यही दस्तूर है : गरिमा के हरे जख्म

कालिज से लौट कर गरिमा ने जैसे ही अपने फ्लैट का दरवाजा खोला सामने के फ्लैट से रोहित निकल कर आ गए.

‘‘आप का पत्र कोरियर से आया है,’’ एक लिफाफा उस की तरफ बढ़ाते हुए रोहित ने कहा.

‘‘ओह…आइए न,’’ पत्र थाम कर गरिमा अंदर आ गई. रोहित भी अंदर आ गए.

‘‘पत्र विदेशी है. बेटे का ही होगा?’’ रोहित की बात पर गरिमा ने पलट कर उन्हें देखा. मानो कोई चुभती हुई बात उन के मुंह से निकल गई हो.

फिर वह खुद को संभालते हुए बोली, ‘‘आप बैठिए, मैं कौफी बनाती हूं.’’

‘‘पर खत तो पढ़ लीजिए.’’

‘‘कोई जल्दी नहीं है, पहले कौफी बना लूं.’’

रोहित को आश्चर्य नहीं हुआ यह देख कर कि बेटे का पत्र पढ़ने की उसे कोई जल्दी नहीं है. इतने दिन से गरिमा को देख रहे हैं. इतना तो जानते हैं कि यह विदेशी पत्र उसे विचलित कर गया है. कुछ तो है मांबेटे के बीच पर वह कभी पूछने का साहस नहीं कर पाए हैं.

गरिमा के बारे में सिर्र्फ इतना जानते हैं कि 30 वर्ष पूर्व गरिमा के पति नहीं रहे थे. तब वह मात्र 20 वर्ष की थी. समीर गोद में आ गया था. अपना पूरा यौवन उस ने बेटे को बड़ा करने में लगा दिया था. मांबाप ने एकाध जगह बात पक्की की पर बेटे के साथ उसे अपनाने वाला कोई उचित वर न मिला. भैयाभाभी उस से विशेष मतलब नहीं रखते. मां को अस्थमा का अकसर दौरा पड़ता था, इस के बावजूद वह समीर को अपने पास रखने को तैयार थीं. पर गरिमा ने खुद को बच्चे से अलग नहीं किया. मांपिताजी के पास रह कर उस ने बी.एड. किया और एक स्कूल में पढ़ाने लगी. 5 वर्ष पूर्व इस फ्लैट में आई है. बेटे को कभी आते नहीं देखा. बस, इतना पता है कि वह विदेश में है.

‘‘कौफी…’’ गरिमा की आवाज पर रोहित की तंद्रा टूटी. प्याला हाथ में ले कर गरिमा भी वहीं बैठ गई.

‘‘गरिमा, मैं ने आप से एक प्रश्न किया था, आप ने जवाब नहीं दिया?’’

अचानक पूछे गए इस प्रश्न पर गरिमा चौंक पड़ी. हां, रोहित ने 2 दिन पूर्व उन के सामने एक बात रखी थी. अपनी बोझिल पलकों को उठा कर उस ने रोहित की तरफ देखा. यह आदमी उन्हें अपनी पत्नी बनाना चाहता है.

बचे हुए जीवन के दिनों को हंसीखुशी से जी लेने का उस का भी दिल करता है. बेटे के कृत्य के लिए वह खुद को दोषी क्यों ठहराए. मगर इन 5-6 वर्षों में वह समीर के कुसूर को भूल नहीं पाई  है, उसे माफ नहीं कर पाई है.

रोहित के जाने के बाद उस ने समीर का पत्र खोला, लिखा था, ‘‘जानता हूं अभी तक नाराज हो. कुछ तो है जो अभिशाप बन कर हमारे बीच पसर गया है. शिखा 2 बार मां बनतेबनते रह गई. मां, जानता हूं तुम्हारा दिल दुखाया है, उसी की सजा मिल रही है. क्या मुझे क्षमा नहीं करोगी?’’

समीर के पत्र ने उस के जख्मों को फिर हरा कर दिया. शैल्फ पर रखी तसवीर पर उस की नजर अटक गई. लाख चाह कर भी वह इस तसवीर को हटा नहीं पाई है. आखिर है तो मां ही. तसवीर में समीर मां की गरदन में बांहें डाले था. उसे देखते हुए वह अतीत में खो गई.

पति के समय का ही एक माली था नंदू. माली कम सेवक ज्यादा. पति की बस दुर्घटना में मृत्यु हो गई  थी. नंदू ने काम छोड़ने से मना कर दिया था, ‘बचपन से खिलाया है रवि भैया को, उन के न रहने पर तो मेरी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है. मैं यहीं रहूंगा.’

रवि की मृत्यु के बाद आफिस का फ्लैट भी चला गया था. वह मां के पास रह कर बी.एड. करने लगी तो नंदू ने ही समीर को संभाला. फिर नौकरी लगने पर वह नंदू और समीर को ले कर दूसरे शहर आ गई.

समीर बड़ा हो गया और नंदू बूढ़ा. एक दिन वह गांव गया तो कई दिनों तक नहीं लौटा. उस की पत्नी की मृत्यु पहले ही हो चुकी थी. गांव से लौटा तो 17-18 वर्ष की एक सांवलीसलोनी सी पोती भी उस के साथ थी, ‘बहूजी, इस के 4 भाईबहन हैं. गांव में कुछ सीख नहीं पाती. पढ़ना चाहती है, सो अपने साथ ले आया हूं. आप की छत्रछाया में कुछ गुण ढंग सीख लेगी.’

ज्योति नाम था उस का. 8वीं तक पढ़ी थी. 9वीं में एक स्कूल में नाम लिखवा दिया उस का. फिर तो हिरनी सी कुलांचें भरती कटोरी जैसी आंखों वाली वह छरहरी काया पूरे घर पर शासन कर बैठी. घर का सारा काम उस ने अपने ऊपर ले लिया. समीर इंजीनियरिंग कर रहा था. उस के पास जाने में वह थोड़ी झेंपती थी. लेकिन यह संकोच भी टूट गया जब उसे पढ़ाई में विज्ञान एवं गणित कठिन लगने लगे तब गरिमा ने ही समीर से कहा कि वह ज्योति की मदद कर दिया करे.

समीर की महत्त्वाकांक्षा काफी ऊंची थी. उस की इच्छा विदेश जा कर पढ़ने की थी. जहां भी कुछ अवसर मिलता वह फौरन आवेदन कर देता. पासपोर्र्ट उस ने बनवा रखा था. मां अकेली कैसे रहेगी, पूछने पर कहता, ‘मैं तुम्हें भी जल्दी ही बुला लूंगा. यहां इंडिया में अपना है ही कौन.’

पर गरिमा ने निश्चय कर लिया था कि वह अपना देश नहीं छोड़ेगी. उसे लगता कि ऐसी पढ़ाई से क्या फायदा जब बच्चे पढ़ते इंडिया में हैं और बसने विदेश चले जाते हैं. पर बेटे की महत्त्वाकांक्षा के सामने वह मौन हो जाती.

ज्योति ने समीर से पढ़ना शुरू किया तो दोनों एकदूसरे से काफी खुल गए. गरिमा इसे दोनों की नोकझोंक समझती रही. समीर ज्योति की बड़ीबड़ी आंखों में खो गया. प्रेम की यह पींग काफी ऊंची उड़ान ले बैठी. इतनी ऊंची कि झूला टूट कर गिर गया.

उस दिन वाशिंगटन से समीर के नाम एक पत्र आया था कि वह फैलोशिप के लिए चुन लिया गया है. इधर घर में एक जबरदस्त विस्फोट हुआ जब नंदू उस के सामने बिलख उठा, ‘बहूजी, मैं तो बरबाद हो गया. ज्योति ने तो मुझे मुंह दिखाने लायक नहीं रखा. मैं क्या करूं. कहां ले कर जाऊं इस कलंक को.’

ज्योति के मुंह से समीर का नाम सुनते ही वह सुलग उठी. उसे यह बात सच लगी कि हर व्यक्ति के अंदर एक जानवर होता है जो मौका पड़ते ही जाग जाता है. समीर के अंदर का जानवर भी जाग उठा था. समीर ने मां के विश्वास के सीने में छुरा घोंपा था.

दोषी तो ज्योति भी थी. उस ने समीर को इतने पास आने ही क्यों दिया कि अपनी अस्मत ही गंवा बैठी. गरिमा का जी चाहा कि वह जोरजोर से चीखे, रोए. पर कैसी लाचार हो गई थी वह. कहीं कोई सुन न ले, इस डर से मुंह से सिसकी भी न निकाली.

2 दिन तक गरिमा घर में पड़ी रही. क्या करे, कुछ समझ में नहीं आ रहा था. उधर समीर जो घर से गया तो 2 दिन तक लौटा ही नहीं. तीसरे दिन जरा सी आंख लगी ही थी कि आहट पर खुल गई. दरवाजा खुला छोड़ कर कोई बाहर गया था. ‘कौन है…’ वह बड़बड़ाते हुए उठी. देखा तो कमरे से समीर के कपड़े, अटैची सब गायब थे. एक पत्र जरूर मिला. लिखा था, ‘टिकट के पैसे नहीं हैं. कुछ रुपए और आप का हार लिए जा रहा हूं. हो सके तो क्षमा कर दीजिएगा.’

अरे, बेशर्म, क्षमा हार की मांग रहा है, पर जो कुकर्म किया है उस की क्षमा उसे कैसे मिलेगी. ज्योति की तरफ देख कर वह बिलख उठी थी. चाह कर भी वह उस के साथ न्याय नहीं कर पा रही थी. कौन अपनाएगा इसे. सबकुछ तितरबितर हो गया. क्या सोचा था, क्या हो गया. आंखों से आंसुओं की झड़ी भी सूख चली. बुद्घि, विवेक सबकुछ मानो किसी ने छीन लिया हो.

और एक दिन नंदू भी लड़की को ले कर कहीं चला गया. तब से अकेली है. पुराना मकान छोड़ कर नई कालोनी में यह फ्लैट ले लिया था, ताकि समीर को उस का पता न लग सके. पर जाने कहां से उस ने पता कर ही लिया है. पत्र भेजता है. पत्रों में उसे बुलाने का ही आग्रह होता है. शादी कर ली है….पर वह तो उसे आज तक क्षमा नहीं कर पाई है.

डोर बेल बजने पर वह अतीत से बाहर आई. बाई थी. उसे तो समय का ध्यान ही नहीं रहा कि रात के 8 बज चुके हैं. बाई ने उसे अंधेरे में बैठा देख कर पूछा, ‘‘क्या बात है, बहूजी. तबीयत तो ठीक है न. यह अंधेरा क्यों?’’

‘‘यों ही आंख लग गई थी.’’

‘‘खाना क्या बनाऊं, बहूजी.’’

‘‘मेरे लिए कुछ नहीं बनाना. तेरा जो खाने का दिल करे बना ले.’’

‘‘पर आप….’’

‘‘मैं कुछ नहीं लूंगी.’’

‘‘तो फिर कौफी, दूध…कुछ तो ले लीजिए.’’

‘‘ठीक है दूध दे जाना कमरे में,’’ कहती हुई गरिमा अपने कमरे में चली गई.

समीर का पत्र एक बार फिर पढ़ा उस ने. बहू की फोटो भेजी थी समीर ने. एक बार देख कर उस ने तसवीर को अलमारी में रख दिया. सोचती रही, क्या करे. रोहित भी जवाब मांग रहे हैं. मां- पिताजी अब रहे नहीं. अपना कहने वाला कोई नहीं है. मां की अस्थमा की बीमारी उसे भी हो गई है. ऐसे में रोहित ही उस की देखभाल करते हैं. जब वह यहां आई थी तब रोहित से कटती रहती थी पर आमने- सामने रहने से कभीकभार की मुलाकात से परिचय गहरा हो गया. यही परिचय अब अच्छी मित्रता में बदल चुका है.

रोहित का व्यक्तित्व बहुत मोहक है. कम बोलना, पर जो बोलना सोचसमझ कर. 2 बच्चे हैं, बेटा पत्नी के साथ बंगलौर में है. बेटी कनाडा में है. 2 साल पहले पति के साथ आई थी. उसे बहुत पसंद करती है. जाने से पहले उस का हाथ अपने हाथ में ले कर अपने पिता से बोली थी, ‘‘जाने के बाद अब यह सोच कर तसल्ली होगी कि अब आप अकेले नहीं हैं.’’

वह चौंकी थी कि रोहित पर उस का क्या अधिकार है. कहीं रोहित ने ही तो बेटी से कुछ नहीं कहा. उन के बेटे से भी वह मिल चुकी है. जब भी आता है, उस के पैर छूता है. रोहित के प्रस्ताव में, लगता है दोनों बच्चों की सहमति भी छिपी है. रोहित के शब्द उस के कानों में गूंजने लगे, ‘गरिमाजी, मेरा और आप का रास्ता एक ही है तो क्यों न मंजिल तक साथ ही चलें. मुझ से शादी करेंगी?’

वह कोई निर्णय नहीं ले पा रही थी. आज समीर के पत्र ने उसे झकझोर दिया था. उस ने कभी भी बेटे को कोसा नहीं है. आखिर क्यों कोसे? अब वह किसी का पति है. आखिर उस की पत्नी का क्या दोष? वह मां बनना चाहती है तो इस में वह क्या सहयोग कर सकती है सिवा इस के कि उसे अपनी शुभकामना दे. आखिर उस ने बहू शिखा को पत्र लिखने का निश्चय कर लिया.

दूसरे दिन उस ने शिखा को पत्र लिखा, ‘‘बेटी, हम दोनों एकदूसरे से अब तक नहीं मिले हैं, पर हमारे बीच आत्मीय दूरी नहीं है. तुम मेरी बहू हो और मैं तुम्हारी सास. तुम मां बनो और मैं दादी यह हृदय से कामना करती हूं. तुम्हारी मां.’’

पत्र मोड़ कर लिफाफे में रखते हुए गरिमा सोच रही थी कि उसे रोहित का प्रस्ताव अब मान लेना चाहिए. जीवन के बाकी दिन खुद के लिए भी तो जी लें.

दूसरा कोना: क्यों बदनाम हुई ऋचा?

‘‘अजीब तरह का व्यवहार कर रही थी अजय की पत्नी. पूरे समय बस अपनी खूबसूरती, हंसीमजाक, ब्यूटीपार्लर उफ, कोई कह सकता है भला कि उस के पति की अभीअभी कीमोथेरैपी हुई है. उस के हावभाव, अदाओं से कहीं से भी नहीं लग रहा था कि उस के पति को इतनी गंभीर बीमारी है. मुझे तो दया आ रही है बेचारे अजय पर. ऐसे समय में उस का खयाल रखने के बजाय, उस की पत्नी ऋचा अपनी साजसज्जा में लगी रहती है,’’ घर का दरवाजा खोलने के साथ ही प्रिया ने अपने पति राकेश से कहा.

‘‘हां, थोड़ा अजीब तो मुझे भी लगा ऋचा का तरीका, पर चलो छोड़ो न, तुम क्यों अपना दिमाग खराब कर रही हो. हमें कौन सा रोजरोज उन के घर जाना है. औफिस का कलीग है, कैंसर की बीमारी का सुना तो एक बार तो देखने जाना बनता था,’’ राकेश ने प्रिया को बांहों में लेते हुए कहा.

