चिंता : आखिर क्या था लता की चिंताओं कारण?

बुधवार को दिन भर लता अपने पति के लौटने की प्रतीक्षा करती रही. घर के मुख्यद्वार पर जरा सी आहट होने पर उस की निगाहें खुद ब खुद बाहर की ओर उठ जाती थीं. एक बार तो उसे लगा जैसे कोई दरवाजे पर दस्तक दे रहा हो. आशा भरे मन से उस ने दरवाजा खोला. देखा तो एक पिल्ला दरवाजे से अंदर घुसने का व्यर्थ प्रयास कर रहा था, जिस के कारण खटखट की आवाज हो रही थी. देख कर लता के होंठों पर मुसकराहट तैर गईर्. अगले ही पल निराश हो कर वह फिर लौट आई.

पिछले शनिवार को उस के पति इलाहाबाद गए थे. उस दिन अचानक उन्हें अपने मुख्य अधिकारी की ओर से इलाहाबाद जाने का आदेश प्राप्त हुआ था. कुछ गोपनीय कागजात सुबह तक वहां जरूरी पहुंचाए जाने थे, इसलिए वह रात की गाड़ी से ही रवाना हो गए थे. लता को यह बता कर गए थे कि एकदो दिन का ही काम है, मंगलवार को वह हर हालत में वापस लौट आएंगे.

मंगलवार की शाम तक तो लता को अधिक फिक्र नहीं थी परंतु जब बुधवार की शाम तक भी उस के पति नहीं लौटे तो उसे चिंता सताने लगी. उसे लगा, जैसे उन्हें घर से गए महीनों बीत गए हों. जब देर रात गए तक भी पति महोदय नहीं आए तो उस के मन में बुरेबुरे विचार आने लगे. वह सोने का असफल प्रयास करने लगी. कभी एक ओर करवट लेती तो कभी दूसरी ओर, पर नींद जैसे उस से कोसों दूर थी.

‘कहां रुक सकते हैं वह,’ लता सोचने लगी, ‘कहीं गाड़ी न छूट गई हो. लेकिन अगर गाड़ी छूट गई होती तो अगली गाड़ी भी पकड़ सकते थे. कल न सही, आज तो आ ही सकते थे.

‘हो सकता है उन की जेब कट गई हो और सभी पैसे निकल गए हों. ऐसे में उन्हें बड़ी मुश्किल हो गई होगी. वापसी पर टिकट लेने के लिए उन के सामने विकट समस्या खड़ी हो गई होगी.’

पर दूसरे ही क्षण लता उस का समाधान भी खोजने लगी, ‘इस के बावजूद तो कई उपाय थे. वहां स्थित अपने कार्यालय के शाखा अधिकारी को अपनी समस्या बता कर पैसे उधार मांग सकते थे. वहां के शाखा अधिकारी यहीं से तो स्थानांतरित हो कर गए हैं और उन के अच्छे दोस्त भी हैं. हां, उन की कलाई पर घड़ी भी तो बंधी है, उसे बेच सकते हैं. नहीं, उन की जेब नहीं कटी होगी. अब तक न आ सकने का कोई और ही कारण रहा होगा.

‘हो सकता है स्टेशन पर उन का सामान चुरा लिया गया हो. तब तो वह बड़ी मुसीबत में फंस गए होंगे. उन के ब्रीफकेस में तो दफ्तर के बहुत सारे महत्त्वपूर्ण कागज थे. यदि ऐसा हो गया तो अनर्थ हो जाएगा. फिर तो उन्हें नौकरी से निकाल दिया जाएगा. अपनी नौकरी के बचाव के लिए अधिकारियों के सामने गिड़गिड़ाना पड़ेगा. कैसी भयावह स्थिति होगी वह?’

यह सोच कर लता की आंखों के सामने कई प्रकार के भयानक दृश्य घूमने लगे.

‘नौकरी छूट गई तो दरदर भटकना पड़ेगा. आजकल दूसरी नौकरी कहां मिलती है? हर महीने मिलने वाला वेतन एकदम बंद हो जाएगा. तनख्वाह के बिना गुजारा कैसे चलेगा? मकान का किराया कहां से देंगे? बच्चों की फीस, किताबें, घर का अन्य खर्च, इतना सबकुछ. कटकटा कर उन्हें हर माह 2,200 रुपए तनख्वाह मिलती है. सब का सब घर के अंदर व्यय हो जाता है. लेकिन अगर यह पैसा भी मिलना बंद हो गया तो कहां से करेंगे ये सब खर्च?

‘यदि ऐसी नौबत आ गई तो कोई अन्य उपाय करना होगा…हां, अपने मायके से कुछ मदद लेनी होगी. पर वह भी आखिर कब तक हमारी सहायता करेंगे? बाबूजी, मां, भैया, भाभी और उन के छोटेछोटे बच्चे…उन का भी भरापूरा परिवार है. उन के अपने भी तो बहुत सारे खर्चे हैं. अंत में तो उन्हें खुद ही कुछ न कुछ अपनी आमदनी का उपाय करना होगा.

‘हां, एक बात हो सकती है,’ लता को उपाय सूझा, ‘मैं अपने पिताजी से कहसुन कर उन्हें कोई छोटीमोटी दुकान खुलवा दूंगी. कितने कष्टदायक दिन होंगे वे भी. क्या हमारे लिए दूसरों का मोहताज बनने की नौबत आ जाएगी.’

लता सोचतेसोचते एक बार फिर वर्तमान में लौट आईर्. दोनों बच्चे चारपाई पर हर बात से बेखबर गहरी नींद सो रहे थे. वह सोचने लगी, ‘काश, वह खुद भी एक बच्ची होती.’

बाहर घुप अंधेरा छाया हुआ था. दूर कहीं से कुत्ते भूंकने की आवाज रात के सन्नाटे को तोड़ रही थी. उस ने अनुमान लगाया कि रात के 12 बज चुके होंगे. उस ने सिर को झटका दिया, ‘मैं तो यों ही जाने क्याक्या सोचने लगी हूं. बाहर जाने वाले को किसी कारण ज्यादा दिन भी तो लग सकते हैं.’

लता ने अपने मन को समझाने की पूरीपूरी कोशिश की. दुश्ंिचताएं उस का पीछा नहीं छोड़ रही थीं. न चाहते हुए भी उसे तरहतरह के खयाल सताने लगते थे.

‘नहीं, उन का सामान चोरी नहीं हुआ होगा. तो फिर वह अभी तक लौटे क्यों नहीं थे? कल तो उन्हें जरूर आ जाना चाहिए,’ और तब लता को पति पर रहरह कर गुस्सा आने लगा, अगर ज्यादा ही दिन लगाने थे तो कम से कम तार द्वारा तो सूचना दे ही सकते थे. फोन पर भी बता सकते थे कि वह अभी नहीं आ सकेंगे…आ जाएं एक बार, खूब खबर लूंगी उन की. आएंगे तो दरवाजा ही नहीं खोलूंगी. पर दरवाजा तो खोलना ही होगा. मैं उन से बात ही नहीं करूंगी. बेशक, जितना जी चाहे मनाते रहें. खूब तंग करूंगी. चाय तक के लिए नहीं पूछूंगी. वह समझते क्या हैं अपनेआप को. पता नहीं, जनाब वहां क्या गुलछर्रे उड़ा रहे होंगे. उन्हें क्या पता यहां उन की चिंता  में कोई दिनरात घुले जा रहा है.’

अगले क्षण उसे किसी अज्ञात भय ने घेर लिया, ‘कहीं वह किसी औरत वगैरह के चक्कर में न पड़ गए हों. आजकल बड़ेबडे़ शहरों में कई पेशेवर औरतें केवल अजनबी व्यक्तियों को फंसाने के चक्कर में रहती हैं. जरूर ऐसा ही हुआ होगा. उन्हें फंसा कर उन का सब कुछ लूट लिया होगा. पर ऐसा नहीं हो सकता. वह आसानी से किसी के चंगुल में फंसने वाले नहीं हैं. जरूर कोई अन्य कारण रहा होगा.’ लता के दिलोदिमाग में अजीब तर्कवितर्क चल रहे थे.

ऐसी कौन सी वजह हो सकती है जो वह अभी तक नहीं लौटे. कहीं कोई दुर्घटना वगैरह तो नहीं हो गई? नहीं, नहीं…लता एक बार तो भीतर तक कांप उठी.

‘रिकशा से स्टेशन आते समय कोई दुर्घटना…नहीं, नहीं…बस दुर्घटना या रेलगाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हो गई हो. अगर चोट लगी होगी तो किसी अस्पताल में पड़े कराह रहे होंगे…नहीं, नहीं, उन्हें कुछ नहीं हो सकता.’ लता मन ही मन पति की सलामती के लिए कामना करने लगी.

‘अगर ऐसी कोई दुर्घटना हुई होती तो अब तक अखबार, रेडियो या टेलीविजन पर खबर आ जाती.’

लता चारपाई से उठी और अलमारी में से पिछले 3-4 दिन के समाचारपत्र ढूंढ़ कर ले आई. उस ने अखबारों के सभी पन्ने उलटपलट कर एकएक खबर देख डाली. इलाहाबाद की किसी भी दुर्घटना की खबर नहीं थी.

‘यह मैं क्या उलटासीधा सोचने लगी. कितनी मूर्ख हूं मैं,’ लता ने अपनेआप को चिंता के भंवर से मुक्त करना चाहा. पर उस का व्याकुल मन उसे घेरघार कर फिर वहीं ले आता. उसे लगता, जैसे उस के पति अस्पताल में पड़े मौत से जूझ रहे हों.

‘वहां तो उन की देखभाल करने वाला कोई भी नहीं होगा. बेहोशी की हालत में वह अपना अतापता भी नहीं बता पाए होंगे. कहीं वह वहीं पर दम न तोड़ गए हों. नहीं, नहीं, उन का लावारिस शव…यह सोच कर वह अंदर तक सिहर उठी. उस ने पाया कि उस की आंखें गीली हो गई हैं और आंसुओं की बूंदें उस के गालों पर लुढ़क आईं. अपनी नादान सोच पर उसे हंसी भी आई और गुस्सा भी.

‘यह मुझे क्या होता जा रहा है. जागते हुए भी मुझे कैसेकैसे बुरे सपने आने लगे हैं.’ लता कल्पना की आंखों से देख रही थी कि कुछ लोग उस के पति के शव को गाड़ी पर लाद कर ले आए हैं. घर पर भीड़ जमा हो गई है. चारों ओर हंगामा मचा हुआ है. लोग उस से सहानुभूति जता रहे हैं.’

उस ने एक बार फिर उन विचारों को अपने दुखी मन से झटक देना चाहा, पर विचारों की उड़ान पर किस का वश चलता है.

‘उन के मरने के बाद मेरा क्या होगा? उन के अभाव में यह पहाड़ सी जिंदगी कैसे कटेगी,’ लता के विचारों की शृंखला लंबी होती जा रही थी.

‘नहीं, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. ऐसे में दूसरी शादी…नहीं, नहीं, किस से शादी करूंगी मैं? इस उम्र में कौन थामेगा मेरा हाथ. क्या कोई व्यक्ति उस के दोनों बच्चों को अपनाने के लिए राजी हो जाएगा. कौन करेगा इतना त्याग, पर मैं अभी इतनी बूढ़ी तो नहीं हो गई हूं कि कोई मुझे पसंद न करे. 24 वर्ष की उम्र ही क्या होती है. 2 बच्चों को जन्म देने के बाद भी मैं सुंदर व अल्हड़ युवती सी दिखाई देती हूं. उस दिन पड़ोस वाली कमला चाची कह रही थीं, ‘लता, लगता ही नहीं तुम 2 बच्चों की मां हो. अगर साथ में बच्चे न हों और मांग में सिंदूर न हो तो कोई पहचान ही नहीं सकता कि तुम विवाहिता हो.’

फिर एकाएक लता को सुशील का ध्यान हो आया, ‘सुशील अविवाहित है. कई बार मैं ने सुशील को प्यार भरी नजरों से अपनी ओर निहारते पाया है. वह अकसर मेरे बनाए खाने की तारीफ किया करता है. मुझे खुद भी तो सुशील बहुत अच्छा लगता है. सुशील सुदर्शन है, सभ्य है, मनमोहक व्यक्तित्व वाला है. वह उन का दोस्त भी है. यहां घर पर आताजाता रहता है. मैं किसी के माध्यम से उस के दिल को टोहने का प्रयास करूंगी. यदि वह मान गया तो उस के साथ मेरा जीवन खूब सुखमय रहेगा. वह उन से ऊंचे पद पर भी है. आय भी अच्छी है. उस के पास कार, बंगला सबकुछ है. वह जरूर मुझ से विवाह कर लेगा,’ लता अनायास मन ही मन खुद को सुशील के साथ जोड़ने लगी.

‘मैं सुशील के साथ हनीमून भी मनाने जाऊंगी. वह मुझे कश्मीर ले जाने के लिए कहेगा. मैं ने कभी कश्मीर नहीं देखा है. उन्होंने कभी मुझे कश्मीर नहीं दिखाया. कितनी बार उन से अनुरोध किया कि कभी कश्मीर घुमा लाओ, पर वह हमेशा टालते रहे हैं. पर मुन्ना और मुन्नी? उन को मैं यहीं उन के नानानानी के पास छोड़ जाऊंगी.’

सुशील के साथ प्रेम क्रीड़ा, छेड़छाड़ इत्यादि क्षण भर में ही लता कई बातें अनर्गल सोच गईर्.

कश्मीर का काल्पनिक दृश्य, तसवीरों में देखी डल झील, शिकारे, हाउस बोट, निशात बाग, शालीमार बाग, गुलमर्ग इत्यादि के बारे में सोच कर उस का मन रोमांचित हो उठा.

एकाएक उस की तंद्रा भंग हो गई. बाहर दरवाजे पर दस्तक हो रही थी. लता कल्पनाओं के संसार से मुक्त हो कर एकाएक वास्तविकता के धरातल पर लौट आईर्. अपने ऊटपटांग विचारों को स्मरण कर के वह ग्लानि से भर गई, ‘कितने नीच विचार हैं मेरे. क्या मैं इतना गिर गई हूं? क्या इतनी ही पतिव्रता हूं मैं?’ लता को लगा जैसे अभीअभी उस ने कोई भयंकर सपना देखा हो.

