पुरवई : मनोहर की कौन सी बात लोगों को चुभ गई

‘‘सुनिए, पुरवई का फोन है. आप से बात करेगी,’’ मैं बैठक में फोन ले कर पहुंच गईथी.

‘‘हां हां, लाओ फोन दो. हां, पुरू बेटी, कैसी हो तुम्हें एक मजेदार बात बतानी थी. कल खाना बनाने वाली बाई नहीं आईथी तो मैं ने वही चक्करदार जलेबी वाली रेसिपी ट्राई की. खूब मजेदार बनी. और बताओ, दीपक कैसा है हां, तुम्हारी मम्मा अब बिलकुल ठीक हैं. अच्छा, बाय.’’

‘‘बिटिया का फोन लगता है’’ आगंतुक ने उत्सुकता जताई.

‘‘जी…वह हमारी बहू है…बापबेटी का सा रिश्ता बन गया है ससुर और बहू के बीच. पिछले सप्ताह ये लखनऊ एक सेमीनार में गएथे. मेरे लिए तो बस एक साड़ी लाए और पुरवई के लिए कुरता, टौप्स, ब्रेसलेट और न जाने क्याक्या उठा लाए थे. मुझ बेचारी ने तो मन को समझाबुझा कर पूरी जिंदगी निकाल ली थी कि इन के कोई बहनबेटी नहीं है तो ये बेचारे लड़कियों की चीजें लाना क्या जानें और अब देखिए कि बहू के लिए…’’

‘‘आप को तो बहुत ईर्ष्या होती होगी  यह सब देख कर’’ अतिथि महिला ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘अब उस नारीसुलभ ईर्ष्या वाली उम्र ही नहीं रही. फिर अपनी ही बेटी सेक्या ईर्ष्या रखना अब तो मन को यह सोच कर बहुत सुकून मिलता है कि चलो वक्त रहते इन्होंने खुद को समय के मुताबिक ढाल लिया. वरना पहले तो मैं यही सोचसोच कर चिंता से मरी जाती थी कि ‘मैं’ के फोबिया में कैद इस इंसान का मेरे बाद क्या होगा’’

आगंतुक महिला मेरा चेहरा देखती ही रह गई थीं. पर मुझे कोई हैरानी नहीं हुई. हां, मन जरूर कुछ महीने पहले की यादों मेंभटकने पर मजबूर हो गया था.  बेटा दीपक और बहू पुरवई सप्ताह भर का हनीमून मना कर लौटेथे और अगले दिन ही मुंबई अपने कार्यस्थल लौटने वाले थे. मैं बहू की विदाई की तैयारी कर रही थी कि तभी दीपक की कंपनी से फोन आ गया. उसे 4 दिनों के लिए प्रशिक्षण हेतु बेंगलुरु जाना था. ‘तो पुरवई को भी साथ ले जा’ मैं ने सुझाव रखा था.

‘मैं तो पूरे दिन प्रशिक्षण में व्यस्त रहूंगा. पुरू बोर हो जाएगी. पुरू, तुम अपने पापामम्मी के पास हो आओ. फिर सीधे मुंबई पहुंच जाना. मैं भी सीधा ही आऊंगा. अब और छुट्टी नहीं मिलेगी.’  ‘तुम रवाना हो, मैं अपना मैनेज कर लूंगी.’

दीपक चला गया. अब हम पुरवई के कार्यक्रम का इंतजार करने लगे. लेकिन यह जान कर हम दोनों ही चौंक पड़े कि पुरवई कहीं नहीं जा रहीथी. उस का 4 दिन बाद यहीं से मुंबई की फ्लाइट पकड़ने का कार्यक्रम था. ‘2 दिन तो आनेजाने में ही निकल जाएंगे. फिर इतने सालों से उन के साथ ही तो रह रही हूं. अब कुछ दिन आप के साथ रहूंगी. पूरा शहर भी देख लूंगी,’ बहू के मुंह से सुन कर मुझे अच्छा लगा था.

‘सुनिए, बहू जब तक यहां है, आप जरा शाम को जल्दी आ जाएं तो अच्छा लगेगा.’

‘इस में अच्छा लगने वाली क्या बात है मैं दोस्तों के संग मौजमस्ती करने या जुआ खेलने के लिए तो नहीं रुकता हूं. कालेज मेंढेर सारा काम होता है, इसलिए रुकता हूं.’

‘जानती हूं. पर अगर बहू शाम को शहर घूमने जाना चाहे तो’

‘कार घर पर ही है. उसे ड्राइविंग आती है. तुम दोनों जहां जाना चाहो चले जाना. चाबी पड़ोस में दे जाना.’

मनोहर भले ही मना कर गए थे लेकिन उन्हें शाम ठीक वक्त पर आया देख कर मेरा चेहरा खुशी से खिल उठा.  ‘चलिए, बहू को कहीं घुमा लाते हैं. कहां चलना चाहोगी बेटी’ मैं ने पुरवई से पूछा.

‘मुझे तो इस शहर का कोई आइडिया नहीं है मम्मा. बाहर निकलते हैं, फिर देख लेंगे.’

घर से कुछ दूर निकलते ही एक मेला सा लगा देख पुरवई उस के बारे में पूछ बैठी, ‘यहां चहलपहल कैसी है’

‘यह दीवाली मेला है,’ मैं ने बताया.

‘तो चलिए, वहीं चलते हैं. बरसों से मैं ने कोई मेला नहीं देखा.’

मेले में पहुंचते ही पुरवई बच्ची की तरह किलक उठी थी, ‘ममा, पापा, मुझे बलून पर निशाना लगाना है. उधर चलते हैं न’ हम दोनों का हाथ पकड़ कर वह हमें उधर घसीट ले गई थी. मैं तो अवाक् उसे देखती रह गईथी. उस का हमारे संग व्यवहार एकदम बेतकल्लुफ था. सरल था, मानो वह अपने मम्मीपापा के संग हो. मुझे तो अच्छा लग रहाथा. लेकिन मन ही मन मैं मनोहर से भय खा रही थी कि वे कहीं उस मासूम को झिड़क न दें. उन की सख्तमिजाज प्रोफैसर वाली छवि कालेज में ही नहीं घर पर भी बनी हुईथी.

पुरवई को देख कर लग रहा था मानो वह ऐसे किसी कठोर अनुशासन की छांव से कभी गुजरी ही न हो. या गुजरी भी हो तो अपने नाम के अनुरूप उसे एक झोंके से उड़ा देने की क्षमता रखती हो. बेहद स्वच्छंद और आधुनिक परिवेश में पलीबढ़ी खुशमिजाज उन्मुक्त पुरवई का अपने घर में आगमन मुझेठंडी हवा के झोंके सा एहसास करा रहा था. पलपल सिहरन का एहसास महसूस करते हुए भी मैं इस ठंडे उन्मुक्त एहसास कोभरपूर जी लेना चाह रही थी.

पुरवई की ‘वो लगा’ की पुकार के साथ उन्मुक्त हंसी गूंजी तो मैं एकबारगी फिर सिहर उठी थी. हड़बड़ा कर मैं ने मनोहर की ओर दृष्टि दौड़ाई तो चौंक उठी थी. वे हाथ में बंदूक थामे, एक आंख बंद कर गुब्बारों पर निशाने पर निशाना लगाए जा रहे थे और पुरवई उछलउछल कर ताली बजाते हुए उन का उत्साहवर्द्धन कर रही थी. फिर यह क्रम बदल गया. अब पुरवई निशाना साधने लगी और मनोहर ताली बजा कर उस का उत्साहवर्द्धन करने लगे. मुझे हैरत से निहारते देख वे बोल उठे, ‘अच्छा खेल रही है न पुरवई’

बस, उसीक्षण से मैं ने भी पुरवई को बहू कहना छोड़ दिया. रिश्तों की जिस मर्यादा को जबरन ढोए जा रही थी, उस बोझ को परे धकेल एकदम हलके हो जाने का एहसास हुआ. फिर तो हम ने जम कर मेले का लुत्फ उठाया. कभी चाट का दोना तो कभी फालूदा, कभी चकरी तो कभी झूला. ऐसा लग रहा था मानो एक नई ही दुनिया में आ गए हैं. बर्फ का गोला चाटते मनोहर को मैं ने टहोका मारा, ‘अभी आप को कोई स्टूडेंट या साथी प्राध्यापक देख ले तो’

मनोहर कुछ जवाब देते इस से पूर्व पुरवई बोल पड़ी, ‘तो हम कोई गलत काम थोड़े ही कर रहे हैं. वैसे भी इंसान को दूसरों के कहने की परवा कम ही करनी चाहिए. जो खुद को अच्छा लगे वही करना चाहिए. यहां तक कि मैं तो कभी अपने दिल और दिमाग में संघर्ष हो जाता है तो भी अपने दिल की बात को ज्यादा तवज्जुह देती हूं. छोटी सी तो जिंदगी मिली है हमें, उसे भी दूसरों के हिसाब से जीएंगे तो अपने मन की कब करेंगे’

हम दोनों उसे हैरानी से ताकते रह गए थे. कितनी सीधी सी फिलौसफी है एक सरस जिंदगी जीने की. और हम हैं कि अनेक दांवपेंचों में उसे उलझा कर एकदम नीरस बना डालते हैं. पहला दिन वाकई बड़ी मस्ती में गुजरा. दूसरे दिन हम ने उन की शादी की फिल्म देखने की सोची. 2 बार देख लेने के बावजूद हम दोनों का क्रेज कम नहीं हो रहा था. लेकिन पुरवई सुनते ही बिदक गई. ‘बोर हो गई मैं तो अपनी शादी की फिल्म देखतेदेखते… आज आप की शादी की फिल्म देखते हैं.’

‘हमारी शादी की पर बेटी, वह तो कैसेट में है जो इस में चलती नहीं है,’ मैं ने समस्या रखी.

‘लाइए, मुझे दीजिए,’ पुरवई कैसेट ले कर चली गई और कुछ ही देर में उस की सीडी बनवा कर ले आई. उस के बाद जितने मजे ले कर उस ने हमारी शादी की फिल्म देखी उतने मजे से तो अपनी शादी की फिल्म भी नहीं देखीथी. हर रस्म पर उस के मजेदार कमेंट हाजिर थे.

‘आप को भी ये सब पापड़ बेलने पड़े थे…ओह, हम कब बदलेंगे…वाऊ पापा, आप कितने स्लिम और हैंडसम थे… ममा, आप कितना शरमा रही थीं.’

सच कहूं तो फिल्म से ज्यादा हम ने उस की कमेंटरी को एंजौय किया, क्योंकि उस में कहीं कोई बनावटीपन नहीं था. ऐसा लग रहा था कमेंट उस की जबां से नहीं दिल से उछलउछल कर आ रहे थे. अगले दिन मूवी, फिर उस के अगले दिन बिग बाजार. वक्त कैसे गुजर रहा था, पता ही नहीं चल रहाथा.  अगले दिन पुरवई की फ्लाइट थी. दीपक मुंबई पहुंच चुका था. रात को बिस्तर पर लेटी तो आंखें बंद करने का मन नहीं हो रहा था,क्योंकि जागती आंखों से दिख रहा सपना ज्यादा हसीन लग रहा था. आंखें बंद कर लीं और यह सपना चला गया तो पास लेटे मनोहर भी शायद यही सोच रहे थे. तभी तो उन्होंने मेरी ओर करवट बदली और बोले, ‘कल पुरवई चली जाएगी. घर कितना सूना लगेगा 4 दिनों में ही उस ने घर में कैसी रौनक ला दी है मैं खुद अपने अंदर बहुत बदलाव महसूस कर रहा हूं्…जानती हो तनु, बचपन में  मैं ने घर में बाबूजी का कड़ा अनुशासन देखा है. जब वे जोर से बोलने लगते थे तो हम भाइयों के हाथपांव थरथराने  लगते थे.

