Serial Story: स्वप्न साकार हुआ- भाग 2

लेखिका-  साधना श्रीवास्तव

‘डार्लिंग, अभी तो मुझे जाना है. हां, 1 घंटे बाद जब वापस आऊंगा तो उधर से ही सब्जी लेता आऊंगा,’ अरविंद बोले.

‘लेकिन सब्जी तो इसी समय के लिए चाहिए,’ वसुधा बोली, ‘ऐसा कीजिए, बबली को अपने साथ लेते जाइए और सब्जी खरीद कर इसे ही दे दीजिएगा. यह लेती आएगी.’

चाय पीने के बाद अरविंद ने बबली से चलने को कहा तो वह दूसरी तरफ का आगे का दरवाजा खोल कर उन की बगल की सीट पर धम से बैठ गई और जैसे ही गाड़ी आगे बढ़ी, अचानक अरविंद के कंधे पर हाथ मार कर बबली बोली, ‘अपन को 1 सिगरेट चाहिए, है क्या?’

अरविंद चौंक से गए. यह कैसी लड़की है? फिर बबली की आवाज कानों में पड़ी, ‘लाओ न बाबूजी, सिगरेट है?’

अरविंद ने गाड़ी रोक दी और उस की तरफ देखते हुए जोर से बोले, ‘बबली, आज तू पागल हो गई है क्या? सिगरेट पीएगी?’

अरविंद की आवाज बबली के कानों में गरम लावे जैसी पड़ी. तंद्रा टूटते ही उसे लगा कि अतीत के दिनों की आदतें उस पर न चाहते हुए भी जबतब हावी हो जाती हैं. अपने को संभालती हुई बबली बोली, ‘अंकल, आज मैं बहुत थकी हुई थी. आप की गाड़ी में हवा लगी तो झपकी आ गई. उसी में पता नहीं कैसेकैसे सपने आने लगे. जैसे कोई सिगरेट पीने को मांग रहा हो. माफ कीजिए अंकल, गलती हो गई.’ हाथ जोड़ कर बबली गिड़गिड़ाई.

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अरविंद को बबली की यह बात सच लगी और वह चुप हो गए. कार आगे बढ़ी. ढेर सारी सब्जियां खरीदवा कर अरविंद ने बबली को घर छोड़ा और अपने काम से चले गए.

अरविंद ने इस घटना का घर पर कोई जिक्र नहीं किया. वह अनुमान भी नहीं लगा सके कि बबली बार बाला है पर उस की कमजोरी को उन्होंने भांप लिया था.

बबली को अपनी इस फूहड़ता पर बड़ी ग्लानि हुई. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि इतना सावधान रहने पर भी उस से बारबार गलती क्यों हो जाती है. उस ने दृढ़ निश्चय किया कि वह भविष्य में अपने पर नियंत्रण रखेगी ताकि उस का काला अतीत आगे के जीवन में अपनी कालिमा न फैला सके.

बीतते समय के साथ सबकुछ सामान्य हो गया. बबली अपने काम में इस कदर तल्लीन हो गई कि सिगरेट मांगने वाली घटना को भूल ही गई.

एक दिन वसुधा ने बबली को चाबी पकड़ाते हुए कहा, ‘मुझे दोपहर बाद एक सहेली के घर जन्मदिन पार्टी में जाना है, तुम समय से आ कर खाना बना देना. मुझे लौटने में देर हो सकती है. राजन तो आज होस्टल में रुक गया है लेकिन अरविंदजी को समय से खाना खिला देना.’

‘जी, आंटी, लेकिन अगर साहब को आने में देर होगी तो मैं मेज पर उन का खाना लगा कर चली जाऊंगी.’

‘ठीक है, चली जाना.’

शाम को जल्दी आने की जगह बबली कुछ देर से आई तो देखा दरवाजा अंदर से बंद है. उस ने दरवाजे की घंटी बजाई तो अरविंद ने दरवाजा खोला. उसे कुछ संकोच हुआ. फिर भी काम तो करना ही था. सो अंदर सीधे रसोई में जा कर अपने काम में लग गई.

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बरतन व रसोई साफ करने के बाद बबली बैठ कर सब्जी काट रही थी कि अरविंद ने कौफी बनाने के लिए बबली से कहा.

कौफी बना कर बबली उसे देने के लिए उन के कमरे में गई तो देखा, वह पलंग पर लेटे हुए थे और उन्होंने इशारे से कौफी की ट्रे को पलंग की साइड टेबल पर रखने को कहा.

बबली ने अभी कौफी की ट्रे रखी ही थी कि उन्होंने उस का हाथ पकड़ कर खींच लिया. वह धम से उन के ऊपर गिर पड़ी. उसे अपनी बांहों में भरते हुए अरविंद ने कहा, ‘जानेमन, तुम ने तो कभी मौका नहीं दिया, लेकिन आज यह सुअवसर मेरे हाथ लगा है.’

बबली अपने को उन के बंधन से छुड़ाते हुए बोली, ‘छोडि़ए अंकल, क्या करते हैं?’

लेकिन अरविंद ने उसे छोड़ने की जगह अपनी बांहों में और भी शक्ति के साथ जकड़ लिया. अपने बचने का कोई रास्ता न देख कर बबली ने हिम्मत कर के एक जोरदार तमाचा अरविंद के गाल पर जड़ दिया. अप्रत्याशित रूप से पड़े इस तमाचे से अरविंद बौखला से गए.

‘दो कौड़ी की छोकरी, तेरी यह हिम्मत,’ कहते हुए अरविंद उस पर जानवरों जैसे टूट पड़े थे कि तभी दरवाजे की घंटी बज उठी और उन की पकड़ एकदम ढीली पड़ गई.

बबली को लगा कि जान में जान आई और भाग कर उस ने दरवाजा खोल दिया. सामने वसुधा खड़ी थी. उन से बिना कुछ कहे बबली रसोई में खाना बनाने चली गई.

खाना बनाने का काम समाप्त कर बबली जाने के लिए वसुधा से कहने आई. वसुधा ने देखा खानापीना सबकुछ तरीके से मेज पर सज गया था. उस की प्रशंसा करती हुई वसुधा ने कहा, ‘बबली, मुझे तुम्हारा काम बहुत पसंद आता है. मैं जल्दी ही तुम्हारे पैसे बढ़ा दूंगी.’

इतने समय में बबली ने निश्चय कर लिया कि अब वह इस घर में काम नहीं करेगी. अत: दुखी स्वर में बोली, ‘आंटी, इतने दिनों तक आप के साथ रह कर मैं ने बहुत कुछ सीखा है लेकिन कल से मैं आप के घर में काम नहीं करूंगी. मुझे क्षमा कीजिएगा…मेरा भी कोई आत्म- सम्मान है जिसे खो कर मुझे कहीं भी काम करना मंजूर नहीं है.’

‘अरे, यह तुझे क्या हो गया? मैं ने तो कभी भी तुझे कुछ कहा नहीं,’ वसुधा ने जानना चाहा.

‘आप ने तो कभी कुछ नहीं कहा आंटी, पर मैं…’ रुक गई बबली.

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अब वसुधा का माथा ठनका. वह सीधे अरविंद के कमरे में पहुंचीं और बोलीं, ‘आज आप ने बबली को क्या कह दिया कि वह काम छोड़ कर जाने को तैयार है?’

अरविंद ने अपनी सफाई देते हुए कहा, ‘हां, थोड़ा डांट दिया था. कौफी पलंग पर गिरा दी थी. लेकिन कह दो, अब कभी कुछ नहीं कहूंगा.’

पति की बात को सच मान कर वसुधा ने बबली को बहुतेरा समझाया लेकिन वह काम करने को तैयार नहीं हुई.

