Father’s Day Special – हमारी अमृता : क्या मंदबुृद्धि अमृता को मिला पिता का प्यार ?

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Father’s Day Special: लाडो का पीला झबला

न जाने कितनी ख्वाहिशें  दम तोड़ती हैं दिल में, तब कहीं परवरिश होती है मुकम्मल. सुबहसुबह ही शाहिस्ता ने सोहेल से कहा, ‘‘आज वक्त निकाल कर अपने लिए नई पतलून ले आइए. अब तो रफू के धागे भी जवाब दे चुके हैं.’’

सोहेल ने बड़ी बुलंद आवाज में कहा, ‘‘बेगम का हुक्म सिरआंखों पर. आज तो दिन भी बाजार का.’’

हर जुमेरात पर शहर के छोर पर नानानानी पार्क के पास वाली सड़क पर बाजार लगता था. सोहेल ने जल्दीजल्दी अपना काम खत्म कर के बाजार का रुख कर लिया. दिमाग में हिसाब चालू था. 2 ईद गुजर चुकी थीं, उसे खुद के लिए नया जोड़ा कपड़ा लिए हुए. इस बार 25 रुपए बचे हैं, महीने के हिसाब से…

पूरे 12 किलोमीटर चलने के बाद बाजार आ ही गया. शाम बीतने को थी. अंधेरा हो चुका था. बाजार ट्यूबलाइट और बल्ब की रोशनी से जगमगा रहा था.

सोहेल ने अपनी जेब की गहराई के मुताबिक दुकान समझी और यहांवहां नजर दौड़ाने लगा. अचानक उस की नजर एक तरफ सजे हुए झबलों पर पड़ी. नीले, लाल, हरे, पीले और बहुत से रंग.

दुकानदार ने सोहेल को कुछ पतलूनें दिखाईं. मोलभाव शुरू हुआ. 20 रुपए की पतलून तय हुई.

सोहेल ने पूछा, ‘‘भाई, बच्चों के वे रंगबिरंगे झबले कितने के हैं?’’

दुकानदार ने कहा, ‘‘25 के 3. कोई मोलभाव नहीं हो पाएगा इस में.’’सोहेल ने जेब से पैसे निकाले और 3 झबले ले लिए. 12 किलोमीटर चल के घर आतेआते रात काफी हो चली थी. घर का दरवाजा खटखटाते ही शाहिस्ता ने दरवाजा तुरंत खोला, मानो वह दरवाजे से चिपक कर ही खड़ी थी.

सोहेल ने पूछा, ‘‘हमारी लाडो सो गई क्या?’’

शाहिस्ता ने जवाब दिया, ‘‘वह तो कब की सो गई. मैं तो तुम्हारी नई पतलून का इंतजार कर रही थी.’’

सोहेल ने हंसते हुए जवाब दिया, ‘‘बेगम, आप का इंतजार और लंबा हो गया.’’

शाहिस्ता ने पैकेट खोला और उस में से निकले 3 झबले. उस ने बिना कुछ कहे खाना निकालना सही समझा. खाना लगा कर उस ने सिलाई मशीन में तेल डाला, काला धागा निकाला और पुरानी पतलून को रफू करने लगी.

सोहेल ने खाना खाते हुए मुसकरा कर कहा, ‘‘लाडो के ऊपर पीला झबला तो बड़ा ही खूबसूरत लगेगा. क्यों शाहिस्ता…’’

शाहिस्ता ने दांतों से धागा काटते हुए कहा, ‘‘लो, तुम्हारी पतलून फिर से तैयार हो गई.’’

Father’s Day Special- मरीचिका: बेटी की शादी में क्यों दीवार बना एक बाप?

रूपाली के पांव जमीन पर कहां पड़   रहे थे. आज उसे ऐसा लग रहा था मानो सारी खुशियां उस की झोली में आ गिरी थीं. स्कूलकालेज में रूपाली को बहुत मेधावी छात्रा नहीं समझा जाता था. इंजीनियरिंग में दाखिला भी उसे इसलिए मिल गया क्योंकि वहां छात्राओं के लिए आरक्षण का प्रावधान था. हां, दाखिला मिलने के बाद रूपाली ने पढ़ाई में अपनी सारी शक्ति झोंक दी थी. अंतिम वर्ष आतेआते उस की गिनती मेधावी छात्रों में होने लगी थी.

कालेज के अंतिम वर्ष में कैंपस चयन के दौरान अमेरिका की एक मल्टीनैशनल कंपनी ने उसे चुन लिया तो उस के हर्ष की सीमा न रही. कंपनी ने उसे प्रशिक्षण के लिए अमेरिका के अटलांटा स्थित अपने कार्यालय भेजा. वहां से प्रशिक्षण ले कर लौटने पर रूपाली को कंपनी ने उसी शहर में स्थित अपने कार्यालय में ही नियुक्त कर दिया. आसपास की कंपनियों में उस के कई मित्र व सहेलियां काम करते थे. कुछ ही दिनों बाद रूपाली का घनिष्ठ मित्र प्रद्योत भी उसी कंपनी में नियुक्ति पा कर आ गया तो उसे लगा कि जीवन में और कोई चाह रह ही नहीं गई है. 23 वर्ष की आयु में 8 लाख रुपए प्रतिवर्ष का वेतन तथा अन्य सुविधाएं. प्रद्योत जैसा मित्र तथा मित्रों व संबंधियों द्वारा प्रशंसा की झड़ी. ऐसे में रूपाली के मातापिता भी कुछ कहने से पहले कई बार सोचते थे.

‘‘हमारी रूपाली तो बेटे से बढ़ कर है. पता नहीं लोग क्यों बेटी के जन्म पर आंसू बहाते हैं,’’ पिता गर्वपूर्ण स्वर में रूपाली की गौरवगाथा सुनाते हुए कहते. कंपनी 8 लाख रुपए सालाना वेतन देती थी तो काम भी जम कर लेती थी. रूपाली 7 बजे घर से निकलती तो घर लौटने में रात के 10 बज जाते थे. सप्ताहांत अगले सप्ताह की तैयारी में बीत जाता. फिर भी रूपाली और प्रद्योत सप्ताह में एक बार मिलने का समय निकाल ही लेते थे. मां वीणा और पिता मनोहर लाल को रूपाली व प्रद्योत के प्रेम संबंध की भनक लग चुकी थी. इसलिए उन्हें दिनरात यही चिंता सताती रहती थी कि कहीं ऐसा न हो कि कोई कुपात्र लड़का उन की कमाऊ बेटी को ले उड़े और वे देखते ही रह जाएं.

उधर अच्छी नौकरी मिलते ही विवाह के बाजार में रूपाली की मांग साधारण लड़कियों की तुलना में कई गुना बढ़ गई थी. अब उस के लिए विवाह प्रस्तावों की बाढ़ सी आने लगी थी. वीणा और मनोहर लाल का अधिकांश समय उन प्रस्तावों की जांचपरख में ही बीतता. समस्या यह थी कि जो भी प्रस्ताव आते उन की तुलना, जब वे अपनी बेटी के साथ करते तो तमाम प्रस्ताव उन्हें फीके जान पड़ते. ऐसे में रूपाली ने जब प्रद्योत के साथ  विवाह करने की बात उठाई तो मां  वीणा के साथ पिता मनोहर लाल भी भड़क उठे. ‘‘माना कि कालेज के समय से तुम प्रद्योत को जानती हो, पर तुम ने उस में ऐसा क्या देखा जो उस से विवाह करने की बात सोचने लगीं?’’ मनोहर लाल ने गरज कर पूछा.

‘‘पापा, उस में क्या नहीं है? वह सभ्य, सुसंस्कृत परिवार का है. उस का अच्छा व्यक्तित्व है. सब से बड़ी बात तो यह है कि वह हर क्षण मेरी सहायता को तत्पर रहता है और हम एकदूसरे को बहुत चाहते भी हैं.’’

‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई अपने बारे में इस प्रकार के निर्णय लेने की? कान खोल कर सुन लो, यदि तुम ने मनमानी की तो समझ लेना कि हम तुम्हारे लिए मर गए,’’ मनोहर लाल के तीखे स्वर ने रूपाली को बुरी तरह डरा दिया.

‘‘पापा, आप एक बार प्रद्योत से मिल तो लें, मुझे पूरा विश्वास है कि आप उस से प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे.’’

‘‘इतना समझाने के बाद भी तुम ने प्रद्योत के नाम की रट लगा रखी है? वह न हमारी भाषा बोलता है न हमारे क्षेत्र का है. हमारे रीतिरिवाजों तक को नहीं जानता. एक साधारण से परिवार के प्रद्योत में तुम्हें बड़ी खूबियां नजर आ रही हैं. कमाता क्या है वह? तुम से आधा वेतन है उस का. हम तुम्हारी खुशी के लिए तुम्हारे छोटे भाईबहन का भविष्य दांव पर नहीं लगा सकते,’’ मनोहर लाल का प्रलाप समाप्त हुआ तो रूपाली फूटफूट कर रो पड़ी. पिता का ऐसा रौद्ररूप उस ने पहले कभी नहीं देखा था.

मांदेर तक उस की पीठ पर हाथ फेर कर उसे चुप कराती रहीं, ‘‘तू तो मेरी बहुत समझदार बेटी है. ऐसे थोड़े ही रोते हैं. तेरे पापा तेरी भलाई के लिए ही कह रहे हैं. कल ही कह रहे थे कि हमारी रूपाली ऐसीवैसी नहीं है. 8 लाख रुपए प्रतिवर्ष वेतन पाती है. वे तो ऐसा वर ढूंढ़ रहे हैं जो कम से कम 20 लाख प्रतिवर्ष कमाता हो.’’

‘‘मां, मैं भी पढ़ीलिखी हूं, अपने पैरों पर खड़ी हूं. जब आप ने मुझे हर क्षेत्र में स्वतंत्रता दी है तो अपना जीवनसाथी चुनने में क्यों नहीं देना चाहतीं?’’ रूपाली बिलख उठी थी.

‘‘क्योंकि हम तुम्हारा भला चाहते हैं. विवाह के बारे में उठाया गया तुम्हारा एक गलत कदम तुम्हारा जीवन तबाह कर देगा,’’ मां ने पुन: उसे समझाया.

मनोहर लाल ने भी पत्नी की हां में हां मिलाई.

‘‘आप का निर्णय सही ही होगा, इस का भरोसा आप दिला सकते हैं?’’ रूपाली आंसू पोंछ उठ खड़ी हुई.

‘‘देखा तुम ने?’’ मनोहर लाल बोले, ‘‘कितनी ढीठ हो गई है तुम्हारी बेटी. यह इस का ऊंचा वेतन बोल रहा है. अपने सामने तो किसी को कुछ समझती ही नहीं. पर मैं एक बात पूर्णतया स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि अपनी इच्छा से इस ने विवाह किया तो मेरा मरा मुंह देखेगी.’’

‘‘रूपाली, मैं तुझ से अपने सुहाग की भीख मांगती हूं. तू ने कुछ ऐसावैसा किया तो तेरे छोटे भाईबहन अनाथ हो जाएंगे,’’ मां वीणा ने बड़े नाटकीय अंदाज में अपना आंचल फैला दिया.

उस दिन बात वहीं समाप्त हो गई. अब दोनों ही पक्षों को एकदूसरे की चाल की प्रतीक्षा थी. रूपाली अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गई. यों उस ने प्रद्योत को सबकुछ बता दिया था. अब प्रद्योत को अपने परिवार की चिंता सताने लगी थी. हो सकता है वे भी इस विवाह को स्वीकार न करें.

‘‘यदि मेरे मातापिता ने भी इस विवाह का विरोध किया तो हम क्या करेंगे, रूपाली?’’ प्रद्योत ने प्रश्न किया.

‘‘विवाह नहीं करेंगे और क्या. तुम्हें नहीं लगता कि अभी हमें 4-5 वर्ष और प्रतीक्षा करनी चाहिए. शायद तब तक हमारे मातापिता भी हमारी पसंद को स्वीकार करने को तैयार हो जाएं,’’ रूपाली ने स्पष्ट किया.

‘‘तुम ठीक कहती हो. सच कहूं, तो मैं ने अभी तक विवाह के बारे में सोचा ही नहीं है,’’ प्रद्योत ने उस की हां में हां मिलाई तो रूपाली एक क्षण के लिए चौंकी अवश्य थी फिर एक फीकी सी मुसकान फेंक कर उठ खड़ी हुई.

उस के मातापिता का वरखोजी अभियान पूरे जोरशोर से चल रहा था. उन की 8 लाख रुपए प्रतिवर्ष वेतन पाने वाली बेटी के लिए योग्य वर जुटाना इतना सरल थोड़े ही था. अधिकतर तो उन के मापदंडों पर खरे ही नहीं उतरते थे. जो उन्हें पसंद आते उन के समक्ष इतनी शर्तें रख दी जातीं कि वे भाग खड़े होते. कोई 1-2 ठोकबजा कर देखने पर खरे उतरते तो उन्हें ई-मेल, पता आदि दे कर रूपाली से संपर्क करने की अनुमति मिलती.

अपने एक दूर के संबंधी के पुत्र मधुकर को मनोहर लाल ने भावी वरों की सूची में सब से ऊपर रखा था. इस बीच प्रद्योत को एक अन्य कंपनी में नौकरी मिल गई थी और वह शहर छोड़ कर चला गया था.

 

मनोहर लाल ने मधुकर के मातापिता से स्पष्ट कह दिया था कि उन की लाड़ली बेटी रूपाली हैदराबाद छोड़ कर मुंबई नहीं जाएगी. मधुकर को ही मुंबई छोड़ कर हैदराबाद आना पड़ेगा. मधुकर और उस के मातापिता के लिए यह आश्चर्य का विषय था. उन्होंने तो यह सोच रखा था कि रूपाली विवाह के बाद मधुकर के साथ रहने आएगी. पर मनोहर लाल ने साफ शब्दों में बता दिया था कि इतनी अच्छी नौकरी छोड़ कर रूपाली कहीं नहीं जाएगी. मधुकर ने रूपाली को समझाने का प्रयत्न अवश्य किया था पर उस ने साफ शब्दों में कह दिया कि वह चाह कर भी मातापिता की इच्छा के विरुद्ध कुछ नहीं करेगी. बात आईगई हो गई थी. दोनों ही पक्ष एकदूसरे की ओर से पहल की आशा लगाए बैठे थे. दूसरे पक्ष की शर्तें मानने में उन का अहं आड़े आता था. फिर तो यह सिलसिला चल निकला, सुयोग्य वर ढूंढ़ा जाता. शुरुआती बातचीत के बाद फोन नंबर, ई-मेल आईडी आदि रूपाली को सौंप दिए जाते. विचारों का आदानप्रदान होता. घंटों फोन पर बातचीत होती पर बात न बनती.

अब मनोहर बाबू जेब में रूपाली का फोटो और जन्मपत्रिका लिए घूमते. अब उन की शर्तें कम होने लगी थीं. स्तर भी घटने लगा था. अब उन्हें रूपाली से कम वेतन वाले वर को स्वीकार करने में भी कोई एतराज नहीं था.

इसी प्रकार 4 साल बीत गए पर कहीं बात नहीं बनती देख मनोहर लाल ने रूपाली के छोटे भाई व बहन के विवाह संपन्न करा दिए. अब रूपाली के लिए वर खोजने की गति भी धीमी पड़ने लगी थी. न जाने क्यों उन्हें लगने लगा था कि रूपाली का विवाह असंभव नहीं पर कठिन अवश्य है.

उस दिन सारा परिवार छुट्टी मनाने के मूड में था. मां वीणा ने रात्रिभोज का उत्तम प्रबंध किया था. मनोहर लाल नई फिल्म की एक सीडी ले आए थे.

फिल्म शुरू ही हुई थी कि दरवाजे की घंटी बजी.

‘‘कौन?’’ मां वीणा ने झुंझलाते हुए दरवाजा खोला तो सामने एक आकर्षक युवक खड़ा था.

‘‘कहिए?’’ मां ने युवक से प्रश्न किया.

‘‘जी, मैं रूपाली का मित्र, 2 दिन पहले ही आस्ट्रेलिया से लौटा हूं.’’

अपना नाम सुनते ही रूपाली दरवाजे की ओर लपकी थी.

‘‘अरे, प्रद्योत तुम? कहां गायब हो गए थे. मैं ने कई मेल भेजे पर सब व्यर्थ.’’

‘‘अब तो मैं स्वयं आ गया हूं मिलने. रूपाली, मेरी नियुक्ति इसी शहर में हो गई है,’’ प्रद्योत का उत्तर था.

कुछ देर बैठने के बाद उस ने जाने की अनुमति मांगी तो मनोहर लाल और वीणा ने उसे रात्रि भोज के लिए रोक लिया.

‘‘कहां रहे इतने दिन? और आज इस तरह अचानक यहां आ टपके?’’ एकांत मिलते ही रूपाली ने आंखें तरेरीं.

‘‘तुम ने खुद ही प्रतीक्षा करने के लिए कहा था. पर अब मैं और प्रतीक्षा नहीं कर सकता इसलिए तुम्हारा हाथ मांगने स्वयं ही चला आया,’’ प्रद्योत बोला तो रूपाली की आंखें डबडबा आईं.

‘‘मेरे मातापिता नहीं मानेंगे,’’ किसी प्रकार उस ने वाक्य पूरा किया.

‘‘मैं ने सब सुन लिया है. हम से पूछे बिना ही तुम ने कैसे सोच लिया कि हम नहीं मानेंगे,’’ दोनों का वार्त्तालाप सुन कर मनोहर लाल बोले थे.

