तुम ही चाहिए ममू : राजेश ने किसके लिए कविता लिखी थी

कुछ अपने मिजाज और कुछ हालात की वजह से राजेश बचपन से ही गंभीर और शर्मीला था. कालेज के दिनों में जब उस के दोस्त कैंटीन में बैठ कर लड़कियों को पटाने के लिए तरहतरह के पापड़ बेलते थे, तब वह लाइब्रेरी में बैठ कर किताबें खंगालता रहता था.

ऐसा नहीं था कि राजेश के अंदर जवानी की लहरें हिलोरें नहीं लेती थीं. ख्वाब वह भी देखा करता था. छिपछिप कर लड़कियों को देखने और उन से रसीली बातें करने की ख्वाहिश उसे भी होती थी, मगर वह कभी खुल कर सामने नहीं आया.

कई लड़कियों की खूबसूरती का कायल हो कर राजेश ने प्यारभरी कविताएं लिख डालीं, मगर जब उन्हीं में से कोई सामने आती तो वह सिर झुका कर आगे बढ़ जाता था. शर्मीले मिजाज की वजह से कालेज की दबंग लड़कियों ने उसे ‘ब्रह्मचारी’ नाम दे दिया था.

कालेज से निकलने के बाद जब राजेश नौकरी करने लगा तो वहां भी लड़कियों के बीच काम करने का मौका मिला. उन के लिए भी उस के मन में प्यार पनपता था, लेकिन अपनी चाहत को जाहिर करने के बजाय वह उसे डायरी में दर्ज कर देता था. औफिस में भी राजेश की इमेज कालेज के दिनों वाली ही बनी रही.

शायद औरत से राजेश का सीधा सामना कभी न हो पाता, अगर ममता उस की जिंदगी में न आती. उसे वह प्यार से ममू बुलाता था.

जब से राजेश को नौकरी मिली थी, तब से मां उस की शादी के लिए लगातार कोशिशें कर रही थीं. मां की कोशिश आखिरकार ममू के मिलने के साथ खत्म हो गई. राजेश की शादी हो गई. उस की ममू घर में आ गई.

पहली रात को जब आसपड़ोस की भाभियां चुहल करते हुए ममू को राजेश के कमरे तक लाईं तो वह बेहद शरमाई हुई थी. पलंग के एक कोने पर बैठ कर उस ने राजेश को तिरछी नजरों से देखा, लेकिन उस की तीखी नजर का सामना किए बगैर ही राजेश ने अपनी पलकें झुका लीं.

ममू समझ गई कि उस का पति उस से भी ज्यादा नर्वस है. पलंग के कोने से उचक कर वह राजेश के करीब आ गई और उस के सिर को अपनी कोमल हथेली से सहलाते हुए बोली, ‘‘लगता है, हमारी जोड़ी जमेगी नहीं…’’

‘‘क्यों…?’’ राजेश ने भी घबराते हुए पूछा.

‘‘हिसाब उलटा हो गया…’’ उस ने कहा तो राजेश के पैरों तले जमीन खिसक गई. उस ने बेचैन हो कर पूछा, ‘‘ऐसा क्यों कह रही हो ममू… क्या गड़बड़ हो गई?’’

‘‘यह गड़बड़ नहीं तो और क्या है? कुदरत ने तुम्हारे अंदर लड़कियों वाली शर्म भर दी और मेरे अंदर लड़कों वाली बेशर्मी…’’ कहते हुए ममू ने राजेश का माथा चूम लिया.

ममू के इस मजाक पर राजेश ने उसे अपनी बांहों में भर कर सीने से लगा लिया.

ख्वाबों में राजेश ने औरत को जिस रूप में देखा था, ममू उस से कई गुना बेहतर निकली. अब वह एक पल के लिए भी ममू को अपनी नजरों से ओझल होते नहीं देख सकता था.

हनीमून मना कर जब वे दोनों नैनीताल से घर लौटे तो ममू ने सुझाव दे डाला, ‘‘प्यारमनुहार बहुत हो चुका… अब औफिस जाना शुरू कर दो.’’

उस समय राजेश को ममू की बात हजम नहीं हुई. उस ने ममू की पीठ सहलाते हुए कहा, ‘‘नौकरी तो हमेशा करनी है ममू… ये दिन फिर लौट कर नहीं आएंगे. मैं छुट्टियां बढ़वा रहा हूं.’’

‘‘छुट्टियां बढ़ा कर क्या करोगे? हफ्तेभर बाद तो प्रमोशन के लिए तुम्हारा इंटरव्यू होना है,’’ ममू ने त्योरियां चढ़ा कर कहा.

ममू को सचाई बताते हुए राजेश ने कहा, ‘‘इंटरव्यू तो नाम का है डार्लिंग. मुझ से सीनियर कई लोग अभी प्रमोशन की लाइन में खड़े हैं… ऐसे में मेरा नंबर कहां आ पाएगा?’’

‘‘तुम सुधरोगे नहीं…’’ कह कर ममू राजेश का हाथ झिड़क कर चली गई.

अगली सुबह मां ने राजेश को एक अजीब सा फैसला सुना डाला, ‘‘ममता को यहां 20 दिन हो चुके हैं. नई बहू को पहली बार ससुराल में इतने दिन नहीं रखा करते. तू कल ही इसे मायके छोड़ कर आ.’’

मां से तो राजेश कुछ नहीं कह सका, लेकिन ममू को उस ने अपनी हालत बता दी, ‘‘मैं अब एक पल भी तुम से दूर नहीं रह सकता ममू. मेरे लिए कुछ दिन रुक जाओ, प्लीज…’’

‘‘जिस घर में मैं 23 साल बिता चुकी हूं, उस घर को इतनी जल्दी कैसे भूल जाऊं?’’ कहते हुए ममू की आंखें भर आईं.

राजेश को इस बात का काफी दुख हुआ कि ममू ने उस के दिल में उमड़ते प्यार को दरकिनार कर अपने मायके को ज्यादा तरजीह दी, लेकिन मजबूरी में उसे ममू की बात माननी पड़ी और वह उसे उस के मायके छोड़ आया.

ममू के जाते ही राजेश के दिन उदास और रातें सूनी हो गईं. घर में फालतू बैठ कर राजेश क्या करता, इसलिए वह औफिस जाने लगा.

कुछ ही दिन बाद प्रमोशन के लिए राजेश का इंटरव्यू हुआ. वह जानता था कि यह सब नाम का है, फिर भी अपनी तरफ से उस ने इंटरव्यू बोर्ड को खुश करने की पूरी कोशिश की.

2 हफ्ते बाद ममू मायके से लौट आई और तभी नतीजा भी आ गया.

लिस्ट में अपना नाम देख कर राजेश खुशी से उछल पड़ा. दफ्तर में उस के सीनियर भी परेशान हो उठे कि उन को छोड़ कर राजेश का प्रमोशन कैसे हो गया.

उन्होंने तहकीकात कराई तो पता चला कि इंटरव्यू में राजेश के नंबर उस के सीनियर सहकर्मियों के बराबर थे. इस हिसाब से राजेश के बजाय उन्हीं में से किसी एक का प्रमोशन होना था, मगर जब छुट्टियों के पैमाने पर परख की गई तो उन्होंने राजेश से ज्यादा छुट्टियां ली थीं. इंटरव्यू में राजेश को इसी बात का फायदा मिला था.

अगर ममू 2 हफ्ते पहले मायके न गई होती तो राजेश छुट्टी पर ही चल रहा होता और इंटरव्यू के लिए तैयारी भी न कर पाता. अचानक मिला यह प्रमोशन राजेश के कैरियर की एक अहम कामयाबी थी. इस बात को ले कर वह बहुत खुश था.

उस शाम घर पहुंच कर राजेश को ममू की गहरी समझ का ठोस सुबूत मिला.

मां ने बताया कि मायके की याद तो ममू का बहाना था. उस ने जानबूझ कर मां से मशवरा कर के मायके जाने का मन बनाया था ताकि वह इंटरव्यू के लिए तैयारी कर सके.

सचाई जान कर राजेश ममू से मिलने को बेताब हो उठा. अपने कमरे में दाखिल होते ही वह हैरान रह गया. ममू दुलहन की तरह सजधज कर बिस्तर पर बैठी थी. राजेश ने लपक कर उसे अपने सीने से लगा लिया. उस की हथेलियां ममू की कोमल पीठ को सहला रही थीं.

ममू कह रही थी, ‘‘माफ करना… मैं ने तुम्हें बहुत तड़पाया. मगर यह जरूरी था, तुम्हारी और मेरी तरक्की के लिए. क्या तुम से दूर रह कर मैं खुश रही? मायके में चौबीसों घंटे मैं तुम्हारी यादों में खोई रही. मैं भी तड़पती रही, लेकिन इस तड़प में भी एक मजा था. मुझे पता था कि अगर मैं तुम्हारे साथ रहती तो तुम जरूर छुट्टी लेते और कभी भी मन लगा कर इंटरव्यू की तैयारी नहीं करते.’’

राजेश कुछ नहीं बोला बस एकटक अपनी ममू को देखता रहा.

ममू ने राजेश को अपनी बांहों में लेते हुए चुहल की, ‘‘अब बोलो, मुझ जैसी कठोर बीवी पा कर तुम कैसा महसूस कर रहे हो?’’

‘‘तुम को पा कर तो मैं निहाल हो गया हूं ममू…’’ राजेश अभी बोल ही रहा था कि ममू ने ट्यूबलाइट का स्विच औफ करते हुए कहा, ‘‘बहुत हो चुकी तारीफ… अब कुछ और…’’

ममू शरारत पर उतर आई. कमरा नाइट लैंप की हलकी रोशनी से भर उठा और ममू राजेश की बांहों में खो गई, एक नई सुबह आने तक.

निर्णय : अफरोज ने क्या माना बड़ों का फैसला

जब से अफरोज ने वक्तव्य दिया था, पूरे महल्ले और बिरादरी में बस, उसी की चर्चा थी. एक ऐसा तूफान था, जो मजहब और शरीअत को बहा ले जाने वाला था. वह जाकिर मियां की चौथे नंबर की संतान थी. 2 लड़के और उस से बड़ी राबिया अपनेअपने घरपरिवार को संभाले हुए थे. हर जिम्मेदारी को उन्होंने अपने अंजाम तक पहुंचा दिया था और अब अफरोज की विदाई के बारे में सोच रहे थे.

लेकिन अचानक उन की पुरसुकून सत्ता का तख्ता हिल उठा था और उस के पहले संबंधी की जमीन पर उन्होंने अपनी नेकनीयती और अक्लमंदी का सुबूत देते हुए वह बीज बोया था, जो अब पेड़ बन कर वक्त की आंधी के थपेड़े झेल रहा था. उन के बड़े भाई एहसान मियां उसी शहर में रहते थे. हिंदुस्तानपाकिस्तान बनने के वक्त हुए दंगों में उन का इंतकाल हो गया था. वह अपने पीछे अपनी बेवा और 1 लड़के को छोड़ गए थे. उस वक्त हारून 8 साल का था. तभी पति के गम ने एहसान मियां की बेवा को चारपाई पकड़ा दी थी.

उन की हालत दिनोंदिन बिगड़ती जा रही थी. उस हालत में भी उन्हें अपनी चिंता नहीं थी. चिंता थी तो हारून की, जो उन के बाद अनाथ हो जाने वाला था. कितनी तमन्नाएं थीं हारून को ले कर उन के दिल में. सब दम तोड़ रही थीं.

उन की बीमारी की खबर पा कर जाकिर मियां खानदान के साथ पहुंच गए थे. उन्हें अपने भाई की असमय मृत्यु का बहुत दुख था. उस दुख से उबर भी नहीं पाए थे कि अब भाभीजान भी साथ छोड़ती नजर आ रही थीं. उन के पलंग के निकट बैठे वह यही सोच रहे थे. तभी उन्हें लगा जैसे भाभीजान कुछ कहना चाह रही हैं. भाभीजान देर तक उन का चेहरा देखती रहीं. वह अपने शरीर की डूबती शक्ति को एकत्र कर के बोलीं, ‘वक्त से पहले सबकुछ खत्म हो गया,’ इतना कहतेकहते वह हांफने लगी थीं. कुछ पल अपनी सांसों पर नियंत्रण करती रहीं, ‘मैं ने कितने सुनहरे सपने देखे थे हारून के भविष्य के, खूब धूमधाम से शादी करूंगी…बच्चे…लेकिन…’

‘आप दिल छोटा क्यों करती हैं. यह सब आप अपने ही हाथों से करेंगी,’ जाकिर मियां ने हिम्मत बढ़ाने की कोशिश की थी. ‘नहीं, अब शायद आखिरी वक्त आ गया है…’ भाभीजान चुप हो कर शून्य में देखती रहीं. फिर वहां मौजूद लोगों में से हर एक के चेहरे पर कुछ ढूंढ़ने का प्रयास करने लगीं.

‘सायरा,’ वह जाकिर मियां की बीवी का हाथ अपने हाथ में लेते हुए बोली थीं, ‘तुम लोग चाहो तो

मेरे दिल का बोझ हलका कर सकते हो…’ ‘कैसे भाभीजान?’ सायरा ने जल्दी से पूछा था.

‘मेरे हारून का निकाह मेरे सामने अपनी अफरोज से कर सको तो…’ भाभीजान ने अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया था और आशाभरी नजरों से सायरा को देखने लगी थीं.

