ताकझांक: भाग 2- शालू को रणवीर से आखिर क्यों होने लगी नफरत?

‘‘बस न तरु हो गया न आज के लिए… सुबह से कुछ नहीं खाने दिया, बहुत भूख लगी है. खाने दो  पहले आलू के परांठे प्लीज.’’ खाने के नाम से उस में इतनी फुरती आ जाती कि तरुण के छिपाए परांठे फटाफट उठा लाती और फटाफट खाने लगती.

‘‘तुम भी खा कर तो देखो मिर्च के अचार के साथ… बड़े टेस्टी लग रहे हैं… बाद में अपना घासफूस खा लेना,’’ परांठे का टुकड़ा उस की ओर बढ़ाते हुए शालू मुसकराई.

‘‘नो थैंक्स… तुम्हीं खाओ,’’ कह तरुण डाइनिंग टेबल पर रखे कौर्नफ्लैक्स दूध की ओर बढ़ गया.शालू टीवी खोल कर बैठ गई तो तरुण बाउल ले कर अपनी विंडो पर आ गया.

‘ओह आज तो सुबह से बड़ी चहलकदमी हो रही है… तैयार मैडम प्रिया सधे कदमों से हाईहील में खटखट करते इधरउधर आजा रही हैं,’ दिल में उस के जलतरंग सी उठने लगी. ‘लगता है किसी फंक्शन में जा रही है… उफ लो यह खड़ूस अपने जूते पहने यहीं आ मरा… बेटा, थ्री पीस सूट पहन कर हीरो नहीं बन जाएगा… बीवी की बात कभी तो मान लिया कर… थोड़ी बौडीशौडी बना ले,’ तरुण परदे के पीछे खड़ा बड़बड़ाए जारहा था.

‘काश, प्रिया जैसी मेरी बीवी होती… खटखट करते2 कदम आगे2 कदम पीछे करके मेरे साथ डांस करती… मैं उसे यों गोलगोल घुमाता,’ वह खयालों में खो गया.

एक दिन खयालों को सच करने के लिए तरुण शालू के नाप के हाईहील सैंडल ले आया. बड़े चाव से शालू को पहना कर उस ने म्यूजिक औन कर दिया. शालू को सहारा दे कर उस ने खड़ा किया. घुमाया तो शालू खिलखिला कर हंसते हुए बोली, ‘‘अरे तरु मुझ से नहीं होगा… गिर जाऊंगी,’’ फिर अपनेआप को संभालने के लिए उसने तरुण को जो खींचा तो दोनों बिस्तर पर जा गिरे. तरुण को भी हंसी आ गई. थोड़ी देर तक दोनों हंसते रहे.

प्रिया को अपनी बालकनी से ज्यादा कुछ तो दिखाई नहीं दिया पर दोनों की हंसी बड़ी देर तक सुनाई देती रही.

‘अकसर दोनों की हंसीखिलखिलाहट सुनाई देती है. कितना हंसमुख है तरुण… अपनी पत्नी को कितना खुश रखता है और एक ये हैं श्रीमान रणवीर हमेशा मुंह फुलाए बैठे रहते हैं जैसे दुनिया का सारा बोझ इन्हीं के कंधों पर हो,’ प्रिया के दिल में हूक सी उठी तो वह अंदर हो ली.

थोड़ी देर बाद ही तरुण उठा और शालू को भी उठा दिया, ‘‘चलो, थोड़ी प्रैक्टिस करते हैं… कल 35 नंबर कोठी वाले उमेशजी के बेटे की सगाई है. सारे पड़ोसियों को बुलाया है. हमें भी. और रणवीर फैमिली को भी. खूब डांसवांस होगा. बोला है खूब तैयार हो कर आना.’’

‘‘अच्छा तो यह बात है. तभी ये सैंडल…’’ शालू मुसकराई.

शालू फिर खड़ी हो गई. किसी तरह तरुण कमर में हाथ डाल कर डांस करवाने लगा. हंसते हुए शालू ने 2 राउंड लिए. फिर अचानक पैर ऐसा मुड़ा कि हील सैंडल से अलग जा पड़ी और शालू अलग.

‘‘तुम से कुछ नहीं होगा शालू… तुम ने अच्छेखासे सैंडल भी बेकार कर दिए.’’

‘‘ब्रैंडेड नहीं थे…  तो पहले ही लग रहा था पर आप को बुरा लगेगा इसलिए कहा नहीं. प्रिया को रणवीर हर चीज ब्रैंडेड ही दिलाते हैं. काश, मेरा पति भी इतना रईस होता,’’ कह शालू ने ठंडी आह भरी.

‘‘यह देखो क्या किया…’’ तरुण ने दोनों टुकड़े उसे थमा दिए.

शालू ने उन्हें क्विकफिक्स से चिपका दिया. बोली, ‘‘देखो तरु सैंडल बिलकुल सही हो गया. अब चलो पार्टी में.’’

‘‘हां पर डांसवांस तुम रहने ही देना… वहां तुम्हारे साथ कहीं मेरी भी भद्द न हो जाए,’’ तरुण बेरुखाई से बोला.

उधर रणवीर अपनी बालकनी में शालू की किचन से रोज आती आलू, पुदीने के परांठों की खुशबू से काफी प्रभावित था. पत्नी प्रिया के रोजरोज के उबले अंडे, दलिया के नाश्ते से त्रस्त था. कई बार चुपके से शालू की तारीफ भी कर चुका था और वह कई बार मेड के हाथों उसे भिजवा भी चुकी थी. आज सुबह भी उस ने परांठे भिजवाए थे.

शालू तरुण के साथ नीचे उतरी तो प्रिया और रणवीर भी आ चुके थे. रणवीर गाड़ी स्टार्ट कर रहा था.

‘‘आइए, साथ ही चलते हैं तरुणजी,’’ रणवीर ने कहा तो प्रिया ने भी इशारा किया. चारों बैठ गए.

रणवीर बोला, ‘‘परांठों के लिए थैंक्स शालूजी… आप के हाथों में जादू है… मैं अपनी बालकनी से रोज पकवानों की खुशबू का मजा लेता हूं… प्रिया को तो घी, तेल पसंद नहीं… न बनाती है न मु?ो खाने देना चाहती है. तरुणजी आप के तो मजे हैं. रोज बढि़याबढि़या पकवान खाने को मिलते हैं. काश…’’

‘अबे आगे 1 लफ्ज भी न बोलना… क्या बोलने जा रहा था तू,’ तरुण मुट्ठियां भींचते हुए मन ही मन बुदबुदा उठा.

इधर शालू महंगी बड़ी सी गाड़ी में बैठ एक रईस से अपनी तारीफ सुन कर निहाल हुई जा रही थी.

और प्रिया ‘हां फैट खूब खाओ और ऐक्सरसाइज मत करो. फिर थुलथुल बौडी लेकर घूमना इन्हीं यानी शालू के साथ… तरुणकी तारीफ में क्यों बोलोगे? क्या गठीली बौडीहै. काश मेरा हबी ऐसा होता,’ प्रिया मन हीमन बोली.

शालू पर उड़ती नजर पड़ी तो न जाने क्यों वह जलन सी महसूस करने लगी. गाड़ी के ब्रेक के साथ सभी के उठते विचारों को भी ब्रेक लगे. पार्टी स्थल आ गया था.

मेहमान आ चुके थे. फंक्शन जोरों पर था. मीठीमीठी धुन के साथ कोल्डड्रिंक्स, मौकटेल के दौर चल रहे थे. तभी वधू का प्रवेश हुआ. स्टेज से उतर लड़के ने उस का स्वागत किया और स्टेज पर ले आया. तालियों की गड़गड़ाहट के साथ सगाई की रस्म पूरी की गई.

सभी ने बारीबारी से स्टेज पर आ कर बधाई दी. लड़कालड़की की शान में कुछ कहना भी था उन्हें चाहे गा कर चाहे वैसे ही. सभी ने कुछ न कुछ सुनाया.

तरुण और शालू स्टेज पर आए तो प्रिया की हसरत भरी नजरें डैशिंग तरुण पर ही जमी थीं. तरुण ने किसी गीत की मुश्किल से 2 लाइन ही गुनगुनाईं और फिर बधाई गिफ्ट थमा शालू का हाथ थामे शरमाते हुए स्टेज से उतर गया.

‘ओह तरुण की तो बस बौडी ही बौडी है. अंदर तो कुछ है ही नहीं… 2 शब्द भी नहीं बोल पाया लोगों के सामने. कितना शाई… गाना भी पूरा नहीं गा सका,’ तरुण को स्टेज पर चढ़ता देख प्रिया की आंखों में आई चमक की जगह अब निराशा झलक रही थी. आकर्षण कहीं काफूर हो रहा था.

‘शालू, आप ऐसे कैसे जा सकती हो बगैर डांस किए. मैं ने आप का बढि़या डांस देखा है… मेरे हाथों में… आइएआइए,’’ उमेशजी की पत्नी आशाजी ने आत्मीयता से उसे ऊपर बुला लिया.

शालू ने तरुण को इशारा किया. शालू ने तरुण को इशारे से ही तसल्ली दी और सैंडल उतार कर स्टेज पर आ गई.

आगे पढ़ें- गाना खत्म हुआ तो प्रिया के साथ…

जीवनज्योति- भाग 1: क्या हुआ था ज्योति के साथ

‘‘इस घर में रुपए के पेड़ नहीं लगा रखे हैं मैं ने कि जब चाहूं नोट तोड़तोड़ कर तुम सब की हर इच्छा पूरी करता रहूं. जूतियों के नीचे दब कर मुनीमगीरी करता हूं उस सेठ की बारह घंटे, तब जा कर एक दिन का अनाज इस परिवार के पेट में डाल पाता हूं.

वर्षों से दरक रही किसी वेदना का बांध अचानक आज ध्वस्त हो गया था. चोट खाए सिंह की भांति दहाड़ उठे थे मुंशी रामप्यारे सहाय.

आंखों से चिंगारियां बरसने लगी थीं. मन के अंदर फूट पड़े ज्वालामुखी का खौलता लावा शब्दों के रूप में बाहर आ कर सब को झुलसानेजलाने लगा था.

सुमित्रा इस घटना से हतप्रभ थी. उस ने आत्मीयता के शीतल जल से इस धधकती ज्वाला को शांत करने की भरसक कोशिश की थी.

‘‘सब जानते हैं जी और समझते भी हैं कि किस मुसीबत से आप इस घर का…’’

‘‘खाक समझते हैं. एक साधारण मुनीम की औलाद होने का उन्हें जरा भी एहसास है? नखरे तो ऐसे हैं इन के जैसे इन का बाप मैं नहीं, कोई कलक्टर, गवर्नर है.’’

‘‘छि:छि:, अब इन बच्चों के साथसाथ आप मुझे भी गाली दे रहे हैं जी, कहां जाएंगे ये? अब आप से अपनी जरूरतों को नहीं कहेंगे तो क्या दूसरे से कहेंगे?’’

‘‘तो क्या करूं मैं? चोरी करूं, डाका डालूं या आत्महत्या कर लूं इन की जरूरतों की खातिर…और यह सब तुम्हारी शह का नतीजा है. बच्चे अच्छे स्कूल- कालिज में पढ़ेंगे, बड़े आदमी बनेंगे, सिर ऊंचा कर के जिएंगे? कुछ नहीं करेंगे ये तीनों. बस, मुझे बेमौत मारेंगे.’’

एक पल को पसर आए सन्नाटे के बाद दूसरे ही पल यह बवंडर ज्योति की ओर बढ़ चला था, ‘‘और तू, किस ने कहा था तुझ से हर महीने फार्म भरने, परीक्षा देने के नाम पर पैसे उड़ाने को? कभी रिटेन, कभी पीटी तो कभी इंटरव्यू, हर महीने मेमसाहब की सवारी तैयार. कभी दिल्ली, कभी पटना, कभी कोलकाता…’’

तिरस्कार का यह अपदंश बिलकुल नया था ज्योति के लिए. बाबूजी का यह विकराल रूप उसे पहले कभी देखने को नहीं मिला था. बड़ीबड़ी आंखों में पानी की एक परत उमड़ आई थी जिसे पलकों पर ही संभाल लिया था ज्योति ने.

भावनाओं की यह उमड़घुमड़ सुमित्रा की नजरों से छिप न सकी थी. कचोट उठा था मां का दिल, ‘‘देखिए, जो कहना है आप मुझ से कहिए न…ज्योति अब बच्ची नहीं रही, बड़ी हो गई है. एक जवान बेटी को भला इस तरह दुत्कारना…’’

‘‘हां… हां, जवान हो गई है तभी तो कह रहा हूं कि क्यों बोझ बन कर जिंदा है ये मेरी जिंदगी में. किसी नदी, तालाब में जा कर डूब क्यों नहीं मरती. कम से कम एक दायित्व से तो मुझे मुक्ति मिलती.’’

सर्वस्व झनझना उठा था ज्योति का. आहत भावनाएं इस से पहले कि रुदन बन कर बाहर आतीं, दुपट्टे से भींच कर दबा दिया था उस ने अपने मुंह को.

स्वयं को रोकतेथामते सुमित्रा भी बिफर उठी थीं, ‘‘कुछ होश भी है आप को?’’

‘‘होश है, तभी तो बोल रहा हूं कि आज अगर इस की जगह घर में बेटा होता तो कमा कर लाता. परिवार का सहारा होता. मगर यह लड़की तो अभिशाप है, एक अभिशाप.’’

‘‘हद करते हैं आप भी, अगर यह लड़की है तो क्या यह इस का दोष है?’’

‘‘हां, यह लड़की है. यही दोष है इस का. मुझ गरीब की कुटिया में सांसें ले कर इतनी जल्दी जवान हो गई, यह दोष है इस का. और इस घर में 3-3 लड़कियां ही पैदा कीं तुम ने. यह दोष है तुम्हारा,’’ कहतेकहते मुंशीजी का स्वर रुंधने लगा था.

‘‘आज पता नहीं क्या हो गया है आप को. आप जैसा धैर्यवान और समझदार इनसान भी ऐसी घटिया बात सोच सकता है. इस मानसिकता के साथ बोल सकता है, मैं ने तो कभी कल्पना तक नहीं की थी.’’

‘‘तो मैं ने कब कल्पना की थी कि सीमित आय की जरूरतें इतनी असीमित हो जाएंगी. तुम्हीं बताओ कि खानेदाने के लिए अपनी पगार खर्च करूं या पेट पर पत्थर बांध कर इस के ब्याह के लिए रोकड़े जमा करूं. उस पर से इस लड़की के यह चोंचले कि बड़ा आफीसर ही बनना है. कंगले की ड्योढ़ी पर बैठ कर आसमान झुकाने चली है. जब तक जिंदा रहेगी इस बाप की छाती पर बैठ कर मूंग ही तो दलेगी…’’ और इसी के साथ फफक पड़े थे स्वयं मुंशीजी भी.

मुंशीजी की यह हुंकार आर्तनाद बन इस कमरे में पसर गई थी और वहां खड़ा हर व्यक्ति सन्नाटे की चादर को ओढ़ कर खुद को इस हादसे का कारण मान बैठा था.

ज्योति इस बार दिल्ली से सिविल सर्विसेज का साक्षात्कार दे आई थी. संतुष्ट तो थी ही इस परीक्षा से, मगर उस के भरोसे ही बैठ जाना, संघर्षों की इतिश्री करना न तो बुद्धिमानी थी न ही उस की मानसिकता. बैंक प्रोबेशनरी आफीसर का फार्म भरना था, कल 150 रुपए का ड्राफ्ट बनवाना है उसे, बस, इतना ही तो मां से बाबूजी को कहलवाया था कि वह हत्थे से उखड़ गए थे. क्याक्या नहीं कह डाला उन्होंने.

नीतू और पिंकी ने भी बाबूजी का ऐसा रौद्र रूप पहले कभी नहीं देखा था. दोनों अब तक भीतर ही भीतर कांप रही थीं.

इस हादसे ने ज्योति की हर आकांक्षा, हर उम्मीद का गला घोंट दिया था. सकते का आवरण ढीला पड़ते ही मनोबल और धैर्य भी साथ छोड़ गए थे. अचानक टीसने लगा उस का अंतर्मन. सुबकती, सिसकती ज्योति एक चीत्कार के साथ रो पड़ी थी. और इन असह्य परिस्थितियों का बोझ उठाए सरपट वह अपने कमरे की ओर भागी थी.

‘‘चैन मिल गया आप को. दूर हो गया सारा पागलपन, क्याक्या नहीं कह डाला आप ने ज्योति को?

‘‘एक छोटी सी बात पर इतना बड़ा कुहराम…जवान बेटी है, इतना भी नहीं सोचा आप ने. यदि उस ने कुछ ऊंचनीच कर लिया तो कहीं मुंह दिखाने लायक भी नहीं रहेंगे हम…’’ सुमित्रा के रुंधते गले ने शब्दों का दामन छोड़ दिया था. टपकते आंसुओं को पोंछती हुई वह भी कमरे से निकल गई थी. नीतू और पिंकी भी मां के पीछेपीछे चल पड़ी थीं.

इस कमरे में अकेले मुंशीजी ठगे से रह गए थे. एक ऐसा दावानल जिस की तपिश में झुलस कर सभी अपने उन से दूर हो गए थे. आंखें अब भी नम थीं. मुंशीजी खुद ब खुद ही बुदबुदा उठे थे, ‘ताना मारेगी, दुनिया मुझ पर थूकेगी. एक मैं ही तो बचा हूं सारी दुनिया में अकेला. सब का दोषी है ये मुंशी रामप्यारे सहाय. ढाई हजार पगार पाने वाला, 3-3 लड़कियों का गरीब, लाचार बाप.’

उधर कमरे में कुहनियों के बीच मुंह छिपा कर ज्योति रोती ही जा रही थी. मां का स्नेहिल स्पर्श भी आज उसे ममता- विहीन लग रहा था. उसे लग रहा था जैसे वह सचमुच एक लाश है, एक चेतना -शून्य देह. कोई बाहरी स्पर्श, कोई अनुभूति, कोई संवेदना, कोई सांत्वना उसे अर्थहीन लग रही थी. बस, कलेजे में रहरह कर एक हूक सी उठती थी और अविरल अश्रुधार निकल पड़ती थी.

सुमित्रा ने खूब सहलायासमझाया था उसे. वस्तुस्थिति के इस पीड़ादायक धरातल पर बाबूजी की मनोदशा विश्लेषित करती हुई सुमित्रा ने यह जताने की कोशिश की थी कि किसी भी व्यक्ति के लिए इस तरह अचानक बरस पड़ना कोई असामान्य बात नहीं थी. नीतू और पिंकी ने भी दीदी को बहलाने, गुदगुदाने, रिझाने की बहुत कोशिश की थी, मगर सब व्यर्थ.

जिज्ञासावश नीतू ने मां से एक संजीदा सा सवाल पूछ ही लिया, ‘‘मां, लड़की होना क्या सच में एक सामाजिक अभिशाप है?’’

‘‘नहीं, बेटी, इस संसार में लड़की हो कर पैदा होना बड़े सौभाग्य की बात है, गर्व की बात है. हां, ‘औरत’ जाति नहीं नीतू, ‘गरीबी’ अभिशाप है… गरीबी?’’ यह वाक्य सुमित्रा का सिर्फ उत्तर ही नहीं, बल्कि भोगा हुआ यथार्थ था.

शरद की सर्द रात. घर में एक अजीब सी खामोशी थी. नीतू और पिंकी तो गहरी नींद में थीं मगर ज्योति, सुमित्रा और मुंशीजी की बंद आंखों में शाम की घटना का असर अब तक भरा था. मुंशीजी बारबार करवट बदल रहे थे. सुमित्रा ने जानबूझ कर उन्हें छेड़ना उचित नहीं समझा था.

कहने को तो मुंशीजी सबकुछ कह गए थे मगर अब अवसादों ने उन्हें धिक्कारना शुरू कर दिया था. उन के मुंह से निकला एकएक शब्द उन्हें नागफनी के बड़ेबड़े झाड़ में तब्दील हो कर उन की आत्मा तक को छलनी कर रहा था.

मुंशीजी की आंखों के सामने ज्योति का रोताबिलखता चेहरा जितनी बार घूम जाता उतनी बार वह कलप उठते थे.

आगे पढ़ें- आत्मग्लानि की आग से पसीज उठा था उन…

बगावत: क्या प्रेम के लिए तरस रही उषा को प्यार मिल पाया?

बगावत: भाग 1- क्या प्रेम के लिए तरस रही उषा को प्यार मिल पाया?

महीने भर का राशन चुकने को हुआ तो सोचा, आज ही बाजार हो आऊं. आज और कहीं जाने का कार्यक्रम नहीं था और कोई खास काम भी करने के लिए नहीं था. यही सोच कर पर्स उठाया, पैसे रखे और बाजार चल दी.

दुकानदार को मैं अपने सौदे की सूची लिखवा रही थी कि अचानक पीछे से कंधे पर स्पर्श और आंखों पर हाथ रखने के साथसाथ ‘निंदी’ के उच्चारण ने उलझन में डाल दिया. यह तो मेरा मायके का घर का नाम है. कोई अपने शहर का निकट संबंधी ही होना चाहिए जो मेरे घर के नाम से वाकिफ हो. आंखों पर रखे हाथ को टटोल कर पहचानने में असमर्थ रही. आखिर उसे हटाते हुए बोली, ‘‘कौन?’’

‘‘देख ले, नहीं पहचान पाई न.’’

‘‘उषा तू…तू यहां कैसे…’’ अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था, कालिज में साथ पढ़ी अपनी प्यारी सखी उषा को सामने खड़ी देख कर. मुखमंडल पर खेलती वही चिरपरिचित मुसकान, सलवारकमीज पहने, 2 चोटियों में उषा आज भी कालिज की छात्रा प्रतीत हो रही थी.

‘‘क्यों, बड़ी हैरानी हो रही है न मुझे यहां देख कर? थोड़ा सब्र कर, अभी सब कुछ बता दूंगी,’’ उषा आदतन खिलखिलाई.

‘‘किस के साथ आई?’’ मैं ने कुतूहलवश पूछा.

‘‘उन के साथ और किस के साथ आऊंगी,’’ शरारत भरे अंदाज में उषा बोली.

‘‘तू ने शादी कब कर ली? मुझे तो पता ही नहीं लगा. न निमंत्रणपत्र मिला, न किसी ने चिट्ठी में ही कुछ लिखा,’’ मैं ने शिकायत की.

‘‘सब अचानक हो गया न इसलिए तुझे भी चिट्ठी नहीं डाल पाई.’’

‘‘अच्छा, जीजाजी क्या करते हैं?’’ मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी.

‘‘वह टेलीफोन विभाग में आपरेटर हैं,’’ उषा ने संक्षिप्त उत्तर दिया.

‘‘क्या? टेलीफोन आपरेटर… तू डाक्टर और वह…’’ शब्द मेरे हलक में ही अटक गए.

‘‘अचंभा लग रहा है न?’’ उषा के मुख पर मधुर मुसकान थिरक रही थी.

‘‘लेकिन यह सब कैसे हो गया? तुझे अपने कैरियर की फिक्र नहीं रही?’’

‘‘बस कर. सबकुछ इसी राशन की दुकान पर ही पूछ लेगी क्या? चल, कहीं पास के रेस्तरां में कुछ देर बैठते हैं. वहीं आराम से सारी कहानी सुनाऊंगी.’’

‘‘रेस्तरां क्यों? घर पर ही चल न. और हां, जीजाजी कहां हैं?’’

‘‘वह विभाग के किसी कार्य के सिलसिले में कार्यालय गए हैं. उन्हीं के कार्य के लिए हम लोग यहां आए हैं. अचानक तेरे घर आ कर तुझे हैरान करना चाहते थे, पर तू यहीं मिल गई. हम लोग नीलम होटल में ठहरे हैं, कल ही आए हैं. 2 दिन रुकेंगे. मैं किसी काम से इस ओर आ रही थी कि अचानक तुझे देखा तो तेरा पीछा करती यहां आ गई,’’ उषा चहक रही थी.

कितनी निश्छल हंसी है इस की. पर एक टेलीफोन आपरेटर के साथ शादी इस ने किस आधार पर की, यह मेरी समझ से बाहर की बात थी.

‘‘हां, तेरे घर तो हम कल इकट्ठे आएंगे. अभी तो चल, किसी रेस्तरां में बैठते हैं,’’ लगभग मुझे पकड़ कर ले जाने सी उतावली वह दिखा रही थी.

दुकानदार को सारा सामान पैक करने के लिए कह कर मैं ने बता दिया कि घंटे भर बाद आ कर ले जाऊंगी. उषा को ले कर निकट के ही राज रेस्तरां में पहुंची. समोसे और कौफी का आदेश दे कर उषा की ओर मुखातिब होते हुए मैं ने कहा, ‘‘हां, अब बता शादी वाली बात,’’ मेरी उत्सुकता बढ़ चली थी.

‘‘इस के लिए तो पूरा अतीत दोहराना पड़ेगा क्योंकि इस शादी का उस से बहुत गहरा संबंध है,’’ कुछ गंभीर हो कर उषा बोली.

‘‘अब यह दार्शनिकता छोड़, जल्दी बता न, डाक्टर हो कर टेलीफोन आपरेटर के चक्कर में कैसे पड़ गई?’’

3 भाइयों की अकेली बहन होने के कारण हम तो यही सोचते थे कि उषा मांबाप की लाड़ली व भाइयों की चहेती होगी, लेकिन इस के दूसरे पहलू से हम अनजान थे.

उषा ने अपनी कहानी आरंभ की.

बचपन के चुनिंदा वर्ष तो लाड़प्यार में कट गए थे लेकिन किशोरावस्था के साथसाथ भाइयों की तानाकशी, उपेक्षा, डांटफटकार भी वह पहचानने लगी थी. चूंकि पिताजी उसे बेटों से अधिक लाड़ करते थे अत: भाई उस से मन ही मन चिढ़ने लगे थे. पिता द्वारा फटकारे जाने पर वे अपने कोप का शिकार उषा को बनाते.

‘‘मां और पिताजी ने इसे हद से ज्यादा सिर पर चढ़ा रखा है. जो फरमाइशें करती है, आननफानन में पूरी हो जाती हैं,’’ मंझला भाई गुबार निकालता.

‘‘क्यों न हों, आखिर 3-3 मुस्टंडों की अकेली छोटी बहन जो ठहरी. मांबाप का वही सहारा बनेगी. उन्हें कमा कर खिलाएगी, हम तो ठहरे नालायक, तभी तो हर घड़ी डांटफटकार ही मिलती है,’’ बड़ा भाई अपनी खीज व आक्रोश प्रकट करता.

कुशाग्र बुद्धि की होने के कारण उषा पढ़ाई में हर बार अव्वल आती. चूंकि सभी भाई औसत ही थे, अत: हीनभावना के वशीभूत हो कर उस की सफलता पर ईर्ष्या करते, व्यंग्य के तीर छोड़ते.

‘‘उषा, सच बता, किस की नकल की थी?’’

‘‘जरूर इस की अध्यापिका ने उत्तर बताए होंगे. उस के लिए यह हमेशा फूल, गजरे जो ले कर जाती है.’’

उषा तड़प उठती. मां से शिकायत करती लेकिन मांबेटों को कुछ न कह पाती, अपने नारी सुलभ व्यवहार के इस अंश को वह नकार नहीं सकती थी कि उस का आकर्षण बेटी से अधिक बेटों के प्रति था. भले ही वे बेटी के मुकाबले उन्नीस ही हों.

गिरफ्त: भाग 2- क्या सुशांत को आजाद करा पाई शोभा

Writer- Dr. Kshama Chaturvedi

मनीषा तो जैसे आगे कुछ सुन ही नहीं पा रही थी. कौन है यह शोभा और सुशांत क्यों इसे सारी बातें बताता रहा है. उस का माथा भन्नाने लगा. ‘‘देखिए, आप सुशांत को फोन दें.’’

‘‘हां सुशांत, तुम अपने घरवालों से बात कर लो.’’

‘‘पर मनीषा…’’ सुशांत कह रहा था, पर मनीषा ने तब तक मोबाइल बंद कर दिया था. 2 बार घंटी बजी थी, पर उस ने फोन उठाया ही नहीं.

‘ओफ, क्या सोचा था और क्या हो गया. अब वह क्या करे. सुहावने सपनों का महल जैसे भरभरा कर गिर गया. अब अजमेर जा कर मांपापा से क्या कहेगी,’ उस का दिमाग काम नहीं कर रहा था.

मोबाइल की घंटी लगातार घनघना रही थी. नहीं, उसे अब सुशांत से कोई बात नहीं करनी और वह गर्लफैंड. वह खुद को बुरी तरफ अपमानित अनुभव कर रही थी. कहां तो अभी इतनी तेज भूख लग रही थी, लेकिन अब भूखप्यास सब गायब हो गई थी. कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था कि अब क्या करे? मांपापा को फोन पर तो यह सब बताना ठीक नहीं रहेगा, वे लोग घबरा जाएंगे. मां तो वैसे ही ब्लडप्रैशर की मरीज हैं.

और उसे यह भी नहीं पता कि आखिर वह शोभा है कौन? सुशांत उस के कहने भर से शादी स्थगित कर रहा है या फिर शादी के लिए मना ही कर रहा है.

ठीक है, उसे भी ऐसे आदमी के साथ जिंदगी नहीं बितानी है, अच्छा हुआ अभी सारी बातें सामने आ गईं और उस ने नौकरी से अभी रिजाइन नहीं दिया वरना मुश्किल हो जाती.

पर चारों तरफ सवाल ही सवाल थे और वह कोईर् उत्तर नहीं खोज पा रही थी. रोतेरोते उस की आंखें सूज गई थीं.

‘नहीं, उसे कमजोर नहीं पड़ना है, जब उस की कोई गलती ही नहीं है तो वह क्यों हर्ट हो,’ यह सोच कर वह उठी ही थी कि मोबाइल की घंटी फिर बजने लगी थी. सुशांत का ही फोन होगा. अब फोन मुझे स्विचऔफ करना होगा, यह सोच कर उस ने मोबाइल उठाया. पर यह तो सरलाजी थीं, सुशांत की मां. अब ये क्या कह रही हैं.

उधर से आवाज आ रही थी, ‘‘हां, मनीषा बेटी, मैं हूं सरला.’’

‘‘हां, आंटी,’’ बड़ी मुश्किल से उस ने अपनी रुंधि हुई आवाज को रोका.