Mother’s Day Special: मां का फैसला- भाग 1

रजनीगंधा की बड़ी डालियों को माली ने अजीब तरीके से काटछांट दिया था. उन्हें सजाने में मुझे बड़ी मुश्किल हो रही थी. बिट्टी ने अपने झबरे बालों को झटका कर एक बार उन डालियों से झांका, फिर हंस कर पूछा, ‘‘मां, क्यों इतनी परेशान हो रही हो. अरे, प्रभाकर और सुरेश ही तो आ रहे हैं…वे तो अकसर आते ही रहते हैं.’’ ‘‘रोज और आज में फर्क है,’’ अपनी गुडि़या सी लाड़ली बिटिया को मैं ने प्यार से झिड़का, ‘‘एक तो कुछ करनाधरना नहीं, उस पर लैक्चर पिलाने आ गई. आज उन दोनों को हम ने बुलाया है.’’

बिट्टी ने हां में सिर हिलाया और हंसती हुई अपने कमरे में चली गई. अजीब लड़की है, हफ्ताभर पहले तो लगता था, यह बिट्टी नहीं गंभीरता का मुखौटा चढ़ाए उस की कोई प्रतिमा है. खोईखोई आंखें और परेशान चेहरा, मुझे राजदार बनाते ही मानो उस की उदासी कपूर की तरह उड़ गई और वही मस्ती उस की रगों में फिर से समा गई.

‘मां, तुम अनुभवी हो. मैं ने तुम्हें ही सब से करीब पाया है. जो निर्णय तुम्हारा होगा, वही मेरा भी होगा. मेरे सामने 2 रास्ते हैं, मेरा मार्गदर्शन करो.’ फिर आश्वासन देने पर वह मुसकरा दी. परंतु उसे तसल्ली देने के बाद मेरे अंदर जो तूफान उठा, उस से वह अनजान थी. अपनी बेटी के मन में उठती लपटों को मैं ने सहज ही जान लिया था. तभी तो उस दिन उसे पकड़ लिया.

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कई दिनों से बिट्टी सुस्त दिख रही थी, खोईखोई सी आंखें और चेहरे पर विषाद की रेखाएं, मैं उसे देखते ही समझ गई थी कि जरूर कोई बात है जो वह अपने दिल में बिठाए हुए है. लेकिन मैं चाहती थी कि बिट्टी हमेशा की तरह स्वयं ही मुझे बताए. उस दिन शाम को जब वह कालेज से लौटी तो रोज की अपेक्षा ज्यादा ही उदास दिखी. उसे चाय का प्याला थमा कर जब मैं लौटने लगी तो उस ने मेरा हाथ पकड़ कर रोक लिया और रोने लगी.

बचपन से ही बिट्टी का स्वभाव बहुत हंसमुख और चंचल था. बातबात में ठहाके लगाने वाली बिट्टी जब भी उदास होती या उस की मासूम आंखें आंसुओं से डबडबातीं तो मैं विचलित हो उठती. बिट्टी के सिवा मेरा और था ही कौन? पति से मानसिकरूप से दूर, मैं बिट्टी को जितना अपने पास करती, वह उतनी ही मेरे करीब आती गई. वह सारी बातों की जानकारी मुझे देती रहती. वह जानती थी कि उस की खुशी में ही मेरी खुशी झलकती है. इसी कारण उस के मन की उठती व्यथा से वही नहीं, मैं भी विचलित हो उठी. सुरेश हमारे बगल वाले फ्लैट में ही रहता था. बचपन से बिट्टी और सुरेश साथसाथ खेलते आए थे. दोनों परिवारों का एकदूसरे के यहां आनाजाना था. उस की मां मुझे मानती थी. मेरे पति योगेश को तो अपने व्यापार से ही फुरसत नहीं थी, पर मैं फुरसत के कुछ पल जरूर उन के साथ बिता लेती. सुरेश बेहद सीधासादा, अपनेआप में खोया रहने वाला लड़का था, लेकिन बिट्टी मस्त लड़की थी.

बिट्टी का रोना कुछ कम हुआ तो मैं ने पूछ लिया, ‘आजकल सुरेश क्यों नहीं आता?’ ‘वह…,’ बिट्टी की नम आंखें उलझ सी गईं.

‘बता न, प्रभाकर अकसर मुझे दिखता है, सुरेश क्यों नहीं?’ मेरा शक सही था. बिट्टी की उदासी का कारण उस के मन का भटकाव ही था. ‘मां, वह मुझ से कटाकटा रहता है.’

‘क्यों?’ ‘वह समझता है, मैं प्रभाकर से प्रेम करती हूं.’

‘और तू?’ मैं ने उसी से प्रश्न कर दिया. ‘मैं…मैं…खुद नहीं जानती कि मैं किसे चाहती हूं. जब प्रभाकर के पास होती हूं तो सुरेश की कमी महसूस होती है, लेकिन जब सुरेश से बातें करती हूं तो प्रभाकर की चाहत मन में उठती है. तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूं. किसे अपना जीवनसाथी चुनूं?’ कह कर वह मुझ से लिपट गई.

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मैं ने उस के सिर पर हाथ फेरा और सोचने लगी कि कैसा जमाना आ गया है. प्रेम तो एक से ही होता है. प्रेम या जीवनसाथी चुनने का अधिकार उसे मेरे विश्वास ने दिया था. सुरेश उस के बचपन का मित्र था. दोनों एकदूसरे की कमियों को भी जानते थे, जबकि प्रभाकर ने 2 वर्र्ष पूर्व उस के जीवन में प्रवेश किया था. बिट्टी बीएड कर रही थी और हम उस का विवाह शीघ्र कर देना चाहते थे, लेकिन वह स्वयं नहीं समझ पा रही थी कि उस का पति कौन हो सकता है, वह किस से प्रेम करती है और किसे अपनाए.

Serial Story: बीवी का आशिक- भाग 4

लेखक- एम. अशफाक

अंदर से क्वार्टर देखा, बहुत अच्छी तरह सजा हुआ था. रसोई तो और भी ज्यादा अच्छी तरह सजी हुई थी. मर्द कितना ही सफाई वाला हो, लेकिन इस तरह रसोई और घर नहीं सजा सकता. एएसएम तो वैसे भी अविवाहित था, मेरी छठी इंद्री जाग गई.

‘‘तुम्हारा खाना कौन पकाता है?’’

‘‘जी, वह पानी वाला पका देता है.’’

मैं ने उस का जवाब एक पुलिस वाले की नजर से उस के चेहरे की ओर देखते हुए सुना. मैं ने देखा उस के चेहरे का रंग बदल रहा था. मैं ने उस से पूछा, ‘‘इस उजाड़ में तुम्हारा दिल कैसे लगता है?’’

वह बोला, ‘‘बस जी, कोई किताब पढ़ लेता हूं या फिर घूमने निकल जाता हूं.’’

बातें करतेकरते हम घर से बाहर निकले तो क्वार्टर के सामने कुछ झोपडि़यां दिखाई दीं. मैं ने उस से पूछा, ‘‘ये किस की झोपडि़यां हैं?’’

‘‘जी, वे भीलों के झोपडे़ हैं.’’

मैं ने कहा, ‘‘चलो, चल कर देखते हैं.’’

वहां गए तो झोपडि़यों के पास कुछ बकरियां बंधी थीं. हमें देख कर कुत्ते भौंकने लगे. उन की आवाज सुन कर झोपडि़यों से औरतें निकल आईं और हमारी ओर देखने लगीं.

मैं ने झोपडि़यों का चक्कर लगा कर देखा तो वहां औरतें ही नजर आईं, मर्द कोई नहीं था. मैं ने उन औरतों से उन के मर्दों के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि वे थरपारकर (रेगिस्तान की एक जगह) में खेतों पर काम करने जाते हैं.’’

‘‘तुम्हारे मर्द खेतों पर रहते हैं और तुम?’’ सवाल सुन कर एक औरत बोली, ‘‘वे वहां और हम यहां.’’

‘‘तुम क्या काम करती हो?’’

‘‘बकरियों का दूध निकाल कर रेलवे वालों को बेचते हैं.’’ एक औरत ने एएसएम को देख कर कहा, ‘‘ये बाबू तो यहां भी दूध लेने आ जाते हैं.’’

मैं ने उसी औरत से कहा, ‘‘तुम्हारा आदमी कहां है?’’

उस ने कहा, ‘‘बताया था ना थरपारकर में काम करता है.’’

‘‘वह यहां कब आता है?’’

‘‘1-2 महीने बाद आता है.’’

‘‘उसे आए हुए कितने दिन हो गए?’’

‘‘एक महीने से तो उस ने सूरत भी नहीं दिखाई.’’ वह मुसकरा कर बोली.

‘‘तुम्हारे आदमी का क्या नाम है?’’

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वह कुछ लजा गई, दूसरी औरत ने बताया, ‘‘शिवाराम नाम है.’’

मैं ने एएसएम का बाजू पकड़ा और उसे स्टेशन पर ले आया. एएसएम का उजाड़ इलाके में क्वार्टर, भीलों की जवान लड़की, वह दूध लेने उन के घर जाता था. निस्संदेह वह कोई फरिश्ता नहीं था. उस समय सुबह 7 बजे थे. मैं ने वहां के थाने से पुलिस इंसपेक्टर को बुलवाया और उस से ऊंटों का इंतजाम करने के लिए कहा. उस ने तुरंत ऊंट बुलवा लिए.

मैं पुलिस इंसपेक्टर और 2 सिपाहियों को ले कर थर पार कर के खेतीबाड़ी वाले इलाके में 20 मील लंबा सफर कर के पहुंच गया. शाम का समय था, कुछ लोग अब भी खेतों पर काम कर रहे थे. ऊंट रुकवा कर मैं उन लोगों की ओर गया. पुलिस की वरदी में देख कर वे सब खड़े हो गए.

मैं ने जाते ही सख्ती से पूछा, ‘‘तुम में शिवा कौन है?’’

वे सब डर गए थे, फिर धीरेधीरे एक आदमी हमारी ओर आया. मैं ने पूछा, ‘‘तुम हो शिवा?’’

‘‘हां, मेरा ही नाम शिवा है.’’ उस की आवाज में जरा भी घबराहट नहीं थी.

‘‘तुम ने हत्या की है. मैं तुम्हें गिरफ्तार करने आया हूं. वह कुल्हाड़ी कहां है, जिस से तुम ने हत्या की है?’’

वह जवाब देने के बजाए एक ओर मुंह घुमा कर देख रहा था, वहां एक झोंपड़ी थी. मेरा हमला उस पर इतना सख्त और जल्दबाजी वाला था कि वह संभल नहीं सका. सूबेदार को अपने एरिए का राजा समझने वाला भील अपने बचाव के बारे में सोच भी नहीं सका.

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शिवा मेरे साथ झोपड़ी में गया और वहां से एक कुल्हाड़ी और खून में सने अपने कपड़े जमीन से खोद कर मेरे हवाले कर दिए. वह बिलकुल शांत था, उस के चेहरे से घमंड साफ दिखाई दे रहा था. वह यही समझ रहा था कि उस ने एक व्यभिचारी एएसएम को अपनी पत्नी को बिगाड़ने का बदला ले लिया है.

लेकिन जिस रात वह एएसएम की हत्या करने के लिए कुल्हाड़ी ले कर उस जगह गया था, जहां एएसएम सोया करता था, वहां वह अफसर सोया हुआ था, जो निरीक्षण के लिए आया हुआ था.

हत्यारे ने अंधेरे में अपने शिकार को पहचाना नहीं, उसे यह पता था कि यहां हर रात वही बाबू सोता था, जिस के क्वार्टर में उस की जवान पत्नी दूध देने जाती थी.

उस के  ऊपर हत्या का भूत सवार था. हत्या करने के बाद उसे 20 मील दूर भी जाना था. उसे जब आजीवन कारावास की सजा हुई तो उसे इस का दुख नहीं था, दुख तो उस की पत्नी के प्रेमी के बच जाने का था.

प्रस्तुति : एस.एम. खान

Serial Story: मासूम कातिल- भाग 4

लेखक- गजाला जलील

पेट में पलती औलाद ने मुझे खुदकशी करने न दी. फिर मेरी बदनसीब बेटी अदीना पैदा हो गई. मेरे जिस्म का एक टुकड़ा मेरी गोद में था. मैं ने अपना घर बेच दिया, एक गुमनाम मोहल्ले में एक कमरा खरीद कर रहने लगी. मैं ने अपनी पुरानी सब बातें भुला दीं. मकान से अच्छी रकम मिली थी. फिर मैं थोड़ाबहुत सिलाईकढ़ाई का काम करने लगी.

हम मांबेटी की अच्छी गुजर होने लगी. मैं ने अपनी बेटी की बहुत अच्छी परवरिश की. उसे दुनिया की हर ऊंचनीच समझाई. उस से वादा लिया कि वह मुझ से कोई बात नहीं छिपाएगी. अदीना बेइंतहा हसीन निकली. मैं ने उसे अच्छी तालीम दिलाई. वह बीएससी कर रही थी. एक दिन वह मुझ से कहने लगी, ‘‘मम्मी, मेरी एक बात मानोगी?’’

‘‘कहो.’’

‘‘मैं नौकरी करना चाहती हूं. मेरे एग्जाम भी पूरे हो गए हैं. रिजल्ट भी जल्द आएगा.’’

‘‘नहीं बेटी, नौकरी ढूंढना और करना बड़ा कठिन है.’’

‘‘मम्मी, मुझे एक अच्छी नौकरी मिल गई है.’’

‘‘कहां मिल गई नौकरी तुम्हें?’’

‘‘एक प्राइवेट फर्म है. फर्म के मालिक ने मुझे खुद नौकरी का औफर दिया है. मेरी इमरान साहब से कालेज के फंक्शन में मुलाकात हुई थी. वह चीफ गेस्ट थे. इतने नेक और सादा मिजाज आदमी हैं कि देख कर आप दंग रह जाएंगी.’’

‘‘कौन?’’ मुझे जैसे बिच्छू ने डंक मारा.

‘‘इमरान हसन साहब. बड़े हमदर्द इंसान हैं.’’ अदीना उन के बारे में पता नहीं क्याक्या बोलती रही. मुझे लगा, मेरे चारों तरफ जहन्नुम की आग दहक रही हो. फिर मैं ने खुद पर काबू पाया और कुछ सोच कर अदीना को नौकरी की इजाजत दे दी.

वह मेरी हां सुन कर खुशी से खिल उठी. साथ ही मैं ने एक काम किया. चुपचाप उस का पीछा करना शुरू कर दिया. मैं ने इमरान हसन को देखा, वह उतना ही खूबसूरत और डैशिंग था.

उम्र की अमीरी ने उसे और ग्रेसफुल बना दिया था. मैं उस के एकएक रूप एकएक चाल से वाकिफ थी. फिर मैं ने अदीना को अपनी गमभरी दास्तान सुनाई. वह कांप उठी, उस ने चीख कर पूछा, ‘‘ममा, कौन था वह कमीना बेदर्द इंसान?’’

‘‘मैं खुद उस बेगैरत की तलाश में हूं.’’

‘‘काश! वह मिल जाए.’’ अदीना ने गुर्राते हुए कहा तो मैं ने पूछा, ‘‘क्या करेगी तू उस का?’’

‘‘खुदा की कसम है मम्मी, मैं उसे जान से मार डालूंगी. ऐसा हाल करूंगी कि दुनिया देखेगी.’’