‘‘पता नहीं मेरा वेतन रूपाली के वेतन से अधिक है या कम. हमारी भाषाक्षेत्र सब अलग है. पर मैं आप को विश्वास दिलाना चाहता हूं कि मैं आप की बेटी को सिरआंखों पर बिठा कर रखूंगा,’’ प्रद्योत ने हाथ जोड़ कर कहा तो मनोहर लाल ने उसे गले लगा लिया.

‘‘मैं भी न जाने किस मृगमरीचिका में भटक रहा था. बहुत देर से समझ में आया कि मन मिले हों तो अन्य किसी वस्तु का कोई महत्त्व नहीं होता,’’ मनोहर लाल बोले.

रूपाली कभी प्रद्योत को तो कभी अपने मातापिता को देख रही थी. उस की आंखों में सैकड़ों इंद्रधनुष झिल- मिला उठे थे.

Father’s Day Special-पापा के लिए: सौतेली बेटी का त्याग

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Father’s Day Special – बुलावा आएगा जरूर: क्या भाग्यश्री को माता-पिता का प्यार मिला?

तबीयत कैसी है मां?’’ दयनीय दृष्टि से देखती भाग्यश्री ने पूछा.

मां ने सिर हिला कर इशारा किया, ‘‘ठीक है.’’ कुछ पल मां जमीन की ओर देखती रही. अनायास आंखों से आंसू की  झड़ी  झड़ने लगी. सुस्त हाथों को धीरेधीरे ऊपर उठा कर अपने सिकुड़े कपोलों तक ले गई. आंसू पोंछ कर बोली, ‘‘प्रकृति की मरजी है बेटा.’’

परिवार के प्रति आक्रोश दबाती हुई भाग्यश्री ने कहा, ‘‘प्रकृति की मरजी कोई नहीं जानता, किंतु तुम्हारे लापरवाह बेटे को सभी जानते हैं और… और पिताजी की तानाशाही. दोनों के प्रति तुम्हारे समर्पित भाव का प्रतिदान तुम्हें यह मिला कि तुम दोनों की मानसिक चोट से आहत हो कर यहां तक  पहुंच गईं? जिंदगी जकड़ कर रखना चाहती है, लेकिन मौत तुम्हें अपनी ओर खींच रही है.’’

मां ने आहत स्वर में कहा, ‘‘क्या किया जाए, सब समय की बात है.’’

भाग्यश्री ने अपनी आर्द्र आंखों को पोंछ कर कहा, ‘‘दवा तो ठीक से ले रही हो न, कोई कमी तो नहीं है न?’’

पलभर मां चुप रही, फिर बोली, ‘‘नहीं, दवा तो लाता ही है.’’

‘‘कौन? बाबू?’’ भाग्यश्री ने पूछा.

‘‘और नहीं तो कौन, तुम्हारे पिताजी लाएंगे क्या, गोबर भी काम में आ जाता है, गोथठे के रूप में. लेकिन वे? इस से भी गएगुजरे हैं. वही ठीक रहते तो किस बात का रोना था?’’ कुछ आक्रोश में मां ने कहा.

भाग्यश्री सिर  झुका कर बातें सुनती रही.

‘‘और एक बेटा है, वह अपनेआप में लीन रहता है, कमरे में  झांक कर भी नहीं देखता. आने में देरी हो जाए, तो मन घबराता है. देरी का कारण पूछती हूं, तो बरस पड़ता है. घर में नहीं रहने पर इधर बाप की चिल्लाहट सुनो और आने पर कुछ पूछो, तो बेटे की  िझड़की सुनो. बस, ऐसे ही दिन काट रही हूं,’’ आंसू पोंछती हुई मां ने कहा, ‘‘हां, लेकिन सेवा तुम्हारे पिताजी करते हैं मूड ठीक रहा तो, ठीक नहीं तो चार बातें सुना कर ही सही, मगर करते हैं.’’

भाग्यश्री ने कई बार सोचा कि मां की सेवा के लिए एक आया रख दे, मगर इस में भी समस्याएं थीं. एक तो यह कि इस माहौल में आया रहेगी नहीं, हरवक्त तनाव की स्थिति, बापबेटे के बीच वाकयुद्ध, अशांति ही अशांति. स्वयं कुछ भी खा लें, मगर आया को तो ढंग से खिलाना पड़ेगा न. दूसरा यह कि भाग्यश्री की सहायता घरवाले स्वीकार करेंगे? इन सब कारणों से वह लाचार थी. वह मां के पास बैठी थी, तभी उस के पिताजी आए. औपचारिकतावश भाग्यश्री ने प्रणाम किया. फिर चुपचाप बैठी रही.

भाग्यश्री ने अपने पिताजी की ओर देखा. उन के चेहरे पर क्रोध का भाव था. निसंदेह वह भाग्यश्री के प्रति था.

पिछले 10 वर्षों में वह बहुत कम यहां आईर् थी. जब उस ने अपनी मरजी से शादी की, पिताजी ने उसे त्याग दिया. मां भी पिताजी का समर्थन करती, किंतु मां तो मां होती है. मां अपना मोह त्याग नहीं पाई थी. शादी भी एक संयोग था. स्नेहदीप के बिना जीवन अंधकारमय रहता है. प्रकाश की खोज करना हर व्यक्ति की प्रवृत्ति है.

व्यक्ति को यदि अपने परिवेश में स्नेह न मिले तो बूंदभर स्नेह की लालसा लिए उस की दृष्टि आकाश को निहारती है, शायद स्वाति बूंद उस पर गिर पड़े. जहां आशा बंधती है, वहां वह स्वयं भी बंध जाता है. भाग्यश्री के साथ भी ऐसी ही बात थी. नाम के विपरीत विधाता का लिखा. दोष किस का है- इस सर्वेक्षण का अब समय नहीं रहा, लेकिन एक ओर जहां भाग्यश्री का खूबसूरत न होना उस के बुरे समय का कारण बना, वहीं, दूसरी ओर पिता का गुस्सैल स्वभाव भी. कभी भी उन्होंने घर की परिस्थिति को देखा ही नहीं, बस, जो चाहिए, मिलना चाहिए अन्यथा घर सिर पर उठा लेते.

घर की विषम परिस्थितियों ने ही भाग्यश्री को सम झदार बना दिया. न कोई इच्छा, न शौक. बस, उदासीनता की चादर ओढ़ कर वह वर्तमान में जीती गई. परिश्रमी तो वह बचपन से ही थी. छोटे बच्चों को पढ़ा कर उस ने अपनी पढ़ाई पूरी की. उस का एक छोटा भाई था. बहुत मन्नत के बाद उस का जन्म हुआ था. इसलिए उसे पा कर मातापिता का दर्प आसमान छूने लगा था. पुत्र के प्रति आसक्ति और भाग्यश्री के प्रति विरक्ति यह इस घर की पहचान थी.

लेकिन, उसे अपने एकांत जीवन से कभी ऊब नहीं हुई, बल्कि अपने एकाकीपन को उस ने जीवन का पर्याय बना लिया था. कालांतर में हरदेव के आत्मीय संसर्ग के कारण उस के जीवन की दिशा ही नहीं बल्कि परिभाषा भी बदल गई. बहुत ही साधारण युवक था वह, लेकिन विचारउदात्त था. सादगी में विचित्र आकर्षण था.

भाग्यश्री न तो खूबसूरत थी, न पिता के पास रुपए थे और न ही वह सभ्य माहौल में पलीबढ़ी थी. किंतु पता नहीं, हरदेव ने उस के हृदय में कौन सा अमृतरस का स्रोत देखा, जिस के आजीवन पान के लिए वह परिणयसूत्र में बंध गया. हरदेव के मातापिता ने इस रिश्ते को सहर्ष स्वीकार किया. भाग्यश्री के मातापिता ने उस के सामने कोई आपत्ति जाहिर नहीं की, मगर पीठपीछे बहुत कोसा. यहां तक कि वे लोग न इस से मिलने आए, न ही उन्होंने इसे घर बुलाया. खुश रह कर भी भाग्यश्री मायके के संभावित दुखद माहौल से दुखी हो जाती. उपेक्षा के बाद भी वह अपने मायके के प्रति लगाव को जब्त नहीं कर पाती और यदाकदा मांपिताजी, भाई से मिलने आती, किंतु लौटती तो अपमान के आंसू ले कर.

कुछ माह बाद ही भाग्यश्री को मालूम हुआ कि उस की मां लकवे का शिकार हो गई है. घबरा कर वह मायके आई. अपाहिज मां उसे देख कर रोने लगी, मानो बेटी के प्रति जितना भी दुर्भाव था, वह बह रहा हो. किंतु, पिताजी की मुद्रा कठोर थी. मां अपनी व्यथा सुनाती रही, लेकिन पिताजी मौन थे. आर्थिक तंगी तो घर में पहले से ही थी, अब तो कंगाली में आटा भी गीला हो गया था. मां के पास वह कुछ देर बैठी रही, फिर बहुत साहस जोड़ कर, मां को रुपए दे कर कहने लगी, ‘इलाज में कमी न करना मां. मैं तुम्हारा इलाज कराऊंगी, तुम चिंता न करना.’

