Family Story: संयुक्त खाता – आखिर वीरेन अंकल क्यों बदल गये?

Family Story: दोपहर का समय था. मैं औफिस में लंच टाइम में खाना खा कर के जल्दीजल्दी अपनी फाइलें इकट्ठी कर रही थी.

बस, 15 मिनट में एक जरूरी मीटिंग अटैंड करनी थी. इतने में फोन की  घंटी बजी.

‘उफ, अब यह किस का फोन आ गया?’ परेशान हो कर मैं ने फोन उठाया, तो उधर से कमला आंटी की आवाज सुनाई पड़ी.

कमला आंटी के साथ हमारे परिवार का बहुत पुराना रिश्ता है. उन के पति और मेरे पिता बचपन में स्कूल में साथ पढ़ते थे.

आंटी की आवाज से मेरा माथा ठनका. आंटी कुछ उदास सी लग रही थीं और मैं जल्दी में थी. पर फिर भी आवाज को भरसक मुलायम बना कर मैं ने कहा, ‘‘कहिए आंटी, बताइए कैसी हैं आप?’’

‘‘बेटा, मैं तो ठीक हूं पर तुम्हारे अंकल की तबीयत काफी खराब है. हम लोग 10 दिनों से अस्पताल में ही हैं,’’ बोलतेबोलते उन का गला भर्रा गया, तो मुझे भी चिंता हो गई.

‘‘क्या हुआ आंटी? कुछ सीरियस तो नहीं है?’’

‘‘सीरियस ही है बेटी. उन को एक हफ्ते पहले दिल का दौरा पड़ा था और अब… अब लकवा मार गया है. कुछ बोल भी नहीं पा रहे हैं. डाक्टर भी कुछ उम्मीद नहीं दिला रहे हैं,’’ कहते हुए उन का गला रुंध गया.

‘‘आंटी, आप फिक्र मत कीजिए. अंकल ठीक हो जाएंगे. आप हिम्मत रखिए. मैं शाम को आती हूं आप से मिलने,’’ एक तरफ मैं उन्हें दिलासा दिला रही थी, वहीं दूसरी तरफ अपनी घड़ी देख रही थी.

मीटिंग का समय होने वाला था और मेरे बौस देर से आने वालों की तो बखिया ही उधेड़ देते हैं. किसी तरह भागतेभागते मीटिंग में पहुंची, पर मेरा दिमाग कमला आंटी और वीरेन अंकल की तरफ ही लगा रहा.

मीटिंग समाप्त होतेहोते शाम हो गई. मैं ने सोचा, घर जाते हुए अस्पताल की तरफ से निकल चलती हूं. वहां जा कर देखा, तो अंकल की हालत सचमुच काफी खराब थी. डाक्टरों ने लगभग जवाब दे दिया था. अस्पताल से निकलते हुए मैं ने कहा, ‘‘आंटी, किसी चीज की जरूरत हो तो बताइए.’’ कमला आंटी पहले तो कुछ हिचकिचाईं, पर फिर बोलीं, ‘‘बेटी, एक हफ्ते से अंकल अस्पताल में पड़े हैं. अब तुम से क्या छिपाना? मेरे पास जितना पैसा घर में था, सब इलाज पर खर्च हो गया है. इन के अकाउंट में तो पैसा है, परंतु निकालें कैसे? ये तो चैक पर दस्तखत नहीं कर सकते और एटीएम कार्ड का पिन, बस, इन्हें ही पता है. इन का खाता तुम्हारे ही बैंक में है. यह रही इन की पासबुक और चैकबुक. क्या तुम बैंक से पैसे निकालने में कुछ मदद कर सकती हो?’’ कहते हुए आंटी ने पासबुक और चैकबुक दोनों मेरे हाथ में रख दीं. आंटी को पता था कि मैं उसी बैंक में नौकरी करती हूं.

‘‘आंटी, आप का भी अंकल के साथ जौइंट अकाउंट तो होगा न? आप चैक साइन कर दीजिए, मैं कल बैंक खुलते ही आप के पास पैसे भिजवा दूंगी.’’

‘‘नहीं बेटी, नहीं. वही तो नहीं है. तुम्हें तो पता ही है, मैं तो इन के कामों में कभी दखल नहीं देती. इन्होंने कभी कहा नहीं और न ही मुझे कभी जरूरत महसूस हुई. बैंक का सारा काम तो ये खुद ही करते थे. पर पैसे तो इन के इलाज के लिए ही चाहिए. तुम तो बैंक में ही नौकरी करती हो. किसी तरह पैसा बैंक से निकलवा दोगी न?’’ आंटी ने इतनी मासूमियतभरी उम्मीद से मेरी ओर देखा, तो मुझे समझ न आया कि मैं क्या कहूं. बस चैक ले कर सोचती हुई घर आ गई.

घर आ कर चैक फिर से देखा और बैंक की शाखा का नाम पढ़ा तो याद आया कि वहां का मैनेजर तो मुझे अच्छी तरह से जानता है. झटपट मैं ने उसे फोन किया और सारी स्थिति समझाई. उस ने तुरंत मौके की नजाकत समझी और मुझे आश्वासन दिया, ‘‘कोई बात नहीं. मैं वीरेन साहब को अच्छी तरह जानता हूं. उन के सारे खाते हमारी ब्रांच में ही हैं. सुबह बैंक खुलते ही मैं खुद वीरेन साहब के पास अस्पताल चला जाऊंगा और उन के दस्तखत करवा कर पैसे उन के पास भिजवा दूंगा.

‘‘आप बिलकुल फिक्र मत कीजिए. बैंक के निर्देशों के अनुसार, यदि कोई खाताधारी किसी कारण से दस्तखत करने की हालत में नहीं होता है तो कोई अधिकारी अपने सामने उस का अंगूठा लगवा कर उस के खाते से पैसे निकालने के लिए अधिकृत कर सकता है.’’

वह मैनेजर बैंक के निर्देशों से भलीभांति अवगत था, और वीरेन अंकल की मदद करने के लिए भी तैयार था, यह जान कर मुझे बहुत तसल्ली हुई और मैं चैन की नींद सो गई.

सुबह दफ्तर जाने के बजाय मैं ने कार अस्पताल की ओर मोड़ ली. मुझे बहुत खुशी हुई, जब 9 बजते ही बैंक का मैनेजर भी वहां पहुंच गया. उस के हाथ में विड्राअल फौर्म था, जामुनी स्याही वाला इंकपैड भी था. बेचारा पूरी तैयारी से आया था. आते ही उस ने वीरेन अंकल से खूब गर्मजोशी से नमस्ते की, तो अंकल के चेहरे पर भी कुछ पहचान वाले भाव आते दिखे.

फिर मैनेजर ने कहा, ‘‘वीरेन साहब, आप के अकाउंट से 25,000 रुपए निकाल कर आप की पत्नी को दे दूं?’’ जवाब में जब अंकल ने अपना सिर नकारात्मक तरीके से हिलाया, तो मैनेजर समेत हम सब सकते में आ गए.

उस ने फिर कहा, ‘‘वीरेन साहब, आप के इलाज के लिए आप की पत्नी को पैसा चाहिए. आप के अकाउंट से पैसे निकाल कर दे दूं?’’ जवाब फिर नकारात्मक था. बेचारे मैनेजर ने 3-4 बार प्रयास किया, पर हर बार वीरेन अंकल ने सिर हिला कर साफ मना कर दिया. उस ने हार न मानी और फिर कहा, ‘‘वीरेन साहब, आप को पता है कि यह पैसा आप के इलाज के लिए ही चाहिए?’’

वीरेन अंकल ने अब सकारात्मक सिर हिलाया, परंतु पैसे देने

के नाम पर जवाब में फिर न

ही मिला. हालांकि, यह अकाउंट वीरेन अंकल के अपने अकेले के नाम पर ही था, उन्होंने उस पर कोई नौमिनेशन भी नहीं कर रखा था. बैंक मैनेजर ने आखिरी कोशिश की, ‘‘वीरेन साहब, आप की पत्नी को इस अकाउंट में नौमिनी बना दूं?’’ जवाब अब भी नकारात्मक था.

‘‘आप का अकाउंट कमलाजी के साथ जौइंट कर दूं?’’ जवाब में फिर नहीं. ताज्जुब की बात तो यह थी कि वीरेन अंकल, जो कल तक न कुछ बोल रहे थे और न ही समझ रहे थे, बैंक से पैसे निकालने के मामले में आज सिर हिला कर साफ जवाब दे रहे थे.

मैनेजर ने मेरी ओर लाचारी से देखा और हम दोनों कमरे के बाहर आ गए. खाते से पैसे निकालने में मैनेजर ने अपनी मजबूरी जाहिर कर दी, ‘‘मैडम, अच्छा हुआ, आप यहां आ गईं, नहीं तो शायद आप मेरा भी विश्वास नहीं करतीं. आप ने खुद अपनी आंखों से देखा है. वीरेन साहब तो साफ मना कर रहे हैं. ऐसे में कोई भी उन के अकाउंट  से पैसे निकालने की अनुमति कैसे दे सकता है?’’

मैनेजर की बात तो सोलह आने सही थी. बैंक मैनेजर तो वापस बैंक चला गया और मैं अंदर जा कर कमला आंटी को उस की लाचारी समझाने की व्यर्थ कोशिश करने लगी.

अस्पताल से लौटते समय मैं उन्हें अपने पास से 10,000 रुपए दे आई. साथ ही, आश्वासन भी कि जितने रुपए चाहिए, आप मुझे बता दीजिएगा, आखिर अंकल का इलाज तो करवाना ही है.

शाम को बैंक से लौटते हुए मैं कमला आंटी के पास फिर गई. वे अभी भी दुखी थीं. मैं ने भी उन से पूछ ही लिया, ‘‘आंटी, आप ने कभी अंकल को अकाउंट जौइंट करने के लिए नहीं कहा क्या?’’

‘‘कहा था बेटी. कई बार कहा था, पर वे मेरी कब मानते हैं? हमेशा यही कहते हैं कि मैं क्या इतनी जल्दी मरने जा रहा हूं? एक बार शायद यह भी कह रहे थे कि यह मेरा पैंशन अकाउंट है, जौइंट नहीं हो सकता.’’

‘‘नहींनहीं आंटी, शायद उन्हें पता नहीं है. अब तो पैंशन अकाउंट भी जौइंट हो सकता है. चलो, अंकल ठीक हो जाएंगे, तब उन का और आप का अकाउंट जौइंट करवा देंगे और नौमिनेशन भी करवा देंगे,’’ कह कर मैं घर आ गई.

रास्तेभर गाड़ी चलाते हुए मैं यही सोचती रही कि वीरेन अंकल वैसे तो आंटी का इतना खयाल रखते हैं, पर इतनी महत्त्वपूर्ण बात पर कैसे ध्यान नहीं दिया?

कुछ दिन और निकल गए. वीरेन अंकल की तबीयत और बिगड़ती गई. आखिरकार, लगभग 10 दिनों बाद उन्होंने अंतिम सांस ले ली और कमला आंटी को रोताबिलखता छोड़ हमेशाहमेशा के लिए चले गए.

पति के जाने के अकथनीय दुख के साथसाथ आंटी के पास अस्पताल का बड़ा सा बिल भी आ गया. उन का अंतिम संस्कार होने तक आंटी के ऊपर कर्जा काफी बढ़ गया था.

घर की सदस्य जैसी होने के नाते मैं लगभग रोज ही उन के पास जा रही थी और मैं ने जो पहला काम किया, वह यह कि वीरेन अंकल के सभी खाते बंद करवा कर उन्हें कमला आंटी के नाम करवाए. इन कामों में बहुत से फौर्म भरने पड़ते हैं, पर बैंक में नौकरी करने की वजह से मुझे उन सब की जानकारी थी. आंटी को सिर्फ इन्डेमिनिटी बौंड, एफिडेविट, हेयरशिप सर्टिफिकेट आदि पर अनगिनत दस्तखत ही करने पड़े थे, जो मुझ में पूरा भरोसा होने के कारण वे करती चली गईं और रिकौर्ड टाइम में मैं ने वीरेन अंकल के सभी खाते आंटी के नाम पर करवा दिए. आंटी ने चैन की सांस ली और सारे कर्जों का भुगतान कर दिया. अपने खातों में उन्होंने नौमिनी भी मनोनीत कर लिया. अंकल के शेयर्स, म्यूचुअल फंड्स आदि का भी यही हाल था.

सब को ठीक करने में कुछ समय अवश्य लगा, पर मुझे यह सब काम पूरा कर के बहुत ही संतोष मिला.

वीरेन अंकल सरकारी नौकरी से रिटायर हुए थे. अब आंटी की फैमिली पैंशन भी आनी शुरू हो गई थी. और तो और, उन्होंने एटीएम से पैसे निकालना, चैक जमा करना और पासबुक में एंट्री कराना भी सीख लिया था. सार यह कि उन का जीवन एक ढर्रे पर चल पड़ा था.

इस बात को कई महीने बीत गए, पर एक बात मेरे दिल को बारबार कचोटती रही कि ऐसा क्या था कि अंकल ने अपने अकाउंट से पैसे नहीं निकालने दिए. फिर एक बार मौका निकाल कर मैं ने आंटी से पूछ ही लिया.

यह सुन कर आंटी सकपका कर चुपचाप जमीन की ओर देखने लगीं. मुझे लगा कि शायद मुझे यह सवाल नहीं पूछना चाहिए था, पर कुछ क्षण पश्चात आंटी जैसे हिम्मत बटोर कर बोलीं, ‘‘बेटी, क्या बताऊं? पैसा चीज ही ऐसी है. जब अपने ही सगे धोखा देते हैं, तब शायद आदमी के मन से सभी लोगों पर से विश्वास उठ जाता है. इन के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था.’’

मैं चुपचाप आंटी की ओर देखती रही. मेरी उत्सुकता और अधिक जानने के लिए बढ़ गई थी.

आंटी आगे बोलीं, ‘‘जब तुम्हारे अंकल मैडिकल की पढ़ाई कर रहे थे, उन के पिता यानी मेरे ससुरजी बहुत बीमार थे. पैसों की जरूरत पड़ती रहती थी. इसलिए उन्होंने अपनी चैकबुक ब्लैंक साइन कर के रख दी थी. मेरे जेठ के हाथ वह चैकबुक पड़ गई और उन्होंने अकाउंट से सारे पैसे निकाल लिए. न ससुरजी के इलाज के लिए पैसे बचे और न इन की पढ़ाई के लिए. मेरी सास पैसेपैसे के लिए मुहताज हो गईं. फिर अपने जेवर बेच कर उन्होंने इन की मैडिकल की पढ़ाई पूरी करवाई और साथ ही, यह सीख भी दी कि पैसे के मामले में किसी पर भी विश्वास न करना, अपनी बीवी पर भी नहीं.

‘‘तुम्हारे अंकल ने शायद अपनी जिंदगी के उस कड़वे सत्य को आत्मसात कर लिया था और अपनी मां की सीख को भी. इसीलिए वे पैसे पर अपना पूरा नियंत्रण रखते थे और उस लकवे की हालत में भी उन के अंतर्मन में वही एहसास रहा होगा.’’

अब सबकुछ शीशे की तरह साफ था, पर आंटी तनाव में लग रही थीं. मैं ने बात बदली, ‘‘चलिए छोडि़ए आंटी, मैं आप को चाय बना कर पिलाती हूं.’’ समय बीतता गया, कमला आंटी की मनोस्थिति अब लगभग ठीक हो गई थी और अपने काम संभालने से उन में एक नए आत्मविश्वास का संचार भी हो रहा था. वैसे तो कमला आंटी पढ़ीलिखी थीं, हिंदी साहित्य में उन्होंने स्नातकोत्तर स्तर तक पढ़ाई की थी, परंतु पिछले 40 सालों में केवल घरबार में ही विलीन रहने से उन का जो आत्मविश्वास  खो सा गया था, धीरेधीरे वापस आने लगा था.

मैं जब भी उन से मिलने जाती, मुझे यही खयाल बारबार सताता था कि हरेक व्यक्ति भलीभांति जानता है कि उसे एक दिन इस दुनिया से जाना ही है. बुढ़ापे की तो छोड़ो, जिंदगी का तो कभी कोई भरोसा नहीं है. पर फिर भी अपनी मृत्यु के पश्चात अपने प्रियजनों की आर्थिक सुरक्षा के बारे में कितने लोग सोचते हैं? छोटीछोटी चीजें हैं जैसे कि अपना बैंक खाता जौइंट करवाना, अपने सभी खातों, शेयर्स, म्यूचुअल फंड आदि में नौमिनी का पंजीकरण करवाना आदि. साथ ही, वसीयत करना भी तो कितना महत्त्वपूर्ण काम है. पर इन सब के बारे में ज्यादातर लोग सोचते ही नहीं हैं?

अब कमला आंटी को ही ले? लीजिए. उन बेचारी को तो यह भी पता नहीं था कि वे फैमिली पैंशन की हकदार हैं, अंकल के पीपीओ वगैरह की जानकारी तो बहुत दूर की बातें हैं. लोग जिंदा रहते हुए अपने परिवार का कितना खयाल रखते हैं, परंतु कभी यह नहीं सोचते कि उन के मरने के बाद उन का क्या होगा?

धीरेधीरे समय निकलता गया और कमला आंटी के जीवन में सबकुछ सामान्य सा हो गया. उन के घर मेरा आनाजाना भी कम हो गया. पर अचानक एक दिन आंटी का फोन आया, ‘‘बेटी, शाम को दफ्तर से लौटते हुए कुछ देर के लिए घर आ सकती हो क्या?’’

‘‘हां, हां, जरूर आंटी. कोई खास बात है क्या?’’

‘‘नहीं, कुछ खास नहीं, पर शाम को आना जरूर,’’ आवाज से आंटी खुश लग रही थीं.

शाम को जब मैं उन के घर पहुंची, तो उन्होंने मेरे आगे लड्डू रख दिए. चेहरे पर बड़ी सी मुसकान थी.

‘‘लड्डू… किस खुशी में आंटी?’’ मैं ने कुतूहलवश पूछा, तो एक प्यारी सी मुसकान उन के चेहरे पर फैल गई.

‘‘पहले लड्डू खाओ बेटी,’’ बहुत दिन बाद कमला आंटी को इतना खुश देखा था. दिल को अच्छा लगा. लड्डू बहुत स्वादिष्ठ थे. एक के बाद मैं ने दूसरा भी उठा लिया. तब तक आंटी अंदर के कमरे में गईं और लौट कर सरिता मैगजीन की एक प्रति मेरे हाथ में रख दी.

‘‘यह देखो, तुम्हारी आंटी अब लेखिका बन गई है. मेरी पहली कहानी इस में छपी है.’’

‘‘आप की कहानी…? वाह आंटी, वाह, बधाई हो.’’

‘‘हां, कहानी क्या, आपबीती ही समझ लो. मैं ने सोचा कि क्यों न सब लोगों को बताऊं कि पैसे के मामले में पत्नी के साथ साझेदारी न करने से क्या होता है और संयुक्त खाता न खोलने से उस को कितनी परेशानी हो सकती है? वैसे ही कोरोना वायरस इतना फैला हुआ है, क्या पता किस का नंबर कब लग जाए. तुम्हारी मदद न मिलती, तो मैं पता नहीं क्या करती. जैसा मेरे साथ हुआ, ऐसा किसी के साथ न हो,’’ कहतेकहते कमला आंटी की आंखें नम हो चली थीं और साथ में मेरी भी.

घर जा कर चैक फिर से देखा और बैंक की शाखा का नाम पढ़ा तो याद आया कि वहां का मैनेजर तो मुझे अच्छी तरह से जानता है. झटपट मैं ने उसे फोन किया और सारी स्थिति समझाई. उस ने तुरंत मौके की नजाकत समझी और मुझे आश्वासन दिया.

Romantic Story: बेनाम रिश्ता – क्या किशन के दिल में अमृता के लिए प्यार था?

Romantic Story: अपने विवाह के बाद किसी रिश्तेदार के विवाह समारोह में मेरा जाना हुआ. वहां जा कर मैं ने देखा कि तमाम रिश्तेदारों के साथसाथ मेरी चचेरी भाभी भी आई हुई थीं. उन से मेरा 40 वर्षों बाद मिलना हुआ था. रात को भोजन के बाद मैं भाभी के पास बैठी उन से बातें कर रही थी.

उन्होंने बताया कि चाचा की मृत्यु के तुरंत बाद ही वे ससुराल छोड़ कर अपने इकलौते बेटे व बहू के साथ अपने मायके लखनऊ जा कर बस गईर् थीं.

मैं बहुत ध्यान से उन की बातें सुन रही थी और साथ ही साथ विस्तार से जानने की जिज्ञासा भी प्रकट कर रही थी.

उन्होंने आगे बताया कि उन का भाई किशन भी लखनऊ में अपने पैतृक मकान में परिवार सहित रह कर पुश्तैनी व्यवसाय संभाल रहा था.

इतना सुनने के बाद मेरे लिए आगे कुछ और जानने की जिज्ञासा का कोई औचित्य नहीं था, क्योंकि वे मेरे और किशन के रिश्ते से अनभिज्ञ नहीं थीं. मेरी आंखों के सामने एक धुंधला सा चेहरा तैर गया, जो वक्त के बहाव में धूमिल होतेहोते मिट सा गया था. मैं नहीं चाहती थी कि मेरे मन में जो चल रहा है, उस को मेरे चेहरे के भाव से भाभी पढ़ लें, इसलिए मैं आंखें बंद कर के सोने का उपक्रम करने लगी और उन से विदा ले कर अपने कमरे में चली आई. दिनभर की भागदौड़ से थकी होने के कारण तुरंत ही मैं सो गई.

तमाम मेहमानों के साथ भाभी ने भी विदा ली. जातेजाते वे अपना मोबाइल नंबर देना और मेरा लेना नहीं भूलीं. इस मुलाकात ने हमारी आत्मीयता को पुनर्जीवित कर दिया था. मैं दिल्ली

लौट आई और अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गई.

मुझे आए हुए 20 दिन बीते कि एक दिन मेरा मन भाभी से बात करने को हुआ, लेकिन यह सोच कर टाल दिया कि कहीं किशन भी आसपास न बैठा हो. मैं बुझी हुई आग को दोबारा सुलगाना नहीं चाहती थी. लेकिन फिर भी परोक्षरूप से उस से संपर्क करने की इच्छा का ही तो परिणाम था कि मैं उन से बात करना चाह रही थी.

अभी 3 दिन ही बीते कि अचानक अपने मोबाइल में एक मैसेज और उस को भेजने वाले का नाम पढ़ कर मैं बुरी तरह चौक गई. जो मैं नहीं चाहती थी, वही हुआ. भाभी के भाई किशन का मैसेज था, ‘‘कैसी हो अमृता,’’ मैसेज पढ़ते हुए मैं ने अपने चारों और ऐसे देखा, जैसे मैं कोई चोरी कर रही हूं.

मेरे मन में अजीब सी हलचल होने लगी. पलक झपकते ही मैं समझ गई कि किशन ने भाभी से ही मेरा मोबाइल नंबर लिया होगा. मेरे मन में भाभी से मिलने के बाद उस का खयाल आना और उस का मैसेज आना, टैलीपैथी ही तो थी, सच ही कहा गया है किसी से मिलने के पीछे भी कोई न कोई कारण होता है. तो क्या भाभी से मिलने का कारण भी मेरा किशन से दोबारा संपर्क होना था, मैं सोच रही थी.

मेरा मन अशांत हो चला था. मैं अपने मस्तिष्क को 40 वर्ष पहले अतीत में घटित घटना की यादों में धकेलने के लिए मजबूर हो गई थी, जो मेरे मानस पटल से समय के बहाव में धुलपुंछ गए थे और जिन का मेरे जीवन में अब कोई अस्तित्व ही नहीं था. अतीत के पन्ने एकएक कर के मेरी आंखों के सामने खुलने लगे.

मेरी भाभी अपनी मां और भाई के साथ मथुरा में हमारे घर आई थीं. तब मेरी उम्र 21-22 वर्ष की रही होगी. भाभी के आग्रह पर जहांजहां वे घूमने गए, मैं भी उन के साथ गई. साथसाथ घूमते हुए भाभी के भाई की गहरी निगाहों की कब मैं शिकार हो गई, मुझे पता ही नहीं चला. उस की मंदमंद मुसकान और बोलती हुई बड़ीबड़ी भूरी आंखों ने मुझे मूक प्रेमनिमंत्रण देने में जरा भी संकोच नहीं किया. जिस को स्वीकार करने से मैं अपनेआप को रोक नहीं पाई.

वह बहुत कम बोलता था, लेकिन उस की आंखों की भाषा से कुछ भी अनकहा नहीं रहता था. किसी ने ठीक ही कहा है खामोशियों की भी जबां होती है. परिवार वालों से हट कर जब भी मौका मिलता था, वह मेरा हाथ पकड़ लेता था और मैं ने भी कभी हाथ छुड़ाने का प्रयास नहीं किया था. हम दोनों मंत्रमुग्ध से एकदूसरे का साथ पाने के लिए आतुर रहते थे. और वह होली का दिन, कैसे भूल सकती हूं… वह सब. यंत्रचालित हम एकदूसरे के पीछे भागते रहते थे.

20 दिनों के साथ के बाद अंत में बिछुड़ने का दिन आ गया. भाभी मुझ से खिंचीखिंची ही रहीं. इस से मुझे आभास हो गया था कि उन से कुछ भी छिपा नहीं है, मौका पा कर किशन ने मेरे हाथ में एक छोटी सी पर्ची थमा दी, जिस में उस का पता लिखा था. कुछ भी कहनेसुनने का हम दोनों को कभी मौका नहीं मिला. आज के विपरीत वह जमाना ही ऐसा था, जब अपने हावभाव से ही प्रेम की अभिव्यक्ति होती थी, उसे शब्दों का जामा पहनाने में इतना विलंब हो जाता था कि समय के बहाव में परिस्थितियां ही बदल जाती थीं.

मुझे याद है, उस के जाने के बाद अगले दिन अपनी सहेली से लिपट कर मैं कितना रोई थी. किशन से लगभग 3 महीने तक पत्रव्यवहार हुआ. फिर अचानक उस का पत्र आना बंद हो गया. मैं ने पत्र लिख कर कारण पूछा, लेकिन कोई जवाब नहीं आया.

समय बीतता गया और किशन के साथ बिताए गए दिनों की यादें समय की परतों के नीचे दबती चली गईं. और आज अचानक इतने वर्षों बाद उस का यह अप्रत्याशित मैसेज. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं?

अपने पति की मृत्यु के बाद से जीवन अकेलेपन और खालीपन के एहसास के नीचे दब कर दम तोड़ रहा था और एक बोझ सा बन गया था, लेकिन जीना तो था न. बच्चे बहुत व्यस्त रहते थे, मैं हमेशा उन के सामने मुसकराहट का मुखौटा ओढ़े रहती थी, लेकिन रात में अकेले, साथी की कमी को बहुत शिद्दत से महसूस करती थी और कई बार तो रातभर नींद नहीं आती थी, यह सोच कर कि  पहाड़ सा जीवन कैसे काटूंगी.

वर्तमान परिस्थितियां देखते हुए मेरा मन किशन से बात करने के लिए व्याकुल हो गया. कुछ देर के आत्ममंथन के बाद हमारे जमाने के विपरीत जब पति के अतिरिक्त किसी भी पुरुष से आत्मीयता का संबंध रखना पाप समझा जाता था, इस जमाने की बदली हुई सोच, नई टैक्नोलौजी द्वारा उपलब्ध संपर्क साधन के कारण और पहले प्यार की अनुभूति की पुनरावृत्ति की मिठास को पाने के लोभ ने आग में घी डालने का कार्य किया और मेरा मन, मन की सीमारेखा को तोड़ने के लिए मजबूर हो गया.

मैं ने अपने मन को यह कह कर समझाया, ‘देखिए आगेआगे होता है क्या.’ और मैं ने जवाब दिया, ‘‘ठीक हूं, तुम बताओ?’’ वह जैसे मेरे जवाब का इंतजार ही कर रहा था. प्रत्युत्तर में उस ने औपचारिकतापूर्ण मेरे परिवार के बारे में विस्तार से पूछा और अपने परिवार के बारे में बताया कि उस के परिवार में उस की पत्नी और 2 बेटियां हैं, दोनों बेटियों का विवाह हो चुका है.

वर्षों बाद उस की आवाज सुन कर मैं बहुत रोमांचित हुई, ऐसा लगा कि जैसे हमारे अतीत के मूकप्रेम को वाणी मिल गई. वार्त्तालाप में साथसाथ बिताए गए वे दिन, जो धरातल में कही समा गए थे, पुनर्जीवित हो गए. बहुत सारी घटनाएं किशन ने याद दिलाईं, जो मैं भूल चुकी थी.

मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हें तो सब याद है.’’

वह बोला, ‘‘मैं भूला ही कब था?’’

‘‘तो फिर तुम ने पत्र लिखना क्यों बंद कर दिया?’’

क्या करता दीदी ने सबकुछ पिताजी को बता दिया. और उन के आदेश पर मुझे ऐसा करना पड़ा. वह जमाना ही ऐसा था, जब बड़ों का वर्चस्व ही सर्वोपरि होता था.’’

‘‘काश, उस समय मोबाइल होता.’’ मेरी इस आवाज का मर्म उसे अंदर तक आहत कर गया.

‘‘चलो, अब तो मोबाइल है. अब तो बात कर सकते हैं,’’ उस ने मुझे सांत्वना देते हुए कहा.

उस से बात कर के मुझे अपने पर नाज हो आया कि आज इतने सालों बाद भी मैं किसी की यादों में बसी हूं. विवाह एक सामाजिक बंधन है, जो शरीर को तो कैद कर सकता है, लेकिन मन तो आजाद पंछी की तरह अरमानों के गगन में जब चाहे उड़ सकता है. बहुत बार विवाह के समय हवन की अग्नि भी प्यार की तपिश को अक्षुण्ण नहीं कर पाती. उस की बातों से स्पष्ट हो गया था कि वह भी अपने परिवार के प्रति समर्पित है, लेकिन मेरी तरह उस के भी दिल का एक कोना खाली ही रहा. प्रसिद्ध शायर फराज ने ठीक ही कहा है, ‘‘कुछ जख्म सदियों के बाद भी ताजा रहते हैं फराज, वक्त के पास भी हर मर्ज की दवा नहीं होती.’’

मुझे किशन की बातें बहुत रोमांचित करती थीं. लेकिन कभीकभी मेरा मन नैतिकता और अनैतिकता के झूले में झूलता हुआ रिश्ते के स्थायित्व के बारे में सोच कर उद्विग्न हो जाता था. लेकिन धीरेधीरे उस से बातें कर के मुझे एहसास हो चला था कि हमारा प्रेम परिपक्व उम्र की अंतरंग मित्रता में परिवर्तित हो गया है. इस नए रिश्ते को बनाने में किशन का बहुत सहयोग था.

पहले उस की जो बातें मुझे रोमांचित करती थीं, अब अजीब सा सुकून देने लगी थीं. अब हम दोनों की बातचीत में किसी कारण लंबा अंतराल भी आ जाता था, तो मुझे उस के दोबारा खो जाने की बात सोच कर बेचैनी नहीं होती थी. हम दोनों ही वार्त्तालाप के दौरान एक बार मिलने की इच्छा व्यक्त करते थे.

एक दिन उस ने मुझे यह कह कर चौंका दिया कि वह एक बार मिलने के लिए बहुत बेचैन है और वह जल्दी ही किसी बहाने से मुझ से मिलने दिल्ली आएगा. यह सुन कर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ. उस से मिलने की कल्पना ही मुझे बहुत रोमांचित कर रही थी. सोच में पड़ गई. 40 वर्षों में उस में जाने कितना परिवर्तन आ गया होगा, पता नहीं, मैं उस के साथ सहज हो पाऊंगी या नहीं.

वह दिन भी आ गया जब उसे दिल्ली आना था. किशन से इतने सालों बाद मिलना, मेरे लिए, सपने का वास्तविकता में बदलने से कम नहीं था. समय और परिस्थितियां बहुत बदल गई थीं. इसलिए उस से मिलने के लिए अपनी मनोस्थिति को तैयार करने में मुझे बहुत समय लगा.

उस से मिलने पर मुझे लगा कि हम दोनों के सिर्फ बाहरी आवरण पर ही उम्र ने छाप छोड़ी थी, लेकिन अंदर के एहसास में रत्तीभर भी परिवर्तन नहीं आया था. इतने सालों बाद मिलने पर समझ ही नहीं आ रहा था कि बातों का सिलसिला कहां से आरंभ किया जाए, अभी भी बिना कुछ कहे ही जैसे हम ने आपस में सबकुछ कह दिया था.

किशन ने मेरे हाथों को अपने हाथों में लेते हुए बात आरंभ की, ‘‘अमृता, जरूरी नहीं कि हम जिस से प्यार करें, उस से शादी भी हो जाए और जिस से शादी हो उस से प्यार हो जाए, क्योंकि प्यार किया नहीं जाता, हो जाता है, इसलिए इन दोनों का आपस में कोई संबंध नहीं है.

‘‘हमारी आपस में शादी नहीं हुई, लेकिन आपस के प्यार के एहसास के रिश्ते को अच्छे दोस्त बन कर तो जिंदा रख सकते हैं. वैसे भी, उम्र के इस पड़ाव में इस से अधिक चाहिए ही क्या? मेरे जीवन में तुम्हारी जगह कोई नहीं ले सकता.’’

मुझे ऐसा लग रहा था. जैसे मैं किसी दूसरी दुनिया में विचरण कर रही हूं. हमारे पुरुषप्रधान समाज में तो ऐसी सोच वाला पुरुष मिलना असंभव नहीं, तो कठिन जरूर है, जिस ने मेरे प्यार को दीये की लौ की तरह अभी तक अपने दिल में छिपा रखा था. मैं अपने को धन्य समझ कर, भावातिरेक में उस से लिपट गई और मेरी आंखों से आंसू बह निकले.

उस ने मुझे अपने बाहुपाश में थोड़ी देर के लिए जकड़े रखा. किशन के पहली बार के इस स्पर्श ने मुझे अलौकिक सुकून दिया. मुझे लगा कि मेरे एकाकी जीवन में किसी साथी ने दस्तक दे दी थी और मुझे जीने का सबब मिल गया था.

पति और पत्नी का रिश्ता कानूनी है, लेकिन यह बेनाम रिश्ता, क्योंकि इस ने समाज की स्वीकृति की मुहर प्राप्त नहीं की है, अवैध माना जाता है. समाज को अपनी सोच बदलने की आवश्यकता है, क्योंकि यह बेनाम रिश्ता इतना खूबसूरत होता है कि जीवन के लिए संजीवनी से कम नहीं होता और ताउम्र खुशी देता है.

शायर गुलजार ने इस बेनाम रिश्ते को अपनी कलम से बहुत खूबसूरत तरीके से उकेरा है, ‘हाथ से छू के इस रिश्ते को इलजाम न दो.’

उस ने मुझ से कहा कि हमारा मिलना आसान नहीं है, लेकिन फोन पर एकदूसरे के संपर्क में रह कर हमेशा एकदूसरे से जुड़े रहेंगे. किशन ने एक ऐसा एहसास दे कर, जिस के कारण हजारों मील की दूरियां भी बेमानी हो गई थीं, मुझ से विदा ली. इन दोनों के बीच की दूरी अब कोई माने नहीं रखती थी. दिल से दिल जुड़ गए थे. यह रिश्ता दिल का था. समाज की मुहर की जरूरत भी नहीं थी इसे.

Family Story: अंश – प्रताप के प्रतिबिंब के पीछे क्या कहानी थी?

Family Story: कालेज प्राचार्य डाक्टर वशिष्ठ आज राउंड पर थे. वैसे उन को समय ही नहीं मिल पाता था. कभी अध्यापकों की समस्या, कभी छात्रों की समस्या, और कुछ नहीं तो पब्लिक की कोई न कोई समस्या. आज समय मिला तब वे राउंड पर निकल पड़े.

उन के औफिस से निकलते ही सब से पहले थर्ड ईयर की कक्षा थी. बीए थर्ड ईयर की क्लास में डाक्टर प्रताप थे. हमेशा की तरह उन की क्लास शांतिपूर्वक चल रही थी. अगली क्लास मैडम सुनीता की थी. वे हंसीमजाक करती हुई अपनी क्लास में बच्चों को पढ़ाती थीं.

अब वे अगली कक्षा की ओर बढ़े. बीए प्रथम वर्ष की कक्षा थी, जिस में चिल्लपों ज्यादा रहती. इस बात को सब समझते थे कि यह स्कूल से कालेज में आए विद्यार्थियों की क्लास थी. ये विद्यार्थी अपनेआप को स्कूल के सख्त अनुशासन से आजाद मानते हैं. स्कूल में आने और जाने में कोई ढील नहीं मिलती थी लेकिन यहां कभी भी आने और जाने की आजादी थी. लेकिन आज क्लास शांत थी. केवल अध्यापक की आवाज गूंज रही थी. आवाज सुन कर प्राचार्यजी चौंके, क्योंकि आवाज डाक्टर प्रताप की थी. बस, अंतर यही था थर्ड ईयर की कक्षा में जहां राजनीति पर चर्चा चल रही थी तो प्रथम वर्ष की कक्षा में इतिहास पढ़ाया जा रहा था.

प्राचार्यजी ने सोचा- एक ही व्यक्ति 2 जगह कैसे हो सकता है? प्राचार्य वापस थर्ड ईयर की क्लास की ओर गए तो देखा कि प्रताप वहां पढ़ा रहे थे. वे वापस आए और देखा कि क्लास का ही एक विद्यार्थी अध्यापक बना हुआ था और पूरी क्लास शांतिपूर्वक पढ़ रही थी. अध्यापक बना हुआ विद्यार्थी राहुल था.

प्राचार्य थोड़ी देर तक चुपचाप देखते रहे और फिर डाक्टर प्रताप को बुला लाए. दोनों राहुल की कक्षा का निरीक्षण करते रहे और जब क्लास खत्म हुई तब ताली बजाते हुए क्लास में प्रवेश कर गए. उन को देख कर सभी खड़े हो गए और राहुल प्राचार्य के पास पहुंच कर बोला, ‘‘सौरी सर.’’

प्राचार्य और प्रताप सर ने उस के सिर पर हाथ फेरा. प्राचार्य ने कहा, ‘‘बेटा, इस में माफी मांगने वाली बात कहां से आ गई. तुम तो अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हो. हमारे लिए तो गर्व की बात है कि हमारे कालेज में इतना होनहार विद्यार्थी है. इस साल के ऐनुअल फंक्शन में तुम्हारा शो रखेंगे.’’ प्राचार्य की बात सुन कर ललिता उठी और बोली, ‘‘सर, यह सभी सरों की मिमिक्री करता है. प्रताप सर की मिमिक्री तो इतनी अच्छी करता है कि जैसे यह प्रताप सर का ही अंश हो.’’

बात छोटी सी थी लेकिन उन का इंपैक्ट इतना बड़ा होगा? यह बाद में पता चलेगा.

राहुल की ममेरी बहन है सुषमा. वह घर गई और स्कूल में घटी घटना को अपनी मम्मी कविता को बता दिया. ललिता ने जो कहा उसे भी अपनी मम्मी को बताया और बोली, ‘‘मम्मी,

अपने राहुल में प्रताप सर की छवि दिखती है.’’

सुषमा की बात सुन कर कविता बोली, ‘‘तू ने पहले तो यह नहीं बताया, जबकि तुम दोनों को 3 महीने हो गए कालेज गए हुए.’’

सुषमा ने कहा, ‘‘पहले मैं ने इस बात पर गौर नहीं किया था लेकिन क्लास में यह चर्चा होती रही है.’’

रात को कविता ने अपने पति अनिल को बताया और संभावना व्यक्त की कि कहीं डाक्टर प्रताप ही राहुल के जैविक पिता तो नहीं?’’

अनिल ने कहा, ‘‘हो सकता है. मैं प्रताप सर से बात करूंगा.’’ इस से पहले मैं इनफर्टिलिटी सैंटर से बात करूंगा, जहां राहुल का जन्म हुआ. अगर वे सच में राहुल के पापा हुए तो मेरे लिए यह सब से अच्छा दिन होगा. अपनी छोटी बहन को विधवा के रूप में देखा नहीं जाता.’’

राहुल की मम्मी सुनीता जब 11 वर्ष की रही होंगी, उस के भाई की शादी हुई थी. उस के एक साल बाद एक सड़क दुघर्टना में उन के मम्मीपापा का देहांत हो गया. अनिल और कविता ने उस का अपनी बेटी जैसा खयाल रखा. सुनीता को एहसास भी नहीं होने दिया कि उस के मम्मीपापा नहीं हैं. इस दौरान सुनीता के भाई के घर में बेटे का जन्म हुआ. बूआ व भतीजा दोनों में पटरी अच्छी बैठ गई.

सुनीता को पढ़ाया और उस की शादी की. 20-21 साल की उम्र में ही सुनीता की शादी कर दी गई. लड़का अच्छा मिल गया, इसलिए सुनीता की शादी जल्दी कर दी. राजेश एक अच्छा पति साबित हुआ. उस ने सुनीता को हर खुशी देने की कोशिश की लेकिन सब से बड़ी

खुशी वह नहीं दे पाए. सुनीता मां नहीं बन सकी.

दोनों ने लगभग 10 वर्ष बिना संतान के बिता दिए और अपनी नियति मान कर चुपचाप बैठ गए. जब शहर में इनफर्टिलिटी सैंटर खुला तो दोनों सैंटर गए. जांच में कमी राजेश में पाई गई.

चूंकि राजेश इलाज से भी पिता बनने के काबिल नहीं थे, इसलिए शुक्राणुओं की व्यवस्था शुक्राणु बैंक से हो गई. राहुल का जन्म हुआ. इस के साथसाथ कविता ने एक बच्ची को जन्म दिया. यही सुषमा है. राजेश ने राहुल और सुनीता दोनों को भरपूर प्यार दिया. जीवन अच्छा चल रहा था.

परंतु राजेश की अचानक मौत ने सुनीता को तोड़ दिया. सुनीता से ज्यादा अनिल को तोड़ दिया. जिस बहन को उन्होंने अपनी बच्ची की तरह पाला, उस को विधवा के रूप में देख कर वे अपनेआप को संभाल नहीं पा रहे थे. बहरहाल, धीरेधीरे सब सामान्य होने लगा. राहुल और सुषमा दोनों कालेज पहुंच गए.

इधर प्रताप भी परेशान थे. आज जो हुआ, उस से भी परेशान थे. उस ने उन के मन में संदेह पैदा कर दिया था. अब तक वे लोगोें की चर्चाओं को भाव नहीं दे रहे थे. लोग इसलिए भी चुप रहते क्योंकि लोगों को प्रताप सर का व्यवहार से ऐसा नहीं लगता था कि वे किसी लड़की को प्रभावित कर सकें. उन के मन में भी यही था कि कहीं वे वही तो नहीं? प्राचार्य वशिष्ठ ने प्रताप सर को बुलाया क्योंकि उन्होंने भी प्रताप सर के व्यवहार को भांप लिया था.

प्रताप सर के आने पर बात प्राचार्यजी ने ही बात शुरू की. ‘‘आप तभी से परेशान हैं जब से राहुल ने आप की नकल की?’’

‘‘नहीं सर, ऐसी बात नहीं. मैं कालेज में चल रही चर्चाओं से परेशान हूं और आज की घटना ने और क्लास की एक छात्रा के कमैंट ने चर्चा को और सशक्त बनाया है. मेरे सामने यह बात भी आई है कि राहुल मेरी अवैध संतान है जबकि ऐसा नहीं है. हां, राहुल मेरा बेटा हो सकता है,’’ डाक्टर प्रताप बोले.

यह सुन कर प्राचार्य चौंके और बोले, ‘‘राहुल आप का बेटा कैसे हो सकता है?’’

‘‘मेरा कोई अफेयर नहीं है. पता नहीं कैसे तब मैं ने अपने शुक्राणु दान कर दिए? मैं ने शुक्राणु बैंक को अपने शुक्राणु दान किए थे. तब मुझे यह पता नहीं कि

यह सब इस रूप में मेरे सामने आएगा.’’

‘‘तब तो आप का और राहुल का डीएनए टैस्ट करा लेते है,’’ प्राचार्य बोले.

‘‘लेकिन राहुल को इस के लिए कैसे राजी करें?’’

वह मुझ पर छोड़ दो, प्राचार्य बोले. लेकिन उन को कुछ करने की जरूरत ही नहीं पड़ी, क्योंकि राहुल के मामा ने आ कर सारी समस्या हल कर दी.

उस घटना को एक सप्ताह से अधिक हो गया था. राहुल कालेज से वापस लौटा तब उस की मम्मी ने उसे टोका, ‘‘क्यों रे, तू अपने टीचरों की नकल करता है?’’

‘‘नकल नहीं मम्मी, मिमिक्री करता हूं. आप को किस ने बताया? जरूर यह सुषमा ही होगी. वह तो यह भी कह रही होगी कि मुझ में प्रताप सर की छवि दिखाई देती है.’’

‘‘हां,’’ सुनीता बोली, ‘‘पर बेटा, तू अपने अध्यापकों की कमियों को नहीं बल्कि उन की विशेषताओं को उजागर कर. वे तेरे गुरुजी हैं और उन का सम्मान करो.’’

राहुल कुछ बोलता, तभी उस की भाभी आ गई और राहुल से बोली, ‘‘तू जा, अपनी पढ़ाई कर. मुझे तेरी मम्मी से कुछ बातें करनी हैं. कविता अब सुनीता से बोली, ‘‘डाक्टर प्रताप डीएनए जांच के लिए राजी हो गए हैं.’’

‘‘लेकिन भाभी, मैं राजेश को नहीं भुला पाऊंगी,’’ सुनीता बोली, ‘‘और खुद उन का भी परिवार होगा?’’

‘‘नहीं. उन का कोई परिवार नहीं है,’’ कविता बोली, ‘‘प्रताप सैल्फमेड व्यक्ति हैं. वे अनाथाश्रम में पले हैं. वे कौन सी जाति के हैं, कौन से धर्म के हैं, कौन जानता है.

‘‘परिवार क्या होता है? वे नहीं जानते. उन का परिवार अनाथाश्रम के लोग ही हैं. पढ़ने के जनून ने उन को यहां तक पहुंचाया है. हमेशा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए. कुछ बनने के जनून में खुद की शादी और परिवार के बारे में नहीं सोचा. हां, इतना जरूर किया कि शुक्राणु बैंक में अपने शुक्राणु दान कर दिए. और उन्हीं का तू ने उपयोग किया और फिर राहुल का जन्म हुआ.’’

सुनीता सुन रही थी परंतु कुछ बोल नहीं रही थी. कविता आगे बोली, ‘‘तू कुछ बोल नहीं रही है. प्रताप और राहुल के डीएनए अगर मैच कर गए तो हम सब के लिए खुशी की बात होगी. वे तेरे बेटे के जैविक पिता तो हैं ही, कोई गैर नहीं. समय को भी शायद यही मंजूर होगा, तभी तो उस ने ये हालात पैदा किए हैं.’’

‘‘लेकिन भाभी, कभीकभी मैं प्रताप की और राजेश की तुलना करने लगी और उन को बुरा लगा तो?’’

‘‘तू राहुल की सोच. अपनी और प्रताप की नहीं. उसे अपने जैविक पिता को पिता कहने का मौका तो दे. हम सब चाहते हैं कि तुम सब एक सुखद जीवन जियो. और हां, राजेश होता तो भी उसे गम क्यों होता, वह जानता तो था कि राहुल उन की संतान नहीं. राजेश की आदतें तो

तू जानती ही है. उस का आशीर्वाद

भी मिलेगा.’’

सुनीता बोली, ‘‘पर भाभी, इस उम्र में शादी क्या शोभा देगी?’’

‘‘पागल, तू अभी 50 की हुई और इस उम्र में शादी तन की नहीं, मन की जरूरत होती है. इस उम्र में ही पतिपत्नी दोनों को एकदूसरे की ज्यादा जरूरत होती है. बच्चे अपने परिवार के साथ व्यस्त रहेंगे. उन को उन के परिवार के साथ जीवन जीने दे. और जहां तक राहुल की बात है, तो तेरे भाई ने उस से बातचीत कर उस की सोच की थाह ले ली है. वह तो खुश है और डीएनए जांच के लिए भी राजी है. तू प्रताप के बारे में भी सोच, उस ने कभी कोई सुख नहीं देखा. जन्म के तुरंत बाद मांबाप मर गए. वह अनाथाश्रम में आ गया. अनाथाश्रम में पलने वाला बच्चा इस मुकाम तक पहुंचा है तो उस में काबिलीयत तो होगी. उसे तू ही खुशी दे सकती है. अगर तू ने मना कर दिया तो वह कहीं टूट न जाए.’’

सुनीता राजी हो गई. इधर प्रताप और राहुल के डीएनए मैच कर गए. और साथ ही, राहुल व सुनीता बंधन में बंध गए.

Family Story: तू रुक, तेरी तो – रुचि ने बच्चों के साथ क्या किया

Family Story: ‘‘च टाक…’’

समर्थ ने आव देखा न ताव, रुचि के गालों पर  झन्नाटेदार तमाचा आज फिर रसीद कर दिया. तमाचा इतनी जोर का था कि वह बिलबिला उठी. आंखों से गंगायमुना बह निकली. वह गाल पकड़े जमीन पर जा बैठी. समर्थ रुका नहीं, ‘‘तू रुक तेरी तो बैंड बजाता हूं अभी,’’ कहते हुए खाने की थाली जमीन पर दे मारी, फिर इधरउधर से लातें ही लातें जमा कर अपना पूरा सामर्थ्य दिखा गया. 5 साल का बेटा पुन्नू डर कर मां की गोद में जा छिपा.

‘‘चल छोड़ उसे, बाहर चल,’’ समर्थ उसे घसीटे जा रहा था, ‘‘चल, नहीं तो तू भी खाएगा…’’ वह गुस्से से बावला हो रहा था.

‘‘नई…नई… जाना आप के साथ, आप गंदे हो,’’ पुनीत चीखते हुए रो रहा था.

‘‘ठीक है तो मर इस के साथ,’’ समर्थ ने  झटके से उसे छोड़ा तो वह गिरतेगिरते बचा. अपने आंसू पोंछता हुआ भाग कर वह मां के आंसू पोंछने लगा. रुचि का होंठ कोने से फट गया था, खून रिस रहा था.

‘‘मम्मा, खून… आप को तो बहुत चोट आई है. गंदे हैं पापा. आप को आज फिर मारा. मैं उन से बात भी नहीं करूंगा. आप पापा से बात क्यों करते हो, आप कभी बात मत करना,’’ वह आंसुओं के साथ उस का खून भी बाजुओं से साफ करने लगा, ‘‘मैं डब्बे से दवाई ले आता हूं,’’ कह कर वह दवा लेने भाग गया.

रुचि मासूम बच्चे की बात पर सोच रही थी, ‘कैसे बात न करूं समर्थ से. घर है, तमाम बातें करनी जरूरी हो जाती हैं, वरना चाहती मैं भी कहां हूं ऐसे जंगली से बात करना. 2 घरों से हैं, 2 विचार तो हो ही सकते हैं, वाजिब तर्क दिया जा सकता है कोई है तो, पर इस में हिंसा कहां से आ जाती है बीच में. समर्थ को बता कर ही तो सब साफ कर के खाना तैयार कर दिया था समय पर. अम्माजी को आने में देर हो रही थी. फोन भी नहीं उठा रही थीं. खाना तैयार नहीं होता, तो भी सब चिल्लाते.’

‘‘अपने को गलत साबित होते देख नहीं पाते ये मर्द. बस, यही बात है,’’ अपनी सूजी आंखों के साथ जब अपने ये विचार अंजलि को बताए तो वह हंस पड़ी.

‘‘यार देख, मन तो अपना भी यही करता है. कोई अपनी बात नहीं मानता तो उसे अच्छे से पीटने का ही दिल करता है. पर हम औरतों के शरीर में मर्दों जैसी ताकत नहीं होती, वरना हम भी न चूकतीं, जब मरजी, धुन कर रख देतीं, अपनी बात हर कोई ऊपर रखना चाहता है.’’

‘‘तू तो हर बात को हंसी में उड़ा देना चाहती है. पर बता, कोई बात सहीगलत भी तो होती है.’’

‘‘हां, होती तो जरूर है पर अपनेअपने नजरिए से.’’

‘‘फिर वही बात. ऐसे तो गोडसे और लादेन भी अपने नजरिए से सही थे. पर क्या वे वाकई में सही कहे जा सकते हैं?’’

अंजली को सम झ नहीं आ रहा था, वह रुचि का ध्यान कैसे हटाए. आएदिन मासूम सी रुचि के साथ समर्थ की मारपीट की घटनाएं उसे कहीं अंदर तक  िझ्ां झोड़ रही थीं, बेचारे नन्हे पुन्नू के दिलोदिमाग पर क्या असर होता होगा. सारी बातें सुनी उस ने, किचन से सटे पूजाघर में सुबह से बह रहे दूध, बताशे, गुड़, खीर, मिष्ठान के चढ़ावे की सुगंध आकर्षित लग रही थी. मक्खियों, चीटियों की बरात से परेशान हो कर रुचि ने लाईजोल डालडाल कर किचन के साथसाथ पूजाघर को भी अच्छी तरह चमका डाला था.

किचन के चारों कोनों में पंडित मुखानंद के बताए 5-5 बताशे रख कर दूध चढ़ाने के टोटके का आज भी पालन कर के अपने भाई के घर गई. सास को लौटने में देर हो रही थी. चींटियों, मक्खियों के बीच रात का खाना बनाना मुश्किल हो रहा था. रुचि ने तंग आ कर सफाई का कदम उठाया था, क्या गलत किया उस ने. रुचि की कोई गलती आज भी उसे नहीं लगी. और फिर, गलती हो भी तो क्या कोई जानवरों की तरह सुलूक करता है भला? रोजरोज ऐसे बेसिरपैर के टोटके, पूजा, पाखंड उन का चलता ही रहता. हैरानी तो यह कि बहुत मौडर्न बनने वाला समर्थ भी ये सब मानता है. पहले ही मना किया था रुचि से कि समर्थ कुछ ज्यादा ही जता रहा है अपने को, अच्छे से एक बार और सोच ले, फिर शादी कर. पर मानी नहीं. पापा के सिर का बो झ जल्द से जल्द उतार कर उन्हें खुश देखना चाहती थी वह तो?

‘‘तू भी न, गौ बनी हुई है, गौ के भी 2 सींगें, 4 लातें और लंबी दुम होती है, वक्त आने पर इस्तेमाल भी करती है. पर तू तो बिलकुल सुशील, संस्कारी अबला नारी बनी हुई है, बड़ेबड़े मैडल मिलेंगे तु झे क्या? इतनी ज्यादती सहती क्यों है? डिपैंडैंट है इसलिए…’’ इतनी पढ़ीलिखी है, बोला था जौब कर ले. पर नहीं, पतिपरमेश्वर नहीं मानते. अरे, मानेंगे कैसे भला, फुलटाइम की दासी जो छिन जाएगी,’’ उस ने चिढ़ते हुए उस की ही बात कही.

अंजलि का घर रुचि से कुछ ही दूर था. बचपन से कालेज तक साथ पढ़ी अंजलि अपनी शादी के 2 महीने बाद ही पति के हादसे में हुई मौत के बाद वापस आ कर उसी स्कूल में पढ़ाने लगी थी. पड़ोस के ब्लौक में ही रुचि की शादी हुई थी तो अकसर अंजलि लौटते समय रुचि से मिलने आ जाया करती. खूबसूरत रुचि को स्मार्ट समर्थ ने अपने को खुलेदिमाग का जता, उस के पिता हरिभजन के आगे अपने को चरित्रवान बताया, महात्मा गांधी, विवेकानंद आदि पर अपना पुस्तक संग्रह दिखा कर अच्छे होने का प्रमाण देदे कर, उस से शादी तो कर ली पर शादी के बाद ही उस की 18वीं सदी की मानसिकता सामने आ गई.

खुलेदिमाग की हर तरह की सफाईपसंद रुचि जाहिलों में फंस कर रह गई. पिता के संस्कार थे, ‘बड़ों  की आज्ञा का पालन करना है सदैव, अवज्ञा कभी नहीं,’ सो, किए जा रही थी. मां तो थी नहीं. पर नेकी, ईमानदरी, सत्य पर चलने वाले पिता ने अच्छे संस्कार देने में कोई कसर नहीं छोड़ी. पर यहां उन बातों की न इज्जत है न जरूरत. अब रुचि को कौन सम झाए, उस ने तो पिता की बातें गांठ बांध अंतस में बिठा ली हैं. बात वही है, ‘सबकुछ सीखा हम ने, न सीखी होशियारी.’ क्या करूं इस लड़की का? रोज ही मार खाए जा रही है. पर पिता से बताती भी नहीं कि वे आघात सह नहीं पाएंगे. लेदे के वही तो हैं उस के परिवार में.

पुन्नू घर पर होता तो वे रोतेरोते अपनी मासूम जबां से मम्मा के साथ घटी पूरी हिंसा का ब्योरा अंजलि मौसी को देने की कोशिश करता. ‘कैसे दादी, बूआ, चाचू सभी पापा की साइड लेते हैं. कोई मम्मा को बचाने नहीं आता. कहते हैं, और मारो और मारो.’ अंजलि सोचती, वे बचाने क्या आएंगे, सभी एक थाली के चट्टेबट्टे हैं.

जंगली गंवई हूश. छोटे से बच्चे में दिनबदिन कितना आक्रोश भरता जा रहा है, अंजलि देख रही थी. इतनी नफरत, इतना गुस्सा उस अबोध के व्यक्तित्व को बरबाद किए जा रहा है. पर करती भी क्या? रुचि तो हठ किए बैठी थी कि उस की मूक सेवा कभी तो रंग लाएगी, एक दिन प्रकृति सब ठीक करेगी.

अब तो पुन्नू भी पापा, चाचू के जैसे चीजें तोड़नेफेंकने लगा है. गुस्सा होता तो घरवालों की तरह चीखता है. खाना उठा कर जमीन पर दे मारता, तो रुचि थप्पड़ रसीद करती. तो रुचि को ही डांट पड़ने लगती. उसे तुरंत साफ करने के लिए आदेश हो जाता. घर के लोग शह भी देते उसे. कितनी बार देखासुना है उन्हें कहते हुए, ‘लड़का है, लड़की थोड़ी ही है. मर्द है वह क्यों करेगा भला. बहू, चल साफ कर जल्दी से, मुखानंद महाराज आते ही होंगे, इस की कुंडली का वार्षिक फल विचार कर के. आजा मेरे लाल, तू तो हमारे घर का वारिस है. तेरा कोई कुछ भी नहीं बिगड़ेगा. तु झे तो, मिनिस्टर बनना है. आज वे तेरे और तेरे पापा समर्थ के लिए असरदार टोटका बताने वाले हैं. नई तावीज भी लाएंगे तेरे लिए.’

उस दिन अंजलि स्कूल से लौटी तो रुचि के घर के आगे ऐंबुलैंस खड़ी देख कर माथा ठनका, किस को क्या हो गया? उस ने पांव तेजी से बढ़ाए, पास पहुंची तो देखा लोग रुचि को स्ट्रैचर पर डाले ऐंबुलैंस से निकाल कर घर में ले जा रहे हैं. रुचि बेसुध थी. खून से लथपथ सिर फट गया था, खून बह कर माथेचेहरेगरदन, कपड़ों पर जम चुका था. कुछ अभी भी सिर से बहे जा रहा था. पड़ोसियों ने बताया, ‘घर मैं काफी देर तक आएदिन की तरह चीखपुकार होती रही थी. 2 घंटे से रुचि यों ही पड़ी रही. तब जा कर ऐंबुलैंस ले आने का इन्हें होश आया. तब तक देर हो चुकी थी. रुचि ने ऐंबुलैंस में जाते ही दम तोड़ दिया.’

रुचि के पिता हरिभजन को किसी भले मानस ने खबर दे दी थी. वह ही उन्हें थाम कर रुचि के अंतिम दर्शन करवाने ले आया था. वे रुचि के खून सने सिर पर हाथ रख कर बिलख उठे. पुन्नू को लिपटा कर फूटफूट कर रो पड़े थे.

हादसे से अवाक अंजलि के रुंधे गले से शब्द ही नहीं निकल रहे थे. अंकल को क्या और कैसे ढाढ़स बंधाए. उस को देखते ही रुचि के पिता विलाप करते हुए बोल पड़े, ‘‘बेटी, इतना सब हो रहा था उस के साथ, तू ने कुछ बताया क्यों नहीं कभी. न उस ने कभी कोई भनक लगने दी. लकवे के कारण एक पैर से लाचार मु झे यह कह कर कि ‘ससुराल में यहां पूजा, पंडित, शकुन, अपशकुन बहुत मानते विचार करते हैं, घर नहीं आने देती थी मु झे. खुद ही पुन्नू को ले कर हफ्ते में एकदो बार आ जाती थी. तू तो उस की पक्की सहेली थी. तु झ से पूछता तो तू कहती बिलकुल ठीक है, आप उस की चिंता मत कीजिए. अब बता, ठीक है? चली गई मेरी रुचि. ‘वे अंजलि को, तो कभी रुचि के शव को पकड़ कर लगातार हिचकियों से रोए जा रहे थे.

उन का कं्रदन सुन अंजलि का दिल टूकटूक हुआ जा रहा था. अपनी आंखों के सैलाब को किसी तरह रोकते हुए वह बोली, ‘‘अंकल, संभालिए अपने को, आप की तबीयत पहले ही ठीक नहीं. इसी से रुचि ने कसम दे रखी थी आप से कुछ न कहूं. मैं क्या करती अंकल. यहां आप की अच्छी सीख ने उसे बांधे रखा, जिन का इन जाहिलों के यहां कोई मोल नहीं था,’’ पुन्नू अंजलि को देखते ही उस से लिपट गया.

‘‘अंजलि मौसी, इन सब ने मिल कर मेरी मम्मा को मारा. पापा ने दीवार पर मम्मा का सिर दे मारा था. वे गिर पड़ीं. मम्मा तभी से मु झ से बोली नहीं बिलकुल भी. दादी ने पापा, चाचू को भगा दिया. अब  झूठ कह रही हैं कि मम्मा सीढ़ी से गिर पड़ी,’’ वह रुचि से लिपट कर जोरजोर से रोने लगा. ‘‘उठो न मम्मा, अपने पुन्नू से बोलो न. मैं छोड़ूंगा नहीं किसी को. बड़ा हो कर बैंड बजा दूंगा इन सब की,’’ वह समर्थ से सीखे हुए शब्दों को दोहराने लगा.

रोजरोज की चीखनेचिल्लाने व मारपीट की आवाजों से तंग आ कर आज किसी पड़ोसी ने 100 नंबर डायल कर दिया था. पुलिस आ गई. नन्हे पुन्नू के बयान पर तफ्तीश हुई. 2 दिन के अंदर पुलिस ने समर्थ और उस के भाई को धरदबोचा. उन्हें जेल हो गई. नन्हा पुनीत किस के पास रहता, समस्या थी. क्योंकि पुन्नू अपनी दादी, बूआ के पास रहने को बिलकुल तैयार न था.

अंजलि उसे यह कह कर अपने साथ ले गई. ‘‘अंकल, आज के दौर में सज्जनता, सिधाई, संस्कारों का मोल सम झने वाले बहुत कम हैं. दुनिया के हिसाब से अपने को तैयार करना चाहिए और सामने आई चुनौतियों को सिधाई से नहीं, चतुराई से निबटना चाहिए. सिधाई से अकसर आज की दुनिया मूर्ख बनाती है, दबाती है, अपना उल्लू सीधा करती है. जो, रुचि  झेलती रही. कितना सम झाया था उसे. अंकल, पुन्नू चाहे कहीं भी रहे मैं उस को दूसरा समर्थ कभी नहीं बनने दूंगी. आप निश्चित रहें अंकल. शादी के 2 महीने बाद ही दुर्घटना में पति प्रशांत की मौत के बाद निरुद्देश्य बंजर से मेरे जीवन को पुनीत के रूप में एक नया लक्ष्य मिल गया है. अब आप भी मु झे अपनी रुचि ही समझिए अंकल. मैं इसे ले कर आप से मिलने उसी के जैसे आती रहूंगी.’’

रुचि के पिता हरिभजन के कांपते बूढ़े हाथ अंजलि के सिर पर जा रुके थे. उन से कुछ बोलते न बना, केवल आंसू आंखों से बहे चले जा रहे थे. अंजलि भीगे मन से उन्हें पोंछने लगी. पुन्नू ने दोनों हाथों से नाना और अंजलि मौसी को कस कर पकड़ लिया और आंखें मीचे वह गालों पर ढुलकते आंसुओं में अपनी मम्मा का एहसास ढूंढ़ रहा था.

‘‘मम्मा…’’ उस की हिचकियों के साथ निकलता बारबार वह एक शब्द सभी के हृदय को बींध रहा था.

Family Story: बोझ

Family Story: महज 30 साल की उम्र में पंकज ने अपनी कारोबारी हैसियत का लोहा मनवा लिया था. पिता के टैंट हाउस के काम को वह नई ऊंचाई पर ले जा चुका था.

‘पंकज टैंट हाउस’ का नाम अब शहर से बाहर भी अपना डंका बजाने लगा था. बड़े आयोजन के लिए उस के काम का कोई सानी नहीं था. जहां उस के पिता 25 लोगों के स्टाफ के साथ अपना कारोबार चलाते थे, वहीं पंकज ने पिछले तकरीबन डेढ़ साल में 200 लोगों का स्टाफ अपने नीचे काम करने के लिए रख लिया था.

पैसों की बारिश के साथ सामाजिक इज्जत में भी भारी इजाफा हुआ था, पर इस शानशौकत, इज्जत, पैसे के एवज में पंकज न तो चैन की नींद ले पाता था, न ही ढंग से भोजन कर पाता था.

पंकज की शादी हुए भी 2 साल हो चुके थे, पर 3 दिन के हनीमून के अलावा उस के पास बीवी के लिए भी समय नहीं था. मातापिता और पत्नी उसे काम के फैलाव को समेटने के लिए समझाते, पर उस का जुनून उसे अपने काम के नशे से सरोबार रखता.

सारा दिन औफिस और साइट के बीच भागदौड़ और साथ ही मोबाइल पर लगातार बातचीत पंकज को एक पल के लिए भी अपने या परिवार के बारे में सोचने का मौका नहीं देता था. सुबह जल्दबाजी में नाश्ता कर घर छोड़ता, दिन में जो मिल जाता खा लेता और देर रात घर लौट कर जो भी उसे परोस दिया जाता, अपना ध्यान फोन पर उंगली फिराते हुए खा लेता.

ज्यादा मेहनत करने से पंकज की सेहत पर बुरा असर पड़ने लगा था. कभी सिरदर्द, तो कभी बदनदर्द, एयरकंडीशंड औफिस में भी काम करते समय कभी माथे पर पसीने की बूंदें चुहचुहा आती थीं.

एक दिन ऐसे ही बेचैनी में पंकज औफिस से उठ कर अपने गोदाम की ओर चल दिया. 4-5 मजदूर सामान को जमातेजमाते भोजन करने जमीन पर घेरा बना कर बैठे थे. कोई डब्बे में तो कोई थैली में से भोजन निकाल रहा था और हंसीठिठोली से माहौल में मस्ती घोल रहा था.

पंकज चुपचाप उन को निहारता रहा और उसे उन को देख कर ही सुकून मिलने लगा था.

‘‘ले… मेरे कटहल के अचार का स्वाद चख, मेरी नानी ने बना कर भिजवाया है,’’ एक मजदूर ने दूसरे को मनुहार से अपना खाना साझा किया, तो दूसरा मजदूर बोला, ‘‘मेरी बीवी भी प्याजपरवल की सब्जी बहुत अच्छी बनाती है, सब चख लो.’’

अचानक एक मजदूर की नजर पंकज पर पड़ी, तो सब चुप हो गए. वह धीरे से चल कर उन के पास आया, तो एक मजदूर सकपका कर बोला, ‘‘हम बस अभी खाना खाने बैठे हैं. जल्दी खा लेते हैं. कोई काम है, तो आप बताइए?’’

पंकज झिझकते हुए बोला, ‘‘क्या मैं भी आप लोगों के साथ बैठ कर भोजन कर सकता हूं?’’

कुछ देर की शांति के बाद एक जना अटकते हुए बोला, ‘‘हमारा भोजन शायद आप को पसंद न आए और फिर आप कहां बैठ कर खाएंगे? यहां तो बरतन भी नहीं हैं.’’

‘‘अरे, मैं यहीं तुम्हारे साथ बैठ कर भोजन करना चाहता हूं, अगर आप को एतराज न हो तो…?’’ एक मुसकराहट के साथ पंकज ने कहा, तो खुशीखुशी सभी लोगों ने सरक कर घेरा बड़ा कर लिया और उस के लिए जगह बना दी.

पंकज पूरे मजे के साथ एकएक कौर खाते हुए सोच रहा था कि इतनी दौलत होने के बाद भी उस ने जिंदगी में पिछली बार कब इतने शौक से भोजन किया था?

बहुत सोचने के बाद भी पंकज याद नहीं कर पाया. इस समय तो बारबार बजते फोन को भी उस ने साइलैंट मोड पर कर दिया था. उस के कारोबार के लिए मेहनत करने वाले कामगारों को वह पहली बार जाननेसमझने का मौका पा रहा था, जो सब मिल कर उसे अपनी बातों से अनोखा मजा दे रहे थे.

वहां से खाना खा कर जाते हुए पंकज यह सोच रहा था कि वह अपने सभी कामगारों को एक शानदार तोहफा देगा और काम से छुट्टी ले कर अपने परिवार के लिए भी रोज समय जरूर निकालेगा.

पंकज की चिंता और दर्द अब काफूर हो चुके थे और उसे लग रहा था कि उस ने अपने ऊपर जबरदस्ती का लादा हुआ बोझ उतार फेंका है.

News Story: सैकंड क्लास सिटीजन का अव्वल कारनामा

News Story: आज से तकरीबन 10 महीने पीछे चलते हैं. शहर दिल्ली और महीना जुलाई का. बारिश का मानो कहर सा बरपा था. ओल्ड राजेंद्र नगर इलाके के एक आईएएस कोचिंग सैंटर के बेसमेंट में बहुत से छात्र वहां बनी लाइब्रेरी में पढ़ाई कर रहे थे.

शाम के साढ़े 6 बजे थे कि वहां बैठे छात्रों को महसूस हुआ कि कुछ तो गड़बड़ है. अचानक से ही बेसमेंट में पानी भरने लगा. पानी का बहाव इतना तेज था कि यह देख कर छात्रों के मानो हाथपैर फूल गए.

‘‘यार, अब यह क्या नौटंकी है… यहां हर साल ऐसे ही पानी भरता है,’’ रजनी ने पूछा.

‘‘पर, आज का मामला कुछ और ही है. यह सिर्फ पानी भरना नहीं है, बल्कि कोई बड़ी समस्या है,’’ अनामिका बोली.

अनामिका एक पढ़ाकू लड़की थी. उम्र 23 साल. भरा बदन और सांवला रंग. वह ज्यादातर सूटसलवार पहनती थी और अपना ज्यादातर समय लाइब्रेरी में ही बिताती थी.

‘‘मुझे तो बड़ा डर लग रहा है. यह पानी तो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा है,’’ जब घुटने से ऊपर पानी चला गया, तब विजय ने टेबल पर चढ़ते हुए कहा.

विजय का डर जायज था. चंद ही सैकंड में वहां बाढ़ का सा नजारा था. उसे तैरना नहीं आता था.

अनामिका समझ गई. उस ने हिम्मत नहीं खोई और जल्दी से विजय के पास तैर कर पहुंची और पीछे से कौलर पकड़ कर उसे खींचने लगी. उस का सिर भी पानी के ऊपर रखा और बेसमेंट के दरवाजे की तरफ उसे ले गई.

वहां ऊपर से कुछ लोगों ने रस्सियां फेंकी हुई थीं. अनामिका ने एक रस्सी विजय को पकड़ाई और बोली, ‘‘आप इसे मत छोड़ना. वे लोग आप को ऊपर खींच लेंगे.’’

पर विजय बहुत ज्यादा घबराया हुआ था. वह पानी में डुबकी लगाने लगा. लेकिन ऊपर खड़े लोगों ने उसे बहुत जल्दी ऊपर खींच लिया. अनामिका भी तब तक तैर कर ऊपर आ चुकी थी.

बाहर लोगों की भीड़ जमा थी. तब तक विजय बेहोश हो चुका था. शायद उस के पेट में पानी भर गया था, पर किसी को समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए.

इतने में अनामिका बोली, ‘‘सब लोग पीछे हो जाएं. थोड़ी हवा आने दें. मैं इन्हें देखती हूं.’’

इस के बाद अनामिका ने विजय के कपड़े ढीले कर दिए. उस की ठोढ़ी ऊपर उठा कर सिर पीछे झुकाया और फिर उस की नाक बंद कर मुंह पूरा खोल दिया. फिर उस ने अपना मुंह ढक्कन की तरह उस के मुंह पर फिट कर पूरी हवा मुंह में छोड़ दी. उस ने ऐसा हर 5 सैकंड बाद किया और तब तक करती रही, जब तक कि विजय की नाड़ी या धड़कन काम न करने लगी.

इस के बाद विजय के मुंह से पानी निकलने लगा. अनामिका ने उस की गरदन टेढ़ी कर के पानी निकाल दिया और फिर से उसे सांस देने लगी.

थोड़ी देर में ही विजय को थोड़ा होश आने लगा. इस के बाद उसे आननफानन ही पास के एक अस्पताल में ले जा कर भरती कराया गया.

अनामिका भी साथ में ही थी. वह सारी रात गीले कपड़ों में विजय के पास रही. उस के कपड़ों से बदबू तक आने लगी थी, पर वह विजय की ढाल की तरह वहीं जमी रही.

सुबह जब बारिश का जोर कम हुआ, तब विजय के मांबाप अस्पताल में आए. तब तक विजय को पूरी तरह होश आ चुका था.

विजय ने बताया, ‘‘मां, यह अनामिका है. इस ने ही मुझे डूबने से बचाया है.’’

मां कुछ बोलतीं, इस से पहले ही अनामिका ने कहा, ‘‘अरे, यह सब बताने की क्या जरूरत है. तुम ठीक हो, यही काफी है.’’

‘‘नहीं अनामिका, आप ने वाकई बड़ी बहादुरी दिखाई. डूबते को तिनके का सहारा होता है और आप तो एक ऐसी इनसान हैं, जिस ने अपनी जान की परवाह न करते हुए हमारे बेटे को न सिर्फ बचाया है, बल्कि सारी रात यहां अस्पताल में बिता दी,’’ विजय के पापा अमरनाथ बोले.

‘‘अनामिका, हम तुम्हारे लिए क्या कर सकते हैं,’’ विजय की मां लक्ष्मी देवी ने कहा.

‘‘मुझे कुछ नहीं चाहिए. यह तो मेरा फर्ज था. विजय अब ठीक है, यही मेरे लिए काफी है,’’ अनामिका बोली.

इस हादसे को बीते 10 महीने हो गए थे. अनामिका और विजय गहरे दोस्त बन गए थे. दोस्त से ज्यादा ही. उन में प्यार के बीज फूट पड़े थे. उन का यह दोस्ती का रिश्ता विजय के मांबाप भी जानते थे.

एक शाम को विजय और अनामिका एक कैफे में बैठे कौफी पी रहे थे. विजय ने पूछा, ‘‘यार, एक बात बताओ कि उस दिन तुम ने मुझे इतनी आसानी से कैसे बचा लिया था?’’

‘‘क्योंकि, मैं बहुत अच्छी तैराक हूं,’’ अनामिका ने झट से जवाब दिया.

‘‘तुम ने स्विमिंग कहां से सीखी?’’

‘‘नदी में. मैं तो 4 मिनट तक सांस रोक कर पानी के भीतर तैर सकती हूं.’’

‘‘वाह, पर ऐसा करने की जरूरत ही क्या है?’’

‘‘हमारा काम ही ऐसा है गांव में.’’

‘‘कैसा काम…? मैं अभी तक कुछ समझा नहीं,’’ विजय ने पूछा.

‘‘मैं मछुआरा जाति से हूं… हम मल्लाह हैं और बिहार के वैशाली जिले में रहते हैं. मेरे पिता केशवराम का यही पुश्तैनी कारोबार है. उन के पास 10 बड़ी नाव हैं. कई कोल्ड स्टोरेज हैं और वे मछली का होलसेल काम करते हैं.’’

‘‘तुम मछुआरा जाति से हो…?’’ विजय ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘हां, जनाब. इस समाज का होना कोई गुनाह है क्या?’’ अनामिका ने पूछा.

‘‘गुनाह तो है. तुम ने मुझ से यह बात क्यों छिपाई?’’ विजय गुस्सा होते हुए बोला.

‘‘मैं ने कुछ भी नहीं छिपाया है. तुम ने आज पूछा, तो मैं ने सब सच बता दिया है.’’

‘‘पर, यह हम दोनों के रिश्ते के लिए अच्छी बात नहीं है. मुझे सोचना पड़ेगा हम दोनों के बारे में,’’ विजय बोला.

‘‘यह तुम कैसी बातें कर रहे हो? हम दोनों यूपीएससी का प्रिलिमिनरी ऐग्जाम क्लियर कर चुके हैं. एकदूसरे से प्यार करते हैं और शादी भी करेंगे. तुम्हारे मांबाप हम दोनों की दोस्ती के बारे में जानते हैं और आज तुम मेरी जाति पर सवाल उठा रहे हो. मेरी जाति से मुझे जज कर रहे हो,’’ अनामिका बोली.

‘‘यार, तुम मछुआरा जाति की हो और मैं ब्राह्मण लड़का हूं. मेरे मांबाप जब यह सुनेंगे, तब हंगामा मच जाएगा,’’ विजय बोला.

‘‘तुम ने आज जता और बता दिया कि एक पढ़ेलिखे लड़के के मन में भी जातिवाद का जहर किस कदर दिमाग में भरा हुआ है. तुम जानते हो कि यूपीएससी के प्रिलिमिनरी ऐग्जाम में मेरी रैंक कितनी अच्छी आई है. जनरल कैटेगरी वालों से भी अच्छी है.

‘‘मुझे यकीन है कि मैं आईएएस जरूर बनूंगी. तुम भी बनोगे, पर आज यह कितने शर्म की बात है कि तुम अपने मांबाप से हम दोनों के रिश्ते के बारे में बताने से हिचक रहे हो, जबकि वे जानते हैं कि हम कितने गहरे दोस्त हैं.’’

‘‘मेरा वह मतलब नहीं है. तुम मुझे पसंद हो, पर मम्मीपापा को मनाना बहुत पेचीदा काम है,’’ विजय ने कहा.

‘‘पता है, आज जब तुम ने मेरी जाति के बारे में सुनने के बाद जो रिऐक्शन दिया है, उस से कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की एक बात को बहुत ज्यादा बल मिला है और उन्हें सच साबित करने में तुम ने कोई कोरकसर नहीं छोड़ी है,’’ अनामिका बोली.

‘‘कौन सी बात?’’ विजय ने पूछा.

‘‘अभी बिहार में कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि अगर आप अपर कास्ट नहीं हैं, तो इस देश में सैकंड क्लास सिटीजन हैं. दलित, पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यक, महिलाएं और ओबीसी सब इस में शामिल हैं. सिस्टम ने आप को घेर कर रखा है.’’

‘‘पर, यह तो बिहार विधानसभा चुनाव में वोट हासिल करने की कोई रणनीति भी हो सकती है,’’ विजय ने शक जाहिर किया.

‘‘यह सच है. राहुल गांधी ने इन सैकंड क्लास लोगों को संबोधित करते हुए आगे कहा कि जाति जनगणना समाज का एक्सरे है, जिस से आप को वंचित रखा जा रहा है. यह क्रांतिकारी कदम है, इसलिए आरएसएस और भाजपा इसे रोकना चाहती है, मगर अब दुनिया की कोई ताकत इसे नहीं रोक सकती है.

‘‘उन्होंने आगे कहा था कि तेलंगाना में जाति जनगणना हुई, आंकड़े आए तो हम ने आरक्षण बढ़ा दिया. यह डाटा मोदीजी आप को नहीं देना चाहते हैं. मैं मोदीजी से कहना चाहता हूं कि यह जो आप ने 50 फीसदी आरक्षण की झूठी दीवार बनाई है इसे हटाइए, नहीं तो हम इसे गिरा कर फेंक देंगे.’’

इस पर विजय बोला, ‘‘पर, यह तो एक सियासी भाषण है. राहुल गांधी ने पटना के श्रीकृष्ण मैमोरियल हाल में आयोजित संविधान सुरक्षा सम्मेलन में यह सब कहा था और उन्होंने माना कि पूर्व में कांग्रेस से गलती हुई है.

‘‘राहुल गांधी ने आगे कहा कि मैं पहला व्यक्ति हूं, जो यह कहेगा कि बिहार में कांग्रेस को जो काम करने चाहिए थे, जिस मजबूती और गति से करने चाहिए थे, वह हम ने नहीं किए. हम अपनी गलती को समझे हैं.

‘‘अब हम बिना रुके, पूरे शक्ति से कमजोर, गरीब, दलित, वंचितों, महिलाओं को ले कर आगे बढ़ेंगे.

‘‘बिहार में कांग्रेस और गठबंधन की यही भूमिका है कि वह गरीब, दलित, ओबीसी, ईबीसी को आगे बढ़ाए. मैं ने और अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने बिहार की टीम को साफसाफ बता दिया है कि गरीब व पिछड़ी जनता को प्रतिनिधित्व दीजिए.

‘‘हम दलितों और महिलाओं के लिए राजनीति का दरवाजा खोल कर बिहार का चेहरा बदलना चाहते हैं. हाल ही में हम ने कांग्रेस जिलाध्यक्षों की नई सूची जारी की है. पहले जिलाध्यक्षों की सूची में दोतिहाई अपर कास्ट के लोग थे, मगर अब जिलाध्यक्षों की नई सूची में दोतिहाई ईबीसी, ओबीसी, दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समाज के लोग हैं.’’

‘‘तुम मेरी बात को ठीक से नहीं समझ रहे हो. यहां राहुल गांधी के सियासी भाषण की बात नहीं हो रही है, बल्कि मैं यह बताना चाहती हूं कि आजादी के इतने साल के बाद भी किसी नेता को यह कहना पड़ रहा है कि अगर आप अपर कास्ट नहीं हैं, तो इस देश में सैकंड क्लास सिटीजन हैं.

‘‘बिहार के अपने इस दौरे पर राहुल गांधी ने संविधान की प्रति दिखाते हुए कहा था कि अंबेडकर ने सचाई के लिए लड़ाई लड़ी. उन्होंने देश के गरीबों के लिए लड़ाई लड़ी. वे देश के दलितों को समझ पाए. वे उन के दुख को, उन की सचाई को समझ पाए. बाद में वे उसी सचाई को ले कर लड़े.

‘‘हम सचाई से दूर नहीं जा सकते. संविधान ही देश की सचाई का रक्षक है. हम सचाई की लड़ाई लड़ रहे हैं. अंबेडकर की विचारधारा हमारे खून के भीतर है और इसे कोई नहीं मिटा सकता.

‘‘राहुल गांधी ने आगे कहा कि देश में 95 फीसदी लोग दलित, पिछड़े, ईबीसी, ओबीसी और अति दलित हैं. लेकिन 5 फीसदी लोग इस पूरे देश को चला रहे हैं. बस, 10 से 15 लोग हैं, जिन्होंने पूरे कौरपोरेट इंडिया को पकड़ रखा है. आप का लाखोंकरोड़ों रुपया सीधा इन की जेबों में जा रहा है. इन लोगों ने पूरे सिस्टम को घेर कर रखा हुआ है.’’

विजय समझ गया था कि जाति की बात छेड़ कर उस ने गलत किया है, पर अब तो कमान से तीर निकल चुका था. अनामिका को यह कतई बरदाश्त नहीं था कि विजय उस की जाति पर सवाल उठाए, जबकि वह अपनी जाति पर गर्व महसूस करती थी.

अनामिका को अपने पिता के काम पर किसी तरह की कोई शर्म नहीं थी, क्योंकि उन्होंने अपनी मेहनत के दम पर यह सब कारोबार जमाया था. खुद कम पढ़ालिखा होने के बावजूद उन्होंने अपनी बेटी को पढ़ाया और उस की काबिलीयत को पहचाना.

विजय अब दोराहे पर खड़ा था. एक तरफ उसे अनामिका का गुस्सा शांत करना था, तो वहीं दूसरी तरफ उसे अपने मांबाप को यह कड़वी हकीकत बतानी थी. अनामिका कैफे से जा चुकी थी.

अगले दिन से ही अनामिका ने विजय को इग्नोर करना शुरू किया, पर विजय पर तो प्यार का रंग भी उतना ही चढ़ा था, जितना जाति का. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह कैसे अनामिका को भरोसा दिलाए. उस ने मां से तो बात नहीं की, पर अपनी बड़ी बहन सुधा को फोन पर सब बता दिया, जो अनामिका से मिल चुकी थी और विजय की जान बचाने के किस्से को जानती थी.

सुधा के कहने पर विजय ने एक दिन अनामिका से प्यार जताने का फैसला कर लिया. अनामिका गर्ल्स होस्टल में रहती थी. विजय स्विगी डिलीवरीमैन की ड्रैस पहन कर उस के दरवाजे पर खड़ा हो गया और बोला, ‘‘मैडम, आप का केक…’’

Hindi Story: अजीब जिंदगी

Hindi Story: आंगन में बैठा प्रीतम ध्यान से हरी दूब और रंगबिरंगे फूलों में खो जाना चाहता था. मोना के इंतजार में दोपहर से शाम होने को आई थी. कभीकभार एकाध बादल आसमान पर आ जाता, तो उसे यों लगने लगता जैसे बादल उसे ही खिजा रहा है. कभीकभार हवा भी सरसराती कोई सवाल पूछती थी. शाम ने काजल लगा लिया था.

चश्मा उठा कर प्रीतम भी भीतर आ गया. बत्ती जलाई और टैलीविजन देखने लगा. किसी सीरियल में एक रोमांटिक सीन चल रहा था. प्रीतम ने चैनल नहीं बदला, मगर वह सीन गौर से देखा भी नहीं. उसे मोना याद आ रही थी. 4 बजे स्कूल की छुट्टी हो जाती है. अब 7 बजने को आए हैं, मगर उस का कुछ अतापता नहीं.

प्रीतम ने पिछले हफ्ते बुखार और जुकाम होने पर डाक्टर की सलाह ली थी.

‘यह इंफैक्शन भी हो सकता है. आप घर पर भी मास्क लगाओ. दफ्तर मत जाओ. औरों को भी मुसीबत में मत डालो. 7 दिन बाद एक दफा मिल लेना. अगर मैं ठीक समझूंगा तो दफ्तर चले जाना,’ डाक्टर ने अपना फैसला सुनाया.

सचमुच वह राय नहीं फैसला ही हुआ करता था. पिछले 8 साल से प्रीतम उन डाक्टर की ही शरण में जाता था. प्रीतम पर उन का इलाज तुरंत असर करता था.

न जाने किधर खोया हुआ प्रीतम अभी भी आशा की ज्योति जलाए हुए था कि मोना फोन तो करेगी कम से कम.

प्रीतम मन ही मन गुस्सा हो रहा था कि तभी अचानक मोना आई और कुरसी पर पसर गई. प्रीतम का जुकामबुखार कुछ नहीं पूछा. सीधा बोली, ‘‘अभी बाहर से खाना मंगवा लेती हूं. तुम में तो अब सुधार है. दाल मंगवा रही हूं. खा तो लोगे न…?’’ जवाब सुने बगैर उस ने खाना और्डर कर दिया.

कमाल की बात यह है कि प्रीतम और मोना उस के बाद 20 मिनट तक चुपचाप ही बैठे रहे. वहीं मेज पर पानी की बोतल रखी थी. मोना ने 2 बार पानी उसी बोतल से गले में उतार लिया था.

खाना आ गया था. मोना ने पूछा, तो प्रीतम ने खुद ही दूध में कौर्नफ्लैक्स मिला लिया. मोना ने थाली ली. रोटी और दाल मिला कर खाने लगी.

2 चम्मच दूध और कौर्नफ्लैक्स प्रीतम ने भी गले से नीचे उतार लिया. पेट में जरा भोजन गया, तो उन दोनों को तब जा कर कुछ दम आया शायद.

पहले मोना ही बताने लगी, ‘‘सुनो, आज मैडम जुत्सी का विदाई समारोह था. बहुत ही बढि़या हुआ, मगर ये प्रिंसिपल भी खूब पाखंड करते हैं. मैडम जुत्सी आज तक स्कूल में एक घंटा ऐक्स्ट्रा नहीं रुकीं, तो उन्होंने भी मैडम जुत्सी को ऐक्स्ट्रा भाव नहीं दिया.

5 मिनट में ही उठ कर चल दिए और बहाना बना दिया कि आज डीईओ के पास खास मीटिंग है. वहां जाना है.’’

प्रीतम मोना को सुन रहा था.

‘‘फिर मैं ने और बानी ने मिल कर सब संभाला. कमाल की बात तो यह कि हम को ही न चाय मिली, न समोसे. ऐसा ही होता है न,’’ कह कर मोना दो पल के लिए ठहर गई.

‘‘प्रीतम, तुम जरा सी दाल चख लो. एकदम सादा है. पेट को कुछ न होगा,’’ कह कर मोना ने स्नेह दिखाया और प्रीतम भी पिघल गया. उस ने मोना की ही थाली में से दाल और चपाती चख ली.

अब प्रीतम को मनुहार भरी परवाह से देखते हुए मोना ने उस से कौर्नफ्लैक्स की कटोरी और चम्मच ले लिया.

झूठे बरतन रसोई में सिंक के हवाले कर मोना हथेली में गुड़ के 2 टुकड़े रख कर लाई और बोली, ‘‘लो, एक खा लो यार. अच्छा लगेगा.’’

प्रीतम ने हथेली से उठा कर एक डली को मुंह में रख लिया.

‘‘कल से शायद दफ्तर जाना शुरू कर दूं,’’ प्रीतम ने गुड़ की मिठास में घुलते हुए बताया.

‘‘ओह, एक हफ्ता निकल गया यार, मैं ने तो एक दिन भी तुम्हारी सेवा नहीं की. कितना थका दिया स्कूल की नौकरी ने. कभी मन होता है कि इसी पल यह नौकरी छोड़ दी जाए, फिर लगता है कि काम के बिना चैन भी तो नहीं मिलता है न.’’

मोना यों ही उठ कर प्रीतम का सिर दबाने लगी और बोली, ‘‘इतने दिन बच्चों का पेपर सैट करना था. कोई होश ही नहीं था मुझे. ऊपर से 2 दिन बाद एक कंपीटिशन कराना है. उस का भी मुझे ही इंचार्ज बना दिया है.

‘‘मन तो करता है कि मैडम जुत्सी बन कर सब टाल कर चैन से रहा जाए, मगर जिन बच्चों को पढ़ाते हैं, उन के लिए कोई अच्छा काम नजरअंदाज नहीं किया जाता…’’

मोना प्रीतम के बाल जांचने लगी, ‘‘प्रीतम, मैं बालों में नारियल का तेल और कपूर मिला कर लगा देती हूं.

बहुत रूखे बाल हो रहे हैं. दवा का असर हो रहा है. चेहरा भी कैसा सुस्त सा हो गया है,’’ कहते हुए वह नारियल का तेल और कपूर की टिकिया ले आई. हाथ से ताली सी बजा कर उस ने दोनों को मिलाया.

‘‘गरदन जरा ढीली रखो यार,’’ कह कर मोना बालों की जड़ों को देख कर उन में तेल लगाने लगी.

कुछ सैकंड बाद पूरे माहौल में नारियल और कपूर की महक फैल गई थी. प्रीतम को मोना शुरू से ही बेहद पसंद थी. मोना का मन बेहद सच्चा है, कालेज के जमाने से ही. ऐसे ही प्रेम विवाह थोड़े ही न किया था उन दोनों ने.

खिड़की से चांद चमक रहा था. इस समय प्रीतम का घर दुनिया का सब से सुखी घर था.

Emotional Story: मां

Emotional Story: ऐसा शब्द मां, जिसे पुकारने के लिए बच्चा तड़प उठता है. मां के बिना जिंदगी अधूरी है. यों तो हर इनसान जी लेता है, पर मां की कमी उसे जिंदगी के हर मोड़ पर खलती है. हर इनसान को मां की ममता नसीब नहीं होती.

मां की कमी का दर्द वह ही बयां कर सकता है, जो मां की ममता से दूर रहा हो. हम दुनिया में भले ही कितनी तरक्की कर लें, पर मां की कमी हमें कभी न कभी किसी न किसी मोड़ पर रुला ही देती है. किसी दिन का कोई लम्हा ऐसा गुजरता होगा, जब हम अपनी मां को याद न करते हों.

यह भी इत्तिफाक ही है कि किस्मत से मेरे पापा का बचपन बिन मां के गुजरा. उस के बाद मेरा और मेरे बच्चों को भी मां का प्यार नसीब न हुआ.

हम सब छोटीछोटी तमन्नाओं को मार कर जीए. खानेपहनने, घूमने या फिर जिद करने की, वह मेरे पापा मुझ से और मेरे बच्चों से कोसों दूर रही, क्योंकि मेरे पापा, मैं और मेरे बच्चे ही क्या दुनिया में लाखों इनसान बिन मां के जिंदगी गुजारते हैं.

लेकिन मां की कमी का दर्द वह ही समझ सकता है, जिस के पास उस की मां न हो. जिन की मां बचपन में ही उन्हें छोड़ दे, उस पर क्या बीतती है, वह मुझ से बेहतर कौन जानता होगा.

मेरे पापा की मम्मी तो बचपन में ही इस दुनिया से चली गई थीं. उस के बाद मेरी मां भी बचपन में ही मुझे छोड़ कर चली गईं.

लेकिन मेरे बच्चों का नसीब देखो कि उन की मां अभी इस दुनिया में हैं, पर वह अपनी जिंदगी बेहतर और अपनी मरजी से जीने के लिए इन मासूम बच्चों को रोताबिलखता छोड़ कर चली गई, जिस से इन मासूमों का बचपना भी छिना, प्यार भी छिना और उन का भविष्य भी अंधकारमय हो कर रह गया.

दुनिया में कोई कितना भी मुहब्बत का दावा कर ले, लेकिन मां की ममता कोई नहीं दे सकता. वह सिर्फ सगी मां ही दे सकती है, जो बच्चों की एक आह पर तड़प उठती है.

आज से 30 साल पहले मैं ने अपनी मां को खोया था. मां को खोने के बाद मैं कितना तड़पा था, यह मैं ही जानता हूं. मेरी छोटीछोटी तमन्नाएं अधूरी रह गईं. मेरा खेलना, मेरा बचपना सबकुछ खामोशी में तबदील हो कर रह गया.

मां के गुजर जाने के बाद मेरे पापा ने दूसरी शादी नहीं की. उन्हें डर था कि कहीं सौतेली मां बच्चों के साथ फर्क न करे, उन्हें मां की ममता से दूर रखा, उन की पढ़ाई बंद करवा दी और उन्हें बचपन से ही मजदूरों की तरह काम करना पड़ा, वह भी भूखेप्यासे, क्योंकि नई बीवी के आने से दादाजी तो उन के पल्लू से बंध कर रह गए और वह अपने इन नए बच्चे जो मेरे पापा की नई मां से पैदा हुए थे, उन पर ही अपना प्यार लुटाने लगे और अपनी पहली बीवी के बच्चों को भूल गए.

नई मां ने उन का बचपन मजदूर में तबदील कर दिया. उन की पढ़ाई जहां की तहां रुक गई. खेलनेकूदने की उम्र में उन्हें उन की औकात से ज्यादा काम दिया जाने लगा.

यही वजह थी कि मेरे पापा की उम्र उस वक्त महज 40 साल थी, लेकिन फिर भी उन्होंने दूसरी शादी नहीं की, क्योंकि वे अपने बच्चों पर दूसरी मां का साया नहीं डालना चाहते थे.

पापा के इस बलिदान से हम सब भाई पढ़े भी और जिंदगी में कामयाबी भी हासिल की, पर मैं एक ऐसा शख्स था, जो मां की ममता के लिए हमेशा तड़पता रहा. मुझे न पढ़ाई अच्छी लगी और न ही घर में रहना. वैसे, जैसेतैसे मैं ने एमकौम कर लिया था, पर मां के जाने के बाद मैं मां की ममता के लिए एक साल अपनी चाची के पास रहा. वहां मुझे प्यार तो मिला, लेकिन सिर्फ इतना जितना मैं उन के घर का काम करता था. उन के घर का झाडूपोंछा, उन के छोटेछोटे बच्चों को खिलाना ही मेरी जिंदगी का हिस्सा बन कर रह गया था.

खाना उतना मिल जाता था, जिस से मैं जी सकता था. पत्राचार द्वारा ही मैं पढ़ा. उस का खर्च मेरे पापा उठाते रहे और समझाते रहे कि बेटा, अपने घर आ जाओ, लेकिन मां की मुहब्बत की चाह में मैं ने अपनी चाची के घर एक साल निकाल दिया.

इस एक साल में मैं अच्छी तरह समझ चुका था कि मां की ममता सिर्फ सगी मां ही दे सकती है और कोई नहीं. इस एक साल में मैं छोटीबड़ी हर बीमारी, हर जरूरत से खुद ही लड़ा. किसी को मेरी फिक्र नहीं थी. सब अपने सगे बच्चों को ही अहमियत देते हैं, दूसरों की औलाद को तो यतीम होने का ताना देते हैं और यतीम होने के नाते ही खाना देते हैं.

ये शब्द मैं ने कई बार अपनी चाची से सुने. उन्होंने तो बस सिर्फ अपने घर का काम करने और बच्चों की देखभाल के लिए मुझे रखा था. यही वजह थी कि मैं अपना गांव छोड़ कर मुंबई आ गया और सब रिश्तों से दूर हो गया.

यहां आ कर मैं ने एक बेकरी में काम किया. मेहनत बहुत थी, पर मैं ने हिम्मत नहीं हारी. भूख के वक्त या ज्यादा थक जाने के बाद मैं तन्हा बैठ कर रोता था और अपनी मां को याद करता था, लेकिन मेहनत करता रहा. यही वजह थी कि मैं जल्दी ही कामयाबी के रास्ते पर बढ़ता गया और कुछ ही साल में अपनी बेकरी ले ली और मुंबई यूनिवर्सिटी से मास कम्युनिकेशन ऐंड जर्नलिज्म का कोर्स कर लिया. कहानी लिखना मेरा शौक था, जो मैं ने जारी रखा.

कई साल बाद मैं अपने गांव गया और वहां मैं ने भी शादी कर ली. मुझे काफी खूबसूरत बीवी मिली. उस की खूबसूरती की जितनी तारीफ की जाए, कम थी. उस की और मेरी उम्र में 10 साल का फर्क था. उस की खूबसूरती ऐसी थी, मानो जन्नत से कोई हूर उतर कर जमीन पर आ गई हो. उस की बड़ीबड़ी आंखें, गुलाबी गाल, सुर्ख होंठ और काले घने लंबे बाल किसी भी इनसान को अपना दीवाना बनाने के लिए काफी थे.

यही वजह थी कि पहली ही नजर में मैं उस का दीवाना हो गया था और उस का हर हुक्म मानने के लिए हर वक्त तैयार रहता था. इस वजह से शादी के एक महीने बाद ही मैं उसे अपने साथ मुंबई ले आया और शादी के एक साल बाद ही मैं एक बच्ची का बाप बन गया.

हम दोनों एकदूसरे से काफी मुहब्बत करते थे. यही वजह थी कि शादी के हर एक साल बाद वह मां बनती रही और इस तरह मैं 3 बेटी और एक बेटे यानी 4 बच्चों का बाप बन गया.

शादी के 7 साल कैसे गुजर गए, हमें पता ही नहीं चला. मेरी बीवी और मैं अपने बच्चों से बेहद प्यार करते थे, लेकिन मेरी बीवी मुझ से ज्यादा बच्चों से प्यार करती थी. किसी के अंदर इतनी हिम्मत न थी कि कोई उस के बच्चों को तू भी कह सके. वह अपने बच्चों की हर छोटीबड़ी जरूरत का ध्यान रखती थी और अपने बच्चों को अपनी जान से ज्यादा प्यार करती थी.

वक्त गुजरता गया. फिर आखिर वह वक्त भी आ गया, जिस ने हमारी जिंदगी में तूफान ला खड़ा किया था और मेरे बच्चे तिनकों की तरह बिखर गए थे. उन की मां उन्हें तन्हा छोड़ कर चली गई थी. उन का बचपन, उन की पढ़ाई, सब अंधकारमय हो कर रह गया था और वे मां की ममता के लिए तड़पतड़प कर जीने को मजबूर हो गए.

इन बच्चों की इस तड़प के लिए जिम्मेदार कोई और नहीं, बल्कि वह मां थी, जिसे ममता की देवी कहा जाता है. जिस के साए में बच्चे अपनेआप को सुरक्षित महसूस करते हैं. जिस का प्यार पाने के लिए बच्चे बेचैन हो उठते हैं.

वह ‘मां…’ शब्द को शर्मसार कर के बच्चों को तन्हा छोड़ कर अपनी जिंदगी बनाने या यह समझ कि वह अपनी जवानी और खूबसूरती का फायदा उठा कर अकेले जीने के लिए चली गई.

कभीकभी इनसान गलत संगत में पड़ कर अपना घर बरबाद तो कर ही लेता है, लेकिन वह यह नहीं सोचता कि उस की इस गलती का खमियाजा कितने लोगों को भुगतना पड़ेगा, कितने लोगों की जिंदगी तबाह हो कर रह जाएगी.

मेरे और मेरे बच्चे के साथ भी यही हुआ था. हमारी खुशहाल जिंदगी में मेरी बीवी की दोस्त और उस की चचेरी बहन ने ऐसा ग्रहण लगाया कि मेरे बच्चे मां के लिए तरस कर रह गए.

दरअसल, हुआ यह कि मेरी बीवी की चचेरी बहन मुंबई घूमने आई थी और हमारे ही घर पर रुकी थी. मैं उस के बारे में ज्यादा नहीं जानता था और न ही मुझे जानने का वक्त था, क्योंकि मैं अपने कामों में बिजी रहता था.

मेरी बीवी की चचेरी बहन बिंदास, खुले विचारों वाली एक मौडर्न लड़की थी. उस ने कई बौयफ्रैंड बना रखे थे.

30 साल की होने के बावजूद उस ने अभी तक शादी नहीं की थी, क्योंकि वह अपनी मरजी की जिंदगी जीने वाली लड़की थी.

उसे शादी के बंधन में बंध कर अपनी आजादी खत्म नहीं करनी थी. वह जिंदगी के हर लम्हे का मजा लेना चाहती थी. उस का यह कहना था कि जिंदगी बारबार नहीं मिलती, एक बार मिलती है तो क्यों न उस का मजा लिया जाए. अपने हिसाब से जिया जाए, क्यों शादी के बंधन में बंध कर अपनी जिंदगी के मजे खराब कर के बच्चे पैदा किए जाएं और किचन में जा कर अपनी खूबसूरती पति और बच्चों के लिए बरबाद की जाए.

उस की इस मौडर्न जिंदगी ने मेरी बीवी को इतना प्रभावित किया कि वह यह भूल गई कि वह 4 बच्चों की मां है और किसी की बीवी भी है.

वह चचेरी बहन मेरी बीवी के सामने ही अपने बौयफ्रैंड से बातें करती रहती थी और जल्द ही उस ने मुंबई में भी कई बौयफ्रैंड बना लिए थे और उन के साथ होटलों में खाना, घूमना और उन से महंगेमहंगे गिफ्ट लेना और मेरी बीवी को दिखाना, उसे रिझाना और यह कहना कि तुम इतनी खूबसूरत हो कर क्या जिंदगी जी रही हो, कह कर ताने मारना शुरू कर दिया था.

बस, उस चचेरी बहन की बातें सुन कर मेरी बीवी ने पहले तो जिम ज्वाइन किया, उस के बाद उस ने भी जींस और टौप पहनना शुरू कर दिया, लेकिन वह इस पर भी न रुकी और जल्द ही उस ने घर का काम करना बंद कर दिया. वह अपनी चचेरी बहन के साथ देर रात आने लगी. उस का बच्चों से भी लगाव कम होता गया.

यहां तक कि वह डिस्को भी जाने लगी और अब उसे मुझ में भी कोई रुचि न रही. उसे तो अब मौडर्न बनने का भूत सवार हो चुका था. उस के जिम की कई मौडर्न सहेली भी घर पर ही आने लगीं, जो बारबार मेरी बीवी को भी यह तंज कसतीं कि तुम इतनी मौडर्न, इतनी खूबसूरत और तुम्हारा पति तो तुम्हारी पैर की जूती के बराबर भी नहीं.

मैं यह सुन कर चुप रहता, क्योंकि अपनी बीवी के सामने बात करने या कोई शिकायत करने की हिम्मत मैं आज तक न जुटा पाया था.

मैं उसे जितनी इज्जत दे रहा था, उतना ही वह मुझ से नफरत कर रही थी, क्योंकि उस के दिमाग में तो अब आजादी का भूत सवार हो चुका था. मैं इतना समझ गया था कि जब तक इस की चचेरी बहन यहां से नहीं जाएगी और इस का जिम जाना बंद नहीं होगा, तब तक इस का बच्चों पर न ध्यान रहेगा और न ही यह मुझे तवज्जुह देगी.

मैं यही दुआ कर रहा था कि इस की चचेरी बहन अपने घर चली जाए. उसे आए हुए एक महीना हो गया था, जल्द ही मेरी यह दुआ कबूल हो गई और उस ने घर जाने की तैयारी कर ली.

मैं यह सोच रहा था कि अब मेरी बीवी में जरूर कुछ बदलाव आएगा, पर मेरा यह सोचना गलत साबित हुआ. अब वह अपनी नई मौडर्न सहेलियों के साथ ज्यादातर वक्त बाहर गुजारने लगी. उसे न बच्चों की चिंता थी और न ही मेरी. आएदिन कोई न कोई फोटोग्राफर घर पर आने लगा. वह अपनी मौडलिंग की तैयारी में कभी बेहूदा फोटो खिंचवाती, तो कभी उन के साथ बाहर शूट करने चली जाती.

एक दिन अचानक मेरी बीवी घर छोड़ कर चली गई. मैं ने उसे फोन किया, तो उस ने नहीं उठाया. काफी
देर बाद उस का ही फोन आया और उस ने कहा कि मुझे ढूंढ़ने की कोशिश मत करना. अब मैं तुम्हारे साथ नहीं रहना चाहती.

मैं ने रोते हुए उस से कहा कि इन बच्चों का क्या होगा?

उस ने दोटूक जवाब दिया कि बच्चे तुम्हारे हैं, तुम समझ. मैं इन्हें अपने साथ घर से थोड़े ही लाई थी. अगर तुम ने थाने में रिपोर्ट की या किसी से भी मेरे लौट आने की सिफारिश की, तो मैं सब के सामने एक ही जवाब दूंगी कि मुझे तुम्हारे साथ नहीं रहना. इस से पहले कि मैं तुम पर कोई आरोप लगाऊं या तुम्हें नामर्द बोल कर बेइज्जत करूं, तुम खुद समझदार हो. मुझे ऐसा कुछ करने पर मजबूर मत करना. तुम अपनी मरजी की जिंदगी जीओ और मुझे भी अपनी जिंदगी जीने दो. तुम दूसरी शादी कर लो, मुझे कोई एतराज नहीं है. यह मेरी तुम से आखिरी बातचीत है. इस के बाद न मैं भविष्य में कभी तुम से बात करूंगी और न ही तुम्हारी जिंदगी में दखल दूंगी.

एक साल तक उस का इंतजार करने के बाद मैं पुलिस थाने में जा कर रिपोर्ट दर्ज कराने गया कि मेरी बीवी मेरे साथ नहीं रहती. एक साल से मुझे उस की कोई खबर भी नहीं है.

पुलिस ने मेरी बात सुनी और कहा कि तुम उसे ढूंढ़ना चाहते हो या नहीं. मैं ने उन से कहा कि ऐसी हालत में मुझे क्या करना चाहिए?

पुलिस ने कहा कि जब वह तुम्हारे साथ नहीं रहना चाहती तो उसे ढूंढ़ना बेकार है. वह अब नहीं आएगी. तुम अपनी शिकायत दर्ज करा दो कि उस के किसी भी गलत कदम का मैं जिम्मेदार नहीं हूं, क्योंकि वह एक साल से मुझ से अलग है.

मैं ने यह शिकायत लिख कर उस की एक कौपी अपने पास रख ली और मैं अपने बच्चों की परवरिश में लग गया.

मेरे लिए बच्चों की अकेले देखभाल करना बड़ा ही मुश्किल था, क्योंकि कामकाज का भी ध्यान रखना जरूरी था, ताकि बच्चों की अच्छी परवरिश हो सके.

मेरे दोस्तों ने मुझे दूसरी शादी करने की सलाह दी. बीवी के जाने के 2 साल बाद मैं ने एक बेवा से दूसरी शादी कर ली. उस के भी 2 बच्चे थे और मेरे भी 4 बच्चे थे.

इस तरह मेरे बच्चों को नई मां मिल गई. उस ने मेरे बच्चों का अच्छा खयाल रखा, लेकिन मेरे बच्चों को वह मां की मुहब्बत न मिल सकी, जो एक सगी मां से मिलती है. उन की पढ़ाई की जिम्मेदारी, उन के खानेपीने की जिम्मेदारी उन्हें नई मां से तो मिल गई, पर वह मां न मिल सकी, जो और बच्चों को मिलती है. दोष भी किस को दूं, जब सगी मां ने ही उन की परवाह न की तो किसी और से उम्मीद क्या की जाए.

मैं अपने बच्चों को दिल से लगाना चाहता हूं. पर अफसोस, मैं अब ऐसा नहीं कर पाता हूं. मैं उन्हें अच्छे स्कूल में पढ़ाना चाहता हूं, पर अब मेरे लिए यह मुमकिन नहीं. मैं उन्हें अच्छा खिलाना चाहता हूं, पर अफसोस, मैं उन्हें नहीं खिला सकता.

मैं उन बच्चों की जिद पूरी करना चाहता हूं, पर नहीं कर सकता, क्योंकि बाप और बच्चों में कुछ फासले पैदा हो गए, जिन्हें लांघना मेरे बस में नहीं और मेरे बच्चे ऐसे बदनसीब बन कर रह गए, जिन की सगी मां ने ही उन का साथ न दिया तो किसी और से क्या उम्मीद की जाए. कम से कम उन्हें दो वक्त का खाना तो मिल ही जाता था.

वह छोटीमोटी जिद तो अपनी इस नई मां से कर ही लेते हैं. उन की नई मां उन की पसंद का खाना तो बना ही देती है. उन की पढ़ाई का कुछ ध्यान तो रखती ही है. उन की सेहत का कुछ ध्यान तो रखती ही है.

बच्चे तो सहमे हुए हैं ही, क्योंकि उन्हें अपनी सगी मां की याद तो आती ही होगी. कभीकभार बंद कमरे में अपनी मां को याद कर के रोते ही हैं. भले ही वे मना करते हैं कि उन्हें अपनी सगी मां की याद नहीं आती.

पर, मैं बाप हूं, उन की आंखों की लाली और उस से टपकते हुए आंसू से इतना तो मालूम चल ही जाता है कि उन के बेवजह रोने की वजह क्या है? चुपचाप, शांत गुमसुम रहने की वजह क्या है? कभी खाना न खाने की वजह क्या है? होलीदीवाली या फिर ईद के त्योहार पर उन के गुमसुम रहने की वजह क्या है? वह अपनी मां की मुहब्बत को दिल में छिपाए रहते हैं. उन की हंसी कहां गायब हो गई, यह मैं बेहतर जानता हूं. उन का पढ़ाई में मन न लगना मैं अच्छी तरह सम?ाता हूं. यह सब 2 बड़े बच्चों में मिलता है, जो 7 और 8 साल के हैं. जो छोटे 4 और बच्चे हैं, जो 2 साल के हैं, उन्हें अपनी मां की याद नहीं आती और न ही उस की सूरत पहचानते होंगे, इसलिए वे खुश रहते हैं.

आज उन का भविष्य अधर में है, क्योंकि नई मां उन्हें समझ नहीं पाती. उन्हें अच्छी तालीम नहीं दे पाती. वह समझती है कि अगर वह कुछ कहेगी, तो मुझे बुरा लगेगा, इसलिए उस ने उन के खानेपीने, पढ़ाईलिखाई, अच्छाबुरा सब उन के ऊपर छोड़ दिया है. कोई खाए या नहीं, कोई पढ़े या नहीं, उसे सिर्फ मुझ से ताल्लुक है. वह सिर्फ मुझे खुश रखने की कोशिश करती है. पर, उसे क्या मालूम कि मेरी खुशी कहां है, मेरा सुकून कहां है, मेरी जिंदगी का मकसद क्या है. बच्चे ही मेरी जिंदगी हैं. काश, वह बीवी के साथसाथ एक जिम्मेदार मां भी बन जाए.

मुझे आज भी वह वक्त याद है, जब बच्चों की मां गलत संगत में नहीं पड़ी थी. किस तरह बच्चों की पढ़ाईलिखाई, उन के खानेपीने का ध्यान रखती थी. घर में कितनी खुशहाली थी, बच्चे कितने खुश थे, कितने साफसुथरे रहते थे.

मां के जाने के बाद बच्चों की जिंदगी थम सी गई. वे गुमसुम हो कर रह गए. ऐसा लगता जैसे उन का सबकुछ तबाह हो गया हो. वे सिसकसिसक कर जी रहे हैं. असल में तो वे उसी वक्त मर गए थे, जब उन की मां उन्हें बेसहरा छोड़ कर चली गई थी.

मां तो मां ही होती है, पर समझ में नहीं आता कि ऐसी भी मां होती है, जो सिर्फ अपने लिए जीती है.
फिर भी मेरे बच्चों के पास मां तो है, जो उन का खयाल रखती है. मेरे बच्चे तन्हा तो नहीं हैं. कोई तो है उन की फिक्र करने वाला. हर बच्चे को सबकुछ तो नहीं मिलता, फिर भी मेरे बच्चे हजारों से बुरे हैं तो लाखो से बेहतर भी हैं, क्योंकि उन के पास उन की नई मां जो है.

Hindi Story: रैन बसेरा

Hindi Story, लेखक – ए. सिन्हा

महीनों नहीं, सालों गुजर गए थे, उसे इसी तरह इंतजार करते हुए. वह सोचता था कि शायद किसी दिन रंजू मेम साहब का खत आ जाए. लेकिन इंतजार का मीठा फल उसे अभी तक नहीं मिला था. वह अब उसी होटल का मालिक हो गया था, जिस में कभी वह नौकर हुआ करता था.

उन दिनों रंजू अपनी सहेलियों के साथ इम्तिहान देने आई थी. वे सब उसी होटल में नाश्ता करती थीं, जहां वह बैरा था.

जब रंजू पहली बार होटल में आई थी, तो वही और्डर लेने गया था. वह दिन उसे अच्छी तरह याद था. उस के दिलोदिमाग पर उस दिन की सभी बातें जैसे अपनी अनोखी छाप छोड़ गई थीं.

‘‘जी मेम साहब,’’ वह मेज के पास जा कर बोला था.

‘‘4 जगह समोसे और कौफी,’’ सब से खूबसूरत लड़की बोली थी.

वह सामान मेज पर रख कर पास में ही खड़ा हो गया था. फिर तो यह रोज का काम हो गया था.

रंजू के आते ही वह सभी ग्राहकों को छोड़ कर उस की मेज के पास पहुंच जाता था. जाने क्यों, उसे वह बहुत अच्छी लगती थी.

उस के दिल की बात शायद रंजू के साथसाथ उस की सहेलियां भी भांप गई थीं. तभी तो एक दिन एक लड़की ने पूछा था, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘अनु,’’ …छोटा सा जवाब उस ने दिया था.

‘‘अनु… वाह, क्या बात है. रंजू, तुम्हारे आशिक का नाम तो लाजवाब है. बहुत प्यारा है तुम्हारा आशिक,’’ एक दूसरी लड़की बोली थी.

इस बात पर सभी लड़कियां हंस दी थीं. तब अनु को ऐसा महसूस हुआ, मानो पायलों की झंकार गूंज उठी हो. तभी उस ने देखा कि रंजू भी तिरछी निगाहों से उस की ओर देख रही थी.

उस दिन बिल देने के बाद रंजू ने बाकी बचे पैसे लेने से इनकार कर दिया.

‘‘रख लो अनु… अपनी महबूबा के खत का जवाब कैसे दोगे?’’ एक लड़की बोली थी, तभी दूसरी लड़की ने कहा, ‘‘क्यों रंजू, खत लिखोगी न अपने भोले आशिक को?’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं… अपने भोले आशिक को हम कैसे भूल सकते हैं,’’ रंजू ने मुसकराते हुए जवाब दिया था.
इसी मुसकुराहट पर तो वह दीवाना था.

पर उस दिन के बाद रंजू फिर कभी नहीं आई. कई साल गुजर गए, लेकिन उस का कोई खत नहीं आया. अनु सोचता, ‘रंजू मेमसाहब ने कहा था कि वे खत लिखेंगी. फिर अभी तक क्यों नहीं लिखा?’

एक रात वह खुद खत लिखने बैठ गया. पर चंद लाइनें लिखने के बाद ही उस ने वह खत फाड़ डाला. 2-3 बार कोशिश करने के बाद आखिर में वह एक शानदार खत लिखने में कामयाब हो गया. लेकिन तब उसे खयाल आया कि उस के पास तो रंजू मेमसाहब का पता ही नहीं है. तब मायूस हो कर उस ने वह खत भी फाड़ दिया.

अकसर वह डाकिए को देखता तो दौड़ कर उस के पास चला जाता, एक हसरत लिए हुए. एक दिन डाकिए ने उसे देखते ही डांट दिया, ‘‘तुम्हारे आगेपीछे कोई है ही नहीं… तब कौन लिखेगा तुम्हें खत? मेरा दिमाग मत चाटा करो… जाओ यहां से.’’

उस घड़ी वह बहुत मायूस हो गया था. उस का सिर शर्म से झुक गया था. भारी कदमों से वह अपने कमरे की तरफ लौट गया था.

कुछ दूर जाने पर डाकिए के मन में पछतावा हुआ कि उस ने क्यों बेचारे को बेकार में डांट दिया. पता नहीं, किस के खत का उसे इंतजार है? कल उस से पूछेगा. नहीं होगा, तो वह खुद लिख कर उसे दे देगा. कम से कम उस के दिल को ठंडक तो मिलेगी.

उसी रात अनु अपने पलंग पर लेटा था. कमरे का दरवाजा खुला था. बत्ती बुझी हुई थी. कमरा अंधेरे में डूबा हुआ था. इस वक्त भी वह रंजू के खयालों में खोया था. तभी एक साया तेजी से कमरे में दाखिल हुआ और उसी तेजी से पलंग के नीचे छिप गया, तभी और 4 साए कमरे में आए.

अनु ने बत्ती जला दी थी. वे चारों साए अब खतरनाक गुंडों की शक्ल में दिखाई देने लगे.

‘‘ऐ… इधर तू ने कोई लड़की देखी है क्या…?’’

‘‘धीरे बोलो भाई साहब, कोई सुनेगा तो हंसेगा. हम ने सालों से कोई लड़की नहीं देखी है.’’

‘‘ज्यादा होशियारी नहीं मारने का बच्चे… वरना हड्डीपसली एक कर दूंगा,’’ एक गुंडा बोला.

‘‘ऐ… धमकी किसी और को देना, अनु को नहीं… समझा क्या?’’

फिर तो वहां कुरुक्षेत्र का मैदान बन गया. अनु की आवाज सुन कर 7-8 पड़ोसी भी वहां पहुंच गए. सब ने मिल कर उन गुंडों की खूब धुनाई की. वे गालियां बकते हुए भाग गए.

अनु ने अब कमरे का दरवाजा अंदर से बंद किया और पलंग के पास झुक कर बोला, ‘‘आप जो भी हैं, बाहर आ जाइए… वे लोग चले गए हैं.’’

पलंग के नीचे से निकलने वाले साए को देख कर वह चौंका, क्योंकि उस के सामने रंजू मेमसाहब खड़ी थीं.

‘‘रंजू… मेमसाहब, आप?’’

‘‘मुझे छूना मत अनु, मैं किसी के काबिल नहीं रही.’’

‘‘किसी के काबिल रही हो या न रही हो, लेकिन अनु के काबिल तो तुम हमेशा ही रहोगी.’’

‘‘मैं मुजरिम हूं. मैं ने तुम्हारे मासूम प्यार का मजाक उड़ाया है… एक अमीरजादे से ब्याह रचा लिया, जिस का नतीजा यह मिला. मेरे मर्द ने मुझे तबाह कर दिया.’’

‘‘अब आगे कुछ मत कहो रंजू. मेरे लिए तुम अब भी वही चुलबुली रंजू मेमसाहब हो,’’ इतना कह कर अनु ने अपनी बांहें फैला दी थीं. कुछ सोचते हुए उन फैली हुई बांहों में रंजू समा गई.

अगले दिन डाकिया दरवाजे पर अनु को न पा कर बहुत दुखी हुआ. उस ने दरवाजा खटखटाया, तो अनु बाहर आया.

‘‘तुम खत के बारे में पूछते थे न… तुम्हें किस के खत का इंतजार है?’’ डाकिए ने पूछा.

‘‘चाचा, तुम्हारी एक ही फटकार ने मेरी जिंदगी बदल डाली. अब खत की जरूरत ही नहीं है… खत लिखने वाली मेरी महबूबा रंजू मेमसाहब खुद ही चली आई हैं. मेरा उजड़ा हुआ रैन बसेरा बस गया है चाचा.’’

पास ही रंजू खड़ी मन ही मन मुसकरा रही थी.

Hindi Story: अधूरी प्यास

Hindi Story: सुहाग सेज सजी थी. गुलशन दुलहन बनी अपने शौहर का बेसब्री से इंतजार कर रही थी. उसे तमाम रिश्तेदारों ने घेर रखा था. सभी लोग गुलशन की खूबसूरती की तारीफ करते नहीं थक रहे थे, पर गुलशन उन सब की बातों को अनसुना कर अपने शौहर का इंतजार कर रही थी.

रात के 11 बज चुके थे. मेहमानों का आनाजाना अब न के बराबर था. तभी बैडरूम का दरवाजा खुलने की आहट हुई, तो गुलशन ने तिरछी नजरों से देखा कि उस का शौहर शहजाद कमरे के भीतर आ रहा था.

गुलशन ने जल्दी से अपना मुंह पल्लू में छिपा लिया और शहजाद की अगली हरकत जानने के लिए चुपचाप बैठी रही.

तभी शहजाद ने कमरे के भीतर आ कर गुलशन को सलाम करते हुए कहा, ‘‘माफ करना. मेहमानों में घिरा होने की वजह से मुझे देर हो गई.’’

फिर शहजाद ने गुलशन के करीब आ कर उस का घूंघट उठाया और बोला, ‘‘क्या गजब की खूबसूरती पाई है आप ने.’’

शहजाद से अपनी तारीफ सुन कर गुलशन शरमा गई और अपनी हथेली से अपने मुंह को छिपाने लगी.

शहजाद ने फौरन गुलशन को अपनी बांहों में भरा और उस के रसभरे होंठों को चूमने लगा. साथ ही, वह गुलशन के कपड़ों को भी उस के तन से अलग करने लगा.

गुलशन का सफेद संगमरमर की तरह चमकता हुआ बदन देख कर शहजाद के तो मानो होश ही उड़ गए. वह अभी गुलशन के आगोश में गया ही था कि अचानक एक तरफ को लुढ़क गया. उस की सांसें तेज चलने लगीं.

शहजाद हांफते हुए बोला, ‘‘मैं आज बहुत ज्यादा थक गया हूं. मुझे नींद आ रही है. शादी में काम भी बहुत होता है.’’

गुलशन तड़प कर रह गई. उस की जिस्मानी प्यास अधूरी रह गई. उस ने तो अपनी सुहागरात को ले कर न जाने क्याक्या सपने देखे थे, जो पलभर में ही टूट कर रह गए. वह चुपचाप सो गई.

अगले दिन शहजाद बोला, ‘‘जानू, मुझे माफ करना. कल ज्यादा थकावट की वजह से मैं तुम्हें वह सुख नहीं दे पाया, जो एक औरत को अपने शौहर से उम्मीद रहती है, पर आज रात मैं तुम्हारी हर शिकायत दूर कर दूंगा.’’

यह सुन कर गुलशन के चेहरे पर उम्मीद की कुछ किरण नजर आई और वह मुसकरा कर वहां से अंदर चली गई.

रात हो चुकी थी. गुलशन बड़ी बेसब्री से शहजाद के आने का इंतजार कर रही थी. कुछ देर के इंतजार के
बाद शहजाद कमरे में आया और आते ही गुलशन को अपनी बांहों में भर कर चूमने लगा.

शहजाद की इस हरकत से गुलशन भी उसे अपने ऊपर खींचने लगी, पर जल्द ही वह पस्त हो कर एक तरफ लुढ़क गया.

अब गुलशन को यकीन हो गया कि अच्छी कदकाठी का गबरू जवान होने के बाद भी शहजाद बिस्तर के मामले में नाकाम है.

गुलशन को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे, किस से अपना दुखड़ा रोए.

शादी को 3 महीने गुजर चुके थे. एक दिन शहजाद के चाचा का लड़का इमरान किसी काम से गांव से शहर आया. वह शहजाद के घर पर ही रुका.

एक दिन गुलशन भाभी को खामोश देख इमरान बोला, ‘‘क्या बात है भाभी, आप बहुत उदास रहती हो. न किसी से बात करती हो, न हंसती हो.’’

गुलशन बोली, ‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है. बस, तबीयत थोड़ी खराब है. सिर में दर्द है.’’

इमरान बोला, ‘‘तो इस में घबराने की क्या बात है. मैं आप के सिर की मालिश कर देता हूं.’’

गुलशन ने कहा, ‘‘नहीं, रहने दो. तुम्हारे भाई देखेंगे तो शायद उन्हें बुरा लग जाए.’’

‘‘अरे भाभी, शहजाद भाई बाहर गए हैं और शाम तक वापस आएंगे. क्या तब तक यों ही बेचैन रहोगी?’’ कहते हुए इमरान ने गुलशन को बिस्तर पर बैठाया और सरसों का तेल हलका गरम कर के लाते हुए बोला, ‘‘भाभी, आज आप के सिर की ऐसी मालिश करूंगा कि कभी दर्द नहीं होगा.’’

इमरान गुलशन के सिर पर मालिश करने लगा, तो वह छुअन पा कर सिहर उठी.

इमरान गुलशन के बालों में उंगलियां फेरते हुए बोला, ‘‘कैसा लग रहा है भाभी?’’

गुलशन बोली, ‘‘अच्छा लग रहा है. तुम्हारे हाथों में तो वाकई कमाल का जादू है.’’

गुलशन के सिर की मालिश करतेकरते इमरान उस के माथे और गरदन पर भी अपने हाथ फेरने लगा. फिर अपने हाथ को आगे बढ़ाते हुए उस ने गुलशन के उभारों को छुआ, तो गुलशन एक लंबी सांस लेते हुए बोली, ‘‘क्या कर रहे हो? मुझे कुछकुछ हो रहा है. बस करो.’’

इतना कह कर गुलशन कमरे में जाने लगी और बोली, ‘‘अब तुम रहने दो. मेरा दर्द ठीक है.’’

शाम के वक्त शहजाद घर आ गया. गुलशन, शहजाद और इमरान ने बैठ कर एकसाथ खाना खाया.

गुलशन आज इमरान से नजरें नहीं मिला पा रही थी. उसे यह सोचसोच कर अपनेआप पर गुस्सा भी आ रहा था कि आखिर अपनी अधूरी प्यास को पूरा करने के लिए उस ने इमरान को अपने जिस्म को क्यों छूने दिया.

शहजाद ने पूछा, ‘‘कैसा रहा भाई आज का दिन और कैसा लगा शहर?’’

इमरान ने कहा, ‘‘भाई, अच्छा दिन गुजरा, पर शहर तो अभी मैं घूमा ही नहीं. अकेला कहां जाता घूमने… मुझे कुछ मालूम नहीं.’’

शहजाद ने कहा, ‘‘देख भाई, मुझे तो वक्त नहीं मिलता और अगर तू चाहे तो अपनी भाभी के साथ घूमने चले जाना.’’

इमरान बोला, ‘‘यह ठीक रहेगा, पर क्या भाभी मुझे शहर घुमाएंगी?’’

‘‘अरे, कैसी बात कर रहा है. यह भी घर में पड़ीपड़ी बोर हो जाती है. इसे तो बहुत शौक है घूमने का, पर मुझे वक्त हीं नहीं मिलता.’’

इमरान ने कहा, ‘‘ठीक है भाई. तुम भाभी से बोल देना कि वे तुम्हें शहर दिखा लाए.’’

यह सुन कर गुलशन बोली, ‘‘नहीं, मैं कहीं नहीं जा रही हूं घूमनेफिरने. मुझे बस घर में ही रहने दो’’

शहजाद बोला, ‘‘मेरा भाई गांव से आया है. इसे कम से कम शहर की चकाचौंध तो दिखा दो.’’

गुलशन बोली, ‘‘ठीक है. जब आप बोल रहे हैं, तो कल मैं इमरान को कहीं घुमा लाती हूं.’’

अगले दिन गुलशन और इमरान जुहूचौपाटी पर घूमने चले गए. वहां का नजारा देख कर गुलशन शरमा उठी.

तभी इमरान ने कहा, ‘‘भाभी, यहां की औरतें तो बहुत एडवांस हैं. देखो, कैसेकैसे कपड़े पहन रखे हैं. मर्द और औरतें एकदूसरे की बांहों में बांहें डाल कर कैसे समंदर के किनारे लेटे हुए हैं.’’

गुलशन बोली, ‘‘देवरजी, यहां से और कहीं दूसरी जगह चलते हैं.’’

इमरान बोला, ‘‘भाभी, यहां कितना अच्छा लग रहा है. अभी यहीं बैठते हैं हम भी. सुना है कि मुंबई का नारियल पानी बहुत अच्छा है. वही पीते हैं,’’ कहते हुए इमरान 2 नारियल पानी ले आया. वे दोनों एक चटाई पर बैठ कर नारियल पानी पीने लगे.

तभी इमरान ने कहा, ‘‘भाभी वह देखो, दोनों कैसे एकदूसरे की बांहों में बांहें डाल कर जिंदगी के मजे ले रहे हैं.’’

गुलशन बोली, ‘‘ओह, कैसे लोग हैं, इन्हें तो बिलकुल भी शर्मोहया नहीं है.’’

इमरान ने गुलशन के हाथ पर हाथ रखा, तो गुलशन ने झट से अपना हाथ हटा लिया और बोली, ‘‘बस, चलो अब यहां से.’’

इमरान बोला, ‘‘भाभी, यहां कहीं बांद्रा बैंडस्टैंड भी तो है, मुझे वह भी दिखा दो. गांव में बहुतकुछ सुना है उस के बारे में.’’

गुलशन ने कहा, ‘‘नहीं, वह अच्छी जगह नहीं है.’’

इमरान ने पूछा, ‘‘क्यों भाभी, ऐसा क्या है वहां?’’

‘‘कुछ नहीं.’’

इमरान बोला, ‘‘तो ठीक है, वह बुरी जगह ही दिखा दो,’’ कहते हुए इमरान ने एक टैक्सी को रोका और बांद्रा बैंडस्टैंड के लिए रवाना हो गए.

बैंडस्टैंड का नजारा देख कर गुलशन और इमरान के बदन में जोश अपने पैर पसारने लगा, क्योंकि वहां बहुत से प्रेमीप्रेमिका एकदूसरे के होंठों का रसपान करते नजर आ रहे थे.

गुलशन शर्म से पानीपानी होने लगी, तभी इमरान बोला, ‘‘भाभी, आओ उस पत्थर पर बैठ कर यहां का नजारा देखते हैं,’’ और उस ने गुलशन की कमर में हाथ डाल कर उसे अपनी बांहों में भरते हुए एक पत्थर के पास ले गया.

गुलशन का प्यासा बदन तड़पने लगा और उस ने अपनेआप को इमरान से छुड़ाने की हलकी सी नाकाम कोशिश भी की, पर इमरान ने फौरन अपने गरम होंठ गुलशन के होंठों पर रख दिए और उन का रसपान करने लगा.

इमरान की इस हरकत से गुलशन का बदन अपनी प्यास बु?ाने के लिए छटपटाने लगा, पर वह समाज के डर और अपने शौहर की इज्जत की वजह से ?ाट इमरान से अलग होती हुई बोली, ‘‘अब हमें घर चलना चाहिए…’’ और वहां से उठते हुए वह टैक्सी की तरफ बढ़ने लगी और इमरान को ले कर वापस घर आ गई.

घर पहुंचते ही गुलशन अपने कमरे में चली गई. शाम का वक्त हुआ, तो शहजाद अपने काम से वापस आया और खाना खाने के बाद गुलशन से बोला, ‘‘कैसा रहा आज का घूमना?’’

गुलशन ने कहा, ‘‘अच्छा था.’’

शहजाद ने पूछा, ‘‘इमरान को अच्छी तरह घुमाया या यों ही वापस लौट आई हो?’’

गुलशन बोली, ‘‘अच्छी तरह घूमने के बाद ही हम लोग वापस आए हैं.’’

‘‘चलो अच्छा है, वरना मुझे यही डर सता रहा था कि वह पहली बार गांव से शहर आया है और मुझे उसे घुमाने का वक्त भी नहीं मिल पा रहा है…

‘‘कहीं चाची को पता चलता कि इमरान बस घर की चारदीवारी में ही रह कर लौट आया है, तो उन की नजरों में मेरी इज्जत गिर जाती,’’ कहते हुए शहजाद ने गुलशन को अपनी बांहों में भरा और प्यार करते हुए बोला, ‘‘तुम कितनी अच्छी हो, सब का कितना खयाल रखती हो.’’

गुलशन ने भी शहजाद को अपनी बांहों में जकड़ लिया और कामुक होती हुई बोली, ‘‘मेरा काम है तुम्हारा अच्छी तरह खयाल रखना.’’

शहजाद ने गुलशन को बिस्तर पर लिटा दिया और उस के होंठों को चूमता हुआ उसे प्यार करने लगा.

अभी गुलशन जोश में आ ही पाई थी कि शहजाद निढाल हो कर एक तरफ लुढ़क गया और बोला, ‘‘तुम भी सो जाओ, मुझे नींद आ रही है.’’

गुलशन का बदन तड़पने लगा. उस की प्यास अधूरी रह गई. उस की हवस भड़की हुई थी, पर शहजाद तो खर्राटे ले कर सो चुका था.

शहजाद को सोता देख गुलशन कमरे से निकली और वाशरूम की ओर जाने लगी. अभी वह कुछ ही दूर चली थी कि उस की नजर पास वाले कमरे में लेटे इमरान पर पड़ी, जो करवट बदल रहा था.

गुलशन हवस की आग में जल रही थी. आज उसे न तो शहजाद की और न ही समाज की कोई परवाह थी.

वह तो अपनी अधूरी प्यास बुझाना चाहती थी, पर समाज और दुनिया की खातिर उस ने अपनेआप को रोक रखा था, लेकिन आज उस की प्यास बुझाने वाला खुद उस के घर में मौजूद था, इसलिए गुलशन यह मौका गंवाना नहीं चाहती थी.

इमरान खुद पहल कर के गुलशन को न्योता दे रहा था, तो गुलशन ने भी आज उस का न्योता स्वीकार करने का मन बना लिया और कमरे में पहुंच कर इमरान के पास लेट गई और उस के बदन को सहलाने लगी.

फिर क्या था. इमरान ने झट गुलशन के उभारों को भींच दिया. गुलशन कामुक हो उठी. वह इमरान को अपने ऊपर खींचने लगी.

हकीकत में आज गुलशन को सुहागरात का असली मजा मिला और वह सुख भी मिला, जिस के लिए वह बरसों से तड़प रही थी. कुछ देर बाद उन दोनों के जिस्म एकदूसरे से अलग हुए.

गुलशन उठी और बोली, ‘‘तुम ने तो आज मुझे जन्नत की सैर करा दी,’’ कहते हुए उस ने इमरान के गाल पर एक प्यार भरा चुम्मा रसीद कर दिया और अपने कमरे मे वापस आ कर सो गई.

एक बार यह जिस्मानी रिश्ता बना, तो फिर जब तक इमरान वहां रहा, बनता ही गया. फिर एक दिन वह वक्त भी आ गया, जब इमरान को वहां से वापस अपने गांव आना पड़ा.

इमरान के जाने से गुलशन बहुत दुखी थी, पर उसे यह खुशी भी थी कि उस की अधूरी प्यास पूरी हो गई थी.

गुलशन ने अपनी अधूरी प्यास भले ही गलत तरीके से बुझाई थी, पर उसे इस पर कोई अफसोस नहीं था, क्योंकि वह अब पेट से हो गई थी. उस के पेट में इमरान का बच्चा पल रहा था, जिसे शहजाद अपना बच्चा समझ रहा था और गुलशन व उस के होने वाले बच्चे का बहुत खयाल रख रहा था.

शहजाद ने गुलशन का शुक्रिया भी अदा किया और बोला, ‘‘आखिर, तुम ने मुझे बाप बनने का मौका दे ही दिया. मैं बहुत खुश हूं.’’

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें