पराकाष्ठा- भाग 1: एक विज्ञापन ने कैसे बदली साक्षी की जिंदगी

आज भी मुखपृष्ठ की सुर्खियों पर नजर दौड़ाने के पश्चात वह भीतरी पृष्ठों को देखने लगी. लघु विज्ञापन तथा वर/वधू चाहिए, पढ़ने में साक्षी को सदा से ही आनंद आता है.

कालिज के जमाने में वह ऐसे विज्ञापन पढ़ने के बाद अखबार में से उन्हें काट कर अपनी सहेलियों को दिखाती थी और हंसीठट्ठा करती थी.

शहर के समाचार देखने के बाद साक्षी की नजर वैवाहिक विज्ञापन पर पड़ी जिसे बाक्स में मोटे अक्षरों के साथ प्रकाशित किया गया था, ‘30 वर्षीय नौकरीपेशा, तलाकशुदा, 1 वर्षीय बेटे के पिता के लिए आवश्यकता है सुघड़, सुशील, पढ़ीलिखी कन्या की. गृहकार्य में दक्ष, पति की भावनाओं, संवेदनाओं के प्रति आदर रखने वाली, समझौतावादी व उदार दृष्टिकोण वाली को प्राथमिकता. शीघ्र संपर्र्ककरें…’

साक्षी के पूरे शरीर में झुरझुरी सी होने लगी, ‘कहीं यह विज्ञापन सुदीप ने ही तो नहीं दिया? मजमून पढ़ कर तो यही लगता है. लेकिन वह तलाकशुदा कहां है? अभी तो उन के बीच तलाक हुआ ही नहीं है. हां, तलाक की बात 2-4 बार उठी जरूर है.

शादी के पश्चात हनीमून के दौरान सुदीप ने महसूस किया कि अंतरंग क्षणोें में भी वह उस की भावनाओं का मखौल उड़ा देती है और अपनी ही बात को सही ठहराती है. सुदीप को बुरा तो लगा लेकिन तब उस ने चुप रहना ही उचित समझा.

शादी के 2 महीने ही बीते होंगे, छुट्टी का दिन था. शाम के समय अचानक साक्षी बोली, ‘सुदीप अब हमें अपना अलग घर बसा लेना चाहिए, यहां मेरा दम घुटता है.’

सुदीप जैसे आसमान से नीचे गिरा, ‘यह क्या कह रही हो, साक्षी? अभी तो हमारी शादी को 2 महीने ही हुए हैं और फिर मैं इकलौता लड़का हूं. पिताजी नहीं हैं इसलिए मां की और कविता की जिम्मेदारी भी मुझ पर ही है. तुम ने कैसे सोच लिया कि हम अलग घर बसा लेंगे.’

साक्षी तुनक कर बोली, ‘क्या तुम्हारी जिम्मेदारी सिर्फ तुम्हारी मां और बहन हैं? मेरे प्रति तुम्हारी कोई जिम्मेदारी नहीं?’

‘तुम्हारे प्रति कौन सी जिम्मेदारी मैं नहीं निभा रहा? घर में कोई रोकटोक, प्रतिबंध नहीं. और क्या चाहिए तुम्हें?’ सुदीप भी कुछ आवेश में आ गया.

‘मुझे आजादी चाहिए, अपने ढंग से जीने की आजादी, मैं जो चाहूं पहनूं, खाऊं, करूं. मुझे किसी की भी, किसी तरह की टोकाटाकी पसंद नहीं.’

‘अभी भी तो तुम अपने ढंग से जी रही हो. सवेरे 9 बजे से पहले बिस्तर नहीं छोड़तीं फिर भी मां चुप रहती हैं, भले ही उन्हें बुरा लगता हो. मां को तुम से प्यार है. वह तुम्हें सुंदर कपड़े, आभूषण पहने देख कर अपनी चाह, लालसा पूरी करना चाहती हैं. रसोई के काम तुम्हें नहीं आते तो तुम्हें सिखा कर सुघड़ बनाना चाहती हैं. इस में नाराजगी की क्या बात है?’

‘बस, अपनी मां की तारीफों के कसीदे मत काढ़ो. मैं ने कह दिया सो कह दिया. मैं उस घर में असहज महसूस करती हूं, मुझे वहां नहीं रहना?’

‘चलो, आज खाना बाहर ही खा लेते हैं. इस विषय पर बाद में बात करेंगे,’ सुदीप ने बात खत्म करने के उद्देश्य से कहा.

‘बाद में क्यों? अभी क्यों नहीं? मुझे अभी जवाब चाहिए कि तुम्हें मेरे साथ रहना है या अपनी मां और बहन के  साथ?’

सुदीप सन्न रह गया. साक्षी के इस रूप की तो उस ने कल्पना भी नहीं की थी. फिर किसी तरह स्वयं को संयत कर के उस ने कहा, ‘ठीक है, घर चल कर बात करते हैं.’

‘मुझे नहीं जाना उस घर में,’ साक्षी ने अकड़ कर कहा. सुदीप ने उस का हाथ खींच कर गाड़़ी में बैठाया और गाड़ी स्टार्ट की.

‘तुम ने मुझ पर हाथ उठाया. यह देखो मेरी बांह पर नीले निशान छप गए हैं. मैं अभी अपने मम्मीपापा को फोन कर के बताती हूं.’

साक्षी के चीखने पर सुदीप हक्काबक्का रह गया. किसी तरह स्वयं पर नियंत्रण रख कर गाड़ी चलाता रहा.

घर पहुंचते ही साक्षी दनदनाती हुई अपने कमरे की ओर चल पड़ी. मां तथा कविता संशय से भर उठीं.

‘सुदीप बेटा, क्या बात है. साक्षी कुछ नाराज लग रही है?’ मां ने पूछा.

‘कुछ नहीं मां, छोटीमोटी बहसें तो चलती ही रहती हैं. आप लोग सो जाइए. हम बाहर से खाना खा कर आए हैं.’

साक्षी को समझाने की गरज से सुदीप ने कहा, ‘साक्षी, शादी के बाद लड़की को अपनी ससुराल में तालमेल बैठाना पड़ता है, तभी तो शादी को समझौता भी कहा जाता है. शादी के पहले की जिंदगी की तरह बेफिक्र, स्वच्छंद नहीं रहा जा सकता. पति, परिवार के सदस्यों के साथ मिल कर रहना ही अच्छा होता है. आपस में आदर, प्रेम, विश्वास हो तो संबंधों की डोर मजबूत बनती है. अब तुम बच्ची नहीं हो, परिपक्व हो, छोटीछोटी बातों पर बहस करना, रूठना ठीक नहीं…’

‘तुम्हारे उपदेश हो गए खत्म या अभी बाकी हैं? मैं सिर्फ एक बात जानती हूं, मुझे यहां इस घर में नहीं रहना. अगर तुम्हें मंजूर नहीं तो मैं मायके चली जाऊंगी. जब अलग घर लोगे तभी आऊंगी,’ साक्षी ने सपाट शब्दों में धमकी दे डाली.

अमावस की काली रात उस रोज और अधिक गहरी और लंबी हो गई थी. सुदीप को अपने जीवन में अंधेरे के आने की आहट सुनाई पड़ने लगी. किस से अपनी परेशानियां कहे? जब लोगों को पता लगेगा कि शादी के 2-3 महीनों में ही साक्षी सासननद को लाचार, अकेले छोड़ कर पति के साथ अलग रहना चाहती है तो कितनी छीछालेदर होगी.

सुदीप रात भर इन्हीं तनावों के सागर में गोते लगाता रहा. इस के बाद भी अनेक रातें इन्हीं तनावों के बीच गुजरती रहीं.

मां की अनुभवी आंखों से कब तक सुदीप आंखें चुराता. उस दिन साक्षी पड़ोस की किसी सहेली के यहां गई थी. मां ने पूछ ही लिया, ‘सुदीप बेटा, तुम दोनों के बीच कुछ गलत चल रहा है? मुझ से छिपाओगे तो समस्या कम नहीं होगी, हो सकता है मैं तुम्हारी मदद कर सकूं?’

सुदीप की आंखें नम हो आईं. मां के प्रेम, आश्वासन, ढाढ़स ने हिम्मत बंधाई तो उस ने सारी बातें कह डालीं. मां के पैरों तले जमीन खिसक गई. वह तो साक्षी को बेटी से भी अधिक प्रेम, स्नेह दे रही थीं और उस के दिल में उन के प्रति अनादर, नफरत की भावना. कहां चूक हो गई?

एक दिन मां ने दिल कड़ा कर के फैसला सुना दिया, ‘सुदीप, मैं ने इसी कालोनी में तुम्हारे लिए किराए का मकान देख लिया है. अगले हफ्ते तुम लोग वहां शिफ्ट हो जाओ.’ सुदीप अवाक् सा मां के उदास चेहरे को देखता रह गया. हां, साक्षी के चेहरे पर राहत के भाव स्पष्ट नजर आ रहे थे.

‘लेकिन मां, यहां आप और कविता अकेली कैसे रहेंगी?’ सुदीप का स्वर भर्रा गया.

‘हमारी फिक्र मत करो. हो सकता है कि अलग रह कर साक्षी खुश रहे तथा हमारे प्रति उस के दिल में प्यार, आदर, इज्जत की भावना बढ़े.’

विदाई के समय मां, कविता के साथसाथ सुदीप की भी रुलाई फूट पड़ी थी. साक्षी मूकदर्शक सी चुपचाप खड़ी थी. कदाचित परिवार के प्रगाढ़ संबंधों में दरार डालने की कोशिश की पहली सफलता पर वह मन ही मन पुलकित हो रही थी.

अलग घर बसाने के कुछ ही दिनों बाद साक्षी ने 2-3 महिला क्लबों की सदस्यता प्राप्त कर ली. आएदिन महिलाओं का जमघट उस के घर लगने लगा. गप्पबाजी, निंदा पुराण, खानेपीने में समय बीतने लगा. साक्षी यही तो चाहती थी.

उस दिन सुदीप मां और बहन से मिलने गया तो प्यार से मां ने खाने का आग्रह किया. वह टाल न सका. घर लौटा तो साक्षी ने तूफान खड़ा कर दिया, ‘मैं यहां तुम्हारा इंतजार करती भूखी बैठी हूं और तुम मां के घर मजे से पेट भर कर आ रहे हो. मुझे भी अब खाना नहीं खाना.’

