देह से परे: मोनिका ने आरव से कैसे बदला लिया?

लेखिका- निहारिका

लिफ्ट बंद है फिर भी मोनिका उत्साह से पांचवीं मंजिल तक सीढि़यां चढ़ती चली गई. वह आज ही अभी अपने निर्धारित कार्यक्रम से 1 दिन पहले न्यूयार्क से लौटी है. बहुत ज्यादा उत्साह में है, इसीलिए तो उस ने आरव को बताया भी नहीं कि वह लौट रही है. उसे चौंका देगी. वह जानती है कि आरव उसे बांहों में उठा लेगा और गोलगोल चक्कर लगाता चिल्ला उठेगा, ‘इतनी जल्दी आ गईं तुम?’ उस की नीलीभूरी आंखें मारे प्रसन्नता के चमक उठेंगी.

इन्हीं आंखों की चमक में अपनेआप को डुबो देना चाहती है मोनिका और इसीलिए उस ने आरव को बताया नहीं कि वह लौट रही है. उसे मालूम है कि आरव की नाइट शिफ्ट चल रही है, इसलिए वह अभी घर पर ही होगा और इसीलिए वह एयरपोर्ट से सीधे उस के घर ही चली आई है. डुप्लीकेट चाबी उस के पास है ही. एकदम से अंदर जा कर चौंका देगी आरव को. मोनिका के होंठों पर मुसकराहट आ गई.

वह धीरे से लौक खोल कर अंदर घुसी तो घर में सन्नाटा पसरा हुआ था. जरूर आरव सो रहा होगा. वह उस के बैडरूम की ओर बढ़ी. सचमुच ही आरव चादर ताने सो रहा था. मोनिका ने झुक कर उस का माथा चूम लिया.

‘‘ओ डियर अलीशा, आई लव यू,’’ कहते हुए आंखें बंद किए ही आरव ने उसे अपने ऊपर खींच लिया. लेकिन अलीशा सुनते ही मोनिका को जैसे बिजली का करैंट सा लगा. वह छिटक पड़ी.

‘‘मैं हूं, मोनिका,’’ कहते हुए उस ने लाइट जला दी. लेकिन लाइट जलते हो वह स्तब्ध हो गई. आरव की सचाई बेहद घृणित रूप में उस के सामने थी. जिस रूप में आरव और अलीशा वहां थे, उस से यह समझना तनिक भी मुश्किल नहीं था कि उस कमरे में क्या हो रहा था. मोनिका भौचक्की रह गई. उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उसे अपने जीवन में ऐसा दृश्य देखना पड़ेगा. आरव को दिलोजान से चाहा है उस ने. उस के साथ जीवन बिताने और एक सुंदर प्यारी सी गृहस्थी का सपना देखा है, जहां सिर्फ और सिर्फ खुशियां ही होंगी, प्यार ही होगा. लेकिन आरव ऐसा कुछ भी कर सकता है यह तो वह सपने में भी नहीं सोच पाई थी. पर सचाई उस के सामने थी.

इस आदमी से उस ने प्यार किया. इस गंदे आदमी से. घृणा से उस की देह कंपकंपा उठी. अपने नीचे गिरे पर्स को उठा कर और आरव के फ्लैट की चाबी वहीं पटक कर वह बाहर निकल आई. खुली हवा में आ कर उसे लगा कि बहुत देर से उस की सांस रुकी हुई थी. उस का सिर घूम रहा था, उसे मितली सी आ रही थी, लेकिन उस ने अपनेआप को संभाला. लंबीलंबी सांसें लीं. तभी आरव के फ्लैट का दरवाजा खुला और आरव की धीमी सी आवाज आई, ‘‘मोनिका, प्लीज मेरी बात सुनो. आई एम सौरी यार.’’

लेकिन जब तक वह मोनिका के पास पहुंचता वह लिफ्ट में अंदर जा चुकी थी. इत्तफाक से नीचे वही टैक्सी वाला खड़ा था जिस से वह एयरपोर्ट से यहां आई थी. टैक्सी में बैठ कर उस ने संयत होते हुए अपने घर का पता बता दिया. टैक्सी ड्राइवर बातूनी टाइप का था. पूछ बैठा, ‘‘क्या हुआ मैडम, आप इतनी जल्दी वापस आ गईं? मैं तो अभी अपनी गाड़ी साफ ही कर रहा था.’’

ये भी पढ़ें- Father’s Day Special: मुझे पापा कहने का हक है

‘‘जिस से मिलना था वह घर पर नहीं था,’’ मोनिका ने कहा, लेकिन आवाज कहीं उस के गले में ही फंसी रह गई. ड्राइवर ने रियर व्यू मिरर से उस को देखा फिर खामोश रह गया. अच्छा हुआ कि वह खामोश रह गया वरना पता नहीं मोनिका कैसे रिऐक्ट करती. उस की आंखों में आंसू थे, लेकिन दिमाग गुस्से से फटा जा रहा था. क्या करे, क्या करे वह?

आरव ने कई बार उस से कहा था कि आजकल सच्चा प्यार कहां होता है? प्यार की तो परिभाषा ही बदल चुकी है आज. सब कुछ  ‘फिजिकल’ हो चुका है. लेकिन मोनिका ने कभी स्वीकार नहीं किया इस बात को. वह कहती थी कि जो ‘फिजिकल’ होता है वह प्यार नहीं होता. कम से कम सच्चा प्यार तो नहीं ही होता. प्यार तो हर दुनियावी चीज से परे होता है. आरव उस की बातों पर ठहाका लगा कर हंस देता था और कहता था कि कम औन यार, किस जमाने की बातें कर रही हो तुम? अब शरतचंद के उपन्यास के देवदास टाइप का प्यार कहां होता है?

आरव के तर्कों को वह मजाक समझती थी, सोचती थी कि वह उसे चिढ़ा रहा है, छेड़ रहा है. लेकिन वह तो अपने दिल की बात बता रहा होता था. अपनी सोच को उस के सामने रख रहा होता था और वह समझी ही नहीं. उस की सोच, उस के सिद्धांत इस रूप में उस के सामने आएंगे इस की तो कभी कल्पना भी नहीं की थी उस ने. लेकिन वास्तविकता तो यही है कि सचाई उस के सामने थी और अब हर हाल में उसे इस सचाई का सामना करना था.

मोनिका का यों गुमसुम रहना और सारे वक्त घर में ही पड़े रहना उस के डैडी शशिकांत से छिपा तो नहीं था. आज उन्होंने ठान लिया था कि मोनिका से सचाई जान ही लेनी है कि आखिर उसे हुआ क्या है और कुछ भी कर के उसे जीवन की रफ्तार में लाना ही है.

वे, ‘‘मोनिका, माई डार्लिंग चाइल्ड,’’ आवाज देते उस के कमरे में घुसे तो हमेशा की तरह गुडमौर्निंग डैडी कहते हुए मोनिका उन के गले से नहीं झूली. सिर्फ एक बुझी सी आवाज  में बोली, ‘‘गुडमौर्निंग डैडी.’’

‘‘गुडमौर्निंग डियर, कैसा है मेरा बच्चा?’’ शशिकांत बोले.

‘‘ओ.के डैडी,’’ मोनिका ने जवाब दिया. शशिकांत और उन की दुलारी बिटिया के बीच हमेशा ऐसी ही बातें नहीं होती थीं. जोश, उत्साह से बापबेटी खूब मस्ती करते थे, लेकिन आज वैसा कुछ भी नहीं है. शशिकांत जानबूझ कर हाथ में पकड़े सिगार से लंबा कश लगाते रहे, लेकिन मोनिका की ओर से कोई रिऐक्शन नहीं आया. हमेशा की तरह ‘डैडी, नो स्मोकिंग प्लीज,’ चिल्ला कर नहीं बोली वह. शशिकांत ने खुद ही सिगार बुझा कर साइड टेबल पर रख दिया. मोनिका अब भी चुप थी.

‘‘आर यू ओ.के. बेटा?’’ शशिकांत ने फिर पूछा.

‘‘यस डैडी,’’ कहती मोनिका उन के कंधे से लग गई. मन में कुछ तय करते शशिकांत बोले, ‘‘ठीक है, फिर तुझे एक असाइनमैंट के लिए परसों टोरैंटो जाना है. तैयारी कर ले.’’

‘‘लेकिन डैडी…,’’ मोनिका हकलाई.

‘‘लेकिन वेकिन कुछ नहीं, जाना है तो जाना है. मैं यहां बिजी हूं. तू नहीं जाएगी तो कैसे चलेगा?’’ फिर दुलार से बोले, ‘‘जाएगा न मेरा बच्चा? मुझे नहीं मालूम तुझे क्या हुआ है. मैं पूछूंगा भी नहीं. जब ठीक समझना मुझे बता देना. लेकिन बेटा, वक्त से अच्छा डाक्टर कोई नहीं होता. न उस से बेहतर कोई मरहम होता है. सब ठीक हो जाएगा. बस तू हिम्मत नहीं छोड़ना. खुद से मत हारना. फिर तू दुनिया जीत लेगी. करेगी न तू ऐसा, मेरी बहादुर बेटी?’’

कुछ निश्चय सा कर मोनिका ने हां में सिर हिलाया. शशिकांत का लंबाचौड़ा रेडीमेड गारमैंट्स का बिजनैस है जो देशविदेश में फैला हुआ है. उस के लिए आएदिन ही उन्हें या मोनिका को विदेश जाना पड़ता है. मोनिका की उम्र अभी काफी कम है फिर भी अपने डैडी के काम को बखूबी संभालती है वह. इसलिए मोनिका के हां कहते ही शशिकांत निश्चिंत हो गए. वे जानते हैं कि उन की बेटी कितना भी बिखरी हो, लेकिन उस में खुद को संभालने की क्षमता है. वह खुद को और अपने डैड के बिजनैस को बखूबी संभाल लेगी.

निश्चित दिन मोनिका टोरैंटो रवाना हो गई. मन में दृढ़ निश्चय सा कर लिया उस ने कि आरव जैसे किसी के लिए भी वह अपना जीवन चौपट नहीं करेगी. अपने प्यारे डैड को निराश नहीं करेगी. सारा दिन खूब व्यस्त रही वह. आरव क्या, आरव की परछाईं भी याद नहीं आई. लेकिन शाम के गहरातेगहराते जब उस की व्यस्तता खत्म हो गई, तो आरव याद आने लगा. आदत सी पड़ी हुई है कि खाली होते ही आरव से बातें करती है वह. दिन भर का हालचाल बताना तो एक बहाना होता है. असली मकसद तो होता है आरव को अपने पास महसूस करना लेकिन आज? आज आरव की याद आते ही उस से अंतिम मुलाकात ही याद आई. थोड़ी देर बाद मोनिका जैसे अपने आपे में नहीं थी. वह कहां है, क्या कर रही है, उसे कुछ भी होश नहीं था. सिर्फ और सिर्फ आरव और अलीशा की तसवीर

उस की आंखों के सामने घूम रही थी. उसे अपनी हालत का तनिक भी भान नहीं था कि वह होटल के बार में बैठी क्या कर रही है और यह स्मार्ट सा कनाडाई लड़का उसी के बगल में बैठा उसे क्यों घूर रहा है? फिर अचानक ही उस ने मोनिका का हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘‘मे आई हैल्प यू? ऐनी प्रौब्लम?’’

मोनिका जैसे होश में आई. अरे, उस की आंखों से तो आंसू झर रहे हैं. शायद इसीलिए उस लड़के ने मदद की पेशकश कर दी होगी. फिर उस ने अपना गिलास मोनिका की ओर बढ़ा दिया जिसे बिना कुछ सोचेसमझे मोनिका पी गई.

बदला…बदला लेना है उसे आरव से. उस ने जो किया उस से सौ गुना बेवफाई कर के दिखा देगी वह. कनाडाई लड़का एक के बाद एक भरे गिलास उस की ओर बढ़ाता रहा और वह गटागट पीती रही और फिर उसे कोई होश नहीं रहा. थोड़ी देर बाद वह संभली तो अपने रूम में लौटी. फिर दिन गुजरते गए और  मोनिका जैसे विक्षिप्त सी होती गई. अपने डैडी के काम को वह जनून की तरह करती रही. आएदिन विदेश जाना फिर लौटना. इसी भागदौड़ भरी जिंदगी में 6-7 महीने पहले यहीं इंडिया में वह अदीप से मिली और न जाने क्यों धीरेधीरे अदीप बहुत अपना सा लगने लगा.

आरव के बाद वह किसी और से नहीं जुड़ना चाहती थी, लेकिन अदीप उस के दिल से जुड़ता ही जा रहा था. किसी के साथ न जुड़ने की अपनी जिद के ही कारण वह हर बार विदेश से लौट कर सीधेसपाट शब्दों में अपनी वहां बिताई दिनचर्या के बारे में अदीप को बताती रहती थी. कभी न्यूयार्क कभी टोरैंटो, कभी पेरिस तो कभी न्यूजर्सी.

नई जगह, नया पुरुष या वही जगह लेकिन नया पुरुष. ‘मैं किसी को रिपीट नहीं करती’ कहती मोनिका किस को बेवकूफ बनाने की कोशिश कर रही थी, खुद को ही न? और ऐसे में अदीप के चेहरे पर आई दुख और पीड़ा की भावना को क्या सचमुच ही नहीं समझ पाती थी वह या समझना नहीं चाहती थी? लेकिन यह भी सच था कि दिन पर दिन अदीप के साथ उस का जुड़ाव बढ़ता ही जा रहा था.

उस की इस तरह की बातों पर अदीप कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त करता था, लेकिन एक दिन उस ने मोनिका से पूछा, ‘‘आरव से बदला लेने की बात करतेकरते कहीं तुम खुद भी आरव तो नहीं बन गईं मोनिका?’’

ये भी पढ़ें- Short Story: कोरोना के तांत्रिक बाबा

‘‘नहीं…’’ कह कर, चीख उठी मोनिका, ‘‘आरव का नाम भी न लेना मेरे सामने.’’

‘‘नाम न भी लूं, लेकिन तुम खुद से पूछो क्या तुम वही नहीं बनती जा रहीं, बल्कि शायद बन चुकी हो?’’ अदीप फिर बोला.

‘‘नहीं, मैं आरव से बदला लेना चाहती हूं. उसे बताना चाहती हूं कि फिजिकल रिलेशन सिर्फ वही नहीं बना सकता मैं भी बना सकती हूं और उस से कहीं ज्यादा. मैं उसे दिखा दूंगी.’’ मुट्ठियां भींचती वह बोली. लेकिन न जाने क्यों उस की आंखें भीग गईं. अदीप की गोद में सिर रख कर वह यह कहते रो दी, ‘‘मैं सच्चा प्यार पाना चाहती थी. ऐसा प्यार जो देह से परे होता है और जिसे मन से महसूस किया जाता है. पर मुझे मिला क्या? मेरे साथ तो कुछ हुआ वह तुम काफी हद तक जानते हो. अगर ऐसा न होता तो मैं उस से कभी बेवफाई न करती.’’ मोनिका की हिचकियां बंध गई थीं. अदीप कुछ नहीं बोला सिर्फ उस के बालों में उंगलियां फिराता उसे सांत्वना देता रहा.

कुछ देर रो लेने के बाद मोनिका सामान्य हो गई. सीधी बैठ कर वह अदीप से बोली, ‘‘मुझे कल न्यूयार्क जाना है. 3 दिन वहां रुकंगी. फिर वहां से पेरिस चली जाऊंगी और 4 हफ्ते बाद लौटूंगी.’’ अदीप कुछ नहीं बोला. दोनों के बीच एक सन्नाटा सा पसरा रहा. कुछ देर बाद मोनिका उठी और बोली, ‘‘मैं चलूं.? मुझे तैयारी भी करनी है.’’

मोनिका आरव से बहुत प्यार करती थी. मगर उस ने ही उसे धोखा दिया. फिर आरव से बदला लेने के लिए मोनिका ने कौन सा रास्ता चुना…

‘‘मैं तुम्हारा इंतजार करूंगा,’’ हर बार की तरह इस बार भी अदीप का छोटा सा जवाब था.

एकाएक तड़प उठी मोनिका, ‘‘क्यों मेरा इंतजार करते हो तुम अदीप? और सब कुछ जानने के बाद भी. हर बार विदेश से लौट कर मैं सब कुछ सचसच बता देती हूं. फिर भी तुम क्यों मेरा इंतजार करते हो?’’

अदीप सीधे उस की आंखों में झांकता हुआ बोला, ‘‘क्या तुम सचमुच नहीं जानतीं मोनिका कि मैं तुम्हारा इंतजार क्यों करता हूं? मेरे इस प्रेम को जब तक तुम नहीं पहचान लेतीं, जब तक स्वीकार नहीं कर लेतीं, मैं तुम्हारा इंतजार करूंगा.’’

मोनिका की हिचकियां सी बंध गईं. अदीप के कंधे से लगी वह सुबक रही थी और अदीप उस की पीठ थपक रहा था. देह परे, मोनिका और अदीप का निश्छल प्रेम दोनों के मन को भिगो रहा था.

ये भी पढ़ें- कॉलगर्ल: होटल में उस रात क्या हुआ

धमाका: क्यों शेफाली की जिंदगी बदल गई?

