मेरा भी मी टाइम: कालेज के अलबम में ऐसा क्या देख लिया शिवानी ने

‘‘शिवानीमेरी शर्ट कहां है?’’ पुनीत ने चिल्लाते हुए पूछा.

‘‘अरे आप भी न… यह तो रही. बैड पर,’’ शिवानी कमरे में आते हुए बोली.

‘‘शर्ट तो बस एक बहाना था, तुम इधर आओ न, पूरा दिन इधरउधर लगी रहती हो,’’ पुनीत ने शिवानी को अपनी बांहों में भरते हुए शरारत से कहा.

‘‘छोड़ो भी, क्या कर रहे हो… अभी बहुत काम है मुझे,’’ शिवानी ने झूठा गुस्सा दिखाते हुए कहा.

‘‘भाभी वह… सौरीसौरी. आप दोनों लगे रहो, मैं चलती हूं,’’ पावनी कमरा खुला देख सीधा अंदर आ गई, तो दोनों थोड़ा सकपका से गए.

‘‘अरे, नहीं… ऐसा कुछ नहीं. कुछ काम था पावनी?’’ अर्पिता ने अपनी ननद से पूछा.

‘‘भाभी, नीचे शायद नई काम वाली आई है. मां बुला रही हैं आप को,’’ पावनी ने कहा.

शिवानी इस घर की बहू नहीं इस घर की आत्मा है. अगरबत्ती की खुशबू की तरह इस घर में रचबस गई. 8 साल हो गए हैं शिवानी और पुनीत की शादी को हुए. आते ही शिवानी ने एक सुघड़ गृहिणी की तरह घर की सारी जिम्मेदारियां संभाल लीं. शिवानी के सासससुर उस की तारीफ करते नहीं थकते, वहीं पावनी भी उस की ननद कम छोटी बहन ज्यादा है.

शादी के कुछ ही समय बाद शिवानी की सास को पैरालाइसिस का दौरा पड़ा और उन के शरीर के आधे हिस्से ने काम करना बंद कर दिया पर यह शिवानी की मेहनत का ही असर था कि 6 महीनों के भीतर ही उस की सासूमां की तबीयत में जबरदस्त सुधार हुआ. वह बिलकुल बेटी की तरह उन का खयाल रखती. सास भी उसे बेटी से कम नहीं समझती थीं. ससुरजी शुगर के मरीज थे, पर शायद ही कोई ऐसा दिन गया हो जब उस ने दवा देने में देरी की हो. शिवानी इस घर में रचबस गई थी.

‘‘मम्मा, कल स्कूल में साइंस प्रोजैक्ट है. टीचर ने कहा है कल सब बच्चे अपना प्रोजैक्ट सबमिट करवाएं,’’ विभोर ने कहा.

‘‘उफ, फिर से ये कमबख्त प्रोजैक्ट… पता नहीं ये स्कूल वाले बच्चों को पढ़ाते हैं या उन के पेरैंट्स को. कभी यह प्रोजैक्ट तो कभी वह प्रोजैक्ट,’’ शिवानी को खीज सी हुई.

‘‘बहू तुम्हारा फोन आया है,’’ शिवानी की सास की आवाज आई.

‘‘आई मम्मी,’’ शिवानी ने आवाज दी.

‘‘बेटा तुम ड्रैस चेंज करो मैं आती हूं,’’ शिवानी ने विभोर का गाल थपथपाया.

‘‘हैलो शिवानी मैं ज्योति. अगले हफ्ते कालेज रियूनियन है, तू आ रही है न? कितना मजा आएगा… हम सब अपने पुराने दिन याद करेंगे. कितने मजे किए हैं हमने कालेज में… देख तू प्लान खराब मत करना इस बार,’’ ज्योति ने कहा.

‘‘कालेज रियूनियन… थोड़ा मुश्किल है ज्योति… बहुत काम है घर में… समय ही कहां मिल पाता है यार,’’ शिवानी ने कहा.

‘‘शिवानी तू तो सच में बदल गई है… कभी टाइम ही नहीं होता तेरे पास. कहां गई हमारे कालेज की वह रौकस्टार? हम ने तो सोचा था बड़े दिनों बाद तुझ से गिटार पर वही गाना फिर से सुनेंगे… तुझे पता है श्रेया अमेरिका से आ रही है और तू है कि यहीं रहती है. फिर भी तुझे समय ही नहीं… चल देख कोशिश करना,’’ कह ज्योति ने फोन काट दिया.

‘‘कालेज रियूनियन’’ वह बुदबुदाई और फिर से काम में लग गई. विभोर को खाना खिला कर फिर रात के खाने की तैयारी में लग गई. रात के खाने के बाद थकहार कर कमरे में आई. कपड़े चेंज करने के लिए अलमारी खोली तो अचानक पुराना कालेज का अलबम दिखाई दिया.

‘‘मम्मी, नींद आ रही है. चलो न,’’ विभोर उस का दुपट्टा पकड़ कर बोला.

शिवानी ने अलबम साइड में रखा और विभोर को सुलाने लग गई. उस के सोने के बाद उस ने अलबम उठाया. कालेज की पुरानी यादें फिर से ताजा हो गई. वह अल्हड़ खिलखिलाती लड़की पूरे कालेज में रौकस्टार के नाम से पहचानी जाती थी. न जाने कितने लड़के उस की इस अदा पर फिदा थे, मगर मजाल है उस ने किसी को भाव दिया हो.

म्यूजिक का शौक तो उसे बचपन से था. उस पर जब से पापा ने गिटार ला कर दिया था वह सच की रौकस्टार बनी रहती थी. कालेज में कोई भी फंक्शन हो या कोई भी इंटर कालेज प्रोग्राम प्रतियोगिता वही हमेशा पहले स्थान पर आती. उस ने अपने शिमला ट्रिप के फोटो देखे. कैंप में बोन फायर था और वह गिटार पर अपना गाना गा रही थी…

‘‘हम रहें या न रहें कल,

पल याद आएंगे ये पल,

पल ये हैं प्यार के पल,

चल आ मेरे संग चल,

चल… सोचें क्या… छोटी सी है ये जिंदगी.’’

शायद वह उस दिन गा नहीं रही थी, उन पलों को पूरी शिद्दत से जी रही थी.

‘‘क्या हुआ आज सोने का इरादा नहीं है, घड़ी देखो रात के 11 बज गए हैं.’’ पुनीत ने कहा तो मानो वह उस पल से अचानक लौट आई.

‘‘हां,’’ शिवानी ने कहा और फिर कपड़े बदलने चली गई.

अगले दिन उठ सब का ब्रेकफास्ट तैयार किया. विभोर को नहला कर स्कूल भेजा. कामवाली के भी आने का टाइम हो गया. उस ने सारे झूठे बरतन धोने के लिए रखे. पापाजी के लिए चाय चढ़ाई और मशीन में कपड़े डाल दिए. घड़ी में देखा 10 बजे रहे थे. पुनीत 11 बजे औफिस जाएंगे. उन के लिए लंच की तैयारी करनी है. सुबह शिवानी किसी रोबोट से कम नहीं होती. 11 बज गए. लगता है आज फिर कामवाली नहीं आएगी. लंच का डब्बा तैयार किया. वह कमरे में किसी काम से गई. कल रात उस ने वह अलबम ड्रैसिंग टेबल पर ही छोड़ दिया था. उस ने उसे उठाया. एक बार खोला और अपनेआप को आईने में देखा.

‘‘कहां गई वह शिवानी,’’ अपनेआप को आईने में देख शिवानी सोच रही थी. ग्रैजुएशन होने के बाद पिताजी की तबीयत थोड़ी ठीक नहीं रहती. उन्होंने उस की शादी का निर्णय लिया और जब पुनीत का रिश्ता आया, तो उस ने हां कह दिया. इस घर में आने के बाद एक चंचल सी लड़की न जाने कब इतनी जिम्मेदार बन गई.

ऐसा नहीं है कि उसे किसी बात की कमी है, फिर भी आज उस की मुसकान तभी है जब सब के चेहरे पर खुशी है. उसे तो याद भी नहीं कब उस ने आखिरी बार अपने गिटार को छुआ था. इतना मशगूल हो गई थी वह इस नई जिंदगी में कि उस ने तो गुनगुनाना ही छोड़ दिया.

‘‘शिवानी,’’ पुनीत की आवाज थी. वह झट से दौड़ी चली गई.

‘‘शिवानी… मेरे औफिस का टाइम हो रहा है. लंच का डब्बा कहां है?’’ पुनीत ने पूछा.

वह किचन में गई और लंच का डब्बा ला कर पुनीत को पकड़ा दिया.

‘‘भाभी, आज मैं मूवी जा रही हूं, शायद आने में थोड़ी देर हो जाए. प्लीज तुम देख लेना,’’ पावनी ने शिवानी पर बांहों का घेरा बनाते हुए कहा.

‘‘हां, पर ज्यादा देर मत करना,’’ शिवानी ने कहा.

‘‘लव यू मेरी प्यारी भाभी,’’ पावनी ने शिवानी के गाल को चूमते हुए कहा. शिवानी के चेहरे पर एक मुसकान आ गई. फिर वह अपने कामों में लग गई. मगर आज उस का मन तो कहीं और ही था.

‘‘शिवानी, शिवानी बेटा… देखो दूध बह रहा है,’’ उस की सास ने कहा.

‘‘ओह,’’ शिवानी ने कहा.

‘‘क्या हुआ बेटा?’’ तबीयत तो ठीक है? उन्होंने पूछा.

‘‘हां, मम्मी,’’ शिवानी ने कहा.

विभोर स्कूल से आया तो उस का चेहरा लटका था. शिवानी ने पूछा तो वह रोने लगा. ‘‘मम्मी, आप बिलकुल अच्छी नहीं हो. आप को मैं ने कल प्रोजैक्ट को कहा. आप ने बनाया नहीं. टीचर ने डांटा,’’ शिवानी को याद आया कि कल उस से विभोर ने कहा था, मगर वह भूल ही गई. विभोर का चेहरा बुझ गया.

रात के 8 बज गए. पुनीत के आने का समय था. शिवानी डाइनिंग टेबल पर खाना लगा रही थी. तभी पुनीत भी आ गए.

‘‘चलिए आप भी हाथ धो लीजिए, खाना तैयार है,’’ शिवानी ने पुनीत से कहा.

पावनी भी आ गई थी.

‘‘इतनी देर कैसे हुई पावनी?’’ मांजी ने पूछा.

‘‘वह कुछ काम था… भाभी को बता कर गई थी,’’ पावनी ने कहा.

‘‘शिवानी, तुम ने बताया नहीं,’’ सासूमां ने पूछा.

‘‘मैं भूल गई,’’ शिवानी ने कहा.

‘‘शिवानी, लगता है तुम कुछ ज्यादा ही भुलक्कड़ हो गई हो. आज तुम ने लंच में मुझे भरे हुए डब्बे की जगह खाली टिफिन पकड़ा दिया,’’ पुनीत ने कहा.

‘‘पता है पापा, मम्मी तो मेरा प्रोजैक्ट करवाना भूल गईं… टीचर ने डांटा मुझे,’’ विभोर ने मुंह बनाते हुए कहा.

शिवानी की आंखों से आंसू छलक आए. वह रोने लगी. किसी को भी यह उम्मीद नहीं थी.

‘‘अरे पुनीत हड़बड़ी में हो गया होगा और विभोर तू खेलने में लग गया होगा, तूने याद दिलाया दोबारा मम्मी को?’’ सासूमां ने कहा.

‘‘नहीं मम्मी, किसी की कोई गलती नहीं. मेरी ही गलती है सारी… शायद मैं ही एक परफैक्ट बहू नहीं हूं, एक अच्छी मां नहीं हूं, मैं कोशिश करती हूं पर नहीं कर पाती… मुझे माफ कर दीजिए…

मैं आप की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पाई,’ शिवानी ने सुबकते हुए कहा.

‘‘नहीं बेटा, तू तो हम सब की जान है,’’ उस की सास ने कहा पर आज शिवानी के आंसू थम ही नहीं रहे थे.

‘‘पुनीत, शिवानी बिटिया को कमरे में ले जा बेटा,’’ शिवानी के ससुरजी ने कहा.

सब शिवानी का उदास चेहरा देख हैरान थे. किसी को भी शिवानी से कोई शिकायत नहीं थी. सब के मन में एक ही बात थी कि अचानक शिवानी के साथ ऐसा क्या हुआ?

3 दिन बाद शिवानी का जन्मदिन आने वाला था. सब सदस्य साथ बैठे और सोचा कि अचानक शिवानी को क्या हो गया. कुछ बात हुई और इस बार परिवार वालों ने सोचा कि यह जन्मदिन उस के लिए कुछ खास होगा.

‘‘पावनी क्या कर रही हो तुम?’’ शिवानी ने पूछा.

‘‘भाभी तुम आंखें मत खोलना बस,’’ पावनी ने अपने हाथों से शिवानी की आंखों को बंद कर रखा था.

सरप्राइज. उस ने देखा हौल पूरा उस की पसंद के पीले गुलाबों से सजाया हुआ था. सामने टेबल पर एक बड़ा सा केक रखा था. सभी उस का इंतजार कर रहे थे.

‘‘शिवानी बेटा, यह तुम्हारे लिए,’’ उस के ससुरजी ने दीवान की तरफ इशारा करते हुए कहा.

एक बड़ा सा बौक्स सामने दीवान पर पड़ा था.

‘‘देखो तो सही मम्मी,’’ विभोर आंखें टिमटिमाते हुए बोला.

शिवानी ने अपना तोहफा खोला तो उस की आंखों से आंसू बह निकले.

इस में उस के लिए नया गिटार था.

‘‘शिवानी, जब से तुम इस घर में आई हो तुम ने सारे घर की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली. पर हम सब शायद अपनी जिम्मेदारी भूल गए थे. तुम ने हम सब का तो खयाल रखा पर उस पुरानी शिवानी को भुला दिया जो चहकती रहती थी. घरपरिवार की जिम्मेदारियों का कोई अंत नहीं होता बेटा, पर हम सब चाहते हैं कि तुम कुछ समय खुद के लिए भी निकालो.

‘‘आज से हमें हमारी पुरानी शिवानी वापस चाहिए, जिस के गानों से यह घर गूंज उठता था, हम कोशिश करेंगे कि तुम्हारी थोड़ी जिम्मेदारियां हम कम कर सकें,’’ शिवानी की सास उस के सिर पर अपना हाथ रखते हुए बोली.

‘‘बहू, आज से विभोर को बसस्टौप तक ड्रौप करने की जिम्मेदारी मेरी, आते हुए मैं राशन का सामान भी ले आऊंगा. इसी बहाने मेरी वाक भी हो जाएगी,’’ शिवानी के ससुरजी ने कहा.

‘‘भाभी, आज से मैं विभोर को रोज 1 घंटा जरूर पढ़ाऊंगी,’’ पावनी बोली.

‘‘और हां बहू, किचन के छोटेमोटे काम मैं ही संभाल लूंगी. अगर तुम मुझे यों ही बैठा रखोगी तो मैं पड़ेपड़े बीमार हो जाऊंगी,’’ शिवानी की सास ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘आज से घर के सारे हिसाबकिताब की जिम्मेदारी और सभी बिल भरने का जिम्मा मेरा. चलो, अब ये आंसू बहाना बंद करो. 2 दिन बाद कालेज का रियूनियन है न… तुम बताओगी नहीं तो क्या हमें पता नहीं चलेगा… और हां, उस में हमारी रौकस्टार शिवानी को एक धांसू परफौर्मैंस जो देना है… तो सुनिए मेहरबान कद्रदान सब अपनी जगह ले लें, आ रही है हमारी रौकस्टार शिवानी,’’ पुनीत ने आंख मारते हुए कहा.

शिवानी की आंखों से और आंसू बह निकले. अब शिवानी गिटार बजा रही थी और पूरा घर कोरस में एकसाथ गा रहा था.

‘‘एकदूसरे से करते हैं प्यार हम…’’

इक विश्वास था : लिफाफा कहां से आया था

मेरी बेटी की शादी थी और मैं कुछ दिनों की छुट्टी ले कर शादी के तमाम इंतजाम को देख रहा था. उस दिन सफर से लौट कर मैं घर आया तो पत्नी ने आ कर एक लिफाफा मुझे पकड़ा दिया. लिफाफा अनजाना था लेकिन प्रेषक का नाम देख कर मुझे एक आश्चर्यमिश्रित जिज्ञासा हुई.

‘अमर विश्वास’ एक ऐसा नाम जिसे मिले मुझे वर्षों बीत गए थे. मैं ने लिफाफा खोला तो उस में 1 लाख डालर का चेक और एक चिट्ठी थी. इतनी बड़ी राशि वह भी मेरे नाम पर. मैं ने जल्दी से चिट्ठी खोली और एक सांस में ही सारा पत्र पढ़ डाला. पत्र किसी परी कथा की तरह मुझे अचंभित कर गया. लिखा था :

आदरणीय सर, मैं एक छोटी सी भेंट आप को दे रहा हूं. मुझे नहीं लगता कि आप के एहसानों का कर्ज मैं कभी उतार पाऊंगा. ये उपहार मेरी अनदेखी बहन के लिए है. घर पर सभी को मेरा प्रणाम.

आप का, अमर.

मेरी आंखों में वर्षों पुराने दिन सहसा किसी चलचित्र की तरह तैर गए.

एक दिन मैं चंडीगढ़ में टहलते हुए एक किताबों की दुकान पर अपनी मनपसंद पत्रिकाएं उलटपलट रहा था कि मेरी नजर बाहर पुस्तकों के एक छोटे से ढेर के पास खड़े एक लड़के पर पड़ी. वह पुस्तक की दुकान में घुसते हर संभ्रांत व्यक्ति से कुछ अनुनयविनय करता और कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर वापस अपनी जगह पर जा कर खड़ा हो जाता. मैं काफी देर तक मूकदर्शक की तरह यह नजारा देखता रहा. पहली नजर में यह फुटपाथ पर दुकान लगाने वालों द्वारा की जाने वाली सामान्य सी व्यवस्था लगी, लेकिन उस लड़के के चेहरे की निराशा सामान्य नहीं थी. वह हर बार नई आशा के साथ अपनी कोशिश करता, फिर वही निराशा.

मैं काफी देर तक उसे देखने के बाद अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाया और उस लड़के के पास जा कर खड़ा हो गया. वह लड़का कुछ सामान्य सी विज्ञान की पुस्तकें बेच रहा था. मुझे देख कर उस में फिर उम्मीद का संचार हुआ और बड़ी ऊर्जा के साथ उस ने मुझे पुस्तकें दिखानी शुरू कीं. मैं ने उस लड़के को ध्यान से देखा. साफसुथरा, चेहरे पर आत्मविश्वास लेकिन पहनावा बहुत ही साधारण. ठंड का मौसम था और वह केवल एक हलका सा स्वेटर पहने हुए था. पुस्तकें मेरे किसी काम की नहीं थीं फिर भी मैं ने जैसे किसी सम्मोहन से बंध कर उस से पूछा, ‘बच्चे, ये सारी पुस्तकें कितने की हैं?’

‘आप कितना दे सकते हैं, सर?’

‘अरे, कुछ तुम ने सोचा तो होगा.’

‘आप जो दे देंगे,’ लड़का थोड़ा निराश हो कर बोला.

‘तुम्हें कितना चाहिए?’ उस लड़के ने अब यह समझना शुरू कर दिया कि मैं अपना समय उस के साथ गुजार रहा हूं.

‘5 हजार रुपए,’ वह लड़का कुछ कड़वाहट में बोला.

‘इन पुस्तकों का कोई 500 भी दे दे तो बहुत है,’ मैं उसे दुखी नहीं करना चाहता था फिर भी अनायास मुंह से निकल गया.

अब उस लड़के का चेहरा देखने लायक था. जैसे ढेर सारी निराशा किसी ने उस के चेहरे पर उड़ेल दी हो. मुझे अब अपने कहे पर पछतावा हुआ. मैं ने अपना एक हाथ उस के कंधे पर रखा और उस से सांत्वना भरे शब्दों में फिर पूछा, ‘देखो बेटे, मुझे तुम पुस्तक बेचने वाले तो नहीं लगते, क्या बात है. साफसाफ बताओ कि क्या जरूरत है?’

वह लड़का तब जैसे फूट पड़ा. शायद काफी समय निराशा का उतारचढ़ाव अब उस के बरदाश्त के बाहर था.

‘सर, मैं 10+2 कर चुका हूं. मेरे पिता एक छोटे से रेस्तरां में काम करते हैं. मेरा मेडिकल में चयन हो चुका है. अब उस में प्रवेश के लिए मुझे पैसे की जरूरत है. कुछ तो मेरे पिताजी देने के लिए तैयार हैं, कुछ का इंतजाम वह अभी नहीं कर सकते,’ लड़के ने एक ही सांस में बड़ी अच्छी अंगरेजी में कहा.

‘तुम्हारा नाम क्या है?’ मैं ने मंत्रमुग्ध हो कर पूछा.

‘अमर विश्वास.’

‘तुम विश्वास हो और दिल छोटा करते हो. कितना पैसा चाहिए?’

‘5 हजार,’ अब की बार उस के स्वर में दीनता थी.

‘अगर मैं तुम्हें यह रकम दे दूं तो क्या मुझे वापस कर पाओगे? इन पुस्तकों की इतनी कीमत तो है नहीं,’ इस बार मैं ने थोड़ा हंस कर पूछा.

‘सर, आप ने ही तो कहा कि मैं विश्वास हूं. आप मुझ पर विश्वास कर सकते हैं. मैं पिछले 4 दिन से यहां आता हूं, आप पहले आदमी हैं जिस ने इतना पूछा. अगर पैसे का इंतजाम नहीं हो पाया तो मैं भी आप को किसी होटल में कपप्लेटें धोता हुआ मिलूंगा,’ उस के स्वर में अपने भविष्य के डूबने की आशंका थी.

उस के स्वर में जाने क्या बात थी जो मेरे जेहन में उस के लिए सहयोग की भावना तैरने लगी. मस्तिष्क उसे एक जालसाज से ज्यादा कुछ मानने को तैयार नहीं था, जबकि दिल में उस की बात को स्वीकार करने का स्वर उठने लगा था. आखिर में दिल जीत गया. मैं ने अपने पर्स से 5 हजार रुपए निकाले, जिन को मैं शेयर मार्किट में निवेश करने की सोच रहा था, उसे पकड़ा दिए. वैसे इतने रुपए तो मेरे लिए भी माने रखते थे, लेकिन न जाने किस मोह ने मुझ से वह पैसे निकलवा लिए.

‘देखो बेटे, मैं नहीं जानता कि तुम्हारी बातों में, तुम्हारी इच्छाशक्ति में कितना दम है, लेकिन मेरा दिल कहता है कि तुम्हारी मदद करनी चाहिए, इसीलिए कर रहा हूं. तुम से 4-5 साल छोटी मेरी बेटी भी है मिनी. सोचूंगा उस के लिए ही कोई खिलौना खरीद लिया,’ मैं ने पैसे अमर की तरफ बढ़ाते हुए कहा.

अमर हतप्रभ था. शायद उसे यकीन नहीं आ रहा था. उस की आंखों में आंसू तैर आए. उस ने मेरे पैर छुए तो आंखों से निकली दो बूंदें मेरे पैरों को चूम गईं.

‘ये पुस्तकें मैं आप की गाड़ी में रख दूं?’

‘कोई जरूरत नहीं. इन्हें तुम अपने पास रखो. यह मेरा कार्ड है, जब भी कोई जरूरत हो तो मुझे बताना.’

वह मूर्ति बन कर खड़ा रहा और मैं ने उस का कंधा थपथपाया, कार स्टार्ट कर आगे बढ़ा दी.

कार को चलाते हुए वह घटना मेरे दिमाग में घूम रही थी और मैं अपने खेले जुए के बारे में सोच रहा था, जिस में अनिश्चितता ही ज्यादा थी. कोई दूसरा सुनेगा तो मुझे एक भावुक मूर्ख से ज्यादा कुछ नहीं समझेगा. अत: मैं ने यह घटना किसी को न बताने का फैसला किया.

दिन गुजरते गए. अमर ने अपने मेडिकल में दाखिले की सूचना मुझे एक पत्र के माध्यम से दी. मुझे अपनी मूर्खता में कुछ मानवता नजर आई. एक अनजान सी शक्ति में या कहें दिल में अंदर बैठे मानव ने मुझे प्रेरित किया कि मैं हजार 2 हजार रुपए उस के पते पर फिर भेज दूं. भावनाएं जीतीं और मैं ने अपनी मूर्खता फिर दोहराई. दिन हवा होते गए. उस का संक्षिप्त सा पत्र आता जिस में 4 लाइनें होतीं. 2 मेरे लिए, एक अपनी पढ़ाई पर और एक मिनी के लिए, जिसे वह अपनी बहन बोलता था. मैं अपनी मूर्खता दोहराता और उसे भूल जाता. मैं ने कभी चेष्टा भी नहीं की कि उस के पास जा कर अपने पैसे का उपयोग देखूं, न कभी वह मेरे घर आया. कुछ साल तक यही क्रम चलता रहा. एक दिन उस का पत्र आया कि वह उच्च शिक्षा के लिए आस्ट्रेलिया जा रहा है. छात्रवृत्तियों के बारे में भी बताया था और एक लाइन मिनी के लिए लिखना वह अब भी नहीं भूला.

मुझे अपनी उस मूर्खता पर दूसरी बार फख्र हुआ, बिना उस पत्र की सचाई जाने. समय पंख लगा कर उड़ता रहा. अमर ने अपनी शादी का कार्ड भेजा. वह शायद आस्ट्रेलिया में ही बसने के विचार में था. मिनी भी अपनी पढ़ाई पूरी कर चुकी थी. एक बड़े परिवार में उस का रिश्ता तय हुआ था. अब मुझे मिनी की शादी लड़के वालों की हैसियत के हिसाब से करनी थी. एक सरकारी उपक्रम का बड़ा अफसर कागजी शेर ही होता है. शादी के प्रबंध के लिए ढेर सारे पैसे का इंतजाम…उधेड़बुन…और अब वह चेक?

मैं वापस अपनी दुनिया में लौट आया. मैं ने अमर को एक बार फिर याद किया और मिनी की शादी का एक कार्ड अमर को भी भेज दिया.

शादी की गहमागहमी चल रही थी. मैं और मेरी पत्नी व्यवस्थाओं में व्यस्त थे और मिनी अपनी सहेलियों में. एक बड़ी सी गाड़ी पोर्च में आ कर रुकी. एक संभ्रांत से शख्स के लिए ड्राइवर ने गाड़ी का गेट खोला तो उस शख्स के साथ उस की पत्नी जिस की गोद में एक बच्चा था, भी गाड़ी से बाहर निकले.

मैं अपने दरवाजे पर जा कर खड़ा हुआ तो लगा कि इस व्यक्ति को पहले भी कहीं देखा है. उस ने आ कर मेरी पत्नी और मेरे पैर छुए.

‘‘सर, मैं अमर…’’ वह बड़ी श्रद्धा से बोला.

मेरी पत्नी अचंभित सी खड़ी थी. मैं ने बड़े गर्व से उसे सीने से लगा लिया. उस का बेटा मेरी पत्नी की गोद में घर सा अनुभव कर रहा था. मिनी अब भी संशय में थी. अमर अपने साथ ढेर सारे उपहार ले कर आया था. मिनी को उस ने बड़ी आत्मीयता से गले लगाया. मिनी भाई पा कर बड़ी खुश थी.

अमर शादी में एक बड़े भाई की रस्म हर तरह से निभाने में लगा रहा. उस ने न तो कोई बड़ी जिम्मेदारी मुझ पर डाली और न ही मेरे चाहते हुए मुझे एक भी पैसा खर्च करने दिया. उस के भारत प्रवास के दिन जैसे पंख लगा कर उड़ गए.

इस बार अमर जब आस्ट्रेलिया वापस लौटा तो हवाई अड्डे पर उस को विदा करते हुए न केवल मेरी बल्कि मेरी पत्नी, मिनी सभी की आंखें नम थीं. हवाई जहाज ऊंचा और ऊंचा आकाश को छूने चल दिया और उसी के साथसाथ मेरा विश्वास भी आसमान छू रहा था.

मैं अपनी मूर्खता पर एक बार फिर गर्वित था और सोच रहा था कि इस नश्वर संसार को चलाने वाला कोई भगवान नहीं हमारा विश्वास ही है.

नाम की केंचुली : पीहू और अखिल का क्या रिश्ता था

होटल सिटी पैलेस के रेस्तरां से बाहर निकलते समय पीहू की चाल जरूर धीमी थी मगर उस के कदमों में आत्मविश्वास की कमी नहीं थी. चेहरे पर उदासी की एक परत जरूर थी लेकिन पीहू ने उसे अपने मन के भीतर पांव नहीं पसारने दिया.

घर आ कर बिस्तर पर लेटी तो अखिल के साथ अपने रिश्ते को अंतिम विदाई देती उस की आंखें छलछला आईं.

पूरे 5 साल का साथ था उन का. ब्रेकअप तो खलेगा ही लेकिन इसे ब्रेकअप कहना शायद इस रिश्ते का अपमान होगा. इसे टूटा हुआ तो तब कहा जाता जब इस रिश्ते को जबरदस्ती बांधा जाता.

अखिल के साथ उस के बंधन में तो जबरदस्ती वाली कोई बात ही नहीं थी. यह तो दोनों का अपनी मरजी से एकदूसरे का हाथ थामना था जिसे अनुकूल न लगने पर उस ने बहुत हौले से छुड़ा लिया था, अखिल को भावी जीवन की शुभकामनाएं देते हुए.

पीहू और अखिल कालेज के पहले साल से ही अच्छे दोस्त थे. आखिरी बरस में आतेआते दोस्ती ने प्रेम का चोला पहन लिया. लेकिन यह प्रेम किस्सेकहानियों या फिल्मों वाले प्रेम की तरह अंधा नहीं बल्कि समय के साथ परिपक्व और समझदार होता गया था. यहां चांदतारे तोड़ कर चुनरी में टांकने जैसी हवाई बातें नहीं होती थीं, यहां तो अपने पांवों पर खड़ा हो कर साथ चलने के सपने देखे जा रहे थे.

कालेज खत्म होने के बाद पीहू और अखिल दोनों ही जौब की तलाश में जुट गए ताकि जल्द से जल्द अपने सपनों को हकीकत में ढाल सकें. हालांकि अखिल का अपना पारिवारिक व्यवसाय था लेकिन वह खुद को जमाने की कसौटी पर परखना चाहता था इसलिए एक बार कोई स्वतंत्र नौकरी करना चाहता था जो उसे विरासत में नहीं बल्कि खुद अपनी मेहनत से मिली हो.

प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने के लिए दोनों दिल्ली आ गए. एक ही कोचिंग में साथसाथ तैयारी करने और घर के अनुशासन से दूर रहने के बावजूद दोनों ने अपनी परिधि तय कर रखी थी. जब भी अकेले में कोई एक बहकने लगता तो दूसरा उसे संभाल लेता. कई जोड़ियों को लिवइन में रहते देख कर उन का मन अपने लक्ष्य से कभी नहीं भटका.

“यार जब हम ने शादी करना तय कर ही लिया है तो अभी क्यों नहीं? सिर्फ एक बार…” कई बार उतावला पुरुष मन हठ पर उतर आता.

“शादी के बाद यही सब तो करना है. एक बार कैरियर बन जाए बस. फिर तो सदा साथ ही रहना है…” संयमी स्त्री उस के बढ़े हाथ हंस कर परे सरका देती. वहीं कभी जब सधे हुए नाजुक कदम अरमानों की ढलान पर फिसलने लगते तो दृढ़ मजबूत बांहें उन्हें सहारा दे कर थाम लेती और गर्त में गिरने से बचा लेती.

आज ऊपर तो कल नीचे, कोलंबस झूले से रिश्ते में दोनों झूल रहे थे. इसी बीच पीहू की बैंक में नौकरी लग गई और उस ने दिल्ली छोड़ दिया.

हालांकि दोनों फोन के माध्यम से बराबर जुड़े हुए थे लेकिन अब अखिल के लिए दिल्ली में अकेले रह कर परीक्षा की तैयारी करना जरा मुश्किल हो गया था. मन उड़ कर बारबार पीहू के पास पहुंच जाता लेकिन फिर भी वह खुद को एक मौका देने का मानस बनाए हुए वहां टिका रहा.

2 साल मेहनत करने के बाद भी अखिल का कहीं चयन नहीं हुआ तो वह वापस आ कर अपने परिवार के पुश्तैनी बिजनैस में हाथ बंटाने लगा. भागदौड़ खत्म हुई, स्थायित्व आ गया. जिंदगी एक तय रास्ते पर चलने लगी.

जैसाकि आम मध्यवर्गीय परिवारों में होता है, बच्चों के जीवन में स्थिरता आते ही घर में उन के लिए योग्य जीवनसाथी की तलाश शुरू हो जाती है. अखिल के घर में भी उस की शादी की बात चलने लगी. उधर पीहू के लिए भी लड़के की तलाश जोरशोर से जारी थी. जहां अखिल के परिवार की प्राथमिकता घरेलू लड़की थी, वहीं पीहू के घर वाले उस के लिए कोई बैंकर ही चाहते थे ताकि दोनों में आसानी से निभ जाए.

अखिल संयुक्त परिवार में तीसरी पीढ़ी का सब से बड़ा बेटा है. उस के द्वारा उठाया गया कोई भी अच्छाबुरा कदम भावी पीढ़ी के लिए लकीर बन सकता है. पारंपरिक मारवाड़ी परिवार होने के कारण अखिल के घर में बड़ों की बात पत्थर की लकीर मानी जाती है. दादा ने जो कह दिया वही फाइनल होता है. इस के बाद पापा या चाचा की एक नहीं चलने वाली. दूसरी तरफ पीहू का परिवार इस मामले में जरा तरक्कीपसंद है. उन्हें पीहू की पसंद पर कोई ऐतराज नहीं था बशर्ते कि उस का चयन व्यावहारिक हो.

परिवार की परिपाटी से भलीभांति परिचित अखिल घर वालों के सामने अपनी बात कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था, उधर पीहू इस मामले में एकदम शांत थी. वह अखिल की पहल की प्रतीक्षा कर रही थी. उस ने ना तो अखिल पर शादी करने का कोई दबाव बनाया और ना ही अपनी असहमति जताई.

“पीहू मैं बहुत परेशान हूं यार. क्या करूं समझ में नहीं आ रहा. घर वाले चाहते हैं कि मेरी शादी किसी सजातीय मारवाड़ी खानदान की लड़की से हो यानी यह शादी सिर्फ 2 लोगों का नहीं बल्कि 2 व्यापारिक घरानों का मिलन हो ताकि यह संबंध दोनों परिवारों के बिजनैस को भी आगे बढ़ाए, लेकिन तुम तो जानती हो ना मैं ने तो तुम्हारे साथ के सपने देखे हैं. तुम्हीं बताओ, मैं कैसे अपने दादाजी को राजी करूं?” एक दिन अखिल ने कहा.

“इतनी हिम्मत तो तुम्हें जुटानी ही होगी अखिल. यदि आज हिम्मत नहीं करोगे तो सोच लो, बाद में पछताना ना पड़े,” पीहू ने गंभीर हो कर कहा.

“तो क्या तुम कुछ नहीं करोगी?” अखिल ने आश्चर्य से पूछा.

“तुम्हारे परिवार के मामले में मैं क्या कर सकती हूं? मैं अपनेआप में साफ हूं और जानती हूं कि मुझे तुम से शादी करनी है. इस के लिए मेरे घर वाले भी राजी हो जाएंगे लेकिन पहले तुम तो अपने घर वालों को राजी करो. लेकिन एक बात ध्यान रहे अखिल, मैं जैसी हूं मुझे इसी रूप में स्वीकार करना होगा. मुझ से मेरी पहचान छीनने की कोशिश मत करना. ना अभी, ना बाद में,” पीहू ने अपना फैसला सुनाया तो अखिल सोच में पड़ गया.

आधुनिक और आत्मनिर्भर पीहू की छवि उस के दादाजी की पसंद से एकदम विपरीत है. वैसे भी उन के परिवार में आजतक कोई विजातीय बहू या दामाद नहीं आए. उन्हें पीहू के लिए तैयार करना आसान नहीं होगा.

अखिल अपनी चाची से थोड़ा खुला हुआ था. उस ने उन से बात की. पहले तो चाची ने अखिल को ही समझाने का प्रयास किया लेकिन जब वह नहीं माना तो उन्होंने अखिल के चाचा से उस की पसंद का जिक्र किया. जैसाकि अंदेशा था, सुनते ही वे उखड़ गए.

“दिमाग खराब हो गया क्या लड़के का? अपने समाज में लड़कियों का अकाल पड़ गया क्या? अरे मैं तो उसे दिल्ली भेजने की उस की जिद पूरी करने के फैसले के ही खिलाफ था. फिर सोचा था जवानी की जिद है, सालदो साल में उतर जाएगी लेकिन यहां तो एक जिद के साथ दूसरी जिद भी साथ उठा लाया. एक तो बिजनैस में 2 साल पिछड़ गया, दूसरा यह प्रेम का चक्कर… समझाओ उसे कि नौकरी करने वाली लड़कियां हमारे यहां नहीं चल सकतीं,” चाचा ने अखिल को दिल्ली भेजने के बड़े भाई के फैसले का गुस्सा चाची पर उतारा.

लेकिन अखिल ने हौसला बनाए रखा. पिता को राजी करने का उस का प्रयास जारी रहा. इधर वह पीहू को भी जौब छोड़ने के लिए राजी कर रहा था ताकि कम से कम लड़की के घरेलू होने की शर्त तो पूरी हो सके. अखिल का प्रस्ताव पीहू के जरा भी गले नहीं उतरता था.

“तुम मुझे क्यों समझा रहे हो अखिल? मैं अपनी नौकरी जारी रखूंगी, बस इतना ही तो चाह रही हूं. देखो, समझने की जरूरत तुम्हें है. तुम्हारे सामने 2 विकल्प हैं. एक तुम्हारे परिवार की परंपरा और दूसरा तुम्हारा प्यार यानी मैं और मैं भी बिना अपनी पहचान खोए. जानते हो ना कि जब हमें 2 में से किसी 1 विकल्प का चुनाव करना होता है तो फैसला बहुत सोचसमझ कर करना पड़ता है. तुम तय करो कि तुम्हें क्या चाहिए,” पीहू ने दृढ़ता से कहा.

एक तरह से उस ने अपना निर्णय अखिल के सामने साफ कर दिया.
बुझा हुआ अखिल एक बार फिर से अपने घर वालों को मनाने में जुट गया. इस बार उस ने दादाजी को चुना.

कहते हैं कि मूल से प्यारा सूद होता है. दादाजी पोते के आग्रह पर पिघल गए. थोड़ी नानुकुर के बाद उन्होंने विजातीय पीहू के साथ उस का गठजोड़ करने के लिए हरी झंडी दिखा दी. अपनी कुछ शर्तों के साथ वे पीहू के परिवार से मिलने को तैयार भी हो गए.

अखिल इसे अपनी जीत समझते हुए खुशी से उछलने लगा. उस ने फोन पर पीहू को यह खुशखबरी दी और आगे की प्लानिंग करने के लिए उसे उसी होटल सिटी पैलेस में मिलने के लिए बुलाया जहां वे अकसर मिला करते थे. हालांकि पीहू अभी भी थोड़ी आशंकित थी.

“तुम ने उन्हें बता तो दिया ना कि मैं शादी के बाद जौब नहीं छोडूंगी?” पीहू ने अखिल को एक बार फिर से आगाह किया.

“जौबजौब… यह कैसी जिद पकड़ कर बैठी हो तुम? अरे हमारे परिवार को कहां कोई कमी है जो अपनी बहूबेटियों से नौकरी करवाएंगे…” पीहू की बात सुनते ही अखिल बिफर गया.

पीहू की आशंका सही साबित हुई. उस ने अखिल की तरफ अविश्वास से देखा तो उसे अपनी गलती का एहसास हुआ. उस ने पीहू का हाथ कस कर पकड़ लिए और अपने स्वर को भरसक मुलायम किया.

“हमारे यहां बहुएं सिर्फ हुक्म चलाती हैं, हुक्म बजाती नहीं,” कहते हुए अखिल ने प्यार से पीहू के गाल खींच दिए. पीहू ने उस के हाथ झटक दिए.

“हमारे समाज में बहुओं के नखरे तब तक ही उठाए जाते हैं जब तक वे सिर पर पल्लू डाले, आंखें नीची किए सजीधजी गुड़िया सी घर में पायल बजाती घूमती रहें.”

“मुझ से यह उम्मीद मत रखना,” पीहू ने कहा.

“अरे यार गजब करती हो. एक बार शादी तो हो जाने दो फिर कर लेना अपने मन की. मैं बात करूंगा ना अपने घर वालों से,” अखिल ने उसे मनाने की कोशिश की.

“मेरे लिए भी यही बात तुम ने अपने घर में कही होगी कि एक बार शादी हो जाने दो, फिर छुड़वा देंगे नौकरी. मैं बात करूंगा ना पीहू से. है ना?”अखिल की आंखों में झांक कर पीहू ने उस की नकल उतारते हुए कहा.

बात सच ही थी. उस ने अपने दादाजी को यही कह कर पीहू से शादी करने के लिए राजी किया था. अखिल के पास पीहू के सवालों का कोई जवाब नहीं था. वह नजरें चुराने लगा.

“अच्छा बताओ, मेरी मां का नाम क्या है?” पीहू के अचानक दागे गए इस सवाल से अखिल अचकचा गया. उस ने इनकार में अपने कंधे उचका दिए.

“नहीं पता ना? पता होगा भी कैसे क्योंकि लोग उन्हें उन के नाम से जानते ही नहीं. वे बाहर के लोगों के लिए मिसेज सक्सेना और रिश्तेदारों के लिए पीहू की मम्मी हैं. और सिर्फ वे ही क्यों, ऐसी न जानें कितनी ही औरतें हैं जो अपना असली नाम भूल ही गई होंगी. वे या तो मिसेज अलांफलां या फिर गुड्डू, पप्पू की मम्मी के नाम से पहचानी जाती हैं. मैं ने देखा है अपने आसपास. अपने घर में भी. बहुत बुरा लगता है,” कहती हुई पीहू आवेश में आ गई.

“लड़कियों को अपने पैरों पर खड़ा होना बहुत जरूरी है. मैं तुम्हें प्यार करती हूं लेकिन सिर्फ इसी वजह से तुम्हारे घर में शोपीस बन कर नहीं रह सकती. तुम तो मेरे संघर्ष के साथी हो. सब जानते हो. मैं ने कितनी मुश्किल से अपनी पहचान बनाई है. इतनी मेहनत से हासिल इस मुकाम को मैं घूंघट की ओट में नहीं छिपा सकती. अपने नाम की पहचान को ऐशोआराम के लालच की आग में नहीं झोंक सकती,” पीहू ने अखिल का चेहरा पढ़ते हुए कहा.

“इस का मतलब तुम्हारे लिए तुम्हारी अपनी पहचान मुझ से अधिक जरूरी है. क्या तुम नहीं चाहतीं कि तुम्हारा नाम मेरे नाम से जुड़ कर पहचाना जाए, हमारे नाम एक हो जाएं? जरा सोचो, पीहू अखिल लखोटिया… आहा… सोच कर ही कितना अच्छा लग रहा है,” अखिल के स्वर में अभी भी एक उम्मीद शेष थी.

“नहीं, मैं नहीं चाहती कि मेरी पहचान तुम्हारे नाम की केंचुली में छिप जाए. पीहू अखिल सक्सेना या पीहू सक्सेना लखोटिया जैसा कुछ बन कर इतराने की बजाय मैं सिर्फ पीहू सक्सेना कहलाना अधिक पसंद करूंगी. सक्सेना ना भी हो तो भी चलेगा. मैं तो सिर्फ पीहू बन कर भी खुश रहूंगी. बल्कि मैं तो कहती हूं कि दुनिया की हर लड़की के लिए उस की अपनी पहचान बहुत जरूरी है,” पीहू ने भावुक होते हुए अखिल का हाथ थाम लिया.

“यानी तुम्हारी ना समझूं? हमारे सपनों का क्या होगा पीहू?” अखिल रुआंसा हो गया.

“हमारे सपने जुड़े हुए जरूर थे लेकिन उस के बावजूद भी वे स्वतंत्र थे, एकदूसरे से अलग थे. मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं. मैं यह भी नहीं चाहती कि तुम मेरे लिए अपने परिवार से बगावत करो, लेकिन माफ करना, मैं अपनी पहचान नहीं खो सकती. इसे तुम मेरा आखिरी फैसला ही समझो,” पीहू ने अपना आत्मविश्वास से भरा फैसला सुना दिया और स्नेह से अखिल का कंधा थपथपाती हुई उठ खड़ी हुई.

पीहू नहीं जानती थी कि वह अपने इस निर्णय को कितनी सहजता से स्वीकार कर पाएगी लेकिन यह भी तो आखिरी सच है कि हमारे हरेक कठोर निर्णय के समय मन के तराजू में एक तरफ निर्णय और दूसरी तरफ उस की कीमत रखी होती है.

आज भी पीहू के मन की तुला पर एक तरफ उस की निज पहचान थी तो दूसरी तरफ उस का प्रेम और सुविधाओं से भरा भविष्य. पीहू ने प्रेम की जगह अपनी पहचान को चुना. वह अखिल के नाम की केंचुली पहनने से इनकार कर अपने गढ़े हुए रास्ते पर बढ़ गई.

अखिल नम आंखों से उस आत्मविश्वास की मूरत को जाते हुए देख रहा था.

खौफ: क्या था स्कूल टीचर अवनि और प्रिंसिपल मि. दास के रिश्ते का सच

प्रिंसिपल दास की नजरें आजकल अक्सर ही अवनि पर टिकी रहती थीं. अवनि स्कूल में नई आई थी और दूसरे टीचर्स से काफी अलग थी. लंबी, छरहरी, गोरी, घुंघराले बालों और आत्मविश्वास से भरपूर चाल वाली अवनि की उम्र 30- 32 साल से अधिक की नहीं थी. उधर 48 साल की उम्र में भी मिस्टर दास अकेले थे. बीवी का 10 साल पहले देहांत हो गया था. तब से वे स्कूल के कामों में खुद को व्यस्त रखते थे. मगर जब से स्कूल में टीचर के रूप में अवनि आई है उन के दिल में हलचल मची हुई है. वैसे अवनि विवाहिता है पर कहते हैं न कि दिल पर किसी का जोर नहीं चलता. प्रिंसिपल दास का दिल भी अवनि को देख बेकाबू रहता था.

” अवनि बैठो,” प्रिंसिपल दास ने अवनि को अपने केबिन में बुलाया था.

उन की नजरें अवनि के बालों में लगे गुलाब पर टिकी हुई थीं. अवनि के बालों में रोज एक छोटा सा गुलाब लगा होता था जो अलगअलग रंग का होता था. प्रिंसिपल दास ने आज पूछ ही लिया,” आप के बालों में रोज गुलाब कौन लगाता है?”

“कोई भी लगाता हो सर वह महत्वपूर्ण नहीं. महत्वपूर्ण यह है कि आप की नजरें मेरे गुलाब पर रहती हैं. जरा अपनी मंशा तो जाहिर कीजिए,”
शरारत से मुस्कुराते हुए अवनि ने पूछा तो प्रिंसिपल दास झेंप गए.

हकलाते हुए बोले,” नहीं ऐसा नहीं. दरअसल मेरी नजरें तो… आप पर ही रहती हैं.”

अवनि ने अचरज से प्रिंसिपल दास की तरफ देखा फिर मीठी मुस्कान के साथ बोली,” यह बात तो मुझे पता थी जनाब बस आप के मुंह से सुनना चाहती थी. वैसे मानना पड़ेगा आप हैं काफी दिलचस्प.”

“थैंक्स,” अवनि के कमेंट पर प्रिंसिपल दास थोड़े शरमा गए थे.

पानी का गिलास बढ़ाते हुए बोले,” आप के लिए क्या मंगाऊं चाय या कॉफी?”

“नहीं नहीं पानी ही ठीक है. आज तो आप की बातों ने ही चायकॉफ़ी का सारा काम कर दिया,” कहते हुए अवनि हंस पड़ी.

ऐसी ही दोचार छोटीमोटी मुलाकातों के बाद आखिर प्रिंसिपल दास ने एक दिन हिम्मत कर के कह ही दिया,” आप मुझे बहुत अच्छी लगती हो. वैसे मैं जानता हूं एक विवाहित स्त्री से मेरा ऐसी बातें कहना उचित नहीं पर बस एक बार कह देना चाहता था.”

“मिस्टर दास हर बात जुबां से कहनी जरूरी तो नहीं होती. वैसे भी आप की नजरें यह बात कितनी ही दफा कह चुकी हैं.”

“तो क्या आप भी नजरों की भाषा पढ़ लेती हैं?”

“बिल्कुल. मैं हर भाषा पढ़ लेती हूं.”

“आप के पति भी आप से बहुत प्यार करते होंगे न,” प्रिंसिपल ने उस के चेहरे पर निगाहें टिकाते हुए पूछा.

“देखिए मैं यह नहीं कहूंगी कि वह प्यार नहीं करते. प्यार तो करते हैं पर बहुत बोरिंग इंसान हैं. न कहीं घूमने जाना, न रोमांटिक बातें करना और न हंसनाखिलखिलाना. वैरी बोरिंग. घर में पति के अलावा केवल सास हैं जो बीमार हैं. ससुर हैं नहीं. पूरे दिन घर में बोर हो जाती थी इसलिए स्कूल जॉइन कर लिया. मुझे घूमनाफिरना, दिलचस्प बातें करना, दुनिया की खुशियों को अपनी बाहों में समेट लेना यह सब बहुत पसंद है. आप जैसे लोग भी पसंद हैं जिन के अंदर कुछ अट्रैक्शन हो. मेरे पति में कोई अट्रैक्शन नहीं है.”

प्रिंसिपल दास को अवनि की बातें सुन कर गुदगुदी हो रही थी. अवनि जैसी महिला उन्हें अट्रैक्टिव कह रही थी और क्या चाहिए था. उन्हें दिल कर रहा था अपनी महबूबा यानी अवनि को बाहों में भर लें पर कैसे? कोई पृष्ठभूमि तो बनानी पड़ेगी.

मिस्टर दास ने इस का भी उपाय निकाल लिया.

“अवनि क्यों न आप की क्लास के बच्चों को ले कर हम पिकनिक पर चलें. स्पोर्ट्स डे के दौरान आप की क्लास के बच्चों ने बेहतरीन परफॉर्मेंस दी. उन के रिजल्ट भी काफी अच्छे आए हैं.”

“ग्रेट आइडिया सर. बताइए न कब चलना है और कहां जाना है?” खुश हो कर अवनि ने कहा.

अवनि क्लास 7 की क्लास टीचर थी. अगले संडे ही कक्षा 7 के बच्चों को शहर के सब से खूबसूरत पार्क में ले जाया गया. पूरे दिन बच्चे एक तरफ खेलते रहे और पार्क के दूसरे कोने में मिस्टर दास अवनि के साथ रोमांस की पींगे बढ़ाने में व्यस्त रहे.

अब तो अक्सर बहाने ढूंढे जाने लगे. प्रिंसिपल और अवनि कभी कोई मीटिंग अटैंड करने बाहर निकल जाते तो कभी किसी सेलिब्रेशन के नाम पर, कभी स्कूल के दूसरे बच्चे और टीचर की शामिल होते तो कभी दोनों अकेले ही जाने का प्रोग्राम बना लेते. प्रिंसिपल को हर समय अवनि का साथ पसंद था तो अवनि को इस बहाने घूमनाफिरना, खानापीना और मस्ती मारना. दोनों ही एकदूसरे की इच्छा पूरी कर अपना मतलब निकाल रहे थे. ऐसे ही वक्त गुजरता रहा. उन का यह अवैध रिश्ता वैध रास्तों से आगे बढ़ता रहा.

अब तो अवनि अक्सर अपने हाथ का बना खाना और पकवान आदि प्रिंसिपल के लिए ले कर आती. सब की नजरें बचा कर दोनों एकदूसरे में खो जाते. पर कहते हैं न इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपता. धीरेधीरे स्टाफ रूम में दूसरे टीचर इन के रिश्ते पर कानाफूसी करने लगे. मगर अवनि इन बातों के लिए तैयार थी. वह बड़ी कुशलता से इन बातों को अफवाह बता कर आगे बढ़ जाती.

एक दिन अवनि स्कूल आई तो उसे खबर मिली कि साधारण टीचर के रूप में हाल ही में आई मिस श्वेता गुलाटी को प्रमोशन दे कर क्लास 10th की क्लास टीचर बना दिया गया है. इस बात से हर कोई अचंभित था. स्कूल के सब से सीनियर क्लास की क्लास टीचर बनना और वह भी इतने कम दिनों में, किसी को भी सहजता से कुबूल नहीं हो रहा था. अवनि तो बौखला ही गई.

वह पहले से ही यह बात गौर कर रही थी कि प्रिंसिपल दास आजकल श्वेता गुलाटी पर काफी मेहरबान रहने लगे हैं. 20 साल की श्वेता काफी खूबसूरत थी जैसे अभीअभी किसी कमसिन कली ने पंखुड़ियां खोली हों. वह जब इंग्लिश में गिटिरपिटिर करती तो दूसरे टीचर इनफीरियरिटी कंपलेक्स से ग्रस्त हो जाते. उस पर श्वेता के कपड़े भी काफी बोल्ड होते. कभी ऑफशोल्डर्ड ड्रेस तो कभी स्लीवलैस, कभी बैकलेस तो कभी शौर्ट स्कर्ट. वैसे तो उस की अदाओं के दीवाने स्कूल के ज्यादातर पुरुष थे मगर सब से ज्यादा पावरफुल प्रिंसिपल दास ही थे. सो श्वेता उन के केबिन के आसपास मंडराने लगी थी.

अवनि गुस्से में आगबबूला हो कर प्रिंसिपल के केबिन में पहुंची पर वे वहां नहीं थे. पूछने पर पता चला कि वे मिस गुलाटी के साथ लाइब्रेरी में हैं. अवनि का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया. उस ने बैग उठाया और बिना किसी को इन्फॉर्म किए घर चली आई. बाद में उस के मोबाइल पर प्रिंसिपल का फोन आया तो अवनि ने फोन उठाया ही नहीं.

अगले दिन भी वह स्कूल नहीं पहुंची तो प्रिंसिपल ने उसे मैसेज किया,’ मैं तुम्हारे घर के सामने कार ले कर पहुँच रहा हूं. मुझ से नाराज हो तो भी एक बार हमें बात करनी चाहिए. आज हम बाहर ही लंच करेंगे. मैं 20 -25 मिनट में पहुंच जाऊँगा, तैयार रहना. ‘

अवनि तैयार हो कर बाहर निकली. तब तक प्रिंसिपल की कार पहुंच चुकी थी. वह कार में पीछे जा कर बैठ गई. दोनों शहर से दूर एक रेस्टोरेंट पहुंचे. कोने की एक खाली सीट पर बैठते हुए प्रिंसिपल ने बात शुरू की,” अब आप कुछ बताएंगी इस नाराज़गी की वजह क्या है?”

“वजह भी बतानी पड़ेगी? आप इतने नादान तो नहीं.”

“ओके बाबा मैं ने श्वेता को प्रमोशन दी इसी बात पर नाराज़ हो न?” प्रिंसिपल ने अपनी गलती मानी.

“मैं जान सकती हूं उस में ऐसे कौन से सुर्खाब के पंख लगे हैं जो मुझ में नहीं?” गुस्से में अवनि ने कहा.

“ऐसा कुछ नहीं है डार्लिंग…..मैं… ”

“डोंट टेल मी डार्लिंग. अब तो नई डार्लिंग मिल गई है जनाब को.”

“अरे ऐसी बात नहीं अवनि. ऐसा क्यों कह रही हो?”

“सच ही कह रही हूं. जरूर उस ने खुश कर दिया होगा आप को. तभी तो इतने कम समय में…, ” अवनि ने सीधा इल्जाम लगा दिया था.

“जुबान संभाल कर बात करो अवनि. मैं ऐसा नहीं कि हर किसी को इसी नजर से देखूं. खबरदार जो ऐसी बातें कीं. मैं प्रिंसिपल हूं, मेरे पास ऑथोरिटी है. जो मुझे काबिल लगेगा उसे प्रमोशन दूंगा. इस में तुम्हें बीच में आने का कोई हक नहीं.” प्रिंसिपल ने भी तेवर में कहा.

“हक तो वैसे भी कुछ डिसाइड नहीं हुए हैं मेरे. अब बता देना कि मैं कहां फेंक दी जाऊंगी? अब मेरी जरुरत तो रही नहीं आप को ”

“शट अप अवनि कैसी बातें कर रही हो? ”

“बातें ही नहीं काम भी करूंगी. आप खुद को सीनियर मोस्ट मत समझो. आप के ऊपर भी मैनेजमेंट है. मैं मैनेजमेंट से आप की शिकायत करूंगी.”

“अच्छा तो इतनी सी बात के लिए तुम मुझे धमकी दे रही हो? अवनि मेरे प्यार का यही बदला दोगी? ठीक है मैं भी देख लूंगा. तुम्हारे भी तो अमीर पति हैं न जिन्हें धोखा दे रही हो. मेरे पास भी बहुत से सबूत हैं अवनि जिन्हें तुम्हारे पति को दिखा दूं तो अभी हाथ में तलाक के कागजात मिल जाएंगे,” प्रिंसिपल ने धमकी दी.

“तो मिस्टर दास आप भी सावधान रहना. मेरे साथ आप की बहुत सी तस्वीरें, मैसेज और चैटिंग हैं जिन्हें मैनेजमेंट को दिखा कर अभी आप को नौकरी से निकलवा सकती हूं. आप को लूज करेक्टर साबित कर इज्जत पानी में मिला सकती हूं. पर मैं ऐसा करूंगी नहीं. मैं ने भी प्यार किया है आप को. भले ही आज कोई और पसंद आ गई हो.”

“ऐसा नहीं है अवनि. श्वेता पसंद नहीं आई बल्कि मेरे छोटे भाई की फ्रेंड है और फिर काबिल भी है. नॉलेज अच्छी है उस की. अगर तुम्हें बुरा लगा तो सॉरी पर मेरा मकसद तुम्हें हर्ट करना नहीं था,” प्रिंसिपल की आवाज नर्म पड़ गई थी.

“इट्स ओके सर. शायद मैं ने भी कुछ ज्यादा ही कह दिया आप को,”

अवनि ने भी झगड़ा बढ़ाना उचित नहीं समझा. झगड़ा बढ़ता इस से पहले ही दोनों ने पैचअप कर लिया. दोनों ही जानते थे कि उन के हाथ में एकदूसरे की कमजोर कड़ी है. नुकसान दोनों का ही होना था. बात आई गई हो गई. दोनों फिर से एकदूसरे के रोमांस में डूबते चले गए.

मगर इस बार दोनों की ही तरफ से सावधानी बरती जा रही थी. मिल कर तस्वीरें और सेल्फी लेने की परंपरा बंद कर दी गई. दोनों घूमने भी जाते तो साथ में तस्वीरें कम से कम लेते. चैटिंग के बजाय व्हाट्सएप कॉल करते और मैसेज करना भी बंद कर दिया गया. दोनों को ही डर था कि सामने वाला कभी भी उस की पोल पट्टी खोल कर उसे नंगा कर सकता है. उन के बीच पतिपत्नी का रिश्ता तो था नहीं जो हक के साथ रोमांस करें. यहां रोमांस भी छिपछिप कर करना था और एकदूसरे पर कोई हक भी नहीं था.

अवनि ने अपने मोबाइल ‘में से वे सारी तसवीरें निकाल कर लैपटॉप में एक जगह इकट्ठी कर लीं जिन तस्वीरों में दोनों एकदूसरे के बहुत करीब नजर आ रहे थे. यही नहीं सारी चैटिंग और मैसेज भी एक जगह स्टोर कर के रख लिए. वह कभी भी मौके पर चौका मारने के लिए तैयार थी. उसे पता था कि प्रिंसिपल भी ऐसा ही कुछ कर सकता है. इसलिए वह इस रिश्ते को खत्म कर उस की नाराजगी भी बढ़ाना नहीं चाहती थी.

अब उन के बीच जो रोमांस था उस में मजा तो था पर एकदूसरे से ही खौफ भी था. प्यार के साथ डर की यह भावना दोनों के लिए ही नई थी. मगर अब यही खौफ उन की जिंदगी का हिस्सा बन चूका था. दोनों ही एकदूसरे को प्यार भरी नजरों से देखते थे पर दोनों के दिमाग का एक हिस्सा समझ रहा था कि एक शख्स मेरी तबाही की वजह बन सकता है.

दर्द का सफर: जीवन के दर्द पाल कर बैठ जाएं तो..

‘मन क्यों रोनेरोने को है
क्या जाने क्या होने को है
हृदय संजोए अनगिनत यादें तन तो बोझा ढोने को है
आहें दर्पण धुंधलाने को,
हर आंसू मुख धोने को है.
दिया जिंदगी ने बहुतेरा,
मिला सभी, पर खोने को है.
फूल समय ने सभी चुन लिए,
अब जाने क्या बोने को है.’

सैटेलाइट रोड पर स्थित सरदार पटेल हौल में अपने शो की शुरुआत मैं ने विश्व प्रकाश दीक्षित की इसी गजल के साथ शुरू की. गजल खत्म होते ही श्रोताओं की तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा हौल गूंज उठा. इस से मुझे काफी संतोष हुआ, क्योंकि यह मेरा पहला सोलो परफौर्मेंस था. शो से पहले मैं काफी नर्वस थी. पर थैंक्स टू देव. उन के मोटिवेशन से मेरा हौसला सातवें आसमान पर था. गजल के बाद कुछ फिल्मी गीत और 2 घंटे की रजनी पंडित म्यूजिकल इवनिंग खत्म हुई. मेरा दर्द का सफर खुशी के मुकाम पर आखिरकार पहुंच ही गया.

मेरा अब तक का जीवन दर्द का ही सफर है. हर पहलू, हर हिस्से में दर्द ही दर्द है. इस से मुझे प्रेरणा भी मिलती है, क्योंकि हर गम की काली रात का अंत सुहानी सुबह से जरूर होता है. पहले अपना परिचय दे दूं. मेरा नाम रजनी है और उम्र 27 साल है. समाजशास्त्र में एमए हूं. फिलहाल अहमदाबाद में रहती हूं. इस शहर में आए कुछ महीने ही हुए. वैसे मैं मूलरूप से नडियाद जिले के एक गांव की रहने वाली हूं. मेरे पिताजी राजस्व विभाग में कार्यरत हैं और मां गृहिणी हैं. बाकी परिवार में भाई, बहन, भाभी, भतीजे सब हैं.

देखा जाए तो मेरा परिवार एक आदर्श परिवार है. पर मेरे बचपन की शुरुआत दर्द के सफर से शुरू हुई. मुझे एक बात जो धीरेधीरे समझ आने लगी वह थी बेटी की उपेक्षा. आज भले ही चारों तरफ ये नारे दिए जाते हों कि बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, लड़कालड़की एक समान, पढ़ीलिखी लड़की, रोशनी घर की, पर हकीकत अलग है. मेरे घर में ही मिलेंगे कुछ ऐसे निशान, जहां अरमानों ने खुदकुशी की है.

वास्तव में अपने ही घर वाले बेटियों से अच्छा व्यवहार नहीं करते. चाहे मातापिता हों या भाईभाभी, उन का व्यवहार भी ठीक नहीं रहता. वे पगपग पर लड़कियों की उपेक्षा करते हैं. उन्हें मानसिक रूप से प्रताडि़त करते हैं. लड़कियों को बोझ समझा जाता है. हो सकता है कि हर घर में ऐसा नहीं होता हो, पर मेरे घर में ऐसा होता है. मैं ने इसे महसूस किया है और भोगा है.

मैं ने मांबेटी, बापबेटी, भाईबहन और भाभीननद के बीच रिश्तों की असलियत देखी है. उस का दुखद अनुभव किया है. आपसी रिश्तों में प्रेम के महत्त्व पर मुझे एक लघुकथा याद आ रही है. एक बार एक ग्वालन दूध बेच रही थी और सब को दूध नापनाप कर दे रही थी. उसी समय एक नौजवान दूध लेने आया तो ग्वालन ने बिना नापे ही उस नौजवान का बरतन दूध से भर दिया.

वहीं थोड़ी दूर पर एक साधु हाथ में माला ले कर मनकों को फेर रहा था. उस की नजर ग्वालन पर पड़ी और उस ने यह सब देखा और पास बैठे व्यक्ति को सारी बात बता कर इस का कारण पूछा. उस व्यक्ति ने बताया कि जिस नौजवान को उस ग्वालन ने बिना नापे दूध दिया है वह उस से प्रेम करती है. यह बात साधु के दिल को छू गई और उस ने सोचा कि एक दूध बेचने वाली ग्वालन जिस से प्रेम करती है, उस का हिसाब नहीं रखती और मैं यहां बैठा सुबह से शाम तक मनके गिनगिन कर माला फेर रहा हूं. मुझ से तो अच्छी यह ग्वालन है और उस ने माला तोड़ कर फेंक दी.