‘बड़े हुए, शादी हुई, बच्चे हो जाने के बाद तक मेरे दिलोदिमाग पर उन का अनुशासन हावी रहा. जब उन का देहांत हुआ तो मुझे लगा अब मैं कैसे जीऊंगा क्योंकि मुझे हर काम उन से पूछ कर करने की आदत हो गईथी. मुझे पता ही नहीं चला इस दरम्यान कब उन का गुस्सा, उन की सख्ती मेरे अंदर समाविष्ट होते चले गए थे. मैं धीरेधीरे दूसरा बाबूजी बनता चला गया. जिस तरह मेरे बचपन के शौक निशानेबाजी, मूवी देखना आदि दम तोड़ते चले गए थे ठीक वैसे ही मैं ने दीपक के, तुम्हारे सब के शौक कुचलने का प्रयास किया. मुझे इस से एक अजीब आत्म- संतुष्टि सी मिलती थी. तुम चाहो तो इसे एक मानसिक बीमारी कह सकती हो. पर समस्या बीमारी की नहीं उस के समाधान की है.

‘पुरवई ने जितनी नरमाई से मेरे अंदर के सोए हुए शौक जगाए हैं और जितने प्यार से मेरे अंदर के तानाशाह को घुटने टेकने पर मजबूर किया है, मैं उस का एहसानमंद हो गया हूं. मैं ‘मैं’ के फोबिया से बाहर निकल कर खुली हवा में सांस ले पा रहा हूं. सच तो यह है तनु, बंदिशें मैं ने सिर्फ दीपक और तुम पर ही नहीं लगाईथीं, खुद को भी वर्जनाओं की जंजीरों में जकड़ रखा था. पुरवई से भले ही यह सब अनजाने में हुआ हैक्योंकि उस ने मेरा पुराना रूप तो देखा ही नहीं है, लेकिन मैं अपने इस नए रूप से बेहद प्यार करने लगा हूं और तुम्हारी आंखों मेंभी यह प्यार स्पष्ट देख सकता हूं.’

‘मैं तो आप से हमेशा से ही प्यार करती आ रही हूं,’ मैं ने टोका.

‘वह रिश्तों की मर्यादा में बंधा प्यार था जो अकसर हर पतिपत्नी में देखने को मिल जाता है. लेकिन इन दिनों मैं तुम्हारी आंखों में जो प्यार देख रहा हूं, वह प्रेमीप्रेमिका वाला प्यार है, जिस का नशा अलग ही है.’

‘अच्छा, अब सो जाइए. सवेरे पुरवई को रवाना करना है.’

मैं ने मनोहर को तो सुला दिया लेकिन खुद सोने सेडरने लगी. जागती आंखों से देख रही इस सपने को तो मेरी आंखें कभी नजरों से ओझल नहीं होने देना चाहेंगी. शायद मेरी आंखों में अभी कुछ और सपने सजने बाकी थे.  पुरवई को विदा करने के चक्कर में मैं  हर काम जल्दीजल्दी निबटा रही थी. भागतेदौड़ते नहाने घुसी तो पांव फिसल गया और मैं चारोंखाने चित जमीन पर गिर गई. पांव में फ्रैक्चर हो गया था. मनोहर और पुरवई मुझे ले कर अस्पताल दौड़े. पांव में पक्का प्लास्टर चढ़ गया. पुरवई कीफ्लाइट का वक्त हो गया था. मगर  वह मुझे इस हाल में छोड़ कर जाने को तैयार नहीं हो रही थी. उस ने दीपक को फोन कर के सब स्थिति बता दी. साथ ही अपनी टिकट भी कैंसल करवा दी. मुझे बहुत दुख हो रहा था.

‘मेरी वजह से सब चौपट हो गया. अब दोबारा टिकट बुक करानी होगी. दीपक अलग परेशान होगा. डाक्टर, दवा आदि पर भी कितना खर्च हो गया. सब मेरी जरा सी लापरवाही की वजह से…घर बैठे मुसीबत बुला ली मैं ने…’

‘आप अपनेआप को क्यों कोस रही हैं ममा यह तो शुक्र है जरा से प्लास्टर से ही आप ठीक हो जाएंगी. और कुछ हो जाता तो रही बात खर्चे की तो यदि ऐसे वक्त पर भी पैसा खर्च नहीं किया गया तो फिर वह किस काम का यदि आप के इलाज में कोई कमी रह जाती, जिस का फल आप को जिंदगी भर भुगतना पड़ता तो यह पैसा क्या काम आता हाथपांव सलामत हैं तो इतना पैसा तो हम चुटकियों में कमा लेंगे.’

उस की बातों से मेरा मन वाकई बहुत हल्का हो गया. पीढि़यों की सोच का टकराव मैं कदमकदम पर महसूस कर रही थी. नई पीढ़ी लोगों के कहने की परवा नहीं करती. अपने दिल की आवाज सुनना पसंद करती है. पैसा खर्च करते वक्त वह हम जैसा आगापीछा नहीं सोचती क्योंकि वह इतना कमाती है कि खर्च करना अपना हक समझती है.  घर की बागडोर दो जोड़ी अनाड़ी हाथों में आ गईथी. मनोहर कोघर के कामों का कोई खास अनुभव नहीं था. इमरजेंसी में परांठा, खिचड़ी आदि बना लेतेथे. उधर पुरवई भी पहले पढ़ाई और फिर नौकरी में लग जाने के कारण ज्यादा कुछ नहीं जानती थी. पर इधर 4 दिन मेरे साथ रसोई में लगने से दाल, शक्कर के डब्बे तो पता चले ही थे साथ ही सब्जी, पुलाव आदि में भी थोड़ेथोड़े हाथ चलने लग गए थे. वरना रसोई की उस की दुनिया भी मैगी, पास्ता और कौफी तक ही सीमित थी. मुझ से पूछपूछ कर दोनों ने 2 दिन पेट भरने लायक पका ही लिया था. तीसरे दिन खाना बनाने वाली बाई का इंतजाम हो गया तो सब ने राहत की सांस ली. लेकिन इन 2 दिनों में ही दोनों ने रसोई को अच्छीखासी प्रयोगशाला बना डालाथा. अब जबतब फोन पर उन प्रयोगों को याद कर हंसी से दोहरे होते रहते हैं.

तीसरे दिन दीपक भी आ गया था. 2 दिन और रुक कर वे दोनों चले गए थे. उन की विदाई का दृश्य याद कर के आंखें अब भी छलक उठती हैं. दीपक तो पहले पढ़ाई करते हुए और फिर नौकरी लग जाने पर अकसर आताजाता रहता है पर विदाई के दर्द की जो तीव्र लहर हम उस वक्त महसूस कर रहे थे, वह पिछले सब अनुभवों से जुदा थी. ऐसा लग रहा था बेटी विदा हो कर, बाबुल की दहलीज लांघ कर दूर देश जा रही है. पुरवई की जबां पर यह बात आ भी गई थी, ‘जुदाई के ऐसे मीठे से दर्द की कसक एक बार तब उठी थी जब कुछ दिन पूर्व मायके से विदा हुई थी. तब एहसास भी नहीं था कि इतने कम अंतराल में ऐसा मीठा दर्द दोबारा सहना पड़ जाएगा.’

पहली बार मुझे पीढि़यों की सोच टकराती नहीं, हाथ मिलाती महसूस हो रही थी. भावनाओं के धरातल पर आज भी युवा प्यार के बदले प्यार देना जानते हैं और विरह के क्षणों में उन का भी दिल भर आता है.पुरवई चली गई. अब ठंडी हवा का हर झोंका घर में उस की उपस्थिति का आभास करा जाता है.

संगीता माथुर

आज मैं रिटायर हो रही हूं

कुनकुनी धूप जाड़े में तन को कितना चैन देती है यह कड़कड़ाती ठंड के बाद धूप में बैठने पर ही पता लगता है. मेरी चचिया सास ने अचार, मसाले सब धूप में रख दिए थे. खाट बिछा कर अपने सिरहाने पर तकियों का अंबार भी लगा दिया था. चादरें, कंबल और क्याक्या.

‘‘चाची, लगता है आज सारी की सारी धूप आप ही समेट ले जाएंगी. पूरा घर ही बाहर बिछा दिया है आप ने.’’

‘‘और नहीं तो क्या. हर कपड़े से कैसी गंध आ रही है. सब गीलागीला सा लग रहा है. बहू से कहा सब बाहर बिछा दे. अंदर भी अच्छे से सफाई करवा ले. दरवाजे, खिड़कियां सब खुलवा दिए हैं. एक बार तो ताजी हवा सारे घर से निकल जाए.’’

‘‘सुबह से मुग्गल धूप जलने की तेज सुगंध आ रही है. मैं सोच रही थी कि पड़ोस के गुप्ताजी के घर आज किसी का जन्मदिन होगा सो हवन करवा रहे हैं, तो आप ने ही हवन सामग्री जलाई होगी घर में.’’

‘‘कल तेरे चाचा भी कह रहे थे कि घर में हर चीज से महक आ रही है. सोचा, आज हर कोने में सामग्री जला ही दूं.’’

सलाइयां लिए स्वेटर बुनने में मस्त हो गईं चाची. उन की उंगलियां जिस तेजी से सलाइयों के साथ चलती हैं हमारा सारा खानदान हैरान रह जाता है. बड़ी फुर्ती से चाची हर काम करती हैं. रिश्तेदारी में किसी के भी घर पर बच्चा पैदा होने की खबर हो तो बच्चे का स्वेटर चाची पहले ही बुन कर रख देती हैं. दूध के पैसे देने जाती हैं तो स्वेटर साथ होता है. 60-65 के आसपास तो उन की उम्र होगी ही फिर भी लगता नहीं है कभी थक जाती होंगी. उन की बहू और मैं हमउम्र हैं और हमारे बीच में अच्छी दोस्ती भी है. हम कई बार थक जाती हैं और उन्हें देख कर अपनेआप पर शरम आ जाती है कि क्या कहेगा कोई. जवान बैठी है और बूढ़ी हड्डियां घिसट रही हैं.

‘‘चाची, आप बैठ जाओ न, हम कर तो रही हैं. हो जाएगा न… जरा चैन तो लेने दो.’’

‘‘चैन क्या होता है बेटा. आधा काम कर के भी कभी चैन होता है. बस, जरा सा ही तो रह गया है. बस, हो गया समझो.’’

‘‘मां, तुम कोई भी काम ‘मिशन’ ले कर मत किया करो. तुम तो बस, करो या मरो के सिद्धांत पर काम करती हो. कल दिन नहीं चढ़ेगा क्या? बाकी काम कल हो जाएगा न… या सारा आज ही कर के सोना है.’’

‘‘कल किस ने देखा है बेटा, कल आए न आए. कल का नाम काल…’’

‘‘कैसी मनहूस बातें करती हो मां. चलो, छोड़ो, भाभी और निशा कर लेंगी.’’

विजय भैया, चाची को खींच कर ले जाते हैं तब कहीं उन के हाथ से काम छूटता है.

आज 15-20 दिन के बाद धूप निकली है और चाची सारा का सारा घर ही बाहर ले आई हैं. निशा के माथे के बल आज कुछ गहरे लग रहे हैं. सर्दी की वजह से उस की बांह में कुछ दिन से काफी दर्द चल रहा था. घर का जरूरी काम भी वह मुश्किल से कर पा रही थी. ऊपर से बच्चों के टैस्ट भी चल रहे हैं. सारी की सारी रसोई और सारे के सारे बिस्तर बाहर ले आने की भला क्या जरूरत थी. धूप कल भी तो निकलेगी. लोहड़ी के बाद तो वैसे भी धूप ही धूप है. सुबह तो सामान महरी से बाहर रखवा लिया, शाम को समेटते समय निशा की शामत आएगी. दुखती बांह से निशा रात का खाना बनाएगी या भारी रजाइयां और गद्दे उठाएगी. कैसे होगा उस से? कुछ कह नहीं पाएगी सास को और गुस्सा निकालेंगी बच्चों पर या विजय भैया पर.

मैं जानती हूं. आज चाची के घर परेशानी होग  बिस्तर तो परसों भी सूख जाते या 4 दिन बाद भी. टैस्ट को कैसे रोका जाएगा. और वही हुआ भी.