‘‘बेटी, यह मैं क्या सुन रही हूं, अभीअभी सुशांत का फोन आया था. अरे बेटे, शादी क्या कोई मजाक है. क्यों मना कर रहा है वह. उस के पापा तो इतने नाराज हुए कि उन्होंने उस का फोन ही काट दिया. अब पता नहीं यह शोभा कौन है और क्यों वह इस के बहकावे में आ रहा है, पर बेटी, मेरी तुम से विनती है, तुम एक बार बात कर के उसे समझाओ.’’

‘‘आंटी, अब मैं क्या कर सकती हूं,’’ मनीषा ने अपनी मजबूरी जताते हुए कहा.

‘‘बेटा, तू तो बहुत कुछ कर सकती है, तू इतनी समझदार है, एक बार बात कर उस से. अब हम तो तुझे अपनी बहू मान ही चुके हैं.’’

‘‘ठीक है आंटी, मैं देखूंगी,’’ कह कर मनीषा ने मोबाइल स्विचऔफ कर दिया था. अब नहीं करनी उसे किसी से भी बात. अरे, क्या मजाक समझ रखा है. बेटा कुछ कहता है तो मां कुछ और, और मैं क्यों समझाऊं किसी को. मैं ने क्या कोई ठेका ले रखा सब को सुधारने का, मनीषा का सिरदर्द फिर से शुरू हो गया था, रातभर वह सो भी नहीं पाई.

फिर सुबहसुबह उठ कर बालकनी में आ गई. अभी सूर्योदय हो ही रहा था. ‘नहीं, कुछ भी हो उसे उस शोभा को तो मजा चखाना ही है, भले ही यह शादी हो या नहीं, पर यह शोभा कौन होती है अड़ंगे लगाने वाली. वह एक बार तो बेंगलुरु जाएगी ही,’ सोचते हुए उस ने मोबाइल से ही बेंगलुरु की फ्लाइट का टिकट बुक करा लिया था. फिर तैयार हो कर उस ने सुशांत को फोन कर दिया, वह अब औफिस आ चुका था.

‘‘मैं बेंगलुरु आ रही हूं, तुम से तुम्हारे औफिस में ही मिलूंगी.’’

‘‘अच्छा, पर…’’

‘‘पहुंच कर बात करते हैं,’’ कह कर उस ने फोन रख दिया था.

एकाएक यह कदम उठा कर उस ने ठीक भी किया है या नहीं, यह वह अब तक समझ नहीं, पा रही थी, पर जो भी हो फ्लाइट का टिकट तो बुक हो ही चुका है, पर बेंगलुरु में ठहरेगी कहां. एकाएक उसे अपनी सहेली विशु याद आ गई. हां, विशु बेंगलुरु में ही तो जौब कर रही है. उसे फोन लगाया, ‘‘अरे मनीषा, व्हाट्स सरप्राइज…पर तू अचानक…’’ विशु भी चौंक गई थी.

‘‘बस, ऐसे ही, औफिस का एक काम था, तो सोचा कि तेरे ही पास ठहर जाऊंगी, तुम वहीं हो न.’’

‘‘हां, हूं तो बेंगलुरु में, पर अभी किसी काम से मुंबई आई हुई हूं, कोई बात नहीं, मां है वहां, तू घर पर ही रुकना. तू पहले भी तो मां से मिल चुकी है, तो उन्हें भी अच्छा लगेगा. मुझे तो अभी हफ्ताभर मुंबई में ही रुकना है.’’

‘‘ठीक है, मैं आती हूं, वहां पहुंच कर तुझे फोन करूंगी.’’

फिर उस ने मां को अजमेर फोन कर के कह दिया कि अभी छुट्टी मिल नहीं पा रही है, 2 दिनों बाद आ पाऊंगी.

बेंगलुरु पहुंचतेपहुंचते शाम हो गई थी. सुशांत औफिस में ही उस का इंतजार कर रहा था.

‘‘अचानक कैसे प्रोग्राम बन गया,’’ उसे देखते ही सुशांत बोला था.

मनीषा ने किसी प्रकार अपने गुस्से पर काबू रखा और कहा, ‘‘बस…शादी नहीं हो रही तो क्या, दोस्त तो हम हैं ही, सोचा कि मिल कर बात कर लेती हूं कि आखिर वजह क्या है शादी टालने की, फिर मुझे कुछ काम भी था बेंगलुरु में तो वह भी हो जाएगा.’’ आधा सच, आधा झूठ बोल कर उस ने बात खत्म की.

‘‘हांहां, चलो, पहले कहीं चल कर चायकौफी पीते हैं, तुम थकी हुई होगी.’’ कौफी शौप में कौफी पी कर बाहर निकले तो सुशांत ने कहा, ‘‘मैं ने शोभा को भी फोन कर दिया था तो वह घर पर हमारा इंतजार कर रही है, पहले घर चलें.’’

‘शोभा…पहले इस शोभा को ही देखा जाए,’ वह मन ही मन सोचते हुए मनीषा ने कहा, ‘‘जैसा तुम ठीक समझो,’’ कहते हुए मनीषा के शब्द भी लड़खड़ा गए थे.

औफिस घर के पास ही था, घर के बाहर लौन में शोभा इंतजार करती मिली उन दोनों का.

‘‘आइए, आइए,’’ गेट पर खड़ी महिला को देख कर मनीषा चौंकी, तो यह है शोभा, यह तो

40-45 साल की होगी, हां, बनावशृंगार कर के खुद को चुस्त बना रखा है, पर यह सुशांत की फ्रैंड कैसे बनी, उस का दिमाग फिर चकराने लगा था.

गिरफ्त: भाग 3- क्या सुशांत को आजाद करा पाई शोभा

Writer- Dr. Kshama Chaturvedi

‘‘मनीषा, यह है शोभा, बहुत खयाल रखती है मेरा, बेंगलुरु जैसे शहर में एक तरह से इस पर ही निर्भर हो गया हूं मैं.’’

‘‘हांहां, अंदर तो चलो,’’ शोभा कह रही थी. अंदर सीधे वह डाइनिंग टेबल पर ही ले गई. कौफीनाश्ता तैयार था. शोभा ने बातचीत भी शुरू की, ‘‘मनीषा, असल में सुशांत काफी परेशान थे कि तुम्हें कैसे मना करें शादी के लिए, क्योंकि तैयारी तो सब हो चुकी होगी, पर अभी शादी के लिए सुशांत खुद को तैयार नहीं कर पा रहे थे. तो मैं ने ही इन से कहा कि तुम मनीषा से बात कर लो, वह सुलझी हुई लड़की है. तुम्हारी प्रौब्लम जरूर समझेगी. असल में ये तुम्हारी सारी बातें मुझे बताते रहते थे तो मैं भी तुम्हारे बारे में बहुत कुछ जान गई थी,’’ कह कर शोभा थोड़ी मुसकराई.

मनीषा समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे, बड़ी मुश्किल से उस ने खुद को संभाला और फिर बोली, ‘‘शोभाजी, मैं बस 2 दिनों के लिए आई हूं और अपनी एक फ्रैंड के यहां रुकी हूं. मैं चाहती हूं कि मैं और सुशांत बाहर जा कर कुछ बात कर लें, अगर आप चाहें तो.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं, खाना खा कर जाना, खाना तैयार है.’’ फिर शोभा ने सुशांत की तरफ देखा था, ‘‘तुम्हारी पसंद की चिकनबिरयानी बनाई है, अगर मनीषा को नौनवेज से परहेज हो तो कुछ और…’’

‘‘नहींनहीं, हम लोग बाहर ही खा लेंगे, चलते हैं,’’ कह कर मनीषा उठ गई तो सुशांत को भी खड़ा होना पड़ा. उधर, मनीषा सोच रही थी कि सुशांत तो कहता था कि वह तो नौनवेज खाता ही नहीं है, फिर… पर हां, यह तो समझ में आ ही गया कि अच्छा खाना खिला कर सुशांत को फुसलाया जा रहा है.

शोभा का मुंह उतर गया था, पर मनीषा सुशांत को ले कर बाहर आ गई. ‘‘कहां चलें?’’ सुशांत ने मनीषा से पूछा.

‘‘कहीं भी, तुम तो इतने समय से बेंगलुरु में रह रहे हो, तुम्हें तो पता ही होगा कि कहां अच्छे रैस्तरां हैं. वैसे, अभी मुझे खाने की कोई इच्छा नहीं है, इसलिए पहले कहीं गार्डन में बैठते हैं.’’

कुछ देर पास में बगीचे में पड़ी बैंच पर ही दोनों बैठ गए.

मनीषा ने ही बात शुरू की, ‘‘हां, अब बताओ, क्या कह रहे थे तुम शोभाजी के बारे में.’’

फिर सुशांत ने जो कुछ बताया, मनीषा चुपचाप सुनती रही. पता चला कि शोभा के पति विदेश में हैं. यहां वह अपने 2 बच्चों के साथ रह रही है. बच्चे पढ़ रहे हैं. सुशांत से शोभाजी को बहुत सहारा है. सुशांत उस की आर्थिक मदद भी कर रहा है. बातों ही बातों में मनीषा समझ गई थी कि सुशांत से काफी पैसा शोभाजी ने उधार भी ले रखा है. इसलिए सोच रही होगी कि ऐसे मुरगे को आसानी से कैसे जाने दें.

‘‘बहुत खयाल रखती है शोभा मेरा,’’ सुशांत बारबार यही कह रहा था.

‘‘देखो सुशांत, हो सकता कि शोभाजी जैसा बढि़या खाना मैं तुम्हें बना कर न खिला सकूं, पर फिर भी कोशिश करूंगी.’’  मनीषा ने मजाक किया तो सुशांत चौंक गया, ‘‘नहीं, यह बात नहीं है,’’ सुशांत ने सकुचाते हुए कहा, ‘‘पुणे वाली जौब के लिए अप्लाई कर दिया था न तुम ने?’’

‘‘वह…मैं कर ही रहा था पर शोभा ने मना कर दिया कि अभी रहने दो.’’

‘‘हां, क्योंकि अभी शोभाजी को तुम्हारी जरूरत है,’’ न चाहते हुए भी मनीषा के मुंह से निकल ही गया. सुशांत अवाक था.

