे लोग कोई गैर तो नहीं हैं… फिर तुम अबौर्शन कराने की बात कर रहे थे… कम से कम जीवित तो रहेगा और उन लोगों के जीवन में खुशियां भर देगा.’’

‘‘वह तो ठीक है,’’ आशीष ने हथियार डालते हुए कहा, ‘‘पर क्या गगन और भाभी इस के लिए मान जाएंगे?’’

‘‘चलिए, बात कर के देखते हैं.’’  जब हम लोगों ने गगन भाई साहब और श्रुति भाभी से इस संबंध में बात की तो वे विश्वास न कर सके.

गगन बोले, ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है भाभी? आप अपना बच्चा हमें दे देंगे.’’

मैं ने कहा, ‘‘हमारा और आप का बच्चा अलग थोड़े ही है.’’

मेरी इस बात पर गगन ने चौंक कर मेरी आंखों में देखा. मैं ने भी उन की आंखों में देखते हुए अपनी बात जारी रखी, ‘‘कृष्ण के भाई बलराम की कहानी जानते हैं न? उन्हें संकर्षण विधि द्वारा देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में प्रतिस्थापित कर दिया गया था तो यही समझिए कि यह आप लोगों का ही बच्चा है, केवल गर्भ में मेरे है. अगर बेटा होगा तो आप लोग नाम संकर्षण ही रखिएगा.’’

मगर न श्रुति को और न ही आशीष को इतनी पौराणिक कथाओं का ज्ञान था, केवल मैं और गगन ही इस अंतनिहित भाव को समझ सके. फिर मैं ने कहा, ‘‘मुझे पूरा विश्वास है कि आप लोग उसे पूरा प्यार देंगे.’’  बच्चे की कल्पना मात्र से गगन की पत्नी की आंखों में चमक आ गई. बोलीं, ‘‘सच भाभी क्या आप ऐसा कर पाएंगी?’’

‘‘क्यों नहीं? आप कोई गैर थोड़ी न हैं.’’

आपसी सहमति बनी कि मैं अभी आशीष के साथ नहीं जाऊंगी. बच्चे को जन्म देने पर उसे श्रुति को सौंप लंदन जाऊंगी. मैं ने ऐसा किया भी. बच्चे को हौस्पिटल से निकलते ही श्रुति की गोद में डाल दिया और आशीष के पास बच्चों के साथ लंदन चली गई.  तब से कई बार भारत आना हुआ पर मायके से ही हो कर लौट गई. डरती थी कहीं  मेरा मातृत्व न जाग जाए. कभीकभी इस बात पर क्षोभ भी होता कि मैं ने बेकार ही अपने बच्चे को पराई गोद में डाल दिया. फिर लगता शायद मैं ने ठीक ही किया, नहीं तो उसे देख कर एक अपराधभाव मन में हमेशा बना रहता.

आशीष सारे तथ्यों से अनजान थे. तभी तो उन का पितृत्व जबतब अपने बच्चे से मिलने को बेचैन हो उठता. उन्हीं की जिद थी कि अब की बार गगनजी के यहां जाने का कार्यक्रम बना. संकर्षण से मिल कर आशीष की प्रतिक्रिया से मुझे तो डर ही लग गया था कि कहीं इस रहस्य से परदा न उठ जाए और 2 परिवारों की सुखशांति भंग हो जाए.  मगर आशीष के मुझ पर और गगन पर अटूट विश्वास ने उन की सोच की दिशा इस ओर नहीं मोड़ी वरना मैं फंस जाती, क्योंकि आज तक न तो मैं ने कभी उन से झूठ बोला है और न ही कोई बात छिपाई है, विश्वासघात तो दूर की बात है और इतना तो मैं आज भी मन से कह सकती हूं कि मैं ने और गगन ने न तो कोई विश्वासघात किया है और न ही कोई बेवफाई. गलती जरूर हुई है. पर हां यह बात छिपाने को विवश जरूर हूं, क्योंकि इस गलती का पता लगने पर  2 परिवार व्यर्थ में विघटन की कगार पर पहुंच जाएंगे. इसीलिए मैं इस विषय पर एकदम चुप हूं.

Hindi Story: जाएं तो जाएं कहां

Hindi Story : हमारे एक बुजुर्ग थे. वे अकसर हमें समझाया करते थे कि जीवन में किसी न किसी नियम का पालन इंसान को अवश्य करना चाहिए. कोई भी नियम, कोई भी उसूल, जैसे कि मैं झूठ नहीं बोलता, मैं हर किसी से हिलमिल नहीं सकता या मैं हर किसी से हिलमिल जाता हूं, हर चीज का हिसाबकिताब रखना चाहिए या हर चीज का हिसाबकिताब नहीं रखना चाहिए.

नियम का अर्थ कि कोई ऐसा काम जिसे आप अवश्य करना चाहें, जिसे किए बिना आप को लगे कुछ कमी रह गई है. मैं अकसर आसपास देखता हूं और कभीकभार महसूस भी होता है कि पक्का नियम जिसे हम जीतेमरते निभाते हैं वह हमें बड़ी मुसीबत से बचा भी लेता है. हमारे एक मित्र हैं जिन की पत्नी पिछले 10 साल से सुबह सैर करने जाती थीं. 2-3 पड़ोसिनें भी कभी साथ होती थीं और कभी नहीं भी होती थीं.

‘‘देखा न कुसुम, भाभी रोज सुबह सैर करने जाती हैं तुम भी साथ जाया करो. जरा तो अपनी सेहत का खयाल रखो.’’

‘‘सुबह सैर करने जाना मुझे अच्छा नहीं लगता. सफाई कर्मचारी सफाई करते हैं तो सड़क की सारी मिट्टी गले में लगती है. जगहजगह कूड़े के ढेरों को आग लगाते हैं…गली में सभी सीवर भर जाते हैं. सुबह ही सुबह कितनी बदबू होती है.’’  बात शुरू कर के मैं तो पत्नी का मुंह ही देखता रह गया. सुबह की सैर के लाभ तो बचपन से सुनता आया था पर नुकसान पहली बार समझा रही थी पत्नी.

‘‘ताजी हवा तब शुरू होती है जब आबादी खत्म हो जाती है और वहां तक पहुंचतेपहुंचते सन्नाटा शुरू हो जाता है. खेतों की तरफ निकल जाओ तो न आदमी न आदमजात. इतने अंधेरे में अकेले डर नहीं लगता क्या कुसुम भाभी को.’’

‘‘इस में डरना क्या है. 6 बजे तक वापस आतेआते दिन निकल आता है. अपना ही इलाका है, डर कैसा.’’

‘‘नहीं, शाम की सैर ठीक रहती है. न बच्चों को स्कूल भेजने की चिंता और न ही अंधेरे का डर. भई, अपनेअपने नियम हैं,’’ पत्नी ने अपना नियम मुझे बताया और वह क्यों सही है उसे प्रमाणित करने के कारण भी मुझे समझा दिए. सोचा जाए तो अपनेअपने स्थान पर हर इंसान सही है. पुरानी पीढ़ी के पास नई पीढ़ी को कोसने के हजार तर्क हैं और नई पीढ़ी के पास पुरानी को नकारने के लाख बहाने. इसी मतभेद को दिल से लगा कर अकसर हम अपने अच्छे से अच्छे रिश्ते से हाथ धो लेते हैं.

मेरी बड़ी बहन, जो आगरा में रहती हैं, का एक नियम बड़ा सख्त है. कभी किसी का गहना या कपड़ा मांग कर नहीं पहनना चाहिए. कपड़ा तो कभी मजबूरी में पहनना भी पड़ सकता है क्योंकि तन ढकना तो जरूरत है, लेकिन गहनों के बिना प्राण तो नहीं निकल जाएंगे.

हम किसी शादी में जाने वाले थे. दीदी भी उन दिनों हमारे पास आई हुई थीं. जाहिर है, भारी गहने साथ ले कर नहीं आई थीं. मेरी पत्नी ने अनुरोध किया कि वे उस के गहने ले लें, तो दीदी ने साफ मना कर दिया. मेरी पत्नी को बुरा लगा.

‘‘दीदी ने ऐसा क्यों कहा कि वे कभी किसी के गहने नहीं पहनतीं. मैं कोई पराई हूं क्या? कह रही हैं अपनेअपने उसूल हैं, ऐसे भी क्या उसूल…’’

दीदी शादी में गईं पर उन्हीं हल्केफुल्के गहनों में जिन्हें पहन कर वे आगरा से आई थीं. घर आ कर भी मेरी पत्नी अनमनी सी रही जिसे दीदी भांप गई थीं.

‘‘बुरा मत मानना भाभी और तुम भी अपने जीवन में यह नियम अवश्य बना लो. यदि तुम्हारे पास गहना नहीं है तो मात्र दिखावे के लिए कभी किसी का गहना मांग कर मत पहनो. अगर तुम से वह गहना खो जाए तो पूरी उम्र एक कलंक माथे पर लगा रहता है कि फलां ने मेरा हजारों का नुकसान कर दिया था. जिस की चीज खो जाती है वह भूल तो नहीं पाता न.’’

‘‘अगर मुझ से ही खो जाए तो?’’

‘‘तुम चाहे अपने हाथ से जितना बड़ा नुकसान कर लो…चीज भी तुम्हारी, गंवाई भी तुम ने, अपना किया बड़े से बड़ा नुकसान इंसान भूल जाता है पर दूसरे द्वारा किया सदा याद रहता है.

‘‘मुझे याद है 10वीं कक्षा में हमारी अंगरेजी की किताब में एक कहानी थी ‘द नैकलेस’ जिस में नायिका मैगी मात्र अपनी एक अमीर सखी के घर पार्टी पर जाने के लिए दूसरी अमीर सखी का हीरों का हार उधार मांग कर ले जाती है. हार खो जाता है. पतिपत्नी नया हार खरीदते हैं और लौटा देते हैं. और फिर पूरी उम्र उस कर्ज को उतारते रहते हैं जो उन्होंने लाखों का हार चुकाने को लिया था.

‘‘लगभग 15 साल बाद बहुत गरीबी में दिन गुजार चुकी मैगी को वही सखी बाजार में मिल जाती है. दोनों एकदूसरे का हालचाल पूछती हैं और अमीर सखी उस की गिरी सेहत और बुरी हालत का कारण पूछती है. नायिका सच बताती है और अमीर सखी अपना सिर पीट लेती है, क्योंकि उस ने जो हार उधार दिया था वह तो नकली था.

‘‘नकली ले कर असली चुकाया और पूरा जीवन तबाह कर लिया. क्या पाया उस ने भाभी? इसी कहानी की वजह से मैं कई दिन रोती रही थी.’’

दीदी ने प्रश्न किया तो मुझे भी वह कहानी याद आई. सच है, दीदी अकसर किस्सेकहानियों को बड़ी गंभीरता से लेती थीं. यही एक कहानी गहरी उतर गई होगी मन में.

‘‘दोस्ती हमेशा अपने बराबर वालों से करो, जिन के साथ उठबैठ कर आप स्वयं को मखमल में टाट की तरह न महसूस करो. क्या जरूरत है जेब फाड़ कर तमाशा दिखाने की. अपनी औकात के अनुसार ही जिओ तो जीवन आसान रहता है. मेरा नियम है भाभी कि जब तक जीवनमरण का प्रश्न न बन जाए, सगे भाईबहन से भी कुछ मत मांगो.’’

चुप रहे हम पतिपत्नी. क्या उत्तर देते, अपनेअपने नियम हैं. उन्हें कभी भी नहीं तोड़ना चाहिए. अप्रत्यक्ष में दीदी ने हमें भी समझा दिया था कि हम भी इसी नियम पर चलें. ऐसे नियमों से जीवन आसान हो जाता है, यह सच है क्योंकि हम पूरा का पूरा वजन अपने उस नियम पर डाल देते हैं जिसे सामने वाला चाहेअनचाहे मान भी लेता है. भई, क्या करें नियम जो है.

‘‘रवि साहब, किसी का जूठा नहीं खाते, क्या करें भई, नियम है न इन का. वैसे एक घूंट मेरे गिलास से पी लेते तो हमारा मन रह जाता.’’

‘‘अब कोई इन से पूछे कि जूठा पानी अगर रवि साहब पी लेते तो इन का मन क्यों रह जाता. इन का मन हर किसी के नियम तोड़ने को बेचैन भी क्यों है. इन का जूठा अमृत है क्या, जिसे रविजी जरूर पिएं. संभव है इन्हें खांसी हो, जुकाम हो या कोई मुंह का संक्रमण. रविजी इन का मन रखने के लिए मौत के मुंह में क्यों जाएं? सत्य है, रविजी का नियम उन्हें बीमार होने से तो बचा ही गया न.’’

मेरे एक अन्य मित्र हैं. एक दिन हम ने साथसाथ कुछ खर्च किया. उन्होंने झट से 20 रुपए लौटा दिए.

‘‘20 रुपए हों या 20 लाख रुपए मेरे लिए दोनों की कीमत एक ही है. सिर पर कर्ज नहीं रखता मैं और दोस्ती में तो बिलकुल भी नहीं. दोस्त के साथ रिश्ते साफसुथरे रहें, उस के लिए जब हिसाब करो तो पैसेपैसे का करो. अपना नियम है भई, उपहार चाहे हजारों का दो और लो, कर्ज एक पैसे का भी नहीं. यही पैसा दोस्ती में जहर घोलता है.’’

चुप रहा मैं क्योंकि उन का यह पक्का नियम मुझे भी तोड़ना नहीं चाहिए. सत्य भी यही है कि अपनी जेब से बिना वजह लुटाना भी कौन चाहता है. हमारी एक मौसी बड़ी हिसाब- किताब वाली थीं. वे रोज शाम को खर्च की डायरी लिखती थीं. बच्चे अकसर हंसने लगते. वे भी हंस देती थीं. घर में एक ही तनख्वाह आती थी. कंजूसी भी नहीं करती थीं और फुजूल- खर्ची भी नहीं. रिश्तेदारी में भी अच्छा लेनदेन करतीं. कभी बात चलती तो वे यही कहती थीं :

‘‘अपनी चादर में रहो तो क्या मजाल कि मुश्किल आए. रोना तभी पड़ता है जब इंसान नियम से न चले. जीवन में नियम का होना बहुत आवश्यक है.’’

हमारे एक बहनोई हैं. हम से दूर रहते हैं इसलिए कभीकभार ही मिलना होता है. एक बार शादी में मिले, गपशप में दीदी ने उलाहना सा दे दिया.

‘‘सब से मिलना इन्हें अच्छा ही नहीं लगता,’’ दीदी बोलीं, ‘‘गिनेचुने लोगों से ही मिलते हैं. कहते हैं कि हर कोई इस लायक नहीं जिस से मेलजोल बढ़ाया जाए.’’

‘‘ठीक ही तो कहता हूं सोम भाई, अब आप ही बताइए, बिना किसी को जांचेपरखे दोस्त बनाओगे तो वही हाल होगा न जो संजय दत्त का हुआ. दोस्तीयारी में फंस गया बेचारा. अब किसी के माथे पर लिखा है क्या कि वह चोरउचक्का है या आतंकवादी.

‘‘अपना तो नियम है भाई, हाथ सब से मिलाते चलो लेकिन दिल मिलाने से पहले हजार बार सोचो.’’

आज शाम मैं घर आया तो विचित्र ही खबर मिली. ‘‘आप ने सुना नहीं, आज सुबह कुसुम भाभी को किसी ने सराय के बाहर जख्मी कर दिया. उन के साथ 2 पड़ोसिनें और थीं. कानों के टौप्स खींच कर धक्का दे दिया. सिर फट गए. तीनों अस्पताल मेें पड़ी हैं. मैं ने कहा था न कि इतनी सुबह सैर को नहीं जाना चाहिए.’’

‘‘क्या सच?’’ अवाक् रह गया मैं.

‘‘और नहीं तो क्या. सोना ही दुश्मन बन गया. नशेड़ी होंगे कोई. गंड़ासा दिखाया और अंगूठियां उतरवा लीं. तीनों से टौप्स उतारने को कहा. तभी दूर से कोई गाड़ी आती देखी तो कानों से खींच कर ही ले गए…आप कहते थे न, अपना ही इलाका है, तुम भी जाया करो.’’

निरुत्तर हो गया मैं. मेरी नजर पत्नी के कानों पर पड़ी. सुंदर नग चमक रहे थे. उंगली में अंगूठी भी 10 हजार की तो होगी ही. अगर इस ने अपना नियम तोड़ कर मेरा कहा मान लिया होता तो इस वक्त शायद यह भी कुसुम भाभी के साथ अस्पताल में होती.

आज के परिवेश में क्या गलत और क्या सही. सुबह की सैर का नियम जहां कुसुम भाभी को मार गया, वहीं शाम की सैर का नियम मेरी पत्नी को बचा भी गया. सोना इतना महंगा हो गया है कि जानलेवा होने लगा है. सोच रहा हूं कि एक नियम मैं भी बना लूं. चाहे जो भी हो जाए पत्नी को गहने पहन कर घर से बाहर नहीं जाने दूंगा. परेशान हो गई थी पत्नी.

‘‘नकली गहने पहने तो कौन सा जान बच गई. कुसुम भाभी के टौप्स तो नकली थे. अंगूठी भी सोने की नहीं थी. उन्होंने कहा भी कि भैया, सोना नहीं पहना है.’’

‘‘तो क्या कहा उन्होंने?’’

‘‘बोले, यह देखने का हमारा काम है. ज्यादा नानुकर मत करो.’’

क्या जवाब दूं मैं. आज हम जिस हाल में जी रहे हैं उस हाल में जीना वास्तव में बहुत तंग हो गया है. खुल कर सांस कहां ले पा रहे हैं हम. जी पाएं, उस के लिए इतने नियमों का निर्माण करना पड़ेगा कि हम कहीं के रहेंगे ही नहीं. सिर्फ नियम ही होंगे जो हमें चलाएंगे, उठाएंगे और बिठाएंगे.

रात में हम दोनों पतिपत्नी अस्पताल गए. कुसुम भाभी के सिर की चोट गहरी थी. दोनों कान कटे पड़े थे. होश नहीं आया था. उन के पति परेशान थे, सीधासादा जीवन जीतेजीते यह कैसी परेशानी चली आई थी.

‘‘यह बेचारी तो सोना पहनती ही नहीं थी. पीतल भी पहनना भारी पड़ गया. अब इन हालात में इंसान जिए तो कैसे जिए, सोम भाई. कभी किसी का बुरा नहीं किया इस ने. इसी के साथ ऐसा क्यों?’’

वे मेरे गले से लग कर रोने लगे थे. मैं उन का कंधा थपथपा रहा था. उत्तर तो मेरे पास भी नहीं है. कैसे जिएं हम. जाएं तो जाएं कहां. कितना भी संभल कर चलो, कुछ न कुछ ऐसा हो ही जाता है कि सब धरा का धरा रह जाता है.

Family Story : मंगलसूत्र

Family Story : आधी रात गुजर चुकी थी. अचानक किसी ने कमरे का दरवाजा खोला, तो आवाज सुन कर शकुंतला सोते से जाग उठी. थोड़ी देर पहले ही तो उसे नींद आई थी. देखा तो लड़खड़ाता हुआ उमेश कमरे के अंदर दाखिल हो रहा था. उस के पैर जमीन पर सीधे नहीं पड़ रहे थे. उस ने काफी शराब पी रखी थी.

‘‘सौरी शकुंतला, दोस्तों ने जबरदस्ती दारू पिला दी. मैं ने उन्हें काफी मना किया, लेकिन उन सब ने मेरी…’’ अपनी बात पूरी करने से पहले ही नशे की हालत में उमेश बेसुध सा पलंग पर गिर पड़ा.

शकुंतला चुपचाप उमेश की ओर देखती रही. उसे कुछ भी सम झ में नहीं आ रहा था. उमेश को इस हालत में देख कर शकुंतला के भीतर कहीं पत्थर सी जड़ता उभर आई थी. कुछ देर तक शकुंतला जड़वत सी उमेश को बेसुध पड़ा हुआ देखती रही.

कमरे में रजनीगंधा और गुलाब के फूलों की खुशबू फैली हुई थी. विवाहित जोड़े के स्वागत के लिए कमरे की सजावट में कोई कोरकसर नहीं थी. लाल सुर्ख जोड़े में सजीसंवरी शकुंतला पिछले कई घंटों से उमेश का इंतजार कर रही थी. थोड़ी देर पहले ही तो उस की आंख लगी थी.

कितनी सारी बातें शकुंतला ने सोच रखी थीं कहनेसुनने को, पर… शकुंतला ने भरपूर नजर से सोते हुए उमेश की ओर देखा और मन ही मन सोचा, ‘बेचारा उमेश… सच में इस सब में इस की क्या गलती… जरूर इस के दोस्तों ने ही इसे जबरदस्ती दारू पिलाई होगी…’

बेहद सरल स्वभाव की शकुंतला शादी के बाद जब विदा हो कर अपनी ससुराल आई तो किसी भी नई ब्याहता की तरह ही उस की आंखों में भी शादीशुदा जिंदगी के प्रति कुछ सपने थे.

2 कमरे का एक छोटा सा फ्लैट, जिस में शकुंतला की ससुराल वालों के नाम पर, उस की विधवा ननद और शकुंतला का पति उमेश था. उस के सासससुर का देहांत काफी पहले हो चुका था. विधवा ननद प्रतिमा की ससुराल भी पटना में ही थी, लेकिन वह अपने मायके में अपने भाई के पास ही रहती थी.

शकुंतला का पति उमेश किसी प्राइवेट कंपनी में था. ग्रेजुएशन करने के बाद शकुंतला ने अपने कैरियर को ले कर ज्यादा कुछ कभी सोचा नहीं था. उस का सपना भी उस के गांव की सहेलियों की तरह ही एक छोटे से खुशहाल परिवार और एक बेहद प्यार करने वाले पति तक ही सीमित था.

सुबह जैसे ही शकुंतला कमरे से बाहर निकलने को हुई कि उस के कानों में बेहद हलका स्वर सुनाई पड़ा, ‘‘शकुंतला…’’ उस के पास आ कर किसी ने बेहद धीमे से उस के कानों में कहा, तो वह चौंक कर ठिठक गई.

शकुंतला की सहमी हुई सी आंखें उमेश पर ठहर गईं, ‘‘आप…’’

‘‘कल रात के लिए मु झे माफ कर दो,’’ उमेश ने शकुंतला को अपनी बांहों में समेटते हुए कहा.

धीरेधीरे उमेश की सांसों की गरमाहट शकुंतला के पूरे बदन पर फैलने लगी. वह शरमाते हुए वहां से चली गई.

शकुंतला को नाश्ता बनाने में देर हो गई. इस बात पर उमेश काफी नाराज हो गया.

‘‘इस से भूख बरदाश्त नहीं होती. अब जब तुम ने देरी की है, तो इस की नाराजगी भी तुम्हें ही झेलनी होगी,’’ प्रतिमा ने उमेश को कुछ कहने के बजाय शकुंतला को ही हिदायत दे दी.

‘‘कोई बात नहीं. अभी नईनई गृहस्थी है, धीरेधीरे सीख जाएगी,’’ प्रतिमा ने नाश्ते की प्लेट उमेश के आगे कर दी.

धीरेधीरे उमेश हर छोटीबड़ी बात पर शकुंतला को डांटने लगा और जब शकुंतला इन बातों से आहत होती, तो प्रतिमा उसे घरगृहस्थी के तौरतरीके सम झा कर शांत कर देती.

जब कभी हद से ज्यादा बात बिगड़ जाती, तब उमेश से नाराज हो कर शकुंतला उस से कुछ दिन बात नहीं करती थी. तब उमेश कोई न कोई गिफ्ट उसे पकड़ा देता था, अपने किए की उस से माफी भी मांग लेता था और फिर बात आईगई हो जाती थी.

‘‘दोपहर की ट्रेन से मुझे कोलकाता निकलना है. औफिस का कुछ काम है,’’ एक दिन अचानक ही उमेश ने शकुंतला से कहा.

‘‘आप ने पहले से कुछ बताया नहीं, अचानक कोलकाता जाने का प्रोग्राम कैसे बना?’’ शकुंतला ने पूछा.

‘‘तुम ज्यादा सवाल मत पूछो. मेरे साथ सतीश और हरीश भी जा रहे हैं. किसी की भी पत्नी इतने सवाल नहीं पूछती… तुम फटाफट मेरा सामान पैक करो,’’ उमेश ने तेवर दिखाए.

उमेश को कोलकाता गए 3 दिन हो गए थे और उस ने एक बार भी न तो शकुंतला को फोन किया और न ही शकुंतला की किसी भी फोन काल को रिसीव किया, तब हार मान कर शकुंतला ने सतीश को फोन कर दिया.

सतीश ने फोन तो उठाया, पर वह घबराया सा लगा और उस ने तुरंत फोन काट दिया.

शकुंतला को सतीश का यह बरताव कुछ अजीब सा लगा. सतीश के फोन कट करते ही कुछ ही सैकंड के भीतर शकुंतला को उमेश का फोन आया, ‘क्या है? क्यों बारबार फोन कर के परेशान कर रही हो?’

उमेश फोन पर ही शकुंतला पर चिल्ला पड़ा, लेकिन तभी शकुंतला को दूसरी तरफ से किसी लड़की के हंसने की आवाज सुनाई पड़ी.

शकुंतला उमेश से कुछ पूछ पाती, इस से पहले ही उमेश ने फोन कट कर दिया और इस के बाद शकुंतला ने जितने भी फोन किए, उमेश ने किसी का भी रिप्लाई नहीं दिया.

थकहार कर शकुंतला ने हरीश को फोन लगाया. जवाब में उस ने बताया, ‘उमेश मेरे साथ नहीं है. वह सतीश के साथ इस समय सोनागाछी गया हुआ है. सोनागाछी कोलकाता का रैडलाइट एरिया है. वे दोनों हर रात वहीं जाते हैं.’

हरीश से मिली इस जानकारी के बाद शकुंतला ने दोबारा उमेश को फोन किया, पर उमेश का फोन स्विचऔफ था.

अगली सुबह उमेश ने खुद ही शकुंतला को फोन किया. उस ने बताया कि वह तो यहां के एक मंदिर में देवी के दर्शन करने आया है.

लेकिन जब शकुंतला ने उमेश से पिछली रात की हकीकत के बारे में जानना चाहा और हरीश से मिली उस जानकारी पर सवाल किए, तब उमेश गुस्से में शकुंतला के ऊपर फोन पर ही चीखनेचिल्लाने लगा.

‘तुम्हें मु झ पर जरा भी भरोसा नहीं है, तुम उस हरीश की बातों में आ कर मु झ पर झूठा इलजाम लगा रही हो. यह हरीश मु झ से अपनी पुरानी दुश्मनी निकालने की खातिर तुम्हें बरगला रहा है. वहां आने पर तुम्हें सारी हकीकत बताऊंगा,’ इतना कह कर उमेश ने फोन कट कर दिया.

शकुंतला बेसब्री से उमेश के लौटने का इंतजार करने लगी.

‘‘आज तुम्हारी पटना के लिए ट्रेन थी. तुम कोलकाता से अब तक नहीं लौटे,’’ फोन पर कहते हुए शकुंतला परेशान हो उठी.

‘मैं पटना पहुंच गया हूं, लेकिन रास्ते में हनुमान मंदिर पड़ता है न… तो बिना दर्शन किए कैसे आगे निकल जाता, पूजापाठ करने में ही वक्त निकल गया. तुम चिंता मत करो. मैं बस पहुंच ही रहा हूं.’

2 घंटे बाद वापस शकुंतला ने फोन किया, तो जवाब में उमेश ने कहा, ‘रास्ते में सुनार की दुकान दिख गई.

मु झे याद आया कि तुम्हारे लिए मैं ने झुमके बनाने का और्डर दिया था, वही झुमके जो तुम कितने दिनों से खरीदना चाह रही थी… वही लेने के लिए रुका था कि इतने में तुम्हारा मंगलसूत्र जो टूट गया था, जो बनाने के लिए दिया था, उस दुकानदार का भी फोन आ गया, तो उसे भी लेने आ गया. मैं बस पहुंच ही रहा हूं.’

उमेश जब घर पहुंचा, तो शकुंतला बाहर ड्राइंगरूम में बैठी उस के आने का इंतजार कर रही थी. शकुंतला को कुछ भी पूछने या कहने का मौका दिए बिना ही उस के हाथ में प्रसाद के साथसाथ मंगलसूत्र और झुमके पकड़ा कर उमेश फ्रैश होने चला गया और कुछ देर बाद वह खुद को बेहद थका हुआ बता कर अपने कमरे में आराम करने चला गया.

रात को कमरे में आने के बाद शकुंतला ने वापस उमेश के सामने अपने वही सवाल दोहराए, लेकिन शकुंतला के सवालों का कोई भी सही जवाब दिए बिना उमेश ने उसे खींच कर अपने सीने से लगा लिया.

‘‘तुम्हें तो इस बात का भी एहसास नहीं है कि मैं तुम्हारे लिए मंदिरमंदिर घूमघूम कर किस तरह पूजाअर्चना करता आया हूं. अपने घर की सुखशांति और खुशियों के लिए मन्नत मांगता फिर रहा हूं और तुम हो कि किसी बाहर वाले के बहकावे में आ कर अपनी ही बसीबसाई गृहस्थी को उजाड़ने पर तुली हो…’’

उमेश ने दुखी होने का नाटक किया, ‘‘तुम जानती नहीं हो कि हरीश कैसा आदमी है. वह जलता है मु झ से. उस की अपनी पत्नी तो हर वक्त मायके भागी रहती है, इसीलिए दूसरों की गृहस्थी में आग लगाने की कोशिश करता रहता है.’’

उमेश को इस तरह दुखी होता देख शकुंतला खुद को ही इन सारी बातों का कुसूरवार सम झने लगी.

‘‘शकुंतला, आज मैं तुम्हें ऐसी खबर सुनाने वाला हूं, जिसे सुनते ही तुम खुशी से झूम उठोगी,’’ एक दिन अचानक ही उमेश ने शकुंतला से कहा, ‘‘मु झे मुंबई की एक बड़ी कंपनी में नौकरी मिली है. मैं अगले हफ्ते ही मुंबई जा रहा हूं.’’

शकुंतला हैरानी से उमेश को देखती रह गई, क्योंकि उमेश ने कभी भी शकुंतला से इस बात का जिक्र भी नहीं किया था कि वह नौकरी बदलने की सोच रहा है या वह मुंबई की किसी कंपनी में नौकरी के लिए अप्लाई कर रहा है. अब आज अचानक उसे यह खबर सुनाई जा रही है.

शकुंतला को यह सम झ में नहीं आ रहा था कि वह खुशी जाहिर करे या नाराजगी, क्योंकि उमेश ने अभी तक उस से यह बात छिपा कर रखी थी. अगर उमेश यह बात उसे पहले बता देता, तो भी शकुंतला उस के इस फैसले में कौन सी अड़चन डालने वाली थी, बल्कि उसे तो खुशी होती.

मुंबई जाने से पहले नाटक करते हुए उमेश शकुंतला के गले से लिपट कर रोने लगा कि जैसे उसे शकुंतला को यहां अकेली छोड़ कर जाते हुए बहुत दुख हो रहा हो कि वह जा तो रहा है, पर उस का दिल तो यहां शकुंतला के पास ही रहेगा.

जातेजाते उस ने शकुंतला से कहा कि वह मुंबई में जैसे ही रहने की अच्छी जगह ढूंढ़ लेगा, उसे भी वहीं अपने पास बुला लेगा.

उमेश को विदा करते हुए शकुंतला की आंखें भी नम हो उठीं. उस का दिल भी यह सोच कर बैठा जा रहा था कि वहां मुंबई जैसे बड़े शहर में उमेश का खयाल कौन रखेगा.

खैर, देखतेदेखते समय भी अपनी रफ्तार से बीतता चला गया. पहले कुछ दिन, फिर हफ्ते, फिर महीने, फिर एकएक कर 3 साल का लंबा वक्त निकलता चला गया.

शकुंतला उमेश के आने का इंतजार करती रही और वह हर बार कोई न कोई बहाना बनाता रहा.

शुरू के कुछ महीने तो उमेश अकसर फोन कर के शकुंतला से उस का हालचाल पूछ लिया करता था. लेकिन, जैसेजैसे समय बीतता गया, उमेश का फोन भी आना बंद हो गया… धीरेधीरे घरखर्च के पैसे भी देने बंद कर दिए.

शकुंतला जब पूछती, तब वह अपनी ही मजबूरियों की गठरी उस के आगे खोल देता, अपनी बेचारगी का रोना शकुंतला के आगे वह कुछ इस तरह रोता कि शकुंतला की जबान पर ताले लग जाते.

शकुंतला ने भी धीरेधीरे हार मान कर उस से पैसे मांगने बंद कर दिए. अब वह शकुंतला के फोन का जवाब भी अपनी सुविधा के हिसाब से ही देता. धीरेधीरे उस ने फोन करने भी कम कर दिए. इधर शकुंतला ने भी हालात से सम झौता कर लिया था.

शकुंतला अब कैसे भी कर के उमेश की मदद करने की बात सोचने लगी. खुद के लिए नौकरी ढूंढ़नी शुरू कर दी, ताकि जिस से वह उमेश पर बो झ भी न बने और जरूरत पड़ने पर उस की पैसे से मदद भी कर सके.

शकुंतला ने जगहजगह नौकरी के लिए अर्जी भेजनी शुरू कर दी, लेकिन कुछ चीजों में उस की जानकारी की कमी के चलते उसे नौकरी मिलने में दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा था.

शकुंतला की सब से बड़ी कमी उस के अंदर आत्मविश्वास की थी. इंटरव्यू के दौरान वह बोलने में अटक जाती थी, इसलिए अब वह अपनी ऐसी बहुत सी छोटीछोटी कमियों पर जीत हासिल करने की कोशिश में जुट गई.

सिलाई तो शकुंतला को पहले से आती थी, उस ने पास के ही एक बुटीक में पार्टटाइम नौकरी भी पकड़ ली. उन्हीं पैसों से उस ने पर्सनैलिटी डवलपमैंट का कोर्स किया. साथ ही साथ उस ने प्रोडक्ट मैनेजमैंट का भी कोर्स कर लिया.

एक दिन शकुंतला की खुशी का ठिकाना न था, जब उसे मुंबई की ही एक कंपनी से नौकरी का औफर आया. उस ने सोचा कि नौकरी मिलने की बात फिलहाल वह उमेश को नहीं बताएगी. नौकरी जौइन करने के बाद जब उस के हाथ में पहली तनख्वाह के पैसे आ जाएंगे, फिर वह उमेश को बता कर एकदम से हैरान कर देगी.

मुंबई शहर शकुंतला के लिए बिलकुल नया था. उस ने एक पीजी होस्टल में किराए पर एक कमरा ले लिया और रहने लगी. उस की रूम पार्टनर नीता बहुत ही खूबसूरत और मिलनसार थी. बहुत ही कम समय में वह उस की बैस्ट फ्रैंड बन गई.

शकुंतला को अब इंतजार था तो बस पहले महीने की मिलने वाली उस की सैलरी का, जिसे पाने के बाद वह उमेश के साथ रहने चली जाएगी.

शकुंतला उमेश को परेशान नहीं करना चाहती थी और न ही अपने खर्चे का बो झ उस पर डालना चाहती थी, इसलिए वह अपने पहले महीने की सैलरी मिलने के बाद ही मुंबई पहुंचने की सूचना उमेश को दे कर उस के साथ रहना चाहती थी.

अब जबकि वह भी कमा रही है, तो घर के खर्चे का बो झ दोनों साथ मिल कर उठाएंगे. ऐसे में साथ रहने पर उमेश को किसी तरह की कोई परेशानी नहीं होगी. यही सोचते हुए वह उमेश से मिलने के दिन गिनती रहती.

‘‘तुम्हारा कल का कोई प्रोग्राम तो नहीं है. मेरा मतलब है कि कल तुम फ्री हो न?’’ शकुंतला के औफिस से आते ही नीता ने अचानक पूछा.

‘‘नहीं, कुछ खास काम नहीं है. वैसे, कल औफिस की छुट्टी है, तो सारा दिन आराम करने की सोची है. लेकिन, तुम बताओ कि ऐसा क्यों पूछ रही हो?’’ शकुंतला नीता के पास आ कर बोली.

‘‘मैं तुम्हें निमंत्रण देना चाह रही थी. कल मेरी रिंग सैरेमनी है. बहुत ज्यादा लोगों को न्योता नहीं दिया है, सिर्फ कुछ खास दोस्तों को ही बुलाया है.

‘‘मम्मीपापा मेरे फैसले के खिलाफ हैं, इसलिए उन्होंने आने से मना कर दिया है. मैं पिछले एक साल से मम्मीपापा को मनाने की कोशिश कर रही हूं, लेकिन मालूम नहीं कि उन्हें उमेश में क्या खराबी नजर आती है.’’

उमेश का नाम सुन कर शकुंतला एक पल के लिए चौंक गई, फिर उस ने सोचा, ‘एक नाम के कई लोग हो सकते हैं.’

‘‘मैं उमेश से बहुत प्यार करती हूं. उस के बिना मैं जिंदगी के बारे में सोच भी नहीं सकती. तुम नहीं जानती शकुंतला कि उमेश कितना अच्छा और नेक है. जब से वह मेरी जिंदगी में आया है, मेरी तो दुनिया ही बदल गई है. सच्चा प्यार क्या होता है, उसी ने मु झे सिखाया है,’’ उमेश के प्यार में दीवानी नीता शकुंतला के सामने उमेश चालीसा पढ़े जा रही थी और शकुंतला चुपचाप उस की बातों को सुन रही थी.