दूसरे दिन निशा धूप में कंबल ले कर लेटी थी और चाची उखड़ीउखड़ी थीं.

‘‘क्या हुआ चाची, निशा की बांह का दर्द कम नहीं हुआ क्या?’’

‘‘कल 4 बिस्तर जो उठाने पड़े. बस, हो गई तबीयत खराब.’’

‘‘चाची, उस की बांह में तो पहले से ही दर्द था. आप ने इतना झमेला डाला ही क्यों था. आप समझती क्यों नहीं हैं. ज्यादा से ज्यादा आप अपना तकियारजाई ले आतीं. जोशजोश में आप निशा पर कितना काम लाद देती हैं. मैं ने आप से पहले भी कहा था कि अब घर के काम में ज्यादा दिलचस्पी लेना आप छोड़ दीजिए. अपनी बहू को उस के हिसाब से सब करने दीजिए पर मानती ही नहीं हैं आप.’’

मैं ने कान में धीरे से फुसफुसा कर कहा. चाची ने गौर से मुझे देखा. मैं दावा कर सकती हूं कि चाची के साथ भी मेरा मित्रवत व्यवहार चलता है. दकियानूस नहीं हैं चाची और न ही अक्खड़. समझाओ तो समझ भी जाती हैं.

‘‘अब उस की बांह तो और दुख गई न. आप ने इतना बखेड़ा कर डाला. एक बिस्तर सुखा लेतीं. आज भी तो धूप है न… कुछ आज भी हो जाता.’’

सुनती रहीं चाची फिर धीरे से उठ कर नीचे चली गईं. वापस आईं तो उन के हाथ में लहसुन जला गरमगरम तेल था.

‘‘निशा, उठ बेटा.’’

चाची ने धीरे से निशा का कंबल खींचा. उठ कर बैठ गई निशा. उन्होंने उस की बांह में कस कर मालिश कर दी.

‘‘तुम ने बताया क्यों नहीं, बांह में दर्द है. मैं बादामसौंठ का काढ़ा बना देती. अभी नीचे गैस पर चढ़ा कर आई हूं. रमिया को समझा आई हूं कि उसे कब उतारना है…अभी गरमागरम पिएगी तो रात तक दर्द गायब हो जाएगा.’’

मैं कनखियों से देखती रही. निशा के माथे के बल धीरेधीरे कम होने लगे थे.

‘‘रात को खिचड़ी बना लेंगे,’’ चाची बोलीं, ‘‘तेरे पापा को भी अच्छी लगती है.’’

सासबहू की मनुहार मुझे बड़ी प्यारी लग रही थी. निशा चुपचाप काढ़ा पी रही थी. मेरी सास नहीं हैं और इन दोनों को देख कर अकसर मुझे यह प्रश्न सताता है कि अगर मेरी सास होतीं तो क्या चाची जैसी होतीं या किसी और तरह की. मुझे याद है, मेरे बेटे के जन्म के समय मुझे खुद पता नहीं कि चाची क्याक्या पिला दिया करती थीं. मैं मना करती तो चपत सिर पर सवार रहती.

‘‘खबरदार, फालतू बात मत करना.’’

‘‘चाची, इतना क्यों खिलाती हो?’’

‘मेरी सास कहा करती थीं कि बहू  और घोड़े को खिलाना कभी व्यर्थ नहीं जाता. तू चुपचाप खा ले जो भी मैं खिलाऊं.’’

‘‘घोड़ा और बहू एक कैसे हो गए, चाची?’’

‘‘घोड़ा ताकतवर होगा तो ज्यादा बोझ उठाएगा और बहू ताकतवर होगी तो बीमार कम पड़ेगी. बीमार कम पड़ेगी तो बेटे की कमाई, दवा पर कम लगेगी और कामों में ज्यादा. सेहतमंद बहू के बच्चे सेहतमंद होंगे और घर की बुनियाद मजबूत होगी. सेहतमंद बहू ज्यादा काम करेगी तो घर के ही चार पैसे बचेंगे न. अरे, बहू को खिलाने के फायदे ही फायदे हैं.’’

‘‘आप की सास आप को बहुत खिलाती थीं क्या?’’

‘‘तेरी सास नानुकर करती रहती थी. खानेपीने में नकारी…इसीलिए तो बीमार रहती थी. मुझे देख मैं अपनी सास का कहना मानती थी इसीलिए आज भी भागभाग कर सब काम कर लेती हूं.’’ चाची अपनी सास को बहुत याद करती हैं. अकसर मैं ने इस रिश्ते को बदनाम ही पाया है. सास भी कभी प्यार कर सकती है यह सदा एक प्रश्न ही रहा है. पराए खून और पराई संतान पर किसी को प्यार कम ही आता है. मुझे याद है जब निशा इस घर में आई थी तब मेरी शादी को 2 साल हो चुके थे. चाचाचाची अपनी दोनों बेटियां ब्याह कर अकेले रह रहे थे. विजय की नौकरी तब बाहर थी. हमारी कोठी बहुत बड़ी है. आमनेसामने 2 घर हैं, बीच में बड़ा सा आंगन. पूरे घर पर एक ही बड़ी सी छत.

मेरी भी 2 ननदें ब्याही हुई हैं और पापा की छत्रछाया में मैं और मेरे पति बड़े ही स्नेह से रहते हैं. चाचीचाचा का बड़ा सहारा है. विजय भैया शादी के बाद 2 साल तो बाहर ही रहे अब इसी शहर में उन की बदली हो गई है.  निशा के आने तक चाची ही मेरी सास थीं. मेरी दोनों ननदें बड़ी हैं. इस घर में क्या माहौल है क्या नहीं मुझे क्या पता था. मन में एक डर था कि बिना औरत का घर है, पता नहीं कैसेकैसे सब संभाल पाऊंगी, ननदें ब्याही हुई थीं…उन का भी अधिकार मित्रवत न हो कर शुरू में रोबदार था. चाची कम दखल देती थीं और लड़कियों को अपनी करने देती थीं. कुछ दिन ऐसा चला था फिर एक दिन पापा ने ही मुझे समझाया था :

‘‘मुझे अपने घर में लड़कियों का ज्यादा दखल पसंद नहीं है. इसलिए तुम जराजरा बात के लिए उन का मुंह मत देखा करो. तुम्हारी चाची हैं न. कोई भी समस्या हो, कुछ भी कहनासुनना हो तो उन से पूछा करो. लड़कियां अपने घर में हैं… जो चाहें सो करें, मेरे घर में तुम हो, मेरी छोटी भाभी हैं… एक तरह से वे भी मेरी बहू जैसी ही हैं. फिर क्यों कोई बाहर वाली हमारे घर के लिए कोई भी निर्णय ले.’’

मेरा हाथ पकड़ कर पापा चाची की रसोई में ले गए थे. सिर पर पल्ला खींच चाची ने अपने हाथ का काम रोक लिया था.

‘‘बीना, आज से इसे तुम्हें सौंपता हूं. तुम्हीं इस की मां भी हो और सास भी.’’

बरसों बीत गए हैं. मुझे वे क्षण आज भी याद हैं. चाची ने गुलाबी रंग की सफेद किनारी वाली साड़ी पहन रखी थी. माथे पर बड़ी सी सिंदूरी बिंदिया. तब चाची पूरियां तल रही थीं. आटा छिटक कर परात से बाहर जा गिरा था, हमारे घरों में ऐसा मानते हैं कि आटा परात से बाहर जा छिटके तो कोई मेहमान आता है. विजय भैया और चाचा तब नाश्ता कर रहे थे.

‘‘मां, तुम्हारा आटा छिटका…देखो आज कौन आता है.’’

ये दोनों बातें साथसाथ हुई थीं. रसोई में मेरा प्रवेश करना और चाची का आटा छिटकना.

‘‘जी सदके… मेहमान क्यों आज तो मेरी बहूरानी प्रीति आई है…आजा मेरी बच्ची…’’

अकसर ऐसा होता है न कभीकभी जब हम स्वयं नहीं जानते कि हम कितने उदास हो चुके हैं. मायका दूर था…घर में करने वाली मैं अकेली औरत, पापा और मेरे पति अजय के जाने के बाद घर में अकेली घुटती रहती थी या जराजरा बात के लिए अपनी ननदों को फोन करती. शायद पापा को उस दिन पहली बार मेरी समस्या का खयाल आया था.

…और चाची ने बांहें फैला कर जो उस पल छाती से लगाया तो वह स्नेहिल स्पर्श मैं आज तक भूली नहीं हूं. रोने लगी थी मैं. शायद उस पल की मेरी उदासी इतनी प्रभावी थी कि सब भीगभीग से गए थे. पापा आंखें पोंछ चले गए थे. विजय भैया ने मेरा सिर थपक दिया था.

‘‘हम हैं न भाभी. रोइए मत. चुप हो जाइए.’’

वह दिन और आज का दिन, चाची से ऐसा प्यार मिला कि अपना मायका ही भूल गई मैं. चाची मेरी सखी भी बन गईं और मेरी मां भी.

मेरे दोनों बेटों के जन्म पर चाची ने ही मुझे संभाला. विजय भैया की शादी में चाची ने हर जिम्मेदारी मुझ पर डाल रखी थी. निशा के गहनों में, चूडि़यों में, गले के हारों में, कपड़ों में सूटसाडि़यों से शालस्वेटरों तक चाची ने मेरी ही राय को प्राथमिकता दी थी. निशा भी हिलीमिली सी लगी. आते ही मुझ से  प्यार संजो लिया उस ने भी. लगभग 8 साल हो गए हैं निशा की शादी को और 10 साल मुझे इस घर में आए. बहुत अच्छी निभ रही है हम में. एक उचित दूरी और संतुलन रख कर हमारा रिश्ता बड़ा अच्छा चल रहा है. निशा के माथे पर जरा सा बल पड़े तो समझ जाती हूं मैं.

‘‘चाची, आप थोड़ाथोड़ा अपना हाथ खींचना शुरू कर दीजिए न. उसे उसी के तरीके से करने दीजिए, अब आप की जिम्मेदारी खत्म हो चुकी है. जरा देखिए, हम कैसेकैसे सब करती हैं, कहीं कोई परेशानी आएगी तो पूछ लेंगे न.’’

‘‘मैं बेकार हो जाऊंगी तब. हाथपैर ही न चलाए तो आज ही जंग लग जाएगा.’’

‘‘जंग कैसे लगेगा. सुबह उठ कर चाचाजी के साथ सैर करने जाइए, रसोई के अंदर जरा कम जाइए. बाहर से मदद कर दीजिए, सब्जी काट दीजिए, सलाद काट दीजिए. सूखे कपड़े तह कर के अलगअलग रख दीजिए. कितने ही हलकेफुलके काम हैं…जराजरा अपने अधिकार कम करना शुरू कीजिए.’’

‘‘तुझे क्या लगता है कि मैं अनावश्यक अधिकार जमाती हूं? निशा ने कुछ कहा है क्या?’’

‘‘नहीं चाची, उस ने क्या कहना है. मैं ही समझा रही हूं आप को. अब आप चिंता मुक्त हो कर जीना शुरू कीजिए, सुबहसुबह उठ कर नहाधो कर रसोई में जाने की अब आप को क्या जरूरत है, फिर आप के जोड़ भी दुखते हैं.

‘‘ऐसा कौन बरात का खाना बनाना होता है. 10 बजे तक सारे काम निबटा देना आप की कोई जरूरत तो नहीं है न. 7 बजे उठ कर भी नाश्ता बन सकता है. दोपहर का तो 2 बजे चाहिए, इतनी हायतौबा सुबहसुबह किसलिए. अपने वक्त किया न आप ने, अब निशा का वक्त शुरू हुआ है तो करने दीजिए उसे. रिटायर हो जाइए अब आप.’’