बाहर कोई अब भी दरवाजा खटखटा रहा था. ‘इतनी रात गए कौन हो सकता है?’ लता सोचती हुई उठी और आंगन में आ गईर्. दरवाजा खोला, देखा तो उस के पति ब्रीफकेस हाथ में लिए सामने खड़े मुसकरा रहे थे. वह दौड़ कर उन से लिपट गई.

प्रसन्नता के मारे उस की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी.

धोखा : काश शशि इतना समझ पाती

घर में चहलपहल थी. बच्चे खुशी से चहक रहे थे. घर की साजसज्जा और मेहमानों के स्वागतसत्कार का प्रबंध करने में घर के बड़ेबुजुर्ग व्यस्त थे.

किंतु शशि का मन उदास था. उसे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. दरअसल, आज उस की सगाई थी. घर की महिलाएं बारबार उसे साजश्रृंगार के लिए कह रही थीं लेकिन वह चुपचाप खिड़की से बाहर देख रही थी. उसे कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या करे?

2 महीने पहले जब उस की शादी तय हुई थी तो वह खूब रोई थी. वह किसी और को चाहती थी. लेकिन उस के मातापिता ने उस से पूछे बगैर एक व्यवसायी से उस की शादी पक्की कर दी थी.

वह अभी शहर में होस्टल में रह कर बीएड कर रही थी. वहीं अपने साथ पढ़ने वाले राकेश को वह दिल दे बैठी थी. लेकिन उस ने यह बात अपने मातापिता को नहीं बताई थी क्योंकि वह खुद या राकेश अभी अपने पैरों पर खड़े नहीं हो पाए थे. पढ़ाई पूरी होने में भी 2 साल बाकी थे. इसलिए वह चाहती थी कि शादी 2 साल के लिए किसी तरह से रुकवा ले. उस ने सोचा कि जब परिस्थितियां ठीक हो जाएंगी तो मन की बात अपने मातापिता को बता कर राकेश के लिए उन्हें राजी कर लेगी.

इसीलिए, पिछली छुट्टी में वह घर आई तो अपनी शादी की बात पक्की होने की सूचना पा कर खूब रोई थी. शादी के लिए मना कर दिया था, लेकिन किसी ने उस की एक न सुनी. पिताजी तो एकदम भड़क गए और चिल्लाते हुए बोले थे, ‘शादी वहीं होगी जहां मैं चाहूंगा.’

राकेश को उस ने फोन पर ये बातें बताई थीं. वह घबरा गया था. उस ने कहा था, ‘शशि, तुम शादी के लिए मना कर दो.’

‘नहीं, यह इतना आसान नहीं है. पिताजी मानने को तैयार नहीं हैं.’

‘लेकिन मैं कैसे रहूंगा? अकेला हो जाऊंगा तुम्हारे बिना.’

‘मैं भी तुम्हारे बिना जी नहीं पाऊंगी, राकेश,’ शशि का गला भर आया था.

‘एक काम करो. तुम पहले होस्टल आ जाओ. कोई उपाय निकालते हैं,’ राकेश ने कहा था, ‘मैं रेलवे स्टेशन पर तुम्हारा इंतजार करूंगा. 2 नंबर गेट पर मिलना. वहीं से दोनों होस्टल चलेंगे.’

उदास स्वर में शशि बोली थी, ‘ठीक है. मैं 2 नंबर गेट पर तुम्हारा इंतजार करूंगी.’

तय योजना के अनुसार, शशि रेल से उतर कर 2 नंबर गेट पर खड़ी हो गई. तभी एक कार आ कर शशि के पास रुकी. उस में से राकेश बाहर निकला और शशि के गले लग कर बोला, ‘मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता.’

शशि रोआंसी हो गई. राकेश ने कहा, ‘आओ, गाड़ी में बैठ कर बातें करते हैं.’

‘राकेश कितना सच्चा है,’ शशि ने सोचा, ‘तभी होस्टल जाने के लिए गाड़ी ले आया. नहीं तो औटो से 20 रुपए में पहुंचती. 2 किलोमीटर दूर है होस्टल.’

गाड़ी में बैठते ही राकेश ने शशि का हाथ अपने हाथ में ले कर कहा, ‘शशि, मैं तुम से प्यार करता हूं. तुम नहीं मिलीं, तो अपनी जान दे दूंगा.’

कार सड़क पर दौड़ने लगी.

शशि बोली, ‘नहीं राकेश, ऐसा नहीं करना. मैं तुम्हारी हूं और हमेशा तुम्हारी ही रहूंगी.’

‘इस के लिए मैं ने एक उपाय सोचा है,’ राकेश ने कहा.

‘क्या,’ शशि बोली.

‘हम लोग शादी कर लेते हैं और अपनी नई जिंदगी शुरू करते हैं.’

शशि आश्चर्यचकित हो कर बोली, ‘यह क्या कह रहे हो, तुम्हारा दिमाग तो ठीक है न.’

‘तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है,’ तभी उस ने ड्राइवर से कार रोकने को कहा.

कार एक पुल पर पहुंच गई थी. नीचे नदी बह रही थी. राकेश कार से बाहर आ कर बोला, ‘तुम शादी के लिए हां नहीं कहोगी तो मैं इसी पुल से नदी में कूद कर जान दे दूंगा,’ यह कह कर राकेश पुल की तरफ बढ़ने लगा.

‘यह क्या कर रहे हो, राकेश?’ शशि घबरा गई.

‘तो मैं जी कर क्या करूंगा.’

‘चलो, मैं तुम्हारी बात मानती हूं. लेकिन जान न दो,’ यह कह कर उस ने राकेश को खींच कर वापस कार में बिठा दिया और खुद भी बगल में बैठ कर बोली, ‘लेकिन यह सब होगा कैसे?’

शशि के हाथों को अपने सीने से लगा कर राकेश बोला, ‘अगर तुम तैयार हो तो सब हो जाएगा. हम दोनों आज ही शादी करेंगे.’

शशि चकित रह गई. इस निर्णय पर वह कांप रही थी. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे? न कहे तो प्यार टूट जाता और राकेश जान दे देता. हां कहे तो मातापिता, रिश्तेदार और समाज के गुस्से का शिकार बनना पड़ेगा.

‘क्या सोच रही हो?’ राकेश ने पूछा.

शशि बोली, ‘यह सब अचानक और इतनी जल्दी ठीक नहीं है, मुझे कुछ सोचनेसमझने का समय तो दो.’

‘इस का मतलब तुम्हें मुझ से प्यार नहीं है. ठीक है, मत करो शादी. मैं भी जिंदा नहीं रहूंगा.’

‘अरे, यह क्या कर रहे हो? मैं तैयार हूं, लेकिन शादी कोई खेल नहीं है. कैसे शादी होगी. हम कहां रहेंगे? घर के लोग नाराज होंगे तो क्या करेंगे? हमारी पढ़ाई का क्या होगा?’ शशि ने कहा.

‘तुम इस की चिंता मत करो. मैं सब संभाल लूंगा. एक बार शादी हो जाने दो. कुछ दिनों बाद सब मान जाएंगे. वैसे अब हम बालिग हैं. अपने जीवन का फैसला स्वयं ले सकते हैं,’ राकेश ने समझाया.

‘लेकिन मुझे बहुत डर लग रहा है.’

‘मैं हूं न. डरने की क्या बात है?’

‘चलो, फिर ठीक है. मैं तैयार हूं,’ डरतेडरते शशि ने शादी के लिए हामी भर दी. वह किसी भी कीमत पर अपना प्यार खोना नहीं चाहती थी.

राकेश खुश हो कर बोला, ‘तुम कितनी अच्छी हो.’

थोड़ी देर बाद कार एक होटल के गेट पर रुकी. राकेश बोला, ‘डरो नहीं, सब ठीक हो जाएगा. हम लोग आज ही शादी कर लेंगे, लेकिन किसी को बताना नहीं. शादी के बाद कुछ दिन हम लोग होस्टल में ही रहेंगे. 15 दिनों बाद मैं तुम्हें अपने घर ले चलूंगा. मेरी मां अपनी बहू को देखना चाहती हैं. वे बहुत खुश होंगी.’

‘तो क्या तुम ने अपनी मम्मीपापा को सबकुछ बता दिया?’

‘नहीं, सिर्फ मम्मी को, क्योंकि मम्मी को गठिया है. ज्यादा चलफिर नहीं पातीं. इसीलिए वे जल्दी बहू को घर लाना चाहती हैं. किंतु पापा नहीं चाहते कि मेरी शादी हो. वे चाहते हैं कि मैं पहले पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊं, लेकिन वे भी मान जाएंगे फिर हम दोनों की सारी मुश्किलें खत्म हो जाएंगी,’ राकेश बोला.

‘सच, तुम बहुत अच्छे हो.’

‘तो मेरी प्यारी महबूबा, तुम होटल में आराम करो और हां, इस बैग में तुम्हारी जरूरत की सारी चीजें हैं. तुम रात 8 बजे तक तैयार हो जाना. फिर हम दोनों पास के मंदिर में चलेंगे. वहां शादी कर लेंगे. फिर हम होटल में आ जाएंगे. आज हमारी जिंदगी का सब से खुशी का दिन होगा.’

कुछ प्रबंध करने राकेश बाहर चला गया. शशि उधेड़बुन में थी. उस के कुछ समझ में नहीं आ रहा था. अपने मातापिता को धोखा देने की बात सोच कर उसे बुरा लग रहा था, लेकिन राकेश जिद पर अड़ा था और वह राकेश को खोना नहीं चाहती थी.

कब रात के 8 बज गए, पता ही नहीं चला. तभी राकेश आ कर बोला, ‘अरे, अभी तक तैयार नहीं हुई? समय कम है. तैयार हो जाओ. मैं भी तैयार हो रहा हूं.’

‘लेकिन राकेश यह सब ठीक नहीं हो रहा है,’ शशि ने कहा.

‘यदि ऐसा है तो चलो, तुम्हें होस्टल पहुंचा देता हूं. किंतु मुझे हमेशा के लिए भूल जाना. मैं इस दुनिया से दूर चला जाऊंगा. जहां प्यार नहीं, वहां जी कर क्या करना?’ राकेश उदास हो कर बोला.

‘तुम बहुत जिद्दी हो, राकेश. डरती हूं कहीं कुछ बुरा न हो जाए.’

‘लेकिन मैं किसी कीमत पर अपना प्यार पाना चाहता हूं, नहीं तो…’

‘बस राकेश, और कुछ मत कहो.’

1 घंटे में तैयार हो कर दोनों पास के एक मंदिर में पहुंच गए. वहां राकेश के कुछ दोस्त पहले से मौजूद थे.

राकेश मंदिर के पुजारी से बोला, ‘पंडितजी, हमारी शादी जल्दी करा दीजिए.’

जल्दी ही शादी की प्रक्रिया पूरी हो गई. शशि और राकेश एकदूसरे के हो गए. शशि को अपनी बाहों में ले कर राकेश बोला, ‘चलो, अब हम होटल चलते हैं. आज की रात वहीं बितानी है.’

दोनों होटल में आ गए. लेकिन यह दूसरा होटल था. शशि को घबराहट हो रही थी. राकेश बोला, ‘चिंता न करो. अब सब ठीक हो जाएगा. आज की रात हम दोनों की खास रात है न.’

शशि मन ही मन डर रही थी, किंतु राकेश को रोक न सकी. फिर उसे भी अच्छा लगने लगा था. दोनों एकदूसरे में समा गए. कब 2 घंटे बीत गए, पता ही नहीं चला.

‘थक गई न. चलो, पानी पी लो और सो जाओ,’ पानी का गिलास शशि की तरफ बढ़ाते हुए राकेश बोला. शशि ने पानी पी लिया. जल्द ही उसे नींद आने लगी. वह सो गई.

सुबह जब शशि की नींद खुली तो वह हक्काबक्का रह गई. उस के शरीर पर एक भी वस्त्र नहीं था. उस के मुंह से चीख निकल गई. जब उस ने देखा कि कमरे में राकेश के अलावा 3 और लड़के थे. सब मुसकरा रहे थे.

तभी राकेश बोला, ‘चुप रहो जानेमन, यहां तुम्हारी आवाज सुनने वाला कोई नहीं है. ज्यादा इधरउधर की तो तेरी आवाज को हमेशा के लिए खामोश कर देंगे.’

‘यह तुम ने अच्छा नहीं किया, राकेश,’ अपने शरीर को ढकने का प्रयास करती हुई शशि रोने लगी, ‘तुम ने मुझे बरबाद कर दिया. मैं सब को बता दूंगी. पुलिस में शिकायत करूंगी.’

‘नहीं, तुम ऐसा नहीं करोगी अन्यथा हम तुम्हें जिंदा नहीं छोड़ेंगे. वैसे ऐसा करोगी तो तुम खुद ही बदनाम होगी,’ कह कर राकेश हंसने लगा. उस के दोस्त भी हंसने लगे.

शशि का बदन टूट रहा था. उस के शरीर पर जगहजगह नोचनेखसोटने के निशान थे. वह समझ गई कि रात में पानी में नशीला पदार्थ मिला कर पिलाया था राकेश ने. उस के बेहाश हो जाने पर सब ने उस के साथ…

शशि का रोरो कर बुरा हाल हो गया.

राकेश बोला, ‘अब चुप हो जा. जो हो गया उसे भूल जा. इसी में तेरी भलाई है और जल्दी से तैयार हो जा. तुझे होस्टल पहुंचा देता हूं. और हां, किसी से कुछ कहना नहीं वरना अंजाम अच्छा नहीं होगा.’

शशि को अपनी व अपने परिवार की खातिर चुप  रहना पड़ा था.

‘‘अरे, खिड़की के बाहर क्या देख रही हो? जल्दी तैयार हो जा. मेहमान आने वाले होंगे,’’ तभी मां ने उसे झकझोरा तो वह पिछली यादों से वर्तमान में लौटी.

‘‘वह प्यार नहीं धोखा था. उस ने अपने मजे के लिए मेरी सचाई और भावना का इस्तेमाल किया,’’ शशि ने मन ही मन सोचा.