‘‘क्या तुम्हारे पास उमेश की कोई तसवीर है? जरा मैं भी तो देखूं, मेरी प्यारी दोस्त जिस के प्यार में इतनी दीवानी है, वह दिखता कैसा है?’’

‘‘क्यों नहीं, यह देखो,’’ नीता एकएक कर उमेश के साथ वाली बहुत सारी तसवीरें अपने मोबाइल फोन की स्क्रीन पर शकुंतला को दिखाती चली गई.

शकुंतला अपलक उन तसवीरों को देखती रह गई. उस के लिए यकीन कर पाना मुश्किल हो रहा था. उस के दिल में टीस सी उठने लगी, चेहरा मुरझा गया, आंखों में आंसुओं का सैलाब उतरने लगा, जिसे उस ने बड़े ही जतन से काबू कर लिया.

‘‘नीता, तुम उमेश को कितने समय से जानती हो?’’ शकुंतला ने खुद को संभालते हुए नीता से सवाल पूछा.

‘‘पिछले 2 साल से.’’

‘‘क्या तुम ने उमेश के बारे में भी सबकुछ ठीक से जांचपड़ताल की है. मेरा मतलब है कि वह इनसान कैसा है और उस के परिवार में कौनकौन लोग हैं?’’

‘‘यार शकुंतला, तुम बिलकुल मेरे मम्मीपापा की तरह बातें कर रही हो. प्यार जांचपड़ताल कर के नहीं किया जाता, वह तो बस हो जाता है.

‘‘और रही बात उमेश के बारे में जानने की, तो उमेश ने मु झ से कभी भी कोई बात नहीं छिपाई. यहां तक कि उस ने अपनी पहली शादी के बारे में भी मु झे सबकुछ सचसच बता दिया है कि कैसे उस की पहली पत्नी की मौत शादी के कुछ दिन बाद हो गई.

‘‘बेचारे ने तो शादी का सुख भी नहीं भोगा. अब तुम बताओ, क्या अभी भी मु झे उस की ईमानदारी पर शक करना चाहिए?’’

‘‘नीता, क्या तुम ने उमेश की पहली पत्नी की तसवीर देखी है?’’

‘‘नहीं, इस की जरूरत ही नहीं है. जिस बात से उमेश को तकलीफ पहुंचती हो, वह बात मु झे करना भी पसंद नहीं. प्यार करने वाले जख्मों को भरा करते हैं, उसे कुरेदा नहीं करते.’’

‘‘पर, अगर कभी उमेश की पहली पत्नी अचानक तुम्हारे सामने आ कर खड़ी हो जाए, अगर वह जिंदा हो, उस की मौत ही न हुई हो, फिर तुम क्या करोगी?’’

‘‘यह बात तो मैं मान ही नहीं सकती. ऐसा कभी हो ही नहीं सकता. अगर ऐसा हुआ भी जैसा कि तुम कह रही हो, तब भी मैं उमेश का साथ नहीं छोड़ूंगी. मैं तब भी अपने कदम पीछे नहीं हटाऊंगी. उस की पहली पत्नी को ही पीछे हटना होगा. अगर वह जिंदा थी, तो इतने सालों तक उस ने उमेश की खोजखबर क्यों नहीं ली?

‘‘मैं यही सम झूंगी कि जरूर इस में उमेश की कोई न कोई मजबूरी रही होगी. मैं उमेश से जुदा हो कर जी नहीं सकूंगी.’’

शकुंतला का मन उमेश के प्रति नफरत से भर गया. कैसे उस ने जीतेजी उसे मरा हुआ बता दिया. उस का मन पीड़ा से भर उठा. क्या शादी का बंधन, उस की पवित्रता, उस की मर्यादा को निभाने की, अग्निकुंड के सामने मंत्र उच्चारण के साथ जो वचन लिए गए थे, उन्हें निभाने की जिम्मेदारी सिर्फ उसी की थी?

मंगलसूत्र टूट जाने पर शकुंतला को कितनाकुछ सुनाया था. वह हर वक्त डरती रही कि गलती से भी कहीं मंगलसूत्र उस के गले से निकल कर टूट न जाए, जबकि उमेश ने तो यहां उस के भरोसे, उस के आत्मसम्मान को ही चकनाचूर कर दिया.

क्या उस के आत्मसम्मान की कीमत उस के मंगलसूत्र से भी कम है? क्या इस समाज में मंगलसूत्र, सिंदूर और बिंदी की कीमत किसी औरत के आत्मसम्मान से ज्यादा है?

इस समाज में कितनी ही ऐसी औरतें हैं, जिन के पति उन्हें न तो पूरी तरह अपनाते हैं और न ही आजाद हो कर जीने का हक देते हैं. वे शादीशुदा होते हुए भी अकेले जिंदगी बिताने को मजबूर रहती हैं, जबकि उन के पति उन्हें अकेला छोड़ कर ऐशोआराम की जिंदगी बड़े शान से जी रहे होते हैं. तब यही समाज उन के पतियों से कुछ नहीं कहता. लेकिन, किसी औरत के गले में मंगलसूत्र और मांग में सिंदूर न पा कर सभी उस की बुराई करने लग जाते हैं.

अगर शकुंतला मुंबई नहीं आई होती, तो वह कभी भी अपने पति उमेश की हकीकत जान ही नहीं पाती. वह तो अकेली सुहागन होने का, शादीशुदा होने का तमगा लटकाए जिंदगी को ढोने के लिए मजबूर कर दी जाती.

शकुंतला कुरसी पर बैठे हुए बहुत देर तक मन ही मन काफीकुछ सोचती रही. उस के सामने ड्रैसिंग टेबल पर लगा हुआ आईना था, जिस पर उस ने पिछले दिन ही अपनी बिंदी उतार कर चिपकाई थी, जो उस की ओर झांक रही थी.

शकुंतला रूमाल से आईने को साफ करने लगी. वह रूमाल को आईने पर तब तक रगड़ती रही, जब तक कि वह बिंदी पूरी तरह निकल नहीं गई.

अगले दिन शकुंतला आत्मविश्वास के साथ रिंग सैरेमनी फंक्शन में नीता के बताए पते पर पहुंच गई. समारोह किसी होटल में था. नीता काफी खुश नजर आ रही थी.

शकुंतला को देखते ही नीता दौड़ कर उस के गले मिली. शकुंतला का हाथ पकड़ कर वह उसे उमेश के पास ले गई और उस का परिचय उमेश से कराते हुए बोली, ‘‘उमेश, यह है मेरी सहेली शकुंतला. यह मुंबई की एक बड़ी कंपनी में प्रोडक्ट मैनेजर है.’’

शकुंतला उमेश से ऐसे मिली, जैसे उसे पहली बार देखा हो, जबकि शकुंतला को देख कर उमेश हक्काबक्का रह गया.

शकुंतला उन दोनों के लिए 2 अलगअलग गिफ्ट ले आई थी. वह गिफ्ट दे कर वहां से होस्टल के लिए निकल गई.

नीता के होस्टल पहुंचने से पहले ही शकुंतला होस्टल छोड़ कर कहीं दूसरी जगह शिफ्ट हो गई थी. दूसरी तरफ समारोह खत्म होने के बाद जब उमेश अपने कमरे में अकेला था, तब उस ने शकुंतला का दिया हुआ गिफ्ट खोला. एक बौक्स के अंदर मंगलसूत्र और झुमके के साथ ही उस की लिखी एक चिट्ठी भी थी.

चिट्ठी में शकुंतला ने लिखा था, ‘यह मंगलसूत्र मेरे लिए जंजीर से ज्यादा कुछ नहीं. मैं इस के बो झ से खुद को आजाद कर रही हूं… लेकिन हां, तुम ने अब तक मेरे साथ जोकुछ किया, वह सब नीता के साथ मत करना. वह तुम से बहुत प्यार करती है. कम से कम उस की इस बात की ही इज्जत रखना.

‘मैं ने उसे तुम्हारी कोई भी हकीकत अभी तक नहीं बताई है, नहीं तो प्यार से उस का भरोसा उठ जाता. जिस दिन इस दुनिया में लोगों का प्यार से भरोसा उठ गया, उस दिन यह दुनिया जीने लायक नहीं रहेगी और यह मैं बिलकुल नहीं चाहती…

‘जो धोखा तुम ने मु झे दिया है, वह नीता को कभी मत देना. एक शादीशुदा औरत के लिए उस के पति से मिलने वाली इज्जत और प्यार ही सब से बड़ा सिंगार होता है, उस का सब से कीमती जेवर होता है, जिस की कमी को दुनिया का महंगा से महंगा जेवर भी पूरा नहीं कर सकता.

‘मंगलसूत्र के साथ मैं झुमके भी तुम्हें लौटा रही हूं, जो तुम ने उस दिन अपने उस बड़े से झूठ पर परदा डालने और मेरा विश्वास जीतने के लिए दिए थे. तुम्हें तलाक का नोटिस मैं बहुत जल्दी ही भेज दूंगी.’

शकुंतला की लिखी चिट्ठी को उमेश बारबार पढ़ता रहा. अपने दिल के किसी कोने में आज पहली बार उसे दर्द का एहसास हुआ.

लेखिका – गायत्री ठाकुर

Hindi Story : हैसियत

Hindi Story : ‘‘सौरभ, हम कब तक इस तरह मिलतेजुलते रहेंगे…’’ चंपा से आखिरकार रहा न गया, ‘‘अब हमें जल्दी ही शादी कर लेनी चाहिए.’’

‘‘शादी भी कर लेंगे चंपा,’’ सौरभ बोला, ‘‘पहले हम बीए कर लें.’’

‘‘तुम नहीं जानते हो सौरभ, मैं तुम्हारे बच्चे की मां बनने वाली हूं…’’

‘‘क्या कह रही हो तुम?’’ हैरानी से सौरभ बोला, ‘‘चलो, अस्पताल जा कर बच्चा गिरा देते हैं.’’

‘‘नहीं सौरभ, यह हमारे प्यार की निशानी है…’’ चंपा बोली, ‘‘मैं बच्चा नहीं गिराना चाहती हूं.’’

‘‘मगर, मैं तुम से शादी नहीं कर सकता,’’ सौरभ ने कहा.

‘‘क्यों नहीं कर सकते? क्या परेशानी हैं तुम्हें?’’ चंपा जरा तेज आवाज में सौरभ से बोली.

‘‘तुम हमारी हैसियत के बराबर नहीं हो,’’ सौरभ बोला.

‘‘जब मैं तुम्हारी हैसियत के बराबर नहीं थी, तब तुम ने क्यों प्यार किया मुझ से…’’ नाराज हो कर चंपा बोली, ‘‘अब तुम्हें शादी तो करनी ही पड़ेगी मुझ से.’’

‘‘शादी करूं और तुम से… किसी और का पाप मुझ पर क्यों डाल रही हो?’’ जब सौरभ ने यह कहा, तब चंपा का गुस्सा भीतर ही भीतर बढ़ गया. वह गुस्से से बोली, ‘‘क्या कहा तुम ने कि शादी नहीं करोगे? मतलब, तुम्हारा प्यार केवल मेरे जिस्म तक ही था.’’

‘‘हां, यही समझ लो. अब कभी मिलने की कोशिश मत करना,’’ चंपा से इतना कह कर सौरभ गाड़ी में बैठ कर नौ दो ग्यारह हो गया.

चंपा ठगी सी रह गई. जिस सौरभ पर चंपा ने पूरा विश्वास किया, आगे रह कर उस ने प्रेम के अंकुर बोए, उस ने ही उसे धोखा दे दिया.

चंपा और सौरभ एक ही कालेज में पढ़ते थे. दोनों एक ही गांव में रहते थे.

सौरभ गांव के एक अमीर किसान अमृतलाल का बेटा था. उस की गांव में ढेर सारी खेती थी. खेती के अलावा अमृतलाल के और भी धंधे थे, जिन्हें वह गुपचुप तरीके से करता था, इसलिए उस के पास काली दौलत भी बहुत थी.

अमृतलाल राजनीति में भी दखल देता था, इसलिए भोपाल तक अमृतलाल की पहचान थी. थाने को भी उस ने अपनी काली दौलत से खरीद लिया था. गांव में उस का दबदबा था. सब लोग उस से डरते भी थे, इसलिए कभी थाने में शिकायत भी नहीं करते थे. जिस थाने में शिकायत की गई, वह उसी थाने को खरीद लेता था.

अमृतलाल का सब से छोटा बेटा सौरभ कालेज में पढ़ रहा था और उस के लिए शहर में ही घर बना दिया था.

चंपा एक गरीब किसान चंपालाल की बेटी थी. उस के पिता के पास थोड़ी सी जमीन थी, उस से उतनी ही पैदावार होती थी, जिस से पेट भर सके, इसलिए कभीकभी वह अमृतलाल के यहां मजदूरी भी करता था.

जब चंपा ने हायर सैकेंडरी का इम्तिहान अच्छे नंबरों से पास किया, तब उस की इच्छी थी कि वह शहर जा कर कालेज में पढ़े. पर उस की मां दुर्गा देवी ने साफसाफ कह दिया था कि कालेज जा कर लड़की को बिगाड़ना नहीं है.

मां का विरोध देख कर पिता ने भी चंपा को कालेज जाने से मना कर दिया था. मगर, उस की जिद ने पिता को पिघला दिया.

जब चंपा का कालेज में एडमिशन हो गया, तब सुबह वह गांव से बस में बैठ कर शहर चली जाती, 2-4 पीरियड पढ़ कर गांव लौट आती.

एक बार चंपा कालेज के दालान में सौरभ से टकरा गई. दोनों की आंखें मिलीं. आंखों ही आंखों में इशारा
हो गया.

वे दोनों ही जानते थे कि एक ही गांव के रहने वाले हैं. दोनों में कब प्यार हो गया, उन्हें पता ही नहीं चला.

सौरभ चंपा की हर मांग पूरी करने लगा. चंपा भी उस के प्यार में पागल सी हो गई. कभीकभी वह कालेज से सौरभ के बंगले में पहुंच जाती. उस की बांहों में समा जाती. तब सौरभ कहता, ‘‘चंपा, मैं तुझ से ही शादी करूंगा.’’

‘‘सच कह रहे हो न सौरभ?’’ चंपा पूछती, ‘‘तुम मुझे धोखा दे कर जाओगे तो नहीं?’’

‘‘नहीं, कभी नहीं. यह मेरा वादा है, पक्का वादा है,’’ जब सौरभ बोला, तब जोश में आ कर चंपा ने शहर वाले बंगले में उसे अपना जिस्म सौंप दिया. इसी का नतीजा आज यह हुआ है कि वह उस के बच्चे की मां बनने वाली है.

भावुकता भरा कदम चंपा को इतना महंगा पड़ जाएगा, उसे पता नहीं था. आज सौरभ ने शादी करने से मना कर दिया, तब उस को लगा कि वह न घर की रही, न घाट की.

जब इस बात का पता मां और पिता को चलेगा, तब उन के दिल पर क्या बीतेगी. अब वह अपनी मां को कैसे बताए कि उस के पेट में सौरभ का बच्चा पल रहा है. वह प्यार में धोखा खा चुकी है. गांव वाले और रिश्तेदारों को पता चलेगा कि वह कुंआरी मां बन रही है, तब उस के मांबाप की कितनी किरकिरी होगी. क्या वह अपने बच्चे को गिरा दे? गिरा देगी… तब भी सब को यह पता चल ही जाएगा.

इस वजह से आज चंपा दोराहे पर खड़ी थी. आखिर दाई से वह कब तक पेट छिपाए रखेगी… शादी करने का वादा करने के बाद भी सौरभ ने मना कर दिया. प्यार में उस ने धोखा खाया.

कालेज से वापस अपने घर आने के बाद चंपा का मन बेचैन रहा. क्या वह मां को सचसच बता दे? आज नहीं तो कल मां को तो मालूम पड़ ही जाएगा. इस मामले में मांएं तो उड़ती चिडि़या भांप लेती हैं.

‘‘कालेज से आ गई बेटी… खाना खाया?’’ जब मां दुर्गा देवी ने कहा, तब चंपा बोली, ‘‘खाने की इच्छा नहीं है.’’

‘‘तो क्या शहर से खा कर आई है?’’ मां ने जब यह सवाल पूछा, तब चंपा बोली, ‘‘नहीं मां, मुझे तुम से एक बात कहनी है.’’

‘‘क्या बात है?’’

‘‘पहले मुझे यह वचन दो कि आप नाराज नहीं होंगी मुझ से,’’ अभी चंपा यह बात कह ही रही थी कि पिता चंपालाल भी आ गया.

तब दुर्गा देवी ने पूछा, ‘‘बोल, क्या कहना चाहती है?’’

‘‘मां, मेरी बात सुन कर तुम बहुत नाराज हो जाओगी, इसलिए कहने में डर रही हूं,’’ जब चंपा ने यह बात कही, तब चंपालाल बोला, ‘‘कह दे, बेझिझक कह दे. तेरी मां नाराज नहीं होगी. क्या कहना चाहती है?’’

‘‘बापू, मुझ से भारी भूल हो गई.’’

‘‘कुछ बताएगी भी, वरना हमें कैसे पता चलेगा… कह दे बेटी, हम नाराज न होंगे,’’ चंपालाल ने कहा.

‘‘बापू, मैं अमृतलाल के बेटे सौरभ से प्यार करती हूं. वह भी मुझे बहुत प्यार करता है. उस ने मुझ से शादी करने का वादा किया और मैं ने अपना जिस्म उसे सौंप दिया. अब उस का बच्चा मेरे पेट में पल रहा है,’’ अभी चंपा यह बात कह रही थी कि मां दुर्गा देवी बीच में ही गुस्से से उबल पड़ी, ‘‘क्या कहा कि तू पेट से है?… तू ने तो हमारी इज्जत को ही उछाल दिया. आग लगे तेरी जवानी को. मैं ने पहले ही कहा था कि इस करमजली को शहर में पढ़ने मत भेजो. उसी का नतीजा है कि इस के…’’

‘‘चुप रहो दुर्गा, कुछ भी बक देती हो,’’ नाराज हो कर चंपालाल बीच में ही बात काट कर बोला.

‘‘कैसे चुप रहूं…’’ दुर्गा देवी गुस्से से बोली, ‘‘इस ने हमारी इज्जत मिट्टी में मिला दी और आप कह रहे हो कि चुप हो जाऊं? मैं तो शहर में कालेज भेजने के खिलाफ थी, मगर आप ने कहां चलने दी मेरी.

‘‘आप की लाड़ली बेटी है न और यह गुल खिला दिया. अब कौन करेगा इस से शादी. इसे सब बदचलन कह कर नकार देंगे.’’

‘‘थोड़ी देर के लिए चुप भी हो जाओ…’’ फिर समझाते हुए चंपालाल बोला, ‘‘अभी मैं अमृतलाल के पास जाता हूं और उस से चंपा के रिश्ते की बात करता हूं.’’