मुझे सुकून मिल गया, मैं ने अदीना की परवरिश इसी तरह की थी. ऐसा ही बनाया था उसे. मेरी निगरानी जारी थी. मैं चुपचाप उस का पीछा करती रही. उस दिन भी मैं अदीना से ज्यादा दूर नहीं थी, जब वह अदीना को अपनी शानदार कार में कहीं ले जा रहा था. वह अदीना को अपने घर ले गया. मैं भी छिप कर अंदर आ गई और दरवाजे के पीछे खड़ी हो गई.

मैं सारे रास्तों से वाकिफ थी. घर सुनसान पड़ा था. हलका अंधेरा था. मेरे कानों में इमरान हसन की नशीली आवाज पड़ी, ‘‘अदीना, तुम मेरी जिंदगी में बहार बन कर आई हो. मैं ने सारी जिंदगी तुम जैसी हसीना की तलाश में तनहा गुजार दी.’’

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‘‘सर, ये आप क्या कह रहे हैं. मैं तो आप पर बहुत ऐतमाद करती थी. आप पर बहुत भरोसा है मुझे.’’

‘‘हां ठीक है, पर मोहब्बत तो उफनती नदी है. उस पर रोक नहीं लगाई जा सकती. तुम्हारी चाहत मेरी रगरग में समा गई है. मेरी जान, मैं अब तुम्हारे बिना नहीं रह सकता.’’

‘‘सर, ये आप गलत कर रहे हैं. आप मुझे यहां यह कह कर लाए थे कि कुछ लेटर्स भेजने हैं.’’

‘‘ये मेरा घर है और तुम अपनी मरजी से मेरे घर आई हो. अब यहां जो कुछ होगा, उस में तुम्हारी रजा भी समझी जाएगी. इस में मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा, पर तुम बदनाम हो जाओगी. लोग कहेंगे तुम मेरे सूने घर में क्यों आई थीं?’’

‘‘सर, आप मुझे काम के बहाने लाए थे.’’

‘‘कौन सुनेगा, तुम्हारी बकवास.’’ वह हंस कर आगे बढ़ा. उसी वक्त मैं अंदर दाखिल हो गई. मैं ने कहा, ‘‘अदीना, यही है वह आदमी जिस की कहानी मैं ने तुम्हें सुनाई थी. यही है वह वहशी दरिंदा, जिस ने मेरी इज्जत लूटी थी.’’

इमरान मुझे देख कर हैरान रह गया. मैं ने उस से कहा, ‘‘इमरान, ये तेरी बेटी है. तेरा गुनाह है.’’

फिर हम दोनों मसरूफ हो गए. अदीना ने अपना वादा निभाया. उसे कोने में रखा डंडा मिल गया. हम ने अपना इंतकाम लिया. इज्जत के लुटेरे उस शैतान को हम ने खत्म कर दिया. हम ने बहुत बड़ा नेक काम किया है और कई लड़कियों की इज्जत बचाई है. भले ही आप हमें सजा दीजिए, हमें मंजूर है. सुहाना चुप हो गई.

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यह मेरी जिंदगी का सब से संगीन केस था. मैं बड़ी उलझन में था. अदालत में मैं सरकारी वकील की हैसियत से खड़ा था. मुझे इन मांबेटी पर संगीन जुर्म साबित करना था. उन के खिलाफ बोलना था, पर मेरा जमीर इस बात पर राजी नहीं था. मेरा दिल कहता था कि मैं यह मुकदमा हार जाऊं.

मुझे नहीं मालूम मैं ये मुकदमा ठीक से लड़ पाऊंगा या नहीं. मेरी जबान जैसे गूंगी हो गई थी. मैं अपनी बात कह नहीं पा रहा था. जुबान लड़खड़ा रही थी. और सचमुच मैं यह मुकदमा हार गया. मांबेटी सजा से बच गईं. मैं सही था या नहीं, कह नहीं सकता. आप खुद फैसला कीजिए.

(प्रस्तुति : शकीला एस. हुसैन)

Mother’s Day Special- बहू-बेटी : आखिर क्यों सास के रवैये से परेशान थी जया

Mother’s Day Special- बहू-बेटी: भाग 1

लेखक-अश्विनी कुमार भटनागर

घर क्या था, अच्छाखासा कुरुक्षेत्र का मैदान बना हुआ था. सुबह की ट्र्र्रेन से बेटी और दामाद आए थे. सारा सामान बिखरा हुआ था. दयावती ने महरी से कितना कहा था कि मेहमान आ रहे हैं, जरा जल्दी आ कर घर साफ कर जाए. 10 बज रहे थे, पर महरी का कुछ पता नहीं था. झाडू बुहारु तो दूर, अभी तो रात भर के बरतन भी पड़े थे. 2-2 बार चाय बन चुकी थी, नाश्ता कब निबटेगा, कुछ पता नहीं था.

रमेश तो एक प्याला चाय पी कर ही दफ्तर चला गया था. उस की पत्नी जया अपनी 3 महीने की बच्ची को गोद में लिए बैठी थी. उस को रात भर तंग किया था उस बच्ची ने, और वह अभी भी सोने का नाम नहीं ले रही थी, जहां गोद से अलग किया नहीं कि रोने लगती थी.

इधर कमलनाथ हैं कि अवकाश प्राप्त करने के बाद से बरताव ऐसा हो गया है जैसे कहीं के लाटसाहब हो गए हों. सब काम समय पर और एकदम ठीक होना चाहिए. कहीं कोई कमी नहीं रहनी चाहिए. उन के घर के काम में मदद करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था.

गंदे बरतनों को देख कर दयावती खीज ही रही थी कि रश्मि बेटी ने आ कर मां को बांहों में प्यार से कस ही नहीं लिया बल्कि अपने पुराने स्कूली अंदाज से उस के गालों पर कई चुंबन भी जड़ दिए.

दयावती ने मुसकरा कर कहा, ‘‘चल हट, रही न वही बच्ची की बच्ची.’’

‘‘क्या हो रहा है, मां? पहले यह बताओ?’’

मां ने रश्मि को सारा दुखड़ा रो दिया.

‘‘तो इस में क्या बात है? तुम अपने दामाद का दिल बहलाओ. मैं थोड़ी देर में सब ठीक किए देती हूं.’’

‘‘पगली कहीं की,’’ मां ने प्यार से झिड़क कर कहा, ‘‘2 दिन के लिए तो आई है. क्या तुझ से घर का काम करवाऊंगी?’’

‘‘क्यों, क्या अब तुम्हारी बेटी नहीं रही मैं? डांटडांट कर क्या मुझ से घर का काम नहीं करवाया तुम ने? यह घर क्या अब पराया हो गया है मेरे लिए?’’ बेटी ने उलाहना दिया.

‘‘तब बात और थी, अब तुझे ब्याह जो दिया है. अपने घर में तो सबकुछ करती ही है. यहां तो तू बैठ और दो घड़ी हंसबोल कर मां का दिल बहला.’’

‘‘नहीं, मैं कुछ नहीं सुनूंगी. तुम अब यहां से जाओ. या तो इन के पास जा कर बैठो या छुटकी को संभाल लो और भाभी को यहां भेज दो. हम दोनों मिल कर काम निबटा देंगे.’’

‘‘अरे, बहू को क्या भेजूं, उसे तो छुटकी से ही फुरसत नहीं है. यह बच्ची भी ऐसी है कि दूसरे के पास जाते ही रोने लगती है. रोता बच्चा किसे अच्छा लगता है?’’

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रश्मि को मां की बात में कुछ गहराई का एहसास हुआ. कहीं कुछ गड़बड़ लगती है, पर उस ने कुरेदना ठीक नहीं समझा. वह भी किसी की बहू है और उसे भी अपनी सास से निबटना पड़ता है. तालमेल बिठाने में कहीं न कहीं किसी को दबना ही पड़ता है. बिना समझौते के कहीं काम चलता है?

बातें करतेकरते रश्मि ने एक प्याला चाय बना ली थी. मां के हाथों में चाय का प्याला देते हुए उस ने कहा, ‘‘तुम जाओ, मां, उन्हें चाय दे आओ. उन को तो दिन भर चाय मिलती रहे, फिर कुछ नहीं चाहिए.’’

मां ने झिझकते हुए कहा, ‘‘अब तू ही दे आ न.’’

‘‘ओहो, कहा न, मां, तुम जाओ और दो घड़ी उन के पास बैठ कर बातें करो. आखिर उन को भी पता लगना चाहिए कि उन की सास यानी कि मेरी मां कितनी अच्छी हैं.’’

रश्मि ने मां को जबरदस्ती रसोई से बाहर निकाल दिया और साड़ी को कमर से कस कर काम में लग गई. फुरती से काम करने की आदत उस की शुरू से ही थी. देखतेदेखते उस ने सारी रसोई साफ कर दी.

फिर भाभी के पास जा कर बच्ची को गोद में ले लिया और हंसते हुए बोली, ‘‘यह तो है ही इतनी प्यारी कि बस, गोद में ले कर इस का मुंह निहारते रहो.’’

भाभी को लगा जैसे ननद ताना दे रही हो, पर उस ने तीखा उत्तर न देना ही ठीक समझा. हंस कर बोली, ‘‘लगता है सब के सिर चढ़ जाएगी.’’

‘‘भाभी, इसे तो मैं ले जाऊंगी.’’

‘‘हांहां, ले जाना. रोतेरोते सब के दिमाग ठिकाने लगा देगी.’’

‘‘बेचारी को बदनाम कर रखा है सब ने. कहां रो रही है मेरे पास?’’

‘‘यह तो नाटक है. लो, लगी न रोने?’’

‘‘लो, बाबा लो,’’ रश्मि ने हंस कर कहा, ‘‘संभालो अपनी बिटिया को. अच्छा, अब यह बताओ नाश्ता क्या बनेगा? मैं जल्दी से तैयार कर देती हूं.’’

भाभी ने जबरन हंसते हुए कहा, ‘‘क्यों, तुम क्यों बनाओगी? क्या दामादजी को किसी दूसरे के हाथ का खाना अच्छा नहीं लगता?’’

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हंस कर रश्मि ने कहा, ‘‘यह बात नहीं, मुझे तो खुद ही खाना बनाना अच्छा लगता है. वैसे वह बोल रहे थे कि भाभी के हाथ से बने कबाब जरूर खाऊंगा.’’

‘‘बना दूंगी. अच्छा, तुम इसे जरा गोदी में ले कर बैठ जाओ, सो गई है. मैं झटपट नाश्ता बना देती हूं.’’

‘‘ओहो, लिटा दो न बिस्तर पर.’’

‘‘यही तो मुश्किल है. बस गोदी में ही सोती रहती है.’’

‘‘अच्छा ठहरो, मां को बुलाती हूं. वह ले कर बैठी रहेंगी. हम दोनों घर का काम कर लेंगे.’’

‘‘नहींनहीं, मांजी को तंग मत करो.’’

Mother’s Day Special: मां हूं न- भाग 2

आरती टुकुरटुकुर ससुर का मुंह ताक रही थी. आखिर सुबोध के बिना वह कैसे जिएगी. अभी तक वह उस से लिपटी बेल की तरह जी रही थी. अब वह आधार के बिना जमीन पर बिखर गई थी. अब कौन सहारा देगा. बिना किसी वजह के पति उसे बेसहारा छोड़ कर चला गया था.

पता नहीं कौन उन के बीच आ गई थी. वह कैसी औरत थी, जो उस के पति को अपने मोहपाश में बांध कर चली गई थी. छोटी सी बिटिया, पिता जैसे ससुर, फैला कारोबार, जीवन अब एक तपती दोपहर की तरह हो गया था. नंगे पैर चलना होगा, न आराम न छाया.

लेकिन ऐसा हुआ नहीं.

ससुर विश्वंभर प्रसाद ने सहजता से घरसंसार का बोझ अपने कंधों पर उठा लिया था. उस के जीवनरथ का जो पहिया टूटा था, उस की जगह वह खुद पहिया बन गए थे, जिस से आरती के जीवन का रथ फिर से चलने ही नहीं लगा था, बल्कि दौड़ पड़ा था.

विश्वंभर प्रसाद सुबह जल्दी उठ कर नजदीक के क्रिकेट क्लब के मैदान में चले जाते, नियमित टेनिस खेलते. छोटीमोटी बीमारी को तो वह कुछ समझते ही नहीं थे. उन्होंने समय के घूमते चक्र को जैसे मजबूत हाथों से थाम लिया था. वह जवानी के जोश में आ गए थे. सुबोध था तो वह रिटायर हो कर सेवानिवृत्ति का जीवन जी रहे थे. औफिस जाते भी थे तो थोड़े समय के लिए. लेकिन अब पूरा कारोबार वही संभालने लगे थे.

उन की भागदौड़ को देखते हुए एक दिन आरती ने कहा, ‘‘पापा, आप इतनी मेहनत करते हैं, यह मुझे अच्छा नहीं लगता. हम 3 लोग ही तो हैं. इतना बड़ा घर और कारोबार बेच कर छोटा सा घर ले लेते हैं. बाकी रकम ब्याज पर उठा देते हैं. आप इस उम्र में…’’

‘‘इस उम्र में क्या आरती… देखो ब्याज खाना मुझे पसंद नहीं है. आराधना बड़ी हो रही है. हमें उस का जीवन उल्लास से भर देना है. वह बूढ़े दादा और अकेली मां की छाया में दिन काटे, यह मुझे अच्छा नहीं लगेगा.’’

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विश्वंभर ने बाल रंगवा लिए, पहनने के लिए लेटेस्ट कपड़े ले लिए. वह फिल्म्स, पिकनिक सभी जगह आराधना के साथ जाते, जिस से उसे बाप की कमी न खले.

सब कुछ ठीकठाक चलने लगा था कि अचानक एक दिन आरती के मांबाप आ पहुंचे. वे आरती और आराधना को ले जाने आए थे. उन का कहना था कि विधुर ससुर के साथ बिना पति के बहू के रहने पर लोग तरहतरह की बातें करते हैं.

लोग तो यहां तक कह रहे हैं कि ससुर और बहू का पहले से ही संबंध था, इसीलिए सुबोध घर छोड़ कर चला गया. दोनों ही परिवारों की बदनामी हो रही है, इसलिए आरती को उन के साथ जाना ही होगा. उन के खर्च के लिए रुपए उस के ससुर भेजते रहेंगे.

मांबाप की बातें सुन कर आरती स्तब्ध रह गई. उस पर जैसे आसमान टूट पड़ा हो. फिर ऐसा कुछ घटा, जिस के आघात से वह मूढ़ बन गई. आरती के मांबाप की बातें सुन कर विश्वंभर प्रसाद ने तुरंत कहा था, ‘‘मैं इस बारे में कुछ भी नहीं कह सकता, जो भी निर्णय करना है, आरती को करना है. अगर वह जाना चाहती है तो खुशी से अरू को ले कर जा सकती है.’’

बस, इतना कह कर अपराधी की तरह उन्होंने सिर झुका लिया था. आराधना उस समय उन्हीं की गोद में थी. नानानानी ने उसे लेने की बहुत कोशिश की थी. पर वह उन के पास नहीं गई थी. उस ने दोनों हाथों से कस कर दादाजी की गरदन पकड़ ली थी.

आराधना के पास न आने से आरती की मां ने नाराज हो कर कहा था, ‘‘आंख खोल कर देख आरती, तेरा यह ससुर कितना चालाक है. आराधना को इस ने इस तरह वश में कर रखा है कि हमारे लाख जतन करने पर भी वह हमारे पास नहीं आ रही है. देखो न ऐसा व्यवहार कर रही है, जैसे हम इस के कुछ हैं ही नहीं.’’

इतना कह कर आरती की मां उठीं और विश्वंभर प्रसाद की गोद में बैठी आराधना को खींचने लगीं. आराधना चीखी. बेटे के घर छोड़ कर जाने पर भी न रोने वाले विश्वंभर प्रसाद की आंखें छलक आईं. ससुर की हालत देख कर आरती झटके से उठी और अपनी मां के दोनों हाथ पकड़ कर बोली, ‘‘मम्मी, मैं और आराधना यहीं पापा के पास ही रहेंगे.’’

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‘‘कुछ पता है, तू ये क्या कह रही है. तू जो पाप कर रही है, ऊपर वाला तुझे कभी माफ नहीं करेगा और इस विश्वंभर के तो रोएंरोएं में कीड़े पड़ेंगे.’’

‘‘तुम भले मेरी मां हो, पर मैं अपने पिता जैसे ससुर का अपमान नहीं सह सकती, इसलिए अब आप लोग यहां से जाइए, यही हम सब के लिए अच्छा होगा.’’

‘‘अपने ही मांबाप का अपमान…’’ आरती के पिता गुस्से में बोले, ‘‘तुझे इस नरक में सड़ना है तो सड़, पर आराधना पर मैं कुसंस्कार नहीं पड़ने दूंगा. इसलिए इसे मैं अपने साथ ले जाऊंगा.’’

आराधना जोरजोर से रो रही थी. आरती के मांबाप उसे और विश्वंभर प्रसाद को कोस रहे थे. आरती दोनों कानों को हथेलियों से दबाए आंखें बंद किए बैठी थी. अंत में वे गुस्से में पैर पटकते हुए यह कह कर चले गए कि आज से उन का उस से कोई नातारिश्ता नहीं रहा.

मांबाप के जाने के बाद आरती उठी. ससुर के आंसू भरे चेहरे को देखते हुए उन के सिर पर हाथ रखा और आराधना को गले लगाया. इस के बाद अंदर जा कर बालकनी में खड़ी हो गई. उतरती दोपहर की तेज किरणें धरती पर अपना कमाल दिखा रही थीं. गरमी से त्रस्त लोग सड़क पर तेजी से चल रहे थे.

विश्वंभर प्रसाद ने जो वचन दिया था, उसे निभाया. उजड़ चुके घर को फिर से संभाल कर सजाया. आराधना को फूल की तरह खिलने दिया. पौधे को खाद, पानी और हवा मिलती रहे, उस का सही पालनपोषण होता है. आराधना बड़ी होती गई. समझदार हो गई तो एक दिन विश्वंभर प्रसाद ने उसे सामने बैठा कर कहा, ‘‘बेटा, मैं तुम्हारा दादा हूं, पर उस के पहले मित्र हूं. इसलिए मैं तुम से कुछ भी नहीं छिपाऊंगा. हम सभी के जीवन में क्याक्या घटा है, यह जानने का तुम्हें पूरा हक है.’’

आराधना दादाजी के सीने से लग कर बोली, ‘‘दादाजी, यू आर ग्रेट. आप न होते तो हमारा न जाने क्या होता.’’

मां- भाग 2: आखिर मां तो मां ही होती है

‘‘इस में रह लोगे…पढ़ाई हो जाएगी?’’ मीना ने आश्चर्य से पूछा था.

‘‘हां, क्यों नहीं, लाइट तो होगी न…’’

वह लड़का अब अंदर आ गया था. गैराज देख कर वह उत्साहित था. कहने लगा, ‘‘यह मेज और कुरसी तो मेरे काम आ जाएगी और ये तख्त भी….’’

मीना समझ नहीं पा रही थी कि क्या कहे. लड़के ने जेब से कुछ नोट निकाले और कहने लगा, ‘‘आंटी, यह 500 रुपए तो आप रख लीजिए. मैं 800 रुपए से ज्यादा किराया आप को नहीं दे पाऊंगा. बाकी 300 रुपए मैं एकदो दिन में दे दूंगा. अब सामान ले आऊं?’’

500 रुपए हाथ में ले कर मीना अचंभित थी. चलो, एक किराएदार और सही. बाद में इस हिस्से को भी ठीक करा देगी तो इस का भी अच्छा किराया मिल जाएगा.

घंटे भर बाद ही वह एक रिकशे पर अपना सामान ले आया था. मीना ने देखा एक टिन का बक्सा, एक बड़ा सा पुराना बैग और एक पुरानी चादर की गठरी में कुछ सामान बंधा हुआ दिख रहा था.

‘‘ठीक है, सामान रख दो. अभी नौकरानी आती होगी तो मैं सफाई करवा दूंगी.’’

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‘‘आंटी, झाड़ू दे दीजिए. मैं खुद ही साफ कर लूंगा.’’

खैर, नौकरानी के आने के बाद थोड़ा फालतू सामान मीना ने बाहर निकलवा लिया और ढंग की मेजकुरसी उसे पढ़ाई के लिए दे दी. राघव ने भी अपना सामान जमा लिया था.

शाम को जब मीना ने दीपक से जिक्र किया तो उन्होंने हंस कर कहा था, ‘‘देखो, अधिक लालच मत करना. वैसे यह तुम्हारा क्षेत्र है तो मैं कुछ नहीं बोलूंगा.’’ मीना को यह लड़का निखिल और सुबोध से काफी अलग लगा था. रहता भी दोनों से अलगथलग ही था जबकि तीनों एक ही क्लास में पढ़ते थे.

उस दिन शाम को बिजली चली गई तो मीना बाहर बरामदे में आ गई थी. निखिल और सुबोध बैडमिंटन खेल रहे थे. अंधेरे की वजह से राघव भी बाहर आ गया था पर दोनों ने उसे अनदेखा कर दिया. वह दूर कोने में चुपचाप खड़ा था. फिर मीना ने ही आवाज दे कर उसे पास बुलाया.

‘‘तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है? मन तो लग गया न?’’

‘‘मन तो आंटी लगाना ही है. मां ने इतनी जिद कर के पढ़ने भेजा है, खर्चा किया है…’’

‘‘अच्छा, और कौनकौन हैं घर में?’’

‘‘बस, मां ही हैं. पिताजी तो बचपन में ही नहीं रहे. मां ने ही सिलाईबुनाई कर के पढ़ाया. मैं तो चाह रहा था कि वहीं आगे की पढ़ाई कर लूं पर मां को पता नहीं किस ने इस शहर की आईआईटी क्लास की जानकारी दे दी थी और कह दिया कि तुम्हारा बेटा पढ़ने में होशियार है, उसे भेज दो. बस, मां को जिद सवार हो गई,’’ मां की याद में उस का स्वर भर्रा गया था.

‘‘अच्छा, चलो, अब मां का सपना पूरा करो,’’ मीना के मुंह से भी निकल ही गया था. सुबोध और निखिल भी थोड़े अचंभित थे कि वह राघव से क्या बात कर रही है.

एक दिन नौकरानी ने आ कर कहा, ‘‘दीदी, देखो न गैराज से धुआं सा निकल रहा है.’’

‘‘धुआं…’’ मीना घबरा गई और रसोई में गैस बंद कर के वह बाहर आई. हां, धुआं तो है पर राघव क्या अंदर नहीं है.

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मीना ने जा कर देखा तो वह एक स्टोव पर कुछ बना रहा था. कैरोसिन का बत्ती वाला स्टोव धुआं कर रहा था.

‘‘यह क्या कर रहे हो?’’

चौंक कर मीना को देखते हुए राघव बोला, ‘‘आंटी, खाना बना रहा हूं.’’

‘‘यहां तो सभी बच्चे टिफिन मंगाते हैं. तुम खाना बना रहे हो तो फिर पढ़ाई कब करोगे.’’