उस की बातों को सुनते ही पिताजी का मौन भंग हुआ. बहुत ही उपेक्षित ढंग से उन्होंने कहा, ‘हम लोग यहां जैसे भी हैं, ठीक हैं. तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं है. मिट्टी में इज्जत मिला कर आई है जान बचाने.’ विकृत भाव चेहरे पर आच्छादित था. कुछ पल चुप रहे, फिर उन्होंने कहा, ‘तुम्हारे आने पर यह रोएगी ही, इसलिए न आओ तो अच्छा रहेगा.’

घर में उस की उपेक्षा नई बात नहीं थी. आंसूभरी आंखों से मां को देखती हुई उदासी के साथ वह लौट गई. मातापिता ने उसे त्याग दिया. मगर वह त्याग नहीं पाई थी. इस बार 5वीं बार वह सहमीसहमी मां के घर आई थी. इस बार न उसे उपेक्षा की चिंता थी, न पिताजी के क्रोध का भय था. और न आने पर संकोच. मां के दुख के आगे सभी मौन थे.

उसे याद आई. छोटे भाई के प्रति मातापिता का लगाव देख कर वह यही सम झ बैठी थी कि यह घर उस का नहीं. खिलौने आए तो उस भाई के लिए ही. उसे याद नहीं कि उस ने कभी खिलौने से खेला भी था. खीर बनी, तो पहले भाई ने ही खाई. उस के खाने के बाद ही उसे मिली. मां से पूछती, ‘हर बार उसी की सुनी जाती, मेरी बात क्यों नहीं? गलती अगर बाबू करे तो दोषी मैं ही हूं, क्यों?’

लापरवाही के साथ बड़े गर्व से मां कहती, ‘उस की बराबरी करोगी? वह बेटा है. मरने पर पिंडदान करेगा.’ मां के इस दुर्भाव को वह नहीं भूली. पति के घर में हर सुख होने के बाद भी वह अतीत से निकल नहीं पाई. बारबार उसे चुभन का एहसास होता रहा. लेकिन अब? मां की विवशता, लाचारी और कष्ट के सामने उस का अपना दुख तुच्छ था.

कुछ पल वह मां के पास बैठी रही. फिर बोली, ‘‘बाबू कहां है?’’ बचपन से ही, वह भाई को बाबू बोलती आई थी. यही उसे सिखाया गया था.

‘‘होगा अपने कमरे में,’’ विरक्तभाव से मां ने कहा.

भाग्यश्री कमरे में जा कर बाबू के पास बैठ गई. पत्थर पर फूल की क्यारी लगाने की लालसा में उसे कुछ पल अपलक देखती रही. फिर साहस समेट कर बोली, ‘‘आज तक इस घर ने मु झे कुछ नहीं दिया है. बहनबेटी को देना बड़ा पुण्य का काम होता है.’’

बाबू आश्चर्य से उसे देखने लगा, क्योंकि किसी से कुछ मांगना उस का स्वभाव नहीं था.

‘‘क्या कहती हो दीदी? क्या दूं,’’ बाबू ने पूछा.

‘‘मन का चैन,’’ याचक बन कर उस ने कहा.

बाबू चुप रहा. बाबू के चेहरे का भाव पढ़ कर उस ने आगे कहा, ‘‘देखो बाबू, हम दोनों यहीं पलेबढ़े. लेकिन, तुम्हें याद है? मांपिताजी का सारा ध्यान तुम्हीं पर रहता था. तुम्हीं उन के लिए सबकुछ हो. उन के विश्वास का मान रख लो. मु झे मेरे मन का चैन मिल जाएगा.’’ बोलतेबोलते उस का गला भर आया. कुछ रुक कर फिर बोली, ‘‘याद है न? मां तुम्हें छिप कर पैसा देती थीं जलेबियां खाने के लिए. मैं मांगती, तो कहतीं ‘इस की बराबरी करोगी? यह बेटा है, आजीवन मु झे देखेगा.’  और मैं चुप हो जाती. मां के इस प्रेम का मान रख लो बाबू. पहले उस के दुर्भाव पर दुख होता था और अब उस की विवशता पर. दुख मेरे समय में ही रहा.’’

‘‘तुम क्या कह रही हो, मैं सम झ नहीं पा रहा हूं,’’ कुछ खी झ कर बाबू ने कहा, ‘‘क्या कमी करता हूं? दवा, उचित खानापीना, सभी तो हो रहा है. क्या कमी है?’’

‘‘आत्मीयता की कमी है,’’ भाग्यश्री का संक्षिप्त उत्तर था. ‘चोर बोले जोर से’ यह लोकोक्ति प्रसिद्ध है. खी झ कर बाबू बोला, ‘‘हांहां, मैं गलत हूं. मगर तुम ने कौन सी आत्मीयता दिखाई? आज भी कोई पूछता है कि भाग्यश्री कैसी है, तो लगता है कि व्यंग्य से पूछ रहा है.’’

बाबू की यह बात उसे चुभ गई. आंखें नम हो गईं. मगर धीरे से कहने लगी, ‘‘हां, मैं ने गलत काम किया है. तुम लोगों के सताने पर भी मैं ने आत्माहत्या नहीं की, बल्कि जिंदगी को तलाशा है, यही गलती हुई है न?’’

बाबू चुप रहा.

‘‘देखो बाबू,’’ भरे हुए कंठ से उस ने कहा, ‘‘बहस नहीं करो. मैं इतना ही जानती हूं कि मांपिताजी, मांपिताजी होते हैं. मैं ने इतना अन्याय सह कर भी मन मैला न किया. फिर तुम्हें क्या शिकायत है कि इन के दुखसुख में हाल भी न पूछो? दवा से ज्यादा सद्भाव का असर होता है.’’

‘‘कौन कहता है?’’ बात का रुख बदलते हुए बाबू ने कहा, ‘‘कौन शिकायत करता है? क्या नहीं करता? तुम्हें पता है सारी बातें? कौन सा ऐसा दिन है, जब पिताजी मु झे नहीं कोसते? एक सरकारी नौकरी न मिली कि नालायक, निकम्मा विशेषणों से अलंकृत करते रहते हैं. बीती बातों को उखाड़उखाड़ कर घर में कुहराम मचाए रहते हैं. घर की शांति भंग हो गई है.’’ वह अपने आंसू पोंछने लगा.

बात जब पिताजी पर आई, तो कमरे में आ कर चीखते हुए भाग्यश्री को बोलने लगे, ‘‘हमारे घर के मामले में तुम कौन हो बोलने वाली? कौन तुम्हें यहां की बातें बताता है? यह मेरा बेटा है, मैं इसे कुछ बोलूं तो तुम्हें क्या? यह हमें लात मारे, तुम्हें क्या मतलब?’’

बात कहां से कहां पहुंच गई. भाग्यश्री को भी क्रोध आ गया. वह कुछ बोली नहीं, बस, आक्रोश से अपने पिताजी को देखती रही. पिताजी का चीखना जारी था, ‘‘तुम अपने घर में खुश रहो. हमारे घर के मामले में तुम्हें बोलने का अधिकार नहीं है.’’

‘हमारा घर?

‘पिताजी का घर?

‘बाबू का घर? मेरा नहीं? हां, पहले भी तो नहीं था. और अब? शादी के बाद?’ भाग्यश्री मन में सोच रही थी.

पिताजी को बोलते देख, मां ने आवाज लगाई. भाग्यश्री मां के पास चली गई. मां ने रोते हुए कहा, ‘‘समय तो किसी का कोई बदल नहीं सकता न बेटा? मेरे समय में ही दुख लिखा है, इसलिए तो बापबेटे की मत मारी गई. आपस में भिड़ कर एकदूसरे का सिर फोड़ते रहते हैं. तुम बेकार मेरी चिंता करती हो. तुम्हें यहां कोई नहीं सराहता, फिर क्यों आती हो.’’ यह कहती हुई वह फूटफूट कर रो पड़ी.

पिताजी के प्रति उत्पन्न आक्रोश ममता में घुल गया. कुछ देर तक भाग्यश्री सिर नीचे किए बैठी रही. आंखों से आंसू बहते रहे. अचानक उठी और बाबू से बोली, ‘‘मां, मेरी भी है. इस की हालत में सुधार यदि नहीं हुआ, तो बलपूर्वक मैं अपने साथ ले जाऊंगी,’’ कहती हुई वह चली गई.

महल्ले में ही उस का मुंहबोला एक भाई था, कुंदन. वह बाबू का दोस्त भी था. उदास हो कर लौटती भाग्यश्री को देख कर वह उस के पीछे दौड़ा, ‘‘दीदी, ओ दीदी.’’