सायरा ने जाकिर मियां की तरफ देखा. जैसे पूछ रही हों, तुम्हारी क्या राय है? आखिर आप का भी तो कोई फर्ज है. वैसे भी अफरोज की शादी तो आप को ही करनी होगी. अच्छा है, आसानी से यह काम निबट रहा है. लड़का देखो, खानदान देखो, इन सब झंझटों से नजात भी मिल रही है. ‘इस में सोचने की क्या बात है? हमें तो खुशी है कि आप ने यह रिश्ता मांगा है,’ जाकिर मियां ने सायरा की तरफ देखा, ‘मैं आज ही निकाह की तैयारी करता हूं,’ यह कहते हुए जाकिर मियां उठ खड़े हुए.

वक्त की कमी और भाभीजान की नाजुक हालत देखते हुए अगले दिन ही अफरोज का निकाह हारून से कर दिया गया था. उसी के साथ वक्त ने तेजी से करवट ली थी और भाभीजान धीरेधीरे स्वस्थ होने लगी थीं. वह घटना भी अपने- आप में अनहोनी ही थी.

तब की 6 साल की अफरोज अब समझदार हो चुकी थी. उस ने बी.ए. तक शिक्षा भी पा ली थी. इसी बीच जब उस ने यह जाना था कि बचपन में उस का निकाह अपने ही चचाजाद भाई हारून से कर दिया गया था तो वह उसे सहजता से नहीं ले पाई थी. ‘‘यह भी कोई गुड्डेगुडि़यों का खेल हुआ कि चाहे जैसे और जिस के साथ ब्याह रचा दिया. दोचार दिन की बात नहीं, आखिर पूरी जिंदगी का साथ होता है पतिपत्नी का. मैं जानबूझ कर खुदकुशी नहीं करूंगी. बालिग हूं, मेरी अपनी भी कुछ इच्छाएं हैं, कुछ अरमान हैं,’’ अफरोज ने बारबार सोचा था और विद्रोह कर दिया था.

जब अफरोज के उस विद्रोह की बात उस के अम्मीअब्बा ने जानी थी तो बहुत क्रोधित हुए थे. ‘‘हम से जनमी बेटी हमें ही भलाबुरा समझाने चली है,’’ सायरा ने मां के अधिकार का प्रयोग करते हुए कहा था, ‘‘तुझे ससुराल जाना ही होगा. तू वह निकाह नहीं तोड़ सकती.’’

‘‘क्यों नहीं तोड़ सकती? जब आप लोगों ने मेरा निकाह किया था, तब मैं दूध पीती बच्ची थी. फिर यह निकाह कैसे हुआ?’’ अफरोज ने तत्परता से बोलते हुए अपना पक्ष रखा था. ‘‘शायद तेरी बात सही हो लेकिन तुझे पता होना चाहिए कि शरीअत के मुताबिक औरत निकाह नहीं तोड़ सकती. हम ने तुझे इसलिए नहीं पढ़ायालिखाया कि तू अपने फैसले खुद करने लगे. आखिर मांबाप किस लिए हैं?’’ सायरा किसी तरह भी हथियार डालने वाली नहीं थी.

‘‘मैं किसी शरीअतवरीअत को नहीं मानती. आप को आज के माहौल में सोचना चाहिए. कैसी मां हैं आप? जानबूझ कर मुझे अंधे कुएं में धकेल रही हैं. लेकिन मैं हरगिज खुदकुशी नहीं करूंगी. चाहे मुझे कुछ भी करना पड़े. यह मेरा आखिरी फैसला है,’’ अफरोज पैर पटकती हुई अपने कमरे में चली गई थी. अफरोज के खुले विद्रोह के आगे मांबाप की एक नहीं चली थी. आखिर उन्हें इस बात पर समझौता करना पड़ा था कि शहर काजी या मुफ्ती से उस निकाह पर फतवा ले लिया जाए.

शाम को उन के घर बिरादरी भर के लोग जमा हो गए थे. हर शख्स मुफ्ती साहब का इंतजार बेचैनी से कर रहा था.

उन्हें ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा. कुछ ही देर बाद मुफ्ती साहब के आने की खबर जनानखाने में जा पहुंची थी. इशारे में जाकिर मियां ने कुछ कहा और अफरोज को परदे के पास बैठा दिया गया. दूसरी ओर मरदों के साथ मुफ्ती साहब बैठे थे. मुफ्ती साहब ने खंखारते हुए गला साफ किया. फिर बोले, ‘‘अफरोज वल्द जाकिर हुसैन, यह सही है कि हर लड़की को निकाह कुबूल करने और न करने का हक है, लेकिन उस के लिए कोई पुख्ता वजह होनी चाहिए. तुम बेखौफ हो कर बताओ कि तुम यह निकाह क्यों तोड़ना चाहती हो?’’

वह चुप हो कर अफरोज के जवाब का इंतजार करने लगे. ‘‘मुफ्ती साहब, मुझे यह कहते हुए जरा भी झिझक नहीं महसूस हो रही है कि मेरी अपनी मालूमात

और इला के मुताबिक हारून एक काबिल शौहर बनने लायक आदमी नहीं है. ‘‘उस की कारगुजारियां गलत हैं और बदनामी का बाइस है,’’ वह कुछ पल रुकी फिर बोली, ‘‘बचपन में हुआ यह निकाह मेरे अम्मीअब्बा की नासमझी है. इसे मान कर मैं अपनी जिंदगी में जहर नहीं घोल सकती. बस, मुझे इतना ही कहना है.’’

दोनों तरफ खामोशी छा गई. तभी मुफ्ती साहब बुलंद आवाज में बोले, ‘‘अफरोज के इनकार की वजह काबिलेगौर है. मांबाप की मरजी से किया गया निकाह इस पर जबरन नहीं थोपा जा सकता. निकाह वही जायज है जो पूरे होशहवास में कुबूल किया गया हो. इसलिए यह अपने निकाह को नहीं मानने की हकदार है और अपनी मरजी से दूसरी जगह निकाह करने को आजाद है.’’ मुफ्ती साहब के फतवा देते ही चारों ओर सन्नाटा छा गया था. अपने हक में निर्णय सुन कर, जाने क्यों, अफरोज की आंखों में आंसू आ गए थे.

कुढ़न : जिस्म का भूखा है हर मर्द

हर साल इस नदी के किनारे मेला लगता है. इस बार भी मेला लगा. मेले में कमला भी रमिया बूआ को अपने साथ ले कर आई थीं.

तभी जोर का शोर उठा.

2 संत वेशधारी आपस में जगह के लिए झगड़ पड़े और देखते ही देखते कुछ ही देर में एक छोटी तमाशाई भीड़ जुट गई.

जो संत वेशधारी अभीअभी लोगों की श्रद्धा का पात्र बने प्रवचन दे रहे थे, उन का इस तरह झगड़ पड़ना मनोरंजन की बात बन गया.

कमला बहुत देख चुकी थीं ऐसे नाटक. क्या पुजारी, क्या मुल्ला, सभी अपना मतलब साधते हैं और दूसरों को आपस में लड़ाने की कोशिश करते हैं. सब दुकानदारी करते हैं. डरा कर लोगों की अंटी ढीली कराते हैं.

कमला के पति किसना पिछले कई महीनों तक बीमार रहे थे. डाक्टर ने उन्हें टीबी की बीमारी बताई थी. कितना इलाज कराया, कितनी सेवा की उन की, तनमनधन से. अपने सारे जेवर, यहां तक कि सुहाग की निशानियां भी बेच दीं. जिस ने जोजो बताया, वे सब करती चली गईं और आखिर में उन के किसना बिलकुल ठीक हो गए, बल्कि अब तो वे पहले से भी कहीं ज्यादा सेहतमंद हैं.

लोग कहते नहीं थकते हैं कि कमला अपने पति किसना को मौत के मुंह से वापस खींच कर ले आई हैं. इस बात से उन की इज्जत बढ़ी है.

कमला को घर लौटने की जल्दी हो रही थी, पर रमिया बूआ का मन अभी भरा नहीं था.

‘‘अब चलो भी बूआ, बहुत देर हो गई है,’’ बूआ को मनातेसमझाते उन्हें अपने साथ ले कर कमला अपने घर की ओर लौट चलीं.

अपनी झोंपड़ी की ओर कमला आगे बढ़ीं कि उन के इंतजार में आंखें बिछाए शन्नोमन्नो भाग कर आती दिखीं.

कमला ने प्यार से उन के लिए लाई चूड़ी, माला दोनों को पहना दीं, तब तक किसना भी आ गए, कमला ने उन्हें भी मिठाई दे दी.

तभी इन पलों का सम्मोहन एक झटके से टूट गया. एक लंबी, छरहरी, खूबसूरत औरत कमला से आ लिपटी. इस धक्के से अपने परिवार में मगन कमला संभलतेसंभलते भी लड़खड़ा गईं.

‘‘दीदी, मुझे अपनी शरण में ले लो. अब तो तुम्हारा ही आसरा है,’’ वह औरत बोली.

‘‘ऐसे कैसे आई लक्ष्मी? क्या हुआ?’’ उसे पहचानते ही किसी अनहोनी के डर से कमला का दिल बैठने लगा. किसना भी हैरानी से खड़े रहे.

लक्ष्मी को हांफतीकांपती देख कमला उसे सहारा दे कर झोंपड़ी के अंदर ले आईं और पानी लाने के लिए मुड़ीं, तो शन्नो को कटोरे में संभाल कर पानी लाते देखा.

पानी का घूंट भरते ही लक्ष्मी ने रोतेबिलखते टूटे शब्दों में जो बताया, उस का मतलब यह था कि कुछ ही दिन पहले लक्ष्मी का मरद उसे अपने मांबाप के पास छोड़ कर दूसरे शहर में काम करने चला गया. कल सुबह तक तो सब ठीक ही चला, पर शाम को जब सासू मां रोज की तरह पड़ोस में चली गईं, उस के ससुर काम पर से जल्दी घर लौट आए और आते ही उस से पानी मांगा. जब वह पानी देने गई, तो उन्होंने उस का हाथ ही पकड़ लिया. उन की बदनीयती भांप कर उन्हें एक जोर से धक्का दे कर वह सीधी बाहर भाग ली.

लक्ष्मी का भोला चेहरा और रोने से गुड़हल सी लाल और सूजी आंखें देख कर कमला ने पूछा, ‘‘पर, तू यहां तक आई कैसे? तुझे अकेले बाहर निकलते डर नहीं लगा? कहीं कुछ हो जाता तो?’’

‘‘नहीं दीदी, डर तो अपने ही घर में लगा, तभी तो अपनी लाज बचाने के लिए यहां भाग आई. पहले तो कभी अकले घर की दहलीज भी नहीं लांघी थी, पर उस समय इतना डर गई कि और कुछ समझ में ही नहीं आया, होश उड़ गए थे मेरे. बस, फिर तुम्हारा ध्यान आया और निकल भागी इधर की ओर,’’ लक्ष्मी ने बताया.

कमला अपने जंजालों को भूल लक्ष्मी को अपने साथ ले कर पीसीओ तक आई और उस के मरद से बात कराई.

मरद से बात हो जाने पर लक्ष्मी ने किलकती आवाज में उन्हें बताया कि उस के मरद ने कहा है कि अभी वह दीदी के पास ही रहे.

झोंपड़ी पर पहुंच कर कमला ने फौरन चाय का पानी चढ़ा दिया. किसना दुकान से डबलरोटी ले आए. मासूम बच्चियां बहुत भूखी थीं. कमला अपने हिस्से का भी उन्हें खिला कर किसना को जरूरी हिदायतें दे कर लक्ष्मी को साथ ले कर अपने काम पर चल दी.

मेहंदीरत्ता मेमसाहब के यहां आज किटी पार्टी है. उन्होंने काफी मेहमान बुला रखे हैं. लक्ष्मी साथ रहेगी, तो थोड़ा हाथ बंटा देगी. जल्दी काम हो जाएगा.

लक्ष्मी यह देख कर हैरान थी कि मेहंदीरत्ता मेमसाहब अपनी किटी पार्टी में मस्त थीं और साहब अकेले अपने कमरे में कंप्यूटर और मोबाइल फोन में बिजी थे.

कमला ने लक्ष्मी से कहा, ‘‘जरा साहब को चाय दे आ.’’

अपने में मस्त साहब ने चाय देने आई ताजगी से भरी लक्ष्मी को नजर उठा कर देखा और देखते ही मुसकरा कर उस से कुछ ऐसी हलकी बात कह दी कि वह घबरा कर फिर कमला के पास भाग गई.

लौटते समय रास्ते में लक्ष्मी बोली, ‘‘इतने पढ़ेलिखे आदमी हैं, लेकिन नजरें बिलकुल वैसी ही.

‘‘हम लोग तो ढोरडंगरों की जिंदगी जीते हैं, पर ऐसी शानदार जिंदगी जीने वाले सफेदपोश लोग भी कितने ओछे होते हैं.’’

लक्ष्मी की इस बात पर कमला चुप थीं.

लक्ष्मी ने फिर पूछा, ‘‘दीदी, क्या सभी बड़े आदमी ऐसे होते हैं?’’