वह है शेफाली. मात्र 24-25 वर्ष की. सुंदर, सुघड़, कुंदन सा निखरा रूप एवं रंग ऐसा जैसे चांद ने स्वयं चांदनी बिखेरी हो उस पर. कालेघुंघराले बाल मानों घटाएं गहराई हों और बरसने को तत्पर हों. किंतु उस धमाके ने उसे ऐसा बना दिया गोया एक रंगबिरंगी तितली अपनी उड़ान भरना भूल गई हो, मंडराना छोड़ दिया हो उस ने.

मुझे याद है जब हम पहली बार पैरिस में मिले थे. उस ने होटल में चैकइन किया था. छोटी सी लाल रंग की टाइट स्कर्ट, काली जैकेट और ऊंचे बूट पहने बालों को बारबार सहेज रही थी. मेरे पति भी होटल काउंटर पर जरूरी औपचारिकता पूरी कर रहे थे. हम दोनों को ही अपनेअपने कमरे के नंबर व चाबियां मिल गई थीं. दोनों के कमरे पासपास थे. दूसरे देश में 2 भारतीय. वह भी पासपास के कमरों में. दोस्ती तो होनी ही थी. मैं अपने पति व 2 बच्चों के साथ थी और वह आई थी हनीमून पर अपने पति के साथ.

मैं ने कहा, ‘‘हाय, मैं रुचि.’’ उस ने भी हाथ बढ़ाते हुए मुसकरा कर कहा, ‘‘आई एम शेफाली. आप की बेटी बहुत स्वीट है.’’ उस की मुसकराहट ऐसी थी गोया मोतियों की माला पिरोई हो 2 पंखुडि़यों के बीच. रात के खाने के समय बातचीत में मालूम हुआ कि उन्होंने भी वही टूर बुक किया था जो हम ने किया था. अगले ही दिन मैं अपने परिवार के साथ और वह अपने पति के साथ निकल पड़ी ऐफिल टावर देखने, जोकि पैरिस का मुख्य आकर्षण एवं 7 अजूबों में से एक है. वहां पहुंच वह तो बूट पहने भी खटखट करती सीढि़यां चढ़ गई, मगर मैं बस 2 फ्लोर चढ़ कर ही थक गई और फिर वहीं से लगी पैरिस के नजारे देखने और फोटो खिंचवाने. वह और ऊपर तक गई और फिर थोड़ी ही देर में अपने पति के कंधों पर अपने शरीर का बोझ डाल कर व उस की कमर पकड़े चलती हुई लौट आई. हमारे पास आ कर जब उस ने कहा कि क्या आप हमारे फोटो खींचेंगे तो मैं ने कहा हांहां क्यों नहीं?

ये भी पढ़ें- Family Story in Hindi: दूरियां- क्यों अपने बेटे को दोषी मानता था उमाशंकर

वह अलगअलग पोज में फोटो खिंचवा रही थी और जब मन होता अपने डायमंड से सजे फोन से सैल्फी भी ले लेती. इस के बाद हम चले पैलेस औफ वर्साइल्स के लिए जोकि अब म्यूजियम में तबदील हो गया है. वहां के लिए स्पैशल ट्रेन चलती है. उस की कुरसियां मखमल के कपड़े से ढकी थीं और ट्रेन में पैलेस के चित्र बने थे. वे दोनों पासपास बैठे एकदूसरे से प्यार भरी छेड़छाड़ कर रहे थे. न चाहते हुए भी मेरा ध्यान उन पर चला ही जाता. आरामदेह और एसी वाली ट्रेन से हम पैलेस औफ वर्साइल्स पहुंचे. इतना बड़ा पैलेस और उस का बगीचा देखते ही बनता था. बगीचे में लगे फुहारे उस की शान को दोगुना कर रहे थे. उस पैलेस की मशहूर चीज है मोनालिसा की पेंटिंग जिसे देखने भीड़ उमड़ी थी. वह उस भीड़ को चीरते हुए आगे जा कर पेंटिंग के फोटो ले आई और मिहिर को इतनी खुशी से दिखा रही थी गोया उस ने कोई किला जीत लिया हो.

पैलेस में यूरोपियन सभ्यता को दर्शाते सफेद पुतले भी हैं, जिन में पुरुष व स्त्रियां वैसे ही नग्न दिखाई गई हैं जैसेकि हमारे अजंताऐलोरा की गुफाओं में. कोई भी पुरुष उन्हें देख अपना नियंत्रण खो ही देगा. वही मिहिर के साथ हुआ और उस ने शेफाली के गालों और होंठों को चूम ही लिया. वैसे भी यूरोप में सार्वजनिक जगहों पर लिप किस तो आम बात है. पति के किस करने पर शेफाली इस तरह इधरउधर देखने लगी कि उन्हें ऐसा करते किसी ने देखा तो नहीं. फिर हम साइंस म्यूजियम, गार्डन आदि सभी जगहें घूम आए. अब था वक्त शौपिंग का. मैं तो हर चीज के दाम को यूरो से रुपए में बदल कर देखती. हर चीज बहुत महंगी लग रही थी. और शेफाली, वह तो इस तरह शौपिंग कर रही थी जैसे कल तो आने वाला ही न हो. हर पल को तितली की तरह मस्त हो कर जी रही थी वह. बस एक ही दिन और बचा था उस का व हमारा वहां पर. अत: शाम को मैट्रो स्टेशन, जोकि अंडरग्राउंड होते हैं और उन में दुकानें भी होती हैं, में भी वह शौपिंग करने लगी. फिर वापसी में जैसे ही हम ट्रेन पकड़ने को दौड़े तो वह पीछे रह गई. हम सब के ट्रेन में चढ़ते ही ट्रेन के दरवाजे बंद हो गए और वह रवाना हो गई. मैं चलती ट्रेन से उसे देख रही थी. एक बार को तो लगा कि अब क्या होगा? लेकिन अगले ही स्टेशन पर हम उतरे और उस का पति उलटी दिशा में जाती ट्रेन में चढ़ कर उसे 5 ही मिनट में ले आया.

ये भी पढ़ें- Family Story in Hindi: दिशाएं और भी हैं

मैं ने जब उस से पूछा कि तुम्हें डर नहीं लगा तो वह कहने लगी कि बिलकुल नहीं. उसे मालूम था कि मिहिर उसे लेने जरूर आएगा. मैं सोच रही थी कि कितने कम समय में वह अपने पति को पूरी तरह पहचान गई है. होटल में रात के खाने के समय वह हमारे पास आ कर कहने लगी कि भारत जा कर न जाने हम मिलें न मिलें, इसलिए चलिए आज साथ ही खाना खाते हैं. मेरी 7 वर्षीय बेटी उस से बहुत हिलमिल गई थी. अगले दिन सुबह हम वक्त से पहले तैयार हो गए. नाश्ता कर अपने पैरिस के अंतिम दिन का लुत्फ उठाने होटल से सड़क पर आ गए. अपने टूर की बस की राह देखते हुए चहलकदमी कर ही रहे थे कि तभी एक जोर के धमाके की आवाज आई और फिर न जाने कहां से कुछ लोग आ कर धायंधायं गोलियां बरसाने लगे. जिसे जहां जगह मिली छिप गया. मेरे पति बेटी को गोद में उठा कर भाग रहे थे और मेरा बेटा मेरे साथ भाग रहा था. मैं एक कार के पीछे छिप गई थी. तभी शेफाली का भागते हुए पैर मुड़ गया. उस का पति उसे गोद में ले कर भागा, किंतु इसी बीच 1 गोली उस के पैर में व 1 पीठ में लग गई. अगले ही पल शेफाली चीखचीख कर पुकार रही थी कि मिहिर उठो, मिहिर भागो. पर शायद मिहिर इस दुनिया को अलविदा कह चुका था. बाद में मालूम हुआ वह एक आतंकी हमला था. पुलिस वहां पहुंच चुकी थी. बंदूकधारी वहां से भाग चुके थे. मैं यह सब कार के पीछे छिपी देख रही थी. पुलिस वाले मिहिर को अस्पताल ले गए, जहां उसे मृत घोषित कर दिया गया.

मैं शेफाली को संभालने की कोशिश कर रही थी. उस का रोरो कर बुरा हाल था. शाम को जिस विमान से हनीमून का जोड़ा लौटने वाला था उस तक सिर्फ शेफाली जीवित पहुंची और मिहिर की लाश. हम भारत अपने शहर मुंबई पहुंचे फिर अगले ही दिन दिल्ली शेफाली के घर पहुंचे. उस के घर मातम पसरा था. शेफाली तो पत्थर हो चुकी थी. न हंसती थी न बोलती थी. हां, मुझे देख कर मुझ से लिपट कर रो पड़ी. मैं उस से कह रही थी, ‘‘रो मत शेफाली. सब ठीक हो जाएगा.’’ किंतु मैं स्वयं अपनेआप को नहीं रोक पा रही थी. वह धमाका जो हम ने एकसाथ सुना था, शायद हम उसे हादसा समझ भूल जाएं, लेकिन शेफाली की तो उस ने दुनिया ही उजाड़ दी थी. तब से वह पत्थर की मूर्ति बन गई है. ऐसा लगता है जैसे एक तितली के पर कट गए हों और वह उड़ान भरना भूल गई हो. मैं अब भी सोचती रहती हूं कि काश, वह धमाका न हुआ होता.

Family Story in Hindi- परीक्षा: क्यों सुषमा मायके जाना चाहती थी?

पतझड़ के बाद: कैसे बदली सांवली काजल की जिंदगी?

लेखिका- अंजु गुप्ता ‘प्रिया’

‘‘काजल बेटी, ड्राइवर गाड़ी ले कर आ गया है, बारिश थम जाने के  बाद चली जाती,’’ मां ने खिड़की के पास खड़ी काजल से कहा.

‘‘नहीं, मां, दीपक मेरा इंतजार करते होंगे. मुझे अब जाना चाहिए,’’ कह कर काजल ने मांबाबूजी से विदा ली और गाड़ी में बैठ गई.

बरसात अब थोड़ी थम गई थी और मौसम सुहावना हो चला था. कार में बैठेबैठे काजल के स्मृतिपटल पर अतीत की लकीरें फिर से खिंचने लगीं.

आज यह ड्रामा उस के साथ छठी बार हुआ था. वरपक्ष के लोग, जिन के लिए मांबाबूजी सुबह से ही तैयारी में लगे रहते, काजल से फिर वही जिद की जाती कि वह जल्दी से अच्छी तरह तैयार हो जाए. मेकअप से चेहरा थोड़ा ठीक कर ले पर काजल का कुछ करने का मन न करता. मां के तानों से दुखी हो वह बुझे मन से फिर भी एक आशा के साथ मेहमानों के लिए नाश्ते की ट्रे ले कर प्रस्तुत होती.

पिताजी कहते, ‘बड़ी सुशील व सुघड़ है हमारी काजल. बी.ए. प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया है.

मां भी काजल के बनाए व्यंजनों की तारीफ करना नहीं भूलतीं पर सब व्यर्थ. वर पक्ष के लोग काजल के गहरे काले रंग को देखते ही मुंह बिचका देते और बाद में जवाब देने का वादा कर मूक इनकार का प्रदर्शन कर ही जाते.

आज भी ऐसा ही हुआ और हमेशा की भांति फिर शुरू हुआ मां का तानाकशी का पुराण. बूआ भी काजल की बदसूरती का वर्णन अप्रत्यक्ष ढंग से करते हुए आग में घी डालने का कार्य करतीं. वैसे हमदर्दी का दिखावा करते हुए कहतीं, ‘बेचारी के भाग्य की विडंबना है. कितनी सीधी और सुघड़, हर कार्य में निपुण है, पर कुदरत ने इसे इतना कालाकलूटा तो बनाया ही अच्छे नाकनक्श भी नहीं दिए. ऐसे में भला कौन सा सुंदर नौजवान शादी के लिए इस के साथ हामी भरेगा. हां, कोई उस से उन्नीस हो तो कुछ बात बन जाए.’

काजल कुछ भी न कह पाती और अपनी किस्मत पर सिसकसिसक कर रो पड़ती. अब तो उस की आंखों के आंसू भी सूखने लगे थे. उस के साथ एक विडंबना यह भी थी कि पैदा होते ही उस की मां चिरनिद्रा में सो गईं. पिताजी ने घर वालों व बहनों के कहने पर दूसरी शादी कर ली.

नई मां जितनी खूबसूरत थी उतनी ही खूबसूरती से उस ने काजल के प्रति प्यार जताया था पर जब से उस ने सोनाली व सुंदरी जैसी खूबसूरत बेटियों को जन्म दिया था काजल के प्रति उस का प्यार लुप्त हो गया था.

काजल इस घर में मात्र काम करने वाली एक मशीन बन कर रह गई थी. छोटी बहनों को घर के काम करने से एलर्जी थी. घर की हर छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी जिम्मेदारी लदती तो सिर्फ काजल पर. वैसे मां भी जानती थी कि काजल से उसे कितना सहारा है. कभीकभी तो वह कह देती कि काजल न हो तो घर का एक पत्ता भी न हिले पर ये सब औपचारिक बातें थीं.

ये भी पढ़ें – और्डर

मां को नाज था तो सिर्फ अपनी बेटियों पर कि उन्हें तो कोई भी राजकुमार स्वयं मुंह से मांग कर ले जाएगा और ऐसा हुआ भी.

बड़ी बेटी सोनाली अपनी सखी की शादी में गई और वहां कुंवर को पसंद आ गई. पिताजी ने तो कहा कि पहले काजल के हाथ पीले हो जाएं. मां के यह कहने पर कि बड़ी के चक्कर में वे अपनी दोनों बेटियों को कुंवारी नहीं रख सकती, वे थोड़ा आहत भी हो गए थे.

बड़ी बेटी सोनाली की शादी के बाद तो मां को बस छोटी बेटी सुंदरी की चिंता थी पर हुआ यह कि जब काजल को 7वीं बार दिखाया गया उस दौरान सुंदरी के रूप की आभा ने मनोहर का मन हर लिया और वह काजल के बजाय सुंदरी को अपनी घर की शोभा बना कर ले गया.

अब रह गई तो सिर्फ काजल. बाबूजी जब कहते कि काजल के हाथ पीले हो जाते तो इस की मां की आत्मा को शांति मिलती तो मां जवाब देने से न चूकती, ‘काजल का विवाह नहीं हुआ तो इस में मेरा क्या दोष. इस का भाग्य ही खोटा है. मैं ने तो कभी कोई कसर नहीं छोड़ी. इस के चक्कर में मैं अपनी बेटियों को उम्र भर कुंवारी तो नहीं रख सकती थी. 32 की तो यह हो गई. मुझे तो 40 तक इस के आसार नजर नहीं आते.’

फिर भी पिताजी काजल के लिए सतत प्रयत्नशील रहते. काजल भी पिता की सहनशक्ति के आगे चुप थी पर जब पिताजी ने फिर से यह ड्रामा एक बार दोहराने को कहा तो काजल में न जाने कहां से पिताजी का विरोध करने की शक्ति आ गई और जोर की आवाज में कह ही दिया, ‘नहीं, अब और नहीं. पिताजी, मुझ पर दया करो. अपमान का घूंट मैं बारबार न पी सकूंगी, पिताजी. मुझ अभागिन को बोझ समझते हो तो मैं नौकरी कर अपना निर्वाह खुद करूंगी.’

काजल ने इस बार किसी की परवा न करते हुए एक बुटीक में नौकरी कर ली. अब उस की दिनचर्या और भी व्यस्त हो गई. घर के अधिकांश कार्य वह सवेरे तड़के निबटा कर नौकरी पर जाती और शाम तक व्यस्त रहती. रात को सारा काम निबटा कर ही सोती.

अब उसे उदासी के लिए समय ही न मिलता. काम में व्यस्त रह कर वह संतुष्ट रहती. उस की कोई सखीसहेली भी नहीं थी जिस के साथ अपना सुखदुख बांटती. परिवार के सदस्यों के बीच उस ने अपने को हमेशा तनहा ही पाया था पर अब उसे विदुषी जैसी एक अच्छी सहेली मिल गई थी. विदुषी ने ही काजल को अपने यहां नौकरी पर रखा था. वह काजल की कार्य- कुशलता व उस के सौम्य स्वभाव से बहुत प्रभावित थी. उस ने काजल को प्रोत्साहित किया कि वह अपने में थोड़ा परिवर्तन लाए और जमाने के साथ चले.

उस ने काजल को चुस्त, स्मार्ट और सुंदर दिखने के सभी तौरतरीके बताए. काजल पर विदुषी की बातों का गहरा प्रभाव पड़ा. उस के व्यक्तित्व में गजब का बदलाव आया था.

एक दिन विदुषी ने काजल को अपने घर डिनर पर आमंत्रित किया. शाम को जब वह उस के घर पहुंची तो  बड़ी उम्र के एक बदसूरत से युवक ने दरवाजा खोला. तभी विदुषी की आवाज कानों में पड़ी, ‘अरे, महेश, काजल को बाहर ही खड़ा रखोगे या अंदर भी लाओगे… काजल, यह मेरे पति महेश और महेश, यह काजल,’ दोनों का परिचय कराते हुए विदुषी ने चाय की ट्रे मेज पर रख दी.