सुदीप ने खुशामद कर के उसे खाना खिलाया और उस के जोर देने पर थोड़ा सा स्वयं भी खाया.

एक नजर: क्या हुआ था छोटी बहू के साथ?

जनाजे की तैयारी हो रही थी. छोटी बहू की लाश रातभर हवेली के अंदर नवाब मियां के कमरे में ही बर्फ पर रखी हुई थी. रातभर जागने से औरतों और मर्दों के चेहरे पर सुस्ती और उदासी छाई हुई थी.

रातभर दूरदराज से लोग आतेजाते रहे और दुख जताने का सिलसिला चलता रहा.

पूरी हवेली मानो गम में डूबी हुई थी और घर के बच्चेबूढ़ों की आंखें नम थीं. मगर कई साल से खामोश और अलगथलग से रहने वाले बड़े मियां जान यानी नवाब मियां के बरताव में कोई फर्क नहीं पड़ा था. उन की खामोशी अभी भी बरकरार थी.

उन्होंने न तो किसी से दुख जताने की कोशिश की और न ही उन से मिल कर कोई रोना रोया, क्योंकि सभी जानते थे कि पिछले 2-3 सालों से वे खुद ही दुखी थे.

नवाब मियां शुरू से ऐसे नहीं थे, बल्कि वे तो बड़े ही खुशमिजाज इनसान थे. इंटर करने के बाद उन्हें अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में एलएलबी पढ़ने के लिए भेज दिया गया था.

अभी एलएलबी का एक साल ही पूरा हो पाया था कि अचानक नवाब मियां अलीगढ़ से पढ़ाई छोड़ कर हमेशा के लिए वापस आ गए. घर में किसी की हिम्मत नहीं थी कि कोई उन से यह पूछता कि मियां, पढ़ाई अधूरी क्यों छोड़ आए?

अब्बाजी यानी मियां कल्बे अली 2 साल पहले ही चल बसे थे और अम्मी जान रातदिन इबादत में लगी रहती थीं.

घर में अम्मी जान के अलावा छोटे मियां जावेद रह गए थे, जो पिछले साल ही अलीगढ़ से बीए करने के बाद जायदाद और राइस मिल संभालने लगे थे. वैसे भी जावेद मियां की पढ़ाई में ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी. इधर पूरी हवेली की देखरेख नौकर और नौकरानियों के भरोसे चल रही थी.

हवेली में एक बहू की शिद्दत से जरूरत महसूस की जाने लगी थी. नवाब मियां के रिश्ते आने लगे थे. शायद ही कोई दिन ऐसा जाता था कि घर में नवाब मियां के रिश्ते को ले कर कोई दूर या पास का रिश्तेदार न आता हो. लेकिन अपने ही गम में डूबे नवाब मियां ने आखिर में सख्ती से फैसला सुना दिया कि वे अभी शादी करना नहीं चाहते, इसलिए बेहतर होगा कि जावेद मियां की शादी कर दी जाए.

हवेली के लोग एक बार फिर सकते में आ गए. कानाफूसी होने लगी कि नवाब मियां अलीगढ़ में किसी हसीना को दिल दे बैठे हैं, मगर इश्क भी ऐसा कि वे हसीना से उस का पताठिकाना भी न पूछ पाए और वह अपने घर वालों के बुलावे पर ऐसी गई कि फिर वापस ही न लौटी. उन्होंने उस का काफी इंतजार किया, मगर बाद में हार कर वे भी हमेशा के लिए घर लौट आए.

बरसों बाद हवेली जगमगा उठी. जावेद मियां की शादी इलाहाबाद से हुई. छोटी बहू के आने से हवेली में खुशियां लौट आई थीं.

छोटी बहू बहुत हसीन थीं. वे काफी पढ़ीलिखी भी थीं. नौकरचाकर भी छोटी बहू की तारीफ करते न थकते थे. मगर नवाब मियां हर खुशी से दूर हवेली के एक कोने में अपनी ही दुनिया में खोए रहते. न तो उन्हें अब कोई खुशी खुश करती थी और न ही गम उन्हें अब दुखी करता था. वे रातदिन किताबों में खोए रहते या हवेली के पास बाग में चहलकदमी करते रहते.

सालभर होने को आया, मगर किसी की हिम्मत न हुई कि नवाब मियां के रिश्ते की कोई बात भी करे, क्योंकि हर कोई जानता था कि नवाब मियां जिद के पक्के हैं और जब तक उन के दिल में यादों के जख्म हरे हैं, तब तक उन से बात करना बेमानी है.

अभी एक साल भी न होने पाया था कि छोटी बहू के पैर भारी होने की खबर से हवेली में एक बार फिर खुशियां छा गईं. सभी खुश थे कि हवेली में बरसों बाद किसी बच्चे की किलकारियां गूंजेंगी.

वह दिन भी आया. हवेली में छोटी बहू की तबीयत काफी बिगड़ गई थी. जैसेतैसे उन्हें शहर के बड़े अस्पताल में दाखिल कराया गया. मगर होनी को कौन टाल सकता है. सो, छोटी बहू नन्हे मियां को पैदा करने के बाद ही चल बसीं.

हवेली में कुहराम मच गया. किसी ने सोचा भी नहीं था कि जो छोटी बहू हवेली में खुशियां ले कर आई थी, वे इतनी जल्दी हवेली को वीरान कर जाएंगी. नौकरचाकरों का रोरो कर बुरा हाल था. जावेद मियां तो जैसे जड़ हो गए थे. उन की आंख में आंसू जैसे रहे ही न थे.

लाश को नहलाने के बाद जनाजा तैयार किया गया. जनाजा उठाते समय हवेली के बड़े दरवाजे पर नौकरानियां दहाड़ें मारमार कर रो रही थीं. सभी औरतें हवेली के दरवाजे तक आईं और फिर वापस हवेली में चली गईं.

छोटी बहू को कब्र में रखने के बाद किसी ने बुलंद आवाज में कहा, ‘‘जिस किसी को छोटी बहू का मुंह आखिरी बार देखना है, वह देख ले.’’

नवाब मियां कब्रिस्तान में लोगों से दूर पीपल के पेड़ के पास खड़े थे. उन के दिल में भी खयाल आया कि आखिरी समय में छोटी बहू का एक बार चेहरा देख लिया जाए. आखिर वे उन के घर की बहू जो थीं.

कब्र के सिरहाने जा कर नवाब मियां ने थोड़ा झुक कर छोटी बहू का मुंह देखना चाहा. छोटी बहू का चेहरा बाईं तरफ थोड़ा घूमा हुआ था.

नवाब मियां ने जब छोटी बहू के चेहरे पर नजर डाली, तो वे बुरी तरह तड़प उठे. दोनों हाथों से अपना सीना दबाते हुए वे सीधे खड़े हुए. उन की आंखों के आगे अंधेरा छा गया. उन्होंने सोचा कि अगर वे जल्द ही कब्र के पास से नहीं हटे, तो इस कब्र में ही गिर पड़ेंगे.

कब्र पर लकड़ी के तख्ते रखे जाने लगे थे और लोग कब्र पर मुट्ठियों से मिट्टी डालने लगे. नवाब  मियां ने भी दोनों हाथों में मिट्टी उठाई और छोटी बहू की कब्र पर डाल दी.

जिस चेहरे की तलाश में वे बरसों से बेकरार थे, आज उसी चेहरे पर वे हमेशा के लिए 2 मुट्ठी मिट्टी डाल चुके थे.

एहसान : रुक्मिणी ने कैसे किया गोविंद पर एहसान

अंधेरा हो चला था. रुक्मिणी ने सब से पहले तो बैलगाड़ी जोती और अनाज के 2 बोरे गाड़ी में रख अपने गांव की तरफ चल दी. अंधेरे को देखते हुए रुक्मिणी ने लालटेन जला कर लटका ली थी. इस बार फसल थोड़ी अच्छी हो गई थी, इसलिए वह खुश थी.

खेत से निकल कर रुक्मिणी की गाड़ी रास्ते पर आ गई थी. अभी वह थोड़ा ही आगे बढ़ी थी कि उसे पेड़ से टकराई हुई मोटरसाइकिल दिखी. उस को चलाने वाला वहीं खून से लथपथ पड़ा था.

रुक्मिणी ने गाड़ी रोकी और लालटेन निकाल कर उस के चेहरे के पास ले गई. उस आदमी की नब्ज टटोली, जो अभी चल रही थी. इस के बाद उस का चेहरा देख कर एक पल के लिए तो रुक्मिणी का भी सिर घूम गया. वह सरपंच का बेटा मंगल सिंह था.

मंगल सिंह को देख कर रुक्मिणी का एक बार मन हुआ कि उसे ऐसा ही छोड़ कर आगे बढ़ जाए, लेकिन आखिर वह भी एक औरत थी और न चाहते हुए भी उस ने गाड़ी के सामान को एक तरफ किया और फिर मंगल सिंह को उठा

कर गाड़ी में डाल लिया. वह चाहती थी कि जल्दी से जल्दी मंगल सिंह को वह सरपंच के हवाले कर दे. इसी के साथ पुरानी यादों ने रुक्मिणी के जख्म को ताजा कर दिया.

सीतापुर गांव में रामलाल अपने छोटे से परिवार के साथ रहता था. उस के पास छोटा सा खेत था, इसी के साथ उस की पत्नी त्रिवेणी सरपंच गोविंद सिंह के यहां झाड़ूपोंछे का काम करती थी. त्रिवेणी के साथ उस की बेटी रुक्मिणी भी आती थी. मंगल सिंह और रुक्मिणी की उम्र बढ़ने के साथसाथ उन के दिलों में प्यार की कोंपलें भी फूटने लगी थीं और अकसर वे दोनों गांव व खेतों में निकल जाया करते थे.

रुक्मिणी के भरते शरीर, उभार और जवानी का रसपान गोविंद सिंह भी दूर से करने लगा था. रुक्मिणी इन सब बातों से दूर अपनी ही दुनिया में मस्त रहती थी.

गंगू ने जब सरपंच गोविंद सिंह को रुक्मिणी और मंगल सिंह की प्रेम कथा बताई, तो वह आगबबूला हो गया.

पहले तो गोविंद सिंह ने मंगल सिंह को समझाया, ‘मैं तुम्हारी शादी दूसरी जगह कर दूंगा, जहां से अच्छा दहेज मिल जाएगा और वैसे भी रुक्मिणी हमारी बराबरी की नहीं है.’

जब मंगल सिंह पर उस की बातों का कोई असर नहीं हुआ, तब उस ने रुक्मिणी के पीछे अपने आदमी छोड़ दिए. वे उसे बदनाम करने लगे.

एक बार रुक्मिणी के पिता रामलाल ने उस से उस की शादी की बात की, तो वह उसे टाल गई.

समय धीरेधीरे गुजर रहा था. आखिर गोविंद सिंह ने एक दिन रुक्मिणी को उठवा लिया और मंगल सिंह से कहा कि वह गांव के किसी लड़के के साथ भाग गई है. कुछ दिन बाद जब गोविंद सिंह ने उसे छोड़ा, तब तक मंगल सिंह उस से दूर चला गया था.

रुक्मिणी में जिंदगी जीने और हालत से जूझने का हौसला था, इसलिए वह इतने पर भी टूटी नहीं. थोड़े दिन बाद इसी गम में रुक्मिणी के मांबाप भी इस दुनिया से चल बसे. लेकिन इन सब हालात ने उसे और भी जुझारू बना दिया था. इस के बाद रुक्मिणी ने खेतीबारी को खुद संभाल लिया और पास के दूसरे गांव में रहने चली गई. अमीर घराने की लड़की मंगल सिंह के साथ ज्यादा दिन नहीं निभा सकी और एक दिन वह भी उसे छोड़ कर चली गई.

इस के बाद मंगल सिंह पागल जैसा हो गया, क्योंकि बाद में उसे भी रुक्मिणी के साथ हुए गलत बरताव के बारे में मालूम पड़ा था.

इस के बाद मंगल सिंह अपने को कुसूरवार मानता था, उस से माफी मांगना चाहता था. इस के बाद उस ने भी अपने पिता सरपंच गोविंद सिंह का घर छोड़ दिया था और अलग रहने लगा था.

उस दिन भी मंगल सिंह रुक्मिणी से माफी मांगने के लिए उस के खेत पर ही जा रहा था. दिमागी परेशानी से उस का ध्यान सड़क से भटक गया था और सामने से आते हुए ट्रैक्टर ने उस की मोटरसाइकिल को टक्कर मार दी थी.

तभी मंगल सिंह ने कराहते हुए अपनी आंखें खोलीं. अब रुक्मिणी भी यादों से वापस आ गई थी. सरपंच का घर अभी थोड़ी दूर था, इसलिए मंगल सिंह की हालत देखने के लिए उस ने बैलगाड़ी रोकी और उस के पास गई.

रुक्मिणी ने मंगल सिंह के सिर पर अपनी चुनरी कस कर बांध दी. तभी मंगल सिंह के हाथ माफी मांगने के लिए जुड़ गए थे. इन सब बातों का रुक्मिणी पर कोई असर नहीं हुआ. उस ने बैलगाड़ी तेजी से चलाई और सरपंच के घर के सामने गाड़ी रोक कर पूरी बात गोविंद सिंह को बताई और वापस जाने लगी.

गोविंद सिंह उस के पैरों पर गिर गया और बोला, ‘‘रुक्मिणी, मुझे किसी गरीब को नहीं सताना चाहिए था. मुझे माफ कर दे.’’

गोविंद सिंह मंगल सिंह को जीप में डाल शहर के अस्पताल में ले जाने लगा, तब मंगल सिंह ने रुक्मिणी का हाथ जोर से पकड़ लिया और उसे भी साथ चलने के लिए इशारा किया.

अस्पताल में मंगल सिंह का इलाज शुरू हो गया और उसे तुरंत खून देना था. परिवार में से किसी का खून मंगल सिंह के खून से नहीं मिल रहा था. साथ ही, वहां आए लोगों का खून भी मंगल सिंह के खून से नहीं मिल रहा था. रुक्मिणी एक बार फिर यादों की दुनिया में चली गई थी.

मंगल सिंह और रुक्मिणी एक बार शहर घूमने गए थे. तब रुक्मिणी ने कहा था, ‘देख मंगल, हमारा प्यार एकदम सच्चा और पक्का है कि तू भले ही न माने, लेकिन हमारा खून भी एक ही है.’

तब मंगल सिंह ने हंसते हुए कहा था, ‘हट पगली, ऐसे थोड़े न होता है. सभी के खून का ग्रुप अलगअलग ही होता है.’

मजाक की बात शर्त में बदल गई और दोनों ने पास के एक अस्पताल में जा कर जब खून को चैक करवाया, तब दोनों का ग्रुप एक ही निकला.

तभी डाक्टर ने आ कर कहा, ‘‘गोविंद सिंह, जल्दी खून का इंतजाम करो. मंगल सिंह की हालत खराब होती जा रही है. खून काफी बह गया है.’’

तब रुक्मिणी ने विश्वास से कहा, ‘‘डाक्टर, मेरा खून ले लीजिए.’’

गोविंद सिंह हैरानी से रुक्मिणी को देख रहा था और एहसान तले दबा जा रहा था.

प्रेम का निजी स्वाद- भाग 3: महिमा की जिंदगी में क्यों थी प्यार की कमी

स्त्रीमन अभेद्य दुर्ग सरीखा होता है. युक्ति लगा कर उस में प्रवेश पाना लगभग नामुमकिन है. लेकिन हां, अगर द्वार पर लटके ताले की चाबी किसी तरह प्राप्त हो जाए तो फिर इस की भीतरी तह तक सुगमता से पहुंचा जा सकता है. कमल को शायद अभी तक यह चाबी नहीं मिली थी.

अगले कुछ दिनों तक महिमा की क्लासेज बंद रहने वाली थीं. वतन अपनी शादी के सिलसिले में छुट्टी ले कर गया था. उस के बाद वह हनीमून पर जाने वाला था. महिमा की चिड़चिड़ाहट चरम पर थी. न ठीक से खापी रही थी न ही कमल की तरफ उस का ध्यान था. कितनी ही बार कमल ने उस का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की लेकिन महिमा के होंठों पर मुसकान नहीं ला सका. एकदो बार तो गिटार के तार छेड़ने की कोशिश भी की लेकिन महिमा ने इतनी बेदर्दी से उस के हाथ से गिटार छीना कि वह सकते में आ गया.

बीमारी यदि शरीर की हो तो दिखाई देती है, मन के रोग तो अदृश्य होते हैं. ये घुन की तरह व्यक्ति को खोखला कर देते हैं. महिमा की बीमारी जानते हुए भी कमल इलाज करने में असमर्थ था. वतन का प्यार कोई वस्तु तो थी नहीं जिसे बाजार खरीदा जा सके. दोतरफा होता, तब भी कमल किसी तरह अपने दिल पर पत्थर रख लेता. लेकिन यहां तो वतन को खबर ही नहीं है कि कोई उस के प्यार में लुटा जा रहा है.

कमल महिमा की बढ़ती दीवानगी को ले कर बहुत चिंतित था. उस ने तय किया कि वह कुछ दिनों के लिए महिमा को उस की मां के पास छोड़ आएगा. शायद जगह बदलने से ही कुछ सकारात्मक असर पड़े. बेटीदामाद को एकसाथ देखते ही मां खिल गईं. कमल सास के पांवों में झुका तो मां के मुंह से सहस्रों आशीष बह निकले.

एक दिन ठहरने के बाद कमल वापस चला गया. जातेजाते उस का उदास चेहरा मां की आंखों में तसवीर सा बस गया था. मां ने अकेले में महिमा को बहुत कुरेदा लेकिन उन के हाथ कुछ भी नहीं लगा. महिमा का उड़ाउड़ा रंग उन्हें खतरे के प्रति आगाह कर रहा था. मां महिमा के आसपास बनी रहने लगीं.

दाइयों से भी कभी पेट छिपे हैं भला? दोचार दिनों में ही मां ताड़ गईं कि मामला प्रेम का है. ऐसा प्रेम जिसे न स्वीकार करते बन रहा है और न परित्याग. लेकिन भविष्य को अनिश्चित भी तो नहीं छोड़ा जा सकता न? एक दिन जब महिमा बालकनी के कोने में कोई उदास धुन गुनगुना रही थी, मां उस के पीछे आ कर खड़ी हो गईं.

“बहुत अपसैट लग रही हो. कोई परेशानी है, तो मुझे बताओ. मां हूं तुम्हारी, तुम्हारी बेहतरी ही सोचूंगी,” मां ने महिमा के कंधे पर हाथ रख कर कहा. उन के अचानक स्पर्श से महिमा चौंक गई.

“नहीं, कुछ भी तो नहीं. यों ही, बस, जरा दिल उदास है,” महिमा ने यह कह कर उन का हाथ परे हटा दिया. मां उस के सामने आ खड़ी हुईं. उन्होंने महिमा का चेहरा अपनी हथेलियों में भर लिया और एकटक उस की आंखों में देखने लगीं. महिमा ने अपनी आंखें नीची कर लीं.

“कहते हैं कि गोद वाले बच्चे को छोड़ कर पेट वाले से आशा नहीं रखनी चाहिए. यानी, जो हासिल है उसे ही सहेज लेना चाहिए बजाय इस के कि जो हासिल नहीं, उस के पीछे भागा जाए,” मां ने धीरे से कहा. महिमा की आंखें डबडबा आईं. वह मां के सीने से लग गई. टपटप कर उन का आंचल भिगोने लगी. मां ने उसे रोकने का प्रयास नहीं किया.

कुछ देर रो लेने के बाद जब महिमा ने अपना चेहरा ऊपर उठाया तो बहुत शांत लग रही थी. शायद उस ने मन ही मन कोई निर्णय ले लिया था. मां ने उस का कंधा थपथपा दिया.

“कमल को फोन कर के आने को कह दे. अकेला परेशान हो रहा होगा,” मां ने उस के हाथ में मोबाइल थमाते हुए कहा. अगले ही दिन कमल आ गया. कमल को देखते ही महिमा लहक कर उस के सीने से लग गई. कमल फिर से हैरान था.

‘यह लड़की है या पहेली.’ कमल उस के चेहरे को पढ़ने की कोशिश करने लगा लेकिन असफल रहा.

इधर महिमा समझ गई थी कि कुछ यादों को यदि दिल में दफन कर लिया जाए तो वे धरोहर बन जाती हैं. वतन की मोहब्बत को पाने के लिए कमल के प्रेम का त्याग करना किसी भी स्तर पर समझदारी नहीं कही जा सकती वह भी तब, जब वतन को इस प्रेम का आभास तक न हो. और वैसे भी, प्रेम कहां यह कहता है कि पाना ही उस का पर्याय है. यह तो वह फूल है जो सूखने के बाद भी अपनी महक बिखेरता रहता है.

“हम कल ही अपने घर चलेंगे,” महिमा ने कहा. कमल ने उसे अपनी बांहों के घेरे में ले लिया.

महिमा मन ही मन वतन की आभारी है. वह उस की जिंदगी में न आता तो प्रेम के वास्तविक स्वरूप से उस का परिचय कैसे होता? कैसे वह इस का स्वाद चख पाती. वह स्वाद, जिस का वर्णन तो सब करते हैं लेकिन बता कोई नहीं पाता. असल स्वाद तो वही महसूस कर पाता है जिस ने इसे चखा हो.

हरेक के लिए प्रेम का स्वाद नितांत निजी होता है और उस का स्वरूप भी.

प्रेम का निजी स्वाद- भाग 2: महिमा की जिंदगी में क्यों थी प्यार की कमी

वतन ने संगीत के 8वें सुर की तरह उस के जीवन में प्रवेश किया. महिमा की जिंदगी सुरीली हो गई. रंगों का एक वलय हर समय उसे घेरे रहता. वतन के साथ ने उस की सोच को भी नए आयाम दिए. उस ने महिमा को एहसास करवाया कि मात्र सुर-ताल के साथ गाना ही संगीत नहीं है. संगीत अपनेआप में संपूर्ण शास्त्र है.

कॅरिओके पर अभ्यास करने वाली महिमा जब वाद्ययंत्रों की सोहबत में गाने लगी तो उसे अपनी आवाज पर यकीन ही न हुआ. जब उस ने अपनी पहली रिकौर्डिंग सुनी तब उसे एहसास हुआ कि वह कितने मधुर कंठ की स्वामिनी है. पहली बार उसे अपनी आवाज से प्यार हुआ.

सुगम संगीत से ले कर शास्त्रीय संगीत तक और लोकगीतों से ले कर ग़ज़ल तक, सभीकुछ वतन इतने अच्छे से निभाता था कि महिमा के पांव हौलेहौले जमीन पर थपकी देने लगते और उस की आंखें खुद ही मुंदने लगतीं. महिमा आनंद के सागर में डूबनेउतरने लगती. उन पलों में वह ब्रह्मांड में सुदूर स्थित किसी आकाशगंगा में विचरण कर रही होती.

‘यदि संगीत को पूरी तरह से जीना है तो कम से कम किसी एक वाद्ययंत्र से दोस्ती करनी पड़ेगी. इस से सुरों पर आप की पकड़ बढती है,’ एक दिन वतन ने उस से यह कहा तो महिमा ने गिटार बजाना सीखने की मंशा जाहिर की. उस की बात सुन कर वतन मुसकरा दिया. वह खुद भी यही बजाता है.

कला की दुनिया बड़ी विचित्र होती है. यह तिलिस्म की तरह होती है. यह आप को अपने भीतर आने के लिए आमंत्रित करती है, उकसाती है, सम्मोहित करती है. यह कांटें से बांध कर खींच भी लेती है. जो इस में समा गया वह बाहर आने का रास्ता खोजना ही नहीं चाहता. महिमा भी वतन की कलाई थामे बस बहे चली जा रही थी.

गिटार पर नृत्य करती वतन की उंगलियां महिमा के दिल के तारों को भी झंकृत करने लगीं. कोई समझ ही न सका कि कब प्रेम के रेशमी धागों की गुच्छियां उलझने लगीं.

सीखना कभी भी आसान नहीं होता. चूंकि मन हमेशा आसान को अपनाने पर ही सहमत होता है, इसलिए वह सीखने की प्रक्रिया में अवरोह उत्पन्न करने लगता है और इस के कारण अकसर सीखने की प्रक्रिया बीच में ही छोड़ देने का मन बनने लगता है.

महिमा को भी गिटार सीखना दिखने में जितना आसान लग रहा था, हकीकत में उस के तारों को अपने वश में करना उतना ही कठिन था. बारबार असफल होती महिमा ने भी प्रारंभिक अभ्यास के बाद गिटार सीखने के अपने इरादे से पांव पीछे खींच लिए. लेकिन वतन अपने कमजोर विद्यार्थियों का साथ आसानी से छोड़ने वालों में न था. जब भी महिमा ढीली पड़ती, वतन इतनी सुरीली धुन छेड़ देता कि महिमा दोगुने जोश से भर उठती और अपनी उंगलियों को वतन के हवाले कर देती.

वतन जब उसे किसी युगल गीत का अभ्यास करवाता तो महिमा को लगता मानो वही इस गीत की नायिका है और वतन उस के लिए ही यह गीत गा रहा है. स्टेज पर दोनों की प्रस्तुति इतनी जीवंत होती कि देखनेसुनने वाले किसी और ही दुनिया में पहुंच जाते.

अब महिमा गिटार को साधने लगी थी. अभ्यास के लिए वतन उसे कोई नई धुन बनाने को कहता, तो महिमा सबकुछ भूल कर, बस, दिनरात उसी में खोई रहती. घर में हर समय स्वरलहरियां तैरने लगीं. कमल भी उसे खुश देख कर खुश था.

महिमा सुबह से ही दोपहर होने की प्रतीक्षा करने लगती. कमल को औफिस के लिए विदा करने के बाद वह गिटार ले कर अपने अभ्यास में जुट जाती. जैसे ही घड़ी 3 बजाती, महिमा अपना स्कूटर उठाती और वतन के संगीत स्कूल के लिए चल देती. वहां पहुंचने के बाद उसे वापसी का होश ही न रहता. घर आने के बाद कमल उसे फोन करता तब भी वह बेमन से ही लौटती.

‘काश, वतन और मैं एकदूसरे में खोए, बस, गाते ही रहें. वह गिटार बजाता रहे और मैं उस के लिए गाती रहूं.’ ऐसे खयाल कई बार उसे बेचैन कर देते थे. वह अपनी सीमाएं जानती थी. लेकिन मन कहां किसी सीमा को मानता है. वह तो, बस, प्रिय का साथ पा कर हवा हो जाता है.

‘कल एक सरप्राइज पार्टी है. एक खास मेहमान से आप सब को मिलवाना है.’ उस दिन वतन ने क्लास खत्म होने पर यह घोषणा की तो सब इस सरप्राइज का कयास लगाने लगे. महिमा हैरान थी कि इतना नजदीक होने के बाद भी वह वतन के सरप्राइज से अनजान कैसे है. घर पहुंचने के बाद भी उस का मन वहीं वतन के इर्दगिर्द ही भटक रहा था.

“क्या सरप्राइज हो सकता है?” महिमा ने कमल से पूछा.

“हो सकता है उस की शादी तय हो गई हो. अपनी मंगेतर से मिलवाना चाह रहा हो,” कमल ने हंसते हुए अपना मत जाहिर किया. सुनते ही महिमा तड़प उठी. दर्द की लहर कहीं भीतर तक चीर गई. अनायास एक अनजानीअनदेखी लड़की से उसे ईर्ष्या होने लगी. रात बहुत बेचैनी में कटी. उसे करवटें बदलते देख कर कमल भी परेशान हो गया. दूसरे दिन जब महिमा संगीत स्कूल से वापस लौटी तो बेहद खिन्न थी.

“क्या हुआ? कुछ परेशान हो? क्या सरप्राइज था?” जैसे कई सवाल कमल ने एकसाथ पूछे तो महिमा झल्ला गई.

“बहुत काली जबान है आप की. वतन अपनी मंगेतर को ही सब से मिलाने लाया था. अगले महीने उस की शादी है,” कहतेकहते उस की रुलाई लगभग फूट ही पड़ी थी. आंसू रोकने के प्रयास में उस का चेहरा टेढ़ामेढ़ा होने लगा तो वह बाथरूम में चली गई. कमल अकबकाया सा उसे देख रहा था. वह महिमा की रुलाई के कारण को कुछकुछ समझने का प्रयास कर रहा था लेकिन वह तय नहीं कर पा रहा था कि उसे आखिर करना क्या चाहिए.

प्रेम का निजी स्वाद- भाग 1: महिमा की जिंदगी में क्यों थी प्यार की कमी

प्रेम… कहनेसुनने और देखनेपढ़ने में यह जितना आसान शब्द है, समझने में उतना ही कठिन. कठिन से भी एक कदम आगे कहूं तो यह कि यह समझ से परे की शै है. इसे तो केवल महसूस किया जा सकता है.

दुनिया का यह शायद पहला शब्द होगा जिस के एहसास से मूक पशुपक्षी और पेड़पौधे तक वाकिफ हैं. बावजूद इस के, इस की कोई तय परिभाषा नहीं है. अब ऐसे एहसास को अजूबा न कहें तो क्या कहें?

बड़ा ढीठ होता है यह प्रेम. न उम्र देखे न जाति. न सामाजिक स्तर न शक्लसूरत. न शिक्षा न पेशा. बस, हो गया तो हो गया. क्या कीजिएगा. तन पर तो वश चल सकता है, उस पर बंधन भी लगाया जा सकता है लेकिन मन को लगाम कैसे लगे? सात घोड़ों पर सवार हो कर दिलबर के चौबारे पहुंच जाए, तो फिर मलते रहिए अपनी हथेलियां.

महिमा भी आजकल इसी तरह बेबसी में अपनी हथेलियां मसलती रहती है. जबजब वतन उस के सामने आता है, वह तड़प उठती है. एक निगाह अपने पति कमल की तरफ डालती और दूसरी वतन पर जा कर टिक जाती है.

ऐसा नहीं है कि कमल से उसे कोई शिकायत रही थी. एक अच्छे पति होने के तमाम गुण कमल में मौजूद हैं. न होते तो क्या पापा अपने जिगर का टुकड़ा उसे सौंपते? लेकिन क्या भौतिक संपन्नता ही एक आधार होता है संतुष्टि का? मन की संतुष्टि कोई माने नहीं रखती? अवश्य रखती है, तभी तो बाहर से सातों सुखों की मालकिन दिखने वाली महिमा भीतर से कितनी याचक थी.

महिमा कभीकभी बहुत सोचती है प्रेम के विषय में. यदि वतन उस की जिंदगी में न आता तो वह कभी इस अलौकिक एहसास से परिचित ही न हो पाती. अधिकांश लोगों की तरह वह भी इस के सतही रूप को ही सार्थक मानती रहती. लेकिन वतन उस की जिंदगी में आया कहां था? वह तो लाया गया था. या कहिए कि धकेला गया था उस की तनहाइयों में.

कमल को जब लगने लगा कि अपनी व्यस्तता के चलते वह पत्नी को उस के मन की खुशी नहीं दे पा रहा है तो उस ने यह काम वतन के हवाले कर दिया. ठीक वैसे ही जैसे अपराधबोध से ग्रस्त मातापिता समय की कमी पूरी करने के लिए बच्चे को खिलौनों की खेप थमा देते हैं.

हालांकि महिमा ने अकेलेपन की कभी कोई शिकायत नहीं की थी लेकिन कमल को दिनभर उस का घर में रह कर पति का इंतजार करना ग्लानि से भर रहा था. किट्टी पार्टी, शौपिंग और सैरसपाटा महिमा की फितरत नहीं थी. फिल्में और साहित्य भी उसे बांध नहीं पाता था. ऐसे में कमल ने उसे पुराने शौक जीवित करने का सुझाव दिया. प्रस्ताव महिमा को भी जंच गया और अगले ही रविवार तरुण सपनों में खुद को संगीत की भावी मल्लिका समझने वाली महिमा ने बालकनी के एक कोने को अपनी राजधानी बना लिया. संगीत से जुड़े कुछ चित्र दीवार की शोभा बढ़ाने लगे. गमलों में लगी लताएं रेलिंग पर झूलने लगीं. ताजा फूल गुलदस्ते में सजने लगे. कुल मिला कर बालकनी का वह कोना एक महफ़िल की तरह सज गया.

महिमा ने रियाज करना शुरू कर दिया. पहलेपहल यह मद्धिम स्वर में खुद को सुनाने भर जितना ही रहा. फिर जब कुछकुछ सुर नियंत्रण में आने लगे तो एक माइक और स्पीकर की व्यवस्था भी हो गई. कॅरिओके पर गाने के लिए कुछ धुनों को मोबाइल में सहेजा गया. महिमा का दोपहर के बाद वाला समय अब बालकनी में गुजरने लगा.

कला चाहे कोई भी हो, कभी भी किसी को संपूर्णरूप से प्राप्त नहीं होती. यह तो निरंतर अभ्यास का खेल है और अभ्यास बिना गुरु के मार्गदर्शन के संभव नहीं. तभी तो कहा गया है कि गुरु बिना ज्ञान नहीं. ऐसा ही कुछ यहां भी हुआ. महिमा कुछ दिनों तो अपनेआप को बहलाती रही लेकिन फिर उसे महसूस होने लगा मानो मन के भाव रीतने लगे हैं. सुरों में एक ठंडापन सा आने लगा है. बहुत प्रयासों के बाद भी जब यह शिथिलता नहीं टूटी तो उस ने अपने रियाज को विश्राम दे दिया. जहां से चले थे, वापस वहीं पहुंच गए. महिमा फिर से ऊबने लगी.

और तब, उस की एकरसता तोड़ने के लिए कमल ने उसे वतन से मिलाया. संगीतगुरु वतन शहर में एक संगीत स्कूल चलाता है. समयसमय पर उस के विद्यार्थी स्टेज पर भी अपनी कला का प्रदर्शन करते रहते हैं. कंधे तक लंबे बालों को एक पोनी में बांधे वतन सिल्क के कुरते और सूती धोती में बेहद आकर्षक लग रहा था.

‘कौन पहनता है आजकल यह पहनावा.’ महिमा उसे देखते ही सम्मोहित सी हो गई और मन में उस के यह विचार आया. युवा जोश से भरपूर, संभावनाओं से लबरेज वतन स्वयं को संगीत का विद्यार्थी कहता था. नवाचार करना उस की फितरत, चुनौतियां लेना उस की आदत, नवीनता का झरना अनवरत उस के भीतर फूटता रहता. एक ही गीत पर अनेक कोणों से संगीत बनाने वाला वतन आते ही धूलभरे गुबार की तरह महिमा के सुरों को अपनी आगोश में लेता चला गया. महिमा तिनके की तरह उड़ने लगी.

मैं सुहागिन हूं: क्यों पति की मौत के बाद भी सुहागन रही वो

जटपुर गांव के चौधरी देशराज के 5 बेटे बेगराज, लेखराज, यशराज, मोहनराज और धनराज और 4 बेटियां कमला, विमला, सुफला और निर्मला हुईं. भरापूरा परिवार, लंबीचौड़ी खेतीबारी और चौधरी देशराज का दबदबा. दालान पर बैठते तो किसी महाराजा की तरह. बड़े चौधरियों की तरह हुक्के की चिलम कभी बुझने का नाम न ले. दालान पर 4 चारपाई और दर्जनभर मूढ़े उन की चौधराहट की शान बढ़ाते थे. शाम को दालान का नजारा किसी पंचायत का सा होता था.

चौधरी देशराज ने सब से छोटे बेटे धनराज को छोड़ कर अपने सभी बेटे और बेटियों की शादी बड़ी धूमधाम से की थी. चौधरी देशराज का उसूल था कि बेटियों की शादियां बड़े चौधरियों में करो, तो वे अपने से बड़ा घराना पा कर खुश रहेंगी और अपने पिता व किस्मत पर फख्र करेंगी. बहुएं हमेशा छोटे चौधरियों की लाओ तो वे कहने में रहेंगी और बेटों का अपनी ससुरालों में दबदबा बना रहेगा.

सब से छोटे बेटे धनराज के कुंआरे रहने की कोई खास वजह नहीं थी. कितने ही चौधरी अपनी बहनबेटियों के रिश्ते धनराज के लिए ले कर आ चुके थे, लेकिन देशराज सदियों से चली आ रही गांव की ‘पांचाली प्रथा’ के मकड़जाल में फंसे हुए थे.

गांव की परंपरा के मुताबिक, वे चाहते थे कि धनराज अपने किसी बड़े भाई के साथ सांझा कर ले, जिस से जोत के 4 ही हिस्से हों, 5 नहीं. गांव के अनेक परिवार अपनी जोत के छोटा होने से इसी तरह बचाते चले आ रहे थे.

धनराज के बड़े भाइयों ने भी यही कोशिश की, लेकिन धनराज की अपनी किसी भाभी से नहीं पटी. हालांकि ‘पांचाली प्रथा’ के मुताबिक भाभियों ने धनराज पर अपनेअपने हिसाब से डोरे डाले, लेकिन धनराज कभी भाभियों के चंगुल में फंसा ही नहीं.

अब देशराज के सामने धनराज की शादी करने का दबाव था, क्योंकि बड़े बेटे बेगराज का बड़ा बेटा प्रताप भी शादी के लायक हो गया था.

असल में जब धनराज पैदा हुआ था, उस के कुछ दिनों बाद ही प्रताप का जन्म हुआ था. चाचाभतीजे के आगेपीछे जन्म लेने पर देशराज की बड़ी जगहंसाई हुई थी.

गांव के हमउम्र लोग मजाक ही मजाक में कह देते थे, ‘चौधरी साहब, अब तो होश धरो. हुक्के की गरमी ने आप के अंदर की गरमी बढ़ा रखी है, लेकिन उम्र का तो खयाल करो.’

इस के बाद चौधरी देशराज ने बच्चे पैदा करने पर रोक लगा दी. दादा बनने के बाद अपने बरताव में बदलाव लाए और दूसरी जिम्मेदारियों का दायरा बढ़ा लिया.

बेगराज ने अपने बड़े बेटे का नाम प्रताप जरूर रखा था, लेकिन प्रताप का मन पढ़ाईलिखाई, खेतीबारी में कम लगता था, मौजमस्ती में ज्यादा था. दिनभर खुले सांड़ की तरह प्रताप गांवभर में घूमताफिरता. उस के इस बरताव को देख कर गांव वालों ने उस का दूसरा नाम ‘सांड़ू’ ही रख दिया.

बड़ा परिवार होने के नाते घर में काम तो बहुत थे, लेकिन प्रताप ने न तो उन में कभी कोई दिलचस्पी दिखाई और न ही कोई जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेने की कोशिश की. इस वजह से बेगराज उस की जल्दी से जल्दी शादी कर के परिवार का जिम्मेदार सदस्य बनाना चाहता था.

गांव से उस की शिकायतें कोई न कोई ले कर आता रहता था. इस से भी बेगराज परेशान था. लेकिन पहले धनराज की शादी हो, तब वे प्रताप की शादी के बारे में सोचें.

देशराज ने जल्दी ही इस समस्या का हल निकाल दिया. धनराज की शादी पास के ही गांव जगतपुर के चौधरी शक्ति सिंह की बेटी सविता के साथ हुई.

धनराज और सविता सुखभरी जिंदगी गुजारने लगे. धनराज के हिस्से में जो जमीन आई, उस में वह जीतोड़ मेहनत करने लगा. सविता भी उस का खूब साथ निभाने लगी.

धनराज खेतों में बैल बना खूब पसीना बहाता. उस की कोशिश थी कि वह भी जल्दी से जल्दी अपने भाइयों के लैवल पर पहुंच जाए.

इस जद्दोजेहद में वह भूल गया कि उस के घर में छुट्टे सांड़ प्रताप ने घुसपैठ शुरू कर दी है. वह छुट्टा सांड़ कब उस की गाय सविता के पीछे लग गया, उसे पता ही नहीं चला. गांव में भी एक खुला सांड़ था, जो इस और उस के खेत में मुंह मारता फिरता था.

धनराज की शादी में आया दहेज का सामान अभी नया था. प्रताप कभी गाने सुनने के बहाने और कभी फिल्म देखने के बहाने दहेज में आई नई एलईडी पर कार्यक्रम देखने के बहाने धनराज के कमरे में आ धमकता था.

सविता नईनवेली दुलहन थी, इसलिए वह कुछ कह पाने में हिचक रही थी. कोई और भी प्रताप को नहीं टोकता था. धनराज का वह हमउम्र भी था और बचपन का साथी था, इसलिए धनराज को भी कोई एतराज नहीं था.

सविता भी इस की आदी हो गई. उस ने सोचा कि जब किसी को प्रताप के इस बरताव से कोई एतराज नहीं तो वही क्यों प्रताप पर एतराज करे. सविता और प्रताप धीमेधीमे आपस में बातचीत भी करने लगे. अगर सविता प्रताप से कभी किसी बात को कहती तो प्रताप उसे कभी न टालता.

धीरेधीरे दोनों की दोस्ती बढ़ने लगी. प्रताप पहले से ज्यादा समय सविता के कमरे में गुजारने लगा. आग और घी का यह रिश्ता धीरेधीरे चाचीभतीजे के रिश्ते को पिघलाने लगा. हवस की आंधी में एक दिन यह रिश्ता पूरी तरह से उड़ गया.

जब तक सविता और प्रताप के इस नए रिश्ते का एहसास धनराज और परिवार के दूसरे सदस्यों को होता, तब तक बात बहुत आगे तक बढ़ गई थी.

धनराज और परिवार के दूसरे लोगों ने सविता और प्रताप पर रोक लगाने की कोशिश की, तो उन दोनों ने दूसरे तरीके ढूंढ़ लिए. हर कोई तो 24 घंटे चौकीदार बन कर घूम नहीं सकता. दोनों का मिलन कभी खेतों में तो कभी खलिहानों में, कभी गौशाला में तो कभी बिटौड़ों के पीछे होने लगा. गांव के खुले सांड़ को भी कहीं भी आनेजाने की आजादी थी.

देशराज तजरबेकार थे. वे जानते थे कि एक खुला सांड़ किसी औरत के लिए सब से अच्छा प्रेमी होता है. उस के पास अपनी प्रेमिका के लिए वह अनमोल वक्त होता है, जो किसी कामकाजी बैल के पास कभी नहीं हो सकता है. यही वजह है कि ज्यादातर लड़कियों के प्रेमी आवारा और लफंगे होते हैं. सांड़ के पास यहांवहां मुंह मारने के लिए बहुत सा खाली वक्त होता है, जबकि कामकाजी बैल की गरदन हमेशा काम के तले दबी रहती है.

देशराज ने एक दिन बेगराज को बुला कर कहा, ‘‘बेगराज, अपने प्रताप को संभाल ले. इसे कामधंधे में लगा, नहीं तो जो आग घर में सुलग रही है, पूरे परिवार को ले डूबेगी. भविष्य में इस घर में कोई रिश्ता नहीं आएगा. आगे की सोच, प्रताप घर को आग लगा रहा है.’’

‘‘बाबूजी, मैं ने कितनी ही कोशिश कर ली, लेकिन लगता है ऐसे बात बनने वाली नहीं.’’

‘‘बेगराज, पहले समझाबुझा. बात न बने तो सख्ती से परहेज मत करना. नहीं तो तेरा प्रताप पूरे परिवार का सत्यानाश कर देगा. पहले ही गांव में काफी फजीहत हो चुकी है. कैसे भी कर, प्रताप पर लगाम लगा.’’

‘‘जी बाबूजी.’’

उधर धनराज ने सविता को हर तरह से समझा लिया. लेकिन हर बात पर वह धनराज की ‘हां’ में ‘हां’ मिलाती या चुप्पी साध जाती. धनराज के सामने वह ऐसी नौटंकी करती, जैसे वह इस दुनिया में धनराज के लिए ही आई है और बाकी सब बातें बेसिरपैर की हैं. लेकिन धनराज के घर से बाहर कदम रखते ही वह गिरगिट की तरह रंग बदलती.

धनराज और परिवार के लोग जितना सविता और प्रताप को समझाते, उन की इश्क की आग उतनी ही ज्यादा भड़कती. समझानेबुझाने की सीमा जब पार हो गई, तो बेगराज और लेखराज ने एक दिन प्रताप को कमरे में बंद कर के जम कर तुड़ाई की, तो सविता ने उस के घावों पर अपनी मुहब्बत का मरहम लगा दिया. यही हाल एक दिन धनराज ने सविता का किया, तो प्रताप ने उस के घावों पर अपनी मुहब्बत के फूल बरसा दिए.

धनराज ने सविता को घर छोड़ने से ले कर तलाक देने तक की धमकियां दे डालीं, लेकिन सविता के सिर चढ़ा इश्क का भूत उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था.

एक दिन धनराज घर में रखी पुराने समय की तलवार उठा लाया और गुस्से में नंगी तलवार से सविता की ‘बोटीबोटी’ काट डालने की धमकी देने लगा, तो सविता ने नंगी तलवार के आगे गरदन करते हुए कहा, ‘‘काटो. पहले मेरी गरदन काटो, फिर मेरे शरीर की बोटीबोटी काट डालो. लेकिन, यह याद रखना, मेरे मरने के बाद इस घर में तबाही मचेगी, कलह मचेगा, मौत नाचेगी, किसी को जरा सा भी चैन न मिलेगा.’’

‘‘बदजात…’’ कह कर जैसे ही धनराज ने तलवार प्रहार के लिए उठाई, परिवार के लोगों ने उसे किसी तरह रोका. इस आपाधापी में यशराज और उस की घरवाली तलवार से घायल हो गए.

लेकिन सविता लाख गालियां खा कर भी टस से मस न हुई. इश्क की ताकत का भी उसे अब एहसास हुआ कि इतना सबकुछ होने पर भी उस पर किसी बात का कोई असर क्यों नहीं हो रहा है. वह चाहे तो एक पल में सबकुछ ठीक कर सकती है, लेकिन इश्क की गुलामी उसे कुछ करने दे तब न.

इन सब बातों से धनराज की गांव में इतनी जगहंसाई हो रही थी कि उस का गांव में निकलना दूभर हो गया था. उसे हर कोई ऐसा लगता था मानो वह सविता और प्रताप की ही मुहब्बत की बातें कर रहा हो.

धनराज की यह हालत हो गई कि न तो वह किसी के पास जाता था और न ही किसी को अपने पास बुलाता था. दुनिया से उस का मन उचटने लगा था. न तो उसे अच्छे कपड़े पहनना सुहाता था और न ही फैशन करना. अच्छा खाना तो उसे जहर की तरह लगता था.

उस का शरीर सूख कर कांटा होता जा रहा था. घर उसे खाने को दौड़ता था, इसलिए वह अपना ज्यादातर समय खेतों में गुजारता था. कोई उस को समझाने की कोशिश करता, तो उस को ऐसा लगता जैसे वह उस के जले पर नमक छिड़क रहा हो. परिवार के लोगों से भी वह कटाकटा सा रहने लगा था.

खेतीबारी के काम में भी उस का मन अब बिलकुल नहीं लगता था. गांव में जो एक खुला सांड़ था पहले वह उस के खेत में घुसता था तो उसे डंडा मार कर भगाता और अपनी फसल को बचाता, लेकिन अब वह उस सांड़ को फसल चरने देता और बैठाबैठा उसे देखता रहता.

धनराज बड़ी उलझन में था. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह करे तो क्या करे. हताशा और निराशा ने उसे चारों तरफ से घेर लिया था. उस ने सुना था कि आदमी को अपने कर्मों की सजा भुगतनी पड़ती है.

काफी सोचने के बाद भी उसे यह समझ में नहीं आया कि आखिर उस ने ऐसा कौन सा गुनाह कर दिया था, जिस की उसे इतनी बड़ी सजा मिली?है.

फिर उसे खेत में बैठेबैठे ध्यान में आया कि सारी समस्या की जड़ सविता ही है, तो फिर क्यों न उसे ही रास्ते से हटा दिया जाए. आज रात को उसे खाने में धतूरे के बीज पीस कर खिला दूं तो सारे खटराग की जड़ ही खत्म.

वह इसी मंशा के साथ खलिहान में गया, जहां बहुत सारे धतूरे के पौधे थे. वहां से वह बहुत सारे धतूरे के बीज ले आया. एक पेड़ की छाया में बैठ कर धनराज उन्हें पीसने लगा.

धतूरे के बीज पीसते हुए उसे खयाल आया कि सविता को रास्ते से हटा कर क्या वह चैन की बंसी बजा सकेगा? क्या इस के बाद उस की नाक ऊंची हो जाएगी? लोग क्या उसे इज्जत की नजर से देखने लगेंगे? प्रताप के सामने क्या वह सिर उठा सकेगा?

इन सवालों ने उस के दिमाग में घमासान मचा दिया. सचाई पता चलने पर लोग उसे पत्नी का हत्यारा भी बताएंगे. फिर कौन औरत उस से शादी करेगी? वह अपने भाइयों और भाभियों पर बोझ बन जाएगा. इस से अच्छा तो यह है कि वह अपनी ही जान दे दे. कितना आसान तरीका है इन सभी मुसीबतों से छुटकारा पाने का.

यह इनसान की फितरत होती है कि वह हमेशा हर समस्या के आसान उपाय ढूंढ़ता है. धनराज ने भी यही किया. पिसे हुए धतूरे के बीज उस ने खुद फांक लिए, लेकिन तुरंत कुछ नहीं हुआ. इस से धनराज की परेशानी और बढ़ गई. वह मरने का इंतजार देर तक नहीं कर सकता था. उस ने आम के एक ऊंचे पेड़ में रस्सी लटकाई, फांसी का फंदा बनाया और उस पर झूल गया.

धनराज को किसी ने फांसी के फंदे पर झूलता देखा, तो गांव में जा कर शोर मचा दिया. ग्राम प्रधान ने हकीकत जानने पर पुलिस को सूचना दी और गांव वालों को चेतावनी दी कि पुलिस के आने तक कोई भी उस पेड़ के पास न फटके, जहां धनराज फांसी के फंदे पर लटका पड़ा है.

आननफानन ही पुलिस की जीप आ गई. धनराज की लाश को पोस्टमार्टम के लिए जिला अस्पताल भेज दिया गया.

इस बीच देशराज के परिवार पर पुलिस ने अपनी हनक दिखानी शुरू की. महक सिंह के बीच में पड़ने से 2 लाख रुपए में मामला तय हो गया, नहीं तो पुलिस को खुदकुशी का केस हत्या में बदलने में कितनी देर लगती.

दोपहर के बाद धनराज के अंतिम संस्कार के लिए पुलिस ने परिवार के सुपुर्द कर दिया. पूरा गांव देशराज के घर पर इकट्ठा हो गया. शाम ढलने को थी इसलिए शव को गंगाघाट पर ले जाने की जल्दी थी.

परिवार की औरतें सविता को ले कर अंतिम दर्शनार्थ धनराज के शव के पास ले कर पहुंची, तो भीड़ में हलचल पैदा हो गई. शव के पास जब घर की औरतों ने सविता की कलाई की चूड़ी तोड़ने और बिछुवे उतारने की कोशिश की, तो उस ने अपनी कलाई छुड़ाते हुए चीख कर कहा, ‘‘मुझ से नहीं होगा यह सब पाखंड. जब तक प्रताप जिंदा है, मैं सुहागिन हूं. यह बात मैं नहीं कह रही सारा गांव जानता है. न मैं अपनी मांग का सिंदूर मिटाऊंगी, न चूडि़यां तुड़वा कर अपनी कलाई नंगी करूंगी और न ही बिछुवे उतारूंगी.

‘‘प्रताप जिंदा है, तो मैं सधवा हूं, विधवा नहीं. धनराज तो मुझे मंझधार में छोड़ कर चला गया. अब प्रताप ही मेरा सहारा है.’’

सविता की बात सुन कर भीड़ ने अपनेअपने तरीके से खुसुरफुसुर की, लेकिन किसी औरत के ऐसे तेवर उन्होंने पहली बार देखे थे. दुख की इस घड़ी में कोई अड़चन नहीं डालना चाहता था.

सविता के विरोध में कुछ आवाजें उठीं, तो उन्हें समझदारी से दबा दिया गया. धनराज का शव चार कंधों पर उठा तो सब की आंखें गमगीन हो गईं. गांव में कौन ऐसा था, जो धनराज की शवयात्रा में न रोया हो.

तेरहवीं और शोक के दिन गुजरने के बाद सविता और प्रताप ने कोर्टमैरिज कर ली. सविता और प्रताप गांव की अपनी जमीनजायदाद बेच कर दूर के किसी गांव में जा बसे.

सविता प्रताप के साथ वहां रहने लगी. उन के जाने के बाद गांव वालों ने राहत की सांस ली. गांव का खुला सांड़ अब बैल बन के रह गया था.

तलाश: ज्योतिषी ने कैसे किया अंकित को अनु से दूर?

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तलाश- भाग 1 : ज्योतिषी ने कैसे किया अंकित को अनु से दूर?

पहली नजर में वह मुझे कोई खास आकर्षक नहीं लगी थी. एक तरह से इतने दिनों का इंतजार खत्म हुआ था.

2 महीने से हमारे ऊपर वाला फ्लैट खाली पड़ा था. उस में किराए पर रहने के लिए नया परिवार आ रहा है, इस की खबर हमें काफी पहले मिल चुकी थी. उस परिवार में एक लड़की भी है, यह जान कर मुझे बड़ी खुशी हुई थी, पर जब देखा तो उस में कोई विशेष रुचि नहीं जागी थी मेरी.

उन्हें रहते हुए 1 महीना हो गया था, पर मेरी उस से कभी कोई बात नहीं हुई थी, न ही मैं ने कभी ऐसी कोशिश की थी.

एक दिन अप्रत्याशित रूप से उस से बातचीत करने का मौका मिला था. मेरे एक दोस्त की शादी में वे लोग भी आमंत्रित थे. उस ने गुलाबी रंग का सलवारकुरता पहन रखा था. माथे पर साधारण सी बिंदी थी और बाल कंधों पर झूल रहे थे. चेहरे पर कोई खास मेकअप नहीं था. न जाने क्यों उस का नाम जानने की इच्छा हुई तो मैं ने पूछा, ‘‘मैं आप के नीचे वाले फ्लैट में रहता हूं. क्या आप का नाम जान सकता हूं?’’

‘‘अनु. और आप का?’’ उस ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘अंकित,’’ मैं ने धीरे से कहा.

‘‘अंकित? मेरे चाचा के लड़के का भी यही नाम है, मुझे बहुत पसंद है यह नाम,’’ उस ने हंसते हुए कहा.

उस के खुले व्यवहार को देख कर उस से बातें करने की इच्छा हुई, पर तभी उस की सहेलियों का बुलावा आ गया और वह दूसरी ओर चली गई.

पहली मुलाकात के बाद ऐसा नहीं लगा कि मैं उसे पसंद कर सकता हूं.

दूसरे दिन जब मैं दफ्तर जाने के लिए घर से बाहर आया तो देखा कि वह सीढि़यां उतर रही है. वह मुसकराई, ‘‘हैलो.’’

‘‘हैलो,’’ मैं ने भी उस के अभिवादन का संक्षिप्त सा उत्तर दिया. बस, इस से अधिक कोई बात नहीं हुई थी.

इस के बाद बहुत दिनों तक हमारा आमनासामना ही नहीं हुआ. इस बीच मैं ने उस के बारे में सोचा भी नहीं. मैं सुबह 9 बजे ही दफ्तर चला जाता और शाम को 7 बजे तक घर आता था.

एक ही इमारत में रहने के कारण धीरेधीरे मेरे और उस के परिवार वालों का एकदूसरे के यहां आनाजाना शुरू हो गया. खानेपीने की चीजों का आदानप्रदान भी होने लगा, पर मैं ने किसी बहाने से कभी भी उस के घर जाने की कोशिश नहीं की थी.

एक दिन मां को तेज बुखार था. पिताजी दौरे पर गए हुए थे. मेरे दफ्तर में एक जरूरी मीटिंग थी इसलिए छुट्टी लेना असंभव था. मैं परेशान हो गया कि क्या करूं, मां को किस के हवाले छोड़ कर जाऊं? तभी मुझे अनु की मां का ध्यान आया. शायद वे मेरी कुछ मदद कर सकें. यह सोच कर मैं उन के घर पहुंचा.

दरवाजा अनु ने ही खोला. वह शायद कालेज के लिए निकलने ही वाली थी. उस के चेहरे पर खुशी व आश्चर्य के भाव दिखाई दिए, ‘‘आप, आइएआइए. आज सूरज पश्चिम से कैसे निकल आया है? बैठिए न.’’

‘‘नहीं, अभी बैठूंगा नहीं, जल्दी में हूं, चाचीजी कहां हैं?’’

‘‘मां? वे तो दफ्तर चली गईं.’’

‘‘ओह, तो वे नौकरी करती हैं?’’

‘‘हां, आप को कुछ काम था?’’

‘‘असल में मां को तेज बुखार है और मैं छुट्टी ले नहीं सकता क्योंकि आज मेरी बहुत जरूरी मीटिंग है. मैं सोच रहा था कि अगर चाचीजी होतीं तो मैं उन से थोड़ी देर मां के पास बैठने के लिए निवेदन करता, फिर मैं दफ्तर से जल्दी आता. खैर, मैं चलता हूं.’’

अनु कुछ सोच कर बोली, ‘‘ऐसा है तो मैं बैठती हूं चाचीजी के पास, आप दफ्तर चले जाइए.’’

‘‘पर, आप को तो कालेज जाना होगा?’’

‘‘कोई बात नहीं, एक दिन नहीं जाऊंगी तो कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा.’’

‘‘लेकिन…’’

‘‘आप निश्चिंत हो कर जाइए. मैं 2 मिनट में ताला लगा कर आती हूं.’’

मैं आश्वस्त हो कर दफ्तर चला गया. 3 बजे मैं घर आ गया. अनु मां के पास बैठी एक पत्रिका में डूबी हुई थी. मां उस समय सो रही थीं.

‘‘मां कैसी हैं अब?’’ मैं ने धीरे से पूछा.

‘‘ठीक हैं, बुखार नहीं है, उन से पूछ कर मैं ने दवा दे दी थी.’’

‘‘मैं आप का शुक्रिया किन शब्दों में अदा करूं,’’ मैं ने औपचारिकता निभाते हुए कहा.

‘‘अब वे शब्द भी मैं ही आप को बताऊं?’’ वह हंसते हुए बोली, ‘‘देखिए, मुझे कोई फिल्मी संवाद सुनाने की जरूरत नहीं है. कोई बहुत बड़ा काम नहीं किया है मैं ने,’’ कह कर वह खड़ी हो गई.

लेकिन मैं ने उसे जबरदस्ती बैठा दिया, ‘‘नहीं, ऐसे नहीं, चाय पी कर जाइएगा.’’

मैं चाय बनाने रसोई में चला गया. तब तक मां भी जाग गई थीं. हम तीनों ने एकसाथ चाय पी.

उस दिन अनु मुझे बहुत अच्छी लगी थी. अनु के जाने के बाद मैं देर तक उसी के बारे में सोचता रहा.

हमारा आनाजाना अब बढ़ गया था. वह भी कभीकभी आती. मैं भी उस के घर जाने लगा था.

फिर यह कभीकभी का आनाजाना रोज में तबदील होने लगा. जिस दिन वह नहीं मिलती थी, कुछ अधूरा सा लगता था.

धीरेधीरे मेरे मन में अनु के प्रति आकर्षण बढ़ता जा रहा था. क्या मैं वास्तव में उसे चाहने लगा था? इस का निश्चय मैं स्वयं नहीं कर पा रहा था. उस का आना, उसे देखना, उस से बातें करना आदि अच्छा लगता था. पर एक बात जो मेरे मन में शुरू से ही बैठ गई थी कि वह बहुत सुंदर नहीं है, हमेशा मेरा निश्चय डगमगा देती.

अपनी कल्पना में शादी के लिए जैसी लड़की मैं ने सोच रखी थी, वह बहुत ही सुंदर होनी चाहिए थी. लंबा कद, दुबलीपतली, गोरी, तीखे नैननक्श. मेरे खींचे गए काल्पनिक खाके में अनु फिट नहीं बैठती थी. केवल यही बात उस से मुझे कुछ भी कहने से रोक लेती थी.

अनु ने भी कभी कुछ नहीं कहा मुझ से पर उसे भी मेरी मौजूदगी पसंद थी, इस का एहसास मुझे कभीकभी होता था. पर मैं ने कभी आजमाना नहीं चाहा. मैं स्वयं ही इस संबंध में कोई निर्णय नहीं ले पा रहा था और न ही मैं कुछ कह पाया था.

एक दिन अनु पिकनिक से लौट कर मुझे वहां के किस्से सुनाने लगी. बातों ही बातों में उस ने बताया, ‘‘आज हम लोग पिकनिक पर गए थे. वहां एक ज्योतिषी बाबा थे. सब लड़कियां उन्हें हाथ दिखा रही थीं. मैं ने भी अपना हाथ दिखा दिया. वैसे मुझे इन बातों पर कोई विश्वास नहीं है, फिर भी न जाने क्यों दिखा ही दिया. जानते हैं उस ने क्या कहा?’’

‘‘क्या?’’ मैं ने उत्सुकतावश पूछा.

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तलाश- भाग 2 : ज्योतिषी ने कैसे किया अंकित को अनु से दूर?

अनु ज्योतिषी की नकल करते हुए बोली, ‘‘बेटी, तुम्हारे भाग्य में 2 शादियां लिखी हैं. पहली शादी के 2 महीने बाद तुम्हारा पति मर जाएगा लेकिन दूसरी शादी के बाद तुम्हारा जीवन सुखी हो जाएगा.’’

कह कर अनु खिलखिला कर हंस पड़ी लेकिन मैं सन्न रह गया. इस बात को कोई तूल न देते हुए वह आगे भी कई बातें बताती गई, पर मैं कुछ न सुन सका.

बचपन से ही दादादादी, मां और पिताजी को ज्योतिषियों पर विश्वास करते देखा था. हमारे घर सुखेश्वर स्वामी हर महीने आया करते थे. वे ग्रहों व नक्षत्रों की स्थिति देख कर जैसा करने को कहते थे, हम वैसा ही करते. ज्योतिष पर मेरा दृढ़ विश्वास था.

अनु की कही बात इतनी गहराई से मेरे मन में उतर गई कि उस रात मैं सो नहीं सका. करवटें बदलते हुए सोचता रहा कि मैं तो अनु के साथ जीना चाहता हूं, मरना नहीं. फिर क्या उस की दूसरी शादी मुझ से होगी? मगर मैं तो शादी ही नहीं करना चाहता था. फिर कैसा तनाव हो गया था, मेरे मस्तिष्क में.

मैं अगले कई दिनों तक अनु का सामना नहीं कर सका. किसी न किसी बहाने उस से दूर रहने की कोशिश करने लगा. मगर 2-3 दिनों में ही वह सबकुछ समझ गई.

एक शाम मैं अपनी बालकनी में बैठा था कि तभी अनु आई और मेरे पास ही चुपचाप खड़ी हो गई. मैं कुछ नहीं बोल पाया. वह काफी देर तक खड़ी रही. फिर पलट कर वापस जाने लगी तो मैं ने पुकारा, ‘‘अनु.’’

‘‘हूं,’’ वह मेरी ओर मुड़ी. उस की भीगी पलकें देख कर मैं भावविह्वल हो उठा, ‘‘अनु, क्या हुआ? तुम…?’’

‘‘मुझ से ऐसी क्या गलती हो गई जो आप मुझ से नाराज हो गए. ये 3 दिन बरसों के समान भारी थे मुझ पर. यों तो एक पल भी आप के बिना…’’ वाक्य पूरा करने से पहले ही उस की आवाज रुंध गई और वह भाग कर बाहर चली गई.

मैं अवाक् सा कुरसी पर बैठा रह गया. मेरे हाथपैरों में इतनी हिम्मत नहीं रह गई थी कि उठ कर उसे रोकता और उस से कह देता, ‘हां अनु, मैं भी तुम्हारे बिना नहीं रह सकता.’

अनु चली गई थी. उस की बातें सुन कर मैं बेचैन हो उठा. वह वास्तव में मुझे चाहती थी, इस बात का मुझे यकीन नहीं हो रहा था.

मैं खानापीना, सोना सब भूल गया. निर्णय लेने की शक्ति जैसे समाप्त हो चुकी थी. अनु के इजहार के बाद मैं भी उस से मिलने का साहस नहीं कर पा रहा था.

इस के बाद अनु मुझे बहुत दिनों तक दिखाई नहीं दी. एक दिन अचानक पता चला कि उसे कुछ लोग देखने आ रहे हैं. एकाएक मैं बहुत परेशान हो गया. इस बारे में तो मैं ने सोचा ही नहीं था. लड़का खुद भी अनु को देखने आ रहा था. अनु बहुत गंभीर थी. मेरा उस से सामना हुआ, पर वह कुछ नहीं बोली.

दूसरे दिन पता चला कि उन्होंने अनु को पसंद कर लिया है. अब सगाई की तारीख पक्की करने फिर आएंगे.

सुन कर मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी कोई बहुत प्रिय चीज मुझ से छीनी जा रही हो, लेकिन उस वक्त मैं बिलकुल बेजान सा हो गया था, जैसे कुछ सोचने और करने की हिम्मत ही न रह गई हो. सारा दिन अकेले बैठ कर सोचता कि अगर अनु सचमुच मुझे पसंद करती है तो उस ने किसी और से शादी के लिए हां क्यों कर दी. फिर वह इतनी सुंदर भी नहीं जितनी कि मैं चाहता हूं. उस से ज्यादा खूबसूरत लड़की भी मुझे मिल सकती है. फिर अनु ही क्यों? और वह ज्योतिषी वाली बात… 2 शादियां… विधवा…यह सब सोचसोच कर मैं पागल सा हो जाता.

एक हफ्ता यों ही बीत गया. इस बीच अनु जब भी दिखती मैं उस से नजरें चुरा लेता. 7-8 दिन बाद लड़के वाले फिर आए और आगामी माह को सगाई की कोई तारीख पक्की कर के चले गए.

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मैं खोयाखोया सा रहने लगा. सगाई की तारीख पक्की होने के बाद अनु फिर मेरे घर आनेजाने लगी. जब भी आती, मुझ से पहले की तरह बातें करती, पर मैं असामान्य हो चला था. शादी के विषय में न मैं ने उस से कोई बात की थी और न ही बधाई दी थी.

अनु के घर सगाई की तैयारियां शुरू हो गई थीं. सगाई व शादी में

10 दिनों का अंतर था. मैं अपना मानसिक तनाव कम करने के लिए दूसरे शहर अपनी बूआ के घर चला गया था. वहीं पर 20-25 दिनों तक रुका रहा क्योंकि अनु की शादी देख पाना असह्य था मेरे लिए.

जब मैं वापस आया, अनु ससुराल जा चुकी थी. मैं अपना मन काम में लगाने लगा. मगर मेरे दिलोदिमाग पर अनु का खयाल इस कदर हावी था कि उस के अलावा मैं कुछ सोच ही नहीं पाता था.

कुछ दिनों के बाद मेरे घर में भी मेरी शादी की बात छिड़ गई. मां ने कहा, ‘‘अब तेरे लिए लड़की देखनी शुरू कर दी है मैं ने.’’

‘‘नहींनहीं, अभी रुक जाइए. 2-3 महीने…’’ मैं ने मां से कहा.

‘‘क्यों? 27 वर्ष का तो हो गया है. अधेड़ हो कर शादी करेगा क्या? फिर यह 2-3 महीने का क्या चक्कर है? मैं यह सब नहीं जानती. यह देख 3 फोटो हैं. इन में से कोई पसंद हो तो बता दे.’’

मां का मन रखने के लिए मैं ने तीनों फोटो देखी थीं.

‘‘देख, इस के नैननक्श काफी आकर्षक लग रहे हैं. रंग भी गोरा है. कद 5 फुट 4 इंच है.’’

पर मुझे उस में कोई सुंदरता नजर नहीं आ रही थी. फोटो में मुझे अनु ही दिखाई दे रही थी. मैं ने मां से कहा, ‘‘नहीं मां, अभी थोड़ा रुक जाओ.’’

‘‘क्यों? क्या तू ने कोई लड़की पसंद कर रखी है? देर करने का कोई कारण भी तो होना चाहिए?’’

मैं चुप रह गया. क्या जवाब देता, पर मैं सचमुच इंतजार कर रहा था कि कब अनु विधवा हो और कब मैं अपने मन की बात उस से कहूं.

शादी के 2 महीने बाद अनु पहली बार मायके आई तो हमारे घर भी आई. शादी के बाद वह बहुत बदल गई थी. साड़ी में उसे देख कर मन में हूक सी उठी कि अनु तो मेरी थी, मैं ने इसे किसी और की कैसे हो जाने दिया.

‘‘कैसी हो, अनु?’’ मैं ने पूछा था.

‘‘अच्छी हूं.’’

‘‘खुश हो?’’

‘‘हां, बहुत खुश हूं. आप कैसे हैं?’’

‘‘ठीक हूं. तुम्हारे पति का स्वास्थ्य कैसा है?’’ अचानक ही मैं यह अटपटा सा प्रश्न कर बैठा था.

वह आश्चर्य से मेरी ओर देखते

हुए बोली, ‘‘क्यों, क्या हुआ है,

उन्हें?’’

‘‘नहीं, यों ही पूछा था,’’ मैं ने हड़बड़ा कर बात को संभाला, ‘‘वे तुम्हारे साथ नहीं दिखे. इसलिए…’’

‘‘ओह, लेकिन वे तो मेरे साथ ही आए हैं. घर पर आराम कर रहे हैं.’’

‘‘अच्छा.’’

अनु चली गई. उसे खुश देख कर मेरा मन बुझ गया. मुझ से दूर जा कर जब उसे कुछ महसूस नहीं हुआ तो मैं ही क्यों पागलों के समान उस की राह देखता हूं. अनु के खयाल को मैं ने दिमाग से झटक देना चाहा.

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