‘‘अरे, छोड़ो क्या, मेरे तो दिमाग से ही नहीं निकल रही यह बात. कोई इतना लापरवाह कैसे हो सकता है. ऋचा पढ़ीलिखी, अच्छे परिवार की लड़की है, फिर भी ऐसी हरकतें. मुझे तो शर्म आ रही है कि  ऐसी भी होती हैं औरतें.

‘‘ऋचा औफिस की पार्टीज में भी कितना बनसंवर कर आती थी. कितना मरता था अजय उस की खूबसूरती पर. एक से एक लेटैस्ट ड्रैसेज पहनती थी वह तब भी. पर अब हालत कैसी है, कम से कम यह तो सोचना चाहिए.’’ राकेश ने प्रिया की बातों में अब हां में सिर हिलाया और कहा कि बहुत नींद आ रही है, सुबह औफिस भी जाना है, चलो सो जाते हैं.

बिस्तर पर पहुंच कर भी प्रिया के मन में ऋचा की बातें, उस की हंसी फांस की तरह चुभ रही थी. आज की मुलाकात ने रिचा को प्रिया की आंखों के सामने लापरवाह औरत के रूप में खड़ा कर दिया था. यही सब सोचतेसोचते प्रिया की आंख कब लग गई, उसे पता ही नहीं चला.

अगली सुबह औफिस जाते हुए राकेश को गुडबाय किस देने के बाद अंदर आई तो देखा राकेश अपना टिफिन भूल गए. प्रिया ने राकेश को कौल कर के रुकने को कहा. दौड़ते हुए वह राकेश का टिफिन नीचे पार्किंग में पकड़ा कर आई. ‘‘तुम एक चीज भी याद नहीं रख सकते. मैं न होती तो तुम्हारा क्या होता?’’ प्रिया ने मुसकराते हुए कहा.

राकेश ने भी उसे छेड़ते हुए कहा, ‘‘तुम न होती तो कोई और होती.’’

इस पर प्रिया ने उसे घूरने वाली नजरों से देखा. राकेश ने जल्दी से ‘आई लव यू’ कहा और बाय कहते हुए वहां से निकल गया.

सब काम निबटा कर प्रिया ने चाय बनाई और टीवी औन कर लिया. चैनल पलटतेपलटते ‘सतर्क रहो इंडिया’ पर आ कर उस का रिमोट रुका. प्रिया ने बिना पलकें झपकाए पूरा एपिसोड देख डाला. उसे फिर ऋचा का खयाल आ गया. अब वह तरहतरह की बातें सोचने लगी कि ऋचा का कहीं किसी से चक्कर तो नहीं चल रहा, कहीं वह अजय से छुटकारा तो नहीं पाना चाहती? दिनभर प्रिया के दिमागी घोड़े ऋचा के घर के चक्कर लगाते रहे.

शाम को राकेश के आने पर प्रिया ने फिर से ऋचा की बात छेड़ी तो राकेश ने थोड़ा झुंझला कर कहा, ‘‘अरे यार, क्या ऋचाऋचा लगा रखा है? उन की जिंदगी है, तुम क्यों इतना सोच रही हो?’’

प्रिया चुप हो गई. वह राकेश को नाराज नहीं करना चाहती थी. बहुत प्यार जो करती थी वह उस से.

मगर प्रिया के दिमाग से ऋचा का कीड़ा उतरा नहीं था. उस ने अपनी किट्टी की सहेलियों को भी उस के व्यवहार के बारे में बताया.

सहेलियों में से एक बोली, ‘‘जिस के पति के जीवन की डोर कब कट जाए, पता नहीं, वह पति के बारे में न सोच कर सिर्फ अपने बारे में बातें कर रही है, कैसी औरत है वह.’’

‘‘जो बीमार पति से भी इधरउधर घूमने की फरमाइश करती है, कैसी अजीब है वह,’’ दूसरी सहेली ने कहा.

‘‘ऐसी औरतें ही तो औरतों के नाम पर धब्बा होती हैं,’’ तीसरी बोली.

सब सहेलियों ने मिल कर ऋचा के उस व्यवहार का पूरा पोस्टमौर्टम कर दिया. धीरेधीरे प्रिया के दिमाग से ऋचा का कीड़ा निकल गया. हां, कभीकभार वह राकेश से अजय के बारे में जरूर पूछ लेती. राकेश का एक ही जवाब होता, ‘अजय अब शायद ही औफिस आ सके.’ प्रिया को अफसोस होता और मन ही मन सोचती कि बेचारे अजय का तो समय ही खराब निकला.

4 महीने बाद एक दिन राकेश ने औफिस से फोन पर प्रिया को बताया कि अजय की मृत्यु हो गई. प्रिया को बहुत दुख हुआ. राकेश ने प्रिया से कहा कि तुम शाम को तैयार रहना, अजय के घर जाना है. औफिस के सभी लोग जा रहे हैं.

प्रिया और राकेश अजय के घर पहुंचे. घर में कुहराम मचा हुआ था. अभी उम्र ही क्या थी अजय की, अभी 42 साल का ही तो था. ऐसे माहौल में प्रिया का मन अंदर घुसते हुए घबरा रहा था. अंदर घुसते ही सब से पहले ऋचा पर उस की नजर पड़ी. ऋचा का रंग बिलकुल सफेद पड़ा हुआ था. जो ऋचा 4 महीने पहले उसे नवयुवती लग रही थी, आज वही मानो बुढ़ापे के मध्यम दौर में पहुंच गई हो. जिस तरह ऋचा रो रही थी, प्रिया का मन और आंखें दोनों भीग गए. वह ऋचा को संभालने उस के करीब पहुंच गई.

बाहर अजय की अंतिम यात्रा की तैयारियां चल रही थीं. राकेश भी बाहर औफिस के लोगों के साथ खड़ा था. सभी अजय की जिंदादिली और हिम्मत की तारीफ कर रहे थे.

राकेश के पास ही डा. प्रकाश खड़े थे. डा. प्रकाश राकेश के बौस के खास मित्र थे. औफिस की पार्टीज में अकसर उन से मिलना हो जाया करता था. डा. प्रकाश ने कहा, ‘‘अजय जितना हिम्मत वाला था, उस से भी बढ़ कर उस की पत्नी ऋचा है.’’

राकेश ने जब यह बात सुनी तो उस के मन में उत्सुकता जाग गई. उस ने डा. प्रकाश से मानो आंखों से ही पूछ लिया कि आप क्या कह रहे हैं.

‘‘अजय का पूरा इलाज मेरी देखरेख में ही हुआ है,’’ डा. प्रकाश ने कहा, ‘‘राकेश, अजय की रिपोर्ट्स के मुताबिक उस के पास मुश्किल से एक से डेढ़ महीने का समय था. यह ऋचा ही थी जिस ने उसे 4 महीने जिंदा रखा.’’

उन्होंने आगे कहा, ‘‘जब इन लोगों को कैंसर की बीमारी का पता चला तो ऋचा डिप्रैशन में चली गई थी. अजय अपनी बीमारी से ज्यादा ऋचा को देख कर दुखी रहने लगा था. अजय की चिंता देख कर मैं ने पूछा तब उस ने सारी बात मुझे बताई. उस दिन अजय और मेरे बीच बहुत बातें हुईं. मैं ने उसे ऋचा से बात करने को कहा.

‘‘अगली बार जब वे दोनों मुझ से मिलने आए तो हालात बेहतर थे. तब ऋचा ने मुझे बताया कि उस के पति उसे मरते दम तक खूबसूरत रूप में ही देखना चाहते हैं. उस ने कहा था, ‘अजय चाहते हैं कि मैं हर वह काम करूं जो उन के ठीक रहने पर करती आई हूं. उन के साथ नौर्मल बातें करूं. हंसीमजाक, छेड़ना सब करूं. बस, उन की बीमारी का जिक्र न करूं. इन थोड़े बचे दिनों में वे एक पूरी जिंदगी जीना चाहते हैं मेरे साथ.

‘‘अजय ने मुझ से कहा, ‘तुम्हें दुखी देख कर मैं पहले ही मर जाऊंगा. मुझे मरने से पहले जीना है.’ मैं ने भी दिल पर पत्थर रख कर उन की बात मान ली. डाक्टर साहब, अब अजय काफी अच्छा महसूस कर रहे हैं.’ उस दिन यह कहतेकहते ऋचा की आंखों में आंसू आ गए थे, मगर पी लिए उस ने अपने आंसू भी अजय की खातिर.

‘‘ऋचा बहुत हिम्मती है. आज देखो, दिल पर से पत्थर हटा तो कैसा सैलाब उमड़ आया है उस की आंखों में.’’

डा. प्रकाश की बातें सुन कर राकेश का मन ग्लानि से भर गया. जिस ऋचा के लिए उस ने और प्रिया ने मन में गलत धारणा पाल ली थी, आज उसी ऋचा के लिए उस के मन में बहुत आदरभाव उमड़ आया था.

राकेश को काफी शर्म भी महसूस हुई यह सोच कर कि कैसे हम लोग बिना विचार किए एक कोने में खड़े हो कर किसी के बारे में अच्छीबुरी राय बना लेते हैं. कभी दूसरे कोने में जा कर देखने या विचारने की कोशिश ही नहीं करते.

अजनबी : कौन था दरवाजे के बाहर

‘‘नाहिद जल्दी उठो, कालेज नहीं जाना क्या, 7 बज गए हैं,’’ मां ने चिल्ला कर कहा.

‘‘7 बज गए, आज तो मैं लेट हो जाऊंगी. 9 बजे मेरी क्लास है. मम्मी पहले नहीं उठा सकती थीं आप?’’ नाहिद ने कहा.

‘‘अपना खयाल खुद रखना चाहिए, कब तक मम्मी उठाती रहेंगी. दुनिया की लड़कियां तो सुबह उठ कर काम भी करती हैं और कालेज भी चली जाती हैं. यहां तो 8-8 बजे तक सोने से फुरसत नहीं मिलती,’’ मां ने गुस्से से कहा.

‘‘अच्छा, ठीक है, मैं तैयार हो रही हूं. तब तक नाश्ता बना दो,’’ नाहिद ने कहा.

नाहिद जल्दी से तैयार हो कर आई और नाश्ता कर के जाने के लिए दरवाजा खोलने ही वाली थी कि किसी ने घंटी बजाई. दरवाजे में शीशा लगा था. उस में से देखने पर कुछ दिखाई नहीं दे रहा था क्योंकि लाइट नहीं होने की वजह से अंधेरा हो रहा था. इन का घर जिस बिल्डिंग में था वह थी ही कुछ इस किस्म की कि अगर लाइट नहीं हो, तो अंधेरा हो जाता था. लेकिन एक मिनट, नाहिद के घर में तो इन्वर्टर है और उस का कनैक्शन बाहर सीढि़यों पर लगी लाइट से भी है, फिर अंधेरा क्यों है?

‘‘कौन है, कौन,’’ नाहिद ने पूछा. पर बाहर से कोई जवाब नहीं आया.

‘‘कोई नहीं है, ऐसे ही किसी ने घंटी बजा दी होगी,’’ नाहिद ने अपनी मां से कहा.

इतने में फिर घंटी बजी, 3 बार लगातार घंटी बजाई गई अब.

?‘‘कौन है? कोई अगर है तो दरवाजे के पास लाइट का बटन है उस को औन कर दो. वरना दरवाजा भी नहीं खुलेगा,’’ नाहिद ने आराम से मगर थोड़ा डरते हुए कहा. बाहर से न किसी ने लाइट खोली न ही अपना नाम बताया.

नाहिद की मम्मी ने भी दरवाजा खोलने के लिए मना कर दिया. उन्हें लगा एकदो बार घंटी बजा कर जो भी है चला जाएगा. पर घंटी लगातार बजती रही. फिर नाहिद की मां दरवाजे के पास गई और बोली, ‘‘देखो, जो भी हो चले जाओ और परेशान मत करो, वरना पुलिस को बुला लेंगे.’’

मां के इतना कहते ही बाहर से रोने की सी आवाज आने लगी. मां शीशे से बाहर देख ही रही थी कि लाइट आ गई पर जो बाहर था उस ने पहले ही लाइट बंद कर दी थी.

‘‘अब क्या करें तेरे पापा भी नहीं हैं, फोन किया तो परेशान हो जाएंगे, शहर से बाहर वैसे ही हैं,’’ नाहिद की मां ने कहा. थोड़ी देर बाद घंटी फिर बजी. नाहिद की मां ने शीशे से देखा तो अखबार वाला सीढि़यों से जा रहा था. मां ने जल्दी से खिड़की में जा कर अखबार वाले से पूछा कि अखबार किसे दिया और कौनकौन था. वह थोड़ा डरा हुआ लग रहा था, कहने लगा, ‘‘कोई औरत है, उस ने अखबार ले लिया.’’ इस से पहले कि नाहिद की मां कुछ और कहती वह जल्दी से अपनी साइकिल पर सवार हो कर चला गया.

अब मां ने नाहिद से कहा बालकनी से पड़ोस वाली आंटी को बुलाने के लिए. आंटी ने कहा कि वह तो घर में अकेली है, पति दफ्तर जा चुके हैं पर वह आ रही हैं देखने के लिए कि कौन है. आंटी भी थोड़ा डरती हुई सीढि़यां चढ़ रही थी, पर देखते ही कि कौन खड़ा है, वह हंसने लगी और जोर से बोली, ‘‘देखो तो कितना बड़ा चोर है दरवाजे पर, आप की बेटी है शाजिया.’’

शाजिया नाहिद की बड़ी बहन है. वह सुबह में अपनी ससुराल से घर आई थी अपनी मां और बहन से मिलने. अब दोनों नाहिद और मां की जान में जान आई.

मां ने कहा कि सुबहसुबह सब को परेशान कर दिया, यह अच्छी बात नहीं है.

शाजिया ने कहा कि इस वजह से पता तो चल गया कि कौन कितना बहादुर है. नाहिद ने पूछा, ‘‘वह अखबार वाला क्यों डर गया था?’’

शाजिया बोली, ‘‘अंधेरा था तो मैं ने बिना कुछ बोले अपना हाथ आगे कर दिया अखबार लेने के लिए और वह बेचारा डर गया और आप को जो लग रहा था कि मैं रो रही थी, दरअसल मैं हंस रही थी. अंधेरे के चलते आप को लगा कि कोई औरत रो रही है.’’

फिर हंसते हुए बोली, ‘‘पर इस लाइट का स्विच अंदर होना चाहिए, बाहर से कोई भी बंद कर देगा तो पता ही नहीं चलेगा.’’ शाजिया अभी भी हंस रही थी.

आंटी ने बताया कि उन की बिल्ड़िंग में तो चोर ही आ गया था रात में. जिन के डबल दरवाजे नहीं थे, मतलब एक लकड़ी का और एक लोहे वाला तो लकड़ी वाले में से सब के पीतल के हैंडल गायब थे.

थोड़ी देर बाद आंटी चाय पी कर जाने लगी, तभी गेट पर देखा उन के दूसरे दरवाजे, जिस में लोहे का गेट नहीं था, से   पीतल का हैंडल गायब था. तब आंटी ने कहा, ‘‘जो चोर आया था उस का आप को पता नहीं चला और अपनी बेटी को अजनबी समझ कर डर गईं.’’ सब जोर से हंसने लगे.

खामोश जिद: क्या पूरी हो पाई रुकमा की जिद

‘‘शहीद की शहादत को तो सभी याद रखते हैं, मगर उस की पत्नी, जो जिंदा भी है और भावनाओं से भरी भी. पति के जाने के बाद वह युद्ध करती है समाज से और घर वालों के तानों से. हर दिन वह अपने जज्बातों को शहीद करती है.