ये भी पढ़ें – वाइट पैंट – जब 3 सहेलियों के बीच प्यार ने दी दस्तक

काजल थोड़ा अचंभित थी, इस विपरीत जोड़े को देख कर, ‘सच विदुषी कितनी खूबसूरत, कितनी स्मार्ट है और ऊपर से अपना खुद का व्यापार करती है. कितने खूबसूरत ड्रेसेज का प्रोडक्शन करती है, औरों को भी खूबसूरत बनाती है, और कहां उस का यह पति. काला, मुंह पर चेचक के दाग…’

काजल अभी सोच ही रही थी कि फोन की घंटी बजी. महेश ने फोन रिसीव कर विदुषी और काजल से जाने की इजाजत मांगी. अर्जेंट केस होने की वजह से वह फौरन गाड़ी ले कर रवाना हो गया.

उस के जाने के बाद खाना खाते हुए काजल ने विदुषी से कहा, ‘‘दीदी, क्या आप का प्रेम विवाह…’’

विदुषी ने बात काटते हुए कहा, ‘हां, मेरा प्रेम विवाह हुआ है. मेरे पति महेश भौतिक सुंदरता के नहीं, मन की सुंदरता के मालिक हैं और मुझे ऊंचा उठाने में मेरे पति का ही श्रेय है.  उन्होंने हर पल मेरा साथ दिया.’

विदुषी ने बताया कि एक एक्सीडेंट के दौरान उन का पूरा परिवार खत्म हो गया था और उन के बचने की भी कोई उम्मीद नहीं थी. ऐसे में उन्हें डाक्टर महेश ने ही संभाला और टूटने से बचाया. जहां मन मिल जाते हैं वहां सुंदरताकुरूपता का कोई अर्थ नहीं होता.

काजल यह सुन कर द्रवित हो उठी थी. खाना खत्म कर काजल ने जाने की इजाजत मांगी. विदुषी से विदा हो कर वह कुछ दूर ही चली थी कि उस ने देखा एक स्कूटर सवार तेजी से एक रिकशे को टक्कर मार कर आगे निकल गया. रिकशे में बैठे वृद्ध दंपती अपने पर नियंत्रण न रख सके और वृद्ध पुरुष रिकशे से गिर पड़ा. उस की पत्नी घबरा कर सहायता के लिए चिल्लाने लगी.

सड़क पर ज्यादा भीड़ नहीं थी. काजल भागीभागी उन के  पास पहुंची. उस ने वृद्धा को ढाढस बंधाते हुए उन की दवाइयां जो सड़क पर गिर गई थीं, समेटीं और वृद्ध को सहारा दे कर उठाया. उस की कुहनियां छिल गई थीं और खून बह रहा था. काजल ने पास में ही एक डाक्टर के क्लिनिक पर ले जा कर उस वृद्ध की ड्रेसिंग कराई.

उस वृद्धा ने काजल को आशीर्वाद देते हुए बताया कि वे कुछ ही दूरी पर रहते हैं. तबीयत खराब होने के कारण डाक्टर को दिखा कर घर वापस जा रहे थे. काजल ने उन्हें उन के घर के पास तक छोड़ कर विदा ली.

वृद्ध पुरुष ने, जिन का नाम उमाकांत था, कहा, ‘बेटी, तुम कल आने का वादा कर के जाओ.’

उन्होंने इतने प्यार से, विनम्रता से निवेदन किया था कि काजल इनकार न कर सकी.

घर में घुसते ही मां ने उसे आड़े हाथों लिया. पिताजी ने भी देरी का कारण न पूछते हुए मौन निगाहों से काजल को देखा और बिना कुछ कहे अपने कमरे में चले गए.

सुबह जब काजल ने पिताजी को रात की घटना बताई तो पिताजी बहुत खुश हुए और आफिस से लौटते हुए उमाकांत बाबू का हालचाल पूछ कर आने को कहा. काजल ने विदुषी से दोपहर में ही छुट्टी ले ली और उमाकांत बाबू के घर की ओर चल पड़ी.

काजल को उमाकांतजी और उन की पत्नी से इतना लगाव हो गया कि वह रोज उन से मिलने जाती. उन की सेवा से  उसे एक सुखद अनुभूति होती.

उस दिन वह आफिस जाने के लिए आधा घंटा पहले घर से निकली तो उस के कदम उमाकांतजी के घर की तरफ बढ़ गए. दरवाजा मांजी की बजाय एक लंबे और आकर्षक नौजवान ने खोला. भीतर से उमाकांत बाबू की आवाज आई, ‘अरे, काजल बेटी, चली आओ. मैं बरामदे में हूं.’

उन्होंने काजल से उस नौजवान का परिचय कराते हुए कहा, ‘यह हमारा बेटा दीपक है. आईएएस की ट्रेनिंग पूरी कर के मसूरी से कल ही लौटा है.’

काजल ने धीरे से दीपक से अभिवादन किया.

दीपक ने कृतज्ञता प्रकट करते हुए कहा, ‘मैं, आप का बहुत आभारी हूं. काजलजी, मेरी अनुपस्थिति में आप ने मेरे मांबाबूजी का खयाल रखा.’

तभी मांजी चाय ले कर आ गइर्ं और बोलीं, ‘दीपक बेटा, यही है मेरी बहू, क्या तुझे पसंद है? और हां, बेटी, तू भी इनकार नहीं करना. मेरा बेटा बड़ा अफसर है, तुझे बहुत खुश रखेगा.’

काजल को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि यह क्या हो रहा है. उस की आंखों से टपटप आंसू गिरने लगे. वह रोते हुए बोली, ‘मांजी. आप यह क्या कह रही हैं? आप मेरे बारे में सब कुछ जानती हैं. कहां मैं और कहां दीपक बाबू? फिर मैं आप की पसंद हूं पर आप के बेटे की तो नहीं…’

दीपक, जो चुपचाप खड़े थे, धीमे से मुसकरा कर बोले, ‘देखिए, काजलजी, शादीविवाह की बात तो मांबाप ही तय करते हैं और मैं ने अपनी पसंद अपनी मां से कह दी. क्या आप को कोई आपत्ति है? मुझे आप जैसी ही लड़की की तलाश थी. यदि मैं आप को पसंद नहीं तो…’

ये भी पढ़ें – भूल का अंत – किसकी वजह से खतरे में पड़ी मीता की

‘नहीं, दीपक बाबू, दरअसल, बात यह नहीं…’

‘यह नहीं, तो कहो हां, बोलो हां.’

और फिर काजल भी सभी के साथ हंस पड़ी.

तब उमाकांत बाबू ने काजल को आदेशात्मक स्वर में कहा, ‘बेटी, आज आफिस नहीं, घर जाओ. हम सब शाम को तुम्हारे रिश्ते की बात करने आ रहे हैं.’

शाम को उमाकांत बाबू, दीपक और उस की मां के साथ आए. वे काजल की मंगनी दीपक के साथ तय कर शादी की तारीख भी पक्की कर गए. सभी तरफ खुशी का माहौल था. सभी रिश्तेदार, पासपड़ोसी काजल के भाग्य से चकित थे. मां भी इठला कर कह रही थीं कि मेरी काजल तो लाखों में एक है तभी तो दीपक जैसा उच्च पदस्थ दामाद मिला.

काजल भी सोच रही थी कि दुख के पतझड़ के बाद कभी न कभी तो सुख का वसंत आता है और यह वसंत उस के जीवन में इतने समय बाद आया….

तभी, गाड़ी का ब्रेक लगते ही काजल अतीत से निकल कर वर्तमान में लौट आई. उस ने देखा दीपक उस के इंतजार में बाहर ही खड़े हैं.

सरप्राइज – क्या खुद खुश रह पाई सबका जीवन संवारने वाली सीमा?

लेखिका-Anita Jain

रविवार को सुबह 10 बजे जब सीमा के मोबाइल की घंटी बजी तो उस ने उसे लपक कर उठा लिया. स्क्रीन पर अपने बचपन की सहेली नीता का नाम पढ़ा तो वह भावुक हो गई और खुद से ही बोली कि चलो किसी को तो याद है आज का दिन.

लेकिन अपनी सहेली से बातें कर उसे निराशा ही हाथ लगी. नीता ने उसे कहीं घूमने चले का निमंत्रण भर ही दिया. उसे भी शायद आज के दिन की विशेषता याद नहीं थी.

‘‘मैं घंटे भर में तेरे पास पहुंच जाऊंगी,’’ यह कह कर सीमा ने फोन काट दिया.

‘सब अपनीअपनी जिंदगियों में मस्त हैं. अब न मेरी किसी को फिक्र है और न जरूरत. क्या आगे सारी जिंदगी मुझे इसी तरह की उपेक्षा व अपमान का सामना करना पड़ेगा?’ यह सोच उस की आंखों में आंसू भर आए.

कुछ देर बाद वह तैयार हो कर अपने कमरे से बाहर निकली और रसोई में काम कर रही अपनी मां को बताया, ‘‘मां, मैं नीता के पास जा रही हूं.’’

‘‘कब तक लौट आएगी?’’ मां ने पूछा.

‘‘जब दिल करेगा,’’ ऐसा रूखा सा जवाब दे कर उस ने अपनी नाराजगी प्रकट की.

‘‘ठीक है,’’ मां का लापरवाही भरा जवाब सुन कर उदास हो गई.

सीमा का भाई नवीन ड्राइंगरूम में अखबार पढ़ रहा था. वह उस की तरफ देख कर मुसकराया जरूर पर उस के बाहर जाने के बारे में कोई पूछताछ नहीं की.

नवीन से छोटा भाई नीरज बरामदे में अपने बेटे के साथ खेल रहा था.

‘‘कहां जा रही हो, दीदी?’’ उस ने अपना गाल अपने बेटे के गाल से रगड़ते हुए सवाल किया.

‘‘नीता के घर जा रही हूं,’’ सीमा ने शुष्क लहजे में जवाब दिया.

‘‘मैं कार से छोड़ दूं उस के घर तक?’’

‘‘नहीं, मैं रिकशा से चली जाऊंगी.’’

‘‘आप को सुबहसुबह किस ने गुस्सा दिला दिया है?’’

‘‘यह मत पूछो…’’ ऐसा तीखा जवाब दे कर वह गेट की तरफ तेज चाल से बढ़ गई.

कुछ देर बाद नीता के घर में प्रवेश करते ही सीमा गुस्से से फट पड़ी, ‘‘अपने भैयाभाभियों की मैं क्या शिकायत करूं, अब तो मां को भी मेरे सुखदुख की कोई चिंता नहीं रही.’’

‘‘हुआ क्या है, यह तो बता?’’ नीता ने कहा.

‘‘मैं अब अपनी मां और भैयाभाभियों की नजरों में चुभने लगी हूं… उन्हें बोझ लगती हूं.’’

‘‘मैं ने तो तुम्हारे घर वालों के व्यवहार में कोई बदलाव महसूस नहीं किया है. हां, कुछ दिनों से तू जरूर चिड़चिड़ी और गुस्सैल हो गई है.’’

‘‘रातदिन की उपेक्षा और अपमान किसी भी इंसान को चिड़चिड़ा और गुस्सैल बना देता है.’’

‘‘देख, हम बाहर घूमने जा रहे हैं, इसलिए फालतू का शोर मचा कर न अपना मूड खराब कर, न मेरा,’’ नीता ने उसे प्यार से डपट दिया.

‘‘तुझे भी सिर्फ अपनी ही चिंता सता रही है. मैं ने नोट किया है कि तुझे अब मेरी याद तभी आती है, जब तेरे मियांजी टूर पर बाहर गए हुए होते हैं. नीता, अब तू भी बदल गई है,’’ सीमा का गुस्सा और बढ़ गया.

‘‘अब मैं ने ऐसा क्या कह दिया है, जो तू मेरे पीछे पड़ गई है?’’ नीता नाराज होने के बजाय मुसकरा उठी.

‘‘किसी ने भी कुछ नहीं किया है… बस, मैं ही बोझ बन गई हूं सब पर,’’ सीमा रोंआसी हो उठी.

‘‘तुम्हें कोई बोझ नहीं मानता है, जानेमन. किसी ने कुछ उलटासीधा कहा है तो मुझे बता. मैं इसी वक्त उस कमअक्ल इंसान को ऐसा डांटूंगी कि वह जिंदगी भर तेरी शान में गुस्ताखी करने की हिम्मत नहीं करेगा,’’ नीता ने उस का हाथ पकड़ा और पलंग पर बैठ गई.

‘‘किसकिस को डांटेगी तू. जब मतलब निकल जाता है तो लोग आंखें फेर लेते हैं. अब मेरे साथ ऐसा ही व्यवहार मेरे दोनों भाई और उन की पत्नियां कर रही हैं तो इस में हैरानी की कोई बात नहीं है. मैं बेवकूफ पता नहीं क्यों आंसू बहाने पर तुली हुई हूं,’’ सीमा की आंखों से सचमुच आंसू बहने लगे थे.

‘‘क्या नवीन से कुछ कहासुनी हो गई है?’’

‘‘उसे आजकल अपने बिजनैस के कामों से फुरसत ही कहां है. वह भूल चुका है कि कभी मैं ने अपने सहयोगियों के सामने हाथ फैला कर कर्ज मांगा था उस का बिजनैस शुरू करवाने के लिए.’’

‘‘अगर वह कुसूरवार नहीं है तब क्या नीरज ने कुछ कहा है?’’

‘‘उसे अपने बेटे के साथ खेलने और पत्नी की जीहुजूरी करने से फुरसत ही नहीं मिलती. पहले बहन की याद उसे तब आती थी, जब जेब में पैसे नहीं होते थे. अब इंजीनियर बन जाने के बाद वह खुद तो खूब कमा ही रहा है, उस के सासससुर भी उस की जेबें भरते हैं. उस के पास अब अपनी बहन से झगड़ने तक का वक्त नहीं है.’’

‘‘अगर दोनों भाइयों ने कुछ गलत नहीं कहा है तो क्या अंजु या निशा ने कोई गुस्ताखी की है?’’

‘‘मैं अब अपने ही घर में बोझ हूं, ऐसा दिखाने के लिए किसी को अपनी जबान से कड़वे या तीखे शब्द निकालने की जरूरतनहीं है. लेकिन सब के बदले व्यवहार की वजह से आजकल मैं अपने कमरे में बंद हो कर खून के आंसू बहाती हूं. जिन छोटे भाइयों को मैं ने अपने दिवंगत पिता की जगह ले कर सहारा दिया, आज उन्होंने मुझे पूरी तरह से भुला दिया है. पूरे घर में किसी को भी ध्यान नहीं है कि मैं आज 32 साल की हो गई हूं…

तू भी तो मेरा जन्मदिन भूल गई… अपने दोनों भाइयों का जीवन संवारते और उन की घरगृहस्थी बसातेबसाते मैं कितनी अकेली रह गई हूं.’’

नीता ने उसे गले से लगाया और बड़े अपनेपन से बोली, ‘‘इंसान से कभीकभी ऐसी भूल हो जाती है कि वह अपने किसी बहुत खास का जन्मदिन याद नहीं रख पाता. मैं तुम्हें शुभकामनाएं देती हूं.’’

उस के गले से लगेलगे सीमा सुबकती हुई बोली, ‘‘मेरा घर नहीं बसा, मैं इस बात की शिकायत नहीं कर रही हूं, नीता. मैं शादी कर लेती तो मेरे दोनों छोटे भाई कभी अच्छी तरह से अपने पैरों पर खड़े नहीं हो पाते. शादी न होने का मुझे कोई दुख नहीं है.

‘‘अपने दोनों छोटे भाइयों के परिवार का हिस्सा बन कर मैं खुशीखुशी जिंदगी गुजार लूंगी, मैं तो ऐसा ही सोचती थी. लेकिन आजकल मैं खुद को बिलकुल अलगथलग व अकेला महसूस करती हूं. कैसे काटूंगी मैं इस घर में अपनी बाकी जिंदगी?’’

‘‘इतनी दुखी और मायूस मत हो, प्लीज. तू ने नवीन और नीरज के लिए जो कुरबानियां दी हैं, उन का बहुत अच्छा फल तुझे मिलेगा, तू देखना.’’

‘‘मैं इन सब के साथ घुलमिल कर जीना…’’

‘‘बस, अब अगर और ज्यादा आंसू बहाएगी तो घर से बाहर निकलने पर तेरी लाल, सूजी आंखें तुझे तमाशा बना देंगी.

तू उठ कर मुंह धो ले फिर हम घूमने चलते हैं,’’ नीता ने उसे हाथ पकड़ कर जबरदस्ती खड़ा कर दिया.

‘‘मैं घर वापस जाती हूं. कहीं घूमने जाने का अब मेरा बिलकुल मूड नहीं है.’’

‘‘बेकार की बात मत कर,’’ नीता उसे खींचते हुए गुसलखाने के अंदर धकेल आई.

जब वह 15 मिनट बाद बाहर आई, तो नीता ने उस के एक हाथ में एक नई काली साड़ी, मैचिंग ब्लाउज वगैरह पकड़ा दिया.

‘‘हैप्पी बर्थडे, ये तेरा गिफ्ट है, जो मैं कुछ दिन पहले खरीद लाई थी,’’ नीता की आंखों में शरारत भरी चमक साफ नजर आ रही थी.