‘‘आंटी, अभी मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं. टिफिन महंगा पड़ता है तो सोचा कि एक समय खाना बना लूंगा. शाम को भी वही खा लूंगा. यह स्टोव भी अभी ले कर आया हूं,’’ राघव धीमे स्वर में बोला.

राघव की यह मजबूरी मीना को झकझोर गई. ‘‘देखो, तुम्हारी मां जब रुपए भेज दे तब किराया दे देना. अभी ये रुपए रखो और कल से टिफिन सिस्टम शुरू कर दो. समझे…’’

Serial Story: उल्टी पड़ी चाल- भाग 5

लेखक- एडवोकेट अमजद बेग

मैं ने तेज लहजे में कहा, ‘‘मैं हकीकत बयान कर रहा हूं काजी साहब. आप जिस मकान में रह रहे हैं, उस का असली मालिक कबीर वारसी है, जो बदकिसमती से आप जैसे धोखेबाज आदमी का रिश्ते में साला है. कबीर वारसी ने यह मकान अपनी बहन मकतूला रशीदा को रहने के लिए दिया था. फिर अचानक कबीर वारसी की मौत हो गई. क्या मैं गलत कह रहा हूं?’’

काजी के गुब्बारे की पूरी हवा निकल चुकी थी. मेरे सच ने उसे हिला कर रख दिया था. यह सब जानकारी मुझे अली मुराद की मेहनत से मिली थी. काजी की बदलती हुई हालत जज और सारे लोगों से छिपी नहीं रह सकी. उस ने संभलने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘कबीर वारसी, ने अपनी मौत से पहले मकान अपनी बहन यानी मेरी बीवी रशीदा के नाम कर दिया था.’’

‘‘और आप की कोशिश यह थी कि रशीदा अपनी मौत से पहले यह मकान आप के नाम कर दे. जब आप की बीवी ने आप की बात नहीं मानी, आप की सारी कोशिशें बेकार गई तो आप ने क्लाइंट को कुर्बानी का बकरा बना कर बीवी का पत्ता साफ कर दिया?’’

‘‘औब्जेक्शन योर औनर. वकील साहब मेरे क्लाइंट पर संगीन इलजाम लगा रहे हैं जो गलत है.’’

जज जो बहुत ही ध्यान से जिरह सुन रहा था, चौक उठा और मुझ से बोला, ‘‘बेग साहब, आप इस्तेगासा के ऐतराज पर क्या कहेंगे?’’

‘‘जनाबे आली, मैं आप को यकीन दिलाता हूं जो संगीन इलजाम मैं ने काजी वहीद पर लगाया है, मैं उसे अदालत में साबित कर के दिखाऊंगा.’’

जज ने ठहरे हुए लहजे में कहा, ‘‘जिरह जारी रखी जाए.’’

‘‘योर औनर, मैं इस केस के जांच अधिकारी से कुछ सवाल पूछना चाहता हूं.’’ जांच औफिसर को विटनेस बौक्स में बुलाया गया. मैं ने पूछा, ‘‘आईओ साहब, आप ने रिपोर्ट तो बहुत ऐहतियात से तैयार की होगी. मैं कुछ सवाल पूछूंगा, उस का जवाब आप हां या ना में देंगे. मकतूला रशीदा की मौत 15 अक्तूबर की रात 7 से 9 बजे के बीच हुई थी?’’

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‘‘जी हां.’’ आईओ ने जवाब दिया तो मैं ने पूछा, ‘‘उसे गला घोंट कर मारा गया था?’’

‘‘यस.’’

‘‘मकतूला की गरदन पर कातिल की उंगलियों के निशान नहीं मिले, जिस से यह सोचा गया कि कत्ल के वक्त कातिल ने दस्ताने पहन रखे थे?’’

‘‘यस.’’ आईओ का जवाब आया.

‘‘मकतूला की लाश की डाक्टरी जांच से पता चला कि जिस आदमी ने रशीदा का गला घोंटा था, उस ने अपने दाएं हाथ की 2 अंगुलियों में (रिंग फिंगर और मिडिल फिंगर में) हैवी अंगूठियां पहन रखी थीं. अंगुलियों के दबाव के साथ अंगूठियों के दबाव से बनने वाले निशानात मकतूला की गर्दन पर पाए गए थे?’’

‘‘जी हां.’’ आईओ ने कहा.

अंगूठियों के जिक्र पर काजी वहीद ने बेसाख्ता अपने हाथों की तरफ देखा. उस की यह हरकत मुझ से छिपी नहीं रह सकी. मैं ने जांच अधिकारी की आंखों में देखते हुए कहा, ‘‘आईओ साहब, कत्ल की रात लगभग 11 बजे जब आप ने मुल्जिम फुरकान को उस की ससुराल से गिरफ्तार किया तो क्या उस के दाएं हाथ की रिंग फिंगर और मिडिल फिंगर में आप को अंगूठियां नजर आई थीं.’’

‘‘नो.’’ आईओ ने झटके से कहा.

मैं ने एकदम काजी वहीद की तरफ मुंह कर के कहा, ‘‘काजी वहीद, तुम्हारी अंगूठियां कहां हैं?’’

‘‘म…म… मेरी अंगूठियां… मैं ने तो अंगूठियां नहीं पहनी थीं… आप किन अंगूठियों की बात कर रहे हैं?’’

‘‘वह अंगूठियां जो पोस्टमार्टम की रिपोर्ट से पहले तुम्हारे दाएं हाथ की 2 अंगुलियों में मौजूद थीं और उस वक्त भी मौजूद थी, जब तुम ने अपने हाथों पर दस्ताने चढ़ा कर अपनी बीवी का गला घोंट कर उसे मौत के घाट उतारा था, जिन के निशान तुम्हारी अंगुलियों पर अभी भी मौजूद हैं.’’

काजी बौखला कर बोला, ‘‘आप झूठ बोल रहे हैं, बकवास कर रहे हैं.’’

‘‘काजी, मैं तुम्हारे जानने वालों में से 10 ऐसे लोगों को गवाही के लिए अदालत में ला सकता हूं जिन्होंने हादसे से पहले कई सालों से तुम्हारी अंगुलियों में चांदी की 2 हैवी अंगूठियां देखी हैं. जिन में से एक अंगूठी में 15 कैरेट का फिरोजा और दूसरी में यमन का अकीक जड़ा हुआ था.’’ मैं ने ड्रामाई अंदाज में अपनी बात खत्म की. और इसी के साथ काजी के हौसले के ताबूत में आखिरी कील ठोंक दी. ‘‘इन बैठे हुए गवाहों में ही 8-10 लोग अंगूठियों की गवाही देने को मिल जाएंगे.’’

इधर मेरी बात खत्म हुई, उधर काजी ने दोनों हाथों से सिर थाम लिया. यह मेरे इस हमले का नतीजा था जो मैं ने अंगूठियों के गवाहों के लिए कहा था. अगले ही पल वह धड़ाम से कटघरे के फर्श पर ढेर हो गया.

पिछली पेशी पर मेरे कड़े सवालात के नतीजे में काजी वहीद के गिरने ने उस का जुर्म साबित कर दिया. अदालत के हुक्म पर जब उसे पुलिस के हवाले किया गया तो उस ने इकबाले जुर्म कर लिया.

काजी की बीवी रशीदा बहुत अच्छी औरत थी. वह फुरकान को बेटा ही समझती थी. जब काजी ने फुरकान के साथ एक लाख का फ्रौड किया तो वह सख्त गुस्सा हुई. उस ने काजी को धमकी दी थी कि अगर उस ने फुरकान की रकम वापस नहीं की तो वह उस के खिलाफ फुरकान के हक में गवाह बन जाएगी.

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काजी पहले से ही अपनी बीवी की बीमारी से बहुत तंग था और उसे ठिकाने लगाने की तरकीबे सोच रहा था. ताकि मकान पर उस का अकेले कब्जा हो जाए. रशीदा काजी की नीयत को समझ गई थी. वह अपनी जिंदगी  में किसी भी कीमत पर मकान काजी के नाम करने को राजी नहीं हुई तो काजी ने फुरकान को फंसा कर एक तीर से 2 शिकार करने का मंसूबा बना डाला.

काजी ने 15 अक्तूबर की शाम फुरकान को अपने घर बुलाया ताकि हादसे के दिन उस का वहां आना पक्का हो जाए. वह फुरकान के आने से पहले ही अपनी बीवी को गला घोंट कर मार चुका था और खुद घर के अंदर छिपा बैठा था. उस ने घर को अंदर से लौक कर दिया था ताकि फुरकान यह समझे कि घर के अंदर कोई नहीं है और वह मायूस हो कर वापस लौट जाए.

यह बताने की जरूरत नहीं है कि काजी के इकरारे जुर्म के बाद अदालत ने मेरे क्लाइंट फुरकान को बाइज्जत बरी कर दिया. साथ ही उसे एक लाख देने का भी हुक्म दिया. काजी वहीद ने एक टेढ़ी चाल चली थी, पर वह बुरे अंजाम से बच नहीं सका.

प्रस्तुति : शकीला एस. हुसैन    

Mother’s Day Special: मां का फैसला- भाग 3

मैं ने उसे आश्वस्त किया कि कुछ लड़के अपना प्रभाव जमाने के लिए बेबाक हरकत करते हैं. फिर शादी वगैरह में तो दूल्हे के मित्र और दुलहन की सहेलियों की नोकझोंक चलती ही रहती है. परंतु 2 दिनों बाद ही प्रभाकर हमारे घर आ गया. उस ने मुझ से भी बातें कीं और बिट्टी से भी. मैं ने लक्ष्य किया कि बिट्टी उस से कम समय में ही खुल गई है.

फिर तो प्रभाकर अकसर ही मेरे सामने ही आता और मुझ से तथा बिट्टी से बतिया कर चला जाता. बिट्टी के कालेज के और मित्र भी आते थे. इस कारण प्रभाकर का आना भी मुझे बुरा नहीं लगा. जिस दिन बिट्टी उस के साथ शीतल पेय या कौफी पी कर आती, मुझे बता देती. एकाध बार वह अपने भाई को ले कर भी आया था. इस दौरान शायद बिट्टी सुरेश को कुछ भूल सी गई. सुरेश भी पढ़ाई में व्यस्त था. फिर प्रभाकर की भी परीक्षा आ गई और वह भी व्यस्त हो गया. बिट्टी अपनी पढ़ाई में लगी थी.

धीरेधीरे 2 वर्ष बीत गए. बिट्टी बीएड करने लगी. उस के विवाह का जिक्र मैं पति से कई बार चुकी थी. बिट्टी को भी मैं बता चुकी थी कि यदि उसे कोई लड़का पति के रूप में पसंद हो तो बता दे. फिर तो एक सप्ताह पूर्व की वह घटना घट गई, जब बिट्टी ने स्वीकारा कि उसे प्रेम है, पर किस से, वह निर्णय वह नहीं ले पा रही है.

सुरेश के परिवार से मैं खूब परिचित थी. प्रभाकर के पिता से भी मिलना जरूरी लगा. पति को जाने का अवसर जाने कब मिलता, इस कारण प्रभाकर को बताए बगैर मैं उस के पिता से मिलने चल दी.

बेहतर आधुनिक सुविधाओं से युक्त उन का मकान न छोटा था, न बहुत बड़ा. प्रभाकर के पिता का अच्छाखासा व्यापार था. पत्नी को गुजरे 5 वर्ष हो चुके थे. बेटी कोई थी नहीं, बेटों से उन्हें बहुत लगाव था. इसी कारण प्रभाकर को भी विश्वास था कि उस की पसंद को पिता कभी नापसंद नहीं करेंगे और हुआ भी वही. वे बोले, ‘मैं बिट्टी से मिल चुका हूं, प्यारी बच्ची है.’ इधरउधर की बातों के बीच ही उन्होंने संकेत में मुझे बता दिया कि प्रभाकर की पसंद से उन्हें इनकार नहीं है और प्रत्यक्षरूप से मैं ने भी जता दिया कि मैं बिट्टी की मां हूं और किस प्रयोजन से उन के पास आई हूं.

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‘‘कहां खोई हो, मां?’’ कमरे से बाहर निकलते हुए बिट्टी बोली. मैं चौंक पड़ी. रजनीगंधा की डालियों को पकड़े कब से मैं भावशून्य खड़ी थी. अतीत चलचित्र सा घूमता चला गया. कहानी पूरी नहीं हो पाई थी, अंत बाकी था.

जब घर में प्रभाकर और सुरेश ने एकसाथ प्रवेश किया तो यों प्रतीत हुआ, मानो दोनों एक ही डाली के फूल हों. दोनों ही सुंदर और होनहार थे और बिट्टी को चाहने वाले. प्रभाकर ने तो बिट्टी से विवाह की इच्छा भी प्रकट कर दी थी, परंतु सुरेश अंतर्मुखी व्यक्तित्व का होने के कारण उचित मौके की तलाश में था.

सुरेश ने झुक कर मेरे पांव छुए और बिट्टी को एक गुलाब का फूल पकड़ा कर उस का गाल थपथपा दिया. ‘‘आते समय बगीचे पर नजर पड़ गई, तोड़ लाया.’’

प्रभाकर ने मुझे नमस्ते किया और पूरे घर में नाचते हुए रसोई में प्रवेश कर गया. उस ने दोचार चीजें चखीं और फिर बिट्टी के पास आ कर बैठ गया. मैं भोजन की अंतिम तैयारी में लग गई और बिट्टी ने संगीत की एक मीठी धुन लगा दी. प्रभाकर के पांव बैठेबैठे ही थिरकने लगे. सुरेश बैठक में आते ही रैक के पास जा कर खड़ा हो गया और झुक कर पुस्तकों को देखने लगा. वह जब भी हमारे घर आता, किसी पत्रिका या पुस्तक को देखते ही उसे उठा लेता. वह संकोची स्वभाव का था, भूखा रह जाता. मगर कभी उस ने मुझ से कुछ मांग कर नहीं खाया था.

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मैं सोचने लगी, क्या सुरेश के साथ मेरी बेटी खुश रह सकेगी? वह भारतीय प्रशासनिक सेवा की प्रारंभिक परीक्षा में उत्तीर्ण हो चुका है. संभवतया साक्षात्कार भी उत्तीर्ण कर लेगा, लेकिन प्रशासनिक अधिकारी बनने की गरिमा से युक्त सुरेश बिट्टी को कितना समय दे पाएगा? उस का ध्येय भी मेरे पति की तरह दिनरात अपनी उन्नति और भविष्य को सुखमय बनाने का है जबकि प्रभाकर का भविष्य बिलकुल स्पष्ट है. सुरेश की गंभीरता बिट्टी की चंचलता के साथ कहीं फिट नहीं बैठती. बिट्टी की बातबात में हंसनेचहकने की आदत है. यह बात कल को अगर सुरेश के व्यक्तित्व या गरिमा में खटकने लगी तो? प्रभाकर एक हंसमुख और मस्त युवक है. बिट्टी के लिए सिर्फ शब्दों से ही नहीं वह भाव से भी प्रेम दर्शाने वाला पति साबित होगा. बिट्टी की आंखों में प्रभाकर के लिए जो चमक है, वही उस का प्यार है. यदि उसे सुरेश से प्यार होता तो वह प्रभाकर की तरफ कभी नहीं झुकती, यह आकर्षण नहीं प्रेम है. सुरेश सिर्फ उस का अच्छा मित्र है, प्रेमी नहीं. खाने की मेज पर बैठने के पहले मैं ने फैसला कर लिया था.

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