चाची चुपचाप सुनती रहीं. मुझे डर भी लग रहा था कि कहीं यह मेरी अनावश्यक सुलह ही प्रमाणित न हो जाए. कहीं निशा यही न समझ ले कि मैं ही सासबहू में दुख पैदा कर रही हूं. सच तो यह है कि सास कभीकभी बिना वजह अपनी हड्डियां तोड़ती रहती हैं, जो बेटे की गृहस्थी में योगदान नहीं बनता बल्कि एक अनचाहा बोझ बन जाता है.

‘‘अब मां ने कर ही दिया है तो ठीक है, यों ही सही.’’

‘‘मैं ने तो सोचा था आज कोफ्ते बनाऊंगी… मां ने सुबहसुबह उठ कर दाल चढ़ा दी.’’

‘‘हम सोच रहे थे कि इस इतवार नई पिक्चर देखने जाएंगे पर मां ने मामीजी को खाने पर बुला लिया.’’

‘‘जोड़ों का दर्द है मां को तो सुबहसुबह क्यों उठ जाती हैं. सारा दिन खाली ही तो रहते हैं हम. इतनी मारधाड़ भी किसलिए.’’

निशा का स्वर कई बार कानों मेें पड़ जाता है जिस कारण मुझे चिंता भी होने लगती है. चाची का ममत्व अनचाहा न बन जाए. वे तो सदा से इसी तरह करती आ रही हैं न. सो आज भी करती हैं. उन्हें लगता है कि वे बहू की सहायता कर रही हैं जबकि बहू को सहायता चाहिए ही नहीं. अकसर यह भी देखने में आता है कि बहू नकारा होती नहीं है बस, सास के अनुचित सेवादान से नकारी हो जाती है. जाहिर सी बात है, जिस तरह एक म्यान में 2 तलवारें नहीं समा सकतीं उसी तरह 2 मंझे हुए कलाकार, 2 बहुत समझदार लोग, 2 कमाल के रसोइए एक ही साथ काम नहीं कर सकते, क्योंकि दोनों ही ‘परफैक्ट’ हैं, दोनों ही संपूर्ण हैं.

रात भर मुझे नींद नहीं आई, पता नहीं सुबह क्या दृश्य मिलेगा, सुबह 6 बजे उठी तो देखा सामने चाची की रसोई में अंधेरा था. कहीं चाची बीमार तो नहीं हो गईं. वे तो 6 बजे तक नहाधो कर सब्जियां भी चढ़ा चुकी होती हैं. कहीं मेरी ही कोई बात उन्हें बुरी तो नहीं लग गई जो कुछ मन पर ले लिया हो.  लपक कर चाची का दरवाजा खटखटा दिया. ‘‘आ जाओ बेटी, दरवाजा खुला है,’’ चाचा का स्वर था.

भीतर जा कर देखा तो नया ही रंग नजर आया. चाची रजाई में बैठी आराम से अखबार पढ़ रही थीं. मेज पर चाय के खाली कप पड़े थे. मेरी तरफ देखा चाची ने. एक प्यारी सी हंसी आ गई उन के होंठों पर.

‘‘चाची, आप ठीक तो हैं न,’’ मैं ने पूछा.

‘‘यह तो मैं भी पूछ रहा हूं. कह रही है कि आज से मैं रिटायर हो रही हूं. रात को ही इस ने निशा को समझा दिया कि सुबह से वही रसोई में जाएगी मैं नहीं… पता नहीं इसे एकाएक क्या सूझा है… मैं समझाता रहा…मेरी तो सुनी ही नहीं… आज अचानक से इस में इतना बड़ा परिवर्तन…’’

चाचा अपनी ऐनक उतार स्नानागार में चले गए और मैं मंत्रमुग्ध सी चाची का एक और प्यारा सा रूप देखती रही.

आईना : सुरुचि सुकेश से क्यों नाराज थी

मस्ती में कंधे पर कालिज बैग लटकाए सुरुचि कान में मोबाइल का ईयरफोन लगा कर एफएम पर गाने सुनती हुई मेट्रो से उतरी. स्वचालित सीढि़यों से नीचे आ कर उस ने इधरउधर देखा पर सुकेश कहीं नजर नहीं आया. अपने बालों में हाथ फेरती सुरुचि मन ही मन सोचने लगी कि सुकेश कभी भी टाइम पर नहीं पहुंचता है. हमेशा इंतजार करवाता है. आज फिर लेट.

गुस्से से भरी सुरुचि ने फोन मिला कर अपना सारा गुस्सा सुकेश पर उतार दिया. बेचारा सुकेश जवाब भी नहीं दे सका. बस, इतना कह पाया, ‘‘टै्रफिक में फंस गया हूं.’’

सुरुचि फोन पर ही सुकेश को एक छोटा बालक समझ कर डांटती रही और बेचारा सुकेश चुपचाप डांट सुनता रहा. उस की हिम्मत नहीं हुई कि फोन काट दे. 3-4 मिनट बाद उस की कार ने सुरुचि के पास आ कर हलका सा हार्न बजाया. गरदन झटक कर सुरुचि ने कार का दरवाजा खोला और उस में बैठ गई, लेकिन उस का गुस्सा शांत नहीं हुआ.

‘‘जल्दी नहीं आ सकते थे. जानते हो, अकेली खूबसूरत जवान लड़की सड़क के किनारे किसी का इंतजार कर रही हो तो आतेजाते लोग कैसे घूर कर देखते हैं. कितना अजीब लगता है, लेकिन तुम्हें क्या, लड़के हो, रास्ते में कहीं अटक गए होगे किसी खूबसूरत कन्या को देखने के लिए.’’

‘‘अरे बाबा, शांत हो कर मेरी बात सुनो. दिल्ली शहर के टै्रफिक का हाल तो तुम्हें मालूम है, कहीं भी भीड़ में फंस सकते हैं.’’

‘‘टै्रफिक का बहाना मत बनाओ, मैं भी दिल्ली में रहती हूं.’’

‘‘तुम तो मेट्रो में आ गईं, टै्रफिक का पता ही नहीं चला, लेकिन मैं तो सड़क पर कार चला रहा था.’’

‘‘बहाने मत बनाओ, सब जानती हूं तुम लड़कों को. कहीं कोई लड़की देखी नहीं कि रुक गए, घूरने या छेड़ने के लिए.’’

‘‘तुम इतना विश्वास के साथ कैसे कह सकती हो?’’

‘‘विश्वास तो पूरा है पर फुरसत में बताऊंगी कि कैसे मुझे पक्का यकीन है…’’

‘‘तो अभी बता दो, फुरसत में…’’

‘‘इस समय तो तुम कार की रफ्तार बढ़ाओ, मैं शुरू से फिल्म देखना चाहती हूं. देर से पहुंचे तो मजा नहीं आएगा.’’

सिनेमाहाल के अंधेरे में सुरुचि फिल्म देखने में मस्त थी, तभी उसे लगा कि सुकेश के हाथ उस के बदन पर रेंग रहे हैं. उस ने फौरन उस के हाथ को झटक दिया और अंधेरे में घूर कर देखा. फिर बोली, ‘‘सुकेश, चुपचाप फिल्म देखो, याद है न मैं ने कार में क्या कहा था, एकदम सच कहा था, जीताजागता उदाहरण तुम ने खुद ही दे दिया. जब तक मैं न कहूं, अपनी सीमा में रहो वरना कराटे का एक हाथ यदि भूले से भी लग गया तो फिर मेरे से यह मत कहना कि बौयफें्रड पर ही प्रैक्टिस.’’

यह सुन कर बेचारा सुकेश अपनी सीट पर सिमट गया और सोचने लगा कि किस घड़ी में कराटे चैंपियन लड़की पर दिल दे बैठा. फिल्म समाप्त होने पर सुकेश कुछ अलगअलग सा चलने लगा तो सुरुचि ने उस का हाथ पकड़ा और बोली, ‘‘इस तरह छिटक के कहां जा रहे हो, भूख लगी है, रेस्तरां में चल कर खाना खाते हैं,’’ और दोनों पास के रेस्तरां में खाना खाने चले गए.कोने की एक सीट पर बैठे सुकेश व सुरुचि बातें करने व खाने में मस्त थे. तभी शहर के मशहूर व्यापारी सुंदर सहगल भी उसी रेस्तरां में अपने कुछ मित्रों के साथ आए और एक मेज पर बैठ कर बिजनेस की बातें करने लगे. आज के भागदौड़ के समय में घर के सदस्य भी एकदूसरे के लिए एक पल का समय नहीं निकाल पाते हैं, सुरुचि के पिता सुंदर सहगल भी इसी का एक उदाहरण हैं. आज बापबेटी आमनेसामने की मेज पर बैठे थे फिर भी एकदूसरे को नहीं देख सके.

लगभग 1 घंटे तक रेस्तरां में बैठे रहने के बाद पहले सुरुचि जाने के लिए उठी. वह सुंदर की टेबल के पास से गुजरी और उस का पर्स टेबल के कोने से अटक गया. जल्दी से पर्स छुड़ाया और ‘सौरी अंकल’ कह कर सुकेश के हाथ में हाथ डाले निकल गई. उसे इस बात का एहसास ही नहीं हुआ कि वह टेबल पर बैठे अंकल और कोई नहीं उस के पिता सुंदर सहगल थे.

लेकिन पिता ने देख लिया कि वह उस की बेटी है. अपने को नियंत्रण में रख कर वह बिजनेस डील पर बातें करते रहे. उन्होंने यह जाहिर नहीं होने दिया कि वह उन की बेटी थी. रेस्तरां से निकल कर सुंदर सीधे घर पहुंचे. उन की पत्नी सोनिया कहीं बाहर जाने की तैयारी कर रही थीं. मेकअप करते हुए सोनिया ने पति से पूछा, ‘‘क्या बात है, दोपहर में कैसे आना हुआ, तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां, ठीक है.’’

‘‘तबीयत ठीक है तो इतनी जल्दी? कुछ बात तो है…आप का घर लौटने का समय रात 11 बजे के बाद ही होता है. आज क्या बात है?’’

‘‘कहां जा रही हो?’’

‘‘किटी पार्टी में और कहां जा सकती हूं. एक सफल बिजनेसमैन की बीवी और क्या कर सकती है.’’

‘‘किटी पार्टी के चक्कर कम करो और घर की तरफ ध्यान देना शुरू करो.’’

‘‘आप तो हमेशा व्यापार में डूबे रहते हैं. यह अचानक घर की तरफ ध्यान कहां से आ गया?’’

‘‘अब समय आ गया है कि तुम सुरुचि की ओर ध्यान देना शुरू कर दो. आज उस ने वह काम किया है जिस की मैं कल्पना नहीं कर सकता था.’’

‘‘मैं समझी नहीं, उस ने कौन सा ऐसा काम कर दिया…खुल कर बताइए.’’

‘‘क्या बताऊं, कहां से बात शुरू करूं, मुझे तो बताते हुए भी शर्म आ रही है.’’

‘‘मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है कि आप क्या बताना चाहते हैं?’’ सोनिया, जो अब तक मेकअप में व्यस्त थी, पति की तरफ पलट कर उत्सुकतावश देखने लगी.

‘‘सोनिया, तुम्हारी बेटी के रंगढंग आजकल सही नहीं हैं,’’ सुंदर सहगल तमतमाते हुए बोले, ‘‘खुल्लमखुल्ला एक लड़के के हाथों में हाथ डाले शहर में घूम रही है. उसे इतना भी होश नहीं था कि उस का बाप सामने खड़ा है.’’

कुछ देर तक सोनिया सुंदर को घूरती रही फिर बोली, ‘‘देखिए, आप की यह नाराजगी और क्रोध सेहत के लिए अच्छा नहीं है. थोड़ी शांति के साथ इस विषय पर सोचें और धीमी आवाज में बात करें.’’

इस पर सुंदर सहगल का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया. चेहरा लाल हो गया और ब्लडप्रेशर ऊपर हो गया. सोनिया ने पति को दवा दी और सहारा दे कर बिस्तर पर लिटाया. खुद का किटी पार्टी में जाने का प्रोग्राम कैंसल कर दिया.

सुंदर को चैन नहीं था. उस ने फिर से सोनिया से सुरुचि की बात शुरू कर दी. अब सोनिया, जो इस विषय को टालना चाहती थी, ने कहना शुरू किया, ‘‘आप इस बात को इतना तूल क्यों दे रहे हैं. मैं सुकेश से मिल चुकी हूं. आजकल लड़कालड़की में कोई अंतर नहीं है. कालिज में एकसाथ पढ़ते हैं. एकसाथ रहने, घूमनेफिरने में कोई एतराज नहीं करते और फिर मुझे अपनी बेटी पर पूरा भरोसा है कि वह कोई गलत काम कर ही नहीं सकती है. मैं ने उसे पूरी ट्रेनिंग दे रखी है. आप को मालूम भी नहीं है, वह कराटे जानती है और 2 बार मनचलों पर कराटे का इस्तेमाल भी कर चुकी है…’’

‘‘सोनिया, तुम सुरुचि के गलत काम में उस का साथ दे रही हो,’’ सुंदर सहगल ने तमतमाते हुए बीच में बात काटी.

‘‘मैं आप से बारबार शांत होने के लिए कह रही हूं और आप हैं कि एक ही बात को रटे जा रहे हैं. आखिर वह है तो आप की ही बेटी. तो आप से अलग कैसे हो सकती है

‘‘आप अपनी जवानी के दिनों को याद कीजिए. 25 साल पहले, आप क्या थे. एक अमीर बाप की बिगड़ी औलाद जो महज मौजमस्ती के लिए कालिज जाता था. आप ने कभी कोई क्लास भी अटैंड की थी, याद कर के बता सकते हैं मुझे.’’

‘‘तुम क्या कहना चाहती हो

 

?’’

‘‘वही जो आप मुझ से सुनना चाह रहे थे…आप का ज्यादातर समय लड़कियों के कालिज के सामने गुजरता था. आप ने कितनी लड़कियों को छेड़ा था शायद गिनती भी नहीं कर सकते, मैं भी उन्हीं में से एक थी. आतेजाते लड़कियों को छेड़ना, फब्तियां कसना ही आप और आप की मित्रमंडली का प्रिय काम था. छटे हुए गुंडे थे आप सब, इसलिए हर लड़की घबराती थी और मेरा तो जीना ही हराम कर दिया था आप ने. मैं कमजोर थी क्योंकि मेरा बाप गरीब था और कोई भाई आप की हरकतों का जवाब देने वाला नहीं था. इसलिए आप की हरकतों को नजरअंदाज करती रही.

‘‘हद तो तब हो गई थी जब मेरे घर की गली में आप ने डेरा जमा लिया था. आतेजाते मेरा हाथ पकड़ लेते थे. कितना शर्मिंदा होना पड़ता था मुझे. मेरे मांबाप पर क्या बीतती थी, आप ने कभी सोचा था. मेरा हाथ पकड़ कर खीखी कर पूरी गुंडों की टोली के साथ हंसते थे. शर्म के मारे जब एक सप्ताह तक मैं घर से नहीं निकली तो आप मेरे घर में घुस आए. कभी सोचने की कोशिश भी शायद नहीं की होगी आप ने कि क्या बीती होगी मेरे मांबाप पर और आज मुझ से कह रहे हैं कि अपनी बेटी को संभालूं. खून आप का भी है, कुछ तो बाप के गुण बच्चों में जाएंगे लेकिन मैं खुद सतर्क हूं क्योंकि मैं खुद भुगत चुकी हूं कि इन हालात में लड़की और उस के मातापिता पर क्या बीतती है.

‘‘इतिहास खुद को दोहराता है. आज से 25 साल पहले जब उस दिन सब हदें पार कर के आप मेरे घर में घुसे थे कि शरीफ बाप क्या कर लेगा और अपनी मनमानी कर लेंगे तब मैं अपने कमरे में पढ़ रही थी और कमरे में आ कर आप ने मेरा हाथ पकड़ लिया था. मैं चिल्ला पड़ी थी. पड़ोस में शकुंतला आंटी ने देख लिया था. उन के शोर मचाने पर आसपास की सारी औरतें जमा हो गई थीं…जम कर आप की धुनाई की थी, शायद आप उस घटना को भूल गए होंगे, लेकिन मैं आज तक नहीं भूली हूं.

‘‘महल्ले की औरतों ने आप की चप्पलों, जूतों, झाड़ू से जम कर पिटाई की थी, सारे कपड़े फट गए थे, नाक से खून निकल रहा था और आप को पिटता देख आप के सारे चमचे दोस्त भाग गए थे और उस अधमरी हालत में घसीटते हुए सारी औरतें आप को इसी घर में लाई थीं. ससुरजी भागते हुए दुकान छोड़ कर घर आए और आप की करतूतों के लिए सिर झुका लिया था, लिखित माफी मांगी थी, कहो तो अभी वह माफीनामा दिखाऊं, अभी तक संभाल कर रखा है.’’

सुंदर सहगल कुछ नहीं बोल सके और धम से बिस्तर पर बैठ गए. सोनिया ने उन के अतीत का आईना सामने जो रख दिया था. सच कितना कड़वा होता है शायद इस बात का अंदाजा उन्हें आज हुआ.

आज इतिहास करवट बदल कर सामने खड़ा है. खुद अपना चेहरा देखने की हिम्मत नहीं हो रही है, सुधबुध खो कर वह शून्य में गुम हो चुके थे. सोनिया क्या बोल रही है, उन के कान नहीं सुन रहे थे, लेकिन सोनिया कहे जा रही थी :

‘‘आप सुन रहे हैं न, चोटग्रस्त होने की वजह से एक हफ्ते तक आप बिस्तर से नहीं उठ सके थे. जो बदनामी आप को आज याद आ रही है, वह मेरे पिता और ससुरजी को भी आई थी. बदनामी लड़के वालों की भी होती है. एक गुंडे के साथ कोई अपनी लड़की का ब्याह नहीं कर रहा था. चारों तरफ से नकारने के बाद सिर्फ 2 ही रास्ते थे आप के पास या तो किसी गुंडे की बहन से शादी करते या कुंआरे रह कर सारी उम्र गुंडागर्दी करते.

‘‘जिस बाप की लड़की के पीछे गुंडा लग जाए, वह कर भी क्या सकता था. ससुरजी ने जब सब रास्ते बंद देख कर मेरा हाथ मेरे पिता से मांगा तो मजबूरी से दब कर एक गुंडे को न चाहते हुए भी उन्हें अपना दामाद स्वीकार करना पड़ा,’’ कहतेकहते सोनिया भी पलंग का पाया पकड़ कर सुबक कर रोने लगी.

बात तो सच है, जवानी की रवानी में जो कुछ किया जाता है, उस को भूल कर हम सभी बच्चों से एक आदर्श व्यवहार की उम्मीद करते हैं. क्या अपने और बच्चों के लिए अलग आदर्श होने चाहिए, कदापि नहीं. पर कौन इस का पालन करता है. सुंदर सहगल तो केवल एक पात्र हैं जो हर व्यक्ति चरितार्थ करता है.

मानसून स्पेशल: एक रिश्ता ऐसा भी

मानसून स्पेशल: एक रिश्ता ऐसा भी – भाग 1

 यों यह था तो शहर का एक बौयज कालेज अर्थात लड़कों का कालेज, लेकिन पढ़ाने वाले शिक्षकों में आधे से अधिक संख्या महिलाओं की थी. लेडीज क्या थीं रंगबिरंगी, एक से बढ़ कर एक नहले पे दहला वाला मामला था. इन रंगों में मिस मृणालिनी ठाकुर का रंग बड़ा चोखा था.

लंबे कद, छरहरे बदन और पारसी स्टाइल में रंगबिरंगी साडि़यां पहनने वाली मिस मृणालिनी ठाकुर सब से योग्य टीचरों में गिनी जाती थीं. अपने विषय पर उन्हें महारत हासिल था. फिर रुआब ऐसा कि लड़के पुरुष टीचर्स का पीरियड बंक कर सकते थे, मगर मिस मृणालिनी ठाकुर के पीरियड में उपस्थिति अनिवार्य थी.

लड़का मिस मृणालिनी का शागिर्द हो और कालेज में होते हुए उन का पीरियड मिस करे, ऐसा बहुत कम ही होता था, इस लिहाज से मिस मृणालिनी ठाकुर भाग्यशाली कही जा सकती थीं कि लड़के उन से डरते ही नहीं थे, बल्कि उन का सम्मान भी करते थे.

इस तरह के भाग्यशाली होने में कुछ अपने विषय पर महारत हासिल होने का हाथ था तो कुछ मिस मृणालिनी ठाकुर की मनुष्य के मनोविज्ञान की समझ भी थी. वह अपने स्टूडेंट्स को केवल पढ़ा देना और कोर्स पूरा कराने को ही अपनी ड्यूटी नहीं समझती थीं, बल्कि वह उन के बहुत नजदीक रहने को भी अपनी ड्यूटी का एक महत्त्वपूर्ण अंग समझती थीं.

हालांकि उन के साथियों को उन का यह व्यवहार काफी हद तक मजाकिया लगता था. मिसेज अरुण तो हंसा करती थीं, उन का कहना था, ‘‘मिस मृणालिनी ठाकुर लेक्चरर के बजाय प्राइमरी स्कूल की टीचर लगती हैं.’’

मगर मिस मृणालिनी ठाकुर को इस की बिल्कुल भी फिक्र नहीं थी कि उन के व्यवहार के बारे में लोगों की क्या राय है, उन का कहना था कि जो बच्चे हम से शिक्षा लेने आते हैं हम उन के लिए पूरी तरह उत्तरदायी हैं, इसलिए हमें अपना कर्तव्य नेकनीयती और ईमानदारी से पूरा करना चाहिए.

मिस मृणालिनी ठाकुर के साथियों की सोचों से अलग स्टूडेंट्स की अधिकतर संख्या उन के जैसी थी. उन्हें सच में किसी प्राइमरी स्कूल के टीचर की तरह मालूम होता था कि लड़के का पिता क्या करता है, कौन फीस माफी का अधिकारी है? कौन पढ़ाई के साथ पार्टटाइम जौब करता है? आदि आदि.

पता नहीं यह स्टूडेंट्स से नजदीकी का परिणाम था या किसी अपराध की सजा कि एक सुबह कालेज आने वालों ने लोहे के मुख्य दरवाजे के एक बोर्ड पर चाक से बड़े अक्षरों में लिखा देखा—आई लव मिस मृणालिनी ठाकुर.

इस एक वाक्य को 3 बार कौपी करने के बाद लिखने वाले ने अपना व क्लास का नाम बड़ी ढिठाई से लिखा था: शशि कुमार सिंह, प्रथम वर्ष, विज्ञान सैक्शन बी.

किसी नारे की सूरत में लिखा यह वाक्य औरों की तरह मिस मृणालिनी ठाकुर को अपनी ओर आकर्षित किए बिना न रह सका. क्षण भर को तो वह सन्न रह गईं.

उन्होंने चोर निगाहों से इधरउधर देखा. शायद कोई न होता तो वह अपनी सिल्क की साड़ी के पल्लू से वाक्य को मिटा देतीं. मगर स्टूडेंट ग्रुप पर ग्रुप की शक्ल में आ रहे थे, बेतहाशा धड़कते दिल को संभालती मिस मृणालिनी ठाकुर स्टाफरूम तक पहुंचीं और अंदर दाखिल होने के बाद अपना सिर थामती हुई कुरसी पर गिर गई.

‘‘यकीनन आप देखती हुई आई हैं,’’ मिसेज जयराज की आवाज मिस मृणालिनी ठाकुर को कहीं दूर से आती मालूम हुई. उन्होंने सिर उठा कर मिसेज जयराज की ओर देखा और कंपकंपाती आवाज में बोलीं, ‘‘आप ने भी देखा?’’

part-2

‘‘भई हम ने क्या बहुतों ने देखा और देखते आ रहे हैं. दरअसल लिखने वाले ने लिखा ही इसलिए है कि लोग देखें.’’

‘‘मिसेज जयराज, प्लीज इसे किसी तरह…’’ मिस मृणालिनी ठाकुर गिड़गिड़ाईं.
तभी मिसेज आशीष और मिस रचना मिस मृणालिनी ठाकुर को विचित्र नजरों से देखती हुई स्टाफरूम में दाखिल हुईं.

कुछ ही देर के बाद रामलाल चपरासी झाड़न संभाले अपनी ड्यूटी निभाने आया तो मिस मृणालिनी ठाकुर फौरन उस की ओर लपकीं और कानाफूसी वाले लहजे में बोलीं, ‘‘रामलाल यह झाड़न ले कर जाओ और चाक से मेनगेट पर जो कुछ लिखा है मिटा आओ.’’

‘‘हैं जी,’’ रामलाल ने बेवकूफों की तरह उन का चेहरा तकते हुए कहा.
‘‘जाओ, जो काम मैं ने कहा वो फौरन कर के आओ,’’ मिस मृणालिनी ठाकुर की आवाज फंसीफंसी लग रही थी.

‘‘घबराइए मत मिस ठाकुर, यह बात तो लड़कों में आप की पसंदीदगी की दलील है.’’ मिस चेरियान के लहजे में व्यंग्य साफ तौर पर झलक रहा था.

‘‘अब तो यूं ही होगा भई, लड़के तो आप के दीवाने हैं,’’ मिस तरन्नुम का लहजा दोधारी तलवार की तरह काट रहा था.
मिस शमा अपना गाउन संभाले मुसकराती हुई अंदर दाखिल हुईं और मिस मृणालिनी के नजदीक आ कर राजदारी से बोलीं, ‘‘मिस मृणालिनी ठाकुर गेट पर…’’

मिस मृणालिनी ठाकुर को अत्यंत भयभीत पा कर मिसेज जयराज ने उन के करीब आ कर उन के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं मृणालिनी, टीचर और स्टूडेंट में तो आप के कथनानुसार एक आत्मीय संबंध होता है.’’

फिर उन्होंने मिस तरन्नुम की ओर देख कर आंख दबाई और बोलीं, ‘‘कुछ स्टूडेंट इजहार के मामले में बड़े फ्रैंक होते हैं और होना भी चाहिए. क्यों मृणालिनी, आप का यही विचार है न कि हमें स्टूडेंट्स को अपनी बात कहने की आजादी देनी चाहिए.’’

मिसेज जयराज की इस बात पर मिस मृणालिनी का चेहरा क्रोध से दहकने लगा.
‘‘शशि सिंह वही है न बी सैक्शन वाला. लंबा सा लड़का जो अकसर जींस पहने आता है.’’ मिस रौशन ने पूछताछ की.

मिसेज गोयल ने उन के विचार को सही बताते हुए हामी भरी.
‘‘वह तो बहुत प्यारा लड़का है.’’ मिसेज गुप्ता बोलीं.

‘‘बड़ा जीनियस है, ऐसेऐसे सवाल करता है कि आदमी चकरा कर रह जाए,’’ मिसेज कपाडि़या जो फिजिक्स पढ़ाती थीं बोलीं.

मिसेज जयराज ने मृणालिनी को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘मृणालिनी आप तो अपने स्टूडेंट्स को उन लोगों से भी अच्छी तरह जानती होंगी, आप की क्या राय है उस के बारे में?’’

‘‘वह वाकई अच्छा लड़का है, मुझे तो ऐसा लगता है कि किसी ने उस के नाम की आड़ में शरारत की है.’’
‘‘हां ऐसा संभव है.’’ मिसेज गुप्ता ने उन की बात का समर्थन किया.

‘‘सिर्फ संभव ही नहीं, यकीनन यही बात है क्योंकि लिखने वाला इस तरह ढिठाई से अपना नाम हरगिज नहीं लिख सकता था,’’ मिसेज जयराज ने फिर अपनी चोंच खोली.यह बात मिस मृणालिनी को भी सही लगी.

शशि सिंह के बारे में मिस मृणालिनी ठाकुर की राय बहुत अच्छी थी. हालांकि सेशन शुरू हुए 3 महीने ही गुजरे थे, लेकिन इस दौरान जिस बाकायदगी और तन्मयता से उस ने क्लासेज अटेंड की थीं वह शशि सिंह को मिस मृणालिनी के पसंदीदा स्टूडेंट्स में शामिल कराने के लिए काफी थीं. ‘

 

मानसून स्पेशल: एक रिश्ता ऐसा भी – भाग 3

लेक्चर वह अत्यंत तन्मयता से सुनता और लेक्चर के मध्य ऐसे ऐसे प्रश्न करता, जिन की उम्मीद एक तेज स्टूडेंट से ही की जा सकती थी.

मिस मृणालिनी लेक्चर देना ही काफी नहीं समझती थीं बल्कि असाइनमेंट देना और उसे चैक करना भी जरूरी समझती थीं. शशि सिंह कई बार अपना काम चैक कराने मिस मृणालिनी और मिस्टर अंशुमन के कौमन रूम में आया था. वह जब भी आता, बड़े सलीके और सभ्यता के साथ. इस आनेजाने के बीच मिस मृणालिनी ने उस के बारे में यह मालूमात हासिल की थी कि उस के मातापिता दक्षिण अफ्रीका में थे, वह यहां अपनी नानी के पास रहा करता था.

शशि जैसे सभ्य स्टूडेंट से मिस मृणालिनी को इस किस्म की छिछोरी हरकत की उम्मीद भी नहीं थी. उन्हें यकीन था कि यह हरकत किसी और की थी मगर उस ने शरारतन या रंजिशन शशि सिंह का नाम लिख दिया था.

बहरहाल, रामलाल ने कोई 15 मिनट बाद आ कर यह समाचार सुनाया कि मेनगेट पर से एकएक शब्द मिटा आया है. मगर यह बताते हुए उस के चेहरे पर अजीब सी मुसकराहट थी. मिस मृणालिनी ने अपने हैंड बैग में रखा छोटा सा पर्स निकाल कर 20 रुपए का नोट रामलाल की ओर बढ़ा दिया.मगर बात तो फैल चुकी थी, न सिर्फ टीचरों, बल्कि स्टूडेंट्स के बीच भी तरहतरह की बातें हो रही थीं.

घंटी बज गई. लड़के अपनीअपनी क्लासों में चले गए. मृणालिनी भी पीरियड लेने चली गईं. मजे की बात यह हुई कि उन का पहला पीरियड फर्स्ट ईयर साइंस बी सैक्शन में ही था. मिस मृणालिनी पहली बार क्लास में जाते हुए झिझक रही थीं, उन के कदम लड़खड़ा रहे थे. लेकिन जाना तो था ही, सो गईं और लेक्चर दिया.

लेक्चर के दौरान उन की निगाह शशि सिंह पर भी पड़ी, वह रोज की तरह तन्मयता से सुन रहा था. मिस मृणालिनी लेक्चर देती रहीं, लेकिन आंखें रोज की तरह लड़कों के चेहरों पर पड़ने के बजाए झुकीझुकी थीं. पहली बार मिस मृणालिनी को क्लास के चेहरों पर दबीदबी मुसकराहटें दिखीं.

जैसेतैसे पीरियड समाप्त हुआ तो मृणालिनी ठाकुर कमरे की ओर चल दीं. वह कमरे में पहुंची तो मिस्टर अंशुमन पहले ही मौजूद थे. मिस मृणालिनी ने रोज की तरह उन का अभिवादन किया और अपनी सीट पर बैठ गईं.

जरा देर बाद मिस्टर अंशुमन खंखारे और चंद क्षणों की देरी के बाद उन की आवाज मिस मृणालिनी के कानों से टकराई.

‘‘शशि सिंह से पूछा आप ने?’’

ओह तो इन्हें भी पता चल गया. मिस मृणालिनी ने आंखों के कोने से मिस्टर अंशुमन की ओर देखते हुए सोचा और पहलू बदल कर बोलीं, ‘‘जी नहीं.’’
‘‘क्यों?’’

‘‘मेरा विचार है यह किसी और की शरारत है, शशि सिंह बहुत अच्छा लड़का है.’’
‘‘आप ने पूछा तो होता, आप के विचार के अनुसार अगर उस ने नहीं लिखा तो संभव है उस से कोई सुराग मिल सके.’’

मिस्टर अंशुमन ने घंटी बजा कर चपरासी को बुलाया.
कुछ देर बाद शशि सिंह नीची निगाहें किए फाइल हाथ में लिए अंदर दाखिल हुआ. मिस्टर अंशुमन कड़क कर बोले, ‘‘क्या तुम बता सकते हो गेट पर किस ने लिखा था?’’

‘‘यस सर.’’ बिना देरी किए जवाब आया.
मृणालिनी ठाकुर ने घबरा कर और चौंक कर शशि की ओर देखा.
‘‘किस ने लिखा था?’’ अंशुमन सर की रौबदार आवाज गूंजी.
‘‘मैं ने..’’ शशि ने कहा.

मिस मृणालिनी चौंकी. उन्होंने देखा शशि अपराध की स्वीकारोक्ति के बाद बड़े इत्मीनान से खड़ा था.
अंशुमन सर ने मृणालिनी की ओर देखा, मानो उन की आंखें कह रही थीं, ‘मिस मृणालिनी आप का तो विचार था…’मृणालिनी ने नजरें झुका लीं.

‘‘मैं मेनगेट की बात कर रहा हूं, वहां मिस मृणालिनी के बारे में तुम ने ही लिखा था?’’ अंशुमन सर ने साफतौर पर पूछा ‘‘यस सर.’’ बड़े इत्मीनान से जवाब दिया गया.

‘‘यू इडियट… तुम्हारी इतनी हिम्मत कैसे हुई?’’

अंशुमन दहाड़े, वह कुरसी से उठे और शशि के गोरेगोरे गाल ताबड़तोड़ चांटों से सुर्ख कर दिए. शशि सिर झुकाए किसी प्राइमरी कक्षा के बच्चे की तरह खड़ा पिटता रहा.

अंशुमन सर जिन का गुस्सा कालेज भर में मशहूर था, जिस कदर हंगामा कर सकते थे, उन्होंने किया. उस के 2 कारण हो सकते थे. पहला तो खुद मृणालिनी में उन की दिलचस्पी और आकर्षण और दूसरा स्टूडेंट्स और साथियों से यह कहलवाने का शौक कि अंशुमन सर बहुत सख्त इंसान हैं.

शोर सुन कर अंशुमन सर के कमरे के दरवाजे पर भीड़ सी इकट्ठी हो गई. मगर अंशुमन सर ने बाहर निकल कर घुड़की लगाई तो ज्यादातर रफूचक्कर हो गए. मगर चंद दादा किस्म के लड़के शशि की हिमायत में सीना तान कर आ गए.

मिस मृणालिनी बेहोश होने को थीं मगर इस से पहले उन्होंने भयानक नजरों से शशि की ओर देखा और पूरी ताकत से चिल्लाईं, ‘‘गेट आउट फ्राम हियर.’’
वह चुपचाप निकल गया. और फिर कभी कालेज नहीं आया.

फिर भी मिस मृणालिनी को उस का खयाल कई बार आया. इस घटना का फौरी और स्थाई परिणाम यह हुआ कि मिस मृणालिनी और उन के स्टूडेंट्स के बीच एक सीमा रेखा खिंच गई.

12 साल गुजर गए. उस घटना को समय की दीमक आहिस्ताआहिस्ता चाट गई. अंशुमन सर ने मिस मृणालिनी की ओर से मायूस हो कर शादी कर ली और कनाडा चले गए. कालेज में कई परिवर्तन आए, मिस मृणालिनी ठाकुर अपनी योग्यता और अनथक परिश्रम के सहारे वाइस प्रिंसिपल के पद पर नियुक्त हो गईं.

12 साल पहले की 28 वर्षीय मिस मृणालिनी एक अधेड़ सम्मानीय औरत की शक्ल में बदल गईं. 12 साल बाद जनवरी की एक सुबह चपरासी ने मिस मृणालिनी को एक विजिटिंग कार्ड थमाते हुए कहा, ‘‘मैडम, एक साहब आप से मिलने आए हैं.’’

मिस मृणालिनी जो चंद कागजात देखने में व्यस्त थीं, कार्ड देखे बिना बोलीं, ‘‘बुलाओ.’’
जरा देर बाद उच्च क्वालिटी का लिबास पहने लंबे कद और भरेभरे जिस्म वाला व्यक्ति अंदर दाखिल हुआ. उन्होंने बिखरे हुए कागजात इकट्ठा करते हुए कहा, ‘‘तशरीफ रखिए.’’

वह बैठ गया और जब मिस मृणालिनी ठाकुर कागजात इकट्ठा करने के बाद उस की ओर मुखातिब हुईं तो वह बहुत ही साफसुथरी अंग्रेजी में बोला, ‘‘आप ने शायद मुझे पहचाना नहीं.’’

मिस मृणालिनी ठाकुर एक लम्हा को मुसकराईं और फिर एक निगाह उस के चेहरे पर डाल कर बोलीं, ‘‘पुराने स्टूडेंट हैं आप?’’

‘जी हां.’’

‘‘दरअसल इतने बच्चे पढ़ कर जा चुके हैं कि हर एक को याद रखना मुश्किल है.’’ मिस मृणालिनी ठाकुर का चेहरा अपने स्टूडेंट्स के जिक्र के साथ दमक उठा.
‘‘माफ कीजिएगा मैडम, बड़ा निजी सा सवाल है.’’ वह खंखारा.

मिस मृणालिनी चौंकी.
‘‘आप अब तक मिस मृणालिनी ठाकुर हैं या…’’

‘‘हां, अब तक मैं मिस मृणालिनी ठाकुर ही हूं.’’ स्नेह उन के चेहरे से झलक रहा था.
‘‘आप ने वाकई में नहीं पहचाना अब तक?’’ वह मुसकराकर बोला.

मिस मृणालिनी ने बहुत गौर से देखा और घनी मूंछों के पीछे से वह मासूम चेहरे वाला सभ्य सा शशि सिंह उभर आया.

‘‘क्या तुम शशि सिंह हो?’’ मस्तिष्क के किसी कोने में दुबका नाम तुरंत उन के होठों पर आ गया.
‘‘यस मैडम.’’ वह अपने पहचान लिए जाने पर खुश नजर आया.
‘‘ओह…’’ मिस मृणालिनी की समझ में कुछ न आया क्या करें, क्या कहें.

‘‘मैं डर रहा था अंशुमन सर न टकरा जाएं कहीं.’’ वह बेतकल्लुफी से बोल रहा था. मिस मृणालिनी ठाकुर शांत व बिलकुल चुप थीं.

‘‘मैं दक्षिण अफ्रीका चला गया था. फिर वहां से डैडी ने अंकल के पास इंग्लैंड भेज दिया. अब सर्जन बन चुका हूं और अपने देश आ गया हूं. मैं आप को कभी भूल न सका. मुझे विश्वास था आप कभी न कभी, कहीं न कहीं फिर मुझे मिलेंगी. और वाकई आप मिल गईं, उसी जगह जहां मैं छोड़ कर गया था.’’
‘‘माइंड यू बौय.’’ मिस मृणालिनी ने उस की बेतकल्लुफी पर कुछ नागवारी के साथ कहा.

‘‘मेरी मम्मी भी किसी हालत में यह स्वीकार नहीं करतीं कि मैं अब बच्चा नहीं रहा.’’

मिस मृणालिनी ठाकुर ने देखा वह बड़े सलीके से मुसकरा रहा था. वह फर्स्ट ईयर का स्टूडेंट था, पता नहीं कहां जा छिपा था.

‘‘आई स्टिल लव यू मिस मृणालिनी.’’ वह 12 साल बाद एक बार फिर अपने अपराध को स्वीकार रहा था.

‘‘शट अप!’’ मिस मृणालिनी का चेहरा लाल हो गया.
‘‘नो मैडम, आई कान्ट! और क्यों मैं अपनी जुबान बंद रखूं. अगर एक बेटे को यह अधिकार है कि वह अपनी मां को चूम कर उस के गले में बांहें डाल कर उस से अपने प्रेम का इजहार कर सकता है तो इतना अधिकार हर स्टूडेंट को है वह अपने रुहानी मातापिता से प्रेम कर सके. क्या गलत कह रहा हूं मिस मृणालिनी ठाकुर? क्या गुरु से प्रेम की स्वीकारोक्ति अपराध है मैडम?’’

मिस मृणालिनी ठाकुर ने हैरानी से देखा वह कह रहा था.
‘‘अगर अंशुमन सर की तरह आप ने भी इसे अपराध मान लिया तो यह वाकई में बड़ा दुखद होगा.’’
मिस मृणालिनी अविश्वास से उस की ओर देख रही थीं.

‘‘यस मैडम आइ लव यू.’’ उस ने एक बार फिर स्वीकार किया.

‘‘ओह डियर….’’ भावनाओं के वेग से मिस मृणालिनी की जुबान गूंगी हो चली थी. बिलकुल उस मां की तरह जिस का बेटा सालों बाद घर लौट आया हो.

मानसून स्पेशल: एक रिश्ता ऐसा भी – भाग 2

‘‘भई हम ने क्या बहुतों ने देखा और देखते आ रहे हैं. दरअसल लिखने वाले ने लिखा ही इसलिए है कि लोग देखें.’’

‘‘मिसेज जयराज, प्लीज इसे किसी तरह…’’ मिस मृणालिनी ठाकुर गिड़गिड़ाईं.
तभी मिसेज आशीष और मिस रचना मिस मृणालिनी ठाकुर को विचित्र नजरों से देखती हुई स्टाफरूम में दाखिल हुईं.

कुछ ही देर के बाद रामलाल चपरासी झाड़न संभाले अपनी ड्यूटी निभाने आया तो मिस मृणालिनी ठाकुर फौरन उस की ओर लपकीं और कानाफूसी वाले लहजे में बोलीं, ‘‘रामलाल यह झाड़न ले कर जाओ और चाक से मेनगेट पर जो कुछ लिखा है मिटा आओ.’’

‘‘हैं जी,’’ रामलाल ने बेवकूफों की तरह उन का चेहरा तकते हुए कहा.
‘‘जाओ, जो काम मैं ने कहा वो फौरन कर के आओ,’’ मिस मृणालिनी ठाकुर की आवाज फंसीफंसी लग रही थी.

‘‘घबराइए मत मिस ठाकुर, यह बात तो लड़कों में आप की पसंदीदगी की दलील है.’’ मिस चेरियान के लहजे में व्यंग्य साफ तौर पर झलक रहा था.

‘‘अब तो यूं ही होगा भई, लड़के तो आप के दीवाने हैं,’’ मिस तरन्नुम का लहजा दोधारी तलवार की तरह काट रहा था.
मिस शमा अपना गाउन संभाले मुसकराती हुई अंदर दाखिल हुईं और मिस मृणालिनी के नजदीक आ कर राजदारी से बोलीं, ‘‘मिस मृणालिनी ठाकुर गेट पर…’’

मिस मृणालिनी ठाकुर को अत्यंत भयभीत पा कर मिसेज जयराज ने उन के करीब आ कर उन के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं मृणालिनी, टीचर और स्टूडेंट में तो आप के कथनानुसार एक आत्मीय संबंध होता है.’’

फिर उन्होंने मिस तरन्नुम की ओर देख कर आंख दबाई और बोलीं, ‘‘कुछ स्टूडेंट इजहार के मामले में बड़े फ्रैंक होते हैं और होना भी चाहिए. क्यों मृणालिनी, आप का यही विचार है न कि हमें स्टूडेंट्स को अपनी बात कहने की आजादी देनी चाहिए.’’

मिसेज जयराज की इस बात पर मिस मृणालिनी का चेहरा क्रोध से दहकने लगा.
‘‘शशि सिंह वही है न बी सैक्शन वाला. लंबा सा लड़का जो अकसर जींस पहने आता है.’’ मिस रौशन ने पूछताछ की.

मिसेज गोयल ने उन के विचार को सही बताते हुए हामी भरी.
‘‘वह तो बहुत प्यारा लड़का है.’’ मिसेज गुप्ता बोलीं.

‘‘बड़ा जीनियस है, ऐसेऐसे सवाल करता है कि आदमी चकरा कर रह जाए,’’ मिसेज कपाडि़या जो फिजिक्स पढ़ाती थीं बोलीं.

मिसेज जयराज ने मृणालिनी को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘मृणालिनी आप तो अपने स्टूडेंट्स को उन लोगों से भी अच्छी तरह जानती होंगी, आप की क्या राय है उस के बारे में?’’

‘‘वह वाकई अच्छा लड़का है, मुझे तो ऐसा लगता है कि किसी ने उस के नाम की आड़ में शरारत की है.’’
‘‘हां ऐसा संभव है.’’ मिसेज गुप्ता ने उन की बात का समर्थन किया.

‘‘सिर्फ संभव ही नहीं, यकीनन यही बात है क्योंकि लिखने वाला इस तरह ढिठाई से अपना नाम हरगिज नहीं लिख सकता था,’’ मिसेज जयराज ने फिर अपनी चोंच खोली.यह बात मिस मृणालिनी को भी सही लगी.

शशि सिंह के बारे में मिस मृणालिनी ठाकुर की राय बहुत अच्छी थी. हालांकि सेशन शुरू हुए 3 महीने ही गुजरे थे, लेकिन इस दौरान जिस बाकायदगी और तन्मयता से उस ने क्लासेज अटेंड की थीं वह शशि सिंह को मिस मृणालिनी के पसंदीदा स्टूडेंट्स में शामिल कराने के लिए काफी थीं. ‘

 

वारिस- भाग 1: कौन-सी मुक्ति का इंतजार कर रही थी ममता

सुरजीत के घर में अनजान औरत को देख नरेंद्र चौंक गया. पूछने पर मालूम हुआ कि वह ‘कुदेसन’ है. रहरह कर उसे अपने घर में रह रही उस औरत का खयाल आने लगा. कहीं वह भी ‘कुदेसन’ तो नहीं.

होश संभालने के साथ ही नरेंद्र उस औरत को अपने घर में देखता आ रहा था. वह कौन थी, उसे नहीं पता था.

बचपन में जब भी वह किसी से उस औरत के बारे में पूछता था तो वह उस को डांट कर चुप करा देता था.

घर के बाईं ओर जहां गायभैंस बांधे जाते थे उस के करीब ही एक छोटी सी कोठरी बनी हुई थी और वह औरत उसी कोठरी में सोती थी.

मां का व्यवहार उस औरत के प्रति अच्छा नहीं था जबकि उस का बाप  बलवंत और बूआ सिमरन उस औरत के साथ कुछ हमदर्दी से पेश आते थे.

नरेंद्र की मां बलजीत का सलूक तो उस औरत के साथ इतना खराब था कि वह सारा दिन उस से जानवरों की तरह काम लेती थी और फिर उस के सामने बचाखुचा और बासी खाना डाल देती थी. कई बार तो लोगों का जूठन भी उस के सामने डालने में बलवंत परहेज नहीं करती थी. लेकिन जैसा भी, जो भी मिलता था वह औरत चुपचाप खा लेती थी.

होश संभालने के बाद नरेंद्र ने घर में रह रही उस औरत को ले कर एक और भी अजीब चीज महसूस की थी. वह हमेशा नरेंद्र की तरफ दुलार और हसरत भरी नजरों से देखती थी. वह उसे छूना और सहलाना चाहती थी. पर घर के किसी सदस्य के होने पर उस औरत की नरेंद्र के करीब आने की हिम्मत नहीं होती थी. लेकिन जब कभी नरेंद्र उस के सामने अकेले पड़ जाता और आसपास कोई दूसरा नहीं होता तो वह उस को सीने से लगा लेती और पागलों की तरह चूमती.

ऐसा करते हुए उस की आंखों में आंसुओं के साथसाथ एक ऐसा दर्द भी होता था जिस को शब्दों में जाहिर करना मुश्किल था.

‘कुदेसन’ शब्द को नरेंद्र ने पहली बार तब सुना था जब उस की उम्र 14-15 साल की थी.

गांव के कुछ दूसरे लड़कों के साथ नरेंद्र जिस सरकारी स्कूल में पढ़ने जाता था वह गांव से कम से कम 2 किलोमीटर की दूरी पर था.

नरेंद्र के साथ गांव के 7-8 लड़कों का समूह एकसाथ स्कूल के लिए जाता था और रास्ते में अगर कोई झगड़ा न हुआ तो एकसाथ ही वे स्कूल से वापस भी आते थे.

सुबह स्कूल जाने से पहले सारे लड़के गांव की चौपाल पर जमा होते थे. एकसाथ मस्ती करते हुए स्कूल जाने में रास्ते की दूरी का पता ही नहीं चलता था और जब कभी समूह का कोई लड़का वक्त पर चौपाल नहीं पहुंचता था तो उस की खोजखबर लेने के लिए किसी लड़के को उस के घर दौड़ाया जाता था. हमारे साथ स्कूल जाने वाले लड़कों में एक सुरजीत भी था जिस के साथ नरेंद्र की खूब पटती थी. दोनों एक ही कक्षा में पढ़ते थे. नरेंद्र कई बार सुरजीत के घर भी जा चुका था.

एक दिन जब स्कूल जाते समय  सुरजीत गांव की चौपाल पर नहीं पहुंचा तो उस की खोजखबर लेने के लिए नरेंद्र उस के घर पहुंच गया.

पहले तो घर में दाखिल हो कर नरेंद्र ने देखा कि सुरजीत को बुखार है. वह वापस मुड़ा तो उस की नजर सुरजीत के घर में एक औरत पर पड़ी जो उस के लिए अनजान थी.

वह जवान औरत गांव में रहने वाली औरतों से एकदम अलग थी, बिलकुल उसी तरह जैसे उस के अपने घर में रह रही औरत उसे नजर आती थी. चूंकि नरेंद्र को स्कूल जाने की जल्दी थी इसलिए उस ने इस बारे में सुरजीत से कोई बात नहीं की.

2 दिन बाद सुरजीत स्कूल जाने वाले लड़कों में फिर से शामिल हो गया तो छुट्टी के बाद गांव वापस लौटते हुए नरेंद्र ने उस से उस अजनबी औरत के बारे में पूछा था. इस पर सुरजीत ने कहा, ‘बापू ने ‘कुदेसन’ रख ली है.’

‘‘कुदेसन, वह क्या होती है?’’ नरेंद्र ने हैरानी से पूछा.

‘‘मैं नहीं जानता. लेकिन ‘कुदेसन’ के कारण मां और बापू में रोज झगड़ा होने लगा है. मां कुदेसन को घर में एक मिनट भी रखने को तैयार नहीं, लेकिन बापू कहता है कि भले ही लाशें बिछ जाएं, कुदेसन यहीं रहेगी,’’ सुरजीत ने बताया.

‘‘मगर तेरा बापू इस कुदेसन को लाया कहां से है?’’

‘‘क्या पता, तुम को तो मालूम ही है कि मेरा बापू ड्राइवर है. कंपनी का ट्रक ले कर दूरदूर के शहरों तक जाता है. कहीं से खरीद लाया होगा,’’ सुरजीत ने कहा.

सुरजीत की इस बात से नरेंद्र को और ज्यादा हैरानी हुई थी. उस ने जानवरों की खरीदफरोख्त की बात तो सुनी थी मगर इनसानों को भी खरीदा या बेचा जा सकता है यह बात वह पहली बार सुरजीत के मुख से सुन रहा था.

‘कुदेसन’ शब्द एक सवाल बन कर नरेंद्र के जेहन में लगातार चक्कर काटने लगा था. उस को इतना तो एहसास था कि ‘कुदेसन’ शब्द में कुछ बुरा और गलत था. किंतु वह बुरा और गलत क्या था? यह उस को नहीं पता था.

‘कुदेसन’ शब्द को ले कर घर में किसी से कोई सवाल करने की हिम्मत उस में नहीं थी. बाहर किस से पूछे यह नरेंद्र की समझ में नहीं आ रहा था.

असमंजस की उस स्थिति में अचानक ही नरेंद्र के दिमाग में अमली चाचा का नाम कौंधा था.

अमली चाचा का असली नाम गुरबख्श था. अफीम के नशे का आदी (अमली) होने के कारण ही गुरबख्श का नाम अमली चाचा पड़ गया था. गांव के बच्चे तो बच्चे जवान और बड़ेबूढे़ तक गुरबख्श को अमली चाचा कह कर बुलाते थे. दूसरे शब्दों में, गुरबख्श सारे गांव का चाचा था.

गांव की चौपाल के पास ही अमली चाचा पीपल के नीचे जूतों को गांठने की दुकानदारी सजा कर बैठता था. वह अकेला था, क्योंकि उस की शादी नहीं हुई थी. एकएक कर के उस के अपने सारे मर गए थे. आगेपीछे कोई रोने वाला नहीं था अमली चाचा के. गांव के हर शख्स से अमली चाचा का मजाक चलता था.

बड़े तो बड़े, नरेंद्र की उम्र के लड़कों के साथ भी उस का हंसीमजाक चलता था. आतेजाते लड़के अमली चाचा से छेड़खानी करते थे और वह इस का बुरा नहीं मानता था. हां, कभीकभी छेड़खानी करने वाले लड़कों को भद्दीभद्दी गालियां जरूर दे देता था.

शरारती लड़के तो अमली चाचा की गालियां सुनने के लिए ही उस को छेड़ते थे.

क्या आपका बिल चुका सकती हूं

क्या आप का बिल चुका सकती हूं : भाग 2

‘‘दिस इज माई च्वाइस. अकेलेपन की उदासी अकसर बहुत करीबी दोस्त होती है हमारी. हां, राशा तो वहां से अगले दिन घर लौट गई थी. हमारी एक सैलानी टोली है, पर मैं उन के शोर में ज्यादा देर नहीं टिक पाती.’’

हम दोनों कोने में लगी बेंच पर जा बैठे. झील में परछाइयां फैल रही थीं.

मैं ने उस दिन राशा की विदाई वाला किस्सा उसे सुनाया तो वह संजीदा हो उठा, ‘‘आप लोग बड़ी हैं तो भी इतना सम्मान देती हैं…वरना मैं तो बहुत मामूली व्यक्ति हूं.’’

‘‘क्या मैं पूछ सकती हूं कि आप करते क्या हैं?’’

‘‘इस तरह की जगहों के बारे में लिखता हूं और उस से कुछ कमा कर अपने घूमने का शौक पूरा करता हूं. कभीकभी आप जैसे अद्भुत लोग मिल जाते हैं तो सैलानी सी कहानी भी कागज पर रवानी पा लेती है.’’

‘‘वंडरफुल.’’

मैं ने उसे राशा का पता नोट करने को कहा तो वह बोला, ‘‘उस से क्या होगा? लेट द थिंग्स गो फ्री…’’

मैं चुप रह गई.

‘‘पता छिपाने में मेरी रुचि नहीं है…’’ वह बोला, ‘‘फिर मैं तो एक लेखक हूं जिस का पता चल ही जाता है.’’

‘‘फिर…पता देने में क्या हर्ज है?’’

‘‘बंधन और रिश्ते के फैलाव से डरता हूं… निकट आ कर सब दूर हो जाते हैं…अकसर तड़पा देने वाली दूरी को जन्म दे कर…’’

‘‘उस रोज भी शायद तुम डरे थे और जल्दी से भाग निकले थे.’’

‘‘हां, आप के कारण.’’

मैं बुरी तरह चौंकी.

‘‘उस रोज आप को देखा तो किसी की याद आ गई.’’

‘‘किस की?’’

‘‘थी कोई…मेरे दिल व दिमाग के बहुत करीब…दूरदूर से ही उसे देखता रहा और उस के प्रभामंडल को…’’ कहतेकहते वह कहीं खो गया.

मैं हथेलियों पर अपना चेहरा ले कर कुहनियों के बल मेज पर झुकी रही.

‘‘कुछ लोग बाहर से भी और भीतर से भी इतने सुंदर क्यों होते हैं…और साथ में इतने अद्भुत कि हर पल उन का ही ध्यान रहता है? और इतने अपवाद क्यों?…कि या तो किताबों में मिलें या ख्वाबों में…या मिल ही जाएं तो बिछड़ जाने को ही मिलें?’’ वह बोला.

मैं उस की आंखों में उभरती तरलता को देखती रही. वह कहता रहा…

‘‘हम जब किसी से मिलते हैं तो उस मिलन की उमंग को धीरेधीरे फीका क्यों कर देते हैं? जिंदा रहते भी उसे मार क्यों देते हैं?’’

‘‘अधिक निकटता और अधिक दूरी हमें एकदूसरे को समझने नहीं देती…’’ मैं उस से एक गहरा संवाद करने के मूड में आ गई, ‘‘हमें एक ऐसा रास्ता बने रहने देना होता है, जो खत्म नहीं होता, वरना उस के खत्म होते ही हम भी खत्म हो जाते हैं और हमारा वहम टूट जाता है.’’

उस ने मेरी आंखों में देखा और कहना शुरू किया, ‘‘जिन्हें जीना आता है वे किसी रास्ते के खत्म होने से नहीं डरते, बल्कि उस के सीमांत के पार के लिए रोमांचित रहते हैं. भ्रम तब तक बना रहता है जब तक हम आगे के दृश्यों से बचना चाहते हैं…सच तो यह है कि रास्ते कभी खत्म नहीं होते…न ही भ्रम…अनदेखे सच तक जाने के लिए भ्रम ही तो बनते हैं. किश्तियों के डूबने से पता नहीं हम डरते क्यों हैं?’’

मैं उसे ध्यान से सुनने लगी.

‘‘सुखी, संतुष्ट बने रहने के लिए हम औसत व्यक्ति बन जाते हैं, जबकि चाहतें अनंत हैं…दूरदूर तक.’’

‘‘कभीकभी हम सहमत हो कर भी अलग तलों पर नजर आते हैं…मैं तुम्हारी इस बात को शह दूं तो कहूंगी कि मैं वहां खत्म नहीं होना चाहती जहां मैं ‘मुझ’ से ही मिल कर रह जाऊं…मुझे अपनी हर हद से आगे जाना है. अपने कदमों को नया जोखिम देने के लिए अपनी हर पिछली पगडंडी तोड़नी है…’’

वह हंसा. कहने लगा, ‘‘पर इस लड़खड़ाती खानाबदोशी में हम जल्दबाज हो कर अपने को ही चूक जाते हैं. इसी में हमारी बेचैनियां आगे दौड़ने की लत पाल लेती हैं. क्या ऐसा नहीं?’’

मैं सोचने लगी कि अब हम एकदूसरे के साथ भी हैं और नहीं भी.

मुझे चुप देख कर उस ने पूछा, ‘‘विवाह को आप कैसे देखती हैं?’’

‘‘अनचाही चीज का पल्ले पड़ जाने वाली एक वाहियात रस्म.’’

वह फिर हंस कर बोला, ‘‘विवाहित या अविवाहित होना मुझे बाहर की नहीं, भीतर की घटना लगती है. जीना नहीं आता हो तो सारी इच्छाएं पूरी हो जाने पर भी बेमतलब के साथ से हम नहीं बच पाते. ज्यादातर लोग विवाहित हो कर ही इस से बच सकते हैं…या दूसरे को बचा सकते हैं, ऐसे ही किसी संबंध में आ कर. हालांकि मैं नहीं मानता कि मनुष्य नामक स्थिति की अभी रचना हो भी सकी है…मनुष्य जिसे कहा जाता है वह शायद भविष्य के गर्भ में है, वरना विवाह की या किसी भी स्थापित संबंध की जरूरत कहां है? हम अकसर अपने से ही संबंधित हो कर आकाश खोजते रह जाते हैं…’’

 

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