भाग्यश्री ने पीछे मुड़ कर देखा. बनावटी मुसकान अधरों पर बिखेर कर हालचाल पूछने लगी. उसे मालूम हुआ कि फिजियोथेरैपी द्वारा वह इलाज करने लगा है. उस की उदास आंखें चमक उठीं. याचनाभरी आवाज में कहा, ‘‘भाई, मेरी मां को भी देख लो.’’

‘‘चाचीजी को? हां, स्थिति ठीक नहीं है, यह सुना, लेकिन किसी ने मु झ से कहा ही नहीं,’’ कुंदन ने कहा.

‘‘मैं कह रही हूं न,’’ व्यग्र होते हुए भाग्यश्री ने कहा.

दो पल दोनों चुप रहे. कुछ सोच कर भाग्यश्री ने फिर कहा, ‘‘लेकिन भाई, यह बताना नहीं कि मैं ने तुम्हें भेजा है. नहीं तो मां का इलाज करवाने नहीं देंगे सब.’’

‘‘लेकिन, लेकिन क्या कहूंगा?’’

‘‘यही कि, बाबू के मित्र हो, इसलिए इंसानियतवश. और हां,’’ भाग्यश्री ने अपने बटुए में से एक हजार रुपया निकाल कर देते हुए कहा, ‘‘तुम मेरा पता लिख लो, मेरे घर आ कर ही अपना मेहनताना ले लेना.’’

कुंदन उसे देखता रहा. भाग्यश्री की आंखों में कृतज्ञता छाई थी, बोली, ‘‘भाई, तुम्हारा एहसान मैं याद रखूंगी. बस, मेरी मां को ठीक कर दो.’’

कुंदन सिर हिला कर कह रहा था, ‘‘ठीक है.’’

दो माह बाद वह फिर से मायके आई. हालांकि कुंदन से उसे मालूम हो गया था कि मां की स्थिति में बहुत सुधार है, फिर भी वह देखना चाहती थी. भाग्यश्री के मन में एक अज्ञात भय था. जैसे कोई किसी दूसरे के घर में प्रवेश कर रहा हो वह भी चोरीचोरी. जैसेजैसे घर निकट आ रहा था, उस के कदम की गति धीमी होती जा रही थी और हृदय की धड़कन बढ़ती जा रही थी.

वहां पहुंच कर उस ने बरामदे में  झांका. मां, पिताजी और बाबू तीनों बैठ कर चाय पी रहे थे. सभी प्रसन्न थे. आपस में बातें करते हुए हंस रहे थे. भाग्यश्री ने शायद ही कभी ऐसा दृश्य देखा होगा. भाग्यश्री वहीं ठहर गई. उस ने अपने भाई से ‘मन का चैन’ मांगा था, भाई ने उसे दे दिया. मायके से प्राप्त उपेक्षा, तो उस का दुख था ही, लेकिन यह ‘मन का चैन’ उस का सुख था.

‘ठीक ही है,’ उस ने सोचा, मैं तो इस घर के लिए कभी थी ही नहीं. फिर अपना स्थान क्यों ढूढ़ूं? आज मन का चैन मिला, इस से बड़ा मायके का उपहार क्या होगा. मन का चैन ले कर वह वहीं से लौट आई, बिन बुलाए कभी न जाने के लिए.

बाहर निकल कर नम आंखों से अपने मायके का घर देख रही थी. अनायास उस के अधरों पर वेदना के साथ एक मुसकान दौड़ आई. उंगली से इशारा करती हुई, भरे हुए कंठ से वह बुदबुदाई, ‘मु झे पता है पिताजी, एक दिन आप मु झे बुलाएंगे जरूर. मन का चैन पा कर वह प्रसन्न थी, किंतु मायके के विद्रोह से उस का अंतर्मन बिलख रहा था. उस ने मन से पूछा, ‘लेकिन कहां बुलाएंगे?’ मन ने उत्तर भी दे दिया, ‘जल्द ही बुलाएंगे.’

अपनी आंखों को पोंछती हुई वह एकाएक मुड़ी और अपने घर की ओर चल दी. मन में विश्वास था कि एक दिन बुलावा आएगा, हां, बुलावा आएगा जरूर.

एक तलाक ऐसा भी : गंगू और मोहिनी का यादगार फैसला

गंगू अपनी पत्नी मोहिनी के साथ पूर्वी दिल्ली की एक कच्ची बस्ती में रहता था. कदकाठी में वह मोहिनी के सामने एकदम बच्चा लगता था, क्योंकि मोहिनी भरेपूरे बदन की औरत थी. उस का कद भी साढ़े 5 फुट था. जब वह गली से गुजरती थी, तो मनचले उस की मटकती कमर और उठे उभारों को देख कर आहें भरने लगते थे.

यह सब देख कर गंगू कुढ़ कर रह जाता था. रहीसही कसर मोहिनी के मोबाइल फोन ने पूरी कर दी थी. गंगू जब भी मोहिनी को फोन से चिपके देखता, तो वह उसे हड़का देता था. एक दिन तो हद हो गई. गंगू जब थकाहरा घर लौटा, तो मोहिनी हंसहंस कर किसी से फोन पर बात कर रही थी. उस की हंसी सुन कर गंगू का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया.

उस ने आव देखा न ताव और एक करारा तमाचा मोहिनी के गाल पर जड़ दिया.  अचानक पड़े तमाचे से मोहिनी बौखला गई और पलट कर उस ने भी गंगू को खींच कर एक तमाचा रसीद कर दिया. अब तो गुस्से के मारे गंगू के नथुने फूलने लगे.

यह देख कर बस्ती के कुछ लोग कहने लगे कि मर्द का अपनी पत्नी से मार खाना खानदान की नाक कटने के बराबर है. वे मानो गंगू के जले पर नमक छिड़क रहे थे. उधर गंगू गुस्से में और भी लालपीला हो रहा था. लिहाजा, मामला और भी बढ़ता चला गया.

इसी तनातनी में उन दोनों के रिश्तेदार दिल्ली आए तो मामला और भी संगीन होता गया और बात धीरेधीरे तलाक पर आ गई. दोनों पक्षों की तरफ से खूब आरोप उछाले गए. गंगू ने मोहिनी को और मोहिनी ने गंगू को बहुत सारी बकवास बातें कहीं. मुकदमा कोर्ट में दर्ज कराया गया. गंगू ने मोहिनी के खिलाफ बदचलनी का, तो मोहिनी ने गंगू के खिलाफ दहेज के नाम पर सताने का आरोप लगाया.

मुकदमा तकरीबन ढाई साल तक चलता रहा. आखिर में 7 साल तक शादीशुदा जिंदगी बिताने और एक बच्ची के मांबाप बनने के बाद आज गंगू और मोहिनी के बीच तलाक हो गया. गंगू और मोहिनी दोनों के हाथ में तलाक की परची थी. वे दोनों चुप थे. चूंकि मुकदमा तकरीबन ढाई साल तक चला था, लिहाजा वे दोनों ढाई साल से अलगअलग रह रहे थे.

गंगू दिल्ली में तो मोहिनी अपने मायके में रह रही थी. दोनों जब सुनवाई पर आते तो एकदूसरे को देख कर जलते, गुस्सा करते और मुंह मोड़ लेते.  तलाक की परची मिलने के बाद दोनों पक्ष के रिश्तेदार और गंगू व मोहिनी कोर्ट के पास के ही एक होटल में ठहरे थे. मोहिनी ने दिल्ली वाले घर में जाने से मना कर दिया था, तो गंगू भी वहीं रुक गया. सब की चाय पीने की इच्छा हुई.

इत्तिफाक से जिस मेज के सामने गंगू बैठा था, उसी मेज के सामने मोहिनी भी आ कर बैठ गई. अब दोनों आमनेसामने बैठे थे. शक्ल से लग रहा था कि उन दोनों के दिल में पछतावा था. दोनों एकदूसरे को काफी देर तक आंखों में आंखें मिला कर देखते रहे.  चाय आई.

दोनों ने कप उठाए, फिर कुछ देर बाद गंगू अपनी आंखों में पछतावे के आंसू ले कर हड़बड़ाती हुई आवाज में मोहिनी से बोला, ‘‘इस बीच जुदाई में मैं तुम्हें बहुत याद करता था.’’

यह सुन कर मोहिनी की भी आंखों में आंसू आ गए और उस ने गंगू के हाथ पर अपना हाथ रख कर धीरे से कहा, ‘‘मैं भी…’’ अब गंगू ने लंबी सांस ली और धीरेधीरे कहने लगा,

‘‘अभी तुम्हें 2 लाख रुपए नकद और 4,000 रुपए भी तो हर महीने देने हैं.

मुझे इस का जल्द ही बंदोबस्त करना पड़ेगा.’’

‘‘अरे… तो दे देना, कहीं भागे थोड़े ही जा रहे हैं आप…’’ मोहिनी बोली.

