लेखिका- नीलमणि शर्मा
‘‘बाहर से ताला खुला देखा इसलिए बेल बजा दी. कब आईं आप?’’ शालीनता से पूछा था दीप्ति ने.
‘‘रात ही में.’’
‘‘ओह, अच्छा…पता ही नहीं चला. और मिस्टर राय?’’
‘‘वह बाहर गए हैं…तब तक दोचार दिन मैं यहां रह कर देखती हूं, फिर देखेंगे.’’
दीप्ति भेदभरी मुसकान से ‘बाय’ कह कर वहां से चल दी.
पूरा दिन निकल गया प्रतीक्षा में. तनु को बारबार लग रहा था प्रणव अब आए, तब आए. पर वह नहीं ही आए.
रात होतेहोते तनु ने अपने मन को समझा लिया था कि यह किस का इंतजार था मुझे? उस का जिस ने घर से निकाल दिया. अगर उन्हें आना ही होता तो मुझे निकालते ही क्यों…सचमुच मैं उन की जिंदगी का अवांछनीय अध्याय हूं. लेकिन ऐसा तो नहीं कि मैं जबरदस्ती ही उन की जिंदगी में शामिल हुई थी…
कालिज में मैं और निमिषा एक साथ पढ़ते थे. एक ही कक्षा और एक जैसी रुचियां होने के कारण हमारी शीघ्र ही दोस्ती हो गई. निमिषा और मुझ में कुछ अंतर था तो बस, यही कि वह अपनी कार से कालिज आती जिसे शोफर चलाता और बड़ी इज्जत के साथ कार का गेट खोल कर उसे उतारताबैठाता, और मैं डीटीसी की बस में सफर करती, जो सचमुच ही कभीकभी अंगरेजी भाषा का ‘सफर’ हो जाता था. मेरा मुख्य उद्देश्य था शिक्षा के क्षेत्र में अपना कैरियर बनाना और निमिषा का केवल ग्रेजुएशन की डिगरी लेना. इस के बावजूद वह पढ़ाई में बहुत बुद्धिमान थी और अभी भी है…
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ग्रेजुएशन करने तक मैं कभी निमिषा के घर नहीं गई…अच्छी दोस्ती होने के बाद भी मुझे लगता कि मुझे उस से एक दूरी बनानी है…कहां वह और कहां मैं…लेकिन जब मैं ने एम.ए. का फार्म भरा तो मुझे देख उस ने भी भर दिया और इस तरह हम 2 वर्ष तक और एकसाथ हो गए. इस दौरान मुझे दोचार बार उस के घर जाने का मौका मिला. घर क्या था, महल था.
मेरी हैरानी तब और बढ़ गई जब एम.फिल. के लिए मेरे साथसाथ उस ने भी आवेदन कर दिया. मेरे पूछने पर निमिषा ने कहा था, ‘यार, मम्मीपापा शादी के लिए लड़का ढूंढ़ रहे हैं, जब तक नहीं मिलता, पढ़ लेते हैं. तेरे साथसाथ जब तक चला जाए…’ बिना किसी लक्ष्य के निमिषा मेरे साथ कदम-दर-कदम मिलाती हुई बढ़ती जा रही थी और एक दिन हम दोनों को ही लेक्चरर के लिए नियुक्त कर लिया गया.
इस खुशी में उस के घर में एक भव्य पार्टी का आयोजन किया गया था. उसी पार्टी में पहली बार उस के भाई प्रणव से मेरी मुलाकात हुई. बाद में मुझे पता चला कि उस दिन पार्टी में मेरे रूपसौंदर्य से प्रभावित हो कर निमिषा के मम्मीपापा ने निमिषा की शादी के बाद मुझे अपनी बहू बनाने पर विचार किया, जिस पर अंतिम मोहर मेरे घर वालों को लगानी थी जो इस रिश्ते से मन में खुश भी थे और उन की शानोशौकत से भयभीत भी.
इस सब में लगभग एक साल का समय लगा. प्रणव कई बार मुझ से मिले, वह जानते थे कि मैं एक आम भारतीय समाज की उपज हूं…शानोशौकत मेरे खून में नहीं…लेकिन शादी के पहले मेरी यही बातें, मेरी सादगी, उन्हें अच्छी लगती थी, जो उन की सोसाइटी में पाई जाने वाली लड़कियों से मुझे अलग करती थी.
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तनु को यहां रहते एक महीना हो चुका था. कुछ दिन तो दरवाजे की हर घंटी पर वह प्रणव की उम्मीद लगाती, लेकिन उम्मीदें होती ही टूटने के लिए हैं. इस अकेलेपन को तनु समझ ही नहीं पा रही थी. कभी तो अपने छोटे से घर में 55 वर्षीय प्रोफेसर डा. तनुश्री राय का मन कालिज गर्ल की तरह कुलाचें मार रहा होता कि यहां यह मिरर वर्क वाली वाल हैंगिंग सही लगेगी…और यह स्टूल यहां…नहीं…इसे इस कोने में रख देती हूं.
घर में कपडे़ की वाल हैंगिंग लगाते समय तनु को याद आया जब वह जनपथ से यह खरीद कर लाई थी और उसे ड्राइंग रूम में लगाने लगी तो प्रणव ने कैसे डांट कर मना कर दिया था कि यह सौ रुपल्ली का घटिया सा कपडे़ का टुकड़ा यहां लगाओगी…इस का पोंछा बना लो…वही ठीक रहेगा…नहीं तो अपने जैसी ही किसी को भेंट दे देना.
तनु अब अपनी इच्छा से हर चीज सजा रही थी. कोई मीनमेख निकालने वाला या उस का हाथ रोकने वाला नहीं था, लेकिन फिर भी जीवन को किसी रीतेपन ने अपने घेरे में घेर लिया था.
कालिज की फाइनल परीक्षाएं समाप्त हो चुकी थीं. सभी कहीं न कहीं जाने की तैयारियों में थे. प्रणव के साथ मैं भी हमेशा इन दिनों बाहर चली जाया करती थी…सोच कर अचानक तनु को याद आया कि बेटा ‘यश’ के पास जाना चाहिए…उस की शादी पर तो नहीं जा पाई थी…फिर वहीं से बेटी के पास भी हो कर आऊंगी.
बस, तुरतफुरत बेटे को फोन किया और अपनी तैयारियों में लग गई. कितनी प्रसन्नता झलक रही थी यश की आवाज में. और 3 दिन बाद ही अमेरिका से हवाई जहाज का टिकट भी भेज दिया था.
फ्लाइट का समय हो रहा था… ड्राइवर सामान नीचे ले जा चुका था, तनु हाथ में चाबी ले कर बाहर निकलने को ही थी कि दरवाजे पर दस्तक हुई, उफ, इस समय कौन होगा. देखा, दरवाजे पर प्रणव खड़े हैं.
क्षण भर को तो तनु किंकर्तव्य- विमूढ़ हो गई. उफ, 2 महीनों में ही यह क्या हो गया प्रणव को. मानो बरसों के मरीज हों.
‘‘कहीं जा रही हो क्या?’’ प्रणव ने उस की तंद्रा तोड़ते हुए पूछा.
‘‘हां, यश के पास…पर आप अंदर तो आओ.’’
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‘‘अंदर बैठा कर तनु प्रणव के लिए पानी लेने को मुड़ी ही थी कि उस ने तनु का हाथ पकड़ लिया, ‘‘तनु, मुझे माफ नहीं करोगी. इन 2 महीनों में ही मुझे अपने झूठे अहम का एहसास हो गया. जिस प्यार और सम्मान की तुम अधिकारिणी थीं, तुम्हें वह नहीं दे पाया. अपने ‘स्वाभिमान’ के आवरण में घिरा हुआ मैं तुम्हारे अस्तित्व को पहचान ही नहीं पाया. मैं भूल गया कि तुम से ही मेरा अस्तित्व है. मैं तुम्हारे बिना अधूरा हूं…यह सच है तनु, मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं…पहले भी करता था पर अपने अहम के कारण कहा नहीं, आज कहता हूं तनु, तुम्हारे बिना मैं मर जाऊंगा…मुझे माफ कर दो और अपने घर चलो. बहू को पहली बार अपने घर बुलाने के लिए उस के स्वागत की तैयारी भी तो करनी है…मुझे एक मौका दो अपनी गलती सुधारने का.’’
तनु बुढ़ापे में पहली बार अपने पति के प्यार से सराबोर खुशी के आंसू पोंछती हुई अपने बेटे को अपने न आ पाने की सूचना देने के लिए फोन करने लग जाती है.