अपने आंसू पोंछते हुए शशि बाथरूम में घुस गई. उसे अपनी नासमझी पर गुस्सा आ रहा था. अपनी जिंदगी का फैसला उस ने दूसरे को करने का हक दे दिया था जो उस की भलाई के लिए जिम्मेदार नहीं था. इसीलिए ऐसा हुआ, लेकिन अब कभी वह ऐसी भूल नहीं करेगी. मुंह पर पानी के छींटे मार कर वह राकेश के दिए घाव के दर्द को हलका करने की कोशिश करने लगी.

मेहमान आ रहे हैं. अब उसे नई जिंदगी शुरू करनी है. हां, नई जिंदगी…वह जल्दीजल्दी सजनेसंवरने लगी.

अधूरी कहानी

बात उन दिनों की है, जब राघव 12वीं जमात पास कर के कालेज में पढ़ने गया था. माली हालत अच्छी न होने की वजह से उसे पापा के पास बेंगलुरु जाना पड़ा और इसी बीच वह वहीं काम भी करने लगा.

समय मिलते ही राघव अपने सारे दोस्तों को मैसेज करता था. वह शायरी का तो शौकीन था ही, हर रोज नईनई शायरी दोस्तों को भेजता और बदले में वे तारीफ भेजते. वे ज्यादातर बातें मैसेज के जरीए ही करते थे.

दोस्तों के अलावा राघव अपनी चचेरी भाभी सोनी को भी मैसेज करता था. वे खड़गपुर में राघव के भाई के साथ रहती थीं. राघव और सोनी दोनों जब भी बातें करते तो ऐसा नहीं लगता था कि कोई देवरभाभी बातें कर रहे हैं. ऐसा लगता था, मानो 2 जिगरी दोस्त बातें कर रहे हों.

एक दिन अचानक राघव के फोन पर एक नंबर से एक प्यारा सा मैसेज आया. वह पढ़ कर बहुत खुश हो गया. लेकिन अगले ही पल वह हैरान रह गया, क्योंकि जब उस नए नंबर पर उस ने फोन किया, तो फोन का जवाब नहीं मिल सका.

राघव ने उसी नंबर पर मैसेज किया, ‘कौन हो तुम?’

उधर से जवाब आया, ‘आप की अपनी दोस्त.’

राघव ने नाम पूछा, तो उस ने बताया नहीं. ‘फिर कभी…’ का मैसेज लिख दिया.

राघव ने सोचा, ‘शायद मेरा ही कोई दोस्त मुझे नए फोन नंबर से परेशान कर रहा है.’

रात को राघव ने उस नंबर पर फोन किया. एक लड़की ने फोन उठाया… और जैसे ही वह ‘हैलो’ बोली, राघव के रोंगटे खड़े हो गए.

राघव ने हकलाते हुए पूछा, ‘‘कौन हो तुम? मेरा नंबर तुम्हें किस ने दिया? तुम कहां से बोल रही हो?’’

उस लड़की ने बताया, ‘मेरा नाम पूजा है?’

इस के बाद उस ने राघव से कहा कि वह उसे पहले से जानती है. उस के बारे में बहुत सारी बातें भी बताईं. वह देखने में कैसा है, उस का कद कितना है वगैरह.

राघव ने पूछा, ‘‘मुझे कहां देखा आप ने?’’

उस लड़की ने कहा, ‘4 महीने पहले मुजफ्फरपुर रेलवे स्टेशन पर देखा था, तभी से नंबर ढूंढ़ रही हूं.’

राघव चौंक गया, क्योंकि ठीक 4 महीने पहले वह अपनी मौसी को छोड़ने वहां गया था. वह खयालीपुलाव पकाते हुए सोचने लगा कि एक अनजान लड़की ने अनजान जगह पर उसे देखा और तब से उस का फोन नंबर ढूंढ़ रही है.

पहले तो वह अनजान था, पर अब राघव दोस्ती के नाते उस से बातें करने लगा.

कुछ ही दिन हुए थे राघव और उस लड़की की दोस्ती को कि इसी बीच उस का एक मैसेज आया, जिस में लिखा था, ‘मुझे माफ कर देना. मैं नहीं चाहती कि हमारी दोस्ती की शुरुआत झूठ से हो. सच तो यह है कि मैं ने आप को कभी देखा ही नहीं. बस, सोनी भाभी के फोन पर आप का मैसेज पढ़ा, जो मुझे बहुत पसंद आया. इस के बाद भाभी से आप का नंबर ले कर मैसेज कर दिया.

‘मैं ने सोचा कि अगर आप को पहले ही सब बता देती, तो आप के बारे में इतना कुछ जानने का मौका न मिलता. इस झूठ के लिए मुझे माफ कर देना और मेरी दोस्ती को स्वीकार करना.’

यह मैसेज पढ़ कर राघव को थोड़ा गुस्सा तो आया, पर दोस्तों से इस बारे में जब उस ने बात की, तो वे भी उस की तारीफ के पुल बांधने लगे. उसे सलाह दी कि लड़की अच्छी है, तभी तो उस ने सब सचसच बता दिया. और तो और वह दोस्ती भी करना चाहती है. ऐसे सच्चे दोस्त कम ही मिलते हैं. उसे फोन कर और दोस्ती की नई शुरुआत कर. फिर क्या था, राघव का दिल बागबाग हो उठा.अगली सुबह राघव ने मैसेज किया, ‘गुड मौर्निंग दोस्त.’

उधर से भी मैसेज आया, जिस में पूछा गया था, ‘मुझे माफ तो कर दिया न? फिर से सौरी ऐंड थैंक्यू… दोस्ती को आगे बढ़ाने के लिए.’

राघव ने भी फिल्मी अंदाज में लिख भेजा, ‘दोस्ती में नो थैंक्स, नो सौरी.’

उन दोनों की दोस्ती परवान चढ़ती गई. पहली बार घर जाते समय राघव उस से खड़गपुर रेलवे स्टेशन पर मिला. ट्रेन वहां ज्यादा देर नहीं रुकी, इसलिए बातें भी न हो सकीं. सिर्फ ‘हायहैलो’ ही हो पाई.

उस समय छठ पूजा की तैयारियां चल रही थीं. राघव घर पर ही था. सोनी भाभी हर साल छठ पूजा के समय गांव आ जातीं. इस बार भी वे आईं, पर अकेली नहीं, पूजा भी साथ थी.

राघव इतना खुश था कि बयां नहीं कर सकता था. उस ने पूजा को अपनी मां और बहनों से मिलवाया. वह पूरा दिन उसी के साथ रहा.

सोनी भाभी कहां चूकने वाली थीं. वे भी ताने कसतीं, ‘‘क्यों देवरजी, क्या इसे यहीं छोड़ दूं हमेशा के लिए?’’

भाभी की ऐसी बातें सुन कर राघव के मन में लड्डू फूटने लगते. काश, ऐसा ही होता.

पूजा थी ही ऐसी. गोरा रंग, लंबी नाक, लंबा कद, पतली कमर, मानो कोई अप्सरा हो. राघव मन ही मन उसे चाहने लगा था. उस के फोन की बैटरी और पैसे खत्म हो जाते, पर बातें नहीं. हर साल छठ पूजा पर पूजा भी सोनी भाभी के साथ उस से मिलने चली आती, लेकिन राघव की कभी हिम्मत नहीं हुई कि वह भी कभी उस के घर जाए.

राघव जब भी गांव आता, उस से स्टेशन पर ही मिल कर चला जाता. प्यार वह भी उस से करती थी, पर बोलती नहीं थी. राघव उस से प्यार का इजहार करवा कर ही रहा.

अब दोस्ती भूल कर प्यारमुहब्बत की बातें होने लगीं. बात शादी तक पहुंच गई. राघव ने हिम्मत कर के पड़ोसियों के जरीए अपने प्यार और शादी की बात मां तक पहुंचा दी.

मां ने इस रिश्ते को एक बार में ही खारिज कर दिया. इस की वजह यह थी कि लड़की उन की बिरादरी की नहीं थी. पढ़ीलिखी है. शहर की रहने वाली है. गांव के बारे में क्या जानती है?

मां के खयाल से शायद पूजा घरपरिवार न संभाल सके. उन को ऐसी लड़की चाहिए थी, जो घर को संभाल सके. घर तो पूजा संभाल ही लेती, पर मां को कौन समझाए. पुराने खयालों वाली मां जो एक बार बोल देती हैं, वही राघव के लिए पत्थर की लकीर हो जाता था.

समय का पहिया अपनी रफ्तार से चलता रहा. राघव के दोस्तों, पड़ोसियों सभी ने उसे सलाह दी कि वह पूजा को भगा ले जाए. मां कुछ दिन नाराज रहेंगी, पर समय के साथ सब ठीक हो जाएगा.

राघव आगेपीछे की सोचने लगा, ‘जैसे हर मां के सपने होते हैं, वैसे ही मेरी मां के भी सपने होंगे. वे सोचती होंगी कि उन के बेटे की शादी होगी. बैंडबाजा बजेगा, वे खुशी के मारे नाचेंगी…’

राघव ने भी सोच लिया था कि पूरे परिवार के सामने उस की शादी होगी. वह अपनी मां के सपनों को नहीं तोड़ सकता.

एक दिन राघव ने पूजा को अपने मन की बात बता दी. वह सुन कर रोने लगी. रोया तो वह भी था.

कुछ सोच कर पूजा ने कहा, ‘‘आप की शादी किसी से भी हो, पर आप हमेशा खुश रहना. मां का दिल कभी मत तोड़ना. आप वहीं शादी कीजिएगा, जहां आप की मां चाहती हैं. जब तक हम दोनों में से किसी एक की शादी नहीं होती, तब तक हम दोस्ती के नाते बातें तो कर ही सकते हैं.’’

फिर पूजा छठ पूजा पर गांव नहीं आई. राघव भी उदास रहने लगा. उन दोनों ने क्याक्या सपने देखे थे कि शादी होगी, शादी के बाद घर पर ही वह कोई काम करेगा, पूजा बच्चों को ट्यूशन पढ़ाएगी और वह दुकान चलाएगा.

कहते हैं न कि आदमी जो सोचता है, वह हमेशा पूरा होता है, बल्कि सच में सोचा हुआ काम कभी पूरा नहीं होता. जो राघव ने सोचा था, वह सब तो अधूरा ही रह गया.

वह काली रात : क्या थी मुन्नू भैया की करतूत- भाग 1

जैसे ही रंजना औफिस से आ कर घर में घुसीं, बहू रश्मि पानी का गिलास उन के हाथ में थमाते हुए खुशी से हुलसते हुए बोली, मांजी, 2 दिनों बाद मेरी दीदी अपने परिवार सहित भोपाल घूमने आ रही हैं. आज ही उन्होंने फोन पर बताया.’’

‘‘अरे वाह, यह तो बड़ी खुशी की बात है. तुम्हारी दीदीजीजाजी पहली बार यहां आ रहे हैं, उन की खातिरदारी में कोई कोरकसर मत रखना. बाजार से लाने वाले सामान की लिस्ट आज ही अपने पापा को दे देना, वे ले आएंगे.’’

‘‘हां मां, मैं ने तो आने वाले 3 दिनों में घूमने और खानेपीने की पूरी प्लानिंग भी कर ली है. मां, दीदी पहली बार हमारे घर आ रही हैं, यह सोच कर ही मन खुशी से बावरा हुआ जा रहा है,’’ रश्मि कहते हुए खुशी से ओतप्रोत थी.

‘‘बड़ी बहन मेरे लिए बहुत खास है. 12वीं कक्षा में पापा ने जबरदस्ती मुझे साइंस दिलवा दी थी और मैं फेल हो गई थी. मैं शुरू से प्रत्येक क्लास में अव्वल रहने की वजह से अपनी असफलता को सहन नहीं कर पा रही थी और निराशा से घिर कर धीरेधीरे डिप्रैशन में जाने लगी थी. तब दीदी की शादी को 2 महीने ही हुए थे. मेरी बिगड़ती हालत को देख कर दीदी बिना कुछ सोचेविचारे मुझे अपने साथ अपनी ससुराल ले गईर् थीं. जगह बदलने और दीदीजीजाजी के प्यार से मैं धीरेधीरे अपने दुख से उबरने लगी थी. मेरा मनोबल बढ़ाने में जीजाजी ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी. उन्हीं की मेहनत और प्यार का फल है कि डौक्टरेट कर के आज कालेज में पढ़ा कर खुशहाल जिंदगी जी रही हूं. मां, कितना मुश्किल होता होगा अपनी नईनवेली गृहस्थी में किसी तीसरे, वह भी जवान बहन को शामिल करना,’’ रश्मि ने अपनी दीदी की सुनहरी यादों को ताजा करते हुए अपनी सास से कहा.

‘‘हां, सो तो है बेटा, पर तुम उन की यादों में ही खोई रहोगी कि कुछ तैयारी भी करोगी. दीदी के कितने बच्चे हैं?’’ रंजना ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘2 बेटे हैं मां, बड़ा बेटा अमन इंजीनियरिंग के आखिरी साल में है और छोटा अर्णव 12वीं कर रहा  है,’’ रश्मि ने खुशी से उत्तर दिया.

‘‘अच्छा,’’ कहते हुए रंजना ने अपने 2 कमरों के छोटे से घर पर नजर डाली जो 4 लोगों के आ जाने से भर जाता था. उन्होंने पति के साथ मिल कर बड़े जतन से इस घर को उस समय बनाया था जब बेटे का जन्म हुआ था. तब आर्थिक स्थिति भी उतनी अच्छी नहीं थी. सो, किसी तरह 2 कमरे बनवा लिए थे. उस के बाद परिवार बड़ा हो गया पर घर उतना ही रहा. कितनी बार सोचा भी कि ऊपर 2 कमरे और बनवा लें, ताकि किसी के आने पर परेशानी न हो, पर सुरसा की तरह मुंह फाड़ती इस महंगाई में थोड़ा सा पैसा बचाना भी मुश्किल हो जाता है. खैर, देखा जाएगा.

2 दिनों बाद सुबह ही रश्मि की दीदी परिवार सहित आ गईं. सभी लोग हंसमुख और व्यवहारकुशल थे. शीघ्र ही रश्मि के दोनों बच्चे 12 वर्षीय धु्रव और 8 वर्षीया ध्वनि दीदी के बेटों के साथ घुलमिल गए. पुरुष देशविदेश की चर्चाओं में व्यस्त हो गए. वहीं रश्मि और उस की दीदी किचन में खाना बनाने के साथसाथ गपों में मशगूल हो गईं. रंजना स्वयं भी नाश्ता कर के अपने औफिस के लिए रवाना हो गईर्ं.

नहाधो कर सब ने भरपेट नाश्ता किया. रश्मि ने खाना बना कर पैक कर लिया ताकि घूमतेघूमते भूख लगने पर खाया जा सके. पूरे दिन भोपाल घूमने के बाद रात का खाना सब ने बाहर ही खाया. मातापिता के लिए खाना रश्मि के पति ने पैक करवा लिया. घर आ कर ताश की महफिल जम गई जिस में रंजना और उन के रिटायर्ड पति भी शामिल थे.

रात्रि में हौल में जमीन पर ही सब के बिस्तर लगा दिए गए. सभी बच्चे एकसाथ ही सोए. बाकी सदस्य भी वहीं एडजस्ट हो गए. रश्मि की दीदी ने पहले ही साफ कह दिया था कि मम्मीपापा अपने कमरे में ही लेटेंगे ताकि उन्हें कोई डिस्टर्ब न करे. अपने रात्रिकालीन कार्य और दवाइयां इत्यादि लेने के बाद जब रंजना हौल में आईं तो कम जगह में भी सब को इतने प्यार से लेटे देख कर उन्हें बड़ी खुशी हुई. अचानक बच्चों के बीच ध्वनि को लेटे देख कर उन का माथा ठनका, वे अचानक बहुत बेचैन हो उठीं और बहू रश्मि को अपने कमरे में बुला कर कहा, ‘‘बेटा, ध्वनि अभी छोटी है, उसे पास सुलाओ.’’

‘‘मां, वह नहीं मान रही. अपने भाइयों के पास ही सोने की जिद कर रही है. सोने दीजिए न, दिनभर के थके हैं सारे बच्चे, एक बार आंख लगेगी तो रात कब बीत जाएगी, पता भी नहीं चलेगा,’’ कह कर रश्मि वहां से खिसक गईं.

वे सोचने लगीं, ‘यह तो सही है कि थकान में रात कब बीत जाती है, पता नहीं चलता, पर रात ही तो वह समय है जब सब सो रहे होते हैं और करने वाले अपना खेल कर जाते हैं. रात ही तो वह पहर होता है जब चोर लाखोंकरोड़ों पर हाथ साफ करते हैं. दिन में कुलीनता, शालीनता, सज्जनता और करीबी रिश्तों का नकाब पहनने वाले अपने लोग ही अपनी हवस पूरी करने के लिए रात में सारे रिश्तों को तारतार कर देते हैं.

कहते हैं न, दूध का जला छाछ भी फूंकफूंक कर पीता है, सो, उन का मन नहीं माना और कुछ देर बाद ही वे फिर हौल में जा पहुंचीं. ध्वनि उसी स्थान पर लेटी थी. उन्होंने धीरे से उस के पास जा कर न जाने कान में क्या कहा कि वह तुरंत अपनी दादी के साथ चल दी. बड़े प्यार से अपनी बगल में लिटा कर वे ध्वनि को कहानी सुनाने लगीं और कुछ ही देर में ध्वनि नींद की आगोश में चली गई. पर नातेरिश्तों पर कतई भरोसा न करने वाला उन का विद्रोही मन अतीत के गलियारे में जा पहुंचा. तब वे भी अपनी पोती ध्वनि की उम्र की ही थीं. परिवार में उन के अलावा

4 वर्षीया एक छोटी बहन थी. मां गांव की अल्पशिक्षित सीधीसादी महिला थीं. एक बार ताउजी का 23 वर्षीय बेटा मुन्नू उन के घर दोचार दिनों के लिए कोई प्रतियोगी परीक्षा देने आया था. भाई के आने से घर में सभी बहुत खुश थे, आखिर वह पहली बार जो आया था. गरमी का मौसम था. उस समय कूलरएसी तो होते नहीं थे, सो, मां ने खुले छोटे से आंगन में जमीन पर ही बिस्तर लगा दिए थे.

बाप बड़ा न भैया : पुनदेव को मिली कौन सी राह – भाग 1

उस दिन डाक में एक सुनहरे, रुपहले,  खूबसूरत कार्ड को देख कर उत्सुकता हुई. झट खोला, सरसरी निगाहों से देखा. यज्ञोपवीत का कार्ड था. भेजने वाले का नाम पढ़ते ही एक झनझनाहट सी हुई पूरे शरीर में.

ऐसी बात नहीं थी कि पुनदेव का नाम पढ़ कर मुझे कोई दुख हुआ, बल्कि सच तो यह था कि मुझे उस व्यवस्था पर, उस सामाजिक परिवेश पर रोना आया.

पुनदेव का तकिया कलाम था ‘दरबे से सरबा जे चहबे से करबा’ तब मुझे उस की यह स्वरचित पंक्तियां बेवकूफी भरी लगती थीं पर अब उस कार्ड को देख कर लग रहा था, शायद वही सही सोचता था और हमारी इस व्यवस्था को बेहतर जानता था.

कार्ड को फिर पढ़ा. लिखा था, ‘‘डाक्टर पुनदेव (एम.ए. पीएच.डी.) प्राचार्य, रामयश महाविद्यालय, हीरापुर, आप को सपरिवार निमंत्रित करते हैं, अपने तृतीय पुत्र के यज्ञोपवीत संस्कार के अवसर पर…’’

मेरी आंखें कार्ड पर थीं, पर मन बरसों पीछे दौड़ रहा था.

पुनदेव 5वीं बार 10वीं कक्षा में फेल हो गया था. उस के परिवार में अब तक किसी ने 7वीं पास नहीं की थी, पुनदेव क्या खा कर 10वीं करता. सारे गांव में जंगल की आग की तरह यही चर्चा फैली हुई थी. जिस केजो जी में आता, कहता और आगे बढ़ जाता.

एक वाचाल किस्मके अधेड़ व्यक्ति ने व्यंग्य कसते हुए कहा, ‘लक्ष्मी उल्लू की सवारी करेगी. पुनदेव के खानदान में सभी लोग उल्लू हैं.’

पर रामयश (पुनदेव के पिता) उन लोगों में से थे जो यह मान कर चलते थे कि इस दुनिया में लक्ष्मी की कृपा से सब काला सफेद हो सकता है. वह काले को सफेद करने की उधेड़बुन में लगे थे.

तब तक उन के दरबारी आ गए और लगे राग दरबारी अलापने. कोई स्कूल के शिक्षकों को लानत भेजता तो कोई गांव के उन परिवारों को गालियां देने लगता, जो पढ़ेलिखे थे और बकौल दरबारियों के पुनदेव के फेल हो जाने से बेहद प्रसन्न थे. रामयश चतुर सेनापति थे. वह अपने उन चमचों को बखूबी पहचानते थे, पर उस समय उन की बातों का उत्तर देना उन्होंने मुनासिब नहीं समझा.

थोड़ी देर हाजिरी लगा कर वे पालतू मानव अपनीअपनी मांदों में चले गए तो रामयश ने अपने एक खास आदमी को बुलावा भेजा.

विक्रमजी शहर का रहने वाला था. रामयश को बड़ेबड़े सत्ताधारियों तक पहुंचाने वाली सीढ़ी का काम वही करता था. उसे आया देख कर उन्होंने गहन गंभीर आवाज में कहा, ‘विक्रमजी, आप ने तो सुना ही होगा कि पुनदेव इस बार भी फेल हो गया, स्कूल बदलतेबदलते मेरी फजीहत भी हुई और हाथ लगे ढाक के वही तीन पात. पर मैं हार मानने वाले खिलाडि़यों में से नहीं हूं. धरतीआकाश एक कर दीजिए. कर्मकुकर्म कुछ भी कीजिए, पर मेरे कुल पर काला अक्षर भैंस बराबर का जो ठप्पा लगा है, उसे पुनदेव के जरिए दूर कीजिए. इस बार मैं उसे पास देखना चाहता हूं. मैं इन दो टके के मास्टरों के पास गिड़गिड़ाने नहीं जाऊंगा. पता नहीं, ये लोग अपनेआप को जाने क्या समझते हैं.’

विक्रम ने कुछ दिन बाद लौट कर कहा, ‘रामयशजी, सारा बंदोबस्त हो गया. गंगा के उस पार के हाईस्कूल में प्रधानाध्यापक से बात हो गई है. 10 हजार रुपए ले कर वह पुनदेव को पास कराने की गारंटी ले लेगा. पुनदेव को अपने कमरे में बैठा कर परचे हल करा देगा. बस, समझ लीजिए पुनदेव पास हो गया?’

रामयश गद्गद हो गए और कहा,

‘मुझे भी इतनी देर से अक्ल आई, विक्रमजी. पहले आप से कहा होता तो अब तक मेरा बेटा कालिज में होता.’

सचमुच ही पुनदेव पास हो गया. अब यह अलग बात थी कि वह इतने बड़े अश्वमेध के पश्चात दूसरी श्रेणी में ही पास हुआ था. पर जहां लोग एकएक बूंद को तरस रहे हों वहां लोटा भर पानी मिल गया देख रामयश का परिवार फूला न समा रहा था. उस सफलता की खुशी में गांव वालों को कच्चापक्का भोज मिला. रात्रि में नाचगाने की व्यवस्था थी. नाच देखने वालों के लिए बीड़ी, तंबाकू, गांजा, भांग, ताड़ी और देसी दारू तक की मुफ्त व्यवस्था थी. लग रहा था कि रामयश खुशी के मारे बौरा गए हों.

उन की पत्नी भी खुशी के इजहार में अपने पति महोदय से पीछे नहीं थीं. रिश्तेनाते की औरतों को बुला कर तेलसिंदूर दिया. सामूहिक गायन कराया. पंडित को धोतीकुरता, टोपीगंजी और गमछा दे कर 5 रु पए बिवाई फटे पैरों पर चढ़ा कर मस्तक नवाया. बेचारे पंडितजी सोच रहे थे कि यजमानिन का एक बेटा हर साल पास होता रहता तो कपडे़लत्ते की चिंता छूट जाती. नौकरों में अन्नवस्त्र वितरित किए गए.

शहर के सब से अच्छे कालिज में पुनदेव का दाखिला हुआ. छात्रावास में रहना पुनदेव ने जाने किन कारणों से गैरमुनासिब समझा. शुरू में किराए का एक अच्छा सा मकान उस के लिए लिया गया. कालिज जाने के लिए एक नई चमचमाती मोटरसाइकिल पिता की ओर से उपहारस्वरूप मिली. खाना बनाने के लिए एक बूढ़ा रसोइया तथा सफाई और तेल मालिश के लिए एक अलग नौकर रखा गया. कुल मिला कर नजारा ऐसा लगता था जैसे 20 वर्षीय पुनदेव शहर में डाक्टरी या वकालत की प्रैक्टिस करने आया हो.

10 वीं कक्षा 6 बार में पास करने वाले पुनदेव के लिए उस की उम्र कुछ मानों में वरदान साबित हुई. कक्षा में पढ़ने वाले कम उम्र के छात्र स्वत: ही उसे अपना बौस मानने लगे. जी खोल कर खर्च करने के लिए उस के पास पैसों की कमी नहीं थी. लिहाजा, कालिज में उस के चमचों की संख्या भी तेजी से बढ़ी. अपने उन साथियों को वह मोटरसाइकिल पर बैठा कर सिनेमा ले जाता, रेस्तरां में उम्दा किस्म का खाना खिलाता. प्रथम वर्ष के पुनदेव के कालिज पहुंचने पर जैसी गहमागहमी होती, वैसी प्राचार्य के आने पर भी नहीं होती.

तिमाही परीक्षा के कुछ रोज पहले पुनदेव ने मुझे बुलाया और बडे़ प्यार से गले लगाता हुआ बोला, ‘यार, तुम तो अपने ही हो, पर परायों की तरह अलगअलग रहते हो. इतना बड़ा मकान है साथ ही रहा करो न. कुछ मेरी भी मदद हो जाएगी पढ़ाईलिखाई में.’

मैं ने कहा, ‘नहीं भाई, मेरे लिए छात्रावास ही ठीक है. तुम नाहक ही इस झमेले में पड़े हो. कालिज की पढ़ाई हंसीठट्ठा नहीं है, कैसे पार लगाओगे?’

पुनदेव ने हंस कर एक धौल मेरी पीठ पर जमाया और कहा, ‘‘दरबे से सरबा जे चहबे से करबा.’’

मैं ने कहा, ‘नहीं भाई, पैसा सब कुछ नहीं है.’

पुनदेव ने एक अर्थपूर्ण मुसकराहट बिखेरी. कुछ देर और इधरउधर की बातें कर के मैं वापस आ गया.

छात्रावास के संरक्षक प्रो. श्याम ने जब मुझे यह सूचना दी कि दर्शन शास्त्र विभागाध्यक्ष प्रो. मनोहर अपनी खूबसूरत, कोमल, सुशील कन्या की शादी पुनदेव से करने जा रहे हैं तो वाकई मुझे दुख हुआ. केवल दुख ही नहीं, क्रोध, घृणा और लज्जा की मिलीजुली अनुभूतियां हुईं. सारा कालिज जानता था कि पुनदेव ‘गजेटियर मैट्रिक’ है. संधि और समास भी कोई उस से पूछ ले तो क्या मजाल वह एक वाक्य बता दे. उस के पास जितने सूट थे, उतने वाक्यों का वह अंगरेजी में अनुवाद भी नहीं जानता था. वैसे उस से अपनी बेटी की शादी कर के प्रो. मनोहर दर्शनशास्त्र के किस सूत्र की व्याख्या कर रहे थे? क्या गुण देखा था उन्होंने? जी चाहा घृणा से थूक दूं उन के नाम पर, जो अपने को ज्ञानी कहते थे, पर उल्लू से हंसिनी की शादी रचाने जा रहे थे.

‘तुम क्या सोचने लगे?’ जब प्रोफेसर श्याम का यह वाक्य कानों में पड़ा तो मेरी तंद्रा भंग हुई.

मैं ने कहा, ‘कुछ नहीं, सर.’

वह हंस कर बोले, ‘‘मैं सब समझता हूं, तुम क्या सोच रहे हो? मैं ने ही नहीं, बहुत प्रोफेसरों ने मना किया, पर मनोहरजी का कहना है, ‘लड़के के पास सबकुछ है, विद्या के सिवा और विद्या केसिवा मेरे पास कुछ नहीं है. सबकुछ का ‘कुछ’ के साथ संयोग सस्ता, सुंदर और टिकाऊ होगा.’ अब तुम बताओ, हम लोग इस में क्या कर सकते हैं…उन की बेटी उन की मरजी.’’

शादी बड़ी धूमधाम से हुई. रामयश हाथ जोड़े, सिर झुकाए प्रो. मनोहर के सामने खड़े थे. विदाई के समय आमतौर पर जैसे कन्या पक्ष विनम्रता और सज्जनता में लिपटा अश्रुपूरित नेत्रों से देखता है, वैसे उस विवाह में वर पक्ष खड़ा था. खड़ा भी क्यों नहीं रहता, जिस घर में किसी ने इस से पूर्व हाईस्कूल नहीं देखा था, यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर उस घर का समधी हो गया था. सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता में ‘हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झांसी में…’ पढ़ा था. पर विद्या की मूर्खता के साथ शादी पहली बार देख रहा था. प्रो. मनोहर की पत्नी ससुराल से आए बेटी के गहने, कपड़े देखदेख कर मारे हर्ष के पागल सी हो गई थीं.

इक घड़ी दीवार की : सात्वत की क्या थी उलझन – भाग 1

दोपहर का समय था. सात्वत दिल्ली के रिंग रोड से अपनी कार मोड़ कर बाईं ओर डब्लू.एच.ओ. भवन के नजदीक पहुंचा ही था कि पल भर को उस की नजर उस ओर मुड़ी और उसी पल स्वत: उस का पैर तेजी से ब्रेक पर पड़ा और कार चीत्कार करती हुई रुक गई.

सात्वत झटके से कार का दरवाजा खोल कर उतरा और तेजी से बाईं ओर भागा. वह भवन के आगे शीशे के दरवाजे तक पहुंच चुकी थी. सात्वत इतनी दूर से भी वर्षों बाद उसे देख कर पहचान गया था…शक की कोई गुंजाइश नहीं थी. वह चेष्टा ही थी…वही लंबा, छरहरा बदन, गर्दन तक कटे बाल, वही हलके कदमों वाली चाल. पलभर को ही दिखाई दी, किंतु वही आंखें, वही नाक और होंठ…शर्तिया वही है. वह तेजी से उधर बढ़ना चाहता था कि अचानक खयाल आया, उस की कार बीच रोड पर खड़ी है और सीट पर उस का लैपटाप, मोबाइल और हैंड बैग रखा है.

सात्वत ने फौरन जा कर कार को बाईं ओर लगाया, शीशा चढ़ा कर गाड़ी लौक की फिर दौड़ता हुआ डब्लू.एच.ओ. भवन की ओर गया. जब तक वह गेट के पास पहुंचा चेष्टा ओझल हो चुकी थी. शीशे के द्वार के बाहर वह पल भर रुका तो द्वार अपनेआप खुल गया. वह तेजी से लौबी के अंदर गया और चारों ओर देखने लगा. वह कहीं नहीं थी. शायद वह भवन के अंदर चली गई थी. तब तक एक वरदीधारी उस के पास आया और बोला, ‘‘आप कौन हैं? क्या चाहिए?’’

उसे खामोश पा कर उस ने फिर कहा, ‘‘प्लीज, रिसेप्शन पर जाइए,’’ और एक ओर इशारा किया.

सात्वत ने रिसेप्शन पर जा कर वहां बैठी महिला से इस तरह आने के लिए माफी मांगी फिर बोला, ‘‘मैडम, वह लड़की जो अभीअभी अंदर आई थी, वह किधर गई?’’

महिला ने उसे ऊपर से नीचे तक गौर  से देखा फिर अंगरेजी में पूछा, ‘‘आप को क्या काम है?’’

सात्वत ने कहा, ‘‘मैं उसे जानता हूं, उस से मिलना चाहता हूं, उस से पुरानी जानपहचान है.’’

रिसेप्शन पर बैठी युवती ने दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘आप बिना पूर्व समय लिए यहां किसी से नहीं मिल सकते.’’

सात्वत ने अनुरोध भरे स्वर में कहा, ‘‘मैडम, मुझे यहां आप के आफिस में किसी से नहीं मिलना है. अभी जो लेडी यहां अंदर आई हैं मैं केवल उन से मिलना चाहता हूं. मैडम, मेरा उन से मिलना बहुत जरूरी है.’’

उस महिला और गार्ड के चेहरों पर हठ और आक्रोश के भाव को देख कर सात्वत समझ गया कि उन से कुछ भी अनुरोध करना बेकार है. वह कोई अनावश्यक सीन नहीं खड़ा करना चाहता था इसलिए ‘आई एम सौरी’ बोल कर बाहर आ गया.

सात्वत धीरेधीरे चलता हुआ, अपनी कार के पास आ गया और गेट खोल कर अंदर बैठ गया. उस ने शीशा नीचे किया और सेल फोन निकाल कर अपने आफिस फोन किया. उस ने अपनी सेक्रेटरी को कहा, ‘‘कुछ जरूरी काम से मुझे आने में देर हो जाएगी…चीफ को खबर कर देना.’’

वह कार में बैठा डब्लू.एच.ओ. बिल्डिंग की ओर देखता हुआ सोचने लगा कि चेष्टा को तो पूना में होना चाहिए, यहां दिल्ली में क्या कर रही है. हो सकता है, उस के पति का ट्रांसफर हो गया हो. 5 साल पहले, पटना छोड़ने के बाद सात्वत ने पहली बार चेष्टा की झलक देखी. हालांकि बीते 5 साल में वह अपने मन में चेष्टा को हमेशा से देखता आया है.

सात्वत की चेष्टा से मुलाकात पटना में 7 साल पहले हुई थी और उस के बाद ही दोनों गहरे दोस्त हो गए थे और कुछ ही दिनों में दोनों एकदूसरे को चाहने भी लगे थे. हालांकि दोनों के स्टेटस में बहुत अंतर था.

सात्वत छोटी जाति का था और चेष्टा ऊंची जाति की. एक निम्न- मध्यवर्गीय परिवार का सात्वत गांव से पटना पढ़ने आया था. चेष्टा के पिता आई.जी. पुलिस थे और पटना की एक पौश कालोनी में उन का बड़ा भव्य मकान था. चेष्टा की शुरू से ही शिक्षा पटना में हुई थी. फिर भी दोनों में कुछ समानताएं थीं. मसलन, दोनों पढ़ने में तेज थे और दोनों को एथलेटिक का शौक था. दोनों की मुलाकात दौड़ के मैदान में ही हुई थी. चेष्टा 100 और 200 मीटर की दौड़ में चैंपियन थी और सात्वत मिडिल डिस्टेंस दौड़ में हमेशा प्रथम आता था. शाम को दोनों अकसर साइंस कालिज के मैदान में साथसाथ प्रैक्टिस करते थे.

विश्वविद्यालय एथलेटिक प्रति- योगिताओं में दोनों कानपुर, बंगलौर और कोलकाता गए थे. इस दौरान दोनों काफी घनिष्ठ मित्र हो गए थे किंतु सात्वत हकीकत को जानता था. अपने और चेष्टा के बीच के वर्गों की दूरी को वह पहचानता था. उस ने सोचा था, चेष्टा के साथ उस की शादी का एक ही उपाय है कि वह जल्दी से किसी अच्छी नौकरी में लग जाए, पर्याप्त कमाने लगे. हो सकता है तब चेष्टा के पिता जाति को नजर- अंदाज कर विवाह के लिए राजी हो जाएं. इसलिए उस ने और भी मेहनत से पढ़ना शुरू किया. एम.एससी. में टौप करने के बाद ही उस ने अच्छी नौकरी की तलाश शुरू की.

अपने एक प्रोफेसर के सुझाव पर उस ने दिल्ली की एक मल्टीनेशनल फर्म में ईमेल से अपना आवेदन और सी.वी. भेज दिया था. प्रारंभिक वेतन 40 हजार रुपए था. इंटरव्यू के लिए उसे बुलावा आ गया था और जैसेतैसे कर वह दिल्ली पहुंचा था. फर्म के आफिस में इंटरव्यू के लिए अंदर जाने से पहले उसे लगा था कि वह बेकार आया…ये लोग शायद उसे बाहर से ही भगा देंगे.

इंटरव्यू कार्ड दिखाने पर उसे अंदर ले जा कर बैठाया गया. वह चुपचाप, दुबका, सिकुड़ा रिसेप्शन में बैठा रहा. एक चपरासी एक ट्रे में पानी का गिलास ले कर लोगों को पिलाते हुए घूम रहा था पर उसे पानी पीने में भी संकोच महसूस हो रहा था. खैर, उस का नाम पुकारा गया और उसे घोर आश्चर्य हुआ जब 5 मिनट के बाद ही उसे चुन लिया गया. चीफ आफिसर ने उस से कहा था कि वह बाहर लौबी में बैठ कर चाय पीए. उसे 1 घंटे के अंदर ही नियुक्तिपत्र मिल जाएगा. आज ही ज्वाइन कर लो, कल से 1 महीने की ट्रेनिंग शुरू हो जाएगी.

उसे पटना वापस जाने की इजाजत नहीं मिली. फर्म के एक बड़े अधिकारी ने पी.ए. को बुला कर कहा था, ‘‘इन साहब के लिए कंपनी के गेस्ट हाउस में एक कमरा बुक करा दो,’’ उस के बाद उसे कैशियर से 10 हजार का एडवांस दिला कर कहा गया, ‘‘कंपनी की गाड़ी से मार्केट चले जाओ और अपने लिए कुछ कपड़े खरीद लो.’’

सबकुछ इतनी जल्दी और तेजी से हुआ कि उसे कुछ सोचने का मौका ही नहीं मिला. चंद घंटों में ही सात्वत का जीवन बदल गया. सुबह 8 बजे से रात 8 बजे तक लगातार ट्रेनिंग. आज 5 साल बाद उस का वेतन 2 लाख रुपए प्रतिमाह हो गया है. उस ने अपना फ्लैट खरीद लिया है.

नौकरी मिलने के दूसरे दिन ही उस ने चेष्टा को घर पर फोन किया था, लेकिन फोन चपरासी ने उठाया और उस ने फोन पर चेष्टा को नहीं बुलाया. इस के बाद यह सिलसिला कई बार चला. अंत में तंग आ कर उस ने कहा था कि चेष्टा को कह देना सात्वत का फोन आया था. यहां दिल्ली में नौकरी मिल गई है और मौका मिलते ही पटना आऊंगा.

1 महीने बाद उसे बंगलौर ब्रांच आफिस में भेज दिया गया. वहां कंपनी का ब्रांच आफिस था. वहां नए आफिस और उस के काम के लिए उसे सुबह से रात तक लगातार काम करना पड़ा था. 1 साल बाद ही उस का वेतन 60 हजार रुपए प्रतिमाह हो गया और उसे एडवांस ट्रेनिंग के लिए अमेरिका जाना पड़ा. वहां से लौट कर वह दिल्ली आया तो वह पहली बार 10 दिन की छुट्टी ले कर पटना पहुंचा. पटना पहुंचते ही वह सब से पहले कालिज गया. सोचा था, पहले चेष्टा से मिलेगा फिर उस के मांबाप से. किंतु कालिज में उस की मुलाकात चेष्टा से नहीं हो सकी.

चेष्टा की सहेलियों से उस ने चेष्टा के बारे में पूछा था तो वे आश्चर्य से उसे यों देखने लगीं मानो चेष्टा को जानती ही नहीं हैं. जब उस ने कई बार जोर दे कर कहा कि चेष्टा कहां है, वह उस से अभी मिलना चाहता है तो चेष्टा की एक सहेली ने कहा कि वह यहां नहीं है और करीब 9 महीने पहले उस की शादी भी हो गई.

फिर चेष्टा की सहेलियों की मिली- जुली बातों से उसे पता चला था कि उस के पिता ने बहुत जल्दी, एक हफ्ते के अंदर चेष्टा की शादी कर दी थी. बड़ा अच्छा लड़का मिल गया था, आफिसर है, पूना में पोस्टेड है, हैंडसम है.

सात्वत को यह जान कर लगा मानो किसी अदृश्य हाथों ने उसे धक्का दे दिया हो. वह अचानक मुड़ कर तेजी से होटल गया और सामान पैक कर के पहली फ्लाइट पकड़ कर दिल्ली वापस चला आया था.

सात्वत का दिल्ली से चेष्टा के घर बारबार फोन आने के कारण ही चेष्टा के मांबाप ने उस की शादी इतनी जल्दी कर दी थी. लड़के के पिता भी आई.जी. थे और दिल्ली में पोस्टेड थे. उन्होंने चेष्टा के पिता के साथ ही आई.पी.एस. की ट्रेनिंग की थी. दिल्ली में एक मीटिंग में दोनों की मुलाकात हुई. बातचीत हुई और वहीं शादी तय हो गई. अगले महीने ही चेष्टा की शादी हो गई और वह पति के साथ पूना चली गई. मांबाप ने कहा, बाकी पढ़ाई वहीं पूना में कर लेगी.

सात्वत हर साल गांव जाता रहा लेकिन केवल 2-3 दिन के लिए. वह पटना स्टेशन से ही सीधे गांव चला जाता था. उस ने आज तक दोस्त के यहां छोड़ा सामान नहीं लिया. दोस्त का फोन आया तो कह दिया कि किसी को दे देना, उसे जरूरत नहीं है.

गांव में सात्वत ने नया घर बनवा दिया. पिता को हमेशा रुपए भेजता रहा है. लेकिन उस के मांबाप जब भी उस की शादी की बात करते तो वह टाल जाता था जबकि उस के मांबाप, रिश्तेदार, सभी आश्चर्य करते किंतु वह हमेशा इस बारे में खामोश रहता. शुरू में सात्वत ने सोचा था कि जीवन की नैसर्गिक प्रक्रिया के तहत अतीत की यादें धूमिल हो कर लुप्त हो जाएंगी और शारीरिक जरूरतों के कारण वह एक नई राह पर चल सकेगा किंतु यादों के निशानों की गहराई समय के साथ बढ़ती ही गई. वह कभी भी उन बेडि़यों को तोड़ कर बाहर नहीं निकल सका. कोई भी देह आकर्षण उसे अपनी ओर खींच नहीं सका.

कार में बैठेबैठे यादों के साए में वह सुषुप्त सा हो गया था. अचानक पूर्ण चेतन होते हुए उस ने आंखें खोलीं और लंबी सांस ली. यहां क्यों बैठा है, इंतजार में, अब मिल कर क्या हासिल होगा? फिर भी वह बैठा ही रहा, इंतजार करता हुआ, बंधा हुआ.

सात्वत ने चौंक कर देखा, चेष्टा सामने फुटपाथ पर तेजी से आई.टी.ओ. चौराहे की ओर चली जा रही है. वही चाल, मानो जमीन के ऊपर हवा में चल रही है. कब डब्लू.एच.ओ. भवन से निकली, कब आगे निकल गई, उसे पता ही नहीं चला. उस ने झट से गाड़ी स्टार्ट की फिर विचार की बिजली कौंधी, ‘यदि वह आई.टी.ओ. के पास रोड पार कर के चली गई तो वह उस तक कभी भी नहीं पहुंच सकेगा. वह दरवाजा खोल कर बाहर निकला. उस ने जल्दी से गाड़ी लौक की और आतंकित हो कर उस के पीछे चेष्टा, चेष्टा की आवाज लगाते दौड़ा.

वह बिना रुके, बिना पीछे देखे तेजी  से आगे चलती गई.

‘‘रुको, चेष्टा रुको, मैं हूं सात्वत.’’

एक पल के लिए चेष्टा के कदम थोड़ा हिचके, सात्वत को ऐसा लगा…फिर उसी गति से बढ़ने लगे. सात्वत तेजी से दौड़ा कि तभी सामने ट्रैफिक गुजरने लगा. दाहिनी ओर का सिग्नल हो गया था. सात्वत उस से बेखबर उस के पार निकलना ही चाहता था कि सामने सड़क पार करते एक टेंपो से टकराया और उछल कर गिरा. टेंपो ब्रेक लगा कर रुक गया.

‘‘अंधा है क्या, पागल है क्या? गाड़ी के नीचे आ जाता, बत्ती नहीं देखता, पागल है?’’ टेंपो चालक ने घुड़का.

वह दर्द से कराहते, लंगड़ाते हुए उठा, ‘‘सौरी, सौरी,’’ कहते हुए फुटपाथ की ओर बढ़ा, तब तक एक नारी के कोमल हाथ ने उस की बांह पकड़ कर सहारा दिया और फुटपाथ के कोने पर ले जा कर बैठा दिया.

सात्वत ने दर्द से धुंधली हुई दृष्टि से देखा कि चेष्टा उस की ओर आंसू भरी आंखों से देख रही थी, ‘‘पागल हो क्या? सीरियस एक्सिडेंट हो जाता तो?’’

सात्वत केवल उस की ओर देखता रहा. दुनिया सिमट गई और कुछ भी दिखाई नहीं दिया, न सुनाई दिया. बस, आंखों से 2 बूंदें ढुलक गईं.

चेष्टा कुछ पल अभिभूत सी उस की ओर झुकी रही फिर चौंक कर चेतन हुई. सात्वत का फुलपैंट घुटने के नीचे थोड़ा फट गया था और घुटने से रक्त बह रहा था. सात्वत ने चेष्टा की नजरों का पीछा करते हुए उधर देखा फिर जेब से रुमाल निकाला. चेष्टा ने उस के हाथ से झट से रुमाल ले लिया और उस के जख्म पर कस कर बांधते हुए बोली, ‘‘गाड़ी के नीचे आ जाते तो?’’

सात्वत ने नीचे देखते हुए फुसफुसा कर कहा, ‘‘सौरी, क्या करता? तुम रुक नहीं रही थीं…तुम मेरी आवाज सुन कर भी क्यों नहीं रुक रही थीं?’’

चेष्टा ने एक पल को उस की ओर देखा और बोली, ‘‘मैं रुकना नहीं चाहती थी.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘पहले उठो, चलो, ड्रेसिंग करवा लो.’’

‘‘मैं ठीक हूं, कोई खास चोट नहीं है,’’ सात्वत उठ कर खड़ा हो गया.

अगलबगल लोग उन दोनों की ओर घूर रहे थे.

चेष्टा ने कहा, ‘‘चलो, यहां से चलें.’’

सात्वत ने पीछे की ओर इशारा किया और बोला, ‘‘उधर मेरी कार है.’’

दोनों उस ओर बढ़े. सात्वत जल्दी से चलना चाह रहा था लेकिन वह लंगड़ा रहा था. अपनी कार के पास आ कर इशारा कर के सात्वत रुका तो चेष्टा ने उस की ओर अपना हाथ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘तुम ड्राइव नहीं कर सकोगे. लाओ, चाबी मुझे दो.’’

सात्वत ने जेब से चाबी निकाल कर चेष्टा की ओर बढ़ा दी. दरवाजा खोल कर दोनों अंदर बैठ गए तो गाड़ी स्टार्ट करते हुए चेष्टा ने पूछा, ‘‘कहां जाना है? पहले अस्पताल चलें, ड्रेसिंग करवाने?’’

सात्वत जल्दी से बोला, ‘‘नहींनहीं, मेरे फ्लैट में ड्रेसिंग का सामान है. मैं कर लूंगा…अभी मुझे तुम्हें छोड़ कर कहीं नहीं जाना है.’’ कुछ पल की खामोशी रही. चेष्टा बिना कुछ बोले सामने की ओर देखती कार चलाती रही तो सात्वत ने पूछा, ‘‘तुम यहां क्या कर रही हो? तुम तो पूना में थीं?’’

फलक तक : कैसे चुना स्वर्णिमा ने अपना नया भविष्य -भाग 1

स्वर्णिमा खिड़की के पास खड़ी हो बाहर लौन में काम करते माली को देखने लगी. उस का छोटा सा खूबसूरत लौन माली की बेइंतहा मेहनत, देखभाल व ईमानदारी की कहानी कह रहा था. वह कहीं भी अपने काम में कोताही नहीं बरतता है…बड़े प्यार, बड़ी कोशिश, कड़ी मेहनत से एकएक पौधे को सहेजता है, खादपानी डालता है, देखभाल करता है.

गमलों में उगे पौधे जब बड़े हो कर अपनी सीमाओं से बाहर जाने के लिए अपनी टहनियां फैलाने लगते हैं, तो उन की काटछांट कर उन्हें फिर गमले की सीमाओं में रहने के लिए मजबूर कर देता है. उस ने ध्यान से उस पौधे को देखा जो आकारप्रकार का बड़ा होने के बावजूद छोटे गमले में लगा था. छोटे गमले में पूरी देखभाल व साजसंभाल के बाद भी कभीकभी वह मुरझाने लग जाता था.

माली उस की विशेष देखभाल करता है. थोड़ा और ज्यादा काटछांट करता है, अधिक खादपानी डालता है और वह फिर हराभरा हो जाता है. कुछ समय बाद वह फिर मुरझाने लगता. माली फिर उस की विशेष देखभाल करने में जुट जाता. पर उस को पूरा विकसित कर देने के बारे में माली नहीं सोचता. नहीं सोच पाता वह यह कि यदि उसे उस पौधे को गमले की सीमाओं में बांध कर ही रखना है तो बड़े गमले में लगा दे या फिर जमीन पर लगा कर पूरा पेड़ बनने का मौका दे. यदि उस पौधे को उस की विस्तृत सीमाएं मिल जाएं तो वह अपनी टहनियां चारों तरफ फैला कर हराभरा व पुष्पपल्लवित हो जाएगा.

लेकिन शायद माली नहीं चाहता कि उस का लगाया पौधा आकारप्रकार में इतना बड़ा हो जाए कि उस पर सब की नजर पडे़ और उसे उस की छाया में बैठना पड़े. एक लंबी सांस खींच कर स्वर्णिमा खिड़की से हट कर वापस अपनी जगह पर बैठ गई और उस लिफाफे को देखने लगी जो कुछ दिनों पहले डाक से आया था.

वह कविता लिखती थी स्कूलकालेज के जमाने से, अपने मनोभावों को जाहिर करने का यह माध्यम था उस के पास, अपनी कविताओं के शब्दों में खोती तो उसे किसी बात का ध्यान न रहता. उस की कविताएं राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में छपती थीं और कुछ कविताएं उस की प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं में भी छप चुकी थीं. साहित्यिक पत्रिकाओं में छपी उस की कविताएं साहित्य के क्षेत्र में प्रतिष्ठा पा चुके लोगों की नजरों में भी आ जाती थीं.

उस का कवि हृदय, कोमल भावनाएं और हर बात का मासूम पक्ष देखने की कला अकसर उस के पति वीरेन के विपरीत स्वभाव से टकरा कर चूरचूर हो जाते. वीरेन को कविता लिखना खाली दिमाग की उपज लगती. किताबों का संगसाथ उसे नहीं सुहाता था. शहर में हो रहे कवि सम्मेलनों में वह जाना चाहती तो वीरेन यह कह कर ना कर देता, ‘क्या करोगी वहां जा कर, बहुत देर हो जाती है ऐसे आयोजनों में…ये फालतू लोगों के काम हैं…तुम्हें कविता लिखने का इतना ही शौक है तो घर में बैठ कर लिखो.’

उस के लिए ये सब खाली दिमाग व फालतू लोगों की बातें थीं. जब कभी बाहर के लोग स्वर्णिमा की तारीफ करते तो वीरेन को कोई फर्क नहीं पड़ता. उस के लिए तो घर की मुरगी दाल बराबर थी. कहने को सबकुछ था उस के पास. बेटी इसी साल मैडिकल के इम्तिहान में पास हो कर कानपुर मैडिकल कालेज में पढ़ाई करने चली गई थी. वीरेन की अच्छी नौकरी थी. एक पति के रूप में उस ने कभी उस के लिए कोई कमी नहीं की. पर पता नहीं उस के हृदय की छटपटाहट खत्म क्यों नहीं होती थी, क्या कुछ था जिसे पाना अभी बाकी था. कौन सा फलक था जहां उसे पहुंचना था.

उसे हमेशा लगता कि वीरेन ने भी एक कुशल माली की तरह उसे अपनी बनाई सीमाओं में कैद किया हुआ है. उस से आगे उस के लिए कोई दुनिया नहीं है. उस से आगे वह अपनी सोच का दायरा नहीं बढ़ा सकती. जबजब वह अपनी टहनियों को फैलाने की कोशिश करती, वीरेन एक कुशल माली की तरह काटछांट कर उसे उस की सीमा में रहने के लिए बाध्य कर देता.

उसे ताज्जुब होता कि बेटी की तरक्की व शिक्षा के लिए इतना खुला दिमाग रखने वाला वीरेन, पत्नी को ले कर एक रूढि़वादी पुरुष क्यों बन जाता है. वह लिफाफा खोल कर पढ़ने लगी. देहरादून में एक कवि सम्मेलन का आयोजन होने जा रहा था, जिस में कई जानेमाने कविकवयित्रियां शिरकत कर रहे थे और उसे भी उस आयोजन में शिरकत करने का मौका मिला था.

पर उसे मालूम था कि जो वीरेन उसे शहर में होने वाले आयोजनों में नहीं जाने देता, क्या वह उसे देहरादून जाने देगा. जबकि देहरादून चंडीगढ़ से कुछ ज्यादा दूर नहीं था. पर वह अकेली कभी गई ही नहीं, वीरेन ने कभी जाने ही नहीं दिया. वीरेन न आसानी से खुद कहीं जाता था न उसे जाने देता था.

वीरेन की तरफ से हमेशा न सुनने की आदी हो गई थी वह, इसलिए खुद ही सोच कर सबकुछ दरकिनार कर देती. वीरेन से ऐसी बात करने की कोशिश भी न करती. पर पता नहीं आज उस का मन इतना आंदोलित क्यों हो रहा था, क्यों हृदय तट?बंध तोड़ने को बेचैन सा हो रहा था.

हमेशा ही तो वीरेन की मानी है उस ने, हर कर्तव्य पूरे किए. कहीं पर भी कभी कमी नहीं आने दी. अपना शौक भी बचे हुए समय में पूरा किया. क्या ऐसा ही निकल जाएगा सारा जीवन. कभी अपने मन का नहीं कर पाएगी. और फिर ऐसा भी क्या कर लेगी, क्या कुछ गलत कर लेगी. इसी उधेड़बुन में वह बहुत देर तक बैठी रही.

कुछ दिनों से शहर में पुस्तक मेला लगा हुआ था. वह भी जाने की सोच रही थी. उस दिन वीरेन के औफिस जाने के बाद वह तैयार हो कर पुस्तक मेले में चली गई. किताबें देखना, किताबों से घिरे रहना उसे हमेशा सुकून देता था.

मेले में वह एक स्टौल से दूसरे स्टौल पर अपनी पसंद की कुछ किताबें ढूंढ़ रही थी. एक स्टौल पर प्रसिद्ध कवि व कवयित्रियों के कविता संकलन देख कर वह ठिठक कर किताबें पलटने लगी.

‘‘स्वर्णिमा,’’ एकाएक अपना नाम सुन कर उस ने सामने देखा तो कुछ खुशी, कुछ ताज्जुब से सामने खड़े राघव को देख कर चौंक गई.

‘‘राघव, तुम यहां? हां, लेकिन तुम यहां नहीं होंगे तो कौन होगा,’’ स्वर्णिमा हंस कर बोली, ‘‘अभी भी कागजकलमदवात का साथ नहीं छूटा, रोटीकपड़ामकान के चक्कर में…’’

‘‘क्यों, तुम्हारा छूट गया क्या,’’ राघव भी हंस पड़ा, ‘‘लगता तो नहीं वरना पुस्तक मेले में कविता संकलन के पृष्ठ पलटते न दिखती.’’

‘‘मैं तो चंडीगढ़ में ही रहती हूं, पर तुम दिल्ली से चंडीगढ़ में कैसे?’’

‘‘हां, बस औफिस के काम से आया था एक दिन के लिए. मेरी भी किताबें लगी हैं ‘किशोर पब्लिकेशन हाउस’ के स्टौल पर. फोन पर बताया था उन्होंने, इसलिए समय निकाल कर यहां आ गया.’’

‘‘किताबें?’’ स्वर्णिमा खुशी से बोली, ‘‘मुझे तो पता ही नहीं था कि तुम्हारे उपन्यास भी छप चुके हैं और वह भी इतने बडे़ पब्लिकेशन हाउस से. पर किस नाम से लिख रहे हो?’’

‘‘किस नाम से, क्या मतलब… विवेक दत्त के नाम से ही लिख रहा हूं.’’

‘‘ओह, मैं ने कभी ध्यान क्यों नहीं दिया. पता होता तो किताबें पढ़ती तुम्हारी.’’

‘‘तुम ने ध्यान ही कब दिया,’’ अपनी ही बोली गई बात को अपनी हंसी में छिपाता हुआ राघव बोला.

चार रोटियां : ललिया के आंचल की चार रोटियां – भाग 1

“भैया नमस्ते, आइए, बड़े दिन बाद आए इस बार.”  इन शब्दों के साथ एक निश्च्छल मुसकराहट के साथ अपने सभी ग्राहकों का स्वागत करता था राजू. पूरी ईमानदारी से काम करना राजू के स्वभाव में ही था.

ग्राहकों की चाहे लाइन लंबी हो या छोटी, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता था. उस की आंखें और तेज़ी से चलते हुए हाथ उस के काम की कसौटी होते थे. जब तक राजू स्वयं संतुष्ट न हो जाता तब तक ग्राहक को बैठाए रहता. स्वयं ग्राहक भी पूरी तरह राजू के काम से संतुष्ट ही दिखते.

सड़क के किनारे एक कोने पर टिन के टुकड़ों को मोड़तोड़ कर एक छतनुमा शक्ल दे दी गई और 2 टुकड़ों को इस तरह से अड़ा कर लगा दिया गया  जिस से तेज़ हवा का झोंका राजू और उस के ग्राहक को डिस्टर्ब न कर सके.

टिन की छत के नीचे एक फोम वाली कुरसी, उस के सामने एक  शीशा और लकड़ी की एक तिपाई पर रखा हुआ  राजू की दुकान का सामान, मसलन शेविंगक्रीम, कैंची, आफ्टरशेव लोशन और एक बोतल में पानी वाला स्प्रे जिसे अपने ग्राहकों के सिर पर फिस्स की आवाज़ से पानी मारा करता था वह.

वैसे, सड़क के किनारे दुकान लगाने से पहले राजू एक सैलून में काम करता था. साफ़सुथरा सैलून, हमेशा ही एक अलग खुशबू से महकता हुआ. राजू की तरह 2 और लड़के उस सैलून में काम करते थे. आने वाले ग्राहक देर तक इंतज़ार करना मंज़ूर कर लेते थे पर राजू को छोड़ कर किसी और से कटिंग या शेविंग करवाना उन्हें मंज़ूर न था. यही कारण था कि सैलून में काम करने वाले लड़के राजू से बहुत चिढ़ते थे. वे सैलून के मालिक से अकसर राजू की शिकायतें करते रहते थे. इन्हीं शिकायतों से तंग आ कर राजू अपना अलग काम ज़माने की कोशिश कर रहा था.

जब राजू इस शहर में आज से 5 वर्षों पहले आया था तो उस के पास सिर्फ उस के हाथों का हुनर और एक उस्तरा व एक कैंची थी. जो कुछ कमाया, यहीं इसी लखनऊ शहर में ही कमाया और जब इतना कमाने लगा कि एक ठीकठाक कमरा  किराए पर ले सके, तो बाबूजी ने राजू की पत्नी को भी उस के साथ शहर में रवाना कर दिया. इस के पीछे उन का तर्क यह था कि बहुरिया साथ में रहेगी तो कम से कम राजू को  दो रोटी तो चैन की मिलेगी.

और यही हुआ भी. पत्नी के आने से राजू का मन भी खुश रहता और तन भी. दिनभर के काम के बाद जब उस की उंगलियां अकड़न से बेहाल हो रही होतीं तो पत्नी अपने नर्म हाथों को उस की उंगलियों के गिर्द लपेटती तो राजू आंखें मूंद लेता और स्पर्श का आनंद लेता. जल्द ही इन दोनों के बीच प्रेम का प्रतिफलन एक बेटी के रूप में आया. महल्ले के लोग कहते थे कि बेटी एकदम राजू पर ही गई है. राजू बेटी के प्रेम में दीवाना  हुआ कभी अपनी बेटी के मुख को निहारता तो कभी अपनी पत्नी के मुख को. वह यह सोच कर खुश होता कि उस के हिस्से में दुनियाजहान की खुशियां आ गई हैं.

राजू की बेटी धीरेधीरे 4 साल की हो गई थी. अब राजू को जीवन से वैसे  कोई शिकायत नहीं थी पर वह अपने काम से अब भी खुश नहीं था. उस की इच्छा थी एक अच्छा सा सैलून खोलने की. पर नए  सैलून के लिए  दुकान  और फर्नीचर आदि लेने में एक लाख से ऊपर का खर्चा था. किसी तरह से पाईपाई जोड़ कर राजू ने 30 हज़ार रुपए जमा किए थे. महल्ले में ही एक दुकान दिखी, जो सैलून चलाने के लायक थी. वह राजू को पसंद आ गई. दुकान के मालिक से बात की, तो उस ने कहा, “दुकान किराए पर तो दे सकता हूं पर बेचूंगा नहीं. और किराए पर भी उस को दूंगा जो काम से कम 50 हज़ार रुपए पेशगी मेरे पास जमा कर देगा.”

“जी सेठजी, 50 हज़ार तो मेरे पास नहीं हैं, अगर आप 30 में मान जाओ तो..,” राजू ने लगभग गिड़गिड़ा कर कहा.

सेठ   मान गया. राजू ने मेहनत की कमाई से जोड़े हुए पैसे उसे दे दिए और वह दुकान किराए पर ले ली और बाकी पैसों का भुगतान करने के लिए राजू नए उत्साह  से लग गया. पर अचानक उसे अगलबगल की दुकान वालों व अपने ग्राहकों से पता चला कि पूरे देश और दुनिया में कोई महामारी फ़ैल रही है और कई देशों की सरकारें भी उस से घबराई हुई हैं. भारत की सरकार ने भी तत्काल प्रभाव से ही पूरा बाजार व तमाम उद्योगधंधे बंद करने की नसीहत दी है. सरकार ने यह भी कहा है कि जो जहां है वहीँ पर रुक जाए. शायद ऐसा करने की पीछे सरकार की बीमारी को न फैलने देने की मंशा रही होगी. कुछ इसी प्रकार के कयास राजू और उस की दुकान के आसपास वाले लोग लगा रहे थे.

“ए…ए…सुनाई नहीं देता क्या, अपनी दुकान समेट और भाग जा यहां से,”  चारपांच पुलिस वाले अचानक से आए और राजू से अकड़ते हुए बोले.

“पर साहब, बात क्या है, हम क्यों बंद करें दुकान ?”  राजू ने प्रतिवाद किया.

“तुम स्साले, अनपढ़ और जाहिल लोग. अरे, जब कुछ पता ही नहीं है तो जो हम कह रहे हैं वही करो. अपनी दुकान समेटो और भागो.”

“ज…जी.”

“स्साले, तुम ही लोगों के कारण आज कोरोना फ़ैल रहा है. किसी की बीमारी किसी को बड़ी आसानी से छुआ देते हो तुम लोग,” एक पुलिस वाले ने कहा.

“क्या साहब ? भला, हम लोग काहे को बीमारी फैलाएंगे. अरे, हम गरीब लोग है. और फिर हम तो लोगों के बाल काटने का काम करते है. लोगों के शरीर से गंदगी हटाते है. भला हम  काहे को बीमारी फैलाएंगे ?” राजू ने कहा.

“बहुत बहस करता है, अभी बताता हूं तुझ को,” कह कर एक पुलिस वाले ने अपनी बेंत राजू पर तानी ही थी कि राजू ने समय की नज़ाकत को भांप लिया और दुकान समेटने लगा.

पुलिस वाले वाहन से जातेजाते यह ताकीद करते गए कि जब तक सरकार अगला आदेश नहीं देती है तब तक दुकान खोलने की कोई भी ज़रूरत नहीं है. अब, पूरा देश लौकडाऊन में रहेगा.

और यही हुआ भी. अगले कई दिनों तक बाजार पूरी तरह से  बंद रहा. शहर में कोरोना नामक बीमारी से ग्रसित व्यक्ति लगातार मिल रहे थे और किसी भी देश की सरकार के पास इस बीमारी की दवाई अब भी नहीं थी.

लगातार काम करते रहने से राजू का शरीर थक गया था, इसलिए पहले कुछ रोज़ काम बंद करना पड़ गया तो आमदनी न होने का मलाल होते हुए भी राजू मन में खुश था कि चलो, इसी बहाने ही सही कुछ दिन तो अपने परिवार के साथ गुजारेंगे और यही सोच कर वह अपनी पत्नी व बेटी के साथ समय बिताने लगा.

देश की कई राजनीतिक पार्टियां कोरोनाकाल को भी फायदे के लिए भुनाने लगीं. हर नेता ने अपनेआप को इस महामारी के समय में गरीबों का मसीहा साबित करने का भरपूर प्रयास किया था. इस बीच कई बार प्रधानमंत्री राष्ट्रीय चैनल पर आ कर जनता को बिना घबराए इस बीमारी से लड़ने की नसीहत दे रहे थे. पर जनता का पेट बातों और वादों से नहीं भरता बल्कि उसे भरने के लिए गेंहू की रोटी ही काम आती है.

यही दशा अब राजू के घर पर भी हो रही थी. घर का राशन खत्म हो चुका था. बाहर की आमदनी बंद हो चुकी थी. पूरे देश में बीमारी ने पैर और भी पसार दिए थे, इसलिए लौकडाउन कहीं से भी खुलने की हालत में नहीं था.

‘और फिर किसी बीमारी को रोकने के लिए सबकुछ बंद कर के बैठ जाना एक निवारण हो सकता है पर बड़े लोगों को हम गरीबों से क्या. हमारा काम भी उन्हें बीमारी फ़ैलाने वाला लगता है. बड़े लोग, बड़ी बातें. हमारा पेट तो यह सब नहीं जानता, इसे तो दोनों टाइम खाना चाहिए,’ कमरे में बैठा राजू बुदबुदा उठा.

समाधान : अंजलि की कैसी थी तानाशाही – भाग 1

लगातार बढ़ते जा रहे क्लेश ने मेरी भतीजी अंजलि की तबीयत और ज्यादा खराब कर दी. जुकाम- बुखार से पैदा हुआ सिरदर्द रोने के कारण इतना बढ़ा कि सिर फटने लगा.

‘‘बूआ, यह अरुण अगर घर छोड़ कर चला जाएगा तो मैं मर नहीं जाऊंगी,’’ अंजलि अपने भाई के बारे में बोलते हुए सुबक रही थी, ‘‘पिताजी और मां के मरने का सदमा सहा है मैं ने. दोनों छोटे भाइयों को काबिल बना कर इज्जत की जिंदगी देने के लिए मैं ने अपना घर नहीं बसाया…आज अरुण घर छोड़ कर जाने को तैयार है…कितना अच्छा फल मिल रहा है मुझे अपने त्याग और बलिदान का.’’

‘‘तू इतनी परेशान मत हो अंजलि, सब ठीक हो जाएगा,’’ मैं ने उसे दिलासा देते हुए बारबार समझाया, पर उस का रोना नहीं थमा.

मेरा बड़ा भतीजा अरुण अपने कमरे में अपनी पत्नी सीमा से ऊंची आवाज में झगड़ रहा था. आमतौर पर अरुण से डरनेदबने वाली सीमा उस दिन जबरदस्त विद्रोही मूड में उस से खूब लड़ रही थी.

‘‘मैं नहीं रहूंगी…नहीं रहूंगी…अब इस  घर में, मैं बिलकुल भी नहीं रहूंगी,’’ सीमा की गुस्से से भरी आवाज हम साफ सुन सकते थे, ‘‘रातदिन की रोकटोक अब मुझ से नहीं सही जाती है. आप की बहन जानबूझ कर मुझे दुखी और परेशान करती हैं…हमें नहीं चाहिए उन की सहायता, उन का पैसा. मैं और मेरा बच्चा एक वक्त की  रोटी खाएंगे, पर मैं अब सुखचैन से अलग घर में ही रहूंगी.’’

जिस बात को ले कर घर का माहौल इतना खराब हो गया था, वह बहुत छोटी सी थी.

सीमा सुबह अपनी बड़ी बहन से मिलने जाने के लिए पूरी तरह तैयार हो चुकी थी, लेकिन अंजलि ने अपनी खराब तबीयत को कारण बना उसे जाने से रोक दिया.

सीमा की प्रतिक्रिया अप्रत्याशित रूप से तेज रही. वह बुरी तरह पहले अंजलि से उलझी फिर अरुण से. उस का देवर अनुज, देवरानी प्रिया और मैं उसे समझा कर शांत करने में पूरी तरह असफल रहे थे.

घटनाचक्र ने खतरनाक मोड़ तब लिया जब अरुण ने गुस्से में आ कर सीमा के गाल पर 2 थप्पड़ मार दिए.

सीमा ने एकदम खामोश हो कर अपना और अपने बेटे समीर का जरूरी सामान एक सूटकेस में भरना शुरू कर दिया. वह घर छोड़ कर मायके जाने की तैयारी कर रही थी.

प्रिया की पूरी सहानुभूति अपनी जेठानी के साथ है, यह उस के हावभाव से साफ पता चल रहा था. उस का फूला मुंह उस के खराब मूड की निशानी था.

अनुज भावुक स्वभाव का है. वह अपनी दीदी की बेहद इज्जत करता है. उसे मैं ने ऊंची आवाज में अंजलि से बातें करते कभी नहीं सुना.

प्रिया और अनुज का प्रेम विवाह हुआ था. प्रिया अच्छी पगार पाती है. बाहर घूमनेफिरने और मौजमस्ती करने में उस का मन बहुत लगता है. मेरा यह मानना है कि अगर अनुज अपनी बहन के साथ इतनी ज्यादा मजबूती से न जुड़ा होता तो प्रिया अब तक जरूर घर से अलग हो गई होती.

प्रिया की तुलना में सब सीमा को ज्यादा सीधा और सरल मानते थे पर आज वही घर छोड़ कर मायके जाने की तैयारी कर रही थी.

अरुण नाराजगी भरे अंदाज में सीमा को सूटकेस में सामान भरते देखता रहा. जब सीमा सूटकेस बंद करने को तैयार हुई, तब वह झटके से उठा और सूटकेस उठा कर उलटा कर दिया.

सारा सामान पलंग पर फैला देख सीमा पहले जोर से रोई और फिर बाहर के दरवाजे की तरफ तेज चाल से बढ़ गई.

उस के पीछे पहले अरुण घर से बाहर गया, करीब 5 मिनट बाद अनुज और प्रिया भी समीर को ले कर उन्हें ढूंढ़ने के लिए घर से बाहर चले गए.

मैं बाहर का दरवाजा बंद कर के अंजलि के कमरे में लौटी, तो उसे बेहद उदास और दुखी पाया.

‘‘बूआ, क्या मैं इतनी बुरी हूं कि इस घर का हर सदस्य मुझे नफरत की नजरों से देखने लगा है?’’ अंजलि के इस सवाल के जवाब में मैं ने उसे छाती से लगा लिया तो वह सुबकने लगी थी.

मेरे बड़े भैया करीब 10 साल पहले हमें छोड़ गए थे और भाभी उन से 3 साल बाद. भैया ने सदा के लिए आंखें मूंदने से पहले अपनी बेटी अंजलि पर परिवार की देखभाल की सारी जिम्मेदारी डाल दी थी.

अंजलि ने अपने पापा को दिए गए वादे को जरूरत से ज्यादा गंभीरता के साथ निभाया था. उस ने अपना ही नहीं अपने भाइयों का कैरियर भी अच्छा बनाया. जो रुपए उस की शादी के लिए मातापिता ने जोड़े थे, उन से अनुज को इंजीनियर बनाया. उस के लिए रिश्ते आते रहते थे पर वह शादी से इनकार करती रही.

अपने से पहले अंजलि ने अरुण की शादी की. घर में जल्दी बहू ला कर वह अपनी मां को सुख और आराम देना चाहती थी.

अनुज ने अभी 2 साल पहले प्रिया से प्रेम विवाह कर लिया था. उस वक्त तक अंजलि 30 साल की हो चुकी थी. वह तब तक कभी शादी न करने का मन पूरी तरह बना चुकी थी.

मेरी समझ से उस की शादी न होने के अलगअलग समय पर अलगअलग कारण रहे.

जब तक वह 26-27 की हुई, तब तक अपने दिवंगत पिता को दिए गए वचन के चलते उस ने शादी करने से इनकार किया था.

इस उम्र के बाद लड़कियों के लिए उचित रिश्ते आने कम हो जाते हैं. बाद में वह अनुज को इंजीनियर बनाने व अरुण की शादी की जिम्मेदारियों के चक्कर में फंस कर अपनी शादी टालती गई.

शादी की सही उम्र निकलती जा रही है, इस बात का एहसास किस सामान्य लड़की को नहीं होगा? अंजलि भी जरूर मन ही मन परेशान व चिंतित रही होगी. तभी उस के चेहरे का नूर कम होने लगा. कैरियर बेहतर हो रहा था, पर विवाह के बाजार में उस की कीमत कम होती गई.

अनुज का इंजीनियर बनते ही अपने एक सहपाठी की छोटी बहन प्रिया से प्रेम विवाह कर लेना अंजलि को सदमा पहुंचा गया. इस शादी के बाद उस ने कभी शादी न करने की बात सब के सामने कुछ शिकायती अंदाज में खुल कर कहनी शुरू कर दी थी, ‘‘बूआ, मेरे दोनों भाइयों के घर बस गए हैं, यह मेरे लिए बडे़ संतोष की बात है. इन के परिवार ही अब मेरे अपने हैं. इन सब के साथ मैं आराम से जिंदगी गुजार लूंगी,’’ अंजलि के ऐसे मनोभावों को मैं कभी बदल नहीं पाई थी.

अनुज की शादी के बाद पहले से चली आ रही एक समस्या ने ज्यादा विस्फोटक रूप हासिल कर लिया था. समस्या पैदा हुई थी अंजलि के स्वभाव को ले कर. वह दोनों भाइयों से बड़ी थी. जिम्मेदारियों का बड़ा सा बोझ वह अपने कंधों पर सालों से ढो रही थी. दोनों भाई उसे पूरा मानसम्मान देते थे. उस के कहे को कभी नहीं टालते थे.

मरजाना : आखिर क्या हुआ उन के प्यार का अंजाम – भाग 1

समर गुल ने जानबूझ कर एक अभागे की हत्या कर दी थी. पठानों में ऐसी हत्या को बड़ी इज्जत की नजर से देखा जाता था और हत्यारे की समाज में धाक बैठ जाती थी. समर गुल की उमर ही क्या थी, अभी तो वह विद्यार्थी था. मामूली तकरार पर उस ने एक आदमी को चाकू घोंप दिया था और वह आदमी अस्पताल ले जाते हुए मर गया था. गिरफ्तारी से बचने के लिए समर गुल कबाइली इलाके की ओर भाग गया था.

जब वह वहां के गगनचुंबी पहाड़ों के पास पहुंचा तो उसे कुछ ऐसा सकून मिला, जैसे वे पहाड़ उस की सुरक्षा के लिए हों. सरहदें कितनी अच्छी होती हैं, इंसान को नया जन्म देती हैं. फिर भी यह इलाका उस के लिए अजनबी था, उसे कहीं शरण लेनी थी, किसी बड़े खान की शरण. क्योंकि मृतक के घर वाले किसी कबाइली आदमी को पैसे दे कर उस की हत्या करवा सकते थे. पठानों की यह रीत थी कि अगर वे किसी को शरण देते थे तो वे अपने मेहमान की जान पर खेल कर रक्षा करते थे.

वह एक पहाड़ी पर खड़ा था, उसे एक गांव की तलाश थी. दूर नीचे की ओर उसे कुछ भेड़बकरियां चरती दिखाई दीं. उस ने सोचा, पास ही कहीं आबादी होगी. वह रेवड़ के पास पहुंच कर इधरउधर देखने लगा. गड़रिया उसे कहीं दिखाई नहीं दिया.

अचानक एक काले बालों वाला कुत्ता भौंकता हुआ उस की ओर लपका. उस ने एक पत्थर उठा कर मारा, लेकिन कुत्ता नहीं रुका. उस ने चाकू निकाल लिया, तभी एक लड़की की आवाज आई, ‘‘खबरदार, कुत्ते पर चाकू चलाया तो…’’

उस ने उस आवाज की ओर देखा तो कुत्ता उस से उलझ गया. उस की सलवार फट गई. कुत्ते ने उस की पिंडली में दांत गड़ा दिए थे. आवाज एक लड़की की थी, उस ने कुत्ते को प्यार से अलग किया और उसे एक पेड़ से बांध दिया.

समर गुल एक चट्टान पर बैठ कर अपने घाव का देखने लगा. लड़की ने पास आ कर कहा, ‘‘मुझे अफसोस है, मेरी लापरवाही की वजह से आप को कुत्ते ने काट लिया.’’

समर गुल ने गुस्से से लड़की की ओर देखा तो उसे देखता ही रह गया. वह बहुत सुंदर लड़की थी. उस की शरबती आंखों में शराब जैसा नशा था. लड़की ने पिंडली से रिसता हुआ खून देखा तो भाग कर पानी लाई और उस का खून साफ किया. फिर अपना दुपट्टा फाड़ कर उसे जलाया और समर के घाव पर उस की राख रखी, जिस से खून बंद हो गया. समर गुल उस लड़की की बेचैनी और तड़प को देखता रहा. खून बंद हो गया तो वह खड़ी हो गई.

‘‘कोई बात नहीं,’’ समर गुल ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘कुत्ते ने अपनी ड्यूटी की और इंसान ने अपनी ड्यूटी.’’

‘‘अजनबी लगते हैं आप.’’ लड़की ने कहा तो उस ने अपनी पूरी कहानी उसे सुना दी.

‘‘अच्छा तो आप फरार हो कर आए हैं. मैं बाबा को आप की कहानी सुनाऊंगी तो वह खुश होंगे, क्योंकि काफी दिन बाद हमारे घर में किसी फरारी के आने की चर्चा होगी.’’

मलिक नौरोज खान एक जिंदादिल इंसान था. 70-75 साल की उमर होने पर भी स्वस्थ और ताकतवर जवान लड़कों जैसा. बड़ा बेटा शाहदाद खान सरकारी नौकरी में था जबकि छोटा बेटा शाहबाज खान जिसे सब प्यार से बाजू कहते थे, बड़ा ही खिलंदड़ा और नटखट था. वह बहन ही की तरह सुंदर और प्यारा था.

बेटी की जुबानी समर गुल की कहानी सुन कर नौरोज ने सोचा कि इतनी कम उम्र का बच्चा हत्यारा कैसे हो सकता है. फिर भी उस के लिए अच्छेअच्छे खाने बनवाए गए. उसे घर में रख लिया गया. कुछ दिन के बाद समर गुल ने सोचा, कब तक मेहमान बन कर इन के ऊपर बोझ बनूंगा, इसलिए कोई काम देखना चाहिए. उस ने नौरोज खान से बात करना ठीक नहीं समझा. इस के लिए उसे मरजाना से बात करना ठीक लगा. हां, उस लड़की का ही नाम मरजाना था.

अगले दिन सुबह उस ने मरजाना से कहा, ‘‘बात यह है कि मुझे लकड़ी काटना नहीं आता, हल चलाना नहीं आता. मैं ने सोचा कि रेवड़ तो चरा सकता हूं. मुफ्त की रोटी खाते मुझे शरम आती है.’’

‘‘यह काम भी तुम से नहीं होगा, तुम इस काम के लिए पैदा ही नहीं हुए हो. मुझे तो हैरानी है कि तुम ने हत्या कैसे कर दी. तुम ऐसे ही रहो, तुम्हें मुफ्त की रोटी खाने का ताना कोई नहीं देगा.’’

‘‘अगर मुझे सारा जीवन फरारी बन कर रहना पड़ा तो?’’

‘‘मैं बाबा से बात करूंगी, वह भी यही कहेंगे जो मैं ने कहा है.’’ इतना कह कर वह रेवड़ ले कर चली गई और समर गुल उसे जाते हुए देखता रहा.

हकीकत जान कर नौरोज ठहाका मार कर हंसा और समर से बोला, ‘‘फरारी बाबू, मैं ने तुम्हारे लिए काम ढूंढ लिया है. तुम बाजू को पढ़ाया करोगे.’’

यह काम उस के लिए बहुत अच्छा था. अगले दिन से उस ने न केवल बाजू को बल्कि गांव के और बच्चों को इकट्ठा कर के पढ़ाना शुरू कर दिया. शाम के समय चौपाल लगती थी, गांव के सब बूढ़ेबच्चे इकट्ठे हो जाते. समर गुल भी चौपाल पर चला जाता था. वहां कोई कहानी सुनाता, कोई चुटकुले और कोई शेरोशायरी.

यह सभा आधीआधी रात तक जमी रहती थी. रात को लौट कर समर गुल जब दरवाजा खटखटाता तो मरजाना ही दरवाजा खोलती, क्योंकि मलिक नौरोज खान ऊपर के माले पर सोता था.

समर गुल को यहां आए हुए 2-3 महीने हो गए थे, लेकिन मरजाना से उस की बात नहीं हो पाई थी, क्योंकि वह उस से डराडरा सा रहता था.

वह समर से हंस कर पूछती, ‘‘आ गए…’’

वह उसे सिर झुकाए जवाब देता, लेकिन एक पल के लिए भी वहां नहीं रुकता था और अपने कमरे में जा कर लेट जाता था. वह बिस्तर पर भी मरजाना के बारे में सोचता रहता था.

मरजाना का व्यवहार सदैव उस के प्रति प्यार भरा होता था. लेकिन अब वह उस की तरफ और भी ज्यादा ध्यान देने लगी थी. एक रात जब वह आया तो मरजाना ने रोज की तरह कहा, ‘‘आ गए…’’

वह कुछ नहीं बोला और खड़ा रहा. दोनों के ही दिल तेजी से धड़क रहे थे. दोनों ने एक अनजानी सी खुशी और डर अपने अंदर महसूस किया. मरजाना ने धीरे से कहा, ‘‘अंदर आ जाओ.’’

वह अंदर आ गया.

मरजाना ने दरवाजा बंद कर के कुंडी लगा दी. फिर भी वह वहीं खड़ा रहा. मरजाना भी वहीं खड़ी उसे निहारती रही. फिर धीरे से बोली, ‘‘जाओ, सो जाओ.’’

वह चला गया, लेकिन मरजाना वहीं खड़ी रही. उस का अंगअंग एक अनोखी मस्ती से बहक रहा था. साथ ही दिल भी एक अनजानी खुशी से भर गया था.

समर गुल अपने कमरे में पहुंचा तो उस की आंखों में खुशी के आंसू आ गए. वह बारबार होंठों ही होंठों में दोहरा रहा था, ‘‘जाओ,सो जाओ.’’

मरजाना का प्यारभरा स्वर उस की आत्मा को झिंझोड़ गया था. वह भावुक हो गया और सिसकियां ले कर रोने लगा. यह खुशी के आंसू थे. उस की हालत एक बच्चे जैसी हो गई थी. उसे यह अहसास डंक मार रहा था कि उस ने किसी की हत्या की है.

वह पहली बार दिल की गहराइयों से अपने किए पर लज्जित था, उस की आत्मा पर पाप का बोझ आ पड़ा था. इस बोझ को उस ने पहले महसूस नहीं किया था, लेकिन प्रेम की अग्नि ने उसे कुंदन बना दिया था. आज वह किसी का दुश्मन नहीं रहा.

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