जीवन ऐसा ही होना चाहिए. जहां प्रेम होता है, वहां हिसाबकिताब नहीं होता और जहां हिसाबकिताब होता है वहां प्यार नहीं, सिर्फ व्यापार होता है. हम कम से कम आपसी रिश्तों को तो स्वार्थ, उपेक्षा, नफरत, विरोध व व्यापार से दूर रखें.

मैं अपने घर के अनुभव को आज के समाज से जोड़ती हूं. पिछले 2 दिनों से लगातार अखबार में कुछ ऐसी ही खबरें आ रही हैं उन में एक खबर थी कि मुंबई में एक महिला का बेटा अमेरिका से जब घर आया तो उसे अपनी मां का कंकाल बंद घर में मिला, उस महिला के उसी बिल्डिंग में

2 फ्लैट थे जिन की कीमत करोड़ों में है और बेटा भी अमेरिका में अच्छा कमाता है. दूसरी खबर थी कि रेमंड्स कंपनी के मालिक विजयपत सिंघानिया अब जिंदगी के आखिरी दिनों में मुंबई के एक छोटे से फ्लैट में मुफलिसी में जिंदगी बिता रहे हैं.

एक मामले में मां और बेटे के बीच रिश्ते असंवेदनशील हो गए तो दूसरी मिसाल में बापबेटे के बीच रिश्ते तल्ख हो गए. विजयपत का सगा बेटा गौतम ही उन्हें कुछ भी देने को राजी नहीं है, इसलिए विजयपत को अदालत का सहारा लेना पड़ा.

आज के रिश्ते स्वार्थी, क्रूर, निर्दयी और असंवेदनशील हो गए हैं. उन में नजदीक का स्नेह और अपनापन नहीं है. रिश्तों में गर्मजोशी नहीं है. प्रेम गायब हो चुका है. मैं ईश्वर दत्त अंजुम को याद करती हूं. तुम को रोना है तो महफिल सजा कर न रोना, दिल का हर दर्द जमाने से छिपा कर रोना.

रोनेधोने के भी दस्तूर हुआ करते हैं, अपने अश्कों में लहू दिल का मिला कर रोना. मेरी मां मेरे प्रति पता नहीं क्यों कुछ ज्यादा ही क्रूर नजर आई हैं. इसे मैं काफी पहले से महसूस कर रही हूं, लेकिन इस क्रूरता में इजाफा 2 साल पहले हुआ जब मेरे भाई की शादी हुई और भाभी का घर में प्रवेश हुआ. भाभी ने आते ही मेरा जीना हराम कर दिया. वह छोटीछोटी बातों को ले कर मेरे पीछे पड़ने लगी. मुझे ताना मारने लगी. जब गुस्सा आता तो पूरा आसमान सिर पर उठा लेती और चीखचीख कर बोलती, ‘रजनी ने मेरा जीना हराम कर दिया है.’ भाभी ने एक बार फांसी लगाने का भी नाटक किया. मेरी मां हमेशा उसी के पक्ष में रहतीं, क्योंकि घर में भाई ही कमाने वाला है.

मां भाभी का समर्थन करतीं और कहतीं, ‘रजनी, तुम चुप रहो, अपनी भाभी से जबान मत लड़ाओ. तुम्हारा क्या है, तुम्हें तो शादी कर दूसरे घर जाना है.

मैं अपनी मां की खूब इज्जत करती हूं. उन के लिए मेरे मन में अगाध सम्मान है. मेरी नजर में मेरी मां सरीखी दुनिया में कोई दूसरा नहीं है. वे बेमिसाल हैं, पर उन का एक और पक्ष आप के सामने रख चुकी हूं. वे कई बार तो यह भी कह चुकी हैं कि मुझे तुम से कोई मतलब नहीं. कहीं तुम्हारी वजह से मेरे दोनों बेटों का कत्ल न हो जाए. मेरे लिए अफसोस की बात है कि मेरा सगा भाई भी भाभी की हां में हां मिलाता.

भाई पैसे के घमंड में रहता है क्योंकि वह काफी पैसे कमाता है. वह भी कहता कि रजनी तुम जबान बहुत चलाती हो. तुम मेरी दुश्मन बन गई हो. अपनी भाभी का सम्मान किया करो. तुम भाभी का हमेशा अपमान करती हो. वे तुम से बड़ी हैं. मेरी भाभी एक बार तो मेरे ऊपर हाथ भी उठा चुकी है. मैं भी भाभी को मार कर उसे करारा जवाब दे सकती थी, पर मैं ने ऐसा नहीं किया. मैं खून का घूंट पी कर रह गई.

भाई यह भी कहता कि रजनी, तुम जिंदगी में कुछ नहीं कर पाओगी. नौकरी कर के कितना कमाओगी? 5 हजार, 10 हजार, बस. इतनी मेरी एक दिन की कमाई और खर्च है.

मैं मांपिताजी का बहुत सम्मान करती हूं. कुल मिला कर मुझे उन से कोई शिकायत नहीं है. पर मेरा दुख है कि चाहे मां हों या पिताजी दोनों ने मेरी भावनाओं को समझने का कोई प्रयास नहीं किया. लिहाजा, मेरा दर्द का सफर चलता रहा. ‘रात गम की बसर नहीं होती, उफ, सहर क्यों नहीं होती.’

मां को चाहिए कि वे बेटी की भावनाओं और आकांक्षाओं को समझें, बेटी को कभी हर्ट न करें. कहते भी हैं कि एक बेटी का मनोविज्ञान उस की मां ही समझ सकती है. पर मेरी मां ने तो मुझे बिलकुल नहीं समझा. मां ने हमेशा मेरी उपेक्षा ही की है. मैं लड़की हूं, मां मुझे जिस खूंटे से बांध दें मैं वहीं चली जाऊं तो मैं बहुत अच्छी वरना खराब. मां ने खूब डरायाधमकाया, किसी से बात नहीं करने दी. सैकड़ों प्रतिबंध लगा दिए. ‘एक तपती दोपहर है अब हमारी जिंदगी. एक उजड़ा सा शहर है अब हमारी जिंदगी. हर दिशा में हाथ में पत्थर सजे छोटेबड़े एक सुंदर कांच का घर है अब हमारी जिंदगी.’ मां का ऐसा व्यवहार मुझे बराबर तोड़ता रहता. यह तो कोई बात नहीं हुई अपनी संतानों में से कि मां एक को दबाए और दूसरे को बाहुबली बना दे. यह बिलकुल भी उचित नहीं है, लेकिन मेरे साथ यह सबकुछ किया गया.

Ī मैं हमेशा से एक सिंगर बनने का सपना देखती रही. अहमदाबाद में इस का काफी स्कोप था लेकिन वहां शायद ही मेरा सपना पूरा हो पाए. यह सोच कर मैं अहमदाबाद चली आई. और यहां मैं ने एक संगीत विद्यालय में दाखिला ले लिया. इस में मेरी नई सहेली दीपाली ने काफी मदद की. दीपाली भी बहुत अच्छा गाती है. उस से पहले देव का प्रवेश मेरे जीवन में हो चुका था. देव ने मुझे भावनात्मक सहारा दिया. मैं गायन की दुनिया में आगे बढ़ने लगी. धीरधीरे मुझे गायिकी के मंच मिलने लगे और मेरी जिंदगी ढर्रे पर आ गई और आज मेरे पहले प्रोफैशनल शो की कामयाबी ने दर्द का सफर खत्म कर दिया.

यह घर मेरा भी है: शादी के बाद समीर क्यों बदल गया?

मैं और मेरे पति समीर अपनी 8 वर्षीय बेटी के साथ एक रैस्टोरैंट में डिनर कर रहे थे, अचानक बेटी चीनू के हाथ के दबाव से चम्मच उस की प्लेट से छिटक कर उस के कपड़ों पर गिर गया और सब्जी छलक कर फैल गई.

यह देखते ही समीर ने आंखें तरेरते हुए उसे डांटते हुए कहा, ‘‘चीनू, तुम्हें कब अक्ल आएगी? कितनी बार समझाया है कि प्लेट को संभाल कर पकड़ा करो, लेकिन तुम्हें समझ ही नहीं आता… आखिर अपनी मां के गंवारपन के गुण तो तुम में आएंगे ही न.’’

यह सुनते ही मैं तमतमा कर बोली, ‘‘अभी बच्ची है… यदि प्लेट से सब्जी गिर भी गई तो कौन सी आफत आ गई है… तुम से क्या कभी कोई गलती नहीं होती और इस में गंवारपन वाली कौन सी बात है? बस तुम्हें मुझे नीचा दिखाने का कोई न कोई बहाना चाहिए.’’

‘‘सुमन, तुम्हें बीच में बोलने की जरूरत नहीं है… इसे टेबल मैनर्स आने चाहिए. मैं नहीं चाहता इस में तुम्हारे गुण आएं… मैं जो चाहूंगा, इसे सीखना पड़ेगा…’’

मैं ने रोष में आ कर उस की बात बीच में काटते हुए कहा, ‘‘यह तुम्हारे हाथ की कठपुतली नहीं है कि उसे जिस तरह चाहो नचा लो और फिर कभी तुम ने सोचा है कि इतनी सख्ती करने का इस नन्ही सी जान पर क्या असर होगा? वह तुम से दूर भागने लगेगी.’’

‘‘मुझे तुम्हारी बकवास नहीं सुननी,’’ कहते हुए समीर चम्मच प्लेट में पटक कर बड़बड़ाता हुआ रैस्टोरैंट के बाहर निकल गया और गाड़ी स्टार्ट कर घर लौट गया.

मेरी नजर चीनू पर पड़ी. वह चम्मच को हाथ में

पकड़े हमारी बातें मूक दर्शक बनी सुन रही थी. उस का चेहरा बुझ गया था, उस के हावभाव से लग रहा था, जैसे वह बहुत आहत है कि उस से ऐसी गलती हुई, जिस की वजह से हमारा झगड़ा हुआ. मैं ने उस का फ्रौक नैपकिन से साफ किया और फिर पुचकारते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं बेटा, गलती तो किसी से भी हो सकती है. तुम अपना खाना खाओ.’’

‘‘नहीं ममा मुझे भूख नहीं है… मैं ने खा लिया,’’ कहते हुए वह उठ गई.

मुझे पता था कि अब वह नहीं खाएगी. सुबह वह कितनी खुश थी, जब उसे पता चला था कि आज हम बाहर डिनर पर जाएंगे. यह सोच कर मेरा मन रोंआसा हो गया कि मैं समीर की बात पर प्रतिक्रिया नहीं देती तो बात इतनी नहीं बढ़ती. मगर मैं भी क्या करती. आखिर कब तक बरदाश्त करती? मुझे नीचा दिखाने के लिए बातबात में चीनू को मेरा उदाहरण दे कर कि आपनी मां जैसी मत बन जाना, उसे डांटता रहता है. मेरी चिढ़ को उस पर निकालने की उस की आदत बनती जा रही थी.

हम दोनों कैब ले कर घर आए तो देखा समीर दरवाजा बंद कर के अपने कमरे में था. हम भी आ कर सो गए, लेकिन मेरा मन इतना अशांत था कि उस के कारण मेरी आंखों में नींद आने का नाम ही नहीं ले रही थी. मैं ने बगल में लेटी चीनू को भरपूर दृष्टि से देखा, कितनी मासूम लग रही थी वह. आखिर उस की क्या गलती थी कि वह हम दोनों के झगड़े में पिसे?

विवाह होते ही समीर का पैशाचिक व्यवहार मुझे खलने लगा था. मुझे हैरानी होती थी यह देख कर कि विवाह के पहले प्रेमी समीर के व्यवहार में पति बनते ही कितना अंतर आ गया. वह मेरे हर काम में मीनमेख निकाल कर यह जताना कभी नहीं चूकता कि मैं छोटे शहर में पली हूं. यहां तक कि वह किसी और की उपस्थिति का भी ध्यान नहीं रखता था.

इस से पहले कि मैं समीर को अच्छी तरह समझूं, चीनू मेरे गर्भ में आ गई. उस के बाद तो मेरा पूरा ध्यान ही आने वाले बच्चे की अगवानी की तैयारी में लग गया था. मैं ने सोचा कि बच्चा होने के बाद शायद उस का व्यवहार बदल जाएगा. मैं उस के पालनपोषण में इतनी व्यस्त हो गई कि अपने मानअपमान पर ध्यान देने का मुझे वक्त ही नहीं मिला. वैसे चीनू की भौतिक सुखसुविधा में वह कभी कोई कमी नहीं छोड़ता था.

वक्त मुट्ठी में रेत की तरह फिसलता गया और चीनू 3 साल की हो गई. इन सालों में मेरे प्रति समीर के व्यवहार में रत्तीभर परिवर्तन नहीं आया. खुद तो चीनू के लिए सुविधाओं को उपलब्ध करा कर ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझता था, लेकिन उस के पालनपोषण में मेरी कमी निकाल कर वह मुझे नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ता था.

धीरेधीरे वह इस के लिए चीनू को अपना हथियार बनाने लगा कि वह भी

मेरी आदतें सीख रही है, जोकि मेरे लिए असहनीय होने लगा था. इस प्रकार का वादविवाद रोज का ही हिस्सा बन गया था और बढ़ता ही जा रहा था. मैं नहीं चाहती थी कि वह हमारे झगड़े के दलदल में चीनू को भी घसीटे. चीनू तो सहमी हुई मूकदर्शक बनी रहती थी और आज तो हद हो गई थी. वास्तविकता तो यह है कि समीर को इस बात का बड़ा घमंड है कि वह इतना कमाता है और उस ने सारी सुखसुविधाएं हमें दे रखी हैं और वह पैसे से सारे रिश्ते खरीद सकता है.

मैं सोच में पड़ गई कि स्त्री को हर अवस्था में पुरुष का सुरक्षा कवच चाहिए होता है. फिर चाहे वह सुरक्षाकवच स्त्री के लिए सोने के पिंजरे में कैद होने के समान ही क्यों न हो? इस कैद में रह कर स्त्री बाहरी दुनिया से तो सुरक्षित हो जाती है, लेकिन इस के अंदर की यातनाएं भी कम नहीं होतीं. पिछली पीढ़ी में स्त्रियां आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं होती थीं, इसलिए असहाय होने के कारण पति द्वारा दी गई यातनाओं को मनमार कर स्वीकार लेती थीं. उन्हें बचपन से ही घुट्टी पिला दी जाती थी कि उन के लिए विवाह करना आवश्यक है और पति के साथ रह कर ही वे सामाजिक मान्यता प्राप्त कर सकती हैं, इस के इतर उन का कोई वजूद ही नहीं है.

मगर अब स्त्रियां आत्मनिर्भर होने के साथसाथ अपने अधिकारों के लिए भी जागरूक हो गई हैं. फिर भी कितनी स्त्रियां हैं जो पुरुष के बिना रहने का निर्णय ले पा रही हैं? लेकिन मैं यह निर्णय ले कर समाज की सोच को झुठला कर रहूंगी. तलाक ले कर नहीं, बल्कि साथ रह कर. तलाक ही हर दुखद वैवाहिक रिश्ते का अंत नहीं होता. आखिर यह मेरा भी घर है, जिसे मैं ने तनमनधन से संवारा है. इसे छोड़ कर मैं क्यों जाऊं?

लड़कियों का विवाह हो जाता है तो उन का अपने मायके पर अधिकार नहीं रहता, विवाह के बाद पति से अलग रहने की सोचें तो वही उस घर को छोड़ कर जाती हैं, फिर उन का अपना घर कौन सा है, जिस पर वे अपना पूरा अधिकार जता सकें? अधिकार मांगने से नहीं मिलता, उसे छीनना पड़ता है. मैं ने मन ही मन एक निर्णय लिया और बेफिक्र हो कर सो गई.

सुबह उठी तो मन बड़ा भारी हो रहा था. समीर अभी भी सामान्य नहीं था. वह

औफिस के लिए तैयार हो रहा था तो मैं ने टेबल पर नाश्ता लगाया, लेकिन वह ‘मैं औफिस में नाश्ता कर लूंगा’ बड़बड़ाते हुए निकल गया. मैं ने भी उस की बात पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.

चीनू आ कर मुझ से लिपट गई. बोली, ‘‘ममा, पापा को इतना गुस्सा क्यों आता है? मुझ से थोड़ी सब्जी ही तो गिरी थी…आप को याद है उन से भी चाय का कप लुढ़क गया था और आप ने उन से कहा था कि कोई बात नहीं, ऐसा हो जाता है. फिर तुरंत कपड़ा ला कर आप ने सफाई की थी. मेरी गलती पर पापा ऐसा क्यों नहीं कहते? मुझे पापा बिलकुल अच्छे नहीं लगते. जब वे औफिस चले जाते हैं, तब घर में कितना अच्छा लगता है.’’

‘‘सब ठीक हो जाएगा बेटा, तू परेशान मत हो… मैं हूं न,’’ कह कर मैं ने उसे अपनी छाती से लगा लिया और सोचने लगी कि इतनी प्यारी बच्ची पर कोई कैसे गुस्सा कर सकता है? यह समीर के व्यवहार का कितना अवलोकन करती है और इस के बालसुलभ मन पर उस का कितना नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है.

समीर और मुझ में बोलचाल बंद रही. कभीकभी वह औपचारिकतावश चीनू से पूछता कहीं जाने के लिए तो वह यह देख कर कि वह मुझ से बात नहीं करता है, उसे साफ मना कर देती थी. वह सोचता था कि कोई प्रलोभन दे कर वह चीनू को अपने पक्ष में कर लेगा, लेकिन वह सफल नहीं हुआ. समीर की बेरुखी दिनबदिन बढ़ती जा रही थी, मनमानी भी धीरेधीरे बढ़ रही थी. जबतब घर का खाना छोड़ कर बाहर खाने चला जाता, मैं भी उस के व्यवहार को अनदेखा कर के चीनू के साथ खुश रहती. यह स्थिति 15 दिन रही.

एक दिन मैं चीनू के साथ कहीं से लौटी तो देखा समीर औफिस से अप्रत्याशित जल्दी लौट कर घर में बैठा था. मुझे देखते ही गुस्से में बोला, ‘‘क्या बात है, आजकल कहां जाती हो बताने की भीजरूरत नहीं समझी जाती…’’ उस की बात बीच में काट कर मैं बोली, ‘‘तुम बताते हो कि तुम कहां जाते हो?’’

‘‘मेरी बात और है.’’

‘‘क्यों? तुम्हें गुलछर्रे उड़ाने की इजाजत है, क्योंकि तुम पुरुष हो, मुझे नहीं. क्योंकि…’’

‘‘लेकिन तुम्हें तकलीफ क्या है? तुम्हें किस चीज की कमी है? हर सुख घर में मौजूद है. पैसे की कोई कमी नहीं. जो चाहे कर सकती हो,’’ गुलछर्रे उड़ाने वाली बात सुन कर वह थोड़ा संयत हो कर मेरी बात को बीच में ही रोक कर बोला, क्योंकि उस के और उस की कुलीग सुमन के विवाहेतर संबंध से मैं अनभिज्ञ नहीं थी.

‘‘तुम्हें क्या लगता है, इन भौतिक सुखों के लिए ही स्त्री अपने पूर्व रिश्तों को विवाह की सप्तपदी लेते समय ही हवनकुंड में झोंक देती है और बदले में पुरुष उस के शरीर पर अपना प्रभुत्व समझ कर जब चाहे नोचखसोट कर अपनी मर्दानगी दिखाता है… स्त्री भी हाड़मांस की बनी होती है, उस के पास भी दिल होता है, उस का भी स्वाभिमान होता है, वह अपने पति से आर्थिक सुरक्षा के साथसाथ मानसिक और सामाजिक सुरक्षा की भी अपेक्षा करती है. तुम्हारे घर वाले तुम्हारे सामने मुझे कितना भी नीचा दिखा लें, लेकिन तुम्हारी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती. तुम मूकदर्शक बने खड़े देखते रहते हो… स्वयं हर समय मुझे नीचा दिखा कर मेरे मन को कितना आहत करते हो, यह कभी सोचा है?’’

‘‘ठीक है यदि तुम यहां खुश नहीं हो तो अपने मायके जा कर रहो, लेकिन चीनू तुम्हारे साथ नहीं जाएगी, वह मेरी बेटी है, उस की परवरिश में मैं कोई कमी नहीं रहने देना चाहता. मैं उस का पालनपोषण अपने तरीके से करूंगा… मैं नहीं चाहता कि वह तुम्हारे साथ रह कर तुम्हारे स्तर की बने,’’ समीर के पास जवाब देने को कुछ नहीं बचा था, इसलिए अधिकतर पुरुषों द्वारा प्रयोग किया जाने वाला अंतिम वार करते हुए चिल्ला कर बोला.

‘‘चिल्लाओ मत. सिर्फ पैदा करने से ही तुम चीनू के बाप बनने के अधिकारी नहीं हो सकते. वह तुम्हारे व्यवहार से आहत होती है. आजकल के बच्चे हमारे जमाने के बच्चे नहीं हैं कि उन पर अपने विचारों को थोपा जाए, हम उन को उस तरह नहीं पाल सकते जैसे हमें पाला गया है. इन के पैदा होने तक समय बहुत बदल गया है.

‘‘मैं उसे तुम्हारे शाश्नात्मक तरीके की परवरिश के दलदल में नहीं धंसने दूंगी…

मैं उस के लिए वह सब करूंगी जिस से कि वह अपने निर्णय स्वयं ले सके और मैं तुम्हारी पत्नी हूं, तुम्हारी संपत्ति नहीं. यह घर मेरा भी है. जाना है तो तुम जाओ. मैं क्यों जाऊं?

‘‘इस घर पर जितना तुम्हारा अधिकार है, उतना ही मेरा भी है. समाज के सामने मुझ से विवाह किया है. तुम्हारी रखैल नहीं हूं… जमाना बदल गया, लेकिन तुम पुरुषों की स्त्रियों के प्रति सोच नहीं बदली. सारी वर्जनाएं, सारे कर्तव्य स्त्रियों के लिए ही क्यों? उन की इच्छाओं, आकांक्षाओं का तुम पुरुषों की नजरों में कोई मूल्य नहीं है.

‘‘उन के वजूद का किसी को एहसास तक भी नहीं. लेकिन स्त्रियां भी क्यों उर्मिला की तरह अपने पति के निर्णय को ही अपनी नियत समझ कर स्वीकार लेती हैं? क्यों अपने सपनों का गला घोंट कर पुरुषों के दिखाए मार्ग पर आंख मूंद कर चल देती हैं? क्यों अपने जीवन के निर्णय स्वयं नहीं ले पातीं? क्यों औरों के सुख के लिए अपना बलिदान करती हैं? अभी तक मैं ने भी यही किया, लेकिन अब नहीं करूंगी. मैं इसी घर में स्वतंत्र हो कर अपनी इच्छानुसार रहूंगी,’’ समीर पहली बार मुझे भाषणात्मक तरीके से बोलते हुए देख कर अवाक रह गया.

‘‘पापा, मैं आप के पास नहीं रहूंगी, आप मुझे प्यार नहीं करते. हमेशा डांटते रहते हैं… मैं ममा के साथ रहूंगी और मैं उन की तरह ही बनना चाहती हूं… आई हेट यू पापा…’’ परदे के पीछे खड़ी चीनू, जोकि हमारी सारी बातें सुन रही थी, बाहर निकल कर रोष और खुशी के मिश्रित आंसू बहने लगी. मैं ने देखा कि समीर पहली बार चेहरे पर हारे हुए खिलाड़ी के से भाव लिए मूकदर्शक बना रह गया.

काका-वा : रानी को चेन्नई में क्या अलग लगा

बिहार से तबादला होने के बाद रानी जब चेन्नई पहुंची तो उस के लिए सबकुछ ही बदला हुआ था. हवा, पानी, खानपान, पहनावा और भाषा सबकुछ ही तो अलग था. शुरूशुरू में चेन्नई के लोग भी उसे अजीब ही लगते थे. अधिकतर औरतों ने पूरे शरीर पर ही हलदी रगड़ी हुई होती. शुरू में तो रानी को लगा शायद यहां की औरतें पीलिया रोग से पीडि़त हैं. पर धीरेधीरे यह भेद भी खुल गया कि नहाने से पहले हलदी लगाना यहां की परंपरा है.

भाषा न आने के कारण रानी को अकेलापन अधिक लगता था. वह आसपास बोले जाने वाले शब्दों को ध्यान से सुनती पर सब उस के सिर के ऊपर से गुजर जाते थे. तमिल भाषा सिखाने वाली एक किताब भी वह ले आई थी. उसे यहां के कौए भी अलग नजर आते थे. बिहार जैसे कौए नहीं थे. यहां के कौए तो पूरे के पूरे चमकीले काले थे और आकार में भी कुछ बड़े थे. उन की कांवकांव में भी अधिक कर्कशता थी और घर में फुदकने वाली, चींचीं करने वाली चिडि़यां तो यहां थीं ही नहीं.

यहां सुबह उठने के बाद जैसे ही रानी रसोई में चाय बनाने जाती, तो रसोई की खिड़की की मुंडेर पर कौओं के ही दर्शन करती. उस की रसोई की खिड़की से सामने वाली बड़ी इमारत साफ नजर आती थी और उसे ऐसा लगा कि उस इमारत के सभी फ्लैटों के रसोईघर इसी दिशा में थे क्योंकि सभी खिड़कियों की मुंडेरों पर कौओं के लिए चावल डले होते. उस के गांव में तो लोग कबूतर को दाना देना अच्छा समझते थे, पर यहां कौओं को पके हुए चावल डालना शायद अच्छा समझा जाता था. यही देख कर उस ने भी कौओं को चावल डालने की बात सोची. पर सुबहसुबह वह चावल नहीं पकाती थी. उस की रसोई में तो सुबह के समय परांठे और पूरियां बनती थीं.

पहले दिन उस ने आधी चपाती के टुकड़े खिड़की की बाहरी चौखट पर रख दिए पर एक भी कौआ नहीं आया. उसे बहुत दुख हुआ कि कौओं ने चपाती का एक टुकड़ा भी ग्रहण नहीं किया. सारा दिन रोटी के टुकड़े वहीं पड़े रहे. दूसरे दिन फिर उस ने नाश्ते में बनी पहली रोटी के कुछ टुकड़े कर के खिड़की में डाल दिए. शायद घी की महक थी या रानी की श्रद्धा का असर था कि एक कौआ उड़ कर आया, बैठा और उस ने रोटी के टुकड़ों को ध्यान से देखा. फिर अपने पंजों में उठा कर कुछ देर बैठा रहा जैसे सोच रहा हो कि यह नई चीज खाऊं या नहीं, फिर उस ने पूरा का पूरा टुकड़ा निगल लिया. फिर दूसरा टुकड़ा चोंच में उठा कर उड़ गया. फिर दूसरा कौआ आया तो उस ने भी वैसी ही प्रतिक्रिया दोहराई.

आज रानी को अच्छा लगा और उस का हौसला बढ़ गया. दूसरे दिन उस ने एक बड़ी रोटी बनाई और उस के अनेक टुकड़े कर के खिड़की के बाहर डाल दिए. पहले एक कौआ आया और उस ने कुछ ऐसी आवाज निकाली कि उसे सुन कर बहुत सारे कौए एकसाथ आ गए और पल भर में ही सारी रोटी खा गए. आज रानी को बहुत अच्छा लगा. उस ने सोचा कि ये दक्षिण भारतीय कौए भी अब रोटी खाना सीख गए हैं. अब तो कौओं को रोटी डालना उस की सुबह की दिनचर्या में शामिल हो गया था. धीरेधीरे वह कौओं को पहचानने भी लगी थी. एक कौए की चोंच मुड़ी हुई थी. दूसरे कौए का एक पंजा ही नहीं था तो एक और कौए की गरदन के बाल झड़े हुए थे. वह सोचती कि जैसे उसे कौओं की पहचान होती जा रही है वैसे ही क्या कौए भी उसे पहचानते होंगे? पर इस का कोई उत्तर उस के पास नहीं था.

एक दिन रानी ने डबलरोटी का नाश्ता तैयार किया. डबलरोटी के ही छोटेछोटे टुकड़े कर के उस ने खिड़की में डाल दिए. कौए आए, कांवकांव किया, पर उन्होंने डबलरोटी के टुकड़े नहीं खाए. उन्हें वहीं छोड़ कर वे उड़ गए, उस ने सोचा पहले रोटी नहीं खाते थे और आज डबलरोटी नहीं खा रहे हैं. कल भी उन्हें यही डालूंगी तब खा लेंगे.

दूसरे दिन फिर उस ने डबलरोटी डाली पर किसी भी कौए ने नहीं खाई. तीसरे दिन फिर उस ने डबलरोटी डाली पर फिर कौओं ने नहीं खाई. तब उस ने जल्दी से आटा निकाला, एक रोटी बनाई और रोटी के टुकड़े डाले. कौओं ने पहले की तरह पल भर में सब टुकड़े लपक लिए थे. आज उस ने जाना कि कौओं की भी पसंद और नापसंद होती है. उस की जांच करने के लिए उस ने अगले दिन उबले चावल डाले. कौए आए और सूंघ कर चले गए. दिनभर चावल वहीं पड़े रहे और गिलहरियां खाती रहीं. उस दिन रानी ने गिलहरियों के व्यवहार को भी करीब से देखा, कैसे एकएक दाने को दोनों पंजों से पकड़ कर कुतरकुतर कर बड़े प्यार से खाती हैं. उन की चमकती हुई दोनों आंखें कितनी सुंदर लगती हैं. इन जीवों का व्यवहार देखने में रानी को आनंद आने लगा था. उसे लगा था कि उसे तो जीवशास्त्री बनना चाहिए था.

कौओं को रोटी डालतेडालते रानी ने उन के व्यवहार को भी बहुत करीब से देखा. उस ने देखा कि कौओं में भी लालच होता है. कई कौए तो अधिक से अधिक रोटी के टुकड़े निगल कर और फिर चोंच में भी दबा कर उड़ जाते थे. अपने रोज के साथियों के लिए एक टुकड़ा तक नहीं छोड़ते थे. ऐसे दबंग कौओं से कमजोर कौए डरते भी थे. दबंग कौए जब तक खिड़की पर बैठे रहते कमजोर कौए दूर बैठे उन के उड़ने का इंतजार करते. जब दबंग कौए उड़ जाते तभी वे खिड़की पर आते और बचेखुचे टुकड़ों को खा कर ही संतोष कर लेते थे.

कौओं के खाने की प्रक्रिया में रानी ने उन की काली, पतली और लंबी जीभ भी देखी. उन की जीभ देख कर उसे उबकाई सी आने लगती थी. उसे टेढ़ी चोंच वाले और एक पैर वाले कौए पर विशेष दया आती थी. इसलिए उन दोनों विकलांग कौओं के लिए वह अलग से रोटी रख लेती थी. जब और सब कौए रोटी ले कर उड़ जाते थे तब वे दोनों कौए एकसाथ खिड़की पर आते और वह दोनों को रोटी डालती. आराम से अपनाअपना हिस्सा ले कर वे उड़ जाते थे.

रानी ने एक और बात जानी कि कमजोर कौओं में बहुत अधिक धीरज होता है. कभीकभी रानी काम में इतना अधिक व्यस्त होती कि उन दोनों को देख कर भी उन्हें अनदेखा सा कर जाती थी. पर वे दोनों शांत बैठे इंतजार करते रहते थे. एकदो बार तो आधे घंटे से अधिक देर तक दोनों धीरज धरे बैठे रहे थे. उन्हें इस तरह देख कर उस ने मन ही मन उन से माफी मांगी थी और उन्हें रोटी दे दी थी. इतनी देर से भोजन न मिलने पर भी उन में अधीरता नहीं थी, दोनों ने बड़े शांत भाव से रोटी खाई. टेढ़ी चोंच वाले कौए पर उसे अधिक दया आती थी क्योंकि वह रोटी का टुकड़ा बड़ी मुश्किल से उठा पाता था.

कौओं से दोस्ती ने रानी को दार्शनिक भी बना दिया था. वह मानव और पक्षियों की तुलना करने लगती. उसे लगता दोनों में कितनी समानता है. दोनों में लालच है, दोनों में पसंदनापसंद है, दोनों में धीरज है, दोनों में मैत्री और दया भी है.

रानी जब इस प्रकार दोनों की तुलना करती तो उस के मन में एक विचार बारबार आता था कि क्या ये भी मनुष्य को पहचानते हैं. इस मुश्किल का हल भी उसे शीघ्र ही मिल गया. तभी एक अंगरेजी की पत्रिका उस के हाथ लगी. उस में पूरा एक लेख था कि कौए भी आदमी को पहचानते हैं. इस कहानी में एक ऐसे व्यक्ति के अनुभव लिखे हुए थे जिस ने एक कौए को पाल रखा था और वह कौआ हजारों की भीड़ में उसे पहचान कर उस के कंधे पर ही आ कर बैठता था. यह पढ़ कर रानी भी खुश हुई कि ये दोनों कौए जो रोज उस के हाथ की रोटी खा कर जाते हैं उसे जरूर पहचानते होंगे. इस का प्रमाण भी उसे मिल गया. एक दिन सुबह की सैर के लिए निकली तो टेढ़ी चोंच वाला कौआ उड़ता हुआ आया और उस के सिर पर बैठ गया. अचानक इतने बोझ को सिर पर महसूस कर के वह घबरा गई थी और उस ने जोर से धक्का दे कर उसे उड़ा दिया था. घर आ कर उस ने जब इस घटना के बारे में बताया तो सब ने इस का अलगअलग अर्थ लगाया. पति बोले, ‘‘जल्दी नहा लो. कौए कितने गंदे होते हैं.’’

सासूमां बोलीं, ‘‘यह तो बहुत बड़ा अपशकुन है. कौए का सिर पर बैठना घर में किसी की मृत्यु का संकेत देता है. जल्दी मंदिर जाओ और एक चांदी का कौआ दान करो.’’

अनजाने में ही रानी के इस दोस्त ने उसे दुविधा में डाल दिया था. फिर उस ने अंगरेजी पत्रिका के लेख के सहारे सासूमां को समझाया कि कौऐ का यह व्यवहार दोस्ती के कारण था. वह कौआ किसी चांदी के दुकानदार का एजेंट तो था नहीं, इसलिए इस तर्कहीन दान की बात एकदम बेकार है. सासूमां ने भी जब इस पर ध्यान से सोचा तो उन्हें अपने द्वारा बताए गए इस उपाय पर खुद हंसी आने लगी.

जिंदगी अपनी रफ्तार चलती रही. कौए के सिर पर बैठने के अपशकुन का वहम दम तोड़ चुका था. चेन्नई में आना रानी को भा गया था. वह सुबह उठते ही अन्य चेन्नई वालों की तरह आवाज लगाती, ‘‘काका वा (अर्थात कौएजी) आओ और भोजन ग्रहण करो.

पति ‘नेता’ की पूजा

नेता आजकल तैंतीस कोटि होते हैं. कोटि का मतलब ‘करोड़’ भी होता है और ‘वर्ग’ भी. गिनतियों के जाल से बचने के लिए ‘कोटि’ का मतलब ‘वर्ग’ ही ले लें और मान लें कि नेता तैंतीस प्रकार के होते हैं. इसी प्रकार पति ‘नेता’ भी कुछ इस तरह के हो सकते हैं

: संविधान के मुताबिक, इस पति ‘नेता’ को कई तरह से अधिकार और मौके दिए जाते हैं, जैसे शक्ति भाव, रिश्वत, काम निकलवाना, फूल मालाएं पहनाना, उलाहने, ताने, गालियों की भेंट आदि. अच्छे गुणों वाली पत्नियां इन सभी का इस्तेमाल करती हैं. पति ‘नेताओं’ के तरहतरह के रूप कई प्रकार के हैं. नेता पार्ट टाइम भी होते हैं, फुल टाइम भी. पार्ट टाइम वे, जिन्हें पार्टी न पद देती है, जो न चुनाव लड़ते हैं. फुल टाइम वे, जो पार्टी में कोई पद रखते हैं और चुनाव लड़ते हैं.

पति ‘नेता’ अपना काम भी करते हैं, क्योंकि हर नेता की ऊपरी कमाई हो, यह जरूर नहीं. ड्राइवर : ड्राइवर रूपी पति ‘नेता’ रेल, मोटर वगैरह के ड्राइवर यूनियन का अध्यक्ष होता है. लेकिन वे घर की गाड़ी को सही ढंग से चला सकते हैं या नहीं, यह बात साफ नहीं है. गाड़ी चलाने में हादसा हो सकता है और घर में भी. फिर भी आप अपने पति से 2 तरह से बरताव कर सकती?हैं.

हरी साड़ी, उसी रंग की बिंदी का इस्तेमाल आप के पति को घर में घुसने के लिए हरी झंडी का काम करेगा. लेकिन अगर आप ने लाल रंग का इस्तेमाल किया, तो पति ‘नेता’ घर के बाहर ही खड़े रहेंगे. अगर नारंगी पहनी है, तो वे वहीं खड़े रह जाएंगे, पर चालू रहेंगे. पुलिस : आप के पति पुलिस में हैं और नेता के साथ लगे हैं तो, बधाई. सैयां भए कोतवाल तो आप को डर काहे का. फिर भी आप यह न भूलें कि पुलिस कानून को बचाने वाली नहीं होती तोड़ने वाली होती है.

ज्यादातर पत्नियों की तरह आप को भी ऐसी आदत डालनी पड़ सकती है कि आप पति के आते ही जेबों की सफाई करें. कहीं ऐसा न हो कि पति रंगे हाथों पकड़े जाएं. अगर पति पकड़े गए तो ईडी, एंटी करप्शन, सीबीआई वाले घर को तहसनहस कर के पति को लाइनहाजिर करने की धमकी दे सकते हैं. चोरी के माल को ऐसे में आए मेहमानों को चायनाश्ते में सौंप दीजिए और प्रार्थना कीजिए कि बात बढ़ाने से क्या फायदा, मामला खत्म किया जाए.

उम्मीद है कि ‘घूस देवी’ आप के पति ‘नेता’ को गुस्से से बचा लेगी. नेताओं की आदत होती है कि वे पुलिस वालों को नेता भी बना डालते हैं, क्योंकि चोरचोर मौसरे भाई ही होते हैं. कपड़ा दुकानदार पति ‘नेता’ : आप इतना तय मानिए कि आप को कपड़ों की कमी नहीं होगी. वे हरेक की कमीज भी उतरवा लेने में माहिर होंगे. एक सज्जन कपड़ा बेचने का काम करते थे, लेकिन ऐसे ही एक को कुछ दोस्त पकड़ कर एक क्लब में ले गए और उन्हें मेज के पास बैठा दिया.

थोड़ी देर बाद उन्हें नींद आ गई और मेज का कपड़ा 1 और 2 कहते हुए उन्होंने नींद में ही टुकड़ेटुकड़े कर दिए. पूछने पर बताया कि सपने में ग्राहक को एकएक मीटर कपड़ा बेच रहे थे. ऐसे नेता जब रात को कपड़े उतारते हैं तो भी तह कर के रखते हैं, अपनी धोती भी, आप की साड़ी भी चाहे, तब तक आप सो ही जाएं. अगर आप के पति ऐसी हालत में हों तो उन से दूर से ही बातचीत कीजिए. कपड़े उतारने तक तो कोई गड़बड़ी नहीं होगी, लेकिन कपड़े के टुकड़े हो जाने पर अपना ही नुकसान होगा.

प्यार भरा मैसेज : दीपा किसके इंतजार में खिड़की पर खड़ी थी

दीपा तीसरी बार खिड़की के पास आई, लेकिन राजू ने उस की तरफ देखा तक नहीं. राजू दीपा के घर के सामने चाय की दुकान पर बैठा था और अपने ही खयालों में खोया था. मोहन ने कहा, ‘‘राजू देखो तो, दीपा कई बार खिड़की के पास आई और इंतजार कर के चली गई. एक तुम हो कि नजर ही नहीं घूम रही है.’’ राजू ने बेरुखी से मोहन को देखा, फिर सिर उठा कर दीपा पर एक नजर डाली तो दीपा की आंखों की चमक दोगुनी हो गई. उस के होंठों पर एक हलकी सी मोहक मुसकान तैर गई. फिर दोनों की आंखों ही आंखों में बातें हुईं और दीपा के गालों पर लाली तैर गई.

फिर वह नजरें झुका कर खिड़की से हट गई. कुछ देर बाद दीपा की छोटी बहन मंजू चाय की दुकान पर आई और उस ने राजू के हाथों में अपना मोबाइल फोन थमा दिया. उस ने यह भी कहा कि दीदी ने यह मैसेज भेजा है. उन का मोबाइल खराब है. इसी पर जवाब लिख दो. अब राजू के हाथों में वही मैसेज जैसे फड़फड़ा रहा था. उसे पुरानी मुलाकातें याद आ रही थीं. जब वह पहली बार दीपा से मिला था तो दीपा सिलाई सीखने जा रही थी. राजू गली में सामने से आ रहा था. वहीं दीपा से उस की नजरें चार हुईं. तब उस ने कई दिनों से लिख कर रखा अपना मोबाइल नंबर हिम्मत कर के वहीं गिरा दिया और दीपा के पास से निकलता हुआ खंभे की ओट ले कर खड़ा हो गया.

दीपा धीरेधीरे चलती हुई कागज के पास पहुंच कर रुक गई और दबी नजरों से इधरउधर देख कर अपने हाथ में पकड़ा रूमाल गिरा दिया. फिर उस ने रूमाल उठाने के बहाने कागज, जिस पर मोबाइल नंबर लिखा था, उठा लिया और तेज कदमों से चल कर अपने सिलाई स्कूल की तरफ चली गई. राजू ने चैन की सांस ली. सोचा कि यह तो अच्छा हुआ कि उस समय गली में कोई था नहीं. कुछ देर तक राजू वहीं खड़ा रहा और अपनी घबराहट पर काबू पाने की कोशिश करता रहा. फिर चल पड़ा दीपा के सिलाई स्कूल की तरफ. दीपा के सिलाई स्कूल के सामने बैठ कर समय गुजारने के लिए उस ने पास के मूंगफली वाले से कई बार मूंगफली खरीदी.

वह मूंगफली खाता रहा और सुनहरे सपनों में खोया रहा. कुछ देर बाद एक लड़की मूंगफली वाले के पास आई. मूंगफली ले कर जाते समय राजू के पास रुकी, फिर बोली, ‘‘यह चिट दीपा ने दी है,’’ और चिट देने के बाद वह तेज कदमों से सिलाई स्कूल में घुस गई. तब राजू की खुशी का ठिकाना न रहा. वह तुरंत वहां से उठा और तेज कदमों से चल कर पास के आजाद पार्क में पहुंचा. वहीं एक पेड़ के नीचे बैठ कर उस ने नंबर सेव किया और ‘हैलो’ का मैसेज दिया. दीपा ने जवाब में मैसेज किया, ‘मैं जबजब तुम को देखती हूं, मेरे मन के तार झनझना उठते हैं. आज तुम्हारा नंबर पा कर मैं खुशी से पागल हो गई. कल रविवार को मैं घर से सहेली के यहां जाने का बहाना बना कर निकलूंगी और आजाद पार्क में तुम से झूले के पास मिलूंगी…’ राजू को लगा जैसे वक्त थम गया हो.

उस के लिए दिन और रात भारी लग रहे थे. किसी तरह दिनरात बीते. दूसरे दिन वह दीपा से मिला. उस के बाद तो सिलसिला चल पड़ा. कभी सिनेमाघर में, तो कभी कौफीहाउस में उन की शामें कटने लगीं. एक रोज दीपा ने उसे अपनी एक सहेली के कमरे में बुलाया, जो एक घर की बरसाती में रहती थी. वह उन्हें कोल्ड ड्रिंक दे कर चली गई. उसे अपने बौयफ्रैंड से मिलने जाना था. दीपा ने उसे बांहों में जकड़ते हुए कहा, ‘‘राजू, मैं तुम से बेहद प्यार करती हूं.’’ राजू बोला, ‘‘मैं भी, पर हमारी जातियां…’’ ‘‘मैं जातियों को नहीं मानती,’’ कह कर दीपा ने राजू के होंठों पर अपने होंठ रख कर मुंह बंद कर दिया. धीरेधीरे दोनों ने सारी सीमाएं पार कर लीं. अब दोनों के बीच कोई दीवार नहीं रही. चाय की दुकान पर बैठे राजू का ध्यान तब टूटा, जब मोहन ने उस से कहा,

‘‘देख तो मैसेज में क्या लिखा है?’’ मैसेज में लिखा था : ‘मेरा मन बहुत घबरा रहा है. मैं तुम्हारे बच्चे की मां बनने वाली हूं. तुम आज ही मेरे पिताजी से मिलना और हमारी शादी के बारे में जरूर बातचीत करना. पिताजी शाम को 5 बजे दफ्तर से घर चले आते हैं. जरूर आना. मैं इंतजार करूंगी.’ राजू ने मोबाइल फोन छोटी बहन मंजू को वापस करते हुए कहा, ‘‘कह देना कि मेरी भी तबीयत ठीक नहीं है. मैं गांव जा रहा हूं. मैं आ कर बताता हूं. गांव का पता भी किसी को नहीं बताना.’’

फिर राजू तेज कदमों से बसअड्डे की ओर चल पड़ा. राजू जानता था कि वह दीपा के घर जाएगा तो उस की और दीपा दोनों की हत्या हो जाएगी. दीपा के पिता लोकल पार्टी के नेता थे और आएदिन मंदिरों के आगे कीर्तन गाते नजर आते थे. उन्होंने कुछ लठैत भी पाले हुए थे. अब दीपा का बच्चा गिरवा दिया जाएगा, लेकिन दोनों की जान तो बच जाएगी. वह समझ गया था कि उन का प्यार तो उस रेल की पटरी की तरह है, जिस पर कोई ट्रेन नहीं चलती. उस की पटरियों पर चल कर इश्क कर सकते हैं, पर कहीं पहुंच नहीं सकते.

Father’s Day 2022: शायद- क्या शगुन के माता-पिता उसकी भावनाएं जान पाए?

शगुन स्कूल बस से उतर कर कुछ क्षण स्टाप पर खड़ा धूल उड़ाती बस को देखता रहा. जब वह आंखों से ओझल हो गई, तब घर की ओर मुड़ा. दरवाजे की चाबी उस के बैग में ही थी. ताला खोल कर वह अपने कमरे में चला गया. दीवार घड़ी में 3 बज रहे थे.

शगुन ने अनुमान लगाया कि मां लगभग ढाई घंटे बाद आ जाएंगी और पिता 3 घंटे बाद. हाथमुंह धो कर वह रसोईघर में चला गया. मां आलूमटर की सब्जी बना कर रख गई थीं. उसे भूख तो बहुत लग रही थी, परंतु अधिक खाया नहीं गया. बचा हुआ खाना उस ने कागज में लपेट कर घर के पिछवाड़े फेंक दिया. खाना पूरा न खाने पर मां और पिता नाराज हो जाते थे.

फिर शीघ्र ही शगुन कमरे में जा कर सोने का प्रयत्न करने लगा. जब नींद नहीं आई तो वह उठ कर गृहकार्य करने लगा. हिंदी, अंगरेजी का काम तो कर लिया परंतु गणित के प्रश्न उसे कठिन लगे, ‘शाम को पिताजी से समझ लूंगा,’ उस ने सोचा और खिलौने निकाल कर खेलने बैठ गया.

शालिनी दफ्तर से आ कर सीधी बेटे के कमरे में गई. शगुन खिलौनों के बीच सो रहा था. उस ने उसे प्यार से उठा कर बिस्तर पर लिटा दिया.

समीर जब 6 बजे लौटा तो देखा कि मांबेटा दोनों ही सो रहे हैं. उस ने हौले से शालिनी को हिलाया, ‘‘इस समय सो रही हो, तबीयत तो ठीक है न ’’

शालिनी अलसाए स्वर में बोली, ‘‘आज दफ्तर में काम बहुत था.’’

‘‘पर अब तो आराम कर लिया न. अब जल्दी से उठ कर तैयार हो जाओ. सुरेश ने 2 पास भिजवाए हैं…किसी अच्छे नाटक के हैं.’’

‘‘कौन सा नाटक है ’’ शालिनी आंखें मूंदे हुए बोली, ‘‘आज कहीं जाने की इच्छा नहीं हो रही है.’’

‘‘अरे, ऐसा अवसर बारबार नहीं मिलता. सुना है, बहुत बढि़या नाटक है. अब जल्दी करो, हमें 7 बजे तक वहां पहुंचना है.’’

‘‘और शगुन को कहां छोड़ें  रोजरोज शैलेशजी को तकलीफ देना अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘अरे भई, रोजरोज कहां  वैसे भी पड़ोसियों का कुछ तो लाभ होना चाहिए. मौका आने पर हम भी उन की सहायता कर देंगे,’’ समीर बोला.

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जब शालिनी तैयार होने गई तो समीर शगुन के पास गया, ‘‘शगुन, उठो. यह क्या सोने का समय है ’’

शगुन में उठ कर बैठ गया. पिता को सामने पा कर उस के चेहरे पर मुसकराहट आ गई.

‘‘जल्दी से नाश्ता कर लो. मैं और तुम्हारी मां कहीं बाहर जा रहे हैं.’’

शगुन का चेहरा एकाएक बुझ गया. वह बोला, ‘‘पिताजी, मेरा गृहकार्य पूरा नहीं हुआ है. गणित के प्रश्न बहुत कठिन थे. आप…’’

‘‘आज मेरे पास बिलकुल समय नहीं है. कक्षा में क्यों नहीं ध्यान देता  ठीक है, शैलेशजी से पूछ लेना. अब जल्दी करो.’’

शगुन दूध पी कर शैलेशजी के घर चला गया. वह जानता था कि जब तक मां और पिताजी लौटेंगे, वह सो चुका होगा. सदा ऐसा ही होता था. शैलेशजी और उन की पत्नी टीवी देखते रहते थे और वह कुरसी पर बैठाबैठा ऊंघता रहता था. उन के बच्चे अलग कमरे में बैठ कर अपना काम करते रहते थे. आरंभ में उन्होंने शगुन से मित्रता करने की चेष्टा की थी परंतु जब शगुन ने ढंग से उन से बात तक न की तो उन्होंने भी उसे बुलाना बंद कर दिया था. अब भला वह बात करता भी तो कैसे  उसे यहां इस प्रकार आ कर बैठना अच्छा ही नहीं लगता था. जब वह शैलेशजी को अपने बच्चों के साथ खेलता देखता, उन्हें प्यार करते देखता तो उसे और भी गुस्सा आता.

शगुन अपनी गृहकार्य की कापी भी साथ लाया था, परंतु उस ने शैलेशजी से प्रश्न नहीं समझे और हमेशा की तरह कुरसी पर बैठाबैठा सो गया.

अगली सुबह जब वह उठा तो घर में सन्नाटा था. रविवार को उस के मातापिता आराम से ही उठते थे. वह चुपचाप जा कर बालकनी में बैठ कर कौमिक्स पढ़ने लगा. जब देर तक कोई नहीं उठा तो वह दरवाजा खटखटाने लगा.

‘‘क्यों सुबहसुबह परेशान कर रहे हो  जाओ, जा कर सो जाओ,’’ समीर झुंझलाते हुए बोला.

‘‘मां, भूख लगी है,’’ शगुन धीरे से बोला.

‘‘रसोई में से बिस्कुट ले लो. थोड़ी देर में नाश्ता बना दूंगी,’’ शालिनी ने उत्तर दिया.

शगुन चुपचाप जा कर अपने कमरे में बैठ गया. उस की कुछ भी खाने की इच्छा नहीं रह गई थी.

दोपहर के खाने के बाद समीर और शालिनी का किसी के यहां ताश खेलने का कार्यक्रम था, ‘‘वहां तुम्हारे मित्र नीरज और अंजलि भी होंगे,’’ शालिनी शगुन को तैयार करती हुई बोली.

‘‘मां, आज चिडि़याघर चलो न. आप ने पिछले सप्ताह भी वादा किया था,’’ शगुन मचलता हुआ बोला.

‘‘बेटा, आज वहां नहीं जा पाएंगे. गिरीशजी से कह रखा है. अगले रविवार अवश्य चिडि़याघर चलेंगे.’’

‘‘नहीं, आज ही,’’ शगुन हठ करने लगा, ‘‘पिछले रविवार भी आप ने वादा किया था. आप मुझ से झूठ बोलती हैं… मेरी बात भी नहीं मानतीं. मैं नहीं जाऊंगा गिरीश चाचा के यहां,’’ वह रोता हुआ बोला.

तभी समीर आ गया, ‘‘यह क्या रोना- धोना मचा रखा है. चुपचाप तैयार हो जा, चौथी कक्षा में आ गया है, पर आदतें अभी भी दूधपीते बच्चे जैसी हैं. जब देखो, रोता रहता है. इतने महंगे स्कूल में पढ़ा रहे हैं, बढि़या से बढि़या खिलौने ले कर देते हैं…’’

‘‘मैं गिरीश चाचा के घर नहीं जाऊंगा,’’ शगुन रोतेरोते बोला, ‘‘वहां नीरज, अंजलि मुझे मारते हैं. अपने साथ खेलाते भी नहीं. वे गंदे हैं. मेरे सारे खिलौने तोड़ देते हैं और अपने दिखाते तक नहीं. वे मूर्ख हैं. उन की मां भी मूर्ख हैं. वे भी मुझे ही डांटती हैं, अपने बच्चों को कुछ नहीं कहती हैं.’’

समीर ने खींच कर एक थप्पड़ शगुन के गाल पर जमाया, ‘‘बदतमीज, बड़ों के लिए ऐसा कहा जाता है. जितना लाड़प्यार दिखाते हैं उतना ही बिगड़ता जाता है. ठीक है, मत जा कहीं भी, बैठ चुपचाप घर पर. शालिनी, इसे कमरे में बंद कर के बाहर से ताला लगा दो. इसे बदतमीजी की सजा मिलनी ही चाहिए.’’

शालिनी लिपस्टिक लगा रही थी, बोली, ‘‘रहने दो न, बच्चा ही तो है. शगुन, अगले रविवार जहां कहोगे वहीं चलेंगे. अब जल्दी से पिताजी से माफी मांग लो.’’

शगुन कुछ क्षण पिता को घूरता रहा, फिर बोला, ‘‘नहीं मांगूंगा माफी. आप भी मूर्ख हैं, रोज मुझे मारती हैं.’’

समीर ने शगुन का कान उमेठा, ‘‘माफी मांगेगा या नहीं ’’

‘‘नहीं मांगूंगा,’’ वह चिल्लाया, ‘‘आप गंदे हैं. रोज मुझे शैलेश चाचा के घर छोड़ जाते हैं. कभी प्यार नहीं करते. चिडि़याघर भी नहीं ले जाते. नहीं मांगूंगा माफी…गंदे, थू…’’

समीर क्रोध में आपे से बाहर हो गया, ‘‘तुझे मैं ठीक करता हूं,’’ उस ने शगुन को कमरे में बंद कर के बाहर से ताला लगा दिया.

शगुन देर तक कमरे में सिसकता रहा. उस दिन से उस में एक अक्खड़पन आ गया. उस ने अपनी कोई भी इच्छा व्यक्त करनी बंद कर दी. जैसा मातापिता कहते, यंत्रवत कर लेता, पर जैसेजैसे बड़ा होता गया वह अंदर ही अंदर घुटने लगा. 10वीं कक्षा के बाद पिता के कहने से उसे विज्ञान के विषय लेने पड़े. पिता उसे डाक्टर बनाने पर तुले हुए थे. शगुन की इच्छाओं की किसे परवा थी और मां भी जो पिता कहते, उसे ही दोहरा देतीं.

एक दिन दफ्तर के लिए तैयार होती हुई शालिनी बोली, ‘‘शगुन का परीक्षाफल शायद आज घोषित होने वाला है…तुम जरा पता लगाना.’’

‘‘क्यों, क्या शगुन इतना भी नहीं कर सकता,’’ समीर नाश्ता करता हुआ बोला, ‘‘जब पढ़ाईलिखाई में रुचि ही नहीं ली तो परिणाम क्या होगा.’’

‘‘ओहो, वह तो मैं इसलिए कह रही थी ताकि कुछ जल्दी…’’ वह टिफिन बाक्स बंद करती हुई बोली.

‘‘तुम्हें जल्दी होगी जानने की…मुझे तो अभी से ही मालूम है, पर मैं फिर कहे देता हूं यदि यह मैडिकल में नहीं आया तो इस घर में इस के लिए कोई स्थान नहीं है.  जा कर करे कहीं चपरासीगीरी, मेरी बला से.’’

‘‘तुम भी हद करते हो. एक ही तो बेटा है, यदि दोचार होते तो…’’

‘‘मैं भी यही सोचता हूं. एक ही इतना सिरदर्द बना हुआ है. क्या नहीं दिया हम ने इसे  फिर भी कभी दो घड़ी पास बैठ कर बात नहीं करता. पता नहीं सारा समय कमरे में घुसा क्या करता रहता है ’’ एकाएक समीर उठ कर शगुन के कमरे में पहुंच गया.

शगुन अचानक पिता को सामने देख कर अचकचा गया. जल्दी से उस ने ब्रश तो छिपा लिया परंतु गीली पेंटिंग न छिपा सका. पेंटिंग को देखते ही समीर का पारा चढ़ गया. उस ने बिना एक नजर पेंटिंग पर डाले ही उस को फाड़ कर टुकड़ेटुकड़े कर दिया, ‘‘तो यह हो रही है मैडिकल की तैयारी. किसे बेवकूफ बना रहे हो, मुझे या स्वयं को  वहां महंगीमहंगी पुस्तकें पड़ी धूल चाट रही हैं और यह लाटसाहब बैठे चिडि़यातोते बनाने में समय गंवा रहे हैं. कुछ मालूम है, आज तुम्हारा नतीजा निकलने वाला है.’’

‘‘जी पिताजी. मनोज बता रहा था,’’ शगुन धीरे से बोला. उस की दृष्टि अब भी अपनी फटी हुई पेंटिंग पर थी.

‘‘मनोज के सिवा भी किसी को जानते हो क्या  जाने क्या करेगा आगे चल कर…’’ समीर बोलता चला जा रहा था.

शालिनी को दफ्तर के लिए देर हो रही थी. वह बोली, ‘‘शगुन, मुझे फोन अवश्य कर देना. तुम्हारा खाना रसोई में रखा है, खा लेना.’’

मातापिता के जाते ही शगुन एक बार फिर अकेला हो गया. बचपन से ही यह सिलसिला चला आ रहा था. स्कूल से आ कर खाली घर में प्रवेश करना, फिर मातापिता की प्रतीक्षा करना. उस के मित्र उन्हें पसंद नहीं आते थे. बचपन में वह जब भी किसी को घर बुलाता था तो मातापिता को यही शिकायत रहती थी कि घर गंदा कर जाते हैं. महंगे खिलौने खराब कर जाते हैं. अकेला कहीं वह आजा नहीं सकता था क्योंकि मातापिता को सदा किसी दुर्घटना का अंदेशा रहता था.

शगुन के कई मित्र स्कूटर, मोटर- साइकिल चलाने लगे थे, पर उस के पिता ने कड़ी मनाही कर रखी थी. बस जब देखो अपने घिसेपिटे संवाद दोहराते रहते थे, ‘हम तो 8 भाईबहन थे. पिताजी के पास इतने रुपए नहीं थे कि किसी को डाक्टर बना सकते. मेरी तो यह हसरत मन में ही रह गई, पर तेरे पास तो सबकुछ है,’ और मां सदा यही पूछती रहती थीं, ‘ट्यूटर चाहिए, पुस्तकें चाहिए, बोल क्या चाहिए ’

पर शगुन कभी नहीं बता पाया कि उसे क्या चाहिए. वह सोचता, ‘मातापिता जानते तो हैं कि मेरी रुचि कला में है, मैं सुंदरसुंदर चित्र बनाना चाहता हूं, रंगबिरंगे आकार कागज पर सजाना चाहता हूं. इस में इनाम जीतने पर भी डांट पड़ती है कि बेकार समय नष्ट कर रहा हूं. उन्होंने कभी मेरी कोई इच्छा पूरी नहीं की.’

तभी मनोज आ गया. शगुन उस से बोला, ‘‘यार, बहुत डर लग रहा है.’’

‘‘इस में डरने की क्या बात है. ‘फाइन आर्ट्स’ ही तो करना चाहता है न ’’

‘‘मेरे चाहने से क्या होता है,’’ शगुन कड़वाहट से बोला, ‘‘मेरे पिता को तो मानो मेरी इच्छाओं का गला घोंटने में मजा आता है.’’

मनोज उस को समझ नहीं पाता था. उसे अचरज होता था कि इतना सब होने पर भी शगुन उदास क्यों रहता है.

स्कूल पहुंचते ही दोनों ने नोटिस बोर्ड पर अपने अंक देखे. अपने 54 प्रतिशत अंक देख कर मनोज प्रसन्न हो गया, ‘‘चलो, पास हो गया, पर तू मुंह लटकाए क्यों खड़ा है, तेरे तो 65 प्रतिशत अंक हैं.’’

शगुन बिना कुछ बोले घर की ओर चल दिया. वह मातापिता पर होने वाली प्रतिक्रिया के विषय में सोच रहा था, ‘मां तो निराश हो कर रो लेंगी, परंतु पिताजी  वे तो पिछले 2 वर्षों से धमकियां दे रहे थे.’

उस ने मां को फोन किया. चुपचाप कमरे में जा कर बैठ गया. शगुन रेंगती हुई घड़ी की सूइयों को देख रहा था और सोच रहा था. जब 5 बज गए तो वह झट बिस्तर से उठा. उस ने अलमारी में से कुछ रुपए निकाले और घर से बाहर आ गया.

समीर जब दफ्तर से लौटा तो शालिनी पर बरसने लगा, ‘‘कहां है तुम्हारा लाड़ला  कितना समझाया था कि मेहनत कर ले…पर मैं तो केवल बकता हूं न.’’

शालिनी वैसे ही परेशान थी. बोली, ‘‘आज उस ने खाना भी नहीं खाया. कहां गया होगा. बिना बताए तो कहीं जाता ही नहीं है.’’

जब रात के 9 बजे तक भी शगुन नहीं लौटा तो मातापिता को चिंता होने लगी. 2-3 जगह फोन भी किए परंतु कुछ मालूम न हो सका. शगुन के कोई ऐसे खास मित्र भी नहीं थे, जहां इतनी रात तक बैठता.

11 बजे समीर पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा आया. शालिनी ने सब अस्पतालों में भी फोन कर के पूछ लिया. सारी रात दोनों बेटे की प्रतीक्षा में बैठे रहे. लेकिन शगुन का कुछ पता न चला. शालिनी की तो रोरो कर आंखें दुखने लगी थीं और समीर तो मानो 10 दिन में ही 10 वर्ष बूढ़ा हो गया था.

एक दिन शगुन की अध्यापिका शालिनी से मिलने आईं तो अपने साथ एक डायरी भी ले आईं, ‘‘एक बार शगुन ने मुझे यह डायरी भेंट में दी थी. इस में उस की कविताएं हैं. बहुत ही सुंदर भाव हैं. आप यह रख लीजिए, पढ़ कर आप के मन को शांति मिलेगी.’’

शालिनी ने डायरी ले ली परंतु वह यही सोचती रही, ‘शगुन कविताएं कब लिखता था  मुझ से तो कभी कुछ नहीं कहा.’

शाम को जब समीर आया तो शालिनी अधीरता से बोली, ‘‘समीर, क्या तुम जानते हो कि शगुन न केवल सुंदर चित्र बनाता था बल्कि बहुत सुंदर कविताएं भी लिखता था. हम अपने बेटे को बिलकुल नहीं जानते थे. हम उसे केवल एक रेस का घोड़ा मान कर प्रशिक्षित करते रहे, पर इस प्रयास में हम यह भूल गए कि उस की अपनी भी कुछ इच्छाएं हैं, भावनाएं हैं. हम अपने सपने उस पर थोपते रहे और वह मासूम निरंतर उन के बोझ तले दबता रहा.’’

समीर ने शालिनी से डायरी ले ली और बोला, ‘‘आज मैं मनोज से भी मिला था.’’

‘‘वह तो तुम्हें कतई नापसंद था,’’ शालिनी ने विस्मित हो कर कहा.

‘‘बड़ा प्यारा लड़का है,’’ समीर शालिनी की बात अनसुनी करता हुआ बोला, ‘‘उस से मिल कर ऐसा लगा, मानो शगुन लौट आया हो. शालिनी, शगुन मुझे जान से भी प्यारा है. यदि वह लौट कर नहीं आया तो मैं जी नहीं पाऊंगा,’’ समीर की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी.

‘‘नहीं, समीर,’’ शालिनी दृढ़ता से बोली, ‘‘शगुन आत्महत्या नहीं कर सकता, जो इतने सुंदर चित्र बना सकता है, इतनी सुंदर कविताएं लिख सकता है, वह जीवन से मुंह नहीं मोड़ सकता.’’

‘‘हां, हम ने उसे समझने में जो भूल की, वह हमें उस की सजा देना चाहता है,’’ समीर भरे गले से बोला.

शालिनी शगुन की डायरी खोल कर एक कविता की पंक्तियां पढ़ कर सुनाने लगी,

‘खेल और खिलौने, आडंबर और अंबार हैं.

बांट लूं किसी के संग उस पल का इंतजार है.’

उस समय दोनों यही सोच रहे थे कि यदि शगुन की कोई बहन या भाई होता तो वह शायद स्वयं को इतना अकेला कभी भी महसूस न करता और तब शायद.

लेखिका- शशि उप्पल

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