मोहिनी की यह बात सुन कर गंगू की आंखों से और ज्यादा आंसू छलक पड़े और उस ने धीरे से कहा, ‘‘मैं तुम्हें अब भी बहुत प्यार करता हूं.’’

‘‘और मैं भी…’’ मोहिनी बोली. ‘‘तुम पर बदचलनी का झूठा आरोप लगाने के लिए मुझे माफ कर दो.’’ यह सुन कर मोहिनी बोली,

‘‘माफी मांगने की क्या जरूरत है… मैं ने भी तो आप पर दहेज के नाम पर सताने का झूठा आरोप लगाया था.’’

अब गंगू ने कहा, ‘‘मैं तुम्हारे बिना बिलकुल अकेला हो जाऊंगा.’’

‘‘और मैं भी,’’ मोहिनी बोली. गंगू डरते हुए बोला, ‘‘मैं तुम्हारे  साथ ही अपनी सारी जिंदगी गुजारना चाहता हूं.’’

‘‘और मैं भी आप के साथ ही रहना चाहती हूं…’’ मोहिनी ने कहा,

‘‘पर…’’ ‘‘पर क्या?’’ गंगू ने पूछा. ‘‘पर, इस तलाक की परची का क्या करोगे?’’ मोहिनी बोली.

‘‘तो इस तलाक की परची को फाड़ कर फेंक देते हैं,’’ गंगू ने कहा.

फिर उन दोनों ने एकदूसरे को देखते हुए अपनीअपनी परची फाड़ कर फेंक दी और ठहाका मार कर हंस पड़े. इस के बाद उन दोनों ने एकदूसरे का हाथ पकड़ लिया और कुरसी से उठ कर गले लग गए. दोनों की आंखों में खुशी के आंसू छलक पड़े. देखते ही देखते गंगू और मोहिनी दोनों एकदूसरे का हाथ पकड़ कर हंसते हुए होटल से बाहर चले गए. यह नजारा देख कर उस होटल में ठहरे उन के रिश्तेदारों के चेहरों पर मुर्दनी छा गई

Father’s Day Special: पापा जल्दी आ जाना

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Father’s Day Special- बेटी : पापा के प्यार को तरसती मरियम

जब वह छोटी थी, तो मां यह कह कर उसे बहला दिया करती थी कि पापा परदेश में नौकरी कर रहे हैं और उस के लिए ढेर सारा पैसा ले कर आएंगे. लेकिन मरियम अब बड़ी हो गई थी और स्कूल जाने लगी थी. एक बार मरियम ने मां से कहा, ‘‘मम्मी, न तो पापा खुद आते हैं, न ही कभी उन का फोन आता है. क्या वे हम से नाराज हैं?’’

मरियम के इस सवाल पर फिरदौस कहतीं, ‘‘नहीं बेटी, तुम्हारे पापा तो दुनिया में सब से अच्छे पापा हैं. वे हम लोगों से बहुत प्यार करते हैं, लेकिन वे जहां नौकरी करते हैं, वहां छुट्टी नहीं मिलती है, इसीलिए आ नहीं पाते हैं.’’

मां की बातों से मरियम को तसल्ली तो मिल जाती, लेकिन पिता की याद कम नहीं हो पाती थी. समय हवा के झोंके की तरह बीतता रहा. मरियम अब 5वीं जमात की एक समझदार बच्ची बन चुकी थी. एक दिन स्कूल की छुट्टी के समय मरियम ने देखा कि उस के स्कूल की एक छात्रा सुमन ने दौड़ कर अपने पापा के गले से लिपट कर कहा कि आज हम पहले आइसक्रीम खाएंगे, उस के बाद घर जाएंगे. यह देख कर मरियम को अपने पापा की याद बहुत आई. वह स्कूल से घर आई, तो बगैर कुछ खाएपीए सीधे अपने कमरे में जा कर लेट गई. घर के काम निबटा कर फिरदौस मरियम के पास आ कर बैठ गईं और उस के काले खूबसूरत बालों में हाथ से कंघी करते हुए पूछा, ‘‘क्या बात है, आज हमारी बेटी कुछ उदास लग रही है?’’ फिरदौस का इतना पूछना था कि मरियम फफक कर रो पड़ी, ‘‘मम्मी, आप मुझ से झूठ बोलती हैं न कि पापा दुबई में नौकरी करते हैं? अगर वे दुबई में हैं, तो फोन पर हम लोगों से बात क्यों नहीं करते हैं?’’

अब फिरदौस के लिए सचाई को छिपा कर रख पाना बहुत मुश्किल हो गया.

‘‘अच्छा, पहले तुम खाना खा लो. आज मैं तुम्हें सबकुछ सचसच बता दूंगी,’’ कहते हुए फिरदौस मरियम के लिए खाना लेने चली गईं. जब फिरदौस खाना ले कर कमरे आईं, तो मरियम ने उन से कहा, ‘‘मम्मी, आप को पापा के बारे में जोकुछ बताना है, बताती जाइए. मैं खाना खाती हूं.’’

‘‘बेटी, तुम्हारे पापा इंजीनियर थे और दुबई में नौकरी करते थे. मैं भी उन्हीं के साथ रहती थी.’’

‘‘मम्मी, आप बारबार ‘थे’ शब्द का क्यों इस्तेमाल कर रही हैं? क्या पापा अब इस दुनिया में नहीं हैं?’’ इतना कह कर वह रोने लगी.

‘‘नहीं बेटी, पापा जिंदा हैं.’’

मरियम तुरंत आंसू पोंछ कर चुप हो गई. उसे डर था कि कहीं मम्मी सचाई बताए बगैर चली न जाएं. फिरदौस ने बात का सिलसिला फिर से शुरू करते हुए कहा, ‘‘12 साल पहले की बात है, जब तुम्हारे पापा और मैं दुबई से भारत आए थे. हम दोनों ही बहुत खुश थे, लेकिन हमें क्या पता था कि इस के बाद हम सब एक ऐसी मुसीबत में पड़ जाएंगे, जिस से छुटकारा पाना नामुमकिन हो जाएगा.’’

‘‘शहर में दंगा हो गया. हिंदू और मुसलमान एकदूसरे के खून के प्यासे हो गए थे. ‘‘जैसेतैसे कर के जब फसाद थोड़ा थमा, तो हम दुबई जाने के लिए तैयार हो गए. यह भी एक अजीब इत्तिफाक था कि जिस दिन हमारी फ्लाइट थी, उसी दिन शहर में बम धमाके हो गए. इस में काफी लोगों की जानें चली गईं. ‘‘हम लोग दुबई तो पहुंच गए, लेकिन भारत से आने वाली हर खबर बड़ी संगीन थी. बम धमाकों के अपराधियों में तुम्हारे पापा का नाम भी आ रहा था.

‘‘तुम्हारे पापा को यह बात नामंजूर थी कि उन्हें कोई देशद्रोही या आतंकवादी समझे. उन्होंने किसी तरह भारत में रहने वाले अपने घरपरिवार और दोस्तों के जरीए पुलिस तक यह बात पहुंचाई कि वे बेकुसूर हैं और अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए भारत आना चाहते हैं. कुछ दिनों के बाद तुम्हारे पापा भारत आ गए. ‘‘फिर वही हुआ, जिस का डर था. पुलिस ने हाथ आए तुम्हारे बेगुनाह मासूम पापा को उन बम धमाकों का मास्टरमाइंड बना कर जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया.

‘‘पिछले 12 सालों से तुम्हारे पापा जेल में हैं,’’ इतना कह कर फिरदौस फूटफूट कर रोने लगीं.

मरियम ने किसी संजीदा शख्स की तरह पूछा, ‘‘क्या मैं अपने पापा से मिल सकती हूं?’’

‘‘हां बेटी, जरूर मिल सकती हो,’’ फिरदौस ने जवाब दिया, ‘‘मैं हर रविवार को तुम्हारे पापा से मिलने जेल जाती हूं. अब तुम भी मेरे साथ चल सकती हो.’’ 12 साल की बेटी जब सामने आई, तो शहजाद ने अपना चेहरा छिपा लिया. अपनी बेटी के सामने वे एक अपराधी की तरह जेल की सलाखों के पीछे खड़े हो कर जमीन में धंसे जा रहे थे.

‘‘पापा, क्या आप सचमुच अपराधी हैं?’’ मरियम के इस सवाल पर शहजाद घबरा गए.

‘‘बेटी, तुम्हारे पापा बेकुसूर हैं. उन्होंने कोई जुर्म नहीं किया है. बस, हालात ने जेल की सलाखों के पीछे ला कर खड़ा कर दिया है,’’ इतना कह कर शहजाद बेटी की तरफ देखने लगे.

‘‘पापा, आप निश्चिंत हो जाइए. चाहे सारी दुनिया आप को अपराधी समझे, पर बेटी की नजर में आप एक ईमानदार नागरिक और देशभक्त रहेंगे.’’ अब मरियम हर रविवार को अपने पापा से मिलने जेल जाने लगी. वह जब भी पापा से मिलने जाती, तो उन की पसंद की खाने की कोई न कोई चीज बना कर ले जाती और अपने हाथों से खिलाती. बापबेटी की इस मुलाकात को 10 साल और गुजर गए. 22 साल की मरियम अब स्कूल से निकल कर कालेज में जाने लगी थी.

पिछले 10 सालों से जेल का पूरा स्टाफ पिता और बेटी का मुहब्बत भरा मेलमिलाप बड़े शौक से देखता चला आ रहा था. शहजाद ने अपनी जिंदगी के 22 साल जेल में कुछ इस तरह बिता दिए कि दुश्मन भी दोस्त बन गए. अनपढ़ कैदियों को पढ़ाना, बीमार कैदियों की सेवा करना व जरूरतमंद कैदियों की मदद करने की आदत ने उन्हें जेल में मशहूर बना दिया था. कानून अंधा होता है, यह सिर्फ कहावत ही नहीं, बल्कि सच भी है. वह उतना ही देखता है, जितना उसे दिखाया जाता है. कानून के रखवालों ने शहजाद को एक आतंकवादी बना कर पेश किया था. उन के खिलाफ जो तानाबाना बुना गया, वह इतना मजबूत था कि इस अपराध से छुटकारा पाना उन के लिए नामुमकिन हो गया. वैसे भी जिस पर आतंकवाद का ठप्पा लग जाए, फिर उस की सुनता कौन है? शहजाद के साथ मुल्क के नामीगिरामी वकील थे, लेकिन सब मिल कर भी उन्हें बेगुनाह साबित करने में नाकाम रहे.

निचली अदालत से ले कर सुप्रीम कोर्ट तक ने मौत की सजा को बरकरार रखा. मरियम और फिरदौस की दया की अपील को राष्ट्रपति महोदय ने भी ठुकरा दिया. फांसी की तारीख तय हो गई. सुबह 4 बजे शहजाद को फांसी दी जानी थी. मरियम और फिरदौस के साथ जेल के कैदी भी उदास थे. फिरदौस और मरियम आखिरी दीदार के लिए शहजाद की कोठरी में भेजे गए. बेटी और बीवी को देख शहजाद की आंखों की वीरानी और बढ़ गई. मरियम ने बाप की हालत देख कर कहा, ‘‘पापा, आप की मौत का हम लोग जश्न मनाएंगे. लीजिए, आखिरी बार बेटी के हाथ की बनी खीर खा लीजिए.’’

शहजाद एक फीकी मुसकराहट के साथ करीब आए, तो मरियम ने अपने हाथों से उन्हें खीर खिलाई. 2 चम्मच खीर खाने के बाद ही शहजाद का चेहरा जर्द पड़ने लगा. मुंह से खून की उलटी शुरू हो गई. शहजाद को उलटी करते देख जहां फिरदौस घबरा गईं, वहीं मरियम ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘पापा, आप की बेगुनाही तो साबित न करा सकी, लेकिन आप को फांसी से बचा लिया.

‘‘अब दुनिया यह न कह सकेगी कि आतंकवाद के अपराध में शहजाद को फांसी पर लटका दिया गया. आप को इज्जत की जिंदगी तो न मिल सकी, पर हां, इज्जत की मौत जरूर मिल गई.’’ फिरदौस की चीख सुन कर जब तक पहरेदार शहजाद की खबर लेते, तभी मरियम ने भी जहरीली खीर के 2 चम्मच खा लिए. जेल की उस काल कोठरी में अब 2 लाशें पड़ी थीं. एक को अदालत ने आतंकवादी होने की उपाधि दी थी, तो दूसरी को समाज ने आतंकवादी की बेटी करार दिया था. दोनों ही समाज और दुनिया से अब आजाद हो चुके थे.

Father’s Day Special – बेटी के लिए : पिता की इच्छा का संसार

शिवचरण अग्रवाल बाजार से लौटते ही कुरसी पर पसर गए. मलीन चेहरा, शिथिल शरीर देख पत्नी माया ने घबरा कर माथा छुआ, ‘‘क्या हुआ… क्या तबीयत खराब लग रही है. भलेचंगे बाजार गए थे…अचानक से यों…’’

कुछ देर मौन रख वह बोले, ‘‘लौटते हुए अजय की दुकान पर उस का हालचाल पूछने चला गया था. वहां उस ने जो बताया उसे सुन कर मन खट्टा हो गया.’’

‘‘ऐसा क्या बता दिया अजय ने जो आप की यह हालत हो गई?’’ माया ने पंखा झलते हुए पूछा.

‘‘वह बता रहा था कि कुछ दिन पहले उस की दुकान पर समधीजी का एक रिश्तेदार आया था…उसे यह पता नहीं था कि अजय मेरा भांजा है. बातोंबातों में मेरा जिक्र आ गया तो वह कहने लगा, ‘अरे, उन्हें तो मैं जानता हूं…बड़े चालाक और घटिया किस्म के इनसान हैं… दरअसल, मेरे एक दूर के जीजाजी के घर उन की लड़की ब्याही है…जीजाजी बता रहे थे कि शादी में जो तय हुआ था उसे तो दबा ही लिया, साथ ही बाद में लड़की के गहनेकपडे़ भी दाब लेने की पूरी कोशिश की…क्या जमाना आ गया है लड़की वाले भी चालू हो गए…’ रिश्तेदारी का मामला था सो अजय कुछ नहीं बोला मगर वह बेहद दुखी था…उसे तो पता ही है कि मैं ने मीनू की शादी में कैसे दिल खोल कर खर्च किया है, जो कुछ तय था उस से बढ़चढ़ कर ही दिया, फिर भी मीनू के ससुर मेरे बारे में ऐसी बातें उड़ाते फिरते हैं… लानत है….’’

तभी उन की छोटी बेटी मधु कालिज से वापस आ गई. उन की उतरी सूरत देख उस का मूड खराब न हो अत: दोनों ने खुद को संयत कर किसी दूसरे काम में उलझा लिया.

आज का मामला कोई नया नहीं था. साल भर ही हुआ था मीनू की शादी को मगर आएदिन कुछ न कुछ फेरबदल के साथ ऐसे मामले दोहराए जाते पर शिवचरण चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे थे…इन हालात के लिए वह स्वयं को ही दोषी मानते थे.

आज शिवचरण की आंखों के सामने बारबार वह दृश्य घूम रहा था जब कपूर साहब ने उन से अपने बड़े बेटे के लिए मीनू का हाथ मांगा था.

रजत कपूर उन के नजदीकी दोस्त एवं पड़ोसी दीनदयाल गुप्ता के बिजनेस पार्टनर थे. बेहद सरल, सहृदय और जिंदादिल. दीनदयाल के घर शिवचरण की उन से आएदिन मुलाकातें होती रहीं. जैसे वह थे वैसा ही उन का परिवार था. 2 बेटों में बड़ा बेटा कंप्यूटर इंजीनियर था और छोटा एम.बी.ए. पूरा कर अपने पिता का बिजनेस में हाथ बंटा रहा था. एक ऐसा हंसताखेलता परिवार था जिस में अपनी लड़की दे कर कोई भी पिता अपनी जिंदगी को सफल मानता. ऐसे परिवार से खुद रिश्ता आया था मीनू के लिए.

कपूर साहब भी अपने बड़े बेटे के लिए देखेभाले परिवार की लड़की चाह रहे थे और उन की नजर मीनू पर जा पड़ी. उन्होंने बड़ी विनम्रता से निवेदन किया था, ‘शिवचरण भाईसाहब, बेटी जैसे अब तक आप के घर रह रही है वैसे ही आगे हमारे घर रहेगी. बस, तन के कपड़ों में विदा कर दीजिए, मेरे घर में बेटी नहीं है, उसे ही बेटी समझ कर दुलार करूंगा.’

इतना अपनापन से भरा निवेदन सुन कर शिवचरण गद्गद हो उठे थे. कितनी धुकधुक रहती है पिता के मन में जब वह अपनी प्यारी बेटी को पराए हाथों में सौंपता है. मन आशंकाओं से भरा रहता है. रातदिन यही चिंता लगी रहती है कि पता नहीं बेटी सुखी रहेगी या नहीं, मानसम्मान मिलेगा या नहीं…मगर इस आग्रह में सबकुछ कितना पारदर्शी… शीशे की तरह साफ था.

शिवचरण ने जब इस बात पर अपनी पत्नी के साथ बैठ कर विचार किया तो धीरेधीरे कुछ प्रश्न मुखरित हो उठे. मसलन, ‘परिवार और लड़का तो वाकई लाखों में एक है मगर… हम वैश्य और वह पंजाबी…घर वालों को कैसे राजी करेंगे…’

यह सचमुच एक गंभीर समस्या थी. शिवचरण का भरापूरा कुटुंब था जिस में इस रिश्ते का जिक्र करने का मतलब था सांप की पूंछ पर पैर रखना. वैसे तो सभी तथाकथित पढे़लिखे समकालीन भद्रजन थे मगर जब किसी के शादीब्याह की बात आती तो एकएक पुरातन रीतिरिवाज खोजखोज कर निकाले जाते. मसलन, जाति, गोत्र, जन्मपत्री, मांगलिक-अमांगलिक…और यहां तो बात विजातीय रिश्ते की थी.

बेटी के सुखद भविष्य के लिए शिवचरण ने तो एक बार सब को दरकिनार करने की सोच भी ली थी मगर माया नहीं मानी.

‘शादीब्याह के मसले पर घरपरिवार को साथ ले कर चलना ही पड़ता है. अगर अभी नजरअंदाज कर दिया तो सारी उम्र ताने सुनते रहेंगे…तुम्हें कोई कुछ न बोले मगर मैं तो घर की बड़ी बहू हूं. तुम्हारी अम्मां मुझे नहीं बख्शेंगी.’

और अम्मां से पूछने पर जो कुछ सुनने को मिला वह अप्रत्याशित नहीं था.

‘क्या हमारी बिरादरी में कोई अच्छा लड़का नहीं मिला जो दूसरी बिरादरी का देखने चल दिया.’

‘नहीं, अम्मां, खुद ही रिश्ता आया था. बेहद भले लोग हैं. कोई दानदहेज भी नहीं लेंगे.’

‘तो क्या पैसे बचाने को ब्याह रहा है वहां? तेरे पास न हों तो मुझ से ले लेना…अरे, बेटी के ब्याह पर तो खर्च होता ही है…और मीनू घर की बड़ी लड़की है, अगर उसे वहां ब्याह दिया तो सब यही समझेंगे कि लड़की तेज होगी, खुद से पसंद कर ब्याह कर बैठी. फिर छोटी को कहीं ब्याहना भी मुश्किल हो जाएगा.’

अम्मां ने तिवारीजी को भी बुलवा लिया. लंबा तिलक लगाए वह आए तो अम्मां ने खुद ही उन के पांव नहीं छुए, सब से छुआए. 4 कचौड़ी, 6 पूरी और 2 रसगुल्लों का नाश्ता करने के बाद समस्या पर विचार कर के वह बोले, ‘यजमान, यह आप की मरजी है कि आप विवाह कहां करें पर आप ने जाति के बाहर विवाह किया तो मैं आप के घर में पैर नहीं रखूंगा. आखिर सनातन प्रथा है यह जाति की. आप जैसे नए लोग तोड़ते हैं तभी तो तलाक होते हैं. न कुंडली मिली, न अपनी जाति का, न घर के रीतिरिवाज का पता. आप सोच भी कैसे सकते हैं.’

अम्मां और तिवारीजी के आगे शिवचरण के सभी तर्क विफल हो गए और उन्हें इस रिश्ते को भारी मन से मना करना पड़ा. दीनदयाल ने यह बात विफल होती देख वहां अपनी भतीजी की बात चला दी और आज वह कपूर साहब के घर बेहद सुखी थी.

जब शिवचरण मीनू के लिए सजातीय वर खोजने निकले तो उन्हें एहसास हुआ कि दूल्हामंडी में से एक अदद दूल्हा खरीदना कितना कठिन कार्य था. जो लड़का अच्छा लगता उस के दाम आसमान को छूते और जिस का दाम कम था वह मीनू के लायक नहीं था. कपूर साहब के रिश्ते पर चर्चा के समय जिन सगेसंबंधियों ने मीनू के लिए सुयोग्य वर खोज लाने और हर तरह का सहयोग देने की बात की थी इस

समय वे सभी पल्ला झाड़ कहीं गायब हो गए थे.

भागदौड़ कर के अंत में एक जगह बात पक्की हुई. रिश्ता तय होते समय लड़के के मातापिता का रवैया ऐसा था जैसे लड़की पसंद कर उन्होंने लड़की वालों पर एहसान किया है. उस समय शिवचरण को कपूर साहब का नम्र निवेदन बहुत याद आ रहा था. उस दिन जो उन के कंधे झुके तो आज तक सीधे नहीं हुए थे.

अतीत की यादों में खोए शिवचरण को तब झटका लगा जब पत्नी ने आ कर कहा कि दीनदयाल भाई साहब आए थे और आप के लिए एक निमंत्रण कार्ड दे गए हैं.

उस दिन दीनदयाल के घर एक पारिवारिक समारोह में शिवचरण की मुलाकात उन के बड़े भाई से हो गई जो अब कपूर साहब के समधी थे. उन की बात चलने पर वह गद्गद हो कर बोले, ‘‘बस, क्या कहें, हमारी बिटिया को तो बहुत अच्छा घरवर मिल गया. ऐसे सज्जन लोग कहां मिलते हैं आजकल…उसे हाथों पर उठा कर रखते हैं…बेटी ससुराल में खुश हो, एक बाप को और क्या चाहिए भला…’’ शिवचरण के चेहरे पर एक दर्द भरी मुसकान तैर आई.

घर आ कर मन और अधिक अपराधबोध से ग्रसित हो गया. वह खुद पर बेहद नाराज थे. बारबार स्वयं को कोस रहे थे कि क्यों मैं उस समय जातिवाद की ओछी मानसिकता से उबर नहीं पाया…क्यों सगेसंबंधियों और बिरादरी की कहावत से डर गया…अपनी बेटी का भला देखना मेरी अपनी जिम्मेदारी थी, बिरादरी की नहीं. दीनदयाल भी तो हमारी जाति के ही हैं. उन्हें तो कोई फर्क नहीं पड़ा वहां रिश्ता करने से…उन का मानसम्मान उसी तरह बरकरार है…सच तो यह है कि आज के भागदौड़ भरे जीवन में किसी के पास इतना समय नहीं कि रुक कर किसी दूसरे के बारे में सोचे…‘लोग क्या कहेंगे’ जैसी बातें पुरानी हो चुकी हैं. जो इन्हें छोड़ आगे नहीं बढ़ते, आगे चल कर वे मेरी ही तरह रोते हैं.

शिवचरण अखबार पढ़ रहे थे तभी दीनदयाल उन से मिलने आए तो बातोंबातों में वह अपनी व्यथा कह बैठे, ‘‘क्या बताऊं भाईजी, कपूर साहब जैसा समधी खोने का दर्द अभी तक दिल में है…एक विचार आया है मन में…अगर उन के छोटे बेटे के लिए मधु का रिश्ता ले कर जाऊं तो…जब वह आए थे तो मैं ने इनकार कर दिया था, न जाने अब मेरे जाने पर कैसा बरताव करेंगे, यही सोच कर दिल घबरा रहा है.’’

‘‘नहीं, भाई साहब, उन्हें मैं अच्छी तरह जानता हूं, दिल में किसी के लिए मैल नहीं रखते…वह तो खुशीखुशी आप का रिश्ता स्वीकारते मगर आप ने यह फैसला लेने में जरा सी देर कर दी. अभी 2 दिन पहले ही उन के छोटे बेटे का रिश्ता तय हुआ है.’’

एक बार फिर शिवचरण खुद को पराजित महसूस कर रहे थे.

वह अपनी गलती का प्रायश्चित्त करना चाह रहे थे मगर उन्हें मौका न मिला. सच ही है, कुछ भूलें ऐसी होती हैं जिन को भुगतना ही पड़ता है.

‘‘फोन की घंटी बज रही थी. शिवचरण ने फोन उठाया, ‘‘हैलो.’’

‘‘नमस्ते, मामाजी,’’ दूसरी ओर से अजय की आवाज आई, ‘‘वह जो आप ने मधु के लिए वैवाहिक विज्ञापन देने को कहा था, उसी का मैटर कनफर्म करने को फोन किया है…पढ़ता हूं…कोई सुधार करना हो तो बताइए :

‘‘अग्रवाल, उच्च शिक्षित, 23, 5 फुट 4 इंच, गृहकार्य दक्ष, संस्कारी कन्या हेतु सजातीय वर चाहिए.’’

‘‘बाकी सब ठीक है, अजय. बस, ‘अग्रवाल’ लिखना जरूरी नहीं और ‘सजातीय’ शब्द की जगह लिखो, ‘जातिधर्म बंधन नहीं.’’’

‘‘मगर मामाजी, क्या आप ने सगेसंबंधियों से इस बारे में…’’

‘‘सगेसंबंधी जाएं भाड़ में….’’ शिवचरण फोन पर चीख पडे़.

‘‘और मामीजी…’’

‘‘तेरी मामी जाए चूल्हे में…अब मैं वही करूंगा जो मेरी बेटी के लिए सही होगा.’’

शिवचरण ने फोन रख दिया…फोन रख कर उन्हें लगा जैसे आज वह खुल कर सांस ले पा रहे हैं और अपने चारों तरफ लिपटे धूल भरे मकड़जाल को उन्होंने उतार फेंक

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