सफर कुछ थम सा गया- भाग 2 : क्या जया के पतझड़ रूपी जीवन में फिर बहारें आ पाईं

‘‘तुम भाभी की चिंता मत करो. मैं इन्हें घर ले जाता हूं.’’

सूरज चला गया. फिर थोड़ी देर बाद  जीप सूरज के घर के सामने रुकी.

‘‘आओ भाभी, गृहप्रवेश करो. चलो,

मैं ताला खोलता हूं. अरे, दरवाजा तो अंदर से बंद है.’’

दोस्त ने घंटी बजाई. दरवाजा खुला तो 25-26 साल की एक स्मार्ट महिला गोद में कुछ महीने के एक बच्चे को लिए खड़ी दिखी.

‘‘कहिए, किस से मिलना है?’’

दोस्त हैरान, जया भी परेशान.

‘‘आप? आप कौन हैं और यहां क्या कर रही हैं?’’ दोस्त की आवाज में उलझन थी.

‘‘कमाल है,’’ स्त्री ने नाटकीय अंदाज में कहा, ‘‘मैं अपने घर में हूं. बाहर से आप आए और सवाल मुझ से कर रहे हैं?’’

‘‘पर यह तो कैप्टन सूरज का घर है.’’

‘‘बिलकुल ठीक. यह सूरज का ही घर है. मैं उन की पत्नी हूं और यह हमारा बेटा. पर आप यह सब क्यों पूछ रहे हैं?’’

दोस्त ने जया की तरफ देखा. लगा, वह बेहोश हो कर गिरने वाली है. उस ने लपक कर जया को संभाला, ‘‘भाभी, संभालिए खुद को,’’ फिर उस महिला से कहा, ‘‘मैडम, कहीं कोई गलतफहमी है. सूरज तो शादी कर के अभी लौटा है. ये उस की पत्नी…’’

दोस्त की बात खत्म होने से पहले ही वह चिल्ला उठी, ‘‘सूरज अपनी आदत से बाज नहीं आया. फिर एक और शादी कर डाली. मैं कब तक सहूं, तंग आ गई हूं उस की इस आदत से…’’

जया को लगा धरती घूम रही है, दिल बैठा जा रहा है. ‘यह सूरज की पत्नी और उस का बच्चा, फिर मुझ से शादी क्यों की? इतना बड़ा धोखा? यहां कैसे रहूंगी? बाबूजी को फोन करूं…’ वह सोच में पड़ गई.

तभी एक जीप वहां आ कर रुकी. सूरज कूद कर बाहर आया. दोस्त और जया को बाहर खड़ा देख वह हैरान हुआ, ‘‘तुम दोनों इतनी देर से बाहर क्यों खड़े हो?’’

तभी उस की नजर जया पर पड़ी. चेहरा एकदम सफेद जैसे किसी ने शरीर का सारा खून निचोड़ लिया हो. वह लपक कर जया के पास पहुंचा. जया दोस्त का सहारा लिए 2 कदम पीछे हट गई.

‘‘जया…?’’ इसी समय उस की नजर घर के दरवाजे पर खड़ी महिला पर पड़ी.

वह उछल कर दरवाजे पर जा पहुंचा,

‘‘आप? आप यहां क्या कर रही हैं? ओ नो… आप ने अपना वार जया पर भी

चला दिया?’’

औरत खिलखिला उठी.

थोड़ी देर बाद सभी लोग सूरज के ड्राइंगरूम में बैठे हंसहंस कर बातें कर रहे थे. वही महिला चाय व नाश्ता ले कर आई, ‘‘क्यों जया, अब तो नाराज नहीं हो? सौरी, बहुत धक्का लगा होगा.’’

इस फौजी कालोनी में यह एक रिवाज सा बन गया था. किसी भी अफसर की शादी हो, लोग नई बहू की रैगिंग जरूर करते थे. सूरज की पत्नी बनी सरला दीक्षित और रीना प्रकाश ऐसे कामों में माहिर थीं. कहीं पहली पत्नी बन, तो किसी को नए पति के उलटेसीधे कारनामे सुना ऐसी रैगिंग करती थीं कि नई बहू सारी उम्र नहीं भूल पाती थी. इस का एक फायदा यह होता था कि नई बहू के मन में नई जगह की झिझक खत्म हो जाती थी.

जया जल्द ही यहां की जिंदगी की अभ्यस्त हो गई. शनिवार की शाम क्लब जाना, रविवार को किसी के घर गैटटुगैदर. सूरज ने जया को अंगरेजी धुनों पर नृत्य करना भी सिखा दिया. सूरज और जया की जोड़ी जब डांसफ्लोर पर उतरती तो लोग देखते रह जाते. 5-6 महीने बीततेबीतते जया वहां की सांस्कृतिक गतिविधियों की सर्वेसर्वा बन गई. घरों में जया का उदाहरण दिया जाने लगा.

खुशहाल थी जया की जिंदगी. बेहद प्यार करने वाला पति. ऐक्टिव रहने के लिए असीमित अवसर. बड़े अफसरों की वह लाडली बेटी बन गई. कभीकभी उसे वह पहला दिन याद आता. सरला दीक्षित ने कमाल का अभिनय किया था. उस की तो जान ही निकल गई थी.

2 साल बाद नन्हे उदय का जन्म हुआ तो उस की खुशियां दोगुनी हो गईं. उदय एकदम सूरज का प्रतिरूप. मातृत्व की संतुष्टि ने जया की खूबसूरती को और बढ़ा दिया. सूरज कभीकभी मजाक करता, ‘‘मेम साहब, क्लब के काम, घर के काम और उदय के अलावा एक बंदा यह भी है, जो घर में रहता है. कुछ हमारा भी ध्यान…’’

 

सफर कुछ थम सा गया- भाग 3 : क्या जया के पतझड़ रूपी जीवन में फिर बहारें आ पाईं

जया कह उठती, ‘‘बताओ तो, तुम्हारी अनदेखी कब की? सूरज, बाकी सब बाद  में… मेरे दिल में पहला स्थान तो सिर्फ तुम्हारा है.’’

सूरज उसे बांहों में भींच कह उठता, ‘‘क्या मैं यह जानता नहीं?’’

उदय 4 साल का होने को आया. सूरज अकसर कहने लगा, ‘‘घर में तुम्हारे जैसी गुडि़या आनी चाहिए अब तो.’’

एक दिन घर में घुसते ही सूरज चहका, ‘‘भेलपूरी,’’ फिर सूंघते हुए किचन में चला आया, ‘‘जल्दी से चखा दो.’’

भेलपूरी सूरज की बहुत बड़ी कमजोरी थी. सुबह, दोपहर, शाम, रात भेलपूरी खाने को वह हमेशा तैयार रहता.

सूरज की आतुरता देख जया हंस दी, ‘‘डाक्टर हो, औरों को तो कहते हो बाहर से आए हो, पहले हाथमुंह धो लो फिर कुछ खाना और खुद गंदे हाथ चले आए.’’

सूरज ने जया के सामने जा कर मुंह खोल दिया, ‘‘तुम्हारे हाथ तो साफ हैं. तुम खिला दो.’’

‘‘तुम बच्चों से बढ़ कर हो,’’ हंसती जया ने चम्मच भर भेलपूरी उस के मुंह में डाल दी.

‘‘कमाल की बनी है. मेज पर लगाओ. मैं हाथमुंह धो कर अभी हाजिर हुआ.’’

‘‘एक प्लेट से मेरा क्या होगा. और दो भई,’’ मेज पर आते ही सूरज ने एक प्लेट फटाफट चट कर ली.

तभी फोन की घंटी टनटना उठी. फोन सुन सूरज गंभीर हो गया, ‘‘मुझे अभी जाना होगा. हमारा एक ट्रक दुर्घटनाग्रस्त हो गया. हमारे कुछ अफसर, कुछ जवान घायल हैं.’’

जया भेलपूरी की एक और प्लेट ले आई और सूरज की प्लेट में डालने लगी तो ‘‘जानू, अब तो आ कर ही खाऊंगा. मेरे लिए बचा कर रखना,’’ कह सूरज बाहर जीप में जा बैठा.

ट्रक दुर्घटना जया की जिंदगी की भयंकर दुर्घटना बन गई. फुल स्पीड से जीप भगाता सूरज एक मोड़ के दूसरी तरफ से आते ट्रक को नहीं देख सका. हैड औन भिडंत. जीप के परखचे उड़ गए. जीप में सवार चारों लोगों ने मौके पर ही दम तोड़ दिया.

जया की पीड़ा शब्दों में बयां नहीं की जा सकती. वह 3 दिन बेहोश रही. घर मेहमानों से भर गया. पर चारों ओर मरघट सा सन्नाटा. घर ही क्यों, पूरी कालोनी स्तब्ध.

जया की ससुराल, मायके से लोग आए. उन्होंने जया से अपने साथ चलने की बात भी कही. लेकिन उस ने कहीं भी जाने से इनकार कर दिया. सासससुर कुछ दिन ठहर चले गए.

जया एकदम गुमसुम हो गई. बुत बन गई. बेटे उदय की बातों तक का जवाब नहीं. वह इस सचाई को बरदाश्त नहीं कर पा रही थी कि सूरज चला गया है, उसे अकेला छोड़. जीप की आवाज सुनते ही आंखें दरवाजे की ओर उठ जातीं.

इंसान चला जाता है पर पीछे कितने काम छोड़ जाता है. मृत्यु भी अपना हिसाब मांगती है. डैथ सर्टिफिकेट, पैंशन, बीमे का काम, दफ्तर के काम. जया ने सब कुछ ससुर पर छोड़ दिया. दफ्तर वालों ने पूरी मदद की. आननफानन सब फौर्मैलिटीज पूरी हो गईं.

इस वक्त 2 बातें एकसाथ हुईं, जिन्होंने जया को झंझोड़ कर चैतन्य कर दिया. सूरज के बीमे के क्व5 लाख का चैक जया के नाम से आया. जया ने अनमने भाव से दस्तखत कर ससुर को जमा कराने के लिए दे दिया.

एक दिन उस ने धीमी सी फुसफुसाहट सुनी, ‘‘बेटे को पालपोस कर हम ने बड़ा किया, ये 5 लाख बहू के कैसे हुए?’’ सास का स्वर था.

‘‘सरकारी नियम है. शादी के बाद हकदार पत्नी हो जाती है,’’ सास ने कहा.

‘‘बेटे की पत्नी हमारी बहू है. हम जैसा चाहेंगे, उसे वैसा करना होगा. जया हमारे साथ जाएगी. वहां देख लेंगे.’’

जया की सांस थम गई. एक झटके में उस की आंख खुल गई. ऐसी मन:स्थिति में उस ने उदय को अपने दोस्त से कहते सुना, ‘‘सब कहते हैं पापा मर गए. कभी नहीं आएंगे. मुझ से तो मेरी मम्मी भी छिन गईं… मुझ से बोलती नहीं, खेलती नहीं, प्यार भी नहीं करतीं. दादीजी कह रही थीं हमें अपने साथ ले जाएंगी. तब तो तू भी मुझ से छिन जाएगा…’’

पाषाण बनी जया फूटफूट कर रो पड़ी. उसे क्या हो गया था? अपने उदय के प्रति इतनी बेपरवाह कैसे हो गई? 4 साल के बच्चे पर क्या गुजर रही होगी? उस के पापा चले गए तो मुझे लगा मेरा दुख सब से बड़ा है. मैं बच्चे को भूल गई. यह तो मुरझा जाएगा.

उसी दिन एक बात और हुई. शाम को मेजर देशपांडे की मां जया से मिलने आईं. वे जया को बेटी समान मानती थीं. वे जया के कमरे में ही आ कर बैठीं. फिर इधरउधर की बातों के बाद बोलीं, ‘‘खबर है कि तुम सासससुर के साथ जा रही हो? मैं तुम्हारीकोई नहीं होती पर तुम से सगी बेटी सा स्नेह हो गया है, इसलिए कहती हूं वहां जा कर तुम और उदय क्या खुश रह सकोगे? सोच कर देखो, तुम्हारी जिंदगी की शक्ल क्या होगी? तुम खुल कर जी पाओगी? बच्चा भी मुरझा जाएगा.

‘‘तुम पढ़ीलिखी समझदार हो. पति चला गया, यह कड़वा सच है. पर क्या तुम में इतनी योग्यता नहीं है कि अपनी व बच्चे की जिंदगी संभाल सको? अभी पैसा तुम्हारा है, कल भी तुम्हारे पास रहेगा, यह भरोसा मत रखना. पैसा है तो कुछ काम भी शुरू कर सकती हो. काम करो, जिंदगी नए सिरे से शुरू करो.’’

जया ने सोचा, ‘दुख जीवन भर का है. उस से हार मान लेना कायरता है. सूरज ने हमेशा अपने फैसले खुद करने का मंत्र मुझे दिया. मुझे उदय की जिंदगी बनानी है. आज के बाद अपने फैसले मैं खुद करूंगी.’

4 साल बीत गए. जया खुश है. उस दिन उस ने हिम्मत से काम लिया. जया का नया आत्मविश्वासी रूप देख सासससुर दोनों हैरान थे. उन की मिन्नत, समझाना, उग्र रूप दिखाना सब बेकार गया. जया ने दोटूक फैसला सुना दिया कि वह यहीं रहेगी. सासससुर खूब भलाबुरा कह वहां से चले गए.

जया ने वहीं आर्मी स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया. इस से उसे घर भी नहीं छोड़ना पड़ा. जड़ों से उखड़ना न पड़े तो जीना आसान हो जाता है. अपने ही घर में रहते, अपने परिचित दोस्तों के साथ पढ़तेखेलते उदय पुराने चंचल रूप में लौट आया.

मेजर शांतनु देशपांडे ने उसे सूरज की कमी महसूस नहीं होने दी. स्कूल का

होमवर्क, तैरना सिखाना, क्रिकेट के दांवपेच, शांतनु ने सब संभाला. उदय खिलने लगा. उदय को खुश देख जया के होंठों की हंसी भी लौटने लगी.

शाम का समय था. उदय खेलने चला गया था. जया बैठी जिंदगी के उतारचढ़ाव के बारे में सोच रही थी. जिंदगी में कब, कहां, क्या हो जाए, उसे क्या पहले जाना जा सकता है? मैं सूरज के बगैर जी पाऊंगी, सोच भी नहीं सकती थी. लेकिन जी तो रही हूं. छोटे उदय को मैं ने चलना सिखाया था. अब लगता है उस ने मुझे चलना सिखाया. देशपांडे ने सच कहा था जीवन को नष्ट करने का अधिकार मानव को नहीं है. इसे संभाल कर रखने में ही समझदारी है.

शुरू के दिनों को याद कर के जया आज भी सिहर उठी. वैधव्य का बोझ, कुछ करने का मन ही नहीं होता था. पर काम तो सभी करने थे. घर चलाना, उदय का स्कूल, स्कूल में पेरैंट टीचर मीटिंग, घर की छोटीबड़ी जिम्मेदारियां, कभी उदय बीमार तो कभी कोई और परेशानी. आई और शांतनु का सहारा न होता तो बहुत मुश्किल होती.

शांतनु का नाम याद आते ही मन में सवाल उठा, ‘पता नहीं उन्होंने अब तक शादी क्यों नहीं की? हो सकता है प्रेम में चोट खाई हो. आई से पूछूंगी.’

जया उठ कर अपने कमरे में चली आई पर उस का सोचना बंद नहीं हुआ. ‘मैं शांतनु पर कितनी निर्भर हो गई हूं, अनायास ही, बिना सोचेसमझे. वे भी आगे बढ़ सब संभाल लेते हैं. पिछले कुछ समय से उन के व्यवहार में हलकी सी मुलायमियत महसूस करने लगी हूं. ऐसा लगता है जैसे कोई मेरे जख्मों पर मरहम लगा रहा है. उदय का तो कोई काम अंकल के बिना पूरा नहीं होता. क्यों कर रहे हैं वे इतना सब?’

शाम को जया बगीचे में पानी दे रही थी. उदय साथसाथ सूखे पत्ते, सूखी घास निकालता जाता. अचानक वह जया की ओर देखने लगा.

‘‘ऐसे क्या देख रहा है? मेरे सिर पर क्या सींग उग आए हैं?’’

उदय उत्तेजित सा उठ कर खड़ा हो गया, ‘‘मम्मी, मुझे पापा चाहिए.’’

जया स्तब्ध रह गई.

उस के कुछ कहने से पहले ही उदय कह उठा, ‘‘अब मैं शांतनु अंकल को अंकल नहीं पापा कहूंगा,’’ और फिर वह घर के भीतर चला गया.

उस रात जया सो नहीं पाई. उदय के मन में आम बच्चों की तरह पापा की कमी कितनी खटक रही है, क्या वह जानती नहीं. जब सूरज को खोया था उदय छोटा था, तो भी जो छवि उस के नन्हे से दिल पर अंकित थी, वह प्यार करने, हर बात का ध्यान रखने वाले पुरुष की थी. उस की बढ़ती उम्र की हर जरूरत का ध्यान शांतनु रख रहे थे. उन की भी वैसी ही छवि उदय के मन में घर करती जा रही थी.

आई और शांतनु भी यही चाहते हैं.

इशारों में अपनी बात कई बार कह चुके हैं. वही कोई फैसला करने से बचती रही है.

क्या करूं? नई जिंदगी शुरू करना गलत तो नहीं. शांतनु एक अच्छे व सुलझे इंसान हैं.

उदय को बेहद चाहते हैं. आई और शांतनु दोनों मेरा अतीत जानते हैं. शादी के बाद जब यहां आई थी, तब से जानते हैं. अभी दोनों परिवार बिखरे, अधूरेअधूरे से हैं. मिल जाएं तो पूर्ण हो जाएंगे.

वसंतपंचमी के दिन आई ने जया व उदय को खाने पर बुलाया. उदय जल्दी मचा कर शाम को ही जया को ले वहां पहुंच गया. जया ने सोचा, जल्दी पहुंच मैं आई का हाथ बंटा दूंगी.

आई सब काम पहले से ही निबटा चुकी थीं. दोनों महिलाएं बाहर बरामदे में आ बैठीं. सामने लौन में उदय व शांतनु बैडमिंटन खेल रहे थे. खेल खत्म हुआ तो उदय भागता

बरामदे में चला आया और आते ही बोला,

‘‘मैं अंकल को पापा कह सकता हूं? बोलो

न मम्मी, प्लीज?’’

जया शर्म से पानीपानी. उठ कर एकदम घर के भीतर चली आई. पीछेपीछे आई भी आ गईं. जया को अपने कमरे में ला बैठाया.

‘‘बिटिया, जो बात हम मां बेटा न कह सके, उदय ने कह दी. शांतनु तुम्हें बहुत

चाहता है. तुम्हारे सामने सारी जिंदगी पड़ी है. उदय को भी पिता की जरूरत है और मुझे भी तो बहू चाहिए,’’ आई ने जया के दोनों हाथ पकड़ लिए, ‘‘मना मत करना.’’

जया के सामने नया संसार बांहें पसारे खड़ा था. उस ने लजा कर सिर झुका लिया.

आई को जवाब मिल गया. उन्होंने अलमारी खोल सुनहरी साड़ी निकाल जया

को ओढ़ा दी और डब्बे में से कंगन निकाल पहना दिए.

जया मोम की गुडि़या सी बैठी थी.

उसी समय उदय अंदर आया. वहां का नजारा देख वह चकित रह गया.

आई ने कहा, ‘‘कौन, उदय है न? जा तो बेटा, अपने पापा को बुला ला.’’

‘‘पापा,’’ खुशी से चिल्लाता उदय बाहर भागा.

जया की आंखें लाज से उठ नहीं रही थीं. आई ने शांतनु से कहा, ‘‘मैं ने अपने

लिए बहू ढूंढ़ ली है. ले, बहू को अंगूठी पहना दे.’’

शांतनु पलक झपकते सब समझ गया. यही तो वह चाह रहा था.

मां से अंगूठी ले उस ने जया की कांपती उंगली में पहना दी.

‘‘पापा, अब आप मेरे पापा हैं. मैं आप को पापा कहूंगा,’’ कहता उदय लपक कर शांतनु के सीने से जा लगा.

सफर कुछ थम सा गया- भाग 1 : क्या जया के पतझड़ रूपी जीवन में फिर बहारें आ पाईं

हाथों में पत्रों का पुलिंदा पकड़े बाबूजी बरामदे के एक छोर पर बिछे तख्त पर जा बैठे. यह उन की प्रिय जगह थी.

पास ही मोंढ़े पर बैठी मां बाबूजी के कुरतों के टूटे बटन टांक रही थीं. अभीअभी धोबी कपड़े दे कर गया था. ‘‘मुआ हर धुलाई में बटन तोड़ लाता है,’’ वे बुदबुदाईं.

फिर बाबूजी को पत्र पढ़ते देखा, तो आंखें कुरते पर टिकाए ही पूछ लिया, ‘‘बहुत चिट्ठियां आई हैं. कोई खास बात…?’’

एक चिट्ठी पढ़तेपढ़ते बाबूजी का चेहरा खिल उठा, ‘‘सुनती हो, लड़के वालों ने हां कर दी. उन्हें जया बहुत पसंद है.’’

मां बिजली की गति से हाथ का काम तिपाई पर पटक तख्त पर आ बैठीं, ‘‘फिर से तो कहो. नहीं, ऐसे नहीं, पूरा पढ़ कर सुनाओ.’’

पल भर में पूरे घर में खबर फैल गई कि लड़के वालों ने हां कर दी. जया दीदी की शादी होगी…

‘‘ओ जया, वहां क्यों छिपी खड़ी है? यहां आ,’’ भाईबहनों ने जया को घेर लिया.

मांबाबूजी की भरीपूरी गृहस्थी थी.

5 बेटियां, 3 बेटे. इन के अलावा उन के चचेरे, मौसेरे, फुफेरे भाईबहनों में से कोई न कोई आता ही रहता. यहां रह कर पढ़ने के लिए

2-3 बच्चे हमेशा रहते. बाबूजी की पुश्तैनी जमींदारी थी पर वे पढ़लिख कर नौकरी में लग गए थे. अंगरेजों के जमाने की अच्छी सरकारी नौकरी. इस से उन का समाज में रुतबा खुदबखुद बढ़ गया था. फिर अंगरेज चले गए पर सरकारी नौकरी तो थी और नौकरी की शान भी.

मांबाबूजी खुले विचारों के और बच्चों को ऊंची शिक्षा दिलाने के पक्ष में थे. बड़े बेटे और 2 बेटियों का तो विवाह हो चुका था. जया की एम.ए. की परीक्षा खत्म होते ही लड़के वाले देखने आ गए. सूरज फौज में कैप्टन पद पर डाक्टर था. ये वे दिन थे, जब विवाह के लिए वरदी वाले लड़कों की मांग सब से ज्यादा थी. कैप्टन सूरज, लंबा, स्मार्ट, प्रभावशाली व्यक्तित्व वाला था.

शादी से 2 महीने पहले ही घर में उस की तैयारियां जोरशोर से होने लगीं. मां ने दोनों ब्याही बेटियों को महीना भर पहले बुला लिया. बेटाबहू तो यहां थे ही. घर में रौनक बढ़ गई. 15 दिन पहले ढोलक रख दी गई. तब तक छोटी मामी, एक चाची, ताई की बड़ी बहू आ चुकी थीं. रात को खानापीना निबटते ही महल्ले की महिलाएं आ जुटतीं. ढोलक की थाप, गूंजती स्वरलहरियां, घुंघरुओं की छमछम, रात 1-2 बजे तक गानाबजाना, हंसीठिठोली चलती.

सप्ताह भर पहले सब मेहमान आ गए. बाबूजी ने बच्चों के लीडर छोटे भाई के बेटे विशाल को बुला कर कहा, ‘‘सड़क से हवेली तक पहुंचने का रास्ता, हवेली और मंडप सजाने का जिम्मा तुम्हारा. क्रेप पेपर, चमकीला पेपर, गोंद वगैरह सब चीजें बाजार से ले आओ. बच्चों को साथ ले लो. बस, काम ऐसा करो कि देखने वाले देखते रह जाएं.’’

विशाल ने सब बच्चों को इकट्ठा किया. निचले तल्ले का एक कमरा वर्कशौप बना. कोई कागज काटता, कोई गोंद लगाता, तो कोई सुतली पर चिपकाता. विवाह के 2 दिन पहले सारी हवेली झिलमिला उठी.

‘‘मां, हम तो वरमाला कराएंगे,’’ दोनों बड़ी बेटियों ने मां को घेर लिया.

‘‘बेटी, यह कोई नया रिवाज है क्या? हमारे घर में आज तक नहीं हुआ. तुम दोनों के वक्त कहां हुआ था?’’

‘‘अब तो सब बड़े घरों में इस का

चलन हो गया है. इस में बुराई क्या है?

रौनक बढ़ जाती है. हम तो कराएंगे,’’ बड़ी बेटी ने कहा.

फिर मां ने बेटियों की बात मान ली तो जयमाला की रस्म हुई, जिसे सब ने खूब ऐंजौय किया.

सूरज की पोस्टिंग पुणे में थी. छुट्टियां खत्म होने पर वह जया को ले कर पुणे आ गया. स्टेशन पर सूरज का एक दोस्त जीप ले कर हाजिर था. औफिसर्स कालोनी के गेट के अंदर एक सिपाही ने जीप को रोकने का इशारा किया. रुकने पर उस ने सैल्यूट कर के सूरज से कहा, ‘‘सर, साहब ने आप को याद किया है. घर जाने से पहले उन से मिल लें.’’

सूरज ने सवालिया नजर से दोस्त की तरफ देखा और बोला, ‘‘जया…?’’

सहचारिणी

सहचारिणी – भाग 2 : क्या सुरुचि अपने मकसद को पाने में कामयाब हो पाई

तुम्हारे साथ तुम्हारे घर जा कर ही मुझे पता चला कि तुम दफ्तर जा कर कलम घिसने वाले व्यक्ति नहीं, बल्कि फैशन डिजाइनिंग क्षेत्र के बहुत बड़ी हस्ती हो. तुम्हारा आलीशान मकान तो किसी फिल्म के सैट से कम नहीं था. नौकरचाकर, ऐशोआराम की कमी नहीं थी. मैं तो जैसे सातवें आसमान में पहुंच गई थी. फिर भी मेरे दिमाग में वही संदेह. इतने बड़े आदमी हो कर तुम ने मुझे क्यों चुना?

मेरी जिंदगी में कई अविस्मरणीय घटनाएं घटीं. अलौकिक आनंद के पल भी आए. जब भी तुम्हें कोई सफलता मिलती तुम मुझे अपनी बांहों में भर लेते और सीने से लगा लेते. उस स्पर्श की सुकोमलता तथा तुम्हारी आंखों में लहराता प्यार का सागर और तुम्हारे नम होंठों की नरमी को मैं कैसे भूल सकती हूं? ऐसे मधुर क्षणों में मुझे अपने पर गर्व होता. पर दूसरे ही पल मन में यह शंका शूल सी चुभती कि क्या मैं इस सुख के काबिल हूं? तुम मुझ पर इतने मेहरबान क्यों? जब कभी मैं ने अपने इन विचारों को तुम्हारे सामने प्रकट किया, तुम्हारे होंठों पर वही निश्छल हंसी आ जाती जिस ने मुझे मंत्रमुग्ध कर दिया था. फिर मैं सब कुछ भूल कर तुम्हारे प्यार में खो जाती.

मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए तुम कहते, ‘‘तुम नहीं जानतीं कि तुम क्या हो. अब रही सुंदरता की बात, तो मुझे रैंप पर कैटवाक करती विश्व सुंदरी नहीं चाहिए. मुझे जो सुंदरता चाहिए वह तुम में है.’’

‘‘एक बात कहूं, तुम ने मुझे अपना कर मुझे वह सम्मान दिया है, जो किसी को विरले ही मिलता है. मगर एक प्रश्न है मेरा…’’

‘‘हां मुझे मालूम है. अब तुम यह पूछोगी न कि तुम तो दावा करते हो कि मैं तुम्हें पहली ही नजर में भा गई. मगर पहली ही नजर में तुम्हें मेरे बारे में सब कुछ कैसे पता चला? यही है न तुम्हारा प्रश्न?’’ तुम ने मेरी आंखों में झांकते हुए शरारत भरी हंसी के साथ कहा तो मुझे मानना ही पड़ा कि तुम सुंदरता ही नहीं लोगों के दिलों के भी पारखी हो.

तुम ने मुझे अपनी बांहों में भरते हुए कहा, ‘‘तो सुनो. तुम ने यह प्रश्न कई बार मुझ से कहे अनकहे शब्दों में पूछा. मगर हर बार मैं हंस कर टाल गया. आज जैसा मैं तुम्हें दिख रहा हूं मूलतया मैं वैसा नहीं हूं. मुझे डर था कि कहीं एक अनाथ जान कर तुम मुझ से दूर न हो जाओ. मैं ने जब से होश संभाला अपनेआप को एक अनाथाश्रम में पाया. सभी अनाथाश्रम फिल्मों या कहानियों जैसे नहीं होते. इस अनाथाश्रम की स्थापना एक ऐसे दंपती ने की थी जिन्हें ढलती उम्र में एक पुत्र पैदा हुआ था और वह बेशुमार दौलत और ऐशोआराम पा कर बुरी संगत में पड़ गया था. वह जिस तरह दोनों हाथों से रुपया लुटाता था और ऐश करता था, उसी तरह उसे दोनों हाथों से ढेरों बीमारियां भी बटोरनी पड़ीं. शादीब्याह कर अपना घर बसाने की उम्र में वह इन का घर उजाड़ कर चल बसा.

‘‘वे कुछ समय तक तो इस झटके को सह नहीं पाए और गहरे अवसाद में चले गए. पर अचानक एक दिन उन के घर के आंगन में मैं उन्हें मिल गया तो मेरी देखभाल करते हुए उन्हें जैसे अचानक यह बोध हुआ कि इस दुनिया में ऐसे कई बच्चे हैं, जो मातापिता के प्यार और सही मार्गदर्शन के अभाव में या तो सड़कों पर भीख मांगते हैं या गलत राह पर चल पड़ते हैं. उन्होंने निश्चय किया कि उन के पास जो अपार धनदौलत है उस का सदुपयोग होना चाहिए.

‘‘फिर उन्होंने एक ऐसे आदर्श अनाथाश्रम की स्थापना की जहां मुझ जैसे अनाथ बच्चों को घर की शीतल छाया ही नहीं, मांबाप का प्यार भी मिलता है.

‘‘मैं ने डै्रस डिजाइनिंग में स्नातकोत्तर परीक्षा पास की. उस के बाद एक दोस्त के आग्रह पर उस के काम से जुड़ गया. दोस्त पैसा लगाता है और मैं उस के व्यापार को कार्यान्वित करता हूं. तुम तो जानती ही हो कि इस क्षेत्र में कितनी होड़ लगी रहती है. इस के लिए पैसे तो चाहिए ही. पर पैसों से ज्यादा अहमियत है एक क्रिएटिव माइंड की और मेरे मित्र को इस के लिए मुझ पर भरोसा ही नहीं गर्व भी है. और मेरी इस खूबी का खादपानी यानी जान तुम ही हो,’’ तुम ने मेरी नाक को पकड़ कर झिंझोड़ते हुए कहा तो मुझे अपने आप पर गर्व ही नहीं हुआ मानसिक शांति भी मिली. तुम ने आगे कहना जारी रखा, ‘‘मगर तुम्हारे अंदर एक बहुत बड़ा अवगुण है, जो मुझे बहुत खटकता है.’’

‘‘क्या?’’ मेरा गला सूख गया.

‘‘आत्मविश्वास की कमी. तुम जो हो, अपनेआप को उस से कम समझती हो. मैं ने लाख कोशिश की पर तुम मन के इस भाव से उबर नहीं पा रही हो.’’

यह सब सुन कर मैं अपनेआप पर इतराने लगी थी. मुझे लग रहा था कि मैं दुनिया की ऐसी खुशकिस्मत पत्नी हूं जिस का पति उसे बहुत प्यार करता है और मानसम्मान देता है. मैं और भी लगन से तुम्हारे प्रति समर्पित हो गई.

तुम रातरात भर जागते तो मैं भी तुम्हारे रंगीन कल्पनालोक में तुम्हारे साथसाथ विचरण करती. तुम जब अपने सपनों को स्कैचेज के रूप में कागज पर रखते तो मुझे दिखाते और मेरे सुझाव मांगते तो मुझे बहुत खुशी होती और मैं अपनी बुद्धि को पैनी बनाते हुए सुझाव भी देती.

 

सहचारिणी – भाग 3 : क्या सुरुचि अपने मकसद को पाने में कामयाब हो पाई

लेकिन जैसा हर कलाकार होता है, तुम भी बड़े संवेदनशील हो. अपनी छोटी सी असफलता भी तुम से बरदाश्त नहीं होती. तुम्हारी आंखों की उदासी मुझ से देखी नहीं जाती. मैं जी जान से तुम्हें खुश करने की कोशिश करती और तुम सचमुच छोटे बच्चे की तरह मेरे आगोश में आ कर अपना हर गम भूल जाते. फिर नए उत्साह और जोश के साथ नए सिरे से उस काम को करते और सफलता प्राप्त कर के ही दम लेते. तब मुझे बड़ी खुशी होती और गर्व होता अपनेआप पर. धीरेधीरे मेरा यह गर्व घमंड में बदलने लगा. मुझे पता ही नहीं चला कि कब और कैसे मैं एक अभिमानी और सिरफिरी नारी बनती गई.

मुझे लगने लगा था कि ये सारी औरतें, जो धनदौलत, रूपयौवन आदि सब कुछ रखती हैं. वे सब मेरे सामने तुच्छ हैं. उन्हें अपने पतियों का प्यार पाना या उन्हें अपने वश में रखना आता ही नहीं है. मेरा यह घमंड मेरे हावभाव और बातचीत में भी छलकने लगा था. जो लोग मुझ से बड़े प्यार और अपनेपन से मिलते थे, वे अब औपचारिकता निभाने लगे थे. उन की बातचीत में शुष्कता और बनावटीपन साफ दिखता था. मुझे गुस्सा आता. मुझे लगता कि ये औरतें जलती हैं मुझ से. खुद तो नाकाम हैं पति का प्यार पाने में और मेरी सफलता इन्हें चुभती है. इन के धनदौलत और रूपयौवन का क्या फायदा?

उसी समय हमारी जिंदगी में अनुराग आ गया, हमारे प्यार की निशानी. तब जिंदगी में जैसे एक संपूर्णता आ गई. मैं बहुत खुश तो थी पर दिल के किसी एक कोने में एक बात चुभ रही थी. कहीं प्रसव के बाद मेरा शरीर बेडौल हो गया तो? मैं सुंदरी तो नहीं थी पर मुझ में जो थोड़ाबहुत आकर्षण है, वह भी खो गया तो? पता नहीं कहां से एक असुरक्षा की भावना मेरे मन में कुलबुलाने लगी. एक बार शक या डर का बीज मन में पड़ जाता है तो वह महावृक्ष बन कर मानता है. मेरे मन में बारबार यह विचार आता कि तुम्हारा वास्ता तो सुंदरसुंदर लड़कियों से पड़ता है. तुम रोज नएनए लोगों से मिलते हो. कहीं तुम मुझ से ऊब कर दूर न हो जाओ. मैं तुम्हारे बिना अपने बारे में कुछ सोच भी नहीं सकती थी.

अब मैं तुम्हारी हर हरकत पर नजर रखने लगी. तुम कहांकहां जाते हो, किसकिस से मिलते हो, क्याक्या करते हो… यानी तुम्हारी छोटी से छोटी बात मुझे पता होती थी. इस के लिए मुझे कई पापड़ बेलने पड़े, क्योंकि यह काम इतना आसान नहीं था.

अब मैं दिनरात अपनेआप में कुढ़ती रहती. जब भी सुंदर और कामयाब स्त्रियां तुम्हारे आसपास होतीं, तो मैं ईर्ष्या की आग में जलती. तब कोई न कोई कड़वी बात मेरे मुंह से निकलती, जो सारे माहौल को खराब कर देती.

यहां तक कि घर में भी छिटपुट वादविवाद और चिड़चिड़ापन वातावरण को गरमा देता. मेरे अंदर जलती आग की आंच तुम तक पहुंच तो गई पर तुम नहीं समझ पाए कि इस का असली कारण क्या था. तुम्हारी भलमानसी को मैं क्या कहूं कि तुम अपनी तरफ से घर में शांति बनाए रखने की पूरी कोशिश करते रहे. तुम समझते रहे कि घर में छोटे बच्चे का आना ही मेरे चिड़चिड़ेपन का कारण है. उसे मैं संभाल नहीं पा रही हूं. उस की देखभाल की अतिरिक्त जिम्मेदारी के कारण मैं थक जाती हूं, इसीलिए मेरा व्यवहार इतना रूखा और चिड़चिड़ा हो गया है. तुम्हें अपने पर ग्लानि होने लगी कि तुम मुझे और बच्चे को इतना समय नहीं दे पा रहे हो, जितना देना चाहिए.

आज तुम्हारे सामने एक बात स्वीकारने में मुझे कोई शर्मिंदगी नहीं होगी. भले ही मेरी नादानी पर तुम जी खोल कर हंस लो या नाराज हो जाओ. अगर तुम नाराज भी हो गए तो मैं तुम से क्षमा मांग कर तुम्हें मना लूंगी. मैं जानती हूं कि तुम मुझ से ज्यादा देर तक नाराज नहीं रह सकते. सच कहूं? मेरी आंखें खोलने का सारा श्रेय मेरी सहेली सुरुचि को जाता है. जानते हो कल क्या हुआ था? मुझे अचानक तेज सिरदर्द हो गया था. लेकिन वास्तव में मुझे कोई सिरदर्द विरदर्द नहीं था. मैं अंदर ही अंदर जलन की ज्वाला में जल रही थी. यह बीमारी तो मुझे कई दिनों से हो गई थी जिस का तुम्हें आभास तक नहीं है. हो भी कैसे? तुम्हें उलटासीधा सोचना जो आता नहीं है. मगर सुरुचि को बहुत पहले ही अंदाजा हो गया था.

कल शाम मुझे अकेली माथे पर बल डाले बैठी देख वह मेरे पास आ कर बैठते हुए बोली, ‘‘मैं जानती हूं कि तुम यहां अकेली बैठ कर क्या कर रही हो. मैं कई दिनों से तुम से कहना चाह रही थी मगर मैं जानती हूं कि तुम बहुत संवेदनशील हो और दूसरी बात मुझे आशा थी कि तुम समझदार हो और अपने परिवार का बुराभला देरसवेर स्वयं समझ जाओगी. मगर अब मुझ से तुम्हारी हालत देखी नहीं जाती. तुम जो कुछ भी कर रही हो न वह बिलकुल गलत है. अपने मन को वश में रखना सीखो. लोगों को सही पहचानना सीखो. तुम्हारा सारा ध्यान अपने पति के इर्दगिर्द घूमती चकाचौंध कर देने वाली लड़कियों पर है. उन की भड़कीली चमक के कारण तुम्हें अपने पति का असली रूप भी नजर नहीं आ रहा है. अरे एक बार स्वच्छ मन से उन की आंखों में झांक कर देखो, वहां तुम्हारे लिए हिलोरें लेता प्यार नजर आएगा.

‘‘तुम पुरु भाईसाहब को तो जानती ही हो. वे इतने रंगीन मिजाज हैं कि रंगरेलियों का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते. वही क्यों? इस ग्लैमर की दुनिया में ऐसे बहुत सारे लोग हैं. ऐसे माहौल में तुम्हारे पति ऐसे लोगों से बिलकुल अलग हैं. पुरु भाई साहब की बीवी, बेचारी मीना कितनी दुखी होगी अपने पति के इस रंगीन मिजाज को ले कर. सब के बीच कितनी अपमानित महसूस करती होगी. किस से कहे वह अपना दुख? तुम जानती नहीं हो कि कितने लोग तुम्हारी जिंदगी से जलते हैं.

‘‘पुरु भाईसाहब जैसे लोग जब उन्हें गलत कामों के लिए उकसाते हैं. तब जानती हो वे क्या कहते हैं? देखो, घर के स्वादिष्ठ भोजन को छोड़ कर मैं सड़क की जूठी पत्तलों पर मुंह मारना पसंद नहीं करता. मेरी पत्नी मेरी सर्वस्व है. वह अपना सब कुछ छोड़छाड़ कर मेरे साथ आई है और अपना सर्वस्व मुझ पर निछावर करती है. उस की खुशी मेरी खुशी में है. वह मेरे दुख से दुखी हो कर आंसू बहाती है. ऐसी पत्नी को मैं धोखा नहीं दे सकता. वह मेरी प्रेरणा है. मेरी और मेरे परिवार की खुशहाली उसी के हाथों में है.’’

फिर सुरुचि ने मुझे डांटते हुए कहा ‘‘तुम्हें तो ऐसे पति को पा कर निहाल हो जाना चाहिए और अपनेआप को धन्य समझना चाहिए.’’

उस की इन बातों से मुझे अपनेआप पर ग्लानि हुई. उस के गले लग कर मैं इतनी रोई कि मेरे मन का सारा मैल धुल गया और मुझे असीम शांति मिली. मुझे ऐसा लगा जैसे धूप में भटकते राही को ठंडी छांव मिल गई. मैं तुम से माफी मांगना चाहती हूं और तुम्हारे सामने समर्पण करना चाहती हूं. अब ये तुम्हारे हाथ में है कि तुम अपनी इस भटकी हुई पुजारिन को अपनाते हो या ठुकरा देते हो.

सहचारिणी – भाग 1: क्या सुरुचि उस परदे को हटाने में कामयाब हो पाई

आज का दिन मेरी जिंदगी का सब से खास दिन है. मेरा एक लंबा इंतजार समाप्त हुआ. तुम मेरी जिंदगी में आए. या यों कहूं कि तुम्हारी जिंदगी में मैं आ गई. तुम्हारी नजर जैसे ही मुझ पर पड़ी, मेरा मन पुलकित हो उठा. लेकिन मुझे डर लगा कि कहीं तुम मेरा तिरस्कार न कर दो, क्योंकि पहले भी कई बार ऐसा हो चुका है. लोग आते, मुझे देखते, नाकभौं सिकोड़ते और बिना कुछ कहे चले जाते. मैं लोगों से तिरस्कृत हो कर अपमानित महसूस करती. जीवन के सीलन भरे अंधेरों में भटकतेभटकते कभी यहां टकराती कभी वहां. कभी यहां चोट लगती तो कभी वहां. चोट खातेखाते हृदय क्षतविक्षत हो गया था. दम घुटने लगा था मेरा. जीने की चाह ही नहीं रह गई थी. मैं ऐसी जिंदगी से छुटकारा पाना चाहती थी. धीरेधीरे मेरा आत्मविश्वास खोता जा रहा था.

वैसे मुझ में आत्मविश्वास था ही कहां? वह तो मेरी मां के जाने पर उन के साथ चला गया था. वे बहुत प्यार करती थीं मुझे. उन की मीठी आवाज में लोरी सुने बिना मुझे नींद नहीं आती थी. मैं परी थी, राजकुमारी थी उन के लिए. पता नहीं वे मुझ जैसी साधारण रूपरंग वाली सामान्य सी लड़की में कहां से खूबियां ढूंढ़ लेती थीं.

मगर मेरे पास यह सुख बहुत कम समय रहा. मैं जब 5 वर्ष की थी, मेरी मां मुझे छोड़ कर इस दुनिया से चली गईं. फिर अगले बरस ही घर में मेरी छोटी मां आ गईं. उन्हें पा कर मैं बहुत खुश हो गई थी कि चलो मुझे फिर से मां मिल गईं.

वे बहुत सुंदर थीं. शायद इसी सुंदरता के वश में आ गए थे मेरे बाबूजी. मगर सुंदरता में बसा था विकराल स्वभाव. अपनी शादी के दौरान पूरे समय छोटी मां मुझे अपने साथ चिपकाए रहीं तो मैं बहुत खुश हो गई थी कि छोटी मां भी मुझे मेरी अपनी मां की तरह प्यार करेंगी. लेकिन धीरेधीरे असलियत सामने आई. बरस की छोटी सी उम्र में ही मेरे दिल ने मुझे चेता दिया कि खबरदार खतरा. मगर यह खतरा क्या था, यह मेरी समझ में नहीं आया.

सब के सामने तो छोटी मां दिखाती थीं कि वे मुझे बहुत प्यार करती हैं. मुझे अच्छे कपड़े और वे सारी चीजें मिलती थीं, जो हर छोटे बच्चे को मिलती हैं. पर केवल लोगों को दिखाने के लिए. यह कोई नहीं समझ पा रहा था कि मैं प्यार के लिए तरस रही हूं और छोटी मां के दोगले व्यवहार से सहमी हुई हूं.

सुंदर दिखने वाली छोटी मां जब दिल दहलाने वाली बातें कहतीं तो मैं कांप जाती. वे दूसरों के सामने तो शहद में घुली बातें करतीं पर अकेले में उतनी ही कड़वाहट होती थी उन की बातों में. उन की हर बात में यही बात दोहराई जाती थी कि मैं इतनी बदनसीब हूं कि बचपन में ही मां को खा गई. और मैं इतनी बदसूरत हूं कि किसी को भी अच्छी नहीं लग सकती.

उस समय उन की बात और कुटिल मुसकान का मुझे अर्थ समझ में नहीं आता था. मगर जैसेजैसे मैं बड़ी होती गई वैसेवैसे मुझे समझ में आने लगा. मगर मेरा दुख बांटने वाला कोई न था. मैं किस से कहूं और क्या कहूं? मेरे पिता भी अब मेरे नहीं रह गए थे. वे पहले भी मुझ से बहुत जुड़े हुए नहीं थे पर अब तो उन से जैसे नाता ही टूट गया था.

मैं जब युवा हुई तो मैं ने देखा कि दुनिया बड़ी रंगीन है. चारों तरफ सुंदरता है, खुशियां हैं, आजादी है और मौजमस्ती है. पर मेरे लिए कुछ भी नहीं था. मैं लड़कों से दूर रहती. अड़ोसपड़ोस के लोग घर में आते तो मुझ से नौकरानी सा व्यवहार करते. मेरी हंसी उड़ाते. अब आगे मैं कुछ न कहूंगी. कहने के लिए है ही क्या? मैं पूरी तरह अंतर्मुखी, डरपोक और कायर बन चुकी थी.

लेकिन कहते हैं न हर अंधेरी रात की एक सुनहरी सुबह होती है. सुनहरी सुबह मेरी जिंदगी में भी तब आई जब तुम बहार बन कर मेरी वीरान जिंदगी में आए.

तुम्हारी वह नजर… मैं कैसे भूल जाऊं उसे. मुझे देखते ही तुम्हारी आंखों में जो चमक आ गई थी वह जैसे मुझे एक नई जिंदगी दे गई. याद है मुझे वह दिन जब तुम किसी काम से मेरे घर आए थे. काम तुरंत पूरा न होने के कारण तुम्हें अगले दिन भी हमारे घर रुक जाना पड़ा था.

उन 2 दिनों में जब कभी हमारी नजरें टकरा जातीं या पानी या चाय देते समय जरा भी उंगलियां छू जातीं तो मेरा तनमन रोमांचित हो उठता. मेरी जिंदगी में उत्साह की नई लहर दौड़ गई थी.

फिर सब कुछ बहुत जल्दीजल्दी घट गया और तुम हमेशा के लिए मेरी जिंदगी में आ गए. एक लंबी तपस्या जैसे सफल हो गई. छोटी मां ने अनजाने में ही मुझ पर बहुत बड़ा उपकार कर दिया. उन्हें लगा होगा बिना दहेज के इतना अच्छा रिश्ता मिल रहा है और यह अनचाही बला जितनी जल्दी घर से निकल जाए उतना अच्छा.

 

 

कामिनी आंटी: आखिर क्या थी विभा के पति की सच्चाई

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कामिनी आंटी- भाग 2: आखिर क्या थी विभा के पति की सच्चाई

क्या ऐसा भी होता है. ऐसा कैसे हो सकता है? एक लड़के का यौन शोषण आदि तमाम बातें उस की समझ के परे थीं. उस का मन मानने को तैयार नहीं था कि एक हट्टाकट्टा नौजवान भी कभी यौन शोषण का शिकार हो सकता है. पर यह एक हकीकत थी जिसे झुठलाया नहीं जा सकता था. अत: अपने मन को कड़ा कर वह पिछली सभी बातों पर गौर करने लगी. पूरा समय मजाकमस्ती के मूड में रहने वाले मयंक का रात के समय बैड पर कुछ अनमना और असहज हो जाना, इधर स्त्रीसुलभ लाज के चलते विभा का उस की प्यार की पहल का इंतजार करना, मयंक की ओर से शुरुआत न होते देख कई बार खुद ही अपने प्यार का इजहार कर मयंक को रिझाने की कोशिश करना, लेकिन फिर भी मयंक में शारीरिक सुख के लिए कोई उत्कंठा या भूख नजर न आना इत्यादि कई ऐसी बातें थीं, जो उस वक्त विभा को विस्मय में डाल देती थीं. खैर, बात कुछ भी हो, आज एक वीभत्स सचाई विभा के सामने परोसी जा चुकी थी और उसे अपनी हलक से नीचे उतारना ही था.

हलकेफुलके माहौल में रात का डिनर निबटाने के बाद विभा ने बिस्तर पर जाते ही मयंक को मस्ती के मूड में छेड़ा, ‘‘तुम्हें मुझ पर जरा भी विश्वास नहीं है न?’’ ‘‘नहीं तो, ऐसा बिलकुल नहीं है. अब तुम्हीं तो मेरे जीने की वजह हो. तुम्हारे बगैर जीने की तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकता,’’ मयंक ने घबराते हुए कहा.

‘‘अच्छा, अगर ऐसा है तो तुम ने अपनी जिंदगी की सब से बड़ी सचाई मुझ से क्यों छिपाई?’’ विभा ने प्यार से उस की आंखों में देखते हुए कहा. ‘‘मैं तुम्हें सब कुछ बताना चाहता था, लेकिन मुझे डर था कहीं तुम मुझे ही गलत न समझ बैठो. मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं विभा और किसी भी कीमत पर तुम्हें खोना नहीं चाहता था, इसीलिए…’’ कह कर मयंक चुप हो गया.

फिर कुछ देर की गहरी खामोशी के बाद अपनी चुप्पी तोड़ते हुए मयंक बताने लगा. ‘‘मैं टैंथ में पढ़ने वाला 18 वर्षीय किशोर था, जब कामिनी आंटी से मेरी पहली मुलाकात हुई. उस दिन हम सभी दोस्त क्रिकेट खेल रहे थे. अचानक हमारी बौल पार्क की बैंच पर अकेली बैठी कामिनी आंटी को जा लगी. अगले ही पल बौल कामिनी आंटी के हाथों में थर. चूंकि मैं ही बैटिंग कर रहा था. अत: दोस्तों ने मुझे ही जा कर बौल लाने को कहा. मैं ने माफी मांगते हुए उन से बौल मांगी तो उन्होंने इट्स ओके कहते हुए वापस कर दी.’’

‘‘लगभग 30-35 की उम्र, दिखने में बेहद खूबसूरत व पढ़ीलिखी, सलीकेदार कामिनी आंटी से बातें कर मुझे बहुत अच्छा लगता था. फाइनल परीक्षा होने को थी. अत: मैं बहुत कम ही खेलने जा पाता था. कुछ दिनों बाद हमारी मुलाकात होने पर बातचीत के दौरान कामिनी आंटी ने मुझे पढ़ाने की पेशकश की, जिसे मैं ने सहर्ष स्वीकार लिया. चूंकि मेरे घर से कुछ ही दूरी पर उन का अपार्टमैंट था, इसलिए मम्मीपापा से भी मुझे उन के घर जा कर पढ़ाई करने की इजाजत मिल गई.’’ ‘‘फिजिक्स पर कामिनी आंटी की पकड़ बहुत मजबूत थी. कुछ लैसन जो मुझे बिलकुल नहीं आते थे, उन्होंने मुझे अच्छी तरह समझा दिए. उन के घर में शांति का माहौल था. बच्चे थे नहीं और अंकल अधिकतर टूअर पर ही रहते थे. कुल मिला कर इतने बड़े घर में रहने वाली वे अकेली प्राणी थीं.

‘‘बस उन की कुछ बातें हमेशा मुझे खटकतीं जैसे पढ़ाते वक्त उन का मेरे कंधों को हौले से दबा देना, कभी उन के रेंगते हाथों की छुअन अपनी जांघों पर महसूस करना. ये सब करते वक्त वे बड़ी अजीब नजरों से मेरी आंखों में देखा करतीं. पर उस वक्त ये सब समझने के लिए मेरी उम्र बहुत छोटी थी. उन की ये बातें मुझे कुछ परेशान अवश्य करतीं लेकिन फिर पढ़ाई के बारे में सोच कर मैं वहां जाने का लोभ संवरण न कर पाता.’’ ‘‘मेरी परीक्षा से ठीक 1 दिन पहले पढ़ते वक्त उन्होंने मुझे एक गिलास जूस पीने को दिया और कहा कि इस से परीक्षा के वक्त मुझे ऐनर्जी मिलेगी. जूस पीने के कुछ देर बाद ही मुझे कुछ नशा सा होने लगा. मैं उठने को हुआ और लड़खड़ा गया. तुरंत उन्होंने मुझे संभाल लिया. उस के बाद क्या हुआ, मुझे कुछ याद न रहा.

2-3 घंटे बाद जब मेरी आंख खुली तो सिर में भारीपन था और मेरे कपड़े कुछ अव्यवस्थित. मैं बहुत घबरा गया. मुझे कुछ सही नहीं लग रहा था. कामिनी आंटी की संदिग्ध मुसकान मुझे विचलित कर रही थी. दूसरे दिन पेपर था. अत: दिमाग पर ज्यादा जोर न देते हुए मैं तुरंत घर लौट आया. ‘‘दूसरा पेपर मैथ का था. चूंकि फिजिक्स का पेपर हो चुका था, इसलिए कामिनी आंटी के घर जाने का कोई सवाल नहीं था. 2-3 दिन बाद कामिनी आंटी का फोन आया. आखिरी बार उन के घर में मुझे बहुत अजीब हालात का सामना करना पड़ा था. अत: मैं अब वहां जाने से कतरा रहा था. लेकिन मां के जोर देने पर कि चला जा बटा शायद वे कुछ इंपौर्टैंट बताना चाहती हों, न चाहते हुए भी मुझे वहां जाना पड़ा.

‘‘उन के घर पहुंचा तो दरवाजा अधखुला था. दरवाजे को ठेलते हुए मैं उन्हें पुकारता हुआ भीतर चला गया. हाल में मद्धिम रोशनी थी. सोफे पर लेटे हुए उन्होंने इशारे से मुझे अपने पास बुलाया. कुछ हिचकिचाहट में उन के समीप गया तो मुंह से आ रही शराब की तेज दुर्गंध ने मुझे पीछे हटने पर मजबूर कर दिया. मैं पीछे हट पाता उस से पहले ही उन्होंने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे सोफे पर अपने ऊपर खींच लिया. बिना कोई मौका दिए उन्होंने मुझ पर चुंबनों की बौछार शुरू कर दी. यह क्या कर रही हैं आप? छोडि़ए मुझे, कह कर मैं ने अपनी पूरी ताकत से उन्हें अपने से अलग किया और बाहर की ओर लपका.

‘‘रुको, उन की गरजती आवाज ने मानो मेरे पैर बांध दिए, ‘मेरे पास तुम्हें कुछ दिखाने को है,’ कुटिलता से उन्होंने मुसकराते हुए कहा. फिर उन के मोबाइल में मैं ने जो देखा वह मेरे होश उड़ाने के लिए काफी था. वह एक वीडियो था, जिस में मैं उन के ऊपर साफतौर पर चढ़ा दिखाई दे रहा था और उन की भंगिमाएं कुछ नानुकुर सी प्रतीत हो रही थीं. ‘‘उन्होंने मुझे साफसाफ धमकाते हुए कहा कि यदि मैं ने उन की बातें न मानीं तो वे इस वीडियो के आधार पर मेरे खिलाफ रेप का केस कर देंगी, मुझे व मेरे परिवार को कालोनी से बाहर निकलवा देंगी. मेरे पावों तले जमीन खिसक गई. फिर भी मैं ने अपना बचाव करते हुए कहा कि ये सब गलत है. मैं ने ऐसा कुछ नहीं किया है.

‘‘तब हंसते हुए वे बोलीं, तुम्हारी बात पर यकीन कौन करेगा? क्या तुमने देखा नहीं कि मैं ने किस तरह से इस वीडियो को शूट किया है. इस में साफसाफ मैं बचाव की मुद्रा में हूं और तुम मुझ से जबरदस्ती करते नजर आ रहे हो. मेरे हाथपांव फूल चुके थे. मैं उन की सभी बातें सिर झुका कर मानता चला गया. ‘‘जाते समय उन्होंने मुझे सख्त हिदायत दी कि जबजब मैं तुम्हें बुलाऊं चले आना. कोई नानुकुर नहीं चलेगी और भूल कर भी ये बातें कहीं शेयर न करूं वरना वे मेरी पूरी जिंदगी तबाह कर देंगी.

‘‘मैं उन के हाथों की कठपुतली बन चुका था. उन के हर बुलावे पर मुझे जाना होता था. अंतरंग संबंधों के दौरान भी वे मुझ से बहुत कू्ररतापूर्वक पेश आती थीं. उस समय किसी से यह बात कहने की मैं हिम्मत नहीं जुटा सका. एक तो अपनेआप पर शर्मिंदगी दूसरे मातापिता की बदनामी का डर, मैं बहुत ही मायूस हो चला था. मेरी पूरी पढ़ाई चौपट हो चली थी.

करीब साल भर तक मेरे साथ यही सब चलता रहा. एक बार कामिनी आंटी ने मुझे बुलाया और कहा कि आज आखिरी बार मैं उन्हें खुश कर दूं तो वे मुझे अपने शिकंजे से आजाद कर देंगी. बाद में पता चला कि अंकलजी का कहीं दूसरी जगह ट्रांसफर हो गया है.

कामिनी आंटी- भाग 1: आखिर क्या थी विभा के पति की सच्चाई

विभा को खिड़की पर उदास खड़ा देख मां से रहा नहीं गया. बोलीं, ‘‘क्या बात है बेटा, जब से घूम कर लौटी है परेशान सी दिखाई दे रही है? मयंक से झगड़ा हुआ है या कोई और बात है? कुछ तो बता?’’ ‘‘कुछ नहीं मां… बस ऐसे ही,’’ संक्षिप्त उत्तर दे विभा वाशरूम की ओर बढ़ गई.

‘‘7 दिन हो गए हैं तुझे यहां आए. क्या ससुराल वापस नहीं जाना? मालाजी फोन पर फोन किए जा रही हैं… क्या जवाब दूं उन्हें.’’ ‘‘तो क्या अब मैं चैन से इस घर में कुछ दिन भी नहीं रह सकती? अगर इतना ही बोझ लगती हूं तो बता दो, चली जाऊंगी यहां से,’’ कहते हुए विभा ने भड़ाक से दरवाजा बंद कर लिया.

‘‘अरे मेरी बात तो सुन,’’ बाहर खड़ी मां की आंखें आंसुओं से भीग गईं. अभी कुछ दिन पहले ही बड़ी धूमधाम से अपनी इकलौती लाडली बेटी विभा की शादी की थी. सब कुछ बहुत अच्छा था. सौफ्टवेयर इंजीनियर लड़का पहली बार में ही विभा और उस की पूरी फैमिली को पसंद आ गया था. मयंक की अच्छी जौब और छोटी फैमिली और वह भी उसी शहर में. यही देख कर उन्होंने आसानी से इस रिश्ते के लिए हां कर दी थी कि शादी के बाद बेटी को देखने उन की निगाहें नहीं तरसेंगी. लेकिन हाल ही में हनीमून मना कर लौटी बेटी के अजीबोगरीब व्यवहार ने उन की जान सांसत में डाल दी थी.

पत्नी के चेहरे पर पड़ी चिंता की लकीरों ने महेश चंद को भी उलझन में डाल दिया. कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि ‘‘हैलो आंटी, हैलो अंकल,’’ कहते हुए विभा की खास दोस्त दिव्या ने बैठक में प्रवेश किया. ‘‘अरे तुम कब आई बेटा?’’ पैर छूने के लिए झुकी दिव्या के सिर पर आशीर्वादस्वरूप हाथ फेरते हुए दिव्या की मां ने पूछा.

‘‘रात 8 बजे ही घर पहुंची थी आंटी. 4 दिन की छुट्टी मिली है. इसीलिए आज ही मिलने आ गई.’’

‘‘तुम्हारी जौब कैसी चल रही है?’’ महेश चंद के पूछने पर दिव्या ने हंसते हुए उन्हें अंगूठा दिखाया और आंटी की ओर मुखातिब हो कर बोली, ‘‘विभा कैसी है? बहुत दिनों से उस से बात नहीं हुई. मैं ने फोन फौर्मैट करवाया है, इसलिए कौल न कर सकी और उस का भी कोई फोन नहीं आया.’’ ‘‘तू पहले इधर आ, कुछ बात करनी है,’’ विभा की मां उसे सीधे किचन में ले गईं.

पूरी बात समझने के बाद दिव्या ने उन्हें आश्वस्त किया कि वह तुरंत विभा की परेशानी को समझ उन से साझा करेगी.

बैडरूम के दरवाजे पर दिव्या को देख विभा की खुशी का ठिकाना न रहा. दोनों 4 महीने बाद मिल रही थीं. अपनी किसी पारिवारिक उलझन के कारण दिव्या उस की शादी में भी सम्मिलित न हो सकी थी.

‘‘कैसी है मेरी जान, हमारे जीजू बहुत परेशान तो नहीं करते हैं?’’ बड़ी अदा से आंख मारते हुए दिव्या ने विभा को छेड़ा. ‘‘तू कैसी है? कब आई?’’ एक फीकी हंसी हंसते हुए विभा ने दिव्या से पूछा.

‘‘क्या हुआ है विभा, इज समथिंग रौंग देयर? देख मुझ से तू कुछ न छिपा. तेरी हंसी के पीछे एक गहरी अव्यक्त उदासी दिखाई दे रही है. मुझे बता, आखिर बात क्या है?’’ दिव्या उस की आंखों में देखते हुए बोली. अचानक विभा की पलकों के कोर गीले हो चले. फिर उस ने जो बताया वह वाकई चौंकाने वाला था.

विभा के अनुसार सुहागरात से ही फिजिकल रिलेशन के दौरान मयंक में वह एक झिझक सी महसूस कर रही थी, जो कतई स्वाभाविक नहीं लग रही थी. उन्होंने बहुत कोशिश की, रिलेशन से पहले फोरप्ले आदि भी किया, बावजूद इस के उन के बीच अभी तक सामान्य फिजिकल रिलेशन नहीं बन पाया और न ही वे चरमोत्कर्ष का आनंद ही उठा पाए. इस के चलते उन के रिश्ते में एक चिड़चिड़ापन व तनाव आ गया है. यों मयंक उस का बहुत ध्यान रखता और प्यार भी करता है. उस की समझ नहीं आ रहा कि वह क्या करे. मांपापा से यह सब कहने में शर्म आती है, वैसे भी वे यह सब जान कर परेशान ही होंगे.

विभा की पूरी बात सुन दिव्या ने सब से पहले उसे ससुराल लौट जाने के लिए कहा और धैर्य रखने की सलाह दी. अपना व्यवहार भी संतुलित रखने को कहा ताकि उस के मम्मीपापा को तसल्ली हो सके कि सब कुछ ठीक है. दिव्या की सलाह के अनुसार विभा ससुराल आ गई. इस बीच उस ने मयंक के साथ अपने रिश्ते को पूरी तरह से सामान्य बनाने की कोशिश भी की और भरोसा भी जताया कि मयंक की किसी भी परेशानी में वह उस के साथ खड़ी है. उस के इस सकारात्मक रवैए का तुरंत ही असर दिखने लगा. मयंक की झिझक धीरेधीरे खुलने लगी. लेकिन फिजिकल रिलेशन की समस्या अभी तक ज्यों की त्यों थी.

कुछ दिनों की समझाइश के बाद आखिरकार विभा ने मयंक को काउंसलर के पास चलने को राजी कर लिया. दिव्या के बताए पते पर दोनों क्लिनिक पहुंचे, जहां यौनरोग विशेषज्ञ डा. नमन खुराना ने उन से सैक्स के मद्देनजर कुछ सवाल किए. उन की परेशानी समझ डाक्टर ने विभा को कुछ देर बाहर बैठने के लिए कह कर मयंक से अकेले में कुछ बातें कीं. उन्हें 3 सिटिंग्स के लिए आने का सुझाव दे कर डा. नमन ने मयंक के लिए कुछ दवाएं भी लिखीं.

कुछ दिनों के अंतराल पर मयंक के साथ 3 सिटिंग्स पूरी होने के बाद डा. नमन ने विभा को फोन कर अपने क्लिनिक बुलाया और कहा, ‘‘विभाजी, आप के पति शारीरिक तौर पर बेहद फिट हैं. दरअसल वे इरैक्शन की समस्या से जूझ रहे हैं, जो एक मानसिक तनाव या कमजोरी के अलावा कुछ नहीं है. इसे पुरुषों के परफौर्मैंस प्रैशर से भी जोड़ कर देखा जाता है.

‘‘इस समय उन्हें आप के मानसिक संबल की बहुत आवश्यकता है. आप को थोड़ा मजबूत हो कर यह जानने की जरूरत है कि किशोरावस्था में आप के पति यौन शोषण का शिकार हुए हैं और कई बार हुए हैं. अपने से काफी बड़ी महिला के साथ रिलेशन बना कर उसे संतुष्ट करने में उन्हें शारीरिक तौर पर तो परेशानी झेलनी ही पड़ी, साथ ही उन्हें मानसिक स्तर पर भी बहुत जलील होना पड़ा है, जिस का कारण कहीं न कहीं वे स्वयं को भी मानते हैं. इसीलिए स्वेच्छा से आप के साथ संबंध बनाते वक्त भी वे उसी अपराधबोध का शिकार हो रहे हैं. चूंकि फिजिकल रिलेशन की सफलता आप की मानसिक स्थिति तय करती है, लिहाजा इस अपराधग्रंथि के चलते संबंध बनाते वक्त वे आप के प्रति पूरी ईमानदारी नहीं दिखा पाते, नतीजतन आप दोनों उस सुख से वंचित रह जाते हैं. अत: आप को अभी बेहद सजग हो कर उन्हें प्रेम से संभालने की जरूरत है.’’ विभा को काटो तो खून नहीं. अपने पति के बारे में हुए इस खुलासे से वह सन्न रह गई.

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