प्रायश्चित्त: भाग 3

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लेखिका- किरण डी. कुमार

अब सुशांत बारबार घर जाने की जिद करने लगा. हालांकि उस जैसे मरीज की अस्पताल में ही अच्छी देखभाल हो सकती थी पर पति की इच्छा को देखते हुए नलिनी ने सब को आश्वासन दिया कि वह घर में सुशांत की देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ेगी बल्कि घर के माहौल में सुशांत जल्दी ठीक हो जाएगा. अंत में डाक्टरों ने उसे घर ले जाने की इजाजत दे दी.

घर पर सुशांत की देखरेख का सारा जिम्मा नलिनी के सिर पर डाल कर भानुमति बेन तो मुक्त हो गईं. घर पर ही फिजियोेथेरैपी चिकित्सा देने के लिए एक डाक्टर आते.

सुशांत की नौकरी तो छूट गई थी. दोनों भाइयों का कारोबार अच्छा चल रहा था. सुशांत और नलिनी का खर्च भी उन्हें ही वहन करना पड़ रहा था. प्रत्यक्षत: तो कोई कुछ न कहता, पर घर के ऊपरी काम करने के लिए जो महरी आती थी, उसे निकाल दिया गया था. सुशांत को नहलानेधुलाने, खिलानेपिलाने के बाद जो वक्त बचता था, वह नलिनी कपड़े धोने, बर्तन साफ करने, झाडूपोंछा करने और रसोई का काम करने में बिता देती. वह बेचारी दिन भर घर के कामों में लगी रहती.

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मैं कभी उन के घर बैठने जाती तो मुझे नलिनी को देख कर तरस आता कि किस तरह यह समय की मार झेल रही है. दिनभर घर के कामों के साथ अपाहिज पति की देखभाल करती है पर चेहरे पर जरा भी शिकन नहीं आती. मैं कभी आंटीजी से कहती तो वह खीज उठतीं, ‘इस के कर्मों का फल तो सुशांत भुगत रहा है. उस की सेवा कर के यह अपने पूर्व जन्म के पापों का प्रायश्चित्त ही कर रही है,’ मुझे उन की बातों का बुरा जरूर लगता पर मैं सोचती कि सुशांत वक्त के साथ ठीक होगा तो सब के मुंह अपनेआप बंद हो जाएंगे.

फिजियोथेरैपिस्ट और नलिनी की अथक मेहनत से सुशांत अब उठताबैठता, बैसाखी की मदद से चलता. अपने तमाम छोटेमोटे काम वह खुद ही करता. अब नलिनी उसे जयपुर फुट लगवाने की सलाह देने लगी. जब जयपुर फुट की मदद से सुशांत चलने का प्रयास करने लगा तो नलिनी को तो मानो सारे जहान की खुशियां  मिल गईं.

एक दिन मैं दोपहर के खाली समय में बैठी कोई पत्रिका पढ़ रही थी कि किसी ने दरवाजा खट- खटाया. दरवाजा खोलने पर सामने नलिनी को देख कर मैं खुश हो गई और बोली, ‘आओ, नलिनी, कितने दिनों बाद तुम घर से बाहर निकली हो. मैं कल आशुतोष से तुम्हारी ही बात कर रही थी. किस तरह तुम ने विपरीत परिस्थितियों में हार न मानी. मौत के मुंह से अपने पति को बाहर ले आईं. सच, सारे विश्व में एक हिंदुस्तानी नारी इसलिए ही पतिव्रता मानी जाती होगी.’

‘बस, दीदी, अब मेरी तारीफ करना छोडि़ए, मैं आप को यह बताने आई थी कि सुशांत ने फिर से नौकरी कर ली है. भूकंप में दुर्घटनाग्रस्त होने के पहले सुशांत जिस प्रेस में काम करते थे, उस के मालिक ने उन को फिर से काम पर बुलाया है. सुशांत को पहले भी घर के व्यापार में दिलचस्पी नहीं थी. प्रेस का प्रिय काम पा कर वह खुश हैं.’

‘यह तो बहुत अच्छी बात है, नलिनी…2-3 साल बहुत कष्ट सह लिए तुम ने, अब जल्दी से सुशांत को वह प्यारा तोहफा देने की तैयारी करो जिस के आने से जीवन में बहार आ जाती है. वैसे भी सुशांत को बच्चे बहुत पसंद हैं.’

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मेरे यह कहते ही नलिनी की आंखों में आंसू भर आए, ‘दीदी, पति के जिस प्यार को पाने के लिए मैं ने इतने कष्ट सहे, वह तो आज तक मेरे हिस्से में नहीं आया. सुशांत काफी समय से मुझ से कटेकटे रहते थे. पहले तो मैं समझती थी कि दुर्घटना के कारण उन में बदलाव आया होगा. पर आजकल मुझ से बात करना तो दूर वह मेरी तरफ देखते तक नहीं हैं.

‘कल रात को मैं ने जब उन से इस बेरुखी की वजह पूछी तो वह मुझ पर बिफर उठे कि क्या बात करूं, मैं तुम से? अरे, तुम से शादी कर के तो अब मैं पछता रहा हूं. कैसी मनहूस पत्नी हो तुम? तुम्हारे मांगलिक होने के कारण मेरी तो जान ही जाने वाली थी. वह तो जोशी बाबा की पूजा, अम्मां की मन्नतें, घर वालों का प्यार ही था, जो मैं बच गया.

‘मुझे तो अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ. पहली बार पता चला कि सुशांत के दिल में मेरे लिए इतना जहर भरा है. मैं ने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की. मैं ने यह भी कहा कि आप तो जन्मकुंडली मांगलिक अमांगलिक यह सब नहीं मानते थे.

‘मेरी बात सुनते ही सुशांत गुस्से में भड़क गए थे कि उसी का तो अंजाम भुगत रहा हूं. अम्मां और पिताजी तो तुम से शादी करने के पक्ष में ही नहीं थे. काश, उस वक्त मैं ने उन का और जोशी बाबा का कहा माना होता तो कम से कम मेरी जान पर तो न बन आती.

‘आप यह क्या कह रहे हैं? 2 साल मैं ने कितने जी जान से आप की सेवा की, इस उम्मीद में कि हम आप के ठीक होने के बाद, अपने प्यार की दुनिया बसाएंगे. अब आप ठीक हो गए तो अंधविश्वास को आधार बना कर मुझ से इतनी नफरत कर रहे हैं? मैं सबकुछ सह सकती हूं, पर आप की नफरत नहीं सह सकती.

‘वह बोले कि नहीं सह सकतीं तो चली जाओ अपने बाप के घर, रोका किस ने है? तुम से जितनी जल्दी पीछा छूटे, उसी में मेरी बेहतरी है और ऐसी क्या सेवा की है तुम ने? जो तुम ने किया है वह तो चंद पैसों के बदले कोई नर्स भी तुम से बेहतर कर सकती थी. यह कह सुशांत बिना कुछ खाए ही काम पर चले गए.’

इतना बता कर नलिनी फूटफूट कर रो पड़ी.

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धुंध: भाग 2

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‘‘उस के बारे में क्या कहूं, बेटी. नरेश कभी हमारे महल्ले का हीरा था. आज वह क्या से क्या हो गया है. महल्ले वाले उस की चीखपुकार और गालियों से परेशान हो गए हैं. किसी दिन मारमार कर उस की हड्डीपसली तोड़ देंगे. किसी तरह मैं ने लोगों को रोक रखा है. बात यही नहीं है, बेटी, इस से भी गंभीर है. नरेश ने घर किशोरी महाजन के पास गिरवी रख दिया है,’’ रामप्रसाद उदास स्वर में बोले.

‘‘क्या?’’ अर्चना एकाएक चीख उठी.

मां सूखे पत्ते के समान कांपने लगीं.

‘‘ताऊजी, फिर तो हम कहीं के न रह जाएंगे,’’ अर्चना ने उन की ओर देखा.

‘‘मैं भी बहुत चिंता में हूं. वैसे किशोरी महाजन आदमी बुरा नहीं है. आज मेरे घर आ कर उस ने सारी बात बताई है. कह रहा था कि वह सूद छोड़ देगा. मूल के 25 हजार उसे मिल जाएं तो मकान के कागज वह तुम्हें सौंप देगा.’’

अर्चना की आंखें हैरत से फैल गईं, ‘‘25 हजार?’’