‘‘बापू, वहां जाने से कोई फायदा नहीं. सौरभ ने मुझ से शादी करने से यह कह कर मना कर दिया कि हम गरीबों की हैसियत उन के बराबर नहीं है,’’ जब चंपा ने यह बात कही, तब चंपालाल बोला, ‘‘अरे, हैसियत बता कर वह बच नहीं सकता है. थाने में रपट…’’

‘‘थाने में रपट लिखवाने से कुछ न होगा. वह थाने को भी खरीद लेगा. उस के पास बहुत पैसा है…’’ बीच में ही बात काट कर दुर्गा देवी बोली, ‘‘माना कि थानेदार रपट लिख भी लेगा, मुकदमा चलेगा, तब कहां से लाओगे पैसे? पैसे हैं तुम्हारे पास क्या…’’

‘‘तुम ठीक कहती हो दुर्गा,’’ नरम पड़ते हुए चंपालाल बोला, ‘‘भावुकता में मुझे भी गुस्सा आ गया था… मैं मालिक को जा कर समझा तो सकता हूं.’’

इतना कह कर चंपालाल अमृतलाल की हवेली की ओर बढ़ गया. दुर्गा देवी अब भी चंपा को गालियां दे कर अपनी भड़ास निकाल रही थी.

जब चंपालाल अमृतलाल की हवेली में गया, तब वे अपनी बैठक में ही मिल गए, जो अपने कारिंदों के बीच घिरे हुए थे.

चंपालाल भी उन कारिंदों के बीच जा कर बैठ गया. उसे देख कर कारिंदे उठ कर बाहर चले गए. अब बैठक में दोनों ही अकेले रह गए. तब अमृतलाल बोले, ‘‘आओ चंपालाल, यहां किसलिए आए हो?

‘‘मालिक, मैं बहुत बुरा फंस गया हूं…’’ हाथ जोड़ते हुए चंपालाल बोला, ‘‘आप ही इस समस्या का हल निकाल सकते हैं.’’

‘‘पहले अपनी समस्या बताओ, मेरे हल करने जैसी होगी, तो मैं जरूर करूंगा,’’ अमृतलाल बोले.

‘‘मालिक, आप का बेटा सौरभ और मेरी बेटी चंपा शहर के एक ही कालेज में पढ़ते हैं. उन दोनों में इश्क हो गया. और…’’ बीच के शब्द चंपालाल के गले में ही अटक गए.

‘‘बोलो, रुक क्यों गए चंपालाल?’’ उसे रुकते देख कर अमृतलाल बोले ‘‘मालिक, चंपा के पेट में जो बच्चा पल रहा है, वह छोटे मालिक सौरभ का है,’’ बहुत मुश्किल से चंपालाल यह कह पाया.

‘‘क्या कहा…?’’ आगबबूला हो कर अमृतलाल बोले.

‘‘हां मालिक, मैं यही कहने आया हूं कि चंपा को अपनी बहू बना लो,’’ हाथ जोड़ कर चंपालाल बोला.

‘‘बहू बना लूं. अरे, तू ने कैसे कह दिया कि बहू बना लूं. तेरी लड़की गांव में न जाने किनकिन लड़कों से पैसों के लिए संबंध बनाती है और मेरे बेटे को बदनाम करती है. अब तेरी बेटी पेट से हो गई, तब उस का पाप मेरे होनहार बेटे पर डाल रहा है.

‘‘बहू बना लूं तेरी बेटी को. अपनी हैसियत देखी है. पहले अपनी आवारा लड़की को संभाल… फिर तेरे पास क्या सुबूत है कि उस के पेट में सौरभ का ही बच्चा है?’’

‘‘यह तो डाक्टर की रिपोर्ट बताएगी मालिक?’’ चंपालाल ने जब तेज आवाज में यह बात कही, तब अमृतलाल गुस्से से बोले, ‘‘मतलब, तू मुझे अदालत ले जाएगा.’’

‘‘हां मालिक, जरूरत पड़ी तो ले जाऊंगा,’’ इस समय चंपालाल में न जाने कहां से ताकत आ गई. वह पलभर के लिए रुक कर फिर बोला, ‘‘उस औरत का नाम तो मालूम नहीं है मालिक, मगर अपने नाजायज बच्चे को पिता का नाम देने के लिए वह कोर्ट गई थी. कई साल तक कोर्ट में लड़ी और आखिर में जीत उस की हुई. जानते हो, उस के पिता कौन थे?’’

‘‘मैं नहीं जानता. कौन थे वे?’’ अमृतलाल गुस्से से बोले.

‘‘वे थे भूतपूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत तिवारी.’’

‘‘अच्छा तो, तू मुझे धमकी दे रहा है. नालायक कहीं का,’’ गाली देते हुए अमृतलाल बोले, फिर गुस्से से उठ कर उस की पीठ पर एक लात जमा दी, फिर उसी गुस्से से बोले, ‘‘चला जा यहां से इसी समय. अब अपना मुंह कभी मत दिखाना हरामखोर.’’

चंपालाल ने ज्यादा बहस करना उचित नहीं समझा. वह अपनी कमर को सहलाते हुए हवेली से बाहर निकल गया.

चंपालाल ने अमृतलाल से पंगा जरूर ले लिया, मगर वह अब उस का बदला जरूर लेगा. तब उस ने मन ही मन सोचा कि मालिक ने उस से पंगा ले कर अच्छा नहीं किया. इस का नतीजा भुगतना पड़ेगा. जिसजिस ने भी अमृतलाल से पंगा लिया, उस को ठिकाने लगा दिया गया. देवीलाल, सुखराम, करण सिंह इस के उदाहरण हैं.

मगर अब वह कैसे साबित करे कि चंपा के पेट में जो बच्चा पल रहा है, वह सौरभ का है. मगर आज वैज्ञानिक ने इतनी तरक्की कर ली है कि सब पता चल जाता है. तब क्या वह सौरभ के खिलाफ रपट लिखा दे. पुलिस उस से सब पूछ लेगी. मगर कोर्ट में जाने के लिए पैसे चाहिए और पैसा कहां है उस के पास. इन्हीं विचारों ने चंपालाल को परेशान कर रखा था.

जब चंपालाल घर पहुंचा, तब दुर्गा देवी उसी का इंतजार कर रही थी. वह बोली, ‘‘क्या कहा मालिक ने?’’

‘‘वे तो यह मानने के लिए भी तैयार नहीं हैं कि चंपा के पेट में उन के बेटे का बच्चा पल रहा है. उन्होंने अपनी हैसियत बता दी,’’ निराश भरी आवाज में जब चंपालाल ने जवाब दिया, तब दुर्गा देवी बोली, ‘‘अब क्या होगा? कौन करेगा इस से शादी?’’

‘‘देखो दुर्गा, हम कोर्ट में जा कर इंसाफ मांगेंगे.’’

‘‘मगर, कोर्ट में जाने के लिए पैसा चाहिए. कहां है हमारे पास इतना पैसा…’’ जब दुर्गा देवी ने यह सवाल पूछा, तब कुछ सोच कर चंपालाल बोला, ‘‘इस के सिवा हमारे पास और कोई रास्ता नहीं है. चाहे मकान या खेत भी बेचना पड़े…’’

यह बात आईगई हो गई. कुछ दिन तक वे दोनों सोचते रहे कि थाने में रपट लिखाएं या नहीं, मगर किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाए.

इसी बीच एक घटना हो गई. एक रात चंपा को किसी ने अगवा कर लिया. किस ने किया, यह पता नहीं चला.

सुबह होते ही जब चंपा बिस्तर पर नहीं मिली, तब घर में कुहराम मच गया. गांव वाले उसे आसपास टोली बना कर सब जगह ढूंढ़ने निकल गए. 3-4 घंटे ढूंढ़ने के बाद भी चंपा का कहीं पता नहीं चला. तब थाने में रपट लिखा दी गई. पुलिस भी हरकत में आई. उस ने छानबीन की, मगर चंपा का कहीं पता नहीं चला.
2 दिन बाद चंपा की लाश अमृतलाल के कुएं में तैरती पाई गई.

पुलिस ने चंपा की लाश कुएं से बाहर निकाली. उस का पोस्टमार्टम किया गया. डाक्टर ने पोस्टमार्टम की रपट में बताया कि चंपा ने खुदकुशी नहीं की, बल्कि उसे मार कर कुएं में फेंक दिया गया.

तब पुलिस को अमृतलाल पर शक हुआ, मगर वह सुबूत नहीं जुटा पाई. पोस्टमार्टम में यह रिपोर्ट भी थी कि चंपा 2 महीने के पेट से थी. तब गांव वाले खुल कर नहीं, दबी आवाज में यह चर्चा कर रहे थे कि हो न हो, चंपा का खून अमृतलाल के कारिंदों ने ही किया है. मगर, डर के मारे कोई खुल कर सामने नहीं आना चाहता था.

पुलिस जब चंपालाल के घर पर एक बार फिर तलाश करने आई, तब उन्हें वहां चंपा की दस्तखत की गई एक चिट्ठी पुलिस के हाथ लगी. उस का मजमून इस तरह था :

‘मैं जनता कालेज में पढ़ती हूं. बस से रोजाना अपने गांव से अपडाउन करती हूं. कालेज में इसी गांव के अमृतलाल का बेटा सौरभ पढ़ता है. उस ने लालच दे कर पहले मुझे अपने प्रेमजाल में फंसाया. मुझ से शादी करने का वादा किया. तब मैं ने अपना जिस्म उसे सौंप दिया. इस का नतीजा यह हुआ कि मेरे पेट में उस का बच्चा पलने लगा.

‘मैं ने सबकुछ सच बता कर उस से शादी करने की बात कही. तब उस ने मेरे गरीब पिता की हैसियत देख कर मुझ से शादी करने से मना कर दिया.

‘मैं खूब रोईगिड़गिड़ाई, मगर उस पर कोई असर नहीं पड़ा. तब मैं ने अपने पेट से होने की बात अपने गरीब मांबाप को बताई. मेरे गरीब पिता अमृतलाल के पास मुझे अपनी बहू बनाने की बात कहने गए. तब उन्हें लात मार कर भगा दिया गया. तब से मैं भीतर ही भीतर घबरा रही थी कि मेरे गरीब पिता ने अमृतलाल से पंगा लिया.

‘कहीं वह मेरा या मेरे पिता का खून न करवा दे, इस डर से मैं परेशान सी रही. अगर मेरा इन लोगों ने खून कर दिया, तब पिता और मां को कानून में मत घसीटना. मैं बहुत घबराई हुई हूं कि कहीं ये लोग मेरी हत्या न कर दें.’

वह चिट्ठी पढ़ कर पुलिस हरकत में आ गई. शहर जा कर सब से पहले सौरभ को गिरफ्तार किया. इस तरह चिट्ठी ने अपनी हैसियत बता दी.

Hindi Story : बदलाव के कदम

Hindi Story : लक्ष्मण अपनी अंधेरी कोठरी का बल्ब जला कर चारपाई पर लेट गया और कुछ सोचने लगा. कल ही तो लक्ष्मण की शादी है. अब तक कोई भी ठोस इंतजाम नहीं हो सका है. तिलक के दिन भी लक्ष्मण को ही अपने घर के सारे इंतजाम करने पड़े थे. बैंक में जमा रुपए निकाल कर वह अपनी शादी का इंतजाम कर रहा था. उस की इच्छा थी कि कोर्ट में ही शादी कर ले. आलतूफालतू खर्च तो बच जाएंगे, लेकिन लड़की के घर वालों की इच्छा की अनदेखी वह नहीं कर सका. लड़की वाले अपनी तरफ से उस की खातिरदारी में अपनी इच्छा से सबकुछ खर्च कर रहे हैं, तो क्या उस का अपना कोई फर्ज नहीं बनता?

लक्ष्मण के बाबूजी लालधारी इस शादी से खुश नहीं थे. उन का स्वभाव शुरू से ही खराब रहा है, ऐसा नहीं
था. हां, शादी के मुद्दे पर मनमुटाव हुआ है.

लालधारी को इस बात का दुख था कि उन का बेटा लक्ष्मण अपनी बिरादरी की इज्जत का खयाल न कर दूसरी जाति की, वह भी अछूत जाति की लड़की से ब्याह कर रहा है.

प्यारव्यार तो ठीक था, लेकिन शादीब्याह की बात से तो पूरी बिरादरी के लोग लालधारी पर थूथू कर रहे थे. इसे सही और गलत के तराजू पर तौल कर लालधारी लक्ष्मण का पक्ष लिए होते, तब लक्ष्मण इतना दुखी नहीं होता. उसे दुख तो इस बात पर हो रहा था कि वे अपने बेटे के बजाय बिरादरी का ही समर्थन कर रहे थे.

लालधारी को ज्यादा दुख इस बात का था कि इस शादी में दहेज की मोटी रकम नहीं मिल रही थी. उन्होंने सपने में भी ऐसा नहीं सोचा था कि जिस बेटे को एमए की डिगरी दिलाने में उन्होंने एड़ीचोटी एक कर दी, उस के ब्याह में उन्हें फूटी कौड़ी भी हाथ नहीं लगेगी. हताश हो कर वे अपने हाथ मलते रह गए थे. बेटा नासमझ तो था नहीं, जो उसे डांटनेफटकारने के बाद लड़की वाले से मोटी रकम की मांग कर बैठते. सच बात तो यह थी कि लक्ष्मण के आदर्शवादी खयालों से वे नाराज हुए बैठे थे.

एक बार लालधारी ने लक्ष्मण से कहा भी था, ‘‘बेटा, गैरजाति में शादी कर तू ने बिरादरी में मेरी नाक तो कटवा ही दी. अब एक पैसा भी दहेज न लेने की जिद कर के क्यों हाथ आ रहे पैसे को तू ठुकरा रहा है? कुछ नहीं, तो जमीनजायदाद ही लिखवा ले…’’

तब लक्ष्मण एकदम गंभीर हो गया था और फिर तैश में आ कर बोल उठा था, ‘‘बाबूजी, बिरादरी से हमें कोई लेनादेना नहीं है. मैं जाति नहीं, इनसान की इनसानियत की कद्र करता हूं. मेरे ऊपर आप का बहुत अहसान और कर्ज है, लेकिन वह अहसान और कर्ज इतना छोटा नहीं है कि उसे पैसे से चुका दूं.

‘‘आप अपने लक्ष्मण से इज्जत जरूर पा सकेंगे. लेकिन बेटे की शादी के एवज में दानदहेज नहीं. मैं पैसे को ठुकरा नहीं रहा हूं, अपने घर में इज्जत के साथ पैसे को ला रहा हूं. क्या अच्छी बहू किसी पैसे से कम होती है?’’

लक्ष्मण की बातों के चलते पूरी बिरादरी वाले यह सोचसोच कर डर रहे थे कि कहीं यह हवा उन के घर के भीतर भी न घुस जाए, उन का बेटा भी बगावत पर न उतर जाए, गैरजाति की लड़की से प्यार न कर बैठे और फिर लाखों रुपए के दानदहेज से अछूते न रह जाएं.

उसी समय लालधारी से मिलने सरपू और अवधेश आए थे. बातचीत के दौरान लालधारी ने उन से कहा था, ‘‘मैं ने भी तय कर लिया है कि जिस तरह लक्ष्मण की शादी में मुझे एक भी पैसा नहीं मिला है, उसी तरह मैं भी उस की शादी में एक भी पैसा खर्च नहीं करूंगा. देखता हूं, बच्चों को कौन उधार देता है और वह कैसे कर लेता है ब्याह… और हां, सरयू और अवधेश, तुम लोग भी एक पैसा मत देना लक्ष्मण को.’’

‘‘मैं क्यों पैसे दूंगा? कल लक्ष्मण 500 रुपए उधार मांगने के लिए मेरे पास आया था, लेकिन मैं ने साफसाफ कह दिया कि अपने बाबूजी से जा कर मांगने में लाज लगती है क्या?

‘‘बस, इतना सुनना था कि उल्लू जैसा मुंह बना कर वह चला गया. अरे भाई, अब तो उस का मुंह भी बंद हो गया है. उस की शादी न रुक गई, तो फिर देखना.’’

लक्ष्मण का लंगोटिया दोस्त सुरेश मन ही मन मना रहा था कि मेरे दोस्त की यह परेशानी दूर हो जाती, ताकि वह अपनी बात पर अटल रहते हुए अपनी मंजिल को पा सके.

सुरेश को यकीन नहीं हो पा रहा था कि इतने विरोधों और परेशानियों के बावजूद लक्ष्मण और किरण की शादी हो सकेगी. लक्ष्मण और किरण का आकर्षण अनजाने में हुआ था. लक्ष्मण ट्यूशन पढ़ाने हर शाम जाया करता था. पढ़ातेपढ़ाते वह खुद प्रेम का पाठ पढ़ने लगा. दोनों के विचार जब आपसी लगाव का कारण बन गए, तब वे एकदूसरे को पसंद करने लगे.

यह जोड़ी किरण की मां को भी बहुत भली लगी. किरण के बाबूजी तो 2 साल पहले ही इस दुनिया से जा चुके थे, इसलिए सारे फैसले मां को ही लेने थे. वे इस से बढि़या लड़का कहां से ढूंढ़तीं? पढ़ालिखा और समझदार लड़का बैठेबैठे मिला है. फिर जातपांत में क्या रखा है? जमाना बदल रहा है, तो विचारों में भी बदलाव लाना ही चाहिए.

किरण की मां को जब यह लगा कि किरण भी लक्ष्मण से सचमुच प्रेम करती है, तब उन्होंने बातबात में ही बात चला दी थी, ‘‘बेटा, मेरी बेटी तुम्हारी बहुत बड़ाई किया करती है. अगर तुम्हें मेरी बेटी पसंद हो, तो मैं उस की शादी तुम से करने के लिए तैयार हूं.’’

‘‘मांजी, मैं खुद ऐसी ही बात आप के सामने कहने वाला था. जल्दी ही किरण से शादी कर के आप को भरोसा दिला दूंगा कि मेरा प्यार झूठा नहीं है.’’

‘‘लेकिन, अगर तुम्हारे बाबूजी इस शादी के खिलाफ हुए, तब तुम क्या करोगे बेटा?’’ अपना शक सामने रखते हुए किरण की मां बोलीं.

‘‘उन के खिलाफ भी कदम बढ़ाने की मेरी पूरी कोशिश रहेगी.’’

‘‘लेकिन, दहेज के रूप में मैं…’’

‘‘दहेज का नाम न लीजिए मांजी. मुझे दहेज से सख्त नफरत है. न जाने कितनी मासूम जानें ली हैं इस दहेज के नाग ने.’’

किरण की मां लक्ष्मण से बहुत खुश हो चुकी थीं. उन्होंने सोचा, ‘एमए पास है ही, 4-5 ट्यूशन कर लेता है. अभी नौकरी नहीं करता है तो क्या? मेहनती लड़का है, कुछ न कुछ तो करेगा ही. इसलिए जल्दी ही उस की नौकरी भी लग जाएगी.’

