खुश रहो गुड़िया

9 दिसंबर मेरे जीवन का सब से बड़ा काला दिन है क्योंकि 2 साल पहले आज के ही दिन नियति के क्रूर हाथों ने मेरी उस गुडि़या को छीन लिया था जो फूल बन कर अपने साजन के आंगन को महका रही थी. एक दिन पहले गुडि़या ने फोन किया था, ‘मम्मा, जाने क्यों पिछले कुछ दिनों से आप की बहुत याद आ रही है. राजीव की 2 दिन की छुट्टी है, हम लोग आप से मिलने आ रहे हैं.’

मैं ने रात को ही दहीबडे़ और आलू की कचौडि़यों की तैयारी कर के रख दी थी. मेरी बेटी गुडि़या, दामाद राजीव और दोनों नातिनें गीतूमीतू सुबह की ट्रेन से आ रहे थे पर सुबहसुबह ही टेलीविजन पर समाचार आया कि जिस ट्रेन से वे लोग आ रहे थे वह दुर्घटनाग्रस्त हो गई.

चेतना जागृत होने पर यह क्रूर सचाई मेरे सामने थी कि मेरी गुडि़या अपनी अबोध गीतूमीतू और पति राजीव को छोड़ कर इस संसार से जा चुकी थी. समझाने वाले मुझे समझाते रहे पर मैं यह मानने को कहां तैयार थी कि मेरी गुडि़या अब हमारे बीच नहीं है और इसे स्वीकारने में मुझे वर्षों लग गए थे.

राजीव की आंखों में कैसा अजीब सा सूनापन उभर आया था और वह दोनों नन्ही कलियां इतनी नादान थीं कि उन्हें इस का अहसास तक नहीं था कि कुदरत ने उन के साथ कितना क्रूर खेल खेला है. उन की आंखें अपनी मां को ढूंढ़तेढूंढ़ते थक गईं. आखिर में उन के मन में धीरेधीरे मां की छवि धुंधली पड़तेपड़ते लुप्त सी हो गई और उन्होंने मां के बिना जीना सीख लिया.

दादी व बूआ के भरपूर लाड़प्यार के बावजूद मुझे गीतूमीतू अनाथ ही नजर आतीं. कभी दोपहर में बालकनी में खड़ी हो जाती तो देखती नन्हेमुन्ने बच्चे रंगबिरंगी यूनीफार्म में सजे अपनीअपनी मम्मी की उंगली पकड़ कर उछलतेकूदते स्कूल जा रहे हैं. उन्हें देख कर मेरे सीने में हूक सी उठती कि हाय, मेरी गीतूमीतू किस की उंगली पकड़ कर स्कूल जाएंगी. किस से मचलेंगी, किस से जिद करेंगी कि मम्मी, हमें टौफी दिला दो, हमें चिप्स दिला दो. और यही सब सोचते- सोचते मेरा मन भर उठता था.

जब से उड़ती- उड़ती सी यह खबर मेरे कानों में पड़ी है कि राजीव की मां अपने बेटे के पुन- र्विवाह की सोच रही हैं तो लगा किसी ने गरम शीशा मेरे कानोें में डाल दिया है. कई लड़की वाले अपनी अधेड़ बेटियों के लिए राजीव को विधुर और 2 बेटियों का बाप जान कर सहजप्राप्य समझने लगे थे.

राजीव की दूसरी शादी का मतलब था मासूम कलियों को विमाता के जुल्म व अत्याचार की आग में झोंकना. इस सोच ने मेरी बेचैनी को अपनी चरमसीमा पर पहुंचा दिया था. अब राजीव के पुनर्विवाह को रोकना मेरे लिए पहला और सब से अहम मकसद बन गया.

मैं ने अपनी चचेरी बहन, जो राजीव के घर से कुछ ही दूरी पर रहती थी, को सख्त हिदायत दे डाली कि किसी भी कीमत पर राजीव की दूसरी शादी नहीं होनी चाहिए. कोई लड़की वाला राजीव या उस के घरपरिवार के बारे में जानकारी हासिल करना चाहे तो उन की कमियां बताने में कोई कोरकसर न छोडे़.

राजीव के साथ अपनी बेटी की शादी की इच्छा ले कर जो भी मातापिता मेरे पास उन के घरपरिवार की जानकारी लेने आते, मैं उन के सामने उस परिवार के बुरे स्वभाव का कुछ ऐसा चित्र खींचती कि वह दोबारा वहां जाने का नाम नहीं लेते थे और अपनी इस सफलता पर मैं अपार संतुष्टि का अनुभव करती थी.

मेरे बहुत अनुरोध पर उस दिन राजीव गीतूमीतू को मुझ से मिलाने ले आया. इस बार वह काफी खीजा हुआ सा लग रहा था. बातबात में गीतूमीतू को झिड़क बैठता. पता नहीं, मेरे कुचक्रों से या किसी और वजह से उस का विवाह नहीं हो पा रहा था और वह एकाकी जीवन जीने को विवश था.

मेरी समधिन बारबार फोन पर मुझ से अनुरोध करतीं, ‘बहनजी, कोई अच्छी लड़की हो तो बताइएगा. मैं चाहती हूं कि मेरी आंखों के सामने राजीव का घर फिर से बस जाए. कल को बेटी सुधा भी ब्याह कर अपने घर चली जाएगी तो इन बच्चियों को संभालने वाला कोई तो चाहिए न.

प्रकट में तो मैं कुछ नहीं कहती पर मेरी गुडि़या के बच्चों को सौतेली मां मिले, यह मेरे दिल को मंजूर न था. आखिर तिनकातिनका जोड़ कर बसाए अपनी बेटी के घोंसले को मैं किसी और का होता हुआ कैसे देख सकती थी.

मेरी लाख कोशिशों के बावजूद उन्हें यह पता लग गया कि राजीव का घर बसाने के मामले में जड़ काटने का काम मैं खुद कर रही हूं तो उन्हें सतर्क होना ही था और उन के सतर्क होने का नतीजा यह निकला कि राजीव ने अपनी सहकर्मी से विवाह कर लिया.

इस मनहूस खबर ने तो मुझे तोड़ कर ही रख दिया. हाय, अब मेरी गुडि़या के बच्चों का क्या होगा. अब मैं ने लगातार राजीव और उस की मां को कोसना शुरू कर दिया.

अब दिनोदिन मेरी बेचैनी बढ़ने लगी. जाने कितनी सौतेली मांओं के क्रूरता भरे किस्से मेरे दिमाग में कौंधते रहते और एक पल भी मुझे चैन न लेने देते. मन ही मन में गीतूमीतू को सौतेली मां की झिड़कियां खाते, पिटते और कई तरह के अत्याचारों को तसवीर में ढाल कर देखती रहती और अपनी बेबसी पर खून के आंसू रोती.

उस दिन मैं घर में अकेली ही थी. अचानक दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने उठ कर दरवाजा खोला. सामने जो खड़ा था उसे देख कर मेरी त्यौरियां चढ़ गईं. मैं तो दरवाजा ही बंद कर लेती पर बगल में मुसकराती गीतूमीतू को देख कर मैं अपने गुस्से को पी गई.

राजीव ने नमस्ते की और उस के साथ जो औरत खड़ी थी उस ने भी कुछ सकुचाते हुए हाथ जोड़ कर नजरें झुका लीं.

राजीव ने कुछ अपराधी मुद्रा में कहा, ‘मांजी, मुझे माफ कीजिएगा कि आप को बिना बताए मैं ने फिर से विवाह कर लिया. मैं तो यहां आने में संकोच का अनुभव कर रहा था पर नेहा की जिद थी कि वह आप से मिल कर आप का आशीर्वाद जरूर लेगी.

मैं ने क्रोध भरी नजरों से नेहा को देखा पर उस के होंठों पर सरल मुसकान खेल रही थी. उस ने अपने सिर पर गुलाबी साड़ी का पल्लू डाला और मेरे चरण स्पर्श करने को झुकी पर उसे आशीर्वाद देना तो दूर, मैं ने अपने कदमों को पीछे खींच लिया. नेहा ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई, शायद वह इस के लिए तैयार थी.

बहुत दिनों बाद गीतूमीतू को अनायास ही अपने पास पा कर अपनी ममता लुटाने का जो अवसर आज मुझे मिला था उसे मैं किसी कीमत पर खोना नहीं चाहती थी इसलिए मजबूरीवश सब को अंदर आने के लिए कहना पड़ा.

राजीव तो बिना कहे ही सोफे पर बैठ गया और अपने माथे पर उभर आए पसीने को रूमाल से जज्ब करते हुए कहीं खो सा गया. गीतूमीतू ने खुद को टेलीविजन देखने में व्यस्त कर लिया पर नेहा थोड़ी देर ठिठकी सी खड़ी रही फिर स्वयं रसोई में जा कर सब के लिए पानी ले आई.

उस ने सब से पहले पानी के लिए मुझ से पूछा पर मैं ने बड़ी रुखाई से मना कर दिया. उस ने गीतूमीतू और राजीव को पानी पिलाया और फिर खुद पिया. इस के बाद मेरे रूखे व्यवहार की परवा न करते हुए वह मेरे पास ही बैठ गई.

पानी पी कर राजीव अचानक उठ कर बाहर चला गया. उस के चेहरे से मुझे लगा कि शायद यहां आ कर उस के मन में मेरी गुडि़या की याद ताजा हो गई थी पर अब क्या फायदा. मेरी गुडि़या से यदि वह इतना ही प्यार करता तो उस का स्थान किसी और को क्यों देता. और उस पर से मुझ से मिलाने के बहाने मेरे जख्मों पर नमक छिड़कने के लिए उसे यहां ले आया है. मेरी सोच की लकीरें मेरे चेहरे पर शायद उभर आई थीं तभी नेहा उन लकीरों को पढ़ कर अपराधबोध से पीडि़त हो उठी.

अगले ही पल नेहा ने अपने चेहरे से अपराधभाव को उतार फेंका और सहज हो कर पूछने लगी, ‘मांजी, आप की तबीयत ठीक नहीं है शायद? मैं अभी चाय बना कर लाती हूं.’

राजीव बाहर से अपने को सहज कर वापस आ गया. गीतूमीतू दौड़ती हुई राजीव की गोद में चढ़ गईं. नेहा चाय और रसोई के डब्बों में से ढूंढ़ कर बिस्कुटनमकीन भी ले आई. सब से पहले उस ने चाय मुझे ही दी, न चाहते हुए भी मुझे चाय लेनी ही पड़ी.

मीतू अचानक राजीव की गोद से उतर कर नेहा की गोद में बैठ गई. बिस्कुट कुतरती मीतू बारबार नेहा से चिपकी जा रही थी और नेहा उस के माथे पर बिखर आई लटों को पीछे करते हुए उस का माथा सहला रही थी. मीतू का इस तरह दुलार होता देख गीतू भी नेहा की गोद में जगह बनाती हुई चढ़ बैठी और नेहा ने उसे भी अपने अंक में समेट लिया तो गीतूमीतू दोनों एकसाथ खिलखिला कर हंस पड़ीं. पता नहीं उन की हंसी मेरे रोने का सबब क्यों बन गई. मैं आंखों के कोरों में छलक आए आंसुओं को कतई न छिपा सकी.

तभी नेहा ने दोनों बच्चों को गोद से उतार कर आंखों ही आंखों में राजीव को जाने क्या इशारा किया कि वह दोनों बच्चों को ले कर बाहर चला गया. नेहा खाली हो गया कप जो अभी भी मेरे हाथों में ही था, को ले कर सारे बरतन समेट रसोई में रख आई और मेरे एकदम करीब आ कर बैठ गई. फिर मेरे हाथों को अपने कोमल हाथों में ले कर जैसे मुझे आश्वस्त करती हुई बोली, ‘मांजी, मैं आप का दुख समझ सकती हूं. आप ने अपने कलेजे के टुकडे़ को खोया है और मैं यह भी जानती हूं कि मूल से ब्याज ज्यादा प्यारा होता है. आप बेहद आशंकित हैं कि कहीं सौतेली मां आ कर आप की नातिनों पर अत्याचार करना न शुरू कर दे और उन के पिता को उन से दूर न कर दे.

‘मेरा विश्वास कीजिए मांजी, जब यह बात मुझे पता चली तो मैं ने मन में यह ठान लिया कि मैं आप से मिल कर आप की आशंका जरूर दूर करूंगी. सभी ने तो मुझे रोका था कि आप पता नहीं मुझ से कैसे पेश आएंगी लेकिन मुझे यह पता था कि आप का वह व्यवहार बच्चों की असुरक्षा की आशंका से ही प्रेरित होगा.’

मेरे हाथों पर नेहा के  कोमल हाथों का हल्का सा दबाव बढ़ा और थोड़ा रुक कर उस ने फिर कहना शुरू किया, ‘मांजी, आप अपने दिल से यह डर बिलकुल निकाल दीजिए कि मैं गीतू व मीतू के साथ बुरा सुलूक करूंगी. आप निश्ंिचत हो कर रहिए ताकि आप का स्वास्थ्य सुधर सके,’ नेहा ने धीरे से अपना हाथ छुड़ा कर मेरा कंधा थपथपाया और मेरी आंखों में झांकती हुई बोली, ‘मांजी, मेरी विनती है कि मुझे भी आप अपनी बेटी जैसी ही समझें. मेरा आप से वादा है कि आप बच्चों से मिलने को नहीं तरसेंगी. हम उन्हें आप से मिलाने लाते रहेंगे.’

नेहा की बात समाप्त भी न होने पाई थी कि राजीव व बच्चे आ गए. दोनों बच्चे दौड़ कर नेहा की टांगों से लिपट गए और ‘मम्मी घर चलो,’ ‘मम्मी घर चलो’ की रट लगाने लगे.

नेहा ने उन्हें गोद में बिठाते हुए कहा, ‘चलते हैं बेटे, पहले आप नानी मां को नमस्ते करो.’

गीतूमीतू ने एकसाथ अपनी छोटीछोटी हथेलियां जोड़ कर तोतली भाषा में मुझे नमस्ते की. मेरे अंदर जमा शिलाखंड पिघलने को आतुर होता सा जान पड़ा. राजीव व नेहा ने चलने की इजाजत मांगी.

उन्हें कुछ पल रुकने को कह कर मैं अंदर गई और अलमारी से गीतूमीतू को देने के लिए 100-100 के 2 नोट निकाले तो लिफाफे के नीचे से झांकती नीली कांजीवरम् की साड़ी ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया. साड़ी देखते ही मेरी आंखें भर आईं क्योंकि यह साड़ी मैं अपनी गुडि़या को देने के लिए लाई थी. साड़ी का स्पर्श करते ही मेरे हाथ कांपने लगे पर न जाने कैसे मैं वह साड़ी उठा लाई और टीके की थाली भी लगा लाई.

टीके के बाद मेरे पैर छू कर नेहा ने मीतू को गोद में उठाया और गीतू की उंगली पकड़ कर आटो में बैठने चल दी. आटो में बैठने से पहले नेहा ने मुझे पीछे मुड़ कर देखा. पता नहीं उस की आंखों में मैं ने क्या देखा कि मेरी आंखें झरझर बरसने लगीं. आंसुओं के सैलाब ने आंखों को इतना धुंधला कर दिया कि कुछ भी दिखना संभव न रहा.

जब धुंध छंटी तो सामने से जाती नेहा में मुझे अपनी गुडि़या की छवि का कुछकुछ आभास होने लगा. अब मुझे लगने लगा कि गुडि़या के जाने के बाद मैं जिस डर व आशंका के साथ जी रही थी वह कितना बेमानी था.

एक सवाल मन को मथे जा रहा था कि मैं जो करने जा रही थी क्या वह उचित था?

आज नेहा से मिल कर ऐसा लगा कि मेरी समधिन ने मुझ से छिपा कर राजीव का पुनर्विवाह कर के बहुत ही अच्छा काम किया, वरना मैं तो अपनी नातिनों की भलाई सोच कर उन का बुरा करने ही जा रही थी. कभी अपनी हार भी इतनी सुखदाई हो सकती है यह मैं ने आज नेहा से मिलने के बाद जाना. राजीव के चेहरे पर छाई संतुष्टि और गीतूमीतू के लिए नेहा के हृदय से छलकता ममता का सागर देख कर मैं भावविभोर थी.

मैं यह सोचने पर विवश थी, कितना बड़ा दिल है नेहा का. एक तो उसे विधुर पति मिला और उस पर से 2 अबोध बच्चियों के पालनपोषण की जिम्मेदारी. फिर भी वह मुझे मनाने चली आई. मुझे नेहा अपने से बहुत बड़ी लगने लगी.

अब मुझ से और नहीं रहा गया. बहुत दिनों बाद मैं ने राजीव के यहां फोन लगाया. रुंधे कंठ से इतना ही पूछ पाई, ‘‘ठीक से पहुंच गई थीं, बेटी?’’

‘‘जी, मम्मीजी,’’ नेहा का भी गला भर आया था. मेरे गले और दिल से एकसाथ निकला, ‘‘खुश रहो, मेरी गुडि़या.’’

पुरस्कार: रिटायरमेंट के बाद पिता और परिवार की कहानी

उन्हें एक निष्ठावान तथा समर्पित कर्मचारी बताया गया और उन के रिटायरमेंट जीवन की सुखमय कामना की गई थी. अंत में कार्यालय के मुख्य अधिकारी ने प्रशासन तथा साथी कर्मचारियों की ओर से एक सुंदर दीवार घड़ी, एक स्मृति चिह्न के साथ ही रामचरितमानस की एक प्रति भी भेंट की थी. 38 वर्ष का लंबा सेवाकाल पूरा कर के आज वह सरकारी अनुशासन से मुक्त हो गए थे.

वह 2 बेटियों और 3 बेटों के पिता थे. अपनी सीमित आय में उन्होंने न केवल बच्चों को पढ़ालिखा कर काबिल बनाया बल्कि रिटायर होने से पहले ही उन की शादियां भी कर दी थीं. इन सब जिम्मेदारियों को ढोतेढोते वह खुद भारी बोझ तले दब से गए थे. उन की भविष्यनिधि शून्य हो चुकी थी. विभागीय सहकारी सोसाइटी से बारबार कर्ज लेना पड़ा था. इसलिए उन्होंने अपनी निजी जरूरतों को बहुत सीमित कर लिया था, अकसर पैंटशर्ट की जगह वह मोटे खद्दर का कुरतापजामा पहना करते. आफिस तक 2 किलोमीटर का रास्ता आतेजाते पैदल तय करते. परिचितों में उन की छवि एक कंजूस व्यक्ति की बन गई थी.

बड़ा लड़का बैंक में काम करता था और उस का विवाह साथ में काम करने वाली एक लड़की के साथ हुआ था. मंझला बेटा एफ.सी.आई. में था और उस की भी शादी अच्छे परिवार में हो गई थी. विवाह के बाद ही इन दोनों बेटों को अपना पैतृक घर बहुत छोटा लगने लगा. फिर बारीबारी से दोनों अपनी बीवियों को ले कर न केवल अलग हो गए बल्कि उन्होंने अपना तबादला दूसरे शहरों में करवा लिया था.

शायद वे अपने पिता की गरीबी को अपने कंधों पर ढोने को तैयार न थे. उन्हें अपने पापा से शिकायत थी कि उन्होंने अपने बच्चों को अभावों तथा गरीबी की जिंदगी जीने पर विवश किया पर अब जबकि वह पैरों पर खड़े थे, क्यों न अपने श्रम के फल को स्वयं ही खाएं.

हाथ की पांचों उंगलियां बराबर नहीं होतीं. उन का तीसरा बेटा श्रवण कुमार साबित हुआ और उस की पत्नी ने भी बूढ़े मातापिता के प्रति पति के लगाव को पूरा सम्मान दिया और दोनों तनमन से उन की हर सुखसुविधा उपलब्ध कराने का प्रयास करते रहते थे.

सब से छोटी बहू ने तो उन्हें बेटियों की कमी भी महसूस न होने दी थी. मम्मीपापा कहतेकहते दिन भर उस की जबान थकती न थी. सासससुर की जरा भी तबीयत खराब होती तो वह परेशान हो उठती. सुबह सो कर उठती तो दोनों की चरणधूलि माथे पर लगाती. सीमित साधनों में जहां तक संभव होता, उन्हें अच्छा व पौष्टिक भोजन देने का प्रयास करती.

सुबह जब वह दफ्तर के लिए तैयार होने कमरे में जाते तो उन का साफ- सुथरा कुरता- पजामा, रूमाल, पर्स, चश्मा, कलम ही नहीं बल्कि पालिश किए जूते भी करीने से रखे मिलते और वह गद्गद हो उठते. ढेर सारी दुआएं अपनी छोटी बहू के लिए उन के होंठों पर आ जातीं.

उस दिन को याद कर के तो वह हर बार रोमांचित हो उठते जब वह रोजाना की तरह शाम को दफ्तर से लौटे तो देखा बहूबेटा और पोतापोती सब इस तरह से तैयार थे जैसे किसी शादी में जाना हो. इसी बीच पत्नी किचन से निकली तो उसे देख कर वह और हैरान रह गए. पत्नी ने बहुत सुंदर सूट पहन रखा था और आयु अनुसार बड़े आकर्षक ढंग से बाल संवारे हुए थे. पहली बार उन्होंने पत्नी को हलकी सी लिपस्टिक लगाए भी देखा था.

‘यह टुकरटुकर क्या देख रहे हो? आप का ही घर है,’ पत्नी बोली.

‘पर…यह सब…बात क्या है? किसी शादी में जाना है?’

‘सब बता देंगे, पहले आप तैयार हो जाइए.’

‘पर आखिर जाना कहां है, यह अचानक किस का न्योता आ गया है.’

‘पापा, ज्यादा दूर नहीं जाना है,’ बड़ा मासूम अनुरोध था बहू का, ‘आप झट से मुंहहाथ धो कर यह कपड़े पहन लीजिए. हमें देर हो रही है.’

वह हड़बड़ाए से बाथरूम में घुस गए. बाहर आए तो पहले से तैयार रखे कपड़े पहन लिए. तभी पोतापोती आ गए और अपने बाबा को घसीटते हुए बोले, ‘चलो न दादा, बहुत देर हो रही है…’ और जब कमरे में पहुंचे तो उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ. रंगबिरंगी लडि़यों तथा फूलों से कमरे को सजाया गया था. मेज पर एक बड़ा सुंदर केक सजा हुआ था. दीवार पर चमकदार पेपर काट कर सुंदर ढंग से लिखा गया था, ‘पापा को स्वर्ण जयंती जन्मदिन मुबारक हो.’

वह तो जैसे गूंगे हो गए थे. हठपूर्वक उन से केक कटवाया गया था और सभी ने जोरजोर से तालियां बजाते हुए ‘हैपी बर्थ डे टू यू, हैपी बर्थ डे पापा’ कहा. तभी बहू और बेटा उन्हें एक पैकेट पकड़ाते हुए बोले, ‘जरा इसे खोलिए तो, पापा.’

पैकेट खोला तो बहुत प्यारा सिल्क का कुरता और पजामा उन के हाथों में था.

‘यह हम दोनों की ओर से आप के 50वें जन्मदिन पर छोटा सा उपहार है, पापा,’ उन का गला रुंध गया और आंखें नम हो गईं.

‘खुश रहो, मेरे बच्चो…अपने गरीब बाप से इतना प्यार करते हो. काश, वह दोनों भी…बहू, एक दिन…एक दिन मैं तुम्हें इस प्यार और सेवा के लिए पुरस्कार दूंगा.’

‘आप के आशीर्वाद से बढ़ कर कोई दूसरा पुरस्कार नहीं है, पापा. यह सबकुछ आप का दिया ही तो है…आप जो सारा विष स्वयं पी कर हम लोगों को अमृत पिलाते रहते हैं.’

सेवानिवृत्त हो कर जब वह घर पहुंचे तो पत्नी ने आरती उतार कर स्वागत किया. बहूबेटे, पोतेपोती ने फूलों के हार पहनाए और चरणस्पर्श किए. कुछ साथी घर तक छोड़ने आए थे. कुछ पड़ोसी भी मुबारक देने आ गए थे, उन सब को जलपान कराया गया. बड़े बेटे व बहुएं इस अवसर पर भी नहीं आ पाए. किसी न किसी बहाने न आ पाने की मजबूरी जता कर फोन पर क्षमा याचना कर ली थी उन्होंने.

अतिथियों के जाने के बाद उन्होंने बहूबेटे से कहा था, ‘‘लो भई, अब तक तो हम फिर भी कुछ न कुछ कमा लाते थे, आज से निठल्ले हो गए. फंड तो पहले ही खा चुका था, ग्रेच्युटी में से सोसाइटी ने अपनी रकम काट ली. यह 80 हजार का चेक संभालो, कुछ पेंशन मिलेगी. कुछ न बचा सका तुम लोगों के लिए. अब तो पिंकी और राजू की तरह हम बूढ़ों को भी तुम्हें ही पालना होगा.’

बहू रो दी थी. सुबकते हुए बोली थी, ‘‘बेटी को यों गाली नहीं देते, पापा. यह चेक आज ही मम्मी के खाते में जमा कर दीजिए. आप ने अपनी भूखप्यास कम कर के, मोटा पहन कर, पैदल चल कर, एकएक पैसा बचा कर, बेटेबेटियों को आत्मनिर्भर बनाया है. आप इस घर के देवता हैं, पापा. हमारी पूजा को यों लज्जित न कीजिए.’’

उन्होंने अपनी सुबकती हुई बहू को पहली बार सीने से लगा लिया था और बिना कुछ कहे उस के सिर पर हाथ फेरते रहे थे.

समय अपनी निर्बाध गति से चलता जा रहा था. अचानक एक दिन उन के हृदय की धड़कन के साथ ही जैसे समय रुक गया. घर में कोहराम मच गया. भलेचंगे वह सुबह की सैर को गए थे. लौट कर स्नान आदि कर के कुरसी पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे. बहू चाय का कप तिपाई पर रख गई थी. अचानक उन्होंने बाईं ओर छाती को अपनी मुट्ठी में भींच लिया. उन के चेहरे पर गहरी पीड़ा की लकीरें फैलती गईं और शरीर पसीने से तर हो गया.

उन के कराहने का स्वर सुन कर सभी दौड़े आए थे पर मृत्यु ने डाक्टर को बुलाने तक की मोहलत न दी. देखते ही देखते वह एकदम शांत हो गए थे. यों लगता था जैसे बैठेबैठे सो गए हों पर यह नींद फिर कभी न खुलने वाली नींद थी.

शवयात्रा की तैयारी हो चुकी थी. बाहर रह रहे दोनों बेटों का परिवार, बेटियां व दामाद सभी पहुंच गए थे. बेटियों और छोटी बहू ने रोरो कर बुरा हाल कर लिया था. पत्नी की तो जैसे दुनिया ही वीरान हो गई थी.

शवयात्रा के रवाना होतेहोते लोगों की काफी भीड़ जुट गई थी. बेटे यह देख कर हैरान थे कि इस अंतिम यात्रा में शामिल बहुत से चेहरे ऐसे थे जिन्हें उन्होंने पहले कभी न देखा था. पिता के कोई लंबेचौड़े संपर्क नहीं थे. तब न जाने यह अपरिचित लोग क्यों और कैसे इस शोक में न केवल शामिल होने आए थे बल्कि वे गहरे गम में डूबे हुए दिखाई दे रहे थे.

क्रियाकर्म के बाद दोनों बड़े बेटेबहुएं और बेटियां विदा हो गए. अंतिम रस्मों का सारा व्यय छोटे बेटे ने ही उठाया था, क्योंकि बड़ों का कहना था कि पिता की कमाई तो वही खाता रहा है.

मेहमानों से फुरसत पा कर छोटे बहूबेटे का जीवन धीरेधीरे सामान्य होने लगा. बेटे के आफिस चले जाने के बाद घर में बहू व सास प्राय: उन की बातें ले बैठतीं और रोने लगतीं, फिर एकदूसरे को स्वयं ही सांत्वना देतीं.

कुछ ही दिन बीते थे. रविवार को सभी घर पर थे. किसी ने दरवाजा खटखटाया. बेटे ने द्वार खोला तो एक अधेड़ उम्र के सज्जन को सामने पाया. बेटे ने पहचाना कि पिताजी की शवयात्रा में वह अनजाना व्यक्ति आंसू बहाते हुए चल रहा था.

‘‘आइए, अंकल, अंदर आइए, बैठिए न,’’ बेटे ने विनम्रता से कहा.

‘‘तुम मुझे नहीं जानते बेटा, तुम मुझ जैसे अनेक लोगों को नहीं जानते, जिन के आंसुओं को तुम्हारे पिताजी ने हंसी में बदला, उन की गरीबी दूर की.’’

‘‘मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा, अंकल…आप…’’ बेटा बोला.

‘‘मैं तुम्हें समझाता हूं बेटे. 10 साल पहले की बात है. तुम्हारे पिता दफ्तर जाते हुए कभीकभी मेरे खोखे पर एक कप चाय पीने के लिए रुक जाते थे. मैं एक टूटे खोखे में पुरानी सी केतली में चाय बनाता और वैसे ही कपों में ग्राहक को देता था. मैं खुद भी उतना ही फटेहाल था जितना मेरा खोखा. मेरे ग्राहक गरीब मजदूर होते थे क्योंकि मेरी चाय बाजार में सब से सस्ती थी.

‘‘तुम्हारे पिता जब भी चाय पीते तो कहते, ‘क्या गजब की चाय बनाते हो दोस्त, ऐसी चाय बड़ेबड़े होटलों में भी नहीं मिल सकती, अगर तुम जरा ढंग की दुकान बना लो, साफसुथरे बरतन और कप रखो, ग्राहकों के बैठने का प्रबंध हो तो अच्छेअच्छे लोग लाइन लगा कर तुम्हारे पास चाय पीने आएं.’

‘‘मैं कहता, ‘क्या कंरू बाबूजी, घरपरिवार का रोटीपानी मुश्किल से चलता है. दुकान बनाने की तो सोच ही नहीं सकता.’

‘‘और एक दिन तुम्हारे पिताजी बड़ी प्रसन्न मुद्रा में आए और बोले, ‘लो दोस्त, तुम्हारे लिए एक दुकान मैं ने अगले चौक पर ठीक कर ली है. 3 माह का किराया पेशगी दे दिया है. उस में कुछ फर्नीचर भी लगवा दिया है और क्राकरी, बरतन भी रखवा दिए हैं. रविवार को सुबह 8 बजे मुहूर्त है.’

‘‘मैं उन की बातें सुन कर हक्काबक्का रह गया. उन की कोई बात मेरी समझ में नहीं आई थी तो उन्होंने सीधेसादे शब्दों में मुझे सबकुछ समझा दिया. शायद यह बात आप लोग भी नहीं जानते कि वह अपनी नौकरी के साथसाथ ओवरटाइम कर के कुछ अतिरिक्त धन कमाते थे.

‘‘उन्होंने मुझे बताया कि ओवरटाइम की रकम वह बैंक में जमा कराते रहते थे. मेरी दुर्दशा को देख कर उन्होंने योजना बनाई थी और वह कई दिनों तक मेरे खोखे के आसपास किसी उपयुक्त दुकान की तलाश करते रहे और आखिर उन की तलाश सफल हो गई. वह दुकान को पूरी तरह तैयार करवा कर मुझे बताने आए थे कि अगले रविवार मुझे अपना काम वहां शुरू करना है.

‘‘अगले रविवार को मेरी उस दुकान का मुहूर्त हुआ तो बरबस मेरी आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली. मैं उन के चरणों में झुक गया. मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था कि किन शब्दों में मैं उन का धन्यवाद करूं. उन्होंने तो मेरे जीवन की काया ही पलट दी थी.

‘‘एक दिन मुझे एक बैंक पासबुक पकड़ाते हुए उन्होंने कहा था, ‘मैं ने यह सब तुम्हारे उपकार के लिए नहीं किया. इस में मेरा भी स्वार्थ है. नई दुकान पर तुम्हें जितना भी लाभ होगा, उस का 5 प्रतिशत तुम स्वयं ही मेरे इस खाते में जमा कर दिया करना.

‘‘उन के आशीर्वाद ने ऐसा करिश्मा कर दिखाया कि मेरी दुकान दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करती गई और आज वह दुकान एक शानदार रेस्तरां का रूप ले चुकी है. मैं और मेरा बेटा तो अब उस का प्रबंध ही देखते हैं. आज तक नियमित रूप से मैं लाभ का 5 प्रतिशत इस पासबुक में जमा करा रहा हूं.

‘‘इसी तरह एक बूढ़ा सिर पर फल की टोकरी उठाए गलीगली भटक कर अपनी रोजीरोटी चलाता था. बढ़ती उम्र के साथ उस का शरीर इतना कमजोर हो गया था कि टोकरी का वजन सिर पर उठाना उस के लिए कठिन होने लगा था. एक दिन इसी तरह केलों की टोकरी उठाए जब वह बूढ़ा चिलाचिलाती धूप में घूम रहा था तो संयोग से तुम्हारे पापा पास से गुजरे थे. सहसा बूढ़े को चक्कर आ गया और वह टोकरी समेत गिर गया.

‘‘तुम्हारे पापा उसे सहारा दे कर फौरन एक डाक्टर के पास ले गए और उस का उपचार कराया. उस के बाद उस बूढ़े ने उन्हें बताया कि वह 600 रुपए मासिक पर एक अमीर आदमी के लिए फल की फेरी लगाता है, जिस ने इस तरह के और भी 10-15 लाचार लोगों को इस काम के लिए रखा हुआ है जो गलीगली घूम कर उस का फल बेचते हैं.

‘‘तुम्हारे पिताजी उस बूढ़े की हालत देख कर द्रवित हो उठे और मुझ से बोले, ‘मैं इस बुजुर्ग के लिए कुछ करना चाहता हूं, जरा मेरी पासबुक देना.’

‘‘कुछ ही दिन बाद उन्होंने एक ऐसी रेहड़ी तैयार करवाई जो चलने में बहुत हलकी थी. रेहड़ी उस बूढ़े के हवाले करते हुए उन्होंने कहा था, ‘इस रेहड़ी पर बढि़या और ताजा फल सजा कर निकला करना. आप की रोजीरोटी इस से आसानी से निकल आएगी. काम शुरू करने के लिए यह 10 हजार रुपए रख लो और हां, मैं आप के ऊपर कोई एहसान नहीं कर रहा हूं. अपने काम में आप को जो लाभ हो उस का 5 प्रतिशत श्यामलाल को दे दिया करना, ताकि यह मेरे खाते में जमा करा दे.’

‘‘वह बूढ़ा तो अब इस दुनिया में नहीं है पर उसी रेहड़ी की कमाई से अब उस का बेटा एक बड़ी फल की दुकान का मालिक बन चुका है. वह भी अब तक नियमित रूप से लाभ का 5 प्रतिशत मेरे पास जमा कराता है, जिसे मैं तुम्हारे पिताजी की पासबुक में जमा करता रहता हूं. उस बूढ़े के बाद उन्होंने 7-8 वैसे ही दूसरे फेरी वालों को रेहडि़यां बनवा कर दीं जो अब खुशहाली का जीवन बिता रहे हैं और उन के लाभ का भाग भी इसी पासबुक में जमा हो रहा है.

‘‘इतना ही नहीं, एक नौजवान की बात बताता हूं. एम.ए. पास करने के बाद जब उस को कोई नौकरी न मिली तो उस ने पटरी पर बैठ कर पुस्तकें बेचने का काम शुरू कर दिया. एक बार तुम्हारे पिताजी उस ओर से निकले तो उस पटरी वाली दुकान पर रुक कर पुस्तकों को देखने लगे. यह देख कर उन्हें बहुत दुख हुआ कि उस युवक ने घटिया स्तर की अश्लील पुस्तकें बिक्री के लिए रखी हुई थीं.

‘‘लालाजी ने जब उस युवक से क्षोभ जाहिर किया तो वह लज्जित हो कर बोला, ‘क्या करूं, बाबूजी. साहित्य में एम.ए. कर के भी नौकरी न मिली. घर में मां बिस्तर पर पड़ी मौत से संघर्ष कर रही हैं. 2 बहनें शादी लायक हैं. ऐसे में कुछ न कुछ कमाई का साधन जुटाना जरूरी था. अच्छी पुस्तकें इतनी महंगी हैं कि बेचने के लिए खरीदने की मेरे पास पूंजी नहीं है. ये पुस्तकें काफी सस्ती मिल जाती हैं और लोग किराए पर ले भी जाते हैं. इस तरह कम पूंजी में गुजारे लायक आय हो रही है.’

‘‘‘यदि चाहो तो मैं तुम्हारी कुछ आर्थिक सहायता कर सकता हूं. यदि तुम वादा करो कि इस पूंजी से केवल उच्च स्तर की पुस्तकें ही बेचने के लिए रखोगे, तो मैं 40 हजार रुपए तुम्हें उधार दे सकता हूं, जिसे तुम अपनी सुविधानुसार धीरेधीरे वापस कर सकते हो. मेरा तुम पर कोई एहसान न रहे, इस के लिए तुम मुझे अपने लाभ का 5 प्रतिशत अदा करोगे.’

‘‘शायद तुम्हें यह जान कर आश्चर्य होगा कि तुम्हारे पिताजी द्वारा लगाया गया वह पौधा आज फलफूल कर कैपिटल बुक डिपो के रूप में एक बड़ा वृक्ष बन चुका है और शहर में उच्च स्तर की पुस्तकों का एकमात्र केंद्र बना हुआ है.

‘‘एक बार मैं ने तुम्हारे पिताजी से पूछा था, ‘बाबूजी, बुरा न मानें, तो एक बात पूछूं?’