‘‘नहीं, सब ऐसे नहीं होते. अच्छेबुरे, ओछे आदमी तो कभी भी कहीं भी हो सकते हैं,’’ कमला ने कहा, फिर कुछ याद कर वे कहने लगीं, ‘‘जानती हो, कुछ समय पहले यहां से थोड़ी दूरी पर एक साहब व मेमसाहब रहते थे और साथ में उन का एक छोटा सा खूबसूरत बच्चा था. दोनों ही एकदूसरे से बड़ा प्यार करते थे. मेमसाहब कभी झगड़ती भी थीं, तो साहब उन्हें प्यार से मना लेते थे.

‘‘उन्होंने अपने ही घर में एक बड़े कमरे में कोई प्रयोगशाला बनाई थी, वहीं दोनों मिल कर कुछ किया करते, फिर एक दिन…’’ कहतेकहते कमला का गला रुंध आया, ‘‘मेमसाहब प्रयोगशाला में कुछ कर रही थीं. साहब बाहर चंदा मांगने वाले आए थे, उन्हें चंदा दे रहे थे, हम भी तभी काम करने पहुंचे कि अंदर से धमाके की आवाज आई और आग की लपटें…

‘‘साहब बदहवास अंदर भागे. वहां सब धूंधूं कर जल रहा था. मेमसाहब और बच्चे को साहब जलती आग की लपटों से खींच लाए थे, पर वे उन्हें बचा नहीं पाए…

‘‘वे खुद भी बुरी तरह झुलस गए थे, एक खूबसूरत, प्यार भरा घर उजड़ गया. फिर उन के कई आपरेशन हुए. बाद में चलनेफिरने लायक होते ही अपनी सारी जायदाद महिला आश्रम और बाल आश्रम को दान कर न जाने कहां चले गए.

‘‘कुछ लोग बताते हैं कि वे शायद वैरागी हो गए हैं,’’ कमला ने एक गहरी सांस ली.

बातों में न समय का पता चला और न ही रास्ते का, झोंपड़ी आ गई थी.

कमला ने झोंपड़ी के अंदर ही शन्नोमन्नो के साथ लक्ष्मी के भी सोने का इंतजाम कर दिया. वे और किसना बाहर खुले में सो जाएंगे.

अचानक ही किसी ने कमला को झकझोर कर उठा दिया. थरथर कांपती लक्ष्मी उन के कान में फुसफुसा रही थी, ‘‘अंदर कोई नरपिशाच है दीदी.’’

कमला झटके से उठीं, ढिबरी जला कर पूरी झोंपड़ी में देखने लगीं. कनस्तर और संदूक के पीछे भी देखा. कहीं कोई नहीं था.

‘‘तुझे वहम हुआ होगा, कौन आएगा यहां,’’ चिढ़ कर कमला ने झिड़क दिया लक्ष्मी को, फिर वे रसोई की तरफ बढ़ी थीं कि वहां उकड़ू बैठे, मुंह छिपाए अपने पति को देख झट से ढिबरी बुझाई और बोलीं, ‘‘यहां तो कोई नहीं, चल तू आराम से सो जा. मैं दरवाजे पर बैठी हूं.’’

अंधेरे में कमला ने अपने पति किसना को बाहर निकल जाने दिया. फिर वे भरभरा कर दरवाजे पर ही ढह गईं.

कौन जिम्मेदार किशोरीलाल की मौत का

‘‘किशोरीलाल ने खुदकुशी कर ली…’’ किसी ने इतना कहा और चौराहे पर लोगों को चर्चा का यह मुद्दा मिल गया.

‘‘मगर क्यों की…?’’  भीड़ में से सवाल उछला.

‘‘अरे, अगर खुदकुशी नहीं करते, तो क्या घुटघुट कर मर जाते?’’ भीड़ में से ही किसी ने एक और सवाल उछाला.

‘‘आप के कहने का मतलब क्या है?’’ तीसरे आदमी ने सवाल पूछा.

‘‘अरे, किशोरीलाल की पत्नी कमला का संबंध मनमोहन से था. दुखी हो कर खुदकुशी न करते तो वे क्या करते?’’

‘‘अरे, ये भाई साहब ठीक कह रहे हैं. कमला किशोरीलाल की ब्याहता पत्नी जरूर थी, मगर उस के संबंध मनमोहन से थे और जब किशोरीलाल उन्हें रोकते, तब भी कमला मानती नहीं थी,’’ भीड़ में से किसी ने कहा.

चौराहे पर जितने लोग थे, उतनी ही बातें हो रही थीं. मगर इतना जरूर था कि किशोरीलाल की पत्नी कमला का चरित्र खराब था. किशोरीलाल भले ही उस के पति थे, मगर वह मनमोहन की रखैल थी. रातभर मनमोहन को अपने पास रखती थी. बेचारे किशोरीलाल अलग कमरे में पड़ेपड़े घुटते रहते थे. सुबह जब सूरज निकला, तो कमला के रोने की आवाज से आसपास और महल्ले वालों को हैरान कर गया. सब दौड़ेदौड़े घर में पहुंचे, तो देखा कि किशोरीलाल पंखे से लटके हुए थे.

यह बात पूरे शहर में फैल गई, क्योंकि यह मामला खुदकुशी का था या कत्ल का, अभी पता नहीं चला था. इसी बीच किसी ने पुलिस को सूचना दे दी. पुलिस आई और लाश को पोस्टमार्टम के लिए ले गई.

यह बात सही थी कि किशोरीलाल और कमला के बीच बनती नहीं थी. कमला किशोरीलाल को दबा कर रखती थी. दोनों के बीच हमेशा झगड़ा होता रहता था. कभीकभी झगड़ा हद पर पहुंच जाता था. यह मनमोहन कौन है? कमला से कैसे मिला? यह सब जानने के लिए कमला और किशोरीलाल की जिंदगी में झांकना होगा. जब कमला के साथ किशोरीलाल की शादी हुई थी, उस समय वे सरकारी अस्पताल में कंपाउंडर थे. किशोरीलाल की कम तनख्वाह से कमला संतुष्ट न थी. उसे अच्छी साडि़यां और अच्छा खाने को चाहिए था. वह उन से नाराज रहा करती थी.

इस तरह शादी के शुरुआती दिनों से ही उन के बीच मनमुटाव होने लगा था. कुछ दिनों के बाद कमला किशोरीलाल से नजरें चुरा कर चोरीछिपे देह धंधा करने लगी. धीरेधीरे उस का यह धंधा चलने लगा. वैसे, कमला ने लोगों को बताया था कि उस ने अगरबत्ती बनाने का घरेलू धंधा शुरू कर दिया है. इसी बीच उन के 2 बेटे हो गए, इसलिए जरूरतें और बढ़ गईं. मगर चोरीछिपे यह धंधा कब तक चल सकता था. एक दिन किशोरीलाल को इस की भनक लग गई. उन्होंने कमला से पूछा, ‘मैं यह क्या सुन रहा हूं?’

‘क्या सुन रहे हो?’ कमला ने भी अकड़ कर कहा.

‘क्या तुम देह बेचने का धंधा कर रही हो?’ किशोरीलाल ने पूछा.

‘तुम्हारी कम तनख्वाह से घर का खर्च पूरा नहीं हो पा रहा था, तो मैं ने यह धंधा अपना लिया है. कौन सा गुनाह कर दिया,’ कमला ने भी साफ बात कह कर अपने अपराध को कबूल कर लिया.

यह सुन कर किशोरीलाल को गुस्सा आया. वे कमला को थप्पड़ जड़ते हुए बोले, ‘बेगैरत, देह धंधा करती हो तुम?’

‘तो पैसे कमा कर लाओ, फिर छोड़ दूंगी यह धंधा. अरे, औरत तो ले आया, मगर उस की हर इच्छा को पूरा नहीं करता है. मैं कैसे भी कमा रही हूं, तेरे से तो नहीं मांग रही हूं,’ कमला भी जवाबी हमला करते हुए बोली और एक झटके से बाहर निकल गई.

किशोरीलाल कुछ नहीं कर पाए. इस तरह कई मौकों पर उन दोनों के बीच झगड़ा होता रहता था. इसी बीच शिक्षा विभाग से शिक्षकों की भरती हेतु थोक में नौकरियां निकलीं. कमला ने भी फार्म भर दिया. उसे सहायक टीचर के पद पर एक गांव में नौकरी मिल गई.

चूंकि गांव शहर से दूर था और उस समय आनेजाने के इतने साधन न थे, इसलिए मजबूरी में कमला को गांव में ही रहना पड़ा. गांव में रहने के चलते वह और आजाद हो गई. कमला ने 10-12 साल इसी गांव में गुजारे, फिर एक दिन उस ने अपने शहर के एक स्कूल में ट्रांसफर करवा लिया. मगर उन की लड़ाई अब भी नहीं थमी.

बच्चे अब बड़े हो रहे थे. वे भी मम्मीपापा का झगड़ा देख कर मन ही मन दुखी होते थे, मगर उन के झगड़े के बीच न पड़ते थे. जिस स्कूल में कमला पढ़ाती थी, वहीं पर मनमोहन भी थे. उन की पत्नी व बच्चे थे, मगर सभी उज्जैन में थे. मनमोहन यहां अकेले रहा करते थे. कमला और उन के बीच खिंचाव बढ़ा. ज्यादातर जगहों पर वे साथसाथ देखे गए. कई बार वे कमला के घर आते और घंटों बैठे रहते थे.

कमला भी धीरेधीरे मनमोहन के जिस्मानी आकर्षण में बंधती चली गई. ऐसे में किशोरीलाल कमला को कुछ कहते, तो वह अलग होने की धमकी देती, क्योंकि अब वह भी कमाने लगी थी. इसी बात को ले कर उन में झगड़ा बढ़ने लगा. फिर महल्ले में यह चर्चा चलती रही कि कमला के असली पति किशोरीलाल नहीं मनमोहन हैं. वे किशोरीलाल को समझाते थे कि कमला को रोको. वह कैसा खेल खेल रही है. इस से महल्ले की दूसरी लड़कियों और औरतों पर गलत असर पड़ेगा. मगर वे जितना समझाने की कोशिश करते, कमला उतनी ही शेरनी बनती.

जब भी मनमोहन कमला से मिलने घर पर आते, किशोरीलाल सड़कों पर घूमने निकल जाते और उन के जाने का इंतजार करते थे.

पिछली रात को भी वही हुआ. जब रात के 11 बजे किशोरीलाल घूम कर बैडरूम के पास पहुंचे, तो भीतर से खुसुरफुसुर की आवाजें आ रही थीं. वे सुनने के लिए खड़े हो गए. दरवाजे पर उन्होंने झांक कर देखा, तो शर्म के मारे आंखें बंद कर लीं.

सुबह किशोरीलाल की पंखे से टंगी लाश मिली. उन्होंने खुद को ही खत्म कर लिया था. घर के आसपास लोग इकट्ठा हो चुके थे. कमला की अब भी रोने की आवाज आ रही थी. इस मौत का जिम्मेदार कौन था? अब लाश के आने का इंतजार हो रहा था. शवयात्रा की पूरी तैयारी हो चुकी थी. जैसे ही लाश अस्पताल से आएगी, औपचारिकता पूरी कर के श्मशान की ओर बढ़ेगी.

नाजुक गुंडे : कौन थे वो नाजुक गुंडे

मुंबई से कुशीनगर ऐक्सप्रैस ट्रेन चली, तो गयादीन खुश हुआ. उस ने पत्नी को नए मोबाइल फोन से सूचना दी कि गाड़ी चल दी है और वह अच्छी तरह बैठ गया है.

गयादीन को इस घड़ी का तब से बेसब्री से इंतजार था, जब उस ने 2 महीने पहले टिकट रिजर्व कराया था. वह रेल टिकट को कई बार उलटपलट कर देखता था और हिसाब लगाता था कि सफर के कितने दिन बचे हैं.

सफर में सामान ज्यादा, खुद बुलाई मुसीबत होती है. गयादीन इस मुसीबत से बच नहीं पाता है. कितना भी कम करे, पर जब भी गांव जाता है, तो सामान बढ़ ही जाता है. इस स्लीपर बोगी में उस के जैसे सालछह महीने में कभीकभार घर जाने वाले कई मुसाफिर हैं. उन के साथ भी बहुत सामान है.

इस गाड़ी के बारे में कहा जाता है, आदमी कम सामान ज्यादा. पर आदमी कौन से कम होते हैं. हर डब्बे में ठसाठस भरे होते हैं, क्या जनरल बोगी, क्या स्लीपर बोगी.

गयादीन इस बार अपने गांव में तो मुश्किल से एकाध दिन ही ठहरेगा. पत्नी को ले कर ससुराल जाना होगा. एकलौते साले की शादी है. इस वजह से भी सामान ज्यादा हो गया है.

एक बड़ी अटैची, 2 बड़े बैग, एक प्लास्टिक की बड़ी बोरी और खानेपीने के सामान का एक थैला, जिसे उस ने खिड़की के पास लगी खूंटी पर टांग दिया था.

वैसे तो इस ट्रेन में पैंट्री कार होती है और चलती ट्रेन में ही खानेपीने का सामान बिकता है, लेकिन रेलवे की खानपान सेवा पर खर्च कर के खाली पैसे गंवाना है. पछतावे के अलावा कुछ नहीं मिलता. खानेपीने का सामान साथ हो, तो परेशानी नहीं उठानी पड़ती.

इस बार गयादीन मां के लिए 20 लिटर वाली स्टील की टंकी ले जा रहा था, जिस के चलते एक अदद बोरी का बोझ बढ़ गया था. हालांकि बोरी में बहुत सा छोटामोटा सामान भी रख लिया है. एक बैग तो वहां के मौसम को ध्यान में रखते हुए बढ़ा है.

मुंबई जैसा मौसम तो हर कहीं नहीं होता. सफर लंबा है. पहली रात तो सादा कपड़ों में कट जाएगी, पर अगले दिन और रात के लिए तो गरम कपड़ों की जरूरत होगी. कंबल भी बाहर निकालना होगा.

सुबहसुबह जब गाड़ी गोरखपुर पहुंचेगी, तो कुहरे भरी ठंड से हाड़ ही कांप जाएंगे. फिर गांव तक का खुले में बस का सफर. वहां कान भी बांधने पड़ते हैं, फिर भी सर्दी पीछा नहीं छोड़ती. लेकिन उसी पल पत्नी से मिलन और ससुराल में एकलौते साले की शादी में मिलने वाले मानसम्मान का खयाल आते ही गयादीन जोश से भर गया.

सामान ज्यादा होने की वजह से गयादीन को 2 दोस्त ट्रेन में बिठाने आए थे और वे ही बर्थ के नीचे सामान रखवा कर चले गए थे. उस की नीचे की ही बर्थ थी. कोच में सिर्फ रिजर्व टिकट वाले मुसाफिर थे. रेलवे स्टाफ ने कंफर्म टिकट वाले मुसाफिरों को ही कोच में सफर करने की इजाजत दी थी.

गयादीन ने चादर बिछाई. तकिए में हवा भरी और खिड़की की तरफ बैठ कर एक पतली सी पत्रिका निकाली. समय काटने के लिए उस ने रेलवे बुक स्टौल से कम कीमत की पत्रिका खरीद ली थी, जिस के कवर पर छपी लड़की की तसवीर ने उस का ध्यान खींचा था.

गयादीन अधलेटा हो कर पत्रिका के पन्ने पलटने लगा. सामने की बर्थ पर लेटे एक मुसाफिर ने उसे टोकते हुए सलाह दे दी, ‘‘भाई, रात बहुत हो गई है. लाइट बुझा कर सोने दो. आप भी सोओ. लंबा सफर है, दिन में पढ़ लेना.’’

साथी मुसाफिर की बात उसे ठीक लगी. पत्रिका बंद कर के पानी पी कर लाइट बुझाते हुए वह लेट गया.

दिनभर की आपाधापी के बावजूद उस की आंखों में नींद नहीं थी. एक तो घर जाने की खुशी, दूसरे सामान की चिंता.

नासिक रेलवे स्टेशन पर गाड़ी रुकी, तो भीड़ का एक रेला डब्बे में घुस आया. लोग कहते रहे कि रिजर्वेशन वाला डब्बा है, पर किसी ने नहीं सुनी. वे तीर्थ यात्री मालूम पड़ते थे और समूह में थे. उन में औरतें भी थीं.

गयादीन चादर ओढ़ कर बर्थ पर पूरा फैल कर लेट गया, ताकि उस की बर्थ पर कोई बैठ न सके, फिर भी ढीठ किस्म के 1-2 लोग यह कहते हुए थोड़ी देर का सफर है, उस के पैरों की तरफ बैठ ही गए.

गयादीन सफर में झगड़ेझंझट से बचना चाहता था, इसलिए ज्यादा विरोध नहीं किया, पर मन ही मन वह कुढ़ता रहा कि रिजर्वेशन का कोई मतलब नहीं. किसी की परेशानी को लोग समझते नहीं हैं. वह कच्ची नींद में अपने सामान पर नजर रखे रहा. हालांकि सामान को उस ने लोहे की चेन से अच्छी तरह बांध रखा था, लेकिन चोरों का क्या, चेन भी काट लेते हैं.

खैर, मनमाड़ और भुसावल स्टेशन आतेआते वे सब उतर गए. उस ने राहत की सांस ली और पूरी तरह सोने की कोशिश करने लगा. उसे नींद भी आ गई. बुरहानपुर स्टेशन पर चाय और केले बेचने वालों की आवाज से उस की नींद टूटी.

सुबह हो चुकी थी. बुरहानपुर स्टेशन का उसे इंतजार भी था. वहां मिलने वाले सस्ते और बड़े केले वह घर के लिए खरीदना चाहता था.

पर यह क्या, फिर भीड़ बढ़ने लगी. अब कंधे पर बैग टांगे या खाली हाथ दैनिक मुसाफिर ट्रेन में चढ़ आए थे. उस का अच्छाखासा तजरबा है, दैनिक मुसाफिर किसी तरह का लिहाज नहीं करते, सोते हुए को जगा देते हैं कि सवेरा हो गया और बैठ जाते हैं. एतराज करने पर भी नहीं मानते.

ट्रेन चली तो सामने वाले मुसाफिर को जगा कर गयादीन शौचालय गया. लौटा तो बीच की बर्थ खोल दी गई थी और नीचे उस की बर्थ पर कई लोग डटे थे. यही हाल सामने वाली बर्थ का था. वह कुछ देर खड़ा रहा तो एक दैनिक मुसाफिर ने उस पर तरस दिखाते हुए थोड़ा खिसक कर खिड़की की तरफ बैठने की जरा सी जगह बना दी, जहां उस का तकिया व चादर सिमटे रखे थे.

गयादीन झिझकते हुए सिकुड़ कर बैठ गया और अपने सामान पर नजर डाली. सामान महफूज था. चादर और तकिया जांघों पर रख कर खिड़की के बाहर देखने लगा. गाड़ी तेज रफ्तार से चल रही थी.

गयादीन गाल पर हाथ धरे उगते हुए सूरज को देख रहा था कि एकाएक किसी के धीमे से छूने का आभास हुआ. पलट कर देखा तो चमकती नीली सलवार और पीली कुरती वाली बहुत करीब थी. उस की कलाइयों में रंगबिरंगी चूडि़यां थीं व एक हाथ में 10-20 रुपए के कुछ नोट थे.

यह देख गयादीन अचकचा गया. उस ने मुंह ऊपर उठा कर देखा. लिपस्टिक से पुते हुए होंठों की फूहड़ मुसकराहट का वह सामना न कर सका और निगाहें नीचे कर लीं. उस ने खाली हाथ बढ़ाते हुए मर्दानी आवाज में रुपए की मांग की, ‘‘निकालो.’’

‘‘खुले पैसे नहीं हैं,’’ गयादीन ने झुंझलाहट से कहा और लापरवाही से खिड़की के बाहर देखने लगा.

‘‘कितना बड़ा नोट है राजा? सौ का, 5 सौ का, हजार का? निकालो तो सब तोड़ दूंगी,’’ भारी सी आवाज में उस ने तंज कसा.

‘‘जाओ, पैसे नहीं हैं.’’

‘‘अभी तो बड़े नोट वाले बन रहे थे और अब कहते हो कि पैसे नहीं हैं. रेल में सफर ऐसे ही कर रहे हो…’’ उस ने बेहयाई से हाथ भी मटकाया. इस बीच उस का एक साथी पास आ कर खड़ा हो गया, जो मर्दाने बदन पर साड़ी लपेटे था.

गयादीन को लगा कि अब इन से पार पाना मुश्किल है. बेमन से कमीज की जेब से 10 रुपए का एक नोट निकाला और बढ़ाया.

‘‘हायहाय, 10 का नोट… क्या आता है 10 रुपए में.’’

गयादीन ने 10 का एक और नोट निकाल कर चुपचाप बढ़ा दिया. वह उन से छुटकारा पाना चाहता था.

सलवारकुरती वाले ने दोनों नोट झट से लपक लिए और आगे बढ़ गए. वह अपने को ठगा सा महसूस करते हुए शर्मिंदा सा उन्हें देखता रह गया.

वे दूसरे मुसाफिरों से तगादा करने में लग गए थे. कोई उन का विरोध नहीं कर रहा था. सब अपने को बचा सा रहे थे.

कुछ दैनिक मुसाफिर उतरे, तो दूसरे आ गए. कुछ बिना रिजर्वेशन वाले और गुटका, तंबाकू, पेपर सोप बेचने वाले चढ़ आए. भीड़ इतनी बढ़ गई थी कि रिजर्व डब्बा जनरल डब्बे की तरह हो गया. इस बीच टिकट चैकर भी आया, पर उसे इन सब से कोई मतलब नहीं.

जब दिन चढ़ आया, तो दैनिक मुसाफिरों की आवाजाही तो जरूर कम हुई, पर बिना रिजर्व मुसाफिर बढ़ते रहे. हां, चैकिंग स्टाफ का दस्ता डब्बे में चढ़ा, तो उन के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. वे उन से जुर्माना वसूल कर रसीद पकड़ा गए.

रात में ठीक से नींद न आ पाने से गयादीन की सोने की इच्छा हो आई, पर वह लेट नहीं सकता था. वह बैठेबैठे ही ऊंघने लगा. सामने वाले मुसाफिर ने उसे जगा दिया, ‘‘अपने डब्बे में फिर गुंडे चढ़ आए हैं.’’

‘‘गुंडे, फिर से,’’ वह चौंका.

‘‘हां, हां, यह अपनेअपने इलाके के गुंडे ही तो हैं… नाजुक गुंडे.’’

अब की बार वे 4 थे. पहले वालों के मुकाबले ज्यादा हट्टेकट्टे और ढीठ. ताली बजाबजा कर बड़ी बेशर्मी से मुसाफिरों से रुपयों की मांग कर रहे थे. किसीकिसी से तो 50 के नोट तक झटक लिए थे. गयादीन के पास भी आए और ताली बजाते हुए मांग की.

गयादीन बोला, ‘‘पीछे वालों को दे चुके हैं.’’

‘‘दे चुके होंगे. लेकिन यह हमारा इलाका है.’’

‘‘इलाका तो गुंडों का होता है,’’ सामने वाले मुसाफिर ने कहा.

गयादीन को लगा कि गुंडा कहने से बुरा मान जाएंगे, पर बुरा नहीं माना. एक भौंहें मटकाते हुए बोला, ‘‘वे एमपी वाले थे. हम यूपी वाले हैं. हमारा रेट भी उन से ज्यादा है.’’

और वह दोनों से 50 का नोट लेकर ही माना. जब वे दूसरे डब्बे में चले गए, तो सामने वाला मुसाफिर बोला, ‘‘इन से पार पाना मुश्किल है. ये नंगई पर उतर आते हैं और छीनाझपटी भी कर सकते हैं. मुसाफिर बेचारा क्या करे.झगड़ाझंझट तो कर नहीं सकता.’’

‘‘इन का कोई इलाज नहीं? रेलवे पुलिस इन्हें नहीं रोकती?’’

‘‘पुलिस चाहे तो क्या नहीं कर सकती, पर आप तो जानते ही हैं. खैर,  रात के सफर में कोई परेशान नहीं करेगा. इन की शराफत है कि ये रात के सफर में मुसाफिरों को परेशान नहीं करते.’’

दोनों ने राहत की सांस ली.

तेंदूपत्ता : क्या था शर्मिष्ठा का असली सच

शर्मिष्ठा ने कार को धीमा करते हुए ब्रैक लगाई. झटका लगने से सहयात्री सीट पर बैठी जेनिथ, जो ऊंघ रही थी, की आंखें खुल गईं, उस ने आंखें मिचका कर आसपास देखा. समुद्रतट के साथ लगते गांव का कुदरती नजारा. बड़ेबड़े, ऊंचेऊंचे नारियल और पाम के पेड़, सर्वत्र नयनाभिराम हरियाली.

‘‘आप का गांव आ गया?’’

‘‘लगता तो है.’’ सड़क के किनारे लगे मील के पत्थर को पढ़ते शर्मिष्ठा ने कहा. दोढाई फुट ऊंचे, आधे सफेद आधे पीले रंग से रंगे मील के पत्थर पर अंगरेजी और मलयाली भाषा में गांव का नाम और मील की संख्या लिखी थी.

‘‘यहां भाषा की समस्या होगी?’’ जेनिथ ने पूछा.

‘नहीं, सारे भारत में से केरल सर्वसाक्षर प्रदेश है. यहां अंगरेजी भाषा सब बोल और समझ लेते हैं. मलयाली भाषा के साथसाथ अंगरेजी भाषा में बोलचाल सामान्य है.’’

‘‘तुम यहां पहले कभी आई हो?’’

‘‘नहीं, यह मेरा जन्मस्थान है, ऐसा बताते हैं. मगर मैं ने होश अमेरिका की ईसाई मिशनरी में संभाला था.’’ शर्मिष्ठा ने कहा.

‘‘तुम्हारी मेरी जीवनगाथा बिलकुल एकसमान है.’’

कार से उतर कर दोनों ने इधरउधर देखा. चारों तरफ फैले लंबेचौड़े धान के खेतों में धान की मोटीभारी बालियां लिए ऊंचेऊंचे पौधे लहरा रहे थे.

समुद्र से उठती ठंडी हवा का स्पर्श मनमस्तिष्क को ताजा कर रहा था. धान के खेतों से लगते बड़ेबड़े गुच्छों से लदे केले के पेड़ भी दिख रहे थे.

एक वृद्ध लाठी टेकता उन के समीप से गुजरा.

‘‘बाबा, यहां गांव का रास्ता कौन सा है?’’ थोड़े संकोचभरे स्वर में शर्मिष्ठा ने अंगरेजी में पूछा.

लाठी टेक कर वृद्ध खड़ा हो गया, बोला, ‘‘आप यहां बाहर से आए हो?’’ साफसुथरी अंगरेजी में उस वृद्ध ने पूछा.

‘‘जी हां.’’

‘‘यहां किस से मिलना है?’’

‘‘कौयिम्मा नाम की एक स्त्री से.’’

‘‘वह नाथर है या नादर? इस गांव में 2 कौयिम्मा हैं. एक सवर्ण जाति की है, दूसरी दलित है. पहली, आजकल सरकारी डाकबंगले में मालिन है, खाली समय में तेंदूपत्ते तोड़ कर बीडि़यां बनाती है. दूसरी, मरणासन्न अवस्था में बिस्तर पर पड़ी है.’’

फिर उस वृद्ध ने उन को एक कच्चा वृत्ताकार रास्ता दिखाया जो सरकारी डाकबंगले को जाता था. दोनों ने उस वृद्ध, जिस का नाम जौन मिथाई था और जो धर्मांतरण कर के ईसाई बना था, का धन्यवाद किया.

कार मंथर गति से चलती, डगमगाती, कच्चे रास्ते पर आगे बढ़ चली.

डाकबंगला अंगरेजों के जमाने का बना था व विशाल प्रागंण से घिरा था. चारदीवारी कहींकहीं से खस्ता थी. मगर एकमंजिली इमारत सदियों बाद भी पुख्ता थी. डाकबंगले का गेट भी पुराने जमाने की लकड़ी का बना था. गेट बंद था.

कार गेट के सामने रुकी. ‘‘यहां सुनसान है. दोपहर ढल रही है. यहां कहीं होटल होता?’’ जेनिथ ने कहा.

शर्मिष्ठा खामोश रही. उस ने कार से बाहर निकल डाकबंगले का गेट खोला और प्रागंण में झांका, सब तरफ सन्नाटा था.

एक सफेद सन के समान बालों वाली स्त्री एक क्यारी में खुरपी लिए गुड़ाई कर रही थी. उस ने सिर उठा कर शर्मिष्ठा की तरफ देखा और सधे स्वर में पूछा, ‘‘आप किस को देख रही हैं?’’

‘‘यहां कौन रहता है?’’

‘‘कोई नहीं. सरकारी डाकबंगला है. कभीकभी कोई सरकारी अफसर यहां दौरे पर आते हैं. तब उन के रहने का इंतजाम होता है,’’ वृद्ध स्त्री ने धीमेधीमे स्वर में कहा.

‘‘आप कौन हो?’’

‘मैं यहां मालिन हूं. कभीकभी खाना भी पकाना पड़ता है.’’

‘‘आप का नाम क्या है?’’

‘‘मैं कौयिम्मा नाथर हूं’’

शर्मिष्ठा खामोश नजरों से क्यारी में सब्जियों की गुड़ाई करती वृद्धा को देखती रही.

उस को अपनी मां की तलाश थी. मगर उस का पूरा नाम उस को मालूम नहीं था. कौयिम्मा नाथर या कौयिम्मा नादर.

‘‘आप को यहां डाकबंगले में  ठहरना है?’’ वृद्धा ने हाथ में पकड़ी खुरपी को एक तरफ रखते हुए कहा.

‘‘यहां कोई होटल या धर्मशाला है?’’

‘‘नहीं, यहां कौन आता है?’’

‘‘खानेपीने का इंतजाम क्या है?’’

‘‘रसोईघर है, मगर खाली बरतन हैं. लकड़ी से जलने वाला चूल्हा है. गांव की हाट से सामान ला कर खाना पका देते हैं.’’

‘‘बिस्तर वगैरा?’’

‘‘उस का इंतजाम अच्छा है.’’

‘‘यहां का मैनेजर कौन है?’’

‘‘कोई नहीं, सरकारी रजिस्टर है. ठहरने वाला खुद ही रजिस्टर में अपना नाम, पता, मकसद सब दर्ज करता है,’’ वृद्धा साफसुथरी अंगरेजी बोल रही थी.

‘‘आप अच्छी अंगरेजी बोलती हैं. कितनी पढ़ीलिखी हैं?’’

‘‘यहां मिडिल क्लास तक का सरकारी स्कूल है. ज्यादा ऊंची कक्षा तक का होता तो ज्यादा पढ़ जाती,’’ वृद्धा ने अपने मात्र मिडिल कक्षा यानी 8वीं कक्षा तक ही पढ़ेलिखे होने पर जैसे अफसोस किया.

शर्मिष्ठा और उस की अमेरिकन साथी जेनिथ को मात्र 8वीं कक्षा तक पढ़ीलिखी स्त्री को इतनी साफसुथरी अंगरेजी बोलने पर आश्चर्य हुआ.

वृद्धा ने एक बड़ा कमरा खोल दिया. साफसुथरा डबलबैड, पुराने जमाने का

2 बड़ेबड़े पंखों वाला खटरखटर करता सीलिंग फैन, आबनूस की मेज, बेत की कुरसियां.

चंद मिनटों बाद 2 कप कौफी और चावल के बने नमकीन कुरमुरे की प्लेट लिए कौयिम्मा नाथर आई.

‘‘आप पैसा दे दो, मैं गांव की हाट से सामान ले आऊं.’’

शर्मिष्ठा ने उस को 500 रुपए का एक नोट थमा दिया. एक थैला उठाए कौयिम्मा नाथर सधे कदमों से हाट की तरफ चली गई.

कौयिम्मा नाथर अच्छी कुक थी. उस ने शाकाहारी और मांसाहारी भोजन पकाया. मीठा हलवा भी बनाया. खाना खा दोनों सो गईं.

शाम को दोनों घूमने निकलीं. कौयिम्मा नाथर साथसाथ चली. बड़े खुले प्रागंण में ऊंचेऊंचे कगूंरों वाला मंदिर था.

‘‘यह प्राचीन मंदिर है. यहां दलितों प्रवेश निषेध है.’’

थोड़ा आगे खपरैलों से बनी हौलनुमा एक बड़ी झोंपड़ी थी. उस के ऊपर बांस से बनी बड़ी बूर्जि थी. उस पर एक सलीब टंगी थी.

‘‘यह चर्च है. जिन दलितों को मंदिर में प्रवेश नहीं मिलता था, वे सम्मानजनक जीवन जीने के लिए हिंदू धर्म को छोड़ कर ईसाई बन गए. उन सब ने मिल कर यह चर्च बनाया. हर रविवार को ईसाइयों का एक बड़ा समूह यहां मोमबत्ती जलाने आता है,’’ कौयिम्मा नाथर के स्वर में धर्मपरिवर्तन के लिए विवश करने वालों के प्रति रोष झलक रहा था.

मंथर गति से चलती तीनों गांव घूमने लगीं. सारा गांव बेतरतीब बसा था. कहींकहीं पक्के मकान थे, कहींकहीं खपरैलों से बनी छोटीबड़ी झोंपडि़यां.

एक बड़े मकान के प्रागंण में थोड़ीथोड़ी दूरी पर छोटीछोटी झोंपडि़यां बनी थीं.

‘‘प्रागंण की ये झोंपडि़यां क्या नौकरों के लिए हैं?’’

‘‘नहीं, ये बेटी और जंवाई की झोंपड़ी कहलाती हैं.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘अधिकांश इलाके में मातृकुल का प्रचलन है. यहां बेटियों के पति घरजंवाई बन कर रहते आए हैं. अब इस परंपरा में धीरेधीरे परिवर्तन आ रहा है,’’ कौयिम्मा नाथर ने बताया.

‘‘मगर अलगअलग स्थानों पर झोंपडि़यां?’’

‘‘यहां बेटियां बहुतायत में होती हैं. आधा दर्जन या दर्जनभर बेटियां सामान्य बात है. शादी की रस्म साधारण सी है. जो पुरुष या लड़का, बेटी को पसंद आ जाता है उस से एक धोती लड़की को दिला दी जाती है. बस, वह उस की पत्नी बन जाती है.’’

‘‘और अगर संबंधविच्छेद करना हो तो?’’

‘‘वो भी एकदम सीधे ढंग से हो जाता है. पति का बिस्तर और चटाई लपेट कर झोंपड़ी के बाहर रख दी जाती है. पति संबंधविच्छेद हुआ समझा जाता है. वह चुपचाप अपना रास्ता पकड़ता है.’’

कौयिम्मा नाथर ने विद्रूपताभरे स्वर में कहा, ‘‘मानो, पति नहीं कोई खिलौना हो जिस को दिल भरते फेंक दिया जाता है.’’ वृद्धा ने आगे कहा, ‘‘मगर इस खिलौने की भी अपनी सामाजिक हैसियत है.’’

‘‘अच्छा, वह क्या?’’ जेनिथ, जो अब तक खामोश थी, ने पूछा.

‘‘मातृकुल परंपरा में भी पिता नाम के व्यक्ति का अपना स्थान है. समाज में अपना और संतान का सम्मान पाने के लिए किसी भद्र पुरुष की पत्नी होना या कहलाना जरूरी है.’’

शर्मिष्ठा और जेनिथ को कौयिम्मा नाथर का मंतव्य समझ आ रहा था.

‘‘आप का मतलब है कि स्त्री के गर्भ में पनप रहा बच्चा चाहे किसी असम्मानित व्यक्ति का हो मगर बच्चे को समाज में सम्मान पाने के लिए उस की माता का किसी सम्मानित पुरुष की पत्नी कहलाना जरूरी है,’’ जेनिथ ने कहा.

कौयिम्मा नाथर खामोश रही. शाम का धुंधलका गहरे अंधकार में बदल रहा था. तीनों डाकबंगले में लौट आईं.

अगली सुबह कौयिम्मा नाथर उन को नाश्ता करवाने के बाद तेंदूपत्ते की पत्तियां गोल करती, उन में तंबाकू भरती बीडि़यां बनाने बैठ गई. दोनों अपनेअपने कंधे पर कैमरा लटकाए गांव की तरफ निकलीं.

एक भारतीय लड़की और एक अंगरेज लड़की को गांव घूमते देखना ग्रामीणों के लिए सामान्य ही था. ऐसे पर्यटक वहां आतेजाते रहते थे.

चर्च का मुख्य पादरी अप्पा साहब बातूनी था. साथ ही, उस को गांव के सवर्ण या उच्च जाति वालों से खुंदक थी. सवर्ण जाति वालों के अनाचार और अपमान से त्रस्त हो कर उस ने धर्मपरिवर्तन कर ईसाईर् धर्म अपनाया था.

उस ने बताया कि कौयिम्मा नाथर एक सवर्ण जाति के परिवार से है जो गरीब परिवार था. गांव में सैकड़ों एकड़ उपजाऊ जमीन थी. जिस को आजादी से पहले तत्कालीन राजा के अधिकारी और कानूनगो ने जबरन गांव के अनेक परिवारों के नाम चढ़ा दी थी.

विवश हो उन परिवारों को खेती कर या मजदूरों से काम करवा कर राजा को लगान देना पड़ता था. एक बार लगान की वसूली के दौरान कानूनगो रास शंकरन की नजर नईनई जवान हुई कौयिम्मा नाथर पर पड़ी. उस ने उस को काबू कर लिया था.

जब उस को गर्भ ठहर गया तब कानूनगो ने कौयिम्मा को अपने एक कारिंदे कुरू कुनाल नाथर से धोती दिला दी थी. इस प्रकार कुरू नाथर कौयिम्मा का पति बन कर उस की झोंपड़ी में सोने लगा था.

जब कौयिम्मा नाथर को बेटी के रूप में एक संतान हो गई तब उस ने एक दोपहर कुरू कुनाल नाथर का बिस्तर और चटाई दरवाजे के बाहर रख दी. शाम को जब कुरू कुनाल नाथर लौटा तब उस को दरवाजा बंद मिला. तब वह चुपचाप अपना बिस्तर उठा किसी अन्य स्त्री को धोती देने चला गया.

बेटी का भविष्य भी मेरे ही समान न हो, इस आशय से कौयिम्मा नाथर ने एक रोज अपनी बेटी को ईसाई मिशनरी के अनाथालय में दे दिया था. वहां से वह बेटी केंद्रीय मिशनरी के अनाथालय में चली गई थी.

इतना वृतांत बताने के बाद पादरी खामोश हो गए. आगे की कहानी शर्मिष्ठा को मालूम थी. ईसाई मिशनरी के केंद्रीय अनाथालय से उस को अमेरिका में रहने वाले निसंतान दंपती ने गोद ले लिया था.

अब शर्मिष्ठा मल्टीनैशनल कंपनी में कार्यरत थी. जब उस को पता चला था कि वह घोष दंपती की गोद ली संतान है तो वह अपने वास्तविक मातापिता का पता लगाने के लिए भारत चली आई.

माता का पता चल गया था. पिता दो थे. एक जिस ने माता को गर्भवती किया था. दूसरा, जिस ने माता को समाज में सम्मान बनाए रखने के लिए धोती दी थी.

अजीब विडंबनात्मक स्थिति थी. सारे गांव को मालूम था. कौयिम्मा नाथर का असल पति कौन था. धोती देने वाला कौन था. तब भी थोथा सम्मान थोथी मानप्रतिष्ठा.

रिटायर्ड कानूनगो बीमार पड़ा था. उस के बड़े हवेलीनुमा मकान में पुरुषों की संख्या की अपेक्षा स्त्रियों की संख्या काफी ज्यादा थी. अपने सेवाकाल में पद के रोब में कानूनगो ने पता नहीं कितनी स्त्रियों को अपना शिकार बनाया था. बाद में बच्चे की वैध संतान कहलाने के लिए उस स्त्री को किसी जरूरतमंद से धोती दिला दी थी.

बाद में वही संतान अगर लड़की हुई, तो उस को बड़ी होने पर कोई प्रभावशाली भोगता और बाद में उस को धोती दिला दी जाती.

यह बहाना बना कर कि वे दोनों पुराने जमाने की हवेलियों पर पुस्तक लिख रही हैं, शर्मिष्ठा और जेनिथ हवेली और उस के कामुक मालिक को देख कर वापस लौट गईं.

धोती देने वाला पिता मंदिर के प्रागंण में बने एक कमरे में आश्रय लिए पड़ा था. उस को मंदिर से रोजाना भात और तरकारी मिल जाती थी. उस की इस स्थिति को देख कर शर्मिष्ठा दुखी हुई. मगर वह क्या कर सकती थी. दोनों चुपचाप डाकबंगले में लौट आईं.

दोनों पिताओं में किसी को भी शर्मिष्ठा अपना पिता नहीं कह सकती थी. मगर क्या माता उस को स्वीकार कर अपनी बेटी कहेगी? यह देखना था.

‘‘मुझे अपनी मां को पाना है, वे इसी गांव की निवासी हैं, क्या आप मदद कर सकती हैं?’’ अगली सुबह नाश्ता करते शर्मिष्ठा ने वृद्धा से सीधा सवाल किया.

‘‘उस का नाम क्या है?’’

‘‘कौयिम्मा.’’

‘‘नाथर या नादर?’’

‘‘मालूम नहीं. बस, इतना मालूम है कि कौयिम्मा है. उस ने मुझे यहां कि ईसाई मिशनरी के अनाथालय में डाल दिया था.’’

‘‘अब आप कहां रहती हो?’’

‘‘मैं अमेरिका में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में हूं. मुझे गोद लेने वाले मातापिता अमीर और प्रतिष्ठित हैं.’’

‘‘मां को ढूंढ़ कर क्या करोगी?’’

‘‘मां, मां होती है.’’

बेटी के इन शब्दों को सुन कर मां की आंखें भर आईं, वह मुंह फेर कर बाहर चली आई. रसोई में काम करते कौयिम्मा सोच रही थी, क्या करे, क्या उस को बताए कि वह उस की मां थी. मगर ऐसे में उस का भविष्य नहीं बिगड़ जाएगा.

अनाथालय ने ब्लैकहोल के समान शर्मिष्ठा के बैकग्राउंड, उस के अतीत को चूस कर उस को सिर्फ एक अनाथ की संज्ञा दे दी थी. जिस का न कोई धर्म था न कोई जाति या वर्ग. वहां वह सिर्फ एक अनाथ थी.

अब वह एक सम्मानित परिवार की बेटी थी. वैल स्टैंड थी. कौयिम्मा नाथर द्वारा यह स्वीकार करने पर कि वह उस कि मां थी, उस पर एक अवैध संतान होने का धब्बा लग सकता था.

एक निश्चय कर कौयिम्मा नाथर रसोई से बाहर आई. ‘‘मेम साहब,

आप को शायद गलतफहमी हो गई है. इस गांव में 2 कौयिम्मा हैं. एक मैं कौयिम्मा नाथर, दूसरी कौयिम्मा नादर. दोनों ही अविवाहित हैं. आप ने गांव कौन सा बताया है?’’

‘‘अप्पा नाडू.’’

‘‘यहां 3 गांवों के नाम अप्पा नाडू हैं. 2 यहां से अगली तहसील में पड़ते हैं. वहां पता करें.’’

शर्मिष्ठा खामोश थी. जेनिथ भी खामोश थी. मां बेटी को अपनी बेटी स्वीकार नहीं कर रही थी. कारण? कहीं उस का भविष्य न बिगड़ जाए. पिता को पिता कैसे कहे? कौन से पिता को पिता कहे.

कार में बैठने से पहले एक नोटों का बंडल बिना गिने बख्शिश के तौर पर शर्मिष्ठा ने अपनी जननी को थमाया और उस को प्रणाम कर कार में बैठ गई. कार वापस मुड़ गई.

‘‘कोई मां इतनी त्यागमयी भी होती है?’’ जेनिथ ने कहा.

‘‘मां मां होती है,’’ अश्रुपूरित नेत्रों से शर्मिष्ठा ने कहा. कार गति पकड़ती जा रही थी.

वक्त का दोहराव : शशांक को आखिर कौन सी बात याद आई

शशांक दबे पांव छत पर पहुंचा. पूरे महल्ले में निस्तब्धता छाई हुई थी. कहीं आग से झुलसे मकान, टूटी दुकानें, सड़कों पर टूटी लाठियां, ईंटपत्थर और कहींकहीं तो खून के धब्बे भी नजर आ रहे थे. कितना खौफनाक मंजर था. हिंदू-मुसलिम दंगे ने नफरत की ऐसी आग लगाई है कि इंसान सभ्यता की सभी हदों को लांघ कर दरिंदगी पर उतर आता है.

राजनीतिबाज न जाने कब बाज आएंगे अपनी रोटियां सेंकने से. शशांक के अंतर में अपने दादाजी के कहे वो शब्द याद आ रहे थे कि नेता लोग राजनीति खेल जाते हैं और कितने ही लोग अपनी जान से खेल जाते हैं…

भारत-पाकिस्तान का बंटवारा. मानो एक हंसतेखेलते परिवार का दोफाड़ कर दिया गया. कौन अपना, कौन पराया. हिंदू-मुसलमानों के मन में ऐसा जहर घोला कि देखते ही देखते कल तक एक ही थाली में साथसाथ खाते दोस्त एकदूसरे की जान के दुश्मन बन बैठे. अपने पिताजी के मुंह से सुनी थी उस ने उस वक्त की दास्तान. आज वही कहानी फिर से उस की आंखों के सामने पसरने लगी थी…

हवेलीनुमा दोमंजिला घर और बहुत बड़ा चौक, चौक को पार कर के एक बहुत बड़ा दरवाजा, दरवाजा क्या था, पूरा किले का दरवाजा था, बड़ीबड़ी सांकल, सेफ पोल, बड़ेबड़े ताले उस दरवाजे को खोलना व बंद करना हर एक के बस की बात नहीं थी. मास्टर जीवन लाल ही उसे अपने मुलाजिमों के साथ मिल कर खोलते व बंद करते थे.

लेकिन आज यह क्या, वही दरवाजा, ऐसे लगता था कि बस अब गिरा तब गिरा. लगता भी क्यों न, आज एक बहुत बड़ा झुंड उस दरवाजे को धकेल रहा था, पीट रहा था, यह कैसा झुंड था?

मास्टर जीवनलाल जिन का इस पूरे शहर में नाम था, इज्जत थी, रुतबा था, आज वही मास्टरजी अपने पूरे परिवार के साथ इस हवेली में सांस रोके बैठे हैं.

परिवार में पत्नी, 3 बेटे, 3 बेटियां, बहू, सालभर का एक पोता सभी तो हैं, हंसता खेलता परिवार है.

कुछ समय से चल रही हिंदू मुसलमानों की आपस की दूरियां दिख तो रही थीं पर हालात ऐसे हो जाएंगे, किसी ने सोचा भी न था.

मुसलमान और हिंदू एकदूसरे के खून के प्यासे हो गए थे, आपस में इतनी नफरत होगी, कभी किसी ने सोचा भी न था. यह क्या हो गया भाइयो, जन्मजन्म से एकदूसरे के साथ रहते आए परिवार एकदूसरे से इतनी नफरत क्यों करने लगे.

हालात ऐसे हो गए थे कि जवान लड़कियों को उठा कर ले जाया जा रहा था.  बूढ़ों को मार दिया जा रहा था. मास्टर जीवन लाल अपनी तीनों जवान लड़कियों और बहू को हवेली की ऊपर वाली मंजिल पर पलंग के नीचे छिपाए हुए थे और दरवाजे की तरफ टकटकी लगाए देख रहे थे. कभी भी दरवाजा टूट सकता था.

मास्टर जीवन लाल का बड़ा बेटा, कटार लिए खड़ा था कि दरवाजा खुलते ही वह अपनी तीनों बहनों व पत्नी को इसलिए मार डालेगा कि कोई उन्हें उठा कर नहीं ले जा पाए. बहनें व पत्नी सामने मौत खड़ी देख ऐसे कांप रही थीं जैसे आंधी में डाल पर लगा पत्ता फड़फड़ा रहा हो.

पर यह क्या, दरवाजे के पीटने और धकेलते रहने के बीच एक आवाज उभरी. वह आवाज थी मास्टर जीवन लाल के किसी विद्यार्थी की. वह कह रहा था कि अरे, क्या कर रहे हो. यह तो मेरे मास्टरजी का घर है. इस घर को छोड़ दो. आगे चलो, और देखते ही देखते बाहर कुछ शांति हो गई.

रात का यह तूफान जब गुजर गया तो मास्टर जीवन लाल ने सोचा कि यहां से अपने पूरे परिवार को सहीसलामत कैसे बाहर निकाला जाए. इस सोच में वे दरवाजा खोल कर बाहर निकले तो बाहर का भयानक दृश्य देख कर रो पड़े. लाशें पड़ी हैं, कोई तड़प रहा है, कोई पानी मांग रहा है. जिस गली में वे और उन का परिवार बड़ी शान से होली, दीवाली, ईद मनाते थे, पड़ोसियों के साथ हंसीमजाक, मौजमस्ती होती थी, वही गली आज खून से नहाई हुई है. सभी आज कितने बेबस व लाचार हैं, किस को पानी पिलाएं, किस को अस्पताल पहुंचाएं. रात आए तूफान से घबराए, आगे आने वाले तूफान से अपने परिवार को बचाने के लिए वे क्या करें. अपनी तीनों जवान बेटियों को आगे आने वाले तूफान से बचाने की गरज से सबकुछ अनदेखा कर के वे आगे बढ़ गए.

मास्टर जीवन लाल जब बाहर का जायजा लेने निकले तो उन्हें पता चला कि हिंदुओं से यह जगह खाली कराई जा रही है. हिंदुओं को किसी तरह लाहौर तक पहुंचाया जा रहा है और वहां से आगे.

मास्टर जीवन लाल ने यह सुना तो वे जल्दी ही अपने परिवार की हिफाजत के लिए वापस मुड़े और घर पहुंच कर उन्होंने बीवी व बच्चों से कहा कि घर खाली करने की तैयारी करो. अब यहां से सबकुछ छोड़छाड़ कर जाना होगा.

इतना सुनते ही पूरा परिवार शोक में डूब गया. ऐसा होना लाजिमी भी है. सालों से यहां रह रहे थे. यहीं पैदा हुए, यहीं बड़े हुए, यहीं पढ़े और फिर उन से कहा जाए कि यहां तुम्हारा कुछ नहीं है, तुम यहां से जाओ, कैसा लगेगा. खैर, मास्टर जीवन लाल ने हिम्मत दिखाते हुए सब को तैयार किया और जरूरी कागजात व कुछ पैसे लिए. फिर उस आलीशान हवेली को हमेशा के लिए आंसुओं से अलविदा किया.

पैर हवेली के बाहर निकले तो इतने भारी थे कि उठ ही नहीं रहे थे. दिल हाहाकार कर रहा था. परंतु फिर भी उन्होंने अपने परिवार को देखा हिम्मत की और चल पड़े.

अब मास्टर जीवन लाल बिना छत, बेसहारा अपने परिवार के साथ खुले आसमान के नीचे खड़े थे. अब उन के पास कुछ न था. हाय समय का फेर देखो, कुछ समय पहले तो खुशियों की लहरें उठ रही थीं और अब यह क्या हो गया. यह कैसा तूफान था. इस तूफानी बवंडर में कैसे फंस गए. कब बाहर निकलेंगे इस तूफान से, पता नहीं.

अब मास्टर जीवन लाल के पास एक ही मकसद था कि अपने परिवार को सहीसलामत हिंदुस्तान पहुंचाया जाए. मास्टर जीवन लाल को पता चला कि ट्रक भर कर लोगों को लाहौर तक पहुंचाया जा रहा है. बहुत कोशिश के बाद मास्टर जीवन लाल की बहू व पत्नी को एक ट्रक में जगह मिल गई. और पीछे रह गईं मास्टरजी की बेटियां व बेटे.

उफ्फ अब क्या करें अब जो रह गए उन्हें किस के सहारे छोड़ें और जो चले गए उन्हें आगे का कुछ पता नहीं. मास्टरजी इस कशमकश में खड़े थे कि फिर लोगों का जनून उभरा. मार डालो, काट डालो की आवाजें. मास्टरजी फिर से परेशान हो गए. अब वे बेटियों को कहां छिपाएं. मास्टरजी की आंखों से आंसू बह निकले.

इतने में मास्टरजी को एक फरिश्ते की आवाज सुनाई दी. सलाम अलैकम, भाईजान. मास्टरजी ने जब उस ओर देखा तो मास्टरजी के सामने चलचित्र की तरह पुरानी घटनाएं याद आ गईं. दो जिस्म एक जान हुआ करते थे. दोनों परिवार एकसाथ सारे तीजत्योहार एकसाथ मनाते थे. फिर अचानक सलीम भाई को विदेश जाना पड़ गया. और अब मिले तो इस हाल में. न हवेली अपनी थी, न ही देश अपना रह गया था. सबकुछ खत्म हो चुका था. मास्टरजी लुटेपिटे खड़े थे.

सलीम भाई ने मास्टरजी को गले लगा लिया. मास्टरजी का हाल देख कर सलीम भाई भी रो पड़े. सलीम भाई ने मास्टरजी को एक बहुत बड़ी तसल्ली दी, कहा कि भाईजान, आप की बेटियां मेरी बेटियां. अब तुम इन की फिक्र छोड़ो और लाहौर जा कर भाभीजी और बहू को खोजो. मास्टरजी के पास अब कोई चारा भी नहीं था. सलीम भाई का विश्वास ही था, और वे आगे बढ़ गए.

कितना सहा होगा उस वक्त लोगों ने जब अपनी जड़ों से उखड़ कर रिफ्यूजी बन गए होंगे. धर्म क्या यही सिखाता है हमें, तोड़ दो रिश्तों को, मानवीय संवेदनाओं का खून कर दो.

बरसों पुरानी हिंदू, मुसलमान की वह नफरत आज भी बरकरार है तो इन नेताओं की वजह से, धर्म के ठेकेदारों की वजह से, अंधविश्वास की गठरी उठाए लोगों की अंधभक्ति की वजह से.

काश, जल्दी ही हमें समझ में आ जाए कि धर्म तो दिलों को मिलाता है, चोट पर मरहम लगाता है. खून की नदियां नहीं बहाता, बच्चों को रुलाता नहीं, औरतों की इज्जत नहीं उतारता, बसेबसाए घरों को उजाड़ता नहीं. काश, यह बात आने वाली हमारी पीढ़ी जल्दी ही समझ जाए.

 

कलंक : आखिर किसने किया रधिया की बेटी गंगा को मैला

अपनी बेटी गंगा की लाश के पास रधिया पत्थर सी बुत बनी बैठी थी. लोग आते, बैठते और चले जाते. कोई दिलासा दे रहा था तो कोई उलाहना दे रहा था कि पहले ही उस के चालचलन पर नजर रखी होती तो यह दिन तो न देखना पड़ता.

लोगों के यहां झाड़ूबरतन करने वाली रधिया चाहती थी कि गंगा पढ़ेलिखे ताकि उसे अपनी मां की तरह नरक सी जिंदगी न जीनी पड़े, इसीलिए पास के सरकारी स्कूल में उस का दाखिला करवाया था, पर एक दिन भी स्कूल न गई गंगा. मजबूरन उसे अपने साथ ही काम पर ले जाती. सारा दिन नशे में चूर रहने वाले शराबी पति गंगू के सहारे कैसे छोड़ देती नन्ही सी जान को?

गंगू सारा दिन नशे में चूर रहता, फिर शाम को रधिया से पैसे छीन कर ठेके पर जाता, वापस आ कर मारपीट करता और नन्ही गंगा के सामने ही रधिया को अपनी वासना का शिकार बनाता.

यही सब देखदेख कर गंगा बड़ी हो रही थी. अब उसे अपनी मां के साथ काम पर जाना अच्छा नहीं लगता था. बस, गलियों में इधरउधर घूमनाफिरना… काजलबिंदी लगा कर मतवाली चाल चलती गंगा को जब लड़के छेड़ते, तो उसे बहुत मजा आता.

रधिया लाख कहती, ‘अब तू बड़ी हो गई है… मेरे साथ काम पर चलेगी तो मुझे भी थोड़ा सहारा हो जाएगा.’

गंगा तुनक कर कहती, ‘मां, मुझे सारी जिंदगी यही सब करना है. थोड़े दिन तो मुझे मजे करने दे.’

‘अरी कलमुंही, मजे के चक्कर में कहीं मुंह काला मत करवा आना. मुझे तो तेरे रंगढंग ठीक नहीं लगते. यह क्या… अभी से बनसंवर कर घूमतीफिरती रहती है?

इस पर गंगा बड़े लाड़ से रधिया के गले में बांहें डाल कर कहती, ‘मां, मेरी सब सहेलियां तो ऐसे ही सजधज कर घूमतीफिरती हैं, फिर मैं ने थोड़ी काजलबिंदी लगा ली, तो कौन सा गुनाह कर दिया? तू चिंता न कर मां, मैं ऐसा कुछ न करूंगी.’

पर सच तो यही था कि गंगा भटक रही थी. एक दिन गली के मोड़ पर अचानक पड़ोस में ही रहने वाले 2 बच्चों के बाप नंदू से टकराई, तो उस के तनबदन में सिहरन सी दौड़ गई. इस के बाद तो वह जानबूझ कर उसी रास्ते से गुजरती और नंदू से टकराने की पूरी कोशिश करती.

नंदू भी उस की नजरों के तीर से खुद को न बचा सका और यह भूल बैठा कि उस की पत्नी और बच्चे भी हैं. अब तो दोनों छिपछिप कर मिलते और उन्होंने सारी सीमाएं तोड़ दी थीं.

पर इश्क और मुश्क कब छिपाए छिपते हैं. एक दिन नंदू की पत्नी जमना के कानों तक यह बात पहुंच ही गई, तो उस ने रधिया की खोली के सामने खड़े हो कर गंगा को खूब खरीखोटी सुनाई, ‘अरी गंगा, बाहर निकल. अरी कलमुंही, तू ने मेरी गृहस्थी क्यों उजाड़ी? इतनी ही आग लगी थी, तो चकला खोल कर बैठ जाती. जरा मेरे बच्चों के बारे में तो सोचा होता. नाम गंगा और काम देखो करमजली के…’

3 दिन के बाद गंगा और नंदू बदनामी के डर से कहीं भाग गए. रोतीपीटती जमना रोज गंगा को कोसती और बद्दुआएं देती रहती. तकरीबन 2 महीने तक तो नंदू और गंगा इधरउधर भटकते रहे, फिर एक दिन मंदिर में दोनों ने फेरे ले लिए और नंदू ने जमना से कह दिया कि अब गंगा भी उस की पत्नी है और अगर उसे पति का साथ चाहिए, तो उसे गंगा को अपनी सौतन के रूप में अपनाना ही होगा.

मरती क्या न करती जमना, उसे गंगा को अपनाना ही पड़ा. पर आखिर तो जमना उस के बच्चों की मां थी और उस के साथ उस ने शादी की थी, इसलिए नंदू पर पहला हक तो उसी का था.

शादी के 3 साल बाद भी गंगा मां नहीं बन सकी, क्योंकि नंदू की पहले ही नसबंदी हो चुकी थी. यह बात पता चलते ही गंगा खूब रोई और खूब झगड़ा भी किया, ‘क्यों रे नंदू, जब तू ने पहले ही नसबंदी करवा रखी थी तो मेरी जिंदगी क्यों बरबाद की?’

नंदू के कुछ कहने से पहले ही जमना बोल पड़ी, ‘आग तो तेरे ही तनबदन में लगी थी. अरी, जिसे खुद ही बरबाद होने का शौक हो उसे कौन बचा सकता है?’

उस दिन के बाद गंगा बौखलाई सी रहती. बारबार नंदू से जमना को छोड़ देने के लिए कहती, ‘नंदू, चल न हम कहीं और चलते हैं. जमना को छोड़ दे. हम दूसरी खोली ले लेंगे.’

इस पर नंदू उसे झिड़क देता, ‘और खोली के पैसे क्या तेरा शराबी बाप देगा? और फिर जमना मेरी पत्नी है. मेरे बच्चों की मां है. मैं उसे नहीं छोड़ सकता.’

इस पर गंगा दांत पीसते हुए कहती, ‘उसे नहीं छोड़ सकता तो मुझे छोड़ दे.’

इस पर गंगू कोई जवाब नहीं देता. आखिर उसे 2-2 औरतों का साथ जो मिल रहा था. यह सुख वह कैसे छोड़ देता. पर गंगा रोज इस बात को ले कर नंदू से झगड़ा करती और मार खाती. जमना के सामने उसे अपना ओहदा बिलकुल अदना सा लगता. आखिर क्या लगती है वह नंदू की… सिर्फ एक रखैल.

जब वह खोली से बाहर निकलती तो लोग ताने मारते और खोली के अंदर जमना की जलती निगाहों का सामना करती. जमना ने बच्चों को भी सिखा रखा था, इसलिए वे भी गंगा की इज्जत नहीं करते थे. बस्ती के सारे मर्द उसे गंदी नजर से देखते थे.

मांबाप ने भी उस से सभी संबंध खत्म कर दिए थे. ऐसे में गंगा का जीना दूभर हो गया और आखिर एक दिन उस ने रेल के आगे छलांग लगा दी और रधिया की बेटी गंगा मैली होने का कलंक लिए दुनिया से चली गई.

जिओ जमाई राजा : अभय प्रताप के घर चोर कैसे घूस गया था

निकला. साल भर होने को आया लेकिन अब भी जब पुरवा हवा चलती है तो चरनदास की नाक की हड्डी में दर्द होने लगता है.

इंस्पेक्टर इसरार खान अपनी खिजाब लगी दाढ़ी खुजलाते हुए लखनवी अंदाज व अदब के साथ अम्मांजी की मातमपुर्सी कर रहे थे, ‘‘खुदा जन्नत बख्शे मरहूम को. क्या नायाब मोहतरमा थीं जनाब, अल्ला को भी न जाने क्या सूझी कि ऐसी पाकीजा और शीरीं जबान खातून को हम से छीन लिया.’’

पिछले 5 सालों से आमों की फसल पर मलीहाबादी दशहरी आमों की पेटियों का नजराना पेश करने की जिम्मेदारी खान साहब पर ही थी. अम्मांजी एकएक पेटी गिन कर अंदर रखवातीं. 2 साल पहले जब कीड़े के प्रकोप से मलीहाबादी आमों की पूरी फसल ही चौपट हो गई थी तब बेचारे खान साहब कहां से आम लाते. फिर भी बाजार से ऊंचे दामों में 2 पेटियां खरीद कर अम्मांजी की खिदमत में पेश कीं.

‘‘पूरे सीजन में सिर्फ 2 पेटियां?’’ यह कहते हुए अम्मांजी आगबबूला हो उठीं और फिर तो अपनी निमकौड़ी जैसी जबान से ऐसीऐसी परंपरागत तामसिक गालियों की बौछार की कि बेचारे खान साहब की रूह फना हो गई. लोग खामखाह पुलिस मकहमे को गालियों की टकसाल कहा करते हैं.

धीरेधीरे एक हफ्ता बीत गया. जख्म भरने लगा और ठाकुर अभयप्रताप भी आफिस जाने लगे. इस बीच उन्हें यह खबर लग चुकी थी कि उन के चोरी हुए सामान समेत चोर पकड़ा जा चुका है. सामान की शिनाख्त भी उन के मातहत कर्मचारियों ने कर ली थी. तकरीबन सारा सामान उन्हीं मातहतों के खूनपसीने की कमाई का ही तो था जिन्हें उन्होंने तोहफों की शक्ल में अम्मांजी को भेंट किया था. चोर के साथ पुलिस वाले बेहद सख्ती से पेश आए थे.

ठाकुर अभयप्रताप के सामने भी चोर की पेशी हुई. आखिर वह पुलिस के आला अफसर थे, वह भी देखना चाह रहे थे कि किस बंदे में इतनी हिम्मत थी जिस ने उन के घर में सेंध लगाई. बेडि़यों में जकड़ कर चोर को हाजिर किया गया. साहब की ओर देखते ही चोर चौंका. इन्हें तो पहले भी कहीं देखा है. कहां देखा है? वह याद कर ही रहा था कि सिपाही रामभरोसे ने एक जोरदार डंडा यह कहते हुए उस की पीठ पर जमा दिया, ‘‘ऐसे भकुआ बना क्या देख रहा है बे. यही वह साहब हैं जिन के घर घुसने की तू ने हिम्मत की थी. अब देख, साहब ही तेरी खाल में भूसा भरेंगे.’’

बेचारा चोर मार खाए कुत्ते जैसा कुंकुआने लगा. तभी उस के दिमाग में एक बिजली कौंधी. वह ठाकुर अभयप्रताप के सामने बैठ कर गिड़गिड़ाने लगा, ‘‘मुझे बचा लीजिए माई बाप, मैं तो मामूली उठाईगीर हूं. मैं ने चोरी जरूर की है माई बाप, पर आप का सब सामान तो मिल गया है हुजूर. थोड़ी सजा दे कर मुझे छोड़ दीजिए साहब.’’

‘‘अबे, तेरी तो ऐसी की तैसी,’’ और सिपाही रामभरोसे ने दूसरा डंडा ठोंका, ‘‘सवाल तेरी चोरी का नहीं है ससुरे, सवाल है तू ने हमारे साहब के घर घुसने की हिम्मत कैसे की?’’

बेचारा चोर फिर कुंकुआने लगा और तेजी से ठाकुर का पैर पकड़ कर बोला, ‘‘साहब, उस रात जब मैं आप के घर घुसा था तब आप ही थे न जो रात में जीने के ऊपर केले के छिलके बिछा रहे थे?’’

‘‘अयं, यह क्या आंयबांय बक रहा है बे. एक ही हफ्ते की मार से दिमाग फेल हो गया है क्या तेरा,’’ सिपाही रामभरोसे ने जूता उस के सिर पर जोर से ठोंका.

लेकिन अभयप्रताप सिंह का सिंहासन तो डोल गया था. फौरन सिपाही रामभरोसे को यह कहते हुए बाहर भेज दिया कि मुझे इस चोर से अकेले में कुछ बात करनी है.

फिर तो चोर ने पूरा खुलासा किया, ‘‘साहब, उस रात जीने पर जब साहब आप 3 जगह झुक कर केले के छिलके रख रहे थे तो यह खुशकिस्मत इनसान वहीं परदे के पीछे छिपा था. बाद में हवालात में ही मुझे पता चला कि साहब की सास की मौत केले के छिलके पर फिसल कर हुई थी.’’

अब क्या था. पासा पलट चुका था. साहब ने आननफानन में आदेश दे दिया कि चोरी का सामान तो मिल ही चुका है, फिर बेचारे गरीब चोर को क्यों सजा हो. पूरा का पूरा महकमा इस अजीब फैसले से सकते में आ गया. लेकिन जब साहब ने खुद ही उस का गुनाह माफ कर दिया तो फिर केस ही नहीं बनता न.

वह दिन और आज का दिन. महीने की पहली तारीख को वह चोर अपनी मूंछ पर ताव देता हुआ  ठाकुर अभयप्रताप के घर के दरवाजे के सामने खड़ा उन का इंतजार करता है. उस के हाथ में 2-4 केले रहते हैं. इंतजार करतेकरते वह पट्ठा सामने की पुलिया पर बैठ कर केले खाता जाता है और उस के छिलके पास में जमा करता जाता है. जैसे ही साहब बाहर निकलते हैं वह एक हाथ में केले का छिलका हिलाते हुए दूसरे हाथ से उन्हें सलाम ठोंकता है.

ठाकुर अभयप्रताप इधरउधर नजर दौड़ा कर धीरे से उस के पास जाते हैं और जेब से कुछ रुपए निकाल उस के हाथ पर रख कर झट से गाड़ी में बैठ जाते हैं. गेट पर खड़ा गार्ड और ड्राइवर सब उस चोर की हिमाकत और ठाकुर साहब की दरियादिली देख कर सिर खुजलाते रह जाते हैं.

गलतफहमी : व्यापारी एक दूसरे को शक की निगाह से क्यों देख रहे थे

जब देशभर में कोरोना महामारी फैल रही थीतब लोग काफी एहतियात बरत रहे थे. ऐसे समय में किसी को सर्दीबुखार हो जा रहा थातो उस से बचने की कोशिश कर रहे थे और सब से बुरी बात यह थी कि ऐसे पीडि़त इनसान से दूरी बना ले रहे थे. लोग एकदूसरे को शक की निगाह से देख रहे थे.

कपड़े के कारोबारी जमनालाल के यहां काम करने वाली रजनी को भी यही सब झेलना पड़ा था. जब उसे सर्दीबुखार के लक्षण दिखाई देने लगेतो उस के मालिक ने उसे अपने घर से चले जाने के लिए कह दिया था. हालांकि वह उन के घर पर सालों से काम कर रही थी.

रजनी के सामने समस्या पैदा हो गई थी कि वह जाए तो कहां जाएउस का अपना घर ही कहां था. जब से उस ने होश संभाला थावह यही जान पाई थी कि वह अनाथ है.

विधवा बूआ ने उस का लालनपालन किया था और दूसरे के घरों में काम करना सिखाया था. तब से वह दूसरे के घरों में काम करते हुए जवानी की दहलीज पर पहुंच गई थी.

उत्तर प्रदेश का रहने वाला विमल उस के मालिक के पुराने घर को मरम्मत करने के लिए आ रहा था. मालिक के दुकान चले जाने के बाद रजनी को ही विमल को बताना पड़ता था कि कौन सा सामान कहां रखा है. इस दौरान उस से बातें होने लगी थीं.

विमल रजनी के खूबसूरत जोबन और चेहरे को देख कर उस की तरफ खिंचने लगा थाजिस का अनुभव उसे भी होने लगा था. वह एक ही सामान के बारे में कई बार जानबूझ कर पूछता था,

ताकि रजनी को अपने इर्दगिर्द रख सके.

रजनी भी धीरेधीरे विमल की ओर खिंचती चली गई थी. इस की सब से बड़ी वजह थी कि मालिक के घर में कभी कोई उस से प्यार से बातें नहीं करता था. वह मालिक के घर के लोगों के जरूरत के लिए इधर से उधर एक आवाज पर भागती फिरती थी. कभीकभी छोटीमोटी गलतियां होने पर कई बातें सुननी पड़ती थीं.

इन वजहों से उस का मन कभीकभी दुखी हो जाता था. उसे एहसास होता था कि उस की जिंदगी में अपना कोई नहीं है. वह हमेशा प्यार और अपनेपन के लिए तरसती रहती थी.

विमल ने 1-2 बार सामान पकड़ाते समय हौले से रजनी का हाथ दबा दिया था. जब वह विरोध नहीं कर सकीतो उस की हिम्मत बढ़ती गई और एक दिन मौका देख कर वह बोल गया, ‘‘रजनीतुम मुझे अच्छी लगती हो.’’

‘‘तो…?’’ रजनी ने पूछा.

‘‘मैं तुम से प्यार करने लगा हूं.

तुम मेरी इतनी भी बात नहीं समझ पा

रही हो?’’

रजनी समझ तो सब रही थीपर न समझने का नाटक कर रही थी. भला प्यार की समझ किस को नहीं होती है.

फिर भी वह अपना मुंह बनाते हुए बोली थी, ‘‘तुम काम करने आए हो या लड़की पटाने?’’

विमल सकपका गया था. वह रजनी से ऐसे बरताव की उम्मीद नहीं कर रहा था. वह डर से चुप हो गया था. रजनी कुछ देर बाद अपनी जीत देख कर मुसकराने लगी थीलेकिन जल्द ही उसे अपनी गलती का एहसास भी होने लगा थाइसलिए वह अगले दिन बोली, ‘‘तू मेरी बात का बुरा मान गया?’’

‘‘नहीं तो. ऐसी बात नहीं है.’’

‘‘बस थोड़ी सी डांट में ही प्यार का भूत उतर गया?’’

‘‘नहींनहीं… तुम कहो तो अभी…’’

यह सुन कर रजनी विमल को देख कर मुसकरा दी थी. विमल भी मुसकराने लगा था.

अगर आसपास और मजदूर नहीं होतेतो विमल रजनी को प्यार से चूम लेता या अपनी बांहों में उठा लेता.

एक दिन दोपहर के समय बाकी मजदूर खाना खाने चले गए थे. विमल खाना खा कर दूसरी मंजिल के खाली कमरे में आराम करने की कोशिश कर रहा थातभी रजनी के आने की आहट मिली.

रजनी नहाधो कर छत पर गीले कपड़े डालने जा रही थी. वह गुलाबी रंग के सलवारकुरते में खिलीखिली सी लग रही थी. काले लंबे बाल खुले हुए थे. उस ने अपने दुपट्टे को सीने पर घुमा कर बांध रखा थाजिस से विमल को उस के उभारों की गोलाइयां अपनी ओर खींच रही थीं.

रजनी को अकेली देख कर विमल के जिस्म में सनसनी सी पैदा होने लगी थीइसलिए वह मौके का फायदा उठाना चाहता था.

रजनी ने जैसे ही सीढि़यों से उतरने की कोशिश कीविमल ने उस का हाथ पकड़ कर खाली कमरे की ओर खींच लिया था.

थोड़ी सी नानुकर के बाद रजनी विमल के आगोश में आ चुकी थी. उस के लिए वह पल ऐसा था कि वह किसी बेल की तरह न चाहते हुए भी अपनेआप उस से लिपटती चली गई थी.

जब विमल उस के कोमल अंगों से खेलने लगातो वह दूर हटाते हुए बोली, ‘‘अरेकोई देख लेगा.’’

‘‘अभी कोई नहीं आएगा,’’ विमल रजनी को अपनी ओर खींचते हुए बोला और उस के होंठों को चूमने लगा. फिर रजनी भी अपनेआप को रोक नहीं पाई. कुछ देर में ही उन दोनों के बीच उपजा तूफान थम गया था.

रजनी शारीरिक सुख से सराबोर हो गई थीक्योंकि दूसरों के घरों में चाकरी करने के चलते वह ऐसे सुखों से अनजान रही थी. अचानक हुए इस प्रेम मिलन के चलते वह सुख के सागर में समा गई थी.

फिर तो सिलसिला ही चल पड़ा था. जब भी मौका मिलतावे एकदूसरे की बांहों में समाने के लिए उतावले हो जाते थेलेकिन जब कोरोना वायरस का प्रकोप बढ़ने लगातो रजनी के मालिक ने अचानक काम बंद करवा दिया. उस दिन से विमल के लिए उस घर के दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो गए.

विमल ने अगले दिन से ही न चाहते हुए भी आना बंद कर दिया था. यह सब इतना जल्दी हुआ था कि वे एकदूसरे का मोबाइल नंबर भी नहीं ले पाए थे.

आज जब रजनी को सर्दीबुखार की वजह से अचानक उस के मालिक ने जाने के लिए कह दियातो उस के सामने विकट समस्या पैदा हो गई. आखिर वह जाए तो कहां जाएविमल ही उस का एकलौता सहारा दिख रहा था.

विमल ने बातचीत के दौरान एक बार बताया था कि वह नौबतपुर में रहता हैजो यहां से 5 किलोमीटर दूर है. रजनी इतना ही याद रख पाई थी. लेकिन उस के मन में इस बात का भी डर था कि कहीं विमल कोरोना महामारी की वजह से अपना गांव न चला गया होअगर वह गांव नहीं भी गया हो और कहीं मिल भी गया तो इस बात की क्या गारंटी है कि वह अपने साथ रखने के लिए तैयार हो ही जाएगा?

रजनी जानती थी विमल अकेला नहीं रहता हैबल्कि 3 लोगों के साथ रहता है. अगर विमल तैयार भी हो गया तो क्या बाकी लोग उसे अपने कमरे में पनाह देंगेइस तरह के कई सवाल रजनी के दिमाग में हलचल मचा रहे थेलेकिन फिर भी वह विमल से मिलने जा रही थी.

रजनी ने मैडिकल स्टोर से ही सर्दीबुखार की दवा खरीद कर खा ली थी और अनजान मंजिल की ओर निकल पड़ी थी. वह सड़क पर पैदल ही चल रही थी. वह आनेजाने वाले लोगों को देख रही थी. विमल को खोजने की कोशिश कर रही थी. उसे रास्ते में विमल कहीं भी नहीं मिल पाया था.

रजनी के मन में कई तरह के सवाल उथलपुथल मचा रहे थे. आखिर में वह थोड़ी सी मशक्कत के बाद विमल के कमरे तक पहुंच ही गई थी.

विमल रजनी को एकाएक आया देख कर हैरान था. उस के आने की मजबूरी जान कर विमल ने अपने दोस्तों को राजी कर लिया था. वैसे भी उन लोगों के पास 2 कमरे थे. हालात देख कर बाकी तीनों लोग एक कमरे में शिफ्ट हो गए. विमल दूसरे कमरे में रजनी के साथ रहने लगा था.

रजनी विमल के साथ बिना रोकटोक कई महीने से रह रही थी. विमल सुबह 8 बजे काम पर जाता और शाम 6 बजे घर वापस आता. रजनी उस का बेसब्री से इंतजार करती और उस के लिए खाना पकाती. उस के घर को ठीक रखती. बिना शादी के ही वे एकदूसरे का खयाल रखते थे.

ऐसे ही जिंदगी गुजर रही थी कि एक दिन रजनी की मालकिन का फोन आया. शायद उन के घर में रजनी के बिना परेशानी होने लगी थीइसलिए वे बुलाना चाह रही थीं.

जब मालकिन ने हालचाल जानने के बाद आने के लिए कहातो रजनी तपाक से बोली, ‘‘मालकिनमैं अभी नहीं आ सकती हूं. जब आप के घर से निकली थीतो मुझे सर्दीबुखार कोरोना की वजह से नहीं हुआ थाबल्कि मैं पेट से थी.

‘‘मैं बताना तो चाहती थीलेकिन मालिक ने इतनी जल्दी जाने के लिए कह दिया कि मेरा दिमाग काम नहीं किया और आप ने भी मुझे नहीं रोका तो मैं कुछ नहीं कह पाई थी.

‘‘अब मैं कुछ दिन में ही अपने बच्चे को जन्म देने वाली हूं. डाक्टर ने मुझे आराम करने की सलाह दी है. अगर सबकुछ सही रहातो आप के घर आशीर्वाद लेने जरूर आऊंगी,’’ इतना कह कर रजनी ने फोन काट दिया.

रजनी की बातें सुन कर मालकिन पछता रही थीं कि गलतफहमी की वजह से उसे घर से बाहर तो निकाल दिया थाजबकि होना तो यह चाहिए था कि उस के साथ हमदर्दी का बरताव करना चाहिए था और उस का इलाज भी कराना चाहिए था. अब उस के बिना घर में कितनी परेशानी हो रही हैयह वे ही जानती थीं.    

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