‘‘कौन याद रखता है ऐसी पत्नी और मां के त्याग को. वैसे भी इतिहास गवाह है कि शहीद का नाम सब की जबान पर होता है, पर शहीद की पत्नी और मां का शायद जेहन पर भी नहीं,’’ जैसे ही रुकमा ने ये चंद लाइनें बोलीं, तो सारा हाल तालियों से गूंज गया.

ब्रिगेडियर साहब खुद उठ कर आए और रुकमा के पास आ कर बोले, ‘‘हम हैड औफिस और रक्षा मंत्रालय को चिट्ठी लिखेंगे, जिस से वे तुम्हारे लिए और मदद कर सकें,’’ ऐसा कह कर रुकमा को चैक थमा दिया गया और शहीद की पत्नी के सम्मान समारोह की रस्म अदायगी भी पूरी हो गई.

चैक ले कर रुकमा आंसू पोंछते हुए स्टेज से नीचे आ गई. पतले काले सफेद बौर्डर वाली साड़ी, माथे पर न बिंदी और काले उलझे बालों के बीच न सुहाग की वह लाल रेखा. पर बिना इन सब के भी उस का चेहरा पहले से ज्यादा दमक रहा था. थी तो वह शहीद की बेवा. आज उस के शहीद पति के लिए सेना द्वारा सम्मान समारोह रखा गया था. समारोह के बाद बुझे कदमों से वह स्टेशन की तरफ चल दी.

ट्रेन आने में अभी 7-8 घंटे बाकी थे. सोचा कि चलो चाय पी लेते हैं. नजरें दौड़ा कर देखा कि थोड़ी दूर पर रेलवे की कैंटीन है. सोचा, वहीं पर चलते हैं दाम भी औसत होंगे.

रुकमा पास खड़े अपने पापा से बोली, ‘‘पापा, चलो कुछ खा लेते हैं. अभी तो ट्रेन आने में बहुत देर है.’’

बापबेटी अपना पुराना सा फटा बैग समेट कर चल दिए.

चाय पीतेपीते पापा बोले, ‘‘क्या तुम्हें लगता है कि वे बात करेंगे या ऐसे ही बोल रहे हैं कि रक्षा मंत्रालय को चिट्ठी लिखेंगे.’’

‘‘पता नहीं पापा, कुछ भी कह पाना मुश्किल है.’’

‘‘रुकमा, तुम आराम करो. मैं जरा ट्रेन का पता लगा कर आता हूं,’’ कहते हुए पापा बाहर चले गए.

रुकमा ने अपने पैरों को समेट कर ऊपर सीट पर रख लिया और बैग की टेक लगा कर लेट गई और धीरे से सौरभ का फोटो निकाल कर देखने लगी.

देखतेदेखते रुकमा भीगी पलकों के रास्ते अपनी यादों के आंगन में उतरती चली गई. कितनी खुश थी वह जब पापा उस का रिश्ता ले कर सौरभ के घर गए थे. पूरे रीतिरिवाज से उस की शादी भी हुई थी. मां ने अपनी बेटी को सदा सुहागन बने रहने के लिए कोई भी रिवाज नहीं छोड़ा था. यहां तक कि गांव के पास वाले मन्नत पेड़ पर जा कर पूर्णमासी के दिन दीया भी जलाया था. शादी भी धूमधाम से हुई थी.

सौरभ को पा कर रुकमा धन्य हो गई थी. सजीला, बांका, जवान, सांवला रंग, लंबा गठा शरीर, चौड़ा सीना, जो देखे उसे ही भा जाए. रुकमा भी कम सुंदर न थी. हां, मगर लंबाई उतनी न थी.

सौरभ हर समय उसे उस की लंबाई को ले कर छेड़ता था. जब सारा परिवार एकसाथ बैठा हो तो तब जरूर ‘जिस की बीवी छोटी उस का भी बड़ा नाम है…’ गाना गा कर उसे छेड़ता था. वह मन ही मन खीजती रहती थी, मगर ज्यादा देर नाराज न हो पाती थी क्योंकि सौरभ झट से उसे मना लेना जानता था.

पर यह सुख कुछ ही समय रह पाया. उसी समय सीमा पर युद्ध शुरू हो गया था और सौरभ की सारी छुट्टियां कैंसिल हो गई थीं. उसे वापस जाना पड़ा था.

उस रात रुकमा कितना रोई थी. सुबह तक आंसू नहीं थमे थे, सौरभ उस को समझाता रहा था. उस की सुंदर आंखें सूज कर लाल हो गई थीं. सौरभ के जाने में अभी 2 दिन बाकी थे.

सौरभ कहता था, ‘ऐसे रोती रहोगी तो मैं कैसे जाऊंगा.’

घर में सभी लोग कहते हैं कि ये 2 दिन तुम दोनों खुश रहो, घूमोफिरो, पर जैसे ही कोई जाने की बात करता तो अगले ही पल रुकमा की आंखों से आंसू लुढ़कने लगते.

सौरभ उसे छेड़ता, ‘यार, तुम्हारी आंखों में नल लगा है क्या, जो हमेशा टपटप गिरता रहता है.’

सौरभ की इस बचकानी हरकत से रुकमा के चेहरे पर कुछ देर के लिए हंसी आ जाती, मगर अगले ही पल फिर चेहरे पर उदासी छा जाती.

जिस दिन सौरभ को जाना था, उस रात रुकमा सौरभ के सीने पर सिर रख कर रोती ही रही और अब तो सौरभ भी अपने आंसू न रोक पाया. आखिर सिपाही के अंदर से बेइंतिहा प्यार करने वाला पति जाग ही गया जो अपनी नईनवेली दुलहन के आगोश में से निकलना नहीं चाहता था, पर छुट्टी की मजबूरी थी, वापस तो जाना ही था.

‘‘रुकमा, उठ…’’ पापा ने हिलाते हुए रुकमा को जगाया और कहा, ‘‘ट्रेन प्लेटफार्म नंबर 2 पर आ रही है.’’

पापा की आवाज से रुकमा अपनी यादों से बाहर आ गई. आंखों को हाथों से मलते हुए वह उठ खड़ी हुई, जैसे किसी ने उस की चोरी पकड़ ली हो.

‘‘क्या बात है बेटी… तुम फिर से…’’

‘‘नहीं पापा… ऐसा कुछ भी नहीं…’’

थोड़ी देर में ट्रेन आ गई और रुकमा ट्रेन में बैठते ही फिर यादों में खो गई. कैसे भूल सकती है वह दिन, जब सौरभ को खुशखबरी देने को बेकरार थी लेकिन सौरभ से बात ही न हो पाई. शायद लाइन और किस्मत दोनों ही खराब थीं और तभी कुछ दिन में ही खबर आ गई कि सौरभ सीमा पर लड़ते हुए शहीद हो गए हैं. उस वक्त रुकमा ड्राइंगरूम में बैठी थी, तभी सौरभ के दोस्त उस का सामान ले कर आए थे.

आंखों और दिल ने विश्वास ही नहीं किया. रुकमा को लगा, वह भी आ रहा होगा. हमेशा की तरह मजाक कर रहा होगा. होश में ही नहीं थी. मगर होश तो तब आया जब ससुर ने पापा से कहा था, ‘रुकमा को अपने साथ वापस ले जाएं. मेरा बेटा ही चला गया तो इसे रख कर क्या करेंगे.’

उस ने अपने सासससुर को समझाया था कि वह सौरभ के बच्चे की मां बनने वाली है लेकिन उन्होंने तो उसे शाप समझ कर घर से निकाल दिया.

तभी सिर के ऊपर रखा बैग रुकमा के सिर से टकराया और वह चीख पड़ी. बाहर झांक कर देखा कि कोई स्टेशन आने वाला है. कुछ ही देर में वह झांसी पहुंच गए.

घर पहुंचते ही मां बोलीं, ‘‘बड़ी मुश्किल से यह सोया है. कुछ देर इसे गोद में ले कर बैठ जा.’’

रुकमा कुछ ही महीने पहले पैदा हुए अपने बेटे को गोद में ले कर प्यार करने लगी.

मां ने पूछा, ‘‘वहां सौरभ के घर वाले भी आए थे क्या?’’

‘‘नहीं मां,’’ रुकमा बोली.

शाम को खाने में साथ बैठते हुए पापा ने रुकमा से पूछा, ‘‘अब आगे क्या सोचा है? तेरे सामने पूरी जिंदगी पड़ी है.’’

रुकमा ने लंबी गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘‘हां पापा, मैं ने सबकुछ सोच लिया है. मेरे बेटे ने अपने फौजी पिता को नहीं देखा, इसलिए मैं फौज में ही जाऊंगी.’’

रुकमा के मातापिता हमेशा उस के साथ खड़े रहते थे. बेटे को मां के पास छोड़ कर रुकमा दिल्ली में एमबीए करने आ गई और नौकरी भी करने लगी.

रुकमा को यह भी चिंता थी कि कार्तिक बड़ा हो रहा था. उसे भी स्कूल में दाखिला दिलाना होगा.

रुकमा यह सब सोच ही रही थी कि मां की अचानक हुई मौत से वह फिर बिखर गई और अब तो कार्तिक की भी उस के सिर पर जिम्मेदारी आ गई. उसे अब नौकरी पर जाना मुश्किल हो गया.

बेटा अभी बहुत छोटा था और घर पर अकेले नहीं रह सकता था. पापा भी अभी रिटायर नहीं हुए थे.

जब कोई रास्ता नजर नहीं आया, तभी सहारा बन कर आए गुप्ता अंकल यानी उस के साथ में काम कर रही दोस्त अर्चना के पिताजी.

अर्चना ने कहा, ‘‘रुकमा, आज मेरे भतीजे का बर्थडे है. तू कार्तिक को ले कर जरूर आना, कोई बहाना नहीं चलेगा और तू भी थोड़ा अच्छा महसूस करेगी.’’

‘‘ठीक है, मैं आती हूं,’’ रुकमा ने हंस कर हां कर दी और औफिस से बाहर आ गई.

घर आ कर कार्तिक से कहा, ‘‘आज मेरा बाबू घूमने चलेगा. वहां पर तेरे बहुत सारे फ्रैंड्स मिलेंगे.’’

‘‘हां मम्मी…’’ कार्तिक खुशी से मां के गले लग गया.

मां बेटे खूब तैयार हो कर पार्टी में पहुंचे. पार्टी क्या थी, ऐसा लग रहा था जैसे कोई शादी हो. शहर की सारी नामीगिरामी हस्तियां मौजूद थीं. तभी किसी ने पीछे से पुकारा. रुकमा ने पीछे पलट कर देखा कि उस के औफिस का सारा स्टाफ मौजूद था.

केक वगैरह काटने के बाद अर्चना ने उसे अपने पिताजी से मिलवाया. वे बोले, ‘‘बेटी, तुम्हारे बारे में सुन कर बड़ा दुख हुआ कि आज भी ऐसी सोच वाले लोग हैं. बेटी, जो सज्जन सामने आ रहे हैं, वे उसी रैजीमैंट में पोस्टेड हैं जिस में तुम्हारे पति थे. मुझे अर्चना ने सबकुछ बताया था.

‘‘कर्नल साहब, ये रुकमा हैं. फौज में जाना चाहती हैं. अगर आप की मदद मिल जाती तो अच्छा होता,’’ और फिर उन्होंने रुकमा के बारे में उन्हें सबकुछ बता दिया.

‘‘बेटी, तुम मुझे 1-2 दिन में फोन कर लेना. मुझ से जो बन पड़ेगा, मैं जरूर मदद करूंगा.’’

कर्नल के सहयोग से रुकमा देहरादून जा कर एसएसबी की कोचिंग लेने लगी और वहीं आर्मी स्कूल में पार्टटाइम बच्चों को पढ़ाने भी लगी. बेटे कार्तिक का दाखिला भी एक अच्छे स्कूल में करा दिया.

मगर मंजिल आसान न थी. हर रोज सुबह 4 बजे उठ कर फौज जैसी फिटनैस लाने के लिए दौड़ने जाती, फिर 20 किलोमीटर स्कूटी से बेटे को स्कूल छोड़ती और लाती, फिर शाम को वह फिजिकल ट्रेनिंग लेने जाती, लौट कर बच्चे का होमवर्क और घर का पूरा काम करती.

रोज की तरह रुकमा एक दिन जब बच्चे को सुलाने जा ही रही थी तभी पापा का फोन आया और फिर से वही राग ले कर बैठ गए, ‘रुकमा, मुझे समझ नहीं आ रहा कि तुम क्यों इतना सब बेकार में कर रही हो. दीपक का फिर फोन आया था. वह तुम्हें और तुम्हारे बेटे को खूब खुश रखेगा. मेरी बात मान जा बेटी, तेरे सामने पूरी जिंदगी पड़ी है, मेरा क्या भरोसा. मैं भी तेरी मां की तरह कब चला जाऊं, तो तेरा क्या होगा.’

‘‘पापा, मैं अपने बेटे कार्तिक और सौरभ की यादों के साथ बहुत खुश हूं. मैं किसी और को प्यार कर ही न पाऊंगी, यह उस रिश्तों के साथ उस से बेईमानी होगी. मैं सौरभ की जगह किसी और को नहीं दे सकती.

‘‘मुझे सौरभ से बेइंतिहा मुहब्बत करने के लिए सौरभ की जरूरत नहीं है, उस की यादें ही मेरी मुहब्बत को पूरी कर देंगी. मैं जज्बात में उबलती हुई नसीहतों की दलीलें नहीं सुनना चाहती.’’

पापा ने कहा, ‘क्या कोई इस तरह जाने के बाद पागलों सी मुहब्बत करता है.’

‘‘सौरभ मेरे दिलोदिमाग पर छाया हुआ है. एकतरफा प्यार की ताकत ही कुछ ऐसी होती है कि वह रिश्तों की तरह 2 लोगों में बंटता नहीं है. उस में फिर मेरा हक होता है,’’ यह कहते हुए रुकमा ने फोन काट दिया, फिर प्यार से सो रहे पास लेटे बेटे कार्तिक का सिर सहलाने लगी.

तभी रुकमा ने फौज में भरती का इश्तिहार अखबार में पढ़ा. रुकमा और भी खुश हो गई कि एक सीट शहीद की विधवाओं के लिए आरक्षित है. अब उसे सौरभ के अधूरे ख्वाब पूरे होते नजर आने लगे.

इन सब मुश्किल तैयारियों के बाद फौज का इम्तिहान देने का समय आ गया. मेहनत रंग लाई. लिखित इम्तिहान के बाद उस ने एसएसबी के भी सभी राउंड पास कर लिए. लेकिन यहां तक पहुंचने के बाद एक नई परेशानी खड़ी हो गई, वहां पर एक और शहीद की पत्नी थी पूजा और उस ने भी सारे टैस्ट पास कर लिए थे और सीट एक थी.

आखिरी फैसले के लिए सिलैक्शन अफसर ने अगले दिन की तारीख दे दी और कहा कि पास होने वाले को इत्तिला दे दी जाएगी.

उदास मन से रुकमा वापस आ गई, लेकिन इतने पर भी वह टूटी नहीं. उसे अपने ऊपर विश्वास था. उस का दुख बांटने अर्चना आ जाती थी और दिलासा भी देती थी. तय तारीख भी निकल चुकी थी.

