मिन्नी के पापा: क्या थी मिन्नी की कहानी ?

‘‘मेरे पापा कहां हैं मां?’’ अचानक यह सवाल सुन कर शांति हैरान रह गई, तभी मिन्नी ने फिर अपना सवाल दोहरा दिया, ‘‘मेरे पापा कहां हैं?’’

घबराई शांति ने बेटी को गोद में उठा कर चूम लिया, ‘‘तुम्हारे पापा विदेश गए हैं,’’ कहते हुए शांति का गला भर आया, आंखें भीग गईं.

‘‘विदेश क्या होता है मां?’’ मिन्नी ने छोटा सा सवाल कर दिया, तो शांति के दिल की धड़कनें तेज हो गईं. उस ने मिन्नी को कस कर भींच लिया और भारी मन से जवाब दिया, ‘‘विदेश मतलब बहुत दूर. वहां से तुम्हारे पापा तुम्हारे लिए ढेर सारे अच्छेअच्छे खिलौने लाएंगे.’’

‘‘और फ्रौक भी?’’

‘‘हां बेटी, हां… सबकुछ. अब सो जाओ,’’ शांति की आंखें छलछला आईं. ‘‘अब बताऊंगी सीमा और चुन्नू को. कहते थे कि तुम्हारे पापा तुम को छोड़ कर भाग गए हैं,’’ मिन्नी हंसते हुए बोली. शांति चौंक उठी, ‘‘क्या कहा… मिन्नी, वे सब गंदे बच्चे हैं. उन के साथ मत खेला करो. तुम्हारे पापा अब इस दुनिया में नहीं हैं. नहींनहीं… मेरा मतलब है…’’ वह हड़बड़ा गई. मिन्नी कुछ न समझ सकी. बेटी ने दिल के जख्म कुरेद दिए थे. शांति उस को गोदी में चिपकाए देर रात तक रोती रही. जब से सुरजन गुम हुआ था, शांति पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा था. एक बेसहारा जिंदगी, वह भी एक औरत की. गुजरबसर करने के लिए उसे कई घरों में काम करना पड़ता. पड़ोस के बच्चे अच्छेअच्छे कपड़ों में स्कूल जाते, तो मिन्नी भी जिद करती. मां की मजबूरियों से बेखबर वह कहती, ‘‘तुम बहुत कंजूस हो मां, मुझे भी मीरा की तरह कपड़े ला दो, मैं भी जाऊंगी स्कूल.’’ ‘‘हां, ला देंगे बेटी,’’ कह कर शांति अपनी बेबसी पर आंसू बहा देती.

मिन्नी न जाने कितने सवाल करती, पर शांति कोई झूठा सा बहाना बना कर टाल देती. अब उस का बरताव भी कुछ चिढ़चिढ़ा सा होता जा रहा था. वह कभीकभी मिन्नी की पिटाई भी कर देती. पछतावा भी होता, रो भी लेती. वह जिंदगी से ऊब चुकी थी, लेकिन फिर भी जीना था मिन्नी की खातिर.

समय गुजरता गया. मिन्नी 5 साल की हो गई. सुरजन को गए हुए भी 5 साल हो गए थे. ‘आज शादी की सालगिरह है,’ सोच कर शांति उदास हो गई. आज के दिन ही तो शांति की जिंदगी में वह हादसा हुआ था, एक भयानक हादसा. लेकिन उस का कुसूर भी तो कुछ नहीं था. शांति का पति सुरजन बहुत ज्यादा शराब पीता था. उस ने समझाया था कि शराब बुरी चीज है, इस ने लाखों घर बरबाद कर दिए हैं. इसे छोड़ सको तो छोड़ दो. यही तो वह कहती थी, कभी दबाव तो नहीं डाला. उस दिन भी जब सुरजन आया, तो नशे में चूर था. शांति ने पूछा, ‘‘साड़ी नहीं लाए क्या? भूल गए, आज हमारी शादी की सालगिरह है.’’ तब सुरजन ने बेहयाई से हंसते हुए बोतल सामने रख दी, ‘‘ले, आज मेरे साथ तू भी पी… अंगरेजी शराब है.’’

तब शांति को बहुत गुस्सा आया था. लेकिन उस ने इतना ही कहा, ‘‘आप थोड़ी सी पी लीजिए, पर मुझे मजबूर मत कीजिए. मुझे इस जहर से सख्त नफरत है.’’ अगर बात यहीं खत्म हो जाती, तो गनीमत थी. सुरजन ने बोतल मुंह से लगा ली और गटागटा पीते हुए आधी से ज्यादा खाली कर दी. फिर लड़खड़ाते हुए शांति का हाथ पकड़ कर वह बोला, ‘‘रानी, जब तक दारू जिंदा है, तुम्हारा आदमी मरने वाला नहीं. अरे, यह दारू नहीं अमृत है, अमृत. तुम बेकार के ढकोसले में पड़ी हो. लो, थोड़ी पी कर देखो.’’ फिर सुरजन ने जबरदस्ती शांति को पिलानी चाही. वह इनकार करती रही. तब उस ने जबरदस्ती बोतल उस के मुंह से लगा दी, तो वह तिलमिला उठी. उसे भी गुस्सा आ गया. बोतल छीन कर फेंकी तो वह जमीन पर गिर कर कई टुकड़ों में बिखर गई… और इसी के साथ उस की दुनिया भी बिखर गई.

सुरजन ने शांति को पीटना शुरू कर दिया. इतना पीटा कि वह बेहोश हो गई. होश में आने पर पता चला कि सुरजन कहीं चला गया है. उस समय मिन्नी पेट में थी. वह रोतीचिल्लाती इधरउधर भागी. पति को बहुत खोजा. महल्ले वाले भी दौड़े, लेकिन उस का कोई पता नहीं चला. वह जो गया तो चला ही गया. शाम होने वाली थी. अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई. शांति ने धीरे से पूछा, ‘‘कौन है?’’ और उठ कर दरवाजे की ओर चल पड़ी. मिन्नी आंगन में खेल रही थी.शांति ने धीरे से दरवाजा खोला. सामने देखा तो मानो जमीन पैरों के नीचे से खिसक गई. बदन थरथर कांपने लगा. अचानक ही मुंह से चीख निकल पड़ी, ‘‘मिन्नी, तेरे पापा आए…’’ और वह बेहोश हो कर धड़ाम से गिर गई. शायद इतनी बड़ी खुशी को उस का कमजोर शरीर बरदाश्त न कर सका.

सुरजन सामने सिर झुकाए खड़ा था. मिन्नी हक्कीबक्की सी दौड़ी आई. वह कभी सुरजन की ओर देखती, तो कभी जमीन पर पड़ी मां की ओर. तभी मिन्नी रोने लगी. महल्ले के कुछ लोग आ गए. शांति के मुंह पर पानी के छींटे मारे तो होश आया. फिर भी संभलने में उसे काफी समय लगा. वहां लोगों की भीड़ जमा हो गई. तरहतरह के सवालजवाब होते रहे.रात काफी हो चली थी. हालचाल पूछने वाले लोग जा चुके थे. अब घर में 3 जने थे, शांति, सुरजन और मिन्नी. सभी चुप थे, जैसे उन के पास अब बोलने को कुछ रहा ही नहीं. फिर शांति ने भरे गले से पूछा, ‘‘ठीक तो हो?’’ ‘‘हां,’’ सुरजन ने उदासी भरी आवाज में कहा.

‘‘आज हमारी याद…’’ शांति से पूरा वाक्य न बोला गया, गला भर आया. सुरजन ने घोर शर्म और अफसोस भरी आवाज में कहा, ‘‘पहले मुझे माफ कर दो. वैसे, मैं माफी मांगने के लायक नहीं, फिर भी… अगर हो सके…’’‘‘नहींनहीं, ऐसा मत कहो. बस यही बता दो कि कहां रहे? कैसे रहे? किसी परेशानी में तो नहीं थे?’’सुरजन कुछ देर खामोश रहा. छत की तरफ देखा, जैसे वह कुछ पढ़ रहा हो. फिर धीरेधीरे वह बताने लगा, ‘‘मैं उसी दिन रात की गाड़ी से कोलकाता चला गया. वहां मेरा एक दोस्त रहता था. उसी की मोटर वर्कशौप में काम करने लगा. वहां जल्दी ही मुझे एक दूसरा साथी मिल गया. उस का नाम था दिलीप. बिलकुल अकेला, नंबर एक का पियक्कड़. फिर क्या था. हर शाम को महफिल जमती. कभी मेरे कमरे पर, तो कभी दिलीप के घर पर. ‘‘वह टैक्सी ड्राइवर था. हम दोनों इतना घुलमिल गए कि एकदूसरे के बगैर चैन न पड़ता. मैं अपनेआप को आजाद परिंदा समझता, जिसे न किसी चीज की कमी थी, न कोई परवाह. ‘‘इसी झूठी मौजमस्ती और शराबखोरी के अंधेरे कुएं में जिंदगी के 5 कीमती साल कब डूब गए, पता नहीं चला. शायद यह अंधेरा कभी खत्म न होता, अगर दिलीप गुवाहाटी न चला गया होता.’’ सुरजन कुछ देर के लिए चुप रहा, फिर आगे बोला, ‘‘दिलीप के जाने से मुझे बहुत अकेलापन महसूस होने लगा. फिर भी कोई परेशानी नहीं हुई, शराब जो मेरे साथ थी.

‘‘तकरीबन 2 महीने बाद मुझे मालूम हुआ कि दिलीप आ गया है. मैं तुरंत काम से छुट्टी ले कर अपने दोस्त से मिलने चल दिया. रास्ते में मैं ने एक बोतल खरीद ली. सोचा, काफी दिनों बाद मेरा दोस्त आया?है, आज जम कर पिएंगे. ‘‘दरवाजे पर दस्तक दी. दरवाजा खुला तो दिलीप सामने खड़ा था. हाथ मिलाते हुए वह बोला, ‘तुम आ गए, अच्छा ही हुआ. मैं खुद आने वाला था. एक मिनट रुको, मैं अभी आया.’ ‘‘वह अंदर चला गया. थोड़ी देर बाद मुझे आवाज दी. मैं भीतर गया तो देखा कि बैठक वाला कमरा बहुत करीने से और खूबसूरत ढंग से सजा हुआ?है. मैं कुछ सोच ही रहा था कि दिलीप ने हाथ पकड़ कर बैठाते हुए कहा, ‘बोलो, चाय चलेगी या शरबत?’ ‘‘मुझे उस की यह बात बड़ी अजीब सी लगी. मैं ने खीज कर कहा, ‘आज तुझे क्या हो गया है दिलीप? इतने दिनों बाद मिला है और पूछता है, चाय चलेगी या शरबत. अरे देख, तेरे वास्ते मैं खुद ले कर आया हूं. फटाफट 2 गिलास ले आ.’ ‘‘दिलीप ने मुंह फेरते हुए कहा, ‘इसे थैले में रख लो. मैं ने पीना छोड़ दिया है?’

‘‘मैं हैरान रह गया. कानों पर भरोसा नहीं हुआ. सोचा, कहीं दिलीप मजाक तो नहीं कर रहा. तभी उस ने आवाज दी, ‘सलमा, एक प्लेट में मीठा दे जाओ.’ ‘‘मैं चौंक उठा और पूछा, ‘यह सलमा कौन है?’ ‘‘दिलीप हंस दिया. वह जवाब देता, इस से पहले एक 5-6 साल की लड़की फुदकती हुई आई और दिलीप की गरदन में झूल गई. दिलीप ने उसे गोदी में उठा कर चूम लिया और बोला, ‘पिंकी, तुम ने चाचाजी को नमस्ते नहीं की… चलो, नमस्ते करो.’ ‘‘बच्ची ने दोनों हाथ जोड़ दिए. मैं ने नमस्ते का जवाब तो दे दिया, लेकिन मन और भी उलझ गया.

‘‘दिलीप ने खुशी जाहिर करते हुए कहा, ‘सुरजन, मैं ने शादी कर ली है. सलमा मेरी बीवी का नाम है. और यह है मेरी बेटी पिंकी?’ ‘‘तभी सलमा एक ट्रे में कुछ मीठा ले कर आ गई. 30-32 साल की उम्र, सांवला, छरहरा बदन, काफी सुंदर लग रही थी. दिलीप ने कहा, ‘सलमा, यह है मेरा जिगरी दोस्ती सुरजन.’‘‘सलमा ने नमस्ते की और अंदर चली गई. मैं ने दिलीप को शादी की बधाई दी. लेकिन बहुत से सवाल अब भी दिमाग में थे. आखिर पूछ ही लिया, ‘कहां से की शादी… यह सब चक्कर क्या है?’

‘‘दिलीप बोला, ‘अरे, मैं तो कब से एक जीवनसाथी की तलाश में था. अकेले आदमी की भी कोई जिंदगी होती है. जब मैं गुवाहाटी गया, वहीं सलमा से मुलाकात हो गई. बेचारी गरीब विधवा थी. इसे भी कोई सहारा चाहिए था और मुझे भी. फिर क्या था, हम दोनों ने शादी कर ली. ‘‘सलमा को भी सहारा मिल गया और मुझे पत्नी मिल गई. साथ ही, एक खिलौना भी मिला.’ ‘‘यह कह कर उस ने पिंकी के गालों को चूम लिया, ‘देखो, अब मैं कितना खुश हूं. मेरी जिंदगी में, इस सूने घर में जैसे बहार आ गई?है.’ ‘‘दिलीप ने मस्ती में भर कर कुछ ऐसे अंदाज में कहा कि मैं अंदर तक कांप गया. फिर भी बनावटी हंसी हंसते हुए कहा, ‘‘तब तो अब तुम से ही पिऊंगा… बड़े छुपे रुस्तम निकले, गुरु.’ ‘‘वह बोला, ‘नहीं, मैं ने शराब का नाम लेना ही छोड़ दिया है. मेरी और तुम्हारी दोस्ती अब सिर्फ इसी बात पर कायम रह सकती है कि तुम कभी मेरे सामने इस जहर का नाम भी मत लेना. मैं नहीं चाहता कि यह जहरीला पानी मेरे परिवार को तबाह कर दे. मेरी पत्नी भी तो इस से बहुत नफरत करती है.’ ‘वह एक पल के लिए चुप हो गया. फिर बोला, ‘सुरजन, मैं अकेलेपन को दूर करने के लिए शराब का झूठा सहारा लेता था. यही आदमी की सब से बड़ी भूल होती है. वैसे, इतनी बड़ी दुनिया में किसी चीज की कमी नहीं है. हो सके तो तुम भी शराब से तलाक ले कर कहीं घर बसा लो…’ ‘‘मैं ने गुस्से में कहा, ‘दिलीप, तुम्हारी गृहस्थी तुम को मुबारक. मैं आजाद पंछी की तरह जिंदगी बिताने में भरोसा रखता हूं, पिंजरे में कैद रह कर नहीं. मैं जा रहा हूं. मुझे नहीं चाहिए तुम्हारे उपदेश.’ ‘‘मैं उठ कर चल दिया. पता नहीं, क्यों मेरे पैर कांप रहे थे, तभी दिलीप का कहकहा गूंजा, ‘जाते हो तो जाओ, पर एक बात याद रखना, आजाद पंछी भी परिवार बसाने के लिए तड़पता है और फड़फड़ाता रहता है.’’’ इतना कह कर सुरजन खामोश हो गया. मिन्नी हैरानी से दोनों की ओर देख रही थी. शांति बुत की तरह बैठी सुन रही थी. वह धीरे से बोली, ‘‘फिर क्या हुआ?’’

सुरजन भीगी आवाज में बोला, ‘‘फिर क्या था, मेरे दिल में हाहाकार मच गया कि दिलीप एक विधवा औरत से शादी कर के, दूसरे की बच्ची को पालते हुए कितना खुश है. उस ने परिवार बसा कर शराब छोड़ दी. लेकिन, मैं ने शराब के लिए परिवार छोड़ दिया था. अपनी सुंदर पत्नी को छोड़ दिया. मुझे अपनी इस बच्ची के लिए भी मोह नहीं जागा, जिस का मुंह भी नहीं देखा था. ‘‘मैं नफरत और अपमान की आग में जलने लगा. बारबार खुद को धिक्कारा, ‘सुरजन, तू ने अपनी पत्नी को कहां बेसहारा बना कर छोड़ दिया? तू जालिम है, बहुत बड़ा मुजरिम है तू,’ ‘‘लेकिन, मुझे कोई रास्ता नहीं दिखाई दे रहा था…’’ कहतेकहते सुरजन की आंखों से आंसू बह चले.

वह कुछ रुक कर आगे बोला, ‘‘मैं ने बोतल निकाल कर गंदे नाले में फेंक दी. मुझे घर की याद ने आ घेरा. सोचने लगा कि पता नहीं, तुम कहां होगी? किस हाल में होगी? हालात ने तुम्हें क्या बना दिया होगा? इन्हीं खयालों ने मन को बेचैन कर दिया.’’ अब शांति भी रो पड़ी. कुछ देर बाद आंसू पोंछते हुए वह बोली, ‘‘फिर क्या हुआ?’’

‘‘मैं सीधे अपने कमरे में चला गया. जल्दीजल्दी थोड़ाबहुत सामान बांधा और स्टेशन पर जा पहुंचा. मालिक के पास रुपए बाकी थे, वह भी लेने नहीं गया. मन करता था, कोई मुझे उड़ा कर पलभर में मेरे घर पहुंचा दे. ‘‘रात 11 बजे गाड़ी आई. एकएक पल मुझे सालों जैसा मालूम हो रहा था. रातभर के सफर के बाद गाड़ी यहां पहुंचने वाली थी. सुबह हो गई थी. रेल की पटरियों के किनारे टैलीफोन के खंभों पर बैठे परिंदे कुनकुनी धूप का मजा ले रहे थे. कुछ आसमान में उड़ रहे थे. परिदों का एक जोड़ा अपने नन्हे बच्चे को उड़ना सिखा रहा था. देख कर मन भर आया. तभी स्टेशन आ गया और धीरेधीरे गाड़ी रुक गई…’’

सुरजन चुप हो गया था. उस ने मिन्नी को अपनी गोद में खींच लिया.

मिन्नी धीरे से बोली, ‘‘पापा, अब कहीं मत जाना.’’

सुरजन ने मिन्नी का मुंह चूम लिया, ‘‘अब भला मैं अपनी रानी बेटी को छोड़ कर कहां जाऊंगा. एक टैक्सी खरीदूंगा, खूब पैसा कमाऊंगा, खूब अच्छीअच्छी चीजें लाया करूंगा तुम्हारे लिए. फिर तुम को और तुम्हारी मां को टैक्सी में बैठा कर सारा शहर घुमाया करूंगा.’’

‘‘और नानी के घर भी चलेंगे,’’ मिन्नी ने चहकते हुए कहा.

‘‘हां, सुनो शांति, झोले में मिठाई है. तुम भी खा लो और हमारी बेटी को भी दे दो.’’

शांति उठते हुए बोली, ‘‘आज हमारी शादी की सालगिरह है… सब तैयार हो जाओ, बाजार घूमने चलेंगे.’’ ‘‘हांहां, क्यों नहीं, चलो मिन्नी बेटी, फौरन तैयार हो जाओ. आज हम तुम्हें बहुत से खिलौने ले कर देंगे. फिर तुम्हारी मां को एक नई साड़ी और…’’ सुरजन खुश हो कर बोला. ‘‘बसबस, बहुत हो गया, आज के लिए इतनी खरीदारी ही काफी?है… ज्यादा खुशी हजम करना मुश्किल हो जाएगा,’’ शांति ने हंसते हुए कहा और कपड़े बदलने के लिए भीतर चली गई.

अपनी मरजी: उन बच्चों को किसने सहारा दिया?

मैंने जैसे ही जनाजे को कंधा दिया, बदन में कंपकंपी सी दौड़ गई. दिल बिलख उठा. लाश के आखिरी दीदार के लिए आई औरतें एकबारगी रोनेसिसकने लगीं. पर इन सब से ज्यादा दर्द में डूबी आवाजें बच्चों की थीं. 4 छोटेबड़े बच्चे एकसाथ बिलख रहे थे.

अमीना भाभी अपने पीछे 4 बच्चे छोड़ गई थीं. 5वें को जन्म देते वक्त वे खुद बच्चे के साथ ही इस दुनिया से कूच कर गई थीं.

पिछली रात जब उसे दर्द उठा था, तो अनवर भाई ने उसे शहर के एक अच्छे अस्पताल में भरती कराया. पर डाक्टर अमीना भाभी को मौत के मुंह में जाने से नहीं बचा पाए और न ही उस के 5वें बच्चे को ही.

हंसमुख अमीना भाभी की लाश को जब मैं हमेशा के लिए विदा देने जा रहा था, तो गुजरे वक्त की यादों में डूब गया.

अनवर मेरी बूआ का एकलौता बेटा था. हम एक ही शहर में रहते थे, इसलिए अकसर एकदूसरे के यहां आनाजाना लगा रहता था. वह मुझ से

4 साल बड़ा था, इसलिए मुझ पर बड़े भाई का रोब झाड़ता रहता था. पर जब उस की शादी हुई, तब मैं ने उसे और अमीना भाभी को खूब सताया.

सुहारागत को भाभी के कमरे में अनवर के जाने से पहले मैं पहुंच गया. अमीना शर्म व हया की गठरी बनी लंबा सा घूंघट निकाले पलंग पर बैठी थी. मेरी आहट पा कर वह और सिमट गई.

मैं आहिस्ताआहिस्ता चलता पलंग तक पहुंचा और बड़ी अदा के साथ उस की कलाई पकड़ी और घूंघट उलट दिया.

मुझे सामने पा कर वह एकदम डर गई. पर मेरे पीछेपीछे आई मेरी बहनों की खिलखिलाहट ने उस के डर को दूर कर दिया. फिर वह भी मुसकराए बिना न रह सकी.

इधर जब अनवर झूमता कमरे की तरफ बढ़ रहा था, तो हम से मुठभेड़ हो गई. वह बनावटी गुस्से से आंखें तरेर कर पूछने लगा, ‘‘तुम सब मेरे कमरे में क्या कर रहे थे?’’

‘‘बात यह है… मियां…’’ मैं हकलाते हुए बोला.

‘‘क्या बात है?’’ वह बेताबी से पूछ बैठा.

‘‘तुम सब जाओ,’’ मैं बहनों को इशारा करते हुए बोला, ‘‘हां, तो बात यह है जनाब, भाभी मायके से एक अनमोल तोहफा साथ लाई?है.’’

‘‘तोहफा हो या और कुछ, वह तो मेरे लिए है. तुम्हें इस से क्या? चलो फूटो,’’ अनवर हाथ में बांधे फूलों को सूंघते हुए बोला.

‘‘पर मियां साहब, वह तो तोहफे में 4 महीने का पेट लाई है.’’

‘‘क्या?’’

‘‘हां, असरारी और फातमा ने बताया,’’ मैं बनावटी भोलेपन से बोला.

मेरे इतना कहते ही अनवर का खिला चेहरा एकबारगी मुरझा गया. पर दूर खड़ी मेरी बहनें फिर खिलखिला पड़ीं और वह मेरा कान मरोड़ता हुआ कमरे की तरफ बढ़ गया.

पर फिर शुरू हुआ बच्चों का पैदाइशी दौर. शादी का एक साल बीततेबीतते अनवर एक बच्ची का बाप बन बैठा. हम सब ने उसे पहली औलाद के लिए मुबारकबाद दी और दूसरी के लिए संभलसंभल कर कदम रखने की हिदायतें भी दीं.

पर अनवर कब मानने वाला था. पहली बेटी 2 साल की भी न होने पाई थी कि दूसरे का पैगाम आ गया. चौथे साल के आखिर में अमीना भाभी ने एक लड़के को जन्म दिया. अनवर लड़का पा कर खुशी से पागल हो गया. रिश्तेदारों को खूब खिलायापिलाया.

छठी के दिन मैं ने उसे नसीहत दी, ‘‘मियां, अब मेरी मानो तो यहीं रुक जाओ. छोटा परिवार, सुखी परिवार.’’

वह बोला, ‘‘भाई, इस में आदमी क्या कर सकता है. यह सब तो ऊपर वाले की मरजी है. वह देता है, बंदे

लेते हैं. उस की मरजी में दखल देना गुनाह है.’’

मैं चुप ही रहा. क्या करता? समझदारों को भी समझाना कभीकभी मुश्किल हो जाता है. बीए पास स्कूल के मास्टर को भला मैं क्या समझाता.

देखते ही देखते गुजरे सालों के साथ वह 4 बच्चों का बाप बन बैठा यानी 1 बेटा और 3 बेटियां.

अब तक देश में सत्ता बदल चुकी थी. हिंदूमुसलिम बहुत होने लगा था. यह कहना कि कोई चौथा बच्चा है, एक बेइज्जती लगता था. फिर भी कुछ कट्टरपंथी अपनी धार्मिक दुकानदारी बचाने के लिए बच्चों को ऊपर वाले की अमानत ही मानते रहे हैं और इस का भरपूर प्रचार करते रहे हैं.

अनवर ने जब चौथे बच्चे पर हमें दावत दी, तो हम तकरीबन बिगड़ ही पड़े थे, ‘‘क्यों दकियानूसी का लिबास ओढ़े हुए हो, अनवर? भाभी की सेहत का भी खयाल करो. बेचारी की हड्डियां नजर आने लगी है. जवानी में ही बूढ़ी हो गई?है.’’

पर अनवर सफाई देते हुए कहने लगा, ‘‘यकीन करो भाई, मैं तो नहीं चाहता था. पर क्या करूं, ऊपर वाले की मरजी के आगे हमारी कहां चलती हैं. और भाई, यह मर्दानगी का भी तो सवाल है. मैं अभी बूढ़ा नहीं हुआ हूं, यह बात हर बच्चा साबित करता है.’’

मैं उस की इस दलील से झुंझला उठा, ‘‘इसे ऊपर वाले की मरजी नहीं, खुद की मरजी कहो. तुम अगर

परिवार नियोजन के तरीके अपनाओगे, तो बच्चे कैसे पैदा होंगे? मर्दानगी का मतलब सिर्फ बच्चे पैदा करना नहीं है. अच्छा कमा कर घर को खुशहाल करना भी है.’’

मेरी दलील के आगे अनवर कुछ नरम पड़ गया और कहने लगा, ‘‘भाई, आगे मैं खयाल रखूंगा. अब से कंडोम जरूर इस्तेमाल करूंगा. पर ऐसी खबर अम्मी तक नहीं पहुंचनी चाहिए कि मैं अगला बच्चा रोकने के लिए कुछ उपाय कर रहा हूं.’’

मैं ने हामी भर ली और अनवर बेफिक्र हो गया.

दरअसल बात यह थी कि मेरी बूआ और फूफा जान दोनों कट्टर मजहबी खयालों के थे. वह हर नए जमाने की चीज को मजहब पर चोट मानते थे. टीवी, सिनेमा, मोबाइल और परिवार नियोजन से उन्हें काफी चिढ़ थी. इन सब का साया अनवर पर बचपन से ही पड़ा था. सो, वह भी मजहब का लिबास पहने हुए था. हालांकि वह स्कूल मास्टर था, पर था पुराने खयालों का ही.

सिनेमा से अनवर को परहेज नहीं था, पर घर में लगे टीवी से उसे उसी तरह चिढ़ थी, जिस तरह मेरी बूआ और फूफा को थी. उन में से कोई भी अगर मेरे घर आता तो हमें उन की खातिर टीवी बंद करना पड़ता था.

घर में मोबाइल भी बड़ी मुश्किल से आया. जब हर जगह उस की जरूरत हर काम में पड़ने लगी. अनवर और बूआ ने बेटियों को ज्यादा पढ़ने भी नहीं दिया. वे फटेहाल रहती थीं, जबकि हम सब कुनबे के लोग अपनेअपने कामों में अच्छी कमाई भी कर रहे थे और बेटेबेटियों को प्राइवेट स्कूलों में भी भेज रहे थे.

इस मामले में अनवर और बूआ से कई बार बहस भी हो चुकी थी. एक बार मैं बूआ को पाकिस्तान और दूसरे मुसलिम देशों के बारे में बताने

लगा, ‘‘बूआ, पाकिस्तान में भी तो धड़ल्ले से फिल्में बनती हैं. वहां भी घरों में टीवी बड़े चाव से देखा जाता है. साथ ही, अब होटलों में कैबरे भी होने लगे हैं.’’

तब बूआ गरम हो कर कहने लगीं, ‘‘पाकिस्तान या दुनिया जाए भाड़ में.

उन को देख कर हम अपना ईमान क्यों खराब करें…’’

‘‘पर, वे भी तो मुसलमान हैं. हम से ज्यादा मजहब को मानने वाले हैं, फिर मजहब के खिलाफ ऐसे काम क्यों करते हैं?’’ मैं ने दलील दी.

इस पर बूआ चोट करने के अंदाज से कहने लगीं, ‘‘अब अगर कोई जानबूझ कर सूअर खाए, तो दूसरा कोई क्या कर सकता है? जब मैं तुम्हें ही नहीं समझा पाई, तो पाकिस्तान या अरब के बारे में क्या कह सकती हूं.’’

‘‘पर बूआ, टीवी या परिवार नियोजन सूअर नहीं हैं,’’ मैं ने बहस को आगे बढ़ाया.

इस पर वह बिफर पड़ीं, ‘‘हांहां, क्यों नहीं, बहूबेटियों के साथ घर पर नाच देखना नेकी का काम है. खूब देखो. पर हमें इस से परहेज है.’’

‘‘पर, इस के अलावा भी तो इस में अच्छे नाटक आते हैं.’’

‘‘अरे, खाक अच्छे आते हैं. वही कूल्हे मटकाती चिकने चेहरे वालियों के सिवा और क्या आ सकता है, जिस पर तुम जैसे बिगड़ैल ही जान देते हैं.’’

मैं बूआ को और भड़काता कि इस से पहले ही अब्बा ने मुझे किसी काम से बाहर भेज दिया.

इन्हीं साएदार पेड़ों के बीच अनवर भी पला था. सो, पढ़ालिखा होने के बावजूद वह अपनेआप को ढकोसलों की दुनिया से बाहर निकाल नहीं पाया था. यही वजह थी कि चौथे बच्चे के बाद किए गए वादे के बावजूद वह 5वें बच्चे का बाप बनता, इस से पहले ही उस की दुनिया उजड़ गई.

हम जब जनाजे के साथ कब्रिस्तान पहुंचे, तब तक कब्र तैयार हो चुकी थी. हम सब ने लाश को कब्र में लिटाया. आखिरी दीदार के लिए अमीना भाभी के चेहरे से कफन हटाया गया. सूखी लकड़ी की तरह पिचका चेहरा दिख रहा था.

अनवर अपनी बीवी का आखिरी दीदार कर के मुझ से लिपट गया और सिसकने लगा, ‘‘मैं ने खुदा की मरजी का लबादा ओढ़ कर अपनी मरजी चलाई… काश, मैं तुम्हारी एक भी बात पर अमल करता. मेरे बच्चों का अब

क्या होगा…’’

मैं उस के कंधों को थपथपा कर हौसला देने लगा था, ‘‘अब पछताने से क्या फायदा… आंसू पोंछ लो और बच्चों की परवरिश के बारे में कुछ सोचो.’’

महकती विदाई : अंजू और उस की अम्मां सास

अम्मां की नजरों में शारीरिक सुंदरता का कोई मोल नहीं था इसीलिए उन्होंने बेटे राज के लिए अंजू जैसी साधारण लड़की को चुना. खाने का डब्बा और कपड़ों का बैग उठाए हुए अंजू ने तेज कदमों से अस्पताल का बरामदा पार किया. वह जल्द से जल्द अम्मां के पास पहुंचना चाहती थी. उस की सास जिन्हें वह प्यार से अम्मां कह कर बुलाती है, अस्पताल के आई.सी.यू. में पड़ी जिंदगी और मौत से जूझ रही थीं. एक साल पहले उन्हें कैंसर हुआ था और धीरेधीरे वह उन के पूरे शरीर को ही खोखला बना गया था. अब तो डाक्टरों ने भी उम्मीद छोड़ दी थी.

आज जब वह डा. वर्मा से मिली तो वह बोले, ‘‘आप रोगी को घर ले जा सकती हैं. जितनी सांसें बाकी हैं उन्हें आराम से लेने दो.’’

पापा मानने को तैयार नहीं थे. वह बोले, ‘‘डाक्टर साहब, आप इन का इलाज जारी रखें. शायद कोई चमत्कार हो ही जाए.’’

‘‘अब किसी चमत्कार की आशा नहीं है,’’ डा. वर्मा बोले, ‘‘लाइफ सपोर्ट सिस्टम उतारते ही शायद उन्हें अपनी तकलीफों से मुक्ति मिल जाए.’’

पिछले 2 माह में अम्मां का अस्पताल का यह चौथा चक्कर था. हर बार उन्हें आई.सी.यू. में भरती किया जाता और 3-4 दिन बाद उन्हें घर लौटा दिया जाता. डाक्टर के कहने पर अम्मां की फिर से घर लौटने की व्यवस्था की गई लेकिन इस बार रास्ते में ही अम्मां के प्राणपखेरू अलविदा कह गए.

घर आने पर अम्मां के शव की अंतिम यात्रा की तैयारी शुरू हुई. वह सुहागन थीं इसलिए उन के शव को दुलहन की तरह सजाया गया. अंजू ने अम्मां के खूबसूरत चेहरे का इतना शृंगार किया कि सब देखते ही रह गए.

अंजू जानती थी कि अम्मां को सजनासंवरना कितना अच्छा लगता था. वह अपने रूप के प्रति हमेशा ही सजग रही थीं. बीमारी की अवस्था में भी उन्हें अपने चेहरे की बहुत चिंता रहती थी.

उस दिन तो हद ही हो गई जब अम्मां को 4 दिन तक अस्पताल में रहना पड़ा था. कैंसर ब्रेन तक फैल चुका था इसलिए वह ठीक से बोल नहीं पाती थीं. अंजू जब उन के कमरे में पहुंची तो नर्स ने मुसकरा कर कहा, ‘दीदी, आप की अम्मां मुझ से कह रही थीं कि मैं पार्लर वाली लड़की को बुला कर लाऊं. पहले तो मुझे समझ में नहीं आया, फिर उन्होंने लिख कर बताया तो मुझे समझ में आया. आंटी मरने वाली हैं फिर भी पार्लर वाली को बुलाना चाहती हैं.’

यह बता कर नर्स कमरे से चली गई तो अंजू ने पूछा, ‘अम्मां, क्या चाहिए?’

अम्मां ने इशारे से बताया कि थ्रेडिंग करवानी है. जब से उन की कीमोथेरैपी हुई थी उन के सिर के बाल तो खत्म हो गए थे पर दाढ़ीमूंछ उगनी शुरू हो गई थी. घर में थीं तो वह अंजू से प्लकिंग करवाती रहती थीं पर अस्पताल जा कर उन्होंने महसूस किया कि 4-5 बाल चेहरे पर उग आए हैं इसलिए वह पार्लर वाली लड़की को बुलाना चाहती थीं.

अम्मां की तीव्र इच्छा को देख कर अंजू ने ही उन की थे्रडिंग कर दी थी. फिर उन के कहने पर भवों को भी तराश दिया था. एक संतोष की आभा उन के चेहरे पर फैल गई थी और थक कर वह सो गई थीं.

नर्स जब दोबारा आई तो उस ने अम्मां के चेहरे को देखा और मुसकरा दी. उस ने पहले तो अम्मां को गौर से देखा फिर एक भरपूर नजर अंजू पर डाल कर बोली, ‘दीदी, आप की लवमैरिज हुई थी क्या?’

‘नहीं.’

‘ऐसा नहीं हो सकता,’ नर्स बोली, ‘अम्मां तो इतनी गोरी और सुंदर हैं फिर आप जैसी साउथ इंडियन लगने वाली लड़की को उन्होंने कैसे अपनी बहू बनाया?’

ऐसे प्रश्न का सामना अंजू अब तक हजारों बार कर चुकी थी. सासबहू की जोड़ी को एकसाथ जिस किसी ने देखा उस ने ही यह प्रश्न किया कि क्या उस का प्रेमविवाह था?

यह तो आज तक अंजू भी नहीं जान पाई थी कि अम्मां ने उसे अपने बेटे राज के लिए कैसे पसंद कर लिया था. जितना दमकता हुआ रूप अम्मां का था वैसा ही राज का भी था, यानी राज अम्मां की प्रतिमूर्ति था. जब अंजू को देखने अम्मां अपने पति और बेटे के साथ पहुंची थीं तो उन्हें देखते ही अंजू और उस के मातापिता ने सोच लिया था कि यहां से ‘ना’ ही होने वाली है पर उन के आश्चर्य का तब ठिकाना नहीं रहा था जब दूसरे दिन फोन पर अम्मां ने अंजू के लिए ‘हां’ कह दी थी.

अम्मां कुंडली के मिलान पर भरोसा रखती थीं और परिवार के ज्योतिषी ने अम्मां को इतना भरोसा दिला दिया था कि अंजू के साथ राज की कुंडली मिल रही है. लड़की परिवार के लिए शुभ है.

अंजू कुंडली में विश्वास नहीं रखती थी. हां, कर्तव्य पालन की भावना उस के मन में कूटकूट कर भरी थी इसीलिए वह अम्मां के लिए उन की बेटी भी थी, बहू भी और सहेली भी. सच है कि दोनों ही एकदूसरे की पूरक बन गई थीं. उन के मधुर संबंधों के कारण परिवार में हमेशा ही खुशहाली रही.

अम्मां के रूप को देख कर अंजू के मन में कभी भी ईर्ष्या उत्पन्न नहीं हुई थी. कहीं पार्टी में जाना होता तो अम्मां, अंजू की सलाह से ही तैयार होतीं और अंजू को भी उन को सजाने में बड़ा आनंद आता था. अंजू खुद भी बहुत अच्छी तरह से तैयार होती थी. उस की सजावट में सादगी का समावेश होता था. अंजू की सरलता, सौम्यता और आत्म- विश्वास से भरा व्यवहार जल्दी ही सब को अपनी ओर खींच लेता था.

घर में भी अंजू ने अपनी सेवा से अम्मां को वशीभूत कर रखा था. जबजब अम्मां को कोई कष्ट हुआतबतब अंजू ने तनमन से उन की सेवा की. 10 साल पहले जब अम्मां का पांव टूट गया था और वह घर में कैदी बन गई थीं, ऐसे में अंजू 3 सप्ताह तक जैसे अम्मां की परछाई ही बन गई थी.

उन्हीं दिनों अम्मां एक दिन बहुत भावुक हो गईं और उन की आंखों में अंजू ने पहली बार आंसू देखे थे. उन को दुखी देख कर अंजू ने पूछा था, ‘अम्मां क्या बात है? क्या मुझ से कोई गलती हो गई है?’

‘नहींनहीं, तेरे जैसी लड़की से कोई गलती हो ही नहीं सकती है. मैं तो अपने बीते दिनों को याद कर के रो रही हूं.’

‘अम्मां, जितने सुंदर आप के पति हैं, उतना ही सुंदर और आज्ञाकारी आप का बेटा भी है. घर में कोई आर्थिक तंगी भी नहीं है फिर आप के जीवन में दुख कैसे आया?’

‘अंजू, दूर के ढोल सुहाने लगते हैं, यह कहावत तो तुम ने भी सुनी होगी. मेरी ओर देख कर सभी सोचते हैं कि मैं सब से सुखी औरत हूं. मेरे पास सबकुछ है. शोहरत है, पैसा है और एक भरापूरा परिवार भी है.’

‘अम्मां, साफसाफ बताओ न क्या बात है?’

‘आज तेरे सामने ही मैं ने अपना दिल खोला है. इस राज को राज ही बना रहने देना.’

‘हां, अम्मां, आप बताओ. यह राज मेरे दिल में दफन हो जाएगा.’

‘जानना चाहती है तो सुन. राज के पापा की बहुत सारी महिला दोस्त हैं जिन पर वे तन और धन दोनों से ही न्यौछावर रहते हैं.’

‘आप जैसी सुंदर पत्नी के होते हुए भी?’ अंजु हैरानी से बोली.

‘हां, मेरा रूप भी उस आवारा इनसान को बांध नहीं पाया. यही मेरी तकदीर है.’

‘आप को कैसे पता लगा?’

‘खुद उन्होंने ही बताया. शादी के 2 साल बाद जब एक रात बहुत देर से घर लौटे तो पूछने पर बोले, ‘राज की मां, औरतें मेरी कमजोरी हैं. पर तुम्हें कभी कोई कमी नहीं आएगी. लड़नेझगड़ने या धमकियां देने के बदले यदि तुम इस सच को स्वीकार कर लोगी तो इसी में हम दोनों की भलाई है.’

‘और जल्दी ही यह सचाई मुझे समझ में आ गई. मैं ने अपने इस दुख को कभी दुनिया के सामने जाहिर नहीं किया. आज पहली बार तुम को बता रही हूं. मैं उसी दिन समझ गई थी कि शारीरिक सुंदरता महत्त्वपूर्ण नहीं है इसीलिए जब तुम्हें देखा तो न जाने तुम्हारे साधारण रंगरूप ने भी मुझे इतना प्रभावित किया कि मैं तुम्हें बहू बना कर घर ले आई. राज भी इस सच को शायद जानता है इसीलिए उस ने भी तुम्हें स्वीकार कर लिया. यह बेहद अच्छी बात है कि बाप की कोई भी बुरी आदत उस में नहीं है.’

अम्मां की आपबीती सुन कर अंजू को इस घर की बहू बनने का रहस्य समझ में आ गया. राज अपनी मां से भावनात्मक रूप से इतना अधिक जुड़ा हुआ था कि उस की मां की पसंद ही उस की पसंद थी.

‘अरे, तू क्यों रो रही है पगली. इन्हीं विसंगतियों का नाम तो जीवन है. हर इनसान पूर्ण सुखी नहीं है. परिस्थितियों को जान कर उन्हें मान लेना ही जीवन है.’

‘अम्मां, आप ने यह सब क्यों बरदाश्त किया? छोड़ कर चली जातीं.’

‘सच जानने के बाद मैं ने अपने जीवन को अपने हाथों में ले लिया था. अपने दुखों के ऊपर रोते रहने के बदले मैं ने अपने सुखों में हंसना सीख लिया. मैं ने अपना ध्यान अपनी कला में लगा दिया. कला का शौक मुझे बचपन से था. मैं ने अपने चित्रों की प्रदर्शनियां लगानी शुरू कर दीं. जरूरतमंद कलाकारों को प्रोत्साहन देना शुरू कर दिया. कला और सेवा ने मेरे जीवन को बदल दिया.’

‘सच, अम्मां, आप ने सही कदम उठाया. मुझे आप पर गर्व है.’

‘मुझे स्वयं पर भी गर्व है कि एक आदमी के पीछे मैं ने अपना जीवन नरक नहीं बनाया,’ अम्मां बोलीं, ‘ऐसी बात नहीं थी कि वह मुझ से प्यार नहीं करते थे. जब एक बार मुझे टायफाइड और मलेरिया एकसाथ हुआ तो वे मेरे पास ही रहे. जैसे आज तुम मेरी सेवा कर रही हो वैसे ही 21 दिन इन्होंने दिनरात मेरी सेवा की थी.’

अब जब से अम्मां को कैंसर हुआ था तब से पापा ही दिनरात अम्मां की सेवा में लगे थे. आज उन की मृत्यु पर वे ही सब से ज्यादा रो रहे थे. उन के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. अम्मां के अंतिम दर्शन पर वे बोले, ‘‘अंजू बेटा, तुम ने अपनी मां को सजा तो दिया है पर एक बात तुम बिलकुल भूल गई हो.’’

‘‘पापा, क्या बात?’’

‘‘परफ्यूम लगाना भूल गई हो. वह बिना परफ्यूम लगाए कभी बाहर नहीं जाती थीं. आज तो लंबी यात्रा पर जा रही हैं. उन के लिए एक बढि़या परफ्यूम लाओ और उन पर छिड़क दो. मेरे लिए उन की यही पहचान थी. जब भी किसी बढि़या परफ्यूम की खुशबू आती तो मैं बिना देखे ही समझ जाता था कि मेरी पत्नी यहां से गुजरी है. आज भी जब वह जाए तो बढि़या परफ्यूम की खुशबू मुझ तक पहुंचे. मैं इसी महक के सहारे बाकी के बचे हुए दिन निकाल लूंगा,’’ इतना कह कर पापा फफकफफक कर रो पड़े. अंजू ने परफ्यूम की सारी शीशी अम्मां के शव पर छिड़क दी और 4 लोग उन की अर्थी को उठा कर अंतिम मुकाम की ओर बढ़ चले.

उम्र भर का रिश्ता : एक महामारी ने कैसे बदली सपना की जिंदगी

शहर की भीड़भाड़ से दूर कुछ दिन तन्हा प्रकृति के बीच बिताने के ख्याल से मैं हर साल करीब 15 -20 दिनों के लिए मनाली, नैनीताल जैसे किसी हिल स्टेशन पर जाकर ठहरता हूं. मैं पापा के साथ फैमिली बिजनेस संभालता हूं इसलिए कुछ दिन बिजनेस उन के ऊपर छोड़ कर आसानी से निकल पाता हूं.

इस साल भी मार्च महीने की शुरुआत में ही मैं ने मनाली का रुख किया था  मैं यहां जिस रिसॉर्ट में ठहरा हुआ था उस में 40- 50 से ज्यादा कमरे हैं. मगर केवल 4-5 कमरे ही बुक थे. दरअसल ऑफ सीजन होने की वजह से भीड़ ज्यादा नहीं थी. वैसे भी कोरोना फैलने की वजह से लोग अपनेअपने शहरों की तरफ जाने लगे थे. मैं ने सोचा था कि 1 सप्ताह और ठहर कर निकल जाऊंगा मगर इसी दौरान अचानक लॉक डाउन हो गया. दोतीन फैमिली रात में ही निकल गए और यहां केवल में रह गया.

रिसॉर्ट के मालिक ने मुझे बुला कर कहा कि उसे रिसॉर्ट बंद करना पड़ेगा. पास के गांव से केवल एक लड़की आती रहेगी जो सफाई करने, पौधों को पानी देने, और फोन सुनने का काम करेगी. बाकी सब आप को खुद मैनेज करना होगा.

अब रिसॉर्ट में अकेला मैं ही था. हर तरफ सायं सायं करती आवाज मन को उद्वेलित कर रही थी. मैं बाहर लॉन में आ कर टहलने लगा.सामने एक लड़की दिखी जिस के हाथों में झाड़ू था. गोरा दमकता रंग, बंधे हुए लंबे सुनहरे से बाल, बड़ीबड़ी आंखें और होठों पर मुस्कान लिए वह लड़की लौन की सफाई कर रही थी. साथ ही एक मीठा सा पहाड़ी गीत भी गुनगुना रही थी. मैं उस के करीब पहुंचा. मुझे देखते ही वह ‘गुड मॉर्निंग सर’ कहती हुई सीधी खड़ी हो गई.

“तुम्हें इंग्लिश भी आती है ?”

“जी अधिक नहीं मगर जरूरत भर इंग्लिश आती है मुझे. मैं गेस्ट को वेलकम करने और उन की जरूरत की चीजें पहुंचाने का काम भी करती हूं.”

“क्या नाम है तुम्हारा?” मैं ने पूछा,”

“सपना. मेरा नाम सपना है सर .” उस ने खनकती हुई सी आवाज़ में जवाब दिया.

“नाम तो बहुत अच्छा है.”

“हां जी. मेरी मां ने रखा था.”

“अच्छा सपना का मतलब जानती हो?”

“हां जी. जानती क्यों नहीं?”

“तो बताओ क्या सपना देखती हो तुम? मुझे उस से बातें करना अच्छा लग रहा था.

उस ने आंखे नचाते हुए कहा,” मैं क्या सपना देखूंगी. बस यही देखती हूं कि मुझे एक अच्छा सा साथी मिल जाए.  मेरा ख्याल रखें और मुझ से बहुत प्यार करे. हमारा एक सुंदर सा संसार हो.” उस ने कहा.

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“वाह सपना तो बहुत प्यारा देखा है तुम ने. पर यह बताओ कि अच्छा सा साथी से क्या मतलब है तुम्हारा?”

“अच्छा सा यानी जिसे कोई गलत आदत नहीं हो. जो शराब, तंबाकू या जुआ जैसी लतों से दूर रहे. जो दिल का सच्चा हो बस और क्या .” उस ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया.

फिर मेरी तरफ देखती हुई बोली,” वैसे मुझे लगता है आप को भी कोई बुरी लत नहीं.”

“ऐसा कैसे कह सकती हो?” मैं ने उस से पूछा.

“बस आप को देख कर समझ आ गया. भले लोगों के चेहरे पर लिखा होता है.”

“अच्छा तो चेहरा देख कर समझ जाती हो कि आदमी कैसा है.”

“जी मैं झूठ नहीं बोलूंगी. औरतें आदमियों की आंखें पढ़ कर समझ जाती हैं कि वह क्या सोच रहा है. अच्छा सर आप की बीवी तो बहुत खुश रहती होगी न.”

“बीवी …नहीं तो. शादी कहां हुई मेरी?”

“अच्छा आप की शादी नहीं हुई अब तक. तो आप कैसी लड़की ढूंढ ढूंढते हैं?”

उस ने उत्सुकता से पूछा.

“बस एक खूबसूरत लड़की जो दिल से भी सुंदर हो चेहरे से भी. जो मुझे समझ सके.”

“जरूर मिलेगी सर. चलिए अब मैं आप का कमरा भी साफ कर दूं.” वह मेरे कमरे की तरफ़ बढ़ गई.

सपना मेरे आगेआगे चल रही थी. उस की चाल में खुद पर भरोसा और अल्हड़ पन छलक रहा था.

मैं ने ताला खोल दिया और दूर खड़ा हो गया. वह सफाई करती हुई बोली,” मुझे पता है. आप बड़े लोग हो और हम छोटी जाति के. फिर भी आप ने मेरे से इतने अच्छे से बातें कीं. वैसे आप यहां के नहीं हो न. आप का गांव कहां है ?”

“मैं दिल्ली में रहता हूं. वैसे हूं बिहार का ब्राम्हण .”

“अच्छा जी, आप नहा लो. मैं जाती हूं. कोई भी काम हो तो मुझे बता देना. मैं पूरे दिन इधर ही रहूंगी.”

“ठीक है. जरा यह बताओ कि आसपास कुछ खाने को मिलेगा?”

“ज्यादा कुछ तो नहीं सर. थोड़ी दूरी पर एक किराने की दुकान है. वहां कुछ मिल सकता है. ब्रेड, अंडा तो मिल ही जाएगा. मैगी भी होगी और वैसे समोसे भी रखता है. देखिए शायद समोसे भी मिल जाएं.”

“ओके थैंक्स.”

मैं नहाधो कर बाहर निकला. समोसे, ब्रेड अंडे और मैगी के कुछ पैकेटस ले कर आ गया. दूध भी मिल गया था. दोपहर तक का काम चल गया मगर अब कुछ अच्छी चीज खाने का दिल कर रहा था. इस तरह ब्रेड, दूध, अंडा खा कर पूरा दिन बिताना कठिन था.

मैं ने सपना को बुलाया,” सुनो तुम्हें कुछ बनाना आता है?”

“हां जी सर बनाना तो आता है. पर क्या आप मेरे हाथ का बना हुआ खाएंगे?”

“हां सपना खा लूंगा. मैं इतना ज्यादा कुछ ऊंचनीच नहीं मानता. जब कोई और रास्ता नहीं तो यही सही. तुम बना दो मेरे लिए खाना.”

मैं ने उसे ₹500 का नोट देते हुए कहा, “चावल, आटा, दाल, सब्जी जो भी मिल सके ले आओ और खाना तैयार कर दो.”

“जी सर” कह कर वह चली गई.

शाम में दोतीन डब्बों में खाना भर कर ले आई,” यह लीजिए, दाल, सब्जी और चपाती. अचार भी है और हां कल सुबह चावल दाल बना दूंगी.”

“थैंक्यू सपना. मैं ने डब्बे ले लिए. अब यह रोज का नियम बन गया. वह मेरे लिए रोज स्वादिष्ट खाना बना कर लाती. मैं जो भी फरमाइश करता वही तैयार कर के ले आती. अब मैं उस से और भी ज्यादा बातें करने लगा. उस से बातें करने से मन फ्रेश हो जाता. वह हर तरह की बातें कर लेती थी. उस की बातों में जीवन के प्रति ललक दिखती थी. वह हर मुश्किल का सामना हंस कर करना जानती थी. अपने बचपन के किस्से सुनाती रहती थी. उस के घर में मां, बाबूजी और छोटा भाई है. अभी वह अपने घर में अकेली थी. घरवाले शादी में पास के शहर में गए थे और वहीं फंस गए थे.

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वह बातचीत में जितनी बिंदास थी उस की सोच और नजरिए में भी बेबाकी झलकती थी. किसी से डरना या अपनी परिस्थिति से हार मानना उस ने नहीं सीखा था. किसी भी काम को पूरा करने या कोई नया काम सीखने के लिए अपनी पूरी शक्ति और प्रयास लगाती. हार मानना जैसे उस ने कभी जाना ही नहीं था.

उस की बातों में बचपन की मासूमियत और युवावस्था की मस्ती दोनों होती थी. बातें बहुत करती थी मगर उस की बातें कभी बोरियत भरने वाली नहीं बल्कि इंटरेस्ट जगाने वाली होती थीं. मैं घंटों उस से बातें करता.

उस ने शहर की लड़कियों की तरह कभी कॉलेज में जा कर पढ़ाई नहीं की. गांव के छोटे से स्कूल से पढ़ाई कर के हाल ही में 12वीं की परीक्षा दी थी. पर उस में आत्मविश्वास कूटकूट कर भरा हुआ था. दिमाग काफी तेज था. कोई भी बात तुरंत समझ जाती. हर बात की तह तक पहुंचती. मन में जो ठान लेती वह पूरा कर के ही छोड़ती.

शिक्षा और समझ में वह कहीं से भी कम नहीं थी. अपनी जाति के कारण ही उसे मांबाप का काम अपनाना पड़ा था.

उस की प्रकृति तो खूबसूरती थी ही दिखने में भी कम खूबसूरत नहीं थी. जितनी देर वह मेरे करीब बैठती मैं उस की खूबसूरती में खो जाया करता. वह हमेशा अपनी आंखों में काजल और माथे पर बिंदिया लगाती थी. उन कजरारी आंखों के कोनों से सुनहरे सपनों की उजास झलकती रहती. लंबी मैरून कलर की बिंदी हमेशा उस के माथे पर होती जो उस की रंगबिरंगी पोशाकों से मैच करती. कानों में बाली और गले में एक प्यारा सा हार होता जिस में एक सुनहरे रंग की पेंडेंट उभर कर दिखती.

“सपना तुम्हें कभी प्यार हुआ है ?” एक दिन यूं ही मैं ने पूछा.

मेरी बात सुन कर वह शरमा गई और फिर हंसती हुई बोली,” प्यार कब हो जाए कौन जानता है? प्यार बहुत बुरा रोग है. मैं तो कहती हूं यह कोरोना से भी बड़ा रोग है.”

उस के कहने का अंदाज ऐसा था कि मैं भी उस के साथ हंसने लगा. हम दोनों के बीच एक अलग तरह की बौंडिंग बनती जा रही थी. वह मेरी बहुत केयर करती. मैं भी जब उस के साथ होता तो पूरी दुनिया भूल जाता.

एक दिन शाम के समय मेरे गले में दर्द होने लगा. रात भर खांसी भी आती रही. अगले दिन भी मेरी तबीयत खराब ही रही. गले में खराश और खांसी के साथ सर दर्द हो रहा था. मेरी तबीयत को ले कर सपना परेशान हो उठी. वह मेरे खानपान का और भी ज्यादा ख्याल रखने लगी. मुझे गुनगुना पानी पीने को देती और दूध में हल्दी डाल कर पिलाती.

तीसरे दिन मुझे बुखार भी आ गया. सपना ने तुरंत मेरे घरवालों को खबर कर दी. साथ ही उस ने रिसोर्ट के डॉक्टर को भी फोन लगा लिया. डॉक्टर की सलाह के अनुसार उस ने मुझे बुखार की दवा दी. रिसोर्ट के ही इमरजेंसी सामानों से मेरी देखभाल करने लगी. उस ने मेरे लिए भाप लेने का इंतजाम किया. तुलसी, काली मिर्च, अदरक,सौंठ मिला कर हर्बल टी बनाई. एलोवेरा और गिलोय का जूस पिलाया. वह हर समय मेरे करीब बैठी रहती. बारबार गुनगुना कर के पानी पिलाती.

कोई और होता तो मेरे अंदर कोरोना के लक्षण का देख कर भाग निकलता. मगर वह बिल्कुल भी नहीं घबड़ाई. बिना किसी प्रोटेक्टिव गीयर के मेरी देखभाल करती रही. मेरे बहुत कहने पर उस ने दुपट्टे से अपनी नाक और मुंह ढकना शुरू किया.

इधर मेरे घर वाले बहुत परेशान थे. मेरी तो हिम्मत ही नहीं होती थी मगर सपना ही वीडियो कॉल करकर के पूरे हालातों का विवरण देती रहती. मेरी बात करवाती. खानपान के जरिए जो भी उपाय कर रही होती उस की जानकारी उन्हें देती. मां भी उसे समझाती कि और क्या किया जा सकता है.

इधर पापा लगातार इस कोशिश में थे कि मेरे लिए अस्पताल के बेड और एंबुलेंस का इंतजाम हो जाए. इस के लिए दिन भर फोन घनघनाते रहते. मगर इस पहाड़ी इलाके में एंबुलेंस की सुविधा उपलब्ध नहीं हो सकी. आसपास कोई अच्छा अस्पताल भी नहीं था. इन परिस्थितियों में मैं और मेरे घरवाले सपना की सेवा भावना और केयरिंग नेचर देख कर दंग थे. मम्मी तो उस की तारीफ करती नहीं थकतीं.

मैं भी सोचता कि वह नहीं होती तो मैं खुद को कैसे संभालता. इस बीच मेरा कोरोना टेस्ट हुआ और रिपोर्ट नेगेटिव आई.

सब की जान में जान आ गई. सपना की मेहनत रंग लाई और दोचार दिनों में मैं ठीक भी हो गया.

एकं दिन वह दोपहर तक नहीं आई. उस दिन मेरे लिए समय बिताना कठिन होने लगा. उस की बातें रहरह कर याद आ रही थीं. मुझे उस की आदत सी हो गई थी. शाम को वह आई मगर काफी बुझीबुझी सी थी.

“क्या हुआ सपना ? सब ठीक तो है ? मैं ने पूछा तो वह रोने लगी.

“जी मैं घर में अकेली हूं न. कल शाम दो गुंडे घर के आसपास घूम रहे थे. मुझे छेड़ने भी लगे. बड़ी मुश्किल से जान छुड़ा कर घर में घुस कर दरवाजा बंद कर लिया. सुबह में भी वह आसपास ही घूमते नजर आए. तभी मैं घर से नहीं निकली.”

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“यह तो बहुत गलत है. तुम ने आसपास वालों को नहीं बताया ?”

“जी हमारे घर दूरदूर बने हुए हैं. बगल वाले घर में काका रहते हैं पर अभी बीमार हैं. इसलिए मैं ने जानबूझ कर नहीं बताया. मुझे तो अब घर जाने में भी डर लग रहा है. वैसे भी गुंडों से कौन दुश्मनी मोल ले.”

“तुम घबराओ नहीं. अगर आज रात भी वे गुंडे तुम्हें परेशान करें तो कल सुबह अपने जरूरी सामान ले कर यहीं चली आना. अभी कोई है भी नहीं रिसॉर्ट में. तुम यहीं रह जाना. रिसॉर्ट के मालिक ने कुछ कहा तो मैं बात कर लूंगा उस से.”

“जी आप बहुत अच्छे हैं. उस की आंखों में खुशी के आंसू आ गए थे. अगले दिन सुबह ही वह कुछ सामानों के साथ रिसॉर्ट आ गई. वह काफी डरी हुई थी. आंखों से आंसू बह रहे थे.

“जी अब मैं घर में अकेली नहीं रहूंगी. कल भी गुंडे आ कर मुझे परेशान कर रहे थे. मैं सामान ले आई हूं.”

“यह तुम ने ठीक किया सपना. तुम यहीं रहो. यहां सुरक्षित रहोगी तुम.” मैं ने भरोसा दिलाते हुए अपना हाथ उस के हाथों पर रखा.

उस के हाथों के स्पर्श से मेरे अंदर एक सिहरन सी हुई. मैं ने जल्दी से हाथ हटा लिया. मेरी नजरों में शायद उस ने सब कुछ भांप लिया. उस के चेहरे पर शर्म की हल्की सी लाली बिखर गई.

उस दिन उस ने रिसॉर्ट के किचन में ही खाना बनाया.

मेरे लिए थाली सजा कर वह अलग खड़ी हो गई तो मैं ने सहज ही उस से कहा, “तुम भी खाओ न मेरे साथ.”

“जी अच्छा.”उस ने अपनी थाली भी लगा ली.

खाने के बाद भी बहुत देर तक हम बातें करते रहे. उस की सुलझी हुई और सरल बातें मेरे दिल को छू रही थीं. उस के अंदर कोई बनावटीपन नहीं था. मैं उसे बहुत पसंद करने लगा था.

मेरे जज्बात शायद उसे भी समझ आने लगे थे. एक दिन रात में बड़ी सहजता से उस ने मेरे आगे समर्पण कर दिया. मैं भी खुद को रोक नहीं सका. पल भर में वह मेरी जिंदगी का सब से जरूरी हिस्सा बन गई. धीरेधीरे सारी ऊंचनीच और भेदभाव की सीमा से परे हम दोनों दो जिस्म एक जान बन गए थे. लॉक डाउन के उन दिनों ने अनायास ही मुझे मेरे जीवनसाथी से मिला दिया था और अब मुझे यह स्वीकार करने में कोई परेशानी नहीं थी.

यह बात मैं ने अपने पैरंट्स के आगे रखी तो उन्होंने भी सहर्ष स्वीकार कर लिया.

मम्मी ने बड़ी सहजता से कहा,” जब सोच लिया है तो शादी भी कर लो बेटा. पता नहीं लौकडाउन कब खुले. जब यहां आओगे तो तुम्हारा रिसेप्शन धूमधाम से करेंगे. मगर देखो शादी ऑनलाइन रह कर ही करना.”

सपना यह सब बातें सुन कर बहुत शरमा गई. अगले दिन ही हम ने शादी करने का फैसला कर लिया. सपना ने कहा कि वह अपने परिचित काका को ले कर आएगी जो गांव में शादियां कराते हैं. साथ ही अपने मुंहबोले भाई को भी लाएगी जो कुछ दूर रहता है. हम ने सारी प्लानिंग कर ली थी. वह अपनी मां की शादी के समय के गहने और कपड़े पहन कर आने वाली थी. मैं ने भी अपना सफारी सूट निकाल लिया. अगले दिन हमारी शादी थी. हम ने रिसॉर्ट में रखे सामानों का उपयोग शादी की सजावट के लिए कर लिया. रिजोर्ट का एक बड़ा हिस्सा सपना और मैं ने मिल कर सजा दिया था.

अगले दिन सपना अपने घर से सजसंवर कर काका और भाई साथ आई. वह जानबूझ कर घूंघट लगा कर खड़ी हो गई. मैं ने घूंघट हटाया तो देखता ही रह गया. सुंदर कपड़ों और गहनों में वह इतनी खूबसूरत लग रही थी जैसे कोई परी उतर आई हो.

हम ने मेरे मम्मीपापा और परिवार वालों की मौजूदगी में ऑनलाइन शादी कर ली. अब बारी आई शादी की तस्वीरें लेने की. सपना के भाई ने रिसॉर्ट के खास हिस्सों में बड़ी खूबसूरती से तस्वीरें ली. अलगअलग एंगल से ली गई इन तस्वीरों को देख कर एक शानदार शादी का अहसास हो रहा था. रिसॉर्ट किसी फाइव स्टार होटल का फील दे रहा था.

हम ने तस्वीरें घरवालों और रिश्तेदारों को फॉरवर्ड कीं तो सब पूछने लगे कि कौन से होटल में इतनी शानदार शादी रचाई और वह भी लौकडाउन में.

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हमारी शादी को 3 महीने बीत चुके हैं. आज हमारा रिसेप्शन हो रहा है. सारे रिश्तेदार इकट्ठे हैं. रिसेप्शन पूरे धूमधाम के साथ संपन्न हो रहा है. खानेपीने का शानदार इंतजाम है. इस भीड़ और तामझाम के बीच मुझे अपनी शादी का दिन बहुत याद आ रहा है कि कैसे केवल 2 लोगों की उपस्थिति में हम ने उम्रभर का रिश्ता जोड़ लिया था.

आत्मग्लानि : आखिर क्यों घुटती जा रही थी मोहनी

मधु ने तीसरी बार बेटी को आवाज दी,  ‘‘मोहनी… आ जा बेटी, नाश्ता ठंडा हो गया. तेरे पापा भी नाश्ता कर चुके हैं.’’

‘‘लगता है अभी सो रही है, सोने दो,’’ कह कर अजय औफिस चले गए.

मधु को मोहनी की बड़ी चिंता हो रही थी. वह जानती थी कि मोहनी सो नहीं रही, सिर्फ कमरा बंद कर के शून्य में ताक रही होगी.

‘क्या हो गया मेरी बेटी को? किस की नजर लग गई हमारे घर को?’ सोचते हुए मधु ने फिर से आवाज लगाई. इस बार दरवाजा खुल गया. वही बिखरे बाल, पथराई आंखें. मधु ने प्यार से उस के बालों में हाथ फेरा और कहा, ‘‘चलो, मुंह धो लो… तुम्हारी पसंद का नाश्ता है.’’

‘‘नहीं, मेरा मन नहीं है,’’ मोहनी ने उदासी से कहा.

‘‘ठीक है. जब मन करे खा लेना. अभी जूस ले लो. कब तक ऐसे गुमसुम रहोगी. हाथमुंह धो कर बाहर आओ लौन में बैठेंगे. तुम्हारे लिए ही पापा ने तबादला करवाया ताकि जगह बदलने से मन बदले.’’

‘‘यह इतना आसान नहीं मम्मी. घाव तो सूख भी जाएंगे पर मन पर लगी चोट का क्या करूं? आप नहीं समझेंगी,’’ फिर मोहनी रोने लगी.

‘‘पता है सबकुछ इतनी जल्दी नहीं बदलेगा, पर कोशिश तो कर ही सकते हैं,’’ मधु ने बाहर जाते हुए कहा.

‘‘कैसे भूल जाऊं सब? लाख कोशिश के बाद भी वह काली रात नहीं भूलती जो अमिट छाप छोड़ गई तन और मन पर भी.’’

मोहनी को उन दरिंदों की शक्ल तक याद नहीं, पता नहीं 2 थे या 3. वह अपनी सहेली के घर से आ रही थी. आगे थोड़े सुनसान रास्ते पर किसी ने जान कर स्कूटी रुकवा दी थी. जब तक वह कुछ समझ पाती 2-3 हाथों ने उसे खींच लिया था. मुंह में कपड़ा ठूंस दिया. कपड़े फटते चले गए… चीख दबती गई, शायद जोरजबरदस्ती से बेहोश हो गई थी. आगे उसे याद भी नहीं. उस की इसी अवस्था में कोई गाड़ी में डाल कर घर के आगे फेंक गया और घंटी बजा कर लापता हो गया था.

मां ने जब दरवाजा खोला तो चीख पड़ीं. जब तक पापा औफिस से आए, मां कपड़े बदल चुकी थीं. पापा तो गुस्से से आगबबूला हो गए. ‘‘कौन थे वे दरिंदे… पहचान पाओगी? अभी पुलिस में जाता हूं.’’

पर मां ने रोक लिया, ‘‘ये हमारी बेटी की इज्जत का सवाल है. लोग क्या कहेंगे. पुलिस आज तक कुछ कर पाई है क्या? बेकार में हमारी बच्ची को परेशान करेंगे. बेतुके सवाल पूछे जाएंगे.’’

‘‘तो क्या बुजदिलों की तरह चुप रहें,’’ ‘‘नहीं मैं यह नहीं कह रही पर 3 महीने बाद इस की शादी है,’’ मां ने कहा.

पापा भी कुछ सोच कर चुप हो गए. बस, जल्दी से तबादला करवा लिया. मधु अब साए की तरह हर समय मोहनी के साथ रहती.

‘‘मोहनी बेटा, जो हुआ भूल जाओ. इस बात का जिक्र किसी से भी मत करना. कोई तुम्हारा दुख कम नहीं करेगा. मोहित से भी नहीं,’’ अब जब भी मोहित फोन करता. मां वहीं रहतीं.

मोहित अकसर पूछता, ‘‘क्या हुआ? आवाज से इतनी सुस्त क्यों लग रही हो?’’ तब मां हाथ से मोबाइल ले लेतीं और कहतीं, ‘‘बेटा, जब से तुम दुबई गए हो, तभी से इस का यह हाल है. अब जल्दी से आओ तो शादी कर दें.’’

‘‘चिंता मत करिए. अगले महीने ही आ रहा हूं. सब सही हो जाएगा.’’

मां को बस एक ही चिंता थी कहीं मैं मोहित को सबकुछ बता न दूं. लेकिन यह तो पूरी जिंदगी का सवाल था. कैसे सहज रह पाएगी वह? उसे तो अपने शरीर से घिन आती है. नफरत सी हो गई है, इस शरीर और शादी के नाम से.

‘‘सुनो, हमारी जो पड़ोसिन है, मिसेज कौशल, वह नाट्य संगीत कला संस्था की अध्यक्ष हैं. उन का एक कार्यक्रम है दिल्ली में. जब उन्हें मालूम हुआ कि तुम भी रंगमंच कलाकार हो तो, तुम्हें भी अपने साथ ले कर जाने की जिद करने लगी. बोल रही थी नया सीखने का मौका मिलेगा.’’

‘‘सच में तुम जाओ. मन हलका होगा. 2 दिन की ही तो बात है,’’ मां तो बस, बोले जा रही थीं. उन के आगे मोहनी की एक नहीं चली.

बाहर निकल कर सुकून तो मिला. काफी लड़कियां थीं साथ में. कुछ बाहर से भी आई थीं. उस के साथ एक विदेशी बाला थी, आशी. वह लंदन से थी. दोनों साथ ठहरे थे, एक ही कमरे में. जल्दी ही मोहनी और वे दोस्त बन गए, पर फिर भी मोहनी अपने दुख के कवच से निकल नहीं पा रही थी. एक रात जब वे होटल के कमरे में आईं तो मोहनी उस से पूछ बैठी, ‘‘आशी, तुम भी तो कभी देर से घर ती होंगी? तुम्हें डर नहीं लगता?’’

‘‘डर? क्यों डरूं मैं? कोई क्या कर लेगा. मार देगा या रेप कर लेगा. कर ले. मैं तो कहती हूं, जस्ट ऐंजौय.’’

‘‘क्या? जस्ट ऐंजौय…’ मोहनी का मुंह खुला का खुला रह गया.

‘‘अरे, कम औन यार. मेरा मतलब है कोई रेप करे तो मैं क्यों जान दूं? मेरी क्या गलती? दूसरे की गलती की सजा मैं क्यों भुगतूं. हम मरने के लिए थोड़ी आए हैं. वैसे भी जो डर गया समझो मर गया.’’

आशी की बात से मोहनी को संबल मिला. उसे लगा आज कितने दिन बाद दुख के बादल छंटे हैं और उसे इस आत्मग्लानि से मुक्ति मिली है. फिर दोनों खिलखिला कर हंस पड़ीं.

जड़ें: कौनसा खेल नीरज खेल रहा था

मेरीपत्नी शिखा की कविता मौसी रविवार की सुबह 11 बजे बिना किसी पूर्व सूचना के जब मेरे घर आईं तब रितु भी वहीं थी. उन दोनों का परिचय कराते हुए मैं कुछ घबरा उठा था.

2 मिनट रितु से बातें कर के जब वे पानी पीने के लिए रसोई की तरफ चलीं तो मैं भी उन के पीछे हो लिया.

‘‘शिखा कहां गई है?’’ उन्होंने शरारती अंदाज में सवाल किया तो मेरी घबराहट कुछ और बढ़ गई.

‘‘वह मायके गई हुई है, मौसीजी,’’ मैं ने अपनी आवाज को सामान्य रखते हुए जवाब दिया.

‘‘रहने के लिए?’’

‘‘हां, मौसीजी.’’

‘‘कब लौटेगी?’’

‘‘अगले रविवार को.’’

‘‘बालक, शिखा के पीछे यह कैसा चक्कर चला रहे हो? यह रितु कौन है?’’

मौसी की झटके से कैसा भी खुराफाती सवाल पूछ लेने की आदत से मैं पहले से परिचित न होता तो जरूर हकला उठता. पर मुझे ऐसे किसी सवाल के पूछे जाने का अंदेशा था, इसलिए उन के जाल में नहीं फंसा था.

मैं ने बड़े संजीदा हो कर जवाब दिया, ‘‘मौसीजी, यह रितु शिखा की ही सहेली है. यह पड़ोस में रहती है और उसी से मिलने आई थी. आप उस के और मेरे बारे में कोई गलत बात न सोचें. मैं वफादार पतियों में से हूं.’’

‘‘वे तो सभी होते हैं… जब तक पकड़े न जाएं,’’ अपने मजाक पर जब मौसी खूब जोर से हंसीं तो मैं भी उन का साथ देने को झेंपी सी हंसी हंस पड़ा.

फ्रिज में से ठंडे पानी की बोतल निकालते हुए उन्होंने मुझे फिर से छेड़ा,

‘‘बालक, तुम दोनों की शादी को मुश्किल से 3 महीने हुए हैं और तुम ने उसे घर भेज रखा है? क्या तुम्हें मनचाही पत्नी नहीं मिली है?’’

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है, मौसीजी. शिखा को मैं बहुत प्यार करता हूं. वही जिद कर के मायके भाग जाती है. मेरा बस चले तो मैं उसे 1 रात के लिए भी कहीं न छोड़ूं,’’ मैं ने अपनी आवाज को इतना भावुक बना लिया कि वे मेरी नीयत पर किसी तरह का शक कर ही न सकें.

‘‘देखो, अगर तुम दोनों के बीच कोई मनमुटाव पैदा हो गया है तो मुझे सब सचसच बता दो. मैं तुम्हारी प्रौब्लम यों चुटकी बजा कर हल कर दूंगी,’’ उन्होंने बड़े स्टाइल से चुटकी बजाई.

‘‘हमारे बीच प्यार की जड़ें बहुत मजबूत हैं. आप किसी तरह की फिक्र न करो, मौसीजी,’’ मैं ने यह जवाब दिया तो वे मुसकरा उठीं.

‘‘यू आर ए गुड बौय, नीरज. मेरी बातों का कभी बुरा नहीं मानना,’’ कह उन्होंने आगे बढ़ कर मुझे गले से लगाया और फिर पीने के लिए बोतल से गिलास में पानी डालने लगीं.

ड्राइंगरूम में लौट कर उन्होंने बिना कोई भूमिका बांधे रितु की मुसकराते हुए तारीफ कर डाली, ‘‘रितु, तुम बहुत सुंदर हो.’’

‘‘थैंक यू, मौसीजी,’’ रितु खुश हो गई.

‘‘तुम ने शादी करने के लिए कोई लड़का देख रखा है या मैं तुम्हारे लिए कोई अच्छा सा रिश्ता ढूंढ़ कर लाऊं?’’

‘‘न कोई लड़का ढूंढ़ रखा है न मैं अभी शादी करना चाहती हूं, मौसीजी.’’

‘‘अरे, शादी करने में बहुत ज्यादा देर मत कर देना. शादी के बाद भी लड़की बहुत ऐश कर सकती है. फिर कभीकभी ऐसा भी हो जाता है कि बाद में अच्छे लड़कों के रिश्ते आने बंद हो जाते हैं. मेरी सलाह तो यही है कि तुम शादी के लिए अब फटाफट हां कर दो.’’

‘‘आप इतना जोर दे कर समझा रही हैं तो मैं राजी हो ही जाती हूं मौसीजी. अब आप ढूंढ़ ही लाइए मेरे लिए कोई अच्छा सा रिश्ता,’’ उस ने नाटकीय ढंग से शरमाने का बढि़या अभिनय किया तो मौसीजी खिलखिला कर हंस पड़ीं.

‘‘तुम सुंदर होने के साथसाथ स्मार्ट और आत्मविश्वास से भरी हुई लड़की भी हो. तुम जिसे मिलोगी वह सचमुच खुशहाल इंसान होगा,’’ मौसीजी ने भावविभोर हो उसे प्यार से गले लगा कर आशीर्वाद दिया और फिर अचानक पूछा, ‘‘तुम कौन सा सैंट लगाती हो, रितु? बड़ी अच्छी महक आ रही है.’’

‘‘यह सैंट मैं ने आर्चीज की शौप से लिया है, मौसीजी. ज्यादा महंगा भी नहीं है.’’

‘‘मैं भी यह सैंट जरूर खरीद कर लाऊंगी. आज तो नीरज और शिखा के साथ कहीं घूम आने की इच्छा ले कर मैं घर से निकली थी. अब मुझे यह साफसाफ बता दो कि तुम दोनों ने पहले से कहीं जाने का कोई प्रोग्राम तो नहीं बना रखा है?’’

‘‘कोई प्रोग्राम नहीं है हमारा. मैं अब चलती हूं. शिखा के आने पर फिर आऊंगी,’’ रितु जाने को उठ खड़ी हुई.

मैं ने उसे रोकने की कोई कोशिश नहीं करी तो वह मौसीजी को नमस्ते कर अपने घर चली गई.

उस के जाते ही मौसीजी ने मुझे फिर छेड़ा, ‘‘मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि मैं ने बिना बताए यहां आ कर रंग में भंग डाल दिया है?’’

‘‘मौसीजी, आप भी बस बेकार में मुझ पर शक किए जा रही हो. शिखा के सामने ऐसा कोई मजाक मत कर देना नहीं तो वह बेकार ही मुझ पर शक करने लग जाएगी,’’ मैं कुछ नाराज हो उठा था.

‘‘तुम टैंशन मत लो, क्योंकि मेरी मजाक करने की आदत से वह भलीभांति परिचित है, बालक. अच्छा, अब तुम मेरे साथ चलने के लिए जल्दी से तैयार हो जाओ.’’

‘‘हमें जाना कहां हैं, मौसीजी?’’

‘‘मैं आज तुम्हारी मुलाकात बड़े खास इंसान से करवाने जा रही हूं,’’ वे रहस्यमयी अंदाज में मुसकरा उठी थीं.

‘‘कौन है यह इंसान, मौसीजी?’’

‘‘क्या तुम्हें पता है कि मैं ने तुम्हारे मौसाजी से दूसरी शादी करी है?’’

‘‘आप मुझ से मजाक मत करो?’’ मैं

चौंक पड़ा.

‘‘अरे, मैं सच बता रही हूं. अपनी पहली शादी के 6 महीने बाद ही मैं ने अपने पहले पति राजीव से तलाक लेने का मन बना लिया था.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘कारण बाद में बताऊंगी. हम उन्हीं से मिलने चल रहे हैं.’’

‘‘आप उन से मिलती रहती हैं.’’

‘‘हां. आज के दिन तो जरूर ही मैं उन से मिलने जाती हूं, क्योंकि आज उन का जन्मदिन है.’’

‘‘तलाक होने के बावजूद उन से आप ने अपने संबंध पूरी तरह से खत्म नहीं किए हैं?’’

‘‘करैक्ट.’’

‘‘बस, यह और समझा दो कि आप मुझे उन से क्यों मिलाने ले चल रही हैं?’’

‘‘अरे, अपने भूतपूर्व पति से अकेले मिलने जाना क्या मेरे लिए समझदारी की बात होगी? पता नहीं शराब पी कर मारपीट करने का शौकीन वह बंदा किस मूड में हो? अपनी हिफाजत के लिए मैं तुम्हें साथ ले जा रही हूं, बालक.’’

‘‘इस का मतलब यह हुआ कि उन की शराब पी कर मारपीट करने की आदत के कारण आप ने उन्हें तलाक दिया था?’’

‘‘यह नंबर 2 पर आने वाला महत्त्वपूर्ण कारण था.’’

‘‘और नंबर 1 वाला कारण क्या था?’’

‘‘वह कारण तुम्हें उन से मिलाने के बाद बताऊंगी,’’ उन्होंने इस विषय पर आगे कोई चर्चा न करते हुए मुझे तैयार हो जाने के लिए बैडरूम की तरफ धकेल दिया था.

घंटेभर बाद घंटी बजाए जाने पर मौसीजी के पहले पति राजीव के घर का

दरवाजा उन के पुराने नौकर रामदीन ने खोला. वह मौसीजी को पहचानता था. मैं ने नोट किया कि वह उन्हें देख कर खुश नहीं हुआ. मौसीजी उस से कोई बात किए बिना ड्राइंगरूम की तरफ बढ़ गईं.

‘‘हैप्पी बर्थ डे…’’ मौसीजी ने जब अपने भूतपूर्व पति को विश किया तो वे जबरदस्ती वाले अंदाज में मुसकराए.

‘‘थैंक यू, कविता. वैसे मेरी समझ में नहीं आता है कि तुम हर साल यहां आ कर मुझे विश करने का कष्ट क्यों उठाती हो?’’ उन्होंने मौसी को ताना सा मारा.

‘‘रिलैक्स, राजीव. हर साल मैं आ जाती हूं, क्योंकि मुझे मालूम है कि मेरे अलावा तुम्हें विश करने और कोई नहीं आएगा,’’ मौसीजी ने उन

की बात का बुरा माने बगैर आगे बढ़ कर उन से हाथ मिलाया.

‘‘यह भी तुम ठीक कह रही है. यह कौन है?’’ उन्होंने मेरे बारे में सवाल पूछा.

‘‘यह नीरज है. मेरी बड़ी बहन अनिता की बेटी शिखा का पति,’’ मौसीजी ने उन्हें मेरा परिचय दिया तो मैं ने एक बार फिर से उन्हें हाथ जोड़ कर नमस्ते कर दी.

उन्होंने मेरे अभिवादन का जवाब सिर हिला कर दिया और फिर ऊंची आवाज में बोले, ‘‘रामदीन, इन मेहमानों का मुंह मीठा कराने के लिए फ्रिज में से रसमलाई ले आ.’’

‘‘तुम्हें मेरी मनपसंद मिठाई मंगवाना हमेशा याद रहता है.’’

‘‘तुम से जुड़ी यादों को भुलाना आसान नहीं है, कविता.’’

‘‘खुद को नुकसान पहुंचाने वाली मेरी यादों को भूला देते तो आज तुम्हारा घर बसा होता.’’

‘‘तुम्हारी जगह कोई दूसरी औरत ले नहीं पाती, मैं ने दोबारा अपना घरसंसार ऐसी सोच के कारण ही नहीं बसाया, कविता रानी.’’

‘‘मुझे भावुक कर के शर्मिंदा करने की तुम्हारी कोशिश हमेशा की तरह आज भी बेकार जाएगी, राजीव,’’ मौसीजी ने कुछ उदास से लहजे में मुसकराते हुए जवाब दिया, ‘‘मैं फिर से कहती हूं कि मुझ जैसी बेवफा पत्नी की यादों को दिल में बसाए रखना समझदारी की बात नहीं है. यह छोटी सी बात मैं तुम्हें आज तक नहीं समझा पाई हूं. इस बात का मुझे सचमुच बहुत अफसोस है, राजीव.’’

मौसीजी ने खुद को बेवफा क्यों कहा था, इस का कारण मैं कतई नहीं

समझ सका था. तभी राजीव अपने नौकर को कुछ हिदायत देने के लिए मकान के भीतरी भाग में गए तो मैं ने मौसीजी से धीमी आवाज में अपने मन में खलबली मचा रहे सवाल को पूछ डाला, ‘‘आप ने अभीअभी अपने को बेवफा क्यों कहा?’’

मेरी आंखों में संजीदगी से झांकते हुए मौसीजी ने मेरे सवाल का जवाब देना शुरू किया, ‘‘नीरज, हमारे बीच जो तलाक हुआ उस का दूसरे नंबर पर आने वाला महत्त्वपूर्ण कारण तो मैं तुम्हें पहले ही बता चुकी हूं. इन्हें दोस्तों के साथ आएदिन शराब पीने की लत थी और मुझे शराब की गंध से भी बहुत ज्यादा नफरत थी. मैं इस कारण इन से झगड़ा करती तो ये मुझ पर हाथ उठा देते थे.

‘‘तब मैं रूठ कर मायके भाग जाती. ये मुझे जाने देते, क्योंकि इन्हें अपने दोस्तों के साथ पीने से रोकने वाला कोई न रहता. फिर जब मेरी याद सताने लगती तो मुझे लेने आ जाते. मेरे सामने कभी शराब न पीने वादा करते तो मैं वापस आ जाती थी.’’

‘‘लेकिन इन के वादे झूठे साबित होते. शराब पीने की लत हर बार जीत जाती. हमारा फिर झगड़ा होता और मैं फिर से मायके भाग आती. यह सिलसिला करीब 3 महीने चला और फिर अमित मेरी जिंदगी में आ गया.’’

‘‘अमित कौन?’’

‘‘जो आज तुम्हारे मौसाजी हैं. उन्हीं का नाम अमित है, नीरज. वे मेरी एक सहेली के बड़े भाई थे. उन की पत्नी की सड़क दुर्घटना में मौत हो गई थी. उन्होंने जब मेरे दांपत्य जीवन की परेशानियों और दुखों को जाना तो बहुत गुस्सा हो उठे. मेरे लिए उन के मन में सहानुभूति के गहरे भाव पैदा हुए. पहले वे मेरे शुभचिंतक बने, फिर अच्छे दोस्त और बाद में हमारी दोस्ती प्रेम में बदल गई.’’

‘‘नीरज, ये राजीव भी दिल के बहुत अच्छे इंसान होते थे. हमारे बीच प्यार का रिश्ता भी मजबूत था, लेकिन इन्होंने शराब पीने की सुविधा पाने को मुझे मायके भाग जाने की छूट दे कर बहुत बड़ी गलती करी थी. विधुर अमित ने इस भूल का फायदा उठा कर अपना घर बसा लिया और राजीव की गृहस्थी ढंग से बसने से पहले ही उजड़ गई.

‘‘राजीव ने मेरे सामने बहुत हाथ जोड़े थे. छोटे बच्चे की तरह बिलख कर रोए भी पर मेरे दिल में तो इन की जगह अमित ने ले ली थी. मैं ने अमित के साथ भविष्य के सपने देखने शुरू कर दिए थे. मैं ने इन के साथ बेवफाई करी और ये हमारे बीच तलाक का पहला और मुख्य कारण बन गया.’’

‘‘मैं मानती हूं कि मैं ने राजीव के साथ बहुत गलत किया. अब तक भी मैं अपने मन में बसे अपराधबोध से मुक्त नहीं हो पाई हूं और इसी कारण तलाक हो जाने के बावजूद इन की खोजखबर लेने आती रहती हूं. क्या अब तुम समझ सकते हो कि मैं तुम्हें आज यहां अपने साथ क्यों लाई हूं?’’

‘‘क्यों?’’ बात कुछकुछ मेरी समझ में आई थी और इसी कारण मेरा मन बहुत बेचैन हो उठा था.

‘‘तुम भी वैसी ही मिस्टेक कर रहे हो जैसी कभी राजीव ने करी थी. ये बेरोकटोक शराब पीने की खातिर मुझे मायके भाग जाने देते थे और तुम रितु के साथ ऐश करने को शिखा को मायके जा कर रहने की फटाफट इजाजत दे देते हो. कल को…’’

‘‘मेरा रितु के साथ किसी तरह का चक्कर…’’

‘‘मुझ से झूठ बोलने का क्या फायदा है, नीरज? मैं ने तुम्हें रसोई में और रितु को ड्राइंगरूम में गले लगाया था. तुम्हारे कपड़ों में से रितु के सैंट की महक बहुत जोर से आ रही थी और तुम भला लड़कियों वाला सैंट क्यों प्रयोग करोगे?’’