उधर, मनीषा कहे जा रही थी, ‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी इच्छा, पर एक बात जरूर कहूंगी कि शोभाजी कभी भी तुम्हें बेंगलुरु से बाहर नहीं जाने देंगी, क्योंकि तुम जरूरत हो उन की. तुम्हारा इतना पैसा उन के बच्चों की पढ़ाई पर लगा है. अब तुम्हें जो करना है करो. अगर सोच सको तो शोभाजी के बारे में न सोच कर अपना हित सोचो. शोभाजी क्या, उन्हें और पेइंगगैस्ट मिल जाएंगे. बेंगलुरु में तो ऐसे बहुत लोग होंगे.’’

सुशांत एकदम चुप था.

‘‘चलो, अब खाना खाते हैं, फिर मुझे मेरी फ्रैंड के यहां छोड़ देना,’’ मनीषा ने बात खत्म की.

‘‘अभी तो तुम रुकोगी?’’

‘‘हां, कल शाम को मिलते हैं, फिर रात को मेरी फ्लाइट है, बस जो कुछ मैं ने कहा है, उस पर विचार करना. अब तक मनीषा ने अपनेआप को काफी संयत कर लिया था. उसे जो कहना था कह दिया. अब सुशांत जो चाहे करे पर वह इतना कमजोर इंसान होगा, इस की उस ने कल्पना नहीं की थी.’’

दूसरे दिन सुशांत सुबह ही उसे लेने आ गया था, ‘‘मैं तो रातभर सो ही नहीं पाया मनीषा, और आज औफिस से मैं ने छुट्टी ले ली है. आज पूरा दिन मैं तुम्हारे साथ ही बिताऊंगा और हां, रात को ही पुणे की पोस्ट के लिए भी मैं ने अप्लाई कर दिया है.’’

उस की बातें सुन कर मनीषा भी आश्चर्यचकित थी.

फिर रास्ते में ही सुशांत ने कहा, ‘‘मैं रातभर तुम्हारी बातों पर ही विचार करता रहा. शायद तुम ठीक ही कह रही हो. मैं आज मां से भी बात करता हूं. शादी की तारीख वही रहने दो…’’

‘‘नहीं सुशांत,’’ मनीषा ने उसे रोक दिया.

‘‘इतनी जल्दी भी नहीं है. तुम खूब सोचो और पुणे जा कर फिर मुझ से बात करना, अभी तो मैं भी शादी की डेट आगे बढ़ा रही हूं. जब तुम अपने भविष्य के बारे में सुनिश्चित हो जाओ, तभी हम बात करेंगे शादी की.’’

‘‘पर मनीषा…मैं…’’

‘‘हां, हम बात तो करते रहेंगे न, आखिर दोस्त तो हम हैं ही. कुछ जरूरत हो तो पूछ लेना मुझ से.’’

पूरा दिन सुशांत के साथ ही गुजरा, एअरपोर्ट पहुंच कर फिर उस ने कहा था, ‘‘तुम मेरा इंतजार तो करोगी न…’’

‘‘हां, क्यों नहीं…’’ कह कर मनीषा हंस पड़ी थी.

प्लेन के टेकऔफ करते ही वह अपनेआप को हलका महसूस कर रही थी. भविष्य में जो भी हो, पर फिलहाल शोभाजी की गिरफ्त से तो उस ने सुशांत को आजाद करा ही दिया.

रहने के लिए एक मकान

लेखक- एस. भाग्यम शर्मा

मैं अपने गांव लौटने लगा तो मेरे आंखों में आंसू झिलमिला रहे थे. मेरे दोहेते अपने घर के बालकनी से प्रेम से हाथ हिला रहे थे,”बाय ग्रैंड पा, सी यू नाना…”

धीरेधीरे मैं बस स्टैंड की ओर चल दिया.

मैं मन ही मन सोचने लगा,’बस मिले तो 5 घंटे में मैं अपने गांव पहुंच जाऊंगा. जातेजाते बहुत अंधेरा हो जाएगा, फिर बस स्टैंड पर उतर कर वहां एक होटल है. उस में कुछ खापी कर औटो से अपने घर चला जाऊंगा.’

2 साल पहले मेरी पत्नी बीमार हो कर गुजर गई. तब से मैं अकेला ही हूं. मेरे गांव का मकान पुस्तैनी है. उस की छत टिन की है. पहले घासपूस की छत थी.

जब एक बार बारिश में बहुत परेशानी हुई तब टिन डलवा दिया था. मेरा एक भाई था वह भी कुछ साल पहले ही चल बसा था. अब इस घर में आखिरी पीढ़ी का रहने वाला सिर्फ मैं ही हूं.

मेरी इकलौती बेटी बड़े शहर में है अत: वह यहां नहीं आएगी. जब बारिश होती है तो छत से यहांवहां पानी टपकता है. एक बार इतनी बारिश हुई कि दूर स्थित एक बांध टूट गया और कमर भर पानी मकान के अंदर तक जा घुसा था. कई बार सोचा घर की मरम्मत करा दूं पर इस के लिए भी एकाध लाख रूपए तो चाहिए ही.

मैं सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त हुआ हूं अत: मुझे पैंशन मिलती है. उम्र के साथ दवा भी खाने होते हैं मगर फिर भी इस खर्च के बाद थोड़ाबहुत बच जरूर जाता है.

2 महीने में एक बार मैं शुक्रवार को दोहेतो को देखने की उत्सुकता में बेटी के घर जा कर 2-3 दिन ठहर कर खुशीखुशी दिन बिता कर मैं वापस आ जाता हूं. इस से ज्यादा ठहरना मुझे ठीक नहीं लगता.

मेरे दामाद अपना प्रेम या विरोध कुछ भी नहीं दिखाते. मैं घर में प्रवेश करता तो एक मुसकान छोड़ अपने कमरे में चले जाते.

दामाद शादी के समय बिल्डिंग बनाने वाली बड़ी कंपनी में सीनियर सुपरवाइजर थे. जो मकान बने वे बिक न सके. बैंक से उधार लिए रुपए को न चुकाने के कारण कंपनी बंद हो गई थी. तब से वह रियल ऐस्टेट का ब्रोकर बन गया.

“कुदरत की मरजी से किसी तरह सब ठीकठाक चल रहा है पापा,” ऐसा मेरी बेटी कहती.

पति की नौकरी जब चली गई थी तब मेरी बेटी दोपहर के समय टीवी सीरियल न देख कर सिलाई मशीन से अड़ोसपड़ोस के बच्चों व महिलाओं के कपड़े सिल कर कुछ पैसे बना लेती.

“पापा, आप ने कहा था ना कि बीए कर लिया है तो अब बेकार मत बैठो, कुछ सीखना चाहिए. तब मैं सिलाई सीखी. वह अब मेरे काम आ रही है पापा,” भावविभोर हो कर वह कहती.

पिछली बार जब मैं गया था तो दोहेतो ने जिद्द की, “नानाजी, आप हमारे साथ ही रहो. क्यों जाते हो यहां से?”

बच्चे जब यह कह रहे थे तब मैं ने अपने दामाद के चेहरे को निहारा. उस में कोई बदलाव नहीं.

मेरी बेटी रेनू ही आंखों में आंसू ला कर कहती,”पापा… बच्चों का कहना सही है. अम्मां के जाने के बाद आप अकेले रहते हैं जो ठीक नहीं. आप बीमार भी रहते हो.”

वह कहती,”पापा, हमारे मन में आप के लिए जगह है पर घर में जगह की कमी है. आप को एक कमरा देना हो तो 3 रूम का घर चाहिए. रियल ऐस्टेट के बिजनैस में अभी मंदी है. तकलीफ का जीवन है. इस घर में बहुत दिनों से रहते आए हैं अत: इस का किराया भी कम है. अभी इस को खाली करें तो दोगुना किराया देने के लिए लोग तैयार हैं. क्या करें? इस के अलावा मेरा सिरदर्द जबतब आ कर परेशान करता है.”

मैं बेटी को समझाता,”बेटा रो मत. यह सब कुछ मुझे पता है. अब गांव में भी क्या है? मुझे तुम्हारे साथ ही रहना है ऐसा भी नहीं. पड़ोस में एक कमरे का घर मिल जाए तो भी मैं रह लूंगा. मैं अभी ₹21 हजार पैंशन पाता हूं. ₹6-7 हजार भी किराया दे कर रह लूंगा. अकेला तो हूं. तुम्हारे पड़ोस में रहूं तो मुझे बहुत हिम्मत रहेगी,” यह कह कर मैं ने बेटी का चेहरा देखा.

“अरे, जाओ पापा… अब सिंगलरूम कौन बनाता है? सब 2-3 कमरों का बनाते हैं. मिलें तो भी किराया ₹10 हजार. यह सब हो नहीं सकता पापा,” कह कर बेटी माथे को सहलाने लग जाती.

अगली बार जब मैं बेटी के घर गया, तब एक दिन सुबह सैर के लिए निकला. अगली 2 गलियों को पार कर चलते समय एक नई कई मंजिल मकान को मैं ने देखा जो कुछ ही दिनों में पूरा होने की शक्ल में था.

उस में एक बैनर लगा था,’सिंगल बैडरूम का फ्लैट किराए पर उपलब्ध है.’

मुझे प्रसन्नता हुई और उत्सुकता भी. वहां एक बैंच पर सिक्योरिटी गार्ड बैठा था. मैं ने उस से जा कर पूछताछ की.

“दादाजी, उसे सिंगल बैडरूम बोलते हैं. मतलब एक ही हौल में सब कुछ होता है. 1-2 से ज्यादा नहीं रह सकते. आप कितने लोग हैं?” वह बोला.

“मैं बस अकेला ही हूं. मेरी बेटी पड़ोस में ही रहती है. इसीलिए यहां लेना चाहता हूं.”

“अच्छा फिर तो ठीक है. घर को देखिएगा…” कह कर अंदर जा कर चाबी के गुच्छों के साथ बाहर आया.

दूसरे माले में 4 फ्लैट थे.

“इन चारों के एक ही मालिक हैं. 3 फ्लैटों के पहले ही ऐडवांस दे चुके हैं.”

उस ने दरवाजे को खोला. लगभग 250 फुट चौड़ा और लंबा एक हौल था. उस में एक तरफ खाना बनाने के लिए प्लेटफौर्म आधी दीवार खींची थी. दूसरी तरफ छोटा सा बाथरूम बड़ा अच्छा व कंपैक्ट था.