रुकमा को यकीन हो गया कि उस का सिलैक्शन नहीं हुआ इसलिए फिर उस ने उसी दिनचर्या से एक नई जंग लड़नी शुरू कर दी.

तभी एक दिन औफिस से लौट कर उसे सिलैक्शन अफसर की चिट्ठी मिली जिस में उसे हैड औफिस बुलाया गया था. सिलैक्शन का कोई जिक्र न होने के चलते रुकमा उदास मन से बुलाए गए दिन पर हैड औफिस पहुंच गई. वहां जा कर देखा कि साहब के सामने पूजा भी बैठी थी.

साहब ने दोनों को बुला कर पूछा कि तुम दोनों की काबिलीयत और जज्बे को देखते हुए हम ने रक्षा मंत्रालय से 2 वेकैंसी की मांग की थी. रक्षा मंत्रालय ने एक की जगह 2 वेकैंसी कर दी हैं और तुम दोनों ही सिलैक्ट हो गई हो. बाहर औफिस से अपना सिलैक्शन लैटर ले लो.

रुकमा यह सुनते ही शून्य सी हो गई. सौरभ को याद कर उस की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे. लैटर ले कर उस ने सब से पहले अर्चना को फोन कर शुक्रिया अदा किया.

पापा उस समय देहरादून में बेटे कार्तिक के पास थे. घर पहुंच कर रुकमा पापा से लिपट गई और खुशखबरी दी.

पापा बोले, ‘‘तू बचपन से ही जिद्दी थी, पर आज तू ने अपने प्यार को ही जिद में तबदील कर दिया. और अपने बेटे को उस के फौजी पिता कैसे थे, यह बताने के लिए तू खुद फौजी बन गई. हम सभी तेरे जज्बे को सलाम करते हैं.’’

रुकमा ने देखा कि अर्चना और उस के स्टाफ के लोग बाहर दरवाजे पर खड़े थे. रुकमा इस खुशी का इजहार करने के लिए अर्चना से लिपट गई.

मजबूरी : क्या रिहान कर पाया तबस्सुम से शादी?

आज भी बहुत तेज बारिश हो रही थी. बारिश में भीगने से बचने के लिए रिहान एक घर के नीचे खड़ा हो गया था.

बारिश रुकने के बाद रिहान अपने घर की ओर चल दिया. घर पहुंच कर उस ने अपने हाथपैर धो कर कपड़े बदले और खाना खाने लगा. खाना खाने के बाद वह छत पर चला गया और अपनी महबूबा को एक मैसेज किया और उस के जवाब का इंतजार करने लगा.

छत पर चल रही ठंडी हवा ने रिहान को अपने आगोश में ले लिया और वह किसी दूसरी ही दुनिया में पहुंच गया. वह अपने प्यार के भविष्य के बारे में सोचने लगा. रिहान तबस्सुम से बहुत प्यार करता था और उसी से शादी करना चाहता था. तबस्सुम के अलावा वह किसी और के बारे में सोचता भी नहीं था. जब कभी घर में उस के रिश्ते की बात होती थी तो वह शादी करने से साफ मना कर देता था.

रिहान के घर वाले तबस्सुम के बारे में नहीं जानते थे. वे सोचते थे कि अभी यह पढ़ाई कर रहा है इसलिए शादी से मना कर रहा है. पढ़ाई पूरी होने के बाद वह मान जाएगा.

तभी अचानक रिहान के मोबाइल फोन पर तबस्सुम का मैसेज आया. उस का दिल खुशी से झूम उठा. उस ने मैसेज पढ़ा और उस का जवाब दिया. बातें करतेकरते दोनों एकदूसरे में खो गए.

तबस्सुम भी रिहान को बहुत प्यार करती थी और शादी करना चाहती थी. अभी तक उस ने भी अपने घर पर अपने प्यार के बारे में नहीं बताया था. वह रिहान की पढ़ाई खत्म होने का इंतजार कर रही थी.

ऐसा नहीं था कि दोनों में सिर्फ प्यार भरी बातें ही होती थीं, बल्कि दोनों में लड़ाइयां भी होती थीं. कभीकभी तो कईकई दिनों तक बातें बंद हो जाती थीं. लड़ाई के बाद भी वे दोनों एकदूसरे को बहुत याद करते थे और कभी किसी बात पर चिढ़ाने के लिए मैसेज कर देते थे. मसलन, तुम्हारी फेसबुक की प्रोफाइल पिक्चर बहुत बेकार लग रही है. बंदर लग रहे हो तुम. तुम तो बहुत खूबसूरत हो न बंदरिया. और लड़तेलड़ते फिर से बातें शुरू हो जाती थीं.

पिछले 3 सालों से वे दोनों एकदूसरे को प्यार करते थे और अब जा कर शादी करना चाहते थे. रिहान ने सोच लिया था कि इस साल पढ़ाई पूरी होने के बाद कोई अच्छी सी नौकरी कर वह अपने घर वालों को तबस्सुम के बारे में बता देगा. अगर घर वाले मानते हैं तो ठीक, नहीं तो उन की मरजी के खिलाफ शादी कर लेगा. वह किसी भी हाल में तबस्सुम को खोना नहीं चाहता था.

एक दिन रिहान की अम्मी बोलीं, ‘‘तेरे मौसा का फोन आया था. उन्होंने तुझे बुलाया है.’’

‘‘मुझे क्यों बुलाया है? मुझ से क्या काम पड़ गया उन्हें?’’ रिहान ने पूछा.

‘‘अरे, मुझे क्या पता कि क्यों बुलाया है. वह तो हमें वहीं जा कर पता चलेगा,’’ उस की अम्मी ने कहा.

कुछ देर बाद वे दोनों मोटरसाइकिल से मौसा के घर की तरफ चल दिए. रिहान के मौसा पास के शहर में ही रहते थे. एक घंटे में वे दोनों वहां पहुंच गए. वहां पहुंच कर रिहान ने देखा कि घर में बहुत लोग जमा थे. उन में उस के पापा, उस की शादीशुदा बहन और बहनोई भी थे.

यह सब देख कर रिहान ने अपनी अम्मी से पूछा, ‘‘इतने सारे रिश्तेदार क्यों जमा हैं यहां? और पापा यहां क्या कर रहे हैं? वे तो सुबह दुकान पर गए थे?’’

अम्मी बोलीं, ‘‘तू अंदर तो चल. सब पता चल जाएगा.’’ रिहान और उस की अम्मी अंदर गए. वहां सब को सलाम किया और बैठ कर बातें करने लगे.

तभी रिहान के मौसा चिंतित होते हुए बोले, ‘‘आसिफ की हालत बहुत खराब है. वह मरने से पहले अपनी बेटी की शादी करना चाहता है.’’

आसिफ रिहान के मामा का नाम था. कुछ दिन पहले हुई तेज बारिश में उन का घर गिर गया था. घर के नीचे दब कर मामा के 2 बच्चों और मामी की मौत हो गई थी. मामा भी घर के नीचे दब गए थे, लेकिन किसी तरह उन्हें निकाल कर अस्पताल में भरती करा दिया गया था. वहां डाक्टर ने कहा था कि वे सिर्फ कुछ ही दिनों के मेहमान हैं. उन का बचना नामुमकिन है.

‘‘फिर क्या किया जाए?’’ रिहान की अम्मी बोलीं.

‘‘आसिफ मरने से पहले अपनी बेटी की शादी रिहान के साथ करा देना चाहता है. यह आसिफ की आखिरी ख्वाहिश है और हमें इसे पूरा करना चाहिए,’’ मौसा की यह बात सुन कर रिहान एकदम चौंक गया. उस के दिल में इतना तेज दर्द हुआ मानो किसी ने उस के दिल पर हजारों तीर एकसाथ छोड़ दिए हों. उस का दिमाग सुन्न हो गया.

‘‘ठीक है, हम आसिफ के सामने इन दोनों की शादी करवा देते हैं,’’ रिहान की अम्मी ने कहा.

रिहान मना करना चाहता था, लेकिन वह मजबूर था. उसी दिन शादी की तैयारी होने लगी और आसिफ को भी अस्पताल से मौसा के घर ले आया गया. शाम को दोनों का निकाह करवा दिया गया.

शादी के बाद रिहान अपनी बीवी और मांबाप के साथ घर आ गया. पूरे रास्ते वह चुप रहा. उस का दिमाग काम नहीं कर रहा था. वह समझ नहीं पा रहा था कि उस के साथ हुआ क्या है.

घर पहुंच कर रिहान कपड़े बदल कर छत पर चला गया. उस ने तबस्सुम को एक मैसेज किया. थोड़ी देर बाद तबस्सुम का फोन आया. रिहान के फोन उठाते ही तबस्सुम गुस्से में बोली, ‘‘कहां थे आज पूरा दिन? एक मैसेज भी नहीं किया तुम ने.’’

तबस्सुम नाराज थी और वह रिहान को डांटने लगी. रिहान चुपचाप सुनता रहा. जब काफी देर तक वह कुछ नहीं बोला तो तबस्सुम बोली, ‘‘अब कुछ बोलोगे भी या चुप ही बैठे रहोगे?’’

‘‘मेरी शादी हो गई है आज,’’ रिहान धीमी आवाज में बोला.

तबस्सुम बोली, ‘‘मैं सुबह से नाराज हूं और तुम मुझे चिढ़ा रहे हो.’’

‘‘नहीं यार, सच में आज मेरी शादी हो गई है. उसी में बिजी था इसलिए मैं बात नहीं कर पाया तुम से.’’

‘‘क्या सच में तुम्हारी शादी हो गई है?’’ तबस्सुम ने रोंआसी आवाज में पूछा.

‘‘हां, सच में मेरी शादी हो गई है,’’ रिहान ने दबी जबान में कहा. उस की आवाज में उस के टूटे हुए दिल और उस की बेबसी साफ झलक रही थी. ऐसा लग रहा था जैसे वह जीना ही नहीं चाहता था.

‘‘तुम ने मुझे धोखा दिया है रिहान,’’ तबस्सुम ने रोते हुए कहा.

‘‘मैं कुछ नहीं कर सकता था, मेरी मजबूरी थी,’’ यह कह कर रिहान भी रोने लगा.

‘‘तुम धोखेबाज हो. तुम झूठे हो. आज के बाद मुझे कभी फोन मत करना,’’ कह कर तबस्सुम ने फोन काट दिया. फोन रख कर रिहान रोने लगा. वहां तबस्सुम भी रो रही थी.

चीनी कम: जो आज की सोचे, जीत उसी की!

‘‘ढेर सारे पकवान बनाए हैं मैं ने, बहुतकुछ बाजार से भी मंगवा रखा है. तुम्हारा दोस्त निराश नहीं होगा. विकेश तुम्हारा दोस्त है, तो मेरे लिए भी कुछ है न.’’

‘‘कुछ…’’ बृजेश के कान खड़े हो गए, ‘‘तुम उसे पहले से जानती हो क्या?’’

‘‘अरे नहीं जी, मैं तो उसे पहली बार देखूंगी. तुम बेकार की बकवास सोचने लगे,’’ सरला हंसते हुए बृजेश को रसोईघर में ले गई. वहां दहीबड़े, समोसे, रसगुल्ले और गुलाबजामुन से ले कर छोलेभटूरे तक का इंतजाम था. कई तरह की नमकीन, पापड़ और मिठाइयां भी थीं. आखिर बड़े लोगों की किट्टी पार्टी जो ठहरी. सरला घर बैठे ही चिटफंड वगैरह चला कर अच्छी कमाई भी कर लेती है, फिर एक दिन सब को बढि़या खिलानेपिलाने में हर्ज किस बात का था.

अब यह इत्तिफाक की बात थी कि बृजेश का दोस्त विकेश शाम को 4 बजे आने वाला था. किट्टी पार्टी तो 6 बजे से थी. तब तक तो वह आराम से उसे खिलापिला कर विदा कर सकती थी.

तय समय पर बृजेश अपने दोस्त विकेश के साथ आया, तो सरला ने उस का भरपूर स्वागत किया. बृजेश फ्रैश होने के लिए बाथरूम चला गया.

नमस्ते करने के बाद सरला सीधे अपने मतलब पर आ गई, ‘‘अरे भाई साहब, आप इतनी बड़ी एयरलाइंस कंपनी में पायलट हैं. आप को तो अच्छी तनख्वाह मिलती होगी. तो आप को अपनी आमदनी का एक हिस्सा बचत के लिए भी इंवैस्ट करना चाहिए.

‘‘देखिए, मैं एक इंश्योरैंस सर्विस की एजेंट हूं और चाहती हूं कि आप अपनी बचत को मेरी इस कंपनी में लगाएं.’’

‘‘अरे भाभीजी, ऐसा कुछ नहीं है…’’ विकेश हंसते हुए बोला, ‘‘मेरी कंपनी दिवालिया हो चुकी है और मुझे 6 महीने से तनख्वाह भी नहीं मिली है. इस से आप मेरी हालत का अंदाजा लगा सकती हैं. मैं तो आप के शहर में एक इंटरव्यू के सिलसिले में आया हूं. बृजेश मेरा बचपन का दोस्त है. उस ने इतना कहा, इसलिए मैं मिलने चला आया.’’

विकेश की इस बात से सरला के भाव एकदम से बदल गए थे. वह सपाट चेहरा लिए वहां से उठी और अपने कमरे में चली गई.

उधर ड्राइंगरूम में दोनों दोस्त दुनियाजहान की बातें करते रहे.

अचानक बृजेश को कुछ खयाल आया. वह उठ कर सरला के पास आ कर बोला, ‘‘अरे, मेरा दोस्त बैठा है. कुछ चायपानी तो दो.’’

सरला उठी. चाय बना कर ट्रे में कुछ बिसकुट के साथ ड्राइंगरूम में रख आई.

चाय पीते हुए विकेश बोला, ‘‘चाय में चीनी कम है. तुम्हें ब्लड शुगर तो नहीं, जो चीनी कम लेते हो?’’

बृजेश ने चाय का घूंट भरा, तो उसे महसूस हुआ कि चाय फीकी लग रही है. वह हंसते हुए बोला, ‘‘दरअसल, सरला तुम्हें बढि़या मिठाई खिलाना चाहती है, इसलिए उस ने चाय में कम चीनी डाली है. रुको, मैं उसे चीनी लाने को कहता हूं.’’

‘‘अरे छोड़ो यार, चीनीवीनी…’’ विकेश हंसते हुए बाला, ‘‘मैं तो बस ऐसे ही मजाक कर रहा था.’’

चाय के दौर में पहले एक घंटा हुआ, फिर दूसरा घंटा भी बीत रहा था. मगर सरला का कहीं पता नहीं था. बृजेश इस बीच 1-2 बार टहल कर देख चुका था कि सरला शायद अब कुछ खाने को लाएगी. मगर वह जब भी बैडरूम में गया, वह अपने मोबाइल फोन में मसरूफ थी.

‘‘अब मैं चलूंगा यार…’’ विकेश अपनी घड़ी देखते हुए बोला, ‘‘2 घंटे कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला.’’

बृजेश विकेश से हाथ मिला कर उसे बाहर तक छोड़ने आया. जब वह अंदर आया तो सरला से पूछ बैठा, ‘‘अरे, इतने सारे पकवान बनाए थे तुम ने, कुछ ला कर दिया क्यों नहीं? क्या सोचता होगा वह. चाय में चीनी भी कम थी…’’ बृजेश नाराजगी जताते हुए बोला, ‘‘वह मेरा बचपन का दोस्त है. उस के घर में जब भी मैं जाता था, तो उस की मां मुझे बिना खाना खिलाए वापस नहीं आने देती थीं.’’

‘‘तो क्या हुआ…’’ सरला मुंह बना कर बोली, ‘‘बचपन की बात और होती है.’’

‘‘क्या हुआ…’’ बृजेश गुस्से में बोला, ‘‘अरे, वह मेरे बारे में क्या सोचता होगा.’’

‘‘सोचेगा क्या…’’ सरला बोली, ‘‘मैं समझती थी कि इतनी बढि़या नौकरी करने वाला शख्स है, तो मेरी कंपनी की कोई पौलिसी वगैरह लेगा. लेकिन उस को तो खुद खाने के लाले पड़े हैं. ऐसे आदमी को क्या खिलानापिलाना?’’

बृजेश यह सुन एकदम से सन्न रह गया. अपनी आवाज में कठोरता लाते हुए वह बोला, ‘‘ओहो, तो तुम ऐसा सोचती हो, मगर मैं तो कंगाल नहीं हुआ था,

जो तुम ने जानबूझ कर उसे कुछ खिलायापिलाया नहीं. चाय में चीनी कम डाल कर बेइज्जत करने की कोशिश भी की. क्या सोच रहा होगा वह?’’

‘‘अब जो सोचे…’’ सरला मुंह बना कर उठते हुए बोली, ‘‘मुझे रसोईघर में बहुत काम है. मेरी सहेलियां आती ही होंगी.’’

‘‘वह तो ठीक है…’’ बृजेश बोला, ‘‘अगर मेरी नौकरी चली गई होती और कोई मेरे साथ ऐसा बरताव करता, तो तुम्हें कैसा लगता?’’

सरला बोली, ‘‘फिर की फिर देखेंगे. जो आज की सोचता है, जीत उसी की होती है. मैं फालतू लोगों पर समय और पैसा नहीं खर्च कर सकती. यह सामान तो उन सहेलियों के लिए है, जो मेरी चिटफंड और इंश्योरैंस पौलिसी में पैसा देती हैं. मेरे लिए हर बार नया आसामी लाती हैं.’’

घर का सादा खाना : प्रिया की उलझन

अनिल और बच्चे शुभम व शुभी औफिस चले गए तो प्रिया कुछ देर बैठ कर पत्रिका के पन्ने पलटने लगी. अचानक नजर नई रैसिपी पर पड़ी. पढ़ते ही मुंह में पानी आ गया. सामग्री देखी. सारी घर में थी. प्रिया को नईनई चीजें ट्राई करने का शौक था.

खानेपीने का शौक था तो ऐक्सरसाइज कर के अपने वेट पर भी पूरी नजर रखती थी. एकदम बढि़या फिगर थी. कोई शारीरिक परेशानी भी नहीं थी. वह अपनी लाइफ से पूरी तरह संतुष्ट थी. बस आजकल अनिल और बच्चों पर घर का सादा खाना खाने का भूत सवार था.

प्रिया अचानक अपने परिवार के बारे में सोचने लगी. अनिल हमेशा से बिग फूडी रहे हैं पर अब अचानक अपनी उम्र की, अपनी सेहत की कुछ ज्यादा ही सनक रहने लगी है. हैल्दी रहने का शौक तो पूरे परिवार को है पर यह कोई बात थोड़े ही है कि इंसान एकदम उबली सब्जियों पर ही जिंदा रहे और वह भी तब जब कोई तकलीफ भी न हो. उस पर मजेदार बात यह हो कि औफिस में सब चटरपटर खा लें पर घर पर कुछ टेस्टी बन जाए तो सब की नजर तेल, मसाले, कैलोरीज पर रहे.

अब टेस्टी चीजें कैलोरीज वाली होती हैं तो प्रिया की क्या गलती है. उस के पीछे पड़ जाते हैं सब कि कितना हैवी खाना बना दिया है. आप को पता नहीं कि हैल्दी खाना चाहिए. भई, मुझे तो यह भी पता है कि कभीकभी खा भी लेना चाहिए. इस बात पर आजकल प्रिया का मूड खराब हो जाता है. भई, तुम लोग इतने हैल्थ कौंशस हो तो औफिस में भी उबला खाओ.

शाम को कभी किसी से पूछ लो कि आज औफिस में क्या खाया तो ऐसीऐसी चीजें बताई जाती हैं कि प्रिया की नजरों के सामने घूम जाती हैं और उस के मुंह में पानी आ जाता है.

मन में दुख होता है कि मैं जब मूंग की दाल और लौकी की सब्जी खा रही थी, तो ये लोग पिज्जा और बिरयानी खा रहे थे और अनिल का यह ड्रामा रहता है कि टिफिन घर से ही ले कर जाना है, उन्हें घर का सादा खाना ही खाना है.

वह सुबह उठ कर 3-3 हैल्दी टिफिन तेयार करती है और शाम को पता चलता है कि लजीज व्यंजन उड़ाए गए हैं. खून जल जाता है प्रिया का. यह उस की गलती है न कि वह एक हाउसवाइफ है, घर में रहती है, रोज बाहर जा कर कभी कुछ डिफरैंट नहीं खा पाती. उसे तो वही खाना है न जो टिफिन के लिए बना हो. वह कहां जा कर अपना टेस्ट बदले.

किट्टी पार्टी एक दिन होती है, अच्छा लगता है. आजकल तो कभी जब वीकैंड में बाहर खाना खाने जाते हैं, तो प्रिया मेनू कार्ड देखते हुए मन ही मन एक से एक बढि़या नई डिशेज देख ही रही होती है कि अनिल फरमाते हैं कि सूप और सलाद खाते हैं. प्रिया को तेज झटका लगता है. सूप तो पसंद है उसे पर सलाद? यह क्या है, क्यों हो रहा है उस के साथ ऐसा?

पास्ता, वैज कबाब, कौर्न टिक्की और दही कबाब, जो उस की जान हैं, इन में आजकल अनिल को ऐक्स्ट्रा तेल नजर आ रहा है. भई, जब वह अब तक अपने परिवार की हैल्थ का ध्यान रखती आई है तो फिर कभीकभी तो ये सब खाया जा सकता है न? सलाद खाने तो वह नहीं आई है न 20 दिन बाद बाहर?

बच्चों ने भी जब अनिल की हां में हां मिलाई तो प्रिया सुलग गई और सूप व सलाद खाती रही. मन में तो यही चल रहा था कि ढोंगी लोग हैं ये. यह शुभम अभी 2 दिन पहले अपने फ्रैंड्स के साथ बारबेक्यू नेशन में माल उड़ा कर आया है और यह शुभी की बच्ची औफिस में तरहतरह की चीजें खा कर आती है.

शाम को घर आ कर कहती है कि मौम, डिनर हलका दिया करो, स्नैक्स हैवी हो जाते हैं. अरे भई, मेरी भी तो सोचो तुम लोग, घर का सादा खाना खाने का गाना मुझे क्यों सुनाते हो… मेरी जीभ रो रही है… अब क्या टेस्टी, मजेदार खाना खाने के लिए तुम लोगों को सचमुच रो कर दिखाऊं… अगर अच्छीअच्छी चीजें खाने के लिए सचमुच किसी दिन रोना आ गया न मुझे तो पता है मुझे, सारी उम्र मेरा मजाक उड़ाया जाएगा.

अभी अनिल की 5 दिन की मीटिंग थी. रोज शानदार लंच था. सुबह ही बता जाते कि शाम को कुछ खिचड़ी टाइप चीज बना कर रखना. कुछ दिन लंच बहुत हैवी रहेगा. मेरी आंखों में आंसू आतेआते रुके. शुभम और शुभी वीकैंड में अपने दोस्तों के साथ बाहर ही लाइफ ऐंजौय कर लेते हैं. बचा कौन? मैं ही न?

अब खाने के लिए रोना उसे भी अच्छा नहीं लग रहा है पर क्या करे, मन तो होता है न कभीकभी कुछ बाहर टेस्टी खाने का… कभीकभी अनहैल्दी भी चलता है न… यहां तक कि इन तीनों ने चाट खाना भी बंद कर दिया है, क्योंकि तीनों का औफिस में कुछ न कुछ बाहर का खाना हो ही जाता है.

अब बताइए, 6 महीनों में कभी छोलों के साथ भठूरे नहीं बन सकते? पर नहीं, रात में जैसे ही छोले भिगोती हूं, तीनों में से कोई भी शुरू हो जाता है कि भठूरे मत बनाना, बस रोटी या राइस… मन होता है छोलों का पतीला बोलने वाले के सिर पर पलट दूं… यह जरूरी क्यों हो कि घर में बस सादा ही खाना बने?

घर में भी तो कभी टेस्ट चेंज किया जा सकता है न?

पता नहीं तीनों कौन से प्लैनेट के निवासी बनते जा रहे हैं. यही फलसफा बना लिया है कि घर में खाएंगे तो सादा ही (बाकी माल तो बाहर उड़ा ही लेंगे.

पिछली किट्टी पार्टी में अगर अंजलि के घर खाने में पूरियां न होतीं, तो पूरियां खाए उसे साल हो जाता. बताओ जरा, उत्तर भारतीय महिला को अगर पूरियां खाए साल हो रहा हो तो यह कहां का न्याय है? अब कभी रसेदार आलू की सब्जी या पेठे की सब्जी, रायते के साथ पूरी नहीं खा सकते क्या? अहा, मन तृप्त हो जाता था खा कर. अब ये ढोंगी लोग कहते हैं कि हमारे लिए तो रोटी ही बना देना. अब अपने लिए 2-3 पूरियों के लिए कड़ाही चढ़ाती अच्छी लगूंगी क्या?

बस अब प्रिया के हाथ में था गृहशोभा का सितंबर, द्वितीय अंक और रैसिपी थी सामने गोभी पकौड़ा और अचारी मिर्च पकौड़ा. 2-3 बार दोनों रैसिपीज पढ़ीं. मुंह पानी से भर गया. पढ़ कर ही इतना खुश हुआ दिल… खा कर कितना मजा आएगा… बहुत हो गया घर का सादा खाना और सब से अच्छी बात यह है कि गोभी, समोसे बेक करने का भी औप्शन था तो वह बेक कर लेगी. तीनों कम रोएंगे, थोड़ा पुलाव भी बना लेगी, परफैक्ट, बस डन.

तीनों लगभग 8 बजे आए. आज प्रिया का चेहरा डिनर के बारे में सोच कर ही चमक रहा था. वैसे तो बनातेबनाते भी 2-3 समोसे खा चुकी थी… मजा आ गया था. पेट और जीभ बेचारे थैंक्स ही बोलते रहे थे जैसे तरसे हुए थे दोनों मुद्दतों से…

चारों इकट्ठा हुए तो प्रिया ने ‘आज फिर जीने की तमन्ना है…’ गाना गाते हुए खाना लगाया तो तीनों ने टेबल पर नजर दौड़ाई. अनिल के माथे पर त्योरियां पड़ गईं, ‘‘फ्राइड समोसे डिनर में? प्रिया, क्यों तुम सब की हैल्थ के लिए केयरलैस हो रही हो?’’

‘‘अरे, समोसे बेक्ड हैं, डौंट वरी.’’

‘‘पर मैदे के तो हैं न?’’

प्रिया का मन हुआ बोले कि कल जो पिज्जा उड़ाया था वह किस चीज का बना था? पर लड़ाईझगड़ा उस की फितरत में नहीं था. इसलिए चुप रही.

शुभम ने कहा, ‘‘मां, पकौड़े तो फ्राइड हैं न? मैं सिर्फ पुलाव खाऊंगा.’’

प्रिया ने शुभी को देखा, तो वह बोली, ‘‘मौम, आज औफिस में रिया ने बहुत भुजिया खिला दी… अब भी खाऊंगी तो बहुत फ्राइड हो जाएगा… मैं पुलाव ही खाऊंगी.’’

डिनर टाइम था. सब सुबह के गए अब एकसाथ थे. शांत रहने की भरसक कोशिश करते हुए प्रिया ने कहा, ‘‘ठीक है, तुम लोग सिर्फ पुलाव खा लो,’’

अनिल ने एक समोसा उस का मूड देखते हुए चख लिया, बच्चों ने पुलाव लिया. प्रिया ने जब खाना शुरू किया, सारा तनाव भूल उस का मन खिल उठा. जीभ स्वाद ले कर जैसे लहलहा उठी. आंसू भर आए, इतना स्वादिष्ठ घर का खाना. वाह, कितने दिन हो

गए, वह खुद रोज कौन सा तलाभुना खाना चाहती है, पर घर में भी कभी कुछ स्वादिष्ठ बन सकता है न… महीने में एक बार ही सही, पर यहां तो हद ही हो गई थी. वह जितनी देर खाती रही, स्वाद में डूबी रही. उस ने ध्यान ही नहीं दिया कौन क्या खा रहा है. उस का तनमन संतुष्ट हो गया था.

सब आम बातें करते रहे, फिर अपनेअपने काम में व्यस्त हो गए. उस दिन जब प्रिया सोने के लिए लेटी, वह मन ही मन बहुत कुछ सोच चुकी थी कि नहीं करेगी वह सब के लिए इतनी चीजों में मेहनत, उसे कभीकभी अकेले ही खाना है न, ठीक है, उस का भी जब मन होगा, खा लेगी. बस एक फोन करने की ही देर है. अपने लिए और्डर कर लिया करेगी… यह बैस्ट रहेगा. उसे कौन सा कैलोरीज वाला खाना रोज चाहिए… कभीकभी ही तो मन करता है न… बस प्रौब्लम खत्म.

उस के बाद प्रिया यही करने लगी. कभी महीने में एक बार अपने लिए पास्ता और्डर कर लिया, कभी सिर्फ स्टार्टर्स और घर में सब खुश थे कि घर में अब सादा खाना बन रहा है. प्रिया तो बहुत ही खुश थी.

उस का जब जो मन होता, खा लेती थी. अपने प्यारे, ढोंगी से लगते अपनों के बारे में सोच कर उसे कभी हंसी आती थी, तो कभी प्यार, क्योंकि उन के निर्देश तो अब भी यही होते थे कि बाहर हैवी हो जाता है, घर में सादा ही बनाना.

झूठी शान: शौर्टकट काम की वारंटी वाकई काफी शौर्ट होती है!

सवेरेसवेरे किचन में नाश्ता बना रही निर्मला के कानों में आवाज पड़ी, ‘‘भई, आजकल तो लड़कियां क्या लड़के भी महफूज नहीं हैं. एक महीने में अपने शहर से 350 बच्चे गायब…’’ आवाज हाल में बैठ कर समाचार देख रहे निर्मला के पति परेश की थी.

निर्मला परेश को नाश्ता दे कर बाहर की ओर बढ़ गई. परेश को मालूम था कि उसे बच्चों की स्कूल की फीस जमा करवाने के लिए जाना है, फिर भी एक बार फर्ज के तौर पर ध्यान से जाने की हिदायत देते हुए नाश्ता करने में जुट गए.

इस पर निर्मला ने भी आमतौर पर दिए जाने वाला ही जवाब देते हुए कहा, ‘‘जी हां…’’ और बाहर का गरम मौसम देख कर बिना छाता लिए ही घर से निकल गई.

निर्मला आमतौर पर रिकशे से ही सफर किया करती, क्योंकि उस के पास और कोई साधन भी न था. स्कूल में सारे पेरेंट्स तहजीब से खुद ही सार्वजनिक दूरी बनाए अपनीअपनी कुरसियों पर बैठे अपना नंबर आने का इंतजार कर रहे थे.

निर्मला का नंबर सब से आखिर में था. उस के अकेलेपन की बोरियत को मिटाने के लिए न जाने कहां से उस की पुरानी सहेली मेनका भी उसी वक्त अपने बेटे की फीस जमा कराने वहां आ टपकी.

चेहरे पर मास्क की वजह से निर्मला ने उसे पहचाना नहीं, पर मेनका ने उस के पहनावे और शरीर की बनावट से उसे झट से पहचान लिया और दोनों में सामान्य हायहैलो के बाद लंबी बातचीत शुरू हो गई. दोनों सहेली एकदूसरे से दोबारा पूरे 5 महीने बाद मिल रही थीं.

यों तो दोनों का आपस में एकदूसरे से दूरदूर तक कोई संबंध नहीं था, पर दोनों के बच्चे एक ही जमात में पढ़ते थे. घर पास होने की वजह से निर्मला और मेनका की मुलाकात कई बार रास्ते में एकदूसरे से हो जाया करती.

धीरेधीरे बच्चों की दोस्ती निर्मला और मेनका तक आ गई. दोनों ही अकसर छुट्टी के समय अपने बच्चों को लेने आते, तब उन की भी मुलाकात हो जाया करती. दोनों एक ही रिकशा शेयरिंग पर लेते, जिस पर उन के बच्चे पीछे बैठ जाया करते.

निर्मला ने मेनका को देख कर खुशी से मुसकराते हुए कहा, ‘‘अरे, ये मास्क भी न, मैं तो बिलकुल ही पहचान ही नहीं पाई तुम्हें.’’

पर, असलियत तो यह थी कि वह उस के पहनावे से धोखा खा गई थी, क्योंकि जिस मेनका के लिबास पुराने से दिखने वाले और कई दिनों तक एक ही जैसे रहते. वह आज एक महंगी सी नई साड़ी और कई साजोसिंगार के सामान से लदी हुई थी. इस के चलते उसे यकीन ही नहीं हुआ कि यह मेनका हो सकती?है.

निर्मला ने उस की महंगी साड़ी को हाथ से छूने की चाह से जैसे ही उस की तरफ हाथ बढ़ाया, मेनका ने उसे टोकते हुए कहा, ‘‘अरे भाभी, ये क्या कर रही हो? हाथ मत लगाओ.’’

भले ही मेनका ने सार्वजनिक दूरी को जेहन में रख कर यह बात कही हो, पर उस के शब्द थोड़े कठोर थे, जिस का निर्मला ने यह मतलब निकाला कि ‘तुम्हारी औकात नहीं इस साड़ी को छूने की, इसलिए दूर ही रहो’.

निर्मला ने उस से चिढ़ते हुए पूछा, ‘‘यह साड़ी कहां से…? मेरा मतलब, इतनी महंगी साड़ी पहन कर स्कूल में आने की कोई वजह…?’’

‘‘महंगी… यह तुम्हें महंगी दिखती है. अरे, ऐसी साडि़यां तो मैं ने रोज पहनने के लिए ले रखी हैं,’’ मेनका ने बड़े घमंड में कहा.

निर्मला अंदर ही अंदर कुढ़ने लगी. उसे विश्वास नहीं हुआ कि ये वही मेनका हैं, जो अकसर मेरे कपड़ों की तारीफ करती रहती थी और खुद के ऊपर दूसरे लोगों से हमदर्दी की भावना रखती थी. ये तो कुछ महीनों पहले उम्र से ज्यादा बूढ़ी और बेकार दिखती थी, पर आज अचानक ही इस के चेहरे पर इतनी चमक और रौनक के पीछे क्या वजह है?

पहले तो अपने पति के कुछ काम न करने की मुझ से शिकायत करती थी, पर आज यह अचानक से चमकधमक कैसे? हां, हो सकता है कि विजेंदर भाई को कोई नौकरी मिल गई हो. हो सकता?है कि उन्होंने कोई धंधा शुरू किया हो, जिस में उन्हें अच्छा मुनाफा हुआ हो या कोई लौटरी लग गई हो तो क्या…?

मैं इतना क्यों सोचने लगी? अब हर किसी की किस्मत एक बार जरूर चमकती है, उस में मुझे इतनी जलन क्यों हो रही है?

जिन के पास पहले पैसा नहीं, जरूरी थोड़े ही न है कि उन के पास कभी पैसा आएगा भी नहीं. भूतकाल की अपनी ही उधेड़बुन में कोई निर्मला को मेनका उस के मुंह के सामने एक चुटकी बजा कर वर्तमान में ले कर आई और कहा, ‘‘अरे भई, कहां खो गईं तुम. लाइन तो आगे भी निकल गई.’’

निर्मला और मेनका दोनों एकएक कुरसी आगे बढ़ गए.

‘‘वैसे, एक बात पूछूं मेनका, तुम्हारी कोई लौटरी वगैरह लगी है क्या?’’ निर्मला ने बड़े ही सवालिया अंदाज में पूछा, जिस का मेनका ने बड़े ही उलटे किस्म का जवाब दिया, ‘‘क्यों, लौटरी वाले ही ज्यादा पैसा कमाते हैं क्या? अब उन्होंने मेहनत के साथसाथ दिमाग लगाया है, तो पैसा तो आएगा ही न?

‘‘अब परेश भाई को ही देख लो, दिनभर अपने साहब के कहने पर कलम घिसते हैं, ऊपर से उन की खरीखोटी सुनते हैं, पूरे दिन खच्चरों की तरह दफ्तर में खटते हैं, फिर भी रहेंगे तो हमेशा कर्मचारी ही.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है. मेहनत के नाम पर ये कौन सा पहाड़ तोड़ते हैं सिर्फ दिनभर पंखे के नीचे बैठ कर लिखापढ़ी का काम ही तो करना होता है. इस से ज्यादा आराम और इज्जत की नौकरी और किस की होगी.’’

निर्मला ने मेनका को और नीचा दिखाने की चाह में उस से कहा, ‘‘पढ़ेलिखे हैं. आराम की नौकरी करते हैं. यों धंधे में कितनी भी दौलत कमा लो, पर समाज में सिर्फ पढ़ेलिखे और नौकरी वाले इनसान की ही इज्जत होती?है, बाकियों को तो सब अनपढ़ और गंवार ही समझते हैं.’’

इस पर मेनका अकड़ गई और अपने पास अभीअभी आए चार पैसों की गरमी का ढिंढोरा निर्मला के आगे पीटने लगी.

काउंटर पर निर्मला का नंबर आया. काउंटर पर बैठी रिसैप्शनिस्ट ने फीस  की लंबीचौड़ी रसीद, जिस में दुनियाभर के चार्जेज जोड़ दिए गए थे, निर्मला  को पकड़ाई.

निर्मला ने घर पर पैसे जोड़ कर जो हिसाब लगाया था, उस से कहीं ज्यादा की रसीद देख कर उन की आंखों से धुआं निकल आया. इतने पैसे तो उस के पर्स में भी न थे, पर इस बात को वह सब के सामने जताना नहीं चाहती थी, खासकर उस मेनका के सामने तो बिलकुल नहीं.

मेनका ने कहा, ‘‘मैडम, आप सिर्फ 3 महीने की ही फीस जमा कीजिए, बाकी मैं बाद में दूंगी.’’

तभी निर्मला के हाथ से परची लेते हुए मेनका ने निर्मला पर एहसान करने की चाह से अपने पर्स से एक चैकबुक निकाल अपने और उस के बच्चे की फीस खुद ही जमा कर दी.

निर्मला को यह बलताव ठीक न लगा, जिस के चलते उस ने उसे बहुत मना भी किया.

इस पर मेनका ने कहा, ‘‘अरे, भाईसाहब को जब पैसे मिल जाएं, तब आराम से दे देना. मैं पैनेल्टी नहीं लूंगी,’’ और वह हंसते हुए बाहर की ओर निकल गई.

स्कूल के बाहर निकल कर देखा, तो मालूम हुआ कि छाता न ले कर बहुत बड़ी गलती हुई. गरम मौसम की जगह तेज बारिश ने ले ली. इतनी तेज बारिश में कोई भी रिकशे वाला कहीं जाने को राजी न था.

निर्मला स्कूल के दरवाजे पर खड़ी बारिश रुकने का इंतजार कर रही थी, पर मन में यह भी डर था कि आखिर अभी तुरंत मेरे आगे निकली मेनका कहां गायब हो गई? वह भी इतनी तेज बारिश में.

‘चलो, अच्छा है, चली गई, कौन सुनता उस की ये बातें? चार पैसे क्या आ गए, अपनेआप को कहीं की महारानी समझने लगी. सारे पैसे खर्च हो जाएंगे, तब फिर वही एक रिकशा भी मेरे साथ शेयरिंग पर ले कर चला करेगी.

मन ही मन खुद को झूठी तसल्ली देती निर्मला के आगे रास्ते पर जमा पानी को चीरते हुए एक शानदार काले रंग की कार आ कर रुकी.

गाड़ी का दरवाजा खुला. अंदर बैठी मेनका ने बाहर निर्मला को देखते हुए कहा, ‘‘गाड़ी में बैठो निर्मला. इस बारिश में कोई रिकशे वाला नहीं मिलेगा.’’

निर्मला को न चाहते हुए भी गाड़ी में बैठना पड़ा, पर उस का मन अभी भी यकीन करने को तैयार नहीं था कि यह वही मेनका है, जो पैसे न होने के चलते एक रिकशा भी मुझ से शेयरिंग पर लिया करती थी?

‘‘सीट बैल्ट लगा लो निर्मला,’’ मेनका ने ऐक्सीलेटर पर पैर जमाते हुए कहा.

निर्मला ने सीट बैल्ट लगाते हुए पूछा, ‘‘कब ली? कैसे…? मेरा मतलब कितने की…?’’

‘‘कैसे ली का क्या मतलब? खरीदी है, वह भी पूरे 40 लाख रुपए की,’’ मेनका ने बड़े बनावटी लहजे में कहा.

निर्मला के अंदर ईष्या का भी अंकुर फूट पड़ा. आखिर कैसे इस ने इतनी जल्दी इतने पैसे कमाए, आखिर ऐसा कैसा दिमाग लगाया, विजेंदर भाई ने कि इतनी जल्दी इतने पैसे कमा लिए. और एक परेश हैं कि रोज 13-13 घंटे काम करने के बावजूद मुट्ठीभर पैसे ही ले कर आते हैं, वह भी जब घर के सारे खर्चे सिर पर सवार हों. एक इसी के साथ तो मेरी बनती थी, क्योंकि एक यही तो थी मुझ से नीचे. अब तो सिर्फ मैं ही रह गई, जो रिकशे से आयाजाया करूंगी. इस का भी तो कहना ठीक ही है कि किसी काम में दिमाग लगाए बिना सिर्फ मेहनत करने से जिस तरह गधे के हाथ कभी भी गाजर नहीं आती, उसी तरह हर क्षेत्र में मेहनत से ज्यादा दिमाग लगाना पड़ता है.

विजेंदर भाई ने दिमाग लगाया तो पैसा भी कमाया, वहीं परेश की जिंदगी तो सिर्फ खाने में ही निकल जाएगी, आज ये बना लेना कल वो बना लेना.

अपना घर नजदीक आता देख निर्मला ने सीट बैल्ट खोल दी और उतरने के लिए जैसे ही उस ने दरवाजा खोलना चाहा, उस से उस महंगी गाड़ी का दरवाजा न खुला. इस पर मेनका ने हंसते हुए अपने ही वहां से किसी बटन से दरवाजा अनलौक करते हुए निर्मला को अलविदा किया.

दरवाजा न खुलने वाली बात पर निर्मला को खूब शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा था.

घर पहुंचते ही परेश ने एक पत्रिका में छपी डिश की तसवीर सामने रखते हुए वही डिश बनाने का आदेश दे डाला, जिस पर निर्मला ने परेश पर बिफरते हुए कहा, ‘‘पूरी जिंदगी तुम ने और किया ही क्या है, पूरे दिन गधों की तरह मेहनत करते हो और ऊपर से दफ्तर में बैठेबैठे फरमाइश और कर डालते हो कि आज यह बनाना और कल यह…

‘‘खाने के अलावा कभी सोचा है कि बाकी लोग तुम से कम मेहनत करते हैं, फिर भी किस चीज की कमी है उन्हें. घूमने को फोरव्हीलर हैं, पहनने को ब्रांडेड कपड़े हैं, कुछ नहीं तो कम से कम बच्चों की फीस का तो खयाल रखना चाहिए.

‘‘आज अगर मेनका न होती, तो फीस भी आधी ही जमा करानी पड़ती और बारिश में भीग कर आना पड़ता  सो अलग.’’

परेश समझ गया कि यह सारी भड़ास उस मेनका को देख कर निकाली जा रही है. परेश ने बात को और आगे न बढ़ाना चाहा, जिस के चलते उस ने चुप रहना ही बेहतर समझा.

दोपहर को गुस्से के कारण निर्मला ने कुछ खास न बनाया, सिर्फ खिचड़ी बना कर परेश और बेटे पारस के आगे रख दी.

परेश चुपचाप जो मिला, खा कर रह गया. उस ने कुछ बोलना लाजिमी न समझा.

रात तक निर्मला ने परेश से कोई बात नहीं की. उस के मन में तो सिर्फ मेनका और उस के ठाटबाट के नजारे ही रहरह कर याद आ जाया करते और परेश की काबिलीयत पर उंगली उठा जाते.

डिनर का वक्त हुआ. परेश ने न तो खाना मांगा और न ही निर्मला ने पूछा. देर तक दोनों के अंदर गुस्से का जो गुबार पनपता रहा, मानो सिर्फ इंतजार कर रहा हो कि सामने वाला कुछ बोले और मैं फट पडं़ू.

दोनों को ज्यादा इंतजार न कराते  हुए ठीक उसी वक्त भूख से बेहाल  बेटा पारस निर्मला से खाने की मांग करने लगा.

पारस को डिनर के रूप में हलका नाश्ता दे कर निर्मला ने परेश पर तंज कसते हुए कहा, ‘‘बेटा, आज घर में कुछ था ही नहीं बनाने को, इसीलिए कुछ नहीं बनाया. तू आज यही खा ले, कल देखती हूं कुछ.’’

परेश ने हैरानी से पूछा, ‘‘घर में कुछ था नहीं और तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं? आखिर किस बात पर तुम ने दोपहर से अपना मुंह सिल रखा है और सुबह क्या देखोगी तुम?’’

‘‘मैं ने नहीं बताया और तुम ने क्या सिर्फ खाने का ठेका ले रखा है? सब से ज्यादा जीभ तुम्हारी ही चलती है, तो इंतजाम देखना भी तो तुम्हारा ही फर्ज बनता है न? और वैसे भी मालूम नहीं हर महीने राशन आता है, तो इस महीने कौन लाएगा?’’

परेश बेइज्जती के ये शब्द बरदाश्त न कर सका. इस वजह से वह उस रात भूखा ही सोया रहा मगर निर्मला से कुछ बोला नहीं.

सवेरे होते ही राशन के सामान से भरा हुआ एक थैला जमीन पर पटक कर उस में से जरूरी सामान निकाल कर परेश खुद ही अपने और बेटे पारस के लिए चायनाश्ता बनाने में जुट गया.

रसोई के कामों से फारिग हो कर दोनों बापबेटे सोफे पर बैठ कर नाश्ता करने में मगन हो गए.

परेश रोज की तरह समाचार चैनल लगा कर बैठ गया. आज सब से बड़ी खबर की हैडलाइन देख कर उस के होश उड़ गए और उस से भी ज्यादा उस के पीछे से गुजर रही निर्मला के.

सब से बड़ी खबर की हैडलाइन में लिखा था, ‘शहर में पिछले महीनों से गायब हो रहे बच्चों के केस का आरोपी शिकंजे में, जिस का नाम विजेंदर बताया जा रहा है. कल ही चौक से एक बच्चे को बहला कर अगुआ करते हुए वह पकड़ा गया.’

मुंह काले कपड़े से ढका हुआ था, पर इतनी पुरानी पहचान के चलते परेश और निर्मला को आरोपी को पहचानते देर न लगी.

निर्मला को अपनी गलती का एहसास हो चुका था. वह जान चुकी थी कि जल्दी से जल्दी ज्यादा ऐशोआराम पाने के चक्कर में लोगों को कोई शौर्टकट ही अपनाना पड़ता है, जिस काम की वारंटी वाकई में काफी शौर्ट होती है.

आज अपनी मरजी से ही निर्मला ने दोपहर का खाना परेश की पसंद का बनाया था, जिस की उसे कल तसवीर दिखाई गई थी.

वह बदनाम लड़की: आकाश की जिंदगी में कैसे आया भूचाल   

आकाश जैसे एक खूब पढ़ेलिखे व काबिल इनसान की एक कालगर्ल से यारी…? यकीन मानिए, वह अपनी पत्नी प्रिया को पूरा प्यार देने वाला अच्छा इनसान है और हवस मिटाने के लिए यहांवहां झांकना भी उसे हरगिज गवारा नहीं है. इस के बावजूद वह टीना को दिलोजान से चाहता है, उस की इज्जत करता है.

आप के दिमाग में चल रही कशमकश मिटाने के लिए हम आप को कुछ पीछे के समय में ले चलते हैं. कुछ साल हो गए हैं आकाश को बैंगलुरु आए हुए. एक छोटे कसबे से निकल कर इस महानगरी की एक निजी कंपनी में जब क्लर्की का काम मिला तो पत्नी प्रिया को भी वह अपने साथ यहां ले आया था और उस के नन्हेमुन्ने प्रियांशु ने भी यहीं पर जन्म लिया था.

औफिस से अपने किराए के घर और घर से औफिस, यही आकाश की दिनचर्या बन चुकी थी. ऐसे ही एक दिन वह बस में सवार हो कर औफिस जा रहा था कि कंडक्टर की बहस ने उस का ध्यान खीच लिया. एक बेहद हसीन लड़की शायद पैसे घर पर ही भूल आई थी और कंडक्टर बड़े शांत भाव से पैसों का तकाजा कर रहा था. उस लड़की के चेहरे के भाव उस की परेशानी बयां करने के लिए काफी थे.

न जाने आकाश के मन में क्या आया कि उस ने लड़की के टिकट के पैसे अदा कर दिए. वह उसे ‘थैंक्स’ कह कर पीछे की सीट पर बैठ गई. आकाश ने भी पैसों को ज्यादा तवज्जुह नहीं दी और अपना स्टौप आते ही नीचे उतर गया.

आकाश कुछ कदम ही चला था कि हांफते हुए वह लड़की एकदम उस के आगे आ कर खड़ी हो गई और बोली, ‘‘सर… आप के पैसे मैं कल लौटा दूंगी. हुआ यह कि मैं आज जल्दी में अपने पर्स में पैसे डालना ही भूल गई.’’

आकाश ने उस का चेहरा देखा तो अपलक निहारता ही रह गया. फिर जैसे उसे अपनी हालत का बोध हुआ. उस ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘मैडम, वह इनसान ही क्या, जो इनसान के काम न आए. आप पैसों की टैंशन न लें.’’

‘‘नहीं सर, आप ने आज मुझे शर्मिंदा होने से बचा लिया. प्लीज, मुझे अपना घर या औफिस का पता बता दें. मैं किसी का अहसान नहीं रख सकती.’’

‘‘तो फिर कल मैं बिना टिकट बस में चढ़ूंगा. आप मेरा टिकट ले कर अहसान चुका देना,’’ आकाश के इस अंदाज ने उस लड़की के होंठों पर हंसी बिखेर दी.

साथसाथ चलते हुए आकाश को पता चला कि उस का नाम टीना है और वह प्राइवेट नौकरी करती है. काम के बारे में पूछने पर वह हंस कर टाल गई. साथ ही, यह भी पता चला कि वह इस महानगरी के पौश इलाके छायापुरम में रहती है. बाकी उस की बातें, उस का लहजा उस के ज्यादा पढ़ेलिखे होने का सुबूत दे ही रहा था.

आकाश ने उसे वापसी के खर्च के लिए 100 रुपए देने चाहे, लेकिन उस ने कहा कि उस की सहेली इस जगह काम करती है. वह उस से पैसा ले लेगी.

आकाश के औफिस का पता ले कर पैसे आजकल में लौटाने की बात कह कर वह चली गई. न जाने उस छोटी सी मुलाकात में क्या जादू था कि आकाश दिनभर टीना के बारे में ही सोचता रहा.

अगले दिन आकाश ने टीना का इंतजार किया, पर वह नहीं आई. कुछ दिन बीत गए. आकाश के दिमाग से अब वह पूरा वाकिआ निकल ही गया था.

आज काम की भारी टैंशन थी. आकाश अपने केबिन में फाइलों में सिर खपाए बैठा था कि किसी ने पुकारा, ‘‘हैलो, सर.’’

काम की चिंता में गुस्से से सिर उठाया तो सामने टीना को देख आकाश का सारा गुस्सा काफूर हो गया.

‘‘सौरी सर, मैं आप के पैसे तुरंत नहीं लौटा पाई. दरअसल, मेरा इस तरफ आना ही नहीं हुआ,’’ वह एक ही सांस में कह गई.

आकाश ने उसे कुरसी पर बैठने का इशारा करते हुए चपरासी को कौफी लाने को बोल दिया. इस बीच उन दोनों में हलकीफुलकी बातों का दौर शुरू हो गया.

आकाश को अच्छा लगा, जब टीना ने उस के बारे में, उस के परिवार और उस के शौक का भी जायजा लिया. लेकिन तब तो और भी अच्छा लगा, जब आकाश के शादीशुदा होने की बात सुन कर भी उस के चेहरे पर किसी तरह के नैगेटिव भाव नहीं उभरे.

आकाश अंदाजा लगाने लगा कि टीना उस के बारे में क्या सोच बना रही होगी, पर वह नहीं चाहता था कि उस से बातों का यह सिलसिला यहीं टूट जाए.

आकाश की इस हालत को टीना ने भी महसूस किया और कौफी की घूंट भर कर कहा, ‘‘आकाशजी, आज तक न जाने मैं कितने मर्दों से मिली हूं लेकिन आप से जितनी प्रभावित हुई हूं, उतनी कभी किसी से नहीं हुई.’’

आकाश खुद पर ही इतरा गया. आखिर में उस के जज्बात शब्दों में उमड़ ही आए, ‘‘क्या हम अच्छे दोस्त बन सकते हैं?’’

टीना ने मूक सहमति तो दी, लेकिन यह भी साफ कर दिया कि आकाश के शादीशुदा होने के चलते उस की पत्नी प्रिया को वह दोस्ती हरगिज गवारा नहीं होगी. पर आकाश का बावला मन तो किसी भी तरह उस के साथ के लिए छटपटा रहा था. आकाश ने बचकाने अंदाज में बोल दिया, ‘‘हमारी दोस्ती के बारे में प्रिया को कभी पता नहीं चलेगा. मैं दोस्ती तो निभाऊंगा, पर पति धर्म मेरे लिए बढ़ कर होगा.’’

टीना ने सहमति जताई और आकाश को अपना मोबाइल नंबर दे कर चली गई. आकाश फिर से अपने काम में जुट गया. फाइलों का जो ढेर उसे सिरदर्दी दे रहा था, अब वह पलक झपकते ही निबट गया.

मोबाइल फोन पर मैसेज और बातों का सिलसिला शुरू हो गया. शाम को टीना ने आकाश को अपने घर बुला लिया. घर क्या आलीशान बंगला था, जिस के आसपास सन्नाटा पसरा हुआ था. टीना के दरवाजा खोलते ही शराब का तेज भभका आकाश की नाक से टकराया. टीना ने उसे भीतर बुला कर दरवाजा बंद कर दिया.

आकाश कुछ सोचनेसमझने की कोशिश करता, इस से पहले ही टीना ने उसे बैठने का संकेत किया और खुद उस के सामने सोफे पर पसर गई और बोली, ‘‘तुम मेरा यह अंदाज देख कर हैरान हो रहे होगे न. दरअसल, आज मैं तुम से अपनी जिंदगी के कुछ गहरे राज बांटना चाहती हूं.’’

चंद पल चुप रहने के बाद टीना बोली, ‘‘हम अपनी जिंदगी में एक नकाब ओढ़े रहते हैं. यह ऊपर का जो चेहरा है न, यह सब को दिखता है, पर जो चेहरा अंदर है उसे कोई दूसरा नहीं देख पाता. तुम भी सोच रहे होगे कि मैं कैसी बहकीबहकी बातें कर रही हूं. पर आकाश, मैं ने तुम्हारे अंदर एक सच्चा इनसान, एक सच्चा दोस्त देखा है

जो जिस्म नहीं, दिल देखता है. और इस दोस्त से मैं भी कुछ छिपा

कर नहीं रखना चाहती… तुम मेरी नौकरी पूछते थे न? तो सुनो, मैं एक कालगर्ल हूं,’’ इतना कह कर वह ठिठक गई.

आकाश को झटका सा लगा. उस के होंठ कुछ कहने को थरथराए, इस से पहले ही टीना बोली, ‘‘मेरी कोई मजबूरी नहीं थी, न ही किसी ने मुझे जबरन इस धंधे में धकेला. मेरे बीटैक होने के बावजूद कोई भी नौकरी, कोई भी तनख्वाह मेरी ऐशोआराम की जरूरतें, मेरे शाही ख्वाब पूरे नहीं कर सकती थी, इसलिए मैं ने अपने रूप, अपनी जवानी के मुताबिक देह का धंधा चुना. तुम यह जो आलीशान फ्लैट देख रहे हो, यह मैं नौकरी कर के कभी नहीं बना सकती थी.

‘‘आकाश, मैं ने बहुत पैसा कमाया, बहुत संबंध बनाए, लेकिन रिश्ता नहीं कमा सकी. मैं कोई ऐसा शख्स चाहती थी जिसे मैं खुल कर अपनी भावनाएं साझा कर सकूं. लेकिन हर किसी की नजरें मेरे जिस्म से हो कर गुजरती थीं. यही वजह है कि तुम्हारे अंदर की सचाई देख कर मैं खुद तुम्हारी दोस्ती को उतावली थी. पर मुझे यह मंजूर नहीं

हो रहा था कि मैं अपने दोस्त को अंधेरे में रखूं,’’ कह कर उस ने आकाश को सवालिया नजरों से देखा.

‘‘टीना, मैं तुम्हारे काम के बारे में सुन कर चौंका तो जरूर हूं, लेकिन मुझे झटका नहीं लगा. तुम ने जिस बेबाकी से मुझे अपने बारे में बताया, उसे जान कर मेरी दोस्ती और गहरी हुई है.

‘‘मेरी जानकारी में ऐसी कई और भी लड़कियां और औरतें हैं, जिन्होंने शराफत का चोला ओढ़ रखा है, लेकिन उन के नाजायज रिश्तों ने आपसी रिश्तों को ही बदनाम कर दिया है. भले ही यह पेशा अपनाना तुम्हारी मजबूरी न हो, लेकिन दिलोदिमाग और जिस्मानी मेहनत तो इस में भी है. हर किसी को अपनी जरूरत के मुताबिक काम चुनने का हक है. कानून और समाज भले ही इसे नाजायज माने, लेकिन मैं इस में कुछ भी गलत नहीं मानता.’’

‘‘दोस्त, मैं तुम्हारी सोच की कायल हूं. अच्छा यह बताओ, क्या पीना चाहोगे…’’

‘‘फिलहाल तो मैं कुछ नहीं लूंगा. अच्छा, तुम्हारे परिवार में और कौनकौन हैं?’’

‘‘मेरी मम्मी बचपन में ही चल बसी थीं और पापा की मौत 2 साल पहले हुई. वे इलाहाबाद में रहते थे लेकिन अपनी आजादी के चलते मैं ने बैंगलुरु आना ही मुनासिब समझा. अच्छा, यह बताओ कि तुम्हारा चेहरा क्यों लटका हुआ है.’’

‘‘कोई खास बात नहीं है,’’ कह कर आकाश ने टालने की कोशिश की, पर टीना के जोर देने पर उसे बताना पड़ा, ‘‘मेरा नया बौस मुझे बेवजह परेशान कर रहा है.’’

‘‘चिंता न करो. सब ठीक हो जाएगा. अब तो मेरे हाथ की बनी कौफी ही तुम्हारा मूड ठीक करेगी,’’ टीना ने कहा.

कौफी वाकई उम्दा बनी थी. तरावट महसूस करते हुए आकाश ने उस से विदा लेनी चाही. न जाने आकाश के दिल में क्या भाव उभरे कि उस ने टीना से लिपट कर उस का चेहरा चूमना चाहा, तो वह छिटक कर पीछे हट गई और बोली, ‘‘दोस्त, दूसरों और तुम्हारे बीच में बस यही तो फासला है. क्या इसे भी मिटाना चाहोगे…’’

गर्मजोशी से इनकार में सिर हिलाते हुए आकाश ने उस से विदा ली.

अगले 2 दिनों में बौस के तेवर बिलकुल बदले देखे तो आकाश को यकीन न हुआ. साथ में काम करने वालों में से एक ने कहा, ‘‘यार, क्या जादू चलाया है तू ने? कल तक तो यह तुझे काट खाने को दौड़ता था और अब तो तेरा मुरीद हो कर रह गया है. अब तो तेरी प्रमोशन पक्की.’’

अगले ही महीने आकाश का प्रमोशन कर दिया गया. जब उस ने यह खुशखबरी टीना को सुनाई, तो उस ने मुबारकबाद दी.

आकाश ने पूछा, ‘‘यह सब कैसे हुआ टीना?’’

‘‘बौस शायद तुम्हारे काम से खुश हो गया होगा.’’

‘‘टीना, प्लीज सच क्या है?’’

‘‘सच तो यह है कि मुझ से अपने दोस्त का लटका चेहरा देखा नहीं गया और…’’

‘‘और क्या?’’

‘‘और यह कि सख्त दिखने वाले बुढ़ऊ ही महफिल में हुस्न के तलबे चाटते हैं. वैसे, तुम चिंता न करो. उसे मेरी और तुम्हारी दोस्ती की कोई खबर नहीं है.’’

‘‘टीना, मेरे लिए तुम ने…’’

‘‘बस, अब भावुक मत होना. और कोई परेशानी हो तो साफ बताना.’’

उस दिन से आकाश के मन में टीना के लिए और ज्यादा इज्जत बढ़ गई. वह उस के लिए सच्चे दोस्त से बढ़ कर साबित हुई.

कुछ दिन बाद जब आकाश ने अपने लिए एक छोटा सा घर खरीदने के लिए बैंक के कर्ज के बावजूद 2 लाख रुपए कम पड़े तो टीना ने उसे इस मुसीबत से भी उबार दिया.

हालांकि आकाश ने उसे वचन दिया कि भविष्य में वह यह रकम उसे जरूर वापस लौटाएगा.

अब आकाश के दिल में टीना के लिए प्यार की भावना उछाल मारने लगी थी. लेकिन उस ने कभी इन जज्बातों को खुद पर हावी न होने दिया. वह औफिस से छुट्टी के बाद आज शाम को फिर टीना के घर पर था.

‘‘टीना, मैं तुम्हारा सब से अच्छा दोस्त हूं तो फिर मुझ से ऐसी दूरी क्यों?’’

‘‘आकाश, अकसर हम मतलबी बन कर दूसरे रिश्तों खासकर अपनों को भूल जाते हैं. फिर क्या तुम नहीं मानते कि दोस्ती दिलों में होनी चाहिए, जिस्म की तो भूख होती है?’’

‘‘मैं कुछ नहीं समझना चाहता. मेरे लिए तुम ही सबकुछ हो…’’ भावनाओं के जोश में आकाश ने लपक कर उसे अपनी बांहों के घेरे में कस लिया. उस के लरजते लबों ने जैसे ही टीना के तपते गालों को छुआ, उस की आंखें

मुंद गईं. सांसों के ज्वारभाटे के साथ ही उस की बांहें भी आकाश पर कसती चली गईं.

‘टिंगटांग…’ तभी दरवाजे की घंटी बजते ही टीना आकाश से अलग हुई. उसे जबरन एक तरफ धकेल कर टीना ने दरवाजा खोला. कोरियर वाला उसे एक लिफाफा थमा कर चला गया. आकाश ने लिफाफे की बाबत पूछा तो उस ने लिफाफा अलमारी में रख कर बात टाल दी.

जब आकाश ने दोबारा उसे अपनी बांहों में लिया तो उस ने आहिस्ता से खुद को उस की पकड़ से छुड़ा लिया और बोली, ‘‘नहीं आकाश, यह सब करना ठीक नहीं है.’’

आकाश नाराजगी जताते हुए वहां से चला गया.

अगले दिन जब सुबह टीना ने मोबाइल फोन पर बात की तो आकाश ने काम का बहाना बना कर फोन काट दिया. वह चाहता था कि टीना को अपनी गलती का अहसास हो.

रात को 10 बजे मोबाइल फोन बज उठा. टीना का नंबर देख कर आकाश कांप गया. नजर दौड़ाई. प्रिया और प्रियांशु सो रहे थे. उस ने फोन काट दिया. मोबाइल फोन फिर बजने पर आकाश ने रिसीव किया तो उधर से टीना का बड़ा धीमा स्वर सुनाई दिया. ‘‘हैलो आकाश, कैसे हो? नाराज हो न?’’

आकाश नहीं चाहता था कि प्रिया उठ जाए और उसे टीना की भनक तक लगे, इसलिए फौरन कहा, ‘‘नहीं, नाराज नहीं. कहो, कैसे याद किया?’’

‘‘दोस्त, तुम्हारी बड़ी याद आ रही है. मैं तुम्हें अभी अपने पास देखना चाहती हूं.’’

‘‘ठीक है, मैं देखता हूं.’’

तभी प्रिया ने करवट बदली तो आकाश ने फोन काट कर मोबाइल स्विच औफ कर दिया. अब जाने का तो सवाल ही नहीं उठता था. प्रिया को क्या जवाब देगा भला… और टीना को इस समय फोन करने की क्या सूझी? कल तक इंतजार नहीं कर सकती थी?

इसी उधेड़बुन में आकाश की आंख लग गई.

सुबह उठते ही प्रिया ने रोज की तरह अखबार की सुर्खियों को टटोलते हुए कहा, ‘‘छायापुरम में अकेली रहने वाली कालगर्ल की मौत.’’

आकाश फौरन बिस्तर से उठ कर बैठ गया. खबर में उस की उत्सुकता देख प्रिया ने पूरी खबर पढ़ी, ‘‘छायापुरम में तनहा जिंदगी बसर करने वाली टीना की कल देर रात ब्रेन हैमरेज से मौत हो गई. वह देह धंधे से जुड़ी बताई जाती थी. डाक्टर के मुताबिक टीना काफी समय से दिमागी कैंसर से पीडि़त थी. कल रात हालत बिगड़ने पर पड़ोसियों ने उसे अस्पताल पहुंचाया, लेकिन रास्ते में ही उस ने दम तोड़ दिया.’’

खबर पढ़ने के बाद प्रिया ने कह दिया, ‘‘ऐसी औरतों का तो यही हश्र होता है,’’ और उस ने आकाश की तरफ देखा.

आकाश की आंखों में पानी देख कर उस ने वजह पूछी. आकाश ने सफाई दी, ‘‘कुछ नहीं, आंखों में कचरा चला गया है. मैं अभी आंखें धो कर आता हूं.’’

बदनाम गली: क्या थी उस गली की कहानी

‘‘हर माल 10 रुपए… हर माल की कीमत 10 रुपए… ले लो… ले लो… बिंदी, काजल, पाउडर, नेल पौलिश, लिपस्टिक…’ जोर से आवाज लगाते हुए राजू अपने ठेले को धकेल कर एक गली में घुमा दिया और आगे बढ़ने लगा. वह एक बदनाम गली थी. कई लड़कियां व औरतें खिड़की, दरवाजों और बालकनी में सजसंवर कर खड़ी थीं. कुछ लड़कियां खिलखिलाते हुए राजू के पास आईं और ठेले में रखे सामान को उलटपुलट कर देखने लगीं.

‘वह वाली बिंदी निकालो…

यह कौन से रंग की लिपस्टिक है…

बड़ी डब्बी वाला पाउडर नहीं है क्या…’

एकसाथ कई सवाल होने लगे. राजू जल्दीजल्दी उन सब की फरमाइशों के मुताबिक सामान दिखाने लगा.

जब राजू कोई सामान निकाल कर उन्हें देता तो वे सब उसे आंख मार देतीं और कहतीं, ‘पैसा भी चाहिए क्या?’ ‘‘बिना पैसे के कोई सामान नहीं मिलता,’’ राजू जवाब देता.

‘‘तू पैसा ही ले लेना. और कुछ चाहिए तो वह भी तुझे दे दूंगी,’’ तभी किसी लड़की ने ऐसा कहा तो बाकी सब लड़कियां भी खिलखिला कर हंस पड़ीं. राजू ने उन लड़कियों के ग्रुप के

पीछे थोड़ी दूरी पर एक दरवाजे पर खड़ी एक लड़की को देखा. घनी काली जुल्फें, दमकता हुआ गोरा रंग, पतली आकर्षक देह. राजू को लगा कि उस ने कहीं इस लड़की को देखा है.

राजू सामान बेचता रहा, पर लगातार उस लड़की के बारे में सोचता रहा. वह बारबार उसे अच्छी तरह देखने की कोशिश करता रहा, लेकिन सामान खरीदने वाली लड़कियों के सामने रहने की वजह से अच्छी तरह देख नहीं पा रहा था. तभी राजू ने देखा कि एक बड़ीबड़ी मूंछों वाला अधेड़ आदमी आया और उस लड़की को ले कर मकान के अंदर चला गया. शायद वह आदमी ग्राहक था.

थोड़ी देर बाद राजू सामान बेच कर आगे बढ़ गया, लेकिन वह लड़की उस के ध्यान से हट ही नहीं रही थी. धीरेधीरे शाम होने को आई. जब वह घर के करीब एक दुकान के पास से गुजरा तो उस ने देखा कि दुकान पर रामू चाचा के बजाय उन की 10 साला बेटी काजल बैठी थी और ग्राहकों को सामान दे रही थी. यह देख उसे कुछ याद आया.

आधी रात हो गई थी. राजू अब फिर उस बदनाम गली में था. उस की आंखें उसी लड़की को ढूंढ़ रही थीं. वहां कई लड़कियां सजसंवर कर ग्राहकों के आने का इंतजार कर रही थीं. राजू को देख कर वे उस से नैनमटक्का करने लगीं. ‘‘क्या रे, तू फिर आ गया… रात को भी सामान बेचेगा क्या?’’ एक लड़की मुसकरा कर बोली.

‘‘नहीं, अब मैं ग्राहक बन कर आया हूं,’’ राजू ने कहा.

‘‘अच्छा तो यह बात है. फिर बता, तुझे कौन सी वाली पसंद है?’’ एक लड़की ने पूछा.

राजू ने जवाब दिया, ‘‘मुझे तो सब पसंद हैं, लेकिन…’’ ‘‘लेकिन क्या…? चल मेरे साथ.

मुझे सब रंगीली बुलाते हैं,’’ एक लड़की ने आगे आ कर राजू का हाथ पकड़ लिया.

‘‘आज रहने दे रंगीली. मुझे तो वह पसंद है…’’

राजू ने अपना हाथ छुड़ाते हुए दिन में जिस लड़की को देखा था, उस के बारे में पूछा. ‘‘बहुत पूछ रहा है उसे. नई है न…’’

रंगीली बोली, ‘‘एक आशिक उसे ले कर कमरे में गया है. वह उस का रोज का ग्राहक है. खूब पसंद करता है उसे. तुझे चाहिए तो थोड़ी देर ठहर. वह उसे निबटा कर आ जाएगी यहीं.’’

राजू बेचैनी से उस लड़की के बाहर आने का इंतजार करने लगा. तकरीबन आधा घंटे बाद एक ग्राहक कमरे से बाहर निकल कर एक तरफ चला गया.

कुछ देर बाद उस कमरे से एक लड़की बाहर आई और दरवाजे पर खड़ी हो गई. राजू ने उसे देखा तो पहचान गया. वह वही लड़की थी, जिस की तलाश में वह आया था.

‘‘जा मस्ती कर. तेरी महबूबा आ गई,’’ रंगीली ने कहा. राजू उस लड़की के पास जा कर बोला, ‘‘जब से तुम्हें देखा है, तब से मैं तुम्हारा दीवाना हो गया हूं इसीलिए अभी आया हूं.’’

‘‘तो चलो,’’ वह लड़की राजू का हाथ पकड़ कर कमरे में ले जाने लगी. ‘पुलिस… पुलिस… भागो… भागो…’ तभी जोरदार शोर हुआ और चारों तरफ भगदड़ मच गई. सभी लड़कियां, ग्राहक और दलाल इधरउधर भाग कर छिपने की कोशिश करने लगे.

थोड़ी देर में ही पुलिस ने कोठेवाली, दलाल और कई ग्राहकों को गिरफ्तार कर लिया और थाने ले गई. कई लड़कियों को पुलिस ने आजाद करा कर नारी निकेतन भेज दिया. राजू को भी पुलिस ने उस लड़की के साथ गिरफ्तार कर लिया था, पर उस लड़की को नारी निकेतन नहीं भेजा गया. वह डर से थरथर कांप रही थी.

‘‘डरो नहीं खुशबू, अब तुम आजाद हो,’’ थाने पहुंच कर राजू ने उस लड़की से कहा. ‘‘तुम मेरा नाम कैसे जानते हो?’’ उस लड़की ने चौंक कर पूछा.

‘‘खुशबू, मेरी बेटी. कहां थी तू अब तक,’’ राजू के कुछ कहने से पहले वहां एक अधेड़ औरत आई और उस लड़की को अपने गले से लगा कर फफकफफक कर रोने लगी.

‘‘मां, मुझे बचा लो. मैं उस नरक में अब नहीं जाऊंगी,’’ खुशबू भी उस औरत से लिपट कर रोने लगी और अपनी आपबीती सुनाने लगी कि कैसे 6 महीने पहले कुछ गुंडों ने उस की दुकान के आगे से रात 9 बजे उठा लिया था और कुछ दिन उस की इज्जत से खेलने के बाद चकलाघर में बेच दिया था.

‘‘अब आप के साथ कुछ गलत नहीं होगा. सारे बदमाशों को गिरफ्तार कर मैं ने जेल भेज दिया है…’’ तभी थानेदार ने कहा, ‘‘बस आप लोगों को कोर्ट आना होगा मुकदमे की कार्यवाही को आगे बढ़ाने के लिए.’’ ‘‘मैं कोर्ट जाऊंगी. उन सभी बदमाशों को सजा दिलवा कर रहूंगी जिन्होंने मेरी बेटी की जिंदगी खराब की है…’’ वह औरत आंसू पोंछते हुए बोली.

‘‘अब मेरी बेटी से कौन ब्याह करेगा?’’ खुशबू की मां ने कहा. ‘‘अब आप लोग घर जा सकते हैं. जाने से पहले इन कागजात पर दस्तखत कर दें,’’ थानेदार ने कहा तो खुशबू, उस की मां और राजू ने दस्तखत कर दिए.

‘‘पर, आप लोगों को मेरे बारे में कैसे पता चला?’’ थाने से बाहर निकल कर खुशबू ने पूछा. ‘‘यह सब राजू के चलते मुमकिन हुआ. इसी ने मुझे बताया कि तुम्हें एक कोठे पर देखा है…

‘‘फिर मैं राजू के साथ पुलिस स्टेशन गई. जहां तुझे छुड़ाने की योजना बनी,’’ खुशबू की मां बोली. ‘‘राजू मुझे कैसे जानता है?’’ खुशबू ने हैरानी से पूछा.

‘‘तुम्हारी मां की परचून की दुकान पर मैं अकसर सौदा लेने जाता था वहीं तुम्हें देखा था. तब से ही मैं तुम्हें पहचानता था. जब तुम गायब हो गईं तो तुम्हारी मां दुकान पर हमेशा रोती रहती थीं. कहती थीं कि तुम्हारे बाबा जिंदा होते तो तुम्हें ढूंढ़ लाते. लेकिन वह अकेली कहां ढूंढ़ती फिरेंगी. ‘‘आज जब मैं अपना ठेला ले कर सामान बेचने गया तो कोठे पर तुम्हें देख कर तुम्हारी मां को सब बता दिया,’’ राजू बोल पड़ा.

‘‘आप का यह एहसान मैं कभी नहीं भूलूंगी,’’ खुशबू ने रुंधे गले से शुक्रिया अदा करते हुए कहा. तभी राजू झिझकते हुए खुशबू की मां से बोला, ‘‘आप एक एहसान मुझ पर भी कर दीजिए.’’

‘‘कहो बेटा, मैं क्या कर सकती हूं तुम्हारे लिए?’’ खुशबू की मां ने पूछा. ‘‘मुझे खुशबू का हाथ दे दीजिए,’’ राजू अटकअटक कर बोला.

राजू की मांग सुन कर दोनों मांबेटी की आंखों में आंसू आ गए. खुशबू ने आगे बढ़ कर राजू के पैर छू लिए. ‘‘तेरे जैसा बेटा पा कर मैं धन्य हो गई. पर यह तो बता कि तुझे जातपांत का वहम तो नहीं.’’

‘‘नहीं जी, हम गरीबों की क्या जाति. हमें तो दूसरों के लिए हड्डी तोड़नी ही है. फिर यह जाति का दंभ क्यों पालें. खुशबू जो भी हो, मुझे पसंद है,’’ राजू तमक कर बोला. नई सुबह के इंतजार में उन तीनों के कदम घर की ओर तेजी से बढ़ने लगे.

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