लक्ष्मण का दोस्त सुरेश भी किरण के घर पर आनेजाने लगा था. किरण से बातचीत भी किया करता था. उसे लगा कि सचमुच, लक्ष्मण के लिए यह खुशी की बात है कि इतनी विचारवान, पढ़ीलिखी और सुशील लड़की के दिल पर उस ने अधिकार प्राप्त कर लिया है.

लक्ष्मण अब तक इसी सोच में था कि आखिर वह बिना दहेज लिए कहां से इतने पैसों का इंतजाम करे कि किरण के घर वालों की इज्जत कर सके और अपने दोस्तों का खयाल भी रख सके.

अचानक उसे उपाय सूझा. उस ने सोचा, आखिर इतने दोस्त कब साथ देंगे? अबू, रवींद्र, श्यामल, देवनाथ और सुरेश. सभी अपने ही तो हैं. क्यों न उन्हीं लोगों से कुछ रुपए उधार ले लूं?

उस ने उदास मन में भी आस का दीप जलाए रखा था. उसे पूरा यकीन था कि उस के दोस्त इस मौके पर उस का साथ जरूर देंगे.

आज सुरेश को लग रहा था कि लक्ष्मण जोकुछ कर रहा है, अपनी नैतिकता के कारण. इसी के आगे लक्ष्मण ने अपने बाप से भी मुंह मोड़ लिया है. उस की जाति के लोग उस पर थूथू कर रहे हैं, तिरछी नजर से देख रहे हैं. फिर भी लक्ष्मण के चेहरे पर खुशी के बादल ही मंडरा रहे हैं. उस के दिल को इस बात पर तसल्ली मिलती है कि दहेज न ले कर और अछूत कही जाने वाली जाति की लड़की से शादी करने का फैसला ले कर वह अपने सामाजिक फर्ज को निभा रहा है. आखिर गलत परंपरा को तोड़ कर नई परंपरा को अपनाने में बुराई ही क्या है?

आखिर इस नई परंपरा को अपनाने में मदद करने के लिए लक्ष्मण को मुंह खोलना ही पड़ा. मुंह खोलने भर की देर थी, उस के दोस्तों ने अपनीअपनी पहुंच के मुताबिक दिल खोल कर लक्ष्मण को मदद दी.

इसी का यह फल था कि लक्ष्मण की शादी धूमधाम से हो रही थी. बेकार खर्च नहीं किए जाने के बावजूद बरात में कोई खास कमी नजर नहीं आ रही थी. झाड़बत्ती के खर्च को बचाने के खयाल से शाम के उजाले में ही बरात दरवाजे पर लगा दी गई थी. बरात में अपने ही परिवार के लोग नजर नहीं आ रहे थे. हां, दोस्तों की भीड़ जरूर बरात की शोभा बढ़ा रही थी.

शादी के समय मंडवे में जब लक्ष्मण के पिताजी की उपस्थिति की जरूरत पड़ी, तब समस्या आ पड़ी. उस के बाबूजी तो गुस्से के चलते वहां पर आए ही नहीं थे.

इसी बीच लक्ष्मण के दोस्त देवनाथ ने मंडवे में सामने आ कर लक्ष्मण से कहा, ‘‘इस में परेशान होने की क्या बात है लक्ष्मण? जिस लड़के का बाप या भाई जिंदा नहीं रहता, क्या उस की शादी रुक जाती है? मैं बन जाता हूं तुम्हारा बड़ा भाई.’’

यह सुन कर लक्ष्मण गदगद हो उठा. लड़की वालों का भी यही हाल था. सभी सोच रहे थे, ‘‘लड़की के पिता न होने के कारण उपस्थित नहीं हैं और लक्ष्मण के बाबूजी जिंदा हो कर भी अनुपस्थित हैं. क्या फर्क रह जाता है ऐसे मौके पर… जिंदगी और मौत में… अपने और बेगाने में?’’

शादी आखिर हो गई. दूसरे दिन किरण ब्याहता बन कर दुलहन के रूप में लक्ष्मण के घर में आई.

लक्ष्मण की मां के अनुरोध और जिद पर उस के बाप ने कोई विरोध तो नहीं किया, लेकिन मन ही मन अनबन बनी रही.

उस घर में किरण जिंदा दुलहन नहीं, बल्कि निर्जीव गुडि़या बन कर रह गई. किसी ने पूछा नहीं. किसी का भी प्यार उसे न मिला. उस घर में सारे लोगों के होते हुए भी उस के लिए सिर्फ लक्ष्मण ही रह गया था.

कुछ दिनों में ही लक्ष्मण को लगा कि यह घर अपना हो कर भी अपना नहीं है, यहां के लोग अपने हो कर भी बेगाने हैं. इस तरह अपने लोगों के बीच कटकट कर रहने से तो बेहतर है, खुले आकाश के नीचे रह कर जीना.

उस ने किसी से कोई शिकायत नहीं की. वह जानता था कि मांगने से दुश्मनी मिल सकती है, प्यार नहीं मिल सकता.

और फिर एक दिन अपने मन से उस ने उसी शहर में किराए पर 2 कमरे का एक मकान ले लिया. उस में वह किरण के साथ रहने लगा.

किराए के मकान में घुसते ही उसे असली घर जैसा सुख मिला. वहां के पड़ोसी लोगों के साथ भी धीरेधीरे मेलजोल बढ़ गया. तब वे आपस में घुलमिल गए.

लेकिन अभी भी उसे किनारा नजदीक नजर नहीं आ रहा था. इतना संतोष तो था ही कि दूर है किनारा तो क्या, जिस मंजिल की तलाश थी, उस के बहुत करीब वे बढ़ते जा रहे थे.

कुछ ही दिनों के बाद उन दोनों के दिन फिर गए. लक्ष्मण को अदालत में सहायक के पद पर नौकरी मिल गई. अब वह सोचने लगा, माली तंगी से छुटकारा पा सकेगा और खुशीखुशी जिंदगी का सफर तय कर सकेगा.

लेखक – सिद्धेश्वर

Family Story : लक्खू का गृहप्रवेश

Family Story : लक्खू मोची अपनी दुकान पर हर रोज सुबह 7 बजे आ कर बैठ जाता था. वह टूटी हुई चप्पलों और फटे हुए जूतों की मरम्मत करता था. उस की दुकान खूब चलती थी. वह चाहे जूते की पौलिश करता या टूटी चप्पलें बनाता, उस की मेहनत साफ झलकती थी. उस के सधे हुए काम से लोग खुश हो जाते थे.

लक्खू मोची की बीवी अंजू बहुत खूबसूरत थी. उस का रंगरूप मोहक था. वह लक्खू की घरगृहस्थी बखूबी संभाल रही थी. वह 10वीं जमात तक पढ़ी थी, जबकि लक्खू मोची ने तो स्कूल का मुंह तक नहीं देखा था. वह सिरे से अनपढ़ था. लेकिन शादी के बाद अंजू ने उसे थोड़ाबहुत पढ़नालिखना सिखा दिया था. अब तो वह अखबार भी पढ़ लेता था.

एक दिन औफिस जाने के लिए एक मैडम घर से निकलीं, तो रास्ते में उन की चप्पल टूट गई. वे लक्खू की दुकान पर पहुंचीं और बोलीं, ‘‘लक्खू, जरा जल्दी से मेरी चप्पल की मरम्मत कर दो, नहीं तो दफ्तर के लिए लेट हो जाऊंगी.’’

लक्खू मोची ने उस मैडम की चप्पल की मरम्मत 5 मिनट में कर दी.

‘‘ये लो 10 रुपए लक्खू,’’ उन मैडम ने चप्पल मरम्मत के पैसे दे दिए.

तभी एक साहब आ कर बोले, ‘‘लक्खू, मेरे जूते पौलिश कर दो.’’

लक्खू ने फटाफट ब्रश चला कर जूते पौलिश कर दिए.

‘‘लक्खू, ये लो 25 रुपए,’’ इतना कह कर वे साहब चमकते चूते पहन कर चल दिए.

शाम हो गई थी. लक्खू अपने घर पहुंच गया था. वह चारपाई पर जा कर लेट गया. वह दिनभर की थकान इसी चारपाई पर मिटाता था.

थोड़ी देर में अंजू चाय बना कर ले आई और बोली, ‘‘ये लीजिए, चाय पी लीजिए.’’

लक्खू चारपाई से उठ कर बैठ गया. वह खुश हो कर चाय पीने लगा. अंजू भी उस के पास बैठ कर चाय पीने लगी.

‘‘मकान मालिक को हर महीने किराए की मोटी रकम देनी पड़ती है. क्यों न हम लोग अपना मकान बना लें. इस से किराए का पैसा भी बच जाएगा,’’ अंजू ने लक्खू से कहा.

‘‘हम लोगों के पास इतने रुपए हैं कि अपना मकान बना सकें. मैं रोजाना चप्पलजूते मरम्मत कर तकरीबन 500 रुपए ही कमा पाता हूं. वे सब भी दालरोटी में खर्च हो जाते हैं,’’ कहते हुए लक्खू के चेहरे पर मजबूरी उभर आई थी.

‘‘मैं आप को एक उपाय बताऊं…’’ अंजू ने कहा.

‘‘हांहां, बताओ,’’ लक्खू बोला.

‘‘आप दुकान में नई चप्पलें और नए जूते बेचिए. इस से हमारी आमदनी और बढ़ जाएगी,’’ अंजू ने कहा.

‘‘लेकिन मैं इतनी पूंजी कहां से लाऊंगा?’’ लक्खू ने पूछा.

‘‘आप होलसेल से माल ले आइए. जब बिक्री हो जाए, तो दुकानदार को पैसे दे दीजिएगा,’’ अंजू ने बताया.

‘‘हां, ऐसा हो तो सकता है. आज तो मैं ने मान लिया कि तुम्हारा दिमाग कंप्यूटर की तरह तेज काम करता है,’’ लक्खू ने कहा.

‘‘दिमाग तो लगाना पड़ता है, नहीं तो हम लोग का घर कैसे बनेगा,’’ अंजू ने मुसकरा कर कहा.

रात के 10 बज रहे थे. लक्खू और अंजू बिस्तर पर लेटे हुए थे. थकान से लक्खू को नींद आ रही थी, लेकिन अंजू के दिल में प्यार की उमंगें उठ रही थीं.

‘‘सो गए क्या?’’ अंजू ने लक्खू से पूछा.

‘‘नहीं, पर जल्दी ही सो जाऊंगा,’’ लक्खू ने अलसाई आवाज में कहा.

‘‘ज्यादा नहीं, आप 15 मिनट तो मेरे साथ जागिए,’’ कह कर अंजू ने लक्खू को चूम लिया.

लक्खू अंजू का इशारा समझ गया और बोला, ‘‘अब तो मुझे जागना ही पड़ेगा,’’ कह कर वह अंजू को अपनी बांहों में भर कर चूमने लगा. उन दोनों पर प्यार का नशा छा गया.

वे एकदूसरे के जिस्म से खेलने लगे. कुछ देर तक प्यार का खेल चलता रहा, फिर थक कर वे दोनों गहरी नींद में सो गए.

अगले दिन लक्खू थोक विक्रेता से जूतेचप्पल ले कर अपनी दुकान में बेचने लगा. जल्दी ही उस की आमदनी बढ़ने लगी.

3 साल में ही लक्खू के पास इतने रुपए हो गए कि उस ने एक नया मकान बना लिया. अंजू और लक्खू का नए मकान का सपना पूरा हुआ था, लेकिन अभी गृहप्रवेश करना बाकी था.

एक सुबह लक्खू अपनी दुकान के लिए जा रहा था कि तभी अंजू ने कहा, ‘‘आप गृहप्रवेश की पूजा के
लिए पंडितजी से बात कीजिए. यह काम जल्द निबट जाए, तो घर का किराया बच जाएगा.’’

‘‘ठीक है, मैं आज ही पंडितजी से बात करता हूं,’’ कह कर लक्खू वहां से चला गया.

पंडितजी कालोनी में पूजा कराते थे. वे लक्खू को रास्ते में ही मिल गए.

‘‘प्रणाम पंडितजी,’’ कह कर लक्खू ने हाथ जोड़े.

‘‘कहो, कोई खास बात है क्या?’’ पंडितजी ने लक्खू से पूछा.

‘‘हां, मुझे गृहप्रवेश की पूजा करानी थी,’’ लक्खू ने कहा.

‘‘अरे लक्खू मोची, तुम ने भी घर बना लिया… चप्पलजूते मरम्मत कर के इतनी तरक्की कर ली,’’ पंडितजी ने हैरान हो कर लक्खू से कहा.

‘‘हां, मेहनतमशक्कत से एकएक पाई जोड़ कर घर बनाया है,’’ लक्खू ने थोड़ी नाराजगी जताई…

‘‘पंडितजी, आप की क्या दानदक्षिणा होगी, बता दीजिए. मुझे 1-2 दिन में पूजा करा लेनी है,’’ लक्खू ने कहा.

‘‘अभी एक यजमान के यहां पूजा कराने जा रहा हूं. कल बता दूंगा,’’ पंडितजी अकड़ कर चले गए.
लक्खू रात में जब घर लौटा, तब अंजू ने पूछा, ‘‘क्या पंडितजी से बात हुई थी? वे दक्षिणा क्या लेंगे?’’

‘‘हां, उन से बात हुई थी. वे दक्षिणा क्या लेंगे, कल बताने को बोले हैं,’’ लक्खू ने कहा.

शाम को पंडितजी घर पर बैठे थे. पंडिताइन भी पास ही बैठी थीं. पंडितजी ने पंडिताइन से लक्खू का जिक्र किया, ‘‘लक्खू मोची के घर का गृहप्रवेश है. मुझे पूजा कराने को बोल रहा था. मैं तो धर्मसंकट में पड़ गया हूं. तुम्हीं बताओ, उस के यहां मैं जाऊं या नहीं?’’

पंडिताइन कुछ सोच कर बोलीं, ‘‘लक्खू मोची है. आप ब्राह्मण हो कर उस के घर पूजा कराने जाएंगे. लोग क्या कहेंगे कि पंडितजी मोची के घर भी पूजा कराने जाते हैं.

‘‘उन के यहां के बरतन कितने गंदे होते हैं. मुझे तो देख कर ही घिन आती है. उन्हीं बरतनों में आप को दहीपूरी और मिठाई का भोग लगाना पड़ेगा.’’

‘‘कोई उपाय बताओ कि मुझे करना क्या होगा?’’ पंडितजी ने पूछा.

‘‘आप को यही करना है कि दूसरे यजमानों से जो दक्षिणा लेते हैं, लक्खू मोची से उस का दोगुना मांगिएगा. वह दक्षिणा का रेट सुन कर भाग जाएगा. इस तरह लक्खू मोची से आप का पिंड छूट जाएगा.’’

पंडितजी को यह उपाय भा गया. उन के होंठों पर कुटिल मुसकान खिल गई.

पंडितजी लक्खू की दुकान पर पहुंचे. उस समय लक्खू खाली बैठा था. पंडितजी को देख कर लक्खू ने हाथ जोड़े और बोला, ‘‘प्रणाम पंडितजी… गृहप्रवेश की पूजा के लिए आप को कितनी दक्षिणा देनी होगी?’’

‘‘दक्षिणा के 1,000 रुपए लगेंगे,’’ पंडितजी ने कहा.

‘‘मुझ से दक्षिणा के 1,000 रुपए क्यों, जबकि दूसरों से तो आप 500 रुपए ही लेते हैं?’’ लक्खू ने पूछा.

‘‘देखो लक्खू, तुम मोची हो. मैं ब्राह्मण हूं. तुम्हारे घर जा कर पूजा करानी है. अपना धर्म भी भ्रष्ट करूं और दोगुनी दक्षिणा भी न लूं,’’ पंडितजी ने कहा.

‘‘अच्छा, तो यह बात है. पंडितजी, आप जातीय जंजाल में जी रहे हैं. पूजापाठ कराना तो आप का ढकोसला है. आप की रगरग में छुआछूत की भावना भरी हुई है.

‘‘मुझे ऐसे पंडितजी से गृहप्रवेश नहीं कराना है. मेरी समझ से आप का सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए,’’ लक्खू ने कहा.

‘‘लक्खू मोची, तुम मेरा सामाजिक बहिष्कार करोगे. अधर्मी, पापी. छोटी जाति का आदमी,’’ पंडितजी गुस्से से कांप रहे थे.

लक्खू को भी काफी गुस्सा आ गया. उस ने अपने पैर से जूता निकाल कर पंडितजी को धमकाया, ‘‘जाओ, नहीं तो इसी जूते से चेहरे का हुलिया बिगाड़ दूंगा.’’

लक्खू और पंडितजी लड़नेमरने को तैयार थे. आसपास के लोगों ने बीचबचाव कर के उन दोनों को अलग कर दिया.

लक्खू जब शाम को घर पहुंचा, तब अंजू ने पूछा, ‘‘पंडितजी कल गृहप्रवेश कराने आ रहे हैं न?’’

‘‘नहीं. वे तो कहने लगे कि मोची के घर नहीं जाऊंगा. उन का धर्म भ्रष्ट हो जाएगा. वे हम लोगों को अछूत मानते हैं,’’ लक्खू ने कहा.

‘‘जाने भी दीजिए. हम लोग नए ढंग से गृहप्रवेश कर लेंगे. ऐसे नालायक पंडित पर निर्भर रहना सरासर बेवकूफी है,’’ अंजू ने कहा.

दूसरे दिन लक्खू और अंजू ने मिल कर नए घर को फूलों की माला से सजा दिया था. अंजू ने पूरी, मटरपनीर की सब्जी और सेंवइयां बनाई थीं.

अंजू ने लक्खू से कहा, ‘‘बगल की बस्ती से गरीब बच्चों को बुला कर ले आइए. उन बच्चों को हम लोग भरपेट भोजन कराएंगे.’’

बस्ती के 8-10 बच्चे पंगत लगा कर बैठ गए थे. पूरी, मटरपनीर की सब्जी व सेंवइयां बच्चों को परोस दी गईं. बच्चों ने छक कर खाया. कुछ बच्चे खापी कर खुशी से नाचनेगाने लगे थे. बच्चों को नाचतेगाते देख कर अंजू और लक्खू बेहद खुश थे.

अंजू और लक्खू का गृहप्रवेश दूसरे से अलग और अनूठा था. अंजू और लक्खू अपने नए घर में खुशीखुशी रहने लगे थे.

इस बात को 2 महीने बीत चुके थे. लक्खू अपनी दुकान पर बैठा था. इतने में पंडितजी अपनी टूटी हुई चप्पल की मरम्मत के लिए लक्खू की दुकान पर आए थे.

‘‘लक्खू, मेरी चप्पल टूट गई है. फटाफट मरम्मत कर दो. मुझे पूजा कराने जाना है,’’ पंडितजी ने कहा.

लक्खू ने पंडितजी को पहचानते हुए कहा, ‘‘आप की चप्पल यहां मरम्मत नहीं होगी. कहीं और जा कर देखिए.’’