‘‘मैं अपनी भूल स्वीकार करता हूं, मौसीजी,’’ और ज्यादा शर्मिंदगी से बचने के लिए मैं ने उन्हें टोक दिया और फिर तनावग्रस्त लहजे में बोला, ‘‘पर आप मुझे एक बात सचसच बताना कि क्या मायके में रहने की शौकीन शिखा का वहां किसी के साथ चक्कर चल रहा है?’’

‘‘नहीं, बालक. मगर ऐसा कभी नहीं हो सकता है, इस की कोई गारंटी नहीं. रितु के साथ मौज करने के लिए तुम जो अपने विवाहित जीवन की खुशियों और सुरक्षा को दांव पर लगा रहे हो, वह क्या समझदारी की बात है? कल को अगर कोई अमित उस की जिंदगी में भी आ गया तो क्या करोगे?’’

‘‘मैं ऐसा कभी नहीं होने दूंगा,’’ मैं उत्तेजित हो उठा.

‘‘राजीव ने भी कभी मुझे खो देने की कल्पना नहीं करी थी, नीरज. जैसे मैं भटकी वैसे ही शिखा क्यों नहीं भटक सकती है?’’

‘‘मैं उसे कल ही वापस…’’

‘‘कल क्यों? आज ही क्यों नहीं, बालक?’’

‘‘हां आज ही…’’

‘‘अभी ही क्यों नहीं निकल जाते हो उसे अपने पास वापस लाने के लिए?’’

‘‘अभी चला जाऊं?’’

‘‘बिलकुल जाओ, बालक. नेक काम में

देरी क्यों?’’

‘‘तो मैं चला, मौसीजी. मैं आप को विश्वास दिलाता हूं कि शिखा के साथ आपसी प्रेम की जड़ें मैं बहुत मजबूत कर लूंगा. मेरी आंखें खोलने के लिए बहुतबहुत धन्यवाद.’’ कह मैं ने उन के पैर छुए और फिर लगभग भागता सा शिखा के पास पहुंचने के लिए दरवाजे की तरफ चल पड़ा.

कटी पतंग: बुशरा मलिक की डायरी पढ़कर इंस्पेक्टर क्यों हैरान हुआ

बिस्तर पर एक औरत की लाश पड़ी थी. इंस्पैक्टर ने कमरे का जायजा लेना शुरू किया. कमरे में एक छोटी सी खिड़की थी, जिस पर एक मोटा परदा डला था.

इंस्पैक्टर लाश के नजदीक पहुंच कर ठिठक गई. बैड के पास एक डायरी गिरी हुई थी. उस ने कौंस्टेबल को इशारा कर डायरी अपने पास मंगवाई और पन्ने पलटने लगी. उन पन्नों में लिखी कहानी इंस्पैक्टर की आंखों के सामने चलचित्र की तरह चलनी लगी…

“1जनवरी, 2007

“थैंक यू अब्बू… इस सुंदर डायरी के लिए.

“बुशरा मलिक,

मकान नंबर 10, करीमगंज.”

“3 जनवरी, 2007

“ठीक तो कहता है फैजल कि मैं खूबसूरत हूं, मुझे फिल्मों में होना चाहिए. आज उस की बात सुन कर पहली बार इतने गौर से खुद को आईने में निहारा.

“सुन डायरी, तू तो मेरी दोस्त है ना…इसलिए तुझे आज अपने दिल की बात बताती हूं. फैजल मुझे बेइंतहा मोहब्बत करता है लेकिन बताता नहीं. सब जानती हूं मैं. मुझे जलाने के लिए रूखसाना से बातें करता रहता है जैसेकि मैं सच में जलूंगी…

“मुझे तो मुंबई जाना है. मौका देख कर अब्बू से बात करूंगी लेकिन तब तक यह बात अपने दिल में छिपाए रखना, समझ गई ना…

“चल अब सोती हूं.”

“5 जनवरी,2007

“अब्बू ने आज मुझे बहुत डांटा. बस, इतना ही तो कहा था कि मुझे औडिशन देना है मौडलिंग के लिए. अब्बू कहते हैं कि यह काम शरीफ घरानों की लड़कियों के लिए नहीं है. अब्बू यह क्या बात हुई भला, आप इतने पढेलिखे हैं फिर भी ऐसी बातें करते हैं? आप तो बिलकुल दकियानूसी नहीं थे.

“मैं एक दिन मुंबई जरूर जाऊंगी और देखना, अब्बू आप को अपनी बुशरा पर नाज होगा.”

“10जनवरी, 2007

“आज जन्मदिन है मेरा. अब्बू ने मुझे सोने के झुमके दिए हैं तोहफे में. बहुत प्यार करते हैं मुझे अब्बू. फैजल ने मेकअप बौक्स दिया है. मगर छिपा लिया मैं ने. कोई देख लेता तो तुफान आ जाता.”

“14फरवरी, 2007

“तूझे पता है कि आज फैजल ने मुझे आई लव यू कहा. मुझे बहुत शर्म आई. 4 महीने हो गए हैं फैजल को हमारे शहर में नौकरी करते. बता रहा था कि मुंबई में घर है उस का. मुझ से कहता है कि मुझे हीरोइन बनाएगा, चाहे कुछ भी करना पड़े.

“कह रहा था कि तुम्हारे लिए खुद को भी गिरवी रख दूंगा लेकिन तुम्हारा ख्वाब जरूर पूरा करूंगा…पागल है सच में. ऐसे भी कोई इश्क करता है क्या?”

“20 मार्च, 2007

“आज फिर अम्मी से बात करने की कोशिश की कि अब्बू को समझाए. लेकिन मेरी बात तो हिमाकत लगती है सब को. कह रही थीं कि 19 साल की हो गई हो अब निकाह कर के रूखसत कर देंगी घर से.

“मेरी ख्वाहिश, मेरे अरमानों की फिक्र बस फैजल को है. बेइंतहा मोहब्बत करता है मुझ से. मेरी आंखों में जानें क्या ढूंढ़ते रहता है…बावला है पूरा.

“देख, तुझे बता रही हूं अपने दिल का हाल, लेकिन तू किसी को न कहना.

अब तू भी सो जा. कल फिर तुझ पर मेरी कलम मेरा हाल लिखेगी…”

“5 अप्रैल, 2007

“कल फैजल मुंबई जा रहा है और मैं भी उस के साथ ही चली जाऊंगी. जब सपनों को पूरा कर लूंगी तभी लौट कर आऊंगी. थोड़े से गहने रख लिए हैं साथ में. जरूरत पड़ गई तो बेचारा फैजल कितना करेगा?

“क्या कहा, यह गलत है? अरे, यह गहने अम्मी के नहीं हैं. मेरे निकाह के लिए ही तो बनवाए हैं अम्मी ने. तो इन पर मेरा हक हुआ न…और फिर एक बार हीरोइन बन गई तो ऐसे कितने ही गहने खरीदवा दूंगी अम्मी को…हाय, आज की रात न जाने कैसे बीतेगी.

“तू बहुत बातें करती है डायरी. मुझे भी उलझा देती है नामुराद. चल अब सोती हूं, कल बहुत तैयारी करनी है.”

“10 जनवरी, 2008

“बहुत दिनों बाद तुझे उठा रही हूं डायरी. क्या करती, हिम्मत न थी इन नापाक हाथों से तुझे हाथ लगाने की.

अब्बू बहुत मोहब्बत से मेरे लिए लाए थे तुझे. “आज तुझे सीने से लगाया तो लगा कि अब्बू करीब हैं. मैं मुंबई आ कर अपने अब्बू की बुशरा न रही. अब रोज नए किरदार में खुद को ढालती हूं. रोज बिछती हूं, रोज सिकुड़ती हूं. मरना चाहती हूं लेकिन एक बार अपने अम्मीअब्बू को देख लूं बस.

“किसी तरह मुझे मौका मिल जाए यहां से निकलने का. हीरोइन बनने आई थी लेकिन मालूम न था यह ख्वाहिश मुझे यों तबाह कर देगी. सीने में दर्द उठ रहा है लेकिन तुझ से भी न कहूंगी. यह तो मुझे ही सहना होगा.”

“6 फरवरी, 2008

“जल्दी वापस चली जाऊंगी अपने शहर. एक बार जीभर देख लूं सब को. बस एक बार. फिर तो मर जाऊंगी. 10 बज रहे हैं और मैं यहां अकेली… थकी हुई. आज अगर घर में होती तो अम्मी की गोद में सिर रख कर लेटी होती. अब्बू की लाई कुल्फी खा रही होती लेकिन अब…”

“14 मार्च, 2008

“आज लौट आई हूं वापस अपने शहर लेकिन घर नहीं जा सकती. क्या मुंह दिखाऊंगी किसी को? कैसे कर सकूंगी अब्बू का सामना? कैसे कहूंगी कि आप की बुशरा सब खो चुकी है उस शहर में…

“कैसे कहूं कि फैजल ने नोच दी आप के घर की आबरू. वह बेच गया मुझे मंडी में. बन गई मैं धंधेवाली. नीलाम कर दी बुशरा ने आप की इज्जत. अब तो बस मरने का इंतजार है. काश, मुझे मौत आ जाए…”

“20 जून, 2008

“अखबार में आज अपनी गुमशुदगी की खबर पढी. 1 साल से अधिक हो गए मुझे घर छोड़े लेकिन वे आज भी मुझे याद करते हैं.

“मन करता है जा कर अम्मी के गले लग जाऊं. अब्बू के कदमों में बैठ कर रो लूं. लेकिन नहीं कर सकती ऐसा. मेरे गुनाह इतने छोटे नहीं. मैं इन्हीं अंधेरे में सही हूं. कम से कम मुझे ढूंढ़ तो ना पाएंगे

“मैं अपनी नापाक शरीर ले कर आप के पास नहीं आ सकती, अब्बू. अकेली बैठी हूं इस छोटे से कमरे में. दम घुटता है मेरा यहां. क्या बनना चाहा और क्या बन गई मैं…

“जिस्म से रोज कपड़े उतरते हैं, रोज आदमी बदलते हैं लेकिन मैं तो वही रहती हूं बेशर्म की पुतली बुशरा. कीड़े रेंगते हैं मेरे जिस्म पर. घिनौनी हो गई हूं मैं. क्यों जिंदा हूं? काश कि मौत आ जाए मुझे…”

“20 जुलाई, 2008

“जी न माना तो चली गई आज चुपचाप अब्बू की दुकान पर. बस दूर से देख आई उन्हें. उन की आंखों में दर्द था…

“कितना नाज था उन्हें मुझ पर लेकिन मैं ने… मैं उन से नजरें नहीं मिला सकती.

“काश कि कुदरत मेरे गुनाहों को माफ कर दे, मेरे अब्बू के चेहरे पर हंसी खिला दे. काश, मुझे मौत आ जाए…”

“8 सितंबर, 2008

“दुल्हा बना कितना सुंदर लग रहा था मेरा भाई. मन कर रहा था झूम कर नाचूं…लेकिन…बस दूर से ही देख सकी मैं.

“आज अम्मी ने हरा लिबास पहना था. वैसा ही लिबास जैसा मुझे पसंद है. पर वे बुझी हुई लग रही थीं…वे मुझे भूली नहीं.

“बस एक बार भाभी का चेहरा देख पाती लेकिन यह नापाक साया उन पर नहीं डाल सकती. मैं रो रही हूं अब्बू. मुझे ले जाओ यहां से.

“अम्मी मुझे माफ कर दो. मुझे पनाह दे दो अम्मी…

“यह मैं क्या कह रही हूं? नहीं… नहीं… मुझे मरना होगा. अपनी गंदगी का साया अपने घर पर न डालूंगी. काश, मुझे मौत आ जाए…”

“6 अक्तूबर, 2008

“बुखार से बदन तप रहा है लेकिन मुझ से ज्यादा तपन इन भूखों के शरीर में लगी है. इस शरीर से बेइंतहा मोहब्बत थी मुझे, इस पर गुरूर कर फैजल पर यकीन किया था… लेकिन अब… अब नफरत हो गई… कुदरत अब किसी और बुशरा को उस कमीने के चंगुल में न फंसने देना.

“अब्बू, आप की बुशरा से गुनाह हो गया… मुझे माफ कर दो अब्बू…आप सही कहते थे कि मुंबई बहुत गंदा शहर है. काश, मौत आ जाए मुझे…”

“10 अक्तूबर, 2008

“अपने इस जिस्म पर गुमान कर घर से निकल गई थी… देखो अब्बू… आप की बुशरा इलाज से भी महरूम है. मेरी छींक पर भी बेचैन हो उठते थे आप और आज कैसी गलीच जिंदगी जी रही हूं मैं… काश, मुझे मौत आ जाए…”

“15 अक्तूबर, 2008

“हिम्मत नहीं बची है अब. मौत करीब लग रही है. आज मैं मर जाऊंगी. कुदरत का बुलावा आ गया है. लेकिन मेरे बारे में मेरे परिवार को पता न चले. उन्हें पता न चले कि अब्बू की बुशरा अब धंधेवाली…

“काश, कोई इस जिस्म को लावारिस समझ खाक में मिला दे…”

उस के मासूम चेहरे पर अब भी नजामत दिख रही थी, भले ही प्राण नहीं था शरीर में. इंस्पैक्टर को आंखों में कुछ नमी सी महसूस हुई. डायरी को बंद कर उस ने एक ठंडी सांस ली और फिर मोहब्बत की शिकार ख्वाब देखने वाली बुशरा के मरे जिस्म को उस ने लवारिस लाश में शामिल कर दिया.

Family Beautiful Story : एक परिवार

आज दफ्तर में छुट्टी थी. मैं सुबह से ही कमरे में टैलीविजन पर फिल्में देख रहा था. मैं ने दोपहर का खाना नहीं खाया था, फिर भी मुझे अभी तक भूख नहीं लगी थी. सोचा कि थोड़ी देर अपने घर की छत पर टहलते हुए ढलती शाम का नजारा देखूं.

जैसे ही मैं छत पर पहुंचा, पड़ोसी की छत पर ‘धमाका’ हुआ. मैं ने चौंकते हुए देखा, तो पड़ोसी का 7-8 साला लड़के ने अनार रूपी पटाखे को आग लगाई थी.

उस की एक चिनगारी छत पर सूखते मेरे कुरते से टकराई, जिस से मेरा कुरता बुरी तरह झुलस गया था.

मैं ने जैसे ही गुस्से भरी निगाहों से डरेसहमे बच्चे को देखा, जो डर के मारे  बुरी तरह कांप रहा था.

वह दबी हुई आवाज में बोला, ‘‘अंकल, मु?ा से गलती हो गई. आप का कुरता जल गया. मैं अपनी गुल्लक से पैसे ला कर दे दूंगा. आप बाजार से नया कुरता ले आना. पापा को मत बताना, वे मुझे मारेंगे.’’

मुझे खयाल आया कि मेरा पड़ोसी उस बच्चे का सौतेला बाप है. वह अपनी दूसरी पत्नी के मर जाने के बाद इस बच्चे की मां, जिसे पति ने छोड़ दिया था और जो अपने 2 बच्चों के साथ अपने मांबाप के घर बोझ बनी हुई थी, उसे खरीद लाया था.

वह बेचारी पहाड़ी इलाके के एक गरीब परिवार से थी. मेरे पड़ोसी की उम्र तकरीबन 60 साल थी. उस बच्चे की मां 30-35 साल की होगी.

मुझे लगा कि अगर मेरा बेटा भी मेरे पास होता, तो आज दीवाली के दिन वह भी ऐसी ही शरारतें कर रहा होता.

अपने बेटे का खयाल आया, तो अपनी पत्नी की जिद पर बेहद गुस्सा आने लगा. मन में आया कि अभी जाऊं और कम से कम अपने बेटे को ले आऊं. वह अगर साथ नहीं आना चाहती, तो उसे हमेशा के लिए छोड़ दूं.

मैं ने आगे बढ़ कर उस डरेसहमे बच्चे के सिर पर हाथ रखा और अपनेपन से कहा, ‘‘बेटा डरो नहीं. मेरे कपड़े खराब हो गए तो कोई बात नहीं, तुम इतने बड़े पटाखे मत चलाया करो. हाथ जल जाएंगे. ये लो 50 रुपए और मिठाई खा लेना,’’ मैं ने उसे 50 रुपए का नोट पकड़ाना चाहा, मगर उस ने रुपए लेने से इनकार कर दिया और चला गया.

मैं नीचे कमरे में आ गया. बिस्तर पर लेटा, तो आंखों के सामने मेरे दोस्त महेंद्र की पत्नी कामिनी का चेहरा उभर आया.

वे दोनों एकसाथ कालेज पढ़ते थे. जिंदगी के इस हसीन सफर में दोनों को प्यार हो गया. एक दिन अचानक उन्होंने कोर्ट मैरिज कर ली और हमेशा के लिए एक हो गए.

महेंद्र के घर वालों ने कामिनी को बहू के रूप में स्वीकार नहीं किया. अब महेंद्र जाए तो जाए कहां? वह बेरोजगार था. वैसे, वह मेकैनिकल डिप्लोमा होल्डर था. वह सीधा मेरे पास आ गया और घर में रहने को पनाह मांगी.

हमारा एक मकान खाली पड़ा था. महेंद्र को वह मकान रहने को दे दिया.

महेंद्र मेहनती था. वह किसी फैक्टरी में काम करने लगा. अब वह मकान का किराया देने लगा था.

कामिनी जवान व खूबसूरत थी. मैं अकसर ‘भाभीभाभी’ कहते हुए उस से मजाक करता, तो वह गुस्सा करने के बजाय बराबर मुकाबला करती थी.

महेंद्र हमारे मकान में सालभर रहा, फिर उस की किसी दूसरे शहर में नौकरी लग गई. वह अपने परिवार के साथ वहां रहने चला गया.

मैं भी अपनी घरगृहस्थी में रम गया. धीरेधीरे समय गुजरता गया. तकरीबन 4 साल गुजर गए. मेरे एक बेटा भी हो गया. शहर में नौकरी भी लग गई.

एक दिन अचानक कामिनी भाभी का फोन आया. उस ने रोतेसिसकते हुए बताया कि मेरा दोस्त महेंद्र किसी दूसरी औरत के चक्कर में फंस गया है. वह रोकती है, तो उस से मारपीट करता है. अपनी गलती मानने के बजाय वह उसे तलाक देने की धमकी दे रहा है. उस ने मु?ो फौरन अपने घर बुलाया.

मैं ने कामिनी भाभी को सब्र रखने, सम?ादारी से काम लेने और जल्दी ही उस की मदद करने का भरोसा दिया. वैसे, मैं अपने घर की उल?ानों में फंसा था, इसलिए समय पर कामिनी के घर नहीं जा सका.

15 दिन बाद दोबारा फोन आ गया. इस बार कामिनी भाभी ने चेतावनी दी कि अगर मैं उस का बिगड़ता घर सुधारने में मदद नहीं करूंगा, तो उस की अर्थी को कंधा देने जरूर आ जाऊं.

कामिनी भाभी की धमकी ने मु?ो डरा दिया था. मु?ो लगा कि मामला बेहद उल?ा गया है. अब मु?ो ही अपने बचपन के दोस्त महेंद्र को सुधारना पड़ेगा.

मैं अपनी पत्नी निशा से कोई सलाहमशवरा किए बगैर अचानक महेंद्र के घर पहुंच गया. वहां जा कर देखा कि महेंद्र और कामिनी के संबंध बेहद खराब थे, कभी भी टूट सकते थे.

मैं महेंद्र के घर 4 दिन रहा. मेरी कोशिश थी कि वह किसी तरह दूसरी औरत के चंगुल से निकल कर अपनी पत्नी की जुल्फों की छांव तले आ जाए. मगर महेंद्र ने तो मु?ो फौरन अपने घरेलू मामले से निकल जाने को कहा.

मैं दुखी हो कर वापस आने लगा, तो कामिनी भाभी मेरे कदमों से लिपट कर गिड़गिड़ा उठी.

‘क्या तुम ने मु?ो मुसीबत के भंवर में छोड़ देने के लिए भाभी का रिश्ता कायम किया था? क्या घरगृहस्थी के मं?ाधार में फंसी नाव को किनारे तक लाने में मेरी मदद नहीं करोगे?’

‘भाभीजी, हालात बेहद बिगड़ चुके हैं. ऐसे में मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा,’ मैं ने अपनी मजबूरी जाहिर की.

तब भाभी ने मु?ो बेहद उल?ा हुई योजना में साथ देने को कहा. मैं ने उस की योजना को अंजाम तक पहुंचाने में हाथ खड़े किए, तो कामिनी भाभी रोतेसिसकते हुए मुझे पर दहाड़ उठी, ‘मुझे तुम से यही उम्मीद थी. मुसीबत में मेरा साथ छोड़ दोगे. मर्द बने फिरते हो, कायर कहीं के?’

अब मैं भी जोश में आ गया. कामिनी भाभी की योजना के मुताबिक मुझे उस के साथ इश्करोमांस का नाटक करना था. वह महेंद्र को दिखाना चाहती थी कि अगर वह अंधेरी रात में मुंह काला कर सकता है, तो कामिनी अपने देवर से इश्क क्यों नहीं लड़ा सकती?

उस रात महेंद्र अपनी प्रेमिका के घर पर गया हुआ था. उसे वापस अपने घर रात 2-3 बजे आना था. मैं कामिनी भाभी के कमरे में अलग चारपाई पर सोया हुआ था. देर रात महेंद्र घर लौटा, तो कामिनी ने उसे अपने कमरे में नहीं आने दिया.

दरवाजा खोल कर खूब खरीखोटी सुना कर मु?ा से लिपटते हुए कामिनी महेंद्र से बोली, ‘तुम अगर आवारा औरतों के साथ रातें गुजार सकते हो, तो मैं अपने देवर से प्यार नहीं कर सकती?’

महेंद्र ने उस समय शराब पी रखी थी. उस ने कामिनी को जी भर के गालियां दीं. मैं उसे सम?ाने को कुछ बोलता, इस से पहले उस ने कामिनी के साथ मुझे कमरे में बंद कर दिया.

हम ने सोचा कि महेंद्र ने शराब पी रखी है. जब उतरेगी तब दरवाजा खोल देगा, मगर ऐसा नहीं हुआ. वह जालिम सीधा मेरे घर पहुंच गया और अपने साथ मेरी पत्नी निशा को ले आया.

मुझे कामिनी के साथ बंद कमरे में देखा, तो निशा आगबबूला हो उठी. वह महेंद्र की हर बात पर यकीन कर रही थी. वह मेरी कोई बात सुनने को तैयार नहीं थी. गुस्से में पैर पटकते हुए वह बेटे के साथ मायके चली गई.

इसी तरह 4-5 महीने गुजर गए. निशा का फोन नहीं आया. आखिरकार हार कर 8 महीने बाद मैं ससुराल गया, तो निशा ने सीधे मुंह बात नहीं की.

मैं ने उसे मनाने की भरपूर कोशिश की, मगर निशा पर समझाने का जरा भी असर नहीं हुआ.

मैं निराश हो कर लौट आया. इसी तरह 2 साल गुजर गए, लेकिन निशा को मु?ा पर रहम नहीं आया.

अब कामिनी के प्रति मेरी नफरत बढ़ती जा रही थी. कमबख्त ने एक बार भी फोन कर के मेरी उजड़ी घरगृहस्थी के बारे में नहीं पूछा. जब अपने ऊपर मुसीबत आई थी, तब तो फोन पर रोज गिड़गिड़ाती थी. अब मु?ा पर मुसीबत आई, तो खामोशी ओढ़े बैठी है.

अभी 2 महीने पहले कामिनी का फोन आया, तो मैं ने खूब खरीखोटी सुनाई. जो जबान पर आया, बोल दिया. यहां तक कि उसे गालियां भी दे डालीं.

मेरी जलीकटी पर कामिनी भाभी ने इतना जरूर कहा कि अब जल्दी मेरी जुदाई का वक्त खत्म हो जाएगा. मैं ने उस की इस बात पर ध्यान नहीं दिया.

आज पड़ोसी के बेटे वाली घटना ने मेरे अपने बेटे की याद को ताजा कर दिया था.

तभी वह पड़ोसी का बच्चा भागता हुआ आया और मिठाई की प्लेट मेरे सामने रखते हुए बोला, ‘‘अंकल, देखो, मैं आप के लिए मिठाई लाया हूं.’’

उस का अपनापन देख कर मेरी आंखों में आंसू झिलमिला उठे.

तभी एक जानीपहचानी आवाज ने मुझे चौंका दिया, ‘‘अरे देवरजी, अकेलेअकेले मिठाई खा रहे हो? हम भी आ गए हैं,’’ अचानक गेट के अंदर आते हुए कामिनी चहकी.

उसे देखते ही मैं बुरी तरह दहाड़ उठा, ‘‘अब यहां क्या लेने आई हो? निकल जा मेरे घर से. मेरी जिंदगी में जहर घोलने वाली औरत, मैं तेरी वजह से अपना घर उजाड़ बैठा हूं. आज मैं कितना उदास और तनहा हूं. मेरे साथ न मेरी पत्नी है, न मेरा बेटा. यह सब तेरी वजह से हुआ है.’’

लेकिन वह मुझे प्यार भरी निगाहों से देखते हुए बोली, ‘‘देवरजी, माफ करना, मुझे पता चल गया था कि निशा तुम से नाराज हो कर मायके चली गई?है. मगर मुझे अपने बिगड़े घरवाले को भी रास्ते पर लाना था. अब मैं आ गई हूं. तुम्हारा अकेलापन खत्म हो गया है.’’

‘‘मेरा खयाल 4 साल बाद आया? इस से पहले मुझे सजा दिला रही थी क्या? चालबाज इनसान की शातिर औरत,’’ मैं बुरी तरह गुस्से में पागल था.

‘‘तुम्हारा खयाल तो मुझे पलपल आता था. जब मैं ने तुम्हारे प्यारे दोस्त को यकीन दिलाया कि मेरा तुम्हारे दोस्त से किसी तरह का ताल्लुक नहीं है. हम ने तो तुम्हें सुधारने के लिए नाटक खेला था. वह बेचारा तो तुम्हारा उजड़ता घर बसाने आया था. तुम ने बदले में उस की बसीबसाई घरगृहस्थी उजाड़ दी. तुम कैसे दोस्त हो?

‘‘मैं ने इतना बताया, तो तुम्हारा दोस्त सारी रात अपनी गलती पर पछतावा करते हुए रोता रहा. लाख समझाने पर वह माना नहीं.

‘‘अगले दिन सुबह का उजाला होते ही वह मोटरसाइकिल पर सवार हो कर तुम्हें मनाने के लिए आ रहा था. उस के दिलोदिमाग का संतुलन बिगड़ा हुआ था. रास्ते में किसी तेज रफ्तार ट्रक से टकराया और अपनी एक टांग गंवा बैठा.

‘‘हम सालभर अस्पताल में धक्के खाते रहे. अब वह बड़ी मुश्किल से चलने के काबिल हुआ है.’’

‘‘इतना सब हो गया और आप ने मुझे बताया तक नहीं,’’ मैं ने कहा.

‘‘बताते कैसे भैया? तेरी निशा को भी मना कर लाना था. मेरे मनाने से तो मानी नहीं, पर जब महेंद्र खुद गया, सारी सचाई बता कर अपनी गलती बताई, तो निशा उसी पल मान गई.

‘‘महेंद्र उसे अपने साथ लाया है, वह देख गेट के बाहर खड़े तेरी इजाजत मिलने का इंतजार कर रहे हैं.’’

कामिनी ने बताया, तो मैं ने देखा कि गेट पर महेंद्र बैसाखियों के सहारे मेरे बेटे का हाथ पकड़ कर खड़ा शर्म से पानीपानी हुआ जा रहा था. उस के पीछे निशा भी सिर झंकाए खड़ी थी.

‘‘मेरे यार, मैं तेरा गुनाहगार हूं,’’ कहते हुए महेंद्र लड़खड़ाते हुए मेरे कदमों में झांका, तो मैं ने उसे थाम कर गले से लगा लिया.

इतने में कामिनी भाभी ने निशा का हाथ मेरे हाथ में पकड़ाते हुए कहा, ‘‘अब इसे कमरे में ले जाओ न.’’

मैं जैसे ही निशा का हाथ थामे बैडरूम में घुसा, कामिनी भाभी झूट से दरवाजा बंद करते हुए चहकी, ‘‘देवरजी, दीवाली मना कर बाहर आना, तभी मिठाई और खाना मिलेगा.’’

यह सुन कर निशा किसी लता सी मुझ से लिपट गई थी. अब मुझे लगा कि आज वाकई दीवाली है.

बनते बिगड़ते रिश्ते : दाने-दाने को मुहताज हुआ रमेश

उन दिनों रमेश बहुत ज्यादा माली तंगी से गुजर रहा था. उसे कारोबार में बहुत ज्यादा घाटा हुआ था. मकान, दुकान, गाड़ी, पत्नी के गहने सब बिकने के बाद भी बाजार की लाखों रुपए की देनदारियां थीं. आएदिन लेनदार घर आ कर बेइज्जत करते, धमकियां देते और घर का जो भी सामान हाथ लगता, उठा कर ले जाते.

रमेश ने भी अनेक लोगों को उधार सामान दिया था और बदले में उन्होंने जो चैक दिए, वे बाउंस हो गए. वह उन के यहां चक्कर लगातेलगाते थक गया, मगर किसी ने भी न तो सामान लौटाया और न ही पैसे दिए.

थकहार कर रमेश ने उन लोगों पर केस कर दिए, मगर केस कछुए की चाल से चलते रहे और उस की हालत बद से बदतर होती चली गई.

जब दो वक्त की रोटी जुटाना भी मुश्किल हो गया, तो रमेश को अपने पुराने दोस्तों की याद आई. बच्चों की गुल्लक तोड़ कर किराए का इंतजाम किया. कुछ पैसे पत्नी कहीं से ले आई और वह अपने शहर की ओर चल दिया.

पृथ्वी रमेश का सब से अच्छा दोस्त था. रमेश को पूरी उम्मीद थी कि वह उस की मदद जरूर करेगा.

अपने शहर बीकानेर आ कर रमेश सीधा अपनी मौसी के घर चला गया. वहां से नहाधो कर व खाना खा कर वह पृथ्वी के घर की ओर चल दिया.

शनिवार का दिन था. रमेश को पृथ्वी के घर पर मिलने की पूरी उम्मीद थी. वह मिला भी और इतना खुश हुआ, जैसे न जाने कितने सालों बाद मिले हों. इस के बाद वे पूरे दिन साथ रहे. रमेश पृथ्वी से पैसे के बारे में बात करना चाहता था, मगर झिझक की वजह से कह नहीं पा रहा था.

वे एक रैस्टोरैंट में बैठ गए. रमेश ने हिम्मत जुटाई और बोला, ‘‘यार पृथ्वी, एक बात कहनी थी.’’

‘‘हांहां, बोल न,’’ पृथ्वी ने कहा.

इस के बाद रमेश ने उसे अपनी सारी कहानी सुनाई. पृथ्वी गंभीर हो गया और बोला, ‘‘तेरी हालत तो खराब ही है. तू बता, मुझ से क्या चाहता है?’’

‘‘यार, वैसे तो मुझे लाखों रुपए की जरूरत है, मगर तू भी सरकारी नौकरी करता है, इसलिए फिलहाल अगर तू मुझे 3 हजार रुपए भी उधार दे देगा, तो मैं घर में राशन डलवा लूंगा.’’

‘‘कोई बात नहीं. सुबह ले लेना.’’

‘‘तो फिर मैं कितने बजे फोन करूं?’’

‘‘तू मत करना, मैं खुद ही कर लूंगा.’’

रमेश के सिर से एक बड़ा बोझ सा उतर गया था. उस ने चैन की सांस ली. इस के बाद उन्होंने काफी देर तक बातचीत की और बाद में वह रमेश को उस की मौसी के घर तक अपनी मोटरसाइकिल पर छोड़ गया.

रमेश ने पृथ्वी को बताया कि उस की ट्रेन दोपहर 2 बजे जाएगी. उस ने रमेश को भरोसा दिलाया कि वह सुबह ही 3 हजार रुपए पहुंचा देगा.

रमेश ऐसी गहरी नींद सोया कि आंखें 9 बजे ही खुलीं. नहाधो कर तैयार होने तक साढ़े 10 बज गए. पृथ्वी का फोन अभी तक नहीं आया था.

रमेश ने फोन किया, तो पृथ्वी का मोबाइल स्विच औफ ही मिला.

रमेश की ट्रेन आई और उस की आंखों के सामने से चली भी गई. उस का मन बुझ सा गया था. उस ने कोशिश करना छोड़ दिया. उस की सूरत ऐसी लग रही थी, जैसे किसी ने गालों पर खूब चांटे मारे हों. उस की आंखों में आंसू तो नहीं थे, मगर एक सूनापन उन में आ कर जम सा गया था. वह काफी देर तक प्लेटफार्म के एक बैंच पर बैठा रहा.

‘‘अरे, रमेश? तू रमेश ही है न?’’

रमेश ने आंखें उठा कर देखा. वह सत्यनारायण था. उस का एक पुराना दोस्त. वह एक गरीब घर से था और रमेश ने कभी भी उसे अहमियत नहीं दी थी.

‘‘हां भाई, मैं रमेश ही हूं,’’ उस ने बेमन से कहा.

‘‘रमेश, मुझे पहचाना तू ने? मैं सत्यनारायण. तुम्हारा दोस्त सत्तू…’’

‘‘क्या हालचाल है सत्तू?’’ रमेश थकीथकी सी आवाज में बोला.

‘‘मैं तो ठीक हूं, मगर तू ने यह क्या हाल बना रखा है? दाढ़ी बढ़ी हुई है और कितना दुबला हो गया है. चल, बाहर चल कर चाय पीते हैं.’’

रमेश की इच्छा तो नहीं थी, मगर सत्यनारायण का जोश देख कर वह उस के साथ हो लिया. वे एक रैस्टोरैंट में आ बैठे और चाय पीने लगे.

‘‘और सुना रमेश, कैसे हालचाल हैं?’’ सत्यनारायण ने पूछा.

‘‘हालचाल क्या होंगे? जिंदा बैठा हूं न तेरे सामने,’’ रमेश ने बेरुखी से कहा.

यह सुन कर सत्यनारायण गंभीर

हो गया, ‘‘बात क्या है रमेश? मुझे बताएगा?’’

‘‘क्या बताऊं? यह बताऊं कि वहां मेरे बच्चे भूखे बैठे हैं और सोच रहे हैं कि पापा आएंगे, तो घर में राशन आएगा. पापा आएंगे, तो वे फिर से स्कूल जाएंगे. पापा आएंगे, तो नए कपड़े सिला देंगे. क्या बताऊं तुझे?’’

सत्यनारायण हक्काबक्का सा रमेश का चेहरा देख रहा था.

‘‘मैं तुझ से कुछ नहीं पूछूंगा रमेश. कितने पैसों की जरूरत है तुझे?’’ सत्यनारायण ने पूछा.

रमेश ने सत्यनारायण को ऊपर से नीचे तक देखा. साधारण से कपड़े, साधारण सी चप्पलें, यह उस की क्या मदद करेगा?

‘‘2 लाख रुपए चाहिए, क्या तू देगा मुझे?’’ रमेश ने कहा.

‘‘रमेश, मैं ने अपना सारा पैसा कारोबार में लगा रखा है. अगर तू मुझे कुछ दिन पहले कहता, तो मैं तुझे

2 लाख रुपए भी दे देता. यह बता कि फिलहाल तेरा कितने पैसों में काम चल जाएगा?’’ सत्यनारायण ने पूछा.

‘‘3 हजार रुपए में.’’

‘‘तू 10 मिनट यहां बैठ. मैं अभी आया,’’ कह कर सत्यनारायण वहां से चला गया.

रमेश को यकीन नहीं था कि सत्यनारायण लौट कर आएगा. अब तो लगता है कि चाय के पैसे भी मुझे ही देने पड़ेंगे.

इसी उधेड़बुन में 10 मिनट निकल गए. रमेश उठ ही रहा था कि उस ने सत्यनारायण को आते देखा.

सत्यनारायण की सांसें तेज चल रही थीं. बैठते ही उस ने जेब में हाथ डाला और 50 के नोटों की एक गड्डी रमेश के सामने रख दी.

‘‘यह ले पैसे…’’

रमेश को यकीन नहीं आ रहा था.

‘‘मगर, मुझे तो सिर्फ 3 हजार…’’ रमेश मुश्किल से बोला.

‘‘रख ले, तेरे काम आएंगे.’’

‘‘सत्तू, मैं तेरा एहसान कभी नहीं भूलूंगा.’’

‘‘क्या बकवास कर रहा है? दोस्ती में कोई एहसान नहीं होता है.’’

‘‘लेकिन, मैं ये पैसे तुझे 3-4 महीने से पहले नहीं लौटा पाऊंगा.’’

‘‘जब तेरे पास हों, तब लौटा देना. मैं कभी मांगूंगा भी नहीं. तुझ पर मुझे पूरा भरोसा है,’’ सत्यनारायण ने कहा, तो रमेश कुछ बोल नहीं पाया.

‘‘अब मैं निकलता हूं. चाय के पैसे दे कर जा रहा हूं. तुझे 5 बजे वाली ट्रेन मिल जाएगी, तू भी निकल. बच्चे तेरा इंतजार कर रहे होंगे.’’

सत्यनारायण चला गया. रमेश उसे दूर तक जाते देखता रहा. इस वक्त ये 5 हजार रुपए उस के लिए लाखों रुपए के बराबर थे. वह जिस इनसान को हमेशा छोटा समझता रहा, आज वही उस के काम आया.

रमेश वापस अपने घर लौट गया. 2-3 महीने का तो इंतजाम हो गया था. इस के बाद उस ने फिर से काम की तलाश शुरू कर दी.

एक दिन रमेश को कपड़े की दुकान पर सेल्समैन का काम मिल गया. तनख्वाह कम थी, मगर जीने के लिए काफी थी.

इस के बाद समय अचानक बदला. 3 मुकदमों का फैसला रमेश के हक में गया. जेल जाने से बचने के लिए लोगों ने उस की रकम वापस कर दी. कुछ दूसरे लोग डर की वजह से फैसला होने से पहले ही पैसे दे गए. 6 महीने में ही पहले जैसे अच्छे दिन आ गए.

रमेश ने फिर से कारोबार शुरू कर दिया. इस वादे के साथ कि पहले जैसी गलतियां नहीं दोहराएगा.

रमेश ने सत्यनारायण के पैसे भी लौटा दिए. उस ने ब्याज देना चाहा, तो सत्यनारायण ने साफ मना कर दिया.

इन सब बातों को आज 10 साल से भी ज्यादा हो गए हैं. रमेश कारोबार के सिलसिले में अपने शहर जाता रहता है. किसी शादी या पार्टी में पृथ्वी से भी मुलाकात हो ही जाती है. पूरे समय वह अपने नए मकान या नई गाड़ी के बारे में ही बताता रहता है और रमेश सिर्फ मुसकराता रहता है.

रमेश का पूरा समय तो अब सिर्फ सत्यनारायण के साथ ही गुजरता है. वह जितने दिन वहां रहता है, उसी के घर में ही रहता है.

रमेश ने बहुत बुरा वक्त गुजारा. ये बुरे दिन हमें बहुतकुछ सिखा भी जाते हैं. हमारी आंखों पर जमी भरम की धुंध मिट जाती है और हम सबकुछ साफसाफ देखने लगते हैं.

चार आंखों का खेल : इश्क की लुकाछिपी

चार आंखों का खेल मेरी नजर में दुनिया का सब से रोमांचक व खूबसूरत खेल है कम से कम शुरू में तो ऐसा ही लगता है. इस खेल की सब से अच्छी बात यही है कि जो चार आंखें यह खेल खेलती हैं, इस खेलके बारे में बस उन्हीं को पता होता है. उन के आसपास रहने वालों को इस खेल का अंदाजा ही नहीं हो पाता है. मैं भी इस खेल में लगभग 1 साल पहले शामिल हुई थी. यहां मुंबई में जुलाई में बारिश का मौसम था. सोसायटी के गार्डन के ट्रैक पर फिसलने का डर था. वैसे मुझे बाहर सड़कों पर सैर करना अच्छा नहीं लगता. ट्रैफिक, स्कूलबसों के हौर्न का शोर, भीड़भाड़ से दूर मुझे अपनी सोसायटी के शांत गार्डन में सैर करना ही अच्छा लगता.

हां, तो बारिश के ही एक दिन मैं घर से 20 मिनट दूर एक दूसरे बड़े गार्डन में सैर के लिए जा रही थी. वहीं सड़क पर वह अपने बेटे को साइकिल चलाना सिखा रहा था. हम दोनों ने अचानक एकदूसरे को देखा. पहली बार आंखों से आंखें मिलते ही जो होना था, हो चुका था. यह शायद आंखों का ही दोष है. किसी की आंखों से किसी की आंखें मिल जाएं, तो फिर उस का कोई इलाज नहीं रहता. शायद इसी का नाम चार आंखों का खेल है.

हां, तो जब हम दोनों ने एकदूसरे को देखा तो कुछ हुआ. क्या, यह बताना उस पल का वर्णन करना, उस एहसास को शब्दों का रूप देना मुश्किल है. हां, इतना याद रहा कि उस पूरा दिन मैं चहकती रही, न घर आते हुए बसों के हौर्न बुरे लग रहे थे, न सड़क पर कुछ शोर सुनाई दे रहा था. सुबह के 7 बजे मैं हवा में उड़ती, चहकती घर लौट आई थी.

मेरे पति निखिल 9 बजे औफिस निकलते हैं. 22 वर्षीय बेटी कोमल कालेज के लिए 8 बजे निकलती है. मैं रोज की तरह कोमल को आवाज दे कर किचन संभालने में व्यस्त हो गई. दोनों के जाने के बाद मैं दिन भर एक अलग ही उत्साह में घिरी रही. अगले दिन भी मैं सैर करने के लिए फिर बाहर ही गई. वह फिर उसी जगह अपने बेटे को साइकिल चलाना सिखा रहा था. हमारी आंखें फिर मिलीं, तनमन एक पुलक से भरते चले गए. फिर अगले 3-4 दिन मेरे सामने यह स्पष्ट हो गया कि उसे भी मेरा इंतजार रहता है. वह बारबार मुड़ कर उसी तरफ देखता है जहां से मैं उस रोड पर आती हूं. मैं ने उसे दूर से ही बारबार देखते देख लिया था.

चार आंखों का खेल बहुत ही खूबसूरती से शुरू हो गया था. दोनों खिलाड़ी शायद हर सुबह का बेचैनी से इंतजार करने लगे थे. मैं संडे को सैर पर कभी नहीं जाती थी, ब्रेक लेती थी, पर अब मैं संडे को भी जाने लगी तो निखिल ने टोका, ‘‘अरे, संध्या कहां…?’’

‘‘सैर पर,’’ मैं ने कहा.

‘‘पर आज तो संडे है?’’

‘‘आंख खुल गई है, तो चली ही जाती हूं. तुम आराम करो, मैं अभी आई,’’ कह मैं तेज कदमों से भागी सी उस रोड पर चली जा रही थी. देखा, आज उस का बेटा नहीं था. सोचा संडे है, सो रहा होगा. आज वह अपनी पत्नी के साथ सैर कर रहा था. मैं ने गौर से उस की पत्नी को देखा. मुझे वह अच्छी लगी, काफी सुंदर व स्मार्ट थी. उस ने मुझे देखा, पत्नी की नजरें बचा कर आज पहली बार वह मुसकरा भी दिया तो मुझे लगा संडे को आना जैसे सार्थक हो गया.

अब कुछ तो जरूर था हम दोनों के बीच जिस ने मुझे काफी बदल दिया था. सुबह के इंतजार में मैं पूरा दिन, शाम, रात बिताने लगी थी. 10 दिन में ही मैं कितना बदल गई थी. पूरा दिन यह एहसास कि रोज सुबह इस उम्र में भी कोई आप का इंतजार कर रहा होगा, इतना ही बहुत है रोमांचित होने के लिए.

धीरेधीरे 1 महीना बीत गया. इस खेल के दोनों खिलाड़ी मुंह से कभी एक शब्द नहीं बोले थे. आंखें ही पूछती थीं, आंखें ही जवाब देती थीं.

एक दिन निखिल ने पूछा भी, ‘‘आजकल सोसायटी के गार्डन नहीं जा रही हो?’’

‘‘नहीं, फिसलने का डर रहता है.’’

‘‘पर तुम्हें तो सैर के समय बाहर का शोर अच्छा नहीं लगता?’’

‘‘हां, पर अब ठीक लग रहा है,’’ कहते हुए मन में थोड़ा अपराधबोध सा तो महसूस हुआ पर चूंकि इस खेल में मजा आने लगा था, इसलिए सिर झटक कर अगली सुबह का इंतजार करने लगी.

बारिश का मौसम खत्म हो गया था, पर मैं अब भी बाहर ही जा रही थी. अक्तूबर शुरू हो गया था. चार आंखों का खेल अब और भी रोमांचक हो चुका था. मैं उसे सिर्फ देखने के लिए बाहर का शोरगुल पसंद न होते हुए भी बाहर भागी चली जाती थी, पहले से ज्यादा तैयार, संजसंवर कर. नईनई टीशर्ट्स, ट्रैक पैंट में, स्टाइलिश शूज में, अपने शोल्डरकट बालों को कभी खुला छोड़ कर, कभी पोनीटेल बना कर, बढि़या परफ्यूम लगा कर षोडशी सी महसूस करती हुई भागी चली जाती थी. सैर तो हमेशा करती आई थी पर इतनी दिलकश सैर पहले कभी नहीं थी.

उस से आंखें मिलते ही कितने सवाल होते थे, आंखें ही जवाब देती थीं. कभी छुट्टी वाले दिन देर से जाने पर कभी अस्वस्थता के कारण नागा होता था, तो उस की आंखें एक शिकायत करती थीं, जिस का जवाब मैं आंखों में ही मुसकरा कर दे देती थी. कभी वह नहीं देखता था तो मैं उसे घूरती थी, वह भी मुसकरा देता था फिर. अजीब सा खेल था, बात करने की जरूरत ही नहीं थी. सुबह से देखने के बाद एक जादुई एहसास से घिरी रहती थी मैं. दिन भर न किसी बात पर गुस्सा आता था, न किसी बात से चिढ़ होती थी. शांत, खुश, मुसकराते हुए अपने घर के  काम निबटाती रहती थी.

निखिल हैरान थे. एक दिन कहने लगे, ‘‘अब तो बारिश भी गई, अब भी बाहर सैर करोगी?’’

‘‘हां, ज्यादा अच्छी और लंबी सैर हो जाती है, सालों से गार्डन में ही सैर कर के ऊब गई हूं.’’

‘‘ठीक है, जहां तुम्हें अच्छा लगे,’’ निखिल भी सैर पर जाते थे, पर जब मैं आ जाती थी, तब.

फिर कमरदर्द से संबंधित शारीरिक अस्वस्थता के कारण मुझे परेशानी होने लगी थी. सुबह 20 मिनट जाना, 20 मिनट आना, फिर आते ही नाश्ता, दोनों के टिफिन, मेरी परेशानी बढ़ रही थी. पहले मैं आधे घंटे में घर आ जाती थी. डाक्टर ने कुछ दिन सैर करने का समय कम करने के लिए कहा तो मैं बेचैन हो गई. मेरे तो रातदिन आजकल उसे सुबह देखने से जुड़े थे. उसे देखने का मतलब था सुबह उठ कर 20 मिनट चल कर जाना, 20 मिनट आना, 40 मिनट तो लगने ही थे. अपनी अस्वस्थता से मैं थकने लगी थी.

अब वहां जाने का नागा होने लगा था, क्योंकि आते ही किचन में मुझे 1 घंटा लगता ही था. मैं अब इतनी देर एकसाथ काम करती तो पूरा दिन मेरी तकलीफ बढ़ी रहती. अब क्या करूं? इतने दिनों से जो एक षोडशी की तरह उत्साहित, रोमांचित महसूस कर रही हूं, अब क्या होगा? सब छूट जाएगा?

निखिल परेशान थे, मुझे समझा रहे थे, ‘‘इतने सालों से यहीं सैर कर रही हो न. अब सुबह सैर पर मत जाओ, तुम्हें और भी काम होते हैं. शाम को फ्री रहती हो, आराम से उस समय सैर पर चली जाया करो. सुबह सब एकसाथ करती हो तो तुम्हारी तकलीफ बढ़ जाती है.’’

डाक्टर ने भी निखिल की बात पर सहमति जताई थी. पर मैं नहीं मानी. एक अजीब सी मनोदशा थी मेरी. शारीरिक रूप से आराम की जरूरत थी पर दिल को आराम उसे देखने से ही मिलता था. मैं उसे देखने के लिए बाहर जाती रही. पर अब नागे बहुत होते थे.

उस का बेटा अब तक साइकिल सीख चुका था. अब वह अकेला ही वहां दिखता था. चार आंखों का खेल जारी था. अपनी हैल्थ की चिंता न करते हुए मैं बाहर ही जाती रही.

पहली जनवरी की सुबह पहली बार उस ने मेरे पास से गुजरते हुए ‘हैप्पी न्यू ईयर’ बोला. मैं ने भी अपने कदम धीरे करते हुए ‘थैंक्स, सेम टू यू’ कहा, इतने दिनों के खेल में शब्दों ने पहली बार भाग लिया था. मन मयूर प्रफुल्लित हो कर नाच उठा.

अब मेरी तबीयत खराब भी रहती तो मैं निखिल और कोमल से छिपा लेती. दोनों के जाने के बाद दर्द से बेहाल हो कर घंटो बैड पर लेटी रहती. कोमल बेटी है, बिना बताए भी चेहरा देख कर मेरे दर्द का अंदाजा उसे हो जाता था, तो कहती थी, ‘‘मौम, आप को स्ट्रैस लेने से मना किया है डाक्टर ने. आप मौर्निंग वाक पर नहीं जाएंगी, अब आप शाम की सैर पर ही जाना.’’

पर मैं नहीं मानी, क्योंकि मैं तो दुनिया के सब से दिलकश खेल की खिलाड़ी थी.

मई का महीना आया तो मेरे मन की उथलपुथल बढ़ गई. मई में मैं ने हमेशा शाम की ही सैर की थी. मुझे जरा भी गरमी बरदाश्त नहीं है. 8-10 दिन तो मैं गई. मुंबई की चिपचिपी गरमी से सुबह ही बेहाल, पसीनेपसीने लौटती. आ कर कभी नीबू पानी पीती, तो कभी आते ही एसी में बैठ जाती पर कितनी देर बैठ सकती थी. किचन के काम तो सब से जरूरी थे सुबह.

इस गरमी ने तो मेरे मन के भाव ही बदल दिए. इस बार की गरमी तो इस चार आंखों के खेल का सब से महत्त्वपूर्ण पड़ाव बन कर सामने आई. बहुत कोशिश करने पर भी मैं गरमी में सुबह सैर पर रोज नहीं जा पाई. छुट्टी वाले दिन चली जाती, क्योंकि जब आते ही किचन में नहीं जाना पड़ता था. उसे देखने के मोह पर गरमी की तपिश भारी पड़ने लगी थी. पसीना पोंछती जाती. उसे देख कर जब वापस आती, तब यह सोचती कि नहीं, अब नहीं जाऊंगी. बहुत गरमी है. मैं कोई षोडशी थोड़े ही हूं कि अपने किसी आशिक को देखने सुबहसुबह भागी जाऊं. अरे, मैं एक मैच्योर औरत हूं, पति है, बेटी है और इतने महीनों से हासिल क्या हुआ? न मुझे उस से कोई अफेयर चलाना है, न मतलब रखना है किसी तरह का. जो हुआ, बस हो गया. इस का कोई महत्त्व थोड़े ही है. जैसेजैसे गरमी बढ़ रही थी, मेरी अक्ल ठिकाने आ रही थी.

सारा उत्साह, रोमांच हवा हो रहा था. गरमी, कमरदर्द और सुबह के कामों ने मिल कर मुझे इस खेल में धराशायी कर दिया था. दिल तो अब भी वहीं उसी पार्क के रोड पर जाने के लिए उकसाता था पर दिमाग अब दिल पर हावी होने लगा था.

मन में कहीं कुछ टूटा तो था पर खुद को समझा लिया था कि ठीक है, लाइफ है, होता है ऐसा कभीकभी. यह उम्र, यह समय, ये जिम्मेदारियां शायद इस खेल के लिए नहीं हैं.

चार आंखों के इस खेल में मैं ने अपनी हार स्वीकार ली थी और पहले की तरह अपनी सोसायटी के गार्डन में ही शाम की सैर पर जाना शुरू कर दिया था.

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