‘‘वह हंस कर बोले थे, ‘तुम्हारी बात का बुरा क्यों मानूंगा. तुम तो मेरे छोटे भाई हो. कहो, क्या बात है?’

‘‘‘आप ने बीसियों लोगों की जिंदगी को अंधेरे से निकाल कर उजाला दिया है. उन की बेबसी और लाचारी को समाप्त कर के उन्हें स्वावलंबी बनाया है पर आप स्वयं सदा ही अत्यंत सादा जीवन व्यतीत करते रहे हैं. कभी एक भी पैसा आप ने अपनी सुविधा या सुख के लिए व्यय किया हो, मुझे नहीं लगता. आखिर बैंक में जमा यह सब रुपए…’

‘‘और बीच में ही मेरी बात काट दी थी उन्होंने. वह बोले थे, ‘यह सब मेरा नहीं है, श्यामलाल. इस पासबुक में जमा एकएक पैसा मेरे छोटे बेटे और बहू की अमानत है. तुम्हें छोटा भाई कहा है तभी तुम से कहता हूं, मेरे बड़े बेटे और बहुएं अपनेअपने बच्चों को ले कर मेरे बुढ़ापे का सारा बोझ छोटे बेटे पर छोड़ कर दूसरे शहरों में जा बसे हैं और ये मेरे छोटे बच्चे दिनरात मेरे सुख और आराम की चिंता में रहते हैं. बहू ने तो मेरी दोनों बेटियों की कमी पूरी कर दी है. मेरा उस से वादा है श्यामलाल कि मैं उसे एक दिन उस की सेवा का पुरस्कार दूंगा. मेरी बात गांठ बांध लो. जब मैं न रहूं, तब यह पासबुक जा कर मेरी बहू के हाथ में दे देना और उन्हें सारी बात समझा देना. मैं ने अपनी वसीयत भी इस लिफाफे में बंद कर दी है जिस के अनुसार यह सारी पूंजी मैं ने अपनी बहू के नाम कर दी है. यही उस का पुरस्कार है.’’’

बहू की आंखों से गंगाजमुना बह चली थीं. श्यामलाल ने उसे ढाढ़स बंधाते हुए एक लिफाफा और पासबुक उस के हाथों में थमा दिए. बहू रोतेरोते उठ खड़ी हुई और धीरेधीरे चल कर पिता की तसवीर के सामने जा पहुंची और हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई. उस की आंखों से निरंतर आंसू बह रहे थे. उस के मुख से केवल इतना ही निकला, ‘‘पापा…’’

दर्द – भाग- 1 : जिंदगी के उतार चढ़ावों को झेलती कनीजा

कनीजा बी करीब 1 घंटे से परेशान थीं. उन का पोता नदीम बाहर कहीं खेलने चला गया था. उसे 15 मिनट की खेलने की मुहलत दी गई थी, लेकिन अब 1 घंटे से भी ऊपर वक्त गुजर गया था. वह घर आने का नाम ही नहीं ले रहा था.

कनीजा बी को आशंका थी कि वह महल्ले के आवारा बच्चों के साथ खेलने के लिए जरूर कहीं दूर चला गया होगा.

वह नदीम को जीजान से चाहतीं. उन्हें उस का आवारा बच्चों के साथ घर से जाना कतई नहीं सुहाता था.

अत: वह चिंताग्रस्त हो कर भुनभुनाने लगी थीं, ‘‘कितना ही समझाओ, लेकिन ढीठ मानता ही नहीं. लाख बार कहा कि गली के आवारा बच्चों के साथ मत खेला कर, बिगड़ जाएगा, पर उस के कान पर जूं तक नहीं रेंगी. आने दो ढीठ को. इस बार वह मरम्मत करूंगी कि तौबा पुकार उठेगा. 7 साल का होने को आया है, पर जरा अक्ल नहीं आई. कोई दुर्घटना हो सकती है, कोई धोखा हो सकता है…’’

कनीजा बी का भुनभुनाना खत्म हुआ ही था कि नदीम दौड़ता हुआ घर में आ गया और कनीजा की खुशामद करता हुआ बोला, ‘‘दादीजान, कुलफी वाला आया है. कुलफी ले दीजिए न. हम ने बहुत दिनों से कुलफी नहीं खाई. आज हम कुलफी खाएंगे.’’

‘‘इधर आ, तुझे अच्छी तरह कुलफी खिलाती हूं,’’ कहते हुए कनीजा बी नदीम पर अपना गुस्सा उतारने लगीं. उन्होंने उस के गाल पर जोर से 3-4 तमाचे जड़ दिए.

नदीम सुबकसुबक कर रोने लगा. वह रोतेरोते कहता जाता, ‘‘पड़ोस वाली चचीजान सच कहती हैं. आप मेरी सगी दादीजान नहीं हैं, तभी तो मुझे इस बेदर्दी से मारती हैं.

‘‘आप मेरी सगी दादीजान होतीं तो मुझ पर ऐसे हाथ न उठातीं. तब्बो की दादीजान उसे कितना प्यार करती हैं. वह उस की सगी दादीजान हैं न. वह उसे उंगली भी नहीं छुआतीं.

‘‘अब मैं इस घर में नहीं रहूंगा. मैं भी अपने अम्मीअब्बू के पास चला जाऊंगा. दूर…बहुत दूर…फिर मारना किसे मारेंगी. ऊं…ऊं…ऊं…’’ वह और जोरजोर से सुबकसुबक कर रोने लगा.

नदीम की हृदयस्पर्शी बातों से कनीजा बी को लगा, जैसे किसी ने उन के दिल पर नश्तर चला दिया हो. अनायास ही उन की आंखें छलक आईं. वह कुछ क्षणों के लिए कहीं खो गईं. उन की आंखों के सामने उन का अतीत एक चलचित्र की तरह आने लगा.

जब वह 3 साल की मासूम बच्ची थीं, तभी उन के सिर से बाप का साया उठ गया था. सभी रिश्तेदारों ने किनारा कर लिया था. किसी ने भी उन्हें अंग नहीं लगाया था.

मां अनपढ़ थीं और कमाई का कोई साधन नहीं था, लेकिन मां ने कमर कस ली थी. वह मेहनतमजदूरी कर के अपना और अपनी बेटी का पेट पालने लगी थीं. अत: कनीजा बी के बचपन से ले कर जवानी तक के दिन तंगदस्ती में ही गुजरे थे.

तंगदस्ती के बावजूद मां ने कनीजा बी की पढ़ाईलिखाई की ओर खासा ध्यान दिया था. कनीजा बी ने भी अपनी बेवा, बेसहारा मां के सपनों को साकार करने के लिए पूरी लगन व मेहनत से प्रथम श्रेणी में 10वीं पास की थी और यों अपनी तेज बुद्धि का परिचय दिया था.

मैट्रिक पास करते ही कनीजा बी को एक सरकारी दफ्तर में क्लर्क की नौकरी मिल गई थी. अत: जल्दी ही उन के घर की तंगदस्ती खुशहाली में बदलने लगी थी.

कनीजा बी एक सांवलीसलोनी एवं सुशील लड़की थीं. उन की नौकरी लगने के बाद जब उन के घर में खुशहाली आने लगी थी तो लोगों का ध्यान उन की ओर जाने लगा था. देखते ही देखते शादी के पैगाम आने लगे थे.

मुसीबत यह थी कि इतने पैगाम आने के बावजूद, रिश्ता कहीं तय नहीं हो रहा था. ज्यादातर लड़कों के अभिभावकों को कनीजा बी की नौकरी पर आपत्ति थी.

वे यह भूल जाते थे कि कनीजा बी के घर की खुशहाली का राज उन की नौकरी में ही तो छिपा है. उन की एक खास शर्त यह होती कि शादी के बाद नौकरी छोड़नी पड़ेगी, लेकिन कनीजा बी किसी भी कीमत पर लगीलगाई अपनी सरकारी नौकरी छोड़ना नहीं चाहती थीं.

कनीजा बी पिता की असमय मृत्यु से बहुत बड़ा सबक सीख चुकी थीं. अर्थोपार्जन की समस्या ने उन की मां को कम परेशान नहीं किया था. रूखेसूखे में ही बचपन से जवानी तक के दिन बीते थे. अत: वह नौकरी छोड़ कर किसी किस्म का जोखिम मोल नहीं लेना चाहती थीं.

कनीजा बी का खयाल था कि अगर शादी के बाद उन के पति को कुछ हो गया तो उन की नौकरी एक बहुत बड़े सहारे के रूप में काम आ सकती थी.

वैसे भी पतिपत्नी दोनों के द्वारा अर्थोपार्जन से घर की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो सकती थी, जिंदगी मजे में गुजर सकती थी.

देखते ही देखते 4-5 साल का अरसा गुजर गया था और कनीजा बी की शादी की बात कहीं पक्की नहीं हो सकी थी. उन की उम्र भी दिनोदिन बढ़ती जा रही थी. अत: शादी की बात को ले कर मांबेटी परेशान रहने लगी थीं.

एक दिन पड़ोस के ही प्यारे मियां आए थे. वह उसी शहर के दूसरे महल्ले के रशीद का रिश्ता कनीजा बी के लिए लाए थे. उन के साथ एक महिला?भी थीं, जो स्वयं को रशीद की?भाभी बताती थीं.

रशीद एक छोटे से निजी प्रतिष्ठान में लेखाकार था और खातेपीते घर का था. कनीजा बी की नौकरी पर उसे कोई आपत्ति नहीं थी.

महल्लेपड़ोस वालों ने कनीजा बी की मां पर दबाव डाला था कि उस रिश्ते को हाथ से न जाने दें क्योंकि रिश्ता अच्छा है. वैसे भी लड़कियों के लिए अच्छे रिश्ते मुश्किल से आते हैं. फिर यह रिश्ता तो प्यारे मियां ले कर आए थे.

कनीजा बी की मां ने महल्लेपड़ोस के बुजुर्गों की सलाह मान कर कनीजा बी के लिए रशीद से रिश्ते की हामी भर दी थी.

कनीजा बी अपनी शादी की खबर सुन कर मारे खुशी के झूम उठी थीं. वह दिनरात अपने सुखी गृहस्थ जीवन की कल्पना करती रहती थीं.

और एक दिन वह घड़ी भी आ गई, जब कनीजा बी की शादी रशीद के साथ हो गई और वह मायके से विदा हो गईं. लेकिन ससुराल पहुंचते ही इस बात ने उन के होश उड़ा दिए कि जो महिला स्वयं को रशीद की भाभी बता रही थी, वह वास्तव में रशीद की पहली बीवी थी.

असलियत सामने आते ही कनीजा बी का सिर चकराने लगा. उन्हें लगा कि उन के साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ है और उन्हें फंसाया गया है. प्यारे मियां ने उन के साथ बहुत बड़ा विश्वासघात किया था. वह मन ही मन तड़प कर रह गईं.

लेकिन जल्दी ही रशीद ने कनीजा बी के समक्ष वस्तुस्थिति स्पष्ट कर दी, ‘‘बेगम, दरअसल बात यह थी कि शादी के 7 साल बाद भी जब हलीमा बी मुझे कोई औलाद नहीं दे सकी तो मैं औलाद के लिए तरसने लगा.

‘हम दोनों पतिपत्नी ने किसकिस डाक्टर से इलाज नहीं कराया, क्याक्या कोशिशें नहीं कीं, लेकिन नतीजा शून्य रहा. आखिर, हलीमा बी मुझ पर जोर देने लगी कि मैं दूसरी शादी कर लूं. औलाद और मेरी खुशी की खातिर उस ने घर में सौत लाना मंजूर कर लिया. बड़ी ही अनिच्छा से मुझे संतान सुख की खातिर दूसरी शादी का निर्णय लेना पड़ा.

‘मैं अपनी तनख्वाह में 2 बीवियों का बोझ उठाने के काबिल नहीं था. अत: दूसरी बीवी का चुनाव करते वक्त मैं इस बात पर जोर दे रहा था कि अगर वह नौकरी वाली हो तो बात बन सकती है. जब हमें, प्यारे मियां के जरिए तुम्हारा पता चला तो बात बनाने के लिए इस सचाई को छिपाना पड़ा कि मैं शादीशुदा हूं.

‘मैं झूठ नहीं बोलता. मैं संतान सुख की प्राप्ति की उत्कट इच्छा में इतना अंधा हो चुका था कि मुझे तुम लोगों से अपने विवाहित होने की सचाई छिपाने में कोई संकोच नहीं हुआ.

‘मैं अब महसूस कर रहा हूं कि यह अच्छा नहीं हुआ. सचाई तुम्हें पहले ही बता देनी चाहिए थी. लेकिन अब जो हो गया, सो हो गया.

‘वैसे देखा जाए तो एक तरह से मैं तुम्हारा गुनाहगार हुआ. बेगम, मेरे इस गुनाह को बख्श दो. मेरी तुम से गुजारिश है.’

कनीजा बी ने बहुत सोचविचार के बाद परिस्थिति से समझौता करना ही उचित समझा था, और वह अपनी गृहस्थी के प्रति समर्पित होती चली गई थीं.

कनीजा बी की शादी के बाद डेढ़ साल का अरसा गुजर गया था, लेकिन उन के भी मां बनने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे थे. उस के विपरीत हलीमा बी में ही मां बनने के लक्षण दिखाई दे रहे थे. डाक्टरी परीक्षण से भी यह बात निश्चित हो गई थी कि हलीमा बी सचमुच मां बनने वाली हैं.

हलीमा बी के दिन पूरे होते ही प्रसव पीड़ा शुरू हो गई, लेकिन बच्चा था कि बाहर आने का नाम ही नहीं ले रहा था. आखिर, आपरेशन द्वारा हलीमा बी के बेटे का जन्म हुआ. लेकिन हलीमा बी की हालत नाजुक हो गई. डाक्टरों की लाख कोशिशों के बावजूद वह बच नहीं सकी.

हलीमा बी की अकाल मौत से उस के बेटे गनी के लालनपालन की संपूर्ण जिम्मेदारी कनीजा बी पर आन पड़ी. अपनी कोख से बच्चा जने बगैर ही मातृत्व का बोझ ढोने के लिए कनीजा बी को विवश हो जाना पड़ा. उन्होंने उस जिम्मेदारी से दूर भागना उचित नहीं समझा. आखिर, गनी उन के पति की ही औलाद था.

रशीद इस बात का हमेशा खयाल रखा करता था कि उस के व्यवहार से कनीजा बी को किसी किस्म का दुख या तकलीफ न पहुंचे, वह हमेशा खुश रहें, गनी को मां का प्यार देती रहें और उसे किसी किस्म की कमी महसूस न होने दें.

तभी तो कह रही हूं

लड़कियों की मकान मालकिन कम वार्डेन नीलिमा ने रोज की तरह दरवाजे पर ताला लगा दिया और बोलीं, ‘‘लड़कियो, मैं बाहर की लाइट बंद कर रही हूं. अपनेअपने कमरे अंदर से ठीक से बंद कर लो.’’

एक नियमित दिनचर्या है यह. इस में जरा भी दाएंबाएं नहीं होता. जैसे सूरज उगता और ढलता है ठीक उसी तरह रात 10 बजते ही दालान में नीलिमा की यह घोषणा गूंजा करती है.

उन का मकान छोटामोटा गर्ल्स होस्टल ही है. दिल्ली या उस जैसे महानगरों में कइयों ने अपने घरों को ही थोड़ीबहुत रद्दबदल कर छात्रावास में तबदील कर दिया है. दूरदराज के गांवों, कसबों और शहरों से लड़कियां कोई न कोई कोर्स करने महानगरों में आती रहती हैं और कोर्स पूरा होने के साथ ही होस्टल छोड़ देती हैं. इस में मकान कब्जाने का भी कोई अंदेशा नहीं रहता.

15 साल पहले नीलिमा ने अपने मकान का एक हिस्सा पढ़ने आई लड़कियों को किराए पर देना शुरू किया था. उस काम में आमदनी होने के साथसाथ उन के मकान ने अब कुछकुछ गर्ल्स होस्टल का रूप ले लिया है. आय होने से नीलिमा का स्वास्थ्य और आत्मविश्वास तो अवश्य सुधरा लेकिन बाकी रहनसहन में ठहराव ही रहा. हां, उन की बेटी के शौक जरूर बढ़ते गए. अब तो पैसा जैसे उस के सिर चढ़कर बोल रहा है. घर में ही हमउम्र लड़कियां हैंपर वह तो जैसे किसी को पहचानती ही नहीं.

सुरेखा और मीना एम.एससी. गृह विज्ञान के फाइनल में हैं. पिछले साल जब वे रांची से आई थीं तो विचलित सी रहती थीं. जानपहचान वालों ने उन्हें नीलिमा तक पहुंचाया.

‘‘1,500 रुपए एक कमरे का…एक कमरे को 2 लड़कियां शेयर करेंगी…’’ नीलिमा की व्यावसायिकता में क्या मजाल जो कोई उंगली उठा दे.

‘‘ठीक है,’’ सुरेखा और मीना के पिताजी ने राहत की सांस ली कि किसी अनजान लड़की से शेयर नहीं करना पड़ेगा.

‘‘खाने का इंतजाम अपना होगा. वैसे यहां टिफिन सिस्टम भी है. कोई दिक्कत नहीं है,’’ नीलिमा बताती जाती हैं.

सबकुछ ठीकठाक लगा. अब तो वे दोनों अभ्यस्त हो गई हैं. गर्ल्स होस्टल की जितनी हिदायतें और वर्जनाएं होती हैं, सब की वे आदी हो चुकी हैं.

‘‘नो बौयफ्रेंड एलाउड,’’ यह नीलिमा की सब से अलार्मिंग चेतावनी है.

सुरेखा और मीना के बगल के कमरे में देहरादून से आई दामिनी और अर्चना हैं. दोनों ग्रेजुएशन कर रही हैं. इंगलिश आनर्स कहते उन के चेहरे पर ऐसे भाव आते हैं जैसे इंगलैंड से सीधे आई हैं और सारा अंगरेजी साहित्य इन के पेट में हो.

दोनों कमरों के बीच में एक छोटा सा कमरा है जिस में एक गैस का चूल्हा, फिल्टर, फ्रिज और रसोई का छोटामोटा सामान रखा है. बस, यही वह स्थान है जहां देहरादूनी लड़कियां मात खा जाती हैं.

सुरेखा नंबर एक कुक है. जबतब प्रस्ताव रख देती है, ‘‘चाइनीज सूप पीना हो तो 20-20 रुपए जमा करो.’’

दामिनी और अर्चना बिके हुए गुलामों की तरह रुपए थमा देतीं. निर्देशों पर नाचतीं. सुरेखा अब सुरेखा दीदी बन गई है. अच्छाखासा रुतबा हो गया है. अकसर पूछ लिया करती है, ‘‘कहां रही इतनी देर तक. आंटी नाराज हो रही थीं.’’

‘‘आंटी का क्या, हर समय टोकाटाकी. अपनी बेटी तो जैसे दिखाई ही नहीं देती,’’ दामिनी भुनभुनाती.

ऊपर की मंजिल में भी कमरे हैं. वहां भी हर कमरे में 2-2 लड़कियां हैं. उन की अपनी दुनिया है पर आंटी की आवाज होस्टल के हर कोने में गूंजा करती है.

आज छुट्टी है. लड़कियां देर तक सोएंगी. जवानी की नींद जो है. नीलिमा एक बार झांक गई हैं.

‘‘ये लड़कियां क्या घोड़े बेच कर सो रही हैं,’’ बड़बड़ाती हुई नीलिमा सुरेखा के कमरे के पास से गुजरीं.

सुरेखा की नींद खुल गई. उसे उन की यह बेचैनी अच्छी लगी.

‘‘अपनी बेटी को उठा कर देखें ये… बस, यहीं घूमती रहती हैं,’’ सुरेखा ढीठ हो लेटी रही. जैसे ऐसा कर के ही वह नीलिमा को कुछ जवाब दे पा रही हो.

उधर होस्टल गुलजार होने लगा. गुसलखाने के लिए चिल्लपौं मची. फिर सबकुछ ठहर गया. कुछ कार्यक्रम बने. मीना की चचेरी बहन लक्ष्मीनगर में रहती है. वहीं लंच का कार्यक्रम था इसलिए सुरेखा और मीना भी चली गईं.

एकाएक दामिनी ने चमक कर अर्चना से कहा, ‘‘चल, बाहर से फोन करते हैं. अरविंद को बुला लेंगे. फिल्म देखने जाएंगे.’’

‘‘अरविंद को बुलाने की क्या जरूरत.’’

‘‘लेकिन अब कौन सा शो देखा जाएगा. 6 से 9 के ही टिकट मिल सकते हैं,’’ अर्चना ने घड़ी देखते हुए कहा.

‘‘तो क्या हुआ?’’ दामिनी लापरवाही से बोली.

‘‘नहीं पागल, आंटी नाराज होंगी…. लौटने में समय लग जाएगा.’’

‘‘ये आंटी बस हम पर ही गुर्राती हैं. अपनी बेटी के लक्षण इन को नहीं दिखते. रोज एक गाड़ी आ कर दरवाजे पर रुकती है… आंटी ही कौन सा दूध की धुली हैं… बड़ी रंगीन जिंदगी रही है इन की.’’

अर्चना, दामिनी और अरविंद ‘दिल से’ फिल्म देखने हाल में जा बैठे. खूब बातें हुईं. अरविंद दामिनी की ओर झुकता जाता. सांसें टकरातीं. शो खत्म हुआ.

कालिज तक अरविंद दोनों को छोड़ने आया था. वहां से दोनों टहलती हुई होस्टल के गेट तक आ गईं. गेट खोलने को हलका धक्का दिया. चूं…चूं… की आवाज हुई.

‘‘तैयार हो जाओ डांट खाने के लिए,’’ अर्चना ने फुसफुसा कर कहा.

‘‘ऊंह, क्या फर्क पड़ता है.’’

गेट खुलते ही सामने नीलिमा घूमते हुए दिखीं. सकपका गईं दोनों लड़कियां.

‘‘आंटी, नमस्ते,’’ दोनों एकसाथ बोलीं.

‘‘कहां गई थीं?’’

‘‘बहुत मन कर रहा था, ‘दिल से’ देखने का,’’ अर्चना ने मिमियाती सी आवाज में कहा.

‘‘यही शो मिला था फिल्म देखने को?’’

‘‘आंटी, प्रोग्राम देर से बना,’’ दामिनी ने बात संभालने की कोशिश की.

‘‘मैं कुछ नहीं जानती. होस्टल का डिसीपिलिन बिगाड़ती हो. आज ही तुम्हारे घर पत्र डालती हूं,’’ नीलिमा यह कहती हुई अपने कमरे की ओर चली गईं.

दामिनी कमरे में आते ही धम से बिस्तर में धंस गई और अर्चना गुसलखाने में चली गई.

‘‘कुछ खानावाना भी है या अरविंद के सपनों में ही रहेगी,’’ अर्चना ने दामिनी को वैसे ही पड़ी देख कर पूछा.

दामिनी वैसे ही मेज पर आ गई. राजमा, भिंडी की सब्जी और चपातियां. दोनों ने कुछ कौर गले के नीचे उतारे. पानी पिया.

‘हेमलेट’ के नोट्स ले कर अर्चना दिन गंवाने का अपराधबोध कुछ कम करने का प्रयास करने लगी. उसे पढ़ता देख दामिनी भी रैक में कुछ टटोलने लगी. सभी के कमरों की लाइट जल रही है.

‘‘जाऊंगी, सौ बार कहती हूं मैं जाऊंगी,’’ आंटी के कमरे की ओर से आती आवाज सन्नाटे को चीरने लगी.

बीचबीच में ऐसा कुछ होता रहता है. इस की भनक सभी लड़कियों को है. आज संवाद एकदम स्पष्ट है.

बेटी की आवाज ऊंची होते देख आंटी को जैसे सांप सूंघ गया. वह खामोश हो गईं. बेटी भी कुछ बड़बड़ा कर चुप हो गई.

सुबह रात्रि के विषाद की छाया आंटी के चेहरे पर साफ झलक रही है. नियमत: वह होस्टल की तरफ आईं पर बिना कुछ कहेसुने ही चली गईं.

फाइनल परीक्षा अब निकट ही है. सुरेखा और मीना प्रेक्टिकल के बोझ से दबी रहती हैं. देहरादूनी लड़कियों को उन्हें देख कर ही पता चला कि गृहविज्ञान कोई मामूली विषय नहीं है. उस पर इस विषय के कई अभ्यास देखे तो आंखें खुल गईं. विषय के साथसाथ सुरेखा और मीना भी महत्त्वपूर्ण हो गईं.

आजकल दामिनी भी सैरसपाटा भूल गई है पर दिल के हाथों मजबूर दामिनी बीचबीच में अरविंद के साथ प्रोग्राम बना लेती है. पिछले दिनों उस के बर्थ डे पर अरविंद एंड पार्टी ने उसे सरप्राइज पार्टी दी. बड़े स्टाइल से उन्हें बुलाया. वहां जा कर दोनों चकरा गईं. सुनहरी पन्नियों की बौछार, हैपी बर्थ डे…हैपी बर्थ डे की गुंजार.

रात के 11 बज रहे हैं. दामिनी और अर्चना ‘शेक्सपियर इज ए ड्रामाटिस्ट’ पर नोट्स तैयार कर रही हैं. दोनों के हाथ तेजी से चल रहे हैं. बगल के कमरे से छन कर आती रोशनी बता रही है कि सुरेखा और मीना भी पढ़ रही होंगी. यहां पढ़ने के लिए रात ही अधिक उपयुक्त है. एकदम सन्नाटा रहता है और एकदूसरे के कमरे की दिखती लाइट एक प्रतिद्वंद्विता उत्पन्न करती है.

बाहर से कुछ बातचीत की आवाज आ रही है. आंटी की बेटी आई होगी. धीरेधीरे सब की श्रवण शक्ति बाहर चली गई. पदचाप…खड़…एक असहज सन्नाटा.

‘‘…अब आ रही है?’’ आंटी तेज आवाज में बोलीं, ‘‘फिर उस के साथ गई थी. मैं ने तुझे लाख बार समझाया है पर क्या तेरा भेजा फिर गया है?’’

‘‘आप मेरी लाइफ स्टाइल में इंटरफेयर क्यों करती हैं? ये मेरी लाइफ है. मैं चाहे जिस तरह जिऊं.’’

‘‘तू जिसे अपना लाइफ स्टाइल कह रही है वह एक मृगतृष्णा है, जहां सिर्फ तुझे भटकाव ही मिलेगा. तू मेरी औलाद है और मैं ने दुनिया देखी है इसलिए तुझे समझा रही हूं. तू समझ नहीं रही है…’’

‘‘मैं कुछ नहीं समझना चाहती. और आप समझा रही हैं…मेरा मुंह आप मत खुलवाओ. पापा से आप की दूसरी शादी…. पता नहीं पहले वाली शादी थी भी या…’’

‘‘चुप, बेशर्म, खबरदार जो अब आगे एक शब्द भी बोला,’’ आज नीलिमा अप्रत्याशित रूप से बिफर गईं.

‘‘चुप रहने से क्या सचाई बदल जाएगी?’’

‘‘तू क्या सचाई जानती है? पिता का साया नहीं था. 6 भाईबहनों के परिवार में मैं एकमात्र कमाने वाली थी. तब का जमाना भी बिलकुल अलग था. लड़कियां दिन में भी घर से बाहर नहीं निकलती थीं और मैं रात की शिफ्ट में काम करती थी. कुछ मजबूर थी, कुछ मैं नादान… यह दुनिया बड़ी खौफनाक है बेटी, तभी तो कह रही हूं…’’

नीलिमा रो रही हैं. वे हताश हो रही हैं. उन की व्यथा को सब लड़कियों ने जाना, समझा. सब ने फिर एकदूसरे को देखा किंतु आज वे मुसकराईं नहीं.

सरोजिनी नौटियाल

क्यों दूर चले गए: भाग 1

परिस्थितियां कभीकभी इनसान को इतना विवश कर देती हैं कि वह चाह कर भी कुछ नहीं कर पाता. सामाजिक मान्यताएं, संस्कार और परंपराएं व्यक्ति को अपने मकड़जाल में उलझाए रखती हैं. ऐसे में या तो वह विद्रोह कर के सब का कोपभाजन बने या फिर परिस्थितियों से समझौता कर के खुद को नियति के हाल पर छोड़ दे. किंतु यह जरूरी नहीं कि वह सुखी रह सके.

मैं भी जीवन के एक ऐसे दोराहे पर उस मकड़जाल में फंस गया कि जिस से निकलना शायद मेरे लिए संभव नहीं था. कोई मेरी मजबूरी नहीं समझना चाहता था. बस, अपनाअपना स्वार्थ भरा आदेश और निर्णय वे थोपते रहे और मैं अपने ही दिल के हाथों मजबूरी का पर्याय बन चुका था.

मैं जानता हूं कि पिछले कई दिनों से खुशी मेरे फोन का इंतजार कर रही थी. उस ने कई बार मेरा फैसला सुनने के लिए फोन भी किया था मगर मेरे पास वह साहस नहीं था कि उस का फोन उठा सकूं. वैसे हमारे बीच कोई अनबन नहीं थी और न ही कोई मतभेद था फिर भी मैं उस का फोन सुनने का साहस नहीं जुटा सका.

मैं ने कई बार यह कोशिश की कि खुशी को फोन पर सबकुछ साफसाफ बता दूं पर मेरा फोन पर हाथ जातेजाते रुक जाता और दिल तेजी से धड़कने लगता. मैं घबरा कर फोन रख देता.

खुशी मेरी प्रेमिका थी, मेरी जान थी, मेरी मंजिल थी. थोडे़ में कहूं तो वह मेरी सबकुछ थी. पिछले 4 सालों में हमारे बीच संबंध इतने गहरे बनते चले गए कि हम ने एकदूसरे की जिंदगी में आने का फैसला कर लिया था और आज जो समाचार मैं उसे देने जा रहा था वह किसी भी तरह से मनोनुकूल नहीं था. न मेरे लिए, न उस के लिए. फिर भी उसे बताना तो था ही.

मैं आफिस में बैठा घड़ी की तरफ देख रहा था. जैसे ही 2 बजेंगे वह फिर फोन करेगी क्योंकि इसी समय हम दोनों बातें किया करते थे. मैं भी अपने काम से फ्री हो जाता और वह भी. बाकी आफिस के लोग लंच में व्यस्त हो जाते.

मैं ने हिम्मत जुटा कर फोन किया, ‘‘खुशी.’’

‘‘अरे, कहां हो तुम? इतने दिन हो गए, न कोई फोन न कोई एसएमएस. मैं ने तुम्हें कितने फोेन किए, क्या बात है सब ठीक तो है न?’’

‘‘हां, ठीक ही है. बस, तुम से मिलना चाहता हूं,’’ मैं ने बडे़ अनमने मन से कहा.

‘‘क्या बात है, तुम ऐसे क्यों बोल रहे हो? न डार्लिंग कहा, न जानू बोले. बस, सीधेसीधे औपचारिकता निभाने लग गए. घर पर कोई बात हुई है क्या?’’

‘‘हां, हुई तो थी पर फोन पर नहीं बता सकता. तुम मिलो तो सारी बात बताऊंगा.’’

‘‘देखो, कुछ ऐसीवैसी बात मत बताना. मैं सह नहीं पाऊंगी,’’ वह एकदम घबरा कर बोली, ‘‘डार्लिंग, आई लव यू. मैं तुम्हारे बिना नहीं रह पाऊंगी.’’

‘‘आई लव यू टू, पर खुशी, लगता है हम इस जन्म में नहीं मिल पाएंगे.’’

 

विरासत: आकर्षण को मिला विरासत का तोहफा

 

‘‘दादाजी, आप का पाकिस्तान से फोन है,’’ आश्चर्य भरे स्वर में आकर्षण ने अपने दादा नंद शर्मा से कहा.

‘‘पाकिस्तान से, पर अब तो हमारा वहां कोई नहीं है. फिर अचानक…फोन,’’ नंद शर्मा ने तुरंत फोन पकड़ा.

दूसरी ओर से आवाज आई, ‘‘अस्सलामअलैकुम, मैं पाकिस्तान, जडांवाला से जहीर अहमद बोल रहा हूं. मैं ने आप का साक्षात्कार यहां के अखबार में पढ़ा था. मुझे यह जान कर बहुत खुशी हुई कि मेरे शहर जड़ांवाला के रहने वाले एक नागरिक ने हिंदुस्तान में खूब तरक्की पाई है. मैं ने यह भी पढ़ा है कि आप के मन में अपनी जन्मभूमि को देखने की बड़ी तमन्ना है. मैं आप के लिए कुछ उपहार भेज रहा हूं जो चंद दिनों में आप को मिल जाएगा, शेष बातें मैं ने पत्र में लिख दी हैं जो मेरे उपहार के साथ आप को मिल जाएगा.’’

फोन पर जहीर की बातें सुन कर नंद शर्मा भावुक हो उठे. फिर बोले, ‘‘भाई, आज बरसों बाद मैं ने अपने जन्मस्थान से किसी की आवाज सुनी है. आज आप से बात कर के 55 साल पहले का बीता समय आंखों के आगे घूम रहा है. मैं क्या कहूं, कुछ समझ में नहीं आ रहा है. बस, आप की समृद्धि और उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूं.’’

इतना कहतेकहते नंद शर्मा की आंखें डबडबा गईं. वह आगे कुछ न कह सके और फोन रख दिया.

14 साल का आकर्षण अपने दादाजी के पास ही खड़ा था. उस ने दादाजी को इतना भावुक होते कभी नहीं देखा था.

कुछ समय तक नंद शर्मा की आंखें नम रहीं. उन्हें ऐसा लगा था मानो वह वहां केवल शरीर से मौजूद थे, उन का मन 55 साल पहले के जड़ांवाला में था.

आकर्षण कुछ देर वहां बैठा और उन के सामान्य होने का इंतजार करता रहा. फिर बोला, ‘‘दादाजी, आप को अपने पुराने घर की याद आ रही है?’’

‘‘हां बेटा, बंटवारे के समय मैं 17 साल का था. आज भी मुझे वह दिन याद है जब जड़ांवाला में कत्लेआम शुरू हुआ और दंगाइयों ने चुनचुन कर हिंदुओं को गाजरमूली की तरह काटा था. हमारे पड़ोसी मुसलमान परिवार ने हमें शरण दी और फिर मौका पा कर एकएक कर के मेरे परिवार के लोगों को सेना के पास पहुंचा दिया था. मेरे परिवार में केवल मैं ही पाकिस्तान में बचा था. मैं भी मौका देख कर निकलने की ताक में था कि किसी ने दंगाइयों को खबर कर दी कि नंद शर्मा को उस के पड़ोसियों ने पनाह दे रखी है.

‘‘खबर पा कर दंगाई पागलों की तरह उस घर की ओर झपटे. इस से पहले कि वे मेरी ओर पहुंच पाते मुझे छत के रास्ते से उन्होंने भगा दिया.

‘‘मैं एक छत से दूसरी छत को फांदता हुआ जैसे ही सड़क पर पहुंचा कि तभी सेना का ट्रक आ गया और सेना को देख कर दंगाई भाग खड़े हुए. फिर उसी ट्रक से सेना ने मुझे अमृतसर के लिए रवाना कर दिया.

‘‘उस वक्त तक मैं यही समझता था कि यह अशांति कुछ समय की है… धीरधीरे सब ठीक हो जाएगा, मैं फिर अपने परिवार के साथ वापस जड़ांवाला जा पाऊंगा पर यह मेरा भ्रम था. पिछले 55 सालों में कभी ऐसा मौका नहीं आया. मेरा शहर, मेरी जन्मभूमि, मेरी विरासत हमेशा के लिए मुझ से छीन ली गई.’’

इतना कह कर नंद शर्मा खामोश हो गए. आकर्षण का मन अभी और भी बहुत कुछ जानने को इच्छुक था पर उस समय दादा को परेशान करना उचित नहीं समझा.

नंद शर्मा हरियाणा के अंबाला शहर में एक प्रतिष्ठित पत्रकार थे. उन की गिनती वहां के वरिष्ठ पत्रकारों में होती थी. कुछ समय पहले हरियाणा के मुख्यमंत्री ने एक पत्रकार सम्मेलन में उन्हें सम्मानित किया था. उस सम्मेलन में पाकिस्तान से भी पत्रकारों का प्रतिनिधिमंडल आया हुआ था. उस समारोह में नंद शर्मा ने इस बात का जिक्र किया था कि वह विभाजन के बाद जड़ांवाला से भारत कैसे आए थे और साथ ही वहां से जुड़ी यादों को भी ताजा किया.

समारोह समाप्त होने के बाद एक पाकिस्तानी पत्रकार ने उन का साक्षात्कार लिया और पाकिस्तान आ कर अपने अखबार में उसे छाप भी दिया. वह साक्षात्कार जड़ांवाला के वकील जहीर अहमद ने पढ़ा तो उन्हें यह जान कर बहुत दुख हुआ कि कोई व्यक्ति इस कदर अपनी जन्मभूमि को देखने के लिए तड़प रहा है.

जहीर एक नेकदिल इनसान था. उस ने नंद शर्मा के लिए फौरन कुछ करने का फैसला लिया और समाचारपत्र में प्रकाशित नंबर पर उन से संपर्क किया.

नंद शर्मा एक भरेपूरे परिवार के मुखिया थे. उन के 4 बेटे और 1 बेटी थी. सभी विवाहित और बालबच्चों वाले थे. आज के इस भौतिकवादी युग में भी सभी मिलजुल कर एक ही छत के नीचे रहते थे.

आकर्षण ने जब सब को पाकिस्तान से आए फोन के  बारे में बताया तो सब विस्मित रह गए. फिर नंद शर्मा के बड़े बेटे मोहन शर्मा ने पिता के पास जा कर कहा, ‘‘बाबूजी, यदि आप कहें तो हम सब जड़ांवाला जा सकते हैं और अब तो बस सेवा भी शुरू हो चुकी है. इसी बहाने हम भी अपने पुरखों की जमीन को देख आएंगे.’’

‘‘मन तो मेरा भी करता है कि एक बार जड़ांवाला देख आऊं पर देखो कब जाना होता है,’’ इतना कह कर नंद शर्मा खामोश हो गए.

एक दिन नंद शर्मा के नाम एक पार्सल आया. वह पार्सल देखते ही आकर्षण जोर से चिल्लाया, ‘‘दादाजी, आप के लिए पाकिस्तान से पार्सल आया है,’’ और इसी के साथ परिवार के सारे सदस्य उसे देखने के लिए जमा हो गए.

नंद शर्मा आंगन में कुरसी डाल कर बैठ गए. आकर्षण ने उस पैकेट को खोला. उस में 100 से भी अधिक तसवीरें थीं. हर तसवीर के पीछे उर्दू में उस का पूरा विवरण लिखा हुआ था.

नंद शर्मा के चेहरे पर उमड़ते खुशी के भावों को आसानी से पढ़ा जा सकता था. उन्होंने ही नहीं, उन का पूरा परिवार उन तसवीरों को देख कर भावविभोर हो उठा.

एक तसवीर उठाते हुए नंद शर्मा ने कहा, ‘‘यह देखो, हमारा घर, हमारी पुश्तैनी हवेली और यहां अब बैंक आफ पाकिस्तान बन गया है.’’

नंद शर्मा के पोतेपोतियां बहुत हैरान हो उन तसवीरों को देख रहे थे. उन के छोटे पोते मानू और शानू बोले, ‘‘दादाजी, क्या इन में आप का स्कूल भी है?’’

‘‘हां बेटा, अभी दिखाता हूं,’’ कह कर उन्होंने तसवीरों को उलटापलटा तो उन्हें स्कूल की तसवीर नजर आई. अपने स्कूल की तसवीर देख कर उन का चेहरा खिल उठा और वह खुशी से चिल्ला उठे, ‘‘यह देखो बच्चों, मेरा स्कूल और यह रही मेरी कक्षा. यहां मैं टाट पर बैठ कर बच्चों के साथ पढ़ता था.’’

धीरेधीरे जड़ांवाला के बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन, खेल के मैदान, सिनेमाघर, वहां की गलियां, पड़ोसियों के घर, गोलगप्पे, चाट वालों की दुकान और वहां की छोटी से छोटी जानकारी भी तसवीरों के माध्यम से सामने आने लगी. अंत में एक छोटी सी कपड़े की थैली को खोला गया. उस में कुछ मिट्टी थी और साथ में एक छोटा सा पत्र था. पत्र जहीर अहमद का था जिस में उस ने लिखा था :

‘नमस्ते, आज यह तसवीरें आप के पास पहुंचाते हुए मुझे बहुत खुशी हो रही है. आप भी सोचते होंगे कि मुझे क्या जरूरत पड़ी थी यह सब करने की. भाईजान, मेरे वालिद बंटवारे से पहले पंजाब के बटाला शहर में रहते थे. अपने जीतेजी वह कभी अपने शहर वापस न आ सके. उन के मन में यह आरजू ही रह गई कि वह अपनी जन्मभूमि को एक बार देख सकें. इसलिए जब मैं ने आप के बारे में पढ़ा तो फैसला किया कि आप की खुशी के लिए जो बन पड़ेगा, जरूर करूंगा.

‘भाईजान, इस पोटली में आप के पुश्तैनी मकान की मिट्टी है जो मेरे खयाल से आप के लिए बहुत कीमती होगी. इस के साथ ही मैं अपने परिवार की ओर से भी आप को पाकिस्तान आने की दावत देता हूं. आप जब चाहें यहां तशरीफ ला सकते हैं. आप अपने बच्चों, पोतेपोतियों के साथ यहां आएं. हम आप की खातिरदारी में कोई कमी नहीं रखेंगे.

‘आप का, जहीर अहमद.’

पत्र पढ़तेपढ़ते नंद शर्मा भावुक हो उठे. उन्होंने फौरन घर की पुश्तैनी मिट्टी को अपने माथे से लगाया और अपने पोते आकर्षण को बुला कर उस मिट्टी से सब के माथे पर तिलक करने को कहा.

‘‘दादाजी, पाकिस्तानी तो बहुत अच्छे हैं,’’ आकर्षण बोला, ‘‘फिर क्यों हम उस देश को नफरत की दृष्टि से देखते हैं. आज जहीर अहमद के कारण ही घरबैठे आप को अपनी विरासत के दर्शन हुए हैं.’’

‘‘ठीक कहते हो बेटा,’’ नंद शर्मा बोले, ‘‘घृणा और नफरत की दीवार तो चंद नेताओं और संकीर्ण विचारधारा वाले तथाकथित लोगों ने बनाई है. आम हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी के दिलों में कोई मैल नहीं है. आज अगर मैं तुम्हारे सामने जिंदा हूं तो अपने उस मुसलिम पड़ोसी परिवार के कारण जिन्होंने समय रहते मुझे व मेरे परिवार को वहां से बाहर निकाला.’’

नंद शर्मा अगले कुछ दिनों तक घर आनेजाने वालों को जड़ांवाला की तसवीरें दिखाते रहे. एक दिन शाम को जब वह पत्रकार सम्मेलन से वापस आए तो ‘हैप्पी बर्थ डे टू दादाजी’ की ध्वनि से वातावरण गूंज उठा. उस दिन उन के जन्मदिन पर बच्चों ने उन्हें पार्टी देने का मन बनाया था.

नंद शर्मा को उन के पोतेपोतियों ने घेर लिया और फिर उन्हें उस कमरे की ओर ले गए जहां केक रखा था. वहां जा कर उन्होंने केक काटा और फिर सब ने खूब मस्ती की. फोटोग्राफर को बुलवा कर तसवीरें भी खिंचवाई गईं. बाद में उन में से एक तसवीर जो पूरे परिवार के साथ थी, वह जड़ांवाला भेज दी गई.

वक्त गुजरता रहा. धीरधीरे पत्राचार और फोन के माध्यम से दोनों परिवारों की नजदीकियां बढ़ने लगीं. देखते ही देखते 1 साल बीत गया. एक दिन जहीर अहमद का फोन आया, ‘‘भाईजान, ठीक 1 माह बाद मेरे बड़े बेटे की शादी है. आप सपरिवार आमंत्रित हैं. और हां, कोई बहाना बनाने की जरूरत नहीं है. मैं ने सारा इंतजाम कर दिया है. आप के पुरखों की विरासत आप का इंतजार कर रही है.’’

नंद शर्मा तो मानो इसी पल का इंतजार कर रहे थे. उन्होंने तुरंत कहा, ‘‘ऐसा कभी हो सकता है कि मेरे भतीजे की शादी हो और मैं न आऊं. आप इंतजार कीजिए, मैं सपरिवार आ रहा हूं.’’

रात के खाने पर जब सारा परिवार जमा हुआ तो नंद शर्मा ने रहस्योद्घाटन किया, ‘‘ध्यान से सुनो, हम सब लोग अगले माह जड़ांवाला जहीर के बेटे की शादी में जा रहे हैं. अपनीअपनी तैयारियां कर लो.’’

‘‘हुर्रे,’’ सब बच्चे खुशी से नाच उठे.

‘‘सच है, अपनी जमीन, अपनी मिट्टी और अपनी विरासत, इन की खुशबू ही कुछ और है,’’ कह कर नंद शर्मा आंखें बंद कर मानो किसी अलौकिक सुख में खो गए.

हीरे की अंगूठी : राहुल शहर से दूर क्यों जा रहा था

नैना थी ही इतनी खूबसूरत. चंपई रंग, बड़ीबड़ी आंखें, पतली नाक, छोटेछोटे होंठ. वह हंसती तो लगता जैसे चांदी की छोटीछोटी घंटियां रुनझुन करती बज उठी हों. उस के अंगअंग से उजाले से फूटते थे.

राहुल और नैना दोनों शहर के बीच बहते नाले के किनारे बसी एक झुग्गी बस्ती में रहते थे. नीचे गंदा नाला बहता, ऊपर घने पड़ों की ओट में बने झोंपड़ीनुमा कच्चेपक्के घरों में जिंदगी पलती. बड़े शहर की चकाचौंध में पैबंद सी दिखती इस बस्ती में राहुल अपने मातापिता और छोटी बहन के साथ रहता था और यहीं रहती थी नैना भी.

राहुल के पिता रिकशा चलाते, मां घरघर जूठन धोती. नैना की मां भी यही काम करती और उस के बाबा पकौड़ी की फेरी लगाते.

नैना बड़े चाव से पकौड़ी बनाती, खट्टीमीठी चटनी तैयार करती, दही जमाती, प्याज, अदरक, धनिया महीनमहीन कतरती और सबकुछ पीतल की चमकती बड़ी सी परात में सजा कर बाबा को देती.

बाबा परात सिर पर उठाए गलीगली चक्कर काटते. दही, चटनी, प्याज डाल कर दी गई पकौड़ी हाथोंहाथ बिक जातीं.

नैना के बाबा को अच्छे रुपए मिल जाते, पर हाथ आए रुपए कभी पूरे घर तक न पहुंचते. ज्यादातर रुपए दारू में खर्च हो जाते. फिर नैना के बाबा कभी नाली में लोटते मिलते तो कभी कहीं गिरे पड़े मिलते.

ऐसे गलीज माहौल में पलीबढ़ी नैना की खूबसूरती पर हालात की कहीं कोई छाया तक नहीं झलकती थी. राहुल सबकुछ भूल कर नैना को एकटक देखता रह जाता था.

नैना के दीवानों की कमी न थी. कितने लोग उस के आगेपीछे मंडराया करते, पर उन में राहुल जैसा कोई दूसरा था ही नहीं.

राहुल भी कम सुंदर न था. भला स्वभाव तो था ही उस का. गरीबी में पलबढ़ कर, कमियों की खाद पा कर भी उस की देह लंबी, ताकतवर थी. एक से एक सुंदर लड़कियां उस के इर्दगिर्द चक्कर काटतीं, पर कोई किसी भी तरह उसे रिझा न पाती, क्योंकि उस के मन में तो नैना बसी थी.

नैना के मन में बसी थी हीरे की अंगूठी. उसे बचपन से हीरे की अंगूठी पहनने का चाव था. सोतेजागते उस के आगे हीरे की अंगूठी नाचा करती. अपनी इसी इच्छा के चलते एक दिन नैना ने सारे बंधन झुठला दिए. प्रीति की रीति भुला दी.

बस्ती के एक छोर पर पत्थर की टूटी बैंच पर नैना बैठी थी. काले रंग की छींट की फ्रौक पहने, जिस पर सफेद गुलाबी रंग के गुलाब बने थे. फ्रौक की कहीं सिलाई खुली, कहीं रंग उड़ा, पर वह पैर पर पैर चढ़ाए किसी राजकुमारी की सी शान से बालों में जंगली पीला फूल लगाए बैठी थी. सब उसी को देख रहे थे.

इतराते हुए बड़ी अदा से नैना बोली, ‘‘जो मेरे लिए हीरे की अंगूठी लाएगा, मैं उसी से शादी करूंगी.’’

नैना की ऐसी विचित्र शर्त सुन कर सब की उम्मीदों पर जैसे पानी फिर गया. राहुल को तो अपने कानों पर यकीन ही नहीं हुआ.

धन्नो काकी यह तमाशा देख कर ठहरीं और हाथ नचाते हुए बोलीं, ‘‘घर में खाने को भूंजी भांग नहीं, उतरन के कपड़े, मांगे का सम्मान, मां घरघर जूठे बरतन धोए, बाप फेरी लगाए और दारू पीए और ये पहनेंगी हीरे की अंगूठी,’’ ऐसा कह कर वे आगे बढ़ गईं.

रंग में भंग हुआ. शायद नैना का प्रण टूट ही जाता, पर तभी राहुल के मुंह से निकला, ‘‘मैं पहनाऊंगा तुम्हें हीरे की अंगूठी,’’ और सब हैरानी से उसे देखते रह गए.

राहुल, जिस के घर में खाने के भी लाले थे, बीमार पिता की दवा के लिए पूरे पैसे नहीं थे, छत गिर रही थी, एक छोटी बहन ब्याहने को बैठी थी, उस राहुल ने नैना को हीरे की अंगूठी देने का वचन दे दिया. वह भी उसे जो उस का इंतजार करेगी भी या नहीं, यह वह नहीं जानता.

सचमुच राहुल के लिए हीरे की अंगूठी खरीदना और आकाश के तारे तोड़ना एक समान था. अभी तो वह पढ़ रहा है. बड़ा होनहार लड़का है वह. टीचर उसे बहुत प्यार करते हैं. उस की मदद के लिए तैयार रहते हैं.

राहुल पढ़लिख कर कुछ बनना चाहता है. राहुल की मां भी चाहती है कि वह पढ़लिख कर अपनी जिंदगी संवारे, इसीलिए वह हाड़तोड़ मेहनत कर राहुल को पढ़ा रही है.

राहुल की मां 35-36 साल की उम्र में ही 60 साल की दिखने लगी है. उसे लगता है कि उस का बेटा जग से निराला है. एक दिन वह पढ़लिख कर बड़ा आदमी बनेगा और उस की सारी गरीबी दूर हो जाएगी, इसीलिए जब उसे पता चला कि राहुल ने नैना को हीरे की अंगूठी पहनाने का वचन दिया है तो उस के मन को गहरी ठेस लगी. थकी आंखों की चमक फीकी हो कर बुझ सी गई.

राहुल में ही तो उस की मां के प्राण बसते थे. अब तक मन में एक इसी आस के भरोसे कितनी तकलीफ सहती आई है कि राहुल बड़ा होगा तो उस के सारे कष्ट दूर देगा. वह भी जीएगी, हंसेगी, सिर उठा कर चलेगी. आज उस का यह सपना पानी के बुलबुले सा फूट गया.

अब क्या करे? राहुल तो अब ऐसी तलवार की धार पर, कांटों भरी राह पर चल पड़ा है जिस के आगे अंधेरे ही अंधेरे हैं.

मां ने राहुल को समझाने की भरसक कोशिश की और कहा, ‘‘अभी तू इन सब बातों में मत पड़ बेटा. बहुत छोटा है तू. पहले पढ़लिख कर कुछ बन जा, फिर यह सब करना.’’

‘‘मुझे रुपए चाहिए मां.’’

‘‘रुपए पेड़ों पर नहीं फलते. हम लोग तो पहले से ही सिर से पैर तक कर्ज में डूबे हैं.’’

‘‘मां, तुम नहीं समझोगी इन सब बातों को.’’

‘‘मुझे समझना भी नहीं है. मेरे पास बहुतेरे काम हैं. तू अभी…’’ मां की बात पूरी होने से पहले ही राहुल बिफर उठता. अब वह अपनी मां से, अपनों से दूर होता जा रहा था. नैना और हीरे की अंगूठी अब राहुल और उस के अपनों के बीच एक ऐसी दीवार के रूप में खड़ी हो गई थी जो हर पल ऊंची होती जा रही थी. उसे तो एक ही धुन सवार थी कि जल्दी से जल्दी ढेर सारा पैसा कमाना है ताकि हीरे की अंगूठी खरीद सके.

राहुल जबतब किसी सुनार की दुकान के बाहर खड़ा हो कर अंदर देखा करता था. एक दिन उसे अंदर झांकते देख दरबान ने डांट कर भगा दिया. नैना को पाने की ख्वाहिश में वह अपनी हैसियत वगैरह सब भूल गया था.

राहुल को यह भी नहीं समझ आया कि वह नैना को प्यार करता है और नैना हीरे की अंगूठी को प्यार करती है. उस ने तो बस अपनी कामना का उत्सव मनाना चाहा, समर्पण के बजाय अपनी इच्छा को पूरा करने का जरीया बनाना चाहा.

राहुल अपनी पढ़ाई छोड़ इस शहर से बहुत दूर जा रहा था. जाने से पहले नैना से विदा लेने आया वह. भुट्टा खाती, एक छोटी सी मोटी दीवार पर बैठी पैर हिलाती नैना को वह अपलक देखता रहा.

नैना से विदा लेते हुए राहुल की आंखें मानो कह रही थीं, ‘काश, तुम जान सकती, पढ़ सकतीं मेरा मन और देख सकतीं मेरे दिल के भीतर जिस में बस तुम ही तुम हो और तुम्हारे सिवा कोई नहीं और न होगा कभी.

‘मैं ने वादा किया है तुम से, मैं लौट कर आऊंगा और सारे वचन निभाऊंगा. लाऊंगा अपने साथ अंगूठी जो होगी हीरे से जड़ी होगी, जैसी तुम्हारी उजली हंसी है. तुम मेरा इंतजार करना नैना. कहीं और दिल न लगा लेना. मैं जल्दी आ जाऊंगा. तुम मेरा इंतजार करना.’

राहुल अपने परिवार को छोड़ सब के सपने ताक पर रख हीरे की अंगूठी खरीदने के जुगाड़ में चल पड़ा. मां पुकारती रह गई. घर की जिम्मेदारियां गुहार लगाती रहीं. सुनहरा भविष्य पलकें बिछाए बैठा रह गया और राहुल सब को छोड़ कर दूसरी ओर मुड़ गया.

शहर आ कर राहुल ने 18-18 घंटे काम किया. ईंटगारा ढोना, अखबार बांटना, पुताई करना से ले कर न जाने कैसेकैसे काम किए. वहीं उसे प्रकाश मिला था, जो उसे गन्ना कटाई के लिए गांव ले गया. हाथों में छाले पड़ गए. गोरा रंग जल कर काला पड़ गया, पर रुपए हाथ में आते गए. हिम्मत बढ़ती गई.

अंधेरी स्याह रातों में कहीं कोने में गुड़ीमुड़ी सा पड़ा राहुल सोते समय भी सुबह का इंतजार करता रहता. मीलों दूर रहती नैना को देखने के लिए वह छटपटाता रहता.

समय का पहिया घूमता रहा. दिन, हफ्ते, महीने बीतते गए. हीरे की अंगूठी की शर्त लोग भूल गए, पर राहुल नहीं भूला. बड़ी मुश्किल से, कड़ी मेहनत से आखिरकार उस ने पैसे जोड़ कर अंगूठी खरीद ही ली.

इस बीच कितनी बार ये पैसे निकालने की नौबत आई, मां बीमार पड़ी, बहन की शादी तय होतेहोते पैसे की कमी के चलते रुक गई, वह खुद भी बीमार पड़ा, घर के कोने की छत टपकने लगी, पर उस ने इन पैसों पर आंच न आने दी और आज बिना एक पल गंवाए वह हीरे की अंगूठी ले कर जब नैना के घर की ओर चला तो पैर जैसे जमीन पर नहीं पड़ रहे थे.

राहुल शहर से लौट कर सब से पहले अपनी मां के गले कुछ ऐसे लिपटा मानो कह रहा हो, ‘मां, तेरा राहुल जीत गया. अब नैना को तुम्हारी बहू बनाने से कोई नहीं रोक सकता, क्योंकि तेरा राहुल नैना की शर्त पूरी कर के ही लौटा है.’

मां ने उस का ध्यान तोड़ते हुए कहा, ‘‘तुम ठीक हो न बेटा? कहां चले गए थे तुम इतने दिनों तक? क्या तुम्हें अपनी बीमार मातापिता और बहन की याद भी नहीं आई?’’ कहते हुए वह सिसकने लगी.

‘‘मां, अब रोनाधोना बंद करो. अब मैं आ गया हूं न. अपनी नैना को तेरी बहू बना कर लाने का समय आ गया. अब तुम्हें कोई काम नहीं करना पड़ेगा.’’

‘‘हां बेटा, अब काम ही क्या है… तेरे मातापिता अब बूढ़े हो चले हैं. जवान बहन घर में बैठी है. तुम जिस नैना के लिए हीरे की अंगूठी लाए हो न, उसे पहले ही कोई और हीरे की अंगूठी पहना कर ले जा चुका है.’’

‘‘झूठ न बोलो मां. हां, मेरी नैना को कोई नहीं ले जा सकता.’’

‘‘ले जा चुका है बेटा. तेरी नैना को हीरे की अंगूठी से प्यार था, तुझ से नहीं, जो उसे कोई और पहना कर ले गया. तुझे रूपवती लड़की चाहिए थी, गुणवती नहीं और उसे हीरे की अंगूठी चाहिए थी, हीरे जैसा लड़का नहीं.

‘‘उसे हीरे की अंगूठी तो मिल गई, पर हीरे की अंगूठी देने वाला पक्का शराबी है. तुम हो कि ऐसी लड़की के लिए घर, मातापिता और बहन सब छोड़ कर चल दिए.’’

‘‘बस मां, बस करो अब,’’ राहुल रोते हुए कमरे से बाहर निकल गया.

राहुल को लगा कि वह भीड़ भरी राह पर सरपट दौड़ा चला जा रहा है. गाडि़यां सर्र से दाएंबाएं, आगेपीछे से गुजर रही हैं. उसे न कुछ दिखाई दे रहा है, न सुनाई दे रहा है. एकाएक किसी का धक्का लगने से वह गिरा. आधा फुटपाथ पर और आधा सड़क पर. हां, प्यार के पागलपन में कितनाकुछ गंवा दिया, यह समझ आते ही पछतावे से भरा राहुल उठ खड़ा हुआ.

सपना टूटते ही राहुल अपनेआप को सहजता की राह पर चला जा रहा था, अपनी बहन के लिए हीरे जैसे लड़के की तलाश में.                             द्य

उपलब्धि : शीला को किसकी आवाज सुनाई दे रही थी

इतवार को सोचा था पर मेहमान आ गए तो उन्हीं में व्यस्त होना पड़ा. आज भी छुट्टी है और नाश्ता भी पकौडि़यों का भरपेट हो चुका है. खाना आराम से बनेगा. रसोई का हर कोना उस ने रगड़रगड़ कर अच्छी तरह चमकाया. फिर रैकों पर साफ अखबार, प्लास्टिक बिछाए.

अंदर जब कुछ सर्दी लगने लगी थी तो सोचा थोड़ी देर धूप में बैठ कर अखबार पढ़ लूं फिर खाने का काम शुरू होगा. तब तक रसोईघर भी सूख जाएगा.

अखबार ले कर शीला छत पर अभी आई ही थी कि पति विनोद की आवाज सुनाई दी, ‘‘अरे भई, कहां हो? आज खाना नहीं बनेगा क्या?’’ यह कहते हुए वह भी छत पर आ गए.

‘‘अभी तो भरपेट नाश्ता हुआ है सब का. आप ने भी तो किया है.’’

‘‘शीला, जानती हो मैं नाश्ता नहीं करता हूं. बच्चों का मन रखने के लिए 2-4 पकौडि़यां ले ली थीं. मुझे तो हर रोज 10 बजे खाने की आदत है. फिर भी बहस किए जा रही हो.’’

‘‘क्यों? आप इतवार को सब के साथ देर से खाना नहीं खाते हैं?’’

‘‘पर आज इतवार नहीं है. अब नहीं बना है तो और बात है. मुझे तो पहले ही पता है कि आजकल तुम्हारी हर काम को टालने की आदत हो गई है. अब यह समय अखबार पढ़ने का है या घर के काम का. दूसरी औरतों को देखा है, नौकरी भी करती हैं और घर भी कितनी कुशलता से संभालती हैं. यहां तो बच्चे भी बड़े हो गए हैं, काम करने को नौकरानी है फिर भी हर काम देरी से होता है.’’

विनोद के ऊंचे होते स्वर के साथ शीला का मूड बिगड़ता चला गया.

शीला अखबार वहीं पटक कर नीचे रसोईघर में गई. उबले आलू रखे थे वे छौंक दिए और फटाफट आटा गूंध कर परांठे बना दिए. पर खाना देख कर विनोद का पारा और चढ़ गया.

‘‘यह क्या? सिर्फ सब्जी, परांठे. तुम जानती ही हो कि लंच के समय मैं पूरी खुराक लेता हूं. जब नाश्ता बंद कर दिया है तो खाना तो कम से कम ढंग का होना चाहिए. पता नहीं तुम्हें क्या हो गया है. सारे ऊलजलूल कामों के लिए तुम्हारे पास समय है, बस, मेरे लिए नहीं.’’

गुस्से में विनोद ने थाली सरका दी थी. शीला का मन हुआ कि वह भी फट पडे़. एक तो दिन भर काम में जुटे रहो उस पर फटकार भी सुनो.  आखिर कुसूर क्या था, रसोई की सफाई ही तो की थी. चाय, नाश्ता, खाना, घर की संभाल, बच्चों की देखरेख में उस ने जिंदगी गुजार दी पर किसी को संतोष नहीं. बच्चों को लगता है मां आधुनिक, स्मार्ट नहीं हैं जैसी औरों की मम्मी हैं. विनोद को तो अब नौकरीपेशा औरतें अच्छी लगने लगी हैं. चार पैसे जो कमा कर लाती हैं. घरगृहस्थी संभा-लने वाली तो इन की नजरों में गंवार ही हैं.

विनोद तो बाहर निकल गए थे पर शीला ने बेमन से पूरा खाना बनाया. शुभा भी तब तक सहेली के घर से आ गई थी, और शुभम कोच्ंिग से. दोनों को खाना खिला कर वह अपने कमरे में आ गई.

और दिन तो शीला काम पूरा करने के बाद टीवी देखती, अधबुना स्वेटर पूरा करती या कोई पत्रिका पढ़ती पर आज कुछ भी करने का मन नहीं था. विनोद का यह बेरुखी भरा व्यवहार वह पिछले कई दिनों से देख रही थी. आखिर कहां गलत हो गई वह. क्या इन घरेलू कामों की कोई अहमियत नहीं है? अगर बाहर नौकरी करती होती तो क्या तभी तक शख्सियत थी उस की?

शादी हुए 18 साल हो गए. जब शादी हुई थी उसी साल एम.ए. फर्स्ट डिवीजन में पास किया था. चाहती तो तभी नौकरी कर सकती थी. इच्छा भी थी पर उस समय तो ससुराल वालों को नौकरी करती हुई बहू पसंद नहीं थी.

विनोद भी तब यही कहते थे कि बच्चों को अच्छे संस्कार दो, उन की पढ़ाई में मदद करो, घर संभाल लो, यही बहुत है मेरे लिए.

उस ने सबकुछ तो उन्हीं की इच्छानुसार किया था. देवर की शादी हो गई, देवरानी आ गई तब भी सासससुर उसी के पास रहे.

‘‘बड़ी बहू हम लोगों का जितना ध्यान रखती है छोटी नहीं रख पाती,’’ मांजी तो अकसर कह देती थीं.

बच्चों को संभालना, बूढ़े सासससुर की सेवा करना, घरगृहस्थी देखना, सबकुछ तो कुशलता से निभाया था उस ने. फिर ससुरजी की मौत के बाद यह सोच कर मांजी का खयाल वह और भी रखने लगी थी कि कहीं इन्हें अकेलापन महसूस न हो.

पर अब क्या हो गया? ठीक है, बच्चे अब बड़े हो गए हैं. उन्हें अब उस की उतनी जरूरत नहीं रही है. मांजी ने भी अपनेआप को सत्संग, भजन, पूजन में व्यस्त कर लिया है. विनोद का प्रमोशन हुआ है तब से उन की भी जिम्मेदारियां बढ़ गई हैं. मकान का लोन लिया है तो खर्चे भी बढ़ गए हैं. बच्चों की भारी पढ़ाई है फिर शुभा की शादी भी 4-5 साल में करनी है. शायद इसी बात को ले कर विनोद को अब नौकरीपेशा औरतें अच्छी लगने लगी हैं. पर क्या देखते नहीं कि उस की भी तो व्यस्तता बढ़ गई है. सुबह 6 बजे से काम की जो दिनचर्या शुरू होती है तो रात को ही सिमटती है. फिर उन्हें ऐसा क्यों लगता है कि वह फालतू है?

घर के सारे काम क्या अपनेआप हो जाते होंगे, और तो और शुभा जब से बाहर होस्टल में गई है और शुभम की कोचिंग शुरू हुई है, बाजार के भी सारे काम उसे ही करने पड़ रहे हैं. पर नहीं, सब को यही लगता है कि वह फालतू है. सब को उस से शिकायतें ही शिकायतें हैं. और तो और मांजी पहली बार 10-15 दिन को देवर के पास गईं तो वह भी जाते समय कहने में नहीं चूकीं, ‘‘बहू, तुम मेरी देखभाल करतेकरते थक जाती हो तो सोचा कि छोटी के पास कुछ दिन रह लूं.’’

अनमनी सी शीला फिर बाहर बरामदे में पड़े मूढ़े पर आ कर बैठ गई थी. शुभा पास ही बैठी सिर झुकाए डायरी में कुछ लिख रही थी.

‘‘क्या कर रही है?’’

‘‘मां, अब दिसंबर खत्म हो रहा है न, तो अपनी उपलब्धियां लिख रही हूं इस जाते हुए साल की और तय

कर रही हूं कि अगले साल मुझे

क्याक्या करना है. नए संकल्प भी तो करूंगी न…’’

‘‘अच्छा, क्या उपलब्धियां रहीं?’’

‘‘मां, विशेष उपलब्धि तो इस वर्ष की यह रही कि मेरा मेडिकल में चयन हो गया. अब मैं संकल्प करूंगी कि मेरा कैरियर इतना ही अच्छा रहे. अच्छे नंबर आते रहें हर परीक्षा में.’’

शुभा कुछ सोचते हुए बोली, ‘‘ममा, मैं अपनी ही नहीं शुभम और पापा की भी उपलब्धियां लिखूंगी. देखो न, शुभम को इस साल स्कूल में बेस्ट स्टूडेंट का अवार्ड मिला है और पापा का तो प्रमोशन हुआ है न…’’

शीला ने भी उत्सुक हो कर शुभा की डायरी में झांका था तो वह बोली, ‘‘ममा, आप भी अपनी उपलब्धियां बताओ, मैं लिखूंगी. और आप अगले साल क्या करना चाहोगी. यह भी…’’

शीला का उत्साह फिर से ठंडा हो गया. क्या बताए, कुछ भी तो उपलब्धि नहीं है उस की. अब घर भर के लिए फालतू जो हो चली है वह…और एक ठंडी सांस न चाहते हुए भी उस के मुंह से निकल ही गई.

‘‘ओह मां, आप बहुत थक गई हो, आप को थोड़ा चेंज करना चाहिए…’’

शुभा कह ही रही थी कि फोन की घंटी बजने लगी. शुभा ने ही दौड़ कर फोन उठाया था.

‘‘मां, मामा का फोन है. पूछ रहे हैं कि शेफाली की शादी में हम लोग कब पहुंच रहे हैं. लो, बात कर लो.’’

‘‘हां, भैया, अभी तो कुछ तय नहीं हुआ है. बात यह है कि इन्हें तो फुरसत है नहीं क्योंकि बैंक की क्लोजिंग चल रही है. शुभम के अगले ही हफ्ते बोर्ड के इम्तहान हैं.’’

‘‘पर तू तो आ सकती है.’’

शीला क्या जवाब दे यह सोच ही रही थी कि शुभा ने आ कर दोबारा फोन ले लिया और बोली, ‘‘मामा, हम लोग भले ही न आ पाएं पर मम्मी जरूर आएंगी,’’ और शुभा ने फोन रख दिया था.

‘‘मां, आप हो आइए न,’’ शुभा आग्रह करते हुए बोली, ‘‘भोपाल है ही कितनी दूर. एक रात का ही तो सफर है. आप का चेंज भी हो जाएगा और नातेरिश्तेदारों से मुलाकात भी हो जाएगी. और फिर दोनों मौसियां भी तो आ रही हैं.

‘‘मां, आप यहां की चिंता न करें. मैं घर संभाल लूंगी. बस, पापा और शुभम का ही तो खाना बनाना है. फिर लीला बाई है ही मदद के लिए. बस, आप तो अपनी तैयारी करो.’’

जाने का खयाल तो अच्छा लगा था शीला को भी पर विनोद क्या तैयार हो पाएंगे? शीला अभी भी असमंजस में ही थी पर शुभा ने विनोद को राजी कर लिया था. फटाफट दूसरे दिन का आरक्षण भी हो गया और शुभा ने मां की सारी तैयारी करवा दी.

शादी की गहमागहमी में शीला को भी अच्छा लगा था. रातरात भर जाग कर बहनों में गपशप होती रहती. सब रिश्तेदारों के समाचार मिले. भैया ने बेटी की शादी खूब धूमधाम से की थी.

शेफाली के विदा होते ही घर सूना हो गया था. रिश्तेदार तो चल ही दिए थे, बहनों ने भी जाने की तैयारी कर ली थी.

‘‘भैया, मुझे भी अब लौटना है,’’ शीला ने याद दिलाया था.

‘‘अरे, तुझे क्या जल्दी है. शोभा और शशि तो नौकरीपेशा हैं. उन की छुट्टियां नहीं हैं इसलिए उन्हें लौटने की जल्दी है पर तू तो रुक सकती है.’’

भैया ने सहज स्वर में ही कहा था पर शीला को लगा जैसे किसी ने फिर कोमल मर्म पर चोट कर दी है. सब व्यस्त हैं वही एक फालतू है, वहां भी सब यही कहते हैं और यहां भी.

भैया के बहुत जोर देने पर वह 2 दिन रुक गई पर लौटना तो था ही. बेटी वापस जाएगी. शुभम पता नहीं ढंग से पढ़ाई कर भी रहा होगा या नहीं. सबकुछ भूल कर उसे भी अब घर की याद आने लगी थी.

स्टेशन पर सभी उसे लेने आए थे.

‘‘मां, बस, दादी नहीं आ पाईं आप को लेने क्योंकि वह अभी यहां नहीं हैं पर उन के 2 फोन आ गए हैं और वे जल्दी ही वापस आ रही हैं, कह रही थीं कि मन तो बड़ी बहू के पास ही लगता है.’’

शुभा ने पहली सूचना यही दी थी. उधर शुभम कहे जा रहा था, ‘‘आप ने इतने दिन क्यों लगा दिए लौटने में, 2 दिन ज्यादा क्यों रुकीं?’’

‘‘अच्छा, पहले घर तो पहुंचने दे.’’

शीला हंस कर रह गई थी. विनोद चुपचाप गाड़ी चला रहे थे. घर पहुंचते ही शुभा गरम चाय ले आई थी. शीला ने कमरे को देखा तो काफी कुछ अस्तव्यस्त सा लगा.

‘‘मां, अब यह मत कहना कि मैं ने घर की संभाल ठीक से नहीं की और रसोई को देख कर तो बिलकुल भी नहीं. आप तो बस, चाय पीओ…और फिर अपना घर संभालना…’’

शुभा ने मां के आगे एक डायरी बढ़ाई तो वह बोली, ‘‘यह क्या है?’’

‘‘मां, आप तो अपनी इस साल की उपलब्धियां बता नहीं पाई थीं पर पापा ने खुद ही आप की तरफ से यह डायरी पूरी कर दी, और पता है सब से ज्यादा उपलब्धियां आप की ही हैं…लो, मैं पढ़ूं…’’

शुभा उत्साह से पढ़ती जा रही थी.

‘‘हम सब को बनाने में आप का ही योगदान रहा. मेरा मेडिकल में चयन हुआ आप की ही बदौलत. मैं एक बार मेडिकल में असफल हो गई थी तब आप ही थीं जिन्होंने मुझे दोबारा परीक्षा के लिए प्रेरित किया और शुभम को स्कूल के बेस्ट स्टूडेंट का अवार्ड मिलना आप की ही क्रेडिट है. सुबह जल्दी उठ कर बेटे को तैयार करना, नाश्ते, खाने से ले कर हर चीज का ध्यान रखना, उस का होेमवर्क देखना, और तो और यह आप की ही मेहनत और लगन थी कि पापा का प्रमोशन हुआ. पापा कह रहे थे कि जब कभी आफिस में किसी कारण से उन्हें लौटने में देर हो जाती तो आप ने कभी शिकायत नहीं की बल्कि उन की गैरमौजूदगी में दादी को डाक्टर के पास तक आप ही ले कर जाती रहीं…’’

‘‘बसबस…अब बस कर,’’ शीला ने शुभा को टोका था. उधर विनोद मंदमंद मुसकरा रहे थे.

‘‘अब नया संकल्प हम सब लोगों का यह है कि तुम इसी तरह हम सब का ध्यान रखती रहो…’’ विनोद के कहते ही सब हंस पड़े थे. उधर शीला को लग रहा था कि एक घना कोहरा, जो कुछ दिनों से मन पर छा गया था, अचानक हटने लगा है. द

लाड़ली : आराधना की मौत कैसे हुई

‘‘चा ची, आप को

तो आना ही पड़ेगा… आप ही तो अकेली घर की बुजुर्ग हैं… और बुजुर्गों के आशीर्वाद के बिना शादीब्याह के कार्यक्रम अपूर्ण ही होते हैं,’’ जेठ के बेटेबहू के इस अपनापन से भरे आग्रह को सावित्री टाल न सकी पर अंदर ही अंदर जिस बात से वह डरती थी वही हुआ. न चाहते हुए भी वहां स्वस्तिका से सावित्री

का सामना हो गया. यद्यपि स्वस्तिका सावित्री की रिश्ते में नातिन थी फिर भी वह उस की आंख की किरकिरी बन गई थी.

आराधना की मौत हुए अभी साल भर भी पूरा नहीं हुआ था पर स्वस्तिका के चेहरे पर अपनी मां की मौत का तनिक भी अफसोस नहीं था बल्कि वह तो अपने पति की बांहों में बांहें डाले हंसती हुई सावित्री के सामने से निकल गई थी. यह देख कर उन का मन बेचैन हो उठा और तबीयत ठीक न होने का बहाना कर वह घर लौट आई थीं.

सावित्री की जल्दबाजी से प्रकाश और विभा को भी घर लौटना पड़ा. घर पहुंचते ही प्रकाश झल्ला पड़ा, ‘‘मां, तुम भी कमाल करती हो…जब स्वस्तिका से अपना कोई संबंध ही नहीं रहा तो उस के होने न होने से हमें क्या फर्क पड़ता है.’’

विभा ने भी समझाना चाहा, ‘‘मम्मी- जी, कब तक यों स्वयं को कष्ट देंगी आप. जिसे दुखी होना चाहिए वह तो सरेआम हंसतीखिलखिलाती घूमती है…’’

सावित्री बेटेबहू की बातों पर चुप ही रही. क्या कहती? प्रकाश और विभा गलत भी तो नहीं थे.

कपड़े बदल कर वह बिस्तर पर निढाल सी लेट गईं पर अशांत मन चैन नहीं पा रहा था. बारबार स्वस्तिका के चेहरे में झलकती आराधना की तसवीर आंखों में तैर जाती.

सहसा सावित्री के विचारों में स्वस्तिका की उम्र वाली आराधना याद हो आई. आराधना भी बिलकुल ऐसी ही मस्तमौला थी पर तुनकमिजाज…जिद्दी ऐसी कि 2-2 दिनों तक भूखी रहती थी पर अपनी बात मनवा के दम लेती.

शेखर कहते भी थे कि बेटी को जरूरत से ज्यादा सिर चढ़ाओगी तो पछताओगी, सावित्री. पर कब ध्यान दिया सावित्री ने उन बातों पर. सावित्री के लाड़प्यार की शह में तो आराधना बिगड़ैल बनती गई.

पिताजी का डर था जो थोड़ीबहुत आराधना की लगाम कस के रखता था, वह भी उन की अचानक मौत के बाद जाता रहा. अब वह सुबह से नाश्ता कर कालिज निकल जाती तो बेलगाम हो कर दिन भर सहेलियों के साथ घूमती रहती.

सावित्री कुछ कहती तो आराधना झल्ला पड़ती. उस का समयअसमय आना- जाना जरूरत से ज्यादा बढ़ता जा रहा था.

प्रकाश भी अब किशोर से जवान हो रहा था. उसे दीदी का देर रात तक घूमनाफिरना और रोज अलगअलग पुरुष मित्रों का घर तक छोड़ने आना अटपटा लगता पर क्या कहता वह? कहता तो छोटे मुंह बड़ी बात होती.

1-2 बारप्रकाश ने मां से कहने की कोशिश भी की पर आराधना ने घुड़क दिया, ‘तुम अपना मन पढ़ाई में लगाओ, मेरी चिंता मत करो. मैं कोई नासमझ नहीं हूं, अपना भलाबुरा अच्छी तरह समझती हूं.’

प्रकाश ने मां की ओर देखा पर वह भी बेटी का समर्थन करते हुए बोलीं, ‘प्रकाश, तुम छोटे हो अभी. आराधना बड़ी हो चुकी है, वह जानती है कि उस के लिए क्या सही है क्या गलत.’

सावित्री ने आराधना को नाराज होने से बचाने के लिए प्रकाश को चुप तो कर दिया पर मन ही मन वह भी आराधना की इन हरकतों से चिंतित थीं. फिर भी मन के किसी कोने में यह विश्वास था कि नहीं…मेरी बेटी गलत कदम कभी नहीं उठाएगी.

पर कोरे निराधार विश्वास ज्यादा समय तक कहां टिक पाते हैं? आखिर वही हुआ जिस की आशंका सावित्री को थी.

एक दिन आराधना बदले रूप के साथ घर लौटी. साथ में खड़े व्यक्ति का परिचय कराते हुए बोली, ‘मां, ये हैं डा. मोहन शर्मा.’

आराधना के शरीर पर लाल सुर्ख साड़ी, भरी मांग देख सावित्री को सारा माजरा समझ में आ गया पर घर आए मेहमान के सामने बेटी पर चिल्लाने के बजाय अगले ही पल उलटे कदमों अपने कमरे में आ गईं.

आराधना भी अपनी मां के पीछेपीछे कमरे में आ गई, ‘मां, सुनो तो…’

‘अब क्या सुना रही हो, आराधना?’ सावित्री लगभग रोते हुए बोलीं, ‘तू ने तो एक पल को भी अपनी मां की भावनाओं के बारे में नहीं सोचा. अरे, एक बार कहती तो मुझ से…तेरी खुशी के लिए मैं खुद तैयार हो जाती.’

‘मां, मोहन ने ऐसी जल्दी मचाई कि वक्त ही नहीं मिला.’

आराधना की बात पूरी होने से पहले ही सावित्री के मन को यह बात खटक गई, ‘जल्दी मचाई…क्यों? शादीब्याह के कार्य जल्दबाजी में निबटाने के लिए नहीं होते, आराधना… और यह डा. मोहन कौन है, कहां का है…इस का घरपरिवार, अतापता कुछ जानती भी है तू या नहीं?’

‘मां, डा. मोहन बहुत अच्छे इनसान हैं. बस, मैं तो इतना जानती हूं. मेडिकल कालिज के परिसर में इन का क्वार्टर है, जहां यह अकेले रहते हैं. रही बाकी परिवार की बात तो अब शादी की है तो वह भी पता चल जाएगा. मां, मैं तो एक ही बात जानती हूं, जिस का वर्तमान अच्छा है उस का भविष्य भी अच्छा ही होगा….तुम नाहक चिंता न करो. अब उठो भी, मोहन बैठक में अकेले बैठे हैं.’

यह तो ठीक है कि वर्तमान अच्छा है तो भविष्य भी अच्छा ही होगा है पर इन दोनों का आधार तो अतीत ही होता है न. किसी का पिछला इतिहास जाने बिना इस तरह आंखें मूंद कर विश्वास कर लेना मूर्खता ही तो है. सावित्री चाह कर भी नहीं समझा पाई आराधना को और अब समझाने से लाभ भी क्या था.

सावित्री ने खुद के मन को ही समझा लिया कि चलो, आराधना ने कम से कम ऐरेगैरे से तो विवाह नहीं रचाया. डाक्टर है लड़का. आर्थिक परेशानी की तो बात नहीं रहेगी.

2 वर्ष भी नहीं बीत पाए और एक दिन वही हुआ जिस का डर सावित्री को था. आराधना मोहन द्वारा मार खाने के बाद 6 माह की स्वस्तिका को ले कर मायके आ गई थी.

मोहन पहले से विवाहित, 2 बच्चों का बाप था. आराधना से उस ने विवाह मंदिर में रचाया था जिस का न कोई प्रमाण था न ही कोई प्रत्यक्षदर्शी. बिना पूर्व तलाक के जहां यह विवाह अवैध सिद्ध हो गया वहीं स्वस्तिका का जन्म भी अवैधता की श्रेणी में आ गया.

आज सावित्री को शेखर अक्षरश: सत्य नजर आ रहे थे. उस का अंत:करण स्वयं को धिक्कार उठा, ‘मेरा आवश्यकता से अधिक लाड़, बारबार आराधना की गलतियों पर प्रेमवश परदा डालने का प्रयास, उस की नाजायज जिद का समर्थन वीभत्स रूप में बदल कर ही तो मेरे समक्ष खड़ा हो मुझे मुंह चिढ़ा रहा है.’

आराधना ने नौकरी ढूंढ़ ली. स्वस्तिका को संभालने का जिम्मा अब सावित्री का था.

जो भूल आराधना के साथ की वह स्वस्तिका के साथ नहीं दोहराऊंगी, मन ही मन तय किया था सावित्री ने, पर जैसजैसे स्वस्तिका बड़ी होती जा रही थी आराधना के लाड़प्यार ने उसे बिगाड़ना शुरू कर दिया था. सावित्री कुछ समझाती तो बजाय बात को समझने के आराधना बेटी का पक्ष ले कर अपनी मां से लड़ पड़ती. पिता के प्यार की भरपाई भी आराधना अपनी ओर से कर डालना चाहती थी और इसी प्रयास में वह स्वयं का ही प्रतिरूप तैयार करने की भूल कर बैठी.

आराधना के मामलों में तो सावित्री हरदम प्रकाश की अनसुनी कर दिया करती थी पर अब प्रकाश उन्हें शेखर की तरह ही संजीदा व सही प्रतीत होता.

स्वस्तिका की 10वीं की परीक्षा थी. गणित में कमजोर होने के कारण आराधना एक दिन सतीश नाम के एक ट्यूटर को घर ले आई और बोली, ‘कल से यह स्वस्तिका को गणित पढ़ाने आएगा.’

22 साल का सतीश प्रकाश के मन को खटक गया लेकिन आराधना दीदी के स्वभाव को जानते हुए वह चुप ही रहा.

जब भी सतीश स्वस्तिका को पढ़ाने आता प्रकाश की नजरें उन के क्रियाकलापों का जायजा लेती रहतीं. कान सचेत हो कर उन के बीच हो रही बातचीत पर ही लगे रहते. प्रकाश को भय था कि आराधना दीदी की तरह ही कहीं स्वस्तिका का हश्र न हो.

एक दिन प्रकाश ने स्वस्तिका को सतीश के साथ आपत्तिजनक स्थिति में देखा तो उसे धक्के मार कर घर से बाहर निकाल दिया.

शाम को आराधना के दफ्तर से आते ही स्वस्तिका फफक कर रोने लगी, ‘मम्मी, प्रकाश मामा को समझा दो. हर समय हमारी जासूसी करते हैं. आज जरा सी बात पर सर को धक्का दे कर घर से निकाल दिया.’

‘क्यों प्रकाश? यह किस तरह का बरताव है?’ बिना अपनी लाड़ली की गलती जानेसमझे आराधना अपनी आदत के अनुसार गरज पड़ी.

‘दीदी, वह जरा सी बात क्या है यह अपनी लाड़ली से नहीं पूछोगी?’ प्रकाश भी तमतमा गया.

आराधना ने इसे अहं का विषय बना डाला, ‘ओह, तो अब हम मांबेटी तुम लोगों को भारी पड़ने लगे हैं, लेकिन यह मत भूलो कि कमाती हूं, घर में पैसे भी देती हूं. इसलिए हक से रहती हूं. तुम्हें पसंद नहीं तो हम अलग रह लेंगे, एक मकान लेने की हैसियत है मुझ में.’

बात बिगड़ती देख सावित्री ने दोनों को समझाना चाहा पर आराधना ठान चुकी थी. हफ्ते भर में नया मकान देख स्वस्तिका को ले कर चली गई. सतीश फिर उसे पढ़ाने आने लगा. न चाहते हुए भी सावित्री व प्रकाश चुप रहे. कहते भी तो सुनता कौन?

उन्हीं दिनों अचानक आराधना का स्वास्थ्य खराब रहने लगा. स्थानीय डाक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए. मुंबई अथवा दिल्ली के बड़े चिकित्सा संस्थानों में दिखाने के लिए कहा गया. प्रकाश पुराने गिलेशिकवे भुला कर दीदी को मुंबई ले गया. आखिर भाई था वह और उस के सिवा और कोई पुरुष था भी तो नहीं घर में जो आराधना के साथ बड़े शहरों के बड़ेबड़े अस्पतालों में चक्कर काटता.

डाक्टरों ने बताया कि आराधना को कैंसर है जो अंतिम अवस्था तक पहुंच चुका है. जीवन की डोर को केवल 6 माह तक और खींचा जा सकता है. वह भी केवल दवाइयों व इंजेक्शनों के आधार पर.

ऐसे हालात में सावित्री व प्रकाश का आराधना के साथ रहना निहायत जरूरी हो गया था. साथ रहते हुए प्रकाश को स्वस्तिका व सतीश की नाजायज हरकतें पुन: नजर आने लगीं. पर बात का बतंगड़ न बन जाए यह सोच कर वह चुप रहा, केवल मां से ही बात की. मौका देख कर सावित्री ने आराधना को इस बारे में सचेत करना चाहा. इस बार आराधना ने भी हंगामा नहीं मचाया बल्कि स्वस्तिका को बुला कर इस बारे में बात की.

स्वस्तिका शायद अवसर की खोज में ही थी इसलिए साफ शब्दों में उस ने कह दिया कि वह सतीश से प्यार करती है और वह भी उसे चाहता है.

अगले दिन आराधना ने सावित्री व प्रकाश को अपना निर्णय सुना दिया, ‘प्रकाश, तुम पर बड़ी जिम्मेदारी डाल रही हूं. इसी माह स्वस्तिका की शादी सतीश से करनी है. उस के घर वालों से बात कर लो व शादी की तैयारी शुरू कर दो. सुविधा के लिए मैं अपने बैंक खाते को तुम्हारे नाम के साथ संयुक्त कर देती हूं ताकि पैसा निकालने में तुम्हें सुविधा हो. तुम पैसे की चिंता बिलकुल मत करना. मैं चाहती हूं अपने जीतेजी बेटी को ब्याह कर जाऊं.’

शायद यह खुद के विधिविधान से विवाह संस्कार न हो पाने की अधूरी चाह थी जिसे आराधना स्वस्तिका के रूप में देखना चाहती थी.

सब कुछ आराधना की इच्छानुसार हो गया. सतीश के दामाद बनते ही स्वस्तिका ने नए तेवर दिखाना शुरू कर दिए, ‘मम्मी, अब मैं और सतीश तो हैं न तुम्हारी देखभाल करने के लिए….नानी और मामा को वापस अपने घर भेज दो.’

प्रकाश ने सुना तो खुद ही सावित्री को साथ ले कर अपने घर लौट आया. सावित्री घर आ कर बारबार दवाई व इंजेक्शनों के समय पर बेचैन हो जातीं कि पता नहीं स्वस्तिका ठीक समय पर दवाई दे पाती है या नहीं. अभी 2 हफ्ते भी नहीं गुजरे थे कि एक शाम सतीश का फोन आया, ‘नानीजी, जल्दी आ जाइए, मम्मीजी हमें छोड़ कर चली गईं.’

‘क्या?’ सावित्री सुन कर अवाक् रह गईं.

सावित्री को साथ ले कर बदहवास सा प्रकाश आराधना के घर पहुंचा पर तब तक तो सारा खेल खत्म हो चुका था.

सभी अंतिम क्रियाकर्म प्रकाश ने ही पूरा किया. अस्थि कलश के विसर्जन का समय आया तो स्वस्तिका आ गई, ‘मामाजी, पहले उस संयुक्त खाते का हिसाबकिताब साफ कर दीजिए उस के बाद कलश को हाथ लगाइएगा.’

रिश्तेदारों का लिहाज न होता तो स्वस्तिका व सतीश को उन की इस धृष्टता का प्रकाश अच्छा सबक सिखाता पर रिश्तेदारों के सामने कोई तमाशा न हो यह सोच कर अपने क्रोध को किसी तरह दबा लिया और स्वस्तिका की इच्छानुसार कार्य करते हुए अपने सारे कर्तव्य पूरे कर दिए.

सावित्री वापस लौटने वाली थीं. आराधना के कमरे की सफाई करते समय अचानक उन की नजर अलमारी में पड़े दवा के डब्बे पर गई जो स्वस्तिका के विवाह के बाद घर लौटने से पहले प्रकाश ने ला कर रखा था. खोल कर देखा तो सारी दवाइयां व इंजेक्शन उसी तरह पैक ही रखे थे.

सावित्री का माथा ठनका. तो क्या स्वस्तिका ने पिछले दिनों आराधना को दवाइयां दी ही नहीं? यह सोच कर सावित्री ने स्वस्तिका को आवाज लगाई.

‘क्या है, नानी?’

खुला डब्बा दिखाते हुए सावित्री ने पूछा, ‘स्वस्तिका, तुम ने अपनी मम्मी को दवाइयां नहीं दीं?’

‘हां, नहीं दीं…तो? क्या गलत किया मैं ने? तकलीफ में थीं वह…और आज नहीं तो 4 माह बाद जाने ही वाली थीं न हमें छोड़ कर…तो अभी चली गईं…क्या फर्क पड़ गया?’

‘बेशरम, मेरी बेटी की जान लेने वाली तू डाइन है…पूरी डाइन.’

पसीने से तरबतर सावित्री हड़बड़ा कर बिस्तर से उठ बैठीं…अतीत की वे यादें आज भी उन्हें बेचैन कर देती हैं. न जाने उस दिन कौनकौन सी गालियां दे कर सावित्री ने हमेशा के लिए स्वस्तिका से रिश्ता तोड़ दिया था. सावित्री का सिर भारी हो गया.

सुना तो यही था कि बेटियां मां का दर्द बांटती हैं फिर स्वस्तिका बेटी हो कर भी अपनी मां के प्रति इतनी कठोर कैसे बन गई. शायद आराधना की शिक्षा में ही कोई कसर रह गई थी…आखिर बेटी अपनी मां से ही तो संस्कार पाती है. नहींनहीं…फिर तो पूरी गलती आराधना की भी नहीं है…गलत तो मैं ही थी…आराधना ने तो वही संस्कार स्वस्तिका को दिए जो मुझ से पाए थे.

काश, मैं ने आराधना को सहेज कर रखा होता तो आज उस की संतान में उस कुटिल व्यक्ति का कलुषित खून न होता जो आज उस का पिता न हो कर भी पिता था. काश, मैं ने आराधना की नाजायज बातों पर प्रेमवश परदा डालने के बजाय उसे ऊंचनीच का ज्ञान कराया होता, उस की हर गलत बात पर किए गए मेरे समर्थन का नतीजा ही तो था जो आराधना स्वभाव से अक्खड़ बन गई थी. आराधना ने भी वही सब स्वस्तिका को दिया जो मैं ने परवरिश में उस की झोली में डाला था.

जब भी स्वस्तिका से सावित्री का सामना होता वह अपने इन्हीं विचारों के अनसुलझे मकड़जाल में फंस कर रह जाती. अपने लाड़ के अतिरेक से ही तो अपनी लाड़ली को खो चुकी थी वह और शायद लाड़ली की लाड़ली को भी.

लेखक- स्निग्धा श्रीवास्तव

बदली परिपाटी: जतिन बीवी को क्यों मारता था

लगता है रात में जतिन ने फिर बहू पर हाथ उठाया. मुझ से यह बात बरदाश्त नहीं होती. बहू की सूजी आंखें और शरीर पर पड़े नीले निशान देख कर मेरा दिल कराह उठता है. मैं कसमसा उठता हूं, पर कुछ कर नहीं पाता. काश, पूजा होती और अपने बेटे को समझाती पर पूजा को तो मैं ने अपनी ही गलतियों से खो दिया है.

यह सोचतेसोचते मेरे दिमाग की नसें फटने लगी हैं. मैं अपनेआप से भाग जाना चाहता हूं. लेकिन नहीं भाग सकता, क्योंकि नियति द्वारा मेरे लिए सजा तय की गई है कि मैं पछतावे की आग में धीरेधीरे जलूं.

‘‘अंतरा, मैं बाजार की तरफ जा रहा हूं, कुछ मंगाना तो नहीं.’’

‘‘नहीं पापाजी, आप हो आइए.’’ मैं चल पड़ा यह सोच कर कि कुछ देर बाहर निकलने से शायद मेरा मन थोड़ा बहल जाए. लेकिन बाहर निकलते ही मेरा मन अतीत के गलियारों में भटकने लगा…

‘मुझ से जबान लड़ाती है,’ एक भद्दी सी गाली दे कर मैं ने उस पर अपना क्रोध बरसा दिया.

‘आह…प्लीज मत मारो मुझे, मेरे बच्चे को लग जाएगी, दया करो. मैं ने आखिर किया क्या है?’ उस ने झुक कर अपनी पीठ पर मेरा वार सहन करते हुए कहा.

कोख में पल रहे बच्चे पर वह आंच नहीं आने देना चाहती थी. लेकिन मैं कम क्रूर नहीं था. बालों से पकड़ते हुए उसे घसीट कर हौल में ले आया और अपनी बैल्ट निकाल ली. बैल्ट का पहला वार होते ही जोरों की चीख खामोशी में तबदील होती चली गई. वह बेहोश हो चुकी थी.

‘पागल हो गया क्या, अरे, उस के पेट में तेरी औलाद है. अगर उसे कुछ हो गया तो?’ मां किसी बहाने से उसे मेरे गुस्से से बचाना चाहती थीं.

‘कह देना इस से, भाड़े पर लड़कियां लाऊं या बियर बार जाऊं, यह मेरी अम्मा बनने की कोशिश न करे वरना अगली बार जान से मार दूंगा,’ कहते हुए मैं ने 2 साल के नन्हे जतिन को धक्का दिया, जो अपनी मां को मार खाते देख सहमा हुआ सा एक तरफ खड़ा था. फिर गाड़ी उठाई और निकल पड़ा अपनी आवारगी की राह.

उस पूरी रात मैं नशे में चूर रहा. सुबह के 6 बज रहे होंगे कि पापा के एक कौल ने मेरी शराब का सारा नशा उतार दिया. ‘कहां है तू, कब से फोन लगा रहा हूं. पूजा ने फांसी लगा ली है. तुरंत आ.’ जैसेतैसे घर पहुंचा तो हताश पापा सिर पर हाथ धरे अंदर सीढि़यों पर बैठे थे और मां नन्हे जतिन को चुप कराने की बेहिसाब कोशिशें कर रही थीं.

अपने बैडरूम का नजारा देख मेरी सांसें रुक सी गईं. बेजान पूजा पंखे से लटकी हुई थी. मुझे काटो तो खून नहीं. मांपापा को समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए. पूजा ने अपने साथ अपनी कोख में पल रहे मेरे अंश को भी खत्म कर लिया था. पर इतने खौफनाक माहौल में भी मेरा शातिर दिमाग काम कर रहा था. इधरउधर खूब ढूंढ़ने के बाद भी पूजा की लिखी कोई आखिरी चिट्ठी मुझे नहीं मिली.

पुलिस को देने के लिए हम ने एक ही बयान को बारबार दोहराया कि मां की बीमारी के चलते उसे मायके जाने से मना किया तो जिद व गुस्से में आ कर उस ने आत्महत्या कर ली. वैसे भी मेरी मां का सीधापन पूरी कालोनी में मशहूर था, जिस का फायदा मुझे इस केस में बहुत मिला. कुछ दिन मुझे जरूर लौकअप में रहना पड़ा, लेकिन बाद में सब को देदिला कर इस मामले को खत्म करने में हम ने सफलता पाई, क्योंकि पूजा के मायके में उस की खैरखबर लेने वाला एक शराबी भाई ही था जिसे अपनी बहन को इंसाफ दिलाने में कोई खास रुचि न थी.

थोड़ी परेशानी से ही सही, लेकिन 8-10 महीने में केस रफादफा हो गया पर मेरे जैसा आशिकमिजाज व्यक्ति ऐसे समय में भी कहां चुप बैठने वाला था. इस बीच मेरी रासलीला मेरे एक दोस्त की बहन लिली से शुरू हो गई. लिली का साथ मुझे खूब भाने लगा, क्योंकि वह भी मेरी तरह बिंदास थी. पूजा की मौत के डेढ़ साल के भीतर ही हम ने शादी कर ली. वह तो शादी के बाद पता चला कि मैं सेर, तो वह सवा सेर है. शादी होते ही उस ने मुझे सीधे अपनी अंटी में ले लिया.

बदतमीजी, आवारगी, बदचलनी आदि गुणों में वह मुझ से कहीं बढ़ कर निकली. मेरी परेशानियों की शुरुआत उसी दिन हो गई जिस दिन मैं ने पूजा समझ कर उस पर पहली बार हाथ उठाया. मेरे उठे हाथ को हवा में ही थाम उस ने ऐसा मरोड़ा कि मेरे मुंह से आह निकल गई. उस के बाद मैं कभी उस पर हाथ उठाने की हिम्मत न कर पाया.

घर के बाहर बनी पुलिया पर आसपास के आवारा लड़कों के साथ बैठी वह सिगरेट के कश लगाती जबतब कालोनी के लोगों को नजर आती. अपने दोस्तों के साथ कार में बाहर घूमने जाना उस का प्रिय शगल था. रात को वह शराब के नशे में धुत हो घर आती और सो जाती. मैं ने उसे अपने झांसे में लेने की कई नाकाम कोशिशें कीं, लेकिन हर बार उस ने मेरे वार का ऐसा प्रतिवार किया कि मैं बौखला गया. उस ने साफ शब्दों में मुझे चेतावनी दी कि अगर मैं ने उस से उलझने की कोशिश की तो वह मुझे मरवा देगी या ऐसा फंसाएगी कि मेरी जिंदगी बरबाद हो जाएगी. मैं उस के गदर से तभी तक बचा रहता जब तक कि उस के कामों में हस्तक्षेप न करता.

तो इस तरह प्रकृति के न्याय के तहत मैं ने जल्द ही वह काटा, जो बोया था. घर की पूरी सत्ता पर मेरी जगह वह काबिज हो चुकी थी. शादी के सालभर बाद ही मुझ पर दबाव बना कर उस ने पापा से हमारे घर को भी अपने नाम करवा लिया. और फिर हमारा मकान बेच कर उस ने पौश कालोनी में एक फ्लैट खरीदा और मुझे व जतिन को अपने साथ ले गई. मेरे मम्मीपापा मेरी बहन यानी अपनी बेटी के घर में रहने को मजबूर थे. यह सब मेरी ही कारगुजारियों की अति थी जो आज सबकुछ मेरे हाथ से मुट्ठी से निकली रेत की भांति फिसल चुका था.

अपना मकान बिकने से हैरानपरेशान पापा इस सदमे को न सह पाने के कारण हार्टअटैक के शिकार हो महीनेभर में ही चल बसे. उन के जाने के बाद मेरी मां बिलकुल अकेली हो गईं. प्रकृति मेरे कर्मों की इतनी जल्दी और ऐसी सजा देगी, मुझे मालूम न था.

नए घर में शिफ्ट होने के बाद भी उस के क्रियाकलाप में कोई खास अंतर नहीं आया. इस बीच 5 साल के हो चुके जतिन को उस ने पूरी तरह अपने अधिकार में ले लिया. उस के सान्निध्य में पलताबढ़ता जतिन भी उस के नक्शेकदम पर चल पड़ा. पढ़ाईलिखाई से उस का खास वास्ता था नहीं. जैसेतैसे 12वीं कर उस ने छोटामोटा बिजनैस कर लिया और अपनी जिंदगी पूरी तरह से उसी के हवाले कर दी. उन दोनों के सामने मेरी हैसियत वैसे भी कुछ नहीं थी. किसी समय अपनी मनमरजी का मालिक मैं आजकल उन के हाथ की कठपुतली बन, बस, उन के रहमोकरम पर जिंदा था.

इसी रफ्तार से जिंदगी के कुछ और वर्ष बीत गए. इस बीच लिली एक भयानक बीमारी एड्स की चपेट में आ गई और अपनेआप में गुमसुम पड़ी रहने लगी. अब घर की सत्ता मेरे बेटे जतिन के हाथों में आ गई. हालांकि इस बदलाव का मेरे लिए कोई खास मतलब नहीं था. हां, जतिन की शादी होने पर उस की पत्नी अंतरा के आने से अलबत्ता मुझे कुछ राहत जरूर हो गई, क्योंकि मेरी बहू भी पूजा जैसी ही एक नेकदिल इंसान थी.

वह लिली की सेवा जीजान से करती और जतिन को खुश करने की पूरी कोशिश भी. पर जिस की रगों में मेरे जैसे गिरे इंसान का लहू बह रहा हो, उसे भला किसी की अच्छाई की कीमत का क्या पता चलता. सालभर पहले लिली ने अपनी आखिरी सांस ली. उस वक्त सच में मन से जैसे एक बोझ उतर गया और मेरा जीवन थोड़ा आसान हो गया.

इस बीच, जतिन के अत्याचार अंतरा के प्रति बढ़ते जा रहे थे. लगभग रोज रात में जतिन उसे पीटता और हर सुबह अपने चेहरे व शरीर की सूजन छिपाने की भरसक कोशिश करते हुए वह फिर से अपने काम पर लग जाती. कल रात भी जतिन ने उस पर अपना गुस्सा निकाला था.

मुझे समझ नहीं आता था कि आखिर वह ये सब क्यों सहती है, क्यों नहीं वह जतिन को मुंहतोड़ जवाब देती, आखिर उस की क्या मजबूरी है? तमाम बातें मेरे दिमाग में लगातार चलतीं. मेरा मन उस के लिए इसलिए भी परेशान रहता क्योंकि इतना सबकुछ सह कर भी वह मेरा बहुत ध्यान रखती थी. कभीकभी मैं सोच में पड़ जाता कि आखिर औरत एक ही समय में इतनी मजबूत और मजबूर कैसे हो सकती है?

ऐसे वक्त पर मुझे पूजा की बहुत याद आती. अपने 4 वर्षों के वैवाहिक जीवन में मैं ने एक पल भी उसे सुकून का नहीं दिया. शादी की पहली रात जब सजी हुई वह छुईमुई सी मेरे कमरे में दाखिल हुई थी, तो मैं ने पलभर में उसे बिस्तर पर घसीट कर उस के शरीर से खेलते हुए अपनी कामवासना शांत की थी.

काश, उस वक्त उस के रूपसौंदर्य को प्यारभरी नजरों से कुछ देर निहारा होता, तारीफ के दो बोल बोले होते तो वह खुशी से अपना सर्वस्व मुझे सौंप देती. उस घर में आखिर वह मेरे लिए ही तो आई थी. पर मेरे लिए तो प्यार की परिभाषा शारीरिक भूख से ही हो कर गुजरती थी. उस दौरान निकली उस की दर्दभरी चीखों को मैं ने अपनी जीत समझ कर उस का मुंह अपने हाथों से दबा कर अपनी मनमानी की थी. वह रातों में मेरे दिल बहलाने का साधनमात्र थी. और फिर जब वह गर्भवती हुई तो मैं दूसरों के साथ इश्क लड़ाने लगा, क्योंकि वह मुझे वह सुख नहीं दे पा रही थी. वह मेरे लिए बेकार हो चुकी थी. इसलिए मुझे ऐसा करने का हक था, आखिर मैं मर्द जो था. मेरी इस सोच ने मुझे कभी इंसान नहीं बनने दिया.

हे प्रकृति, मुझे थोड़ी सी तो सद्बुद्धि देती. मैं ने उसे चैन से एक सांस न लेने दी. अपनी गंदी हरकतों से सदा उस का दिल दुखाया. उस की जिंदगी को मैं ने वक्त से पहले खत्म कर दिया.

उस दिन उस ने आत्महत्या भी तो मेरे कारण ही की थी, क्योंकि उसे मेरे नाजायज संबंधों के बारे में पता चल गया था और उस की गलती सिर्फ इतनी थी कि इस बारे में मुझ से पूछ बैठी थी. बदले में मैं ने जीभर कर उस की धुनाई की थी. ये सब पुरानी यादें दिमाग में घूमती रहीं और कब मैं घर लौट आया पता ही नहीं चला.

‘‘पापा, जब आप मार्केट गए थे. उस वक्त बूआजी आई थीं. थोड़ी देर बैठीं, फिर आप के लिए यह लिफाफा दे कर चली गईं.’’ बाजार से आते ही अंतरा ने मुझे एक लिफाफा पकड़ाया.

‘‘ठीक है बेटा,’’ मैं ने लिफाफा खोला. उस में एक छोटी सी चिट और करीने से तह किया हुआ एक पन्ना रखा था. चिट पर लिखा था, ‘‘मां के जाने के सालों बाद आज उन की पुरानी संदूकची खोली तो यह खत उस में मिला. तुम्हारे नाम का है, सो तुम्हें देने आई थी.’’ बहन की लिखावट थी. सालों पहले मुझे यह खत किस ने लिखा होगा, यह सोचते हुए कांपते हाथों से मैं ने खत पढ़ना शुरू किया.

‘‘प्रिय मयंक,

‘‘वैसे तो तुम ने मुझे कई बार मारा है, पर मैं हमेशा यह सोच कर सब सहती चली गई कि जैसे भी हो, तुम मेरे तो हो. पर कल जब तुम्हारे इतने सारे नाजायज संबंधों का पता चला तो मेरे धैर्य का बांध टूट गया. हर रात तुम मेरे शरीर से खेलते रहे, हर दिन मुझ पर हाथ उठाते रहे. लेकिन मन में एक संतोष था कि इस दुखभरी जिंदगी में भी एक रिश्ता तो कम से कम मेरे पास है. लेकिन जब पता चला कि यह रिश्ता, रिश्ता न हो कर एक कलंक है, तो इस कलंक के साथ मैं नहीं जी सकती. सोचती थी, कभी तो तुम्हारे दिल में अपने लिए प्यार जगा लूंगी. लेकिन अब सारी उम्मीदें खत्म हो चुकी हैं. मायके में भी तो कोई नहीं है, जिसे मेरे जीनेमरने से कोई सरोकार हो. मैं अपनी व्यथा न ही किसी से बांट सकती हूं और न ही उसे सह पा रही हूं. तुम्हीं बताओ फिर कैसे जिऊं. मेरे बाद मेरे बच्चों की दुर्दशा न हो, इसलिए अपनी कोख का अंश अपने साथ लिए जा रही हूं. मासूम जतिन को मारने की हिम्मत नहीं जुटा पाई. खुश रहो तुम, कम से कम जतिन को एक बेहतर इंसान बनाना. जाने से पहले एक बात तुम से जरूर कहना चाहूंगी. ‘मैं तुम से बहुत प्यार करती हूं.’

‘‘तुम्हारी चाहत के इंतजार में पलपल मरती…तुम्हारी पूजा.’’

पूरा पत्र आंसुओं से गीला हो चुका था, जी चाह रहा था कि मैं चिल्लाचिल्ला कर रो पड़ूं. ओह, पूजा माफ कर दे मुझे. मैं इंसान कहलाने के काबिल नहीं, तेरे प्यार के काबिल भला क्या बनूंगा. हे प्रकृति, मेरी पूजा को लौटा दे मुझे, मैं उस के पैर पकड़ कर अपने गुनाहों की माफी तो मांग लूं उस से. लेकिन अब पछताए होत क्या, जब चिडि़या चुग गई खेत.

भावनाओं का ज्वार थमा तो कुछ हलका महसूस हुआ. शायद मां को पूजा का यह सुसाइड लैटर मिला हो और मुझे बचाने की खातिर यह पत्र उन्होंने अपने पास छिपा कर रख लिया हो. यह उन्हीं के प्यार का साया तो था कि इतना घिनौना जुर्म करने के बाद भी मैं बच गया. उन्होंने मुझे कालकोठरी की सजा से तो बचा लिया, परंतु मेरे कर्मों की सजा तो नियति से मुझे मिलनी ही थी और वह किसी भी बहाने से मुझे मिल कर रही.

पर अब सबकुछ भुला कर पूजा की वही पंक्ति मेरे मन में बारबार आ रही थी, ‘‘कम से कम जतिन को एक बेहतर इंसान बनाना.’’ अंतरा के मायके में भी तो उस की बुजुर्ग मां के अलावा कोई नहीं है. हो सकता है इसलिए वह भी पूजा की तरह मजबूर हो. पर अब मैं मजबूर नहीं बनूंगा…कुछ सोच कर मैं उठ खड़ा हुआ. अंतरा को आवाज दी.

‘‘जी पापा,’’ कहते हुए अंतरा मेरे सामने मौजूद थी. बहुत देर तक मैं उसे सबकुछ समझाता रहा और वह आंखें फाड़फाड़ कर मुझे हैरत से देखती रही. शायद उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जतिन का पिता होने के बावजूद मैं उस का दर्द कैसे महसूस कर रहा हूं या उसे यह समझ नहीं आ रहा था कि अचानक मैं यह क्या और क्यों कर रहा हूं, क्योंकि वह मासूम तो मेरी हकीकत से हमेशा अनजान थी.

पास के पुलिसस्टेशन पहुंच कर मैं ने अपनी बहू पर हो रहे अत्याचार की धारा के अंतर्गत बेटे जतिन के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई. मेरे कहने पर अंतरा ने अपने शरीर पर जख्मों के निशान उन्हें दिखाए, जिस से केस पुख्ता हो गया. थोड़ा वक्त लगा, लेकिन हम ने अपना काम कर दिया था. आगे का काम पुलिस करेगी. जतिन को सही राह पर लाने का एक यही तरीका मुझे कारगर लगा, क्योंकि सिर्फ मेरे समझानेभर से बात उस के पल्ले नहीं पड़ेगी. पुलिस, कानून और सजा का खौफ ही अब उसे सही रास्ते पर ला सकता है.

पूजा के चिट्ठी में कहे शब्दों के अनुसार, मैं उसे रिश्तों की इज्जत करना सिखाऊंगा और एक अच्छा इंसान बनाऊंगा, ताकि फिर कोई पूजा किसी मयंक के अत्याचारों से त्रस्त हो कर आत्महत्या करने को मजबूर न हो. औटो में वापसी के समय अंतरा के सिर पर मैं ने स्नेह से हाथ फेरा. उस की आंखों में खौफ की जगह अब सुकून नजर आ रहा था. यह देख मैं ने राहत की सांस ली.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें