शिकार: काव्या के लिए रंजन की नफरत

वह एक बार फिर उस के सामने खड़ा था. लंबाचौड़ा काला भुजंग. आंखों से झांकती भूख. एक ऐसी भूख जिसे कोई भी औरत चुटकियों में ताड़ जाती है. उस आदमी के लंबेचौड़े डीलडौल से उस की सही उम्र का पता नहीं लगता था, पर उस की उम्र 30 से 40 साल के बीच कुछ भी हो सकती थी.

वहीं दूसरी ओर काव्या गोरीचिट्टी, छरहरे बदन की गुडि़या सी दिखने वाली एक भोलीभाली, मासूम सी लड़की थी. मुश्किल से अभी उस ने 20वां वसंत पार किया होगा. कुछ महीने पहले दुख क्या होता है, तकलीफ कैसी होती है, वह जानती तक न थी.

मांबाप के प्यार और स्नेह की शीतल छाया में काव्या बढि़या जिंदगी गुजार रही थी, पर दुख की एक तेज आंधी आई और उस के परिवार के सिर से प्यार, स्नेह और सुरक्षा की वह पिता रूपी शीतल छाया छिन गई.

अभी काव्या दुखों की इस आंधी से अपने और अपने परिवार को निकालने के लिए जद्दोजेहद कर ही रही थी कि एक नई समस्या उस के सामने आ खड़ी हुई.

उस दिन काव्या अपनी नईनई लगी नौकरी पर पहुंचने के लिए घर से थोड़ी दूर ही आई थी कि उस आदमी ने उस का रास्ता रोक लिया था.

एकबारगी तो काव्या घबरा उठी थी, फिर संभलते हुए बोली थी, ‘‘क्या है?’’

वह उसे भूखी नजरों से घूर रहा था, फिर बोला था, ‘‘तू बहुत ही खूबसूरत है.’’

‘‘क्या मतलब…?’’ उस की आंखों से झांकती भूख से डरी काव्या कांपती आवाज में बोली.

‘‘रंजन नाम है मेरा और खूबसूरत चीजें मेरी कमजोरी हैं…’’ उस की हवस भरी नजरें काव्या के खूबसूरत चेहरे और भरे जिस्म पर फिसल रही थीं, ‘‘खासकर खूबसूरत लड़कियां… मैं जब भी उन्हें देखता हूं, मेरा दिल उन्हें पाने को मचल उठता है.’’

‘‘क्या बकवास कर रहे हो…’’ अपने अंदर के डर से लड़ती काव्या कठोर आवाज में बोली, ‘‘मेरे सामने से हटो. मुझे अपने काम पर जाना है.’’

‘‘चली जाना, पर मेरे दिल की प्यास तो बुझा दो.’’

काव्या ने अपने चारों ओर निगाह डाली. इक्कादुक्का लोग आजा रहे थे. लोगों को देख कर उस के डरे हुए दिल को थोड़ी राहत मिली. उस ने हिम्मत कर के अपना रास्ता बदला और रंजन से बच कर आगे निकल गई.

आगे बढ़ते हुए भी उस का दिल बुरी तरह धड़क रहा था. ऐसा लगता था जैसे रंजन आगे बढ़ कर उसे पकड़ लेगा.

पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. उस ने कुछ दूरी तय करने के बाद पीछे मुड़ कर देखा. रंजन को अपने पीछे न पा कर उस ने राहत की सांस ली.

काव्या लोकल ट्रेन पकड़ कर अपने काम पर पहुंची, पर उस दिन उस का मन पूरे दिन अपने काम में नहीं लगा. वह दिनभर रंजन के बारे में ही सोचती रही. जिस अंदाज से उस ने उस का रास्ता रोका था, उस से बातें की थीं, उस से इस बात का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता था कि रंजन की नीयत ठीक नहीं थी.

शाम को घर पहुंचने के बाद भी काव्या थोड़ी डरी हुई थी, लेकिन फिर उस ने यह सोच कर अपने दिल को हिम्मत बंधाई कि रंजन कोई सड़कछाप बदमाश था और वक्ती तौर पर उस ने उस का रास्ता रोक लिया था.

आगे से ऐसा कुछ नहीं होने वाला. लेकिन काव्या की यह सोच गलत साबित हुई. रंजन ने आगे भी उस का रास्ता बारबार रोका. कई बार उस की इस हरकत से काव्या इतनी परेशान हुई कि उस का जी चाहा कि वह सबकुछ अपनी मां को बता दे, लेकिन यह सोच कर खामोश रही कि इस से पहले से ही दुखी उस की मां और ज्यादा परेशान हो जाएंगी. काश, आज उस के पापा जिंदा होते तो उसे इतना न सोचना पड़ता.

पापा की याद आते ही काव्या की आंखें नम हो उठीं. उन के रहते उस का परिवार कितना खुश था. मम्मीपापा और उस का एक छोटा भाई. कुल 4 सदस्यों का परिवार था उस का.

उस के पापा एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में काम करते थे और उन्हें जो पैसे मिलते थे, उस से उन का परिवार मजे में चल रहा था. जहां काव्या अपने पापा की दुलारी थी, वहीं उस की मां उस से बेहद प्यार करती थीं.

उस दिन काव्या के पापा अपनी कंपनी के काम के चलते मोटरसाइकिल से कहीं जा रहे थे कि पीछे से एक कार वाले ने उन की मोटरसाइकिल को तेज टक्कर मार दी.

वे मोटरसाइकिल से उछले, फिर सिर के बल सड़क पर जा गिरे. उस से उन के सिर के पिछले हिस्से में बेहद गंभीर चोट लगी थी.

टक्कर लगने के बाद लोगों की भीड़ जमा हो गई. भीड़ के दबाव के चलते कार वाले ने उस के घायल पापा को उठा कर नजदीक के एक निजी अस्पताल में भरती कराया, फिर फरार हो गया.

पापा की जेब से मिले आईकार्ड पर लिखे मोबाइल से अस्पताल वालों ने जब उन्हें फोन किया तो वे बदहवास अस्पताल पहुंचे, पर वहां पहुंच कर उन्होंने जिस हालत में उन्हें पाया, उसे देख कर उन का कलेजा मुंह को आ गया.

उस के पापा कोमा में जा चुके थे. उन की आंखें तो खुली थीं, पर वे किसी को पहचान नहीं पा रहे थे.

फिर शुरू हुआ मुश्किलों का न थमने वाला एक सिलसिला. डाक्टरों ने बताया कि पापा के सिर का आपरेशन करना होगा. इस का खर्च उन्होंने ढाई लाख रुपए बताया.

किसी तरह रुपयों का इंतजाम किया गया. पापा का आपरेशन हुआ, पर इस से कोई खास फायदा न हुआ. उन्हें विभिन्न यंत्रों के सहारे एसी वार्ड में रखा गया था, जिस की एक दिन की फीस 10,000 रुपए थी.

धीरेधीरे घर का सारा पैसा खत्म होने लगा. काव्या की मां के गहने तक बिक गए, फिर नौबत यहां तक आई कि उन के पास के सारे पैसे खत्म हो गए.

बुरी तरह टूट चुकी काव्या की मां जब अपने बच्चों को यों बिलखते देखतीं तो उन का कलेजा मुंह को आ जाता, पर अपने बच्चों के लिए वे अपनेआप को किसी तरह संभाले हुए थीं. कभीकभी उन्हें लगता कि पापा की हालत में सुधार हो रहा है तो उन के दिल में उम्मीद की किरण जागती, पर अगले ही दिन उन की हालत बिगड़ने लगती तो यह आस टूट जाती.

डेढ़ महीना बीत गया और अब ऐसी हालत हो गई कि वे अस्पताल के एकएक दिन की फीस चुकाने में नाकाम होने लगे. आपस में रायमशवरा कर उन्होंने पापा को सरकारी अस्पताल में भरती कराने का फैसला किया.

पापा को ले कर सरकारी अस्पताल गए, पर वहां बैड न होने के चलते उन्हें एक रात बरामदे में गुजारनी पड़ी. वही रात पापा के लिए कयामत की रात साबित हुई. काव्या के पापा की सांसों की डोर टूट गई और उस के साथ ही उम्मीद की किरण हमेशा के लिए बुझ गई.

फिर तो उन की जिंदगी दुख, पीड़ा और निराशा के अंधकार में डूबती चली गई. तब तक काव्या एमबीए का फाइनल इम्तिहान दे चुकी थी.

बुरे हालात को देखते हुए और अपने परिवार को दुख के इस भंवर से निकालने के लिए काव्या नौकरी की तलाश में निकल पड़ी. उसे एक प्राइवेट बैंक में 20,000 रुपए की नौकरी मिल गई और उस के परिवार की गाड़ी खिसकने लगी. तब उस के छोटे भाई की पढ़ाई का आखिरी साल था. उस ने कहा कि वह भी कोई छोटीमोटी नौकरी पकड़ लेगा, पर काव्या ने उसे सख्ती से मना कर दिया और उस से अपनी पढ़ाई पूरी करने को कहा.

20 साल की उम्र में काव्या ने अपने नाजुक कंधों पर परिवार की सारी जिम्मेदारी ले ली थी, पर इसे संभालते हुए कभीकभी वह बुरी तरह परेशान हो उठती और तब वह रोते हुए अपनी मां से कहती, ‘‘मम्मी, आखिर पापा हमें छोड़ कर इतनी दूर क्यों चले गए जहां से कोई वापस नहीं लौटता,’’ और तब उस की मां उसे बांहों में समेटते हुए खुद रो पड़तीं.

धीरेधीरे दुख का आवेग कम हुआ और फिर काव्या का परिवार जिंदगी की जद्दोजेहद में जुट गया.

समय बीतने लगा और बीतते समय के साथ सबकुछ एक ढर्रे पर चलने लगा तभी यह एक नई समस्या काव्या के सामने आ खड़ी हुई.

काव्या जानती थी कि बड़ी मुश्किल से उस की मां और छोटे भाई ने उस के पापा की मौत का गम सहा है. अगर उस के साथ कुछ हो गया तो वे यह सदमा सहन नहीं कर पाएंगे और उस का परिवार, जिसे संभालने की वह भरपूर कोशिश कर रही है, टूट कर बिखर जाएगा.

काव्या ने इस बारे में काफी सोचा, फिर इस निश्चय पर पहुंची कि उसे एक बार रंजन से गंभीरता से बात करनी होगी. उसे अपनी जिंदगी की परेशानियां बता कर उस से गुजारिश करनी होगी

कि वह उसे बख्श दे. उम्मीद तो कम थी कि वह उस की बात समझेगा, पर फिर भी उस ने एक कोशिश करने का मन बना लिया.

अगली बार जब रंजन ने काव्या का रास्ता रोका तो वह बोली, ‘‘आखिर तुम मुझ से चाहते क्या हो? क्यों बारबार मेरा रास्ता रोकते हो?’’

‘‘मैं तुम्हें चाहता हूं,’’ रंजन उस के खूबसूरत चेहरे को देखता हुआ बोला, ‘‘मेरा यकीन करो. मैं ने जब से तुम्हें देखा है, मेरी रातों की नींद उड़ गई है. आंखें बंद करता हूं तो तुम्हारा खूबसूरत चेहरा सामने आ जाता है.’’

‘‘सड़क पर बात करने से क्या यह बेहतर नहीं होगा कि हम किसी रैस्टोरैंट में चल कर बात करें.’’

काव्या के इस प्रस्ताव पर पहले तो रंजन चौंका, फिर उस की आंखों में एक अनोखी चमक जाग उठी. वह जल्दी से बोला, ‘‘हांहां, क्यों नहीं.’’

रंजन काव्या को ले कर सड़क के किनारे बने एक रैस्टोरैंट में पहुंचा, फिर बोला, ‘‘क्या लोगी?’’

‘‘कुछ नहीं.’’

‘‘कुछ तो लेना होगा.’’

‘‘तुम्हारी जो मरजी मंगवा लो.’’

रंजन ने काव्या और अपने लिए कौफी मंगवाईं और जब वे कौफी पी चुके तो वह बोला, ‘‘हां, अब कहो, तुम क्या कहना चाहती हो?’’

‘‘देखो, मैं उस तरह की लड़की नहीं हूं जैसा तुम समझते हो,’’ काव्या ने गंभीर लहजे में कहना शुरू किया, ‘‘मैं एक मध्यम और इज्जतदार परिवार से हूं, जहां लड़की की इज्जत को काफी अहमियत दी जाती है. अगर उस की इज्जत पर कोई आंच आई तो उस का और उस के परिवार का जीना मुश्किल हो जाता है.

‘‘वैसे भी आजकल मेरा परिवार जिस मुश्किल दौर से गुजर रहा है, उस में ऐसी कोई बात मेरे परिवार की बरबादी का कारण बन सकती है.’’

‘‘कैसी मुश्किलों का दौर?’’ रंजन ने जोर दे कर पूछा.

काव्या ने उसे सबकुछ बताया, फिर अपनी बात खत्म करते हुए बोली, ‘‘मेरी मां और भाई बड़ी मुश्किल से पापा की मौत के गम को बरदाश्त कर पाए हैं, ऐसे में अगर मेरे साथ कुछ हुआ तो मेरा परिवार टूट कर बिखर जाएगा…’’ कहतेकहते काव्या की आंखों में आंसू आ गए और उस ने उस के आगे हाथ जोड़ दिए, ‘‘इसलिए मेरी तुम से विनती है कि तुम मेरा पीछा करना छोड़ दो.’’

पलभर के लिए रंजन की आंखों में दया और हमदर्दी के भाव उभरे, फिर उस के होंठों पर एक मक्कारी भरी मुसकान फैल गई.

रंजन काव्या के जुड़े हाथ थामता हुआ बोला, ‘‘मेरी बात मान लो, तुम्हारी सारी परेशानियों का खात्मा हो जाएगा. मैं तुम्हें पैसे भी दूंगा और प्यार भी. तू रानी बन कर राज करेगी.’’

काव्या को समझते देर न लगी कि उस के सामने बैठा आदमी इनसान नहीं, बल्कि भेडि़या है. उस के सामने रोने, गिड़गिड़ाने और दया की भीख मांगने का कोई फायदा नहीं. उसे तो उसी की भाषा में समझाना होगा. वह मजबूरी भरी भाषा में बोली, ‘‘अगर मैं ने तुम्हारी बात मान ली तो क्या तुम मुझे बख्श दोगे?’’

‘‘बिलकुल,’’ रंजन की आंखों में तेज चमक जागी, ‘‘बस, एक बार मुझे अपने हुस्न के दरिया में उतरने का मौका दे दो.’’

‘‘बस, एक बार?’’

‘‘हां.’’

‘‘ठीक है,’’ काव्या ने धीरे से अपना हाथ उस के हाथ से छुड़ाया, ‘‘मैं तुम्हें यह मौका दूंगी.’’

‘‘कब?’’

‘‘बहुत जल्द…’’ काव्या बोली, ‘‘पर, याद रखो सिर्फ एक बार,’’ कहने के बाद काव्या उठी, फिर रैस्टोरैंट के दरवाजे की ओर चल पड़ी.

‘तुम एक बार मेरे जाल में फंसो तो सही, फिर तुम्हारे पंख ऐसे काटूंगा कि तुम उड़ने लायक ही न रहोगी,’ रंजन बुदबुदाया.

रात के 12 बजे थे. काव्या महानगर से तकरीबन 3 किलोमीटर दूर एक सुनसान जगह पर एक नई बन रही इमारत की 10वीं मंजिल की छत पर खड़ी थी. छत के चारों तरफ अभी रेलिंग नहीं बनी थी और थोड़ी सी लापरवाही बरतने के चलते छत पर खड़ा कोई शख्स छत से नीचे गिर सकता था.

काव्या ने इस समय बहुत ही भड़कीले कपड़े पहन रखे थे जिस से उस की जवानी छलक रही थी. इस समय उस की आंखों में एक हिंसक चमक उभरी हुई थी और वह जंगल में शिकार के लिए निकले किसी चीते की तरह चौकन्नी थी.

अचानक काव्या को किसी के सीढि़यों पर चढ़ने की आवाज सुनाई पड़ी. उस की आंखें सीढि़यों की ओर लग गईं.

आने वाला रंजन ही था. उस की नजर जब कयामत बनी काव्या पर पड़ी, तो उस की आंखों में हवस की तेज चमक उभरी. वह तेजी से काव्या की ओर लपका. पर उस के पहले कि वह काव्या के करीब पहुंचे, काव्या के होंठों पर एक कातिलाना मुसकान उभरी और वह उस से दूर भागी.

‘‘काव्या, मेरी बांहों में आओ,’’ रंजन उस के पीछे भागता हुआ बोला.

‘‘दम है तो पकड़ लो,’’ काव्या हंसते हुए बोली.

काव्या की इस कातिल हंसी ने रंजन की पहले से ही भड़की हुई हवस को और भड़का दिया. उस ने अपनी रफ्तार तेज की, पर काव्या की रफ्तार उस से कहीं तेज थी.

थोड़ी देर बाद हालात ये थे कि काव्या छत के किनारेकिनारे तेजी से भाग रही थी और रंजन उस का पीछा कर रहा था. पर हिरनी की तरह चंचल काव्या को रंजन पकड़ नहीं पा रहा था.

रंजन की सांसें उखड़ने लगी थीं और फिर वह एक जगह रुक कर हांफने लगा.

इस समय रंजन छत के बिलकुल किनारे खड़ा था, जबकि काव्या ठीक उस के सामने खड़ी हिंसक नजरों से उसे घूर रही थी.

अचानक काव्या तेजी से रंजन की ओर दौड़ी. इस से पहले कि रंजन कुछ समझ सके, उछल कर अपने दोनों पैरों की ठोकर रंजन की छाती पर मारी.

ठोकर लगते ही रंजन के पैर उखड़े और वह छत से नीचे जा गिरा. उस की लहराती हुई चीख उस सुनसान इलाके में गूंजी, फिर ‘धड़ाम’ की एक तेज आवाज हुई. दूसरी ओर काव्या विपरीत दिशा में छत पर गिरी थी.

काव्या कई पलों तक यों ही पड़ी रही, फिर उठ कर सीढि़यों की ओर दौड़ी. जब वह नीचे पहुंची तो रंजन को अपने ही खून में नहाया जमीन पर पड़ा पाया. उस की आंखें खुली हुई थीं और उस में खौफ और हैरानी के भाव ठहर कर रह गए थे. शायद उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उस की मौत इतनी भयानक होगी.

काव्या ने नफरत भरी एक नजर रंजन की लाश पर डाली, फिर अंधेरे में गुम होती चली गई.

अपराध: क्या थी नीलकंठ की गलती

ऐलिस का साथ पाने के लिए नीलकंठ ने अपनी दम तोड़ती पत्नी सुरमा को बचाने की कोई कोशिश नहीं की.

एंबुलैंस का सायरन बज रहा था. लोग घबरा कर इधरउधर भाग रहे थे. छुट्टी का दिन होने से अस्पताल का आपातकालीन सेवा विभाग ही खुला था, शोरशराबे से डाक्टर नीलकंठ की तंद्रा भंग हो गई.

घड़ी पर निगाह डाली, रात के 10 बज कर 20 मिनट हो रहे थे. उसे ऐलिस के लिए चिंता हो रही थी और उस पर क्रोध भी आ रहा था. 9 बजे वह उस के लिए कौफी बना कर लाती थी. वैसे, उस ने फोन पर बताया था कि वह 1-2 घंटे देर से आएगी.

‘‘सर,’’ वार्ड बौय ने आ कर कहा, ‘‘एक गंभीर केस है, औपरेशन थिएटर में पहुंचा दिया है.’’

‘‘आदमी है या औरत?’’ नीलकंठ ने खड़े होते हुए पूछा.

‘‘औरत है,’’ वार्ड बौय ने उत्तर दिया, ‘‘कहते हैं कि आत्महत्या का मामला है.’’

‘‘पुलिस को बुलाना होगा,’’ नीलकंठ ने पूछा, ‘‘साथ में कौन है?’’

‘‘2-3 पड़ोसी हैं.’’

‘‘ठीक है,’’ औपरेशन की तैयारी करने को कहो. मैं आ रहा हूं. और हां, सिस्टर ऐलिस आई हैं?’’

‘‘जी, अभीअभी आई हैं. उस घायल औरत के साथ ही ओटी में हैं,’’ वार्ड बौय ने जाते हुए कहा.

राहत की सांस लेते हुए नीलकंठ ने कहा, ‘‘तब तो ठीक है.’’

वह जल्दी से ओटी की ओर चल पड़ा. दरअसल, मन में ऐलिस से मिलने की जल्दी थी, घायल की ओर ध्यान कम ही था.

ऐलिस को देखते ही वह बोला, ‘‘इतनी देर कहां लगा दी? मैं तो चिंता में पड़ गया था.’’

‘‘सर, जल्दी कीजिए,’’ ऐलिस ने उत्तर दिया, ‘‘मरीज की हालत बहुत खराब है. और…’’

‘‘और क्या?’’ नीलकंठ ने एप्रन पहनते हुए पूछा, ‘‘सारी तैयारी कर दी है न?’’

‘‘जी, सब तैयार है,’’ ऐलिस ने गंभीरता से कहा, ‘‘घायल औरत और कोई नहीं, आप की पत्नी सुरमा है.’’

‘‘सुरमा,’’ वह लगभग चीख उठा.

सुबह ही नीलकंठ का सुरमा से खूब झगड़ा हुआ था. झगड़े का कारण ऐलिस थी. नीलकंठ और ऐलिस का प्रणय प्रसंग उन के विवाहित जीवन में विष घोल रहा था. सुबह सुरमा बहुत अधिक तनाव में थी, क्योंकि नीलकंठ के कोट पर 2-4 सुनहरे बाल चमक रहे थे और रूमाल पर लिपस्टिक का रंग लगा था. सुरमा को पूरा विश्वास था कि ये दोनों चिह्न ऐलिस के ही हैं. कुछ कहने को रह ही क्या गया था? पूरी कहानी परदे पर चलती फिल्म की तरह साफ थी.

झुंझला कर क्रोध से पैर पटकता हुआ नीलकंठ बाहर निकल गया.

जातेजाते सुरमा के चीखते शब्द कानों में पड़े, ‘आज तुम मेरा मरा मुंह देखोगे.’

ऐसी धमकियां सुरमा कई बार दे

चुकी थी. एक बार नीलकंठ ने

उसे ताना भी दिया था, ‘जानेमन, जीना जितना आसान है, मरना उतना ही मुश्किल है. मरने के लिए बहुत बड़ा दिल और हिम्मत चाहिए.’

‘मर कर भी दिखा दूंगी,’ सुरमा ने तड़प कर कहा था, ‘तुम्हारी तरह नाटकबाज नहीं हूं.’

‘देख लूंगा, देख लूंगा,’ नीलकंठ ने विषैली मुसकराहट के साथ कहा था, ‘वह शुभ घड़ी आने तो दो.’

आखिर सुरमा ने अपनी धमकी को हकीकत में बदल दिया था. उन का घर 5वीं मंजिल पर था. वह बालकनी से नीचे कूद पड़ी थी. इतनी ऊंचाई से गिर कर बचना बहुत मुश्किल था. नीचे हरीहरी घास का लौन था. उस दिन घास की कटाई हो रही थी. सो, कटी घास के ढेर लगे थे. सुरमा उसी एक ढेर पर जा कर गिरी. उस समय मरी तो नहीं, पर चोट बहुत गहरी आई थी.

शोर मचते ही कुछ लोग जमा हो गए, उन्होंने सुरमा को पहचाना और यही ठीक समझा कि उसे नीलकंठ के पास उसी के अस्पताल में पहुंचा दिया जाए.

काफी खून बह चुका था. नब्ज बड़ी मुश्किल से पकड़ में आ रही थी. शरीर का रंग फीका पड़ रहा था. नीलकंठ के मन में कई प्रश्न उठ रहे थे, ‘सुरमा से पीछा छुड़ाने का बहुत अच्छा अवसर है. इस के साथ जीवन काटना बहुत दूभर हो रहा है. हमेशा की किटकिट से परेशान हो चुका हूं. एक डाक्टर को समझना हर औरत के वश की बात नहीं, कितना तनावपूर्ण जीवन होता है. अगर चंद पल किसी के साथ मन बहला लिया तो क्या हुआ? पत्नी को इतना तो समझना ही चाहिए कि हर पेशे का अपनाअपना अंदाज होता है.’

सहसा चलतेचलते नीलकंठ रुक गया.

‘‘क्या हुआ, सर?’’ ऐलिस ने चिंतित स्वर में पूछा, ‘‘आप की तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘मैं यह औपरेशन नहीं कर सकता,’’ नीलकंठ ने लड़खड़ाते स्वर में कहा, ‘‘कोई डाक्टर अपनी पत्नी या सगेसंबंधी का औपरेशन नहीं करता, क्योंकि वह उन से भावनात्मक रूप से जुड़ा होता है. उस के हाथ कांपने लगते हैं.’’

‘‘यह आप क्या कह रहे हैं?’’ ऐलिस ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘जल्दी से डाक्टर जतिन को बुला लो,’’ नीलकंठ ने वापस मुड़ते हुए कहा. वह सोच रहा था कि औपरेशन में जितनी देर लगेगी, उतनी जल्दी ही सुरमा इस दुनिया से दूर चली जाएगी.

‘‘यह कैसे हो सकता है?’’ ऐलिस ने तनिक ऊंचे स्वर में कहा, ‘‘डाक्टर जतिन को आतेआते एक घंटा तो लगेगा ही. लेकिन इतना समय कहां है? मैं मानती हूं कि आप के लिए पत्नी को इस दशा में देखना बड़ा कठिन होगा और औपरेशन करना उस से भी अधिक मुश्किल, पर यह तो आपातस्थिति है.’’

‘‘नहीं,’’ नीलकंठ ने कहा, ‘‘यह डाक्टरी नियमों के विरुद्ध होगा और यह बात तुम अच्छी तरह जानती हो.’’

‘‘ठीक है, कम से कम आप कुछ देखभाल तो करें,’’ ऐलिस ने कहा, ‘‘मैं अभी डाक्टर जतिन को संदेश भेजती हूं.’’

डाक्टर नीलकंठ जब ओटी में घुसा तो आंखों के सामने अंधेरा छा रहा था, कितने ही उद्गार मन में उठते और फिर बादलों की तरह गायब हो जाते थे.

सामने सुरमा का खून से लथपथ शरीर पड़ा था, जिस से कभी उस ने प्यार किया था. वे क्षण कितने मधुर थे. इस समय सुरमा की आंखें बंद थीं, एकदम बेहोश और दीनदुनिया से बेखबर. इतना बड़ा कदम उठाने से पहले उस के मन में कितना तूफान उठा होगा? एक क्षण अपराधभावना से नीलकंठ का हृदय कांप उठा, जैसे कोई अदृश्य शक्ति उस के शरीर को झंझोड़ रही हो.

नीलकंठ ने कांपते हाथों से सुरमा के बदन से खून साफ किया. उस का सिर फट गया था. वह कितने ही ऐसे घायल व्यक्ति देख चुका था, पर कभी मन इतना विचलित नहीं हुआ था. वह सोचने लगा, क्या सुरमा की जान बचा सकना उस के वश में है?

लेकिन डाक्टर जतिन के आने से पहले ही सुरमा मर चुकी थी. नीलकंठ सूनी आंखों से उसे देख रहा था, वह जड़वत खड़ा था.

जतिन ने शव की परीक्षा की और धीरे से नीलकंठ के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘मुझे दुख है, सुरमा अब इस दुनिया में नहीं है. ऐलिस, नीलकंठ को केबिन में ले जाओ, इसे कौफी की जरूरत है.’’

ऐलिस ने आहिस्ता से नीलकंठ का हाथ पकड़ा और लगभग खींचते हुए ओटी से बाहर ले गई. कमरे में ले जा कर उसे कुरसी पर बैठाया.

‘‘सर, मुझे दुख है,’’ ऐलिस ने आहत स्वर में कहा, ‘‘सुरमा के ऐसे अंत की मैं ने कभी स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी. मैं अपने को कभी माफ नहीं कर सकूंगी.’’

नीलकंठ ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘‘तुम्हारा कोई दोष नहीं, कुसूर मेरा है.’’

नीलकंठ आंखें बंद किए सोच रहा था, ‘शायद सुरमा को बचा पाना मेरे वश से बाहर था, पर कोशिश तो कर ही सकता था. लेकिन मैं टालता रहा, क्योंकि सुरमा से छुटकारा पाने का यह सुनहरा अवसर था. मैं कलह से मुक्ति पाना चाहता था. अब शायद ऐलिस मेरे और करीब आ जाएगी.’

ऐलिस सामने कौफी का प्याला लिए खड़ी थी. वह आकर्षक लग रही थी.

पुलिस सूचना पा कर आ गई थी. औपचारिक रूप से पूछताछ की गई. यह स्पष्ट था कि दुर्घटना के पीछे पतिपत्नी के बिगड़ते संबंध थे, परंतु नीलकंठ का इस दुर्घटना में कोईर् हाथ नहीं था. नैतिक जिम्मेदारी रही हो, पर कानूनी निगाह से वह निर्दोष था. पोस्टमार्टम के बाद शव नीलकंठ को सौंप दिया गया. दोनों ओर के रिश्तेदार सांत्वना देने और घर संभालने आ गए थे. दाहसंस्कार के बाद सब के चले जाने पर एक सूनापन सा छा गया.

नीलकंठ को सामान्य होने में सहायता दी तो केवल ऐलिस ने. अस्पताल में ड्यूटी के समय तो वह उस की देखभाल करती ही थी, पर समय पा कर अपनी छोटी बहन अनीषा के साथ उस के घर भी चली जाती थी. चाय, नाश्ता, भोजन, जैसा भी समय हो, अपने हाथों से बना कर देती थी. धीरेधीरे नीलकंठ के जीवन में शून्य का स्थान एक प्रश्न ने ले लिया.

कई महीनों के बाद नीलकंठ ने एक दिन ऐलिस से कहा, ‘‘मैं तुम्हारे जैसी पत्नी ही पाना चाहता था. तुम मुझे पहले क्यों नहीं मिलीं. यह सोच कर कभीकभी आश्चर्य होता है.’’

‘‘सर,’’ ऐलिस बोली, ‘‘सर.’’

नीलकंठ ने टोकते हुए कहा, ‘‘मैं ने कितनी बार कहा है कि मुझे ‘सर’ मत कहा करो. अब तो हम दोनों अच्छे दोस्त हैं. यह औपचारिकता मुझे अच्छी नहीं लगती.’’

‘‘क्या करूं,’’ ऐलिस हंस पड़ी, ‘‘सर, आदत सी पड़ गई है, वैसे कोशिश करूंगी.’’

‘‘तुम मुझे नील कहा करो,’’ उस ने ऐलिस की आंखों में झांकते हुए कहा, ‘‘मुझे अच्छा लगेगा.’’

ऐलिस हंस पड़ी, ‘‘कोशिश करूंगी, वैसे है जरा मुश्किल.’’

‘‘कोई मुश्किल नहीं,’’ नीलकंठ हंसा, ‘‘आखिर मैं भी तो तुम्हें ऐलिस कह कर बुलाता हूं.’’

‘‘आप की बात और है,’’ ऐलिस ने कहा, ‘‘आप किसी भी संबंध से मुझे मेरे नाम से पुकार सकते हैं.’’

‘‘तो फिर किस संबंध से तुम मेरा नाम ले कर मुझे बुलाओगी?’’ नीलकंठ के स्वर में शरारत थी.

‘‘पता नहीं,’’ ऐलिस ने निगाहें फेर लीं.

‘‘तुम जानती हो, मेरे मन में तुम्हारे लिए क्या भावना है,’’ नीलकंठ ने कहा, ‘‘मैं चाहता हूं कि तुम मेरे सूने जीवन में बहार बन कर प्रवेश करो.’’

‘‘यह तो अभी मुमकिन नहीं,’’ ऐलिस ने छत की ओर देखा.

‘‘अभी नहीं तो कोई बात नहीं,’’ नीलकंठ ने कहा, ‘‘पर वादा तो कर सकती हो?’’ नीलकंठ को विश्वास था कि ऐलिस इनकार नहीं करेगी, शक की कोई गुंजाइश नहीं थी.

‘‘यह कहना भी मुश्किल है,’’ ऐलिस ने मेज पर पड़े चम्मच से खेलते हुए कहा.

‘‘क्यों?’’ नीलकंठ ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘आखिर हम अच्छे दोस्त हैं?’’

‘‘बस, दोस्त ही बने रहें तो अच्छा है,’’ ऐलिस ने कहा.

‘‘क्या मतलब?’’ नीलकंठ ने खड़े होते हुए पूछा, ‘‘तुम कहना क्या चाहती हो?’’

‘‘यही कि अगर शादी कर ली तो इस बात की क्या गारंटी है,’’ ऐलिस ने एकएक शब्द तोलते हुए कहा, ‘‘कि मेरा भी वही हश्र नहीं होगा, जो सुरमा का हुआ? आखिर दुर्घटना तो सभी के साथ घट सकती है?’’

यह सुनते ही नीलकंठ को मानो सांप सूंघ गया. उस ने कुछ कहना चाहा, पर जबान पर मानो ताला पड़ गया था. ऐलिस ने साथ देने से इनकार जो कर दिया था.

दहशत: क्या सामने आया चोरी का सच

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चिड़िया चुग गईं खेत: शादीशुदा मनोज के साथ थाईलैंड में क्या हुआ था – भाग 5

वह शाम भी उस ने जूली के साथ बिताई. पूरे समय जूली उस का आभार प्रकट करती रही. उस ने मनोज को कसम खिलाई कि वह भारत वापस जा कर उसे भूलेगा नहीं और हमेशा उसे फोन करेगा.

दूसरे दिन मनोज भारत के लिए वापस निकल आया. जूली ने आंखों में आंसू भर कर उसे भावभीनी विदाई दी. उस ने वादा किया कि वह जल्द से जल्द उसे पैसे वापस करेगी.

भारत वापस आने पर मनोज का हर रोज जूली से बात करने का सिलसिला जारी रहा. बातों से ही उसे पता चला कि जूली अपने घर लौट गई है और उस ने शौप खोल ली है. वह हर रोज अपने कार्य की प्रगति के बारे में उत्साह से उसे बताती, जैसे आज उस ने क्या खरीदा, उसे शौप में कैसे जमाया, लोग उस की दुकान पर आने लगे हैं, उसे उस के पैसे जल्द से जल्द चुकाने हैं इसलिए वह ज्यादा से ज्यादा मेहनत कर रही है.

इधर, दिन, हफ्ते, महीने बीत गए पर जूली ने मनोज का एक भी पैसा वापस नहीं किया. मनोज को तो भावेश, सुरेश और बाकी लोगों के पैसे वापस करने ही पड़े. दोनों अकसर उसे कहते कि उस ने धोखा खाया है. जूली ने उसे बेवकूफ बनाया है पर मनोज का मन यह मानने को तैयार नहीं होता. लेकिन आजकल वह जब भी जूली से पैसे लौटाने की बात करता, वह टालमटोल करने लगती, अपनी परेशानियां गिनाने लगती. फिर एक दिन अचानक जूली ने अपना फोन बंद कर दिया. मनोज महीनों उसे फोन लगाता रहा पर वह नंबर स्विच औफ ही आता. अब तो मनोज भी समझ गया कि उस ने धोखा खाया.

वह रातदिन जूली को गालियां देता और अपनी मूर्खता पर पछताता. ठगे जाने से वह बुरी तरह तिलमिला रहा था. उसे सब से ज्यादा जलन इस बात पर हो रही थी कि उस के दोस्त इस से बहुत कम पैसों में लड़कियों के साथ ऐश कर आए और वह इतना सारा पैसा खर्च कर के भी सूखा रह गया. बेकार की भावनात्मक सहानुभूति में पड़ कर अच्छाभला चूना लग गया.

2 साल बीत गए. जूली का अतापता नहीं था. मनोज भी उस कसक को जैसेतैसे कर के भूल गया था.

एक दिन मुंबई में उस का एक दोस्त उस से मिलने आया. दोनों औफिस में मनोज के केबिन में बैठ कर बातें कर रहे थे. बातों ही बातों में उस के दोस्त अजय ने उसे बताया कि वह हाल ही में थाईलैंड के पटाया शहर गया था. और उस के बाद अजय की कहानी सुन कर मनोज सन्न रह गया. उसे लगा कि जैसे अजय उस की ही कहानी सुना रहा है. उस की कहानी का प्रत्येक शब्द और घटना वही थी जो

2 साल पहले मनोज के साथ घटी थी.

मनोज के घाव हरे हो गए. उस ने अजय को अपनी आपबीती सुनाई. सुन कर अजय भी बुरी तरह चौंक गया. उस ने तुरंत जूली को फोन लगाया क्योंकि उस के पास उस का नया नंबर था ही. उस ने स्पीकर औन कर के जूली से बात की. जूली की आवाज सुनते ही मनोज उसे पहचान गया. उस ने अजय को इशारे से बताया कि यह वही है. अब तो अजय भी बौखला गया और मनोज का तो गुस्से से बुरा हाल हो गया. उस के अंदर लावा उबलने लगा. वह जूली को अनापशनाप बोलने लगा. पहले तो वह अचकचा गई फिर मनोज को पहचान गई. मनोज उसे गालियां देने लगा तो जूली को भी गुस्सा आ गया.

‘‘देखिए, मिस्टर मनोज, जबान संभाल कर बात करिए. आप को कोई हक नहीं बनता मुझे बुराभला बोलने का,’’ जूली तीखे स्वर में बोली.

‘‘धोखेबाज, एक तो धोखा देती हो ऊपर से तेवर दिखाती हो. उलटा चोर कोतवाल को डांटे,’’ मनोज तिलमिला कर बोला.

‘‘धोखेबाज कौन है यह अपनेआप से पूछो,’’ जूली कड़वे स्वर में बोली, ‘‘तुम मर्द लोग विदेश जा कर कम उम्र की लड़कियों के साथ रंगरलियां मनाने और ऐश करने के लिए सदा लालायित रहते हो. दूसरी लड़कियों के साथ गुलछर्रे उड़ाने को आतुर रहते हो. लड़कियों के साथ घूमने और एंजौय करने, मौजमस्ती करते समय तुम्हें एक बार भी यह खयाल नहीं आता कि तुम अपनी पत्नियों के साथ धोखा कर रहे हो. लड़कियां तुम्हें हंस कर देख लें, तुम्हारे साथ मौजमस्ती कर लें तो तुम्हें अपना जीवन सार्थक और धन्य नजर आने लगता है. बोलो, तुम्हारा अंतर्मन एक बार भी तुम्हें कचोटता नहीं है?’’

फिर थोड़ा रुक कर –

‘‘मैं ने न तुम्हारी जेब काटी न बंदूक दिखा कर तुम्हें लूटा है. पैसे तुम ने अपनी मरजी से मुझे दिए थे.’’

‘‘लेकिन तुम ने पैसे वापस करने को तो कहा था न? उस का क्या?’’ मनोज गुस्से से बोला.

‘‘हां, कहा था. नहीं कहती तो क्या एक गरीब और असहाय लड़की की सहायता बिना किसी लालच के करते तुम लोग? नहीं, कभी नहीं करते. धोखा असल में मैं ने तुम्हें नहीं दिया, तुम्हारी गलत प्रवृत्ति ने तुम्हें दिया है. सचसच बताना, पैसा देने के बाद क्या तुम्हारे मन में मेरे साथ हमबिस्तर होने की तीव्र इच्छा नहीं हो रही थी? पैसे के एवज में क्या तुम लोग मेरा शरीर नहीं चाह रहे थे. वह तो मैं पूरे समय तुम्हें शराफत का वास्ता देती रही, इसलिए बच गई. और मैं तुम्हारी मर्यादा और चरित्र की झूठी तारीफें भी इसीलिए करती रहती थी कि तुम लोग अपनी हद में रहो.’’

जूली की बातों की सचाई ने मानो उन्हें नंगा कर दिया. दोनों एकदूसरे से नजरें चुराते हुए सिर नीचा कर के बैठे रहे और जूली बोलती रही.

‘‘सच कहूं तो पुरुषों को उन की प्रवृत्ति ही धोखा देती है. नया रोमांच, नया अनुभव पाने की इच्छा ही उन्हें डुबोती है. तुम लोग अपनी पत्नियों के प्रति वफादार होते नहीं और हमें गालियां देते हो. क्या बुरा करती हूं जो तुम जैसे मर्दों से पैसा ऐंठ कर मैं आज तक अपनी इज्जत बचाती आई हूं. आज के बाद मुझे कभी फोन मत करना क्योंकि यह नंबर मैं आज ही बंद कर दूंगी. अच्छा हुआ, जो अजय को भी सच पता चल गया. गुडबाय,’’ और जूली ने फोन काट दिया.

अजय और मनोज सन्न हो कर चुप बैठे थे, जूली ने उन्हें आईना दिखा दिया था. चिडि़यां खेत चुग चुकी थीं.

घर का न घाट का: क्या धोखेबाज निकला सुरेश – भाग 4

सुदेश की मां ने अपने पति को आड़े हाथों लिया, ‘‘मुझे तो दाल में काला पहले ही नजर आया था, पर तब कैसे ठसक कर बोले थे कि तुझे तो चांद में भी दाग नजर आता है.’’ सुदेश के पिता ने माथा पीट लिया, ‘‘वाकई मेरी आंखें चुंधियां गई थीं. हमें अपनी हैसियत देखनी चाहिए थी. हमारे लिए तो सतवंत जैसा सीधासादा आदमी ही ठीक रहता.’’ अगले दिन सतवंत ने सुदेश के पिता से अकेले में बातचीत की. क्लीवलैंड में जो कुछ हुआ, उस के बारे में बतलाया और वकील दोस्त द्वारा दिए गए जरूरी कागज संभलवाए. इन में सुरेश और सूजेन की क्लीवलैंड में 6 साल पहले हुई शादी की रजिस्ट्री की नकल भी थी. वहां के एक साप्ताहिक में प्रकाशित नवदंपती का चित्र और शादी के प्रकाशित समाचार की कतरनें भी थीं.

सतवंत ने कहा, ‘‘आप पूरे मामले पर ठंडे दिमाग से सोच लें. दोस्तों और रिश्तेदारों से सलाह ले लें, फिर जैसा उचित समझें, करें. यहां की अदालत में धोखाधड़ी का मुकदमा चलाया जा सकता है. सुरेश को दिन में तारे नजर आ जाएंगे. यहां आ कर पैरवी करने में नानी याद आ जाएगी. अखबारों में भी खबरें छपेंगी. खानदान की शान की सब ठसक निकल जाएगी. इस से विदेशों में बसे उन भारतीयों को भी सबक मिलेगा, जो इस तरह की हरकतें करते हैं.’’ अंतिम वाक्य कहतेकहते उस का गला भर आया. आंखों से आंसू झरने लगे. तब उस ने अपनी इकलौती बहन का किस्सा सुनाया. सुदेश के पिता ने उसे छाती से लगा लिया. आंसू पोंछे. अपनी गरीबी, साधनहीनता का दुखड़ा रोया. मुकदमे की भागदौड़, परेशानी उठाने में असमर्थता प्रकट की. सतवंत ने यह कह कर विदा ली, ‘‘मेरे लायक सेवा हो तो बता देना. अमृतसर का मेरा यह पता है. मुझे तो टैक्सी चलानी है. वहां नहीं, यहीं चला लूंगा. जैसा ठीक समझें, तय कर लें.’’

सुदेश के पिता ने अपनी पत्नी से बात की. दोनों ने सुदेश के दिल की थाह ली. वह सुरेश के साथ किसी कीमत पर रहने को तैयार नहीं थी. सगेसबंधियों से राय ली. 15 दिनों बाद अदालत में मुकदमा दायर किया गया. सुरेश ने सूजेन से समझौते की बहुत कोशिश की पर वह तलाक पर अडिग थी. करोड़पति बाप की उस बेटी को पतियों की क्या कमी थी? उसे सब से बड़ा मलाल यह था कि सुरेश ने उस से झूठ क्यों बोला. सुदेश को नौकरानी बतलाया. अनजाने में सुदेश के प्रति किए गए अपने व्यवहार के लिए वह बहुत लज्जित थी. वह सुदेश को खोज कर उस से माफी मांगने को आतुर थी. सुदेश के प्रति किए गए अपमानजनक व्यवहार का उसे एक ही प्रायश्चित्त नजर आ रहा था, सुरेश से तलाक.

तलाक का मतलब सुरेश के लिए अपने अस्तित्व पर ही कुठाराघात था. यह नौकरी तो हाथ से जा ही रही थी, अन्य कहीं पर भी ढंग की नौकरी मिलने की उम्मीद नहीं थी. जहां भी जाएगा, पुरानी कंपनी में किए गए अच्छे काम का प्रमाणपत्र देना होगा. झूठ बोल कर तिकड़मबाजी कर के नौकरी मिल भी गई तो देरसवेर नई कंपनी वाले पुरानी कंपनी से रिपोर्ट अवश्य मांगेंगे. उस का भविष्य बालू की तरह बह जाने वाला था. तभी भारत से, अंबाला की अदालत से, कचहरी में पेश होने का सम्मन पहुंचा. कोढ़ में खाज. सुरेश ने सिर पीट लिया. उस ने घर वालों को लिखा कि सुदेश को गलतफहमी हो गई है. समझाबुझा कर, मामला रफादफा करा दें. सुरेश के पिता अंबाला जा कर सुदेश के पिता से मिले और सब जान कर स्वयं विस्मित रह गए. उन्होंने सुदेश के पिता को मुकदमा वापस लेने के लिए बहुत मिन्नतखुशामद की. लेदे कर मामला खत्म करने की बात की. बिचौलियों द्वारा 50 लाख रुपए तक की पेशकश की. उन से कहा, ‘‘इस रकम से वे सुदेश की कहीं दूसरी जगह शादी कर दें.’’

सुदेश किसी कीमत पर समझौता करने को तैयार नहीं थी. नारी के प्रतिशोध की अग्नि सहज ही ठंडी नहीं होती. सूजेन ने भी सुरेश को नहीं स्वीकारा, नौकरी भी गई और पत्नी भी. इधर मुकदमा शुरू हो गया था. उसे भारत आना पड़ा. वह कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रह गया था. अंबाला आ कर उस ने सुदेश के घर वालों से माफी मांगी, सुदेश के सामने गिड़गिड़ाया. किसी समय किए अपने प्यार की दुहाई दी, पर सुदेश ने अपने दिल की स्लेट पर से उस का नाम सदासदा के लिए मिटा दिया था. मुकदमे की हर तारीख से सुरेश के कदम जेल के फाटक की तरफ बढ़ते गए. उस के नामीगरामी वकील द्वारा फैलाया गया गलतफहमी का कुहरा सचाई की किरणें सहन नहीं कर पाता था और जब सुदेश के वकील ने क्लीवलैंड से आया सूजेन का वह पत्र अदालत में पढ़ कर सुनाया, जिस में उस ने सुदेश से अपने व्यवहार के लिए माफी मांगने के अतिरिक्त यह भी लिख रखा था कि यदि जरूरत पड़े तो वह भारत आ कर गवाही देने को भी तैयार है, तो सुरेश की पैरवी में कोई दम ही नहीं रह गया था.

अगली तारीख पर निर्णय सुना दिया गया. सुरेश को 3 साल के कठोर कारावास का दंड दिया गया. हरजाने के तौर पर 50 हजार रुपया सुदेश को दिए जाने का भी आदेश था अन्यथा कारावास की अवधि 2 वर्ष और बढ़ा दी जानी थी.

न्यायाधीश ने अपने निर्णय में टिप्पणी देते हुए प्रवासी भारतीयों के साथ अपनी पुत्रियों का विवाह करने वाले अभिभावकों को चेतावनी दी कि उस देश में स्थित भारतीय दूतावास के माध्यम से उन्हें संबंधित व्यक्ति के संबंध में पहले पूरी जानकारी कर लेनी चाहिए, तभी रिश्ता पक्का करना चाहिए. आंख ओझल पहाड़ ओझल. वहां उन के साथ क्या बीतती है, कौन जाने? कितनी लड़कियां अदालत का द्वार खटखटाती हैं? साहसिक कदम उठाने के लिए सुदेश की भूरिभूरि सराहना की गई. उसे अपने मनपसंद व्यक्ति से विवाह करने की छूट दे दी गई.

सैकड़ों आंखों का केंद्र बनी सुदेश जब अदालत के कमरे से बाहर निकली तो सतवंत अपनी टैक्सी के पास टहल रहा था. सुदेश की आंखों से खुशी के, विजय के आंसू निकल पड़े. वह सतवंत की तरफ बढ़ी, एक क्षण ठिठकी और फिर उस के कंधे पर हाथ रख कर उस की छाती पर अपना सिर टिका दिया.

अगले रविवार को एक साधारण से समारोह में सुदेश और सतवंत का विवाह हो गया.

सुरेश कहीं का नहीं रह गया था. न घर का, न घाट का.

चिड़िया चुग गईं खेत: शादीशुदा मनोज के साथ थाईलैंड में क्या हुआ था -भाग 4

बच्चों और सासससुर व घर की देखभाल में लीन एक आदर्श भारतीय नारी. उस की पत्नी, मां और बहू के रूप में आदर्श भारतीय नारी थी. लेकिन वह मनोज के स्वभाव के अनुकूल नहीं थी.

मनोज मस्तमौला, खिलंदड़ स्वभाव का था. वह चाहता था कि मीरा भी उस के साथ दोस्तों की महफिलों में जाए, हंसीमस्ती करे, पार्टियां मनाए, कैंडललाइट डिनर करे, परंतु मीरा को यह सब पसंद नहीं था. उस के पीछे हर समय घर या बच्चों का कोई न कोई काम लगा ही रहता था और मनोज मन मसोस कर रह जाता.

मनोज के दोस्त लड़कियों के साथ अपनी दोस्ती और मौजमस्ती के किस्से सुनाते तो मनोज का दिल भी बल्लियों उछलने लगता था. पर क्या करे, उस के तो औफिस के उस विभाग में, जहां वह काम करता था, एक भी लड़की नहीं थी.

मगर अब जूली से मिलने के बाद मनोज के मन की रंगीनियां जागने लगी थीं. आज का कैंडललाइट डिनर उस के दिल को छू गया था. पैसे को हमेशा किफायत और संभाल कर खर्च करने वाला मनोज अब दिल खोल कर पैसा खर्च कर रहा था ताकि दिल की वर्षों से अधूरी पड़ी तमन्नाएं पूरी हो जाएं.

सुबह मनोज की आंख जल्दी खुल गई. वह देर तक जूली के बारे में सोचता हुआ पलंग पर पड़ा रहा. 8 बजे भावेश और सुरेश फिर से आ धमके मसाज के लिए. आज मनोज सहर्ष तैयार हो गया. तीनों फिर पहुंचे पार्लर. जूली व्यग्रता से मनोज की राह देख रही थी. वह लपक कर उस के पास आई और हाथ पकड़ कर उसे केबिन में ले गई.

आज मसाज के समय मनोज के मन में इच्छाओं के सर्प फन उठा रहे थे. नसों का लहू बारबार आवेश से तेज हो रहा था. पर जूली मसाज करते हुए पूरे समय मनोज के सचरित्र और सभ्यता, संस्कारों के गुण गाती रही, इसलिए वह कुछ बोल नहीं पाया. अपने मन को जबरदस्ती काबू में कर के रखा. आज उन लोगों को शहर से बाहर समुद्र के किनारे पेरासीलिंग के लिए जाना था. बे्रकफास्ट कर के वे लोग निकल जाएंगे और देर शाम को वापस आएंगे. सुनते ही जूली का चेहरा उतर गया तो मनोज ने उसे आश्वासन दिया कि वह डिनर उसी के साथ करेगा.

दिनभर के कार्यकलापों में मनोज बहुत थक चुका था. वह पलंग पर पड़े रहना चाहता था लेकिन जूली से मिलने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा था. गरमागरम पानी से नहा कर वह तैयार हो कर नियत समय पर नियत स्थान पर पहुंच गया. जूली वहां पहले से ही प्रतिक्षारत खड़ी थी. आज उसे देखते ही भावातिरेक में जूली ने उसे गले से लगा लिया. मनोज फड़क उठा. उस की सारी थकान दूर हो गई. देर तक वे पटाया की रंगीन चकाचौंध और मस्ती से भरी हुई सड़कों पर घूमते रहे. फिर एक रैस्टोरेंट में आ कर बैठ गए. वहां का माहौल मदहोश कर देने वाला था. डांसफ्लोर पर जोड़े एकदूसरे की बांहों में खोए हुए झूम रहे थे.

जूली ने मनोज से डांस का प्रस्ताव रखा. उसे तो मुंहमांगी मुराद मिल गई. वह झट से उठ बैठा. जूली के जवान और मस्ती में चूर शरीर के सान्निध्य में मनोज अपनी सुधबुध खो बैठा. वह इस नए अनुभव में पूरी तरह मदहोश हो गया. जूली का नशा उस पर पूरी तरह चढ़ चुका था. वह उस के जादू में गिरफ्तार हो गया.

डिनर करते समय जूली ने आंखों में आंसू भर कर फिर अपनी व्यथा सुनाई कि मातापिता की वृद्धावस्था और दवाइयों के बढ़ते खर्च के दबाव के चलते उस की मां ने कल फिर से उसे रेड जोन में जाने का आग्रह किया. कल उस की मां ने उसे बहुतकुछ उलटासीधा सुनाया कि उसे उन की जरा सी भी चिंता नहीं है, वह तो बस अपनेआप में ही मस्त है.

‘‘मैं उस गंदे धंधे में नहीं पड़ना चाहती मनोज, पर मां लगातार मुझ पर दबाव बनाती जा रही हैं. हर दूसरे दिन मुझे बुराभला कहती रहती हैं. मैं क्या करूं, इस से तो अच्छा है मैं आत्महत्या कर लूं,’’ जूली सुबकते हुए बोली.

‘‘नहींनहीं, जूली.’’ उस के हाथ पर सहानुभूति से अपना हाथ रखते हुए मनोज ने उसे सांत्वना दी, ‘‘ऐसे निराश नहीं होते. मैं जाने के पहले ऐसा इंतजाम कर जाऊंगा कि तुम्हें इस कीचड़ में न धंसना पड़े.’’

‘‘ओह मनोज, सच में. मैं ने अपने जीवन में तुम्हारे जैसा सच्चे और भले हृदय का आदमी नहीं देखा,’’ भावनाओं के अतिरेक में जूली ने मनोज का हाथ अपने दोनों हाथों से पकड़ कर चूम लिया.

उस रात होटल के कमरे में सोया मनोज सुबह होने तक इसी उधेड़बुन में पड़ा रहा कि क्या करे और क्या नहीं. एक क्षण उसे एहसास होता कि वह व्यर्थ ही जूली के चक्कर में पड़ गया है. 4 दिनों के लिए आया है, घूमेफिरे और लौट जाए. बेकार ही यह जंजाल उस ने अपने गले बांध लिया है. जिंदगी में दोबारा कभी उस से मुलाकात तो होगी नहीं, फिर इतना पैसा वह क्यों उस पर खर्च करने की सोच रहा है.

पर दूसरे ही क्षण उस का पुरुषत्व उसे धिक्कारता कि वह एक बेबस की मदद करने से कतरा रहा है. वह भी चंद पैसों के लिए. सच तो यह था कि वह गले तक जूली के आकर्षण में डूब चुका था. उस में पता नहीं ऐसा क्या था कि वह अपनेआप को जूली से तटस्थ नहीं रख पा रहा था. आखिर में उस ने यही तय किया कि वह जूली की मदद अवश्य करेगा. तब जा कर उसे नींद आई.

2 हजार डौलर मामूली रकम नहीं थी. दूसरे दिन भावेश, सुरेश और दोएक और दोस्तों के पास से इकट्ठा कर के मनोज ने ठीक 2 हजार डौलर जूली को दिए. क्षणभर को जूली हतप्रभ सी खड़ी डौलर्स को देखती रही, फिर मनोज के गले लग कर रोने लगी. उस की आंखों में खुशी के आंसू बह रहे थे. उस का स्पर्श पा कर मनोज के दिल में तरंगें उठने लगीं. मन में यह लालसा होने लगी कि काश, अब तो जूली खुश हो कर बस एक बार समर्पण कर दे. पर ऊपर से मर्यादावश वह कुछ बोल नहीं सका. अफसोस, जूली ने भी ऐसी कोई इच्छा नहीं जताई.

दहशत – भाग 4 : क्या सामने आया चोरी का सच

कुछ देर के बाद गौरव ने प्रीति को फोन किया. ‘‘एक प्रौब्लम हो गई है प्रीतिजी, खाना तो सब तैयार है लेकिन उसे परोसेंगे किस में? आप बुरा न मानें तो खाना यहीं मंगवा लूं मगर मेरे पास भी बरतन नहीं हैं, आप के यहां ही आना पड़ेगा.’’

‘‘तो आइए न डा. राघव और दूसरे मेहमानों से भी मेरी ओर से आने का आग्रह कीजिए.’’ ‘‘दूसरे मेहमान हमारे सीनियर डाक्टर थे, सो उन्हें असलियत बता कर राघव ने माफी मांग ली है. जो डाक्टर राघव के साथ रहते हैं उन दोनों की आज नाइट शिफ्ट है. सो, बस राघव ही आएगा. माफ करिएगा, मेहमान के बजाय आप को मेजबान बना रहा हूं.’’

‘‘माई प्लैजर डाक्टर, डू कम प्लीज.’’ कुछ देर के बाद गौरव और राघव राजू के साथ खाने का सामान उठाए हुए आ गए.

‘‘राजू को रोक लें, खाना गरम कर के सर्व कर देगा?’’

‘‘हां, फिर खुद भी खा लेगा. चलो, राजू तुम्हें बता दूं कि कहां क्या रखा है.’’ राजू को सब समझा कर प्रीति भुने पिस्ते और काजू ले कर आई, ‘‘जब तक राजू सूप गरम कर के लाता है तब तक इस से टाइमपास करते हैं.’’ ‘‘गुड आइडिया,’’ राघव ने पिस्ते उठाते हुए कहा, ‘‘वैसे आप दोनों ने इस कालोनी के लोगों को कई रोज के लिए टाइमपास का जरिया दे दिया.’’ लेकिन हंसने के बजाय प्रीति ने गंभीरता से कहा, ‘‘टाइमपास से ज्यादा बात फिक्र करने की है. आज जो हुआ है उस से तो लग रहा है कि चोर कालोनी में ही रहता है.’’ ‘‘वह तो आप के साथ हुए हादसे से ही पता चल गया था,’’ गौरव ने गौर से उस की ओर देखा. वह सहमी हुई सी लग रही थी.

‘‘आज भी उस ने यह हरकत की और मौका लगते ही फिर कर सकता है,’’ राघव बोला.

‘‘यानी हमें बहुत संभल कर रहना पड़ेगा. शुंभ से कहती हूं कोई फुलटाइम नौकरानी तलाश करे मेरे लिए जो रात में भी मेरे यहां रहे,’’ प्रीति ने चिंतित स्वर में कहा. ‘‘यह ठीक रहेगा, इस से आप का अकेलापन भी दूर होगा,’’ गौरव ने प्रीति के मनोभाव पढ़ने की कोशिश की, ‘‘थकेहारे काम से खाली घर में लौटने पर थकान और बढ़ जाती है.’’

‘‘यू कैन से दैट अगेन,’’ प्रीति ने उसांस ले कर कहा.

‘‘अकेलेपन से परेशानी है तो अकेलापन दूर करने का स्थायी प्रबंध क्यों नहीं करते आप दोनों…’’

‘‘क्यों, आप को अकेलेपन से परेशानी नहीं है?’’ प्रीति ने राघव की बात काटी.

‘‘होनी शुरू हो गई थी तभी तो मधु से उस की पढ़ाई खत्म होने से पहले ही शादी कर ली. वह लखनऊ में एमडी कर रही है, चंद महीनों में पूरी कर के यहां आएगी.’’

‘‘और तब राघव के घर में चलने वाला हमारा मैस बंद हो जाएगा,’’ गौरव ने कहा.

‘‘तो अपने घर में चला लीजिएगा, आप के 2 साथी और भी तो हैं.’’ इस से पहले कि गौरव प्रीति के सुझाव पर प्रतिक्रिया व्यक्त करता, राजू सूप ले कर आ गया और विषय बदल गया.

‘‘अच्छा लगा आप से मिल कर,’’ राघव ने चलने से पहले कहा, ‘‘मधु की मुलाकात करवाऊंगा आप से.’’

‘‘जरूर, उन की वैलकम पार्टी यहीं रख लेंगे, क्यों गौरव?’’

‘‘दैट्स एन आइडिया,’’ गौरव फड़क कर बोला. प्रीति के मुंह से अपना नाम सुन कर वह अभिभूत हो गया था. किसी भी तरह इस अनौपचारिकता को आगे बढ़ाना होगा. उसे राघव पर भी गुस्सा आया. क्यों उस ने राजू से टेबल और किचन साफ करवा दिया वरना इसी बहाने प्रीति की मदद करने को वह कुछ देर और रुक जाता. अब तो खैर जाना ही पड़ेगा मगर जल्दी ही कोई और मौका ढूंढ़ना होगा. और मौका अगले रोज ही मिल गया. सोसायटी के क्लबहाउस में शाम को इमरजैंसी मीटिंग रखी गई थी जिस में प्रत्येक फ्लैट से एक सदस्य का आना अनिवार्य था. गौरव ने प्रीति को फोन किया. ‘‘जिन हादसों से घबरा कर मीटिंग रखी गई है उन के शिकार तो हम दोनों ही हैं तो हमारा जाना तो जरूरी है. आप चल रही हैं?’’

‘‘जी हां, और आप?’’

‘‘मैं भी चल रहा हूं. इकट्ठे ही चलते हैं.’’ गौरव ने सोचा तो था कि इकट्ठे ही बैठेंगे मगर लिफ्ट में वर्मा दंपती भी मिल गए, प्रीति श्रीमती वर्मा के साथ चलते हुए उन्हीं के साथ ही अन्य महिलाओं के पास बैठ गई. प्रीति से तो किसी ने कुछ नहीं पूछा लेकिन गौरव की स्वयं की लापरवाही मानने पर भूषणजी ने कहा कि ऐसी गलती किसी से भी हो सकती है, सो बेहतर होगा कि पहले माले की सभी बालकनियों में ऊपर तक ग्रिल लगवा दी जाए और हरेक बिल्डिंग के गेट पर सीसीटीवी कैमरा. अधिकांश लोगों ने तो प्रस्ताव का अनुमोदन किया और कुछ ने महंगाई के बहाने अतिरिक्त खर्च का विरोध किया मगर सुरक्षा का कोई दूसरा विकल्प न होने से प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास हो गया और मीटिंग खत्म. गौरव ने सुना, कुछ महिलाएं प्रीति से कह रही थीं, ‘‘चोर के बहाने उस रोज आप के यहां बढि़या पकौड़े खाने को मिल गए.’’

‘‘पकौड़ों की दावत तो आप को जब चाहे दे सकती हूं.’’ ‘‘मगर उस से पहले आप को हमारे यहां आना पड़ेगा,’’ किसी ने कहा. ‘‘बुध को मेरे यहां किटी पार्टी है न, उस में प्रीति को बुला लेते हैं,’’ श्रीमती वर्मा बोलीं, ‘‘हमारी खातिर एक रोज छुट्टी कर लेना प्रीति.’’

‘‘आप पार्टी का समय बता दीजिए, मैं आ जाऊंगी और पार्टी खत्म होने पर फिर औफिस चली जाऊंगी,’’ प्रीति हंसी.

‘‘ऐसी बात है तो आप हमारी किटी जौइन कर लीजिए न. महीने में 1 बार कुछ घंटों का बंक मारना तो चलता है.’’ ‘‘देखते हैं,’’ प्रीति ने वर्मा दंपती के साथ चलते हुए कहा. कुछ दूर जा कर वर्मा दंपती एक और बिल्ंिडग में चले गए और गौरव लपक कर प्रीति के साथ आ गया.

‘‘आप डा. राघव के साथ नहीं गए?’’

‘‘उस के साथ जा कर क्या करता? वह तो अभी मधु से चैट करेगा. खाना तो हम लोग 9 बजे के बाद खाते हैं.’’

‘‘अभी घर जा कर क्या करेंगे?’’

‘‘चैनल सर्फिंग, जब तक कुछ दिलचस्प न मिल जाए. आप क्या करेंगी?’’

‘‘वही जो आप करेंगे. उस से पहले आप को कौफी पिला देती हूं.’’

‘‘जरूर,’’ गौरव मुसकराया.

‘‘चोर के बहाने आप की तो कालोनी में जानपहचान हो गई, किटी पार्टी में जाने से और भी हो जाएगी,’’ गौरव ने कौफी पीते हुए प्रीति की ओर देखा, ‘‘खाली समय आसानी से कट जाया करेगा.’’ प्रीति के अप्रतिभ चेहरे से लगा जैसे चोरी करती रगेंहाथों पकड़ी गई हो. ‘‘उन महिलाओं का जो खाली समय होगा तब मुझे फुरसत नहीं होगी और जब मैं खाली हूंगी तो वे अपने घरपरिवार में व्यस्त होंगी,’’ प्रीति ने एक गहरी सांस खींची, ‘‘वैसे जानपहचान तो आप से भी हो गई है.’’ ‘‘और मेरे पास तो शाम को खाली वक्त भी होता है. अस्पताल से 7 बजे छुट्टी मिल जाती है. कई बार घर आ कर 9 बजे तक टाइम गुजारना मुश्किल हो जाता है. ऐसे में कभी फोन कर सकता हूं?’’ गौरव ने मौका लपका.

‘‘औफिस से जल्दी निकलने पर अकसर मैं मैडिटेशन सैंटर चली जाती हूं. सो, हो सकता है तब आप को मेरा मोबाइल बंद मिले.’’

‘‘अपने घर में सन्नाटा कम है क्या जो शांति की तलाश में मैडिटेशन सैंटर जाती हैं?’’ गौरव हंसा.

‘‘अपने पास जो होता है उस की कद्र कौन करता है?’’ प्रीति भी हंसने लगी.

‘‘यह तो है, पहले बंधन और रिश्तों से बचने के लिए अपनों को नकारते हैं और फिर भीड़ में भी अकेले रह जाते हैं.’’

‘‘सही कहा आप ने, अपनों की भीड़ तो चौराहों से अपनी राह चली जाती और आप तनहा खड़े रह जाते हैं खुद की बनाई बंद गली में.’’ ‘बंद ही नहीं, अंधेरी गली में जिस की घुटन से घबरा कर आप ने खुद सामान को गिरा कर एक काल्पनिक चोर का निर्माण किया था और दहशत का माहौल बना दिया था जिस की सचाई जानने को मैं ने अपनी और राघव की क्रौकरी तोड़ी, पहली मंजिल से कूदने का रिस्क लिया. भले ही इस सब से कालोनी वालों का आजकल के माहौल के किए उपयुक्त सुरक्षा मिल गई और आप को थोड़ी बहुत दोस्ती,’  गौरव ने कहना चाहा मगर यह सोच कर चुप रहा कि अभी यह कहना बहुत जल्दबाजी होगी. कोशिश तो यही रहेगी कि ये सब बगैर बताए ही प्रीति के करीब आ कर उस की और अपनी जिंदगी से अकेलेपन की वीरानगी और दहशत हमेशा के लिए दूर कर दें.

भूल किसकी: रीता की बहन ने उसके पति के साथ क्या किया?- भाग 4

प्रिंस जैसेजैसे बड़ा हो रहा था पापाजी उतने ही छोटे बनते जा रहे थे. दिनभर उस के साथ खेलना, उस के जैसे ही तुतला कर उस से बात करना. आज रीता की किट्टी पार्टी थी. प्रिंस को खाना खिला कर पापाजी के पास सुला कर वह किट्टी में जाने के लिए तैयार होने लगी. वैसे भी प्रिंस ज्यादा समय अपने दादाजी के साथ बिताता था, इसलिए उसे छोड़ कर जाने में रीता को कोई परेशानी नहीं थी.

जिस के यहां किट्टी थी उस के कुटुंब में किसी की गमी हो जाने की वजह से किट्टी कैंसिल हो गई और वह जल्दी घर लौट आई. बाहर तुषार की गाड़ी देख आश्चर्य हुआ. आज औफिस से इतनी जल्दी कैसे आना हुआ… अगले ही पल आशंकित होते हुए कि कहीं तबीयत तो खराब नहीं है, जल्दीजल्दी बैडरूम की ओर बढ़. दरवाजे पर पहुंचते ही ठिठक गई.

अंदर से रीमा की आवाजें जो आ रही थीं. रीमा को तो इस समय कालेज में होना चाहिए. यहां कैसे? कहीं पापाजी की बात सही तो नहीं है? गुस्से में जोर से दरवाजा खोला. अंदर का नजारा देखते ही उस के होश उड़ गए. तुषार तो रीता को देखते ही सकपका गया पर रीमा के चेहरे पर शर्मिंदगी का नामोनिशान नहीं था.

गुस्से से रीता का चेहरा तमतमा उठा. आंखों से अंगारे बरसने लगे. पूरी ताकत से रीमा को इसी समय कमरे से और घर से जाने को कहा. तुषार तो सिर  झुकाए खड़ा रहा पर रीमा ने कमरे से बाहर जाने से साफ इनकार कर दिया. रीता ने बहुत बुराभला कहा पर रीमा पर उस का कुछ भी असर नहीं हुआ.

हार कर रीता को ही कमरे से बाहर आना पड़ा. उस की रुलाई थमने का नाम ही नहीं ले रही थी. बड़ी मुश्किल से अपनेआप को संभाला और फिर हिम्मत कर तुषार से बात करने कमरे में गई और बोली ‘‘तुषार इस घर में या तो रीमा रहेगी या मैं,’’ उसे लगा यह सुन कर तुषार रीमा को जाने के लिए कह देगा.

मगर वह बोला, ‘‘रीमा तो यहीं रहेगी, तुम्हें यदि नहीं पसंद तो तुम जा सकती हो.’’

तुषार से इस जवाब की उम्मीद तो रीता को बिलकुल नहीं थी. अब उस के पास कहने को कुछ नहीं था.

सुचित्रा और शेखर ने भी रीमा को सम झाने की बहुत कोशिश की, पर अपनी जिद पर अड़ी रीमा किसी की भी बात सुनने को तैयार नहीं थी. अभी तक जो काम चोरीछिपे होता था अब वह खुल्लमखुल्ला होने लगा. रीता को तो अपने बैडरूम से भी बेदखल होना पड़ा. जिस घर में हंसी गूंजती थी अब वीरानी सी छाई थी. आखिर कोई कब तक सहे. इन सब का असर रीता की सेहत पर भी होने लगा. सुचित्रा और शेखर ने तय किया कि रीता उन के पास आ कर रहेगी वरना वहां रह कर तो घुटती रहेगी.’’

तुषार को प्रमोशन मिली थी. आज उस ने प्रमोशन की खुशी में पार्टी रखी थी. रीता जाना ही नहीं चाहती थी, लोगों की नजरों और सवालों से बचना जो चाहती थी. पार्टी में वह रीमा को ले कर गया.

पापाजी बहुत परेशान थे. उन्हें सम झ ही नहीं आ रहा था इस मामले को कैसे सुल झाया जाए. वे किसी भी कीमत पर रीता और प्रिंस को इस घर से जाने नहीं देना चाहते थे. उन के जाने के बाद वे कैसे जीएंगे. पर रोकें भी तो कैसे? इसी उधेड़बुन में लगे थे कि अचानक उन्होंने एक ठोस निर्णय ले ही लिया.

रीता का कमरा साफ करते हुए सुचित्रा ने शेखर से कहा, ‘‘पता नहीं मु झ से रीमा की परवरिश में कहां चूक हो गई.’’

‘‘कितनी बार तुम से कहा अपनेआप को दोष मत दिया करो सुचित्रा.’’

‘‘नहीं शेखर, यदि बचपन में ही उस की जिद न मानी होती तो शायद यह दिन न देखना पड़ता. जब भी उस ने रीता की किसी चीज पर हक जमाया हम ने हमेशा यह कह कर रीता को सम झाया कि छोटी बहन है दे दो, पर इस बार उस ने जो चीज लेनी चाही है वह कैसे दी जा सकती है?

‘‘सपने में भी नहीं सोचा था. रीमा रीता का घर ही उजाड़ देगी, काश मैं ने रीमा पर नजर रखी होती, उसे इतनी छूट न दी होती. ये सब मेरी भूल की वजह से हुआ.’’

रीता बैग में कपड़े रखते हुए सोच रही थी कि उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि यह दिन भी देखना पड़ेगा. तुषार भी बदल जाएगा. काश मैं ने पापाजी की बात को सीरियसली लिया होता. उन्होंने तो मु झे बहुत बार आगाह किया पर मैं सम झ ही नहीं पाई. जो कुछ हुआ उस में मेरी ही गलती है.

पापाजी के मन में उथलपुथल मची थी. वे रीता के पास जा कर बोले, ‘‘कपड़े वापस अलमारी में रखो. तुम कहीं नहीं जाओगी.’’

‘‘पर पापाजी मैं यहां रह कर क्या करूंगी जब तुषार ही नहीं चाहता?’’

‘‘क्या मैं तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं? इस घर को घर तो तुम ने ही बनाया है. तुम चली जाओगी तो वीराना हो जाएगा. मैं कैसे जीऊंगा तुम्हारे और प्रिंस के बिना. अब तुम अपने बैडरूम में जाओ. यह घर तुम्हारा है.’’

‘‘जी पापाजी,’’ कह वह प्रिंस को ले कर सोने चली गई.

रात के 2 बज रहे थे. तुषार और रीमा अभी तक नहीं आए थे. पापाजी की आंखों की नींद उड़ गई थी. वे सोच रहे थे कि मैं तो बड़ा और अनुभवी था जब मु झे आभास हो गया था तो चुप क्यों बैठा रहा. सारी मेरी गलती है.

हरकोई इस भूल के लिए अपनेआप को दोषी ठहरा रहा था, जबकि जो दोषी था वह तो अपनेआप को दोषी मान ही नहीं रहा था. घड़ी ने 12 बजा दिए. पापाजी ने अंदर से दरवाजा लौक किया और आंखें बंद कर दीवान पर लेट गए. मन में विचारों का घुमड़ना जारी था. गेट खुलने की आवाज आते ही पापाजी ने खिड़की से देखा, तुषार गाड़ी पार्क कर रहा था. दोनों हाथों में हाथ डाले लड़खड़ाते हुए दरवाजे की ओर बढ़ रहे थे.

तुषार ने इंटर लौक खोला पर दरवाजा नहीं खुला, ‘‘यह दरवाजा क्यों नहीं खुल रहा?’’

‘‘हटो, मैं खोलती हूं.’’

पर रीमा से भी नहीं खुला.

‘‘लगता है किसी ने अंदर से बंद कर दिया है.’’

‘‘अरे, ये बैग कैसे रखे यहां?’’

‘‘रीता के होंगे. वह आज मम्मी के घर जा रही थी न.’’

तुषार ने दरवाजा कई बार खटखटाया पर कोई उत्तर न आने पर रीता को आवाज लगाई. पर तब भी कोई जवाब नहीं.

‘‘लगता है रीता गहरी नींद में है, पापाजी को आवाज लगाता हूं.’’

‘‘यह दरवाजा नहीं खुलेगा,’’ अंदर से ही पापाजी ने जवाब दिया.

‘‘देखो, दरवाजे पर ही एक तुम्हारा और एक रीमा का बैग रखा है.’’

‘‘यह घर मेरा है मु झे अंदर आने दीजिए.’’

‘‘बरखुरदार, तुम भूल रहे हो मैं ने अभी यह घर तुम्हारे नाम नहीं किया है.’’

‘‘पापाजी मैं इस समय कहां जाऊंगी?’’

‘‘यह फैसला भी तुम्हें ही करना है… इस घर में तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं. जब तुम्हें पूरी तरह सम झ आ जाए कि तुम क्या कर रहे हो और कुछ ऐसा कि इस दरवाजे की एक और चाबी तुम्हें मिले, तब तक यह दरवाजा बंद सम झो.’’

दोनों का नशा काफूर हो चुका था. थोड़ी देर इंतजार किया कि शायद पापाजी दरवाजा खोल दें. मगर जब दरवाजा नहीं खुला तो गाड़ी स्टार्ट करते हुए बोला, ‘‘रीमा, चलो गाड़ी में बैठो.’’

रीमा ने कहा, ‘‘तुषार, मु झे घर पर उतार दो. तुम्हें तो रात को शायद होटल में रहना पड़ेगा,’’ रीमा को मन में खुशी भी थी कि बहन का घर तोड़ दिया पर यह डर भी था कि तुषार जैसा वेबकूफ पार्टनर कहीं हाथ से न निकल जाए.

‘‘तुषार भी शादी के दिन इतना सुंदर नहीं लगा था जितना आज लग रहा था.

कहते हैं जब व्यक्ति खुश होता है तो चेहरे पर चमक आ ही जाती है…’’

दहशत – भाग 3 : क्या सामने आया चोरी का सच

शुंभ जब खाली बरतन उठा रहा था तो फोन की घंटी बजने पर प्रीति बैडरूम में चली गई. गौरव से पकौड़ों की तारीफ सुनने पर शुंभ ने सकुचाए स्वर में कहा, ‘‘थैंक यू सर, डरतेडरते बनाए थे बहुत दिनों के बाद, किचन का काम करने की आदत छूट गई है.’’

‘‘क्यों, मैडम खाना नहीं बनवातीं?’’

‘‘जब कभी पार्टी हो तभी. और आज तो अरसे बाद पार्टी हुई है.’’

‘‘मैडम बहुत बिजी रहने लगी हैं?’’

‘‘वे तो हमेशा से ही हैं मगर अब सब सहेलियां दोस्त शादी कर के अपनीअपनी घरगृहस्थी में मगन हो गए हैं. किसी को दूसरों के घर आनेजाने की फुरसत ही नहीं है. पहले तो बगैर पार्टी के भी बहुत आनाजाना रहता था पर अब कोई बुलाने पर भी नहीं आता,’’ शुंभ के स्वर की व्यथा गौरव को बहुत गहरी लगी, ‘‘आजकल तो काम के बाद टीवी देख कर ही समय गुजारती हैं.’’ तभी प्रीति आ गई, ‘‘माफ करिएगा, आप को इंतजार करना पड़ा. लंदन से मम्मीपापा का फोन था. सो, बीच में रखना ठीक नहीं समझा.’’

‘‘आप के मम्मीपापा लंदन में हैं?’’

‘‘जी हां, मेरी डाक्टर बहन के पास. छुटकी अकेली है, सो ज्यादातर उसी के पास रहते हैं.’’

‘‘अकेली तो आप भी हैं,’’ गौरव के मुंह से बेसाख्ता निकल पड़ा. ‘‘यहां और वहां के अकेलेपन में बहुत फर्क है. वैसे यहां भी अब लोग स्वयं में ही व्यस्त रहने लगे हैं. एक कप गरम चाय और चलेगी?’’

‘‘जी नहीं, अब चलूंगा. पकौड़े बहुत खा लिए हैं, सो एफ-1 में बताना भी है कि मैं आज रात को खाना नहीं खाऊंगा. डा. राघव के यहां हम कुछ दोस्त एक नौकर से खाना बनवाते हैं.’’

‘‘खाने के बहाने दोस्तों से गपशप भी हो जाती होगी.’’

‘‘जी हां, और दोस्तों को भी बुलाते रहते हैं. एक रोज आप को भी बुलाऊंगा.’’ इस से पहले कि वह खुद को रोकता, शब्द उस के मुंह से निकल चुके थे लेकिन प्रीति ने बुरा मानने के बजाय सहज भाव से कहा, ‘‘जरूर, मुझे इंतजार रहेगा उस रोज का.’’

‘‘ठीक है, मिलते हैं फिर,’’ कह कर गौरव ने विदा ली. राघव के घर जाने से पहले गौरव ने कालोनी के 2-3 चक्कर लगाए, वह कुछ सोच रहा था और उसे अपनी सोच सही लग रही थी. अगले सप्ताहांत डा. गौरव ने प्रीति को डिनर पर बुलाया. वह इस शर्त पर आना मान गई कि वह 9 बजे के बाद आएगी. गौरव ने कहा कि वे लोग भी 8 बजे के बाद ही घर पहुंचते हैं. लेकिन साढ़े 8 बजे के करीब एफ-1 में हादसा हो गया. बहुत जोर से कुछ गिरने और कांच टूटने की सी आवाज आई. ठंड के बावजूद कई लोग डिनर के बाद टहलने निकले हुए थे. एफ-1 में रहने वाला डा. राघव तभी आया था और अपनी गाड़ी लौक कर रहा था. उस के हाथ से चाबी छूटतेछूटते बची.

‘‘यह क्या हुआ, चौकीदार?’’ उस ने घबराए स्वर में पूछा.

‘‘जो भी हुआ है फर्स्ट फ्लोर पर ही हुआ है साहब, ऐसा लग रहा है जैसे मेरे सिर पर ही कुछ गिरा है,’’ चौकीदार ने सिर सहलाते हुए कहा.

‘‘तुम्हारे सिर पर तो डा. राघव का फ्लैट है,’’ किसी ने कहा, ‘‘चल कर देखिए डाक्टर साहब.’’

‘‘आप लोग भी चलिए न,’’ डा. राघव ने घबराए स्वर में कहा.

‘‘राजू तो घर में होगा साहब.’’

‘‘शायद नहीं, उसे खाना लाने बाजार जाना था,’’ राघव ने सीढि़यां चढ़ते हुए कहा. तभी न जाने कहां से गौरव आ गया, ‘‘क्या हुआ यार, सुना है प्रीति चावला वाला अदृश्य मानुष अपने घर में घुस आया है.’’

राघव ने डरतेडरते  ताला खोला, कमरे में अंधेरा था, ‘‘चौकीदार, टौर्च मिलेगी?’’ ‘‘डर मत यार, मैं अंदर जा कर लाइट जलाता हूं,’’ गौरव ने आगे बढ़ कर लाइट जलाई. उस के पीछे और सब भी कमरे में आ गए. कमरे में ज्यादा सामान नहीं था. डाइनिंगटेबल के पास रखा साइडबोर्ड जमीन पर औंधा पड़ा था और उस में रखे चीनी व कांच के समान के टुकड़े दूरदूर तक फर्श पर बिखरे हुए थे. ‘‘इतना भारी साइडबोर्ड अपने से तो गिर नहीं सकता. जरूर कोई इस से अंधेरे में टकराया है, कमरों में देखो, जरूर कोई छिपा हुआ होगा.’’

‘‘कमरे तो सब बाहर से बंद हैं मित्तल साहब, परदों के पीछे या किचन में होगा,’’ राघव ने कहा.

‘‘वह भाग चुका है राघव, बालकनी का दरवाजा खुला हुआ है. उस से कूद कर भाग गया,’’ गौरव ने कहा.

‘‘लेकिन कूदता हुआ नजर तो आता, बहुत लोग टहल रहे हैं कंपाउंड में.’’

‘‘मेन रोड पर, यहां हैज के पीछे अंधेरे में कौन आता है या इधर देखता भी है,’’ गौरव बोला.

‘‘लेकिन गौरव, सुबह मैं सब के बाद गया था. और मैं ने जाने से पहले बालकनी का दरवाजा भी बंद किया था,’’ राघव ने कहा.

‘‘मैं थोड़ी देर पहले आया था राघव, कुछ क्रिस्टल ग्लास टम्बलर ले कर. उन्हें राजू से धुलवा कर साइडबोर्ड में सजाने और राजू को बाजार भेजने के बाद मैं बालकनी में आ कर खड़ा हो गया था. फिर कपड़े बदलने जाने की जल्दी में मैं बगैर बालकनी बंद किए मेनगेट बंद कर के अपने घर जा रहा था कि आधे रास्ते में ही शोर सुन कर वापस आ गया,’’ गौरव ने कहा.

‘‘आप के पास भी यहां की चाबी है?’’ मित्तल ने पूछा.

‘‘आटोमैटिक लौक को बंद करने के लिए चाबी की जरूरत नहीं होती…’’ इस से पहले कि गौरव अपनी बात पूरी कर पाता, घबराई और उस से भी ज्यादा हड़बड़ाई सी प्रीति आ गई.

‘‘यह मैं क्या सुन रही हूं?’’

‘‘जो सुना वह देख भी लीजिए,’’ गौरव ने हंसते हुए फर्श पर बिखरे कांच की ओर इशारा किया.

‘‘ओह नो, मेरे यहां तो खैर कुछ नुकसान नहीं हुआ था लेकिन…’’

‘‘इस में से कुछ तो बहुत महंगा और बिलकुल नया सामान था जो गौरव ने आज ही खरीदा था और कुछ देर पहले शोकेस में सजाया था,’’ राघव ने प्रीति की बात काटी. ‘‘क्या बात है डा. गौरव, नई क्रौकरी की खरीदारी, बाहर से खाना मंगवाना कोई खास दावतवावत है?’’ एक प्रश्न उछला.

‘‘इन फालतू सवालों के बजाय हम मुद्दे की यानी चोरी की बात क्यों नहीं करते मित्तल साहब?’’ किसी ने तल्ख स्वर में कहा. ‘‘उस की बात क्या करेंगे?’’ गौरव ने कंधे उचकाए, ‘‘बालकनी का दरवाजा खुला छोड़ कर जाने की लापरवाही मैं मान ही रहा हूं, चौकीदार ने मेनगेट तभी बंद करवा दिया था, अब चोर कहां भाग कर गया, यह तो सोसायटी के कर्ताधर्ता ही सोचेंगे. हमें तो यह सोचना है कि रात के खाने का क्या करें, किचन में जाने का रास्ता तो कांच से अटा पड़ा है.’’ ‘‘फिक्र मत कर यार, राजू कुछ खाना बना गया है और कुछ ले कर आता ही होगा. आ कर टूटा हुआ कांच हटा देगा,’’ राघव ने कहा फिर सब की ओर देख कर बोला, ‘‘माफ करिएगा, आप को बैठने को नहीं कह सकते क्योंकि इतनी कुरसियां ही नहीं हैं.’’ ‘‘कोई बात नहीं, हम चलते हैं,’’ कह कर सब चलने लगे और उन के साथ ही प्रीति भी, गौरव उसे रोकने के बजाय उस के साथ ही चल दिया.

‘‘आप कहां चल दिए डा. गौरव, बगैर खाना खाए?’’ मित्तल ने पूछा.

‘‘घर कपड़े बदलने, मैं अस्पताल के कपड़ों में खाना नहीं खाता.’’

‘‘खाना खाने का मूड रहा है अब?’’ प्रीति ने धीरे से पूछा.

‘‘एक डाक्टर होने के नाते मूड के लिए न तो खुद खाना छोड़ता हूं और न किसी को छोड़ने देता हूं,’’ गौरव मुसकराया, ‘‘आप भी चेंज कर लीजिए, फिर वापस आते हैं एफ-1 में.’’

घर का न घाट का: क्या धोखेबाज निकला सुरेश -भाग 3

रात के 12 बज रहे थे. रास्ता ठीक तरह मालूम नहीं था, फिर भी वह झील की तरफ चली जा रही थी. तभी एक टैक्सी पास से निकली और आगे जा कर रुक गई. सुदेश के प्राण सूख गए. आकाश से गिरी, खजूर में अटकी. जाने अब क्या हो. कौन हो? कहीं सुरेश ही तो नहीं? सुरेश नहीं था. पर जो अजनबी था वह बहुत अपना सा लग रहा था. चेहरा दाढ़ीमूंछ में छिपा था, पर ईमानदारी, भोलापन, सच्चरित्रता आंखों से छलकी पड़ रही थी. वह सरदार सतवंत सिंह टैक्सी ड्राइवर था. सुदेश ने परदेश में पहली बार किसी सरदार को देखा था. उसे लगा जैसे वह पंजाब में कहीं अपने गांव में खड़ी है. भारतीय स्त्री को देख कर सतवंत सिंह भी चौंका. वह उसे बेहद डरी हुई दिख रही थी.

सतवंत ने अनुमान लगाया कि वह झील में डूब कर आत्महत्या करने जा रही है. उस ने अधिक पूछताछ न कर के टैक्सी का पीछे का द्वार खोल कर एक प्रकार से जबरन सुदेश को भीतर ढकेल दिया. अपने डेरे पर पहुंच कर सुदेश को सब तरह से तसल्ली दे कर उस की आपबीती सुनी. सुदेश ने जब कहना बंद किया तो सतवंत सिंह की आंखें नम हो चुकी थीं. 3 साल पहले उस की अपनी सगी बहन सुरेंद्र कौर को भी कोई डाक्टर इसी प्रकार ब्याह कर ले आया था. बहुत दिनों बाद बहन ने जैसेतैसे किसी प्रकार फोन किया थी. पर जब तक सतवंत यहां तक पहुंचने का जुगाड़ कर पाया, वह जीवन से तंग आ कर आत्महत्या कर चुकी थी. उस ने ऐसे कितने ही किस्से सुनाए कि किस प्रकार प्रवासी भारतीय छुट्टियों में देश जाने पर विवाहित होते हुए भी दूसरी शादी कर लेते हैं. कोईकोई तो मोटा दहेज भी समेट लेते हैं. उस लड़की को फिर रखैल की तरह रख लेते हैं. पतिव्रता भारतीय स्त्री पति को सबकुछ मानने वाली, रोधो कर जिंदगी से समझौता कर लेती है. जिस हाल में पति रखे, उसी में खुश रहने की कोशिश करती है. कुछ तो इतने नीच होते हैं कि अपनी पत्नी को बेच तक डालते हैं.

अकसर ऐसी शादियां चटपट हो जाती हैं. लड़के की सामाजिक और आर्थिक स्थिति का स्वदेश में किसी को पता नहीं रहता. जैसा कह दिया वैसा मान लिया. लड़कियों को भी विदेश घूमने का चाव रहता है. इस से अभिभावक का बोझ सहज ही हलका हो जाता है. कन्या के साथ क्या बीत रही है, कौन देखने आता है, किस को खबर मिलती है? सतवंत ने सुदेश के आंसू पोंछे. वह सतवंत से भारत पहुंचा दिए जाने की जल्दी कर रही थी, पर सतवंत ने कहा कि अपराधी को भी तो कुछ दंड मिलना चाहिए. उस ने अपने जानपहचान के एक वकील से सलाह की. तदानुसार उस ने सुदेश के घर फोन कर शादी पर छपे निमंत्रणपत्र की तथा शादी में खिंचे सभी फोटोग्राफों की प्रतियां मंगाईं. वकील के माध्यम से ये सब चीजें सूजेन के पिता को दिखाई गईं. वह करोड़पति एकदम भड़क गया.

सुरेश से बात करने से पहले उस ने सुरेश और सुदेश के कुछ युगल चित्र सूजेन को दिखाए. शादी के फोटो सूजेन गंभीरता से देखती रही. शायद वह उसे कोई धार्मिक रीतिरिवाज समझ रही थी. वरवधू के वेश में सुरेश व सुदेश ठीक से पहचाने भी नहीं जा रहे थे. पर नैनीताल के फोटो देख कर तो सूजेन एकदम बिदक गई. कहीं झील में नाव पर, कहीं पहाड़ी की चोटी पर, कहीं जुल्फें संवारते हुए, कहीं शरारत से मुसकराते हुए, चित्रों से दिलों की धड़कनें साफ सुनाई पड़ रही थीं. इन चित्रों में सुदेश को सूजेन ने पहचान लिया. घर पहुंचते ही उस ने सुरेश की खबर ली, ‘‘तुम तो उसे नौकरानी बताते थे. क्या तुम ने उस से शादी नहीं की है? तुम ने ऐसा क्यों किया? आखिर मुझ में क्या कमी थी? क्या मैं सुंदर नहीं थी? क्या मुझे सलीका नहीं आता था? क्या मैं कम पढ़ीलिखी थी? क्या नहीं था मुझ में? तुम्हें नौकरी दिलाई. फ्लैट का मालिक बनवाया. गाड़ी दिलाई. क्या नहीं दिया? लेकिन तुम…तुम…’’ और उस ने गुस्से में गालियां बकनी आरंभ कर दीं.

सुरेश ने समझाने की बहुत कोशिश की, पर उस रात सूजेन ने शयनकक्ष के दरवाजे नहीं खोले. स्टोर में जहां सुदेश रात काटती थी, वहीं उसे भी करवटें बदलनी पड़ीं. वह बहुत परेशान था. सुदेश गायब हो चुकी थी. वह अब कहां है, उसे इस बारे में कोई पता नहीं. हवाईअड्डे पर उस ने हुलिया लिखा दिया. यह तो वह जान चुका था कि अभी वह वहीं अमेरिका में है. वैसे उस का जाना भी मुश्किल था. उस के पास किराए के पैसे कहां थे. न ही वह कुछ तौरतरीका जानती है. पर आखिर सूजेन को किस ने भड़का दिया? वह कुछ तालमेल नहीं बैठा पा रहा था. सुदेश के गायब हो जाने की उसे इतनी चिंता नहीं थी जितनी सूजेन के ऐंठ जाने की. सोने का अंडा देने वाली मुरगी यदि किनारा कर गई तो? सुदेश के बारे में उसे लगता था कि वह रेल या ट्रक से कहीं मरकट गई होगी या उस ने किसी प्रकार से आत्महत्या कर ली होगी. उसे तो सूजेन की चिंता थी. अगले दिन कंपनी के डायरैक्टर और सूजेन के पिता ने उसे अपने कक्ष में बुलाया और स्पष्टीकरण देने के लिए कहा. सुरेश के चिंतित चेहरे को देख कर कोई भी सचाई का सहज अनुमान लगा सकता था. उस ने अपनी सफाई देते हुए कहा कि इस सारे कांड के पीछे कोई ऐसा आदमी है जो डराधमका कर अपना काम निकालना चाहता है. व्यवहारकुशल डायरैक्टर ने सुरेश को एक सप्ताह का समय दिया.

सुदेश का मन अमेरिका में बिलकुल नहीं लग रहा था. पर प्रश्न यह था कि वह घर जाने का साधन कैसे जुटाए. किस के साथ जाए? सहमतेसहमते उस ने सतवंत से अपना मंतव्य प्रकट किया. सतवंत को कोई आपत्ति नहीं थी. यहां का काम तो उस का वकील संभाल लेगा. उस की कोई विशेष आवश्यकता भी नहीं थी. केवल ठीक से पलीता लगाने की बात थी. वह काम हो ही चुका था. अब तो विस्फोट की प्रतीक्षा थी. पर सवाल यह था कि वह स्वदेश लौटे तो कैसे. सतवंत भी कोई धन्ना सेठ नहीं था. 3 साल में टैक्सी चला कर यहां जो कमाया था उस से टैक्सी खरीद ली थी. फक्कड़ आदमी था, मस्त रहता था. सुदेश ने जब अपने जेवर उस के सामने रखे तो वह उस की समझदारी का कायल हो गया, बोला, ‘‘देशी, तू ने तो पढ़ेलिखों के भी कान काट दिए.’’ वह सुदेश को ‘देशी’ कह कर पुकारता था. उसी प्रकार जैसे सूजेन सुरेश को ‘रेशी’ कह कर पुकारती थी. वहां ऐसी ही प्रथा थी. अधिक लाड़ में किसी को संबोधित करना होता था तो अंतिम 2 शब्दों पर ‘ई’ की मात्रा लगा दी जाती थी. सतवंत ने भी वतन लौटने का प्रोग्राम बना लिया. न्यूयौर्क में उस के कुछ जानकार लोग थे. टैक्सी और जेवर का ठीकठाक सौदा हो गया.

बिना पूर्वसूचना के एक शाम सुदेश सतवंत के साथ सात समंदर पार कर अंबाला में अपने घर के द्वार पर खड़ी थी. घर वाले हैरान थे. उस से भी बड़ी हैरानी की बात थी सतवंत का साथ होना. सुदेश के छोटे भाईबहन खुसुरफुसुर कर रहे थे, ‘‘शादी पर तो जीजाजी की दाढ़ीमूछ नहीं थी?’’ सब से छोटी बेबी बोली, ‘‘मैं बताऊं, नकली होगी.’’ बच्चों के सो जाने के बाद सुदेश ने अपनी करुण कहानी घर वालों को सुनाई. पीठ उघाड़ कर मार के निशान दिखाए. उन्हें बताया कि घर से भागते समय उसे यह आशा नहीं थी कि अब वह कभी मातापिता से मिल भी सकेगी. सतवंत का वह लाखलाख शुक्रिया कर रही थी. वह नहीं मिलता तो पता नहीं आज वह कहां होती.

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