‘‘बहू को तो तुम्हारे दादा ने दिल खोल कर जेवर चढ़ाया था. संकट के समय उन को बचा कर क्या करोगी?’’ ताऊजी ने धीरे से कहा. दुख में भी मनुष्य को कभीकभी हंसी आ जाती है. अर्चना भी हंस पड़ी, ‘‘आप क्या समझते हैं, जेवर अभी तक बचे हुए हैं. शराब की भेंट सब से पहले जेवर ही चढ़े थे, ताऊजी.’’

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‘‘तब कुछ…और?’’

‘‘हमारे घर की सही दशा आप को नहीं मालूम. सबकुछ शराब की अग्नि में भस्म हो चुका है. घर में कुछ भी नहीं बचा है,’’ अर्चना दुखी स्वर में बोली, ‘‘लेकिन ताऊजी, एकसाथ इतनी रकम की जरूरत पिताजी को क्यों आ पड़ी?’’

‘‘शराब के साथसाथ नरेश जुआ भी खेलता है. और मैं क्या बताऊं. देखो, कोशिश करता हूं…शायद कुछ…’’ रामप्रसाद उठ खड़े हुए.

‘‘मुझे मौत क्यों नहीं आती?’’ मां हिचकियां लेले कर रोने लगीं.

‘‘उस से क्या समस्या सुलझ जाएगी?’’

‘‘अब क्या होगा? कहां जाएंगे हम?’’

‘‘कुछ न कुछ तो होगा ही, तुम चिंता न करो,’’ अर्चना ने मां को सांत्वना देते हुए कहा.

कार्यालय में अचानक सरला दीदी अर्चना के पास आ खड़ी हुईं.

‘‘क्या सोच रही हो?’’ वह अर्चना से बहुत स्नेह करती थीं. अकेली थीं और कामकाजी महिलावास में ही रहती थीं.

‘‘मैं बहुत परेशान हूं, दीदी. कैंटीन में चलोगी?’’

‘‘चलो.’’

‘‘आप के कामकाजी महिलावास में जगह मिल जाएगी?’’ अर्चना ने चाय का घूंट भरते हुए पूछा.

‘‘तुम रहोगी?’’

‘‘आशा भी रहेगी मेरे साथ.’’

‘‘फिर तुम्हारी मां का क्या होगा?’’

‘‘मां नानी के पास आश्रम में जा कर रहना चाहती हैं.’’

‘‘फिर…घर?’’

‘‘घर अब है कहां? पिताजी ने 25 हजार में गिरवी रख दिया है. जल्दी ही छोड़ना पड़ेगा.’’

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‘‘शराब की बुराई को सब देख रहे हैं. फिर भी लोगों की इस के प्रति आसक्ति बढ़ती जा रही है,’’ सरला दीदी की आंखें भर आई थीं, ‘‘अर्चना, तुम को आज तक नहीं बताया, लेकिन आज बता रही हूं. मेरा भी एक घर था. एक फूल सी बच्ची थी…’’

‘‘फिर?’’

‘‘इसी शराब की लत लग गई थी मेरे पति को. नशे में धुत एक दिन उस ने बच्ची को पटक कर मार डाला. शराब ने उसे पशु से भी बदतर बना दिया था.’’

‘‘फिर क्या हुआ?’’

‘‘मैं सीधे पुलिस चौकी गई. पति को गिरफ्तार करवाया, सजा दिलवाई और नौकरी करने यहां चली आई.’’

‘‘हमारा भी घर टूट गया है, दीदी. अब कभी नहीं जुड़ेगा,’’ अर्चना की रुलाई फूट पड़ी.

‘‘समस्या का सामना तो करना ही पड़ेगा. अब यह बताओ कि प्रशांत से और कितने दिन प्रतीक्षा करवाओगी?’’

अर्चना ने सिर झुका लिया, ‘‘अब आप ही सोचिए, इस दशा में मैं…जब तक आशा की कहीं व्यवस्था न कर लूं…’’

‘‘तुम्हारा मतलब है, कोई अच्छी नौकरी या विवाह?’’

‘‘हां, मैं यही सोच रही हूं.’’

ऐसा होगा, यह अर्चना ने नहीं सोचा था. शीघ्र ही बहुत बड़ा परिवर्तन हो गया था उस के घर में. मां की मृत्यु हो गई थी. वह आशा को ले कर सरला दीदी के कामकाजी महिलावास में चली गई थी. अब समस्या यह थी कि वह क्या करे? आशा का भार उस पर था. उधर प्रशांत को विवाह की जल्दी थी.

एक दिन सरला दीदी समझाने लगीं, ‘‘तुम विवाह कर लो, अर्चना. देखो, कहीं ऐसा न हो कि प्रशांत तुम्हें गलत समझ बैठे.’’

‘‘पर दीदी, आप ही बताइए कि मैं कैसे…’’

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‘‘देखो, प्रशांत बड़े उदार विचारों वाला है. तुम खुल कर उस से अपनी समस्या पर बात करो. अगर आशा को वह बोझ समझे तो फिर मैं तो हूं ही. तुम अपना घर बसा लो, आशा की जिम्मेदारी मैं ले लूंगी. मेरा अपना घर उजड़ गया, अब किसी का घर बसते देखती हूं तो बड़ा अच्छा लगता है,’’ सरला दीदी ने ठंडी सांस भरी.

‘‘कितनी देर से खड़ा हूं,’’ हंसते हुए प्रशांत ने कहा.

‘‘आशा को कामकाजी महिलावास पहुंचा कर आई हूं,’’ अर्चना ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘चलो, चाय पीते हैं.’’

‘‘आशा तो सरला दीदी की देखरेख में ठीक से है. अब तुम मेरे बारे में भी कुछ सोचो.’’

अर्चना झिझकते हुए बोली, ‘‘प्रशांत, मैं कह रही थी कि…तुम थोड़ी प्रतीक्षा और…’’

लेकिन प्रशांत ने बीच में ही टोक दिया, ‘‘नहीं भई, अब और प्रतीक्षा मैं नहीं कर सकता. आओ, पार्क में बैठें.’’

‘‘बात यह है कि मेरे वेतन का आधा हिस्सा तो आशा को चला जाएगा.’’

‘‘यह तुम क्या कह रही हो, क्या मुझे इतना लोभी समझ रखा है,’’ प्रशांत ने रोष भरे स्वर में कहा.

‘‘नहींनहीं, मैं ऐसा नहीं सोचती. पर विवाह से पहले सबकुछ स्पष्ट कर लेना उचित है, जिस से आगे चल कर ये छोटीछोटी बातें दांपत्य जीवन में कटुता न घोल दें,’’ अर्चना ने प्रशांत की आंखों में झांका.

‘‘तुम्हारे अंदर छिपा यह बचपना मुझे बहुत अच्छा लगता है. देखो, आशा के लिए चिंता न करो, वह मेरी भी बहन है. चाहो तो उसे अपने साथ भी रख सकती हो.’’

सुनते ही अर्चना का मन हलका हो गया. वह कृतज्ञताभरी नजरों से प्रशांत को निहारने लगी.

प्रशांत के मातापिता दूर रहते थे, इसलिए कचहरी में विवाह होना तय हुआ. प्रशांत का विचार था कि दोनों बाद में मातापिता से आशीर्वाद ले आएंगे.

रविवार को खरीदारी करने के बाद दोनों एक होटल में जा बैठे.

‘‘तुम बैठो, मैं आर्डर दे कर अभी आया.’’

अर्चना यथास्थान बैठी होटल में आनेजाने वालों को निहारे जा रही थी.

‘‘मैं अपने मनपसंद खाने का आर्डर दे आया हूं. एकदम शाही खाना.’’

‘‘अब थोड़ा हाथ रोक कर खर्च करना सीखो,’’ अर्चना ने मुसकराते हुए डांटा.

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‘‘अच्छाअच्छा, बड़ी बी.’’

बैरे ने ट्रे रखी तो देखते ही अर्चना एकाएक प्रस्तर प्रतिमा बन गई. उस की सांस जैसे गले में अटक गई थी, ‘‘तुम… शराब पीते हो?’’

प्रशांत खुल कर हंसा, ‘‘रोज नहीं भई, कभीकभी. आज बहुत थक गया हूं, इसलिए…’’

अर्चना झटके से उठ खड़ी हुई.

‘‘अर्चना, तुम्हें क्या हो गया है? बैठो तो सही,’’ प्रशांत ने उसे कंधे से पकड़ कर झिंझोड़ा.

परंतु अर्चना बैठती कैसे. एक भयानक काली परछाईं उस की ओर अपने पंजे बढ़ाए चली आ रही थी. उस की आंखों के समक्ष सबकुछ धुंधला सा होने लगा था. कुछ स्मृति चित्र तेजी से उस की नजरों के सामने से गुजर रहे थे- ‘मां पिट रही है. दोनों बहनें पिट रही हैं. घर के बरतन टूट रहे हैं. घर भर में शराब की उलटी की दुर्गंध फैली हुई है. गालियां और चीखपुकार सुन कर पड़ोसी झांक कर तमाशा देख रहे हैं. भय, आतंक और भूख से दोनों बहनें थरथर कांप रही हैं.’

अर्चना अपने जीवन में वह नाटक फिर नहीं देखना चाहती थी, कभी नहीं.

जिंदगी के शेष उजाले को आंचल में समेट कर अर्चना ने दौड़ना आरंभ किया. मेज पर रखा सामान बिखर गया. होटल के लोग अवाक् से उसे देखने लगे. परंतु वह उस भयानक छाया से बहुत दूर भाग जाना चाहती थी, जो उस के पीछेपीछे चीखते हुए दौड़ी आ रही थी.

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प्रायश्चित्त: भाग 2

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लेखिका- किरण डी. कुमार

जेठानियां तो पहले से ही नलिनी से मन ही मन जलती थीं, पर भानुमति बेन को भी जेठानियों के सुर में बोलते हुए देख कर मुझे बड़ी हैरत हुई. वह बोलीं, ‘सुशांत नलिनी को अपनी पसंद से ब्याह कर लाया था. शादी से पहले दोनों की कुंडलियां मिलाई गईं तो पाया गया कि नलिनी मांगलिक है. हम ने सुशांत को बहुत समझाया कि नलिनी से विवाह कर के उस का कोई हित न होगा.

पर वह अपनी जिद पर अड़ा रहा कि अगर विवाह करेगा तो केवल नलिनी से वरना किसी से नहीं. अंत में हम ने बेटे की जिद के आगे हार मान ली. 2 साल तक नलिनी की गोद नहीं भरी. पर बाकी सब ठीक था. अब तो सुशांत शारीरिक रूप से अपंग हो गया है. वह कोमा से बाहर आएगा, इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है. यह तो पति के लिए अपने साथ दुर्भाग्य ले कर आई है. जोशी बाबा भी यही कह गए हैं.’

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भानुमति बेन के घर में एक जोशी बाबा हर दूसरेतीसरे दिन चक्कर लगाते थे. उन के आते ही सारा घर उन के चारों ओर घूमने लगता. वह किसी की कुंडली देखते, किसी का हाथ. जोशी बाबा का कई परिवारों से संबंध था इसलिए उस के माध्यम से बहुत से सौदे हो जाते थे. जिसे जोशी बाबा ऊपर वाले की कृपा कहने पर अपनी दक्षिणा जरूर वसूलते थे.

नलिनी उन से सदा कतराती थी क्योंकि वह उसे सदा तीखी निगाहों से घूरते थे. दोनों जेठानियों को आशीर्वाद देते समय उन का हाथ कहीं भी फिसल जाए, वे उसे धन्यभाग समझती थीं पर नलिनी ने पहली ही बार में उन की नीयत भांप ली थी. वह हमेशा कटीकटी रहती थी. अब जोशी बाबा हर सुबह पंचामृत ले कर आते थे और डाक्टरों के विरोध के बावजूद एक बूंद सुशांत के मुंह में डाल ही जाते थे.

‘पर आंटीजी, भूकंप में तो जितने आदमियों की जानें गईं, क्या उन सब की बीवियां मांगलिक थीं? फिर अंकल भी तो नहीं रहे, क्या आप की कुंडली में कुछ दोष था? सुशांत फिर से पूर्ववत हो जाएगा, कम से कम मेरा दिल तो यही कहता है,’ मैं ने कहा.

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‘बेटी, अंकल के साथ मेरे विवाह को 40 वर्ष से ऊपर हो चुके थे. मेरा और तुम्हारे अंकल का इतना लंबा साथ भी तो रहा है. औरोें के घरों का तो मैं नहीं जानती, पर नलिनी के ग्रह सुशांत पर जरूर भारी पड़े हैं.’

भानुमति बेन को अपनी बातों पर अड़ा जान कर मैं चुप हो गई.

भूकंप की तबाही को 8 महीने बीत चुके थे. एक दिन मेरा बेटा रिंकू बाहर से दौड़ते हुए घर में आया और कहने लगा, ‘मम्मी, सुशांत अंकल को होश आया है. उन के घर के सभी लोग अस्पताल गए हैं.’

रिंकू की बातें सुन कर मैं भी जाने के लिए निकली ही थी कि आशुतोष ने मुझे रोका, ‘पहले, उस के घर वालों को तो मिल लेने दो. कितने अरसे से तरस रहे थे कि सुशांत को होश आ जाए. जब सभी मिल लें, फिर कलपरसों जाना,’ मुझे आशुतोष की बात ठीक लगी.

2 दिन बाद जब मैं अस्पताल पहुंची तो माहौल खुशी का न था. बाकी सब पहले से ज्यादा गमगीन थे. सुशांत होश में तो आया था और घर के सभी लोगों को पहचान भी रहा था पर वह सामान्य रूप से बात करने में और हाथपैर हिलाने में असमर्थ था. उस की देखरेख गुजरात के जानेमाने न्यूरोलोजिस्ट डा. नवीन देसाई कर रहे थे. उन्होंने स्पष्ट रूप से कह दिया था कि सिर पर लगी गंभीर चोट के कारण सुशांत धीरेधीरे ही सामान्य हो पाएगा.

नलिनी मुझे देखते ही मेरी ओर लपकी और बोली, ‘दीदी, आप ने जो कहा था अब सच हो गया है. सुशांत ठीक हो रहे हैं.’

‘देखना, सुशांत धीरेधीरे पूरी तरह ठीक हो जाएगा,’ मैं ने उत्तर दिया.

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सुशांत के होश में आने से नलिनी का हौसला बुलंद हो गया था. अस्पताल में नर्सों के होते हुए भी उस ने अपनी खुशी से पति की देखरेख का जिम्मा अपने ऊपर ले लिया. वह हर रोज उस की दाढ़ी बनाती, कपड़े बदलती. घर के बाकी सदस्य हर दूसरेतीसरे दिन अस्पताल आते और 5-10 मिनट सुशांत का हालचाल पूछने की खानापूर्ति कर के चले जाते.

करीब 2 महीने बाद सुशांत स्पष्ट रूप से बात करने लगा. हिलनेडुलने की आत्मनिर्भरता अब तक उस में नहीं आई थी, लेकिन उसे कुदरती तौर पर ही पता चल गया था कि उस की दाईं टांग घुटने तक आधी काट दी गई थी.

हुआ यों कि एक दिन वह कहने लगा, ‘नलिनी, मुझे ऐसा क्यों लग रहा है, कि मैं दाएं पैर की उंगलियों को हिला नहीं पा रहा हूं, जरा चादर तो उठाओ, मैं अपना पैर देखना चाहता हूं,’ बेचारी नलिनी क्या जवाब देती, वह सुशांत के आग्रह को टाल गई, तो सुशांत ने पास से गुजरती एक नर्स से अनुरोध कर के चादर हटाई तो अपने कटे हुए पैर को देख कर हतप्रभ रह गया.

उस की आंखों से बहते आंसुओं को पोंछ कर नलिनी ने उस का हाथ अपने हाथों में ले लिया. डा. देसाई ने सुशांत को समझाया कि किन हालात में उन्हें उस का पैर काटने का निर्णय लेना पड़ा. सुशांत ने ऐसी चुप्पी साध ली कि किसी से बात न करता. मैं ने नलिनी को समझाया, ‘तुम्हीं को धैर्य से काम लेना होगा. वह बच गया. 8 महीने कोमा में रहने के बाद होश में आया है…क्या इतना कम है. अभी तो उसे अपने पिता की मौत का सदमा भी बरदाश्त करना है. तुम्हें हर हाल में उस का साथ निभाना है.’

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जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

धुंध: भाग 1

घर के अंदर पैर रखते ही अर्चना समझ गई थी कि आज फिर कुछ हंगामा हुआ है. घर में कुछ न कुछ होता ही रहता था, इसलिए वह विचलित नहीं हुई. शांत भाव से उस ने दुपट्टे से मुंह पोंछा और कमरे में आई.

नित्य की भांति मां आंखें बंद कर के लेटी थीं. 15 वर्षीय आशा मुरझाए मुख को ले कर उस के सिरहाने खड़ी थी. छत पर पंखा घूम रहा था, फिर भी बरसात का मौसम होने के कारण उमसभरी गरमी थी. उस पर कमरे की एकमात्र खिड़की बंद होने से अर्चना को घुटन होने लगी. उस ने आशा से पूछा, ‘‘यह खिड़की बंद क्यों है? खोल दे.’’

आशा ने खिड़की खोल दी.

अर्चना मां के पलंग पर बैठ गई, ‘‘कैसी हो, मां?’’

मां की आंखों में आंसू डबडबा आए. वह भरे गले से बोलीं, ‘‘मौत क्या मेरे घर का रास्ता नहीं पहचानती?’’

‘‘मां, हमेशा ऐसी बातें क्यों करती रहती हो,’’ अर्चना ने मां के माथे पर हाथ रख दिया.

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‘‘तुम्हारे लिए बोझ ही तो हूं,’’ मां के आंसू गालों पर ढुलक आए.

‘‘मां, ऐसा क्यों सोचती हो. तुम तो हम दोनों के लिए सुरक्षा हो.’’

‘‘पर बेटी, अब और नहीं सहन होता.’’

‘‘क्या आज भी कुछ हुआ है?’’

‘‘वही पुरानी बात. महीने का आखिर है…जब तक तनख्वाह न मिले, कुछ न कुछ तो होता ही रहता है.’’

‘‘आज क्या हुआ?’’ अर्चना ने भयमिश्रित उत्सुकता से पूछा.

‘‘आराम कर तू, थक कर आई है.’’

अर्चना का मन करता था कि यहां से भाग जाए, पर साहस नहीं होता था. उस के वेतन में परिवार का भरणपोषण संभव नहीं था. ऊपर से मां की दवा इत्यादि में काफी खर्चा हो जाता था.

आशा के हाथ से चाय का प्याला ले कर अर्चना ने पूछा, ‘‘मां की दवा ले आई है न?’’

आशा ने इनकार में सिर हिलाया.

अर्चना के माथे पर बल पड़ गए, ‘‘क्यों?’’

आशा ने अपना माथा दिखाया, जिस पर गूमड़ निकल आया था. फिर धीरे से बोली, ‘‘पिताजी ने पैसे छीन लिए.’’

‘‘तो आज यह बात हुई है?’’

‘‘अब तो सहन नहीं होता. इस सत्यानासी शराब ने मेरे हंसतेखेलते परिवार को आग की भट्ठी में झोंक दिया है.’’

‘‘तुम्हारे दवा के पैसे शराब पीने के लिए छीन ले गए.’’

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‘‘आशा ने पैसे नहीं दिए तो वह चीखचीख कर गंदी गालियां देने लगे. फिर बेचारी का सिर दीवार में दे मारा.’’

क्रोध से अर्चना की आंखें जलने लगीं, ‘‘हालात सीमा से बाहर होते जा रहे हैं. अब तो कुछ करना ही पड़ेगा.’’

‘‘कुछ नहीं हो सकता, बेटी,’’ मां ने भरे गले से कहा, ‘‘थकी होगी, चाय पी ले.’’

अर्चना ने प्याला उठाया.

मां कुछ क्षण उस की ओर देखने के बाद बोलीं, ‘‘मैं एक बात सोच रही थी… अगर तू माने तो…’’

‘‘कैसी बात, मां?’’

‘‘देख, मैं तो ठीक होने वाली नहीं हूं. आज नहीं तो कल दम तोड़ना ही है. तू आशा को ले कर कामकाजी महिलावास में चली जा.’’

‘‘और तुम? मां, तुम तो पागल हो गई हो. तुम्हें इस अवस्था में यहां छोड़ कर हम कामकाजी महिलावास में चली जाएं. ऐसा सोचना भी नहीं.’’

रात को दोनों बहनें मां के कमरे में ही सोती थीं. कोने वाला कमरा पिता का था. पिता आधी रात को लौटते. कभी खाते, कभी नहीं खाते.

9 बजे सारा काम निबटा कर दोनों बहनें लेट गईं.

‘‘मां, आज बुखार नहीं आया. लगता है, दवा ने काम किया है.’’

‘‘अब और जीने की इच्छा नहीं है, बेटी. तुम दोनों के लिए मैं कुछ भी नहीं कर पाई.’’

‘‘ऐसा क्यों सोचती हो, मां. तुम्हारे प्यार से कितनी शांति मिलती है हम दोनों को.’’

‘‘बेटी, विवाह करने से पहले बस, यही देखना कि लड़का शराब न पीता हो.’’

‘‘मां, पिताजी भी तो पहले नहीं पीते थे.’’

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‘‘वे दिन याद करती हूं तो आंसू नहीं रोक पाती,’’ मां ने गहरी सांस ली, ‘‘कितनी शांति थी तब घर में. आशा तो तेरे 8 वर्ष बाद हुई है. उस को होश आतेआते तो सुख के दिन खो ही गए. पर तुझे तो सब याद होगा?’’

मां के साथसाथ अर्चना भी अतीत में डूब गई. हां, उसे तो सब याद है. 12 वर्ष की आयु तक घर में कितनी संपन्नता थी. सुखी, स्वस्थ मां का चेहरा हर समय ममता से सराबोर रहता था. पिताजी समय पर दफ्तर से लौटते हुए हर रोज फल, मिठाई वगैरह जरूर लाते थे. रात खाने की मेज पर उन के कहकहे गूंजते रहते थे…

अर्चना को याद है, उस दिन पिता अपने कई सहकर्मियों से घिरे घर लौटे थे.

‘भाभी, मुंह मीठा कराइए, नरेशजी अफसर बन गए हैं,’ एकसाथ कई स्वर गूंजे थे.

मानो सारा संसार नाच उठा था. मां का मुख गर्व और खुशी की लालिमा से दमकने लगा था.

मुंह मीठा क्या, मां ने सब को भरपेट नाश्ता कराया था. महल्लेभर में मिठाई बंटवाई और खास लोगों की दावत की. रात को होटल में पिताजी ने अपने सहकर्मियों को खाना खिलाया था. उस दिन ही पहली बार शराब उन के होंठों से लगी थी.

अर्चना ने गहरी सांस ली. कितनी अजीब बात है कि मानवता और नैतिकता को निगल जाने वाली यह सत्यानासी शराब अब समाज के हर वर्ग में एक रिवाज सा बन गई है. फलतेफूलते परिवार देखतेदेखते ही कंगाल हो जाते हैं.

एक दिन महल्ले में प्रवेश करते ही रामप्रसाद ने अर्चना से कहा, ‘‘बेटी, तुम से कुछ कहना है.’’

अर्चना रुक गई, ‘‘कहिए, ताऊजी.’’

‘‘दफ्तर से थकीहारी लौट रही हो, घर जा कर थोड़ा सुस्ता लो. मैं आता हूं.’’

अर्चना के दिलोदिमाग में आशंका के बादल मंडराने लगे. रामप्रसाद बुजुर्ग व्यक्ति थे. हर कोई उन का सम्मान करता था.

चिंता में डूबी वह घर आई. आशा पालक काट रही थी. मां चुपचाप लेटी थीं.

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‘‘चाय के साथ परांठे खाओगी, दीदी?’’

‘‘नहीं, बस चाय,’’ अर्चना मां के पास आई, ‘‘कैसी हो, मां?’’

‘‘आज तू इतनी उदास क्यों लग रही है?’’ मां ने चिंतित स्वर में पूछा.

‘‘गली के मोड़ पर ताऊजी मिले थे, कह रहे थे, कुछ बात करने घर आ रहे हैं.’’

मां एकाएक भय से कांप उठीं, ‘‘क्या कहना है?’’

‘‘कुछ समझ में नहीं आ रहा.’’

आशा चाय ले आई. तीनों ने चुपचाप चाय पी ली. फिर अर्चना लेट गई. झपकी आ गई.

आशा ने उसे जगाया, ‘‘दीदी, ताऊजी आए हैं.’’

मां कठिनाई से दीवार का सहारा लिए फर्श पर बैठी थीं. ताऊजी चारपाई पर बैठे हुए थे.

अर्चना को देखते ही बोले, ‘‘आओ बेटी, बैठो.’’

अर्चना उन के पास ही बैठ गई और बोली, ‘‘ताऊजी, क्या पिताजी के बारे में कुछ कहने आए हैं?’’

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एक रिश्ता किताब का: भाग 3

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जैसा मैं था वैसा ही सोमेश को भी बनाता गया…बेहद जिद्दी और सब पर अपना ही अधिकार समझने वाला…ऐसा इनसान जीवन में कभी सफल नहीं होता बेटी. न मेरी शादी सफल हुई न मेरी परवरिश. न मैं अच्छा पति बना न अच्छा पिता. अच्छा किया जो तुम ने शादी से मना कर दिया. कम से कम तुम्हारे इनकार से मेरी इस जिद पर एक पूर्णविराम तो लगा.’’

निरंतर रो रहे थे जगदीश चाचा. पापा भी रो रहे थे. शायद हम सब भी. इस कथा का अंत इस तरह होगा किस ने सोचा था. जगदीश चाचा सब रिश्तों को खो कर इतना तो समझ ही गए थे कि अकेला इनसान कितना असहाय, कितना असुरक्षित होता है. सब गंवा कर दोस्ती का रिश्ता बचाना सीख लिया यही बहुत था, एक शुरुआत की न जगदीश चाचा ने. पापा ने माफ कर दिया जगदीश चाचा को. सिर से भारी बोझ हट गया, एक रिश्ता तोड़ एक रिश्ता बचा लिया, सौदा महंगा नहीं रहा.

तूफान के बाद की शांति घर भर में पैर पसारे थी. दोपहर का समय था जब मेरे एक सहयोगी ने दरवाजा खटखटाया. कंधे पर बैग और हाथ में शादी का तोहफा लिए मामा ने उन्हें अंदर बिठाया. मैं मिलने गई तो विजय को देख कर सहसा हैरान हो गई.

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‘‘अरे, शादी वाला घर नहीं लग रहा आप का…आप भी मेहंदी से लिपीपुती नहीं हैं…पंजाबी दुलहन के हाथ में तो लंबेलंबे कलीरे होते हैं न. मुझे तो लगा था कि पहुंच ही नहीं पाऊंगा. सीधा स्टेशन से आ रहा हूं. आप पहले यह तोहफा ले लीजिए. अभी फुरसत है न. रात को तो आप बहुत व्यस्त होंगी. जरा खोल कर देखिए न, आप की पसंद का है कुछ.’’

एक ही सांस में विजय सब कह गए. उन के चेहरे पर मंदमंद मुसकान थी, जो सदा ही रहती है. आफिस के काम से उन को मद्रास में नियुक्त किया गया था. अच्छे इनसान हैं. मेरी शादी के लिए ही इतनी दूर से आए थे. आसपास भी देख रहे थे.

‘‘क्या बात है शुभाजी, घर में शादी की चहलपहल नहीं है. क्या शादी का प्रबंध कहीं और किया गया है? आप जरा खोल कर देखिए न इसे…माफ कीजिएगा, मुझे रात ही वापस लौटना होगा. आप को तो पता है कि छुट्टी मिलना कितना मुश्किल है…मैं तो किसी तरह जरा सा समय खींच पाया हूं. आप को दुलहन के रूप में देखना चाहता था. आप के हाथों में वह सब कैसा लगता वह सब देखने का लोभ मैं छोड़ ही नहीं पाया.’’

विजय के शब्दों की बेलगाम दौड़ कभी मेरे हाथ में दिए गए तोहफे पर रुकती और कभी आसपास के चुप माहौल पर. इतनी दूर से मुझे बस दुलहन के रूप में देखने आए थे. चाहते थे तोहफा अभी खोल कर देख लूं.

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‘‘आप बहुत अच्छी हैं शुभाजी, सोेमेशजी बहुत किस्मत वाले हैं जो आप उन्हें मिलने वाली हैं. आप सदा सुखी रहें. मेरी यह दिली ख्वाहिश है.’’

सहसा उन का हाथ मेरे सिर पर आया. सिहर गया था मेरा पूरा का पूरा अस्तित्व. नजरें उठा कर देखा कुछ तैर रहा था आंखों में.

‘‘क्या बात है, शुभाजी, सब ठीक तो है न…घबराहट हो रही है क्या?’’

क्या कहूं मैं सोेमेश के बारे में, और विजय को भी क्या समझूं. विजय तो आज भी वहीं खड़े हैं जहां तब खड़े थे जब मेरी सोमेश के साथ सगाई हुई थी. एक मीठा सा भाव रहता था सदा विजय की आंखों में. कुछ छू जाता था मुझे. इस से पहले मैं कुछ समझ पाती सोमेश से मेरी सगाई हो गई और जितना समय सगाई को हुआ उतने ही समय से विजय की नियुक्ति भी मद्रास में है, जिस वजह से यह प्रकरण पुन: कभी उठा ही नहीं था. भूल ही गई थी मैं विजय को.

तभी पापा भीतर चले आए और मैं तोहफा वहीं मेज पर टिका कर भीतर चली आई. अपने कमरे में दुबक सुबक- सुबक कर रो पड़ी. जाहिर सा था पापा ने सारी की सारी कहानी विजय को सुना दी होगी. कुछ समय बीत गया…फिर ऐसा लगा बहुत पास आ कर बैठ गया है कोई. कान में एक मीठा सा स्वर भी पड़ा, ‘‘आप ने अभी तक मेरा तोहफा खोल कर नहीं देखा शुभाजी. जरा देखिए तो, क्या यह वही किताब है जिसे सोमेश ने जला दिया था…देखिए न शुभाजी, क्या इसी किताब को आप पिछले साल भर से ढूंढ़ रही थीं. देखिए तो…

‘‘शुभा, आप मेरी बात सुन रही हैं न. जो हो गया उसे तो होना ही था क्योंकि सोमेश इतनी अच्छी तकदीर का मालिक नहीं था और जिस रिश्ते की शुरुआत ही धोखे और खराब नीयत से हो उस का अंत कैसा होता है. सभी जानते हैं न. आप कमरे में दुबक कर क्यों रो रही हैं. आप ने तो किसी को धोखा नहीं दिया, तो फिर दुखी होने की क्या जरूरत. इधर देखिए न…’’

मेरा हाथ जबरदस्ती अपनी तरफ खींचा विजय ने. स्तब्ध थी मैं कि इतना अधिकार विजय को किस ने दिया? दोनों हाथों से मेरा चेहरा सामने कर आंसू पोंछे.

‘‘इतनी दूर से मैं आप के आंसू देखने तो नहीं आया था. आप बहुत अच्छी लगती थीं मुझे…अच्छे लोग सदा मन के किसी न किसी कोने में छिपे रहते हैं न. यह अलग बात है कि आप ने मन का कोई कोना नहीं पूरा मन ही बांध रखा था… आप का हाथ मांगना चाहता था. जरा सी देर हो गई थी मुझ से. आप की सगाई हो गई और मैं जानबूझ कर आप से दूर चला गया. सदा आप का सुख मांगा है…प्रकृति से यही मांगता रहा कि आप को कभी गरम हवा छू भी न जाए.

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‘‘आप की एक नन्ही सी इच्छा का पता चला था.

‘‘याद है एक शाम आप बुक शाप में यह किताब ढूंढ़ती मिल गई थीं. आप से पता चला था कि आप इसे लंबे समय से ढूंढ़ रही हैं. मैं ने भी इसे मद्रास में ढूंढ़ा… मिल गई मुझे. सोचा शादी में इस से अच्छा तोहफा और क्या होगा…इसे पा कर आप के चेहरे पर जो चमक आएगी उसी में मैं भी सुखी हो लूंगा इसीलिए तो बारबार इसे खोल कर देख लेने की जल्दी मचा रहा था मैं.’’

पहली बार नजरें मिलाने की हिम्मत की मैं ने. आकंठ डूब गई मैं विजय के शब्दों में. मेरी नन्ही सी इच्छा का इतना सम्मान किया विजय ने और इसी इच्छा का दाहसंस्कार सोमेश के पागलपन को दर्शा गया जिस पर इतना बड़ा झूठ तारतार कर बिखर गया.

‘‘आप को दुलहन के रूप में देखना चाहता था, तभी तो इतनी दूर से आया हूं. आज का दिन आप की शादी का दिन है न. तो शादी हो जानी चाहिए. आप के पापा और मां ने पूछने को भेजा है. क्या आप मेरा हाथ पकड़ना पसंद करेंगी?’’

क्या कहती मैं? विजय ने कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया. झट से एक प्रगाढ़ चुंबन मेरे गाल पर जड़ा और सर थपक दिया. शायद कुछ था जो सदा से हमें जोड़े था. बिना कुछ कहे बिना कुछ सुने. कुछ ऐसा जिसे सोमेश के साथ कभी महसूस नहीं किया था.

विजय बाहर चले गए. पापा और मां से क्याक्या बातें करते रहे मैं ने सुना नहीं. ऐसा लगा एक सुरक्षा कवच घिर आया है आसपास. मेरी एक नन्ही सी इच्छा मेरी वह प्रिय किताब मेरे हाथों में चली आई. समझ नहीं पा रही हूं कैसे सोमेश का धन्यवाद करूं?

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एक रिश्ता किताब का: भाग 2

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‘‘तुम अच्छी लड़की हो बेटा, तुम तो मेरा अभिमान हो…लोग कहते थे मैं ने एक ही बेटी पर अपना परिवार क्यों रोक लिया तो मैं यही कहता था कि मेरी बेटी ही मेरा बेटा है. लाखों रुपए लगा कर तुम्हें पढ़ायालिखाया, एक समझदार इनसान बनाया. वह इसलिए तो नहीं कि तुम्हें एक मानसिक रोगी के साथ बांध दूं. 4 महीने से तुम दोनों मिल रहे हो, इतना डांवांडोल चरित्र है सोमेश का तो तुम ने हम से कहा क्यों नहीं?’’

‘‘मैं खुद भी समझ नहीं पा रही थी पापा, एक दिशा नहीं दे पा रही थी अपने निर्णय को…लेकिन यह सच है कि सोमेश के साथ रहने से दम घुटता है.’’

रिश्ता तोड़ दिया पापा ने. हाथ जोड़ कर जगदीश चाचा से क्षमा मांग ली. बदहवासी में क्याक्या बोलने लगे जगदीश चाचा. मेरे मामा और ताऊजी भी पापा के साथ गए थे. घर वापस आए तो काफी उदास भी थे और चिंतित भी. मामा अपनी बात समझाने लगे, ‘‘उस का गुस्सा जायज है लेकिन वह हमारा ही शक दूर करने के लिए मान क्यों नहीं जाता. क्यों नहीं हमारे साथ सोमेश को डाक्टर के पास भेज देता.

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शादी के बाद सब ठीक हो जाएगा, एक ही रट मेरे तो गले से नीचे नहीं उतरती. शादी क्या कोई दवा की गोली है जिस के होते ही मर्ज चला जाएगा. मुझे तो लगता है बापबेटा दोनों ही जिद्दी हैं. जरूर कुछ छिपा रहे हैं वरना सांच को आंच क्या. क्या डर है जगदीश को जो डाक्टर के पास ले जाना ही नहीं चाहता,’’ ताऊजी ने भी अपने मन की शंका सामने रखी.

‘‘बेटियां क्या इतनी सस्ती होती हैं जो किसी के भी हाथ दे दी जाएं. कोई मुझ से पूछे बेटी की कीमत…प्रकृति ने मुझे तो बेटी भी नहीं दी…अगर मेरी भी बेटी होती तो क्या मैं उसे पढ़ालिखा कर, सोचनेसमझने की अक्ल दिला कर किसी कुंए में धकेल देता?’’ रो पड़े थे ताऊजी.

मैं दरवाजे की ओट में खड़ी थी. उधर सोमेश लगातार मुझे फोन कर रहा था, मना रहा था मुझे…गिड़गिड़ा रहा था. क्या उस के पास आत्मसम्मान नाम की कोई चीज नहीं है. मैं सोचने लगी कि इतने अपमान के बाद कोई भी विवेकी पुरुष होता तो मेरी तरफ देखता तक नहीं. कैसा है यह प्यार? प्यार तो एहसास से होता है न. जिस प्यार का दावा सोमेश पहले दिन से कर रहा है वह जरा सा छू भर नहीं गया मुझे. कोई एक पल भी कभी ऐसा नहीं आया जब मुझे लगा हो कोई ऐसा धागा है जो मुझे सोमेश से बांधता है. हर पल यही लगा कि उस के अधिकार में चली गई हूं.

‘‘मैं बदनाम कर दूंगा तुम्हें शुभा, तेजाब डाल दूंगा तुम्हारे चेहरे पर, तुम मेरे सिवा किसी और की नहीं हो सकतीं…’’

मेरे कार्यालय में आ कर जोरजोर से चीखने लगा सोमेश. शादी टूट जाने की जो बात मैं ने अभी किसी से भी नहीं कही थी, उस ने चौराहे का मजाक बना दी. अपना पागलपन स्वयं ही सब को दिखा दिया. हमारे प्रबंधक महोदय ने पुलिस बुला ली और तेजाब की धमकी देने पर सलाखों के पीछे पहुंचा दिया सोमेश को.

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उधर जगदीश चाचा भी दुश्मनी पर उतर आए थे. वह कुछ भी करने को तैयार थे, लेकिन अपनी और अपने बेटे की असंतुलित मनोस्थिति को स्वीकारना नहीं चाहते थे. हमारा परिवार परेशान तो था लेकिन डरा हुआ नहीं था. शादी की तारीख धीरेधीरे पास आ रही थी जिस के गुजर जाने का इंतजार तो सभी को था लेकिन उस के पास आने का चाव समाप्त हो चुका था.

शादी की तारीख आई तो मां ने रोक लिया, ‘‘आज घर पर ही रह शुभा, पता नहीं सोमेश क्या कर बैठे.’’

मान गई मैं. अफसोस हो रहा था मुझे, क्या चैन से जीना मेरा अधिकार नहीं है? दोष क्या है मेरा? यही न कि एक जनून की भेंट चढ़ना नहीं चाहती. क्यों अपना जीवन नरक बना लूं जब जानती हूं सामने जलती लपटों के सिवा कुछ नहीं.

मेरे ममेरे भाई और ताऊजी सुबह ही हमारे घर पर चले आए.

‘‘बूआ, आप चिंता क्यों कर रही हैं…हम हैं न. अब डरडर कर भी तो नहीं न जिआ जा सकता. सहीगलत की समझ जब आ गई है तो सही का ही चुनाव करेंगे न हम. जानबूझ कर जहर भी तो नहीं न पिआ जा सकता.’’

मां को सांत्वना दी उन्होंने. अजीब सा तनाव था घर में. कब क्या हो बस इसी आशंका में जरा सी आहट पर भी हम चौंक जाते थे. लगभग 8 बजे एक नई ही करवट बदल ली हालात ने.

जगदीश चाचा चुपचाप खड़े थे हमारे दरवाजे पर. आशंकित थे हम. कैसी विडंबना है न, जिन से जीवन भर का नाता बांधने जा रहे थे वही जान के दुश्मन नजर आने लगे थे.

पापा ने हाथ पकड़ कर भीतर बुलाया. हम ने कब उन से दुश्मनी चाही थी. जोरजोर से रोने लगे जगदीश चाचा. पता चला, सोमेश सचमुच पागलखाने में है. बेडि़यों से बंधा पड़ा है सोमेश. पता चला वह पूरे घर को आग लगाने वाला था. हम सब यह सुन कर अवाक् रह गए.

‘‘मुझे माफ कर दो बेटी. तुम सही थीं. मेरा बेटा वास्तव में संतुलित दिमाग का मालिक नहीं है. मेरा बच्चा पागल है. वह बचपन से ही ऐसा है जब से उस की मां चली गई.’’

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सोमेश की मां तभी उन्हें छोड़ कर चली गई थी जब वह मात्र 4 साल का था. यह बात मुझे पापा ने बताई थी. पतिपत्नी में निभ नहीं पाई थी और इस रिश्ते का अंत तलाक में हुआ था.

‘‘…मैं क्या करता. मांबाप दोनों की कमी पूरी करताकरता यह भूल ही गया कि बच्चे को ना सुनने की आदत भी डालनी चाहिए. मैं ने ना सुनना नहीं न सिखाया, आज तुम ने सिखा दिया. दुनिया भी सिखाएगी उसे कि जिस चीज पर भी वह हाथ रखे, जरूरी नहीं उसे मिल ही जाए,’’ रो रहे थे जगदीश चाचा, ‘‘सारा दोष मेरा है. मैं ने अपनी शादी से भी कुछ ज्यादा ही अपेक्षाएं कर ली थीं जो पूरी नहीं उतरीं. जिम्मेदारी न समझ मजाक ही समझा. मेरी पत्नी की और मेरी निभ नहीं पाई जिस में मेरा दोष ज्यादा था. मेरे ही कर्मों का फल है जो आज मेरा बच्चा बेडि़यों में बंधा है…मुझे माफ कर दो बेटी और सदा सुखी रहो… हमारी वजह से बहुत परेशानी उठानी पड़ी तुम्हें.’’

हम सब एकदूसरे का मुंह देख रहे थे. जगदीश चाचा का एकाएक बदल जाना गले के नीचे नहीं उतर रहा था. कहीं कोई छलावा तो नहीं है न उन का यह व्यवहार. कल तक मुझे बरबाद कर देने की कसमें खा रहे थे, आज अपनी ही बरबादी की कथा सुना कर उस की जिम्मेदारी भी खुद पर ले रहे थे.

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परदेसियों से न अंखियां मिलाना

परदेसी शब्द से मेरा पहला परिचय भारतीय फिल्मों के माध्यम से ही हुआ. बचपन से ही मुझे फिल्में देखने का तथा पिताजी को न दिखाने का शौक था. इन शौकों की टकराहट में प्राय: पिताजी को ही अधिक सफलता मिलती थी इसलिए मुझ बदनसीब को रेडियो से सुने गानों से ही संतोष करना पड़ता था. इसी संतोष के दौरान जब मैं ने यह गाना सुना कि ‘परदेसियों से न अंखियां मिलाना…’ तो मैं बहुत परेशान हो उठा. मेरा हृदय नायिका के प्रति दया से भर उठा. मैं ने सोचा कि आखिर परदेसियों से अंखियां मिलाने में क्या परेशानी है. यह बेचारी क्यों बारबार इस तरह की बात कर रही है.

इस पंक्ति को बारबार दोहराने से मुझे लगा कि वाकई कोई गंभीर बात है वरना वह एक बार ही कह कर छोड़ देती. बहुत कशमकश के बाद भी जब मेरे बालमन को समाधान नहीं मिला तो मैं विभिन्न लोगों से मिला. सभी लोगों ने अपनीअपनी बुद्धि के हिसाब से जो स्पष्टीकरण दिए उस से मेरा दिमाग खुल गया.

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सब से पहले मैं अपने इतिहास के टीचर से मिला. सभी टीचर मुझे शुरू से ही रहस्यमय प्राणी लगते थे. जिन मुश्किल किताबों और सवालों के डर से मुझे बुखार आ जाता था वे उन्हें मुंहजबानी याद थीं. जो गणित के सवाल मुझे पहाड़ की तरह लगते थे वे उन्हें चुटकियों में हल कर देते थे.

इतिहास के मास्टरजी ने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा. फिर बोले, ‘‘परदेसियों से अंखियां लड़ाना वाकई एक गंभीर समस्या है. यह इतिहास का खतरनाक लक्षण है. इतिहास गवाह है कि जब भी हम ने परदेसियों से अंखियां लड़ाईं, हमें क्षति उठानी पड़ी. मुहम्मद गोरी ने जयचंद से अंखियां लड़ाईं, जिस से हमारे देश में दिल्ली सल्तनत की नींव पड़ी. दौलत खां लोदी ने बाबर से अंखियां मिलाईं और हमारे भारत में मुगल आ गए.

इसी तरह ईस्ट इंडिया कंपनी को लें. ये परदेसी कंपनी हमारे यहां सद्भावनापूर्ण तरीके से व्यापार करने आई थी. बातों ही बातों में लड़ाई गई अंखियों के परिणाम में हमें गुलामी झेलनी पड़ी. अंगरेजों के अंखियां लड़ाने का तरीका सर्वाधिक वैज्ञानिक था. उन्होंने कभी निजाम से, कभी मराठों से, कभी सिखों से, कभी गोरखों तथा कभी राजपूतों से अंखियां लड़ाईं. इन में से प्रत्येक को उन्होंने अपना कहा, किंतु हुए किसी के नहीं.

इस के बाद में अपने मकानमालिक से मिला. उन का कहना था, ‘‘परदेसियों से अंखियां मिलाने में तो परेशानियां ही परेशानियां हैं. ये परदेसी कभी भरोसे लायक नहीं होते. आप ने यदि थोड़ी सी भी अंखियां मिला ली हैं तो बस, फिर समझो कि टाइम पर किराया नहीं मिलेगा और तो और, अंखियां मिलाने के बाद अतिक्रमण का भी खतरा है.’’

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फिर मैं नेताजी के पास चला गया. नेताजी मेरे पड़ोस में ही रहते थे. तब राजनीति के बारे में, मैं अधिक नहीं जानता था. बस, इतना अवश्य जानता था कि भारत में बहुदलीय व्यवस्था है क्योंकि नेताजी प्राय: नईनई पार्टियां बदलते रहते थे.

वह मेरे इस सवाल पर मुसकराए और बोले, ‘‘बेटा, तुम इस देश के भविष्य हो. तुम क्यों इन चक्करों में पड़ कर अपना भविष्य अंधकारमय कर रहे हो. तुम्हें अभी बहुत आगे बढ़ना है. परदेसियों की अंखियों के चक्कर में पड़ कर तुम देश की सेवा से मुंह मोड़ना चाहते हो. नहीं, यह बिलकुल गलत है. तुम हमारी पार्टी में आ जाओ. फिर हम…’’

उन की बातें सुन कर मैं भाग निकला और हड़बड़ाहट में शर्माजी से जा टकराया. शर्माजी एक सरकारी दफ्तर में बाबू थे. ऐसे दफ्तर में जहां हजारों रुपए महीने की ऊपरी आय थी. उन्होंने मेरी हड़बड़ाहट का कारण जानना चाहा, ‘‘क्या बात है बेटा, क्या पहाड़ टूट पड़ा है?’’

मैं ने उन्हें ईमानदारी से अपनी समस्या बतला दी. उन्होंने मेरी बात सुन कर जोर से ठहाका लगाया और बोले, ‘‘बेटा, अगर परदेसियों से ही अंखियां मिलाने में रह जाता तो 2 लड़कियों की शादी कैसे करता. परदेसियों से अंखियां मिलाने का मतलब है मुफ्त में काम कर देना. इसीलिए मैं न तो आफिस में आने वाले से सीधे मुंह बात करता और न अंखियां मिलाता. यह एक सफल प्रशासक के गुण हैं.’’

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मैं असमंजस में पड़ापड़ा सोचता रहा. तभी डाक्टर अंकल आते दिखाई दिए. मैं तेजी से उन के पास गया. वह जल्दी में थे फिर भी उन्होंने मेरी बात सुनी. ‘‘वैसे परदेसियों से अंखियां मिलाने में कोई परेशानी तो नहीं है. फिर भी यह सावधानी रख लेना जरूरी है कि परदेसियों को आईफ्लू तो नहीं है.

‘‘यदि आंख मिलाना अधिक जरूरी हो तो चश्मा लगा लेना चाहिए और फिर भी कुछ हो जाए तो आईड्राप की 2-2 बूंद हर 6 घंटे में और गोलियां…’’

बाकी मेरे बस के बाहर था. मैं ने सरपट दौड़ लगाई. इतिहास के झरोखे से आईफ्लू की खिड़की तक का सफर वाकई बहुत लंबा हो गया था. परदेसियों से अंखियां मिलाने के संदर्भ में जो भयावह कल्पनाएं उपरोक्त सज्जनों ने मेरे दिमाग में बिठा दीं उस का नतीजा यह है कि आज तक मैं किसी परदेसी से अंखियां नहीं लड़ा पाया. और परिणाम में… परिणाम यही रहा कि आज तक मेरी शादी नहीं हो पाई.

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प्रायश्चित्त: भाग 1

लेखिका- किरण डी. कुमार

‘‘दीदी, मेरा तलाक हो गया,’’ नलिनी के कहे शब्द बारबार मेरे कानों में जोरजोर से गूंजने लगे. मैं अपने दोनों बच्चों के साथ कोलकाता से अहमदाबाद जाने वाली ट्रेन में बैठी थी. नागपुर आया तो स्टेशन के प्लेटफार्म पर नलिनी को खड़ा देख कर मुझे बड़ी खुशी हुई. लेकिन न मांग में सिंदूर न गले में मंगलसूत्र. उस का पहनावा देख कर मैं असमंजस में पड़ गई.

मेरे मन के भावों को पढ़ कर नलिनी ने खुद ही अपनी बात कह दी थी.

‘‘यह क्या कह रही हो, नलिनी? इतना सब सहने का अंत इतना बुरा हुआ? क्या उस पत्थर दिल आदमी का दिल नहीं पसीजा तुम्हारी कठोर तपस्या से?’’

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‘‘शायद मेरी जिंदगी में यही लिखाबदा था, दीदी, जिसे मैं 8 साल से टालती आई थी. मैं हालात से लड़ने के बदले पहले ही हार मान लेती तो शायद मुझे उतनी मानसिक यातना नहीं झेलनी पड़ती,’’ नलिनी भावुक हो कर कह उठी. उस के साथ उस की चचेरी बहन भी थी जो गौर से हमारी बातें सुन रही थी.

नलिनी के साथ मेरा परिचय लगभग 10 साल पुराना है. बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत मेरे पति आशुतोष का तबादला अचानक ही कोलकाता से अहमदाबाद हो गया था. अहमदाबाद से जब हम किराए के  फ्लैट में रहने गए तो सामने के बंगले में रहने वाले कपड़े के व्यापारी दिनकर भाई ठक्कर की तीसरी बहू थी नलिनी.

नई जगह, नया माहौल…किसी से जानपहचान न होने के कारण मैं अकसर बोर होती रहती थी. इसलिए शाम होते ही बच्चों को ले कर घर के सामने बने एक छोटे से उद्यान में चली जाती थी. दिनकर भाई की पत्नी भानुमति बेन भी अपने पोतेपोतियों को ले कर आती थीं.

पहले बच्चों की एकदूसरे से दोस्ती हुई, फिर धीरेधीरे मेरा परिचय उन के संयुक्त परिवार के सभी सदस्यों से हुआ. भानुमति बेन, उन की बड़ी बहू सरला, मझली दिशा और छोटी नलिनी. भानुमति बेन की 2 बेटियां भी थीं. छोटी सेजन 12वीं कक्षा में पढ़ रही थी.

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गुजरात में लोगों का स्वभाव इतना खुले दिल का और मिलनसार होता है कि कोई बाहरी व्यक्ति अपने को वहां के लोगों में अकेला नहीं महसूस करता. ठक्कर परिवार इस बात का अपवाद न था. मेरी भाषा बंगाली होने के कारण मुझे गुजराती तो दूर हिंदी भी टूटीफूटी ही आती थी. भानुमति बेन को गुजराती छोड़ कर कोई और भाषा नहीं आती थी. वह भी मुझ से टूटीफूटी हिंदी में बात करती थीं. धीरेधीरे हमारा एकदूसरे के घर आनाजाना शुरू हो गया था. घर में जब भी रसगुल्ले बनते तो सब से पहले ठक्कर परिवार में भेजे जाते और उन की तो बात ही क्या थी, आएदिन मेरे घर वे खमनढोकला और मालपुए ले कर आ जातीं.

ठक्कर परिवार में सब से ज्यादा नलिनी ही मिलनसार और हंसमुख स्वभाव की थी. गोरा रंग, बड़ीबड़ी आंखें, तीखे नाकनक्श, छरहरा बदन और कमर तक लटकती चोटी…कुल मिला कर नलिनी सुंदरता की परिभाषा थी. तभी तो उस का पति सुशांत उस का इतना दीवाना था. नलिनी घरेलू कामों में अपनी दोनों जेठानियों से ज्यादा दक्ष थी. सासससुर की चहेती बहू और दोनों ननदों की चहेती भाभी, किसी को भी पल भर में अपना बना लेने की अद्भुत क्षमता थी उस में.

20 जनवरी, 2001 को मैं सपरिवार अपनी छोटी बहन के विवाह में शामिल होेने कोलकाता चली गई. 26 जनवरी को मेरी छोटी बहन की अभी डोली भी नहीं उठी थी कि किसी ने आ कर बताया कि अहमदाबाद में भयंकर भूकंप आया है. सुन कर दिल दहल गया. मेरे परिवार के चारों सदस्य तो विवाह में कोलकाता आ कर सुरक्षित थे, पर टेलीविजन पर देखा कि प्रकृति ने अपना रौद्र रूप दिखा कर कहर बरपा दिया था और भीषण भूकंप के कारण पूरे गुजरात में त्राहित्राहि मची हुई थी.

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अहमदाबाद में भूकंप आने के 10 दिन बाद हम वापस आ गए तो देखा हमारे अपार्टमेंट का एक छोटा हिस्सा ढह गया था, पर ज्यादातर फ्लैट थोड़ीबहुत मरम्मत से ठीक हो सकते थे.

अपने अपार्टमेंट का जायजा लेने के बाद ठक्कर निवास के सामने पहुंचते ही बंगले की दशा देख कर मेरे रोंगटे खड़े हो गए. पुराने समय में बना विशालकाय बंगला भूकंप के झटकों से धराशायी हो चुका था. ठक्कर परिवार ने महल्ले के दूसरे घरों में शरण ली थी.

मुझे देखते ही भानुमति बेन मेरे गले लग कर फूटफूट कर रो पड़ीं. घर के मुखिया दिनकर भाई का शव बंगले के एक भारी मलबे के नीचे से मिला था. बड़ा बेटा कारोबार के सिलसिले में दिल्ली गया हुआ था. भूकंप का समाचार पा कर वह भी भागाभागा आ गया था. नलिनी का पति सुशांत गंभीर रूप से घायल हो कर सरकारी अस्पताल में भरती था. घर के बाकी सदस्य ठीकठाक थे.

सुशांत को देखने जब हम सरकारी अस्पताल पहुंचे तो वहां गंभीर रूप से घायल लोगों को देख कर कलेजा मुंह को आ गया. सुशांत आईसीयू में भरती था. बाहर बैंच पर संज्ञाशून्य नलिनी अपनी छोटी ननद के साथ बैठी हुई थी. नलिनी मुझे देखते ही आपा खो कर रोने लगी.

‘दीदी, क्या मेरी मांग का सिंदूर सलामत रहेगा? सुशांत के बचने की कोई उम्मीद नजर नहीं आती. काश, जो कुछ इन के साथ घटा है वह मेरे साथ घटा होता.’ कहते हुए नलिनी सुबक उठी. नलिनी के मातापिता और उस का भाई मायके से आए थे. दिमाग पर गहरी चोट लगने के कारण सुशांत कोमा में चला गया था. उस के दोनों हाथपैरों पर प्लास्टर चढ़ा हुआ था.

देखतेदेखते 2 महीने बीत गए, पर सुशांत की हालत में कोई सुधार नहीं आया, अलबत्ता नलिनी की काया दिन पर दिन चिंता के मारे जरूर कमजोर होती जा रही थी. उस के मांबाप और भाई भी उसे दिलासा दे कर चले गए थे.

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भानुमति बेन ने अपने वैधव्य को स्वीकार कर के हालात से समझौता कर लिया था. उन की पुरानी बड़ी हवेली की जगह अब एक साधारण सा मकान बनवाया जाने लगा. नीलिनी की दोनों जेठानियां अपनीअपनी गृहस्थी में मगन हो गईं.

एक दिन खबर मिली कि सुशांत का एक पैर घुटने से नीचे काट दिया गया, क्योंकि जख्मों का जहर पूरे शरीर में फैलने का खतरा था. मैं दौड़ीदौड़ी अस्पताल गई. आशा के विपरीत नलिनी का चेहरा शांत था. मुझे देखते ही वह बोली, ‘दीदी, पैर कट गया तो क्या हुआ, उन की जिंदगी तो बच गई न. अगर जहर पूरे शरीर में फैल जाता तो? मैं जीवन भर के लिए उन की बैसाखी बन जाऊंगी.’

मैं ने हामी भरते हुए उस के धैर्य की प्रशंसा की पर उस के ससुराल वालों को उस का धैर्य नागवार गुजरा.

उस की दोनों जेठानियां और ननदें आपस में एकदूसरे से बोल रही थीं, ‘देखो, पति का पैर कट गया तो भी कितनी सामान्य है, जैसे कुछ भी हुआ ही न हो. कितनी बेदर्द औरत है.’

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