चक्रव्यूह: सायरा को मुल्क अलग होने का क्यों हुआ फर्क

सुबह का अखबार देखते ही मंसूर चौंक पड़ा. धूधू कर जलता ताज होटल और शहीद हुए जांबाज अफसरों की तसवीरें. उस ने लपक कर टीवी चालू किया. तब तक सायरा भी आ गई.

‘‘किस ने किया यह सब?’’ उस ने सहमे स्वर में पूछा.

‘‘वहशी दरिंदों ने.’’

तभी सायरा का मोबाइल बजा. उस की मां का फोन था.

‘‘जी अम्मी, हम ने भी अभी टीवी खोला है…मालूम नहीं लेकिन पुणे तो मुंबई से दूर है…वह तो कहीं भी कभी भी हो सकता है अम्मी…मैं कह दूंगी अम्मी… हां, नाम तो उन्हीं का लगेगा, चाहे हरकत किसी की हो…’’

‘‘सायरा, फोन बंद करो और चाय बनाओ,’’ मंसूर ने तल्ख स्वर में पुकारा, ‘‘किस की हरकत है…यह फोन पर अटकल लगाने का मुद्दा नहीं है.’’

सायरा सिहर उठी. मंसूर ने पहली बार उसे फोन करते हुए टोका था और वह भी सख्ती से.

‘‘जी…अच्छा, मैं कुछ देर बाद फोन करूंगी आप को…जी अम्मी जरूर,’’ कह कर सायरा ने मोबाइल बंद कर दिया और चाय बनाने चली गई.

टीवी देखते हुए सायरा भी चुपचाप चाय पीने लगी. पूछने या कहने को कुछ था ही नहीं. कहीं अटकलें थीं और कहीं साफ कहा जा रहा था कि विभिन्न जगहों पर हमले करने वाले पाकिस्तानी आतंकवादी थे.

‘‘आप आज आफिस मत जाओ.’’

इस से पहले कि मंसूर जवाब देता दरवाजे की घंटी बजी. उस का पड़ोसी और सहकर्मी सेसिल अपनी बीवी जेनेट के साथ खड़ा था.

‘‘लगता है तुम दोनों भी उसी बहस में उलझ कर आए हो जिस में सायरा मुझे उलझाना चाह रही है,’’ मंसूर हंसा, ‘‘कहर मुंबई में बरस रहा है और हमें पुणे में, बिल में यानी घर में दुबक कर बैठने को कहा जा रहा है.’’

‘‘वह इसलिए बड़े भाई कि अगला निशाना पुणे हो सकता है,’’ जेनेट ने कहा, ‘‘वैसे भी आज आफिस में कुछ काम नहीं होगा, सब लोग इसी खबर को ले कर ताव खाते रहेंगे.’’

‘‘खबर है ही ताव खाने वाली, मगर जेनी की यह बात तो सही है मंसूर कि आज कुछ काम होगा नहीं.’’

‘‘यह तो है सेसिल, शिंदे साहब का बड़ा भाई ओबेराय में काम करता है और बौस का तो घर ही कोलाबा में है. इसलिए वे लोग तो आज शायद ही आएं. और लोगों को फोन कर के पूछते हैं,’’ मंसूर बोला.

‘‘जब तक आप लोग फोन करते हैं मैं और जेनी नाश्ता बना लेते हैं, इकट्ठे ही नाश्ता करते हुए तय करना कि जाना है या नहीं,’’ कह कर सायरा उठ खड़ी हुई.

‘‘यह ठीक रहेगा. मेरे यहां जो कुछ अधबना है वह यहीं ले आती हूं,’’ कह कर जेनेट अपने घर चली गई. यह कोई नई बात नहीं थी. दोनों परिवार अकसर इकट्ठे खातेपीते थे लेकिन आज टीवी के दृश्यों से माहौल भारी था. सेसिल और मंसूर बीचबीच में उत्तेजित हो कर आपत्तिजनक शब्द कह उठते थे, जेनी और सायरा अपनी भरी आंखें पोंछ लेती थीं तभी फिर मोबाइल बजा. सायरा की मां का फोन था.

‘‘जी अम्मी…अभी वही बात चल रही है…दोस्तों से पूछ रहे हैं…हो सकता है हो, अभी तो कुछ सुना नहीं…कुछ मालूम पड़ा तो जरूर बताऊंगी.’’

‘‘फोन मुझे दो, सायरा,’’ मंसूर ने लपक कर मोबाइल ले लिया, ‘‘देखिए अम्मीजान, जो आप टीवी पर देख रही हैं वही हम भी देख रहे हैं इसलिए क्या हो रहा है उस बारे में फोन पर तबसरा करना इस माहौल में सरासर हिमाकत है. बेहतर रहे यहां फोन करने के बजाय आप हकीकत मालूम करने को टीवी देखती रहिए.’’

मोबाइल बंद कर के मंसूर सायरा की ओर मुड़ा, ‘‘टीवी पर जो अटकलें लगाई जा रही हैं वह फोन पर दोहराने वाली नहीं हैं खासकर लाहौर की लाइन पर.’’

‘‘आज के जो हालात हैं उन में लाहौर से तो लाइन मिलानी ही नहीं चाहिए. माना कि तुम कोई गलत बात नहीं करोगी सायरा, लेकिन देखने वाले सिर्फ यह देखेंगे कि तुम्हारी कितनी बार लाहौर से बात हुई है, यह नहीं कि क्या बात हुई है,’’ सेसिल ने कहा.

‘‘सायरा, अपनी अम्मी को दोबारा यहां फोन करने से मना कर दो,’’ मंसूर ने हिदायत के अंदाज में कहा.

‘‘आप जानते हैं इस से अम्मी को कितनी तकलीफ होगी.’’

‘‘उस से कम जितनी उन्हें यह सुन कर होगी कि पुलिस ने हमारे लाहौर फोन के ताल्लुकात की वजह से हमें हिरासत में ले लिया है,’’ मंसूर चिढ़े स्वर में बोला.

‘‘आप भी न बड़े भाई बात को कहां से कहां ले जाते हैं,’’ जेनेट बोली, ‘‘ऐसा कुछ नहीं होगा लेकिन फिर भी एहतियात रखनी तो जरूरी है सायरा. अब जब अम्मी का फोन आए तो उन्हें भी यह समझा देना.’’

दूसरे सहकर्मियों को फोन करने के बाद सेसिल और मंसूर ने भी आफिस जाने का फैसला कर लिया.

‘‘मोबाइल पर नंबर देख कर ही फोन उठाना सायरा, खुद फोन मत करना, खासकर पाकिस्तान में किसी को भी,’’ मंसूर ने जातेजाते कहा.

मंसूर ने रोज की तरह अपना खयाल रखने को नहीं कहा. वैसे आज जेनी और सेसिल ने भी ‘फिर मिलते हैं’ नहीं कहा था.

सायरा फूटफूट कर रो पड़ी. क्या चंद लोगों की वहशियाना हरकत की वजह से सब की प्यारी सायरा भी नफरत के घेरे में आ गई?

नौकरानी न आती तो सायरा न जाने कब तक सिसकती रहती. उस ने आंखें पोंछ कर दरवाजा खोला. सक्कू बाई ने उस से तो कुछ नहीं पूछा मगर श्रीमती साहनी को न जाने क्या कहा कि वह कुछ देर बाद सायरा का हाल पूछने आ गईं. सायरा तब तक नहा कर तैयार हो चुकी थी लेकिन चेहरे की उदासी और आंसुओं के निशान धुलने के बावजूद मिटे नहीं थे.

‘‘सायरा बेटी, मुंबई में कोई अपना तो परेशानी में नहीं है न?’’

‘‘मुंबई में तो हमारा कोई है ही नहीं, आंटी.’’

‘‘तो फिर इतनी परेशान क्यों लग रही हो?’’

साहनी आंटी से सायरा को वैसे भी लगाव था. उन के हमदर्दी भरे लफ्ज सुनते ही वह फफक कर रो पड़ी. रोतेरोते ही उस ने बताया कि सब ने कैसे उसे लाहौर बात करने से मना किया है. मंसूर ने अम्मी से तल्ख लफ्जों में क्या कहा, यह भी नहीं सोचा कि उन्हें मेरी कितनी फिक्र हो रही होगी. ऐसे हालात में वह बगैर मेरी खैरियत जाने कैसे जी सकेंगी?

‘‘हालात को समझो बेटा, किसी ने आप से कुछ गलत करने को नहीं कहा है. अगर किसी को शक हो गया तो आप की ही नहीं पूरी बिल्ंिडग की शामत आ सकती है. लंदन में तेरा भाई सरवर है न इसलिए अपनी खैरखबर उस के जरिए मम्मी को भेज दिया कर.’’

‘‘पता नहीं आंटी, उस से भी बात करने देंगे या नहीं?’’

‘‘हालात को देखते हुए न करो तो बेहतर है. रंजीत ने तुझे बताया था न कि वह सरवर को जानता है.’’

‘‘हां, आंटी दोनों एक ही आफिस में काम करते हैं,’’ सायरा ने उम्मीद से आंटी की ओर देखा, ‘‘क्या आप मेरी खैरखबर रंजीत भाई के जरिए सरवर को भेजा करेंगी?’’

‘‘खैरखबर ही नहीं भेजूंगी बल्कि पूरी बात भी समझा दूंगी,’’ श्रीमती साहनी ने घड़ी देखी, ‘‘अभी तो रंजीत सो रहा होगा, थोड़ी देर के बाद फोन करूंगी. देखो बेटाजी, हो सकता है हमेशा की तरह चंद दिनों में सब ठीक हो जाए और हो सकता है और भी खराब हो जाए, इसलिए हालात को देखते हुए अपने जज्बात पर काबू रखो. आतंकवादी और उन के आकाओं की लानतमलामत को अपने लिए मत समझो और न ही यह समझो कि तुम्हें तंग करने को तुम से रोकटोक की जा रही…’’ श्रीमती साहनी का मोबाइल बजा. बेटे का लंदन से फोन था.

‘‘बस, टीवी देख रहे हैं…फिलहाल तो पुणे में सब ठीक ही है. पापा काम पर गए. मैं सायरा के पास आई हुई हूं. परेशान है बेचारी…उस की मां का यहां फोन करना मुनासिब नहीं है न…हां, तू सरवर को यह बात समझा देना…वह भी ठीक रहेगा. वैसे तू उसे बता देना कि हमारे यहां तो कसूरवार को भी तंग नहीं करते तो बेकसूर को क्यों परेशान करेंगे, उसे सायरा की फिक्र करने की जरूरत नहीं है.’’

श्रीमती साहनी मोबाइल बंद कर के सायरा की ओर मुड़ीं, ‘‘रंजीत सरवर को बता देगा कि वह मेरे मोबाइल पर तुम से बात करे. वीडियो कानफें्रस कर तुम दोनों बहनभाइयों की मुलाकात करवा देंगे.’’

‘‘शुक्रिया, आंटीजी…’’

‘‘यह तो हमारा फर्ज है बेटाजी,’’ श्रीमती साहनी उठ खड़ी हुईं.

उन के जाने के बाद सायरा ने राहत की सांस ली. हालांकि सरवर के जरिए अम्मी को उस की खैरखबर भिजवाने की जिम्मेदारी और सरवर के साथ वीडियो कानफें्रसिंग करवाने की बात कर के आंटी ने उसे बहुत राहत दी थी मगर उन का यह कहना ‘हमारे यहां तो कसूरवार को भी तंग नहीं करते तो बेकसूर को क्यों परेशान करेंगे’ या ‘यह तो हमारा फर्ज है’ उसे खुद और अपने मुल्क पर कटाक्ष लगा. वह कहना चाहती थी कि आप लोगों की अपने मुंह मिया मिट्ठू बनने और एहसान चढ़ाने की आदत से चिढ़ कर ही तो लोग आप को मजा चखाने की सोचते हैं.

सायरा को लंदन स्कूल औफ इकनोमिक्स के वे दिन याद आ गए जब पढ़ाई के दबाव के बावजूद वह और मंसूर एकदूसरे के साथ वहां के धुंधले सर्द दिनों में इश्क की गरमाहट में रंगीन सपने देखते थे. सुनने वालों को तो यकीन नहीं होता था लेकिन पहली नजर में ही एकदूसरे पर मर मिटने वाले मंसूर और सायरा को एकदूसरे के बारे में सिवा नाम के और कुछ मालूम नहीं था.

अंतिम वर्ष में एक रोज जिक्र छिड़ने पर कि नौकरी की तलाश के लिए कौन क्या कर रहा है, सायरा ने मुंह बिचका कर कहा था, ‘नौकरी की तलाश और वह भी यहां? यहां रह कर पढ़ाई कर ली वही बहुत है.’

‘तुम ने तो मेरे खयालात को जबान दे दी, सायरा,’ मंसूर फड़क कर बोला, ‘मैं भी डिगरी मिलते ही अपने वतन लौट जाऊंगा.’

‘वहां जा कर करोगे क्या?’

‘सब से पहले तो सायरा से शादी, फिर हनीमून और उस के बाद रोजीरोटी का जुगाड़,’ मंसूर सायरा की ओर मुड़ा, ‘क्यों सायरा, ठीक है न?’

‘ठीक कैसे हो सकता है यार?’ हरभजन ने बात काटी, ‘वतन लौट कर सायरा से शादी कैसे करेगा?’

‘क्यों नहीं कर सकता? मेरे घर वाले शियासुन्नी मजहब में यकीन नहीं करते और वैसे भी हम दोनों पठान यानी खान हैं.’

‘लेकिन हो तो हिंदुस्तानी- पाकिस्तानी. दोनों मुल्कों के बाशिंदों को नागरिकता या लंबा वीसा आसानी से नहीं मिलता,’ हरभजन ने कहा.

सायरा और मंसूर ने चौंक कर एकदूसरे को देखा.

‘क्या कह रहा है हरभजन? सायरा भी पंजाब से है…’

‘बंटवारे के बाद पंजाब के 2 हिस्से हो गए जिन में से एक में तुम रहते हो और एक में सायरा यानी अलगअलग मुल्कों में.’

‘क्या यह ठीक कह रहा है सायरा?’ मंसूर की आवाज कांप गई.

‘हां, मैं पंजाब यानी लाहौर से हूं.’

‘और मैं लुधियाना से,’ मंसूर ने भर्राए स्वर में कहा, ‘माना कि हम से गलती हुई है, हम ने एकदूसरे को अपने शहर या मुल्क के बारे में नहीं बताया लेकिन अगर बता भी देते तो फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि फिदा तो हम एकदूसरे पर नाम जानने से पहले ही हो चुके थे.’

‘जो हो गया सो हो गया लेकिन अब क्या करोगे?’ दिव्या ने पूछा.

‘मरेंगे और क्या?’ मंसूर बोला.

‘मरना तो हर हाल ही में है क्योंकि अलग हो कर तो जी नहीं सकते सो बेहतर है इकट्ठे मर जाएं,’ सायरा बोली.

‘बुजदिली और जज्बातों की बातें करने के बजाय अक्ल से काम लो,’ अब तक चुप बैठा राजीव बोला, ‘तुम यहां रहते हुए आसानी से शादी कर सकते हो.’

‘शादी के बाद मैं इसे लुधियाना ले कर जा सकता हूं?’ मंसूर ने उतावली से पूछा.

‘शायद.’

‘तब तो बात नहीं बनी. मैं अपना देश नहीं छोड़ सकता.’

‘मैं भी नहीं,’ सायरा बोली.

‘न मुल्क छोड़ सकते हो न एकदूसरे को और मरना भी एकसाथ चाहते हो तो वह तो यहीं मुमकिन होगा इसलिए जब यहीं मरना है तो क्यों नहीं शादी कर के एकसाथ जीने के बाद मरते,’ हरभजन ने सलाह दी.

‘हालात को देखते हुए यह सही सुझाव है,’ राजीव बोला.

‘घर वालों को बता देते हैं कि परीक्षा के बाद यहां आ कर हमारी शादी करवा दें,’ मंसूर ने कहा.

‘मेरी अम्मी तो आजकल यहीं हैं, अब्बू भी अगले महीने आ जाएंगे,’ सायरा बोली, ‘तब मैं उन से बात करूंगी. तुम्हें अगर अपने घर वालों को बुलाना है तो अभी बात करनी होगी.’

‘ठीक है, आज ही तफसील से सब लिख कर ईमेल कर देता हूं.’

‘तुम भी सायरा आज ही अपनी अम्मी से बात करो, उन लोगों की रजामंदी मिलनी इतनी आसान नहीं है,’ राजीव ने कहा.

राजीव का कहना ठीक था. दोनों के घर वालों ने सुनते ही कहा कि यह शादी नहीं सियासी खुदकुशी है. खतरा रिश्तेदारों से नहीं मुल्क के आम लोगों से था, दोनों मुल्कों में तनातनी तो चलती रहती थी और दोनों मुल्कों के अवाम खुनस में उन्हें नुकसान पहुंचा सकते थे.

सायरा की अम्मी ने तो साफ कहा कि शादी के बाद हरेक लड़की को दूसरे घर का रहनसहन और तौरतरीके अपनाने पड़ते हैं लेकिन सायरा को तो दूसरे मुल्क और पूरी कौम की तहजीब अपनानी पड़ेगी.

‘तुम्हारी इस हरकत से हमारी शहर में जो इज्जत और साख है वह मिट्टी में मिल जाएगी. लोग हमें शक की निगाहों से देखने लगेंगे और इस का असर कारोबार पर भी पड़ेगा,’ मंसूर के अब्बा बशीर खान का कहना था.

घर वालों ने जो कहा था उसे नकारा नहीं जा सकता था लेकिन एकदूसरे से अलग होना भी मंजूर नहीं था इसलिए दोनों ने घर वालों को यह कह कर मना लिया कि वे शादी के बाद लंदन में ही रहेंगे और उन लोगों को सिवा उन के नाम के किसी और को कुछ बताने की जरूरत नहीं है. उन की जिद के आगे घर वाले भी बेदिली से मान गए. वैसे दोनों ही पंजाबी बोलते थे और तौरतरीके भी एक से थे. शादी हंसीखुशी से हो गई.

कुछ रोज मजे में गुजरे लेकिन दोनों को ही लंदन पसंद नहीं था. दोस्तों का कहना था कि दुबई या सिंगापुर चले जाओ लेकिन मंसूर लुधियाना में अपने पुश्तैनी कारोबार को बढ़ाना चाहता था. भारतीय उच्चायोग से संपर्क करने पर पता चला कि उस की ब्याहता की हैसियत से सायरा अपने पाकिस्तानी पासपोर्ट पर उस के साथ भारत जा सकती थी. सायरा को भी एतराज नहीं था, वह खुश थी कि समझौता एक्सप्रेस से लाहौर जा सकती थी, अपने घर वालों को भी बुला सकती थी लेकिन बशीर खान को एतराज था. उन का कहना था कि सायरा की असलियत छिपाना आसान नहीं था और पंजाब में उस की जान को खतरा हो सकता था.

उन्होंने मंसूर को सलाह दी कि वह पंजाब के बजाय पहले किसी और शहर में नौकरी कर के तजरबा हासिल करे और फिर वहीं अपना व्यापार जमा ले. बशीर खान ने एक दोस्त के रसूक से मंसूर को पुणे में एक अच्छी नौकरी दिलवा दी. काम और जगह दोनों ही मंसूर को पसंद थे, दोस्त भी बन गए थे लेकिन उसे हमेशा अपने घर का सुख और बचपन के दोस्त याद आते थे और वह बड़ी हसरत से सोचता था कि कब दोनों मुल्कों के बीच हालात सुधरेंगे और वह सायरा को ले कर अपनों के बीच जा सकेगा.

सब की सलाह पर सायरा ने नौकरी नहीं की थी. हालांकि पैसे की कोई कमी नहीं थी लेकिन घर बैठ कर तालीम को जाया करना उसे अच्छा नहीं लगता था और वैसे भी घर में उस का दम घुटता था. अच्छी सहेलियां जरूर बनी थीं पर कब तक आप किसी से फोन पर बात कर सकती थीं या उन के घर जा सकती थीं.

मंसूर के प्यार में कोई कमी नहीं थी, फिर भी पुणे आने के बाद सायरा को एक अजीब से अजनबीपन का एहसास होने लगा था लेकिन उसे इस बात का कतई गिला नहीं था कि उस ने क्यों मंसूर से प्यार किया या क्यों सब को छोड़ कर उस के साथ चली आई.

कबूतरों का घर : चांद बादल एक- दूसरे के साथ क्या कर रहे थे

पर ऊपर नीला आकाश देख कर और पैरों के नीचे जमीन का एहसास कर उन्हें लगा था कि वह बाढ़ के प्रकोप से बच गए. बाढ़ में कौन बह कर कहां गया, कौन बचा, किसी को कुछ पता नहीं था.

इन बचने वालों में कुछ ऐसे भी थे जिन के अपने देखते ही देखते उन के सामने जल में समाधि ले चुके थे और बचे लोग अब विवश थे हर दुख झेलने के लिए.

‘‘जाने और कितना बरसेगा बादल?’’ किसी ने दुख से कहा था.

‘‘यह कहो कि जाने कब पानी उतरेगा और हम वापस घर लौटेंगे,’’ यह दूसरी आवाज सब को सांत्वना दे रही थी.

‘‘घर भी बचा होगा कि नहीं, कौन जाने.’’ तीसरे ने कहा था.

इस समय उस टापू पर जितने भी लोग थे वे सभी अपने बच जाने को किसी चमत्कार से कम नहीं मान रहे थे और सभी आपस में एकदूसरे के साथ नई पहचान बनाने की चेष्टा कर रहे थे. अपना भय और दुख दूर करने के लिए यह उन सभी के लिए जरूरी भी था.

चांद बादलों के साथ लुकाछिपी खेल रहा था जिस से वहां गहन अंधकार छा जाता था.

तानी ने ठंड से बचने के लिए थोड़ी लकडि़यां और पत्तियां शाम को ही जमा कर ली थीं. उस ने सोचा आग जल जाए तो रोशनी हो जाएगी और ठंड भी कम लगेगी. अत: उस ने अपने साथ बैठे हुए एक बुजुर्ग से माचिस के लिए पूछा तो वह जेब टटोलता हुआ बोला, ‘‘है तो, पर गीली हो गई है.’’

तानी ने अफसोस जाहिर करने के लिए लंबी सांस भर ली और कुछ सोचता हुआ इधरउधर देखने लगा. उस वृद्ध ने माचिस निकाल कर उस की ओर विवशता से देखा और बोला, ‘‘कच्चा घर था न हमारा. घुटनों तक पानी भर गया तो भागे और बेटे को कहा, जल्दी चल, पर वह….’’

तानी एक पत्थर उठा कर उस बुजुर्ग के पास आ गया था. वृद्ध ने एक आह भर कर कहना शुरू किया, ‘‘मुझे बेटे ने कहा कि आप चलो, मैं भी आता हूं. सामान उठाने लगा था, जाने कहां होगा, होगा भी कि बह गया होगा.’’

इतनी देर में तानी ने आग जलाने का काम कर दिया था और अब लकडि़यों से धुआं निकलने लगा था.

‘‘लकडि़यां गीली हैं, देर से जलेंगी,’’ तानी ने कहा.

कृष्णा थोड़ी दूर पर बैठा निर्विकार भाव से यह सब देख रहा था. अंधेरे में उसे बस परछाइयां दिख रही थीं और किसी भी आहट को महसूस किया जा सकता था. लेकिन उस के उदास मन में किसी तरह की कोई आहट नहीं थी.

अपनी आंखों के सामने उस ने मातापिता और बहन को जलमग्न होते देखा था पर जाने कैसे वह अकेला बच कर इस किनारे आ लगा था. पर अपने बचने की उसे कोई खुशी नहीं थी क्योंकि बारबार उसे यह बात सता रही थी कि अब इस भरे संसार में वह अकेला है और अकेला वह कैसे रहेगा.

लकडि़यों के ढेर से उठते धुएं के बीच आग की लपट उठती दिखाई दी. कृष्णा ने उधर देखा, एक युवती वहां बैठी अपने आंचल से उस अलाव को हवा दे रही थी. हर बार जब आग की लपट उठती तो उस युवती का चेहरा उसे दिखाई दे जाता था क्योंकि युवती के नाक की लौंग चमक उठती थी.

कृष्णास्वामी ने एक बार जो उस युवती को देखा तो न चाहते हुए भी उधर देखने से खुद को रोक नहीं पाया था. अनायास ही उस के मन में आया कि शायद किसी अच्छे घर की बेटी है. पता नहीं इस का कौनकौन बचा होगा. उस युवती के अथक प्रयास से अचानक धुएं को भेद कर अब आग की मोटीमोटी लपटें खूब ऊंची उठने लगीं और उन लपटों से निकली रोशनी किसी हद तक अंधेरे को भेदने में सक्षम हो गई थी. भीड़ में खुशी की लहर दौड़ गई.

कृष्णा के पास बैठे व्यक्ति ने कहा, ‘‘मौत के पास आने के अनेक बहाने होते हैं. लेकिन उसे रोकने का एक भी बहाना इनसान के पास नहीं होता. जवान बेटेबहू थे हमारे, देखते ही देखते तेज धार में दोनों ही बह गए,’’ कृष्णा उस अधेड़ व्यक्ति की आपबीती सुन कर द्रवित हो उठा था. आंच और तेज हो गई थी.

‘‘थोड़े आलू होते तो इसी अलाव में भुन जाते. बच्चों के पेट में कुछ पड़ जाता,’’ एक कमजोर सी महिला ने कहा, उन्हें भी भूख की ललक उठी थी. इस उम्र में भूखा रहा भी तो नहीं जाता है.

आग जब अच्छी तरह से जलने लगी तो वह युवती उस जगह से उठ कर कुछ दूरी पर जा बैठी थी. कृष्णा भी थोड़ी दूरी बना कर वहीं जा कर बैठ गया. कुछ पलों की खामोशी के बाद वह बोला, ‘‘आप ने बहुत अच्छी तरह अलाव जला दिया है वरना अंधेरे में सब घबरा रहे थे.’’

‘‘जी,’’ युवती ने धीरे से जवाब में कहा.

‘‘मैं कृष्णास्वामी, डाक्टरी पढ़ रहा हूं. मेरा पूरा परिवार बाढ़ में बह गया और मैं जाने क्यों अकेला बच गया,’’ कुछ देर खामोश रहने के बाद कृष्णा ने फिर युवती से पूछा, ‘‘आप के साथ में कौन है?’’

‘‘कोई नहीं, सब समाप्त हो गए,’’ और इतना कहने के साथ वह हुलस कर रो पड़ी.

‘‘धीरज रखिए, सब का दुख यहां एक जैसा ही है,’’ और उस के साथ वह अपने आप को भी सांत्वना दे रहा था.

अलाव की रोशनी अब धीमी पड़ गई थी. अपनों से बिछड़े सैकड़ों लोग अब वहां एक नया परिवार बना रहे थे. एक अनोखा भाईचारा, सौहार्द और त्याग की मिसाल स्थापित कर रहे थे.

अगले दिन दोपहर तक एक हेलीकाप्टर ऊपर मंडराने लगा तो सब खड़े हो कर हाथ हिलाने लगे. बहुत जल्दी खाने के पैकेट उस टीले पर हेलीकाप्टर से गिरना शुरू हो गए. जिस के हाथ जो लग रहा था वह उठा रहा था. उस समय सब एकदूसरे को भूल गए थे पर हेलीकाप्टर के जाते ही सब एकदूसरे को देखने लगे.

अफरातफरी में कुछ लोग पैकेट पाने से चूक गए थे तो कुछ के हाथ में एक की जगह 2 पैकेट थे. जब सब ने अपना खाना खोला तो जिन्हें पैकेट नहीं मिला था उन्हें भी जा कर दिया.

कृष्णा उस युवती के नजदीक जा कर बैठ गया. अपना पैकेट खोलते हुए बोला, ‘‘आप को पैकेट मिला या नहीं?’’

‘‘मिला है,’’ वह धीरे से बोली.

कृष्णा ने आलूपूरी का कौर बनाते हुए कहा, ‘‘मुझे पता है कि आप का मन खाने को नहीं होगा पर यहां कब तक रहना पड़े कौन जाने?’’ और इसी के साथ उस ने पहला निवाला उस युवती की ओर बढ़ा दिया.

युवती की आंखें छलछला आईं. धीरे से बोली, ‘‘उस दिन मेरी बरात आने वाली थी. सब शादी में शरीक होने के लिए आए हुए थे. फिर देखते ही देखते घर पानी से भर गया…’’

युवती की बातें सुन कर कृष्णा का हाथ रुक गया. अपना पैकेट समेटते हुए बोला, ‘‘कुछ पता चला कि वे लोग कैसे हैं?’’

युवती ने कठिनाई से अपने आंसू पोंछे और बोली, ‘‘कोई नहीं बचा है. बचे भी होंगे तो जाने कौन तरफ हों. पता नहीं मैं कैसे पानी के बहाव के साथ बहती हुई इस टीले के पास पहुंच गई.’’

कृष्णा ने गहरी सांस भरी और बोला, ‘‘मेरे साथ भी तो यही हुआ है. जाने कैसे अब अकेला रहूंगा इतनी बड़ी दुनिया में. एकदम अकेला… ’’ इतना कह कर वह भी रोंआसा हो उठा.

दोनों के दर्द की गली में कुछ देर खामोशी पसरी रही. अचानक युवती ने कहा, ‘‘आप खा लीजिए.’’

युवती ने अपना पैकट भी खोला और पहला निवाला बनाते हुए बोली, ‘‘मेरा नाम जूही सरकार है.’’

कृष्णा आंसू पोंछ कर हंस दिया. दोनों भोजन करने लगे. सैकड़ों की भीड़ अपना धर्म, जाति भूल कर एक दूसरे को पूछते जा रहे थे और साथसाथ खा भी रहे थे.

खातेखाते जूही बोली, ‘‘कृष्णा, जिस तरह मुसीबत में हम एक हो जाते हैं वैसे ही बाकी समय क्यों नहीं एक हो कर रह पाते हैं?’’

कृष्णा ने गहरी सांस ली और बोला, ‘‘यही तो इनसान की विडंबना है.’’

सेना के जवान 2 दिन बाद आ कर जब उन्हें सुरक्षित स्थानों पर ले कर चले तो कृष्णा ने जूही की ओर बहुत ही अपनत्व भरी नजरों से देखा. वह भी कृष्णा से मिलने उस के पास आ गई और फिर जाते हुए बोली, ‘‘शायद हम फिर मिलें.’’

रात होने से पहले सब उस स्थान पर पहुंच गए जहां हजारों लोग छोटेछोटे तंबुओं में पहले से ही पहुंचे हुए थे. उस खुले मैदान में जहांजहां भी नजर जाती थी बस, रोतेबिलखते लोग अपनों से बिछुड़ने के दुख में डूबे दिखाई देते थे. धीरेधीरे भीड़ एक के बाद एक कर उन तंबुओं में गई. पानी ने बहा कर कृष्णा और जूही  को एक टापू पर फेंका था लेकिन सरकारी व्यवस्था ने दोनों को 2 अलगअलग तंबुओं में फेंक दिया.

मीलों दायरे में बसे उस तंबुओं के शहर में किसी को पता नहीं कि कौन कहां से आया है. सब एकदूसरे को अजनबी की तरह देखते लेकिन सभी की तकलीफ को बांटने के लिए सब तैयार रहते.

सरकारी सहायता के नाम पर वहां जो कुछ हो रहा था और मिल रहा था वह उतनी बड़ी भीड़ के लिए पर्याप्त नहीं था. कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं भी मदद करने के काम में जुटी थीं.

वहां रहने वाले पीडि़तों के जीवन में अभाव केवल खानेकपड़े का ही नहीं बल्कि अपनों के साथ का अभाव भी था. उन्हें देख कर लगता था, सब सांसें ले रहे हैं, बस.

उस शरणार्थी कैंप में महामारी से बचाव के लिए दवाइयों के बांटे जाने का काम शुरू हो गया था. कृष्णा ने आग्रह कर के इस काम में सहायता करने का प्रस्ताव रखा तो सब ने मान लिया क्योंकि वह मेडिकल का छात्र था और दवाइयों के बारे में कुछकुछ जानता था. दवाइयां ले कर वह कैंपकैंप घूमने लगा. दूसरे दिन कृष्णा जिस हिस्से में दवा देने पहुंचा वहां जूही को देख कर प्रसन्नता से खिल उठा. जूही कुछ बच्चों को मैदान में बैठा कर पढ़ा रही थी. गीली जमीन को उस ने ब्लैकबोर्ड बना लिया था. पहले शब्द लिखती थी फिर बच्चों को उस के बारे में समझाती थी. कृष्णा को देखा तो वह भी खुश हो कर खड़ी हो गई.

‘‘इधर कैसे आना हुआ?’’

‘‘अरे इनसान हूं तो दूसरों की सेवा करना भी तो हमारा धर्म है. ऐसे समय में मेहमान बन कर क्यों बैठे रहें,’’ यह कहते हुए कृष्णा ने जूही को अपना बैग दिखाया, ‘‘यह देखो, सेवा करने का अवसर हाथ लगा तो घूम रहा हूं,’’ फिर जूही की ओर देख कर बोला, ‘‘आप ने भी अच्छा काम खोज लिया है.’’

कृष्णा की बातें सुन कर जूही हंस दी. फिर कहने लगी, ‘‘ये बच्चे स्कूल जाते थे. मुसीबत की मार से बचे हैं. सोचा कि घर वापस जाने तक बहुत कुछ भूल जाएंगे. मेरा भी मन नहीं लगता था तो इन्हें ले कर पढ़नेपढ़ाने बैठ गई. किताबकापी के लिए संस्था वालों से कहा है.’’

दोनों ने एकदूसरे की इस भावना का स्वागत करते हुए कहा, ‘‘आखिर हम कुछ कर पाने में समर्थ हैं तो क्यों हाथ पर हाथ रख कर बैठे रहें?’’

अब धीरेधीरे दोनों रोज मिलने लगे. जैसेजैसे समय बीत रहा था बहुत सारे लोग बीमार हो रहे थे. दोनों मिल कर उन की देखभाल करने लगे और उन का आशीर्वाद लेने लगे.

कृष्णा भावुक हो कर बोला, ‘‘जूही, इन की सेवा कर के लगता है कि हम ने अपने मातापिता पा लिए हैं.’’

एकसाथ रह कर दूसरों की सेवा करते करते दोनों इतने करीब आ गए कि उन्हें लगा कि अब एकदूसरे का साथ उन के लिए बेहद जरूरी है और वह हर पल साथ रहना चाहते हैं. जिन बुजुर्गों की वे सेवा करते थे उन की जुबान पर भी यह आशीर्वाद आने लगा था, ‘‘जुगजुग जिओ बच्चों, तुम दोनों की जोड़ी हमेशा बनी रहे.’’

एक दिन कृष्णा ने साहस कर के जूही से पूछ ही लिया, ‘‘जूही, अगर बिना बराती के मैं अकेला दूल्हा बन कर आऊं तो तुम मुझे अपना लोगी?’’

जूही का दिल धड़क उठा. वह भी तो इस घड़ी की प्रतीक्षा कर रही थी. नजरें झुका कर बोली, ‘‘अकेले क्यों आओगे, यहां कितने अपने हैं जो बराती बन जाएंगे.’’

कृष्णा की आंखें खुशी से चमक उठी. अपने विवाह का कार्यक्रम तय करते हुए उस ने अगले दिन कहा, ‘‘पता नहीं जूही, अपने घरों में हमारा कब जाना हो पाए. तबतक इसी तंबू में हमें घर बसाना पडे़गा.’’

जूही ने प्यार से कृष्णा को देखा और बोली, ‘‘तुम ने कभी कबूतरों को अपने लिए घोसला बनाते देखा है?’’

कृष्णा ने उस के इस सवाल पर अपनी अज्ञानता जाहिर की तो वह हंस कर बताने लगी, ‘‘कृष्णा, कबूतर केवल अंडा देने के लिए घोसला बनाते हैं, वरना तो खुद किसी दरवाजे, खिड़की या झरोखे की पतली सी मुंडेर पर रात को बसेरा लेते हैं. हमारे पास तो एक पूरा तंबू है.’’

कृष्णा ने मुसकरा कर उस के गाल पर पहली बार हल्की सी चिकोटी भरी. उन दोनों के घूमने से पहले ही कुछ आवाजों ने उन्हें घेर लिया था.

‘‘कबूतरों के इन घरों में बरातियों की कमी नहीं है. तुम तो बस दावत

की तैयारी कर लो, बराती हाजिर

हो जाएंगे.’’

उन दोनों को एक अलग सुख की अनुभूति होने लगी. लगा, मातापिता, भाईबहन, सब की प्रसन्नता के फूल जैसे इन लोगों के लिए आशीर्वाद में झड़ रहे हैं.

लूडो की बाजी: जब एक खेल बना दो परिवारों के बीच लड़ाई की वजह

सुबीर और अनु लूडो खेल रहे थे. सुबीर की लाल गोटियां थीं और अनु की नीली. पर पता नहीं क्या बात थी कि सुबीर की गोटियां बारबार अनु की गोटियों से पिट रही थीं. जैसे ही कोई लाल गोटी जरा सा आगे बढ़ती, नीली गोटी झट से आ कर उसे काट देती. जब लगातार 5वीं बार ऐसा हुआ तो सुबीर चिढ़ गया, ‘‘तू हेराफेरी कर रहा है,’’ वह अनु से बोला.

‘‘वाह, मैं क्या कर रहा हूं…तुझे ठीक से खेलना ही नहीं आता, तभी तो हार रहा है. ले बच्चू, यह गई तेरी एक और गोटी,’’ अनु ताली बजाता हुआ बोला.

सुबीर का धैर्य अब समाप्त हो गया. लाख कोशिश करने पर भी उस की आंखों में आंसू आ ही गए.

‘‘रोंदू, रोंदू,’’ अनु उसे अंगूठा दिखाता हुआ बोला, ‘‘यह ले, मेरी दूसरी गोटी भी पार हो गई. यह ले, अब फिर से आ गए 6.’’

सुबीर उठ कर खड़ा हो गया, ‘‘मैं नहीं खेलता तेरे साथ, तू हेराफेरी करता है.’’

जीतती बाजी का ऐसा अंत होते देख कर अनु को भी क्रोध आ गया. उस ने सुबीर को एक घूंसा दे मारा.

अब घूंसा खा कर चुप रहने वाला सुबीर भी नहीं था. सो हो गई दोनों की जम कर हाथापाई. सुबीर ने अनु के बाल नोचे तो अनु ने उस की कमीज फाड़ दी. दोनों गुत्थमगुत्था होते हुए कोने में पड़ी हुई मेज से जा टकराए. सुबीर की तो पीठ थी मेज की ओर, सो उसे अधिक चोट नहीं आई, पर अनु का सिर मेज के नुकीले कोने पर जा लगा. उस के सिर में घाव हो गया और खून बहने लगा. खून देखते ही अनु चीखने लगा, ‘‘मां, मां, सुबीर मुझे मार रहा है.’

खून देख कर अनु की मां घबरा गईं, ‘‘क्या हुआ मेरे बच्चे?’’

‘‘मां, सुबीर ने मेरी लूडो फाड़ दी और मुझे मारा भी है. मां, सिर में बहुत दर्द हो रहा है,’’ अनु सिसकता हुआ बोला.

यह सब सुन कर अनु की मां सुबीर पर बरस पड़ीं, ‘‘जंगली कहीं का…मांबाप ने घर पर कुछ नहीं सिखाया क्या? खबरदार, इस ओर दोबारा कदम रखा तो…’’

सुबीर को बहुत गुस्सा आया कि अपने बेटे को तो कुछ कहा नहीं और मुझे डांट दिया. वह गुस्से से बोला, ‘‘आप का बेटा जंगली है. आप भी जंगली हैं. सारी कालोनी वाले कहते हैं कि आप झगड़ालू हैं.’’

‘‘बड़ों से बात करने तक की तमीज नहीं तुझे,’’ अनु की मां अपनी निंदा सुन कर चीखीं और उन्होंने सुबीर के गाल पर एक तमाचा दे मारा.

गाल पर हाथ रख कर सुबीर सीधा अपनी मां के पास गया. उस ने खूब बढ़ाचढ़ा कर सारा किस्सा सुनाया. सुन कर सुबीर की मां को भी क्रोध आ गया. उन्होंने भी अपने बेटे से कह दिया, ‘‘ऐसे लोगों के घर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है.’’

इस के बाद दोनों घरों की बोलचाल बंद हो गई.

वार्षिक परीक्षाएं आने वाली थीं, सो सुबीर और अनु ने सारा समय पढ़नेलिखने में लगा दिया. पर इस के बाद जब छुट्टियां आरंभ हुईं तो दोनों ऊबने लगे. अनु अपनी मां के साथ लूडो खेलने का प्रयत्न करता, पर वैसा मजा ही नहीं आता था जो सुबीर के साथ खेलने में आता था.

सुबीर अपने पिताजी के साथ क्रिकेट खेलता तो उसे भी बिलकुल आनंद नहीं आता था. वे स्वयं ही जानबूझ कर जल्दी ‘आउट’ हो जाते, परंतु सुबीर का शतक अवश्य बनवा देते.

सुबीर और अनु दोनों ही अब पछताने लगे कि नाहक बात बढ़ाई. एक दिन अनु ने देखा कि सुबीर दोनों घरों के बीच बनी बाड़ के पास बैठ कर कंचे खेल रहा है. अनु भी चुपचाप अपने कंचे ले कर अपनी बाड़ के पास बैठ कर खेलने लगा. कुछ देर दोनों चुपचाप खेलते रहे. फिर अनु ने देखा सुबीर का एक कंचा उस के बगीचे में आ गया है. उस ने कंचा उठा कर सुबीर को देते हुए कहा, ‘‘यह तुम्हारा है.’’

सुबीर भी बात करने का बहाना ढूंढ़ रहा था, तपाक से बोला, ‘‘कंचे खेलोगे?’’

अनु ने एक क्षण इधरउधर देखा. मैदान साफ पा कर वह बाड़ में से निकल कर सुबीर के बगीचे में पहुंच गया. थोड़ी देर बाद जब सुबीर की मां ने पुकारा तो वह चुपचाप वहां से खिसक कर अपने बगीचे में आ गया.

यह तरीका दोनों को ठीक लगा. अब जब भी अवसर मिलता, दोनों एकसाथ खेलते. मित्र के साथ खेलने का आनंद ही कुछ और होता है. अब बस, एक ही परेशानी थी कि उन्हें डरडर कर खेलना पड़ता था.

‘‘कितना अच्छा हो यदि हमारे माता- पिता भी फिर से मित्र बन जाएं,’’ एक दिन अनु बोला.

‘‘पर यह कैसे संभव होगा, समझ में नहीं आता. मैं तो अपने मातापिता के सामने तेरा नाम लेने से भी डरता हूं,’’ सुबीर उदास हो कर बोला.

एक दिन सुबह का समय था. सुबीर घर पर अकेला था. वह एक पुस्तक ले कर पेड़ पर चढ़ गया और पढ़ने लगा.

अचानक ‘धड़ाम’ की आवाज हुई. अनु ने आवाज सुनी तो वह तेजी से बाहर भागा. उस ने देखा कि सुबीर जमीन पर पड़ा कराह रहा है. वह तेजी से उस के पास गया और उसे खड़ा करने का प्रयत्न करने लगा.

‘‘अनु, मेरी पीठ में जोर की चोट लगी है. बहुत दर्द हो रहा है,’’ सुबीर दर्द से परेशान हो कर बोला.

अनु ने एक क्षण इधरउधर देखा, फिर जल्दी से बोला, ‘‘तुम हिलना मत, मैं सहायता के लिए अभी किसी को बुला कर लाता हूं.’’

अनु सीधा अपनी मां के पास गया और बोला, ‘‘मां, जल्दी चलो, सुबीर को बहुत चोट लगी है. उस की मां भी घर पर नहीं हैं…उसे बहुत दर्द हो रहा है.’’

अनु की मां सुबीर को गोद में उठा कर अंदर ले गईं. फिर उस की टांगों और बांहों की खरोंचों को साफ कर उन पर दवा लगा दी. अभी वे उस की पीठ पर मरहम लगा ही रही थीं कि सुबीर की मां बाजार से लौट आईं.

सुबीर के इर्दगिर्द कई लोगों को देख कर वे घबरा गईं. अनु उन को देखते ही बोला, ‘‘चाचीजी, सुबीर को बहुत दर्द हो रहा है, इसे जल्दी से अस्पताल ले चलिए,’’ उस की आंखों में आंसू तैर रहे थे.

सुबीर की मां अनु के सिर पर प्यार से हाथ फेरती हुई बोलीं, ‘‘अरे, बेटा, रोते नहीं…सुबीर दोचार दिन में बिलकुल ठीक हो जाएगा. तुम इसे देखने आया करोगे न?’’

अनु की आंखों में चमक आ गई. वह उत्सुकता से मां की ओर देखने लगा.

‘‘हां, यह अवश्य आएगा. अनु पास रहेगा तो सुबीर भी अपना दर्द भूल जाएगा,’’ अनु की मां बोलीं.

सुबीर की मां अनु की मां की बात सुन कर बहुत प्रसन्न हुईं. फिर बोलीं, ‘‘आप ने सुबीर की इतनी देखभाल की. उस के लिए बहुतबहुत धन्यवाद.’’

‘‘सुबीर भी तो मेरा ही बेटा है…जैसा अनु वैसा सुबीर. अपने बेटे के लिए कुछ करने के लिए धन्यवाद कैसा,’’ अनु की मां ने उत्तर दिया. थोड़ी देर बाद अनु और सुबीर जब अकेले रह गए तो अनु बोला, ‘‘तू पुस्तक पढ़तापढ़ता सो गया था क्या, एकदम से गिर कैसे गया?’’

‘‘जानबूझ कर गिरा था.’’

‘‘क्या?’’ अनु की आंखें आश्चर्य से फैल गईं, ‘‘जानता है, हड्डीपसली भी टूट सकती थी.’’

‘‘जानता हूं,’’ सुबीर गंभीरता से बोला, ‘‘पर मुझे उस का भी दुख न होता. अब हम सब फिर से मित्र बन गए हैं. तेरी मां ने मुझे कितना प्यार किया…’’

‘‘और तेरी मां ने मुझे…अब हम कभी झगड़ा नहीं करेंगे,’’ अनु भी गंभीर हो कर बोला.

‘‘हां, और क्या…खेल में हारजीत तो लगी ही रहती है. वास्तव में जीतने का मजा आता ही हारने के बाद है,’’ सुबीर बोला.

अनु को अब हंसी आ गई, ‘‘बड़ी बुद्धिमानी की बातें कर रहा है. अब कभी हारने पर रोएगा तो नहीं?’’

‘‘नहीं,’’ सुबीर भी हंसने लगा, ‘‘और न ही जीतने पर तुम्हें चिढ़ाऊंगा.’’

दोनों मित्र एक बार फिर मिल कर लूडो खेलने लगे.

बीच की दीवार: क्यों मायके जाकर खुश नहीं थी वो

‘‘मम्मी,आप नानी के यहां जाने के लिए पैकिंग करते हुए भी इतनी उदास क्यों लग रही हैं? आप को तो खुश होना चाहिए. नानी, मामा से मिलने जा रही हैं, पिंकी दीदी, सोनू भैया भी मिलेंगे.’’

‘‘नहींनहीं खुश तो हूं, बस जाने से पहले क्याक्या काम निबटाने हैं, यही सोच रही हूं.’’

‘‘खूब ऐंजौय करना मम्मी, हमारी पढ़ाई के कारण तो आप का जल्दी निकलना भी नहीं होता,’’ कह कर मेरे गाल पर किस कर के मेरी बेटी सुकन्या चली गई.

सही तो कह रही है, कोई मायके जाते हुए भी इतना उदास होता है? मायके जाते समय तो एक धीरगंभीर स्त्री भी चंचल तरुणी बन जाती है पर सुकन्या को क्या बताऊं, कैसे दिखाऊं उसे अपने मन पर लगे घाव. 20 साल की ही तो है. दुनिया के दांवपेचों से दूर. अभी तो उस की अपनी अलग दुनिया है, मांबाप के साए में हंसतीमुसकराती, खिलखिलाती दुनिया.

मेरे जाने के बाद अमित, सुकन्या और उस से 3 साल छोटे सौरभ को कोई परेशानी न हो, इस बात का ध्यान रखते हुए घर की साफसफाई करने वाली रमाबाई और खाना बनाने वाली कमला को अच्छी तरह निर्देश दे दिए थे. अपना बैग बंद कर मैं अमित का औफिस से आने का इंतजार कर रही थी.

सौरभ ने भी खेल कर आने पर पहला सवाल यही किया, ‘‘मम्मी, पैकिंग हो गई? आप बहुत सीरियस लग रही हैं, क्या हुआ?’’

‘‘नहीं, ठीक हूं,’’ कहते हुए मैं ने मुसकराने की कोशिश की.

इतने में अमित भी आ गए. हम चारों ने साथ डिनर किया. खाना खत्म होते ही अमित बोले, ‘‘सुजाता, आज टाइम पर सो जाना. अब किसी काम की चिंता मत करना, सुबह 5 बजे  एअरपोर्ट के लिए निकलना है.’’

सब काम निबटाने में 11 बज ही गए. सोने लेटी तो अजीब सा दुख और बेचैनी थी. किसी से कह नहीं पा रही थी कि मुझे नहीं जाना मां के घर, मुझे नहीं अच्छे लगते लड़ाईझगड़े. अकसर सोचती हूं क्या शांति और प्यार से रहना बहुत मुश्किल काम है? बस अमित मेरी मनोदशा समझते हैं, लेकिन वे भी क्या कहें, खून के रिश्तों का एक अजीब, अलग ही सच यह भी है कि अगर कोई गैर आप का दिल दुखाए तो आप उस से एक झटके में किनारा कर सकते हैं, लेकिन ये खून के अपने सगे रिश्ते मन को चाहे बारबार लहूलुहान करें आप इन से भाग नहीं सकते. कल मैं मुंबई एअरपोर्ट से फ्लाइट पकड़ूंगी, 2 घंटों में दिल्ली पहुंच कर फिर टैक्सी से मेरठ मायके पहुंच जाऊंगी. जहां फिर कोई झगड़ा देखने को मिलेगा. झगड़ा वह भी मांबेटे के बीच का, सोच कर ही शर्म आ जाती है, रिटायर्ड टीचर मां और पढ़ेलिखे मुझ से 5 साल बड़े नरेन भैया, गीता भाभी और मेरी भतीजी पिंकी व भतीजे सोनू के बीच का झगड़ा, कौन गलत है कौन सही, मैं कुछ सोचना नहीं चाहती, लेकिन दोनों मुझे फोन पर एकदूसरे की गलती बताते रहते हैं, तो मन का स्वाद कसैला हो जाता है मेरा.

मायके का यह तनाव आज का नहीं है.

5 साल पहले मां जब रिटायर हुई थीं तब से यही चल रहा है. आपस के स्नेहसूत्र कहां खो गए, पता ही नहीं चला. पिछली बार मैं 2 साल पहले गई थी. इन 2 सालों में हर फोन पर तनाव बढ़ता ही दिखा. अब तो हालत यह हो गई है कि मुझ से तो कोई यह पूछता ही नहीं है कि मैं कैसी हूं, अमित और बच्चे कैसे हैं, बस मेरे ‘नमस्ते’ कहते ही शिकायतों का पिटारा खोल देते हैं सब. ऐसे माहौल में मायके जाते समय किस बेटी का दिल खुश होगा? मैं तो अब भी न जाती पर मां ने फौरन आने के लिए कहा है तो मैं बहुत बेमन से कल जा रही हूं. काश, पापा होते. बस, इतना सोचते ही आंखें भर आती हैं मेरी.

मैं 13 वर्ष की ही थी जब उन का हार्टफेल हो गया था. उन का न रहना जीवन में एक ऐसा खालीपन दे गया जिस की कमी मुझे हमेशा महसूस हुई है. उन्हें ही याद करतेकरते मेरी आंख कब लगी, पता ही नहीं चला.

सुबह बच्चों को अच्छी तरह रहने के निर्देश देते हुए हम एअरपोर्ट के लिए निकल गए. अमित से बिदा ले कर अंदर चली गई और नियत समय पर उदास सा सफर खत्म हुआ.

जैसे ही घर पहुंची, मां गेट पर ही खड़ी थीं, टैक्सी से उतरते ही घर पर एक नजर डाली तो बाहर से ही मुझे जो बदलाव दिखा उसे देख मेरा दिल बुझ गया. अब घर के एक गेट की जगह 2 गेट दिख रहे थे और एक ही घर के बीच में दिख रही थी एक दीवार. दिल को बड़ा धक्का लगा.

मैं ने गेट के बाहर से ही पूछा, ‘‘मां, यह क्या?’’

‘‘कुछ नहीं, मेरे बस का नहीं था रोजरोज का क्लेश. अब दीवार खींचने से शांति रहती है. वे लोग उधर खुश, मैं इधर खुश.’’

खुश… एक ही आंगन के 2 हिस्से. इस में खुश कैसे रह सकता है कोई?

मां और मेरी आवाज सुन कर भैया और उन का परिवार भी अपने गेट पर आ गया.

भैया ने मेरे सिर पर हाथ रख कर कहा, ‘‘कैसी है सुजाता?’’

गीता भाभी भी मुझ से गले मिलीं. पिंकी, सोनू तो चिपट ही गए, ‘‘बूआ, हमारे घर चलो.’’

इतने में मां ने कहा, ‘‘सुजाता, चल अंदर यहां कब तक खड़ी रहेगी?’’

मैं तो कुछ समझ नहीं पा रही थी कि यह क्या हो गया, क्या करूं.

भैया ने ही कहा, ‘‘जा सुजाता, बाद में मिलते हैं.’’

मैं अपना बैग उठाए मां के पीछे चल दी. दीवार खड़ी होते ही घर का पूरा नक्शा बदल गया था. छत पर जाने वाली सीढि़यां भैया के हिस्से में चली गई थीं. अब छत पर जाने के लिए भैया के गेट से अंदर जाना था. आंगन का एक बड़ा हिस्सा भैया की तरफ था और एक छोटी गैलरी मां के हिस्से में जहां से बाहर का रास्ता था.

आंगन और गैलरी के बीच खड़ी एक दीवार जिसे देखदेख कर मेरे दिल

में हौल उठ रहे थे. मां एकदम शांत और सामान्य थीं. नहाधो कर मैं थोड़ी देर लेट गई. मां चाय ले आईं और फिर खुल गया शिकायतों का पिटारा. मैं अनमनी सी हो गई. इतनी दूर मैं क्या इसलिए आई हूं कि यह जान सकूं कि भाभी ने टाइम पर खाना क्यों नहीं बनाया, भैया भाभी के साथ उन के मायके क्यों जाते हैं बारबार, भाभी उन्हें बिना बताए पिक्चर क्यों गईं बगैराबगैरा…

मां ने पूछा, ‘‘क्या हुआ? बहुत थक गई क्या? बहुत चुप है?’’

मैं ने भर्राए गले से कहा, ‘‘मां, यह दीवार…’’

बात पूरी नहीं होने दी मां ने, ‘‘बहुत अच्छा हुआ, अब रोज की किटकिट बंद हो गई. अब शांति है. अब बोल, क्या खाएगी और इन लोगों को सिर पर मत चढ़ाना.’’

मैं अवाक मां का मुंह देखती रह गई. इतने में दीवार के उस पार से भैया की आवाज आई, ‘‘सुजाता, लंच यहीं कर लेना. तेरी पसंद का खाना बना है.’’

पिंकी की आवाज भी आई, ‘‘बूआ, जल्दी आओ न.’’

मां ने पलभर सोचा, फिर कहा, ‘‘चल, अच्छा, एक चक्कर काट आ उधर, नहीं तो कहेंगे मां ने भाईबहन को मिलने नहीं दिया.’’

मैं भैया की तरफ गई. पिंकी, सोनू की बातें शुरू हो गईं. दोनों सुकन्या और सौरभ की बातें पूछते रहे और फिर धीरेधीरे भैया और भाभी ने भी मां की शिकायतों का सिलसिला शुरू कर दिया, ‘‘मां हर बात में अपनी आर्थिक स्वतंत्रता की बात करती हैं, उन्हें पैंशन मिलती है, वे किसी पर निर्भर नहीं हैं. बातबात में गुस्सा करती हैं. समय के साथ कोई समझौता नहीं करती हैं.’’

मैं यहां क्यों आ गई, मुझे समझ नहीं आ रहा था. कैसे रहूंगी यहां. यहां सब मुझ से बड़े हैं. मैं किसी को क्या समझाऊं और आज तो पहला ही दिन था.

इतने में मां की आवाज आई, ‘‘सुजाता, खाना लग गया है, आ जा.’’

मैं फिर मां के हिस्से में आ गई. मैं ने बहुत उदास मन से मां के साथ खाना खाया. मां ने मेरी उदासी को मेरी थकान समझा और फिर मैं थोड़ी देर लेट गई. बैड की जिस तरफ मैं लेटी थी वहां से बीच की दीवार साफ दिखाई दे रही थी जिसे देख कर मेरी आंखें बारबार भीग रही थीं.

अपनेअपने अहं के टकराव में मेरी मां और मेरे भैया यह भूल चुके थे कि इस घर की बेटी को आंगन का यह बंटवारा देख कर कैसा लगेगा. मुझे तो यही लग रहा था कि मेरा तो इस घर में गुजरा बचपन, जवानी सब बंट गए हैं. आंगन का वह कोना जहां पता नहीं कितनी दोपहरें सहेलियों के साथ गुड्डेगुडि़या के खेल खेले थे, अमरूद का वह पेड़ जिस के नीचे गरमियों में चारपाई बिछा कर लेट कर पता नहीं कितने उपन्यास पढ़े थे. छत पर जाने वाली वे बीच की चौड़ी सीढि़यां जहां बैठ कर लूडोकैरम खेला था, अब वे सब दीवार के उस पार हैं जहां जाने पर मां की आंखों में नाराजगी के भाव दिखेंगे. मां के हिस्से में वह जगह थी जहां हर तीजत्योहार पर सब साथ बैठते थे, आज वह खालीखाली लग रही थी. घर का बड़ा हिस्सा भैया के पास था. मां ने अपनी जरूरत और घर की बनावट के हिसाब से दीवार खड़ी करवा दी थी.

यही चल रहा था. मैं भैया की तरफ होती तो मां बुला लेतीं और बारबार पूछतीं कि नरेन क्या कह रहा था, भैयाभाभी पूछते मां मुझे क्या बताती हैं उन के बारे में. मैं ‘कुछ खास नहीं’ का नपातुला जवाब सब को देती. मुझे महसूस होता घर भी मेरे दिल की तरह उदास है. मैं मन ही मन अपने जाने के दिन गिनती रहती. अमित और बच्चों से फोन पर बात होती रहती थी. दिनभर मेरा पूरा समय इसी कोशिश में बीतता कि सब के संबंध अच्छे हो जाएं, लेकिन शाम तक परिणाम शून्य होता.

एक दिन मैं ने मां से पूछ ही लिया, ‘‘मां, मुझे आप ने फोन पर इस दीवार के बारे में नहीं बताया और फौरन आने के लिए क्यों कहा था?’’

मां ने कहा, ‘‘ऐसे ही, गीता को दिखाना था मैं अकेली नहीं हूं… बेटी है मेरे साथ.’’

मैं ने भैया से पूछा, ‘‘आप ने फोन पर बताया नहीं कुछ?’’

जवाब भाभी ने दिया, ‘‘बस, फोन पर क्या बताते, दीवार खींच कर मां खुश हो रही हैं तो हमें भी क्या परेशानी है. हम भी आराम से हैं.’’

मेरे मन में आया ये सब खुश हैं तो मुझे ही क्यों तकलीफ हो रही है घर के आंगन में खड़ी दीवार से.

एक दिन तो हद हो गई. मां मुझे साड़ी दिलवाने मार्केट ले जा रही थीं.

मैं ने कहा, ‘‘मां, पिंकी व सोनू को भी बुला लेती हूं. उन्हें उन की पसंद का कुछ खरीद दूंगी.’’

मां ने फौरन कहा, ‘‘नहीं, हम दोनों ही जाएंगे.’’

मैं ने कहा, ‘‘मां, बच्चे हैं, उन से कैसा गुस्सा?’’

‘‘मुझे उन सब पर गुस्सा आता है.’’

मैं उस समय उन्हें नहीं ले जा पाई. उन्हें मैं अलग से ले कर गई. उन्हें उन की पसंद के कपड़े दिलवाए. फिर हम तीनों ने आइसक्रीम खाई. जब से आई थी यह पहला मौका था कि मन को कुछ अच्छा लगा था. पिंकी व सोनू के साथ समय बिता कर मन बहुत हलका हुआ.

5 दिन बीत रहे थे. मुझे अजीब सी मानसिक थकान महसूस हो रही थी. पूरा दिन दोनों तरफ की आवाजों पर कभी इधर, तो कभी उधर घूमती दौड़ती रहती. मन रोता मेरा. किसी को एक बेटी के दिल की कसक नहीं दिख रही थी. किस बेटी का मन नहीं चाहता कि कभी वह 2-3 साल में अपने मायके आए तो प्यार और अपनेपन से भरे रिश्तों की मिठास यादों में साथ ले कर जाए. मगर मैं जल्दी से जल्दी अपने घर मुंबई जाना चाहती थी, क्योंकि मेरा मायका मायका नहीं रह गया था.

वह तो ऐसा मकान था जहां दीवार की दोनों तरफ मांबेटा बुरे पड़ोसियों की तरह रह रहे थे. इस माहौल में किसी बेटी के दिल को चैन नहीं आ सकता था.

मैं ने अमित को बता दिया कि मैं 1 हफ्ते में ही आ रही हूं. अमित सब समझ गए थे. 7वें दिन मैं ने अपना बैग पैक किया. सब से कसैले मन से बिदा ली. भैया ने अपने जानपहचान की टैक्सी बुलवा दी थी. टैक्सी में बैठ कर सीट पर सिर टिका कर मैं ने अपनी आंखें बंद कर लीं. लगा बिदाईर् तो आज हुई है मायके से. शादी के बाद जो बिदाई हुई थी उस में फिर मायके आने की, सब से मिलने की एक आस, चाह और कसक थी, लेकिन अब लग रहा था कभी नहीं आ पाऊंगी. इतने प्यारे, मीठे रिश्ते में आई कड़वाहट सहन करना बहुत मुश्किल था. मायके में खड़ी बीच की दीवार रहरह कर मेरी आंखों के आगे आती रही और मेरे गाल भिगोती रही.

संदेशवाहक : क्या नीरज ने पत्नी को धोखा दिया

नीरज से शिखा की शादी के समय महक अमेरिका गई हुई थी. जब वह लौटी, तब तक उन की शादी को3 महीने बीत गए थे. अपनी सब से पक्की सहेली के आने की खुशी में शिखा ने अपने घर में एक छोटी सी पार्टी का आयोजन किया. शिखा ने पार्टी में नीरज के 3 खास दोस्तों और अपनी 3 पक्की सहेलियों को भी बुलाया.

जब करीब 9 बजे महक ने उन के ड्राइंगरूम में कदम रखा, तब तक सारे मेहमान आ चुके थे. शिखा और उस की सहेलियों के अलावा बाकी सब उस से पहली बार मिल रहे थे. उस पर पहली नजर डालते ही वे सब उस की सुंदरता देख कर मुग्ध हो उठे. ‘‘अति सुंदर’’, ये शब्द शिखा के पति नीरज के मुंह से निकले.

रवि, मोहित और विपिन की भी आंखें चमक उठीं और मुंह खुले के खुले रह गए. ‘‘शिखा, शादी कर के तो तू फिल्मी हीरोइन सी सुंदर हो गई है,’’ महक ने पहले शिखा को गले लगाया औैर फिर गोद में उठा कर 2 चक्कर भी लगा दिए.

फिर जब वह नीरज से भी गले लग कर मिली, तो शिखा ने उस के तीनों दोस्तों की आंखों में हैरानी के भावों को पैदा होते देखा. ‘‘जीजू, मसल्स तो बड़ी जबरदस्त बना रखी हैं,’’ महक ने बेहिचक नीरज के बाएं बाजू को दबाते हुए उस की तारीफ की, ‘‘लगता है तुम्हें भी मेरी तरह जिम जाने का शौक है. यू आर वैरी हैंडसम.’’

नीरज तो उसी पल से महक का फैन बन गया. उसे अपने सुंदर रंगरूप और मजबूत कदकाठी पर बहुत गुमान था. फिर महक रितु, गुंजन औैर नीमा से गले लग कर मिली. मोहित, रवि और विपिन से उस ने दोस्ताना अंदाज में हाथ मिलाया.

महक के पहुंचते ही पार्टी में जान पड़ गई थी. नीरज और उस के दोस्त उस की अदाओं के दीवाने हो गए थे. महक उन से यों खुल कर हंसबोल रही थी मानो उन्हें वर्षों से जानती हो. ‘‘बिना डांस के पार्टी में मजा नहीं आता,’’ उस के मुंह से इन शब्दों के निकलने की देर थी कि उन चारों ने फटाफट सोफा औैर मेज एक तरफ खिसका कर ड्राइंगरूम के बीच में डांस करने की जगह बना दी.

डांस कर रही महक का उत्साह देखते ही बनता था. उस ने नीरज और उस के तीनों दोस्तों के साथ जम कर डांस किया. ‘‘अरे, हम चारों भी इस पार्टी में शामिल हैं. हमारे साथ भी कोईर् खुशीखुशी डांस कर ले, यार,’’ गुंजन के इस मजाक पर सब ठहाका मार कर हंसे जरूर, पर उन चारों के आकर्षण का केंद्र तब भी महक ही बनी रही.

महक को किसी भी पुरुष का दिल जीतने की कला आती थी. उस की बड़ीबड़ी चंचल आंखों की चमक और दिलकश मुसकान में खो कर नीरज औैर उस के दोस्तों को समय बीतने का एहसास ही नहीं हो रहा था. ‘‘आज जीजू के पास हमारे लिए वक्त नहीं है. वैसे जब मिलते थे तो भंवरे की तरह हमारे इर्दगिर्द ही मंडराते रहते थे,’’ रितु की इस बात पर चारों सहेलियां खूब हंसीं.

‘‘आज मौका है, तो नीरज के बाकी दोस्तों से गपशप क्यों नहीं कर रही हो? ये अच्छे और काबिल लड़के फंसाने लायक हैं, सहेलियो,’’ शिखा ने उन्हें मजाकिया अंदाज में छेड़ा. ‘‘आज इन सब के पास महक के अलावा किसी और की तरफ देखने की फुरसत नहीं है,’’ अपनी बात कह कर नीमा ने ऐसा मुंह बनाया कि हंसतेहंसते उन सब के पेट में बल पड़ गए.

‘‘यह है वैसे हैरान करने वाली बात,’’ गुंजन ने सीरियस दिखने का नाटक किया, ‘‘महक से इन्हें कुछ नहीं मिलने वाला है, क्योंकि वह आज के बाद इन्हें भूल जाएगी और…’’ ‘‘किसी अगली पार्टी में होने वाली मुलाकात तक यह इन से कोई वास्ता नहीं रखेगी,’’ नीमा बोली.

‘‘हां, किसी अगली पार्टी में होने वाली मुलाकात में महक इन से फिर जम कर फ्लर्ट करेगी और पार्टी खत्म होते ही फिर इन्हें भुला देगी. लेकिन इन में से कोई भी इस के ऐसे व्यवहार से सबक नहीं सीखेगा. अगली मुलाकात होने पर ये फिर महक के इर्दगिर्द दुम हिलाते घूमने लगेंगे. है न यह हैरानी वाली बात?’’

‘‘और इधर हम इंतजार में खड़ी हैं,’’ नीमा ने नाटकीय अंदाज में गहरी सांस छोड़ी, ‘‘इन्हें अपना घर बसाना हो, तो हमारे पास आना चाहिए. इन के बच्चों की मम्मी बनने को हम तैयार हैं, पर इन बेवकूफों की दिलचस्पी हमेशा फ्लर्ट करने वाली महक जैसी औरतों में ही क्यों रहती है?’’

नीमा के अभिनय ने उस की सहेलियों को एक बार फिर जोर से हंसने पर मजबूर कर दिया. ‘‘शिखा, नीमा के इस सवाल का जवाब तू दे न. जीजू भी महक की तरह फ्लर्ट करने में ऐक्सपर्ट हैं. क्या तुझे उन की इस आदत पर कभी गुस्सा नहीं आता?’’ गुंजन ने मुसकराते हुए नीरज की शिकायत की.

‘‘मुझे तुम सब पर विश्वास है, इसीलिए मैं उन के तुम लोगों के साथ फ्लर्ट करने को अनदेखा करती हूं,’’ शिखा ने लापरवाही से कंधे उचकाते हुए जवाब दिया. ‘‘चल, हमारी बात तो अलग हो गई, लेकिन कल को जीजू किसी और फुलझड़ी के चक्कर में फंस गए, तब क्या करोगी?’’

‘‘मैं और नीरज उस फुलझड़ी का हुलिया बिगाड़ देंगे,’’ शिखा ने अपनी उंगलियां मोड़ कर पंजा बनाया और रितु का मुंह नोचने का अभिनय किया, तो उस बेचारी के मुंह से चीख ही निकल पड़़ी. ‘‘अब मैं चली खाना लगाने की तैयारी करने. तुम सब अपने जीजू और उन के दोस्तों को महक के रूपजाल से आजाद कराने की कोशिश करो,’’ शिखा हंसती हुई रसोईर्घर की तरफ बढ़ गई.

पार्र्टी का सारा खाना बाजार से आया था. सिर्फ बादामकिशमिश वाली खीर शिखा ने घर में बनाई थी. नीरज और उस के दोस्त महक का बहुत ज्यादा ध्यान रखे हुए थे. उस की प्लेट में कोईर् चीज खत्म होने से पहले ही इन के द्वारा पहुंचा दी जाती थी.

‘‘मुझे खीर नहीं आइसक्रीम खानी है,’’ खाना खत्म होने के बाद जब महक ने किसी बच्चे की तरह से मचलते हुए यह फरमाइश की, तो नीरज फौरन आइसक्रीम लाने को तैयार हो गया. ‘‘मुझे शाहजी की स्पैशल चौकोचिप्स खाने हैं,’’ महक ने उसे अपनी पसंद भी बता दी.‘‘यह शाहजी की दुकान कहां है?’’ नीरज बाहर जातेजाते ठिठक कर रुक गया.

‘‘मेरे फ्लैट के पास. किसी से भी पूछोगे, तो वह तुम्हें बता देगा.’’‘‘साली साहिबा, बहुत दूर जाना पड़ेगा पर तुम्हारी खातिर जरूर जाऊंगा. वैसे तुम गाइड बन कर मेरे साथ क्यों नहीं चलती हो?’’ ‘‘कैसे जाओगे?’’‘‘मोटरसाइकिल से.’’‘‘फास्ट ड्राइव करोगे?’’‘‘हवा से बातें करते चलूंगा.’’‘‘तो मैं चली जीजू के साथ बाइक राइड का आनंद लेने, दोस्तो,’’ महक खुशी से उछल कर खड़ी हुई और उन सब की तरफ हाथ हिलाने के बाद नीरज के साथ बाहर निकल गई.रास्ते में नीरज ने ऊंची आवाज में महक से कहा, ‘‘मेरा मन कौफी पीने को कर रहा है.’’

‘‘यहां कहीं अच्छी कौफी नहीं मिलती है,’’ महक उस के कान के पास मुंह ला कर चिल्लाई.‘‘तुम्हारे घर चलें?’’‘‘कौफी के चक्कर में ज्यादा देर हो जाएगी.’’‘‘तो हो जाने दो. कह देंगे कि पैट्रोल भरवाने चले गए थे और देर हो गई.’’महक ने कोई जवाब नहीं दिया, तो नीरज ने उस पर दबाव बनाया, ‘‘महक, मैं भी तो तुम्हारी आइसक्रीम खाने की फरमाइश को पूरा करने के लिए फौरन उठा खड़ा हुआ था. अब तुम भी 1 कप बढि़या कौफी पिला ही दो.’’

‘‘ठीक है,’’ महक का यह जवाब सुन कर नीरज के दिल की धड़कनें बढ़ती चली गईं.अपने फ्लैट में घुसते ही महक ने पहले किचन में जा कर कौफी के लिए पानी गरम होने को रखा और फिर बाथरूम में चली गई. उस के वहां से बाहर आने तक नीरज ने अपने मन की इच्छा पूरी करने की हिम्मत जुटा ली थी.

महक वापस रसोई घर में जाने लगी, तो नीरज उस का रास्ता रोक कर रोमांटिक लहजे में बोला, ‘‘तुम जैसी सुंदर और स्मार्ट लड़की के पीछे तो उस के चाहने वालों की लंबी लाइन होनी चाहिए. फिर मैं शिखा की इस बात को सच कैसे मान लूं कि तुम्हारा कोई प्रेमी नहीं है?’’‘‘जीजू, मेरे प्रेमी आतेजाते रहते हैं. मुझे शादी कभी नहीं करनी है, इसलिए स्थायी प्रेमी रखने का झंझट मैं नहीं पालती,’’ महक ने बेझिझक उस के सवाल का जवाब दे दिया.

‘‘क्या कभी इस बात से चिंतित नहीं होती हो कि जीवनसाथी के बिना भविष्य में खुद को कभी बहुत अकेली पाओगी?’’‘‘क्या अकेलेपन का एहसास जीवनसाथी पा लेने से खत्म हो जाता है, जीजू?’’‘‘शायद नहीं, पर जीवन में प्रेम के महत्त्व को तो तुम नकार नहीं सकती हो.’’

‘‘मेरा काम अस्थायी प्रेमियों से अच्छी तरह चल रहा है,’’ हंसती हुई महक रसोई में जाने लगी.नीरज ने अचानक उस का हाथ पकड़ कर पूछा, ‘‘और पहली मुलाकात में प्रेम हो जाने के बारे में क्या कहती हो?’’‘‘यह खतरनाक बीमारी किसे लग गई है?’’ महक अजीब से अंदाज में मुसकराने लगी.

‘‘मुझे.’’‘‘तब इस सवाल का जवाब तुम्हें शिखा देगी, जीजू.’’‘‘उसे बीच में क्यों ला रही हो?’’‘‘क्योंकि वह मेरी बैस्ट फ्रैंड है, सर,’’ महक ने उस की आंखों में देखते हुए कुछ भावुक हो कर जवाब दिया.‘‘मैं भी तुम्हारा बैस्ट फ्रैंड बनना चाहता हूं,’’ नीरज ने अचानक उसे खींच कर अपनी बांहों के घेरे में कैद कर लिया.‘‘क्या मुझे पाने के लिए तुम शिखा को धोखा देने को तैयार हो?’’‘‘उसे हम कुछ पता ही नहीं लगने देंगे, स्वीटहार्ट.’’

‘‘पत्नियों को देरसवेर सब मालूम पड़ जाता है, जीजू.’’‘‘हम ऐसा नहीं होने देंगे.’’‘‘देखो, शिखा को पता लग ही गया न कि तुम उस की सहेली रितु के साथ 2 बार डिनर पर जा चुके हो और 1 फिल्म भी तुम दोनों ने साथसाथ देखी है. इस जानकारी को तो तुम शिखा तक पहुंचने से नहीं रोक पाए.’’

उस की बात सुन कर नीरज फौरन परेशान नजर आने लगा और उस ने महक को अपनी बांहों की कैद से आजाद कर दिया. उसे बिलकुल अंदाजा नहीं था कि शिखा को उस के और रितु के बीच चल रहे अफेयर की जानकारी थी.‘‘न… न… सच को झुठलाने कीकोशिश मत करो, जीजू. जब तक मैं कौफी बना कर लाती हूं, तब तक ड्राइंगरूम में बैठ कर तुम इस नईजानकारी की रोशनी में पूरी स्थिति पर सोचविचार करो. अगर बाद में भी तुम्हारे मन में मेरा प्रेमी बनने की चाहत रही, तो हम इस बारे में चर्चा जरूर करेंगे,’’ महक ने मुसकराते हुए उसे ड्राइंगरूम की ओर धकेल दिया.

कुछ देर बाद महक ने थर्मस और ट्रे में रखे कपों के साथ ड्राइंगरूम में प्रवेश किया, तो सोचविचार में डूबा नीरज चौंक कर सीधा बैठ गया.‘‘इतने सारे कप क्यों लाई हो?’’ उस के चेहरे का रंग उड़ गया.‘‘कौफी सब पिएंगे न, जीजू,’’ महक शरारती अंदाज में मुसकरा पड़ी.‘‘सब कौन?’’

‘‘तुम्हारे दोस्त, शिखा और हम सहेलियां.’’‘‘वे यहां आ रहे हैं?’’‘‘मुझे नीमा ने फोन किया और जब मैं ने उसे बताया कि हम कौफी पीने जा रहे हैं, तो उन सब ने भी यहां आने का कार्यक्रम बना लिया. वे बस पहुंचने ही वाले होंगे.’’‘‘तुम ने मुझे फौरन क्यों नहीं बताई यह बात?’’ नीरज को गुस्सा आ गया.

‘‘उन सब का सामना करने से डर लग रहा है, जीजू? देखो, मैं तो बिलकुल सहज हूं,’’ महक की सहज मुसकान मानो नीरज का मजाक उड़ा रही थी.

‘‘तुम कुछ पागल हो क्या? तुम ने यह क्यों बताया कि हम यहां हैं? हम फौरन यहां से निकल कर आइसक्रीम लेते हुए घर लौट जाते. तुम ने बेकार के झंझट में फंसा दिया,’’ नीरज बहुत परेशान और चिंतित नजर आ रहा था.

‘‘मैं तुम्हारे डर को समझ सकती हूं, लेकिन मैं शिखा को समझा दूंगी कि…’’‘‘तुम्हारे समझाने से वह कुछ नहीं समझेगी, औरतों से हंसनेबोलने की मेरी आदत के कारण वह तो वैसे ही मुझ पर शक करती है. तुम्हें बुद्धि का इस्तेमाल करना चाहिए था, महक.’’

‘‘इतना ज्यादा परेशान क्यों हो रहे हो, जीजू? हम जैसे फ्लर्ट करने के शौकीनों को ऐसी परिस्थितियों से नहीं डरना चाहिए. जाल फेंकते रहने से कभी न कभी तो शिकार फंसेगा ही. वह शिकार रितु हो, मैं होऊं या कोईर् और इस से क्या फर्क पड़ता है? शिखा तुम्हें छोड़ कर तो जाने से रही. जस्ट रिलैक्स, जीजू.’’

‘‘शटअप, मैं यहां से जा रहा हूं और मुझ से तुम भविष्य में कोई वास्ता मत रखना.’’नीरज उठा और हैलमेट उठा कर दरवाजे की तरफ चल पड़ा.‘‘जीजू, प्लीज रुको. मेरे हाथ की बनाई कौफी तो पीते जाओ.’’‘‘भाड़ में जाए कौफी.’’‘‘जीजू, मैं दोनों कप नहीं पी सकूंगी.’’

‘‘दोनों कप?’’ नीरज ठिठक कर पलटा तो उस ने महक को थर्मस उलटा कर के हिलाते देखा. सिर्फ 2 कपों में कौफी नजर आ रही थी. बाकी सब खाली रखे हुए थे.

‘‘तुम ने सिर्फ 2 कप कौफी बनाई है?’’ वह अचंभित नजर आ रहा था.‘‘हां जीजू, इस लाडली साली ने अपने जीजू से जो छोटा सा मजाक किया है, उस का बुरा मत मानना,’’ महक शरारती अंदाज में मुसकरा रही थी.‘‘यह छोटा मजाक था? मैं तुम्हारा गला घोंट दूंगा,’’ नीरज ने नाटकीय अंदाज में दांत पीसे.‘‘वैसा करने से पहले एक वादा तो कर लो, जीजू.’’‘‘कैसा वादा?’’

‘‘यही कि शिखा का सामना करने की बात सोच कर कुछ देर पहले तुम्हें जिस डर, चिंता और शर्मिंदगी के एहसास ने जकड़ा था, उसे तुम आजीवन याद रखोगे.’’‘‘बिलकुल याद रखूंगा, साली साहिबा. तुम ने तो आज मेरी जान ही निकाल दी थी,’’ निढाल सा नीरज सोफे पर बैठ गया.

‘‘मेरी जिंदगी में तो कोई जीवनसाथी आएगा ही नहीं, पर जीवनसाथी के होते हुए भी उस के दिल से दूर होने की पीड़ा तुम कभी नहीं भोगना चाहते हो, तो आज की रात का सबक न भूलना.’’‘‘शिखा की तरफ से एक संदेश मैं तुम्हें दे रही हूं. उसे पहले से अंदाजा था कि तुम मुझे अपने चक्कर में फंसाने की कोशिश जरूर करोगे. उस ने कहलवाया है कि वह तुम्हारी फ्लर्ट करने की आदत को तो बरदाश्त कर सकती है, लेकिन अगर तुम ने किसी दूसरी औरत से सचमुच संबंध बनाने की मूर्खता भविष्य में कभी की, तो तुम उसे हमेशा के लिए खो दोगे.’’

कुछ देर खामोश रहने के बाद नीरज ने संजीदा स्वर में पूछा, ‘‘क्या हमारे यहां आने की बात तुम शिखा को बताओगी?’’‘‘तुम ही बताओ कि उसे बताऊं या नहीं?’’‘‘बता ही देना, नहीं तो मेरा संदेश उस तक कैसे पहुंचेगा.’’‘‘तुम भी मुझे अपना संदेशवाहक बना रहे हो? वाह,’’ महक हंस पड़ी.

‘‘शिखा से कह देना कि मैं उस के विश्वास को कभी नहीं तोड़ूंगा.’’‘‘वैरी गुड, जीजू,’’ महक खुश हो गई, ‘‘तुम्हारे इस फैसले का स्वागत हम कौफी पी कर करते हैं,’’ महक ने नीरज के हाथ में कौफी का कप पकड़ा दिया.‘‘चीयर्स फौर युअर हैप्पी होम,’’ महक की इस शुभकामना ने नीरज के चेहरे को फूल सा खिला दिया था.

 

टूटते जुड़ते सपनों का दर्द

कालेज की लंबी गोष्ठी ने प्रिंसिपल गौरा को बेहद थका डाला था. मौसम भी थोड़ा गरम हो चला था, इसलिए शाम के समय भी हवा में तरावट का अभाव था. उन्होंने जल्दीजल्दी जरूरी फाइलों पर हस्ताक्षर किए और हिंदी की प्रोफेसर के साथ बाहर आईं. अनुराधा की गाड़ी नहीं आई थी, सो उन्हें भी अपनी गाड़ी में साथ ले लिया. घर आने पर अनुराधा ने बहुत आग्रह किया कि चाय पी कर ही वे जाएं, लेकिन एक तो गोष्ठी की गंभीर चर्चाओं पर बहस की थकान, दूसरे मन की खिन्नता ने वह आमंत्रण स्वीकार नहीं किया. वे एकदम अपने कमरे में जाना चाह रही थीं.

सुबह से ही मन खिन्न हो उठा था. अगर यह अति आवश्यक गोष्ठी नहीं होती तो वे कालेज जाती भी नहीं. आज की सुबह आंखों में तैर उठी. कितनी खुश थीं सुबह उठ कर. सिरहाने की लंबी खिड़की खोलते ही सिंदूरी रंग का गोला दूर उठता हुआ रोज नजर आता. आज भी वे उस रंग के नाजुक गाढ़ेपन को देख कर मुग्ध हो उठी थीं. तभी पड़ोस में रहने वाली अनुराधा के नौकर ने बंद लिफाफा ला कर दिया, जो कल शाम की डाक से आया था और भूल से उन के यहां डाकिया दे गया था.

उसी मुदित भाव से लिफाफा खोला. छोटी बहन पूर्वा का पत्र था उस में. गोल तकिए पर सिर टेक कर आराम से पढ़ने लगीं, लेकिन पढ़तेपढ़ते उन का मन पत्ते सा कांपने लगा और चेहरे से जैसे किसी ने बूंदबूंद खुशी निचोड़ ली थी. ऐसा लगा कि वे ऊंची चट्टान से लुढ़क कर खाई में गिर कर लहूलुहान हो गई हैं. जैसे कोई दर्द का नुकीला पंजा है जो धीरेधीरे उन की ओर खौफनाक तरीके से बढ़ता आ रहा है. उन की आंखों से मन का दर्द पानी बन कर बह निकला.

दरवाजे की घंटी बजी. दुर्गा आ गई थी काम करने. गौरा ने पलकों में दर्द समेट लिया और कालेज जाने की तैयारी में लग गईं. मन उजाड़ रास्तों पर दौड़ रहा था, पागल सा. आंखें खुली थीं, पर दृष्टि के सामने काली परछाइयां झूल रही थीं. कितनी कठिनाई से पूरा दिन गुजारा था उन्होंने. हंसीं भी, बोलीं भी, कई मुखौटे उतारतीचढ़ाती भी रहीं, परंतु भीतर का कोलाहल बराबर उन्हें बेरहमी से गरम रेत पर पछाड़ता रहा. क्या पूर्वा का जीवन संवारने की चेष्टा व्यर्थ गई? क्या उन के हाथों कोई अपराध हुआ है, जिस की सजा पूरी जिंदगी पूर्वा को झेलनी होगी?

अपने कमरे में आ कर वे बिस्तर पर निढाल हो कर पड़ गईं. मैले कपड़ों की खुली बिखरी गठरी की तरह जाने कितने दृश्य आंखों में तैरने लगे. विचारों का काफिला धूल भरे रास्तों में भटकने लगा.

3 भाइयों के बाद उन का जन्म हुआ था. सभी बड़े खुश हुए थे. कस्तूरी काकी और सोना बूआ बताती रहती थीं कि 7 दिन तक गीत गाए गए थे और छोटेबड़े सभी में लड्डू बांटे गए थे. बाबा ने नाम दिया, गौरा. सोचा होगा कि बेटी के बाद और लड़के होंगे. इसी पुत्र लालसा के चक्कर में 2 बहनें और हो गईं. तब न गीत गाए गए और न लड्डू ही बांटे गए.

कहते हैं न कि जब लोग अपनी स्वार्थ लिप्सा की पूर्ति मनचाहे ढंग से प्राप्त नहीं कर पाते हैं तब घर के द्वारदेहरी भी रुष्ट हो जाते हैं. वहां यदि अपनी संतान में बेटाबेटी का भेद कर के निराशा, कुंठा, निरादर और घृणा को बो दिया जाए तो घर एक सन्नाटा भरा खंडहर मात्र रह जाता है.

उस भरेपूरे घर में धीरेधीरे कष्टों के दायरे बढ़ने प्रारंभ होने लगे. बड़े भाई छुट्टी के दिन अपने साथियों के साथ नदी स्नान के लिए गए थे. तैरने की शर्त लगी. उन्हें नदी की तेज लहरें अपने चक्रवात में घेर कर ले डूबीं. लौट कर आई थी उन की फूली हुई लाश. घर भर में कुहराम मच गया था. मां और बाबूजी पागल हो उठे. बाबा की आंखें सूखे कुएं की तरह अंधेरों से अट गईं.

धीमेधीमे शब्दों में कहा जाने लगा कि तीनों लड़कियां भाई की मौत का कारण बनी हैं. न तीनों नागिनें पैदा होतीं और न हट्टाकट्टा भाई मौत का ग्रास बनता. समय ने सभी के घावों को पूरना शुरू ही किया था कि बीच वाले भाई हीरा के मोतीझरा निकला. वह ऐसा बिगड़ा कि दवाओं और डाक्टरों की सारी मेहनत पर पानी फेरता रहा.

मौत फिर दबेपांव आई और चुपचाप अपना काम कर गई. इस बार के हाहाकार ने आकाश तक हिला दिया. पिता एकदम टूट गए. 20 वर्ष आगे का बुढ़ापा एक रात में ही उन पर छा गया था. बाबा खाट से चिपक गए थे. मां चीखचीख कर अधमरी हो उठीं और बिना किसी लाजहिचक के जोरजोर से घोषणा करने लगीं कि मेरी तो लड़कियां ही साक्षात मौत बन कर पूरा कुनबा खत्म करने आई हैं. इन का तो मुंह देखना भी पाप है.

महल्ला, पड़ोस, रिश्तेदार सभी परिवार के सदस्यों के साथ तीनों बहनों को भरपूर कोसने लगे. अपने ही घर में तीनों किसी एकांत कोने में पड़ी रहतीं, अपमानित और दुत्कारी हुईं. न कोई प्यार से बोलता, न कोई आंसू पोंछता. तीनों की इच्छाएं मर कर काठ हो गईं. लाख सोचने पर भी वे यह समझ नहीं पाईं कि भाइयों की मृत्यु से उन का क्या संबंध है, वे मनहूस क्यों हैं.

तीसरा भाई बचपन से जिद्दी व दंगली किस्म का था. अब अकेला होने पर वह और बेलगाम हो गया था. सभी उसी को दुलारते रहते. उस की हर जिद पूरी होती और सभी गलतियां माफ कर दी जातीं. नतीजा यह हुआ कि वह स्कूल में नियमित नहीं गया. उलटेसीधे दोस्त बन गए. घर से बाहर सुबह से शाम तक व्यर्थ में घूमता, भटकता रहता. ऐसे ही गलत भटकाव में वह नशे का भयंकर आदी हो गया. न ढंग से खाता, न नींद भर सो पाता था. मातापिता से खूब जेबखर्च मिलता. कोई सख्ती से रोकनेटोकने वाला नहीं था. एक दिन कमरे में जो सोया तो सुबह उठा ही नहीं. उस के चारों ओर नशीली गोलियों और नशीले पाउडरों की रंग- बिरंगी शीशियां फैली पड़ी थीं और वह मुंह से निकले नीले झाग के साथ मौत की गोद में सो रहा था.

उस की ऐसी घिनौनी मौत को देख कर तो जैसे सभी गूंगेबहरे से हो उठे थे. पूरे पड़ोस में उस घर की बरबादी पर हाहाकार मच गया था. कहां तक चीखतेरोते? आंसुओं का समंदर भीतर के पहाड़ जैसे दुख ने सोख लिया था. घर भर में फैले सन्नाटे के बीच वे तीनों बहनें अपराधियों की तरह खुद को सब की नजरों से छिपाए रहती थीं. उचित देखभाल और स्नेह के अभाव में तीनों ही हर क्षण भयभीत रहतीं. अब तो उन्हें अपनी छाया से भी भय लगने लगा था. दिन भर उन्हें गालियां दे कर कोसा जाता और बातबात पर पिटाई की जाती.

जानवर की तरह उन्हें घर के कामों में जुटा दिया गया था. वे उस घर की बेटियां नहीं, जैसे खरीदी हुई गुलाम थीं, जिन्हें आधा पेट भोजन, मोटाझोटा कपड़ा और अपशब्द इनाम में मिलते थे. पढ़ाई छूट गई थी. गौरा तो किसी तरह 10वीं पास कर चुकी थी लेकिन छोटी चित्रा और पूर्वा अधिक नहीं पढ़ पाईं. जब भी सगी मां द्वारा वे दोनों जानवरों की तरह पीटी जातीं, तब भयभीत सी कांपती हुई दोनों बड़ी बहन के गले लग कर घंटों घुटीघुटी आवाज में रोती रहती थीं.

कुछ भीतरी दुख से, कुछ रातदिन रोने से पिता की आंखें कतई बैठ गई थीं. वे पूरी तरह से अंधे हो गए थे. मां को तो पहले ही रतौंधी थी. शाम हुई नहीं कि सुबह होने तक उन्हें कुछ दिखाई नहीं देता था. बाबा का स्नेह उन बहनों को चोरीचोरी मिल जाया करता था लेकिन शीघ्र ही उन की भी मृत्यु हो गई थी.

पिता की नौकरी गई तो घर खर्च का प्रश्न आया. तब बड़ी होने के नाते गौरा अपना सारा भय और अपनी सारी हिचक,  लज्जा भुला कर ट्यूशन करने लगी थी. साथ ही प्राइवेट पढ़ना शुरू कर दिया. बहनों को फिर से स्कूल में दाखिला दिलाया. तीनों बहनों में हिम्मत आई, आत्मसम्मान जागा.

तीनों मांबाबूजी की मन लगा कर सेवा करतीं और घरबाहर के काम के साथसाथ पढ़ाई चलती रही. वे ही मनहूस बेटियां अब मां और बाबूजी की आंखों की ज्योति बन उठी थीं, सभी की प्रशंसा की पात्र. महल्ले और रिश्तेदारी में उन के उदाहरण दिए जाने लगे. घर में हंसीखुशी की ताजगी लौट आई. इस ताजगी को पैदा करने में और बहनों को ऊंची शिक्षा दिलाने में वे कब अपने तनमन की ताजगी खो बैठीं, यह कहां जान सकी थीं? विवाह की उम्र बहुत पीछे छूट गई थी. छोटेबड़े स्कूलों का सफर करतेकरते इस कालेज की प्रिंसिपल बन गईं. घर में गौरा दीदी और कालेज में प्रिंसिपल डा. गौरा हो गई थीं. छोटी दोनों बहनों की शादियां उन्होंने बड़े मन से कीं. बेटियों की तरह विदा किया.

चित्रा के जब लगातार 5 लड़कियां हुईं, तब उस को ससुराल वालों से इतने ताने मिले, ऐसीऐसी यातनाएं मिलीं कि एक बार फिर उस का मन आहत हो उठा. बहुत समझाया उन लोगों को. दामाद, जो अच्छाखासा पढ़ालिखा, समझदार और अच्छी नौकरी वाला था, उसे भी भलेबुरे का ज्ञान कराया, परंतु सब व्यर्थ रहा.

चित्रा की ससुराल के पड़ोस में ही सुखराम पटवारी की लड़की सत्या की शादी हुई थी. उस ने आ कर बताया था, ‘बेकार इन पत्थरों के ढोकों से सिर फोड़ती हो, दीदी. उन पर क्या असर होने वाला है? हां, जब भी तुम्हारे खत जाते हैं या उन्हें समाज, संसार की बातें समझाती हो, तब और भी जलीकटी सुनाती हैं चित्रा की सास और जेठानी. जिस दामाद को भोलाभाला समझती हो, वह पढ़ालिखा पशु है. मारपीट करता है. हर समय विधवा ननद तानों से चित्रा को छलनी करती रहती है. चित्रा तो सूख कर हड्डियों का ढांचा भर रह गई है. बुखार, खांसी हमेशा बनी रहती है. ऊपर से धोबिया लदान, छकड़ा भर काम.’’

वे कांप उठी थीं सत्या से सारी बातें सुन कर. उस के लिए उन का मन भीगभीग उठा था. बचपन में मां से दुत्कारी जाने पर वे उसे गोदी में छिपा लेती थीं. उन की विवशता भीतर ही भीतर हाहाकार मचाए रहती थी.

एक दिन बुरी खबर आ ही गई कि क्षयरोग के कारण चित्रा चल बसी है. शुरू से ही अपमान से धुनी देह को क्षय के कीटाणु चाट गए अथवा ससुराल के लोग उस की असामयिक मौत के जिम्मेदार रहे? प्रश्नों से घिर उठीं वे हमेशा की तरह.

और इधर आज महीनों बाद मिला यह पूर्वा का पत्र. क्या बदल पाईं वे बहनों का जीवन? सोचा था कि जो कुछ उन्हें नहीं मिला वह सबकुछ बहनों के आंचल में बांध कर उन के सुखीसंपन्न जीवन को देखेगी. कितनी प्रसन्न होगी जीवन की इस उतरती धूप की गहरी छांव में. अपनी सारी महत्त्वाकांक्षाएं और मेहनत से कमाई पाईपाई उन पर न्योछावर कर दी थी. हृदय की ममता से उन्हें सराबोर कर के अपने कर्तव्यों का एकएक चरण पूरा किया परंतु…

पंखे की हवा से जैसे पूर्वा के पत्र का एकएक अक्षर उन के सामने गरम रेत के बगलों की तरह उड़ रहा था या कि जैसे पूर्वा ही सामने बैठ कर हमेशा की तरह आंसुओं में डूबी भाषा बोल रही थी. किसे सुनाएं वे मन की व्यथा? पत्र का एक- एक शब्द जैसे लावा बन कर भीतर तक झुलसाए जा रहा था :

‘दीदी, मैं रह गई थी बंजर धरती सी सूनीसपाट. कितने वर्ष काटे मैं ने ‘बंजर’ शब्द का अपमान सहते हुए और आप भी क्या कम चिंतित और बेचैन रही थीं मेरी मानसिकता देखसुन कर? फिर भी मैं अपनेआप को तब सराहने लगी थी जब आप के बारबार समझाने पर मेरे पति और ससुराल के सदस्य किसी बच्चे को गोद लेने के लिए इस शर्त पर तैयार हो गए थे कि एकदम खोजबीन कर के तुरंत जन्मा बच्चा ही लिया जाएगा और आप ने वह दुरूह कार्य भी संपन्न कराया था.

‘‘फूल सा कोमल सुंदर बच्चा पा कर सभी निहाल हो उठे थे. सास ने नाम दिया, नवजीत. ससुर प्यार से उसे पुकारते, निर्मल. बच्चे की कच्ची दूधिया निश्छल हंसी में हम सभी निहाल हो उठे. आप भी कितनी निश्ंिचत और संतुष्ट हो उठीं, लेकिन दीदी, पूत के पांव पालने में दिखने शुरू हो गए थे. मैं ने आप को कभी कुछ नहीं बताया था. सदैव उस की प्रशंसा ही लिखतीसुनाती रही. आज स्वयं को रोक नहीं पा रही हूं, सुनिए, यह शुरू से ही बेहद हठी और जिद्दी रहा. कहना न मानना, झूठ बोलना और बड़ों के साथ अशिष्ट व्यवहार करना आदि. स्कूल में मंदबुद्धि बालक माना गया.

‘क्या आप समझती हैं कि हमसब चुप रहे? नहीं दीदी, लाड़प्यार से, डराधमका कर, अच्छीअच्छी कहानियां सुना कर और पूरी जिम्मेदारी से उस पर नजर रख कर भी उस के स्वभाव को रत्ती भर नहीं बदल सके. आगे चल कर तो कपटछल से बातें करना, झूठ बोलना, धोखा देना और चोरी करना उस की पहचान हो गई. पेशेवर चोरों की तरह वह शातिर हो गया. स्कूल से भागना, सड़क पर कंचे खेलना, उधार ले कर चीजें खाना, मारनापीटना, अभद्र भाषा बोलना आदि उस की आदत हो गई. सभी परेशान हो गए. शक्लसूरत से कैसा मनोहारी, लेकिन व्यवहार में एकदम राक्षसी प्रवृत्ति वाला.

‘उम्र बढ़ने के साथसाथ उस की आवारागर्दी और उच्छृंखलता भी बढ़ने लगी. दीदी, अब वह घर से जेवर, रुपया और अपने पिता की सोने की चेन वाली घड़ी ले कर भाग गया है. 2 दिन हो चुके हैं. गलत दोस्तों के बीच क्या नहीं सीखा उस ने? जुए से ले कर नशापानी तक. सब बहुत दुखी हैं. कैसे करते पुलिस में खबर? अपनी ही बदनामी है. स्कूल से भी उस का नाम काट दिया गया था. हम क्या रपट लिखाएंगे, किसी स्कूटर की चोरी में उस की पहले से ही तलाश हो रही है.

‘दीदी, यह कैसा पुत्र लिया हम ने? इस से अच्छा तो बांझपन का दुख ही था. यों सांससांस में शर्मनाक टीसें तो नहीं उठतीं. संतानहीन रह कर इस दोहरेतिहरे बोझ तले तो न पिसती हम लोगों की जिंदगी. पढ़ेलिखे, सुरुचिपूर्ण, सुसंस्कृत परिवार के वातावरण में उस बालक के भीतर बहता लहू क्यों स्वच्छ, सुसंस्कृत नहीं हुआ, दीदी? हमारी महकती बगिया में कहां से यह धतूरे का पौधा पनप उठा? लज्जा और अपमान से सभी का सुखचैन समाप्त हो गया है. गौरा दीदी, आप के द्वारा रोपा गया सुनहरा स्वप्न इतना विषकंटक कैसे हो उठा कि जीवन पूर्णरूप से अपाहिज हो उठा है. परंतु इस में आप का भी क्या दोष?’

पत्र का अक्षरअक्षर हथौड़ा बन कर सुबह से उन पर चोट कर रहा था. टूटबिखर तो जाने कब की वे चुकी थीं, परंतु पूर्वा के खत ने तो जैसे उन के समूचे अस्तित्व को क्षतविक्षत कर डाला था. वे सोचने लगीं कि कहां कसर रह गई भला? इन बहनों को सुख देने की चाह में उन्होंने खुद को झोंक दिया. अपने लिए कभी क्षण भर को भी नहीं सोचा.

क्या लिख दें पूर्वा को कि सभी की झोली में खुशियों के फूल नहीं झरा करते पगली. ठीक है कि इस बालक को तुम्हारी सूनी, बंजर कोख की खुशी मान कर लिया था, एक तरह से उधार लिया सुख. एक बार जी तो धड़का था कि न जाने यह कैसी धरती का अंकुर होगा? जाने क्या इतिहास होगा इस का? लेकिन तसल्ली भरे विश्वास ने इन शंकालु प्रश्नों को एकदम हवा दे दी थी कि तुम्हारे यहां का सुरुचिपूर्ण, सौंदर्यबोध और सभ्यशिष्ट वातावरण इस के भीतर नए संस्कार भरने में सहायक होगा. पर हुआ क्या?

लेकिन पूर्वा, इस तरह हताश होने से काम नहीं चलेगा. इस तरह से तो वह और भी बागी, अपराधी बनेगा. अभी तो कच्ची कलम है. धीरज से खाद, पानी दे कर और बारबार कटनीछंटनी कर के क्या माली उसी कमजोर पौधे को जमीन बदलबदल कर अपने परीक्षण में सफल नहीं हो जाता? रख कर तो देखो धैर्य. बुराई काट कर ही उस में नया आदमी पैदा करना है तुम्हें. टूटे को जोड़ना ही पड़ता है. यही सार्थक भी है.

यह सोचते ही उन में एक नई शक्ति सी आ गई और वे पूर्वा को पत्र लिखने बैठ गईं.

दुश्मन: रिश्तों की सच्चाई का विजय ने जब सोमा को दिखाया आईना

‘‘कभी किसी की तारीफ करना भी सीखो सोम, सुनने वाले के कानों में कभी शहद भी टपकाया करो. सदा जहर ही टपकाना कोई रस्म तो नहीं है न, जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी सदा निभाया ही जाए.’’टेढ़ी आंख से सोम मुझे देखने लगा.

‘‘50 के पास पहुंच गई तुम्हारी उम्र और अभी भी तुम ने जीवन से कुछ नहीं सीखा. हाथ से कंजूस नहीं हो तो जबान से ही कंजूसी किस लिए?’’ बड़बड़ाता हुआ क्याक्या कह गया मैं.

वह चुप रहा तो मैं फिर बोला, ‘‘अपने चारों तरफ मात्र असंतोष फैलाते हो और चाहते हो तुम्हें संतोष और चैन मिले, कभी किसी से मीठा नहीं बोलते हो और चाहते हो हर कोई तुम से मीठा बोले. सब का अपमान करते हो और चाहते हो तुम्हें सम्मान मिले…तुम तो कांटों से भरा कैक्टस हो सोम, कोई तुम से छू भर भी कैसे जाए, लहूलुहान कर देते हो तुम सब को.’’

शायद सोम को मुझ से ऐसी उम्मीद न थी. सोम मेरा छोटा भाई है और मैं उसे प्यार करता हूं. मैं चाहता हूं कि मेरा छोटा भाई सुखी रहे, खुश रहे लेकिन यह भी सत्य है कि मेरे भाई के चरित्र में ऐसा कोई कारण नहीं जिस वजह से वह खुश रहे. क्या कहूं मैं? कैसे समझाऊं, इस का क्या कारण है, वह पागल नहीं है. एक ही मां के शरीर से उपजे हैं हम मगर यह भी सच है कि अगर मुझे भाई चुनने की छूट दे दी जाती तो मैं सोम को कभी अपना भाई न चुनता. मित्र चुनने को तो मनुष्य आजाद है लेकिन भाई, बहन और रिश्तेदार चुनने में ऐसी आजादी कहां है.

मैं ने जब से होश संभाला है सोम मेरी जिम्मेदारी है. मेरी गोद से ले कर मेरे बुढ़ापे का सहारा बनने तक. मैं 60 साल का हूं, 10 साल का था मैं जब वह मेरी गोद में आया था और आज मेरे बुढ़ापे का सहारा बन कर वह मेरे साथ है मगर मेरी समझ से परे है.

मैं जानता हूं कि वह मेरे बड़बड़ाने का कारण कभी नहीं पूछेगा. किसी दूसरे को उस की वजह से दर्द या तकलीफ भी होती होगी यह उस ने कभी नहीं सोचा.

उठ कर सोम ऊपर अपने घर में चला गया. ऊपर का 3 कमरों का घर उस का बसेरा है और नीचे का 4 कमरों का हिस्सा मेरा घर है.

जिन सवालों का उत्तर न मिले उन्हें समय पर ही छोड़ देना चाहिए, यही मान कर मैं अकसर सोम के बारे में सोचना बंद कर देना चाहता हूं, मगर मुझ से होता भी तो नहीं यह कुछ न कुछ नया घट ही जाता है जो मुझे चुभ जाता है.

कितने यत्न से काकी ने गाजर का हलवा बना कर भेजा था. काकी हमारी पड़ोसिन हैं और उम्र में मुझ से जरा सी बड़ी होंगी. उस के पति को हम भाई काका कहते थे जिस वजह से वह हमारी काकी हुईं. हम दोनों भाई अपना खाना कभी खुद बनाते हैं, कभी बाजार से लाते हैं और कभीकभी टिफिन भी लगवा लेते हैं. बिना औरत का घर है न हमारा, न तो सोम की पत्नी है और न ही मेरी. कभी कुछ अच्छा बने तो काकी दे जाती हैं. यह तो उन का ममत्व और स्नेह है.

‘‘यह क्या बकवास बना कर भेज दिया है काकी ने, लगता है फेंकना पड़ेगा,’’ यह कह कर सोम ने हलवा मेरी ओर सरका दिया.

सोम का प्लेट परे हटा देना ही मुझे असहनीय लगा था. बोल पड़ा था मैं. सवाल काकी का नहीं, सवाल उन सब का भी है जो आज सोम के साथ नहीं हैं, जो सोम से दूर ही रहने में अपनी भलाई समझते हैं.

स्वादिष्ठ बना था गाजर का हलवा, लेकिन सोम को पसंद नहीं आया सो नहीं आया. सोम की पत्नी भी बहुत गुणी, समझदार और पढ़ीलिखी थी. दोषरहित चरित्र और संस्कारशील समझबूझ. हमारे परिवार ने सोम की पत्नी गीता को सिर- आंखों पर लिया था, लेकिन सोम के गले में वह लड़की सदा फांस जैसी ही रही.

‘मुझे यह लड़की पसंद नहीं आई मां. पता नहीं क्या बांध दिया आप ने मेरे गले में.’

‘क्यों, क्या हो गया?’

अवाक् रह गए थे मां और पिताजी, क्योंकि गीता उन्हीं की पसंद की थी. 2 साल की शादीशुदा जिंदगी और साल भर का बच्चा ले कर गीता सदा के लिए चली गई. पढ़ीलिखी थी ही, बच्चे की परवरिश कर ली उस ने.

उस का रिश्ता सोम से तो टूट गया लेकिन मेरे साथ नहीं टूट पाया. उस ने भी तोड़ा नहीं और हम पतिपत्नी ने भी सदा उसे निभाया. उस का घर फिर से बसाने का बीड़ा हम ने उठाया और जिस दिन उसे एक घर दिलवा दिया उसी दिन हम एक ग्लानि के बोझ से मुक्त हो पाए थे. दिन बीते और साल बीत गए. गीता आज भी मेरी बहुत कुछ है, मेरी बेटी, मेरी बहन है.

मैं ने उसे पीछे मुड़ कर कभी नहीं देखने दिया. वह मेरी अपनी बच्ची होती तो भी मैं इसी तरह करता.

कुछ देर बाद सोम ऊपर से उतर कर नीचे आया. मेरे पास बैठा रहा. फिर बोला, ‘‘तुम तो अच्छे हो न, तो फिर तुम क्यों अकेले हो…कहां है तुम्हारी पत्नी, तुम्हारे बच्चे?’’

मैं अवाक् रह गया था. मानो तलवार सीने में गहरे तक उतार दी हो सोम ने, वह तलवार जो लगातार मुझे जराजरा सी काटती रहती है. मेरी गृहस्थी के उजड़ने में मेरी तो कोई भूल नहीं थी. एक दुर्घटना में मेरी बेटीबेटा और पत्नी चल बसे तो उस में मेरा क्या दोष. कुदरत की मार को मैं सह रहा हूं लेकिन सोम के शब्दों का प्रहार भीतर तक भेद गया था मुझे.

कुछ दिन से देख रहा हूं कि सोम रोज शाम को कहीं चला जाता है. अच्छा लगा मुझे. कार्यालय के बाद कहीं और मन लगा रहा है तो अच्छा ही है. पता चला कुछ भी नया नहीं कर रहा सोम. हैरानपरेशान गीता और उस का पति संतोष मेरे सामने अपने बेटे विजय को साथ ले कर खडे़ थे.

‘‘भैया, सोम मेरा घर बरबाद करने पर तुले हैं. हर शाम विजय से मिलने लगे हैं. पता नहीं क्याक्या उस के मन में डाल रहे हैं. वह पागल सा होता जा रहा है.’’

‘‘संतान के मन में उस की मां के प्रति जहर घोल कर भला तू क्या साबित करना चाहता है?’’ मैं ने तमतमा कर कहा.

‘‘मुझे मेरा बच्चा वापस चाहिए, विजय मेरा बेटा है तो क्या उसे मेरे साथ नहीं रहना चाहिए?’’ सफाई देते सोम बोला.

‘‘आज बच्चा पल गया तो तुम्हारा हो गया. साल भर का ही था न तब, जब तुम ने मां और बच्चे का त्याग कर दिया था. तब कहां गई थी तुम्हारी ममता? अच्छे पिता नहीं बन पाए, कम से कम अच्छे इनसान तो बनो.’’

आखिर सोम अपना रूप दिखा कर ही माना. पता नहीं उस ने क्या जादू फेरा विजय पर कि एक शाम वह अपना सामान समेट मां को छोड़ ही आया. छटपटा कर रह गया मैं. गीता का क्या हाल हो रहा होगा, यही सोच कर मन घुटने लगा था. विजय की अवस्था से बेखबर एक दंभ था मेरे भाई के चेहरे पर.

मुझे हारा हुआ जुआरी समझ मानो कह रहा हो, ‘‘देखा न, खून आखिर खून होता है. आ गया न मेरा बेटा मेरे पास…आप ने क्या सोचा था कि मेरा घर सदा उजड़ा ही रहेगा. उजडे़ हुए तो आप हैं, मैं तो परिवार वाला हूं न.’’

क्या उत्तर देता मैं प्रत्यक्ष में. परोक्ष में समझ रहा था कि सोम ने अपने जीवन की एक और सब से बड़ी भूल कर दी है. जो किसी का नहीं हुआ वह इस बच्चे का होगा इस की भी क्या गारंटी है.

एक तरह से गीता के प्रति मेरी जिम्मेदारी फिर सिर उठाए खड़ी थी. उस से मिलने गया तो बावली सी मेरी छाती से आ लगी.

‘‘भैया, वह चला गया मुझे छोड़ कर…’’

‘‘जाने दे उसे, 20-22 साल का पढ़ालिखा लड़का अगर इतनी जल्दी भटक गया तो भटक जाने दे उसे, वह अगर तुम्हारा नहीं तो न सही, तुम अपने पति को संभालो जिस ने पलपल तुम्हारा साथ दिया है.’’

‘‘उन्हीं की चिंता है भैया, वही संभल नहीं पा रहे हैं. अपनी संतान से ज्यादा प्यार दिया है उन्होंने विजय को. मैं उन का सामना नहीं कर पा रही हूं.’’

वास्तव में गीता नसीब वाली है जो संतोष जैसे इनसान ने उस का हाथ पकड़ लिया था. तब जब मेरे भाई ने उसे और बच्चे को चौराहे पर ला खड़ा किया था. अपनी संतान के मुंह से निवाला छीन जिस ने विजय का मुंह भरा वह तो स्वयं को पूरी तरह ठगा हुआ महसूस कर रहा होगा न.

संतोष के आगे मात्र हाथ जोड़ कर माफी ही मांग सका मैं.

‘‘भैया, आप क्यों क्षमा मांग रहे हैं? शायद मेरे ही प्यार में कोई कमी रही जो वह…’’

‘‘अपने प्यार और ममता का तिरस्कार मत होने दो संतोष…उस पिता की संतान भला और कैसी होती, जैसा उस का पिता है बेटा भी वैसा ही निकला. जाने दो उसे…’’

‘‘विजय ने आज तक एक बार भी नहीं सोचा कि उस का बाप कहां रहा. आज ही उस की याद आई जब वह पल गया, पढ़लिख गया, फसल की रखवाली दिनरात जो करता रहा उस का कोई मोल नहीं और बीज डालने वाला मालिक हो गया.’’

‘‘बच्चे का क्या दोष भैया, वह बेचारा तो मासूम है…सोम ने जो बताया होगा उसे ही मान लिया होगा…अफसोस यह कि गीता को ही चरित्रहीन बता दिया, सोम को छोड़ वह मेरे साथ भाग गई थी ऐसा डाल दिया उस के दिमाग में…एक जवान बच्चा क्या यह सच स्वीकार कर पाता? अपनी मां तो हर बेटे के लिए अति पूज्यनीय होती है, उस का दिमाग खराब कर दिया है सोम ने और  फिर विजय का पिता सोम है, यह भी तो असत्य नहीं है न.’’

सन्नाटे में था मेरा दिलोदिमाग. संतोष के हिलते होंठों को देख रहा था मैं. यह संतोष ही मेरा भाई क्यों नहीं हुआ. अगर मुझे किसी को दंड देने का अधिकार प्राप्त होता तो सब से पहले मैं सोम को मृत्युदंड देता जिस ने अपना जीवन तो बरबाद किया ही अब अपने बेटे का भी सर्वनाश कर रहा है.

2-4 दिन बीत गए. सोम बहुत खुश था. मैं समझ सकता था इस खुशी का रहस्य.

शाम को चाय का पहला ही घूंट पिया था कि दरवाजे पर दस्तक हुई.

‘‘ताऊजी, मैं अंदर आ जाऊं?’’

विजय खड़ा था सामने. मैं ने आगेपीछे नजर दौड़ाई, क्या सोम से पूछ कर आया है. स्वागत नहीं करना चाहता था मैं उस का लेकिन वह भीतर चला ही आया.

‘‘ताऊजी, आप को मेरा आना अच्छा नहीं लगा?’’

चुप था मैं. जो इनसान अपने बाप का नहीं, मां का नहीं वह मेरा क्या होगा और क्यों होगा.

सहसा लगा, एक तूफान चला आया हो सोम खड़ा था आंगन में, बाजार से लौटा था लदाफंदा. उस ने सोचा भी नहीं होगा कि उस के पीछे विजय सीढि़यां उतर मेरे पास चला आएगा.

‘‘तुम नीचे क्यों चले आए?’’

चुप था विजय. पहली बार मैं ने गौर से विजय का चेहरा देखा.

‘‘मैं कैदी हूं क्या? यह मेरे ताऊजी हैं. मैं इन से…’’

‘‘यह कोई नहीं है तेरा. यह दुश्मन है मेरा. मेरा घर उजाड़ा है इस ने…’’

सोम का अच्छा होने का नाटक समाप्त होने लगा. एकाएक लपक कर विजय की बांह पकड़ ली सोम ने और यों घसीटा जैसे वह कोई बेजान बुत हो.

‘‘छोडि़ए मुझे,’’ बहुत जोर से चीखा विजय, ‘‘बच्चा नहीं हूं मैं. अपनेपराए और अच्छेबुरे की समझ है मुझे. सभी दुश्मन हैं आप के, आप का भाई आप का दुश्मन, मेरी मां आप की दुश्मन…’’

‘‘हांहां, तुम सभी मेरे दुश्मन हो, तुम भी दुश्मन हो मेरे, तुम मेरे बेटे हो ही नहीं…चरित्रहीन है तुम्हारी मां. संतोष के साथ भाग गई थी वह, पता नहीं कहां मुंह काला किया था जो तेरा जन्म हुआ था…तू मेरा बच्चा होता तो मेरे बारे में सोचता.’’

मेरा बांध टूट गया था. फिर से वही सब. फिर से वही सभी को लहूलुहान करने की आदत. मेरा उठा हुआ हाथ विजय ने ही रोक लिया एकाएक.

‘‘रहने दीजिए न ताऊजी, मैं किस का बेटा हूं मुझे पता है. मेरे पिता संतोष हैं जिन्होंने मुझे पालपोस कर बड़ा किया है, जो इनसान मेरी मां की इज्जत करता है वही मेरा बाप है. भला यह इनसान मेरा पिता कैसे हो सकता है, जो दिनरात मेरी मां को गाली देता है. जो जरा सी बात पर दूसरे का मानसम्मान मिट्टी में मिला दे वह मेरा पिता नहीं.’’

स्तब्ध रह गया मैं भी. ऐसा लगा, संतोष ही सामने खड़ा है, शांत, सौम्य. सोम को एकटक निहार रहा था विजय.

‘‘आप के बारे में जो सुना था वैसा ही पाया. आप को जानने के लिए आप के साथ कुछ दिन रहना बहुत जरूरी था सो चला आया था. मेरी मां आप को क्यों छोड़ कर चली गई होगीं मैं समझ गया आज…अब मैं अपने मांबाप के साथ पूरापूरा न्याय कर पाऊंगा. बहुत अच्छा किया जो आप मुझ से मिल कर यहां चले आने को कहते रहे. मेरा सारा भ्रम चला गया, अब कोई शक नहीं बचा है.

‘‘सच कहा आप ने, मैं आप का बच्चा होना भी नहीं चाहता. आप ने 20 साल पहले भी मुझे दुत्कारा था और आज भी दुत्कार दिया. मेरा इतना सा ही दोष कि मैं नीचे ताऊजी से मिलने चला आया. क्या यह इतना बड़ा अपराध है कि आप यह कह दें कि आप मेरे पिता ही नहीं… अरे, रक्त की चंद बूंदों पर ही आप को इतना अभिमान कि जब चाहा अपना नाम दे दिया, जब चाहा छीन लिया. अपने पुरुष होने पर ही इतनी अकड़, पिता तो एक जानवर भी बनता है. अपने बच्चे के लिए वह भी उतना तो करता ही है जितना आप ने कभी नहीं किया. क्या चाहते हैं आप, मैं समझ ही नहीं पाया. मेरे घर से मुझे उखाड़ दिया और यहां ला कर यह बता रहे हैं कि मैं आप का बेटा ही नहीं हूं, मेरी मां चरित्रहीन थी.’’

हाथ का सामान जमीन पर फेंक कर सोम जोरजोर से चीखने लगा, पता नहीं क्याक्या अनापशनाप बकने लगा.विजय लपक कर ऊपर गया और 5 मिनट बाद ही अपना बैग कंधे पर लटकाए नीचे उतर आया

चला गया विजय. मैं सन्नाटे में खड़ा अपनी चाय का प्याला देखने लगा. एक ही घूंट पिया था अभी. पहले और दूसरे घूंट में ही कितना सब घट गया. तरस आ रहा था मुझे विजय पर भी, पता नहीं घर पहुंचने पर उस का क्या होगा. उस का भ्रम टूट गया, यह तो अच्छा हुआ पर रिश्ते में जो गांठ पड़ जाएगी उस का निदान कैसे होगा.

‘‘रुको विजय, बेटा रुको, मैं साथ चलता हूं.’’

‘‘नहीं ताऊजी, मैं अकेला आया था न, अकेला ही जाऊंगा. मम्मी और पापा को रुला कर आया था, अभी उस का प्रायश्चित भी करना है मुझे.’’

कर्फ्यू : उसे बिस्तर पर लेटते ही किसकी याद आने लगी थी

बिस्तर पर लेटते ही फिर मुझे महेश की याद सताने लगी और बारबार मेरे सामने उस का चेहरा घूमने लगा. कितना समझाया था सुबह मैं ने, लेकिन मेरी एक न मानी और दोस्तों के साथ ऐसी खतरनाक सोच ले कर वह घर से बाहर निकल गया. पता नहीं, आज वह कहांकहां, क्याक्या गुल खिलाएगा और मेरी बनीबनाई इज्जत में दाग लगाएगा.

अभी मैं इन्हीं बातों में उलझा हुआ था कि मेरे खयाल गुजरे हुए कल की तरफ भागने लगे. हमारी 10 साल की शादीशुदा जिंदगी में सैकड़ों बार रानो ने मुझे दूसरी शादी करने की सलाह दी थी. लेकिन मैं हमेशा उसे तसल्ली दिया करता, ‘‘रानो, हिम्मत रखो, तुम्हारी गोद जरूर हरी होगी.’’ आखिर इतने सालों के बाद महेश की शक्ल में एक खूबसूरत लड़के ने जन्म लिया. उस वक्त हमारी खुशियों का कोई ठिकाना न था और घर वाले तो फूले न समा रहे थे. लेकिन रानो को ये खुशियां रास न आईं और वह 2 साल के महेश को हमारे बीच छोड़ कर इस जहान से कूच कर गई. इस भरीपूरी दुनिया में मैं अपनेआप को अकेला महसूस करने लगा, पर महेश ने मुझे कभी कुछ सोचने नहीं दिया. तभी तो दोस्तों के मशवरे के बावजूद मैं ने दोबारा शादी करने से इनकार कर दिया.

महेश की परवरिश करते हुए हंसतेखेलते मेरा वक्त गुजरने लगा… अभी मैं यह सोच ही रहा था कि रात के सन्नाटे में अचानक दरवाजा खटखटाने की आवाज सुनाई दी. मैं बुरी तरह चौंक गया, क्योंकि कई दिनों से शहर में दंगों के से हालात हो रहे थे. दोबारा जब दरवाजा खटखटाने की आवाज आई, तो मैं उठ कर दरवाजे तक पहुंच गया. ज्यों ही दरवाजा खोला, सामने एक औरत को देख हैरान रह गया. अभी मैं उस से कुछ पूछता कि उस ने बिना झिझक कमरे में दाखिल हो कर दरवाजा बंद कर लिया और मेरे सामने बिलखबिलख कर रोने लगी. ‘‘किसी तरह मेरे पति को बचा लीजिए. मेरी मदद कीजिए,’’ कहते हुए उस ने मेरी ओर देखा. ‘‘क्या हुआ?है आप के शौहर को? और कहां हैं वह, कुछ तो बताइए?’’ ‘‘मेरे पति जख्मी हालत में उधर झाडि़यों के पास पड़े हैं,’’

उस ने इशारे से बताया. ‘‘बैठ जाओ. घबराने की कोई बात नहीं,’’ मैं ने उसे दिलासा दिया. ‘‘चाचाजी, पहले उन्हें ले आइए. मुझे बहुत डर लग रहा है, कहीं कोई आ न जाए,’’ उस की घबराहट अपनी जगह ठीक थी और मैं भी यही सोच रहा था कि कहीं महेश आ न जाए. क्योंकि मैं जानता था कि वह भी दंगा करने वालों के साथ शामिल हो गया है. कुछ देर मैं खड़ा सोचता रहा, फिर उस के साथ दरवाजा खोल कर बाहर निकल गया और उस के शौहर को सहारा दे कर कमरे में ले आया. वह ज्यादा जख्मी नहीं था, लेकिन अपने होशोहवास खोए हुए था. मैं ने उसे बिस्तर पर लिटा दिया. फिर घर में रखी दवा निकाल कर मरहमपट्टी करने लगा. फिर मैं उस औरत से बोला, ‘‘घबराने की कोई बात नहीं है. तुम्हारा शौहर अभी ठीक हो जाएगा.’’ ‘‘सच…? मेरे खाविंद ठीक हो जाएंगे?’’

उस की आवाज के साथ पहली दफा मैं ने उस औरत का भरपूर जायजा लिया, तो पता चला कि वह ज्यादा से ज्यादा 22-23 साल की होगी. वह साड़ी में थी और पेट से थी. मैं कुछ सोचते हुए बोला, ‘‘आप ने बड़ी हिम्मत की, जो यहां आ गईं… आप ने कैसे यकीन कर लिया कि आप को यहां पनाह मिल जाएगी?’’ ‘‘मुझे मालूम है कि आप कौन हैं? कई सालों तक आप पलामू में हमारे पड़ोसी थे. पिछले हफ्ते ही मैं यहां आई हूं… तब से आप से मिलना चाह रही थी. ‘‘कल इन पर दफ्तर से आते हुए हमला हो गया, जिस से ये जख्मी हो गए. वह तो इन के आटोरिकशा के ड्राइवर की मेहरबानी थी कि उस ने किसी तरह इन्हें बचा कर अपने घर में रखा. फिर अंधेरा होते ही उस ने हमारे कहने पर यहां तक पहुंचा दिया. अब मैं आप के सामने हूं. शायद आप ने मुझे पहचाना नहीं चाचा, मैं आप के पड़ोसी रहमान की बेटी आयशा हूं.’’ इतना सुनते ही मैं ने उसे सीने से लगा लिया और भरे गले से बोला, ‘‘इतनी बड़ी हो गई बिटिया… मैं ने तो तुझे पहचाना ही नहीं. बैठोबैठो, आराम से बैठो.’’ तभी मुझे याद आया कि शायद ये लोग भूखे होंगे, इसलिए आयशा से बोला, ‘‘तुम आराम से यहां बैठो. मैं तुम्हारे लिए खाने का बंदोबस्त करता हूं… और हां, अंदर से दरवाजा बंद कर लो और जब तक मैं न कहूं, दरवाजा मत खोलना.’’

इतना सुनते ही वह घबरा कर बोली, ‘‘कोई आने वाला है क्या?’’ ‘‘नहीं, कोई नहीं. हो सकता है महेश लौट आए.’’ ‘‘अरे महेश भाई… तब तो मेरी परेशानी यों ही दूर हो जाएगी.’’ मैं दिल ही दिल में सोचने लगा कि इसे कैसे बताऊं कि मुझे इस वक्त खतरा महसूस हो रहा है तो सिर्फ महेश से ही. मैं इन्हीं खयालों में उलझा हुआ रसोई की तरफ चला गया. अभी मैं आमलेट बना ही रहा था कि दरवाजे पर स्कूटर के रुकने की आवाज सुन कर एकदम घबरा गया. इस से पहले कि महेश दरवाजा खटखटाता, मैं ने किवाड़ खोल दिए. ‘‘क्या बात है बापू, आप बहुत परेशान नजर आ रहे हैं?’’ महेश अंदर दाखिल होते ही मुझ से बोला. ‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है. तुम सारा दिन घर से गायब रहे, इसीलिए परेशान था.’’ ‘‘शायद यही वजह है कि आप मेरे कमरे की खिड़कियां बंद करना भूल गए? अच्छा, पहले मैं आप के कमरे की खिड़की बंद कर दूं, फिर बातें करेंगे.’’ ‘‘मैं बंद कर देता हूं.

तुम जरा रसोई में आमलेट देख लो.’’ महेश जैसे ही रसोई की तरफ गया, मैं ने धीरे से कहा, ‘‘आयशा बेटी, दरवाजा खोलो.’’ जैसे ही आयशा ने दरवाजा खोला, इस से पहले कि मैं भीतर दाखिल होता, महेश तेजी से पलट कर दरवाजे के दोनों पट खोल कर मेरे सामने खड़ा हो गया. ‘‘तो यह बात है… आप ने जालिमों की संतानों को यहां छिपा रखा है?’’ कह कर महेश मुझे घूरने लगा. अचानक आयशा बोल पड़ी, ‘‘अरे महेश भाई, आप ने मुझे पहचाना नहीं? मैं आप ही की मुंहबोली बहन आयशा हूं.’’ ‘‘मेरी कोई बहनवहन नहीं. तुम विधर्मी की औलाद मेरी बहन कैसे हो सकती हो?’’ फिर वह चीख कर मुझ से बोला, ‘‘आप ने अपने घर में एक मुसलिम को पनाह दे कर अच्छा नहीं किया. मैं इसे जिंदा नहीं छोड़ूंगा,’’

वह छुरा निकाल कर मेरे सामने खड़ा हो गया. यह देख कर आयशा के मुंह से चीख निकल गई और वह भाग कर मेरे पीछे चली आई. मैं महेश के सामने गिड़गिड़ाने लगा, ‘‘इस ने तुम्हारी मां की कोख से जन्म तो नहीं लिया, लेकिन इस का बचपन मेरी ही गोद में गुजरा था…’’ ‘‘कुछ भी हो बापू, यह है तो एक मुसलिम की औलाद ही. इन्होंने हमारे कितने ही मंदिरों को तोड़ा है, हमारी कौम का खून बहाया है. हमारे मंदिरों की दौलतों को दोनों हाथों से लूटा है. मैं इसे कैसे जिंदा छोड़ सकता हूं?’’ मैं जानता था कि यह महेश रोज ऐसे लोगों में उठताबैठता है, जो रातदिन हिंदूमुसलिम करते रहते हैं. पुलिस वाले डर के मारे उन्हें कुछ नहीं कहते. किसी से भी कुछ भी छीन लेते हैं, कभी चंदे के नाम पर, कभी गाय के नाम पर. होटलों में मुफ्त खाना खाते हैं. पैसे मांगने पर धमकी देते हैं, शोर मचा देंगे कि मीट में गौमांस मिला है. ‘‘बेकार की बातें मत करो महेश. देखते नहीं,

इस का शौहर जख्मी है और आयशा की हालत भी देखो बेटे, इसे तो मजहबी नजर से भी रहम और पनाह चाहिए. इन दोनों पर तुम रहम खाओ,’’ मैं ने उसे समझाने की कोशिश की. ‘‘नहीं बापू, इस से पहले कि इस धरती पर एक और विधर्मी जन्म ले, मेरी कौम का एक और कातिल पैदा हो, मैं इस का वजूद मिटा दूंगा. आप सामने से हट जाइए.’’ आयशा मेरे पीछे छिपी थरथर कांप रही थी. मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था. एक तरफ एकलौती औलाद थी और दूसरी तरफ मेरे उसूल थे. मेरे दिलोदिमाग में एक हलचल सी मची हुई थी. मैं ने एक बार फिर महेश को समझाने की कोशिश की, ‘‘अगर इन्हें मारना है तो पहले मुझे मारो, क्योंकि मेरे दादा ने भी आजादी की जंग में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था और इस के दादा ने भी. हिंदुस्तान के बंटवारे पर दोनों ने आंसू बहाए थे और इस के पूरे खानदान के पाकिस्तान चले जाने के बावजूद ये लोग मेरी वजह से पलामू में वतन की मिट्टी से चिपटे रहे. ‘‘महेश, इन्हें अपनी धरती मां से बहुत प्यार है रे, इन्होंने हिंदुस्तान इसीलिए नहीं छोड़ा,

क्योंकि ये मजहब की बुनियाद पर दिलों का बंटवारा नहीं चाहते थे. हिंदू और मुसलमान दोनों ही मुझे अजीज हैं. यही सोच मैं ने तुम्हें भी दी, लेकिन न जाने मेरी परवरिश में कहां कमी रह गई कि तुम्हारे जीने का नजरिया ही न जाने किन लोगों के बीच बैठ कर बदल गया.’’ मेरी इतनी बात सुन कर वह सकते में आ गया. लेकिन थोड़ी देर बाद मुझे महसूस हुआ कि उस की दीवानगी में कोई कमी नहीं आई है. फिर न जाने मुझ में कहां से अचानक ताकत सी पैदा हो गई. मैं ने लपक कर महेश के हाथ से छुरा छीन लिया और चीख कर बोला, ‘‘आयशा को अगर हाथ भी लगाया, तो मुझ से बुरा कोई न होगा.’’ मेरी बात सुन कर महेश ने एक जोरदार ठहाका लगाया, ‘‘तो क्या आप एक मुसलिम को बचाने की खातिर अपने एकलौते बेटे को मारेंगे?’’ और फिर वह हंसने लगा,

‘‘यह तो आप कभी कर ही नहीं पाएंगे. मैं इसे जिंदा नहीं छोड़ूंगा.’’ यह कहते हुए वह आहिस्ताआहिस्ता आयशा की तरफ बढ़ा, ‘‘छुरा आप के पास है तो क्या हुआ, मैं अपने हाथों से इस का गला घोंट दूंगा.’’ जैसे ही महेश आयशा की तरफ बढ़ा, मैं ने छुरा चला दिया. इस से पहले कि वह आयशा को हाथ लगाता, एक दर्दनाक चीख की आवाज गूंज उठी और दूसरे ही पल महेश चकरा कर मेरे कदमों में गिर पड़ा. कुछ पलों तक मैं वहीं खामोश खड़ा खून में लथपथ उस को देखता रहा, फिर बोला, ‘‘आयशा बेटी, ऐसी वहशी औलाद से बेऔलाद रहना बेहतर है.’’ फिर महेश की लाश पर निगाह डाल कर मैं आयशा के साथ दूसरे कमरे में चला गया.

आखिर कहां तक? : किस बात से उसका मन घबरा रहा था

लेकिन बुढ़ापे में अकसर बहुतों के साथ ऐसा होता है जैसा मनमोहन के साथ हुआ. रात के लगभग साढे़ 12 बजे का समय रहा होगा. मैं सोने की कोशिश कर रहा था. शायद कुछ देर में मैं सो भी जाता तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया.

इतनी रात को कौन आया है, यह सोच कर मैं ने दरवाजा खोला तो देखा हरीश खड़ा है.

हरीश ने अंदर आ कर लाइट आन की फिर कुछ घबराया हुआ सा पास बैठ गया.

‘‘क्यों हरीश, क्या बात है इतनी रात गए?’’

हरीश ने एक दीर्घ सांस ली, फिर बोला, ‘‘नीलेश का फोन आया था. मनमोहन चाचा…’’

‘‘क्या हुआ मनमोहन को?’’ बीच में उस की बात काटते हुए मैं उठ कर बैठ गया. किसी अज्ञात आशंका से मन घबरा उठा.

‘‘आप को नीलेश ने बुलाया है?’’

‘‘लेकिन हुआ क्या? शाम को तो वह हंसबोल कर गए हैं. बीमार हो गए क्या?’’

‘‘कुछ कहा नहीं नीलेश ने.’’

मैं बिस्तर से उठा. पाजामा, बनियान पहने था, ऊपर से कुरता और डाल लिया, दरवाजे से स्लीपर पहन कर बाहर निकल आया.

हरीश ने कहा, ‘‘मैं बाइक निकालता हूं, अभी पहुंचा दूंगा.’’

मैं ने मना कर दिया, ‘‘5 मिनट का रास्ता है, टहलते हुए पहुंच जाऊंगा.’’

हरीश ने ज्यादा आग्रह भी नहीं किया.

महल्ले के छोर पर मंदिर वाली गली में ही तो मनमोहन का मकान है. गली में घुसते ही लगा कि कुछ गड़बड़ जरूर है. घर की बत्तियां जल रही थीं. दरवाजा खुला हुआ था. मैं दरवाजे पर पहुंचा ही था कि नीलेश सामने आ गया. बाहर आ कर मेरा हाथ पकड़ा.

मैं ने  हाथ छुड़ा कर कहा, ‘‘पहले यह बता कि हुआ क्या है? इतनी रात  गए क्यों बुलाया भाई?’’ मैं अपनेआप को संभाल नहीं पा रहा था इसलिए वहीं दरवाजे की सीढ़ी पर बैठ गया. गरमी के दिन थे, पसीनापसीना हो उठा था.

‘‘मुन्नी, एक गिलास पानी तो ला चाचाजी को,’’ नीलेश ने आवाज दी और उस की छोटी बहन मुन्नी तुरंत स्टील के लोटे में पानी ले कर आ गई.

हरीश ने लोटा मेरे हाथों में थमा दिया. मैं ने लोटा वहीं सीढि़यों पर रख दिया. फिर नीलेश से बोला, ‘‘आखिर माजरा क्या है? मनमोहन कहां हैं? कुछ बताओगे भी कि बस, पहेलियां ही बुझाते रहोगे?’’

‘‘वह ऊपर हैं,’’ नीलेश ने बताया.

‘‘ठीकठाक तो हैं?’’

‘‘जी हां, अब तो ठीक ही हैं.’’

‘‘अब तो का क्या मतलब? कोई अटैक वगैरा पड़ गया था क्या? डाक्टर को बुलाया कि नहीं?’’ मैं बिना पानी पिए ही उठ खड़ा हुआ और अंदर आंगन में आ गया, जहां नीलेश की पत्नी सुषमा, बंटी, पप्पी, डौली सब बैठे थे. मैं ने पूछा, ‘‘रामेश्वर कहां है?’’

‘‘ऊपर हैं, दादाजी के पास,’’ बंटी ने बताया.

आंगन के कोने से लगी सीढि़यां चढ़ कर मैं ऊपर पहुंचा. सामने वाले कमरे के बीचों- बीच एक तखत पड़ा था. कमरे में मद्धम रोशनी का बल्ब जल रहा था. एक गंदे से बिस्तर पर धब्बेदार गिलाफ वाला तकिया और एक पुराना फटा कंबल पैताने पड़ा था. तखत पर मनमोहन पैर लटकाए गरदन झुकाए बैठे थे. फिर नीचे जमीन पर बड़ा लड़का रामेश्वर बैठा था.

‘‘क्या हुआ, मनमोहन? अब क्या नाटक रचा गया है? कोई बताता ही नहीं,’’ मैं धीरेधीरे चल कर मनमोहन के करीब गया और उन्हीं के पास बगल में तखत पर बैठ गया. तखत थोड़ा चरमराया फिर उस की हिलती चूलें शांत हो गईं.

‘‘तुम बताओ, रामेश्वर? आखिर बात क्या है?’’

रामेश्वर ने छत की ओर इशारा किया. वहां कमरे के बीचोंबीच लटक रहे पुराने बंद पंखे से एक रस्सी का टुकड़ा लटक रहा था. नीचे एक तिपाई रखी थी.

‘‘फांसी लगाने को चढ़े थे. वह तो मैं ने इन की गैंगैं की घुटीघुटी आवाज सुनी और तिपाई गिरने की धड़ाम से आवाज आई तो दौड़ कर आ गया. देखा कि रस्सी से लटक रहे हैं. तुरंत ही पैर पकड़ कर कंधे पर उठा लिया. फिर नीलेश को आवाज दी. हम दोनों ने मिल कर जैसेतैसे इन्हें फंदे से अलग किया. चाचाजी, यह मेरे पिता नहीं पिछले जन्म के दुश्मन हैं.

‘‘अपनी उम्र तो भोग चुके. आज नहीं तो कल इन्हें मरना ही है, लेकिन फांसी लगा कर मरने से तो हमें भी मरवा देते. हम भी फांसी पर चढ़ जाते. पुलिस की मार खाते, पैसों का पानी करते और घरद्वार फूंक कर इन के नाम पर फंदे पर लटक जाते.

‘‘अब चाचाजी, आप ही इन से पूछिए, इन्हें क्या तकलीफ है? गरम खाना नहीं खाते, चाय, पानी समय पर नहीं मिलता, दवा भी चल ही रही है. इन्हें कष्ट क्या है? हमारे पीछे हमें बरबाद करने पर क्यों तुले हैं?’’ रामेश्वर ने कुछ खुल कर बात करनी चाही.

‘‘लेकिन यह सब हुआ क्यों? दिन में कुछ झगड़ा हुआ था क्या?’’

‘‘कोई झगड़ाटंटा नहीं हुआ. दोपहर को सब्जी लेने निकले तो रास्ते में अपने यारदोस्तों से भी मिल आए हैं. बिजली का बिल भी भरने गए थे, फिर बंटी के स्कूल जा कर साइकिल पर उसे ले आए. हम ने कहीं भी रोकटोक नहीं लगाई. अपनी इच्छा से कहीं भी जा सकते हैं. घर में इन का मन ही नहीं लगता,’’ रामेश्वर बोला.

‘‘लेकिन तुम लोगों ने इन से कुछ कहासुना क्या? कुछ बोलचाल हो गई क्या?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अरे, नहीं चाचाजी, इन से कोई क्या कह सकता है. बात करते ही काटने को दौड़ते हैं. आज कह रहे थे कि मुझे अपना चेकअप कराना है. फुल चेकअप. वह भी डा. आकाश की पैथोलौजी लैब में. हम ने पूछा भी कि आखिर आप को परेशानी क्या है? कहने लगे कि परेशानी ही परेशानी है. मन घबरा रहा है. अकेले में दम घुटता है.

‘‘पिछले महीने ही मैं ने इन्हें सरकारी अस्पताल में डा. दिनेश सिंह को दिखाया था. जांच से पता चला कि इन्हें ब्लडप्रेशर और शुगर है…’’

तभी नीलेश पानी का गिलास ले कर आ गया. मैं ने पानी पी लिया. तब मैं ने ही पूछा, ‘‘रामेश्वर, यह तो बताओ कि पिछले महीने तुम ने इन का दोबारा चेकअप कराया था क्या?’’

‘‘नहीं, 2 महीने पहले डा. बंसल से कराया था न?’’ रामेश्वर बोला.

‘‘2 महीने पहले नहीं, जनवरी में तुम ने इन का चेकअप कराया था रामेश्वर, आज इस बात को 11 महीने हो गए. और चेकअप भी क्या था, शुगर और ब्लडप्रेशर. इसे तुम फुल चेकअप कहते हो?’’

‘‘नहीं चाचाजी, डाक्टर ने ही कहा था कि ज्यादा चेकअप कराने की जरूरत नहीं है. सब ठीकठाक है.’’

‘‘लेकिन रामेश्वर, इन का जी तो घबराता है, चक्कर तो आते हैं, दम तो घुटता है,’’ मैं ने कहा.

‘‘अब आप से क्या कहूं चाचाजी,’’ रामेश्वर कह कर हंसने लगा. फिर नीलेश को इशारा कर बोला कि तुम अपना काम करो न जा कर, यहां क्या कर रहे हो.

बेचारा नीलेश चुपचाप अंदर चला गया. फिर रामेश्वर बोला, ‘‘चाचाजी, आप मेरे कमरे में चलिए. इन की मुख्य तकलीफ आप को वहां बताऊंगा,’’ फिर धूर्ततापूर्ण मुसकान फेंक कर चुप हो गया.

मैं मनमोहन के जरा और पास आ गया. रामेश्वर से कहा, ‘‘तुम अपने कमरे में चलो. मैं वहीं आ रहा हूं.’’

रामेश्वर ने बांहें चढ़ाईं. कुछ आश्चर्य जाहिर किया, फिर ताली बजाता हुआ, गरदन हिला कर सीटी बजाता हुआ कमरे से बाहर हो गया.

मैं ने मनमोहन के कंधे पर हाथ रखा ही था कि वह फूटफूट कर रोने लगे. मैं ने उन्हें रोने दिया. उन्होंने पास रखे एक मटमैले गमछे से नाक साफ की, आंखें पोंछीं लेकिन सिर ऊपर नहीं किया. मैं ने फिर आत्मीयता से उन के सिर पर हाथ फेरा. अब की बार उन्होंने सिर उठा कर मु़झे देखा. उन की आंखें लाल हो रही थीं. बहुत भयातुर, घबराए से लग रहे थे. फिर बुदबुदाए, ‘‘भैया राजनाथ…’’ इतना कह कर किसी बच्चे की तरह मुझ से लिपट कर बेतहाशा रोने लगे, ‘‘तुम मुझे अपने साथ ले चलो. मैं यहां नहीं रह सकता. ये लोग मुझे जीने नहीं देंगे.’’

मैं ने कोई विवाद नहीं किया. कहा, ‘‘ठीक है, उठ कर हाथमुंह धो लो और अभी मेरे साथ चलो.’’

उन्होंने बड़ी कातर और याचना भरी नजरों से मेरी ओर देखा और तुरंत तैयार हो कर खड़े हो गए.

तभी रामेश्वर अंदर आ गया, ‘‘क्यों, कहां की तैयारी हो रही है?’’

‘‘इस समय इन की तबीयत खराब है. मैं इन्हें अपने साथ ले जा रहा हूं, सुबह आ जाएंगे,’’ मैं ने कहा.

‘‘सुबह क्यों? साथ ले जा रहे हैं तो हमेशा के लिए ले जाइए न. आधी रात में मेरी प्रतिष्ठा पर मिट्टी डालने के लिए जा रहे हैं ताकि सारा समाज मुझ पर थूके कि बुड्ढे को रात में ही निकाल दिया,’’ वह अपने मन का मैल निकाल रहा था.

मैं ने धैर्य से काम लिया. उस से इतना ही कहा, ‘‘देखो, रामेश्वर, इस समय इन की तबीयत ठीक नहीं है. मैं समझाबुझा कर शांत कर दूंगा. इस समय इन्हें अकेला छोड़ना ठीक नहीं है.’’

‘‘आप इन्हें नहीं जानते. यह नाटक कर रहे हैं. घरभर का जीना हराम कर रखा है. कभी पेंशन का रोना रोते हैं तो कभी अकेलेपन का. दिन भर उस मास्टरनी के घर बैठे रहते हैं. अब इस उम्र में इन की गंदी हरकतों से हम तो परेशान हो उठे हैं. न दिन देखते हैं न रात, वहां मास्टरनी के साथ ही चाय पीएंगे, समोसे खाएंगे. और वह मास्टरनी, अब छोडि़ए चाचाजी, कहने में भी शर्म आती है. अपना सारा जेबखर्च उसी पर बिगाड़ देते हैं,’’ रामेश्वर अपनी दबी हुई आग उगल रहा था.

‘‘इन्हें जेबखर्च कौन देता है?’’ मैं ने सहज ही पूछ लिया.

‘‘मैं देता हूं, और क्या वह कमजात मास्टरनी देती है? आप भी कैसी बातें कर रहे हैं चाचाजी, उस कम्बख्त ने न जाने कौन सी घुट्टी इन्हें पिला दी है कि उसी के रंग में रंग गए हैं.’’

‘‘जरा जबान संभाल कर बात करो रामेश्वर, तुम क्या अनापशनाप बोल रहे हो? प्रेमलता यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं. उन का भरापूरा परिवार है. पति एडवोकेट हैं, बेटा खाद्य निगम में डायरेक्टर है, उन्हें इन से क्या स्वार्थ है. बस, हमदर्दी के चलते पूछताछ कर लेती है. इस में इतना बिगड़ने की क्या बात है. अच्छा, यह तो बताओ कि तुम इन्हें जेबखर्च क्या देते हो?’’ मैं ने शांत भाव से पूछा.

‘‘देखो चाचाजी, आप हमारे बडे़ हैं, दिनेश के फादर हैं, इसलिए हम आप की इज्जत करते हैं, लेकिन हमारे घर के मामले में इस तरह छीछालेदर करने की, हिसाबकिताब पूछने की आप को कोई जरूरत नहीं है. इन का खानापीना, कपडे़ लत्ते, चायनाश्ता, दवा का लंबाचौड़ा खर्चा कहां से हो रहा है? अब आप इन से ही पूछिए, आज 500 रुपए मांग रहे थे उस मास्टरनी को देने के लिए. हम ने साफ मना कर दिया तो कमरा बंद कर के फांसी लगाने का नाटक करने लगे. आप इन्हें नहीं जानते. इन्होंने हमारा जीना हराम कर रखा है. एक अकेले आदमी का खर्चा घर भर से भी ज्यादा कर रहे हैं तो भी चैन नहीं है…और आप से भी हाथ जोड़ कर प्रार्थना है कि हमें हमारे हाल पर छोड़ दें. कहीं ऐसा न हो कि गुस्से में आ कर मैं आप से कुछ बदसलूकी कर बैठूं, अब आप बाइज्जत तशरीफ ले जा सकते हैं.’’

इस के बाद तो उस ने जबरदस्ती मुझे ठेलठाल कर घर से बाहर कर दिया. रामेश्वर ने बड़ा अपमान कर दिया मेरा.

मैं ने कुछ निश्चय किया. उस समय रात के 2 बज रहे थे. गली से निकल कर सीधा प्रो. प्रेमलता के घर के सामने पहुंच गया. दरवाजे की कालबेल दबा दी. कुछ देर बाद दोबारा बटन दबाया. अंदर कुछ खटरपटर हुई फिर थोड़ी देर बाद हरीमोहन ने दरवाजा खोला. मुझे सामने देख कर उन्हें कुछ आश्चर्य हुआ लेकिन औपचारिकतावश ही बोले, ‘‘आइए, आइए शर्माजी, बाहर क्यों खडे़ हैं, अंदर आइए,’’ लुंगी- बनियान पहने वह कुछ अस्तव्यस्त से लग रहे थे. एकाएक नींद खुल जाने से परेशान से थे.

मैं ने वहीं खडे़खडे़ उन्हें संक्षेप में सारी बातें बता दीं. तभी प्रो. प्रेमलता भी आ गईं. बहुत आग्रह करने पर मैं अंदर ड्राइंगरूम के सोफे पर बैठ गया.

प्रो. प्रेमलता अंदर पानी लेने चली गईं.

लौट कर आईं तो पानी का गिलास मुझे थमा कर सामने सोफे पर बैठ गईं और कहने लगीं, ‘‘यह जो रामेश्वर है न, नंबर एक का बदमाश और बदतमीज आदमी है. मनमोहनजी का सारा पी.एफ., जो लगभग 8 लाख था, अपने हाथ कर लिया. साढे़ 5 हजार पेंशन भी अपने खाते में जमा करा लेता है. इधरउधर साइन कर के 3 लाख का कर्जा भी मनमोहनजी के नाम पर ले रखा है. इन्हें हाथखर्चे के मात्र 50 रुपए देता है और दिन भर इन से मजदूरी कराता है.’’

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‘‘सागसब्जी, आटापिसाना, बच्चों को स्कूल ले जानालाना, धोबी के कपडे़, बिजली का बिल सबकुछ मनमोहनजी ही करते हैं. फरवरी या मार्च में इसे पता चला कि मनमोहन का 2 लाख रुपए का बीमा भी है, शायद पहली बार स्टालमेंट पेमेंट के कागज हाथ लगे होंगे या पेंशन पेमेंट से रुपए कट गए होंगे, तभी से इन की जान के पीछे पड़ गया है, बेचारे बहुत दुखी हैं.’’

मैं ने हरीमोहनजी से कुछ विचार- विमर्श किया और फिर रात में ही हम पुलिस थाने की ओर चल दिए. उधर हरीमोहनजी ने फोन पर संपर्क कर के मीडिया को बुलवा लिया था. हम ने सोच लिया था कि रामेश्वर का पानी उतार कर ही रहेंगे, अब यह बेइंसाफी सहन नहीं होगी.

छांव : विमला में कैसे आया इतना बड़ा बदलाव

रविशंकर के रिटायर होने की तारीख जैसेजैसे पास आ रही थी, वैसेवैसे  विमला के मन की बेचैनी बढ़ती जा रही थी. रविशंकर एक बड़े सरकारी ओहदे पर हैं, अब उन्हें हर महीने पैंशन की एक तयशुदा रकम मिलेगी. विमला की चिंता की वजह अपना मकान न होना था, क्योंकि रिटायर होते ही सरकारी मकान तो छोड़ना पड़ेगा.

रविशंकर अभी तक परिवार सहित सरकारी मकान में ही रहते आए हैं. एक बेटा और एक बेटी हैं. दोनों बच्चों को उन्होंने उच्चशिक्षा दिलाई है. शिक्षा पूरी करते ही बेटाबेटी अच्छी नौकरी की तलाश में विदेश चले गए. विदेश की आबोहवा दोनों को ऐसी लगी कि वे वहीं के स्थायी निवासी बन गए और दोनों अपनीअपनी गृहस्थी में खुश हैं.

सालों नौकरी करने के बावजूद रविशंकर अपना मकान नहीं खरीद पाए. गृहस्थी के तमाम झमेलों और सरकारी मकान के चलते वे घर खरीदने के विचार से लापरवाह रहे. अब विमला को एहसास हो रहा था कि वक्त रहते उन्होंने थोड़ी सी बचत कर के छोटा सा ही मकान खरीद लिया होता तो आज यह चिंता न होती. आज उन के पास इतनी जमापूंजी नहीं है कि वे कोई मकान खरीद सकें, क्योंकि दिल्ली में मकान की कीमतें अब आसमान छू रही हैं.

आज इतवार है, सुबह से ही विमला को चिड़चिड़ाहट हो रही है. ‘‘तुम चिंता क्यों करती हो, एक प्रौपर्टी डीलर से बात की है. मयूर विहार में एक जनता फ्लैट किराए के लिए उपलब्ध है, किराया भी कम है. आखिर, हम बूढ़ेबुढि़या को ही तो रहना है. हम दोनों के लिए जनता फ्लैट ही काफी है,’’ रविशंकर ने विमला को समझाते हुए कहा.

‘‘4 कमरों का फ्लैट छोड़ कर अब हम क्या एक कमरे के फ्लैट में जाएंगे? आप ने सोचा है कि इतना सामान छोटे से फ्लैट में कैसे आएगा, इतने सालों का जोड़ा हुआ सामान है.’’

‘‘हम दोनों की जरूरतें ही कितनी हैं? जरूरत का सामान ले चलेंगे, बाकी बेच देंगे. देखो विमला, घर का किराया निकालना, हमारीतुम्हारी दवाओं का खर्च, घर के दूसरे खर्चे सब हमें अब पैंशन से ही पूरे करने होंगे. ऐसे में किराए पर बड़ा फ्लैट लेना समझदारी नहीं है,’’ रविशंकर दोटूक शब्दों में पत्नी विमला से बोले.

‘‘बेटी से तो कुछ ले नहीं सकते, लेकिन बेटा तो विदेश में अच्छा कमाता है. आप उस से क्यों नहीं कुछ मदद के रूप में रुपए मांग लेते हैं जिस से हम बड़ा फ्लैट खरीद ही लें?’’ विमला धीरे से बोली.

‘‘भई, मैं किसी से कुछ नहीं मागूंगा. कभी उस ने यह पूछा है कि पापा, आप रिटायर हो जाओगे तो कहां रहोगे. आज तक उस ने अपनी कमाई का एक रुपया भी भेजा है,’’ रविशंकर पत्नी विमला पर बरस पड़े.

विमला खुद यह सचाई जानती थी. शादी के बाद बेटा जो विदेश गया तो उस ने कभी मुड़ कर भी उन की तरफ देखा नहीं. बस, कभीकभार त्योहार आदि पर सिर्फ फोन कर लेता है. विमला यह भी अच्छी तरह समझती थी कि उस के स्वाभिमानी पति कभी बेटी के आगे हाथ नहीं फैलाएंगे. विमला उन मातापिता को खुशहाल मानती है जो अपने बेटेबहू, नातीपोतों के साथ रह रहे हैं जबकि वे दोनों पतिपत्नी इस बुढ़ापे में बिलकुल अकेले हैं.

आखिर, वह दिन भी आ ही गया जब विमला को सरकारी मकान से अपनी गृहस्थी समेटनी पड़ी. रविशंकर ने सामान बंधवाने के लिए 2 मजदूर लगा लिए थे. कबाड़ी वाले को भी उन्होंने बुला लिया था जिस कोे गैरजरूरी सामान बेच सकें. केवल जरूरत का सामान ही बांधा जा रहा था.

विमला ने अपने हाथों से एकएक चीज इकट्ठा की थी, अपनी गृहस्थी को उस ने कितने जतन से संवारा था. कुछ सामान तो वास्तव में कबाड़ था पर काफी सामान सिर्फ इसलिए बेचा जा रहा था, क्योंकि नए घर में ज्यादा जगह नहीं थी. विमला साड़ी के पल्लू से बारबार अपनी गीली होती आंखों को पोंछे जा रही थी. उस के दिल का दर्द बाहर आना चाहता था पर किसी तरह वह इसे अपने अंदर समेटे हुए थी.

उस के कान पति रविशंकर की कमीज की जेब में रखे मोबाइल फोन की घंटी पर लगे थे. उसे बेटे के फोन का इंतजार था क्योंकि पिछले सप्ताह ही बेटे को रिटायर होने तथा घर बदलने की सूचना दे दी थी. आज कम से कम बेटा फोन तो करेगा ही, कुछ तो पूछेगा, ‘मां, छोटे घर में कैसे रहोगी? घर का साजोसामान कैसे वहां सैट होगा? मैं आप दोनों का यहां आने का प्रबंध करता हूं आदि.’ लेकिन मोबाइल फोन बिलकुल खामोश था. विमला के दिल में एक टीस उभर गई.

‘‘आप का फोन चार्ज तो है?’’ विमला ने धीरे से पूछा.

‘‘हां, फोन फुलचार्ज है,’’ रविशंकर ने जेब में से फोन निकाल कर देखा.

‘‘नैटवर्क तो आ रहा है?’’

‘‘हां भई, नैटवर्क भी आ रहा है. लेकिन यह सब क्यों पूछ रही हो?’’ रविशंकर झुंझलाते हुए बोले.

‘‘नहीं, कुछ नहीं,’’ कहते हुए विमला ने अपना मुंह फेर लिया और रसोईघर के अंदर चली गई. वह अपनी आंखों से बहते आंसुओं को रविशंकर को नहीं दिखाना चाहती थी.

सारा सामान ट्रक में लद चुका था. विमला की बूढ़ी गृहस्थी अब नए ठिकाने की ओर चल पड़ी. घर वाकई बहुत छोटा था. एक छोटा सा कमरा, उस से सटा रसोईघर. छोटी सी बालकनी, बालकनी से लगता बाथरूम जोकि टौयलेट से जुड़ा था. विमला का यह फ्लैट दूसरी मंजिल पर था.

विमला को इस नए मकान में आए एक हफ्ता हो गया है. घर उस ने सैट कर लिया है. आसपड़ोस में अभी खास जानपहचान नहीं हुई है. विमला के नीचे वाले फ्लैट में उसी की उम्र की एक बुजुर्ग महिला अपने बेटेबहू के साथ रहती है. विमला से अब उस की थोड़ीथोड़ी बातचीत होने लगी है. शाम को बाजार जाने के लिए विमला नीचे उतरी तो वही बुजुर्ग महिला मिल गई. उस का नाम रुक्मणी है. एकदूसरे को देख कर दोनों मुसकराईं.

‘‘कैसी हो विमला?’’ रुक्मणी ने विमला से पूछा.

‘‘ठीक हूं. घर में समय नहीं कटता. यहां कहीं घूमनेटहलने के लिए कोई अच्छी जगह नहीं है?’’ विमला ने रुक्मणी से कहा.

‘‘अरे, तुम शाम को मेरे साथ पार्क चला करो. वहां हमउम्र बहुत सी महिलाएं आती हैं. मैं तो रोज शाम को जाती हूं. शाम को 1-2 घंटे अच्छे से कट जाते हैं. पार्क यहीं नजदीक ही है,’’ रुक्मणी ने कहा.

अगले दिन शाम को विमला ने सूती चरक लगी साड़ी पहनी, बाल बनाए, गरदन पर पाउडर छिड़का. विमला को आज यों तैयार होते देख रविशंकर ने टोका, ‘‘आज कुछ खास बात है क्या? सजधज कर जा रही हो?’’

‘‘हां, आज मैं रुक्मणी के साथ पार्क जा रही हूं,’’ विमला खुश होती हुई बोली.

विमला को बहुत दिनों बाद यों चहकता देख रविशंकर को अच्छा लगा, क्योंकि विमला जब से यहां आई है, घर के अंदर ही अंदर घुट सी रही थी.

विमला और रुक्मणी दोनों पार्क की तरफ चल दीं. पार्क में कहीं बच्चे खेल रहे थे तो कहीं कुछ लोग पैदल घूम रहे थे ताकि स्वस्थ रहें. वहीं, एक तरफ बुजुर्ग महिलाओं का गु्रप था. विमला को ले कर रुक्मणी भी महिलाओं के ग्रुप में शामिल हो गई.

सभी बुजुर्ग महिलाओं की बातों में दर्द, चिंता भरी थी. कहने को तो सभी बेटेबहुओं व भरेपूरे परिवारों के साथ रहती थीं, लेकिन उन का मानसम्मान घर में ना के बराबर था. किसी को चाय समय पर नहीं मिलती तो किसी को खाना, कोई बीमारी में दवा, इलाज के लिए तरसती रहती. दो वक्त की रोटी खिलाना भी बेटेबहुओं को भारी पड़ रहा था.

इन महिलाओं की जिंदगी की शाम घोर उपेक्षा में कट रही थी. शाम के ये चंद लमहे वे आपस में बोलबतिया कर, अपने दिलों की कहानी सुना कर काट लेती थीं. अंधेरा घिरने लगा था. अब सभी घर जाने की तैयारी करने लगीं. विमला और रुक्मणी भी अपने घर की ओर बढ़ गईं.

घर पहुंच कर विमला कुरसी पर बैठ गई. पार्क में बुजुर्ग महिलाओं की बातें सुन कर उस का मन भर आया. वह सोचने लगी कि बुजुर्ग मातापिता तो उस बड़े पेड़ की तरह होते हैं जो अपना प्यार, घनी छावं अपने बच्चों को देना चाहते हैं लेकिन बच्चे तो इस छावं में बैठना ही नहीं चाहते. तभी रविशंकर रसोई से चाय बना कर ले आए.

‘‘लो भई, तुम्हारे लिए गरमागरम चाय बना दी है. बताओ, पार्क में कैसा लगा?’’

विमला पति को देख कर मुसकरा दी. जवाब में इतना ही बोली, ‘‘अच्छा लगा,’’ फिर चाय की चुस्की लेने के साथ मुसकराती हुई बोली, ‘‘सुनो, कल आप आलू की टिक्की खाने को कह रहे थे, आज रात के खाने में वही बनाऊंगी. और हां, आप कुछ छोटे गमले सीढ़ी तथा बालकनी में रखना चाहते थे, तो आप कल माली को कह दीजिए कि वह गमले दे जाए, हरीमिर्च, टमाटर के पौधे लगा लेंगे. थोड़ी बागबानी करते रहेंगे तो समय भी अच्छा कटेगा,’’ यह कहते हुए विमला खाली कप उठा कर रसोई में चली गई और सोचने लगी कि हम दोनों एकदूसरे को छावं दें और संतुष्ट रहें.

रविशंकर हैरान थे. कल तक वे विमला को कुछ खास पकवान बनाने को कहते थे तो विमला दुखी आवाज में एक ही बात कहती थी, ‘क्या करेंगे पकवान बना कर, परिवार तो है नहीं. बेटेबहू, नातीपोते साथ रहते, तो इन सब का अलग ही आनंद होता.’ गमलों के लिए भी वे कब से कह रहे थे पर विमला ने हामी नहीं भरी. विमला में यह बदलाव रविशंकर को सुखद लगा.

रसोईघर से कुकर की सीटी की आवाज आ रही थी. विमला ने टिक्की बनाने की तैयारी शुरू कर दी थी. घर में मसालों की खुशबू महकने लगी थी. रविशंकर कुरसी पर बैठेबैठे गीत गुनगुनाने लगे. आज उन्हें लग रहा था जैसे बहुत दिनों बाद उन की गृहस्थी की गाड़ी वापस पटरी पर लौट आई है…

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