‘‘अगर तुझे मेरा गिफ्ट खरीदना याद रहा, तो मुझे जन्मदिन की मुबारकबाद देना कैसे भूल गई?’’ सीमा की आंखों में उलझन के भाव उभरे.

‘‘अरे, मैं भूली नहीं थी. बात यह है कि आज हम सब तुझे एक के बाद एक सरप्राइज देने के मूड में हैं.’’

‘‘इस हम सब में और कौनकौन शामिल है?’’

‘‘उन के नाम सीक्रेट हैं. अब तू फटाफट तैयार हो जा. ठीक 1 बजे हमें कहीं पहुंचना है.’’

‘‘कहां?’’

‘‘उस जगह का नाम भी सीके्रट है.’’

सीमा ने काफी जोर डाला पर नीता ने उसे इन सीक्रेट्स के बारे में और कुछ भी

नहीं बताया. सीमा को अच्छी तरह से तैयार करने में नीता ने उस की पूरी सहायता की. फिर वे दोनों नीता की कार से अप्सरा बैंक्वेट हौल पहुंचे.

‘‘हम यहां क्यों आए हैं?’’

‘‘मुझ से ऐसे सवाल मत पूछ और सरप्राइज का मजा ले, यार,’’ नीता बहुत खुश और उत्तेजित सी नजर आ रही थी.

उलझन से भरी सीमा ने जब बैंक्वेट हौल में कदम रखा, तो अपने स्वागत में बजी तालियों की तेज आवाज सुन कर वह चौंक पड़ी. पूरा हौल ‘हैप्पी बर्थडे’ के शोर से गूंज उठा.

मेहमानों की भीड़ में उस के औफिस की खास सहेलियां, नजदीकी रिश्तेदार और परिचित शामिल थे. उन सब की नजरों का केंद्र बन कर वह बहुत खुश होने के साथसाथ शरमा भी उठी.

सब से आगे खड़े दोनों भाई व भाभियों को देख कर सीमा की आंखों में आंसू छलक आए. अपनी मां के गले से लग कर उस के मन ने गहरी शांति महसूस की.

‘‘ये सब क्या है? इतना खर्चा करने की क्या जरूरत थी?’’ उस की डांट को सुन कर नवीन और नीरज हंस पड़े.

दोनों भाइयों ने उस का एकएक बाजू पकड़ा और मेहमानों की भीड़ में से गुजरते हुए उसे हौल के ठीक बीच में ले आए.

नवीन ने हाथ हवा में उठा कर सब से खामोश होने की अपील की. जब सब चुप हो गए तो वह ऊंची आवाज में बोला,

‘‘सीमा दीदी सुबह से बहुत खफा हैं. ये सोच रही थीं कि हम इन के जन्मदिन की तारीख भूल गए हैं, लेकिन ऐसा नहीं था. आज हम इन्हें बहुत सारे सरप्राइज देना चाहते हैं.’’

सरप्राइज शब्द सुन कर सीमा की नजरों ने एक तरफ खड़ी नीता को ढूंढ़ निकाला. उस को दूर से घूंसा दिखाते हुए वह हंस पड़ी.

अब ये उसे भलीभांति समझ में आ गया था कि नीता भी इस पार्टी को सरप्राइज बनाने की साजिश में उस के घर वालों के साथ मिली हुई थी.

नवीन रुका तो नीरज ने सीमा का हाथ प्यार से पकड़ कर बोलना शुरू कर दिया, ‘‘हमारी दीदी ने पापा की आकस्मिक मौत के बाद उन की जगह संभाली और हम दोनों भाइयों की जिंदगी संवारने के लिए अपनी खुशियां व इच्छाएं इन के एहसानों का बदला हम कभी नहीं भूल गईं.’’

‘‘लेकिन हम इन के एहसानों व कुरबानियों को भूले नहीं हैं,’’ नवीन ने फिर

से बोलना शुरू कर दिया, ‘‘कभी ऐसा वक्त था जब पैसे की तंगी के चलते हमारी आदरणीय दीदी को हमारे सुखद भविष्य की खातिर अपने मन को मार कर जीना पड़ रहा था. आज दीदी के कारण हमारे पास बहुत कुछ है.

‘‘और अपनी आज की सुखसमृद्धि को अब हम अपनी दीदी के साथ बांटेंगे.

‘‘मैं ने अपना राजनगर वाला फ्लैट दीदी के नाम कर दिया है,’’ ऊंची आवाज में ये घोषणा करते हुए नवीन ने रजिस्ट्री के कागजों का लिफाफा सीमा के हाथ में पकड़ा दिया.

‘‘और ये दीदी की नई कार की चाबी है. दीदी को उन के जन्मदिन का ये जगमगाता हुआ उपहार निशा और मेरी तरफ से.’’

‘‘और ये 2 लाख रुपए का चैक फ्लैट की जरूरत व सुखसुविधा की चीजें खरीदने

के लिए.

‘‘और ये 2 लाख का चैक दीदी को अपनी व्यक्तिगत खरीदारी करने के लिए.’’

‘‘और ये 5 लाख का चैक हम सब की तरफ से बरात की आवभगत के लिए.

‘‘अब आप लोग ये सोच कर हैरान हो रहे होंगे कि दीदी की शादी कहीं पक्की होने की कोई खबर है नहीं और यहां बरात के स्वागत की बातें हो रही हैं. तो आप सब लोग हमारी एक निवेदन ध्यान से सुन लें. अपनी दीदी का घर इसी साल बसवाने का संकल्प लिया है हम दोनों भाइयों ने. हमारे इस संकल्प को पूरा कराने में आप सब दिल से पूरा सहयोग करें, प्लीज.’’

बहुत भावुक नजर आ रहे नवीन और नीरज ने जब एकसाथ झुक कर सीमा के पैर छुए, तो पूरा हौल एक बार फिर तालियों की आवाज से गूंज उठा.

सीमा की मां अपनी दोनों बहुओं व पोतों के साथ उन के पास आ गईं. अब पूरा परिवार एकदूसरे का मजबूत सहारा बन कर एकसाथ खड़ा हुआ था. सभी की आंखों में खुशी के आंसू झिलमिला रहे थे.

बहुत दिनों से चली आ रही सीमा के मन की व्याकुलता गायब हो गई. अपने दोनों छोटे भाइयों के बीच खड़ी वह इस वक्त अपने सुखद, सुरक्षित भविष्य के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त नजर आ रही थी.

Valentine’s Special- वेलेंटाइन डे: वो गुलाब किसका था

अपने देश में विदेशी उत्पाद, पहनावा, विचार, आचारसंहिता आदि का चलन जिस तरह से जोर पकड़ चुका है उस में वेलेंटाइन डे को तो अस्तित्व में आना ही था. वैसे अब यह बताने की जरूरत नहीं है कि वेलेंटाइन डे के दिन होता क्या है. फिर भी बात चली है तो खुलासा कर देते हैं कि चाहने वाले जवान दिलों ने इस दिन को प्रेम जाहिर करने का कारगर माध्यम बना लिया है. इस अवसर पर बाजार सजते हैं, चहकते, इठलाते लड़केलड़कियों की सड़कों पर आवाजाही बढ़ जाती है, वातावरण में खुमार, खनक, खुशी भर जाती है.

सेंट जोंसेफ कानवेंट स्कूल के कक्षा 11 के छात्र अभिराम ने इसी दिन अपनी सहपाठिनी निष्ठा को ग्रीटिंग कार्ड के ऊपर चटक लाल गुलाब रख कर भेंट किया था. निष्ठा ने अंदरूनी खुशी और बाहरी झिझक के साथ भेंट स्वीकार की थी तो कक्षा के छात्रछात्राओं ने ध्वनि मत से उन का स्वागत कर कहा, ‘‘हैप्पी फोर्टीन्थ फैब.’’

विद्यालय का यह पहला इश्क कांड नहीं था. कई छात्रछात्राओं का इश्क चोरीछिपे पहले से ही परवान चढ़ रहा था. आप जानिए, वे पढ़ाई की उम्र में पढ़ाई कम दीगर हरकतें ज्यादा करते हैं. चूंकि यह विद्यालय अपवाद नहीं है इसलिए यहां भी तमाम घटनाएं हुआ करती हैं.

एक छात्रा स्कूल आने और उस के निर्धारित समय का लाभ ले कर किसी के साथ भाग चुकी है. एक छात्रा को रसायन शास्त्र के अध्यापक ने लैब में छेड़ा था. इस के विरोध में विद्यार्थी तब तक हड़ताल पर बैठे रहे जब तक उन को प्रयोगशाला से हटा नहीं दिया गया. इस के बावजूद स्कूल का जो अनुशासन, प्रशासन और नियमितता होती है वह आश्चर्यजनक रूप से यहां भी है.

हां, तो बात निष्ठा की चल रही थी. उस ने दिल की बढ़ी धड़कनों के साथ ग्रीटिंग की इबारत पढ़ी- ‘निष्ठा, सेंट वेलेंटाइन ने कहा था कि प्रेम करना मनुष्य का अधिकार है. मैं संत का बहुत आभारी हूं-अभिराम.’

प्रेम की घोषणा हो गई तो उन के बीच मिलनमुलाकातें भी होने लगीं. दोनों एकदूसरे को मुग्धभाव से देखने लगे. साथसाथ ट्यूशन जाने लगे, फिल्म देखने भी गए.

कक्षा की सहपाठिनें निष्ठा से पूछतीं, ‘‘प्रेम में कैसा महसूस करती हो?’’

‘‘सबकुछ अच्छा लगने लगा है. लगता है, जो चाहूंगी पा लूंगी.’’

‘‘ग्रेट यार.’’

अपने इस पहले प्रेम को ले कर उत्साहित अभिराम कहता, ‘‘निष्ठा, मेरे मम्मीपापा डाक्टर हैं और वे मुझे भी डाक्टर बनाना चाहते हैं. यही नहीं वे बहू भी डाक्टर ही चाहते हैं तो तुम्हें भी डाक्टर बनना होगा.’’

‘‘और न बन सकी तो? क्या यह तुम्हारी भी शर्त है?’’

‘‘शर्त तो नहीं पर मुझे ले कर मम्मीपापा ऐसा सोचते हैं,’’ अभिराम बोला, ‘‘तुम्हारे घरवालों ने भी तो तुम्हें ले कर कुछ सोचा होगा.’’

‘‘यही कि मेरी शादी कैसे होगी, दहेज कितना देना होगा? आदि…’’ सच कहूं अभिराम तो पापामम्मी विचित्र प्राणी होते हैं. एक तरफ तो वे दहेज का दुख मनाएंगे, किंतु लड़की को आजादी नहीं देंगे कि वह अपने लिए किसी को चुन कर उन का काम आसान करे.’’

‘‘यह अचड़न तो विजातीय के लिए है हम तो सजातीय हैं.’’

‘‘देखो अभिराम, धर्म और जाति की बात बाद में आती है, मांबाप को असली बैर प्रेम से होता है.’’

‘‘मैं अपनी मुहब्बत को कुरबान नहीं होने दूंगा,’’ अभिराम ने बहुत भावविह्वल हो कर कहा.

‘‘बहुत विश्वास है तुम्हें अपने पर.’’

‘‘हां, मेरे पापामम्मी ने तो 25 साल पहले प्रेमविवाह किया था तो मैं इस आधुनिक जमाने में तो प्रेमविवाह कर ही सकता हूं.’’

‘‘अभि, तुम्हारी बातें मुझे भरोसा देती हैं.’’

अभिराम और निष्ठा अब फोन पर लंबीलंबी बातें करने लगे. अभि के मातापिता दिनभर नर्सिंग होम में व्यस्त रहते थे अत: उस को फोन करने की पूरी आजादी थी. निष्ठा आजाद नहीं थी. मां घर में होती थीं. फोन मां न उठा लें इसलिए वह रिंग बजते ही रिसीवर उठा लेती थी.

मां एतराज करतीं कि देख निष्ठा तू घंटी बजते ही रिसीवर न उठाया कर. आजकल के लड़के किसी का भी नंबर डायल कर के शरारत करते हैं. अभी कुछ दिन पहले मैं ने एक फोन उठाया तो उधर से आवाज आई, ‘‘पहचाना? मैं ने कहा कौन? तो बोला, तुम्हारा होने वाला.’’

इस तरह अभिराम और निष्ठा का प्रेम अब एक साल पुराना हो गया.

अभिराम ने योजना बनाई कि निष्ठा, वेलेंटाइन डे पर कुछ किया जाए.

निष्ठा ने सवालिया नजरों से अभिराम को देखा, जैसे पूछ रही हो क्या करना है?

‘‘देखो निष्ठा, इस छोटे से शहर में कोई बीच या पहाड़ तो है नहीं,’’ अभिराम बोला. ‘‘अपना पुष्करणी पार्क अमर रहे.’’

‘‘पार्क में हम क्या करेंगे?’’

‘‘अरे यार, कुछ मौजमस्ती करेंगे. और कुछ नहीं तो पार्क में बैठ कर पापकार्न ही खा लेंगे.’’

‘‘नहीं बाबा, मैं वेलेंटाइन डे पर तुम्हारे साथ पार्क में नहीं जा सकती. जानते हो हिंदू संस्कृति के पैरोकार एक संगठन के कार्यकर्ताओं ने चेतावनी दी है, जो लोग वेलेंटाइन डे मनाते हुए मिलेंगे उन्हें परेशान किया जाएगा.’’

‘‘निष्ठा, यही उम्र है जब मजा मार लेना चाहिए. स्कूल में यह हमारा अंतिम साल है. इन दिनों की फिर वापसी नहीं होगी. हम कुछ तो ऐसा करें जिस की याद कर पूरी जिंदगी में रौनक बनी रहे. हम पार्क में मिलेंगे. मैं तुम्हें कुछ गिफ्ट दूंगा, इंतजार करो,’’ अभिराम ने साहबी अंदाज में कहा.

निष्ठा आखिर सहमत हो गई. मामला मुहब्बत का हो तो माशूक की हर अदा माकूल लगती है.

शाम को दोनों पार्क में मिले. निष्ठा खास सजसंवर कर आई थी. पार्क के कोने की एकांत जगह पर बैठ कर अभिराम निष्ठा को वाकमैन उपहार में देते हुए बोला, ‘‘इस में कैसेट भी है जिस पर तुम्हारे लिए कुछ रिकार्ड किया है.’’

‘‘वाह, मुझे इस की बहुत जरूरत थी. अब मैं अपने कमरे में आराम से सोते हुए संगीत सुन सकूंगी.’’

अभिराम ने निष्ठा के गले में बांहें डाल कर कहा, ‘‘भारतीय संस्कृति ही नहीं बल्कि विकसित और आधुनिक देशों की संस्कृति भी प्रेम को बुरा कहती रही है. कैथोलिक ईसाइयों में प्रेम और शादी की मनाही थी. तब वेलेंटाइन ने कहा था कि मनुष्य को प्रेम की अभिव्यक्ति का अधिकार है. तभी से 14 फरवरी के दिन प्रेमी अपने प्रेम का इजहार करते हैं.’’

संगठन के कुछ कार्यकर्ता प्रेमियों को खदेड़ने आ पहुंचे हैं, इस से बेखबर दोनों प्रेम के सागर में हिचकोले ले रहे थे कि अचानक संगठन के कार्यकर्ताओं को लाठी, हाकी, कालारंग आदि लिए देख अभिराम व निष्ठा हड़बड़ा कर खड़े हो गए. कुछ लोग पार्क छोड़ कर भाग रहे थे, तो कुछ तमाशा देख रहे थे.

उधर संगठन के ऐलान को ध्यान में रख स्थानीय मीडिया वाले रोमांचकारी दृश्य को कैमरे में उतारने के लिए शाम को वहां आ डटे थे. उन्होंने कैमरा आन कर लिया. अभिराम व निष्ठा स्थिति को भांपते इस के पहले कार्यकर्ताओं ने दोनों के चेहरे काले रंग से पोत दिए.

निष्ठा ने बचाव में हथेलियां आगे कर ली थीं. अत: चेहरे पर पूरी तरह से कालिख नहीं पुत पाई थी.

‘‘क्या बदतमीजी है,’’ अभिराम चीखा तो एक कार्यकर्ता ने हाकी से उस की पीठ पर वार कर दिया.

हाकी पीठ पर पड़ते ही अभिराम भाग खड़ा हुआ. उसे इस तरह भागते देख निष्ठा असहाय हो गई. वह किस तरह अपमानित हो कर घर पहुंची यह तो वही जानती है. डंडा पड़ते ही भगोड़े का इश्क ठंडा हो गया. वेलेंटाइन डे मना कर चला है क्रांतिकारी बनने. अरे अभिराम, अब तो मेरी जूती भी तुझ से इश्क न करेगी.

निष्ठा देर तक अपने कमरे में छिपी रही. वह जब भी पार्क की घटना के बारे में सोचती उस का मन अभिराम के प्रति गुस्से से भर जाता. बारबार मन में पछतावा आता कि उस ने प्रेम भी किया तो किस कायर पुरुष से. फिल्मों में देखो, हीरो अकेले ही कैसे 10 को पछाड़ देते हैं. वे तो कुल 4 ही थे.

तभी उस के कानों में बड़े भाई विट्ठल की आवाज सुनाई पड़ी जो मां से हंस कर कह रहा था, ‘‘मां, कुछ इश्कमिजाज लड़केलड़कियां पुष्करणी पार्क में वेलेंटाइन डे मना रहे थे. एक संगठन के लोगों ने उन के चेहरे काले किए हैं. रात को लोकल चैनल की खबर जरूर देखना.’’

खबर देख विट्ठल चकित रह गया, जिस का चेहरा पोता गया वह उस की बहन निष्ठा है?

‘‘मां, अपनी दुलारी बेटी की करतूत देखो,’’ विट्ठल गुस्से में भुनभुनाते हुए बोला, ‘‘यह स्कूल में पढ़ने नहीं इश्क लड़ाने जाती है. इस के यार को तो मैं देख लूंगा.’’

मां और बेटा दोनों ही निष्ठा के कमरे में घुस आए. मां गुस्से में निष्ठा को बहुत कुछ उलटासीधा कहती रहीं और वह ग्लानि से भरी चुपचाप सबकुछ सुनती व सहती रही. उस के लिए प्रेम दिवस काला दिवस बन गया था.

उधर अभिराम को पता ही नहीं चला कि वह पार्क से कैसे निकला, कैसे मोटरसाइकिल स्टार्ट की और कैसे भगा. उसे अब लग रहा था जैसे सबकुछ अपने आप हो गया. निष्ठा उस की कायरता पर क्या सोच रही होगी? बारबार यह प्रश्न उसे बेचैन किए जा रहा था.

पिताजी घर में थे, रात को टेलीविजन पर बेटे को देख कर वह चौंके और फौरन उन की आवाज गूंजी, ‘‘अभिराम, इधर तो आना.’’

‘‘जी पापा…’’

‘‘तो तुम पढ़ाई नहीं इश्क कर रहे हो. मैं तुम्हें डाक्टर बनाना चाहता हूं और तुम रोड रोमियो बन रहे हो.’’

‘‘पापा, वो… मैं वेलेंटाइन डे मना रहा था.’’

‘‘बता तो ऐसे गौरव से रहे हो जैसे एक तुम्हीं जवान हुए हो. मैं तो कभी जवान था ही नहीं. देखो, मैं इस शहर का मशहूर सर्जन हूं. क्या कभी तुम ने इस बारे में सोचा कि तुम्हें टेलीविजन पर देख कर लोग क्या कहेंगे कि इतने बड़े सर्जन का बेटा इश्क में मुंह काला करवा कर आ गया. जाओ पढ़ो, चार मार्च से सालाना परीक्षा है और तुम इश्क में निकम्मे बन रहे हो. आज से इश्कबाजी बंद.’’

अभिराम अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर पड़ गया. इन बाप लोगों की चरित्रलीला समझ में नहीं आती. खुद इश्क लड़ाते रहे तो कुछ नहीं अब बेटे की बारी आई तो बड़ा बुरा लग रहा है. फिल्मों में बचपन का इश्क भी शान से चलता है और यहां सिखाया जा रहा है, इश्क में निकम्मे मत बनो. निष्ठा तुम ठीक कहती हो कि इन बड़े लोगों को असली बैर प्रेम से है.

बेचैन अभिराम निष्ठा को फोन करना चाह रहा था पर न साहस था न स्फूर्ति, न स्थिति.

4 मार्च को पहले परचे के दिन दोनों ने एकदूसरे को पत्र थमाए. अभिराम ने लिखा था, ‘निष्ठा, मैं तुम से सच्चा प्रेम करता हूं, साबित कर के रहूंगा.’

निष्ठा ने लिखा था, ‘यह सब प्रेम नहीं छिछोरापन है, और छिछोरेपन में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं.’.

और्डर

लेखिका- दीपा डिंगोलिया

‘‘सुनो, मुझे नया फोन लेना है. काफी टाइम हो गया इस फोन को. मैं ने नया फोन औनलाइन और्डर कर दिया है,’’ सुबह औफिस के लिए तैयार होते हुए मैं ने समीर से कहा.

‘‘हांहां, ले लो भई, लिए बिना तुम मानोगी थोड़ी. वैसे, इस फोन का क्या करोगी? इतना महंगा फोन है. बजट है इतना तुम्हारा कि तुम नया फोन अभी ले सको,’’ समीर ने नेहा से हंसते हुए कहा.

‘‘यह बेच कर 4-5 हजार रुपए और डाल कर नया ले लूंगी. तुम से कोई पैसा नहीं लूंगी, बेफिक्र रहो. अच्छा, सुनो, शाम को मुझे मां की तरफ जाना है, इसलिए आज थोड़ा लेट हो जाऊंगी. तुम वहीं से मुझे पिक कर लेना,’’ यह कह कर मैं जल्दी से घर से निकल ली.

औफिस से हाफ डे ले कर मां के घर पहुंची. मां के साथ खाना खा मैं बालकनी में आ कर खड़ी हो गई. मां के यहां बालकनी से बहुत ही खूबसूरत नजारा देखने को मिलता था. चारों ओर हरियाली और चिडि़यों की चहचहाहट. तभी मां भी चाय ले कर वहीं आ गईं. चाय पीतेपीते दूर से एक बुजुर्ग से अंकलजी आते हुए दिखे.

‘‘मां, ये अंकल तो जानेपहचाने से लग रहे हैं. देखो जरा, कौन हैं?’’

‘‘अरे, इन्हें नहीं पहचाना. गुड्डू के पापा ही तो हैं. गुड्डू तो अब विदेश चला गया न. ये यहीं नीचे वाले फ्लैट में अकेले रहते हैं. गुड्डू की मां तो रही नहीं और बहन भी कहीं बाहर ही रहती है,’’ मां ने बताया.

गुड्डू और मैं बचपन में एकसाथ खेलते हुए बड़े हुए थे. लेकिन मैं गुड्डू से ज्यादा नहीं बोलती थी. वैसे, बहुत ही अच्छा लड़का था गुड्डू, सीधासादा, होशियार.

‘‘मां, मैं जरा मिल कर आती हूं अंकल से,’’ कह कर मैं अपना बैग उठा कर नीचे अंकल के घर को चल पड़ी.

‘‘ठीक है, पर बेटा, जरा जल्दी आना,’’ मां ने कहा.

दरवाजे पर घंटी बजाई. अंकल बाहर आए.

‘‘नमस्ते अंकल, पहचाना?’’

‘‘आओआओ बेटी. अच्छे से पहचाना. बैठो. बहुत टाइम बाद देखा. कहां हो आजकल? तुम्हारे मम्मीपापा से तो मुलाकात हो जाती है. बहुत ही अच्छे लोग हैं. खैर, सुनाओ कैसे हैं सब तुम्हारे घरपरिवार में,’’ अंकलजी बहुत खुश थे मुझे देख कर और लगातार बोले जा रहे थे.

‘‘सब बढि़या. आप बताइए. गुड्डू और दीदी कैसे हैं?’’

‘‘सब ठीक हैं, बेटी. दोनों ही बाहर रहते हैं. आना तो कम ही होता है दोनों का. अब तो बस फोन पर ही बात होती है,’’ अंकल बहुत ही रोंआसी आवाज में बोले.

‘‘क्या बात है अंकलजी, सब ठीक है न?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अब क्या बताऊं बेटे, कल रात फोन भी हाथ से छूट कर गिर गया और खराब हो गया,’’ मेरे हाथ में अपना फोन देते हुए अंकलजी बोले, ‘‘जरा देखना यह ठीक हो सकता है क्या? फोन के बिना मेरा गुजारा ही नहीं है. अब तो गुड्डू ही नया फोन भेजेगा.’’

‘‘अरे अंकलजी, गुड्डू को छोड़ें. फोन आने में तो बहुत टाइम लग जाएगा, तब तक आप परेशान थोड़े ही रहेंगे. यह लीजिए आप का फोन,’’ मैं ने बैग से निकाल कर अपना फोन अंकलजी के हाथ में दिया.

‘‘यह तो टचस्क्रीन वाला है. बहुत महंगा होता है यह तो. नहींनहीं, यह मैं नहीं ले सकता. मेरे लिए कोई पुराना सा फोन ही ला दो बेटे अगर ला सकती हो तो या इसी फोन को ठीक करवा कर दे देना. दोचार दिन काम चला लूंगा बिना फोन के,’’ अंकलजी बोले.

‘‘मैं ने आप की सिम इस में डाल दी है. यह लीजिए आप चला कर देखिए और आप का फोन ठीक कराने के लिए मैं ले जा रही हूं. अब आप इस फोन को बेफिक्र हो कर इस्तेमाल करिए.’’ अंकलजी ने झिझकते हुए मेरा फोन अपने हाथ में लिया और खुशी से चला कर देखने लगे. फोन हाथ में ले बच्चों की तरह खुश थे वे.

‘‘इस में गेम्स वगैरह भी खेल सकते हैं न? पर बेटे, गुड्डू मुझे बहुत डांटेगा. तुम रहने ही देतीं. मुझे मेरा फोन ठीक करवा कर दे देना,’’ अंकलजी थोड़ा घबराते हुए बोले.

‘‘अंकलजी, कभीकभी गुड्डू की जगह मुझ गुड्डी को भी अपना बेटा समझ कर अपनी सेवा करने दिया करें,’’ मैं ने हंसते हुए कहा.

‘‘जीती रहो बेटी, तुम ने मेरी सारी परेशानी खत्म कर दी,’’ अंकलजी खुशी से बोले.

‘‘अच्छा, मैं चलती हूं. मां इंतजार कर रही होंगी,’’ अंकलजी से बाय बोल कर मैं एक अलग ही अंदाज से घर पहुंची. मन में एक अनजानी संतुष्टि सी थी.

समीर शाम को लेने मां के घर पहुंचे और बोले, ‘‘बड़ी खुश लग रही हो आज मां से मिल कर.’’

मैं बस मुसकरा कर रह गई. घर पहुंच लैपटौप औन कर के नए फोन का और्डर कैंसिल कर दिया.

अंकलजी का फोन ठीक करवा कर अपने बैग में रख लिया. मन में एक खुशी थी. नए फोन की अब मुझे कोई ऐसी चाह नहीं थी.

ठीक हो गए समीकरण

सुमन बाजपेयी

‘‘प्रैक्टिकल होने का क्या फायदा? लौजिक बेकार की बात है. प्रिंसिपल जीवन में क्या दे पाते हैं? सिद्धांत केवल खोखले लोगों की डिक्शनरी के शब्द होते हैं, जो हमेशा डरडर कर जीवन जीते हैं. सचाई, ईमानदारी सब किताबी बातें हैं. आखिर इन का पालन कर के तुम ने कौन से झंडे गाड़ लिए,’’ सुकांत लगातार बोले जा रहा था और उसे लगा जैसे वह किसी कठघरे में खड़ी है. उस के जीवन यहां तक कि उस के वजूद की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं. सारे समीकरण गलत व बेमानी साबित करने की कोशिश की जा रही है.

‘‘जो तुम कमिटमैंट की बात करती हो वह किस चिडि़या का नाम है… आज के जमाने में कमिटमैंट मात्र एक खोखले शब्द से ज्यादा और कुछ नहीं है. कौन टिकता है अपनी बात पर? अपने हित की न सोचो तो अपने सगे भी धोखा देते हैं और तुम हो कि सारी जिंदगी यही राग अलापती रहीं कि जो कहो, उसे पूरा करो.’’

‘‘तुम कहना चाहते हो कि झूठ और बेईमान ही केवल सफल होते हैं,’’ सुकांत की

इतनी कड़वी बातें सुनने के बावजूद वह उस की संकीर्ण मानसिकता के आगे झुकने को तैयार नहीं थी. आखिर कैसे वह उस की जिंदगी के सारे फलसफे को झुठला सकता है? जिस आदमी को उस ने अपनी जिंदगी के 25 साल दिए हैं, वही आज उस का मजाक उड़ा रहा है, उस की मेहनत, उस के काम और कबिलीयत सब को इस तरह से जोड़घटा रहा है मानो इन सब चीजों का आकलन कैलकुलेटर पर किया जाता हो. हालांकि जिस तरह से सुकांत की कनविंस व मैनीपुलेट करने की क्षमता है, उस के सामने कुछ पल के लिए तो उस ने भी स्वयं को एक फेल्योर के दर्जे में ला खड़ा किया था.

‘‘अगर तुम ने यह ईमानदारी और मेहनत का जामा पहनने के बजाय चापलूसी और डिप्लोमैसी से काम लिया होता तो आज अपने कैरियर की बुलंदियों को छू रही होती. सोचो तो उम्र के इस पड़ाव पर तुम कहां हो और तुम से जूनियर कहां निकल गए हैं. अचार डालोगी अपनी काबिलीयत का जब कोई पूछने वाला ही नहीं होगा,’’ सुकांत के चेहरे पर एक बीभत्सता छा गई थी. लग रहा था कि आज वह उस का अपमान करने को पूरी तरह से तैयार था. अपनी हीनता को छिपाने का इस से अच्छा तरीका और हो भी क्या सकता था उस के लिए कि वह उस के सम्मान के चीथड़े कर दे.

‘‘फिर तो तुम्हारे हिसाब से मैं ने जो ईमानदारी और पूर्ण समर्पण के साथ तुम्हारे साथ अपना रिश्ता निभाया, वह भी बेमानी है. मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था,’’ उस ने थोड़ी तलखी से कहा.

‘‘मैं रिश्ते की बात नहीं कर रहा. दोनों चीजों को साथ न जोड़ो. मैं तुम्हारे कैरियर के बारे में बात कर रहा हूं,’’ सुकांत जैसे हर तरह से मोरचा संभाले था.

‘‘क्यों, यह बात तो हर चीज पर लागू होनी चाहिए. तुम अपने हिसाब से जब चाहो मानदंड तय नहीं कर सकते… और जहां तक मेरी बात है तो मैं अपने से संतुष्ट हूं खासकर अपने कैरियर से. तुम ने कभी न तो मुझे मान दिया है और न ही दे सकते हो, क्योंकि तुम्हारी मानसिकता में ऐसा करना है ही नहीं. किसे बरदाश्त कर सकते हो तुम,’’ न जाने कब का दबा आक्रोश मानो उस समय फूट पड़ा था. वह खुद हैरान थी कि आखिर उस में इतनी हिम्मत आ कहां से गई.

‘‘ज्यादा बकवास मत करो नीला, कहीं मेरा धैर्य न चुक जाए,’’ बौखला गया था सुकांत. इतना सीधा प्रहार इस से पहले नीला ने उस पर कभी नहीं किया था.

‘‘तुम्हारा धैर्य तो हमेशा बुलबुलों की तरह धधकता रहा है… मारोगे? गालियां दोगे? इस के सिवा तुम कर भी क्या सकते हो? अच्छा यही होगा हम इस बारे में और बात न करें,’’ नीला बात को आगे नहीं बढ़ाना चाहती थी. फायदा भी कुछ नहीं था. सुकांत जब पिछले 24 सालों में नहीं बदला तो अब क्या बदलेगा. जो अपनी पत्नी की इज्जत करना न जानता हो, उस से बहस करने से कुछ हासिल नहीं होने वाला था.

नीला को बस इसी बात का अफसोस था कि वह अपने बेटे को सुकांत के इन्फलुएंस से बचा नहीं पाई थी. पता नहीं क्यों नीरव को हमेशा लगता था कि पापा ही ठीक हैं. संस्कारों की जो पोटली उस ने बचपन में नीरव को सौंपी थी वह उस ने बड़े होने के साथ ही कहीं दुछती पर पटक दी थी. उस के बाद उसे कभी खोलने की कोशिश नहीं की. वह बहुत समझाती कि नीरव खुद अपनी आंखों से दुनिया देखो, पापा के चश्मे से नहीं. पर वह भी उस की बेइज्जती कर देता. उस की बात अनसुनी कर पापा के खेमे में शामिल हो जाता. वह मनमसोस कर रह जाती. स्कूलकालेज और उस के बाद अब नौकरी में भी वह पापा के बताए रास्ते पर ही चल रहा है.

अपने बेटे को गलत रास्ते पर जाते देखने के बावजूद वह कुछ नहीं कर पा रही थी.

उस पीड़ा को वह दिनरात सह रही थी और नीरव की जिंदगी को ले कर ही वह उस समय सुकांत से लड़ पड़ी थी. विडंबना तो यह थी कि नीरव की बात करने के बजाय सुकांत उस की जिंदगी के पन्नों को ही उलटनेपलटने लगा था. यह सच था कि वह डिप्लोमैसी से सदा दूर रही और सिर्फ काम पर ही उस ने ध्यान दिया और इस वजह से वह बहुत तेजी से उन लोगों की तुलना में कामयाबी की सीढि़यां नहीं चढ़ पाई जो खुशामद और चालाकी की फास्ट स्पीड ट्रेन में बैठ आगे निकल गए थे. लेकिन उसे अफसोस नहीं था, क्योंकि उस की ईमानदारी ने उसे सम्मान दिलाया था.

कई बार सुकांत के रवैए को देख कर उस का भी विश्वास डगमगा जाता था पर वह संभल जाती थी या शायद उस की प्रवृत्ति में ही नहीं था किसी को धोखा देना.

‘‘और जो तुम नीरव को ले कर मुझे हमेशा ताना मारती रहती हो न, देखना एक दिन वह बहुत तरक्की करेगा. सही राह पर चल रहा है वह. बिलकुल वैसे ही जैसे आज के जमाने की जरूरत है. लोगों को धक्का न दो तो वे आप को धकेल कर आगे निकल जाते हैं.’’

नीला का मन कर रहा था कि वह जोरजोर से रोए और उस से कहे कि वह नीरव को मुहरा न बनाए. नीला को परास्त करने का मुहरा. सुकांत उसे देख रहा था मानो उस का उपहास उड़ा रहा हो.

कितनी देर हो गई है, नीरव क्यों नहीं आया अब तक. परेशान सी नीला बरामदे के चक्कर लगाने लगी. रात के 10 बज रहे थे. मोबाइल भी कनैक्ट नहीं हो रहा था उस का. मन में अनगिनत बुरे विचार चक्कर काटने लगे. कहीं कुछ हो तो नहीं गया… औफिस में भी कोई फोन नहीं उठा रहा था. सुकांत को तो शराब पीने के बाद होश ही नहीं रहता था. वह सो चुका था.

अचानक नीला का मोबाइल बजा. कोई अंजान नंबर था. फोन रिसीव करते हुए उस के हाथ थरथराए.

‘‘नीरव के घर से बोल रहे हैं?’’

नीला के मन की बुरी आशंकाएं फिर से सिर उठाने लगीं, ‘‘क्या हुआ उसे, वह ठीक तो है न? आप कौन बोल रहे हैं?’’ उस का स्वर कांप रहा था.

‘‘वैसे तो वे ठीक हैं, पर फिलहाल जेल में हैं, उन्हें अरैस्ट किया गया है. अपनी कंपनी में कोई घोटाला किया है उन्होंने. कंपनी के मालिक के कहने पर उन्हें हिरासत में ले लिया गया है.’’

तभी लाइन पर नीरव के दोस्त समर की आवाज सुनाई दी, ‘‘आंटी मैं हूं नीरव के साथ. बस आप अंकल को भेज दीजिए. उस की जमानत हो जाएगी.’’

पूरी रात जेल में बीती उन तीनों की. नीला को नीरव को सलाखों के पीछे खड़ा देख लग रहा था कि वह सचमुच एक फेल्योर है. हैरानी की बात थी कि सुकांत एकदम चुप थे. न नीरव से, न ही नीला से कुछ कहा, बस उस की जमानत कराने की कोशिश में लगे रहे.

नीला को लगा नीरव को कुछ भलाबुरा कहना ठीक नहीं होगा. उस के चेहरे पर पछतावा और शर्मिंदगी साफ झलक रही थी. शायद मां ने उसे जो ईमानदारी का पाठ बचपन में सिखाया था, उसे ही वह आज मन ही मन दोहरा रहा था.

शाम हो गई थी उन्हें लौटतेलौटते. अपने को घसीटते हुए, अपनी सोच के दायरों में

चक्कर काटते हुए तीनों ही इतने थक चुके थे कि उन के शब्द भी मौन हो गए थे या शायद कभीकभी चुप्पी ही सब से बड़ा मरहम बन जाती है.

‘‘मुझे माफ कर दो मां,’’ नीरव उस की गोद में सिर रख कर सुबक उठा.

‘‘तू क्यों माफी मांग रहा है? गलती तो मेरी है. मैं ने ही तेरे मन में बेईमानी के बीज बोए, तुझे तरक्की करने के गलत रास्ते पर डाला. आज जो भी कुछ हुआ उस का जिम्मेदार मैं ही हूं और नीला मैं तुम्हारा भी गुनहगार हूं. सारी उम्र तुम्हें तिरस्कृत करता रहा, तुम्हारा उपहास उड़ाता रहा. सारे समीकरण गलत साबित कर दिए थे मैं ने. प्रिंसिपल ही जीवन में सब कुछ होते हैं, सिद्धांत खोखले लोगों की डिक्शनरी के शब्द नहीं वरन जीवन जीने का तरीका है. सचाई, ईमानदारी किताबी बातें नहीं हैं,’’ सुकांत लगातार बोले जा रहा था और नीला की आंखों से आंसू बहते जा रहे थे.

नीरव को जब उस ने सीने से लगाया तो लगा सच में आज उस की ममता जीत गई है. उस का खोया बेटा उसे मिल गया है. सारे समीकरण ठीक हो गए थे उस की जिंदगी के.

New Year 2022: नई जिंदगी की शुरुआत

फूलमनी जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही बुतरू के स्टाइल पर फिदा हो गई. प्यार के झांसे में आ कर एक दिन बिना सोचेसमझे वह अपना घर छोड़ उस के साथ शहर भाग आई. शादीशुदा जिंदगी क्या होती है, दोनों ही इस का ककहरा भी नहीं जानते थे. भाग कर शहर तो आ गए, लेकिन बुतरू कोई काम ही नहीं करना चाहता था. वह बस्ती के बगल वाली सड़क पर दिनभर हंडि़या बेचने वाली औरतों के पास निठल्ला बैठा बातें करता और हंडि़या पीता रहता था. इसी तरह दिन महीनों में बीत गए और खाने के लाले पड़ने लगे.

फूलमनी कब तक बुतरू के आसरे बैठे रहती. उस ने अगल बगल की औरतों से दोस्ती गांठी. उन्होंने फूलमनी को ठेकेदारी में रेजा का काम दिलवा दिया. वह काम करने जाने लगी और बुतरू घर संभालने लगा. जल्द ही दोनों का प्यार छूमंतर हो गया.

बुतरू दिनभर घर में अकेला बैठा रहता. शाम को जब फूलमनी काम से घर लौटती, वह उस से सारा पैसा छीन लेता और गालीगलौज पर आमादा हो जाता, ‘‘तू अब आ रही है. दिनभर अपने भरतार के घर गई थी पैसा कमाने… ला दे, कितना पैसा लाई है…’’

फूलमनी दिनभर ठेकेदारी में ईंटबालू ढोतेढोते थक कर चूर हो जाती. घर लौट कर जमीन पर ही बिना हाथमुंह धोए, बिना खाना खाए लेट जाती. ऊपर से शराब के नशे में चूर बुतरू उस के आराम में खलल डालते हुए किसी भी अंग पर बेधड़क हाथ चला देता. वह छटपटा कर रह जाती.

एक तो हाड़तोड़ मेहनत, ऊपर से बुतरू की मार खाखा कर फूलमनी का गदराया बदन गलने लगा था. तरहतरह के खयाल उस के मन में आते रहते. कभी सोचती, ‘कितनी बड़ी गलती की ऐसे शराबी से शादी कर के. वह जवानी के जोश में भाग आई. इस से अच्छा तो वह सुखराम मिस्त्री है. उम्र में बुतरू से थोड़ा बड़ा ही होगा, पर अच्छा आदमी है. कितने प्यार से बात करता है…’

सुखराम फूलमनी के साथ ही ठेकेदारी में मिस्त्री का काम करता था. वह अकेला ही रहता था. पढ़ालिखा तो नहीं था, पर सोचविचार का अच्छा था. सुबहसवेरे नहाधो कर वह काम पर चला आता. शाम को लौट कर जो भी सुबह का पानीभात बचा रहता, उसे प्यार से खापी कर सो जाता.

शनिवार को सुखराम की खूब मौज रहती. उस दिन ठेकेदार हफ्तेभर की मजदूरी देता था. रविवार को सुखराम अपने ही घर में मुरगा पकाता था. मौजमस्ती करने के लिए थोड़ी शराब भी पी लेता और जम कर मुरगा खाता.

ये भी पढ़ें- प्यार अपने से : जब भाई को हुआ बहन से प्यार

फूलमनी से सुखराम की नईनई जानपहचान हुई थी. एक रविवार को उस ने फूलमनी को भी अपने घर मुरगा खाने के लिए बुलाया, पर वह लाज के मारे नहीं गई.

साइट पर ठेकेदार का मुंशी सुखराम के साथ फूलमनी को ही भेजता था. सुखराम जब बिल्डिंग की दीवारें जोड़ता, तो फूलमनी फुरती दिखाते हुए जल्दीजल्दी उसे जुगाड़ मसलन ईंटबालू देती जाती थी.

सुखराम को बैठने की फुरसत ही नहीं मिलती थी. काम के समय दोनों की जोड़ी अच्छी बैठती थी. काम करते हुए कभीकभी वे मजाक भी कर लिया करते थे. लंच के समय दोनों साथ ही खाना खाते. खाना भी एकदूसरे से साझा करते. आपस में एकदूसरे के सुखदुख के बारे में भी बतियाते थे.

एक दिन मुंशी ने सुखराम के साथ दूसरी रेजा को काम पर जाने के लिए भेजा, तो सुखराम उस से मिन्नतें करने लगा कि उस के साथ फूलमनी को ही भेज दे.

मुंशी ने तिरछी नजरों से सुखराम को देखा और कहा, ‘‘क्या बात है सुखराम, तुम फूलमनी को ही अपने साथ क्यों रखना चाहते हो?’’

सुखराम थोड़ा झेंप सा गया, फिर बोला ‘‘बाबू, बात यह है कि फूलमनी मेरे काम को अच्छी तरह समझती है कि कब मुझे क्या जुगाड़ चाहिए. इस से काम करने में आसानी होती है.’’

‘‘ठीक है, तुम फूलमनी को अपने साथ रखो, मुझे कोई एतराज नहीं है. बस, काम सही से होना चाहिए… लेकिन, आज तो फूलमनी काम पर आई नहीं है. आज तुम इसी नई रेजा से काम चला लो.’’

झक मार कर सुखराम ने उस नई रेजा को अपने साथ रख लिया, मगर उस से उस के काम करने की पटरी नहीं बैठी, तो वह भी लंच में सिरदर्द का बहाना बना कर हाफ डे कर के घर निकल गया. दरअसल, फूलमनी के नहीं आने से उस का मन काम में नहीं लग रहा था.

दूसरे दिन सुखराम ने बस्ती जा कर फूलमनी का पता लगाया, तो मालूम हुआ कि बुतरू ने घर में रखे 20 किलो चावल बेच दिए हैं. फूलमनी से उस का खूब झगड़ा हुआ है. गुस्से में आ कर बुतरू ने उसे इतना मारा कि वह बेहोश हो गई. वह तो उसे मारे ही जा रहा था, पर बस्ती के लोगों ने किसी तरह उस की जान बचाई.

सुखराम ने पड़ोस में पूछा, ‘‘बुतरू अभी कहां है?’’

किसी ने बताया कि वह शराब पी कर बेहोश पड़ा है. सुखराम हिम्मत कर के फूलमनी के घर गया. चौखट पर खड़े हो कर आवाज दी, तो फूलमनी आवाज सुन कर झोंपड़ी से बाहर आई. उस का चेहरा उतरा हुआ था.

सुखराम से उस की हालत देखी न गई. वह परेशान हो गया, लेकिन कर भी क्या सकता था. उस ने बस इतना ही पूछा, ‘‘क्या हुआ, जो 2 दिन से काम पर नहीं आ रही हो?’’

दर्द से कराहती फूलमनी ने कहा, ‘‘अब इस चांडाल के साथ रहा नहीं जाता सुखराम. यह नामर्द न कुछ करता है और न ही मुझे कुछ करने देता है. घर में खाने को चावल का एक दाना तक नहीं छोड़ा. सारे चावल बेच कर शराब पी गया.’’

‘‘जितना सहोगी उतना ही जुल्म होगा तुम पर. अब मैं तुम से क्या कहूं. कल काम पर आ जाना. तुम्हारे बिना मेरा मन नहीं लगता है,’’ इतना कह कर सुखराम वहां से चला आया.

ये भी पढ़ें- अहसास : रामनाथ ने थामा डांसर रेखा का हाथ

सुखराम के जाने के बाद बहुत देर तक फूलमनी के मन में यह सवाल उठता रहा कि क्या सचमुच सुखराम उसे चाहता है? फिर वह खुद ही लजा गई. वह भी तो उसे चाहने लगी है. कुछ शब्दों के एक वाक्य ने उस के मन पर इतना गहरा असर किया कि वह अपने सारे दुखदर्द भूल गई. उसे ऐसा लगने लगा, जैसे सुखराम उसे साइकिल के कैरियर पर बैठा कर ऐसी जगह लिए जा रहा है, जहां दोनों का अपना सुखी संसार होगा. वह भी पीछे मुड़ कर देखना नहीं चाह रही थी. बस आगे और आगे खुले आसमान की ओर देख रही थी.

अचानक फूलमनी सपनों के संसार से लौट आई. एक गहरी सांस भरी कि काश, ऐसा बुतरू भी होता. कितना प्यार करती थी वह उस से. उस की खातिर अपने मांबाप को छोड़ कर यहां भाग आई और इस का सिला यह मिल रहा है. आंखों से आंसुओं की बूंदें टपक आईं. बुतरू का नाम आते ही उस का मन फिर कसैला हो गया.

अगले दिन सुबहसवेरे फूलमनी काम पर आई, तो उसे देख कर सुखराम का मन मयूर नाच उठा. काम बांटते समय मुंशी ने कहा, ‘‘सुखराम के साथ फूलमनी जाएगी.’’

साइट पर सुखराम आगेआगे अपने औजार ले कर चल पड़ा, पीछेपीछे फूलमनी पाटा, बेलचा, सीमेंट ढोने वाला तसला ले कर चल रही थी.

सुखराम ने पीछे घूम कर फूलमनी को एक बार फिर देखा. वह भी उसे ही देख रही थी. दोनों चुप थे. तभी सुखराम ने फूलमनी से कहा, ‘‘तुम ऐसे कब तक बुतरू से पिटती रहोगी फूलमनी?’’

‘‘देखें, जब तक मेरी किस्मत में लिखा है,’’ फूलमनी बोली.

‘‘तुम छोड़ क्यों नहीं देती उसे?’’ सुखराम ने सवाल किया.

‘‘फिर मेरा क्या होगा?’’

‘‘मैं जो तुम्हारे साथ हूं.’’

‘‘एक बार तो घर छोड़ चुकी हूं और कितनी बार छोडंू? अब तो उसी के साथ जीना और मरना है.’’

‘‘ऐसे निकम्मे के हाथों पिटतेपिटाते एक दिन तुम्हारी जान चली जाएगी फूलमनी. क्या तुम मेरा कहा मानोगी?’’

‘‘बोलो…’’

ये भी पढ़ें- रश्मि : बलविंदर के लालच ने ली रश्मि की जान

‘‘बुतरू एक जोंक की तरह है, जो तुम्हारे बदन को चूस रहा है. कभी आईने में तुम ने अपनी शक्ल देखी है. एक बार देखो. जब तुम पहली बार आई थीं, कैसी लगती थीं. आज कैसी लग रही हो. तुम एक बार मेरा यकीन कर के मेरे साथ चलो. हमारी अपनी प्यार की दुनिया होगी. हम दोनों इज्जत से कमाएंगेखाएंगे.’’

बातें करतेकरते दोनों उस जगह पहुंच चुके थे, जहां उन्हें काम करना था. आसपास कोई नहीं था. वे दोनों एकदूसरे की आंखों में समा चुके थे.

New Year 2022: एक नई पहल

 लेखक- नीलमणि शर्मा

‘‘भाभी…जल्दी आओ,प्लीज,’’ मेघा की आवाज सुन कर मैं दौड़ी चली आई.

‘‘क्या बात है, मेघा?’’ मैं ने प्रश्न- सूचक दृष्टि उस की तरफ डाली तो मेघा ने अपनी दोनों हथेलियों के बीच मेरा सिर पकड़ कर सड़क की ओर घुमा दिया, ‘‘मेरी तरफ नहीं भाभी, पार्क की तरफ देखो…वहां सामने बैंच पर लैला बैठी हैं.’’

‘‘अच्छा, तो उन आंटी का नाम लैला है…तुम जानती हो उन्हें?’’

‘‘क्या भाभी आप…’’ मेघा चिढ़ते हुए पैर पटकने लगी, ‘‘मैं नहीं जानती उन्हें, पर वह रोज यहां इसी समय इसी बैंच पर आ कर बैठती हैं और अपने मजनू का इंतजार करती हैं. भाभी, मजनूं बस, आता ही होगा…वह देखो…वह आ गया…अब देखो न इन दोनों के चेहरों की रंगत…पैर कब्र में लटके हैं और आशिकी परवान चढ़ रही है…’’

मैं ने उसे बीच में ही टोकते हुए कहा, ‘‘इस उम्र के लोगों का ऐसा मजाक उड़ाना अच्छी बात नहीं, मेघा.’’

‘‘भाभी, इस उम्र के लोगों को भी तो ऐसा काम नहीं करना चाहिए…पता नहीं कहां से आते हैं और यहां छिपछिप कर मिलते हैं. शर्म आनी चाहिए इन लोगों को.’’

‘‘क्यों मेघा, शर्म क्यों आनी चाहिए? क्या हमतुम दूसरों से बातें नहीं करते हैं?’’

‘‘हमारे बीच वह चक्कर थोड़े ही होता है.’’

‘‘तुम्हें क्या पता कि इन के बीच क्या चक्कर है? क्या ये पार्क में बैठ कर अश्लील हरकतें करते हैं या आपस में लड़ाईझगड़ा करते हैं, मेरे हिसाब से तो यही 2 बातें हैं कि कोई तीसरा व्यक्तिउन का मजाक बनाए. फिर जब तुम उन्हें जानती ही नहीं हो तो उन के रिश्ते को कोई नाम क्यों देती हो.’’