“किराया कितना है?” मैं ने पूछा.

“मुझे तो कहना नहीं चाहिए फिर भी ₹ 7 हजार होगा क्योंकि इसी रेट में दूसरे फ्लैट भी दिए हैं. ऐडवांस ₹50 हजार है. रखरखाव के लिए ₹500-600 से ज्यादा नहीं होगा. मतलब सबकुछ मिला कर ₹7-8 हजार के अंदर हो जाएगा दादाजी,” वह बोला.

“ठीक है भैया, इसे मुझे दिला दो. मालिक से कब बात करें?”

“अभी बात कर लो. एक फोन लगा कर बुलाता हूं. आप बैठिए,” वह बोला.”

वहां एक प्लास्टिक की कुरसी थी. मैं उस पर बैठ कर इंतजार करने लगा.

सिक्योरिटी गार्ड ने बताया,“वे खाना खा रही हैं. 10-15 मिनट में पहुंच जाएंगी. तब तक आप यह अखबार पढ़िए.”

मालिक से बात कर किराया थोड़ा कम करने के बारे में पूछ लूंगा. फिर एक औटो पकड़ कर घर जा कर लड़की को भी ला कर दिखा कर तय कर लेंगे. बेटी इस मकान को देख कर आश्चर्य करेगी.

ऐडवांस के बारे में कोई बड़ी समस्या नहीं है. मैं पास के एक बैंक में हर महीने जो पैसे जमा कराता हूं उस में ₹30 हजार के करीब तो होंगे ही.बाकी रुपयों के लिए पैंशन वाले बैंक से उधार ले लूंगा. फिर एक दिन शिफ्ट हो जाऊंगा.

यहां आने के बाद एक आदमी का खाना और चाय का क्या खर्चा होगा?

‘आप खाना बनाओगे क्या पापा,’ ऐसा डांट कर बेटी प्यार से खाना तो भिजवा ही देगी.

खाना बनाने का काम भी बच जाएगा. पास में लाइब्रैरी तो होगा ही. वहां जा कर दिन कट जाएगा.

सामने की तरफ थोड़ी दूर पर एक छोटा सा टी स्टौल था. मैं ने सोचा 1 कप चाय पी कर हो आते हैं. तब तक मकानमालकिन भी आ ही जाएगी.

वहां कौफी की खुशबू आ रही थी | मैं ने सोचा कि कौफी पी लूं. यहां रहने आ जाऊंगा तो नाश्ते और चाय की कोई फिकर नहीं रहेगी.

पैसे दे कर वापस आया तो सिक्योरिटी गार्ड बोला,“घर के औनर आ गए हैं. वे ऊपर गए हैं. आप वहीं चले जाइए.”

मैं धीरेधीरे सीढ़ियां चढ़ने लगा. ऊपर पहुंच कर औनर को नमस्कार बोला.

पीठ दिखा कर खड़ी वह महिला धीरे से मुड़ी तो वह मेरी बेटी रेणू थी.

जीवनज्योति- भाग 2: क्या हुआ था ज्योति के साथ

ज्योति तो उन के दिल का टुकड़ा थी, उसे मर जाने तक को कह दिया उन्होंने. कैसे निकली यह बात उन की जबान से. खुद को धिक्कारते हुए बिस्तर से उतर कर विक्षिप्तों की तरह टहलने लगे थे मुंशीजी. बारबार एक ही यक्षप्रश्न, आखिर कैसे हुआ यह हादसा?

आत्मग्लानि की आग से पसीज उठा था उन का सर्वस्व. यह सोच कर अपने कमरे से निकल गए थे कि ज्योति बिटिया को सारा अंतर्द्वंद्व, सारी व्यथा सुना कर पश्चात्ताप कर लेंगे.

…इस बार मुंशीजी की व्यथा सुमित्रा नहीं सह सकी. लौट कर बिस्तर पर उन के लेटते ही धीरे से उन के सीने पर हाथ रखा था सुमित्रा ने. करवट बदल कर मुंशीजी ने भी देखा था सुमित्रा की बंद पलकों से सहानुभूति की बूंदें अब भी लुढ़क रही थीं.

आंख लगी ही थी कि अचानक चिहुंक कर जाग गई ज्योति.

बाबूजी का क्रोध एवं आवेश में फुंफकारता चेहरा अवचेतन से निकल कर बारबार उसे डरा रहा था. प्रतिध्वनित हो रही थी वही सारी दिल दरकाती बातें जो उस के अंतस में बहुत दूर जा कर धंस गई थीं. इस असह्य पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए ज्योति कईकई प्रयास कर चुकी थी, पर सब बेकार.

अचानक ही उस का चेहरा सख्त हो गया. आंखों में बेगानेपन का एक ऐसा मरुस्थल उतर आया था जहां मोहमाया, वेदनासंवेदना, मानअपमान के न तो झाड़झंखाड़ थे और न ही आंसूअवसाद का कोई अस्तित्व. एक निर्णय ने उस के भय के सारे अंतर्द्वंद्वों को धो डाला था और दरवाजे का सांकल खोल, अमावस की इस काली निशा में वह गुम हो गई थी.

वह अपने घर से जितनी दूर होती जा रही थी, बाबूजी का स्वर अनुगूंज अंतस में और अधिक शोर मचाने लगा था. वह जल्द से जल्द उस पुल पर पहुंच जाना चाहती थी जहां नदी का अथाह पानी उसे इन तमाम पीड़ाओं से मुक्ति दिला कर अपने आगोश में बहा ले जाता. दूर, बहुत दूर.

इस धुन में उस की चाल तेज, और तेज होती जा रही थी. बाहर में गूंजते बाबूजी के शब्द ‘मरती क्यों नहीं…नदी, तालाब में डूब क्यों नहीं जाती…बोझ है…अभिशाप है…’ और अंदर में जान दे देने की, खुद को मिटा देने की एक खीझभरी जिद.

अचानक ज्योति को लगा कि बाबूजी की आवाज के साथसाथ कहीं से कोई दूसरा स्वर भी घुलमिल कर आ रहा है. उस ने थोड़ा थम कर उस आवाज को गौर से सुननेसमझने की चेष्टा की थी. हां, कोई तो था जो दबे स्वर में उसे बारबार पुकार रहा था, ‘ज्योति…ज्योति…ज्योति…’

एक पल को ठिठक गई ज्योति. पलट कर उस ने चारों ओर देखा तो कोई नहीं था दूरदूर तक. तो फिर कौन है इस निर्जन वन में जो उसे आवाज दे रहा था.

‘‘आत्महत्या करने जा रही हो ज्योति,’’ करीब आता स्वर सुनाई दिया ज्योति को.

ज्योति ने खीज कर पूछा था, ‘‘देखो, तुम जो भी हो मेरे सामने आ कर बात करो. मुझे डराने की कोशिश मत करो. आखिर कौन हो तुम?’’ ज्योति ने अपना मन कड़ा किया था.

‘‘मौत के जिस रास्ते पर तुम जा रही हो उसी रास्ते में मैं तुम्हारे सामने हूं, ज्योति.’’

कानों पर तो यकीन हो रहा था, मगर कहीं आंखें तो धोखा नहीं दे रही हैं उसे. पलकों को कस कर भींचा और झपकाया था ज्योति ने. विस्फारित नेत्रों से इस अंधेरे की खाक छान रही थी वह. कुछ भी तो नहीं था आसपास.

‘‘सामने? खड़े हो तो दिखाई क्यों नहीं देते?’’

‘‘इसलिए कि तुम मुझे देखना नहीं चाहतीं. देखो, मैं ठीक तुम्हारे सामने आ कर खड़ा हो गया हूं देख रही हो मुझे?’’

‘‘नहीं…मगर तुम चाहते क्या हो, कौन हो तुम?’’ गहराते रहस्य ने ज्योति की व्यग्रता को और उत्प्रेरित किया था.

‘‘मुझे अनदेखा कर रही हो तुम. जरा दिल की गहराइयों में मन की आंखों से देखो, ज्योति…मैं जीवन हूं.’’

‘‘जीवन, कौन जीवन? मैं किसी जीवन को नहीं जानती…’’

‘‘तुम जैसी समझदार लड़की के मुंह से इस तरह की बातें अच्छी नहीं लगतीं. मुझे पहचानो. मैं जीवन हूं, तुम्हारा जीवन.’’

‘‘बकवास बंद करो और हट जाओ मेरे रास्ते से.’’

अदृश्य तत्त्व का स्वर फिर ज्योति के कानों से टकराया था, ‘‘ठीक है, तुम्हारे रास्ते से हट जाऊंगा, मगर मुझे बता दो कि क्या तुम सचमुच आत्महत्या करने जा रही हो या…’’

‘‘जी हां, मैं सच में आत्महत्या ही करने जा रही हूं. पुल से नदी में कूद कर जान दे दूंगी, और कुछ?’’

एक क्षण की खामोशी और फिर, ‘‘अरे हां, सुनो? ज्योति, जब तक तुम मर नहीं जातीं, तब तक क्या मैं तुम्हारे साथ चल सकता हूं? इस बीच बातें करते हुए तुम्हारा यह अंतिम सफर भी अच्छे से कट जाएगा…तो चलूं तुम्हारे साथ?’’

‘‘तुम आओ या जाओ, मेरी बला से,’’ एकदम से भन्ना कर बोली ज्योति.

और एक झटके के साथ आगे बढ़ी तो अनजान रास्ता और उस पर से किसी अदृश्य रहस्य की उपस्थिति का आभास. इसी घबराहट में किसी कटे पेड़ के ठूंठ से जा टकराई और दर्द से बिलबिला उठी थी.

फिर वही आवाज, ‘‘चोट लग गई न. बिना सोचेसमझे तुम कितने दुर्गम रास्ते पर निकल पड़ी हो, ज्योति.’’

‘मर नहीं जाऊंगी इन छोटीमोटी ठोकरों से,’ क्रोध के मनोवेग से चीखती हुई बड़बड़ाने लगी थी, ‘…बहुत चोटें सही हैं मैं ने अपने कलेजे पर…मर तो नहीं गई मैं. हां, मरूंगी…आत्महत्या करूंगी. मुझे चोट लगे, तुम्हें इस से क्या मतलब?’

‘‘नहीं, कोई मतलब नहीं. मगर मैं नहीं चाहता कि मरने से पहले तुम्हारे शरीर पर कोई चोट लगे. क्योंकि तुम्हारी चोट से मैं भी आहत होता हूं. जानती हो ज्योति, आत्महत्या में ऐसा भी होता है कि कई बार आदमी मर नहीं पाता. टूटफूट कर एक लंगड़ेलूले, अपंगता की जिंदगी जीता है. तब वह दोबारा आत्महत्या का प्रयास भी नहीं करता. क्योंकि एक बार के प्रयास का कठोर एहसास जो उसे होता है.’’

खामोश रहना ही उचित समझा था उस ने. कदम और तेज हो गए थे उस के संकल्पित लक्ष्य की ओर. तभी जीवन ने फिर पूछा, ‘‘तुम आत्महत्या क्यों करना चाहती हो?’’

इस तरह चुप रह कर आखिर कब तक वह इस आफत को टालती. गरज उठी थी, ‘‘क्या बताऊं मैं, क्या दुखड़ा रोऊं मैं, तुम जैसे अनजान, अदृश्य, गैर के सामने? यह बताऊं कि एक गरीब मुनीम के घर हम 3 बेटियां अभिशाप हैं, एक बोझ हैं हम. सब से बड़ी बोझ मैं, ज्योति सहाय, एम.ए. फर्स्ट क्लास. फर्स्ट… मगर नौकरी के लिए मोहताज…’’

‘‘मगर बेरोजगारी की समस्या तो सिर्फ तुम्हारे अकेले की समस्या नहीं है. यह तो एक आम सामाजिक बीमारी है जिस से हर कोई जूझ रहा है.’’

‘‘हां, बेरोजगारी मेरे अकेले की समस्या नहीं. मगर मैं एक समस्या हूं, गरीब बाप के सर पर पड़ी एक बोझ, क्या तुम नहीं जानते कि समाज में मध्य वर्गीय लड़कियों के लिए कई वर्जनाएं हैं. बातबात में मातापिता की पगडि़यां उछलती हैं. हर वक्त खानदान की इज्जत और भविष्य के सामने बदनामी, लोकलज्जा, मुंह चिढ़ाता समाज नजर आता है और वैसे भी लोग एक मजबूर, जरूरतमंद, गरीब और जवान लड़की को सिर्फ देखते ही नहीं, बल्कि निर्वस्त्र कर के महसूस भी करते रहते हैं. लेकिन तुम हो कौन, जो परत दर परत मुझ से सब कुछ जान लेना चाहते हो?’’

‘‘मैं ने कहा न, मैं जीवन हूं, तुम्हारा जीवन. बिलकुल सत्य और संघर्षों से भरा हूं. कोई मुझे प्यार का गीत समझ कर गुनगुनाता है तो कोई पहेली, कोई जंग समझता है. मैं तो एक सच हूं, ज्योति, मगर इतना कमजोर कि स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकता. मौत के कू्रर पंजे एक झटके में मुझे शरीर से अलग कर देते हैं. मेरी भौतिकता ही खत्म कर देते हैं. और जबजब अपने अस्तित्व पर मुझे खतरा महसूस होता है, लोगों के सामने आता हूं, बातें करता हूं, खुद को तसल्ली देता हूं. आज भी तो इसीलिए आया हूं तुम्हारे पास, मेरी रक्षा करोगी न.’’

विचारों की इस उमड़घुमड़ में ज्योति इतना गुम हो गई कि जंगल कब खत्म हो गया पता तक नहीं चला. सड़क पर और तेज कदमों से उस पुल की दिशा में बढ़ गई थी वह जो अब ज्यादा दूर नहीं था. अचानक एक झटका सा लगा ज्योति को कि इतनी देर से जीवन ने कुछ कहा नहीं, कहां गया वह? इतना चुप तो रहने वाला नहीं था वह. कहीं चला तो नहीं गया अचानक.

आगे पढ़ें- अचानक ठठा कर हंस पड़ी ज्योति. कुछ ऐसा कि…

रिश्तों की मर्यादा- भाग 2: क्या तरुण ने नमिता को तलाक दिया?

राइटर- नीरज कुमार मिश्रा

नमिता अब भी बिस्तर पर पड़ी कसमसा रही थी. जब वह हथकड़ी से आजाद नहीं हो पाई, तो हार कर तरुण को ही उस के हाथों को खोलना पड़ा और उसे खोलते ही नमिता नीचे पड़े हुए अपने कपड़ों को पहनने लगी, तो तरुण उसे भद्दीभद्दी गालियां देने लगा और गुस्से में उसे 2 तमाचे और जड़ दिए.

‘‘तुम को मेरे साथ रहने का कोई हक नहीं है… तुम अभी और इसी समय मेरे घर से निकल जाओ,’’ एक फरमान सा सुना दिया था तरुण ने, जिसे सुनने के बाद नमिता इतना तो सम?ा गई थी कि इस समय तरुण के सामने रोने या गिड़गिड़ाने से कुछ नहीं होने वाला, इसलिए वह सिर ?ाकाए सुनती रही.

अपने पति के घर से निकाले जाने के बाद नमिता को कुछ सम?ा नहीं आ रहा था कि वह अब क्या करे और कहां जाए…

सड़क के किनारे बहुत देर तक नमिता शून्य की हालत में खड़ी रही और सड़क पर आनेजाने वाले सैकड़ों लोगों को देखती रही. काफी देर बाद उस ने सुदेश को फोन लगाया, तो सुदेश का मोबाइल स्विच औफ आ रहा था. शायद उस ने ऐसा तरुण के डर के चलते किया होगा या फिर वह नमिता से पीछा छुड़ाना चाहता है? ऐसे ढेरों सवाल नमिता के मन में थे.

आज से पहले नमिता ने कभी नहीं सोचा था कि अपने ही शहर में वह एकदम बेगानी हो जाएगी… तो क्या उस ने

एक पराए मर्द के साथ शारीरिक संबंध बना कर जो अपराध किया है, उस की सजा तो मिलनी ही चाहिए उसे… पर कैसा अपराध?

तरुण भी तो दूध के धुले नहीं हैं… कई बार तो नमिता ने खुद ही अपने कानों से उन्हें अपनी एक दोस्त से फोन पर बातें करते सुना है और फिर तरुण कई दिनों तक घर से बाहर भी तो रहते हैं… ऐसे में उस का किसी पराए मर्द के प्रति आकर्षित हो जाना सहज ही तो है.

नमिता अपने मन में तमाम बातें सोच रही थी और अपने मन को सम?ाने की कोशिश कर रही थी.

‘‘कहां जाना है मैडम आप को?’’ एक ईरिकशा वाले ने ब्रेक लगाते हुए पूछा.

‘‘घर जाना है मु?ो…’’ यह कहते हुए नमिता ईरिकशा में बैठ गई और उस से बसस्टैंड चलने को कहा.

बसस्टैंड पर आ कर नमिता अपने मायके यानी सीतापुर जाने वाली बस में बैठ गई. जल्दबाजी में वह पर्स लाना भूल गई थी और पास में पैसे तो थे नहीं, पर नमिता के हाथ में मोबाइल था. सो, टिकट की चिंता नहीं थी, क्योंकि आजकल बस वाले भी औनलाइन पैसे लेने से मना नहीं करते.

3 घंटे के सफर के बाद नमिता अपने मायके पहुंच गई थी. वहां पर सिर्फ उस के भैयाभाभी और विधवा मां ही थीं. सब से मिल कर वह ?ाठी खुशी दिखाने की कोशिश तो कर रही थी, पर मायके वालों को यह सम?ाते देर नहीं लगी कि पतिपत्नी में ?ागड़ा हुआ है.

हालांकि कुछ महीने बीत जाने के बाद नमिता ने खुद ही अपनी मां को सारी बात सचसच बता दी. मां कुछ बोल न सकीं, सिर्फ नमिता को गले से लगा लिया. नमिता का मन भर आया था.

नमिता की पढ़ाईलिखाई अब काम आई, जब जीविका चलाने और भैयाभाभी पर बो?ा न बने रहने के नाते उस ने सीतापुर में ही एक डिगरी कालेज में पढ़ाना शुरू कर दिया और वैसे भी नमिता के पास उस की पुरानी सेविंग्स तो थीं ही, इसलिए पैसे की ज्यादा चिंता नहीं थी उसे… और इस बीच उस ने कई बार कांपते हाथों से तरुण का नंबर मिलाया, पर वह कभी उठा नहीं…

जिंदगी में मुश्किल समय जल्दी नहीं बीतता… यही हाल नमिता का भी था, पर अब काम में बिजी हो जाने के चलते उस का समय भी बीत रहा था और घर में पैसे भी आ रहे थे, पर मायके में शादीशुदा लड़की का रहना आसपड़ोस के लोगों के लिए एक प्रपंच का विषय तो बन ही चुका था, लेकिन नमिता ने इन सब बातों की परवाह करनी छोड़ दी थी.

नमिता को लखनऊ छोड़े तकरीबन एक साल बीत गया था. इस बीच सुदेश का कई बार फोन भी आया, पर नमिता ने एक बार भी उस का फोन रिसीव नहीं किया.

तरुण ने कोई खोजखबर नहीं ली, पर आज एक नंबर से नमिता के मोबाइल पर एक फोन आया, तो उधर से तरुण की धीमी आवाज थी, ‘नमिता… क्या तुम मेरे पास आ सकती हो… कुछ जरूरी काम है और कुछ बात भी करनी है…’

नमिता बहुतकुछ बोलना चाहती थी, पर कुछ कह नहीं सकी. उसे लग रहा था कि निश्चित ही तरुण उसे तलाक देने के लिए कागजी कार्यवाही करना चाहता है.

नमिता ने सिर्फ हां में जवाब दिया और अगले दिन ही तरुण के पास पहुंच गई.

दरवाजा तरुण ने ही खोला. वह काफी थका सा लग रहा था. नमिता ने मन में सोचा था कि हो सकता है, तरुण ने किसी वकील को बुलाया हो जो कुछ कागजों पर दस्तखत करवाएगा, पर यहां तो ऐसा कुछ भी नहीं था. अलबत्ता, मेज पर कुछ दवाएं जरूर पड़ी हुई थीं.

‘‘दरअसल, तुम्हें घर से निकालने के बाद मैं काफी सदमे में रहा और कुछ दिन बाद बिस्तर से लग गया. चैकअप कराया, तो मुझे कैंसर निकला. मैं ने इलाज तो कराया, पर कोई फायदा नहीं हुआ और आगे महंगे इलाज के लिए मेरे पास पैसे भी नहीं थे…

रिश्तों की मर्यादा-भाग 1: क्या तरुण ने नमिता को तलाक दिया?

राइटर- नीरज कुमार मिश्रा

लखनऊ शहर के इंदिरानगर इलाके में बने हुए फ्लैट नंबर 256 में इस समय हवस से भरी फुसफुसाहटें गूंज रही थीं. फ्लैट की दीवारें नमिता और सुदेश के सैक्स की आवाजों की गवाह बनी हुई थीं.

सुदेश नमिता के तन पर लिपटा हुआ आखिरी कपड़ा भी अलग कर देना चाहता था, पर नमिता थी कि बारबार अपने बदन को सिकोड़ लेती थी.

सुदेश के एक हाथ में मोबाइल फोन का वीडियो रिकौर्डर चल रहा था, जिस से वह नमिता की वीडियो क्लिप बनाने में लगा हुआ था.

‘‘अब मेरी वीडियो क्लिप मत बनाओ… प्लीज,’’ नमिता ने बनावटी अंदाज में कहा, पर सुदेश ने उस की एक नहीं सुनी और नमिता के बदन पर लिपटा हुआ आखिरी कपड़ा भी हटा दिया.

अपने सामने नमिता के हुस्न का दीदार कर के सुदेश पागल हो उठा. उस ने अपना मोबाइल फोन एक तरफ रख दिया और नमिता के नंगे बदन पर अपने होंठों को बेतहाशा रगड़ने लगा.

नमिता ने भी अपनी आंखें बंद कर ली थीं और सुदेश भी पूरी तरह से जोश में आ चुका था.

सुदेश के मर्दाने और कठोर जिस्म ने नमिता के नरम और गुदगुदे जिस्म में प्रवेश कर लिया. नमिता भी अपने हाथों से सुदेश की पीठ को सहलाने लगी.

अभी दोनों ने सैक्स का मजा लेना ही शुरू किया था कि नमिता ने सुदेश से कहा, ‘‘तुम नीचे आओ… मैं तुम्हारे ऊपर आना चाहती हूं.’’

नमिता को इतने सैक्सी अंदाज में सुदेश ने पहले कभी नहीं देखा था. वह मुसकराने लगा और नमिता के बदन से बिना अलग हुए ही एक करवट ले कर नमिता के बदन के नीचे हो गया और अब नमिता सुदेश के ऊपर बैठी हुई थी.

‘‘सुदेश, तुम भले ही औफिस में मेरे बौस होगे, पर बिस्तर पर मैं तुम्हारी बौस हूं. यहां तो मेरी मरजी ही चलेगी… अब तुम देखो, मैं तुम्हे कैसे मजा देती हूं…’’

नमिता ने सुदेश की टांगों के बीच

में बैठेबैठे ही आंखें बंद कर लीं और

वे दोनों सैक्स के चरमसुख के लिए एकसाथ बढ़ चले.

कमरे की दूधिया रोशनी में नमिता का गोरा बदन मक्खन जैसा चमक रहा था. सुदेश की नजर नमिता पर पड़ी, तो उसे लगा कि जैसे वह किसी हाईक्लास धंधे वाली के साथ सैक्स कर रहा है.

नमिता के लटके?ाटकों से उन दोनों को चरमसुख मिल चुका था और नमिता एक मीठी सी हिचकी लेने के बाद सुदेश के सीने पर निढाल हो कर लिपट गई थी. दोनों बहुत देर तक एकदूसरे से चिपके पड़े रहे.

सुदेश एक पैसे वाला आदमी था. उस का औफिस लखनऊ के हजरतगंज में बने विशाल टौवर में था और उस के औफिस में ही नमिता काम करती थी.

नमिता 27 साल की एक शादीशुदा और काफी आकर्षक औरत थी. 5 फुट, 7 इंच की नमिता को अपनी लंबाई और हुस्न का गुमान भी था, इसलिए उस ने मौडलिंग में भी काम किया, पर वहां कुछ खास न कर पाने के चलते मौडलिंग को छोड़ दिया और प्राइवेट नौकरी करने लगी.

हालांकि नमिता को अभी सुदेश का औफिस जौइन किए हुए एक साल ही हुआ था, पर अपनी दिलकश अदाओं और खूबसूरती के चलते जल्दी ही उस

ने बौस सुदेश को अपने हुस्न का दीवाना बना दिया था.

सुदेश को नमिता के जिस्म का मजा मिलता, तो बदले में वह नमिता को नौकरी में प्रमोशन देता और आएदिन उस पर पैसे भी लुटाता रहता था.

उन दोनों में कई बार सैक्स हो चुका था, कभी किसी होटल में, तो कई बार तो वे दोनों कार के अंदर ही सैक्स का मजा ले चुके थे.

नमिता का पति तरुण एक सेल्स कंपनी में काम करता था, जिस के चलते उसे कभीकभी कई दिनों तक घर से बाहर रहना पड़ता था, पर ऐसा नहीं था कि तरुण शारीरिक रूप से या नमिता को बिस्तर पर संतुष्ट कर पाने में कुछ कमजोर था, बल्कि नमिता एक ऐसी औरत थी, जो खूबसूरत मर्दों की तरफ सहज ही आकर्षित हो जाती थी और अगर वह मर्द पैसे वाला है, तो उस के साथ फ्लर्ट करने से भी नहीं चूकती थी.

एक दिन सुदेश ने शाम के 4 बजे नमिता को अपने केबिन में बुलाया और बोला, ‘‘आज शाम का क्या प्लान है मैडम?’’

‘‘सर, आज शाम को मैं जल्दी घर जाने वाली हूं, क्योंकि आज मेरे पति को बाहर जाना है और फिर मेरी तबीयत भी ठीक नहीं लग रही है,’’ नमिता ने शरारत भरी मुसकराहट के साथ कहा, जिस पर सुदेश खुश होते हुए बोला, ‘‘कोई बात नहीं… लगता है कि तुम्हारी तबीयत सही करने मु?ो तुम्हारे फ्लैट पर आना होगा.’’

सुदेश की बात का जवाब नमिता ने रूमानी अंदाज से मुसकरा कर दिया.

उस दिन नमिता औफिस से जल्दी ही निकल गई और तरुण का ट्रैवल बैग तैयार कराने में उस की मदद करने लगी. कुछ देर बाद तरुण ‘बाय’ कर के निकल गया, तो नमिता सोफे पर बैठ गई और उस ने सुदेश के मोबाइल फोन पर काल कर के तरुण के बाहर चले जाने की बात बता दी.

तकरीबन एक घंटे बाद सुदेश नमिता के दरवाजे पर खड़ा था. उस के हाथ में ह्विस्की की एक बोतल थी.

‘‘आज तो बड़े खतरनाक मूड में लग रहे हो तुम,’’ नमिता ने दरवाजा बंद करते हुए कहा. इस के बदले में सुदेश नमिता को अपनी बांहों में भरने लगा.

‘‘अरे, अभी नहीं बाबा… अभी मु?ो खाना बनाना है.’’

‘‘खाना तुम पकाती रहना और खाती रहना… मु?ो तो जल्दी निकलना है,’’ ह्विस्की की बोतल खोलते हुए सुदेश ने कहा और फटाफट पैग बना कर पी गया.

सुदेश की आंखों में खुमारी और हवस के लाल डोरे तैरने लगे थे. उस ने अपनी बांहों में नमिता को भर लिया और उस के कोमल जिस्म को सहलाने और चूमने लगा. नमिता भी बराबर उस का साथ दे रही थी. उसे सुदेश की गरम सांसों से आती हुई महंगी शराब की खुशबू बहुत अच्छी लग रही थी.

सुदेश और नमिता दोनों पूरी तरह बिना कपड़ों के हो चुके थे और जम कर सैक्स का मजा लेने जा रहे थे. इस से पहले कि सुदेश नमिता में प्रवेश करता, उस ने अपने छोटे से बैग से एक हथकड़ी निकाल ली और नमिता के हाथों को उस में फंसाने की कोशिश करने लगा.

‘‘यह क्या कर रहे हो तुम?’’ नमिता ने पूछा.

‘‘अरे मेरी जान… यह विदेशी स्टाइल है. सैक्स का असली मजा तो अंगरेज लोग ही लेते हैं… अब बस तुम अपने हाथ इस में फंसा लो और फिर देखो तुम्हें कितना मजा आता है…’’

नमिता की दोनों बांहें हथकड़ी से बिस्तर के सिरहाने इस तरह से लौक कर दी गई थीं कि वह चाह कर भी इस से आजाद नहीं हो सकती थी.

नमिता को हथकड़ी में कैद कर के सुदेश उसे बंधा हुआ देख कर मजा लेने लगा और उस के बदन को सहलाने लगा. नमिता भी जोश में आ कर गरम सिसकियां भर रही थी.

सुदेश और नमिता की गरमागरम सिसकियों से पूरा कमरा धधक उठा था और इस से पहले कि वे दोनों चरमसुख तक पहुंचते, फ्लैट के दरवाजे में इंटरलौक में चाबी फंसने की आवाज आई और इस से पहले कि वे दोनों कुछ सम?ा पाते, फ्लैट के कमरे का दरवाजा खुल चुका था और उन की आंखों के सामने तरुण खड़ा था.

सुदेश की सारी मर्दानगी इस तरह अचानक तरुण को देख कर रफादफा हो गई. वह अपने कपड़ों की ओर लपका और जल्दबाजी में उलटेसीधे ढंग से पहनने लगा और इस कोशिश में वह गिरतेगिरते भी बचा.

तरुण अब भी हैरान खड़ा था और सब से बुरी हालत तो नमिता की हो रही थी, जो पूरी तरह से बेपरदा अपने पति के सामने पड़ी हुई थी और उस के दोनों हाथ हथकड़ी में बंधे हुए थे.

‘तड़ाक…’ एक जोरदार तमाचा तरुण ने नमिता के गाल पर लगाया और उस के बालों को गुस्से में खींच लिया. इतनी देर में सुदेश को वहां से भागने का मौका मिल चुका था.

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