‘‘लेकिन, मेरी चप्पल क्यों नहीं मरम्मत होगी?’’ पंडितजी ने पूछा.

लक्खू ने कहा, ‘‘मेरे घर पूजा कराने पर आप का धर्म भ्रष्ट होता है. मेरे हाथ से चप्पल मरम्मत कराने पर क्या आप का धर्म भ्रष्ट नहीं होगा.’’

‘‘बकवास मत करो. जल्दी से मेरी चप्पल मरम्मत कर दो. जो पैसा लेना है, ले लो.’’

‘‘मैं ने कह दिया न कि आप की चप्पल मरम्मत नहीं करूंगा,’’ लक्खू ने कहा.

‘‘लक्खू मोची, घर आई लक्ष्मी को ठुकराना नहीं चाहिए. ग्राहक से ही तुम्हारी रोजीरोटी चलती है,’’ पंडितजी ने थोड़ी खुशामद की.

‘‘मुझे उपदेश मत दीजिए. अपना रास्ता नापिए,’’ कह कर लक्खू एक ग्राहक के जूते में पौलिश करने लगा.

पंडितजी टूटी चप्पल ही पहन कर घिसटते हुए चल दिए. उन को नंदन साहब के यहां पूजा करानी थी. वहां दक्षिणा की मोटी रकम मिलने वाली थी.

चिलचिलाती धूप थी. सड़क पर कोई सवारी नहीं थी. अमूमन रिकशा वाले टैंपो वाले दिख जाते थे, लेकिन इस आफत में सभी गायब थे.

समय बीता जा रहा था. पंडितजी की चिंता बढ़ती जा रही थी. वे मन ही मन लक्खू को कोस रहे थे, ‘लक्खू मोची, तुम ने मुझ से खूब बदला लिया है.’

आखिरकार पंडितजी टूटी चप्पल से पैर घिसटते हुए नंदन साहब के घर पहुंच गए थे. वहां का नजारा देख कर उन के होश उड़ गए. नंदन साहब कुरसी पर बैठे हुए थे. कोई दूसरे पंडितजी पूजा करा रहे थे.

नंदन साहब का ध्यान पंडितजी पर गया. वे बोले, ‘‘आप बहुत लेट आए हैं.’’

‘‘हां, एक घंटा लेट हो गया. थोड़ी परेशानी में पड़ गया था,’’ पंडितजी ने कहा.

‘‘खैर, कोई बात नहीं. पूजा कराने के लिए बगल के मंदिर से पंडितजी को बुला लिया है. अब तो पूजा भी खत्म होने वाली है. आप की जरूरत नहीं रही. आप जा सकते हैं,’’ नंदन साहब ने बेलौस आवाज में कहा.
ऐसा सुन कर पंडितजी का चेहरा उतर गया. दक्षिणा की मोटी रकम जो हाथ से निकल गई थी.

वे बुदबुदा रहे थे, ‘‘लक्खू मोची, तुझे जिंदगीभर नहीं भूलूंगा. तुम्हारे चलते मेरी इतनी फजीहत हुई है. लेकिन इस के लिए तो मैं खुद भी कम जिम्मेदार नहीं हूं.’’

Family Story : कंफर्म टिकट

Family Story : सुभि को इस बार होली का बेहद बेसब्री से इंतजार था. इस बार उसे कई सालों बाद अपने घर यह त्योहार मनाने जाना था.

सुभि कई महीने पहले से ही होली पर अपने गांव जाने की तैयारी में जुट गई थी. अपने पति राकेश को उस
ने टिकट कराने के लिए बोल दिया था, पर औफिस में ज्यादा काम होने के चलते वह टिकट लेने के लिए जा ही नहीं सका था.

राकेश ने अपने दोस्त रमेश को यह बात बताई. फिर क्या था. रमेश बोला, ‘‘यार, तुम भी कौन सी दुनिया में जी रहे हो…? अब टिकट खरीदने के लिए रेलवे स्टेशन जाना जरूरी नहीं है. यह काम तो यहां बैठेबैठे औनलाइन भी हो सकता है.’’

रमेश ने पलक झपकते ही अपने आईडी पासवर्ड के साथ आईआरसीटीसी की साइट पर पटना जाने की ट्रेन खोजना शुरू कर दिया. पर सूरत से पटना के लिए किसी भी ट्रेन में एक भी सीट खाली नही दिख रही थी. फिर भी कम वेटिंग वाली टिकट राकेश ने अपने और सुभि के लिए बुक करवा दी. उस के कंफर्म होने की उम्मीद ज्यादा थी, ऐसा रमेश ने कहा था.

दिन बीतते जा रहे थे. सुभि अपने गांव जाने की तैयारी में जुटी थी, पर राकेश हर दिन टिकट का वेटिंग चैक करता था, पर वेटिंग संख्या में कोई खास कमी नहीं आई थी और हर बीतते दिन के साथ राकेश की दुविधा बढ़ती जा रही थी. वह सुभि और अपने बच्चे के चेहरे पर छाए जोश को टिकट कंफर्म नहीं होने के चलते खत्म नहीं करना चाहता था. किंतु वह अंदर ही अंदर घुट रहा था. फ्लाइट की टिकट खरीदना उस के बस में नहीं था और रेल के तत्काल के टिकट का भी कोई ठिकाना नहीं था.

जनरल डब्बे का हाल सोच कर ही राकेश के पसीने छूट रहे थे. उसे याद आया, एक बार उस के पिताजी जब बीमार थे, तो वह जनरल डब्बे में ले गया था, तो भीड़ में एक औरत के साथ कितनी बदसुलूकी हुई थी. वह औरत रो रही थी. इस बार वह सुभि और अपने बच्चे के साथ कैसे जाएगा.

राकेश सोचता था कि जिस देश में बुलेट ट्रेन चलाने की योजना बनाई जा रही है, वहां कुछ नई ट्रेन चलाना क्या इतना मुश्किल है? गरीब कम से कम इनसान की तरह बैठ कर तो कहीं आजा सके.

खैर, सफर का दिन आ गया और टिकट को न कंफर्म होना था और न हुई. अब वह परिवार को ले कर स्टेशन पर आ गया. अभी तक उस ने सुभि को टिकट कंफर्म न होने की बात बताई नहीं थी.

अब राकेश स्टेशन आ गया. ट्रेन आने में कुछ मिनट बाकी थे. वह प्लेटफार्म पर चहलकदमी कर रहा था. इतने में एक आदमी एक ब्रीफकेस ले कर तेज कदमों से भाग कर जा रहा था. उस के हावभाव से लग रहा था कि वह उस ब्रीफकेस को चुरा कर भाग रहा है.

राकेश ने उस आदमी को पकड़ लिया और उसे पकड़ कर उसी दिशा की तरफ जाने लगा, जिधर से वह भागता हुआ आ रहा था.

इतने में 50 साल के एक अमीर आदमी ने राकेश को हाथ दे कर रुकने का इशारा किया. वह रईस आदमी बदहवास सा दिख रहा था. ब्रीफकेस देख कर उस की जान में जान आई.

इतने में एक कांस्टेबल उस चोर को पकड़ कर ले गया, जिसे शायद इस वारदात की सूचना उस अमीर आदमी के असिस्टैंट ने दी थी.

उस सेठ ने राकेश को बहुत धन्यवाद दिया और कहा, ‘‘बेटा, तुम ने मु झे बहुत बड़े नुकसान से बचा लिया. बोलो, मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं?’’

राकेश बोला, ‘‘बाबूजी, मु झे कुछ नहीं चाहिए.’’

सेठ ने राकेश से कहा, ‘‘तुम शायद मु झे नहीं जानते हो. आओ मेरे साथ.’’

सेठजी राकेश को अपने साथ एसी के वेटिंगरूम में ले गए और बोले, ‘‘मैं सूरत का मशहूर हीरा व्यापारी हूं. मैं पटना जा रहा हूं. प्लेन में स्कैन करने पर हीरों का पता चल जाता, जिस से उन की हिफाजत करना मुश्किल था, इसलिए मैं ट्रेन से पटना जा रहा हूं. वहां के एक बहुत बड़े आदमी को एक हीरे के हार की डिलीवरी देनी है.

‘‘मेरी आंखें एक जौहरी की आंखें हैं, जो कभी धोखा नहीं खा सकतीं. तुम बहुत ईमानदार भी हो और साथ ही परेशान भी हो, इसीलिए तुम्हें मैं ने अपना इतना बड़ा राज बताया. अब जल्दी से अपनी परेशानी बताओ?’’

राकेश सेठजी की बातों से भावुक हो गया और बोला, ‘‘सेठजी, मु झे अपने बीवीबच्चे को पटना ले जाना है.

टिकट कंफर्म नहीं हुआ है, इसीलिए परेशान हूं.’’

सेठ ने कहा, ‘‘भाई, तुम को मैं अपने साथ ऐसी फर्स्ट क्लास में ले कर चलूंगा. तुम चिंता मत करो.’’

सेठजी ने तुरंत ही अपने असिस्टैंट से कहा, ‘‘सुनो, तुम अपनी टिकट मु झे दो और तुम फ्लाइट ले कर सूरत से पटना आ जाना. मेरे साथ राकेश और उस का परिवार जाएगा. और हां, इन का टिकट जनरल क्लास का है, तो टीटी से बात कर के जो भी जुर्माना भरना हो वह सब देख लेना.’’

राकेश को तो मानो अपने कान पर यकीन ही नहीं हुआ. सेठजी की भी गरीबों के प्रति सोच बदल गई. वे सोचने लगे कि जैसे हीरा कोयले की खदान से निकलता है, वैसे ही कभीकभी जनरल डब्बे में सफर करने वाला इनसान इतना बहादुर, होशियार और ईमानदार भी हो सकता है…

इतने में ट्रेन के आने की अनाउंसमैंट हो गई. राकेश सुभि और मुन्ना को ले कर सेठजी के पास आ गया. सेठजी ने उन्हें अपने साथ एसी फर्स्ट क्लास में पटना तक का सफर करा दिया.

Hindi Story : जीजाजी का पत्र – दीदी के उदास चेहरे के पीछे क्या था सच?

Hindi Story : घर में सालों बाद सफेदी होने जा रही थी. मां और भाभी की मदद के लिए मैं ने 2 दिन के लिए कालेज से छुट्टी कर ली. दीदी के जाने के बाद उन का कमरा मैं ने हथिया लिया था. किताबों की अलमारी के ऊपरी हिस्से में दीदी की किताबें थीं. मैं कुरसी पर चढ़ कर किताबें उतार रही थी कि अचानक हाथ से 3-4 किताबें गिर पड़ीं.

1-2 किताबें जमीन पर अधखुली पड़ी थीं. उन को उठाने के लिए झुकी तो देखा, 3-4 पेज का एक पत्र पड़ा था. अरे, यह तो जीजाजी का पत्र है जो उन्होंने दीदी को इंगलैंड से लिखा था. पत्र पर एक नजर डालते हुए मैं ने सोचा, ‘दीदी का पत्र मुझे नहीं पढ़ना चाहिए.’

परंतु मन में पत्र पढ़ने की उत्सुकता हुई. मां अभी रसोई में ही थीं. भाभी बंटी को स्कूल छोड़ने गई थीं. जीजाजी के पत्र ने मुझे झकझोर कर रख दिया और अतीत के आंगन में ला कर खड़ा कर दिया.

दीदी हम तीनों में सब से बड़ी हैं. भैया दूसरे नंबर पर हैं. दीदी और मुझ में फर्क भी 12 साल का है. मां और पिताजी को घर में बहू लाने की बहुत इच्छा थी. इसलिए भैया की शादी जल्दी ही हो गई… वैसे भी दीदी की शादी की प्रतीक्षा करते तो भैया कुंआरे ही रह जाते.

उस दिन सवेरे से ही सब लोग काम में लगे हुए थे. पूरे घर की अच्छी तरह से सफाई की जा रही थी. मां और भाभी रसोई में लगी थीं. दीदी को देखने के लिए कुछ लोग दिल्ली से आ रहे थे. वे दोपहर 12 बजे तक हमारे घर पहुंचने वाले थे. दिल्ली से चलने से पहले उन का 10 बजे के लगभग फोन आ गया था. दीदी नहाधो कर तैयार हो रही थीं.

इस बार दीदी को देखने आने वाले लोग जरा दूसरी ही किस्म के थे. लड़का इंगलैंड में नौकरी करता था. शादी कराने भारत आया हुआ था और उसे 2 हफ्ते से भी कम समय में वापस लौट जाना था.

पिछले 5 वर्ष से दीदी को न जाने कितनी बार दिखाया जा चुका था. हमारे पड़ोस में ही दीदी की एक साथी प्राध्यापिका रहा करती थीं. वे हमेशा ही हमारे घर में होने वाली गतिविधियों से जान जातीं कि कोई दीदी को देखने आ रहा है. हर बार जब निराशा हाथ लगती तो दीदी को उन के सामने लज्जित होना पड़ता था. वैसे वे बेचारी दीदी को कुछ नहीं कहती थीं, परंतु दीदी ही हर बार अपने को हीन और अपमानित महसूस करती थीं.

पिछले कुछ महीनों में तो दीदी ने कई बार घर में काफी क्लेश किया था कि वे भेड़बकरी की तरह नहीं दिखाई जाएंगी, परंतु पिताजी की एक डांट के आगे बेचारी झुक जातीं. हां, अपनी जिद, हीनभावना और अपमान के कारण वह खूब रोतीं.

वे लोग ठीक समय पर ही आ गए थे. उन सब की खूब खातिरदारी की गई. वे खुश नजर आ रहे थे. लड़के के भैया- भाभी, छोटी बहन, मातापिता, 2 छोटे भाई और बड़े भाई के 3 बच्चे सभी बैठक में बैठे थे. लड़के की मां, भाभी, छोटी बहन तो पहले ही अंदर जा कर दीदी से मिल चुकी थीं. जिस प्यार से लड़के की मां दीदी को देख रही थीं उस से तो लगता था कि उन्हें दीदी बहुत पसंद आई हैं.

खाने के पश्चात दीदी को बैठक में लाया गया, जहां सब लोग बैठे थे. लड़के के पिता और बड़े भाई दीदी को बड़े गौर से देख रहे थे. लड़का बेचारा चुप ही था. उस की शायद समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे? वह दीदी से आंख मिलाने का साहस नहीं कर पा रहा था. लगभग आधे घंटे बाद लड़के के पिता ने कहा, ‘‘इन दोनों को कुछ देर के लिए अकेला छोड़ देते हैं. एकदूसरे से एकांत में कुछ पूछना हो तो पूछ सकते हैं.’’

उन की बात सुन कर सब लोग वहां से उठ गए.  लगभग 20 मिनट पश्चात दीदी अंदर आ गईं. उन के आने पर लड़के के घर की महिलाएं बैठक में चली गईं. उन्होंने अपने परिवार के पुरुषों को भी वहीं बुला लिया. वे आपस में सलाहमशवरा कर रहे थे. लगभग आधे घंटे पश्चात लड़के के पिता ने मेरे पिताजी को बुलाया और उन के बैठक में पहुंचते ही कहा, ‘‘मुबारक हो, हमें आप की बेटी बहुत पसंद आई है.’’  पिताजी ने मां और भैया को वहीं बुला लिया. कुछ ही क्षणों में वहां का माहौल ही बदल गया. कुछ देर पहले का तनावपूर्ण वातावरण अब आत्मीयता में परिवर्तित हो चुका था.

जब दीदी ने सुना कि उन को आखिर किसी ने पसंद कर ही लिया है तब उन्होंने चैन की सांस ली. वे लाज की चादर ओढ़े बैठी थीं. बैठक में पिताजी उन लोगों से सारी बातें तय कर रहे थे. मां और भाभी महिलाओं से बातें कर रही थीं.  थोड़ी देर बाद अंदर आ कर लड़के की मां ने अपने गले से सोने की चेन उतार कर दीदी को पहना दी. पहले तो उन सब का 4-5 बजे तक दिल्ली लौट जाने का कार्यक्रम था परंतु अब रात का खाना खाए बिना कैसे जा सकते थे. मां और भाभी खाने की तैयारी में लग गईं. मुझे भी मन मार कर रसोई में उन दोनों की मदद करने जाना पड़ा.  खाने के तुरंत पश्चात ही वे लोग जाने की तैयारी करने लगे. दीदी अपने कमरे से नहीं आईं. मैं जिद कर के होने वाले जीजाजी को दीदी के कमरे में ले गई और उन दोनों को अकेले छोड़ दिया, परंतु वे कुछ देर बाद ही बाहर आ गए. उन्होंने दीदी से क्या कहा? यह तो दीदी ने मुझे बाद में कुरेदने पर भी नहीं बताया था.

3 दिन बाद पिताजी और भैया जा कर सगाई की रस्म पूरी कर आए. उन लोगों ने दीदी के लिए साडि़यां और सोने का एक सैट भेजा. घर में कुछ नजदीकी रिश्तेदार आ गए थे. समय कम था, फिर भी परिवार के सब लोगों की दिनरात की मेहनत से सारी तैयारियां हो ही गईं.

खूब धूमधाम से शादी हुई. किसी को विश्वास ही नहीं होता था कि लड़के वालों ने 6 दिन पहले ही हमारे यहां आ कर पहली बार दीदी को देखा था. सवेरे 8 बजे बरात विदा हो गई. दीदी हमारा घर सूना कर गई थीं.

दीदी को जीजाजी अगले ही दिन ब्रिटेन के हाईकमीशन ले गए. उन के लिए वीजा मिलने में कुछ दिन तो लग ही जाने थे. दिल्ली में दीदी से हम मुश्किल से 40 घंटे बाद मिले थे, परंतु ऐसा लगा कि जैसे मुद्दतों के बाद मिले हों. दीदी बहुत थकीथकी नजर आ रही थीं. कुछ उदास भी थीं, आखिर जीजाजी लंबी हवाई यात्रा पर जो जा रहे थे.  जीजाजी के विमान के चले जाने पर हम लोग मोदीनगर रवाना हो गए. दीदी की सास ने तो घर चलने की काफी जिद की, पर मांपिताजी नहीं माने. 1-2 दिन बाद तो भैया दीदी को लिवाने के लिए उन के यहां जाने ही वाले थे. दीदी भी घर जल्दी आने को इच्छुक थीं. उन्होंने अभी अपनी नौकरी से इस्तीफा नहीं दिया था.

2 दिन बाद भैया दीदी को लिवा लाए. घर में जैसे बहार आ गई. दीदी का कालेज जाने का वह आखिरी दिन था. उन्होंने सवेरे ही अपना इस्तीफा लिख लिया था.  वे रिकशा वाले की प्रतीक्षा कर रही थीं, तभी दरवाजे की घंटी बजी. दीदी ने जल्दी से दरवाजा खोला. उन के ही नाम रजिस्ट्री थी. जीजाजी ने ही रजिस्ट्री पत्र भेजा था.  दीदी पत्र को उत्सुकता से खोलने लगीं. उन के हवाई टिकट के साथ एक पत्र भी था. दीदी ने हवाई टिकट पर एक नजर डाली.

‘‘अरे, अगले इतवार की ही हवाई उड़ान है,’’ मैं ने टिकट दीदी के हाथ से ले लिया.

दीदी पत्र पढ़ने लगीं. अचानक मुझे उन के चेहरे का रंग उड़ता सा नजर आया, ‘‘जीजाजी ठीक हैं न?’’ मैं ने घबरा कर पूछा.

‘‘हां, ठीक हैं,’’ दीदी ने बस यही कहा. उन का चेहरा बिलकुल पीला पड़ गया था. वे मुझे वहीं छोड़ कर स्नानघर में चली गईं.

मैं जीजाजी का भेजा हवाई टिकट मां को दिखाने के लिए रसोई में चली गई. कुछ ही देर में भाभी भी आ गईं. रिकशा वाला बाहर घंटी बजा रहा था. हम लोग हवाई टिकट देख कर इतने उत्साहित हो गए कि दीदी की अनुपस्थिति का एहसास ही नहीं हुआ. दीदी जब स्नानघर से निकलीं तो सीधी रिकशा की ओर जाने लगीं. भाभी ने रोका तो बस यही कह दिया, ‘‘भाभीजी, मुझे देर हो रही है.’’

दीदी के चेहरे की बस एक ही झलक मैं देख पाई थी. उन्होंने चाहे भाभी के मन में कोई शक न पैदा किया हो, पर मुझे विश्वास हो गया कि दीदी स्नानघर में जरूर ही रोई होंगी. शायद वे इतनी जल्दी हम सब को छोड़ कर विदेश जाने से घबरा रही थीं. जीजाजी के साथ उन्होंने कितना कम समय बिताया था. वे दोनों एकदूसरे के लिए लगभग अजनबी ही तो थे दीदी का उसी दिन से मन खराब रहने लगा. 2-3 बार तो रोई भी थीं. मां और पिताजी उन्हें समझाने के अलावा और कर भी क्या सकते थे. इंगलैंड जाने से 2 दिन पहले वे अपनी ससुराल चली गईं.  दीदी को हवाई अड्डे पर विदा करने के लिए उन की ससुराल के लोगों के साथसाथ हम सब भी पहुंचे हुए थे. तब दीदी में काफी परिवर्तन सा नजर आ रहा था. विदा लेते समय दीदी की जेठानी ने उन से कहा, ‘‘अब तो हमें जल्दी से जल्दी खुशखबरी देना.’’

दीदी चली गईं. हम लोग भी वापस मोदीनगर आ गए. जीजाजी ने दीदी के लंदन पहुंचने का तार उन के वहां पहुंचते ही भेज दिया. तार पा कर घर में सब को बहुत राहत मिली. दीदी का पत्र भी आ गया. मां ने उन का पत्र न जाने कितनी बार पढ़ा होगा. दीदी के जाने के बाद कई सप्ताह तो घर कुछ सूनासूना लगा, परंतु बाद में सब सामान्य हो गया.

जीजाजी और दीदी के पत्र हमेशा नियमित रूप से आते रहते थे. दीदी ने मांपिताजी को तसल्ली दे रखी थी कि उन की बेटी वहां बहुत खुश है. उन को इंगलैंड गए 2 साल होने जा रहे थे. मां ने कभी दीदी को भारत आने के लिए नहीं लिखा था. सोचा था, उचित समय आने पर ही आग्रह करेंगी. मां की नजरों में उचित समय मेरी शादी का ही अवसर था, जिस के लिए मांपिताजी दौड़धूप कर रहे थे.

मां ने रसोई से आवाज दी, ‘‘सफेदी करने वाले आते ही होंगे…सामान जल्दी से निकाल कर कमरा खाली करो.’’

‘‘अच्छा मां,’’ मैं ने उत्तर दिया. पता नहीं उसी क्षण मुझे अपनी दीदी पर क्यों इतना स्नेह उमड़ आया. भावावेश में मेरी आंखें भीग गईं. फिर मुझे जीजाजी का ध्यान आया. उन्होंने अपने प्यार से दीदी के अधूरे जीवन में शायद कुछ पूर्णता सी ला दी है. यह तो हमें कभी शायद पता नहीं चल पाएगा कि दीदी वास्तव में खुश हैं या नहीं. परंतु उन के पत्रों से इस बात का जबरदस्त एहसास होता कि जीजाजी उन को बहुत प्यार करते हैं.

भाभी बंटी को विद्यालय छोड़ कर घर आ गई थीं. इस से पहले कि वे मुझे जीजाजी का पत्र पढ़ते हुए देख पातीं, मैं ने पत्र की कुछ खास पंक्तियों पर आखिरी नजर डाली. जीजाजी ने स्पष्ट शब्दों में लिखा था कि घर वालों की जिद के आगे झुक कर ही उन्होंने शादी की थी. उन की इस भूल के लिए वे स्वयं ही उत्तरदायी हैं. घर वालों में से किसी को भी नहीं मालूम था कि वे अपनी पत्नी को एक पति का सुख देने में असमर्थ हैं. वे अपनी इस शारीरिक असमर्थता को अपने परिवार वालों के सामने स्वीकार नहीं कर सके. इस के लिए वे अत्यंत दुखी हैं.

जीजाजी के पत्र के छोटेछोटे टुकड़े कर के मैं उसे घर के बाहर कूड़ेदान में फेंक आई थी.

Hindi Story : संजोग – मां-बाप के मतभेद के कारण विवेक ने लिया ये फैसला?

Hindi Story : जीवन में कुछ परिवर्तन अचानक होते हैं जो जिंदगी में खुद के दृष्टिकोण पर एक प्रश्नचिह्न लगा जाते हैं. पुराना दृष्टिकोण किसी पूर्वाग्रह से घिरा हुआ गलत साबित होता है और नया दृष्टिकोण वर्षा की पहली सोंधी फुहारों सा तनमन को सहला जाता है. सबकुछ नयानया सा लगता है.

कुछ ऐसा ही हुआ विवेक के साथ. कौसानी आने से पहले मां से कितनी जिरह हुई थी उस की. विषय वही पुराना, विवाह न करने का विवेक का अडि़यल रवैया. कितना समझाया था मां ने, ‘‘विवेक शादी कर ले, अब तो तेरे सभी दोस्त घरपरिवार वाले हो गए हैं. अगर तेरे मन में कोई और है तो बता दे, मैं बिना कोई सवाल पूछे उस के साथ तेरा विवाह रचा दूंगी.’’

विवेक का शादी न करने का फैसला मां को बेचैन कर देता. पापा कुछ नहीं कहते, लेकिन मां की बातों से मूक सहमति जताते पापा की मंशा भी विवेक पर जाहिर हो जाती, पर वह भी क्या करे, कैसे बोल दे कि शादी न करने का निर्णय उस ने अपने मम्मीपापा के कारण ही लिया है. पतिपत्नी के रूप में मम्मीपापा के वैचारिक मतभेद उसे अकसर बेचैन कर देते. एकदूसरे की बातों को काटती टिप्पणियां, अलगअलग दिशाओं में बढ़ते उन के कदम, गृहस्थ जीवन को चलाती गाड़ी के 2 पहिए तो उन्हें कम से कम नहीं कहा जा सकता था.

छोटीबड़ी बातों में उन के टकराव को झेलता संवेदनशील विवेक जब बड़ा हुआ तो शादी जैसी संस्था के प्रति पाले पूर्वाग्रहों से ग्रसित होने के कारण वह विवाह न करने का ऐलान कर बैठा. मम्मीपापा ने शुरू में तो इसे उस का लड़कपन समझा, धीरेधीरे उस की गंभीरता को देख वे सचेत हो गए.

पापा अब मम्मी की बातों का समर्थन करने लगे थे. वे अकसर विवेक को प्यार से समझाते कि सही निर्णय के लिए एक सीमा तक वैचारिक मतभेद जरूरी है. यह जरूर है कि नासमझी में आपसी सवालजवाब सीमा पार कर लेने पर टकराव का रूप ले लेते हैं, पर सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है. समझदारी व आपसी सामंजस्य से विषम परिस्थितियों में भी तालमेल बिठाया जा सकता है.

विवाह जैसी संस्था की जड़ें बहुत गहरी व मजबूत होती हैं. छोटीमोटी बातें वृक्ष को हिला तो सकती हैं, पर उसे उखाड़ फेंकने का माद्दा नहीं रखतीं. उन की ये दलीलें विवेक को संतुष्ट न कर पातीं, लेकिन कौसानी आने पर अचानक ऐसा क्या हुआ कि दिल के जिस कोमल हिस्से को जानबूझ कर उस ने सख्त बना दिया था. उस के द्वारा बंद किए उस के दिल के दरवाजे पर कोई यों अचानक दस्तक दे प्रवेश कर जाएगा, किसी ने कहां सोचा था.

कौसानी में होटल के रिसैप्शन पर रजिस्टर साइन करते समय डा. विद्या के नाम पर उस की नजर पड़ी थी. उस शाम कैफेटेरिया में एक युवती ने बरबस ही उस का ध्यान खींचा.

सांवली सी, बड़ीबड़ी हिरनी सी बोलती आंखें, कमर तक लहराते केश, हलके नीले रंग की शिफान की साड़ी पहने वह सौम्यता की मूर्ति लग रही थी.

विवेक अपनी दृष्टि उस पर से हटा न पाया और बेखयाली में ही एक कुर्सी पर बैठ गया. तभी किसी ने आ कर कहा, ‘‘ऐक्सक्यूज मी, यह टेबल रिजर्व है…’’ उस ने झुक कर देखा तो नीचे लिखा था, डा. विद्या. वह जल्दी से खड़ा हो गया, तभी मैनेजर ने दूसरी टेबल की तरफ इशारा किया और वह उस तरफ जा कर चुपचाप बैठ गया.

‘डा. विद्या’ कितनी देर तक यह नाम उस के जेहन में डूबताउतराता रहा था. वह युवती डा. विद्या की जगह पर बैठ गई. कुछ ही देर में 2 अनजान मेहमान आए और वह उन से कुछ चर्चा करती रही. विवेक की नजरें घूमफिर कर उस पर टिक जातीं. उस के बाद तो यह सिलसिला सा बन गया था.

डा. विद्या के आने से पहले ही उस की महक फिजा में घुल कर उस के आने का संकेत दे देती. विवेक की बेचैन नजरें बढ़ी हुई धड़कन के साथ उसे खोजती रहतीं. उस पर नजर पड़ते ही उस का गला सूखने लगता और जीभ तालु से लग जाती.

वह सोचता कि यह क्या हो रहा है. ऐसा तो आज तक नहीं हुआ. सांवली सी, चंचलचितवन वाली इस लड़की ने जाने कौन सा जादू कर दिया, जिस ने उस का चैन छीन लिया है. कौसानी के ये 4-5 दिन तो जैसे पंख लगा कर उड़ गए. समय बीतने का एहसास तक नहीं हुआ.

कल विवेक के सेमिनार का अंतिम दिन था. उस दिन उस के दोस्त ध्रुव का फोन आया, वह काफी समय से विवेक को कौसानी बुला रहा था. इत्तेफाक से विवेक का सेमिनार कौसानी में आयोजित होने से उसे वहां जाने का मौका मिल गया, लेकिन अचानक ध्रुव को कुछ काम से दिल्ली जाना पड़ा.

इस होटल में ध्रुव ने ही विवेक की बुकिंग करवाई थी. ध्रुव दिल्ली में था, वरना तो वह अपने परम मित्र को कभी भी होटल में नहीं रहने देता. उस की नईनई शादी हुई थी, तो विवेक ने भी ध्रुव की अनुपस्थिति में उस के घर रहना ठीक नहीं समझा.

‘‘हैलो, धु्रव… कहां है यार, मुझे बुला कर तो तू गायब ही हो गया.’’

‘‘माफ कर दे यार, मुझे खुद इतना बुरा लग रहा है कि क्या बताऊं? मैं परसों तक कौसानी पहुंच जाऊंगा. ईशा भी तुझ से मिलना चाहती है. मैं ने उसे अपने बचपन के खूब किस्से सुनाए हैं. तब तक तुम अपना सेमिनार निबटा लो, फिर हम खूब मस्ती करेंगे,’’ ध्रुव ने फोन पर कहा.

दूसरे दिन विवेक का सेमिनार था. होटल आतेआते उसे शाम हो गई थी. वह थक गया था. फ्रैश हो कर वह कैफेटेरिया की तरफ गया. प्रवेश करते ही उस का सामना फिर डा. विद्या से हुआ. वह नाश्ता कर रही थी. हलके गीले बाल, जींस के ऊपर चिकन की कुरती पहने, वह ताजी हवा की मानिंद विवेक के दिल को छू गई.

वह असहज हो गया था. उस के दिल की धड़कनें बढ़ गई थीं. जाने क्यों, उसे ऐसा लगा कि पाले के उस पार बैठी उस युवती के हृदय में भी कुछ ऐसा बवंडर उठा है. क्या वह भी अपने परिचय का दायरा विस्तृत करना चाहती है? वे दोनों ही अनजान बने बैठे थे. उन की नजरें जबतब इधरउधर भटक कर एकदूसरे पर पड़ जातीं. तभी वेटर ने आ कर पूछा, ‘‘आप कुछ लेंगे,’’ तो विवेक को मन मार कर उठना पड़ा. वह समझ गया कि यों अंधेरे में तीर चलाने का कोई फायदा नहीं है.

कमरे में आते ही उस ने अपना लैपटौप निकाला. अपना ईमेल अकाउंट खोला, तो उस में फेसबुक की तरफ से मां का मैसेज देखा. उस लिंक पर जाने पर मां की फ्रैंड्स लिस्ट में एक चेहरे पर उस की नजर पड़ी जिसे देख कर वह चौंक उठा, ‘‘ओ माई गौड, यह यहां कैसे?’’

मां की फ्रैंड्स लिस्ट में डा. विद्या की तसवीर देख उस की आंखें विस्मय से फैल गईं. शायद धोखा हुआ है, परंतु नाम देख कर तो विश्वास करना ही पड़ा. मां कैसे जानती हैं इसे. उस ने पहले तो कभी इस चेहरे पर ध्यान ही नहीं दिया.

विवेक चकरा गया था. शायद मां की मैडिकल एडवाइजर हों. उस ने तुरंत मां को फोन कर के डा. विद्या के बारे में पूछा, तो उन्होंने सहजता से बताया, ‘‘यह तो मेरी डाक्टर है. तुम्हारे दोस्त ध्रुव ने ही तो इस के बारे में बताया था. यह धु्रव की दोस्त है और काफी नामी डाक्टर है यहां की.’’

विवेक की जिज्ञासा चरम पर पहुंचने लगी. उस ने तुरंत फ्रैंड्स लिस्ट के माध्यम से विवेक का फेसबुक अकाउंट खोला, तो उस में भी उस युवती की तसवीर थी. ध्रुव के वालपोस्ट को चैक करने पर उस के द्वारा विद्या को दिया गया मैसेज देखा, जिस में ध्रुव ने विद्या को विवेक के कौसानी आने के बारे में बताया था.

विवेक ने डा. विद्या वाली उलझी गुत्थी को सुलझाने के लिए ध्रुव को फोन लगाया तो लगातार उस का फोन स्विच औफ आता रहा. ईशा भाभी से पूछना कुछ ठीक नहीं लगा. क्यों न हिम्मत कर डा. विद्या से ही बात करूं कि यह माजरा क्या है? पर अब रात बहुत हो चुकी थी. अभी जाना ठीक नहीं है. पूरी रात उस की करवटें बदलते बीती. सुबहसुबह ही उस ने रिसैप्शन से डा. विद्या के बारे में पता किया, तो पता चला मैडम सुबहसुबह ही कहीं निकल गई हैं.

ध्रुव का मोबाइल अभी भी स्विच औफ आता रहा. उस की बेचैनी व उत्कंठा बढ़ती ही जा रही थी. वह रिसैप्शन में ही डेरा डाल कर बैठ गया. अचानक ध्रुव ने प्रवेश किया, वह जैसे ही उस की ओर बढ़ता ईशा से बतियाती डा. विद्या भी साथ आती दिखी. विवेक के कदम वहीं थम गए. उसे पसोपेश में पड़ा देख ध्रुव शरारत से मुसकराया. विद्या एक औपचारिक ‘हैलो’ करती हुई बोली, ‘‘मैं अभी फ्रैश हो कर आती हूं, आज का डिनर तुम दोस्तों को मेरी तरफ से,’’ कह कर वह चली गई.

विवेक को चक्कर में पड़ा देख ध्रुव को हंसी आ गई.

‘‘तुम जानते हो इसे,’’ विवेक ने पूछा तो कंधे उचाकते हुए ध्रुव बोला, ‘‘हां, दोस्त है मेरी, मतलब हमारी पुरानी स्कूल की दोस्ती है.’’

‘‘ऐसी कौन सी दोस्त है तुम्हारी, जिसे मैं नहीं जानता,’’ विवेक बोला.

‘‘तुम नहीं जानते? क्या बात कर रहे हो.’’

‘‘ध्रुव, प्लीज साफसाफ बताओ कौन है ये? तुम ने इसे ईमेल के जरिए यह क्यों बताया कि मैं कौसानी आ रहा हूं.’’

‘‘कमाल है यार, एक दोस्त दूसरे दोस्त के बारे में पूछे तो क्यों न बताऊं,’’ ध्रुव ने कहा.

‘‘ओफ, ध्रुव, अब बस भी करो,’’ विवेक के चेहरे पर झुंझलाहट और उस की विचित्र मनोदशा का आनंद लेता हुआ ध्रुव आराम से सोफे पर बैठ गया और उस की आंखों को देखता हुआ बोला, ‘‘विवेक, तुझे अपनी क्लास टैंथ याद है. सहारनपुर से आई वह झल्ली सी लड़की, जिस के कक्षा में प्रवेश करते ही हम सब को हंसी आ गई थी. जिस से तेरा फ्रैंडशिप बैंड बंधवाना चर्चा का विषय बन गया था. सब ने कितनी खिल्ली उड़ाई थी तेरी.’’

विवेक के चेहरे का रंग बदलता गया और अचानक वह बोला, ‘‘ओ माई गौड, यह वह विद्या है, जिस के तेल से तर बाल चर्चा का विषय थे.

‘‘कितनी हंसती थी सारी लड़कियां. मीरा मैम ने जब डौली को घर से तेल लगा कर आने को कहा तो कैसे हंस कर वह बोली, ‘हम सब के हिस्से का तेल तो विद्या लगाती है न मैम…’ उस की इस बात पर सब कैसे ठहाका लगा कर हंस पड़े थे.’’

विद्या लगभग बीच सैशन में आई थी. मैम ने जब सब से कहा कि विद्या का काम पूरा करने के लिए सब उसे सहयोग करें. उस का काम पूरा करने के लिए अपने नोट्स उसे दे दें, तो विद्या कैसी मासूमियत से ध्रुव की ओर इशारा कर के बोली थी, ‘मैम, ये भैया, अपनी कौपी मुझे नहीं दे रहे हैं.’ उस के भैया शब्द पर पूरी क्लास ठहाकों से गूंज उठी थी. खुद मीरा मैम भी अपनी हंसी दबा नहीं पाई थीं. छोटे शहर की मानसिकता किसी से भी हजम नहीं होती. लड़कियों का तो वह सदा ही निशाना रहती थी.

विद्या पढ़ने में तो तेज थी, लेकिन अंगरेजी उस की सब से बड़ी प्रौब्लम थी. अंगरेजी माध्यम से पढ़ते हुए उसे खासी दिक्कत पेश आई थी. फिर उसे ‘फ्रैंडशिप डे’ का वह दिन याद आया, जब सभी एकदूसरे को फ्रैंडशिप बैंड बांध रहे थे, तो किसी ने विद्या पर कमेंट किया, ‘विद्या तुम से तो हम सब राखी बंधवाएंगे.’ उस की आंखों में आंसू आ गए. बेचारगी से उस ने अपनी मुट्ठी में रखे बैंड छिपा लिए थे.

विवेक को उस बेचारी सी लड़की पर बड़ा तरस आया. सब के जाने के बाद विवेक और धु्रव ने उस से फ्रैंडशिप बैंड बंधवाया, पर यह दोस्ती ज्यादा दिन तक नहीं चल पाई थी.

एक साल बाद ही विद्या कोटा चली गई. ध्रुव ने बताया कि जुझारू विद्या का मैडिकल में चयन हो गया था.

विवेक मानो स्वप्न से जागा हो. जब उस ने आत्मविश्वास से भरी, मुसकराती हुई डा. विद्या को आते देखा. कोई इतना कैसे बदल सकता है. विद्या ने आते ही विवेक की आंखों में झांक कर पूछा, ‘‘अभी भी नहीं पहचाना तुम ने, मैं ने तो तुम्हें फेसबुक पर कब का ढूंढ़ लिया था, लेकिन तुम्हारी अतीत की स्मृति में बसी विद्या के रूप से डरती थी.’’

ध्रुव ने खुलासा किया कि हम सब ने विद्या को विस्मृत कर दिया था, लेकिन यह तुम्हें कभी भुला न पाई.

विद्या लरजते स्वर में बोली, ‘‘विवेक, तुम्हें तो मालूम भी नहीं होगा कि उम्र के उस नाजुक दौर में मैं अपना दिल तुम्हें दे बैठी थी. मुझे नहीं पता कि कच्ची उम्र में तुम्हारे प्रति मेरा वह एकतरफा तथाकथित प्यार था या महज आकर्षण, पर यह सच है कि स्वयं को तुम्हारे काबिल बनाने की होड़ व जनून ने ही मुझे कुछ कर दिखाने की प्रेरणा व हिम्मत दी. मुझे सफलता के इस मुकाम तक पहुंचाने का एक अप्रत्यक्ष जरिया तुम बने. किस ने सोचा था कि कभी तुम से यों मुलाकात भी होगी.’’

‘‘वह भी इतने नाटकीय तरीके से,’’ कहता हुआ ध्रुव हंस पड़ा, ‘‘पिछले 6 महीने से विद्या के साथ तुम्हारे बारे में ही बातें होती रहीं. तुम्हारी शादी न करने की बेवजह जिद से परेशान हो कर आंटी ने जब मैट्रीमोनियल साइट पर तुम्हारा बायोडाटा डाल दिया था तब आंटी को मैं ने ही विश्वास में ले कर विद्या के बारे में बताया. अब मुसीबत यह थी कि तुम्हारी आशा के अनुरूप तो कोई उतर ही नहीं रहा था. तो हम सब ने यह नाटक रचा.

‘‘तुम कौसानी आए, तो मैं ने झूठ बोला कि मैं दिल्ली जा रहा हूं, ताकि तुम होटल में रुको. विद्या तुम से मिलना चाहती थी, पर बिना किसी पूर्वाग्रह के, हालांकि हमें संदेह था कि कोई यों आसानी से तुम्हारे हृदय में अधिकार जमा भी पाएगी. शायद नियति को भी यह संजोग मंजूर था.’’

‘‘पर तुम मुझे एक बार बताते तो सही,’’ विवेक हैरानी से बोला.

ध्रुव बोल पड़ा, ‘‘ताकि तुम अपनी जिद के कारण अपने दिल के दरवाजे को स्वयं बंद कर देते.’’

तभी मां का फोन आया. उन के कुछ पूछने से पहले ही विवेक बोल उठा, ‘‘मां, तुम्हारी खोज पूरी हो गई है. जल्दी ही मैं एक डाक्टर बहू घर ले कर आ रहा हूं. आप पापा के साथ मिल कर शादी की पूरी तैयारी कर लेना.’’

मां भावुक हो उठी थीं, ‘‘विवेक समस्याएं तो हर एक के जीवन में आती हैं, पर उन से डर कर रिश्ते के बीजों को कभी बोया ही न जाए, यह सही नहीं है. हम ने नासमझी की, पर मेरा बेटा समझदार है और विद्या भी बहुत सुलझी हुई लड़की है. मुझे पूरा विश्वास है कि तुम दोनों

तभी पीछे से ईशा ने विवेक को छेड़ते हुए कहा, ‘‘क्यों विवेक भैया, एक बार फिर एक विश्वामित्र की तपस्या टूट ही गई.’’

विवेक और ध्रुव उस की बात पर जोर से हंस पड़े. विवेक ने विद्या के हाथों को ज्यों ही अपने हाथों में थामा, उस की नारी सुलभ लज्जा व गरिमा ने उस के सौंदर्य को अपरिमित कर दिया.

Hindi Story : एक गलत सोच – जब बहू चुनने में हुई सरला से गलती

Hindi Story : किचन में खड़ा हो कर खाना बनातेबनाते सरला की कमर दुखने लगी पर वे क्या करें, इतने मेहमान जो आ रहे हैं. बहू की पहली दीवाली है. कल तक उसे उपहार ले कर मायके जाना था पर अचानक बहू की मां का फोन आ गया कि अमेरिका से उन का छोटा भाई और भाभी आए हुए हैं. वे शादी पर नहीं आ सके थे इसलिए वे आप सब से मिलना चाहते हैं. उन्हीं के साथ बहू के तीनों भाई व भाभियां भी अपने बच्चों के साथ आ रहे हैं.

कुकर की सीटी बजते ही सरला ने गैस बंद कर दी और ड्राइंगरूम में आ गईं. बहू आराम से बैठ कर गिफ्ट पैक कर रही थी.

‘‘अरे, मम्मी देखो न, मैं अपने भाईभाभियों के लिए गिफ्ट लाई हूं. बस, पैक कर रही हूं…आप को दिखाना चाहती थी पर जल्दी है, वे लोग आने वाले हैं इसलिए पैक कर दिए,’’ बहू ने कुछ पैक किए गिफ्ट की तरफ इशारा करते हुए कहा. तभी सरलाजी का बेटा घर में दाखिल हुआ और अपनी पत्नी से बोला, ‘‘सिमी, एक कप चाय बना लाओ. आज आफिस में काफी थक गया हूं.’’

‘‘अरे, आप देख नहीं रहे हैं कि मैं गिफ्ट पैक कर रही हूं. मां, आप ही बना दीजिए न चाय. मुझे अभी तैयार भी होना है. मेरी छोटी भाभी बहुत फैशनेबल हैं. मुझे उन की टक्कर का तैयार होना है,’’ इतना कह कर सिमी अपने गिफ्ट पैक करने में लग गई.

शाम को सरलाजी के ड्राइंगरूम में करीब 10-12 लोग बैठे हुए थे. उन में बहू के तीनों भाई, उन की बीवियां, बहू के मम्मीपापा, भाई के बच्चे और उन सब के बीच मेहमानों की तरह उन की बहू सिमी बैठी थी. सरला ने इशारे से बहू को बुलाया और रसोईघर में ले जा कर कहा, ‘‘सिमी, सब के लिए चाय बना दे तब तक मैं पकौड़े तल लेती हूं.’’

‘‘क्या मम्मी, मायके से परिवार के सारे लोग आए हैं और आप कह रही हैं कि मैं उन के साथ न बैठ कर यहां रसोई में काम करूं? मैं तो कब से कह रही हूं कि आप एक नौकर रख लो पर आप हैं कि बस…अब मुझ से कुछ मत करने को कहिए. मेरे घर वाले मुझ से मिलने आए हैं, अगर मैं यहां किचन में लगी रहूंगी तो उन के आने का क्या फायदा,’’ इतना कह कर सिमी किचन से बाहर निकल गई और सरला किचन में अकेली रह गईं. उन्होंने शांत रह कर काम करना ही उचित समझा.

सरलाजी ने जैसेतैसे चाय और पकौड़े बना कर बाहर रख दिए और वापस रसोई में खाना गरम करने चली गईं. बाहर से ठहाकों की आवाजें जबजब उन के कानों में पड़तीं उन का मन जल जाता. सरला के पति एकदो बार किचन में आए सिर्फ यह कहने के लिए कि कुछ रोटियों पर घी मत लगाना, सिमी की भाभी नहीं खाती और खिलाने में जल्दी करो, बच्चों को भूख लगी है.

सरलाजी का खून तब और जल गया जब जातेजाते सिमी की मम्मी ने उन से यह कहा, ‘‘क्या बहनजी, आप तो हमारे साथ जरा भी नहीं बैठीं. कोई नाराजगी है क्या?’’

सब के जाने के बाद सिमी तो तुरंत सोने चली गई और वे रसोई संभालने में लग गईं.

अगले दिन सरलाजी का मन हुआ कि वे पति और बेटे से बीती शाम की स्थिति पर चर्चा करें पर दोनों ही जल्दी आफिस चले गए. 2 दिन बाद फिर सिमी की एक भाभी घर आ गई और उस को अपने साथ शौपिंग पर ले गई. शादी के बाद से यह सिलसिला अनवरत चल रहा था. कभी किसी का जन्मदिन, कभी किसी की शादी की सालगिरह, कभी कुछ तो कभी कुछ…सिमी के घर वालों का काफी आनाजाना था, जिस से वे तंग आ चुकी थीं.

एक दिन मौका पा कर उन्होंने अपने पति से इस बारे में बात की, ‘‘सुनो जी, सिमी न तो अपने घर की जिम्मेदारी संभालती है और न ही समीर का खयाल रखती है. मैं चाहती हूं कि उस का अपने मायके आनाजाना कुछ कम हो. शादी को साल होने जा रहा है और बहू आज भी महीने में 7 दिन अपने मायके में रहती है और बाकी के दिन उस के घर का कोई न कोई यहां आ जाता है. सारासारा दिन फोन पर कभी अपनी मम्मी से, कभी भाभी तो कभी किसी सहेली से बात करती रहती है.’’

‘‘देखो सरला, तुम को ही शौक था कि तुम्हारी बहू भरेपूरे परिवार की हो, दिखने में ऐश्वर्या राय हो. तुम ने खुद ही तो सिमी को पसंद किया था. कितनी लड़कियां नापसंद करने के बाद अब तुम घर के मामले में हम मर्दों को न ही डालो तो अच्छा है.’’

सरलाजी सोचने लगीं कि इन की बात भी सही है, मैं ने कम से कम 25 लड़कियों को देखने के बाद अपने बेटे के लिए सिमी को चुना था. तभी पति की बातों से सरला की तंद्रा टूटी. वे कह रहे थे, ‘‘सरला, तुम कितने दिनों से कहीं बाहर नहीं गई. ऐसा करो, तुम अपनी बहन के घर हो आओ. तुम्हारा मन अच्छा हो जाएगा.’’

अपनी बहन से मिल कर अपना दिल हलका करने की सोच से ही सरला खुश हो गईं. अगले दिन ही वे तैयार हो कर अपनी बहन से मिलने चली गईं, जो पास में ही रहती थीं. पर बहन के घर पर ताला लगा देख कर उन का मन बुझ गया. तभी बहन की एक पड़ोसिन ने उन्हें पहचान लिया और बोलीं, ‘‘अरे, आप सरलाजी हैं न विभाजी की बहन.’’

‘‘जी हां, आप को पता है विभा कहां गई है?’’

‘‘विभाजी पास के बाजार तक गई हैं. आप आइए न.’’

‘‘नहींनहीं, मैं यहीं बैठ कर इंतजार कर लेती हूं,’’ सरला ने संकोच से कहा.

‘‘अरे, नहीं, सरलाजी आप अंदर आ कर इंतजार कर लीजिए. वे आती ही होंगी,’’ उन के बहुत आग्रह पर सरलाजी उन के घर चली गईं.

‘‘आप की तसवीर मैं ने विभाजी के घर पर देखी थी…आइए न, शिखा जरा पानी ले आना,’’ उन्होंने आवाज लगाई.

अंदर से एक बहुत ही प्यारी सी लड़की बाहर आई.

‘‘बेटा, देखो, यह सरलाजी हैं, विभाजी की बहन,’’ इतना सुनते ही उस लड़की ने उन के पैर छू लिए.

सरला ने उसे मन से आशीर्वाद दिया तो विभा की पड़ोसिन बोलीं, ‘‘यह मेरी बहू है, सरलाजी.’’

‘‘बहुत प्यारी बच्ची है.’’

‘‘मम्मीजी, मैं चाय रखती हूं,’’ इतना कह कर वह अंदर चली गई. सरला ने एक नजर घुमाई. इतने सलीके से हर चीज रखी हुई थी कि देख कर उन का मन खुश हो गया. कितनी संस्कारी बहू है इन की और एक सिमी है.

‘‘बहनजी, विभा दीदी आप की बहुत तारीफ करती हैं,’’ मेरा ध्यान विभा की पड़ोसिन पर चला गया. इतने में उन की बहू चायबिस्कुट के साथ पकौड़े भी बना कर ले आई और बोली, ‘‘लीजिए आंटीजी.’’

‘‘हां, बेटा…’’ तभी फोन की घंटी बज गई. पड़ोसिन की बहू ने फोन उठाया और बात करने के बाद अपनी सास से बोली, ‘‘मम्मी, पूनम दीदी का फोन था. शाम को हम सब को खाने पर बुलाया है पर मैं ने कह दिया कि आप सब यहां बहुत दिनों से नहीं आए हैं, आप और जीजाजी आज शाम खाने पर आ जाओ. ठीक कहा न.’’

‘‘हां, बेटा, बिलकुल ठीक कहा,’’ बहू किचन में चली गई तो विभा की पड़ोसिन मुझ से बोलीं, ‘‘पूनम मेरी बेटी है. शिखा और उस में बहुत प्यार है.’’

‘‘अच्छा है बहनजी, नहीं तो आजकल की लड़कियां बस, अपने रिश्तेदारों को ही पूछती हैं,’’ सरला ने यह कह कर अपने मन को थोड़ा सा हलका करना चाहा.

‘‘बिलकुल ठीक कहा बहनजी, पर मेरी बहू अपने मातापिता की अकेली संतान है. एकदम सरल और समझदार. इस ने यहां के ही रिश्तों को अपना बना लिया है. अभी शादी को 5 महीने ही हुए हैं पर पूरा घर संभाल लिया है,’’ वे गर्व से बोलीं.

‘‘बहुत अच्छा है बहनजी,’’ सरला ने थोड़ा सहज हो कर कहा, ‘‘अकेली लड़की है तो अपने मातापिता के घर भी बहुत जाती होगी. वे अकेले जो हैं.’’

‘‘नहीं जी, बहू तो शादी के बाद सिर्फ एक बार ही मायके गई है. वह भी कुछ घंटे के लिए.’’

हम बात कर ही रहे थे कि बाहर से विभा की आवाज आई, ‘‘शिखा…बेटा, घर की चाबी दे देना.’’

विभा की आवाज सुन कर शिखा किचन से निकली और उन को अंदर ले आई. शिखा ने खाने के लिए रुकने की बहुत जिद की पर दोनों बहनें रुकी नहीं. अगले ही पल सरलाजी बहन के घर आ गईं. विभा के दोनों बच्चे अमेरिका में रहते थे. वह और उस के पति अकेले ही रहते थे.

‘‘दीदी, आज मेरी याद कैसे आ गई?’’ विभा ने मेज पर सामान रखते हुए कहा.

‘‘बस, यों ही. तू बता कैसी है?’’

‘‘मैं तो ठीक हूं दीदी पर आप को क्या हुआ कि कमजोर होती जा रही हो,’’ विभा ने कहा. शायद सरला की परेशानियां उस के चेहरे पर भी झलकने लगी थीं.

‘‘आंटीजी, आज मैं ने राजमा बनाया है. आप को राजमा बहुत पसंद है न. आप तो खाने के लिए रुकी नहीं इसलिए मैं ले आई और इन्हें किचन में रख रही हूं,’’ अचानक शिखा दरवाजे से अंदर आई, किचन में राजमा रख कर मुसकराते हुए चली गई.

‘‘बहुत प्यारी लड़की है,’’ सरला के मुंह से अचानक निकल गया.

‘‘अरे, दीदी, यही वह लड़की है जिस की बात मैं ने समीर के लिए चलाई थी. याद है न आप को इन के आफिस के एक साथी की बेटी…दीदी आप को याद नहीं आया क्या…’’ विभा ने सरला की याददाश्त पर जोर डालने को कहा.

‘‘अरे, दीदी, जिस की फोटो भी मैं ने मंगवा ली थी, पर इस का कोई भाई नहीं था, अकेली बेटी थी इसलिए आप ने फोटो तक नहीं देखी थी.’’

विभा की बात से सरला को ध्यान आया कि विभा ने उन से इस लड़की के बारे में कहा था पर उन्होंने कहा था कि जिस घर में बेटा नहीं उस घर की लड़की नहीं आएगी मेरे घर में, क्योंकि मातापिता कब तक रहेंगे, भाइयों से ही तो मायका होता है. तीजत्योहार पर भाई ही तो आता है. यही कह कर उन्होंने फोटो तक नहीं देखी थी.

‘‘दीदी, इस लड़की की फोटो हमारे घर पर पड़ी थी. श्रीमती वर्मा ने देखी तो उन को लड़की पसंद आ गई और आज वह उन की बहू है. बहुत गुणी है शिखा. अपने घर के साथसाथ हम पतिपत्नी का भी खूब ध्यान रखती है. आओ, चलो दीदी, हम खाना खा लेते हैं.’’

राजमा के स्वाद में शिखा का एक और गुण झलक रहा था. घर वापस आते समय सरलाजी को अपनी गलती का एहसास हो रहा था कि लड़की के गुणों को अनदेखा कर के उन्होंने भाई न होने के दकियानूसी विचार को आधार बना कर शिखा की फोटो तक देखना पसंद नहीं किया. इस एक चूक की सजा अब उन्हें ताउम्र भुगतनी होगी.

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