ये भी पढ़ें- सरकारी दफ्तरों में गुलाब की खेती

‘‘रिश्ते को नाम कहां दिया है भाभी, मैं ने तो उन को नाम दिया है,’’ मेघा तुनक कर बोली, ‘‘मैं ने तो आप को यहां बुला कर ही गलती कर दी,’’ यह कहते हुए मेघा वहां से चल दी.

उस के जाने के बाद भी मैं कितनी देर यों ही बालकनी में बैठी उन दोनों बुजुर्गों को देखती रही और सोचती रही कि मांबाप अब समझदार हो गए हैं. लड़केलड़की की दोस्ती पर एतराज नहीं करते. समाज भी उन की दोस्ती को खुले दिल से स्वीकार रहा है, लेकिन 2 प्रौढ़ों की दोस्ती के लिए समाज आज भी वही है…उस की सोच आज भी वही है.

पार्क में बैठे अंकलआंटी को देख कर वर्षों पुरानी एक घटना मेरे मन में फिर से ताजा हो गई.

पुरानी दिल्ली की गलियों में मेरा बचपन बीता है. उस समय लड़के शाम को आमतौर पर गुल्लीडंडा या कबड्डी खेल लिया करते थे और लड़कियां छत पर स्टापू, रस्सी कूदना या कुछ बड़ी होने पर यों ही गप्पें मार लिया करती थीं. इस के साथसाथ गली में कौन आजा रहा है, किस का किस के साथ चक्कर है, किस ने किस को कब इशारा किया आदि की भी चर्चा होती रहती थी.

मैं भी अपनी सहेलियों के साथ शाम के वक्त छत पर खड़ी हो कर यह सब करती थी. एक दिन बात करतेकरते अचानक मेरी सहेली रेणु ने कहा, ‘देखदेख, वह चल दिए आरती के दादाजी…देख कैसे चबूतरे को पकड़- पकड़ कर जा रहे हैं.’

मैं ने पूछा, ‘कहां जा रहे हैं.’

‘अरे वहीं, देख सामने गुड्डन की दादी निकल आई हैं न अपने चबूतरे पर.’

और मैं ने देखा, दोनों बैठे मजे से बातें करने लगे. रेणु ने फिर कहा, ‘शर्म नहीं आती इन बुड्ढेबुढि़या को…पता है तुझे, सुबह और शाम ये दोनों ऐसे ही एकदूसरे के पास बैठे रहते हैं.’

‘तुझे कैसे पता? सुबह तू स्कूल नहीं जाती क्या…यही देखती रहती है?’

‘अरे नहीं, मम्मी बता रही थीं, और मम्मी ही क्या सारी गली के लोगों को पता है, बस नहीं पता है तो इन के घर वालों को.’

उस के बाद मैं ने भी यह बात नोट करनी शुरू कर दी थी.

कुनकुनी ठंड आ चुकी थी. रविवार का दिन था. मैं सिर धो कर छत पर धूप में बैठी थी. आदतन मेरी नजर उसी जगह पड़ गई. आरती के दादाजी अखबार पढ़ कर शायद गुड्डन की दादी को सुना रहे थे और दादी मूंगफली छीलछील कर उन्हें पकड़ा रही थीं. यह दृश्य मुझे इतना भाया कि मैं उसे हमेशा के लिए अपनी आंखों में भर लेना चाहती थी.

ये भी पढ़ें- लड़ाई: शह और मात का पेचीदा खेल

मुंडेर पर झुक कर अपनी ठुड्डी को हथेली का सहारा दिए मैं कितनी ही देर उन्हें देखती रही कि अचानक आरती दौड़ती हुई आई और अपने दादाजी से जाने क्या कहा और वह एकदम वहां से उठ कर चले गए. गुड्डन की दादी की निरीह आंखें और मौन जबान से निकले प्रश्नों का उत्तर देने के लिए भी उन्होंने वक्त जाया नहीं किया. ‘पता नहीं क्या हुआ होगा,’ सोचते- सोचते मैं भी छत पर बिछी दरी पर आ कर बैठ गई.

अभी पढ़ने के लिए अपनी किताब उठाई ही होगी कि गली में से बहुत जोरजोर से चिल्लाने की आवाज आने लगी. कुछ देर अनसुना करने के बाद भी जब आवाजें आनी बंद नहीं हुईं तो मैं खड़ी हो कर गली में देखने लगी.

देखा, गली में बहुत लोग खड़े हैं. औरतें और लड़कियां अपनेअपने छज्जों पर खड़ी हैं. शोर आरती के घर से आ रहा था. उस के पिताजी अपने पिताजी को बहुत जोरजोर से डांट रहे थे…‘शर्म नहीं आती इस उमर में औरतबाजी करते हुए…तुम्हें अपनी इज्जत का तो खयाल है नहीं, कम से कम मेरा तो सोचा होता…इस से तो अच्छा था कि जब मां मर गई थीं तभी दूसरी बिठा लेते…सारी गली हम पर थूथू कर रही है…अरे, रामचंदर ने तो अपनी मां को खुला छोड़ रखा है…पर तुम में अपनी अक्ल नहीं है क्या…खबरदार, जो आज के बाद गली में पैर रखा तो…’

जितनी चीखचीख कर ये बातें कही गई थीं उन से क्या उन के घर की बेइज्जती नहीं हुई पर यह कहने वाला और समझाने वाला आरती के पिताजी को कोई नहीं था. हां, ये आवाजें जैसे सब ने सुनीं वैसे ही सामने गुड्डन की दादी और उन के बाकी घर वालों ने भी सुनी होंगी.

कुछ देर बाद भीड़ छंट चुकी थी. उस दिन के बाद फिर कभी किसी ने दादी को चबूतरे पर बैठे नहीं देखा. बात सब के लिए आईगई हो चुकी थी.

अचानक एक रात को बहुत जोर से किसी के चीखने की आवाज आई. मेरी परीक्षा नजदीक थी इस कारण मैं देर तक जाग कर पढ़ाई कर रही थी. चीख सुन कर मैं डर गई. समय देखा, रात के डेढ़ बजे थे. कुछ देर बाद किसी के रोने की आवाज आई. खिड़की खोल कर बाहर झांका कि यह आवाज किस तरफ से आई है तो देखा आरती के घर के बाहर आज फिर लोग इकट्ठा होने शुरू हो गए हैं.

मेरे पिताजी भी घर से बाहर निकल चुके थे…कुछ लोग हमारे घर के बाहर चबूतरे पर बैठे धीरेधीरे बोल रहे थे, ‘बहुत बुरा हुआ यार, महेश को समझाना पड़ेगा, मुंह अंधेरे ही अपने पिताजी की अर्थी ले चले, नहीं तो उस के पिताजी ने जो पंखे से लटक कर आत्महत्या की है, यह बात सारे महल्ले में फैल जाएगी और पुलिस केस बन जाएगा. महेश बेचारा बिन मौत मारा जाएगा.’

ये भी पढ़ें- खुली छत: रमेश और नीना की दुनिया

मैं सुन कर सन्न रह गई. दादाजी ने आत्महत्या कर ली…सब लोग उस दिन की बात भूल गए पर दादाजी नहीं भूल पाए. कैसे भूल पाते, उस दिन उन का आत्मसम्मान उन के बेटे ने मार दिया था. आज उन की आत्महत्या पर कैसे फूटफूट कर रो रहा है.

एक कर्कश सी आवाज तभी मेरे कानों में पड़ी और मेरी तंद्रा भंग हुई. मानो मैं नींद से जागी थी. किसी ने दरवाजे की घंटी बजाई थी. मैं ने कितनी बार अपने पति को कहा है कि इस बेल की आवाज मुझे बिलकुल पसंद नहीं है और जब कोई इसे देर तक बजाता है तो मन करता है बेल उखाड़ कर फेंक दूं.

गुस्से से दरवाजा खोलने गई. बेटी कोचिंग कर के वापस आई थी.

‘‘मिट्ठी, कितनी बार कहा है न कि एक बार बेल बजा कर छोड़ दिया करो. मैं बहरी नहीं हूं. एक बार में ही सुन लेती हूं.’’

‘‘ममा, मैं 10 मिनट से दरवाजे पर खड़ी हूं, पर आप ने घंटी नहीं सुनी और आप जरा अपना फोन देखिए, कितनी मिस काल मैं ने दरवाजे पर खडे़खडे़ दी हैं, आप ने फोन नहीं उठाया और अपने ही किए फोन की घंटी मैं दरवाजे के बाहर खड़ीखड़ी सुनती रही, क्या सो गई थीं आप?’’

अगले दिन बेटी के कोचिंग जाने के बाद मैं ताला लगा कर पार्क की ओर चल दी और अपने बैठने के लिए मैं ने वही बैंच चुनी जिस पर आंटी अकेली बैठी थीं. पसीना पोंछ कर मैं ने उन की ओर देखा तो वह पूछ बैठीं, ‘‘पहली बार सैर करने आई हो शायद.’’

मैं ने ‘हां’ में गर्दन हिला दी.

‘‘2-4 दिन ऐसे ही थकान लगेगी, पसीना आएगा, फिर आदत पड़ जाएगी,’’ आंटी मानो मेरी थकान भरी सांसों को थामने की कोशिश कर रही थीं.

मैं ने भी बात को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से पूछा, ‘‘आप रोज आती हैं?’’

‘‘हां बेटी,’’ उन का छोटा सा उत्तर सुन कर मैं ने कहा, ‘‘मैं तो बहुत कोशिश करती हूं पर आंटी समय नहीं मिलता. आप कैसे नियमित रूप से आ जाती हैं.’’

‘‘तुम्हें समय नहीं मिलता और मेरे पास समय की कमी नहीं,’’ कहते हुए आंटी खिलखिला पड़ीं. तब तक मैं दोबारा सैर करने के लिए तैयार हो चुकी थी. मैं जैसे ही उठी, देखा सामने से अंकल आ रहे थे. यह सोच कर मैं वहां से चल दी कि आज के लिए इतना ही काफी है.

ये भी पढ़ें- सम्मान वापसी: क्या उसे मिल पाया उसका सम्मान

अब मेरा यह नियम ही हो गया था. रोज की मुलाकात व बातचीत में यह पता चला कि आंटी यानी मिसेज सुमेधा कंसल सरकारी स्कूल की रिटायर्ड प्रिंसिपल हैं. बच्चे अपनीअपनी गृहस्थी में मगन हैं. एक दिन मैं ने पूछा भी था, ‘‘आंटी, जब आप प्रिंसिपल रह चुकी हैं तो आप अपने नातीपोतों को पढ़ा सकती हैं, आप के समय का सदुपयोग भी हो जाएगा.’’

एक फीकी सी हंसी के साथ आंटी बोलीं, ‘‘बेटी दूसरे शहर में रहती है. बेटे के भी एक ही बेटा है और वह देहरादून में पढ़ता है. होस्टल में रहता है. बेटा और बहू दोनों ही मुझे हर सुखसुविधा देते हैं, मानसम्मान भी रखते हैं लेकिन अपने- अपने कैरियर की ऊंचाइयां पाने में व्यस्त हैं. घर पर मैं बस, अकेली…’’

‘‘तो आंटी कोई सोशल सर्विस या अन्य कोई ऐसा काम जो आप को रुचिकर लगे, क्यों नहीं करतीं?’’

‘‘मैं जैसी सोशल सर्विस करना चाहती हूं वह बच्चों को पसंद नहीं है और ऊंची शानशौकत वाली सोशल सर्विस मैं कर नहीं सकती. हां, मुझे कविता और कहानियां लिखना रुचिकर लगता है और वह मैं लिखती हूं. लेकिन यह शाम का समय घर में अकेले नहीं बीतता…कोई तो बात करने के लिए चाहिए…नहीं तो हम बोलना ही भूल जाएंगे और हमारी भाषा समाप्त हो जाएगी. हां, अगर तुम्हारे अंकलजी होते तो…’’

‘‘अभी अंकलजी आप को लेने नहीं आएंगे क्या?’’ मैं ने अनजान बनते हुए पूछा.

‘‘नहीं बेटा, जिन्हें तुम रोज मेरे साथ बात करते देखती हो वह भी मेरी ही तरह अकेले हैं. मेरे पति तो 20 वर्ष पहले ही गुजर चुके हैं. उन के जाने के बाद भी अकेलापन था लेकिन वह वक्त तो बच्चों को पालने और नौकरी करने में जैसेतैसे बीत गया और शर्माजी, जो अभी आने ही वाले होंगे, वह भी अपनी जीवन संगिनी को 7-8 वर्ष पहले खो चुके हैं.

‘‘शर्माजी तो मुझ से ज्यादा अकेले हैं. मेरी बहू जूही मेरे बहुत करीब है, फिर फोन पर हर तीसरे दिन बेटी से भी बात हो जाती है लेकिन वह तो मर्द हैं न, बहुओं से ज्यादा घुलमिल नहीं पाते, बेटों के पास फुर्सत नहीं है. ऐसा नहीं कि बहूबेटे उन का खयाल नहीं रखते लेकिन आज सब अपने में व्यस्त हैं. नौकरीपेशा बहुएं 24 घंटे तो हाथ बांधे नहीं खड़ी रह सकतीं न और नौकरीपेशा ही क्यों, घर में रहने वाली बहुएं भी ऐसा कहां कर सकती हैं…यद्यपि इनसान ऐसा करना चाहता है लेकिन वक्त है कि वह हम सब को अपनी उंगली पर नचाता रहता है.

‘‘जैसे बच्चे, बच्चों की संगत में, जवान, जवानों के साथ, ऐसे ही हम बूढे़ बूढ़ों की संगत में खुश रहते हैं. बच्चों के साथ कभी हमें बच्चा बनना पड़ता है, अच्छा लगता है, लेकिन मन की बात तो किसी हमउम्र से ही शेयर की जा सकती है. बस, शर्माजी हैं, आते हैं…साझा दुख साझा सुख…कुछ इधर की कुछ उधर की…और फिर अगले दिन मिलने की उम्मीद में पूरे 24 घंटे बीत जाते हैं.’’

तभी सामने से शर्माजी आते दिखाई दिए. मैं उठ कर चलने लगी. आज सुमेधाजी ने मुझे रोक लिया.

‘‘इन से मिलिए. ये हैं, मिसेज मालिनी अग्रवाल, यहीं सामने के फ्लैट में रहती हैं और बेटा, ये हैं मि. शर्मा… रिटायर्ड अंडर सेके्रटरी.’’ हम दोनों में नमस्ते का आदानप्रदान हुआ और मैं वहां से चल दी.

New Year 2022: नई शुरुआत

दिशा रसोई में फटाफट काम कर रही थी. मनीष और क्रिया अपनेअपने कमरों में सो रहे थे. यहीं से उस के दिन की शुरुआत होती थी. 5 बजे उठ कर नाश्ता और दोपहर का खाना तैयार कर, मनीष और 13 वर्षीया क्रिया को जगाती थी. उन्हें जगा कर फिर अपनी सुबह की चाय के साथ 2 बिस्कुट खाती थी. उस ने घड़ी पर निगाह डाली तो 6:30 बज गए थे. वह जल्दी से जा कर क्रिया को जगाने लगी.

‘‘क्रिया उठो, 6:30 बज गए,’’ बोल कर वह वापस अपने काम में लग गई.

‘‘मम्मा, आज हम तृष्णा दीदी के मेहंदी फंक्शन में जाएंगे.’’

‘‘ओफ्फ, क्रिया, तुम्हें स्कूल के लिए तैयार होना है. देर हो गई तो स्कूल में एंट्री बंद हो जाएगी और फिर तुम्हें घर पर अकेले रहना पड़ेगा,’’ गुस्से से दिशा ने कहा, ‘‘जाओ, जल्दी से स्कूल के लिए तैयार हो जाओ, मेरा सिर न खाओ.’’ क्रिया पैर पटकती हुई बाथरूम में अपनी ड्रैस ले कर नहाने चली गई. दिशा को सब काम खत्म कर के 8 बजे तक स्कूल पहुंचना होता था, इसलिए उस का पारा रोज सुबह चढ़ा ही रहता था. 7 बज गए तो वह मनीष को जगाने गई. ‘‘कभी तो अलार्म लगा लिया करो. कितनी दिक्कत होती है मुझे, कभी इस कमरे में भागो तो कभी उस कमरे में. और एक तुम हो, जरा भी मदद नहीं करते,’’ गुस्से से भरी दिशा जल्दीजल्दी सफाई करने लगी. साथ ही बड़बड़ाती जा रही थी, ‘जिंदगी एक मशीन बन कर रह गई है. काम हैं कि खत्म ही नहीं होते और उस पर यह नौकरी. काश, मनीष अपनी जिम्मेदारी समझते तो ऐसी परेशानी न होती.’

मनीष ने क्रिया और दिशा को स्कूटर पर बैठाया और स्कूल की ओर रवाना हो गया.

दिशा की झुंझलाहट कम होने का नाम नहीं ले रही थी. जल्दीजल्दी काम निबटाते भी वह 15 मिनट देर से स्कूल पहुंची. शुक्र है प्रिंसिपल की नजर उस पर नहीं पड़ी, वरना डांट खानी पड़ती. अपनी क्लास में जा कर जैसे ही उस ने बच्चों को पढ़ाने के लिए ब्लैकबोर्ड पर तारीख डाली 04/04/16. उस का सिर घूम गया.

ये भी पढ़ें- Serial Story – चोरी का फल

4 तारीख वो कैसे भूल गई, आज तो रिया का जन्मदिन है. है या था? सिर में दर्द शुरू हो गया उस के. जैसेतैसे क्लास पूरी कर वह स्टाफरूम में पहुंची. कुरसी पर बैठते ही उस का सिरदर्द तेज हो गया और वह आंखें बंद कर के कुरसी पर टेक लगा कर बैठ गई. रिया का गुस्से वाला चेहरा उस की आंखों के आगे आ गया. कितना आक्रोश था उस की आंखों में. वे आंखें आज भी दिशा को रातरात भर जगा देती हैं और एक ही सवाल करती हैं – ‘मेरा क्या कुसूर था?’ कुसूर तो किसी का भी नहीं था. पर होनी को कोई टाल नहीं सकता. कितनी मन्नतोंमुरादों से दिशा और मनीष ने रिया को पाया था. किस को पता था कि वह हमारे साथ सिर्फ 16 साल तक ही रहेगी. उस के होने के 4 साल बाद क्रिया हो गई. तब से जाने क्यों रिया के स्वभाव में बदलाव आने लगा. शायद वह दिशा के प्यार पर सिर्फ अपना अधिकार समझती थी, जो क्रिया के आने से बंट गया था.

जैसेजैसे रिया बड़ी होती रही, दिशा और मनीष से दूर होती रही. मनीष को इन सब से कुछ फर्क नहीं पड़ता था. उसे तो शराब और सिगरेट की चिंता होती थी बस, उतना भर कमा लिया. बीवीबच्चे जाएं भाड़ में. खाना बेशक न मिले पर शराब जरूर चाहिए उसे. उस के लिए वह दिशा पर हाथ उठाने से भी गुरेज नहीं करता था. अपनी बेबसी पर दिशा की आंखें भर आईं. अगर क्रिया की चिंता न होती तो कब का मनीष को तलाक दे चुकी होती. दिशा का सिर अब दर्द से फटने लगा तो वह स्कूल से छुट्टी ले कर घर आ गई. दवा खा कर वह अपने कमरे में जा कर लेट गई. आंखें बंद करते ही फिर वही रिया की गुस्से से लाल आंखें उसे घूरने लगीं. डर कर उस ने आंखें खोल लीं.

सामने दीवार पर रिया की तसवीर लगी थी जिस पर हार चढ़ा था. कितनी मासूम, कितनी भोली लग रही है. फिर कहां से उस में इतना गुस्सा भर गया था. शायद दिशा और मनीष से ही कहीं गलती हो गई. वे अपनी बड़ी होती रिया पर ध्यान नहीं दे पाए. शायद उसी दिन एक ठोस समझदारी वाला कदम उठाना चाहिए था जिस दिन पहली बार उस के स्कूल से शिकायत आई थी. तब वह छठी क्लास में थी. ‘मैम आप की बेटी रिया का ध्यान पढ़ाई में नहीं है. जाने क्या अपनेआप में बड़बड़ाती रहती है. किसी बच्चे ने अगर गलती से भी उसे छू लिया तो एकदम मारने पर उतारू हो जाती है. जितना मरजी इसे समझा लो, न कुछ समझती है और न ही होमवर्क कर के आती है. यह देखिए इस का पेपर जिस में इस को 50 में से सिर्फ 4 नंबर मिले हैं.’ रिया पर बहुत गुस्सा आया था दिशा को जब रिया की मैडम ने उसे इतना लैक्चर सुना दिया था.

‘आप इस पर ध्यान दें, हो सके तो किसी चाइल्ड काउंसलर से मिलें और कुछ समय इस के साथ बिताएं. इस के मन की बातें जानने की कोशिश करें.’

रिया की मैडम की बात सुन कर दिशा ने अपनी व्यस्त दिनचर्या पर नजर डाली. ‘कहां टाइम है मेरे पास? मरने तक की तो फुरसत नहीं है. काश, मनीष की नौकरी लग जाए या फिर वह शराब पीना छोड़ दे तो हम दोनों मिल कर बेटी पर ध्यान दे सकते हैं,’ दिशा ने सोचा लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं.

फिर तो बस आएदिन रिया की शिकायतें स्कूल से आती रहती थीं. दिशा को न फुरसत मिली उस से बात करने की, न उस की सखी बनने की. एक दिन तो हद ही हो गई जब मनीष उसे हाथ से घसीट कर घर लाया था.

‘क्या हुआ? इसे क्यों घसीट रहे हो. अब यह बड़ी हो गई है.’ दिशा ने उस का हाथ मनीष के हाथ से छुड़ाते हुए कहा.

ये भी पढ़ें- मिनी की न्यू ईयर पार्टी

मनीष ने दिशा को धक्का दे कर पीछे कर दिया और तड़ातड़ 3-4 चाटें रिया को लगा दिए.

दिशा एकदम सकते में आ गई. उसे समझ नहीं आया कि रिया को संभाले या मनीष को रोके.

मनीष की आंखें आग उगल रही थीं.

‘जानती हो कहां से ले कर आया हूं इसे. मुझे तो बताते हुए भी शर्म आती है.’

दिशा हैरानी से मनीष की तरफ सवालिया नजरों से देखती रही.

‘पुलिस स्टेशन से.’

‘क्या?’ दिशा का मुंह खुला का खुला रह गया.

‘इंसपैक्टर प्रवीर शिंदे ने मुझे बताया कि उन्होंने इसे एक लड़के के साथ आपत्तिजनक स्थिति में पकड़ा था.’ दिशा का चेहरा गुस्से से लाल हो गया और वह रिया को खा जाने वाली नजरों से देखने लगी. रिया की आंखों से अब भी अंगारे बरस रहे थे और फिर उस ने गुस्से से जोर से परदों को खींचा और अपने कमरे में चली गई. मनीष अपने कमरे में जा कर अपनी शराब की बोतल खोल कर पीने लग गया. दिशा रिया के कमरे की तरफ बढ़ी तो देखा कि दरवाजा अंदर से बंद था. उस ने बहुत आवाज लगाई पर रिया ने दरवाजा नहीं खोला. एक घंटे के बाद जब मनीष पर शराब का सुरूर चढ़ा तो वह बहकते कदमों से लड़खड़ाते हुए रिया के कमरे के दरवाजे के बाहर जा कर बोला, ‘रिया, मेरे बच्चे, बाहर आ जा. मुझे माफ कर दे. आगे से तुझ पर हाथ नहीं उठाऊंगा.’ दिशा जानती थी कि यह शराब का असर है, वरना प्यार से बात करना तो दूर, वह रिया को प्यारभरी नजरों से देखता भी नहीं था.

रिया ने दरवाजा खोला और पापा के गले लग कर बोली, ‘पापा, आई एम सौरी.’

दोनों बापबेटी का ड्रामा चालू था. न वह मानने वाली थी और न मनीष. दिशा कुछ समझाना चाहती तो रिया और मनीष उसे चुप करा देते. हार कर उस ने भी कुछ कहना छोड़ दिया. इस चुप्पी का असर यह हुआ कि दिशा से उस की दूरियां बढ़ती रहीं और रिया के कदम बहकने लगे.

दिशा आज अपनेआप को कोस रही थी कि अगर मैं ने उस चुप्पी को न स्वीकारा होता तो रिया आज हमारे साथ होती. बातबात पर रिया पर हाथ उठाना तो रोज की बात हो गई थी. आज उसे महसूस हो रहा था कि जब बच्चे बड़े हो जाते हैं तो उन के साथ दोस्तों सा व्यवहार करना चाहिए. कुछ पल उन के साथ बिताने चाहिए, उन के पसंद का काम करना चाहिए ताकि हम उन का विश्वास जीत सकें और वे हम से अपने दिल की बात कह सकें. पर दिशा यह सब नहीं कर पाई और अपनी सुंदर बेटी को आज के ही दिन पिछले साल खो बैठी.

आज उसे 4 अप्रैल, 2015 बहुत याद आ रहा था और उस दिन की एकएक घटना चलचित्र की भांति उस की आंखों के बंद परदों से हो कर गुजरने लगी…

कितनी उत्साहित थी रिया अपने सोलहवें जन्मदिन को ले कर. जिद कर के 4 हजार रुपए की पिंक कलर की वह ‘वन पीस’ ड्रैस उस ने खरीदी थी. कितनी मुश्किल से वह ड्रैस हम उसे दिलवा पाए थे. वह तो अनशन पर बैठी थी.

स्कूल से छुट्टी कर ली थी उस ने जन्मदिन मनाने के लिए. सुबहसवेरे तैयार होने लगी. 4 घंटे लगाए उस दिन उस ने तैयार होने में. बालों की प्रैसिंग करवाई, फिर कभी ऐसे, कभी वैसे बाल बनाते हुए उस ने दोपहर कर दी. जब दिशा उस दिन स्कूल से लौटी तो एक पल निहारती रह गई रिया को.

‘हैप्पी बर्थडे, बेटा.’

दिशा ने कहा तो रिया ने जवाब दिया, ‘रहने दो मम्मी, अगर आप को मेरे जन्मदिन की खुशी होती तो आज आप स्कूल से छुट्टी ले लेतीं और मुझे कभी मना नहीं करतीं इस ड्रैस के लिए.’ दिशा का मन बुझ गया पर वह रिया का मूड नहीं खराब करना चाहती थी. दिशा यादों में डूबी थी कि तभी क्रिया की आवाज सुन कर उस की तंद्रा भंग हुई.

ये भी पढ़ें- बेकरी की यादें

‘‘मम्मा, मम्मा आप अभी तक सोए पड़े हो?’’ क्रिया ने घर में घुसते ही सवाल किया. दिशा का चेहरा पूरा आंसुओं से भीग गया था. वह अनमने मन से उठी और रसोई में जा कर क्रिया के लिए खाना गरम करने लगी. क्रिया ने फिर सुबह वाला प्रश्न दोहराया, ‘‘मम्मी, क्या हम तृष्णा दीदी के मेहंदी फंक्शन में जाएंगे?’’

दिशा ने कोई जवाब नहीं दिया. क्रिया बारबार अपना प्रश्न दोहराने लगी तो उस ने गुस्से में कहा, ‘‘नहीं, हम किसी फंक्शन में नहीं जाएंगे.’’ आज रिया की बरसी थी तो ऐसे में वह कैसे किसी फंक्शन में जाने की कल्पना कर सकती थी. क्रिया को बहुत गुस्सा आया. शायद वह इस फंक्शन में जाने के लिए अपना मन बना चुकी थी. उसे ऐसे फंक्शन पर जाना अच्छा लगता था और मां का मना करना उसे बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा था.

‘‘मम्मा, आप बहुत गंदे हो, आई हेट यू, मैं कभी आप से बात नहीं करूंगी.’’ गुस्से से बोलती हुई क्रिया अपने कमरे में चली गई और उस ने दरवाजा अंदर से बंद कर लिया.

दरवाजे की तेज आवाज से मनीष का नशा टूटा तो वह कमरे से चिल्लाया, ‘‘यह क्या हो रहा है इस घर में? कोई मुझे बताएगा?’’

दिशा बेजान सी कमरे की कुरसी पर धम्म से गिर गई. उस की नजरें कभी मनीष के कमरे के दरवाजे पर जातीं, कभी क्रिया के बंद दरवाजे पर तो कभी रिया की तसवीर पर. अचानक उसे सब घूमता हुआ नजर आया, ठीक वैसे ही जब पिछले साल 4 तारीख को फोन आया था, ‘देखिए, मैं डाक्टर दत्ता बोल रहा हूं सिटी हौस्पिटल से. आप जल्द से जल्द यहां आ जाएं. एक लड़की जख्मी हालत में यहां आई है. उस के मोबाइल से ‘होम’ वाले नंबर पर मैं ने कौल किया है. शायद, यह आप के घर की ही कोई बच्ची है.’

यह सुनते ही दिल जोरजोर से धड़कने लगा, वह रिया नहीं है. अगर वह रिया नहीं हैं तो वह कहां हैं? अचानक उसे याद आया, वह तो 6 बजे अपने दोस्तों के साथ जन्मदिन मनाने गई थी. असमंजस की स्थिति में वह और मनीष हौस्पिटल पहुंचे तो डाक्टर उन्हें इमरजैंसी वार्ड में ले गया और यह जानने के बाद कि वे उस लड़की के मातापिता हैं, बोला, ‘आई एम सौरी, इस की डैथ तो औन द स्पौट ही हो गई थी.’ अचानक से आसमान फट पड़ा था दिशा पर. वह पागलों की तरह चीखने लगी और जोरजोर से रोने लगी. ‘इस के साथ एक लड़का भी था वह दूसरे कमरे में है. आप चाहें तो उस से मिल सकते हैं.’

मनीष और दिशा भाग कर दूसरे कमरे में गए. और गुस्से से बोले, ‘बोल, क्यों मारा तू ने हमारी बेटी को, उस ने तेरा क्या बिगाड़ा था?’

16 साल का हितेश घबरा गया और रोतेरोते बोला, ‘आंटी, आंटी, मैं ने कुछ नहीं किया, वह तो मेरी बहुत अच्छी दोस्त थी.’

‘फिर ये सब कैसे हुआ? बता, नहीं तो मैं अभी पुलिस को फोन करता हूं,’ मनीष ने गुस्से में कहा. ‘अंकल, हम 4 लोग थे, रिया और हम 3 लड़के. मोटरसाइकिल पर बैठ कर हम पहले हुक्का बार गए…’

मनीष और दिशा की आंखें फटी की फटी रह गईं यह जान कर कि उन की बेटी अब हुक्का और शराब भी पीने लगी थी. फिर मैं ने रिया से कहा, ‘रिया काफी देर हो गई है. चलो, मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूं. पर अंकल, वह नहीं मानी, बोली कि आज घर जाने का मन नहीं है. ‘मेरे बहुत समझाने पर बोली कि अच्छा, थोड़ी देर बाद घर छोड़ देना तब तक लौंग ड्राइव पर चलते हैं. तभी, अंकल आप का फोन आया था जब आप ने घर जल्दी आने को कहा था. पर वह तो जैसे आजाद होना चाहती थी. इसीलिए उस ने आगे बढ़ कर चलती मोटरसाइकिल से चाबी निकालने की कोशिश की और इस सब में मोटरसाइकिल का बैलेंस बिगड़ गया और वह पीछे की ओर पलट गई. वहीं, डिवाइडर पर लोहे का सरिया सीधा उस के सिर में लग गया और उस ने वहीं दम तोड़ दिया.’

दहशत में आए हितेश ने सारी कहानी रोतेरोते बयान कर दी. दिशा और मनीष सकते में आ गए और जानेअनजाने में हुई अपनी गलतियों पर पछताने लगे. काश, हम समय रहते समझ पाते तो आज रिया हमारे बीच होती. तभी अचानक दिशा वर्तमान में लौट आई और उसे क्रिया का ध्यान आया जो अब भी बंद दरवाजे के अंदर बैठी थी. दिशा ने कुछ सोचा और उठ कर क्रिया का दरवाजा खटखटाने लगी, ‘‘क्रिया बेटा, दरवाजा खोलो.’’

अंदर से कोई आवाज नहीं आई.

‘‘अच्छा बेटा, आई एम सौरी. अच्छा ऐसा करना, वह जो पिंक वाली ड्रैस है, तुम आज रात मेहंदी फंक्शन में वही पहन लेना. वह तुम पर बहुत जंचती है.’’ दिशा का इतना बोलना था कि क्रिया झट से बाहर आ कर दिशा के गले लग गई और बोली, ‘‘सच मम्मा, हम वहां बहुत मस्ती करेंगे, यह खाएंगे, वह खाएंगे. आई लव यू, मम्मा.’’ बच्चों की खुशियां भी उन की तरह मासूम होती हैं, छोटी पर अपने आप में पूर्ण. शायद यह बात मुझे बहुत पहले समझ आ गई होती तो रिया कभी हम से जुदा नहीं होती. दिशा ने सोचा, वह अपनी एक बेटी खो चुकी थी पर दूसरी अभी इतनी दूर नहीं गई थी जो उस की आवाज पर लौट न पाती. दिशा ने कस कर क्रिया को गले से लगा लिया इस निश्चय के साथ कि वह इतिहास को नहीं दोहराएगी.

अगले दिन उस ने अपने स्कूल में इस्तीफा भेज दिया इस निश्चय के साथ कि वह अब अपनी डोलती जीवननैया की पतवार बन कर मनीष और क्रिया को संभालेगी. सब से पहले वह अपनी सेहत पर ध्यान देगी और गुस्से को काबू करने के लिए एक्सरसाइज करेगी. घर बैठे ही ट्यूशन से आमदनी का जरिया चालू करेगी. काश, ऐसा ही कुछ रिया के रहते हो गया होता तो रिया आज उस के साथ होती. इस तरह अपनी गलतियों को सुधारने का निश्चय कर के दिशा अपनी जिंदगी की नई शुरुआत कर चुकी थी.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें